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Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
गर्भावस्था में आहार के महत्व की विवेचना करें।
उत्तर:
प्राचीनकाल से ही गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों को दिए जानेवाले भोजन के विषय में खास ध्यान दिया जाता रहा है। उस समय यह मान्यता थी कि गर्भवती में स्त्री जो कुछ भी खाती पीती है उसका सीधा प्रभाव गर्भस्थित शिशु पर पड़ता है। फलतः विभिन्न समाजों में इस तरह के दृढ़ नियम बन गए कि गर्भवती स्त्री को क्या खाना चाहिए।

गर्भावस्था में स्त्री का वजन 7 से 10 किलोग्राम तक बढ़ जाता है। जन्म के समय बच्चे में काफी मात्रा में लोहा, प्रोटीन, विटामिन सी तथा दूसरे विटामिन होते हैं। यह सभी उसे माँ के शरीर से या अंगों से मिलते हैं। इसलिए गर्भावस्था में कमजोर खुराक मिलना एक ऐसा खतरा है जिससे कई बार जन्म देते वक्त माँ की मृत्यु हो जाती है अथवा जन्म से पहले साल में ही बच्चे की मौत हो जाती है। एक सर्वेक्षण से पता चला कि यदि गर्भवती स्त्री को पौष्टिक भोजन दिया जाए तो उसे प्रसव के समय अधिक कष्ट नहीं होता तथा उसका बच्चा सदैव स्वस्थ एवं हष्ट-पुष्ट रहता है।

पौष्टिक आवश्यकताएँ (Nutritional Requirement) :
(i) ऊर्जा (Energy)- गर्भकाल के प्रथम तीन मास में अधिक कैलोरीज की आवश्यकता नहीं है किन्तु द्वितीय और तृतीय अवस्था में लगभग 300 कैलोरीज सामान्य आवश्यकता के अलावा लेना जरूरी है। परंतु एक मोटी स्त्री का यदि गर्भावस्था में वजन बढ़ता है तो उसे कम कैलोरीज लेना ही उचित है।

(ii) प्रोटीन (Protein)- प्रोटीन से शरीर की सूक्ष्मतम इकाई-कोशिका की रचना होती है और कोशिकाओं से शिशु का शरीर बनता है और बढ़ता है। चतुर्थ मास के बाद प्रोटीन अत्यन्त आवश्यक हैं साधारण स्त्री के भोजन से गर्भवती के भोजन में 1 ग्राम उत्तम श्रेणी का प्रोटीन अधिक होना चाहिए। अन्तिम छ: महीने में लगभग 850 ग्रा० प्रोटीन का भण्डारण होता है। इसमें से आधा बच्चे के शरीर की वृद्धि और शेष माता के बढ़ते हुए तन्तुओं के लिए आवश्यक है।

अतः प्रोटीनयुक्त पदार्थ जैसे दूध, पनीर, अण्डा, मांस, मछली, दालें, सोयाबीन, मेवे आदि की मात्रा बढ़ानी चाहिए।

(iii) खनिज लवण (Mineral Salts)- लवण शरीर की मांसपेशियों के उचित संगठन और शरीर की क्रियाओं को नियमित रखने के लिए आवश्यक हैं। गर्भावस्था में कैल्शियम, लोहा आदि की आवश्यकता अधिक होने के कारण ही उनके पोषण में जरूरत बढ़ जाती है।

(iv) कैल्शियम (Calcium)- कैल्शियम का भोजन में पाया जाना जरूरी हैं हड्डियों के निर्माण एवं वृद्धि के लिए कैल्शियम और फॉस्फोरस की अत्यन्त आवश्यकता है। जन्म के समय बच्चे के शरीर में लगभग 22 ग्रा. कैल्शियम होता है जिसका अधिकांश भाग उसे आखिरी के एक महीने में मिलता है। यदि स्त्री के आहार में अपनी और भ्रूण की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूर्ण कैल्शियम न हो तो माता के अपने शरीर के कैल्शियम का अपहरण होता है। यदि गर्भावस्था से पूर्व ही स्त्री अपोषण (Under Nutrition) से पीड़ित हो तो गर्भावस्था में उसके भोजन में प्रोटीन और कैल्शियम आदि सामान्य मात्रा से अधिक होना चाहिए। गर्भवती को 1.3 से 1.5 ग्राम प्रतिदिन कैल्शियम की जरूरत होती है।

(v) फॉस्फोरस (Phosphorous)- फास्फोरस का उपभोग कैल्शियम के साथ किया जाता है। यह गर्भावस्था में भ्रूण के शरीर की वृद्धि के लिए अति आवश्यक है। इसकी सहायता से अंस्थियों का निर्माण होता है। फॉस्फोरस की आवश्यकता आहार में पर्याप्त कैल्शियम होने पर स्वतः पूर्ण हो जाती है क्योंकि यह बहुधा उन्हीं खाद्य पदार्थों में पाया जाता है जिनमें कैल्शियम एएए अारा है। इसके अतिरिक्त कैल्पिएएए और फॉस्फोरस के सुपिक-ऐ-शुटिक सुत्रपऐपए के लिए आहार में विटामिन डी का आवश्यक मात्रा में होना आवश्यक है।

(vi) लोहा (Iron)- गर्भकाल में स्त्री को लोहे की आवश्यकता होती है। इसकी कमी से रक्त में हीमोग्लोबिन की कमी हो जाती है। सम्पूर्ण गर्भावस्था में गर्भवती महिला को 700-1000 मि. ग्रा. लोहे को शोषित करना जरूरी है। गर्भावस्था में माता के रक्त में वृद्धि होती है तथा शिशु का रक्त बनता है जिसके लिए गर्भवती को प्रतिदिन अधिक लोहे की आवश्यकता है।

