BSEB Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 3 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
जल प्रदूषण क्या है?
उत्तर:
जल की भौतिक, रासायनिक तथा जैवीय विशेषताओं में (मानव स्वास्थ्य तथा जलीय जीवों पर) हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तनों को जल प्रदूषण कहते हैं।

जल में स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता होती है परंतु जब मानव जनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषकों का जल में इतना अधिक जमाव हो जाता है कि जल की सहन शक्ति तथा स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता से अधिक हो जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है।

प्रश्न 2.
चिकित्सा नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आज चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी फैल चुकी है। एक समय था कि भारत देश में सुश्रुत चरक, धन्वन्तरि जैसे महान चिकित्साशास्त्री हुए थे जिन्हें समाज में भगवान के रूप में माना जाता था। इन चिकित्साशास्त्रियों ने न केवल चिकित्साशास्त्र का ज्ञान दिया, बल्कि वैद्य का गुण भी बताया।

लेकिन आज चिकित्सा ने पेशा का रूप ग्रहण कर लिया है और ईमानदारी, सहानुभूति, सत्यवादिता, दयालुता, प्रेम आदि को बाहर कर दिया है। किसी रोगी के साथ ईमानदारी से व कार्य कुशलता से व्यवहार किया जाये तो उसके. मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और रोगी का कुछ रोग तो अपने-आप ही ठीक हो जाता था।

मगर आज के समय में चिकित्सक मोटी फीस, महँगे ऑपरेशन, खर्चीली दवाईयाँ पर रोगी का इतना खर्चा करा देते हैं कि रोगी अपने रोग से न मरकर अपने इलाज के खर्च तले ही आकर मर जाता है।

प्रश्न 3.
मानसिक पर्यावरण क्या है?
उत्तर:
मानसिक पर्यावरण ज्ञान संपादन पर्यावरण अथवा क्रिया को कहते हैं। ज्ञान में मन के अंदर एक तरह का पदार्थ विद्यमान रहता है जिसके माध्यम से यथार्थ वस्तु का ज्ञान होता है। इसी को ज्ञान का विषय कहते हैं। हर एक ज्ञान का संकेत अपने से भिन्न किसी वस्तु की ओर होता है। इसी वस्तु को ज्ञान की वस्तु कहते हैं, क्योंकि ज्ञान इसी का होता है।

प्रश्न 4.
मोक्ष कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
भारतीय नैतिक दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति की व्यावहारिक स्तर पर भी सम्भव माना गया है। अगर हम कुछ निश्चित मार्ग को अपनायें तो हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। वैसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों की चर्चा की गयी है, किन्तु हम सुविधा के दृष्टिकोण से इन्हें तीन मार्गों के रूप में उल्लेख कर सकते हैं-

  • ज्ञान मार्ग-जिसके अनुसार ज्ञान के आधार पर मोक्ष संभव माना जाता है।
  • कर्म मार्ग-जिसके अनुसार निष्काम कर्मों के सम्पादन करने से हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं।
  • भक्ति मार्ग-जिसमें यह माना जाता है कि निष्कपट भक्ति या ईश्वर के ऊपर पूर्ण . आस्था रखकर उनके ऊपर सभी चीजों को छोड़कर हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। “

प्रश्न 5.
बुद्ध के अनुसार निर्वाण प्राप्ति का मार्ग क्या है?
उत्तर:
बुद्ध के अनुसार दुःख की समाप्ति एवं निर्वाण की प्राप्ति के मार्ग में आठ सीढ़ियाँ हैं। इसलिए इसे अष्टांग मार्ग या आष्टांगिक मार्ग कहते हैं। इसके आठ सोपान हैं जिन पर आरूढ़ होकर सत्व जीवन के चरम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। वे इस प्रकार से हैं

  1. सम्यक् दृष्टि,
  2. सम्यक् संकल्प,
  3. सम्यक् वाक्,
  4. सम्यक् कर्मान्त,
  5. सम्यक् आजीव,
  6. सम्यक् व्यायाम,
  7. सम्यक् स्मृति,
  8. सम्यक् समाधि।

प्रश्न 6.
ध्वनि प्रदूषण क्या है?
उत्तर:
ध्वनि की भौतिक, रासायनिक तथा जीविय विशेषताओं में (मानव स्वास्थ्य तथा जीवों पर) हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तन को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं।

ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर सरकार द्वारा बनायी कानून भी सख्त होती है। इस प्रकार ध्वनि प्रदूषण से शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्तियों में असंतोष उत्पन्न होता है।

प्रश्न 7.
नैराश्यवाद क्या है? व्याख्या करें।
उत्तर:
कतिपय विचारकों ने भारतीय दर्शन को निराशावादी दर्शन कहकर आलोचना का विषय बनाया है। लॉर्ड रोनाल्डशॉ का विचार है कि “निराशावाद समस्त भारतीय भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में व्याप्त है।” चेले ने अपनी पुस्तक ‘एडमिनिस्ट्रेटिव प्राब्लम्स’ में लिखा है कि “भारतीय दर्शन आलस्य और शाश्वत विश्राम की कामना से उत्पन्न हुआ है।”

निराशा का अभिप्राय-निराशा से अभिप्राय सांसारिक जीवन को दु:खमय समझना है। निराशा मन की एक प्रवृत्ति है जो जीवन को दुःखमय समझती है। भारतीय दर्शन को इस अर्थ में निराशावादी कहा जा सकता है कि उसकी उत्पत्ति भौतिक संसार की वर्तमान परिस्थितियों के प्रति असंतोष के कारण हुई है, भारतीय दर्शनों ने संसार को दुःखमय कहकर मनुष्य के जीवन को दुःख से परिपूर्ण प्रतिपादित किया है। संसार दु:खमय है। भारतीय दार्शनिक संसार की इस दु:खमय अवस्था का विश्लेषण करता है न केवल अपने जीवन के दु:खमय होने से ही वरन् कहीं-कहीं साक्षात् आशा को भी धिक्कारा गया है। निराशावाद की प्रशंसा की गयी है। एक स्थान पर कहा गया है कि
तेनपधीतं श्रुतं तै सर्वत्रमनुष्ठिन्।
ये नाशय पृष्ठतः कृत्वा नैराश्यमबलम्बित्तम।।
अर्थात् पढ़ना, लिखना तथा अनुष्ठान उसी का सफल है जो आशाओं से पिंड छुड़ाकर निराशा का सहारा पकड़ता है।

आशा को आशीविषी भी कहा है। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है कि “यदि निराशावाद से तात्पर्य जो कुछ है और जिसकी सत्ता हमारे सामने है उसके प्रति असंतोष से है तो भले ही इसे केवल इन अर्थों में निराशावादी कहा जाये। इन अर्थों में तो सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र निराशावादी. कहला सकता है।”

प्रश्न 8.
जैन दर्शन के जीव विचार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जैन-दर्शन के अनुसार चेतन द्रव्य को जीव या आत्मा कहते हैं। संसार की दशा से आत्मा जीव कहलाता है। उसमें प्राण और शारीरिक, मानसिक तथा इन्द्रिय शक्ति है। शुद्ध अवस्था में जीव में विशुद्ध ज्ञान और दर्शन अर्थात् सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञान रहता है। किन्तु कर्म के प्रभाव से जीव, औपशमिक, क्षायिकक्षायों, पशमिक औदायिक तथा परिमाणिक इन पाँच भावप्राणों से युक्त रहता है। द्रव्य रूप में परिणत होकर ही भाक्दशापन्न प्राण पुदगल कहलाता है। अतः भाव द्रव्य में और द्रव्य भाव में परिवर्तित होते रहते हैं।

जीव स्वयं प्रकाश है और अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। वह नित्य है। वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। शुद्ध दृष्टि से जीव में ज्ञान तथा दर्शन है। जीव अमूर्त, कर्ता, स्थूल शरीर के समान लम्बा-चौड़ा कर्मफलों का भोक्ता सिद्ध तथा ऊर्ध्वगामी है। अनादि अविद्या के कारण उसमें कर्म प्रवेश करता है और बन्धन में बंध जाता है। बुद्ध जीव, चेतन और नित्य परिणामी है। संकोच और विकास के गुणों के कारण वह जिस शरीर में प्रवेश करता है उसी का रूप धारण कर लेता है। जीव का विस्तार जड़ के विस्तार से भिन्न है। वह शरीर को घेरता नहीं परन्तु उसका प्रत्येक भाग में अनुभव होता है। एक जड़ द्रव्य में दूसरा जड़ द्रव्य प्रविष्ट नहीं हो सकता। परन्तु जड़ में आत्मा और जीव में जीव प्रविष्ट हो सकता है।

