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Bihar Board 12th Business Studies Important Questions Long Answer Type Part 1 in Hindi

प्रश्न 1.
वित्त कार्य करते समय प्रत्येक प्रबन्धक को तीन मुख्य निर्णय लेने होते हैं। उनका वर्णन कीजिए।
उत्तर:
वित्त कार्य करते समय प्रबंधक को निम्नलिखित मुख्य निर्णय लेने पड़ते हैं-
(i) वित्तीय नियोजन से संस्था के पूँजीगत ढाँचे के निर्धारण का निर्णय लेना पड़ता है जिसमें ‘अंश पूँजी के अनुपात निश्चित किये जाते हैं। उदाहरण के लिए समता अंश पूँजी कितनीः और पूर्वाधिकार अंश पूँजी कितने धन के रखे जायें, इसका निर्णय करना पड़ता है।

(ii) प्रबंधक विभिन्न साधनों से आवश्यक पूँजी प्राप्त करने की विवेकपूर्ण योजना बनाने का निर्णय लेता है। पर्याप्त मात्रा में वित्त की प्राप्ति होने से व्यावसायिक संस्था में पर्याप्त पूँजी एकत्र होती है जिससे कारोबार अच्छी तरह से चलता है।

(iii) वित्तीय कार्य करते समय प्रबंधक उद्योग की प्रकृति के अनुसार वित का प्रबंध करने का निर्णय लेता है। पूँजी सघन उद्योग के लिए प्रबंधक अधिक पूँजी एकत्र करने का प्रयत्न करता है जबकि श्रम साधन उद्योगों के लिए कम पूँजी एकत्र करने का निर्णय लेता है। साथ ही अधिक जोखिम वाले उद्योगों को अपनी पूँजी जुटाने के लिए स्वामित्वशील प्रतिभूतियों (Ownership Securities) पर अधिक निर्भर रहना पड़ेगा जबकि कम जोखिम वाले उद्योग ऋण लेकर स्वामियों को समता पर व्यापार (Trading on Equity) का लाभ दे सकते हैं।

प्रश्न 2.
एक कार्यात्मक ढाँचा एक डिवीजनल ढाँचे से किस प्रकार भिन्न है ?
उत्तर:
कार्यात्मक और डिविजनल संरचना (ढाँचा) के बीच अन्तर यह है कि कार्यात्मक संरचना एक संगठनात्मक संरचना है जिसमें संगठन को विशेष कार्यात्मक क्षेत्रों जैसे कि उत्पादन, विपणन और बिक्री के आधार पर छोटे समूहों में विभाजित किया गया है जबकि विभाजन (डिविजनल) संरचना एक प्रकार का संगठनात्मक ढाँचा है जहाँ संचालन को विभाजन या अलग उत्पाद के आधार पर समूहीकृत किया जाता है। श्रेणियाँ एक संगठन को विभिन्न संरचनाओं के अनुसार व्यवस्थित किया जा सकता है, जो संगठन को संचालित और प्रदर्शन करने में सक्षम बनाता है। इसका उद्देश्य, उद्देश्य से सुचारू रूप से और कुशलतापूर्वक संचालन करना है।

इस प्रकार कार्यात्मक ढाँचा और डिविजनल ढाँचा का तुलनात्मक अध्ययन करने से इस बात की जानकारी होती है कि इन दोनों की प्रकृति और लक्षण अलग-अलग हैं। इसलिए इन दोनों में अन्तर पाया जाता है।

प्रश्न 3.
प्रबन्ध के कार्य के रूप में संगठन का महत्त्व समझाइये।
उत्तर:
प्रबन्ध के कार्य के रूप में संगठन के महत्व को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) विशिष्टीकरण का लाभ (Benefits of specialisation) – संगठन कर्मचारियों में विभिन्न क्रियाओं को उनकी योग्यता एवं कार्य-क्षमता के अनुसार बाँटने में मार्गदर्शक का कार्य करता है। कर्मचारियों के द्वारा एक ही कार्य को लगातार करते रहने से काम का बोझ कम हो जाता है एवं उतपादन की मात्रा बढ़ जाती है। लगातार एक ही कार्य को करते रहने से कर्मचारी उस कार्य को करने का विशिष्ट अनुभव प्राप्त कर लेते हैं एवं कार्य को करने में दक्षता प्राप्त कर लेते हैं।

(ii) कार्य सम्बन्धों में स्पष्टता (Clarity in working relationship) – कार्य करने में सम्बन्धों का स्पष्टीकरण सम्प्रेषण को स्पष्ट करता है तथा किसने किसको रिपोर्ट करनी है इस बात को एक-एक करके बतलाता है। यह सूचना एवं अनुदेशों के स्थानान्तरण (Ambiguity in transfer) में भ्रमों को दूर करता है। यह सोपानिक क्रम (Hierarchical order) के निर्माण में सहायता करता है ताकि उत्तरदायित्व को निर्धारित किया जा सके एवं एक व्यक्ति के द्वारा किस सीमा तक अधिकारों का अन्तरण (Delegation of authority) किया जा सकता है, इसका स्पष्टीकरण करता है।

(iii) संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग (Optimum utilisation of resources) – संगठन प्रक्रिया के अन्तर्गत कुल काम को अनेक छोटी-छोटी क्रियाओं में विभाजित कर दिया जाता है। प्रत्येक क्रिया एक अलग कर्मचारी के द्वारा की जाती है। ऐसा करने से न तो कोई क्रिया करने से रह जाती है और न ही किसी क्रिया को अनावश्यक रूप से दो बार किया जाता है। परिणामतः, संगठन में उपलब्ध सभी संसाधनों जैसे-मानव, माल, मशीन आदि का अनुकूलतम उपयोग (Optimum use) संम्भव हो पाता है।

(iv) परिवर्तन में सुविधा (Adaptation to change) – संगठन प्रक्रिया व्यावसायिक इकाइयों को व्यावसायिक पर्यावरण (Business environment) परिवर्तनों में समायोजित होने की अनुमति प्रदान करता है। यह संगठन संरचना में प्रबन्धकीय स्तर का उपयुक्त परिवर्तन एवं आपसी सम्बन्धों के संशोधनों में पारगमन (Inter-relationship) का मार्ग प्रशस्त करता है। यह संगठन परिवर्तनों के बाबजूद भी जीवित रहने तथा उन्नति करते रहने सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति करता है।

(v) प्रभावी प्रशासन (Effective administration) – प्रायः देखा जाता है कि प्रबन्धकों में अधिकारों को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रहती है। संगठन प्रक्रिया प्रत्येक प्रबन्धक द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं एवं प्राप्त अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख करती है। यह भी स्पष्ट कर दिया जाता है कि प्रत्येक प्रबन्धक किस कार्य को करने के लिए किसको आदेश देगा। प्रत्येक कर्मचारी को इस बात की जानकारी होती है कि वह किसके प्रति उत्तरदायी है ? इस प्रकार अधिकारों को लेकर उत्पन्न होने वाले भ्रम की स्थिति समाप्त हो जाती है। परिणामतः प्रभावी प्रशासन सम्भव हो पाता है।

(vi) कर्मचारियों का विकास (Development of personnel) – संगठन प्रक्रिया के अन्तर्गत अधिकार अन्तरण (Delegation of authority) किया जाता है। ऐसा एक व्यक्ति की सीमित क्षमता के कारण ही नहीं वरन् काम को करने की नई-नई विधियों की खोज करने के कारण भी किया जाता है। इसमें अधीनस्थों को निर्णय लेने के अवसर प्राप्त होते हैं। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए वे नई-नई विधियों को खोज करते हैं एवं उन्हें लागू करते हैं, परिणामत: उनका विकास होता है।

(vii) विस्तार एवं विकास (Expansion and growth) – संगठन प्रक्रिया के अन्तर्गत कर्मचारियों को प्राप्त निर्णय-स्वतन्त्रता (Freedom to take decisions) से उनका विकास होता है। वे नई-नई चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए अपने-आप को तैयार करने में सक्षम हो पाते हैं। इस स्थिति का लाभ प्राप्त करने के लिए वे उपक्रम का विस्तार करते हैं। विस्तर से लाभ कमाने की क्षमता बढ़ती है जो उपक्रम के विकास में सहायक होती है।

संगठन की उपयोगिता स्पष्ट करते हुए सी. कैनेथ ने एक स्थान पर कहा है, “एक कमजोर संगठन अच्छे उत्पादन को मिट्टी में मिला सकता है और एक अच्छा संगठन जिसका उत्पाद कमजोर है, अच्छे उत्पाद को भी बाजार से भगा सकता है।”

प्रश्न 4.
मौद्रिक प्रेरणाओं का क्या अर्थ है ? कोई तीन मौद्रिक प्रेरणाएँ बताइए जो कर्मचारियों के बेहतर निष्पादन में सहायक हो।
उत्तर:
मौद्रिक प्रेरणा वैसी प्रेरणा होती है जिसका मूल्यांकन प्रत्यक्ष रूप से मुद्रा से किया जा सकता है। मौद्रिक प्रेरणा के अन्तर्गत एक कर्मचारी को अधिक कार्य करने पर अधिक धन प्राप्ति की प्रेरणा होती है। इसमें श्रमिक को जो भी लाभ होता है वह नगदी के रूप में होता है ये चाहे अधिक वेतन के रूप में हों, कमीशन या लाभांश के रूप में हों, सभी मौद्रिक प्रेरणा कहलाती है। यदि श्रमिक को इससे धन की प्राप्ति होती है तो कार्य के अनुसार श्रमिकों को अधिक वेतन देना मौद्रिक प्रेरणा का प्रमुख उदाहरण है।

तीन मौद्रिक प्रेरणायें जो कर्मचारियों के बेहतर निष्पादन में सहायक होती है वे निम्नलिखित हैं-

