BSEB Bihar Board 12th Business Studies Important Questions Long Answer Type Part 2 are the best resource for students which helps in revision.
Bihar Board 12th Business Studies Important Questions Long Answer Type Part 2 in Hindi
प्रश्न 1.
प्रबन्ध के सामाजिक उत्तरदायित्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक उत्तरदायित्व का अर्थ उन क्रियाओं से है जिसे व्यवसाय ने स्वयं के लिए कर्मचारियों के लिए, विनियोग्यताओं के लिए, अन्य व्यवसायों के लिए तथा देश के लिए करना है। व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व को विभिन्न विद्वानों ने परिभाषित किया है-
ब्रोवन के अनुसार, “व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्व का आशय उन नीतियों का अनुकरण करना, उन निर्णयों को लेना या उन कार्यों को करना है, जो समाज के लक्ष्यों और मूल्यों की दृष्टि से वांछनीय है।”
स्टोनियर के अनुसार, “वास्तविक अर्थों में सामाजिक दायित्वों के अंगीकरणं का तात्पर्य समाज की आकांक्षाओं को समझना एवं मान्यता देना और इसकी सफलता के लिए योगदान देने का निश्चय करना है।”
नई दिल्ली में हुई अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार, 1965 के घोषणा-पत्र के अनुसार, “व्यवसाय के सामाजिक दायित्व का अर्थ ग्राहकों, कर्मचारियों, अंशधारियों एवं समाज के प्रति दायित्व से है।”
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि व्यापार द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों के प्रति उत्तरदायित्व निभाने को ही व्यवसाय का सामाजिक उत्तरदायित्व कहते हैं।
आज व्यापार कुशल व्यक्ति इस बात को मानने लगे हैं कि व्यवसाय द्वारा समाज के विभिन्न वर्गों की सेवा की जाए। परन्तु कुछ ऐसे भी व्यापारी हैं जो केवल लाभ के लिए ही कार्य करते हैं। इन व्यापारियों को अपना अस्तित्व बनाये रखना कठिन हो जाता है।
प्रश्न 2.
प्रशिक्षण के महत्त्व एवं विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रशिक्षण किसी भी कार्य प्रणाली का रीढ़ माना जाता है। व्यक्ति की किसी खास कार्य के लिए प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। कर्मचारियों को कई प्रकार से प्रशिक्षण दिया जाता है। यह प्रशिक्षण कर्मचारी विभाग की सहायता से आयोजित करना ज्यादा लाभदायक होता है। दूसरी ओर विशेषज्ञों द्वारा विशेष पाठ्यक्रम एवं योजना के अधीन प्रशिक्षण दिया जाता है।
इन प्रणालियों को दो भागों में बाँटा गया है-
1. काम पर प्रशिक्षण प्रणाली-इसके अंतर्गत कर्मचारियों को काम पर लगाकर प्रशिक्षण दिया जाता है। इससे कर्मचारी काम भी सीखता है और उत्पादन भी करता है। वह यहाँ पर अपनी भूल को तुरंत सुधारने की चेष्टा भी करता है। इसकी लागत भी कम आती है। इस प्रकार के प्रशिक्षण निम्न प्रकार से दिये जाते हैं-
(i) निर्देशन एवं परामर्श-निर्देशन एवं परामर्श भी इस प्रणाली में दिये जाते हैं। कई वरिष्ठ अनुभवी कर्मचारी उन्हें काम का प्रशिक्षण देता है और स्वयं करके दिखाने से जल्दी समझ में आता है। वह कठिनाइयों को तुरंत दूर करता है।
(ii) प्रशिक्षार्थी प्रशिक्षण प्रणाली इस प्रणाली में युवा प्रशिक्षार्थी को किसी अनुभवी, प्रशिक्षित तथा निपुण कारीगर के साथ दिया जाता है। वह कारीगर ही उसे काम सिखाता है। काम की बारीकियों को समझाता है। जैसे-चार्टर्ड एकाउन्टेंट।
(iii) सहायक अधिकारी प्रणाली इस प्रणाली में किसी उच्च अधिकारी का सहायक बना दिया जाता है। वह समय-समय पर उनकी अनुपस्थिति में उसकी जिम्मेदारियों का निर्वाह करता है। उच्च अधिकारी समय-समय पर उसे निर्णय भी देते रहता है। इससे वह निपुण हो जाता है।
