Bihar Board Class 7 Sanskrit Solutions Amrita Bhag 2 व्याकरण संधि
BSEB Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण संधि
माहेश्वर सूत्र – संस्कृत की वर्णमाला का समावेश महर्षि पाणिनी के व्याकरण-सूत्र में मिलता है । महर्षि पाणिनी के सूत्र ही वह धूरी है, जिनके याकरण शास्त्र चक्रवत् नाचता है । इन पाणिनीय सत्रों के मूल में 14 माहेश्वर सूत्र बैठे हैं । कहते हैं, ये चौदहों सूत्र देवाधिदेव महेश्वर (शंकर) के डमरू-निनाद से निकले थे, अतः माहेश्वर सूत्र कहलाये । ये निम्नलिखित हैं_
- अइउण
- ऋलुक्
- एओङ
- ऐऔच
- हयवरट
- लण,
- जमणनम्
- झभञ्
- घढधः
- जबगडदश
- खफछठथचटतव्
- कपय
- शपसर् एवं
- हल्
संधि
जब दो वर्ण (स्वर अथवा व्यंजन) एक-दूसरे के अत्यंत समीप चले आते हैं, तो उस स्थिति को ‘संहिता’ कहते हैं । संहिता की स्थिति में उत्पन्न होनेवाले वर्ण-विकार को ही ‘संधि’ कहते हैं । यथा
- देव + आलयः = देवालयः
- गिरि + ईशः = गिरीशः
- राम + इन्द्र = रामेन्द्रः
ऊपर के उदाहरणों में जिन दो वर्षों के बीच + (जोड़) का चिह्न दिखलाया गया है, वह संहिता की स्थिति है । संहिता की स्थिति में उत्पन्न होनेवाले वर्ण-विकार ‘आ’ (व + अ – वा), ‘ई (रि + ई = री) एवं ‘ए’ (म + इ – में) वर्ण-विकार ही ‘संधि है।
संधि के भेद- ‘संधि’ के भेद या प्रकार तीन माने यगे हैं । ये हैं
(क) स्वर-संधि
(ख) व्यंजन-संधि एवं
(ग) विसर्ग-संधि ।
आगे इनका सोदाहरण विवेचन किया जा रहा है ।
स्वर संधि
‘स्वर वर्ण’ में साथ जब ‘स्वर-वर्ण’ की संधि होती है तो उसे ‘स्वर-संधि’ कहते हैं । जैसे-
हिम + आलयः = हिम् + आलयः हिमालयः। गण + ईश = गणेशः । ‘स्वर-संधि’ के मुख्य पाँच भेद होते हैं-
- दीर्घ-संधि
- गुण-संधि
- वृद्ध-संधि
- यण-संधि एवं
- अयादि संधि ।
दीर्घ संधि
दो समान स्वर वर्णों (ह्रस्व या दीर्घ) के बीच जो संधि होती है, उसे दीर्घ-संधि कहते हैं । जैसे
- अ + अ – आ
- उ + उ – ऊ
- अ + आ + आ
- उ + ऊ – ऊ
- आ + अ = आ
- ऋ + ऋ ऋ
- ऊ + उ = ऊ
- आ + आ = आ
- ऊ + ऊ = ऊ आदि ।
उदाहरण –
- मुर + आरिः = मुरारिः
- मही + इन्द्रः = महीन्द्रः ।
- देव + आलयः = देवालयः
- श्री + ईशः = श्रीशः
- विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
- भानु + उदयः = भानूदयः
- विद्या + आलयः = विद्यालयः
- लघु + ऊर्मिः = लघूमिः
- कवि + इन्द्र = कवीन्द्रः
- भा + उन्नतिः = भ्रून्नतिः
- गिरी + ईशः = गिरीशः
- वधू + कहनम् = वधूहनम्
सूत्र- अकः सवर्णे दीर्घ:- ‘अक्’ (अ, इ, उ, एवं ऋ) से परे (बाद में) यदि सवर्ण अच् (अ, इ, उ, एवं ऋ) में से जो वर्ण-विकार उत्पन्न होता है, उसे ‘दीर्घ-संधि’ कहते हैं ।
