BSEB Bihar Board 12th History Important Questions Short Answer Type Part 2 are the best resource for students which helps in revision.
Bihar Board 12th History Important Questions Short Answer Type Part 2
प्रश्न 1.
‘सन्निधाता’ शब्द का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर:
मौर्यों के समय में कर निर्धारण करने वाले अधिकारी को समाहर्ता कहा जाता था, जबकि कर वसूली और संग्रह करने वाले अधिकारी को सन्निधाता कहा जाता था।
प्रश्न 2.
मौर्य साम्राज्य के चार प्रांतों और उनकी राजधानियों के नाम लिखिए।
उत्तर:
- उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला।
- प्राच्य की राजधानी पाटलिपुत्र।
- दक्षिणापथ की राजधानी सुवर्णगिरी।
- अति की राजधानी उज्जियनी या उज्जैन नगरी।
प्रश्न 3.
मौर्यों के राजनैतिक इतिहास के मुख्य स्रोत क्या-क्या हैं ?
उत्तर:
- मेगास्थनीज की इंडिका(Indica of Magasthaneze) – मौर्यकालीन भारत के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिये मेगास्थनीज द्वारा रचित ‘इण्डिका’ (Indica) एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें तत्कालीन शासन व्यवस्था, समाज, राजनैतिक व आर्थिक अवस्था पर महत्वपूर्ण विवरण मिलता है।
- कौटिल्य का अर्थशास्त्र (Kautilya’s Arthshastra) – कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी तत्कालीन भारत के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है जिससे मौर्यों के बारे में पता चलता है।
- विशाखदत्त मद्राराक्षस (Vishakhdutta’s Mudraraksha) – इस प्रमुख ग्रंथ में नन्द वंश का चन्द्रगुप्त द्वारा नाश का वर्णन है।
- जैन और बौद्ध साहित्य (Jains and Buddhists Literature)-जैन और बौद्ध दोनों धर्मों के साहित्य में तत्कालीन समाज, राजनीति आदि की जानकारी प्राप्त होती है।
- अशोक के शिलालेख (Inscription of Ashoka) – स्थान-स्थान पर लगे अशोक के शिलालेख से भी मौर्यकालीन प्रशासन, धर्म, समाज अर्थव्यवस्था आदि पर प्रकाश पड़ता है।
प्रश्न 4.
मौर्य प्रशासन की जानकारी दें।
उत्तर:
मौर्य प्रशासन अत्यंत ही उच्च कोटि का था। राजा सर्वोपरि था। राजा का मंत्री आमात्य कहलाता था। मौर्य शासकों ने कठोर दंड का प्रावधान कर समाज को भय मुक्त प्रशासन प्रदान किया।
प्रश्न 5.
मौर्य शासकों द्वारा किये गये आर्थिक प्रयासों का वर्णन करें।
उत्तर:
- कौटिल्य ने कृषकों, शिल्पियों और व्यापारियों से वसूल किये बहुत से करों का उल्लेख किया है।
- संभवतः कर निर्धारण का कार्य सर्वोच्च अधिकारी द्वारा होता था। सन्निघाता राजकीय कोषागार एवं भण्डार का संरक्षण होता था।
- वास्तव में कर-निर्धारण का विशाल संगठन पहली बार मौर्य काल में देखने में आया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में करों की सूची इतनी लंबी है कि यदि वास्तव में सभी कर राजा के लिये जाते होंगे, तो प्रजा के पास अपने भरण-पोषण के लिये नाममात्र का ही बचता होगा।
- ग्रामीण क्षेत्रों में राजकीय भण्डारघर होते थे। इससे स्पष्ट होता है कि कर अनाज के रूप में वसूल किया जाता था। अकाल, सूखा तथा अन्य प्राकृतिक विपदा में इन्हीं अन्न-भण्डारों से स्थानीय लोगों को अन्न दिया जाता था।
- मयूर, पर्वत और अर्धचंद्र के छाप वाली रजत मुद्राएँ मौर्य-साम्राज्य की मान्य मुद्राएँ थीं। ये मुद्राएँ कर वसूली एवं कर्मचारियों के वेतन के भुगतान में सुविधाजनक रहीं होंगी। बाजार में लेन-देन भी इन्हीं से होता था।
प्रश्न 6.
अशोक के अभिलेखों का संक्षेप में महत्त्व बताइए।
उत्तर:
यद्यपि मौर्यों के इतिहास को जानने के लिए मौर्यकालीन पुरातात्विक प्रमाण जैसे मूर्ति कलाकृतियाँ, चाणक्य का अर्थशास्त्र, मेगास्थनीज की इंडिका, जैन और बौद्ध साहित्य व पौराणिक ग्रंथ आदि बड़े उपयोगी हैं लेकिन पत्थरों और स्तंभों पर मिले अशोक के अभिलेख प्रायः सबसे मूल्यवान स्रोत माने जाते हैं।
अशोक वह पहला सम्राट था, जिसने अपने अधिकारियों और प्रजा के लिए संदेश प्राकृतिक पत्थरों और पॉलिश किये हुए स्तंभों पर लिखवाये थे। अशोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से धम्म का प्रचार किया। इनमें बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे के धर्मों और परंपराओं का आदर शामिल है।
प्रश्न 7.
