Bihar Board Class 9 History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

Bihar Board Class 9 Social Science Solutions History इतिहास : इतिहास की दुनिया भाग 1 Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज Text Book Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Social Science History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

Bihar Board Class 9 History कृषि और खेतिहर ममाज Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
दलहन फसल वाले पौधे की जड़ की गाँठ में पाया जाता है
(क) नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु
(ख) पोटाशियम स्थिरीकरण जीवाणु
(ग) फॉस्फेटी स्थिरीकरण जीवाणु
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु

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प्रश्न 2.
शाही लीची बिहार में मुख्यतः होता है
(क) हाजीपुर
(ख) समस्तीपुर
(ग) मुजफ्फरपुर
(घ) सिवान
उत्तर-
(ग) मुजफ्फरपुर

प्रश्न 3.
रबी फसल बोया जाता है
(क) जून-जुलाई
(ख) मार्च-अप्रैल
(ग) नवम्बर
(घ) सितम्बर-अक्टूबर
उत्तर-
(ग) नवम्बर

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प्रश्न 4.
केला बिहार में मुख्यतः होता है
(क) समस्तीपुर
(ख) हाजीपुर
(ग) सहरसा
(घ) मुजफ्फरपुर
उत्तर-
(ख) हाजीपुर

प्रश्न 5.
बिहार में, चावल का किस जिले में सबसे ज्यादा उत्पादन होता है ?
(क) सिवान
(ख) रोहतास
(ग) सीतामढ़ी
(घ) हाजीपुर
उत्तर-
(ख) रोहतास

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प्रश्न 6.
गरमा फसल किस ऋतु में होता है-
(क) ग्रीष्म ऋतु
(ख) शरद ऋतु
(ग) वर्षा ऋतु
(घ) वसंत ऋतु
उत्तर-
(क) ग्रीष्म ऋतु

प्रश्न 7.
रेशेदार फसल को चनें
(क) आम
(ख) लीची
(ग) धान
(घ) कपास
उत्तर-
(घ) कपास

प्रश्न 8.
अगहनी फसल को चुनें
(क) चावल
(ख) जूट
(ग) मूंग
(घ) गेहूँ
उत्तर-
(क) चावल

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रिक्त स्थान की पूर्ति करें :

1. कपास एक …………… फसल है।
2. मक्का ………….. फसल है। ।
3. भारत एक …………… प्रधान देश है।
4. भारत की …………… तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है।
5. एग्रिकल्चर लैटिन भाषा के दो शब्दों ……….: तथा ………. से बना है।
6. चावल सर्वाधिक …………… जिला में उत्पादन होता है।
7. बिहार की कृषि गहन निर्वाहक प्रकार की है, जिसके अन्तर्गत वर्ष में …………… फसलें बोयी या काटी जाती है।
8. चावल के लिए ………….. जलवायु की आवश्यकता है।
9. गेहूँ के लिए ………….. मिट्टी चाहिए।
10. मकई के लिए …………… जलवायु की आवश्यकता है।
उत्तर-
1. रेशेदार,
2. खाद्य,
3. कृषिप्रधान,
4. दो,
5. एग्रोस, कल्चर,
6. रोहतास,
7. चार,
8. उष्णार्द,
9. दोमट,
10. गर्म एवं आर्द्र ।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में मुख्यतः कितने प्रकार की कृषि होती है ?
उत्तर-
भारत में मुख्यतः छः प्रकार की खेती होती है।

  • झूम खेती-आदिवासी समाज के लोग जंगलों को साफ करके इस प्रकार की खेती करते हैं । विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में यह खेती होती है।
  • पारम्परिक खेती-इस प्रकार की खेती में हल-बैल की सहायता से बीज की बुआई कर इस प्रकार की खेती करते हैं।
  • गहन खेती-इसे विकसित गहन खेती भी कहते हैं । जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा है, वहाँ इस प्रकार की खेती की जाती हैं।
  • फसल चक्र-दो खाद्यान फसलों के बीच एक दलहनी फसल लगाया जाता है ताकि मिट्टी में उर्वरा कायम रहे ।
  • मिश्रित खेती-एक ही खेत में समान समय में दो या तीन फसल लगाने को मिश्रित खेती कहते हैं।
  • रोपण या बगानी कृषि-इसे झाड़ी कृषि या वृक्षा कृषि भी कहते हैं । जैसे-रबर की खेती, चाय की खेती, कहवा, कोको, नारियल, सेव, अंगूर, संतरा आदि की खेती आते हैं।

प्रश्न 2.
पादप-संकरण क्या है ?
उत्तर-
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषकों के लिए लाभदायक होगा। पादप-संस्करण यही वैज्ञानिक कृषि है। किसानों को पादप-संस्करण द्वारा विकसित उच्च स्तर के बीजों, रासायनिक, उर्बरकों, कीट-पतंगे, खरपतवारनाशी दवाओं, सिंचाई के विकसित साधनों एवं आधुनिक कृषि मशीनों का व्यवहार करने का उत्प्रेरित किया जा रहा है। भारत के कुछ भागों में पादप संस्करण का सहारा लिया जा रहा है।

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प्रश्न 3.
रबी फसल और खरीफ फसल में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
रबी फसल और खरीफ फसल में निम्नलिखित अन्तर हैंरबी फसलें –

  • ये फसलें मानसून की समाप्ति पर बोई जाती हैं।
  • बीज अक्टूबर या नवम्बर में बोये जाते हैं।
  • फसलों की कटाई अप्रैल-मई में होती है।
  • फसलें मृदा की आर्द्रता पर निर्भर करती है।
  • गेहूँ, चना, सरसों अन्य तेलहन आदि फसलें हैं।

प्रश्न 4.
मिश्रित खेती क्या है ?
उत्तर-
इस प्रकार की खेती में एक ही खेत में एक ही समय में दो-तीन फसल उगाई जाती है। इससे यह लाभ होता है कि एक ही समय में विभिन्न प्रकार के और अधिक फसल उगाए जा सकते हैं।

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प्रश्न 5.
हरित क्रांति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
1960 के दशक में भारत में ‘हरित क्रान्ति’ लाने का प्रयास किया गया । केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रयास से कृषि और कृषकों के जीवन में उल्लेखनीय बदलाव आया । उन्नत बीज, खाद, नई तकनीक एवं मशीनों के उपयोग तथा सिंचाई के साधनों के व्यवहार से कृषि उत्पादनों में वृद्धि हुई है। फलतः किसानों की स्थिति में सुधार आया । ये सब हरित क्रान्ति की ही देन था।

प्रश्न 6.
गहन खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जिन क्षेत्रों में सिंचाई संभव हुई है, उन क्षेत्रों में किसान उर्वरकों और कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर उपयोग करने लगे हैं। कृषि की विभिन्न प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए मशीनों के प्रयोग द्वारा कृषि का यंत्रीकरण हो गया है। इससे प्रति हेक्टेयर ऊपज में कृषि का विकास हुआ है। गहन कृषि का तात्पर्य है, एक ही खेत में अधिक फसल लगाना ।

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प्रश्न 7.
झूम खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
इस प्रकार की खेती वन्य और पहाड़ी भागों में प्रचलित थी। कुछ आदिवासी आज भी इस प्रकार की खेती करते हैं । यह स्थानान्तरण भी कहलाता है । आदिवासी समाज पृथ्वी को अपनी माता समझते हैं और उस पर हल नहीं चलाना चाहते हैं अतः वे वर्षा के पहले जंगल के कुछ भाग में आग लगा देते थे और उसके राख पर बीज छिड़क देते थे। वर्षा होने पर उस बीज से पौधे निकल आते थे । इस प्रकार अगले वर्ष में नीचे की तरफ आग लगाकर खेती करते थे।

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प्रश्न 8.
फसल चक्र के बारे में लिखें।
उत्तर-
यह कृषि की एक नई पद्धति है। लगातार लम्बे समय तक एक ही प्रकार की फसल उगाने से जमीन की उर्वरा शक्ति कमजोर पड़ जाती है। इसको रोकने के लिए दो खाद्यानों के बीच एक दलहनी पौधे को लगाया जाता है। बदल कर फसल लगाने की इस पद्धति को फसल चक्र कहते हैं। दलहनी फूल के पौधों की जड़ की गाँठ में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु होते हैं । जीवाणु वातावरण के नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं । तथा खेतों की उर्वराशक्ति को बढ़ाने के लिए रसायनिक खाद का भी प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 9.
रोपण या बागानी खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
रोपण कृषि को झाड़ी खेती या वृक्षा या बगानी खेती भी कहते हैं। 19वीं शताब्दी में इसे अंग्रेजों ने शुरू किया था। इसमें एक ही फसल का उत्पादन किया जाता है ऐसी फसलों में रबर, चाय, कहवा कोको, मसाले, नारियल, सेव, संतरा आदि हैं । इस तरह की खेती में अधिक पूँजी की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार की खेती भारत में उत्तर-पूर्वी भाग में होती है। पश्चिम बंगाल के उप हिमालय क्षेत्रों तथा प्रायद्वीपीय भारत की नीलगिरी, अन्नामलाई व इलाइची की पहाड़ियों में की जाती है।

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प्रश्न 10.
वर्तमान समय में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के उपाय बतावें ।
उत्तर-
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की खेतियों की बहुत आवश्यकता है। क्योंकि अधिकांशतः ग्रामीण कृषि पर ही आधारित हैं, गाँवों या शहरों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, इसलिए आवश्यकता है आधुनिक ढंग से कृषि करने का । कृषि के आधुनिकीकरण से मृदा की उर्वरा शक्ति तो पुनः प्राप्त होती ही है साथ-साथ अत्यधिक उत्पादन से अर्थव्यवस्था भी सुदृढ़ होती है। नकदी फसल करने से उद्योग में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ किसानों को अच्छी आमदनी भी होती है। उपर्युक्त उपायों के द्वारा किसानों की अर्थव्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत एक कृषि प्रधान देश है, कैसे ?
उत्तर-
भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसलिए कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। लगभग दो तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। जहाँ विश्व की 11% प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है, वहीं भारत की कुल भूमि का 51% भाग कृषि योग्य है । ‘कृषि’ भारत के कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 35% योगदान करता है। भारत के पास विशाल स्थल क्षेत्र, उपजाऊ भूमि का उच्च प्रतिशत है।

भारत में कृषि जीवन की रीढ़ है । भारत में कृषि परम्परागत ढंग से होती रही । अतः स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद इस पहलू पर विचार किया गया कि समग्र आर्थिक विकास के साथ-साथ कृषि का विकास होना आवश्यक है । भूव्यवस्था में परिवर्तन, सिंचाई के साधनों आदि में विकास से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है।

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1960 के दशक में भारत सरकार ने ‘हरित क्रान्ति’ को लाया। इसके कारण खाद्यान उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी हुई । यहाँ से कृषि में उच्च तकनीकी एवं वैज्ञानिक पद्धति का प्रवेश होता है। पादप-संकरण द्वारा उच्च प्रकार के बीजों के किस्मों का विकास किया गया । उर्वरक, पीड़क, नाशी, खरफतवार नाशी के प्रयोग एवं बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं के द्वारा सिंचाई में विकास तथा आधुनिक यंत्रों द्वारा कृषि कार्य के कारण कृषि एक व्यवसाय के रूप में विकसित हुआ है।

कृषि की प्रधानता होने के कारण ही भारत सरकार बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं में कृषि पर अधिक बल दिया गया और दिया जा रहा है।

प्रश्न 2.
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषि के लिए लाभदायक है, कैसे ?
उत्तर-
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषकों के लिए काफी लाभदायक होगा। पारंपरिक खेती से किसानों की उपज अच्छी नहीं होती थी, वहीं एक ही प्रकार के खाद्यान लगाने से मृदा की उर्वरा शक्ति भी क्षीण पड़ जाती थी सिंचाई के लिए वर्षा निर्भरता से या तो अनावृष्टि के कारण फसल सूख जाता था या अतिवृष्टि के कारण फसल नष्ट हो जाते थे। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण खेती के लिए कुछ इस प्रकार कृषि के लिए लाभदायक हुआ-हरित क्रांन्ति-1960 के दशक में हरित क्रान्ति (Green Revolution) लाने का प्रयास किया गया । केन्द्रीय और राज्य सरकारों के प्रयासों से कृषि और किसानों के जीवन में उल्लेखनीय बदलाव आया है। उन्नत बीज, खाद, नई तकनीक एवं मशीनों के उपयोग से तथा सिंचाई के साधनों के व्यवहार से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है।

पादप-संस्करण-पादप-संस्करण द्वारा उच्च प्रकार के बीजों के किस्मों का विकास किया गया। इसके द्वारा विकसित उच्च प्रकार की बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीट-पतंगे, खर-पतवार नाश करने वाली दवाओं, सिंचाई के विकसित साधनों एवं आधुनिक कृषि मशीनों का व्यवहार करने को उत्प्रेरित किया जा रहा है।

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ये सब वैज्ञानिक पहलु है जिन्हें कृषि में लगाया जा रहा है। निश्चित तौर पर परम्परागत खेती से अधिक लाभदयक सिद्ध हो रहा है। अब भारत खाद्यान के मामलों में पूर्णतः आत्म-निर्भर है।

प्रश्न 3.
बिहार की कृषि “मानसून के साथ जुआ” कहा जाता है, कैसे ?
उत्तर-
बिहार कृषि प्रधान राज्य है । यहाँ की 70% जन संख्या कृषि पर आधारित है। लेकिन मानसूनी वर्षा पर निर्भरता के कारण यहाँ की कृषि को मानसून के साथ जुआ’ कहा जाता है।

इसका मुख्य कारण है-यहाँ नदियों की संख्या अत्यधिक है फिर भी सिंचाई का प्रबंध अभी तक नहीं हो पाया है । किसान पूर्णत: मानसून पर निर्भर करते हैं और मानसून अनिश्चित है । मानसून की अनिश्चितता के कारण कभी वर्षा बिलकुल ही नहीं होती तो कभी सूखाड़ हो जाता है । फसल सूख जाते हैं और कभी यदि अत्यधिक वर्षा हुई तो फसलें पानी में डूबकर नष्ट हो जाती हैं। कभी-कभी वर्षा अनुकूल होती है तो कृषि अच्छी होती है। इस प्रकार यहाँ की खेती

‘जुआ’ है। आया तो आया नहीं तो गया । यही कारण है कि बिहार की कृषि को ‘मानसून के साथ जुआ’ कहा जाता है।

प्रश्न 4.
कृषि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम हो सकता है, कैसे?
उत्तर-
भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारतीय समाज एक कृषक समाज है। इसलिए कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। लगभग दो तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। लेकिन कृषकों की स्थिति में वांछित सुधार नहीं आया है । अभी भी छोटे किसानों की स्थिति दयनीय है । अनेक स्थानों पर तो स्थिति बहुत नाजुक है । अतः किसानों की समस्याओं की ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। कृषि और कृषकों को स्थिति में सुधार लाए बिना सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में सुधार नहीं हो सकता है। कृषि में और आर्थिक सुधार लाने की आवश्यकता है।

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इसके लिए कृषि को उद्योग का दर्जा देना होगा। इससे कृषि और कृषकों की स्थिति में वांछित बदलाव आएगा । परम्परागत कृषि के स्थान .पर वैज्ञानिक कृषि को बढ़ावा देना होगा। कृषि कार्य में लगे लोगों को सामाजिक सम्मान भी देना होगा जिससे आनेवाली पीढ़ियाँ कृषि कार्य में अभिरूचि ले सके।

भावी पीढ़ी को कृषि की ओर आकृष्ट करने के लिए आवश्यक है स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में कृषि शिक्षा को स्थान दिया जाय तथा इस विषय का पढ़ाई हो। कृषि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बन सकता है। कृषि में सुधार होने से किसानों की आर्थिक स्थिति में बदलाव आएगा। इसका लाभ उठाकर वे अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार ला सकते हैं। आमदनी बढ़ने से यंत्रीकृत कृषि शुरू होगी। इस प्रकार समाज में परिवर्तन आएगा ।

प्रश्न 5.
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है ? समझावें
उत्तर-
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषकों के लिए काफी लाभदायक होगा। पारंपरिक खेती से किसानों की उपज अच्छी नहीं होती थी, वहीं एक ही प्रकार के खाद्यान लगाने से मृदा की उर्वरा शक्ति भी क्षीण पड़ जाती थी सिंचाई के लिए वर्षा निर्भरता से या तो अनावृष्टि के कारण

फसल सूख जाता था या अतिवृष्टि के कारण फसल नष्ट हो जाते थे। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण खेती के लिए कुछ इस प्रकार कृषि के लिए लाभदायक हुआ-हरित क्रांन्ति-1960 के दशक में हरित क्रान्ति (Green Revolution) लाने का प्रयास किया गया । केन्द्रीय और राज्य सरकारों के प्रयासों से कृषि और किसानों के जीवन में उल्लेखनीय बदलाव आया है। उन्नत बीज, खाद, नई तकनीक एवं मशीनों के उपयोग से तथा सिंचाई के साधनों के व्यवहार से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है।

पादप-संस्करण-पादप-संस्करण द्वारा उच्च प्रकार के बीजों के किस्मों का विकास किया गया। इसके द्वारा विकसित उच्च प्रकार की बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीट-पतंगे, खर-पतवार नाश करने वाली दवाओं, सिंचाई के विकसित साधनों एवं आधुनिक कृषि मशीनों का व्यवहार करने को उत्प्रेरित किया जा रहा है।

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ये सब वैज्ञानिक पहलु है जिन्हें कृषि में लगाया जा रहा है। निश्चित तौर पर परम्परागत खेती से अधिक लाभदयक सिद्ध हो रहा है। अब भारत खाद्यान के मामलों में पूर्णतः आत्म-निर्भर है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

Bihar Board Class 11 Political Science संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही है –

  1. संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि
  2. परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है
  3. किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है
  4. हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए
  5. संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए

उत्तर:
किसी भी संविधान का समय-समय पर संशोधित किए जाने की आवश्यकता होती है और उसमें उचित परिवर्तन करना जरूरी हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ।

  1. राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
  2. संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
  3. न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परंतु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
  4. संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के संशोधन करने में निम्नलिखित से कौन-कौन लिप्त हैं? वे किस प्रकार इसमें योगदान करते हैं?

  1. मतदाता
  2. भारत का राष्ट्रपति
  3. राज्य विधान सभाएँ
  4. संसद
  5. राज्यपाल
  6. न्यायपालिका

उत्तर:
1. मतदाता:
भारत के संविधान में मतदाता भाग नहीं लेते।

2. भारत का राष्ट्रपति:
भारत का राष्ट्रपति संविधान संशोधन में भाग लेता है। संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद संशोधन विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति उस पर अपने हस्तक्षर कर देता है। राष्ट्रपति को किसी भी संशोधन विधेयक को वापस भेजने का अधिकार नहीं है।

3. राज्य विधान सभाएँ:
संविधान की कुछ प्रमुख धाराओं (अनुच्छेदों) में परिवर्तन या संशोधन करने में जहाँ संसद के दो तिहाई (विशिष्ट) बहुमत की आवश्यकता है। उसके साथ-साथ कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों के विधान सभाएँ से भी अनुमति लेनी पड़ती है।

4. संसद:
भारतीय संविधान के संशोधन में संसद का सबसे अधिक लिप्त होना अनिवार्य है क्योंकि भारत के संविधान में कुछ धाराओं में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है। दूसरे प्रकार के संशोधनों में संसद के दोनों सदनों में उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से तथा कुल सदस्यों के आधे से अधिक के बहुमत से संशोधन किया जाता है। तीसरे प्रकार से संविधान की कुछ अहम धाराओं में संसद के विशिष्ट बहुमत से संशोधन विधेयक को पारित होने के बाद पचास प्रतिशत राज्यों से भी अनुमति ली जाती है। इस प्रकार के संशोधन में संसद के दोनों सदनों का हाथ अवश्य रहता है।

5. राज्यपाल:
संविधान के जिन-जिन अनुच्छेदों में संशोधन हेतु पचास प्रतिशत राज्यों के विधानमंडलों से अनुमति लेनी होती है केवल वहाँ राज्यपाल की लिप्तता पायी जाती है, क्योंकि राज्य विधानमंडल से पारित संशोधन विधेयक पर राज्यपाल को हस्तक्षर करने होते हैं।

6. न्यायपालिका:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42 वाँ संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?

  1. यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
  2. यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
  3. इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
  4. संशोधन के कुछ उपबंध विवादस्पद थे।

उत्तर:
42 वाँ संविधान संशोधन विभिन्न विवादस्पद संशोधनों में से एक था। उपरलिखित कारणों में से इसके विवादस्पद होने के निम्नलिखित कारण थे –

1. यह संशोधन राष्ट्रीय आपात स्थिति के दौरान किया गया जबकि आपातस्थिति की घोषणा ही अपने आप में विवादस्पद थी।

2. इस संशोधन में कई प्रावधान विवादास्पद थे। यह संविधान संशोधन वास्तव में उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानन्द भारती विवाद में दिए गए निर्णयों को निष्क्रिय करने का प्रयास था। यहाँ तक कि लोकसभा की अवधि को भी पाँच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया था।

42 वें संशोधन में न्यायापालिका की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था। इस संशोधन के द्वारा प्रस्तावना, 7 वीं सूची तथा संविधान के 53 अनुच्छेदों में परिवर्तन कर दिए गए। बहुत से सांसदों को, जो विपक्षी दलों से संबंधित थे, जेल में डाल दिया गया।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौन-सा वाक्य विभिन्न संशोधनों के संबंध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता

  1. संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
  2. खंडन-मंडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
  3. कुछ नियमों और सिद्धांतों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्याख्या की गई है।
  4. नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
  5. न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिक के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।

उत्तर:
उपरोक्त पाँचों कथनों में से भाग ही विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव की उचित व्याख्या नहीं है। न्यायपालिका ही किसी निश्चित कानून की संवैधानिकता तय कर सकती है परंतु यह उसकी आवश्यकता के लिए राजनीतिक वाद-विवाद प्रतियोगिता निर्धारित नहीं कर सकती।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत के बारे में सही वाक्य को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।

  1. (i) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
  2. (ii) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिकी संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
  3. (iii) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढाँचे के अन्तर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
  4. (iv) यह सिद्धांत सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
  5. (v) इस सिद्धांत से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों में भी बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है।

उत्तर:
1. “संविधान मूल संरचना को निर्धारित करता है।” यह बात सत्य नहीं है क्योंकि संविधान में कहीं भी मूल ढाँचे का वर्णन अलग से नहीं किया गया है। उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में तथा फिर 1980 में मिनर्वा मिल विवाद में निर्णय दिया कि संविधान के मूल ढाँचे से सम्बन्धित भागों में संशोधन नहीं किया जा सकता। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद के मूल संरचना के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। मूल संरचना के सिद्धांत ने संविधान के विकास में योगदान दिया। संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती।

2. विधायिका संविधान के मूल ढाँचे के अतिरिक्त अन्य सभी खण्डों में संशोधन कर सकती है। यह एक सही कथन है।

3. न्यायपालिका ने संविधान के मूल ढाँचे को परिभाषित किया है कि संविधान के कौन से खण्ड मूल ढाँचे के अन्तर्गत हैं और कौन से नहीं। मूल ढाँचे का सिद्धांत न्यायपालिका की ही खोज है। संविधान के शब्दों की अपेक्षा संविधान की भावना अधिक महत्त्वपूर्ण है।

4. यह सिद्धांत (मूल संरचना का सिद्धांत) सर्वप्रथम केशवानन्द भारती विवाद के समय अस्तित्व में आया और उसके बाद के विवादों में इसी के आधार पर निर्णय दिए गए। यह सही कथन है।

5. इस सिद्धांत के अस्तित्व में आने से न्यायपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई है और राजनीतिक दलों, राजनेताओं और सरकार ने इसको मान्यता दी है। केशवानन्द भारती विवाद के बाद से इस सिद्धांत ने संविधान की व्याख्या में महत्त्पपूर्ण योगदान दिया है। राजनीतिक नेताओं तथा सरकार और संसद ने मूल संरचना के सिद्धांत को स्वीकार किया है। यह कथन सत्य है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

प्रश्न 7.
सन् 2000 – 2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन-सा निष्कर्ष निकालेंगे।

  1. इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
  2. इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
  3. कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
  4. इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं रह गया था।
  5. ये संशोधन विवादस्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।

उत्तर:
प्रश्न में दिए गए निष्कर्षों में से सही निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं –
(iii) तथा (iv) अर्थात् एक तो जनता की ओर से इस प्रकार के संशोधन करने के लिए दबाव था और दूसरे ये संशोधनों अविवादास्पद प्रकृति के थे तथा राजनीतिक दलों में संशोधनों के विषय में आम सहमति थी। एक समझौता था।

प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर:
भारत के संविधान में तीन प्रकार से संशोधन होता है। एक साधारण बहुमत की प्रक्रिया के बाद आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन प्राप्त करके किया जाता है। यह विशिष्ट बहुमत दो प्रकार से गिना जाता है। पहले तो संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग संशोधन विधेयक पारित करने के लिए प्रत्येक सदन में उस सदन की कुल संख्या के आधे से अधिक का बहुमत हो तथा साथ ही उस सदन में उपस्थित सदस्यों की संख्या का दो-तिहाई बहुमत भी होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर लोकसभा की कुल सदस्य संख्या यदि 545 है और उस दिन लोकसभा में कुल 330 सदस्य उपस्थित हैं तो 330 का 2/3 अर्थात् 220 सदस्यों द्वारा पारित होने पर वह पारित नहीं समझा जाएगा क्योंकि 545 का 1/2 अर्थात् 273 की संख्या विधेयक के समर्थन में होना भी अनिवार्य है।

यह विशिष्ट बहुमत इसलिए आवश्यक है ताकि संविधान में संशोधन के लिए विपक्षी पार्टियों का भी उसमें कुछ समर्थन होना चाहिए ताकि संशोधन के पीछे अप्रत्यक्ष जन समर्थन की भावना छिपी हुई हो। केन्द्र और राज्य के बीच शक्ति विभाजन से सम्बन्धित धाराओं में परिवर्तन के लिए राज्यों का भी अनुमोदन उसमें होना चाहिए। इसलिए संसद के दो-तिहाई उपस्थित तथा कुल संख्या के आधे से अधिक संदस्यों द्वारा (विशिष्ट बहुमत से) पारित विधेयक को आधे राज्यों का समर्थन भी आवश्यक बनाया गया है।

राज्यों की शक्ति को केन्द्र की दया पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसी कारण संविधान में आधे राज्यों के विधानमण्डल द्वारा अनुमोदन कराया जाना आवश्यक बनाया गया है। संघीय ढाँचे से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन इसी प्रकार किया जाता है। मौलिक अधिकारों में भी इसी विधि से संशोधन किया जा सकता है। संविधान निर्माता इस विषय में बहुत सतर्क थे। केवल आधे राज्यों से उन्होंने अनुमोदन कराना आवश्यक माना तथा इस कठोर प्रणाली में भी थोड़ा लचीलापन लाने के लिए राज्यों के विधानमण्डलों से केवल साधारण बहुमत से पारित कराना पर्याप्त माना गया।

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प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित. व्याख्या करें।
उत्तर:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच कई मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान में कई बार इन्हीं मतभेदों के कारण संशोधन कर दिए जाते हैं। संविधान का पहला संशोधन 1951 में किया गया। इस संविधान में कई परिवर्तन हुए। इसका कारण यह था कि संविधान की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जा रही थी और संविधान की प्रक्रिया को अपनी-अपनी सोच के अनुसार समझा जा रहा था। प्रथम संशोधन द्वारा अनुच्छेद 15, 19, 31, 85, 87, 144, 176, 372 तथा 376 संशोधन किया गया और संविधान में 9 वीं अनुसूची और बढ़ा दी गई।

न्यायपालिका और संसद में टकराव की स्थिति होने पर संसद संशोधन का सहारा लेती है। 1970 से 1975 तक ऐसी अनेक परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। केशवानन्द भारती विवाद में संसद की संशोधन शक्ति को नियंत्रित किया गया। उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया कि संसद को संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन या परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या से संसद जब संतुष्ट नहीं होती तो वह संविधान संशोधन कर देती है। 42 वाँ संविधान संशोधन सबसे अधिक विवादास्पद रहा।

इस संशोधन द्वारा न्यापालिका की न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह 42 वाँ संशोधन तथा 38वें, 39वें संशोधन भी आपातस्थिति के दौरान किए गए थे। 43 वाँ और 44 वाँ संशोधन 42 वें संविधान संशोधन द्वारा किए गए परिवर्तनों को निरस्त करने के लिए किए गए। न्यायपालिका ने भी कुछ संशोधन, जो संशोधन न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय हैं, परतु वे आगे के लिए उदाहरण बन गए और जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि आरक्षण की व्यवस्था 50 प्रतिशत से अधिक नहीं दी जा सकती।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मौलिक अधिकार व नीति निर्देशक सिद्धांतों को लेकर संसद और न्यायपालिका में टकराव के कारण तथा निजी सम्पत्ति के दायरे और संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमा को लेकर दोनों में विवाद उठते रहे हैं। 1970 से 1975 तक संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार-बार संशोधन किए थे। 38, 39 और 42 वें संशोधन आपातस्थिति की पृष्ठभूमि से निकले थे। 1973 में केशवानन्द भारती विवाद में उच्चतम न्यायालय का निर्णय, 1973 के पश्चात् न्यायालयों में कई मामलों में बुनियादी संरचना के सिद्धांत को निर्धारित करने का आधार बन गया।

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प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायापालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर:
संशोधन प्रक्रिया बहुत विवादास्पद रही है। संविधान में संशोधन पर मतभेद रहे हैं। यह कहा जाता है कि जब संविधान निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में है तो न्यायपालिका को चाहिए कि उसमें हस्तक्षेप न करे। वह संशोधन की विश्वसनीयता निर्धारित करने की अधिकारी न रहे परंतु यह उचित नहीं है। वास्तव में 1970 से 1980 तक के काल में होने वाले संशोधन बहुत विवादास्पद रहे हैं। विपक्षी दलों ने सत्तापक्ष द्वारा किए गए संशोधनों का विरोध किया।

38, 9 और 42 वें संशोधन द्वारा संविधान की अनेक धाराओं को परिवर्तित कर दिया गया। यदि न्यायपालिका चुप रहती तो वे संशोधन ज्यों के त्यों बने रहते और व्यक्ति के अधिकारों पर ये कुठाराघात होता और निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी तानाशाही बनाए रखते। यद्यपि संसद में जनता के प्रतिनिधि होते हैं और जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है, परंतु निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की आकांक्षाओं के बदले अपने स्वार्थों की पूर्ति करने लगते हैं और इस समस्या से बचने के लिए संविधान का नियंत्रण सांसदों पर होता है अर्थात् सांसद यदि संविधान की सीमा का उल्लंघन करते हैं तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही चाहिए। अतः न्यायपालिका को संविधान संशोधन की विश्वसनीयता को परखने की शक्ति होनी ही चाहिए। इससे संसद और सरकार को निरंकुश बनने से रोका जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Political Science संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
क्या संविधान अपरिवर्तनीय होते हैं?
उत्तर:
वास्तव में संविधान अपरिवर्तनीय नहीं होते। उनमें समय और परिस्थितिवश परिस्थितिगत बदलाव होते रहते हैं। परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और कई बार राजनीतिक उठापटक के चलते विभिन्न राष्ट्रों ने अपने संविधान को दुबारा तैयार किया है। सोवियत संघ में 74 वर्षों में संविधान को चार बार बदला गया। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस में 1993 में एक नया संविधान अंगीकार किया गया।

प्रश्न 2.
किसी देश के संविधान का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
किसी भी देश के लिए संविधान का होना बहुत आवश्यक है। संविधान के कारण ही सरकार अपने दायित्वों की पूर्ति उचित रूप से करती है। संविधान में ही बताया जाता है कि सरकार के विभिन्न अंगों की क्या-क्या शक्तियाँ और उनके क्या-क्या दायित्व होते हैं।

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प्रश्न 3.
‘राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता’ पर एक संक्षिप्त नोट लिखिये जैसा कि भारतीय संविधान में दिया गया है।
उत्तर:
राष्ट्र की एकता और अखण्डता-संविधान निर्माता ब्रिटिश सरकार की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति से भली-भाँति परिचित थे। अत: उन्होंने संविधान का निर्माण करते समय यह जोर दिया कि राष्ट्र की एकता और अखण्डता को सुरक्षित रखा जाय। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया जाय तथा इकहरी नागरिकता को अपनाया गया। पूरे देश का एक ही संविधान बनाया गया। राष्ट्र की एकता के साथ 42 वें संविधान के द्वारा अखण्डता शब्द को भी जोड़ा गया।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘समानता’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर:
समानता:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता दी गई है। समानता शब्द का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के विकास के समान अवसर प्राप्त होते हैं। किसी भी व्यक्ति को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति के विकास के मार्ग में बाधा नहीं आने दी जाती।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है –

  1. प्रस्तावना संविधान की कुंजी है क्योंकि इसमें पूरे संविधान का निष्कर्ष होता है।
  2. प्रस्तावना संविधान के सभी उद्देश्यों और लक्ष्यों को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करती है। इसे संविधान का दर्पण कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।
  3. प्रस्तावना में सरकार के रूप, कार्यपालिका और न्यायपालिका से संबंध आदि सभी पक्षों का संक्षिप्त सारांश प्रस्तुत किया जाता है।
  4. संविधान की प्रस्तावना से आधारभूत दर्शन का ज्ञान होता है। वास्तव में प्रस्तावना संविधान की आधारशिला है।

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प्रश्न 6.
संविधान सभा की क्या भूमिका थी? इसके अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर को डॉ. सच्चिदानन्द सिंहा के अध्यक्षता में हुई। 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। इस संविधान सभा ने संविधान निर्माण का कार्य शुरू किया। 2 वर्ष 11 मास 18 दिन के पश्चात् 26 नवम्बर, 1949 को भारत के नये संविधान का निर्माण हुआ। ऐतिहासिक महत्त्व के कारण यह संविधान 26 जनवरी, 1950 को ही लागू किया गया। संविधान सभा की महत्त्वपूर्ण भूमिका भारत के नए संविधान का निर्माण करना था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इस सभा के स्थायी अध्यक्ष थे।

प्रश्न 7.
बन्धुता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
बंधुता का अर्थ सभी लोगों के लिए भाई-चारे और नागरिकों की समानता से है। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांसीसी अधिकारों के घोषणा पत्र में और फिर संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकारों की घोषणा में किया गया। भारत के इतिहास में बन्धुता की भावना के विकास का विशेष महत्त्व है। संविधान की प्रस्तावना में जिस ‘बन्धुत्व’ की कल्पना की गई है उसे अनुच्छेद 17 व 18 में वर्णित छुआछूत को समाप्त करके, उपाधियाँ प्राप्त करने पर प्रतिबंध लगाकर और अनेक सामाजिक बुराईयों को दूर करके भारतीय समाज में स्थापित किया गया है।

प्रश्न 8.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में दिए ‘गणराज्य’ शब्द से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
भारत के संविधान की प्रस्तावना में “गणराज्य” शब्द का प्रयोग बहुत महत्त्व रखता है। गणराज्य से अभिप्राय है कि भारत का राज्याध्यक्ष जनता द्वारा निर्वाचित होगा।

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प्रश्न 9.
प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
प्रस्तावना का शाब्दिक अर्थ होता है भूमिका अथवा प्रारंभिक परिचय। संविधान की प्रस्तावना का संबंध उसके उद्देश्यों, लक्ष्यों, आदर्शों तथा उसके आधारभूत सिद्धांतों से है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना का सीधा संबंध उस उद्देश्य प्रस्ताव से है जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को पारित किया था।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान के प्रस्तावना में दिए गए “लोकतांत्रिक” शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
भारत के संविधान की प्रस्तावना में “लोकतंत्रात्मक” शब्द प्रयुक्त हुआ है। उसका यह अर्थ है कि भारत में जनता का शासन होगा। जनता के प्रतिनिधि चुने जाएंगे और वे जनहित में शासन करेंगे। राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक प्रत्येक क्षेत्र में लोकतंत्र की स्थापना होगी। इस प्रकार एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना होगी।

प्रश्न 11.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को भी भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया। इसका तात्पर्य यह है कि भारत किसी धर्म या पंथ को राज्य-धर्म के रूप में स्वीकार नहीं करता है तथा न ही किसी धर्म का विरोध करता है। प्रस्तावना के अनुसार भारतवासियों को धार्मिक विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता होगी। धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला है। अतः राज्य उस विषय में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।

प्रश्न 12.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘समाजवादी’ शब्द की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
‘समाजवादी’ शब्द को भी 1976 में 42 वें संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। इस शब्द का तात्पर्य यह है कि भारत में किस प्रकार की शासन व्यवस्था हो जिसके अनुसार समाज के सभी वर्गों का विकास व उन्नति के लिए उचित अवसर प्राप्त हों तथा आर्थिक असमानता को कम किया जाए। इस नीति के अनुसार भारत सरकार यह प्रयास करेगी कि उत्पादन और वितरण के साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाय।

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प्रश्न 13.
राजनीतिक और आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में राजनीतिक और आर्थिक न्याय का वर्णन निम्नलिखित सन्दर्भ में किया गया है –

  1. राजनैतिक न्याय: राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को धर्म, जाति, रंग आदि भेदभाव के बिना समाज राजनैतिक अधिकार प्राप्त हों। सभी नागरिकों को समान मौलिक अधिकार प्राप्त हों।
  2. आर्थिक न्याय: आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हो तथा उसके कार्य के लिए उचित वेतन प्राप्त हो।

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार राज्य की प्रकृति क्या है?
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारतीय राज्य की प्रकृति निम्न प्रकार से है –

  1. भारत एक संप्रभु राज्य है
  2. भारत एक गणराज्य है
  3. भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है
  4. भारत एक समाजवादी राज्य है
  5. भारत एक लोकतंत्रात्मक राज्य है

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प्रश्न 15.
प्रस्तावना में दिए गए भारतीय संविधान के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित हमारे संविधान के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. न्याय-सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक।
  2. स्वतंत्रता-विचार, आभव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं पूजा की।
  3. समानता-प्रतिष्ठा और अवसर की।
  4. बंधुता-व्यक्त की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत के संविधान में किन विषयों में साधारण विधि से संशोधन कर दिया जाता है?
उत्तर:
भारत का संविधान लचीला भी है, कठोर भी है और लचीले और कठोर का समन्वय भी है। कुछ प्रावधानों में संशोधन करने की प्रक्रिया साधारण पारित करने की प्रक्रिया के समान ही है। जैसे –

  1. नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)
  2. राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना। (अनुच्छेद 169)
  3. संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन। (अनुच्छेद 100 (3)
  4. संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों के सम्बन्ध में संशोधन।
  5. भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में। (अनुच्छेद 5)
  6. देश में आम चुनाव के सम्बन्ध में। (अनुच्छेद.327)
  7. केन्द्र-शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में। (अनुच्छेद 240)
  8. अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना लिखो।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का विवेचना निम्नलिखित शब्दों में किया गया है –

संविधान की प्रस्तावना:
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य बनाने तथा उसके सब नागरिकों को न्याय-सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक। स्वतंत्रता-विचार, अभिव्यक्ति, पूजा, विश्वास एवं धर्म की समानता-प्रतिष्ठा और अवसर की, और उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुत्व की भावना बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 को हम भारत के लोग अंगीकृत अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में संशोधन किस प्रकार किए जाते हैं? अथवा, भारतीय संविधान में संशोधन के विभिन्न तरीकों को बताइए। उनमें से किसी एक ही व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन विधि दी गयी है। भारतीय संविधान की विभिन्न धाराओं के संशोधन के लिए निम्नलिखित तीन प्रणालियाँ प्रयोग में लाई जाती है। इन प्रणालियों का उल्लेख भारतीय संविधान की धारा 368 में किया गया है।

1. साधारण विधि:
संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संसद साधारण बहुमत से संशोधन कर सकती है। संशोधन का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में रखा जा सकता है। जब दोनों सदन उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास कर देते हैं तब वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन प्रस्ताव पास हो जाता है। इस प्रणाली के द्वारा जिन अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है, उनमें से कुछ मुख्य अनुच्छेद निम्न प्रकार से हैं –

  1. नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमाओं को घटाना या बढ़ाना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)।
  2. राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद्) को बनाना या समाप्त करना (अनुच्छेद 169)।
  3. संसद के कोरम के संबंध में संशोधन (अनुच्छेद 100 (3))।
  4. संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों के संबंध में संशोधन।
  5. भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में (अनुच्छेद 5)
  6. देश में आम चुनाव के सम्बन्ध में (अनुच्छेद 327)।
  7. केन्द्र शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में (अनुच्छेद 240)।
  8. अनुसूचित जाति के क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।

भारतीय संविधान में संशोधन करने की उपरोक्त प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया तथा साधारण विधि-निर्माण में कोई अंतर नहीं किया गया है। इस प्रकार के आधार पर ही बहुत से विद्वान भारत के संविधान को लचीला संविधान मानते हैं।

2. विशेष विधि:
हमारे संविधान की कुछ अन्य धाराओं का संशोधन एक विशेष विधि से होता है। इसके अनुसार संशोधन संबंधी बिल संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है और यदि सदन की कुल संख्या के साधारण बहुमत द्वारा उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत द्वारा संशोधन बिल एक सदन से पास हो जाय तो दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।

दूसरे सदन के लिए भी यही ढंग अपनाया जाता है। उसके पश्चात् बिल राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए जाता है और उनके हस्ताक्षर करने के बाद संविधान संशोधन बिल पास समझा जाता है। हमारे संविधान के जिन विषयों का उल्लेख पहले और तीसरे वर्ग में किया गया है उनको छोड़कर संविधान की अन्य सभी धाराएँ इसी क्रिया से बदली जाती हैं। मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में इसी प्रणाली से संशोधन किया जा सकता है।

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के किन्हीं दो स्रोतों की पहचान कीजिए। संक्षेप में उन प्रावधानों का वर्णन कीजिए जो इन स्रोतों से लिए गए हैं।
उत्तर:
भारत के संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया। यह संविधान सभा 1946 में चुनी गयी। सभा के सभी सदस्य भारतीय थे। ये सभी दलों का प्रतिनिधित्व करते थे परंतु कांग्रेस पार्टी के सबसे अधिक सदस्य थे। इस सभा की शक्तियों पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं था। संविधान का निर्माण बड़े वाद-विवाद और गहन विचार के बाद किया गया। संविधान बनाते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया कि भविष्य में इस दस्तावेज में संशोधन की आवश्यकता भी पड़ सकती है। संविधान में उन आदर्शों, आकांक्षाओं, मूल्यों, प्रेरणाओं और आवश्यकताओं को स्थान देने का प्रयास किया जो भारत की जनता के लिए अधिक से अधिक हितकर हों।

भारतीय संविधान के दो प्रमुख स्रोत –

1. 1935 का भारतीय शासन अधिनियम:
भारतीय संविधान का सबसे अधिक प्रभावशाली स्रोत, भारतीय शासन अधिनियम 1935 ही है। भारतीय संविधान के 395 अनुच्छेदों में से लगभग 250 अनुच्छेद ऐसे हैं जो 1935 के भारतीय शासन अधिनियम से या तो शब्दशः लिये गए हैं या फिर उनमें बहुत थोड़ा परिवर्तन किया गया है। भारतीय शासन अधिनियम 1935 से प्रमुखतया इन प्रावधानों को लिया गया है:

  • शक्ति विभाजन की तीन सूचियों।
  • केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल पद की व्यवस्था।
  • वर्तमान संविधान 1935 के अधिनियम की भांति ही प्रशासनिक व्यवस्था के उल्लेख सहित एक विस्तृत वैधानिक प्रलेख है।
  • नवीन संविधान और 1935 के शासन अधिनियम में केवल सैद्धान्तिक और सारपूर्ण समानताएँ ही नहीं वरन् भाषा और रचना सम्बन्धी समानताएँ भी हैं।

2. ब्रिटेन का संविधान:
ब्रिटेन के संविधान से संसदात्मक शासन, कानून निर्माण प्रक्रिया, विधायिका के अध्यक्ष का पद, इकहरी नागरिकता, इकहरी न्यायपालिका के ढाँचे का प्रावधान आदि भारतीय संविधान में लिए गए हैं।

3. अमेरिका का संविधान:
अमरीका के संविधान से संघीय व्यवस्था, संविधान की सर्वोच्चता, मौलिक अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था, न्यायिक पुनरावलोकन, निर्वाचित राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की व्यवस्था, संविधान के संशोधन में इकाइयों की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन आदि प्रावधान मुख्य हैं।

4. कनाडा का संविधान:
कनाडा के संविधान में केन्द्र को राज्यों से अधिक शक्तिशाली बनाया गया। अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र को सौंपी गयी।

5. आयरलैण्ड का संविधान:
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत आयरलैंड के संविधान से लिये गए हैं।

6. जर्मन संविधान:
आपातकालीन व्यवस्था जर्मनी के संविधान से लिया गया है।

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प्रश्न 3.
आप किस प्रकार कह सकते हैं कि हमारा संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है।
उत्तर:
हमारे संविधान को एक जीवन्त दस्तावेज माना गया है। यह दस्तावेज एक जीवन्त प्राणी की तरह समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को पंजीकृत किया गया और 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया। 56 वर्षों के बाद भी यह संविधान कार्य कर रहा है परंतु समय-समय पर परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप उसमें अब तक 92 संशोधन किए जा चुके हैं। संविधान निर्माताओं को यह आभास था कि भविष्य में इस संविधान में परिवर्तन की आवश्यकता होती रहेगी, अतः उन्होंने इसके संशोधन की विधि को तीन श्रेणियों में विभाजित किया।

कुछ अनुच्छेदों में साधारण विधि प्रक्रिया की भाँति संशोधन किया जा सकता है। कुछ अनुच्छेदों में संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन हो सकता है तथा कुछ महत्त्वपूर्ण अनुच्छेदों में संसद के विशेष बहुमत के साथ आधे राज्यों से भी अनुमति लेनी पड़ती है। अतः समय के साथ-साथ इसमें संशोधन भी हो रहे हैं तथा इसका मूल ढाँचा आज तक अपरिवर्तनीय बना हुआ है। यह संविधान लचीले और कठोर का समन्वय है। हमारा संविधान गतिमान बना हुआ है। जीवन्त प्राणी की ही तरह यह अनुमान से सीखता है। समाज में इतने सारे परिवर्तन होने के बावजूद भी हमारा संविधान अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। यह प्रजातांत्रिक संविधान का असली मापदण्ड है।

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प्रश्न 4.
आपके विचार से लोकतांत्रिक देशों में संविधान का महत्त्व अपेक्षाकृत क्यों अधिक होता है?
उत्तर:
हम निम्नलिखित कारणों की वजह से सोचते हैं कि संविधान भारत जैसे लोकतांत्रिक राज्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है –
1. एक लोकतांत्रिक देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देश के नागरिक सरकार के कार्यप्रणाली में भाग लेते हैं। सरकार ही वह संस्था है जिसमें सारे देश का शक्तियाँ निहित होती हैं इन शक्तियों का उल्लेख संविधान में दिया गया है।

2. हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। संविधान इन तीनों अंगों के कार्यक्षेत्र, कर्तव्यों और अधिकारों आदि का प्राप्य विवरण अपने में समाए होता है। लिखित रूप होने के कारण सरकार के तीनों अंग केवल अपने-अपने अधिकारों और कार्यक्षेत्रों तक सीमित रहते हैं। वे एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते।

3. संविधान लोकतांत्रिक सरकार में नागरिक को अधिकार और कर्तव्य देता है। सरकारें बदलती रहती हैं। कोई भी सरकार अपनी मनमानी करके नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं कर सकती। अगर गलती से वह करना भी चाहती है तो संविधान में न्यायपालिका की व्यवस्था और उस पर नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण का दायित्व दिया होता है।

4. संविधान एक जीवित पत्र होता है जिसमें समयानुसार, नागरिकों का इच्छानुसार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता अनुसार समय-समय पर संशोधन की गुजाइंश होती है उसके लिए निर्धारित प्रक्रिया होती है।

5. कई बार लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अपनाई जाती है। इसके अंतर्गत दो सरकारें-संघ सरकार और राज्य सरकार साथ-साथ कार्य करती है। विषय सूचियों के माध्यम से दोनों सरकारों के अधिकार और कार्यक्षेत्र दिए गए विषयों के माध्यम से निर्धारित होते हैं। कई बार ऐसा होता कि केन्द्र में किसी एक दल या कुछ दलों की संयुक्त सरकार होती है यद्यपि विभिन्न राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें होती हैं।

दोनों स्तरों की सरकारों में टकराव न हो या एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के लगाने के अवसर कम से कम या बिल्कुल भी उत्पन्न न हों ऐसी व्यवस्थाएँ केवल संविधान में ही संभव है। संक्षेप में, लोकतंत्रीय देश में अन्य देशों की अपेक्षा संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

प्रश्न 5.
“संविधान सभा के द्वारा अपना कार्य बड़े उत्साह से सम्पन्न किया गया” कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संविधान सभा की पहली बैंठक 9 दिसंबर, 1946 को दिल्ली में हुई। मुस्लिम लीग के सदस्यों ने इसमें भाग नहीं लिया। कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया जिनमें से प्रारूप समिति, केन्द्रीय संविधान समिति, मौलिक अधिकारों से संबंधित समिति इत्यादि प्रमुख थी। 13 दिसम्बर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्यों संबंधी प्रस्ताव रखा, जिसमें उन्होंने संविधान सभा की जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया।

नेहरू जी द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव के अनुसार सभा में भारत को एक स्वाधीन प्रभुता-संपन्न गणराज्य बनाने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की गई। इस गणतंत्र में ब्रिटिश भारत और भारतीय देशों राज्यों के अलावा उन सभी क्षेत्रों को मिलाना था जो स्वाधीन प्रभुता-संपन्न भारत में शामिल होने के इच्छा व्यक्त करें। संविधान सभा ने यह घोषणा भी की कि स्वाधीन प्रभुता-संपन्न भारत में सभी व्यक्तियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, पद और न्याय, अवसर की तथा विश्वास, मत, पूजा, व्यवस्था, संगठन और कार्य की स्वतंत्रता दी जायगी।

यही संविधान सभा स्वतंत्र भारत की संसद भी थी। 14 अगस्त, 1947 को उसे संबोधित करते हुए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ये स्मरणीय शब्द कहे थे-“बहुत वर्ष पहले हमने अपने भाग्य के विषय में निश्चय किया था और अब समय आ गया है कि पूर्णतया नहीं तो बहुत अंश में हम अपना वचन पूरा करें। आधी रात का घंटा बजने के साथ, जबकि पूरा विश्व सो रहा होगा, भारत जीवन और स्वाधीनता के लिए जागृत होगा।

इतिहास में बहुत कम ऐसे क्षण होते हैं जब पुराने से नए की ओर संक्रमण होता है, जब एक युग का अंत होता है और लंबे समय से किसी राष्ट्र की दबी हुई आत्मा मुखर हो उठती है-उचित यही होगा कि हम इस पवित्र क्षण में भारत और उसकी जनता की सेवा के लिए तथा मानवता, उससे भी व्यापकतर मानवता की सेवा के लक्ष्यों के प्रति समर्पित होने का संकल्प करें। संविधान सभा की ओर से उन्होंने भारत की जनता से अपील की कि “वह इस महान अभियान में हममें आस्था और विश्वास रखकर हमारा साथ दें-यह तुच्छ और विनाशकारी आलोचना का समय नहीं है, दुर्भावना पालने और दूसरों को दोष देने का समय नहीं है-हमें स्वतंत्र भारत का ऐसा श्रेष्ठ महल बनाना है, जहाँ उसके सारे बच्चे सुख से रह सकें।”

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प्रश्न 6.
आपके विचार से लोकतांत्रिक देशों में संविधान का महत्त्व अपेक्षाकृत क्यों अधिक होता है?
उत्तर:
हम निम्नलिखित कारणों की वजह से सोचते हैं कि संविधान भारत जैसे लोकतांत्रिक राज्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है –
1. एक लोकतांत्रिक देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देश के नागरिक सरकार की कार्यप्रणाली में भाग लेते हैं। सरकार ही वह संस्था है जिसमें सारे देश की शक्तियाँ निहित होती है, इन शक्तियों का उल्लेख संविधान में दिया होता है।

2. हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग-विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। संविधान इन तीनों अंगों के कार्यक्षेत्रों और अधिकारों आदि का प्राप्य विवरण अपने में समाए होता है लिखित रूप में होने के कारण सरकार के तीनों अंग केवल अपने-अपने अधिकारों और कायक्षेत्रों तक सीमित रहते हैं। वे एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते।

3. संविधान लोकतांत्रिक सरकार में नागरिक को अधिकार और कर्त्तव्य देता है। सरकारें बदलती रहती हैं। कोई भी सरकार अपनी मनमानी करके नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं कर सकती। अगर गलती से वह करना भी चाहती है तो संविधान में न्यायपालिका की व्यवस्था और उस पर नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण का दायित्व दिया होता है।

4. संविधान एक जीवित पत्र होता है जिसमें समयानुसार नागरिकों की इच्छानुसार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता अनुसार समय-समय पर संशोधन की गुंजाइश होती है उसके लिए निर्धारित प्रक्रिया होती है।

5. कई बार लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अपनाई जाती है। इसके अन्तर्गत दो सरकारें-संघ सरकार और राज्य सरकार साथ-साथ कार्य करती है। विषय सूचियों के माध्यम से दोनों सरकारों के अधिकार और कार्यक्षेत्र दिए गए विषयों के माध्यम से निर्धारित होते हैं। कई बार ऐसा होता है कि केन्द्र में किसी एक दल या कुछ दलों की संयुक्त सरकार होती है यद्यपि विभिन्न राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें होती हैं। दोनों स्तरों की सरकारों में टकराव न हो या एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के लगने के अवसर कम से कम या बिल्कुल भी न उत्पन्न हों ऐसी व्यवस्थाएँ केवल संविधान में ही संभव है। संक्षेप में लोकतंत्रीय देश में अन्य देशों की अपेक्षा संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है।

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प्रश्न 7.
संविधान सभा का गठन कैसे हुआ एवं इसके कार्य प्रणाली की समीक्षा करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान का निर्माण. एक संविधान सभा द्वारा हुआ। संविधान सभा के निर्माण का निर्णय कैबिनेट मिशन योजना में लिया गया। इस संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 5 चीफ कमिश्नर, क्षेत्रों के प्रतिनिधि और 93 देशी रियासत के प्रतिनिधि थे। योजना में कहा गया कि प्रांतों से भेजे जाने वाले प्रतिनिधि प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या पर एक हो। प्रत्येक प्रांत का स्थान तीन प्रमुख समुदायों सामान्य, सिख और मुसलमानों के बीच जनसंख्या के अनुपात में हो।

संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय एसेबम्ली द्वारा अनुपातिक प्रतिनिधित्व एवं एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा किया गया। देशी रियायतों के सदस्य का निर्वाचन उनके परामर्श से किया गया। 3 जून, 1997 में भारत विभाजन के बाद संविधान में सदस्यों की संख्या 296 रह गयी। संविधान सभा की कार्यवाही को संचालित करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया। इन समितियों के माध्यम से विभिन्न विषयों पर खुलकर विचार विमर्श हुए। यह समिति दो तरह के थे प्रथम, संविधान निर्माण प्रक्रिया में प्रश्नों को हल करने वाली समिति और दूसरा संविधान निर्माण की समिति। इन्हीं समितियों के प्रयासोंपरांत 2 वर्ष 11 महीना 18 दिन के बाद 26 नवंबर, 1949 को संविधान बनकर तैयार हुआ और 26 जनवरी, 1950 से लागू हुआ।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत के मूल संविधान में कितने अनुच्छेद हैं?
(क) 400
(ख) 395
(ग) 390
(घ) 385
उत्तर:
(ख) 395

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान –
(क) लचीला है
(ख) लचीला और कठोर का सामजस्य है
(ग) अचल है
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) लचीला और कठोर का सामजस्य है

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Bihar Board Class 11 Political Science स्थानीय शासन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
भारत का संविधान ग्राम पंचायत को स्व-शासन की इकाई के रूप में देखता है। नीचे कुछ स्थितियों का वर्णन किया गया है। इन पर विचार कीजिए और बताइए कि स्व-शासन की इकाई बनने के क्रम में ग्राम पंचायत के लिए ये स्थितियाँ सहायक हैं या बाधक?
उत्तर:
(a) प्रदेश की सरकार ने एक बड़ी कंपनी को विशाल इस्पात संयंत्र लगाने की अनुमति दी है। इस्पात संयंत्र लगाने से बहुत-से गाँवों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। दुष्प्रभाव की चपेट में आनेवाले गाँवों में से एक ग्राम सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया कि क्षेत्र में कोई भी बड़ा उद्योग लगाने से पहले गाँववासियों की राय ली जानी चाहिए और उनकी शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए। यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए मददगार है।

(b) सरकार का फैसला है कि उसके कुल खर्चे का 20 प्रतिशत पंचायतों के माध्यम से व्यय होगा। यह स्थिति भी ग्राम पंचायत के लिए मददगार है।

(c) ग्राम पंचायत विद्यालय का भवन बनाने के लिए लगातार धन माँग रही है, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने माँग को यह कहकर ठुकरा दिया है कि धन का आबंटन कुछ दूसरी योजनाओं के लिए हुआ है और धन को अलग मद में खर्च नहीं किया जा सकता। यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक है।

(d) सरकार ने डुंगरपुर नामक गाँव को दो हिस्सों में बाँट दिया है और गाँव के एक हिस्से को जमुना तथा दूसरे को सोहना नाम दिया है। अब डुंगरपुर नाम गाँव सरकारी खाते में मौजूद नहीं है। यदि डूंगरपुर के दो हिस्से जमुना और सोहना अलग हैं किन्तु उनकी ग्राम पंचायत एक ही है तो कोई अंतर नहीं पड़ता परंतु यदि सरकार किसी ग्राम के दो हिस्से बनाती है और इसमें वहाँ की ग्राम पंचायत की सहमति नहीं ली जाती तो यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक है।

(e) एक ग्राम पंचायत ने पाया कि उसके इकाई में पानी के स्रोत तेजी से कम हो रहे हैं। ग्राम पंचायत ने फैसला किया कि गाँव के नौजवान श्रमदान करें और गाँव के पुराने तालाब तथा कुएँ को फिर से काम में आने लायक बनाएँ। यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए मददगार है।

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प्रश्न 2.
मान लीजिए कि आपको किसी प्रदेश की तरफ से स्थानीय शासन की कोई योजना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ग्राम पंचायत स्व-शासन की इकाई के रूप में काम करे, इसके लिए आप उसे कौन-सी शक्तियाँ देना चाहेंगे? ऐसी पाँच शक्तियों का उल्लेख करें और प्रत्येक शक्ति के बारे में दो-दो पंक्तियों में यह भी बताएँ कि ऐसा करना क्यों जरूरी है।
उत्तर:
ग्राम पंचायत स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य करे, इसके लिए ग्राम पंचायत को निम्नलिखित शक्तियाँ देनी होंगी –

1. ग्राम पंचायत को विकास संबंधी कार्य करने की शक्ति प्रदान की जाएगी। ग्राम में उत्पादन बढ़ाना, कृषकों के प्रयोग के लिए कृषि के यंत्र खरीदना, बेकार भूमि को कृषि योग्य बनाना, पशुओं की नस्ल सुधारना, अच्छे बीजों की व्यवस्था करना, सहकारिता को बढ़ावा देना, कुटीर उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन देना और लघु बचत योजना को बढ़ावा देनां। ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि ग्रामीण व्यक्तियों की आय बढ़ाना जरूरी है। गाँव के लोग अत्यधिक गरीब हैं उनको जीवनयापन के लिए खेती और उससे सम्बन्धित कार्यों में सुधार लाना आवश्यक है।

2. गाँव के लोगों को जीवन की आवश्यकता सुविधाएँ प्राप्त करना आवश्यक है। ग्राम पंचायतें इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती हैं। जैसे रोशनी का प्रबंध, गंदे पानी की निकासी, सफाई के व्यवस्था, पीने की पानी की व्यवस्था, सड़कें और पुल बनवाना आदि।

3. जनकल्याण संबंधी कार्य कराना भी इस ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जैसे बच्चों के लिए बाल हित केन्द्र खुलवाना, स्त्रियों के लिए प्रसूति-गृह, पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए विकास के कार्यक्रम बनाना, मनोरंजन के लिए मेले लगवाना, अखाड़ों की व्यवस्था करना आदि।

4. शिक्षा संबंधी कार्य कराना जिससे ग्रामीण लोगों का मानसिक विकास हो। ग्रामोंफोन की सुविधा, पुस्तकालय, वाचनालय खुलवाना आदि। इन सब कार्यों के करने से ग्रामीण नवयुवकों को आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त होता है। उनका पिछड़ापन दूर होता है तथा वे राष्ट्रीय धारा में सम्मिलित होकर उन्नति के अवसर खोज सकते हैं।

5. गाँव के बाहर एक खेल स्टेडियम बनवाना। ऐसा करने से गाँव के लड़के-लड़कियों को अपनी खेल प्रतिभा को चमकाने का अवसर मिलेगा।

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प्रश्न 3.
सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73 वें संशोधन में आरक्षण के क्या प्रावधान हैं? इन प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका किस तरह बदला है?
उत्तर:
73 वें संशोधन के बाद पंचायती राज-संस्थाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित है। तीनों स्तरों पर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। यह व्यवस्था अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में की गयी है। यदि प्रदेश की सरकार जरूरी समझे तो अन्य पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण दे सकती है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित स्थानों में भी एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

राज्य की जनसंख्या के अनुपात में पंचायत के सभी स्तरों पर प्रधानों के स्थान अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होंगे। प्रधान के पदों का एक तिहाई भाग महिलाओं के लिए आरक्षित होगा। राज्य विधानमंडलों को इस बात की स्वतंत्रता होगी कि वे पंचायतों के प्रधानों के स्थान अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर सकते हैं। पूरे ग्रामीण समाज का प्रतिनिधित्व हो इसीलिए आरक्षण की व्यवस्थ लागू की गयी है। 2 अक्टूबर, 1994 से सारे देश में पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई है। विभिन्न प्रदेशों पंचायत राज की खामियों को दूर करने के लिए ग्रामों में स्वतंत्र या दूसरे शब्दों में ‘ग्राम स्वराज’ की नयी व्यवस्था लागू करने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 4.
संविधान के 73 वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद के स्थानीय शासन के बीच मुख्य भेद बताएँ।
उत्तर:
प्राचीन काल में भारत में ‘सभा’ के रूप में ग्राम समुदाय अपना शासन स्वयं चलाते थे। ब्रिटिश काल में 1882 के बाद स्थानीय शासन के निर्वाचित निकाय अस्तित्व में आए। लार्ड रिपन ने इन निकायों को बनाने की दिशा में पहल की। उसके बाद 1919 के एक्ट में प्रांतों/सूबों में ग्राम पंचायत बनी। 1935 के गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही। जब संविधान बना तो स्थानीय शासन का विषय प्रदेशों को सौंपा गया। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का अंग होने के कारण यह प्रावधान अदालती बाद के दायरे में नहीं आता था और इसकी प्रकृति मुख्यतया सलाह-मशवरा की थी। इस प्रकार पंचायती राज को संविधान में यथोचित महत्त्व नहीं मिला।

परंतु 73 वें संविधान संशोधन के बाद स्थानीय शासन को सुदृढ़ बनाया गया। यूँ तो इससे पहले भी कुछ प्रयास किए गए जैसे 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की गयी। 1987 के बाद स्थानीय शासन के गहन पुनरावलोकन की शुरूआत हुई। 1989 में धुंगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की। 1989 में केन्द्र सरकार ने दो संविधान संशोधनों की बात आगे बढ़ायी। 1992 में संविधान के 73 वें 74 वें संशोधन पारित हुए। 1993 में 73 वाँ संशोधन लागू हुआ। संशोधन के बाद राज्य सरकारों को यह छूट नहीं रही कि वे अपने मर्जी के अनुसार पंचायतों के बारे में कानून बना सकें। प्रदेशों को ऐसे कानून बदलने पड़े ताकि उन्हें संशोधित संविधान के अनुरूप किया जा सके।

प्रदेशों को अपने कानूनों में बदलाव के लिए एक वर्ष का समय दिया गया। 2 अक्टूबर, 1994 से पूरे देश में पंचायती राज व्यवस्था को मजबूती प्रदान कर दी गयी है और सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा त्रिस्तरीय हो गया। 73 वें संशोधन के बाद से ग्राम सभा अनिवार्य रूप से बनायी जानी चाहिए। पंचायती निकायों की अवधि पाँच वर्ष और हर पाँच वर्ष के बाद चुनाव अनिवार्य है। यदि प्रदेश की सरकार पाँच वर्ष पूरे होने से पहले पंचायत को भंग करती है तो उसके 6 माह के भीतर नया चुनाव कराना अनिवार्य है। संविधान के 73 वें संशोधन से पहले कई प्रदेशों जिला पंचायत-निकायों का चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से था परंतु अब यह भी सीधा (प्रत्यक्ष) जनता द्वारा कराया जाता है।

पंचायतों को भंग करने के बाद तत्काल चुनाव के संबंध में कोई प्रावधान नहीं था। इसके अतिरिक्त महिलाओं का आरक्षण संशोधन से पहले नहीं था परंतु संशोधन के बाद एक तिहाई सीटों का महिलाओं के लिए आरक्षण अनिवार्य कर दिया गया है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में भी प्रत्येक में महिलाओं का एक तिहाई आरक्षण अनिवार्य है। संशोधन से पूर्व राज्य सूची के 29 विषय अब 11वीं अनुसूचित में दर्ज कर लिए गए हैं। प्रदेशों के लिए हर 5 वर्ष बाद एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना जरूरी है। यह आयोग एक तरफ प्रदेश और स्थानीय शासन की व्यवस्थाओं के बीच तो दूसरी तरफ शहरी और ग्रामीण स्थानीय शासन की संस्थाओं के बीच राजस्व के बँटवारे का पुनरावलोकन करेगा।

