Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 16 समय व ऊर्जा का व्यवस्थापन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 16 समय व ऊर्जा का व्यवस्थापन

Bihar Board Class 11 Home Science समय व ऊर्जा का व्यवस्थापन Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
द्वितीयक रंग (Secondry colour) होता है। [B.M.2009A]
(क) लाल-नीला-पीला
(ख) बैंगनी-हरा-केसरी
(ग) काला-सफेद-हरा
(घ) पीला केसरी-नीला-लाल केसरी
उत्तर:
(ख) बैंगनी-हरा-केसरी

प्रश्न 2.
कार्बन हमारे शरीर को – [B.M.2009A]
(क) टूट-फूट का निर्माण करता है
(ख) शक्ति प्रदान करता है
(ग) ऊर्जा प्रदान करता है।
(घ) उष्मा प्रदान करता है
उत्तर:
(ग) ऊर्जा प्रदान करता है।

प्रश्न 3.
ऊर्जा को पोषण विज्ञान में कैसे मापा जाता है ? [B.M.2009A]
(क) तराजू बाट में
(ख) धन में
(ग) कैलोरीज में
(घ) आय में
उत्तर:
(ग) कैलोरीज में

प्रश्न 4.
अवकाश काल में की जाने वाली क्रियाओं को भागों में बाँटा जा सकता है [B.M.2009A ]
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर:
(ख) तीन

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प्रश्न 5.
थकान प्रकार की होती है – [B.M.2009A]
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(ख) दो

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
समय क्या है ?
उत्तर:
समय (Time) में भूत, वर्तमान व भविष्य सम्मिलित हैं। अपनी सुविधा के लिए मनुष्य ने उसे वर्ष, दिन, मिनट व क्षणों में विभाजित कर दिया है। समय को कई विधियों से मापा जाता है। पृथ्वी के अपनी धुरी पर परिक्रमा करने से, दोलक (Pendulum) के हिलने से मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए समय को वर्ष, महीने, सप्ताह व दिनों में विभाजित करके कैलेण्डर (Calendar) बना लिया है। समय के सही माप के लिए हाथ घड़ी का आविष्कार किया गया ।

प्रश्न 2.
समय व्यवस्था का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
समय व्यवस्था (Time management): कम-से-कम समय खर्च करके अधिक-से-अधिक कार्य सम्पन्न करना।

प्रश्न 3.
समय योजना को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
समय योजना (Time Plan): समय योजना एक अग्रिम योजना के रूप में परिभाषित की जाती है जिसमें दिए हुए समय में काम करने का कार्यक्रम बनाया जाता है।

प्रश्न 4.
समय व्यवस्था की प्रक्रिया के विभिन्न चरण कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर:
समय व्यवस्था (Step in time management) :

  • योजना बनाना (Planning)
  • क्रियान्वयन एवं नियन्त्रण (Implementation and controls)
  • मूल्यांकन (Evaluation)।

प्रश्न 5.
शक्ति क्या है?
उत्तर:
शक्ति (Energy) – गुडइयर, कलोर, ग्रैसवक़डल के अनुसार “शक्ति एक निहित या आन्तरिक शक्ति है तथा कार्य करने की क्षमता है।”

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प्रश्न 6.
अवकाश काल (Leisure Time) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
अपनी इच्छानुसार अपना मनपसंद कार्य करने में या विश्राम करने में बिताया गया समय अवकाश काल कहलाता है।

प्रश्न 7.
शक्ति की व्यवस्था से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
शक्ति की व्यवस्था (Energy Management): कम-से-कम शक्ति खर्च करके, बिना थकान महसूस किए, अधिक-से-अधिक कार्य सम्पन्न करना।

प्रश्न 8.
शक्ति की व्यवस्था करते समय किन-किन घटकों का अध्ययन रखना चाहिए?
उत्तर:

  • विभिन्न कार्यों के लिए अपेक्षित शक्ति।
  • थकान (Fatigue)।
  • कार्य सरलीकरण (Work simplification)।

प्रश्न 9.
थकान (Fatigue) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
यदि कार्य करते समय कार्य क्षमता में कमी आ जाए या पहले की तरह कार्य करने का उत्साह न रहे तो इस अवस्था को थकान कहते हैं।

प्रश्न 10.
थकान (Fatigue) कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर:
थकान के प्रकार (Kinds of Fatigue):

  • शारीरिक थकान (Physiological Fatigue)।
  • मानसिक थकान (Psychological Fatigue)।

प्रश्न 11.
शारीरिक थकान से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
शारीरिक थकान (Physiological Fatigue) शारीरिक थकान वह शारीरिक शक्ति है जो कि पूर्व किए गए कार्य के कारण कार्यक्षमता को कम कर देती है।

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प्रश्न 12.
मानसिक थकान (Psychological Fatigue) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
मानसिक थकान (Psyshological Fatigue) एक मनोवैज्ञानिक शक्ति है, जिसमें कार्य करने की इच्छा नहीं होती, कार्य करने की क्षमता कम हो जाती है, जबकि वास्तविक शारीरिक क्षमता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

प्रश्न 13.
कार्य सरलीकरण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
कार्य सरलीकरण (Work Simplification)-कार्य सरलीकरण अर्थात् कार्य करने का सबसे सरल, शीघ्र और आसान तरीका । कार्य करने की विधि में ऐसे परिवर्तनों को लाना . जिसमें कम से कम समय व ऊर्जा का व्यय करके अधिक से अधिक कार्य सम्पादित किया जा सके. कार्य सरलीकरण कहलाता है।

प्रश्न 14.
कार्य सरलीकरण के कौन-कौन-से तरीके हैं ?
उत्तर:
कार्य सरलीकरण के तरीके (Methods of work simplification) :
1. हाथ और शारीरिक गतिविधियों में परिवर्तन।
2. कार्य, संग्रहीकरण स्थान एवं उपकरणों में परिवर्तन।
3. तैयार उत्पादन में परिवर्तन, नए उत्पादों का प्रयोग।

प्रश्न 15.
घर में स्थान व्यवस्था करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:

  1. एकान्तता
  2. कमरों का पारस्परिक सम्बन्ध
  3. घूमने-फिरने की व्यवस्था
  4. कमरों का आकार
  5. उपलब्ध स्थान का उचित प्रयोग
  6. सघन लेकिन पर्याप्त कार्य समय
  7. स्वास्थ्यवर्धक।

प्रश्न 16.
सजावट का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
सजावट (Decoration): रंगों, साधनों तथा उपसाधनों की व्यवस्था इस प्रकार की जा , क कमरा आरामदायक, आकर्षक बने तथा मानसिक सन्तुष्टि दें।

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प्रश्न 17.
कला के सिद्धांत कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
कला के सिद्धांत (Principles of Art):

  • अनुरूपता (Harmony)।
  • सन्तुलन (Balance)।
  • अनुपात (Proportion)।
  • लचर (Rhythm)

प्रश्न 18.
रंगों के कौन-कौन-से प्रकार हैं?
उत्तर:
रंगों के प्रकार (Kinds of Colours):

  • प्राथमिक रंग (Primary colour) ।
  • द्वितीयक रंग (Secondary colour)
  • मध्य रंग (Tertiary colour)

प्रश्न 19.
रंग योजनाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • एकरंगीय योजना (Monochromatic colour)।
  • समदर्शी योजना ( Analogous colour scheme)
  • fausta 2175191 (Complementary colour scheme)
  • खंडित विपरीत योजना (Split complementary scheme)।

प्रश्न 20.
रीता अपना कार्य समय पर पूरा नहीं कर पाती । ऐसे दो उपाय बताएँ, जिससे वह समय आयोजन का लाभ उठाए।
उत्तर:
समय आयोजन के लाभ:

  • कार्य के प्रत्येक भाग को उपस्थित किया जाए।
  • कार्य को पूरा करें।
  • आराम के लिए समय।
  • कार्य सरलीकरण।
  • संतुष्ट होना।

प्रश्न 21.
कविता को एक बार में एक से ज्यादा कार्य करने में कठिनाई होती है ? उदाहरण के साथ बताइए कि वह कैसे कार्य करे ?
उत्तर:
एक ही समय में एक से अधिक कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं। जैसे-जब ओवन में केक, बिस्कुट आदि बन रहे हों तो उस समय कपड़े धोना, घर की सफाई करना आदि।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
समय व्यवस्था (Management of Time) पर संक्षिप्त नोट लिखिए।
उत्तर:
‘समय’ मानव जीवन की अमूल्य निधि है। बीता हुआ समय पुनः प्राप्त नहीं हो पाता, अतः सत्य ही है कि समय जीवन का निर्माता है, अतः इसे नष्ट नहीं करना चाहिए। व्यावसायिक कार्यों में ही नहीं अवकाश काल के लिए भी समय एक साधन के रूप में प्रयोग किया जाता है। अन्य सभी साधन विकासशील हैं परन्तु समय नहीं।

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यह प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान ही है परन्तु फिर भी चौबीस के बीस घण्टे कर लेना (समय का पूर्ण उपयोग) तथा चौबीस के तीस घण्टे कर लेना (समय का अपव्यय) आज भी चरितार्थ है। इस समान मात्रा में प्राप्त साधन का प्रयोग करते हुए हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करना पड़ता है। सोच-समझकर अथवा व्यवस्थित किया गया समय कठिन कार्यों को आसान बना देता है।

प्रश्न 2.
आयोजन तथा व्यवस्थापन (Planning and Management) में आपसी सम्बन्ध क्या है?
उत्तर:
इस चरण में लक्ष्य का स्पष्टीकरण होना आवश्यक है अर्थात् कार्य, विश्राम तथा. मनोरंजन में सामंजस्य बैठाना। समय आयोजन की आंशिक उपयोगिता इस बात पर निर्भर करती है कि इसके द्वारा व्यक्ति को अनेक व्यावहारिक समस्याओं के सम्बन्ध में पूर्व में विचार करने को बाध्य होना पड़ता है। इससे निर्णय न ले पाने की स्थिति समाप्त हो जाती है।

परिणामतः मस्तिष्क अन्य समस्याओं का हल करने तथा निरंतर उपस्थित होने वाले तनावों का सामना करने के लिए मुक्त रहता है। समय आयोजन करना सीखने से धीरे-धीरे विचारों का ढांचा बन जाता है जो आगे चलकर स्वतः ही कार्य करता है। उदाहरण के लिए प्रातः उठते ही शौचादि, स्नानादि करके भगवान का स्मरण करना। प्रारम्भ में कोई कार्य मात्र कार्य लगता है. पर बार-बार दोहराए जाने से वह ‘आदत’ बनकर दिनचर्या में स्वयं ही शामिल हो जाता है।

प्रश्न 3.
‘अवकाश काल’ (Leisure Time) किसे कहते हैं ? इसका क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
अपनी इच्छानुसार अपने मनपसन्द कार्यों को करने में बिताया गया समय अवकाश काल कहलाता है। यह विश्राम में बिताया हुआ समय भी हो सकता है। प्रतिदिन के व्यस्त जीवन में अवकाश काल बहुत महत्त्व रखता है। इस नीरस जीवन में कुछ सुखद व आनन्दपूर्ण क्षण अवकाश काल में ही प्राप्त हो सकते हैं जब व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार रुचि के कार्य कर पाए । इन क्रियाओं को करने में आनन्द की अनुभूति तो होती ही है, साथ ही थकान का अनुभव भी नहीं होता।

अवकाश काल में की जाने वाली कलात्मक, संग्रहात्मक एवं क्रियात्मक क्रियाएँ जीवन को विकसित करने में सहायता करती हैं। कई संग्रहात्मक क्रियाएँ जैसे सिक्के, टिकट, किताबें, चित्र आदि का संग्रह ज्ञान वृद्धि में सहायक है। विभिन्न प्रकार के खेल हमारे स्वास्थ्य के स्तर को सुधारने में सहायक हैं। कलात्मक क्रियाएँ जैसे संगीत सुनना, मूर्तियां बनाना, चित्र बनाना, नृत्यकला आदि मनोरंजन के साथ-साथ जीवन को सांस्कृतिक दृष्टि से विकसित करने में भी सहायक हैं। अतः व्यक्तित्व के बहुमुखी विकास में अवकाश काल का विशेष स्थान है।