धर्म प्रवर्त्तिका का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
धर्म प्रवर्त्तिका का अर्थ है-धर्म फैलाने वाला अथवा धर्म का प्रचार करने वाला। कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। इस धर्म के प्रचार के लिये उसने अपना पूरा समय तथा तन-मन-धन लगा दिया। इस प्रकार वह ‘धर्म प्रवर्त्तिका’ के रूप में जाना गया।
प्रश्न 8.
मौर्योत्तर युग में भारत से किन-किन वस्तुओं का निर्यात होता था ?
उत्तर:
मौर्योत्तर युग में भारत से मसाले रोम को भेजे जाते थे। इसके अलावा मलमल, मोती, रत्न, हाथी दाँत, माणिक्य भी विदेशों में भेजे जाते थे। लोहे की वस्तुएँ, बर्तन, आदि रोम साम्राज्य को भेजे जाते थे।
प्रश्न 9.
मौर्य साम्राज्य का उदय कब और किसके द्वारा हुआ? इसमें एक प्रमुख स्थान किसके द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर:
मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य (लगभग 321 ई० पू०) का शासन पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था। उनके पौत्र अशोक ने जिन्हें आरंभिक भारत का सर्वप्रसिद्ध शासक माना जा सकता हैकलिंग (आधुनिक उड़ीसा) पर विजय प्राप्त की।
प्रश्न 10.
मौर्य साम्राज्य के विस्तार का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
मौर्यों के साम्राज्य में मध्य एशिया लाघमन (Laghman) से लेकर चोल तथा चेर साम्राज्य की सीमाओं (केरल पुत्र) सिद्ध पुत्र तक फैला हुआ है। पश्चिम में इसका विस्तार स्वार्षट से लेकर उत्तर पूर्व में बंगाल और बिहार तक फैला हुआ था। पाटलिपुत्र इनकी राजधानी थी। इन साम्राज्य के संबंध अनेक राज्यों से है। तक्षशिला, टोपरा, इंद्रप्रस्थ, कलिंग (उड़ीसा) आदि।
प्रश्न 11.
सेल्यूकस के साथ चंद्रगुप्त मौर्य के संघर्ष के क्या दो परिणाम हुए ?
उत्तर:
सेल्यूकस का चंद्रगुप्त के साथ संघर्ष 305 ई० पू० में हुआ जब उसने भारत पर आक्रमण किया था। इस संघर्ष के दो प्रमुख परिणाम अनलिखित थे-
- सेल्यूकस की हार जिसके परिणामस्वरूप उसे चंद्रगुप्त मौर्य को वर्तमान हेरात, काबुल, कंधार और बिलोचिस्तान के चार प्रांत सौंपने पड़े।
- चंद्रगुप्त मौर्य ने उसके बदले में सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किये।
प्रश्न 12.
चंद्रगुप्त मौर्य की चार सफल विजय कौन-कौन सी थी ?
उत्तर:
- पंजाब विजय (Victory of the Punjab) – चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर की मृत्यु के पश्चात् पंजाब को जीत लिया।
- मगध की विजय (Victory of Magadh) – चंद्रगुप्त मौर्य ने कौटिल्य (चाणक्य) की सहायता से मगध के अंतिम राजा घनानंद की हत्या करके मगध को जीत लिया।
- बंगाल विजय (Victory of Bengal) – चन्द्रगुप्त मौर्य ने पूर्वी भारत में बंगाल को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया।
- दक्षिणी भारत पर विजय (Victory of South) – जैन साहित्य के अनुसार आधुनिक कर्नाटक तक उसने अपनी विजय-पताका फहराई थी।
प्रश्न 13.
अशोक के अभिलेख किन-किन भाषाओं व लिपियों में लिखे जाते थे ? उनके विषय क्या थे ?
उत्तर:
- अशोक के अभिलेख जनता की पालि और प्राकृत भाषाओं में लिखे हुए होते थे। इनमें ब्रह्मा-खरोष्ठी लिपियों का प्रयोग हुआ था। इन अभिलेखों में अशोक का जीवन-वृत्त, उसकी आंतरिक तथा बाहरी नीति एवं उसके राज्य के विस्तार संबंधी जानकारी हैं।
- इन अभिलेखों में सम्राट अशोक के आदेश अंकित होते थे।
प्रश्न 14.
