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Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 5

प्रश्न 1.
प्रेक्षण का मूल्यांकन एक मनोवैज्ञानिक कौशल के रूप में करें।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हो वह अधिक-से-अधिक समय ध्यान से सुनने तथा प्रेक्षण कार्य करने में लगा देते हैं। मनोवैज्ञानिक अपनी संवेदनाओं का प्रयोग देखने, सुनने, स्वाद लेने या स्पर्श करने में लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनोवैज्ञानिक एक उपकरण है। जो अपने परिवेश के अन्तर्गत आनेवाली समस्त सचनाओं का अवशोषण कर लेता है।

मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश के उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत शीक्त तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश में इन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत व्यक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। जिसके अन्तर्गत व्यक्ति की आय, लिंग, कद, उसका दूसरे से व्यवहार करने का तरीका आदि सम्मिलित होते हैं।

प्रेक्षण के दो प्रमुख कारण हैं-

  1. प्रकृतिवादी प्रेक्षण
  2. सहभागी प्रेक्षण।

(i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण-उस प्रेक्षण के माध्यम से हम यह सीखते हैं कि लोग अलग-अलग परिस्थितियों में किस प्रकार व्यवहार करते हैं। यह सबसे प्राथमिक तरीका है।

(ii) सहभागी प्रेक्षण- इस प्रेक्षण में प्रेक्षक प्रेक्षण की प्रक्रिया में एक सक्रिय सदस्य के रूप में संलग्न होता है अर्थात प्रेक्षक जो प्रेक्षण कर रहा है। वह खुद अपने ऊपर भी ऐसा प्रेक्षण कर सकता है।

मनोवैज्ञानिक सेवाओं की दशा में विशिष्ट कौशल एक मूल कौशल है। मुख्यतः विशिष्ट कौशल की आवश्कताएँ विशिष्ट व्यावसायिक कार्यों को करने में होती है। उदाहरणार्थ, नैदानिक परिस्थितियों में काम करने वाले मनोवैज्ञानिक को चिकित्सापरक तकनीक मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन एवं परामर्श में पूर्ण रूप जानकारी प्राप्त होनी चाहिए। इसी प्रकार से संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक जो केवल संगठन के क्षेत्र में कार्य करते हैं। उन मनोवैज्ञानिकों को भी शोध, कौशलों के अतिरिक्त मूल्यांकन सुगमीकरण, परामर्श तथा व्यावहारपरक कौशलों की भी आवश्यकता होती है। जिसके परिणामस्वरूप वह व्यक्ति, संगठनों समूहों के विकास की प्रक्रिया को सरलता से जान लें। ये सभी कौशल आपस में एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। विशिष्ट कौशलों के अन्तर्गत सक्षमताओं के आधार पर उन्हें निम्नवत वर्गीकृत किया जा सकता है-

  1. मनोवैज्ञानिक परीक्षण कौशल
  2. साक्षात्कार कौशल
  3. परीक्षण कौशल
  4. परामर्श कौशल
  5. सम्प्रेषण कौशल।

प्रश्न 2.
चिन्ता विकृति के लक्षण एवं कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
चिन्ता मनः स्नायुविकृति एक ऐसा मानसिक रोग है, जिसमें रोगी हमेशा अज्ञात कारणों से चिन्तित रहा करता है। सामान्य चिन्ता एक सामान्य, स्वाभाविक औ. सर्वसाधारण मानसिक अवस्था है। जीवन में जटिल परिस्थितियों में यह अनिवार्य रूप से होता है। वर्तमान भयावह परिस्थिति से डरना या चिन्तित होना सामान्य अनुभव है। इसके लिए व्यक्ति डर की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। जैसे-बाघ को सामने आता देखकर व्यक्ति सामान्य चिंता के फलस्वरूप भयभीत होने या भागने की क्रिया करता है। व्यक्ति में ऐसी भयावह परिस्थिति की अवगति रहती है। उसी के संतुलन के लिए वह किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है। सामान्य चिन्ता का संबंध वर्तमान भयावह परिस्थितियों से रहता है। लेकिन सामान्य चिन्ता से असामान्य चिन्ता पूर्णतः भिन्न है। इसमें व्यक्ति चिन्तित या भयभीत रहता है, लेकिन सामान्य चिन्ता के समाने उसकी चिन्ता का विषय नहीं रहता। उसकी अपनी चिन्ता का कारण ज्ञात नहीं रहता।

उसकी चिन्ता पदार्थहीन होती है। अतः अपने विभिन्न शारीरिक उपद्रवों को व्यक्त करता है। वस्तुतः उसे अपने मानसिक उपद्रव का ज्ञान नहीं रहता। इसके अतिरिक्त उसकी चिन्ता का संबंध हमेशा भविष्य से रहता है, वर्तमान से नहीं। इसलिए उसमें निराकरणात्मक सामान्य चिन्ता की तरह प्रतिक्रिया देखने में नहीं आती है, अत: हम कह सकते हैं कि सामान्य चिन्ता भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है। सामान्य चिन्ता के संबंध में असामान्य चिन्ता आन्तरिक भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है।

सामान्य चिन्ता के संबंध में फिशर (Fisher) ने कहा-“सामान्य चिन्ता उन उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है जिसका परित्याग करने में व्यक्ति अयोग्य रहता है।” (Normal anxiety is a reaction to an unapprochable difficults which the individual is unable to avoid.) vafot 37H14R fantil के संबंध में उनका विचार है कि ‘असामान्य चिन्ता उन आन्तरिक या व्यक्तिगत उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है, जिसका ज्ञान व्यक्ति को नहीं रहता।” (Neurotic anxiety is a reaction to an unapproachable inner or sub-jective difficult of which the individual has no idea.)

चिन्ता मनःस्नायु विकृति (Symptoms of anxiety neurosis)-चिन्ता मनःस्नायु विकृति में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के लक्षण देखे जाते हैं। मानसिक लक्षण में भय और आशंका की प्रधानता रहती है, जबकि शारीरिक लक्षण में हृदय गति, रक्तचाप, श्वास गति, पाचन-क्रिया आदि. में परिवर्तन देखे जाते हैं। उनका वर्णन निम्नलिखित हैं-

1. मानसिक लक्षण (Mental symptoms)-मानसिक लक्षणों में अतिरजित भय और शंका की प्रधानता रहती है। यह अनिश्चित और विस्तृत होता है। इसका रोगी तर्कयुक्त प्रमाण नहीं कर सकता, किन्तु पूरे विश्वास के साथ जानता है कि उसका सोचना सही है। उसकी शंका किसी दुर्घटना से संबंध होती है। घर में आग लगने, महामारी फैलने, गाड़ी उलटने, दंगा होने या इसी प्रकार की अन्य घटनाओं के प्रति वह चिंतिन रहता है। वह हमेशा अनुभव करता है कि बहुत जल्द ही कुछ होनेवाला है। इस संबंध में अनेक काल्पनिक विचार उसके मन में आते रहते हैं। वह दिन-रात इसी विचार से परेशान रहता है उसमें उत्साह की कमी हो जाती है और मानसिक अंतर्द्वन्द्व बहुत अधिक हो जाता है। चिन्ता से या तो वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है या नींद लगने पर तुरन्त जाग जाता है। ऐसे रोगियों में मृत्यु, अपमान आदि भयावह स्वप्नों की प्रधानता रहती है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसका रोगी कभी-कभी आत्महत्या का भी प्रयास करता है।

2. शारीरिक लक्षण (Physical symptoms)-चिन्ता मन:स्नायु विकृति के रोगियों में शारीरिक लक्षण भी बड़ी उग्र होते हैं। रोगी के हृदय की गति, रक्तचाप, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। पूरे शरीर में दर्द का अनुभव करता है। कभी-कभी चक्कर भी आता है। रोगी के शरीर से बहुत अधिक पसीना निकलता है। वह बोलने में हलकाता है तथा बार-बार पेशाब करता है, उसे शारीरिक वजन घटता हुआ मालूम पड़ता है। यौन भाव की कमी हो जाती है। इसके रोगी तरह-तरह की आवाजें सुनते हैं। कुछ लोगों को शिश्न छोआ होने का भय बना रहता है।