(iv) कार्य बदली प्रणाली-इस प्रणाली में एक प्रशिक्षण संचालक के निर्देशन में विभिन्न सम्बन्ध विभागों में काम पर घुमाया जाता है और सभी सीटों पर काम करने की प्रणाली से परिचित कराया जाता है। फलस्वरूप वह संस्था की तंत्र व्यवस्था को भली-भाँति समझ लेता है और अपने अधीन काम करने वालों की प्रणाली को समझ लेता है।
2. कार्य से पृथक प्रशिक्षण-इसके अंतर्गत एक पूर्व नियोजित कार्य के अनुसार व्यापक प्रशिक्षण दिया जाता है। इसकी मुख्य विधियाँ निम्न हैं-
(i) विशेष पाठ्यक्रम-संस्था के अनुभवी प्रबंधकों एवं शिक्षाविदों की सहायता से एक विशिष्ट पाठ्यक्रम बनाया जाता है और उसी के अनुसार कक्षाएँ आयोजित की जाती है। इन कक्षाओं में सैद्धान्तिक और व्यावहारिक ज्ञान प्रशिक्षार्थी को दिया जाता है।
(ii) भूमिका निर्वाह-इस प्रणाली में एक कृत्रिम संघर्ष का निर्माण किया जाता है, जिसमें किसी प्रशिक्षार्थी को किसी पात्र की भूमिका निभानी होती है। अपनी भूमिका अदा करके परीक्षार्थी दूसरे के समक्ष व्यवहार करना सीखता है। वह अपने व्यवहार तथा दूसरों पर इसके प्रभाव का अवलोकन करके मानव सम्बन्धों और नेतृत्व सम्बन्धी प्रशिक्षण प्राप्त करता है।
(iii) व्यावसायिक क्रिया व्यावसायिक क्रिया एक ऐसी प्रतियोगिता है जिससे वास्तविक जीवन की परिस्थितियों का प्रतिनिधित्व होता है। परीक्षार्थी को व्यवसाय के विभिन्न क्षेत्र, जैसेउत्पादन, वितरण, वित्त आदि में निर्णय लेने को कहा जाता है। जिसका निर्णय सर्वोत्तम समझा जाता है उसे प्रतियोगिता में सर्वप्रथम स्थान दिया जाता है।
(iv) बहुपद प्रबन्ध-इस पद्धति में दो प्रबन्ध मण्डलों का गठन किया जाता है। कनिष्ठ प्रबन्ध मण्डल, जिसमें मध्य तथा निम्न स्तर के अधिकारी सम्मिलित होते हैं। समस्याओं का अध्ययन कर वरिष्ठ प्रबन्ध मण्डल को अपने सुझाव देते हैं। वरिष्ठ प्रबन्ध मण्डल में उच्च प्रबन्धक होते हैं और अन्तिम निर्णय लेते हैं। कनिष्ठ मण्डल में बारी-बारी से विभिन्न अधिकारियों की नियुक्ति की जाती है।
(v) संवेदनशील प्रशिक्षण-यह एक ऐसी विधि है जिसमें प्रबंधकों में जागरुकता, सहनशीलता, दूसरों को समझने की योग्यता आदि गुणों का विकास किया जाता है। प्रशिक्षार्थियों को छोटे-छोटे समूह में विभाजित करके नियंत्रित परिस्थितियों में उनके पारस्परिक व्यवहार की समीक्षा की जाती है।
(vi) अन्य विधियाँ-इन विधियों के अलावे प्रशिक्षण की कुछ और विधियाँ है। जैसे-गोष्ठी, सम्मेलन, चुने हुए या स्वयं पठन, परिचर्चा, सभा, कार्यशाला, कार्य अनुसंधान, कारखाना दौरे आदि।
प्रश्न 3.
व्यवसाय में दीर्घकालीन वित्तीय स्रोतों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
जिस प्रकार मनुष्य के जीवन के लिए रक्त की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार व्यवसाय के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। बिना रक्त के शरीर काम नहीं कर सकता उसी तरह बिना वित्त के व्यावसायिक क्रियाओं का चलना कठिन है। अतः व्यवसाय के कार्यों को निरंतर गति से चलाने के लिए वित्त या पूँजी की आवश्यकता पड़ती है।
व्यवसाय के दीर्घकालीन वित्तीय स्रोत इस प्रकार हैं-
- स्वामी की पूँजी।
- सावधिक ऋण वित्तीय संस्थाओं से।
- जमा ऋण जो स्वामी ने दिये हों।
- उधार क्रय तथा लीज सुविधा।
- मशीन का क्रय भारतीय औद्योगिक विकास बैंक बिलों की पुनः कटौती योजना।
- शीर्ष पूँजी, सीमांत राशि, सहायता, उधार, ऋण सरकार से तथा अन्य विशिष्ट संस्थाओं से लेना।
प्रश्न 4.