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प्रश्न 5.
नीचे लिखी बातचीत पढ़ें। इस बातचीत में जो मुद्दे उठाए गए हैं उनके बारे में अपना मत दो सौ शब्दों में लिखें।
आलोक:
हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्थानीय निकायों में स्त्रियों को आरक्षण देने से सत्ता में उनकी बराबर की भागीदारी सुनिश्चित हुई है।

नेहा:
लेकिन, महिलाओं को सिर्फ सत्ता के पद पर काबिज होना ही काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि स्थानीय निकायों के बजट में महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान हो।

जयेश:
मुझे आरक्षण का यह गोरखधन्धा पसंद नहीं। स्थानीय निकाय को चाहिए कि वह गाँव के सभी लोगों का ख्याल रखे और ऐसा करने पर महिलाओं और उनके हितों की देखभाल अपने आप हो जायगी।

उत्तर:
यह बातचीत स्त्रियों को समानाधिकार संबंधी विषय से सम्बन्धित है। हमारा संविधान स्त्री और पुरुष को समान अधिकार देता है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, लिंग, जाति, नस्ल और जन्मस्थान या इनमें से किसी एक के भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। अनुच्छेद 39 (क) के अनुसार राज्य अपनी नीति का विशिष्टतया इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो तथा 39 (घ) के अनुसार पुरुष और स्त्रियों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन हो।

अनुच्छेद 40 के अनुसार राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करने के लिए कदम उठाएगा, परंतु व्यवहार में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार अभी तक पूरी तरह नहीं दिए गए। समय-समय पर उनके अधिकारों का उल्लंघन होता रहता है। यद्यपि अनुच्छेद 243 के अनुसार ग्राम पंचायतों के अंतर्गत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों में भी एक तिहाई स्थान 73 वें संशोधन के बाद, महिलाओं के लिए आरक्षित हैं और एक तिहाई स्थान पूरे पंचायत के अन्तर्गत भी आरक्षित किए गए हैं परंतु अभी भी स्त्रियों के नाम से उनके परिजन ही पंचायत के कार्यों में अपनी भूमिका अदा करते हैं और स्त्रियों को स्वतंत्रातापूर्वक निर्णय नहीं लेने देते।

आलोक के विचार में संविधान स्त्री पुरुष दोनों को समान मानता है। स्थानीय निकायों में आरक्षण से स्त्रियों को पुरुषों के बराबर लाने का प्रयास किया गया है लेकिन नेहा के विचार से बजट में स्त्रियों के लिए अलग से प्रावधान होना चाहिए। परंतु जयेश का विचार है कि स्थानीय निकायों को अपने सभी नागरिकों के हित के लिए कार्यक्रम करने चाहिए अर्थात् पंचायतें सभी ग्रामवासियों के कल्याण के कार्यक्रम बनाएँ तो स्वतः ही स्त्रियों का भी कल्याण होगा। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि ग्राम पंचायतें कितनी भी नीतियों सभी के कल्याण के लिए बनाएँ जिनमें स्त्रियों का कल्याण भी सम्मिलित है परंतु जब तक स्त्रियाँ सत्ता में अनिवार्य तौर पर भागीदार नहीं बनेगी तब तक उनका हित साधन नहीं हो सकता। अतः आरक्षण भी जरूरी है।

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प्रश्न 6.
73 वें संशोधन के प्रावधानों को पढ़ें। यह संशोधन निम्नलिखित सरोकारों में से किससे ताल्लुक रखता है?
1. पद से हटा दिए जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
उत्तर:
73 वें संशोधन (1993) के बाद से प्रत्येक 5 वर्ष के बाद पंचायत का चुनाव कराना अनिवार्य है। यदि राज्य सरकार 5 वर्ष से पहले ही पंचायत को भंग करती है तो 6 माह के अंदर चुनाव कराना अनिवार्य है। इस प्रकार चुनाव के भय के कारण प्रतिनिधि उत्तरदायी बने रहते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं जनता चुनाव में उन्हें हरा न दें।

2. भूस्वामी सामंत और ताकतवर जातियों का स्थानीय निकायों में दबदबा रहता है।
उत्तर:
1993 के 73वें संशोधन के बाद से पंचायत के चुनाव में महिलाओं, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन जातियों के लिए आरक्षण अनिवार्य बना दिया गया। अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन जातियों का आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में रखा गया। प्रत्येक वर्ग में महिलाओं को एक तिहाई सीटों पर आरक्षण दिया गया। भूस्वामी सामन्त और ताकतवार जातियों के लोग सत्ता छोड़ना नहीं चाहते थे परंतु इस संशोधन के बाद अनिवार्य तौर पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा महिलाओं को स्थानीय शासन में सत्ता प्राप्त हुई।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता बहुत ज्यादा है। निरक्षर लोग गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते हैं।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्र में निरक्षरता बहुत है। निरक्षर लोग गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते। इस कारण उनको शिक्षित करने के लिए पंचायत के अधिकार में आने वाले 29 विषय ग्यारहवीं अनुसूची में 73वें संशोधन द्वारा डाले गए। प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा इनमें से एक विषय है। राज्य सरकार का दायित्व है कि इन प्रावधानों को लागू करे।

4. प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास गाँव की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन का होना जरूरी है।
उत्तर:
पंचायतों को लेवी कलेक्ट करने, उचित टैक्स लगाने, ड्यूटी टोल टैक्स तथा शुल्क लगाने का अधिकार है जो राज्य सरकार द्वारा बनाये गए प्रावधानों के अन्तर्गत हो। राज्य वित्त आयोग की स्थापना भी हर पाँच वर्ष बाद करने की अनिवार्यता बना दी गई है जो पंचायत के वित्त का रिव्यू करती है। साथ ही राज्य सरकार से यह सिफारिश भी करती है कि पंचायतों को कितना अनुदान दिया जाय। उपरोक्त सभी सरकारों में से सबसे महत्त्वपूर्ण सरोकार जिससे यह संशोधन ताल्लुक रखता है वह (क) भाग है अर्थात् पद से हटा दिए जाने का भय जन प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।

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प्रश्न 7.
नीचे स्थानीय शासन के पक्ष में कुछ तर्क दिए गए हैं। इन तर्कों को आप अपनी पसंद से वरीयता क्रम में सजाएँ और बताएँ कि किसी एक तर्क की अपेक्षा दूसरे को आपने ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्यों माना है। आपके जानते वेंगेइवंसल गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला निम्नलिखित कारणों में से किस पर और कैसे आधारित था?
(क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।
(ख) स्थानीय जनता द्वारा बनायी गई विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गई विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।
(ग) लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
(घ) आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन-प्रतिनिधियों से संपर्क कर पाना मुश्किल होता है।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन के पक्ष में जो विभिन्न तर्क दिए गए हैं। इनके वरीयता क्रम निम्न प्रकार हैं –
1. प्रथम वरीयता भाग (घ) को दी जाएगी क्योंकि आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन प्रतिनिधियों से सम्पर्क कर पाना मुश्किल होता है। अतः वे स्थानीय शासन के प्रतिनिधियों से सीधे सम्पर्क में रहने के कारण अपनी समस्याओं की शिकायत उनसे। करके शीघ्र समाधान करा सकते हैं।

2. द्वितीय वरीयता भाग (ग) लोग अपने इलाके, अपनी जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।

3. तीसरे क्रम पर भाग (ख) अर्थात् स्थानीय जनता द्वारा बनायी गई विकास योजना सहकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गयी विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।

4. चौथी वरीयता पर भाग (क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है वा गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला इस तक पर आधारित था मन्ना का बनाया यो विकास योजना सरकारी अधिकारी द्वारा बनायी गयी विकास चा स्वीकृत होता है।

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प्रश्न 8.
आपके अनुसार निम्नलिखित में कौन-सा विकेंद्रीकरण का साधन है? शेष को ‘विकेंद्रीकरण के साधन के रूप में आप पर्याप्त विकल्प क्यों नहीं मानते?
(क) ग्राम पंचायत का चुनाव कराना।
(ख) गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत।
(घ) प्रदेश सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। प्रखंड विकास अधिकारी (बीडीओ) ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है।
उत्तर:
ग्राम पंचायत का चुनाव करना एक प्रक्रिया है। यद्यपि यह स्थानीय शासन का एक भाग तो है परंतु उपरोक्त प्रश्न में दिए गए कथनों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विकेन्द्रीकरण का साधन है कि गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है। ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत भी उसका एक भाग तो हो सकती है परंतु यह विकेन्द्रीकरण का साधन होने के लिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह बैठक तो उच्च अधिकारी भी बुला सकते हैं।

जब तक गाँव के निवासी ही इस ताकत का प्रयोग न करें तब तक यह विकेन्द्रीकरण का आम नागरिक (ग्रामीण) की समस्या और उसका दैनिक जीवन एवं दैनिक जीवन की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए ग्रामीण लोग ग्राम पंचायत के द्वारा अपनी समस्याओं का सामाधान करें यही सच्चा लोकतंत्र है और लोकतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना ही चाहिए जो कि स्थानीय लोगों की सत्ता में भागीदारी से ही हो सकता है।

एक ग्राम पंचायत को प्रखंड विकास पदाधिकारी द्वारा इस आशय की रिपोर्ट प्राप्त होना कि प्रदेश की सरकार चालू अमुक परियोजना की प्रगति कहाँ तक हुई है, यह विकेन्द्रीकरण का साधन नहीं है। यह इसलिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि अमुक परियोजना ग्राम सभा या ग्राम पंचायत के द्वारा तो नहीं चलायी जा रही है। अतः विकेन्द्रीकरण का साधन वास्तव में (ख) भाग ही है अर्थात् गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।

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प्रश्न 9.
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र प्राथमिक शिक्षा के निर्णय लेने में विकेन्द्रीकरण की भूमिका का अध्ययन करना चाहता था। उसने गाँववासियों से कुछ सवाल पूछे। ये सवाल नीचे लिखे हैं। यदि गाँववासियों में आप शामिल होते तो निम्नलिखित प्रश्नों के क्या उत्तर देते? गाँव का हर बालक/बालिका विद्यालय जाय, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए-इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा की बैठक बुलाई जानी है।

1. बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला आप कैसे करेंगे? सोचिए कि आपके चुने हुए दिन में कौन बैठक में आ सकता है और कौन नहीं?

  • प्रखंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
  • गाँव का बाजार जिस दिन लगता है।
  • रविवार।
  • नागपंचमी/संक्राति।

2. बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? कारण भी बताएँ।

  • जिला कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह।
  • गाँव का कोई धार्मिक स्थान।
  • दलित मोहल्ला।
  • ऊँची जाति के लोगों का टोला।
  • गाँव का स्कूल।

3. ग्राम सभा की बैठक में पहले जिला-समाहर्ता (कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया। परिपत्र में बताया गया था कि शैक्षिक रैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम इठये जाएँ और रैली किस रास्ते से होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में, विद्यालय भवन की दशा के बारे में और विद्यालय के खुलने-बंद होने के समय के बारे में भी चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आ सकी। लोगों की भागीदारी के लिहाज से इसको आप अच्छा कहेंगे या बुरा? कारण भी बताएँ।

4. अपनी कक्षा की कल्पना ग्राम सभा के रूप में करें। जिस मुद्दे पर बैठक में चर्चा होनी थी उस पर कक्षा में बातचीत करें और लक्ष्य को पूरा करने के लिए कुछ उपाय सुझायें।
उत्तर:
बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला करने के लिए यह सोचना होगा कि बैठक में अधिक से अधिक उपस्थिति किस दिन हो सकती है। जो दिन प्रश्न में सुझाये गए हैं वह इस प्रकार है:

  • प्रखंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
  • जिस दिन गाँव का बाजार लगता है।
  • रविवार
  • नागपंचमी/संक्राति

इन सब दिनों में प्रखंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन उपयुक्त रहेगा क्योंकि जिस दिन बाजार लगता है, ग्रामीण अपनी खरीदारी करते हैं और उपस्थिति कम रहेगी। रविवार का दिन इस कारण उपयुक्त नहीं होगा क्योंकि उस दिन महिला शिक्षक मीटिंग अटैण्ड नहीं कर पायेंगी। नागपंचमी अथवा सक्रांति पर्व पर बैठक बुलाने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि उस दिन ग्रामवासी अपना त्योहार मानने में संलग्न रहेंगे।

5. बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा, कारण भी बताएँ। इसके लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि स्थान वह चुना जाना चाहिए जहाँ अधिकतम ग्रामीण ग्राम सभा की बैठक में उपस्थित हो सकें।

  • जिला कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह पर बैठक करने अथवा।
  • किसी धार्मिक स्थान पर गाँव में बैठक का स्थान सोचा जाय या।
  • दलित मोहल्ला अथवा।
  • ऊँची जाति के लोगों का टोला।
  • गाँव का स्कूल।

इन सभी स्थानों पर सभी ग्रामीण एकत्रित नहीं हो सकते क्योंकि दलितों के यहाँ सवर्ण और सवर्णों के टोले पर दलित लोग एतराज कर सकते हैं। धार्मिक स्थान पर भी सभी लोग इकट्ठा होने में एकमत नहीं होंगे। अत: (e) ग्रामीण स्कूल बैठक के लिए सबसे उपयुक्त स्थान होगा।

6. ग्राम सभा के बैठक में पहले जिला-समाहर्ता (कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया। परपित्र में बताया गया था कि शैक्षिक शैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएँ और रैली किस रास्ते से होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में भी चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आयी। जनता की भागीदारी के लिहाज से बैठक की इस कार्यवाही में कोई कार्य जनता के हित में नहीं किया गया। कलेक्टर द्वारा भेजे गए पत्र में मुख्य समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि स्थानीय समस्याएँ तो स्थानीय व्यक्तियों की भागीदारी से ही सुलझाई जा सकती है।

7. अपनी कक्षा की ग्राम सभा के रूप में कल्पना करते हुए सर्वप्रथम हम एक मीटिंग (बैठक) बुलाने की घोषणा करेंगे। बैठक का एजेण्डा इस प्रकार होगा –

  • उन बच्चों की समस्या पर चर्चा जो कभी स्कूल नहीं आते।
  • गरीबी उन्मूलन के उपाय।
  • ग्राम की गलियों की दशा पर चर्चा।
  • सांस्कृतिक कार्यक्रम।
  • उपरोक्त कार्यक्रम के लिए धन की व्यवस्था।
  • ग्राम प्रधान द्वारा समापन-भाषण।

Bihar Board Class 11 Political Science स्थानीय शासन Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नगर निगम की संरचना और कार्य प्रणाली का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नगर निगम स्थानीय शहरी निकायों में सबसे ऊपर है। जिन नगरों की जनसंख्या दस लाख से ऊपर होती है, वहाँ नगर निगमों की स्थापना की जाती है। आज भारत में 30 ऐसे नगर हैं जहाँ नगर निगम स्थापित हैं। नगर निगम का चुनाव मतदाता करते हैं। एक नगर निगम में जितनी सीटें होती हैं, उस नगर में उतने ही निर्वाचन क्षेत्र बनाए जाते हैं। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। इसे सभासद कहते हैं। सभासद कुछ वरिष्ठ सदस्यों का चयन करते हैं। नगर निगम अपनी समितियों द्वारा विभिन्न कार्य करते हैं। निगम में निर्णय बहुमत के आधार पर किए जाते हैं।

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प्रश्न 2.
स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से अभिप्राय:
स्थानीय मामलों का प्रबंध करने वाली संस्थाओं को स्वशासन संस्थाएँ कहते हैं। ये संस्थाएँ किसी देश में लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्थानीय स्वायत्त शासन के द्वारा नागरिकों तथा प्रशासन में सम्पर्क बढ़ता है। ग्रामों तथा नगरों के नागरिकों को भी प्रशासन में भाग लेने का अवसर मिल जाता है। ये दोनों बातें लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है। स्थानीय स्वशासन द्वारा किसी विशेष स्थान के लोग अपनी समस्याओं को स्वयं हल कर लेते हैं।

प्रश्न 3.
पंचायत समिति की रचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पंचायत समिति में उस ब्लाक (खण्ड) की सभी पंचायतों के सरपंच, नगरपालिकाओं और सहकारी समितियों के अध्यक्ष तथा उस क्षेत्र से निर्वाचित संसद सदस्य और राज्य विधानमण्डल के सदस्य आदि सम्मिलित होते हैं। पंचायतों की ही भाँति इनमें भी एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। पंचायत समिति का कार्यकाल 5 वर्ष है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज की तीन स्तरीय संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पंचायती राज:
पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अन्तर्गत ग्रामों में रहने वाले लोगों को अपने गाँवों का प्रशासन तथा विकास, स्वयं अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार दिया गया है। पंचायत भारत में एक बहुत ही प्राचीन संस्था है। बलवन्त राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति 1956 में गठित की गयी। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर सम्पूर्ण देश में त्रिस्तरीय पंचायती राज की स्थापना की गयी। निचले स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यम स्तर पर मंडल या खंड समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद (जिला पंचायत) की व्यवस्था की गयी।

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प्रश्न 5.
पंचायती राज के किन्हीं दो उद्देश्यों का वर्णन करों।
उत्तर:
भारत में ग्राम पंचायतों की व्यवस्था प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। ‘पंचायती’ शब्द से तात्पर्य ‘पाँच व्यक्तियों’ की समिति से लिया जाता है। प्राचीनकाल में ग्राम के ‘पाँच’ प्रतिष्ठित व्यक्तियों को ‘पंच’ बनाया जाता था और वे जो निर्णय देते थे वह सभी को मान्य होता था। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् यहाँ पंचायती राज की व्यवस्था की गई। इस व्यवस्था के तीन स्तर है: ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद्। पंचायती राज के दो प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. ग्रामों का विकास व उन्हें आत्मनिर्भर बनाना।
  2. पंचायती राज की स्थापना का दूसरा उद्देश्य ग्रामीणों को उनके अधिकार और कर्त्तव्य का ज्ञान कराना है।

प्रश्न 6.
नगरपालिका प्रणाली पर नगरीकरण का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ा है, वैसे-वैसे नगरीकरण भी बढ़ा है। नगरीकरण के बढ़ने का अर्थ है नगरों में आबादी का बढ़ना। नगरों में जनसंख्या की वृद्धि से नगरपालिका प्रणाली पर काफी प्रभाव पड़ा है। नगरपालिका की समस्याएँ बढ़ी हैं। इसमें सफाई, स्वास्थ्य, पानी, रोशनी, आवास, चिकित्सा संबंधी समस्याएँ उल्लेखनीय हैं। शहरों में भीड़-भाड़ व झोपड़ पट्टी व गंदगी भरी कालोनियाँ बढ़ी हैं तथा नगरों में बीमारी, प्रदूषण, हिंसा, असंतोष, अपराध बढ़े हैं। इन सबका प्रभाव नगरपालिकाओं के कार्यों पर भी पड़ा है। नगरपालिकाओं के कार्यों में वृद्धि हुई है तथा उनकी समस्याएँ बढ़ी हैं।

प्रश्न 7.
पंचायत समिति के कार्यों को लिखें।
उत्तर:
पंचायत समिति के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. पंचायत समिति अपने क्षेत्रों में पंचायतों के कार्यों की देख-रेख करती है।
  2. पंचायत समिति अपने क्षेत्र में घरेलू उद्योग-धन्धे को बढ़ावा देती है।
  3. पंचायत समिति सहकारी समितियों को प्रोत्साहन देती है।
  4. पंचायत समिति अपने क्षेत्र में सामुदायिक विकास परियोजना को लागू करती है।

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प्रश्न 8.
नगरपालिकाओं के प्रमुख कार्य क्या हैं?
उत्तर:
नगरपालिकाओं के प्रमुख कार्यों को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –

  1. शुद्ध और पर्याप्त जल की व्यवस्था करना।
  2. सार्वजनिक गलियों, स्थानों तथा नालियों की सफाई की व्यवस्था।
  3. अस्पतालों का रख-रखाव व सार्वजनिक चिकित्सा की व्यवस्था करना।
  4. जन्म-मृत्यु के पंजीकरण का व्यवस्था।
  5. सार्वजनिक सड़कों का निर्माण तथा उनकी मरम्मत की व्यवस्था करना।
  6. नगरपालिका क्षेत्र का निर्धारण, खतरनाक भवनों की सुरक्षा अथवा उनका उन्मूलन।
  7. यातायाता सुविधाओं का प्रावधान।

प्रश्न 9.
जिला परिषद् के किन्हीं दो कार्यों की चर्चा करें।
उत्तर:
जिला परिषद् के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. जिला परिषद् अपने क्षेत्र का पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करती है।
  2. जिला परिषद् अपने क्षेत्र की पंचायत समितियों के कार्यों की देख-रेख करती है।
  3. जिला परिषद् पंचायत समितियों द्वारा तैयार किए गए बजट को स्वीकार करती है तथा उनमें संशोधन के सुझाव दे सकती है।
  4. जिला परिषद् पंचायत द्वारा तैयार की गई विकासकारी योजनाओं में तालमेल उत्पन्न करती है।

प्रश्न 10.
ग्राम सभा पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ग्राम सभा को पंचायती राज की नींव कहा जाता है। एक ग्राम सभा पंचायत के क्षेत्र के सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकें होना आवश्यक है। ग्राम सभा अपना अध्यक्ष और कार्यकारी समिति का चुनाव करती है और अपने क्षेत्र के लिए विकास योजना तैयार करती है। व्यवहार में ग्राम सभा कोई विशेष कार्य नहीं करती क्योंकि इसकी बैठकें बहुत कम होती हैं।

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प्रश्न 11.
नगर क्षेत्र समिति पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
दस हजार से अधिक और बीस हजार से कम जनसंख्या वाले नगरों में स्थानीय स्वशासन के लिए नगर क्षेत्र समिति बनायी जाती है। इस प्रकार की नगर क्षेत्र समिति अथवा टाउन एरिया कमेटी के सदस्यों की संख्या राज्य सरकारें निश्चित करती हैं जिनका चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर संयुक्त निर्वाचन पद्धति द्वारा होता है। कुछ सदस्यों को राज्य सरकार मनोनीत करती है।

प्रश्न 12.
वार्ड समितियाँ किस प्रकार गठित की जाती हैं?
उत्तर:
नगरों के उन स्वशासी क्षेत्रों में जिनकी जनसंख्या तीन लाख या उससे अधिक हो, एक या अधिक वार्डों को मिलाकर वार्ड समितियाँ गठित की जानी चाहिए। राज्य विधान मण्डल विधि द्वारा वार्ड समितियों के संगठन, उनके प्रादेशिक क्षेत्र तथा जिस विधि द्वारा उनमें स्थान भरे जाने चाहिए, इन सबकी व्यवस्था कर सकता है।

प्रश्न 13.
नगरपालिका आयुक्त पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
नगरपालिका आयुक्त नगरपालिका के कार्यकारिणी विभाग का प्रमुख होता है। सामान्यतया वह राज्य सरकार द्वारा तीन वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है। इसलिए उसका वेतन और शर्ते राज्य सरकार द्वारा ही निर्धारित की जाती हैं। उसके वेतन का भुगतान नगरपालिका निधि से होता है। राज्य सरकार अथवा नगरपालिका परिषद् की सिफारिश पर आयुक्त का स्थानान्तरण किया जा सकता है।

प्रश्न 14.
नगर निगम की स्थायी समिति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
स्थायी समिति-स्थायी समिति दिल्ली नगरनिगम की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समिति है। वास्तव में निगम की सम्पूर्ण कार्यपालिका शक्तियाँ इस समिति में ही निहित हैं। वित्त पर इसका पूर्ण नियंत्रण होता है। यह नये कर लगाने की सिफारिश कर सकती है तथा पुराने करों में परिवर्तन का सुझाव दे सकती है।

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प्रश्न 15.
नगर निगम के महापौर के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
महापौर तथा उपमहापौर नगर निगम के राजनीतिक प्रशासक होते हैं। निगम के सदस्य अपनी पहली बैठक में इनका चुनाव करते हैं। यह एक वर्ष के लिए चुने जाते हैं। महापौर का पद वैभवपूर्ण होता है। इसे नगर का प्रथम नागरिक कहा जाता है। वह नगरनिगमों की बैठकों की अध्यक्षता करता है और उसकी कार्यवाही को चलाता है। प्रशासन संबंधी मामलों में वह कमिश्नर से रिपोर्ट प्राप्त करता है। महापौर कमिश्नर और राज्य सरकार के बीच की कड़ी है। हा प्रकार से उसे प्रशासनिक अधिकार भी प्राप्त होते हैं। प्रशासन के साथ-साथ उसका गजिक जीवन में भी महत्वपूर्ण स्थान है। विदेशों से आए हुए अतिथियों का स्वागत उसी केर कमा जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नगरपालिका आलिशप 1992 पर एक मंशिर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
नगरपालिका आंधनियम, 1992 भारत सरकार द्वारो पास किया गया एक महत्त्वपूर्ण का मानना स्थानीय प्रशासन को अत्यधिक लोकतांत्रिक बनाता है। इस कानून के अन्तर्गत नगरपालिकाओं के तीन वर्गों का प्रावधान किया गया है जो कि 20 हजार से तीन लाख की आबादी के बीच होगा। तीसरा वर्ग नगर निगम का है। यह तीन लाख से अधिक आबादी वाले नगरों में गठित किया गया है। इन बड़े नगर निगमों में जहाँ तीन लाख से अधिक आबादी है स्थानीय सरकार की दो स्तरीय प्रणाली का प्रावधान रखा गया है। पहला स्तर वार्ड समितियों का है तथा दूसरा नगर निगम का है। विस्तृत निगम क्षेत्र में वार्ड समिति और निगम के बीच की खाई के बीच सेतु के रूप में एक क्षेत्रीय समिति के प्रशासनिक गठन का प्रावधान है।

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प्रश्न 2.
“शहरीकरण” के प्रमुख कारण क्या हैं?
उत्तर:
शहरीकरण के निम्नलिखित कारण हैं –
1. ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी है तथा शहरी क्षेत्रों में रोजगार के व्यापक अवसर लोगों को प्राप्त हैं

2. ग्रामीण क्षेत्रों में केवल जीवन की आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति हो सकती है, परंतु शहरी क्षेत्रों में अनेक प्रकार की सुविधाएँ तथा आकर्षण की वस्तुएँ मिलती हैं।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और उसके आधुनिकीकरण से सभी को पर्याप्त रूप में काम नहीं मिल पाता। इन सभी कारणों की वजह से लोगों का आर्कषण नगरों तथा कस्बों की तरफ अधिक तथा ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ घट रहा है। आधुनिकीकरण के कारण भारी संख्या में लोग शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं।

प्रश्न 3.
1992 के 72 वें संविधान संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान क्या हैं?
उत्तर:
1992 के नगरपालिका अधिनियम अर्थात् 74 वें संविधान संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं –

  1. नगरपालिकाओं में समाज के कमजोर वर्गों और महिलाओं को सार्थक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है।
  2. संविधान की 12 वीं अनुसूची नगरीय संस्थाओं को व्यापक शक्तियाँ प्रदान करती हैं।
  3. नगरीय संस्थाओं के लिए वित्तीय साधन जुटाने के लिए एक वित्तीय आयोग की स्थापना का प्रावधान है।
  4. नगरनिगम या नगरपालिकाओं के भंग हो जाने की दशा में नयी संस्थाओं के गठन के लिए 6 महीनों के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य होगा। चुनावों की जिम्मेवारी ‘राज्य निर्वाचन आयोग’ को सौंपी गयी है।

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प्रश्न 4.
भारत के संदर्भ में सामुदायिक विकास से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सामुदायिक विकास योजना एक ऐसा आंदोलन है जिससे समुदाय के लोगों द्वारा अपने साधनों का प्रयोग करके अपने निजी प्रयत्नों से समस्त समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास का प्रयत्न किया जाय। इसमें ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले स्वयं इस बात को महसूस करें कि इनकी क्या आवश्यकताएँ और समस्याएँ हैं, उन्हें पूरा करने के लिए उनके पास क्या साधन हैं और इन साधनों का प्रयोग करके वे अपने जीवन का सामुदायिक रूप से किस प्रकार विकास कर सकते हैं।

भारत में सामुदायिक विकास योजना 1952 ई. में लागू की गई थी। ग्रामीण जीवन के विकास की यह योजना एक क्रांतिकारी और महत्त्वपूर्ण कदम है। यद्यपि भारत की जनसंख्या का लगभग 70% भाग गाँवों में रहता है फिर भी विदेशी शासन के दौरान ग्रामीण क्षेत्र के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। भारत में सामुदायिक विकास योजना की एक मुख्य विशेषता यह है इसका उद्देश्य ग्रामीण जीवन का चहुँमुखी विकास करना है और इसलिए इसके अन्तर्गत कृषि, सिंचाई, शिक्षा, उद्योग, पशुपालन, सफाई, चिकित्सा आदि सभी कार्य सम्मिलित हैं।

प्रश्न 5.
पंचायत राज की कार्य प्रणाली की दो कमियों को लिखें।
उत्तर:
पंचायती राज व्यवस्था भारत में निचले स्तर तक लोकतंत्र लाने का साधन है, परंतु इस व्यवस्था की अपनी विशेष कमजोरियाँ भी हैं। इन कमजोरियों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है –

1. ग्रामों में लोकतंत्र वातावरण का अभाव है। ग्रामवासी जाति भेदभाव से अभी ऊपर नहीं उठ पाए हैं।
2. क्योंकि ग्रामों में अधिकांश लोग अभी अशिक्षित हैं, उनसे अनेक प्रकार के राजनीतिक दायित्वों को निभाने की आशा नहीं की जा सकती। अशिक्षा के कारण ग्रामीण राजनीति काफी दूषित होने की स्थिति में आ जाती है। पंचायती व्यवस्था ने ग्रामीण राजनीति को दूषित कर दिया है।

प्रश्न 6.
भारत में नगरीय स्वशासी संस्थाओं के गठन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नगरीय स्वशासी संस्थाओं का गठन-भारत में नगरों की स्वशासी संस्थाओं के गठन का वर्णन निम्न प्रकार है –
छोटे क्षेत्र जो ग्राम से नगर की ओर परिवर्तनोन्मुखी हैं उनके लिए अब संशोधित रूप से नगर पंचायत, छोटे नगरीय क्षेत्रों के लिए नगरपालिका तथा वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए नगर निगमों की स्थापना का प्रावधान है, परंतु औद्योगिक संस्थान क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों में नगरपालिका की स्थापना नहीं हो सकती तथा यहाँ या तो उस संस्थान ने नगरपालिका सेवाएँ उपलब्ध करायी हों या उपलब्ध कराने का प्रस्ताव हो।

नगरीय स्वशासी संस्थाओं में सभी स्थान क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाएंगे। राज्य विधान मण्डल विधि द्वारा प्रतिनिधित्व व्यवस्था कर सकता है। नगर की प्रत्येक स्वशासी संस्था में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के उनकी जनंसख्या के अनुपात में स्थान आरक्षित रखे जाने चाहिए। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इन स्थानों में एक तिहाई स्थान इन जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

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प्रश्न 7.
पंचायत समिति के आय के साधनों की चर्चा करें।
उत्तर:
पंचायत समितियों की आय के मुख्य साधन निम्नलिखित हैं –

  1. पंचायत समितियों को उनके क्षेत्र में इकट्ठा होने वाले लगान का कुछ भाग मिलता है।
  2. पंचायत समितियों को मेलों, पशुमंडियों तथा प्रदर्शनियों से आय प्राप्त होती है।
  3. पंचायत समिति लोगों को कई प्रकार के लाइसेंस देती है। लाइसेंस शुल्क से भी इन्हें आय प्राप्त होती है।
  4. पंचायत समितियों का अपनी सम्पत्ति से भी आय प्राप्त होती है।
  5. पंचायत समितियाँ पुस्तकालयों, वाचनालयों तथा मनोरंजन के केन्द्रों पर सदस्यता शुल्क लगाती हैं, अत: इससे भी उन्हें आय प्राप्त होती है।
  6. पंचायत समितियों को राज्य सरकार से वार्षिक अनुदान प्राप्त होता है।

प्रश्न 8.
नगर निगम की आय के दो प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं –
उत्तर:
नगर निगम की आय के दो प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं –

  1. जल कर-नगर निगम मकान तथा दुकान के कर मूल्य का लगभग 3 प्रतिशत उसके मालिकों से जल कर के रूप में वसूल करता है।
  2. गृहकर-नगर निगम गृहस्वामियों से उनकी जायदाद के कर के मूल्य का 11 प्रतिशत गृह दर रूप में वसूल करता है।
  3. मनोरंजन कर-नगर निगम विभिन्न सिनेमा घरों, नाटक घरों, संगीत सम्मेलनों, सर्कस आदि मनोरंजन के साधनों पर कर लगाती है। मनोरंजन कर नगरनिगम की आय का एक प्रमुख साधन है।

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प्रश्न 9.
नगरीय स्वशासन संस्थाओं पर राज्य सरकार के नियंत्रण पर एक टिप्पणी लिखो।
उत्तर:
नगरपालिका पर राज्य सरकार का नियंत्रण-नगरपालिका के कार्यों में जिलाधीश या डिप्टी कमिश्नर का अब उतना हस्तक्षेप देखने को नहीं मिलता जितना स्वतंत्रता से पहले था। किन्तु अब भी जिलाधीश राज्य सरकार की अनुमति से नगरपालिका के उन निर्णयों को लागू होने से रोक सकता है जो उसकी दृष्टि में जन सुरक्षा या जन स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं है। नगरीय स्वशासन संस्थाओं के हिसाब-किताब की जाँच. सरकारी ऑडीटर करते हैं। नगरनिगम या नगरपालिकाएँ अपने कार्यकाल की समाप्ति से पहले भंग की जा सकती हैं पर उस स्थिति में 6 महीनों के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य होगा। नगरीय स्वशासन संस्थाओं के चुनावों की जिम्मेदारी ‘राज्य निर्वाचन आयोग’ को सौंपी गयी है।

प्रश्न 10.
नगरनिगम के दो अनिवार्य कार्य बताइए।
उत्तर:
नगरनिगम के दो अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं:

1. सफाई से संबंधित कार्य:

  • नगर में सफाई रखने का कार्यभार नगर निगम को ही संभालना है। यह कूड़ा-करकट इकट्ठा करवाकर नगर से बाहर फेंकवाता है।
  • नगर के गन्दे पानी के निवास के लिए जमीन के अंदर नालियाँ बनाना नगर निगम का काम है।
  • नगर के गन्दे पानी के निकास के लिए जमीन की सफाई कर्मचारियों द्वारा की जाती है।

2. स्वास्थ्य संबंधित कार्य:

  • अस्पतालों की स्थापना और उनकी व्यवस्था करना।
  • भयंकर रोगों को फैलने से रोकना।
  • चेचक और हैजा जैसी बीमारियों के टीके लगवाना।
  • स्त्रियों के लिए प्रसूति केन्द्र और बच्चों के लिए कल्याण केन्द्र खोलना।
  • खाने की वस्तुओं में मिलावट रोकना।
  • नशीली वस्तुओं की बिक्री पर रोक लगाना।

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प्रश्न 11.
पंचायती राज पर 11वें वित्त आयोग की सिफारिशों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ग्यारवें वित्त आयोग ने वर्ष 2000-2005 के दौरान पंचायतों को 8000 करोड़ रुपये (प्रति वर्ष 1600 करोड़ रुपये) नागरिक सेवाओं के विकास के लिए हस्तान्तरित करने की सिफारिश की है। पंचायतों की वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए निम्न सिफारिशें भी की गयीं –

  1. वित्त आयोग की रिपोर्ट प्रस्तुत होने के बाद राज्य 6 माह के भीतर की गयी कार्यवाही की रिपोर्ट विधान मंडल में रखेंगे।
  2. पंचायतों की सभी श्रेणियों के लिए लेखा परीक्षण एवं नियंत्रण, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को सौंपे जाएँ।
  3. भूमि एवं कृषि फार्म की आय पर कर को स्थानीय निकायों द्वारा समुचित रूप से लगाकर इस धन का प्रयोग नागरिक सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय।
  4. राज्य के लेखाशीर्ष पर 6 पदों का सृजन किया जाय जिनमें 3 पंचायती राज्य की: संस्थाओं के लिए तथा 3 शहरी स्थानीय संस्थाओं के लिए हों।
  5. पंचायतों के पास जहाँ प्रशिक्षित लेखाकार नहीं है। प्रत्येक पंचायत पर 4000 रु. की राशि प्रतिवर्ष लेखों के रख-रखाव पर खर्च की जाय।
  6. पंचायतों के वित्त पोषण के आँकड़ों को जिला, राज्य तथ केन्द्र स्तर पर और कम्प्यूटर तथा टी.वी. सैट के माध्यम से जोड़कर विकसित किया जाय।

प्रश्न 12.
नगरनिगम अथवा नगरपालिका का संविधान की 12 वीं अनुसूची में गिनाए गए सामाजिक-आर्थिक विकास संबंधी कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
74 वें संशोधन ने संविधान में एक नयी अनुसूची (12 वीं अनुसूची) जोड़ दी है, जिसमें कुछ ऐसे कार्यों का विवरण मिलता है जो अब तक नगरीय संस्थाएँ सम्पन्न नहीं किया करती थी। अब नगरनिगम या नगरपालिकाओं के कार्यों को तीन वर्गों में रखा जाता है –

  1. अनिवार्य कार्य
  2. ऐच्छिक कार्य
  3. आर्थिक व सामाजिक विकास संबंधी कार्य

आर्थिक व सामाजिक विकास सम्बन्धी कार्य –

1. संविधान की 12 वीं अनुसूची नगरीय स्वशासन संस्थाओं के कार्यों का उल्लेख करती है। अब नगरनिगम व नगरपालिकाओं को कुछ नये दायित्व सौंपे गए हैं जैसे –

  • सामाजिक-आर्थिक विकास की योजनाएँ तैयार करना
  • समाज के कमजोर वर्गों और अपंग व मानसिक रूप से अशक्त लोगों के हितों की रक्षा करना
  • गरीबी निवारण कार्यक्रम को लागू करना
  • गन्दी बस्तियों को उन्नत करना
  • पर्यावरण को सुरक्षित बनाना

शहरों में रहने वाले गरीबों को रोजगार देने की योजनाएँ नगरपालिकाओं द्वारा लागू की जाती है। 1989 में लागू की गई ‘नेहरू रोजगार योजना’ एक ऐसी ही योजना है। कमजोर भवन जिनमें लोगों के जीवन को खतरा हो उन्हें गिरवाना तथा लोगों के लिए मकान बनवाना भी नगर निगम के कार्यों में आते हैं।

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प्रश्न 13.
नगरनिगम के किन्हीं दो अनिवार्य तथा किन्हीं दो ऐच्छिक कार्यों का वर्णन किजिए।
उत्तर:
नगरनिगम के दो अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं –

1. सफाई से संबंधित कार्य:

  • नगर में सफाई रखने का कार्यभार नगरनिगम संभालता है। यह कूड़ा-करकट इकट्ठा करवाकर नगर से बाहर फेंकवाता है।
  • नगर के गन्दे पानी के निकास के लिए जमीन के अंदर नालियाँ बनाना नगरनिगम का काम है।
  • नगर की बस्तियों की सफाई भी नगरनिगम के सफाई कर्मचारी द्वारा ही की जाती है।

2. स्वास्थ्य संबंधी कार्य –

  • अस्पतालों की स्थापना और उनकी व्यवस्था करना।
  • भयंकर रोगों को फैलने से रोकना।
  • चेचक और हैजा जैसी बीमारियों के टीकें लगवाना।
  • स्त्रियों के लिए प्रसूति केन्द्र तथा बच्चों के लिए कल्याण-केन्द्र खोलना।
  • खाद्य वस्तुओं में मिलावट को रोकना और मिलावट करने वालों को सजा दिलाना।
  • नशीली वस्तुओं के बेचने पर रोक लगाना और इस संबंध में कानून बनाना।

प्रश्न 14.
पंचायतों के संगठन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पंचायतों का संगठन:
73 वें संशोधन द्वारा पंचायतों के गठन के लिए त्रिस्तरीय ढाँचा सुझाया गया। प्रत्येक पंचायत में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में स्थान आरक्षित किए गए। पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया है। यदि किसी कारण से वे भंग की गई तो 6 महीने के अन्तर्गत उनके चुनाव कराने होंगे। पंचायत में निर्वाचित होने के लिए निम्नतम आयु 21 वर्ष रखी गयी है।

पंचायतों के निर्वाचन का संचालन राज्य का निर्वाचन आयोग करेगा। राज्य विधान मण्डल पंचायतों के गठन संबंधित व्यवस्था करता है। पंचायत के सभी स्थान क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाते हैं। खण्ड ओर जिला स्तर की पंचायतों, ग्राम पंचायतों में ग्राम पंचायतों के अध्यक्षों के प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई है। उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्यसभा, लोकसभा तथा विधान सभा के सदस्य भी खण्ड पंचायत तथा जिला पंचायत के सदस्य होते हैं।

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प्रश्न 15.
पंचायत समिति का गठन कैसे होता है इसके कौन-कौन से कार्य हैं?
उत्तर:
पंचायत समिति पंचायती राज व्यवस्था का मध्यवर्ती स्तर है। पंचायत समिति की संरचना विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न तरह से होता है। बिहार में पंचायन समिति में अनेक तरह के सदस्य होते हैं। लोकसभा और विधान सभा के सदस्य भी पंचायत समिति के सदस्य होता हैं जिन्हें सहयोगी सदस्य कहा जाता है। ग्राम पंचायत के अन्तर्गत परिषद् में वैसे सदस्य कहा जाता है। राज्यसभा एवं विधान परिषद् में वैसे सदस्य जो उस ग्राम पंचायत के अन्तर्गत निर्वाचक के रूप में निबंधित हो, पंचायत समिति के सदस्य होते हैं एवं पंचायत समिति के क्षेत्र में पड़ने वाले सभी ग्राम पंचायतों के मुखिया इसके सदस्य होते हैं। पंचायत समिति का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है। पंचायत समिति के प्रधान ‘प्रमुख’ होते हैं जो पंचायत समिति के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं।

पंचायत समिति निम्नलिखित कार्य करती हैं –

  1. समिति अपने क्षेत्र के सड़कों का निर्माण एवं रख-रखाव का कार्य करती है। वह इसमें कोई संशोधन नहीं कर सकता है बल्कि आवश्यक सुझाव ही दे सकता है।
  2. कार्यपालिका शक्तियाँ-कार्यपालिका शक्तियाँ के संबंध में भी बिहार विधान परिषद को सीमित शक्तियाँ प्राप्त हैं। इस शक्ति के अंतर्गत विधान परिषद मंत्रियों से केवल स्पष्ट है कि बिहार विधान परिषद की शक्तियाँ अत्यंत सीमित है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
स्थानीय शासन का महत्त्व बताइए तथा नगरनिगम के आवश्यक कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्थानीय शासन का महत्त्व:
स्थानीय मामलों का प्रबंध करने वाली संस्थाओं को स्वशासन संस्थाएँ कहते हैं। स्थानीय संस्थाएँ किसी देश में लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत हत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्थानीय स्वायत्त शासन के द्वारा नागरिकों तथा प्रशासन में सम्पर्क बढ़ता है। ग्रामों तथा नगरों के कर्मचारियों को भी प्रशासन में भाग लेने का अवसर मिल जाता है।

ये दोनों बातें लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक हैं। स्थानीय स्वशासन द्वारा किसी विशेष स्थान के लोग अपनी समस्याओं को स्वयं हल कर लेते हैं। स्थानीय संस्थाओं का सीधा संबंध नागरिकों के दैनिक जीवन से होता है। अतः स्थानीय समस्याओं का सही समाधान होता है। स्थानीय लोगों में भी राजनीतिक जागरुकता आती है।

नगर निगम के प्रमुख कार्य:
नगर निगम दो प्रकार के कार्य करता है।

1. अनिवार्य कार्य तथा
2. ऐच्छिक कार्य।

अनिवार्य कार्य नगर निगम के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्य होते हैं।

1. सफाई से संबंधित कार्य:

  • नगर में सफाई रखने का कार्य नगर निगम संभालता है। यह कूड़ा-करकट एकत्र कर नगर से बाहर फिकवाता है।
  • नगर के गन्दे पानी के निकास के लिए जमीन के अंदर नालियाँ बनाना नगर निगम का काम है।
  • नगर की बस्तियों की सफाई नगर निगम के सफाई कर्मचारियों द्वारा की जाती है।

2. बिजली का प्रबंध:

  • नगर निगम नगरवासियों के लिए बिजली का प्रबंध करता है।
  • नगर निगम सड़कों और गलियों में बिजली की रोशनी की व्यवस्था करता है।
  • जलापूर्ति-नगर निगम अपने नागरिकों के लिए जलापूर्ति की व्यवस्था करता है।
  • सड़क यातायात सेवा भी नगरनिगम का अनिवार्य कार्य है।
  • शिक्षा प्रबंध-विशेष तौर पर प्राइमरी तथा माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा का प्रबंध करता है।

इनके अतिरिक्त सड़कों का निर्माण, उनका रखरखाव, उनके नाम डालना और उन पर नम्बर डालना, अस्पतालों, प्रसव केन्द्र, शिशु कल्याण केन्द्रों का निर्माण, टीका लगाने का प्रबंध तथा जन्म-मृत्यु पंजीकरण इत्यादि नगरनिगम के आवश्यक कार्य हैं।

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प्रश्न 2.
पंचायती राज व्यवस्था के सामने विद्यमान विभिन्न समस्याएँ लिखिए तथा इन्हें सुधारने के लिए सुझाव दीजिए।
उत्तर:
पंचायती राज व्यवस्था के सामने विद्यमान विभिन्न समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

1. अशिक्षा:
निर्धनता और अशिक्षा भारत की सबसे मुख्य समस्याएँ हैं। गाँव के अधिकतर लोग अशिक्षित ही नहीं, निर्धन भी हैं। वे अपने हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते। ऐसे लोग न तो स्वशासन का अर्थ समझते हैं और न ही स्वशासन करने की योग्यता रखते हैं। वे पंचायत के कार्य में रुचि नहीं लेते। वे चुनाव में भी विशेष रुचि नहीं लेते।

यदि वे पंच चुन भी लिए जाएँ तो पंचायतों की बैठकों में उपस्थित नहीं होते। बस गाँव के एक-दो पढ़े-लिखे लोग जो चालाक भी होते हैं, सारे गाँव वालों को जैसा चाहे नचाते हैं, अतः गाँव में शिक्षा प्रसार विशेष रूप से प्रौढ़ शिक्षा का प्रबंध बहुत आवश्यक है। ग्राम पंचायत के सदस्यों की योग्यता में भी कुछ न कुछ शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।

2. सांप्रदायिकता:
सारे भारत में ही सांप्रदायिकता का विष फैला हुआ है और गाँव में तो यह और भी अधिक प्रबल है। सदस्य जाति-पाँति के आधार पर चुने जाते हैं, योग्यता के आधार पर नहीं। पंच चुने जाने के बाद भी जाति-पाँति के झगड़ों से बच नही पाते। इस तरह सीधे-सादे ग्रामीण पंचायत राज में विश्वास खो बैठते हैं। अतः इसके सुधार के लिए आवश्यक है कि शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ ग्रामवासियों को समझाया जाए कि उन सबकी समस्याएँ एक हैं। निर्धनता, भुखमरी, बीमारी बाढ़, सूखा सभी को समान रूप से सताते हैं। अतः सबको भेदभाव भुलाकर व संगठित होकर गाँवों का विकास और कल्याण करना चाहिए।

3. गुटबंदी:
कुछ लोग जो थोड़े चालाक होते हैं, पंचायत में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए गुट बना लेते हैं और चुनाव में यह गुटबंदी और अधिक प्रखर हो जाती है और गाँव वाले झगड़ों में फँस जाते हैं।

4. सरकार का अधिक हस्तक्षेप और नियंत्रण:
बहुत से समझदार लोग पंचायतों के कार्यक्रम में इसलिए भी रुचि नहीं लेते कि वे जानते हैं कि पंचायतों के पास न कोई विशेष स्वतंत्रता है, न अधिकार। सरकार अपने अधिकारों द्वारा पंचायतों के कामों में हस्तक्षेप करती रहती है। यदि एक पंचायत में उस दल का बहुमत है जो दल राज्य सरकार में विरोधी दल है तो राज्य मंत्रिमंडल उस पंचायत को ठीक तरह से कार्य नहीं करने देता। इस कारण लोगों का उत्साह पंचायती राज से कम होने लगता है।

5. धन का अभाव:
धन के अभाव में गाँव की योजनाएँ पूरी नहीं हो पाती। स्कूल नहीं बन पाते, गलियाँ, पुलिया, सड़क आदि की मरम्मत नहीं हो पाती। सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं को अधिक धन अनुदान के रूप में दे।

6. निर्धनता:
गाँव के अधिकांश लोग निर्धनता के शिकार होते हैं। वे न तो पंचायत को कर दे सकते हैं और न ही पंचायत के कामों में रुचि ले सकते हैं, क्योंकि दिन भर वे अपनी नमक, तेल, लकड़ी की चिंता में लगे रहते हैं। अतः वे गाँव के कल्याण या विकास की बात सोच भी नहीं सकते।

7. ग्राम सभा का प्रभावहीन होना:
ग्राम सभा पंचायती राज की प्रारंभिक इकाई है और पंचायती राज की सफलता बहुत हद तक इस संस्था के सक्रिय रहने पर निर्भर करती है, परंतु घ्यावहारिक रूप से इस संस्था की न तो नियमित बैठकें होती हैं और न ही गाँव के लोग इसमें रुचि लेते हैं।

8. राजनीतिक दलों का अनुचित हस्तक्षेप:
यद्यपि राजनीतिक दल पंचायत के चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करते परंतु फिर भी वे इन संस्थाओं के कार्यों में हस्तक्षेप किए बिना नहीं रह सकते। दलों का हस्तक्षेप इन संस्थाओं में गुटबंदी को और भी अधिक तीव्र कर देता है, क्योंकि दलों के सामने सार्वजनिक हित की अपेक्षा अपने सदस्यों का हित अधिक प्रिय होता है।

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प्रश्न 3.
भारत में नगरनिगम की आय के विभिन्न साधन क्या हैं?
उत्तर:
नगरनिगम की आय के प्रमुख साधन निम्नलिखित है –

  1. जल कर: नगरनिगम मकान तथा दुकानों के कर. मूल्य का लगभग 3 प्रतिशत उनके मालिकों से जल कर के रूप में वसूलता है।
  2. गृहकर: नगरनिगम गृहस्वामियों से उनकी सम्पत्ति के कर मूल्य का 11 प्रतिशत गृह कर के रूप में वसूल करता है।
  3. सफाई कर: नगरनिगम सम्पत्ति के कर मूल्य का एक प्रतिशत साफ-सफाई के रूप में वसूल करता है।
  4. अग्निशमन कर: नगरों में सम्पत्ति के कर मूल्य का 1/2 प्रतिशत अग्निशमन कर के रूप में लिया जाता है।
  5. भवन के नक्शों पर कर: भवन निर्माण करने से पूर्व नगरनिगम में भवन का नक्शा पास कराना पड़ता है। भवन निर्माण करने के इच्छुक व्यक्ति को नगरनिगम से नक्शा पास कराने का शुल्क जमा कराना होता है।
  6. मनोरंजन कर: नगरनिगम विभिन्न सिनेमाघरों, नाटकों, संगीत सम्मेलनों, सर्कस आदि मनोरंजन साधनों पर कर लगाता है। मनोरंजन कर नगरनिगम की आय का एक प्रमुख साधन है।

प्रश्न 4.
भारत में नगरपालिकाओं की रचना और उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
नगरपालिका की रचना और संगठन-नगरपालिका के तीन प्रधान अंग हैं –

1. परिषद् अथवा आमसभा:
नगरपालिका के अधिकांश सदस्यों का चुनाव नगर के आम मतदाताओं द्वारा किया जाता है। नयी व्यवस्था के तहत नगरपालिका के कुछ सदस्य राज्य सरकार द्वारा नामांकित किए जाएंगे। केवल ऐसे व्यक्ति ही नामांकित किए जाएंगे। जो निकाय प्रशासन का ज्ञान या अनुभव रखते हों अथवा संसद या विधान सभा में वे उन इलाकों का प्रतिनिधित्व करते हों जो नगरपालिका के क्षेत्र में शामिल हैं।

नगरपालिका के सदस्य को नगर पार्षद कहते हैं। नगरपालिका में कितने सदस्य होंगे, इसका निर्णय राज्य सरकार करती है। उत्तर प्रदेश की बड़ी नगरपालिकाओं की सदस्य संख्या 40-50 तथा छोटी नगरपालिकाओं की सदस्य संख्या 20 30 के लगभग होती है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण की व्यवस्था है।

एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। सभी वयस्क स्त्री-पुरुष मत देने का अधिकार रखते हैं। केवल ऐसे व्यक्ति ही चुनाव में खड़े हो सकते हैं जिनका नाम मतदाता सूची में है तथा जिनकी ओर नगरपालिका का कोई कर बकाया न हो। नयी व्यवस्था (74 वें संशोधन) में नगरपालिकाओं का कार्यकाल 5 वर्ष है। यदि नीरपालिका किसी कारण से भंग कर दी जाती है तो राज्यों के लिए यह आवश्यक कर दिया गया है कि 6 महीने के भीतर नयी नगरपालिका का चुनाव अवश्य कराएँ।

2. अध्यक्ष:
नगरपालिका के अध्यक्ष को चेयरमैन भी कहते हैं। इसका चुनाव पार्षदों द्वारा किया जाता है। यह परिषद् की बैठक बुलाता है और उसकी अध्यक्षता करता है। अध्यक्ष कार्यकारी अधिकारी, स्वास्थ्य अधिकारी तथा इंजीनियर को छोड़कर शेष कर्मचारियों को निलम्बित भी कर सकता है।

3. कार्यकारी अधिकारी तथा अन्य अधिकारी:
नगरपालिका के नित्य प्रति के कार्यों की देखभाल एक कार्यकारी अधिकारी करता है। वह नगरपालिका अधिकारियों के राज्य संवर्ग से अथवा राज्य सिविल सर्विस से लिया जाता है। कार्यकारी अधिकारी के अलावा नगरपालिका के और भी कई. महत्त्वपूर्ण अधिकारी हैं, जैसे स्वास्थ्य अधिकारी, इंजीनियर व शुल्क अधिकारी आदि।

नगरपालिका के कार्य-नगरनिगम की भांति नगरपालिका के तीन प्रकार के कार्य होते हैं –
(I) अनिवार्य कार्य:

1. स्वास्थ्य व सफाई:

  • सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण करना तथा मल निकासी के लिए नाले व बड़ी-बड़ी नालियाँ बनवाना।
  • अस्पतालों, चिकित्सा केन्द्रों तथा मातृ व शिशु कल्याण केन्द्रों की स्थापना।
  • खाने-पीने की चीजों में मिलावट की रोकथाम।
  • गली-सड़ी चीजों की बिक्री पर रोक लगाना।
  • चेचक, हैजा व अन्य बीमारियों की रोकथाम के लिए टीके लगवाना।

2. शिक्षा:
नगरपालिका प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों की स्थापना करती है। नगरपालिका प्राथमिक स्तर तक निःशुल्क शिक्षा का प्रबंध करती है तथा गरीब व मेधावी छात्रों को छात्रवृत्तियाँ प्रदान करती हैं।

3. पानी व बिजली की आपूर्ति:
नगरपालिका पीने के पानी का प्रबंध करती है। साथी ही घरेलू व औद्योगिक उपयोग के लिए बिजली का प्रबंध करती है। सड़कों व गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करती है।

4. सार्वजनिक निर्माण के कार्य:
नगरपालिका सार्वजनिक निर्माण का भी कार्य करती है।

जैसे –

  • नलियों व सड़कों का निर्माण करना।
  • पुल या पुलिया बनवाना।
  • बाजार व दुकानों का निर्माण।
  • पाठशालाएँ बनवाना।
  • बारात घर, टाउन हॉल व कम्युनिटी हाल का निर्माण।

5. ऐच्छिक कार्य:

  • अग्निकांड से नागरिकों की रक्षा।
  • परिवार कल्याण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना।
  • सार्वजनिक पार्कों का निर्माण।
  • पुस्तकालयों व वाचनालयों की स्थापना।
  • जिम्नेजियम और स्टेडियम बनवाना।
  • अजायबघर बनवाना।
  • प्रदर्शनी, मेलों और हाटों का प्रबंध करना।

3. सामाजिक और आर्थिक विकास संबंधी कार्य:

  • सामाजिक-आर्थिक विकास की योजनाएँ तैयार करना।
  • पर्यावरण को सुरक्षित बनाना।
  • समाज के कमजोर वर्गों और अपंग व मानसिक रूप से अशक्त लोगों के हितों की रक्षा करना।
  • गरीबी निवारण कार्यक्रम को लागू करना।
  • गन्दी बस्तियों को उन्नत करना।

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प्रश्न 5.
भारत में पंचायती राज के त्रिस्तरीय ढाँचे की कार्यप्रणाली की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
पंचायती राज से हमारा अभिप्राय उस व्यवस्था से है जिसके अनुसार गाँव के लोगों को अपने गाँवों का प्रशासन तथा विकास स्वयं अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार दिया गया है। गाँव के लोग अपने इस अधिकार का उपयोग पंचायत द्वारा करते हैं। इसलिए इसे ‘पंचायती राज’ कहा जाता है। पंचायती राज में गाँव के विकास के लिए तीन संस्थाएँ काम करती हैं –

  1. गाँव में पंचायत
  2. खण्ड स्तर पर खण्ड समिति तथा
  3. जिला स्तर पर जिला परिषद्

1. ग्राम पंचायत:
ग्राम पंचायत ग्राम सभा की कार्यपालिका होती है। इसके सदस्यों का निर्वाचन ग्राम सभा द्वारा संयुक्त निर्वाचन के आधार पर किया जाता है। ग्राम पंचायत के प्रधान को सरपंच कहते हैं। इसके प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  • ग्राम पंचायत गाँव में स्वच्छ पानी की व्यवस्था करती है।
  • सफाई का प्रबंध व बीमारियों की रोकथाम करती हैं।
  • बच्चों की शिक्षा के लिए पाठशालाओं का प्रबंध करती है।
  • सड़कों, गलियों, नालियों की मरम्मत तथा उनके निर्माण का प्रबंध करती है।
  • कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देती है।
  • ग्राम पंचायत कृषि की उन्नति के लिए अच्छे बीजों, उत्तम खाद और उन्नत औजारों का प्रबंध करती है।

2. पंचायत समिति:
पंचायत समिति एक खण्ड की पंचायत होती है। यह खण्ड लगभग 100 ग्रामों का होता है। पंचायत समिति की सदस्यता इस प्रकार होती है –

  • खण्ड या क्षेत्र की सभी ग्राम पंचायतों के सरपंच।
  • नगरपालिकाओं और सहकारी समितियों के अध्यक्ष।
  • उस क्षेत्र का खण्ड विकास अधिकारी।
  • उस क्षेत्र के निर्वाचित सदस्य, विधान सभा और विधान परिषद् के सदस्य।

73 वें संशोधन के बाद पंचायत समिति के सदस्यों का चुनाव सीधे जनता द्वारा होता है। पंचायत समिति के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

  • अपने क्षेत्र की कृषि तथा छोटे उद्योगों की उन्नति करना।
  • अपने क्षेत्र में सफाई तथा स्वास्थ्य का प्रबंध करना तथा बीमारियों की रोकथाम करना।
  • अपने क्षेत्र की विकास योजनाओं को लागू करना।

3. जिला पंचायत:
पंचायती राज योजना में जिला पंचायत सर्वोच्च स्तर की संस्था है। जिला पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन भी सीधे जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कराया जाता है। इसकी अवधि पाँच वर्ष की होती है। यदि प्रदेश सरकार पाँच वर्ष से पहले इसे भंग करती है तो भी 6 माह के भीतर नया चुनाव कराना अनिवार्य है। अनुसूचित जाति व जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था है। महिलाओं को प्रत्येक वर्ग में एक तिहाई सीटों का आरक्षण दिया गया है। जिला पंचायत के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  • जिले की ग्राम पंचायतों और पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करना।
  • पंचायत समितियों के बजट कार्यों का निरीक्षण करना।
  • पंचायत समितियों के बजट को स्वीकृत करना।
  • जिले के लिए निर्धारित सभी कृषि सम्बन्धी कार्यक्रम, रचनात्मक तथा रोजगार लक्ष्यों, को सही रूप में क्रियान्वित करना।

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प्रश्न 6.
भारत में पंचायती राज अधिक सफल नहीं हुआ है। इसके क्या कारण हैं?
उत्तर:
भारत में स्थापित पंचायती राज अधिक सफल नहीं हुआ है। इसके निम्नलिखित कारण रहे हैं –

1. अशिक्षा:
निर्धनता और अशिक्षा भारत की सबसे मुख्य समस्याएँ हैं। गाँव के अधिकतर लोग अशिक्षित ही नहीं, निर्धन भी हैं। वे अपने हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते। ऐसे लोग न तो स्वशासन का अर्थ समझते हैं और न ही स्वशासन करने की योग्यता रखते हैं। वे पंचायत के कार्य में कोई रुचि नहीं लेते। वे चुनाव में भी विशेष रुचि नहीं लेते।

यदि वे पंच चुन भी लिए जाएँ तो पंचायत की बैठकों में उपस्थित नहीं होते। बस गाँव के एक-दो पढ़े-लिखे लोग, जो चालाक भी होते हैं। सारे गाँव वालों को जैसा चाहें, नचाते हैं। अतः गाँव में शिक्षा प्रसार विशेष रूप से प्रौढ़ शिक्षा का प्रबंध बहुत आवश्यक है। ग्राम पंचायत के सदस्यों की योग्यता में भी कुछ न कुछ शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।

2. सांप्रदायिकता:
सारे भारत में ही सांप्रदायिकता का विष फैला हुआ है और गाँवों में तो यह और भी अधिक प्रबल है। सदस्य जाति-पाति के आधार पर चुने जाते हैं योग्यता के आधार पर नहीं। पंच चुने जाने के बाद भी वे जाति-पाति के झगड़ों से बच नहीं पाते। इस तरह सीधे-सादे ग्रामीण पंचायत राज में विश्वास खो बैठते हैं। अतः इसके सुधार के लिए आवश्यक है कि शिक्षा के, प्रसार के साथ-साथ ग्रामवासियों को समझाया जाए कि उन सबकी समस्याएँ एक हैं। निर्धनता, भुखमरी, बीमारी, बाढ़, सूखा सभी को समान रूप से सताते हैं।

3. गुटबंदी:
कुछ लोग जो थोड़े चालाक होते हैं, पंचायत में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए गुट बना लेते हैं और चुनाव में यह गुटबंदी और अधिक प्रखर हो जाती है और गाँव वाले झगड़ों में फँस जाते हैं।

4. सरकार का अधिक हस्तक्षेप और नियंत्रण:
बहुत से समझदार लोग पंचायतों के कार्यक्रम में इसलिए भी रुचि नहीं लेते कि वे जानते हैं कि पंचायतों के पास न कोई विशेष स्वतंत्रता है, न अधिकार। सरकार अपने अधिकारों द्वारा पंचायतों के कामों में हस्तक्षेप करती रहती है। यदि एक पंचायत में उस दल का बहुमत है जो दल राज्य सरकार में विरोधी दल का तो राज्य मंत्रिमंडल उस पंचायत को ठीक तरह से कार्य नहीं करने देता। इस कारण लोगों का उत्साह पंचायती राज से कम होने लगता है।

5. धन का अभाव:
धन के अभाव में गाँव की योजनाएँ पूरी नहीं हो पाती। स्कूल नहीं बन पाते, गलियाँ, पुलिया, सड़क आदि की मरम्मत नहीं हो पाती। सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं को अधिक धन अनुदान के रूप में दे।

6. निर्धनता:
गाँव के अधिकांश लोग निर्धनता के शिकार होते हैं। वे न तो पंचायत को कर दे सकते हैं और न ही पंचायत के कामों में रुचि ले सकते हैं, क्योंकि दिन भर वे अपनी नमक, तेल, लकड़ी की चिन्ता में लगे रहते हैं। अत: वे गाँव के कल्याण या विकास की बात सोच भी नहीं सकते।

7. ग्राम सभा का प्रभावहीन होना:
ग्राम सभा पंचायती राज की प्रारंभिक इकाई है और पंचायती राज की सफलता बहुत हद तक इस संस्था के सक्रिय रहने पर निर्भर करती है, परंतु व्यावहारिक रूप में इस संस्था की न तो नियमित बैठकें होती है और नहीं गाँव के लोग इसमें रुचि लेते हैं।

8. राजनीतिक दलों का अनुचित हस्तक्षेप:
यद्यपि राजनीतिक दल पंचायत के चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करते, परंतु फिर भी वे इन संस्थाओं के कार्यों में हस्तक्षेप किए बिना नहीं रह सकते। दलों का हस्तक्षेप इन संस्थाओं में गुटबंदी को और भी अधिक तीव्र कर देता है क्योंकि दलों के सामने सार्वजनिक हित की अपेक्षा अपने सदस्यों का हित अधिक प्रिय होता है।

9. अयोग्य तथा लापरवाह कर्मचारी:
स्थानीय संस्थाएँ अपने दैनिक कार्यों के लिए अपने कर्मचारियों पर निर्भर करती हैं। चूँकि इन कर्मचारियों की योग्यता, वेतन और भत्ते आदि कम होते हैं तथा इनकी सेवा की शर्ते भी अन्य सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले में इतनी अच्छी नहीं होती। वह प्राय: आलसी, अयोग्य तथा लापरवाह होते हैं। वेतन कम होने के कारण वे रिश्वत आदि का भी लालच करते हैं जिससे प्रशासनिक कुशलता गिरती है।

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प्रश्न 7.
नगर पंचायत की रचना और कार्य बताइए।
उत्तर:
भारत में शहरी क्षेत्रों में स्थानीय संस्थाओं का वर्तमान गठन संविधान के 74 वें संशोधन अधिनियम पर आधारित है। संविधान के 74वें संशोधन द्वारा प्रत्येक राज्य में तीन प्रकार की नगरपालिकाएं स्थापित की गयी हैं –

  1. नगर पंचायत
  2. नगरपालिका
  3. नगरनिगम

नगर पंचायत:
जो क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्र बन रहा है, वहाँ नगर पंचायत की स्थापना होती है। अधिसूचित क्षेत्र समिति को अब नगर पंचायत की संज्ञा दी जा सकती है।

रचना:
नगर पंचायत के अधिकांश सदस्य आम मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं। कुछ सदस्य राज्य सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। केवल ऐसे व्यक्ति ही मनोनीत किए जाएंगे जो म्युनिसिपल प्रशासन का ज्ञान या अनुभव रखते हैं अथवा संसद या विधान सभा में उन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हों जो नगर पंचायत के क्षेत्र में शामिल हैं। नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष है। यदि किसी कारण से नगर पंचायत भंग कर दी जाय तो 6 महीने में नयी नगर पंचायत के गठन के लिए चुनाव हो जाता चाहिए। नगर पंचायत के सदस्य अपने अध्यक्ष का चुनाव करते हैं। नित्य प्रति के कार्यों का सम्पादन सचिव करता है।

कार्य:
नगर पंचायतें वे सभी कार्य अपने हाथों में ले सकती है जो नगरपालिकाएँ सम्पन्न करती हैं। संक्षेप में उनके कार्य इस प्रकार हैं –
सड़कें बनवाना, उनकी मरम्मत करवाना, चिकित्सा का प्रबंध करना, संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए टीके लगवाना, प्राइमरी विद्यालयों का प्रबंध कराना, मातृ व शिशु कल्याण केन्द्रों का प्रबंध, बिजली की व्यवस्था तथा जन्म-मृत्यु आदि का ब्योरा रखना। नगर पंचायतें सामाजिक, आर्थिक विकास संबंधी योजनाएँ भी लागू करती हैं जिनमें गरीबी निवारण योजना भी शामिल है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नगर निगम के निर्वाचित अध्यक्ष होते हैं –
(क) वार्ड कौंसलर
(ख) महापौर
(ग) उप-महापौर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) महापौर

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में राज्यों को ग्राम पंचायतों की स्थापना का निर्देश दिया गया है?
(क) अनुच्छेद 38
(ख) अनुच्छेद 39
(ग) अनुच्छेद 40
(घ) अनुच्छेद 44
उत्तर:
(ग) अनुच्छेद 40

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 3.
भारत में कितने स्तरीय पंचायती राज की स्थापना की गई है?
(क) द्विस्तरीय
(ख) एक स्तरीय
(ग) चार स्तरीय
(घ) त्रीस्तरीय
उत्तर:
(घ) त्रीस्तरीय

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

Bihar Board Class 11 Political Science संघवाद Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
नीचे कुछ घटनाओं की सूची दी गई है। इनमें से किसको आप संघवाद की कार्य-प्रणाली के रूप में चिह्नित करेंगे और क्यों?

