Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 17 कार्याचर या कार्य नैतिकता

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 17 कार्याचर या कार्य नैतिकता Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 17 कार्याचर या कार्य नैतिकता

Bihar Board Class 11 Home Science कार्याचर या कार्य नैतिकता Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत जैसे विकासशील देश की सकल राष्ट्रीय आय (Gross National Income) कम हो जाती है – [B.M.2009A]
(क) समय पर न पहुंचने के कारण
(ख) कार्य का सैद्धांतिक जानकारी (Theoretical knowledge और व्यवहारिक जानकारी (Pratical knowledge) न होने के कारण
(ग) कार्य अवधि में अपने कार्य स्थान पर उपलब्ध न रहना
(घ) उपर्युक्त में सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त में सभी

प्रश्न 2.
टीम की भावना दर्शाता है – [B.M.2009A]
(क) विकास का
(ख) सहयोग का
(ग) अवकाश का
(घ) अपात का
उत्तर:
(क) विकास का

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प्रश्न 3.
किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रथम आईना है – [B.M.2009A]
(क) व्यवहार
(ख) भाषा
(ग) आवाज
(घ) संस्कार
उत्तर:
(ख) भाषा

प्रश्न 4.
एक अच्छे ‘व्यक्तित्व की प्रथम पहचान है – [B.M.2009A]
(क) विनम्र भाषा
(ख) कटु भाषा
(ग) तुनकता
(घ) उग्र भाषा
उत्तर:
(क) विनम्र भाषा

प्रश्न 5.
हल्का श्रम के अंतर्गत कौन-सा कार्य आता है ? [B.M.2009A]
(क) फर्श साफ करना
(ख) कपड़े धोना
(ग) प्रेस करना
(घ) बुनाई करना
उत्तर:
(घ) बुनाई करना

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किसी भी कार्य स्थिति के लिए श्रमिक, कार्य उपकरण व कार्य स्थान के कौन-कौन-से तीन महत्त्वपूर्ण संघटक हैं ?
उत्तर:
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प्रश्न 2.
कार्याचार (Work Ethics) से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
कार्याचार से अभिप्राय है कार्य के समय व्यक्ति का आचार या व्यवहार। कार्याचार या कार्य नैतिकता किसी भी कार्य को आनंदित ढंग से पूर्ण करने के लिए आवश्यक है। कार्याचार से कार्य करने तथा करवाने वाले दोनों को आदर तथा सम्मान का भाव मिलता है।

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प्रश्न 3.
कार्य नैतिकता (Work Ethics) से संबंधित कोई पांच आदतें लिखें।
उत्तर:

  • कार्य के प्रति संपूर्ण निष्ठा।
  • कार्य के प्रति नियमित व समयनिष्ठ होना।
  • कार्य को सही रूप में समझना।
  • अपने सहकर्मियों के साथ नम्र व सादर भाषा में बोलना।
  • अपने साधनों का उचित प्रबंध व उपयोग करना।

प्रश्न 4.
कार्य स्थान पर अनुशासन रखने के लिए दो महत्त्वपूर्ण तथ्य लिखिए।
उत्तर:
1. समयनिष्ठा (Punctuality)।
2. नियमितता (Regularity)।

प्रश्न 5.
नम्र व मृदु व्यवहार (Calm & Soft behaviour) कार्यक्षमता को बढ़ाता है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कार्यालय में मधुर और प्रसन्न वातावरण बनाए रखने में मधुर व नम्र भाषा का प्रयोग बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि ऊँची आवाज में बोला जाए तो लोगों में कड़वाहट उत्पन्न होती है, झगड़ा-फसाद हो जाता है और बहसबाजी में न केवल समय व्यर्थ जाता है परन्तु हमारी शान्ति भी व्यर्थ जाती है। परिणामस्वरूप हमारी कार्यक्षमता में कमी आ जाती है।

प्रश्न 6.
कार्य में दक्षता (Efficiency in work) का कार्यपूर्ति पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
अपने कार्य को सफलतापूर्वक करने हेतु उस कार्य में दक्षता हासिल करना अति आवश्यक है। कार्य दक्षता हासिल करने से न केवल कार्य समय पर पूरे होते हैं अपितु आत्मिक सन्तुष्टि भी प्रदान करती है। किसी भी कार्य को रुचिपूर्वक करते रहने हेतु सन्तुष्टि की प्राप्ति (Job satisfaction) अति आवश्यक है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
कार्य नैतिकता का क्या अर्थ है तथा इसके क्या लाभ हैं ?
उत्तर:
कार्य नैतिकता (Work ethics): का अर्थ सदाचार तथा गलत-सही अनुभूति होना है, कार्य नैतिकता कार्य करने की मानक स्थिति है। व्यक्ति की अच्छे-बुरे की सही और गलत अवधारणा ही उसके कार्य पर प्रभाव डालती है।

लाभ (Advantages):
किसी भी कार्य को पूरी लगन से करने के निम्नलिखित लाभ हैं –

  • कार्य करने वाले व्यक्ति तथा कार्य करवाने वाले व्यक्ति को सन्तुष्टि होती है और आनन्द प्राप्त होता है।
  • व्यक्ति को कार्य करने का उचित उद्देश्य मिलता है और वह उद्देश्यहीन होकर कार्य को केवल कार्य करने के लिए नहीं करता है।
  • पूरी लगन से कार्य करने पर व्यक्ति अपने द्वारा अपने अधिकारियों द्वारा बनाए लक्ष्यों की प्राप्ति सरलतापूर्वक करता है।
  • कार्य पूर्ण होने अथवा लक्ष्य प्राप्ति से व्यक्ति को प्रोत्साहन मिलता है जो उसे भविष्य के लिए प्रेरित करता है।
  • व्यक्ति का आत्मविश्वास बढ़ता है और वह भविष्य में कार्यों को और अच्छे ढंग से करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 2.
कार्य स्थल पर अनुशासन (Discipline) क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
अनुशासन-व्यवस्था का एक हथियार (Discipline as a Tool of Management): अनुशासन लक्ष्य की सफलता को प्राप्त करने के लिए व्यवस्था का एक अस्त्र है। अनुशासन एक प्रकार का दबाव है जिसके द्वारा लक्ष्य प्राप्ति के लिए बनाए गए निर्देशों तथा नियमों का पालन कराया जाता है। यह संस्था या समूह के सामान्य कार्यकलापों के लिए उत्तरदायी है। व्यवस्था को उपर्यक्त दोनों प्रकार की विधियों के आवश्यकतानसार प्रयोग द्वारा बनाए रखना चाहिए। इससे एक अच्छे कार्यकर्ता को अभिप्रेरणा मिलती है तथा कर्तव्यों से विमुख कार्यकर्ता को सजा।

इससे अच्छे कार्यकत्तओं की उपलब्धियों को देखकर दूसरे के मन में इसकी इच्छा जागती है तथा वह भी अधिक मेहनत करता है। परन्तु इसका दूसरा पहलू यह भी है कि उस वर्ग के व्यक्तियों को जिनके पास ये सभी अधिकार हैं, उन्हें पहले स्वयं उ.वेत आदर्श व्यवहार प्रस्तुत करना चाहिए अर्थात् अपने अधीन काम करने वाले कार्यकर्ताओं को आदेश देने से पूर्व उन्हें उन नियमों एवं सिद्धान्तों को स्वयं अमल में लाना चाहिए, जिसका पालन वे दूसरों से करवाना चाहते हैं। तभी सही अनुशासन कायम हो पाएगा।

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प्रश्न 3.
कार्यस्थल पर नैतिकता का पालन करने के नियमों का उल्लेख करें।
उत्तर:
अपने कार्यस्थल पर नैतिकता का पालन करना अति आवश्यक है ताकि कार्य सफलतापूर्वक किया जा सके। ये नियम निम्न हैं –

  • कार्य के प्रति निष्ठा रखना।
  • कार्य में दक्षता हासिल करना।
  • संसाधनों का सुव्यवस्थित ढंग से प्रयोग करना अर्थात् अपना समझ कर प्रयोग करना।
  • सुनियोजित व नियमित ढंग से कार्य करना।
  • अपने स्थान पर उपलब्ध रहना व कार्यरत रहना।
  • मधुर व नम्र भाषा का प्रयोग करना।
  • संगठन व सहयोग की भावना से कार्य करना।
  • अपने कार्य से सम्बन्धित नई जानकारी प्राप्त करते रहना तथा अपने ज्ञान को विशेष कार्यक्रमों द्वारा आधुनिक बनाना।

उपर्युक्त नियमों का पालन करने से ही वांछित परिणाम मिल सकते हैं अन्यथा उत्तम कार्यस्थल व उपकरण लेने के बाद भी सफलता असम्भव है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
कार्यस्थल पर अनुशासन में रहने के लिए किन-किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए ? विस्तार से लिखिए।
उत्तर:
कार्य चाहे घर अथवा बाहर का हो, हमें निम्नलिखित नियमों का पालन करना आवश्यक है –
1. अनुशासन (Discipline): किसी भी कार्य को करने के लिए अनुशासन के नियमों का पालन करना आवश्यक है। कोई भी कार्य यदि अनुशासित ढंग से न किया जाए तो वह सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं होता और उद्देश्यों की पूर्ति नहीं होती है। अनुशासन बनाए रखने के लिए प्रत्येक कार्यालय अथवा घर में कुछ नियम बनाए जाते हैं, जैसे कार्यालय में समय पर पहुँचना, अपने से बड़े पद के अधिकारी का सम्मान करना, सौंपे गए कार्य को उचित ढंग से पूरा करना आदि।

घर में विभिन्न परिवार के सदस्यों के लिए भिन्न-भिन्न नियम होते हैं, जैसे बच्चों को शाम को निश्चित समय तक घर लौटना, समय पर पढ़ना तथा खेलना, समय पर स्कूल में पहुंचने के लिए समय पर प्रात:काल उठना व तैयार होना आदि। अनुशासन के अभाव में कोई भी कार्य सन्तोषजनक रूप से पूर्ण नहीं होता है। अनुशासनहीन व्यक्ति का व्यक्तित्व बिखरा हुआ होने के कारण कार्य के परिणामों में भी इसकी स्पष्ट झलक दिखाई देती है।

कार्यस्थल पर अनुशासन निम्न दो प्रकार से लाया जा सकता है –
(क) सकारात्मक विधि (Positive Method)
(ख) नकारात्मक विधि (Negative Method)

(क) सकारात्मक विधि-इस विधि द्वारा व्यक्ति का कार्य के प्रति अच्छा दृष्टिकोण, उसमें अच्छी आदतों का विकास, उसका प्रोत्साहन तथा उसकी प्रशंसा द्वारा कार्य के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण बनाया जाता है जिससे वह कार्य को पूरी लगन से करे और उसे अपने पर बोझ न समझे।

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(ख) नकारात्मक विधि-इस विधि द्वारा व्यक्ति को दंड व जुर्माने के डर से अनुशासित किया जाता है जिससे वह कार्य को बोझ समझकर करता है और सदैव कार्यप्रणाली को दोषी ठहराता है।

2. समय पर कार्य करना (Working in time): उचित समय पर कार्य करना आवश्यक है। प्रत्येक कार्य के लिए एक उचित समय होता है और वह समय हाथ से निकलने के पश्चात् दोबारा वापस नहीं आता है। यहाँ पर समय पर कार्य करने से अभिप्राय कार्यस्थल में समय पर पहुँचना भी है। यदि कार्यस्थल में पहुंचने का कोई निश्चित समय नहीं होगा तो वहाँ कार्य करने वाले सभी अपनी सुविधा एवं इच्छानुसार पहुंचेंगे और दूसरों के लिए असुविधा का कारण बनेंगे।

प्रत्येक व्यक्ति को यह अवश्य समझ लेना चाहिए कि जो असुविधा एवं खिन्नता उन्हें दूसरों का इन्तजार करने में होती है शायद वही असुविधा एवं खिन्नता दूसरों को भी उनके देर से पहुंचने पर होगी। उदाहरण के लिए बैंक अथवा किसी अन्य कार्यालय में किसी अधिकारी के देर से आने पर यदि कार्य देर से शुरू हो तो वहाँ पर इन्तजार कर रहे व्यक्तियों को किन-किन मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, यह उस व्यक्ति से अच्छा और कोई नहीं जान सकता।

कई कार्य स्थल तो ऐसे हैं जहाँ पर यदि देर से पहुँचा जाए तो कार्य में विलम्ब तो होगा ही उसके साथ-साथ हम अनेक व्यक्तियों के लिए एक गलत उदाहरण बनेंगे। उदाहरण के लिए स्कूल, कॉलेज आदि में यदि शिक्षक देर से पहुँचेंगे तो वह विद्यार्थियों के लिए क्या उदाहरण बनाएँगे। इस प्रकार कुछ व्यक्तियों की लापरवाही के कारण अनेक विद्यार्थी अनजाने ही समय की पाबन्दी को अपना जीवन मूल्य नहीं बना पाते हैं।

3. पूर्ण समय तक कार्यालय में उपस्थित रहना (Full time duty at work place): कई व्यक्ति प्रायः यह समझते हैं कि कार्यालय में समय पर पहुँचकर अपनी उपस्थिति लगाने से उनका काम पूरा हो गया है। यह धारणा एकदम गलत है क्योंकि कार्यालय के समय के अनुसार पूरे समय अपनी जगह पर बैठना तथा कार्य करना भी उतना ही आवश्यक है जितना कि कार्यालय में समय पर पहुँचना तथा समय से बाहर निकलना।

प्रत्येक कर्मचारी के लिए यह आवश्यक है कि वह पूरे दिन में सम्पन्न किए जाने वाले कार्यों की सूची बना ले और इस बात का प्रयत्न करे कि जो कार्य उसे आज पूरा करना है वह उसे कल के लिए न छोड़े। प्रत्येक कर्मचारी चाहे वह अधिकारी हो या क्लर्क हो अथवा किसी मिल में मजदूर हो या मालिक हो, अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से इस आदत को डाल ले तो कार्यक्षमता बढ़ने के साथ-साथ देश की उन्नति होगी और देखते ही देखते भारत की गिनती विकासशील देशों से विकसित देशों में हो जाएगी।

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4. कार्य में निपुणता होना (Efficiency in work): किसी भी कार्य को सफलता से करने के लिए कार्य में निपुणता होना अति आवश्यक है। आप इस बात को भली प्रकार से जानते हैं कि बीमार होने पर यदि हम दवाई किसी प्रशिक्षित डॉक्टर की अपेक्षा नीम हकीम से लें तो बीमारी ठीक होने के स्थान पर अधिक उग्र भी हो सकती है। प्रायः कार्य का पूर्ण ज्ञान न होने पर कार्य कुशलता तो कम होगी ही अपितु कार्य के परिणाम भी उत्तम नहीं होंगे।

किसी अधिकारी को अपने कार्य का पूर्ण ज्ञान न होने पर या तो उसे हर समय अन्य साथियों से पूछना पड़ेगा या फिर जैसे-तैसे गलत-सही कार्य को सम्पन्न करना पड़ेगा। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने काम को भली प्रकार जानता है वह कम समय में ही कार्य को भली प्रकार सम्पन्न करके दूसरों के लिए उदाहरण बन सकता है।

5. शिष्ट भाषा का प्रयोग करना (Use of disciplined language): प्रत्येक व्यक्ति को सदैव शिष्ट भाषा का प्रयोग करना चाहिए। शिष्ट भाषा का प्रयोग न केवल कार्यस्थल में अपितु घर, परिवार में व साथियों में करना भी वांछनीय है। किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व का प्रथम आईना उसकी भाषा है। कोई चाहे कितना भी. शिक्षित हो, ऊँचे से ऊँचे पद पर हो या आयु में बड़ा हो, वह एक शिष्ट व्यक्ति तभी माना जाएगा जब उसमें अन्य वांछित गुणों के साथ-साथ शिष्टतापूर्वक विनम्र भाषा में बोलने का गुण हो।

विनम्र भाषा एक अच्छे व्यक्तित्व की प्रथम पहचान है। एक अमिट छाप तभी छोड़ी जा सकती है जबकि आपकी भाषा व बोलचाल विनम्र एवं शिष्ट हो। विनम्रता से बोलने के लिए हमें किसी को भी कुछ नहीं देना पड़ता है परन्तु उससे हमें दूसरों से आदर, दोस्ती जैसी अमूल्य चीजें सहज ही मिल जाती हैं।ऐसे कार्यालय जहाँ प्रतिदिन हमें दूसरे व्यक्तियों का सामना करना पड़ता है वहाँ तो भाषा का महत्त्व और भी बढ़ जाता है।

एक दुखी व्यक्ति जब कोई समस्या लेकर किसी अधिकारी के पास पहुँचता है तो चाहे वह अधिकारी उसका काम करे अथवा नहीं परन्तु उसके सहानुभूति भरे दो चार विनम्र शब्द ही उस व्यक्ति के आधे दुख को कम कर देते हैं। प्रायः रोगी जब डॉक्टर के पास पहुँचकर उसे रोग के बारे में बता देता है और डॉक्टर उसके रोग के बारे में सुनकर उसे प्यार भरे शब्दों में समझाता है तो रोगी का आधा रोग तो उसी समय दूर हो जाता है।

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प्रश्न 2.
कार्य करते समय किस प्रकार के कार्याचार का पालन करने की आवश्यकता होती है ?
उत्तर:
1. कार्य को भली-भांति समझना (Absolutely knowing the work): किसी भी कार्य को आरम्भ करने से पहले उस कार्य को पूरी तरह जान लेना अति आवश्यक है। कार्य के बारे में पहले पूरी रूपरेखा बनानी चाहिए। उस रूपरेखा के अनुसार ही कार्य करना चाहिए। यह जानकारी प्राप्त करनी चाहिए कि इस कार्य को पूरा करने में क्या-क्या सामग्री की आवश्यकता पड़ेगी, किन-किन विधियों का प्रयोग किया जाएगा इत्यादि। यदि कार्य करने की सही विधि का चुनाव किया जाए तथा कार्य में प्रयोग आने वाली सामग्री पहले से ही प्राप्त कर ली जाए तो कार्य बड़ी कुशलता से और शीघ्र पूरा किया जा सकता है। इस प्रकार से किया गया कार्य कर्मी को प्रसन्नता तथा सन्तुष्टि देता है।

2. कार्य के समय में कार्य पूरी निष्ठा से करना (Devotion in work while working): कार्य नैतिकता का यह एक महत्त्वपूर्ण पद है। कर्मी को कार्य के समय पर पूरी निष्ठा से कार्य करना चाहिए बहुधा देखा गया है कि कर्मी या तो कार्यस्थल पर देर से आते हैं या अपनी जगह पर नहीं मिलते या अपने सहकर्मियों के साथ गप्पें मारते या चाय, सिगरेट इत्यादि पीते रहते हैं।

इस प्रकार के व्यवहार से न तो कार्य पूरा होता है और न ही कार्य की अधिकता के कारण उसमें कार्य के प्रति सन्तुष्टि की भावना रहती है। कार्यालय के अधिकारी भी ऐसे कर्मी को डाँट-डपट करते हैं जिससे उसमें अशान्ति पैदा हो जाती है। इसलिए यह बहुत ही आवश्यक है कि काम के समय कर्मी अपनी जगह मौजूद रहे और कार्य को पूरी लगन तथा निष्ठा से करे। ऐसा करने से उसे कार्य सन्तुष्टि (Work satisfaction) मिलती है।

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3. अनुशासनप्रिय होना (Discipline oriented): प्रत्येक कर्मी को अपने कार्यालय के नियमों का पालन करना ही अनुशासनप्रियता है। कार्यालय समय पर पहुँचना, कार्य के समय कार्य ही करना, कार्यालय में धूम्रपान न करना इत्यादि अनुशासन की कसौटियाँ हैं। परन्तु आमतौर पर देखा गया है कि कर्मी में बहुधा अनुशासनहीनता पायी जाती है जिसके कारण कार्यालय के कार्य उचित प्रकार से नहीं होते। इस प्रकार के कर्मचारियों को उचित प्रकार की प्रेरणा तथा दबाव-विधियों के प्रयोग से अनुशासित किया जाना चाहिए ताकि उस कार्यालय का कार्य सुचारु रूप से हो सके।

4. अपने ज्ञान को आधुनिक बनाना (Making the knowledge modern): यह एक मनोवैज्ञानिक कहावत है कि मनुष्य जीवन भर सीखता रहता है। यह कहावत बिल्कुल सही है। यदि कोई व्यक्ति यह सोचता है कि उसे जितना सीखना था, वह सीख चुका है तो यह उसकी भ्रान्ति है। ऐसा सोचने से जीवन का कोई अर्थ नहीं रह जाता, परन्तु दूसरी ओर कोई व्यक्ति इस कहावत के अनुसार अपने ज्ञान में वृद्धि करता है तो उसको अपने कार्य करने में सरलता तथा सुविधा का आभास होता है और वह कार्य को अच्छी तरह करके अपने अधिकारियों तथा कर्मचारियों से प्रशंसा प्राप्त करता है। जैसे कि आजकल कम्प्यूटर का बोलवाला है और बैंक का कार्य करने वाला कम्प्यूटर की सहायता से शीघ्र तथा ठीक प्रकार से खातों का चालन कर सकता है वनिस्पत उसके जिसे कम्प्यूटर का ज्ञान नहीं है। इसलिए प्रत्येक कर्मी को अपने कार्य को सकुशल पूरा करने के लिए अपने ज्ञान को आधुनिक बनाना अति आवश्यक है।

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5. अच्छा तथा मधुर व्यवहार (Good and soft behaviour): यदि आप चाहते हैं कि अन्य लोग आपके साथ अच्छा तथा मधुर व्यवहार करें, तो आपको उनके साथ भी अच्छा तथा मधुर व्यवहार करना होगा। कार्यालय का वातावरण अच्छा तथा मधुर बनाने के लिए आपको अपने सहकर्मी तथा आगन्तुकों के साथ मित्रतापूर्ण, सहयोगी तथा मधुर व्यवहार करना होगा। इस प्रकार का वातावरण नम्र भाषा के प्रयोग तथा सेवाभाव से बन सकता है। यदि आपके कार्यालय में वातावरण अच्छा, मधुर है तो आपको ऐसे वातावरण में काम करके सन्तुष्टि प्राप्त होगी और कार्य भी सुगमता से होगा। इसके विपरीत यदि कार्यालय का वातावरण खराब होगा तो उससे आपके तथा आपके अन्य सहकर्मियों की कार्यकुशलता पर बुरा प्रभाव पड़ेगा तथा कार्य की गति भी धीमी होगी।

6. कार्य को सेवाभाव से करना (Working with devotion): आप चाहे किसी भी कार्यालय में कार्य कर रहे हों या जो भी कार्य कर रहे हों, वह किसी-न-किसी के हित में होता है। यदि कर्मी वह कार्य सेवाभाव से करे तो उसे उस कार्य को करके सन्तुष्टि प्राप्त होगी क्योंकि उसमें यह भावना आएगी कि मैंने इस कार्य को करके उस जरूरतमन्द व्यक्ति की सेवा की है, यह भावना अपने आप में सन्तुष्टि देती है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि कर्मी किसी भी कार्य को करते समय सेवा भाव की भावना से प्रेरित हो तथा इसी भावना के अनुसार कार्य कों
पूरा करे।

7. टीम की भावना का होना (Team Spirit): किसी भी कर्मी को किसी समूह में कार्य करना होता है। उस समूह के यदि सभी कर्मी मिल-जुलकर कार्य करें तो कार्य शीघ्र हो जाएगा तथा उसमें उत्पन्न बाधाएँ भी शीघ्र ही दूर हो जाएंगी। यह सहयोग समूह के सभी सदस्यों की ओर से आना चाहिए चाहे वे समूह का मालिक हों या कार्यकर्ता। यदि टीम भावना से किया . जाता है तो इसमें कर्मियों की कमियाँ भी ढंक जाती हैं और कार्य भी पूरा हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र

Bihar Board Class 11 Philosophy तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
सत्य कथन को चुनें –
(क) आकारिक सत्यता वास्तविक सत्यता के लिए आवश्यक है
(ख) वास्तविक सत्यता आकारिक सत्यता के लिए आवश्यक नहीं है
(ग) (क) एवं (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) (क) एवं (ख) दोनों

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प्रश्न 2.
‘Logike’ किस भाषा का शब्द है?
(क) ग्रीक
(ख) लैटिन
(ग) ग्रीक एवं लैटिन
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) ग्रीक

प्रश्न 3.
निगमन तर्कशास्त्र में हम जाते हैं –
(क) सामान्य से विशेष की ओर
(ख) विशेष से सामान्य की ओर
(ग) (क) एवं (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सामान्य से विशेष की ओर

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प्रश्न 4.
आगमन तर्कशास्त्र में हम जाते हैं –
(क) सामान्य से विशेष की ओर
(ख) विशेष से सामान्य की ओर
(ग) (क) एवं (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) विशेष से सामान्य की ओर

प्रश्न 5.
धुआँ देखकर हमें आग का ज्ञान होता है। यह उदाहरण है –
(क) अनुमान का
(ख) प्रत्यक्ष का
(ग) दोनों का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) अनुमान का

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प्रश्न 6.
निगमन तर्कशास्त्र का सम्बन्ध है –
(क) आकारिक सत्यता से
(ख) वास्तविक सत्यता से
(ग) उपर्युक्त दोनों से
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) आकारिक सत्यता से

प्रश्न 7.
तर्कशास्त्र की उपयोगिता है –
(क) परिशोधनात्मक
(ख) सृजनात्मक
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) परिशोधनात्मक

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र

प्रश्न 8.
तर्कशास्त्र है –
(क) आदर्शमूलक विज्ञान
(ख) भौतिक विज्ञान
(ग) यथार्थ विज्ञान
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) आदर्शमूलक विज्ञान

प्रश्न 9.
सोने का पहाड़, उड़ता घोड़ा, दूध की नदी आदि जैसे विचार हैं –
(क) आकारिक सत्य
(ख) वास्तविक सत्य
(ग) आकारिक एवं वास्तविक सत्य
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) आकारिक सत्य

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र

प्रश्न 10.
“तर्कशास्त्र तर्क करने की कला एवं विज्ञान दोनों है।” यह किसने कहा था?
(क) हेटली ने
(ख) हैमिल्टन ने
(ग) थॉमसन ने
(घ) मिल ने
उत्तर:
(क) हेटली ने

प्रश्न 11.
“तर्कशास्त्र विचार के नियमों का विज्ञान है।” यह परिभाषा किसने प्रस्तुत की थी?
(क) हेटली
(ख) हैमिल्टन
(ग) थॉमसन
(घ) एलड्रिच
उत्तर:
(ग) थॉमसन

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प्रश्न 12.
“तर्क करने की कला को तर्कशास्त्र कहते हैं।” यह किसकी उक्ति है?
(क) एलड्रिच
(ख) थॉमसन
(ग) हेटली
(घ) यूबरबेग
उत्तर:
(क) एलड्रिच

प्रश्न 13.
“तर्कशास्त्र विचार के आकार सम्बन्धी नियमों का विज्ञान है।” यह कथन किसका
(क) हैमिल्टन
(ख) थॉमसन
(ग) एलड्रिच
(घ) किसी का नहीं
उत्तर:
(क) हैमिल्टन

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प्रश्न 14.
‘उड़ता घोड़ा’ यह विचार किसकी सत्यता को प्रस्तुत करेगा?
(क) आकारिक सत्यता
(ख) वास्तविक सत्यता
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) आकारिक सत्यता

प्रश्न 15.
दैनिक जीवन में सत्य को क्या कहते हैं?
(क) आकारिक सत्य
(ख) वास्तविक सत्य
(ग) व्यावहारिक सत्य
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ग) व्यावहारिक सत्य

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प्रश्न 16.
“तर्कशास्त्र सभी कलाओं की कला है” यह किसने कहा था?
(क) डन्स स्कॉटस (Duns Scotus)
(ख) हैटली
(ग) हैमिल्टन
(घ) एलड्रिच
उत्तर:
(क) डन्स स्कॉटस (Duns Scotus)

प्रश्न 17.
सभी जीव मरणशील है। घोड़ा एक जीव है। घोड़ा मरणशील है। उपरोक्त में किस प्रकार सत्यता समाहित है?
(क) वास्तविक (Natural truth)
(ख) आकारिक सत्यता (Formal truth)
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

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प्रश्न 18.
तर्कशास्त्र का उद्देश्य है –
(क) सत्य की प्राप्ति एवं असत्य का निराकरण
(ख) सत्य की प्राप्ति
(ग) असत्य का निराकरण
(घ) अनुमान करना
उत्तर:
(क) सत्य की प्राप्ति एवं असत्य का निराकरण

Bihar Board Class 11 Philosophy तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
तर्कशास्त्र के दो लाभ बताएँ।
उत्तर:
तर्कशास्त्र के दो लाभों की चर्चा हम इस प्रकार कर सकते हैं-प्रथम, प्रत्येक विज्ञान को तार्किक नियमों से परिचित होना आवश्यक है; यह परिचय तर्कशास्त्र से ही मिल पाता है। दूसरा, तर्कशास्त्र के अध्ययन से मानसिक व्यायाम हो जाता है।

प्रश्न 2.
व्यावहारिक सत्य क्या है?
उत्तर:
जो दैनिक जीवन में सत्य हो, उसे व्यावहारिक सत्य कहते हैं। जैसे – ईश्वर, जीव एवं जगत् इत्यादि।

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प्रश्न 3.
तर्कशास्त्र की परिभाषा दें।
उत्तर:
तर्कशास्त्र वह विज्ञान है जो अनुमान के व्यापक नियमों तथा अन्य सहायक मानसिक क्रियाओं का अध्ययन इस ध्येय से करता है कि उनके व्यवहार से सत्यता की प्राप्ति हो।

प्रश्न 4.
थॉमसन के अनुसार तर्कशास्त्र की परिभाषा दें।
उत्तर:
थॉमसन के अनुसार तर्कशास्त्र विचार के नियमों का विज्ञान है।

प्रश्न 5.
हेमिल्टन के अनुसार तर्कशास्त्र की परिभाषा दें।
उत्तर:
हेमिल्टन के अनुसार, “तर्कशास्त्र विचार के आकार सम्बन्धी नियमों का विज्ञान है।” (Logic is the science of the formal laws of thought)

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प्रश्न 6.
एलचि के अनुसार तर्कशास्त्र की परिभाषा दें।
उत्तर:
एलचि के अनुसार, “तर्कशास्त्र तर्क करने की कला है।” (Logic is the art of reasoning)

प्रश्न 7.
यूबरबेग के अनुसार तर्कशास्त्र की क्या परिभाषा है?
उत्तर:
“तर्कशास्त्र मानव-ज्ञान के व्यवस्थापरक नियमों का विज्ञान है।” (Logic is the science of the regulative laws of human knowledge)

प्रश्न 8.
ह्वेटली ने तर्कशास्त्र की क्या परिभाषा दी?
उत्तर:
हेटली ने तर्कशास्त्र की परिभाषा इस प्रकार दी, “तर्कशास्त्र तर्क करने का विज्ञान और कला है।” (Logic is the science and also the art of reasoning)

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प्रश्न 9.
Logic शब्द की उत्पत्ति कहाँ से हुई है?
उत्तर:
तर्कशास्त्र को अंग्रेजी में (Logic कहा जाता है, जो ग्रीक भाषा के विशेषण Logike (लॉजिकी) से आया है। यह शब्द पुनः ग्रीक संज्ञा Logos से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ होता है ‘विचार’ या ‘शब्द’।

प्रश्न 10.
आकारिक सत्यता (Formal Truth) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आकारिक सत्य (Formal Truth) केवल हमारे विचारों में या मानसिक प्रदेश में होता है। इस प्रकार के सत्य में हमारे विचारों के बीच संगति रहती है। यह कोई आवश्यक नहीं है कि हमारे विचारों के अनुरूप बाह्य विश्व में कोई वस्तु अस्तित्ववान हो ही। जैसे-सोने का पहाड़, उड़ता घोड़ा आदि।

प्रश्न 11.
वास्तविक सत्यता (Material Truth) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जब हमारे मन में विद्यमान विचारों के अनुरूप ही बाह्य विश्व में उस विचार से मिलता-जुलता कोई पदार्थ अस्तित्ववान होता है तब उसे वास्तविक सत्य (Material Truth) कहते हैं। इसकी जाँच निरीक्षण एवं प्रयोग से संभव है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
तर्कशास्त्र की ‘आकारिक सत्यता’ का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
तर्कशास्त्र में आकारिक सत्यता का तात्पर्य ‘उस तरीका से है जिसके द्वारा हम किसी वस्तु पर विचार करते हैं’ (The way in which we think about a thing) तर्कशास्त्र अनुमान से सम्बद्ध है और अनुमान का भी एक आकार होता है। अनेक अर्थशास्त्रियों का यह मानना है कि तर्कशास्त्र का सम्बन्ध केवल अनुमान के आकार से रहता है। उनके अनुसार यदि तर्कशास्त्र का विषय वास्तविक दृष्टि से सही नहीं भी हो, तब भी तर्कशास्त्र इस बात पर बल देता है कि अनुमान के नियमों का पालन अवश्य हो, जैसे –

All men are dogs
Sohan is a man
∴ Sohan is a dog

उपर्युक्त अनुमान आकारिक रूप में सत्य है क्योंकि इसका निष्कर्ष आधार वाक्य पर आधारित तथा तार्किक नियम के अनुकूल है। इस तर्क की प्रक्रिया में तर्कशास्त्र की आकारिक सत्यता दिखाई पड़ती है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र

प्रश्न 2.
क्या तर्कशास्त्र कला है?
उत्तर:
डन्स स्कॉटस (Duns Scotus) का कथन है कि तर्कशास्त्र सभी कलाओं की कला इसलिए है, क्योंकि यह सबसे अधिक ‘सामान्य कला’ है। इसे ‘सामान्य’ इसलिए कहा जाता है। क्योंकि इसमें प्रत्येक कला का मूल तत्त्व सामान्य रूप से पाया जाता है। प्रत्येक कला का एक निश्चित लक्ष्य होता है तथा उस लक्ष्य की प्राप्ति के कुछ नियम होते हैं। सत्य की प्राप्ति के लिए तर्कशास्त्र में जिन-जिन नियमों व सिद्धान्तों का सहारा लिया जाता है, उन सभी नियमों का अनुसरण अन्य कलाओं में भी किया जाता है।

कला हमें कोई कार्य करना सिखाती है। तैरना एक कला है जिसके कुछ नियम हैं तथा उन नियमों का पालन करने से ही कोई व्यक्ति तैराक बन सकता है। जिस प्रकार संगीतकला संगीत सिखाती है, नृत्यकला नृत्य सिखाती है; उसी प्रकार तर्कशास्त्र तर्क करना सिखाता है। यह कलाओं की कला इस अर्थ में है कि सभी कलाओं में अनुमान के सहारे कलाओं के नियमों की व्यापकता सिद्ध की जाती है और तर्कशास्त्र अनुमान पद पर आधारित होता है।

प्रश्न 3.
शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार तर्कशास्त्र का क्या अर्थ है?
उत्तर:
ग्रीक भाषा के ‘Logike शब्द से अंग्रेजी का ‘Logic’ वना है। ‘Logike’ विशेषण शब्द है जिसका संज्ञा रूप ‘Logos’ होता है। ‘Logos’ का अर्थ विचार (thought) और शब्द (word) दोनों होता है। इस प्रकार हम शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार यह कह सकते हैं कि ‘Logic’ (तर्कशास्त्र) उन विचारों का शास्त्र है जो विचार शब्दों में व्यक्त होते हैं। तर्कशास्त्र में हम विचारों को शुद्ध रूप में शब्दों में व्यक्त करते हैं। भाषा में व्यक्त तर्क यदि युक्तिसंगत होता है तो हमें सही निष्कर्षों की प्राप्ति होती है।

शब्द की व्युत्पत्ति के अनुसार ‘Logic’ शब्दों में व्यक्त वह विज्ञान है जो नियमों का निर्धारण भाषा के अनुसार करता है। यदि हम यह कहें कि ‘बर्फ जल रही है’ तो बर्फ के साथ जलना कहना व्याघातक हो जाता है, क्योंकि आग के साथ जलना शब्द कहना ही युक्तिसंगत है। अतः ‘बर्फ जल रही है’ कहना तार्किक नियमों के अनुकूल नहीं है। इसलिए शब्दों में ऐसा व्यक्त करना अशुद्ध है। इस प्रकार तर्कशास्त्र का अर्थ हुआ भाषा में अभिव्यक्त विचारों के वे शब्द जो तार्किक नियमों के अनुकूल और युक्तसंगत हों।

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प्रश्न 4.
अनुमान क्या है?
उत्तर:
जो ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान पर आधारित होता है, उसे अनुमान कहते हैं। तर्कशास्त्र की भाषा में अनुमान को इस तरह परिभाषित किया गया है … “अनुमान वह ज्ञान है जिसमें सामने दिये हुए तथ्यों से उसके पीछे के कारणों को जाना जाता है और उसके आधार पर जो सामने .. नहीं है उस तथ्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है।” अनुमान दो शब्दों के मेल से बना है-अनु का अर्थ है ‘बाद’ और मान का अर्थ है ‘ज्ञान’। इस प्रकार अनुमान का शाब्दिक अर्थ हुआ-‘बाद का ज्ञान’।

इस तरह यह कहा जा सकता है कि प्रत्यक्ष ज्ञान के बाद का ज्ञान ही अनुमान है। उदाहरण के लिए–‘सभी मनुष्य मरणशील हैं – इस तथ्य के आधर पर हम अनुमान (तर्कशास्त्रीय अर्थ में) द्वारा किसी भी व्यक्ति की मरणशीलता का ज्ञान प्राप्त करते हैं। धुएँ को देखकर हम आग का ज्ञान प्राप्त करते हैं। आग होने का ज्ञान अनुमानजन्य ज्ञान है जो धुएँ का ज्ञान होने के बाद हुआ। धुएँ को देखकर हम यह तर्क करते हैं जहाँ-जहाँ धुआँ, वहाँ-वहाँ आग। यहाँ धुआँ यहाँ आग।

प्रश्न 5.
तर्कशास्त्र सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक विज्ञान दोनों है। कैसे?
उत्तर:
तर्कशास्त्र सैद्धान्तिक विज्ञान इसलिए है कि इसमें विभिन्न सिद्धान्तों के द्वारा सत्य-असत्य की जानकारी की जाती है। तर्कशास्त्र अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन आगमनात्मक और निगमनात्मक विधि द्वारा निरीक्षण और विश्लेषण के आधार पर सामान्यीकरण के अनुसार करता है। तर्कशास्त्र सैद्धान्तिक विज्ञान इसलिए है कि इसमें सिद्धान्तों के अनुकूल तर्क किया जाता है और सही ज्ञान की प्राप्ति की जाती है।

तर्कशास्त्र केवल तर्क का शास्त्र नहीं है बल्कि उन सिद्धान्तों का भी विज्ञान है जो तर्क करने में सहायता पहुँचाते हैं। हैमिल्टन ने तर्कशास्त्र को सैद्धान्तिक विज्ञान मानते हुए इन शब्दों में परिभाषित किया है, “तर्कशास्त्र विचार के आकारिक नियमों का विज्ञान है” (Logic is the science of the formal laws of thought)।

तर्कशास्त्रं व्यावहारिक विज्ञान इसलिए है, क्योंकि इसमें तर्क के द्वारा जीवन के व्यावहारिक पक्ष की समस्याओं का हल प्रस्तुत किया जाता है। तर्कशास्त्र का सम्बन्ध अनुमान से है और अपने ‘ व्यावहारिक जीवन में हमें अनुमान की आवश्यकता पड़ती है। विचार करना, तर्क करना मनुष्य के स्वाभाविक गुण हैं, जिस प्रकार बोलना, हँसना, रोना, भूख लगना आदि। चूँकि तर्क करना। हमारे व्यवहार का एक आवश्यक अंग है, इसलिए तर्कशास्त्र एक पूर्ण व्यावहारिक विज्ञान भी है जिसके द्वारा हम व्यवहार के नियमों के शुद्ध निष्कर्ष तक पहुँच पाते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
तर्कशास्त्र की विभिन्न परिभाषाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रायः देखा गया है कि, “तर्कशास्त्र में जितने लेखक हैं उतनी ही इसकी परिभाषाएँ दी गई है और सबों में कुछ-न-कुछ दोष अवश्य पाया जाता है। इसमें से प्रमुख दोषयुक्त निम्नलिखित परिभाषाओं को रखा जा सकता है जो या तो संकुचित हैं, या वृहत् –

1. थॉमसन के अनुसार:
Logic is the science of the laws of thought अर्थात् “तर्कशास्त्र विचार के नियमों का ‘विज्ञान है।” इस परिभाषा में तर्कशास्त्र को केवल विज्ञान कहा गया है। जबकि तर्कशास्त्र की दूसरी त्रुटि है कि इसे विचार का विज्ञान कहा गया है। जबकि ‘विचार’ बहुत व्यापक शब्द है। अतः यह वृहत् (Wide) परिभाषा है।

2. हैमिल्टन के अनुसार:
Logic is the science of the formal laws of thought Hamilton:
अर्थात् तर्कशास्त्र विचार के आकार संबंधी नियमों का विज्ञान है। इससे भी तर्कशास्त्र को सिर्फ विज्ञान माना गया है परन्तु हम जानते हैं कि तर्कशास्त्र विज्ञान के साथ ही कला भी है।

यह भी स्पष्ट है कि तर्कशास्त्र का संबंध केवल आकारिक सत्यता से ही है क्योंकि इसको आकार संबंधी नियमों का ही विज्ञान कहा गया है। परन्तु हम जानते हैं कि तर्कशास्त्र का संबंध सिर्फ आकारिक सत्यता (Formal truth) से ही नहीं, बल्कि वास्तविक सत्यता (Natural truth) से भी उतना ही है, अतः यहाँ तर्कशास्त्र का क्षेत्र बहुत व्यापक कर दिया गया है, जो अनुचित है।

3. एल्ड्चि के अनुसार:
Logic is the art of reasoning-Aldrich:
अर्थात् तर्कशास्त्र तर्क की कला है।

(क) इस परिभाषा में तर्कशास्त्र को केवल कला ही कहा गया है, जबकि तर्कशास्त्र विज्ञान भी है। जिसकी चर्चा भी नहीं की गई है, अतः यह परिभाषा संकीर्ण है।

(ख) संकीर्णता के अलावा इस परिभाषा में सिर्फ क्रियात्मक पक्ष का ही जिक्र किया गया है जबकि सिद्धान्त पक्ष की ओर भी निर्देश करना चाहिए था।

(ग) इस परिभाषा से यह ज्ञात होता है कि तर्कशास्त्र का संबंध सिर्फ तर्क (Reasoning) से ही है परन्तु ऐसी बात सही नहीं है। तर्कशास्त्र से संबंध तर्क में सही पता पहुँचाने वाली अन्य क्रियाओं जैसे परिभाषा, विभाग, वर्गीकरण, नामकरण इत्यादि से भी है। लेकिन इन क्रियाओं पर एल्ड्रिच महोदय ने विचार ही नहीं किया।

4. अलबर्ट्स मैगनस के अनुसार:
Logic is the science of argumentation Albertus Magnus अर्थात् तर्कशास्त्र तर्क का विज्ञान है। यह परिभाषा भी संकुचित है क्योंकि यहाँ तर्कशास्त्र के सभी आवश्यक एवं सामान्य गुणों का वर्णन नहीं किया गया है।

5. स्पैल्डिंग के अनुसार:
Logic is the theory of inference-Spalding-अर्थात् तर्कशास्त्र अनुमान का सिद्धान्त है। यह परिभाषा भी संकुचित ही है।

6. अरनॉल्ड के अनुसार:
Logic is the science of understanding in the pur suit of truth-Arnauld:
अर्थात् तर्कशास्त्र बुद्धि विषयक विज्ञान है जिसके द्वारा सत्य की प्राप्ति की जाती है। इस परिभाषा में भी दोष है।

(क) यहाँ सैद्धान्तिक पक्ष पर जोर दिया गया है और क्रियात्मक पक्ष को छोड़ दिया गया है जबकि तर्कशास्त्र सिद्धान्त और क्रिया दोनों से संबंधित है।
(ख) इस परिभाषा में ‘सत्य’ शास्त्र का प्रयोग किया गया है परन्तु यह स्पष्ट नहीं बताया गया है कि इस सत्य में सत्य के दोनों ही पहलू (आकारिक सत्यता और वास्तविक सत्यता) समाविष्ट है या नहीं। अतः ‘सत्य’ शब्द संदिग्ध है।

7. ह्वेटली के अनुसार:
Logic is the art and science of reasoning-Whately:
अर्थात् तर्कशास्त्रा तर्क की कला एवं विज्ञान है। यह भी दोषयुक्त परिभाषा ही है। इसमें अनुमान की चर्चा तो हुई है किन्तु अन्य सहायक क्रियाओं, जैसे विभाजन, परिभाषा, वर्गीकरण आदि की चर्चा नहीं की गई है। अतः यह भी संकुचित परिभाषा है।

8. यूबरवेग के अनुसार:
Logic is the science of the regulative laws of human knowledge-Ueberweg:
अर्थात् तर्कशास्त्र मानव ज्ञान के नियंत्रणात्मक नियमों का विज्ञान है। इस परिभाषा में वृहत् परिभाषा का दोष है। तर्कशास्त्र का संबंध सिर्फ अनुमान से है प्रत्यक्ष से नहीं। परन्तु इस परिभाषा के अनुसार इसे मानव ज्ञान का शास्त्र बतलाया गया है। मानव-ज्ञान बहुत ही विस्तृत शब्द है। अतः इसमें वृहत् परिभाषा का दोष है।

9. पोर्ट-रॉयल लॉजिक के अनुसार:
Logic is the science of the operation of the human understanding in the persuit of truths-Port Royal Logic:
अर्थात् तर्कशास्त्र मनुष्यों की आकस्मिक प्रक्रियाओं का वह विज्ञान है जिसके द्वारा सत्य की खोज की जाती है। यह परिभाषा भी दोषपूर्ण ही हैं इसमें तर्कशास्त्र का सम्बन्ध सभी मानसिक क्रियाओं में प्रत्यक्ष ज्ञान भी है। परन्तु तर्कशास्त्र का संबंध सिर्फ अनुमान से है। यह परिभाषा वृहत् (Wide) हो जाती है। दूसरा दोष है कि इसमें ‘सत्य’ शब्द भी है। यहाँ स्पष्ट करना था कि सत्य का अर्थ है आकारिक और वास्तविक सत्यता।

10. वेल्टन के अनुसार:
“Logic is science of the principles which regulate valid thought”-Welton:
अर्थात् तर्कशास्त्र उन सिद्धान्तों का विज्ञान है जिनके द्वारा सत्य विचारों का नियंत्रण होता है।

विश्लेषण:
वेल्टन की परिभाषा में निम्नलिखित गुण हैं।

(क) तर्कशास्त्र विज्ञान है क्योंकि यहाँ सिद्धान्तों का निरूपण तथा उनके द्वारा लक्ष्य प्राप्ति का प्रयास होता है।

(ख) इस परिभाषा से स्पष्ट हो जाता है कि तर्कशास्त्र विज्ञान होने के साथ ही साथ कला भी है। इसमें तार्किक सिद्धान्तों के द्वारा सत्य की प्राप्ति की चेष्टा की जाती है।

(ग) यह एक आदर्श निर्धारक भी है। क्योंकि इसका लक्ष्य सत्य की प्राप्ति से है।

(घ) तर्कशास्त्र का संबंध तर्क करने के सिद्धान्तों से तो है ही साथ-ही-साथ तर्क करने में सहायता पहुँचाने वाली क्रियाओं परिभाषा, विभाजन, नामकरण, वर्गीकरण से भी इसका अभीष्ट सम्बन्ध है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इन परिभाषाओं में तर्कशास्त्र के सभी सामान्य एवं आवश्यक गुणों (Common essential qualities) का समावेश है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र

प्रश्न 2.
क्या तर्कशास्त्र विज्ञान है?
उत्तर:
तर्कशास्त्र का अंग्रेजी शब्द Logic है। यह लौजिक शब्द ग्रीक भाषा के विशेषण Logike से बना है और इसका संज्ञा के रूप में Logos व्यवहार होता है। Logos का अर्थ ‘विचार’ (Thought) या ‘शब्द’ (Word) होता है। अर्थात् Logos का अर्थ Thought and word हुआ जिसका अर्थ विचार और शब्द से हुआ। अतः स्पष्ट सिद्ध है कि ‘विचार एवं शब्द’ में घनिष्ठ संबंध है। यहाँ पर हम तर्कशास्त्र को विचारों का शास्त्र कह सकते हैं।

विचारों को शब्दों में व्यक्त करना आसान काम नहीं है। क्योंकि मन में एक ऐसा भी विचार आ सकता है कि बर्फ जल रही है। लेकिन शब्द में व्यक्त कर देने पर यह युक्तिसंगत नहीं मालूम पड़ता है, क्योंकि बर्फ के साथ जलना कहना व्याघातक हो जाता है।

‘बर्फ जल रही है’ यह तार्किक नियमों के अनुकूल वाक्य नहीं है। शब्दों का उचित प्रयोग नहीं करना अशुद्ध है। अतः तर्कशास्त्र के बारे में कह सकते हैं कि तर्कशास्त्र का संबंध भाषा में अभिव्यक्त तर्क से है, अर्थात् तर्कशास्त्र वह आदर्शात्मक विज्ञान है जो नियमों का निर्धारण सत्य-असत्य के निर्णय के लिए करता है।

‘तर्कशास्त्र’ दो शब्दों के योग से बना है-‘तर्क और शास्त्र’। तर्क का अर्थ है ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना। विचारों में सुव्यवस्थित सम्बन्ध हुआ या नहीं यह इसी पर निर्भर करता है कि हमारा तर्क युक्तिसंगत है या नहीं। नियमानुकूल तर्क करने पर ही शुद्ध निष्कर्ष की प्राप्ति होती है। अतः तर्कशास्त्र तर्क’ की शुद्धि एवं अशुद्धि का निर्णय करता है। जैसे –

सभी मनुष्य मरणशील हैं।
राम मनुष्य है।
∴ राम मरणशील है।

ऐसा निष्कर्ष निकालना अशुद्ध है। अब प्रश्न यह भी उठ सकता है कि ‘राम मरणशील है।’ यही निष्कर्ष क्यों शुद्ध है और ‘राम रोटी दूध खाता है’ यह निष्कर्ष क्यों अशुद्ध है? इसी तरह के प्रश्नों का उत्तर देने के लिए तर्कशास्त्र का अध्ययन जरूरी हो जाता है। हम जो अनुमान करते हैं, निष्कर्ष निकालते हैं तब हमारा तर्क शुद्ध हुआ या अशुद्ध इसका निर्णय ‘तर्कशास्त्र’ ही करता है। इस तरह कुछ शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि तर्कशास्त्र तर्क को शुद्ध और अशुद्ध घोषित करने का एक मापदंड है।

अतः तर्कशास्त्र वह शास्त्र है जहाँ तर्क के सभी नियमों और सिद्धान्तों का विशद वर्णन है। इन्हीं नियमों और सिद्धान्तों के सहारे तर्क की लड़ी को शुद्ध एवं अशुद्ध सिद्ध किया जाता है। ‘ऊपर के उदाहरण में सभी मनुष्य मरणशील हैं, राम मनुष्य है, इसलिए राम मरणशील है। यही निष्कर्ष शुद्ध होगा और यह निष्कर्ष कि राम रोटी दूध खाता है, अशुद्ध होगा; क्योंकि ऐसा नियम है कि निष्कर्ष आधार-वाक्य से ही निकाले जाते हैं और वह निष्कर्ष इन आधार वाक्यों के अन्तर्गत ही होता है।

