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Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय आय की गणना करने के लिए आय एवं व्यय प्रणाली की व्याख्या करें।
अथवा, राष्ट्रीय आय की गणना की कौन-सी विधियाँ हैं ? वर्णन करें।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय को मापने या गणना करने की निम्नांकित तीन विधियाँ हैं-

1. उत्पाद अथवा मूल्य वर्धित विधि- उत्पाद विधि में हम उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के वार्षिक मूल्य को गणना कर राष्ट्रीय आय की जानकारी प्राप्त करते हैं। लेकिन वस्तुओं और सेवाओं के रूप में राष्ट्रीय आय को माप करने में प्राय: दोहरी गणना की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए, चीनी के मूल्य में गन्ने का मूल्य भी शामिल हैं। यदि हम इन दोनों के मूल्य को राष्ट्रीय आय में जोड़ देते हैं तो एक ही वस्तु को दुबारा गणना हो जाएगी। अतएव, यदि हम उत्पादन की दृष्टि से राष्ट्रीय आय की माप करते हैं, तो हमें देश में सरकार सहित सभी उद्यमियों द्वारा शुद्ध मूल्य वृद्धि के योग की जानकारी प्राप्त करनी होगी। राष्ट्रीय आय के मापने की इस विधि को मूल्य वर्धित विधि (Value added method) कहते हैं। यह विधि उत्पादन के प्रत्येक स्तर पर उत्पादकों द्वारा उत्पादन में उनके योगदान अर्थात् किसी वस्तु के मूल्य वृद्धि की माप करता है तथा इनके योग को राष्ट्रीय आय की संज्ञा दी जाती है।

2. आय विधि- इस विधि के अनुसार देश के सभी नागरिकों और व्यावसायिक संस्थाओं के आय की गणना की जाती है तथा उनके शुद्ध आय के योगफल को राष्ट्रीय आय कहा जाता है।

3. व्यय विधि- यह विधि एक वर्ष के अंतर्गत वस्तुओं और सेवाओं पर किए गए अंतिम व्यय की माप द्वारा राष्ट्रीय आय की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय आय की विभिन्न धारणाओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय की निम्नलिखित धारणाएँ हैं-

  1. कुल राष्ट्रीय उत्पाद- किसी देश के अंतर्गत एक वर्ष में जितनी वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन होता है, उनके मौद्रिक मूल्य को कुल राष्ट्रीय उत्पाद कहा जाता है।
  2. शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद- कुल राष्ट्रीय उत्पाद में घिसावट का व्यय घटा देने पर जो शेष बचता है वही शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद कहलाता है।
  3. साधन लागत पर राष्ट्रीय आय- साधन लागत पर राष्ट्रीय आय का तात्पर्य उन सभी आयों के योग से है जो साधनों प्रदायक भूमि, पूँजी, श्रम और उद्यमी योग्यता के रूप में किए गए अपने अंशदान के लिए प्राप्त करते हैं।
  4. वैयक्तिक आय- वैयक्तिक आय कुल प्राप्त आय होती है। यह उन सभी आयों का योग होती है, जो किसी दिए हुए वर्ष के अंदर व्यक्तियों और परिवारों को वास्तविक रूप में प्राप्त होती है।
  5. व्यय योग्य आय- वैयक्तिक आय में से वैयक्तिक प्रत्यक्ष करों की राशि घटाने पर जो शेष बचता है वही व्यय योग्य आय कहलाता है।

प्रश्न 3.
उदासीनता वक्र की विशेषताएँ क्या है ? अथवा, तटस्थता वक्र की विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
तटस्थता वक्र या उदासीनता वक्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  1. इसका ढाल ऋणात्मक होता है।
  2. यह मूल बिंदु के प्रति उन्नतोदर होता है।
  3. यह एक-दूसरे को कभी नहीं काटता है।
  4. इसका एक-दूसरे के समानांतर होना आवश्यक नहीं है।
  5. यह अपने पूर्ववर्ती तटस्थता वक्र संतुष्टि के ऊँचे स्तर का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 4.
निवेश गुणक क्या है ? उदाहरण के साथ वर्णन करें।
अथवा, निवेश गुणक क्या है ? निवेश गुणक की गणना का सूत्र दें।
उत्तर:
केन्स के अनुसार, “निवेश गुणक से ज्ञात होता है कि जब कुल निवेश में वृद्धि की जाएगी तो आय में जो वृद्धि होगी, बह निवेश में होने वाली वृद्धि से K गुणा अधिक होगी।”

