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Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
श्रम के कुल उत्पादन की निम्नलिखित सूची द्वारा औसत उत्पादन (AP) एवं सीमान्त उत्पाद (MP) ज्ञात करें।
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उत्तर:
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प्रश्न 2.
पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार की अवधारणा को स्पष्ट करें एवं इनके अंतर को स्पष्ट करें।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार का ऐसा रूप है जिसमें बड़ी संख्या में क्रेता और विक्रेता पाये जाते हैं जो समरूप वस्तु एक समान कीमत पर बेचते है।

एकाधिकार बाजार का वह रूप है जिसमें वस्तु का केवल एक विक्रेता और अनेक क्रेता होते हैं।

पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकार के बीच निम्नांकित अंतर हैं-

  • क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या- पूर्ण प्रतियोगिता में समरूप वस्तु के अनेक क्रेता तथा विक्रेता होते हैं। जबकि एकाधिकार में वस्तु का केवल एक ही विक्रेता होता है।
  • प्रवेश पर प्रतिबंध- पूर्ण प्रतियोगिता में नई फर्मों के उद्योग में प्रवेश पाने तथा पुरानी फर्म द्वारा उसे छोड़कर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। इसमें विपरीत, एकाधिकार में नई फर्मों के प्रवेश पर प्रतिबंध होता है।
  • माँग वक्र का आकार- पूर्ण प्रतियोगिता में माँग अथवा AR वक्र OX अक्ष के समानान्तर होता है, साथ ही औसत आगम और सीमांत आगम बराबर होते हैं

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एकाधिकार में, माँग अथवा AR वक्र बाएँ से दाएँ नीचे की ओर झुके होते है। एवं सीमांत आगम वक्र औसत आगम के नीचे होता है।
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प्रश्न 3.
किसी अर्थव्यवस्था की केन्द्रीय समस्याएँ कौन-सी हैं तथा ये क्यों उत्पन्न होती है ? उत्पादन संभावना वक्र की सहायता से ‘क्या उत्पादन करें’ की समस्या को समझाइए।
उत्तर:
एक अर्थव्यवस्था की तीन केन्द्रीय समस्याएँ निम्नांकित हैं-

  • क्या उत्पादित किया जाए? विभिन्न वस्तुओं के उत्पादन से संबंधित चयन की समस्या।
  • कैसे उत्पादित किया जाए ? उत्पादन की तकनीकों से संबंधित चयन की समस्या।
  • किसके लिए उत्पादन किया जाए ? उत्पादन के वितरण से संबंधित चयन की समस्या।

ये समस्याएँ प्रत्येक अर्थव्यवस्था की केन्द्रीय समस्याएँ हैं। ये समस्याएँ उत्पन्न होती हैं क्योंकि-

  • असीमित आवश्यकताओं की तुलना में संसाधन । दुर्लभ होते हैं और
  • इन संसाधनों के वैकल्पिक प्रयोग हो सकते हैं। क्या उत्पादित किया जाए की समस्या का संबंध उत्पादन की जानेवाली वस्तुओं तथा सेवाओं के चयन से संबंधित होता है।

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ऊपर दिये गये चित्र में AB उत्पादन संभावना वक्र है, जिसमें उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन को Oe से of और og करने के लिए पहले से ज्यादा शुद्ध वस्तुओं का परित्याग करना पड़ता है, जैसे hk और nj।

क्योंकि सीमांत अक्सर लागत में बढ़ने की प्रवृत्ति पाई जाती है इससे दो तथ्य स्पष्ट होते है-

  • उपभोक्ता वस्तुओं का अधिक उत्पादन तभी हो सकता है यदि शुद्ध सामग्री का उत्पादन घटाया जाए।
  • जैसे-जैसे अधिक से अधिक संसाधनों को युद्ध सामग्री के उत्पादन से हटाकर उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन में लगाया जाता है, सीमांत अवसर लागत में बढ़ने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

प्रश्न 4.
उच्चतम मूल्य नीति की उपयुक्त चित्र द्वारा व्याख्या करें।
उत्तर:
कीमत की उच्चतम सीमा उस कीमत को दर्शाती है जिसे विक्रेता सरकारी हस्तक्षेप होने पर अधिकतम कीमत के रूप में प्राप्त करता है। यह कीमत निम्न चित्र में OP1 से प्रदर्शित की गई है।
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बाजार में अगर OP प्रचलित कीमत है और सभी वर्ग के लोग इस कीमत पर वस्तु का उपयोग नहीं कर पाते हैं तब सरकार OP1 कीमत निर्धारित करती है। फलत: ab आंतरिक माँग उत्पन्न होती है। सरकार सीमित पूर्ति के समाधान के रूप में राशनिंग का सहारा लेती है। प्रत्येक आटा समूह के लिए वस्तु की आपूर्ति का एक निश्चित कोटा निर्धारित कर देती है।