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प्रश्न 4.
शारीरिक थकान (Physical Fatigue) किसे कहते हैं ? शारीरिक थकान का कारण दें।
उत्तर:
निरन्तर शारीरिक कार्य करने के परिणामस्वरूप जो कार्यक्षमता की गति में कमी आ जाती है, उसे “शारीरिक थकान” कहते हैं। यह थकान शरीर में कुछ रासायनिक परिवर्तनों के कारण होती है। माँसपेशियाँ जो शारीरिक क्रियाएँ करने में प्रयुक्त होती हैं, अपनी ऊर्जा ग्लाईकोजिन से प्राप्त करती हैं। इस क्रिया में लैक्टिक अम्ल व कार्बन डाइऑक्साइड जैसे व्यर्थ पदार्थ अधिक मात्रा में एकत्रित हो जाते हैं जो माँसपेशियों के क्रियाकलापों में अवरोध या बाधा उत्पन्न करते हैं।

इनकी रक्त में अधिकता से हम थकान का अनुभव करते हैं। परिणामस्वरूप ऊर्जा उत्पत्ति व ऊर्जा की माँग में असन्तुलन पैदा हो जाता है जिससे हम थकावट महसूस करना आरम्भ कर देते हैं। विश्राम करने पर ये व्यर्थ के पदार्थ निष्कासित हो जाते हैं और हम पुनः कार्य करने के योग्य हो जाते हैं, क्योंकि ऊर्जा उत्पत्ति नियम के अनुसार होने लगती है।

प्रश्न 5.
कार्य सरलीकरण (Work Simplification) से आप क्या समझती हैं ? कार्य सरलीकरण की कुछ विधियों का वर्णन करें।
उत्तर:
कार्य करने की विधि में ऐसे परिवर्तनों को लाना जिससे कम-से-कम समय व ऊर्जा का व्यय करके अधिक-से-अधिक कार्य सम्पादित किए जा सकें, कार्य का सरलीकरण कहलाता है। कार्य को सरल करने की कुछ विधियाँ निम्नलिखित हैं :
1. हाथ तथा शारीरिक गतिविधियों में परिवर्तन लाकर (By hand & physical changes):
(क) अनावश्यक कदमों को रोक कर: नियोजिन रूप से सामान एक ही समय में एकत्रित कर लिया जाए जैसे ट्रे आदि का प्रयोग करके तो समय, शक्ति दोनों की बचत की जा सकती है।
(ख) कार्यों का क्रम निर्धारित करके (By numbering the work): एक ही प्रकार का कार्य करके जो गति प्राप्त हो जाती है, उसे तोड़ना नहीं चाहिए जैसे झाडू लगा कर फिर पोछा लगाना चाहिए।
(ग) कार्य में निपुणता (Efficiency in work): निपुणता हासिल करके समय तथा श्रम दोनों की बचत की जा सकती है।
(घ) उचित मुद्रा का प्रयोग करके (By using correct posture): लिखते समय सही मुद्रा रखने से पीठ व कमर की माँसपेशियों पर अनावश्यक दबाव नहीं पड़ेगा व थकान कम होगी।

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2. कार्य एवं भण्डारण स्थान और उपकरण में परिवर्तन लाकर (By making work, storage place & equipment changes):
(क) स्थान की ऊँचाई आरामदायक हो ताकि कन्धों और बाजुओं पर दबाव न पड़े।

(ख) बैठने के लिए स्टूल व कुर्सी आरामदायक हो जिससे आराम से बैठकर काम किया जा सके।

(ग) वस्तुओं पर लेबल लगा हो ताकि ढूंढने में समय व्यर्थ न जाए। कार्य करने का एक ढंग होता है और उस शारीरिक स्थिति में कार्य करने से कम ऊर्जा व्यय होती है। यदि किसी और स्थिति में कार्य किया जाए तो शारीरिक मांसपेशियों पर तनाव पड़ता है और ऊर्जा अधिक व्यय होने के साथ-साथ थकावट भी अधिक होती है। कुछ भारी चीज उठाते समय कमर से झुक कर उठाने की बजाय घुटनों को झुकाकर उठायी जाए तो थकान कम होती है।

(घ) कार्यकुशलता (Skill in work) किसी कार्य में कुशल होने पर उसके कार्य को करने में कम समय एवं कम ऊर्जा व्यय होती है। जैसे-जैसे कार्यकुशलता बढ़ती जाती है, गतिविधियाँ अधिक नियंत्रित एवं तेज हो जाती हैं, जिससे कार्य शीघ्र सम्पन्न हो जाता है। उपर्युक्त विधियों से कार्य को सरलीकृत किया जा सकता है।

प्रश्न 6.
उत्प्रेरक या प्रेरणा से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
उत्प्रेरक या प्रेरणा (Motivation): जब कार्यकर्ता किसी कार्य को अनिच्छा से करता है अथवा जब उत्प्रेरण का स्तर निम्न होता है तो थकान शीघ्र अनुभव होने लगती है परन्तु जब यही स्तर उच्च होता है तब काफी मात्रा में शक्ति व्यय होने पर भी थकन दृष्टिगोचर नहीं होती। अतः उच्च स्तर का उत्प्रेरण अधिक शक्ति उपलब्ध कराता है। लक्ष्यों के स्पष्ट परिभाषित होने से कार्य रोचक तथा सरल हो जाते हैं तथा जिन लक्ष्यों को सरलता से प्राप्त किया जाए, वे कार्य को कम नीरस तथा उत्प्रेरक बना देते हैं।

प्रश्न 7.
शक्ति का व्यवस्थापन से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
शक्ति का व्यवस्थापन (Management of Energy): मानवीय शक्ति एक सीमित साधन होने पर भी इसका व्यवस्थापन समय की व्यवस्था अनुसार करना सरल तथा स्पष्ट नहीं है क्योंकि समय की उपलब्धता, मात्रा का अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है जबकि शक्ति का नहीं । प्रत्येक व्यक्ति की कार्य शक्ति उसकी शारीरिक रचना तथा मानसिक स्वास्थ्य पर निर्भर करती है। गृहिणी को अपनी क्रियाओं की योजना इस प्रकार बनानी चाहिए कि उनमें प्रयुक्त होने वाली शक्ति का कम-से-कम व्यय हो ताकि अन्य कार्य-कलापों के लिए उसके पास पर्याप्त शक्ति शेष रहे।

शक्ति की व्यवस्था के निम्नलिखित प्रभावकारी कारक हैं –

  • परिवार का जीवन-चक्र।
  • विभिन्न क्रियाओं पर व्यय होने वाली शक्ति।
  • थकान-कारण तथा प्रकार।
  • व्यवस्थापक के मानवीय गुण-कुशलता, बुद्धिमत्ता, मानव-स्वभाव समझने की क्षमता, उत्साह ।

प्रश्न 8.
चित्र के द्वारा रसोई घर के विभिन्न आकार बताएँ ? [B.M. 2009A]
उत्तर:
(a) I : आई आकार
(b) 1 : एल आकार
(c) UN : यू आकार
(d) : स्ट्रेट आकार

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प्रश्न 9.
घरेलू गतिविधियों को लिखें ? [B.M.2009A]
उत्तर:
घरेलू गतिविधियाँ-घर में किए जाने वाले कार्यों की व्यवस्था करने पर सभी गृह कार्य सुचारु रूप से किए जा सकते हैं। हर कार्य का अपना स्थान होता है। जैसे-पकाने के लिए रसोई कक्ष, सोने के लिए शयन कक्ष इन सभी स्थानों को व्यस्थित करना अनिवार्य है।

प्रश्न 10.
एक अच्छे घर में घरेलू गतिविधियों के लिए उपयुक्त स्थान निर्धारित करें।
उत्तर:
घरेलू गतिविधियाँ व उपयुक्त स्थान (Household Activities and Space Ailocation): एक अच्छे घर में सभी घरेलू गतिविधियों के लिए उपयुक्त स्थान निर्धारित होना चाहिए। कुछ सामान्य गतिविधियाँ व उनके लिए स्थान निम्नलिखित तालिका में दिया गया है:

गतिविधियाँ (Activities):

  1. रसोई घर।
  2. खाना खाना
  3. अतिथियों का सत्कार
  4. मौज मस्ती-संगीत सुनना, टी.वी. खना
  5. पढ़ना
  6. सोना
  7. नहाना
  8. कपड़े धोना
  9. मल-मूत्र त्यागना

आवंटित स्थान (Space Allocation):

  1. खाना पकाना
  2. खाने का कमरा, रसोई घर या साथ में कोई लॉबी।
  3. गोल कमरा, बैठक, बरामदा या लॉन, बाग।
  4. गोल कमरा, बैठक, लॉबी, बरामदा, सोने का कमरा इत्यादि।
  5. पढ़ाई का कमरा, सोने का कमरा, बैठक, लॉबी, पिछला बरामदा, बाग इत्यादि।
  6. सोने का कमरा, लॉबी, बरामदा, गोल कमरे में सोफा या बेड पर।
  7. स्नान घर, पिछला बरामदा।
  8. स्नान घर, कोई भी स्थान जहां सुविधाएं उपलब्ध हों।
  9. शहरी घरों में संडास, सामुदायिक सुलभ शौचालय।

प्रश्न 11.
उत्पादन में परिवर्तन से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
उत्पादन में परिवर्तन (Change in Product): कार्य के अन्तिम रूप में परिवर्तन लाकर समय एवं ऊर्जा पर हुए व्यय को कम किया जा सकता है। यह परिवर्तन परिवार को उपलब्ध सामान तथा पारिवारिक स्तर पर निर्भर करता है। इस परिवर्तन को लाने में गृहिणी की विशेष भूमिका है। वह अपनी बुद्धिमत्ता, मानव स्वभाव को समझने की क्षमता, जागरूकता आदि जैसे गुणों द्वारा परिवार में स्थित व्यर्थ के विचार हटा सकती है तथा नए और आधुनिक विचारों को स्वीकृत करा सकती है।

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अंतिम रूप या उत्पादनों में परिवर्तनों के उदाहरण –

  • सूती कपड़ों की अपेक्षा कृत्रिम कपड़ों के वस्त्रों का प्रयोग (क्योंकि इनका रख-रखाव अपेक्षाकृत बहुत आसान है।)
  • ताजी सब्जियों की अनुपलब्धि या उनके स्थान पर संरक्षित सब्जियों का प्रयोग (क्योंकि साफ करने तथा काटने का समय बचता है)
  • कपड़ों के रूमाल के स्थान पर कागज के रूमालों का प्रयोग (Napkins) (क्योंकि इससे उन्हें धोने का समय व खर्चा बचता है)
  • साबुत मसालों के स्थान पर पीसे मसालों की खरीद (क्योंकि पीसने के झंझट से मुक्ति मिल जाती है)
  • धातु के स्थान पर प्लास्टिक की बनी वस्तुओं का प्रयोग करना, जैसे-प्लेट, गिलास आदि। (क्योंकि इनका रख-रखाव आसान है)

संक्षेप में कहा जा सकता है कि कच्ची वस्तुओं के प्रयोग अथवा उसी कच्ची वस्तु से विभिन्न वस्तुएँ उत्पादित करने अथवा कच्ची सामग्री और उत्पादित वस्तु दोनों में ही परिवर्तन करने से . कार्य का सरलीकरण किया जा सकता है।

प्रश्न 12.
रंगों के प्रयोग व प्रकार समझाइए।
उत्तर:
रंग चीजों को सुन्दर व आकर्षक तो बनाते ही हैं, इसके साथ-साथ रंगों का प्रभाव सार्वभौमिक भी रहता है। रंगों के शारीरिक प्रभाव की अपेक्षा मनोवैज्ञानिक प्रभाव अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। रंगों के प्रभाव भिन्न-भिन्न होते हैं-सफेद रंग शान्ति तथा सन्तोष का प्रतीक है, लाल, नारंगी रंग उत्तेजित करते हैं, हरा रंग चंचलता को दर्शाता है, नीला रंग उदासीन तथा शीतल है। रंगों का सही उपयोग करना भी एक कला है। रंगों का प्रयोग करने से पहले उनके बारे में कुछ जानकारी होना आवश्यक है।

