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Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1 in Hindi

प्रश्न 1.
माँग के नियम की रेखाचित्र द्वारा व्याख्या कीजिए। किसी वस्तु की माँग को प्रभावित करने वाले पाँच तत्वों का वर्णन करें।
उत्तर:
माँग के नियम का रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन- मार्शल के अनुसार ‘मूल्य में कमी के साथ माँग में वृद्धि के साथ माँग की मात्रा में कमी आती है।’ (The amount demanded increases with a foll in Price and diminishes with a rise in Price-Marshall.)

इस बात को मार्शल ने बच्चों के सी-सौ (See-saw) खेल के द्वारा भी समझाया है। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है-
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इस उदाहरण में ऊपर से नीचे देखने पर मालूम हो जाता है कि मूल्य में ज्यो-ज्यों कमी होती है। तो माँग में उसी तरह वृद्धि होती है। इसके विपरीत नीचे से ऊपर देखने पर यह मालूम हो जाता है कि मूल्य वृद्धि के फलस्वरूप माँग में कमी होती जाती है। इसी बात को निम्न रेखाचित्र द्वारा दिखलाया जाता है-
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इस रेखाचित्र से Ox नारंगी की मात्रा को और OY उसके मूल्य को बतलाया है। साथ ही DD वक्र रेखा माँग के नियम की रेखा है जिसे हम माँग की वक्र रेखा भी कहते हैं इस तरह इस नियम पर ध्यान देने से मुख्यतः ये बाते स्पष्ट हो जाती हैं-

सर्वप्रथम इस नियम से यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल्य तथा माँग के बीच विपरीतार्थक संबंध पाया जाता है तथा अंत में इस नियम से यह भी ज्ञात हो जाता है कि यह सिर्फ एक प्रवृति को बतलाता है।

वे तत्व किसी वस्तु की माँगी गयी मात्रा को प्रभावित करते हैं माँग की निर्धारित करने वाले तत्व कहलाते हैं। ये तत्व निम्नलिखित हैं-

  • संबंधित वस्तुओं की कीमतें- प्रतिस्थापन वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर दी गयी वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है। जैसे-धान की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी प्रतिस्थापन वस्तु काफी माँग में वृद्धि हो जाती है एक पूरक वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर दी गयी वस्तु की माँग में कमी हो जाती है। पेट्रोल की कीमत में वृद्धि होने पर मोटर गाड़ी की माँग में कमी हो जाती है।
  • आय- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है। यह वस्तु पर निर्भर करता है कि वस्तु सामान्य वस्तु है अथवा घटिया वस्तु है।
  • रुचि स्वभाव आदत- यदि रुचि, स्वभाव और आदत में परिवर्तन अनुकूल हो तो वस्तु की माँग में वृद्धि होती है।
  • जनसंख्या- जनसंख्या बढ़ने पर माँग बढ़ती है और इसमें कमी होने पर माँग में कमी होती है।
  • संभावित कीमत- वस्तु की संभावित कीमत बढ़ने या घटने पर उसकी वतर्मान माँग में वृद्धि या कमी आएगी।

प्रश्न 2.
पैमाने के प्रतिफल से क्या अभिप्राय है ? उपयुक्त रेखाचित्र का प्रयोग करते हुए पैमाने के प्रतिफल की बढ़ती समान तथा घटती धारणाओं की व्याख्या करें।
उत्तर:
पैमाने के प्रतिफल- पैमाने के प्रतिफल का संबंध सभी कारकों में समान अनुपात में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप कुल उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से है। यह एक दीर्घकालीन अवधारणा है।

रेखाचित्र द्वारा पैमाने के प्रतिफलों का प्रदर्शन :
(i) पैमाने के बढ़ते प्रतिफल- पैमाने के बढ़ते प्रतिफल उस स्थिति को प्रकट करते हैं जब उत्पादन के सभी साधनों को एक निश्चित अनुपात में बढ़ाए जाने पर उत्पादन में वृद्धि अनुपात से अधिक होती है। दूसरे शब्दों में उत्पादन के साधनों में 10% की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20% की वृद्धि होती है।
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बगल के चित्र में पैमाने के बढ़ते प्रतिफल को दर्शाया गया है। चित्र से पता चलता है कि उत्पादन के साधनों में 10% की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20% की वृद्धि होती है यह पैमाने के बढ़ते प्रतिफल की स्थिति है।