डिल्लर्ड के अनुसार, “निवेश में की गई वृद्धि के परिणामस्वरूप आय में होने वाली वृद्धि अनुपात को निवेश गुणक कहा जाता है।”

निवेश गुणक का सूत्र- गुणक को निम्नलिखित सूत्र द्वारा व्यक्त किया जा सकता है-
K = \(\frac{\Delta \mathrm{Y}}{\Delta \mathrm{I}}\)
यहाँ K = गुणक
ΔI = निवेश में परिवर्तन
ΔY = आय में परिवर्तन

प्रश्न 5.
सम सीमांत उपयोगिता नियम क्या है ?
अथवा, सम सीमांत उपयोगिता नियम की सचित्र व्याख्या करें।
उत्तर:
सम सीमांत उपयोगिता नियम यह बतलाता है कि उपभोग के क्रम में उपभोक्ता को अधिकतम संतोष की प्राप्ति तभी संभव होती है जबकि वह अपनी सीमित आय को विभिन्न वस्तुओं पर इस प्रकार खर्च करे ताकि विभिन्न वस्तुओं से मिलने वाली सीमांत उपयोगिता बराबर हो जाय। इस प्रकार जिस बिंदु पर विभिन्न वस्तुओं से मिलने वाली सीमांत उपयोगिता बराबर हो जाती है वही बिंदु उपभोक्ता के संतुलन का बिंदु या अधिकतम संतोष का बिंदु कहा जाता है। मार्शल का कहना है “यदि किसी व्यक्ति के पास कोई ऐसी वस्तु हो जो विभिन्न प्रयोगों में लायी जा सके तो वह उस वस्तु को विभिन्न प्रयोगों में इस प्रकार बाँटेगा जिसमें उसकी सीमांत उपयोगिता सभी प्रयोगों में समान रहे।” यह नीचे के रेखाचित्र से ज्ञात हो जाता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 1
इस रेखाचित्र में XX’ रेखा X वस्तु को एवं YY’ रेखा Y वस्तु को बतलाती है। ये दोनों रेखाएँ एक-दूसरे को M बिंदु पर काटती है। यही बिंदु उपभोक्ता के संतुलन का बिंदु कहा जायेगा, क्योंकि यहीं पर दोनों वस्तुओं से प्राप्त सीमांत उपयोगिता एक-दूसरे के बराबर हो जाती है।

प्रश्न 6.
मौद्रिक नीति क्या है ? इसके उद्देश्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
पॉल एंजिग ने मौद्रिक नीति को परिभाषित करते हुए कहा है कि “मौद्रिक नीति के अंतर्गत वे सभी मौद्रिक नियम एवं उपाय आते हैं, जिनका उद्देश्य मौद्रिक व्यवस्था को प्रभावित करना है।”

मौद्रिक नीति के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

  • इस नीति के अनुसार मौद्रिक अधिकारियों को मुद्रा की मात्रा को तटस्थ यानि स्थिर रखना चाहिए।
  • इसका दूसरा उद्देश्य मूल्य तल को स्थायी बनाना है।
  • तीसरा उद्देश्य विनिमय दर को स्थिरता प्रदान करना है।
  • देश के साधनों का अधिकतम उपयोग करना है।
  • इसका प्रयोग इस प्रकार होना चाहिए जिससे देश के आर्थिक साधनों को पूर्ण रोजगार प्रदान किया जा सके।

प्रश्न 7.
चित्र की सहायता से कुल लागत, कुल स्थिर लागत तथा कुल परिवर्तनशील लागत में सम्बन्ध बतायें।
उत्तर:
किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए उत्पादक को जितने कुल व्यय करने पड़ते हैं, उनके जोड़ को कुल लागत कहते हैं।

कुल स्थिर लागत उत्पादन के आकार से अप्रभावित रहती है। उत्पादन स्तर शून्य होने पर भी उत्पादक को स्थिर लागतों का भुगतान वहन करना पड़ता है यही कारण है कि अल्पकाल में कुल स्थिर लागत रेखा (total fixed cost line)X-अक्ष के समानान्तर एक पड़ी रेखा के रूप में होती है।