पार्षद सीमा नियम एवं पार्षद अंतर नियम में अंतर बताइए।
उत्तर:
पार्षद सीमा नियम एवं पार्षद अंतर्नियम में निम्नलिखित आधार पर अंतर स्पष्ट किया जा सकता है
(i) विषय-वस्तु के आधार पर अंतर – पार्षद सीमा नियम कम्पनी का अधिकार पत्र तथा संविधान होता है जिसमें कम्पनी के उद्देश्यों का वर्णन रहता है। परन्तु अन्तर्नियम में आंतरिक प्रबंध तथा कार्य प्रणाली संबंधी नियम होता है।
(ii) उद्देश्य के आधार पर अंतर – पार्षद सीमा नियम बनाने का उद्देश्य कम्पनी के उच्च पदाधिकारियों को कम्पनी के कार्य के नियमों तथा उपनियमों की जानकारी देना होता है।
(iii) परिवर्तन के आधार पर अंतर – पार्षद नियम में परिवर्तन लाना कठिन होता है। वैधानिक कार्यवाही करने के बाद न्यायालय द्वारा आज्ञा प्राप्त कर इसमें परिवर्तन लाया जा सकता है। परन्तु अन्तर्नियम में परिवर्तन लाना आसान होता है। केवल सदस्यों के विशेष प्रस्ताव द्वारा इसमें विषय परिवर्तन लाया जा सकता है।
(iv) अनिवार्यता के आधार पर अंतर – पार्षद सीमा नियम में बिना कम्पनी का रजिस्ट्रेशन अथवा सम्मेलन नहीं हो सकता है। परन्तु अन्तर्नियम प्रत्येक कम्पनी के लिये आवश्यक नहीं होता है। इसके न रहने पर Table A का नियम लागू होता है।
(v) वैधानिक प्रभाव के आधार पर अंतर – पार्षद सीमा भंग होने पर अन्य व्यक्तियों के बीच की प्रसविदा को लागू नहीं कराया जा सकता है। परन्तु अन्तर्नियम के भंग होने पर प्रसविदा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
(vi) शक्तियों से बाहर का सिद्धान्त के आधार पर अंतर – पार्षद सीमा नियम में वर्णित कार्य-क्षेत्र के बाहर कम्पनी द्वारा किया गया सभी कार्य विवर्जित होते हैं। ऐसे कार्यों को सभी सदस्यों द्वारा भी सम्पुष्ट नहीं किया जा सकता। परन्तु अन्तर्नियम के अधिकार क्षेत्र से बाहर किए गए कार्य को सदस्यों द्वारा सम्पुष्ट किया जा सकता है।
(vii) महत्त्व के आधार पर अंतर – पार्षद सीमा नियम कम्पनी का एक महत्त्वपूर्ण प्रलेख होता है जिसकी तुलना देश के संविधान से की जा सकती है। परन्तु अन्तर्नियम पार्षद सीमा नियम का सहायक होता है जिसकी तुलना देश के संविधान के अंतर्गत बनाए गये वैधानिक अधिनियमों से की जा सकती है।
प्रश्न 5.
व्यवसाय के सामाजिक दायित्वों का वर्णन करें।
उत्तर:
हालांकि व्यवसाय करने का प्रमुख उद्देश्य लाभ कमाना है, लेकिन व्यवसाय में समाज के प्रति कुछ उत्तरदायित्व भी हैं। व्यवसाय-कार्य करने के सिलसिले में यह बात ध्यान रखना चाहिए कि व्यवसाय ऐसे करना चाहिए जिससे कि समाज के लोगों का शोषण नहीं हो और समाज में शांति का वातावरण बना रहे। कानूनी दृष्टिकोण से वैध व्यापार करना चाहिए। अवैध व्यापार नहीं करना चाहिए। तभी समाज का वातावरण अच्छा बना रहता है।
वास्तव में, व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्वों को निम्नलिखित विचार-बिंदुओं द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है-
- समाज को रोजगार के उचित अवसर प्रदान करना।
- समाज में नागरिकों के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाने में सहायता करना।
- व्यवसाय में स्वास्थ्यप्रद वातावरण बनाये रखना।
- समाज के विभिन्न कल्याणकारी कार्यों में सहयोग देना।
- समाज में शिक्षा, चिकित्सा इत्यादि की सुविधाएँ उपलब्ध कराना, जैसे-बड़ी-बड़ी औद्योगिक संस्थाएँ अपने स्कूल चलाती हैं।
- असहाय व अपाहिजों को रोजगार के अवसर देकर उनकी सहायता करना।
- प्राकृतिक विपदाओं के समय समाज की उन्नति में सहयोग देना। बाढ़ व सूखा क्षेत्रों में आर्थिक सहायता प्रदान करना।
प्रश्न 6.
