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Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 1 in Hindi

प्रश्न 1.
बाजार मूल्यांकन से आप क्या समझते हैं ? बाजार मूल्यांकन पर प्रभाव डालने वाले घटक कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
बाजार मूल्यांकन- उत्पाद और सेवाओं का चयन माँग और पति के घटकों के अतिरिक्त अन्य अनेक घटकों पर भी निर्भर करता है। जैसे-उत्पाद की गुणवत्ता पूर्ति के लिए स्रोत एवं वितरण’ के तंत्र। बाजार मूल्यांकन करते समय एक साहसी को निम्न रूपरेखा बना लेनी चाहिए-

  • माँग
  • पूर्ति और प्रतियोगिता
  • उत्पादन की लागत और कीमत एवं
  • परियोजना की नवीनीकरण तथा परिवर्तन।

बाजार मल्यांकन पर प्रभाव डालने वाले घटक- किसी कम्पनी के बाह्य वातावरण के अग्र भागों में बाँटा जा सकता है-
(i) सक्ष्म वातावरण- सूक्ष्म वातावरण में उन शक्तियों का वर्णन होता है जिनसे कम्पनी के ग्राहकों को प्रभावित किया जाता है। ये शक्तियाँ बाह्य होती हैं परंतु कम्पनी की बाजार व्यवस्था को प्रभावित करती हैं। इन शक्तियों में माल की पूर्ति देने वाले मध्यस्थ, प्रतियोगी, ग्राहक तथा जनता आती है। साधारणतया इन घटकों को नियंत्रित नहीं किया जा सकता है।

(ii) पर्ति करने वाले- उत्पाद और सेवाओं को बनाने और देने में किसी कम्पनी को बहुत-से चरों को देखना होता है। वस्तुओं/सेवाओं की पूर्ति देने वालों को ही सुपुर्दगीदाता कहा जाता है। इनका कम्पनी की सफलता व असफलता से सीधा संबंध होता है। विपणन कर्मचारियों का वस्तु की पूर्ति देने वालों से कोई संबंध नहीं होता। हालांकि जब माल की कमी होती है, तब इन्हें भी परेशानी होती है। विपणन की सफलता के लिए पर्याप्त मात्रा, अच्छी किस्म का सामान हर समय उपलब्ध होना चाहिए। जितने अधिक पूर्तिकर्ता, उतनी ही अधिक निर्भरता होगी। अतः पूर्तिकर्ता विपणन को प्रभावित कर सकता है। विपणन प्रबंधकों को सामान की नियमित पूर्ति पर ध्यान देना चाहिए। माल की कमी तथा देरी बिक्री को प्रभावित करती है। ऐसा होने से कम्पनी की ख्याति पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है।

(iii) विपणन मध्यस्थ- विपणन मध्यस्थ वे स्वतंत्र व्यक्ति अथवा फर्म हैं जो कम्पनी को प्रत्यक्ष सेवाएँ देकर उसकी बिक्री बढ़ाने में सहायता करती हैं तथा उत्पादों को शीघ्र से शीघ्र अंतिम उपभोक्ताओं तक पहुँचाते हैं।

(iv) प्रतियोगी- विपणन के सही अर्थ में एक सफल कम्पनी को ग्राहकमुखी होना चाहिए। उसको इस बात का प्रयत्न करना चाहिए कि अपने ग्राहकों की इच्छा और आवश्यकताओं का ध्यान अपने प्रतियोगी फर्म से अधिक अच्छा हो। किसी संस्था के विपणन निर्णय केवल ग्राहकों को ही प्रभावित नहीं करते वरन् उस कम्पनी के प्रतियोगी की विपणन व्यूह-रचना पर प्रभाव डालते हैं। परिणामस्वरूप विपणनकर्ताओं को बाजार की प्रतियोगिता, उत्पादों की गुणवत्ता, विपणन माध्यम तथा मूल्यों पर ध्यान रखते हुए विक्रय संवर्द्धन करना चाहिए।

(v) ग्राहक- प्रत्येक कम्पनी को अपने ग्राहकों को पाँच प्रकार के वर्ग में रखना होता है-