इस प्रकार के रोगियों में दो प्रकार की चिन्ता देखी जाती है-तात्कालिक चिन्ता तथा दीर्घकालिक चिन्ता। तात्कालिक चिन्ता रोगी में बहुत तीव्र तथा उग्र होती है। यह चिन्ता तुरन्त की होती है। इसमें रोगी चिल्लाता है तथा पछाड़ खाकर गिरता है। दीर्घकालिक चिन्ता पुरानी होती है। रोगी अज्ञात भावी दुर्घटनाओं के प्रति चिन्तित रहता है। वह निरंतर इस चिन्ता से बेचैन रहता है और त्रस्त रहता है। इस रोग का लक्षण के आधार पर ही विद्वानों ने दो भागों में विभाजित किया है -मुक्तिचारी चिन्ता तथा निश्चित चिन्ता। चिन्ता के कारण का अभाव नहीं रहने पर भी जब रोगी बराबर बेचैन रहता है तो उसे free floating anxiety कहते हैं, लेकिन जब रोगो किसी परिस्थिति विशेष से अपनी चिन्ता का संबंध स्थापित कर लेता है तो उसे bound anxiety कहा गया है प्रारंभ में रोगी में मक्तिचारी चिन्ता हो रहता है, लेकिन क्रमशः स्थायी रूप धारण कर लेने पर उसे निश्चित चिन्ता बन जाती है।

चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारण (Etiology)-अन्य मानसिक रोगों की तरह चिन्ता पनःस्नायु विकाते के कारणों को लेकर भी मनोवैज्ञानिकों में एकमत का अभाव है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा जो कारण बताये गये हैं, उनमें कुछ मुख्य निम्न हैं-

1. लैंगिक वासना का दमन (Repression of sexual desire)-सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फायड ने लैंगिक इच्छाओं के दमन को इस मानसिक रोग का कारण माना है। व्यक्ति में लैंगिक आवेग उत्पन्न होता है और यदि वह आवेग की पूर्ति में असफल हो जाता है, उसमें चिन्ता उत्पन्न होती है। यही इस रोग के लक्षणों को विकसित करती है। अत:स्रावित लैंगिक शक्ति को इस रोग का कारण माना जा सकता है। किसी पति की यौन सामर्थता या स्त्री में यौन उत्तेजना होने पर चलनात्मक स्रात नहीं होने से वह इस रोग से पीड़ित हो जाता है। इसी प्रकार पुरुष अपनी असमर्थता या स्त्री दोषी होने के कारण इस रोग से पीड़ित हो सकता है।

फ्रायड के उपर्युक्त मत से मनोवैज्ञानिक सहमत नहीं है। इस संबंध में गार्डेन का विचार है कि कामेच्छा का दमन और उसका प्रतिबंध हो इस रोग का कारण नहीं, बल्कि दो संवेगों के संघर्ष के फलस्वरूप इस रोग के लक्षण विकसित होते हैं। इस बात का पैकडुवल ने भी समर्थन किया है।

2. हीन भावना (Inferiority complex)-इस संबंध के फ्रायड के शिष्य एडलर ने भी अपना विचार व्यक्त किया है। उनका कहना है कि मनुष्य में आत्म प्रतिष्ठा की भावना प्रबल होती है, किन्तु बचपन में आश्वासन की शिथिलता के कारण जब व्यक्ति के Ego का समुचित रूप से विकास नहीं हो पाता है, तो वह हीनता की भावना से पीड़ित रहने लगता है। उसमें आत्म प्रतिष्ठा की भावना का दमन हो जाता है और व्यक्ति चिन्ता गनःस्नायु विकृति से पीड़ित हो जाता है।

3. मानसिक संघर्ष एवं निराशा (Mental conflict and frustration)-ओकेली का ऐसा मानना है कि इस रोग का कारण मानसिक संघर्ष एवं कुंठा है। इस संबंध में और भी मनोवैज्ञानिकों ने अपना अध्ययन किया है और ओकेली के मत का समर्थन किया है।
इस तरह हम देखते हैं कि चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारणों को लेकर सभी मनोवैज्ञानिक एक मत नहीं है। इस रोग के कारण के रूप में मुख्य रूप से लैंगिक वासना का दमन, हीनभावना तथा मानसिक संघर्ष एवं निराशा को माना जा सकता है।

प्रश्न 3.
प्रेक्षण कौशल के दो प्रमुख उपागमों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रक्षेपण के दो प्रमुख उपागम हैं

  1. प्रकृतिवादी प्रेक्षण
  2. सहभागी प्रेक्षण।

(1) प्रकृतिवादी प्रेक्षण-एक प्राथमिक तरीका है जिससे हम सीखते हैं कि लो भिन्न स्थिति में कैसे व्यवहार करते हैं। मान लजिए, कोई चाहता है कि जब कोई कंपनी अपनी उत्पाद की घोषणा करती है तो उसकी प्रतिक्रियास्वरूप लोग शॉपिंग मॉल जाने पर कैसा व्यवहार करते है। इसके लिए वह उस शॉपिंग मॉल में जा सकता है जहाँ इन छूट वाली वस्तुओं को प्रदर्शित किया गया है। क्रमबद्ध ढंग से यह प्रेक्षण कर सकता है। कि लोग खरीददारी के पहले या बाद में क्या कहते या करते हैं। उनके तुलनात्मक अध्ययन से वहाँ क्या हो रहा है, इसके बारे में रुचिकर सुझाव बना सकता है।

(2) सहभागी पेक्षण-प्रकृतिवादी प्रेक्षण का ही एक प्रकार है। इसमें प्रेक्षक प्रेक्षण की प्रक्रिया में सक्रिय सदस्य के रूप में संलग्न होता है। इसके लिए वह स्थिति में स्वयं भी सम्मिलित हो सकता है जहाँ प्रेक्षण करना है। उदाहरण के लिए ऊपर दी गई समस्या में, प्रेक्षणकर्ता उसी शॉपिंग मॉल की दुकान में अंशकालिक नौकरी कर अंदर का व्यक्ति बनकर ग्राहकों के व्यवहार में विभिन्नताओं का प्रेक्षण कर सकता है। इस तकनीक या मानवशास्त्री बहुतायत से उपयोग करते हैं जिनका उद्देश्य होता है कि उस सामाजिक व्यवस्था का प्रथमतया दृष्टि से एक परिपेक्ष्य विकसित कर सके जो एक बाहरी व्यक्ति को सामान्यता उपलब्ध नहीं होता है।

प्रश्न 4.
मनोवृत्ति को परिभाषित करें। इसके तत्वों की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
समाज मनोविज्ञान में मनोवृत्ति की अनेक परिभाषाएँ दी गयी हैं। सचमुच में मनोवृत्ति भावात्मक तत्त्व (affective component), व्यवहारपरक तत्त्व (behavioural component) तथा संज्ञानात्मक तत्त्व (congnitive component) का एक तंत्र या संगठन (organization) होता है। इस तरह से मनोवृत्ति ए.बी.सी (a.b.c) तत्त्वों का एक संगठन होता है। इन तत्त्वों की व्याख्या इस प्रकार है-

  1. संज्ञानात्मक तत्त्व (Cognitive component)-संज्ञानात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति वस्तु के प्रति विश्वास (belief) से होता है।
  2. भावात्मक तत्त्व (Affective component)-भावात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में वस्तु के प्रति सुखद या दुःखद भाव से होता है।
  3. व्यवहारपरक तत्त्व (Behavioural component)-व्यवहार परक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति के पक्ष तथा विपक्ष में क्रिया या व्यवहार करने से होता है। मनोवृत्ति के इन तीनों तत्त्वों (components) की कुछ विशेषताएँ (characteristics) हैं जो इस प्रकार हैं।

