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Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
अशोक के ‘धम्म’ से आप क्या समझते हैं ? अशोक के धम्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या थे?
उत्तर:
धम्म का स्वरूप : धम्म’ संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत स्वरूप है। अशोक ने इसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। इस विषय पर विद्वानों के बीच काफी मतभेद है। बहुत-से विद्वान धम्म और बौद्धधर्म में कोई फर्क नहीं मानते। अतः प्रारंभ में ही यह कह देना आवश्यक है कि धम्म और बौद्धधर्म दोनों अलग-अलग बातें हैं। बौद्धधर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था। लेकिन उसने जिस धम्म की चर्चा अपने अभिलेखों में की है वह उसका सार्वजनिक धर्म था तथा विभिन्न धर्मों का सार था। यह अलग बात है कि बौद्धधर्म की कई विशेषताएँ भी उसमें मौजूद थीं। अशोक ने अपने अभिलेखों में कई स्थान पर धम्म (धर्म) शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु भाबरु अभिलेख को छोड़कर (जहाँ उसे बुद्ध, धम्म और संघ में अपना विश्वास प्रकट किया है) उसने कहीं भी धम्म का प्रयोग बौद्धधर्म के लिए नहीं किया है। बौद्ध धर्म के लिए ‘सर्द्धम’ या ‘संघ’ शब्द का . प्रयोग किया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि अशोक का धम्म बौद्धधर्म नहीं था क्योंकि इसमें चार आर्य सत्यों, अष्टांगिक मार्ग तथा निर्वाण की चर्चा नहीं मिलती है।

अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार अग्रलिखित हैं-

  1. बड़ों का आदर (Elder’sregards) – अशोक ने अपने शिलालेख में लिखा है कि माता-पिता, अध्यापकों और अवस्था तथा पद में जो बड़े हों उनका उचित आदर करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
  2. छोटों के प्रति उचित व्यवहार (Proper behaviour with youngers) – बड़ों को अपने से छोटों के प्रति प्रेम-भाव रखना चाहिए और उनसे दया तथा नम्रता का व्यवहार करना चाहिए।
  3. सत्य बोलना (Speak truth) – मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। दिखाने की भक्ति से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।
  4. अहिंसा (Non-violence) – मनुष्य को मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को दु:ख नहीं देना चाहिए।
  5. दान (Donation) – अशोक के धर्म में दान का विशेष महत्व है। उसके अनुसार अज्ञान के अन्धकार में भूले-भटके लोगों को धर्म का दान करके प्रकाश में लाना सबसे उत्तम दान है।
  6. पवित्र जीवन (Pure Life) – मनुष्य को पाप से बचना चाहिए और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। .
  7. शुभ कार्य (Pure Action) – प्रत्येक मनुष्य बुरे कर्म का बुरा और अच्छे कर्म का अच्छा फल प्राप्त करता है। इसलिए उसे शुभ कर्म करने चाहिए ताकि उसका लोक और परलोक सुधरे।
  8. सच्चे रीति-रिवाज (True Rituals) – मनुष्य को झूठे रीति-रिवाजों, जादू-टोना, व्रत तथा अन्य दिखावों के जाल में नहीं फंसना चाहिए। उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए, बड़ों का आदर करना चाहिए तथा उसे सत्य बोलना चाहिए। यही सच्चे रीति-रिवाज हैं।
  9. धार्मिक सहनशीलता (Religious Tolerance) – मनुष्य को अपने धर्म का आदर करना चाहिए लेकिन दूसरे धर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए।

इस प्रकार अशोक ने सभी धर्मों के मुख्य नैतिक सिद्धान्तों का संग्रह किया और उन्हें साधारण लोगों तक पहुँचाया ताकि वे उस पर चलकर अपना लोक और परलोक सुधार सकें।

प्रश्न 2.
अशोक धर्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या थे ?
उत्तर:
अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त-

  1. बड़ों का आदर (Elders’ regards) – अशोक ने अपने शिलालेख में लिखा है कि मातापिता, अध्यापकों और अवस्था तथा पद में जो बड़े हों उनका उचित आदर करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
  2. छोटों के प्रति उचित व्यवहार (Proper behaviour with youngers) – बड़ों को अपने से छोटों के प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए और उनसे दया तथा नम्रता का व्यवहार करना चाहिए।
  3. सत्य बोलना (Speak truth) – मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। दिखावे की भक्ति से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।
  4. अहिंसा (Non-violence) – मनुष्य को मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को दुःख नहीं देना चाहिए।
  5. दान (Donation) – अशोक के धर्म में दान का विशेष महत्त्व है। उसके अनुसार अज्ञान के अंधकार में भूले-भटके लोगों को धर्म का दान करके प्रकाश में लाना सबसे उत्तम दान है।
  6. पवित्र जीवन (Pure Life) – मनुष्य को पाप से बचना चाहिए और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।
  7. शुभ कार्य (Pure Action) – प्रत्येक मनुष्य बुरे कर्म का बुरा और अच्छे कर्म का अच्छा फल प्राप्त करता है। इसलिए उसे शुभ कर्म करने चाहिए ताकि उसका लोक और परलोक सुधरे।
  8. सच्चे रीति-रिवाज (True Rituals) – मनुष्य को झूठे रीति-रिवाजों, जादू-टोना, व्रत तथा अन्य दिखावों के जाल में नहीं फँसना चाहिए। उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए; बड़ों का आदर करना चाहिए तथा उसे सत्य बोलना चाहिए। यही सच्चे रीति-रिवाज हैं।
  9. धार्मिक सहनशीलता (Religious tolerance) – मनुष्य को अपने धर्म का आदर करना चाहिए लेकिन दूसरे धर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए।

इस प्रकार अशोक ने सभी धर्मों के मुख्य नैतिक सिद्धान्तों का संग्रह किया और उन्हें साधारण लोगों तक पहुँचाया ताकि वे उस पर चलकर अपना लोक और परलोक सधार

प्रश्न 3.
अशोक ने बौद्ध-धर्म के प्रसार में क्या योगदान दिया ?
उत्तर:
अशोक के बौद्ध-धर्म के प्रसार में निम्नलिखित योगदान दिया-

  • अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद 265 ई० पू० में बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। उसने अपने पुत्र महेन्द्र, पुत्री संघमित्रा तथा स्वयं को इस धर्म के प्रचार में लगा दिया था।
  • उसने सम्राट होकर भी भिक्षुओं जैसा जीवन बिताया। उसने अहिंसा को अपनाकर शिकार करना, माँस खाना छोड़ दिया था। उसने राजकीय वधशाला में पशु-वध पर रोक लगा दी थी। जनता राजा के आदर्शों पर चलती थी।
  • उसने बौद्ध धर्म के नियम स्तम्भों, शिलालेखों आदि पर खुदवाकर ऐसे स्थानों पर लगवा दिये थे कि जहाँ से जनता देखकर उन्हें पढ़ सके और तत्पश्चात् अमल करे।
  • उसने लगभग 84000 बौद्ध विहारों और 48000 स्तूपों का निर्माण कराया। यह मुख्यमुख्य नगरों में स्थापित किये।
  • उसने कई धार्मिक नाटकों का आयोजन किया जिनमें बौद्ध धर्म पर आचरण करने पर स्वर्ग की प्राप्ति दिखाई गई थी। अतः बौद्ध धर्म को ग्रहण करने के लिये जनता प्रेरित हुई।
  • बौद्ध धर्म के मतभेदों को दूर करने के लिये अशोक ने 252 ई० पू० में एक विशाल सभा का आयोजन किया था, जिससे लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हुए। सम्राट अशोक स्वयं बौद्ध तीर्थों-सारनाथ, कपिलवस्तु एवं कुशीनगर गया। रास्ते में उसने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उसने धर्म महापात्रों की नियुक्ति की, जो देखते थे कि लोग इस धर्म का पालन कर रहे हैं या नहीं।
  • जन साधारण तक बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को पहुँचाने के लिये पालि भाषा में शिलालेख और बौद्ध साहित्य का अनुवाद कराया था। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, गंधार, चीन, जापान, सीरिया श्रीलंका व मित्र आदि देश में भिक्षु भेजे।
  • सम्राट ने सम्पूर्ण राजकीय तंत्र बौद्ध धर्म के प्रचार में लगा दिया। सार्वजनिक समारोहों को रोककर उनके स्थान पर बौद्ध उत्सव मनाने प्रारंभ कर दिये। उसने नाचने-गाने तथा मद्यपान पर रोक लगा दी थी तथा लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 4.
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों पर प्रकाश डालें। अशोक इसके लिए कहाँ तक उत्तरदायी था?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य का पतन साम्राज्यों की तुलना में बहुत ही शीघ्र हो गया। जिस साम्राज्य की नींव चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने खून-पसीने से डाली थी और सम्राट अशोक ने बुलन्द महलों का निर्माण किया था। परन्तु उसके मरने के साथ ही उसका पतन होना शुरू हो गया, जो वास्तव में एक आश्चर्य की बात है। मौर्य साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं-

1. विघटनात्मक प्रवृत्ति – मौर्य साम्राज्य के पतन के यों तो बहुत से कारण हैं परन्तु साम्राज्य की विघटनात्मक प्रवृत्ति सबसे महत्त्वपूर्ण है। अशोक के समय तक तो यह साम्राज्य ठोस बना रहा परन्तु उसके आँख मूंदते ही यह साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। उसकी नींव की एक-एक ईंट हिल-हिल कर गिरने लगी और एक दिन ऐसा आया कि सारा बुलन्द महल भरभरा कर पतन के गड्ढे में गिर पड़ा। अर्थात् उसका एक-एक प्रान्त इससे निकलने लगा और स्वतंत्र होकर इस साम्राज्य की नींव को खोदने लगा। कश्मीर के प्रसिद्ध इतिहासकार कल्हण के शब्दों में, “स्वयं अशोक का दूसरा पुत्र कश्मीर का स्वतंत्र शासक हो गया था और कन्नौज तक के प्रदेशों को हस्तगत कर लिया था।”