  • उपभोक्ता बाजार- इस श्रेणी में वे संस्थाएँ आती हैं जो वस्तुओं और सेवाओं का क्रय केवल भविष्य में उत्पादन क्रिया में उपयोग के लिए करती हैं, आज के लिए नहीं।
  • औद्योगिक बाजार- इस श्रेणी में वे संस्थाएँ आती हैं जो वस्तुओं और सेवाओं का क्रय केवल भविष्य में उत्पादन क्रिया में उपयोग के लिए करती हैं, आज के लिए नहीं।
  • सरकारी बाजार- इस श्रेणी में सरकारी कार्यालय अथवा अन्य एजेंसी जो वस्तुओं और सेवाओं का क्रय करके उन्हें बेचते हैं जिन्हें उनकी आवश्यकता होती है।
  • पुनः बिक्री बाजार- इस श्रेणी में वे व्यक्ति अथवा संस्थाएँ आती हैं जो वस्तुओं और सेवाओं को खरीदकर दूसरों को बेचकर लाभ कमाती हैं। ये फुटकर व्यापारी अथवा थोक व्यापारी हो सकते हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय बाजार- व्यक्ति/संगठन भी ग्राहक हो सकते हैं, यहाँ क्रेता दूसरे देशों के होते हैं। इसमें उपभोक्ता, उत्पादक, पुनः विक्रेता तथा सरकार भी क्रेता हो सकती है।
  • जनता- जनता से हमारा अभिप्राय ऐसे व्यक्ति के समुदाय से है जिसका वर्तमान तथा भविष्य कम्पनी की स्थिरता से जुड़ा हो और कम्पनी के उत्पादों को खरीदकर कम्पनी के उद्देश्यों को पूरा करने में सहयोग दे।

प्रश्न 2.
कोष प्रवाह विवरण आर्थिक चिट्ठे से किस प्रकार भिन्न है ?
उत्तर:
कोष प्रवाह विवरण तथा चिट्ठे में मुख्य अन्तर इस प्रकार है-
Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 1, 1

प्रश्न 3.
उद्यमिता की परिभाषा दें एवं इसकी विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
उद्यमिता या साहसिक कार्य की परिभाषा देते हुए यह कहा जा सकता है कि कार्यो को देखना, विनयोग करना, उत्पादन के अवसरों को देखना, उपक्रम को संगठित करना, नयी विधि से उत्पादन करना, पूँजी प्राप्त करना, श्रम और सामग्री को एकत्रित करना और उच्च पद के अधिकारी, प्रबंधकों का चयन को संगठन के दिन-प्रतिदिन के कार्यों को करेंगे।

1. उद्यमिता से अभिप्राय निवेश तथा उत्पादन अवसरों को खोजना, एक नई उत्पादन प्रक्रिया को स्वीकार कर एक नये उद्यम का गठन करना, पूँजी जुटाना, श्रम उपलब्ध करना, कच्चे माल की आपूर्ति की व्यवस्था करना, स्थान का चयन, नई तकनीकी सामग्री के स्रोत की जानकारी प्राप्त करना तथा उद्यम के दैनिक कार्य हेतु उच्च प्रबन्धकों की नियुक्ति आदि क्रियाओं का संयोजन है।

यह परिभाषा उद्यमी के कार्यों से सम्बन्धित है। इन क्रियाओं के अन्तर्गत आर्थिक क्रियाओं व्यवहरण, जोखिम वहन, कुछ नया सृजन तथा साधनों का गठन एवं समन्वय सम्मिलित है।

2. उद्यमिता की परिभाषा के अन्तर्गत मूल रूप से ऐसे कार्य किये जाते हैं जो कि व्यवसाय के साधारण व्यवहार में नहीं किये जाते हैं।

इस परिभाषा ने शुम्पीटर के नव-सृजन प्रक्रिया जो उद्यमी द्वारा संचालित होती है, पर बल दिया है। उसके द्वारा साधनों का एकत्रण, निपुणता का संयोजन तथा व्यवसाय को सफल बनाने हेतु नेतृत्व प्रदान करना शामिल है।