(vii) आयोडीन (Iodine)-गर्भावस्था में आयोडीन की आवश्यकता भी साधारण अवस्था से बढ़ जाती है। भोजन में आयोडीन की कमी होने से माँ और शिशु दोनों को गलगण्ड, घेघा, (Goiter) रोग होने की संभावना रहती है। गर्भकालीन स्थिति में अबट ग्रंथि (Thyroid Gland) अत्यधिक क्रियाशील होती है। आयोडीन की कमी होने पर ग्रंथि थाइराक्सिन नामक अन्त:स्राव (Hormone) निर्मित करने का कार्य भी सम्पन्न करने लगती है जिसके फलस्वरूप इसकी वृद्धि हो जाती है। आयोडीन शरीर में ग्रंथियों (Glands) के द्वारा हारमोन्स उत्पन्न करने में सहायता करता है। अत: हरी पत्तेदार सब्जियाँ, अनाज तथा सामूहिक वनस्पति ऐसे ही खाद्य-पदार्थ हैं जिन्हें अपने आहार में सम्मिलित करने से आयोडीन की मात्रा सरलता से प्राप्त हो सकती है।

प्रश्न 2.
आहार आयोजन के सिद्धान्त उदाहरण सहित समझाइये। एक किशोरी के लिए एक दिन की भोजन तालिका बनाइए।
उत्तर:
आहार आयोजन के सिद्धान्त :
(i) परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना (Economic Status of the Family)- उचित आहार आयोजन के द्वारा पारिवारि आर्थिक स्थिति के अनुसार श्रेष्ठ आहार उपलब्ध कराया जाना सम्भव है। अतः अहार आयोजन करने से पूर्व परिवार की आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखा जाता है क्योंकि कम खर्च में भी वे सभी पौष्टिक तत्व प्राप्त किए जा सकते हैं जो कि महँगे खाद्य पदार्थों से प्राप्त होते हैं, जैसे अंडे से प्रोटीन प्राप्त होता है। इसकी तुलना में सोयाबीन से भी उत्तम श्रेणी का प्रोटीन प्राप्त होता है। इसी प्रकार से महंगे मछली के तेल की तुलना में मौसमी फल (जैसे-पपीता, आम) या सब्जी (जैसे-गाजर) विटामिन A के अच्छे और सस्ते स्रोत हैं।

(ii) समय तथा श्रम की मितव्ययिता का ध्यान रखना (Saving Time and Labour)- आहार आयोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि समय और श्रम दोनों ही व्यर्थ न जाए और सही समय पर पौष्टिक भोजन भी तैयार मिले, जैसे सुबह का नाश्ता-एक परिवार जिसमें पति-पत्नी को ऑफिस जाना हो तथा बच्चों को स्कूल जाना हो तो ऐसे में जल्दी-जल्दी नाश्ता भी बनेगा और दोपहर का लंच भी पैक होगा। ऐसी अवस्था में इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो भी आहार आयोजित किया जाए वह जल्दी बने तथा उसे ऑफिस एवं स्कूल ले जाने में कठिनाई न हो। समय तथा श्रम की बचत करने के लिए अनेक उपकरणों जैसे प्रेशर कूकर, मिक्सर, ग्राइंडर, फ्रिज इत्यादि का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। .

(iii) उत्सवों का ध्यान रखना (Celebration)- आहार आयोजन करते समय विभिन्न उत्सवों का भी ध्यान रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि कोई जन्मदिन पार्टी हो या कोई पर्व व त्यौहार हो तो उसके अनुसार ही आहार का आयोजन करना चाहिए।

(iv) सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताओं का ध्यान रखना (Social & Religious Sanction)- किसी विशेष अवसर पर आहार आयोजित करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस व्यक्ति के लिए आहार-नियोजन किया जा सका है उसकी सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताएँ क्या है, जैसे कुछ व्यक्ति प्याज नहीं खाते, कुछ लहसुन नहीं खाते, कुछ अंडा मांस, मछली इत्यादि नहीं खाते।

(v) आहार पकाते समय पौष्टिक तत्वों को नष्ट न होने देना (Protecting the Nutrients While Cooking)- आहार आयोजन करते समय आहार बनाने की विधि की ओर भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। आयोजन आहार ऐसी विधि से बनाया जाना चाहिए जिससे आहार के पौष्टिक तत्व कम-से-कम नष्ट हो और वह पाचनशील हो।

(vi) आहार द्वारा क्षुधा संतुष्टि हो (Providing Satisfy)- आहार आयोजन करते समय : इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जो भी कुछ खाएँ उससे पेट भरने की संतुष्टि हो। उदाहरण के लिए यदि शरीर को कार्बोज की आवश्यकता हो तो टॉफी खाई जा सकती है पर टॉफी खाने से पेट भरने की संतुष्टि नहीं होती। इसकी तुलना में यदि आलू (उबालकर, भूनकर अथवा चाट बनाकर) खाया जाए तो कार्बोज की आवश्यकता भी पूरी होती है और पेट भी भरता है।

एक किशोरी के लिए दिन की भोजन तालिका
1. दूध – 1 कप
2. भरा हुआ पराठा – 2
3. टमाटर चटनी – 2 चम्मच
4. टिफिन सेब अथवा संतरा
5. दोहपर का सांभर – 1 कटोरी
6. भोजन उबले चावल – 1 प्लेट
7. मेथी आलू – 1/4 कटोरी
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2, 1