गुण संधि
- अ + इ – ए
- अ + ई = ए
- आ + इ = ए
- आ + ई = ए
- अ + उ = ओ
- अ + ऊ = ओ
- आ + उ = ओ
- आ + ऊ = ओ
- आ + ऋ – अर्
- आ + ऋ = अर्
उदाहरण –
- खग + इन्द्रः = खगेन्द्र
- अरुण + उदयः = अरुणोदयः
- सुर + ईशः = सुरेशः
- महा + उदयः = महोदयः
- रमा + इन्द्रः = रमेन्द्रः
- महा + ऊर्मि = महोर्मि:
- गंगा + ईशः = गंगेश |
- महा + ऊति = महोति:
- देव + ऋषि = देवर्षिः
- महा + ऋषिः = महर्षि
सूत्र- अदेङ्गु णः- ‘अत्’ के स्थान पर ‘एङ्’ हो जाता है, यदि उसकी गुण-संज्ञा होती है । तात्पर्य यह है कि यदि पहले ‘अ’ या ‘आ’ वर्ण आया हो बाद में ‘इ’, ‘ई’, ‘उ’, ‘ऊ’, ‘ऋ’ या ‘लु’ वर्ण आया जो तो पूर्व वर्ण और परवर्ण, दोनों मिलकर एक गुण-वर्ण (ए, ओ, अर् या अल्) हो जाते हैं ।
उदाहरण-
- खगेन्द्रः
- अरुणोदयः
- देवर्षिः
वृद्धि-संधि –
‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘ए’, ‘ऐ’, ‘आ’ या ‘औ’ हो तो दोनों के मिलने से जो वर्ण विकार उत्पन्न होता है, उसे ‘वृद्धि-संधि’ कहते हैं । जैसे-
- अ + ए = ऐ
- आ + ए = ऐ
- अ + ए = ऐ
- आ + ऐ = ऐ
- अ + ओ = औ
- आ + ओ = औ
- अ + औ = औ
- आ + औ = औ
उदाहरण –
- अद्य + एव = अद्यैव
- सूप + ओदनम् = सूपौदनम्
- तदा + एव = तदैव
- चित्त + औदार्यम् = चितौदार्यम्
- परम + ऐश्वर्यम् = परमैश्वर्यम्
- गंगा + ओघः = गंगौघः
- महा + ऐश्वर्यरम् = महैश्वर्यम्
- महा + औषधम् = महौषधम्
सूत्र- वृद्धिरेचि- ‘अत्’ से परे ‘एच’ हो तो वृद्धि-एकादेश हो जाता है। तात्पर्य यह कि यदि पूर्व में ‘अ’ ‘आ’ स्वर वर्ण आया हो और बाद में “ए’ या ऐ अथवा ‘ओ’ या ‘औ’ स्वण-वर्ण आता हैं तो दोनों मिल क्रमश: ‘ए’ या ‘औ’ हो जाते हैं ।
उदाहरण-
- एकैकः
- सदैवः
- महौषधिः आदि ।
यण-संधि
हस्व या दीर्घ ‘इ’, ‘ठ’, या ‘ऋ’ वर्ण के आगे कोई अन्य स्वर आये तो ‘इ’ या ‘इ’ के बदले ‘य’, ‘उ’ या ‘क’ के बदले ‘व्’ तथा ‘ऋ’ के बदले ‘अर्’ हो जाता है । जैसा
- इ+ अ- य
- अ + अ = व
- ऋ + अ = अर
- ई + अ = य
- क + अ = व
उदाहरण –
- यदि + अपि = यद्यपि
- मनु + अंतरम् = मन्वन्तरम्
- प्रति + एकम् = प्रत्येकम्
- वधू + आदिः = वध्वदिः
- अनु + एषणनम् = अन्वेषणम्
- मातृ + अर्थ = मात्रर्थः
सूत्र- इको यणचि- ‘अच्’ के परे (बाद में अच् के) रहने पर ‘इक्’ (‘इ’, ‘अ’, ‘ऋ’ एवं ‘लु’) के स्थान पर ‘यक्’ (‘य’, ‘व’, ‘र’, एवं ‘ल’) हो जाता है ।
जैसे-
- इत्यादिः
- स्वागतम्धा
- त्रंशः
- लाकृतिः आदि ।
अयादि-संधि