प्रश्न 9.
जैन दर्शन के विरल की व्याख्या करें।
उत्तर:
जैन दर्शन में त्रिरत्न सिद्धांत का बड़ा ही महत्व है। इसके अंतर्गत तीन प्रकार के सम्प्रत्ययों को सम्मिलित किया जाता है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र। सम्यक् ज्ञान जैन आगमों का ज्ञान है, सम्यक् दर्शन आगमों (जैनी ग्रंथों) एवं तीर्थकरों में आस्था है और सम्यक चरित्र अनुशासन है, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह शामिल है।

प्रश्न 10.
देकार्त के दर्शन में ईश्वर क्या है?
उत्तर:
देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए दो प्रकार के प्रस्तावों को प्रस्तुत किया हैं-कारर्ण कार्य पर आधारित प्रमाण तथा सत्तामूलक प्रमाण। कारण कार्य प्रमाण के अनुसार मानव कार्य है। उसका कार्य भी होगा। मानव में पूर्ण, नित्य, शाश्वत, ईश्वर की भावना है, अत: मानव के अंदर पूर्ण ईश्वर की भावना को अंकित करने वाला भी पूर्ण, नित्य एवं शाश्वत पूर्ण ईश्वर ही हो सकता है। दूसरी ओर सत्तामूलक प्रमाण में देकार्त का मानना है कि ईश्वर प्रत्यय में ही ईश्वर का अस्तित्व निहित है।

ईश्वर की भावना है कि वह सब प्रकार से पूर्ण हैं। ‘पूर्णता’ से ध्वनित होता है कि उसकी वास्तविकता भी अवश्य होगी। कारण-कार्य प्रमाण के संबंध में वह आपत्ति है कि ईश्वर मानव विचारों और जगत् से परे स्वतंत्र सत्यता है जिसमें कारण-कार्य की कोटि लागू नहीं होती है। इसी तरह सत्तामूलक प्रमाण के संबंध में कहा जाता है कि भावना से वास्तविकता सिद्ध नहीं होती है।

प्रश्न 11.
लोक संग्रह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सुख सुविधा हेतु द्रव्यों का संग्रहण लोक संग्रह कहलाता है।

प्रश्न 12.
चित्रवृत्तियाँ क्या हैं?
उत्तर:
दो वस्तुओं के बीच प्राप्ति का एक आवश्यक संबंध जो व्यापक माना जाता है, चित्तवृत्तियाँ कहलाती हैं।

प्रश्न 13.
विश्वमूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर:
विश्व का निर्माण प्रकृति या सृष्टि ने किया है। प्रकृति जड़ है अकेली है किन्तु सक्षम है विश्व का निर्माण करने के लिए। यह विश्वमूलक प्रमाण है।

प्रश्न 14.
वैशेषिक के अनुसार पदार्थ क्या है?
उत्तर:
वैशेषिक दर्शन में पदार्थ (substance) को एक विशेष अर्थ में लिखा गया है। पदार्थ वह है, जो गुण और कर्म को धारण करता है। गुण और बिना किसी वस्तु या आधार के नहीं रह सकते। इसका आधार ही पदार्थ कहलाता है। गुण और कर्म पदार्थ में रहते हुए भी पदार्थ से भिन्न है। पदार्थ गुण युक्त है किन्तु गुण और कर्म गुणरहित है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ नौ प्रकार के हैं-

  1. आत्मा
  2. अग्नि या तेज
  3. वायु
  4. आकाश
  5. जल
  6. पृथ्वी
  7. दिक्
  8. काल और
  9. मन।