प्रश्न 5.
सरकारी क्षेत्र के समावेश के अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
सरकारी क्षेत्र में अर्थव्यवस्था में समावेश से अर्थव्यवस्था पर निम्नांकित प्रभाव पड़ते हैं-

  • सरकार गृहस्थों पर कर लगाती है। जिसकी उनकी प्रयोज्य आय कम होती है। फलस्वरूप कुल माँग घट जाती है।
  • सरकार घरेलू क्षेत्र को कई प्रकार से हस्तान्तरण भुगतान करती है जिसके फलस्वरूप उनका प्रयोज्य आय में वृद्धि होती है।
  • कानून तथा व्यवस्था व सुरक्षा आदि सेवाएँ प्रदान करके सरकार आय प्रजनन की प्रक्रिया में अंशदान करती है।
  • सरकार निगम कर लगाती है जिससे अर्थव्यस्था में वैयक्तिक आय घटती है।
  • वस्तुओं तथा सेवाओं पर कर घरेलू पदार्थ के बाजार मूल्य में वृद्धि लाता है।
  • उत्पादकों को सरकार द्वारा दी गई आर्थिक सहायता घरेलू पदार्थ के बाजार मूल्य को घटाती है।

प्रश्न 6.
एक वस्तु की माँग 5 रु० प्रति इकाई कीमत पर 30 इकाई है। मान लीजिए वस्तु की कीमत बढ़कर 6 रु० प्रति इकाई हो जाती है जिससे माँग घटकर 24 हो जाती है। माँग की कीमत लोच की गणना करें।
उत्तर:
मान लिया कि प्रारंभिक मूल्य P1 तथा अंतिम मूल्य P2 है। प्रारंभिक मूल्य (P1) पर माँगी गई वस्तु की मात्रा Q1 तथा अंतिम मूल्य (P2) पर माँगी गई वस्तु की मात्रा Q2 है।
P1 = Rs 5, P1 = Rs 6, Q1 = 30, Q2 = 24
माँग की कीमत लोच ep = \(\frac{\Delta Q}{\Delta P} \cdot \frac{P_{1}}{Q_{1}}\)
ΔQ = माँग मात्रा में परिवर्तन = Q2 – Q1
ΔP = कीमत में परिवर्तन = P2 – P1
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अर्थात् माँग की कीमत लोच इकाई के बराबर है। (ऋणात्मक चिह्न यह बताता है कि माँग तथा मूल्य परिवर्तन एक दूसरे के विपरीत दिशा में होते हैं।)

प्रश्न 7.
राजस्व घाटा किसे कहते हैं ? इसे कम करने के दो उपाय बतायें।
उत्तर:
राजस्व घाटा सरकार के राजस्व व्यय की राजस्व प्राप्तियाँ पर अधिकता को दर्शाता है। राजस्व घटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ राजस्व घाटा यह बताता है कि सरकार अबचत कर रही है। अर्थात् सरकार की परिसंपत्तियों में कमी हो जाती है। इसे कम करने के दो उपाय निम्नांकित हैं-

  • करों की दरों में वृद्धि करके सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है जिससे प्राप्तियों तथा व्यय का अंतर कम किया जा सकता है।
  • करों के आधार को विस्तृत करके भी सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है तथा प्राप्तियों एवं व्यय के अंतर को कम करने का प्रयास करती है।
  • सार्वजनिक व्यय में कटौती करके।

प्रश्न 8.
संसाधनों के बँटवारे (आवंटन) से संबंधित केन्द्रीय समस्याओं का संक्षेप में विवरण दीजिए।
अथवा, अर्थव्यवस्था की केन्द्रीय समस्याओं की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संसाधन के आबंटन से संबंधित तीन केन्द्रीय समस्यायें हैं-

  1. क्या उत्पादन किया जाए और कितनी मात्रा में
  2. कैसे उत्पादन किया जाए और
  3. किसके लिये उत्पादन किया जाए।

1. क्या उत्पादन किया जाए और कितनी मात्रा में (What to Produce and Which Quantity)- प्रत्येक अर्थव्यवस्था के पास साधन सीमित हैं और उनके वैकल्पिक प्रयोग होते हैं। समाज को लाखों वस्तुओं और सेवाओं की आवश्यकता होती है। अत: अर्थव्यवस्था को यह निर्णय लेना होता है कि उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन किया जाए या पूँजीगत वस्तुओं का, विलासितापूर्ण वस्तुओं का उत्पादन किया जाय या अनिवार्य वस्तुओं का, युद्धकालीन वस्तुओं का उत्पादन किया जाए या शांतिकालीन वस्तुओं का। इसके बाद यह निर्णय लिया जाएगा कि कितनी मात्रा में इन वस्तुओं का उत्पादन किया जाए।