यदि ‘ए’, ‘ऐ’, ‘औ’ स्वर वर्ण के पूर्व में रहे उसके बाद कोई ‘अच्’ स्वर आता हो तो दोनों मिलकर क्रमश: ‘अय’, आय ‘अव’, आव हो जाता है । जैसे
- ए + अ = अय
- ऐ + अ = आय
- और + अ = आव
- ओ + अ = अव
उदाहरण-
- ने + अनम् = नयनम्
- पो + इत्रः = पवित्रः
- गै + अक: = गायक:
- पौ + अक: = पावकः
सूत्र- एचोऽयवायाव:- ‘एच’ से परे कोई ‘अ’ स्वर आया हो तो उसके स्थान पर क्रमशः ‘अय’, ‘आव’ आदेश हो जाता है । जैस- शयनम्, भवनम, विनायकः, रावणः, द्वावेव आदि ।
पूर्वरूप संधि
किसी पद (सार्थक शब्द) के अंत में रहने वाले ‘एङ्’ (‘ए’ एवं ‘औ’ वर्ण) से परे यदि ‘अत् (अवर्ण) आया हो तो पूर्व पर (पहले एवं बाद में . आये) वर्णों का एकादेश हो जाता है । जैसे-
- ए + अ = ए
- ओ + अ = ओ
उदाहरण-
- सखे + अत्र – सखेऽत्र
- गुरो + अत्र = गुरोऽत्र
- हरे + अव = हरेऽव
- शिवो + अर्य: – शिवोऽर्य:
सूत्र- एक पदान्तादति- किसी पद के अंत में रहने वाले ‘एङ’ के बाद यदि ‘अत्’ आया हो तो पूर्व और पर वणों का पूवरूप एकादश हा जाता है। जैसे- सखेऽत्र, गुरोऽत्र आदि ।
प्रगृह्यसंज्ञक संधि-अभाव
द्विवचनांत पदों के ‘इ’, ‘उ’ वर्ण प्रगृह्य संज्ञक होते हैं अतः इनके बीच संधि नहीं होती है । जैसे
- ई + ई = ई ई
- क + इ = क इ
- ए + ए = ए ए
उदाहरण –
- हरी + इमौ = हरी इमौ
- साधू + इमौ = साधू इमौ
- लते + एते = लते एते ।
सूत्र- इंदूदेद द्विवचनं प्रगृह्यम्- ईत कत्-एत वाले द्विवचनांत पद प्रगृह्यसंज्ञक होते हैं, अतः इनके बीच संधि का अभाव होता है । जैसे- हरी एतौ, मुनी इमो, लते एते, भानू अमू ।
व्यंजन – संधि
पूर्व में (पहले) आये व्यंजन-वर्ण एवं उसके बाद आये स्वर अथवा व्यंजन वर्ण की संहिता की स्थिति में जो वर्ण-विकार उत्पन्न होता है, उसे ‘व्यंजन-संधि’ कहते हैं । जैसे- वाग्जालम्, अजन्तः, उल्लेख, जगन्नाथ आदि ।
व्यंजन-संधि के कुछ प्रमुख रूप हैं
(क) श्चुत्व-संधि
(ख) तृत्व-संधि एवं
(ग) जशत्व-संधि
(1) श्चुत्व-संधि
‘श्चु’ का अर्थ होता है ‘श’ एवं ‘च’ । तात्पर्य यह कि इस संधि में ‘स्’ के स्थान पर ‘श्’ हो जाता है और तवर्ग (‘त’, ‘थ’, ‘द’, ‘ध’, एवं ‘न’) के स्थान पर क्रमशः चवर्ग (‘च’, ‘छ’, ‘ज्’, ‘झ’, एवं ‘अ’) हो जाता है। जैसे
‘स्’ का ‘श्’ ‘त्’ का ‘च’ ‘द्’ का ‘ज’
उदाहरण
- रामस् + शते = रामश्शेते
- उत् + चरणम् = उच्चारणम्
- सत् + चित् = सच्चित्
- सत् + जनः = सज्जनः
सूत्र- स्तोः श्चुना श्चुः- ‘स’ व तवर्ग के स्थान पर ‘श्’ एवं चवर्ग हो जाता है । तात्पर्य यह कि ‘श्चुत्व’ में ‘स्’ के स्थान पर ‘श्’ एवं ‘त्’, ‘थ्’, ‘द’, ‘ध्’ एवं ‘न्’ के स्थान पर क्रमशः ‘च’, ‘छ’, ‘ज्’, ‘झ’, एवं ‘ज्’ हो जाता है । जैसे- रामश्चिनोति, सच्चिरित्रः सज्जनः आदि ।