  • बोनस – कोई भी व्यापारिक संस्था, फर्म या कम्पनी वर्ष के अंत में प्रेरणा के रूप में कर्मचारियों को बोनस की रकम नगद रूप में देती है। बोनस की रकम मिलने से कर्मचारी में अधिक-से-अधिक काम कारने की प्रेरणा उत्पन्न होती है।
  • कमीशन – एक व्यापारिक संस्था, फर्म या कम्पनी अपने कर्मचारियों को वेतन के अतिरिक्त विक्रय पर एक निश्चित दर से कमीशन देती है। इस कमीशन की रकम से कर्मचारियों में अधिक काम करने की प्रेरणा आती है।
  • प्रीमियम – एक व्यापारिक संस्था, फर्म या कम्पनी अपने कर्मचारियों को नगद रूप में प्रीमियम की रकम का भी भुगतान करती है। इसमें कर्मचारियों में अधिक-से-अधिक काम करने की प्रेरणा आती है।

प्रश्न 5.
नियोजन क्या है ? प्रबंध द्वारा नियोजन प्रक्रिया में कौन-कौन से कदम उठाये जाते है ?
उत्तर:
नियोजन में पहले ही क्या करना है एवं कैसे करना है निर्माण सम्मिलित रहता है। यह कार्यों को पूर्ण करने से पहले ही किया गया प्रयास है। नियोजन अनुमान सघनशीलता एवं नवीकरण का सम्मिश्रण है। नियोजन किसी भी कार्य को करने के लिए समयबद्ध दृष्टिकोण है। वह विभिन्न विकल्पों के बीच चुनाव है। उसका एक उद्देश्य है जिसे प्राप्त करना है। इस प्रकार नियोजन कार्य को निश्चित अवधि में पूरा करने का प्रयास है।

उर्विक के अनुसार “नियोजन मूल रूप से कार्यों की सुव्यवस्थित ढंग से करने, कार्य करने से पूर्व उस पर मनन करने तथा कार्य को अनुमानों की तुलना में तथ्यों के आधार पर करने का प्राथमिक रूप में एक मानसिक चिंतन है।”

प्रबंध द्वारा नियोजन प्रक्रिया में निम्नलिखित कदम उठाए जाते हैं-

  • उद्देश्यों का निर्धारण – ये संगठन के उद्देश्य हैं जिसे प्राप्त करना है। इस दिशा में विभागीय योगदान की आशा एवं निर्धारित कर्मचारियों की भूमिका जिसे निर्देश की आवश्यकता है, का निर्धारण करना है।
  • विकसित उपवाद – नियोजन को भविष्य की अनिश्चितता का सामना करना पड़ता है। इसलिए उपवाद भविष्य के घटनाओं का दिशा-निर्देश करता है जिसके आधार पर मूल्यांकन प्रस्ताव तैयार किया जा सकता है।
  • विकल्प की पहचान – उद्देश्य की प्राप्ति के विभिन्न रास्ते हैं। प्रबंध को यह तय करना पड़ता है कि हम अपने उद्देश्यों को बेहतर तरीके से कैसे प्राप्त कर सकते हैं। नवीकरण के रूप में नए विकल्प की खोज भी की जा सकती है।
  • प्रतिफल का मूल्यांकन – निर्धारित उद्देश्यों के दृष्टिकोण से सभी विकल्पों के सकारात्मक एवं नकारात्मक पहलुओं की जाँच की जानी चाहिए। प्रत्येक विकल्प के संभाव्यता एवं परिणाम की भी जाँच की जानी चाहिए।
  • सर्वोत्तम का चुनाव – सभी विकल्पों में से वैसे विकल्प जो लाभदायक हो, सहनीय हो एवं सकारात्मक हो, का चुनाव कर कार्यान्वित किया जाना चाहिए।
  • नियोजन का कार्यान्वयन – यह प्रक्रिया का क्रियान्वयन है अर्थात् नियोजन का कार्यरूप में परिवर्तन।
  • कार्य निष्पादन का अनुकरण – नियोजन प्रक्रिया का अंतिम कदम यह निश्चित करना है कि नियोजन के अनुकुल सभी कार्य निष्पादित किये गये ताकि संगठन के उद्देश्य को प्रभावकारी ढंग से प्राप्त किया जा सके।

प्रश्न 6.
वित्तीय नियोजन क्या है ? वित्तीय नियोजन को प्रभावित करने वाले कौन-कौन-से तत्व हैं ?
उत्तर:
वित्तीय नियोजन का संबंध पूँजी की मात्रा निश्चित करने तथा यह निश्चित करने से है कि कितनी पूँजी स्वामी लगाएँगे तथा कितनी पूँजी अन्य साधनों से ऋण के रूप में प्राप्त की जाऐगी और यदि पूँजी बाजार से एकत्र की जाएगी तो कितनी पूँजी के अंश व ऋण पत्र निर्गमित किये जाएंगे। इनका विस्तृत निर्धारण ही वित्तीय नियोजन है।

ए० एस० डीइंग के शब्दों में, “वित्तीय नियोजन का पूँजीकरण या पूँजी के मूल्यांकन में पूँजी स्कंध (Stock) तथा ऋण पत्रों दोनों को सम्मिलित करते हैं।”

रॉबर्ट जैरट जूरियर (Robert Jerrett Jr.) के अनुसार “व्यापक वित्तीय नियोजन से आशय वित्तीय प्रबंध की समस्त योजनाओं के साथ एकीकरण एवं समन्वय करने से है।”

वित्तीय नियोजन को कुछ विद्वानों ने पूँजीकरण या पूँजी संरचना (Capitalisation or Capital Structure) के नाम से भी पुकारा है।

उपक्रम की वित्तीय नियोजना पर विभिन्न तत्वों का प्रभाव पड़ता है। अतः योजना बनाते समय उन तत्वों पर भली-भाँति विचार कर लेना चाहिए। ऐसे प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-
1. उद्योग की प्रकृति (Nature of Industry) – वित्तीय नियोजन के निर्माण में उद्योग की प्रकृति अपना निर्णायक मत रखती है। पूँजी-सघन उद्योग के लिए अधिक पूँजी की आवश्यकता होती है और श्रम-सघन उद्योगों के लिए कम पूँजी।

2. जोखिम को मात्रा (Amount of Risks) – अधिक जोखिम वाले उद्योगों को अपनी पूँजी जुटाने के लिए स्वामित्वशील प्रतिभूतियों (Ownership Securities) पर अधिक निर्भर रहना पड़ेगा जबकि कम जोखिम वाले उद्योग ऋण लेकर स्वामियों को समता पर व्यापार (Trading or . Equity) का लाभ दे सकते हैं।

3. औद्योगिक इकाई की प्रस्थिति (Status o Industrial Unit) – इसके अन्तर्गत उपक्रम . की निजी विशेषताएँ जैसे उसकी आयु, आकार, कार्य-क्षेत्र तथा प्रवर्तकों एवं प्रबन्धकों की साख एवं ख्याति आदि तत्व आते हैं। बड़े आकार वाली कम्पनियों को पूँजी जुटाने में अधिक कठिनाई नहीं होती। पुरानी तथा अच्छी साख वाली संस्थाओं में हर विनियोक्ता धन लगाने को तैयार रहता है लेकिन नए प्रवर्तकों को धन एकत्रित्र करने में अधिक कठिनाइयाँ उठानी पड़ती है।

4. विभिन्न वित्ताय साधना का मूल्याकन (Appraisal of atternative Sources or Finance) – जब भी पूँजी का आवश्यकता हो, बाजार में प्रचलित तथा लोकप्रिय प्रतिभूतियों को .देखना चाहिए और उनके अंकित मूल्य, निर्गमन लागत तथा उन्य तथ्यों पर विचार करना चाहिए। यह निश्चित करते समय कि किस-किस साधन से कितना धन एकत्रित करना है। यह भी ध्यान में रखना पड़ेगा कि उस साधन से उस समय धन एकत्रित करने का अनुकूल समय भी है अथवा नहीं।

5. उद्योग के भावी विस्तार की योजनाएँ – यह तत्व भी वित्तीय नियोजन को प्रभावित करने वाले तत्वों में से एक तत्व है। उद्योग के भावी विस्तार की योजनाएँ इनमें बनाई जाती है। जिससे भविष्य में उद्योग को कैसे विस्तार किया जाना है इसकी योजना बनायी जाती है।

6. प्रबंधकों की मनोवृति – यह तत्व भी उद्योग को प्रभावित करने वाले में से एक तत्व है। उद्योगों को कैसे संचालित करना है, यह प्रबन्धकों की मनोवृत्ति पर निर्भर करता है। जितना अच्छा प्रबंधकों की मनोवृति होगी उद्योग का विकास और विस्तार उतना ही तेजी से होगा।

7. बाहरी पूंजी की आवश्यकता – बाहरी पूँजी की आवश्यकता भी वित्तीय नियोजन को प्रभावित करती है। उद्योग में बाहरी पूँजी की आवश्यकता पड़े और इस पूँजी को कहाँ से लाया जाए वित्तीय नियोजन का एक प्रमुख अंग माना जाता है।

8. पूँजी संग्रह के स्रोतों की उपलब्धता – यह तत्व भी वित्तीय नियोजन को प्रभावित करता है। पूँजी को कैसे संग्रह किया जाए और किन-किन स्रोतों से संग्रह किया जाए वित्तीय नियोजन का एक प्रमुख अंग है। उद्योग से जो पूँजी प्राप्त होती है लाभ के रूप में उसे कैसे और किन साधनों से संग्रह किया जाए इसका भी ध्यान रखा जाता है।

9. सरकारी नियंत्रण – सरकारी नियंत्रण तत्व भी वित्तीय नियोजन को प्रभावित करते हैं। उद्योग पर सरकारी नियंत्रण रहना भी आवश्यक है। तभी एक उत्पादक अच्छी किस्म और गुणवत्ता वाली वस्तुओं का उत्पादन कर सकता है इसीलिए किसी भी उद्योग पर सरकारी नियंत्रण रहना भी एक आवश्यक तत्व है।