अधिकार अंतरण प्रक्रिया का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अधिकार अंतरण से अभिप्राय दूसरे लोगों को कार्य सौंपना तथा उसे करने के लिए अधिकार प्रदान करना है। इसके निम्नलिखित कदम हैं-
1. उत्तरदायित्व सौंपना – अधिकार अंतरण प्रक्रिया का पहला कदम उत्तरदायित्व सौंपा जाना है। प्रायः कोई भी अधिकारी इतना सक्षम नहीं होता कि वह अपना सारा काम स्वयं ही कर ले। अपने कार्य को सफलतापूर्वक निष्पादन के लिए अधिकारी अपने सम्पूर्ण कार्य का विभाजन कर देता है। इस प्रकार वह महत्त्वपूर्ण कार्यों को पास रखकर शेष सभी कार्यों को अधीनस्थों को सौंप देता है। अधीनस्थों को कार्य सौंपते समय उसकी योग्यता एवं कुशलता का ध्यान रखा जाता है। उदाहरण के लिए एक वित्त प्रबंधक वित्त व्यवस्था के काम को अपने पास रखकर लेखांकन आँकड़े एकत्रित करने, आदि कार्यों को अधीनस्थों को सौंप सकता है।
2. अधिकार प्रदान करना – अधिकार अंतरण प्रक्रिया का दूसरा कम कार्यों का सफलतापूर्वक निष्पादन के लिए अधिकार सौंपना है। जब तक अधीनस्थों को अधिकार प्रदान न कर दिए जाए तब तक कार्यभार सौंपना अर्थहीन होता है। उदाहरण के लिए, जब एक मुख्य प्रबंधक क्रय प्रबंधक को क्रय विभाग का काम सौंपता है तो माल क्रय करने, माल का स्टॉक रखने, अपने कार्य को अधीनस्थों में बाँटने आदि के अधिकार भी प्रदान करता है।
3. उत्तरदेयता निश्चित करना – यह अधिकार अंतरण प्रक्रिया का अंतिम कदम है। प्रत्येक अधीनस्थ केवल उस अधिकारी के समक्ष ही जवाबदेह होता है जिससे कार्य करने के लिए अधिकार प्राप्त होते हैं। जवाबदेही का अभिप्राय कार्य निष्पादन के लिए अधिकारी द्वारा माँगे गए स्पष्टीकरण का उत्तर देने से है।
प्रश्न 7.
उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के भारत में व्यवसाय तथा उद्योग पर प्रतिकूल प्रभावों में से पाँच प्रभावों का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उदारीकरण एवं वैश्वीकरण के भारत में व्यवसाय तथा उद्योग पर काफी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है उनसे कुछ निम्न है-
- आयात में वृद्धि – उदारीकरण एवं वैश्वीकरण से हमारे देश में आयात की वृद्धि हुई है।
- निर्यात में वृद्धि – उदारीकरण एवं वैश्वीकरण से हमारे देश के निर्यात में काफी वृद्धि हुई है।
- विदेशी मुद्रा की बढ़ोत्तरी – उदारीकरण एवं वैश्वीकरण से हमारे देश में विदेशी मद्रा भंडार में काफी बढ़ोत्तरी हुआ है।
- नये उत्पाद की जानकारी – उदारीकरण एवं वैश्वीकरण से नये-नये उत्पाद की जानकारी आसानी से प्राप्त हो जाता है।
- रोजगार में वद्धि – उदारीकरण तथा वैश्विकरण का ही देन है कि आज हमारे देश में बेरोजगार को प्रतिष्ठित एवं उच्च वेतन पर काम मिल जाता है।
प्रश्न 8.
अनुशासन एवं सहयोगी भावना सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अनुशासन – किसी भी कार्य का सफलतापूर्वक निष्पादन करने के लिए अनुशासन का होना आवश्यक है। फेयोल के अनुसार अनुशासन से अभिप्राय आज्ञाकारिता, अधिकारों के प्रति श्रद्धा तथा. निर्धारित नियमों का पालन करने से है। सभी स्तरों पर, अच्छी पर्यवेक्षण व्यवस्था प्रदान करके नियमों की स्पष्ट व्याख्या करके एवं परस्कार तथा दण्ड पद्धति को लाग करके अनशासन कायम किया जा सकता है। प्रबंधक स्वयं को अनुशासित करके अधीनस्थों के लिए एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि कर्मचारी अपनी पूरी क्षमता से काम करने के वायदे को तोड़ते हैं तो यह आज्ञाकारिता का उल्लंघन होगा। इसी प्रकार एक बिक्री प्रबंधक को अधिकार प्राप्त है कि वह उधार बिक्री कर सकता है। लेकिन वह यह सुविधा आम ग्राहकों को न देकर अपने रिश्तेदारों तथा मित्रों को ही देता है तो यह अधिकारों के प्रति श्रद्धा को अनदेखा करना है।
सहयोग की भावना – इस सिद्धांत के अनुसार प्रबंधक को लगातार कर्मचारियों में टीम भावना के विकास का प्रयास करते रहना चाहिए। ऐसा करने के लिए प्रबंधक को अधीनस्थों से वार्तालाप के दौरान मैं के स्थान पर हम शब्द का प्रयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए, प्रबंधक को अधीनस्थों से हमेशा यह कहना चाहिए कि हम यह काम करेंगे न कि मैं यह काम करूँगा। प्रबंधक के इस व्यवहार से अधीनस्थों में टीम भावना का संचार होगा।
प्रश्न 9.