(2) ष्टुत्व-संधि
‘टु’ का अर्थ होता है ” एवं ‘ट्’ । तात्पर्य यह कि इस संधि में ‘स्’ के स्थान पर ‘ए’ एवं तवर्ग (‘त’, ‘थ’, ‘द’, ‘ध’, एवं ‘न्’) के स्थान पर टवर्ग (क्रमशः ‘द’, ‘ठ’, ‘ह’, ‘ढ’, एवं ‘ण’) हो जाता है । जैसे ‘त्’ का ‘श्’ ‘थ्’ का ” ” का ‘द’ ‘त्’ का ‘ट्’ ‘द्’ का ‘ड्’ एवं ‘न्’ का ‘ण’ ।
उदाहरण –
- धनुस् + टंकार = धनुष्टंकारः।
- पृष् + थम् = पृष्ठम्
- तत् + टीका = तट्टीका ।
- उद् + डयनम् = उड्यनम् ।
सूत्र- टुना टः- “स्’ एवं ‘तवर्ग’ के स्थान पर क्रमशः ‘श्’ एवं टवर्ग हो जाता है । जैसे- आकृष्टः, तट्टीका, पृष्ठम्, उडयनम् आदि ।
(3) जशत्व-संधि
पद (किसी सार्थक शब्द) के अंत में रहनेवाले ‘झल्’ (झ, भ, घ, ज, ब, ग, ड, द, फ, छ, ठ, थ, च, ट, त, क, प, श, स, एवं ह) के वर्णों के स्थान पर ‘जश्’ (ज, ब, ग, ड, द) के वर्ण हो जाते हैं । जैसे ‘क’ के स्थान पर ‘ग’ के स्थान पर ‘द’ ‘च’ के स्थान पर ‘ज्’ ‘प्’ के स्थान पर ‘ब्’
उदाहरण
- दिक् + गजः = दिग्गजः
- महत् + दानम् = महद्धानम्
- अच् + अंतः = अजन्तः
- अप् + जम् = अब्जम्
सूत्र- झलां जशोऽन्ते- किसी पद के अंत में रहने वाले ‘झल्’ प्रत्याहार के वणा क स्थान म ‘जश्’ प्रत्याहार के वर्ण हो जाते हैं । जैसे-वागीशः, दग्गजः, जगदीशः, अजन्तः. अब्जम् आदि ।
अन्य व्यंजन – संधियाँ
सूत्र- तोर्लि- जब पूर्ण वर्ण ‘तवर्ग’ हो और परवर्ण ‘ल’ हो तो पूर्व वर्ण (तवर्ण-त, थ, द, धू, न) का परसवर्ण (ल) हो जाता है । जैसे- तत् + लीन् = तल्लीनः । महान् + लाभः – महाँल्लाभः ।
सूत्र- यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा- जब किसी पद के अंत में ‘यर’ प्रत्याहार का कोई वर्ण (क्, च्, ट्, त्, प्, य, र, ल, व् आदि) हो और परवर्ण . कोई अनुनासिक (न्, म् आदि) हो, तो पूर्व वर्ण अपने वर्ग का पंचम वर्ग (अनुनासिक) हो जाता है । जैसे
- प्राक् + मुख: = प्राङमुख्ः
- जगत् + नाथ: = जगन्नाथः ।
सूत्र – शश्छोऽटि- जब किसी पद के अंत में ‘झय’ प्रत्याहार का कोई – वर्ण (क, च, द, प् आदि) हो और परवर्ण ‘श्’ हो तो उस ‘श’ का ‘छ’ विकल्प से होता है, यदि उस ‘श’ में ‘अट्’ प्रत्याहार का कोई वर्ण (अ, इ, उ आदि) जुटा हुआ हो । जैसे
- तत् + शिवः – तच्छिवः
- एतत् + श्रुत्वा – एतच्ध्रुवा ।
सूत्र- मोऽनुस्वार- किसी पद के अंत में रहनेवाले ‘म्’ का अनुस्वार हो जाता है, यदि परवर्ण हल् (व्यंजन-वर्ण) रहे । जैसे
- हरिम् + वंदे = हरिवन्दे ।
- देशम् + रक्षति = देशं रक्षति ।