प्रश्न 7.
विभिन्न द्रव्य बाजार प्रपत्रों की व्याख्या करें।
उत्तर:
मुद्रा बाजार का अर्थ ऐसे बाजार से लगाया जाता है जिसमें अल्पकालीन कोषों में व्यवहार होता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि मुद्रा बाजार उस बाजार को कहा जाता है जहाँ पर अल्पकालीन ऋण लेने व देने का कार्य होता है या अल्पकालीन ऋण उपलब्ध कराये जाते हैं। मुद्रा बाजार एक अत्यन्त सक्रीय स्थान है जिसमें वित्त समस्याएँ अपने सामान्य व्यवसाय अथवा मुख्य व्यवसाय के रूप में तरलता उत्पन्न करने के उद्देश्य से मुद्रा सम्पति का क्रय-विक्रय करते हैं।

मुद्रा बाजार के कई प्रमुख प्रपत्र (Instrument) होते हैं, जैसे- 1. माँग मुद्रा। अल्प सूचना ऋण 2. कोषागार विपत्र। 3. वाणिज्यिक विपत्र। 4. जमा प्रमाण-पत्र तथा 5. वाणिज्यिक पत्र। वास्तव में, भारतीय द्रव्य बाजार या मुद्रा बाजार के विभिन्न प्रपत्र या उपकरण को इस प्रकार स्पष्टः किया जा सकता है।

  1. याचना या माँग मुद्रा (Call money)
  2. अल्प नोटिस मुद्रा (Short Notice money)
  3. सर्वाधिक या मियादी मुद्रा (Term money)
  4. जमा प्रमाण-पत्र (Certificate of Deposit)
  5. वाणिज्यि पत्र (Commercial paper)
  6. मुद्रा बाजार म्युचुअल निधि (Money market mutual fund)
  7. वाणिज्यि बिल (Commercial Bill)
  8. खजाना बिल (Treasure Bill)
  9. अंतर्कारपोरेट विधि (Inter corporate fund)
  10. अंतकॉरपोरेट रेपॉस (Inter corporate repos)

प्रश्न 8.
प्रत्यायोजन से क्या आशय है ? ऐसे किन्ही चार बिंदुओं को समझाइए जो एक संगठन में प्रत्यायोजन के महत्व को उजागर करते हैं।
उत्तर:
प्रत्यायोजन या अधिकार प्रबंधकीय कार्य की कुंजी है। यदि प्रत्यायोजन न हो तो प्रबंधक रह जाता है।

कुन्ट्ज और ओ डेनेल के अनुसार, “प्रत्यायोजन से तात्पर्य वैज्ञानिक या स्तत्वधिकार संबंधी शक्तियों से है।”

दूसरे शब्दों में, “आदेश देने या कार्य करने का स्वत्व ही प्रत्यायोजन है।”
एक प्रबंधक विस्तृत अधिकार प्राप्त करने के कारण ही प्रबंधक कहलाता है। इसीलिए एक प्रबंधक को दिये जाने वाले अधिकार इतनं प्रर्याप्त होने आवश्यक है कि वह उसे संस्था में आवश्यक सममान प्रदान कराने के साथ-साथ दायित्व पूरा करने योग्य बना सके। अधिकार और दायित्व एक-दूसरे पर निर्भर हैं और साथ -साथ चलते हैं। अतः दायित्वों पूरा करने के लिए अधिकार आवश्यक है। साथ ही यहाँ पर भरार्पण का वर्णन करना भी आवश्यक है। भरार्पण का अर्थ अपने अधीनस्थों को निश्चित सीमाओं के अन्तर्गत कार्य करने के लिए अधिकार प्रदान करना है। यह दूसरे से कार्य कराने की कला है। जब किसी उच्च अधिकारी द्वारा अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को अधिक मात्रा में अधिकारों को सौंपा जाता है तो वह विकेन्द्रीकरण कहलाता है।

एक संगठन में प्रत्यायोजन का विशेष महत्व होता है जिन्हें निम्नलिखित विचार-बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-

  • एक संगठन या संस्था में प्रत्यायोजन का महत्व इसलिए है क्योंकि इसके द्वारा अधिकार अन्तरण होता है। जिससे सारे अधिकार एक ही प्रबंधक और कर्मचारी के बीच नहीं रहता है बल्कि अधिकार का अन्तरण होने से संबंधी कार्य अच्छी तरह से होता है।
  • एक संगठन में प्रत्यायोजन का महत्व इसलिए भी है क्योंकि इसके माध्यम से सभी कर्मचारी अपने कर्तव्यों को अच्छी तरह से निभाते हैं। परिणामस्वरूप संगइन का काम अच्छी तरह से होता है।
  • एक संगठन प्रत्यायोजन का महत्व इसलिए भी है कि इसके माध्यम से संगठन की प्रबंध संबंधी कार्य पूरी कुशलता के साथ होते हैं। परिणामस्वरूप संगठन अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल होती है।
  • एक संगठन में प्रत्यायोजन का महत्व इसलिए भी है क्योंकि इसमें अधिकार और कर्तव्य प्रत्येक कर्मचारी का निश्चित हो जाता है और वे इसी अधिकार के अनुसार अपने कर्तव्य को निभाते हैं। परिणामस्वरूप संगठन या संस्था के सभी अधिकारी और कर्मचारी अपना कार्य अच्छी तरह से करते हैं।

प्रश्न 9.
वैज्ञानिक प्रबन्ध के सिद्धान्त का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
टेलर ने एक संगठन को वैज्ञानिक ढंग से संचालित करने के लिये प्रबन्ध के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। टेलर द्वारा बताये गये वैज्ञानिक प्रबन्ध के आधारभूत सिद्धान्त की व्याख्या नीचे दी गई है-

1. विज्ञान, न कि रूढ़िवादिता (Science, Not Rule of Thumb) – टेलर ने इस बात पर जोर दिया कि संगठन में किया जाने वाला, कार्य वैज्ञानिक अध्ययन द्वारा किया जाना चाहिए न कि अंतःज्ञान (Intuition), अनुभव तथा भूल और सुधार (Hit and Miss) विधियों के आधार पर। क्योंकि जहाँ एक ओर वैज्ञानिक विधियाँ किसी कार्य के सूक्ष्म से सूक्ष्म पहलू को प्रदर्शित करती हैं वहाँ रूढ़िवादिता केवल अनुमान को महत्त्व देती हैं। किसी भी कार्य के विभिन्न पहलुओं की यथार्थता वैज्ञानिक प्रबन्ध का आधारभूत सार है, जैसे एक दिन की उचित मजदूरी का निर्धारण, कार्य का प्रमापीकरण (Standard of Work), मजदूरी भुगतान की विभेदात्मक पद्धति आदि। यह आवश्यक है कि इन सभी का निर्धारण अनुमानों पर आधारित न होकर परिशुद्धता पर आधारित होना चाहिए।

2. समन्वय, न कि मतभेद (Harmony, Not Discord) – टेलर ने इस बात पर जोर दिया कि सामूहिक क्रियाओं में संघर्ष मतभेद के स्थान पर आपस में समन्वय स्थापित करने का प्रयास होना चाहिए। सामूहिक समन्वय इस बात का सुझाव देता है कि आपस में आदान-प्रदान की स्थिति एवं उचित समझ होनी चाहिए ताकि एक समूह व्यक्तियों के योग से अधिक योगदान दे सके। टेलर ने कर्मचारियों एवं प्रबन्धकों दोनों के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण मानसिक क्रान्ति (Complete Mental Revolution) का समर्थन किया। टेलर के अनुसार जहाँ एक ओर प्रबन्धकों को प्रबुद्ध ज्ञान (Enlightened Attitude) एवं उत्पादकता के लाभों को कर्मचारियों के साथ बाँटना चाहिए वहाँ दूसरी ओर कर्मचारियों को भी वफादारी एवं अनुशासन के साथ कार्य करना चाहिए।

3. सहयोग, न कि व्यक्तिवाद (Co-operation Not Individualism) – वैज्ञानिक प्रबन्ध अव्यवस्थित व्यक्तिवाद के स्थान पर सहयोग प्राप्त करने से सम्बन्धित होना चाहिए। इस आपसी विश्वास, सहयोग व साख पर आधारित होना चाहिए। प्रबन्धकों एवं कर्मचारियों में आपसी समझ एवं विचारों के द्वारा सहयोग की भावना का विकास किया जा सकता है। टेलर ने सुझाव दिया कि उन कर्मचारियों को जिन्हें वास्तव में इन कार्यों को सम्पन्न करना है प्रमाप तय करते समय शामिल किया जाना चाहिए। इससे उनका योगदान बढ़ेगा और वे इन प्रमापों को पूरा करने का प्रयास करेंगे।

4. प्रत्येक व्यक्ति का उसकी अधिकतम कुशलता एवं सफलता तक विकास (Development of Each and Every Person to Hisekher Greater Efficiency and Prosperity) – इस सिद्धान्त के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति की कुशलता के स्तर पर उससे चयन (Selection) से ही ध्यान दिया जाना चाहिए एवं सभी कर्मचारियों के लिए प्रशिक्षण की उपयुक्त व्यवस्था की जानी चाहिए। इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी रुचि एवं योग्यता के अनुसार ही काम सौंपा जाए। इस प्रकार की व्यवस्था किए जाने से कर्मचारियों की कुशलता एवं कार्यक्षमता में वृद्धि होती है जिसका लाभ कर्मचारियों एवं मालिकों दोनों को होता है।

उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि टेलर व्यवसाय के उत्पादन में वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग पर कट्टर समर्थक था।

प्रश्न 10.
प्रबंध की परिभाषा दीजिए। इसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रबन्ध की परिभाषा देना यदि असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। विद्वानों ने प्रबन्ध को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से परिभाषित किया है। अत: इसकी सर्वमान्य परिभाषा कोई नहीं है। इस सम्बन्ध में ई० एफ० एल० ब्रेच (E.F.L. Brech) तो प्रबन्ध की परिभाषा ही महसूस नहीं करते। उनका मानना है कि महत्त्व प्रबन्ध का है न कि उसकी परिभाषा का। प्रबन्ध की कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाएँ इस प्रकार हैं-

1. स्टेनले वेन्स (Stanley Vance) के शब्दों में, “प्रबन्ध केवल निर्णय लेने एवं मानवीय क्रियाओं पर नियंत्रण रखने की विधि है जिससे पूर्व निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके।”