3. उद्यमिता अतिरिक्त धन सृजित करने को गतिशील करने की गतिशील प्रक्रिया है। यह धन व्यक्तियों द्वारा सृजित किया जाता है जो पूँजी, समय तथा वृत्ति की वचनबद्धता द्वारा किसी उत्पादन अथवा सेवा में मूल्य प्रदान करते हैं। उत्पाद अथवा सेवा स्वयं में एकाकी न भी हो, परन्तु उद्यमी द्वारा आवश्यक गुणों एवं साधनों के संयोजन, द्वारा उनमें मूल्य (Value) सृजित किया जाता है।

इन परिभाषा में उद्यमिता प्रक्रिया का अन्तिम परिणाम, अतिरिक्त धन का सृजन है। मूल्य सृजन जोखिमी प्रक्रिया है परन्तु उद्यमी को पूँजी व समय की संलग्नता में जोखिमों को कम करना आवश्यक है।

4.”उद्यमिता तब उजागर होती है जब साधनों का पुन: निर्देशन, अवसरों की प्रगति की और प्रशासनिक कार्यशीलता समृद्ध करते हुए सुनिश्चित की जाती है। उद्यमिता स्वाभाविक नहीं होती, यह कार्य करने में निहित है। उद्यमिता जोखिम के प्रबन्धन से जुड़ी है।

उपरोक्त परिभाषा में, ड्रकर उद्यमिता को प्रबन्धन उन्मुख बताते हैं वे पुनः स्पष्ट करते हैं कि उद्यमितीय संगठन अपनी सफलता के लिए वर्तमान प्रबन्ध की अपेक्षा भिन्न प्रबन्धन को अनिवार्य मानते हैं। परन्तु वर्तमान के अनुरूप, प्रबंधन उसी प्रकार तंत्र युक्त, संगठित एवं उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए। समूह नियम प्रत्येक उद्यम के लिए समान होते हुए भी वर्तमान व्यवसाय, लोक सेवा संस्थाएँ तथा नए उद्यम भिन्न-भिन्न चुनौतियाँ एवं समस्याएँ प्ररस्तुत करते हैं, उसके ऊपर उनमें विघटनकारी प्रवृतियों पर रोक लगाने की चेष्टा अनिवार्य है। व्यक्तिगत उद्यमियों को अपनी भूमिका एवं समर्पिताओं हेतु निर्णय लेने चाहिए।

उद्यमिता की विशेषता- उद्यमिता की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  • उद्यमिता एक प्रक्रिया है।
  • उद्यमिता सृजन की प्रक्रिया है।
  • उद्यमिता एक कार्य-योजना है।
  • उद्यमिता प्रशासन एवं नियंत्रण है।
  • उद्यमिता उत्पादन के साधनों को प्रयोग करने की प्रक्रिया है।
  • उद्यमिता जोखिम के साधनों को प्रयोग करने की प्रक्रिया है।

प्रश्न 4.
आर्थिक चिट्ठा का काल्पनिक प्रारूप तैयार करें।
उत्तर:
Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 1, 2

प्रश्न 5.
नियोजन प्रक्रिया में प्रबन्ध द्वारा लिये गये कदम क्या हैं ?
उत्तर:
नियोजन प्रक्रिया में प्रबन्ध द्वारा लिये गये कदम निम्नलिखित हैं-

  • समस्या का विश्लेषण।
  • उद्देश्यों की स्पष्ट व्याख्या।
  • आवश्यक सूचनाओं का एकत्रीकरण।
  • एकत्रित सूचनाओं का विश्लेषण और वर्गीकरण।
  • नियोजन की आधारभूत धारणाएँ एवं सीमाएँ निश्चित करना।
  • विभिन्न कार्यों तथा दशाओं का निर्णय।
  • विभिन्न विकल्पों का मूल्यांकन।
  • नियोजन क्रम और समय निश्चित करना।
  • सहायक योजनाओं का निर्माण।
  • नियोजन की उपलब्धियों का मूल्यांकन।
  • नियोजन कार्य पर नियंत्रण।

प्रश्न 6.
केन्द्रीयकरण तथा विकेन्द्रीकरण के बीच अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
जब प्रबंधक या उच्च अधिकारी अपने कार्य भार को स्वयं अपने पास रखता है तथा प्रबन्ध और संचालक की सम्पूर्ण क्रियाएँ स्वयं करता है तो उसे केन्द्रीकरण’ कहा जाता है। इसमें उत्तरदायित्व का वितरण अधीनस्थ कर्मचारियों के बीच नहीं किया जाता है।