(i) कर्षणशक्ति (Valence)-मनोवृत्ति के तीनों तत्त्वों में कर्षणशक्ति होता है। कर्षणशक्ति से तात्पर्य मनोवृत्ति की अनुकूलता (favourableness) तथा प्रतिकूलता (unfavourableness) की मात्रा से होता है। जैसे, यदि कोई व्यक्ति सह शिक्षा (coeducation) को उत्तम समझता है, तो उसके मनोवृत्ति के तत्वों की अनुकूलता स्वभावत: अधिक होगी।

(ii) बहविधता (Multiflexity)-बहुविधता की विशेषता यह बतलाती है कि मनोवृत्ति के किसी तत्त्व में कितने कारक (factors) होते हैं। किसी तत्त्व में जितने अधिक कारक होंगे, उसमें जटिलता भी उतनी ही अधिक होगी। जैसे-सहशिक्षा के प्रति व्यक्ति की मनोवृत्ति के संज्ञानात्मक तत्त्व में कई कारक सम्मिलित हो सकते हैं-सहशिक्षा किस स्तर से प्रारंभ होनी चाहिए, सहशिक्षा के क्या लाभ हैं, सहशिक्षा नगर में अधिक लाभप्रद होता है या शहर में आदि। बहुविधता को जटिलता (complexity) भी कहा जाता है।

(iii) आत्यन्तिकता (extremeness)-आत्यन्तिकता से तात्पर्य इस बात से होता है कि व्यक्ति की मनोवृत्ति के तत्त्व कितने अधिक मात्रा में अनुकूल (favourable) या प्रतिकूल (unfavourable) है। जैसे अगर सहशिक्षा के प्रति मनोवृत्ति को अभिव्यक्ति यदि कोई व्यक्ति 5-बिन्दु मापनी पर (पूर्ण सहमत, सहमत, तटस्थ, असहमत तथा पूर्णतः असहमत) पूर्णत: सहमत या पूर्णतः असहमत पर करता है तथा दूसरा व्यक्ति तटस्थ पर करता है तो यह कहा जाएगा कि पहले व्यक्ति की मनोवृत्ति दूसरे व्यक्ति को मनोवृत्ति से अधिक आन्यन्तिक (extremes) है।

(iv) केन्द्रित (centrality)-इससे तात्पर्य मनोवृत्ति की किसी खास तत्त्व के विशेष भूमिका से होता है। मनोवृत्ति के तीन तत्त्वों में कोई एक या दो तत्त्व अधिक प्रबल हो सकता है और तब वह अन्य दो तत्त्वों को भी अपनी ओर मोड़कर एक विशेष स्थिति उत्पन्न कर सकता है। जैसे, यदि किसी व्यक्ति को सहशिक्षा की गुणवत्ता में बहुत अधिक विश्वास है अर्थात् उसका संज्ञानात्मक तत्त्व प्रबल है तो अन्य दो तत्त्व भी इस प्रबलता के प्रभाव में आकर एक अनुकूल मनोवृत्ति के विकास में मदद करने लगेगा। स्पष्ट हुआ कि मनोवृत्ति के तत्वों की कुछ अपनी विशेषता होती है। इन तत्त्वों की विशेषताओं पर मनोवृत्ति को अनुकूल या प्रतिकूल होना प्रत्यक्ष रूप से आधृत होता है।

प्रश्न 5.
व्यक्तित्व अध्ययन के एब्राहम मैसलो का मानवतावादी सिद्धान्त का वर्णन करें।
उत्तर:
एब्राहम मैसलो ने व्यक्तित्व के सर्वांगीण स्वरूप को स्पष्ट करने के उद्देश्य से अपने मानवतावादी सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उन्होंने व्यक्तित्व सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिए स्वस्थ एवं सजीनात व्यक्तियों का अध्ययन किया। मैसलो ने मानवीय अभिप्रेरणा का सिद्धान्त प्रतिपादित कर व्यक्तित्व गत्यात्मकता को प्रदर्शित करने का प्रयास किया है। उन्होंने अपने इस सिद्धान्त में आवश्यकताओं को पदानुक्रम में व्यवस्थित कर यह बताने का प्रयास किया है कि प्रत्येक व्यक्ति में उच्च स्तरीय आवश्यक को प्राप्त करने की सभावनाएँ रहता है। लेकिन व्यक्ति की उच्च स्तरीय आवश्यकताओं की पूर्ति तभी संभव होता है जब निम्न स्तरीय आवयकताओं की पूर्ति हो जाती है।

मैसलो के अनुसार निम्नस्तरीय आवश्यकताओं में भूख, प्यास, सुरक्षा, सम्बन्धन तथा सम्मान आते हैं जबकि उच्च स्तरीय आवश्यकताओं में न्याय, अच्छाई, सुन्दरता तथा एकता आदि आते हैं। आवश्यकता की पूर्ति वास्तव में व्यक्ति के जीवन का चरम बिन्दु होता है। मैसलो ने इसे ही आत्मस्ति की आवश्यकता कहा है, जिसे आवश्यकता पदानुक्रम में सर्वोच्च आवश्यकता माना गया है। जब आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती है तो व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है और अलगाव, पीड़ा, उदासीन सनकीपन आदि से ग्रस्त हो जाता है।

इस प्रकार निष्कर्ष रूप से कहा जा सकता है कि मैसलो का व्यक्तित्व सिद्धान्त अत्यधिक आशावादी, मानवतावादी एवं सर्वांगपूर्ण है। इसने व्यक्तित्व के स्वरूप का निरूपण करते हुए व्यक्ति पूर्णता के लिए आत्मसिद्धि को आवश्यक माना है।

प्रश्न 6.
गार्डनर के द्वारा पहचान की गई बहु-बुद्धि की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
गार्डनर ने बहु-बुद्धि का सिद्धांत प्रस्तुत किया। उनके अनुसार बुद्धि एक तत्त्व नहीं है बल्कि कई भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियों का अस्तित्व होता है। प्रत्येक बुद्धि एक-दूसरे से स्वतंत्र रहकर कार्य करती है। इसका अर्थ यह है कि यदि किसी व्यक्ति में किसी एक बुद्धि की मात्रा अधिक है तो यह अनिवार्य रूप से इसका संकेत नहीं करता कि उस व्यक्ति में किसी अन्य प्रकार की बुद्धि अधिक होगी, कम होगी या कितनी होगी। गार्डनर ने यह भी बताया कि किसी समस्या का समाधान खोजने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की बुद्धियाँ आपस में अंत:क्रिया करते हुए साथ-साथ कार्य करती हैं। अपने-अपने क्षेत्रों में असाधारण योग्यताओं का प्रदर्शन करने वाले अत्यन्त प्रतिभाशाली व्यक्तियों के आधार पर गार्डनर ने बुद्धि को आठ प्रकार में विभाजित किया।

ये आठ प्रकार की बुद्धि इस प्रकार से हैं-

(i) भाषागत (Linguistic)-यह अपने विचारों को प्रकट करने तथा दूसरे व्यक्तियों के विचारों को समझने हेतु प्रवाह तथा नम्यता के साथ भाषा का उपयोग करने की क्षमता है। जिन व्यक्तियों में यह बुद्धि अधिक होती है वे ‘शब्द-कुशल’ होते हैं। ऐसे व्यक्ति शब्दों के भिन्न-भिन्न अर्थों के प्रति संवेदनशील होते हैं, अपने मन में भाषा के बिंबों का निर्माण कर सकते हैं और स्पष्ट तथा परिशुद्ध भाषा का उपयोग करते हैं। लेखकों तथा कवियों में यह बुद्धि अधिक मात्रा में होती है।