तारानाथ के अनुसार, वीरसेन नामक अशोक का उत्तराधिकारी गंधार में स्वतंत्र हो गया था। कालिदास के मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि विदर्भ भी इस साम्राज्य से अलग हो गया था। कलिंग भी एक दिन स्वतंत्र हो गया। इन सबों की देखा-देखी साम्राज्य को बहुत से प्रदेश हाथ से निकल गए। अशोक के उत्तराधिकारी इस विकेन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति को रोक नहीं सके जिसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

2. साम्राज्य की विशालता – चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के प्रयत्नों के फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य विशाल हो गया था। केन्द्र में इसकी राजधानी भी नहीं थी जिससे शासन काल पर नियंत्रण करने में बड़ी असुविधा होती थी, क्योंकि आवागमन के साधनों का विकास भी नहीं हुआ था। दक्षिण भारत पर नियंत्रण रखने में अशोक के उत्तराधिकारियों को बहुत दिक्कत हो रही थी। अंत में वे इसके पतन को रोकने में सफल नहीं हो सके।

3. प्रांतीय शासकों ने प्रजा के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया – दूर-दूर के प्रांतों में कर्मचारियों तथा पदाधिकारियों का प्रजा के साथ बर्ताव अच्छा नहीं था। वे लोग जनता को हर तरह से कष्ट दिया करते थे। अंत में विवश होकर जनता विद्रोही हो गयी थी। जैसे-बिन्दुसार के शासन काल में जनता उसके मंत्रियों के विरुद्ध विद्रोह कर बैठी थी जो दबाते न दबता था। अंत में अशोक ने वहाँ जाकर उस विद्रोह को दबाया था। अशोक के शासन काल में भी तक्षशिला में इस तरह का विद्रोह हुआ था जिसको अशोक के पुत्र कुणाल ने जाकर दबाया था। अशोक के मरने के बाद इस तरह के विद्रोह को दबाने के लिए किसी में ताकत नहीं रह गयी थी। अतः यह भी मौर्य साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बना।

4. अशोक की अहिंसा की नीति – कुछ इतिहासज्ञों का यह मत है कि अशोक की अहिंस्म की नीति से भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ। क्योंकि इस नीति के फलस्वरूप साम्राज्य की सैनिक शक्ति नष्ट हो गई। जब केन्द्रीय-शक्ति कमजोर हो गई तब प्रांतों के शासन स्वतंत्र होने लग गए। ऐसी परिस्थिति में ही पश्चिमोत्तर प्रदेश में बैक्ट्रिया के यवनों का भयंकर आक्रमण हुआ। इससे भी यह साम्राज्य पतनोन्मुख हुआ।

5. अत्यधिक दान देने की प्रवृत्ति – कहा जाता है कि अशोक की दान देने की नीति से भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ क्योंकि अत्यधिक दान से शाही खजाना खाली पड़ गया था। जिससे साम्राज्य की आर्थिक स्थिति नाजुक हो गयी थी। सैनिकों का वेतन समय पर नहीं दिया जा रहा था। इतना ही नहीं, एक जगह पर यह भी कहा गया कि अशोक को दान देने की नीति के फलस्वरूप ही राज्य छोड़ देना पड़ा था। इसके बाद मौर्य साम्राज्य का पतन होने लगा।

6. अंतःपुर और राजदरबारियों का षड्यंत्र – अंत:पुर और दरबारियों के षड्यंत्र से मौर्य साम्राज्य को बहुत बड़ा धक्का लगा। स्वयं अशोक की अनेक रानियाँ तथा अनेक पुत्र दिन-रात षड्यंत्र रचा करते थे। राजा वृहद्रथ के शासन काल में तो साम्राज्य की शक्ति दो दलों में बँट गयी थी। एक दल का प्रधान सेनापति और दूसरा दल था प्रधान सचिव थे। इन दलों में हमेशा टक्कर होती रहती थी। फलतः साम्राज्य की शक्ति बहुत कम हो गयी। राजा वृहद्रथ इसमें सुधार नहीं ला सका। मौका पाकर उसी के समय में पुष्यमित्र शुंग ने सम्राट का कत्ल कर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया।

7. अशोक की धार्मिक नीति – अशोक के धार्मिक नीति के कारण हिन्दुओं में उसके विरुद्ध विद्रोह की भावनाएँ उठने लगी। क्योंकि वे लोग बौद्ध धर्म की उन्नति और हिन्दू धर्म की अवनति को नहीं देखना चाहते थे। इसलिए उनमें बौद्ध धर्म के प्रति द्वेष हो गया। वे लोग मौर्य साम्राज्य को ही नष्ट कर देने की बात सोचने लगे और अंत में मौर्य साम्राज्य को पतन के गड्ढ़े में धकेल कर ही दम लिया।

8. विदेशी आक्रमण – जब उपरोक्त कारणों से मौर्य साम्राज्य कमजोर हो गया तो विदेशियों की दृष्टि इस पर पड़ी और इस पर बहुत से विदेशी आक्रमण हुए। मौर्य साम्राज्य के अंतिम दिनों में यूनानी और बैक्टिरियन राजाओं की चढ़ाई हुई जो मौर्य साम्राज्य के लिए हितकर न हुई।

9. गुप्तचर विभाग में संगठन का अभाव – अंशोक के शासन काल से ही गुप्तचर विभाग में शिथिलता आ गई थी। साम्राज्य को सुन्दर ढंग से चलाने के लिए एक सुसंगठित गुप्तचर विभाग की आवश्यकता होती है क्योंकि इसके अभाव में सम्राट को गुप्त बातों की जानकारी नहीं हो सकती। जगह-जगह पर षड्यंत्र रचा जा सकता है। अतः सम्राट गुप्तचर विभाग की मदद से षड्यंत्रों से बचा करता है। परन्तु अशोक के शासन काल में ही यह विभाग अस्त-व्यस्त हो चुका था और उसके उत्तराधिकारी इस ओर ध्यान नहीं दे सके। जिसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

10. सेना विभाग की उदासीनता – साम्राज्य में अहिंसा की नीति से सैन्य बल कमजोर पड़ गया। सेना का स्तर बहुत नीचे गिर गया। लेकिन उस समय सैन्य बल की पुकार थी क्योंकि साम्राज्यवादी नीति जोर पकड़ रही थी। परन्तु कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र पर पाबन्दी लगा दी गई थी। फलतः मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

प्रश्न 5.
साँची स्तुप से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों का विवरण दीजिए।
अथवा, साँची स्तूप की मूर्तियों के बारे में दी गई सूचनाओं का उल्लेख कीजिए। इतिहासकारों ने इसका कैसे उल्लेख किया है ?
उत्तर:
साँची का स्तूप (The Sanchi Stupa) – साँची का स्तूप मध्यप्रदेश में विदिशा के पास स्थित है। साँची का स्तूप और निकट के एकाश्म स्तंभ द्वारा बनाये गये थे। शुंग काल में स्तूप के आकार में वृद्धि की गई तथा कई नवीन निर्माण किये गये। अशोक के काल में यह स्तूप ईंटों का बनवाया गया था। शुंगकाल में उस पर पाषाण की शिलाओं का आवरण लगाया गया।

स्तूप के चारों ओर 16 फीट ऊँची मेधी या चबूतरे का निर्माण किया गया। इसमें दक्षिण की ओर सीढ़ियों का सोपान निर्माण किया गया। स्तूप के चारों ओर एक वर्गाकार वेदिका का भी निर्माण किया गया। शुंग काल में स्तूप का आकार दुगुना हो गया था। अब यह 54 फीट ऊँचा, 120 फीट व्यास का है।

वेदिका की चारों दिशाओं में चार तोरण द्वारों का निर्माण किया गया है। प्रत्येक तोरण दो सीधे खड़े वर्गाकार स्तंभों की सहायता से बना है। इन स्तंभों में पाषाण की तीन समानांतर और मेहराबदार बेड़ियाँ लगायी गयी हैं। तोरण द्वार की कलात्मकता उच्च कोटि की है। दोनों स्तंभों के शीर्ष पर चार सिंह, बैलों की मूर्तियों को बनाया गया है।

साँची के तोरण द्वार अधिक अलंकृत हैं। साँची की वेदिका सादी और अलंकरण रहित है। इसलिए सादी वेदिका की पृष्ठभूमि में अलंकृत तोरण प्रभावशाली प्रतीत होता है। स्तंभों की चौकियों पर शाल मंजिकाओं की मूर्तियाँ बनाई गई हैं।

तोरण पर बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं के चित्रों को अंकित किया गया है। डेरियों पर सिंह, हाथी, धर्म चक्र, यक्ष तथा विरल के प्रतीक चित्र उत्कीर्ण किये गये हैं। स्तंभों के निचले भागों में द्वारपाल यक्षों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। स्तंभ तथा नीचे की डेरी के बाहरी कोनों में शाल मंजिकाओं की मूर्तियाँ बनाई गई हैं। उनके अंग-प्रत्यंगों का अत्यंत आकर्षक अंकन किया गया है। सबसे ऊपर की बड़ेरी के मध्य में धर्मचक्र त्रिरत्न के लक्षण हैं। धर्मचक्र के दोनों ओर चामर लिए यक्ष मूर्तियाँ हैं।

स्तूप के सबसे ऊपर शीर्ष पर हर्मिका, याष्टिदंड तथा त्रिछत्र बने हैं। साँची के तोरण पर पाँच जातक कथाओं के चित्र पहचाने गये हैं। ये जातक कथाएँ हैं-छदंत जातक, महाकपि जातक, वेस्संतर जातक, अलंबुसा जातक, साम जातक। बुद्ध के जन्म, संबोधि, प्रथम प्रवचन, परिनिर्वाण का प्रदर्शन संकेतों के द्वारा किया गया है। माया का गर्भधारण, रथयात्रा, महाभिनिष्क्रमण, सुजाता की भेंट, मार द्वार प्रलोभन आदि बुद्ध के जीवन की घटनाओं के चित्रों को भी उत्कीर्ण किया गया है। कुछ सांसारिक जीवन के दृश्य तथा पुष्पों का अंकन किया गया है।