स्टेनले वेन्स द्वारा दी गई परिभाषा की व्याख्या – उपरोक्त परिभाषा की व्याख्या करने प्रबन्ध के संबंध में निम्न तीन बातें स्पष्ट होती हैं-

  • प्रबन्ध निर्णय लेने की एक प्रक्रिया है;
  • प्रबन्ध मानवीय क्रियाओं पर नियन्त्रण रखने की विधि है एवं
  • प्रबन्धकीय क्रियाएँ पूर्व निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए की जाती हैं।

2. कन्टज तथा ओ’डोनेल (Koontz and O ‘Donnell) के शब्दों में, “प्रबन्ध का कार्य अन्य व्यक्तियों द्वारा उनके साथ मिलकर काम करना है।”

कून्ट्ज़ की परिभाषा का यदि विश्लेषण किया जाए तो उससे निम्न बातें सामने आती हैं : (i) प्रबन्ध एक कला है; (ii) प्रबन्ध का उद्देश्य कार्य को पूर्ण कराना है; एवं (iii) प्रबन्ध का कार्य दूसरे व्यक्तियों के साथ मिलकर कार्य करना व उनसे कार्य लेना है।

वास्तव में प्रबन्ध के सभी कार्य स्वयं कार्य करने व दूसरों से कार्य कराने से ही संबंधित होते हैं। यद्यपि प्रबन्ध की उपरोक्त विचारधारा में कुछ दोष भी है।

जैसे (i) प्रबन्ध केवल कला ही नहीं है; (ii) प्रबन्ध केवल कर्मचारियों का ही प्रबन्ध न : है एवं (iii) प्रबन्ध जोर-जबरदस्ती करना नहीं है।

3. प्रो० जॉन एफ० मी के अनुसार, “प्रबन्ध से तात्पर्य न्यूनतम प्रयास के द्वारा अधिकतः परिणाम प्राप्त करने की कला से है, जिससे नियोक्ता एवं कर्मचारी दोनों के लिए अधिकतम समृद्धि तथा जन-समाज के लिए सर्वश्रेष्ठ सेवा संभव हो सके।”

यह परिभाषा प्रबन्धकों के सामाजिक उत्तरदायित्व की ओर संकेत करती है। अधिकांश विद्वानों ने प्रबन्ध की परिभाषा इस प्रकार दी है-

4. जार्ज आर टैरी (George R. Terry) के अनुसार, “प्रबन्ध एक पृथक् प्रक्रिया है जिसमें नियोजन, संगठन, क्रियान्वयन तथा नियंत्रण को सम्मिलित किया जाता है तथा इनका निष्पादन व्यक्तियों एवं साधनों के उपयोग द्वारा उद्देश्यों को निर्धारित एवं प्राप्त करने के लिए किया जाता है।”

उपरोक्त परिभाषा से प्रबन्ध के निम्न लक्षण स्पष्ट होते हैं-

  • प्रबन्ध एक पृथक् प्रक्रिया है;
  • प्रबन्ध के अंतर्गत नियोजन, संगठन, क्रियान्वयन एवं नियंत्रण को शामिल किया जाता है;
  • इसमें व्यक्तियों व साधनों का उपयोग किया जाता है एवं
  • प्रबन्ध का उपयोग उद्देश्यों को निर्धारित व प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

5. टर एफ० ड्रकर (Peter F. Drucker) के अनुसार, “प्रबन्ध एक बहुउद्देश्यीय तन्त्र है जो व्यवसाय का प्रबन्ध करता है तथा प्रबन्धकों का प्रबन्ध करता है और कार्य वालों एवं कार्य का. प्रबन्ध करता है।”

स्वयं कार्य करने की बजाय प्रबन्धक दल दूसरों के कार्यों का समन्वय करता है।
पीटर एफ० ड्रकर द्वारा दी गई परिभाषा की व्याख्या से निम्न लक्षण स्पष्ट होते हैं-

  • प्रबन्ध एक बहुउद्देश्यीय तन्त्र है;
  • यह व्यवसाय का प्रबन्ध करता है;
  • प्रबन्ध प्रबन्धकों का भी प्रबन्ध करता है एवं
  • प्रबन्ध कार्य करने वाले और कार्य दोनों का प्रबन्ध करता है।

इस दृष्टिकोण से प्रबन्धकीय वर्ग के महत्त्व का पता चलता है किन्तु प्रबन्ध के कार्यों या तत्त्वों का ज्ञान नहीं होता।

6. हेनरी फेयोल (Henry Fayol) का कथन है, “प्रबन्ध का अर्थ पूर्वानुमान लगाना, योजना बनांना, संगठन करना, निर्देश देना, समन्वय करना और नियंत्रण करना है।”

7. लारेंस ए० एप्ले (Lawrence A. Appley) का कथन है कि “प्रबन्ध व्यक्तियों के विकास से संबंधित है न कि वस्तुओं के निर्देशन से।” प्रबन्ध का यह दृष्टिकोण भी प्रबन्ध का सही अर्थ स्पष्ट नहीं कर पाता।

8. सी. डब्ल्यू. विल्सन के अनुसार, “निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु मानवीय शक्ति का प्रयोग एवं निर्देशित करने की विधि प्रबन्ध कहलाती है।”

प्रबन्ध का महत्त्व (Importance of Management) – किसी भी संस्था में चाहे वह बड़ी हो अथवा छोटी, व्यावसायिक हो अथवा गैर- व्यावसायिक सामूहिक प्रयत्नों के द्वारा सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति की जाती है। इन प्रयत्नों में आवश्यक सामंजस्य स्थापित करना संस्था की सफलता के लिए आवश्यक है। वास्तव में सामंजस्य स्थापित करना प्रबन्ध का कार्य है। जिस प्रकार मस्तिष्क के बिना मानव शरीर एक अस्थि पिंजर है। उसी प्रकार प्रबन्ध के बिना कोई संस्था पूँजी व श्रम का निष्क्रिय समूह है।

व्यवसाय में प्रबन्ध का और भी अधिक महत्त्व है। व्यवसाय एक आर्थिक क्रिया है जिसमें विभिन्न साधनों के प्रयोग से उत्पादन और विपणन (Marketing) किया जाता है। इनके समुचित प्रवाध के द्वारा ही व्यावसायिक क्रियाओं को सफलतापूर्वक सम्पन्न किया जा सकता है। पीटर एफ ड्रकर (Peter F. Drucker) के अनुसार, “प्रबन्ध प्रत्येक व्यवसाय का गतिशील, जीवनदायिनी तत्व है, इसके नेतृत्व के बिना उत्पादन के साधन केवल साधन ही रह जाते हैं, वे कभी उत्पादन नहीं बन पाते।” प्रो. रोबिन्सन के शब्दों में, “कोई भी व्यवसाय स्वयं नहीं चल सकता, चाहे वह संवेग की स्थिति में ही क्यों न हो, इसके लिए इसे नियमित उद्दीपन की आवश्यकता पड़ती है।”

यह उद्दीपन व्यवसाय को प्रबन्ध प्रदान करता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार मानव शरीर मस्तिष्क के अभाव में हाड़-मांस का एक पुतला है, उसी प्रकार व्यवसाय प्रबन्ध के बिना निष्क्रिय रहता है। वास्तव में प्रबन्ध संगठन को शक्ति देता है। ई० एफ० एल० बेच के विचार में दोष-रहित प्रबन्ध ही मानवीय एवं भौतिक साधनों के उपयोग से कम प्रयल द्वारा अधिक उत्पादन (More production with less efforts) को संभव बनाता है। दूसरी ओर पीटर एफ० ड्रकर ने तो यहाँ तक कहा है कि प्रबन्ध के बिना उत्पादन के साधन सिर्फ साधन ही रह जाते हैं, उत्पादन नहीं बन पाते।

प्रबन्ध, व्यवसाय के लक्ष्यों को इनकी प्राप्ति की सही योजना बनाकर निर्देशित, नियन्त्रित तथा समन्वित प्रयासों के द्वारा प्राप्त करने में सहायता प्रदान करता है। प्रबन्ध के प्रयत्न सदैव कम मूल्य पर अधिक उत्पादन करना होता है। उर्विक के शब्दों में, “कोई भी आदर्श, कोई भी वाद अथवा राजनीतिक सिद्धांत मानवीय एवं माल संबंधी मिश्रित प्रकृति के साधनों से अधिकतम उत्पादन नहीं करा सकता। ऐसा केवल कुशल प्रबन्ध से ही संभव है।” वर्तमान में किसी देश के आर्थिक एवं औद्योगिक विकास का आधार पूँजी निर्माण को न माना जाकर प्रबन्धकीय प्रतिभा को माना जाता है। अतएव कुन्दन एवं ओ’डोनेल के इस कथन में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि “शायद प्रबन्ध से अधिक महत्त्वपूर्ण मानव क्रिया का कोई और क्षेत्र नहीं है।” प्रबन्ध के इस बढ़ते हुए महत्त्व का अध्ययन निम्न शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है-

1. प्रबन्ध सामूहिक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक (Management helps in achieving group goals) – प्रबन्ध की आवश्यकता प्रबन्ध के लिये ही नहीं वरन् संगठन के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये भी होती है। प्रबन्ध का कार्य संगठन के विभिन्न उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये व्यक्तिगत प्रयत्न को समान दिशा उपलब्ध कराना है।

2. प्रबन्ध से कुशलता बढ़ती है (Management increases efficiency) – किसी भी संगठन की सफलता के लिये उद्देश्यों को कुशलता एवं प्रभावपूर्णता से प्राप्त किया जाना आवश्यक है। प्रबन्ध एक ऐसी शक्ति है जो संस्था में उपलब्ध संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग (Optimum use) करके इसे सम्भव बनाती है। कुशलता को सुनिश्चित करने के लिये प्रबन्ध लागतों को न्यूनतम (Minimum) करने की चेष्टा करता है। प्रभावपूर्णता को प्राप्त करने के लिये सही निर्णय लेकर काम को समय पर पूरा किया जाता है। प्रबन्ध के द्वारा बदलते वातावरण पर कड़ी निगरानी रखना भी कुशलता (Efficiency) एवं प्रभावपूर्णता (Effectiveness) की प्राप्ति में सहायक होता है।