(ii) पैमाने के समान प्रतिफल- पैमाने के समान प्रतिफल उत्पादन की उस स्थिति को प्रकट करते हैं। जिसमें साधनों की मात्रा में % वृद्धि और उत्पादन की मात्रा में % वृद्धि समान होती है। चित्र में साधनों की मात्रा में 10% वृद्धि होती है और उसके फलस्वरूप उत्पादन में भी 10% की वृद्धि हो रही है।
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(iii) पैमाने के घटते प्रतिफल-साधनों को घटते प्रतिफल के अन्तर्गत उत्पाद (MP) वक्र का ढलान नीचे की ओर होता है। एक निश्चित बिंदु के पश्चात यह X-अक्ष को छुता है और उसको पार कर जाता है। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है।
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प्रश्न 3.
माँग की कीमत लोच से आप क्या समझते हैं ? इसे कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
माँग की कीमत लोच- माँग की लोच एक मात्रात्मक या परिमाणात्मक कथन है जो किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन के कारण उसकी माँग में परिवर्तन की मात्रा को दर्शाती है। दूसरे शब्दों में कीमत में परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँगी गयी मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन तथा कीमत में प्रतिशत परिवर्तन के अनुपात को माँग की कीमत लोच कहते हैं।

माँग की कीमत लोच को इस प्रकार मापा जा सकता है-
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प्रश्न 4.
उत्पादन लागत के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें। औसत लागत तथा सीमान्त लागत के परस्पर सम्बन्धों की व्याख्या करें।
उत्तर:
उत्पादन के साधनों का प्रयोग करने के लिए जो धनराशि व्यय करनी पड़ती है उसे उत्पादन लागत कहा जाता है। उत्पादन लागत मुख्य रूप से उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करती है।

उत्पादन लागत के विभिन्न प्रकार :
(i) अल्पकाल में उत्पादन लागतें
(ii) दीर्घकाल में उत्पादन लागतें।

(i) अल्पकाल में उत्पाद लागतें- अल्पकाल में उत्पादन प्रक्रिया के साधन होते हैं-
(a) स्थिर साधन- ऐसे साधन जिनकी मात्रा को उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तित नहीं किया जा सके।
(b) परिवर्तनशील साधन- ऐसे साधन जिनकी मात्रा के उत्पादन प्रक्रिया की आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता है।

अल्पकाल में दो प्रकार की उत्पादन लागतें सम्मिलित होती है-
(a) स्थिर लागतें (Fixed costs)- स्थिर लागत उस खर्च का जोड़ है जो उत्पादक को उत्पादन के स्थिर साधनों की सेवाओं को खरीदने या भाड़े पर लेने के लिए खर्च करनी पड़ती है।

(b) परिवर्तनशील लागते (Veriable Costs)- परिवर्तनशील लागत वह लागत है जो उत्पादक को उत्पादन के घटते-बढ़ते साधनों के प्रयोग के लिए खर्च करनी पड़ती है।
अल्पकाल में कुल उत्पादन लागत = कुल स्थिर लागत + कुल परिवर्तनशील लागत।

अल्पकाल में औसत लागतें- किसी वस्तु की प्रति इकाई लागत को औसत लागत कहते हैं। औसत लागत कुल लागत एवं उत्पादन की मात्रा का भागफल होता है।

सीमांत लागत (Marginal cost)- सीमांत का मतलब है एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने से कुल लागत में जितनी वृद्धि होती है उसे उस इकाई विशेष की सीमांत लागत कहा जाता है।

(ii) दीर्घकाल में उत्पादन लागतें (Production costs in long period)- दीर्घकाल में उत्पति का कोई स्थिर नहीं होता बल्कि उत्पादन की लम्बी समय अवधि के कारण उत्पादन का प्रत्येक परिवर्तनशील बन जाता है।
(a) दीर्घकालीन औसत लागत (Long period Average Cost curve)- दीर्घकालीन औसत लामत, दीर्घकालीन कुल लागत को उत्पादन लागत को कुल मात्रा से भाग देने पर प्राप्त होती है।
(b) दीर्घकालीन सीमांत लागत (Long period Marginal cost curve)- दीर्घकाल के उत्पाद की एक अतिरिक्त इकाई उत्पादन करने में कुल उत्पादन लागत में जो वृद्धि होती है उसे उस अतिरिक्त एक इकाई की सीमांत लागत कहते हैं।Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 7

औसत लागत एवं सीमांत लागत में सम्बन्ध-
औसत लागत तथा सीमांत लागत के बीच सम्बन्ध को इस प्रकार देखा जा सकता है-
(i) औसत लागत तथा सीमांत लागत की गणना उत्पादन की कुल लागत द्वारा की जाती है।
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(ii) आरंभ में जब औसत लागत वक्र गिरता है तब सीमांत लागत वक्र एक सीमा तक गिरता है किन्तु एक अवस्था के बाद सीमांत लागत वक्र बढ़ना आरंभ हो जाता है यद्यपि लागत से कम वक्र गिरता रहता है। इस प्रकार घटती औसत लागत की दशा के MC सदा औसत लागत से कम होती है। अर्थात MC < AC.