(ii) तार्किक-गणितीय (Logical & mathematical)-इस प्रकार की बुद्धि की अधिक मात्रा रखने वाले व्यक्ति तार्किक तथा आलोचनात्मक चिंतन कर सकते हैं। वे अमूर्त तर्कना कर लेते हैं और गणितीय समस्याओं के हल के लिए प्रतीकों का प्रहस्तन अच्छी प्रकार से कर लेते हैं। वैज्ञानिकों तथा नोबेल पुरस्कार विजेताओं में इस प्रकार की बुद्धि अधिक पाई जाने की संभावना रहती है।

(iii) देशिक (Spatial)-यह मानसिक बिंबों को बनाने, उनका उपयोग करने तथा उनमें मानसिक धरातल पर परिमार्जन करने की योग्यता है। इस बुद्धि को अधिक मात्रा में रखने वाला व्यक्ति सरलता से देशिक सूचनाओं को अपने मस्तिष्क में रख सकता है। विमान-चालक, नाविक, मूर्तिकार, चित्रकार, वास्तुकार, आंतरिक साज-सज्जा के विशेषज्ञ, शल्य-चिकित्सा आदि में इस बुद्धि के अधिक पाए जाने की संभावना होती है।

(iv) संगीतात्मक (Musical)-सांगीतिक अभिरचनाओं को उत्पन्न करने, उनका सर्जन तथा प्रहस्तन करने की क्षमता सांगीतिक योग्यता कहलाती है। इस बुद्धि की उच्च मात्रा रखने वाले लोग ध्वनियों, स्पंदनों तथा ध्वनियों की नई अभिरचनाओं के सर्जन के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं।

(v) शारीरिक-गतिसंवेदी (bodily-kinesthetic)-किसी वस्तु अथवा उत्पाद के निर्माण के लिए अथवा मात्र शारीरिक प्रदर्शन के लिए संपूर्ण शरीर अथवा उसके किसी एक अथवा एक से अधिक अंग की लोच तथा पेशीय कौशल की योग्यता शारीरिक गतिसंवेदी योग्यता कही जाती है। धावकों, नर्तकों, अभिनेताओं/अभिनेत्रियों, खिलाड़ियों, जिमनास्टों तथा शल्य-चिकित्सकों में इस बुद्धि की अधिक मात्रा पाई जाती है।

(vi) अंतर्वैयक्तिक (Interpersonal)–इस योग्यता द्वारा व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की अभिप्रेरणाओं या उद्देश्यों, भावनाओं तथा व्यवहारों का सही बोध करते हुए उनके साथ मधुर संबंध स्थापित करता है। मनोवैज्ञानिक, परामर्शदाता, राजनीतिज्ञ, सामाजिक कार्यकर्ता तथा धार्मिक नेता आदि में उच्च अंतर्वैयक्तिक बुद्धि पाए जाने की संभावना होती है।

(vii) अंत:व्यक्ति (Interperson)-इस योग्यता के अंतर्गत व्यक्ति को अपनी शक्ति तथा कमजोरियों का ज्ञान और उस ज्ञान का दूसरे व्यक्तियों के साथ सामाजिक अंत:क्रिया में उपयोग करने का ऐसा कौशल सम्मिलित है जिससे वह अन्य व्यक्तियों से प्रभावी संबंध स्थापित करता है। इस बुद्धि की अधिक मात्रा रखने वाले व्यक्ति अपनी अनन्यता या पहचान, मानव अस्तित्व और जीवन के अर्थों को समझने में अति संवेदनशील होते हैं। दार्शनिक तथा आध्यात्मिक नेता आदि में इस प्रकार की उच्च बुद्धि देखी जा सकती है।

(viii) प्रकृतिवादी (Naturalistic)-इस बुद्धि का तात्पर्य प्राकृतिक पर्यावरण से हमारे संबंधों की पूर्ण अभिज्ञता से है। विभिन्न पशु-पक्षियों तथा वनस्पतियों के सौंदर्य का बोध करने में तथा प्राकृतिक पर्यावरण में सूक्ष्म विभेद करने में यह बुद्धि सहायक होती है। शिकारी, किसान, पर्यटक, वनस्पति-विज्ञानी, प्राणीविज्ञानी और पक्षीविज्ञानी आदि में प्रकृतिवादी बुद्धि अधिक मात्रा में होती है।

प्रश्न 7.
अभिक्षमता’ अभिरुचि और बुद्धि से कैसे भिन्न है? अभिक्षमता का मापन कैसे किया जाता है?
उत्तर:
अभिक्षमता क्रियाओं के किसी विशेष क्षेत्र की विशेष योग्यता को कहते हैं। अभिक्षमता विशेषताओं का ऐसा संयोजन है जो व्यक्ति द्वारा प्रशिक्षण के उपरांत किसी विशेष क्षेत्र के ज्ञान अथवा कौशल के अर्जन की क्षमता को प्रदर्शित करता है। अभिक्षमताओं का मापन कुछ विशिष्ट परीक्षणों द्वारा किया जाता है। किसी व्यक्ति की अभिक्षमता के मापन से इसमें उसके द्वारा भविष्य में किए जाने वाले निष्पादन का पूर्वकथन करने में सहायता मिलती है।

बुद्धि का मापन करने की प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिकों को यह ज्ञान होता है कि समाज बुद्धि रखने वाले व्यक्ति भी किसी विशेष क्षेत्र के ज्ञान अथवा कौशलों की भिन्न-भिन्न रक्षता के साथ अर्जित करते हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट योग्यताएँ तथा कौशल ही अभिक्षमताएँ कहलाती हैं। उचित प्रशिक्षण देकर उन योग्यताओं में पर्याप्त अभिवृद्धि की जा सकती है।

किसी विशेष क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए व्यक्ति में अभिक्षमता के साथ-साथ अभिरुचि (Interest) का होना भी आवश्यक है। अभिरुचि किसी विशेष कार्य को करने की वरीयता या तरजीह को कहते हैं जबकि अभिक्षमता उस कार्य को करने की संभाव्यता या विभवता को कहते हैं। किसी व्यक्ति में किसी कार्य को करने की अभिरुचि हो सकती है परन्तु हो सकता है कि उसे करने की अभिक्षमता उसमें न हो। इसी प्रकार यह भी संभव है कि किसी व्यक्ति में किसी कार्य को करने की अभिक्षमता हो परंतु उसमें उसकी अभिरुचि न हो। उन दोनों ही दशाओं में उसका निष्पादन संतोषजनक नहीं होगा। एक ऐसे विद्यार्थी की सफल यांत्रिक अभियंता बनने की अधिक संभावना है जिसमें उच्च यांत्रिक अभिक्षमता हो और अभियांत्रिकी में उसकी अभिरुवि भी हो।

अभिक्षमता परीक्षण दो रूपों में प्राप्त होते हैं–स्वतंत्र (विशेषीकृत) : अभिक्षमता परीक्षण तथा बहुल (सामान्यीकृत) अभिक्षमता परीक्षण। लिपिकीय अभिक्षमता, यांत्रिक अभिक्षमता, आकिक अभिक्षमता तथा टंकण अभिक्षमता आदि के परीक्षण स्वतंत्र अभिक्षमता परीक्षण है! बहुल अभिक्षमता परीक्षणों में एक परीक्षणमाला होती है जिससे अनेक भिन्न-भिन्न प्रकार की परंतु समजातीय क्षेत्रों में अभिक्षमता का मापन किया जाता है। विभेदन अभिक्षमता परीक्षण (डी. ए. टी.), सामान्य अभिक्षमता परीक्षणमाला (जी. ए. टी. बी.) तथा आर्ड सर्विसेस व्यावसायिक अभिक्षमता परीक्षणमाला (ए. एस. बी. ए. बी) आदि प्रसिद्ध अभिक्षमता परीक्षण मालाएँ हैं। इनमें से शैक्षिक पर्यावरण में विभेदक अभिक्षमता परीक्षण का सर्वाधिक उपयोग किया जाता है । इस परीक्षण में 8 स्वतंत्र उप परीक्षण हैं। ये हैं-