1. केन्द्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम बंगाल के इस पर्वतीय जिले के शासकीय निकाय को ज्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केन्द्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
उत्तर:
यह घटना संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित की जा सकती है, क्योंकि इसमें क्या केन्द्र सरकार, राज्य सरकार (पश्चिम बंगाल सरकार) तथा सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाली गोरखा लिबरेशन फ्रंट तीनों शामिल हुए।

2. वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लाएगी –
केन्द्र सरकार ने वर्षा प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान करने की उनकी माँग पर फौरन कार्रवाई कर सके।
उत्तर:
यह घटना अथवा प्रक्रिया भी संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित की जायगी।

3. दिल्ली के लिए नए आयुक्त –
देश की राजधानी दिल्ली में नए नगरपालिका आयुक्त को बहाल किया जायगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह संभालेंगे। अशोक कुछ अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।
उत्तर:
यह तबादले का आदेश भी संघात्मक राज्य में केन्द्र सरकार के अधिकार में आता है। अत: यह भी संघात्मक शासन प्रणाली अथवा संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में माना जायगा।

4. मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा –
राज्यसभा ने बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक पारित किया। मानव संसाधन विकास मंत्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और सिक्किम
जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी ऐसी संस्थाओं का निर्माण होगा।
उत्तर:
उक्त घटना के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि संघवाद में केन्द्र और राज्यों के बीच शक्ति का विभाजन रहता है। अतः केन्द्रीय विद्यालय केन्द्र सरकार के अधीन होगा।

5. केन्द्र ने धन दिया –
केन्द्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत अरुणाचल प्रदेश को 553 लाख रुपये दिए हैं। इस धन की पहली किश्त के रूप में अरुणाचल प्रदेश को 466 लाख रुपये दिए गए हैं।
उत्तर:
इस घटना में केन्द्र ने राज्य सरकार (अरुणाचल सरकार) को धन मुहैया कराया है। यह भी संघवाद की कार्यप्रणाली के अन्तर्गत आता है।

6. हम बिहारियों को बताएंगे कि मुंबई में कैसे रहना है:
करीब 100 शिवसैनिकों मुंबई के जे.जे. अस्पताल में उठा-पटक करके रोजमर्रा के कामधंधे में बाधा पहुँचाई, नारे लगाए, और धमकी दी कि गैर-मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही निपटाएँगे।
उत्तर:
यह कार्यवाही संघवाद कार्यप्रणाली के अनुरूप नहीं है क्योंकि कोई राज्य भारतीय नागरिक को किसी प्रदेश में रहने से नहीं रोक सकता।

7. सरकार को भंग करने की माँग –
कांग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डमोक्रेटिक एलायंस ऑफ नागालैंड (डीएएन) की सरकार को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की मांग की है।
उत्तर:
संघवाद की कार्यप्रणाली में जब किसी राज्यों में शासन भ्रष्टाचार में लिप्त हो तो संघ (केन्द्र) राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है, यदि राज्यपाल इस तरह की सिफारिश करे। उपरोक्त उदाहरण में राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा गया है, अतः इसे संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में देखा जा सकता है।

8. एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा –
विपक्षी दल राजद और उसके सहयोगी कांग्रेस तथा सीपीआई (एम) के वॉकआऊट के बीच बिहार सरकार ने आज नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्त छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को सरकार ने दोहराया।
उत्तर:
उक्त उदाहरण में एक राज्य सरकार के द्वारा किए जाने वाले कार्य को दर्शाया गया है। उसे संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता।

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प्रश्न 2.
बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही होगा और क्यों?

  1. संघवाद से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक संस्कृति दूसरे पर लाद दी जायगी।
  2. अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेन देन के संघीय प्रणाली से बाधा पहुँचेगी।
  3. संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है कि जो केन्द्र में सत्तासीन है उनकी शक्तियों सीमित रहें।

उत्तर:
1. उपरोक्त कथन में जो प्रश्न में दिए गए हैं उनमें से यह कथन सही है कि संघवाद से इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेलजोल करेंगे और उन्हें इस बात का डर नहीं रहेगा कि एक की संस्कृत दूसरे पर लाद दी जायगी।

प्रश्न 3.
बेल्जियम के संविधान के कुछ प्रारंभिक अनुच्छेद नीचे लिखे गए हैं। इसके आधार पर बताएँ कि बेल्जियम में संघवाद को किस रूप में साकार किया गया है। भारत के संविधान के लिए ऐसा ही अनुच्छेद लिखने का प्रयास करके देखें।

शीर्षक-1 –
संघीय बेल्जियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र अनुच्छेद-1-बेल्जियम एक संघीय राज्य है – जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।

अनुच्छेद-2 –
बेल्जियम तीन समुदायों से बना है – फ्रेंच समुदाय, फ्लेमिश समुदाय और जर्मन समुदाय।

अनुच्छेद –
3-बेल्जियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है-वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र और ब्रूसेल्स क्षेत्र।

अनुच्छेद –
4-बेल्जियम में 4 भाषाई क्षेत्र हैं- भाषी क्षेत्र, ब्रुसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र हार कायन इन भाषाई क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।

अनुच्छेद –
5-वैलून क्षेत्र के अंतर्गत प्रांत हैं-वैलून ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अंतर्गत शामिल प्रांत हैं-एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैडर्स, ईस्ट: फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
उत्तर:
संघीय बेल्जियम, उसके घटक और उसका क्षेत्र-बेल्जियम एक संघीय राज्य है जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है। भारतीय संविधान का यह प्रथम अनुच्छेद है कि –

  1. भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा।
  2. राज्य और उनके राज्य क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में निर्दिष्ट हैं।
  3. भारत के राज्य क्षेत्र में –

(क) राज्यों के राज्य क्षेत्र
(ख) पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट संघराज्य क्षेत्र और
(ग) ऐसे अन्य राज्य क्षेत्र जो अर्जित किए जाएं समाविष्ट होंगे।

अनुच्छेद 2 –
बेल्जियम तीन समुदायों से बना है-फ्रेंच फ्लेमिश और जर्मन। भारत एक ऐसे समाज के लिए प्रेरित है जो जाति भेद से रहित हो परंतु प्रत्येक प्रान्त में सीटें तीन मुख्य समुदायों में मुस्लिम, सिक्ख और सामान्य में बंटी हैं।

अनुच्छेद 3 –
बेल्जियम तीन क्षेत्रों से बना है –

  1. वैलून क्षेत्र
  2. फ्लेमिश क्षेत्र
  3. ब्रूसेल्स क्षेत्र

भारत में 28 राज्य तथा 7 संघ शासित राज्य हैं। अनुच्छेद 1 के अनुसार भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा। राज्य तथा संघशासित क्षेत्र वे होंगे जो अनुसूची
1. में दिए गए हैं।

अनुच्छेद 4 –
बेल्जियम में 4 भाषायी क्षेत्र हैं-फ्रेंच भाषी क्षेत्र, डच भाषी क्षेत्र, ब्रूसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र। राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषायी क्षेत्रों में किसी एक का हिस्सा है।

भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में इस समय कुल 22 भाषाएँ दी गयी हैं। असमिया, बंगला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़ कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलगू, उर्दू, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, बोडो, डोंगरी, मैथिली और नेपाली को 71 वें संविधान संशोधन द्वारा 1992 में, बोडो, डोंगरी, मैथिली और संथाली को 92 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा जोड़ा गया। इस प्रकार अब कुल 22 भाषाओं को राजभाषा के रूप में संवैधानिक मान्यता प्राप्त है।

संविधान के अनुच्छेद 345 के अधीन प्रत्येक राज्य के विधानमंडल को यह अधिकार दिया गया है कि वह संविधान की आठवीं अनुसूची में अन्तर्निहित भाषाओं में से किसी एक या अधिक को सरकारी कार्यों के लिए राज्य की भाषा के रूप में अंगीकार कर सकता है। किन्तु राज्यों के परस्पर सम्बन्धों तथा संघ और राज्यों के परस्पर सम्बन्धों में संघ की राजभाषा को ही प्राधिकृत भाषा माना जायगा।

अनुच्छेद 5 –
वैलून क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले प्रान्त हैं – वैलून, ब्राबैन्ट, हेनान्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल प्रान्त हैं एन्टवर्प, फ्लेमिश ब्राबैन्ट, वेस्ट फ्लेंडर्स, इस्ट फ्लेंडर्स और लिम्बर्ग। भारत में अलग-अलग क्षेत्र संविधान में नहीं दिए गए हैं, परंतु इनकी तुलना हम पहाड़ी क्षेत्र, उत्तरी क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, पूर्वोत्तर भारत तथा मध्य भारत आदि के रूप में कर सकते हैं। संविधान के अनुच्छेद प्रथम में केवल इतना कहा गया है कि भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा जिसमें राज्य तथा संघ शासित प्रदेश इस प्रकार सम्मिलित होंगे जैसा अनुसूची – में वर्णन किया गया है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 4.
कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग 300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर आपके सुझाव हों

  1. केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा
  2. वित्त-संसाधनों का वितरण
  3. राज्यपालों की नियुक्ति

उत्तर:
1. केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा:
भारतीय संविधान द्वारा संघ और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन तो किया गया है, लेकिन शक्ति विभाजन की इस सम्पूर्ण योजना में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रबल है। केन्द्रीय सूची में 97 विषय, राज्य सूची में 66 विषय ओर समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर संघ और राज्य दोनों को ही कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है, लेकिन पारस्परिक विरोध की स्थिति में संघीय सरकार के कानून ही मान्य होंगे। अवशिष्ट शक्तियों भी केन्द्रीय सरकार को प्राप्त हैं। अनुच्छेद 249 के अनुसार राज्य सूची के विषय में राष्ट्रीय हित में कानून बनाने की शक्ति भी संसद के पास है।

मूल संविधान द्वारा केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों के बीच जो शक्ति विभाजन किया गया, उसमें 42वें संशोधन (1976) द्वारा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस संविधानिक संशोधन द्वारा राज्य सूची के चार विषय-शिक्षा, वन, वन्य जीव जन्तुओं और पक्षियों का रक्षण तथा नाप-तौल समवर्ती सूची में कर दिए गए और समवर्ती सूची में एक नवीन विषय जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन जोड़ा गया है।

केन्द्र-राज्य संबंध-संवैधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 246 –
संसद को सातर्वी अनुसूची की सूची में प्रमाणित विषयों पर कानून बनाने की शक्ति।

अनुच्छेद 248 –
अवशिष्ट शक्तियाँ संसद के पास।

अनुच्छेद 249 –
राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने की शक्ति संसद के पास।

अनुच्छेद 250 –
यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में कानून बनाने की संसद की शक्ति।

अनुच्छेद 252 –
दो या अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से कानून बनाने की संसद की शक्ति।

अनुच्छेद 257 –
संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को निर्देश दे सकती है।

अनुच्छेद 257 –
(क) संघ के सशस्त्र बलों या अन्य बलों के अभियोजन द्वारा राज्यों की सहायता।

अनुच्छेद 263 –
अन्तर्राज्यीय परिषद का प्रावधान।

2. वित्तीय संसाधनों का वितरण –
संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के मध्य वित्तीय संबंधों का निरूपण इस प्रकार किया जाता है; जातीय संविधान में संघ तथा राज्यों के मध्य कर निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है। करों से प्राप्त आय का बँटवारा होता है। संघ के प्रमुख राजस्व स्रोत इस प्रकार हैं-निगमकर, सीमा शुल्क, निर्यात शुल्क, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा शुल्क, विदेशी ऋण, रेलें, रिजर्व बैंक, शेयर बाजार आदि। राज्यों के राजस्व स्रोत हैं-प्रति व्यक्ति कर, कृषि भूमि पर कर, सम्पदा शूल्क, भूमि और भवनों पर कर, पशुओं तथा नौकाओं पर कर, बिजली के उपयोग तथा विक्रय पर कर, वाहनों पर चुंगी कर आदि।

संघ द्वारा आरोपित संग्रहीत तथा विनियोजित किए जाने वाले शुल्कों के उदाहरण हैं-बिल, विनियमों, प्रोमिसरी नोटों, हुण्डियों, चेकों आदि पर मुद्रांक शुल्क और दवा, मादक द्रव्य पर कर, शौक-शृंगार की चीजों पर कर तथा उत्पादन शुल्क। संघ द्वारा आरोपित तथा संगृहीत किन्तु राज्यों को सौंपे जाने वाले करों के उदाहरण हैं – कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर कर, कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति शुल्क, रेल, समुद्र, वायु द्वारा ले जाने वाले माल तथा यात्रियों पर सीमांत कर, रेलभाड़ों तथा वस्तु भाड़ों पर कर, शेयर बाजार तथा सट्टा बाजार के आदान-प्रदान पर मुद्रांक शुल्क के अतिरिक्त कर, समाचार पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उसमें प्रकाशित किए गए विज्ञापनों पर और अन्य अन्तर्राज्यीय व्यापार तथा वाणिज्य से माल के क्रय-विक्रय पर कर।

3. अन्तर्राज्यीय झगड़ों का निपटारा –
संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों के बीच आपसी विवाद भी होते रहते हैं। प्रायः दो प्रकार के विवाद होते हैं-एक है सीमा-विवाद मणिपुर व नागालैंड के बीच, पंजाब व हरियाणा के बीच, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि राज्यों में सीमा विवाद बना हुआ है। नदियों के जल बँटवारे को लेकर भी गम्भीर विवाद है। कावेरी जल विवाद इसका प्रमुख उदाहरण है।

तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच यहाँ विवाद चल रहा है। संसद को यह अधिकार है कि नदियों के जल के बँटवारे से सम्बन्धित किसी विवाद को निपटाने के लिए उचित कानून बनाए। 1956 में संसद ने एक ‘जलविवाद अधिनियम’ बनाया था जिसके अनुसार इस प्रकार के विवाद केवल एक सदस्य वाले एक ट्रिव्यूनल को सौंपे जाएँगे, जिसके जज की नियुक्ति उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करेंगे।

राज्यों के बीच विवादों को उच्चतम न्यायालय में ले जाया जा सकता है। परंतु कभी-कभी राज्यों के बीच इस प्रकार के विवाद उठते हैं, जिनका कोई कानूनी आधार नहीं होता। संविधान निर्माताओं ने इसी कारण एक अन्तर्राज्यीय परिषद की स्थापना पर बल दिया है।

4. राज्यपालों की नियुक्ति –
राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति देश का संवैधानिक प्रमुख होने के कारण राज्यपाल की नियुक्ति प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद के परामर्श से करता है। अतः प्रधानमंत्री ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल बनाना चाहेंगे जो उसका विश्वासपात्र हो क्योंकि ऐसे व्यक्ति द्वारा आवश्यकता पड़ने पर राज्य पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकता है। 1980 के दशक में केन्द्रीय सरकार ने आन्ध्र-प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त कर दिया।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों?

  1. सामान्य भाषा
  2. सामान्य आर्थिक हित
  3. सामान्य क्षेत्र
  4. प्रशासनिक सुविधा

उत्तर:
किसी प्रांत के गठन का आधार क्या होना चाहिए? आधुनिक युग में इस पर नये दृष्टिकोण की आवश्यकता है। ब्रिटिश भारत में प्रांतों का गठन प्रशासनिक सुविधाओं को ध्यान में रखकर किया गया था, परंतु आज के युग में भाषाई क्षेत्र के आधार पर प्रांतों का गठन उचित माना जाता है, क्योंकि समाज में अनेक विविधताएँ होती हैं और आपसी विश्वास से संघवाद का कामकाज आसानी से चलाने का प्रयास किया जाता है।

कोई एक इकाई, प्रांत, भाषायी समुदाय आदि मिलकर संघ का निर्माण करते हैं और संघवाद मजबूती के साथ आगे बढ़े इसके लिए इकाइयों में टकराव कम से कम हो। अत: भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया गया है। कोई एक भाषायी समुदाय पूरे संघ पर हावी न हो जाए इस कारण इकाई क्षेत्रों की अपनी भाषा, धर्म, सम्प्रदाय या सामुदायिक पहचान बनी रहती है और वे इकाई अपनी अलग पहचान होते हुए भी संघ की एकता में विश्वास रखती है।

प्रश्न 6.
उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाय तो क्या ऐसा करना संघवाद के विचारों से संगत होगा? तर्क दीजिए।
उत्तर:
उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार के अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाए तो ऐसा करना संघवाद के विचार से असंगत होगा। जैसा कि हम जानते हैं कि संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है। इसमें एक प्रांतीय स्तर की होती है और दूसरी केन्द्रीय स्तर की। लोगों की दोहरी पहचान होती है। दोहरी निष्ठाएँ होती हैं-वे अपने क्षेत्र के भी होते हैं और राष्ट्र के भी। अतः उपरोक्त प्रदेशों को केवल हिन्दी भाषी होने के कारण एक प्रदेश बनाना संघवाद के विचार से असंगत है।

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प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिसमें प्रादेशिक सरकार की, अपेक्षा केन्द्रीय सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान की गई है।
उत्तर:
भारत के संविधान में दो प्रकार की सरकारों की बात मानी गयी है एक सम्पूर्ण भारत के लिए संघीय सरकार और दूसरी प्रत्येक संघीय इकाई के लिए राज्य सरकार। ये दोनों ही संवैधानिक सरकारें हैं और इनके स्पष्ट कार्य क्षेत्र हैं। भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं जिनमें केन्द्रीय सरकार को राज्य सरकार की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया गया है:

1. किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण है। अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद ‘किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नये राज्य का निर्माण कर सकती है।’ वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है पर इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए संविधान पहले प्रभावित राज्य के विधानमंडल को विचार व्यक्त करने का अवसर देता है।

2. संविधान में केन्द्र को अत्यधिक शक्तिशाली बनाने वाले कुछ आपातकालीन प्रावधान भी दिए गए हैं। आपातकाल में संसद को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि वह राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है।

3. सामान्य स्थिति में भी केन्द्र सरकार को अत्यन्त वित्तीय शक्ति प्राप्त है। पहला, आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण है। केन्द्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित है। दूसरा, स्वतंत्रता के बाद भारत की आर्थिक प्रगति के लिए नियोजन का प्रयोग किया गया। केन्द्र योजना आयोग की नियुक्ति करता है जो राज्यों के संसाधन-प्रबंध की निगरानी करता है। केन्द्र सरकार राज्यों को अनुदान और ऋण देती है जिसमें विभिन्न राज्यों के साथ भेदभाव भी किया जाता है। विपक्षी दलों की सरकार वाले राज्यों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जाता है।

4. राज्यपाल धारा 356 का दुरुपयोग करते हैं क्योंकि राज्यपाल केन्द्र के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को हटाने और विधान सभा भंग करने का प्रतिवेदन राष्ट्रपति की स्वीकृति को भेज सके। सामान्य परिस्थिति में भी राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है।

5. ऐसी परिस्थितियाँ भी आती हैं, जब केन्द्र राज्य सूची के विषय पर कानून बनाए पर ऐसा करने के लिए राज्यसभा की अनुमति लेना आवश्यक है।

6. अनुच्छेद 257 के अनुसार, ‘प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करेगी जिससे संघ की कार्यपालिका के कार्य में कोई अड़चन न आए।” संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को ऐसे निर्देश देने तक होगा जो भारत सरकार को इस प्रयोजन के लिए आवश्यक प्रतीत हो।

7. अखिल भारतीय सेवा में चयनित अधिकारी राज्यों के प्रशासन में कार्य करते हैं। किसी क्षेत्र में सैनिक शासन (मार्शल ला) लागू हो तो संसद को यह अधिकार हैं कि वह केन्द्र या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने या उसकी बहाली के लिए किए गए किसी भी कार्य को कानून सम्मत करार दे सके। इसी के अन्तर्गत ‘सशक्त बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम’ का निर्माण किया गया।

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प्रश्न 8.
बहुत से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं?
उत्तर:
राज्यपाल की भूमिका केन्द्र और राज्यों के बीच सदैव तनाव का कारण रही है। भारतीय संविधान के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा होती है और राज्यपाल अपने कार्यों के लिए राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। राष्ट्रपति राज्यपाल को जब चाहे हटा सकता है अथवा उसका स्थानान्तरण कर सकता है। कुछ विद्वानों का मत है कि राज्यपाल राज्य में केन्द्र। के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। पिछले कुछ समय से तो राज्यपाल की भूमिका को लेकर भारत में काफी विवाद रहा है।

विशेष तौर से ऐसे राज्यों की सरकारों ने राज्यपाल की भूमिका की कड़ी आलोचना की है जहाँ विरोधी दलों की सरकारे बनी हैं। राज्यपालों से सम्बन्धित विवाद का एक मुख्य प्रश्न यह भी रहा है कि राज्यपाल को किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करनी चाहिए। कुछ राज्य सरकारों का यह मत रहा है कि कई बार ऐसा होता है कि राज्यों की संवैधानिक मशीनरी विफल नहीं हुई होती तो भी राज्यपाल केन्द्र सरकार के इशारों पर राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर देते हैं। इस तनाव को कम करने के लिए राज्यपालों को समझदारी से काम लेना चाहिए। उत्तर प्रदेश में 21 फरवरी, 1998 को तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भण्डारी ने कल्याण सिंह सरकार को गिराकर राज्यपाल के पद की गरिमा को ठेस पहुँचायी।

2 फरवरी, 2005 को गोवा में हुए नाटकीय घटनाक्रम में तत्कालीन राज्यपाल एस.सी. जमीर ने विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के बावजूद भाजपा की मनोहर पारीकर सरकार को बर्खास्त कर दिया। यह राजनीतिक व्यवस्था पर आघात है। बिहार में तत्कालीन राज्यपाल बूटासिंह का आचरण भी विवादास्पद रहा जब उन्होंने 2005 में विधानसभा भंग कर दी।

सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा भंग किए जाने को अनुचित ठहराया। इन्हीं कारणों से बहुत से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश रहते हैं, क्योंकि राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्य के संवैधानिक प्रमुख की भूमिका का निर्वहन नहीं करते। राजनीतिक दलों के नित्य नये गठबंधन बनने और टूटने की प्रक्रिया के इस काल में राज्यपाल को अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग करते समय निष्पक्षता का परिचय देना चाहिए।

प्रश्न 9.
यदि शासन संविधान के प्रावधान के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश में राष्ट्रपति-शासन लगाया जा सकता है। बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सी स्थिति किसी देश में राष्ट्रपति-शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं संक्षेप में कारण भी दें।

  1. राज्य की विधान सभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की मांग कर रहा है।
  2. फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
  3. प्रदेश में हुए हाल के विधान सभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
  4. केन्द्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
  5. सांप्रदायिक दंगे में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
  6. दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इंकार कर दिया है।

उत्तर:

  1. यह राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का उचित कारण नहीं है। वास्तव में उन अपराधियों को दण्डित किया जाना चाहिए।
  2. इस समय भी राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना उचित नहीं वरन् राज्य सरकार को चाहिए कि वह राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार करे।
  3. इस स्थिति में भी बिना किसी ठोस सबूत के केवल आशंका रहने पर राष्ट्रपति शासन लागू करना असंगत है जैसा कि राज्यपाल बूटा सिंह ने बिहार में किया।
  4. यहाँ भी राष्ट्रपति शासन लगाने का उचित कारण नहीं बनता। केन्द्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें हो सकती हैं।
  5. यहाँ सरकार (शासन) की असफलता का मामला बनता है और इस स्थिति में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाना चाहिए।
  6. ऐसी स्थिति में उस प्रदेश की सरकार के कर्त्तव्य असंवैधानिक कहलाएँगे और राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है। कोर्ट की अवमानना का सामना उस प्रदेश की सरकार को करना पड़ेगा।

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प्रश्न 10.
ज्यादा स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या माँगें उठाई हैं?
उत्तर:
संविधान ने केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया है। यद्यपि संविधान विभिन्न क्षेत्रों की भिन्न-भिन्न पहचान को मान्यता देता है, लेकिन फिर भी वह केन्द्र को अधिक शक्ति देता है। एक बार राज्य की पहचान के सिद्धांत को मान्यता मिल जाती है तब यह स्वाभाविक ही है कि पूरे देश के शासन में और अपने शासकीय क्षेत्र में राज्यों द्वारा ज्यादा शक्ति तथा भूमिका की माँग उठायी जाए। इसी कारण राज्य ज्यादा शक्ति की माँग करते हैं। समय-समय पर राज्यों ने ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की मांग की है।

1960 के दशक में कांग्रेस के वर्चस्व में कमी आयी और उनके राज्यों में विरोधी दल सत्ता में आ गए। इससे राज्यों की और ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता की माँग बलवती हुई। अलग-अलग राज्यों के लिए स्वायत्तता का अलग-अलग अर्थ है। कुछ राज्य शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदलने की माँग करते हैं। तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने स्वायत्तता का अलग-अलग अर्थ है। कुछ राज्य शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदलने की माँग करते हैं।

तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने स्वायत्तता की मांग उठायी। कुछ राज्यों का स्वायत्तता का अर्थ है कि राज्यों के पास आय के स्रोत अधिक होने चाहिए। कुछ राज्यों के स्वायत्तता का अर्थ केन्द्र के राज्य प्रशासनिक तंत्र पर नियंत्रण को रोकना है। इसके अतिरिक्त स्वायत्तता की माँग सांस्कृतिक और भाषायी मुद्दों से भी सम्बन्धित है। तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध, पंजाब में पंजाबी भाषा एवं संस्कृति के प्रोत्साहन की माँग इसी प्रकार के उदाहरण हैं।

प्रश्न 11.
क्या कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए? क्या इससे दूसरे प्रदेशों में नाराजगी पैदा होती है? क्या इन विशेष प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद मिलती है?
उत्तर:
जब कुछ राज्यों में विशेष प्रावधानों के अन्तर्गत उनका शासन चलाया जाता है तो यह अन्य राज्यों के लिए नाराजगी पैदा करता है। उदाहरणार्थ उत्तरांचल राज्य बनने से पूर्व वह उत्तर प्रदेश का भाग था और उत्तर प्रदेश के लोग जहाँ चाहे रह सकते थे। परंतु अब उत्तरांचल को विशेष दर्जा मिलने के कारण उत्तरांचल के बाहर के लोग वहाँ अचल सम्पत्ति नहीं खरीद सकते, जबकि उत्तरांचल के लोग उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहाँ चाहे सम्पत्ति खरीद सकते हैं।

स्थायी रूप से मूलनिवासी का दर्जा उत्तरांचल अथवा अन्य किसी विशेष दर्जा प्राप्त अर्थात् विशेष प्रावधानों द्वारा शासित राज्य में किसी बाहरी राज्य के व्यक्ति को नहीं मिल सकता। इस कारण दूसरे राज्यों में नाराजगी पैदा होती है। धारा 370 के लागू रहने के कारण जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त है अत: भारत की संसद वहाँ की विधायिका की अनुमति के बिना उसमें कोई संशोधन नहीं कर सकती।

अतः अन्य राज्यों में नाराजगी पैदा होती है। शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्राप्त हैं। परंतु कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है। असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि राज्यों में विशेष प्रावधान लागू हैं।

इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल आदि कुछ पहाड़ी राज्यों में भी प्रावधान लागू है। अनेक लोगों की मान्यता है कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ की सभी इकाइयों (राज्यों) पर समान रूप से लागू होना चाहिए। अतः जब भी ऐसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था संविधान में की जाती है तो उसका कुछ विरोध भी होता है। इस बात की भी शंका होती है कि विशिष्ट प्रावधानों से उन क्षेत्रों में अलगवादी प्रवृत्तियाँ मुखर हो सकती हैं। संघीय व्यवस्था की सफलता के लिए व राष्ट्र की एकता को बनाए रखने के लिए इन विशेष प्रावधानों का होना आवश्यक है। इन प्रावधानों के कारण उन प्रदेशों की अपनी व्यक्तिगत संस्कृति की पहचान बनी रहती है।

Bihar Board Class 11 Political Science संघवाद Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
राज्य सूची में कौन-कौन से विषय हैं?
उत्तर:
राज्य सूची में 66 विषय होते हैं। इनमें से प्रमुख हैं: पुलिस, जेल, यातायात, न्याय-प्रबंध, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा एवं स्थानीय सरकारें आदि। इनके सम्बन्ध में राज्य विधानमंडल कानून बनाते हैं।

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प्रश्न 2.
संघ राज्य का निर्माण किस प्रकार होता है?
उत्तर:
संघ राज्य-संघ राज्य का निर्माण तब होता है जब दो या दो से अधिक स्वतंत्र राज्य परस्पर मिलकर एक लिखित समझौते के द्वारा किसी एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए, एक नवीन राज्य की रचना करते हैं। जिसे (नवीन राज्य को) कुछ निश्चित विषयों में सम्प्रभु अधिकार प्रदान किए जाते हैं जिन पर उसका अनन्य क्षेत्राधिकार रहता है और जो अवशिष्ट विषयों पर अपना क्षेत्राधिकार बनाए रखते हैं।

प्रश्न 3.
इकहरी नागरिकता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
इकहरी नागरिकता से अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण राज्य में नागरिकों को एक ही नागरिकता प्राप्त होती है। वह राज्य के किसी भी भाग में बस सकते हैं। कुछ संघात्मक राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को दो नागरिकता प्राप्त होती है। एक तो वह अपने इकाई राज्य का नागरिक होता है और साथ ही साथ पूरे देश की नागरिकता भी प्राप्त रहती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में दोहरी नागरिकता मिलती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रत्येक नागरिक संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक होने के साथ-साथ अपने उस राज्य की नागरिका भी प्राप्त करता है, जिसका निवासी है।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान के दो संघीय तत्त्व लिखें।
उत्तर:
भारतीय संविधान के दो संघीय तत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. यह लिखित संविधान है।
  2. संविधान में केन्द्र व राज्यों के बीच शक्ति विभाजन किया गया है।
    • संघ सूची
    • राज्य सूची
    • समवर्ती सूची। इन तीनों सूचियों में अलग-अलग विषय दिए गए हैं।

प्रश्न 5.
संघ सूची क्या है? इसमें उल्लिखित विषय कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार संघ व राज्यों के बीच शक्तियों का बँटवारा किया गया है। दोनों के अधिकारों को संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में बाँटा गया है। इनमें से संघ सूची में 97 विषय दिए गए हैं। इन पर संसद को कानून बनाने का अधिकार होता है। इस सूची के कुछ प्रमुख विषय हैं: प्रतिरक्षा, परमाण्विक ऊर्जा, विदेश मामले, रेलवे, डाक-तार, वायु सेवा, बंदरगाह, विदेश व्यापार तथा मुद्रा आदि।

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प्रश्न 6.
द्विसदनीय विधायिका संघात्मक राज्यों के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है – जिस देश में एकात्मक शासन व्यवस्था होती है वहाँ तो एक-सदन से विधायिका का कार्य चल जाता है, लेकिन संघात्मक शासन व्यवस्था में द्विसदनात्मक विधायिका का होना आवश्यक है क्योंकि प्रथम सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए एक ऐसा भी होना चाहिए जो संत की राजनीतिक इकाइयों का प्रतिनिधित्व कर सके। अतः संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदानात्मक विधायिका का होना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
संघवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संघवाद में दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाएँ होती हैं। संघवाद एक ऐसी संस्थागत प्रणाली है जिसमें केन्द्र तथा राज्य स्तर की दो राजनीतिक व्यवस्थाएँ हैं। संघवाद में दोहरी नागरिकता होती है परंतु भारत में केवल एकल नागरिकता है। केन्द्र व राज्यों के बीच किसी टकराव को सीमित रखने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है।

प्रश्न 8.
संघ सूची में कौन-कौन से विषय शामिल हैं?
उत्तर:
संघ सूची में 97 विषय हैं। इनमें प्रमुख हैं-प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, युद्ध और संधि, रेलवे, विदेशी व्यापार, बीमा कंपनी, बैंक, मुद्रा, डाक व तार, टेलीफोन आदि।

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प्रश्न 9.
संघात्मक संविधान से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
फेडरेशन शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ संधि या समझौता है। इस प्रकार संघात्मक शासन ऐसा शासन है जिसका निर्माण अनेक स्वतंत्र राज्य अपनी पृथक् स्वतंत्रता स्खते हुए तथा समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक केन्द्रीय सरकार के रूप में करते हैं। इसमें संविधान द्वारा केन्द्र और राज्यों में शक्तियों का बंटवारा होता है। ऐसी शासन प्रणाली में कठोर संविधान होता है तथा केन्द्र और राज्यों में झगड़ों का फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की जाती है। जेलीनेक के अनुसार-“संघात्मक राज्य कई एक राज्यों के मेल से बना हुआ प्रभुसत्रासम्पन्न राज्य है।”

प्रश्न 10.
संघ प्रणाली में नूतन प्रवृत्तियों पर टिप्पणी लिखो।
उत्तर:
राज्य की गतिविधियों में विस्तार होने तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास के परिणामस्वरूप राज्यों में शक्तियों का केन्द्रीयकरण हुआ है। आर्थिक विकास, सैनिक सुरक्षा तथा योजना पूर्ति हेतु आजकल केन्द्र अधिक शक्तिशाली होती जा रही है। इसके साथ-साथ प्रादेशिक इकाईयाँ विकेन्द्रीकरण की समर्थक होती जा रही है। भारत जैसे संघात्मक देशों में राज्य इकाई अपनी संस्कृति और अपने क्षेत्रीय विकास हेतु केन्द्र सरकारों पर दबाव बनाए रखती है। ब्रिटेन, फ्रांस और स्पेन आदि एकात्मक शासन वाले देशों में भी क्षेत्रीय समस्याओं की माँगों को हल करने के लिए वहाँ भी क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व करने वाले दल अपना दबाव बनाने में लगे रहते हैं। इस प्रकार संघात्मक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

प्रश्न 11.
संघात्मक शासन के पाँच अवगुण लिखो।
उत्तर:
संघात्मक सरकार के पाँच अवगुण निम्नलिखित हैं –

  1. इसमें सरकार दुर्बल होती है।
  2. इसमें केन्द्र और राज्यों में अधिकार क्षेत्र संबंधी झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं।
  3. संघ के टूटने का भय बना रहता है।
  4. इसमें शासन की एकरूपता नहीं रहती है।
  5. यह खर्चीला शासन होता है।

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प्रश्न 12.
संघात्मक सरकार के पाँच गुण लिखो।
उत्तर:
संघात्मक सरकार के पाँच गुण निम्नलिखित हैं –

  1. यह आर्थिक विकास के लिए लाभदायक है।
  2. यह बड़े राज्यों के लिए उपयुक्त है।
  3. यह केन्द्रीय सरकार को निरंकुश बनने से रोकती है।
  4. यह निर्बल राज्यों की शक्तिशाली राज्यों से रक्षा करती है।
  5. इसमें स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति ठीक प्रकार से हो जाती है।

प्रश्न 13.
संघात्मक संविधान की कोई पाँच विशेषताएँ बताओ।
उत्तर:

  1. इसमें केन्द्र तथा प्रान्तों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
  2. इसमें संविधान कठोर होता है।
  3. इसमें संविधान लिखित होता है।
  4. इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतंत्र होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
संघात्मक शासन के मुख्य लक्षण बताइए।
उत्तर:
संघात्मक सरकार-इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द से हुई है जिसका अर्थ है संधि अथवा समझौता। अतः समझौते द्वारा निर्मित राज्य को संघ राज्य कहा जा सकता है। संवैधानिक दृष्टिकोण से संघात्मक शासन का तात्पर्य एक ऐसे शासन से होता है जिसमें संविधान द्वारा ही केन्द्रीय सरकार और इकाइयों या राज्य की सरकारों के बीच शक्ति विभाजन कर दिया जाता है। कोई एक अकेला इस शक्ति विभाजन में परिवर्तन नहीं कर सकता।
संघात्मक शासन के मुख्य लक्षण –

  1. संविधान की सर्वोच्चता
  2. शक्तियों का विभाजन
  3. लिखित एवं कठोर संविधान
  4. द्विसदनीय विधानमंडल

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प्रश्न 2.
एकात्मक और संघात्मक शासन में से भारत के लिए कौन-सा शासन उपयोगी है और क्यों?
उत्तर:
भारत के लिए एकात्मक और संघात्मक शासन में संघात्मक शासन अधिक उपयोगी है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
1. भारत जनसंख्या व क्षेत्रफल, दोनों ही दृष्टियों से एक विशाल देश है इसलिए किसी भी विशाल देश के लिए संघात्मक शासन ही अधिक उपयोगी होता है। क्योंकि इस प्रकार के शासन में सारा देश कुछ राजनैतिक इकाइयों में बँटा होता है इसलिए प्रत्येक राजनीतिक इकाई अपने-अपने क्षेत्र में कुशलतापूर्वक शासन कार्य चला सकती है।

2. भारत में विभिन्न भाषाओं, धर्मों, जातियों व संस्कृतियों के लोग रहते हैं। अतः यह केवल संघात्मक शासन में ही संभव है कि लोगों को सुरक्षा भी प्राप्त हो एवं उनकी संस्कृति भी बनी रहे।

3. भारत बहुत समय तक विदेशी शासन के अधीन रहा है। यदि भारत को छोटे-छोटे कई राज्यों में विभाजित करके उनमें एकात्मक सरकार की स्थापना कर दी जाए तो ये राज्य साम्राज्यवादी शक्तियों से अपनी रक्षा नहीं कर सकते अत: संघात्मक शासन दोनों तरह से उपयुक्त है। इस शासन में एक ओर राज्यों को अपने स्थानीय विषयों में व अपनी संस्कृति को कायम रखने में स्वतंत्रता प्राप्त है तो दूसरी ओर उनको विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों से सुरक्षा प्राप्त है।

प्रश्न 3.
संघात्मक और एकात्मक सरकारों में कोई पाँच अंतर बताओ।
उत्तर:

  1. संघात्मक सरकार का संविधान लिखित होता है परंतु एकात्मक सरकार का संविधान अलिखित भी हो सकता है।
  2. संघात्मक सरकार का संविधान कठोर होता है, परंतु एकात्मक सरकार का संविधान लचीला भी हो सकता है।
  3. संघात्मक सरकार में दोहरा शासन होता है, परंतु एकात्मक सरकार में इकहरा शासन होता है।
  4. संघात्मक सरकार में शक्तियों का केन्द्र तथा इकाइयों में बँटवारा होता है, परंतु एकात्मक सरकार में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है।
  5. संघात्मक सरकार में नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है, परंतु एकात्मक सरकार में नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त होती है।

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प्रश्न 5.
संघ तथा परिसंघ में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संघ और परिसंघ में प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं –

  1. स्वरूप में अंतर-संघीय शासन की इकाइयाँ प्रभुत्व सम्पन्न नहीं होती जबकि परिसंघ में सदस्य राज्यों की प्रभुसत्ता बना रहती है।
  2. संगठन में अंतर-संघीय शासन में संविधान के द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का बँटवारा होता है, जबकि परिसंघ में शक्तियों का बटवारा समझौते के द्वारा होता है।
  3. सदस्यता में अंतर-संघीय शासन में इकाई राज्यों को संघ छोड़ने की स्वतंत्रता नहीं होती। रूस के संविधान में यद्यपि इकाई राज्यों को संघ छोड़ने की स्वतंत्रता दी गई है, किन्तु यह केवल एक दिखावा मात्र है। परिसंघ में सदस्य राज्य अपनी इच्छानुसार अपनी सदस्यता त्याग सकते हैं।
  4. उद्देश्यों में अंतर-संघ का निर्माण किसी विशेष उद्देश्य को लेकर नहीं किया जाता, जबकि परिसंघ का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है। यही कारण है कि संघ, परिसंघ के मुकाबले अधिक स्थायी होता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
“भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परंतु उसकी आत्मा एकात्मक है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था की है जिससे राष्ट्र की इकाइयों को स्वायत्तता मिली रहे और साथ ही राष्ट्र की एकता भी भंग न हो। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर जहाँ संविधान में संघीय तत्त्व अपनाये गए वहाँ एकात्मक तत्त्व के लक्षण भी पाये जाते हैं। भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न भाषा-भाषी, धर्मों, जातियों के लोग रहते हैं। अतः देश की समस्याओं का समाधान ऐसी ही व्यवस्था में सम्भव था।

भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण –

1. संविधान की सर्वोच्चता –
भारत में न तो केन्द्रीय सरकार सर्वोच्च है और न ही राज्य सरकार। संविधान ही सर्वोच्च है। कोई भी सरकार संविधान के प्रतिकूल काम नहीं कर सकती। देश के सभी पदाधिकारी जैसे राष्ट्रपति, मंत्रीगण आदि अपना पद ग्रहण करने से पूर्व संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए इसके प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं।

2. लिखित और कठोर संविधान –
भारत का संविधान लिखित है जो संविधान सभा द्वारा निर्मित किया गया था। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 सूचियाँ हैं। ये 22 अध्यायों में विभाजित हैं। इसमें संघ व राज्य सम्बन्धी अधिकारों को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। इसके साथ-साथ भारत का संविधान कठोर भी है। इसे आसानी से बदला नहीं जा सकता।

3. अधिकारों का विभाजन –
संविधान में केन्द्र और राज्यों की शक्तियों व कर्तव्यों की। स्पष्ट व्याख्या की गई है। दोनों के अधिकारों को तीन सूचियों में विभक्त किया गया है –

(a) संघ सूची –
इसमें 97 विषय हैं, जैसे-प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, युद्ध और संधि, रेलवे, व्यापार, बीमा, मुद्रा डाक-तार, आदि। इस पर संसद ही कानून बना सकती है।

(b) राज्य सूची –
इसमें 66 विषय हैं। इनमें पुलिस, जेल, न्याय-व्यवस्था, स्वास्थ्य चिकित्सा, स्थानीय व्यवस्था प्रमुख हैं। इन पर राज्य के विधानमंडलों को कानून बनाने का अधिकार है।

(c) समवर्ती सूची –
इसमें 47 विषय हैं, जैसे-शिक्षा, वन, कानून, विवाह, तलाक, निवारक नजरबंदी, मिलावट इत्यादि। इन विषयों पर संसद और राज्य सरकार दोनों ही कानून बना सकती है।

4. स्वतंत्र न्यायपालिका –
भारत के संविधान में केन्द्र और राज्यों की समस्या को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। वह केन्द्र और राज्यों के उन कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के अनुच्छेदों के अनुकूल न हो।

5. द्वैध शासन व्यवस्था –
प्रत्येक संसदीय देश में दो प्रकार की सरकारें होती हैं-केन्द्रीय व राज्य सरकारें। इनके शासन-क्षेत्र भी अलग-अलग होते हैं। इनके मिलने से इस संघ का निर्माण होता है। भारत के नागरिक दोहरे शासन के अन्तर्गत रहते हैं। इनमें दो प्रकार के, विधानमंडल और प्रशासनिक, अधिकार आते हैं। नागरिकों को दो प्रकार के कर देने पड़ते हैं। इनमें से कुछ केन्द्रीय सरकार लगाती है और कुछ राज्य सरकारें।

6. कठोर संविधान –
भारत का संविधान लिखित होने के साथ-साथ कठोर भी है इसमें संशोधन करने की विधि कठिन है। संविधान के महत्त्वपूर्ण विषयों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत एवं कुल सदस्यों का बहुमत तथा कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति चाहिए।

7. केन्द्र व राज्य में अलग –
अलग सरकारें-संघात्मक शासन में दो प्रकार की सरकारें होती हैं-केन्द्रीय सरकार और राज्यों की सरकारें। दोनों का गठन संविधान के अनुसार होता है। दोनों सरकारें प्रशासन चलाने के लिए कानून बनाती हैं। प्रो. के. सी. ह्वेयर ने कहा है, “भारत एक ऐसे संघीय राज्य की अपेक्षा जिसमें एकात्मक तत्त्व गौण हों, एक ऐसा एकात्मक राज्य है जिसमें संघीय तत्त्व गौण हैं।” यह भी कहा जाता है कि भारतीय संविधान का स्वरूप भले ही संघात्मक हो परंतु उसकी आत्मा एकात्मक है।

भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षण:

1. शक्तिशाली केन्द्र –
भारतीय संविधान में राज्यों की अपेक्षा केन्द्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संविधान द्वारा शक्तियों का विभाजन करके केन्द्रीय सूची में 97 विषय तथा राज्य सूची में 66 विषय रखे गए हैं तथा समवर्ती सूची पर केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों कानून बना सकती हैं। लेकिन केन्द्र को इसमें भी प्राथमिकता दी गई है। अवशिष्ट विषयों पर भी केन्द्र कानून बना सकती है। अतः स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं ने एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की है।

2. राज्य के विषयों में केन्द्र का हस्तक्षेप –
कुछ परिस्थितियों में केन्द्र राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है वे निम्नलिखित हैं –

  • यदि कभी दो राज्यों की विधान सभाएँ केन्द्र को राज्य सूची में से किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो उस विषय पर केन्द्र कानून बना सकता है।
  • राज्य सभी 2/3 बहुमत से राज्य-सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे तो केन्द्रीय सरकार उस विषय पर कानून बना सकती है।
  • संकटकाल की स्थिति उत्पन्न होने पर केन्द्र को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। अत: यह स्पष्ट है कि केन्द्रीय सरकार को तीनों सूचियों के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। अर्थात् केन्द्र अत्यधिक शक्तिशाली है।

3. संकटकालीन शक्तियाँ –
संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को संकटकालीन शक्तियाँ दी गई है। राष्ट्रपति युद्ध या आन्तरिक अशांति के कारण देश में आपातस्थिति की घोषणा कर सकता हैं। ऐसी स्थिति में भारत का संघीय ढाँचा एकात्मक हो जाता है। इस स्थिति में केन्द्रीय सरकार राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है तथा राज्यों को उस समय केन्द्र के आदेश के अनुसार चलना होता है। यदि राष्ट्रपति को यह मालूम हो जाए कि किसी राज्य में संविधान के अनुसार शासन नहीं चल रहा तो राष्ट्रपति उस राज्य का शासन प्रबंध केन्द्र के हाथ में दे। सकता है।

4. इकहरी नागरिकता –
संघीय देशों में नागरिकों को प्राय: दो प्रकार की नागरिकता प्राप्त होती है, एक नागरिकता तो वहाँ की होती है जहाँ का वह नागरिक रहता है तथा दूसरी नागरिकता उस देश की होती है। परंतु भारत में प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक नागरिकता प्राप्त है। वैसे तो ऐसा देश में एकता लाने के लिए किया जाता है, लेकिन यह संघीय व्यवस्था के विपरीत है।

5. राज्यपालों की नियुक्ति –
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सलाह से करता है। राज्यपाल प्रत्येक राज्य में केन्द्र के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। सामान्य काल में राज्यपाल राज्यों में केन्द्र के हितों की रक्षा करता है और विधानसभा द्वारा पास किए हुए कुछ बिलों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजता है परंतु राज्य की संकटकालीन स्थिति में राज्य का शासन उसी को ही सौपा जाता है तथा केन्द्र के निर्देशों को राज्य में लागू करता है। इस प्रकार राज्यपाल के माध्यम से केन्द्रीय सरकार राज्य पर अपना नियंत्रण बनाए रखती है।

6. राज्यों की केन्द्र पर वित्त सम्बन्धी निर्भरता –
राज्यों को केन्द्र पर धन के मामले में भी आश्रित रहना पड़ता है। केन्द्र राज्यों को अनुदान के रूप में धन देता है और आवश्यकता पड़ने पर कर्ज भी देता है। क्योंकि राज्यों के पास धन के साधन कम होते हैं इसलिए केन्द्र का उन पर अधिकार बढ़ जाता है।

7. संसद को राज्यों का पुनर्गठन तथा उसके नामों में परिवर्तन करने का अधिकार है:
केन्द्रीय संसद राज्यों का पुनर्गठन कर सकती है तथा उनकी सीमाओं और नामों को भी बदल सकती है। संबंधित राज्य से उसकी राय तो ले ली जाती है, परंतु मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है। संसद का यह अधिकार संघीय व्यवस्था के लिए उपयुक्त नहीं है।

8. अखिल भारतीय सेवाएँ –
संघीय शासन में दोहरी सरकार होने के कारण सिविल सेवाओं को केन्द्रीय सेवाओं में विभक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त अखिल भारतीय सेवाओं के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाया गया है। कर्मचारियों की नियुक्ति केन्द्र द्वारा की जाती है लेकिन ये केन्द्र और राज्य दोनों प्रशासनों के लिए नियुक्ति किए जाते हैं।

इस प्रकार संविधान द्वारा एक शसक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना की गई है। भारत एक विविधताओं वाला देश है। अतः एकता स्थापित करने के लिए ऐसे ही संविधान की आवश्यकता थी जो देश की एकता के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान करे और ऐसा करने में केन्द्र को राज्यों का सहयोग भी प्राप्त हो।

अतः संविधान को ऐसा बनाया गया कि संघ की इकाइयाँ अपने स्थानीय मुद्दों का हल स्वयं कर सकें और राष्ट्रीय महत्त्व के कार्यों का संचालन केन्द्रीय सरकार करे। इसी कारण भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक दोनों प्रकार के तत्त्वों का समावेश किया गया। इसीलिए भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परंतु उसकी आत्मा एकात्मक है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 2.
“भारत राज्यों का संघ है” इसके कुछ संघात्मक लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत राज्यों का संघ है। इसका तात्पर्य यह है कि भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था अपनायी गयी है। इसके अन्तर्गत 28 राज्य तथा 7 केन्द्र शासित प्रदेश हैं। इन सबको मिलाकर भारत को एक पूर्ण संघ बनाया गया है। भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण निम्नलिखित हैं –

1. शक्तियों का विभाजन –
प्रत्येक संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों के विभाजन की तीन सूचियाँ बनायी गयी हैं-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची। संघ सूची में 97 विषय रखे गए हैं। राज्य सूची में 66 तथा समवर्ती सूची में 47 विषय दिए गए हैं।

2. लिखित संविधान –
संघीय व्यवस्था के लिए लिखित संविधान की आवश्यकता होती है जिसमें केन्द्र और राज्य इकाइयों के बीच शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। अब तक इसमें लगभग 93 संशोधन हो चुके हैं।

3. कठोर संविधान –
संघीय व्यवस्था में कठोर संविधान होना बहुत आवश्यक है। भारत का संविधान भी कठोर है। संविधान की महत्त्वपूर्ण धारा में संसद के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत तथा कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों के बहुमत से ही संशोधन किया जा सकता है।

4. स्वतंत्र न्यायपालिका –
संघात्मक व्यवस्था में संविधान की प्रामाणिक व्यवस्था के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है। भारत में भी स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था है। न्यायपालिका के कार्य और अधिकार भारत के संविधान में दिए गए हैं और यह स्वतंत्र रूप से कार्य करती है।

5. संविधान की सर्वोच्चता –
भारत में संविधान को सर्वोच्च रखा गया है। कोई भी कार्य संविधान के प्रतिकूल नहीं किया जा सकता। सरकार के सभी अंग संविधान के अनुसार ही शासन कार्य चलाते हैं। वास्तव में भारत क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से अत्यधिक विशाल और बहुत विविधाओं से परिपूर्ण है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को ही अपनाना स्वाभाविक था और भारतीय संविधान के द्वारा ऐसा ही किया गया है।

संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा गया है कि “भारत राज्यों का एक संघ होगा” लेकिन संविधान निर्माता संघीय शासन को अपनाते हुए भी संघीय शासन की दुर्बलताओं को दूर रखने के लिए उत्सुक थे और इस कारण भारत के संघीय शासन में एकात्मक शासन के कुछ लक्षणों को अपना लिया गया है। वास्तव में, भारतीय संविधान में संघीय शासन के लक्षण प्रमुख रूप से तथा एकात्मक शासन के लक्षण गौण रूप से विद्यमान हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में वर्णित समवर्ती सूची किस देश के संविधान से लिया गया है?
(क) अमेरिका से
(ख) कनाडा से
(ग) आयरलैंड से
(घ) आस्ट्रेलिया से
उत्तर:
(घ) आस्ट्रेलिया से

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 2.
संघात्मक राज्यों का संविधान होता है।
(क) लिखित और कठोर
(ख) अलिखित और कठोर
(ग) लिखित और लचीला
(घ) अलिखित और लचीला
उत्तर:
(क) लिखित और कठोर

प्रश्न 3.
“भारतीय संविधान अर्द्ध-संघात्मक है” किसने कहा है?
(क) डी. डी. बसु
(ख) एम. वी. पायली
(ग) आइवर जेनिक्स
(घ) के. सी. व्हीयर
उत्तर:
(घ) के. सी. व्हीयर

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 5 प्रमुख विकासोचित कार्य

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 5 प्रमुख विकासोचित कार्य Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

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Bihar Board Class 11 Home Science प्रमुख विकासोचित कार्य Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
मानव की प्रत्येक कोशिका में कितने जोड़े गुणसूत्र होते हैं। [B.M.2009A]
(क) 20
(ख) 23
(ग) 10
(घ) 15
उत्तर:
(क) 20

प्रश्न 2.
रक्त का रंग लाल होता है –
(क) Haemoglobin के कारण
(ख) ऑक्सीजन के कारण
(ग) Protein के कारण
(घ) Renucleic Acid
उत्तर:
(क) Haemoglobin के कारण

प्रश्न 3.
Iron की कमी से रोग होता है
(क) Anaemia
(ख) Pica
(ग) Diarrhoea
(घ) Pechis
उत्तर:
(क) Anaemia

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प्रश्न 4.
वानस्पतिक प्रोटीन में होता है –
(क) फायटिक अम्ल
(ख) अमीनो अम्ल
(ग) साइट्रिक अम्ल
(घ) सल्फ्यूरिक अम्ल
उत्तर:
(क) फायटिक अम्ल

प्रश्न 5.
अपराध बोध (Delinquency) है –
(क) असामाजिक व्यवहार
(ख) सामाजिक व्यवहार
(ग) हिंसात्मक व्यवहार
(घ) पारिवारिक व्यवहार
उत्तर:
(क) असामाजिक व्यवहार

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
कैरियर शब्द का अर्थ लिखें ? [B.M.2009A]
उत्तर:
एक कार्य करना जिससे संतोष के साथ धन और अधिकार मिले। यह तभी संभव है जब सही व्यवस्था का चुनाव किया जाए। गलत चुनाव जीवन में असंतोष और तनाव पैदा करता है।

प्रश्न 2.
किशोरों के लिए अपने शारीरिक गठन व आकार का स्वीकरण क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
विकास के परिणामस्वरूप किशोरों में तीव्र व आकस्मिक शारीरिक परिवर्तन होते हैं जिनसे किशोरों को सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है और उसमें प्रौढ़ व्यवहार की आशा की जाती है।

प्रश्न 3.
व्यवसाय चुनाव किन-किन कारणों पर आधारित है ?
उत्तर:
व्यवसाय चुनाव रुचि, योग्यताएँ एवं क्षमताएँ, व्यक्तित्व आदि पर आधारित है।

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प्रश्न 4.
व्यवसाय या कैरियर का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
व्यवसाय या कैरियर का अर्थ है एक कार्य करना जिससे आपको संतोष, अतिरिक्त धन और अधिकार मिले।

प्रश्न 5.
व्यवसाय चुनना जटिल है, अतः इसे चुनने के लिए कौन-सा कारक आवश्यक है ? जा-व्यवसाय चुनने के लिए उपयुक्त मार्गदर्शन आवश्यक है। पाएँ जो भविष्य में कोई व्यवसाय अपनाना चाहती हैं, उनके सामने प्रमुख समस्या कान-सा होती है ?
उत्तर:
छात्राओं को भविष्य में व्यवसाय अपनाने हेतु आगे पढ़ने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलता।

प्रश्न 7.
व्यवसाय योजना का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
व्यवसाय योजना का अर्थ है अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को पहचान कर यथार्थवादी स्तर पर सोचकर ऐसा एक रुचि का कार्य चुनना जिससे आत्मिक संतोष मिलता है।

प्रश्न 8.
अपने शरीर रचना की स्वीकृति से क्या अर्थ है ?
उत्तर:
शारीरिक लम्बाई, मोटाई, अनुपात में परिवर्तन, त्वचा, स्वर, बाल इत्यादि के प्रति कुछ आकांक्षाएँ होती हैं। मस्तिष्क में सुंदर रचना वाले कई व्यक्तियों की छवि के समरूप अपने आपको बनाना चाहता है। इसे शरीर रचना की स्वीकृति कहते हैं।

प्रश्न 9.
लड़कों की सामाजिक भूमिका के उदाहरण लिखें।
उत्तर:
व्यवसाय कर आजीविका अर्जन करना, संवेगों पर नियंत्रण रखना, उच्च शिक्षा पाना इत्यादि।

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प्रश्न 10.
लड़कियों की सामाजिक भूमिका के उदाहरण लिखें।
उत्तर:
घर के बड़ों की अनुमति के बिना घर से बाहर न निकलना, संतुष्ट रहना और मुख्य निर्णय न लेना, दूसरों के लिए जीना, स्वयं को महत्त्व न देना इत्यादि ।

प्रश्न 11.
किशोरावस्था में संवेगात्मक अस्वतंत्रता के दो कारण लिखें।
उत्तर:

  • किशोर स्वयं ही अपने वयस्कों पर आश्रित रहना चाहता है।
  • वयस्क किशोर को आश्रित रखना चाहते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
मित्रों के साथ परिपक्व सम्बन्ध से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
मित्रों के साथ परिपक्व संबंध (Matured Relations with Agemates): किशोरों पर मित्रों का अद्भुत प्रभाव पड़ता है। वे इस अवस्था में स्थायी प्रवृत्ति के होने के कारण टिकाऊ मित्रता करने के योग्य हो जाते हैं। वे अब समझने लगते हैं कि कितना छिपाना है तथा कितना व्यक्त करना है और उसी के अनुसार व्यवहार करते हैं। किशोरावस्था में पहुँचने पर अपने समूह का समर्थन तथा स्वीकृति एक दृढ़ शक्ति का काम करती है। समकक्ष वर्ग द्वारा समर्थन या विरोध का अब इतना प्रभाव होता है कि जीवन के अनेक क्षेत्रों में वह किशोर के माता-पिता तथा शिक्षकों के प्रभाव को भी कम कर देता है।

प्रश्न 2.
किशोरों को अपने शारीरिक गठन व आकार का स्वीकरण क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
विकास के परिणामस्वरूप किशोरों में तीव्र व आकस्मिक शारीरिक परिवर्तन होते हैं जिनसे किशोर को सामंजस्य स्थापित करना पड़ता है। जैसे ही आकार व गठन में वह प्रौढ़ के समान दिखने लगता है उससे प्रौढ़ व्यवहार की आशा की जाती है परन्तु मानसिक रूप से वह इतना परिपक्व नहीं हो पाता जिस कारण उसे समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 3.
आत्म मूल्यांकन में रूप का क्या स्थान है ?
उत्तर:
आत्म मूल्यांकन में रूप का स्थान: व्यक्ति जब अपने या दूसरों के द्वारा सुन्दर या असुंदर समझा जाने लगता है तो इसका प्रभाव उसके व्यक्तित्व पर भी पड़ता है। व्यक्तित्व के मूल्य के बारे में व्यक्ति की राय अपने शारीरिक रूप के विषय में उसकी राय को प्रभावित करती है और उसके द्वारा स्वयं प्रभावित होती है। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के बाल-कल्याण संस्थान (Institute of child welfare) में आठ वर्षों की अवधि तक चले वृद्धि अध्ययन में यह पाया गया कि 93 लड़कों में से कम से कम 29 लड़के आठ वर्षों में कभी न कभी निश्चित रूप से अपने शारीरिक लक्षणों के कारण विक्षुब्ध हुए।

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प्रश्न 4.
सही व्यवसाय के चुनाव में माता-पिता तथा विद्यालय की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
किशोर के लिए व्यवसाय चुनना एक कठिन और महत्त्वपूर्ण कार्य है। यह पहचान बनाने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। सही व्यवसाय के चुनाव में माता-पिता का एक महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। माता-पिता किशोर को पर्याप्त आत्मबोध कराने में सक्षम हो सकते हैं। इतना ही नहीं जानकारी प्राप्त करवाने में भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं। व्यक्तिगत रुचि और क्षमता व योग्यता की जानकारी ही नहीं बल्कि उसके स्वभाव को समझ कर उसके अनुरूप व्यवसाय कौन-सा है इसका मार्गदर्शन भी वे सफलतापूर्वक कर सकते हैं। व्यवसाय में प्रवेश हेतु उसे आवश्यक प्रोत्साहन भी दे सकते हैं।

विद्यालय भी व्यवसाय के चुनाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विद्यालय का सांस्कृतिक वातावरण व शैक्षणिक वातावरण उसकी योग्यता को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण सहयोग देता है। अध्यापक का प्रोत्साहन व उचित मार्गदर्शन, उसको विषय चुनाव में अपनी योग्यता परखने में सहायक हो सकता है। इतना ही नहीं उसकी रुचि व योग्यता किस विषय में है इसको आँक कर उसको अहसास दिलाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। शैक्षणिक परिणाम भी उसे अपने प्रतियोगिता की क्षमता आँकने में मदद कर सकते हैं, जिससे उसे सही व्यवसाय चुनने में सहायता मिलती है।

प्रश्न 5.
संवेगात्मक आत्मनिर्भरता से क्या समझती हों?
उत्तर:
संवेगात्मक आत्मनिर्भरता (Emotional Indpendence): बालक जैसे-जैसे किशोरावस्था की ओर बढ़ता है, आत्मनिर्भरता की उसकी क्षमता भी बढ़ती जाती है और जब वह बडा हो जाता है तब उन अनेक भावनाओं या आशंकाओं से, जो प्रारंभिक जीवन में उसमें क्रोध और भय उत्पन्न करते थे, बहुत कुछ मुक्त हो जाता है।

स्वाधीनता बढ़ने से आत्मनिर्भरता का उपयोग करने के नए-नए अवसर भी मिलते हैं जिन्हें वह माता-पिता की सहायता करके सफलता प्राप्त करना चाहता है। उसकी बौद्धिक क्षमता बढ़ जाती है। इस क्षमता में जीवन के पक्षों पर सोचने-विचारने की योग्यता की वृद्धि भी सम्मिलित है। इसके साथ ही किशोर अपनी बौद्धिक जिज्ञासाओं को बढ़ा लेता है तथा माता-पिता या अन्य उचित स्रोतों से की गई इसकी पूर्ति का आनंद उठा सकता है।