अशोक के धम्म पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
‘धम्म’ संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत स्वरूप है। अशोक ने इसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। इस विषय पर विद्वानों के बीच काफी मतभेद है। बहुत-से विद्वान धम्म और बौद्ध धर्म में कोई फर्क नहीं मानते। अतः प्रारंभ में ही यह कह देना आवश्यक है कि धम्म और बौद्धध म दोनों अलग-अलग बातें हैं। बौद्धधर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था। लेकिन उसने जिस धम्म की चर्चा अपने अभिलेखों में की है वह उसका सार्वजनिक धर्म था तथा विभिन्न धर्मों का सार था। यह अलग बात है कि बौद्धधर्म की कई विशेषताएँ भी उसमें मौजूद थीं।
अशोक ने अपने अभिलेखों में कई स्थान पर धम्म (धर्म) शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु भाबरु अभिलेख को छोड़कर (जहाँ उसे बुद्ध, धम्म और संघ में अपना विश्वास प्रकट किया है। उसने कहीं भी धम्म का प्रयोग बौद्धध र्म के लिए नहीं किया है। बौद्ध धर्म के लिए ‘सर्द्धम’ या ‘संघ’ शब्द का प्रयोग किया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि अशोक का धम्म बौद्ध धर्म नहीं था क्योंकि इसमें चार आर्य सत्यों, अष्टांगिक मार्ग तथा निर्वाण की चर्चा नहीं मिलती है।
प्रश्न 15.
‘छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध का एक शक्तिशाली राज्य के रूप में विकास हुआ।’ इस कथन की लगभग 100 से 150 शब्दों में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध (आधुनिक बिहार) सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया। आधुनिक इतिहासकार इसके कई कारण बताते हैं
- एक यह कि मगध क्षेत्र में खेती की उपज खास तौर पर अच्छी होती थी।
- दूसरे यह कि लोहे की खदानें (आधुनिक झारखंड में) भी आसानी से उपलब्ध थीं जिससे उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था।
- जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे, जो सेना के एक महत्वपूर्ण अंग थे। साथ ही गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।
- आरंभिक जैन और बौद्ध लेखकों ने मगध की महत्ता का कारण विभिन्न शासकों की नीतियों को बताया है। इन लेखकों के अनुसार बिम्बिसार अजातशत्रु और महापदम-नन्द जैसे प्रसिद्ध अत्यंत महत्वाकांक्षी शासक थे और इनके मंत्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे।
- प्रारंभ में, राजगाह (आधुनिक बिहार के राजगीर का प्राकृत नाम) मगध की राजधानी थी। यह रोचक बात है कि इस शब्द का अर्थ है ‘राजाओं का घर।’ पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबंद शहर था। बाद में चौथी शताब्दी ई० पू० में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया, जिसे अब पटना कहा जाता है जिसकी गंगा के रास्ते आवागमन के मार्ग पर महत्वपूर्ण अवस्थिति थी।
प्रश्न 16.
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर कौन थे?
उत्तर:
जैन धर्म दो सम्प्रदाय बन गए। एक दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर। दिगम्बर वस्त्र नहीं धारण करते हैं जबकि श्वेताम्बर उजले वस्त्र धारण करते हैं। दिगम्बर जैन आचरण पालन में कठोर होते है, जबकि श्वेतताम्बर जैन उदार होते है। श्वेताम्बर 11 अंगों का प्रमुख धर्म मानते है और दिगम्बर अपने 24 पुराणों को। दिगम्बर सम्प्रदाय यह मानता है कि स्त्री शरीर से कैवल्य ज्ञान संभव नहीं है और कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने पर साधकों को भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय ऐसा नहीं मानते। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार महावीर का निर्वाण के 609 वर्ष बाद (ई सन् 83) रथविलुर में भवभूति द्वारा बौद्धिक मत दिगम्बर की स्थापना हुई थी।
प्रश्न 17.
इलाहाबाद स्तंभ के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
इलाहाबाद का स्तंभ (Allahabad’s inscription) – इलाहाबाद के स्तंभ लेख से गुप्त काल के विषय में जानकारी प्राप्त होती है इसमें समुदाय की विजयों और चरित्र अंकित है। हरिषेण नामक कवि ने संस्कृत में इसे लिखा। उस काल की राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक अवस्था, भाषा व साहित्य की उन्नति एवं उसकी नौ विजयों का वर्णन है।
प्रश्न 18.
ऐहोल अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व क्या है ?