उपरोक्त वर्णन साँची के मुख्य स्तूप का है। इसके अतिरिक्त दो लघु स्तूप भी मुख्य स्तूप के निकट हैं। कला की दृष्टि से मुख्य स्तूप अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

मूर्तियों का इतिहासकारों द्वारा ऐतिहासिक सृजन के लिए उपयोग (Use of Sculptures by Historians for Reconstruction of History) – बौद्ध की मूर्तियाँ मुख्यतः दो श्रेणियों में विभाजित की जाती हैं-मथुरा शैली और गांधार शैली। मथुरा शैली पूर्णतः भारतीय है। इसके विषय भगवान बुद्ध की प्राचीन पौराणिक कथाओं और जीवन से लिए गए हैं। ये प्रतिमाएँ मध्य भारत में अधिक संख्या में पाई जाती हैं। कुछ मूर्तियाँ गांधार शैली की हैं, जिनमें ईरानी, रोमन और भारतीय मूर्तिकला शैली की विशेषताएँ मिश्रित हैं। इस शैली में विषय तो मथुरा शैली की तरह पूर्णतः भारतीय है लेकिन अभिव्यक्ति की शैली, केश निखार यूनानी और ईरानी है।

इतिहासकारों ने बौद्ध प्रतिमाओं के माध्यम से बौद्ध कालीन भारतीय वस्त्रों, पूजा के तरीकों, बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक तरह की बातों को लोगों के सामने रखा है। यह प्रतिमाएँ भारतीय मूर्ति कला की प्रगति और भव्यता को अभिव्यक्त करती हैं। उदाहरण के लिए अजंता में छा गई बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा उदासी, गंभीरता, आँखों से निकलते हुए आँसू आदि को प्रकट करती है।

कुछ बुद्ध प्रतिमाएँ विदेशों में मिली हैं। इतिहासकार इससे कुछ निष्कर्ष निकालते हैं जिनमें से निम्नांकित प्रमुख हैं-

  1. बौद्ध धर्म प्रचार-प्रसार चीन, तिब्बत, भूटान, सिक्किम, श्रीलंका, अफगानिस्तान, मध्य एशिया, मध्यपूर्व एशिया के देशों में हुआ।
  2. इन प्रतिमाओं से बौद्ध धर्म के प्रचार क्षेत्र की जानकारी मिलती है।
  3. बौद्ध धर्म की उपस्थिति भारतीय सांस्कृतिक उपनिवेशवाद और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान होने की पक्की पुष्टि करती है।
  4. भगवान बुद्ध के बाद की अनेक देशों ने बौद्ध शिक्षाओं और बौद्ध ग्रंथों की तरफ जो अपना धर्म आकर्षित किया और बौद्ध मठों और बौद्ध सभाओं में रुचि ली उसे किसी सीमा तक विभिन्न मूर्तियों ने बनने में अहम् भूमिका अदा की ऐसा विद्वान मानते और ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं।

प्रश्न 6.
कुषाण कौन थे? कनिष्क प्रथम की उपलब्धियों की विवेचना करें।
अथवा, कनिष्क प्रथम की जीवनी एवं उपलब्धियों का विवरण दें।
उत्तर:
कडफिसस द्वितीय ने 64-78 ई० के मध्य शासन किया। इसके पश्चात् सत्ता कनिष्क ग्रुप के शासकों के हाथों में आयी। कनिष्क प्रथम इस शाखा का सबसे महान शासक हुआ। वह एक साम्राज्य निर्माता, महान योद्धा, कला, धर्म एवं संस्कृति का संरक्षक माना जाता है। बौद्धधर्म के इतिहास में कनिष्क को विशिष्ट स्थान दिया गया है। अशोक के ही समान कनिष्क ने भी बौद्धधर्म को राज्याश्रय दिया। उनके प्रयासों से महायान बौद्धधर्म का मध्य एशिया में प्रसार हुआ।

कनिष्क की तिथि – कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि विवादग्रस्त है। भिन्न-भिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग तिथियाँ सुझायी हैं। अनेक विद्वान मानते हैं कि कनिष्क ने ही अपने राज्यारोहन के साथ 78 ई० में शक संवत आरम्भ किया। फ्लीट महोदय कनिष्क को विक्रम संवत् का संस्थापक (58 ई० पू०) मानते हैं। अन्य विद्वानों ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि क्रमश 125 ई०, 144 ई०, 248 ई०, 278 ई० माना है, परन्तु अधिकांश आधुनिक विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि कनिष्क 78 ई० में गद्दी पर बैठा। उसने 23 या 24 वर्षों तक शासन किया (101-102 ई०)। उसके राज्यारोहण से ही शक संवत आरम्भ हुआ, जिसे भारत सरकार द्वारा भी व्यवहार में लाया जाता है।

कनिष्क की उपलब्धियाँ (Achievements of Kanishka)

साम्राज्य का विस्तार – कनिष्क एक महान योद्धा एवं साम्राज्य निर्माता के रूप में विख्यात है। उसने कुषाण राज्य का भारत में और अधिक विस्तार किया। कनिष्क के अभिलेखों उसके सिक्कों के प्राप्ति स्थानों एवं कतिपय साहित्यिक ग्रन्थों से उसके सैनिक अभियानों एवं साम्राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है। जिस समय कनिष्क गद्दी पर बैठा उस समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया भी सम्मिलित थे। भारत में अपने राज्य का विस्तार उसने मगध तक किया कल्हन की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि उसने कश्मीर पर अधिकार कर कनिष्कपुर नगर (आधुनिक श्रीनगर के निकट काजीपुर) की स्थापना की। तिब्बती साहित्य में यह वर्णित है कि उसने अपनी सेना के साथ साकेत अयोध्या तक आक्रमण किया एवं साकेत के राजा को युद्ध में पराजित किया।

चीनी साहित्य (कल्पनामडितिका का चीनी अनुवाद), अश्वघोष की रचनाओं और श्री धर्मपिटक सम्प्रदायनिदान से विदित होता है कि उसने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया तथा वहाँ से वह प्रसिद्ध बौद्ध-विद्वान अश्वघोष और बुद्ध का भिक्षा-पात्र लेकर अपनी राजधानी पुरुषपर या पेशावर (पाकिस्तान) लौट गया। उसने संभवत: उज्जैन के क्षत्रपों से भी यद्ध कर उन्हें पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया। कनिष्क ने भारत के बाहर म एशिया में भी युद्ध किया। काशनगर, यारकंद और खोतान पर आधिपत्य जमाने के लिए उसे चीनी सम्राट हो-तो के महत्त्वाकांक्षी सेनापति पान-चाओ से दो बार युद्ध करना पड़ा। पहली बार युद्ध में कनिष्क पराजित हुआ, लेकिन दूसरी (पानचाओ की मृत्यु के पश्चात्) वह चीनी सम्राट पर विजय प्राप्त कर सका। उसने सम्भवतः पार्थिया के राजा को भी युद्ध में पराजित किया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के पश्चात् पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई जिसमें गंगा, सिन्धु और ऑक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं।’

कनिष्क की विजयों के परिणामस्वरूप कुषाण साम्राज्य अराल समुद्र से लेकर गंगा की घाटी तक फैल गया।

कनिष्क के अभिलेखों और उसके सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से इस विशाल साम्राज्य की सीमा की जानकारी मिलती है। उसके अभिलेख पेशावर, कोशल, सारनाथ, मथुरा, सूई बिहार, जेद्दा तथा मनिक्याला से मिले हैं। साँची से भी एक अभिलेख मिला है। अभिलेखों के आधार पर कनिष्क के साम्राज्य की सीमा, पूर्व में बनारस से लेकर दक्षिण-पश्चिम में बहावलपुर तक निश्चित की गयी है मालवा सहित परन्तु सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से पता लगता है कि पूर्व में बनारस के आगे भी उनका साम्राज्य था। बिहार में पाटलिपुत्र, बक्सर, चिरांद और बक्सर की खुदाइयों से कनिष्क के सिक्के मिले हैं जिनसे इन जगहों पर कुषाण आधिपत्य की पुष्टि होती है। कुछ विद्वान दक्षिण भारत और बंगाल पर भी कनिष्क का आधिपत्य स्वीकार करते हैं, परन्तु इसके लिए स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

प्रशासनिक व्यवस्था – साम्राज्य-विस्तार के साथ ही कनिष्क ने प्रशासनिक व्यवस्था की तरफ भी ध्यान दिया। विजित क्षेत्रों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए उसने गौरवपूर्ण उपाधियाँ धारण कीं। चीनी एवं रोमन सम्राटों की ही तरह उसने देवपुत्र (Son of Heaven) और कैसर (Cassar) की उपाधियाँ धारण की। उस समय में साम्राज्य की दो राजधानियाँ थी-पुरुषपुर और मथुरा। कनिष्क ने प्रशासनिक सुविधा के लिए क्षेत्रीय प्रशासनिक व्यवस्था को लागू किया। सारनाथ से प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि बनारस में खर-पल्लन एवं वनस्पर कनिष्क के महाक्षत्रप एवं क्षत्रप के रूप में शासन करते थे। पश्चिमोत्तर भाग में सेनानायक लल वेसपति एवं लियाक क्षत्रपों के रूप में शासन करते थे।

धार्मिक नीति – कनिष्क की महानता इस बात में भी निहित है कि विदेशी होते हए भी उसने भारतीय धर्म में गहरी अभिरुचि ली। बौद्धधर्म से वह विशेष रूप से प्रभावित था। बौद्ध ग्रन्थों में कनिष्क को एक उत्साही बौद्ध के रूप में चित्रित किया गया। भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म को संरक्षण देने वाले शासकों में अशोक के पश्चात कनिष्क का ही नाम सबसे अधिक विख्यात है। अश्वघोष और मातृचेट जैसे बौद्धों के आकार उसने बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध विद्वान पार्श्व की सलाह पर उसने कश्मीर कुछ विद्वानों के अनुसार जालंधर में बौद्धों की चौथा महासंगीत का आयोजन किया। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की। इस सभा का उद्देश्य विभिन्न बौद्ध विद्वानों में प्रचलित मतभेदों को दूर करना था। सभा करीब छह मास तक चली जिसमें लगभग 500 विद्वानों ने भाग लिया। अश्वघोष उस सभा का उपाध्यक्ष था।