प्रश्न 6.
मनोवैज्ञानिक योग्यता से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए शारीरिक ही नहीं मानसिक रूप से भी दोनों लिंगों के व्यक्तियों को तैयार रहना आवश्यक है ताकि वे वैवाहिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह तत्परता तथा प्रसन्नता से कर सकें। यह तो सभी की इच्छा होती है कि उसका जीवन सुखमय व्यतीत हो व उनके घर में शिशु खेलते-कूदते दिखाई दें। अपनी सन्तान को देखकर माता-पिता के हृदय में अलौकिक सुख की अनुभूति होती है।

मातृत्व एक स्वाभाविक, पवित्र एवं आनन्ददायी स्थिति है परन्तु इसमें गम्भीर उत्तरदायित्व की भावना भी होती है। इस उत्तरदायित्व को सफलतापूर्वक निभाने के लिए माता-पिता को अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है। इसलिए विवाह से पूर्व पति-पत्नी को, विशेषकर पत्नी को वात्सल्य की अनुभूति के साथ-साथ पारिवारिक उत्तरदायित्व व नव शिशु के साथ आने वाले उत्तरदायित्वों को सहर्ष उठाने के लिए भी तैयार रहना आवश्यक है।

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प्रश्न 7.
आर्थिक योग्यता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
आर्थिक योग्यता (Economic Fitness):
मानवीय आवश्यकताएँ इतनी बढ़ गई हैं कि उनकी पूर्ति के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है। वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने पर तथा इसके पश्चात् सन्तान उत्पन्न होने पर दम्पत्ति का आर्थिक उत्तरदायित्व और अधिक जटिल एवं भारी हो जाता है। भावी सन्तान के प्रति अपना कर्तव्य निभाना वास्तव में सर्वश्रेष्ठ राष्ट्र सेवा है क्योंकि आज के बच्चे ही कल के राष्ट्र निर्माता हैं। बालक के श्रेष्ठतम विकास के लिए घर में उसके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक विकास के लिए उपयुक्त सुविधाएँ उपलब्ध होनी चाहिए। इन सुविधाओं को उपलब्ध कराने के लिए पर्याप्त धन की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 8.
शारीरिक वृद्धि और अनुपयुक्तता से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
शारीरिक वृद्धि और अनुपयुक्तता (Awkwardness and Growth Spurt): आकस्मिक शारीरिक विकास से किशोरों के व्यवहार पर अनेक प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। पूर्व-किशोरावस्था में वह इस प्रकार के शारीरिक विकास का अंदाजा नहीं लगा पाते। वृद्धि के साथ होने वाली शारीरिक अनुपयुक्तता भी किशोरों में आकुलता पैदा.करती है। किशोर में ऊपर के शरीर की वृद्धि के कारण उसे ‘सारस’ की उपाधि दे दी जाती है।

कई किशोरों में चर्बी इकट्ठी हो जाती है तो अन्य लोग उसके मोटापे को लेकर मजाक बना लेते हैं। अगर तीव्र कद की वृद्धि के कारण कोई किशोर पतला लगने लगे तो ‘बांस’ की उपाधि दे दी जाती है। इसी प्रकार किशोरावस्था में मुहाँसे निकल आते हैं तो कई उपाधियां दे दी जाती हैं। शारीरिक वृद्धि की इन उपाधियों से किशोरों में तनाव पैदा हो जाता है। विकास व वृद्धि के कारण शरीर की गति में भी अलगपन-सा आ जाता है। यह नया प्राप्त किया शरीर व्यक्ति के तनाव का विषय बन जाता है। किशोर अपना बहुत-सा समय इसी अवसाद में गुजार देते हैं।

प्रश्न 9.
किशोरावस्था में मानसिक तनाव क्यों पाया जाता है ?
उत्तर:
मानसिक तनाव (Depression): किशोरावस्था में आते ही किशोरों को प्रौढ़ावस्था के उत्तरदायित्व निभाने के लिए तैयार होना पड़ता है। बढ़ता हुआ किशोर तनाव में रहने लगता है क्योंकि वह अभी हर समस्या को हल करने के लिए परिपक्व नहीं होता, परन्तु उससे आशाएँ उसकी योग्यता से अधिक की जाती हैं। मानसिक तनाव से वह अप्रसन्न रहने लगता है तथा किसी भी कार्य में दिलचस्पी नहीं लेता, अपने आपको कोसता है, आत्मघाती विचार मन में लाता है। शारीरिक विकास से तनावग्रस्तता आती है अगर किशोर मोटा-ताजा हो तो इस हालात में वह खाना-पीना कम कर देता है क्योंकि वह अपने शरीर के आकार के कारण मजाक का पात्र नहीं बनना चाहता।

अगर खाने-पीने पर बंदिश लगी रहती है तो किशोर का विकास पूर्ण रूप से नहीं होता और वह अपने साथियों व बहन-भाइयों से कद में छोटा रह जाता है। किशोरियों में Anorexia Nervosa की समस्या सामान्यतः हो जाती है। यह डर रहता है कि अधिक खाने से वे बड़ी हो जाएंगी तथा माता-पिता की गुड़िया नहीं रहेंगी। अत: वह डायटिंग की हद तक पहुँच जाती हैं। लम्बी अवधि तक यह समस्या ठीक.न होने पर स्वास्थ्य पर बहुत हानिकारक प्रभाव पड़ते हैं।

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प्रश्न 10.
अपराधबोध (Delinquency) क्या है?
उत्तर:
अपराधबोध-किशोर जब अपनी समस्याओं से तालमेल नहीं रख पाते तो वे असामाजिक व्यवहार की ओर बढ़ते हैं। असल में उनका ऐसा करना सहायता की माँग है। बदकिस्मती से अगर उसे समय पर सहायता न मिले तो किशोर अपनी असफलताओं का शिकार स्वयं हो जाता है। “अपराधबोध वह असामाजिक व्यवहार है जिससे किशोर अवैध और हिंसात्मक कार्य करता. है।” विद्यालय से भागना भी अपराधबोध से संबंधित है।

एक विद्यार्थी जो विद्यालय से भागता है जबकि उसे स्कूल में होना चाहिए, भगोड़ा कहलाता है। भगोड़े बहुधा लड़ाइयों में भाग लेते हैं तथा सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाते हैं। वह व्यक्ति जो बार-बार छोटे-छोटे अपराध करता है, अपराधीपन की ओर बढ़ रहा है। अधिकतर दोषी बच्चे वंचित पृष्ठभूमि से होते हैं। अपराधीपन की संख्या बेरोजगारी के कारण भी अधिक हो जाती है। किशोर अपराधों में अवैध कार्य करते हैं परन्तु वे इतने बड़े नहीं होते कि उन्हें प्रौढ़ कहा जा सके। इन बच्चों को अदालत में मुकदमे के लिए नहीं लाया जाता बल्कि किशोर अदालत के अन्तर्गत सुधार केन्द्रों में सुधारा जाता है।

प्रश्न 11.
व्यवसाय शब्द को विस्तारपूर्वक समझाइए।
उत्तर:
व्यवसाय (Career): इस शब्द का तात्विक अर्थ चुनौती, उत्तरदायित्व व उपलब्धियों पर संकेन्द्रित है। दूसरे शब्दों में इनका अर्थ है एक ऐसा कार्य करना जिससे आपको सन्तोष के अतिरिक्त धन और अधिकार भी मिले। किशोरों के बीच उत्तम जीवन-स्तर के लिए होड़ लगी रहती है जब आप अपना व्यवसाय चुन रहे होते हैं। वस्तुतः आप अपने लिए अपना जीवन-स्तर चुन रहे होते हैं। अगर कार्य आपकी रुचि का हो तो उसमें उच्चतम स्तर का परिणाम लाना चाहते हैं। अतः ठीक व्यवसाय चुनने पर बहुत कुछ निर्भर करता है। व्यवसाय चुनने में आपकी सहायता करने के लिए कुछ मूल बिन्दु हैं।

व्यक्तिगत सफलता के लिए सही रुचि और विचार का होना अति आवश्यक है। आप कुछ प्रश्नों का सही उत्तर ढूंढें, जैसे “आप किस कार्य में प्रवीण हैं ? आपकी योग्यता क्या है ? आप जीवन में क्या बनना चाहेंगे?” यह जानना भी महत्त्वपूर्ण है कि आपको अपने व्यवसाय से क्या चाहिए? अगर आपको अधिकार, पद-स्तर, धन और जीवन-स्तर चाहिए तो आपको चुनौतियों का सामना करना होगा। यह बहुत महत्त्वपूर्ण है कि आप अपनी क्षमता को सावधानी से समझें ताकि आप गलत व्यवसाय में न चले जाएं जिसके लिए आपको सारा जीवन पछताना पड़े।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरावस्था तनाव या दबाव की अवस्था होती है ? कैसे ? समझाइए ?
उत्तर:
किशोरावस्था का आरंभ शरीर में शारीरिक परिवर्तनों के शुरू होने के साथ हो जाता है। इस समय शरीर में नली विहीन ग्रन्थियाँ सक्रिय हो जाती हैं व हारमोन्स निकलने लगते हैं। यह पत्र कर तना अचानक होता है कि किशोर इन परिवर्तनों के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं होता है। उसके शरीर में उथल-पुथल मची हुई होती है जिसके कारण वह बेचैनी व परेशानी महसूस करता है। इसके कई कारण हैं, जैसे –

1. शरीर में शारीरिक परिवर्तनों का तेजी से होना (Fast physical changes in the body): किशोर मानसिक रूप से इन परिवर्तनों के लिए तैयार नहीं होता है क्योंकि मन से वह अभी भी बालक होता है पर शारीरिक रूप से वयस्क जैसा दिखने लगता है। उसे अपना स्वयं बड़ा अटपटा-सा लगता है।

2. संवेगात्मक परिवर्तन (Emotional Changes): शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ उसकी संवेगात्मक स्थिरता भी प्रभावित होती है। हारमोन्स के सक्रिय होने से किशोर भावात्मक रूप से बेचैन व परेशान रहता है। वह बहुत जल्दी ही उत्तेजित हो जाता है और हमेशा तनाव की स्थिति में रहता है।

3. सामाजिक परिवर्तन (Social Changes): देखने में वह वयस्क-सा दिखता है पर मन से अभी बालक होता है। दूसरे लोग उसके साथ कभी बड़ों सा व कभी बच्चों का-सा व्यवहार करते हैं, जिससे वह तल्ख हो जाता है। उससे अधिक अपेक्षाएँ की जाने लगती हैं। कई बंधन . भी लग जाते हैं विशेषकर लड़कियों पर. जो किशोरों को तनाव व दबाव में रखते हैं। इसके अन्न या विपरीत लिंग के साथियों का अनुमादन भी उन्हें चाहिए. जिसके लिए वे चिन्तित रहते हैं।

4. भावी जीवन की तैयारी (Preparation for future life): इस समय किशोरों को अपनी पढ़ाई व्यवसाय. परीक्षा में अधिक अंक, पसंद के विषय आदि चुनने की चिन्ता भी तनाव का एक कारण बन जाती है । उन्हें अभी अपनी क्षमताओं का पूर्ण ज्ञान नहीं होता और वे सही व्यवसाय चुनने के लिए असमंजस की स्थिति में होते हैं। इसी कारण इस अवस्था को तनाव व दबाव की अवस्था कहते हैं।

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प्रश्न 2.
लिंग सम्बन्धी भूमिका और व्यवहार से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
लिंग संबंधी भूमिका और व्यवहार (Sex role and behaviour): वालक चोर-सिपाही, भाग-दौड़ के खेल पसंद करते हैं। माता-पिता भी उन्हें उन्हीं खेलों के लिए सामान लाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं जो उनके लिंग के अनुरूप हों। बालिकाएँ माँ का व बालक पिता का का करते हैं। यह भावना उनके मित्रों द्वारा व संचार माध्यमों द्वारा और सुदृढ़ होती है। बचपन से ही बालिकाओं की कोमल भावनाओं के विकास को महत्त्व दिया जाता है और बालकों को स्वावलंबी व आक्रामक होना चाहिए ऐसा प्रोत्साहन दिया जाता है। उन्हें रोने पर कहा जाता है कि क्या तुम लड़की हो जो रो रहे हो? रोती तो लड़कियाँ हैं।

लड़कियों को कहते हैं कि अकेले बाहर मत जाओ, किसी के साथ जाओ जिससे यह अहसास होता है कि वे कमजोर हैं और हमेशा दूसरों पर निर्भर हैं। किशोरावस्था में पहुँचने पर तो यह भेद-भाव और भी अधिक हो जाता है। किशोरों को तो प्रोत्साहित किया जाता है कि वह सभी कार्यों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा ले। स्कूल के टूर आदि पर भी भेजा जाता है। किशोरियों को कहा जाता है कि वह घर का काम-काज सीखे।

बाहर अकेले आने-जाने पर रोक लगती है व उन्हें हर कार्य में भाग लेने पर कहा जाता है कि तुम लड़की हो या यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। उनकी शादी की चिन्ता माता-पिता करने लगते हैं। उनसे पारंपरिक भूमिका निभाने की अपेक्षा रखी जाती है। शहरों में शिक्षा के साथ-साथ लोगों की सोच में कुछ बदलाव आया है। इसके कारण किशोरियाँ कालेज में पढ़ाई व विभिन्न क्षेत्रों में व्यवसाय किशोरों की भांति चुनने लगी हैं। गाँवों व छोटे शहरों में अभी भी परंपरागत लैंगिक भूमिका को ही महत्त्व दिया जाता है।

प्रश्न 3.
किशोरावस्था में भावी जीवन की तैयारी का क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
किशोरावस्था और भावी जीवन की तैयारी (Adolescence and preparation for future)-किशोरावस्था सही अर्थ में किशोर को वयस्क बनने की पहली सीढ़ी है। शारीरिक रूप से वह प्रकृति के नियमानुसार वयस्क हो रहे होते हैं। उनके शरीर पुरुष व स्त्री की तरह विकसित होते हैं। उनकी समझ, बुद्धि, मानसिक शक्तियाँ भी विकसित हो जाती हैं। आगे उन्हें माता-पिता का कार्य करना है इसलिए प्रकृति उन्हें तैयार करती है। आगे चलकर उन्हें जो व्यवसाय अपनाना है वह उसी से सम्बन्धित विषय चुनकर व्यावसायिक जीवन की तैयारी करने लगते हैं।

सामाजिक गुणों के विकास से वह भावी जीवन में समाज में जो स्थान प्राप्त करेंगे उसकी तैयारी हो जाती है। नेतृत्व के गुणों का विकास हो जाता है। समाज के प्रति उनका दृष्टिकोण सही रूप से बन जाता है। वह अपने अधिकार व उत्तरदायित्वों के प्रति सजग हो जाते हैं। सभी व्यक्तियों के साथ समायोजन करके रहना सीख जाते हैं। अपना स्वतन्त्र निर्णय लेना भी उनको आ जाता है जो कि भावी जीवन के लिए बहुत आवश्यक है।

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प्रश्न 4.
लिंगोचित कार्यों में परिवर्तन के क्या कारण हैं ?
उत्तर:
लिंगोचित कार्यों में परिवर्तन के कारण (Reasons for change in sex-roles):
1. जीवन-प्रणाली (Changes in life style): जब संस्कृति देहात से शहर में परिवर्तित होती है तब शक्ति को कुशलता से कम महत्त्व दिया जाता है और कुशलता के लिए किसी लिंग विशेष को दूसरे से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है क्योंकि स्त्रियाँ किसी कार्य विशेष में पुरुषों से भी अधिक कुशल हो सकती हैं।

2. बुद्धि परीक्षण संबंधी अध्ययनों का दौर (Intelligent testing movement): इस शताब्दी के प्रारम्भ में शुरू किये गए ‘बिनेट’ के कार्यों के साथ ही विभिन्न आयु वर्गों के बुद्धि-परीक्षण का दौर-सा चल गया। अब इस तथ्य में कोई शंका नहीं रह गई है कि बुद्धि-स्तर का लिंग से कोई संबंध नहीं। अतः समान बुद्धि-स्तर ने उच्च पौरुष शक्ति को विस्थापित कर दिया है।

3. आनुवंशिकता तथा वातावरण (Heredity and environment): पर्याप्त मात्रा में किए गए अध्ययनों द्वारा स्पष्ट होता है कि वातावरण का प्रभाव जितना समझा गया था उससे कहीं अधिक पड़ता है। विभिन्न संस्कृतियों में किए गए अध्ययन यह स्पष्ट करते हैं कि लिंगों के व्यवहार तथा कई शारीरिक परिवर्तन आनुवंशिकता से अधिक प्रशिक्षण द्वारा प्रभावित होते हैं।

4. समान शिक्षा (Similar Education): प्राथमिक शिक्षा से स्नातक की शिक्षा तथा उससे उच्च शिक्षाओं में भी दोनों लिंगों के लिए समान अवसरों ने यह सिद्ध कर दिया है कि लड़कियाँ समान शैक्षिक योग्यता प्राप्त कर सकती हैं, कई बार वे लड़कों से भी आगे निकल जाती हैं।

5. स्थानांतरण (Mobility): व्यवसाय की उन्नति के लिए जब भौगोलिक स्थानांतरण होता है तब परिवार अपने रिश्तेदारों से दूर हो जाता है तथा आपात या आवश्यकता के समय में स्त्री-रिश्तेदारी अनुपलब्ध होने के कारण पुरुष को ही कई ‘स्त्रियोचित कार्य’ करने पड़ जाते हैं। इसने भी परम्परागत लिंगोचित कार्यों को तोड़ने में मदद की है।

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6. छोटे परिवार की प्रवृत्ति (Trend towards smaller family): छोटे परिवारों के कारण स्त्रियों के कार्यों में कमी आई है जिससे उन्हें अपने परम्परागत कार्यों (पत्नी तथा माँ के) से कुछ राहत मिली है और वह बाहर के कार्यों में भी संलग्न हो पाई है।

7. उच्च स्तर की प्राप्ति इच्छा (Desire for higher standard): अपने स्तर को ऊँचा उठाने के लिए, पर्याप्त पूंजी एकत्र करने के लिए तथा बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के लिए अकेले पुरुष की कमाई पूरी न पड़ने के कारण स्त्रियों को घर के बाहर निकल कर ‘पुरुषोचित’ कहे जाने वाले कार्यों को करने का अवसर प्राप्त हुआ है।

8. स्त्रियों की उच्च शिक्षा (Higher education for women): प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों के लिए उच्च शिक्षा के अवसर उपलब्ध हो जाने के कारण अब स्त्रियों को पहले की तरह अपनी जीवन सिर्फ पति तथा बच्चों या घरेलू कार्यों में नहीं बिताना पड़ता। वह अब बाहरी कार्यों की विस्तृत दुनिया में प्रवेश कर चुकी हैं और सफलता भी प्राप्त कर रही हैं।

9. सामान्य व्यवसाय अवसंर (Equal opportunities for occupation): कानूनों के परिवर्तन ने तथा अन्य संस्थाओं के दबाव ने स्त्रियों के लिए व्यवसाय के समान अवसर खोल दिए हैं जिसने उन्हें विभिन्न व्यवसायों, उद्योगों तथा अन्य कार्यों में प्रवेश दे दिया है और इन परम्परागत ‘पुरुषोचित कार्यों के लिए उसने स्वयं को उपयुक्त भी सिद्ध कर दिया है।

10. स्वास्थ्य तथा मृत्यु दर के आंकड़े (Health and Mortality Statistics): इन आंकड़ों ने सिद्ध किया है कि पिछले 50 वर्षों से अधिक समय में स्त्रियों को ऐसी कोई विशेष ‘बीमारी’ नहीं घेरती है और यही नहीं स्त्रियाँ पुरुषों से अधिक आयु तक पहुँचती हैं। इन आंकड़ों ने स्त्रियों से चिपके ‘कमजोर लिंगी’ के लेबल को एक हद तक हटा दिया है।

11. स्त्रियों की अधिक उपलब्धियाँ (More achievements of females) यदि समान प्रशिक्षण तथा उसका उपयोग करने के लिए समान उत्साह तथा अवसर. स्त्रियों को दिए जाएँ तो वह प्राथमिक कक्षाओं से लेकर अपने नौकरी की सेवानिवृत्ति तक पुरुषों से अधिक कार्यान्वयन में सक्षम हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 5 प्रमुख विकासोचित कार्य

प्रश्न 5.
व्यवसाय चयन को प्रभावित करने वाले तत्त्वों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
व्यवसाय चयन को प्रभावित करने वाले तत्त्व (Factors Affecting Career)व्यवसाय का चयन एक कठिन विषय है। इसके लिए बहुत-सी बातों का ध्यान रखना चाहिए।

1. रुचि (Interest): किशोर की रुचि किस ओर है यह उसके व्यवसाय चयन पर प्रभाव डालती है। जैसे अगर बालक अपने आस-पास के प्रति सजग है और भाषा पर अधिकार है तो वह संचार व पत्रकारिता जैसे व्यवसाय चुन सकता है। अगर उसे अभिनय में रुचि है तो वह उसका प्रशिक्षण ले सकता है।

2. व्यक्तित्व (Personality): प्रत्येक व्यक्ति अपना एक अलग व्यक्तित्व लेकर पैदा होता है। एक ही घर के बच्चे भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व के स्वामी होते हैं। कुछ किशोर बहिर्मुखी होते हैं। उन्हें व्यवसाय अपने व्यक्तित्व के अनुरूप चुनना चाहिए। जैसे ऐसा व्यवसाय जिसमें वह ‘बहुत से लोगों से मिले व बातें करे, जैसे-सेक्रेटरी, रिपोर्टर, नेता, समाज सेवक आदि। अन्तर्मुखी किशोरों को ऐसा व्यवसाय चुनना चाहिए जो उनके अनुरूप हो। ऐसे बालक कलाकार, संवेदनशील कथाकार, डॉक्टर, वैज्ञानिक आदि बन सकते हैं।

3. योग्यताएँ व क्षमताएँ (Abilities and Capabilities): व्यवसाय के चुनाव में बहुत आवश्यक है कि बालक उस व्यवसाय का चयन करे जिसके वहं योग्य हो, नहीं तो वह उसमें। सफल नहीं हो पाएगा। जिस बालक का विज्ञान या गणित में अच्छा रुझान है वह इंजीनियर बनने म ए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू (उच्च माध्यमिक) गृह विज्ञान, वर्ग-11945 की कोशिश कर सकता है। जिस बालक में नेतृत्व की योग्यता है वह नेता व समाज सेवक बन सकता है।

जिसमें अभिनेता बनने के गुण हों उसे वैसा प्रशिक्षण लेना चाहिए। जिनमें दूसरों को प्रभावित करने के गुण हों वे शिक्षक, निर्देशक आदि व्यवसाय चुन सकते हैं। अच्छा तर्क करने वाले वकालत कर सकते हैं। एक कवि या साहित्य सृजन के योग्य बालक को जबरदस्ती गणित या विज्ञान पढ़ाकर इंजीनियर बनाने की कोशिश विफल रहेगी । इसीलिए व्यवसाय अपनी क्षमताओं व योग्यताओं के अनुरूप चुनना चाहिए। .

4. प्रशिक्षण के अवसर (Chances of Training): किशोरों में रुचि व योग्यता दोनों होते हुए भी अगर उन्हें उचित प्रशिक्षण नहीं मिलेगा तो वह अपना व्यवसाय ठीक से नहीं चुन पाएँगे। उदाहरण के लिए रमेश को डॉक्टर बनने की लगन थी पर उसके गाँव के स्कूल में विज्ञान विषय नहीं था और हॉस्टल में उसके पिता भेज नहीं सकते थे। इस कारण उसे राजनीतिशास्त्र और वाणिज्य जैसे विषय लेने पड़े। वह उनमें पास हुआ पर सेकेंड डिजीवन में, जबकि विज्ञान में हमेशा उसके अच्छ नंबर आते थे। अत: व्यवसाय का चुनाव प्रशिक्षण के अवसर देखते हुए करना चाहिए।

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प्रश्न 6.
व्यवसाय के चुनाव में क्या-क्या कठिनाइयाँ हैं ?
उत्तर:
व्यवसाय के चुनाव में कठिनाइयाँ (Difficulties in Selecting Occupation): इस अवस्था में प्रायः किशोर-किशोरियाँ चिन्तित दिखाई पड़ते हैं कि कौन-सा व्यवसाय चुनें। उन्हें बहुत-से व्यवसायों के बारे में जानकारी व उनके लिए आवश्यक प्रशिक्षण व योग्यताओं का पता नहीं चलता। इसके निम्नलिखित कारण हैं –

1. अपनी क्षमताओं व योग्यताओं का ज्ञान न होना (Unawareness of Self Abilities and Capabilities): किशोर दूसरे लोगों को देखकर प्रायः भ्रमित हो जाते हैं व उनके व्यवसाय के प्रति आकर्षित हो जाते हैं। वे अपनी क्षमताओं व योग्यताओं को ठीक से पहचान नहीं पाते कि वे किस व्यवसाय के लिए उपयुक्त हैं। यह स्थिति उनके लिए कष्टदायक होती है। कई बार वे गलत व्यवसाय चुन लेते हैं और बाद में परेशान होते हैं।।

2. विभिन्न व्यवसायों की जानकारी न होना (Unawareness of Various Professions): अभी भी लोगों को विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध व्यवसायों के बारे में पता नहीं है। ऐसी संस्थाएँ हमारे देश में बहुत कम हैं, अगर हैं भी तो उनके बारे में सभी लोग नहीं जानते । गाँवों और छोटे शहरों में यह जानकारी न के बराबर है, जिससे उपयुक्त व्यवसाय चुनने में कठिनाई होती है।

3. व्यवसाय के लिए उपलब्ध प्रशिक्षण की जानकारी न होना (Unawareness of. Available Training Programme): कई बार हम व्यवसाय तो चुन लेते हैं पर इसके लिए हमें क्या प्रशिक्षण लेना चाहिए व ऐसी सुविधाएँ कहाँ उपलब्ध हैं यह पता नहीं होता जिससे चाह कर भी कई बार गलत चुनाव करना पड़ता है। आमतौर पर गिने-चुने व्यवसायों के प्रशिक्षण के बारे में ही लोगों को पता होता है। इसीलिए आजकल कई संस्थाएँ विद्यालयों में जाकर किशोरों को विभिन्न विकल्पों के बारे में जानकारी देती है। हालाँकि यह सुविधा कुछ गिने-चुने शहरों
में ही है।

4. व्यवसाय से सम्बन्धित समस्याओं का ज्ञान न होना (Unawareness of Problem Related to Professions): बिल्कुल नए व्यवसाय को चुनने पर प्रायः किशोर को उससे उत्पन्न होने वाली समस्याओं का ज्ञान नहीं होता है। बाद में वे कठिनाई में पड़ जाते हैं । वे किशोर जो अपने पिता या परिवार के व्यवसाय को चुनते हैं, वे उनसे सम्बन्धित सभी समस्याओं व निदान के बारे में जान जाते हैं और उन व्यवसायों में सफलता प्राप्त करने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं।

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5. व्यवसायों के बारे में संकुचित धारणाएँ (False Belief About Various Professions): हमारे समाज में लड़के और लड़कियों के मध्य हर तरह से अन्तर समझा जाता है। लड़कों को जिन व्यवसायों के लिए प्रोत्साहित किया जाता है लड़कियों के लिए उन्हें उपयुक्त नहीं माना जाता। गाँवों व छोटे शहरों में यह मान्यता है कि लड़कियों को व्यवसाय चुनने की आवश्यकता नहीं है। उनके लिए गृहिणी ही बनना अच्छा है। ऐसी परिस्थिति में लड़कियाँ व्यवसाय नहीं चुन पाती हैं। अधिक-से-अधिक उनके लिए अध्यापिका व डॉक्टर बनना अच्छा समझा जाता है। ऐसे में लड़कियाँ अपनी रुचि व योग्यता के अनुसार व्यवसाय नहीं चुन पाती हैं।

6. रुचि के अनुकूल व्यवसाय के प्रशिक्षण की सुविधाएँ न होना-कई बार व्यवसाय चयन में जब रुचि व योग्यता के अनुसार चुनने पर भी वहाँ उस व्यवसाय से सम्बन्धित सुविधाएँ नहीं होती या होती भी हैं तो कारणवश स्थान नहीं मिलता। दूसरे शहर में जाने पर परिवार की सामर्थ्य व अन्य कठिनाइयाँ आगे आती हैं।

7. सामाजिक बंधन व मान्यताएँ-शादी के बाद लड़कियों को अगर ससुराल वाले नहीं चाहते तो उनकी अपनी व्यावसायिक महत्त्वाकांक्षा छोड़नी पड़ती है। वह प्रशिक्षण प्राप्त भी हो तो भी पति, परिवार व समाज उससे अपनी इस आकांक्षा को त्यागने की अपेक्षा रखते हैं। कई परिवारों में कुछ व्यवसायों के प्रति मान्यताएँ हैं कि वह ठीक नहीं हैं, जैसे-अभिनय क्षेत्र, सेक्रेटरी, रिसेप्शनिस्ट आदि। कई परिवार पुरुषों के साथ काम करने वाले व्यवसायों को गलत नजर से देखते हैं।

प्रश्न 7.
व्यावसायिक चुनाव के लिए मार्गदर्शन का महत्त्व बताइएँ।
उत्तर:
व्यावसायिक चुनाव के लिए मार्गदर्शन का महत्त्व (Importance of Guidance in Profession Selection): जैसा कि हम जानते हैं कि किशोरावस्था व्यवसाय के चुनाव का सही समय है। किशोर को अपनी रुचि, क्षमता, सामर्थ्य के अनुरूप व्यवसाय चुनना चाहिए। प्रायः ऐसा होता है कि किशोर अपने गुणों व क्षमताओं को बहुत अच्छी तरह नहीं पहचान पाते या फिर वे किसी अन्य दबाव में आकर गलत निर्णय ले लेते हैं। प्रायः किशोरों व उनके अभिभावकों को सभी उपलब्ध व्यवसायों के बारे में पता नहीं होता। माता-पिता बालक को वह बनाना चाहते हैं जो वे स्वयं नहीं बन पाते या वह खुद अपने व्यवसाय में बालक को लगाना चाहते हैं।

बालक की रुचि और क्षमताओं को ठीक से आंक भी नहीं पाते हैं। उनके सोच का क्षेत्र काफी सीमित होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई बालक खेल में अच्छा है तो माता-पिता उसे प्रोत्साहित करने की अपेक्षा अधिक सुरक्षा व धन देने वाला व्यवसाय, जैसे-अपनी दुकान चलाना या डॉक्टर, इंजीनियर बनाना चाहते हैं। उसके गुण इस असमंजस की स्थिति में दब जाते हैं। वह दुकान पर बैठने के पश्चात् भी अपनी अधूरी इच्छा के कारण दुखी रहता है। हो सकता था कि वह खेल की दुनिया में भारत का एक चमकता सितारा बनता।

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इसी कारण आज इस बात की आवश्यकता महसूस की जा रही है कि इस समय किशोर को उसके अभिभावकों के व्यावहारिक मार्गदर्शन की बहुत आवश्यकता है। इसके द्वारा माता-पिता किशोर को विभिन्न उपलब्ध व्यवसायों के बारे में बता सकते हैं। किशोर की रुचि, क्षमता व सामर्थ्य के अनुरूप व्यवसायों की जानकारी दे सकते हैं तथा वह किन्हीं व्यवसायों के बारे में अपनी भ्रान्तियाँ दूर कर सकते हैं ताकि वे किशोर को उसके उपयुक्त व्यवसाय चुनने में बाधा न बने और इस प्रकार सही व्यवसाय चुनकर किशोर अपना भविष्य उज्ज्वल कर सकते हैं।

प्रश्न 8.
किशोरावस्था की समाप्ति पर प्रौढ़ावस्था में सफल समायोजन के लिए किशोर के विकास की अनेक समस्याएँ कौन-कौन-सी हैं ?
उत्तर:
किशोरावस्था की समाप्ति पर प्रौढ़ावस्था में सफल समायोजन के लिए किशोर के विकास में अनेक समस्याएँ आती हैं, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं :

1. स्वयं के शरीर को स्वीकार करना (Accepting ones physique)-जैसे ही बालक किशोरावस्था में प्रवेश करता है वह यही स्वप्न संजोता रहता है कि उसका शारीरिक गठन सुन्दर आकर्षक होगा। प्रत्येक किशोर यौवन की दहलीज पर पहुंच कर मन ही मन किसी के व्यक्तित्व से इतना प्रभावित होता है कि उसके समरूप होने के सपने देखता है।

किशोरावस्था में शारीरिक अनुपात, त्वचा व स्वर में परिवर्तन आते हैं तथा चेहरे पर प्रौढ़ता की झलक आने लगती है जो उसे वयस्क होने की अनुभूति देते हैं। इन परिवर्तनों के साथ-साथ किशोर यह भी अनुभव करता है कि अब आजीवन उसका शरीर व चेहरा वैसे ही बना रहेगा और जैसे सपने उसने संजोए हैं वह कभी भी पूरे नहीं होंगे। किशोर को अपनी शक्ल-सूरत से असंतोष होता है और वह निराश हो जाता है।

ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो जाता है कि वह अपने शरीर में हो रहे परिवर्तनों तथा वृद्धि को स्वीकार करके मानसिक तनाव से दूर रहे । उसे इस बात का संकोच नहीं करना चाहिए कि उसकी आयु के दूसरे किशोर उसकी तुलना में अधिक अच्छे हैं। उसे अपने शारीरिक गठन व शक्ल-सूरत को सहर्ष स्वीकारना चाहिए । किशोर को प्राप्त शरीर के स्वास्थ्य की उचित देखभाल करके उसे आकर्षक, सुन्दर व सुरक्षित बनाए रखने का प्रयत्न करना चाहिए। अत: किशोरों को अपने शरीर को सहर्ष स्वीकार करके किसी भी प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त नहीं होना चाहिए ।

2. उभयलिंगी साथियों से नवीन व अधिक परिपक्व सम्बन्ध स्थापित करना: (Achieving New and More Matured Relations with Age metes of Both Sex)-किशोरावस्था में तीव्र गति से शारीरिक विकास होने तथा अन्तःस्राविक ग्रंथियों के सक्रिय हो जाने के कारण यौन परिपक्वता (Sexual maturity) आती है तथा काम-सम्बन्धी भावनाओं में भी तीव्रता से विकास होता है। यौन परिपक्वता के इस काल में किशोर एवं किशोरियों में यौनाकर्षण (Sexual attractions) होना स्वाभाविक है जो कि अब एक प्रभावी बल (Dominant force) बन जाता है।

किशोरों में शारीरिक विकास अथवा यौन परिपक्वता की धीमी या तीव्र गति उनके उभयलिंगी साथियों के साथ सामाजिक सम्बन्धों को प्रभावित करती है। प्रायः वह किशोर अथवा किशोरी जिसमें विकास धीमी गति से हो रहा होता है, किशोरों के उस समूह से बाहर समझे जाते हैं जिसमें विकास तीव्र गति से हो रहा है, क्योंकि समूह में सदस्यों की इच्छाएँ एक-सी अथवा समूह के प्रत्येक सदस्य से स्वीकृत होती हैं। इन समूहों को ‘दल’ कहते हैं। आयु बढ़ने के साथ-साथ जब कुछ सदस्य अपने साथियों से नवीन व परिपक्व सम्बन्ध स्थापित नहीं कर पाते हैं तब वह समूह से बाहर हो जाते हैं जिससे दल का आकार घटता है और अब उसे ‘गुट’ कहते हैं।

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किशोरों के इन सामाजिक सम्बन्धों के प्रतिमान (Pattern) प्रायः उनके वातावरण, उनकी संस्कृति व उनके समाज पर निर्भर करते हैं जिसमें उन्होंने जन्म लिया है। उदाहरण के लिए मध्यम वर्ग के नौकरी पेशा वाले परिवारों के प्रतिमानों के कारण उन परिवारों के किशोर शिक्षा में प्रगति करने पर बल देते हैं। अत: व्यक्तित्व के उचित विकास के लिए किशोरों को अपने लिंग अथवा विषमलिंग के साथियों के साथ यथासम्भव नवीन व अधिक परिपक्व सम्बन्ध स्थापित करने चाहिए।

3. अपने लिंग (पुंल्लिग अथवा स्त्रीलिंग) की सामाजिक भूमिका को अपनाना (Achieving Ones Masculine/Faminine Social Sex Role): बाल्यावस्था तक लड़के व लड़कियों में लैंगिक अपरिपक्वता के कारण भिन्नता नहीं होती है परन्तु यौवनारम्भ के साथ जननेन्द्रियों का विकास होता है जिससे लैंगिक परिपक्वता आनी आरम्भ होती है और इसी के अनुसार किशोरों में पुंल्लिग और स्त्रीलिंग के गुणों का विकास होता है। इस अवस्था में किशोरों के सामने यह गम्भीर समस्या होती है कि वह लिंगानुसार समाज द्वारा स्वीकृत भूमिका को समझे और अपनाएँ।

प्रत्येक समाज की किशोरों के लिए यौन सम्बन्धी अलग-अलग मान्यताएँ होती हैं। किशोरों को उन मान्यताओं को स्वीकार करके अपनाना पड़ता है। रूढ़िवादी भारतीय समाज में किशोर . लड़कों व किशोर लड़कियों को शादी-ब्याह के पश्चात् घर गृहस्थी का बोझ उठाना पड़ता है, परन्तु आज के आधुनिक युग में जब लड़कियाँ भी लड़कों की भांति पढ़ती-लिखती हैं व नौकरी करती हैं तंब उन्हें अनेक प्रकार के सामाजिक एवं मानसिक तनावों को सहना पड़ता है।

इसी प्रकार लड़कों को भी अपने परिवर्तन में अपनों से बड़ों तथा अपनी पत्नी के साथ समायोजन की समस्या का सामना करना पड़ता है। धीरे-धीरे भारतीय समाज में सकारात्मक बदलाव आ रहे हैं जिससे आज के किशोरों एवं किशोरियों की सामाजिक भूमिका की परिभाषा में परिवर्तन आए हैं और समाज में यह परिवर्तन सामाजिक चेतना द्वारा आए हैं जो कि प्रसार माध्यमों द्वारा उचित शिक्षा से सम्भव हुए हैं। यदि कोई किशोर अपने लिंग के अनुसार निश्चित सामाजिक भूमिका अपनाने में असमर्थ होता है तो वह समायोजन की अनेक समस्याओं से घिर जाता है।

4. माता-पिता व अन्य वयस्कों से संवेगात्मक स्वाधीनता (Achieving Emotional Independence from Parents) भारतीय परिवेश में शादी से पूर्व प्रायः प्रत्येक किशोर विशेषकर लड़कियाँ अपने माता-पिता अथवा बड़े भाई-बहन पर संवेगात्मक रूप से निर्भर होते हैं। इस संवेगात्मक निर्भरता के कारण किशोरों में परिपक्वता नहीं आती है जिसके कारण उन्हें अनेक समस्याओं का सामना करना पडता है। बाल्यावस्था की बडों पर निर्भरता वाली प्रवत्ति यदि किशोरावस्था में त्याग दी जाए तो वयस्क होने पर समायोजन की समस्याएं कम होती हैं।

इसके विपरीत जो व्यक्ति किशोरावस्था में संवेगात्मक स्वाधीनता अर्जित नहीं कर सके हैं उन्हें वयस्क होने पर इसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं क्योंकि ऐसे वयस्क प्रायः स्वतंत्रता से निर्णय नहीं ले पाते और न ही स्वतंत्रता से कार्य कर पाते हैं। संवेगात्मक निर्भरता का एक कारण स्वयं किशोर हैं क्योंकि वह माता-पिता व बड़ों से प्राप्त सुरक्षा को त्यागने में हिचकिचाते हैं तथा दूसरा कारण माता-पिता हैं जो किशोर पर घर के बन्धन डाले रखना चाहते हैं क्योंकि उन्हें यह भय होता है कि किशोर आत्मनिर्भर होकर उनसे दूर हो जाएँगे। माता-पिता अथवा अभिभावक किशोरों को अपनी समस्याओं से जूझने का तथा उनके हल का मौका नहीं देते और उनके आत्मनिर्भरता के विकास में बाधा डालते हैं।

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5. व्यवसाय के लिए तैयार करना (Preparing for Career): किशोरावस्था जीवन की ऐसी अवस्था है जिसके द्वारा व्यक्ति प्रौढ़ दायित्व के लिए तैयारी करता है। किशोरावस्था को पार करते ही उसे स्वतंत्र रूप से निर्वाह करना होता है। किसी भी व्यक्ति के जीवन का आनन्द बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि उसे अपनी रुचि के अनुसार व्यवसाय चुनने का मौका मिले जिसे करके वह गर्व का अनुभव करे। अपनी रुचिनुसार व्यवसाय चुनने तथा उसके लिए तैयारी करने की अनुकूल अवस्था किशोरावस्था है।

अतः किशोरों के सम्मुख जो आर्थिक स्वतंत्रता की समस्या है उसे वह अपनी क्षमताओं एवं रुचियों के अनुरूप व्यवसाय चुनकर समाधान कर. सकता है। जब कोई किशोर लड़का अथवा लड़की अपने भावी जीवन के लिए अपनी योग्यता, क्षमता तथा रुचि के अनुसार व्यवसाय चुनने में असमर्थ होता है तो उसे मजबूरी में विपरीत व्यवसाय चुनना पड़ता है, जिससे वह उस कार्य को बोझ समझ कर करता है। इससे उसमें खिन्नता की भावना उत्पन्न होती है। यह भावना उसमें अनेक प्रकार की समस्याएँ उत्पन्न करती हैं।

6. विवाह एवं पारिवारिक जीवन के लिए तैयारी करना (Preparing for marriage and Family Life): किशोरावस्था के पांच या छ: वर्षों में किसी को स्वीकार करने व स्वीकृत किए जाने की लालसा अत्यधिक प्रबल होती है तथा इसी कारण किशोरों में स्नेह व सौहार्द्रपूर्ण व्यवहार व सामाजिक भावना के विकास की पूर्ण सम्भावना होती है। इसी अवस्था में विपरीत लिंग की ओर आकर्षण भी उत्पन्न होता है। इसी समय में प्यार और विवाह की भावना विकसित होती है। उचित अवसर प्रदान करके तथा यौन शिक्षा द्वारा किशोर यौन सम्बन्धों को भली प्रकार समझ सकता है तथा जीवन में इसके महत्त्व को भी जान सकता है।

अतः विवाह एवं पारिवारिक जीवन के लिए नीव किशोरावस्था में रखी जाती है, परन्तु विवाह कब और किससे किया जाए, जैसे महत्त्वपूर्ण निर्णय प्रौढ़ होने पर लिए जाते हैं। भारतीय समाज में जहाँ शादी-विवाह के बन्धन को भगवान द्वारा बनाए गए बन्धन माने जाते हैं वहाँ जीवन साथी के सही चुनाव का महत्त्व और भी अधिक हो जाता है। कई बार जल्दबाजी अथवा किसी दबाव में आकर की गई एक गलती व्यक्ति को जीवन भर भुगतनी पड़ती है। प्रौढावस्था में इस संदर्भ में सही निर्णय तभी लिया जा सकता है जब किशोरावस्था में इसकी सही नींव रखी गई हो।

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प्रश्न 9.
आपकी सहेली शहर से गाँव जा रही है। मित्रसमूह से कैरियर में क्या तनाव पैदा हो सकता है ?
उत्तर:
मित्रसमूह संबंध (Peer Group Relations) :

  • वह सोचेगी कि नए मित्र बनाना मुश्किल है। वह अपनी उम्र के मित्र बना पाएगी या नहीं।
  • शुरू में अकेलापन रहेगा, हो सकता है अस्वीकृति ही मिले।
  • पुराने मित्रों को याद करेगी (Missing Old Friends)।
  • गाँव के लोगों की रुचि में अन्तर होने कारण वह अपने आपको संयोजित नहीं कर पाएगी।
  • अपनेपन की कमी होगी क्योंकि नई मित्रता गहराई तक पहुँचने में समय लगाती है।

कैरियर में अवसर (Career Opportunity):

  • गाँव में कैरियर की बहुत कम सुविधाएँ होती हैं।
  • बहुत दूर-दूर तक सफर करके जाना पड़ेगा।
  • मित्रों से सलाह की कमी होगी। (Lack of discussion with Peers)
  • ज्यादा खबर नहीं लगती कि कहाँ पर सुविधा है। (Lack of Information)

सुझाव (Suggestion):

  • उसे समझना होगा कि नई जगह पर नया वातावरण व Culture भी मनोरंजक होता है।
  • गाँवों में अपने आवश्यकताओं व साधनों के अनुसार तरीके होते हैं।
  • गाँव के लोगों में मैत्रीपूर्ण व्यवहार। मददगार की भावना ज्यादा होती है व सम्बन्ध खराब नहीं होते।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 3 किशोर और सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 3 किशोर और सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 3 किशोर और सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास

Bihar Board Class 11 Home Science किशोर और सामाजिक तथा संवेगात्मक विकास Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
मौरेनो में सामाजिक संबंधों को जानने के लिए समाज-आलेख का निर्माण कब किया ?
(क) 1940 ई. में
(ख) 1955 ई. में
(ग) 1934 ई. में
(घ) 1928 ई. में
उत्तर:
(ग) 1934 ई. में

प्रश्न 2.
बालक के विकास की प्रक्रिया में –
(क) ह्रास होता है
(ख) वृद्धि होती है
(ग) स्थिर होता है
(घ) अस्थिर होता है
उत्तर:
(ख) वृद्धि होती है

प्रश्न 3.
समाज आलेख (Sociogram) का निर्माण मोरेनो ने किया –
(क) 1930 ई. में
(ख) 1932 ई. में
(ग) 1940 ई. में
(घ) 1934 ई. में
उत्तर:
(घ) 1934 ई. में

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प्रश्न 4.
किशोरावस्था के प्रमुख संवेग हैं –
(क) चिंता
(ख) जिज्ञासा
(म) स्नेह और प्रेम
(घ) इनमें से सभी
उत्तर:
(घ) इनमें से सभी

प्रश्न 5.
किशोरावस्था के विषय लिंगियों के प्रति प्रेम की आयु सीमा क्या है –
(क) 16-17 वर्ष
(ख) 18-20 वर्ष
(ग) 14-15 वर्ष
(घ) बाल्यावस्था में
उत्तर:
(क) 16-17 वर्ष

प्रश्न 6.
व्यावसाविक जीवन की नींव कब रखी जाती है –
(क) जीवन भर
(ख) उत्तर किशोरावस्था में
(ग) युकवस्था में
(घ) मल्यावस्था
उत्तर:
(घ) इनम

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरावस्था में सामाजिक विकास से आप क्या समझती हैं?
उत्तर:
सामाजिक विकास किशोरावस्था में उन सभी गुणों को अर्जित करता है, जिनके द्वारा समाज में उन्हें सम्मान मिलता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक समूह से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
वह समूह जिनके दृष्टिकोण, रुचियाँ, योग्यताएँ लगभग समान होती हैं, सामाजिक समूह. कहलाता है।

प्रश्न 3.
सामाजिक स्वीकृति किसे कहते हैं ?
उत्तर:
लड़के व लड़कियाँ अपने अन्दर उन गुणों को विकसित करते हैं जिनसे उन्हें अपने समूह में प्रतिष्ठित स्थान मिले व समूह के सदस्य अपने समूह को समाज में अच्छा स्थान दिला

प्रश्न 4.
“किशोरावस्था संवेगात्मक रूप से अस्थिर अवस्था है” से क्या तापलं है ?
उत्तर:
यह तनाव की अवस्था है जो किशोर के शरीर में हो रहे हारमोन्स की खलबली के कारण होती है। इससे बेचैनी व उत्तेजना तथा आस-पास का परिवेश बदला हुआ लगता है।

प्रश्न 5.
तनाव से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
तनाव वह आन्तरिक स्थिति है जो शरीर के भौतिक परिवर्तन या अड़ोस-पड़ोस तथा सामाजिक स्थितियों से पैदा होती है।

प्रश्न 6.
प्रतिबल किसे कहते हैं ?
उत्तर:
कारक जो तनाव तथा दबाव पैदा करते हैं, उन्हें प्रतिबल कहते हैं।

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प्रश्न 7.
पहचान स्थापित करना (Achieving Identity) से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
तनाव व संघर्ष के बावजूद अपने गुण व चतुराई द्वारा भविष्य की सम्भावनाओं का पता लगाना पहचान स्थापित करना कहलाता है।

प्रश्न 8.
किशोरावस्था में मुख्य संवेग कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर:
क्रोध और आक्रामकता, भय और आकुलता, ईर्ष्या, स्पर्धा, हर्ष तथा स्नेह आदि किशोरावस्था के कुछ मुख्य संवेग हैं।

प्रश्न 9.
किशोरावस्था में सामाजिक विकास से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
विभिन्न सामाजिक क्रियाओं के फलस्वरूप होने वाले विकास को सामाजिक विकास कहते हैं।

प्रश्न 19.
संवेगात्मक स्वाधीनता से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर;
संवेगात्मक स्वाधीनता अर्थात् माता-पिता पर संवेगात्मक रूप से निर्भर न रह कर स्वतंत्र रूप से निर्णय ले पाने की क्षमता से है।

प्रश्न 11.
लिंगोचित कार्य (Sex Roles) से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
लिंगोचित कार्य का अर्थ दोनों लिंगों के सदस्यों का वह व्यवहार है जो समाज द्वास मान्य है तथा जिसके बस उनकी पहचान बनती है।

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प्रश्न 12.
परिवर्ती शरीर का स्वकरच (Accepting the changed physique) क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
परिवर्ती शरीर का स्वीकरण इसलिए आवश्यक है ताकि आत्मस्वीकरण में सरलता हो, समायोजन में समस्या न हो और संतोष के साथ जीवन व्यतीत करने का सामर्थ्य प्राप्त हो ।

प्रश्न 13.
माता-पिता किस प्रकार किशोर की आजादी पर नियंत्रण करते हैं ?
उत्तर:
सही मार्गदर्शन।
मैत्रीपूर्ण व्यवहार पर कभी-कभी कठोर।

प्रश्न 14.
ऐसी दो परिस्थितियों के नाम लिखें जब किशोर दबाव का अनुभव करता है।
उत्तर:
तीव्र शारीरिक वृद्धि।
लैंगिक विशेषताओं का विकास।

प्रश्न 15.
रमेश किसी मित्रसमूह का हिस्सा नहीं है। इस स्थिति में होने वाली किन्हीं दो हानियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  • मित्रसमूह से निकाल दिया जाता है।
  • समस्याओं को बाँटने के लिए किसी का साथ न होना।

प्रश्न 16.
ऐसी दो क्रियाएँ बताएँ जिनमें किशोर अपने माता-पिता से ज्यादा मित्र- समूह से प्रभावित होता है।
उत्तर:
वेशभूषा में।
संगीत, मनोरंजन व फिल्म में चयन करना तथा बातें करने के ढंग से।

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प्रश्न 17.
राधा निम्न आय वर्ग के एक बड़े परिवार से संबंधित है। उसकी ऐसी चार आवश्यकताओं के नाम लिखें जिन पर विपरीत प्रभाव पड़ सकते हैं।
उत्तर:

  • सही पोषण (Proper Nutrition)
  • बीमारियों के प्रति बचाव (Protection from illness)
  • प्यार व स्नेह।
  • निजीपन की आवश्यकता।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरों के जीवन में तनाव व झंझावात पैदा करने वाले कारक बताइए।
उत्तर:

  • शारीरिक परिवर्तन (Physical Changes)
  • यौन सम्बन्धी परिवर्तन (Sexual Changes)
  • शैक्षिक और व्यावसायिक (Educational & Vocational)
  • पहचान स्थापित करना (Achieving Identity)
  • मित्रसमूह (Peer group)

प्रश्न 2.
शारीरिक परिवर्तन कारक को उदाहरण सहित स्पष्ट करें।
उत्तर:
शारीरिक विकास तथा भौतिक परिपक्वता के तूफानी दौर में किशोर कद में प्रौढ़ों के समान हो जाते हैं। लड़कों में यह वृद्धि 3-5 इंच प्रति वर्ष तथा लड़कियों में शारीरिक विकास लड़कों से पहले हो जाता है। बेशक अन्ततः लड़कों के शरीर लम्बे, चौड़े तथा अधिक हृष्ट-पुष्ट होते हैं।

प्रश्न 3.
किशोरों में यौन-सम्बन्धी परिवर्तन से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
यौन-सम्बन्धी परिवर्तन किशोरों के जीवन में खलबली मचाता है। वे इस प्रकार की भावनाओं से चिन्तित रहते हैं तथा यही तनाव का कारण भी हो जाता है। वे सोचते रहते हैं कि विषमलिंगियों के प्रति आकर्षण क्यों हो रहा है? उन्हें जीव विज्ञान सम्बन्धी, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक व्यवहार के अपने-अपने समाज के प्रचलित रीति-रिवाजों के दायरे में ही होना चाहिए। जैसे कि आज के किशोर को पारिवारिक दायित्व केवल परिपक्वता आने पर और आर्थिक सुरक्षा के बाद ही सौंपा जाता है।

प्रश्न 4.
मित्रसमूह की किशोर को पहचान देने में क्या भूमिका है ? लिखें।
उत्तर:
मित्र-समूह किशोरों को अपनी पहचान देता है। हर सदस्य इस समूह का हिस्सा है तथा यही उसकी पहचान है।
समूह के सदस्य:

  • एक ही ‘अपनी’ तरह बोलते, सोचते, काम करते तथा संवरते हैं।
  • खुशमिजाज, मित्रता भाव तथा दूसरे समूहों के साथ संबंध रखते हैं।
  • आप अपनी तरह रहते हैं।
  • एक-दूसरे में पूरी दिलचस्पी रखते हैं।
  • ईमानदार, सत्यवादी तथा विश्वासपात्र होते हैं।
  • मित्रसमूह का परस्पर सौहार्द्रभाव सराहनीय होता है।
  • मित्रसमूह युवा के लिए एक सहारा है तथा जो युवा अपने परिवार तथा दूसरों से भिन्नता रखते हैं, उन्हें शरण देता है।

किशोर अपने मित्र-समूह के साथ काफी समय व्यतीत करते हैं। वह कला, संगीत, परिवार, खेलकूद, शैक्षिक, राजनीति और यहाँ तक कि सांसारिक समस्याओं पर विचार करते हैं। यह कह सकते हैं कि वे विश्व के सभी पक्षों पर विचार करते हैं। वे एक दूसरे के साथ तालमेल रखते हैं। वे एक-दूसरों की शरारतों में पूरा साथ देते हैं।

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प्रश्न 5.
पहचान स्थापित करने से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
पहचान स्थापित करना (Achieving Identity): सारे तनाव और संघर्ष के अतिरिक्त किशोरों में अपनी पहचान बनाने की लालसा भी होती है। अगर आप किशोर हैं तो अपने बारे में जल्दी से दस वाक्य लिखें। अब आप इसे आलोचनात्मक दृष्टि से पढ़ें। इस प्रकार आप अपने गुण व चतुराई को पहचान पाएंगे। अगर आपके गुण और संभावनाएँ मेल नहीं खाते तो आपको अपना लक्ष्य पाने के लिए अधिक परिश्रम करना होगा।

इरिकसन के अनुसार, पहचान की परिभाषा है –
“Identity is feeling of being at home in one’s body, a sense of knowing where one is going and an inner assurance of anticipated recognition from those who matter”.

प्रश्न 6.
सामाजिक स्वीकृति किसे कहते हैं ?
उत्तर:
सामाजिक स्वीकृति (Social Acceptance): किशोरावस्था में किशोर यह समझने लग जाते हैं कि समाज की स्वीकृति प्राप्त हो। लड़के व लड़कियाँ अपने अन्दर उन गुणों को पैदा करते हैं जिनसे समूह में उन्हें प्रतिष्ठित स्थान मिले व समूह के सदस्य अपने समूह को समाज में अच्छा स्थान दिला सकें। जिस किशोर को अधिक सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है वह अधिक आत्म-विश्वास वाला, बहिर्मुखी, सहायता करने वाला, उदार और उत्तरदायित्वों को पूरा करने वाला होता है। कहने का तात्पर्य है कि किशोर समाज से पूर्ण रूप से जुड़ जाता है व अपने अधिकारों और उत्तरदायित्वों को समझने लगता है।

प्रश्न 7.
टोली और गिरोह से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
टोली (Cliques): यह कुछ लोगों का समूह होता है। एक या दो चमस (Chums) की जोड़ी से भी बनता है। ये चमस आरम्भिक किशोरावस्था में समलिंगी होते हैं। ये सभी समान रुचियों वाले मित्र होते हैं व घनिष्ठ सम्बन्धों वाले होते हैं।

गिरोह (Gangs): यह काफी बड़ा समूह होता है। यह अधिकतर उन किशोरों का बनता है जिनका अपने आस-पास, घर, विद्यालय में सही समायोजन नहीं होता। ये आपस में मिलकर समाज विरोधी क्रियाओं में भाग लेने लगते हैं। यह खेलने, स्कूल से भागने, सिनेमा आदि देखने में अधिक रुचि लेते हैं। प्रायः ये बाल अपराधी बन जाते हैं और समाज को अपना दुश्मन समझते हैं। यह अधिकतर समलिंगी मित्र होते हैं, पर उत्तर किशोरावस्था में विपरीत लिंगी सदस्य भी इनके समूह के सदस्य बन जाते हैं।

प्रश्न 8.
सामाजिक समूह तथा मित्रसमूह क्या है ?
उत्तर:
सामाजिक समूह (Social Group): इसमें मित्र समूह छोटा होता है उसे लँगोटिया यार (Chums) कहते हैं। लड़के-लड़कियाँ अपने अन्तरंग मित्र अवश्य चुनते हैं। ये मित्र समलिंगी और पूर्ण विश्वास के होते हैं। इनके दृष्टिकोण, रुचियाँ, योग्यताएँ लगभग समान होती हैं। यह मित्रता घनिष्ठ होती है।

मित्रसमूह (Peer Group): यह सम आयु, योग्यता तथा सामाजिक स्थिति का एक समूह होता है जो आपस में नैतिक मूल्यों और रुचियों पर विचार करते हैं। माता-पिता प्रायः अपने किशोर बच्चों के मुकाबले में मित्रसमूह को कम महत्त्व देते हैं।

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प्रश्न 9.
किशोर और समाजीकरण प्रक्रिया का क्या संबंध है ?
उत्तर:
किशोर और समाजीकरण प्रक्रिया-आपसी संबंध (Adolescent and Socialization Process : Inter Personal Relationship): किसी पर प्रभाव तथा पारस्परिक क्रिया ही संबंधों को बनाती है। आप निम्नलिखित प्रश्नों पर गौर करें

  • लोग एक-दूसरे की ओर आकर्षित. क्यों होते हैं?
  • आपको कोई मनुष्य दूसरे से अधिक पसंद क्यों आता है?
  • आपको कोई मनुष्य इतना बुरा क्यों लगता है कि आप उसके सामने नहीं पड़ना चाहते?
  • संबंधों को बनाने में क्या प्रक्रियाएं छिपी हुई हैं?