परिवर्तनशील लागत का आकार उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करता है। जैसे-जैसे उत्पादन के आकार में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे परिवर्तनशील लागतों में भी वृद्धि होती जाती है। शून्य उत्पादन पर परिवर्तनशील लागत शून्य होती है यही कारण है कि TVC रेखा का आरम्भिक बिन्दु मूल बिन्दु होता है।

अल्पकाल में,
कुल लागत (TC) = कुल स्थिर लागत (TFC) + कुल परिवर्तनशील लागत (TVC)
Tq = Total cost. Rq = Total variable cost
Kq = TR = total fixed cost
Tq = Rq+ TR
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इस चित्र में TFC एवं TVC रेखाओं को जोड़कर कुल लागत रेखा प्राप्त की गई है। कुल लागत की रेखा का आरम्भिक बिन्दु Y-अक्ष का वह बिन्दु है (चित्र में S) जहाँ से TFC रेखा आरंभ होती है क्योंकि शून्य उत्पादन स्तर पर TVC शून्य होने के कारण TC सदैव TFC के बराबर ही होगी। TC और TVC रेखायें परस्पर समानान्तर रूप से आगे बढ़ती हैं क्योंकि TC और TVC का अन्तर TFC को बताता है और TFC सदैव स्थिर होती है।

प्रश्न 8.
मौद्रिक नीति के उपकरणों का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति के निम्नलिखित उपकरण हैं-
1. खुले बाजार की क्रियाएँ- रिजर्व बैंक आधार मुद्रा के स्टॉक को बढ़ाने तथा घटाने के लिए सरकारी प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय करता है जिसे खुले बाजार की क्रियाएँ कहते हैं।

2. बैंक दर- वह वह जिस पर केंद्रीय बैंक व्यावसायिक बैंक को अग्रिम प्रदान करता है या ऋण प्रदान करता है, उसे बैंक दर कहा जाता है।

3. परिवर्तित आरक्षित आवश्यकताएँ- न्यूनतम आरक्षित जमा अनुपात (CCR) अथवा संवैधानिक तरलता अनुपात (SLR) की ऊँची या नीची दर से केंद्रीय बैंक की आधार मुद्रा प्रभावित है। इनकी दर घटाने से व्यापारिक बैंकों की साख सृजन क्षमता बढ़ जाती है। सामान्यतः भारतीय रिजर्व बैंक मुद्रा सृजन के उपकरणों का प्रयोग अर्थव्यवस्था में मुद्रा भंडार को स्थिर करने के लिए करता है। इनके माध्यम से केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था विदेशी प्रतिकूल प्रभावों से बचाकर स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 9.
स्थिर लागत क्या है ? स्थिर लागत तथा परिवर्तनशील लागत में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
स्थिर लागत वह लागत है जो उत्पादन के स्थिर साधनों पर व्यय की जाती है। इसमें कभी भी परिवर्तन नहीं आता। स्थिर लागत को अनपरक लागत भी कहा जाता है।

स्थिर लागत तथा परिवर्तनशील लागत में निम्नलिखित अन्तर पाया जाता है-

स्थिर लागत:

  1. यह परिवर्तनशील साधनों पर व्यय की जाती है।
  2. इसकी राशि स्थिर रहती है। यह उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती है।
  3. यह केवल अल्पकाल तक सीमित होती है।
  4. शून्य स्तर पर कुल लागत कुल स्थिर लागत होती है।
  5. भवन का किराया, मशीनों में लगी पूँजी का ब्याज स्थिर लागत का उदाहरण है।
  6. कुल स्थिर लागत वक्र x अक्ष के समानान्तर होता है।

परिवर्तनशील लागत:

  1. यह स्थिर साधनों पर व्यय की जाती है।
  2. इसका उत्पादन की मात्रा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।
  3. दीर्घकाल में सभी लागतें परिवर्तनशील होती है।
  4. शून्य उत्पादन स्तर पर यह शून्य होता है।
  5. कच्चे माल पर व्यय, ईंधन लागत आदि परिवर्तनशील लागत के उदाहरण है।
  6. कुल परिवर्तनशील लागत वक्र नीचे से ऊपर की ओर दाईं ओर बढ़ता है।