2. कैसे उत्पादन किया जाए (How to Producc)- इन समस्या का संबंध उत्पादन की तकनीक के चयन से है। उत्पादन करने की तकनीक और पूँजी-प्रधान तकनीका उत्पादन की बेहतर तकनीक वही है जिसमें दुर्लभ संसाधनों का कम-से-कम उपयोग हो।

3. किसके लिए उत्पादन किया जाए (For whom to Produce)- अर्थव्यवस्था को यह निर्णय लेना होता है कि उत्पादित वस्तुओं का उपभोक्ताओं के बीच किस प्रकार वितरण किया जाए। अर्थव्यवस्था उन्हीं लोगों के लिए उत्पादन करती है जिनके पास पर्याप्त मात्रा में क्रय शक्ति होती है। क्रय शक्ति आय पर निर्भर करती है अर्थात् अर्थव्यवस्था को यह निर्णय लेना पड़ता है कि राष्ट्रीय आय का वितरण किस प्रकार किया जाए।

प्रश्न 9.
किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारकों को समझाइयें।
उत्तर:
किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारक (Factors determining thedemand for a commodity)- किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-

(i) वस्तु की कीमत (Price of a commodity)- सामान्यत: किसी वस्तु की माँग की मात्रा उस वस्तु की कीमत पर आश्रित होती है। अन्य बातें पर्ववत रहने पर कीमत कम होने पर वस्त की मांग बढ़ती है और कीमत के बढ़ने पर माँग घटती है। किसी वस्तु की कीमत और उसकी माँग में विपरीत सम्बन्ध होता है।

(ii) संबंधित वस्तुओं की कीमतें (Prices of related goods)- संबंधित वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं-
पूरक वस्तुएँ तथा स्थानापन्न वस्तुएँ- पूरक वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो किसी आवश्यकता को संयुक्त रूप से पूरा करती हैं और स्थानापन्न वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग की जा सकती हैं। पूरक वस्तुओं में यदि एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो उसकी पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि स्थानापन्न वस्तुओं में किसी एक की कीमत कम हो जाती है तो दूसरी वस्तु की मांग भी कम हो जाती है।

(iii) उपभोक्ता की आय (Income of Consumer)- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर सामान्यतया उसके द्वारा वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है।

आय में वृद्धि के साथ अनिवार्य वस्तुओं की माँग एक सीमा तक बढ़ती है तथा उसके बाद स्थिर हो जाती है। कुछ परिस्थितियों में आय में वृद्धि का वस्तु की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसा खाने-पीने की सस्ती वस्तुओं में होता है। जैसे नमक आदि।

विलासितापूर्ण वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ लगातार बढ़ती रहती है। घटिया (निम्नस्तरीय) वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि साथ-साथ कम हो जाती है लेकिन सामान्य वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ बढ़ती है और आय में कमी से कम हो जाती है।

(iv) उपभोक्ता की रुचि तथा फैशन (Interest of Consumer and Fashion)- परिवार या उपभोक्ता की रुचि भी किसी वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार या स्कूटर की माँग बढ़ सकती है।

(v) विज्ञापन तथा प्रदर्शनकारी प्रभाव (Advertisement and Demonstration Effect) विज्ञापन भी उपभोक्ता को किसी विशेष वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार या स्कूटर की मांग बढ़ सकती है।

(vi) जनसंख्या की मात्रा और बनावट (Quantity and Composition of population) अधिक जनसंख्या का अर्थ है परिवारों की अधिक संख्या और वस्तुओं की अधिक माँग। इसी प्रकार जनसंख्या की बनावट से भी विभिन्न वस्तुओं की माँग निर्धारित होती है।

(vii) आय का वितरण (Distribution of Income)- जिन अर्थव्यवस्था में आय का वितरण समान है वहाँ वस्तुओं की माँग अधिक होगी तथा इसके विपरीत जिन अर्थव्यवस्था में आय का वितरण असमान है, वहाँ वस्तुओं की माँग कम होगी।

(viii) जलवायु तथा रीति-रिवाज (Climate and Customs)- मौसम, त्योहार तथा विभिन्न परंपराएँ भी वस्तु की माँग को प्रभावित करती हैं। जैसे-गर्मी के मौसम में कूलर, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक आदि की माँग बढ़ जाती है।

प्रश्न 10.
माँग की लोच का महत्त्व लिखें।
उत्तर:
माँग की लोच का महत्त्व (Importance of elasticity of demand)- माँग की लोच का महत्व निम्नलिखित कारणों में है-