विचारों और भावों की समानता ही समान पारस्परिक क्रिया को जन्म देती है। व्यक्ति आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ता है। आरंभ में शारीरिक आकर्षण ही सामाजिक क्रिया को प्रभावित करता है। दीर्घकालीन संबंध आपसी समझदारी पर ही बना रह पाता है। प्राकृतिक निकटता और सामीप्य ही एक लम्बे संबंध की नींव रखता है। दूरी से संबंध रखना कठिन होता है तथा मिलने-जुलने के कम अवसरों से संबंध की कड़ी कमजोर पड़ जाती है।

“Our mental need for intellectual growth runs parallel to our need for food and sleep. It is fulfilled through our inter-personal relationship, meeting people, interacting with them, communicating ideas to each other.” – Descartes

प्रत्येक व्यक्ति को मित्र व संबंधी चाहिए जिससे वह मेल-जोल रख सके, स्नेह कर सके तथा विश्वास कर सके। किशोरावस्था एक अच्छी अवधि है जिसमें मित्र, अधिक मित्र तथा अच्छे मित्र बनाए जा सकते हैं। संबंधों की विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं जो निम्न हैं –
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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरों के मित्रसमूह का अध्यापकों व समाज के प्रति योगदान क्या है ?
उत्तर:
“व्यक्ति का रक्त ही एक सच्चे परिवार को जोड़ने का माध्यम नहीं है, बल्कि वह खुशी और आदर है जो एक-दूसरे के लिए दिए जाते हैं।”

किशोर और मित्र-समूह (Peers and the Adolescent): यह इस अध्याय में पहले ही बताया जा चुका है कि किशोर सामाजिक तथा सांस्कृतिक तनाव महसूस करते हैं। आप इससे उबर सकते हैं अगर आप अपने सांस्कृतिक, धार्मिक और सामाजिक मूल्यों को अच्छी तरह समझ लें। अपने सांस्कृतिक मूल्यों का गुणांकन करें जैसे कि वेदों के अनुसार 25 वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य का पालन करना लड़के को हर प्रकार से परिपक्व बना देता है तथा वह पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्व के लिए तैयार हो जाता है। आप अपने इन मूल्यों को मित्रों के साथ बातचीत कर और सुदृढ़ बना सकते हैं।

किशोर और अध्यापक (Adolescent and Teacher): विद्यार्थी के जीवन में स्कूल के अध्यापक की अत्यंत आवश्यक भूमिका है। जब बच्चा प्राइमरी स्कूल में होता है तो उसे अपने अध्यापक पर पूरा विश्वास होता है। जो अध्यापक कहें वह सच। जैसे-जैसे बच्चा किशोरावस्था की ओर बढ़ता है, उसके तथा अध्यापक के बीच में एक झूठा अवरोध पैदा हो जाता है जैसा प्रायः इस आयु में माता-पिता के साथ होता है।

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एक मित्र, मार्गदर्शक और दार्शनिक की अनुपस्थिति में, किशोर अपने तनाव, दबाव व प्रश्नों में उत्तर ढूँढ़ता है। अध्यापक को एक अच्छा मित्र होना चाहिए। जिससे किशोर अपने प्रश्न बेझिझक होकर अध्यापक से पूछ सके और सत्य पर आधारित सही उत्तर भी पा सके। स्कूल और अध्यापकों पर किशोरों को ठीक ज्ञान देकर इस तनाव की अवधि में से निकालने का बहुत बड़ा उत्तरदायित्व

किशोर और समाज (Adolescent and Members of Community): जब परिवार विशाल हुआ करते थे तो बच्चे को अपने पितामह, माता-पिता, चाचा-चाची, चचेरे भाई-बहनों, अपने भाई-बहनों से बातचीत करना स्वयं ही आ जाता था। आज के युग में इन संबंधों को सिखाना पड़त है। अगर आप अपने पितामह के साथ नहीं रहे ते आप कैसे सीखेंगे कि वृद्ध व्यक्ति प्यार करना चाहता है तथा बदले में प्यार मांगता है। आपकी दादी आपको स्वादिष्ट खाना देती है जब आप स्कूल से वापस आते हैं। आप अपना समय उनके साथ गुजारते हैं।

इस प्रकार आप दोनों ने अपना प्रेम जताया तथा एक दूसरे के निकट आए। ईमानदारी, विनम्रता, सहायता की भावना, उदार और विवेकपूर्णता वे मूल्य हैं जो परिवार में सीखे जाते हैं। किशोर, जिन्हें यह सब मूल्य परिवार से विरासत में मिलते हैं, समाज के सभी सदस्यों के साथ अच्छा संबंध बना लेते हैं । आयु, समाज, आर्थिक स्थिति और गति उसकी रुकावट नहीं बनते।

प्रश्न 2.
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास विस्तारपूर्वक लिखें। [B.M. 2009 A]
उत्तर:
किशोरावस्था में संवेगात्मक विकास (Emotional development in adolescence)-किशोरावस्था ‘तूफान एवं तनाव’ की आयु है क्योंकि शरीर और ग्रंथियों के परिवर्तनों के कारण संवेगात्मक तनाव बढ़ जाता है। पूर्व किशोरावस्था में संवेग (Emotions) प्रायः तीव्र, विवेकशून्य एवं अनियन्त्रित अभिव्यक्ति वाले होते हैं परन्तु आयु में बढ़ोतरी के साथ-साथ संवेगात्मक व्यवहार में परिवर्तन एवं ठहराव आता है। यही कारण है कि चौदह-पन्द्रह वर्ष की आयु के किशोर चिड़चिड़े, जल्दी उत्तेजित होने वाले तथा अपने भावों पर नियंत्रण नहीं कर पाते हैं। उत्तर किशोरावस्था में आते-आते संवर्गों पर नियंत्रण करना सीख जाते हैं और समस्याओं का सामना शांत होकर करते हैं।

किशोरावस्था में मुख्य संवेग :
1. क्रोध और आक्रामकता (Anger and Hostility): इस अवस्था में क्रोध उभारने वाली परिस्थितियाँ प्रायः सामाजिक होती हैं। पूर्व किशोरावस्था में किशोरों को क्रोध आने के अनेक छोटे-बड़े कारण हैं, जैसे उन्हें किसी बात पर चिढ़ाया जाए, उनकी बिना वजह आलोचना की जाए या उपदेश दिए जाएँ, उनके साथ बच्चों जैसा बर्ताव किया जाए, उनसे जबरदस्ती काम कराया जाए, उन्हें अनुचित रूप से दंड दिया जाए। इसके अतिरिक्त किशोर तब भी क्रोध में आता है जब वह कोई काम बड़ी रुचि के साथ प्रारम्भ करता है परन्तु उसे पूरा नहीं कर पाता है।

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अपने क्रोध को नवकिशोर प्रायः अजीब ढंग से दर्शाते हैं जैसे जोर से दरवाजा बन्द करना, पैर पटकना, अपने कमरे का दरवाजा बन्द करके बैठ जाना, बोलना बन्द कर देना या फिर चुपचाप बैठ कर रोना । जैसे-जैसे आयु बढ़ती है किशोर अपने क्रोध पर नियंत्रण करना सीख जाते हैं। अब वह न चीजों को पटकता है और न ही हाथ-पैर चलाता है। इनके विपरीत अब वह क्रोध को प्रकट करने के लिए अपनी जुबान का अधिक प्रयोग करते हैं जैसे व्यंग्य करना, खिल्ली उड़ाना या फिर अभद्र भाषा का प्रयोग करना।

2. भय और आकुलता (Fear and anxiety): किशोरावस्था में सामाजिक परिस्थितियों का महत्त्व अधिक होता है। अत: बाल्यावस्था के भय धीरे-धीरे समाप्त हो जाते हैं तथा उनका स्थान नए प्रकार के भय ले लेते हैं जैसे अंधेरे में अकेले होने का भय, रात को बाहर अकेले होने का भय, अपने घनिष्ठ दोस्तों को छोड़कर सभी के सामने शर्म अनुभव करना, अजनबियों एवं दूसरे लिंग वाले पर अच्छी छाप डालने की अयोग्यता का भय आदि। आयु की बढ़ोतरी के साथ-साथ किशोरों के भय पहले की अपेक्षा कम होते जाते हैं परन्तु आकुलताएँ बढ़ती जाती हैं। आकुलता भय का एक रूप है जो वास्तविक चीजों से न होकर काल्पनिक चीजों से होता है।

ज्यों-ज्यों वर्षानुवर्ष भयों की संख्या एवं तीव्रता घटती जाती हैं। त्यों-त्यों किशोर उनके स्थान पर आकुलताएँ अपनाते जाते हैं। जो कि ऐसी चीजों, लोगों और परिस्थितियों के बारे में होती हैं जो मुख्य रूप से उनकी कल्पना की उपज होती हैं। भविष्य के बारे में सोचते-सोचते किशोर भय की अवस्था में पहुंच जाते हैं।

उदाहरण के लिए किशोरों को परीक्षाओं, मंच पर आने की तथा खेल प्रतियोगिताओं में भाग लेने की आकुलता प्रायः इस काल्पनिक भय से होती है कि वह इनमें सफल हो जाएंगे अथवा नहीं। भय और आकुलताओं का प्रभाव भी किशोरों के शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है। किशोरों की भय एवं आकुलताएं उनकी सामाजिक, आर्थिक स्थिति, पारिवारिक दशा, अतीत की सफलताओं एवं असफलताओं पर निर्भर करते हैं।

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3. ईर्ष्या (Jealousy): पूर्व किशोरावस्था में ईर्ष्या भली-भांति छिपाए हुए रूप में दिखाई देती है। प्रायः नव किशोर दूसरे लिंग वालों में सामूहिक रूप से दिलचस्पी रखते हैं और उनमें लोकप्रिय होने की कामना करते हैं। जो अपने इस उद्देश्य में सफल नहीं हो पाते उन्हें प्रायः दूसरों से ईर्ष्या होती है।

नव किशोरों को अपने उन साथियों से भी ईर्ष्या होती है जिन्हें अधिक सुविधाएँ और अधिक स्वतंत्रता प्राप्त होती है या फिर जो समाज व स्कूल में अधिक सफल व लोकप्रिय होते हैं। उत्तर किशोरावस्था में लड़के-लड़कियों दोनों को ही अपने विषमलिंगीय संबंधों में ईर्ष्या अनुभव होती है। लड़कियों में प्रायः लड़कों से अधिक ईर्ष्या का भाव होता है क्योंकि उन्हें लड़कों की तरह मनचाहा करने की सुविधा नहीं होती है।

4. स्पर्धा (Competition): किशोरावस्था में ईर्ष्या की भाँति स्पर्धा भी किसी व्यक्ति के प्रति होती है। प्रायः ईर्ष्या किसी व्यक्ति से होती है तो स्पर्धा उस व्यक्ति की चीजों से होती है । किशोर चाहते हैं कि उनके पास भी उतनी चीजें हों जितनी उनके मित्रों के पास हैं बल्कि यह भी चाहते हैं कि उनकी चीजें उनके मित्रों से अधिक अच्छी हो। जब किशोर दूसरों की चीजों से स्पर्धा करता है तब वह इस बात को छिपाने की बजाय इसे अपना दुर्भाग्य जानकर दूसरों को भाग्यशाली समझते हैं और उनके भाग्य से ईर्ष्या करने लगते हैं।

5. हर्ष अथवा प्रसन्नता (Joy or happiness): हर्ष अथवा प्रसन्नता एक सामान्य संवेगात्मक अवस्था है। जब किशोर अपने मनचाहे कामों में सफलता प्राप्त कर लेते हैं तथा काम करने के बाद अपनी श्रेष्ठता का अनुभव करते हैं तब उन्हें हर्ष अथवा प्रसन्नता होती है। हर्ष एवं प्रसन्नता को वह मुस्कराकर या हँस कर प्रकट करते हैं । जैसे-जैसे आयु बढ़ती है वैसे-वैसे किशोरों में मुक्त हँसी से हँसना कम होता जाता है।

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6. स्नेह (Affection): किशोरावस्था में स्नेह एक आत्मसात् करने वाला संवेग है जो किशोरों को बराबर उस व्यक्ति या उन व्यक्तियों के साथ में रहने के लिए प्रेरित करता है जिनके प्रति उसका स्नेह सबसे गहरा होता है। किशोर सदैव अपने स्नेह के पात्र की सहायता करने के लिए तत्पर रहता है। जैसे-जैसे किशोरों की आयु बढ़ती है यह कदाचित आवश्यक नहीं है कि उनका स्नेह किसी एक व्यक्ति पर केन्द्रित हो अपितु उनका स्नेह मित्रों की छोटी-सी मंडली के प्रति या माता-पिता, भाई-बहन में किसी एक के प्रति गहरा हो जाता है।

प्रश्न 3.
किशोरावस्था में सामाजिक विकास विस्तार से लिखें।
उत्तर:
किशोरावस्था में सामाजिक विकास (Social development in adolescence): विभिन्न सामाजिक क्रियाओं के फलस्वरूप होने वाले विकास को सामाजिक विकास कहते हैं। जैसे-जैसे आयु बढ़ती है वैसे-वैसे किशोरों के व्यवहार में सामाजिकता की वृद्धि आती है। व्यक्ति को सम्पूर्ण जीवन में जितने सामाजिक समायोजन करने पड़ते हैं उनमें से सबसे कठिन समायोजन वे होते हैं जो किशोरावस्था में करने पड़ते हैं।

मित्रों के समूह का महत्त्व (Importance of peers group): आयु वृद्धि के साथ-साथ किशोरों का सामाजिक दायरा (Social Circle) भी बढ़ता जाता है। सर्वप्रथम किशोर को अपने समूह में स्वीकृत होने की इच्छा तथा इससे वह समूह के द्वारा अनुमोदित तरीके से अनुपालन की हर तरह की जो कोशिशें करता है उनके कारण समाज का उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव बढ़ जाता है।

अपने समूह द्वारा स्वीकृत किशोरहीनता की भावना से दूर हो जाता है। धीरे-धीरे किशोरों की रुचियाँ एवं अनुभव और विशाल होते जाते हैं जिससे वह एक से अधिक समूहों से सम्बन्ध रखता है तथा कई बार समूह निर्माण भी करता है। किशोर प्रायः अपने समवयस्कों के साथ की आवश्यकता अनुभव करता है और उनके साथ उसे सुरक्षा की भावना प्राप्त होती है।

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लड़कों के समूह बड़े होते हैं तथा लड़कियों के समूह छोटे होते हैं। किशोरावस्था में सम्बन्धों में घनिष्ठता भी आती है और अनेक विश्वासपात्र मित्र भी बनते हैं जिनकी संख्या में धीरे-धीरे बढ़ोत्तरी होती है। अब किशोर अपना अधिक समय इन्हीं मित्रों के साथ व्यतीत करते हैं और इन्हीं घनिष्ठ मित्रों के छोटे-छोटे समूह को मंडलियाँ कहते हैं। मंडलियों के सदस्यों की रुचियाँ एवं योग्यताएँ समान होती हैं और जहाँ तक सम्भव होता है वह अपना अधिक से अधिक समय एक साथ बिताते हैं। उत्तर किशोरावस्था में मित्रों के चयन पर अधिक महत्त्व दिया जाता है। धीरे-धीरे मित्रों की संख्या कम होती जाती है और परिचितों के समूह की संख्या बढ़ती जाती है।

किशोरावस्था के आगमन के साथ ही किशोरों की प्रवृत्ति परिवार के बाहर अपने साथियों की ओर जाने की हो जाती है। प्रायः साथियों के समूह की स्वीकृति उसके लिए माता-पिता से भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाती है। अत: किशोर को समझने के लिए उसके साथियों को समझना आवश्यक है। साथियों का समर्थन, स्वीकृति एवं प्रशंसा पाने के लिए किशोर सदाचार का उल्लंघन तक करते हैं। अतः किशोरों का व्यक्तित्व बहुत कुछ उनके मित्रों के व्यक्तित्व के ऊपर निर्भर करता है जिसके बारे में पूर्ण जानकारी रखी जाए अन्यथा कई बार गलत मित्रों की कुसंगति के कारण उनके व्यवहार पर बुरा प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 4.
विषमलिंगियों में रुचि से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
विषमलिंगियों में रुचि (Interestin other sex): किशोरों में धीरे-धीरे विषमलिंगियों के प्रति आकर्षण एवं रुचि उत्पन्न होती है। इस रुचि का विकास निम्नलिखित तीन अवस्थाओं में होता है:

  1. स्वप्रेम (Auto erolism)
  2. समलिंगीय प्रेम (Homo sexuality)
  3. विषमलिंगीय प्रेम (Hetro sexuality)।

प्रारम्भ में किशोर अपने से ही प्रेम करने लगते हैं जो कि एक स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इसके पश्चात् लड़के व लड़कियाँ दोनों में ही किसी बड़े अपने ही लिंग के व्यक्ति के प्रति स्नेह उत्पन्न होता है। प्रायः यह स्नेह ऐसे व्यक्ति के प्रति होता है जिसे किशोर जानता है, जिससे उसका व्यक्तिगत सम्पर्क है तथा जिसके गुणों एवं व्यक्तित्व से वह अत्यन्त प्रभावित होता है और भविष्य में उस व्यक्ति जैसा बनना चाहता है। वह अनजाने ही अपने आपको उस व्यक्ति के समरूप (Identify) मानने लगता है और उसका अनुयायी बन जाता है। वह व्यक्ति उसका शिक्षक, उसके किसी मित्र के परिवार का सदस्य अथवा कोई नेता या अभिनेता भी हो सकता है।

किशोर में उस व्यक्ति के अनुकरण करने की प्रबल इच्छा के साथ-साथ उसके साथ रहने की, उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की इच्छा बनी रहती है। यह स्नेह एवं नायक पूजा चौदह वर्ष की आयु के आस-पास अपनी पराकाष्ठा पर होती है किन्तु जैसे-जैसे किशोर की आयु बढ़ती जाती है वैसे-वैसे उसकी बड़े आयु के व्यक्तियों में रुचि समाप्त हो जाती है और उसकी जगह अपनी सम आयु वाले विषमलिंगीय व्यक्तियों में रुचि हो जाती है। आरम्भ में लड़कियाँ किसी भी लड़के की ओर आकर्षित हो जाती हैं और लड़के भी किसी एक विशेष लड़की की बजाय उन सभी लड़कियों से आकर्षित हो जाते हैं जो उनके सम्पर्क में आती हैं।

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पन्द्रह वर्ष की आयु होने तक लड़कियाँ प्रायः अपनी आयु के लड़कों में निश्चित रूप से रुचि लेने लगती हैं परन्तु इसके विपरीत लड़के अब भी लड़कियों की उपस्थिति में झेंपते एवं संकोच करते हैं। लड़कियों का लड़कों के प्रति आकृष्ट होना, लड़कों का ध्यान अपनी ओर खींचने की चेष्टा करना तथा लड़कों का अलग रहना . प्रायः लड़कियों व लड़कों की लैंगिक विकास में भिन्नता का कारण होता है। 16-17 वर्ष की आयु में लड़के भी लड़कियों की ओर आकृष्ट होने लगते हैं और कुछ लड़के लड़कियों के साथ हमजोली ‘ बना लेते हैं। विषमलिंगियों को आकर्षित करने की इच्छा होते हुए भी प्रायः इस आयु में किशोरों में एक झेंप होती है।

प्रश्न 5.
किशोरावस्था में सामाजिक विकास व्यक्तित्व पर कैसे प्रभाव डालता है ?
उत्तर:
किशोरावस्था में शारीरिक विकास के साथ-साथ सामाजिक विकास का भी बहुत महत्त्व है। किशोरावस्था में किशोर फिर से अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है। वह उन सभी गुणों को अर्जित करता है, जिनके द्वारा समाज में उसे सम्मान मिलता है। अगर वह इनको ग्रहण नहीं करेगा तो समाज में विभिन्न परिस्थितियों में समायोजन स्थापित नहीं कर पाएगा।

इसीलिए किशोरावस्था समाप्त होते-होते किशोर में सामाजिक परिपक्वता का आना आवश्यक है। आरम्भिक किशोरावस्था में किशोर संवेगात्मक रूप से अस्थिर होता है। वह घबराया हुआ होता है। मन ही मन वह किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में होता है जिससे वह अपने मन की बात कह सके। बहुत ही कम पाथियों से वह अपनी अंतरंग बातें कह पाता है।

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इस समय की दोस्ती उसके लिए महत्त्व रखती है। उसे अपना शरीर दूसरे परिवर्तनों के कारण अटपटा लगता है, इस कारण वह अन्तःमुर्ख हो जाती है। अपने ही लिंग के साथियों के साथ वह मित्रता करता है, विपरीत लिंगियों से; झेंपता व बचता है। उसका सामाजिक समायोजन बिगड़ जाता है। वह दबाब व तनाव की स्थिति में रहता है और समाज के लोगों के प्रति उसकी यह धारणा होती है कि वह उसे नहीं समझते हैं और उससे अनावश्यक अपेक्षाएँ रखते हैं जो वह पूर्ण करने में असमर्थ है। वह कुल दो-तीन अंतरंग मित्र ही बनाता है।

प्रश्न 6.
आज का किशोर एक उत्तरदायित्व प्रौढ़ किस प्रकार बन सकता है ?
उत्तर:
मित्रों, परस्पर लिंगों से मित्रता, परिवार, अध्यापक तथा समाज के उपयुक्त और आवश्यक संबंधों के विकास से ही आज का किशोर कल का एक उत्तरदायित्वपूर्ण प्रौढ़ बन सकता है। माता-पिता तथा अध्यापकों का स्थान पारिवारिक जीवन-शिक्षा के लिए अति महत्त्वपूर्ण है। उन्हें किशोरों को सही सूचना देने में किसी भी प्रकार की हिचकिचाहट महसूस नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार किशोर एक सकारात्मक प्रौढ़ बन जाएगा।

शारीरिक स्वास्थ्य और इन्द्रिय विकास के ज्ञान से ही किशोर को विवाह तथा पारिवारिक जीवन के बारे में पता लगता है। स्वास्थ्य, सफाई, शारीरिक रचना व क्रिया-विज्ञान, जननांगों के ज्ञान के बाद यौन व लैंगिकता के बारे में कोई भी गलत धारणा नहीं रहती बल्कि इससे विषम लिंगों के मेल-जोल के मूल्यों के बारे में भी उत्तरदायित्व आता है।

पारिवारिक जीवन शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है-जनसंख्या, शिक्षा और नियोजित पितृत्व। यही उचित समय है जब किशोरों को बच्चों में अन्तर रखना तथा परिवार नियोजन के बारे में बताया जाए। उन्हें यौन रोगों, जैसे एड्स के बारे में बताने का समय है। किशोरों को चाहिए कि वे सहनशीलता व धैर्य जैसे मूल्यों को अपनायें क्योंकि विवाह व पारिवारिक जीवन को सुखी बनाने के लिए ये जीवन-मूल्य अति आवश्यक हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 4 किशोरों में ज्ञानात्मक विकास

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 4 किशोरों में ज्ञानात्मक विकास Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 4 किशोरों में ज्ञानात्मक विकास

Bihar Board Class 11 Home Science किशोरों में ज्ञानात्मक विकास Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रसिद्ध स्वीस मनोवैज्ञानिक ‘जीन पियाजे’ के अनुसार सभी बच्चे जन्म से ही क्रिया से प्रभावित होते हैं –
(क) प्रतिक्रिया
(ख) स्कीमा
(ग) रचनात्मक
(घ) प्रतिनियोजन
उत्तर:
(ख) स्कीमा

प्रश्न 2.
ज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएं होती हैं
(क) 4
(ख) 6
(ग) 3
(घ) 5
उत्तर:
(क) 4

प्रश्न 3.
‘आत्मवाद की अवस्था’ (Egocentric Stage) कहते हैं –
(क) बाल्यावस्था
(ख) किशोरावस्था
(ग) युवावस्था
(घ) वृद्धावस्था
उत्तर:
(क) बाल्यावस्था

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प्रश्न 4.
संज्ञान या ज्ञान एक मानसिक प्रक्रिया है
(क) इसमें भाषा का विकास होता है
(ख) कल्पनाशक्ति का विकास होता है
(ग) स्मरणशक्ति का विकास होता है
(घ) इनमें से सभी सही है
उत्तर:
(घ) इनमें से सभी सही है

प्रश्न 5.
प्रतीक प्रत्ययों के लिए महत्त्वपूर्ण है
(क) ज्ञान या जानकारी के लिए
(ख) वस्तुओं के नाम के लिए
(ग) तंत्रों की व्यवस्था के लिए
(घ) वातावरण के लिए
उत्तर:
(ग) तंत्रों की व्यवस्था के लिए

प्रश्न 6.
स्वीस मनोवैज्ञानिक ‘जीन पियाजे’ के अनुसार सभी बच्चे ‘स्कीमा’ से प्रभावित होते हैं –
(क) बड़े होने पर
(ख) किशोर होने पर
(ग) जन्म से ही
(घ) वयस्क होने पर
उत्तर:
(ग) जन्म से ही

प्रश्न 7.
बाल्यावस्था में विकास की कितनी अवस्थाएँ हैं –
(क) तीन
(ख) पाँच
(ग) सात
(घ) चार
उत्तर:
(घ) चार

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
संज्ञान (Cognition) शब्द से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
‘संज्ञान’ वह मानसिक प्रक्रिया है जो विद्या को प्रयोग करने के लिए चाहिए। यह आयु के साथ-साथ विकसित होती है। इसका अर्थ है सोचना व समझना।

प्रश्न 2.
संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) की चार अवस्थाओं के नाम लिखें।
उत्तर:
जीन पियाजे नामक स्विस मनोवैज्ञानिक के अनुसार ज्ञानात्मक विकास की निम्नलिखित चार अवस्थाएँ हैं :

  • संवेदनशील अवस्था (Sensory motor stage)।
  • क्रिया से पूर्व अवस्था (Pre-operational stage)
  • साकार प्रक्रिया (Concrete operational stage)।
  • तात्त्विक प्रक्रिया (Formal operational stage)।

प्रश्न 3.
प्रत्यक्ष ज्ञान (Perception) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
किसी घटना को देखकर उसका अर्थ निकालने और अनुभव के अनुसार समझने को प्रत्यक्ष ज्ञान (Perception) कहते हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 4 किशोरों में ज्ञानात्मक विकास

प्रश्न 4.
प्रतीक (Symbol) क्या है ?
उत्तर:
किसी व्यक्ति, वस्तु या विचार को व्यक्त करने वाला चिह्न प्रतीक (Symbol) कहलाता है।

प्रश्न 5.
बुद्धि (Intelligence) के कितने स्तर हैं ? नाम लिखें।
उत्तर:
बुद्धि के तीन स्तर हैं जो निम्न हैं-(i) अमूर्त बुद्धि, (ii) सामाजिक बुद्धि, (iii) गायक अथवा यान्त्रिक बुद्धि।

प्रश्न 6.
मानसिक आयु (Mental age) से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
किसी व्यक्ति की मानसिक आयु उसके द्वारा प्राप्त विकास की वह अभिव्यक्ति है, जो उसके कार्यों द्वारा जानी जाती है तथा किसी आयु विशेष में उसकी परिपक्वता बताती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient) से क्या तात्पर्य है ? समझाएँ।
उत्तर:
प्रत्येक व्यक्ति में बुद्धि की निश्चित मात्रा होती है। व्यक्ति के पास उपलब्ध बुद्धि की मात्रा को बताने वाली संख्या को ‘बुद्धिलब्धि’ कहते हैं।
इसे निम्न सूत्र से निकाला जाता है –
Bihar Board Class 11th Home Science Solutions Chapter 4 किशोरों में ज्ञानात्मक विकास
बुद्धिलब्धि मानसिक योग्यता को दर्शाती है।

प्रश्न 2.
साकार प्रक्रिया (Concrete operational stage) वाले बच्चे की विशिष्टताएँ बताइए।
उत्तर:
लगभग सात वर्ष की आयु से बच्चे में सोच-विचार की प्रक्रिया के विकास का आरम्भ होता है। इस प्रक्रिया को साकार प्रक्रिया कहते हैं। यह सात से बारह वर्ष तक की आयु वाली अवधि होती है। इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ हैं :

  • संरक्षण में प्रवीण (Efficient Conservation): प्रत्यक्ष ज्ञान और तर्क के आधार पर निर्णय लेने की योग्यता होना।
  • बच्चा अपने से हटकर दूसरों के विचारों पर भी ध्यान देता है और उसकी आत्मकता में कमी आ जाती है।
  • श्रेणीबद्धता (Seriation): वर्गीकरण तथा संबंधात्मक विचार करने की योग्यता न करना।

प्रश्न 3.
औपचारिक प्रवृत्ति अवस्था या औपचारिक संक्रियाओं के दो लक्षण लिखें।
उत्तर:
किशोरावस्था औपचारिक प्रवृत्ति अवस्था (Formal Operational Stage) है। इसमें सोचना, समझना या विचार करना केवल वर्तमान या मूर्त सक्रियाओं से सम्बन्ध नहीं रखता अपितु काल्पनिक समस्याओं पर भी विचार-विनिमय होता है।
इसके दो लक्षण हैं –

  • व्यंग्य चित्र समझ पाने की क्षमता।
  • सैद्धान्तिक समस्याओं में रुचि व हल की क्षमता ।

प्रश्न 4.
मानसिक विकास के अन्तर्गत जिन योग्यताओं का होना आवश्यक है, उनके नाम लिखें।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक स्किनर (Skinner) के अनुसार मानसिक विकास हेतु निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है :

  • स्मृति (Memory)
  • कल्पना एवं आलोचनात्मक चिन्तन (Imagination and critical thinking)।
  • भाषा एवं शब्द भण्डार वृद्धि (Language or Vocabulary)।
  • प्रत्यक्षण (Percepts)।
  • संप्रत्न (Concepts)।
  • बुद्धि (Intelligence)।
  • समस्या समाधानिक व्यवहार (Problem solving behaviour), जिसमें वर्गीकरण (Classification), संबद्धता (Association), तर्क-वितर्क, अनुमान लगाना (Estimation) और निष्कर्ष पर पहुँचना (Inference) आदि सम्मिलित हैं। उपर्युक्त सभी योग्यताएँ व्यक्ति की बुद्धि पर निर्भर करती हैं और स्मृति के बिना बुद्धि का भी अस्तित्व नहीं।

प्रश्न 5.
किशोरावस्था में रुचियों में किस प्रकार के परिवर्तन आते हैं ?
उत्तर:
किशोरावस्था में शारीरिक एवं सामाजिक परिवर्तनों के कारण किशोरों की रुचियों में परिवर्तन आते हैं। किशोरों की रुचियाँ उनके लिंग, बुद्धि, वातावरण, योग्यताओं एवं परिवार व सम-वयस्कों की रुचियों पर निर्भर करती हैं। किशोरों की समस्त क्रियाओं को प्रभावित करने वाले दो घटक हैं-पर्यावरण एवं प्रारम्भिक अनुभव। बाल्यावस्था की रुचियाँ प्राय: व्यक्तिगत रुचियों पर निर्भर करती हैं, और आस-पास की जानकारी तक सीमित होती हैं, परन्तु किशोरों में यह सरल एवं सामान्य रुचियों, वैज्ञानिक बनती जाती हैं। पर्यावरण, बुद्धि, लिंगभेद, परिपक्वता, प्रशिक्षण आदि भी रुचियों की वृद्धि को प्रभावित करते हैं।

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प्रश्न 6.
किशोरावस्था में मनोरंजन की क्या आवश्यकता है ? [B.M. 2009A]
उत्तर:
किशोरावस्था में मनोरंजन का बहुत महत्त्व है। यह मानसिक तनाव से मुक्त होता है यह नई शक्ति उत्पन्न करता है। मनोरंजन से शारीरिक व्यायाम भी हो जाता है। संबंध को मजबूत बनाने में भी सहायता करता है । सामाजिक मनोरंजन क्रियाएँ समाज के प्रति और समय के महत्त्व को समझ कर आगे बढ़तने को प्रेरित करता है।

प्रश्न 7.
किशोर किन-किन विषयों में रुचि रखते हैं ?
उत्तर:
प्रायः किशोर की रुचियाँ तीन प्रकार की होती हैं :

  1. स्वयं से सम्बन्धित रुचियाँ।
  2. विद्यालय सम्बन्धी रुचियाँ।
  3. विद्यालय से बाहर की रुचियाँ।

1. स्वयं से सम्बन्धित रुचियाँ (Interest in Self-related activities): किशोरावस्था आरम्भ होते ही किशोर के मन में शारीरिक दिखावे की भावना जागृत होती है। वे सर्वोतम दिखने का प्रयत्न करते हैं व उनका अधिकांश समय अपने व्यक्तित्व को सुधारने में ही लगा रहता है । किशोरियाँ अपना अधिकांश समय साज-सज्जा में लगाती हैं, शरीर स्वच्छता, बोलने के ढंग व हाव-भाव की ओर विशेष सतर्क रहती हैं, जबकि किशोर अपने पुरुषार्थ को सिद्ध करने के लिए खेल-कूद पर अधिक ध्यान देते हैं।

2. विद्यालय सम्बन्धी रुचियाँ (School related Interest): किशोरावस्था में रोमांस एवं भावनाओं से भरे साहित्य की ओर रुचि विकसित होती है। जीवन चरित्र एवं यात्रा सम्बन्धी रुचियाँ बढ़ जाती हैं। अपने रुचि के विषय का अध्ययन करने की इच्छा बढ़ती है।

3. विद्यालय से बाहर की रुचियाँ (Interest in Outside School Activities): किशोरों की खेलों में रुचि बढ़ जाती है। सिनेमा, रेडियो, दूरदर्शन में भी रुचि बढ़ जाती है। किशोरावस्था में रुचियाँ अस्थिर होती हैं परन्तु उचित प्रेरणा, प्रोत्साहन, सामयिक सूचना एवं परामर्श द्वारा पूर्णतया विकसित की जा सकती हैं।

प्रश्न 8.
ज्ञानात्मक विकास में साकार प्रक्रिया (Concrete Operations) या मूर्त संक्रियाओं से क्या तात्पर्य है ? स्पष्ट करें।
उत्तर:
यह संज्ञानात्मक विकास प्रक्रिया की तीसरी अवस्था है। लगभग 7 से 12 वर्ष तक की आयु वाली अवधि में यह प्रक्रिया आरम्भ होती है। इस अवस्था में बच्चों में सोच-विचार की प्रक्रिया का विकास आरम्भ होता है। इस अवस्था में बच्चा संरक्षण में प्रवीण हो जाता है और प्रत्यक्ष ज्ञान और तर्क के आधार पर निर्णय लेने की योग्यता ग्रहण करता है। इस अवस्था में बच्चों की आत्मकेन्द्रिता में कमी आ जाती है और बच्चा कई दिशाओं में सोचने की क्षमता प्राप्त कर लेता है। दूसरों के विचारों के साथ तुलना करने में भी सक्षम हो जाता है। इससे बच्चा आत्मकेन्द्रित न रहकर कई प्रक्रियाएँ सोच सकता है।

धीरे-धीरे बच्चा क्रम परिमाण अर्थात् लम्बाई तथा आकार के अनुसार क्रम में जोड़ने की प्रक्रिया को प्राप्त कर लेता है। वह धीरे-धीरे श्रेणीबद्धता भी हासिल कर लेता है। इस अवस्था की एक उपलब्धि यह भी है कि बच्चा अलग-अलग गुणों में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमता भी अर्जित कर लेता है। यद्यपि साकार प्रक्रिया वाले बच्चों के तर्क प्रश्न हल करने से विकसित होते हैं परन्तु उनके विचार तात्कालिक साकार अनुभव तक ही सीमित रहते हैं। यहाँ बच्चे विवेचन विश्लेषण कर सकते हैं, परन्तु उनकी क्षमता जीवन की प्रत्यक्ष परिस्थितियों तक ही सीमित रहती है।

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प्रश्न 9.
किशोर अपने भविष्य के प्रति किस प्रकार की सतर्कता बरतते हैं ? स्पष्ट करें।
उत्तर:
किशोरों की भविष्य के प्रति रुचि इस प्रकार होती है कि उनका अधिकांश समय और विचार इनमें लग जाता है। बड़े किशोर के लिए जीवन में व्यावसायिक रुचि चिन्ता का विषय भी बन जाती है, जबकि वह अनिश्चित होता है कि वह क्या काम करना पसन्द करेगा और उसकी कार्य करने की क्षमता क्या है ? इस बारे में यह समझ जाने के बाद रहन-सहन के लिए कितने धन की आवश्यकता होती है, वह अपने व्यवसाय के चयन में अधिक व्यावहारिक तथा यथार्थवादी हो जाती है।

जीवन के व्यवसाय के चयन में दोनों लिंग एक-दूसरे से भिन्न रुचि रखते हैं। सामान्यतः जीवन के लिए लड़के जीवनपर्यन्त और लड़कियाँ विवाह के पहले तक के व्यवसाय को महत्त्व देती हैं। साधारणतया लड़कियाँ अंशकालिक कार्य करना चाहती हैं। व्यवसाय चुनाव के लिए आवश्यक कौशल या योग्यताएँ, किशोर की रुचियों को विकसित करने में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
साकार प्रक्रिया वाले बच्चे तात्त्विक प्रक्रिया वाले बच्चों से किस प्रकार भिन्न हैं ?
उत्तर:
साकार प्रक्रिया वाले बच्चों के विचार तात्कालिक साकार अनुभव तक ही सीमित रहते हैं, परन्तु बारह वर्ष की आयु से अधिक के बच्चे तात्त्विक प्रक्रिया के योग्य हो जाते हैं। इसमें किशोर दी हुई समस्या के हर संभव हल को सोचने की क्षमता रखता है। उसके विचारों का महत्त्व वास्तविकता से हटकर संभवता की ओर चला जाता है। वह सावधानी से, तर्कपूर्ण ढंग से, हर विकल्प को जाँचता है तथा सही विकल्प को चुनने की क्षमता रखता है।

निर्णय लेने से पहले वह सब सामान्य अनुमान सोच लेता है। किशोरों में प्रस्तावित विचार की भी योग्यता आ जाती है। वह मौखिक रूप से पूछे जाने वाले प्रश्न के उत्तर देने की योग्यता रखता है। इतना ही नहीं वह सुव्यवस्थित सोच-विचार की भी योग्यता रखता है। काल्पनिक स्थितियों के बारे में तर्क कर सकता है। मात्रिक, गुणात्मक और भावनात्मक तीन क्षेत्र हैं जो किशोरों को साकार प्रक्रिया अवस्था के बच्चों से अलग करते हैं।

प्रश्न 2.
बोधात्मक विकास (Cognitive Development) की चार अवस्थाएँ विस्तृत रूप से लिखें।
उत्तर:
प्याजे (Piaget) नामक मनोवैज्ञानिक ने बच्चों में बोधात्मक विकास का जो सिद्धान्त बताया है वह प्याजे का सिद्धान्त (Piaget’s Theory of Cognitive Development) के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार बच्चा किशोरावस्था के अंत तक चार मुख्य अवस्थाओं में बोध प्राप्ति करता है। यह चार अवस्थाएँ हैं –

  • संवेदी-प्रेरक अवस्था (Sensory motor stage)-0-2 वर्ष की आयु।
  • पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-operational stage)-2-7 वर्ष की आयु।
  • मूर्त-संक्रियाओं की अवस्था (Concrete-operational stage)-7-12 वर्ष की आयु।
  • औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Formal operational stage)-12 वर्ष से किशोरावस्था के अंत तक।

किशोरावस्था में बच्चा मूर्त सक्रियाओं की अवस्था से होकर औपचारिक संक्रिया की अवस्था में प्रवेश करता है। वह इस अवस्था के अनुसार अपने बोध का विकास करता है। बोधात्मक विकास के लिए यह आवश्यक है कि बच्चा अपनी इन्द्रियों द्वारा अपने संसार को महसूस कर अनुक्रिया करे और ज्ञान को प्रत्यक्ष रूप में जाने और महसूस करे अर्थात् प्रत्यक्षीकरण करे।

किशोरावस्था में बच्चा जिस तरह से अपने वातावरण में प्रत्यक्षीकरण करता है वह सब बाल्यावस्था के प्रत्यक्षीकरण के प्रारूप से सुधरा हुआ होता है। किशोरावस्था में बच्चा प्रत्येक बात के होने का कारण जानने की इच्छा रखता है कि जो भी कुछ हुआ, क्यों हुआ? किशोरावस्था में बोधात्मक विकास के लिए आवश्यक प्रत्यक्षीकरण की तीनं प्रवृत्तियों को आँका गया है जो निम्न हैं :

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1. यथार्थ के प्रति तीव्र भावना (Strong emotions for rightly felt concepts): इस अवस्था में आदर्शवाद (idealism) की भावना बहुत तीव्र होती है इसलिए बच्चे न्याय और औचित्य के बहुत पक्षपाती होते हैं। वे औचित्यपूर्ण व्यवहार का उल्लंघन करने वाले व्यक्तियों को चुनौती देने से भी नहीं घबराते हैं। वे उनकी आलोचना करते हैं और उनके दोहरे आदर्शों को सहन नहीं कर पाते। यदि किसी कारणवश वे अनौचित्यपूर्ण व्यवहार की आलोचना नहीं कर पाते तो उनके आदर्शों को ठेस पहुँचती है और वे अपने जीवन के यथार्थ से दूर होते चले जाते हैं।

2. शारीरिक, क्रियात्मक (गत्यात्मक) और प्राकृतिक परिवर्तनों तथा घटनाओं के बारे में प्रभावपूर्ण ढंग से सोचने के समय अस्थायी सम्बन्धों के उपयोग की क्षमता।

3. व्यापक पठन-पाठन, शैक्षिक उपलब्धि, घटनाओं, समस्याओं (राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक) विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में होने वाले विकासों को समझने की तीव्र इच्छा। रेडियो, टेलीविजन तथा सिनेमा के कार्यक्रमों में अधिक रुचि लेना। वैज्ञानिक ढंग से समस्याओं का हल करना। इस अवस्था में आत्म-मूल्यांकन में भी बहुत अधिकं रुचि उत्पन्न हो जाती है।

इसके अतिरिक्त किशोर प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति इत्यादि का भी सम्पूर्ण विश्लेषणं करने लग जाते हैं। इस अवस्था में मूर्त (concrete) परिकल्पनाओं से हटकर अमूर्त चिंतन करने लग जाते हैं। वह अपने विकसित ज्ञान तथा विकसित भाषा के आधार पर तर्क करने लग जाते हैं और सत्यता के प्रमाण तक पहुँचने की क्षमता उनमें विकसित हो जाती है।

प्रश्न 3.
किशोरावस्था में सामान्यतया पायी जाने वाली रुचियाँ (General Interests) कौन-कौन-सी हैं ?
उत्तर:
1. अपनी ओर अधिक ध्यान देना (Giving more attention towards self)इस अवस्था में बच्चा अपनी पोशाक, त्वचा, साज-संवार इत्यादि की ओर बहुत ध्यान देता है। शारीरिक परिवर्तन के कारण उसमें आंतरिक रूप से सुन्दर बनने की इच्छा जागृत हो जाती है। इस अवस्था में चूँकि वह अपना अधिक समय मित्रों के साथ व्यतीत करना पसन्द करता है इसलिए वह यह चाहता है कि वह सुंदर लगे और उसके अच्छे मित्र बने।

मित्र उसकी प्रशंसा करें और मित्रों द्वारा ही उसके अपने कार्यों को करने की प्रेरणा मिले। इस प्रकार अपनी ओर ध्यान देने के कारण उसमें आत्म-प्रयत्ल (Self-concept) तथा आत्म-विश्वास (Self-confidence) दोनों ही बढ़ते हैं।

2. इस अवस्था के बच्चों की रुचि खेल-खिलौने से हट कर अन्य बच्चों में हो जाती है। उन्हें यह जानने की उत्सुकता होती है कि जो परिवर्तन उनमें हो रहा है क्या वह अन्य बच्चों में भी हो रहा है। उन्हें यह भी जानने की उत्सुकता रहती है कि अन्य बच्चे परिवर्तन के परिणामस्वरूप आयी कठिनाइयों में किस प्रकार समायोजन (adjustment) करते हैं। उनका रुचि-क्षेत्र केवल मनोरंजन करने वाले साधनों तक ही सीमित नहीं रहता बल्कि जानकारी देने वाले साधन, जैसे-टीवी, रेडियो, अखबार, पत्रिकाएँ इत्यादि उनके जीवन का एक अंग बन जाती हैं।

3. प्रत्येक बात का विश्लेषण (analysis) कर तथ्य की जाँच करते हैं और सत्यता (Truth) पर पहुँचते हैं। बात की सत्यता को जाँचने के लिए वह तर्क-वितर्क (discussion) भी करते हैं। सामान्यदया जब वह तर्क करते हैं तो : नके तर्क को बहस कह कर रोक दिया जाता है । ऐसी स्थिति में उनका भाषा-विकास तथा मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।

4. उनकी बातों का दायरा अपने आस-पास के समाज की बातों से हटकर देश, राजनीतिक, आर्थिक, पारिवारिक, व्यावसायिक इत्यादि हो जाता है। इसके अतिरिक्त किशोरावस्था के अंत तक शारीरिक परिवर्तन में जिज्ञासा होने के कारण लड़के लड़कियों में रुचि लेते हैं और उनकी बातें करते हैं तथा लड़कियाँ लड़कों में रुचि लेती हैं और उनकी बातें करती हैं।

5. शारीरिक शक्ति अधिक होने के कारण वह चुनौतियाँ देते भी हैं और स्वीकार भी करते हैं। व्यक्तिगत भिन्नताओं वाली रुचियाँ (Varied interests)-इस अवस्था में कुछ बच्चे बैठकर करने वाले कार्यों, मानसिक कार्यों में अधिक रुचि लेते हैं तथा कुछ अपने पेशी-बल का प्रयोग होने वाले कार्यों में अधिक रुचि लेते हैं । इस अवस्था में बच्चों की व्यक्तिगत रुचियाँ कैसी होंगी यह उनके लिंग, वातावरण, समाज इत्यादि पर बहुत अधिक निर्भर करती हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 4 किशोरों में ज्ञानात्मक विकास

उदाहरण के लिए भारतीय समाज में किशोरावस्था में लड़कियाँ घर के कामों में रुचि लेने लग जाती हैं और लड़के घर से बाहर के कामों में रुचि लेते हैं। लड़कियाँ यदि घर से बाहर निकल कर समलिंगीय टोली में एकत्रित होती हैं तो वह किसी सभ्य स्थान पर ही एकत्रित होती हैं, असभ्य स्थान पर नहीं बल्कि लड़के रुचि-अनुसार कहीं भी एकत्रित हो सकते हैं।

आयु बढ़ने के साथ-साथ रुचियों में बदलाव (Changing interests): किशोरावस्था के अन्त तक रुचियों में बदलाव आना शुरू हो जाता है, जैसे विभिन्न व्यवसायों के लिए शैक्षिक योग्यता क्या होनी चाहिए ? उसका भविष्य क्या होगा ? (concern about future) आदि प्रश्न अब उसे अपनी ओर आकर्षित करते हैं। अन्त में यह कहा जा सकता है कि बच्चे की आयु तथा वातावरण बदलने के साथ-साथ उसकी आवश्यकताएँ भी बदलती जाती हैं और आवश्यकतानुसार उसकी रुचियों में परिवर्तन होता जाता है।

प्रश्न 4.
किशोरों के प्रत्यक्षीकरण की विशेषताएँ (Features of Perception) बताएँ। उत्तर-किशोरों के प्रत्यक्षीकरण की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:
1. विस्तार में अधिकता (More expanded knowledge): किशोरावस्था तक बालक .का वातावरण संबंधी ज्ञान काफी विकसित हो चुका होता है। वह अपने विभिन्न विकासों के माध्यम से आस-पास के वातावरणों के प्रति अपना दृष्टिकोण कायम कर लेता है।

2. उत्साह एवं प्रेरणा का न्यून महत्त्व (Less importance of gay & inspiration): वातावरण तथा अन्य विषयों के संबंध में बच्चों की जानकारी कम होती है। अतः उन्हें उत्साहित तथा प्रेरित करना आवश्यक होता है क्योंकि बिना उसके वे स्वतः रूप से ज्ञान प्राप्ति की कोशिश नहीं कर सकेंगे, परन्तु किशोरों में ऐसी बात नहीं होती है। वे स्वयं ही वातावरण की जानकारी की चेष्टा में रहते हैं। किशोर के प्रत्यक्षीकरण का विकास पहले से हुआ रहता है।

3. मूर्तिमान प्रत्यक्षीकरण की विशेषता (Direct Visual Characteristic): बालक के प्रत्यक्ष ज्ञान में दृष्टि मूर्ति (visual image) एवं श्रवणमूर्ति (auditory image) आदि का आधिक्य रहता है क्योंकि वह जिस किसी वस्तु को मूर्त रूप में देखता है उसे उसी प्रकार अपने मस्तिष्क में स्थान देता है, जैसे-कोई भी बच्चा हाथी कहने पर उसका आकार, डील-डौल आदि को मस्तिष्क में रखेगा। बच्चों के प्रत्यक्षीकरण में शब्दों के स्थान पर मूर्तियों या आकार की अधिकता रहती है। वही बच्चा अपने प्रत्यक्षीकरण के विकास के साथ-ही-साथ उसके वर्णन की क्षमता भी अपने में उत्पन्न करता जाता है।

4. भ्रम की विशेषता (Characteristics of doubt): अनुभव हो जाने के कारण किशोर का ज्ञान बाल्यकाल की अपेक्षा विस्तृत हो जाता है। अतः वह भ्रम से बहलाया नहीं जा सकता। जिस प्रकार बच्चे को खिलौने द्वारा बहला दिया जाता है किशोर को नहीं।

5. प्रत्यक्षीकरण की यथार्थता (Relevance of direct behaviour): किशोरों का ज्ञान · बच्चों की अपेक्षाकृत यथार्थ होता है। इस दिशा में माता-पिता और अभिभावकों को ध्यान देना . चाहिए कि उनके बालक या किशोर भ्रमपूर्ण अथवा यथार्थहीन ज्ञान के शिकार न बने।

6. विशेष वस्तु का ज्ञान (Knowledge of special objects): ज्ञान एवं अनुभव के आधार पर किसी विशेष वस्तु के प्रत्यक्षीकरण में अंतर पड़ जाता है। बालक के समक्ष पैंसिल कहने से वह अपनी ही पेंसिल समझता है क्योंकि अब तक वह अपनी पेंसिल को ही जानता है परन्तु यदि किशोरों के समक्ष पेंसिल कहा जाए तो वह इसका सामान्य अर्थ लेता है क्योंकि उसने बहुत सी पेंसिलें देखी हैं। उसका ज्ञान क्षेत्र विस्तृत है।

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7. पदार्थ का गुण (Property of Matter): किशोरों के प्रत्यक्षीकरण में स्थूल पदार्थों के साथ उनके सूक्ष्म गुणों का ज्ञान भी सम्मिलित रहता है।

8. ज्ञान की प्रकृति (Nature of Knowledge): ज्ञान दो प्रकार का होता है संश्लेषणात्मक (Synthetic) तथा विश्लेषणात्मक (Analytic) । मनुष्य का ध्यान सर्वप्रथम वस्तु के सम्पूर्ण आकार पर जाता है तथा उसके पश्चात् अन्य अंगों पर जाता है। प्रारंभिक क्रिया संश्लेषणात्मक है और बाद की प्रक्रिया विश्लेषणात्मक । किशोरों के ज्ञान में विस्तार होते-होते उनका विश्लेषण ज्ञान भी बढ़ता जाता है जो कि बाल्यकाल में अनुपस्थित रहता है। उदाहरण के लिए एक हवाई जहाज देखने पर बालक इसे मात्र हवाई जहाज मानता है जबकि एक किशोर इसके विभिन्न भागों, चालक का स्थान, चलाने की विधि, पहिए, पंख इत्यादि पर भी ध्यान देगा। अतः दोनों के प्रत्यक्षीकरण में ज्ञान की प्रकृति की दृष्टि से अंतर है।

9. तात्कालिक रुचि का संबंध (Relation of Immediate interest): रुचि के आधार पर भी किशोरों और बालकों के प्रत्यक्षीकरण में अंतर होता है। बालकों को केवल उन्हीं वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण होता है, जिनमें उनकी तात्कालिक अभिरूचि रहती है जैसे-मिठाई, गीत, खिलौने, पुष्प आदि।

प्रश्न 5.
साकार प्रक्रिया (Concrete Operations) की विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
लगभग सात वर्ष की आयु से बच्चे में सोच-विचार की प्रक्रिया का विकास आरम्भ होता है, जिसे आकार प्रक्रिया कहते हैं । यह सात से बारह वर्ष तक की आयु वाली अवधि है। इस अवस्था की मुख्य विशेषताएँ हैं –

  1. संरक्षण में प्रवीण
  2. आत्मकेन्द्रिता में कमी
  3. क्रमबद्धता
  4. श्रेणीबद्धता

1. संरक्षण में प्रवीण (Master in Conservation): साकार प्रक्रिया वाला बच्चा प्रत्यक्ष ज्ञान और तर्क के आधार पर निर्णय लेने की योग्यता प्राप्त करता है। बच्चे की यह योग्यता संरक्षितः। ज्ञान का प्रमाण है। पाँच वर्ष और आठ वर्ष के बच्चे को दो बर्तन क और ख दीजिए। बर्तन क चौड़ा है और ख संकरा है। क बर्तन में कोई द्रव, कुछ ऊँचाई तक डालिए। दोनों बच्चों को उस द्रव को ख बर्तन में डालने के लिए कहिए। द्रव की ऊँचाई बर्तन ख में अधिक होगी।
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दोनों बच्चों से पूछिए कि द्रव बर्तन ख में, बर्तन क से अधिक है, कम है या बराबर है। दोनों में से छोटे बच्चे का उत्तर ‘अधिक’ होने की आशा है जबकि बड़े बच्चे का उत्तर ‘बराबर’ होगा क्योंकि वह समझता है कि बर्तन को बदलने से द्रव उतना ही रहेगा। यह साकार प्रक्रिया के विकास का परिणाम है। ऐमी मानसिक योग्यता आने का अर्थ है कि एक ही दिशा में सोचने की शक्ति अब, कम होकर कई दिशाओं में जाने लगी है। इससे ही वह ज्ञान का संरक्षण कर सकता है।

2. आत्मकेन्द्रिता में कमी (Decline in Egocentrism): कई दिशाओं में सोचने की योग्यता बच्चे को अपने विचार की दूसरों के विचार के साथ तुलना करने में सहायता करती है। बच्चा यह समझता है कि किसी दूसरे का दृष्टिकोण उससे अलग भी हो सकता है। इससे पता चलता है कि बच्चा अपने ही विचारों से ग्रस्त है और वह कई प्रक्रियाएँ सोच सकता है।

3. क्रमबद्धता (Seriation): इस अवस्था की यह असाधारण विशिष्टता है कि बच्चों को कुछ वस्तुओं को किसी क्रम में जोड़ने की प्रक्रिया आसान लगती है । इस क्रम परिमाण से अर्थात् लम्बाई. साकार की कल्पना-शक्ति, परखने की शक्ति तथा अन्तर्दृष्टि सुधरती है। सोच-विचार की प्रक्रिया के विकास से व्यक्ति अड़ोस-पड़ोस के हालात को समझ सकता है तथा उसका समाधान कर सकता है। वह विगत स्थितियों की कमियों को दूर करता हुआ अगले मानसिक स्तर पर पहुँच जाता है।
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4. श्रेणीबद्धता (Class Inclusion): इस अवस्था में बच्चा आपस के संबंध भी समझना शुरू कर देता है। संबंध के अनुसार वह वस्तुओं को बांट लेता है। अगर उसे आठ मोती नीले रंग के तथा तीन मोती पीले रंग के दिये जाएँ तो उसे पता रहता है कि ये मोती दो रंगों में हैं परन्तु इनकी श्रेणी एक ही है। जैसे कई वस्तुओं में से उसे खाने की वस्तुएँ अलग करनी हों तो वह मोतियों को उसके बीच में नहीं गिनेगा जबकि केला, संतरा आदि को खुराक की श्रेणी में डालेगा।

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संबंधित विचार (Relational Thinking): इस अवस्था की एक और उपलब्धि है, अलग-अलग गुणों में पारस्परिक संबंध स्थापित करना। साकार प्रक्रिया की अवस्था वाला बच्चा समझ लेता है कि चमकीला, गहरा, हल्का आदि शब्द कोई संबंध पैदा करते हैं न कि पूरा गुण का वर्णन करते हैं। अगर बच्चे को तीन गुड़िया दी जाएँ और कहा जाए कि इन्हें कद के अनुसार जोड़ो तो पूरी आशा है कि वह यह एकदम ही कर लेगा। तुलना की इसी योग्यता को संबंधित विचार कहते हैं।
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प्रश्न 6.
संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
संज्ञानात्मक विकास को बहुत से तत्त्व प्रभावित करते हैं। हर व्यक्ति का यह विकास अलग-अलग गति व क्षमता लिये हुए होता है। संज्ञानात्मक विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व निम्नलिखित हैं :
1. संवेदना ग्रहण करने की शक्ति (Sensory Development): जितनी उसकी यह शक्ति तेज होती है वह उतना ही अधिक व शीघ्र वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त होता है।

2. क्रियात्मक हस्त व्यापार (Motor Manipulation): जिंतना वह वस्तुओं को छूता, तोड़ता-फोड़ता है उतना ही वह उनके प्रति सचेत होता है। असल में यह तोड़-फोड़ की क्रिया उसकी अपने वातावरण को पहचानने की प्रक्रिया होती है।

3. जिज्ञासु प्रवृत्ति (Curosity): जिन बालकों में जिज्ञासु प्रवृत्ति अधिक होती है वह अधिक-से-अधिक प्रश्न पूछते हैं। उनके प्रत्यय भी अधिक बनते हैं और उनका अधिक संज्ञानात्मक विकास होता है।

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4. प्रत्यक्ष व परोक्ष अनुभव (Concrete and Vicarious Experience): जिस तरह के अनुभव बालक को होंगे उसके प्रत्यय उन्हीं पर निर्धारित होंगे । जैसे अगर बालक बचपन में समाज द्वारा दुत्कारा जाता है तो वह समाज के प्रति नकारात्मक प्रत्यय बना लेगा। बड़े होने पर परोक्ष रूप में समाचार-पत्र, भाषण, टी० वी०, रेडियो आदि से वह कई अनुभव ग्रहण करके संज्ञानात्मक विकास करता है।

5. सीखने का अवसर (Opportunity for Learning): जिन बालकों को सीखने के अधिक अवसर प्राप्त होते हैं, उनका संज्ञानात्मक विकास तीव्र गति से होता है।

6. बुद्धि (Intellect): जो व्यक्ति जितना बुद्धिमान होगा उसका संज्ञानात्मक विकास उतना ही बेहतर होगा। वह अपने वातावरण को ज्यादा अच्छी तरह समझ सकेगा।

7.सामाजिक आर्थिक स्तर (Socio-Economic Status): इसका भी बालकों के प्रत्यात्मक ज्ञान के विकास पर प्रभाव पड़ता है। भोजन, वस्त्र, शिक्षा आदि के अन्तर से बालक के प्रत्ययों पर प्रभाव पड़ता है। गरीब परिवार के बालक के लिए भोजन रोटी-दाल तक सीमित है जबकि उच्च स्तर के परिवार के बालक भोजन में फल, दूध, अण्डा आदि को भी शामिल करता है। नौकर, फ्रिज, टी०वी०, एयरकंडीशन के प्रत्यय भी उच्च वर्गीय परिवार के बालकों में बनते हैं। निम्न स्तर के परिवार के बालकों में इन प्रत्ययों का निर्माण नहीं होता।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 2 किशोरावस्था को समझना

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 2 किशोरावस्था को समझना Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 2 किशोरावस्था को समझना

Bihar Board Class 11 Home Science किशोरावस्था को समझना Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरों के जीवन में किसका अधिक महत्त्व होता है ? [B.M.2009A]
(क) अध्यापक का
(ख) माता-पिता का
(ग) मित्रों का
(घ) समाज का
उत्तर:
(ग) मित्रों का

प्रश्न 2.
‘व्युबटि पीरियड’ किस अवस्था को कहते हैं ? [B.M. 2009A]
(क) 12-15 वर्ष
(ख) 10-12 वर्ष
(ग) 14-18 वर्ष
(घ) 20-22 वर्ष
उत्तर:
(क) 12-15 वर्ष

Bihar Board Class 11th Home Science Solutions Chapter 2 किशोरावस्था को समझना

प्रश्न 3.
लगभग 12 से लेकर 18 वर्ष तक के बीच की अवस्था को कहा जाता है – [B.M.2009A]
(क) किशोरावस्था
(ख) पूर्व किशोरावस्था
(ग) मध्य किशोरावस्था
(घ) उत्तर किशोरावस्था
उत्तर:
(क) किशोरावस्था

प्रश्न 4.
किशोरावस्था को कहा जाता है- [B.M.2889A]
(क) यौवनारंभ की अवस्था
(ख) ‘सुनहरी-अवस्था’
(ग) “टीन्स” अवस्था
(घ) पुरुषत्व की अवस्था
उत्तर:
(ख) ‘सुनहरी-अवस्था’

प्रश्न 5.
लड़कियों की अंतःस्रावी ग्रंथियों से हार्मोन उत्सर्जित होता है – [B.M.2009A]
(क) एस्ट्रोजन (Estrogen)
(ख) जाइनोस्ट्रोजन (Gynostrogen)
(ग) गोनडस्ट्रोजन (Gonadstrogon)
(घ) Rgtobulin
उत्तर:
(क) एस्ट्रोजन (Estrogen)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरावस्था को परिभाषित करें।
उत्तर:
किशोरावस्था (Adolescence) लैटिन भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है “परिपक्वता की दिशा में विकसित होना।” इसे (Teenage) भी कहते हैं. जो 13 -19 (ThirteenNineteen) वर्ष तक मानी जाती है।

प्रश्न 2.
यौवनारंभ (Puberty) से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
यौवनारंभ का शाब्दिक अर्थ है यौवन का आरम्भ अर्थात् विकास की वह अवस्था जिसमें अलिंगता समाप्त होकर लिंगता आ जाती है और बालोचित शरीर, दृष्टिकोण और व्यवहार पीछे छूट जाते हैं।

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प्रश्न 3.
“वृद्धि स्फुरण” (Growth Spurt) को स्पष्ट करें।
उत्तर:
वृद्धि स्फुरण (Growth Spurt) अर्थात् किशोर के कद व वजन में अत्यन्त तीव्र और आकस्मिक गति से वृद्धि होना है। इस अवस्था में शारीरिक परिमाण में भी परिवर्तन आता है। यह विकास या वृद्धि व्यक्तिगत होती है।

प्रश्न 4.
पूर्व किशोरावस्था की अवधि स्पष्ट करें।
उत्तर:
पूर्व किशोरावस्था 12 वर्ष से 15 वर्ष तक की अवधि को मानते हैं। यह जीवन का वह काल है, जिसे प्रायः तनाव व तूफान (Stress and Storm) की आयु कहा जाता है।

प्रश्न 5.
उत्तर किशोरावस्था (Late Adolescence) का तात्पर्य समझाएँ।
उत्तर:
उत्तर किशोरावस्था में 16 वर्ष से 18 वर्ष तक की अवधि सम्मिलित है। नव किशोर से अंतर स्पष्ट करने के लिए उत्तर किशोरावस्था में पहुँचे हुए लड़के-लड़कियों को सामान्यतः ‘युवक’, ‘युवती’ जैसे नाम दिए जाते हैं।

प्रश्न 6.
मोनेड्स (Gonads) से क्या तात्पर्व है ?
उत्तर:
गोनैड्स जननतंत्र की लिंग ग्रन्थि है। पुरुष गोनैडों को अंडं प्रन्थियाँ तथा स्त्री गोनैडों को अंडाशय कहते हैं। वे जन्म के समय से ही विद्यमान रहते हैं, परन्तु यौवनारंभ में ही गोनैड-प्रेरक हॉरमोन द्वारा सक्रिय किए जाते हैं।

प्रश्न 7.
वारंगखे मुखाशारीरिक परिवर्तन लिखें।
उत्तर;
यौवनबरंभ के क्षे मुख्य. शारीरिक परिवर्तन हैं:

  • द्रुत शारीरिक वृद्धि का वृद्धि स्फुरण जिसमें शारीरिक कद व वजन में अस्तमान्य व तीव्र मति से वृद्धि होती है।
  • शरीर के अनुपात में परिवर्तन-शरीर के अनुपात में परिवर्तन आता है। विभिन्न अंग समान गति से नहीं बढ़ते हैं।

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प्रश्न 8.
पाँच-छः किशोरियों के बीच रीवा दूसरों से काफी आमे निकल गई है। बाकी सबं उसका प्रतिवादन किस प्रकार करेंगी? कोई एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:

  • वह उपेक्षित की जाएगी व उसका मजाक बनाया जाएगा।
  • वह हीसें के रूप में मानी जाएगी अथवा स्वीकार की जाएंगी।

प्रश्न 9.
किशोरियां शारीरिक परिवर्तनों के प्रति संवेदन क्यों हो जाती हैं ? दो कारण दीजिए।
उत्तर:

  • लड़कियों में स्तनों का विकास (Breast Development in Girls)
  • ऊँचाई का बढ़ना (Height Eruption)।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अन्तर स्पष्ट करें : पूर्व किशोरावस्था तथा उत्तर किशोरावस्था।
उत्तर:
पूर्व किशोरावस्था (Early Adolescence):

  • यह 12-15 वर्ष तक की अवधि तक मानी जाती है।
  • यह जीवन के तूफान व तनाव की आयु है। माता-पिता व भाई-बहनों में अधिक संघर्ष हो जाता है व संवेगशीलता बचपन की अपेक्षा बढ़ जाती है।

उत्तर किशोरावस्था (Later Adolescence):

  • यह 16 – 18 वर्ष तक की अवधि तकमानी जाती है।
  • यह भी जीवन की एक संक्रमणकालीन अवस्था है। इसमें शारीरिक परिवर्तन पूर्णता को प्राप्त करते हैं। इस अवस्था में व्यवहार में अधिक परिपक्वता आ जाती है। इस अवस्था वाले युवक या युवती कहलाते हैं।
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प्रश्न 2.
यौवनारंभ (Puberty) में होने वाले चार प्रमुख शारीरिक परिवर्तनों की सूची बनाएँ।
उत्तर:
यौवनारंभ विकास की वह अवस्था है जिसमें अलिंगता समाप्त होकर लिंगता आ जाती है। इस अवस्था में बालोचित शरीर, जीवन के प्रति दृष्टिकोण और बालोचित व्यवहार पीछे छूट जाते हैं। इसमें होने वाले चार प्रमुख परिवर्तन निम्न हैं –

  • वृद्धि स्फुरण (Growth Spurt): इसमें कद व वजन में असामान्य व तीव्र गति से वृद्धि होती है।
  • अनुपात परिवर्तन (Changes in Ratio): समस्त अंगों में वृद्धि एक समान गति से नहीं होती।
  • मुख्य लैंगिक लक्षण (Primary Sex Characteristics): जननेन्द्रियाँ विकसित व ‘ कार्यशील हो जाती हैं।
  • गौण लैंगिक लक्षण (Secondary Sex Characteristics): गुप्तांगों के ऊपर बाल, बगल में बाल, आदि विकसित होते है।

प्रश्न 3.
नव किशोर की उचित वृद्धि हेतु आवश्यक दो प्रमुख कारकों का उल्लेख करें।
उत्तर:
किशोरावस्था में तीव्र विकास तथा वृद्धि हेतु आवश्यक दो प्रमुख कारक हैं :
1. सही पोषण (Proper Nutrition): किशोरावस्था पूरी वृद्धि की अवधि है। अगर आहार कम पोषक होगा तो किशोरों को वृद्धि हेतु पूरी ऊर्जा नहीं मिल पाएगी और कद सदा के लिए कम रह जाएगा। उचित मात्रा में व गुणवत्ता में पोषक तत्वों का होना अति आवश्यक है।

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2. उचित व्यायाम (Proper Exercise): उचित व्यायाम उचित वृद्धि हेतु अत्यन्त आवश्यक है। व्यायाम रक्त परिभ्रमण को बढ़ावा देता है। इससे सभी ऊतकों को उचित मात्रा में सही समय पर आवश्यक पोषक तत्त्व उपलब्ध होते हैं जो सही वृद्धि के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं।

प्रश्न 4.
पूर्व व उत्तर परिपक्वता (Early & late maturity) से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
गोनैडों की अतिक्रियाशीलता से या गोनैडों के हार्मोन की अत्यधिक मात्रा की प्राप्ति से जब यौवनारंभ समय से पूर्व आ जाता है तो पूर्वपरिपक्वता (Early maturers) या अकाल यौवनारंभ कहते हैं। गोनैडों के असामान्य विकास के कारण या पिट्यूटरी ग्रन्थि से गौनेड-प्रेरक हॉर्मोन की अपर्याप्त मात्रा मिलने के कारण, गोनैड हार्मोन अपर्याप्त मात्रा में निकलते हैं। इसमें यौवनारंभ होने में विलम्ब हो जाता है। इस स्थिति को उत्तर परिपक्वता (Late Matures) कहते हैं।

प्रश्न 5.
किशोरों के विकास में समकक्ष साथी समूह की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
समह के बिना हम मानव व्यवहार के सामाजिक रूप की कल्पना नहीं कर सकते। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और इसीलिए वह समूह में रहना पसन्द करता है। किशोरावस्था के आगमन के साथ ही किशोरों की प्रवृत्ति परिवार के बाहर अपने साथियों की ओर जाने की हो जाती है। प्रत्येक व्यक्ति को मित्र व सम्बन्धी चाहिए, जिससे वह मेल-जोल रख सके, स्नेह कर सके. तथा विश्वास कर सके। किशोरावस्था एक अच्छी अवधि है जिसमें मित्र, अधिक मित्र तथा अच्छे मित्र बनाए जा सकते हैं।

मित्रसमूह सम-आयु, योग्यता तथा सामाजिक स्थिति का वह समूह होता है जो आपस में नैतिक मूल्यों और रुचियों पर विचार करते हैं। यह मित्रसमूह किशोरों को अपनी पहचान देता है। हर सदस्य इस समूह का हिस्सा होता है, तथा यही उसकी पहचान है। समूह के सदस्य एक ही ‘अपनी’ तरह बोलते, सोचते, काम करते तथा व्यवहार करते हैं। एक दूसरों में पूरी दिलचस्पी रखते हैं। ईमानदार, सत्यवादी तथा विश्वासपात्र होते हैं। किशोर अपने मित्रसमूह के साथ काफी समय व्यतीत करते हैं। कला, संगीत, खेलकूद, परिवार, शैक्षिक तथा राजनैतिक विषयों पर विचार करते हैं व अपने मत प्रकट करते हैं।

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मित्रसमूह की गतिविधियों को पूरा सुरक्षित रखा जाता है तथा उनकी भनक पाना भी असम्भव-सा होता है। यह मित्रसमूह व्यक्तित्व का निर्माण करने में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है क्योंकि किशोर कोई भी समूह द्वारा अस्वीकृत किया जाने वाला कार्य नहीं करना चाहता, अत: वह उसके समूह द्वारा स्वीकृत व प्रेरित होकर ही कार्य करता है जो उसके भविष्य के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका निभाता है।

एक बुद्धिमान किशोर अपने मित्रों के चुनाव में विवेक का सहारा लेता है। अच्छा मित्र समूह चुनने से वह रचनात्मक कार्यों में प्रवीण होता है, आगे बढ़ता है तथा अपने उज्ज्वल भविष्य का निर्माण करने में सफल होता है।। इस प्रकार परिवार तथा मित्रसमूह के दबावों से बचते किशोर अपनी पहचान बनाते हुए आगे र जाते हैं।

प्रश्न 6.
किशोरावस्था में होने वाले किन्हीं तीन परिवर्तन क्षेत्रों के नाम लिखें। किसी। क क्षेत्र के महत्त्वपूर्ण लक्षणों का ब्यौरा दें।
उत्तर:
किशोरावस्था को तनाव व तूफान की अवस्था कहा जाता है क्योंकि किशोर के जीवन में तीव्रता से परिवर्तन आते हैं।
जिन तीन क्षेत्रों में परिवर्तन आते है, वे हैं –

  • शारीरिक (Physical)
  • संवेगात्मक (Emotional)
  • सामाजिक क्षेत्र (Social)।

शारीरिक परिवर्तन बहुत ही आकस्मिक व तीव्र गति से होते हैं।

  • प्रारम्भिक अवस्था में शरीर की ऊँचाई व भार तेजी से बढ़ता है तथा अनुपात में भी परिव न आता है। .
  • जननेन्द्रियों का विकास तीव्र गति से होता हैं जो कि यौन परिपक्वता का लक्षण है।
  • त्वचा कठोर व मोटी हो जाती है।
  • स्वर में परिवर्तन आता है। लड़कियों की आवाज सुरीली व लड़कों की भारी हो जाती है।
  • आन्तरिक अंगों के आकार में वृद्धि होती है।
  • पेशियाँ विकसित होती हैं।