उद्यमिता को परिभाषित करें तथा उद्यमिता विकास में सरकार की भूमिका की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
उद्यमिता जोखिम एवं साहस का कार्य है जिसे प्रत्येक व्यक्ति नहीं कर सकता है। उद्यमी अपने सृजनात्मक व्यवहार तथा कल्पनाशीलता से अपने विचारों को मूर्त रूप प्रदान करता है तथा नये-नये साहसिक कार्य करता है। इस हेतु वह व्यवसायिक अवसरों की पहचान करता है। वातावरणीय विश्लेषण करता है, नयी इकाई की स्थापना हेतु वैधानिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, वित्त के स्रोत ज्ञात करता है तथा उद्यमी पूँजी स्रोत को ज्ञात करते हुए नये साहसिक एवं जोखिमपूर्ण कार्य को मूर्त रूप प्रदान करता है तथा व्यवसायिक इकाई की स्थापना करता है।
सरकार की नीति उद्यमिता को बढ़ाने में काफी सराहनीय है। सरकार छोटे-छोटे उद्यमिता के लिए कम ब्याज पर ऋण सुविधा प्रदान किया जाता है। छोटे-छोटे उद्यमिता को लाइसेन्स से मुवी प्रदान किया गया है। टैक्स प्रणाली को अत्यन्त लचीला बना दिया गया है। समय-समय सरकार द्वारा उचित सुझाव व मार्गदर्शन भी प्रदान किया जाता है।
प्रश्न 10.
प्रबंध की परिभाषा दीजिए तथा इसकी प्रमुख विशेषताएं समझाइए।
उत्तर:
प्रबंध यह जानने की कला है कि आप में व्यक्तियों से क्या करवाना चाहते हैं और इसके बाद यह देखना कि कार्य सर्वोत्तम एवं मितव्ययितापूर्ण विधि से कैसे किया जा सकता है।
प्रबंध की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- प्रबंध एक सामूहिक क्रिया है।
- प्रबंध एक सतत् क्रिया है।
- प्रबंध कला एवं विज्ञान दोनों है।
- प्रबंध एक पेशा है।
- प्रबंध उद्देश्य प्रधान प्रक्रिया है।
- प्रबंध सर्वव्यापक है।
प्रश्न 11.
स्टॉक एक्सचेंज को परिभाषित कीजिए। स्टॉक एक्सचेंज की किन्हीं तीन विशेषताओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सरल शब्दों में स्टॉक एक्सचेंज से आशय ऐसे संगठित बाजार से है जहाँ पर अंशों, ऋणपत्रों, सरकारी एवं अर्द्धसरकारी प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय होता है।
हार्टले विदर्स के अनुसार, “स्कन्ध विनियम एक बड़े गोदाम की तरह है जहाँ पर विभिन्न प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय किया जाता है।” पाटले के अनुसार, “स्कन्ध विपणि वह स्थान है जहाँ सूचीबद्ध प्रतिभूतियों का विनियोजन या सट्टे के उद्देश्य से क्रय-विक्रय किया जाता है।”
स्टॉक एक्सचेंज की विशेषताएँ-स्टॉक एक्सचेंज की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
- यह एक सुसंगठित पूँजी बाजार है।
- इसमें संयुक्त पूँजीवाली कंपनियों, सरकारी, अर्द्धसरकारी एवं लोकोपयोगी संस्थाओं के अंशों तथा ऋणपत्रों आदि का क्रय विक्रय होता है।
- स्कन्ध विपणि समामेलित अथवा असमामेलित दोनों प्रकार की हो सकती है।
प्रश्न 12.