सूत्र- अनुस्वारस्य ययि परसवर्णे:- अपदान्त अर्थात् जो पद के अंत में नहीं हो, बल्कि जो किसी पद के मध्यम में हो तो वैसे अनुस्वार का ‘परसवर्ण’ (यानि बाद में रहने वाले वर्ण के समान वर्ण) विकल्प से हो जाता है, यदि उसके बाद में ‘यय्’ (अर्थात् य, व, र, ल, अ, म, उ, न, ण, झ, भ, घ, ढ, ध, ज, ब, ग, ड, द, ख, क, छ, ठ, थ, च, ट, त, क एवं प वर्ण में से) प्रत्याहार का कोई वर्ण आया हो । जैसे
- किम् + करोषि – किङ्करोषि अथवा किं करोषि ।
- कथम् + चलसि – कथंचलसि अथवा कथं चलसि ।
- अयम् + टीकत – अयण्टीकते अथवा अयं टीकते ।
- त्वम् + तिष्ठ – त्वन्तिष्ठ अथवा त्वं तिष्ठ ।
विसर्ग-संधि ।
पूर्व में (पहल) आये (विसर्ग) के साथ जब स्वर वर्ण अथवा व्यंजन वर्ण की संधि होती ,, तो ‘विसर्ग-संधि’ कहते हैं । जैसे: अन्तः करणम्, पुनरागत:, पुरस्कारः, पूर्णश्चन्द्रः आदि । विसर्ग-सौंध के दो मुख्य रूप होते हैं-
- सत्व-संधि’ एवं
- अत्व-सधि’ ।
(1) सत्व-संधि
किसी पद में आये अन्त्य विसर्ग का ‘स्’ हो जाता है यदि उसके पश्चात् “खर’ प्रत्याहार का काई वर्ण (ख, फ, छ, च, ट, त, क, प, श, प एवं स में से कोई वर्ण) आया हुआ हो । जैसे- : + क – स्क, : + त = स्त, : _ + च = श्च, : + श : श्श, : + प्य, : + ट = ष्टः आदि ।
उदाहरण-
- पुरः + कारः – पुरस्कार:
- पूर्णः + चन्द्र – पूर्णचन्द्रः
- भाः + करः – भास्कर:
- गजः + चलति
- यशः + चिनोति – यशश्चिनोति
- नि: + चित = निश्चित
- रामः + षष्ठ = रामप्यष्ठः
- धनुः + टंकारः = धनुष्टंकार:
सूत्र – विसर्जनीयः सः- विसर्ग (:) का ‘स्’ हो जाता है, यदि ‘खर’ प्रत्याहार का कोई वर्ण उसके बाद में आया हो । जैसे- पुरस्कारः, नमस्कारः, भास्कर आदि ।
(2) अत्व-संधि
विसर्ग के पूर्व में ह्रस्व ‘अ’ रहने पर और उसके बाद में ‘हश्’ प्रत्याहार का कोई वर्ण (ह. ब, र, ल, न, म, ङ, ण, न, ण, भ, घ, ढ, ध, ढ, ध, ज, ब, ग, ड, द, ख, फ, छ, ठ, थ, च, ट, त, क, प, श; ष, र, ह, में से कोई वर्ण) आया हुआ हो तो उसे विसर्ग का अथवा उसके पूर्वः विद्यमान ‘र’ वर्ण का उत्व हो जाता है । जैसे
– व – अ + व : + – उ + द
+ र – उ + र : + घ . उ. घ
उदाहरण
- सरः + वरः = सर + उ + वरः = सरोवर:
- मनः + रथः – मन + उ + रथः = मनोरथः
- पयः + द: = पय + उ + द = पयोद:
- पयः + धरः – पय + उ + धरः = पयोधरः
सूत्र- हशि च- विसर्ग के पूर्व हस्व ‘अ’ के रहने पर एवं उसके बाद में ‘हश’ प्रत्याहार का कोई वर्ण रहने पर विसर्ग का अथवा उसके पूर्व ‘र’ का ‘उ’ हो जाता है । जैसे- सरोवरः, पयोधरः, मनोरथः मनोजः आदि ।