रंगों के प्रकार (Kinds of Colour):
रंग मुख्यतः तीन प्रकार के हैं –

  • प्राथमिक रंग (Primary Colour)।
  • द्वितीयक रंग (Secondary Colour)।
  • मध्य रंग (Tertiary Colour)।

प्राथमिक रंग – लाल, पीला तथा नीला प्राथमिक रंग हैं।
द्वितीयक रंग – दो प्राथमिक रंगों को समान अनुपात में मिलाने से एक द्वितीयक रंग बनता हैं। जैसे – लाल + पीला = नारंगी, पीला + नीला = हरा, लाल + नीला = बैंगनी।
मध्य रंग – एक द्वितीयक रंग तथा एक प्राथमिक रंग को मिला कर मध्य रंग बनता है। जैसे – पीला + नारंगी = पीला नारंगी, पीला + नीला = पीला नीला, लाल + नारंगी = लाल नारंगी, लाल + बैंगनी = लाल बैंगनी, पीला + हरा = पीला हरा, नीला + बैंगनी = नीला बैंगनी
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
समय व्यवस्थापन (Time Management) के विभिन्न चरण लिखें।
उत्तर:
एक परिवार की आवश्यकता के अनुकूल व्यावहारिक समय एवं क्रिया का निर्माण करना चाहिए। किन्हीं दो परिवारों की परिस्थितियाँ एक-सी नहीं होतीं। कुछ गृहिणियाँ जैसे किसान व डॉक्टर की पत्नियों को अपने पति के व्यवसाय की दृष्टि से समय व क्रियाओं का आयोजन करना होगा। अप्रत्याशित अवरोधों या आकस्मिक घटनाओं के लिए दैनिक समय-सारणी में पहले से ही कछ समय का आयोजन करना चाहिए।

1. विभिन्न कार्यों की सूची बनाना (Listing different activities):
गृहिणी को सर्वप्रथम सभी कार्यों की सूची बना लेनी चाहिए तथा परिवार की सहायता से उनका विभाजन निम्न रूप से कर लेना चाहिए :

(i) दैनिक कार्य-जैसे-भोजन बनाना, दोपहर का भोजन, शाम की चाय तथा रात्रि का भोजन, बच्चों की देख-रेख करना, घर की सफाई, बिस्तर लगाना, बर्तन साफ करना, नौकरी पर जाना, विश्राम करना आदि।

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(ii) साप्ताहिक एवं विशेष कार्य-जैसे-कपड़े धोना, कपड़े प्रेस करना, गलीचा आदि साफ करना, बाजार से सामान खरीदना, खिड़कियों, दरवाजे आदि की सफाई करना आदि। सिक एवं सामयिक कार्य-जैसे-आटा पिसवाना. कपडे सिलाना. छटिटयों के लिए तैयारी करना, किसी पार्टी आदि के लिए तैयारी करना, अचार बनाना, स्क्वैश आदि बनाना, मौसम के कपड़े सम्भाल कर रखना आदि। यदि सभी कार्यों को दैनिक, साप्ताहिक एवं मासिक कार्यों में विभाजित करके सूची बना ली जाए तो सभी कार्य सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाते हैं और जल्दबाजी में कोई भी काम छूटने की आशंका नहीं रहती है।

2. प्रतिदिन के कार्यों एवं समय की मूल योजना बनाना-दूसरे चरण में प्रतिदिन के कार्यों एवं उसमें व्यय होने वाले समय की मूल योजना बनायी जाती है। इस योजना के लिए सबसे पहले वह कार्य लिये जाते हैं जो प्रतिदिन अवश्य करने होते हैं तथा जिन्हें सम्पन्न करने के लिए निश्चित समय का ज्ञान होता है। इस प्रकार दूसरे चरण में समय एवं कार्य योजना का ढाँचा तैयार हो जाता है जिसके आधार पर पूरी योजना बनाई जा सकती है।

प्रतिदिन के आवश्यक कार्य जैसे भोजन बनाना, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना और स्कूल भेजना, घर की दैनिक सफाई आदि आते हैं। इस मूल योजना में सुबह तथा दोपहर को खाली समय छोड़ा जाता है तथा इस समय में साप्ताहिक कार्यों को सम्पन्न किया जाता है। एक दैनिक मूल समय-योजना का उदाहरण निम्नलिखित तालिका में दिया गया है –

दैनिक मूलं समय-योजना (Daily Basic Time Plan):
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समय-योजना बनाते समय यह ध्यान भी अवश्य रखना चाहिए कि कौन-सा कार्य किस समय पर करना उचित रहेगा तथा सामान्यतः उसमें कितना समय लगेगा। दैनिक समय योजना में जो काम जिस परिवार के सदस्य को सौंपा हो, उसको घर में उपस्थिति का ध्यान रखना चाहिए। कुछ कार्य जो निश्चित समय पर ही किए जाते हैं, जैसे बच्चों का स्कूल जाना, ऑफिस आदि के लिए निश्चित समय ही प्रयुक्त करना चाहिए।

प्रत्येक परिवार की समय-योजना में काफी अन्तर पाया जाता है। यदि गृहिणी नौकरी भी करती हो तो उसकी दैनिक समय-योजना बिल्कुल भिन्न हो जाएगी। अतः प्रत्येक गृहिणी को अपने दैनिक कार्यों, परिवार के सदस्यों की आवश्यकता एवं सहयोग को ध्यान में रखते हुए ही दैनिक मूल समय-योजना बनानी चाहिए।

3. साप्ताहिक योजना बनाना (Weekly Time Plan): इस साप्ताहिक योजना में सप्ताह के कार्यों, विशेष कार्य तथा सामाजिक कार्यों के लिए समय निश्चित किया जाता है। इस योजना का निर्माण करते समय गृहिणी को घरेलू आवश्यकताओं, कार्य करने की आदतों एवं परिवार के सदस्यों के खाली समय का ध्यान रखना चाहिए। निम्नलिखित तालिका में एक साप्ताहिक योजना का उदाहरण दिया गया है –

साप्ताहिक समय योजना (Weekly Time Plan):
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4. समय-योजना के चौथे चरण में इस बात का निर्णय लिया जाता है कि कौन-सा कार्य कौन-सा सदस्य पूर्ण करेगा। यह निर्णय लेते समय परिवार के सभी सदस्यों से विचार-विनिमय करना चाहिए तथा उस व्यक्ति विशेष के समय, भोजन का भी ध्यान रखना चाहिए। परिवार के विभिन्न सदस्यों में कार्य बाँटते समय तथा उचित समय के उपयोग के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –

1. परिवार के सदस्यों के पास उपलब्ध समय तथा वह अपना कितना समय कार्यों के प्रति प्रयोग कर सकता है।

2. परिवार के सदस्यों की विशेष रुचियों को ध्यान में रखते हुए कार्यों को सौंपना चाहिए क्योंकि रुचि होने पर कार्य सफलतापूर्वक समय पर सम्पन्न किए जा सकते हैं। यदि रुचियों के अनुरूप कामों को न सौंपा जाए तो कार्य पूर्ण होने में कई प्रकार की रुकावटें होती हैं।

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3. एक प्रकार के तथा एक साथ किए जाने वाले कार्यों को सदैव एक ही परिवार के सदस्य को सौंपना चाहिए जैसे बाजार से विभिन्न वस्तुएँ खरीदना आदि।

4. एक समय में एक से अधिक कार्य सम्पन्न किए जा सकते हैं। जैसे जब ओवन में केक, बिस्कुट आदि बन रहे हों तो उस समय कपड़े धोना, घर की सफाई आदि।

5. समय बचाऊ उपकरणों जैसे प्रेशर कूकर, मिक्सी आदि का प्रयोग करना चाहिए।

6. प्रतिदिन प्रयोग में आने वाली वस्तुओं को उचित स्थान एवं चालू हालत में रखना चाहिए जैसे चाकू एक छोटी-सी चीज है यदि इसे उचित स्थान पर न रखा जाए तो उसे ढूँढने में काफी समय लग जाता है। इसी प्रकार यदि चाकू का हत्था टूटा हो या उसकी धार तेज न हो तो सब्जियाँ, फल आदि ‘ को काटने में सामान्य से बहुत अधिक समय लगता है।

7. दैनिक उपयोग की वस्तुओं को प्रतिदिन खरीद कर लाने के स्थान पर इकट्ठा खरीदना चाहिए जिससे प्रतिदिन उन्हें खरीद कर इकट्ठा करने की आवश्यकता न पड़े और व्यर्थ ही समय नष्ट न हो।

8. कार्य करने की विधि से पूर्णतया परिचित होने पर काम कम समय में ठीक प्रकार से सम्पन्न हो जाता है तथा समय का अपव्यय नहीं होता है।

9.  प्रत्येक कार्य को एकाग्रचित होकर कुशलतापूर्वक करना चाहिए। ऐसा करने से काम कम समय में उचित रूप से सम्पन्न हो जाता है। किसी भी कार्य को पूरी सूझ-बूझ एवं पूर्व अनुभवों के आधार पर करने से भी समय की बचत होती है। जैसे खाना परोसते समय ट्रे का प्रयोग करना आदि।

10. समय-योजना लचीली होनी चाहिए जिससे आवश्यकता एवं परिस्थितियों के अनुरूप उसे बदला जा सके। यदि समय तालिका में लचीलापन नहीं होगा तो उसका सफल होना कठिन है।

11. समय योजना बनाते समय अन्य गृहिणियों की समय योजनाओं को देखकर लाभ उठाना चाहिए या फिर विभिन्न गृहिणियों के समय उपयोग पर हुए अध्ययनों का लाभ उठाना चाहिए।

5. मूल्यांकन (Evaluation):
समय की योजना का सप्ताह के अन्त में मूल्यांकन करना भी अति आवश्यक है। इसके लिए यह देखना चाहिए कि सभी कार्य समय योजना के अनुरूप सम्पन्न हुए अथवा नहीं। समय-योजना का मूल्यांकन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है –

  • क्या पत्येक कार्य समय-योजना के प्रस्तावित समय में पूर्ण हो सका।
  • यदि नहीं, तो प्रत्येक कार्य पूर्ण करने के लिए कितना समय लगा? इस अतिरिक्त समय का अगली योजना बनाते समय पूर्ण ध्यान रखना चाहिए।
  • क्या परिवार के सभी सदस्यों का पूर्ण सहयोग प्राप्त हा सका? अथवा नहीं। यदि नहीं तो क्या कारण थे ?
  • क्या गृहिणी को विश्राम, मनोरंजन आदि के लिए पर्याप्त समय मिला अथवा नहीं। यदि नहीं तो क्या कारण थे ?
  • क्या अवकाश के समय का पूर्ण उपयोग हो सका ?
  • अगली समय-योजना में क्या-क्या परिवर्तन लाने आवश्यक हैं ? क्या पारिवारिक लक्ष्यों की पूर्ति हो सकी अथवा नहीं?