प्रश्न 3.
किशोरावस्था में आहार आयोजन करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है ?
उत्तर:
किशोरावस्था तीव्र गति से वृद्धि तथा विकास की अवस्था है। 13 से 18 वर्ष के बालक को किशोर कहा जाता है। इस आयु में शारीरिक, मानसिक तथा भावानात्मक परिवर्तन होते हैं। कंकाल तंत्र तथा पेशीय तंत्र की वृद्धि तथा विकास होता है, यौन अंग परिपक्व होते हैं। शारीरिक संरचना में तीव्र परिवर्तन के कारण यह अवस्था शारीरिक एवं संवेगात्मक दबाव की अवधि होती है। वृद्धि को प्रोत्साहित तथा बढ़ाने में आहार एक जटिल भूमिका निभाता है।

किशोरी के लिए आहार आयोजन करते समय विशेष ध्यान रखने योग्य बातें निम्नलिखित हैं-

  • आयु वर्ग (13 से 15 या 16-18 वर्ष)
  • लिंग (लडका/लडकी)
  • आय वर्ग (निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग
  • दिनचर्या-क्रियाकलाप
  • पौष्टिक तत्वों की पर्याप्त-संतुलित आहार
  • स्वीकृति-भोजन संबंधी आदतें
  • खाद्य पदार्थों की स्थानीय उपलब्धता
  • वृद्धि दर की गति (तीव्र या मंद)

आहार आयोजन में खाद्य पदार्थों का चयन करते समय निम्नलिखित बातों का भी ध्यान जरूरी है-

  • प्रत्येक आहार में प्रत्येक खाद्य वर्ग के पदार्थ अवश्य सम्मिलित करें।
  • प्रोटीन तथा कैल्शियम के लिए दूध, मांस, मछली, अंडा को सम्मिलित करें।
  • प्रोटीन की किस्म को बढ़ाने के लिए अनाज व दालों को मिलाकर प्रयोग करें।
  • भोजन में पर्याप्त मात्रा में तरल पदर्थों का समावेश भी आवश्यक है-सूप, जूस, आदि दें ताकि पर्याप्त खनिज लवण व विटामिन तत्व मिल सके।
  • आहार में तले हुए, मिर्च मसाले वाले गरिष्ठ भोजन नहीं सम्मिलित करना चाहिए ताकि इस अवस्था में मुहांसे और पेट की गड़बड़ियाँ होने का डर रहता है।
  • इस आयु में कब्ज होने की शिकायत रहती है इसलिए रेशेदार पदार्थ, जैसे-कच्ची सब्जियाँ, फल, सलाद इत्यादि आहार में होना जरूरी है।
  • आहार में किशोरों के रूचि के अनुसार भी खाद्य पदार्थों को सम्मिलित करना चाहिए।
  • आहार में खाद्य पदार्थों के रंग, सुगंध व बनावट पर भी ध्यान देना चाहिए, इससे भोजन को आकर्षण व भूख बढ़ती है।
  • किशोरों के भोजन करने के समय को निश्चित रखना चाहिए।
  • इस आयु में समय-समय पर शरीर का भार ज्ञात करवाते रहना चाहिए। शरीर भार यदि सामान्य भार से कम या अधिक हो तो भोजन में कैलोरीज की मात्रा बढ़ा या कम कर देनी चाहिए। गलत आदतें (भोजन संबंधी) किशोरों के सामान्य वृद्धि में बाधक हो सकती है या दिल की बीमारी, मोटापा और कुपोषण का कारण बन सकती हैं। इसलिए किशोरों के लिए आहार आयोजन में इसकी महत्वपूर्ण बातों का ध्यान जरूर रखना चाहिए।

प्रश्न 4.
आहार आयोजन से आप क्या समझती हैं ? इनके सिद्धांतों की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
आहार आयोजन का अर्थ है आहार की ऐसी योजना बनाना जिससे सभी पोषक तत्त्व उचित तथा सन्तुलित मात्रा में उपयुक्त व्यक्ति को मिल सके। आहार आयोजन बनाने में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि वह उस व्यक्ति के लिये पौष्टिक सुरक्षित सन्तुलित साथ में रूचिकर भी हो।

सिद्धांत-
आहार आयोजन के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(i) परिवार की पोषण आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए सन्तुलित आहार की व्यवस्था करना-प्रत्येक व्यक्ति की पोषण आवश्यकताएँ उसकी आयु, लिंग कार्य प्रणाली से प्रभावित होती हैं अतः इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए आहार में आवश्यक पौष्टिक तत्त्व सम्मिलित करना ही आहार आयोजन का पहला सिद्धान्त है।

(ii) भोज्य पदार्थों का चयन करना- मीनू बनाते समय सभी भोज्य वर्गों से खाद्य पदार्थों : का चुनाव करना तथा एक आहार में एक ही प्रकार के पोषण तत्वों का कम या अधिक न होना।

(iii) परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना- आहार आयोजन करते समय परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उसके आधार पर परिवार को श्रेष्ठ तथा पौष्टिक आहार उपलब्ध कराना चाहिये।

(iv) परिवार के सदस्यों की रुचियों तथा अरुचियों का ध्यान रखना- आहार आयोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि परिवार के सारे सदस्यों की रूचि की अनदेखी न हो।

(v) समय तथा श्रम की मितव्ययता को दृष्टिगत रखना- आहार-नियोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि समय तथा श्रम दोनों बेकार न हो जायें।

(vi) आहार ऐसा हो जो भूख को संतुष्ट कर सके- इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जो भी हम खाएँ वे पौष्टिक हों तो साथ ही उससे पेट भरने की सन्तुष्टि प्राप्त हो।