(iii) जब AC न्यूनतम होती तब MC वक्र AC वक्र को नीचे से काटता है। अर्थात् न्यूनतम औसत लागत सीमांत लागत के बराबर होती है। अर्थात् MC = AC

(iv) जब AC बढ़ता है तो MC वक्र AC से ऊपर होता है एवं साथ-ही-साथ AC वक्र से तीव्र गति से बढ़ता है अर्थात MC > AC चित्र में AC तथा MC वक्रों को प्रदर्शित किया गया है। AC वक्र बिन्दु A तक गिरता है और इस दिशा में MC क्रम बना रहता है AC से। AC के गिरने की दिशा में MC अधिक तेजी से नीचे गिरता है। AC के न्यूनतम बिन्दु A पर MC उसे नीचे से काटता है। A बिन्दु से AC बढ़ना आरंभ करती है ओर बिन्दु A के बाद MC अधिक तेजी से बढ़ती है। इसी प्रकार हम देख सकते हैं-
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प्रश्न 5.
राष्ट्रीय आय से आप क्या समझते हैं ? राष्ट्रीय आय की गणना करने की विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आय की दृष्टि में राष्ट्रीय आय से अंभिप्राय एक देश के सामान्य निवासियों के द्वारा एक वर्ष के अंदर तथा बाहर अर्जित आय का योग है। प्रत्येक देश वित्तीय वर्ष के अन्तर्गत अपने राष्ट्रीय आय का मूल्यांकन करती है। देश में वित्तीय वर्ष भर में कुल उत्पादन के मूल्य सेवाओं के मूल्य तथा विदेशी मुद्रा से प्राप्त आय का योगफल निकाला जाता है। इनके सम्मिलित मूल्य को राष्ट्रीय आय कहा जाता है। इसे सामाजिक आय भी कह सकते हैं। राष्ट्रीय आय का मूल्यांक करके एक देश अपने आय का अनुमान लगाती है और यह देखती है कि पिछले वर्ष की तुलन में राष्ट्रीय आय घटी है या बढ़ी है अथवा स्थिर रही है।

किसी अर्थव्यवस्था की गतिविधियों को मापने के लिए, उसके निर्धारित लक्ष्यों को किस सीमा तक प्राप्त किया जा सकता है इसके लिए उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को मापना आवश्यक है। राष्ट्रीय उत्पादन के चक्रीय प्रवाह के तीन चरण हैं-उत्पादन, आय और व्यय। प्रत्येक के लिए आँकड़ों और विधियों की आवश्यकता पड़ती है।

उत्पादन के चरण पर राष्ट्रीय आय को मापने के लिए देश के निजी क्षेत्र तथा सरकारी क्षेत्र के सभी उत्पाद उद्यमों द्वारा की गई शुद्ध मूल्य वृद्धि के कुल जोड़ को ज्ञात करना चाहिए।

व्यय के चरण के लिए हमें व्यय करने वाली इकाइयों अर्थात् सामान्य सरकार, उपभोक्ता, ‘परिवारों तथा उत्पादक उद्यमों के कुल आय के जोड़ को ज्ञात करना होगा।

आय के वितरण चरण पर राष्ट्रीय आय को मापने के लिए वस्तुओं और सेवाओं की उत्पादन प्रक्रिया के दौरान सृजित की गई कुल आय को ज्ञात करना चाहिए। इसलिए राष्ट्रीय आय की माप के लिए तीन विधियों-उत्पाद विधि, आय विधि और व्यय विधि की सहायता ली जाती है। तीनों विधियों से प्राप्त आँकड़े समान होने चाहिए, क्योंकि जो भी उत्पादन किया जाता है उसका ‘मूल्य ही उत्पादन के साधनों के बीच बाँटा जाता है तथा वही परिवारों, फर्मों और सरकार द्वारा एक वर्ष की अवधि में खर्च किया जाता है।

नीचे दिये गये तीनों विधियों के सूत्रों से यह स्पष्ट होता है।

मूल्य वृद्धि विधि (Value Added Method) :
प्राथमिक क्षेत्र में सकल मूल्य वृद्धि + द्वितीयक क्षेत्र में सकल मूल्य वृद्धि + तृतीयक क्षेत्र में सकल मूल्य वृद्धि।
= बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद – मूल्य ह्रास।
= बाजार कीमत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद – शुद्ध अप्रत्यक्ष कर
= साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद + विदेशों से शुद्ध साधन आय।
= राष्ट्रीय आय (National Income)

व्यय विधि (Expenditure Method) :
निजी अंतिम उपभोग व्यय + सरकारी अंतिम उपभोग व्यय + सकल घरेलू पूँजी निर्माण + शुद्ध निर्यात = बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद – शुद्ध अप्रत्यक्ष कर – मूल्य ह्रास।
= साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद + विदेशों से शुद्ध साधन आय।
=राष्ट्रीय आय (National Income)

आय विधि (Income Method) :
कर्मचारियों का पारिश्रमिक + प्रचालन अधिशेष + मिश्रित आय
= शुद्ध घरेलू आय + विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय
= राष्ट्रीय आय (National Income)