इस सभा में बौद्ध – धर्म ग्रन्थों पर विस्तृत टीकाएँ लिखवायी गयीं तथा महाविभाग (बौद्ध-ज्ञानकोष) तैयार किया गया। इस परिषद ने महायान-बौद्धधर्म को मान्यता दी। फलस्वरूप इस समय से महायान की प्रमुख बौद्धधर्म बन गया। कनिष्क ने अशोक की ही तरह बौद्धधर्म (महायान शाखा) के प्रसार के लिए अनेक कदम उठाये। उसने अनेक बौद्ध विहारों, चैत्यों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। उसने पेशावर (पुरुषपुर) में एक बहुत ही भव्य स्तूप का निर्माण करवाया। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए चीन एवं मध्य एशिया में धर्म-प्रचारक भी भेजे गये। यद्यपि कनिष्क स्वयं बौद्धधर्म को माननेवाला था, परन्तु उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनायी। इसका प्रमाण उसके सिक्कों पर अनुकृत बुद्ध के अतिरिक्त सूर्य, शिव, अग्नि, हेराक्लीज-जैसे भारतीय यूनानी एवं ईरानी देवताओं की आकृतियाँ हैं। कुछ ताम्र सिक्कों में उसे वेदि पर बलिदान चढ़ते हुए भी दिखलाया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कनिष्क अपने राज्य में प्रचलित सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था।

कला एवं साहित्य को संरक्षण – कनिष्क की उदारता से कुषाणकाल में कला एवं साहित्य की भी प्रगति हुई। स्थापत्य और मूर्तिकला का विकास हुआ। कनिष्क ने पुरुषपुर में एक विशाल स्तूप का निर्माण करवाया जिसकी प्रशंसा चीनी यात्री ह्वेनसांग भी करता है। कश्मीर में उसने कनिष्क पर नगर की स्थापना की। तक्षशिला का नया नगर सिरसुख भी कनिष्क के समय में ही बनी। कनिष्कयुगीन स्थापत्य का एक सुन्दर नमूना मथुरा का देवकुल और नाम मन्दिर हैं। महायान बौद्धधर्म के विकास ने मूर्तिकला को भी प्रभावित किया। गांधार और मथुरा की विशिष्ट शैलियों में बुद्ध की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं। कुषाण (कनिष्क) कालीन सिक्के भी कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

कनिष्क ने विद्वानों को समुचित सम्मान प्रदान किया। उसके दरबार में पार्श्व, वसुमित्र, नागार्जुन जैसे प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान एवं दार्शनिक थे।

प्रश्न 7.
समुद्रगुप्त की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
समुद्रगुप्त-पराक्रमांक के अध्ययन-स्रोत अनेक हैं। कौशाम्बी के अशोक-स्तम्भ पर समुद्रगुप्त की विस्तृत प्रशस्ति अंकित है। हरिषेण-रचित प्रयाग-प्रशस्ति भी उल्लेखनीय है। समुद्रगुप्त की निम्नलिखित उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं-

विजय – समुद्रगुप्त का राजनीतिक आदर्श दिग्विजय और भारत का राजनीतिक एकीकरण था। इसके लिए उसने दिग्विजय की योजना बनायी। इस विजय-यात्रा में उसने आर्यावर्त के नौ राजाओं तथा दक्षिणपथ के बारह नरेशों को परास्त किया, मध्यभारत के समस्त जंगल के राजाओं को अपना सेवक बनाया और सीमा प्रदेश के शासकों तथा गणराज्यों को कर देने के लिए बाध्य किया। दूर देशों के नरेशों ने उससे मित्रता स्थापित की। प्रयाग-प्रशस्ति में उसकी विजयों का वर्णन कई स्थलों पर किया गया है, पर इसके आधार पर तिथिक्रम के संबंध में कुछ कहना असंभव है। समुद्रगुप्त के विजय-कार्य का वर्णन निम्नलिखित है-

1. आर्यावर्त की विजय – विन्ध्य तथा हिमालय के बीच के क्षेत्रों को आर्यावर्त कहते थे। समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तरी भारत के राजाओं को परास्त कर उनके राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। प्रयाग-प्रशस्ति में आर्यावर्त के नौ राजाओं के नाम इस प्रकार हैं-रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि और बलवर्मा। प्रारम्भ में समुद्रगुप्त के दो प्रबल शत्रु थे–पाटलिपुत्र का कोटकुल और मथुरा तथा पद्मावती के नागवंश, जो कोटकुल के सम्बन्धी थे। जिस समय समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर रहा था, संभवतः उसी समय पीछे से अच्युत और नागसेन नामक राजाओं ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। समुद्रगुप्त ने पहले अच्युत और नागसेन को बुरी तरह से पराजित किया और तब आसानी से कोटकुल का विनाश कर पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। आर्यावर्त में उसे दो बार अपना अभियान चलाना पड़ा। उसने प्रथम अभियान में अच्युत और नागसेन को पराजित किया। दूसरे, आर्यावर्त के युद्ध में उसने शेष राज्यों को बलपूर्वक समाप्त करके अपने साम्राज्य में मिला लिया। प्रथम अभियान में अच्युत, नागसेन और कोटवंशी शासक और दूसरे अभियान में गणपतिनाग, चन्द्रवर्मन, रुद्रदेव आदि शासक पराजित हुए और उनके राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिये गये।

2. आटविक-नरेश-फ्लीट के अनुसार, आटविक-नरेश गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले हुए थे। आटविक राज्यों की संख्या 18 थी। इस क्षेत्र को ‘महाकान्तार’ भी कहा गया है। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी इसे मध्यभारत का जंगल मानते हैं रामदासजी ने इसे जबलपुर से छोटानागपुर तक का झारखण्ड का क्षेत्र माना है। समुद्रगुप्त ने आटविक के नरेशों को पराजित किया।

3. दक्षिण-भारत-दक्षिण-विजय के सम्बन्ध में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। के० पी० जायसवाल और प्रो० डूबेल का अनुमान है कि कोलेरू तालाब के किनारे दक्षिणी नरेशों ने समुद्रगुप्त से युद्ध किया। इसका नेतृत्व केरल के मण्टराज और काँची के विष्णुगोप ने किया। पराक्रमी विजेता समुद्रगुप्त ने समस्त दक्षिणी राजाओं को पराजित किया, परन्तु उसने राज्यों को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया। उसने विजित प्रदेश स्थानीय शासकों को लौटा दिया तथा अपने छत्रछाया में उन्हें राज्य करने की आज्ञा दी। दक्षिणापथ के पराजित राजाओं की नामावली इस प्रकार हैं-

कोशल का महेन्द्र – इसमें महाकोशल, विलासपुर, रायपुर और संभलपुर के जिले सम्मिलित थे ।
महाकांतार का व्याघ्रराज – व्याघ्रराज महाकान्तार का शासक था।
केरल का मण्टराज – संभवत: यह प्रदेश गोदावरी तथा कृष्णा के बीच कोलेरूकासार है।
पैण्ठपुर का स्वामीदत्त – पिष्टपुर, महेन्द्रगिरी और कोटूर का शासक स्वामी दत्त था।
एरण्डपल्लक दमन – यह स्थान गंजाम जिले में चिकाकोल के समीप एरण्डपल्ली में है।
कांचेयक विष्णुगोप – विष्णुगोप कांची का शासक था। मद्रास के निकट कांजीपुरम ही कांची है।
आवमुक्तक नीलराज – इसकी राजधानी गोदावरी के निकट पिथुण्डा थी।
वैगेयक हस्तिवर्मा – हस्तिवर्मा वेंगी का राजा था। यह स्थान नेलोर जिले में है।
देवराष्ट्रक कुबेर – राजा कुबेर देवराष्ट्र स्थान का था। यह स्थान विजिगापत्तम जिले का एलमंचि है।
कोस्थलपुरम धनंजय – कोस्थलपुर का शासक धनंजय था। वह स्थान उत्तर आर्काट का कुट्टलुर है।

प्रयाग – प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त आटविक राज्यों को जोतकर मध्यप्रदेश में पहुँचा और वहाँ से महाकोशल तथा महाकान्तार के मार्ग से होता हुआ कलिंग के समीप उसने समस्त नरेशों को पराजित किया। दक्षिण-पूर्व के प्रदेशों को अपने अधीन करते हुए उसने कांची पर आक्रमण किया। दक्षिण में उसका प्रभाव चरराज्य तक पहुँच गया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार, “वह महाराष्ट्र तथा खानदेश के रास्ते अपनी राजधानी लौट आया।”

दक्षिणी राजाओं के साथ समुद्रगुप्त ने धर्मविजय-नीति का अवलंबन किया। उसने इन राजाओं को पराजित करने के बाद उनका राज्य फिर उन्हीं को लौटा दिया। उन लोगों ने समुद्रगुप्त का आधिपत्य स्वीकार किया और वह उपहार तथा कर ग्रहण करके उत्तर भारत लौटा। दक्षिण के राज्य उसे कर, आज्ञाकरण और प्रणाम द्वारा प्रसन्न करने लगे।

4. प्रत्यन्त राज्यों (सीमावर्ती राज्यों) से सम्बन्ध-दक्षिणी राजाओं को परास्त करने के बाद सीमावर्ती राज्यों की विजय की गयी। इसमें पाँच भिन्न-भिन्न प्रदेशों के शासक और नौ गणराज्य थे। सीमान्त प्रदेशों ने समुद्रगुप्त को सर्वकर (सर्वनकर दान) दिये, उसकी आज्ञाओं का पालन (आज्ञाकरण) किया, स्वयं उपस्थित होकर प्रणाम (प्रणामकरण) किया और उसके सुदृढ़ शासन को पूर्णतः परितुष्ट किया। ऐसे राज्य निम्नलिखित थे-