इसके ठीक विपरीत विकेन्द्रीकरण में अधिकार एवं दायित्वों का वितरण छोटी-से-छोटी इकाई को किया जाता है।

कीथ डेविस ने विकेन्द्रीकरण को परिभाषित करते हुए कहा है कि “संगठन की छोटी-से-छोटी इकाई तक, जहाँ तक व्यावहारिक हो, अधिकार एवं दायित्व का वितरण विकेन्द्रीकरण कहलाता है।”

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण दोनों अलग-अलग चीजें हैं और दोनों में स्पष्ट अंतर है।

प्रश्न 7.
प्रबन्ध के आधारभूत विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रबन्ध की आधारभूत विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • यह एक उद्देश्यपूर्ण क्रिया है।
  • यह एक सामाजिक प्रक्रिया है।
  • यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरंतर चलती रहती है।
  • यह एक क्रियाशील कार्य है।
  • यह एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है।
  • यह एक पेशा है।
  • यह कला एवं विज्ञान दोनों है।
  • यह मानवीय प्रयासों से संबंधित है।
  • इसका कार्य दूसरों से कार्य कराना है।
  • यह कार्य करने सम्बन्धी वातावरण उत्पन्न करने की युक्ति है।

प्रश्न 8.
पूंजी बाजार और मुद्रा बाजार में अंतर बताइए।
उत्तर:
पूँजी बाजार से अभिप्राय उस बाजार से है जहाँ पर दीर्घकालीन वित्त का क्रय-विक्रय या माँग और पूर्ति की जाती है। पूँजी बाजार वह केन्द्र है जहाँ पर दीर्घकालीन पूँजी की माँग एवं पूर्ति का परस्पर समायोजन होता है। यह वह स्थान है जहाँ पर किसी राष्ट्र की उधार देय पूँजी का संचय किया जाता है तथा जहाँ पर दीर्घकालीन पूँजी के साथ व्यवहार किया जाता है। इस बाजार में विशेष रूप से निजी उद्यमियों जिन्होंने नये औद्योगिक संस्थान या पुराने औद्योगिक संस्थानों के विस्तार के लिए दीर्घकालीन पूँजी की माँग की जाती है। दीर्घकालीन पूँजी की पूर्ति सरकार, अर्द्ध-सरकारी संस्थाएँ, व्यापारिक तथा औद्योगिक कंपनियाँ आदि करती है, जबकि उधार देने वालों में व्यापारिक बैंक, औद्योगिक वित्तीय संगठन तथा देशी साहूकार आदि आते हैं।

दीर्घकालीन पूँजी की माँग एवं पूर्ति का स्रोत पूँजी बाजार के अंतर्गत अंश, ऋण-पत्र आदि का क्रय-विक्रय होता है। इसके अंतर्गत दीर्घकालीन पूँजी का बड़े पैमाने पर व्यवहार किया जाता है। पूँजी बाजार संगठित और असंगठित होता है। पूँजी बाजार वित्तीय स्रोतों को प्रोत्साहन देता है। किसी भी देश की समृद्धि एवं प्रगतिशील अर्थव्यवस्था का बैरोमीटर. पूँजी बाजार है। शासन की नीति पूँजी बाजार को प्रभावित करती है।

भारतीय मुद्रा बाजार संगठित तथा असंगठित भागों का एक मिश्रण है। भारतीय मुद्रा बाजार के विभिन्न अंगों में एक ही समय पर ब्याज की भिन्न दरें विद्यमान रहती हैं। भारतीय मुद्रा बाजार के संगठित भाग में रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया, स्टेट बैंक ऑफ इंडिया तथा इसके सात सहायक बैंक, विदेशी तथा भारतीय अनुसूचित बैंक सम्मिलित है। इसके अलावे बीमा कंपनी, अर्द्ध सरकारी संस्थाएँ तथा मिश्रित पूँजी कम्पनियों भी मुद्रा बाजार में उधारदाताओं के रूप में प्रवेश करती है। इन संस्थाओं के अतिरिक्त मुद्रा बाजार में ऋण दलाल, सामान्य वित्त एवं पूँजी दलाल तथा हामीदार भी वित्तीय मध्यस्थों के रूप में कार्य करते हैं। इसके अतिरिक्त भारतीय मुद्रा बाजार में स्वीकृत व्यापार भी कोई विशेष मात्रा में नहीं होता है।