प्रश्न 7.
किशोरावस्था में ‘विषमलिंगियों में रुचि’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
केशोरावस्था में लैंगिक रुचियों का विकास तीन अवस्थाओं में होता है। प्रारम्भ में किशोर अपने से ही प्रेम करने लगते हैं जो एक स्वाभाविक अभिवृत्ति है। इसके – यत् लड़ व लड़कियों में ऐसे व्यक्ति से प्रेम हो जाता है जिसका वह दूर से प्रशंसक होता तब उसे यक पूजा कहा जाता है। वह अनजाने ही अपने आप को उस व्यक्ति के समरूप मानने लगता है।

जैसे-जैसे किशोर की आयु बढ़ती जाती है उसकी बड़े आयु के व्यक्तियों में रुचि समाप्त हो जाती है। आरम्भ में लड़कियाँ किसी भी लड़के के व लड़का सभी लड़कियों के प्रति आकर्षित हो जाते हैं जो उसके सम्पर्क में आती हैं, परन्तु फिर भी वे झेंपते एवं संकोच करते रहते हैं। विषमलिंगियों को आकर्षित करने की इच्छा होते हुए भी प्रायः इस आयु में किशोरों में एक झेंप होती है।

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विषमलिंगियों में रुचि उत्पन्न होने के कारण वे उनका ध्यान खींचने के लिए बहुत कुछ करते हैं जैसे आंडबरपूर्ण हाव-भाव तथा भाषा, असाधारण पोशाक, बाल संवारने का असाधारण ढंग आदि। यौवनारंभ में उत्पन्न हुए शारीरिक परिवर्तनों की तीव्र जिज्ञासा अब कम हो जाती है। यदि उचित जानकारी मिले तो उसकी रुचि तो बनी रहती है परन्तु जिज्ञासा शांत हो जाती है। वह पथभ्रष्ट होने से बच जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
यौवनारंभ में होने वाले चार महत्त्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर:
यौवनारंभ विकास की वह अवस्था है जिसमें अलिंगता समाप्त होकर लिंगता आ जाती है। इस अवस्था में बालोचित शरीर, जीवन के प्रति दृष्टिकोण और बालोचित व्यवहार छूट जाते हैं। इसमें होने वाले चार प्रमुख परिवर्तन हैं:

  • वृद्धि स्फुरण (Growth Spurt): इसमें शारीरिक वृद्धि असामान्य व तीव्र गति से होने के कारण कद व वजन तेजी से बढ़ते हैं। लड़कियों में 11-15 वर्ष के बीच लड़कों में 13-18 वर्ष में यह वृद्धि तीव्रता लेती है।
  • शरीर के अनुपात में बदलाव (Changes in body proportion): शरीर में वृद्धि तो होती है परन्तु शरीर के समस्त अंग समान गति से नहीं बढ़ते।
  • मख्य लैंगिक लक्षणों का विकास (Development of SexualCharacteristics): यौवनारंभ में जननेन्द्रियाँ आकार में बड़ी हो जाती हैं और कार्य की दृष्टि से परिपक्व हो जाती
  • गौण लैंगिक लक्षण (Secondary Sexual Characteristics): सामान्य विकास क्रम में गौण लैंगिक लक्षण मुख्य लैंगिक लक्षणों से पहले आते हैं। जैसे गुप्तांगों के ऊपर बाल, बगल में बाल आदि।

प्रश्न 2.
समकक्ष साथीसमूह के किशोरों पर होने वाले दुष्प्रभाव की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य मूल प्रवृत्ति से सामाजिक अथवा मिलनसार प्राणी है तथा संगति में ही अधिक सुख महसूस करता है। किशोरावस्था एक अत्यन्त छोटी अवधि है जिसमें एक किशोर सारे तनाव और संघर्ष के बावजूद अपनी पहचान बनाने की चेष्टा करता है। मित्रसमूह या समकक्ष साथीसमूह किशोरों को अपनी पहचान देता है। किशोर अपने साथीसमूह के साथ काफी समय व्यतीत करता है। उसका प्रभाव भी किशोर पर काफी हद तक रहता है। समूह द्वारा उकसाये जाने पर कई बार किशोर वह कार्य भी कर जाता है जिसे वह स्वयं अनुचित समझता है।

जब किशोर अपनी स्वीकृति प्राप्त करने हेतु या बनाए रखने हेतु इतना आगे बढ़ जाए कि अपनी निजी रुचियों, अभिरुचियों तथा मूल्यों को रखने का अपना अधिकार भी खो दे तो वह एक प्रकार का आत्म समर्पण हो जाता है जिससे उसका अपना व्यक्तित्व भी बिखर सकता है। साथी समूह द्वारा अस्वीकृत होने पर किशोर अप्रसन्न व असुरक्षित महसूस करते हैं, विचारों को प्रतिकूल बना लेते हैं जिससे उनका व्यक्तित्व टूट सकता है।

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वे कई बार समूह पर अपने आपको थोपने का प्रयत्न करते हैं, जिससे समूह उन्हें और भी दुत्कारता है और वे और भी अपने आपको असुरक्षित महसूस करते हैं, विचारों को प्रतिकूल बना लेते हैं जिससे उनका व्यक्तित्व टूट सकता है। इस तरह वे सामाजिक कौशलों को सीखने के अवसर भी गँवा देते हैं। अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि समकक्ष साथीसमूह यदि रचनात्मक कार्यों में संलग्न न हों तो वह किशोर के व्यक्तित्व को छिन्न-भिन्न करके रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, परन्तु यदि रचनात्मक कार्यों में लीन हो तो वह व्यक्त्वि को विकसित करने में सक्षम हो सकता है।

प्रश्न 3.
किशोरावस्था में यौन परिवर्तनों का क्या प्रभाव होता है ?
उत्तर:
हमारे समाज में बालक व बालिकाओं को किशोरावस्था में होने वाले यौन परिवर्तनों की जानकारी नहीं होती। क्योंकि किसी घर या विद्यालय में इस विषय पर किसी प्रकार की चर्चा नहीं होती। वे इन परिवर्तनों से उत्पन्न होने वाली भावनाओं जैसे विषमलिंगी के प्रति आकर्षण आदि को समझ नहीं पाते। वे इन यौन विषयों और अपने में हो रहे नए परिवर्तनों को जानने की इच्छा रखते हैं लेकिन किसी से खुल कर बात भी नहीं करना चाहते।

इस जानकारी के लिए उन्हें अपने ही जैसे संगी-साथी मिलते हैं जो आधी अधूरी और कई बार तो गलत जानकारी देते हैं, जिससे उनके अन्दर यौन सम्बन्धी गलत धारणाएँ बन जाती हैं जो आगे जाकर उनके यौन जीवन को प्रभावित करती हैं।

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सेक्स के प्रति गलत दृष्टिकोण बनने से वे स्वस्थ यौन जीवन नहीं जी पाते हैं। इसके लिए बालकों को शरीर-विज्ञान, यौन परिवर्तनों का महत्त्व एवं गलत धारणाओं के नुकसान से परिचित कराना आवश्यक है। इससे किशोर व किशोरियों इन परिवर्तनों को सही रूप से ग्रहण करेंगे व गुमराह होने से बच जाएँगे और अपने को भावी जीवन के लिए तैयार कर पाएँगे। इसके लिए सही समय पर यौनशिक्षा देना आवश्यक है।

प्रश्न 4.
किशोर व किशोरियों के शारीरिक विकास में होने वाले चार प्रमुख अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
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प्रश्न 5.
सही शारीरिक (Right Physical Development) विकास के लिए कौन-कौन-से सहायक तत्त्व आवश्यक हैं ?
उत्तर:
किशोरों को अपने सही शारीरिक विकास के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान खना चाहिए:

1. शारीरिक विकास वह अवस्था है जब किशोर पूर्ण लम्बाई व शारीरिक गठन प्राप्त करते हैं। इस समय सही पोषण लेना बहुत आवश्यक है। पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद के लिए उन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। मांसपेशी विकास के लिए प्रोटीन व वसा की आवश्यकता होती है। हड्डियों के विकास के लिए कैल्शियम व विटामिन की आवश्यकता होती है।

बालिकाओं को मुख्य रूप से लोहे (Iron) की आवश्यकता होती है क्योंकि हर माह मासिक धर्म में काफी रक्त निकल जाता है। लोहा रक्त में हीमोग्लोबिन का निर्माण करता है। इसकी कमी से बालिकाएँ एनीमिया (रक्त की कमी) नामक रोग से ग्रस्त हो जाती हैं। इन सबके लिए किशोरों को अपने आहार में अनाज, दालें, ताजी सब्जियाँ, पत्तेदार सब्जी, दूध, दही, फल व सलाद का प्रयोग करना चाहिए। सन्तुलित भोजन लेने से उनका शारीरिक विकास भली-भाँति होगा।

2. शारीरिक विकास के लिए नियमित रूप से व्यायाम करना चाहिए। विद्यालय में होने वाले खेल-कूदों में भाग लेना चाहिए। आजकल ऐयरोबिक्स व योग काफी प्रचलित हो रहे हैं। बालिकाओं को भी किसी-न-किसी को अपनाना चाहिए। जैसे-बैडमिन्टन, टेनिस, रस्सी कूदना आदि।

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3. शारीरिक विकास के साथ-साथ अपने आस-पास या विद्यालय में होने वाले सामाजिक व सांस्कृतिक कार्यों में भी भाग लेना चाहिए। इससे आत्म विश्वास बढ़ता है और जो भय या चिन्ता मन में होती है उससे बचा जा सकता है। समूह में कार्य करने से आनन्द की भी प्राप्ति होती है।

प्रश्न 6.
किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएँ कौन-कौन-सी हैं ?
उत्तर:
किशोरावस्था की कुछ विशेषताएँ (Characteristics of Adolescence):

1. पूर्व किशोरावस्था में किशोर की स्थिति अस्पष्ट होती है (The place of Adolescent is incertain in adolescence): इस समय किशोरों को न तो बालकों में गिना जाता है न वयस्कों में। कभी उन्हें महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न करने को कहा जाता है तो कभी ‘अभी तुम बच्चे हो’ कह कर काम को मना किया जाता है। इससे वह समझ नहीं पाता कि उसकी स्थिति क्या है।

2. यह यौन विकास की अवस्था है (It is a stage of Sexual development): इसमें उसके प्रजनन अंगों का विकास होता है वह अपने को भावी जीवन के लिए तैयार करता है। इससे पहले वह स्वप्रेम (Self Love) की अवस्था से गुजरता है फिर सजातीय (Homosexuality) मित्रता से व आखिर में विपरीत लिंगियों की ओर आकर्षित होता है।

3. यह एक परिवर्तन की अवस्था है (It is a stage of change): इसमें किशोर बाल्यावस्था की आदतें छोड़कर नई आदतें व दृष्टिकोण अपनाता है और नए व्यक्तित्व का निर्माण करता है। वह परिपक्वता की दहलीज पर होता है।

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4. निश्चित विकास (Confirmed development): सभी किशोरों का विकास एक निश्चित प्रतिमान के अनुसार होता है। सभी किशोर पूर्व आरम्भिक किशोरावस्था में उत्सुक, असुरक्षित व उत्तेजित महसूस करते हैं। सभी का शारीरिक विकास अपनी चरम सीमा तक पहुँचता है।

5. किशोरावस्था संवेगात्मक उथल-पुथल की अवस्था है (Adolescent stage is a stage of emotional disturbance): किशोर संवेगात्मक रूप से बेचैन रहता है व उत्तेजना की स्थिति में रहता है।

6. किशोरावस्था सामाजिकता की अवस्था है (It is a musculine problem stage): किशोर समाज के प्रति नए दृष्टिकोणों का निर्माण करता है। नए सिरे से समाज के प्रति जागरूक होता है।

7. यह आदर्शवाद की अवस्था है (It is a stage of morality): किशोर अपने आदर्श बनाते हैं व उन पर चलने की कोशिश करते हैं।

8. यह एक समस्या बाहुल्य अवस्था है (Adolescent stage is a social stage): किशोर इस अवस्था में बहुत-सी समस्याएँ महसूस करता है। वह स्वयं अपने को समझ नहीं पाता। साथ ही सामाजिक दबाव को ग्रहण नहीं कर पाता । वह परेशान व अनिश्चित रहता है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 1 गृह विज्ञान का अर्थ तथा क्षेत्र 

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 1 गृह विज्ञान का अर्थ तथा क्षेत्र Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 1 गृह विज्ञान का अर्थ तथा क्षेत्र

Bihar Board Class 11 Home Science गृह विज्ञान का अर्थ तथा क्षेत्र Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत में गृह विज्ञान की शिक्षा देने का प्रबंध कब किया गया ?
(क) 1935
(ख) 1932
(ग) 1940
(घ) 1938
उत्तर:
(ख) 1932

प्रश्न 2.
गृह-विज्ञान की शिक्षा देने का प्रबंधन सर्वप्रथम कॉलेज में किया गया –
(क) लेडी इरविन कॉलेज
(ख) पटना यूनिवरसीटी
(ग) भागलपुर यूनिवरसीटी
(घ) नालंदा विश्वविद्यालय
उत्तर:
(क) लेडी इरविन कॉलेज

Bihar Board Class 11th Home Science Solutions Chapter 1 गृह विज्ञान का अर्थ तथा क्षेत्र 

प्रश्न 3.
प्रसिद्ध गृह-वैज्ञानिक (Home Scientist) ने रोजगार के विभिन्न अवसरों को दर्शाया
(क) श्रीमती ताराबाई
(ख) श्रीमती मंजू सिन्हा
(ग) श्रीमती अमृता राव
(घ) श्रीमती अल्का चौधरी
उत्तर:
(क) श्रीमती ताराबाई

प्रश्न  4.
गृह विज्ञान का शाब्दिक अर्थ –
(क) घर से संबंधित विज्ञान
(ख) समाज से संबंधित विज्ञान
(ग) देश से संबंधित विज्ञान
(घ) राज्य से संबंधित विज्ञान
उत्तर:
(क) घर से संबंधित विज्ञान

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
गृह विज्ञान का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
गृह विज्ञान का शाब्दिक अर्थ है “गृह से सम्बन्धित विज्ञान”। गृह विज्ञान वह शिक्षा है जो सबके लिए जीवन को मूल्यवान बनाती है।

प्रश्न 2.
गृह विज्ञान के अध्ययन से क्या लाभ है ?
उत्तर:
गृह विज्ञान के अध्ययन से हम स्वयं को अपने व्यक्तिगत तथा सामूहिक जीवन को निभाने के लिए तैयार करते हैं।

प्रश्न 3.
गृह विज्ञान का क्या लक्ष्य है ?
उत्तर:
गृह विज्ञान वह विज्ञान है जिसका लक्ष्य परिवार को सुखी तथा समृद्ध बनाना है।

प्रश्न 4.
गृह विज्ञान का व्यावसायिक क्षेत्र क्या है ?
उत्तर:
किसी भी स्तर तक गृह विज्ञान की शिक्षा लेने के पश्चात् विद्यार्थी संबंधित ज्ञान के अनुसार अपना व्यवसाय प्रारम्भ कर सकता है। इसके अतिरिक्त वह जीवन स्तर को उच्च करने के उद्देश्य से विषय में अनुसंधान कर सकता है। सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं में कार्यरत हो सकता है।

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प्रश्न 5.
गृह विज्ञान के अन्तर्गत मूल रूप से चार विषयों के नाम लिखें।
उत्तर:

  • आहार एवं पोषण विज्ञान (Foods & Nutrition)।
  • शिशु संरक्षा तथा विकास (Childcare & Development)।
  • गृह व्यवस्था (Home Management)।
  • वस्त्र विज्ञान एवं परिधान (Textiles &Clothing)।

प्रश्न 6.
‘अपने और अपने परिवार के लिए पोषण’ तथा ‘मेरी वेशभूषा’ पढ़ने के बाद आपने जो दो निपुणता पायी है उनके नाम लिखें।
उत्तर:
अपने और अपने परिवार के लिए पोषण पढ़ने के बाद निम्नलिखित दो निपुणता होनी चाहिए

  • घर में परोसा गया भोजन पौष्टिक है या नहीं यह जानने की क्षमता रखना।
  • भोजन की पौष्टिकता बढ़ाने की क्षमता

मेरी वेशभूषा पढ़ने के बाद दो निपुणता निम्नलिखित होनी चाहिए –

  • वस्त्रों के गुण व उनका प्रभाव।
  • वस्त्रों की देखरेख।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
गृह विज्ञान के उद्देश्य लिखें ? [B.M. 2009A]
उत्तर:
गृह विज्ञान जीवन और समाज में सामंजस्य स्थापित करती है यह परिवार के हर एक सदस्य की शारीरिक मानसिक भावनात्मक आवश्यकता को पूर्ण करती है।

प्रश्न 2.
गृह विज्ञान क्या है ? इसके अन्तर्गत किन-किन विषयों की शिक्षा दी जाती है ?
उत्तर:
गृह विज्ञान (Home Stub ice) अर्थात् ऐसा विज्ञान जिसमें गृह से सम्बन्धित सभी पहलुओं का वैज्ञानिक दृग म अध्ययन किया जाता है ताकि पारिवारिक जीवन का सुचारु एवं क्रमबद्ध रूप से संचालन किया जा सके। यह एक बहुत विस्तृत विषय है जिसमें चार विषयों का अध्ययन उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में रखा गया है :

  • शिशु संरक्षा तथा विकास (Childcare and Development)।
  • आहार एवं पोषण (Foods and Nutrition)
  • गृह व्यवस्था (Home Management)।
  • वस्त्र विज्ञान एवं परिधान (Textiles and clothing)।
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प्रश्न 3.
गृह विज्ञान अध्ययन के उद्देश्य स्पष्ट करें।
उत्तर:
गृह विज्ञान का हमारे जीवन में अत्यन्त महत्त्व है। यह विज्ञान व कला के अध्ययन हेतु बहुआयामी विषय है। यह एक व्यावहारिक विज्ञान है जो घर-गृहस्थी का चुनौतीपूर्वक दायित्व संभालने के लिए प्रत्येक युवा के लिए नितान्त आवश्यक है।
गृह विज्ञान विषय को अध्ययन के निम्नलिखित उद्देश्य हैं –

  • यह व्यक्ति के बहुमुखी विकास में सहायक है।
  • बाल विकास के अध्ययन द्वारा गृहस्थ जीवन की समस्याओं का विवेकपूर्ण ढंग से सामना करने की योग्यता प्राप्त कराता है।
  • पोषण विज्ञान के द्वारा कम-से-कम धन व्यय करके अधिक-से-अधिक पौष्टिक तत्त्व प्रदान कर उत्तम स्वास्थ्य बनाए रखने की जानकारी प्राप्त कराता है।
  • गृह व्यवस्था के अध्ययन द्वारा हम सीमित साधनों का प्रयोग कर अधिक से अधिक पारिवारिक लक्ष्यों की प्राप्ति करने की योग्यता हासिल कर सकते हैं। अपने अधिकारों व उत्तरदायित्वों के बारे में सतर्क हो सकते हैं। बजट बनाकर आर्थिक रूप से परिवार का सुसंचालन कर सकते हैं।
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  • गृह विज्ञान के अध्ययन द्वारा हम प्राथमिक चिकित्सा एवं गृह परिचर्या का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं जिससे आकस्मिक दुर्घटना के समय साहसपूर्ण ढंग से व्यक्ति की देखभाल की जा सके। अन्त में इसका अपना व्यावसायिक महत्त्व भी है जिससे हम अर्थोपार्जन भी कर सकते हैं।
  • वस्त्र विज्ञान व परिधान विषय का अध्ययन कर सही क्रय कर सकते हैं। वस्त्रों का उपर्युक्त रख-रखाव कर उनकी उम्र व नवीनता बढ़ा सकते हैं।

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प्रश्न 4.
एक राष्ट्र के विकास हेतु गृह विज्ञान का अध्ययन किस प्रकार सहायक है ?
उत्तर:
गृह विज्ञान का अध्ययन व्यक्ति के पूर्ण विकास में अहम् स्थान रखता है। इस शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ऐसा वातावरण बनाने में सहायता करना है जिससे लोग सुख से रह सकें और अपनी पारिवारिक आकांक्षाओं तथा अपेक्षाओं की अधिकाधिक पूर्ति कर सकें। सुखी, विकसित व समृद्ध घर ही एक स्वस्थ समाज की नींव है और एक स्वस्थ समाज राष्ट्र के विकास का प्रथम चरण है।

एक स्वस्थ व समृद्ध समाज से बना राष्ट्र भी सशक्त होगा। गृह विज्ञान के अध्ययन से लोगों में आपस में सहयोग से रहने की भावना पैदा हो सकती है। यह विषय केवल परिवार में सहयोग की भावना ही नहीं अपितु आस-पड़ोस के लोगों से सहयोग करना भी सिखाता है। इस प्रकार इस विषय का ज्ञान एक अच्छा नागरिक बनने में मदद करता है और एक अच्छा नागरिक ही अच्छा समाज और सशक्त राष्ट्र बनाता है।

प्रश्न 5.
गृह विज्ञान की शिक्षा प्राप्त करके आप कौन-कौन से व्यवसाय अपना सकती हैं ?
उत्तर:
गृह विज्ञान की शिक्षा कई व्यवसायों के लिए प्रशिक्षित करती है। जैसे –

  • बाल विकास का ज्ञान प्राप्त करके एक क्रेच खोली जा सकती है।
  • पोषण विज्ञान के अध्ययन द्वारा भोजन संरक्षण करके बेच सकते हैं, दफ्तर के लोगों के लिए बने बनाए भोजन का प्रावधान कर सकते हैं। एक कैन्टीन चला सकते हैं।
  • वस्त्र विज्ञान के अध्ययन द्वारा किसी गारमेन्ट फैक्टरी में नियुक्ति हो सकती है। छोटी-मोटी सिलाई की जा सकती है। फॉल आदि लगाने का काम लिया जा सकता है।
  • स्कूल, कॉलेज में खान-पान प्रबन्धक तथा औद्योगिक और तकनीकी संस्थाओं में अध्यापक के पद पर कार्य किया जा सकता है।
  • मिष्ठान्न, बेकरी, आहार उद्योग भी महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं।
  • घरों तथा होटलों में साज-सज्जा करने वाले।
  • नर्सिंग होम, स्वास्थ्य क्लबों तथा चिकित्सालकों में आहार-विशेषज्ञ।
  • अनुसंधान क्षेत्र में कार्य कर सकते हैं।

प्रश्न 6.
गृह विज्ञान की शिक्षा घर के वातावरण को सुधारने में किस प्रकार सहायक है?
उत्तर:
गृह विज्ञान अर्थात् ऐसा विज्ञान जिसमें गृह से सम्बन्धित सभी पहलुओं का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जाता है ताकि पारिवारिक जीवन का सुचारु एवं क्रमबद्ध रूप से संचालन किया जा सके। यह एक बहुत विस्तृत विषय है जो जीवन की गुणवत्ता को विकसित करने के लिए आवश्यक है। गृह विज्ञान परिवार को सुखी व समृद्ध बनाने में निम्न प्रकार से सहायक है :

  • पारिवारिक रहन-सहन के लिए व्यक्तिगत शिक्षा प्रदान करता है।
  • परिवार द्वारा प्रयोग किए जाने वाले साधनों का सुव्यवस्थित उपयोग सिखाता है।
  • पौष्टिक आहार किस प्रकार ग्रहण किए जाएं एवं किस प्रकार पारिवारिक स्वास्थ्य को ल’ रखा जाए इस बारे में ज्ञान बढ़ाता है।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
गृह विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र (Scope of Home Science) के बारे में विस्तार से चर्चा करें।
उत्तर:
गृह विज्ञान का अध्ययन क्षेत्र (Scope of Home Science):  वास्तव में गृह विज्ञान एक स्वतन्त्र विषय नहीं है। गृह विज्ञान विभिन्न सामाजिक एवं वैज्ञानिक विषयों का समन्वित रूप है जिसके अध्ययन द्वारा पारिवारिक जीवन को अधिक सुखी एवं खुशहाल बनाया जा सकता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि गृह विज्ञान केवल खाना-पकाना, सीना-परोना आदि तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसका अध्ययन क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है ।

गृह विज्ञान के अन्तर्गत मुख्य रूप से हम निम्नलिखित विषयों का अध्ययन करते हैं :

1. शरीर विज्ञान एवं स्वास्थ्य रक्षा (Physiology.and Health Science): गृह विज्ञान के इस विषय के अन्तर्गत हम मनुष्य के शरीर की रचना, विभिन्न अंगों की बनावट, विभिन्न संस्थानों, जैसे-पाचन संस्थान, रक्त परिसंचरण संस्थान, श्वसन संस्थान आदि की कार्य प्रणाली एवं महत्त्व, स्वास्थ्य रक्षा के आवश्यक नियमों (शारीरिक अंगों की स्वच्छता, व्यायाम, विश्राम) साधारण रोग व उनसे बचाव के उपायों का अध्ययन करते हैं।

2. आहार एवं पोषण विज्ञान (Food and Nutrition): गृह विज्ञान का यह विषय बहुत विस्तृत है.। इसके अन्तर्गत दोनों पक्षों आहार तथा पोषण से सम्बन्धित विभिन्न तथ्यों का अध्ययन किया जाता है। जैसे आहार के विभिन्न पोषक तत्त्व, उनके कार्य व कमी से होने वाले रोग, आहार आयोजन, भोजन पकाने की विभिन्न विधियाँ, आहार संरक्षण, उपचारात्मक पोषण आदि। गृह विज्ञान का यह विषय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति को इन सभी विषयों का ज्ञान होना अनिवार्य है।

3. गृह व्यवस्था एवं गृह कला (Home Management): गृह विज्ञान के अन्तर्गत गृह व्यवस्था एवं गृह कला विषय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अन्तर्गत घर तथा घर से सम्बन्धित समस्त कार्यों को उचित ढंग से करने, परिवार में उपलब्ध विभिन्न साधनों का उचित उपयोग, जैसे धन की. व्यवस्था, समय की व्यवस्था, श्रम की व्यवस्था आदि, घर की साज-सज्जा की संभाल एवं देख-रेख, विसंक्रमण एवं घरेलू जीव-जन्तुओं का नियन्त्रण, व्यवस्था की प्रक्रिया तथा परिवार में निर्णय लेने की प्रक्रिया के बारे में अध्ययन करते हैं। आज के युग में गृह व्यवस्था के अन्तर्गत एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण विषय है-उपभोक्ता शिक्षण। इसके अन्तर्गत इम प्रतिदिन उपयोग में आने वाली खरीदारी, मिलावट, व्यापारियों की कुचालों व उनसे बचाव तथा सरकार द्वारा लागू उपभोक्ता संरक्षण नियमों का अध्ययन करते हैं।

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4. बाल विकास एवं पारिवारिक सम्बन्ध (Child Development and Family Relations): गृह विज्ञान के इस विषय के अन्तर्गत शिशु के बहुमुखी विकास जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक एवं भावात्मक विकास का अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया जाता है। इसी विषय के अन्तर्गत परिवार के स्वरूप-संरचना, विशेषताओं, महत्त्व, कर्तव्यों एवं दायित्वों का अध्ययन भी किया जाता है।

5. प्राथमिक चिकित्सा एवं गृह परिचर्या (First Aid and Home Nursing): दैनिक जीवन में अनेक प्रकार की दुर्घटनाएं घटती रहती हैं। गृह विज्ञान का यह विषय हमें दैनिक जीवन में घटने वाली इन दुर्घटनाओं का साहसपूर्वक सामना करना, घायलों तथा रोगियों की सेवा एवं सुश्रूषा करना सिखाता है।
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6. वस्त्र विज्ञान एवं परिधान (Textiles and Clothing): गृह विज्ञान के इस विषय के अन्तर्गत हम विभिन्न प्रकार के वस्त्र उपयोगी तन्तुओं, वस्त्र निर्माण की विधियों, वस्त्रों की: परिसज्जा, वस्त्रों का रख-रखाव एवं संग्रह तथा वस्त्रों की धुलाई एवं स्वच्छता के बारे में अध्ययन करते हैं।

प्रश्न 2.
गृह विज्ञान की शिक्षा लड़के तथा लड़कियों के लिए क्यों महत्त्वपूर्ण है ? दो उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर:
गृह विज्ञान का शाब्दिक अर्थ है गृह से सम्बन्धित विज्ञान। अतः यह व्यवस्थित अध्ययन है जो घर के सभी पहलुओं को वैज्ञानिक तरीके से अध्ययन कर जीवन की गुणवत्ता को विकसित करने में सहायक है। अपने स्वास्थ्य को पौष्टिक आहार ग्रहण करके स्वस्थ रखना लड़के और लड़कियाँ दोनों के लिए आवश्यक हैं। गृह विज्ञान पोषण के बारे में सम्पूर्ण जानकारी देकर स्वास्थ्य को उत्तम बनाए रखने में सहायक हो सकता है।

यह एक सामान्य धारणा है कि गृह विज्ञान केवल लड़कियों के लिए है परन्तु आज के युग में जब महिलाएँ जीविका कमाने के लिए घर से बाहर निकलती हैं तब घर को सुव्यवस्थित ढंग से संभालने का उत्तरदायित्व पुरुषों पर भी आ जाता है। अतः गृह विज्ञान विषय केवल लड़कियों का विषय नहीं रह गया है, बल्कि इसकी आवश्यकता इतनी बढ़ गई है कि कई विद्यालयों में लड़के भी इस विषय में रुचि रखकर इसे पढ़ रहे हैं। वस्त्र मूलभूत आवश्यकता है। वस्त्रों को धोने व रख-रखाव की जानकारी दोनों के लिए ही आवश्यक है।

प्रश्न 3.
गृह विज्ञान का अध्ययन करने के बाद कार्य क्षेत्रों में नौकरी की क्या क्षमता है ?
उत्तर:

  1. एक प्रसिद्ध गृह वैज्ञानिक श्रीमती ताराबाई ने निम्नलिखित कार्यक्षेत्रों में नौकरी की क्षमता बतायी है :
  2. स्कूल, कॉलेज, खान-पान प्रबन्धक, औद्योगिक और तकनीकी संस्थाओं में अध्यापक के पद पर।
  3. चिकित्सालय, नर्सिंग होम तथा स्वास्थ्य क्लबों में आहार-विशेषज्ञ।
  4. होटल उद्योग में पाकशाला, गृहपाल तथा लोक सम्पर्क अधिकारियों के लिए।
  5. घरों तथा होटलों में साज-सज्जा करने वाले।
  6. वस्त्र उद्योग में नए-नए फैशन बनाने के लिए।
  7. मिष्ठान, बेकरी, शृंगार-सामग्री, धुलाई घर (लांड्री) तथा आहार उद्योग भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्यक्षेत्र हैं।
  8. क्रेच’ (Creche) कामकाजी स्त्रियों के लिए वरदान है। क्रेच प्रबन्धक, पालनहारी माँ के समान है तथा शिशु का पूरा ध्यान रखती है। बाल तथा परिवार कल्याण संस्था भी एक कार्यक्षेत्र है।
  9. स्नातक शिक्षा के पश्चात् आहार एवं पोषण विज्ञान, बाल विकास, आहार तथा चिकित्सालय व्यवस्था आदि विषयों में स्नातकोत्तर अध्ययन किए जा सकते हैं।
  10. गृह विज्ञान संबंधित क्षेत्रों में अनुसंधान की व्यवस्था भी है जो कि सामाजिक कल्याण की ओर सदा अग्रसर है।
    आज के समय में घर को व्यवस्थित ढंग से सम्भालने का उत्तरदायित्व पुरुषों तथा स्त्रियों पर बराबर-बराबर है। अतः गृह विज्ञान विषय का भौतिक ज्ञान लड़के तथा लड़कियों दोनों के लिए आवश्यक हैं।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

Bihar Board Class 11 Sociology पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय व्यवस्था Additional Important Questions and Answers

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

कार्ल माक्स – 1818 – 1833

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत संक्षेप में बताइए?
उत्तर:
मार्क्स का मत है कि “आज तक का मानव समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।” समाज में उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर शोषक का एकाधिकार होता है। इस वर्ग को बुर्जुआ अथवा पूंजीपति वर्ग भी कहते हैं दूसरी तरफ समाज का साधनविहीन वर्ग जिस श्रमिक वर्ग या सर्वहारा वर्ग भी कहते हैं, उत्पादन के साधनों से पूर्वरूपेण वंचित होता है।

इस वर्ग के पास अपने श्रम को बचने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। मार्क्स का स्पष्ट मत है कि पूंजिपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग के हित समान नहीं होते हैं। इन दोनों वर्गों के बीच हितों के अधार पर ध्रुवीकरण जारी रहता है। मार्क्स का मत है कि पूजीवाद के विनाश के बीच संघर्ष तेज हो जाता है। यह वर्ग संघर्ष अपने अंतिम बिंदु पर हिंसा में बदल जाता है।

प्रश्न 2.
द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की केन्द्रीय विषय-वस्तु बताइए।
उत्तर:
‘द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की रचना कार्ल मार्क्स तथा उनके सहयोगी एंजर में की। ‘द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की केन्द्रीय विषय-वस्तु वर्ग-संर्घष है। मार्क्स का दृढ़ मत है कि इतिहास समाजिक वर्गों संर्घष की श्रृंखला है । शोषक तथा शोषित अथवा श्रमिम वर्ग को सर्वहारा कहते हैं।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

प्रश्न 3.
“आर्थिक संगठन. विशेषतया संपत्ति का अधिकार समाज के शेष संगठनों का निर्धारण करता है।” मार्क्स के उक्त कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स का मत है कि पूंजीवादी समाज, जिसका आधार श्रमिकों का शोषण होता है, में उत्पादन के शाधनों तथा उत्पादित वस्तुओं के वितरण पर पूंजीपतियों अथवा संपन्न वर्ग का अधिकार होता है। इसे बुर्जुआ वर्ग भी कहते हैं।

दूसरी तरह श्रमिक अथवा सर्वहारा वर्म जिसे प्रोलिअयिट भी कहते हैं, आर्थिक साधनों पर नियंत्रण रखता है। श्रमिक वर्ग के पास अपने श्रम को बचने के अलावा कुछ नहीं होता है। पूंजीपति वर्ग श्रमिकों का शोषण करके मुनाफा कमाता है। इस प्रकार, संपन्न वर्ग सर्वहारा वर्ग का लगातार शोषण करता रहता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
बौद्धिक ज्ञानोदय किस प्रकार समाजशास्त्र के विकास के लिए आवश्यक है?
उत्तर:
मानव व्यवहार एवं मानव समाज के व्यवस्थित अध्ययन का आरंभ 18 वीं सदी के उत्तरार्द्ध के यूरोपीय र.माज में देखा जा सकता है। इस नए दृष्टिकोण की पृष्टभूमि, क्रांति तथा औद्योगिक क्रांति के परिपेक्ष्य में मानव समाज के अध्ययन को एक नई दिशा प्राप्त हुई। यूरोपीय समाज प्रखर प्रांसीसी चिंतकों की चेतना को निश्चित रूप से व्यक्ति किया गया है।

यह सुनिश्चित किया गया कि प्रकृति तथा समाज दोनों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जा सकता है। समाज की सभी मुख्य धारणओं-धर्म, समुदाय, सत्ता उत्पादन, संपत्ति, वर्ग आदि की नवीन व्यवस्थाएं होने लगीं। इतिहास के इसी स्वर्णिम समय में समाजशास्त्र का जन्म हुआ। ऑगस्त कॉम्टे ने समाजशास्त्र की स्थापना की।

प्रश्न 2.
औद्योगिक क्रांति किस प्रकार समाजशास्त्र के जन्म के लिए उत्तदायी है?
उत्तर:
राजनीतिक परिवेश का तख्ता पलट देने वाले किसी हिंसक विप्लव को ही क्रांति नहीं समझा जाता, बल्कि किसी भी क्षेत्र में, चाहे वह धार्मिक क्षेत्र हो या सामाजिक, यदि किसी सुधारात्मक, विश्वासात्मक, सांस्कृतिक या दार्शनिक परिवर्तन हो जाये तो उसे भी हम क्रांति ही कहेंगे। इंग्लैंड में जक तक यह ज्ञान नहीं हुआ था कि कोई भौतिक शक्ति ऐसी भी है जो यंत्रों को तीव्र गति से चला सकती है और वह यंत्र बनाये भी जा सकते हैं तथा उनसे मानव समाज द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं का उत्पादन पुराने ढर्रे से ही होता था, जिनका व्यापारिक महत्व शून्य ही था।

कुटीर उद्योगों के रूप में उनका निर्माण किया जाता था और स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो कुछ वस्तुएँ बचती थीं, उनके बदले अन्य आवश्यकताओं की वस्तुएँ भी प्राप्त की जाती थी परंतु आचनक जेम्सवाट ने जब भाप की भौतिक शक्ति को पहचाना तो उसने भाप से चलने वाला इंजन बना डाला और भी मशीनें बनाने के लिए लोहा तथा भापीय शक्ति प्राप्त करने के लिए कोयला प्राप्त हो गया। इसके बाद सन् 1970 तक इंगलैंड ऐसी स्थिति में आ गया कि वहीं वस्त्रोत्पादन मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर होने लगा।

अन्य उत्पादों में भी बढ़ोत्तरी हुई जो व्यापक स्तर पर तैयार होने लगे। उद्योग जगत में काफी उलटफेर हो गया जा इंगलैंड कभी अपने यहाँ उत्पादों के निर्यात की सोच भी नहीं सकता था, वह बहुत-सी वस्तुओं का निर्यातक देश बन गया। वहां भारी मशीनें बनी और बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हुए, जिनमें बड़ी संख्या में मजदूर कार्य करने लगे, इसी को औद्योगिक क्रांति कहा गया। सन् 1884 में सबसे पहले आरनोल्ड टायनबी ने इंग्लैंड के इस “औद्योगिक परिवर्तन को औद्योगिक क्रांति का नाम दिया।

नेल्सन का कहना है कि आद्योगिक शब्द इसलिये प्रयोग नहीं किया गया है कि परिवर्तनों की प्रक्रिया बहुत तीव्र थी, बल्कि इसलिये कि होने पर जो परिवर्तन हुए वे मौलिक थे।” औद्योगिक क्रांति ने ही वैज्ञानिक चिंतन तथा प्रहार बौद्धिक चेतना को नया आधार प्रदान किया। नए-नए मानवीय विषय जन्में, इनमें समाजशास्त्र भी एक था।

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प्रश्न 3.
क्या आप मार्क्स के इस विचार से सहमत हैं कि “ऐसा समय आएगा जब सर्वहारा वर्ग द्वारा बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंका जाएगा और एक वर्गविहीन समाज का निमार्ण होगा?” अपने विचार दीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स का संपूर्ण चिंतन वर्ग संघर्ष की धारणा पर आधारित है। मार्क्स का स्पष्ट मत है कि अब तक के मानव-समाज का इतिहास वस्तुत: वर्ग संघर्ष का इतिहास है। मार्क्स का यह कथन है कि सर्वहारा वर्ग एक दिन बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंखगा के संबंधों में निम्नलिखित बिंदु महत्वपूर्ण है:

(i) वर्ग संघर्ष-मार्क्स के अनुसार मानव जाति का इतिहास साधन संपन्न अथवा साधनहीनता का इतिहास है। सामंती तथा पूंजीवादी अवस्थाओं में व्यक्तिगत संपति की अवधारणा के कारण समाज में दो वर्ग आ गए है।

  • शोषक अथवा बुर्जआ वर्ग अथवा पूँजीपति वर्ग
  • शोषित अथवा सर्वहारा अथवा श्रमिक वर्ग

मार्क्स का मत है कि पूँजीवादी व्यवस्था अपनी अंतर्निहित दुर्बलताओं अथवा अंतर्विरोधों के कारण स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। वर्ग संघर्ष से वर्ग चेतना से आर्थिक हितों में द्वंद्व होगा तथा इसका बिंदु हिंसक क्रांति होगी। इसके बाद व्यवस्था में परिवर्तन हो जाएगा। पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर समाम्यवादी व्यवस्था हो जाएगी। यही कारण था कि मार्क्स ने आज तक के मानव समाज के इतिहास को “वर्ग-संघर्ष का इतिहास कहा है।”

(ii) सर्वहारा वर्ग की तानाशाही – कार्ल मार्क्स का मत था कि पूंजीवादी व्यवस्था के विनाश के बीज उसमें ही अंतनिहीत हैं। पूंजीवादी व्यवस्था का शोषण श्रमिकों में अंसतोष तथा जागरूकता को उत्तरोत्तर बढ़ाएगा तथा उन्हें हिंसक क्रांति के लिए बाध्य का देगा। मार्क्स का विचार था कि पूंजीवाद के विनाश के पश्चात् सर्वहारा वर्ग की तनाशाही अपरिहार्य है।

पूंजीवादी वर्ग सर्वहारा वर्ग की क्रांति को असफल बानाने के लिए षड्यंत्र तथा प्रतिक्रिांति का आलंबन कार सकता है। मार्क्स का मत था कि इस संक्रमण काल की स्थिति उस समय तक रहेगी, जब तक कि सामाजवादी व्यवस्था मजबूत न हो जाय। सर्वहारा वर्ग की यह व्यवस्था की यह व्यवस्था अल्पकालीन के पूर्ण विकास के बाद समाज में केवल एक वर्ग अर्थात् सर्वहारा वर्ग ही रह जाएगा

(iii) वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज की स्थापना-कार्ल मार्क्स का मत का था कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही पूंजीवादी व्यवस्था तथा पंजीपतियों को पूर्ण-रूपेण समाप्त कर देगी। इसके बाद समाज में कोई वर्ग व्यवस्था एक आदर्श व्यवस्था होगी । मार्क्स के अनुसार इस आदर्श साम्यवादी व्यवस्था, “प्रत्येक व्यक्ति अपनी पूर्ण योग्यता तथा क्षमता के अनुसार कार्य करेगा तथा अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुएँ लेना।”

प्रश्न 4.
उत्पादन के तरीकों के विभिन्न संघटक कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
मुनष्य उत्पादन के उपकरण या उत्पादन प्रणाली के द्वारा भौतिक वस्तुओं या मूल्यों कर उत्पादन करते हैं। उत्पादन करने में मनुष्यों की कार्यकुशलता व उत्पादन उपयोग होता रहता है। मनुष्य, उत्पादन अनुभव और श्रम कौशल आदि सब तत्व मिलकर तत्व मिलकर उत्पाद शक्ति का निर्माण करते हैं लेकिन यह उत्पादक शक्ति उत्पाद प्रणाली केवल कए पक्ष या (पहलू) का ही प्रतिनिधित्व करता है, जबकि उत्पादन प्रणाली का दूसरा पक्ष या पहलू उत्पादन संबंधों का प्रतिनिधित्व करता है।

भौतिक वस्तुओं या मूल्यों के उत्पाद में मनुष्य को प्रकृति से जूझना पड़ता है, संघर्ष करना पड़ता है, परंतु मनुष्य यह सब कुछ अकेले नहीं कर सकता है। उसे अन्य व्यक्तियों से मिल-जुलकर सामूहिक रूप से उत्पादान करना होता है। उत्पादन किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, वरन् प्रत्येक परिस्थिति और प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ मिलता-जुलता है, प्रयास करता है और किसी न किसी प्रकार के संबंधों को अन्य व्यक्तियों के . साथ स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उत्पादन के लिए व्यक्तियों की एक-दूसरे के प्रति क्रियाशीलता और कार्यों का आदान-प्रदान ही उत्पादन सम्बंधों का निर्माण करते हैं।

इस संदर्भ में श्री मार्क्स ने स्वयं लिखा हैं, “उत्पान में मावन केवल प्रकृति के साथ ही नहीं, वरन एक-दूसरे के ाथ भी क्रियाशील होता है । किसी न किसी प्रकार द्वारा ही वह उत्पान कार्य करते हैं । उत्पादन करने के लिए उन्हें एक-दूसरे से मिलने के लिए निश्चित संबंधों को बनाना होता है और केवल इन्हीं सामाजिक मिलन व संबंधों को बनाना होता है और केवल इन्हीं सामाजिक मिलन व संबंधों को बनाना होता है और केवल इन्हीं सामाजिक मिलन व संबंधों के अन्तर्गत ही उत्पादन कार्य चलता है।”
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प्रस्तुत चार्ट द्वारा उत्पादन प्रणाली को और सरलता व स्पष्टता से समझा जा सकता है-उत्पादन प्रणाली स्थायी या स्थिर नहीं रहती है, इनमें सदैव परिवर्तन व विकास होता रहता है। इस प्रकार उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होने के कारण ही सम्पूर्ण सामाजिक संरचना, विचार, कला, धर्म, संस्थाओं आदि में परिवर्तन होना आवश्यक हो जाता है। सच है कि विकास के विभिन्न स्तरों पर मानव भिन्न-भिन्न युगों या स्तरों में सामाजिक संरचना, आचार विचार प्रतिमान, संस्थाएँ धर्म-कर्म तक एक समान नही रहे। अतः यह कहना ठीक ही होगा कि समाज के विकास का इतिहास वास्तव में उत्पादन प्रणाली के विकास का इतिहास अथवा उत्पादन शक्ति और उत्पादन सम्बंधों के विकास का इतिहास है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अलगाव के सिद्धांत के प्रमुख तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अलगाव का अर्थ-अलगाव स्वविमुखता की स्थिति है। अलगाव के परिणामस्वरूप श्रमिक अपने कार्य से अलग हो जाते हैं। अलगाव की स्थिति उस समय उत्पन्न हो जाती है जब श्रमिक तथा उसके कार्य में संबंधों की श्रृंखला टुट जाती है। कोजर के अनुसार “अलगाव की स्थिति में व्यक्ति स्व-निर्मित शक्तियों द्वारा नियंत्रित होते हैं, जब उसका आमना-सामाना अलगावादी शक्तियों से होता है” इस प्रकार अलगाव का तात्पर्य है अपने ही लोगों तथा उत्पादन से पृथक हो जाना । एक पूंजीवादी व्यवस्था में अलगाव समस्त धार्मिक, आर्थिक तथा राजनैतिक संस्थओं के क्षेत्रों को नित्रित तथा प्रभावित करता है।

आर्थिक अलगाव तथा उसका प्रभाव – कार्ल मार्क्स के अनुसार विभिन्न प्रकार के अलगावों में आर्थिक अलगाव महत्त्वपूर्ण है। आर्थिक अलगाव व्यक्तियों की दैनिक गतिविधियों से संबंधित होता है। मार्क्स के अनुसार अलगाव की धारणा में निम्नलिखित चार पहलू महत्त्वपूर्ण होते हैं, जिनके कारण श्रमिकों में अलगाव की प्रकृति उत्पन्न होती है।

  • वस्तु जिसका वह उत्पादन करता है।
  • उत्पादन की प्रक्रिया।
  • स्वयं से।
  • अपने समुदाय के व्यक्तियों से।

उत्पादन की प्रक्रिया में श्रमिक की स्थिति एक आयामी व्यक्ति की होती है-श्रमिक अलगाव उस वस्तु में लगाए गए श्रम के साथ-साथ उत्पादन की प्रक्रिया से भी हो जाता है। इसके कारण स्वयं से भी अलगाव हो जाता है तथा उसके व्यक्तित्व के अनेक पक्षों का विकास नहीं हो पाता है। अलगाव की स्थिति में श्रमिक अपने कार्यस्थल पर सुख तथा शांति का अनुभव नहीं करता है। ऐसी विषम स्थिति में श्रमिक सदैव यह सोचता रहता है कि जिस कार्य को वह कर रहा है उसका संबंध अन्य व्यक्ति से है। श्रमिक अपनी पूर्ण क्षमता के द्वारा वस्तु के उत्पादन करता है। लेकिन वही वस्तु उससे पृथक् हो जाती है तथा इस प्रकार उसके शोषण की शक्ति बढ़ जाती है।

इसके कारण श्रमिक के मन में अपने कार्य तथा स्वयं की पूर्ति उदासिनतां तथा विमुखता उत्पन्न हो जाती है। हबैर्ट मर्कजे ने इन मनः स्थिति को एक आयामी व्यक्ति कहा है। कार्ल माक्स ने इस स्थिति को ‘पहिए का दांत’ कहा है। इस प्रकार उत्पादन की प्रक्रिया में श्रमिक की स्थिति में पूर्ण अलगाव उत्पन्न हो जाता हैं। उसका व्यक्तित्व तथा अस्तित्व दोनों ही शून्य हो जाती हैं। श्रमिक का स्वयं तथा अपने साथियों से अलगाव-मार्क्स का मत है कि विरोधी शक्तियों किसी श्रमिक को उसके उत्पादक के पृथक् कर देती है

  • पंजीपति जो उत्पादन प्रक्रिया को नयंत्रित करता है।
  • बाजार की स्थिति जो पूंजी तथा उत्पादन की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है।

श्रमिक द्वारा तैयार वस्तु किसी अन्य व्यक्ति से संबंधीत होती है तथा वह शक्ति उसे अपनी इच्छानुसार प्रयोग करने में स्वतंत्र होता है। इस प्रकार बजार में वस्तु के मूल्य में उतार-चढ़ाव तथा पूंजी की गतिशीलता श्रमिक पर विपरित प्रभाव डालते हैं। पूंजीपति लगातार शक्तिशाली होस चला जाता है। ऐसी स्थिति में श्रमिक का न केवल स्वयं से अपितु अपने साथियों से भी अलगाव हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

प्रश्न 2.
मार्क्स के अनुसार विभिन्न वर्गों में संघर्ष क्यों होते हैं?
उत्तर:
कार्लमार्क्स तथा एन्जिल्स कम्युनिष्ट घोषणा-पत्र में लिखते हैं, “आज तक प्रत्येक समाज शोषण तथा शोषित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है।”

कम्युनिष्ट घोषणा – पत्र में अंकित उपरोक्त शब्द मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त का आधार है। उत्पादन की प्रणाली के फलस्वरूप जो वर्ग बनते हैं, उनके कुछ निहित स्वार्थ होते हैं। जिस वर्ग के हाथ में उत्पादन के साधन होते हैं वह शोषक और शासक बनकर श्रमिक वर्ग को निर्बल बना देता है। आज का वितरण समान होने से एक वर्ग समस्त सम्पत्ति पर अधिकार करने का प्रयत्न करता है जिसके कारण विरोध उत्पन्न होने लगता है।

शोषित वर्ग में असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है। दोनों वर्गों के हितों में विरोध होने के कारण एक-दूसरे के प्रति घृणा और शत्रुता का भाव पनपता है और संघर्ष की प्राथमिक अवस्था उत्पन्न होती है। इस प्रकार वर्गों में संघर्ष होने से पहले वर्ग विरोध की अवस्था आवश्यक है, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक वर्ग विरोध, वर्ग-संघर्ष में परिवर्तित हो जाए। वर्ग-संघर्ष की अवस्था तभी उत्पन्न होती है, जबकि शोषित वर्ग अपने अधिकारों और आवश्यकताओं के प्रति जागरुक हो और उन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक आधार भी रखता हो।

शोषित वर्ग राज्य सत्ता के प्रयोग से इस शक्ति के दमन का प्रयन्न करता है। ऐसी स्थिति में शोषित वर्ग के लिए राज्य सत्ता पर अधिकार करना आवश्यक हो जाता है। अतः प्रत्येक वर्ग-संघर्ष एक प्रकार से राजनैतिक संघर्ष ही होता है। सत्तारूढ़ शोषक, वर्ग, धर्म, नैतिकता और राष्ट्रीयता के आवरण में अपने स्वार्थों को बचाने की चेष्य करता है किन्तु क्रांति हो जाती है। मार्क्स के विचार से वर्ग-संघर्ष मानव समाज में अनिवार्य सिद्धान्त के रूप में पाया जाता है। मानव समाज के प्रारम्भिक काल में मालिकों और दासों में संघर्ष, हुआ, जिसके फलस्वरूप दास प्रथा का अन्त हो गया किन्तु वर्ग-भेद चलता रहा।

सामान्तशाही युग में विरोध की चरम सीमा सामंतों और भूमिहीन किसानों के हिंसात्मक संघर्ष के रूप में प्रकट हुई। जागीदारों के शक्ति अर्धदासों अर्थात् कृषि मजदूरों के द्वारा समाप्त कर दी गई। वर्ग-संघर्ष शान्त हो गया पर समाप्त नहीं हुआ, क्योंकि वर्ग-भेद बना रहा है। सामन्त वर्ग का स्थान नवविकसित पूंजीपतियों ने ले लिया और दासों और किसानों का स्थान श्रमिकों ले ले लिया। व्यापारी, उद्योगपति, शोषक और शासक अधिक धनी बन गये तथा मजदूर वर्ग शोषित, शासित तथा निर्धन वर्ग. में धन पूंजी बन गया। वर्ग-भेद स्पष्ट हो गया और वर्ग-विरोध भी (अतः आज भी वर्ग-संघर्ष) समाप्त नहीं . हुआ । यह संघर्ष बुर्जुआ और सर्वहारा वर्गों के बीच है। मार्क्स का कथन है कि जब तक वर्ग रहेंगे, तब तक संघर्ष रहेगा। अतः वर्गों की समाप्ति ही मानव-संघर्ष की समाप्ति है।

एमिल दुर्खाइम – (1857-1917)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
‘समाजिक तथ्य’ क्या हैं ? हम उन्हे कैसे पहचानते हैं?
उत्तर:
दुर्खाइम के अनुसार समाजशास्त्र कुछ प्रघटनाओं के अध्ययन तक सीमित है। सामाजिक तथ्य किसी व्यक्ति विशेष के मस्तिष्क की उपज नहीं होते हैं। सामाजिक तथ्य स्वतंत्र होते हैं। सामाजिक तथ्य व्यक्तियों या सार्वभौमक मानवीय स्वभाव से पूर्णतः अप्रभावित रहते हैं। सामाजिक तथ्य विशिष्ट होते हैं। तथा इनकी उत्पति व्यक्तियों के सहयोग से होती है।

दुर्खाइम के अनुसार, सामूहिक प्रतिनिधि ही समाजिक तथ्य हैं। समाजिक तथ्य हमारे बीच होते हैं। हमें केवल इन्हें पहचानना होता है। इसके लिए हमें अपने आसापास के पर्यावरण पर दृष्टि रखनी चाहिए। समाज में क्या घटित हो रहा है? पूर्व परिस्थितियाँ क्या थौं? इन सभी बातों का तथ्य निकलकर आते हैं।

प्रश्न 2.
सामूहिक प्रतिनिधित्व का अर्थ स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
दुर्खाइम की सामूहिक प्रतिनिधित्व की धारणा सामाजिक तथ्यों के विशलेषण पर आधारित है। दुर्खाइम का मत है कि प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे विश्वास, मूल्य, विचारधारएं तथा आदि विद्यमान होती है जो समाज के सभी सदस्यों को मान्य होती है।

दुर्खाइम का मत है कि सामान्य विश्वास, मूल्य, विचारधारएँ तथा भावनाएँ किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित न होकर सामूहिक चेतना स उत्पन्न होती है। इन्हें समूह के सदस्यों के द्वारा स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार ये समूह का प्रतिनिधित्व करती है, अतः इन्हें सामूहिक प्रतिनिधान कहते हैं।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

प्रश्न 3.
दुर्खाइम के आत्महत्या के सिद्धांत का संक्षेपन में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एमिल दुर्खाइम ने आत्महत्या के मनोवैज्ञानिक आधारों को स्वीकार नहीं किया है। दुर्खाइम का मत है कि आत्महत्या की व्याखा एक रुग्ण समाज के संदर्भ में की जा सकती है। दुर्खाइम का मत है कि आत्महत्या के सिद्धांत को सामाजिक कारकों, जैसे सामाजिक दृढ़ता, सामूहिक चेतना, समाजिकता तथा प्रतिमानहीनता के संदर्भ में की जा सकती है।

प्रश्न 4.
पवित्र एवं अपवित्र में अंतर किजिए।
उत्तर:
दुर्खाइम ने श्रम विभाजन तथा आत्महत्या की भाँति धर्म को भी सामाजिक तथ्य स्वीकार किया है। दुर्खाइम न समाजिक जीवन के दो पहलू बताए है।

पवित्र तथा अपवित्र – दुर्खाइम का मत है कि धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं, विश्वासों तथा महत्त्वपूर्ण सामाजिक अवसरों से है प्रत्येक समाज में कुछ वस्तुओं को पवित्र समझा जाता है। पवित्र वस्तुओं की श्रेणी में धार्मिक ग्रंथ, विश्वास, त्योहार, पेड़-पौधे, भूत-प्रेत तथा दैवी सत्ता को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार ‘पवित्र’ में समाज के महत्त्वपूर्ण मूल्य निहित होते हैं। पवित्र वस्तुएँ संसारिक वस्तुओं से ऊपर होती हैं।

कुछ ऐसी वस्तुएं भी होती है जिनका महत्त्व उनकी उपयोगिता पर निर्भर करता है। इसके अंतर्गत संसारिकता के दैनिक कार्यों को सम्मिलित किया जाता है। इनमें उत्पादन की मशीनों, संपति तथा आधुनिक सामाजिक संगठन को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 5.
अंहवादी आत्महत्या के विषय में संक्षेप में लिखिए?
उत्तर:
अंहवादी आत्महत्या में व्यक्ति यह अनुभव करने लगता है कि सामाजिक परंपराओं द्वारा निश्चित भूमिका को वह निभाने में असफल रहा है। यह तथ्य उसकी प्रतिष्ठा तथा सम्मान के विपरित होता है। दुर्खाइम के अनुसार जब व्यक्ति को दूसरों से संबद्ध करने वाले बंधन कमजोर हो जाते हैं तो अहंवाद उत्पादन होता है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति द्वारा अपने अंह को महत्त्व दिया जाता है। इस प्रकार व्यक्ति समाज से समुचित रूप से एकीकृत नही हो पाता है। इस प्रकार परिवार, धर्म तथा राजनैतिक संगठनों में बंधनों के कमजोर हो जाने से अहंवादी आत्महत्या की दर में वृद्धि हो जाती है। जापान में हारा-किरी की प्रथा अहंवादी आत्महत्या का उपयुक्त उदाहरण है।

प्रश्न 6.
दुर्खाइम समाजशास्त्र को किस प्रकार परिभाषित करते हैं?
उत्तर:
दुर्खाइम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The Rules of Sociological Method-1895 में समाज शास्त्र की प्रकृति तथा विषय-वस्तु का विवेचन किया है। समाजशास्त्रीय अध्ययन में दुर्खाइम ने तथ्यपरक, वस्तुपरक एवं अनुभवी अध्ययन पद्धति पर विशेष बल दिया है। दुर्खाइम का मत है कि समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र प्रघटनाओं के अध्ययन तक सीमीत रहना चाहिए । इन्हीं घटनाओं कों दुर्खाइम ने सामाजिक तथ्य कहा है।

दुर्खाइम समाजशास्त्र को मनोविज्ञान के प्रभावों से दूर रखना चाहते हैं। वे समाजशास्त्र में उन्हीं प्रघटनाओं के अध्ययन पर जोर देते हैं जो व्यक्ति मस्तिष्क की उत्पत्ति है। इस प्रकार समाजशास्त्र जैसा दुर्खाइम ने कहा है कि सामाजिक संस्थाओं, उनकी उत्पत्ति तथा प्रकार्यत्मक शैली से संबंधित है।

प्रश्न 7.
दुर्खाइम ने संस्था को किस प्रकार परिभाषित किया है?
उत्तर:
दुर्खाइम ने एक व्यापक अर्थ में संस्था का निर्वाचन किया है। उसने संस्था का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि –

  • संस्था कार्य करने के कुछ साधन है।
  • निर्णय करने के कुछ उपाय हैं।

ये व्यक्ति विशेष से पृथक होते हैं तथा स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करते हैं। इस प्रकार संस्था को व्यवहार के समस्त विश्वासों तथा स्वरूपों को रूप परिभाषित किया जा सकता है जो सामूहिकता के द्वारा लागू होते हैं।

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प्रश्न 8.
एनोमिक आत्महत्या के विषय में संक्षेप बताइए।
उत्तर:
ऐनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनतामूलक आत्महत्या प्रायः उन समाजों में पायी जाती हैं जहाँ सामाजिक आदर्शों में अकस्मात् परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में समाज में वैयक्तिक विघटन की सामाजिक घटनाएँ बढ़ने लगती हैं। दुर्खाइम इस स्थिति को एनामी अथवा नियमविहीनता कहते हैं।

दुर्खाइम का मत है कि अत्यधिक विभिन्नीकरण, विशेषीकरण नियमविहीन श्रम विभाजन के कारण जैविकीय दृढ़ता की स्थिति में आशानुरूप, सामाजिक, सामूहिक चेतना तथा अन्योन्याश्रितता कमी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी विषम-स्थिति में व्यक्ति का समाज से अलगाव हो जाता है। दुर्खाइम के अनुसार ऐसी स्थिति में समाजिक मानक समाप्त हो जाते हैं। व्यक्ति में समाजिक स्थिति से उत्पन्न तनावों को सहन करने की क्षमता कम हो जाती है।

ऐसी स्थिति में व्यक्ति के समक्ष जब भी तनावपूर्ण स्थिति आती है तो उसका संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है तथा वह आत्महत्या कर लेता हैं। व्यापार में अनाचक घाटा तथा राजनीतिक उतार-चढ़ाव आदि के कारण व्यक्ति आत्महत्या कर लेते है। इस प्रकार समाज में एनोमिक अथवा नियमविहीनता की स्थिति उत्पन्न होने से आत्महत्याओं के दर में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 9.
भाग्यवादी आत्महत्या किसे कहते हैं?
उत्तर:
दुर्खाइम के मतानुसार समाज में अत्यधिक नियमों तथा कठोर शासन व्यवस्था के कारण भाग्यवादी आत्महत्याओं की दर में वृद्धि हो जाती है। दुर्खाइम ने भाग्यवादी आत्महत्या। का उदाहरण दास प्रथा बताया है। जब दास यह समझने लगते हैं कि उनका विषय स्थिति से छुटकारा असंभव है तो वे भाग्यवादी हो जाते हैं तथा आत्महत्या कर लेते हैं।

प्रश्न 10.
परसुखवादी आत्महत्या का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या में सामाजिक चेतना तथा सामाजिक दृढ़ता की मात्र अत्यधिक पायी जाती है।

  • दुर्खाइम के अनुसार परसुखवादी आत्महत्या में व्यक्ति में समाज के प्रति बलिदान की भावना पायी जाती है। देश की आजादी के लिए
  • प्राण न्योछावर कर देना या जौहर प्रथा परसुखवादी आत्महत्या के उदाहरण हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
‘यांत्रिक’ और ‘सावयवी’ में क्या अन्तर है?
उत्तर:
दुर्खाइम ने सामाजिक दृढ़ता के आधार पर समाज को दो भागों में विभाजित किया है।

  • यांत्रिक एकता पर आधारित समाज तथा
  • सावयवी एकता पर आधारित समाज

यांत्रिक एकता में व्यक्ति समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होता है। यांत्रिक एकता वाले समाज में समूह के सभी सदस्य समान विश्वास तथा भावनाएँ रखते हैं। समूह के सदस्यों के बीज सामूहिकता की भावनाएँ अत्यधिक प्रबल होती हैं। समाज में व्यक्तियों की चेतना की चेतना सामूहिक होती है। समुदाय के सदस्य परस्पर एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा नैतिक आदान-से संबंध रखते हैं। सामूहिक चेतना यांत्रिक एकता वाले समाजों में अत्यधिक सुदृढ़ होती है।

इस संदर्भ में दुर्खाइमे ने हिब्रू जनजाति का उदाहरण दिया है। ऐसे समाज में व्यक्तियों में समानता पायी जाती है। व्यक्तियों में विशेषीकरण या तो नाम मात्र का होता है या बिलकुल नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति या तो कृषक होगा या योद्धा। व्यक्तियों में सामान्य विचार पाये जाने के कारण अत्यधिक सुदृढ़ सामूहिक चेतना पयी जाती है।

यदि व्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना का उल्लंघन किया जाता है तो उस कठोर दंड दिया जाता है। वैयक्तिक स्तर पर सभी मत भेद गौण हो जाते हैं तथा व्यक्ति सामूहिक समग्र का अभिन्न अंग बन जाता है। सदस्यों में सामूहिक चेतना के साथ-साथ आज्ञापालक की सुदृढ़ भावना पायी जाती है। समाज में दमनात्मक कानून पाये जाते हैं। जनसंख्या का घनत्व भी कम पया जाता है।

सावयवी एकता वाला समाज यंत्र की तरह न होकर एक सजीव समाजिक तथ्य होता है। सपयवी एकता विभिन्न तथा विशिष्ट प्रकार्यों की व्यवस्था होती है। सावयवी एकता वाले समाज में व्यवस्था के संबंध समाज के सदस्यों के ऐक्यबद्ध करते हैं। सावयवी शब्द समाज की प्रकार्यात्मक अंतर्संबद्धता के तत्वों का संदर्भ प्रस्तुत करता है।

यांत्रिक एकता वाला समाज जनसंख्या के घनत्व के बढ़ने के साथ-साथ सावयवी एकता वाले समाज में परिवर्तित हो जाते है। श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ व्यक्ति पाररिक आवश्यकताओं के कारण प्रकार्यात्मक रूप से भी अंतर्संबधित होते हैं श्रम विभाजन की प्रक्रिया में जैसे-जैसे विशेषीकरण बढ़ता जाता है। वैसे-वैसे व्यक्तियों में अत्मनिर्भरता बढ़ती है। श्रम विभाजन में वृद्धि के कारण व्यवसायों में भी वृद्धि तथा विभिन्नता बढ़ती जाती है। दुर्खाइम में अनुसार “समाज की अवस्था में धीरे-धीरे में परिवर्तन होता है। परिवर्तन का क्रम यांत्रिक सामाजिक एकता से सावयवी एकता की ओर होता है तथा समाज में दमनकारी कानून के स्थान पर प्रतिकारी कानून आ जाता है”

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प्रश्न 2.
सामूहिक चेतना क्या है?
उत्तर:
सामूहिक चेतना की अवधारणा दुर्खाइम के चिंतन का केन्द्र बिन्दु है। दुर्खाइम का मत है कि सामाजिक एकात्मकता की उत्पति साझेदारीपूर्ण भावात्मक अनुभव से होती है। समाज में व्यक्तियों में समूहिक चेतना पायी जाती है। दुर्खाइम सामूहिक चेतना को विश्वासों तथा भावनाओं को स्वरूप मानते हैं, जो कि समाज के सदस्यों में औसतन रूप से समान रूप से पायी जाती है। सामूहिक चेतना वस्तुतः समुदाय के सदस्यों में उपस्थित वह भावना है।