प्रबंध के दृष्टिकोण से विपणन के चार कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विपणन का कार्य उन समस्त क्रियाओं का निर्देशन करना है जिनके माध्यम से विपणन लक्ष्यों एवं उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है। विपणन कार्य ग्राहक से प्रारंभ होते हैं और ग्राहक तक उत्पाद अथवा वस्तुएँ पहुँच जाने एवं उसे संतुष्टि प्रदान करने पर समाप्त हो पाते हैं।
विपणन के चार कार्य निम्नलिखित हैं-
(i) क्रय करना-क्रय करना विपणन क्रिया का सबसे प्रथम चरण है। निर्माण इकाई की दशा में कच्चा माल तथा व्यापारिक इकाई की दशा में तैयार माल क्रय किया जाता है। स्थिति चाहे जो भी हो विपणन विभाग महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। विपणन विभाग यह सुनिश्चित करता है कि उचित किस्म का माल, उचित मूल्य पर, उचित मात्रा में, उचित समय पर एवं उचित पूर्तिकर्ता से खरीदा जाये।
(ii) उत्पादन नियोजन- यह विपणन प्रबंध का महत्वपूर्ण कार्य है। सामान्य अर्थ में उत्पाद नियोजन से आशय उत्पादित की जाने वाली वस्तु का उत्पाद के बारे में व्यापक योजना बनाने से है।
(iii) मूल्य निर्धारण-विपणन प्रबंध का तीसरा महत्वपूर्ण कार्य विपणन योग्य उत्पाद का मूल्य निर्धारण है। एक उत्पादक निर्माता उत्पाद का मूल्य निर्धारण काफी सोच विचार कर करने के पश्चात करता है। सच पूछा जाय तो विपणन प्रबंध की सफलता अथवा असफलता बहुत हद तक मूल्य निर्णयन पर निर्भर करती है।
(iv) एकत्रीकरण अथवा संकलन- एकत्रीकरण से आशय विभिन्न स्रोतों से माल का क्रय करके उसे एक निश्चित स्थान पर एकत्रित होने पर सरलता से ग्राहकों को उपलब्ध कराया जा सके।
प्रश्न 13.
स्कन्ध विपणि की परिभाषा दें। इसके कार्य एवं महत्व का वर्णन करें।
उत्तर:
आधुनिक युग में स्कंध विपणि किसी भी देश के पूँजी बाजार की एक महत्वपूर्ण अंग मानी जाती है। स्कंध विपणि से आशय ऐसे संगठित बाजार से है जहाँ पर अंश ऋण पत्रों, सरकारी एवं अर्ध सरकारी प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय किया जाता है। अर्थात स्कंध विपणि एक सुसंगठित बाजार है जहाँ केवल सदस्य अपने लिए या दूसरों की ओर से विभिन्न प्रकार की सूचीबद्ध औद्योगिक अथवा आर्थिक प्रतिभूतियों जैसे संयुक्त पूँजी वाली कंपनी के अंशों, स्कन्धों तथा ऋण पत्रों, राजकीय पत्रों एवं अन्य संस्थाओं के ऋणपत्रों और बॉण्डों इत्यादि का क्रय-विक्रय निर्धारित नियमों एवं उप नियमों के अधीन करते हैं।
स्कंध विपणि के कार्य एवं महत्त्वं स्कंध विपणि के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं-
- विद्यमान स्कंध को तरलता एवं विपणीयता प्रदान करना।
- माँग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा स्कंध के मूल्य निर्धारण का एक स्थिर यंत्र प्रदान करना।
- निर्धारित कानूनी प्रक्रिया के अन्तर्गत स्वच्छ एवं सुरक्षित लेनदेन को निश्चित करना।
- पूँजी निर्माण और आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया में विनियोग एवं पुनर्वियोग के द्वारा बचत को उत्पादनीय कार्य में लगाना।
- नये अंशों के निर्गमन एवं व्यापारिक लेन-देन के द्वारा अंश-पूँजी की लागत निर्धारित करना।
- मूल्य निरंतरता एवं व्यापारिक लेनदेन में तरलता का अवसर प्रदान करना।
उपरोक्त महत्त्वपूर्ण कार्यों के कारण स्कंध विपणि किसी भी देश के सुदृढ़ औद्योगिकीकरण एवं आर्थिक विकास का स्तंभ माना जाता है। प्रो० मार्शल के शब्दों में, “स्कंध विपणियाँ केवल व्यापारिक व्यवहारों की प्रमुख प्रदर्शनकर्ता ही नहीं अपितु वे मापदण्ड है जो व्यापारिक वातावरण की सामान्य दशा को दर्शाते हैं।” यही कारण है कि उनको पूँजी का गढ़ व मूल्यों का मंदिर कहा जाता है। स्कंध विपणि विनियोजकों को मनचाही प्रतिभूतियों में धन विनियोजित करने की सुविधाएँ । प्रदान करना है। इसके अभाव में राष्ट्र में औद्योगिक विकास मंद होगा।
प्रश्न 14.