उत्तर:
इस अभिलेख में चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के दरबारी कवि रति कीर्ति ने संस्कृत में उसके पराक्रम का विवरण लिखा है जिसके अनुसार गुजरात के लाट, मैसूर के गंगा आदि राजाओं को हराया गया था। दक्षिणा के चेर, चोल और पांड्य शासकों को भी हराया गया था। सन् 620 में उसने हर्ष को नर्मदा नदी के तट पर हराया। जब पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव शासक नरसिंह वर्मन से टक्कर ली, तो फिर उसके पश्चात् 642 ई० में लड़ता हुआ युद्ध क्षेत्र में उसके हाथों मारा गया।
प्रश्न 19.
दिल्ली के लौह स्तंभ अभिलेख का क्या महत्व है ?
उत्तर:
दिल्ली में कुतुब मीनार के पास लौह स्तंभ पर किसी चंद्र नामक राजा का अभिलेख खुदा हुआ मिला है। यह अभिलेख चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से अब जोड़ा जाता है। इस अभिलेख से पता चलता है कि चंद्र ने पश्चिमोत्तर दिशा में और बंगाल में निरंतर विजय प्राप्त की और अपने वंश की कीर्ति को चार चाँद लगा दिये।
प्रश्न 20.
जूनागढ़ शिलालेख के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जूनागढ़ का शिलालेख, गुजरात में जूनागढ़ के समीप मिला था। उस समय की प्रचलित लिपि ब्राह्मी थी। इसी लिपि में वह शिलालेख लिखा हुआ था। इस शिलालेख में अशोक के धर्म, नैतिक नियमों एवं शासन सम्बन्धी नियमों का विवरण मिला है। लोगों की जानकारी के लिए इस शिलालेख को जनसाधारण की भाषा पालि में खुदवाया था।
प्रश्न 21.
पेरीप्लस और एर्थियन पदों के अर्थ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
पेरिप्लस एक यूनानी शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है-समुद्री रास्ता और एर्थियन भी एक यूनानी नाम है जिसका प्रयोग यूनानी लाल सागर के लिए करते थे।
प्रश्न 22.
कुषाण कौन थे ?
उत्तर:
चीन की मूगनू नामक जाति से हारकर यूची जाति दक्षिण की ओर स्थान की खोज में निकल पड़ी। वह आकर आमू नदी के तट पर बस गई। यूची जाति के पाँच कबीलों में से कुषाण नामक कबीला कैडफिसेज प्रथम के नेतृत्व में शक्तिशाली बन गया। उसने मध्य एशिया से लेकर सिंधु नदी के तट तक अपना साम्राज्य फैला दिया। उसने उस क्षेत्र के पार्थियन शासकों का नामोनिशन मिटा दिया।
प्रश्न 23.
सातवाहन कौन थे?
उत्तर:
मौर्य के साम्राज्य के बिखराव के बाद सातवाहनों ने दक्कन में एक शक्तिशाली राज्य स्थापित किया। इस वंश का सबसे अच्छा शासक दोनों ही सर्वोच्च वंशों का दावा करता है। एक तरफ वह स्वयं को एक ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति मानता है और दूसरी ओर वह स्वयं को क्षत्रिय लोगों को नाश करने वाला बताता है। वह इस बात का भी दावा करता है कि चारों वर्गों के मध्य अंतर वर्णीय विवाह नहीं होते थे लेकिन कुछ समय बाद ये साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित हो जाता है कि सातवाहनों ने शक राजा रुद्रदमन से वैवाहिक संबंध जोड़े थे। सातवाहन समाज में संभवत: मातरीगोत्र का अधिक सम्मान था। इस समाज में स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र को माना जाता था। सातवाहनों के कई अभिलेख इतिहासकारों को प्राप्त हुए जिन पर उनके पारिवारिक और वैवाहिक रिश्तों का खाका तैयार किया है।
प्रश्न 24.
शक कौन थे ?
उत्तर:
शक मध्य एशिया के मूल निवासी थे जो उपमहाद्वीप में उत्तर पश्चिमी हिस्सों से सर्वप्रथम आये और धीरे-धीरे यहीं स्थायी रूप से बस गये। ये लोग प्रारंभ में ब्राह्मणों द्वारा म्लेच्छ (असभ्य अथवा विदेशी से आने वाले आक्रमणकारी) समझ गये। धीरे-धीरे इन्होंने भारत में उत्पन्न हुए धर्मों जैसे बौद्ध धर्म या वैष्णव मत को अपना लिया। स्थानीय लोगों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये और उत्तर पश्चिम के साथ-साथ पश्चिमी भारत के कुछ क्षेत्रों में शासन किया।
प्रश्न 25.
हर्ष चरित पर दो वाक्य लिखिए।
उत्तर:
हर्ष चरित संस्कृति में लिखी गई कन्नौज के शासक हर्षवर्द्धन की जीवनी है, इसके लेखक बाणभट्ट (लगभग सातवीं शताब्दी ई०) हर्षवर्धन के राज कवि थे।
प्रश्न 26.