परिभाषा भी दो तरह की होती है –
(क) विश्लेषणात्मक और
(ख) संश्लेषणात्मक।

(क) विश्लेषणात्मक:
जब हम किसी वस्तु के अंग-प्रत्यंग का वर्णन अलग-अलग विस्तारपूर्वक करते हैं तब वह विश्लेषणात्मक कहलाती है।

(ख) संश्लेषणात्मक:
जब किसी वस्तु के सार गुणों का वर्णन कुछ ही सारगर्भित शब्दों द्वारा करते हैं तब उसे संश्लेषणात्मक कहते हैं।

तर्कशास्त्र की संश्लेषणात्मक (Synthetic) परिभाषा इस प्रकार दे सकते हैं:
“Logic is the science of reasoning as expressed in language for the attaiment of truth and avoidence of error.” अर्थात् तर्कशास्त्र भाषा में अभिव्यक्त तर्क का वह विज्ञान है जिसके द्वारा सत्य की प्राप्ति एवं दोष का परिहार किया जाता है। इस संश्लेषणात्मक परिभाषा का जब हम विश्लेषण करते हैं तब निम्नलिखित विशेषताएँ पाते हैं –

1. तर्कशास्त्र विज्ञान है:
Logic is the science:
विज्ञान विश्व के किसी खास विभाग के क्रमबद्ध (Systematic) ज्ञान को कहते हैं – Systematic knowledge of anything is called science. क्रमबद्ध का अर्थ होता है जो नियमों से बंधा हुआ हो।

अर्थात् विज्ञान में कुछ नियम होते हैं और जब कुछ निश्चित प्रणाली इन्हीं नियमों से बंधी रहती है, तब उसे हम नियमबद्ध कहते हैं और उस प्रकार का ज्ञान ही विज्ञान कहलाता है। इन नियमों के कारण ही विज्ञान में एक सिलसिला बंध जाता है और यह सिलसिला नियमों पर ही निर्भर करता है।

इसी तरह हम देखते हैं कि तर्कशास्त्र भी प्रकृति के एक खास विभाग से संबंधित है और यह विभाग है तर्क का। यह तर्क मन (mind) से संबंधित है। कोई भी अनुमान (Inference) सत्य है या असत्य, इसकी जाँच के पहले यह देखना जरूरी है कि वह तार्किक नियमों के अनुकूल है या प्रतिकूल। अनुमान तर्कसंगत रहने पर सत्य एवं प्रतिकूल रहने पर असत्य होता है। इस तरह तर्कशास्त्र इन्हीं कारणों से विज्ञान कहा गया है।

2. यह तर्क का विज्ञान है:
“It is the science of reasoning”:
तर्कशास्त्र को तर्क का विज्ञान इसलिए कहा गया है कि इसमें तर्क से संबंधित तर्क करने के अनेक नियम एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया है। अतः विभिन्न नियमों के प्रतिपादन एवं उसके अनुसार तर्क करने की रीति बताने के कारण तर्कशास्त्र को तर्क का विज्ञान कहा गया है।

3. तर्क को भाषा में व्यक्त करते हैं:
Reasoning is expressed in the language. तर्कशास्त्र का संबंध निर्णय से नहीं बल्कि भाषा में व्यक्त किये हुए निर्णय से है। यहाँ पर यह विचार करना जरूरी है कि जब हम मन-ही-मन सोचते हैं कि ‘बर्फ जल रही है’ तब मानसिक प्रदेश में इस प्रकार के निर्णय का संबंध तर्कशास्त्र से ही रहता है। तार्किक दृष्टि से सत्य या असत्य हम तभी कहते हैं जब निर्णय को व्यक्त किया जाता है। भाषा में व्यक्त हो जाती है तब वह तर्कशास्त्र के अधीन हो जाती है। मन के विचार को कई तरह से व्यक्त किया जाता है यथा लिखकर, बोलकर एवं इशारे से।

लेकिन जब हम कहते हैं कि तर्कशास्त्र का संबंध व्यक्त निर्णय (Expressed judgement) से है तब वहाँ व्यक्ति का संबंध इशारे से नहीं है। इशारे में मनोभाव को व्यक्त करना.तार्किक दृष्टि से सत्य या असत्य नहीं कहा जा सकता है। विचारों को बोलकर या लिखकर व्यक्त करना ही तर्कशास्त्र का विषय बनता है।

जब हम बर्फ जल रही है, ऐसा बोलते हैं या लिख देते हैं तव कहा जाता है कि वह तर्क संगत नहीं हुआ। इन्हीं कारणों से कहा गया है कि “Logic is concerned not with the process of though but with the product of thought” अर्थात् तर्कशास्त्र का संबंध विचारों की प्रक्रिया से नहीं बल्कि उनकी निष्पत्ति से है।

यहाँ प्रक्रिया और निष्पत्ति में अन्तर बताना जरूरी है। कागज बनाने की एक मशीन होती है। इस जगह फटे-पुराने कपड़े, बाँस की कोपलें या कागज संबंधी सामग्री रख दी जाती है और इसके बाद मशीन चला दी जाती है। इसके बाद उन सामग्रियों की पिसाई, बेलाई, सुखाई, कटाई एवं इसी तरह के कई पहलुओं से गुजरने के बाद कागज बन कर निकल आता है। यहाँ पर कागज निकलने के पहले जितने भी पहलू दिखाई देते हैं, वे सब प्रक्रियाएँ हैं और कागज निकलना ही निष्पत्ति है।

इसी तरह विचारों के साथ भी है। किसी अनुमान पर पहुँचने के लिए मानसिक क्षेत्र में अनेक प्रक्रियाएँ होती हैं, जैसे-कुछ विचारों को हटाना, कुछ को चुनना, कुछ को जोड़ना। फिर तार्किक नियमानुसार उन चुने विचारों में सुव्यस्थित संबंध देना। ये सब विचारों की प्रक्रियाएँ हैं और तब ये विचार सुसंगठित होकर अनुमान बनकर मन से निकल आते हैं अर्थात् शब्दों द्वारा व्यक्त हो जाते हैं तव ऐसे व्यक्त विचारों (expressed thought) को विचारों की निष्पत्ति (Product of thought) कहते हैं।

विचारों की इसी निष्पत्ति से तर्कशास्त्र का संबंध है। विचारों की प्रक्रियाओं से तर्कशास्त्र का संबंध नहीं है। जैसे बर्फ के साथ जलना का संबंध मानसिक प्रदेश में एक विचरण है जो विचारों की पक्रिया मात्र है।

तर्कशास्त्र उससे संबंधित नहीं है। परन्तु जब विचार छनकर आपस में संबंधित होकर मन से निकल आता है तब वह तर्कशास्त्र का विषय हो जाता है। बर्फ जल रही है, यह अतार्किक विचार है और बर्फ गल रही है, यही तार्किक विचार है। अतः तर्कशास्त्र भाषा में व्यक्त तर्क से संबंधित है (Resoning expressed in Language)।

4. इसके द्वारा सत्य की प्राप्ति होती है:
It attains truth-अर्थात् संश्लेषणात्मक (Synthetic) दृष्टि से विचार करने पर सत्य के संबंध में तीन विचार दिये गये हैं –

(क) चरम सत्य या परम सत्य (Ultimate truth):
इसमें केवल सत्य को ही चरम लक्ष्य के रूप में समझा जाता है। इस रूप में सत्य का अर्थ है ईश्वर, सत्य के ऐसे रूप का निरूपण तात्विक क्षेत्र में किया गया है जहाँ सत्य के अर्थ को मूलतः मूलतत्त्व (ultimate reality in the metaphysical field) ही समझते हैं।

(ख) व्यावहारिक सत्य (Practical truth):
इसका अर्थ इस सत्य से है जिसका संबंध जीवन के किसी अंग से है। यह सत्य संबंध-युक्त (Relative) हुआ करता है। अर्थात् एक दृष्टि से एक स्थान पर सत्य है तो दूसरी दृष्टि से दूसरे स्थान पर असत्य भी है। अतः व्यावहारिक जीवन में समयानुसार उपयोगिता की दृष्टि से इस सत्यता का महत्त्व होता है, जैसे संसार व्यावहारिक दृष्टि से सत्य है किन्तु चरम दृष्टि से, दिव्यदृष्टि से असत्य है।

(ग) तार्किक सत्य (Logical truth):
तार्किक सत्य का अर्थ उस सत्य से है जिसका सामंजस्य विचार एवं बाह्य जगत् से है। साथ-ही-साथ यह भी देखा गया है कि तार्किक नियमों से इसकी अनुकूलता है एवं इसमें व्याघातक विचारों की अवहेलना की गई है।

विश्लेषणात्मक (Analytical) ढंग से सत्य को हम दो खंडों में विभाजित कर अध्ययन करते हैं।

(क) आकारिक सत्यता (Formal truth)
(ख) वास्तविक सत्यता (Matetial truth)।

(क) आकारिक सत्यता (Formal truth):
आकारिक सत्य वह है जिसमें सत्यता केवल आकार में ही हो। जैसे एक फूल का चित्र बना दें तो इस चित्र में सिर्फ आकारिक सत्यता ही है। यह चित्र वास्तविक फूल नहीं है यह सिर्फ आकार में ही फूल है परन्तु एक फूल को टेबुल पर रख देते हैं तो वास्तव में फूल में वास्तविकता है।

इस आकारिक और वास्तविक सत्य को अर्थशास्त्र में क्रमशः बाह्य और आंतरिक (Facial and intrinsic) मूल्य कहा गया है और दर्शन शास्त्र में इसे दृश्य तथा तथ्य (appearance and reality) कहते हैं। जैसे यह जगत् जो हम देख रहे हैं झूठा है। यह दृश्य में ही सत्य है वास्तव में यह वैसा नहीं है, जैसा दीख रहा है। इसकी वास्तविकता का संबंध तो चिरंतन सत्य से है जो अदृश्य है किन्तु वास्तव में सत्य है। तर्कशास्त्र में सत्य के उन दोनों अंगों का नाम है आकारिक सत्य एवं वास्तविक सत्य। आकारिक सत्य का अर्थ है तार्किक नियमों की अनुकूलता, जैसे

सभी मनुष्य जानवर हैं।
राम मनुष्य है।
∴ राम जानवर है।

यह अनुमान आकारिक रूप में सत्य है क्योंकि इसका निष्कर्ष आधार वाक्य पर आश्रित एवं तार्किक नियमानुकूल है। अतः इस तर्क की प्रक्रिया में आकारिक सत्यता है।

(ख) वास्तविक सत्यता (Material truth):
वास्तविक सत्यता हेतु विचार एवं बाह्य जगत् में सामंजस्य होना आवश्यक है। जैसे जब हम कहते हैं कि फूल लाल है तब इसमें वास्तविक सत्यता है, क्योंकि इसमें जो लाल फूल की अवधारणा है उसी के अनुरूप बाह्य जगत् में भी ‘लाल देखने को मिलता है’, अतः बाह्य जगत् एवं अन्तर्जगत में अनुकूलता रहने की वह इसमें वास्तविकता है, जैसे –

सभी मनुष्य मरणशील हैं।
सभी भारतीय मनुष्य हैं।
∴ सभी भारतीय मरणशील हैं।

इस अनुमान में आकारिक सत्यता के साथ ही साथ वास्तविक सत्यता भी है। किन्तु आकारिक सत्यता के साथ वास्तविक सत्यता रह भी सकती है और नहीं भी रह सकती है जैसे –

सभी मनुष्य मरणशील हैं।
मोहन मनुष्य है।
∴ मोहन मरणशील है।

तो इसमें वास्तविक सत्यता के साथ-साथ आकारिक सत्यता भी है। परन्तु जब हम यह कहते हैं कि सभी मनुष्य जानवर हैं।

मोहन मनुष्य है।
∴ मोहन जानवर है।

तो इस अनुमान में आकारिक सत्यता तो है, परन्तु वास्तविक सत्यता नहीं है। तर्कशास्त्र में नियम प्रणाली से आकारिक सत्यता की प्राप्ति होती है तथा आगमन प्रणाली से वास्तविक सत्यता की। इस प्रकार आगमन एवं निगमन प्रणाली से पूर्ण सत्य की प्राप्ति ही तर्कशास्त्र का लक्ष्य है।

(v) तर्कशास्त्र दोष को हटाता है:
Logic avoids error:
तर्कशास्त्र का विषय अनुमान है और अनुमान शुद्ध होना चाहिए। अतः इससे स्पष्ट है कि तर्कशास्त्र का काम शुद्धता से भी है और कहा भी गया है – “Logic is a corrective science and not a creative science.” अर्थात् तर्कशास्त्र शुद्धात्मक विज्ञान है, सर्जनात्मक विज्ञान नहीं है। अनुमान को शुद्ध करने के. लिए बहुत से तार्किक नियमों का अनुसंधान किया गया है जिसके सहारे तर्क की प्रणाली को शुद्ध किया जाता है।

तर्क करने की शक्ति ईश्वरीय देन है। पर इसकी उत्पत्ति पर मनुष्यों का कुछ भी अधिकार नहीं है। तर्क करना और सुधार करना दोनों दो कार्य हैं। सृष्टि करना ब्रह्म का कार्य है और उसमें सुधार कर देना मनुष्य का काम है। इस तरह जिसमें तर्कशक्ति का अभाव है वह तार्किक नहीं हो सकता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र

प्रश्न 3.
आकारिक एवं वास्तविक सत्यता से आप क्या समझते हैं? अथवा, तर्कशास्त्र की विषय-वस्तु का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रत्यक्ष के आधार पर अप्रत्यक्ष के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अनुमान में अनु + मान दो शब्द हैं जिसका अर्थ है बाद का ज्ञान, अर्थात् किसके बाद का? उत्तर है – प्रत्यक्ष के बाद का। धुएँ को देखकर आग का ज्ञान अनुमान है। इसमें धुएँ का ज्ञान प्रत्यक्ष होता है और आग का ज्ञान अनुमान से प्राप्त करते हैं। जैसे –

जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ आग है।
यहाँ धुआँ है।
∴ यहाँ आग है।

इसी तरह सिगनल झुका हुआ देखकर गाड़ी के आने का अनुमान करते हैं। यहाँ गाड़ी अप्रत्यक्ष है, परन्तु झुके हुए सिगनल के प्रत्यक्ष से इस अप्रत्यक्ष का बोध होता है। अतः ज्ञानोपार्जन का अनुमान एक काव्य साधन है। इस तरह अनुमान करना हमारा स्वाभाविक धर्म है। बुद्धि विकास के साथ-साथ जीवन के अन्त तक अनुमान किया जाता है।

इस तरह हरेक व्यक्ति अनुमान करता है। छात्र-शिक्षक सभी अनुमान करते हैं कि अगर वे चार घंटा प्रतिदिन पढ़ेंगे तो प्रथम श्रेणी में पास कर जाएँगे। इसी तरह अच्छी वर्षा देखकर किसान अच्छी फसल होगी का अनुमान करते हैं। इस तरह ज्ञान का भंडार अनुमान से खूब भरता है। इस तरह ज्ञानोपार्जन के लिए अनुमान की बहुत महत्ता है।

परन्तु अनुमान का दोष यह भी है कि यह गलत भी हो सकता है। उमड़े हुए बादल को देखकर किसान वर्षा का अनुमान करते हैं किन्तु वर्षा नहीं होती है। किसी के मीठे-मीठे वचन को सुनकर हम उसके सज्जन होने का अनुमान करते हैं परन्तु वह दुर्जन रहता है और ठगने हेतु मीठे वचन का प्रयोग करता हैं इस तरह अनुमान असंदिग्ध ज्ञान नहीं दे पाता है। शंका की गुंजाइश रह जाती है। इसीलिए एक शास्त्र बना जिसे तर्कशास्त्र (Logic) कहते हैं जो सही-सही अनुमान करना सिखलाता है।

तर्कशास्त्र अनुमान का नियम प्रतिपादित करता है जिसका अनुशरण कर हम सत्य की प्राप्ति करते हैं। हम किस तरह सोचें, कैसे तर्क करें, कैसे अनुमान करें ताकि सत्य की प्राप्ति हो यही तर्क की समस्या है। तर्कशास्त्र में अनुमान के व्यापक क्रियाओं का वर्णन है। इन नियमों के अनुसार अनुमान करने पर वास्तविकता को प्राप्त करते हैं और गलती से छुटकारा पाते हैं।

इसलिए कहा गया है कि “Attainment of truth and avoidence of error are the aims of Logic” अर्थात् सत्य की प्राप्ति और असत्य का निराकरण ही तर्कशास्त्र का उद्देश्य है।

अतः अनुमान की सत्यता का अध्ययन तर्कशास्त्र में होता है। इससे साफ हो जाता है कि तर्कशास्त्र के अध्ययन का विषय अनुमान है। इसमें अनुमान संबंधी सारी समस्याओं को हल किया जाता है। अतः तर्कशास्त्र की विषय-वस्तु अनुमान है प्रत्यक्ष नहीं। तर्कशास्त्र का लक्ष्य है सत्यता की प्राप्ति करना और सत्य दो तरह के होते हैं –

(क) आकारिक सत्यता (Formal truth) तथा
(ख) वास्तविक सत्यता (Material truth)।

(क) आकारिक सत्यता (Formal truth):
जब हमारे विचारों में विरोध या संघर्ष नहीं होता है तो उनमें आकारिक सत्यता होती है। यहाँ एक भावना दूसरे के अनुकूल होती है। ऐसी भी हो सकता है कि उन विचारों या भावनाओं के अनुकूल बाहर में कोई वस्तु न हो। फिर भी विरोध निहित होने के कारण उनमें आकारिक सत्यता होती है, यथा-सोने का पहाड़, दूध-घी की नदी। यहाँ वास्तविक जगत् में सोने का पहाड़ और दूध-घी की नदी नहीं पाया जाता है। फिर भी इसमें आकारिक सत्यता हैं। ये विचार आपस में विरोधी नहीं हैं। वास्तविक जगत में सोने का पहाड़ नहीं पाया जाता है फिर भी इसकी आकारिक सत्यता है।

बहुत-सी भावनाएँ असंभव होती हैं। उनका विचार नहीं किया जा सकता है। जैसे वृत्ताकार वर्ग (circular square), बंध्या माता (barren mother) आदि। यहाँ वृत्त और वर्ग एक-दूसरे के विरोधी हैं। इसी तरह बन्ध्या और माता कभी मेल नहीं खा सकते हैं। इनमें वास्तविक सत्यता तो है ही नहीं और आकारिक सत्यता भी नहीं है क्योंकि इनके बारे में सोचा नहीं जा सकता है। स्वर्णिम पर्वत, दूध की नदी, नाचता हुआ नगर, उड़ता हुआ घोड़ा आदि सबों में आकारिक सत्यता है क्योंकि इसकी कल्पनाओं में विरोध नहीं है।

हम इनके बारे में सोच सकते हैं। भले वे वास्तविक जगत् में नहीं पाये जाते हैं परन्तु विचार के जगत् में सत्य हैं। परन्तु वृत्ताकार वर्ग और बन्ध्या माता न तो वास्तविक जगत् में सत्य हैं और न विचार के जगत् में ही। ये असंभव धारणाएँ हैं। इनमें आकारिक सत्यता नहीं है।

(ख) वास्तविक सत्यता (Material truth):
जब विचारों या भावनाओं में मेल रहता है और उनके अनुकूल वस्तुएँ पायी जाती हैं तो उनमें वास्तविक सत्यता होती है। जैसे-‘लाल गुलाब’ एक वास्तविक सत्य है। यहाँ लाल और गुलाव की भावनाओं में विरोध नहीं बल्कि मेल है। लाल गुलाव वास्तविक सत्यता है। स्वर्णिम पहाड़ में आकारिक सत्यता है, वास्तविक सत्यता नहीं है परन्तु जिसमें वास्तविक सत्यता होती है उसमें आकारिक सत्यता भी होती है। परन्तु जिसमें आकारिक सत्यता हो उसमें वास्तविक सत्यता का होना जरूरी नहीं है।

जैसे वास्तविक गुलाव में गुलाब का आकार भी होता ही है, परन्तु कागज के गुलाब में गुलाब का आकार वास्तविक नहीं होती है। अर्थात वास्तविक सत्यता के लिए आकारिक सत्यता का होना जरूरी है, किन्तु आकारिक सत्यता के लिए वास्तविक सत्यता का होना जरूरी नहीं है। (Formal truth is essential for material truth but material truths not essential for formal truth) क्या तर्कशास्त्र का संबंध दोनों तरह के सत्यों से है?

आकारिक तर्कशास्त्रियों के अनुसार तर्कशास्त्र का संबंध दोनों तरह के सत्यों से है? आकारिक तर्कशास्त्रियों के अनुसार तर्कशास्त्र का संबंध सिर्फ अनुमान के आकार से रहता है। अनुमान की वस्तु से नहीं। इसलिए इन विचारों के अनुसार तर्कशास्त्र का संबंध सिर्फ आकारिक सत्यता से है। अनुमान का आकार यदि सही है, तो सब ठीक है। जैसे –

सभी छात्र गदहे हैं।
राम छात्र है।
∴ राम गदहा है।

यह अनुमान आकारिक दृष्टि से सही है। निष्कर्ष भी आधार वाक्यों से नियमानुकूल निकाला गया है। यह प्रथम आकार में बारबारा (Barbara) योग में है। परन्तु इसमें वास्तविक सत्यता का सर्वथा अभाव है। आकारिक तर्कशास्त्रियों के अनुसार सत्य का अर्थ आकारिक सत्यता है और निगमन तर्कशास्त्र का संबंध विशेषतः आकारिक सत्यता से है। इसमें अरस्तू, हैमिल्टन, जेवन्स, मैनसेल आदि इस प्रकार के विचार को मानने वाले हैं।

दूसरा विचार वस्तुवादी तर्कशास्त्रियों का है कि तर्कशास्त्र का संबंध आकारिक सत्यता के साथ-साथ वास्तविक सत्यता से है। आकारिक सत्यता के साथ-ही-साथ वास्तविक सत्यता का रहना आवश्यक है। इस मत के समर्थकों में मिल, बेन, ब्रैडले आदि प्रमुख हैं। इन लोगों के अनुसार अनुमान का संबंध वास्तविक जीवन से होना चाहिए।

यदि तर्कशास्त्र का संबंध केवल आकारिक सत्यता से रहेगा तो तर्कशास्त्र हास्य का विषय हो जाएगा। इसलिए इन लोगों ने आगमन को तर्कशास्त्र का सच्चा रूप माना है। आगमन का संबंध आकारिक सत्यता के साथ-साथ वास्तविक सत्यता से रहता है। अतः निष्कर्ष निकलता है कि तर्कशास्त्र का संबंध दोनों प्रकार के सत्य से है। निगमन का संबंध आकारिक सत्यता से अधिक है और तर्कशास्त्र का लक्ष्यपूर्ण सत्यता की प्राप्ति से है, जिसमें दोनों प्रकार के सत्य आते हैं। दोनों के द्वारा तर्कशास्त्र अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 6 तर्कशास्त्र की प्रकृति एवं विषय-क्षेत्र

प्रश्न 4.
तर्कशास्त्र की उपयोगिता की विवेचना करें।
उत्तर:
तर्कशास्त्र के अध्ययन से निम्नलिखित लाभ हैं –
1. तर्कशास्त्र हमारे जीवन के लिए बहुत उपयोगी है। इसका कारण है कि तर्कशास्त्र का संबंध अनुमान से है तथा अनुमान का संबंध हमारे जीवन से है। अनुमान जीवन के लिए आवश्यक है। अनुमान के बिना हमारा काम नहीं चल सकता है। अतः तर्कशास्त्र जीवन के लिए बहुत उपयोगी है।

2. यह सत्य है कि तर्कशास्त्र तर्क करने की शक्ति पैदा नहीं कर सकता है क्योंकि यह शक्ति प्राकृतिक है। परन्तु यदि तर्क में गलती हुई तो इसे सुधारने में काम कर सकता है। अतः यह सृजनात्मक नहीं बल्कि परिशोधनात्मक है (The function of logic is not creative but corrective)। जिसने तर्कशास्त्र को नहीं पढ़ा है वह तर्क की गलती को नहीं समझ सकता हैं अनुमान की गलती में वह उधेड़बुन में पड़ जाएगा।

गलती को नहीं समझने के कारण, उसका निराकरण भी नहीं कर सकेगा। परन्तु एक तर्कशास्त्री गलती करने पर गलती को समझ सकता है और सुधार भी सकता है। इसलिए तर्कशास्त्र का अध्ययन आवश्यक है। प्रकृति ने हमें स्वास्थ्य दिया है, परन्तु बीमार पड़ने पर दवाई की जरूरत पड़ जाती है। इसी तरह प्रकृति न हमें तर्क करने की शक्ति दी है, परन्तु गलती करने पर तर्कशास्त्र की जरूरत हो जाती है।

3. सभी विज्ञान और कला की जड़ में तर्क है। अतः विभिन्न शास्त्रों के लिए तर्कशास्त्र के नियमों से परिचित होना जरूरी है। अतः तर्कशास्त्र का अध्ययन जरूरी है।

4. जिस तरह शरीर वृद्धि के लिए शारीरिक व्यायाम की आवश्यकता है उसी तरह मानसिक वृद्धि के लिए तर्कशास्त्र के अध्ययन की आवश्यकता है।

5. मनुष्य सामाजिक प्राणी है। वह अपने विचार को भाषा के द्वारा दूसरे के समक्ष रखता है। यदि उसका विचार तर्कसंगत होता है तो उससे लोग प्रभावित होते हैं। इसलिए भी तर्कशास्त्र का अध्ययन लाभकारी है। वक्ता, वकील, व्यापारी, शिक्षक, छात्र, मनोवैज्ञानिक वैज्ञानिक तथा नेताओं के लिए तर्कशास्त्र विशेषकर सहायक होता है।

6. तर्कशास्त्र का अध्ययन दर्शनशास्त्र के लिए भी जरूरी है। दर्शनशास्त्र का विषय अति सूक्ष्म है, जैसे-आत्मा, परमात्मा आदि। इनका ज्ञान प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त नहीं होता है। हम अनुमान से ही इन विषयों का ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। अतः तर्कशास्त्र के अध्ययन से दर्शनशास्त्र के विवेचन में लाभ होता है।

7. तर्कशास्त्र अलंकार शास्त्र के लिए भी उपयोगी सिद्ध हुआ है। अलंकारशास्त्र के बारे में कहा गया है कि यह Art of effective speaking or writing है अर्थात् अलंकार प्रभावशाली भाषण या लेखन की कला है। भाषण या लेखन तभी प्रभावोत्पादक हो सकता है जब तक तर्कपूर्ण है। तर्कपूर्ण अलंकारशास्त्र में छिछलापन नहीं होता है और वह दूसरों पर बराबर समानरूप से प्रभाव डालता है।

इन बातों से हम निष्कर्ष पर आते हैं कि तर्कशास्त्र के अध्ययन पर बहुत महत्त्व है। इसकी महत्ता को पूर्वीय तथा पाश्चात्य दोनों विद्वानों ने स्वीकार किया है। पाश्चात्य विद्वान Bosanquet तर्कशास्त्र के बारे में कहते हैं – यह Morphology of human knowledge अर्थात् मानवीय ज्ञान का ढाँचा है।

वहीं भारतीय विद्वानों ने भी तर्कशास्त्र की महत्ता को सर्वोपरि मानते हुए इसके संबंध में कहा है – “प्रदीपः सर्व शास्त्रानां उपायः सर्वकर्मणाम्” अर्थात् तर्कशास्त्र सभी शास्त्रों के लिए दीपक के समान है एवं सभी कार्यों में सफलता हेतु उपाय बताने वाला शास्त्र है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ज्ञान दीपके से अपने को एवं दूसरों को आलोकित करने के लिए तर्कशास्त्र का अध्ययन अत्यन्त आवश्यक है। तर्कशास्त्र बहुत उपयोगी है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

Bihar Board Class 11 Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
प्रमाणशास्त्र (Theory of knowledge) का महत्त्व है –
(क) तर्क विद्या के महत्त्व को बढ़ाने के कारण
(ख) धर्म विद्या के महत्त्व को बढ़ाने के कारण
(ग) नीतिशास्त्र के महत्त्व को बढ़ाने के कारण
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) तर्क विद्या के महत्त्व को बढ़ाने के कारण

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 2.
प्रमा है –
(क) ज्ञान का वास्तविक रूप
(ख) ज्ञान का अवास्तविक रूप
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) ज्ञान का वास्तविक रूप

प्रश्न 3.
‘उपमान’ का शाब्दिक अर्थ होता है –
(क) सादृश्यता या समानता के द्वारा संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध का ज्ञान होना
(ख) समानुपात के द्वारा संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सादृश्यता या समानता के द्वारा संज्ञा-संज्ञि सम्बन्ध का ज्ञान होना

प्रश्न 4.
न्याय – दर्शन के अनुसार ‘शब्द’ के क्या अर्थ हैं?
(क) विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ का ज्ञान
(ख) ‘शब्द’ के अर्थ का ज्ञान
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ का ज्ञान

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 5.
पद हैं –
(क) आकृति विशेष
(ख) जाति-विशेष
(ग) प्राकृति विशेष
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 6.
न्याय दर्शन के अनुसार शब्द होते हैं –
(क) नित्य (Eternal)
(ख) अनित्य (Not-eternal)
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) अनित्य (Not-eternal)

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 7.
गौतम के अनुसार न्याय के प्रकार हैं –
(क) पूर्ववत् अनुमान
(ख) शेषवत् अनुमान
(ग) समान्तयो दृष्टि
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 8.
पंचावयव में प्रतिज्ञा का कौन-सा स्थान है?
(क) पहला
(ख) दूसरा
(ग) तीसरा
(घ) चौथा
उत्तर:
(क) पहला

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प्रश्न 9.
न्याय की ज्ञानमीमांसा (Nyaya theory of knowledge) का पहला अंग है –
(क) अनुमान
(ख) प्रत्यक्ष
(ग) उपमान
(घ) शब्द
उत्तर:
(ख) प्रत्यक्ष

प्रश्न 10.
न्याय दर्शन के प्रतिपादक हैं –
(क) महर्षि गौतम
(ख) महर्षि कणाद
(ग) महर्षि कपिल
(घ) महात्मा बुद्ध
उत्तर:
(क) महर्षि गौतम

प्रश्न 11.
न्याय दर्शन को कितने खण्डों में बाँटा गया है –
(क) चार
(ख) तीन
(ग) दो
(घ) पाँच
उत्तर:
(क) चार

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प्रश्न 12.
न्यायशास्त्र के अनुसार ज्ञान के स्वरूप है –
(क) प्रभा (Real knowledge)
(ख) अप्रभा (Non-real Knowledge)
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

प्रश्न 13.
न्याय के अनुसार प्रमाण है –
(क) प्रत्यक्ष एवं अनुमान
(ख) प्रत्यक्ष एवं उपमान
(ग) अनुमान एवं शब्द
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी

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प्रश्न 14.
ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान कहलाता है –
(क) प्रत्यक्ष (Perception)
(ख) उपमान (Comparison)
(ग) शब्द (Verbal authority)
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) प्रत्यक्ष (Perception)

प्रश्न 15.
मीमांसा दर्शन के प्रर्वतक कौन थे?
(क) महर्षि जेमिनी
(ख) महर्षि गौतम
(ग) महर्षि कणाद
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) महर्षि जेमिनी

प्रश्न 16.
परार्थानुमान में कितने वाक्यों (Propositions) की आवश्यकता होती है –
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर:
(घ) पाँच

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प्रश्न 17.
न्याय दर्शन के अनुसार पदार्थों की संख्या है –
(क) 8
(ख) 5
(ग) 16
(घ) 14
उत्तर:
(ग) 16

प्रश्न 18.
प्रयोजनानुसार अनुमान होते हैं –
(क) स्वार्थानुमान एवं परमार्थानुमान
(ख) पूर्ववत् एवं शेषवत् अनुमान
(ग) सामान्य तो दृष्टि अनुमान
(घ) परमार्थानुमान केवल
उत्तर:
(क) स्वार्थानुमान एवं परमार्थानुमान

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प्रश्न 19.
‘अक्षपाद’ नाम से कौन जाने जाते हैं?
(क) महर्षि गौतम
(ख) महर्षि नागार्जुन
(ग) महर्षि कपिल
(घ) महर्षि चर्वाक
उत्तर:
(क) महर्षि गौतम

Bihar Board Class 11 Philosophy ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र) Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
‘प्रमाण’ के कितने प्रकार हैं?
उत्तर:
गौतम के अनुसार प्रमाण के चार प्रकार हैं। वे हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द।

प्रश्न 2.
न्याय-दर्शन के अनुसार ‘शब्द’ (Verbal Authority) के अभिप्राय को स्पष्ट करें।
उत्तर:
न्याय-दर्शन के अनुसार, ‘शब्द’ चौथा प्रमाण है। किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।

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प्रश्न 3.
उपमान क्या है? अथवा, उपमान (Comparison) का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर:
न्याय-दर्शन के अनुसार ‘उपमान’ को प्रमाण का तीसरा भेद बताया गया है। उपमान का शाब्दिक अर्थ होता है, सादृश्यता या समानता के द्वारा संज्ञा-संज्ञि-संबंध का ज्ञान होना।

प्रश्न 4.
न्याय दर्शन के प्रवर्तक कौन थे?
उत्तर:
न्याय दर्शन के प्रवर्तक गौतम ऋषि माने जाते हैं।

प्रश्न 5.
व्याप्ति-सम्बन्ध क्या है?
उत्तर:
दो वस्तुओं के बीच एक आवश्यक सम्बन्ध जो व्यापक माना जाता है, इसे ही . व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal relation) से जानते हैं। जैसे-धुआँ और आग में व्याप्ति सम्बन्ध है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 6.
अनुमान क्या है?
उत्तर:
अनुमान का अर्थ होता है, एक बात से दूसरी बात को जान लेना। यदि कोई बात हमें प्रत्यक्ष या आगमन के द्वारा जानी हुई है तो उससे दूसरी बात भी निकाल सकते हैं। इसी को अनुमान कहते हैं। गौतम अनुमान को प्रमाण का दूसरा भेद मानते हैं।

प्रश्न 7.
प्रमाणशास्त्र (Theory of knowledge) का न्याय दर्शन में क्या महत्त्व है?
उत्तर:
पूरे न्याय दर्शन का महत्त्व उसके प्रमाणशास्त्र को लेकर है, जिसमें शुद्ध विचार के नियमों का वर्णन है। उन नियमों के पालन से तत्त्व-ज्ञान प्राप्त करने के उपायों पर प्रकाश डाला गया है। तर्क विद्या के महत्त्व को बढ़ाने के कारण न्याय दर्शन को लोग ‘न्याय-शास्त्र’ कहकर पुकारते हैं, जो भारतीय तर्कशास्त्र (Indian logic) का प्रतीक बन गया है।

प्रश्न 8.
न्याय दर्शन को कितने खण्डों में बाँटा जा सकता है?
उत्तर:
न्याय दर्शन को चार खण्डों में बाँटा जाता हैं वे हैं-प्रमाणशास्त्र, संसार सम्बन्धी विचार, आत्मा एवं मोक्ष विचार तथा ईश्वर-विचार।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 9.
‘प्रमाण’ क्या है?
उत्तर:
‘प्रमा’ को प्राप्त करने के जितने साधन हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहा गया है। गौतम के अनुसार प्रमाण के चार साधन हैं।

प्रश्न 10.
प्रत्यक्ष (Perception) क्या है?
उत्तर:
वे सभी ज्ञान जो हमें ज्ञानेन्द्रियों (Sense Organs) के द्वारा प्राप्त होते हैं, उन्हें हम प्रत्यक्ष (Perception) कहते हैं। प्रत्यक्ष तभी संभव है, जब इन्द्रियाँ और पदार्थ के बीच सम्पर्क हो।

प्रश्न 11.
‘प्रमा’ (Real knowledge) क्या है?
उत्तर:
न्यायशास्त्र में ज्ञान के दो स्वरूप बताए गए हैं-प्रमा और अप्रमा। प्रमा ही ज्ञान का वास्तविक रूप है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
उपमान एवं अनुमान (Comparison and inference) के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करें। अथवा, उपमान एवं अनुमान के बीच क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
अनुमान प्रत्यक्ष के आधार पर ही होता है लेकिन अनुमान प्रत्यक्ष से बिल्कुल ही भिन्न क्रिया है। अनुमान का रूप व्यापक है। उसमें उसका आधार व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal relation) रहता है, जिसमें निगमन यानि निष्कर्ष में एक बहुत बड़ा बल रहता है तथा वह सत्य होने का अधिक दावा कर सकता है। दूसरी ओर, उपमान भी प्रत्यक्ष पर आधारित है, लेकिन अनुमान की तरह व्याप्ति-सम्बन्ध से सहायता लेने का सुअवसर प्राप्त नहीं होता है।

उपमान से जो कुछ ज्ञान हमें प्राप्त होता है उसमें कोई भी व्याप्ति-सम्बन्ध नहीं बतलाया जा सकता है। अतः उपमान से जो निष्कर्ष निकलता है वह मजबूत है और हमेशा सही होने का दावा कभी नहीं कर सकता है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुमान को उपमान पर उस तरह निर्भर नहीं करना पड़ता है जिस तरह उपमान अनुमान पर निर्भर करता है। सांख्य और वैशेषिक दर्शनों में ‘उपमान’ को एक स्वतंत्र प्रमाण नहीं बताकर अनुमान का ही एक रूप बताया गया है। अगर हम आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो पाएँगे कि उपमान भले ही ‘अनुमान’ से अलग रखा जाए लेकिन अनुमान का काम ‘उपमान’ में हमेशा पड़ता रहता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 2.
पदार्थ-प्रत्यक्ष (Object-Perception) का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
किसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हमारे सामने कोई पदार्थ वस्तु या द्रव्य हो। जब हमारे सामने ‘गाय’ रहेगी तभी हमें उसके सम्बन्ध में किसी तरह का प्रत्यक्ष भी हो सकता है। अगर हमारे सामने कोई पदार्थ या वस्तु नहीं रहे तो केवल ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रत्यक्ष का निर्माण नहीं कर सकती हैं। इसलिए प्रत्यक्ष के लिए बाह्य पदार्थ या वस्तु का होना आवश्यक है। न्याय दर्शन में सात तरह के पदार्थ बताए गए हैं। वे हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय एवं अभाव। इनमें ‘द्रव्य’ को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसके बाद अन्य सभी द्रव्य पर आश्रित हैं।

प्रश्न 3.
प्रमाण-शास्त्र (Theory of knowledge) के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
पूरा न्याय-दर्शन गौतम के प्रमाण सम्बन्धी विचारों पर आधारित है। प्रमाणशास्त्र ज्ञान प्राप्त करने के साधनों (Sources of knowledge) पर प्रकाश डालने का प्रयास करता है। न्यायशास्त्र में ज्ञान के दो रूप बताए गए हैं-प्रमा और अप्रमा। प्रमा ही ज्ञान का वास्तविक रूप है। प्रमा को प्राप्त करने के जितने साधन बताए गए हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहते हैं।

प्रमाण के सम्बन्ध में जो विचार पाए जाते हैं, उन्हें ही प्रमाण-शास्त्र के नाम से पुकारते हैं। न्याय-शास्त्र में प्रमाण के चार प्रकार बताएँ गए हैं। दूसरे शब्दों में गौतम के अनुसार चार तरह के शब्दों से वास्तविक ज्ञान यानि ‘प्रमा’ की प्राप्ति हो सकती है। वे हैं – प्रत्यक्ष (Perception), अनुमान (Inference), उपमान (Comparison) एवं शब्द (Verbal Authority)।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 4.
न्याय-दर्शन के आधार पर ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें। अथवा, भारतीय दर्शन में ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।
उत्तर:
जिस किसी शब्द में अर्थ या संकेत की स्थापना हो जाती है, उसे ‘पद’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में शक्तिमान शब्द को हम पद कहते हैं। किसी पद या शब्द में निम्नलिखित अर्थ या संकेत को बतलाने की शक्ति होती है –

1. व्यक्ति-विशेष (Individual):
यहाँ ‘व्यक्ति’ का अर्थ है वह वस्तु जो अपने गुणों के साथ प्रत्यक्ष हो सके। जैसे-हम ‘गाय’ शब्द को लें। वह द्रव्य या वस्तु जो गाय के सभी गुणों की उपस्थिति दिखावे गाय के नाम से पुकारी जाएगी। न्याय-सूत्र के अनुसार गुणों का आधार-स्वरूप जो मूर्तिमान द्रव्य है, वह व्यक्ति है।

2. जाति-विशेष (Universal):
अलग-अलग व्यक्तियों में रहते हुए भी जो एक समान गुण पाया जाए उसे जाति कहते हैं। पद में जाति बताने की भी शक्ति होती है। जैसे-संसार में ‘गाय’ हजारों या लाखों की संख्या मे होंगे लेकिन उन सबों की ‘जाति’ एक ही कही जाएगी।

3. आकृति-विशेष (Form):
पद में आकृति (Form) को बतलाने की शक्ति होती है। आकृति का अर्थ है, अंगों की रचना। जैसे-सींग, पूँछ, खूर, सर आदि हिस्से को देखकर हमें ‘जानवर’ का बोध होता है। इसी तरह, दो पैर, दो हाथ, दो आँखें, शरीर, सर आदि को देखकर आदमी (मानव) का बोध होता है।

प्रश्न 5.
‘परार्थानुमान’ से आप क्या समझते हैं? अथवा, पंचावयव (Five-membered syllogisem) के अर्थ को स्पष्ट करें।
उत्तर:
जब हमें दूसरों के सामने तथ्य (facts) के प्रदर्शन की जरूरत पड़ती है तो अपने अनुमान से दूसरे को सहमत करने की जरूरत पड़ती हैं, वहाँ हमारा अनुमान परार्थानुमान (knowledge for others) कहलाता है। परार्थानुमान में हमें अपने विचारों को सुव्यवस्थित करना पड़ता है तथा अपने वाक्यों को सावधानी और आत्मबल (Self Confidence) के साथ एक तार्किक शृंखला (Logical Chain) में रखना पड़ता है।

इसलिए परार्थानुमान में हमें पाँच वाक्यों (Five propositions) की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार के अनुमान में पाँच भाग होते हैं। इसे ही पंचावयव (Five membered syllogism) के नाम से पुकारा जाता है। गौतम के अनुसार अनुमान में पाँच वाक्यों का होना बिल्कुल ही आवश्यक है। इसे हम निम्नलिखित ढंग से उदाहरण के रूप में रख सकते हैं –

(क) पहाड़ पर आग है। – प्रतिज्ञा
(ख) क्योंकि इसमें धुआँ है। – हेतु
(ग) जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है। – व्याप्ति
(घ) पहाड़ पर धुआँ है। – उपनय
(ङ) इसलिए पहाड़ पर आग है। – निगमन

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 6.
क्या शब्द ‘नित्य’ (Eternal) है?
उत्तर:
नित्य का मतलब है कि जिसका न तो आदि हो और न अन्त (End)। इसी तरह अनित्य का मतलब होता है जिसका आदि और अन्त जाना जा सकें। क्या शब्द नित्य है ? इस संबंध में न्याय-दर्शन एवं मीमांसा-दर्शन के विद्वानों में मतभेद पाए जाते हैं। मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक महर्षि जेमिनि का कहना है कि ‘शब्द’ नित्य (Eternal) है।

कहने का मतलब इसका आदि और अंत नहीं होता है। शब्द की न तो उत्पत्ति होती है और न इनका विनाश हो सकता है। ‘शब्द’ का अस्तित्व तो अनादि काल से है। उनके अनुसार शब्द के ऊपर एक आवरण रहता है जिस कारण उसे हम हमेशा सुन नहीं सकते। जब वह आवरण हट जाता है तो वह सुनाई पड़ता हैं। जेमिनि ऋषि का तर्क है कि ‘शब्द’ का विनाशक कारण तो कुछ भी देखने को मिलता नहीं है, तो फिर उसका विनाश कैसे होगा?