जिसके कारण वे परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति तथा नैतिक अदान-प्रदान से संबद्ध होते हैं। दुर्खाइम कहते हैं कि यांत्रिक एकता वाले समाजों में सामूहिक चेतना आत्यधिक सुदृढ़ थी। इस संदर्भ में दुर्खाइम ने ओल्ड टेस्टामेंट की हिब्रू जनजाति का उदाहरण दिया है। ऐसे समाजों में अधिकतर व्यक्ति एक समान होते हैं। इसलिए उनमें सामूहिक चेतना अत्यधिक सृदृढ़ रूप में पायी जाती है। व्यक्तियों में विचार की उत्पति सामान्य अनुभवों से होती है। ऐसी स्थिति में सामूहिक चेतनाका उल्लघंन होने पर कानून द्वारा सख्त दंड का प्रावधान होता है।

प्रश्न 3.
सामान्य व्याधिकीय तथ्यों में अंतर बताइए?
उत्तर:
दुर्खाइम अपराध को सामन्य माना है। उनका विचार है कि सामान्य तथ्य स्वस्थ होते हैं तथा समाज की गतिविधियों में सहायक होते हैं। दुर्खाइम ने अपराध को एक सामान्य सामाजिक प्रक्रिया निम्नलिखित आधरों पर स्वीकार किया है –

(i) अपराध का किया जाना तथा उससे संबंधित दंड समाज के सदस्यों को समाज के मूल्यों तथा मानकों के विषय में बताते हैं। इस प्रकार समाज में समाजिक तादात्म्य कायम करने में सहायता करते हैं। इसके साथ-साथ सामाजिक मूल्यों तथा सीमाओं पर पुनर्बल दिया जाता है।

(ii) अपराध सामाजिक परिवर्तन की यांत्रिकी है। यह समान सामाजिक सीमाओं को चुनौती . दे सकता है उदाहरण के लिए सुकरात के अपराध ने एथेन्स के कानून को चुनौति दी तथा उसके कारण समाज में परिवर्तन आया।

दुर्खाइम ने बताया कि व्याधिकीय तथ्य सामान्य तथ्यों के विपरीत समाज की गतिविधियों में बाधा उत्पन्न करते हैं। इनके कारण समाज के कार्य में व्यवधान उत्पन्न होता है। दुर्खाइम के अनुसार, “जब अकस्मात् परिवर्तन होता है तो समाज के नियामक नियमों की आदर्शात्मक संरचना में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है, अत: यह व्यक्ति को ज्ञात नहीं होता है कि क्या उचित है अथवा अनुचित। उसके संवेग अत्यधिक होते हैं जिनकी संतुष्टि हेतु वह विसंगति समाज के सदस्यों में मतैक्य अथवा सामाजिक दृढ़ता का अभाव तथा सामाजिक असंतुलन की स्थिति है”

दुर्खाइम का मत है कि श्रम का अतिविभाजन सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न करता है इसके सामाजिक दृढ़ता कमजोर हो जाती है तथा सामाजिक संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। इस प्रकार श्रम का अति विभाजन परिवार, समुदाय तथा संस्थाओं में व्यधिकीय स्थिति उत्पन्न कर देता है।

प्रश्न 4.
उदाहरण सहित बताएँ कि नैतिक संहिताएँ सामाजिक एकता को कैसे दर्शाती हैं।
उत्तर:
दुर्खाइम द्वारा प्रतिपादित सामजिक एकता की धारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है ये तो उनके पहले भी उनके सामजिक विचारकों प्लेटों, अरस्तु, एडम स्मिथ, सैट, साइम, कॉम्टे आदि ने इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं लेकिन दुर्खाइम ने अपने सिद्धांत को एक नवीन रूप में प्रस्तुत किया है और इसकी सत्यता को प्रमाणित करने के लिए सामाजिक जीवन के अनेक तथ्यों व आंकड़ों को संकलित किया है। दुर्खाइम के अनुसार सामजिक एकता एक नैतिक प्रघटना है इसमें व्यक्तियों के नैतिक विकास की अभिव्यक्ति होती है। क्लोस्टरमायर ने लिखा है, “सामूहिक एकता व्यक्तियों के नैतिक किवास की अभिव्यक्ति है। यह व्यक्तियों को आत्म-अनुशासित बनाती है।”

दुर्खाइम का विचर है कि अंहकारपूर्ण तथा सुखवादी समाजिक व्यवस्था सामाजिक एकीकरण, सुदृढ़ता या एकता का आधार नहीं बन सकती। नैतिक संहिता के कारण एकता निर्धनता और आदमियता में भी मनुष्यों को प्रसन्न तथा संतुष्ट रहने की प्रेरणा देती है। उदाहरण के लिए प्रचीन समाजों में भौतिकता के अभाव के बावजूद अधिक प्रसन्नता और संतोष दिखाई देता था। उसका कारण प्राचीन समाज में पाई जाने वाली नैतिक संहिता थी जो समाजिक एकता की सूचक थी।

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प्रश्न 5.
इतिहासं की भौतिकवादी व्याख्या करें?
उत्तर:
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या ही मार्क्स के विचारों का आधार है। मार्क्स के अनुसार प्रत्येक देश को एतिहासिक घटनाएं वहाँ की आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित करती है। समाज की सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर आर्थक व्यवस्था का प्रभाव पड़ता है और सभी सामाजिक संबंध आर्थिक संबंधों पर आधारित होते हैं।

किसी समय का इतिहास उस समय की आर्थिक व्यवस्था का चित्रण होता है। समाज में उत्पादन के साधनों तथा वितरण प्रणाली में परिवर्तन होने से समाज में परिवर्तन आता है और इतिहास बनाता है। सभी घटनाओं के अधार में अधिकांशतः आर्थि घटनायें होती हैं। तथापि इस  प्रकार की धारणा या मान्यता उचित नहीं कि प्रत्येक घटनायें मात्र आर्थिक घटनाओं पर आधारित होती हैं।

प्रश्न 6.
धर्म पर दुर्खाइम का दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर:
दुर्खाइम ने धर्म का एक सामाजिक तथ्य स्वीकार किया है। धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं, विश्वासों तथा महत्वपूर्ण सामाजिक अवसरों से होता है। प्रत्येक सामज में वस्तुओं को पवित्र समझा जाता है। दर्खाइम के अनुसार इस श्रेणी में धार्मिक ग्रंथ, विश्वास, उत्सव, पेंड़ तथा पौधे, भूत-प्रेत तथा अमूर्त देवी सत्ता को सम्मिलित किया जाता है।

धर्म की उत्पति के विषय में दुर्खाइम पूर्ववर्ती सिद्धांतों से अपनी असहमति दिखाते हैं। उनका मत है कि धर्म की उत्पति में सामूहिक उत्सवों तथा क्रमकांडों का महत्वपूर्ण स्थान है। दुर्खाअम का मत है कि सामूहिक उत्सवों के साथ पवित्रता की भावना जुड़ी होती है। यह भावना समाज तथा सामूहिकता ईश्वर के समक्ष कर देती है। दुर्खाइम का मत है कि धर्म सामाजिकता एकता की भावना को सामूहिक मिलन उत्सवों कर्मकांडों के जरिए शक्तिशाली बनता है।

दुर्खाइम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Elementary Forms of Religous Life में धर्म को एक सामाजिक तथ्य माना है। दुर्खाइम ने टोटा बाद को आदिम तथा साधारण धर्म की संज्ञा दी है। जीवन की शुद्धता तथा पवित्रता धार्मिक जावन का सर्वमान्य तत्व है। टोटमवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए दुर्खाइम कहते हैं कि यह विश्वासों तथा संस्कारों से जुड़ी हुई व्यवस्था है। टोटमं एक वृक्ष अथवा पशु हो सकता है, जिससे किसी समूह के सदस्य सुदृढ़ तथा रहस्यात्मक संबंध रखते हैं।

वृक्ष अथवा पशु के रूप में समूह के सदस्य टोटम का सम्मान करते है तथा उसे सामान्य दशओं में नष्ट नहीं करते हैं। टोटम समूह के सदस्यों के लिए पवित्र होता है। टोटम तक पुहँचने के लिए संस्कार तथा रस्में आवश्यक हैं। एक टोटम की पूजा करने वाले व्यक्ति अपना समूह बनाते हैं तथा समूह में वैवाहिक संबंध स्थापित करते हैं। इस प्रकार टोटम समूह की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
दुर्खाइम धर्म को विश्वासों तथा रीति-रिवाजों की एकीकृत व्यवस्था मानते हैं । धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं से होता है। धर्म के द्वारा समुदाय सदस्य नैतिक बंधन में बंधे होते हैं। सभी धर्मों के निम्नलिखित दो मूल तत्व पाये जाते हैं:

  • विश्वास तथा
  • धार्मिक कृत्य अथवा रीति-रिवाज

दुर्खाइम का मानना है कि किसी भी धर्म में पवित्रता’ केन्द्रीय विश्वास होता है। पवित्र सबसे पृथक् होता है तथा समूह के सभी सदस्य इसकी पूजा करते हैं। दुर्खाइम का मत है कि सामाजिक जीवन की समस्त प्रघटनाओं पर वस्तुओं में निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है:

  • पवित्र तथा
  • अपवित्र

दुर्खाइम का मत है धर्म का सम्बन्ध पवित्र वस्तुओं का स्तर सांसारिकता की अपेक्षा ऊँचा होता है। समाज द्वारा पवित्र कार्यों, उत्सवों तथा रीति-रिवाजों में भाग लेने वाले व्यक्ति को विशेष सम्मान प्रदान किया जाता है। जिन वस्तुओं को समाज के सदस्य पवित्र समझते हैं उन्हें अपवित्र अथवा साधारण से सदैव दूर रखने का प्रयास करते है।

अपवित्र भौतिक वस्तुएँ सामान्य सांसारिक व उपयोगितावादी पक्षों से सबंद्ध होती है। इस प्रकार, पवित्र का अनुसरण धर्म है तथा पवित्र को अपवित्र से मिला देना पाप है। अंत में, दुर्खाइम के अनुसार “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा आचरणों की समग्र व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय (चर्च) में संयुक्त करती है।”

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
एमिल दुर्खाइम की श्रम विभाजन की धारणा स्पष्ट किजिए? अथवा, श्रम विभाजन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए?
उत्तर:
एमिल दुर्खाइम ने 1893 में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध ग्रंथ Divisional of Labout in society. में श्रम विभाजन की धारणा को स्पष्ट किया है:

(i) समाज सामान्य नैतिक व्यवस्था पर आधारित है-दुर्खाइम के अनुसार समाज सामान्य नैतिक व्यवस्था पर आधारित है न कि विवेकपूर्ण स्वहित पर । दुर्खाइम के अनुसार समाज में व्यक्ति के स्वहित से अधिक कुछ और भी पाया जाता है। उसने इस कुछ को ही सामाजिक एकता का एक रूप कहा है। श्रम विभाजन केवल समाज में व्यक्ति की प्रसन्नताएँ बढ़ाने की विधि नहीं है वरन् एक नैतिक तथा समाजिक तथ्य होता है जिसका उद्देश्य समाज को सूत्रबद्ध करना होता है।

(ii) श्रम विभाजन के मुख्य कारण-दुर्खाइम ने श्रम विभाजन के दो प्रमुख कारण बताए है –

  • जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि होना
  • जनसंख्या के नैतिक घनत्व में वृद्धि होना।

दुर्खाइम का मत है कि जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि होने के साथ-साथ सामाजिक संरचना जटिल होती है। मनुष्य की आवश्यकताओं में निरंतर वृद्धि होती रहती है। चूँकि एक ही समूह अथवा व्यक्ति के लिए समस्त कार्यों को कारना संभव नहीं हो पाता है। अतः श्रम विभाजन अपरिहार्य हो जाते है।

श्रम विभाजन के प्रश्न पर दुर्खाइम सुखवादियों तथा उपयोगितावादियों से सहमत नहीं हैं। दुर्खाइम का मत है कि श्रम विभाजन व्यक्ति के अपने हितों, विचारों, आंनद या उपयोगिता पर . आधारित नहीं हैं। दुर्खाइम श्रम विभाजनं को एक विशुद्ध सामाजिक प्रक्रिया मानते है।

सामाजिक प्रक्रिया के निम्नलिखित दो पक्ष है –

  • जनसंख्या में वृद्धि होना
  • नैतिक पक्ष

दुर्खाइम का मत है कि यह नैतिक दायित्व है कि जनंसख्या में वृद्धि के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति को समुचित कार्य तथा स्थिति प्रदान करें।

(iii) समाज का वर्गीकरण तथा श्रम विभाजन – दुर्खाइम की श्रम विभाजन की अवधारणा को उसके समाज के वर्गीकरण, समाजिक एकता के प्रकारों तथा कानून के जरिए समझा जा सकता है। दुर्खाइम ने सामाजिक एकता अथवा दृढ़ता के आधार पर समाज का विभाजन दो भागों में किया है –

(a) यांत्रिक एकता पर आधारित समाज – एमिल दुर्खाइम ने यांत्रिक एकता वाले समाज की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है:

  • व्यक्ति समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबद्ध होता है।
  • समाज के सदस्यों में एक ही प्रकार के विश्वास तथा भावनाएँ पाए जाते हैं।
  • सामूहिकता की भावना अत्यधिक प्रबल होती है।
  • समाज में विभिन्नीकरण अपनी प्रांरभिक अवस्था में पाया जाता है। लिंग तथा आयु विभिन्नीकरण के मुख्य आधार होते हैं।
  • प्रकार्यों का स्वरूप अत्यधिक साधारण होता है।
  • समाज के सदस्य एक जैसे होते हैं।
  • समाज के सदस्यों में प्रबल समूहिक चेतना तथा आज्ञापलन की भावना पायी जाती है।
  • समाज में दमनात्मक कानून पाये जाते हैं।

(b) सावयवी एकता पर आधारित समाज-दुर्खाइम का मत है कि जनसंख्या के घनत्व के बढ़ने के साथ-साथ यांत्रिक एकता वाले समाज धीरे-धीरे सावयवी अथवा जैविकीय एकता वाल समाज में परिवर्तित हो जाते हैं।

दुर्खाइम ने सावयवी अथवा जैविकीय एकता पर आधारित समाज की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी है –

  • विभिन्नीकरण की प्रक्रिया जटिल तथा अग्रिम अवस्था में पायी जाती है।
  • समाज के विभिन्न भागों तथा व्यक्तियों में पारस्परिक आवश्यकताओं के आधार पर अन्योन्याश्रितता में वृद्धि होती रहती है।
  • श्रम विभाजन में निंतर वृद्धि के कारण विभिन्न व्यवसायों तथा पेशों का विकास होता है।
  • यद्यपि समाज में वैयक्तिकता की भावना में वृद्धि होती है तथापि पारस्परिकता तथा अन्योन्याश्रितता की भावना निरंतर बढ़ती रहती है।
  • श्रम विभाजन से विशेषीकरण बढ़ता है तथा इससे पारस्परिक निर्भरता की भावना और अधिक प्रबल हो जाती है हालांकि अति-
  • विशेषीकरण अलगाव भी उत्पन्न कर देता है।
  • समाज में दमनात्मक कानून का स्थान नागरिक तथा पुनर्स्थापना वाले कानून ले लेते हैं।
  • अति-श्रम विभाजन तथा अति-विशेषीकरण का परिणाम-हमिल दुर्खाइम का मत है कि अति-श्रम विभाजन का अति-विशेषीकरण से समाज में निम्नलिखित समस्याएँ आ सकती हैं :
    (i) अत्यधिक व्यक्तिवादिता जिससे में पृथकता तथा अलगाव उत्पन्न होता है।
    (ii) व्यक्तियों में सामूहिक तथा अन्योन्याश्रिता की भावना में उत्तरोत्तर कमी होती चली जाती है।
    (iii) समाज में एनोमिक अथवा प्रतिमानहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

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प्रश्न 2.
सामाजिक तथ्य क्या है?
उत्तर:
सामाजिक तथ्य का तात्पर्य-दुर्खाइम के अनुसार समाजशास्त्र का क्षेत्र कुछ प्रघटनाओं तक सीमित है। वे इन्ही प्रघटनाओं को सामजिक तथ्य कहते हैं। दुर्खाइम का मत है कि सामाजिक तथ्य व्यक्ति की व्यक्तिगत विशेषताओं अथवा मानव प्रकृति के गुणों से स्वतंत्र होते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि सामजिक तथ्य विचार अनुभव अथवा क्रिया का ऐसा रूप है कि जिसका निरीक्षण वस्तुमरक आधार पर किया जा सकता है तथा जो एक विशेष तरीके से व्यवहार करने के लिए बाध्य करता है।

दुर्खाइम के अनुसार, “सामाजिक तथ्य पूर्णतया स्वतंत्र . नियमों या प्रथाओं का एक वर्ग है।” व्यक्तिगत तथ्य सामाजिक तथ्य में अंतर-व्यक्ति जो अपने लिए जो कार्य करता है वह व्यक्तिगत तथ्य कहलाता है। उदाहरण के लिए व्यक्ति का चिंतन करना तथा सोना आदि व्यक्तिगत तथ्य है।

दूसरी तरफ, अनेक ऐसे कार्य होते हैं जिनका निर्धारण व्यक्ति के इच्छा द्वारा नहीं होता है। उदाहरण के लिए समुदाय के सदस्यों के द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा, किसी देश की मुद्रा व्यवस्था या किसी व्यवस्था के मानक तथा नियम विनियम व्यक्ति की अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं करते है इस प्रकार, समाजिक तथ्य व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं होते हैं। सामाजिक तथ्य व्यक्ति के सोचने तथा अनुभव करने की ऐसी – पद्धति है जिसका अस्तित्व की चेतना से बाहर होता है।

सामाजिक तथ्यों की प्रमुख विशेषताएँ-सामाजिक तथ्यों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है –

  • सामाजिक तथ्यों की प्रकृति संपूर्ण समाज में सामान्य होती है।
  • सामाजिक तथ्य व्यक्ति के मस्तिष्क से बाहर स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं।
  • सामाजिक तथ्यों के व्यवहार पर बाह्य नियंत्रण रखते हैं।

उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर सामाजिक तथ्यों के दो स्वरूप पाये जाते हैं –

  • बाह्ययता
  • बाध्यता

1. बाहयता – सामाजिक तथ्यों को उनकी बाह्य विशेषताओं के आधार पर पृथक् किया जाता है। सामाजिक तथ्यों की प्रकृति विशिष्ट होती है। ये व्यक्तियों की क्रियओं का परिणाम होने के बाबजूद भी उससे अलग बाह्य शक्ति हैं। इनका स्वरूप व्यक्तिगत चेतना से भिन्न होता है। उदाहरण के लिए किसी विशेष सामाजिक मान्यता के विकास में अनेक सदस्यों का सहयोग हो सकता है। लेकिन सामाजिक मान्यता के बन जाने पर वह किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित नहीं। होती हैं। इस प्रकार दुर्खाइम सामूहिक प्रतिनिधानों को सामाजिक तथ्य मानते हैं।

2. बाध्यता – सामाजिक तथ्यों के निर्माण में व्यक्तियों के चिंतन, विचारों तथा भावनाओं का सम्मिलित होता है। व्यक्ति अपने को इनका एक हिस्सा मानता है तथा उनके अनुरूप अपने म ए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू (उच्च माध्यमिक) समाजशास्त्र, वर्ग-114 व्यवहार समायोजित करता है। व्यक्ति धर्म, पंरपतरा, नैतिक आचरण, मूल्य ,रीति-रिवाजों तथा परंपराओं आदि से नियंत्रण प्राप्त करते हैं।

व्यक्ति को सामाजिक तथ्यों के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाता है। जब व्यक्ति सामाजिक तथ्यों का प्रतिरोध करता है या इनके नियमों का उल्लघंन करने का प्रयास करता है तो समाज की विरोधी प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है। व्यक्ति को सामाजिक नियमों के अनुप कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है।

प्रश्न 3.
आत्महत्या के प्रकार को दुर्खाइम ने किस प्रकार वर्गीकृत किया है समझाए?
उत्तर:
दर्खाइम ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सुसाइड 1897 में आत्महत्या के कारणों तथा प्रकारों की समाजशास्त्रीय व्याख्या की है। दुर्खाइम आत्महत्या के मनोवैज्ञानिक कारणों से सहमत नहीं हैं। दुर्खाइम आत्महत्या को एक सामाजिक तथ्य मानते हैं। उनके अनुसार आत्महत्या सामाजिक एकता के अभाव को प्रकट करती है। व्यक्ति सामाजिक एकता के अभाव में असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो जाता है तथा ऐसी अवस्था में वह अपने आत्मविनाश की बात सोच सकता है। दुर्खाइम की आत्महत्या संबंधी व्याख्या की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • आत्महत्या एक सामाजिक तथ्य है।
  • मनौवैज्ञानिक कारकों के संदर्भ में सामान्य समाज में आत्महत्या की उपयुक्त व्याख्या संभव नहीं है।
  • एक सामान्य समाज में आत्महत्या तथा अपराध की दर में अकस्मात वृद्धि नहीं होती है।
  • दुर्खाइम ने आत्महत्या की व्याख्या अनेक सामाजिक कारकों जैसे समाजिक एकता, सामूहिक चेतना, सामाजिकता तथा प्रतिमानहीनता के संदर्भ में की है।
  • समाज की विभिन्न परिस्थितियों तथा कारण विभिन्न प्रकार की आत्महत्याओं का परिणाम होती है।
  • आधुनिक समाजों में सामाजिक बंधनों में शिथिलता के परिणामस्वरूप व्यक्ति या तो अलगाव से ग्रस्ति हो जाता है या समाज में आत्मविस्मृत हो जाता है।

दुर्खाइम ने चार प्रकार की आत्महत्याओं का उल्लेख किया है:
Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय
(i) अहंवादी आत्महत्या – अहंवादी आत्महत्या में व्यक्ति यह अनुभव करने लगाता है कि सामजिक परम्पराओं द्वारा निर्धारित भूमिकाओं को वह निभाने में असफल रहा है, यह तथ्य उसकी प्रतिष्ठा तथा सम्मान के विपरित होता है। दुर्खाइम के अनुसार जब व्यक्ति के दूसरों से संबंध करने वाले बंधन कमजोर हो जाते हैं तो अहंवाद की उत्पति होती है।

ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति द्वारा अपने अहं को आत्यधिक महत्व दिया जाता है। अत: व्यक्ति समाज से समुचित रूप से एकीकृत नहीं हो पता है। इस प्रकार परिवार धर्म तथा राजनीतिक संगठनों बंधनों के कमजोर हो जाने से अहंवादी आत्मवादी आत्महत्या की दर से वृद्धि हो जाती है: जपान में हरा-किरी की प्रथा अहंवादी आत्महत्या का उपयुक्त उदाहरण है।

(ii) परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या – परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या में सामूहिक चेतना तथा सामाजिक एकता की मात्र अत्यधिक पायी जाती है। दुर्खाइम के अनुसार परसुखवादी आत्महत्या में व्यक्ति में समाज में प्रति बलिदान की भावना पायी जाती है। देश की आजादी के लिए प्राणों की बलिदान कर देना अथवा जौहर प्रथा परसुखवादी आत्महत्या के उदाहरण हैं।

(iii) एनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनता मूलक आत्महत्या – ऐनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनता मूलक आत्महत्या प्रायः उन समाजों में पायी जाती हैं जहाँ सामाजिक आदर्शों में अकस्मात परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में समाज में वैयक्तिक विघटन की सामाजिक घटनाएँ घटनाएँ बढ़ने लगती हैं। दुर्खाइम इस स्थिति को एनोमिक अथवा प्रतिमानहीनता कहते हैं।

दुर्खाइम का मत है कि अत्यधिक विभिन्नीकरण, नियमविहीन श्रम विभाजन के कारण जैविकीय दृढ़ता की स्थिति में आशानुरूप सामजिकता, सामूहिक चेतना तथा अन्योन्याश्रितता की कमी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी विषय स्थिति में व्यक्ति में व्यक्ति का समाज से अलगाव हो जाता है। दुर्खाइम का मत है कि ऐसी स्थिति में सामाजिक मानक समाप्त हो जाते हैं व्यक्ति में सामाजिक स्थिति से उत्पन्न तनावों को सही न करने की क्षमता कम हो जाती है।

ऐसी स्थिति में व्यक्ति के समक्ष जब भी तनाव पूर्ण स्थिति आती है तो उसका संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है तथा वह आत्महत्या कर लेता है। व्यापार में आचानक घटा तथा राजनैतिक उतार-चढ़ाव आदि के कारण भी व्यक्ति आत्महत्या कर लेता हैं। इस प्रकार, समाज में एनोमिक अथवा नियमहीनता अथवा प्रतिमानहीनता की स्थिति उत्पन्न होने से आत्महत्याओं की दर से वृद्धि हो जाती है।

(iv) भाग्यवादी आत्महत्या – दुर्खाइम के अनसार सामज में अत्यधिक नियमों तथा कठोर शासन व्यवस्था के कारण भाग्यवादी आत्महत्याओं की दर से वृद्धि हो जाती है। दुर्खाइम ने दासा प्रथा को भाग्यवादी आत्महत्या का उपयुक्त उदाहरण बताया है। जब दास यह समझने लगते हैं कि उनका नारकीय जीवन छुटकारा असंभव है तो वे भाग्वादी हो जाते हैं तथा आत्महत्या कर लेते हैं।

मैक्स वेबर – (1864-1920)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नौकरशाही की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक विश्व में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का महत्व निरंतर बढ़ रहा है। व्यापार तथा उद्योग का आधार तार्किक गणनाएँ हैं। राज्यों की बढ़ती हुई जटिलताओं के कारण नौकरशाही अथवा तार्किक वैधानिक सत्ता पर निर्भर हो जाता है।

ब्यूरो का शाब्दिक अर्थ है कि एक कार्यालय अथवा कानूनों, नियमों व नियमों की व्यवस्था, जो विशिष्ट प्रकार्यों को परिभाषित करती है। इसका तात्पर्य है एक समूह संगठित कार्य प्रक्रिया। मैक्य वैबर के अनुसार, “नौकरशाही पदानुक्रम में एक सामाजिक संगठन है। नौकशाही में प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ शक्ति तथा सत्ता होती है। नौकरशाही का उद्देश्य आधुनिक समाजों में प्रशासन, राज्यों या अन्य संगठनों, जैसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी एवं औद्योगिक तथा वाणिज्य . संगठनों को तार्किक रूप से चलना है।” मैक्स वैबर प्रजातंत्र तथा नौकरशाही में घनिष्ठ संबंध स्थापित करते हैं।

प्रश्न 2.
वैबर का धर्म का समाजशास्त्र समझाइए।
उत्तर:
मैक्स दूंबर के अनुसार धर्म मल्यों, विश्वासों तथा व्यवहारों की एक व्यवस्था है जो मानव के कार्यों तथा अभिविन्यास को निश्चित आकार प्रदान करता है। धर्म एक सामाजिक प्रघटना है जो अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं से घनिष्ठतापूर्वक संबंधित। होती है। मैक्स वैबर ने धार्मिक विचारों तथा आर्थिक संस्थाओं के बीच संबंधों में गहरी रुचि प्रदर्शित की है।

प्रश्न 3.
प्रशासन के स्वरूप के संदर्भ में नौकरशाही की विशिष्ट विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
मैक्स वैबर ने प्रशासन के स्वरूप के संदर्भ में नौकरशाही की निम्नलिखित विशिष्ट विशेषताएं बतायी हैं:

  • निरंतरता
  • पदानुक्रम या संस्तरण
  • संसाधनों के मालले में सरकारी कार्यालयों के निजी स्वामित्व या निंत्रण से पृथक रखना।
  • लिखित दस्तावेजों का प्रयोग
  • वेतनभोगी पूर्णकालिक व्यावसायिक आधार पर विशेषज्ञ।

प्रश्न 4.
सामाजिक क्रिया के अर्थ को समझने के लिए मैक्स वैबर ने किन दो अंत संबंधित विधियों का उल्लेख किया है?
उत्तर:
मैक्स वैबर ने सामाजिक क्रिया के अर्थ को समझने के लिए दो अंत:संबंधित विधियों का उल्लेख किया है:

  • वर्सतेहन तथा
  • आदर्श प्रारूपों की मदद से विशेलषण

प्रश्न 5.
आदर्श प्रारूप का अर्थ संक्षेप मे बताइए?
उत्तर:
आदर्श प्रारूप एक अस्तित्व की विशेषताओं का समूह है जो, कि:

  • तार्किक रूप से निरंतर होती है।
  • जो उसके अस्तित्व को संभव बनाती है।

आदर्श प्रारूपों कुछ तत्वों विशेषताओं या लक्षणों का चयन है जो कि अध्ययन की जाने वाली प्रघटनाओं के लिए विशिष्ट तथा उपयुक्त है। यद्यपि आदर्श प्रारूप का निमार्ण समाज में पायी जाने वाली वास्तविकताओं के आधार पर होता है तथापि वे (आदर्श-प्रारूप) समस्त वास्तविकताओं का वर्णन तथा प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं वस्तुतः आदर्श प्रारूप एक मानसिक निमार्ण है।

प्रश्न 6.
व्याख्यात्मक समाजशास्त्र से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मैक्स वैबर समाजशास्त्र को सामाजिक क्रिया का व्याख्यात्मक बोध मानते हैं। समाज शास्त्र के द्वारा सामाजिक क्रिया की आंतरिक उन्मुखता तथा अर्थों को समझाने का प्रयास किया जाता है। वैबर इसे ही व्याख्यात्मक समाजशास्त्र कहता है। व्यख्यात्मक समाजशास्त्र द्वारा निम्नलिखित कारकों के अध्ययन, व्याख्या तथा पहचान पर विशेष जोर दिया जाता है

  • सामाजिक क्रिया
  • सामाजिक क्रिया की आंतरिक उन्मुखता
  • अंतनिर्हित अर्थ
  • अन्य व्यक्तियों की ओर उन्मुख होने से विकसित पारस्परिकता।

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प्रश्न 7.
तर्कसंगत वैधानिक सत्ता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मैक्स वैबर के अनुसार तर्कसंगत वैधानिक सत्ता तर्कसंगत वैधता पर आधारित होती है। तर्कसंगत वैधानिक सत्ता नियामक नियमों की वैधता के विश्वास पर आधारित होती है। तर्कसंगत वैधानिक सत्ता उन व्यक्तियों के अधिकारों को स्वीकार कारती है जो वैधानिक यप से परिभाषित नियमों के अंतर्गत सत्ता का प्रयोग आदेश देने के लिए करते हैं।

प्रश्न 8.
पारंपरिक सत्ता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
पारंपरिक सत्ता वस्तुतः वैधता पर निर्भर करती है। पारंपरिक वैधता प्राचीन परंपराओं की पवित्रता के स्थापित विश्वासों पर आधारित होती है। पारंपरिक सत्ता चिंतन के स्वाभाविक तरीको पर निर्भर करती है।

प्रश्न 9.
करिश्माई सत्ता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मैक्स वैबर के अनुसार करिश्माई सत्ता का आधार करिश्माई वैधता है। करिश्माई का अर्थ है ‘सुंदरता का उपहार’ करिश्माई वैधता का संबंध उस व्यक्ति से होता है जिसका चरित्र विशिष्ट तथा अपवादस्वरूप है तथा जो नायक है तथा जिसका उदाहरण श्रद्धापूर्वक दिया जाता है। करिश्माई सत्ता उन नियामक प्रतिमानों पर निर्भर होती है जिनका निर्धारण करिश्माई व्यक्ति द्वारा किया जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
वेबर की वर्ग, प्रस्थिति व शक्ति की अवधारणा की व्याख्या कीजिए?
उत्तर:
वेबर की वर्ग की अवधारणा-वैबर की वर्ग को व्यक्तियों की श्रेणी के रूप में परिभाषित किया है। उन व्यक्तियों में जीवन की संभावनाओं के विशिष्ट घटक को सामान्य रूप से देखा जाता है। यह घटक विशिष्ट रूप से आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करता है, जिनमे वस्तुओं पर स्वामित्व तथा आय के अवसर हों। इस उपयोग की वस्तुओं की तरह प्रस्तुत किया जाता है। श्रम बाजार के वर्ग कभी भी वर्ग नहीं हो सकते।

वेबर की प्रस्थिति की अवधारणा-यद्यपि स्थिति समूह समुदाय हैं। प्रस्थिति का निश्चय निर्धारण एक विशिष्ट सकारात्मक अथवा नाकारात्मक सामाजिक सम्मान से होता है। इसका निर्धारण आवश्यक रूप से वर्ग स्थिति के द्वारा नहीं होता है। प्रस्थिति समूह के सदस्य उपयुक्त जीवन शैली की धारणा अथवा उपभोग प्रतिमानों के द्वारा अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रदान किए सामाजिक सम्मान की धारणा से जुड़े होते हैं। प्रस्थिति विभेद सामाजिक अंत:क्रिया पर प्रतिबंधों की आशाओं से संबद्ध होते हैं ऐसे व्यक्ति जो विशेष स्थिति समूह से संबंध नहीं होते हैं तथा जो अपने से निम्न प्रस्थिति के व्यक्तियों से सामाजिक दूरी कायम कर लेते हैं।

वेबर की शक्ति की अवधारणा – वैबर के अनुसार शक्ति अथवा सत्ता एक अन्य दुलर्भ संसाधन है। शक्ति एक व्यक्ति अथवा अनेक व्यक्तियों द्वारा दूसरों के प्रतिरोध के बावजूद अपनी इच्छा को समुदायिक क्रिया के रूप में सभी पर लागू करते हैं अनके व्यक्ति अधिक से अधिक शक्ति संचय करना चाहते हैं।

वास्तविकता यह है कि सभी व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की सत्ता के नियंत्रण से बचना चाहते हैं। शक्ति के लिए संघर्ष सभी समाजों में पाया जाता है। शक्ति का यह संघर्ष राजनीतिक समूहों या आधुनिक समाजों में राजनीतिक दलों के द्वारा किया जाता है। शक्ति के मैदान में दलों के समूह पाए जाते हैं। उनकी क्रियाओं का निर्धारण सामाजिक शक्ति अर्जित करने में होता है। इस प्रकार, शक्ति के आधार पर असमान्त का जन्म होता है।

प्रश्न 2.
बुद्धिसंगत, वैध व पारंपरिक सत्ता में अंतर स्पष्ट किजिए?
उत्तर:
बुद्धिसंगत, वैध व पारंपरिक सत्ता में निम्नलिखित अंतर है –
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प्रश्न 3.
सामाजिक क्रिया किसे कहते हैं?
उत्तर:
मैक्स वेबर सामाजिक क्रिया को समाजशास्त्र के अध्ययन की मुख्य विषय-वस्तु मानते हैं। वेबर का मत है कि जब व्यक्ति एक व्यक्ति एक-दूसरे की तरफ उन्मुख होते हैं तब इस उन्मुखता में आंतरिक अर्थ निहित होता है, वह सामाजिक क्रिया कहलाती है। बैबर ने समाजिक क्रिया में आंतरिक अर्थ निहित है, वह सामाजिक क्रिया कहलाती है। वैबर ने समाजिक क्रिया में चार तत्व बताए हैं –

  • कर्ता
  • परिस्थिति
  • साधन तथा
  • लक्ष्य

सामाजिक क्रिया के निम्नलिखित चार प्रकार होते हैं:

  • धार्मिक क्रिया – इसके अंतगर्त कर्मकांड तथा धार्मिक उत्सव जैसी क्रियाएँ आती हैं इन सामाजिक क्रियाओं को धर्म द्वारा स्वीकार किया जाता है।
  • विवेकपूर्ण क्रिया – आर्थिक क्रियाएँ जैसे उत्पादन, वितरण तथा उपयोग विवेकपूर्ण क्रियाएँ हैं। इसमें साध्य तथा साधन के विवेकपूर्ण संतुलन पर विशेश बल दिया जाता है।
  • परंपरागत क्रिया – वैबर परंपरागत क्रिया के अंतर्गत प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों को सम्मिलित करते हैं।
  • भावनात्मक क्रिया – वैबर प्रेम, क्रोध नकरात्मक व्यवहार तथा इनका अन्य व्यक्तियों पर प्रभाव को भावनात्मक क्रिया के अंतर्गत सम्मिलित करते हैं।

प्रश्न 4.
मार्क्स और वेबर ने भारत के विषय में क्या लिखा है, पता करने की कोशिश कीजिए?
उत्तर:
मार्क्स के समय भारत में 1857 का विद्रोह हो चुका था। 1857 में मार्क्स फ्रांस आकर रहने लगे थे। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’1857 में प्रकाशित हुई। उसके 10 वर्ष बाद भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ। मार्क्स चूंकि पूंजीवाद के विरोधी थे इसलिए उन्होंने इस बिद्रोह के पूजीवाद व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का एक प्रयास बताया। लंदन में प्रकाशित एक समाचार पत्र में मार्क्स ने टिप्पणी की “फ्रांस की क्रांति जब मजदूर को उसका हक दिला सकती है तो भारत में यह क्यों नहीं हो सकता।”

14 मार्च, 1853 को मार्क्स का निधन हो गया। वे भारत के बारे में उत्कृष्ट विचार रखते थे। मैक्स वेबर भी एक समाजशास्त्री थे। प्रथम विश्वयुद्ध को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। वे भारत द्वारा इस गृह युद्ध में भाग लेने के विरोधी थे। वे भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। 14 जून, 1920 के वेबर का निधन हो गया।

प्रश्न 5.
‘आदर्श प्रारूप’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मैक्स वेबर का मत है कि समाज जटिल होता है। तथा इसमें सदैव शक्तियों के परिवर्तन का खेल चलता रहता है। वेबर ने आदर्श प्रारूपों की अपने धारणा का विकास किया, जिससे. अंनत जटिल तथा परिवर्तनशील दुनिया को समझकर उसके आधार पर वैज्ञानिक सामान्यीकरण हो सके।

आदर्श प्रारूप एक अस्तित्व में विशेषताओं का समूह है जो कि –

  • तार्किक रूप निरंतर होती है।
  • जो उसे अस्तित्व को संभव बनाती है।

आदर्श प्रारूप कुछ तत्वों, विशेषताओं या लक्षणों का चयन है जो कि अध्ययन की जानेवाली प्रघटनाओं के लिए विशिष्ट तथा उपयुक्त है। यद्यपि आदर्श प्रारूप का निर्माण समाज में पायी जाने वाली वास्तविकताओं के आधार पर होता है तपापि वे (आदर्श-प्रारूप) सपस्त वास्तविकताओं का वर्णन तथा प्रतिनिधत्व नहीं करते हैं। वस्तुत: आदर्श प्रारूप एक मानसिक निमार्ण है।

आदर्श प्रारूपों को गुणात्मक सामाजिक तथ्यों का ऐसा प्रतिनिधि स्वरूप या मानदंड कहा जाता है जिनका चयन तर्किक आधार पर विचारपूर्वक किया जाता है। मैक्स वैबर ने अपनी अध्ययन विषय-वस्तु के विश्लेषण में सत्ता, शक्ति, धर्म, पूँजीवाद आदि आदर्श प्रारूपों का चयन किया है।

मैक्स वेबर के अनुसार आदर्श प्रारूपों के अंतर्गत केवल तार्किक तथा महत्त्वपूर्ण तत्वों को ही सम्मिलित किया जाता है। वैबर का मत है कि आदर्श प्रारूप अपने आप में साध्य नहीं है वरन् ऐतिहासिक तथ्यों के व्यापक विश्लेषण में उपकरण अथवा सहायक यंत्र है।

प्रश्न 6.
शासन के तीन प्रकार कौन से हैं?
उत्तर:
मैक्स वैबर ने शासन के आदर्श प्रारूप की रचना की है। वैबर ने शासन के निम्नलिखित तीन प्रारूप बताए हैं:

(i) तार्किक अथवा बुद्धिसंपन्न शासन – शासन का यह आदर्श प्रारूप के अंतगर्त शासन के प्रारूप विवेक कानून तथा आदेश के द्वारा न्यायसंगत होता है। शासन के इस प्रारूप में समस्त प्रशासन का व्यापक आधार विवेक सम्मत कानून होते हैं।

(ii) पारंपरिक शासन – पारंपरिक शासन के प्रारूप के अंतर्गत शासन के प्रारूप को अतीत के रीति-रिवाजों तथा परंपराओं द्वारा न्यायसंगत ठहराया जाता है। कोई भी शासन व्यवस्था पारंपरिक शासन से पूर्णरूपेण मुक्त नहीं हो सकती है। वास्तव में शासन पारंपरिक तथा आधुनिक दोनों ही आधरों का मिला-जुला स्वरूप होता है। परंपराएँ, रीति-रिवाज तथा जाति आदि कारक शासन के स्वरूप, दिशा तथा प्रगति आदि को निर्धारित करने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

(iii) करिश्माई शासन – करिश्माई शासन को करिश्माई नेता के व्यक्तिगत तथा अपवादस्वरूप गुणों के आधार पर न्यायसंगत ठहराया जाता है। करिश्माई नेता का उपयोग वास्तविक राजनीतिक शासन प्रणाली को विश्लेषणात्मक रूप से समझने तथा उसके पुनर्निर्माण में किया जा सकता है। करिशमाई नेताओं में महत्मा गाँधी तथा अब्राहम लिंकन आदि का नाम उल्लेखनीय है। जहाँ तक शासन प्रणाली के समग्र एकीकृत स्वरूप का प्रश्न है, प्रत्येक प्रकार की शासन व्यवस्था में तार्किक, पारंपरिक तथा करिश्माई तीनों ही प्रकार के तत्व होने आवश्यक हैं।

दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कोई भी शासन का आर्दश प्रारूप किसी एक तत्व की अनुपस्थिति में सुचारु रूप से हनीं चल सकता है। उदाहरण के लिए करिश्माई नेता तो हो, लेकिन शासन के प्रारूप में तार्किक अथवा विवेक न हो तो शासन का प्रारूप आर्दश प्रारूप नहीं कहलाएगा।

प्रश्न 7.
पूंजीवाद के प्रमुख तत्व क्या हैं?
उत्तर:
मैक्स वैबर पूँजीवाद को एक आधुनिक तथा विवेकशील पद्धति मानते हैं। वैबर का प्रसिद्ध ग्रंथ The Protestat Eithic and the Spirit of Capitalism 1904 में प्रकाशित हुआ था । वैबर का मत है कि प्रोटेस्टेंट धर्म की आचार संहिता आर्थिक क्षेत्र में पूँजीवाद के जन्म के महत्त्वपूर्ण कारक हैं। मैक्स वैबर ने लिखा है। कि “प्रोटस्टेंट धर्म की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिनसे इस प्रकार की आर्थिक मान्यताएँ उत्पन्न होती हैं जिन्हें हम पूँजीवाद के नाम से जानते हैं तथा वह प्रोटेस्टेंट सुधार ही था जिसने पँजीवादी अर्थव्यवस्था के विकास में प्रत्यक्ष रूप से प्रेरणा प्रदान की।”

इस प्रकार प्रोटेस्टेंटवाद ने आधुनिक पूँजीवाद की भावना को प्रोत्साहित किया। आधुनिक पूँजीवाद में निरंतर धन कमाने तथा लाभ के लिए उसका पुनर्निवेश किया जाता है। मैक्स वैबर ने फ्रैंकलिन के लेखों से पूँजीवाद के शुद्ध मनोभाव का निर्माण किया है। वैबर ने पूँजीवाद के निम्नलिखित लक्षण बताए हैं:

  • समय ही धन होता है।
  • साख ही धन होता है।
  • धन से ही धन प्राप्त होता है। कभी भी एक पैसा गलत नहीं खर्च करना चाहिए तथा पैसा बेकार नहीं पड़ा रहना चाहिए।
  • प्रत्येक व्यक्ति का ऋण चुकाने में पाबंद होना चाहिए। इसी कारण कहा गया है कि नियत समय पर ऋण चुकाने वाला व्यक्ति दूसरे
  • व्यक्ति के पर्स का स्वामी बन जाता है। इसका तात्पर्य है कि निमित समय पर ऋण चुकाने वाला पुनः धन उधार ले सकता है।
  • व्यक्ति के द्वारा आया तथा व्यय का विशद विवरण रखना चाहिए।
  • व्यक्ति की पहचान उसकी बुद्धिमता तथा परिश्रम से होनी चाहिए।
  • व्यक्ति को व्यर्थ समय नष्ट नहीं करना चाहिए।

मैक्स बेबर का मत है कि उपरोक्त वर्णित नियमों के पालन से आधुनिक पूँजीवाद के मनोभावों. का पोषण होता है। आधुनिक पूँजीवाद का मनोभाव है, वह दृष्टिकोण जो तार्किक तथा व्यवस्थित तरीक से लाभ कमाए। वह अविरल तथा तार्किक लाभ अर्जित करने का दर्शन है।

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प्रश्न 8.
क्या आप कारण बता सकते हैं कि हमें उन चिंतको के कार्यों का अध्ययन क्यों करना चहिए जिनकी मृत्यु हो चुकी है? इनके कार्यों का अध्ययन न करने के कुछ कारण क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
साहित्य कभी मरता नहीं है। विचार भी कभी मरता नहीं हैं। साहित्य और विचार हमेशा जीवित रहते हैं इसलिए ऐसे विचारक जो अब इस संसार में नही हैं उनकी रचनाएँ हमें अवश्य पढ़नी चाहिए। इससे हम उनके समय की विचारधारा व तथ्यों को तो जान ही सकेंगे, साथ ही उनसे आने वाले समय के लिए मार्गदर्शन प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगे।

प्रश्न 9.
सामाजिक क्रिया के चार प्रकारों का वर्णन कीजिए?
अथवा
सामाजिक क्रिया का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके चार प्रकारों का उल्लेख कीजिए?
उत्तर:
सामाजिक क्रिया का अर्थ-मैक्स वेबर सामाजिक क्रिया को समाजशास्त्र के अध्ययन की प्रमुख विषय-वस्तु मानता है। मैक्स वबर का मत है कि जब व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति उन्मुख होते हैं तथा इस उन्मुखता में आंतरिक अर्थ निहित होता है, तब उसे सामाजिक क्रिया कहा जाता है।

सामाजिक क्रिया के अर्थ को स्वष्ट करने हुए मैक्स वैबंर करते हैं कि “किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया उसी स्थिति में कहा जाएगा जब उस क्रिया का निष्पादन कारने वाले व्यक्ति उस क्रिया में अन्य व्यक्तियों के दृष्टिकोण एवं क्रियाओं को समावेशित किया जाए तथा उन्हीं के परिप्रेक्ष्य में उनकी गतिविधियाँ भी निश्चित की जाएँ।” मैक्स वैबर सामाजिक क्रिया में निम्नलिखित चार तत्वों को आवश्यक मानते हैं –

  • कर्ता
  • परिस्थिति
  • साधन तथा
  • लक्ष्य

मैक्स वैबर ने किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया मानने के दृष्टि कोण से निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख किया है:

  • सामाजिक क्रिया को दूसरे व्यक्तियों को अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का व्यवहार प्रभावित कर सकता है।
  • प्रत्येक प्रकार के क्रिया का सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता है।
  • व्यक्तियों के समस्तु संपर्कों को सामाजिक क्रिया की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।

इस संदर्भ में मैक्स वैबर ने उदाहरण देते हुए कहा है कि यदि दो साइकिल सवार आपस में टकराते हैं तो यह केवल एक घटना है न कि सामाजिक क्रिया; लेकिन जब दोनों साइकिल सवार एक दूसरे को मार्ग प्रदान करते हैं अथवा टकराने के पश्चात् झगड़ा करते हैं या समौझाता करते हैं तो इसे हम सामाजिक क्रिया कहेंगे।

अनेक व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली क्रिया को सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता है। सामाजिक क्रिया का व्यक्ति से संबंधित होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, वर्षा होने की स्थिति में सड़क पर चलने वाले व्यक्तियों द्वारा छाते का प्रयोग सामाजिक क्रिया नहीं है। व्यक्तियों की इस क्रिया का संबंध वर्षा से है न कि व्यक्तियों से। मैक्स वैबर के अनुसार सामाजिक क्रिया तार्किकता से गहराई से संबद्ध होती है।

सामाजिक क्रिया के प्रकार : मैक्स वैबर ने सामाजिक क्रिया निम्नलिखित चार प्रकार बताए हैं –

  • लक्ष्य-युक्तिमूलक क्रिया
  • मूल्य-युक्तिमूलक क्रिया
  • भावात्मक क्रिया तथा
  • पारंपरिक क्रिया।

1. लक्ष्य-युक्तमूल्य क्रिया – लक्षय युक्तिमूलक क्रिया में व्यक्ति अपने व्यावहारिक लक्ष्यों तथा साधनों का स्वयं तार्किक रूप से चयन करता है। लक्ष्यों तथा साधनों का चयन तार्किक रूप से किया जाता है।

2. मूल्य युक्तिमूलक क्रिया – मूल्य युक्ति मूलक क्रिया इस अर्थ में तार्किक है कि इसका निर्धाण कर्ता के धार्मिक तथा नैतिक विश्वासों के द्वारा होता है। इस प्रकार की क्रिया के स्वरूप का मूल्य समग्र होत है तथा वह परिणामों में स्वतंत्र होता है। इस प्रकार की सामाजिक क्रिया का संपादन नैतिक मूल्यों के प्रभाव में किया जाता है।

3. भावात्मक क्रिया – जब क्रिया के साधनों का चयन भावानात्मक आधार पर किया जाता हैं, तो इसे भावानात्मक क्रिया कहते हैं। ये क्रियाएँ चूंकि संवेगात्मक प्रभावों में की जाती हैं, अतः ये तार्किक हो भी सकती हैं अथवा नहीं भी हो सकती हैं।

4. पारंपरिक क्रिया-पारंपरिक क्रिया के अंतर्गत रीति-रिवाजों के द्वारा साध्यों तथा साधनों का चयन किया जाता है।

प्रश्न 10.
सामाजिक विज्ञान में किस प्रकार विशिष्ट तथा भिन्न प्रकार की वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
जब किसी घटना का निरीक्षण उसके वास्तविक या सत्य रूप में किया जाता है और इस प्रकार के निरीक्षणों द्वारा निरीक्षणकर्ता की मनोवृति का प्रभाव नहीं पड़ता है तब ऐसे निरीक्षणों को वस्तुनिष्ठ निरीक्षण और प्राप्त परिणामों को वस्तुनिष्ठ परिणाम कहते हैं। वस्तुष्ठि परिणामों की एक पहचान यह है कि यदि किसी समस्या का अध्ययन कई अध्ययनकर्ता एक ही निष्कर्ष पर पहुचते हैं तो कहा जाता है कि प्राप्त निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ है।

विशिष्ट और विपरीत परिस्थतियों में समाज विज्ञान में वस्तुनिष्ठता के विभिन्न प्रकारों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि अनुसंधान की व्यक्तिनिष्ठता अनुसंधान के परिणामों को प्रभावित न करें।

प्रश्न 11.
क्या आप ऐसे विचार अथवा सिद्धांत के बारे में जानते हैं जिसने आधुनिक भारत में किसी सामाजिक आन्दोलन को जन्म दिया है?
उत्तर:
वर्तमान समय में सामाजिक आंदोलन को बढ़ावा देने से आशय यहां भारतीय समाजशास्त्र को विकसित करने की संभावना से है। इस विषय को समाजशास्त्री डॉ. बी. आर. चौहान ने निम्न तथ्य प्रस्तुत किए हैं। उन समस्याओं का, जो देश के सामने आई हुई हैं अथवा उन मद्दों को, जिनका समाज को समाना करना है, विश्लेषण प्रस्तुत करना। के ज्ञान तथा लोगों के कथनों की परीक्षणीय अव्यक्तिगत प्राक्कलपानाओं के रूप में वैज्ञानिक स्तर पर लाना। जिस सीमा तक भारत में समाजशास्त्र इन स्थितियों का अध्ययन – कर सकते है, उस सीमा तक वे अपनी उपाधि तथा स्थान को उचित ठहरा सकते हैं।

डॉ. चौहान ने भारतीय समाजशास्त्र के विकास की संभावनाओं के लिए निम्न सुझाव दिए हैं –

(i) भारतीय विश्वविद्यालयों में सामजशास्त्र के पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री में अपने देश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याओं को सम्मिलित करना आवश्यक है। उन्हीं के शब्दों में, “विभिन्न विश्वविद्यालयों के हमारे पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री की यह आश्यर्चजनक विशेषता है कि वे सर्वाधिक महत्त्व ही समस्याएं, जिनका हमारे देश को सामना करना पड़ रहा है, विषय-सामग्री में हमारे ध्यान से ही छूट गई हैं।

हमारे पाठ्यक्रम में उन समस्याओं को सम्मिलित किया, गया है जिनका सामना पश्चिमी समाज को करना पड़ता है और साथ ही हमने उन्हीं का साहित्य भी लिया है। ऐसे विषयों से उदाहरणों का भी महत्त्व कम हो जाता है। उदारहण किसी अमूर्त कल्पना को पाठक के जीविता अनुभव में स्पष्ट करने के लिए दिये जाते है।” अतः स्पष्ठ है कि भारतीय समाजशास्त्र के विकास के लिए यह आवश्यक है कि विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री हमारे समाज की प्रमुख समस्याओं से संबंधित हो।

(ii) डॉ. चौहान ने एक अन्य इस तथ्य पर जोर दिया है कि “यदि हम निर्णायक महत्त्व की प्रमुख समस्याओं का अध्ययन करें तो अधिक अच्छे अवबोधक के लिए यह प्रयास करना चाहिए कि राष्ट्र-समुदाय के उदय के प्रश्नों पर ध्यान दिया जाय, साथ ही पड़ोसी देशों से विदेशी संबंध बनाये रखना तथा उन राष्ट्रों से भी जिनसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी से हमें सहायता प्राप्त होती हों अथवा जिन्हें हम ऐसी ही सहायता दे सकते हों, से संबंध बनाये रखने की समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए।

शिक्षा प्रणाली पर अनुसंधान तथा शिक्षण स्तर पर हमें अधिक ध्यान देना होगा। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि उन समस्याओं को, जिन्हें राष्ट्र द्वारा आयोजन के संदर्भ में हल किया जाता है, अध्ययन किया जाना चाहिए।”

(iii) डॉ. चौहान का मत है कि सामाजशास्त्रियों के स्तर पर विशिष्ट समस्याओं के तदर्थ अध्ययन तथा आयोजित परिवर्तन के संदर्भ में वैयक्तिक अध्ययन करना संभव है। साथ ही यह भी संभव है कि अन्तः संरचनात्मक समाज के संदर्भ में परिवर्तनों का अध्ययन किया जाए और प्रजातंत्र, समाजवाद तथा परम्परागत समाज के संदर्भ में प्रणाली रचना का अभ्यास करने का प्रयत्न भी किया जाये।

(iv) डॉ चौहान का मत है कि भारतीय समाजशास्त्रीय विकास की संभावना के अंतर्गत सामजशास्त्र विचार पद्धति में आयोजन के प्रश्न को महत्व दिया जाय। डॉ. चौहान ने इस संबंध में लिखा है कि, “हमारे देश में समाजशास्त्रीय विचार-पद्धति का यहा एक आश्चर्यजनक लक्षण है कि कोई ऐसा संगठन अथवा सम्मेलन अब तक नहीं हुआ कि जिसमें विशिष्ट रूप से आयोजन से संबंधित प्रश्नों का उठाया गया हो। यह तथ्य इस लक्षण का परिणाम रहा है कि आयोजन तो किसी न किसी रूप में समाजशास्त्रियों के ध्यान से ही ओझल हो गया है।

परिणाम यह हुआ है वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षत तथा देशी ढंग से स्व-प्रशिक्षित दोनों ही प्रकार के सामाजिक कार्यक्रम इन समस्याओं पर बोले हैं और उन्होंने इतर परामर्श की अनुपस्थिति में सुझावों को स्वीकृत कीर लिया है और एक प्रकार के परीक्षण तथा गलती के द्वारा आगे बढ़ने के लिए एक तदार्थ आधार प्रदान कर दिया गया है।”

इससे पूर्व कि सामाजशास्त्री आयोजित विकास तथा सामाजिक सुधारों पर विचारों के रूप में अपना दावा स्वीकार कराने में सफल हों, उन्हें इन विषयों पर अनुसंधान स्तर के ग्रंथों का निर्माण करना होगा और इस प्रक्रिया को आरंभ करना होगा जिनके द्वारा ऐसे अध्ययन किये जा सकें। समाजशास्त्रियों को ऐसे प्रश्नों पर स्वयं के सर्वक्षण तथा प्रयोजनाओं को शीघ्रता से अथवा सीमित समय में पूरा करना होगा, ताकि प्रशासन, आयोजन तथा अधिकांश लोग उन्हें समझ सकें।

(v) डॉ चौहान ने भारतीय समाजशास्त्र के विकास की संभावना के संदर्भ में एक अन्य सुझाव दिया है। कि “यदि भारत के कुछ समाजशास्त्री अपनी शक्तियों को विषय की शास्त्रियों सामग्री को समृद्ध करने के विचार से किसी विषय के अनुशीलन में केन्द्रित करें तो उनके प्रत्यनों. पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए।”

भारत के विषय में प्राचीन साहित्य तथा सामाजिक संरचना के सजीव प्रारूप, लिखित तथा मौखिक साहित्य, कला तथा मूल्यों के प्रणालियाँ विद्यमान हैं जिनका न केवल मूल उद्भव प्राचीन है, अपितु उनकी स्वयं की अविच्छिन्ता भी है। इन पर विदेशी कारकों का संघात भी पड़ा है। जो कभी रचनात्मक तो कभी विघटनात्मक रहा है और संस्कृति की पुनर्व्याख्या के प्रश्न के साथ समाज की आविनिछन्ना भी समस्यापूर्ण रही है।

मूल्यों तथा सामाजिक संरचना एवं धर्म की पुष्ठभूमि में एक ओर तो अंतः संरचानात्मक परिवर्तन तथा दूसरी ओर शिक्षा, प्रौद्योगिकी एवं प्रजातंत्र आदि के प्रश्न है जो इस संदर्भ में पहले प्रकट नहीं हुए थे। भारतीय समाज का अपना विशिष्ट स्वरूप ही इस समय कतिपय प्रश्नों के अध्ययन की मांग करता है जिसमे विभिन्न प्रकार के अध्ययन स्रोतों को टटोलना तथा उनसे परिचित होना पड़ता है।

“ऐसे पर्यावरण में अध्ययन के उपकरण अधिक विविधतापूर्ण होंगे कुछ प्राचीन भाषाओं तथा बोलियों पर अच्छा अधिकार होगा एवं सामाजशास्त्रीय ढंग से संबद्ध जानकारी तथा आधार-समाग्री को प्रचलित विकसित स्रोतों से निकलने के लिए तकनीकी होगी।

कई विशयों पर प्रचलित ज्ञान सहायक रूप में उपयोग में लाया जा सकता है तथा अन्य विषयों पर अतिरिक्त तकनीक को विकसित किया जा सकता है जिन्हें क्षेत्रीय परिस्थति का सामाना करना होता है, उनके लिए यह सामान्य ज्ञान है कि अनुसंधान पद्धतियों पर पाठ्य-पुस्तक को अनेक स्थानों पर भूल जाना पड़ता है और अनुसंधान का कार्य करने वाले को परिस्थति से निपटने के लिए स्वयं अपनी तकतीकी विकसित करनी पड़ती है।

यदि इन अन्वेषणों को अलेखन करके उन्हें सहिंता का रूप दे दिया जाता है तो विकास के संबंध में घोषणा करना संभव हो जाता है, जो पहले किया जा चुका है। इस प्रकार डॉ. चौहान का मत है कि यदि नवीन तकनीक तथा प्रचलित तकनीकों के नवीन संयोजन को विकसित किया जाये तो अधिक अध्ययन किये जा सकेंगे तथा निम्नलिखित विषयों पर अधिक खोज हो सकेगी:

  • भारत में समाज के लिए निर्णायक महत्त्व के प्रश्न
  • अनुसंधान तकनीकें तथा उनके संयोजन
  • वे अवधारणाएँ जो विशिष्ट रूप से भारतीय पर्यावरण का वर्णन करती हों।
  • प्राचीन लोक, आधुनिक मूल्य, अर्थव्यवस्था तथा राज्यतंत्र के अंत: संबंधों के पक्ष।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

प्रश्न 12.
नौकरशाही के बुनियादी विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
नौकरशाही का अर्थ-मैक्स वैबर ने नौकरशाही को पदानुक्रम अथवा संस्तरण सामाजिक संगठन कहा है। नौकरशाही में प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ शक्ति तथा सत्ता होती है। नौकरशाही का लक्ष्य प्रशासन को तार्किकता के आधार पर चलना होता है। मैक्स वैबर ने नौकरशाही तथा लोकतंत्र में नजदीकी संबंध बताया है।

नौकरशाही की विशेषताएँ – मैक्स वैबर ने नौकशाही के अंतः संबंधित विशेषताओं का उल्लेख किया है। इनके द्वारा क्रिया की तार्किकता कायम रहती है।

(i) नौकरशाही का संगठन के रूप में शासकी कार्यों को निरंतर करती है।

(ii) जो व्यक्ति इन शासकीय कार्यों को करते हैं उनमें विशिष्ट योग्यता होती है। इन व्यक्तियों को अपने शासकीय कार्यों के निष्पादन के लिए सत्ता प्रदान की जाती है।

(iii) सत्ता का वितरण भिन्न-भिन्न स्वरूपों में किया जाता है। अधिकारियों का पदानुक्रम निर्धारित किया जाता है। शीर्ष अधिकारियों के अपने अधीनस्थ की अपेक्षा अधिक नियंत्रण तथा निरीक्षण के कार्य होते हैं।

(iv) सत्ता के प्रयोग हेतु कुछ विशिष्ट योग्यताओं की आवश्यकता होती है। अधिकारों का चुनाव नहीं होता वरन् उन्हें उनकी औपचारिक योग्यताओं के आधार पर नियुक्त किया जाता है। साधारणतया ये नियुक्तियाँ परीक्षओं के आधार पर होती हैं।

(v) नौकरशाही के कार्य करने वाले अधिकारियों का उत्पादन तथा प्रशासन के साधनों पर अधिकार नहीं होता है। इसके साथ-साथ अधिकारी सत्ता को अपनी निजी उद्देश्यों के लिये प्रयोग नहीं कर सकते हैं।

(vi) प्रशासनिक कार्यों का लिखित अभिलेख रखा जाता है। यही तथ्य प्रशासनिक प्रक्रिया की प्रकृति की निरंतरता का मुख्य कारण है।

(vii) नौकशाही प्रशासन में अधिकारियों के अवैयक्तिक रूप से तथा नियमों के अनुसार कार्य करना अपरिहार्य है, जो उनकी योग्यता के विशिष्ट क्षेत्रों से परिभाषित होता है।

(viii) अधिकारियों का सेवा काल सुरक्षित होता है। उन्हें विधि के अनुसार वेतन तथा वेतन वृद्धि दिए जाते हैं। उन्हें आयु, अनुभव तथा श्लाध्य कार्यों के आधार पर पदोन्नति प्रदान की जाती है। एक निश्चित सेवाकाल पूर्ण करने के पश्चात् नौकरशाहों को एक निश्चित आयु के पश्चात् पेंशन प्रदान की जाती है।

इस प्रकार, अधिकारियों की अपने उच्च अधिकारियों तथा राजनैतिक सत्ताधारियों की सनक व स्वेच्छाचारिता के सुरक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार नौकरशाह तार्किक रूप से तथा कानून के अनुसार कार्य कर सकते हैं।

इस प्रकार, प्रशासन के एक स्वरूप के रूप नौकशाही की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • निरंतरता
  • पदानुक्रम अथवा संस्तरण
  • स्पष्ट रूप से परिभाषित नियम
  • सार्वजनिक कार्यालयों के संसाधनों को निजी व्यक्तियों के नियंत्रण से पृथक् रखना
  • लिखित दस्तावेजों का प्रयोग
  • वेतनभोगी पूर्णकालिक व्यवसायिक विशेषज्ञ जिनका सेवाकाल निश्चित हो।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Bihar Board Class 11 Political Science न्यायपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें।

  1. सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
  2. न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
  3. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
  4. न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।

उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के निम्नलिखित तरीके हैं –

  1. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सलाह ली जाती है।
  2. न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है। न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश-प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता। उन्हें कार्यकाल की सुरक्षा प्राप्त है।
  3. न्यायाधीशों की नियुक्ति में व्यवस्थापिका को सम्मिलित नहीं किया गया है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का दखल नहीं है इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलित राजनीति की कोई भूमिका न रहे।
  4. न्यायपालिका व्यवस्थापिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती अन्यथा न्यायालय की अवमानना का दोषी पाये जाने पर न्यायपालिका को उसे दंडित करने का अधिकार है।

प्रश्न के अंदर दिए गए बिन्दुओं में जो बेमेल है वह है:
एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।

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प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका की किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं परंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि न्यायपालिका की किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है। वास्तव में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्व का अभाव नहीं। न्यायपालिका भी देश की लोकतांत्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ उसे निरंकुश बनाना नहीं, वरन उसे बिना किसी भय तथा दलगत राजनीति के दुष्प्रभावों से दूर रखने का प्रयास करना है। न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है जब वह उसके विरुद्ध महाभियोग पर विचार कर रही है हो। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से निर्णय करती है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक शर्ते –

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति:
न्यायाधीश ऐसे व्यक्तियों को नियुक्ति किया जाना चाहिए जिनमें कुछ कानूनी ज्ञान तथा संविधान के प्रति निष्ठा और ईमानदारी की भावना विद्यमान हो। उन व्यक्तियों के बारे में यह सिद्ध हो चुका हो कि वे निष्पक्षता से काम लेने वाले देश के योग्यतम व्यक्तियों में से हैं।