बौद्ध संगीतियाँ क्यों बुलाई गई ? चतुर्थ बौद्ध संगति का क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् समय-समय पर बौद्ध धर्म की व्याख्या हेतु अनेक बौद्ध सभाओं का आयोजन किया गया जिन्हें संगीति के नाम से जाना जाता है।
चतुर्थ बौद्ध संगीति :
समय – प्रथम शताब्दी
स्थान – कुंडलवन (कश्मीर)
शासक – कनिष्क (कुषाण वंश)
आध्यक्षा – वसुमित्र, संगीति के उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। महत्त्व-इस संगीति का आयोजन इस आशय से किया गया था कि बौद्धों के मतभेदों को दूर किया जा सके। इस संगीति में महासाधिकों को बोलबाला रहा। त्रिपिटक पर प्रमाणिक भास्य ‘विभाषा शास्त्र’ की रचना इसी संगीति में हुई। इस. संगीत के पश्चात् ही बौद्ध अनुयायी हीनयान तथा महायान दो समुदायों में विभाजित हो गये।
प्रश्न 27.
गौतम बुद्ध के जीवन एवं उपदेशों का वर्णन करें।
उत्तर:
गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म 563 ई० पू० में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में अवस्थित लुम्बिनी में हुआ था। उनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था।
बचपन से ही गौतम चिन्तनशील व्यक्ति थे। इनका मन सांसारिक भोग विलास में नहीं लगता था। इनका विवाह यशोधरा से हुआ था तथा इनको एक पुत्र भी था, जिसका नाम राहुल था। एक बार इन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी एवं एक मृत व्यक्ति को देखा। इन दृश्यों ने इनके मन में वैराग्य उत्पन्न कर दिया। 29 वर्ष की उम्र में इन्होंने घर छोड़ दिया, जिसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है। ये ज्ञान की प्राप्ति के लिए जगह-जगह भटकते रहे। अन्त में 35 वर्ष की उम्र में बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तब से वे बुद्ध अर्थात् प्राज्ञावान कहलाने लगे। उन्होंने अपना पहला धार्मिक प्रवचन वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। वे लगभग 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे एवं समकालीन सभी वर्ग के लोग उनके शिष्य बने। 483 ई० पू० में पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुशीनगर नामक स्थान पर उनकी मृत्यु हुई। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहते हैं।
गौतम बुद्ध व्यावहारिक सुधारक थे। वे आत्मा एवं परमात्मा से सम्बन्धित निरर्थक वाद-विवादों से दूर रहे तथा उन्होंने दोनों के अस्तित्व से इनकार किया। उन्होंने कहा कि संसार दुःखमय है और इस दुःख के कारण तृष्णा है। यदि काम, लालसा, इच्छा एवं तृष्णा पर विजय प्राप्त कर ली जाये तो निर्वाण प्राप्त हो जायेगा, जिसका अर्थ है कि जन्म एवं मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जायेगी।
गौतम बुद्ध ने निर्वाण की प्राप्ति का साधन अष्टांगिक मार्ग को माना है। ये आठ साधन हैं-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। उन्होंने कहा कि न तो अत्यधिक विलाप करना चाहिए और न अत्यधिक संयम ही बरतना चाहिए। वे मध्यम मार्ग के प्रशंसक थे। उन्होंने सामाजिक आचरण के कुछ नियम निर्धारित किये थे जैसे-पराये धन का लोभ नहीं करना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए, नशे का सेवन नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए तथा दुराचार से दूर रहना चाहिए।
प्रश्न 28.
महावीर के उपदेशों का वर्णन करें।
उत्तर:
महावीर के उपदेश निम्नलिखित हैं
- सत्य-सत्य बोलना, झूठ न बोलना।
- अहिंसा-हिंसा न करना।
- अस्तेय-चोरी न करना।
- अपरिग्रह-सम्पत्ति का संग्रह न करना।
- ब्रह्मचर्य-इन्द्रियों को वश में करना।
महावीर ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे परंतु आत्मा, कर्मफल तथा पुनर्जन्म को मानते थे।
प्रश्न 29.
जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त कौन-से हैं ?
उत्तर:
जैन-धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर (540 ई० पू० 468 ई०पू०) के समय जैन धर्म के सिद्धान्तों को पूर्णता प्राप्त हुई। यह धर्म मानता है कि संसार की सभी वस्तुओं में जीव है। अहिंसा का सिद्धान्त इस धर्म का मूल आधार है। मनुष्य अपने कर्मों के कारण जन्म, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के चक्र में बंधा है। संन्यास एवं तपस्या के द्वारा मनुष्य कर्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। जैनियों का विश्वास है कि शरीर को कष्ट पहुँचाकर ही निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है। इस धर्म के पाँच सिद्धान्त हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, (चोरी नहीं करना), असंग्रह (सम्पत्ति जमा नहीं करना) तथा ब्रह्मचर्य। इन्हें पंच महाव्रत कहा जाता है।
प्रश्न 30.