न्याय-दर्शन मीमांसा के मत का खंडन करते हुए यह बतलाता है कि शब्द अनित्य (Note eternal) है। कहने का मतलब शब्द का जन्म होता है और उसका विनाश भी होता है। अभिप्राय यह है कि शब्द का आदि और अन्त दोनों सम्भव है। गौतम के अनुसार ‘शब्द’ का विनाशक कारण है, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ता है। अगर हमारी इच्छा हो तो उस विनाश कारक को अनुमान (Inference) के द्वारा जान सकते हैं वात्स्यायन भी गौतम की बात का जोरदार समर्थन करते हैं।

न्याय-दर्शन के विद्वानों का तर्क है कि शब्द की उत्पत्ति’ होती है, अभिव्यक्ति नहीं। अभिव्यक्ति तो उसकी होती है जो पहले से रहता है तथा जो आवरण में छिपे रहने के कारण दिखाई नहीं पड़ता है। ऐसी बात शब्द के साथ नहीं है। न्याय दर्शन के समर्थकों का कहना है कि अगर शब्द नित्य है तो वह ‘शाश्वत’ क्यों नहीं बना रहता यानि हमेशा कायम क्यों नहीं रहता? अतः शब्द उत्पन्न होने पर ही सुनाई पड़ता है। इसलिए शब्द अनित्य (Not-eternal) है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
शब्द क्या है? शब्द के मुख्य प्रकारों या भेदों की व्याख्या करें। अथवा, न्याय दर्शन के अनुसार शब्द के अर्थ को स्पष्ट करें। शब्द के मुख्य प्रकारों की व्याख्या करें।
उत्तर:
बौद्ध, जैन, वैशेषिक दर्शन शब्द को अनुमान का अंग मानते हैं जबकि गौतम के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण (Source of knowledge) है। अनेक शब्दों एवं वाक्यों द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है उसे हम शब्द कहते हैं। सभी तरह के शब्दों से हमें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। अतः ऐसे ही शब्द को हम प्रमाण मानेंगे जो यथार्थ तथा विश्वास के योग्य हो।

भारतीय विद्वानों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जब वह विश्वासी आदमी का निश्चयबोधक वाक्य हो, जिसे आप्त वचन भी कह सकते हैं। संक्षेप में, “किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।” अतः रामायण, महाभारत या पुराणों से जो ज्ञान हमें मिलते हैं, वह प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान के द्वारा नहीं मिलते हैं, बल्कि ‘शब्द’ (verbal authority) के द्वारा प्राप्त होते हैं।

‘शब्द’ के ज्ञान में तीन बातें मुख्य हैं। वे हैं-शब्द के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया। शब्द ऐसे मानव के हों जो विश्वसनीय एवं सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय, जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हों। शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हो। कहने का अभिप्राय है कि यदि कृष्ण के उपदेश को यदि अंग्रेजी भाषा में हिन्दी भाषियों को सुनाया जाए तो उन्हें समझ में नहीं जाएगी।

शब्द के प्रकार या भेद (Kinds or Forms of Types of Verbal Authority):
शब्द के वृहत् अर्थानुसार कान का जो विषय है वह ‘शब्द’ कहलाता है। इस दृष्टिकोण से शब्द के दो प्रकार होते हैं –

1. ध्वनि-बोधक (Inarticulate) शब्द:
जिसमें केवल एक ध्वनि या आवाज ही कान को सुनाई पड़ती है, उससे कोई अक्षर प्रकट नहीं होता है। जैसे–मृदंग या सितार की आवाज को, गधे का रेंगना आदि।

2. वर्ण-बोधक (Articulate) शब्द:
जिसमें कंठ, तालु आदि के संयोग से स्वर-व्यंजनों का उच्चारण प्रकट होता है। जैसे-मानव की आवाज-पानी, हवा, आम, मछली आदि।

वर्ण-बोधक शब्द के भी दो रूप होते हैं –

3. सार्थक (meaningful) शब्द:
सार्थक शब्दों में कुछ-न-कुछ अर्थ छिपे रहते हैं। जैसे-धर्म, कॉलेज, पूजा, पुस्तक, भवन आदि।

4. निरर्थक (unmeaningful) शब्द:
निरर्थक शब्द के अर्थ प्रकट नहीं होते हैं। जैसे – आह, ओह, उफ, खट, पट आदि। तर्कशास्त्र में हमारा सम्बन्ध केवल सार्थक शब्दों से ही रहता है क्योंकि तर्कशास्त्र का विषय विचार है। कोई भी विचार सार्थक शब्दों द्वारा ही प्रकट किए जाते हैं।

नैयायिकों ने शब्द के दो प्रकार बताए हैं। वे निम्नलिखित हैं –

1. दृष्टार्थ (Perceptible) शब्द:
दृष्टार्थ शब्द उसे कहेंगे जिसका ज्ञान प्रत्यक्ष (Percep tion) के द्वारा प्राप्त हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि सभी शब्दों का प्रत्यक्ष हमें हमेशा ही हो। जैसे-हिमालय पहाड़, आगरा का ताजमहल, नई दिल्ली का संसद भवन आदि की बात की जाए तो वे दृष्टार्थ शब्द होंगे क्योंकि उनका प्रत्यक्ष संभव है।

2. अदृष्टार्थ (Inperceptible) शब्द:
अदृष्टार्थ शब्द वे हैं जो सत्य तो माने जाते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष की पहुँच से बिल्कुल बाहर रहते हैं। ऐसे शब्द आप्त वचन या विश्वसनीय लोगों के मुँह से सुनाई पड़ते हैं, यदि उन शब्दों का प्रत्यक्षीकरण करना चाहें तो संभव नहीं है।

जैसे-ईश्वर, मन, आत्मा, अमरता आदि ऐसे शब्द हैं जिन्हें हम सत्य तो मान लेते हैं लेकिन उसका प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। इसी तरह बड़े-बड़े महात्माओं एवं ऋषि-मुनियों की पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, नीति-अनीति आदि बातों का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। सूत्र के आधार पर नैयायिकों ने शब्द के दो भेद बताए हैं। वे हैं-वैदिक शब्द (Words of Vedas) एवं लौकिक शब्द (Words of human being)।

वैदिक शब्द (Words of vedas of God):
भारतवर्ष में ‘वेद’ आदि ग्रन्थ है। वैदिक वचन ईश्वर के वचन माने जाते हैं। ऐसे शब्द की सत्यता पर संदेह की बातें नहीं की जा सकती हैं। इसे हम ब्रह्मवाक्य नाम से जानते हैं। वैदिक शब्द सदा निर्दोष, अभ्रान्त, विश्वास-पूर्ण तथा पवित्र माने जाते हैं। कहने का अभिप्राय वैदिक शब्दों को बहुत से भारतीय स्वतः एक प्रमाण मानते हैं। वैदिक शब्द या वाक्य तीन प्रकार के हैं –

(क) विधि वाक्य:
विधि वाक्य में हम एक तरह की आज्ञा या आदेश पाते हैं। जैसे-जो स्वर्ग की इच्छा रखते हैं, वे अग्निहोत्र होम करें।

(ख) अर्थवाद:
अर्थवाद वर्णनात्मक वाक्य के रूप में हम पाते हैं। इसके चार प्रकार माने जाते हैं –

(i) स्तुतिवाक्य:
स्तुति-वाक्य में किसी काम का फल बतलाकर किसी की प्रशंसा की जाती है। जैसे-अमुक यज्ञ को पूरा कर अमुक व्यक्ति ने यश की प्राप्ति की।

(ii) निंदा वाक्य:
निंदा वाक्य में बुरे काम के फल को बतलाकर उसकी निंदा की जाती है। जैसे-पाप कर्म करने से मनुष्य नरक में जाता है।

(iii) प्रकृति वाक्य:
प्रकृति वाक्य में मानव के द्वारा किए हुए कामों में विरोध दिखलाया जाता है। जैसे-कोई पूरब मुँह होकर आहुति करता है और कोई पश्चिम मुँह।

(iv) पुराकल्प वाक्य:
पुराकल्प वाक्य ऐसी विधि को बतलाता है जो परम्परा से चली आती है। जैसे-‘महान संतगण’ यही कहते आते हैं, अतः हम इसे ही करें।

(ग) अनुवाद:
अनुवाद वैदिक वाक्य का तीसरा रूप कहा जा सकता है। इसमें पहले से। कही हुई बातों को दुहरा (repeat) किया जाता है।

लौकिक शब्द (Words of human beings):
सामान्य रूप से मनुष्य के वचन को हम लौकिक शब्द कह सकते हैं। लौकिक शब्द वैदिक शब्द की तरह पूर्णतः सत्य होने का दावा नहीं कर सकता है। मनुष्य के वचन झूठे भी हो सकते हैं। यदि लौकिक शब्द किसी महान् या विश्वसनीय पुरुष के द्वारा कहे जाएँ तो वे शब्द भी वैदिक वचन की तरह सत्य माने जाते हैं।

मीमांसा – दर्शन में भी शब्द के दो भेद बताए गए हैं। वे हैं-‘पौरुषेय’ और ‘अपौरुषेय’। नैयायिकों ने जिस शब्द को लौकिक कहा है, उसी को मीमांसा-दर्शन में ‘पौरुषेय’ कहा जाता है। जैसे मनुष्य के वचन या आप्तवचन ‘पौरुषेय’ शब्द कहलाते हैं। दूसरी ओर, वैदिक शब्द को मीमांसा-दर्शन में ‘अपौरुषेय’ शब्द से पुकारा जाता है। मीमांसा-दर्शन वैदिक शब्द की सत्यता एवं प्रामाणिकता को सिद्ध करना ही अपना लक्ष्य मानता है। अतः वहाँ ‘शब्द-प्रमाण’ का सहारा आवश्यक हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 2.
न्याय-दर्शन के परिप्रेक्ष्य में वाक्य (sentence) के अर्थ को स्पष्ट करें। वाक्य को अर्थपूर्ण होने के लिए किन-किन बातों की आवश्यकता पड़ती है? अथवा, नैयायिकों के अनुसार वाक्य को अर्थपूर्ण होने हेतु किन-किन बातों की जरूरत होती है?
उत्तर:
न्याय-शास्त्र के विद्वान के अनुसार, ‘पदों के समूह का नाम वाक्य है।’ किसी वाक्य से जो अर्थ निकलता है, उसे ‘शब्द-बोध’ या वाक्यार्थ ज्ञान (verbal cognition) कहा जाता हैं। सभी पदों के समूह को हम वाक्य नहीं कह सकते हैं, बल्कि ऐसे ही पदों का समूह वाक्य कहलाता है, जिसका अर्थ निकले। किसी भी वाक्य को अर्थपूर्ण होने के लिए चार बातें आवश्यक हैं।

वे हैं-आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि या आसक्ति एवं तात्पर्य। यहाँ इस तथ्य को स्पष्ट कर देना प्रासंगिक प्रतीत होता है कि प्राचीन न्याय-दर्शन में केवल तीन बातों, यथा-आकांक्षा, योग्यता एवं आसक्ति को आवश्यक माना गया है जबकि नव्य-न्याय के अनुसार ‘तात्पर्य’ को भी आवश्यक ‘माना गया है।

1. आकांक्षा:
वाक्य होने के लिए पदों को आपस में एक-दूसरे की अपेक्षा रहती है, जिसे ही हम आकांक्षा कहते हैं। कहने का मतलब जब एक पद दूसरे के साथ अपना सम्बन्ध स्थापित करता है, तभी वाक्य से अर्थ निकलता है। जैसे, जब हम ‘मनुष्य’ और ‘मरणशील’ में सम्बन्ध स्थापित करते हुए कहते हैं कि ‘मनुष्य’ मरणशील है तो यह वाक्य का उदाहरण है।

2. योग्यता:
वाक्यों के पदों के द्वारा जिन वस्तुओं का बोध होता है, यदि उसमें कोई विरोध नहीं हो तो इस विरोधाभाव (Absence of contradiction) को ‘योग्यता’ कहते हैं। उदाहरण के लिए, हम यदि कहें कि ‘आग से प्यास बुझायी जाती है, तो इस वाक्य में योग्यता का अभाव है।’ यदि हम कहते हैं कि ‘पानी से प्यास बुझती है’ तो इस वाक्य में योग्यता का भाव है।

3. सन्निधि या आसक्ति:
वाक्य में पदों (Terms) का एक-दूसरे से समीपता (Near ness) होना ही ‘सन्निधि’ या ‘आसक्ति’ है। कहने का अभिप्राय यदि पदों के बीच समय (time) या स्थान (Place) की बहुत ही लम्बी दूरी हो तो आकांक्षा और योग्यता रहते हुए भी अर्थ नहीं निकल सकता है। अतः पदों की निकटता वाक्य के लिए आवश्यक है। यदि हम एक पेज में लिखें ‘मनुष्य’ फिर दो-चार पन्ने के बाद लिखें ‘मरणशील’ है तो उससे वाक्य का निर्माण नहीं होगा क्योंकि सभी पद बहुत दूर-दूर हैं। यद्यपि सबों में वाक्य बनाने की ‘आकांक्षा’ और ‘योग्यता’ मौजूद है।

4. तात्पर्य:
नव्य-नैयायिकों को अनुसार ‘तात्पर्य’ का जानना किसी वाक्य के लिए बहुत आवश्यक है। कहने का मतलब है कि किसी ‘पद’ का अर्थ, समय और स्थान के साथ बदल सकता है। अतः बोलनेवाले या लिखनेवाले का अभिप्राय भी समझना आवश्यक है। जैसे- कनक, Page, Light का अर्थ क्रमशः सोना या धतूरा, नौकर या पृष्ठ, प्रकाश या हल्का होता है। अतः वाक्य लिखते समय ‘पद’ के प्रयुक्त अर्थ को लिखना आवश्यक है ताकि वाक्य को समझने में कठिनाई न हो।

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प्रश्न 3.
हेत्वाभास से आप क्या समझते हैं? हेत्वाभास के मुख्य प्रकारों की संक्षेप में व्याख्या करें? अथवा, हेत्वाभास क्या है? इसके भेदों को लिखें।
उत्तर:
अनुमान करना मनुष्य का स्वभाव है। साथ ही गलती करना भी मानव का स्वभाव है। अनुमान करते समय जब हमसे भूल होती है तो भारतीय तर्कशास्त्र में हेत्वाभास कहा जाता है। ‘हेत्वाभास’ का व्यवहार संकुचित एवं वृहत् दोनों अर्थों में होता है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में सत्य को दो रूप में देखा जाता है। वे हैं आकारिक (Formal) एवं वास्तविक (material)। इसलिए वहाँ अनुमान में दो तरह की भूलें हो सकती है। वे हैं-आकारिक एवं वास्तविक। लेकिन भारतीय तर्कशास्त्र में केवल वास्तविक सत्यता पर ही विचार किया जाता है। अतः यहाँ आकारिक दोष की चर्चा नहीं की जाती है।

हेत्वाभास वैसा अनुमान है, जिसमें अययार्थ हेतु केवल देखने में हेतु-सा प्रतीत होता है। हेत्वाभास का शाब्दिक अर्थ है-हेतु + आभास। यानि हेतु-सा जिसका आभास हो। वस्तुतः ऐसे हेतु नहीं होने पर वैसा प्रतीत होते हैं। नैयायिकों के अनुसार ऐसे दोष वास्तविक होते हैं, आकारिक नहीं। हेत्वाभास के भेद या प्रकार-नैयायिकों के हेत्वाभास के पाँच प्रकार बताए हैं, जो निम्नलिखित हैं –

1. सव्यभिचार (Irregular Middle):
अनुमान में निष्कर्ष हेतु (Middle term) पर निर्भर करता है। हेतु का साध्य (Major term) के साथ व्याप्ति सम्बन्ध होने से अनुमान शुद्ध हो जाता है। कहने का अभिप्राय हेतु साध्य के साथ नियमित साहचर्य होना चाहिए।

जब तक हेतु तथा साध्य का सम्बन्ध नियत तथा अनौपचारिक (Unconditional) नहीं होगा तबतक उस – व्याप्ति पर आधारित अनुमान भी गलत होगा। इस गलती को भी सव्यभिचार कहते हैं। इस प्रकार के अनुमान में हेतु साख्य के साथ रह भी सकता है और नहीं भी।
जैसे – सभी ज्ञात पदार्थों में आग है।

पहाड़ ज्ञात पदार्थ है।
∴ पहाड़ पर आग है।

यहाँ हेतु (Middle term) एवं साध्य (Major Term) में नियत साहचर्य नहीं है, क्योंकि हेतु साध्य से अलग भी पाया जाता है। यह आवश्यक नहीं कि सभी ज्ञात पदार्थों में आग हो।

2. विरुद्ध हेतु (Contradictory Middle):
अनुमान में हेतु के आधार पर ही साध्य को सिद्ध किया जाता है जो हम साबित करना चाहते हैं, अगर उसका विपरीत (opposite) ही हेतु द्वारा साबित हो तो अनुमान गलत समझा जाएगा तथा उसे विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं। जैसे-हवा भारी है क्योंकि वह अविरक्त (empty) है। यहाँ अविरक्त पद हेतु है लेकिन यह हल्कापन सिद्ध करता है, न कि भारीपन। अतः यहाँ जो सिद्ध करना है उसका उल्टा हेतु द्वारा सिद्ध होता है।

3. सत्यप्रतिपक्ष हेतु (Inferentially contradicted middle):
जब साध्य के पक्ष तथा विपक्ष में दो समान हेतु रहे तो अनुमान के इस दोष को सत्यप्रतिपक्ष हेत्वाभास कहते हैं। इन दोनों हेतुओं में एक साध्य को प्रमाणित करता है तो दूसरा अप्रमाणित। दोनों हेतुओं का बल बराबर रहता है। जैसे-शब्द नित्य है क्योंकि वह सब जगह सुनाई पड़ता है। शब्द अनित्य है क्योंकि घर की तरह वह एक कार्य है। यहाँ दूसरा अनुमान पहले अनुमान के निष्कर्ष को गलत साबित करता है, दोनों के हेतु बराबर शक्तिशाली हैं। अतः दोनों में कौन सही निष्कर्ष है-यह समझना कठिन है।

4. असिद्ध हेतु (Unproved Middle):
निष्कर्ष हेतु के आधार पर निकलता है। अतः यदि हेतु ही असिद्ध (Unproved) होगा तो उससे सही अनुमान नहीं निकलेगा। यथा, आकाश का फूल सुगन्धित है, क्योंकि फूल सुगन्धित होते हैं। असिद्ध हेत्वाभास भी तीन तरह के होते हैं – आश्रयासिद्ध, स्वरूपासिद्ध एवं अन्यथासिद्ध।

आश्रयासिद्ध:
यदि हेतु का आश्रय भूत अर्थात् पक्ष ही असिद्ध रहे तो उससे उत्पन्न दोष को आश्रयसिद्ध हेत्वाभास कहेंगे। जैसे-आकाश का फूल सुगन्धित है क्योंकि सभी फूल सुगन्धित होते हैं।

स्वरूपासिद्ध:
इसमें दिया हेतु पक्ष में नहीं रहता है। जैसे—आवाज नित्य है क्योंकि वह दृश्य पदार्थ है। यहाँ पक्ष ‘आवाज’ में हेतु-दृश्य पदार्थ का होना असिद्ध है।

अन्यथासिद्ध:
इस तरह के हेत्वाभास के दिए गए हेतु के अभाव में भी साध्य का सिद्ध होना संभव है। जैसे-वह मनुष्य विद्वान है क्योंकि वह ब्राह्मण है। यहाँ ‘ब्राह्मण’ और ‘विद्वान’ के बीच सही अर्थ में व्याप्ति सम्बन्ध नहीं है क्योंकि यह आवश्यक नहीं कि ब्राह्मण विद्वान ही हों।

5. बाधिक या कालातीत हेतु (Non-inferentially Contradicted Middle):
हेतु से बलशाली दूसरा प्रमाण अगर साध्य को गलत साबित कर दे तो वह अनुमान दोषपूर्ण समझा जाता है। जैसे-आग ठंडी है क्योंकि वह एक द्रव्य है। यहाँ जो बात कही गयी है वह देखने को नहीं मिलती है। प्रत्यक्ष ज्ञान हमें यह बोध कराता है कि आग गर्म है। अतः यहाँ प्रत्यक्ष ज्ञान हेतु से। अधिक बलशाली हेतु को उल्टा ही साबित करता है।

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प्रश्न 4.
प्रत्यक्ष (Perception) क्या है? प्रत्यक्ष के कितने भेद हैं? अथवा, प्रत्यक्ष के मुख्य प्रकारों की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
गौतम ने प्रमाण के चार भेद बताएँ हैं। उन्होंने ‘प्रत्यक्ष’ को ‘प्रमा’ (Real knowledge) की प्राप्ति का पहला प्रमाण माना है। इन्द्रिय एवं वस्तु के संयोग से जिस ज्ञान की उत्पत्ति होती है, उसे हम प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। हमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं आँख, नाक, कान, जीभ एवं त्वचा। इनका जब वस्तुओं के साथ संयोग होता है तो जिस अनुभव की उत्पत्ति होती है, उसे हम प्रत्यक्ष कहते हैं।

जैसे-जब कान का संगीत के साथ सम्पर्क होता है तो हमें संगीत का प्रत्यक्ष होता है। अतः इन्द्रिय और वस्तु के सम्पर्क से जिस असंदिग्ध यथार्थ ज्ञान की उत्पत्ति होती है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इसके अतिरिक्त ‘मन’ (Mind) को छठा ज्ञानेन्द्रिय (Sence organ) बताया गया है। मन एक भीतरी ज्ञानेन्द्रिय (Inner sense organ) है। सुख, दुख, इच्छा, प्रेम आदि का ज्ञान ‘मन’ के द्वारा ही प्राप्त होता है।

प्रत्यक्ष के भेद (Forms of Perception):
प्रत्यक्ष का वर्गीकरण भारतीय तर्कशास्त्र में कई तरह से बताया गया है। कहने का अभिप्राय भिन्न-भिन्न आधार पर प्रत्यक्ष के भिन्न-भिन्न भेद बताए गए हैं। इन्द्रिय का पदार्थ के साथ सम्पर्क होने पर प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। इस आधार पर प्रत्यक्ष के दो प्रकार हैं –

  1. लौकिक प्रत्यक्ष (Ordinary perception)
  2. अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra-ordinary perception)।

1. लौकिक प्रत्यक्ष:
जब इन्द्रियों के साथ वस्तु का साधारण सम्पर्क (Simple contact) होता है तो हम उसे लौकिक प्रत्यक्ष (ordinary.perception) कहते हैं। जैसे-आँख से जब कमल के फूल का सम्पर्क होता है तो हमें प्रत्यक्ष ज्ञान होता है कि वह फूल लाल, उजला या पीला है। लौकिक प्रत्यक्ष के दो भेद हैं-बाह्य प्रत्यक्ष (External perception) एवं मानस प्रत्यक्ष (Mental perception)।

बाह्य प्रत्यक्ष (External Perception):
बाह्य प्रत्यक्ष हमें अपनी बाहरी ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त होती हैं, जिनकी संख्या पाँच हैं। इसे हम चाक्षुष-प्रत्यक्ष (Visual perception), श्रवण-प्रत्यक्ष (Auditory perception), घ्राणज-प्रत्यक्ष (Olfactory percetion), रासना-प्रत्यक्ष (Taste perception) एवं त्वाचिक-प्रत्यक्ष (Tactual perception) के नाम से जानते हैं।

मानस प्रत्यक्ष:
न्याय-दर्शन में ‘मन’ को एक ज्ञानेन्द्रिय (Sense-organ) के रूप में माना गया है। मन द्वारा जब आन्तरिक अवस्थाओं का प्रत्यक्ष होता है तो उसे मानस-प्रत्यक्ष कहते हैं। मानस प्रत्यक्ष के उदाहरण सुख, दुख, प्रेम, घृणा आदि मनोभावों के अनुभव हैं। मन को न्यायशास्त्र में केन्द्रीय इन्द्रिय के रूप में माना गया है। इस तथ्य को वैशेषिक, सांख्य और मीमांसा दर्शन भी मानते हैं। क्योंकि ‘मन’ सभी प्रकार के ज्ञान के बीच एकता स्थापित करता है।

केवल वेदान्त-दर्शन ‘मन’ को एक आन्तरिक ज्ञानेन्द्रिय नहीं मानता है। लौकिक प्रत्यक्ष के अन्य तीन भेदों की चर्चा की गयी है। वे हैं-निर्विकल्प प्रत्यक्ष, सविकल्प प्रत्यक्ष एवं प्रत्यभिज्ञा। निर्विकल्प प्रत्यक्ष-कभी-कभी पदार्थों का प्रत्यक्ष तो होता है लेकिन उसका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। उसका सिर्फ आभास मात्र होता है। उदाहरण के लिए, गम्भीर चिन्तन या अध्ययन में मग्न होने पर सामने की वस्तुओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। हमें सिर्फ यह ज्ञान होता है कि कुछ है, लेकिन क्या है, इसको नहीं जानते हैं। निर्विकल्प प्रत्यक्ष को मनोविज्ञान में संवेदना के नाम से भी जानते हैं।

सविकल्प प्रत्यक्ष:
जब किसी विषय या वस्तु का प्रत्यक्ष हमें हो तथा उस विषय का ज्ञान भी हमें प्राप्त हो जाए कि वह ‘क्या है’ तो उसे हम सविकल्प प्रत्यक्ष कहते हैं। इसे ही हम मनोविज्ञान में प्रत्यक्षीकरण कहते हैं। मनोविज्ञान में ‘प्रत्यक्षीकरण’ की परिभाषा अर्थपूर्ण संवेदना के रूप में दी गयी है। उदाहरण के लिए, जब कान से कोई आवाज सुनाई पड़ती है तो सुनाई निर्विकल्प प्रत्यक्ष रहता है, लेकिन जब हम यह जान जाते हैं कि वह सुनाई पड़नेवाली आवाज ‘कोयल’ की ही है, तो इसे हम सविकल्प प्रत्यक्ष कहेंगे।

प्रत्यभिज्ञा-न्यायशास्त्र में कुछ नैयायिकों ने निर्विकल्प और सविकल्प प्रत्यक्ष के साथ एक तीसरा लौकिक प्रत्यक्ष के रूप में प्रत्यभिज्ञा की चर्चा की है। प्रत्यभिज्ञा को हम हिन्दी में ‘पहचानना’ कह सकते हैं। ‘प्रत्यभिज्ञा’ का अर्थ है ‘प्रतिगता अभिज्ञान’। कहने का अर्थ है कि जिस विषय का पहले साक्षात्कार हो चुका हो, उसका फिर से अगर प्रत्यक्ष हो तो उसे ‘प्रत्यभिज्ञा’ कहेंगे। यदि हम किसी व्यक्ति को देखकर यह कह बैठते हैं कि यह अमुक लड़की है। जिसको हमने अमुक समय में अमुक स्थान पर देखा था तो इसे हम प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। हमें इस तथ्य को स्मरण रखनी चाहिए कि इन की इन तीनों लौकिक प्रत्यक्ष के वर्गीकरण को बौद्ध दर्शन एवं वेदान्त दर्शन नहीं मानते हैं।

2. अलौकिक प्रत्यक्ष:
जब किसी पदार्थ या वस्तु के साथ इन्द्रियों का असाधारण या अलौकिक सम्पर्क हो तो वह अलौकिक प्रत्यक्ष कहलाता है। उदाहरण के लिए हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ कुछ ही जानवरों को देख सकती हैं। सभी जानवरों को साधारण रूप में जानना असंभव है। इसके बावजूद हमें सभी जानवरों के ‘पशुत्व-गुण’ का प्रत्यक्ष हो सकता है। इसे ही हम अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। अलौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद यानि प्रकार होते हैं-सामान्य लक्षण, ज्ञान लक्षण एवं योगज।

सामान्य लक्षण:
जाति गुण के द्वारा सम्पूर्ण जाति का प्रत्यक्ष होना सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष कहलाता हैं। मनुष्य का जाति गुण मनुष्यता है। किसी एक मनुष्य में ‘मनुष्यत्व’ को देखकर हम सम्पूर्ण मानव जाति को देख लेते हैं क्योंकि यह गुण सभी मनुष्यों का सामान्य गुण है। सभी मानव का लौकिक प्रत्यक्ष संभव नहीं है। इसलिए हम कहते हैं कि सबों का अलौकिक प्रत्यक्ष होता है।

अतः जाति-गुण के प्रत्यक्ष के द्वारा सम्पूर्ण जाति का प्रत्यक्ष होना सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष है। ज्ञान लक्षण-जब हमें एक इन्द्रिय से किसी दूसरी इन्द्रिय के विषय का प्रत्यक्ष होता है तो यह असाधारण या अलौकिक प्रत्यक्ष है, जिसे हम ज्ञान-लक्षण कहते हैं। जैसे-चन्दन देखने से सुगन्धित होने का ज्ञान, चाय देखने से गर्म होने का ज्ञान आदि अलौकिक ज्ञान लक्षण के श्रेणी में आते हैं।

योगज:
योगज ऐसा प्रत्यक्ष है जो भूत, वर्तमान, भविष्य के गुण तथा सूक्ष्म, निकट तथा दूरस्थ सभी प्रकार की वस्तुओं की साक्षात् अनुभूति कराता है। योगज या अन्तर्ज्ञान एक शक्ति हैं जिसे हम बढ़ा-घटा सकते हैं। जब यह शक्ति बढ़ जाती है तो हम दूर की चीजें तथा सूक्ष्म-चीजों का भी प्रत्यक्ष कर पाते हैं। ‘युजान’ की अवस्था में जो मनुष्य होते हैं, उन्हें कुछ ध्यान धारण करने से योगज की शक्ति आ जाती है। भगवान बुद्ध को ‘निर्वाण’ का योग, शंकराचार्य को ‘ब्रह्म का ज्ञान’ तथा तुलसीदास को चित्रकूट के घाट पर चन्दन घिसते समय भगवान राम के ‘दर्शन’ ये सभी योगज के उदाहरण कहे जा सकते हैं।

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प्रश्न 5.
पाश्चात्य न्याय वाक्य और पंचावयव में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
पाश्चात्य न्याय वाक्य एवं पंचावयव में निम्नलिखित मुख्य अंतर हैं –

  1. पाश्चात्य न्याय वाक्य (Syllogism) में केवल तीन वाक्य होते हैं, जबकि गौतम के पंचावयव में पाँच वाक्य होते हैं।
  2. पश्चात्य न्याय-वाक्य में निष्कर्ष तीसरे या अन्तिम वाक्य के रूप में होता है, लेकिन गौतम के पंचावयव में निष्कर्ष यानि निगमन तीसरे वाक्य के रूप में नहीं रहता है। यह प्रतिज्ञा के रूप में एक जगह पहले वाक्य के रूप में रहता है तथा निगमन के रूप में पाँचवें वाक्य की जगह होता है।
  3. पाश्चात्य न्याय वाक्य में जो वाक्य वृहत् वाक्य (Major premise) के रूप में रहता है वह वाक्य ‘व्याप्ति’ के रूप में ‘पंचावयव’ में तीसरे स्थान के वाक्य में रहता है।
  4. पाश्चात्य न्याय-वाक्य (Syllogism) में उदाहरण देने की कोई जरूरत नहीं होती है उसके लिए कोई जगह भी नहीं रहती है, लेकिन गौतम के पंचावयव में निगमन को मजबूत दिखाने के लिए उदाहरण दिया जाता है तथा उसके लिए ‘व्याप्ति-वाक्य’ के रूप में एक खास स्थान दिया जाता है।
  5. पाश्चात्य न्याय वाक्य में परिभाषा तथा गुण की स्थापना पश्चिमी तरीके से की जाती है जो भारतीय तरीके से भिन्न है। इसलिए दोनों के न्याय-वाक्य का गुण भी आपस में एक-दूसरे से भिन्न श्रेणी का पाया जाता है।
  6. भारतीय नैयायिकों का तर्क है कि पाँच वाक्य होने से हमारा अनुमान अधिक मजबूत होता है जबकि पाश्चात्य न्याय वाक्य में केवल तीन वाक्य ही होते हैं। अतः उनका अनुमान पंचावयव की तरह मजबूत नहीं कहा जा सकता है।
  7. पाश्चात्य न्याय वाक्य में एक ही वाक्य पूर्णव्यापी होता है, जिसे हम वृहत् वाक्य के रूप में जानते हैं। उदाहरणार्थ सभी मनुष्य मरणशील हैं।
  8. पाश्चात्य तर्कशास्त्र में पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना हेतु आगमन की जरूरत पड़ती है, जिसमें कुछ उदाहरणों का निरीक्षण कर हम पूर्णव्यापी वाक्य बनाते हैं। जैसे-मोहन, सोहन, करीम, आदि को मरते देखकर हम पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करते हैं कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं।’
  9. भारतीय न्याय दर्शन में ‘आगमन’ के रूप में कोई तर्कशास्त्र अलग नहीं है। जो काम आगमन के द्वारा होता है वह तो उदाहरण सहित ‘व्याप्ति-वाक्य’ में ही हो जाता है।
  10. इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘पंचावयव’ में आगमन एवं निगमन दोनों सम्मिलित हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि पाश्चात्य न्याय-वाक्य एवं पंचायवयव’ में मौलिक अंतर है।

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प्रश्न 6.
न्याय-शास्त्र में ज्ञान (Knowledge) के अर्थ को स्पष्ट करें। न्यायशास्त्र के सोलह पदार्थों की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
भारतीय दर्शनों में ज्ञान, बुद्धि एवं प्रत्यय इत्यादि शब्दों का प्रयोग एक अर्थ या एक रूप में नहीं किया जाता है। अतः इन शब्दों के एक अर्थ में प्रयोग की आदत से एक शब्द-भ्रम हो जाता है। अतः इन भ्रमों से बचने के लिए न्याय-सूत्र में उन शब्दों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है। ‘ज्ञान’ शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है, व्यापक तथा संकुचित अर्थ में। व्यापक अर्थ में यथार्थ और अयथार्थ दोनों तरह के ज्ञान का बोध कराया जाता है।

संकुचित अर्थ में ज्ञान का मतलब केवल यथार्थ ज्ञान से ही लिया जाता है। न्यायशास्त्र में ज्ञान के दो प्रकार बताए जाते हैं। वे हैं-प्रमा (Real) एवं अप्रमा (Unreal knowledges)। मनुष्य का अनुभव भी दो तरह का होता है यथार्थ और अयथार्थ। यथार्थ अनुभव के द्वारा जो हम ज्ञान प्राप्त करते हैं उसे ‘प्रमा’ कहते हैं, जैसे अपनी आँख से देखकर यह कहना कि दूध उजला होता है। इसके विपरीत, अयथार्थ अनुभव के आधार पर जो हम ज्ञान प्राप्त करते हैं, उसे ‘अप्रमा’ कहते हैं। जैसे अंधेरी रात में रस्सी को देखकर साँप का ज्ञान होना। प्रमा को प्राप्त करने के लिए जो साधन बताए गए हैं, उन्हें प्रमाण कहा जाता है। न्याय-दर्शन के अनुसार सोलह पदार्थ हैं, वे निम्नलिखित हैं –

1. प्रमाण:
प्रमा को प्राप्त करने के जो साधन हैं, उसे ही प्रमाण कहते हैं। अतः प्रमाण के द्वारा यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने के सभी उपायों का वर्णन किया जाता है।

2. प्रमेय:
प्रमाण के द्वारा जिन विषयों का ज्ञान हमें होता है, उसे प्रमेय कहते हैं। गौतम के अनुसार प्रमेय की संख्या बारह है –

  • आत्म
  • शरीर
  • उभय ज्ञानेन्द्रियाँ
  • इन्द्रियों के विषय
  • बुद्धि
  • मन
  • प्रवृत्ति
  • दोष
  • प्रैत्यभाव यानि पुनर्जन्म
  • फल
  • दुःख तथा
  • अपवर्ग प्रमेयों का वर्णन किया है, जिनसे मोक्ष की प्राप्ति हो।

3. संशय:
यह मन की वह अवस्था है, जिसमें मन के सामने दो या अधिक विकल्प दिखाई पड़ते हैं। अतः जब एक ही वस्तु के सम्बन्ध में कई परस्पर विरोधी विकल्प उठ जाते हैं तो उसका निश्चित ज्ञान नहीं होता है, उसे ही हम संशय कहते हैं। संशय न तो निश्चित ज्ञान है और न ज्ञान का पूर्ण अभाव। इसे हम भ्रम या विपर्यय भी नहीं कह सकते हैं।

4. प्रयोजन:
जिसके लिए कार्य में प्रवृत्ति होती है उसे ही प्रयोजन कहते हैं। प्रयोजन की प्राप्ति के लिए ही हम कोई कार्य करते हैं। जो कोई कार्य इच्छापूर्वक किया जाता है, उसका प्रयोजन अवश्य रहता है।

5. दृष्टांत:
जिसे देखने से किसी बात का निश्चय हो जाए, उसे दृष्टांत कहते हैं, वाद-विवाद में अपनी बात को साबित करने के लिए इसका सहारा लिया जाता है।

6. सिद्धान्त:
सिद्धान्त उसे कहते हैं जिसके द्वारा किसी वाद-विवाद का अन्तर का विषय साबित हो जाए। कोई विषय जब प्रमाण द्वारा अन्तिम रूप से स्थापित किया जाता है तो उसे सिद्धान्त कहते हैं।

7. अवयव:
अनुमान दो तरह का होता है। वे हैं-स्वार्थानुमान और परार्थानुमान। परार्थानुमान में हम पाँच नियम पूर्ण वाक्यों द्वारा कोई अनुमान निकालते हैं। उन नियमपूर्ण वाक्यों को ही अवयव कहते हैं।

8. तर्क:
तर्क एक प्रकार की काल्पनिक युक्ति है जिसके द्वारा विपक्षी के कथन को दोषपूर्ण और गलत साबित किया जाता है। तर्क के द्वारा ही किसी सिद्धान्त का प्रबल समर्थन होता है।

9. निर्णय:
किसी विषय के सम्बन्ध में निश्चित ज्ञान को ही निर्णय कहते हैं। अत: किसी विषय के सम्बन्ध में उत्पन्न संशय के दूर हो जाने पर हम जिस निश्चय पर पहुँचते हैं, उसे ही निर्णय कहते हैं।

10. बाद:
बाद उस विचार को कहते हैं, जिसमें प्रमाण और तर्क की सहायता से विपक्षी के कथन की पूर्ण खंडन करके अपने पक्ष का समर्थन किया जाता है और वहीं पर लिया गया यह अन्तिम निर्णय किसी स्वीकृत पूर्व स्थापित सिद्धान्त के विरोध में नहीं होता है।

11. जल्प:
जब वादी और प्रतिवादी के वाद-विवाद का उद्देश्य यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना नहीं होता है, तो वह जल्प कहलाता है। इसमें सत्य की प्राप्ति की इच्छा का बिल्कुल ही अभाव रहता है। यहाँ दोनों पक्षों का उद्देश्य केवल विजय प्राप्त करना ही रहता है।

12. वितंडा:
वितंडा वह है जिसमें वादी अपने पक्ष का समर्थन नहीं करता केवल प्रतिवादी के मत का खंडन करता चला जाता है। वितंडा में केवल प्रतिवादी के मत का किसी तरह खंडन करके ही जीतने का प्रयास किया जाता है। जल्प में वादी किसी-न-किसी तरह से अपने मत का प्रतिपादन भी करता है, जिसका अभाव वितंडा में पाया जाता है।

13. छल:
जब प्रतिवादी के शब्दों का वास्तविक अर्थ छोड़कर कोई दूसरा अर्थ ग्रहण करके दोष दिखलाया जाए, तो उसे छल कहते हैं। यह धूर्तता पूर्ण उत्तर है। छल तीन प्रकार का होता है –

(क) वाक्छल
(ख) सामान्य छल
(ग) उपचार छल।

14. जाति:
केवल समानता और असमानता के आधार पर जो दोष दिखाया जाता है उसे जाति कहते हैं। उदाहरण के लिए नैयायिकों का कहना है कि शब्द अनित्य है, क्योंकि वह घर की तरह एक कार्य है। अगर कोई इसका खंडन यह कहकर करना चाहे कि ‘शब्द’ और ‘अशरीरधारी’ में कोई भी व्याप्ति सम्बन्ध नहीं किया जा सकता है।

15. निग्रह स्थान:
इसका शाब्दिक अर्थ होता है पराजय अथवा तिरस्कार का स्थान वाद-विवाद के क्रम में वादी एक ऐसे स्थान पर पहुँच जाता है, जहाँ उसे हार स्वीकार करनी पड़ती है या उसके चलते कोई अपमान सहना पड़ता है तो उसे निग्रह स्थान कहते हैं। निग्रह स्थान के दो कारण होते हैं। वे हैं-अज्ञानता एवं गलत ज्ञान।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 7.
अनुमान क्या है? अनुमान के विभिन्न भेदों की संक्षेप में व्याख्या करें। अथवा, अनुमान से आप क्या समझते हैं? अनुमान के मुख्य प्रकारों की विवेचना करें।
उत्तर:
भारतीय तर्कशास्त्र में प्रत्यक्ष के बाद अनुमान दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। भारतीय न्यायशास्त्र में अनुमान का महत्त्व पाश्चात्य तर्कशास्त्र के जैसा नहीं माना गया है। भारतीय तर्कशास्त्र में ‘अनुमान’ को केवल ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन मात्र माना गया है। अनुमान शब्द के दो भाग मालूम पड़ते हैं-अनु + मान। ‘अनु’ का अर्थ होता है पश्चात् या बाद में तथा ‘मान’ का अर्थ होता है ज्ञान। अतः अनुमान का शाब्दिक अर्थ है बाद में प्राप्त होने वाला ज्ञान।

भारतीय तर्कशास्त्रियों के अनुसार ‘अनुमान’ उस ज्ञान को कहते हैं जो किसी पूर्वज्ञान के बाद प्राप्त होता है। जैसे-आकाश में बादल देखने के बाद अनुमान करते हैं कि वर्षा होगी। न्यायशास्त्र के अनुसार जिसके आधार पर कोई अनुमान निकाला जाए उसे ‘हेतु’ या ‘साधन’ या ‘लिंग’ अथवा ‘चिह्न’ कहते हैं। न्याय-दर्शन में अनुमान को ‘तत्पूर्वक’ भी कहा गया है। इसका अर्थ है-“दो प्रत्यक्ष जिसके पूर्व में हो, वह अनुमान है। ऐसा विचार गौतम का है।” अनुमान के भेद या प्रकार-भारतीय तर्कशास्त्र में अनुमान को हम तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं। वे हैं –

(अ) प्रयोजन के अनुसार (According to purpose)
(ब) प्राचीन न्याय यानि गौतम के अनुसार (According to Gautam or old Nyana)
(स) नव्य-न्याय के अनुसार (According to New-Nyaya)

यहाँ हम गौतम के विचारानुसार अनुमान के भेदों को समझने का प्रयत्न करेंगे।

प्रयोजन के अनुसार अनुमान के प्रकार (According to purpose):
अनुमान करने में हमारे दो उद्देश्य या प्रयोजन हो सकते हैं-एक तो अपने लिए अनुमान करना और दूसरे लोगों या पराये लोगों के लिए अनुमान करना। इस दृष्टि से अनुमान के दो भेद हैं –

(क) स्वार्थानुमान (Knowledge for oneself)
(ख) परार्थानुमान (Knowledge for others)

स्वार्थानुमान:
जब हम केवल अपने बारे में कुछ जानना चाहते हैं या अपनी शंका को दूर करने के लिए अनुमान करते हैं तो वह स्वार्थानुमान कहलाता है। इसमें तीन ही वाक्यों का प्रयोग होता है। जैसे-पहाड़ पर धुआँ है तो अन्त में हेतु (Middle term) और साध्य (Major term) के बीच व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal relation) के द्वारा सम्बन्ध दिखाया जाता है। यथा, जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ आग रहती है।

परार्थानुमान:
जो अनुमान दूसरों की शंका मिटाने या समझाने के लिए किया जाता है, उसे हम परार्थानुमान कहते हैं। परार्थानुमान में अनुमान के लिए पाँच वाक्य की आवश्यकता होती है, जिसे गौतम मुनि ने पंचावयव (Five membered syllogism) कहा है। जैसे –

  1. पहाड़ पर आग है। – प्रतिज्ञा
  2. क्योंकि पहाड़ पर धुआँ है।
  3. जहाँ धुआँ रहता है, वहाँ आग रहती है। – यथा रसोईघर (उदाहरण सहित व्याप्ति वाक्य)
  4. पहाड़ पर धुआँ है। – उपनय
  5. इसलिए पहाड़ पर आग है। – निगमन भारतीय तर्कशास्त्र में गौतम के पंचावयव नाम से प्रसिद्ध है।

गौतम या प्राचीन न्याय के अनुसार अनुमान के भेद या प्रकार:
गौतम के अनुसार न्याय के तीन भेद होते हैं –

(क) पूर्ववत् अनुमान (Inference from Cause to Effect)
(ख) शेषवत् अनुमान (Inference from Effect to cause)
(ग) सामान्यतोदृष्टि (Inference from Similarity)

(क) पूर्ववत् अनुमान:
जब हम कारण से कार्य का कोई अनुमान निकालते हैं तो वह पूर्ववत् अनुमान कहलाता है। इसमें भविष्य का अनुमान वर्तमान कारण से भी करते हैं। जैसे-समय से वर्षा देखकर अच्छी फसल का अनुमान करना पूर्ववत् अनुमान है। इसी तरह, बादल देखकर वर्षा का अनुमान पूर्ववत् अनुमान है। यहाँ ‘बादल’ कारण है और उसका कार्य ‘वर्षा’ है। इस तरह का अनुमान व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal Relation) पर भी आश्रित रहता है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में यह अनुमान कार्य-कारण के नियम (Law of Causation) पर निर्भर करता है।

(ख) शेषवत् अनुमान:
यह अनुमान भी कार्य-कारण के नियम पर निर्भर करता है। शेषवत् अनुमान में हम कार्य से कारण (from effect to cause) के बारे में कुछ सोचते हैं। अतः जब कोई कार्य दिया रहे और तब उसके कारण (cause) का जो हम अनुमान करेंगे उसे शेषवत् अनुमान कहेंगे। जैसे-सड़क पर पानी देखकर वर्षा का अनुमान, मलेरिया देखकर उसके मच्छर का अनुमान आदि शेषवत् अनुमान के उदाहरण हैं।

(ग) सामान्यतोदृष्टि:
यदि दो पदार्थों या वस्तुओं को साथ-साथ देखें तो एक को देखकर दूसरे का भी अनुमान किया जा सकता है। यह ‘सामान्यतोदृष्टि’ अनुमान कहलाता है। जैसे-जब किसी जानवर में ‘सीग’ देखते हैं तो उसमें ‘पूँछ’ होने का भी अनुमान कर बैठते हैं तो यह सामान्यतोदृष्टि अनुमान है। इसमें कार्य-कारण नियम का सर्वथा अभाव होता है। इसमें अनुमान का आधार सामान्यता की बातें (Point of similarity) तथा दो वस्तुओं के साथ मेल की बातें रहती हैं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 8.
गौतम के अनुसार ‘पंचावयव’ का विशलेषण करें। अथवा, न्याय दर्शन के अनुसार पाँच वाक्यों (Five propositions) को समझावें।
उत्तर:
परार्थानुमान में हमें अपने विचारों को सुव्यवस्थित करना पड़ता है। अपने वाक्यों को सावधानी और आत्मबल के साथ एक तार्किक शृंखला में रखना पड़ता है। अतः परार्थानुमान में हमें पाँच वाक्यों की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार के अनुमान में पाँच हिस्से होते हैं। इसे पंचावयव (Five membered Syllogism) के नाम से पुकारा जाता है।

‘पंचावयव’ का अर्थ ही होता है जिसमें पाँच अवयव या हिस्से हों। न्याय दर्शन में इसे ही गौतम का पंचावयव नाम से जानते हैं। इसे ‘न्याय प्रयोग’ के नाम से भी जानते हैं। मीमांसा दर्शन एवं वेदान्त दर्शन के विद्वानों के अनुमान के निमित्त केवल तीन वाक्यों को ही चर्चा की है। उनके अनुसार पंचावयव में समय और शक्ति की बचत होती है। गौतम के अनुसार पंचावयव में पाँच वाक्यों का होना आवश्यक है। इसे हम निम्नलिखित ढंग से स्पष्ट कर सकते हैं –

  1. पहाड़ पर आग है। – प्रतिज्ञा
  2. क्योंकि पहाड़ पर धुआँ है। – हेतु
  3. जहाँ धुआँ रहता है, वहाँ आग रहती है। – यथा रसोईघर। उदाहरण सहित व्याप्ति वाक्य
  4. पहाड़ पर धुआँ है। – उपनय
  5. इसलिए पहाड़ पर आग है। – निगमन प्रतिज्ञा-प्रतिज्ञा अनुमान का वह वाक्य है जिसे हम साबित करना चाहते हैं।

वाक्यों के क्रम में इसका पहला स्थान होता है। गौतम मुनि के अनुसार जो हमें साबित करना है उसका एक मजबूत संकल्प कर लेना चाहिए। इसीलिए इसे प्रतिज्ञा के नाम से पुकारा जाता है। गौतम के अनुसार जो साध्य विषय है, उसका निर्देशन करना ही प्रतिज्ञा है, जैसे-‘पहाड़ पर आग है’ यह अनुमान में प्रतिज्ञा के रूप में है।

हेतु-हेतु का स्थान न्याय-वाक्य में दूसरा रहता है। यह प्रतिज्ञा का कारण बताता है। प्रतिज्ञा की वास्तविकता दिखाने के लिए जिस कारण को हम सामने वाक्य के रूप में रखते हैं, उसे हेतु कहेंगे। क्योंकि इसमें धुआँ है।’ हेतु वाक्य है। पाश्चात्य तर्कशास्त्र में हेतु के साथ मेल खाते हुए जो वाक्य होते हैं, उसे लघु वाक्य (Minor premise) के नाम से जानते हैं।

उदाहरण सहित व्याप्ति-वाक्य-यह एक पूर्णव्यापी वाक्य के रूप में रहता है। इसका स्थान भारतीय न्याय वाक्यों के क्रम में तीसरा रहता है। इस वाक्य में ‘साध्य’ (Major term) एवं हेतु’ (Middle term) का वह सम्बन्ध दिखाया जाता है जो टूट नहीं सकता है। व्याप्ति-सम्बन्ध बहुत ही मजबूत रहता है, वह टूटता नहीं है। इसका रूप सर्वव्यापक रहता है।

जैसे-‘धुआँ’ और ‘आग’ के बीच व्याप्ति सम्बन्ध है। जैसे रसोईघर का उदाहरण देकर हम यह बताना चाहते हैं कि रसोईघर में जब धुआँ देखते हैं तो वहाँ पर आग मिलती है। अतः इसे हम उदाहरणसहित व्याप्ति वाक्य कहते हैं। वस्तुतः यह अनुमान का मेरुदण्ड है। जब तक इस वाक्य की हम स्थापना नहीं करेंगे तब तक प्रतिज्ञा साबित नहीं होती है।

उपनय-उपनय का स्थान पंचावयव में चौथा है। अनुमान के लिए यहीं पर वह स्थान या पक्ष रहता है यहाँ हम कुछ साबित कर दिखाना चाहते हैं। यहाँ साध्य के अस्तित्व को दिखाने की व्यवस्था की जाती है। ‘पहाड़ पर धुआँ है। उपनय का उदाहरण है। गौतम के अनुसार ‘हेतु’ और ‘साध्य’ का सम्बन्ध उदाहरण के द्वारा देने के बाद अपने पक्ष में उसे स्वींचना ही उपनय कहलाता है। निगमन-निगमन को दूसरे शब्दों में निष्कर्ष भी कहते हैं। निगमन वही वाक्य है जिसमें हम अनुमान के द्वारा कुछ साबित कर दिखला देते हैं।

गौतम के पंचावयव में इसका स्थान पाँचवें वाक्प के रूप में रहता है। स्वार्थानुमान या पाश्चात्य न्याय-वाक्य में इसका स्थान तीसरे वाक्य के रूप में रहता है। गौतम के अनुसार जब प्रतिज्ञा साबित हो जाती है तो उसका रूप ‘निगमन’ का हो जाता है।

उदाहरण के लिए-‘पहाड़ पर आग है’ इसे हम साबित करना चाहते थे, अतः जब तक यह साबित नहीं हुआ था तब तक इसे हम प्रतिज्ञा के नाम से जानते थे लेकिन जब ‘हेतु’, ‘व्याप्ति-वाक्य’ और ‘उपनय’ की सहायता से इसे साबित कर देते हैं तो इसका रूप निगमन का हो जाता है। अतः प्रतिज्ञा जब ‘निगमन’ की अवस्था में आता है तो वहाँ संदेह दूर हो जाता है। इसके एक विश्वास और बल मिल जाता है। वस्तुतः निगमन ही ‘अनुमान’ की अन्तिम सीढ़ी है।

उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि गौतम अनुमान की परिपक्वता एवं मजबूती के लिए पाँच वाक्यों का होना आवश्यक बताते हैं। गौतम ने तो केवल पंचावयव को आवश्यक बताया जबकि वात्स्यायन मुनि ने दस अवयव की चर्चा की जो उपयुक्त नहीं जान पड़ता है। मीमांसा एवं वेदान्त दर्शन केवल तीन वाक्यों को ही आवश्यक बताते हैं। वस्तुतः गौतम के पंचावयव का अपना विशेष महत्त्व है। यहाँ पाश्चात्य तर्कशास्त्र की तरह आगमन का अलग अस्तित्व नहीं रखा गया है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 5 ज्ञान का न्याय सिद्धान्त (प्रमाणशास्त्र)

प्रश्न 9.
प्रमाण-शास्त्र (Theory of knowledge) में प्रमाण के कितने स्त्रोत बताए गए हैं? संक्षेप में व्याख्या करें। अथवा, गौतम के अनुसार वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति के कितने स्त्रोत हैं? अथवा, प्रमा (Real knowledge) प्राप्ति के कितने साधन हैं? विवेचना करें।
उत्तर:
न्याय दर्शन गौतम के प्रमाण-सम्बन्धी विचारों पर आधारित है। न्यायशास्त्र में ज्ञान के दो स्वरूप बताए गए हैं। वे हैं-प्रमा एवं अप्रमा। प्रमा ही ज्ञान का वास्तविक स्वरूप है। प्रमा को प्राप्त करने के जितने साधन बताए गए हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहते हैं। प्रमाण के सम्बन्ध में जो विचार पाए जाते हैं, उन्हें ही प्रमाण-शास्त्र के नाम से पुकारते हैं। गौतम के अनुसार प्रमाण – के चार प्रकार बताए गए हैं। गौतम के अनुसार चार तरह के वास्तविक ज्ञान यानि प्रमा की प्राप्ति हो सकती है। वे हैं – प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द।

1. प्रत्यक्ष (Perception):
न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष को प्रमाण का पहला भेद बताया गया है। प्रत्यक्ष की उत्पत्ति प्रति + अक्षण से हुई है, जिसका अर्थ ‘आँख’ के सामने होना होता है। लेकिन यह संकीर्ण अर्थ है क्योंकि प्रत्यक्ष का मतलब ‘आँख’ के साथ-साथ अन्य इन्द्रियों से रहता हैं कान से सुनना, जीभ से चखना, नाक से सूंघना, चमड़े से छूना भी उसी तरह का प्रत्यक्ष कहलाता है, जिस तरह आँख से देखना। अतः प्रत्यक्ष का अर्थ होता है किसी भी ज्ञानेन्द्रिय के सामने होना। प्रत्यक्ष तभी संभव है जब इन्द्रियाँ (Organs) और पदार्थ (Object) के बीच एक सन्निकर्ष (Contact) हो। प्रत्यक्ष के मुख्य दो भेद होते हैं –

(क) लौकिक प्रत्यक्ष एवं अलौकिक प्रत्यक्ष (Extra-ordinary perception)। लौकिक प्रत्यक्ष के दो भेद बताये गए हैं। वे हैं-बाह्य प्रत्यक्ष (External Perception) एवं मानस-प्रत्यक्ष (Internal Perception) न्यायं दर्शन में मन (Mind) एक ज्ञानेन्द्रिय (Sense-Organ) के रूप में माना गया है। मन कोई बाहरी चीज नहीं है, जिसे हम आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों की तरह देख सकें। मन का अस्तित्व शरीर के भीतर माना गया है जो अदृश्य है। हमें अपने जीवन में सुख-दुख, प्रेम-घृणा आदि मनोभावों का अनुभव होता रहता है।

सुख-दुख का ज्ञान हमें आँख, कान, नाक आदि से प्राप्त नहीं हो सकता है। इस ज्ञान की प्राप्ति ‘मन’ के द्वारा की जा सकती है। इसीलिए ‘मन’ से प्राप्त ‘प्रत्यक्ष को मानस-प्रत्यक्ष’ कहते हैं। न्यायशास्त्र के अनुसार ‘मन’ कोई पदार्थ या द्रव्य (Matter) का बना हुआ नहीं रहता है। अतः इसकी ज्ञान-शक्ति भी विशेष प्रकार की होती है। यह सभी प्रकार के ज्ञान के बीच एकता स्थापित करता रहता है इसलिए इसे केन्द्रीय इन्द्रिय (Central organ) कहा जाता है।

2. अनुभव (Inference):
भारतीय तर्कशास्त्र में अनुमान का स्थान प्रत्यक्ष के बाद आता है। तर्कशास्त्र में प्रमाण (Sources of knowledge) के रूप में अनुमान को दूसरा भेद बतलाया गया है। अनुमान का महत्त्व पाश्चात्य दर्शन में तो इतना अधिक है कि समूचे तर्कशास्त्र का विषय ही अनुमान समझा जाता है। इसके अनुसार अनुमान का अर्थ होता है ज्ञात से अज्ञात की ओर जाना। लेकिन भारतीय तर्कशास्त्र में ‘अनुमान’ का महत्त्व पाश्चात्य तर्कशास्त्र के ऐसा नहीं बतलाया गया है।

यहाँ अनुमान को केवल ज्ञान प्राप्त करने का एक साधन मात्र माना गया है। जिसका स्थान प्रत्यक्ष के बाद आता है। ‘अनुमान’ शब्द के दो भाग हैं अनु + मान। ‘अनु’ का अर्थ होता है पश्चात् या बाद में और ‘मान’ का अर्थ होता है ‘ज्ञान’ इसलिए, ‘अनुमान’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘बाद’ में प्राप्त होने वाला ज्ञान। अतः अनुमान उस ज्ञान को कहते हैं जो किसी पूर्वज्ञान के बाद प्राप्त होता है। जैसे-बादल से वर्षा का अनुमान करते हैं, धुएँ से आग का अनुमान करते हैं।