प्रश्न 2.
अवकाश काल (Leisure Time) पर एक लेख लिखें।
उत्तर:
अवकाश की श्रेणी में वह समय आता है जो न तो कार्य में प्रयुक्त होता है, न विश्राम में। मुख्यतः अवकाश का उपयोग मनोरंजन के लिए होता है। हर व्यक्ति को अवकाश काल बिताने का अपना एक अलग ढंग होता है। अवकाश काल के सदुपयोग के विभिन्न साधन हैं –
(अ) घर में बैठकर सम्पन्न की जाने वाली क्रियाएँ (Indoor Activities)।
(ब) घर के बाहर जाकर सम्पन्न की जाने वाली क्रियाएँ (Outdoor Activities)।

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(अ) घर में बैठकर सम्पन्न की जाने वाली क्रियाएँ-इसके अन्तर्गत क्रियात्मक क्रियाएँ, संग्रहात्मक क्रियाएँ एवं कलात्मक क्रियाएँ आती हैं। जैसे

  • सामाजिकता (Sociability): इसमें सम्भाषण, मित्रों से मिलना व उन्हें घर बुलाना, समय परिवार के साथ बिताना और समाज की गतिविधियों में भाग लेना है।
  • संस्थाओं की सदस्यता (Association): इनके अन्तर्गत विभिन्न संस्थाओं, जैसे-क्लब आदि में जाना।
  • स्थिरता (Immobility): इसके अन्तर्गत सिलाई, कढ़ाई, पढ़ना-लिखना, टेलीविजन देखना. रेडियो सुनना, बागवानी आदि हैं।
  • संग्रहात्मक क्रियाएँ: इसके अन्तर्गत सिक्कों, टिकटों, किताबों, चित्रों, ग्रन्थों आदि का संग्रह सम्मिलित हैं।
  • कलात्मक क्रियाएँ (Arts): मूर्ति बनाना आदि।
  • खेल (Game): दर्शक के रूप में विभिन्न खेल देखना, ताश खेलना आदि।

(ब) घर से बाहर जाकर सम्पन्न की जाने वाली क्रियाएँ:
1. खेल (Games and Sports): स्वयं कोई खेल जैसे टेबिल टेनिस, बैडमिण्टन आदि खेलना।
2. कला (Arts): इसके अन्तर्गत संगीत, नाटक, नृत्य साहित्य, छायांकन (Photography) आदि में अभिरुचि सम्मिलित हैं।
3. गतिशीलता (Mobility): इस वर्ग में कार या बस में सफर, बाजार में वस्तुएँ क्रय करना, टहलना, नाव में सैर करना आदि आते हैं।
आदर्श रूप में अवकाश एक उपहार स्वरूप है जिसका उपयोग हर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व को समृद्ध बनाने, ज्ञान अर्जित करने तथा स्वयं में निरन्तर सुधार करने के लिए करना चाहिए।

प्रश्न 3.
गृह कार्य में लगने वाले श्रम का वर्गीकरण करें।
उत्तर:
सभी गृह कार्यों में श्रम करना पड़ता है। यह श्रम मुख्यतः दो प्रकार का होता है –
1. शारीरिक और
2. मानसिक।
व्यावसायिक जीवन में दोनों पूर्णतः भिन्न नहीं हैं। अधिकांश शारीरिक क्रियाओं में भी थोड़ा सोचना पड़ता है।

1. शारीरिक कार्य कई प्रकार के होते हैं। कुछ में हाथों की अधिक आवश्यकता होती है तो कुछ में धड़ की आवश्यकता होती है। कुछ में पैरों की आवश्यकता होती है। वस्तुओं को पकड़ने, उठाने, खिसकाने. खींचने या एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने में हाथों की विशेष आवश्यकता होती है। बैठने-झुकने, मुड़ने, उठने आदि में शरीर के मध्य भाग का अधिक उपयोग होता है। खड़े होने, चलने-फिरने आदि में पैरों का अधिक उपयोग होता है।

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2. मानसिक श्रम भी गृहिणी के दैनिक जीवन का अंग है। उसे विभिन्न प्रकार के निर्णय लेने होते हैं। साधनों का समुचित व्यवस्थापन करना होता है। भविष्य के लिए योजनाएँ बनानी होती हैं। इन सभी मानसिक क्रियाओं में शक्ति का व्यय होता है परन्तु शारीरिक क्रियाओं से कम।

माँसपेशीय क्रियाओं की विभिन्न दशाओं में प्रति घण्टा शक्ति व्यय –
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प्रश्न 4.
संक्षेप में गृह कार्यों पर उपयोग की गई शक्ति के विषय में लिखें।
उत्तर:
गृह कार्यों को तीन भागों में विभाजित किया गया है :
1. हल्के कार्य (Light Work): इस वर्ग के अन्तर्गत मुख्यत: वही कार्य सम्मिलित किए जाते हैं जिन्हें करते समय खड़ा नहीं होना पड़ता, जैसे हाथ तथा मशीन द्वारा बुनाई करना, रफू करना, सिलाई करना आदि।
2. साधारण कार्य (Normal Work): इसके अन्तर्गत शिशु को वस्त्र पहनाना, प्लेट धोना, तौलिये पर इस्त्री करना, पैर की मशीन से सिलाई करना जैसे कार्य आते हैं।

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3. श्रमशील कार्य (Heavy Work): इन कार्यों को सम्पन्न करने के लिए अधिक शक्ति. की आवश्यकता होती है। इसके अन्तर्गत कपड़े धोना, फर्श झाड़ना आदि कार्य आते हैं।
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हमेशा उचित व्यवस्था (Posture) में बैठकर या खड़े होकर कार्य करने से कम शक्ति व्यय होती है। इसके विपरीत कार्य हल्का होने पर भी यदि शारीरिक अवस्था उचित न हो तो शक्ति व्यय बहुत अधिक होती है। उचित व्यवस्था के लिए कुशल गृहणी को कार्यों का विभाजन इस प्रकार करना चाहिए कि प्रतिदिन शक्ति वाले कार्यों में संतुलन रहे। यदि एक ही दिन में सभी अधिक शक्ति वाले कार्य किए जाएँ तो थकान हो जाती है तथा कार्य भी भली प्रकार से सम्पन्न नहीं होते हैं।

श्रम के अनुसार कार्य का वर्गीकरण (Classification of work according to energy spent):
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प्रश्न 5.
थकान के विभिन्न स्वरूप कौन-कौन-से हैं ? गृहिणी की कार्य-क्षमता पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है ?
अथवा,
मानसिक थकान कम करने के छः तरीके विस्तारपूर्वक सुझाएँ।
उत्तर:
जब हम कोई कार्य करते हैं तब कछ समय बाद ऐसी स्थिति आ जाती है कि कार्य करने की क्षमता कम होती जाती है और शरीर शिथिल हो जाता है और कम काम कर पाते हैं इस अवस्था को थकान कहते हैं। “निरन्तर कार्य करने के परिणामस्वरूप कुशलता में कमी या मानसिक रूप से ऊब जाना या दोनों के होने को थकान कहते हैं।”

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थकान के लक्षण (Symptoms of fatigue):

  • शरीर में सुस्ती, आलस्य और शिथिलता आ जाती है।
  • मन किसी भी कार्य को करने में एकाग्र नहीं होता।
  • सरल कार्य में भी गलती अधिक होती है, समय ज्यादा लगता है।
  • नींद एवं जम्हाई आने लगती है।
  • कार्य करने की क्षमता कम हो जाती है।

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1. शारीरिक थकान (Physiological Fatigue): जब शरीर की पेशियाँ कार्य करती हैं तब शरीर ईंधन का उपयोग करता है तथा शक्ति को निकालता है। पेशियों में शक्ति-उत्पादन करने वाला पदार्थ ग्लाइकोजीन होता है। ग्लाइकोजीन का निर्माण कला द्वारा लाई गई शर्करा से पेशीय तन्तुओं द्वारा होता है। पेशीय कार्यों में ग्लाइकोजीन रक्त प्रवाह में विद्यमान ऑक्सीजन से संयोग करके शक्ति को निष्क्रमित करता है तथा लैक्टिक अम्ल एवं कार्बन डाइ-आक्साइड नामक निरर्थक पदार्थों का उत्पादन करता है। ये दोनों पदार्थ निरन्तर पेशीय क्रिया-कलापों में अवरोध उत्पन्न करते हैं। किसी भी कार्य को करने के पश्चात् पुनः शक्ति प्राप्त करना अथवा लैक्टिक अम्ल एवं कार्बन डाइ-आक्साइड को माँसपेशियों से निकालना नितान्त आवश्यक है।

इस प्रक्रिया में रक्त-प्रवाह कार्बन डाइऑक्साइड को फेफडे में ले जाते हैं जहाँ इसे निष्कासित किया जाता है। रक्त माँसपेशियों में ऑक्सीजन ले जाता है तथा ऑक्सीजन और ग्लाइकोजिन के पुनः परिवर्तन की प्रक्रिया के द्वारा लैक्टिक अम्ल भी निष्कासित कर दिया जाता है। इस प्रकार ऑक्सीजन लैक्टिक अम्ल को माँसपेशियों से हटाने में योग देकर थकान को रोकने में सहायता प्रदान करता है।

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अधिक थका देने वाले कार्य में लैक्टिक अम्ल अधिक मात्रा में उत्पन्न होता है जिसे दूर करने के लिए पर्याप्त ऑक्सीजन शीघ्र उत्पन्न नहीं किया जा सकता और इस तरह थकान बढ़ जाती है जिसे पूरा करने के लिए विश्राम करना आवश्यक हो जाता है। गृहिणी में काम करने की शक्ति सुबह के प्रथम चरण में अधिक रहती है। जैसे-जैसे काम करने में थकान बढ़ती है, वैसे-वैसे उसमें कार्यक्षमता कम होती जाती है।
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2. मानसिक थकान (Psychological Fatigue): शारीरिक थकान की भाँति मानसिक थकान से भी कार्य क्षमता कम हो जाती है और कार्य के प्रति अरुचि हो जाती है।
वार्टले के अनुसार “थकान या थकावट एक व्यक्ति की उस परिस्थिति के प्रति संपूर्ण प्रतिक्रियाओं में से एक है जिसका वह जाने या अनजाने में मूल्यांकन करता है।” मानसिक थकान दो प्रकार की होती है –
(अ) नीरस थकान (Boredom fatigue)।
(ब) कुंठाजन्य थकान (Frustration fatigue)।

(अ) नीरस थकान (Boredom fatigue): एक लम्बी अवधि तक कार्य करने के उपरान्त काम के प्रति अरुचि महसूस करते हैं। इस थकान के बाहरी लक्षण हैं-जम्हाई आना, बेचैनी और कार्य को छोड़ देने की इच्छा। कार्य के प्रति उत्साह समाप्त हो जाता है। कार्य में परिवर्तन अनिवार्य है। एक कार्य अरुचिकर या नीरस हो जाने पर दूसरे कार्य को प्रारंभ करने से थकान दूर हो जाती है।

(ब) कुंठाजन्य थकान (Frustration fatigue): कुण्ठा निराशा का ही एक रूप है। इसे व्यक्ति तब अनुभव करता है जब किसी स्थिति को ठीक से नियन्त्रित नहीं कर पाता । उस स्थिति के समक्ष वह स्वयं को अक्षम अनुभव करता है। तब वह खीज और चिड़चिड़ाहट महसूस करने लगता है। वह पलायन तो करना चाहता है परन्तु कर नहीं पाता।

तब वह मानसिक तनाव महसूस करने लगता है। तनाव कुछ अवधि के लिए बना रहता है तो वह थकान महसूस करता है। कुण्ठाजन्य थकान नीरस थकान से इस रूप में भिन्न है कि कुण्ठित व्यक्ति स्वयं का दोष महसूस करता है जबकि नीरस थकान अनुभव करने वाला व्यक्ति बाहरी वातावरण को अपनी अरुचि के लिए दोषी मानता है।

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वट कम करने के साधन (Ways of Reducing Fatigue) :
1. विश्राम काल (Rest Periods): दिन में कार्य करने की अवधि में विश्राम करने से थकान दूर हो जाती है तथा कार्यकुशलता में वृद्धि होती है। एक व्यक्ति को दिन में कितनी देर तक तथा कितनी बार विश्राम करने की आवश्यकता होती है। उसके कार्य की प्रकृति तथा व्यक्ति की कार्य करने की क्षमता निर्धारित करती है। गृहिणी अनेक प्रकार के कार्य करती है। उसके लिए विश्राम की अवधि कितनी हो, यह उसके स्वास्थ्य व उसकी शक्ति की मात्रा पर निर्भर करती है। कुछ गृहिणियाँ कार्य-परिवर्तन में ही विश्राम कर लेती हैं।