3. प्रबन्ध गतिशील संगठन तैयार करता है (Management creates a dynamic organisation) – प्रत्येक संगठन का प्रबन्ध निरन्तर बदल रहे पर्यावरण के अन्तर्गत करना होता है। सामान्यतया देखा गया है कि किसी भी संगठन में कार्यरत लोग परिवर्तन का विरोध करते हैं क्योंकि इसका अर्थ होता है परिचित (Familiar), सुरक्षित पर्यावरण से नवीन एवं अधिक चुनौतीपूर्ण पर्यावरण की ओर जाना। प्रबन्ध व्यक्तियों को इन परिवर्तनों को अपनाने में सहायक होता है ताकि संगठन अपनी प्रतियोगी श्रेष्ठता (Competitive edge) को बनाये रखने में सफल रहे।

4. प्रबन्ध व्यक्तिगत उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायक है (Management helps in achieving personal objectives) – प्रबन्धक अपनी टीम को इस प्रकार से प्रोत्साहित करता है कि प्रत्येक सदस्य संगठन के उद्देश्यों में अपना योगदान देते हुए व्यक्तिगत उद्देश्यों को प्राप्त कर सके। अभिप्रेरणा (Motivation) एवं नेतृत्व (Leadership) के माध्यम से प्रबन्ध व्यक्तियों को टीम–भावना, सहयोग एवं सामूहिक सफलता के प्रति प्रतिबद्धता के विकास में सहायता प्रदान करता है।

5. व्यक्तियों/समाज के विकास के लिए:Development of People/Society) – प्रवन्ध व्यक्तियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करता है और उनका सर्वांगीण विकास करता है । लॉरेन्स एं० एप्पले ने ठीक ही कहा है, “प्रबन्ध व्यक्तियों का विकास है, न कि वस्तुओं का निर्देशन…….” वास्तव में प्रबन्ध की समस्त क्रियाएँ मानवीय विकास से संबंधित होती हैं। कुशल प्रबन्ध निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति और व्यक्तियों का विकास करने के लिए लक्ष्यों का निर्धारण करते हैं, इनकी प्राप्ति के लिए प्रयास करते हैं, कर्मचारियों की भर्ती एवं उनके प्रशिक्षण इत्यादि की व्यवस्था करते हैं, उनका निर्धारित लक्ष्य की ओर मार्ग प्रशस्त करते हैं, उन्हें प्रबन्ध एवं लाभ में हिस्सा प्रदान करते हैं और उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि व्यक्तियों के विकास में प्रबन्ध का अत्यंत महत्त्व है।

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य (Some other important facts)-

6. न्यूनतम प्रयत्नों द्वारा अधिकतम परिणामों की प्राप्ति के लिए (To obtain maximum results with minimum efforts)-प्रबन्ध न्यूनतम प्रयत्नों के द्वारा अधिकतम परिणामों की प्राप्ति सम्भव बनाता है। प्रबन्ध निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उत्पादन के विभिन्न साधनों में प्रभावपूर्ण समन्वय स्थापित कर न्यूनतम प्रयासों से अधिकतम परिणामों की प्राप्ति सम्भव बनाता है। प्रबन्ध के महत्त्व को स्वीकार करते हुए उर्विक एवं ब्रेच (Urwick and Brech) ने एक स्थान पर लिखा है कि, “कोई भी विचारधारा, कोई भी वाद, कोई भी राजनीतिक सिद्धान्त उपलब्ध मानवीय एवं भौतिक साधनों के उपयोग से न्यूनतम प्रयत्नों द्वारा अधिकतम उत्पादन की प्राप्ति नहीं कर सकता। यह तो सुदृढ़ प्रबन्ध द्वारा ही संभव है और अधिक उत्पादन द्वारा ही व्यक्तियों का जीवन-स्तर ऊँचा उठ सकता है, व्यक्तियों का जीवन आरामदायक हो सकता है और व्यक्ति अनेक सुविधाएँ प्राप्त कर सकते हैं।” वास्तव में प्रबन्ध संस्था के उपलब्ध साधनों में उपयुक्त समन्वय स्थापित कर मनुष्यों का विकास करता है।

7.कटु प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए (To face cut-throat competition) – वर्तमान में उत्पादन केवल स्थानीय, राज्यीय एवं अन्तर्राज्यीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही नहीं अपितु अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी किया जाता है। अतः जैसे-जैसे उत्पादन के पैमाने में वृद्धि हो रही है और बाजारों का विकास हो रहा है त्यों-त्यों प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है। इस गलाकाट प्रतिस्पर्धा के युग में वही उद्योगपति टिक पाता है जो न्यूनतम लागत पर अधिकतम उत्पादन करने में सफल हो पाता है। इस स्थिति से प्रबन्ध ही उसको बाहर निकाल सकता है। अच्छे एवं कुशल प्रबन्ध में दूरदर्शिता, योजनाओं के निर्माण की क्षमता, क्रियाओं के निर्धारण की क्षमता, सामूहिक प्रयासों में समन्वय स्थापित करने की क्षमता, देश की आर्थिक स्थिति का सही मूल्यांकन करने की क्षमता, ग्राहकों की रुचि का अध्ययन करने की क्षमता आदि होती है।

8. तकनीकी एवं वैज्ञानिक अनुसंधान का लाभ उठाना (To get advantage of technical and scientific research) – वैज्ञानिक एवं तकनीकी सुधारों से जहाँ एक ओर भूमि का उत्पादन संभव हुआ है वहीं दूसरी ओर उत्पादन की विधियों में भी आमूल-चूल परिवर्तन हुआ है जो काम पहले हाथ से किया जाता था उसे अब स्वचालित मशीनें करती हैं। विज्ञान एवं तकनीकी विकास ने जहाँ एक ओर कार्यविधियों को सरल किया है वहाँ दूसरी ओर अनेक समस्याओं को जन्म भी दिया है। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए तथा वैज्ञानिक एवं तकनीकी परिवर्तनों को लागू करने के लिए योग्य एवं अनुभवी प्रबन्ध की आवश्यकता रही है। कुशल प्रबन्धक द्वारा ही इन्हें लागू किया जा सकता है।

प्रश्न 11.
संगठन के महत्त्व अथवा लाभों का वर्णन कीजिए।
अथवा, संगठन की प्रकृति एवं उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
संगठन का महत्त्व इसी बात से जाना जा सकता है कि इसके बिना कोई भी संस्था अपने उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं कर सकती। किसी भी संस्था की योजना तभी सफल हो सकती है जबकि एक मजबूत संगठन द्वारा इसके कर्मचारियों की सेवाओं का अधिकतम लाभ उठाया जा सके।

लौन्सबरी फिश (Lounsbury Fish) के अनुसार, “संगठन की उपयोगिता चार्ट से कहीं अधिक होती है। यह वह तन्त्र है जिसकी सहायता से प्रबन्ध, व्यवसाय संचालन, समन्वय तथा नियन्त्रण करता है। यह वास्तव में प्रबन्ध की आधारशिला है। यदि संगठन की योजना में कोई दोष रह जाता है तो प्रबन्ध व्यवस्था का कार्य कठिन एवं प्रभावहीन हो जाता है। इसके विपरीत यदि वह विद्यमान आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए स्पष्ट तर्कसंगत एवं पूर्व नियोजित हो तो समझना चाहिए कि स्वस्थ प्रबन्ध की प्राथमिक आवश्यकता की प्राप्ति की जा चुकी है।”

अमेरिका के एण्ड्रयू कारनेगी (Andrew Carnegie) ने संगठन के महत्त्व को बहुत सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है, “मुझसे मेरे सब कारखाने, सब व्यापार, परिवर्तन के सभी साधन तथा सारा धन ले लो, परन्तु मेरे संगठन को मेरे पास ही छोड़ दो तो मैं चार वर्षों के अन्दर स्वयं को पुनः स्थापित कर लूँगा।”

अतः स्पष्ट है कि एक कुशल व सक्षम संगठन उद्देश्य प्राप्ति के लिए मानवीय सहयोग का वह सर्वश्रेष्ठ उपकरण है जो उद्योग, समाज, राष्ट्र तथा समस्त विश्व को गति प्रदान करता है। संगठन का महत्त्व निम्नलिखित विशेषता से स्पष्ट हो जाता है-

1.विशिष्टीकरण का लाभ (Benefits of specialisation) – संगठन कर्मचारियों में विभिन्न क्रियाओं को उनकी योग्यता एवं कार्य-क्षमता के अनुसार बाँटने में मार्गदर्शक का कार्य करता है। कर्मचारियों के द्वारा एक ही कार्य को लगातार करते रहने से काम का बोझ कम हो जाता है एवं उत्पादन की मात्रा बढ़ जाती है। लगातार एक ही कार्य को करते रहने से कर्मचारी उस कार्य को करने का विशिष्ट अनुभव प्राप्त कर लेते हैं एवं उस कार्य को करने में दक्षता प्राप्त कर लेते हैं।

2. कार्य सम्बन्धों में स्पष्टता (Clarity in working relationship) – कार्य करने में सम्बन्धों का स्पष्टीकरण सम्प्रेषण को स्पष्ट करता है तथा किसने किसको रिपोर्ट करनी है इस बात को एक-एक करके बतलाता है। यह सूचना एवं अनुदेशों के स्थानान्तरण (Ambiguity in transfer) में भ्रमों को दूर करता है। यह सोपानिक क्रम (Hierarchical order) के निर्माण में सहायता करता है ताकि उत्तरदायित्व को निर्धारित किया जा सके एवं एक व्यक्ति के द्वारा किस सीमा तक अधिकारों का अन्तरण (Delegation of authority) किया जा सकता है, इसका स्पष्टीकरण करता है।