गौतम ने अनुमान को ‘तत्पूर्वकम्’ कहा है क्योंकि ‘तत्पूर्वक’ का अर्थ होता है प्रत्यक्ष मूलक। यदि लक्षण या लिंग दिखाई नहीं पड़े, किन्तु आगमन (शास्त्र) या बड़े महापुरुषों के आप्त वचन से उसका हमें ज्ञान हो तो उसी के बल पर अनुमान किया जा सकता है। अतः अनुमान का अर्थ होता है, एक बात से दूसरी बात को जान लेना। यदि कोई बात हमें प्रत्यक्ष या आगमन के द्वारा जानी हुई है तो उससे दूसरी बात भी निकाल सकते हैं।

इसी को अनुमान कहा जाता अनुमान के लिए एक और पूर्वज्ञान की आवश्यकता रहती है, जिसे व्यक्ति-ज्ञान कहते हैं। व्याप्ति दो वस्तुओं के बीच एक आवश्यक सम्बन्ध है जो व्यापक माना जाता है। जैसे – ‘धुआँ’ और ‘आग’ में व्याप्ति सम्बन्ध है, क्योंकि यह सर्वविदित है कि जहाँ-जहाँ धुआँ रहता है, वहाँ-वहाँ आग पायी जाती है। इसका कारण यह है कि ‘धुआँ’ और ‘आग’ के बीच व्याप्ति-सम्बन्ध है। जिसका ज्ञान हमें पहले से रहना चाहिए तभी उसके बल पर अनुमान निकाला जा सकता है।

अनुमान में पक्षधर्मता होता है। पक्षधर्मता का अर्थ होता है पक्ष (स्थान-विशेष) में लिंग या हेतु या साधन का पाया जाना, जैसे-पहाड़ (स्थान-विशेष) में ‘धुआँ’ का पाया जाना। व्याप्ति ज्ञान से धुआँ और आग का सम्बन्ध जाना जाता है तथा पक्षधर्मता से पहाड़ और धुआँ का सम्बन्ध जानते हैं। दोनों को मिलाकर हम पहाड़ और आग के बीच सम्बन्ध स्थापित करते हैं, यही परामर्श है और इसी के चलते अनुमान होता है।

3. उपमान (Comparison):
न्याय दर्शन में ‘उपमान’ को प्रमाण (Sources of knowledge) के तीसरे भेद के रूप में बतलाया गया है। न्याय-दर्शन और मीमांसा दर्शन उपमानं को एक स्वतंत्र प्रमाण (Independent source of knowledge) के रूप में बतलाया गया है। उपमान का शाब्दिक अर्थ होता है “सादृश्यता’ या ‘समानता’ के द्वारा संज्ञा-संज्ञि-सम्बन्ध का ज्ञान होना।

जिस वस्तु को हमने पहले कभी नहीं देखा हैं और उसके बारे में दूसरों से वर्णन सुना है और अगर उसी से मिलती कोई वस्तु मिलती है तो वहाँ, हम सुनी हुई बातों के साथ उस वस्तु का मिलान करने लगते हैं, जिसे उपमान (Comparison) कहते हैं। उपमा या सादृश्यता के आधार पर जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है, उसे उपमिति कहते हैं। उपमान कारण है तो उपमिति उसका फल या कार्य। उपमा के बाद जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है, उसे हम उपमिति कहते हैं।

न्याय-दर्शन एवं मीमांसा-दर्शन में उपमान को प्रमाण के लिए महत्त्वपूर्ण माना गया है। आज के युग में बहुत से आविष्कार और अदृश्य पदार्थों का ज्ञान इसी उपमान के द्वारा प्राप्त होता है। आयुर्वेद में उपमान के आधार पर ही अनेक अपरिचित औषधियों और औषधी के द्रव्यों का वर्णन मिलता हैं। उपमान को लेकर सभी भारतीय दार्शनिकों का एक समान मत नहीं है। कुछ विद्वान उपमान को अनुमान का ही एक रूप मानते हैं।

4. शब्द (Verbal Authority):
न्याय दर्शन के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण है। ‘शब्द’ का अर्थ एक या दो साधारण शब्दों (Words) से नहीं लगाया गया है, बल्कि अनेक शब्दों और वाक्यों के द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है, उसे शब्द (knowledge) के नाम से जाना जाता है। सभी शब्दों से हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है, अतः ऐसे ही ‘शब्द’ को हम प्रमाण मानते हैं, जो यथार्थ हो तथा जो विश्वास के योग्य हो। भारतीय दार्शनिकों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जबकि वह किसी बड़े और विश्वासी आदमी का निश्चय बोधक वाक्य हो जिसे हम आप्त वचन भी कह सकते हैं। दूसरे शब्दों में, “किसी विश्वासी और महान् पुरुष के वचन के अर्थ (Meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।”

इतिहास का ज्ञान हमें शब्द के द्वारा ही होता है। रामायण, महाभारत या अन्य पुराण का जो ज्ञान लोगों को होता है, उसका ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान या उपमान नहीं है बल्कि उनका ज्ञान ‘शब्द’ के द्वारा ही प्राप्त होता है। अतः ‘शब्द’ को न्याय-दर्शन में एक स्वतंत्र प्रमाण माना गया है। अतः स्पष्ट है कि ‘शब्द’ ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया है। शब्द ऐसे मनुष्य के हों, जो विश्वसनीय और सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हैं तथा शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हों।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 4 मिल की प्रायोगिक विधियाँ

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 4 मिल की प्रायोगिक विधियाँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 4 मिल की प्रायोगिक विधियाँ

Bihar Board Class 11 Philosophy मिल की प्रायोगिक विधियाँ Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
किसमें केवल दोनों उदाहरणों की आवश्यकता होती है –
(क) व्यतिरेक विधि
(ख) अन्वय विधि
(ग) अवशेष विधि
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) व्यतिरेक विधि

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प्रश्न 2.
मिल की प्रायोगिक विधि को जाना जाता है –
(क) निराकरण विधि के रूप में
(ख) संयोजन विधि के रूप में
(ग) वियोजन विधि के रूप में
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) निराकरण विधि के रूप में

प्रश्न 3.
व्यतिरेक विधि से प्राप्त निष्कर्ष होते हैं –
(क) निश्चित
(ख) अनिश्चित
(ग) संदिग्ध
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) निश्चित

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प्रश्न 4.
अवशेष-विधि एक विशेष रूप है –
(क) व्यतिरेक विधि का
(ख) अन्वय विधि का
(ग) संयुक्त विधि का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) व्यतिरेक विधि का

प्रश्न 5.
निम्नलिखित में कौन एक प्रमाण तथा खोज दोनों की विधि है?
(क) अवशेष विधि
(ख) व्यतिरेक विधि
(ग) अन्वय विधि
(घ) संयुक्त विधि
उत्तर:
(क) अवशेष विधि

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प्रश्न 6.
अन्वय विधि –
(क) निरीक्षण प्रधान विधि है
(ख) प्रयोग प्रधान विधि है
(ग) (क) तथा (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) निरीक्षण प्रधान विधि है

प्रश्न 7.
मिल की प्रायोगिक विधियाँ हैं –
(क) पाँच
(ख) चार
(ग) तीन
(घ) दो
उत्तर:
(क) पाँच

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प्रश्न 8.
मिल की प्रयोगात्मक विधियों में कौन-सी विधि कारण की मात्रा की व्याख्या करती है –
(क) अन्वय विधि (Method of agreement)
(ख) व्यतिरेक विधि (Method of difference)
(ग) संयुक्त अन्वय व्यतिरेक विधि (Joint method of agreement)
(घ) सहगामी सहचर विधि (Method of concomitant variations)
उत्तर:
(घ) सहगामी सहचर विधि (Method of concomitant variations)

प्रश्न 9.
घटना के यथार्थ कारण जानने के लिए किसने प्रायोगिक विधियों का वर्णन किया?
(क) मिल (Mill) ने
(ख) हेवेल ने
(ग) डेकार्ट ने
(घ) किसी ने नहीं
उत्तर:
(क) मिल (Mill) ने

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प्रश्न 10.
मिल ने कारण के गुणात्मक लक्षणों को आधार बनाकर जिन प्रायोगिक विधियों का निर्माण किया था। वह है –
(क) अन्वय विधि
(ख) व्यतिरेक विधि
(ग) संयुक्त अन्वय व्यतिरेक विधि
(घ) अवशेष विधि
उत्तर:
(ग) संयुक्त अन्वय व्यतिरेक विधि

प्रश्न 11.
कारण के परिमाणात्मक लक्षणों के आधार मिल द्वारा बनाई गई विधियाँ हैं –
(क) सहचरी परिवर्तन विधि
(ख) अवशेष विधि
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

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प्रश्न 12.
प्रमाण की विधि (Method of proof) है –
(क) व्यतिरेक विधि
(ख) अन्वय विधि
(ग) अवशेष विधि
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(क) व्यतिरेक विधि

प्रश्न 13.
खोज की विधि है –
(क) अन्वय विधि
(ख) व्यतिरेक विधि
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) अन्वय विधि

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 4 मिल की प्रायोगिक विधियाँ

प्रश्न 14.
किसके द्वारा स्थाई कारणों के कार्य का पता लगाया जा सकता है?
(क) अन्वय विधि
(ख) व्यतिरेक विधि
(ग) सहचरी परिवर्तन विधि
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ग) सहचरी परिवर्तन विधि

प्रश्न 15.
निगमन पर आधारित प्रयोग विधि है –
(क) अवशेष विधि
(ख) अन्वय विधि
(ग) व्यतिरेक विधि
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(क) अवशेष विधि

Bihar Board Class 11 Philosophy मिल की प्रायोगिक विधियाँ Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
किस विधि में केवल दो उदाहरणों की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
व्यतिरेक विधि में केवल दो उदाहरणों की आवश्यकता होती है। एक उदाहरण भावात्मक होते हैं और दूसरा निषेधात्मक।

प्रश्न 2.
किस विधि में सह परिणामों को कारण-कार्य मान लेने का भ्रम होता है?
उत्तर:
अन्वय विधि में सह परिणामों को कारण-कार्य मान लेने का भ्रम होता है।

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प्रश्न 3.
प्रमाण की विधि (Method of proof) किसे कहा जाता है?
उत्तर:
व्यतिरेक विधि (Method of difference) को प्रयोग प्रधान विधि होने के कारण प्रमाण विधि कहा जाता है।

प्रश्न 4.
प्रयोगात्मक विधियाँ किसे कहते हैं? अथ्वा, प्रयोगात्मक विधियाँ क्या हैं?
उत्तर:
कार्य-कारण सम्बन्ध निश्चित करने की विधियों को प्रयोगात्मक विधियाँ कहते हैं।

प्रश्न 5.
मिल की प्रायोगिक विधियाँ कितनी हैं?
उत्तर:
मिल की प्रायोगिक विधियाँ पाँच हैं। वे हैं-अन्वय विधि, व्यतिरेक विधि, संयुक्त अन्वय-व्यतिरेक विधि, सहचारी-परिवर्तन-विधि तथा अवशेष विधि।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 4 मिल की प्रायोगिक विधियाँ

प्रश्न 6.
घटना के यथार्थ कारण जानने के लिए किसने प्रायोगिक विधियों का वर्णन किया?
उत्तर:
जे. एस. मिल ने घटना के यथार्थ कारण जानने के लिए प्रायोगिक विधियों का वर्णन किया।

प्रश्न 7.
मिल ने कारण के परिमाणात्मक लक्षण (Quantitative marks of cause) के आधार पर कितनी प्रायोगिक विधियों का निर्माण किया?
उत्तर:
मिल ने कारण के परिमाणात्मक लक्षण के आधार पर दो प्रायोगिक विधियों का निर्माण किया। वे हैं-सहचारी-परिवर्तन-विधि (The method of concomitant variations) एवं अवशेष-विधि (The method of residues)।

प्रश्न 8.
अन्वय विधि के मुख्य दोष क्या हैं? अथवा, अन्वय विधि की मुख्य सीमाएँ क्या हैं?
उत्तर:
अन्वय विधि का मुख्य दोष है कि यह बहुकारणवाद (Plurality of causes) की समस्या से ग्रस्त है। दूसरा दोष यह है कि निरीक्षण-प्रधान विधि के कारण निरीक्षण के सभी दोष इसमें शामिल हैं।

प्रश्न 9.
खोज की विधि (Method of discovery) किसे कहा जाता है?
उत्तर:
अन्वय विधि को मुख्यतः निरीक्षण पर आधारित होने के कारण खोज की विधि कहा जाता है।

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प्रश्न 10.
कौन-सी प्रायोगिक विधि निगमन पर आधारित विधि है?
उत्तर:
अवशेष विधि (The method of residues) निगमन पर आधारित विधि है।

प्रश्न 11.
किस विधि से स्थायी कारणों के कार्य का पता लगाया जा सकता है?
उत्तर:
सहचारी-परिवर्तन-विधि (The method of concomitant variations) से स्थायी। कारणों के कार्य का पता लगाया जाता है।

प्रश्न 12.
किस विधि को ‘दुहरा अन्वय विधि’ (Double agreement) कहा जाता है?
उत्तर:
संयुक्त अन्वय-व्यतिरेक-विधि (The joint method of agreement and differ ence) को दुहरा अन्वय विधि कहा जाता है।

प्रश्न 13.
बहिष्करण या निराकरण की विधि (Method of elimination) से आप क्या समझते हैं? अथवा, बहिष्करण या निराकरण विधि का क्या अर्थ होता है?
उत्तर:
बहिष्करण का अर्थ होता है ‘हटाना’ या ‘छाँटना’। किसी घटना के कारण या कार्य का पता तब चलता है जब अनावश्यक बातों को छाँटकर आवश्यक तथ्यों को निकाल लिया जाता है। इसे ही मिल ने निराकरण की विधि कहा है। मिल की प्रायोगिक विधियाँ ही निराकरण की विधियाँ हैं।

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प्रश्न 14.
अन्वय विधि (Method of agreement) के दो मुख्य गुण बताएँ।
उत्तर:
अन्वय विधि निरीक्षण कि विधि होने के कारण इसका क्षेत्र बहुत व्यापक है। दूसरा, निरीक्षण की विधि होने के कारण इसमें कारण से कार्य की ओर या कार्य से कारण की ओर बढ़ते हैं।

प्रश्न 15.
मिल ने कारण के गुणात्मक लक्षणों को आधार बनाकर कितने प्रायोगिक विधियों का निर्माण किया?
उत्तर:
मिल ने कारण के गुणात्मक लक्षणों को आधार बनाकर तीन प्रायोगिक विधियों का निर्माण किया। वे हैं-अन्वय विधि, व्यतिरेक-विधि एवं संयुक्त-अन्वय व्यतिरेक विधि।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
अन्वय विधि के दोष क्या हैं?
उत्तर:
अन्वय विधि के निम्न दोष पाए जाते हैं –

  1. इसमें कई उदाहरणों को निरीक्षण करके निष्कर्ष निकाला जाता है। इसलिए इसमें बहुकारणवाद का दोष आ जाता है।
  2. यह विधि निरीक्षण पर आधारित है, इससे सूक्ष्म एवं गुप्त परिस्थिति का निरीक्षण न हुआ हो, जो कि घटना का वास्तविक कारण और कार्य हो। इन्द्रियों के द्वारा सूक्ष्म तत्त्वों का निरीक्षण संभव नहीं हो पाता है।
  3. इसमें एक ही कारण के दो सहपरिणामों (Co-effects) को एक-दूसरे के कारण कार्य समझने की गलती करते हैं। जैसे दिन के पहले गत और गन के पहले दिन नियत रूप से आते हैं।
  4. इसमें यह त्रुटि है कि उपाधि को पूर्ण कारण मान लिया जाता है।
  5. इस विधि को कागज पर सांकेतिक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करना आसान है जो कौमन अक्षर रहता है। यह कारण या कार्य तुरत बतला देते हैं। परन्तु, वास्तविक जगत में इसका व्यवहार आसान नहीं है।
  6. यह विधि एकांकी भी है क्योंकि यह केवल भावात्मक उदाहरणों में अन्वय देखता है। निषेधात्मक उदाहरणों पर विचार नहीं करता है।

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प्रश्न 2.
अन्वय विधि क्या है?
उत्तर:
अन्वय विधि मिल साहब के प्रयोगात्मक विधि का एक प्रथम रूप है। इसकी परिभाषा इस प्रकार से दी गई है। “यदि किसी जाँच की जानेवाली घटना के दो या उससे अधिक उदाहरणों में उस घटना के अतिरिक्त एक और बात सामान्य हो तो वह बात जो सब उदाहरणों से मिलती है उस घटना के साथ कारण-कार्य का संबंध रखती है।” इसे सांकेतिक उदाहरण के द्वारा दिखाया गया है।
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∴ A, X का कारण है या ‘X’ A का कार्य है। यहाँ A सभी उदाहरणों के पूर्ववर्तियों में सामान्य रूप से उपस्थित है अतः ‘X’ घटना का कारण – ‘A’ ही है।

प्रश्न 3.
अवशेष विधि क्या निगमनात्मक है?
उत्तर:
कुछ लोगों के अनुसार अवशेष विधि का स्वरूप निगमनात्मक है। निगमन में आधार वाक्य से निष्कर्ष को निकाला जाता है। उसी प्रकार आगमन में ज्ञात कारण के कार्य को सम्मिलित कार्य से निकाल कर व शेष कार्य और बचे हुए कारण में संबंध स्थापित करते हैं। पुनः आगमन में विशिष्ट उदाहरणों का निरीक्षण किया जाता है। निरीक्षण आगमन के लिए आवश्यक है। अवशेष विधि में निरीक्षण से काम नहीं किया जाता है। बल्कि गणना (Calculation) से काम लेते हैं। घटाने की प्रक्रिया एक प्रकार की गणना है, अतः इसका आंतरिक स्वरूप निगमनात्मक है न कि आगमनात्मक है।

लेकिन यह धारणा ठीक नहीं है। निगमन की मदद लेते हैं लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यह पूर्णतया निगमनात्मक है। इस तरह सभी विधियाँ निगमनात्मक हो जाती है क्योंकि सभी विधियाँ कारणता के नियम से निकाली गई हैं। इसलिए इस विधि को निगमनात्मक कहना न्याय संगत न होगा। अतः निष्कर्ष निकलता है कि अवशेष विधि निगमनात्मक नहीं है। मात्र गणना की क्रिया देखकर इसे निगमनात्मक नहीं कहना चाहिए। अनुभव आगमन के स्वरूप को बतलाता है। अतः इसका स्वरूप आगमनात्मक है न कि निगमनात्मक।

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प्रश्न 4.
अन्वय विधि के गुण क्या हैं?
उत्तर:
अन्वय विधि के निम्नलिखित गुण या लाभ हैं –

  1. अन्वय विधि निरीक्षण प्रधान होने के कारण इसका क्षेत्र बहुत विशाल है क्योंकि इस विधि 1 के अंतर्गत निरीक्षण करके निष्कर्ष निकाला जाता है। निरीक्षण सभी घटनाओं का होता है।
  2. इस विधि में कारण से कार्य की ओर या कार्य से कारण की ओर बढ़ सकते हैं। इस प्रकार की सुविधाएँ दूसरे विधि में नहीं है।
  3. यह विधि सर्वसाधारण की विधि है, इसका उपयोग कोई भी कर सकता है।
  4. इस विधि से प्राकृतिक घटनाओं जैसे-भूकंप, बाढ़, महामारी इत्यादि के कारण का पता अच्छी तरह लगती है। इन घटनाओं का निरीक्षण ही होता है, इन पर प्रयोग संभव नहीं है। अतः, इन घटनाओं के कारण का पता लगाने में अन्वय विधि ही सक्षम एवं समर्थ हैं।

प्रश्न 5.
निराकरण के सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
मिल साहब द्वारा बताई गई पाँच प्रयोगात्मक विधियों को निराकरण की विधियाँ के नाम से भी पुकारा जाता है। निराकरण का अर्थ है जाँच की जानेवाली घटना के संबंध में अनावश्यक बातों का छाँट देना या असंबंधित स्थितियों को दूरकर कार्य-कारण संबंध की स्थापना करना! निराकरण का अर्थ ही है जो कारण नहीं उसे दूर हटाकर। मिल साहब के अनुसार कारण की व्याख्या उसके गुण और परिमाण दोनों के आधार पर की गई है।

कारण के गुणात्मक स्वरूप को बताते हुए मिल साहब कहते हैं “कारण नियम, आसन्न अनौपाधिक, पूर्ववर्ती घटना है तथा कारण के परिमाण को बताते हुए कहा गया है” कारण और कार्य परिमाण के अनुसार बिल्कुल ही बराबर होते हैं। A cause is equal to effect according to quantity इस तरह हमें ऐसा करने के लिए निराकरण की सहायता लेनी पड़ती है। जिस तरह फुलवारी में घास की पत्ती बढ़ जाने पर हम उसे छाँट देते हैं ताकि फूल-पौधे ठीक से बढ़ सकें, उसी तरह सही कारण को जानने के लिए हमें बहुत-सी अनावश्यक बातों को छाँट या हटा देना पड़ता है।

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प्रश्न 6.
मिल के प्रयोगात्मक विधि क्या हैं?
उत्तर:
आगमन का उद्देश्य सामान्य यथार्थ वाक्य की रचना करना है इसका अर्थ है – दो घटनाओं के बीच कारण-कार्य संबंध की स्थापना करना। मिल ने प्रयोगात्मक विधि के द्वारा आगमन के उद्देश्य की प्राप्ति करने का प्रयास किया। प्रयोगात्मक विधि के द्वारा केवल किसी घटना का पता नहीं लगाया जाता है। बल्कि उस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अनावश्यक बातों को छाँट भी दिया जाता है। मिल के मुख्यतः पाँच प्रयोगात्मक विधि हैं –

  1. अन्वय विधि
  2. व्यतिरेक विधि
  3. संयुक्त अन्वय व्यतिरेक विधि
  4. सहगामी विवरण विधि और
  5. अवशेष विधि

इन पाँचों विधियों के द्वारा कारण से कार्य और कार्य से कारण की ओर बढ़ते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
व्यतिरेक विधि क्या है? इसके गुण-दोष की व्याख्या करें।
उत्तर:
व्यतिरेक विधि मुख्य रूप से प्रयोग पर आधारित विधि हैं इसमें जिन दो उदाहरणों की आवश्यकता पड़ती है वे प्रयोग से ही प्राप्त होते हैं। फिर भी निरीक्षण के क्षेत्र में भी व्यवहार कर कार्य-कारण संबंध स्थापित किया जाता है। मिल साहब ने इसका परिभाषा इस प्रकार दिए हैं।

“If an instance in which the phenomenon under investigation occurs and an instance in which it does not occur, have every circumstance in common save one that one occuring only in the former the circumstance in which alone the two instances differ is the effect of the cause, or an indisperisable part of the cause of the phenomenon.” अर्थात् “यदि किसी एक उदाहरण में जाँच की जानेवाली घटना घटती हो और दूसरे उदाहरण में जाँच की जानेवाली घटना नहीं घटती हो, सभी बातें समान हों, केवल यही भेद पाया जाए कि प्रथम उदाहरण में किसी एक बात का भाव हो और केवल उसी का दूसरे उदाहरण में अभाव, तो उस बात का उस घटना से कार्य-कारण संबंध पाया जाता है या घटना के कारण का आवश्यक अंश रहता है।” इसकी भाषा के विश्लेषण करने पर निम्नलिखित बातें हम पाते हैं।

  1. जाँच की जानेवाली घटना के दो उदाहरण दिए जाते हैं। एक उदाहरण में घंटना उपस्थित रहती है और दूसरे उदाहरण में घटना अनुपस्थित रहती है।
  2. दोनों उदाहरणों में एक परिस्थिति को छोड़ कर सभी कुछ समान ही रहते हैं। वह परिस्थिति एवं उदाहरण में स्थित रहती है तथा दूसरे उदाहरण में नहीं।
  3. वह परिस्थिति की अवस्था जिसमें दोनों उदाहरणों को भिन्न पाते हैं घटना का कारण या कार्य होता है या घटना के कारण का आवश्यक अंग होता है। जैसे-सांकेतिक उदाहरण –
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∴ A और X में कार्य कारण-संबंध है यहाँ ‘A’ के रहने पर X और Aके अनुपस्थित रहने पर X भी अनुपस्थित रहता है। इसके दो रूप में पूर्ववर्ती में से एक पूर्ववर्ती को निकाल देते हैं जिससे अनुवर्ती में से भी कोई बात घट जाती है। जैसे-पूर्ववर्ती में से ‘A’ घटता है तो अनुवर्ती में भी ‘A’ घट जाता है दूसरा रूप-पूर्ववर्ती में कुछ जोड़ देते हैं तो अनुवर्ती में भी कुछ जुट जाता है। जैसे –
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इसलिए D और X में कार्य-कारण संबंध है।

वास्तविक उदाहरण:
जब किसी व्यक्ति को मादा अनोफिल मच्छर काटता है, तो उसे मलेरिया हो जाता है और जब किसी व्यक्ति को मादा अनोफिल मच्छर नहीं काटता है, तो उसे मलेरिया नहीं होता है। इस तरह निष्कर्ष निकलता है कि मादा अनोफिल मच्छर ही मलेरिया का कारण है। अतः सांकेतिक एवं वास्तविक दोनों प्रकार के उदाहरणों से स्पष्ट है कि दो उदाहरणों में सभी बातें समान रहती हैं केवल एक बात का अंतर रहता है और वह घटना का कार्य या कारण होता है।

गुण (Merits):

व्यतिरेक विधि के निम्नलिखित गुण हैं –

  1. इस विधि का सबसे महत्त्वपूर्ण गुण यह है कि जो कार्य-कारण संबंध स्थापित होता है वह निश्चित होता है क्योंकि यह विधि प्रयोग की विधि है। अन्वय और संयुक्त विधि की तुलना में इसका निष्कर्ष विश्वसनीय होता है।
  2. इस विधि में केवल दो उदाहरण लिये जाते हैं। अतः, परिश्रम कम लगता है। समय भी बचता है।
  3. जबकि अन्वय एवं संयुक्त विधियों में समय एवं श्रम अधिक लगता है।
  4. अन्वय विधि से कारण का जो संकेत मिलता है उसकी जाँच इस विधि से कर सकते हैं। अन्वय विधि कारण को प्रमाणित नहीं करती है। केवल कारण का संकेत करती है। अन्वय विधि से प्राप्त निष्कर्ष की जाँच अतिरिक्त विधि में की जा सकती है क्योंकि यह प्रयोग प्रधान विधि है।
  5. यह विधि हमारे व्यावहारिक जीवन के लिए भी लाभप्रद है, जैसे-एक किसान समझता है कि जिस साल अच्छी वर्षा होती है धान की फसल अच्छी होती है और वर्षा के अभाव में धान की फसल भी खराब होती है, अतः अच्छी वर्षा धान के लिए उपयोगी कारण है।
  6. यह विधि बहुकारणवाद से उत्पन्न कठिनाइयों को बहुत अंश में दूर करती है।

व्यतिरेक विधि के दोष (Demerits):

  1. व्यतिरेक विधि प्रयोग प्रधान विधि होने के कारण उसका क्षेत्र सीमित हो जाता है। प्राकृतिक घटनाओं, जैसे-बाढ़, भूकंप, महामारी पर इस विधि का व्यवहार नहीं हो सकता है।
  2. इसमें केवल कारण से कार्य की ओर जाते हैं क्योंकि यह विधि प्रयोग पर आधारित है।
  3. इसमें कारण और कारणांश (Condition) में भेद नहीं कर पाते हैं। कारणांश ही पूर्ण कारण हो जाता है। जैसे-दाल, सब्जी में नमक मिलाकर भोजन करने में अच्छा लगता है। यदि नमक नहीं मिला है तो भोजन अच्छा नहीं लगता है। यहाँ नमक कारणांश है जो कारण बन जाता है, स्वादिष्ट भोजन का।
  4. इस विधि का व्यवहार असावधानी पूर्वक करने से Post hoc ergo propter hoc (यत्पूर्व सकारणम्) का दोष हो जाता है जैसे किसी पुत्र के उत्पन्न होने पर उसकी माँ का देहान्त होना उस बच्चे के जन्म देने का कारण मानते हैं। फिर भी त्रुटियों के बावजूद यह विधि सबसे अच्छी विधि मानी गई है। इसलिए इसे Method of part excullance कहते हैं। इनकी महत्ता मिल बहुत बताते हैं।

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प्रश्न 2.
सहगामी विचरण विधि की सोदाहरण व्याख्या करें। इसके गुण और दोषों को बताएँ।
उत्तर:
सहचारी या सहगामी विचरण विधि अन्वय एवं व्यतिरेक विधि का एक रूप है। इस विधि के द्वारा कारण-कार्य संबंध का पता इस बात को देखकर लगाया जाता है कि किन दो घटनाओं में साथ-साथ परिवर्तन होता है, इस विधि में परिवर्तन के आधार पर निष्कर्ष निकाला जाता है। इसकी परिभाषा मिल ने दिया है। (What ever phenomenon varies in any manner whatever another phenomenon varies in some particular manner is either a cause or an effect of that phenomenon or is connected with it through some fact of causation) अर्थात् जब कोई घटना किसी दूसरी घटना के साथ किसी खास नियम से घटती है या बढ़ती है तो उन दोनों में कारण-कार्य का संबंध रहता है। इस परिभाषा की निम्नलिखित विशेषताएँ हम विश्लेषण करने पर पाते हैं।

  1. इस विधि में दो या दो से अधिक उदाहरणों के निरीक्षण हो सकते हैं।
  2. उन उदाहरणों में दो अवस्थाएँ होती हैं-पूर्ववर्ती और अनुवर्ती।
  3. इसमें परिमाण के आधार पर निष्कर्ष की स्थापना की जाती है।
  4. इसमें बदलने वाली अवस्था के वीच कारण-कार्य का संबंध रहता है। दो घटनाएँ साथ-साथ बढ़े, दो घटना साथ-साथ घटे, यह प्रक्रिया उसी अनुपात में होती है।

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∴ A और X में कार्य-कारण संबंध है। इसमें A और X में समानुपाती परिवर्तन हम देखते हैं। अन्वय विधि की तरह ही एक अवस्था में समानता है तथा दूसरी अवस्था में भिन्नता है।
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यहाँ A और X कार्य – कारण संबंध है। यह उदाहरण व्यतिरेक विधि का रूपांतरण है। वास्तविक उदाहरण –

(क) जैसे-जैसे बुखार बढ़ता है थर्मामीटर का पारा बढ़ता है और जैसे-जैसे बुखार घटता है थर्मामीटर का पारा भी घटता है। अतः, दोनों में कार्य-कारण का संबंध है।
(ख) जैसे-जैसे ऊपर की ओर अर्थात् ऊँचाई पर जाते हैं ठंडा बढ़ता है, अतः कार्य-कारण का संबंध है एवं किसी वस्तु की माँग बढ़ती है तो उस वस्तु की कीमत बढ़ती है। माँग घटने पर कीमत भी घट जाती है। अतः, माँग और कीमत (Demand and price) में कार्य कारण संबंध है।
(ग) देखा गया है कि Frustration जैसे – जैसे बढ़ता है हिंसात्मक प्रवृत्ति भी वैसे-वैसे बढ़ती है।

गुण (Merits):

  1. इससे लाभ है कि जब हम किसी घटना के परिणाम या वेग को जानना चाहते हैं तो इस विधि की सहायता लेकर जान लेते हैं।
  2. प्रकृति के अन्दर कुछ ऐसे तत्त्व हैं जिनके बीच कारण-कार्य के संबंध को पता लगाने के लिए सहगामी विचरण विधि की सहायता लेते हैं। यह विधि बिल्कुल सर्वोत्तम विधि है। वायुमंडल का दबाव, ताप, घर्षण, पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति इत्यादि के बीच कारण-कार्य का पता इस विधि द्वारा आसानी से लगाया जा सकता है।
  3. कारण को निश्चित करने के लिए कल्पना की सहायता ली जाती है यह इसी विधि से प्राप्त किया जाता है।
  4. जहाँ घटना के वेग और परिणाम की माप होती है वहाँ यह विधि अन्वय और व्यतिरेक विधि से अधिक लाभदायक है।
  5. बेन साहब के अनुसार, असाधारण परिस्थिति में यह विधि बहुत उपयोगी है।
  6. धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक क्षेत्रों में इस विधि से कारण का पता लगता है। जैसे–अंधविश्वास ही धार्मिक उपद्रव में पाया जाता है। जनसंख्या और मृत्यु में आवश्यक संबंध है। इसी तरह अज्ञानता की मात्रा जितनी अधिक होगी दुःख की मात्रा भी उतनी ही अधिक होती है।

दोष या सीमाएँ (Demerits):

  1. यह विधि केवल परिमाणतः परिवर्तन में सफलीभूत होती है। गुणगत परिवर्तन में इस विधि का व्यवहार कर कारण का पता नहीं लगा सकते।
  2. यहाँ भी सहपरिणामों को एक-दूसरे का कारण समझने की भूल की संभावना बनी रहती
  3. इस विधि का अंतिम सीमा है कि जब परिवर्तन एकाएक होता है, वहाँ इस विधि का व्यवहार नहीं कर सकते हैं। इस विधि का व्यवहार नहीं होता है जहाँ धीरे-धीरे परिवर्तन क्रमशः होता है।

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प्रश्न 3.
अवशेष विधि की सोदाहरण व्याख्या इसके गुण-दोष के साथ करें।
उत्तर:
प्रायोगिक विधियों में अवशेष विधि एक महत्त्वपूर्ण विधि है। इसके द्वारा जटिल कार्य के बचे हुए अंश के कारण का पता लगाते हैं। जटिल कार्य के कुछ अंश के कारण का पता पहले से मालूम रहता है और बचे हुए अंश के कारण का पता अवशेष विधि से लगाते हैं। मिल ने इसकी परिभाषा इस प्रकार दिए हैं।

(“Subduce from any given phenomenon such parts as is known by previous inductions to be the effect of certain anteced ents and the residues of this phenomenon is this effect of this remaining ante cedents-Mill”) अर्थात् “अगर किसी दी हुई घटना से उस भाग को निकाल दिया जाए तो पहले आगमन के आधार पर कुछ पूर्ववर्ती अवस्थाओं का निष्कर्ष समझा गया है, तो घटनाओं का अवशेष भाग अवश्य ही अवशेष अवस्थाओं का कार्य होगा।” इस परिभाषा में निम्नलिखित विशेषताओं को पाते हैं।

  1. कोई जटिल कार्य दिया रहता है जिसके कुछ अंश के कारण का पता पहले से मालूम रहता है, कार्य के शेष अंश के कारण का पता लगाना रहता है।
  2. जो बातें हमें पहले से ज्ञात रहती है उसे सम्मिलित कार्य से हटा देते हैं।
  3. अब कार्य के बचे अंश तथा कारण (पूर्ववर्ती) के बचे अंश में कार्य-कारण स्थापित करते हैं अर्थात् कारण का शेषांश कार्य के शेषांश का कारण होगा। जैसे –

सांकेतिक उदाहरण –
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यहाँ पहले से मालूम है कि कारण B तथा Z का कारण C है। इसलिए Aनिराकरण है ‘X’ का। यह अवशेष विधि निराकरण के सिद्धान्त पर आधारित है, निराकरण का सिद्धांत है “जो किसी एक वस्तु का कारण है वह किसी अन्य वस्तु का कारण नहीं हो सकता है।” इसलिए B, CX का कारण नहीं होता है B, C तो Y, Z का कारण है इसलिए अनुमान करते हैं कि A ही X का कारण है।

वास्तविक उदाहरण –
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अवशेष विधि के गुण (Merits):

1. इस विधि से आविष्कार में सहायता मिलती है। वैज्ञानिकों को मालूम था कि यूरेनस अपनी गति-निर्धारित मार्ग पर नहीं चलकर कुछ भटक जाता है। वैज्ञानिकों ने किसी अज्ञात कारण की कल्पना की और खोज के द्वारा नेपच्युन ग्रह को खोज निकाला। आर्गन गैस की खोज इसी विधि से हुई है। अतः विज्ञान के क्षेत्र में विशेष कर रसायन शास्त्र में इस विधि से अनेक गैसों और तत्त्वों की खोज हुई है।

2. यही एक विधि है जिसके द्वारा किसी सम्मिलित कार्य के बचे हुए अंश के कारण का पता लगा सकते हैं। अन्वय विधि, संयुक्त विधि, व्यतिरेक विधि एवं सहगामी विचरण विधि से बचे हुए अंश के कारण का पता नहीं लगा सकते हैं।

अवशेष विधि का दोष (Demerits):

  1. इस विधि में प्रथम दोष है कि इसका व्यवहार तब होता है जब हमें पहले से घटना के बारे में कुछ ज्ञान प्राप्त रहता है। पूर्व ज्ञान आवश्यक है यदि कोई व्यक्ति किसी घटना से पूर्ण अनभिज्ञ है तो कारण का पता नहीं लगा सकता है।
  2. सहगामी विचरण विधि की तरह इस विधि का भी व्यवहार केवल परिमाण संबंधी खोज से है। गुण संबंधी खोज में इसका व्यवहार नहीं हो सकता है।
  3. अवशेष विधि व्यतिरेक विधि का विशेष रूप है इसलिए व्यतिरेक विधि के दोष अवशेष विधि में चले आते हैं। इन त्रुटियों के बावजूद यह विधि विज्ञान के क्षेत्र में उपयोगी है।

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प्रश्न 4.
संयुक्त अन्वय विधि क्या है? इसके गुण-दोषों की विवेचना करें।
उत्तर:
संयुक्त विधि अन्वय विधि का रूपांतर या विशेष रूप है। यह विधि अन्वय विधि की कमी को दूर करती है। इसमें दो प्रकार के उदाहरणों के समूहों को लिया जाता है।

  1. भावात्मक तथा
  2. अभावात्मक।

इन दोनों के आधार पर निष्कर्ष को निकाला जाता है। इसकी परिभाषा इस प्रकार से दी गई है। “If two or more instances in which the phenomenon occurs have and one circumstance in common while two or more instances in which it does not occur have nothing in common save the absence of the circumstance this circumstance in which lend sets of instance differ is the effect of this cause or an indispensable part of the cause of the phenomenon.” “यदि किसी घटना के दो या दो से अधिक उदाहरणों में कोई एक बात सामान्य रूप से पायी जाए तो उस घटना के अभाव वाले दो या दो से अधिक उदाहरणों में उस घटना की अनुपस्थिति के अलावा और कोई बात सामान्य न हो, तो केवल उस बात का जिसमें दोनों प्रकार के उदाहरणों का भेद रहे घटना का कारण या कार्य या कारण अपना कार्य का आवश्यक अंग होता है।” इस परिभाषा की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

  • इस विधि से कुछ भावात्मक और कुछ अभावात्मक उदाहरण लिये जाते हैं।
  • भावात्मक उदाहरण के लिए दो या दो से अधिक उदाहरणों की जाँच क़रना, उन सभी उदाहरणों में किसी अमुक घटना का या उसका भाव देखना सभी परिस्थितियों में अन्य बातों में विभिन्नता और एक बात में समता का खोजना अनिवार्य है।
  • अतः, घटना की उपस्थिति और अनुपस्थिति के आधार पर निष्कर्ष को निकाला जाता है। जैसे-सांकेतिक उदाहरण –Bihar Board Class 11 Philosiphy chapter 4 मिल की प्रायोगिक विधियाँ

वास्तविक उदाहरण:
जब परीक्षा के समय मन लगाकर पुस्तकों का अध्ययन किया जाता है तो अच्छी सफलता मिलती है और जब परीक्षा के समय मन लगाकर अध्ययन नहीं किया जाता हे तो परीक्षा में अच्छी सफलता नहीं मिलती है इसलिए अच्छी सफलता का मिलना पुस्तकों का मन लगाकर अध्ययन करना है।

गुण (Merits):

  1. संयुक्त अन्वय विधि निरीक्षण प्रधान विधि है। इसलिये निरीक्षण के जितने भी लाभ हैं वे सभी इसमें पाए जाते हैं। इस विधि का क्षेत्र भी व्यापक है। इसमें निरीक्षण के द्वारा घटनाओं का अध्ययन किया जाता है।
  2. अन्वय विधि में बहुकारणवाद का दोष पाया जाता है। किन्तु, संयुक्त अन्वय विधि में इन बाधाओं को आंशिक रूप में अवश्य दूर किया गया है। इसके लिए अभावात्मक उदाहरणों की संख्या को बढ़ा दी जाए।
  3. इसमें जिस कारण कार्य नियम की स्थापना की चेष्टा की जाती है, उसके सत्य होने में अधिक संभावना पायी जाती है क्योंकि इसमें हम भावात्मक और अभावात्मक दोनों प्रकार के उदाहरणों को पाते हैं।
  4. इस विधि का उपयोग हम व्यावहारिक जीवन में अधिक करते हैं।
  5. निरीक्षण प्रधान विधि होने से इसका क्षेत्र व्यापक एवं विस्तृत है। प्रयोग आधारित रहने के कारण विधि का क्षेत्र संकुचित है। राजनीतिक, सामाजिक एवं प्राकृतिक घटनाओं पर इसका व्यवहार कर कारण या कार्य का पता लगाना असंभव है।

दोष (Demerits):

  1. संयुक्त अन्वय विधि निरीक्षण प्रधान विधि है इसलिए निरीक्षण के जितने भी दोष हैं इस विधि के भी दोष हो जाते हैं।
  2. दो सहपरिणामों के बारे में जो निष्कर्ष निकाला जाता है, वह सत्य नहीं होता है। इसमें दोष पाया जाता है।
  3. कभी-कभी एक उपाधि या स्थिति को कारण के रूप में समझने से दोष आ जाता है। जैसे दो तीन बार जब बंदूक से गोली निकलती है, तो आवाज होती है। दो-तीन बार गोली नहीं निकलती है तो आवाज भी नहीं होती है। अतः, गोली निकलने को आवाज का कारण मान लेते हैं, परन्तु गोली एक उपाधि है।
  4. यहाँ पर दो घटनाओं में आकस्मिक सहचर देखने पर कार्य-कारण संबंध स्थापित करने की भूल करते हैं। अतः, संयुक्त अन्वय विधि त्रुटि से संयुक्त नहीं है। फिर भी अन्वय विधि से अधिक विश्वसनीय है। इसके निष्कर्ष में सत्य होने की संभावना अधिक रहती है। इसकी त्रुटियों को दूर भी किया जा सकता है।

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प्रश्न 5.
अन्वय विधि के गुण एवं दोषों की व्याख्या करें।
उत्तर:
तार्किकों ने अन्वय विधि का निरीक्षण प्रधान विधि बताए हैं क्योंकि इसके उदाहरण निरीक्षण से प्राप्त होते हैं। मिल साहब ने इसकी परिभाषा में कहा है “If two or more instances of the phenomenon under investigation have only one circumstance in common, the circumstance in which alone are the instances agree is the cause or effect of the given phenomenon.” “यदि जाँच की जानेवाली घटना के दो या दो से अधिक उदाहरणों में एक बात सामान्य हो, तो वह वात जिसमें सभी उदाहरण अनुकूल हो, दी हुई घटना का कारण या कार्य हो।” इस परिभाषा की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं –

  1. जाँच की जानेवाली घटना के दो या उससे अधिक उदाहरण लिये जाते हैं।
  2. अगर घटना कार्य है तो उसके कारण का पता पूर्ववर्तियों के निरीक्षण का उदाहरण जमा करने से होगा।
  3. पूर्ववर्तियों में देखते हैं कि कौन-सी बातें सभी उदाहरगों में सामान्य रूप से पायी जाती हैं। वही घटना का कारण होगी।
  4. यदि घटना कारण है और उसके कार्य का पता लगाना है तो अनुवर्तियों के उदाहरण को जमा करते हैं।
  5. अनुवर्तियों में जो बातें सभी उदाहरणों में सामान्य रूप से पायी जाती हैं वही घटना का कार्य होता है। इस तरह हम देखते हैं कि अन्वय विधि में एक ही बात की समानता (Agreement in one single point) इस विधि का मूल आधार है। जैसे –

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“A is the cause of Xor X is the effect of A.” अर्थात् A ही X का कारण है या X ही A का कार्य है। क्योंकि इसमें A उदाहरणों में उपस्थित है। अतः Aनियम पूर्ववर्ती है और X कार्य का कारण है। इसमें B,C, D, E, F, ‘X’ कार्य का कारण नहीं है। क्योंकि ये नियम पूर्ववर्ती है।

वास्तविक उदाहरण:
मिल साहब अन्वय विधि के माध्यम से एक व्यक्ति की दिनचर्या के आधार पर उसके सिर दर्द का कारण जानना चाहते हैं।
Bihar Board Class 11 Philosiphy chapter 4 मिल की प्रायोगिक विधियाँ

मंगलवार:
पकौड़ी खाना, मांस खाना, दूध पीना, रात में शीत में सोना सिर दर्द यहाँ सिर दर्द का कारण बाहर में रात में शीत में सोना ही है क्योंकि सभी उदाहरणों में रात में शीत में सोना सभी दिन है और अन्य कारण सभी दिन उपस्थित नहीं है। अतः सिर दर्द का कारण शीत में सोना मान लिया जाता है। मिल की इस विधि को अन्वय विधि कहते हैं।
गुण या लाभ-अन्वय विधि से निम्नलिखित लाभ हैं –

  1. अन्वय विधि-निरीक्षण प्रधान विधि होने के कारण व्यापक क्षेत्र रखता है। इसका व्यवहार सभी क्षेत्रों में होता है। प्रयोग की तुलना में।
  2. इस विधि से कारण से कार्य तथा कार्य से कारण का पता लगाते हैं। इस तरह इस विधि में दोनों सुविधाएँ हैं, क्योंकि यह निरीक्षण प्रधान विधि है।
  3. इससे प्राकृतिक घटनाओं का पता आसानी से लगाया जाता है। भृकंप, बाढ़, महामारी इत्यादि के कारणों का पता अच्छी तरह लग जाती है। क्योंकि इन सभी घटनाओं का निरीक्षण ही होता है।
  4. इन पर प्रयोग संभव नहीं है। अतः, इन प्राकृतिक घटनाओं के कारण का पता लगाने में अन्वय विधि ही सक्षम एवं समर्थ है।
  5. यह सरल विधि है। इसका व्यवहार सभी लोग कर सकते हैं। क्योंकि निरीक्षण प्रयोग की तुलना में आसान एवं सरल है। जबकि प्रयोग का काम कठिन है।
  6. निरीक्षण से जितने लाभ हैं वे सभी इस विधि के गुण हैं या लाभ हैं।

दोष:
1. चूँकि यह निरीक्षण प्रधान विधि है क्योंकि अन्वय विधि निरीक्षण पर आधारित होने के कारण सूक्ष्म एवं गुप्त परिस्थितियों का निरीक्षण संभव नहीं भी हो पाता है जो कि घटना का वास्तविक कारण और कार्य हो। इन्द्रियों के द्वारा भी सूक्ष्म तत्त्वों का निरीक्षण संभव नहीं हो पाता है। अतः, वास्तविक कारण खोजने में भूल हो सकती है।

2. कभी-कभी दो घटनाओं में आकस्मिक सहचर के आधार पर दोनों में कार्य-कारण संबंध स्थापित करने की भूल कर बैठते हैं। जैसे-जब-जब मेरे घर में अमुक संबंधी आते हैं तो मेरा नौकर बीमार पड़ जाता है।
अन्वय विधि के अनुसार नौकर का बीमार पड़ना अमुक संबंधी के आने पर एक घटना है जिसका कारण संबंधी के आने से है। लेकिन ऐसा निर्णय लेना अन्याय एवं अतार्किक है। इन दोनों में घटनाओं में आकस्मिक संबंध हैं जो इस विधि की त्रुटि है।

3. एक ही कारणं के दो सहपरिणामों (Co-effects) को एक-दूसरे का कारण-कार्य समझने की गलती करते हैं। जैसे-दिन के पहले रात्रि और रात्रि के पहले दिन नियत रूप से आते हैं। अन्वय विधि के आधार पर दिन और रात एक-दूसरे के कारण-कार्य हो जाते हैं। इसी तरह बिजली और बादल का गर्जन सदा एक साथ पाए जाते हैं। ये भी एक-दूसरे के कारण और कार्य हो जाते हैं। परन्तु, ये सभी सहपरिणाम है जो अन्वय विधि के दोष हैं।

4. इसमें उपाधि को पूर्ण मान लिया जाता है, जो एक भूल है।

5. अन्वय विधि का बहुकारणवाद सिद्धांत से मेल नहीं है। इसलिए कहा गया है कि “The doctrine of plurality of causes for frustrates the method of Agreement.”