पिटक कितने हैं ? उनके नाम और विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
पिटक तीन हैं-सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटक । इससे इन्हें त्रिपिटिक के नाम से पुकारा जाता है। गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद इनकी रचना की गई । सुत्तपिटक में बुद्ध के उपदेश संकलित किए गए हैं। विनयपिटक में बौद्ध संघ के नियमों का उल्लेख है। अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन का विवेचन है।
प्रश्न 31.
बौद्ध धर्म और जैन धर्म की शिक्षाओं में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म और जैन धर्म की शिक्षाओं में निम्न अंतर हैं-
बौद्ध धर्म | जैन धर्म |
1. बौद्ध धर्म ईश्वर के अस्तित्व के विषय में मौन है। | 1. जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व को बिल्कुल नहीं मानता। |
2. पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, कर्म के समक्ष व्यर्थ है। | 2. प्रार्थना कुछ भी नहीं है, तप और व्रत ही मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं। |
3. अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। यज्ञ आदि में इनका विश्वास न हैं। | 3. अहिंसा पर अत्यधिक बल देते हैं, जड़ पदार्थों में जीवन का आभास। |
4. मोक्ष प्राप्ति के लिए अच्छे कर्म और पवित्र जीवन पर बल देता है। | 4. मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्ल पर बल देता है। (क) सम्यक ज्ञान, (ख) सम्यक कर्म तथा, (ग) अहिंसा। |
5. संघ को धर्म का प्रचार माध्यम बनाता है, मठों में अध्ययन-अध्यापन का कार्य होता है। | 5. इनके संघ नहीं होते, परन्तु धर्म-प्रचार के लिए प्रचारक होते हैं। |
6. बौद्ध धर्म का विस्तार देश-विदेश दोनों स्थानों पर हुआ। एशिया के कई देश इसकी छाया में आ गये थे। | 6. जैन धर्म केवल भारत में ही फूला-फला, विदेशों में नहीं। |
प्रश्न 32.
आप ‘जातक’ के सम्बन्ध में क्या जानते हैं ?
उत्तर:
जातक कथाओं में महात्मा गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ संकलित हैं। ये कथाएँ पालि भाषा में हैं। इनमें तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक चित्रण मिलते हैं। जातकों का बौद्ध साहित्य में विशेष महत्व है। इन कहानियों से हमें पता चलता है कि महात्मा बुद्ध जाति प्रथा एवं ब्राह्मणों को उच्च स्थान दिये जाने के विरुद्ध थे और क्षत्रियों को ब्राह्मणों से अच्छा मानते थे। काशी, कौशल तथा मगध राज्यों की प्रसिद्ध घटनाओं का विवरण भी जातक कथाओं में मिलता है। जातक कथाएँ अपना धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व रखती हैं।
प्रश्न 33.
कृष्ण देवराय की मुख्य उपलब्धियों के बारे में बताएँ।
उत्तर:
- कृष्ण देवराय बीजापुर और गोलकुंडा के शासकों को पराजित करने में सफल रहा।
- उसने उड़ीसा पर भी आक्रमण किया तथा वहाँ के शासक को भी हराया।
- उसने न केवल रायचूर दोआब पर विजय प्राप्त की बल्कि अपनी सेनाओं के साथ बहमनी राज्य के अंदर भी प्रवेश कर गया।
- पश्चिमी समुद्र तट पर सभी स्थानीय राज्यों के साथ उसका व्यवहार बहुत ही अच्छा और मैत्रीपर्ण था। अपने इन स्थानीय राज्यों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बनाकर अपने राज्य को समृद्ध बनाया।
- वह एक कुशल प्रशासक भी था। उसने अपने राज्य के उत्थान के लिए कई काम किये। उसने सिंचाई के लिए बाँध बनवाये, जिससे राज्य की कृषि-दशा में सुधार आया।
- उसने नये मंदिरों का निर्माण करवाया और पुराने मंदिर की मरम्मत करवाई। उसने अपने दरबार में विद्वानों और गुणी लोगों को प्रश्रय दे रखा था।
प्रश्न 34.
आयंगर व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
विजयनगर राज्य ने प्रचलित स्थानीय प्रशासन में परिवर्तन कर आयंगर व्यवस्था आरंभ की प्रत्येक ग्राम को स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई के रूप में गठित कर प्रशासन 12 व्यक्तियों के समूह को दिया गया। यह समूह आयगार कहलाता था। ये व्यक्ति राजकीय अधिकारी थे इनका पद आनुवंशिक था। वेतन के रूप में लगान और कर मुक्त भूमि दी जाती थी। आयगार ग्राम प्रशासन की देखभाल करते एवं शांति-व्यवस्था बनाए रखते थे।
प्रश्न 35.