2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका:
विश्व में न्यायाधीशों की नियुक्ति के तीन तरीके प्रचलित हैं –

  • जनता द्वारा चुनाव
  • व्यवस्थिापिका द्वारा चुनाव
  • कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति

कुछ देशों में न्यायाधीशों का चुनाव जनता द्वार किया जाता है परंतु इस प्रणाली से योग्य व्यक्ति न्यायाधीश नहीं बन पाते और न्यायाधीश राजनैतिक दलबंदी के शिकार हो जाते हैं। स्विट्जरलैंड तथा कुछ अन्य देशों में न्यायाधीशों का चुनाव व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है और वे व्यवस्थापिका के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं। अतः विश्व के अधिकतर देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा की जाती है। यह पद्धति भी पूर्णतया दोष रहित तो नहीं है लेकिन दूसरी पद्धतियों की तुलना में श्रेष्ठ है। इसके लिए प्रस्तावित किया जाता है कि कार्यपालिका से न्यायाधीश की नियुक्ति निर्धारित योग्यता के अनुसार करे।

3. न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति लम्बे समय के लिए की जाय। अल्प अवधि होने पर एक तो वे दोबारा पद प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे तथा दूसरे वे अपने भविष्य की चिन्ता में किसी प्रलोभन में पड़ सकते हैं। परिणामस्वरूप वे निष्पक्षता और स्वतंत्रतपूर्वक कार्य नहीं कर सकते। अतः यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल लम्बा होगा तो वे अधिक निष्पक्ष होकर स्वतंत्रतापूर्वक अपने कर्तव्यों को निभा सकेंगे।

4. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्कीकरण:
आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह भी आवश्यक समझा जाता है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् रखा जाय। इसके अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के क्षेत्र पृथक्-पृथक होने चाहिए और दोनों प्रकार के पद अलग-अलग व्यक्तियों के हाथों में होना चाहिए।

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प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें –

  1. मामला किस बारे में है।
  2. इस मामले में लाभार्थी कौन है?
  3. इस मामले में फरियादी कौन है?
  4. सोचकर बताएँ कि कंपनी की तरफ से कौन-कौन से तर्क दिए जाएँगे?
  5. किसानों की तरफ से कौन-से तर्क दिए जाएंगे?
  6. सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों का 300 करोड़ रुपये देने को कहा।

मुम्बई:
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से मुम्बई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप-ऊर्जा संयत्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया है। दहानु मुंबई से 150 किमी दूर है। एक दशक पहले तक इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली-पालन तथा जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयंत्र चालू हुआ और इसी के साथ शुरू हुई इस इलाके की बर्बादी।

अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गई। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है। मछली पालन बंद हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी-तंत्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को प्रदूषण नियंत्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सके।

सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के आदेश के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियंत्रणं का संयंत्र स्थापित नहीं हुआ। सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायंस से 300 करोड़ रुपये की बैंक-गारंटी देने को कहा।
उत्तर:

  1. यह रिलायंस ताप-ऊर्जा संयंत्र द्वारा प्रदूषण के विषय का विवाद है।
  2. किसान इस मामले में लाभार्थी हैं।
  3. इस मामले में किसान तथा पर्यावरणविद प्रार्थी/फरियादी हैं।
  4. कंपनी द्वारा उस क्षेत्र के लोगों के लिए ताप-ऊर्जा संयंत्र के द्वारा लेने वाले लाभों का तर्क दिया जायगा। क्षेत्र में ऊर्जा की कमी नहीं रहेगी ऐसा आश्वासन भी दिया जाएगा।
  5. किसानों की तरफ से यह तर्क दिए जाएँगे कि ताप-ऊर्जा-संयंत्र के कारण न केवल उनकी चीकू की फसलें बरबाद हुई हैं वरन् उनका मछली-पालन का कारोबार भी ठप पड़ गया है। क्षेत्र के लोग बेरोजगार हो गए हैं।

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प्रश्न 5.
नीचे की समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और चिह्नित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर पर सरकार सक्रिय दिखाई देती है।

  1. सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
  2. कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौन-सी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
  3. इस प्रकरण से संबद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से संबंधित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।

सीएनजी-मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ:
स्टाफ रिपोर्टर, द हिंदू, सितंबर 23, 2011 राजधानी के सभी गैर-सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों सरकारों में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरे ईंधन-प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों ने सीएन जी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जाएगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो-दो मानक को पूरा करते हैं उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालाँकि केन्द्र और दिल्ली सरकार अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे लेकिन इनमें समान बिंदुओं को उठाया जायगा। केन्द्र सरकार सीएन जी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केन्द्र पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्री राम नाईक के बीच हुई बैठक में ये फैसले लिए गए। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ आर ए मशेलकर की अगुआई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सी.एन.जी. में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योंकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सी.एन.जी. में बदल पाना असंभव है। डॉ. मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश के ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है कि यह समिति छः माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।

मुख्यमंत्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मसले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया-सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सी.एन.जी. की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लंबी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सी.एन.जी. ईंधन जुटाने तथा अदालत के निर्देशों को अमल में लाने के तरीके और साधनों पर एक साथ ध्यान दिया जायगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने ….. सी.एन.जी. के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इंकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सी.एन.जी. इस्तेमाल किया जाय, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला। श्री राम नाईक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकि पूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर करना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सी.एन.जी. की आपूर्ति पाईप लाइन के जरिए होती है और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जायगी।
उत्तर:
1. इस समाचार रिपोर्ट में दो सरकारों के संयुक्त रूप से एक समस्या को सुलझाने के प्रयास का वर्णन है।

  • भारत सरकार
  • दिल्ली सरकार

केन्द्र सरकार तथा दिल्ली सरकार सर्वोच्च न्यायालय को सी.एन.जी. विवाद पर संयुक्त रूप से प्रस्तुत करने को सहमत हुए।

2. सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका:
प्रदूषण से बचने के लिए यह तय किया गया कि राजधानी में सरकारी तथा निजी प्रकार की बसों में सी.एन.जी. का प्रयोग हो। उच्चतम न्यायालय ने सिटी बसों को सी.एन.जी. के प्रयोग से छूट देने को मना किया परंतु कहा कि उसने टैक्सी और आटोरिक्सा के लिए कभी सी.एन.जी. के लिए दबाव नहीं डाला।

3. इस रिपोर्ट में न्यायालय की भूमिका:
शहर में (राजधानी में) प्रदूषण हटाना और इस हेतु उच्चतम न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि केवल सी.एन.जी. वाली बसें ही महानगर में चलायी जाएँ। यह भी तय किया गया कि वाहनों के मालिकों को सी.एन.जी. के प्रयोग के लिए उत्साहित किया जाए। केन्द्र सरकार तथा दिल्ली सरकार दोनों के पृथक्-पृथक् शपथ पत्र दाखिल करने को कहा गया।

4. इस रिपोर्ट में नीतिगत मुद्दा प्रदूषण हटाना है। सभी व्यावसायिक वाहनों जो यूरो-2 मानक को पूरा करते हैं उन्हें शहर में चलाने की अनुमति दी जाए। सरकार यह भी चाहती थी कि समय सीमा बढ़ायी जाए क्योंकि 10000 बसों के बेड़े को सी.एन.जी. में परिवर्तित करना निश्चित समय में सम्भव नहीं है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 6.
देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं? (एक काल्पनिक स्थिति का ब्योरा दें और छात्रों से उसे उदाहरण के रूप में लागू करने को कहें)।
उत्तर:
भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। वर्षों से एक परम्परा बनी हुई थी कि मुख्य न्यायाधीश वरिष्ठता क्रम से नियुक्ति किया जाए, परंतु 1973 में अजीत नाथ रे प्रकरण में तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों (जस्टिस शैलट, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर) की उपेक्षा करके चौथे नम्बर के न्यायाधीश श्री अजीत नाथ रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। फिर से 1975 में भी एच. आर, खन्ना की उपेक्षा करके एम. एच. बेग को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।

दूसरे न्यायाधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करके राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। लेकिन अन्ततः यह सरकार का ही अधिकार है। उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीश 65 वर्ष तक की आयु तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। यद्यपि सरकार के दूसरे अंग कार्यपालिका एवं विधायिका न्यायपालिका के कार्यों में दखल नहीं देते परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि न्यायपालिका निरंकुश हो जाए।

न्यायपालिका भी संविधान के प्रति उत्तरदायी है। न्यायापालिका भी वास्तव में देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक ढाँचे का ही एक भाग है। यदि सरकार के अंग विधायिका या मंत्रिपरिषद् न्यायपालिका की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हैं तो उच्चतम न्यायालय उसे रोकने में सक्रिय होता है। इस प्रकार राष्ट्रपति की शक्तियाँ तथा राज्यपाल आदि को भी न्यायिक पुनर्व्याख्या के अन्तर्गत लाया गया है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं?
उत्तर:
सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिलती। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस रीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिए हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश) में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है उसे अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।

इस उदाहरण तथा भारत की न्याय-व्यवस्था में कोई समानता नहीं है। भारत में भ्यायिक निर्णय आधुनिक काल में कानून के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। प्रसिद्ध न्यायाधीशों के निर्णय दूसरे न्यायालयों में उदाहरण बन जाते हैं और पूर्व के निर्णय के आधार पर निर्णय दिए जाने लगते हैं और इन पूर्व के निर्णयों को उसी प्रकार की मान्यता होती है जैसे कि संसद द्वारा बनाये गए कानूनों की।

न्यायाधीश अपने विवेक से निर्णय देते हैं और उनके द्वारा की गयी व्याख्याएँ विवादों का निर्णय करती हैं। अतः वे कानून में विस्तार करते हैं, कानूनों में संशोधन करते हैं तथा उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के निर्णय प्रायः वकीलों द्वारा प्रभावी तरीके से उद्धत किए जाते हैं। उपरोक्त उदाहरण में इक्वाडोर के न्यायालय में इस प्रकार से कार्य नहीं किया जाता। वहाँ पर न्यायालयों के पूर्व निर्णयों को आधार बनाकर निर्णय नहीं दिए जाते। वहाँ न्यायाधीश एक दिन एक तरीके से और दूसरे दिन दूसरे तरीक से निर्णय देते हैं और वह बिना कारण बताए ऐसा करते रहते हैं।

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प्रश्न 8.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाए जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन-मूल, अपीली और परामर्शकारी-से इनका मिलान कीजिए।

  1. सरकार जानना चाहती थी कि क्या वह पाकिस्तान-अधिग्रहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के संबंध में कानून पारित कर सकती है।
  2. कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
  3. बांध स्थल से हटाए जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।

उत्तर:

  1. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का आशय उन विवादों से है जो उच्चतम न्यायालय में सीधे तौर पर लिए जाते हैं। ये विवाद किसी अन्य निचले न्यायालय में नहीं लिए जा सकते।
  2. अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय है कि वे विवाद जो किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में लाए जा सकते हैं।
  3. परामर्शदायी क्षेत्राधिकार वह क्षेत्राधिकार है जिसमें राष्ट्रपति किसी विवाद के बारे में उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगता है। उच्चतम न्यायालय चाहे तो परामर्श दे सकता है और चाहे तो मना भी कर सकता है। राष्ट्रपति भी उच्चतम न्यायालय के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

प्रश्न में दिए गए कथनों को विभिन्न क्षेत्राधिकारों से निम्न प्रकार से मिलान किया जा सकता है –

  • सरकार यह जानना ……….. परामर्शदायी क्षेत्राधिकार
  • तमिलनाडु सरकार ………. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
  • न्यायालय लोगों से ……….. अपीलीय क्षेत्राधिकार

प्रश्न 9.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार छिनते हैं या जब वह किसी विवाद में फँसता है तो वह न्यायालय की शरण लेता है। परंतु 1979 में एक ऐसी न्यायिक प्रक्रिया भी चालू की गई जिससे पीड़ित व्यक्ति की ओर से वह स्वयं नहीं वरन् उसे गरीबों के हित में दूसरा व्यक्ति डालता है। इस वाद में किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं वरन् जनहित में सुनवाई की जाती है। गरीब आदमियों के हित में बहुत से स्वयंसेवी संगठन न्यायालय में याचिका दायर करते हैं।

गरीबों का जीवन सुधारने के लिए, गरीब व्यक्तियों के अधिकार की पूर्ति करने के लिए, वातावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए, बंधुआं मजदूरों की मुक्ति के लिए, लड़कियों से देहव्यापार कराने को रोकने के लिए, अवैध रूप में बिना लाइसेंस के ही गरीब रिक्सा चलाने वाले मजदूरों से रिक्सा चलवाने पर रोक लगाकर रिक्सा चालक को रिक्सा का कब्जा दिलवाने के लिए और इसी प्रकार की गरीब व्यक्तियों को उत्पीड़न की समस्याओं से छुटकारा दिलवाने के लिए स्वयंसेवी संगठन या दूसरे एन.जी.ओ. की तरफ से न्यायालय में जनहित याचिकाएँ भेजकर न्यायालय से हस्तक्षेप करने की माँग की जाती है। न्यायालय इन शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू करता है और न्यायिक सक्रियता के द्वारा पीड़ित व्यक्तियों को छुटकारा मिल जाता है।

कभी-कभी न्यायालय ने समाचार पत्रों में छपी खबरों के आधार पर भी जनहित में सुनवाई की। 1980 के बाद जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते। 1980 में तिहाड़ जेल के एक कैदी के द्वारा भेजे गए पत्र के द्वारा कैदियों की यातनाओं की सुनवाई की। परंतु अब पत्र भेजने के द्वारा याचिका स्वीकार करना बंद कर दिया गया है।

बिहार की जेलों में कैदियों को काफी लम्बी अवधि तक रखा गया और केस की सुनवाई नहीं की गई। एक वकील के द्वारा एक याचिका दायर की गई और सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकदमा चला। इस वाद को ‘हुसैनारा खतुन बनाम बिहार सरकार” के नाम से जाना जाता है। इन जनहित याचिकाओं के प्रचलन से यद्यपि न्यायालयों पर कार्यों का बोझ बढ़ा है परंतु गरीब आदमी को लाभ हुआ। इसने न्याय व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाया। इससे कार्यपालिका जवाबदेह बनने पर बाध्य हुई वायु और ध्वनि प्रदूषण दूर करना, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच, चुनाव सुधार आदि अनेक सुधार होने का लाभ गरीब आदमी को मिलता है। अनेक बंधुआ मजदूरों को शोषण से बचाया गया है।

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प्रश्न 10.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
भारतीय न्यायपालिका को न्याय पुनः निरिक्षण की शक्ति प्राप्त है जिसके आधार पर न्यायपालिका विधानपालिका के द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका के द्वारा जारी आदेशों की संवैधानिक वैधता की जाँच कर सकता है, अगर ये संविधान के विपरीत पाये जाते हैं तो न्यायपालिका उनको अवैध घोषित कर सकती है। परंतु न्यायपालिका को यह शक्ति सीमित है अर्थात न्यायपालिका नीतिगत विषय पर टिप्पणी नहीं कर सकता व ना ही कानूनों या आदेशों के इरादों में जा सकती है। परंतु पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने अपनी इस सीमा को तोड़ा है कार्यपालिका के कार्यों में लगातार हस्तक्षेप व बाधा करती रही है जिसको राजनीतिक क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता कहा जाता है। जिसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका व न्यायपालिका में टकराव पैदा हो गया है।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन और किस की सलाह से करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है। इस कार्य में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श करता है।

प्रश्न 2.
भारत के उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. शक्ति विभाजन से संबंधित केन्द्र तथा राज्य के बीच अथवा राज्यों के परस्पर झगड़े निपटाना।
  2. मौलिक अधिकारों की रक्षा करना।

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प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सिद्ध कदाचार या असमर्थता के कारण पद से कैसे हटाए जा सकते हैं?
उत्तर:
यदि संसद के दोनों सदन अलग-अलग अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से इसको अयोग्य या आपत्तिजनक आचरण करने वाला घोषित कर दे तो राष्ट्रपति के आदेश से उस न्यायाधीश को उसके पद से हटाया जा सकता है।

प्रश्न 4.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य तथा अन्य न्यायाधीश को कुल कितना वेतन मिलता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को मासिक वेतन 33,000 रुपये तथा कई तरह के भत्ते भी मिलते हैं। अन्य न्यायाधीशों को 30,000 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता है। स्टाफ, कार तथा पेट्रोल की सुविधा भी मिलती है। किरायामुक्त आवास भी मिलता है।

प्रश्न 5.
न्यायपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
न्यायपालिका का अर्थ-न्यायपालिका सरकार का तीसरा अंग है। यह लोगों के आपसी झगड़ों का वर्तमान कानूनों के अनुसार निबटारा करती है। जो लोग कानून का उल्लंघन करते हैं कार्यपालिका उनको न्यायपालिका के सामने प्रस्तुत करती है और न्यायपालिका उनका निर्णय करती है तथा अपराधियों को कानून के अनुसार दंड देती है। गिलक्राइस्ट का कहना है कि “न्यायपालिका से अभिप्राय शासन के उन अधिकारियों से है जो वर्तमान कानूनों को व्यक्ति-विवादों में लागू करते हैं।”

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प्रश्न 6.
आधुनिक युग में न्यायपालिका का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
न्यायपालिका का नागरिकों के लिए बड़ा महत्त्व है। यह वह संस्था है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करती है, उन्हें कार्यपालिका की मनमानी से छुटकारा दिलाती है, गरीब को अमीर के दुर्बल को शक्तिशाली के अत्याचारों से मुक्ति दिलाती है। यह कार्यपालिका और विधायिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाती है और राज्यों के हितों की केन्द्र के हस्तक्षेप से रक्षा करती है। जब भी किसी को गैर-कानूनी तरीके से तंग किया जाता है या उसके अधिकारों में हस्तक्षेप होता है तो वह न्यायपालिका की ही शरण लेता है। न्यायपालिका भी अपने उत्तरदायित्व को उसी समय निभा सकती है जबकि वह ईमानदार, निष्पक्ष और स्वतंत्र हो और किसी अन्य अंग के दबाव या प्रभाव में न हो।

प्रश्न 7.
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कोई तीन कार्य बताओ।
उत्तर:
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका में तीन कार्य –
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका एक स्वतंत्र अंग के रूप में कार्य करती है और इसके कई कार्य होते हैं। इनमें से तीन प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. न्यायपालिका उन सभी मुदकमों का निर्णय करती है जो किसी कानून का उल्लंघन करने के आधार पर कार्यपालिका द्वारा इसके सामने प्रस्तुत किए जाते हैं या किसी वादी ने निजी तौर पर दायर किए हों।
  2. न्यायपालिका संविधान तथा संविधान के कानूनों की व्याख्या करती है और जब भी इनके अर्थों के बारे में कोई मतभेद हो, वह उसका निबटारा करती है।
  3. न्यायपालिका नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा भी करती है।

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प्रश्न 8.
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ बताओ।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ-न्यायिक पुनरावलोकन की अमेरिका तथा भारत दोनों देशों में व्यवस्था है। इसके कुछ लाभ हैं। इनमें से दो लाभ निम्नलिखित हैं –

  1. संघीय व्यवस्था में न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था का होना आवश्यक है क्योंकि इसके द्वारा ही संघीय व्यवस्था, संविधान तथा केन्द्र की इकाइयों के अधिकारों की रक्षा हो सकती है।
  2. एक लिखित संविधान की रक्षा जिसमें सरकार के विभिन्न अंगों में शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है, न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवथा ही कर सकती है। इससे सरकार का कोई अंग अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकता।

प्रश्न 9.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ गया है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलतापूर्वक एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतंत्र हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि न्यायधीश स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा निडर हो। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधायिका तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होना चाहिए और विधायिका तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

प्रश्न 10.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के महत्त्व का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतंत्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं की रक्षा कर सकती है। लोकतंत्र की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र होना आवश्यक है। संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में विभाजन होता है। कई बार शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में झगड़ा हो जाता है। इन झगड़ों को निपटाने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।

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प्रश्न 11.
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से स्वतंत्र क्यों रखा जाता है?
उत्तर:
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से स्वतंत्र इसलिए रखा गया है ताकि राज्य के नागरिक स्वतंत्रतापूर्वक अपने कार्य कर सकें और उनके व्यक्तित्व का विकास हो सके। आधुनिक युग में न्यायपालिका का महत्त्व व क्षेत्र बहुत व्यापक हो चुका है। न्यायपालिका अपने कर्तव्यों को तब तक पूरा नहीं कर सकती, जब तक योग्य तथा निष्पक्ष व्यक्ति न्यायाधीश न हों तथा उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त न हो। गार्नर ने कहा है “यदि न्यायधीशों में प्रतिभा, सत्यता और निर्णय देने की स्वतंत्रता न हो तो न्यायपालिका का सारा ढाँचा खोखला प्रतीत होगा और उस उद्देश्य की सिद्धि नहीं होगी जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।”

प्रश्न 12.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए कौन-कौन सी योग्यताएँ आवश्यक हैं?
उत्तर:
राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है, जिसमें निम्नलिखित योग्यताएँ हो –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह कम से कम 5 वर्ष तक एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश के पद पर रह चुका हो। अथवा, वह कम से कम 10 वर्षों तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रह चुका हो। अथवा, वह राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रसिद्ध कानून-विशेषज्ञ हो।

प्रश्न 13.
उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार क्या हैं?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार –

  1. केन्द्र-राज्य अथवा एक राज्य का किसी दूसरे से विवाद अथवा विभिन्न राज्यों में विवाद उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं।
  2. यदि कुछ राज्यों के बीच किसी संवैधानिक विषय पर कोई विवाद उत्पन्न हो जाए तो वह विवाद भी उच्चतम न्यायालय द्वारा ही निपटाया जाता है।
  3. मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित कोई विवाद सीधा उच्चतम न्यायालय के सामने ले जाया जा सकता है।
  4. यदि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव के बारे में कोई विवाद हो तो उसका निर्णय उच्चतम न्यायालय ही करता है।

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प्रश्न 14.
उच्चतम न्यायालय का गठन कैसे होता है? अथवा, भारत में उच्चतम न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा कुछ न्यायाधीश होते हैं। आजकल उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 25 अन्य न्यायाधीश हैं। न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायाधीशों के ऐसे न्यायाधीशों की सलाह लेता है, जिन्हें वह उचित समझता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश की सलाह अवश्य लेता है।

प्रश्न 15.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन तथा अन्य सुविधाओं का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। वेतन के अतिरिक्त उन्हें कुछ भत्ते भी मिलते हैं। उन्हें रहने के लिए बिना किराए का निवास स्थान भी मिलता है। उसके वेतन, भत्ते तथा दूसरी सुविधाओं में उनके कार्यकाल में किसी प्रकार की कमी नहीं की जा सकती तथापि आर्थिक संकटकाल की उद्घोषणा के दौरान न्यायाधीशों के वेतन आदि घटाए जा सकते हैं। सेवानिवृत्ति होने पर उन्हें पेंशन मिलती है।

प्रश्न 16.
“उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक है।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संविधान भारत का सर्वोच्च प्रलेख है और किसी भी व्यक्ति, सरकारी कर्मचारी, अधिकारी अथवा सरकार का कोई अंग इसके विरुद्ध आचरण नहीं कर सकता। इसकी रक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय का कर्त्तव्य है इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को विधानमंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए आदेशों पर न्यायिक निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय इस बात की जाँच-पड़ताल तथा निर्णय कर सकता है कि कोई कानून या आदेश संविधान की धाराओं के अनुसार है या नहीं।

यदि सर्वोच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि किसी कानून से संविधान का उल्लंघन हुआ है तो वह उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस अधिकार द्वारा उच्चतम न्यायालय सरकार के अन्य दोनों अंगों पर नियंत्रण रखता है और उन्हें अपने अधिकारों का दुरुपयोग या सीमा का उल्लंघन नहीं करने देता। संघ और राज्यों को भी वह अपने सीमा क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ने देता।

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प्रश्न 17.
उच्चतम न्यायालय को सबसे बड़ा न्यायालय क्यों माना जाता है?
उत्तर:

  1. यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है।
  2. इसका फैसला अंतिम होता है जो सबको मानना पड़ता है।
  3. यह संविधान के विरुद्ध पास किए गए कानूनों को रद्द कर सकता है।
  4. यह केन्द्र और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के आपसी झगड़ों का फैसला करता है। संविधान की व्याख्या करता है और मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।
  5. इसके फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती।

प्रश्न 18.
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति का संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार प्राप्त है। न्यायिक समीक्षा का अर्थ है कि संसद तथा विभिन्न राज्यों के विधानमंडल द्वारा पारित कानूनों और कार्यकारिणी द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों की न्यायालयों द्वारा समीक्षा करना। भारत में न्यायिक पर्यवेक्षण का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी इस शक्ति द्वारा यह देखता है कि विधानपालिका द्वारा पास किए गए कानून तथा कार्यकारिणी द्वारा जारी किए गए अध्यादेश संविधान की धारा के अनुकूल है या नहीं। यदि न्यायालय इन कानूनों को संविधान के प्रतिकूल पाता है तो उन्हें अवैध घोषित कर सकता है।

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प्रश्न 19.
भारत के महान्यायवादी पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
महान्यायवादी:
भारत महान्यायवादी सरकार तथा राष्ट्रपति का कानूनी सलाहकार होता है। भारत का राष्ट्रपति किसी भी ऐसे व्यक्ति को महान्यायवादी के पद पर नियुक्त कर देता है जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर योग्यताएँ रखता हो। महान्यायवादी किसी भी कानूनी समस्या जिस पर उससे सलाह माँगी जाय, राष्ट्रपति को व भारत सरकार को अपना परार्मश देता है। महान्यायवादी को भारत की संसद के किसी भी सदन में बोलने और कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार है वह किसी संसदीय समिति का सदस्य भी बन सकता है, पर उसे उस समिति में मतदान का अधिकार नहीं है।

प्रश्न 20.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाए जाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को उसके दुर्व्यवहार अथवा असमर्थता के लिए पद से हटाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में संसद के दोनों सदन पृथक-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद से अलग होने का आदेश देता है।

प्रश्न 21.
अभिलेख न्यायालय (कोर्ट ऑफ रिकार्ड) के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय भी है। इसका अभिप्राय यह है कि इसके निर्णयों को सुरक्षित रखा जाता है और किसी प्रकार के अन्य मुकदमों में उनका हवाला दिया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किए गए निर्णय सभी न्यायालय मानने के लिए बाध्य हैं। यह न्यायालय अपनी कार्यवाही तथा निर्णयों का अभिलेख रखने के लिए उन्हें सुरक्षित रखता है।

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प्रश्न 22.
जिला स्तर के अधीनस्थ न्यायालयों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालयों का संगठन देश भर में लगभग समान रूप से है। प्रत्येक जिले में तीन प्रकार के न्यायालय होते हैं –

  1. दिवानी
  2. फौजदारी
  3. भूराजस्व न्यायालय। ये न्यायालय राज्य के उच्च न्यायालय के नियंत्रण में काम करते हैं। जिला न्यायालय में उप-न्यायाधीशों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं। ये न्यायालय सम्पत्ति, विवाह, तलाक सम्बन्धी विवादों की सुनवाई भी करते हैं।

प्रश्न 23.
“लोक अदालत” पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत में गरीब, दलित, जरूरतमंद लोगों को तेजी से, आसानी से व सस्ता न्याय दिलाने के लिए हमारे देश में न्यायालयों की एक नई व्यवस्था शुरू की गई है जिसे लोक अदालत के नाम से जाना जाता है। लोक अदालतों की योजना के पीछे बुनियादी विचार यह है कि न्याय दिलाने में होने वाली देरी खत्म हो और जितनी जल्दी हो सके, वर्षों से अनिर्णित मामलों को निपटाया जाय। लोक अदालतें ऐसे मामलों को तय करती हैं जो अभी अदालत तक नहीं पहुँचे हों या अदालतों में अनिर्णीत पड़े हों। जनवरी 1989 में दिल्ली में लगी लोक अदालत ने सिर्फ एक ही दिन में 531 मामलों पर निर्णय दे दिए।

प्रश्न 24.
जनहित सम्बन्धी न्याय व्यवस्था पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत के उच्चतम न्यायालय ने जनहितार्थ न्याय के संबंध में नया कदम उठाया है। इसके द्वारा एक साधारण आवेदन पत्र या पोस्टकार्ड पर लिखकर कोई भी व्यक्ति कहीं से अन्याय की शिकायत के बारे में आवेदन करे तो शिकायत पंजीकृत की जाती है और आवश्यक आदेश जारी किए जा सकते हैं। इस योजना के अंतर्गत कमजोर वर्गों के लोगों, बंधुआ मजदूरों तथा बेगार लेने पर रोक लगाई जा सकती है। जनहित के मुकदमों से अभिप्राय यह है कि गरीब, अनपढ़ और अनजान लोगों की एवज में दूसरे व्यक्ति या संगठन भी न्याय माँगने का अधिकार रखते हैं।

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प्रश्न 25.
भारत का सबसे बड़ा न्यायालय कौन-सा है? इसके न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश होते हैं।

प्रश्न 26.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश किस आयु पर अवकाश ग्रहण करते हैं?
उत्तर:
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रह सकते हैं। इससे पूर्व स्वयं त्यागपत्र दे सकते हैं या संसद द्वारा सिद्ध कदाचार अथवा असमर्थता के कारण हटाए जा सकते हैं।

प्रश्न 27.
संविधान के दो प्रमुख उपबंध बताइए, जो उच्चतम न्यायालय को स्वतंत्र तथा निष्पक्ष बनाते हैं।
उत्तर:

  1. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र करने का परामर्श देते हैं।
  2. सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति निर्धारित न्यायिक अथवा कानूनी योग्यताओं के आधार पर की जाती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
निर्वाचित न्यायपालिका और मनोनीत न्यायपालिका में भेद लिखिए।
उत्तर:
न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। यह लोगों के आपसी झगड़ों का वर्तमान कानूनों के अनुसार निर्णय करती है और जो लोग कानून का उल्लंघन करते हैं, न्यायपालिका उन अपराधियों को दण्ड देती है। विश्व के विभिन्न देशों में न्यायपालिका के रूप में न्यायधीशों की नियुक्ति मुख्यत: दो तरीकों से होती है-पहला, निर्वाचन के द्वारा तथा दूसरा सरकार द्वारा।

अमेरिका के कुछ राज्यों तथा कुछ अन्य देशों में न्यायपालिका के सदस्यों अर्थात् न्यायाधीशों का चुनाव जनता के द्वारा किया जाता है। स्विट्जरलैंड जैसे कुछ देशों में न्यायाधीशों का चुनाव विधानमंडल द्वारा होता है। दूसरी ओर विश्व के अधिकतर देशों में न्यायपालिका के सदस्यों को मुख्य कार्यपालिका अर्थात् राष्ट्रपति तथा राजा द्वारा मनोनीत किया जाता है। वे न्यायधीशों की निर्धारित योग्यताओं के आधार पर काम करते हैं। भारत तथा इंग्लैंड में यही प्रथा प्रचलित है।

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प्रश्न 2.
भारत में शीघ्र और सस्ते न्याय के लिए दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:
शीघ्र और सस्ता न्याय एक अच्छी और सुदृढ़ न्याय व्यवस्था की कुंजियाँ हैं। परंतु हमारे देश में न्यायपालिका में ये दोनों विशेषताएँ नहीं पायी जाती। हमारे देश में न्याय पाने में बहुत देर लगती है तथा यह महँगा भी है। भारत के नागरिकों को शीघ्र और सस्ता न्याय दिलवाने के लिए हमारी केन्द्रीय सरकार ने लोक अदालतों का कार्यक्रम शुरू किया है।
भारत में शीघ्र और सस्ता न्याय दिलवाने के लिए दो मुख्य सुझाव इस प्रकार हैं –

  1. भारत के प्रत्येक राज्य में राज्य स्तर व जिला स्तर पर लोक अदालतों की व्यवस्था की जानी चाहिए और इन्हें लोकप्रिय बनाने जाने के लिए प्रचार किया जाना चाहिए।
  2. न्याय को शीघ्र पाने के लिए पिछले बचे हुए मुकदमों का तेजी से निपटारा किया जाना चाहिए और आवश्यतानुसार नए न्यायालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए। न्याय को सस्ता करने के लिए न्यायालयों के खर्चों तथा वकीलों की फीसों को सरकार द्वारा कम किया जाना चाहिए।

प्रश्न 3.
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार कौन-कौन से हैं? अथवा, उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को कब परामर्श देता है क्या राष्ट्रपति उसकी सलाह मानने को बाध्य है?
उत्तर:
भारत में उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार निम्नलिखित हैं –

1. प्रारंभिक क्षेत्राधिकार:
सर्वोच्च न्यायालय को कुछ मुकदमों में प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं अर्थात् कुछ मुकदमे ऐसे हैं जो सर्वोच्च न्यायालय में सीधे ले जा सकते हैं।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
कुछ मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय के पास उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील के रूप में आते हैं। ये अपीलें संवैधानिक, दीवानी तथा फौजदारी तीनों प्रकार के मुकदमों में सुनी जा सकती हैं।

3. सलाहकारी क्षेत्राधिकार:
राष्ट्रपति किसी सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर सर्वोच्च न्यायालय से कानूनी सलाह ले सकता है, परंतु राष्ट्रपति के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श के अनुसार कार्य करे।

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प्रश्न 4.
भारत में दीवानी न्यायालयों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
दीवानी न्यायालय रुपये-पैसे और जमीन-जायदाद आदि के झगड़ों के मुकदमों का फैसला करते हैं। भारत में पंचायतें सबसे छोटी दीवानी अदालतें हैं और ये 200 रुपये तक के झगड़ों का फैसले कर सकती हैं। पंचायतों के बाद कोलकाता, मुम्बई व चेन्नई आदि बड़े-बड़े नगरों में लघुवाद न्यायालय 500 रुपये से 2000 रुपये तक के झगड़ों का फैसला करते हैं। इसके बाद सब-जज के न्यायालय होते हैं जिन्हें बड़ी-बड़ी रकमों के मुकदमे सुनने का फैसला करने का अधिकार है। दीवानी मुकदमे सुनने के लिए जिले में सबसे बड़ा न्यायालय जिला जज का होता है। राज्यपाल जिला जज एवं न्यायाधीशों व मजिस्ट्रेटों की नियुक्ति संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है। जिला न्यायालय में अधीन न्यायालयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं।

प्रश्न 5.
अनुच्छेद 32 के अधीन विभिन्न ‘लेखों (रिट)’ को बताएँ।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए निम्नलिखित लेख (रिट) जारी कर सकता है –
(क) बंदी प्रत्यक्षीकरण
(ख) परमादेश
(ग) प्रतिषेध
(घ) अधिकारपृच्छा
(ङ) उत्पेषण

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के गठन के बारे में लिखिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का गठन

1. रचना –
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है, शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके द्वारा किया गया निर्णय सर्वमान्य होता है। संविधान द्वारा इस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 8 निश्चित की गई थी जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश थे, परंतु आवश्यकता के अनुसार इनकी संख्या बढ़ा दी गई। आजकल सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश काम कर रहे हैं।

2. योग्यताएँ –

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • कम से कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।
  • कम से कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों का एडवोकेट रह चुका हो।
  • राष्ट्रपति के विचार से वह कानून-शास्त्र का प्रख्यात विद्वान हो।

3. कार्यकाल:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वे त्यागपत्र दे सकते हैं।

4. पद से हटना:
किसी भी न्यायाधीश को उसके दुर्व्यवहार अथवा असमर्थता के लिए पद से हटाया जा सकता है। इस संबंध में संसद के दोनों सदन पृथक्-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 के बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद छोड़ने का आदेश देता है।

5. वेतन तथा भत्ते:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये और प्रत्येक अन्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उन्हें मुफ्त सरकारी आवास, स्टाफ, कार तथा अन्य सुविधाएँ मिलती हैं। पद मुक्त हो जाने पर उन्हें पेंशन भी मिलता है।

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प्रश्न 2.
मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत के नागरिकों को भारतीय संविधान द्वारा छः मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। इन मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भारत की न्यायपालिका को दिया गया है। इस कार्य में मुख्य भूमिका भारत के सर्वोच्च न्यायालय व राज्यों के उच्च न्यायालयों द्वारा निभायी जाती है।

यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचलती है या अन्य नागरिक दूसरे नागरिकों को उसके मौलिक अधिकारों का प्रयोग स्वतंत्रापूर्वक नहीं करने देते तो उन नागरिकों के पास यह मौलिक अधिकार है कि वे अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय या अपने राज्य के उच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय “संवैधानिक उपचारों के अधिकार” के अन्तर्गत संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हैं। मौलिक अधिकारों की रक्षा करते समय ये न्यायालय निम्नलिखित लेख या आदेश जारी कर सकते हैं –

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण का आदेश-इसका अर्थ है:
शरीर को हमारे समक्ष प्रस्तुत करो। यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि किसी व्यक्ति को अनुचित ढंग से बंदी बनाया गया है तो उसकी रिहाई के आदेश दे सकता है।

2. परमादेश:
इसका अर्थ है हम आदेश देते हैं। जब कोई व्यक्ति, संस्था, निगम या अधीनस्थ न्यायालय अपने कर्तव्य का पालन न कर रहा हो, तब यह आदेश पत्र जारी किया जा सकता है। इसके द्वारा उसे कर्त्तव्य पालन का
आदेश दिया जाता है।

3. प्रतिषेध:
जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जा रहा हो या कानून की प्रक्रिया के विरुद्ध जा रहा हो तो उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय उस अधीनस्थ न्यायालय को ऐसा करने से प्रतिषेध कर सकता है।

4. अधिकार पृच्छा:
इसका अर्थ है किस अधिकार से ? यदि कोई व्यक्ति किसी पद या अधिकार को कानून के विरुद्ध प्राप्त करके बैठा हो तो उसे ऐसा करने से रोका जा सकता है।

5. उत्प्रेषण लेख:
इसका अर्थ है और अधिक सूचित कीजिए। इसके द्वारा न्यायालय किसी अधीन न्यायालय या किसी मुकदमे को अपने पास या किसी ऊँचे न्यायालय में भेजने के लिए कह सकता है।

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प्रश्न 3.
उच्चतम न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकारों एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के संरचना का वर्णन कीजिए। इसके अपील संबंधी क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना, शक्तियों एवं भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का संगठन –

1. संरचना:
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है, शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके द्वारा किया गया निर्णय सर्वमान्य होता है। संविधान द्वारा इस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 8 निश्चित की गई थी जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश थे, परंतु आवश्यकता के अनुसार इसकी संख्या बढ़ा दी गई। आजकल सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश काम कर रहे हैं।

2. योग्यताएँ:

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • कम से कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।
  • कम से कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों का एडवोकेट रह चुका हो।

3. राष्ट्रपति के विचार से वह कानून:
शास्त्र का प्रख्यात विद्वान हो।

4. कार्यकाल:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वे त्यागपत्र दे सकते हैं।

5. वेतन तथा भत्ते:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये और प्रत्येक अन्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उन्हें वाहन भत्ता और रहने के लिए मुफ्त सरकारी मकान भी प्राप्त होता है। केवल वित्तीय संकट के काल को छोड़कर और किसी भी स्थिति में किसी न्यायाधीश के वेतन व भत्ते आदि में कमी या कटौती नहीं की जा सकती।

सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार एवं शक्तियाँ:
सर्वोच्च न्यायालय को बहुत ही विस्तृत क्षेत्राधिकार प्राप्त है। इस विषय में कृष्ण स्वामी अय्यन ने कहा है – “भारत के सर्वोच्च न्यायालय की दुनिया के किसी भी सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त हैं।”

(I) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार –

  • यदि दो या दो से अधिक सरकारों के मध्य आपस में कोई विवाद या झगड़ा उत्पन्न हो जाए तो वह मुकदमा सीधा सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जाता है।
  • यदि किसी विषय पर केन्द्रीय सरकार तथा एक अथवा एक से अधिक राज्यों के बीच कोई मतभेद उत्पन्न हो जाये तो वह मुकदमा सीधा सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जा सकता है।
  • मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मुकदमों को भी सीधे सुन सकता है जिनमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सरकार या किसी व्यक्ति द्वारा छीना गया हो।

(II) अपील संबंधी क्षेत्राधिकार –
सर्वोच्च न्यायालय एक अतिम अपीलीय न्यायालय है। यह उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुन सकता है।

1. संवैधानिक विषय:
यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि उसके विचारानुसार किसी मुकदमे में संविधान की किसी धारा की.ठीक व्याख्या के संबंध में विवाद है तो ऐसे मुकदमों की अपील सर्वोच्च न्यायालय सुन सकता है।

2. दीवानी मुकदमे:
दीवानी मुकदमे सम्पत्ति से संबंधित होते हैं। उच्च न्यायालयों द्वारा दीवानी मुकदमों में दिए गए निर्णयों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। लेकिन अपील केवल उन्हीं निर्णयों के विरुद्ध की जा सकती है जिनमें सार्वजनिक महत्त्व का कोई कानून निहित हो और जिसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जानी आवश्यक है। आरम्भ में केवल उन्हीं मुकदमों की अपील करने की व्यवस्था की गई थी, जिसमें 20,000 या उससे अधिक रुपयों की सम्पत्ति का दावा निहित हो। 1972 ई. के 30 वें संशोधन में यह सीमा समाप्त कर दी गई।

3. फौजदारी मुकदमे:
सर्वोच्च न्यायालय विभिन्न प्रकार के फौजदारी मुकदमों की अपीलें सुन सकता है। जैसे –
(अ) उच्च न्यायालय ने निम्न न्यायालय से मुकदमा अपने पास मंगाकर अपराधी को मृत्यु-दण्ड दिया हो।
(ब) जब उच्च न्यायालय ने किसी ऐसे अपराधी को मृत्यु-दण्ड दिया हो जिसे निम्न न्यायालय ने बरी कर दिया हो।
(स) जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि किसी मामले के संबंध में कोई अपील सर्वोच्च न्यायालय के सुने जाने के योग्य है।

4. परामर्श देने का अधिकार:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श संबंधी अधिकार दिया गया है। यदि राष्ट्रपति किसी विषय पर सर्वोच्च न्यायालय की बात जानना चाहता है। तो यह न्यायालय को अपना परामर्श दे सकता है।

5. संविधान के व्याख्याता के रूप में संविधान की किसी भी धारा के संबंध में व्याख्या करने का अंतिम अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है कि संविधान की किस धारा का सही अर्थ क्या है?

6. अभिलेख न्यायालय:
सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा अभिलेख न्यायालय बनाया गया है। अभिलेख न्यायालय का अर्थ ऐसे न्यायालय से है जिसके निर्णय दलील के तौर पर सभी न्यायालयों को मानने पड़ते हैं। इस न्यायालय को अपने अपमान के लिए किसी को भी दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।

7. न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अधिकार-इसका अर्थ यह है कि सर्वोच्च न्यायालय व्यवस्थापिका के उन कानूनों को और कार्यपालिका के उन आदेशों को अवैध घोषित कर सकता है जो कि संविधान के विरुद्ध हो । यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय के पास बहुत ही महत्त्वपूर्ण शक्ति है। इस शक्ति के द्वारा ही वह संविधान की रक्षा करता है तथा मौलिक अधिकारों का संरक्षक है।

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प्रश्न 4.
न्यायिक समीक्षा की क्या-क्या सीमाएँ हैं?
उत्तर:
भारत में न्यायिक समीक्षा का क्षेत्र संयुक्त राज्य अमरीका की अपेक्षा कम विस्तृत है। उच्चतम न्यायालय की शक्तियों की निम्नलिखित सीमाएँ हैं –

1. कानून के विवेक व उसकी नीति को चुनौती नहीं दी जा सकती:
न्यायालय को यह अधिकार नहीं है कि विधायिका की ‘बुद्धि’ या ‘विवेक’ की समीक्षा करे। उसका कार्य तो केवल यह देखना है कि क्या विधानमंडल अथवा कार्यपालिका को अमुक कानून बनाने का अधिकार है? कानून अच्छा है या बुरा यह निर्णय करने की शक्ति उसे प्रदान नहीं की गयी है। जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में “न्यायालय को विधायिका का तीसरा सदन नहीं बनाया जा सकता।”

2. संविधान की नौवीं अनुसूची:
प्रथम संशोधन द्वारा संविधान में एक अनुसूची (9वीं अनुसूची) जोड़ दी गई और यह व्यवस्था की गयी कि जिन कानूनों को इस अनुसूची में डाल दिया जायगा उनकी वैधता को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। अनेक भूमि सुधार कानूनों तथा राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी कानूनों को न्यायालय की परिधि से बाहर रखने के लिए इस अनुसूची में डाल दिया जाता है।

3. अन्तर्राष्ट्रीय नदियों के जल का बँटवारा:
अन्तर्राष्ट्रीय नदियों के जल के बँटवारे के विवाद का निर्णय उच्चतम न्यायालय न करे, संसद यह व्यवस्था कर सकती है।

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प्रश्न 5.
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पर्यवेक्षण की शक्ति का विवेचन कीजिए। अथवा, भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायिक समीक्षा का अधिकार क्या है? न्यायिक समीक्षा के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक समीक्षा से अभिप्राय-संविधान की व्याख्या करने की शक्ति को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के नाम से पुकारा जाता है। इसी को ‘न्यायिक पुनर्निरीक्षण’ अथवा ‘पुनरावलोकन’ भी कहते हैं। पुनर्निरीक्षण का अर्थ है-‘फिर से देखना’ अर्थात् “विधायिका द्वारा पारित कानून और कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए आदेश का जाँच करना और यह देखना कि वे संविधान के अनुकूल हैं अथवा नहीं। “यदि न्यायालय यह समझे कि अमुक कानून (चाहे वह ‘संसद द्वारा निर्मित हो या राज्य विधानमण्डल द्वारा) अथवा आदेश संविधान की धाराओं के विरुद्ध है तो उसे अवैध असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

इसी प्रकार केन्द्र अथवा राज्य सरकारों के किसी कृत्य को संवैधानिक अथवा गैर-संवैधानिक घोषित करने की शक्ति को ही न्यायिक समीक्षा के नाम से पुकारा जाता है। क्योंकि उच्चतम न्यायालय एक सर्वोच्च अदालत है इसलिए किसी भी मामले में उसका निर्णय अंतिम निर्णय माना जाएगा। इस अधिकार के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय निम्नलिखित शक्तियों का उपयोग करता है –

1. यदि केन्द्र और राज्यों के बीच कोई संवैधानिक विवाद हो तो उच्चतम न्यायालय उसका निर्णय कर सकता है।

2. यदि संसद या राज्यों के विधान मंडल कोई ऐसा कानून बनाये अथवा कार्यपालिका कोई ऐसा आदेश जारी करे जो संविधान की धाराओं के अनुकूल न हो तो उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि उसे अवैध यानि ‘शून्य या निष्क्रिय’ घोषित कर दे। दूसरे शब्दों में, “संसद व राज्यों के विधानमण्डलों को अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर रहते हुए सब कार्य करने चाहिए।”

3. उच्चतम न्यायालय मूलभूत अधिकारों का भी रक्षक है। अधिकारों की रक्षा के लिए उसे कई प्रकार के आदेश व लेख जारी करने का अधिकार है, जैसे बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख तथा परमादेश आदि।

4. संविधान में यदि कोई अस्पष्टता है अथवा किसी शब्द या अनुच्छेद के विषय में कोई संशय या मतभेद है तो उच्चतम न्यायालय को अधिकार है कि वह संविधान के अर्थों का स्पष्टीकरण करे।

न्यायिक समीक्षा का महत्त्व:

1.  लिखित संविधान के लिए न्यायिक समीक्षा अनिवार्य है-लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। इसलिए संविधान की व्याख्या का प्रश्न जब-तब जरूर उठेगा।

2. संविधान में केन्द्र और राज्यों को सीमित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं:
संघीय शासन में राजशक्ति को केन्द्र और इकाइयों के बीच बाँट दिया जाता है। अपने-अपने क्षेत्र में ये सरकारें एक-दूसरे के नियंत्रण से प्रायः मुक्त होती हैं। यदि केन्द्र अथवा राज्य सरकारें अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य-संचालन मुश्किल हो जाएगा। केन्द्र और राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों का ठीक से निबटारा एक उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है।

3. संविधान की व्याख्या का कार्य न्यायालय ही अच्छी तरह कर सकता है:
जस्टिस के.के. मैथ्यू के अनुसार “संसद की सदस्य संख्या बहुत बड़ी होती है।” सदस्य जब तब बदलते रहते हैं और उनमें दलबंदी की भावना होती है। इसके अतिरिक्त उनके ऊपर का ज्यादा असर होता है। इन कारणों से संविधान की व्याख्या के लिए जितनी निष्पक्षता की जरूरत होती है उतनी निष्पक्षता उनमें नहीं होती।” दूसरी ओर, न्यायालय की रचना इस प्रकार की होती है कि उसके ऊपर क्षणिक आवेश या राजनीतिक प्रभावों का असर नहीं पड़ता। संविधान की व्याख्या करते समय वह निष्पक्षतापूर्वक सभी मुकदमों पर विचार कर सकता है।

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प्रश्न 6.
भारत के उच्चतम न्यायालय को स्वतंत्र व निष्पक्ष रखने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए हैं? अथवा, “भारत के उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता” पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई है जिससे भारत का उच्चतम न्यायालय अपने कार्यों में निष्पक्ष रह सके और स्वतंत्रता से कार्य कर सके। सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए जो व्यवस्थाएँ की गई हैं, उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं –

1. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्तियाँ:
भारत में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग बहुत अच्छा है। इसकी नियुक्ति संविधान में निश्चित की गई योग्यताओं के आधार पर राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है, लेकिन राष्ट्रपति के पास इनको इनके पद से हटाने की शक्ति नहीं है। इस प्रकार न्यायाधीश अपने पद से हटाए जाने के भय से दूर रहकर स्वतंत्रापूर्वक अपना कार्य कर सकते हैं।

2. अपदस्थ करने की कठिन विधि:
चरित्रहीनता अथवा कार्य में अयोग्यता के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पदों से अपदस्थ किया जा सकता है, लेकिन यह शक्ति केवल संसद के पास है। किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने के लिए संसद के दोनों सदनों (लोकसभा एवं राज्यसभा) के 2/3 सदस्य उसके विरुद्ध प्रस्ताव पास करके उसको हटाने की सिफारिश राष्ट्रपति से कर सकते हैं। अतः उन्हें हटाने की विधि इतनी कठिन है कि कोई राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या राजनीतिक दल उन पर दबाव डालकर उनके स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने में रुकावट नहीं डाल सकते।

3. न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते:
न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते आदि देश की संचित निधि में से दिए जाते हैं। लोकसभा में इस प्रकार के व्यय पर वाद-विवाद तो हो सकता है परंतु मत नहीं लिए जा सकते। उनके वेतन तथा भत्तों में भी कमी नहीं की जा सकती। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश मंत्रिमंडल के प्रभाव क्षेत्र से बाहर रहकर निष्पक्ष रूप से निर्णय कर सकते हैं।

4. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों एवं कार्यों पर वाद:
विवाद नहीं हो सकता-सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय अंतिम होते हैं। उसके निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती। यदि कोई ऐसा करता है तो सर्वोच्च न्यायालय उसे दण्ड देने की शक्ति रखता है। इसके अतिरिक्त संसद न्यायाधीशों के ऐसे कार्यों पर वाद-विवाद नहीं कर सकती जो उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए किए हैं।

5. न्यायिक पर्यवेक्षण की शक्ति:
सर्वोच्च न्यायालय को संसद द्वारा बनाए हुए कानूनों का निरीक्षण करने का पूरा अधिकार है। इस शक्ति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय संसद द्वारा पास किसी कानून को अवैध घोषित कर सकता है, यदि वह संविधान की किसी धारा के प्रतिकूल हो। इस अधिकार से उसका गौरव बहुत बढ़ गया है और उसे अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।

6. प्रशासकीय अधिकार:
सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्य-विधि के सम्बन्ध में नियम बनाने का पूर्ण अधिकार है। इसके अतिरिक्त न्याय-विभाग के कर्मचारियों की नियुक्तियाँ आदि करने व अन्य प्रशासकीय व्यवस्थाएँ करने में वह पूर्ण स्वतंत्र है।

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प्रश्न 7.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिक में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
न्यायिक सक्रियता के कारण कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच तनाव बढ़ सकता है। वास्तव में न्यायिक सक्रियता राजनीतिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालती है। यह कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने को बाध्य करती है। न्यायिक सक्रियता के द्वारा चुनाव प्रणाली को और आसान बनाया गया है। न्यायालय उम्मीदवारों की आय, सम्पत्ति, शिक्षा और उनके आचरण सम्बन्धी शपथ पत्र भरवाने को कहता है। इस कारण उम्मीदवार न्यायपालिका से संतुष्ट नहीं रहते। परिणामस्वरूप कार्यपालिका और न्यायपालिका में टकराव होता है।

जनहित याचिका और न्यायिक सक्रियता का यह नकारात्मक पहलू भी है। इससे न्यायालयों में जहाँ कार्य का बोझ बढ़ा है वहीं कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के कार्यों के बीच का अंतर धुंधला हो या है। जो कार्य कार्यपालिका को करने चाहिए थे उन्हें भी न्यायपालिका को करना पड़ रहा है। राजधानी दिल्ली में सी.एन.जी. बसों का चलन कार्यपालिका को करना चाहिए था परंतु यह कार्य कराने को लेकर न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा। न्यायालय उन समस्याओं में उलझ गया जिसे कार्यपालिका को करना चाहिए।

उदाहरणार्थ वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करना या चुनाव सुधार करना वास्तव में न्यायपालिका के नहीं कार्यपालिका के कर्त्तव्य हैं। ये सभी कार्य विधायिका की देखरेख में प्रशासन को करना चाहिए। अत: कुछ लोगों का विचार है कि न्यायिक सक्रियता से सरकार के तीनों अंगों के बीच पारस्परिक संतुलन रखना कठिन हो गया है जबकि लोकतंत्रीय शासन का आधार सरकार के अंगों में परस्पर सहयोग और संतुलन होता है। प्रत्येक अंग दूसरे अंग का सम्मान करे। न्यायिक सक्रियता से मूलभूत लोकतांत्रिक सिद्धांत को भी धक्का लग सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि न्यायिक सक्रियता से कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच तनाव बढ़ सकता है।

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प्रश्न 8.
न्यायिक समीक्षा से क्या अभिप्राय है? इसके महत्त्व का संक्षिप्त विवेचन कीजिए। किस आधार पर इसकी आलोचना की जा सकती है?
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि संसद तथा विभिन्न राज्यों के विधानमंडलों द्वारा पारित कानूनों व कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों की न्यायालय द्वारा समीक्षा करना। भारत में न्यायिक पर्यवेक्षण का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी इस शक्ति द्वारा यह देखता है कि विधानपालिका द्वारा पास किए गए कानून तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए अध्यादेश संविधान की धाराओं के अनुकूल हैं या नहीं। यदि न्यायालय इन कानूनों को संविधान के प्रतिकूल पाता है तो वह इन्हें अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का इस विषय में निर्णय अंतिम तथा सर्वमान्य होता है। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ‘प्रिवी पर्स’ तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण को न्यायिक समीक्षा के आधार पर अवैध घोषित कर दिया था।

संविधान के 42 वें संविधान के एक नए अनुच्छेद (144-ए) को जोड़कर यह आवश्यक बना दिया गया था कि कानूनों की संवैधानिक वैधता का निर्णय करने वाली सर्वोच्च न्यायालय की बैच में कम-से-कम 7 न्यायाधीश हों और वह 2/3 बहुमत से निर्णय करें कि किसी कानून को अवैध घोषित किया जा सकेगा अन्यथा नहीं। परंतु 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम ने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया और अब संवैधानिक वैधता के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता नहीं है।

न्यायिक पुनर्निरीक्षण का महत्व –

1. लिखित संविधान के लिए न्यायिक समीक्षा अनिवार्य है:
लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। इसलिए संविधान की व्याख्या का प्रश्न जब-तब जरूर उठेगा।

2. संविधान में केन्द्र और राज्यों को सीमित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं:
संघीय शासन में राजशक्ति को केन्द्र और इकाइयों के बीच बाँट दिया जाता है। अपने-अपने क्षेत्र में ये सरकारें एक-दूसरे के नियंत्रण से प्रायः मुक्त होती हैं। यदि केन्द्र अथवा राज्य सरकारें अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य-संचालन मुश्किल हो जाएगा। केन्द्र और राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों का ठीक से निबटारा एक उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है।

3. संविधान की व्याख्या का कार्य न्यायालय ही अच्छी तरह कर सकता है:
जस्टिस के.के. मैथ्यू के अनुसार “संसद की सदस्य संख्या बहुत बड़ी होती है।” सदस्य जब तब बदलते रहते हैं और उनमें दलबंदी की भावना होती है। इसके अतिरिक्त उनके ऊपर का ज्यादा असर होता है। इन कारणों से संविधान की व्याख्या के लिए जितनी निष्पक्षता की जरूरत होती है उतनी निष्पक्षता उनमें नहीं होती। दूसरी ओर, न्यायालय की रचना इस प्रकार की होती है कि उसके ऊपर क्षणिक आवेशों या राजनीतिक प्रभावों का असर नहीं पड़ता। संविधान की व्याख्या करते समय वह निष्पक्षतापूर्वक सभी मुकदमों पर विचार कर सकता है।

न्यायिक पुनर्निरीक्षण की आलोचना-न्यायिक पुनर्निरीक्षण के सिद्धांत की अब कटु आलोचना की जाती है। आलोचकों का आरोप है कि यह न्यायपालिका के स्थान को ऊँचा उठाकर, उसे महाविधायिका बना देता है। आश्चर्य की बात है कभी-कभी संयुक्त राज्य अमरीका का सर्वोच्च न्यायालय पाँच-चार के सामान्य बहुमत से पारित कर चुके होते हैं। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय के पुनर्निरीक्षण के अधिकार के इस्तेमाल से संयुक्त राज्य अमरीका में प्रगतिशील सामाजिक विधि-निर्माण का कार्य बाधित हुआ है।

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प्रश्न 9.
उच्च न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकार तथा अधिकारों का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत में किसी राज्य के उच्च न्यायालय के संगठन तथा शक्तियों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार राज्य में एक उच्च न्यायालय की स्थापना की जानी चाहिए। किसी-किसी स्थान पर दो राज्यों का भी एक उच्च न्यायालय है। जैसे कि आजकल पंजाब, हरियाणा तथा केन्द्र-शासित प्रदेश चण्डीगढ़ का एक ही उच्च न्यायालय चण्डीगढ़ में स्थित है।

उच्च न्यायालय का संगठन –

1. रचना तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति:
राज्य के उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा कुछ अन्य न्यायाधीश होते हैं जिनकी संख्या आवश्यकतानुसार घटती-बढ़ती रहती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति वह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं उस राज्य के राज्यपाल की सलाह लेता है।

2. योग्यताएँ:

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह कम से कम 10 वर्ष तक वकालत कर चुका हो।
  • वह किसी उच्च न्यायालय में 10 वर्ष तक वकालत कर चुका हो।

3. कार्यकाल:
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष तक अपने पद पर कार्य कर सकते हैं। ये स्वयं इस अवधि से पूर्व भी त्यागपत्र दे सकते हैं तथा जब यह प्रमाणित हो जाए कि कोई न्यायाधीश अपने पद पर कार्य ठीक नहीं कर रहा तो संसद बहुमत द्वारा प्रस्तावित करके उसे हटा भी सकती है।

4. वेतन तथा भत्ते:
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है तथा अन्य भत्ते भी मिलते हैं:

उच्च न्यायालय की शक्तियाँ –
1. प्रारंभिक क्षेत्राधिकार-जो विवाद सीधे ही उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हों, उन्हें प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के नाम से जाना जाता है। उच्च न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार में आने वाले प्रमुख विषय हैं:

  • नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित विवाद अथवा मुकदमे सीधे उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हैं क्योंकि उनकी सुनवाई का अधिकार अन्य किसी छोटे न्यायालय को प्राप्त नहीं है।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु उच्च न्यायालय के द्वारा विभिन्न प्रकार के लेख जारी किए जा सकते हैं।
  • संविधान की व्याख्या से संबंधित झगड़े सीधे उच्च न्यायालय में ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
  • 1977 ई. से चुनाव विवादों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई भी उच्च न्यायालयों द्वारा ही की जा रही है।
  • नौकाधिकरण, वसीयत, विवाह, संबंधी तथा न्यायालय के मानहानि संबंधी मुकदमे भी सीधे उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
  • कोलकाता, चेन्नई और मुम्बई के उच्च न्यायालयों को संबंधित क्षेत्रों के दीवानी मामलों में प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं किन्तु वही मुकदमे लाए सकते हैं जिनकी कीमत दो हजार या उससे अधिक हो।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
उच्च न्यायालय दीवानी तथा फौजदारी मुकदमों की अपील सुनते हैं।

  • दीवानी मुकदमों के मामलों में जिला न्यायाधीश के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
  • उच्च न्यायालय में फौजदारी के मुकदमे में सेशन जज के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकी है।
  • उपरोक्त मुकदमों के अलावा उच्च न्यायालय को आयकर, बिकीकर, पटेन्ट और डिजाइन, उत्तराधिकार, दिवालियापन और संरक्षक से संबंधित मुकदमों की अपील सुनने का अधिकार प्रदान किया गया है।

3. लेख जारी करने का अधिकार:
मूल संविधान के अनुच्छेद 226 के द्वारा उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों को लागू करने तथा अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लेख, आदेश तथा निर्देश जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

जहाँ पर किसी कानूनी प्रावधान का उल्लंघन हुआ हो और इस उल्लंघन से वादी को सारभूत आघात पहुँचा है। जहाँ पर ऐसी अवैधानिकता हो कि उससे न्याय को सारभूत असफलता मिली हो। प्रत्येक मामले में वादी के द्वारा न्यायालय को यह संतोष दिलाना होगा कि उसे अन्य कोई उपचार प्राप्त नहीं है।

4. न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति:
42 वें संवैधानिक संशोधन द्वारा उच्च न्यायालयों में न्यायिक पुनर्निरिक्षण की शक्ति को भी सीमित कर दिया गया है। अब उच्च न्यायालय को किसी केन्द्रीय कानून की वैधता पर विचार करने का अधिकार नहीं होगा, लेकिन अनुच्छेद 131ए’ प्रावधानों को दृष्टि में रखते हुए उच्च न्यायालय राज्य के कानून की संवैधानिक वैधता का निर: – कर सकेगा। एक राज्य का कानून उच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित प्रकार से ही अवैध घोधित किया जा सकेगा यदि बैंच में 5. अधिक न्यायाधीश हैं तो संबंधित बैंच के द्वारा कम से कम दो तिहाई बहु. से कानून को असंवैधानिक घोषित किया जाय। यदि 5 से कम न्यायाधीश हैं तो सभी न्याया। द्वारा उसे असंवैधानिक घोषित किया जाना चाहिए।

5. उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है:
सर्वोच्च न्यायालय की भाँति न्यायालय भी एक अभिलेख न्यायालय है अर्थात् इसके निर्णयों को प्रमाण के रूप में अन्य न्यायालयों में पेश किया जा सकता है तथा उन्हें किसी न्यायालय में पेश किए जाने पर वैधानिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। उच्च न्यायालय के द्वारा अपनी अवमानना है किसी भी व्यक्ति को दण्डित किया जा सकता है।

6. उच्च न्यायाल की प्रशासनिक शक्तियाँ:
उच्च न्यायालय को निम्नलिखित प्रशासनिक शक्तियाँ प्राप्त हैं –

  • अनुच्छेद 227 के अनुसार उच्च न्यायालय अपने अधीन न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर निरीक्षण का अधिकार रखता है। अपने इन अधिकारों के अन्तर्गत वह अपने अधीन न्यायालयों में से किसी भी मुकदमे से संबंधित कागजात मँगाकर देख सकता है।
  • उच्च न्यायालय किंसी विवाद को एक अधीन न्यायालय से दूसरे अधीन न्यायालय में भेज सकता है।
  • अधीन न्यायालयों की कार्यपद्धति, रिकार्ड, और रजिस्टर तथा हिसाब इत्यादि रखने के संबंध में भी एक उच्च न्यायालय अपने अधीन न्यायालयों के लिए नियम बना सकता है।
  • यह अधीन न्यायालय के शेरिफ, क्लर्क, अन्य कर्मचारियों तथा वकील आदि के वेतन, सेवा शर्ते और फीस निश्चित कर सकता है।
  • यह जिला न्यायालय तथा छोटे-छोटे न्यायालयों के अधिकारियों की नियुक्ति, अवनति, उन्नति और अवकाश इत्यादि के संबंध में नियम बना सकता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कितने वर्ष तक अपने पद पर बने रहते हैं?
(क) 62 वर्ष तक
(ख) 65 वर्ष तक
(ग) 60 वर्ष तक
(घ) आजीवन
उत्तर:
(ख) 65 वर्ष तक

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प्रश्न 2.
न्यायपालिका का कार्य है –
(क) कानूनों का निर्माण
(ख) कानूनों की व्याख्या
(ग) कानूनों का क्रियान्वयन
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) कानूनों का क्रियान्वयन

प्रश्न 3.
पटना उच्च न्यायालय की स्थापना कब हुई?
(क) 1950 में
(ख) 1935 में
(ग) 1916 में
(घ) 1917 में
उत्तर:
(ग) 1916 में

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प्रश्न 4.
संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष थे –
(क) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
(ख) डॉ. भीमराव अम्बेदकर
(ग) डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा
(घ) पं. जवाहर लाल नेहरू
उत्तर:
(ग) डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा

प्रश्न 5.
संविधान का संरक्षक किसे बनाया गया है?
(क) सर्वोच्च न्यायालय को
(ख) लोक सभा को
(ग) राज्य सभा को
(घ) उपराष्ट्रपति को
उत्तर:
(क) सर्वोच्च न्यायालय को