(i) एकाधिकारी के लिए उपयोगी (Useful for monopolist)- अपने उत्पादन के मूल्य निर्धारण में एकाधिकारी माँग की लोच का ध्यान रखता है। एकाधिकारी का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है। वह उस वस्तु का मूल्य उस वर्ग के लिए कम रखेगा जिसकी माँग अधिक लोचदार है और उस वर्ग के लिए अधिक रखेगा जिस वर्ग के लिए वस्तु की माँग बेलोचदार है।

(ii) वित्त मंत्री के लिए उपयोगी- माँग की लोच वित्त मंत्री के लिए भी उपयोगी है। वित्त मंत्री कर लगाते समय माँग की लोच को ध्यान में रखेगा। जिस वस्तु की माँग अधिक लोचदार होती है उस पर कम दर से कम कर लगाकर अधिक धनराशि प्राप्त करता है। इसके विपरीत वह उन वस्तुओं पर अधिक कर लगाएगा जिन वस्तुओं की माँग की लोच कम है।

(iii) साधन कीमत के निर्धारण में सहायक (Helpful in determining the price of factors)- उत्पादक प्रक्रिया में साधनों को मिलने वाले प्रतिफल की स्थिति इसके द्वारा स्पष्ट होती है वे साधन जिनकी माँग बेलोचदार होती है, लोचदार माँग वाले साधनों की तुलना में अधिक कीमत प्राप्त करते हैं।

(iv) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उपयोगी (Useful in international trade)- माँग की लोच की जानकारी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बहुत ही सहायक है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में निर्यात की जाने वाली जिन वस्तुओं की माँग विदेशों में बेलोचदार है उनकी कीमत अधिक रखी जाएगी और जिन वस्तुओं की माँग विदेशों में बेलोचदार है उनकी कीमत अधिक रखी जाएगी।

(v) निर्धनता का विरोधाभास (Paradox of Poverty)- कई वस्तुओं की फसल बहुत अच्छी होने पर भी उनसे प्राप्त होने वाली आय बहुत कम होती है। इसका अर्थ यह है कि किसी वस्तु के उत्पादन में वृद्धि होने से आय बढ़ने के स्थान पर कम हो गई। इस अस्वाभाविक अवस्था को ही निर्धनता का विरोधाभास कहते हैं। इसका कारण यह है कि अधिकतर कृषि पदार्थों की माँग बेलोचदार होती है। इन वस्तुओं की पूर्ति के बढ़ने पर कीमत में काफी कमी आती है तो भी इनकी माँग में विशेष वृद्धि नहीं हो पाती। इसलिए इनकी बिक्री से प्राप्त कुल आय पहले की तुलना में कम हो जाती है।

(vi) राष्ट्रीयकरण की नीति के लिये महत्त्वपूर्ण (Important for the policy of nationalisation)- राष्ट्रीयकरण की नीति से अभिप्राय है कि सरकार का निजी क्षेत्र के उद्योगों का स्वामित्व, नियन्त्रण तथा प्रबंध स्वयं अपने हाथों में लेना। जिन उद्योगों में उत्पादित वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है, उनकी कीमत में बहुत अधिक वृद्धि किये जाने पर भी उनकी माँग में विशेष कमी नहीं आती। यदि ऐसे उद्योग निजी क्षेत्र में रहते हैं तो उन उद्योगों के स्वामी अपनी उत्पादित वस्तुओं की अधिक कीमत लेकर जनता का शोषण कर सकते हैं। जनता को उनके शोषण से बचाने के लिए सरकार उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर सकती है।

(vii) कर लगाने में सहायक (Helpful in imposing taxes)- कर लगाते समय सरकार वस्तु की माँग लोच को ध्यान में रखती है।

प्रश्न 11.
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में निम्नलिखित अन्तर है-
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल:

  1. उत्पादन के चारों साधनों के एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अध्ययन पैमाने के प्रतिफल के अन्तर्गत किया जाता है।
  2. यह नियम दीर्घकाल में लागू होता है।
  3. इसमें उत्पत्ति के चारों साधन परिवर्तन-शील हैं।
  4. चारों साधनों में अनुपात स्थिर रहता है।
  5. उत्पादन का पैमाना बदल जाता है।
  6. पैमाने के वर्द्धमान प्रतिफल-चारों साधनों में एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन उस अनुपात से अधिक बढ़ता है।
  7. पैमाने के ह्रासमान प्रतिफल: चारों साधनों में एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन उस अनुपात से कम बढ़ता है।

पैमाने के प्रतिफल:

  1. अन्य साधनों को स्थिर रखकर किसी एक परिवर्तनशील साधन की इकाई में वृद्धि करने से कल उत्पादन का क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अध्ययन परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल के अन्तर्गत किया जाता है।
  2. यह नियम अल्पकाल में लागू होता है।
  3. समें एक साधन परिवर्तनशील है जबकि अन्य साधन स्थिर हैं।
  4. परिवर्तनशील तथा स्थिर साधनों में अनुपात बदला जाता है।
  5. उत्पादन के पैमाने में कोई परिवर्तन नहीं होती।
  6. उत्पत्ति वृद्धि नियमः अन्य साधनों को स्थिर रखकर श्रम की इकाइयों में वृद्धि करने पर कुल उत्पादन बढ़ती हुई दर से बढ़ता है तथा औसत और सीमान्त उत्पादन बढ़ते हैं।
  7. उत्पत्ति वृद्धि नियम अन्य साधनों को स्थिर रखकर श्रम की इकाइयों में वृद्धि करने पर कुल उत्पादन घटती हुई दर से बढ़ता है तथा औसत और सीमान्त उत्पादन घटता है।

प्रश्न 12.
पूर्ण प्रतियोगी श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण कैसे किया जाता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण (Determination of Wage in Perfectly Competitive Labour Market)- श्रम बाजार में परिवार श्रम की पूर्ति करते हैं और श्रम की माँग फर्मों द्वारा की जाती है। श्रम से अभिप्राय श्रमिकों द्वारा किए गए काम के घंटों से है न कि श्रमिकों की संख्या से। श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर माँग वक्र तथा पूर्ति वक्र आपस में काटते हैं।

मजदूरी निर्धारण में हम यह मान लेते हैं कि श्रम ही केवल परिवर्तनशील उत्पादन का साधन है तथा मजदूर बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता है अर्थात् प्रत्येक फर्म के लिए मजदूरी दी गई है। प्रत्येक फर्म का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है। हम यह भी मानकर चलते हैं कि फर्म की उत्पादन तकनीक दी गई है और उत्पाद का ह्रासमान नियम लागू है।

जैसा कि प्रत्येक फर्म का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है, अत: फर्म उस बिन्दु तक श्रमिकों की नियुक्ति करती रहेगी जब तक अन्तिम श्रम पर होने वाला अतिरिक्त (Extra) व्यय उस श्रम से प्राप्त अतिरिक्त लाभ के समान नहीं होता। एक अतिरिक्त श्रम के लगाने की अतिरिक्त लागत मजदूरी पर (W) कहलाती है और एक अतिरिक्त मजदूर के लगाने से प्राप्त आय उस श्रम की सीमान्त उत्पादकता (MP,) कहलाती है। उत्पाद की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई के बेचने से प्राप्त होने वाली आय सीमान्त आय (आगम) कहलाती है। फर्म उस बिन्दु तक श्रम को लगाती है, जहाँ
W = MRPL
यहाँ MRPL = MR × MPL

प्रश्न 13.
तीन विभिन्न विधियों की सूची बनाइए जिसमें अल्पाधिकारी फर्म व्यवहार कर सकता है।
उत्तर:
तीन विभिन्न विधियाँ (Three different ways)- नीचे तीन विभिन्न विधियाँ दी गई हैं जिनमें अल्पाधिकार फर्म व्यवहार कर सकती हैं
1. द्वि-अधिकारी फर्म आपस में सांठ-गांठ करके यह निर्णय ले सकती है कि वे एक दूसरे से स्पर्धा नहीं करेंगे और एक साथ दोनों फर्मों के लाभ को अधिकतम स्तर तक ले जाने का प्रयत्न करेंगे। इस स्थिति में दोनों फर्मे एकल एकाधिकारी की तरह व्यवहार करेंगी जिनके पास दो अलग-अलग वस्तु उत्पादन करने वाले कारखाने होंगे।

2. दो फर्मों में प्रत्येक यह निर्णय ले सकती है कि अपने लाभ को अधिकतम करने के लिये वह वस्तु की कितनी मात्रा का उत्पादन करेंगी। यहाँ यह मान लिया जाता है कि उनकी वस्तु की मात्रा की पूर्ति को कोई अन्य फर्म प्रभावित नहीं करेंगी।

3. कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है अल्पाधिकार बाजार संरचना में वस्तु की अनन्य पहुँचेगा, क्योंकि इस स्तर पर सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत समान होंगे और निर्गत में वृद्धि के लाभ से किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होगी।

दूसरी ओर यदि फर्म प्रतिशत से अधिक मात्रा में निर्गत का उत्पादन करती है तो सीमांत लागत सीमांत संप्राप्ति से अधिक होती है। अभिप्राय यह है कि निर्गत की एक इकाई कम करने से कुल लागत में जो कमी होती है, वह इसी कमी के कारण कुल संप्राप्ति में हुई हानि से अधिक होती है। अतः फर्म के लिए यह उपयुक्त है कि वह निर्गत में कमी लाए। यह तर्क तब तक समीचीन होगा जब तक सीमांत लागत वक्र सीमांत संप्राप्ति वक्र के ऊपर अवस्थित और फर्म अपने निर्गत संप्राप्ति के मूल्य समान हो जाएँगे और फर्म अपने निर्गत में कमी को रोक देगी।