समतट-पूर्वी सीमा के राज्य (समुद्र तक विस्तीर्ण पूर्वी बंगाल)।
कामरूप-असम का गौहाटी जिला।
डवाक – नौगाँव जिला।
नोपाल और कर्तपुर – कुमायूँ, गढ़वाल और रुहेलखंड के पर्वतीय राज्य। गणराज्यों में निम्नलिखित प्रमुख हैं-
मालवा – अमेर, टोंक, मेवाड़।
आर्जुनायन – अलवर, मूर्वी जयपुर।
यौधेय – जोहियावार।
मद्र – रावी-चिनाव के बीच का प्रदेश।
आभीर – सराष्ट, मध्य भारत।
आर्जुन-मध्य प्रदेश के नरसिंपुर के पास का क्षेत्र।
सनकानिक – भिलसा के पास के क्षेत्र।
खरपरिक – मध्यप्रदेश में दमोह के पास।
उपर्युक्त नौ गणराज्यों ने स्वयं समुद्रगुप्त के प्रति आत्म-समर्पण कर दिया।

विदेशी राज्यों से सम्बन्ध – सिंहल और समुद्रपार के द्वीपों के साथ समुद्रगुप्त ने इन शर्तों पर सेवा और सहयोग की संधियाँ की-आत्मनिवेदन (मैत्री के प्रस्ताव), कन्योपायन (राजमहल में सेवा के लिए कन्याओं का उपहार), दान (स्थानीय वस्तुओं की भेंट) एवं उनकी स्वायत्तता और सुरक्षा (स्वविषयमुक्ति) को प्रमाणित करनेवाली मुद्रांकित सनदों का याचना। विदेशी राज्यों में दैवपुत्रशाही शाहानुशाही, शक, मुरुण्ड, सिंहल और हिन्दमहासागर के असंख्य छोटे-छोटे द्वीप थे। दैवपुत्रशाही शाहानुशाही उत्तर-पश्चिम में शासन करनेवाले कुषाण थे। शक उत्तर-पश्चिम भारत में थे। मुरुण्ड एक कुषाण जाति का नाम था। सिंहल के राजा मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त की राजसभा में उपहारसहित एक दूतमंडल भेजकर बोधगया में यात्रियों के ठहरने के लिए एक मंदिर बनवाने की अनुमति मांगी थी और समुद्रगुप्त ने उसे मंजूर भी किया था। फाहियान को जावा में एक सम्पन्न हिन्दू-उपनिवेश देखने को मिला था।

इस प्रकार, समुद्रगुप्त ने एक विस्तृत साम्राज्य का निर्माण किया। उसने आर्यावर्त, दक्षिणापथ, आटविक राज्यों, प्रत्यन्त-नृपति और द्वीपों के नरेशों पर विजय प्राप्त की, लेकिन समस्त विजित देशों को अपने अधिकार में नहीं किया। विभिन्न देशों के प्रति उसकी विभिन्न नीति थी। सुदूर देशों में उसने मैत्री की, दक्षिण के शासकों को अपनी छत्रछाया में रखकर उन्हें स्वतंत्र शासन करने का अधिकार दिया और आर्यावर्त तथा आटविक राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया । इस प्रकार उसका साम्राज्य उत्तरी भारत तथा मध्य भारत तक विस्तृत था। बिहार से कांजीवरम् तक, सीमान्त राजाओं और गणराज्यों को पराजित कर उसने विदेशी शासकों के भी दाँत खट्टे किये और द्वीपान्तरों में अपना प्रभाव फैलाया। अपनी दिग्विजय के फलस्वरूप उसने अश्वमेघ-यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में दान देने के लिए उसने सोने के सिक्के भी ढलवाये। सिक्कों पर ‘अश्वमेघ पराक्रम’ लिखा हुआ है।

समुद्रगुप्त के विजय-अभियानों को देखते हुए इतिहासकार विश्व ने उसे भारतीय नेपोलियन कहा है।

प्रश्न 8.
गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग क्यों कहा जाता है ?
अथवा, गुप्तों के अधीन भारत की सांस्कृतिक प्रगति की विवेचना करें।
उत्तर:
गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण युग माना जाता है। यह युग सिर्फ राजनीतिक एकता एवं प्रशासन के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण काल है। इस समय कला, साहित्य, विज्ञान, धर्म की तपूर्व वृद्धि हुई। फलस्वरूप अनेक विद्वानों ने इसे प्राचीनकाल का स्वर्णिम युग (The Golden Age) की संज्ञा दी है। अनेक विद्वानों ने इसकी तुलना यूनान के पेरोक्लीज युग तथा रोम के ऑगस्टस यग से की है।

इसे अभिजात्य यग (Classical Age) भी कहा जाता है। नि:संदेह इस यग में सांस्कतिक प्रगति अधिक हई. परन्त यह प्रगति एक विशेष वर्ग के लिए ही थे साधारण के लिए यह काल सांस्कतिक विकास का यग था. ऐसा नहीं कहा जा स क्योंकि जनसाधारण के लिए इस प्रगति का कोई लाभ नहीं था। फलस्वरूप गप्तकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा दे उचित प्रतीत नहीं होता। फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह काल सांस्कृतिक विकास का युग था, भले ही इसका लाभ किसी विशेष वर्ग के लिए सुरक्षित रहा हो।

वास्तव में चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ आदि जैसे प्रतापी गुप्त शासकों ने देश के लगभग समस्त भाग में एकछत्र राज्य कायम कर राजनीतिक एकता के सूत्र में समस्त भारत को बाँध दिया। पूरे क्षेत्र पर एक जैसी सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था कायम की गयी। फलस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता एवं अशांति का वातावरण समाप्त हो गया तथा सुख एवं शांति का साम्राज्य व्याप्त हो गया। इस अवस्था ने सांस्कृतिक विकास में काफी मदद पहुँचाई जिसके आधार पर विद्वान गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग मानते हैं।

गुप्तकाल धार्मिक पुनरुत्थान का युग था। इस समय वैदिक धर्म या ब्राह्मण धर्म पराकाष्ठा पर पहुँच गया। मूर्ति पूजा एवं मंदिरों का निर्माण भी इस युग में प्रारंभ हुआ। जैन एवं बौद्ध मतावलम्बी भी इस युग में थे। धार्मिक जीवन की प्रमुख विशेषता विभिन्न समुदायों में सहिष्णुता की भावना है। यूरोपीय देशों की तरह भारत में धर्म-युद्ध नहीं हुए बल्कि सभी धर्म वाले मिलजुल कर एक-दूसरे के साथ रहते थे। ऐसी बात नहीं है कि इनमें आपसी प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी परन्तु वह कभी भी व्यापक रूप नहीं ले सकी। इसी से एक प्रसिद्ध विद्वान ने कहा है- “The Gupta period was an age of catholicity, toleration and a goodwill.”

इस काल में शिक्षा एवं साहित्य की भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। अभी भी मौखिक शिक्षण-संस्थान ही प्रचलित थे। विद्यार्थियों को वेद, वेदांत, पुराण, मीमांसा, न्याय, धर्म एवं कानून की शिक्षा मुख्यतया दी जाती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में 14 प्रकार की विद्या का उल्लेख किया गया है। वैज्ञानिक शिक्षा का भी प्रसार इस युग में हुआ। अनेक शिक्षण केन्द्रों की स्थापना गुप्तकाल में हो चुकी थी। पाटलिपुत्र, बल्लभी, उज्जयिनी, पद्मावती, काशी, मथुरा, करा आदि इस समय के प्रख्यात शैक्षणिक केन्द्र थे। नालन्दा विश्वविद्यालय का भी विकास हो रहा था। राजाओं एवं धनी व्यक्तियों द्वारा इन शिक्षण-संस्थानों को धन एवं भूमि दान में दी जाती थी। कुमारगुप्त प्रथम, बुद्धगुप्त, तथागत गुप्त, बालादित्य आदि गुप्त शासकों ने नालन्दा महाविहार को अनुदान दिये।

गुप्तकाल की साहित्यिक प्रगति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस समय संस्कृत का समुचित विकास हुआ। संस्कृत प्रमुख भाषा बन गई। इसका व्यवहार अभिलेखों एवं मुद्राओं में भी होने लगा। फलस्वरूप यह राजकीय माध्यम बन गयी। संस्कृत में ही काल के प्रमुख विद्वानों एवं कवियों ने रचनाएँ लिखीं। इस युग में धार्मिक एवं धर्म-निरपेक्ष दोनों प्रकार की अनेक रचनाएँ । लिखी गईं। इसी साहित्यिक प्रगति के चलते कुछ विद्वानों में गुप्तकाल को अभिजात्य युग कह कर पुकारा है।

हिन्दू, बौद्ध एवं जैन सभी धर्मों के प्रमुख ग्रन्थों का रचना-काल गुप्त युग है। रामायण एवं महाभारत इसी काल में परिवर्द्धित रूप में लिखे गये। अधिकांश पुराणों को भी संकलित एवं सम्पादित किया गया। नारद स्मृति इस काल की स्मृतियों में प्रमुख है। पंचतंत्र, मानसागर, आर्यभट्टीय, वृहज्जातक, समाकावली, कामंदकीय, नीतिशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र आदि की भी रचना काल यही है। बौद्ध एवं जैन साहित्य की भी इस समय प्रगति हुई है। बुद्धघोष ने पट्टकथा का पालि भाषा में अनुवाद किया। असंग, दिङ्नाग एवं वसुबंधु ने दर्शन पर पुस्तकें लिखीं। इस युग के अन्य बौद्ध विद्वानों में कुमारजीव, बुद्धभद्र, धर्मरक्ष, गुपभद्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लोगों ने चीन में बौद्धधर्म एवं साहित्य का प्रचार किया। जैन रचनाओं में प्रसिद्ध स्थान जैन-आगम का है। जैन विद्वानों में सिद्धसेन, भद्रबाहु द्वितीय और उमास्वाति प्रमुख है।