(vii) आहार पकाते समय पौष्टिक तत्त्व नष्ट होने देना- आहार आयोजन करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि आहार इस विधि से पकाया जाय जिससे पौष्टिक तत्त्व नष्ट न. होने पायें।

(viii) उत्सवों का ध्यान रखना- होली दीपावली दशहरा जन्मदिन पर कोई विशेष पर्व होने पर उसके अनुसार आहार रखना चाहिये।

(ix) सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताओं को ध्यान में रखना- आयोजन करते समय इस बात का विशेष ध्यान में रखना चाहिए कि जिस व्यक्ति के लिए हम आहार आयोजन कर रहे हैं, उसकी सामाजिक धार्मिक मान्यताएँ क्या हैं ? इस प्रकार सभी बातों को ध्यान में रखते हुए जो आयोजन की जाती है वे सफल होती है। अथवा, बचत वर्तमान उपभोग से भविष्य के उपयोग के लिये अलग रखा हुआ भाग होता है। यह चालू आय से भविष्य की आवश्यकताओं तथा जरूरतों को देख भाल करने के उद्देश्य से कुछ राशि रखने की प्रक्रिया होती है।

प्रश्न 5.
क्रोनिक दस्त से ग्रस्त एक दो वर्षीय बालक की एक दिन की आहार तालिका बनाइए।
उत्तर:
क्रोनिक दस्त से ग्रस्त एक दो वर्षीय बालक की एक दिन की आहार तालिका :
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प्रश्न 6.
मर्भावस्था मुख्यता कौन-कौन से पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता होती है, वर्णन करें।
उत्तर:
गर्भावस्था के समय स्त्रियों को दिये जानेवाले भोजन पर विशेष ध्यान दिया जाता है, क्योंकि किसी भी शिशु का विकास उसके गर्भकाल में ही प्रारंभ हो जाता है। इस दौरान पौष्टिक आहार में कमी, जच्चा और बच्चा दोनों के लिए खतरा पैदा करता है। गर्भावस्था के समय निम्नलिखित पौष्टिक तत्वों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना जरूरी है-

(i) ऊर्जा- गर्भ काल के प्रथम तीन माह में अधिक कैलोरीज की आवश्यकता नहीं है किन्तु द्वितीय एवं तृतीय अवस्था में लगभग 300 कैलोरीज सामान्य आवश्यकता के अलावा लेना जरूरी है। किन्तु यह आयु, कद, वजन, क्रियाशीलता व गर्भ की स्थिति के अनुसार बदल सकती है।

(ii) प्रोटीन- प्रोटीन से शरीर की सूक्ष्मतम इकाई कोशिका की रचना होती है। कोशिकाओं से शिशु का शरीर बनता है और बढ़ता है। इस समय गर्भवती महिला को 15 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन की आवश्यकता होती है। अतः प्रोटीन युक्त पदार्थ, जैसे-दूध, अंडा, मांस मछली, दाल, सोयाबीन, मेवा आदि की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए।

(iii) खनिज लवण- लवण शरीर की मांसपेशियों के उचित संगठन और शरीर की क्रियाओं को नियमित रखने के लिए आवश्यक है। गर्भावस्था में कैल्शियम लोहा आदि की आवश्यकता अधिक हो जाती है। हरी पत्तेदार सब्जियाँ, मांस आदि खाने से गर्भवती महिला के शरीर में लौह तत्व के फोलिक अम्ल की कमी पूरी हो जाती है।

(iv) कैल्शियम- हड्डियों के निर्माण एवं वृद्धि के लिए कैल्शियम और फॉस्फोरस की अत्यंत आवश्यकता है। एक गर्भवती महिला को 1.3 से 1.5 ग्राम प्रतिदिन कैल्शियम की आवश्यकता होती है। दूध, पनीर, शलजम, अंडा, मछली, मांस, रसदार फल, सोयाबीन आदि खाने से कैल्शियम की मात्रा पूरी की जा सकती है।

(v) आयोडीन- गर्भावस्था में आयोडीन की आवश्यकता साधारण अवस्था से अधिक होती है। भोजन में आयोडीन की कमी से माँ और शिशु दोनों को गलगंड, घंघा रोग होने की संभावना रहती है। अतः हरी पत्तेदार सब्जियाँ, अनाज तथा सामूहिक वनस्पति खाने से आयोडीन की कमी पूरा किया जा सकता है।

(vi) जल तथा रेशे- जल एवं रेशे शरीर की व्यवस्थित रखने में सहायता करते हैं। छिलका युक्त अनाज, दाल हरी पत्तेदार सब्जियों से शरीर को रेशे की मात्रा काफी मिलती है। इससे गर्भवती महिलाओं में कब्ज की शिकायत नहीं होती है।

प्रश्न 7.
वृद्धावस्था के पोषक तत्वों का महत्त्व क्या है ?
उत्तर:
60 वर्ष तथा 60 वर्ष से अधिक की अवस्था को वृद्धावस्था कहा जाता है। इस अवस्था में चिन्ताएँ, संघर्ष तथा तनाव पहले की अपेक्षा कम होता है। जीवन का अधिक अनुभव होने के कारण अपने काम में अधिक श्रम नहीं करना पड़ता है। अतः इस अवस्था में कैलोरी वाले आहार की कम मात्रा में आवश्यकता होती है। बढ़ती आयु तथा दाँतों की क्षति के कारण स्वाद में परिवर्तन होने से वृद्ध उचित आहार निश्चित करने में समस्या का सामना करते हैं।