फर्म अनिवार्य रूप से प्रतिशत निर्गत स्तर पर पहुँचती है। अतः इस स्तर को निर्गत स्तर का संतुलन स्तर कहते हैं। निर्गत का यह संतुलन स्तर उस बिन्दु के संगत होता है जहाँ सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत के बराबर होती है। इस समानता को एकाधिकारी फर्म द्वारा उत्पादित निर्गत के लिये संतुलन की शर्त कहते हैं।

प्रश्न 14.
अल्पाधिकार किसे कहते हैं ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
अल्पाधिकार (Oligopoly)- अल्पाधिकार अपूर्ण प्रतियोगिता का एक रूप है। अल्पाधिकार बाजार की ऐसी अवस्था को कहा जाता है जिसमें वस्तु के बहुत कम विक्रेता होते हैं और प्रत्येक विक्रेता पूर्ति एवं मूल्य पर समुचित प्रभाव रखता है। प्रो० मेयर्स के अनुसार “अल्पाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें विक्रेताओं की संख्या इतनी कम होती है कि प्रत्येक विक्रेता की पूर्ति का बाजार कीमत पर समुचित प्रभाव पड़ता है और प्रत्येक विक्रेता इस बात से परिचित होता है।”

अल्पाधिकार की विशेषताएँ (Characteristics of Oligopoly)- अल्पाधिकार की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. विक्रेताओं की कम संख्या (A few sellers firms)- अल्पाधिकार में उत्पादकों एवं विक्रेताओं की संख्या सीमित होती है। प्रत्येक उत्पादक बाजार की कुल पूर्ति में एक महत्वपूर्ण भाग रखता है। इस कारण प्रत्येक उत्पादक उद्योग की मूल्य नीति को प्रभावित करने की स्थिति में होता है।

2. विक्रेताओं की परस्पर निर्भरता (Mutual dependence)- इसमें सभी विक्रेताओं में आपस में निर्भरता पाई जाती है। एक विक्रेता की उत्पाद एवं विक्रय नीति दूसरे विक्रेताओं की उत्पाद एवं मूल्य नीति से प्रभावित होती है।

3. वस्तु की प्रकृति (Nature of Product)- अल्पाधिकार में विभिन्न उत्पादकों के उत्पादों में समरूपता भी हो सकती है और विभेदीकरण भी। यदि उनका उत्पाद एकरूप है तो इसे विशुद्ध अल्पाधिकार कहा जाता है और यदि इनका उत्पाद अलग-अलग है तो इसे विभेदित अल्पाधिकार कहा जाता है। .

4. फर्मों के प्रवेश एवं बर्हिगमन में कठिनाई (Difficultentry andexittofirm)- अल्पाधिकार की स्थिति में फर्मे न तो आसानी से बाजार में प्रवेश कर पाती हैं और न पुरानी फर्मे आसानी से बाजार छोड़ पाती हैं।

5. अनम्य कीमत (Rigid Price)- कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि अल्पाधिकार बाजार संरचना में वस्तुओं की अनन्य कीमत होती है अर्थात् माँग में परिवर्तन के फलस्वरूप बाजार कीमत में निर्बाध संचालन नहीं होता है। इसका कारण यह है कि किसी भी फर्म द्वारा प्रारंभ की गई कीमत में परितर्वन के प्रति एकाधिकारी फर्म प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यदि एक फर्म यह अनुभव करती है कि कीमत में वृद्धि से अधिक लाभ का सृजन होगा और इसलिये वह अपने निर्गत (उत्पाद) को बेचने के लिये कीमत में वृद्धि करेगी (अन्य फर्मे इसका अनुकरण नहीं कर सकती हैं)। अतः कीमत वृद्धि अतः कीमत वृद्धि से बिक्री की मात्रा में भारी गिरावट आएगी जिससे फर्म की संप्राप्ति और लाभ में गिरावट आएगी। अतः किसी फर्म के लिये कीमत में वृद्धि करना विवेक संगत नहीं होगा। इसी प्रकार कोई भी फर्म अपने उत्पाद की कीमत में कमी नहीं लाएगी।

6. आपसी अनुबंध (MutualAgreement)- कभी-कभी अल्पाधिकार के अंतर्गत कार्य करने वाली विभिन्न फर्मे आपस में एक अनुबंध कर लेती हैं। यह अनुबंध वस्तु के मूल्य तथा उत्पादन की मात्रा के सम्बन्ध में किया जाता है। इसका उद्देश्य सभी फर्मों के हितों की रक्षा करना तथा उनके लाभों में वृद्धि करना होता है। ऐसी दशा में निर्धारित किया गया मूल्य एकाधिकारी फर्म के समान ही होगा।