6. इस विधि को कागज पर सांकेतिक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट करना आसान है। क्योंकि जो कॉमन अक्षर है उसे कारण या कार्य तुरंत बता दिया जाता है। किन्तु, वास्तविक जगत में इसका व्यवहार आसान नहीं है। प्रकृति की घटनाएँ बहुत जटिल होती हैं।

7. यह विधि एकांगी है क्योंकि यह केवल भावात्मक उदाहरणों में अन्वय करता है निषेधात्मक उदाहरणों पर विचार नहीं करता है।

8. निरीक्षण प्रधान विधि होने से आवश्यक को अनावश्यक से पृथक नहीं कर सकते हैं। क्योंकि कारण के साथ अनावश्यक बातें भी मिली रहती हैं। जिससे वास्तविक कारण का पता लगाना कठिन हो जाता है। अतः, यह विधि अनेक त्रुटियों से पूर्ण है। यह विधि कारण कार्य का संकेत करती है। कार्य-कारण संबंध को सिद्ध नहीं करती है। “The method of Agreement merely suggests but cannot prove a casual connection.” अतः, यह विधि आविष्कार की विधि है प्रमाण की नहीं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 3 विज्ञान एवं प्राक्-कल्पना

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 3 विज्ञान एवं प्राक्-कल्पना Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 3 विज्ञान एवं प्राक्-कल्पना

Bihar Board Class 11 Philosophy विज्ञान एवं प्राक्-कल्पना Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
निर्णायक उदाहरण किससे प्राप्त होता है?
(क) निरीक्षण से
(ख) प्रयोग से
(ग) दोनों से
(घ) किसी से नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों से

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प्रश्न 2.
किसने कहा था- “आगमन में कल्पना का उद्देश्य आविष्कार है, प्रमाण नहीं।”
(क) हेवेल
(ख) मिल
(ग) पियर्सन
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) हेवेल

प्रश्न 3.
वैज्ञानिक पूर्वकल्पना आधारित है –
(क) साधारण विश्वास पर
(ख) वैज्ञानिक विश्वास पर
(ग) कारणता नियम पर
(घ) अंधविश्वास पर
उत्तर:
(ग) कारणता नियम पर

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प्रश्न 4.
विधि-संबंधी पूर्वकल्पना का संबंध है –
(क) परिस्थिति से
(ख) कर्त्ता से
(ग) प्रक्रिया से
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) प्रक्रिया से

प्रश्न 5.
“निर्णायक उदाहरण केवल एक कल्पना का समर्थन ही नहीं करता है, बल्कि दूसरी कल्पना का खंडन भी करता है।” यह कथन किसका है?
(क) बेन का
(ख) बेकन का
(ग) जेवन्स का
(घ) मिल का
उत्तर:
(ग) जेवन्स का

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प्रश्न 6.
प्राक-कल्पना का लक्ष्य है –
(क) सामान्य नियम की स्थापना
(ख) विशेष नियम की स्थापना
(ग) (क) तथा (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सामान्य नियम की स्थापना

प्रश्न 7.
किसका कथन है – किसी कल्पना के अति पर्याप्त (Super adequacy) भी इसके सत्य होने के प्रमाण हैं?
(क) मिल
(ख) हेवेल
(ग) पियर्सन
(घ) डेकार्ट
उत्तर:
(ख) हेवेल

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प्रश्न 8.
वह प्रयोग जिससे निर्णायक उदाहरण (Crucial instance) प्राप्त होता है, कहलाता है –
(क) निर्णायक प्रयोग (Experimentum crucis)
(ख) कल्पना की अतिपर्याप्त (Super adequacy)
(ग) वास्तविक कारण
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) निर्णायक प्रयोग (Experimentum crucis)

प्रश्न 9.
कल्पना की जाँच निरीक्षण एवं प्रयोग द्वारा किया जाता है। यह रीति क्या है?
(क) साक्षात् रीति
(ख) परोक्ष रीति
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) साक्षात् रीति

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प्रश्न 10.
कर्ता सम्बन्धी कल्पना (Hypothesis concerning agent) का अभिप्राय है –
(क) घटना घटने की परिस्थिति मालूम हो
(ख) घटना घटने की विधि मालूम हो
(ग) कर्ता (Agent) मालूम नहीं रहता है
(घ) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(घ) घटना घटने की विधि मालूम हो

प्रश्न 11.
“कल्पना व्याख्या करने का एक प्रयत्न है” यह कथन किसका है?
(क) कॉफी
(ख) बेकन
(ग) न्यूटन
(घ) मिल
उत्तर:
(क) कॉफी

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प्रश्न 12.
घटना एक व्याख्या की दृष्टि में प्राक्-कल्पना कितने प्रकार का होता है?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(ग) तीन

प्रश्न 13.
परिस्थिति सम्बन्धी कल्पना (Hypothesis Concerning Collection) होता है?
(क) व्याख्यात्मक
(ख) वर्णनात्मक
(ग) दोनों
(घ) वैज्ञानिक
उत्तर:
(ग) दोनों

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प्रश्न 14.
निर्णायक प्रयोग (Crucial experiment) प्राक्-कल्पना का/की –
(क) शर्त है
(ख) प्रमाण है
(ग) दोनों है
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) प्रमाण है

प्रश्न 15.
वैज्ञानिक सत्यता (Scientific truth) की स्थापना में प्राक्कल्पना –
(क) एक अनावश्यक स्थिति है
(ख) आवश्यक शर्त है
(ग) अनावश्यक शर्त है
(घ) अनुपयोगी है
उत्तर:
(ख) आवश्यक शर्त है

Bihar Board Class 11 Philosophy विज्ञान एवं प्राक्-कल्पना Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
किसने कहा कि आगमन में कल्पना का स्थान प्रमुख नहीं बल्कि गौण है?
उत्तर:
ऐसा कल्पना के सम्बन्ध में जे. एस. मिल (John Stuart Mill) ने कहा।

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प्रश्न 2.
वास्तविक कारण (Vera cause) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
घटना के सम्बन्ध में वह कल्पना जो तर्कसंगत होती है और जिससे घटना के घटने की संभावना रहती है, वास्तविक कारण (Vera cause) कहलाती है।

प्रश्न 3.
“किसी कल्पना की अतिपर्याप्त (Super adequacy) भी इसके सत्य होने के प्रमाण हैं।” ऐसा किसने कहा?
उत्तर:
यह कथन तर्कशास्त्री हेवेल (Whewell) का है।

प्रश्न 4.
कल्पना की जाँच के साक्षात् रीति (directly) का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
कल्पना की जाँच साक्षात् रीति से करने का मतलब है निरीक्षण एवं प्रयोग की विधियों का व्यवहार।

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प्रश्न 5.
निर्णायक उदाहरण (Crucial instance) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
निर्णायक उदाहरण (Crucial instance) ऐसे उदाहरण को कहते हैं जो अनेक कल्पनाओं में किसी एक को सत्य प्रमाणित कर देता है।

प्रश्न 6.
कल्पना की जाँच कितने तरह से की जाती है?
उत्तर:
कल्पना की जाँच दो तरह से की जाती हैं। वे हैं-साक्षात् रीति (directly) एवं परोक्ष रीति (indirectly) से।

प्रश्न 7.
प्राक-कल्पना के महत्त्व के सम्बन्ध में हेवेल (Whewell) का क्या कथन हैं।
उत्तर:
प्राक्-कल्पना के महत्व के सम्बन्ध में हेवेल का कहना है कि आगमन में कल्पना का उद्देश्य आविष्कार है, प्रमाण नहीं।

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प्रश्न 8.
निर्णायक प्रयोग (Experimentum Crucis) क्या है?
उत्तर:
निर्णायक उदाहरण जब प्रयोग से पाया जाता है तो इसे निर्णायक प्रयोग कहते हैं।

प्रश्न 9.
कर्ता सम्बन्धी कल्पना (Hypothesis concerning agent) का क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
जब घटना घटने की परिस्थिति और विधि मालूम रहे लेकिन कर्ता (agent) मालूम नहीं रहता है। अतः कर्ता (agent) के बारे में अन्दाज लगाना ही कर्ता सम्बन्धी कल्पना है।

प्रश्न 10.
प्राक्-कल्पना (Hypothesis) की एक परिभाषा दें।
उत्तर:
प्राक्-कल्पना व्याख्या करने का प्रयत्न है। यह सामयिक (provisional) कल्पना है जिसके द्वारा हम वैज्ञानिक दृष्टि से लक्ष्यों या घटनाओं की व्याख्या करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
साधारण कल्पना से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
कल्पना दो तरह की होती है –

  1. साधारण कल्पना
  2. वैज्ञानिक कल्पना।

साधारण कल्पना में एक तरह की अटकलबाजी लगानी पड़ती है। इसमें यह जरूरी नहीं है कि जो कल्पना कर रहे हैं वह अंदाजा सही ही हो। इस तरह की कल्पना का रूप पूर्णव्यापी नहीं होता है। बल्कि व्यक्तिगत या अंशव्यापी होता है। इस तरह की कल्पना साधारण लोग लगाते हैं। इसमें सही कारण कोई कार्य के लिए स्वीकार नहीं किया जाता है। इसमें दूसरे कारण को स्वीकार किया जाता है, जो व्यक्तिगत होता है। अतः, इस तरह की कल्पना साधारण कल्पना कहलाती है।

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प्रश्न 2.
निर्णायक उदाहरण क्या है?
उत्तर:
निर्णायक उदाहरण कल्पना का एक प्रमुख कारण माना जाता है। जब किसी घटना के बारे में कल्पना की जाती है। उसमें एक ऐसा ही प्रमाण मिल जाता है जो घटना को सही प्रमाणित कर देता है, उसी को निर्णायक उदाहरण के रूप में माना जाता है।

निर्णायक उदाहरण निरीक्षण या प्रयोग से पाए जाते हैं। एक पात्र में रंगहीन, गंधहीन, स्वादहीन, गैस को पाकर इसमें दो प्रकार की कल्पना की जाती है यह ऑक्सीजन गैस या हाइड्रोजन? इसे प्रमाणित करने के लिए जलती हुई मोमबत्ती ले जाते हैं। मोमबत्ती बुझने पर हाइड्रोजन और जलने पर ऑक्सीजन गैस समझते हैं। यही निर्णायक उदाहरण कहलाता है।

प्रश्न 3.
अच्छी और बुरी कल्पना क्या है?
उत्तर:
कल्पना अच्छा होना या बुरा होना उसकी शत्तों पर निर्भर करता है। इसका अर्थ है कि जो कल्पना शर्तों को पूरा करती है वह अच्छी कल्पना कही जाती है और जो कल्पना शर्तों को पूरा नहीं करती है वह बुरा कल्पना नहीं जाती है। जैसे-जब पृथ्वी में कम्पन्न होती है तो कल्पना करें कि पृथ्वी शेषनाग पर अवस्थित है। इस शेषनाग के हिलने-डूबने से पृथ्वी पर कम्पन्न होती है तो इस प्रकार की कल्पना को बुरी कल्पना कहते हैं। क्योंकि इस प्रकार की कल्पना उटपटांग होती है। परन्तु भौगोलिक कारणों से इस कम्पन्न की व्याख्या करने पर इसे अच्छी कल्पना कहते हैं।

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प्रश्न 4.
वैज्ञानिक कल्पना क्या है?
उत्तर:
वैज्ञानिक कल्पना में कारण-कार्य नियम का पालन किया जाता है। यह पूर्णव्यापी होता है। यह कल्पना जनसमुदाय के लिए किया जाता है। इसमें किसी भी कार्य के लिए सह कारण को स्वीकार किया जाता है। इसमें निष्कर्ष को सत्य होने के लिए वैज्ञानिक आधार रहता है। भले ही कल्पित कारण गलत हो जाए, किन्तु उसकी व्याख्या वैज्ञानिक तरीके से की जाती है।

प्रश्न 5.
वैज्ञानिक आगमन में प्राक्-कल्पना के महत्त्व की विवेचना करें।
उत्तर:
तर्कशास्त्री हेवेल वैज्ञानिक आगमन में प्राक्-कल्पना के महत्त्व को बहुत अधिक बताते हैं। उनके अनुसार वैज्ञानिक खोज में प्राक्-कल्पना का महत्त्व अत्यधिक है। घटनाओं के बीच कारण-कार्य का सम्बन्ध स्थापित करने हेतु प्राक्-कल्पना की आवश्यकता होती है। प्राक्-कल्पना का दूसरा महत्त्व यह है कि यह हमारे निरीक्षण एवं प्रयोग को नियंत्रित करता है। कभी-कभी हमारे खोज का विषय ऐसा होता है कि हम उसका अध्ययन निरीक्षण एवं प्रयोग से नहीं कर सकते हैं।

ऐसी स्थिति में हम अपनी सूझ के बल पर उस विषय या वस्तु के स्वरूप की कुछ कल्पना करते हैं तथा उस कल्पना के द्वारा आवश्यक परिणामों को निकालते हैं। यदि हमारी कल्पना यथार्थता से मेल खाती है तो कल्पना की सत्यता सिद्ध हो जाती है। वस्तुतः वैज्ञानिक पद्धति में प्राक्-कल्पना तथ्यों के सागर में दिशा सूचक (Compass) की तरह कार्य करता है। ऊर्जा के सापेक्षवाद का सिद्धान्त वस्तुतः प्राक्-कल्पना की ही देन है। इसी तरह, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्तों का संकेत अवलोकन के द्वारा प्राक्-कल्पना से हुआ है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
न्याय संगत या यथार्थ कल्पना की शर्तों की सोदाहरण व्याख्या करें ।
उत्तर:
आगमन का संबंध सही कल्पना से है। सही कल्पना होने के लिए कुछ शर्तों का पालन करना पड़ता है।

1. कल्पना को आंतरिक विरोध रहित निश्चित एवं स्पष्ट होना चाहिए:
इसमें आंतरिक विरोध रहित का अर्थ है कि इसमें विचारों का आपसी मेल होना चाहिए। तभी उसमें संदेह की कम संभावना होती है। दिन-रात होने के लिए हम यदि यह कल्पना करें कि ‘शायद पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ नहीं घूमती है, तो हमारी यह कल्पना संदेहपूर्ण रहेगी।

वैज्ञानिक कल्पनाएँ संदेह को दूर करना ही निश्चितता को लाना है। ”कल्पना को स्पष्ट होने का अर्थ है कि उटपटांग न होकर युक्ति संगत और सुव्यवस्थित हो। वर्षा के कारण बादल को नहीं मानकर इन्द्र की कृपा को मानें तो ऐसी कल्पना अस्पष्ट होगी। समुद्र का पानी वाष्प बनकर ऊपर जाता है और बादल बनकर वर्षा होती है। कल्पना का यही सही रूप है।

2. कल्पना को किसी स्थापित सत्य का विरोध नहीं होना चाहिए। इसमें कहा गया है कि पहले से कुछ बातें सत्य हैं जैसे पृथ्वी में एक आकर्षण शक्ति है यह सत्य है। किन्तु, यदि हम यह कल्पना करें कि जहाज जो आकाश में उड़ता है उसमें पृथ्वी की आकर्षण शक्ति काम नहीं करती है, तो असत्य होगी। पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है यह पूर्व स्थापित सत्य है।

3. कल्पना को यथार्थ एवं वास्तविक होना चाहिए। किसी घटना का पता लगाने के लिए कल्पना किया जाता है। यथार्थ कल्पना के लिए यह जरूरी है कि हमें निष्पक्ष भाव से किसी घटना के घटने की कल्पना करनी चाहिए। इसमें वास्तविकता भी होनी चाहिए। अर्थात् घटना का vera cause होना चाहिए। इसका अर्थ है कि सच्चा कारण vera cause जिससे घटना के घटने की संभावना हो। किसी घटना के बारे में वैसा कारण जिससे वह घटना घटती है। जैसे-वर्षा का वास्तविक कारण बादल है। बादल के अभाव में वर्षा नहीं हो सकती है।

4. कल्पना को परीक्षा के योग्य होना चाहिए। इसके अंतर्गत कहा गया है कि कल्पना के सत्य होने के लिए उसकी जाँच या परीक्षा होनी चाहिए। बिना परीक्षा के कल्पना सत्य नहीं हो सकती है। जाँच प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष ढंग से की जाती है। यदि नींद की अवस्था में कोई आवाज आती है तो इसकी परीक्षा करते हैं और देखते हैं कि कहीं चोर तो नहीं है।

या चूहे के द्वारा खट-पट की आवाज आ रही है। अतः, परीक्षा के बाद ही हमारी कल्पना सत्य होती है। कल्पना की ये शर्ते मितव्ययिता नियम (Law of Parsimony) के अनुकूल है। यदि किसी घटना की व्याख्या एक ही कल्पना से हो जाती है तो उसके लिए अधिक अटकलबाजी करने की जरूरत नहीं है। इसलिए सही कारण को जानने के लिए कम-से-कम संख्या में कल्पना को लाना चाहिए।

5. कल्पना को अधिक-से-अधिक सरल होना चाहिये। कल्पना में जटिलता का बहिष्कार करना चाहिए। जैसे-वर्षा के अभाव के कारण अच्छी फसल का नहीं होना सरल कल्पना है। इस तरह कल्पना के सही होने के लिए उपर्युक्त शर्तों की व्याख्या की गई है।

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प्रश्न 2.
कल्पना क्या है? कल्पना के स्वरूप का वर्णन करें।
उत्तर:
साधारण जीवन में साधारण कल्पना के द्वारा मनुष्य अपने या दूसरे के खास व्यक्तिगत जीवन का विभाग खोज सकता है। इस तरह की कल्पना का रूप पूर्णव्यापी न होकर व्यक्तिगत रहता है। इसमें अंधविश्वास का स्थान भी रहता है। किन्तु, आगमन का लक्ष्य पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करना है। इसके लिए कुछ विधियों को बतलाया गया है।

इन्हीं विधियों में से कल्पना भी एक है। कल्पना के माध्यम से हम घटना के कारण का पता लगाना चाहते हैं। इसके लिए छान-बीन भी करना पड़ता है। एक तरह से अटकलबाजी भी करना शुरू कर देते हैं। अतः, घटनाओं के कारण को पता लगाने के लिए जो संभावित कारण को पहले मानते हैं, उसे कल्पना कहते हैं।

कौफी (Coffy) महोदय ने इसकी परिभाषा में कहा है –
“Ahypothesis is an attempt of explanation a provisional supposition made in order to explain scientifi cally some facts or phenomenon.” अर्थात् कल्पना व्याख्या करने का एक प्रयत्न है, यह सामयिक कल्पना है जिसके द्वारा हम वैज्ञानिक दृष्टि से तथ्यों या घटनाओं की व्याख्या करते हैं।

इसी कल्पना की परिभाषा Mill महोदय ने इस तरह दिए हैं, “A hypothesis is any supposition which we make in order to endeavour to deduce from its conclusion in accordance with facts which are known to be real under the idea that if the conclusion to which the hypothesis leads are known truths the hypothesis itself either must be or at fast is likely to be true.”

“प्राक्-कल्पना वह कल्पना है जिसे हमलोग इस लक्ष्य से बनाते हैं कि हम उससे वे निष्कर्ष निकालने का प्रयत्न करें जो उन तथ्यों के अनुकूल हों, जिन्हें हम सत्य मानते हैं। ऐसा करने में हमारा विचार यह रहता है कि यदि वे निष्कर्ष, जो इस कल्पना के द्वारा प्राप्त करते हैं, वास्तव में सत्य हैं, तो वह कल्पना स्वयं सत्य होगी या कम-से-कम सत्य होने की संभावना होगी।” इस परिभाषा के विश्लेषण करने पर निम्नलिखित बातें हम पाते हैं।

1. निरीक्षण:
सहज रूप में जब कोई घटना घटती है तो उसके कारण को जानने की इच्छा होती है। उसी के फलस्वरूप कल्पना का जन्म होता है। अतः, जो घटना घटती है उसका सबसे पहले निरीक्षण करना जरूरी हो जाता है, जैसे चन्द्रग्रहण या सूर्यग्रहण यदि घटना के रूप में है तो उसके निरीक्षण करने के बाद ही उसके कारण को जानने की कल्पना की गई है। इसी तरह भूकंप के निरीक्षण के बाद ही उसके कारण जानने की प्रक्रिया शुरू करते हैं, जिसे कल्पना कहते हैं।

2. अटकलबाजी या अंदाज:
जब घटी हुई घटना का हम निरीक्षण कर लेते हैं तो उसके कारण को शीघ्र ही जान लेना संभव नहीं होता है। इसके लिए हम तरह-तरह की अटकलें लगाते हैं, अंदाज करते हैं कि अमुक कारण से अमुक घटना घटी है। यही कल्पित कारण कल्पना का एक मुख्य अंग बनकर काम करता है। इसी के द्वारा सही कारण को भी जानने का संकेत मिलता है। न्यूटन ने जब वृक्ष से फल को पृथ्वी पर गिरते हुए निरीक्षण किया तो उसके कारण को जानने की इच्छा हुई। इससे उन्होंने अंदाज लगाया कि पृथ्वी में आकर्षण शक्ति है, जिसके कारण सभी वस्तुएँ नीचे पृथ्वी पर गिरती हैं।

3. कल्पित कारण से निष्कर्ष निकालना:
कल्पित कारण से निष्कर्ष निकालना भी एक प्रमुख तथ्य रहता है इसमें कल्पित कारण के बाद ही एक संभावित कारण का पता लगाया जाता है। यह कल्पना का निष्कर्ष होता है कि पृथ्वी में आकर्षण-शक्ति है। यह निष्कर्ष तभी निकलता है जब हम कल्पित कारण को पहले स्वीकार कर लेते हैं।

4. निष्कर्ष की परीक्षा:
अटकलबाजी के समय बहुत-सी बातें दिमाग में आती हैं, किन्तु निष्कर्ष पर पहुँचने हेतु बहुत-सी संभावित अटकलों को परीक्षा के द्वारा छाँटकर हटा दिया करते हैं। इस तरह परीक्षा के बाद केवल एक ही कारण सामने आती है, जिसका संबंध कल्पना से रहता है। अतः, यह उत्पत्ति आवश्यक अंग है। कल्पना की सत्यता इसी पर निर्भर करती है।

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प्रश्न 3.
कल्पना के विभिन्न प्रमाणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
कल्पना को वैज्ञानिक बनाने के लिए निम्नलिखित कुछ प्रमाणों को बताया गया है –

1. परीक्षा योग्य (Verifiable):
किसी परीक्षा के बाद ही कल्पना की सत्यता जानी जा सकती है। परीक्षा दो तरह की हो सकती है – प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष परीक्षा हमें निरीक्षण और प्रयोग द्वारा पूरी होती है। जैसे किसी के सर पर गाँधी टोपी देखकर कल्पना कर लेते हैं कि यह काँग्रेसी है।

फुलवारी में कोयल की आवाज सुनकर वसन्त ऋतु की कल्पना कर लेते हैं। इसी तरह प्रयोग द्वारा विभिन्न बीमारियों के कारणों के बारे में कल्पना की और उसकी सत्यता भी प्रयोग द्वारा हम स्थापित कर सकते हैं। जैसे-मादा अनोफिल मच्छर के काटने से मलेरिया होता है। इसी तरह अप्रत्यक्ष परीक्षा में बहुत-सी बातों को सत्य मानकर उससे बहुत कुछ अनुमान निकालते हैं।

2. कल्पना के लिए सहज बुद्धि और तेजीपन का होना जरूरी है। जैसे – ‘राम घर से भागकर कोलकात्ता चला गया’ क्योंकि उसके बड़े भाई ने डाँट-डपट की थी। यह परीक्षणीय भी है। लेकिन हमें यहाँ सहज बुद्धि और तेजीपन का व्यवहार कर यह सोचना चाहिए। उसके भागने का कारण और भी है। जैसे-घर में माँ-बाप का प्यार नहीं मिलना, स्वभाव से भावुक होना, कोलकात्ता से किसी मित्र या संबंधी की बुलाहट आना आदि। इसलिए कल्पना के लिए बुद्धि का प्रयोग करना भी जरूरी है।

3. कल्पना को समुचित व्याख्या करने की क्षमता हो – कल्पना ऐसी हो कि जिससे किसी वस्तु की पूर्ण और उपयुक्त व्याख्या हो सके। जैसे-परीक्षा में फेल करने का कारण, परीक्षा के समय बीमार रहना, क्लास से बराबर अनुपस्थित रहना, लिखने की आदत में कमी होना, नोट पढ़ना और फेल करना कल्पना की पूरी व्याख्या नहीं है।

4. कल्पना ऐसी हो कि केवल किसी एक ही वस्तु की व्याख्या हो जाए। यदि उसकी व्याख्या और किसी दूसरी पूर्व कल्पना से उसी तरह की जाए तो उसमें यथार्थता नहीं रह पाती है। अतः, इसे दूर करना चाहिए। कभी-कभी दो प्रतिद्वन्द्वी पूर्व कल्पनाओं में किसी काम को गलत या सही सिद्ध करने का काम निर्णायक उदाहरण से कर सकते हैं।

Crucial Instances:
मानलिया कि सिनेमा के मालिक ने शिकायत किया कि कुछ छात्र आधा घंटे पहले सिनेमा हॉल का शीशा और दरवाजा तोड़-फोड़ दिए हैं। हमारे सामने एक साथ दो कल्पनाएँ उठती हैं कि छात्र कॉलेज का है या स्कूल का। इसी समय एक नौकर आकर दर्शनशास्त्र की किताब देते हुए कहा है कि उस छात्र की यह पुस्तक गिर गई है।

इस किताब से हमें तुरत पता चलता है कि वह छात्र कॉलेज का हैं इस हालत में उस पुस्तक को हम निर्णायक उदाहरण कहेंगे क्योंकि उसी पुस्तक से हम कुछ निर्णय कर सके। इसलिए Jevons का कथन है कि “निर्णायक उदाहरण किसी एक पूर्व कल्पना का समर्थन ही नहीं करता बल्कि दूसरी पूर्व कल्पना का निषेध भी करता है।” निर्णायक उदाहरण की प्राप्ति दो तरह से होता है-निरीक्षण और प्रयोग द्वारा।

गाड़ी पकड़ने के लिए स्टेशन पाँच मिनट देर से पहुंचते हैं। दो कल्पनाएँ उठती हैं। गाड़ी आकर चली गई या गाड़ी आने में विलम्ब है। दोनों कल्पनाएँ ठीक हैं। सिगनल को देखने पर पता चला कि सिगनल हरा है। इससे पता चलता है कि गाड़ी अभी आ रही है। यहाँ निर्णायक उदाहरण का निरीक्षण किया जिसमें एक कल्पना सत्य और दूसरा असत्य साबित हुआ।

इसी तरह एक बरतन में गैस है। दो कल्पनाएँ उठती हैं। ऑक्सीजन है या हाइड्रोजन गैस। देखने से दोनों रंगहीन, स्वादहीन एवं गंधहीन होती है। एक निर्णायक उदाहरण की खोज करते हैं। एक जलती हुई लकड़ी को बरतन में डालते हैं। गैस प्रज्वलित हो जाती है। इससे सिद्ध हुआ कि गैसें ऑक्सीजन गैस है। जलती लकड़ी निर्णायक उदाहरण है जो प्रयोग से प्राप्त हुआ है।

5. कल्पना में भविष्यवाणी (Power of prediction) की शक्ति हो। अर्थात् भविष्य की व्याख्या हो सके अर्थात् जो कुछ कल्पना की जाए वह भविष्य में सत्य निकले। ज्योतिषी लोग इसी कारण से भविष्य की घटनाओं का वर्णन पहले कर देते हैं। कल्पना में भविष्यवाणी करने की शक्ति रहने से उसे सत्य होने की अधिक संभावना रहती है।

लेकिन मिल साहब का कथन है कि भविष्यवाणी की कल्पना को यथार्थता का प्रमाण नहीं मानना चाहिए क्योंकि कभी गलत और कभी सत्य होता रहता है। अतः, पूर्वकल्पना, सिद्धांत, नियम और तथ्य (Hypothesis theory, law and fact) के ऊपर के जितने भी नाम हैं सबों का प्रयोग एक मत और एक अर्थ में न होकर बदलते रूप में रहता है। इस तरह निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि उपर्युक्त प्रमाण कल्पना के बारे में जो दिया गया है, वह सत्य है इसके आधार पर ही कल्पना सत्य होती है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 3 विज्ञान एवं प्राक्-कल्पना

प्रश्न 4.
कल्पना के कितने भेद हैं? वर्णन करें।
उत्तर:
घटना की व्याख्या की दृष्टि से प्राक्कल्पना तीन की प्रकार होती हैं –

  1. कर्ता संबंधी कल्पना (Hypothesis Concerning Agent)
  2. विधि संबंधी कल्पना (Hypothesis Concerning law of Method)
  3. परिस्थिति संबंधी कल्पना (Hypothesis Concerning Collection)

1. कर्ता संबंधी कल्पना (Hypothesis Concerning Agent):
घटना की व्याख्या तब – होती है जब उसके कारण का पता लगता है। इसका कारण कर्त्ता होता है। कारण के संबंध में जो कल्पना करते हैं वहीं कर्ता संबंधी कल्पना कहलाती है। चोरी की व्याख्या के लिए चोर के संबंध में जो कल्पना की जाएगी वह कर्ता संबंधी कल्पना कहलाएगी।

विज्ञान के क्षेत्र में भी इसी तरह के उदाहरण मिलते हैं। जैसे-यूरेनस ग्रह की गति में गड़बड़ी देखी गई। वैज्ञानिकों ने कल्पना की कि कोई दूसरा ग्रह उसकी गति में बाधा डाल रहा है। जिसके चलते ही गड़बड़ी है और पता चला कि यह नेपच्युन ग्रह के चलते ऐसा हो रहा है। यह कल्पनाकर्त्ता-संबंधी कल्पना कहलाता है।

2. विधि संबंधी कल्पना (Hypothesis Concerning law of Method):
घटना घटने की विधि का अर्थ है कि कर्ता ने किस तरीके से किस नियम से घटना को संपादित किया। जैसे-चोर ने चोरी कैसे की? इस संबंध में जो कल्पना करते हैं वह विधि संबंधी कल्पना है। चोर दरवाजे को खोलकर आया था, उसे तोड़कर या सेंध मारकर आदि।

3. परिस्थिति संबंधी कल्पना (Hypothesis Concerning Collection):
कभी-कभी किसी घटना के कर्ता और विधि या तरीके दोनों मालूम रहते हैं किन्तु परिस्थिति मालूम नहीं रहती है, तो ऐसी स्थिति में परिस्थिति का पता लगाना पड़ता हैं जैसे-गाँव में चोरी हुई। चोरी एक घटना है, इसके कर्ता मालूम है, विधि भी मालूम है। चोरी किवाड़ को तोड़कर हुई है, किन्तु परिस्थिति मालूम नहीं है, इसके लिए परिस्थिति का पता लगाना पड़ता है।

परिस्थिति यही है कि परिवार के सभी लोग सिनेमा देखने चले गये थे। रात में देर से आने के कारण चोरी हुई। इस तरह घटना की परिस्थिति संबंधी कारण का पता लगाने को परिस्थिति संबंधी कल्पना कहते हैं। अतः, निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि कल्पना के तीन भेद हैं, कर्ता, विधि एवं परिस्थिति संबंधी कल्पना। तीनों के बारे में पता लगाने के बाद ही घटना के सही कारण का पता चल जाता है।

दूसरी दृष्टि से कल्पना के दो भेद बताए गए हैं –

  1. साधारण कल्पना एवं
  2. वैज्ञानिक कल्पना।

1. साधारण कल्पना:
साधारण कल्पना का संबंध किसी व्यक्तिगत समस्याओं के सुलझाने से रहता है। जैसे कोई व्यापारी व्यापार में हानि होने के कारण के संबंध में कल्पना करता है। कोई छात्र परीक्षा में फेल होने के कारण के संबंध में कल्पना करता है।

2. वैज्ञानिक कल्पना:
वैज्ञानिक कल्पना का संबंध ऐसी घटनाओं से रहता है, जिनका संबंध सबों से रहता है। वैज्ञानिक कल्पना तर्क प्रमाण पर आधारित रहती है। विज्ञान के क्षेत्र में जो कल्पनाएँ की जाती हैं, वे वैज्ञानिक कल्पना हैं।

तीसरी दृष्टिकोण से कल्पना दो प्रकार की है –

  1. व्याख्यात्मक कल्पना एवं
  2. वर्णनात्मक कल्पना।

इसमें कारण संबंधी या कर्ता संबंधी कल्पना को व्याख्यात्मक कल्पना कहते हैं। विधि या नियम संबंधी कल्पना को वर्णनात्मक कल्पना कहते हैं। व्याख्यात्मक कल्पना यह बतलाती है कि कोई घटना क्यों घटती है और वर्णनात्मक कल्पना बतलाती है कि घटना कैसे घटती है? व्यावहारिक दृष्टि से कल्पना दो तरह की है –

  1. काम चलाऊ कल्पना एवं
  2. सादृश्यानुमान मूलक कल्पना।

1. काम चलाऊ कल्पना (Working hypothesis):
कभी कभी किसी घटना के कारण के लिए कोई उपयुक्त कल्पना नहीं दिखाई पड़ती है तो उस हालत में हम काम चलाने के लिए एक नकली कल्पना कर बैठते हैं उसे जब मन चाहे तब हटाकर बदल सकते हैं।

जैसे-कलम को जेब में नहीं रहने पर अटकल लगाते हैं कि शायद क्लास में छूट गई, या रास्ते में गिर गई या राम ने चुरा लिया। उसमें एक को परीक्षा के बाद सही पाते हैं। इस तरह की कल्पना को काम चलाऊ कल्पना कहते हैं “A working hypothesis means a provisional support tion.”

2. सादृश्यानुमान मूलक कल्पना (Analogical):
इस तरह की कल्पना में हैं कि जो बात एक वस्तु में सत्य है वह दूसरे में भी सत्य होगी। यदि इन दोनों वस्तुनो में और कुछ बातों की समानता हो तो, जैसे-पृथ्वी और मंगलग्रह में कुछ बातों की समानता है, वैसे दोनों ग्रह हैं, दोनों सूर्य के चारों तरफ घूमते हैं। दोनों का वातावरण एक-सा है। दोनों पर पर्वत, नदी, जंगल हैं। इस तरह पृथ्वी पर आदमी हैं तो कल्पना करते हैं कि मंगल ग्रह पर भी आदमी होंगे। इस तरह की कल्पना सादृश्यानुमान मूलक कल्पना कहलाती है।

काल्पनिक प्रतिरूपक कल्पना (Representative fiction):
बेकन ने कल्पना का एक और रूप दिया है जिसे काल्पनिक प्रतिरूपक कहा जाता है जिसका ज्ञान इन्द्रियों से संभव नहीं है। जैसे-अणु, परमाणु। इस तरह की कल्पना के कारण-स्वरूप हमारे सामने आज अणु-परमाणु के सिद्धान्त ईश्वर की कल्पना, मोझ की कल्पना, प्रकाश तरंग सिद्धान्त तथा भूत-प्रेम या आत्मा-परमात्मा के विषय में दिखाई पड़ते हैं। इस तरह कल्पना के कई प्रकार बताए गए हैं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 3 विज्ञान एवं प्राक्-कल्पना

प्रश्न 5.
वैज्ञानिक विधि में प्राक-कल्पना का स्थान क्या है? अथवा, वैज्ञानिक आगमन में कल्पना के स्थान की विवेचना करें। अथवा, आगमन में कल्पना के महत्त्वों को लिखें।
उत्तर:
अज्ञात वस्तुओं की छानबीन करने की प्रवृत्ति मनुष्य में जन्मजात होती है। वह भिन्न-भिन्न वस्तुओं के बीच छिपे रहस्यों को जानना चाहता है। वस्तुतः मनुष्य खोजी प्रवृत्ति का होता है। इन सभी बातों की पूर्ति तभी हो सकती है जब हम प्राक्-कल्पना की सहायता लेते हैं।

अतः प्राक्-कल्पना की आवश्यकता हमें प्रयोग करने, वैज्ञानिक एवं कलात्मक खोजों में होती है। प्राकृतिक नियमों की खोज, प्राकृतिक जटिलताओं के कारणों की खोज आदि में प्राक्-कल्पना की सहायता लेते हैं। वस्तुतः बिना कल्पना के हम कोई भी वैज्ञानिक खोज आरंभ नहीं कर सकते हैं।

किसी भी वैज्ञानिक विधि यानि वैज्ञानिक खोज में प्राक्-कल्पना का प्रथम स्थान है। वैज्ञानिक आगमन में कार्य-कारण (Causal relation) स्थापित करते हैं। यही कारण-सम्बन्ध स्थापित करना वैज्ञानिक विधि का लक्ष्य होता है। कार्य-कारण सम्बन्ध निश्चित करने के लिए हम प्राक्-कल्पना ही करते हैं। उसके बाद उसकी जाँच करते हैं तथा जब प्राक्-कल्पना जाँच में सही उतरती है तब उसे हम सिद्धान्त का रूप देते हैं फिर उसे नियम के रूप में मानकर वैज्ञानिक खोज में निश्चित निष्कर्ष पर आते हैं।

वैज्ञानिक विधि में निरीक्षण एवं प्रयोग (Observation and experiments) की सहायता लेना आवश्यक होता है। इसके बिना निश्चितता नहीं आती है। व्यवहार में हम देखते हैं कि निरीक्षण एवं प्रयोग आरंभ से ही प्राक्-कल्पना के द्वारा नियंत्रित होते हैं। निरीक्षण की तरह प्रयोग (Experiment) में भी प्राक्कल्पना का स्थान प्रमुख है। प्रयोग में हम कृत्रिम ढंग से घटना उपस्थित करते हैं। इसके लिए हम पहले प्राक्-कल्पना करते हैं और इसकी जाँच के लिए प्रयोग का सहारा लेते हैं।

जैसे हम पहले यह प्राक्-कल्पना करते हैं कि हाइड्रोजन और ऑक्सीजन की निश्चित मात्रा को मिलाने के बाद जब हम उससे होकर विद्युतधारा प्रवाहित करते हैं तो ‘जल’ बनता है। इस प्राक-कल्पना की जाँच हम प्रयोग के सहारे करते हैं। प्रयोगशाला में हम आवश्यक परिस्थिति उत्पन्न कर प्राक्-कल्पना की सत्यता का पता लगा लेते हैं। प्रयोग के लिए पहले किसी-न-किसी प्रकार की प्राक्-कल्पना करना आवश्यक है, क्योंकि प्रयोग में प्राक्-कल्पना की ही जाँच की जाती है।

उपरोक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि निरीक्षण और प्रयोग जिसका महत्त्व वैज्ञानिक खोज में अधिक है, प्राक्-कल्पना द्वारा ही नियंत्रित होते हैं। बेकन प्राक्-कल्पना के महत्त्व को कम आँकते हैं। लेकिन हम उनके विचार को गहराई से देखें तो बहिष्कार एवं निरीक्षण में भी शुद्ध निष्कर्ष प्राप्त करने हेतु प्राक्-कल्पना की आवश्यकता होती है।

महान् वैज्ञानिक न्यूटन का कहना है कि “मैं प्राक्-कल्पना की कल्पना ही नहीं करता हूँ।” लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से प्राक्-कल्पना की स्वीकृति गुरुत्वाकर्षण के नियम को सिद्ध करने में दीखता है। न्यूटन ने जब सेव को जमीन पर गिरते हुए देखा था तो सर्वप्रथम इसके कारण के बारे में प्राक्-कल्पना ही की थी। तर्कशास्त्री जेएस मिल के अनुसार, प्राक्-कल्पना का अधिक महत्त्व खोज के सम्बन्ध में होता है, प्रमाण (Proof) के सम्बन्ध में नहीं। तर्कशास्त्री ह्वेवेल के अनुसार वैज्ञानिक आगमन का संबंध आविष्कार से अधिक है। अतः उनकी नजर में प्राक्-कल्पना का महत्त्व बहुत अधिक है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 12 नीतिश्लोकाः

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Amrita Bhag 1 Chapter 12 नीतिश्लोकाः Text Book Questions and Answers, Summary.

BSEB Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 12 नीतिश्लोकाः

Bihar Board Class 6 Sanskrit नीतिश्लोकाः Text Book Questions and Answers

अभ्यासः

मौखिकः

प्रश्न 1.
निम्न श्लोकों को सस्वर गावें
उत्तर-
नीति श्लोकाः पाठ के प्रत्येक श्लोक को लय (सुन्दर स्वर) में . गावें।

लिखितः

प्रश्न 2.
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –

(क) ……………… सर्वे तुष्यन्ति ………………।
तस्मात्तदेव ………………….. दरिद्रता ।।
उत्तर-
प्रिय वाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 12 नीतिश्लोकाः

(ख) काव्यशास्त्र विनोदेन …………………….. ।
…………… निद्रया. …………… वा ॥
उत्तर-
काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
व्यसनेन तु मुर्खाणां निद्रया कलहेन वा

प्रश्न 3.
श्लोकों को जोड़ें –

  1. काव्यशास्त्रविनोदेन – (i) सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः
  2. हस्तस्यभूषणं दानं – (ii) कालो गच्छति धीमताम्
  3. प्रियवाक्यप्रदानेन । – (iii) न प्रीतिर्न च बान्धवाः
  4. यस्मिन् देशे न सम्मानो – (iv) अविद्यस्य कुतो धनम्
  5. अलसस्य कुतो विद्या – (v) सत्यं कण्ठस्य भूषणम्

उत्तर-

  1. काव्यशास्त्रविनोदेन – (ii) कालो गच्छति धीमताम्
  2. हस्तस्यभूषणं दानं – (v) सत्यं कण्ठस्य भूषणम्
  3. प्रियवाक्यप्रदानेन । – (i) सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः
  4. यस्मिन् देशे न सम्मानो – (iii) न प्रीतिर्न च बान्धवाः
  5. अलसस्य कुतो विद्या – (iv) अविद्यस्य कुतो धनम्

प्रश्न 4.
उपयुक्त कथनों के सामने सही ✓ का तथा अनुपयुक्त कथनों के सामने गलत ✗ का चिह्न लगावें :

यथा – प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्तिा – ✓
मूर्खाणां कालः काव्यशास्त्रविनोदन गच्छति। – ✗

प्रश्नोत्तर साथ दिये गए हैं

  1. दानं हस्तस्य भूषणम् । – ✓
  2. सत्यं श्रोत्रस्य भूषणम् । – ✗
  3. धीमतां कालः निद्रया गच्छति। – ✗
  4. यत्र सम्मानः तत्र वसेत्। – ✓
  5. श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्रम् । – ✓

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 12 नीतिश्लोकाः

प्रश्न 5.
उत्तराणि लिखत –

  1. सर्वे जन्तवः केन तुष्यन्ति ?
  2. कुत्र न वसेत् ?
  3. धीमताम् कालः कधं गच्छति ?
  4. मूर्खाणां कालः कथं गच्छति ?
  5. हस्तस्य भूषणं किम् ?

उत्तर-

  1. सर्वे जन्तवः प्रियवाक्यप्रदानेन तुष्यन्ति ।।
  2. यत्र न सम्मानः मिलति, न प्रीतिः ना च बान्धवाः न विद्या आगमनस्य साधनं तत्र न वसेत् ।
  3. धीमताम् कालः काव्यशास्त्र विनोदेन गच्छति ।
  4. मूर्खाणां काल: व्यसनेन निद्रया कलहेन वा गच्छति ।
  5. हस्तस्य भूषणं दानम् ।

Bihar Board Class 6 Sanskrit नीतिश्लोकाः Summary

प्रियवाक्य प्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात्तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता ।।1।।

अर्थ – प्रिय वचन बोलने से सभी जीव प्रसन्न होते हैं। इसलिए वैसा ही बोलना चाहिए। बोलने में गरीबी (कंजूसी) कैसी । अर्थात प्रिय वाक्य बोलने से क्या गरीबी आ जाएगी?

यस्मिन्देशे न सम्मानो न प्रीतिर्न चबा-वाः।
न च विद्यागमः कश्चिन्न तत्र दिवसं वसेत् ।।2।।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 12 नीतिश्लोकाः

अर्थ – जिस स्थान पर सम्मान न मिले, जहाँ प्रसन्नता नहीं हो, जहाँ कोई बान्धव (मित्र) नहीं हो, और जहाँ विद्याध्ययन की व्यवस्था नहीं हो, वहाँ एक दिन भी नहीं रहना चाहिए।

काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम् ।
व्यसनेन तु मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा ।।3।।

अर्थ – बुद्धिमानों का समय काव्य शास्त्र के अधययन-अध्यापन में बीतता है। लेकिन मूखों का समय बुरे कार्यों में सोने में या झगड़ा (विवाद) करने में बीतता है।

आलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ।।4।।

अर्थ – आलसी को विद्या कहाँ प्राप्त होती है, जो विद्याहीन (मूर्ख) होते हैं उनको धन नहीं प्राप्त होता है। धनहीन को मित्र नहीं होता तथा बिना मित्र के सुख की प्राप्ति नहीं होती है।

हस्तस्य भूषणं दानं सत्यं कण्ठस्य भूषणम् ।
श्रोत्रस्य भूषणं शास्त्र भूषणैः किं प्रयोजनम् ।।5।।

अर्थ- हाथ की शोभा दान देने से होती है। कण्ठ की शोभा सत्य वचन बोलने से होती है। कान की शोभा शास्त्र की बातें सुनने से होती है। जिसने दान-सत्य और शास्त्ररूपी आभूषण धारण कर लिया है उसके लिए. अन्य आभूषण (स्वर्णालंकार) की क्या आवश्यकता है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 12 नीतिश्लोकाः

शब्दार्थ:-प्रियवाक्यप्रदानेन – प्रिय वचन बोलने से। तुष्यन्ति ( तुष् + लट्)- प्रसन्न होते हैं। जन्तवः (जन्तु, प्रथमा, बहु०) – प्राणियों (सभी प्राणी)। तस्मात्तदेव (तस्मात् + तत् + एव) – इसलिए वैसा ही। वक्तव्यम् – (वच् + तव्यत्) – बोलना चाहिए। दक्षिा – निर्धनता, कंजूसी, कमजोरी। . सम्मानः – आदर, मान, सम्मान। प्रीतिः – प्रसन्नता। विद्यागमः (विद्या + आगम:) – विद्या-प्राप्ति की व्यवस्था। वसेत् (वस् + विधिलिङ्) – वसना

चाहिए, रहना चाहिए। काव्यशास्त्र-विनोदेन – काव्य शास्त्र के अध्ययन-अध्यापन से। धीमताम् (धीमत् + षष्ठी बहुवचन) – बुद्धिमानों का व्यसनेन – बुरी आदतें/ बुरे काम सो निद्रया (निद्रा + तृतीया विभक्ति) – सोने से । सोकर। कलहेन – झगड़ा करने / विवाद करने में। आलसस्य – आलसी का। कुतः – कहाँ से, कैसे। अविद्यस्य – विद्या से हीन (मूर्ख) का। अधनस्य – ध नहीन (दरिद्र) का। अमित्रस्य – मित्रहीन (मित्ररहित) व्यक्ति का। श्रोत्रस्य – कान का।

Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक अधिकार

Bihar Board Class 9 Social Science Solutions Political Science राजनीति विज्ञान : लोकतांत्रिक राजनीति भाग 1 Chapter 6 लोकतांत्रिक अधिकार Text Book Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Social Science Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक अधिकार

Bihar Board Class 9 Political Science लोकतांत्रिक अधिकार Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है ?
(क) भाषण की स्वतंत्रता
(ख) संगठन बनाने का अधिकार
(ग) समान काम के लिए स्त्री एवं पुरुष को समान वेतन पाने का अधिकार
(घ) दंगों में शस्त्र लेकर चलना
उत्तर-
(ग) समान काम के लिए स्त्री एवं पुरुष को समान वेतन पाने का अधिकार

Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक अधिकार

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान द्वारा यहाँ के नागरिकों को कितने मौलिक अधिकार प्राप्त हैं ?
(क) 6
(ख) 7
(ग) 8
(घ) 5
उत्तर-
(क) 6

प्रश्न 3.
भारतीय नागरिकों के कितने मौलिक कर्त्तव्य हैं ?
(क) दस
(ख) पन्द्रह
(ग) सात
(घ) छः
उत्तर-
(क) दस

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प्रश्न 4.
इनमें से कौन मौलिक अधिकार है ?
(क) सम्पत्ति का अधिकार
(ख) समानता का अधिकार
(ग) शोषण के विरुद्ध अधिकार
(घ) असमानता का अधिकार
उत्तर-
(क) सम्पत्ति का अधिकार

प्रश्न 5.
मौलिक अधिकारों की सूची से किस वर्ष सम्पत्ति के अधिकार को हटा दिया गया?
(क) 1976 ई. में
(ख) 1978 ई. में
(ग) 1979 ई. में
(घ) 1985 ई. में
उत्तर-
(ख) 1978 ई. में

प्रश्न 6.
किस संविधान संशोधन द्वारा मौलिक कर्तव्य निश्चित किया गया?
(क) 42वाँ
(ख) 43वाँ
(ग) 44वाँ
(घ) 45वाँ ।
उत्तर-
(क) 42वाँ

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प्रश्न 7.
प्रतिनिधात्मक प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था की स्थापना की पहली शर्त क्या है?
(क) अधिकारों की मौजूदगी
(ख) कर्त्तव्यों का न होना
(ग) साम्प्रदायिक दंगे
(घ) महिलाओं के माथ गैर-सरकारी का व्यवहार
उत्तर-
(क) अधिकारों की मौजूदगी

प्रश्न 8.
विश्व के परिप्रेक्ष्य में मौलिक अधिकारों का सर्वप्रथम प्रयोग कब किया गया?
(क) 1648 ई. में
(ख) 1789 में फ्रांसीसी क्रान्ति के समय
(ग) 1948 ई. में
(घ) 1990 ई. में
उत्तर-
(ख) 1789 में फ्रांसीसी क्रान्ति के समय

प्रश्न 9.
भारत में सबसे पहले किस राजनेता ने मौलिक अधिकारों का सवाल उठाया ?
(क) पं. जवाहरलाल नेहरू ने
(ख) गाँधी जी ने
(ग) बालगंगाधर तिलक ने
(घ) गोपाल कृष्ण गोखले ने
उत्तर-
(ग) बालगंगाधर तिलक ने

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प्रश्न 10.
स्वतंत्रता का अधिकार का उल्लेख भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में किया गया है ?
(क) अनुच्छेद 15-21 में
(ख) अनुच्छेद 14-18 में
(ग) अनुच्छेद 19-22 में
(घ) अनुच्छेद 12 में
उत्तर-
(ग) अनुच्छेद 19-22 में

प्रश्न 11.
समता का अधिकार का उल्लेख भारतीय संविधान के किस
अनुच्छेद में किया गया है ?
(क) अनुच्छेद 24 में
(ख) अनुच्छेद 32 में
(ग) अनुच्छेद 19-22 में
(घ) अनुच्छेद 14-18 में
उत्तर-
(घ) अनुच्छेद 14-18 में

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से कौन-सी स्वतंत्रता नागरिकों को प्राप्त है ?
(क) किसो का निरादर करने का
(ख) झठा अभियोग लगाने का
(ग) हिंसा भड़काने का
(घ) देश के किसी भी हिस्से में जाकर बसने का
उत्तर-
(घ) देश के किसी भी हिस्से में जाकर बसने का

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रिक्त स्थान की पूर्ति करें :

प्रश्न 1.
प्रजातंत्र की रक्षा के लिए ………………. की सुरक्षा आवश्यक है।
उत्तर-
मौलिक अधिकार

प्रश्न 2.
प्रत्येक ………………… संविधान में मूल अधिकारों की व्यवस्था है।
उत्तर-
लोकतांत्रिक

प्रश्न 3.
अधिकार लोकतांत्रिक राजनीति की ………………………. है।
उत्तर-
सहगामी

प्रश्न 4.
समाज सिर्फ ऐसी ही माँगों को स्वीकारता है जिसमें …………… की भावना-निहित होती है।
उत्तर-
सार्वजनिक कल्याण

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प्रश्न 5.
किसी व्यक्ति से बेगारी लेना ………….. के विरुद्ध अधिकार है।
उत्तर-
शोषण

प्रश्न 6.
मौलिक अधिकारों की रक्षा ………….. करता है।
उत्तर-
सर्वोच्च न्यायालय

प्रश्न 7.
भारत के सभी नागरिकों को अपनी धर्म, भाषा, संस्कृति को सुरक्षित रखने का ……………. अधिकार है।
उत्तर-
शिक्षा एवं संस्कृति संबंधी

प्रश्न 8.
सरकार में किसी पद पर नियुक्ति या रोजगार के मामले में भी सभी नागरिकों के लिए है।
उत्तर-
अवसर की समानता

प्रश्न 9.
सरकार को सार्वजनिक व्यवस्था तथा सदाचार को ध्यान में रखकर धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को ………….. कर सकता है।
उत्तर-
नियमित तथा नियंत्रित

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प्रश्न 10.
यदि सरकार को किसी व्यक्ति पर अपराधी होने का संदेह है तो अपराध करने के पहले ही वह . कर सकती है।
उत्तर-
नजरबंद

प्रश्न 11.
नजरबंदी की व्यवस्था को ………. को संसद के दोनों सदनों ने …………… आतंकवाद विरोधी अधिनियम को समाप्त कर दिया। .
उत्तर-
26 मार्च, 2002

प्रश्न 12.
कोई भी व्यक्ति …………. से कम उम्र के बच्चे से खरनाक काम नहीं करवा सकता है।
उत्तर-
14 वर्ष

प्रश्न 13.
………………………. वाँ संवैधानिक संशोधन 2002 के द्वारा भारत में शिक्षा का अधिकार मौलिक अधिकार बनाया गया है।
उत्तर-
86

प्रश्न 14.
अब 6 से ………………………. वर्ष की आयु के सभी भारतीय बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त है।
उत्तर-
14 वर्ष

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प्रश्न 15.
सभी मौलिक अधिकार व्यर्थ हैं अगर इन्हें माननेवाला और लागू करनेवाला ……………………… हो।
उत्तर-
वन

प्रश्न 16.
यदि मौलिक अधिकारों का हनन हो रहा हो तो हम सीधे ………………….. भी जा सकते हैं।
उत्तर-
सर्वोच्च

प्रश्न 17.
सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों का मौलिक अधिकार लागू कराने के मामले में आदेश या ………………जारी करने का अधिकार है।
उत्तर-
लेख (रिट)

प्रश्न 18.
अधिकारों का दायरा ……………………… जाता है।
उत्तर-
बढ़ता

प्रश्न 19.
मूल अधिकारों में से बहुत सारे अधिकार निकले हैं जैसे …………………।
उत्तर-
सूचना का अधिकार