2. प्रोत्साहन का महत्त्व (Role of Motivation): जब कोई व्यक्ति किसी कार्य को पसन्द नहीं करता या उत्प्रेरकों की कमी रहती है तब थकान शीघ्र उत्पन्न हो जाती है। यदि कार्य कार्यकर्ता की रुचि का होता है तथा उसे करने में अगर प्रेरणा मिलती है तब थकान शीघ्र उत्पन्न नहीं होती। ऐसे कार्य तो लगातार अधिक समय तक भी बिना थकान उत्पन्न हुए किये जा सकते हैं। ऐसे लक्ष्य या कार्य जो आसानी से पूरे हो जाते हैं या प्राप्त हो जाते हैं कार्य की नीरसता को दर करते हैं तथा उत्प्रेरक का काम करते हैं।

किसी कार्य को करने में बाधा या अवरोध उत्पन्न होने से सम्पूर्ण कार्य अव्यवस्थित हो जाता है और थकान अनुभव होने लगती है। फलस्वरूप कार्यकर्ता में कण्ठाजन्य थकान होने लगती है। काम की नीरसता तथा शारीरिक तनाव के कारण जो थकान उत्पन्न होती है, वह थोड़ी-सी उत्तेजना-यथा मित्रों से बातचीत. सिनेमा देखना. पिकनिक या कार्य में परिवर्तन-से समाप्त हो ज है। यदि कार्य की पूर्ति के पश्चात् व्यक्ति की प्रशंसा कर दी जाए तो वह भी प्रोत्साहन का कार्य करती है और मानसिक थकान को कम करती है।

3. कार्य करने की उचित सुविधाएँ (Good working condition): अध्ययनों द्वारा ज्ञात हुआ है कि यदि कार्य करने के लिए उचित सुविधाएँ प्रयुक्त की जाएँ तो दोनों शारीरिक एवं मानसिक थकान कम होंगी। ये उचित सुविधाएँ निम्नलिखित हैं:

  • कार्य करने के लिए उचितं रोशनी का होना आवश्यक है।
  • कार्य स्थल खुला और हवादार होना चाहिए।
  • श्रम तथा समय बचाऊ उपयोगी यन्त्रों का प्रयोग करना चाहिए।
  • खड़े होकर कार्य करने के लिए कार्यकर्ता की लम्बाई के अनुरूप ऊँची मेज या फट्टा होना चाहिए। अधिक ऊँचे या नीचे मेज पर कार्य करने में थकान अधिक होती है।
  • घर का सारा सामान निश्चित जगह पर व्यवस्थित ढंग से रखा होना चाहिए जिससे आवश्यकता पड़ने पर आसानी से मिल जाए और समय तथा शक्ति का अपव्यय न हो।
  • कार्य करने के लिए यन्त्र या उपकरण ऐसे होने चाहिए जिससे शरीर को सामान्य स्थिति में ही रखा जाए। अधिक झुककर या उचककर कार्य करने से थकान अधिक होती है। उदाहरण के लिए घर की सफाई करते समय लम्बे झाडू का प्रयोग करना चाहिए तथा पोंछा लगाने के लिए लम्बे डंडे का प्रयोग उचित रहता है।

4. कार्य करने का उचित ढंग (Proper way of doing work): कार्य सदैव उचित ढंग से ही करना चाहिए जिससे उसे करते समय अनावश्यक क्रियाओं को दूर किया जा सके तथा थकावट भी कम की जा सके। बैठकर खाना बनाने से थकावट अधिक होती है। खड़े होकर खाना बनाने से थकावट कम होती है, अतः खाना बनाने का उचित ढंग खड़े होकर खाना बनाना है।

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5. कार्य करने की सही मुद्रा (Good working posture): कार्य करते समय कार्यकर्ता को शरीर की मुद्रा सही रखनी चाहिए। बैठने या खड़े होने की मुद्रा ऐसी होनी चाहिए जिससे मांसेपशियों पर अधिक जोर न पड़े और थकान कम हो। कार्य करने की सतह अधिक ऊँची या नीची होने पर, उन पर कार्य करते समय माँसपेशियों का खिंचाव होता है, जिससे थकान अधिक होती है।

6. कार्य करने का उचित क्रम (Right sequence of work): कार्य करने के उचित क्रम को अपनाना चाहिए जिससे थकान कम हो। उचित क्रम के लिए एक से कार्य एक समय में करने चाहिए। जैसे घर की सफाई करते समय पहले सारे घर को झाड़ लिया जाए फिर झाडू लगानी चाहिए तथा फिर पोंछा लगाना चाहिए। यदि पहले एक कमरे में झाडू और पोंछा लगाया। और फिर दूसरे कमरे में झाडू और पोंछा लगाया जाए तो बार-बार झाडू और पोंछा को बदलने के कारण श्रम और समय दोनों ही अधिक लगते हैं।

7. कार्यकुशलता (Work Skill): किसी कार्य में जब गृहिणी प्रवीण होती है तो उस कार्य को करते समय उसे कम थकावट होती है। यदि एक गृहिणी सिलाई करने में प्रवीण है तो उसे समय कम थकान महसस होगी। इसके विपरीत जो सिलाई करना नया-नया सीखती है, उसे सिलाई करते समय गलतियाँ होने के कारण अधिक थकावट होती है।

8. कार्यों में हेर-फेर (Change in work): बहुधा अधिक समय एक-सा कार्य करते रहने पर भी थकावट हो जाती है। अत: कुछ समय बाद कार्यों में हरे-फेर करते रहने से थकावट कम होती है।

9. कार्य को रोचक बनाना (Make work more interesting): अधिकांश दैनिक कार्य नीरस रहते हैं। उनको अधिक समय तक करते रहने से गृहिणी ऊबने लगती है। इस नीरसता को निम्न विधियों से कम किया जा सकता है –
(अ) कई बार कार्य बड़ा लम्बा व अन्तहीन-सा प्रतीत होता है। ऐसी स्थिति में अल्प अवधि का लक्ष्य रखकर गहिणी कार्य के प्रति उत्साहित अनभव कर सकती है।
(ब) गृहिणी को यदि परिवार के किसी अन्य सदस्य का सहयोग मिल जाता है तो भी वह कार्य के प्रति अधिक उत्साह अनुभव करती है। भोजन पकाने में यदि उसे अपनी पुत्री का सहयोग मिल जाता है तो काम की नीरसता कम हो जाती है और वह कार्य भी अधिक शीघ्रता से होता है।
(स) दैनिक कार्यों में विविधता भी थकान को कम करने में सहायक होती है। एक भारी काम पूरा करने के बाद यदि एक हल्का काम हाथ में लिया जाए तो थकान अत्यधिक नहीं हो पाती।

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10. मनोरंजन (Entertainment) मनोरंजन शरीर को विश्राम देता है और कुछ समय के लिए दैनिक चिन्ताओं को भी भुलाने में सहायता करता है।

प्रश्न 6.
कार्य सरलीकरण (Simplification) क्या है ?
उत्तर:
समय एवं शक्ति दोनों ही गृहिणी के लिए महत्त्वपूर्ण साधन हैं। दोनों के व्यवस्थापन में विभिन्न प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न होती हैं, जिनका समाधान गृहिणी को करना होता है। एक निर्धारित समय और शक्ति के अन्तर्गत अधिक कार्य सम्पादित करना ही कार्य का सरलीकरण है। ग्रौस व कैण्डल के अनुसार “यह वह विधि है जिसके द्वारा एक निश्चित समय व शक्ति की मात्रा व्यय करके अधिक कार्य सम्पन्न किया जाता है अथवा एक निश्चित कार्य दोनों का ही कम व्यय करके पूर्ण किया जाता है।” निकिल व डौसी के अनुसार “कार्य सरलीकरण किसी कार्य को सबसे सुविधाजनक व शीघ्रता से सम्पन्न करने की विधि की खोज है।” इन परिभाषाओं से स्पष्ट है कि कार्य सरलीकरण में कुशलता एवं व्यावहारिक प्रबन्ध एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

प्रश्न 7.
कार्य सरल करने की विधियों (Methods of work simplification) का उल्लेख करो।
उत्तर:
ग्रौस व क्रैन्डल ने कार्य सरलीकरण को तीन भागों में वर्गीकृत किया है –

  • हाथ और शरीर की गतियों में परिवर्तन (Changes in hand and body motions)।
  • कार्य स्थल, संग्रहण स्थान तथा उपकरणों में परिवर्तन (Changes in work and storage space and equipment)।
  • उत्पादन में परिवर्तन (Change in the products)।

1. हाथ और शरीर की गतियों में परिवर्तन : हाथ और शरीर की गतियों में परिवर्तन होने से समय और शक्ति की बचत होती है।
(अ) बर्तनों को साफ करने के बाद यदि गर्म पानी में खंगालकर सूखने रख दिया जाए तो उन्हें कपड़े से पोंछने की अनावश्यक शारीरिक क्रिया की बचत हो सकती है।
(ब) एक हाथ के स्थान पर दोनों हाथों से कार्य करना, विस्तार के अनावश्यक कदमों को समाप्त करना। पूर्व आयोजन से कई कदम अथवा शारीरिक गतियों की बचत सम्भव है।

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2. कियाओं का कम (Work seanence): घर में काम करने के मार्ग में परिवर्तन कर कई कदमों की चाल की बचत की जा सकती है। कई कार्यों को साथ-साथ भी किया जा सकता है। भोजन पकाने के साथ केक बनाना सम्भव है।

3. कदमों में दक्षता (Skill in work): कुशल गृहिणी अपने गृह कार्य तीव्र गति से तथा सरलता से करने में समर्थ होती है। दक्षता जन्म-जात कम और प्रयास से अधिक आती है। कार्यदक्षता प्राप्त करने की तीन अवस्थाएँ होती हैं –

  • प्रारम्भिक अथवा खोजने की अवस्था (Exploratory stage)।
  • कठिन एवं प्रयासयुक्त अवस्था (Awkward and Effortful stage)।
  • दक्षता की अवस्था (Skilled stage)।

उदाहरण के लिए आलू या प्याज छीलने में पहली अवस्था में गृहिणी को यह जानना होता है कि चाकू को तथा काटने वाली वस्तु को सही तरीके से कैसे पकड़ा जाए। आरम्भ में दोनों को ही वह ठीक ढंग से नहीं पकड़ पाती। क्रियाएँ धीमी रहती हैं, छिलाई भी सफाई से नहीं होती। दूसरी अवस्था में धीरे-धीरे वह सीखने लगती है कि दोनों का सही प्रयोग कैसे हो। उसकी कार्य करने की गति बढ़ने लगती है। वह अपनी गलतियाँ सुधारती जाती है। तीसरी अवस्था में वह यह काम तेजी से और सफाई से करने लगती है। एक कार्य में दक्षता गृहिणी को दूसरे कार्य में वैसी ही दक्षता प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती है।

प्रश्न 8.
कार्य-स्थल, संग्रहण स्थान तथा उपकरणों में परिवर्तन करने से शक्ति उपयोग पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
1. प्रमुख उपकरण व्यवस्थित रूप से लगे हों-उपकरण इस प्रकार से लगाए जाएँ जिससे गृहिणी को हर वस्तु आसानी से उपलब्ध रहे और उसे कम से कम चलना पड़े। प्रमुख उपकरण उचित स्थान पर ऐसी रखे जायें जहाँ उपयोग करते समय इन्हें बार-बार निकालने व रखने में शक्ति व्यर्थ न जाए।

2. कार्य सतहें सुविधाजनक चौड़ाई की व ऊँचाई की हों (Work surface should be of convenient length & height): app and 944 pirific int 47 3fera feefa to लिए कार्य-स्थल की ऊँचाई एवं चौड़ाई आरामदायक होनी चाहिए। यदि कार्य सतह अधिक नीची है तो झुककर कन्धों को अधिक ऊपर उठाना होता है। यदि कार्य सतह अत्यधिक चौड़ी है तो बाँहों को अधिक फैलाना होता है अथवा झुकाना होता है। ऐसी क्रियाओं से असुविधा व थकान होती है। कार्य सतह व्यक्ति की लम्बाई के अनुरूप होनी चाहिए।

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3. कुर्सियाँ व स्टूल आरामदेह हों (Comfortable Chairs & Stools): आरामदेह कुर्सी या तिपाई वह है जिस पर बैठ कर गृहिणी बिना असुविधा के अपना कार्य कर सकें। कुर्सी व स्टूल की ऊँचाई इतनी होनी चाहिए कि गृहिणी के पाँव जमीन पर रखे जाएँ।