प्रश्न 15.
एक फर्म की कुल स्थिर लागत, कुल परिवर्तनशील लागत तथा कुल लागत क्या हैं ? ये आपस में किस प्रकार संबंधित हैं ?
उत्तर:
(i) कुल नश्चित लागत (Total Fixed Cost)- बेन्हम के अनुसार एक फर्म की स्थिर लागतें वे लागतें होती हैं, जो उत्पादन के आकार के साथ परिवर्तित नहीं होती। ये लागतें सदैव स्थिर रहती हैं। इनका संबंध उत्पादन की मात्रा के साथ नहीं होता अर्थात् उत्पादन की मात्रा के घटने E या बढ़ने का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्थिर लागतों कुल स्थिर लागत में भूमि अथवा फैक्टरी, इमारत का किराया, बीमा व्यय, लाइसेंस, फीस, सम्पत्ति कर आदि लागतें शामिल होती हैं। स्थिर लागतों को अप्रत्यक्ष कर भी कहा जाता है।

बगल के चित्र द्वारा स्थिर लागत को दर्शाया गया है।
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(ii) कुल परिवर्ती लागत (Total Variable Cost) कुल परिवर्ती (अथवा परिवर्तनशील) लागतें वे लागतें हैं जो उत्पाद के आकार के साथ घटती बढ़ती रहती है। ये लागतें । उत्पादन की मात्रा के साथ बढ़ती है और उत्पादन के घटने पर घटती है। कच्चा माल, बिजली, ईंधन, परिवहन आदि पर होने वाले व्यय परिवर्ती लागतें कहलाती हैं। बेन्हम के अनुसार, “एक फर्म की परिवर्ती लागतों में वे लागतें शामिल की जाती है जो उसके उत्पादन के आकार के साथ परिवर्तित होती हैं।” कुल परिवर्ती लागतों के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि आरम्भ में ये लागतें घटती दर से बढ़ती है, परन्तु एक सीमा के बाद वे बढ़ती हुई दर से बढ़ती है। कुल परिवर्ती लागतों को ऊपर के चित्र द्वारा दर्शाया गया है।
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(iii) कुल लागत (Total Cost)- कुल लागत कुल स्थिर लागत तथा कुल परिवर्ती लागत का योग होती है। कुल लागत से अभिप्राय किसी वस्तु के उत्पादन पर होने वाले कुल व्यय से है। उत्पादन. की मात्रा में परिवर्तन होने पर उत्पादन की कुल लागत में भी परिवर्तन हो जाता है।

कुल परिवर्ती लागत, कुल स्थिर लागत तथा कुल लागत का पारस्परिक सम्बन्ध (Interrelationship between Total Variable Costs, Total Fixed Costs and Total Costs)- कुल परिवर्ती लागतों, कुल स्थिर लागतों तथा कुल लागतों के आपसी सम्बन्धों को नीचे चित्र द्वारा दर्शाया गया है-
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चित्र से पता चलता है कि कुल लागत, कुल स्थिर लागत तथा कुल परिवर्ती लागत के योग हैं। उत्पादन के शून्य स्तर पर कुल लागत तथा स्थिर लागत बराबर होती है। परिवर्तनशील लागतों के बढ़ने से कुल लागतें बढ़ती हैं।

प्रश्न 16.
पूर्ण प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है जिसके कारण कोई भी विक्रेता अथवा क्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाता। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में एक क्रेता अथवा एक विक्रेता बाजार में माँग अथवा पूर्ति की दशाओं को प्रभावित नहीं कर सकता।

(ii) वस्तु की समरूप इकाइयाँ- सभी विक्रेताओं द्वारा बाजार में वस्तु की बेची जाने वाली इकाइयाँ एक समान होती हैं।

(iii) फर्मों के प्रवेश व निष्कासन की स्वतंत्रता- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में कोई भी नई फर्म उद्योग में प्रवेश कर सकती है तथा कोई भी पुरानी फर्म उद्योग से बाहर जा सकती है। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में फर्मों के उद्योग में आने-जाने पर कोई प्रबन्ध नहीं होता।

(iv) बाजार दशाओं का पूर्ण ज्ञान- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में क्रेताओं एवं विक्रेताओं को बाजार दशाओं को पूर्ण ज्ञान होता है। इस प्रकार कोई भी क्रेता वस्तु की प्रचलित कीमत से अधिक कीमत देकर वस्तु नहीं खरीदेगा। यही कारण है कि बाजार में वस्तु की एक समान कीमत पायी जाती है।

(v) साधनों की पूर्ण गतिशीलता- पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति के साधन बिना किसी व्यवधान के एक उद्योग से दूसरे उद्योग में अथवा एक फर्म से दूसरी फर्म में स्थानान्तरित किये जा सकते हैं।

(vi) कोई यातायात लागत नहीं- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में यातायात लागत शून्य होती है जिसके कारण बाजार में एक कीमत प्रचलित रहती है।