गुप्तकाल संस्कृत नाटकों एवं काव्यों की रचना के लिए विश्वविख्यात है। इनमें सर्वोच्च स्थान महाकवि कालिदास का है। मेघदूत उनकी अनुपम काव्यकृति है। इसमें एक प्रेमातुर यक्ष की व्याकुल मनोभावना का बड़ा सजीव चित्रण किया गया है। रघुवंश में राम की विजय का उल्लेख है। ऋतुसंहार में विभिन्न ऋतुओं का शृंगारिक वर्णन है। कालिदास की सर्वोत्तम कृति अभिज्ञानशाकुन्तलम् है। कालिदास के अतिरिक्त शुद्रक एवं विशाखदत्त इस युग के दूसरे महान् नाटककार हुए। शूद्रक ने मृच्छकटिक एवं विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस एवं देवी चन्द्रगुप्त की रचना की। स्वप्नवासवदत्तम भी इसी समय लिखी गई। इस प्रकार संस्कृत साहित्य की प्रगति के दृष्टिकोण से यह काल अपूर्व है।

दर्शन : गुप्त युग दार्शनिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए भी प्रसिद्ध है। षड्दर्शन का इस समय काफी प्रचार हुआ एवं यह भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषता बन गयी है। भारतीय दर्शन के इतिहास में यह युग भाष्य रचनाकाल के रूप में प्रसिद्ध है। अनेक दार्शनिक ग्रंथों की रचना इस समय हुई। इनमें सांख्यशास्त्र, परमार्थ सप्तशती, न्याय, भाष्य, न्यायवर्तिका, पदार्थ-संग्रह इत्यादि प्रसिद्ध ग्रंथ है। जैमिनी-सूत्र, पूर्व-मीमांसा दर्शन, दर्शन के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं।

विज्ञान के क्षेत्र में गुप्तों की देन बहुमूल्य है। इस समय गणित, ज्योतिष, चिकित्सा, रसायन, भौतिकी आदि प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस युग के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट माने जाते हैं। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक आर्यभट्टीय है। इन्होंने अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति एवं त्रिकोणमिति के क्षेत्र में अन्वेषण किये। इन्होंने यह भी प्रमाणित कर दिया कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है तथा पृथ्वी एवं चन्द्रमा की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण ग्रहण होता है। बाराहमिहिर इस युग के सबसे बड़े ज्योतिषी थे। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक वृहदसहिता है।

बाराहमिहिर के ग्रन्थों में यवन सिद्धांतों का सामंजस्य मिलता है। कल्याणवर्मन ने फलित ज्योतिष पर जवली नाम का ग्रन्थ की रचना की। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान नागार्जुन ने रस चिकित्सा का आविष्कार किया। पारद (पारा) का आविष्कार भी इसी काल में हुआ था। उसके भस्म करने की क्रिया का आविष्कार कर नागार्जुन ने आयुर्वेद तथा रसायन शास्त्र के इतिहास में एक नये युग का आरंभ किया। महान् वैद्य धन्वन्तरि भी संभवत: गुप्तकाल में ही हुआ था। धातु विज्ञान एवं शिल्प कला की भी इस समय में प्रगति हुई। मेहरौली का लौह स्तम्भ गुप्तकालीन धातु विज्ञान की प्रगति का सबसे बढ़िया नमूना पेश करता है।

कला : कला की जितनी प्रगति इस समय हुई वह वास्तव में सराहनीय है। स्थानीय मूर्तिकला एवं चित्रकला की इस समय समुचित प्रगति हुई। मुद्रणकला में भी प्रगति हुई। गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के भी काफी संख्या में ढलवाये। इन पर विभिन्न आकृतियाँ एवं लेख उत्कीर्ण किये जाते थे। इस समय मुद्रण-कला काफी उन्नत अवस्था में थी। संगीत, नाटक, अभिनय एवं नृत्य कला का भी विकास हुआ।

शहरी जीवन के विकास ने ललित कलाओं की प्रगति में सहयोग दिया। पत्थर पर लोहे के विशाल स्तम्भ भी इस युग में बने। लौह-स्तम्भ में राजा चन्द्र के मेहरौली स्तम्भ का उल्लेख किया जा सकता है। हजारों वर्ष तक धूप एवं वर्षा झेलने के बावजूद इसमें आज तक जंग नहीं लगा। गुप्त राजाओं ने अनेक स्तम्भ बनवाये जिनका प्रयोग अभिलेखों को उत्कीर्ण कराने के लिए किया गया। ऐसे स्तम्भ अनेक जगहों पर पाये गये हैं।

गुप्तयुगीन वास्तुकला एवं मूर्तिकला धर्म प्रभावित थी। वास्तुकला के क्षेत्र में स्तूपों, चैत्यों, गुफाओं, मंदिरों आदि का निर्माण हुआ। मंदिरों के निर्माण में गुप्तकाल में विशेष प्रगति हुई। इस युग में प्रमुख मंदिरों में साँची, लाघखान, देवगढ़ एवं भुमरा के मंदिर प्रसिद्ध है। इन सबमें देवगढ़ का विष्णु मंदिर महत्त्वपूर्ण है। इस समय में मंदिरों की मुख्य विशेषता यह थी कि इनमें केवल देवस्थान बनाये जाते थे। उपासकों के लिए हॉल या प्रांगण की व्यवस्था इन मंदिरों में नहीं थी। आरंभ में कलशों का भी निर्माण नहीं हुआ था। अजन्ता के कुछ गुफा मंदिर भी गुप्तकाल में ही बने थे। बौद्ध वास्तुकला के उदाहरण अमरावती, नागार्जुन कोण्डा, राजगृह, नालन्दा एवं सारनाथ में पाये जाते हैं।

मंदिर – निर्माण ने मूर्तिकला को भी प्रश्रय दिया। गुप्तकाल का स्वतंत्र रूप से विकास हुआ। इस पर विदेशी प्रभाव नहीं था। इस समय मथुरा, सारनाथ एवं पाटलिपुत्र मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। धर्म का मूर्तिकला के विकास पर गहरा प्रभाव था। देवी-देवताओं की विभिन्न मूर्तियाँ इस समय बनायी गईं जिनमें सबसे प्रमुख विष्णु को विभिन्न अवतारों में दिखलाया गया। शिव को भी विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया गया। एकमुखी शिव, चतुर्मुखी शिव और अर्द्धनारीश्वर शिव की मूर्तियाँ गप्तकाल की विशिष्ट उपलब्धियाँ हैं। बौद्ध प्रतिमाएँ भी काफी बडी संख्या में बनीं। इनमें सारनाथ से प्राप्त बुद्ध की मूर्ति एवं सुल्तानगंज की ताम्बे की मूर्तियाँ गुप्तकालीन मूर्तिकला का अनूठा उदाहरण पेश करती हैं। जैन तीर्थंकरों की भी कुछ मूर्तियाँ इस समय बनीं।

चित्रकला भी उन्नत अवस्था में थी। गुप्तकालीन चित्रकला के नमूने अजन्ता, ग्वालियर की बाघ-गुफाओं एवं बादामी की गुफ़ाओं में अभी भी सुरक्षित हैं। अजन्ता की गुप्तयुगीन गुफाओं में गौतम बुद्ध के माहभिनिष्क्रमण का दृश्य बड़ा ही सजीव है। इसके अतिरिक्त इनमें बुद्ध एवं बोधि सत्वों के चित्र, जातक कथाएँ, मानव एवं पशु-पक्षी, देवी-देवता आदि के चित्र भी बड़े ही अच्छे एवं मनमोहक हैं। इन चित्रों में विशषया उच्चवर्गीय जीवन की झलक देखने को मिलती है। बाघ एवं बादामी की गफाओं के चित्र भी काफी सन्दर हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्त युग में सभ्यता एवं संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ। इसी कारण गुप्त युग को हिन्दू-पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है, परन्तु कई आधनिक विद्वान इससे सहमत नहीं हैं। वास्तव में, इस समय कला के विकास पर बौद्ध धर्म की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। इसी के प्रभाव में आकर इस युग में कला का विकास हुआ, उसी प्रकार ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी विदेशी प्रभाव परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप “वारहमिहिर के सिद्धांत रोमन एवं सिकन्दरिया के कालजयी ज्योतिर्विद पाल की स्थापनाओं की छाप है।” इस प्रकार “वैष्णव मत एवं शैव मत से भी किसी धार्मिक पुनरुत्थान का बोध नहीं होता है।”

कालिदास के ग्रंथों से बौद्धिक पुनर्जारण अथवा साहित्यिक कृतित्व के पुनरुत्थान का संकेत नहीं मिलता है। प्रो. डी० एन० झा के मत में “जिस हिन्दू पुनर्जागरण का बहुत प्रचार किया जाता है, वस्तुतः कोई पुनर्जागरण नहीं था, बल्कि वह बहुत अंशों में हिन्दुत्व का द्योतक था।” प्रो० डी. एन झा की यह मान्यता है कि “गुप्तकाल में राष्ट्रीयता का पुनरुत्थान नहीं हुआ, बल्कि राष्ट्रीयता ने ही गुप्तकाल को नवजीवन प्रदान किया। गुप्तकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा देना उचित नहीं है।” फिर भी यह तो मानना ही होगा कि इस युग में कला एवं साहित्य की काफी अधिक प्रगति हुई।

प्रश्न 9.
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों की चर्चा करें।
अथवा, गुप्त साम्राज्य के पतन के क्या कारण थे ?
उत्तर:
गुप्त साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित कारण थे-
1. अयोग्य उत्तराधिकारी (Weak successors) – विशाल गुप्त साम्राज्य के संभालने के लिये समुद्रगुप्त के बाद कोई सबल शासक न हुआ; अत: केंद्रीय सत्ता के कमजोर होते ही कई राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।

2. उत्तराधिकारी के नियम का अभाव (Lack of the law of succession) – उत्तराधिकार नियम के अभाव के कारण सम्राट के मरते ही गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती थी अत: जो शक्तिशाली होता था, वही राजगद्दी प्राप्त कर लेता था।