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प्रश्न 20.
दक्षिण अफ्रीका में नागरिकों और उनके …………….. को सरकार नहीं ले सकती है।
उत्तर-
घर

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मौलिक अधिकारों को सुरक्षा कौन प्रदान करता है ?
उत्तर-
न्यायालय (उच्च या सर्वोच्च न्यायालय)।

प्रश्न 2.
अधिकारों के बिना जीवन कैसा होता है ?
उत्तर-
बुरा।

प्रश्न 3.
अधिकारों का क्या महत्त्व है ?
उत्तर-
एक अच्छे नागरिक के विकास के लिए तथा जीवन को जीने योग्य बनाने के लिए।

प्रश्न 4.
संविधान लागू करने वाला पहला देश कौन था ?
उत्तर-
फ्रांस ने 1789 ई. में संविधान की घोषणा की।

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प्रश्न 5.
जातीय नरसंहार के नाम पर विश्व में क्या हुआ? .
उत्तर-
इराक में, युगोस्लाविया में, भारत में तथा विश्व के कई देशों में जातीय नरसंहार हुए।

प्रश्न 6.
मनुष्य के दावे किस तरह के होने चाहिए?
उत्तर-
दावे तार्किक एवं विवेकपूर्ण होने चाहिए ।

प्रश्न 7.
मताधिकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
प्रशासन के लिए प्रतिनिधियों को चुनने के लिए नागरिकों को जिस अधिकार की जरूरत होती है उसे मताधिकार कहते हैं।

प्रश्न 8.
नेहरू समिति ने मौलिक अधिकारों की मांग कब की?
उत्तर-
1933 ई. के कराँची अधिवेशन में।

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प्रश्न 9.
मौलिक अधिकारों के मामले ने कब जोर पकड़ा?
उत्तर-
सुपसमिति ने 1945 ई० में मौलिक अधिकारों का मामला जोर-शोर से उठाया।

प्रश्न 10.
किस स्थिति में राज्य धर्म के क्षेत्र में दखल देकर उसे नियंत्रित तथा स्थगित कर सकता है ?
उत्तर-
किसी धर्म के अनुयायियों के धर्म प्रचार के ढंग से राज्य के अन्दर अमन-चैन में खलल पहुँच सकती है तो ऐसी स्थिति में राज्य उसे नियंत्रित तथा स्थगित कर सकता है।

प्रश्न 11.
बंधुआ मजदूरी किसे कहते हैं ?
उत्तर-
किसी मजदूर से जबरन जीवन भर काम कराना बंधुआ मजदूरी कहलाता है।

प्रश्न 12.
दावा का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-
सभी नागरिकों, समाज या सरकार से किसी नागरिक द्वारा कानूनी या नैतिक अधिकारों की माँग दावा है।

प्रश्न 13.
‘रिट’ का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सरकार को जारी किया गया एक औपचारिक लिखित आदेश है।

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प्रश्न 14.
उत्प्रेषण क्या है ?
उत्तर-
इस अधिकार के द्वारा उच्च न्यायालय निम्न न्यायालय से किसी अभियोग संबंधित सारे रिकार्ड अपने पास मँगवा सकता है।

प्रश्न 15.
व्यक्ति के बढ़ते अधिकार किस बात की गवाही देते हैं ?
उत्तर-
यह इस बात की गवाही देते हैं कि समाज में लोकतंत्र की जड़ें काफी मजबूत हो रही हैं।

प्रश्न 16.
राष्ट्रीय गान का सम्मान करना किसका कर्तव्य है ?
उत्तर-
भारत के नागरिकों का।।

प्रश्न 17.
माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति क्या कर्त्तव्य है ?
उत्तर-
उचित शिक्षा एवं संबंधित अवसरों की व्यवस्था करना ।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
अधिकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
अपने विकास हेतु ऐसी जायज माँगें, जो उनके राज्य द्वारा स्वीकृत हो, नागरिक अधिकार कहलाते हैं।

प्रश्न 2.
मौलिक अधिकार का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
प्रत्येक मनुष्य में कुछ शक्तियाँ अन्तर्निहित होती हैं। उन शक्तियों के विकास से ही मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है । इन शक्तियों के विकास के लिए मनुष्य को कुछ अधिकारों की आवश्यकता होती है। ऐसे अधिकारों को ही हम मौलिक अधिकार कहते हैं। इन अधिकारों की चर्चा संविधान में कर दी गयी है । लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए मौलिक अधिकार आवश्यक हैं।

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प्रश्न 3.
कानून के समक्ष समानता का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
कानून के समक्ष समानता का साधारण अर्थ है कि कानून सभी व्यक्तियों को समान समझता है तथा किसी भी आधार पर किसी व्यक्ति के पक्ष या विपक्ष में कानून के द्वारा कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। यह सार्वजनिक स्थलों-जैसे दूकान, होटल, मनोरंजन गृह. कुआँ, स्नान घाट और पूजा स्थलों में समानता के आधार पर प्रवेश देता है । जाति नस्ल, रंग, लिंग, धर्म या जन्म स्थान के आधार पर प्रवेश में कोई भेद-भाव नहीं कर सकता।

प्रश्न 4.
अधिकारों का क्या महत्व है ?
उत्तर-
जहाँ व्यक्ति के अधिकारों का हनन होता है जिसके कारण अपनी तकलीफ एवं त्रासदी स्वभावत: व्यक्ति के मन मस्तिष्क को यह अहसास कराता है कि अधिकारों के बिना जीवन कैसा होता है । वास्तव में लोकतंत्र में जनता की सत्ता में साझेदारी होती है । यह साझेदारी व्यक्ति के अधिकारों के माध्यम से संभव हो पाती है, जैसे नागरिकों के मतदान का अधिकार, विचार अभिव्यक्ति का अधिकार, सूचना पाने का अधिकार आदि । इसलिए व्यक्ति के अधिकार न सिर्फ लोकतंत्र की स्थापना को अनिवार्य शर्त है; वरन् लोकतांत्रिक राजनीति की सहगामी है जिसकी उपस्थिति लोकतांत्रिक शासन के वास्तविक स्वरूप को निरन्तर प्रकट करने में होती है।

प्रश्न 5.
अधिकारों के बिना जीवन कैसा? संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
अथवा, लोकतंत्र में अधिकारों की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-
मनुष्य अच्छा जीवन जीना चाहता है। प्रत्येक नागरिक के जीवन का मुख्य लक्ष्य सुखमय जीवन की प्राप्ति है। समाज के सभी लोगों को ये सुविधाएँ चाहिए इसलिए माँगे गए दावे तार्किक एवं विवेकपूर्ण होना चाहिए । इन दावों को सब पर समान रूप से लागू किया जाने वाला होना चाहिए तथा जिसे कानून द्वारा मान्यता हो वह अधिकार हो जाता है । यह अधिकार लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में ही संभव है। अतः लोकतांत्रिक राज्य का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह अपने नागरिकों के व्यक्तित्व के विकास या सर्वांगीण विकास के लिए उचित अधिकार दें । वास्तव में नागरिकों के लिए अधिकार एक अवसर है, इसके अभाव में मनुष्य अपना पूर्ण विकास नहीं कर सकता । यह सरकार एवं अन्य लोगों के अत्याचार से सुरक्षा प्रदान करता है।

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प्रश्न 6.
अधिकारों को संविधान में लिखने की क्या जरूरत है ?
उत्तर-
कभी-कभी ऐसा देखा जाता है कि लोकतांत्रिक सरकार भी अपने नागरिकों के अधिकार की रक्षा नहीं करती है या इससे भी बढ़कर . वह स्वयं नागरिकों के अधिकार पर हमला करती है, जैसे भागलपुर की जेल में कैदियों की आँखें पुलिस द्वारा फोड़ दी गयीं । इस प्रकार नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण किया गया । अतः इस बात की बहुत आवश्यकता है कि कुछ नागरिक अधिकारों को सरकार से भी ऊँचा दर्जा प्रदान किया जाए ताकि भविष्य में कोई भी सरकार इनका अतिक्रमण नहीं कर सके तथा इसे सख्ती से लागू करवाया जा सके । इसलिए लोकतानिक शासन व्यवस्था में नागरिकों के अधिकार को लिखने की जरूरत होती है।

प्रश्न 7.
विश्व के परिप्रेक्ष्य में मौलिक अधिकारों के संबंध में बतावें।,
उत्तर-
विश्व के संदर्भ में मौलिक अधिकारों का सर्वप्रथम प्रयोग 1789 ई. में फ्रांसीसी क्रान्ति के समय किया गया । फ्रांस की राष्ट्रीय सभा में दो मानव अधिकारों की घोषणा करते हुए संविधान में नागरिकों के कुछ मूल अधिकारों को शामिल किया गया। मानव अधिकारों की घोषणा ने विश्व के बहुत सारे संविधानों को प्रभावित किया । संयुक्त राज्य अमेरिका ने संविधान लागू होने के दो वर्ष के अन्दर दस संशोधनों के द्वारा मूल ‘अधिकारों को संविधान का अंग बनाया । आज लगभग सभी देशों के संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है। यहाँ तक कि रूस और चीन जैसे सर्वाधिकार वादी संविधान में भी नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है ।

प्रश्न 8.
भारत के संदर्भ में मौलिक अधिकारों की चर्चा कब से शुरू हुई ?
उत्तर-
भारत के स्वतंत्रता संग्राम के जुझारू नेताओं में से एक बाल गंगाधर तिलक ने सर्वप्रथम मौलिक अधिकारों की मांग की। स्वतंत्रता आन्दोलन में अनेक बार कांग्रेस ने मौलिक अधिकारों की मांग की। 1918 ई. में बम्बई अधिवेशन, 1933 ई. में कराची अधिवेशन में नेहरू समिति ने 1928 ई. में तथा संप्रभु समिति ने 1945 में मौलिक अधिकारों का मामला जोर-शोर से उठाया लेकिन भारतीयों को मौलिक अधिकार नहीं दिए गए । अतः स्वाभाविक था कि स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माण के समय अधिकारों का अनिवार्य रूप से समावेश किया जाय और संविधान के मूल ढाँचे में उन अधिकारों को सूचीबद्ध किया गया जिन्हें सुरक्षा देनी थी। यही मौलिक अधिकार कहलाए।

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प्रश्न 9.
किन परिस्थितियों में मौलिक अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है?
उत्तर-
सार्वजनिक व्यवस्था तथा राज्य की शांति एवं सुरक्षा के हित में राज्य सरकार को स्वतंत्रता के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का अधिकार प्राप्त है। संकटकालीन स्थिति में राष्ट्रपति इन अधिकारों पर प्रतिबंध लगा सकता है । संविधान को संशोधित कर मूल अधिकारों को स्थगित या सीमित किया जा सकता है।

प्रश्न 10.
मौलिक अधिकारों की रक्षा कैसे की जा सकती है ?
उत्तर-
यदि राज्य सरकार या कोई व्यक्ति किसी नागरिक के मूल अधिकारों का अपहरण करता है या उसके उपभोग में अनुचित हस्तक्षेप . करता है, तो संवैधानिक उपचार के अन्तर्गत नागरिक उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय की शरण ले सकता है। न्यायालय ऐसा करने से रोक लगा सकता है । नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा का दायित्व उच्चतम न्यायालय को है।

प्रश्न 11.
समता के किन्हीं चार अधिकारों का वर्णन करें।
उत्तर-
समता के चार अधिकार निम्नलिखित हैं जो अनुच्छेद 1418 तक में वर्णित हैं-

  • कानूनी समता-कानून के समक्ष सभी नागरिक समान हैं; चाहे वह अमीर हो या गरीब ।
  • सामाजिक समता-किसी भी नागरिक को उसकी जाति, धर्म, लिंग तथा जन्म स्थान आदि के आधार पर सार्वजनिक स्थानों जैसेहोटलों, पार्को, मनोरंजन गृहों, स्नानघरों आदि में प्रवेश करने से रोका नहीं जा सकता है।
  • अवसर की समानता- सभी नागरिकों को नौकरी पाने के क्षेत्र · में अवसर. की समानता का अधिकार प्राप्त है।
  • उपाधियों का अंत-सेना एवं शिक्षा को छोड़कर अन्य सभी प्रकार की उपाधियों का अंत कर दिया गया है।

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प्रश्न 12.
संविधान में वर्णित नागरिक स्वतंत्रता के अधिकारों का वर्णन करें।
उत्तर-
संविधान की धारा 19 से 22 तक में नागरिकों के स्वतंत्रता के अधिकार का वर्णन है । जिनमें छः अधिकार प्रमुख हैं-

  • भाषण तथा विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ।
  • शान्तिपूर्वक एवं बिना हथियार के एकत्र होने की स्वतंत्रता ।
  • नागरिकों को संगठन बनाने की भी स्वतंत्रता है ।
  • किसी भी नागरिक को देश के किसी भी हिस्से में जाने या रहने की स्वतंत्रता ।
  • पेशा चुनने के मामले में भी ऐसी ही स्वतंत्रता प्राप्त है।
  • प्रेस स्वतंत्रता की व्यवस्था ।

प्रश्न 13.
शोषण के विरुद्ध अधिकार के अन्तर्गत उठाए गए किन्हीं चार उपायों की चर्चा करें।
उत्तर-
शोषण के विरुद्ध अधिकार के अंतर्गत उठाए गए कदम निम्नलिखित हैं

  • बंधुआ मजदूर की प्रथा को समाप्त कर दिया गया।
  • संविधान बाल मजदूरी (चौदह वर्ष से कम) का भी निषेध . करता है।
  • संविधान मनुष्य जाति के अवैध व्यापार का निषेध करता है।
  • देवदासी प्रथा को अधिनियम बनाकर समाप्त कर दिया गया ।

प्रश्न 14.
सूचना का अधिकार का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-
यह एक महत्वपूर्ण लोकतांत्रिक अधिकार है। लोकतंत्र की भावनाओं के अनुरूप भारत की संसद के द्वारा विधि-निर्माण कर भारत के नागरिकों को सूचना प्राप्त करने का अधिकार प्रदान किया है। यदि सरकारी कर्मचारी इस प्रकार के आलेखों की प्रति नहीं देते तो उनके विरुद्ध भी कानन के अनुसार कार्रवाई की जा सकती है।

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प्रश्न 15.
अधिकार-पृच्छा लेख से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
यह एक प्रकार का अदालती आदेश है । इसके द्वारा न्यायालय किसी ऐसे व्यक्ति को जिसकी नियुक्ति या चुनाव कानून के अनुसार नहीं । हुआ हो, उसे सरकारी कार्य करने से रोक सकता है।

प्रश्न 16.
विधि का शासन किसे कहते हैं ?
उत्तर-
समता का अधिकार भारत को एक सच्चे लोकतंत्र के रूप में किसी भी व्यक्ति का दर्जा; पद, चाहे जो भी हो सब पर कानूनन समान रूप से लागू होता है। इसे ही विधि का शासन कहते हैं।

प्रश्न 17.
आरक्षण क्या है ?
उत्तर-
भारत सरकार ने नौकरियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की है। अनेक सरकारी विभिन्न योजनाओं के तहत कुछ नौकरियों में विशेष आरक्षण है। कई बार अवसर की समानता निश्चित करने के लिए कुछ लोगों को विशेष अवसर देना जरूरी होता है । आरक्षण यही करता है। इस बात को साफ करने के लिए संविधान स्पष्ट रूप से कहता है कि इस तरह आरक्षण. समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है।

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प्रश्न 18.
44वें संवैधानिक संशोधन के द्वारा विचार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में क्या संशोधन किया गया ?
उत्तर-
1978 के 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा यह व्यवस्था की गयी है कि संसद के किसी सदन अथवा राज्य विधानमंडल में किसी कारण सदन की कार्यवाही की सच्ची रिपोर्ट प्रकाशित करने के कारण किसी व्यक्ति के विरुद्ध किसी प्रकार की कार्रवाई नहीं की जा सकती। किन्तु प्रकाशन बुरी भावना से किया गया है तो संबंधित व्यक्ति के विरुद्ध कानूनी कार्रवाही की जा सकती है।

प्रश्न 19.
धार्मिक स्वतंत्रता क्या है ?
उत्तर-
भारत एक धर्म निरपेक्ष ग्रज्य है। राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है। धर्म व्यक्तिगत स्वतंत्रता की वस्तु बना दी गयी है । संविधान के अंतर्गत भारत में नागरिकों को किसी भी धर्म को ग्रहण करने तथा प्रसार करने तथा उसके लिए अन्य कार्य करने का अधिकार दिया गया । विभिन्न धर्मावलम्बियों को अपने धर्म का प्रचार-प्रसार के लिए भाषण देने, सभा करने, पुस्तकें प्रकाशित करने, संस्थाओं की स्थापना करने तथा शिक्षण संस्थान चलाने का अधिकार है।

प्रश्न 20.
धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को किस स्थिति में सरकार नियमित तथा नियंत्रित कर सकती है ?
उत्तर-
भारत में अनेक धर्मों के लोग रहते हैं। इनमें धर्म प्रचार के ढंग से आपस में मतभेद हो जाने की संभावना है। फलस्वरूप सरकार को यह अधिकार दिया गया है कि वह सार्वजनिक व्यवस्था तथा सदाचार को ध्यान में रखकर धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को नियमित तथा नियंत्रित कर सकता है। अगर धर्म प्रचार से राज्य के अन्दर अमन-चैन में खलल पहुँच सकती है या कोई अनैतिक कार्य होता है तो राज्य उसे नियंत्रित तथा स्थगित कर सकता है।

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प्रश्न 21.
धर्म और शिक्षण संस्थाओं से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-
विभिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा स्कूल, कॉलेज, पाठशाला तथा मदरसा खोलने की स्वतंत्रता है। दूसरी शिक्षण संस्थाओं की तरह इन्हें भी राज्य द्वारा आर्थिक सहायता मिलेगी। राज्य द्वारा संचालित तथा नियमित शिक्षण संस्थानों में धर्म संबंधी शिक्षा नहीं दी जाएगी और न विभिन्न धर्मावलम्बियों द्वारा स्थापित शिक्षण संस्थाओं में किसी विद्यार्थी को उसकी इच्छा के विरुद्ध किसी धर्म को मानने के लिए बाध्य किया जाएगा।

प्रश्न 22.
संस्कृति संबंधी नागरिकों के कौन-से अधिकार प्राप्त हैं ?
उत्तर-
भारत में विविधता में एकता है। इसमें भाँति-भाँति के लोग तथा उनकी अपनी भाषा लिपि तथा संस्कृति है । संविधान में इन धाराओं के माध्यम से भारत में रहने वाले हर प्रकार के लोगों को अपनी-अपनी लिपि, भाषा तथा संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार दिया गया है। विभिन्न धर्मों पर आधारित वर्गों तथा अल्पसंख्यकों को अपनी भाषा, लिपि तथा संस्कृति की रक्षा करने का अधिकार दिया गया है।

प्रश्न 23.
जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा के हित में नागरिकों को कौन-से उपाय दिए गए हैं ?
उत्तर-
संविधान के अनुसार किसी भी व्यक्ति को कानून द्वारा स्थापित.प्रक्रिया के अतिरिक्त जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है । इसका यह भी मतलब है कि कानूनी आधार होने पर सरकार या पुलिस अधिकारी किसी नागरिक को गिरफ्तार कर सकता है, पर उसे गिरफ्तारी के कारणों की जानकारी देनी होती है। बिना कारण बताए किसी को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता और गिरफ्तार होने के समय से चौबीस घंटे के भीतर निकटस्थ दंडाधिकारी के समक्ष पेश करना आवश्यक है । गिरफ्तार हुए व्यक्ति को यह भी अधिकार प्राप्त है कि वह अपनी इच्छानुसार किसी वकील से अपनी गिरफ्तारी के संबंध में परामर्श कर सके।

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प्रश्न 24.
शिक्षा का अधिकार क्या है ?
उत्तर-
86वाँ संवैधानिक संशोधन 2002 के द्वारा भारत में शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया गया है। अब 6 वर्ष से लेकर 14 वर्ष के आयु के सभी भारतीय बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्राप्त है। 6 वर्ष तक के बच्चों को बाल्यकाल और शिक्षा की देखभाल करने के लिए सरकार द्वारा आवश्यक शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी। यदि इस अधिकार का उल्लंघन किया जाता है तो इसे लागू कराने के लिए याचिका दायर की जा सकती है।

प्रश्न 25.
जनहित याचिका किसे कहते हैं ?
उत्तर-
जनहित याचिका के द्वारा कोई भी व्यक्ति अथवा समूह सरकार के किसी कानून अथवा कार्य के खिलाफ सार्वजनिक हितों की सुरक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालयों में जा सकता है। इस प्रकार के मामले जज के नाम पोस्टकार्ड पर लिखा निजी अर्जी के माध्यम से भी उठाए जा सकते हैं। अगर न्यायाधीशों को लगे कि वास्तव में इस मामले में सार्वजनिक हितों पर चोट पहुँच रही है तो वे मामले को विचार के लिए स्वीकार कर सकते हैं।

प्रश्न 26.
बंदी प्रत्यक्षीकरण क्या है ?
उत्तर-
बंदी प्रत्यक्षीकरण के द्वारा न्यायालय गैर-कानूनी ढंग से गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को अपने सम्मुख प्रस्तुत करने का आदेश दे सकता है। अगर न्यायालय द्वारा उसकी गिरफ्तारी अनुचित तथा गैर-कानूनी समझी गयी तो उसे रिहा करने का भी आदेश दे सकती है।

प्रश्न 27.
परमादेश क्या है ?
उत्तर-
यह भी एक प्रकार का अदालती आदेश है जो किसी व्यक्ति या संस्था को अपने उस कर्त्तव्य को करने के लिए बाध्य कर सकता है जिसे काननी रूप से करने के लिए वह बाध्य है। जैसे कोई कारखाने का, मालिक या नियोक्ता किसी मजदूर को बिना कारण बताए हटा देता है या उसके वेतन भत्ता से कटौती करता है तो मजदूर के आवेदन पर कारखाने के मालिक के विरुद्ध न्यायालय द्वारा परमादेश जारी किया जा सकता है और जाँच के बाद न्यायालय उचित फैसला दे सकता है।

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प्रश्न 28.
प्रतिषेध क्या है ?
उत्तर-
यह भी एक प्रकार का अदालती आदेश है । प्रतिषेध के द्वारा सर्वोच्च या उच्च न्यायालय की ओर से किसी अधीनस्थ न्यायालय को ऐसा कार्य करने से रोकने के लिए रिट जारी किया जा सकता है जो कानून के विरुद्ध हो या उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो ।

प्रश्न 29.
संवैधानिक उपचारों का अधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
मौलिक अधिकार व्यर्थ है अगर इन्हें माननेवाला और लागू करनेवाला न हो। संभव है कि कई बार हमारे अधिकारों का उल्लंघन कोई व्यक्ति या कोई संस्था या फिर स्वयं सरकार ही कर रही हो । अगर हमारे किसी भी अधिकार का उल्लंघन होता है तो हम अदालत के जरिए उसे रोक सकते हैं।

अगर मामला मौलिक अधिकारों का हो तो हम सीध सर्वोच्च न्यायालय या किसी राज्य के उच्च न्यायालय में जा सकते हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय को आदेश या ‘रिट’ जारी करने का अधिकार है । यह संवैधानिक उपचार है जिससे नागरिक अपने मौलिक अधिकारों को बचा सकते हैं।

प्रश्न 30.
अधिकारों का बढ़ता दायरा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
मौलिक अधिकारों के अलावा और भी बहुत सारे अधिकार एवं कानून संविधान द्वारा प्राप्त होते हैं, जो सामाजिक, राजनैतिक, परिस्थितियों में विकास एवं बदलाव करते हैं। इस तरह से अधिकारों का दायरा बढ़ता जाता है । लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में अधिकारों की माँग तेजी से बढ़ती है। वास्तव में लोकतांत्रिक मूल्यों के विकास के समानान्तर अधिकारों का विकास होता है। अर्थात व्यक्ति के बढ़ते अधिकार इस बात की गवाही देते हैं कि उस समाज में लोकतंत्र की जड़ें कितनी मजबूत हो रही हैं।

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प्रश्न 31.
नये संविधान के निर्माण के समय दक्षिण अफ्रीका में कौन-कौन से नये अधिकार आए ?
उत्तर-
नये संविधान के निर्माण में भी नये-नये अधिकार सामने आये । जैसे- दक्षिण अफ्रीका में नागरिकों और उनके घरों की तलाशी नहीं ली जा सकती, उनके फोन टेप नहीं किए जा सकते, उनके पत्र आदि खोलकर नहीं पढ़े जा सकते ।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के द्वारा भारत के नागरिकों को कौन-कौन से मौलिक अधिकार प्रदान किये गए हैं ?
उत्तर-
भारतीय संविधान के तीसरे अध्याय में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। भारतीय संविधान द्वारा नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार प्रदान किये गए हैं

  • समता का अधिकार।
  • स्वतंत्रता का अधिकार।
  • शोषण के विरुद्ध अधिकार।
  • धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार।
  • सांस्कृतिक तथा शिक्षा संबंधी अधिकार।
  • संवैधानिक उपचार का अधिकार।

नोट : इन सभी का विस्तार देखें लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर क्रमश: 12, 13, 14, 20, 30 एवं 26 में।

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प्रश्न 2.
भारतीय नागरिकों के कर्तव्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
86वाँ संशोधन के अनुसार भारतीय नागरिकों के निम्नलिखित दस कर्तव्य निश्चित किये गए हैं

  1. संविधान का पालन करना उसके व्यवस्थाओं के अनुसार संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज तथा राष्ट्रीय गान का सम्मान करना
  2. स्वतंत्रता के लिए किये गए राष्ट्रीय संघर्ष को प्रोत्साहित करनेवाले आदर्शों का पालन करना ।
  3. भारत की सम्प्रभुता, एकता, अखंडता का समर्थन और रक्षा करना ।
  4. देश की रक्षा एवं आवश्यकता के समय राष्ट्रीय सेवा करना ।
  5. धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय अथवा वर्गीय भिन्नता से ऊपर उठकर भाईचारा बढ़ाना।
  6. संयुक्त सांस्कृतिक तथा समृद्ध विरासत का सम्मान करना और इसको स्थिर रखना।
  7. पर्यावरण एवं वन्य प्राणियों का संरक्षण करना ।
  8. दृष्टिकोण में वैज्ञानिकता, मानवतावाद, अन्वेषण एवं सुधार की भावना का विकास करना ।
  9. हिंसा से परहेज करना, सार्वजनिक सम्पत्ति की सुरक्षा करना तथा राष्ट्रहित उच्च के स्तरों की ओर बढ़ते रहना।
  10. माता-पिता द्वारा बच्चों के लिए शिक्षा संबंधी अवसरों की व्यवस्था करना।

प्रश्न 3.
अधिकार और मौलिक अधिकारों में अन्तर स्पष्ट करते हुए भारत के नागरिकों के अधिकारों का वर्णन करें।
उत्तर-
लोकतांत्रिक राज्य में नागरिक को अपने व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास हेतु अधिकारों की आवश्यकता होती है । इस तरह अधिकार लोगों के वे तार्किक दावे हैं जिसे समाज से स्वीकृति एवं अदालतों द्वारा मान्यता मिलती है।

मौलिक अधिकार वैसे अधिकार जिसकी चर्चा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता एवं न्याय दिलाने का वायदा करता है। मौलिक अधिकार इन्हीं वायदों को पूरा करने का प्रयास है।

भारतीय नागरिकों के अधिकार इस प्रकार हैं-

(i) जीवन जीने का अधिकार-हर मनुष्य अच्छा जीवन जीना चाहता है । व्यक्ति इन सुविधाओं को माँग दावे के रूप में करता है । उन दावों जिनमें व्यक्त्वि विकास की भावना हो जीने का अधिकार कहलाता है। इसके विरुद्ध कोई व्यक्ति आत्महत्या करने का प्रयास करता है तो वह अपराध है और उस पर मुकदमा चलाया जायेगा।

(ii) विचार अभिव्यक्ति का अधिकार- अपने विचारों को हम भाषण देकर, पुस्तक लिखकर अभिव्यक्त कर सकते हैं । अपमान जनक शब्दों द्वारा नहीं।

(iii) संगठन बनाने का अधिकार नागरिकों को यह अधिकार है . कि वे अपने हित के लिए संगठन बना सकते हैं। ये संगठन सरकारी अथवा गैर-सरकारी स्तर पर बना सकते हैं । जैसे किसी शहर के कुछ लोग भ्रष्टाचार या प्रदूषण के खिलाफ अभियान चलाने के लिए संगठन बना सकते हैं। किसी कारखाने में मजदूर संघ का निर्माण हो सकता है ।

(iv) धार्मिक स्वतंत्रता-भारत में नागरिकों को किसी भी धर्म को ग्रहण करने उसका प्रचार-प्रसार तथा उसके लिए अन्य कार्य करने का अधिकार दिया गया है।

(v) संपत्ति का अधिकार प्रत्येक मनुष्य को धन अर्जन करने, जमा करने का अधिकार है।

(vi) शिक्षा का अधिकार प्रत्येक नागरिक का यह अधिकार है कि किसी भी शिक्षण संस्था में जाति, धर्म, लिंग, भाषा, क्षेत्र इत्यादि के भेदभाव के बिना दाखिला ले सकते हैं और शिक्षा ग्रहण कर सकते हैं।

(vii) वैवाहिक स्वतंत्रता का अधिकार-कोई भी बालिग लड़का व लड़की अपनी मर्जी से विवाह कर सकते हैं।

Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 6 लोकतांत्रिक अधिकार

प्रश्न 4.
दक्षिण अफ्रीका के संविधान द्वारा वहाँ के नागरिकों को कौन-कौन से प्रमुख अधिकार दिए गए हैं ?
उत्तर-
दक्षिण अफ्रीका के संविधान द्वारा वहाँ के नागरिकों को निम्नलिखित अधिकार दिए गए हैं –
(i) गरिमा का अधिकार ।
(ii) निजता का अधिकार ।
(iii) श्रम · संबंधी समुचित व्यवहार का अधिकार ।
(iv) स्वस्थ पर्यावरण और पर्यावरण संरक्षण का अधिकार ।
(v) समुचित आवास का अधिकार ।
(vi) स्वास्थ्य सुविधाएँ, भोजन, पानी और सामाजिक सुरक्षा का अधिकार ।
(vii) बाल अधिकार ।
(viii) बुनियादी और उच्च शिक्षा का अधिकार ।
(ix) संस्कृति, आर्थिक और भाषायी समुदायों का अधिकार ।
(x) सूचना का अधिकार ।

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Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 5 संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ

Bihar Board Class 9 Social Science Solutions Political Science राजनीति विज्ञान : लोकतांत्रिक राजनीति भाग 1 Chapter 5 संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ Text Book Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Social Science Political Science Solutions Chapter 5 संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ

Bihar Board Class 9 Political Science संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
नीतिगत फैसला निम्नलिखित में से कौन लेती है ?
(क) विधायिका
(ख) कार्यपालिका
(ग) न्यायपालिका
(घ) राष्ट्रपति
उत्तर-
(ख) कार्यपालिका

Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 5 संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ

प्रश्न 2.
राजनैतिक कार्यपालिका का प्रधान कौन होता है ?
(क) प्रधानमंत्री
(ख) जज
(ग) राष्ट्रपति
(घ) राजनैतिक नेता
उत्तर-
(ग) राष्ट्रपति

प्रश्न 3.
भारत के राष्ट्रपति द्वारा संकट काल की घोषणा निम्नलिखित में से किस वर्ष हुई?
(क) 1960 ई. में
(ख) 1970 ई. में
(ग) 1972 ई. में
(घ) 1975 ई० में
उत्तर-
(घ) 1975 ई० में

Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 5 संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ

प्रश्न 4.
भारत में राष्ट्रीय संकटकाल की घोषणा कौन करता है ?
(क) विदेशमंत्री
(ख) रक्षामंत्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) प्रधानमंत्री
उत्तर-
(ग) राष्ट्रपति

प्रश्न 5.
राष्ट्रपति का चुनाव होता है
(क) प्रत्यक्ष रूप से
(ख) अप्रत्यक्ष रूप से
(ग) दोनों ढंग से
(घ) इनमें कोई नहीं
उत्तर-
(ख) अप्रत्यक्ष रूप से

प्रश्न 6.
उपराष्ट्रपति का चुनाव होता है
(क) अप्रत्यक्ष ढंग से
(ख) प्रत्यक्ष ढंग से
(ग) प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष दोनों ढंग से
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क) अप्रत्यक्ष ढंग से

Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 5 संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ

प्रश्न 7.
केन्द्र में मंत्रियों की नियुक्ति कौन करता है?
(क) राष्ट्रपति
(ख) संसद
(ग) उपराष्ट्रपति
(घ) प्रधानमंत्री
उत्तर-
(घ) प्रधानमंत्री

प्रश्न 8.
केन्द्र में कानून बनाने का कार्य कौन करती है ?
(क) विधायिका
(ख) न्यायपालिका
(ग) राज्यसभा
(घ) सर्वोच्च न्यायालय
उत्तर-
(क) विधायिका

प्रश्न 9.
राज्यपाल की नियुक्ति कितने वर्षों के लिए होती है ?
(क) 3 वर्षों
(ख) 4 वर्षों
(ग) 5 वर्षों
(घ) 6 वर्षों
उत्तर-
(ग) 5 वर्षों

Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 5 संसदीय लोकतंत्र की संस्थाएँ

प्रश्न 10.
बिहार राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति इनमें से कौन करता है ?
(क) राष्ट्रपति
(ख) बिहार का राज्यपाल
(ग) मुख्य न्यायाधीश
(घ) मुख्यमंत्री
उत्तर-
(ख) बिहार का राज्यपाल

प्रश्न 11.
बिहार विधान मंडल के कितने सदन हैं ?
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर-
(ख) दो

प्रश्न 12.
बिहार विधान परिषद् में वर्तमान में कितने सदस्य हैं ?
(क) 75
(ख) 60
(ग) 40
(घ) 36
उत्तर-
(क) 75

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प्रश्न 13.
विधानसभा के मनोनीत सदस्यों को छोड़कर बाकी सदस्यों का चुनाव किस प्रकार होता है ?
(क) अप्रत्यक्ष मतदान द्वारा
(ख) प्रत्यक्ष मतदान द्वारा
(ग) एकल विधि
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख) प्रत्यक्ष मतदान द्वारा

प्रश्न 14.
विधान सभा का कार्यकाल कितने वर्षों का होता है ?
(क) 3 वर्ष
(ख) 4 वर्ष
(ग) 5 वर्ष
(घ) 6 वर्ष
उत्तर-
(ग) 5 वर्ष

प्रश्न 15.
न्यायाधीशों की नियुक्ति किसके द्वारा होती है ?
(क) मुख्य न्यायाधीश द्वारा
(ख) राष्ट्रपति द्वारा
(ग) मुख्यमंत्री द्वारा
(घ) प्रधानमंत्री द्वारा
उत्तर-
(ख) राष्ट्रपति द्वारा

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प्रश्न 16.
पटना उच्च न्यायालय की स्थापना हुई थी ?
(क) 1 मार्च, 1910 ई०
(ख) 1 मार्च, 1912 ई०
(ग) 1 मार्च, 1914 ई०
(घ) 1 मार्च, 1916 ई०
उत्तर-
(घ) 1 मार्च, 1916 ई०

प्रश्न 17.
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के अवकाश प्राप्त करने की उम्र निम्नलिखित में से क्या है ?
(क) 62 वर्ष
(ख) 60 वर्ष
(ग) 65 वर्ष
(घ) 70 वर्ष
उत्तर-
(क) 62 वर्ष

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प्रश्न 18.
भारत का राष्ट्रपति जटिल कानूनी मामलों पर किससे परामर्श ले सकता है ?
(क) कानून मंत्री से
(ख) प्रधानमंत्री से
(ग) उपराष्ट्रपति से
(घ) सर्वोच्च न्यायालय से
उत्तर-
(घ) सर्वोच्च न्यायालय से

प्रश्न 19.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय किसका निरीक्षण कर सकता है ? .
(क) अपने अधीनस्थ न्यायालयों का
(ख) संसद का
(ग) लोकसेवा आयोग का
(घ) सेना का
उत्तर-
(क) अपने अधीनस्थ न्यायालयों का

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प्रश्न 20.
राष्ट्रपति का चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशी को कितने रुपये जमानत की राशि जमा करनी होती है ?
(क) 10,000
(ख) 12,000
(ग) 14,000
(घ)15,000
उत्तर-
(घ)15,000

प्रश्न 21.
राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ रहे व्यक्ति के नाम को कितने मतदाताओं द्वारा प्रस्तावित होना चाहिए?
(क) 50
(ख) 60
(ग) 70
(घ) 100
उत्तर-
(क) 50

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प्रश्न 22.
बाबू जगजीवन राम कब उपप्रधानमंत्री बने थे ?
(क) 1947 ई. में
(ख)1950 ई. में
(ग) 1960 ई० में
(घ) 1978 ई० में
उत्तर-
(घ) 1978 ई० में

प्रश्न 23.
लालकृष्ण आडवानी कब उप प्रधानमंत्री बने थे ?
(क) 1947 ई. में
(ख) 1978 ई. में
(ग) 2002 ई. में
(घ) 2006 ई. में
उत्तर-
(ग) 2002 ई. में

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प्रश्न 24.
लोकसभा को कहा जाता है ?
(क) प्रथम सदन
(ख) द्वितीय सदन
(ग) उच्च सदन
(घ) तृतीय सदन
उत्तर-
(क) प्रथम सदन

प्रश्न 25.
लोकसभा और विधानसभा के कुल स्थानों की संख्या कब तक
परिवर्तन नहीं किया जायेगा?
(क) 2015 तक
(ख) 2020 तक
(ग) 2025 तक
(घ) 2026 तक
उत्तर-
(घ) 2026 तक

प्रश्न 26.
राज्य सभा की कार्यवाही चलाने के लिए इसमें कुल सदस्यों के कितने भाग की उपस्थिति अनिवार्य होती है ?
(क) 1/10 भाग
(ख) 1/12 भाग
(ग) 1/15 भाग
(घ) 1/20 भाग
उत्तर-
(क) 1/10 भाग

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प्रश्न 27.
पटना विश्वविद्यालय का कुलपति कौन है ?
(क) राज्यपाल
(ख) मुख्यमंत्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) मुख्य न्यायाधीश
उत्तर-
(क) राज्यपाल

रिक्त स्थान की पूर्ति करें

प्रश्न 1.
शासन के कार्यकारी स्वरूप का निर्धारण व्यावहारिक रूप में …………………. द्वारा होता है।
उत्तर-
कार्यपालिका

प्रश्न 2.
केन्द्र सरकार ………………… महत्व के विषयों पर निर्णय लेती है।
उत्तर-
सर्वदेशीय

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प्रश्न 3.
राज्य सरकार ……………….. महत्व के विषयों पर निर्णय लेती है।
उत्तर-
स्थानीय

प्रश्न 4.
आधुनिक देशों में विभिन्न कार्य करने के लिए विभिन्न …………………. होती है।

प्रश्न 5.
……………….प्रधानमंत्री की सलाह से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करते हैं।
उत्तर-
राष्ट्रपति

प्रश्न 6.
राज्य में …………………….. कानून बनाता है।
उत्तर-
विधायिका

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प्रश्न 7.
लोकसभा…………..का प्रतिनिधि है।
जनता

प्रश्न 8.
इंगलैंड में संसद को ……………….. कहते हैं।
उत्तर-
हाउस ऑफ कौमन्स

प्रश्न 9.
अमेरिका में संसद को …………………. कहते हैं।
उत्तर-
प्रतिनिधिसभा

प्रश्न 10.
कानून बनाने हेतु जो प्रस्ताव तैयार किया जाता है उसे ………………… कहते
उत्तर-
विधेयक

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प्रश्न 11.
संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री का अधिकार इतना अधिक बढ़ गया है कि इसे ……………….. व्यवस्था कहा जाने लगा है।
उत्तर-
प्रधानमंत्रीय शासन

प्रश्न 12.
भारत में ……… व्यवस्था है।
उत्तर-
संघीय शासन

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प्रश्न 13.
राज्य में ………………. कार्यपालिका का प्रधान होता है।
उत्तर-
मुख्यमंत्री

प्रश्न 14.
राज्यपाल विधानमंडल के दोनों सदनों के ………………. में भाषण देते हैं।
उत्तर-
संयुक्त अधिवेशन

प्रश्न 15.
राज्यपाल के भाषण को ………………. कहा जाता है।
उत्तर-
अभिभाषण

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प्रश्न 16.
राष्ट्रपति शासन होने पर राज्यपाल केन्द्र के ……………….  के रूप में कार्य – करते हैं।
उत्तर-
एजेंट

प्रश्न 17.
राज्यपाल मुख्यमंत्री की ……………….  से सारा कार्य करते हैं। उत्तर-सलाह
उत्तर-
संस्थाएँ

प्रश्न 18.
भारतीय न्यायपालिका में पूरे देश के लिए ………………. . है।
उत्तर-
सर्वोच्च न्यायालय

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प्रश्न 19.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति ……………….  करते हैं।
उत्तर-
राष्ट्रपति

प्रश्न 20.
भारत का सर्वोच्च न्यायालय को ………………. बनाया गया है।
उत्तर-
स्वतंत्र और निष्पक्ष

प्रश्न 21.
फाँसी के सजा की माफी का अधिकार केवल ……………….  की है।
उत्तर-
राष्ट्रपति

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प्रश्न 22.
ग्राम कचहरी को………………. की सजा देने का अधिकार प्राप्त है।
उत्तर-
एक माह

प्रश्न 23.
राष्ट्रपति के चुनाव के लिए जन्मजात और ……………….  में भेदभाव नहीं किये जाने का प्रावधान है।
उत्तर-
राज्यकृत

प्रश्न 24.
राष्ट्रपति चुनाव लड़ रहे व्यक्ति का 50 मतदाताओं द्वारा ……………….  होना चाहिए।
उत्तर-
अनुमोदित

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प्रश्न 25.
संसद और विधान सभा के मनोनित सदस्य राष्ट्रपति के ………………………….. में भाग नहीं लेंगे।
उत्तर-
चुनाव

प्रश्न 26.
संसद और विधान सभा के मनोनित सदस्य राष्ट्रपति को ……………………की प्रक्रिया में अवश्य भाग लेंगे।
उत्तर-
हटाने

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प्रश्न 27.
सर्वोच्च न्यायालय वह संस्था है, जहाँ नागरिक और सरकार के बीच ………………. सुलझाये जाते हैं।
उत्तर-
विवाद अंततः

प्रश्न 28.
नीतिगत फैसले कार्यपालिका जनता के ………………… . में लेती है।
उत्तर-
हित

प्रश्न 29.
राज्य स्तर पर विधान मंडल …………………. .कहलाती है।
उत्तर-
विधानसभा

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प्रश्न 30.
अध्यक्षीय शासन का उदाहरण ………………. है।
उत्तर-
संयुक्त राज्य अमेरिका

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय सरकार के अधीन कार्य करनेवाली महत्वपूर्ण संस्थाओं का नाम लिखें।
उत्तर-
तीन संस्थाएँ हैं- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका ।

प्रश्न 2.
भारतीय संसद के कितने सदन हैं ?
उत्तर-
भारतीय संसद के दो सदन हैं- लोकसभा तथा राज्य सभा ।

प्रश्न 3.
राज्य सभा के सदस्य कितने वर्ष के लिए चुने जाते हैं ?
उत्तर-
छः वर्ष के लिए चुने जाते हैं।

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प्रश्न 4.
उपराष्ट्रपति का कार्यकाल कितने साल का होता है ?
उत्तर-
5 वर्ष ।

प्रश्न 5.
राज्यसभा का सभापति कौन होता है ?
उत्तर-
उपराष्ट्रपति ।

प्रश्न 6.
प्रधानमंत्री की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति ।

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प्रश्न 7.
लोकसभा में सदस्यों की कुल संख्या कितनी है ?
उत्तर-
वर्तमान समय में 545 है।

प्रश्न 8.
मंडल आयोग का गठन कब हुआ?
उत्तर-
सन् 1979 ई० में।

प्रश्न 9.
मंडल आयोग के अध्यक्ष कौन थे ?
उत्तर-
श्री बी.पी. मंडल ।

प्रश्न 10.
संघीय कार्यपालिका का प्रधान कौन होता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति ।

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प्रश्न 11.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है ? .
उत्तर-
राष्ट्रपति ।

प्रश्न 12.
केन्द्र में किसके हस्ताक्षर के बाद कानून बन जाता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति के ।

प्रश्न 13.
राज्य की कार्यपालिका शक्ति का वास्तविक प्रधान कौन होता है ?
उत्तर-
मुख्यमंत्री।

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प्रश्न 14.
सबसे निचले स्तर पर कौन-सा न्यायालय होता है ?
उत्तर-
ग्राम कचहरी ।।

प्रश्न 15.
विधेयक कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर-
दो प्रकार के-(i) सामान्य विधेयक (ii) धन विधेयक ।

प्रश्न 16.
पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरी में कितना प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है ?
उत्तर-
27%।

प्रश्न 17.
पिछड़े वर्गों के लिए 27% का आरक्षण कानून कब बना?
उत्तर-
13 अगस्त, 1990 ई. को।

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प्रश्न 18.
भारत के वर्तमान राष्ट्रपति का नाम बताएँ।
उत्तर-
श्रीमती प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ।

प्रश्न 19.
बिहार के मुख्यमंत्री का नाम बताएँ।
उत्तर-
श्री नीतिश कुमार ।

प्रश्न 20.
विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक कानून कब बनता है ?
उत्तर-
राज्यपाल की स्वीकृति के बाद ।

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प्रश्न 21.
बिहार में सरकार के खिलाफ अविश्वास या काम रोको प्रस्ताव किस सदन में उठाया जाएगा?
उत्तर-
सिर्फ विधानसभा में ।

प्रश्न 22.
विधान का उच्च सदन कौन है ?
उत्तर-
विधान परिषद ।

प्रश्न 23.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश को समय से पहले कैसे हटाया जा सकता है ?
उत्तर-
महाभियोग प्रस्ताव के द्वारा ।

प्रश्न 24.
किस प्रकार के मुकदमों को सीधे उच्च न्यायालय में ले जाया जा सकता है ?
उत्तर-
मौलिक अधिकारों से संबंधित।

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प्रश्न 25.
क्या भारत में राज्यसभा में सभी राज्यों का समान प्रतिनिधित्व है ?
उत्तर-
नहीं, ऐसा होता ही नहीं है।

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
संघीय संसद की रचना लिखें।
उत्तर-
संघीय संसद में राष्ट्रपति, लोकसभा और राज्यसभा शामिल हैं । लोकसभा के सदस्यों की संख्या 552 हो सकती है। पर, आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इनमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और दो राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत सदस्य हैं। राज्य सभा सदन का ऊपरी सदन है जो जनता का प्रतिनिधित्व न करके राज्यों का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें अधिकतम संख्या 250 हो सकती है पर इसमें 245 सदस्य हैं जिनमें 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत हैं।

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प्रश्न 2.
सरकार के अधीन कार्य करनेवाली संस्थाओं के नाम लिखें । इसमें कार्यपालिका के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
सरकार के अधीन कार्य करनेवाली तीन महत्वपूर्ण संस्थाएँ हैं-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका । इन तीनों के द्वारा ही शासन के सम्पूर्ण कार्यों का संचालन होता है । लेकिन शासन के कार्यकारी स्वरूप का निर्धारण व्यावहारिक रूप से कार्यपालिका द्वारा होता है । इसके द्वारा किए जाने वाले कार्य-

  • प्रशासकीय कार्य
  • नियुक्ति संबंधी कार्य
  • विधायिनी कार्य
  • सैनिक कार्य ।

प्रश्न 3.
संसद की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर-
निम्नलिखित बातों को लेकर इसकी आवश्यकता है

  • कानून बनाने के लिए ।
  • सरकार पर नियंत्रण रखने के लिए।
  • सार्वजनिक धन पर नियंत्रण रखने के लिए ।
  • लोगों के प्रतिनिधियों को एक मंच प्रदान करने के लिए संसद की आवश्यकता होती

प्रश्न 4.
नीतिगत फैसला क्या है ?
उत्तर-
केन्द्र सरकार के कार्य पद्धति को सर्वोच्च समझकर लिया गया फैसला ही नीतिगत फैसला है।

  • नीतिगत फैसला कार्यपालिका लेती है।
  • नीतिगत फैसले कार्यपालिका जनता के हित में लेती है।
  • नीति निर्धारण के क्रम में कार्यपालिका संसद की अनदेखी नहीं कर सकती है।

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प्रश्न 5.
संसदीय शासन-प्रणाली किसे कहते हैं ?
उत्तर-
कार्यपालिका एवं व्यवस्थापिका के सहयोग पर सरकार आधारित है। इस प्रणाली में कार्यपालिका का प्रधान नाममात्र का होता है। . वास्तविक शक्ति व्यवस्थापिका में बहुमत प्राप्त दल के नेता के हाथों में – होती है। वह अपने कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होता है। भारत का राष्ट्रपति नाममात्र का कार्यपालिका का प्रधान होता है, वास्तविक शक्ति प्रधानमंत्री के हाथों में होती है ।

प्रश्न 6.
अध्यक्षात्मक सरकार किसे कहते हैं, उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर-
लोकतांत्रिक सरकार का दूसरा रूप अध्यक्षात्मक सरकार है । इसमें राज्य और सरकार का वास्तविक प्रधान राष्ट्रपति होता है। इस प्रणाली में राष्ट्रपति कार्यपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होता । अमेरिका में अध्यक्षात्मक सरकार है। संयुक्त राज्य अमेरिका का राष्ट्रपति कार्यपालिका का सर्वेसर्वा होता है । विधायिका उसे समय के पूर्व हटा नहीं सकती है ।

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प्रश्न 7.
कार्यपालिका कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर-
कार्यपालिका दो तरह की होती है।
(i) राजनैतिक कार्यपालिका (ii) स्थायी कार्यपालिका

(i) राजनैतिक कार्यपालिका में ही शासन की वास्तविक शक्ति छिपी हुई है। राजनैतिक कार्यपालिका जनता के प्रतिनिधि के रूप में जनता की ओर से शासन करती है । इसका कार्यकाल निश्चित अवधि के लिए होता है । अथवा लोकसभा में बहुमत रहने तक दायित्व संभाले रहता है ।
(ii) स्थायी कार्यपालिका ऐसे उच्च पदाधिकारियों की फौज है जो , विभिन्न स्तर पर सरकार के नीति निर्धारण में परामर्श देती है एवं निर्देशानुसार नीति के स्वरूप को अमली जामा पहनाती है। इसका कार्यकाल पदस्थापित अधिकारियों के अवकाश ग्रहण करने तक बना रहता है।

प्रश्न 8.
राष्ट्रपति पद के निर्वाचन के लिए योग्यताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
भारत के राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए योग्यताओं का वर्णन संविधान में किया गया है। ये योग्यताएँ इस प्रकार हैं-

  • वह भारत का नागरिक हो ।
  • वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो ।
  • वह लोकसभा के लिए सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो ।
  • किसी लाभवाले पद पर कार्यरत न हो।

प्रश्न 9.
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव कैसे होता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति का निर्वाचन अप्रत्यक्ष रूप से एक निर्वाचन मंडल द्वारा होता है, जिसमें दो तरह के सदस्य होते हैं-