3. संसाधनों का अनुकूलतम उपयोग (Optimum utilisation of resources) – संगठन प्रक्रिया के अन्तर्गत कुल काम को अनेक छोटी-छोटी क्रियाओं में विभाजित कर दिया जाता है। प्रत्येक क्रिया एक अलग कर्मचारी के द्वारा की जाती है। ऐसा करने से न तो कोई क्रिया करने से रह जाती है और न ही किसी क्रिया को अनावश्यक रूप से दो बार किया जाता है। परिणामतः संगठन में उपलब्ध सभी संसाधनों जैसे-मानव, माल, मशीन आदि का अनुकूलतम उपयोग (optimum use) सम्भव हो पाता है।

4. परिवर्तन में सविधा (Adaptation to change) – संगठन प्रक्रिया व्यावसायिक इकाइयों को व्यावसायिक पर्यावरण (Business environment) परिवर्तनों में समायोजित होने की अनुमति प्रदान करता है। यह संगठन संरचना में प्रबन्धकीय स्तर का उपयुक्त परिवर्तन एवं आपसी सम्बन्धों के संशोधनों में पारगमन (Inter-relationship) का मार्ग प्रशस्त करता है। यह संगठन परिवर्तनों के बावजूद भी जीवित रहने तथा उन्नति करते रहने सम्बन्धी, आवश्यकता की पूर्ति करता है।

5. प्रभावी प्रशासन (Effective administration) – प्रायः देखा गया है कि प्रबन्धकों में अधिकारों को लेकर भ्रम की स्थिति बनी रहती है। संगठन प्रक्रिया प्रत्येक प्रबन्धक द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं एवं प्राप्त अधिकारों का स्पष्ट उल्लेख करती है। यह भी स्पष्ट कर दिया जाता है कि प्रत्येक प्रबन्धक किस कार्य को करने के लिए किसको आदेश देगा। प्रत्येक कर्मचारी को इस बात की जानकारी होती है कि वह किसके प्रति उत्तरदायी है ? इस प्रकार अधिकारों को लेकर उत्पन्न होने वाले भ्रम की स्थिति समाप्त हो जाती है परिणामतः प्रभावी प्रशासन सम्भव हो पाता है।

6. कर्मचारियों का विकास (Development of personnel) – संगठन प्रक्रिया के अन्तर्गत अधिकार अन्तरण (Delegation of authority) किया जाता है। ऐसा एक व्यक्ति की सीमित क्षमता के कारण ही नहीं वरन् काम को करने की नई-नई विधियों की खोज करने के कारण भी किया जाता है। इसमें अधीनस्थों को निर्णय लेने के अवसर प्राप्त होते हैं। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए वे नई-नई विधियों को खोज करते हैं एवं उन्हें लागू करते हैं, परिणामतः उनका विकास होता है। .

7. विस्तार एवं विकास (Expansion and growth) – संगठन प्रक्रिया के अन्तर्गत कर्मचारियों को प्राप्त निर्णय-स्वतन्त्रता (Freedom to take decisions) से उनका विकास होता है। वे नई-नई चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए अपने-आप को तैयार करने में सक्षम हो पाते हैं। इस स्थिति का लाभ प्राप्त करने के लिए वे उपक्रम का विस्तार करते हैं। विस्तार से ाभ कमाने की क्षमता बढ़ती है जो उपक्रम के विकास में सहायक होती है।

संगठन को उपयोगिता स्पष्ट करते हुए सी. कैनेथ ने एक स्थान पर कहा है, “एक कमजोर संगठन अच्छे उत्पादन को मिट्टी में मिला सकता है और एक अच्छा संगठन जिसका उत्पाद. कमजोर है, अच्छे उत्पाद को भी बाजार से भगा सकता है।”

प्रश्न 12.
प्रबंध में पर्यवेक्षण से क्या आशय है ? संक्षेप में पर्यवेक्षक की भूमिका स्पष्ट करें।
उत्तर:
पर्यवेक्षण का अर्थ – वर्तमान समय में पर्यवेक्षण का प्रबंध में महत्वपूर्ण स्थान है। पर्यवेक्षण वह कृत्य है जिसके द्वारा एक व्यक्ति अपने अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्य की उचित रूप से देखभाल एवं उनका मार्गदर्शन करता है जो व्यक्ति इस प्रकार देखभाल करता है उसे हम पर्यवेक्षक तथा कार्य की देखभाल की क्रिया को पर्यवेक्षण कहते हैं। इस व्यक्ति को निम्नलिखित में से किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है-

ओवरसियर, चार्जमैन, फोरमैन अथवा मुख्य लिपिक।

प्रमुख परिभाषाएँ (Important Definitions) – पर्यवेक्षण की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने इस प्रकार दी है-
वाइटल्स के अनुसार, “पर्यवेक्षण से आशय किसी कार्य के निष्पादन में कार्य करने वाले कर्मचारियों को प्रत्यक्ष एवं तुरंत परामर्श दिये जाने और उन पर नियंत्रण स्थापित करने से है।” (According to Viteles, “Supervision refers to the direct the immediate guidance and control of subordinates in the performance of their task.”)

आर० सी० डेविस के अनुसार, “पर्यवेक्षण क्रिया द्वारा यह विश्वास किया जाता है कि जो भी कार्य हो रहा है वह किसी योजना एवं निर्देशों के आधार पर ही हो रहा है।” (According to R. C. Davis. “Supervision is the function of assuring that the work is being done is accordance with the plan and instructions.”)

एक अमरीकन श्रम अधिनियम के अनुसार, “पर्यवेक्षक वे व्यक्ति हैं जिन्हें कर्मचारियों का चुनाव करने, निकालने, अनुशासन, पारिश्रमिक और इनसे संबंधित अन्य कार्यों के बारे में निर्णय लेने का अधिकार है।” (According to an American Labour law, “Supervisor are those having authority to exercise independent judgement in hiring, discharging, discipline, rewarding and taking other actions of a similar nature with respect to employees.”)

अत: हम कह सकते हैं कि पर्यवेक्षण का मुख्य काम नेतृत्व करना, प्रेरणा देना, मार्ग दर्शन करना और श्रम एवं प्रबंध के मध्य समस्याओं को हल करना होता है।

किसी भी व्यावसायिक संस्था में पर्यवेक्षक को निम्नलिखित भूमिका होती है-

  • कर्मचारियों एवं मालिकों के बीच की कड़ी (A link between workers and Management) – पर्यवेक्षक दोनों के मध्य एक कड़ी का कार्य करता है। श्रमिकों के सुझाव एवं शिकायतें इसी के माध्यम से बड़े अधिकारियों तक पहुँचाती हैं तथा बड़े अधिकारियों के आदेश व निर्देश भी इसी के द्वारा श्रमिकों तक पहुँचाए जाते हैं।
  • प्रेरणा देना (Motivation) इसका प्रमुख कार्य अपने विभाग में, कर्मचारियों को समय-समय पर अधिकाधिक काम करने की प्रेरणा देना होता है।
  • मधुर औद्योगिक संबंध (Better Industrial Relations) – पर्यवेक्षक मालिकों एवं श्रमिकों के मध्य संबंध बनाये रखने में विशेष भूमिका प्रदान करता है, जिसके कारण अनेक झगड़े व विवाद अपने स्तर पर ही निपटा लेता है।
  • कर्मचारियों की कार्यकुशलता में वृद्धि करता है।
  • कर्मचारियों को एक टीम के रूप में संगठित करके उनकी कार्यक्षमता का पूरा-पूरा प्रयोग करता है।
  • कर्मचारियों में आत्मविश्वास एवं संतोष पैदा करता है।
  • कर्मचारियों में अनुशासन, समन्वय तथा संतुलन पैदा करता है।
  • अधीनस्थों का मनोबल ऊँचा करता है।

प्रश्न 13.
उद्यमिता से आप क्या समझते हैं ? उद्यमिता की किन्हीं तीन आवश्यकताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
1. उद्यमिता का आशय है तीव्र गति से आर्थिक एवं सामाजिक विकास के लिए . विभिन्न साधनों की प्रभावपूर्ण गतिशीलता है। यह बेहतर जीवन स्तर प्राप्त करने की प्रक्रिया है।

2. विकास की प्रक्रिया मुख्यतः व्यावसायिक गृहों द्वारा प्रारंभ किया जाता है जो लाभप्रद विकास का दोहन करता है। उद्यमिता आर्थिक व व्यावसायिक विचारों, अवसरों व प्रस्तावों को व्यावसायिक परियोजना में परिवर्तित करता है। यह ज्ञान को नीति में बदलता है।

3. उद्यमिता नियोजन, संगठन, परिचालन तथा व्यावसायिक उपक्रम के जोखिमों को ग्रहण करने की प्रक्रिया है।

4. उद्यमिता सृजनात्मक एवं नव-प्रवर्तनीय विचारों एवं कार्यों को प्रबंधकीय तथा संगठनात्मक ज्ञानों को एक साथ लाने की प्रक्रिया है। यह चिह्नित आवश्यकता को पूरा करने के लिए उचित लोगों, मुद्रा एवं संचालन संसाधनों को गतिशील बनाने तथा धन के निर्माण के लिए आवश्यक है।

5. उद्यमिता विकास है- (a) व्यावसायिक उपक्रम के निर्बाध संचालन के लिए प्रशासकीय ज्ञान का। (b) कार्य-कुशलता बनाये रखने के लिए प्रशासकीय ज्ञान का। (c) संगठन को पर्यावरण/ वातावरण के साथ संबंधित करने के लिए सृजनात्मक चतुराई/नव-प्रवर्तनीय ज्ञान का।

6. उद्यमिता एक सामूहिक प्रयास है जो चतुराई ज्ञान, क्षमता द्वारा व्यवसाय को प्रारंभ करने एवं इसके संचालन में सहायक होता है। आज के इस वाणिज्य-व्यवसाय वाले युग में उद्यमिता की बहुत अधिक आवश्यकता है। उद्यमिता की तीन आवश्यकता इस प्रकार है-