  1. शब्द तर्कना।
  2. आकिक तर्कना।
  3. अमूर्त तर्कना।
  4. लिपिकीय गति एवं परिशुद्धता।
  5. यांत्रिक तर्कना।
  6. देशिक या स्थानिक संबंध।
  7. वर्तनी।
  8. भाषा का उपयोग।

प्रश्न 8.
आत्म-सम्मान से आपका क्या तात्पर्य है? आत्म-सम्मान का हमारे दैनिक जीवन के व्यवहारों से किस प्रकार संबंधित है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आत्म-सम्मान हमारे आत्म का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है। व्यक्ति के रूप में हम सदैव अपने मूल्य या मान और अपनी योग्यता के बारे में निर्णय का आकलन करते रहते हैं। व्यक्ति का अपने बारे में यह मूल्य-निर्णय ही आत्म-सम्मान कहा जाता है। कुछ लोगों में आत्म-सम्मान उच्च स्तर का जबकि कुछ अन्य लोगों में आत्म-सम्मान निम्न स्तर का पाया जाता है।

किसी व्यक्ति के आत्म-सम्मान का मूल्यांकन करने के लिए व्यक्ति के समक्ष विविध प्रकार के कथन प्रस्तुत किये जाते हैं और उसके संदर्भ में सही है, यह बताइए। उदाहरण के लिए, किसी बालक/बालिका से ये पूछा जा सकता है कि “मैं गृह कार्य करने में अच्छा हूँ” अथवा “मुझे अक्सर विभिन्न खेलों में भाग लेने के लिए चुना जाता है” अथवा “मेरे सहपाठियों द्वारा मुझे बहुत पसंद किया जाता है” जैसे कथन उसके संदर्भ में किस सीमा तक सही हैं। यदि बालक/बालिका यह बताता/बताती है कि ये कथन उसके संदर्भ में सही है तो उसका आत्म-सम्मान उस दूसरे बालक/बालिका की तुलना में अधिक होगा जो यह बताता/बताती है कि यह कथन उसके बारे में सही नहीं हैं।

छः से सात वर्ष तक के बच्चों में आत्म-सम्मान चार क्षेत्रों में निर्मित हो जाता है-शैक्षिक क्षमता, सामाजिक क्षमता, शारीरिक/खेलकूद संबंधी क्षमता और शारीरिक रूप जो आयु के बढ़ने के साथ-साथ और अधिक परिष्कृत होता जाता है। अपनी स्थिर प्रवृत्तियों के रूप में अपने प्रति धारणा बनाने की क्षमता हमें भिन्न-भिन्न आत्म-मूल्यांकनों को जोड़कर अपने बारे में एक सामान्य मनोवैज्ञानिक प्रतिमा निर्मित करने का अवसर प्रदान करती है। इसी को हम आत्म-सम्मान की समग्र भावना के रूप में जानते हैं।

आत्म-सम्मान हमारे दैनिक जीवन के व्यवहारों से अपना घनिष्ठ संबंध प्रदर्शित करता है। उदाहरण के लिए जिन बच्चों में उच्च शैक्षिक आत्म-सम्मान होता है उनका निष्पादन विद्यालयों में निम्न आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में अधिक सम्मान होता है और जिन बच्चों में उच्च सामाजिक आत्म-सम्मान होता है उनको जिन बच्चों में उच्च सामाजिक आत्म-सम्मान होता है उनको निम्न सामाजिक आत्म-सम्मान रखने वाले बच्चों की तुलना में सहपाठियों द्वारा अधिक पसंद किया जाता है। दूसरी तरफ, जिन बच्चों में सभी क्षेत्रों में निप्न आत्म-सम्मान होता है उनमें दुश्चिता, अवसाद और समाजविरोधी व्यवहार पाया जाता है! अध्ययनों द्वारा प्रदर्शित किया गया है कि जिन माता-पिता द्वारा स्नेह के साथ सकारात्मक ढंग से बच्चों का पालन-पोषण किया गया है ऐसे बालकों में उच्च आत्म-सम्मान विकसित होता है। क्योंकि ऐसा होने पर बच्चों द्वारा सहायता न माँगने पर भी यदि उनके निर्णय स्वयं लेते हैं तो ऐसे बच्चों में निम्न आत्म-सम्मान पाया जाता है।

प्रश्न 9.
व्यक्तित्व के मानवतावादी उपागम की प्रमुख प्रतिज्ञप्ति क्या है? आत्मसिद्धि से मैस्लो का क्या तात्पर्य था?
उत्तर:
मानवतावादी सिद्धांत मुख्यतः फायड के सिद्धांत के प्रत्युत्तर में विकसित हुए। व्यक्तित्व के संदर्भ में मानवतावादी परिप्रेक्ष्य के विकास में लार्य रोजर्स और अब्राहम मैस्लो ने विशेष रूप से योगदान किया है। रोजर्स द्वारा प्रस्तावित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचार एक पूर्णतः प्रकार्यशील व्यक्ति का है। उनका विश्वास है कि व्यक्तित्व के विकास के लिए संतुष्टि अभिप्रेरक शक्ति है। लोग अपनी क्षमताओं, संभाव्यताओं और प्रतिभाओं को संभव सवोत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं! व्यक्तियों में एक सहज प्रवृत्ति होती है जो उन्हें अपने वंशागत प्रकृति की सिद्धि या प्राप्ति के लिए निर्दिष्ट करती है।

मानव व्यवहार के बारे में रोजर्स ने दो आधारभूत अभिगृह निर्मित किए हैं। एक यह लि व्यवहार लक्ष्योन्मुख और सार्थक होता है और दूसरा यह कि लोग (जो सहज रूप से अच्छे होते हैं) सदैव अनुकली तथा आत्मसिद्धि वाले व्यवहार का चयन करेंगे।

रोजर्स का सिद्धांत उनके निदानशाला में रोगियों को सुनते हुए प्राप्त अनुभवों से विकसित हुआ है। उन्होंने यह ध्यान दिया कि उनके सेवार्थियों के अनुभव में आत्म एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व था। इस प्रकार, उनका सिद्धांत आत्म के संप्रत्यय के चतुर्दिक संरचित है ! उनके सिद्धांत का अभिग्रह है कि लोग सतत अपने वास्तविक आत्म की सिद्धि या प्राप्ति की प्रक्रिया में लगे रहते हैं।

रोजर्स ने सुझाव दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास आदर्श अहं या आत्म का एक संप्रत्यय होता है। एक आदर्श आत्म वह आत्म होता है जो कि एक व्यक्ति बनना अथवा होना चाहता है। जब वास्तविक आत्म और आदर्श आत्म के बीच समरूपता होती है तो व्यक्ति सामान्यतया प्रसन्न रहता है, किन्तु दोनों प्रकार के आत्म के बीच विसंगति के कारण प्रायः अप्रसन्नता और असंतोष की भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। रोजर्स का एक आधारभूत सिद्धांत है कि लोगों में आत्मसिद्धि के माध्यम से आत्म-संप्रत्यय को अधि कतम सीमा तक विकसित करने की प्रवृत्ति होती है। इस प्रक्रिया में आत्म विकसित, विस्तारित और अधिक सामाजिक हो जाता है।

रोजर्स व्यक्तित्व-विकास को एक सतत् प्रक्रिया के रूप में देखते हैं। इसमें अपने आपका मूल्यांकन करने का अधिगम और आत्मसिद्धि को प्रक्रिया में प्रवीणता सन्निहित होती है। आत्म-संप्रत्यय के विकास में सामाजिक प्रभावों की भूमिका को उन्होंने स्वीकार किया है। जब सामाजिक दशाएँ अनुकूल होती हैं, तब आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान उच्च होता है। इसके विपरीत, जब सामाजिक दशाएँ प्रतिकूल होती हैं, तब आत्म-संप्रत्यय और आत्म-सम्मान निम्न होता है। उच्च आत्म-संप्रत्यय
और आत्म-सम्मान रखने वाले लोग सामान्यता नम्य एवं नए अनुभवों के प्रति मुक्त भाव से ग्रहणशील होते हैं ताकि वे अपने सतत् विकास और आत्मसिद्धि में लगे रह सकें।