3. सीमावर्ती क्षेत्रों की अवहेलना (Negligence of the frontiers) – चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् किसी भी गुप्त शासक ने सीमावर्ती क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया। अतः विदेशी आक्रमणकारी बिना रोक टोक भारत में प्रवेश कर लेते थे।

4. बौद्ध धर्म का प्रभाव (Effect of Buddhism) – बौद्ध धर्म के प्रभाव ने राजाओं को अहिंसावादी बना दिया। दूसरे शब्दों में सेना बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण पंगु हो गई। अत: जिनजिन गुप्त शासकों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, मानो उन्होंने शत्रुओं को बुलावा दिया था।

5. विशाल साम्राज्य (Vast Empire) – गुप्त साम्राज्य बहुत विशाल था। उस समय यातायात के साधन नहीं के बराबर थे, अत: इतने बड़े राज्य पर नियंत्रण रखना कठिन था। इस प्रकार गुप्त साम्राज्य की विशालता भी पतन का एक कारण बनी।

6. सैनिक दुर्बलता (Military weakness) – यद्यपि गुप्त काल सुख-समृद्धि का युग था, परंतु बहुत लंबे समय तक युद्ध न होने से सेना सुख-प्रिय, विलासी एवं आलसी हो गई, फलस्वरूप सेना शक्तिहीन हो गई।

7. आंतरिक विद्रोह (Internal Revolts) – जब गुप्त साम्राज्य शक्तिशाली थे तो उनके भारतीय राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी, परंतु गुप्त सम्राटों की सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गई, तो यह शासक विद्रोह करने लगी। मालवा के राजा यशोधवर्मन तथा वाकाटक के र ने विद्रोह करके स्वयं को स्वतंत्र कर लिया।

8. हूणों के आक्रमण (Attack of Hunas) – गुप्त साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण हूण जाति के आक्रमण थे। ये आक्रमण चन्द्रगप्त विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद ही प्रारंभ हो गये थे। डॉ. वीसेन्ट स्मिथ के अनुसार ‘पांचवीं और छठी शताब्दी के हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया और इस प्रकार कई नये राज्यों के जन्म के लिये क्षेत्र तैयार कर दिया।’

9. आर्थिक संकट (Economic Crisis) – धन की कमी भी गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण बनी। स्कंदगुप्त को पुष्यमित्र की शुंग जाति और हूण जाति से बहुत से युद्ध करने पड़े। इससे सरकारी खजाना खाली हो गया। इस प्रकार आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ जाने से गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

प्रश्न 10.
अलबरूनी द्वारा दिए गए उसके तत्कालीन भारत के विवरण को अपने शब्दों में संक्षेप में दीजिए।
उत्तर:
अलबरूनी द्वारा दिए गए भारत के बारे में विवरण का सारांश-महमूद गजनवी के आक्रमणों के वक्त भारत में आए यात्री एवं इतिहासकार अलबरूनी ने भारत के बारे में जो वर्णन लिखा है, वह संक्षेप में नीचे लिखा जा रहा है-
1. सामाजिक स्थिति (Social Condition) – अलबिरूनी लिखता है कि सारा हिन्दू समाज जाति प्रथा के कड़े बन्धनों में जकड़ा हुआ था। उस समय बाल-विवाह और सती प्रथा की कुप्रथायें थीं। विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी।

2. धार्मिक स्थिति (Religious Condition) – उसके वर्णन के अनुसार सारे देश में मूर्ति पूजा प्रचलित थी। लोग मंदिरों को बहुत दान देते थे। मंदिरों में बहुत-सा धन जमा था। साधारण जनता अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखती थी जबकि सुशिक्षित एवं विद्वान केवल एक ईश्वर में विश्वास रखते थे।

3. राजनीतिक दशा (Political Condition) – सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। उसमें से कन्नौज, मालवा, गुजरात, सिंध, कश्मीर तथा बंगाल अधिक प्रसिद्ध थे। इनमें राष्ट्रीय भावना की कमी थी। ये आपस में ईर्ष्या के कारण सदैव लड़ते रहते थे। .

4. न्याय व्यवस्था (Judiciary) – फौजदारी कानून नरम थे। ब्राह्मणों को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था। केवल बार-बार अपराध करने वाले के ही हाथ-पैर काट दिए जाते थे।

5. भारतीय दर्शन (Indian Philosophy) – भारतीय दर्शन से अल-बिरूनी बहुत प्रभावित हुआ। उसने भगवद्गीता और उपनिषदों के ऊँचे दार्शनिक विचारों की मुक्त कण्ठ से सराहना की है।

6. ऐतिहासिक ज्ञान (Historical Knowledge) – इतिहास लिखने के बारे में वह लिखता है कि “भारतीयों को ऐतिहासिक घटनाओं को तिथि के अनुसार लिखने के बारे में बहुत कम ज्ञान है और जब उनको सूचना के लिए अधिक दबाया जाए तो वे कथा-कहानी शुरू कर देते हैं।” इस वर्णन से स्पष्ट है कि हमें उस काल तक इतिहास लिखने का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था।

7. सामान्य स्वभाव (General Nature) – भारतीय झूठा अभिमान करते हैं तथा अपना ज्ञान दूसरों को देने को तैयार नहीं होते हैं। उसने लिखा है कि हिन्दू अपना ज्ञान दूसरों को देने में बड़ी कंजूसी करते हैं, वे अपनी जाति के लोगों को बड़ी कठिनता से ज्ञान देते हैं, विदेशियों की बात तो दूर रही। हिन्दू यह समझते हैं कि उसके जैसा देश नहीं है, उनके जैसा संसार में कोई धर्म नहीं है. उनके जैसा किसी के पास ज्ञान नहीं है…..।”

सारांश यह है कि अल-बिरूनी के वर्णन से तत्कालीन भारत के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।

प्रश्न 11.
इल्तुतमिश की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
इल्तुतमिश इलबरी जाति का तुर्क था। उसका पिता इलक खाँ एक कबायली सरदार था। उसका राजनीतिक जीवन ऐबक के दास के रूप में आरंभ हुआ लेकिन मुहम्मद गोरी की अनुशंसा पर ऐबक ने उसे दास्ता से मुक्त कर दिया था। आगे चलकर ऐबक ने अपनी एक बेटी का विवाह इल्तुतमिश के साथ कर दिया। दिल्ली का शासक बनने पर ऐबक ने इल्तुतमिश को बदायूँ का प्रशासन नियुक्त किया जो कि उस समय में एक महत्त्वपूर्ण पद था। बदायूँ में ही इल्तुतमिश को आरामशाह के विरोधियों के द्वारा गद्दी पर अधिकार करने का निमंत्रण प्राप्त हुआ।

दिल्ली की सल्तनत के प्रारंभिक तुर्क सुल्तानों में इल्तुतमिश का व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली है। अनिश्चित राजनीतिक परिस्थितियों में और अत्यन्त गंभीर संकट के काल में इल्तुतमिश दिल्ली का शासक बना था। अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर उसने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली रूप प्रदान किया। इल्तुतमिश की उपलब्धियों को समझने के लिए अथवा दिल्ली सल्तनत के प्रति उसके योगदान का मूल्यांकन करने के लिए यह आवश्यक है कि उन समस्याओं की ओर ध्यान दिया जाय तो इल्तुतमिश को राज्यारोहण के समय प्रस्तुत थीं।

इल्तुतमिश को अत्यन्त कठिन परिस्थितियों का सामना करना था। उसके पूर्व ऐबक ने अपने संक्षिप्त शासन काल में दिल्ली सल्तनत की स्थापना का काम आरम्भ तो किया, किन्तु उसे पूरा करने में असमर्थ रहा। इल्तुतमिश के लिए यह अनिवार्य था कि इस नवस्थापित राज्य को सुदृढ़ता प्रदान करे और इसके लिए एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण करे। किन्तु इन दोनों कामों के लिए पहले यह आवश्यक था कि इल्तुतमिश की अपनी स्थिति सुदृढ़ हो। इल्तुतमिश के समक्ष निम्नलिखित मुख्य समस्याएँ थीं-

  1. विरोधी सामंतों, विशेषकर कुत्बी और मुइज्जी सामंतों का दमन।
  2. अपने प्रतिद्वन्द्वियों यल्दोज और कुबाचा का दमन।
  3. राजपूताना और बंगाल के उपद्रवों और विद्रोहों का दमन।
  4. मंगोल आक्रमण से सल्तनत की रक्षा।
  5. सल्तनत के लिए प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण।

उसके 25 वर्षीय शासनकाल में इन सभी समस्याओं का समाधान हुआ। इस काल में निम्न चरणों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम चरण 1210 से 1220 तक रहा जबकि उसने अपने विरोधियों एवं प्रतिद्वन्द्वियों का दमन किया। सर्वप्रथम उसने उन सामन्तों की शक्ति को कुचला जो गद्दी पर उसके अधिकार का विरोध कर रहे थे। इसमें अधिकतर कुत्बी और मुइज्जी सामंत थे जो इस आधार पर इल्तुतमिश के विरुद्ध हो रहे थे कि वह एक दास का भी दास है, अतः राजगद्दी पर उसका अधिकार अनुचित है। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम इन सामंतों को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने क्रमिक रूप से सभी महत्त्वपूर्ण पदों से इन सामंतों को चित किया। उसने अपने विश्वसनीय 40 दासों का एक नया दल संगठित किया जो ‘चालीसा’ दल कहा जाता है। इस दल के सदस्यों को सभी बड़े पदों पर नियुक्त करके इल्तुतमिश ने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।