शारीरिक क्रियाओं में कमी के साथ ऊर्जा संग्रहण में कमी न होने के कारण मोटापा आ जाता है। इस अवस्था में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शरीर को विटामिन, प्रोटीन, खनिज लवण पूरी मात्रा में मिले और आहार संतुलित हो। जो वृद्ध संतुलित आहार लेते हैं वे अधिक स्वस्थ और लम्बे समय तक फुर्तीले रहते हैं। वृद्धों की ऊर्जा आवश्यकता वयस्कों से कम होती है। परंतु प्रोटीन तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता उसी मात्रा में रखते हैं।

प्रश्न 8.
पेय जल को शुद्ध करने के लिए घरेलू उपाय विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर:
पेय जल हम चाहे किसी भी स्रोत द्वारा प्राप्त करें, उनमें कुछ न कुछ अशुद्धियाँ अवश्य पायी जाती हैं। अतः जल को पीने से पहले कुछ आसान घरेलू विधियों द्वारा शुद्ध एवं सुरक्षित किया जा सकता है। ये विधियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) उबालना, (ii) छानना, (iii) फिटकरी का प्रयोग, (iv) क्लोरीन या विसंक्रमण करना, (v) घड़ों द्वारा छानना, (vi) फिल्टर द्वारा छानना, (vii) नल में लगनेवाले छोटे फिल्टर द्वारा छानना।

(i) उबालना- जल को दस मिनट 100°C या 212° पर उबालकर साफ किया जाता है। उबालने से पानी में उपस्थित सभी जीवाणु मर जाते हैं। जा तक हो सके उबले पानी को उसी बर्तन में रहने देना चाहिए, जिससे दुबारा गंदा न हो।

(ii) छानना- आमतौर से जल को मलमल के कपड़े से छानना पड़ता है, किन्तु मलमल के कपड़े से छानने में जल के सारे जीवाणु, महीन कीचड़ व दुर्गंध युक्त गैसें नहीं छनतीं। इसके लिए चार कलशों के द्वारा छानना उचित होता है।

(iii) फिटकरी का प्रयोग-जल का विसंक्रमण करने के लिए प्रायः क्लोरीन का प्रयोग किया जाता है। साफ करने के लिए आमतौर पर फिटकरी का प्रयोग किया जाता है। फिटकरी अथवा ऐलम जलीय पोटेशियम व एल्युमिनियम सल्फेट का द्विलवण होता है। इस विधि को पोटाश एलम भी कहते हैं। फिटकरी को जब जल में डाला जाता है, जिन्हें फ्लॉक्स कहते हैं तो जीवाणु इस फ्लॉक्स में चिपक जाते हैं और पानी के निचली सतह पर जम जाते हैं।

(iv) क्लोरीन या विसंक्रमण करना- जल का विसंक्रमण करने के लिए प्रायः क्लोरीन का उपयोग किया जाता है। वाटर वर्क में जल को शुद्ध करने के लिए विरंजक, ब्लीचिंग पाउडर पानी में घुलने के बाद नेसेंट क्लोरीन देता है, जिससे पानी शुद्ध हो जाता है।
घडों दारा छानना-प्रथम तीन घड़ों के तल में छेद होता है। इसमें गंदा पानी क्रमश: कोयले का चूर्ण, रेत, कंकड़ की तह से गुजारा जाता है। चौथे घड़े में स्वच्छ जल जाता है।

(vi) फिल्टर द्वारा छानना- पानी को फिल्टर करनेवाले कई उपकरण आजकल बाजार में उपलब्ध हैं। बिजली से चलनेवाले यंत्र में पोर्सलीन कन्डेल लगा रहता है जो जल में आलम्बित अपद्रव्यों को दूर करता है। इसके बाद पानी को सक्रिय कार्बन में से गुजारा जाता है। जो रासायनिक उपद्रव्यों को दूर करता है। अतः पानी को अल्ट्रावायलेट किरणों से गुजारा जाता है। जो जल के जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं।

(vii) नल में लगने वाला छोटे फिल्टर द्वारा छानना- आजकल तकनीकी विकास के साथ बाजार में छोटे फिल्टर आ गये हैं जो सीधा नल में लगा दिए जाते हैं और नल खोलने पर इसमें से छन कर पानी शुद्ध होकर निकलता है।

प्रश्न 9.
जल की भूमिका एवं महत्ता की चर्चा करें।
अथवा, जल के कार्यों की विवेचना करें।
उत्तर:
जल के अनेक कार्य हैं, जो निम्नवत् हैं-

  • यह शरीर के निर्माण में सहायक होता है। यह रक्त, कोशिकाओं, अस्थियों आदि में पाया जाता है।
  • यह शरीर के ताप का नियमन करता है।
  • यह शरीर की आंतरिक सफाई करता है। मल-मूत्र, पसीना और विषैले पदार्थ को शरीर से बाहर निकालता है।
  • यह भोजन के पाचन में सहायक पाचक रसों से बनाने में सहायक होता है।
  • शरीर के अंगों की चोट, झटकों और रगड़ से रक्षा करता है।
  • व्यक्तिगत स्वच्छता, जैसे स्नान आदि के काम में इसका प्रयोग करता है।
  • खाना पकाने, बर्तन साफ करने, पीने, वस्त्र धोने तथा घर की सफाई में काम आता है।
  • घरेलू जानवरों और बागवानी के काम में आता है।
  • सड़कों, नालियों की धुलाई आदि के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • सार्वजनिक शौचालयों की सफाई में उपयोग होता है।
  • पार्कों, उद्यानों तथा फब्बारों के लिए भी इसकी आवश्यकता होती है।
  • यह आग बुझाने के काम में आता है।
  • बिजली उत्पादन, खेतों की सिंचाई तथा कारखानों में भी जल काम में लाया जाता है।