प्रश्न 10.
माँग के नियम की व्याख्या करें। उसकी मान्यताओं को लिखें।
उत्तर:
माँग का नियम यह बतलाता है कि मूल्य में वृद्धि से माँग में कमी तथा मूल्य में कमी से माँग में वृद्धि होती है। इस प्रकार माँग का नियम मूल्य तथा माँग के बीच विपरीतार्थक सम्बन्ध को बतलाता है। निम्न उदाहरण से यह ज्ञात हो जाता है-
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इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि मूल्य में वृद्धि होती गई, जिसके कारण माँग घटते-घटते 10 हो गई। लेकिन यदि हम नीचे से ऊपर की ओर देखें तो पाते हैं कि मूल्य में कमी होती गई, जिसके कारण माँग बढ़ते-बढ़ते 50 हो गई। इस उदाहरण से माँग का नियम स्पष्ट हो जाता है।

माँग के नियम निम्न मान्यताओं पर आधारित है-

  • उपभोक्ता की आय में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  • उसकी आदत, रुचि तथा फैशन नहीं बदलना चाहिए।
  • किसी नई स्थानापन्न वस्तु का निर्माण नहीं होना चाहिए।
  • धन के वितरण में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  • मौसम में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  • स्थानापन्न वस्तुओं की कीमत नहीं बदलना चाहिए।
  • जनसंख्या में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 11.
विदेशी विनिमय दर से आप क्या समझते हैं ? यह कैसे निर्धारित होता है ?
उत्तर:
विदेशी विनिमय दर वह दर है जिस पर एक देश की एक मुद्रा इकाई का दूसरे देश की मुद्रा में विनिमय किया जाता है। दूसरे शब्दों में, विदेशी विनिमय दर यह बताती है कि किसी देश की मुद्रा की एक इकाई के बदले में दूसरे देश की मुद्रा की कितनी इकाइयाँ मिल सकती हैं। इस प्रकार विनिमय दर घरेलू मुद्रा के रूप में दी जाने वाली वह कीमत है जो विदेशी मुद्रा की एक इकाई के बदले दी जाती है।

विदेशी विनिमय दर का निर्धारण विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति के साम्य बिन्दु पर होता है। विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति का साम्य बिन्दु वह होता है जहाँ मुद्रा माँग वक्र और पूर्ति वक्र एक-दूसरे को काटते हैं। साम्य बिन्दु पर विनिमय दर को साम्य विनिमय दर और पूर्ति की मात्रा को साम्य मात्रा कहते हैं। इसे निम्न चित्र में दिखाया गया है-
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प्रश्न 12.
माँग की लोच क्या है ? माँग की लोच को प्रभावित करने वाले पाँच तत्वों का उल्लेख करें।
उत्तर:
जिस धारणा के द्वारा मूल्य एवं माँग के बीच आनुपातिक सम्बन्ध या गणितीय सम्बन्ध का वर्णन किया जाता है, उसे ही माँग की लोच कहते हैं। प्रो० बेन्हम का कहना है कि “माँग की लोच की धारणा माँग की मात्रा पर पड़ने वाले मूल्य के मामूली परिवर्तन के प्रभाव से सम्बन्धित होती है।

माँग की लोच को प्रभावित करने वाले तत्व निम्नलिखित हैं-

  1. वस्तु की प्रकृति- अनिवार्य वस्तु की माँग की लोच बेलोचदार, आराम सम्बन्धी वस्तुओं की माँग की लोच लोचदार और विलासिता सम्बन्धी वस्तुओं की माँग की लोच अधिक लोचदार होती है।
  2. वस्तुओं के विविध प्रयोग- जिन वस्तुओं का विविध प्रयोग होता है उसकी माँग की लोच लोचदार होती है।
  3. पूरक वस्तुओं- पूरक वस्तुओं की माँग की लोच प्रायः बेलोचदार होती है।
  4. स्थानापन्न वस्तुएँ- स्थानापन्न वस्तुओं की माँग की लोच लोचदार होती है।
  5. वस्तुओं का मूल्य स्तर- वैसी वस्तुएँ जिसका मूल्य अधिक होता है, की माँग बेलोचदार और कम मूल्य की वस्तुओं की माँग लोचदार होती है।