  • धन सजित करने में- उद्यमिता की आवश्यकता धन को सृजित करने में होती है। उद्यमिता के विकास से रोजगार का अवसर बढ़ता है। परिणामस्वरूप धन का सृजन होता है।
  • रोजगार के अवसर को बढ़ावा देने में- उद्यमिता की आवश्यकता रोजगार को बढ़ावा देने में होती है। उद्यमिता के विकास से रोजगार का अवसर बढ़ता है। परिणामस्वरूप लोगों का जीवन-स्तर सुधरता है।
  • नयी तकनीक को बढावा देने में-उद्यमिता की आवश्यकता नयी तकनीक को बढ़ावा देने में भी होती है। उद्यमिता का विकास होने से नयी-नयी तकनीक का विकास होता है। नयी-नयी तकनीक का विकास होने से किसी भी देश को उन्नति को राह खुलती है। परिणामस्वरूप देश का आर्थिक विकास होता है।

प्रश्न 14.
“मनुष्यों को केवल मौद्रिक प्रोत्साहन द्वारा ही अभिप्रेरित नहीं किया जा सकता, उन्हें अभिप्रेरित करने के लिए अमौद्रिक अभिप्रेरकों की भी आवश्यकता है।” इस संदर्भ में अमौद्रिक अभिप्रेरकों की व्याख्या करें।
उत्तर:
यह कथन बिल्कुल सत्य है कि मनुष्यों को केवल मौद्रिक प्रोत्साहन द्वारा ही अभिप्रेरित नहीं किया जा सकता; उन्हें अभिप्रेरित करने के लिए अमौद्रिक अभिप्रेरकों की भी आवश्यकता होती है।

अमौद्रिक अभिप्रेरणा के अंतर्गत श्रमिक को अधिक धन नहीं दिया जाता है, बल्कि पदोन्नति के अवसर, नौकरी की सुरक्षा, सम्मान एवं प्रशंसा प्रदान की जाती है। इस प्रकार अमौद्रिक अभिप्रेरणा के अन्तर्गत वे सभी साधन आ जाते हैं जो श्रमिक को प्रत्यक्ष रूप से अधिक धन प्रदान नहीं करते, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से उसे वित्तीय लाभ हो रहा है।

माओ (Mayo) के विभिन्न अध्ययन से स्पष्ट होता है कि अधिक उत्पादन के लिए श्रमिक को अधिक धन के बजाय मनुष्य जैसा व्यवहार प्रदान करना अधिक महत्त्वपूर्ण तथा प्रभावकारी रहता है। 1924 और 1932 के मध्य अमेरिका की Western Electric Company के Hawthern Plant में किये गये विभिन्न अनुसंधानों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि श्रमिक केवल अधिक धन ही नहीं चाहते बल्कि धन के अतिरिक्त अन्य बहुत से तत्त्व भी हैं जो उन्हें कार्य के लिए प्रेरित करते हैं। इनमें से प्रमुख अभिप्रेरणा निम्नलिखित हैं-

(i) दण्ड (Punishment) – इस प्रेरणा के अन्तर्गत कर्मचारियों को डराकर कार्य लिया जाता है। श्रमिकों को नौकरी से हटाने का भय, पदावनति का भय, डाँट-फटकार का भय दिखाकर कार्य लिया जाता है।

(ii) प्रशंसा (Praise) – प्रत्येक व्यक्ति अच्छे कार्यों के लिए चाहता है कि लोग उसकी प्रशंसा करें। श्रमिक भी चाहता है कि प्रबंधक उसकी प्रशंसा करे। प्रशंसा के उचित प्रयोग द्वारा भी कर्मचारियों को अधिक कार्य के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है।

(iii) सुझाव विधि (Suggestion System) – विभिन्न विश्वविद्यालयों में किये गये अध्ययन स्पष्ट करते हैं कि जो प्रबंधक कार्य करने से पहले कर्मचारियों की सलाह लेता है वह अधिक कार्यकुशल होता है तथा जो नहीं लेता वह कम। इस रूप में कर्मचारियों को पारस्परिक हित के मामलों में सलाह का अधिकार देकर उनकी कार्यकुशलता बढ़ाई जा सकती है।

(iv) नौकरी की सुरक्षा (Security of Job) – अस्थायी नौकरी करने वाला व्यक्ति पूर्ण कार्यकुशलता से कार्य नहीं कर सकता क्योंकि उसे नहीं मालूम होता कि कब उस नौकरी को छोड़कर अन्यत्र जाना पड़े। नौकरी को स्थायित्व प्रदान कर कर्मचारी को हृदय से कार्य के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

(v) परिणाम का ज्ञान (Knowledge of Result) – N. Norwel द्वारा किये गये अध्ययन से स्पष्ट हो गया है कि एक श्रमिक जिसे कार्य की प्रगति, अच्छाई या बुराई बतला दी जाती है, उसकी कार्यकशलता उनकी तलना में अधिक होती है जिन्हें उनके कार्य की प्रगति नहीं बतलाई जाती है। इस रूप में कर्मचारियों को उनके कार्य के परिणाम बतला कर सुधार करने तथा अधिक उत्पादन करने के लिए प्रेरणा दी जा सकती है।

(vi) मुकाबला एवं प्रतियोगिता (Competition and Contest) – कर्मचारियों के मध्य प्रतियोगिता कराकर अच्छा कार्य करने वाले को पारितोषिक प्रदान करने से भी प्रबन्ध करने की कार्यकुशलता बढ़ती है।

(vii) समूह सम्बन्ध (Group Relation) – ऐसा देखा गया है कि कुछ व्यक्ति वेतन में वृद्धि करने के बाद भी किसी अन्य विभाग में परिवर्तन नहीं कराना चाहते क्योंकि वे उसकी समूह में रहना चाहते हैं इसका कारण उनका उस समूह से सम्बन्ध होता है। इस तरह से अच्छा सम्बन्ध बनाने से भी उत्पादन में वृद्धि होती है।

(vii) उपाधि (Titles) – कम्पनी द्वास योग्य व्यक्तियों को तमगे तथा उपाधि दिये जाने वाली व्यवस्था भी लाभदायक रहती है। उदाहरणतः एक कम्पनी, जिसका नाम Life Corporation है, श्रेष्ठ व्यक्ति को Life Corporation Man की उपाधि देने की व्यवस्था करके कर्मचारियों को अधिक कार्य करने के लिए प्रोत्साहित कर सकती है।

(ix) न्यायपूर्ण व्यवहार (Justified Behaviour) – कर्मचारियों के प्रति न्याय, सामान्यता तथा सद्भाव का व्यवहार करके भी उनको उत्पादन वृद्धि के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है, भेदभाव का व्यवहार करने पर नहीं।

(x) पदोन्नति के अवसर (Chance of Advancement) – प्रत्येक कर्मचारी धन की अपेक्षा ऊँची नौकरी पर कार्य करना चाहता है। इसके लिए आवश्यक है कि विभिन्न व्यक्तियों को उन्नति के पर्याप्त अवसर मिलें क्योंकि ऐसा होने पर वह उनका लाभ उठाने के लिए अपने को सुधारता है जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है।

(xi) रुचिकर नौकरी (Interesting Job) – कार्य को रुचिकर बनाकर भी कर्मचारियों से अधिक कार्य कराया जा सकता है। प्रायः यह देखा गया है कि एक कर्मचारी, जिसकी कार्य अरुचिकर होता है, अधिक कुशलतापूर्वक कार्य नहीं कर सकता।

(xii) भौतिक वातावरण (Physical Environment) – फैक्ट्री में हवा, रोशनी, सफाई का पर्याप्त प्रबन्ध आदि न होना भी अधिक उत्पादन में बाधा उत्पन्न करता है। इसमें सुधार करने से भी उत्पादकता बढ़ती है।

(xiii) कम्पनी सुविधाओं के प्रयोग का अधिकार (Right to Use Company Facilities) यद्यपि उच्च प्रबन्धकों को अच्छा वेतन दिया जाता है जिससे वे अच्छा जीवन व्यतीत कर सकते हैं, फिर भी संस्थाएँ उनको कम्पनी की कार, क्लब आदि प्रयोग करने का अधिकार प्रदान करती हैं। उन्हें संस्था की ओर से सभाओं (Conference) में भाग लेने का अधिकार दिया जाता है जिससे उनकी कार्यकुशलता बढ़ती है और वे अपनी प्रतिष्ठा बढ़ी हुई समझते हैं।

(xiv) भाग (Participation) – प्रबंधक ऐसी समस्याएँ, जिनका सम्बन्ध कर्मचारियों से है, सुलझाने में यदि कर्मचारियों की सहायता लेते हैं तो वह उसे आसानी से हल कर लेते हैं तथा उसे हल करने में कर्मचारियों का मन से सहयोग प्राप्त करने में सफल होते हैं जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है।

(xv) वेतन सहित छुट्टियाँ (Paid Vacations)-संस्थाएँ प्रबंधकों को घूमने जाने के लिए पर्याप्त छुट्टियाँ दिये जाने का प्रबंध करती हैं जिनके द्वारा भी प्रबंधकों व कर्मचारियों में कार्यकुशलता वृद्धि में प्रोत्साहन दे सकते हैं।

अतः उपर्युक्त विचार-बिन्दुओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य को केवल मौद्रिक प्रोत्साहन द्वारा ही अभिप्रेरित नहीं किया जा सकता है, बल्कि उन्हें अभिप्रेरित करने के लिए अमौद्रिक अभिप्रेरकों की भी आवश्यकता होती है।

प्रश्न 15.
“समन्वय प्रबंध का सार है।” इस कथन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
“समन्वय प्रबंध का सार है” यह कथन प्रबन्ध विद्वान श्री कूण्टज तथा ओ डोनेल ने समन्वय की महत्व एवं आवश्यकता की व्याख्या करते समय लिखा था। निखरे हुए तन को किसी नियत उद्देश्य से श्रृंखलाबद्ध करना एवं एक सूत्र में पिरोना ही समन्वय कहलाता है। समन्वय प्रबन्ध का सार है जो उपक्रम की विभिन्न क्रियाओं में तालमेल बनाये रखना। इसलिए बनाये रखने से है। समन्वय से लोग एक टीम के रूप में कार्य करते हैं।