  • भारतीय संसद के दोनों सदनों लोकसभा और राज्यसभा के निर्वाचित सदस्य।
  • राज्य के विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य ।

राष्ट्रपति का निर्वाचन एकल संक्रमणीय मत प्रणाली (Single Transferable Vote System) द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व के अनुसार होता है। राष्ट्रपति के चुनाव में एक सदस्य एक मत वाली विधि नहीं अपनाई गई है। वैसे एक मतदाता को केवल एक ही मत मिलता है, लेकिन उसके मत की गणना नहीं होती बल्कि उसका मूल्यांकन होता है।

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प्रश्न 10.
राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने तथा उसे पद से हटाने के लिए संविधान में कौन-सी प्रक्रिया दी गयी है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति को पाँच वर्ष के लिए चुना जाता है; परंतु यदि कोई राष्ट्रपति अपनी शक्तियों के प्रयोग में संविधान का उल्लंघन करे तो पाँच वर्ष से पहले भी उसे अपने पद से हटाया जा सकता है। उसे महाभियांग द्वारा अपदस्थ किया जा सकता है । एक सदन राष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाता है। यदि दूसरा सदन 2/3 बहुमत से उन आरोपों की पुष्टि कर दे तो राष्ट्रपति को उसी दिन पद त्यागना पड़ेगा। जब तक दूसरा सदन राष्ट्रपति को हटाये जाने का प्रस्ताव पास नहीं करता, उस समय तक राष्ट्रपति अपने पद पर आसीन रहता है।

प्रश्न 11.
उपराष्ट्रपति का निर्वाचन कैसे होता है ? उनके किन्हीं तीन अधिकारों का वर्णन करें।
उत्तर-
उपराष्ट्रपति का चुनाव 5 वर्ष के लिए होता है । उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा गठित एक निर्वाचक मंडल द्वारा एकल संक्रमणीय मतविधि से आनुपातिक प्रतिनिधित्व के आधार पर होता है।

इनके तीन अधिकार निम्नलिखित हैं –

  • राज्य सभा की बैठक का सभापतित्व करना।
  • राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में राष्ट्रपति का कार्यभार संभालना।
  • राज्यसभा में मत समानता की स्थिति में निर्णायक मत देना ।
  • जब राष्ट्रपति का पद रिक्त हो जाता है तब वैसी स्थिति में नव-नियुक्त राष्ट्रपति के पद ग्रहण करने तक वह राष्ट्रपति का पद सम्भालता है।

प्रश्न 12.
बिहार विधान परिषद् का गठन कैसे होता है ?
उत्तर-
यह विधानमंडल का दूसरा सदन है। यह एक स्थायी सदन है। विधान परिषद के सदस्यों की संख्या कम-से-कम 40 एवं अधिकतम संख्या उस राज्य की विधान सभा के सदस्यों की कुल संख्या की एक-तिहाई तक हो सकती है। वर्तमान में बिहार विधानपरिषद में 75 सदस्य हैं । विधान परिषद् के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली से होता है।

  • एक-तिहाई सदस्य राज्य की विधानसभा सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं।
  • एक-तिहाई सदस्य राज्य के स्थानीय निकायों के सदस्यों द्वारा चुने जाते हैं।
  • 1/2 सदस्य राज्य के माध्यमिक एवं उच्च शिक्षण संस्थानों के अध्यापकों द्वारा।
  • 1/2 सदस्य स्नातकों द्वारा चुने जाते हैं।
  • 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत होते हैं।

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प्रश्न 13.
बिहार विधानसभा का गठन किस प्रकार होता है ?
उत्तर-
विधानसभा विधान मंडल का निम्न सदन है । विधानसभा का गठन जनता द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली द्वारा हाता है। निर्वाचन वयस्क मताधिकार के आधार पर होता है । संपूर्ण राज्य को कई विधानसभा क्षेत्रों में बाँट दिया जाता है तथा प्रत्येक क्षेत्र से एक-एक उम्मीदवार निर्वाचित होते हैं। बिहार विधानसभा में कुल 243 सदस्य हैं। बिहार विधान सभा जनता की प्रतिनिधि सभा है । संविधान के अनुसार राज्य में विधानसभा के सदस्यों की संख्या अधिक-से-अधिक 500 तथा कम-से-कम 50 हो सकती है।

राज्य में रहनेवाले प्रत्येक नागरिक जिसकी आयु 18 वर्ष या उससे अधिक हो, विधान सभा के चुनाव में हिस्सा ले सकता है। प्रत्येक विधानसभा में अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित रखा जाता है । चुनाव लड़ने वाले व्यक्ति भारत का नागरिक हो तथा 25 वर्ष की आयु पूरा कर चुका हो । बिहार विधानसभा में अनुसूचित जातियों के लिए 39 स्थान सुरक्षित हैं पर अनुसूचित जनजातियों के लिए स्थान सुरक्षित नहीं है, क्योंकि यहाँ उनकी आबादी नगण्य है।

प्रश्न 14.
प्रधानमंत्री का निर्वाचन कैसे होता है ?
उत्तर-
संविधान की धारा 74 में अंकित है कि राष्ट्रपति के कार्यों में सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी, जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा। प्रधानमंत्री की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है । राष्ट्रपति लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल के नेता को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त करता है । लोकसभा में अगर किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है, उस परिस्थिति में वह संयुक्त संसदीय दल के नेता को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त करता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मंडल आयोग क्या है ? उसने क्या सिफारिशें की ? उसका परिणाम क्या हुआ?
उत्तर-
मंडल आयोग की स्थापना जनता पार्टी की सरकार ने 1979 ई. में की थी । इसके अध्यक्ष श्री वी. पी. मंडल थे। इस आयोग का कार्य सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों की पहचान करना तथा उनके विकास के लिए सुझाव देना था, मंडल आयोग ने 31 दिसम्बर, 1980 को अपनी रिपोर्ट सरकार को प्रस्तुत की। मंडल आयोग ने निम्नलिखित सिफारिशें की –

(i) सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्ग के लिए 27% आरक्षण होना चाहिए।
(ii) अन्य पिछड़े वर्गों के कल्याण के लिए बनाए गए कार्यक्रम के लिए धन, केन्द्र सरकार को देना चाहिए ।

1989 ई० का लोकसभा चुनाव हुआ। चुनाव के बाद जनता दल की सरकार बनी । प्रधानमंत्री श्री वी. पी. सिंह ने संसद में राष्ट्रपति भाषण के जरिए मंडल रिपोर्ट लागू करने की अपनी मंशा की घोषणा को। तब जाकर 6 अगस्त, 1990 ई. को केन्द्रीय कैबिनेट की बैठक में एक औपचारिक निर्णय लिया गया । केन्द्रीय सरकार की तरफ से इस पर स्वीकृति दे दी गई और 13 अगस्त, 1990 ई. में संयुक्त सचिव के हस्ताक्षर से कानून निर्गत हुआ। देशभर में इसका काफी विरोध हुआ। इस निर्णय के विरुद्ध कई अदालतों में मुकदमें दायर किये गये । निर्णय को अवैध घोषित करने की मांग हुई। परन्तु भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इन सभी मुकदमों को एक साथ जोड़ दिया और मुकदमें को ‘इंदिरा साहनी एवं अन्य बनाम भारत सरकार मामला’ कहा । कोर्ट के 11 सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों ने दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद 1992 ई. में फैसला दिया कि पिछड़े वर्ग में अच्छी स्थिति वाले लोगों को इस आरक्षण से वंचित करते हुए मंडल आयोग को वैध ठहराया। उसी के मुताबिक 8 सितम्बर 1993 ई. को कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय ने एक आदेश जारी किया । यह विवाद सुलझ गया और तभी से इस नीति पर अमल किया जा रहा है।

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प्रश्न 2.
संसद की शक्तियों तथा कार्यों का वर्णन करें ।
उत्तर-
भारतीय संसद संघ की विधानपालिका है और संघ की सभी विधायिनी शक्तियाँ उसे प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त उसे और भी कई शक्तियाँ प्राप्त हैं। संसद को निम्नलिखित शक्तियाँ दी गई हैं-

  •  विधायिनी शक्तियाँ-इसका मुख्य कार्य है कानून बनाना ।
  • वित्तीय शक्तियाँ-संसद राष्ट्र के धन पर नियंत्रण रखती है । वित्तीय वर्ष के आरम्भ होने से पहले बजट संसद में पेश किया जाता है ।
  • कार्यपालिका पर नियंत्रण-संसद हर कार्य के लिए उत्तरदायी है।
  • राष्ट्रीय नीतियों का कार्यान्वयन कार्यान्वयन करना भी संसद का एक महत्वपूर्ण कार्य है।
  • संवैधानिक शक्तियाँ संविधान संशोधन का भी अधिकार इस प्राप्त है।
  • विकास संबंधी कार्य-आधुनिक काल में सरकार का स्वरूप लोक कल्याणकारी हो गया है । इसका उद्देश्य केवल जनता की जानमाल की रक्षा ही नहीं बल्कि सर्वांगीण विकास है । जैसे-सड़कें बनवाना, रोशनी की व्यवस्था करना, सिंचाई की व्यवस्था, विद्यालयों, महाविद्यालयों की स्थापना करना, आवास के लिए भवनों का निर्माण कराना, अस्पताल की व्यवस्था करना, सफाई पर ध्यान देना इत्यादि ।

प्रश्न 3.
संसदीय और अध्यक्षात्मक शासन में क्या अंन्तर है ? स्पष्ट करें।
उत्तर-
संसदीय शासन और अध्यक्षात्मक शासन में निम्नलिखित अंतर हैं-

  • संसदीय शासन में कार्यपालिका प्रधान नाममात्र का संविधानिक प्रधान होता है। अध्यात्मक शासन देश का प्रधान कार्यपालिका का ही प्रधान नहीं होता वरन राष्ट्र का भी वास्तविक प्रधान होता है।
  • संसदीय शासन का आधार शक्तियों का संयोग है। इसके विपरीत अध्यक्षात्मक शासन का आधार पृथक्करण का सिद्धान्त है ।
  • संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका एवं विधायिका में घनिष्ठ संबंध है। अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका और विधायिका एक दूसरे से पृथक और स्वतंत्र है।
  • संसदीय शासन में कार्यपालिका विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी
    अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी नहीं होता।
  • संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका पर विधायिका का नियंत्रण होता है और वह उसके प्रति उत्तरदायी भी रहता है। अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका पर विधायिका का नियंत्रण नहीं होता।
  • संसदीय शासन में कार्यपालिका और विधायिका के बीच संघर्ष की संभावना नहीं रहती। अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका और विधायिका के बीच संघर्ष की सम्भावना रहती है । अध्यक्षात्मक शासन में कार्यपालिका और विधायिका में संघर्ष का वातावरण हमेशा बना रहता है।
  • संसदीय शासन में मंत्रिमंडल के सदस्य विधानमंडल के प्रति उत्तरदाीय होते हैं क्योंकि वे विधानमंडल के सदस्य होते हैं । अध्यक्षात्मक शासन में मंत्रिमंडल के सदस्य राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

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प्रश्न 4.
संघीय सरकार किसे कहते हैं ? इसके गुण-दोषों का वर्णन करें।
उत्तर-
संघीय शासन वह पद्धति है जिसमें समस्त शासकीय शक्ति केन्द्रीय सरकार तथा उन विभिन्न राज्यों या क्षेत्रीय उपविभागों की सरकारों के बीच बँटी रहती है जिसे मिलाकर संघ बनता है।

संघीय सरकार के निम्नलिखित गुण हैं-

  • राष्ट्रीय एकता में वृद्धि-इसका निर्माण अनेक इकाइयों के सहयोग से होता है; इसलिए विभिन्न इकाइयाँ पारस्परिक एकता के सूत्र में बँध जाती हैं।
  • क्षेत्रीय स्वतंत्रता-संघीय शासन से केवल राष्ट्रीय एकता में ही वृद्धि नहीं होती बल्कि विभिन्न इकाइयों तथा राज्यों की स्वतंत्रता एवं समानता भी कायम रहती है।
  • जन जागरूकता-संघीय शासन प्रणाली में शक्ति विकेन्द्रित रहती है इसलिए जनता को शासन में भाग लेने का अधिक समय मिलता है। इससे जनता अपने सामाजिक एवं राजनीतिक अधिकारों से परिचित रहती है।
  • उत्तरदायी पूर्ण शासन-संघीय शासन में अधिकारों का विभाजन केन्द्र तथा विभिन्न इकाइयों में रहता है। इसलिए केन्द्र तथा इकाइयाँ अपने-अपने दायित्व के अनुसार शासन के प्रति उत्तरदायी रहता है।
  • आर्थिक दृष्टि से उपयोगी-संघीय शासन प्रणाली आर्थिक दृष्टि से उपयोगी होता है क्योंकि केन्द्र तथा विभिन्न राज्यों को अपने आर्थिक साधनों में वृद्धि करने का समान अवसर मिलता है।
  • कुशल प्रशासन–संघीय शासन में अधिकारों का स्पष्ट विभाजन हो जाता है। इसमें प्रशासन की कार्य-कुशलता में वृद्धि हो जाती है।
  • प्रजातांत्रिक मूल्यों की रक्षा-संघीय शासन प्रणाली का सबसे बड़ा गुण है कि यह प्रजातात्रिक मूल्यों की रक्षा करता है।

संघीय शासन व्यवस्था के दोष-

(i) प्रधानमंत्री शासन व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र में प्रधानमंत्री का अधिकार हाल के दशकों में इतना अधिक बढ़ गया है कि संसदीय लोकतंत्र को कभी-कभी प्रधानमंत्रीय शासन व्यवस्था कहा जाने लगा है क्योंकि प्रधानमंत्री के पास सारे अधिकार सीमित रहने की प्रवृत्ति देखी गयी है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ढेर सारे अधिकारों का इस्तेमाल किया । इन्दिरा गाँधी काफी प्रभावशाली प्रधानमंत्री थीं।

(ii) एकता का अभाव-बहमत नहीं मिलने पर गठबंधन सरकार का निर्माण होता है। गठबंधन सरकार का प्रधानमंत्री अपने मर्जी से फैसले नहीं कर सकता। गठबंधन के साझीदारों की राय भी माननी पड़ती है क्योंकि उन्हीं के समर्थन के आधार पर सरकार टिके होती है। हाल के ताजा उदाहरण डा. मनमोहन सिंह के सरकार पर संकट तब हुआ जब एंटमी करार पर वामदल ने मनमोहन सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।

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प्रश्न 5.
राष्ट्रपति के अधिकार एवं कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान के अनुसार राष्ट्रपति भारतीय संघ का प्रधान होता है। उनकी शक्तियाँ एवं कार्य निम्न हैं

(i) कार्यपालिका संबंधी अधिकार-राष्ट्रपति संघीय कार्यपालिका का प्रधान होता है। शासन. का सारा कार्य उन्हीं के नाम से होता है। कार्यपालिका के क्षेत्र में उसे निम्न अधिकार प्राप्त है-

(क) राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है, तथा प्रधानमंत्री की सलाह से अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है तथा उनके बीच कार्यों का बँटवारा करता है।
(ख) प्रधानमंत्री की सलाह से ही राज्यपाल, सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, चुनाव आयुक्त, राजदूतों, महालेखा परीक्षक, संघीय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति करता है।
(ग) सेनाध्यक्षों की नियुक्ति राष्ट्रपति ही करते हैं।
(घ) राष्ट्रपति किसी देश के विरुद्ध युद्ध एवं शान्ति की घोषणा कर सकता है।
(ङ) भारतीय संघ के मुख्य कार्यपालक होने के नाते उसका दायित्व है कि वह सदैव प्रशासन पर निगरानी रखे।

(ii) विधायिका संबंधी कार्य-राष्ट्रपति को भारतीय संसद की बैठक बुलाने, स्थगित करने तथा लोकसभा भंग करने का अधिकार प्राप्त
राष्ट्रपति के प्रमुख कार्यों में अध्यादेश जारी करने का अधिकार है। राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों को संबोधित करते हैं, इसके अतिरिक्त वित्त आयोग की नियुक्ति, धनविधेयक की मंजूरी आदि महत्वपूर्ण कार्य हैं ।

(iii) वित्तीय अधिकार-वार्षिक बजट तैयार करने तथा वित्तमंत्री के माध्यम से संसद में प्रस्तुत कराने का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त है । कोई भी धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के बिना संसद में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। राज्यों के बीच वित्त वितरण का अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त है। .

(iv) न्यायसंबंधी अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करते हैं।
राष्ट्रपति किसी अपराधी के फाँसी की सजा को माफ या आजीवन कारावास की सजा में बदल सकते हैं।

(v) संकट कालीन अधिकार-भारतीय संविधान द्वारा राष्ट्रपति को कुछ संकटकालीन शक्तियाँ सौंपी गई हैं । ।

(क) युद्ध तथा बाहरी आक्रमण के समय राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकते हैं।
(ख) राज्यों में संवैधानिक विफलता पर ।
(ग) भारत में वित्तीय संकट उत्पन्न होने पर :
राष्ट्रपति के इस अधिकार का प्रयोग हमारे देश में 1962, 1971 एवं 1975 ई० में हुआ।

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प्रश्न 6.
प्रधानमंत्री के अधिकार और कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
संविधान की धारा 74 में उल्लेख है कि राष्ट्रपति के कार्यों ‘ में सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक मंत्री परिषद होगी जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होगा। प्रधानमंत्री के अधिकार एवं कार्य निम्नलिखित हैं

  • मंत्रीपरिषद् गठन करने का अधिकार-प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषद् का निर्माता, पालनकर्ता एवं विनाशकर्ता है। वह मंत्रियों की नियुक्ति करता है। उसकी इच्छा पर ही मंत्री मंत्री परिषद में बने रहते हैं।
  • वह मंत्रियों के बीच कार्यों का विभाजन करता है तथा उनके कार्यों पर निगरानी रखता है।
  • नीति निर्धारण का अधिकार-प्रधानमंत्री अपने सहयोगियों की सहायता से सरकार के लिए उच्चस्तरीय नीतियों का निर्धारण करता है ।
  • मंत्रीपरिषद और राष्ट्रपति के बीच की कड़ी-प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति के बीच कड़ी का काम करता है। मंत्री परिषद के निर्णय की सूचना प्रधानमंत्री राष्ट्रपति को देता है तथा राष्ट्रपति के विचारों से मंत्रिपरिषद को अवगत कराता है।
  • मध्यस्थता का कार्य-दो मंत्रियों या विभागों के बीच अगर किसी बात को लेकर मतभेद उत्पन्न होता है, तो उसे सुलझाने में प्रधानमंत्री मदद करता है।
  • संसद संबंधी कार्य-लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल का नेता होने के कारण प्रधानमंत्री का दायित्व बढ़ जाता है। वह लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। संसद में कार्यों का संचालन, समय निर्धारण इत्यादि में प्रधानमंत्री मुख्य भूमिका निभाता है।
  • नियुक्ति संबंधी अधिकार कार्यपालिका के क्षेत्र में जो अधिकार राष्ट्रपति को प्राप्त है, उसका वास्तविक रूप से उपयोग प्रधानमंत्री करते हैं।
  • वैदेशिक मामले संबंधी-यह अधिकार अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में प्रधानमंत्री महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है । इसमें प्रधानमंत्री अपने देश का प्रतिनिधित्व करता है।
  • संकटकालीन अधिकार-राष्ट्रपति को प्राप्त संकटकालीन अधिकारों का उपयोग प्रधानमंत्री ही करता है।

प्रश्न 7.
लोकसभा का गठन कैसे होता है ? इसके कार्य एवं अधिकारों का वर्णन करें।
उत्तर-
लोकसभा भारतीय जनता की प्रतिनिधि सभा है। इसके सदस्यों का निर्वाचन प्रत्येक 5 वर्ष पर वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष ढंग से होता है । यह जनता की ओर से असली प्रतिनिधि सभा है। इसमें सदस्यों की संख्या 552 तक हो सकती है जिनमें 530 सदस्य विभिन्न राज्यों से एवं 20 सदस्य केन्द्रशासित प्रदेशों से चुनकर आते हैं।

शेष 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं । अनुसूचित जातियों ” के लिए 84 तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए 47 स्थान सुरक्षित है। लोकसभा का सदस्य वही हो सकता है जो-

  • भारत का नागरिक हो।
  • जिसने 25 वर्ष की आयु पूरा कर लिया हो।

लोकसभा के कार्य एवं अधिकार

(i) विधायिका संबंधी कार्य-लोकसभा को उन सभी विषयों पर कानून बनाने का अधिकार है। वह संघ सूची, समवर्ती सूची तथा आवश्यकता पड़ने पर राज्य सूची पर भी नियम बनाता है।

(ii) वित्तीय अधिकार भारतीय संसद वित्त पर पूर्ण नियंत्रण रखती है। लोकसभा नये करों को लगाने, पुराने करों को कम करने अथवा हटाने की स्वीकृति प्रदान करती है। भारत का वित्तमंत्री प्रतिवर्ष आय-व्यय का लेखा संसद में पेश करता है। लोकसभा को यह अधिकार प्राप्त है कि खर्च की रकम कम कर दे या अस्वीकार कर दे।

(iii) कार्यपालिका संबंधी अधिकार-संसदीय प्रणाली में कार्यपालिका विधायिका का एक सहायक निकाय है, इसलिए कार्यपालिका को हमेशा विधायिका के नियंत्रण में काम करना पड़ता है। कार्यपालिका निम्नलिखित तरीके से मंत्रीपरिषद पर नियंत्रण रखती है- (क) अविश्वास प्रस्ताव द्वारा, (ख) प्रश्न द्वारा, (ग) पूरक प्रश्न द्वारा, (घ) सरकारी विधेयक द्वारा, (ङ) सरकारी विधेयक को अस्वीकृत करके, (च) आलोचना करके, (छ) निंदा प्रस्ताव के द्वारा ।।

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प्रश्न 8.
साधारण विधेयक को कानून बनने के पहले कितने चरणों से – गुजरना पड़ता है ? वर्णन करें।
उत्तर-
साधारण विधेयक को कानून बनने के पहले पाँच चरणों से गुजरना पड़ता है।
(i) प्रथम वाचन-साधारण विधेयक लोकसभा या राज्यसभा दोनों में से किसी एक सभा में उपस्थित किया जा सकता है। विधेयक उपस्थापित करनेवाले उस विधेयक के नाम और शीर्षक बताने के बाद विधेयक से संबंधित मुख्य बातों की चर्चा करते हैं।

(1) द्वितीय वाचन-इस स्तर पर यह तय होता है कि विधेयक को प्रवर समिति के पास विचार के लिए प्रस्तुत किया जाय अथवा जनमत हेतु इसे प्रस्तावित किया जाए । अथवा उस पर सदन से ही तुरंत विचार कर लिया जाय । इसमें संशोधन का सुझाव देती है।

(iii) तृतीय वाचन-तृतीय वाचन में विधेयक पर मतदान होता है। मतदान में बहुमत मिलने पर विधेयक पास समझा जाता है। तृतीय वाचन में विधेयक में कोई हेर-फेर नहीं किया जाता है।

(iv) दूसरे सदन में पेश करना-एक सदन में पारित होने के बाद विधेयक दूसरे सदन में प्रस्तुत किया जाता है। दूसरे सदन में भी विधेयक को उन्हीं सब स्तरों से गुजरना पड़ता है जैसे पहले सदन में गुजरा है। संयुक्त बैठक में बहुमत मिल जाता है क्योंकि लोकसभा में सदस्यों की संख्या अधिक होती है।

(v) राष्ट्रपति की स्वीकृति—दोनों सदनों से पारित विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, जिसका स्वीकृति मिलने के बाद विधेयक कानून बन जाता है। राष्ट्रपति चाहे तो विधेयक को संसद में पुन: विचार के लिए वापस कर सकते हैं । अगर संसद विधेयक की राष्ट्रपति के पास पुनः भेज देती है तो हस्ताक्षर करना अनिवार्य हो जाता है। इस तरह विधेयक कानून बन जाता है।

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प्रश्न 9.
राज्य सभा के गठन एवं कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
सदन के दो सदन हैं-लोकसभा और राज्यसभा । राज्य सभा को द्वितीय सदन भी कहते हैं।
गठन-यह सदन स्थायी सदन होता है। इसमें सदस्यों की संख्या 250 है। इसमें 238 सदस्य विभिन्न राज्यों के विधानसभा सदस्यों द्वारा निर्वाचित होते हैं तथा 12 सदस्य विभिन्न क्षेत्रों में अपनी विशिष्टता के आधार पर राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जाते हैं। राज्यसभा के सदस्यों की कार्य अवधि 6 साल की होती है। इसमें सदस्यों की उम्र सीमा कम-से-कम 30 साल का होना चाहिए तथा वह भारत का नागरिक हो तथा लोकसभा की सदस्यता की योग्यता रखता हो । राज्यसभा का पदेन अध्यक्ष उपराष्ट्रपति होते हैं । एक उपाध्यक्ष भी होते हैं जो उपराष्ट्रपति की अनुपस्थिति में सभा का संचालन करते हैं।

  • कार्यपालिका संबंधी-राज्यसभा सदस्य प्रश्न पूछकर, पूरक प्रश्न पूछकर, काम रोको प्रस्ताव पास कर यह सदन कार्यपालिका पर. नियंत्रण रखती है।
  • विधायिका संबंधी विधायिका संबंधी शक्तियाँ सीमित हैं। साधारण विधेयक राज्यसभा में प्रस्तुत किये जा सकते हैं । दोनों सदनों में मतभेद हो जाने पर राज्यसभा की उपेक्षा नहीं की जा सकती है। ऐसी हालत में दोनों सदनों की संयुक्त बैठक होती है, किन्तु संयुक्त बैठक में सदस्य संख्या कम होने के कारण वह बात स्वीकृत नहीं हो पाती; यह . एकमात्र रुकावट है।
  • वित्त संबंधी राष्ट्रपति की स्वीकृति से ही संसद में बजट पेश किया जाता है । धन-विधेयक को स्वीकृति प्रदान करना, वित्त आयोग की नियुक्ति करना भी राष्ट्रपति के महत्वपूर्ण कार्य हैं।

प्रश्न 10.
राज्यपाल की नियुक्ति किस प्रकार होती है ? उसके कार्य एवं अधिकारों का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर-
नियुक्ति-भारतीय संविधान के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति. राष्ट्रपति द्वारा होती है। राष्ट्रपति राज्यपाल की नियुक्ति केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से करता है, जिसमें प्रधानमंत्री की भूमिका अधिक रहती है। राज्यपाल की नियुक्ति के लिए आवश्यक है-

  • वह भारत का नागरिक हो
  • वह 35 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  • वह किसी विधानमंडल या संसद का सदस्य नहीं हो ।
  • वह किसी लाभ के पद पर न हो।

कार्य एवं अधिकार राज्य के निम्नलिखित कार्य एवं अधिकार हैं-

(i) कार्यपालिका संबंधी अधिकार राज्यपाल कार्यपालिका प्रधान होता है। इस कारण राज्य के सभी काम राज्यपाल के नाम होते हैं। राज्य के प्रमुख पदाधिकारियों की नियुक्ति करते हैं । राज्यपाल बहुमत दल के नेता को मुख्य मंत्री के पद पर नियुक्त करता है तथा मुख्यमंत्री की सलाह से मंत्री परिषद के अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है।

(ii) विधायिका संबंधी अधिकार-विधायिका क्षेत्र में निम्नलिखित अधिकार हैं

  • राज्यपाल ही राज्य विधानमंडल के दोनों सदनों की बैठक बुलाता है। वह विधान सभा को भंग भी कर सकता है।
  • राज्य सत्र के आरम्भ में विधानमंडल के दोनों सदनों को सम्बोधित करता है।
  • वह विधानपरिषद के 1/6 सदस्यों को मनोनीत करता है।
  • राज्यपाल के हस्ताक्षर के बिना कोई भी विधेयक कानून नहीं बन सकता।
  • धन विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति के बिना विधानसभा में पेश नहीं किया जा सकता है।

(iii) न्यायपालिका संबंधी अधिकार-उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति में राष्ट्रपति राज्यपाल से भी परामर्श लेता है। वह किसी
अपराधी की सजा को कम कर सकता है या माफ भी कर सकता है।

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प्रश्न 11.
मुख्यमंत्री की नियुक्ति कैसे होती है ? इसके अधिकार एवं कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
जो स्थान संघीय मंत्रिपरिषद् में प्रधानमंत्री का होता है, वही स्थान राज्यमंत्री परिषद में मुख्यमंत्री का होता है।
नियुक्ति- संविधान के अनुच्छेद 164 में कहा गया है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जायेगी लेकिन व्यवहार में राज्यपाल उसी व्यक्ति को मुख्य पद पर नियुक्त करता है जो विधानमंडल में बहुमत प्राप्त दल का नेता होता है। अगर किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होता है उस परिस्थिति में राज्यपाल संयुक्त दल के नेता को मुख्यमंत्री के पद पर नियुक्त करता है।

मुख्यमंत्री के अधिकार एवं कार्य-

  • मंत्रिमंडल का निर्माणमुख्यमंत्री ही मंत्रिमंडल का निर्माता होता है, राज्यपाल उस पर अपनी सहमति दे देते हैं और विभागों का बंटवारा भी मंत्रियों के बीच वही करता
  • मंत्रीपरिषदका अध्यक्ष-मुख्यमंत्री मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष होता है और मंत्रिपरिषद की बैठक का सभापतित्व करता है।
  • विधानसभा का नेतृत्व-बहुमत दल का नेता होने के कारण वह सदन का कुशल नेतृत्व भी करता है। सभी प्रशासनिक विभागों का निरीक्षण करता है तथा मंत्रियों के बीच किसी प्रकार का विवाद उत्पन्न होने पर मुख्यमंत्री उस विवाद का निपटारा कर अन्तिम निर्णय देता है।
  • नियुक्तियाँ-राज्यपाल एक औपचारिक प्रधान है। उसकी वास्तविक शक्ति का प्रयोग मुख्यमंत्री ही करता है। उसके कहने पर ही राज्यपाल किसी मंत्री को नियुक्त अथवा पदच्युत कर सकता है तथा विधान सभा को विघटित कर सकता है।
  • राज्यपाल एवं मंत्रिपरिषद के बीच एक कड़ी का काम मुख्यमंत्री करते हैं। वह राज्यपाल को मंत्रिपरिषद के सभी कार्यों की सूचना देता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि मुख्यमंत्री राज्य शासन का कप्तान है और राज्य मंत्रिमंडल में उसकी विशिष्ट स्थिति होती है।

प्रश्न 12.
विधानसभा के अधिकार और कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
विधानसभा राज्य विधान मंडल का प्रमुख सदन है। यह राज्य का प्रतिनिधि सभा है । इसके निम्नलिखित कार्य हैं

(i) विधान संबंधी अधिकार-विधान सभा कानून बनाने वाला प्रमुख सदन है। धन विधेयक तो सिर्फ विधान सभा में ही उपस्थापित किया जाता है। विधानसभा द्वारा पारित विधेयक पर विधान परिषद चार महीने के भीतर अपना अनुमोदन देने के लिए बाध्य है। चार महीना से अधिक विलम्ब होने पर विधेयक अपने आप पारित समझा जाता है। अतः विधि निर्माण में विधान सभा एक सशक्त सदन है।

(i) कार्यपालिका संबंधी अधिकार राज्य मंत्रिपरिषद अपने कार्यों के लिए विधान सभा के प्रति उत्तरदायी होता है। मंत्रिपरिषद को विधानसभा के सदस्य काम रोको प्रस्ताव एवं निंदा प्रस्ताव लाकर मंत्रिपरिषद को नियंत्रित रखती है।

(iii) वित्तीय शक्तियाँ-विधानसभा को राज्य के वित्त पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त है। वित्त विधेयक सबसे पहले विधानसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। वित्त विधेयक में अन्तिम निर्णय विधान सभा के अध्यक्ष ही दे सकता है। जहाँ तक विधान परिषद का अधिकार है वह वित्त विधेयक को 14 दिनों तक ही रोक कर रख सकती है। 14 दिनों के अन्दर वह वापस नहीं करती तो धन विधेयक अपने आप पारित समझा जाता है।

(iv) विविध अधिकार-विविध अधिकार निम्नलिखित हैं-

(क) राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेना
(ख) संवैधानिक संशोधन में सहयोग करना

इस प्रकार विधान मंडल एक लोकप्रिय तथा शक्तिशाली सदन है।

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प्रश्न 13.
विधान परिषद के अधिकारों एवं कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
विधान परिषद विधान सभा की अपेक्षा एक निर्बल सदन है।

इसके निम्नलिखित कार्य हैं-

(i) विधायिनी शक्तियाँ-धन विधेयक को छोड़कर अन्य विधेयक विधान परिषद में पेश किया जा सकता है। परंतु कोई भी विधेयक विधान सभा के सहमति के बिना पारित नहीं होता। अत: विधायनी शक्तियों नियः

(ii) वित्तीय शक्तियाँ-वित्तीय क्षेत्र में विधानपरिषद की स्थिति , केन्द्र सरकार के राज्यसभा की तरह है। धन विधेयक इस सभा में पेश ‘नहीं किया जाता है। विधानसभा में पारित होने के बाद धन विधयक विधानपरिषद में आता है। विधान परिषद अपनी सुझाव के साथ अधिक-से-अधिक 14 दिनों तक रख सकता हैं। 14 दिनों के अन्दर विधानसभा में लौटा देना पड़ता है नहीं तो विधेयक स्वतः पारित समझा जाता है।

(iii) प्रशासकीय अधिकार-विधान परिषद का कार्यकारिणी पर बहुत कम अधिकार है। विधान परिषद अविश्वास के द्वारा नहीं हटा सकता, सिर्फ आलोचना कर सकता है। वास्तव में विधान परिषद के पास नगण्य अधिकार है।

प्रश्न 14.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय का गठन कैसे होता है ? इसके क्षेत्राधिकार का वर्णन करें।’
उत्तर-
सर्वोच्च न्यायालय देश का सबसे बड़ा न्यायालय है। इसका गठन सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना 26 जनवरी 1950 को की गई और यह नई दिल्ली में स्थित है। वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की योग्यता निम्न है

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • कम से कम पाँच वर्ष किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश रह चुका हो या
  • कम से कम दस वर्ष किसी उच्च न्यायालय में वकालत कर” चुका हो या
  • राष्ट्रपति की राय में कानून का ज्ञाता हो ।

न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होता है। भारत में 65 वर्ष के उम्र तक सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद पर बने रहते हैं।

क्षेत्राधिकार-

  • प्रारंभिक क्षेत्राधिकार-इसमें दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य विवाद, केन्द्र एवं राज्यों के मध्य विवाद, मौलिक अधिकारों से संबंधित मुकदमें आदि सम्मिलित है।
  • अपीलीय अधिकार-सर्वोच्च न्यायालय को दीवानी एवं आपराधिक दोनों क्षेत्रों में अपीलीय क्षेत्राधिकार प्राप्त है । सर्वोच्च न्यायालय में कोई भी नागरिक अथवा राज्य सरकार उच्च न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध अपील कर सकता है।
  • परामर्श संबंधी अधिकार-सर्वोच्च न्यायालय को परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार भी प्राप्त है। राष्ट्रपति कानून के किसी प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय की राय ले सकते हैं, पर उस परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।
  • संविधान का रक्षक-नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा का दायित्व सर्वोच्च न्यायालय पर है । इसलिए वह संविधान का रक्षक है।
  • पुनर्विचार का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णयों पर पुनर्विचार करने का भी अधिकार है।
  • निरीक्षण का अधिकार सर्वोच्च न्यायालय राष्ट्रपति के पूर्वानुमति से न्यायालय के अधिकारियों के वेतन, भत्ते, छुट्टी, पेंशन और सेवा की अन्य शर्तों से संबंधित नियम बना सकता है।

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प्रश्न 15.
लोकसभा के अध्यक्ष का निर्वाचन कैसे होता है ? उसके अधिकार एवं कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर-
लोकसभा का एक अध्यक्ष एवं एक उपाध्यक्ष होता है, जिसका निर्वाचन लोकसभा सदस्य अपने में से ही करते हैं। अध्यक्ष लोकसभा की कार्यवाहियों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, और लोकसभा की कार्यवाहियों का संचालन करता है। इनका कार्यकाल सामान्यत: 5 वर्षों के लिए होता है । यह अपने पद पर तब तक बना रहता है जबतक कि नव-निर्वाचित लोकसभा अपने अध्यक्ष का चुनाव न कर ले।

लोकसभा के अध्यक्ष के कार्य एवं अधिकार निम्नलिखित हैं-

  • सभापतित्व करना लोकसभा का अध्यक्ष बैठक का सभापतित्व करता है.। सभापतित्व करते हुए सदन में शांति एवं अनुशासन बनाये रखना उसी का दायित्व है।
  • वाद-विवाद का समय निश्चित करना अध्यक्ष सदन के नेता से राय लेकर विभिन्न विषयों के संबंध में वाद-विवाद का समय निश्चित करता है।
  • काम रोको प्रस्ताव-किसी भी सार्वजनिक महत्व के प्रश्न पर काम रोको प्रस्ताव लोकसभा में पेश करने की आज्ञा अध्यक्ष द्वारा ही दी जाती है।
  • प्रवर समिति के अध्यक्षों की नियुक्ति-लोकसभा के अध्यक्ष _ही प्रवर समितियों के अध्यक्षों की नियुक्ति करता है।
  • बजट संबंधी भाषणों की सीमा निर्धारण करना—इसकी काल . सीमा का निर्धारण अध्यक्ष ही करता है।
  • अन्य अधिकार-सदन को स्थगित करने, राष्ट्रपति तथा लोकसभा का माध्यम होना, सदस्यों के विशेषाधिकारों की रक्षा करना, संसदीय कार्यवाही से आपत्तिजनक शब्दों को हटाने का आदेश देना, संसद के संयुक्त अधिवेशन की अध्यक्षता करना, तथा सभी विधेयकों का संचालन लोकसभा का अध्यक्ष ही करता है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 11 गंगा नदी

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Amrita Bhag 1 Chapter 11 गंगा नदी Text Book Questions and Answers, Summary.

BSEB Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 11 गंगा नदी

Bihar Board Class 6 Sanskrit गंगा नदी Text Book Questions and Answers

अभ्यासः

मौखिक:

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों का शुद्ध उच्चारण करें –

  1. गङ्गायाः – गङ्गायाम् – गङ्गया
  2. लतायाः – लतायाम् – लतया
  3. सीतायाः – सीतायाम् – सीतया
  4. अयोध्यायाः – अयोध्यायाम् – अयोध्यया
  5. गीतायाः – गीतायाम् – गीतया

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 11 गंगा नदी

(ख ) शब्द – द्वितीया – तृतीया – पंचमी

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 11 गंगा नदी 1

लिखितः

प्रश्न 2.
कोष्ठ में दिये गये शब्दों से तृतीया विभक्ति का रूप देकर रिक्त स्थानों को भरें

जैसे -सीता रामेण सह वनम् अगच्छत् (राम)

  1. मोहनः ……………… मह विद्यालय गच्छाति। (सोहन)
  2. लता …………….. सह वाटिकां गच्छति। (सीता)
  3. सीता …………. सह पुस्तक पठति। (गीता)
  4. रमेशः ………….. लिखांता कलम)
  5. मुकेशः …………….. सह खादति। (मित्र)

उत्तर-

  1. मोहनः सोहनेन सह विद्यालयं गच्छाति।
  2. लता सीतया सह वाटिका गच्छति।
  3. सीता गीतया सह पुस्तक पठति।
  4. रमेशः कलमेन लिखति।
  5. मुकेशः मिण सह खादति।

प्रश्न 3.
सुमेलित करें-

  1. कृषकः – (क) प्रवहति।
  2. छात्र – (ख) उपचारं करोति।
  3. चिकित्सकः – (ग) कृषिकार्य करोति।
  4. गङ्गा – (घ) भवनम्।
  5. विद्यालयस्य – (ङ) पठति।

उत्तर-

  1. कृषक: – (ग) कृषिकार्य करोति।
  2. छात्रः – (ङ) पठति।
  3. चिकित्सक – (ख) उपचारं करोति।
  4. गंगा – (क) प्रवहति ।
  5. विद्यालयस्य – (घ) भवनम्।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 11 गंगा नदी

प्रश्न 4.
मंजूषा में से सही शब्द चुनकर रिक्त स्थानों को भरें –

(सन्ति, बहूनि, पवित्रतमा, पातयन्ति गंगाजलम्, प्रभवति, गंगाजलेन)

  1. गंगा हिमालयात् ………. ।
  2. नदीषु गंगा …….. अस्ति।
  3. गंगातटे ………. नगराणि …….
  4. ……… जनाः पिबन्ति । ।
  5. ………. कृषि-भूमेः सेचनं भवति।
  6. जनाः मलजलानि गंगायां ………. ।

उत्तर-

  1. गंगा हिमालयात् प्रभवति ।
  2. नदीषु गंगा पवित्रतमा अस्ति।
  3. गंगातटे बहूनि नगराणि सन्ति।
  4. गंगाजलम् जनाः पिबन्ति ।
  5. गंगाजलेन कृषिभूमेः संचन भवति।
  6. जनाः मलजलानि गंगायां पातयन्ति।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित शब्दों का वर्ण-विच्छेद करें –
जैस – रामः – र् + आ + म् + अः

(गंगा हिमालयः, गोमुखम, नगरम्, भवति)
उत्तर-

  • गंगा- ग् + अं+ ग + आ।
  • हिमालयः-ह + इ + म् + आ + ल् + अ + य् + अः।
  • गोमुखम् – ग् + आ + म् + उ + ख् + अ + म्।
  • नगरम् – न् + अ + ग् + अ + र् + अ + म्। ।
  • भवति – भ् + अ + व् + अ + त् + इ।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 11 गंगा नदी

प्रश्न 6.
निम्नलिखित विषयों पर संस्कृत में पाँच-पाँच वाक्य लिखें –
हिमालयः, विद्यालयः, दीपावली
उत्तर-
हिमालयः –

हिमालयः पर्वतेषु उन्नततमः अस्ति। अयं भारतस्य उत्तरदिशायां अस्ति। हिमालयात् गंगा निःसरति। हिमालयः भारतस्य रक्षकः अस्ति। हिमालयस्य रक्षणे भारतस्य रक्षणम्।

विद्यालयः –

विद्यायाः आलयः विद्यालयः कथ्यते। विद्यालये छात्राः पठन्ति। विद्यालये शिक्षकाः पाठयन्ति। विद्यालये छात्रान् अनुशासनस्य पाठं पाठयति। विद्यालयः ज्ञानकेन्द्रः भवति।

दीपावली –

दीपावली हिन्दुनां प्रमुख पर्व भवति। अस्मिन् अवसरे जनाः स्व-स्व गृहं दीपैः सुसज्जितं कुर्वन्ति। जनाः लक्ष्मी-गणेशयोः पूजयन्ति। जनाः मिष्टानं वितरन्ति खादन्ति च। महिलाजनाः अल्पनां कुर्वन्ति।

प्रश्न 7.
उत्तराणि लिखतप्रश्न –

प्रश्न (क)
भारतस्य पवित्रमा नदी का ?
उत्तर-
भारतस्य पवित्रमा नदी गंगा ।

प्रश्न (ख)
गंगा कुतः प्रभवति ?
उत्तर-
गंगा हिमालयात् प्रभवति ।

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प्रश्न (ग)
अस्याः जलं कीदृशं भवति?
उत्तर-
अस्याः जलं पवित्रं भवति।

प्रश्न (घ)
शुभकार्येषु कस्याः जलस्य आवश्यकता भवति?
उत्तर-
शुभकार्येषु गंगायाः जलस्य आवश्यकता भवति ।

प्रश्न (ङ)
अधुना जनाः गंगाजलं किं कुर्वन्ति ?
उत्तर-
अधुना जनाः गंगाजलं प्रदूषितं कुर्वन्ति ।

Bihar Board Class 6 Sanskrit गंगा नदी Summary

पाठ – गङ्गा भारतवर्षस्य पवित्रतमा नदी वर्तते। इयं हिमालयस्य गोमुख स्थानात् प्रभवति। बंगोपसागरे गंगासागरनामिके स्थाने इयं सागरजले मिलति।

अर्थ – गंगा भारतवर्ष की अत्यन्त पवित्र नदी है। यह हिमालय के गोमुख स्थान से निकलती है। बंगाल की खाडी में गंगा सागर नामक स्थान पर यह समुद्र जल में मिलती है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 11 गंगा नदी

पाठ – गङ्गातटे बहूनि नगराणि सन्ति। अस्माकं बिहारस्य राजधानी पाटलिपुत्रमपि गङ्गायाः तटे स्थितम् अस्ति। गङ्गाजलम् अति पवित्रं भवति। अस्याः जलेन धार्मिक कार्यम् भवति । हिन्दूध विलम्बिनां सर्वेषु शुभकार्येषु गङ्गाजलस्य आवश्यकता

भवति। – गंगा तट पर बहुत नगर हैं। हमारे बिहार की राजधानी पटना भी गंगा के तट पर स्थित है। गंगा का जल बहुत पवित्र होता है। इसके जल से धार्मिक कार्य होता है। हिन्दू धर्म को मानने वालों के सभी शुभ कार्यों में गंगा जल की आवश्यकता होती

पाठ – गङ्गायाम् अनेकाः नद्यः मिलन्ति। तासु यमुना-सरयू गंडकी-कौशिकी प्रभृतयः सन्ति। गङ्गायाः तटे हरिद्वार-प्रयाग-काशी-प्रभृतीनि प्रसिद्ध तीर्थस्थानानि सन्ति। गङ्गाजलेन कृषिभूमेः सेचनं भवति।

अर्थ – गंगा में अनेक नदियाँ मिलती हैं। उनमें यमुना-सरयू-गंडकी, कौशिकी (कोसी) इत्यादि हैं। गंगा के तट पर हरिद्वार-प्रयाग-काशी इत्यादि प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल हैं। गंगा जल से कृषि भूमि की सिंचाई होती है।

पाठ – अधुना जनाः गङ्गाजलं प्रदूषितं कुर्वन्ति। गङ्गातटे स्थितानां नगराणां सर्वाणि मलजलानि गङ्गायां पातयन्ति। केचन मनुष्याणां पशूनाञ्च मृतशरीराणि नद्यां प्रवाहयन्ति। इदं न साधु कार्यम् अस्ति। नदीजले मलानां क्षेपणं वैज्ञानिकविचारेण धार्मिकविचारेण च न शोभनम्।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 11 गंगा नदी

अर्थ – आजकल लोग गंगाजल को गन्दा कर रहे हैं। गंगा किनारे स्थित शहरों के सभी गन्दे जल गंगा में गिराये जाते हैं। कुछ मनुष्यों के और पशुओं के मृत शरीरों को नदी में प्रवाहित किये (बहाये)जाते हैं। यह अच्छा काम नहीं है। नदी के जल में गन्दे वस्तुओं को फेंकना वैज्ञानिक-विचार और धार्मिक-विचार से अच्छा काम नहीं है।

शब्दार्थाः-भारतवर्षस्य – भारतवर्ष के। पवित्रतमा – अत्यन्त पवित्र। वर्त्तते – है। हिमालयस्य – हिमालय के। गोमुखस्थानात् – गोमुख स्थान से। प्रभवति – निकलती है/निकलता है। बंगोपसागरे – बंगाल की खाड़ी में। गंगासागरनामके – गंगासागर नामक (स्थान) में। स्थाने – स्थान में। गंगातटे – गंगा के किनारे पर। बहूनि – बहुत(अनेक)। नगराणि – नगरे। सन्ति – हैं। अस्माकम – हमारे। बिहारस्य – बिहार के। पाटलिपुत्रम् – पटना। अपि — भी। गङ्गायाः – गंगा के । तटे – तीर पर। स्थितम् – स्थित। अस्ति -. है। अति – बहुत। पवित्रम् – पवित्र/स्वच्छ। भवति – होता है। अस्याः – इसकी । जलेन – जल से। शास्त्रानुसारेण – शास्त्र के अनुसार।

हिन्दूध र्मावलम्बिना – हिन्दू धर्म के मानने वाले। धर्मावलम्बिनाम् – धर्म को मानने वाले । शुभकार्येषु – शुभ कामों में । सर्वेषु – सभी में। गंगायाम् – गंगा में। अनेकाः – अनेक। नद्यः – नदियाँ। मिलन्ति – मिलते हैं। तासु – उनमें। कौशिकी – कोशी। प्रभृतयः – इत्यादि। प्रभृतीनि – इत्यादि(नपु0 में)। कृषि भूमेः – कृषि भूमि का। सेचनम् – सिंचाई। अधुना – आजकल। प्रदूषितं – गन्दा। कुर्वन्ति – करते हैं। मलजलानि – गन्दे पानी को। पातयन्ति – गिराते हैं। मनुष्याणाम् – मनुष्यों के । पशूनाज्य – और पशुओं के। मृत शरीराणि – मरे शरीर को । प्रवाहयन्ति – प्रवाहित करते हैं/बहाते हैं। साधु -उत्तम। क्षेपणम् – फेंकना । वैज्ञानिक विचारेण – वैज्ञानिक विचार से । शोभनम् – अच्छा। न – नहीं।

व्याकरणम्

पवित्रतमा (स्त्री.), पवित्रतमः (पु.), पवित्रतमम् (नपु०) प्रभवति – प्र + भू + लट् लकार

व्याख्या : ‘भू’ धातु के लट् लकार में “भवति” रूप होता है जिसका अर्थ है- “होता है।” परंतु ‘प्र’ उपसर्ग लगने पर ‘प्रभवति’ शब्द का निर्माण होता है जिसका अर्थ है उत्पन्न होना। इसी प्रकार उपसर्ग लगने पर धातु का अर्थ बदल जाता है। बंग + उपसागरे -बंगोपसागरे । गंगाजलस्य + आवश्यकता – गंगाजलस्यावश्यकता। मिल् + लट् लकार – मिलति। अस् + लट् लकार – अस्ति। अस् + लट् लकार बहुवचन -सन्ति। कृ + लट् लकार, बहुवचन – कुर्वन्ति।

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प्रेरणार्थक क्रिया का प्रयोग 

सामान्य क्रिया और अर्थ – प्रेरणार्थक क्रिया एवं अर्थ एकवचन में बहुवचन में पतति (गिरता है)-पातयति (गिराता है)-पातयन्ति (गिराते हैं) पठति (पढ़ता है)-पाठयति (पढ़ाता है)-पाठयन्ति (पढ़ाते हैं) लिखति (लिखता है) लेखयति (लिखाता है)-लेखयन्ति (लिखवाते हैं) चलति (चलता है)चालयति (चलाता है)-चालयन्ति (चलाते हैं)

वाक्य प्रयोग –

  1. पत्ता गिरता है – पत्रम् पतति।
  2. बालक जल गिराता है – बालकः जलं पातयति।
  3. छात्र पढ़ता है – छात्रः पठति।
  4. शिक्षक पढ़ाते हैं – शिक्षकः पाठयति।
  5. वह लिखता है – सः लिखति।
  6. सीता पत्र लिखवाती है – सीता पत्रं लेखयति।
  7. हाथी चलता है – गजः चलति।
  8. वह साइकिल चलाता है – सः द्विचक्रीम चालयति।

Bihar Board Class 9 Political Science Solutions Chapter 4 चुनावी राजनीति

Bihar Board Class 9 Social Science Solutions Political Science राजनीति विज्ञान : लोकतांत्रिक राजनीति भाग 1 Chapter 4 चुनावी राजनीति Text Book Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Social Science Political Science Solutions Chapter 4 चुनावी राजनीति