मैस्लो ने आत्मसिद्धि की लब्धि या प्राप्ति के रूप में मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ लोगों की एक विस्तृत व्याख्या दी है। आत्मसिद्धि वह अवस्था होती है जिसमें लोग अपनी संपूर्ण संभाव्यताओं को विकसित कर चुके होते हैं। मैस्लो ने मनुष्यों का एक आशावादी और सकारात्मक दृष्टिकोण विकसित किया है जिसके अंतर्गत मानव में प्रेम, हर्ष और सर्जनात्मक कार्यों को करने की आत्मसिद्धि को प्राप्त करने में स्वतंत्र माने गए हैं। अभिप्रेरणाओं, जो हमारे जीवन को नियमित करती हैं, के विश्लेषण के द्वारा आत्यसिद्धि को संभव बनाया जा सकता है हम जानते हैं कि जैविक सुरक्षा और आत्मीयता की आवश्यकताएँ (उत्तरजीविता आवश्यकताएँ) पशुओं और मनुष्यों दोनों में पाई जाती हैं। अतएव किसी व्यक्ति का मात्र पुनः आवश्यकताओं की संतुष्टि में संलग्न होना उसे पशुओं के स्तर पर ले आता है। मानव जीवन की वास्तविक यात्रा आत्म-सम्मान और.आत्मसिद्धि जैसी आवश्यकताओं के अनुसरण से आरंभ होती है। मानवतावादी उपागम जीवन के सकारात्मक पक्षों के महत्त्व पर बल देता है।

प्रश्न 10.
व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागमों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागम निम्न हैं-
(i) प्रारूप उपागम- व्यक्ति के प्रेक्षित व्यवहारपरक विशेषताओं के कुछ व्यापक स्वरूपों का परीक्षण कर मानव व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करता है। प्रत्येक व्यवहारपरक स्वरूप व्यक्तित्व के किसी एक प्रकार को इंगित करता है जिसके अंतर्गत उस स्वरूप की व्यवहारपरक विशेषता की समानता के आधार पर व्यक्तियों को रखा जाता है।

(ii) विशेषक उपागम-विशिष्ट मनोवैज्ञानिक गुणों पर बल देता है जिसके आधार पर व्यक्ति संगत और स्थिर रूपों में भिन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, एक व्यक्ति कम शर्मीला हो सकता है जबकि दूसरा अधिक; एक व्यक्ति अधिक मैत्रीपूर्ण व्यवहार कर सकता है और दूसरा कम। यहाँ ‘शर्मीलापन’ और ‘मैत्रीपूर्ण व्यवहार’ विशेषकों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके आधार पर व्यक्तियों में संबंधित व्यवहारपरक गुणों या विशेषकों की उपस्थिति या अनुपस्थिति की मात्रा का मूल्यांकन किया जा सकता है।

(iii) अंतःक्रियात्मक उपागम- इसके अनुसार स्थितिपरक विशेषताएँ हमारे व्यवहारों को निर्धारित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। लोग स्वतंत्र अथवा आश्रित प्रकार का व्यवहार करेंगे यह उनके
आंतरिक व्यक्तित्व विशेषक पर निर्भर नहीं करता है बल्कि इस पर निर्भर करता है कि किसी विशिष्ट स्थिति में बाह्य पुरस्कार अथवा खतरा उपलब्ध है कि नहीं। भिन्न-भिन्न स्थितियों में विशेषकों को लेकर संगति अत्यंत निम्न पाई जाती है। बाजार में न्यायालय में अथवा पूजास्थलों पर लोगों के व्यवहारों का प्रेक्षण कर स्थितियों के अप्रतिरोध्य प्रभाव को देखा जा सकता है।

प्रश्न 11.
व्यक्तित्व के पंच-कारक मॉडल का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पॉल कॉस्टा तथा राबर्ट मैक्रे ने सभी संभावित व्यक्तित्व विशेषकों की जाँच कर पाँच कारकों के एक समुच्चय के बारे में जानकारी दी है। इनको वृहत् पाँच कारकों के नाम से जाना जाता है। ये पाँच कारक निम्न हैं-

  • अनुभवों के लिए खुलापन- जो लोग इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करते हैं वे कल्पनाशील, उत्सुक, नए विचारों के प्रति उदारता एवं सांस्कृतिक क्रियाकलापों में अभिरुचि लेने वाले व्यक्ति होते हैं। इसके विपरीत, कम अंक प्राप्त करने वाले व्यक्तियों में अनन्मयता पाई जाती है। –
  • बहिर्मुर्खता- यह विशेषता उन लोगों में पाई जाती है जिनमें सामाजिक सक्रियता, आग्रहित, बर्हिगमन, बातूनीपन और आमोद-प्रमोद के प्रति पसंदगी पाई जाती है। इसके विपरीत ऐसे लोग होते हैं जो शर्मीले और संकोची होते हैं।
  • सहमतिशीलता- यह कारक लोगों की उन विशेषताओं को बताता है जिनमें सहायता करने, सहयोग करने, मैत्रीपूर्ण व्यवहार करने, देखभाल करने एवं पोषण करने जैसे व्यवहार सम्मिलित होते हैं। इसके विपरीत वे लोग होते हैं जो आक्रामक और आत्म-केंद्रित होते हैं।
  • तंत्रिकाताप- इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करने वाले लोग सांवेगिक रूप से अस्थिर, परेशान, भयभीत, दुःखी, चिड़चिड़े और तनावग्रस्त होते हैं। इसके विपरीत प्रकार के लोग सुसमायोजित होते हैं।
  • अंतर्विवेकशीलता- इस कारक पर उच्च अंक प्राप्त करने वाले लोगों में उपलब्धि उन्मुखता, निर्भरता, उत्तरदायित्व, दूरदर्शिता, कर्मठता और आत्म-नियंत्रता पाया जाता है। इसके विपरीत, कम अंक प्राप्त करने वाले लोगों में आवेग पाया जाता है।

व्यक्तित्व के क्षेत्र में यह पंच-कारक मॉडल एक महत्त्वपूर्ण सैद्धांतिक विकास का प्रतिनिधित्व करते हैं। विभिन्न संस्कृतियों में लोगों के व्यक्तित्व को समझने के लिए यह मॉडल अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ है। विभिन्न संस्कृतियों एवं भाषाओं में उपलब्ध व्यक्तित्व विशेषकों के विश्लेषण से यह मॉडल संगत है और विभिन्न विधियों से किए गए व्यक्तित्व के अध्ययन भी मॉडल का समर्थन करते हैं। अतएव आज व्यक्तित्व के अध्ययन के लिए यह मॉडल सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण आनुभविक उपागम माना जाता है।

प्रश्न 12.
दबाव के लक्षणों तथा स्रोतों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
दबाव के लक्षण- हर व्यक्ति की दबाव के प्रति अनुक्रिया उसके व्यक्तित्व पालन-पोषण तथा जीवन के अनुभवों के आधार पर भिन्न-भिन्न होती है। प्रत्येक व्यक्ति के दबाव अनुक्रियाओं के अलग-अलग प्रतिरूप होते हैं। अतः चेतावनी देने वाले संकेत तथा उनकी तीव्रता भी भिन्न-भिन्न होती है। हममें से कुछ व्यक्ति अपनी दबाव अनुक्रियाओं को पहचानते हैं तथा अपने लक्षणों की गंभीरता तथा प्रकृति के आधार पर अथवा व्यवहार में परिवर्तन के आधार पर समस्या की गहनता का आकलन कर लेते हैं। दबाव के ये लक्षण शारीरिक, संवेगात्मक तथा व्यवहारात्मक होते हैं। कोई भी लक्षण,दबाव की प्रबलता को ज्ञापित कर सकता है, जिसका यदि निराकरण न किया जाए तो उसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं।