वैज्ञानिक प्रबंध पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
वैज्ञानिक प्रबंध के जन्मदाता फ्रेडरिक टेलर ने स्पष्ट किया है कि “वैज्ञानिक प्रबंध यथार्थ में यह जानने की कला है कि क्या किया जाना है और उसको करने की सर्वोत्तम विधि क्या है।” इस प्रकार संक्षेप में कहा जा सकता है कि वैज्ञानिक प्रबंध एक दर्शन है अथवा धारणा है जो कार्य और कार्मिकों के प्रबंध की तीर एवं तुक्के एवं अंगूठे के नियम पर आधारित परम्परागत विधियों के स्थान पर अनुसंधान एवं प्रयोगों द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों के आधार पर अपनायी गई विधियों के प्रयोग पर बल देते हैं।
अतः हम कह सकते हैं कि वैज्ञानिक प्रबंध सामूहिक प्रयासों की पद्धति एवं संगठित प्रणाली है जो वैज्ञानिक अन्वेषण, विश्लेषण एवं प्रयोगों पर आधारित है जिससे सभी पत्रकारों को लाभ होता है।
वैज्ञानिक प्रबंध के प्रमुख तत्त्व हैं-
- वैज्ञानिक पद्धति के अध्ययन और विश्लेषण के द्वारा कार्यक्षमता को बढ़ाना और तब सम्पूर्ण संगठन के लिए एक प्रभाव बिन्दु का विकास करना अर्थात पुराने नियम का परित्याग करना।
- मालिक और कर्मचारियों के बीच अच्छे संबंध स्थापित करना विवाद को दूर करना, दृष्टिकोण में परिवर्तन करना, मानसिक शांति का विकास करना, कर्मचारियों और प्रबंध के हितों का समन्वय करना और संगठन के समृद्धि को प्राप्त करना है।
- सद्भावना, सहयोग, पहचान, रचनात्मक सलाह, पारितोषिक के द्वारा प्रतिस्पर्धा को समाप्त करना। सूचना के सभी माध्यमों को खुला रखना और एक दूसरे की सहायता करना है।
- अतिरिक्त प्रशिक्षण और कार्यानुभव के द्वारा व्यक्तिगत कार्य क्षमता और समृद्धि के विकास के लिए सभी संभावित अवसर प्रदान करना ताकि व्यवसाय और कर्मचारी दोनों के संवृद्धि में योगदान दे सकें।
वैज्ञानिक प्रबंध, संगठन के सभी पदों के सक्रिय, क्रमबद्ध, सहयोग की आशा करता है ताकि संगठन के सभी पदों की क्षमता और समृद्धि को प्राप्त किया जा सके।
प्रश्न 15.
संगठन की परिभाषा दें तथा इसके आवश्यक तत्वों की व्याख्या करें।
उत्तर:
संगठन से हमारा अभिप्राय सामूहिक उद्देश्य की पूर्ति हेतु विभिन्न अंगों में मैत्रीपूर्ण समायोजन करने से होता है।
मूने एवं रेले के अनुसार “संगठन सामान्य हितों की पूर्ति के लिए बनाया गया मनुष्यों का एक समुदाय है।”
उर्विक के अनुसार “किसी कार्य को सम्पादित करने के लिए किन-किन क्रियाओं को किया जाये, इसका निर्धारण करना एवं व्यक्तियों के बीच उन क्रियाओं के वितरण की व्यवस्था करना ही संगठन है।”
संगठन प्रबंध का एक कार्य है, यह एक प्रक्रिया है-
- निष्पादित करने वाले कार्यों का समूहीकरण एवं पहचान करना
- अधिकार एवं उत्तरदायित्व का हस्तांतरण एवं परिभाषित करना
- उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कार्यों को एक साथ सम्पादित करने के लिए लोगों में संबंध को स्थापित करना।
उद्देश्य की प्राप्ति एवं नियोजन के क्रियान्वयन के लिए संसाधनों का संगठन आवश्यक है, सभी प्रयास, उद्देश्यों को प्राप्त करने एवं संसाधनों का सफल प्रयोग करने के लिए। संगठन का अर्थ सम्पूर्ण कार्य को छोटे टुकड़ों, कार्यों के समूह में बाँटना है। इसमें संचालन पर नियंत्रण, संबंधों में समन्वय, वार्तालाप उद्देश्य की निश्चितता एवं संभावित योगदान प्राप्त करना सम्मिलित है।
संगठन एक प्रक्रिया है जो-
- मानवीय प्रयासों का समन्वय,
- संसाधनों को इकट्ठा करना,
- निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसका प्रयोग करना
संगठन, इसलिए उद्देश्य की प्राप्ति संसाधनों का प्रयोग, कार्य संबद्ध कार्य वितरण के द्वारा नियोजन को कार्यान्वित करने में मदद करता है।
संगठन के तत्त्व – संगठन के विभिन्न तत्व इस प्रकार से है-
- कार्य विभाजन – मानवीय प्रयासों में विशेषज्ञता प्राप्त करने के लिए उचित कार्य विभाजन आवश्यक है।