प्रश्न 9.
विपणन मिश्रण के आवश्यक तत्त्व क्या हैं ?
उत्तर:
विपणन मिश्रण शब्द का प्रयोग जेम्स कुलिशन ने किया, जिसे नील एच. ब्राउन ने लोकप्रिय बनाया। ऐसे समस्त विपणन निर्णय जो कि विक्रय को प्रेरित या प्रोत्साहित करते हैं विपणन मिश्रण कहलाते हैं। विपणन मिश्रण के आवश्यक तत्त्व चार हैं जो P अक्षर से आरम्भ होते हैं। इसलिए प्रसिद्ध अमेरिकन प्रोफेसर जेरोम मेककारटी ने विपणन मिश्रण को चार ‘P’ कहा है, जो इस प्रकार है-

  1. उत्पाद (Product)- उत्पाद से आशय किसी भौतिक वस्तु या सेवा से है जिससे क्रेता की आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है।
  2. मूल्य (Price)- मूल्य से आशय किसी उत्पाद या सेवा के लिए ग्राहक से वसूल की जाने वाली मुद्रा से है।
  3. स्थान (Place)- स्थान से आशय उस स्थान से है जहाँ वस्तुएँ और सेवाएँ उचित मूल्य पर विक्रय के लिए रखा जाता है। बिना स्थान के विपणन संभव नहीं है।
  4. संवर्द्धन (Promotion)- संवर्द्धन से आशय उन सभी क्रियाओं से है जो ग्राहकों को उत्पाद या सेवा के सम्बन्ध में सूचना देने तथा उन्हें क्रय करने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु सम्पन्न की जाती है। इन सभी का उद्देश्य उत्पाद या सेवा की बिक्री में वृद्धि करना होता है।

प्रश्न 10.
उपक्रम के चुनाव में साहसी को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
अथवा, व्यावसायिक उपक्रम के प्रवर्तन में ध्यान देने योग्य तत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
एक उपक्रम के चुनाव में साहसी को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
1. व्यवसाय का चयन- जब साहसी या उद्यमी में कोई व्यावसायिक विचार उत्पन्न होता है उसी समय नए उपक्रम की स्थापना की प्रक्रिया शुरू हो जाती है उसे व्यवसाय की लाभदायकता, उसमें सन्निहित जोखिम एवं आवश्यक पूँजी का विश्लेषण कर व्यवसाय का चयन करना चाहिए।

2. संगठन के प्रारूप का चुनाव- बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए कम्पनी प्रारूप और छोटे या मध्यम आकार के व्यवसाय के लिए एकांकी या साझेदारी प्रारूप उपयुक्त होता है। परन्तु आजकल छोटे एवं मध्यम वर्ग के उद्यमी भी कम्पनी प्रारूप को पसंद करते हैं, क्योंकि इसमें लोचनीयता एवं असीमित स्वीकृति का गुण होता है।

3. वित्तीय साधन- उद्यमी यदि पूँजी जुटाने में स्वयं सक्षम है तो उसे एकांकी व्यापार का उपक्रम चुनना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो साझेदारी उपयुक्त होगी। किन्तु इससे भी अधिक पूँजी की आवश्यकता होने पर कम्पनी प्रारूप वाला उपक्रम ठीक होगा।

4. प्लाण्ट का स्थान निर्धारण- उद्यमी को व्यवसाय के लिए ऐसे स्थान की खोज करनी चाहिए जहाँ कच्चा माल, श्रम, शक्ति, बाजार एवं अन्य सहायक सुविधाएँ उचित मात्रा में उपलब्ध हो।

5. इकाई का आकार- यदि उद्यमी अपने उत्पाद की बिक्री एवं आवश्यक वित्त की व्यवस्था करने में समर्थ है तो बड़े पैमाने पर उत्पादन अच्छा विकल्प होगा।