वर्ण-विकारों की संधिंगत स्मरणीय तालिक –
I. निम्नांकित की संधि करें।
II. निम्नांकित शब्दों में किन-किन वर्गों की संधि हुई है?
III. वर्गों का मेल, इसमें संधि के कुछ नियम के अनुसार दो वर्णों को रखा जाता है तथा पूछा जाता है कि दोनों वर्गों के मेल से कौन-सा नया वर्ण बनता है । अभ्यास के लिए उसके कुछ उदाहरण नीचे दिए जाते हैं।
स्मरणीय : प्रमुख संधि-विच्छेद
संज्ञा पद का परिचय
संस्कृत में ‘सार्थक’ शब्दों को पद कहते हैं । संस्कृत में जब मूल धातु में प्रत्यय जोड़ा जाता है तो उससे सार्थक शब्द बनता है और उसकी संज्ञा पद होता है। विभक्तियों के बिना संस्कृत में किसी शब्द का न तो कोई प्रयोग होता है और न उनका कोई अर्थ ही होता है।
मूल धातु से जुड़ने वाली विभक्तियों के दो वर्ग हैं- ‘सुप्’ विभक्तियाँ एवं ‘तिङ्’ विभक्तियाँ । इनमें ‘सुप्’ विभिक्तयाँ मुख्य रूप से ‘नाम’ पदों के साथ जुड़ती है । ‘नाम’ पदों का अर्थ है- संज्ञा-पद, सर्वनाम- पद एवं विशेषण पद । ‘तिह’ विभक्तियाँ मुख्य रूप से मूल धातुओं के साथ लगती हैं, जिन्हें ‘आख्यात’ कहते हैं । तिङ् धातु वाले पदों को ‘तिड़न्त-पद’ कहते हैं । संस्कृत भाषा में मुख्य व्यवहार इन्हीं दो वर्गों के पदों का होता है । जैसे
सुबन्त पद- बालकः, यतिः, साधु:, राजा, लता, नदी, फलम् आदि । तिङन्त पद- भवति, भवामि, भविष्यति, अभवत्, भवतु आदि ।
संज्ञा-पद से तात्पर्य उन पदों से हैं, जिनके द्वारा किसी व्यक्ति, वस्तु, भाव आदि के नाम का बोध होता है । स्वरूप की दृष्टि से संस्कृत में संज्ञा-पद दो प्रकार के होते हैं- अजन्त और हलन्त । अजन्त संज्ञा- पद के हैं, जिनके अंत में अ, इ, उ, आ, इ, ऊ, ए, ओ, या औ स्वर लगे होते हैं । जैसे- बालक (बालक + अ + बालक) यति (यत् + इ – यति) साधु (साध् + 3) जैसे शब्द अजन्त संज्ञा-पद हैं। कारण इनके अंत में अ, इ, उ जैसे स्वर लगे हैं।
हलन्त संज्ञा-वद वे हैं, जिनके अंत में कोई हलन्त वर्ण (जैसे- च्, ज, त. द्, न् आदि) लगा होता है । जैसे-जलमुच् (मेघ) सुहृद् (मित्र), पथिन् (रास्ता) आदि ।
संस्कृत में संज्ञा-पद तीन लिंगों एवं तीन वचनों में होते हैं । यथा
कारक-विभक्तियों का सामान्य परिचय
नाम-पदों (संज्ञा-पदों, सर्वनाम-पदों एवं विशेषण-पदों) के साथ ‘सुप्’ विभिक्तियाँ निम्नांकित हैं
सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति के ही समान रूप होते हैं, केवल एकवचन में रूप कुछ बदल जाते हैं । जैसे- रामः कं विसर्ग का लोप हो जाता है- राम ।
“सुप्’ विभक्तियाँ नाम-पदों के साथ जुड़कर उनके ‘कारक’ एवं संख्या (एकवचन, द्विवचन, बहुवचन) का बोध कराती है- “संख्या-कारक-बोधयत्रि विभक्तिः ।” संख्या (वचन) का संकेत पहले ही किया जा चुका है।