दबाव के स्रोत- दबाव के निम्नलिखित स्रोत हो सकते हैं-
(i) जीवन घटनाएँ- जब से हम पैदा होते हैं, तभी से बड़े और छोटे, एकाएक उत्पन्न होने वाले और धीरे-धीरे घटित होने वाले परिवर्तन हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। हम छोटे तथा दैनिक होने वाले परिवर्तनों का सामना करना तो सीख लेते हैं किन्तु जीवन की महत्त्वपूर्ण घटनाएँ दबावपूर्ण हो सकती हैं। क्योंकि वे हमारी दिनचर्या को बाधित करती हैं और उथल-पुथल मचा देती हैं। यदि इस प्रकार ही कई घटनाएँ चाहे वे योजनाबद्ध हों (जैसे-घर बदलकर नए घर में जाना) या पूर्वानुमानित न हो (जैसे-किसी दीर्घकालिक संबंध का टूट जाना) कम समय अवधि में घटित होती हैं, तो हमें उनका सामना करने में कठिनाई होती है तथा हम दबाव के लक्षणों के प्रति अधिक प्रवीण होते हैं।

(ii) परेशान करने वाली घटनाएँ- इस प्रकार के दबावों की प्रकृति व्यक्तिगत होती है, जो अपने दैनिक जीवन में घटने वाली घटनाओं के कारण बनी रहती है। कोलाहलपूर्ण परिवेश, प्रतिदिन का आना-जाना, झगड़ालू पड़ोसी, बिजली-पानी की कमी, यातायात की भीड़-भाड़ इत्यादि ऐसी कष्टप्रद घटनाएँ हैं। एक गृहस्वामिनी को भी अनेक ऐसी आकस्मिक कष्टप्रद घटनाओं का अनुभव करना पड़ता . है। कभी-कभी ऐसी परेशानियों का बहुत तबाहीपूर्ण परिणाम उस व्यक्ति के लिए होता है जो उन
घटनाओं का सामना करता है क्योंकि बाहरी दूसरे व्यक्तियों को इन परेशानियों की जानकारी भी नहीं होती। जो व्यक्ति इन परेशानियों के कारण जितना ही अधिक दबाव अनुभव करता है उतना ही अधिक उसका मनोवैज्ञानिक कुशल-क्षेम निम्न स्तर का होता है।

(iii) अभिघातज घटनाएँ- इनके अंतर्गत विभिन्न प्रकार की गंभीर घटनाएँ जैसे-अग्निकांड, रेलगाड़ी या सड़क दुर्घटना, लूट, भूकंप, सुनामी इत्यादि सम्मिलित होती हैं। इस प्रकार की घटनाओं का प्रभाव कुछ समय बीत जाने के बाद दिखाई देता है तथा कभी-कभी ये प्रभाव दुश्चिता, अतीतावलोकन, स्वप्न तथा अंतर्वेधी विचार इत्यादि के रूप में सतत रूप से बने रहते हैं। तीव्र अभिघातों के कारण संबंधों में भी तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। इनका सामना करने के लिए विशेषज्ञों की सहायता की आवश्यकता पड़ सकती है, विशेष रूप से जब वे घटना के पश्चात् महीनों तक सतत् रूप से बने रहें।

प्रश्न 13.
दबाव शब्द से आपका क्या तात्पर्य है? दबाव की प्रकृति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
दबाव अंग्रेजी भाषा के शब्द स्ट्रेस (Stress) की व्युत्पत्ति, लैटिन शब्द ‘स्ट्रिक्टस’ (Strictus) जिसका अर्थ है तंग या संकीर्ण, तथा ‘स्ट्रिन्गर’ (Stringer) जो क्रियापद है, जिसका अर्थ है कसना, से हुई है। यह मूल शब्द अनेक व्यक्तियों द्वारा दबाव अवस्था में वर्णित मांसपेशियों तथा श्वसन की कसावट तथा संकुचन की आंतरिक भावनाओं को प्रतिबिंबित करना है। प्राय: दबाव को पर्यावरण की उन विशेषताओं के द्वारा भी समझाया जाता है जो व्यक्ति के लिए विघटनकारी होती हैं। दबावकारक वे घटनाएँ हैं जो हमारे शरीर में दबाव उत्पन्न करती हैं। ये शोर, भीड़,खराब संबंध या रोज स्कूल अथवा दफ्तर जाने की घटनाएँ हो सकती हैं।

दबाव कारण तथा प्रभाव दोनों से संबद्ध हो गया है तथापि दबाव का यह दृष्टिकोण भ्रांति उत्पन्न कर सकता है। हेंस सेल्ये (Hans Selye), जो आधुनिक दबाव शोध के जनक कहे जाते हैं, ने दबाव को इस प्रकार परिभाषित किया है कि यह “किसी भी माँग के प्रति शरीर की अविशिष्ट अनुक्रिया है”

अर्थात खतरे का कारण चाहे जो भी हो व्यक्ति प्रतिक्रियाओं के समान शरीर क्रियात्मक प्रतिरूप से अनुक्रिया करेगा। अनेक शोधकर्ता इस परिभाषा से सहमत नहीं हैं क्योंकि उनका अनुभव है कि दबाव के प्रति अनुक्रिया उतनी सामान्य तथा अविशिष्ट नहीं होती है जितना सेल्ये का मत है। भिन्न-भिन्न दबावकारक दबाव प्रतिक्रिया के भिन्न-भिन्न प्रतिरूप उत्पन्न कर सकते हैं एवं भिन्न व्यक्तियों की अनुक्रियाएँ विशिष्ट प्रकार की हो सकती हैं। हममें से प्रत्येक व्यक्ति परिस्थिति को अपनी दृष्टि से देखेगा और माँगों तथा उनका सामना करने की हमारी क्षमता का प्रत्यक्षण ही यह निर्धारित करेगा कि हम दबाव महसूस कर रहे हैं अथवा नहीं।

दबाव कोई ऐसी घटक नहीं है जो व्यक्ति के भीतर या पर्यावरण में पाया जाता है। इसके बजाय, यह एक सतत चलने वाली प्रक्रिया में सन्निहित है जिसके अंतर्गत व्यक्ति अपने सामाजिक एवं सांस्कृतिक पर्यावरणों में कार्य संपादन करता है। इन संघों का मूल्यांकन करता है तथा उनसे उत्पन्न होने वाली विभिन्न समस्याओं का सामना करने का प्रयास करता है। दबाव एक गत्यात्मक. मानसिक/संज्ञानात्मक अवस्था है। वह समस्थिति को विघटित करता है या एक ऐसा असंतुलन उत्पन्न करता है जिसके कारण उस असंतुलन के समाधान अथवा समस्थिति को पुनःस्थापित करने की आवश्यकता उत्पन्न होती है।
Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 5 1

प्रश्न 14.
मनोवैज्ञानिक प्रकार्यों पर दबाव के प्रभाव की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक प्रकार्यों पर दबाव के निम्नलिखित प्रभाव है-
(i) संवेगात्मक प्रभाव-वे व्यक्ति जो दबावग्रस्त होते हैं प्राय: आकस्मिक मन:स्थिति परिवर्तन का अनुभव करते हैं तथा सनकी की तरह व्यवहार करते हैं, जिसके कारण वे परिवार तथा मित्रों से विमुख हो जाते हैं। कुछ स्थितियों में इसके कारण एक दुश्चक्र प्रारंभ होता है जिससे विश्वास में कमी होती है तथा जिसके कारण फिर और भी गंभीर संवेगात्मक समस्याएँ उत्पन्न होती हैं । उदाहरण के लिए, दुश्चिता तथा अवसाद की भावनाएँ, शारीरिक तनाव में वृद्धि, मनोवैज्ञानिक तनाव में वृद्धि तथा आकस्मिक मन:स्थिति परिवर्तन।