प्रश्न 10.
जल को शुद्ध करने की दो विधियाँ लिखें तथा बताएँ कि दोनों में कौन-सी विधि दूसरी से अच्छी है तथा क्यों ?
उत्तर:
जल को उबालना तथा क्लोरीन या ब्लीचिंग पाउडर के साथ शुद्ध व कीटाणुरहित करने की दो विधियाँ हैं। इसमें से उबालना एक बेहतर विधि है क्योंकि जल में डाले रसायन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त उबालने से जल के सभी सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। जहाँ तक हो सके उबले पानी को उसी बर्तन में रहने देना चाहिए जिससे वह दोबारा गंदा न हो जाए। उबालना जल को स्वच्छ बनाने का सस्ता तथा सरल उपाय है।

ORS बनाने की घरेलू विधि (Household Method of O.R.S)- एक लीटर (4-5 गिलास) स्वच्छ पेय जल उबालकर छान लें तथा ठंडा होने दें। इसमें एक छोटा चम्मच नमक (लगभग 5 ग्राम) तथा 4-5 छोटे चम्मच चीनी (20-25 ग्राम) डालकर घोलें । पूर्णत: ढक्कनदार जग में भरकर प्रयोग के लिए रखें।

नोट-

  1. इसका प्रयोग तथा सावधानियाँ पहले बताए गए पाउडर के समान ही हैं।
  2. इसमें कुछ बूंदें नींबू के रस की भी डाली जा सकती हैं।
  3. नमक की पर्याप्त मात्रा में उपस्थिति की जाँच की जा सकती है। यह आँसुओं से अधिक या कम नमकीन नहीं होना चाहिए।

शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर
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पानी के प्राकृतिक स्रोत (Natural Sources of Water)- हमें जल हमेशा प्राकृतिक स्रोतों से ही प्राप्त होता है। ये स्रोत इस प्रकार हैं-

  1. वर्षा का जल (Rain Water)
  2. पृथ्वी के ऊँचे तलों का जल (Upland Surface Water)
  3. नदी का जल (River Water)
  4. चश्मे का जल (Spring Water)
  5. गहरे कुएँ (Deep Well)
  6. उथले कुएँ (Surface Well)
  7. समुद्र का जल (Sea Water)
  8. तालाब (Ponds)
  9. पानी का पम्प अथवा नलकूप (Water Pump or Tubewell)।

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जल के अभाव लक्षण (Deficiency Symptoms)- यदि शारीरिक जल की मात्रा में 10% की कमी हो जाए तो निर्जलीकरण (Dehydration) की स्थिति बन जाती है। निर्जलीकरण लगातार उल्टी (Vomiting) और दस्त होने से व्यक्ति में होता है।

  • आँखें निस्तेज व धंसी हुई।
  • मुँह सूखा हुआ।
  • चमड़ी झुरियाँ पड़ी हुई।
  • हाथ-पाँव में ऐंठन।
  • मूत्र में अत्यधिक कमी।
  • रक्तचाप गिरा हुआ।
  • जल की कमी से शरीर से व्यर्थ पदार्थ निष्कासित होने में कठिनाई होती है। व्यक्ति कब्ज का शिकार हो जाता है तथा कई बार गुर्दो में भी विकार उत्पन्न हो जाता है।
  • शारीरिक वजन कम हो जाता है।

विशेषकर बच्चों में यदि 20% पानी की कमी हो जाए तो मृत्यु हो जाती है।

प्रश्न 11.
मानव शरीर में जल के क्या कार्य हैं ?
अथवा, शरीर में जल के कार्य विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर:
कार्य (Functions)- जल के शरीर में अनेक कार्य हैं क्योंकि कोशिकाओं में होने वाले समस्त रासायनिक परिवर्तन जल पर ही आधारित हैं-
1. शरीर का निर्माण कार्य (Body Building)- शरीर के पूरे वजन का 55-70% भाग पानी का होता है। जैसे-जैसे व्यक्ति बूढा होता है, पानी की मात्रा कम होती है। शरीर के विभिन्न अंगों में जल की मात्रा निम्न है-

  • गुर्दे 83%,
  • रक्त 80-90%,
  • मस्तिष्क 79%,
  • मांसपेशियाँ 72%,
  • जिगर 70%
  • अस्थियाँ 30%

रक्त में 90% मात्रा जल की होती है। जल शरीर के विभिन्न अंगों तथा द्रवों की रचना एवं कोषों के निर्माण में सहायक होता है। रक्त में स्थिर जल का मुख्य कार्य भोज्य पदार्थों द्वारा लिए गए पानी में घुलित पोषक तत्वों का शोषण करके रक्त में पहुँचाना है और यह रक्त शरीर के निर्माण करने वाले विभिन्न अंगों के कोषों तक पोषक तत्त्वों से प्राप्त शक्ति को पहुंचाते हैं। कार्बन-डाई-ऑक्साइड को फेफड़ों तक पहुँचाना एवं वहीं से बेकार पदार्थों तथा विभिन्न लवणों को गुर्दे तक पहुँचाने का कार्य भी रक्त ही करता है। यदि रक्त में जल की मात्रा कम हो जाए तो रक्त गाढ़ा हो जाता है और अपने शारीरिक कार्य जो रक्त के माध्यम द्वारा करता है, सुचारू रूप में नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप मनुष्य बीमार हो जाता है।