प्रश्न 6.
सरकारी बजट क्या है ? इसके उद्देश्यों की चर्चा करें।
उत्तर:
आगामी आर्थिक वर्ष के लिए सरकार के सभी प्रत्याशित राजस्व और व्यय का अनुमानित वार्षिक विवरण बजट कहलाता है। सरकार कई प्रकार की नीतियाँ बनाती है। इन नीतियों को लागू करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। सरकार आय और व्यय के बारे में पहले से ही अनुमान लगाती है। अतः बजट आय और व्यय का अनुमान है। सरकारी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

बजट के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

  • सरकार को अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए वित्तीय व्यवस्था करनी पड़ती है।
  • सरकार सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक सहायता, सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर व्यय करके अर्थव्यवस्था में धन और आय के पुनर्वितरण की व्यवस्था करती है।
  • बजट के माध्यम से सरकार कीमतों में उतार-चढ़ाव को रोकने का प्रयास करती है। रोजगार के अधिक अवसर उत्पन्न करने और कीमत स्थिरता के लिए,प्रयत्न करने में बजट महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • सरकार महत्त्वपूर्ण उद्यमों का संचालन सार्वजनिक क्षेत्र में करती है। विद्युत उत्पादन, रेलवे आदि ऐसे ही उद्यम है। यदि इन्हें अनियंत्रित रखा जाय तो ये एकाधिकारी उद्यम में परिवर्तित हो सकते हैं। अधिकतम लाभ की आशा में उत्पादन में कमी कर सकते हैं, इससे सामाजिक कल्याण में कमी आ सकती है।
  • बजट अर्थव्यवस्था में राजकोषीय अनुशासन उत्पन्न करता है। व्यय के ऊपर पर्याप्त नियंत्रण करता है। संसाधनों को सामाजिक प्राथमिकताओं के अनुसार उपयोग में लाने में सहायता मिलती है। साथ ही सेवाओं की उपलब्धता प्रभावपूर्ण और कुशल तरीके से उपलब्ध कराने में बजट महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रश्न 7.
उदासीनता की वक्र रेखा द्वारा उपभोक्ता को संतुलन की प्राप्ति कैसे होती है ?
अथवा, उदासीनता वक्र विश्लेषण में उपभोक्ता का साम्य कैसे स्थापित होता है ?
उत्तर:
प्रो० हिक्स तथा प्रो० ऐलेन ने दो वस्तुओं के सन्दर्भ में उपभोक्ता संतुलन को उदासीनता रेखा या तटस्थता वक्र तथा बजट रेखा (कीमत रेखा) की सहायता से स्पष्ट किया है।

1. तटस्थता रेखाचित्र- तटस्थता तालिका वह तालिका है जो दो वस्तुओं के ऐसे संयोगों को दर्शाती है जिससे किसी व्यक्ति को समान संतोष मिलता है। यदि हम इन संयोगों को वक्र रेखा के रूप में प्रदर्शित करें तो हमें तटस्थता वक्र रेखाचित्र प्राप्त होता है। यह वक्र यह प्रदर्शित करता है कि यदि व्यक्ति दो वस्तुओं में किसी एक वस्तु का उपभोग ज्यादा करता है तो उसे दूसरी वस्तु की. कुछ मात्रा का त्याग करना होगा।

2. बजट रेखा या कीमत रेखा- बजट रेखा यह दर्शाता है कि उपभोक्ता की आय निश्चित है तथा वह इस आय को दो वस्तुओं पर खर्च करता है। वह यह रेखा से ऊपर नहीं जा सकता क्योंकि उसकी आय इतनी नहीं कि वह उससे आगे खर्च कर सके।

उपभोक्ता संतुलन- तटस्थता वक्र रेखा विधि के अनुसार, एक उपभोक्ता संतुलन की स्थिति उस बिन्दु पर होता है जहाँ तटस्थता वक्र कीमत रेखा को ठीक स्पर्श कर रहा होता है अर्थात् tangent होता है। इस बिन्दु पर प्राप्त दो वस्तुओं के संयोग से उपभोक्ता को अधिकतम संतुष्टि प्राप्त होगी।
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चित्र में तटस्थता वक्र IC बजट रेखा BL को बिन्दु E पर स्पर्श कर रही है। यही बिन्दु उपभोक्ता संतुलन की स्थिति है, जहाँ उपभोक्ता वस्तु Y की OY मात्रा तथा वस्तु X की ox मात्रा के संयोग द्वारा अधिकतम संतुष्टि प्राप्त करेगा। उपभोकता IC High तटस्थता वक्र पर खर्च नहीं कर सकता है क्योंकि यह उसकी बजट रेखा से ऊपर है, अर्थात् उपभोक्ता की आय उतनी नहीं है। तटस्थत वक्र IC low पर उसे अधिकतम संतुलित नहीं मिलती है क्योंकि यह उसके बजट रेखा से नीचे तथा x और y के जिस संयोग (बण्डता) पर वह तटस्थ होता है, इस स्थिति में उससे कम संतुष्टि प्राप्त होती है।