प्रश्न 13.
(i) यदि गुणक (K) का मूल्य 4 है तब MPC तथा MPS का मूल्य क्या होगा?
(ii) जब सीमांत बचत प्रवृत्ति MPS = 0.2 है तब सीमांत उपभोग प्रवृत्ति MPC क्या होगा?
(iii) यदि MPS = 0.5 है तब 200 रु० की आय बढ़ाने के लिए निवेश में कितनी वृद्धि की आवश्यकता होगी।
उत्तर:
(i) K = \(\frac{1}{\mathrm{MPS}}\)
मूल्यों का प्रतिस्थापन करने से,
4 = \(\frac{1}{\mathrm{MPS}}\); MPS = \(\frac{1}{4}\) = 0.25
MPC = 1 – MPS = 1 – 0.25 = 0.75
(ii) MPC = 1 – MPS = 1 – 0.2
MPC = 0.8
(iii) K × Δq = Δy

मूल्यों का प्रतिस्थापन करने से K = \(\frac{1}{0.5}\) = 2
इसलिए, 2 × ΔI = 2,000 करोड़ रु०
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प्रश्न 14.
माँग की लोच को मापने की कुल व्यय विधि को समझाइए।
उत्तर:
इस विधि के अंतर्गत एक उपभोक्ता द्वारा वस्तु पर किए गए कुल व्यय की सहायता से माँग की लोच को मापा जाता है। इस विधि में केवल तीन प्रकार की माँग की लोच का अनुमान लगाया जा सकता है-

(i) इकाई से कम लोचदार (Inelastic Demand) कीमत में कमी से परिवार द्वारा वस्तु पर कुल खर्च कम हो जाता है या कीमत में वृद्धि कुल व्यय को बढ़ा देती है तो माँग इकाई से कम लोचदार होगी।
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(ii) इकाई के बराबर लोचदार (Unitary Elastic)- जब कीमत में कमी या वृद्धि के कारण कुल व्यय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो माँग इकाई के बराबर लोचदार होगी।
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(iii) इकाई से अधिक लोचदार (Elastic Demand)- जब कीमत में कमी से कुल व्यय बढ़ता है या कीमत में वृद्धि से कुल व्यय घटता है तो माँग इकाई से अधिक लोचदार होगी।
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नीचे तालिका में माँग की कीमत लोच की तीनों स्थितियाँ दिखाई गई हैं-
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माँग की कीमत लोच की उपर्युक्त तीन प्रमुख श्रेणियों को निम्न चित्र की सहायता से दर्शाया गया है-
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प्रश्न 15.
माँग की लोच को मापने की प्रतिशत विधि क्या है ?
उत्तर:
माँग की लोच मापने की प्रतिशत या आनुपातिक विधि का प्रतिपादन फ्लक्स ने किया। इस विधि के अनुसार माँग की लोच का अनुमान लगाने के लिए माँग में होने वाले आनुपातिक या प्रतिशत परिवर्तन को कीमत में होने वाले आनुपातिक या प्रतिशत परिवर्तन से भाग दिया जाता है। माँग की लोच को निम्न सूत्र द्वारा निकाला जाता है-
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प्रश्न 16.
केन्द्रीय बैंक के किन्हीं तीन गुणात्मक साख-नियंत्रण तकनीक का वर्णन करें।
उत्तर:
केन्द्रीय बैंक वह बैंक है जिसके पास नोट जारी करने का एकाधिकार प्राप्त है तथा जो मौद्रिक एवं बैंकिंग गतिविधियों तथा मुद्रा की पूर्ति तथा साख की मात्रा को नियंत्रित और निर्देशित करता है।

वर्तमान में केन्द्रीय बैंक का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य साख की मात्रा पर नियंत्रण रखकर देश के सामान्य मूल्य स्तर में स्थायित्व कायम करना है। केन्द्रीय बैंक के पास साख नियंत्रण के कई उपाय हैं, जिन्हें परिमाणात्मक तथा गुणात्मक उपाय कहा जाता है। गुणात्मक उपाय का प्रयोग अधिकाधिक विकासशील देशों में किया जा रहा है। इसे ही चयनात्मक साख नियंत्रण भी कहते हैं। गुणात्मक साख नियंत्रण तक कार्य निम्नलिखित तकनीक द्वारा किया जाता है-

1. प्रतिभूति ऋणों पर उधार प्रतिभूति अंतर लागू करना- उधार प्रतिभूति अंतर ऋण की राशि और ऋणकर्ता द्वारा प्रस्तुत प्रतिभूतियों के बाजार मूल्य का अंतर होता है। इस तकनीक से सट्टेबाजी पर अंकुश लगता है, जिससे बाजार में प्रतिभूतियों की कीमतों के अनावश्यक उतार-चढ़ाव . कम हो जाते हैं।