प्रश्न 15.
काण्ट के ज्ञान-विचार को समीक्षावाद क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
जर्मन दार्शनिक काण्ट का ज्ञानशास्त्रीय मत समीक्षावाद कहलाता है, क्योंकि समीक्षा के बाद ही इस सिद्धान्त का जन्म हुआ। काण्ट के समीक्षावाद के अनुसार बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही सिद्धान्तों में आंशिक सत्यता है। जिन बातों को बुद्धिवाद और अनुभववाद स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं, और जिन बातों का खण्डन करते हैं, वे गलत हैं- “They are justified in what they affirm but wrong in what they deny”| अनुभववाद के अनुसार संवेदनाओं के बिना ज्ञान में वास्तविकता नहीं आ सकती है और बुद्धिवाद के अनुसार सहजात प्रत्ययों के बिना ज्ञान में अनिवार्यता तथा असंदिग्धता नहीं आ सकती है। समीक्षावाद इन दोनों सिद्धान्तों के उपर्युक्त पक्षों को स्वीकार करता है।

फिर अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की अनिवार्यता के अनुसार संवेदनाओं को ज्ञान का रचनात्मक अंग नहीं माना जाता है। पर हमें दोनों सिद्धान्तों के इस अभावात्मक (Negative) पक्षों को अस्वीकार करना चाहिए। समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों के भावात्मक अंशों को मिलाकर ग्रहण किया जाता है।

प्रश्न 16.
कारण और हेतु में क्या अन्तर है?
उत्तर:
आगमन में कारण का एक हिस्सा हेतु बताया गया है। जिस तरह से हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर के अंग है और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं, उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और हेतु में तीन तरह के अंतर हैं-
(क) कारण एक है और हेतु कई हैं।
(ख) कारण अंश रूप में रहता है और हेतु सम्पूर्ण रूप में आता है।
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं।
इस तरह कारण और हेतु में अंतर है।

प्रश्न 17.
लोकप्रिय वस्तुवाद की परिभाषा दें।
उत्तर:
प्रिय वस्तु सभी को प्रिय लगती है। भारतीय आचार दर्शन के क्षेत्र में वे भौतिक साधन जिसके आधार पर हम जीवन यापन करते हैं। इनका असीम रूप से अर्जन लोकप्रिय वस्तुवाद कहलाता है।

प्रश्न 18.
पीनीयल ग्रंथि किसे कहते हैं?
उत्तर:
हाइपोथेलेमस स्थित ग्रंथि की पीनीयल ग्रंथि कहा जाता है। इससे बुद्धि हार्मोन स्रावित होता है।

प्रश्न 19.
नैतिक संप्रत्यय के रूप में शुभ की व्याख्या करें।
उत्तर:
शुभ से तात्पर्य मनुष्य के उन लक्ष्यों से है जिसके द्वारा वह अपना जीवन निर्विघ्नता से जी सके। वह जो भी कार्य करे शुभ हो। शुभ समाप्त हो। शुभ शुरूआत हो आदि। इस शुभ की इच्छा ही नैतिक संप्रत्यय के रूप में शुभ बन जाती है।

प्रश्न 20.
व्यावहारिक दर्शन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
व्यावहारिक दर्शन का अर्थ है ज्ञान, प्रेम या अनुराग। वह दर्शन जिसमें व्यावहारिक रूप से पदार्थ सम्पूर्णता में हमारे पास हो।

प्रश्न 21.
यम क्या है?
उत्तर:
यम योग का प्रथम अंग है। बाह्य अभ्यांतर इंद्रिय के संयम की क्रिया को यम कहा जाता है। यम पाँच प्रकार के होते हैं-

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. आस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य
  5. अपरिग्रह।

प्रश्न 22.
अनासक्त कर्म पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गीता का कर्मयोग हमें त्याग की शिक्षा नहीं देता बल्कि फल त्याग की शिक्षा देती है गीता का यह उपदेश व्यवहारिक दृष्टिकोण से भी सही है यदि हम किसी फल की इच्छा से कर्म करना प्रारम्भ करते हैं तो फल की चाह इतनी अधिक हो जाती है कि कर्म में भी हम सही से काम नहीं कर पाते हैं किन्तु कर्म फल त्याग की भावना से अगर हम कर्म करते हैं तो उससे उसका फल और अधिक निश्चित हो जाता है।