6. संयंत्र विन्यास- संयंत्र विन्यास ऐसा होना चाहिए जो श्रमिकों, मशीन, औजार एवं स्थान का सर्वोत्तम उपयोग निश्चित कर सके।

7. श्रमशक्ति की उपलब्धता- उद्यमी को कुशल श्रमिकों को नियुक्त करना चाहिए, क्योंकि अच्छी श्रमशक्ति की उपलब्धता उपक्रम के सफल संचालन के लिए आवश्यक है।

8. प्रक्रियागत औपचारिकताओं की पूर्ति- एकांकी व्यापार एवं साझेदारी संस्थाओं को केवल सामान्य औपचारिकताएँ पूरी करनी होती है, किन्तु कम्पनी संगठन के अंतर्गत उद्यमी को रजिस्ट्रेशन, अंशों को सूचीबद्ध कराना, उत्पादों का रजिस्ट्रेशन कराना आदि औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती है।

9. उपक्रम आरम्भ करना- उद्यमी श्रम, सामग्री, मशीन, मुद्रा, प्रबंधकीय कौशल आदि की व्यवस्था कर संस्था की संरचना विकसित कर सकता है तथा प्रबंधक एवं कर्मचारियों के बीच कार्य का विभाजन करेगा। साहसिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए क्रियात्मक संगठन संरचना से काफी मदद मिलती है।

प्रश्न 11.
एक व्यवसाय की दीर्घकालिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वित्त के कौन-कौन से प्रमुख स्रोत हैं ?
उत्तर:
व्यवसाय में दीर्घकालीन कोषों की आवश्यकता सामान्यतः इसकी स्थिर पूँजी की प्रकृति की होती है।

दीर्घकालीन पूँजी प्राप्त करने के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं-
(i) अंश- एक कम्पनी दीर्घकालीन एवं स्थायी वित्त प्राप्त करने के लिए समता एवं पूर्वाधिकार अंशों का निर्गमन कर सकती है।

(ii) ऋण पत्र- एक कम्पनी अपने वित्तीय साधनों को बढ़ाने के लिए ऋणपत्रों को जारी कर सकती है। ऋणपत्रों पर ब्याज की दर निश्चित हो सकती है। इसका शोधान एक निश्चित तिथि पर किया जा सकता है। इसका निर्गमन मूल्य निश्चित हो सकता है।

(iii) ऋण- व्यावसायिक संस्था बैंक या विशिष्ट संस्थाओं से ऋण प्राप्त कर सकती है। ऋण की स्वीकृति की शर्ते हो सकती हैं और स्वीकृत ऋण का सवितरण समय-समय पर किया जा सकता है।

(iv) प्राप्त लाभों का पुनर्विनियोग- यह अर्थ प्रबन्धन का आन्तरिक स्रोत है। बहुत सी संस्थाएँ अपने व्यवसाय के वित्त की व्यवस्था के लिए अवितरित लाभ, संचय आदि को पूँजी के रूप में प्रयोग कर लेती है। इसे लाभों का पुनर्विनियोग कहा जाता है।

प्रत्येक व्यवसाय को सर्वप्रथम अपनी दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की प्रकृति राशि, अवधि एवं उद्देश्य को चिह्नित करना चाहिए और तब संसाधानों का प्रयोग करना चाहिए ताकि उनका लाभप्रद उपयोग हो सके।

प्रश्न 12.
प्रबन्ध की प्रकृति का उल्लेख करें।
उत्तर:
प्रबंध की प्रकृति को निम्न रूप में समझ सकते हैं-
1. प्रबंध विज्ञान एवं कला दोनों है।
प्रबंध कला के रूप में,
प्रबंध को सामान्यतया कला समझा जाता है क्योंकि कला का अर्थ किसी कार्य को करने अथवा किसी उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए ज्ञान एवं कुशलता का प्रयोग करना है। वास्तव में कला सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने की विधि है। जार्ज टैरी का कथन है कि “चातुर्य के प्रयोग से इच्छित परिणाम प्राप्त करना ही कला है।”