उपभोक्ता संतुलन की निम्नलिखित शर्ते तथा मान्यताएँ हैं-

  1. उपभोक्ता विवेकशील है- उपभोक्ता अपनी संतुष्टि को अधिकतम करने की चेष्टा करता है। इसलिए वह दो वस्तुओं पर बहुत सोच समझ कर व्यय करता है।
  2. उपभोक्ता की तटस्थता वक्र निश्चित है- उपभोक्ता दो वस्तुओं के विभिन्न संयोगों का पूर्व निर्धारण कर लेता है।
  3. वस्तुएँ समरूप तथा विभाज्य है एवं वस्तुओं की कीमतें स्थिर हैं।
  4. उपभोक्ता की आय के अनुसार बजट रेखा (कीमत रेखा) निर्धारित है तथा उपभोक्ता अपना संपूर्ण बजट इन दो वस्तुओं पर खर्च करता है।

उदासीनता वक्र तथा बजट रेखा को संतुलन बिन्दु पर मात्र छूती हुई हो।
(i) बजट रेखा, तटस्थता रेखा को संतुलन बिन्दु पर मात्र छूती हुई हो।
(ii) सीमान्त प्रतिस्थापन दर और कीमत अनुपात बराबर हो अर्थात्
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(iii) संतुलन बिन्दु पर उदासीनता (तटस्थता) रेखा मूल बिन्दु से उन्नतोदर (convex) हो।

प्रश्न 8.
माँग वक्र के नीचे की ओर पतनशील होने के कारण की व्याख्या करें।
अथवा, माँग वक्र की ढाल नीचे की ओर क्यों होती है ?
उत्तर:
माँग की वक्र रेखा का घनिष्ठ संबंध माँग की तालिका में होता है। माँग की वक्र रेखा का मतलब एक निश्चित तालिका से होता है। इस तरह जब माँग की तालिका को रेखाचित्र द्वारा व्यक्त किया जाता है तो उसे ही माँग की वक्र रेखा कहा जाता है।

माँग वक्र की ढाल नीचे की ओर होती है। इसके विभिन्न कारण हैं, जो निम्नलिखित हैं-
इस संदर्भ में सबसे पहले उपयोगिता हास नियम का उल्लेख किया जाता है। उसी नियम के अनुसार, “उपभोक्ता जैसे-जैसे वस्तुओं के उपयोग की मात्रा में वृद्धि करते जाता है, वैसे-वैसे उससे प्राप्त उपयोगिता धीरे-धीरे घटती जाती है। लेकिन उपभोक्ता वस्तु का मूल्य सामान्यतः वस्तुओं से प्राप्त होने वाली उपयोगिता के आधार पर देता है। ऐसी स्थिति में कम उपयोगिता मिलने पर कम मूल्य और अधिक उपयोगिता मिलने पर अधिक मूल्य देने को तैयार होता है। ऐसें स्थिति में उपयोगिता कम होने पर कम मूल्य देता है जबकि उपयोगिता में यह कभी वस्तु का अधिक मात्रा के कारण होता है। फलतः मूल्य कम होने पर माँग में कमी होती है। अर्थशास्त्री मार्शल के शब्दों में, “The greater the amount to be said the smaller must be the price of which it is offered.”

दूसरे उपभोक्ताओं की संख्या में परिवर्तन के कारण ही माँग की वक्र रेखा बायें से दायें नीचे की ओर झुकती है। सचमुच में जब किसी वस्तु का मूल्य घट जाता है। तो उनके उपभोक्ताओं की संख्या में वृद्धि हो जाती है जिसके कारण उनका वस्तु की माँग बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति को Prof. Boulding ने Industry effect के नाम से संबोधित किया जाता है। तीसरे Prof. Hicks ने इस संदर्भ में अलग प्रभाव का भी उल्लेख किया है। इसके अनुसार जब किसी वस्तु का मूल्य . घट जाता है तो उपभोक्ता महँगी वस्तुओं का उपभोग करने लगता है। फलतः कम मूल्य वाली वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि होने से उनकी मांग बढ़ जाती है। इसके विपरीत जब किसी वस्तु का मूल्य बढ़ जाता है तो उपभोक्ता महँगी वस्तुओं के स्थान पर सस्ती वस्तुओं का उपभोग करने लगा है। इस तरह महँगी वस्तुओं का उपभोग की मात्रा घट जाती है जिससे उनकी माँग घट जाती है।

प्रश्न 9.
माँग की प्रतिलोच से क्या समझते हैं ? उसे कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
किसी वस्तु के मूल्य में परिवर्तन के कारण माँग में होने वाले परिवर्तन को माँग की लोच कहा जाता है। माँग की लोच विभिन्न प्रकार की होती है जिनमें माँग की प्रतिलोच का भी महत्वपूर्ण स्थान है। जब वस्तु के मूल्य में प्रतिशत परिवर्तन और वस्तु की माँगी गयी मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन बराबर होता है। यानी एक-दूसरे को क्रॉस करती हैं तो इसे ही माँग की प्रतिलोच कहा जाता है।