प्रश्न 23.
स्याद्वाद का अर्थ बतावें।
उत्तर:
स्याद्वाद जैन दर्शन के प्रमाण शास्त्र से जुड़ा हुआ है। जैन मत के अनुसार प्रत्येक वस्तु के अन्नत गुण होते हैं मानव वस्तु के एक ही गुण का ध्यान एक समय पा सकता है वस्तुओं के अन्नत गुणों का ज्ञान मुक्त व्यक्ति द्वारा सम्भव है समान मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आशिक होता है। वस्तु के आशिक ज्ञान को (नय) किसी वस्तु के समझने के विविध दृष्टिकोण है इनसे सापेक्ष सत्य की प्राप्ति होती है न कि निरपेक्ष सत्य की।

प्रश्न 24.
न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या कितनी है?
उत्तर:
न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या चार है जो निम्नलिखित है

  1. प्रत्यक्ष (Perception),
  2. अनुमाप (Inference),
  3. उपमाण (Comtarison),
  4. शब्द (Verbal Authority)।

प्रश्न 25.
प्रकृति के तीन गुणों के नाम बतावें।
उत्तर:
प्रकृति के तीन गुणों के नाम निम्नलिखित हैं-

  1. सत्त्व
  2. रजस्
  3. तमस्।

प्रश्न 26.
पदार्थ की परिभाषा दें।
उत्तर:
पदार्थ शब्द “पद” और “अर्थ” शब्दों के मेल से बना है पदार्थों का मतलब है जिसका नामकरण हो सके जिस पद का कुछ अर्थ होता है उसे पदार्थ की संज्ञा दी जाती है पदार्थ के अधीन वैशेशिक दर्शन में विश्व की वास्तविक वस्तुओं की चर्चा हुई है।

प्रश्न 27.
क्या जगत् पूर्णतः असत्य है? व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर ने जगत को पुर्णतः सत्य नहीं माना है शंकर की दृष्टि में ब्राह्म ही एक मात्र सत्य है शेष सभी वस्तुएँ ईश्वर, जीव, जगत प्रपंच है शंकर ने जगत को रस्सी में दिखाई देने वाले ताप को तरह माना है।

प्रश्न 28.
माया के दो कार्यों को बतावें।
उत्तर:
माया के दो कार्य है-आरोण और विछेपण जैसे माया रस्सी के असली रूप को ढक देती है आरोण हुआ फिर उसका दूसरा रूप विछेपण सांप के रूप दिखाती है ठीक उसी प्रकार माया ब्राह्म के वास्तविक स्वरूप पर आग्रण डाल देती है और उसका विश्लेषण जगत के रूप में प्रस्तुत करती है।

प्रश्न 29.
बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर:
बुद्धिवाद के अनुसार वास्तविक ज्ञान का स्रोत तर्क चिंतन है ज्ञान का विषय संसार के अस्थाई और परिवर्तनशील तथ नहीं है यर्थात ज्ञान का उत्पत्ति बुद्धि से होती है और बुद्धि के अलावा इसका अन्य कोई साधन नहीं है।

प्रश्न 30.
काण्ट के आलोचनात्मक दर्शन को रेखांकित करें।
उत्तर:
काण्ट क आलोचनात्मक दर्शन में ज्ञानशक्तियों का समीक्षा प्रस्तुत की गई है साथ ही 17वीं और 18वीं शताब्दी के इन्द्रीयवाद एवं बुद्धिवाद की समिक्षा हैं विचार सामग्री के अरजन में इन्द्रीयों की माध्यमिकता को स्वीकृती में काण्ट इन्द्रीवासियों से सहमत था।

प्रश्न 31.
अरस्तू के उपादान कारण की चर्चा करें।
उत्तर:
अरस्तु के अनुसार किसी वस्तु के बनाने में द्रव्य की आवश्यकता होती है बिना द्रव्य के वह चीज नहीं बन सकती है अतः द्रव्य किसी वस्तु के बनाने में कारण होता है जैसे टेबूल के बनाने में जिस वस्तु की सहायता ली जाती है वह उपादान कारण है।

प्रश्न 32.
क्या ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है?
उत्तर:
ईश्वर ब्राह्म का सर्वोच्च आभास है ईश्वर का व्यक्तित्वपूर्ण है। वे सर्वपूर्ण सम्पन्न है उनका स्वरूप सच्चीदानन्द है सत् चित् और आनन्द तीन गुण नहीं है अपीतू एक और ईश्वर स्वरूप है ईश्वर माया पति है माया के स्वामी है। वे सृष्टि के कर्ता हर्ता है। इसलिए ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण नहीं है।