(ii) शरीर-क्रियात्मक प्रभाव-जब शारीरिक या मनोवैज्ञानिक दबाव मनुष्य के शरीर पर क्रियाशील होते हैं तो शरीर में कुछ हार्मोन, जैसे-एड्रिनलीन तथा कॉर्टिसोल का स्राव बढ़ जाता है। ये हार्मोन हृदयगति, रक्तचाप स्तर, चयापचय तथा शारीरिक क्रिया में विशिष्ट परिवर्तन कर देते हैं। जब हम थोडे समय के लिए दबावग्रस्त हों तो ये शारीरिक प्रतिक्रियाएँ कुशलतापूर्वक कार्य करने में सहायता करती हैं, किन्तु दीर्घकालिक रूप से यह शरीर को अत्यधिक नुकसान पहुंचा सकती हैं। एपिनेफरीन तथा नॉरएपिनेफरीन छोड़ना, पाचक-तंत्र की धीमी गति, फेफड़ों में वायुमार्ग का विस्तार, हृदयगति में वृद्धि तथा रक्त वाहिकाओं का सिकुड़ना, इस प्रकार के शरीर क्रियात्मक प्रभावों के उदाहरण हैं।

(iii) संज्ञानात्मक प्रभाव-यदि दबाव के कारण दाब (प्रेशर) निरंतर रूप से बना रहता है तो व्यक्ति मानसिक अतिभार से ग्रस्त हो जाता है। उच्च दबाव के कारण उत्पन्न यह पीड़ा, व्यक्ति में ठोस निर्णय लेने की क्षमता को तेजी से घट सकती है। घर में, जीविका में, अथवा कार्य स्थान में लिए गए गलत निर्णयों के द्वारा तर्क-वितर्क, असफलता, वित्तीय घाटा, यहाँ तक कि नौकरी की क्षति भी इसके परिणामस्वरूप हो सकती है। एकाग्रता में कमी तथा न्यूनीकृत अल्पकालिक स्मृति क्षमता भी दबाव के . संज्ञानात्मक प्रभाव हो सकते हैं।

(iv) व्यवहारात्मक प्रभाव-दबाव का प्रभाव हमारे व्यवहार पर कम पौष्टिक भोजन करने, उत्तेजित करने वाले पदार्थों, जैसे केफीन को अधिक सेवन एवं सिगरेट, मद्य तथा अन्य औषधियों; जैसे-उपशामकों इत्यादि के अत्यधिक सेवन करने में परिलक्षित होता है। उपशामक औषधियाँ व्यसन बन सकती हैं तथा उनके अन्य प्रभाव भी हो सकते हैं। जैसे-एकाग्रता में कठिनाई, समन्वय में कमी तथा घूर्णी या चक्कर आ जाना। दबाव के कुछ ठेठ या प्रारूपी व्यवहारात्मक प्रभाव, निद्रा-प्रतिरूपों में व्याघात, अनुपस्थिता में व्याघात, अनुपस्थिता में वृद्धि तथा कार्य निष्पादन में ह्रास हैं।

प्रश्न 15.
विभिन्न जीवन कौशलों का वर्णन कीजिए। इन जीवन कौशलों से जीवन की चुनौतियों का सामना करने में किस प्रकार मदद मिलती है?
उत्तर:
निम्नलिखित जीवन-कौशलों द्वारा जीवन की चुनौतियों का सामना करने में मदद मिलती है-
(i)आग्रहिता- आग्रहिता एक ऐसा व्यवहार या कौशल है जो हमारी भावनाओं, आवश्यकताओं, इच्छाओं तथा विचारों के सुस्पष्ट तथा विश्वासपूर्ण संप्रेषण में सहायक होता है। यह ऐसा योग्यता है कि जिसके द्वारा किसी के निवेदन को अस्वीकार करना, किसी विषय पर बिना आत्मचेतना के अपने मत को अभिव्यक्त करना या फिर खुलकर ऐसे संवेगों; जैसे-प्रेम, क्रोध इत्यादि को अभिव्यक्त करना संभव होता है। यदि कोई आग्रही हैं तो उसमें उच्च आत्म-विश्वास एवं आत्म-सम्मान तथा अपनी अस्मिता की एक अटूट भावना होती है।

(ii) समय प्रबंधन- कोई अपना समय जैसे व्यतीत करता है वह उसके जीवन की गुणवत्ता को निर्धारित करता है । समय का प्रबंधन तथा प्रत्यायोजित करना सीखने से, दबाव-मुक्त होने में परिवर्तन लाना है । समय दबाव कम करने का एक प्रमुख तरीका, समय के प्रत्यक्षण में परिवर्तन लाना है । समय प्रबंधन का प्रमुख नियम यह है कि हम जिन कार्यों को महत्त्व देते हैं, उनका परिपालन करने में समय लगाएँ या उन कार्यों को करने में जो हमारे लक्ष्य प्राप्ति में सहायक हों। हमें अपने जानकारियों की वास्तविकता का बोध हो तथा कार्य को निश्चित समयावधि मैं करें । यह स्पष्ट होना चाहिए कि हम क्या करना चाहते हैं तथा हम अपने जीवन में इन दोनों बातों में सामंजस्य स्थापित कर सकें, इन पर समय प्रबंधन निर्भर करता है।

(iii) सविवेक चिंतन- दबाव संबंधी अनेक. समस्याएँ विकृत चिंतन के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। व्यक्ति के चिंतन और अनुभव करने के तरीकों में घनिष्ठ संबंध होता है। जब हम दबाव का अनुभव करते हैं तो हमें अंत:निर्मित वर्णात्मक अभिनति होती है जिससे हमारा ध्यान भूतकाल के नकारात्मक विचारों तथा प्रतिमाओं पर केंद्रित हो जाता है, जो हमारे वर्तमान तथा भविष्य के प्रत्यक्षण को प्रभावित करता है । सविवेक चिंतन के कुछ नियम इस प्रकार हैं अपने विकृत चिंतन तथा अविवेकी विश्वासों को चुनौती देना, संभावित अंतर्वेधी दुश्चिता उत्तेजक विचारों को मन से निकालना तथा सकारात्मक कथन करना।

(iv) संबंधों में सुधार- संप्रेषण सदृढ और स्थायी संबंधों की कुंजी है। इसके अंतर्गत तीन अत्यावश्यक कौशल निहित हैं-सुनना कि दूसरा व्यक्ति क्या कह रहा है, अभिव्यक्त करना कि कोई कैसा सोचता है और महसूस करता है तथा दूसरों की भावनाओं और मतों को स्वीकारना चाहे वे स्वयं उसके अपने से भिन्न हों। इसमें हमें अनुचित ईर्ष्या और नाराजगीयुक्त व्यवहार से दूर रहने की जरूरत होती है।

(v) स्वयं की देखभाल- यदि हम स्वयं को स्वस्थ, दुरुस्त तथा विश्रांत रखते हैं तो हमें दैनिक जीवन के दबावों का सामना करने के लिए शारीरिक एवं सांवेगिक रूप से और अच्छी तरह तैयार रहते हैं। हमारे श्वसन का प्रतिरूप हमारी मानसिक तथा सांवेगिक स्थिति को परिलक्षित करता है जब हम दबावग्रस्त अथवा दुश्चितित होते हैं तो हमारा श्वसन और तेज हो जाता है, जिसके बीच-बीच में अक्सर आँहें भी निकलती रहती हैं। सबसे अधिक विश्रांत श्वसन मंद, मध्यपट या डायफ्रम, अर्थात सीना और उदर गुहिका के बीच.एवं गुंबदकार पेशी से उदर-केंद्रित श्वसन होता है। पर्यावरणी दबाव, जैसे-शेर, प्रदूषण, दिक् प्रकार, वर्ण इत्यादि सब हमारी मन:स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। इनका निश्चित प्रभाव दबाव का सामना करने की हमारी क्षमता तथा कुशल-क्षेम पर पड़ता है।