4. सर्वाधिक उपयुक्त उपकरणों का चयन किया जाए (Selection of maximumuse of equipment): उपयुक्त उपकरणों से समय व शक्ति की बचत होती है। कपड़ें सुखाने के लिए डायर, गलीचा साफ करने के लिए वैक्यूम क्लीनर उपयुक्त होता है।

5. खाद्य-सामग्री व छोटे उपकरणों को उपयोग करने के स्थान के पास रखना चाहिए। सभी बर्तन, खाद्य-सामग्री तथा उपकरण इस प्रकार रखे जाएँ, जिससे आवश्यकता पड़ने पर उन्हें शीघ्र उठाया जा सके।

6. कार्य के अन्तिम रूप में परिवर्तन (Changes in the last form of work): नई वस्तुओं के उपयोग से घर का काम सुविधाजनक हुआ है।

प्रश्न 9.
विभिन्न क्रिया कलापों के लिए घर को किन स्थल व कक्षाओं में विभाजित किया जाता है ?
उत्तर:
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ये मुख्यतः क्रियाएँ हैं जिनको करने के लिए घर में स्थान चाहिए। इस सभी क्रियाओं के आगे कई उप-क्रियाएँ हैं, जिनके लिए स्थान चाहिए। जैसे – बर्तन धोने के लिए –
1. गन्दे बर्तन इकट्ठा रखने का स्थान।
2. बर्तन धोने की सामग्री रखने का स्थान।
3. पानी का प्रबन्ध जहाँ बर्तन धोए जाएँगे।
4. धुले बर्तनों को रखने के लिए उचित स्थान।

यह जरूरी नहीं कि घर में इन सभी क्रिया-कलापों को करने के लिए अलग-अलग स्थान हों। छोटे घरों में एक ही स्थान पर दो-तीन क्रियाएँ की जाती हैं। जैसे शयन कक्ष में बनाव-श्रृंगार, अध्ययन या सिलाई का काम करना। खाने का अलग कमरा नहीं है तो यह काम रसोई घर बरामदे या किसी अन्य कमरे में किया जा सकता है। इसलिए जब एक ही कमरे में एक से अधिक क्रियाओं को स्थान दिया जाता है तो स्थान व्यवस्था करना अनिवार्य है। किन्हीं दो परिवारों के लिए स्थान का विभाजन एक जैसा नही होता।

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किसी परिवार की स्थान व्यवस्था को प्रभावित करने वाले कारक हैं –

  • परिवार के पास उपलब्ध स्थान।
  • परिवार के सदस्यों की संख्या।
  • परिवार की आर्थिक व सामाजिक स्थिति।

घर चाहे छोटा हो या बड़ा, विभिन्न क्रियाओं के लिए स्थान का विभाजन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना आवश्यक है –
1. एकान्तता-एकान्तता दो प्रकार की है। एक तो कमरे ऐसे होने चाहिए कि बाहर से अन्दर का दृश्य न दिखाई पड़े। या दरवाजे व खिड़कियों पर पर्दे लगा कर हो सकता है। दूसरे घर के अन्दर ही एक कमरे की दूसरे कमरे से एकान्तता (Privacy) होनी चाहिए। इसके लिए लॉबी या गलियारा बनाना चाहिए, जो विभिन्न कमरों को जोड़े भी तथा कमरों की एकान्ता भी बनी रहे।  लॉबी या गलियारा होने पर एक कमरे से निकल कर बाहर जाने के लिए दूसरे कमरे में से नहीं निकलना पड़ता।
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2. कमरों का पारस्परिक सम्बन्ध-कमरों में की जाने वाली क्रियाओं के अनुसार कमरों का पारस्परिक सम्बन्ध होना चाहिए। जैसे स्नान गृह, शयन कक्ष के नजदीक होना चाहिए। भोजन कक्ष रसोईघर के नजदीक होना चाहिए।
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3. घूमने-फिरने में सुविधा हो: इसके लिए कमरे में दरवाजे, खिड़कियों की स्थिति तथा फर्नीचर व्यवस्था ठीक होनी चाहिए। कमरे में यदि अधिक फर्नीचर रख दिए जाएँगें तो कमरे में चलने-फिरने की जगह न बचेगी। कमरों की व्यवस्था भी ऐसी होनी चाहिए कि एक कमरे से दूसरे कमरे में जाने के लिए अनावश्यक न चलना पड़े। यदि लॉबी या गलियारा है तो एक कमरे से निकल कर, लॉबी में से होकर दूसरे कमरे में जा सकते हैं। इससे सभी कमरों की एकान्तता बनी रहेगी।

4. कमरों का आकार-आयताकार कमरे, वर्गाकार कमरों की अपेक्षा अधिक बड़े दिखते हैं तथा अधिक सुविधाजनक होते हैं।

5. उपलब्ध स्थान का उचित उपयोग-आजकल अधिकतर लोगों के पास स्थान की कमी रहती है, इसलिए उपलब्ध स्थान का मितव्ययिता से प्रयोग करना चाहिए । इसके लिए दरवाजे व खिड़की के ऊपर के स्थान पर सामान रखने के लिए मियानी बनाई जा सकती है। दीवार में अलमारी बनानी चाहिए, जो कि फर्श पर रखी सामान्य अलमारी की अपेक्षा कम स्थान घेरती है। समान रखने वाले फर्नीचर का अधिक प्रयोग करना चाहिए जैसे बक्सेनुमा पलंग अथवा दीवान।

6. कार्य स्थान सघन लेकिन पर्याप्त हो-किसी भी कार्य को करने के लिए यदि अधि क खुला स्थान है तो वहाँ चलने फिरने के लिए काफी समय व शक्ति का व्यय होगा । अतः कार्य स्थान सघन होना चाहिए, लेकिन इतना स्थान हो कि कार्य करने का सामान रखने तथा कार्य करने की सुविधा हो। घर में स्थान की व्यवस्था परिवार के सदस्यों के अनुकूल एवं सुविधाजनक होनी चाहिए।

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7. स्वास्थ्यवर्धक-कमरों में पर्याप्त खिड़की, दरवाजे हों ताकि प्राकृतिक प्रकाश तथा शुद्ध ताजा हवा का आवागमन हो सके।

घर में विभिन्न क्रियाओं को करने के लिए तीन मुख्य कार्य केंद्र हैं –

  • निजी क्षेत्र-इसमें स्नान घर तथा शयन कक्ष आते हैं। यहाँ सबसे अधिक एकान्तता की आवश्यकता है।
  • कार्य क्षेत्र-इसमें रसोईघर, कपड़े धोने का स्थान, भोजन कक्ष, अध्ययन कक्ष, भण्डार घर आदि आते हैं।
  • मनोरंजन क्षेत्र-इसमें बैठक, बरामदा, आंगन आदि आते हैं।

इस क्षेत्र को अतिथियों के सत्कार, टी.वी. देखने, संगीत सुनने आदि के लिए प्रयोग किया जाता है।

आइए, अब हम देखें कि इन विभिन्न कमरों की व्यवस्था कैसी होनी चाहिए –
बैठक (Drawing Room or Living Room): इस कमरे का उपयोग आने-जाने वाले मित्रों, अतिथियों को बैठाने, बातचीत करने के लिए किया जाता है। घर के सदस्य भी खाली समय में यहाँ विश्राम तथा मनोरंजन कर सकते हैं। बैठक साधारणतः बाकी कमरों से बड़ा तथा अधिक आकर्षक एवं सुव्यवस्थित होता है। बैठक की व्यवस्था तथा सज्जा से घर के सदस्यों की पसन्द, नापसन्द तथा व्यक्तित्व की झलक मिलती है। बैठक का कमरा प्रवेश द्वार के पास हो।

इसका एक दरवाजा बाहर की तरफ खुलना चाहिए ताकि आने-जाने वाले मेहमानों से घर की एकान्तता बनी रहे। यह कमरा आयताकार होना चाहिए। इसकी लम्बाई और चौड़ाई 3 और 2 के अनुपात में होनी चाहिए। आजकल बैठक के साथ-साथ इसमें भोजन का भी प्रबन्ध रखा जाता है। यदि इन दोनों क्रियाओं के लिए कमरे का प्रबन्ध करना है तो कमरे का आकार भी बड़ा होना चाहिए। इस कमरे में खिड़कियों की स्थिति ऐसी हो कि बाहर का सुन्दर दृश्य दिखे। कमरे में प्राकृतिक प्रकाश तथा स्वच्छ वायु का भी प्रबन्ध होना चाहिए।

बैठक में प्रयुक्त होने वाले फर्नीचर सुन्दर-टिकाऊ तथा हल्की हो जिन्हें आसानी से उठाया जा सके। फर्नीचर में सोफा-सैट या आराम कुर्सियां, बीच की मेज (Centre Table), छोटी मेज (Side Table), दीवान आदि रख सकते हैं। 6-8 लोगों के बैठने के लिए फर्नीचर होना चाहिए। फर्नीचर दीवार के साथ-साथ रखा जाए ताकि घूमने-फिरने में असुविधा न हो।

बैठक की सज्जा सुन्दर तथा सादी होनी चाहिए। यदि परिवार बड़ा है और स्थान की कमी है तो बैठक का प्रयोग रात के समय सोने के लिए भी कर सकते हैं। बैठक का एक भाग पढ़ने-लिखने के काम भी आ सकता है। यदि टी.वी. बैठक में रखा है तो परिवार के सभी सदस्य वहाँ बैठ कर अपना मनोरंजन भी कर सकते हैं।

खाने का कमरा (Dining Room): आजकल घरों में खाने के लिए अलग कमरे की व्यवस्था रहती है। यदि रसोईघर बड़ा है तो उसी में एक ओर इसकी व्यवस्था होनी चाहिए। यह कमरा रसोईघर के पास होना चाहिए, लेकिन यहाँ से रसोईघर का भीतरी भाग नहीं दिखाई देना चाहिए। भोजन कक्ष में खाने की मेज तथा कुर्सियों की व्यवस्था की जाती है। मेज कितनी बड़ी हो तथा कितनी कुर्सियाँ हों, यह स्थान की उपलब्धता तथा सदस्यों की संख्या पर निर्भर करता है। मेज के इर्द-गिर्द घूमने के लिए पर्याप्त स्थान रखना चाहिए।

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भोजन कक्षा में क्राकरी तथा अन्य उपकरण रखने के लिए दीवार में आलमारी बनी होनी चाहिए। इस कमरे में फ्रिज रखने का भी प्रबन्ध कर सकते हैं। भोजन कक्ष में प्रकाश तथा स्वच्छ हवा आनी चाहिए। कमरे में हाथ धोने के लिए सिंक भी रख सकते हैं। स्थान की कमी के कारण यदि भोजन कक्ष की अलग व्यवस्था नहीं है तो रसोईघर, बरामदे या किसी अन्य कमरे में भोजन खाने की व्यवस्था हो सकती है। भोजन कक्ष का प्रयोग पढ़ने-लिखने या अन्य क्रियाएँ जैसे सिलाई, पेन्टिंग आदि करने के लिए भी हो सकता है।

शयन कक्ष (Bed Room): शयन कक्ष का प्रयोग आराम करने तथा रात को सोने के लिए किया जाता है। इसलिए यह कमरा शोरगुल से दूर होना चाहिए। चूंकि यह निजी कमरा है अतः इसमें सबसे अधिक एकान्तता की आवश्यकता है। 10 वर्ष से अधिक उम्र के लड़के-लड़कियों के लिए अलग-अलग शयन कक्ष होने चाहिए। शयन कक्ष का मुख्य फर्नीचर पलंग है। इसके अतिरिक्त यदि स्थान है तो दो आराम कुर्सी तथा एक छोटी मेज भी रख सकते हैं।