माँग की प्रतिलोच को मापने का सूत्र इस प्रकार है-
Ed = \(\frac{\Delta Q}{\Delta P} \times \frac{P}{Q}\)

इस सूत्र के द्वारा माँग की प्रतिलोच को मापा जाता है और यह पता लगाया जाता है कि माँग की लोच बेलोचदार है या लोचदार। साथ ही माँग की लोच इकाई से अधिक है या इकाई से कम अथवा इकाई के बराबर है।

प्रश्न 10.
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की व्याख्या करें। इस नियम के लागू होने की आवश्यक शर्ते कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम इस तथ्य की विवेचना करता है कि जैसे-जैसे उपभोक्ता किसी वस्तु की अगली इकाई का उपभोग करता है अन्य बातें समान रहने पर उससे प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। एक बिन्दु पर पहुँचने पर यह शून्य यदि उपभोक्ता इसके पश्चात् भी वस्तु का सेवन जारी रखना है तो यह ऋणात्मक हो जाती है। निम्न उदाहरण से भी यह इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है-
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इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा एक से बढ़कर 6 तक पहुँच जाती है वैसे-वैसे उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता भी 10 से घटते-घटते शून्य और ऋणात्मक यानी -4 तक हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि वस्तु की मात्रा में वृद्धि होते रहने से उससे मिलने वाली सीमांत उपयोगिता घटती जाती है।

सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की निम्नलिखित शर्ते या मान्यताएँ हैं-

  1. उपभोग की वस्तुएँ समरूप होने चाहिए।
  2. उपभोग की क्रिया लगातार होनी चाहिए।
  3. उपभोक्ता की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  4. उपभोग निश्चित इकाई में किया जाना चाहिए।
  5. आय, आदत, रुचि, फैशन आदि में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 11.
कीन्स के आय एवं रोजगार सिद्धांत के मुख्य बिन्दुओं को समझाएँ।
उत्तर:
आर्थिक महामंदी (1929-1933) ने कई ऐसी आर्थिक समस्याओं को जन्म दिया जिनको व्यष्टि अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर हल नहीं किया जा सका। इन समस्याओं के समाधान हेतु प्रो० जे० एम० कीन्स ने General theory of Employment, Interest & Money लिखी। इस पुस्तक में कीन्स ने आय एवं रोजगार के बारे में निम्नलिखित मुख्य बातें बताईं-

(i) एक अर्थव्यवस्था में आय एवं रोजगार का स्तर संसाधनों की उपलब्धता एवं उपयोग पर निर्भर करता है। यदि किसी अर्थव्यवस्था में कुछ संसाधन बेकार पड़े होते हैं तो अर्थव्यवस्था उन्हें उपयोग में लाकर आय एवं रोजगार के स्तर को बढ़ा सकता है।

(ii) कीन्स ने परंपरावादियों के इस विचार को कि एक वस्तु की पूर्ति माँग की जनक होती है खारिज कर दिया। कीन्स ने बताया कि वस्तु की कीमत उपभोक्ता की आय और उपभोक्ता की उपयोग प्रवृत्ति पर निर्भर करती है।

(iii) परंपरावादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार संतुलन की अवस्था में सदैव पूर्ण रोजगार की स्थिति होती है। लेकिन कीन्स ने संतुलन स्तर के रोजगार स्तर को साम्य रोजगार स्तर का नाम दिया और स्पष्ट किया कि साम्य रोजगार स्तर आवश्यक रूप से पूर्ण रोजगार स्तर के समान नहीं होता है। यदि साम्य रोजगार स्तर, पूर्ण रोजगार स्तर से कम है तो अर्थव्यवस्था उपभोग या सामूहिक माँग की बढ़ाकर आय एवं रोजगार स्तर में वृद्धि कर सकती है।

(iv) परंपरावादी विचार में सरकारी हस्तक्षेप को निषेध करार दिया गया था। लेकिन कीन्स ने सुझाव दिया कि विषम परिस्थितियों जैसे अभाव माँग, अधिमाँग आदि में हस्ताक्षर करके इन्हें ठीक करने के लिए उपाय अपनाने चाहिए।

(v) परंपरावादी सिद्धांत में बचतों को वरदान बताया गया है जबकि समष्टि स्तर पर कीन्स ने बचतों को अभिशाप की संज्ञा दी है। व्यक्तिगत स्तर पर बचत वरदान हो सकती है।

प्रश्न 12.
विदेशी विनिमय दर को परिभाषित करें। स्थिर और लोचपूर्ण विनिमय दर में अंतर करें।
उत्तर:
वह दर जिस पर एक देश की एक मुद्रा इकाई का दूसरे देश की मुद्रा में विनिमय किया जाता है, विदेशी विनिमय दर कहलाता है। इस प्रकार विनिमय दर घरेलू मुद्रा के रूप में दी जाने वाली वह कीमत है जो विदेशी मुद्रा की एक इकाई के बदले दी जाती है।