- अधिकार और उत्तरदायित्व के बीच संतुलन – अधिकार किसी कार्य को करने के लिए आदेश देने का अधिकार एवं दायित्व इस अधिकार का उचित प्रयोग है।
- अनुशासन – अनुशासन की स्थापना हो ताकि प्रबंध और कर्मचारी दोनों ही अपने कार्यों एवं उद्देश्यों के प्रति समर्पित हो।
- आदेश की एकात्मकता – आदेश की एकात्मकता अर्थात कर्मचारी को एक ही अधिकारी से आदेश मिलना चाहिए एवं वे एक ही अधिकारी के प्रति जवाबदेह हों।
- निर्देश की एकात्मकता अर्थात संगठन के सामान्य उद्देश्य की पूर्ति के लिए समन्वय एवं कार्यों में एकता।
- व्यक्तिगत हितों की तुलना में संगठन के हितों की अधिक प्राथमिकता।
- कर्मचारियों को उचित मजदूरी ताकि सहयोगी भावना का विकास हो सके।
- निर्णय लेने के अधिकारों में केन्द्रीकरण एवं विकेन्द्रीकरण के बीच संतुलन।
- उच्च अधिकारियों से निम्न अधिकारियों के बीच अधिकारों का संवहन।
- उत्पादकता एवं कार्यक्षमता प्राप्त करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति सही समय एवं स्थान पर अवस्थित हो।
- प्रबंध का कर्मचारियों के प्रति न्यायोचित व्यवहार ताकि संगठन के प्रति कर्मचारियों का विश्वास प्राप्त किया जा सके।
- संचालन की निरन्तरता को प्राप्त करने के उद्देश्य से कर्मचारी की संतुष्टि, स्थिरता, दक्षता एवं प्रशिक्षण की कम लागत।
- उत्पादक विनियोग, विकास, प्रेरणा एवं पहल के लिए सलाह।
- पारस्परिक सहयोग एवं समूह जोश की भावना के साथ कार्य करना।
फियोल द्वारा प्रतिपादित प्रबंध का सिद्धांत एवं लाभ को बढ़ाने में काफी उपयोगी है क्योंकि यह सिद्धांत मालिक एवं कर्मचारी दोनों के हितों का ख्याल रखता है।
प्रश्न 16.
स्थायी पूँजी तथा कार्यशील पूँजी में कोई छ: अंतर बतायें।
उत्तर:
स्थायी पूँजी से आशय पूँजी के उस भाग से है जिसका निवेश स्थायी सम्पत्तियों जैसे भूमिक, भवन, मशीनरी, फर्नीचर, उपकरण आदि की खरीद के लिए किया जाता है उन सम्पत्तियों का क्रय करने का उद्देश्य दीर्घकाल तक इनसे आय अर्जित करना होता है।
कार्यशील पूँजी से तात्पर्य चालू सम्पत्तियों के चालू दायित्वों पर आधिक्य है। दूसरे शब्दों में यदि चालू सम्पत्तियों के योग में से चालू दायित्वों के योग को घटा दिया जाय तो जो शेष बचेगा वह कार्यशील पूँजी कहलायेगी।
स्थायी पूँजी और कार्यशील पूंजी में अंतर- स्थायी पूँजी और कार्यशील पूँजी में निम्नलिखित अंतर है-
स्थायी पूँजी:
- स्थायी पूँजी से आशय उस पूँजी की मात्रा से है जिसका निवेश चालू सम्पत्तियों (जैसे- भूमि, भवन, मशीन, फर्नीचर आदि) में किया जाता है।
- स्थायी पूँजी दीर्घकाल के लिए होती है।
- स्थायी पूँजी स्थिर प्रकृति की होती है।
- स्थायी पूँजी स्थायी रूप से अवरुद्ध हो जाती है तथा दैनिक व्यावसायिक क्रियाओं के लिए उपलब्ध नहीं होती है।
- स्थायी पूँजी अंशों तथा ऋण पत्रों के निर्गमन तथा दीर्घकालीन वित्तीय ऋणों के माध्यम से प्राप्त होती है।
- स्थायी पूँजी की आवश्यकता स्थायी सम्पत्ति (जैसे भूमि, भवन, मशीनरी, फर्नीचर आदि) के क्रय करने के लिए होती है।
कार्यशील पूँजी:
- कार्यशील पूँजी से आशय उस पूंजी की मात्रा से है जिसका निवेश स्थायी सम्पत्तियों जैसे प्राप्ति विपत्र, विविध देनदार, कच्चा माल, अर्द्ध निर्मित माल तथा निर्मित माल में किया जाता है।
- कार्यशील पूँजी अल्पकाल के लिए होती है।
- कार्यशील पूँजी अस्थिर प्रकृति की होती है।
- कार्यशील पूँजी कार्यशील एवं घूमती रहती है तथा इसका उपयोग दैनिक व्यावसायिक क्रियाओं के लिए किया जाता है।
- कार्यशील पूँजी अल्पावधि वित्त प्रदान करने वाले स्रोतों से प्राप्त होती है जैसे वाणिज्यिक बैंक, व्यापारिक उत्पाद, ग्राहकों से अग्रिम आदि।
- कार्यशील पूँजी की आवश्यकता चालू सम्पत्तियों (जैसे देनदार, स्टॉक, प्राप्य विपत्र, रोकड़ी शेष) के रखने तथा दैनिक व्ययों का भुगतान करने के लिए होता है।