2. नैतिक प्रबोधन- नैतिक प्रबोधन विचार- विमर्श, पत्रों, अभिभाषणों तथा बैंकों के संकेतात्मक संदेशों के माध्यम से दिया जाता है। इसके द्वारा केन्द्रीय बैंक अन्य बैंकों को अपनी नीतियों का अनुसरण करने का उपदेश देता है तथा दबाव भी डालता है।

3. चयनात्मक साख नियंत्रण- इसके माध्यम से वरीयता वाले क्षेत्रों को अधिक साख सुविधा उपलब्ध करायी जाती है तथा दूसरे और जरूरी कार्यों के लिए साख देने पर रोक भी लगायी जाती है।

प्रश्न 17.
अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र से आप क्या समझते हैं ?
अथवा, उत्पादन इकाइयों के प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में वर्गीकरण के आधार की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector)- यह वह क्षेत्र है जो प्राकृतिक साधनों, जैसे-भूमि जल, वन, खनन आदि साधनों का शोषण करके उत्पादन पैदा करता है, इसमें सभी कृषि तथा सम्बन्धित क्रियाएँ, जैसे-मछली पालन, वन तथा खनन का उत्पादन शामिल होता है।

गौण अथवा द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Sector)- इस क्षेत्र को निर्माण क्षेत्र भी कहते हैं। यह एक प्रकार की वस्तु को मनुष्य, मशीन तथा पदार्थों द्वारा वस्तु में बदलता है। उदाहरण के तौर कपास से कपड़ा तथा गन्ने से चीनी आदि।

तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector)- इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र भी कहते हैं जो प्राथमिक तथा गौण क्षेत्र को सेवाएँ प्रदान करता है। इसमें बैंक, बीमा, यातायात, संचार, व्यापार तथा वाणिज्य आदि शामिल होते हैं।

प्रश्न 18.
उत्पादन संभावना वक्र क्या है ? यह मूल बिन्दु की ओर नतोदर क्यों होता है ?
उत्तर:
किसी अर्थव्यवस्था में उपलब्ध साधनों के अंतर्गत दो भिन्न वस्तुओं के उत्पादन की संभावनाओं को प्रदर्शित करने वाले वक्र को उत्पादन संभावना वक्र के नाम से जाना जाता है।

उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु की ओर नतोदर होता है, जिसका कारण बढ़ती हुई सीमांत अवसर लागत है। बढ़ती Y हुई सीमान्त अवसर लागत PP वक्र का आकार निर्धारित करती है। सीमांत अवसर लागत के बढ़ने का कारण उत्पादन में ह्रासमान प्रतिफल नियम का लागू होना और संसाधनों का अधिक उपजाऊ उपयोगों से हटकर कम उपजाऊ उपयोगों में स्थानांतरण किया जाता है। इसके कारणों को इस प्रकार देखा जा सकता है-
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(i) ह्रास प्रतिमान नियम पर PP वक्र आधारित है। इसके । अनुसार जब किसी वस्तु का उत्पादन बढ़ाया जाता है तो इसे उत्पादित करने वाले साधनों की सीमान्त उत्पादकता कम होती जाती है। इस कारण वस्तु का उत्पादन बढ़ाने के लिए साधन की अधिक इकाइयाँ जुटानी पड़ती है। अत: यह कहा जा सकता है कि एक वस्तु का उत्पादन बढ़ाने के लिए दूसरे वस्तु की अधिक इकाइयों का त्याग करना पड़ता है।

(ii) जब एक विशेष वस्तु के उत्पादन में लगे निपुण साधनों को हटाकर दूसरी वस्तु के उत्पादन में स्थानांतरित किया जाता है जहाँ के लिए वे इतने योग्य नहीं होते तब भी सीमान्त अवसर लागत बढ़ जाती है।

इन दोनों कारणों के चलते PP वक्र का आकार सीमान्त अवसर लागत की स्थिति में उन्नतोदर होता है, जबकि स्थिर सीमान्त अवसर लागत की दशा में PP वक्र का आकार दाहिनी ओर ढालू होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधनों की उपलब्ध सीमा में एक वस्तु के उत्पादन में वृद्धि होने से दूसरी वस्तु के उत्पादन में कमी होती है।