स्थिर एवं लोचपूर्ण विनिमय दरों में निम्नलिखित अंतर पाया जाता है-
स्थिर विनिमय दर:

  1. यह सरकार द्वारा घोषित की जाती है और इसे स्थिर रखा जाता है।
  2. इसके अंतर्गत विदेशी केन्द्रीय बैंक अपनी मुद्राओं को एक निश्चित कीमत पर खरीदने और बेचने के लिए तत्पर रहता है।
  3. इसमें परिवर्तन नहीं आते हैं।

लोचपूर्ण विनिमय दर:

  1. माँग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्धारित होती है।
  2. इसमें केन्द्रीय बैंक का हस्तक्षेप नहीं होता है।
  3. इसमें हमेशा परिवर्तन आते रहते हैं।

प्रश्न 13.
परिवर्तनशील अनुपात के नियम की व्याख्या करें।
उत्तर:
घटते-बढ़ते अनुपात के नियम के अनुसार जब एक या एक से अधिक साधनों को स्थिर रखा जाता है तो उत्पादक के परिवर्तनशील साधनों के अनुपात में वृद्धि करने से उत्पादन पहले बढ़ते हुए अनुपात में बढ़ता है, फिर समान अनुपात में तथा इसके बाद घटते हुए अनुपात में बढ़ता है। श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार, “उत्पत्ति ह्रास नियम यह बताता है कि यदि किसी एक उत्पत्ति के साधन की मात्रा को स्थिर रखा जाय तथा अन्य साधनों की मात्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि की जाय तो एक निश्चित बिन्दु के बाद उत्पादन में घटती दर से वृद्धि होती है।”

इस नियम के अनुसार उत्पादन की तीन अवस्थाएँ हैं-

  • पहली अवस्था- सीमान्त उत्पादन अधिकतम होने के बाद घटना आरम्भ हो जाता है। औसत उत्पादन अधिकतम हो जाता है तथा कुल उत्पादन बढ़ता है।
  • दूसरी अवस्था- औसत उत्पादन घटने लगता है और कुल उत्पादन घटती दर से बढ़ता है तथा अधिकतम बिन्दु पर पहुँचता है तब सीमान्त उत्पादन शून्य हो जाता है।
  • तीसरी अवस्था- औसत उत्पादन घटना जारी रहता है तथा कुल उत्पादन कम होने लगता है तब सीमान्त उत्पादन ऋणात्मक हो जाता है।

प्रश्न 14.
केंद्रीय बैंक किस प्रकार व्यापारिक बैंक से भिन्न होता है ?
उत्तर:
केन्द्रीय बैंक एवं व्यापारिक बैंक निम्नलिखित अंतर हैं-
केन्द्रीय बैंक:

  • यह देश का सर्वोच्च बैंक (Apex Bank) होता है। यह अन्य सभी बैंकों पर नियंत्रण रखता है।
  • इसका प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रहित में बैंकिंग प्रणाली का संचालन करना है। इसका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका को छोड़कर (जहाँ 12 केन्द्रीय बैंक हैं) अन्य सभी देशों में एक-एक केन्द्रीय बैंक होता है।
  • केन्द्रीय बैंक पर सरकार का स्वामित्व होता है।
  • यह विशेष दशाओं के अतिरिक्त अन्य दशाओं में जनसाधारण के साथ व्यवसाय नहीं कर सकता।
  • यह सरकार के बैंकर के रूप में सरकार की ओर से लेन-देन करता है।

व्यापारिक बैंक:

  • वे सम्पूर्ण बैंकिंग प्रणाली का एक अंग होते हैं और केन्द्रीय बैंक के नियंत्रण में कार्य करते हैं।
  • इसका मुख्य एवं प्राथमिक उद्देश्य लाभ कमाना होता है।
  • देश में अनेक व्यापारिक बैंक होते हैं।
  • ये प्रायः अंशधारियों के बैंक होते हैं। इसका स्वामित्व सरकारी और गैर-सरकारी भी हो सकता है।
  • ये जनसाधारण से व्यवसाय करते हैं।
  • यह जनता का बैंकर है।

प्रश्न 15.
कृषि के संदर्भ में उत्पत्ति ह्रास नियम की व्याख्या करें।
उत्तर:
उत्पत्ति ह्रास नियम हमारे साधारण जीवन के अनुभवों पर आधारित है। सर्वप्रथम इस प्रवृत्ति का अनुभव स्कॉटलैण्ड के एक किसान ने किया था, किन्तु वैज्ञानिक रूप में इसके प्रतिपादन का श्रेय टरगोट को है। यह नियम मुख्यतः कृषि में ही क्रियाशील होता है। कृषि के क्षेत्र में इस नियम की व्याख्या इस प्रकार से की जा सकती है-