इस कमरे का प्रयोग यदि पढ़ने तथा श्रृंगार के लिए भी करना है तो पढ़ने की मेज तथा शृंगार मेज रखने की व्यवस्था भी होनी चाहिए। यह मेज ऐसी जगह रखी जाए, जहाँ प्रकाश की उचित व्यवस्था हो। जहाँ तक सम्भव हो, शयन कक्ष के दरवाजे, खिड़कियाँ पूर्व दिशा की ओर हों ताकि सुबह के सूर्य का प्रकाश तथा शुद्ध वायु आ सके। इस कमरे में सुरक्षा, शान्ति तथा आराम होनी चाहिए। भारतीय घरों में गर्मी के मौसम में बरामदा, आंगन या घर की छत भी सोने के काम में आती है।

रसोईघर (Kitchen): यह घर का एक महत्त्वपूर्ण केन्द्र है। गृहिणी अपने जीवन का एक तिहाई समय रसोईघर में व्यतीत करती है । सुव्यवस्थित तथा आधुनिक उपकरणों से युक्त रसोईघर में समय तथा शक्ति दोनों की बचत होती है। सफाई भी आसानी से की जा सकती है। रसोईघर भोजन कक्ष के नजदीक होना चाहिए। यह शयन कक्ष तथा बैठक से दूर होना चाहिए ताकि धुआं तथा गन्ध आदि इन कमरों में न पहुंचे। रसोईघर में प्रकाश तथा हवा का उचित प्रबन्ध होना चाहिए। रसोईघर की दिशा उत्तर-पूर्व की ओर हो तो अच्छा है ताकि सुबह की धूप आ सके तथा बाकी समय रसोईघर ठण्डा रहे।

रसोईघर के दरवाजे और खिड़कियों पर जाली रहनी चाहिए ताकि मक्खी, मच्छर से बचाव रहे। रसोइघर का फर्श ऐसा हो जो आसानी से साफ हो जाए। इसका ढलान भी सही होना चाहिए, जिससे कि सारा पानी नाली में निकल जाए और खड़ा न रहे। खड़ी रसोई में स्लैब के ऊपर की दीवारें टाईल्स की होनी चाहिए ताकि आसानी से साफ हो जाएँ। रसोइघर में गर्म हवा तथा धुआं निकलने के लिए चिमनी या हवा निकालने वाला पंखा (Exhaust Fan) लगा हो। बहुत-से घरों में खाना बनाने के लिए अलग कमरे की व्यवस्था नहीं रहती।

बरामदे या किसी कमरे के कोने में खाना बनाने का काम होता है। यहाँ भोजन बनाने की व्यवस्था बैठ कर कर सकते हैं या एक मेज लगा कर खड़े होकर उस पर खाना बना सकते हैं। रसोइघर की व्यवस्था करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि रसोइघर में काम करने के लिए तीन मुख्य स्थान हैं –

  • खाना बनाने का स्थान (Cooking Area)
  • खाना बनाने की तैयारी करने का स्थान (Preparation Area)
  • बर्तन धोने का स्थान (Washing Area)

सुव्यवस्थित रसोईघर के लिए यह आवश्यक है कि ये तीनों कार्य स्थान इस प्रकार हों कि काम में रुकावट न पड़े। तीनों कार्य क्षेत्रों में 4-5′ का अन्तर होना चाहिए। तैयारी करने का स्थान खाना बनाने के स्थान के नजदीक हो। तैयारी करने में पानी की भी आवश्यकता होती है अतः तैयारी केन्द्र के पास पानी की भी व्यवस्था होनी चाहिए।

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आजकल अधिकतर घरों में खड़े रसोईघर (Standing Kitchen) बनाए जाते हैं, जहाँ भोजन की तैयारी करने, बनाने तथा बर्तन धोने की व्यवस्था खड़े होकर की जाती है। खड़े होकर काम करने में उठाने, रखने के लिए कम शारीरिक गतिविधियाँ करनी पड़ती हैं, जिससे कम समय तथा शक्ति लगती है, रसोईघर भी अधिक साफ रहता है।

1. खाना बनाने का स्थान-यह स्थान तैयारी केन्द्र के दायीं ओर होना चाहिए। यहाँ मुख्य उपकरण ऊर्जा का स्रोत है। जैसे अंगीठी, स्टोव या गैस । खड़े होकर खाना बनाने के लिए फर्श से उचित ऊँचाई पर स्लैब बनाई जाती है। इस स्लैब पर स्टोव या गैस रखने की व्यवस्था की जाती है। स्लैब चिकना होना चाहिए जो पानी न सोखे तथा आसानी से साफ हो जाए।

2. खाना बनाने की तैयारी करने का स्थान-भोजन पकाने से पहले जो सम्बन्धित तैयारी होती है जैसे-सब्जी काटना, दाल-चावल साफ करना, मसाला पीसना, आटा गूंथना आदि क्रियाएँ यहाँ की जाती है। इस क्षेत्र में बिजली के प्वाइंट की व्यवस्था भी हो ताकि मिक्सी आदि वहीं रख कर प्रयोग कर सकें।

3. बर्तन धोने का स्थान-यहाँ पानी की उपलब्धता तथा पानी के बाहर निकलने की उचित व्यवस्था होनी चाहिए। खड़े होकर बर्तन धोने हैं तो सिंक हो और उसके साथ ढलानदार बोर्ड हो जिस पर बर्तन धोकर सखने के लिए रखे जा सकते हैं। बर्तनों के सख जाने पर उन्हें उचित स्थान पर रख सकते हैं। सिंक के ऊपर खिड़की होनी चाहिए ताकि रसोईघर में गीलापन न रहे।

रसोईघर में संग्रहीकरण के लिए स्थान व्यवस्था-इन कार्य क्षेत्रों के अतिरिक्त खाना बनाने में जो सामान प्रयुक्त होना है जैसे-आटा, चावल, दाल, मसाले, चीनी, चाय पत्ती, घी, तेल आदि तथा बर्तन रखने के लिए भी स्थान होना चाहिए। यदि स्थान उपलब्ध है तो रसोईघर के साथ ही स्टोर बना सकते हैं, जहाँ सारे भोज्य पदार्थ रख सकते हैं। बर्तन रखने के लिए भी अलग स्थान हो सकता है, लेकिन अधिकतर घरों में अलग से स्टोर नहीं होता, वहाँ इन सभी चीजों को रखने की व्यवस्था रसोईघर में ही करनी पड़ती है।

सुविधा के लिए जो सामान जिस कार्य-स्थान से सम्बन्धित है, उसके उसी के पास संग्रह करना चाहिए। स्थान की उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए जो स्थान स्लैब तथा फर्श के बीच खाली है, वहाँ अलमारियाँ बनाकर आवश्यक सामान रख सकते हैं। जैसे खाना बनाने के स्थान के नीचे अलमारी बन कर, गैस सिलैण्डर या खाना बनाने में प्रयुक्त होने वाले बर्तन रख सकते हैं। तैयारी स्थान के ऊपर तथा नीचे अलमारी बना कर दाल, मसाले तथा अन्य उपकरण रख सकते हैं। जहाँ सिंक है, उसके पास स्लैब पर रैक लगा कर बर्तन रख सकते हैं। बर्तन धोने में प्रयुक्त होने वाली सामग्री रखने की व्यवस्था भी सिंक के पास होनी चाहिए।

रसोईघर में विभिन्न भोज्य पदार्थ इस प्रकार रखे जाएँ कि उन्हें ढूंढ़ने में कठिनाई न हो। एक प्रकार का सामान एक साथ रखें। जैसे दालें एक साथ, मसाले एक साथ हों। डिब्बों के ऊपर नाम लिखा हो तो ढूँढ़ने में समय नहीं लगता। चाय, चीनी, घी, का उपयोग बार-बार होता है, उन्हें खाना बनाने के स्थान पर एक शेल्फ बनाकर रख सकते हैं।

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रसोईघर में ऊपर की तरफ भी स्लैब डाल सकते हैं, जहाँ कभी-कभी प्रयोग होने वाले बर्तन अथवा अन्य सामान रख सकते हैं। रसोईघर में पानी भर कर रखने के लिए भी स्थान होना चाहिए। आकार के आधार पर रसोईघर चार प्रकार के हो सकते हैं। रसोईघर का आकार कैसा भी हो, उसमें तीन मुख्य कार्य स्थान होने चाहिए।
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बच्चों का कमरा (Children Room): भारतीय परिवारों में साधारणत: बच्चों का अलग कमरा नहीं होता। जगह की कमी के कारण या जगह भी हो तो उसे महत्त्व नहीं दिया जाता है। लेकिन घर में कोई स्थान ऐसा होना चाहिए जिसे बच्चा अपना समझे, अपने अनुसार वहाँ पढ़ या खेल सके। बच्चों के कमरे में खिड़कियाँ नीची हों ताकि आसानी से बाहर का दृश्य दिख सके।

फर्नीचर भी कम ऊँचा, हल्का, सादा हो। अलमारी तथा शैल्फ इतनी ऊँचाई के होने चाहिए कि बच्चा आसानी से अपना सामान रख तथा उठा सके। यह कमरा रसोईघर के पास हो ताकि गृहिणी काम करते समय बच्चे पर नजर रख सके। पढ़ने वाले बच्चों के कमरे में पढ़ने की मेज-कुर्सी की व्यवस्था होनी चाहिए।

लॉबी (Lobby): आधुनिक घरों में लॉबी की व्यवस्था को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इससे एकान्तता तो बनी ही रहती है, साथ-साथ यहाँ और भी कई कार्य किए जा सकते हैं। अगर लॉबी थोड़ी बड़ी है तो घर के सदस्य वहाँ बैठ कर टी.वी. देख सकते हैं, बच्चे खेल सकते हैं, पढ़ सकते हैं या गृहिणी सिलाई, बुनाई का काम कर सकती है।

स्नान घर (Bath Room): जहाँ तक हो सके स्नान घर शयन कक्ष के साथ हो। स्नान घर के दो दरवाजे होने चाहिए, एक कमरे में खुले तथा दूसरा बाहर की तरफ। स्नानघर की खिड़की ऊँची तथा बड़ी हो ताकि पर्याप्त रोशनी एवं हवा आ सके। खिड़की पर फ्रॉस्टेड शीशा (Frosted Glass) लगा हो।

स्नान घर में नहाने के लिए नल, फव्वारा हो तथा वाश बेसिन (Wash Basin) लगा हो। यदि कपड़े भी स्नानघर में ही धोए जाने हैं तो कपड़े धोने की मशीन रखने की भी व्यवस्था हो। नहाने से सम्बन्धित सामग्री तथा कपड़े धोने की सामग्री रखने के लिए दीवार में शेल्फ बने हों, कपड़े, तौलिया आदि टाँगने के लिए दरवाजे के पीछे खूटियाँ लगी हों। स्नान घर की फर्श तथा दिवारें चिकनाई रहित एवं मजबूत हों। दीवारों पर टाइल्स लगी हों तो सफाई करना आसान रहता है।

आजकल स्नानघरों साथ शौचालय भी जुड़े रहते हैं। इसमें भारतीय या पश्चिमी पद्धति की सीट लगी होती है। सम्पन्न घरों में प्रक शयन कक्ष के साथ एक स्नानघर जुड़ा हुआ भी हो सकता है। यदि स्नान घर छोटा है तो कपड़े धोने की व्यवस्था बाहर आंगन में की जा सकती है। सम्पन्न घरों में कपड़े धोने का कमरा (Laundry room) अलग ही होता है।

स्टोर (Store बक्से, सूटकेस तथा कभी-कभी प्रयोग होने वाले सामान को रखने के लिए स्टोर बनाया जाता है। छोटे घरों में स्टोर उपलब्ध न होने पर सामान रखने वाला फर्नीचर प्रयोग करना चाहिए या दरवाजे, खिड़कियों के ऊपर मियानी बनानी चाहिए। सीढ़ियों के नीचे भी सामान रखने के लिए जगह बनाई जाती है।

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बरामदा (Verandah): भारतीय घरों में बरामदे का बहुत महत्त्व है। बरामदा हमें गर्मी तथा वर्षा की बौछारों से बचाता है। एकदम अनजान व्यक्ति को, जिसे हम अन्दर नहीं ले जाना चाहते, बरामदे में बैठा सकते हैं। बरामदा घर में आगे या पीछे या दोनों ओर बना सकते हैं। साधारण घरों में अधिकांश समय बरामदे में बीतता है।