2. ताप नियन्त्रक के रूप में (Act as a Temperature Controller)- जल से शरीर के तापमान को भी स्थिर रखने में सहायता मिलती है। ग्रीष्म ऋतु में पसीने के सूखने पर शरीर में ठण्डक पहुँचती है। बरसात के दिनों में वर्षा के उपरान्त वायु में नमी होती है। पसीना शीघ्र सूख नहीं पाता तो बहुत बेचैनी होती है।

जब कभी शरीर का तापक्रम बढ़ जाता है, त्वचा और श्वासोच्छवाद संस्थान से जल वाष्य अथवा पसीने के रूप में उत्सर्जित होने लगता है।

3. घोलक के रूप में कार्य (Act as a Solven)- जल ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पोषक तत्वों को कोषों तक ले जाया जाता है तथा चपाचय के निरर्थक पदार्थों को निष्कासित किया जाता है। भोजन को कोषों तक ले जाने से पूर्व पाचन की क्रिया सम्पन्न हो जानी चाहिए। पाचन प्रक्रिया में जल का प्रयोग किया जाता है, मूत्र में 96% जल पाया जाता है। मल-विसर्जन के लिए जल की अत्यन्त आवश्यकता है। भोजन में जल की मात्रा कम रहने से मल अवरोध (Constipation) होने का भय रहता है।

4. स्नेहक का कार्य (Act as Lubricant)- यह शरीर में पाए जाने वाले समस्त हड्डियों : के जोड़ों में रगड़ होने से बचाता है। जोड़ों या सन्धियों (Joints) के चारों ओर थैली के समान (Sac-like) जो ऊतक होते हैं, उनमें जल उपस्थित रहता है। यदि आघात के कारण यह नष्ट हो जाय या रोग के कारण परिवर्तित हो जाए तो सन्धियाँ जकड़ जाती हैं।

5. शरीर के निरुपयोगी पदार्थों को बाहर निकलना (To Excrete Out the Waste Products)- जल शरीर में बने विषैले पदार्थों को मूत्र तथा पसीने द्वारा बाहर निकालता है। इससे गुर्दो की सफाई होती रहती है। मल विसर्जन के लिए पानी की अत्यन्त आवश्यकता होती है, जल शरीर में उत्पन्न निरुपयोगी पदार्थों को अधिकतर मात्रा में घोल लेता है एवं उन्हें उत्सर्जक अंगों यकृत, त्वचा आदि द्वारा शरीर के बाहर निकाल देता है।

6. पोषक तत्त्वों का हस्तान्तरण (Transportation of Nutrients)- पोषक तत्त्वों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने का कार्य भी जल का ही है।

7. शरीर में नाजुक अंगों की सुरक्षा (Protection of Delicate Organs)- शरीर के कोमल अंग एक जल से भरी पतली झिल्ली की थैली से घिरे रहते हैं जो अंगों की बाहरी आघातों से रक्षा करती है।

प्रश्न 12.
रसोई घर की स्वच्छता के लिए क्या नियम अपनायेंगे ?
अथवा, रसोई घर की स्वच्छता के लिए क्या उपाय अपनाये जा सकते हैं ?
उत्तर:
रसोईघर की स्वच्छता के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैं-

  • रसोईघर सदा प्रकाशमय और हवादार होना चाहिए।
  • रसोईघर के दरवाजे तथा खिड़कियों में जाली लगी होनी चाहिए ताकि मक्खियाँ अन्दर न आ सके।
  • कूड़ेदान के अंदर प्लास्टिक लगा देना चाहिए तथा उसे रोज खाली करना चाहिए।
  • रसोईघर के स्लैव और जमीन सरलता से साफ होने वाला होना चाहिए।
  • भोजन पकाने और बरतन साफ करने के लिए पर्याप्त ठंडा और गरम पानी उपलब्ध होना चाहिए।
  • रसोईघर के झाड़न और डस्टर साफ रखना चाहिए। उसे किसी अच्छे डिटरजेंट से साफ करना चाहिए।

प्रश्न 13.
खाद्य स्वच्छता को प्रभावित करने वाले कारक कौन हैं ?
अथवा, घर में खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाले कौन-कौन से कारक होते हैं ?
उत्तर:
घर में खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित कारक होते हैं-
(i) रसोईघर की स्वच्छता (Kitchen hygiene)- यदि रसोई साफ-सुथरी न हो तो भोजन सुरक्षित नहीं रह पाता अतः रसोईघर की दीवारों, फर्श के साथ-साथ आलमारी, बर्तन, स्लैब व झाड़न एवं डस्टर का स्वच्छ रहना आवश्यक होता है।

(ii) घर पर खाद्य पदार्थ के संग्रह करते समय स्वच्छता- खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिये उचित संग्रह करना चाहिये। ढक्कनदान टकियों या डिब्बों में खाद्य पदार्थ रखना चाहिये। समय-समय पर धूप लगाते रहने में खाद्य पदार्थ सुरक्षित रहते हैं।

(iii) भोजन पकाने वाले तथा परोसने वाले बर्तनों की स्वच्छता- भोजन पकाने तथा परोसने वाले बर्तनों की सफाई पर विशेष ध्यान रखना चाहिये। कभी-कभी प्रयोग आने वाले बर्तन जैसे : कदुकस, छलनी, आदि का प्रयोग करके तुरन्त साफ करके रख देना चाहिये। परोसने वाले बर्तन को कभी भी गंदे हाथों से नहीं पकड़ना चाहिये अन्यथा भोजन संदूषित हो जाता है।