पानीपत की पहली लड़ाई (1526) भारत के इतिहास में एक निर्णायक लड़ाई समझी जाती है, विवेचन कीजिए।
उत्तर:
- इस लड़ाई में लोदियों की कमर टूट गई। दिल्ली और आगरा तक का सारा प्रदेश बाबर के अधीन हो गया।
- इब्राहीम लोदी द्वारा आगरा में एकत्र खजाना अधिकार में आ जाने से बाहर की सारी आर्थिक कठिनाइयाँ दूर हो गईं।
- जौनपुर तक का समृद्ध क्षेत्र भी बाबर के सामने प्रशस्त था। . 4. पानीपत की लड़ाई ने उत्तर भारत का आधिपत्य के लिए संघर्ष के एक नये युग का सूत्रपात किया।
प्रश्न 36.
बाबर के बाबरनामा पर नोट लिखें।
उत्तर:
बाबर एक वीर योद्धा ही नहीं, अपितु एक विद्वान साहित्यकार भी था। उसकी रचनाओं में सबसे उत्तम उसकी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ या ‘तुज्क-ए-बाबरी’ है। श्रीमती बैबरिज के अनुसार, “बाबर की आत्मकथा एक ऐसा अमूल्य भण्डार है जिसे सेंट अगस्टॉइ तथा रूसो के स्वीकृति वचन और गिब्बन तथा न्यूटन की आत्म कथाओं के समकक्ष रखा जा सकता है।” बाबर ने अपनी आत्मकथा को अपनी मातृ-भाषा तुर्की में लिखा था। फारसी में इसका अनुवाद गुलबदन ने किया। अंग्रेजी में श्रीमती बैवरिज तथा हिन्दी में केशव कुमार ठाकुर के अनुवाद बहुत प्रसिद्ध हैं।
विषय – बाबरनामा में बाबर के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन है। इसमें फरगान, समरकन्द, बाबर की काबुल विजय, भारत के उत्तर-पश्चिम प्रदेश तथा पानीपत, खनवाह, चन्देरी और घाघरा आदि के प्रसिद्ध भारतीय युद्धों का भी वर्णन है। बाबर के जीवन में स्थिरता का अभाव था। अतः बाबर की आत्मकथा में केवल 18 वर्ष की घटनायें ही मिलती हैं।
भाषा-शैली – बाबरनामा की भाषा तुर्की है। इसमें अरबी-फारसी के शब्दों की अधिकता है। बाबर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा प्रवाहमयी है। उसकी वर्णन-शैली भी साधारण और स्पष्ट है। उसे जब अधिक समय मिला तो उसने विस्तार में लिखा है और जब कम समय मिला तो संक्षेप में वर्णन किया है।
विशेषताएँ-1. बाबर ने सरल और स्पष्ट वर्णन किया है। उसने अपनी भूलों और कमजोरियों को भी नहीं छुपाया। 2. बाबर को प्रकृति से बड़ा अनुराग था। बाबरनामा में प्राकृतिक दृश्यों का सुन्दर.वर्णन किया गया है। 3. बाबरनामा के वर्णन सजीव और रोचक हैं। 4. बाबरनामा में तत्कालीन भारत का प्रामाणिक इतिहास है।
महत्त्व – बाबरनामा साहित्यिक तथा ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों से एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में मध्य एशियाई राजनीति, तैमूरों के इतिहास, मंगोलों और चुगताइयों के आपसी सम्बन्ध, बाबर की तत्कालीन कठिनाइयाँ, ईरानी, उजबेग शक्ति के उत्थान और संघर्ष तथा बाबर के संघर्षमय जीवन की जानकारी मिलती है। इसी प्रकार यह ग्रन्थ तत्कालीन भारत और मध्य एशिया की सांस्कृतिक और राजनैतिक जानकारी के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
प्रश्न 37.