इल्तुतमिश के प्रतिद्वन्द्वियों में सर्वप्रथम यल्दोज के साथ उसका संघर्ष हुआ। यल्दोज गजनी का शासक था. और दिल्ली पर भी अपनी सम्प्रभुता का दावा करता था। यद्यपि उसे ऐबक ने पराजित किया था, परन्तु इल्तुतमिश की आरंभिक कठिनाइयों को देखते हुए यल्दोज ने पुन: अपना दाबा दोहराया था। 1215-16 के बीच इल्तुतमिश ने यल्दोज को पुनः पराजित किया और इस समस्या का समाधान किया। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी क्योंकि उसके साथ ही दिल्ली सल्तनत का गजनी के साथ सम्पर्क सदा के लिए टूट गया और सल्तनत का विकास एक स्वतंत्र उत्तर भारतीय राज्य के रूप में हुआ जिसको मध्य एशियाई राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस समय उसने दूसरे विरोधी कुबाचा के विरुद्ध भी कार्यवाही की किन्तु उसे पूर्ण सफलता नहीं मिली।

दूसरा चरण 1212 से 28 के बीच है। इस काल का आरंभ एक अत्यन्त गंभीर संकट के साथ हुआ जब महान मंगलो विजेता चंगेज खाँ अपनी सेना के साथ दिल्ली सल्तनत की सीमा पर आ पहुँचा। चंगेज खाँ इस ओर ख्वारिज्म के राजकुमार मंगबरनी का पीछा करता हुआ आया था जो कि इल्तुतमिश से मंगोलों के विरुद्ध सहायता का आकांक्षी था। इल्तुतमिश ने कूटनीति से काम लेते हुए मंगबरनी को कोई सहायता नहीं दी। उसके आचरण से चंगेज खाँ संतुष्ट रहा और उसने भी दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण नहीं किया। इस प्रकार यह भयंकर संकट आसानी से टल गया। इसका एक अन्य लाभ इल्तुतमिश को हुआ। मंगबरनी ने सिन्धु नदी के किनारे के क्षेत्र में कुबाचा की शक्ति को बहुत कमजोर कर दिया था, अत: इसका लाभ उठाकर कुबाचा पर इल्तुतमिश ने चढ़ाई कर दी और 1224 में कुबाचा को पराजित करके उसने सिन्ध और मुल्तान को भी दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत के क्षेत्रों में पहली बार उल्लेखनीय विस्तार हुआ।

इस अवधि में पूर्वी सीमा की समस्या पर भी इल्तुतमिश ने ध्यान दिया। बंगाल का प्रान्त ऐबक के समय में भी स्वतंत्र होने का प्रयास कर चुका था। इल्तुतमिश की आरंभिक समस्याओं का लाभ उठाकर बंगाल में हेमामुद्दीन इवाज ने स्वतंत्र सत्ता ग्रहण कर ली थी और बिहार, उड़ीसा एवं कामरूप के क्षेत्रों में अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया था। इल्तुतमिश ने बंगाल पर दो सैनिक अभियान किये। 1227 तथा 1229 के अभियानों के फलस्वरूप बंगाल में स्थित लखनौती का राज्य दिल्ली के नियंत्रण में आ गया और बिहार के क्षेत्र बंगाल से अलग करके दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। इस प्रकार अपने राज्य की पूर्वी सीमा को इल्तुतमिश ने सुदृढ़ एवं सुरक्षित बना दिया।

तीसरा चरण 1229 से आरंभ हुआ और 1236 में समाप्त हुआ। इसमें इल्तुतमिश ने राजपूताना की समस्या का समाधान किया और प्रशासन तंत्र को सुव्यवस्थित किया। राजपूताना का क्षेत्र ऐबक के शासन काल से ही विद्रोह और उपद्रवों का केन्द्र बना हुआ था। वहाँ राजपूत सरदार तुर्की की सत्ता का अंत करने के लिए संघर्ष छेड़े हुए थे। अपने संक्षिप्त शासन काल में ऐबक इस समस्या का समाधान करने में असमर्थ रहा था, अतः इल्तुतमिश ने राजपूताना में कार्यवाही आरंभ की। उसका पहला सफल अभियान 1226 में रणथम्भौर पर अधिकार के साथ परा हआ। अगले पाँच वर्षों में इल्तुतमिश ने इस क्षेत्र में कई अभियान किये और अनेक क्षेत्रों को जीता। जिसमें अजमेर, नागौर और थंगनीर के नाम उल्लेखनीय हैं। अंतिम महत्त्वपूर्ण अभियान 1231 में ग्वालियर के विरुद्ध हुआ। इस प्रकार इल्तुतमिश ने उत्तरी और मध्य भारत के राजपूत शासकों को अपने नियंत्रण में रखा।

उपलब्धियाँ – एक विजेता और सेना नायक के रूप में इल्तुतमिश की उपलब्धियाँ अत्यन्त प्रभावशाली हैं। उसने एक असंगठित और निर्बल राज्य को न केवल शक्ति और सुदृढ़ता प्रदान की बल्कि उसके क्षेत्रों का भी पर्याप्त विस्तार किया और अपने विरोधियों की शक्तियों को कुचल डाला। इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली सल्तनत के आरंभिक सुदृढीकरण का काम इल्तुतमिश द्वारा ही संभव हुआ। किन्तु इल्तुतमिश मात्र एक विजेता ही नहीं था बल्कि एक योग्य प्रशासक भी था। उसी ने दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था के निर्माण का काम आरंभ किया। इसके लिए सर्वप्रथम उसने 1229 में बगदाद के अब्बासी खलीफा से एक मंशूर अथवा स्वीकृति पत्र प्राप्त किया जिसके द्वारा उसे दिल्ली सल्तनत के सुल्तान के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी क्योंकि अभी तक दिल्ली सल्तनत के स्वतंत्र अस्तित्व को वैधानिक रूप से स्वीकृति प्राप्त नहीं हो सकी थी। खलीफा के स्वीकृति पत्र से इल्तुतमिश की स्थिति और भी सुदृढ़ हुई। सुल्तान के रूप में अब उसकी सत्ता का विरोध उसकी मुस्लिम प्रजा द्वारा संभव नहीं रही। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस स्वीकृति द्वारा इल्तुतमिश एवं दिल्ली सल्तनत की स्वतंत्र सत्ता को मान्यता प्राप्त हो गयी।

आंतरिक प्रशासन के क्षेत्र में इल्तुतमिश का योगदान तीन क्षेत्रों में उल्लेखनीय है, इकतादारी व्यवस्था, मुद्रा प्रणाली एवं सैन्य संगठन।

इल्तुतमिश ने अपने राज्य को अनेक छोटे-छोटे भू-खंडों में विभक्त कर दिया जिन्हें इकता कहते हैं। इसके अधिकारी इकतादार कहलाते थे। बड़े क्षेत्रों के इकतादार प्रान्तीय गवर्नर के रूप में थे जो कानून और व्यवस्था की देख-रेख, लगान की वसूली, मुकदमों की सुनवाई और सैनिक सेवा प्रदान करने के कार्य करते थे। छोटे क्षेत्रों के इकतादार केवल सैनिक सेवा प्रदान करते थे। दोनों श्रेणियों के इकतादारों को वेतन के रूप में अपने इकता से लगान वसूलने का अधिकार था। इल्तुतमिश ने इस व्यवस्था का उपयोग उत्तर भारत की सामंतवादी प्रथा को समाप्त करने एवं केन्द्रीय प्रशासन को मजबूत बनाने के लिए किया। सामंतवादी प्रथा के विपरीत इल्तुतमिश ने समय-समय पर इकतादारों का स्थानान्तरण करके उन्हें केन्द्रीय प्रशासन के नियंत्रण में रखने का सफल प्रयास किया। इसके अतिरिक्त जिन राजपूत शासकों ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार कर ली थी उन्हें भी नजराना देने के बदले उनके राज्य लौटा दिये गये।

इल्तुतमिश ने अरबी प्रथा के आधार पर एक नई मुद्रा-प्रणाली भारत में लागू की। इसमें ताम्बे के सिक्के अथवा पीतल और चाँदी के सिक्कों अथवा टंकों को प्रचलित किया गया। इन सिक्कों पर इल्तुतमिश का नाम अरबी में अंकित था। इन नये सिक्कों का प्रचलन भारत में तुर्कों की सत्ता की सुदृढ़ता का प्रतीक था।

इल्तुतमिश के अधीन किसी केन्द्रीय सेना का प्रमाण नहीं मिलता। उसने शाही अंगरक्षकों अथवा सैनिकों का एक दल बनाया था जो युद्ध के समय शाही सेना के रूप में ही काम करता था। इस व्यवस्था से वह सैनिक शक्ति के मामले में इकतादारों के ऊपर पूरी तरह निर्भर रहने से मुक्त हो गया। आगे चलकर बलवन ने इसी आधारशिला पर सैन्य संगठन का निर्माण किया।

इल्तुतमिश विजेता और प्रशासक के रूप में महान तो था ही, कला और संस्कृति का पोषक भी था। उसके शासन के समय में दिल्ली का नगर एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित हुआ जहाँ मध्य एशिया से आने वाले शरणार्थी कलाकारों, शिल्पकारों और विद्वानों को प्रश्रय मिला। इल्तुतमिश के दरबार में प्रसिद्ध इतिहासकार, मिनहाजेसिराज को प्रश्रय मिला जिसकी रचना तबकात-ए-नासीरी से भारत में तुर्की शासन के निर्माण और आरंभिक इतिहास का पता चलता है। प्रसिद्ध विद्वान् जुनैदी को इल्तुतमिश ने अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। मध्य एशिया से आने वाले मजदूरों के योगदान से इल्तुतमिश ने अनेक भव्य इमारतों का निर्माण कराया जिनमें कुतुबमीनार, राजकुमार महमूद और इल्तुतमिश के मकबरे और मदरसे आज भी देखे जा सकते हैं।

निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि भारत में तुर्कों की सत्ता के विकास में इल्तुतमिश का उल्लेखनीय योगदान है। उसने नवजात दिल्ली सल्तनत को न केवल विघटन से बचाया बल्कि उसे एक सुदृढ़ अस्तित्व प्रदान किया और उसके क्षेत्रों का विस्तार किया। उसने मंगोल आक्रमण के भीषण संकट से दिल्ली सल्तनत को सुरक्षित रखा। ऐबक द्वारा स्थापित दिल्ली सल्तनत को इसने सुदृढ़ एवं सुरक्षित बनाया।