जब उपज बढ़ाने के लिए भूमि के एक निश्चित टुकड़े पर कोई किसान पूँजी एवं श्रम की मात्रा को बढ़ाता है तो प्रायः यह देखा जाता है कि उपज में उससे कम ही अनुपात में वृद्धि होती है। अर्थशास्त्र में इसी प्रवृत्ति को क्रमागत उत्पत्ति ह्रास नियम कहते हैं। प्रत्येक किसान अनुभव के आधार पर इस बात को जानता है कि एक सीमा के बाद भूमि की एक निश्चित मात्रा पर आंधक श्रम एवं पूँजी लगाने से उपज घटते हुए अनुपात में बढ़ती है। यदि ऐसा नहीं होता तो आज विश्व में खाद्यान्न के अभाव की समस्या ही उपस्थित नहीं होती तथा एक हेक्टर भूमि में खेती करके ही सम्पूर्ण विश्व को सुगमतापूर्वक खिलाया जा सकता था। किन्तु बात ऐसी नहीं है। इस प्रकार प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री उत्पत्ति ह्रास नियम को कृषि से संबंधित करते थे। इन लोगों के अनुसार भूमि की पूर्ति सीमित है। अतः जनसंख्या में वृद्धि के कारण एक सीमित भूमि पर अधिक लोगों के काम करने से उपज में घटती हुई दर से वृद्धि होगी।

मार्शल ने कृषि के संबंध में इस नियम की व्याख्या इस प्रकार से की है, “यदि कृषि कला में साथ-ही-साथ कोई उत्पत्ति नहीं हो, तो भूमि पर उपयोग की जाने वाली पूँजी एवं श्रम की मात्रा में वृद्धि से कुल उपज में साधारणतया अनुपात से कम ही वृद्धि होती है।” इस प्रकार मार्शल के अनुसार एक निश्चित भूमि के टुकड़े पर ज्यों-ज्यों श्रम एवं पूँजी की इकाइयों में वृद्धि की जाती है, त्यों-त्यों उपज घटते हुए अनुपात में बढ़ती है, यानी सीमान्त उपज में क्रमशः ह्रास होते जाता है। इसे निम्न तालिका द्वारा भी दर्शाया जा सकता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 14

इस तालिका से स्पष्ट होता है कि श्रम एवं पूँजी की पहली इकाई लगाने से उस भूमि पर 20 क्विंटल उपज होती है, दूसरी इकाई के प्रयोग से कुल उपज 35 क्विंटल होती है लेकिन सीमान्त उपज 15 क्विंटल होती है। तीसरी इकाई के प्रयोग से कुल उपज 45 क्विंटल होती है तथा सीमान्त उपज 10 क्विंटल होती है। चौथी इकाई के प्रयोग से कल उपज 50 क्विंटल तथा सीमान्त उपज 5 क्विंटल होती है। अतः स्पष्ट है कि किसान ज्यों-ज्यों एक निश्चित भूमि के टुकड़े पर श्रम एवं पूँजी की इकाइयों को बढ़ाता है, त्यों-त्यों कुल उपज में वृद्धि अवश्य होती है, किन्तु उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात में श्रम एवं पूँजी में वृद्धि की जाती है। दूसरे शब्दों में, श्रम एवं पूँजी की अतिरिक्त इकाइयों के प्रयोग के परिणामस्वरूप उपज में घटते हुए अनुपात में वृद्धि होती है।

प्रश्न 16.
पूर्ण प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है जिसके कारण कोई भी विक्रेता. अथवा क्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाता। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में एक क्रेता अथवा एक विक्रेता बाजार में माँग अथवा पूर्ति की दशाओं को प्रभावित नहीं कर सकता।

(ii) वस्तु की समरूप इकाइयाँ- सभी विक्रेताओं द्वारा बाजार में वस्तु की बेची जाने वाली इकाइयाँ एक समान होती हैं।

(iii) फर्मों के प्रवेश व निष्कासन की स्वतंत्रता- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में कोई भी नई फर्म उद्योग में प्रवेश कर सकती है तथा कोई भी पुरानी फर्म उद्योग से बाहर जा सकती है। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में फर्मों के उद्योग में आने-जाने पर कोई प्रबन्ध नहीं होता।

(iv) बाजार दशाओं का पूर्ण ज्ञान- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में क्रेताओं एवं विक्रेताओं को बाजार दशाओं को पूर्ण ज्ञान होता है। इस प्रकार कोई भी क्रेता वस्तु की प्रचलित कीमत से अधिक कीमत देकर वस्तु नहीं खरीदेगा।
यही कारण है कि बाजार में वस्तु की एक समान कीमत पायी जाती है।

(v) साधनों की पूर्ण गतिशीलता- पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति के साधन बिना किसी व्यवधान के एक उद्योग से दूसरे उद्योग में अथवा एक फर्म से दूसरी फर्म में स्थानान्तरित किये जा सकते हैं।

(vi) कोई यातायात लागत नहीं- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में यातायात लागत शून्य होती है जिसके कारण बाजार में एक कीमत प्रचलित रहती है।