अकबर की धार्मिक नीति की समीक्षा करें।
उत्तर:
अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना निम्नलिखित है-
- आरम्भ में अकबर एक कट्टरपंथी मुसलमान था परंतु बैरम खाँ, अब्दुल रहीम खानखाना, फैजी, अबुल फजल, बीरबल जैसे उदार विचारों वाले लोगों के सम्पर्क से उसका दृष्टिकोण बदल गया। हिंदू रानियों का भी उस पर प्रभाव पड़ा। अब वह अन्य धर्मों के प्रति उदार हो गया था।
- 1575 ई० में उसने इबादतखाना बनवाया, जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों को अपने-अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। अक्सर बहस करते समय मौलवी गाली-गलौच पर उतर जाते थे। अत: अकबर को इस्लाम धर्म में रुचि कम हो गई।
- वह स्वयं तिलक लगाने लगा और गौ की पूजा करने लगा। अत: कट्टरपंथी मुसलमान उसे काफिर कहने लगे थे।
- 1579 ई० में उसने अपने नाम का खुतवा पढ़वा कर अपने आप को धर्म का प्रमुख घोषित कर दिया। इससे उलेमाओं का प्रभाव कम हो गया।
- अंत में उसने सभी धर्मों का सार लेकर नया धर्म चलाया, जिसे दीन-ए-इलाही के नाम से जाना जाता है। अपने धर्म को उसने किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया।
- उसने रामायण, महाभारत आदि कई हिन्दु ग्रंथों का भी फारसी में अनुवाद करवाया। वह धर्म को राजनीतिक से दूर रखता था।
- फतेहपुर सीकरी में एक महल, जोधाबाई का महल में भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक देखते हैं।
प्रश्न 38.
अकबर को ‘राष्ट्रीय शासक’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
अनेक विद्वान और व्यक्ति जलालुद्दीन अकबर (1556-1605) को मुगल बादशाहों में महानतम मानते हैं क्योंकि उसने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार ही किया बल्कि इसे अपने समय का विशालतम, दृढ़तम और सबसे समृद्ध राज्य बनाकर सुदृढ़ भी किया। अकबर हिंदुकुश पर्वत तक अपने साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार में सफल हुआ और इसने ईरान के सफानियों और तूरान (मध्य एशिया) के उजबेकों की विस्तारवादी योजनाओं पर लगाम लगाए रखी। अकबर के बाद जहाँगीर (1605-27) शाहजहाँ (1628-58) और औरंगजेब (1658-1707) के रूप में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व वाले तीन बहुत योग्य उत्तराधिकारी हुए। इनके अधीन क्षेत्रीय विस्तार जारी रहा यद्यपि इसकी गति काफी धीमी रही। तीन शासकों ने शासन के विविध यंत्रों को बनाए रखा और उन्हें सुदृढ़ किया। अतः अकबर राष्ट्रीय शासक था।
प्रश्न 39.
मुगलकालीन केन्द्रीय प्रशासन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
मुगलकालीन केन्द्रीय प्रशासन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार थी-
- वकील – इसे बजीर भी कहा जाता था। यह केन्द्रीय सरकार के समस्त विभागों का अध्यक्ष था। अकबर ने बैरम खाँ के पश्चात् इस पद का अंत कर दिया।
- दीवान या वित्तमंत्री – आर्थिक विषयों में यह बादशाह का प्रतिनिधि था।
- मीरबख्शी – यह सेना संबंधी सभी कार्य देखता था। यह सेना, मनसबदार एवं घोडों संबंधी व्यवस्था देखता था।
- प्रधान काजी – यह प्रांत, जिला एवं नगर के काजियों की नियुक्ति करता था। फौजदारी मुकदमों को देखता था।
- प्रांतीय शासन – सुबेदार प्रांत अथवा सूबे का प्रमुख होता था। दीवान सूबे में वित्त व्यवस्था देखता था। कोतवाल सूबे की आंतरिक सुरक्षा देखता था।
- जिला शासन – प्रत्येक प्रांत जिलों में विभक्त था। फौजदार जिले का प्रमुख अधिकारी था।
प्रश्न 40.
शेरशाह सूरी के भू-राजस्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
- शेरशाह ने भूमि पर लगान की दर निश्चित करने के लिए कृषि योग्य भूमि को तीन भागों में बाँटा। अच्छी, खराब और साधारण स्तर की भूमि। तीनों प्रकार की भूमि की उपज निश्चित करके उनके औसत पर लगान निश्चित किया जाता था।
- लगान उपज के अनुसार निश्चित किया जाता था। साधारण उपज वाली भूमि की उपज का एक-तिहाई भाग लगान के रूप में देना होता था। लगान अनाज या धन के रूप में तथा नकद. सरकारी कोष में जमा किया जा सकता था।
- फसल नष्ट होने पर किसानों का लगान माफ कर दिया जाता था। उन्हें राजकोष से आर्थिक सहायता भी दी जाती थी। सैनिकों को आदेश था कि वे कूच के समय फसल न खराब करें। यदि अनिवार्य परिस्थितियों के कारण सैनिकों द्वारा खड़ी फसल को नुकसान पहुंचता था तो राज्य उसकी क्षतिपूर्ति करता था।
- सरकार और किसानों के बीच पट्टे होते थे। इन पट्टों पर भूमि का क्षेत्रफल, भूमि की श्रेणी तथा लगान की दर लिखी होती थी। किसान उस पर हस्ताक्षर करता था। इस पट्टे से किसान के अधिकार सुरक्षित हो जाते थे।