प्रश्न 17.
कुल लागत, औसत लागत तथा सीमान्त लागत के क्या अर्थ है ? औसत लागत तथा सीमान्त लागत के आपसी सम्बन्ध की चित्र की सहायता से व्याख्या करें।
उत्तर:
कुल लागत : किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए उत्पादक को जितने कुल व्यय करने पड़ते हैं उनके जोड़ को कुल लागत कहते हैं। अल्पकाल की कुल लागत में स्थिर लागत एवं परिवर्तन लागत दोनों सम्मिलित होती है, जबकि दीर्घकाल की कुल लागत में केवल परिवर्तनशील लागते ही शामिल होती हैं।

औसत लागत : उत्पादन की प्रति इकाई लागत को औसत लागत कहते हैं।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 11
सीमान्त लागत : किसी वस्तु की एक कम या एक अधिक इकाई उत्पादन करने में कुल लागत में जो अन्तर आता है, उसे सीमान्त लागत कहते हैं अर्थात् अतिरिक्त इकाई की अतिरिक्त लागत. को सीमान्त लागत कहते हैं।

सीमान्त लागत (MC) तथा औसत लागत (AC) में संबंध (Relationship between AC and MC):

  1. जब औसत लागत कम होती है, तब सीमान्त लागत औसत लागत से कम होती है।
  2. जब औसत लागत बढ़ती है तब सीमान्त लागत औसत लागत से अधिक होती है।
  3. सीमान्त लागत वक्र सीमान्त लागत वक्र को न्यूनतम बिन्दु पर काटता है।

Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 12

प्रश्न 18.
मुद्रा के विभिन्न कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
मुद्रा के कार्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. अनिवार्य कर,
  2. सहायक कार्य

अनिवार्य कार्य- मुद्रा के अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)- मुद्रा ने विनिमय के कार्य को सरल और सुविधापूर्ण बना दिया है। वर्तमान युग में सभी वस्तुएँ और सेवाएँ मुद्रा के माध्यम से ही खरीदी तथा बेची जाती हैं।
  • मूल्य मापक (Measure of Value)- मुद्रा का कार्य सभी वस्तुओं और सेवाओं का मूल्यांकन करना है। वर्तमान युग में सभी वस्तुओं और सेवाओं को मुद्रा के द्वारा मापा जाता है।
  • स्थगित भुगतान का आधार (Payments)- वर्तमान युग में बहुत से भुगतान तत्काल न करके भविष्य के लिए स्थगित कर दिये जाते हैं। मुद्रा ऐसे सौदों के लिए आधार प्रस्तुत करती है। मुद्रा के मूल्य में अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अधिक स्थायित्व पाया जाता है। मुद्रा में सामान्य स्वीकृति गुण पाया जाता है।
  • मूल्य का संचय (Store of value)- मनुष्य अपनी आय का कुछ भाग भविष्य के लिए अवश्य बचाता है। मुद्रा के प्रयोग द्वारा मूल्य संचय का कार्य सरल और सुविधापूर्ण हो गया है।
  • मूल्य का हस्तान्तरण (Transfer of value)- मुद्रा-क्रय शक्ति के हस्तांतरण का सर्वोत्तम साधन है। इसका कारण मुद्रा का सर्वग्राह्य और व्यापक होना है। मुद्रा के द्वारा चल व अचल सम्पत्ति का हस्तांतरण सरलता से हो सकता है।

सहायक कार्य- मुद्रा के सहायक कार्य निम्नलिखित हैं-

  • आय का वितरण (Distribution of Income)- आधुनिक युग में उत्पादन की प्रक्रिया बहुत जटिल हो गई है, जिसके लिए उत्पादन के विभिन्न साधनों का सहयोग प्राप्त किया जाता है। मुद्रा के द्वारा उत्पादन के विभिन्न साधनों को पुरस्कार दिया जाता है।
  • साख का आधार (Basis of Credit)- व्यापारिक बैंक साख का निर्माण नकद कोष के आधार पर करते हैं। मुद्रा साख का आधार है।
  • अधिकतम संतुष्टि का आधार (Basis of Maximum Satisfaction)- मुद्रा के द्वारा उपभोक्ता संतुष्टि प्राप्त करना चाहता है जो उसे सम सीमान्त उपयोगिता के नियम का पालन करके ही प्राप्त हो सकती है। इस नियम का पालन मुद्रा द्वारा ही संभव हुआ है।
  • पूँजी को सामान्य रूप प्रदान करना (General Form of the Capital)- मुद्रा सभी प्रकार की सम्पत्ति, धन, आय व पूँजी को सामान्य मूल्य प्रदान करती है, जिससे पूँजी का तरलता, गतिशीलता और उत्पादकता में वृद्धि हुई है।