बरामदे में सुबह शाम बैठ सकते हैं, बच्चे खेल सकते हैं; गृहिणियाँ सब्जी छीलने, काटने आदि का काम कर सकती हैं। स्थान की कमी के कारण आवश्यकता हो तो इसे बन्द करवा कर कमरा भी बनवाया जा सकता है। अगर धन तथा स्थान की कमी नहीं है तो घर में अलग से शृंगार कक्ष (Dressing Room), अतिथि कक्ष (Guest Room), अध्ययन कक्ष (Study Room), पूजा कक्ष (Prayer Room) कपड़े धोने का कक्ष (Laundry Room) भी बनवाया जा सकता है।

प्रश्न 10.
रंग और सहायक वस्तुओं का सजावट में क्या योगदान है ?
उत्तर:
रंग और सहायक वस्तुओं का सजावट में योगदान (Use of Colour and Accessories in Decoration): स्थान व्यवस्था के क्रियात्मक रूप के साथ-साथ आकर्षण भी महत्त्वपूर्ण रूप है। जब स्थान सीमित हो तो सजावट सोच-विचार कर करनी चाहिए। किसी भी स्थान की सुन्दरता को रंग व सहायक वस्तुओं से बढ़ाया जा सकता है। घर की सुसज्जा के लिए रंग की बहुत महत्ता है। रंग-घर को सुन्दर और आकर्षित दिखाने में रंग का एक महत्त्वपूर्ण योगदान है। इससे भावात्मक प्रभाव पैदा होता है। समस्या केवल यह है कि उसे रंगने तथा कार्य के स्थान के लिए सही-सही चुनना। रंग को पूरी तरह समझने के लिए उसके तीन आयामों को जानना आवश्यक है।

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वे हैं-वर्ण, मात्रा व मूल्य (मान)।
(क) वर्ण (Hue): इससे मूल रंग का पता चलता है। जैसे-लाल, हरा और नीला।
(ख) मूल्य (Value): रंग का हल्कापन या भारीपन जैसे-हल्का हरा, गहरा हरा।
(ग) मात्रा (Intensity): रंग की मन्दता व चमक के बारे में बतायें जैसे रक्त की तरह लाल, गुलाब का लाल इत्यादि।
विभिन्न रंगों का वर्गीकरण तीन भागों में किया जा सकता है, प्राथमिक, द्वितीयक ओर तृतीयक रंग।

पीला, लाल और नीला प्रथम श्रेणी अर्थात् प्राथमिक रंग है।
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दो प्राथमिक रंगों को समानुपात में मिलाने से एक द्वितीयक रंग बनता है। जैसे : नारंगी, हरा बैंगनी।
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तृतीयक रंग को एक प्राथमिक रंग तथा साथ वाले द्वितीयक रंग को मिलाकर बनाया जाता है जैसे लाली-नारंगी, लाल-बैंगनी, पीला-नारंगी और पीला-हरा, काला-सफेद, ग्रे और मटमैला रंग तटस्थ रंग हैं जो बाकी रंगों को सुन्दर दिखाते हैं।
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रंगों की योजना (Colour Schemes): रंगों की योजना बनाना एक दिलचस्प कार्य है। कई प्रकार की रंग योजनायें हैं। उनका वर्गीकरण संबंधित और अलग-अलग रंग योजना में किया जा सकता है।
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एक-रंगीय योजना (Mono-cromatic colour scheme): इसमें कोई भी एक मनपसन्द रंग प्रयोग किया जाता है। एक ही रंग के विभिन्न शेड प्रयोग किये जा सकते हैं। एक-रंगीय लाल योजना में पिंक, लाल, मैरून आदि रंग आते हैं।

समदर्शी योजना (Analogous colour scheme): समदर्शी योजना में प्राथमिक रंग के साथ उसके साथ वाले द्वितीयक रंगों का प्रयोग करते हैं। जैसे लाल-बैंगनी, नीला-बैंगनी इत्यादि । इस योजना में 3-5 रंग हो सकते हैं तथा आप अपनी आवश्यकतानुसार रंग चुन सकते हैं।

विपरीत योजना (Complementary colour scheme): इसमें रंग चक्र के बराबर की दूरी वाले तीनों रंगों को प्रयोग करते हैं जैसे पीला-नीला लाल, हरा व केसरी-बैंगनी, लाल, केसरी-नीला, बैंगनी-पीला हरा आदि।

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खण्डित विपरीत योजना (Split colour scheme): इसमें रंग चक्र के एक रंग के साथ इसके सामने वाले रंग को छोड़कर उसके आस-पास के रंगों को लिया जाता है जैसे पीला-नीला बैंगनी और लाल बैंगनी।

त्रिकोणीय योजना (Triad colour scheme): इसमें रंग चक्र के एक रंग के रंगों को लिया जाता है जैसे पीला-नीला बैंगनी और लाल बैंगनी।

रंगों के लाभ (Uses of colour)
व्यक्तित्व उभारना (Express personality): अगर आप गर्म स्वभाव के व्यक्ति हैं तो आप सारे रंगों के सामने लाल को ही प्रयोग में लायेंगे । पीले को मध्यम स्वभाव का कहा गया है। हरा, नीला ठंडे रंग के नाम से जाने जाते हैं।

रंग कमरे का वातावरण निश्चित करता है –
चमकदार रंग गर्मी, शक्ति व मित्रता के रूप हैं जबकि सफेद रंग सफाई; पवित्रता व शांति का द्योतक है। रंग से कमरे का आकार व स्थान बदल सकता है-एक लंबे और कम चौड़े कमरे का आकार आप बदल सकते हैं। लम्बी दीवारों को गहरे रंगों से रंग कर कमरा अनुपाती बनाया जा सकता है। एक अंधेरा व छोटा कमरा, सफेद रंग करने से बड़ा दिखता है। ठीक ढंग से रंग . का प्रयोग करने से स्थान की सुन्दरता बढ़ जाती है।

कमियों को छुपाने के लिए रंग (Colour for disguising flaws): भवन निर्माण के समय रह गई कुछ कमियों को छुपाने के लिए अक्सर रंग का प्रयोग करके भवन को सुन्दर बना दिया जाता है। सफेद दीवार के सामने लाल रंग की पुष्प परिसज्जा हर व्यक्ति को प्रसन्नचित्त कर देती है। रंग किसी भी स्थान को सुन्दर बना देता है। सजावट के उपसाधनों में रंगों का प्रयोग जगह की सुन्दरता को चार चांद लगा देता है।

प्रश्न 11.
रंगों का गृहसज्जा में प्रयोग करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखेंगे?
उत्तर:
रंग प्रयोग करने की मार्गदर्शिका (Guidelines for Using Colours):
1. वही रंग प्रयोग करें जो परिवार के सदस्यों को अच्छा लगे।
2. हल्का, कम मात्रा व ठंडे रंग को प्रयोग करने से कमरा बड़ा लगता है।
3. गहरे रंग प्रयोग करने से कमरा छोटा लगता है।
4. विषम रंग अपनी ओर ध्यान आकर्षित करते हैं –
(क) विषम रंग की दीवार के विरुद्ध सफेद सोफा अधिक ध्यान आकर्षित करेगा बजाय इसके कि सफेद दीवार के विरुद्ध सफेद सोफा रखा गया हो।
(ख) एक कमरे में बहुत से विषम रंगों से ध्यान बंट जाएगा तथा थकान पैदा करेगा।
5. एक जैसा रंग आरामदायक होता है।
6. लाल रंग पर आधारित रंग कमरे को गर्म बनाते हैं।
7. नीले रंग पर आधारित रंग कमरे को ठंडा बनाते हैं ।
8. हल्के रंग शीघ्र गंदे हो जाते हैं तथा अतिरिक्त सफाई मांगते हैं। गहरे रंगों पर मिट्टी चमकती है।
9. साथ-साथ रंग प्रयोग करने में उनका अन्तर बढ़ जाता है –
(क) हल्के और गहरे. रं का साथ-साथ प्रयोग करने पर हल्का अधिक हल्का व गहरा अधिक गहरा लगता है
(ख) चमक व फीके रंम को साथ-साथ प्रयोग करने से चमकीले रंग अधिक चमकीले व फीव अधिक फीके लगते हैं।
(ग) जब गर्म व ठंडे रंग साथ-साथ प्रयोग किये जाते हैं तो ठंडे अधिक ठंडे व गर्म अधिक गर्म लगते हैं।
10. रंग का गहरापन उसकी मात्रा पर आधारित होता है। जितना भी क्षेत्र अधिक होगा, रंग उतना ही गहरा लगता है।
11. बड़े क्षेत्र पर हल्का रंग करने से अच्छा लगता है। चमकीले रंगों को थोड़ी मात्रा में प्रयोग करना चाहिए।
12. रंग योजना अच्छी लगती है जब एक रंग का अधिक प्रयोग किया जाए।
13. जब विपरीत रंग प्रयोग में लाये जाते हैं तो दोनों एक-दूसरे को अधिक चमकीला बना देते हैं।
14. रोशनी के साथ रंग भी बदल जाते हैं। बनावटी रोशनी रंगों को नर्म कर देती है। वह रंग जो बनावटी रोशनी में आकर्षित लगते हैं, प्राकृतिक रोशनी में आकर्षक लगें, यह आवश्यक नहीं।
15. तटस्थ रंग भी रंग योजना का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
16. खुरदरी सतह पर रंग गहरे लगते हैं तथा वही रंग से चिकनी सतह पर उतने गहरे नहीं लगते।

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प्रश्न 12.
निम्नलिखित स्थितियों में रंगों का किस प्रकार प्रयोग करेंगे –
(क) एक छोटा कमरा बड़ा लगे
(ख) एक अंधेरा कमरा उज्जवलित लगे
(ग) लम्बा और पतला कमरा अनुपात में लगे।
उत्तर:
रंगों की सहायता से बदलाव लाने के तरीके
I. एक छोटा कमरा बड़ा लगे –
(क) दीवारों को हल्के रंग पेन्ट करने से (By painting the walls with light colours)
(ख) पूरे कमरे में एक ही रंग का प्रयोग करके (Using the same colour throughout the room)
(ग) ठंडे रंगों का प्रयोग करके (Making use of cool colours)
II. एक अंधेरामय कमरा उज्जवलित लगे-गहरे रंगों का प्रयोग करके (Making use of warm colours)
III. एक लम्बा व पतला कमरा अनुपात में लगे –
(क) लम्बी दीवारों को हल्के रंगों से पेन्ट करना तथा छोटी दीवारों को गहरे रंग से पेन्ट करना चाहिए (By painting longer walls in cool colours and shorter walls in warm colours)
(ख) लम्बी दीवारों को रंग की गहराई बढ़ाते हुए प्रयोग करना तथा छोटी दीवारों को रंग की गहराई कम करते हुए प्रयोग करना (By painting longer walls in darker value of the colour and shorter walls in lighter value of the same colour)

प्रश्न 13.
आपकी सहेली अब एक कमरे के मकान में रहने लगी है। उसके लिए फर्नीचर की विशेषताएँ बताएँ। जगह बड़ी लगने के लिए फर्नीचर सज्जा के दो तरीके सुझाएँ।
उनर:
छोटे कमरों के लिए फर्नीचर सज्जा की विशेषताएँ –

  • बहुमुखीय प्रयोग (Multi puniti)
  • हल्का पन (Light)
  • मजबूत व ज्यादा देर तक चलने वाला (durable)
  • तह कग्न वान (Folding)

जगह बड़ी लगने के तरीके (फर्नीचर द्वारा):

  • आवश्यकतानुसार थोड़ा फर्नीचर प्रयोग में रखे।
  • जब फर्नीचर की आवश्यकता न हो तो तह कर दें।
  • बड़ा फर्नीचर जैसे पलंग व अलमारी दीवार के साथ रखें।
  • जगह के इस्तेमाल के अनुसार फर्नीचर रखें। सम्बन्धित कार्य जगह पास-पास होनी चाहिए।
  • दीवारों की जगह का अत्यधिक प्रयोग करना चाहिए। (built in fixtures)