उदाहरण के लिए एक बड़े प्रकाशक के प्रेस में अनेक विभाग होते हैं जैसे छपाई विभाग, कम्पोजिंग विभाग, प्रूफ-रीडिंग विभाग, जॉब विभाग, बाईडिंग विभाग, कटिंग विभाग इत्यादि। यदि इन विभागों के बीच पारस्परिक एकता एवं तालमेल न हो तो प्रेस का कार्य एक दिन भी सफलतापूर्वक नहीं चल सकेगा। इसलिए समन्वय से ही पारस्परिक सहयोग की वृद्धि होती है तथा सम्बन्धित व्यावसायिक उपक्रम का सफल संचालन सम्भव होता है। समन्वय की आवश्यकता केवल व्यवसाय में ही नहीं बलिक सभी स्थानों पर होती है। इसी कारण समन्वय को प्रबन्ध का एक पृथक् कार्य माना गया।

जब हम समन्वय के महत्त्व पर विचार करते हैं तो हमें प्रबन्ध विद्वान श्री कूण्ट्ज तथा ओ डोनेल के निम्नलिखित कथन अनायास ही याद हो जाते हैं। समन्वय प्रबन्ध का केवल एक कार्य ही नहीं है बल्कि प्रबन्ध का सार भी है। वस्तुतः स्थिति भी यही। चाहे हम व्यवसाय के क्षेत्र में हो या प्रशासन के क्षेत्र में हों, खेल के मैदान में हों अथवा किसी क्लब में सभी स्थानों पर समन्वय का ही बोलबाला दिखाई देता है। उदाहरण के लिए फुटबॉल के क्षेल के मैदान में जीतने वाली टीम के खिलाड़ियों के बीच थोड़ा-सा भी समन्वय भंग हो जाने पर जीत हार में बदल सकती है। इसी प्रकार व्यवसाय के क्षेत्र में उत्पादक के विभिन्न साधनों में भी समन्वय न रहने पर उसका अर्स ही खतरे में पड़ सकता है। प्रबंध विशेषज्ञ उर्विक ने तो यहाँ तक कह दिया है कि संगठन का उद्देश्य ही समन्वय स्थापित करना है। बर्नार्ड ने भी इस सम्बन्ध में ठीक कहा है कि समन्वय, किसी संगठन को जीवित रखने के लिए महत्वपूर्ण तत्त्व है।

एक संस्था में विभिन्न जाति, धर्म, प्रदेश तथा भाषा बोलने वाले एवं विचारधारा वाले व्यक्ति विभिन्न किस्म के कार्यों का निष्पादन करते हैं जबकि उनका लक्ष्य समान होता है। इन सभी के कार्य करने का तरीका एवं मस्तिष्क अलग-अलग होता है। इस प्रकार उनके कार्यों में विविधता पाई जाती है किन्तु निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह जरूरी हो जाता है कि ऐसे व्यक्तियों की क्रियाओं को एक सूत्र में पिरोया जाय अर्थात् उनके बीच समन्वय स्थापित किया जाय। समन्वय के द्वारा इन विविधताओं के होते हुए भी लोगों में एक टीम की भावना पैदा की जा सकती है। एक लम्बे समय तक टीम के रूप में कार्य करते रहने से लोग विविधताओं एवं विषमताओं को भूल जाते हैं जिससे एक नई एकीकृत संस्कृति का जन्म होता है। यह समन्वय के बिना सम्भव नहीं है इसलिए समन्वय को प्रबन्ध का सार कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होनी चाहिए।

प्रश्न 16.
व्यावसायिक संगठन में संदेशवाहन के महत्त्व की विवेचना करें।
उत्तर:
किसी भी व्यावसायिक संगठन में संदेशवाहन का बहुत अधिक महत्त्व होता है। दूसरे शब्दों में संदेशवाहन व्यावसायिक संगठन की जान मानी जाती है। बिना संदेशवाहन में व्यावसायिक संस्था अपने व्यावसायिक उद्देश्यों में सफल नहीं होती है।

व्यावसायिक संगठन में संदेशवाहन के निम्नलिखित महत्त्व है-
(i) शीघ्र निर्णय एवं क्रियान्वयन(Quick Decision and Its Enforcement) – निर्णय लेने में देरी करने से और समस्याओं को टालते रहने से व्यवसाय में असंतोष का वातावरण उत्पन्न हो सकता है। अतः एक संगठित तथा व्यवस्थित संदेशवाहन प्रणाली व्यवसाय के वातावरण को मधुर तथा स्वस्थ बनाने में सहायक होती है। एक व्यवस्थित संदेशवाहन पद्धति से विचार-विमर्श शीघ्र और सुगम हो जाता है।

(ii) कार्य सम्बन्धी सूचनाएँ पहुंचाना तथा सहयोग प्राप्त करना (Operational Information) – प्रत्येक कार्य को करने के लिए पर्याप्त सूचनाओं की आवश्यकता होती है। कार्य कब शुरू करना है, कैसे और कहाँ करना है, कहाँ से इनके लिए सहायता प्राप्त होगी आदि सूचनाओं की जानकारी कर्मचारियों को आवश्यक होती है। इनमें देरी होने से कार्य रुक जाता है। कार्यकुशल संदेशवाहन की सहायता से यह सूचनाएँ समय पर तथा प्रभावी ढंग से कर्मचारियों तक पहुँचाई जा सकती है।

(iii) प्रबंधकीय क्षमता में वृद्धि (Increase in Managerial Efficiency) – सहायकों का सहयोग प्राप्त करने के लिए उन्हें नीतियाँ तथा उद्देश्य बताने होते हैं। अत: व्यवसाय में प्रबंधकीय क्षमता में वृद्धि के लिए प्रभावी संदेशवाहन या संचार व्यवस्था सहायक होती है।

(iv) अनुशास (Discipline) – कार्य को व्यवस्थित ढंग से जारी रखने के लिए अनुशासन आवश्यक होता है। अनुशासन बनाये रखने के लिए आवश्यक है कि संस्था के प्रत्येक कर्मचारी को संस्था की अनुशासन सम्बन्धी नीतियाँ, कार्य के घंटे, सामान रखने का स्थान, कार्य के समय पहनने के कपड़े तथा प्रयोग की जाने वाली अन्य सामग्री तोड़ने की अवस्था में की जा सकने वाली कार्यवाही आदि सम्बन्धी बातों का पूर्ण ज्ञान हो। संदेशवाहन इन सभी कार्यों में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है।

(v) लोक सम्पर्क (Public Relations) – एक औद्योगिक संस्था की सफलता समाज की सहायता पर ही निर्भर करती है, इसलिए जनता को संस्था के बारे में जानकारी देकर संस्था के प्रति दृष्टिकोण में परिवर्तन किया जा सकता है। यह सूचनाएँ संस्था के लिए समाज में अनुकूल . वातावरण में परिवर्तन करने के साथ-साथ संस्था के लिए अच्छे कर्मचारियों की प्राप्ति, ग्राहकों की संतुष्टि, अंशधारियों के विश्वास को बढ़ाती है। इन सबके लिए कुशल संदेशवाहन का प्रभावशाली होना आवश्यक है।

(vi) आँकड़ों का संग्रह (Collection of Data) – प्रबंधकों को समय-समय पर योजनाएँ बनाने तथा संस्था की महत्त्वपूर्ण समस्याओं को सुलझाने के लिए विभिन्न प्रकार के आँकड़ों की आवश्यकता होती है, जो सरकारी कार्यालयों, उपभोक्ताओं, व्यापारियों से प्राप्त करने होते हैं। किसी भी संस्था या व्यक्ति को ऐसी सूचनाएँ देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता। इसलिए कुशल संदेशवाहन द्वारा उसमें सहयोग की भावना उत्पन्न करके ही तथ्य प्राप्त किये जा सकते हैं।

(vii) शान्ति की व्यवस्था (Maintenance of Peace) – प्रबन्धकों को समय-समय पर परियोजनाएँ बनाने तथा संस्था की महत्त्वपूर्ण समस्याओं को सुलझाने के लिए कुशल संचार व्यवस्था की आवश्यकता होती है।

(viii) समन्वय (Co-ordination) – श्रम-विभाजन तथा विशिष्टीकरण के सिद्धान्तों को उद्योग पर लागू करने के परिणामस्वरूप उत्पादन का कार्य विभागों तथा उपविभागों में होने लगा है, जिस कारण उनमें समन्वय कायम करने की समस्या उत्पन्न हो जाती है। समन्वय कायम करने के लिए संचार-व्यवस्था की आवश्यकता होती है।

(ix) अधीनस्थों के सुझाव(Suggestions from Sub-ordinates) – व्यवसाय में समय-समय पर समस्याएँ उत्पन्न होती रहती है। ये समस्याएँ सुलझाने का उत्तरदायित्व प्रबंधकों का होता है, जिन्हें उस समस्या के सम्बन्ध में वास्तविक तथ्य प्राप्त नहीं होते हैं। इसलिए कुशल संदेशवाहन का होना जरूरी है।

(x) पद संतुष्टि की व्यवस्था (Provision of Job Satisfaction) – प्रबंध क्या चाहता है और कर्मचारी क्या करते हैं, के विषय में संदेशवाहन द्वारा प्रबंध तथा कर्मचारियों के बीच पारस्परिक विश्वास, प्रेम तथा सहयोग उत्पन्न होता है। प्रबंधक जैसा कार्य चाहता था उसी के अनुसार कार्य कर्मचारी द्वारा करने पर उसे अपने कार्य में संतुष्टि मिलती है और प्रबंध तथा कर्मचारी के बीच किसी प्रकार की गलतफहमी नहीं होती है।

अतः निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि संदेशवाहन व्यावसायिक संगठन में अपना महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अभाव में कोई भी व्यावसायिक संगठन अपने व्यावसायिक उद्देश्यों में सफल नहीं हो सकता है। साथ ही बिना संदेशवाहन के किसी भी व्यावसायिक संगठन के सफल संचालन की कल्पना करना व्यर्थपूर्ण है।