Bihar Board Class 9 Political Science चुनावी राजनीति Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न

प्रश्न 1.
चुनाव का मतलब है
(क) पैसा कमाना
(ख) राजनीतिक प्रतिस्पर्धा
(ग) राजनीतिक खेल
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख) राजनीतिक प्रतिस्पर्धा

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प्रश्न 2.
लोकतांत्रिक देश में क्या नियमित होता है ?
(क) युद्ध
(ख) आपसी संघर्ष
(ग) चुनाव
(घ) खेती
उत्तर-
(ग) चुनाव

प्रश्न 3.
लोकसभा में सीटों की संख्या निम्नलिखित में से क्या है ?
(क) 500
(ख) 520
(ग) 525
(घ) 543
उत्तर-
(घ) 543

प्रश्न 4.
बिहार विधान सभा में विधायकों की सीटें हैं
(क) 243
(ख) 253
(गे) 250
(घ) 153
उत्तर-
(क) 243

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प्रश्न 5.
लोकसभा में अनुसूचित जन जातियों के लिए कितनी सीटें आरक्षित
(क) 60
(ख) 41
(ग) 40
(घ) 20
उत्तर-
(ख) 41

प्रश्न 6.
लोकसभा एवं विधान सभा के उम्मीदवार होने के लिए न्यूनतम आयु सीमा क्या है ?
(क) 20 वर्ष
(ख) 18 वर्ष
(ग) 21 वर्ष
(घ) 25 वर्ष
उत्तर-
(क) 20 वर्ष

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प्रश्न 7.
चुनावी मतदाता होने के लिए कम से कम आयु कितनी होनी’ चाहिए?
(क) 18 वर्ष
(ख) 21 वर्ष
(ग) 25 वर्ष
(घ) 30 वर्ष
उत्तर-
(क) 18 वर्ष

प्रश्न 8.
1971 ई० में कांग्रेस पार्टी ने चुनाव प्रचार में नारा दिया था.
(क) लोकतंत्र बचाओ
(ख) तेलगू स्वाभिमान
(ग) गरीबी हटाओ
(घ) अमीरी मिटाओ
उत्तर-
(ग) गरीबी हटाओ

प्रश्न 9.
1977 ई. में जनता पार्टी ने देशभर में नारा दिया था
(क) गरीबी मिटाओ
(ख) गरीबी हटाओ
(ग) अमीरी मिटाओ
(घ) लोकतंत्र बचाओ
उत्तर-
(घ) लोकतंत्र बचाओ

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प्रश्न 10.
एक विधान सभा का उम्मीदवार वैधानिक ढंग से अपने चुनाव अभियान में अधिकतम कितनी धनराशि खर्च कर सकता है ?
(क) 5 लाख
(ख) 10 लाख
(ग) 15 लाख
(घ) 20 लाख
उत्तर-
(ख) 10 लाख

प्रश्न 11.
एक लोकसभा का उम्मीदवार वैधानिक ढंग से अपने चुनाव अभियान में अधिकतम कितनी धनराशि खर्च कर सकता है ?
(क) 5 लाख
(ख) 8 लाख
(ग) 20 लाख
(घ) 25 लाख
उत्तर-
(घ) 25 लाख

प्रश्न 12.
लोकसभा के चुनाव हेतु सम्पूर्ण भारत को कितने निर्वाचन क्षेत्रों में बाँटा गया है ?
(क) 250
(ख) 324
(ग) 420
(घ) 543
उत्तर-
(क) 250

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प्रश्न 13.
चुनाव प्रचार में निम्नलिखित में से किस पर प्रतिबंध नहीं है ?
(क) धर्म के नाम पर प्रचार
(ख) सरकारी वाहन का प्रयोग
(ग) सरकार को नीतिगत फैसला करना
(घ) सीधा-सादा प्रचार
उत्तर-
(क) धर्म के नाम पर प्रचार

प्रश्न 14.
लोकसभा में अनुसूचित जातियों के लिए कितनी सीटें आरक्षित हैं ?
(क) 70
(ख) 72
(ग) 75
(घ) 79
उत्तर-
(घ) 79

प्रश्न 15.
बिहार विधानसभा में अनुसूचित जनजातियों के लिए कितनी सीटें आरक्षित हैं ?
(क) 5
(ख) 8
(ग) 0 (शून्य)
(घ) 10
उत्तर-
(घ) 10

रिक्त स्थान की पूर्ति करें :

प्रश्न 1.
राजनीतिक पार्टियों के बीच ………….. होता है।
उत्तर-
प्रतिस्पर्धा

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प्रश्न 2.
अगर प्रतिस्पर्धा नहीं रहे तो चुनाव ………….हो जायेंगे।
उत्तर-
बेमानी

प्रश्न 3.
नियमित अंतराल पर चुनावी मुकाबलों का लाभ ……………………….. और नेताओं को मिलता है।
उत्तर-
राजनीतिक दलों

प्रश्न 4.
लोकतांत्रिक चुनाव की यह विशेषता है कि हर वोट को ……………….. .. का आधार बनाया जाता है। ..
उत्तर-
मूल्य

प्रश्न 5.
निर्वाचन क्षेत्र परिसीमन के लिए जनसंख्या एवं …………………. …. का आधार बनाया जाता है।
उत्तर-
क्षेत्रफल

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प्रश्न 6.
महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर सिर्फ ………………. . चुनाव लड़ सकती
उत्तर-
महिलाएँ

प्रश्न 7.
भारत में चुनाव प्रचार के लिए आमतौर पर ……………… . का समय दिया जाता है।
उत्तर-
दो सप्ताह

प्रश्न 8.
…………….. में आन्ध्र प्रदेश में तेलगू स्वाभिमान का नारा दिया गया था।
उत्तर-
1983

प्रश्न 9.
……………. में झारखंड में ‘झारखंड बचाओ’ का नारा दिया गया था।
उत्तर-
2000

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प्रश्न 10.
भारतीय संविधान ने चुनावों की निष्पक्षता की जाँच के लिए स्वतंत्र चुनाव ………. का गठन किया है।
उत्तर-
आयोग

प्रश्न 11.
चुनाव आयोग को …………….. कहते हैं उत्तर-भारतीय निर्वाचन आयोग

प्रश्न 12.
चुनाव का स्वतंत्र और निष्पक्ष होने का आखिरी पैमाना उसके …………. हैं।
उत्तर-
नतीजे

प्रश्न 13.
नगर परिषद् से चुने गए प्रतिनिधियों को नगर …………….. कहते हैं।
उत्तर-
पार्षद

प्रश्न 14.
गाँवों में आप कहते सुनेंगे कि …………….. ने हमारे घरों को बाँट दिया है।
उत्तर-
पार्टी-पॉलिटिक्स

प्रश्न 15.
चुनाव के लिए राजनीतिक दल अपने उम्मीदवारों के नामों की ……………… करते हैं।
उत्तर-
घोषणा

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अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मताधिकार किसे कहते हैं ?
उत्तर-
राज्य की ओर से नागरिकों को जो मत देने का अधिकार दिया गया है उसे मताधिकार कहते हैं।

प्रश्न 2.
मतदान का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
निर्वाचन के समय कोई व्यक्ति उसमें भाग लेकर अपने मत का प्रयोग करते हैं उसे मतदान कहते हैं।

प्रश्न 3.
मतदाता किसे कहते हैं ?
उत्तर-
चुनाव में मतदान करनेवाले व्यक्ति को मतदाता कहते हैं।

प्रश्न 4.
चुनाव का प्रमुख उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-
जनता अपनी पसंद के प्रतिनिधियों का चुनाव करे।

प्रश्न 5.
चुनाव नियमित रूप से क्यों होना चाहिए?
उत्तर-
इसलिए ताकि मतदाताओं को अपनी पसंद के अनुसार प्रतिनिधियों का चुनाव करने का अवसर मिलता रहे।

प्रश्न 6.
चुनाव चिह्न का क्या महत्व होता है ? .
उत्तर-
भारत के अधिकांश मतदाता अनपढ़ हैं जिस कारण मतदाता चुनाव चिह्न को पहचान कर अपनी पसंद से मतदान कर सकें।

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प्रश्न 7.
लोकतांत्रिक देश में चुनाव से क्या अभिप्राय है ? ।
उत्तर-
लोकतांत्रिक देश में चुनाव वास्तव में लोकतंत्र का आधार है। चुनाव के द्वारा ही लोकतंत्र में प्रत्याशी चयनित किए जाते हैं।

प्रश्न 8.
मतदान केन्द्रों पर चुनाव सम्पन्न करने का उत्तरदायित्व किस पर होता है ?
उत्तर-
पीठासीन पदाधिकारी पर ।

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प्रश्न 9.
मतदाताओं की अंगुली पर एक अमिट स्याही क्यों लगा दी जाती है?
उत्तर-
ताकि वह दुबारा वोट न दे सके।

प्रश्न 10.
भारतीय चुनाव प्रणाली की एक विशेषता को लिखें।
उत्तर-
नियमित चुनाव प्रणाली ।

प्रश्न 11.
मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति कौन करता है ?
उत्तर-
राष्ट्रपति ।

प्रश्न 12.
भारत का चुनाव आयोग कैसा है ?
उत्तर-
काफी शक्तिशाली और स्वतंत्र ।

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प्रश्न 13.
किन लोगों को मताधिकार नहीं दिया गया है ?
उत्तर-
गंभीर प्रकार के अपराधी, पागल एवं दिवालिया को मताधिकार नहीं दिया गया।

प्रश्न 14.
निर्वाचन क्षेत्र क्या है ?
उत्तर-
एक खास भौगोलिक क्षेत्र जहाँ से मतदाता एक प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं।

प्रश्न 15.
आदर्श चुनाव आचार संहिता क्या है ?
उत्तर-
चुनाव की अधिसूचना के पश्चात् पार्टियाँ और उम्मीदवारों द्वारा अनिवार्य रूप से माने जाने वाले कायदे-कानून और दिशा-निर्देश को आचार संहिता कहते हैं।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में मतदाता की कौन-सी तीन योग्यताएँ होनी चाहिए ?
उत्तर-

  • वह भारत का नागरिक हो ।
  • उसकी आयु कम से कम 18 वर्ष होनी चाहिए।
  • मतदाता सूची में उसका नाम हो ।

प्रश्न 2.
भारत में संसदीय चुनाव के उम्मीदवार की कोई तीन योग्यताएँ बताएँ।
उत्तर-

  • वह भारत का नागरिक हो ।
  • उसकी आयु कम-से-कम 25 वर्ष होनी चाहिए और राज्य सभा का चुनाव लड़ने के लिए कम-से-कम उसकी उम्र 30 वर्ष होनी चाहिए।
  • गंभीर आपराधिक मामले उसके खिलाफ न चल रहे हों।

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प्रश्न 3.
चुनाव प्रणाली क्या है ?
उत्तर-
भारत एक लोकतांत्रिक देश है । यहाँ शासन का संचालन जनता के प्रतिनिधियों के द्वारा होता है। सर्वप्रथम जनता अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करती है, उसके बाद निर्वाचित प्रतिनिधि देश की संसद या राज्य के विधान मंडलों में पहुँचकर जनता की सेवा करते हैं। प्रतिनिधियों को चुनने के लिए जो संवैधानिक प्रणाली होती है उसे चुनाव प्रणाली कहते हैं।

प्रश्न 4.
चुनाव को आवश्यक क्यों माना गया है ?
उत्तर-
लोकतांत्रिक देश में यह जानने के लिए कि उनका प्रतिनिधि जो शासन चला रहे हैं, वे लोगों के अनुरूप शासन कर रहे हैं अथवा नहीं। ये प्रतिनिधि लोगों को पसंद है कि नहीं। इन्हीं बातों की जानकारी के लिए चुनाव आवश्यक है। इसके लिए ऐसी व्यवस्था की जरूरत है जिससे लोग नियमित अंतराल पर अपने प्रतिनिधियों को चुन सकें और इच्छानुसार उन्हें बदल सकें। इस व्यवस्था का नाम चुनाव है । इसलिए आज के समय में लोकतंत्र में चुनाव को जरूरी माना गया है।

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प्रश्न 5.
राजनैतिक प्रतिस्पर्धा से आमलोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर-
राजनैतिक प्रतिस्पर्धा नुकसानदायी है। हर गाँव घर में बँटवारे जैसी स्थिति पैदा हो जाती है। लोग आपस में बातचीत करते हुए कहते हैं कि ‘पार्टी पॉलिटिक्स’ ने हमारे घरों को बाँट दिया है। विभिन्न दलों के लोग एक दूसरे के खिलाफ आरोप लगाते हैं। चुनाव जीतने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं। चुनाव जीतने की होड़ में सही किस्म की राजनीति बलि चढ़ जाती है। इसका नतीजा यह होता है कि अच्छे लोग जो देश एवं समाज की राजनीति में सेवा भावना से आना चाहते हैं, उन्हें घोर निराशा होती है।

प्रश्न 6.
क्या हमारे देश में चुनाव लोकतांत्रिक है ?
उत्तर-
हमारे देश में चुनाव लोकतांत्रिक हैं। इसके निम्नलिखित प्रमाण हैं-

  • अपने देश में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हर पाँच साल बाद होते हैं। इस प्रकार जो प्रतिनिधि चुनकर जाते हैं, उनका कार्यकाल पाँच वर्षों का होता है ।
  • हर पाँच वर्षों बाद लोकसभा और विधान सभाएँ भंग हो जाती हैं ।
  • फिर सभी चुनाव क्षेत्रों में एक ही दिन अथवा एक छोटे अंतराल पर अलग-अलग दिन चुनाव होते हैं । इसे आम चुनाव कहते हैं।

इस प्रकार भारत में चुने हुए प्रतिनिधि ही शासन चलाते हैं और हर पाँच साल पर उन्हें चुनाव जीतना पड़ता है अन्यथा सत्ता हाथ से निकल जाती है। इस तरह यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को सिद्ध करता है।

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प्रश्न 7.
निर्वाचन क्षेत्र क्या है ? इसके निर्माण का क्या आधार है ?
उत्तर-
चुनाव के उद्देश्य से देश को जनसंख्या के हिसाब से कई क्षेत्रोंमें बाँट दिया जाता है। इन्हें निर्वाचन क्षेत्र कहा जाता है। एक क्षेत्र में रहने वाले मतदाता अपने एक प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं। जिस प्रकार बिहार में विधायक चुनने के लिए 243 निर्वाचन क्षेत्रों में बाँटा गया है, उसी प्रकार लोकसभा चुनाव के लिए देश को 543 निर्वाचन क्षेत्रों में बाँटा गया है। निर्वाचन क्षेत्र परिसीमन के लिए जनसंख्या एवं क्षेत्रफल को आधार बनाया जाता है। इस प्रकार एक खास भौगोलिक क्षेत्र जहाँ से मतदाता एक प्रतिनिधि का चुनाव करते हैं उसे ही निर्वाचन क्षेत्र कहते हैं।

प्रश्न 8.
संविधान निर्माताओं ने कमजोर वर्गों के लिए आरक्षित क्षेत्र की बात क्यों सोची?
उत्तर-
हमारे संविधान निर्माताओं ने कमजोर वर्गों के लिए आरक्षित क्षेत्र की विशेष व्यवस्था करने की बात सोची । हमारे संविधान निर्माता इस बात से चिंतित थे कि इस खुले मुकाबले में सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से कमजोर समूहों के लिए लोकसभा एवं विधान सभाओं में शायद नहीं पहुंच पायें । ऐसा इसलिए कि उनके पास चुनाव लड़ने और जीतने लायक जरूरी संसाधन, शिक्षा एवं संपर्क नहीं हो। यह भी संभव है कि संसाधन सम्पन्न एवं प्रतिभाशाली लोग उनको चुनाव जीतने से रोक भी सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो संसद एवं विधानसभाओं में एक बड़ी आबादी की आवाज पहुँच नहीं पायेगी । इससे हमारे लोकतांत्रिक व्यवस्था का स्वरूप कमजोर होगा और यह व्यवस्था कम लोकतांत्रिक होगी। इसलिए संविधान निर्माताओं ने ऐसा किया।

प्रश्न 9.
भारत में कौन ऐसा राज्य है जहाँ स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए आधी सीटें आरक्षित कर दी गयीं हैं ?
उत्तर-
सम्पूर्ण भारतवर्ष में बिहार पहला राज्य है जिसने महिलाओं को कमजोर समूह का हिस्सा मानते हुए उनके लिए पंचायतों, नगरपालिकाओं एवं नगर निगमों में आधी सीटें आरक्षित कर दिया है। इन आधी सीटों में कुछ सीटें अनुसूचित जातियों एवं पिछड़े वर्ग की महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर सिर्फ महिलाएँ चुनाव लड़ सकती हैं। इनमें सामान्य एवं पिछड़े वर्ग की सीटों के लिए उसी समूह की महिलाएँ चुनाव में उम्मीदवार हो सकती हैं।

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प्रश्न 10.
मतदाता सूची का क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-
लोकतांत्रिक चुनाव में मतदान की योग्यता रखने वालों की सूची चुनाव से काफी पहले तैयार कर ली जाती है और इसे सर्वसुलभ बना दिया जाता है। इस सूची को आधारित रूप से मतदाता सूची कहते हैं, इसे ही ‘वोटर लिस्ट’ भी कहते हैं। मतदाता सूची का निर्माण एक महत्वपूर्ण कार्य है। इसके बिना चुनाव संभव नहीं।

प्रश्न 11.
चुनाव आयोग ने मतदाताओं की सही पहचान के लिए कितने प्रकार के पहचानों को वैध माना है ?
उत्तर-
चुनाव आयोग ने पहचान के तौर पर 14 प्रकार के पहचानों की वैद्यता स्वीकार की है। जैसे मतदाता का राशन कार्ड, बिजली बिल, ड्राइविंग लाइसेंस, टेलीफोन बिल, पैन कार्ड आदि । पिछले कुछ वर्षों से चुनावों में फोटो पहचान पत्र की व्यवस्था लागू की गई है । फोटो पहचान कार्य अभी भी जारी है।

प्रश्न 12.
चुनाव का प्रमुख उद्देश्य क्या है ?
उत्तर-
चुनाव का प्रमुख उद्देश्य यह होता है कि लोग अपनी पसंद के प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकें। सरकार बनाने में सहभागी बन सकें। इसके लिए जरूरी है कि लोग जानें कि कौन प्रतिनिधि बेहतर है, कौन पार्टी अच्छी सरकार देगी या किसकी नीति कल्याणकारी है ।

प्रश्न 13.
वे कौन-कौन से ऐसे प्रतिबंधित कार्य हैं जिन्हें चुनाव के समय उम्मीदवार या पार्टी नहीं कर सकती ? अथवा, किस स्थिति में चुनाव रद्द घोषित हो सकता है ?
उत्तर-
निम्नलिखित कार्य प्रतिबंधित हैं

  • मतदाताओं को प्रलोभन देना, घूस देना या धमकी देना।
  • चुनाव अभियान में सरकारी संसाधनों जैसे-सरकारी गाड़ियों का प्रयोग।
  • लोकसभा चुनाव में एक निर्वाचन क्षेत्र में 25 लाख और विधानसभा चुनाव में 10 लाख रुपये से ज्यादा खर्च आदि ।

कोई भी उम्मीदवार इनमें से किसी मामले में दोषी पाए जायेंगे तो उनका चुनाव रद्द घोषित हो सकता है।

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प्रश्न 14.
चुनाव के समय ‘आदर्श-आचार संहिता’ लागू होती है। वह क्या है?
उत्तर-
कुछ कानूनों के अतिरिक्त राजनीतिक दलों को चुनाव प्रचार में ‘आदर्श-आचार संहिता’ लाग होती है जिसे स्वीकार करना पड़ता है। वे निम्नलिखित हैं

  • चुनाव प्रचार के लिए किसी धर्म अथवा धर्मस्थल का उपयोम नहीं करना ।
  • सरकारी वाहन, विमान अथवा सरकारी कर्मियों का चुनाव में उपयोग नहीं करना।
  • चुनाव की अधिसूचना के बाद सरकार के द्वारा किसी बड़ी योजना का शिलान्यास अथवा कोई नीतिगत फैसला, लोगों को सुविधाएँ देने वाले वायदे नहीं किये जा सकते हैं।

प्रश्न 15.
चुनाव घोषणा पत्र क्या है ?
उत्तर-
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि प्रत्येक उम्मीदवार को अपने बारे में कुछ ब्यौरे देते हुए घोषणा करनी होगी। प्रत्येक उम्मीदवार को इन मामलों के सारे विवरण देने होते हैं

  • उम्मीदवार के खिलाफ चल रहे गंभीर आपराधिक मामले ।
  • उम्मीदवार और उसके परिवार के सदस्यों की सम्पत्ति और सभी देनदारियों का ब्यौरा।
  • उम्मीदवार की शैक्षिक योग्यता ।

प्रश्न 16.
चुनाव अभियान पर अपना विचार व्यक्त करें।
उत्तर-
चुनाव अभियान निर्वाचन प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। चुनाव की तिथि की घोषणा हो जाने के साथ ही चुनाव अभियान आरम्भ हो जाता है । अपने देश में चुनाव प्रसार के लिए आम तौर पर दो सप्ताह का समय दिया जाता है। यह समय चुनाव अधिकारी तथा उम्मीदवारों के अंतिम सूची और मतदान के तिथि के बीच का होता है। इस अंतराल में उम्मीदवार लोगों से व्यक्तिगत सम्पर्क करते हैं, छोटी-छोटी सभाएँ करते हैं, अखबारों एवं टी.वी. चैनलों द्वारा विभिन्न राजनीतिक दल चुनाव प्रचार करते हैं । चुनाव अभियान में राजनीतिक दल किसी-न-किसी मोहक नारे द्वारा लोगों को आकर्षित करते हैं। जैसे 1971 ई. में काँग्रेस पार्टी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया था । 1977 ई० में जनता पार्टी ने देश भर में लोकतंत्र बचाओ’ का नारा दिया था। इस तरह उम्मीदवारों का चुनाव अभियान चलता है।

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प्रश्न 17.
चुनाव में प्रयोग होनेवाले मशीन का क्या नाम है ? यह कैसे कार्य करता है?
उत्तर-
मतदान को और अधिक पारदर्शी बनाने के लिए एक मशीन का प्रयोग किया जाता है जिसे ‘इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन’ कहा जाता है। मशीन के ऊपर उम्मीदवार के नाम और उनके चुनाव चिह्न बने होते हैं । मतदाता को जिस उम्मीदवार को वोट देना होता है उसके चुनाव चिह्न के आगे बने बटन को एक बार दबा देना होता है।

प्रश्न 18.
मत-पत्र क्या होता है ?
उत्तर-
चुनाव के समय चुनाव केन्द्र पर मतदाताओं को मत देने के लिए एक मतपत्र दिया जाता है जिस पर सभी उम्मीदवारों के नाम के साथ चुनाव चिह्न भी अंकित रहता है जिस पर वे अपनी पसंद के उम्मीदवार को अपना मोहर लगाते हैं । अब मतपत्र के स्थान पर ‘इलेक्ट्रॉनिक वाटिंग मशीन’ का प्रयोग होता है।

प्रश्न 19.
मतदान केन्द्र के चुनाव अधिकारी एवं पीठासीन पदाधिकारी के कार्यों का परिचय दीजिए।
उत्तर-
चुनाव अधिकारी को चुनाव आयुक्त द्वारा नियुक्त किया जाता है । मतदान केन्द्र पर चुनाव को सम्पन्न करने के लिए सरकार द्वारा इनकी नियुक्ति होती है। जब मतदाता केन्द्र पर जाता है तो चुनाव अधिकारी उसे पहचान कर उसकी अंगुली पर एक अमिट स्याही लगा देता है ताकि वह दुबारा मत डालने न आ सके । मतदान की समाप्ति पर सभी बैलेट.बॉक्सों अथवा वोटिंग मशीनों का सील बंद कर चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित एवं सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया

जाता है । फिर एक निश्चित एवं घोषित तारीख को मतों की गिनती शुरु की जाती है।

प्रश्न 20.
भारत में चुनाव परिणामों को स्वीकार करने की बाध्यता है । क्यों ?
उत्तर-
भारत में चुनाव निष्पक्ष और स्वतंत्र ढंग से होता है। लोग चुनावी नतीजों को स्वीकार करने की मूल बाध्यता है या मूल पैमाना है। बड़े-बड़े नेता भी चुनाव हार जाते हैं। 2009 में रामविलास पासवान जैसे दिग्गज नेता भी चुनाव हार गए। यही लोकतंत्र का तकाजा है । निर्वाचन आयोग के सशक्त पर्यवेक्षक, राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय मीडिया भी चुनाव परिणामों की वैधता पर कड़ी नजर रखते हैं। यही कारण है कि चुनाव परिणाम घोषित होने पर उम्मीदवार उसे स्वीकार कर लेता है, यह संवैधानिक बाध्यता भी है।

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प्रश्न 21.
‘री-पोलिंग’ किसे कहते हैं ?
उत्तर-
चुनाव आयोग द्वारा यह बात भी महत्वपूर्ण है कि अगर चुनाव अधिकारी किसी मतदान केन्द्र पर या पूरे चुनाव क्षेत्र में मतदान ठीक ढंग .. से नहीं होने के पुख्ता प्रमाण देते हैं तो वहाँ ‘री पोलिंग’ का पुनर्मतदान होता है।

प्रश्न 22.
भारतीय चुनाव में भागीदारी पर एक टिप्पणी लिखें।
उत्तर-
चुनाव में लोगों की भागीदारी का पैमाना अक्सर मतदान करनेवालों के आँकड़ों को बनाया जाता है। इससे पता लग जाता है कि मतदान की योग्यता रखनेवाले कितने मतदाताओं ने वास्तविक मतदान किया। पिछले 50 वर्षों में जहाँ यूरोप, उत्तरी अमरीका के लोकतांत्रिक देशों में मतदान का प्रतिशत गिरा है, वही भारत में या तो स्थिर रहा है अथवा ऊपर गया है।
भारत में अमीर एवं बड़े लोगों की तुलना में गरीब, निरक्षर और – कमजोर लोग अधिक संख्या में मतदान करते हैं। जबकि अमरीका में
गरीब लोग, अफ्रीकी मूल के लोग अमीर एवं श्वेत लोगों की तुलना में काफी कम मतदान करते हैं।

प्रश्न 23.
उप चुनाव क्या है ?
उत्तर-
जब किसी सदस्य की मृत्यु या इस्तीफे के कारण संसहीय या विधान सभा क्षेत्र खाली होता है तो उसे भरने के लिए पुनः मतदान होता है। इस प्रकार के चुनाव को उप चुनाव कहते हैं।

प्रश्न 24.
मध्यावधि चुनाव क्या है ?
उत्तर-
कभी-कभी सरकार अल्पमत के कारण लोकसभा या विधानसभा में विश्वासमत हासिल करने में विफल हो जाती हैं, तब वैसी स्थिति में मध्यावधि चुनाव होता है। ऐसी स्थिति में यह मध्यावधि चुनाव आम चुनाव बन जाता है।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
चुनाव को लोकतांत्रिक मानने के क्या आधार हैं ?
उत्तर-
लोकतांत्रिक चुनावों के लिए कुछ जरूरी न्यूनतम शर्ते हैं। वे निम्नलिखित हैं –

  • सभी को मत देने का अधिकार हो और सभी के मत का समान मूल्य हो।
  • चुनाव में विकल्प की गुंजाइश हो । पार्टियों और उम्मीदवारों को चुनाव में भाग लेने की आजादी हो और वें मतदाताओं के लिए विकल्प पेश करें।
  • चुनाव का अवसर नियमित अंतराल पर मिलता रहे ।
  • चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष ढंग से सम्पन्न हो ताकि लोग अपनी इच्छा से उम्मीदवार का चुनाव कर सकें।

ये शर्ते सरल लगती हैं, लेकिन दुनिया में ऐसे अनेक देश हैं जहाँ के चुनावों में इन न्यूनतम शर्तों को पूरा नहीं किया जाता । भारत में इन शर्तों को पूरा किया जाता है। अतः यहाँ का चुनाव लोकतांत्रिक है।

प्रश्न 2.
राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का क्या अर्थ है ?
उत्तर-
चुनाव प्रतिस्पर्धा का खेल है। चुनाव के समय में विभिन्न दलों के उम्मीदवार एवं नेता अपने दल या अपनी सरकार की नीतियों का जमकर प्रचार-प्रसार करते हैं । विभिन्न प्रकार के लुभावने नारे भी देते हैं

ताकि आम जनता प्रभावित हो। जनता उसी को अपना नेता चुनती है जिनसे कल्याण की अपेक्षा की जाती है, जिसमें लोगों की सेवा करने वाले राजनेताओं को जीत मिले तथा ऐसा नहीं करने वालों को हार मिले इस का फैसला जनता करती है। चुनावी प्रतिस्पर्धा का ग्रही वास्तविक अर्थ है । नियमित अंतराल पर चुनावी मुकाबलों का लाभ राजनीतिक दलों को मिलता है। इससे इन्हें यह भी पता चलता है कि अगर नेताओं ने लोगों की समस्याओं के समाधान में रुचि नहीं दिखाई तो लोग उन्हें स्वीकार नहीं करेंगे और लोग उन्हें पराजित कर देंगे। वैसे नेता चुनाव जीत जाते हैं जो आम समस्या से अधिक व्यक्तियों को खुश रखने में विश्वास रखते हैं।
लेकिन राजनीतिक प्रतिस्पर्धा सिर्फ चुनाव के लिए नहीं बल्कि लोकतंत्र के लिए भी हितकर है।

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प्रश्न 3.
भारत में चुनाव कितना लोकतांत्रिक है ? स्पष्ट करें।
उत्तर-
चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद चुनाव में गड़बड़ियों की सूचना मिलती है। अगर ये गड़बड़ियाँ चुनाव में पाई जाती हैं तो उस चुनाव को लोकतांत्रिक नहीं कहेंगे।
कुछ गड़बड़ियाँ इस प्रकार हैं-

  • मतदाता सूची में फर्जी नाम डालने और वास्तविक नामों को गायब करने का मामला ।
  • मतदाताओं को डराना और फर्जी मतदान करना ।
  • सत्ताधारी दल द्वारा सरकारी सुविधाओं, धन, बल और अधिकारियों के दुरुपयोग।
  • मतदान पूर्व मतदाताओं के बीच जाति व धर्म के नाम पर अफवाहें फैलाना या उनके बीच धन वितरित करना ।

चुनाव लोकतांत्रिक तभी होगा जब उपर्युक्त गड़बड़ियाँ न हों। इसके लिए निम्नलिखित शर्तों को पूरा करना जरूरी है –

  • प्रत्येक मतदाता का मत बराबर हो ।
  • प्रत्येक वयस्क नागरिक को वोट देने का अधिकार हो।
  • चुनाव निश्चित अंतराल पर हो ।
  • चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हो ।

अतः स्पष्ट है कि किसी चुनाव को लोकतांत्रिक तभी कहा जाएगा जब वे उपर्युक्त शर्तों का पालन करें।

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प्रश्न 4.
चुनाव आयोग के महत्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर-
भारतीय संविधान ने चुनावों की निष्पक्षता की जाँच के लिए एक स्वतंत्र चुनाव आयोग का गठन किया है। जिसे ‘भारतीय निर्वाचन आयोग’ कहते हैं। इसके मुख्य चुनाव आयोग की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति करते हैं। इन्हें कार्यकाल के पहले कोई सरकार हटा नहीं सकती
दुनिया के शायद ही किसी चुनाव आयोग को भारत के चुनाव आयोग जितने अधिकार प्राप्त हैं। इनके अधिकार और कार्य इस प्रकार हैं

  • मतदाता सूचियों को तैयार करना-चुनाव आयोग का महत्वपूर्ण कार्य संसद तथा राज्य विधानमंडलों के चुनाव के लिए मतदाता सूची तैयार करना है।
  • चुनाव के लिए तिथि निश्चित करना-चुनाव आयोग विभिन्न चुनाव क्षेत्रों में चुनाव करवाने की तिथि निश्चित करता है । नामांकन पत्रों के दाखिले की अंतिम तिथि तथा नामांकन पत्रों की जाँच करने की तिथि घोषित करता है।
  • चुनाव का निरीक्षण, निर्देशन तथा नियंत्रण-उपर्युक्त तीनों अधिकार चुनाव आयोग को प्राप्त हैं।
  • चुनाव में तैनात अधिकारी सरकार के नियंत्रण में नहीं होते बल्कि निर्वाचन आयोग के अधीन कार्य करते हैं।
  • चुनाव क्षेत्र में मतदान ठीक ढंग से नहीं होने के पुख्ता प्रमाण देते ही वहाँ पुनर्मतदान होता है, यह अधिकार चुनाव आयोग का हैं।
  • चुनाव आयोग लगातार चुनाव सुधारों के काम में लगा हुआ है और लोगों की कठिनाइयों एवं चुनावी धांधलियों पर नियंत्रण रखने के लिए नये-नये उपाय कर रहा है । अब फोटो पहचान पत्र बनाने का कार्य अनवरत चल रहा है।

प्रश्न 5.
निर्वाचन आयोग ने बिहार विधान सभा के गठन (2005 ई.) की क्या अधिसूचना जारी की थी?
उत्तर-
बिहार में सन् 2005 ई. के आम चुनावों में आयोग काफी सक्रिय था। निर्वाचन आयोग ने बिहार विधान सभा के गठन की निम्नलिखित अधिसूचना जारी की

  • चुनाव में मतदान के लिए फोटो पहचान पत्र अनिवार्य है।
  • चुनाव आयोग ने सरकार के मंत्री को आदर्श चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के लिए दोषी करार दिया।
  • निर्वाचन आयोग ने चुनाव खर्च पर नकेल कसी।
  • राजनीतिक विज्ञापनों पर सेंसर अथवा रोक ।
  • चुनाव के गुप्त खर्च पर चुनाव आयोग की नजर ।
  • माननीय न्यायालय ने चुनाव आयोग से अपराधी उम्मीदवारों के चुनाव लड़ने पर नकेल कसने को कहा।
  • चुनाव आयोग ने चुनाव के ऐन मौके पर जिले के कलेक्टर, एस.पी. को बदला ।

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प्रश्न 6.
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करवाने के लिए चुनाव आयोग को कौन-कौन से उचित कदम उठाने चाहिए?
उत्तर-
स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयाग का निम्नलिखित कदम उठाने चाहिए

  • निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए चुनाव आयोग को ईमानदार तथा निष्पक्ष व्यक्तियों की नियुक्ति करनी चाहिए ।
  • आदर्श आचार संहिता को सख्ती से लागू करना चाहिए।
  • शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए पुलिस और सेना की सहायता लेनी चाहिए ताकि मतदाता निडर होकर अपने मत का प्रयोग कर सकें।
  • चुनाव मूचियों की तैयारी व जाँच में सावधानी बरती जानी चाहिए।
  • फर्जी मतदान पत्रों पर रोक लगनी चाहिए।
  • चुनाव आयोग द्वारा जनता में मताधिकार के महत्व का प्रसार किया जाना चाहिए ताकि अधिक-से-अधिक मतदाता मतदान में भाग ले सकें।

Bihar Board Class 9 Economics Solutions Chapter 5 कृषि, खाद्यान सुरक्षा एवं गुणवत्ता

Bihar Board Class 9 Social Science Solutions Economics अर्थशास्त्र : हमारी अर्थव्यवस्था भाग 1 Chapter 5 कृषि, खाद्यान सुरक्षा एवं गुणवत्ता Text Book Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Social Science Economics Solutions Chapter 5 कृषि, खाद्यान सुरक्षा एवं गुणवत्ता

Bihar Board Class 9 Economics कृषि, खाद्यान सुरक्षा एवं गुणवत्ता Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
बिहारवासियों के जीवन निर्वाह का मुख्य साधन है ?
(क) उद्योग
(ख) व्यापार
(ग) कृषि
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ग) कृषि

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प्रश्न 2.
राज्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण सिंचाई साधन हैं ?
(क) कुएँ एवं नलकूप
(ख) नहरें
(ग) तालाब
(घ) नदी
उत्तर-
(क) कुएँ एवं नलकूप

प्रश्न 3.
बाढ़ से राज्य में बर्बादी होती है ?
(क) फसल की
(ख) मनुष्य एवं मवेशी की
(ग) आवास की
(घ) इन सभी की
उत्तर-
(घ) इन सभी की

प्रश्न 4.
अकाल से राज्य में बर्बादी होती है ?
(क) खाद्यान्न फसल
(ख) मनुष्य एवं मवेशी की
(ग) उद्योग
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क) खाद्यान्न फसल

Bihar Board Class 9 Economics Solutions Chapter 5 कृषि, खाद्यान सुरक्षा एवं गुणवत्ता

प्रश्न 5.
शीतकालीन कृषि किसे कहा जाता है ?
(क) भदई
(ख) खरीफ या अगहनी
(ग) रबी
(घ) ग़रमा
उत्तर-
(ख) खरीफ या अगहनी

प्रश्न 6.
सन् 1943 ई0 में भारत के किस प्रांत में भयानक अकाल पड़ा?
(क) बिहार
(ख) राजस्थान
(ग) बंगाल
(घ) उड़ीसा
उत्तर-
(ग) बंगाल

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प्रश्न 7.
विगत वर्षों के अंतर्गत भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि का योगदान?
(क) बढ़ा है
(ख) घटा है
(ग) स्थिर है
(घ) बढ़ता-घटता है
उत्तर-
(ख) घटा है

प्रश्न 8.
निर्धनों में भी निर्धन लोगों के लिए कौन सा कार्ड उपयोगी है ?
(क) बी० पी० एल० कार्ड
(ख) अंत्योदय कार्ड
(ग) ए० पी० एल० कार्ड
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख) अंत्योदय कार्ड

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प्रश्न 9.
निम्नलिखित में कौन खाद्यान्न के स्रोत हैं ?
(क) गहन खेती नीति
(ख)आयात नीति
(ग) भंडारण नीति
(घ) इनमें सभी
उत्तर-
(घ) इनमें सभी

प्रश्न 10.
गैर सरकारी संगठन के रूप में बिहार में कौन-सा डेयरी प्रोजेक्ट कार्य कर रहा है ?
(क) पटना डेयरी
(ख) मदर डेयरी
(ग) अमूल डेयरी
(घ) इनमें कोई नहीं
उत्तर-
(क) पटना डेयरी

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रिक्त स्थान की पूर्ति करें :

1. बिहार राज्य में कृषि …………… जनसंख्या के आजीविका का
साधन है।
2. बिहार में कृषि की ……………….. निम्न है।
3. बिहार की कृषि के लिए सिंचाई …. … महत्व रखती है।
4. राज्य में बाढ़ ग्रस्त क्षेत्र …………….. है। .
5. बफर स्टॉक का निर्माण ………………. करती है।
6. निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों के लिए …………………. कार्ड है।
7. भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ ……………… है।
8. औद्योगिक श्रमिक की दैनिक आवश्यकता ………… कलोरी
9. दिल्ली में ………………. डेयरी कार्य करती है।
10. हरित क्रांति ……………. से प्रभावित होकर भारत में लागू की गयी।
उत्तर-
1. बहुसंख्यक
2. उत्पादकता
3. अत्यधिक
4. काफी अधिक
5. सरकार
6. बी० पी० एल०
7. कृषि
8. 3600
9. मदर
10. मेक्सिको।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बिहार की कृषि के पिछड़ेपन को दूर करने के लिए चार उपाए बताएँ।
उत्तर-
बिहार की कृषि के पिछड़ेपन को दूर करने के निम्नलिखित उपाय हैं
(क) जनसंख्या को नियंत्रित करना
(ख) सुनिश्चित सिंचाई व्यवस्था
(ग) उन्नत बेहतर कृषि तकनीकों का प्रयोग
(घ) कृषि में संस्थागत वित्त का अधिक प्रवाह ।

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प्रश्न 2.
खाद्य फसल एवं नकदी फसल में अंतर बताएँ।।
उत्तर-
खाद्य फसलें खाने के काम में आती हैं। जैसे-धान. गेहूँ, मक्का आदि।
नकदी फसलें-वैसी फसलें हैं जिन्हें बेच कर किसान नकद रुपया प्राप्त करता है, जैसे-गन्ना, जूट, दलहन, आलू ।

प्रश्न 3.
कौन लोग खाद्य असुरक्षा से अधिक ग्रस्त हो सकते हैं ?
उत्तर-
ग्रामीण क्षेत्रों में भूमिहीन किसान, खेतीहर मजदूर तथा निध नता से पीड़ित जनता । शहरी क्षेत्रों में श्रमिक, रिक्शा चलाने वाले, मेहनत-मजदूरी करने वाले एवं छोटा-मोटा काम करनेवाले लोग खाद्य असुरक्षा से ग्रसित हैं।

प्रश्न 4.
क्या आप मानते हैं कि हरित क्रांति ने भारत को खाद्यान्न में आत्मनिर्भर बना दिया है । केसे ?
उत्तर-
हाँ, हरित क्रान्ति ने भारत को आत्म निर्भर बनाया है । भारत के कुछ राज्यों में खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता देखने को मिली है। इन राज्य में पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश आदि । यह संभव हुआ अच्छे बीजों, अच्छी सिचाई व्यवस्था एवं कृति के मशीनीकरण के प्रभात्र सं, ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, थ्रेशर, रासायनिक खाः कीटनाशकों आदि के उपयोग ने कृषि उत्पादन में क्रातिकारी परिवर्तन ला दिया ।

प्रश्न 5.
सरकार बफर स्टॉक क्यों बनाती है ?
उत्तर-
खाद्यान्न की जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकार खाद्य के भंडार एकत्रित करती है। उसे वफर स्टाक कहा जाता है। सरकार अपने गोदामों में खाद्यान्नों को जमा करती है । जरूरत या आपदा के समय खाद्यान्न उपलब्ध कराना सरकार का दायित्व है।

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प्रश्न 6.
सार्वजनिक वितरण प्रणाली से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
भारतीय खाद्य निगम द्वारा अधिप्राप्त अनाज को सरकार .. नियमित राशन दुकानों के माध्यम से समाज के गीत वर्गों में वितरित करती है इसे सार्वजनिक वितरण प्रणाली कहते हैं .

प्रश्न 7.
राशन कार्ड कितने प्रकार के होते हैं : चर्चा करें।
उत्तर-
राशन कार्ड तीन प्रकार के होते हैं-

  • अंत्योदय कार्ड-जो निर्धन में भी निर्धन को दिया जाता है ।
  • BPL Card-गरीबी रेखा वाला कार्ड-निर्धनता रेखा के नीचे वाले लोगों के लिए।
  • APL Card-गरीबी रेखा के उपर वाले लोगों के लिए।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
बिहार की अर्थव्यवस्था में कृषि की भूमिका की विवेचना करें।
उत्तर-
बिहार राज्य की बहुसंख्यक जनसंख्या जो लगभग 80% से अधिक गाँवों में निवास करती है साथ ही राज्य की अधिकांश जनसंख्या प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर आश्रित है। कृषि बिहार के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

(क) खाद्यान्न की आपूर्ति-राज्य में खाद्यान्न फसलें जैसे-धान, गेहूँ, मकई की खेती करना लोगों के लिए खाद्यान की पूर्ति करता है।
(ख) कच्चेमाल की पूर्ति-अपने तथा अन्य राज्यों के उद्योगों के लिए या व्यापार के लिए साधन जुटाता है।
(ग) सरकार की आय का साधन-बचत एवं करों के रूप में साध न का काम करती है।
(घ) विदेशी मुद्रा का अर्जन-बिहार फलों की खेती में अग्रणी राज्य है। यहाँ आम, लीची, गन्ने केले आदि का निर्यात कर बहुमूल्य विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है।

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प्रश्न 2.
बिहार की खाद्यान्न फसलों एवं उनके प्रकार की विस्तार से चर्चा करें।
उत्तर-
बिहार की खाद्यान्न फसलों के प्रकार निम्नलिखित है-

(क) भदई (शरद कालीन)-भदई फसलें मई-जून में बोयी जाती _हैं। जो अगस्त-सितम्बर में तैयार हो जाती है । इसमें मक्का, ज्वार, जूट एवं धान की कुछ खास किस्में, इनकी खेती बिहार के मैदानी भाग में होती

(ख) खरीफ या अगहनी (शीत कालीन)-इसमें मुख्यतः धान की खेती होती है । इसकी बुआई जून में की जाती है और हिन्दी माह अगहन अर्थात दिसम्बर में कटनी होती है। बिहार की कृषि में अगहनी फसल का सर्वोच्य स्थान है।

(ग) रबी (बसंत कालीन)-रबी के अंतर्गत गेहूँ, जौ, चना, खेसारी, मटर, मसूर, अरहर, सरसों आदि तथा अन्य दलहन एवं तेलहन की खेती होती है। राज्य के कुल एक तिहाई भाग में इसकी खेती होती है।

(घ) गरमा (ग्रीष्मकालीन)-सिंचाई वाले स्थानों पर अथवा नमी वाले क्षेत्रों में गरमा फसलों की खेती होती है। इनमें हरी सब्जियाँ तथा विशेष प्रकार के धान एवं मक्का की खेती होती है। बिहार के नालन्दा जिले तथा वैशाली एवं सारण के गंगा तट पर हरी सब्जियाँ उपजाई जाती

प्रश्न 3.
जब कोई आपदा आती हैं तो खाद्य पूर्ति पर क्या प्रभाव होता है ? चर्चा करें।
उत्तर-
जब कोई आपदा जैसे-सूखा, भूकम्प, बाढ़, सुनामी आती है तो फसलों की बर्बादी के कारण अकाल जैसी आपदा हो जाती है। खादय फसलों की बर्बादी के कारण कीमतें बढ़ जाती हैं जिससे खाद्य पूर्ति अधि क कीमतों पर होती है सामान्य जनता को अधिक बोझ बैठ जाता है, कुछ ऐसे भी होते हैं जो खरीद नहीं पाते । अगर यह आपदा अधिक विस्तृत क्षेत्र में आती है या अधिक लंबे समय तक बनी रहती है, तो भुखमरी की स्थिति पैदा हो सकती है। व्यापक भुखमरी से अकाल की स्थिति बन सकती है। अत: किसी भी देश में खादय सुरक्षा आवश्यक होती है ताकि इन विपदाओं का सामना किया जा सके।

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प्रश्न 4.
गरीबों को खाद्य सुरक्षा देने के लिए सरकार ने क्या किया? सरकार की ओर से शुरू की गई किन्हीं दो योजनाओं की चर्चा कीजिए।
उत्तर-
गरीबों को खाद्य सुरक्षा देने के लिए सरकार ने दो विभिन्न योजनाएं शुरू की हैं जिनमें कम लागत पर खाद्य उपलब्ध करवाये जाते हैं, जो इस प्रकार हैं

(क) सार्वजनिक वितरण प्रणाली-सरकार ने जून, 199? ई० सं सभी क्षेत्रों में गरीबों को लक्षित करने के लिए यह योजना शुरू की। इसमें पहली बार निर्धनों और गैर-निर्धनों के लिए विभेदक कीमत नीति अपनाई गई है। इसमें राशन कार्ड रखने वाला व्यक्ति निर्धारित राशन की सरकारी दुकानों से प्रत्येक परिवार पर एक अनुबंधित मात्रा ने 35 किलोग्राम अनाज, 5 लीटर मिट्टी का तेल, 5 किलोग्राम चीनी खरीद सकता है।

(ख) अन्तयोदय अन्न योजना-यह योजना दिसम्बर, 2001) ई० में शुरू की गई थी। इसमें गरीबी रेखा से नीचे के गरीब परिवारों को 2 रुपये प्रति किलोग्राम गेहूँ और 3 रुपये प्रतिकिलोग्राम की अत्यधिक आर्थिक सहायता प्राप्त दर पर प्रत्येक पात्र परिवार को 25 किलोम्राम अनाज उपलब्ध कराया गया। अगस्त, 2004 में इसमें 50-50 लाख अतिरिक्त B.P.L परिवार को जोड़ दिया गया। इससे इस योजना में आने वाले परिवारों की संख्या 2 करोड़ हो गई।

प्रश्न 5.
खाद्य और संबंधित वस्तुओं को उपलब्ध कराने में गैर सरकारी संगठन की भूमिका पर एक टिप्पणी लिखें।
उत्तर-
भारत में विशेषकर देश के दक्षिणी और पश्चिमी भागों में गैर सरकारी संगठन एवं सहकारी समितियाँ गरीबों को खाद्यान्न की बिक्री के लिए कम कीमत वाली दुकाने खोलती हैं। दिल्ली मदर डेयरी उपभोक्ताओं को दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित नियंत्रित दरों पर दूध और सब्जियाँ उपलब्ध कराने में तेजी से प्रगति कर रही है। तमिलनाडु में जितनी भी राशन की दुकाने हैं उनमें से 94% सहकारी समितियों के माध्यम से चलाई जा रही हैं । गुजरात में दूध और दुग्ध उत्पादकों में अमूल एक और सफल सहकारी समिति का उदाहरण है। बिहार में दूध तथा दूध उत्पादों में पटना डेयरी जो ‘सुधा’ नाम से जानी जाती है, जो सफल सहकारी समिति का उदाहरण है। इन सभी ने देश में श्वेत क्रांति ला दी है। विभिन्न क्षेत्रों में अनाज बैंकों की स्थापना के लिए गैर-सरकारी संगठनों के लिए खाद्य सुरक्षा के विषय में प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रम संचालित करती है। ADS (Academy for Developmment Science) अनाज बैंक कार्यक्रम को एक सफल और नए प्रकार के खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के रूप में स्वीकृति मिली है।

Bihar Board Class 9 Economics Solutions Chapter 5 कृषि, खाद्यान सुरक्षा एवं गुणवत्ता

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(i) न्यूनतम समर्थित कीमत (ii) सब्सिडी (अनुदान) (iii) बी० पी० एल० कार्ड (iv) बफर स्टॉक (v) जन-वितरण प्रणाली
उत्तर-
(i) न्यूनतम समर्थित कीमत-भारतीय खाद्य निगम अधिशेष . उत्पादन वाले राज्यों में किसानों से गेहूँ और चावल खरीदता है। किसानों
को उनकी फसल के लिए पहले से घोषित कीमतें दी जाती है । इस मूल्य को न्यूनतम समर्थित कीमत कहते हैं।
(ii) सब्सिडी ( अनुदान)-वह भुगतान है जो सरकार द्वारा किसी उत्पादक को बाजार कीमत की अनुपूर्ति के लिए किया जाता है । वही सब्सिडी कहलाती है।
(iii) बी०पी०एल० कार्ड (BPL Card)-निर्धनता रेखा से नीचे के लोगों के लिए यह राशन कार्ड दिया जाता है जो सरकारी राशन की दुकान से निर्धारित सस्ते दर पर खाद्यान्न प्राप्त कर सकता है।
(iv) बफर स्टॉक (Buffer Stock)-भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से सरकार द्वारा अधिप्राप्त अनाज, गेहूँ और चावल का भंडार है जिससे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
(v) जन वितरण प्रणाली-सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अन्तर्गत राशन की जिन दुकानों की व्यवस्था की जाती है, ऐसे दुकानों से चीनी, खाद्यान्न और मिट्टी के तेल, कार्ड धारियों को उचित मूल्य पर प्राप्त होते हैं। ऐसी दुकानों को जन वितरण प्रणाली की दुकाने कहते हैं तथा सरकारी इस वितरण प्रणाली को जन वितरण प्रणाली कहते हैं।