(iv) घरेलू स्तर पर खाद्य पदार्थों में होने वाली रासायनिक विषाक्तता से बचाव सम्बन्धी सावधानियाँ- कुछ रासायनिक पदार्थ जैसे-सीसा, टीन, ताँबा, निकिल, एल्युमीनियम और कैडमीयम प्रायः उस भोज्य पदार्थ में पाये जाते हैं जो इन धातुओं में पकाये जाते हैं।

(v) भोजन पकाते, परोसते व खाते समय की स्वच्छता- भोजन पकाने के समय, परोसने के समय एवं खाने के समय स्थान की सफाई एवं हाथों की सफाई अत्यन्त आवश्यक होती है। वरन् खाद्य पदार्थ सुरक्षित नहीं रहता।
अतः हमें घर में भोज्य पदार्थ की सुरक्षा के लिये कुछ सावधानियाँ करनी पड़ती हैं जिससे खाद्य पदार्थ सुरक्षित रहें।

प्रश्न 14.
भोजन पकाने, परासने और खाने में किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए?
उत्तर:
भोजन पकाते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन पकाने से पहले हाथों को स्वच्छ पानी और साबुन से धोना चाहिए।
  • दाल, चावल, सब्जियों तथा फल आदि को स्वच्छ पानी से धोना चाहिए।
  • मिर्च मसाले का अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  • साफ तथा प्रदूषण रहित बर्तन का प्रयोग करना चाहिए।
  • खाद्य पदार्थों को अधिक नहीं तलना चाहिए।

भोजन परोसते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन परोसते समय हाथ को स्वच्छ पानी और साबुन से धोना चाहिए।
  • स्वच्छ बर्तन तथा स्थान का प्रयोग करना चाहिए।
  • भोजन को ढककर रखना चाहिए।
  • परोसने वाले का नाखून बढ़े न हो तथा साफ हों।
  • खाने का समान उतना ही परोसना चाहिए जितना खाने वाला चाहता है।
  • भोज्य सामग्री तथा पेय जल में हाथ नहीं डालना चाहिए।

भोजन करते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन करने से पहले हाथ को साबुन से धोकर साफ करना चाहिए।
  • ताजा एवं गरम भोजन करना चाहिए।
  • खाना पूरी तरह चबाकर धीरे-धीरे खाना चाहिए।
  • संतुलित मात्रा में भोजन करना चाहिए।
  • खाते समय कम मात्रा में पानी पीना चाहिए। खाने के कुछ देर बाद पानी पीना ज्यादा लाभदायक है।
  • खाने के बाद हाथ को अच्छी तरह धोना चाहिए। इन्हीं नियमों का पालन खाना पकाने, परोसने तथा खाते समय करना चाहिए।

प्रश्न 15.
भोजन का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है ?
अथवा, भोजन के कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर:
भोजन का प्रमुख कार्य है क्षुधा-तृप्ति एवं शरीर को स्वस्थ ढंग से कार्य करने के लिए पर्याप्त कैलोरी एवं पोषण प्रदान करना।

शरीर में उपचयापचयन होता रहता है, जिसके दो हिस्से हैं-उपचय एवं अपचय। कोषों में होनेवाली टूट-फूट अपचय है और तंतुओं के मरम्मत या बनने की प्रक्रिया उपचय कहलाती है। अर्थात् शरीर में कोष बनते-बिगड़ते रहते हैं जो एक रासायनिक क्रिया है। इस प्रक्रिया में आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आधारीय उपचयापचयन (Basal Metabolism) से उच्छ्वास क्रिया, रक्त परिभ्रमण क्रिया, शारीरिक तापमान में संतुलन बनाने की क्रिया, मांसपेशियों में संकुचन-विमोचन की क्रियाएँ नियंत्रित होती हैं।

मानव आहार में विद्यमान शक्ति उसे कई प्रकार के शारीरिक कार्य के निष्पादन से लगतीहै, जैसे-यकृत, फेफड़ा, हृदय, ज्ञानेन्द्रिय आदि अंगों की यांत्रिक क्रियाओं में। शारीरिक तापमान को समान रखने में भी इस शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। यह शक्ति ताप के रूप में (कैलोरी) प्रकट होती है। कैलोरी वह क्षमता है जो शरीर को कार्यरत् रखती है। यह एक प्रकार की रासायनिक ऊर्जा है जो कार्बोज, वसा व प्रोटीन से प्राप्त होती है।

मानव शरीर की तुलना एक मशीन से की जाती है जिसके भीतर मस्तिष्क जैसा महाकम्प्यूटर लगा हुआ है। अतएव इस मशीन और कम्प्यूटर के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, वह भोजन से प्राप्त होती है। इस प्रकार भोजन से प्राप्त रासायनिक ऊर्जा यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।

प्रश्न 16.
मिलावट रोकने के उपायों की चर्चा करें।
उत्तर:
मिलावट रोकने के निम्नलिखित उपाय हैं-

  • सामान विश्वसनीय दुकान से खरीदें।
  • विश्वसनीय तथा उच्च स्तर की सामग्री खरीदें क्योंकि उनकी गुणवता अधिक होती है। एगमार्क, E.P.O. तथा I.S.I. चिह्नित वस्तुएँ खरीदें।
  • खुले पदार्थ न खरीदें, सील बंद पैकेट तथा डिब्बे ही लें।
  • खरीदने से पहले लेबल व प्रमाण चिह्न अवश्य पढ़ लें।
  • गुणवत्ता के लिये सचेत रहें और ध्यान रखें कि आप मिलावट के कारण ठगे न जा सके।
  • स्वास्थ्य चिकित्सा प्रयोगशाला से मिलावटी पदार्थ का निरीक्षण और परीक्षण करायें।