प्रबंध विज्ञान के रूप में,
व्यवस्थित ज्ञान जो किसी सिद्धांतों पर आधारित हो, विज्ञान कहलाता है। अर्थात् विज्ञान ज्ञान का वह रूप है जिसमें अवलोकन तथा प्रयोग द्वारा कुछ सिद्धांत निर्धारित किये जाते हैं। विज्ञान को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। वास्तविक विज्ञान और नीति प्रधान विज्ञान। वास्तविक विज्ञान के अन्तर्गत हम केवल वास्तविक अवस्था का ही अध्ययन करते हैं जबकि नीति प्रधान विज्ञान के अन्तर्गत हम आदर्श भी निर्धारित करते हैं। व्यावसायिक प्रबंध भी निश्चित सिद्धांतों पर आधारित सुव्यवस्थित ज्ञान का भंडार है। विद्वानों ने समय-समय पर अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है जो प्रबंध को विज्ञान की कोटि में रखने के लिए पर्याप्त उदाहरणार्थ, वैज्ञानिक प्रबंध, विवेकीकरण, विज्ञापन व बिक्री कला के सिद्धांत आदि।

प्रबंध विज्ञान एवं कला दोनों के रूप में, उपरोक्त अध्ययन करने के उपरांत हम कह सकते हैं कि प्रबंध कला और विज्ञान दोनों है। वास्तव में उसके वैज्ञानिक एवं कलात्मक रूप को अलग नहीं कर सकते हैं। सैद्धांतिक ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान के बिना अधूरा है तथा व्यावहारिक ज्ञान सैद्धांतिक ज्ञान के बिना अपूर्ण है। अर्थात् एक कुशल प्रबंधक के लिए प्रबंध का ज्ञान और अनुभव दोनों आवश्यक है।

प्रबंध एक पेशा है। आधुनिक प्रबंध विद्वानों का मत है कि प्रबंध एक पेशा है तथा उसी रूप में उसका धीरे-धीरे विकास होता जा रहा है। उनके अनुसार विकसित शब्द जैसे अमरीका, जापान, ब्रिटेन, जर्मनी अन्य उद्योग प्रधान देशों में व्यावसायिक प्रबंध एक तंत्र देश के रूप में विकसित हो चुका है तथा प्रबंधकों को उनकी प्रबंध योग्यता के आधार पर ही कार्य सौंपा जाता है। भारत में भी अब पूँजी प्रबंधकों का स्थान धीरे-धीरे पेशेवर प्रबंधक ग्रहण करते जा रहे हैं।

प्रश्न 13.
बतायें कि प्रबंधन को निर्णय लेने की प्रक्रिया के रूप में क्यों जाना जाता है ?
उत्तर:
एक व्यावसायिक उपक्रम का संवर्द्धन, परिचालन एवं विस्तार मुख्यतः प्रबन्धन की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। प्रबन्धन सदैव कुशलता के लिए चिन्तित व जागरूक रहती है। कुशलता प्राप्त करने के लिए प्रबन्ध निम्न कार्यों को सम्पन्न करता है-

  • नियोजन
  • संगठन
  • नियुक्तिकरण
  • निर्देशन
  • नियंत्रण
  • समन्वय

इसके अन्य कार्य भी है जैसे-सम्वादवाहन, प्रेरित करना एवं नेतृत्व प्रदान करना।

प्रबन्धन के इन सभी चरणों में निर्णयन या निर्णय लेना एक सतत समस्या है। यह किसी समस्या के समाधान हेतु विभिन्न विकल्पों में से सर्वश्रेष्ठ को चयन करने की प्रक्रिया है। प्रबन्ध में विभिन्न प्रकार के निर्णय लेने पड़ते हैं और उनकी प्रकृति भी भिन्न-भिन्न होती है। ये निर्णय निम्न हैं-

  • उद्यमी के रूप में निर्णय- अवसरों की पहचान एवं चुनाव, नीतियों में परिवर्तन लाने की आवयश्यकता, उन परिवर्तनों को लागू करना।
  • धमकियों का सामना करना- गैर अनुमानित समस्याओं जैसे हड़ताल या दुर्घटना आदि से निपटने के लिए सुधार के उपाय करना।
  • संसाधनों के आवंटन के सम्बन्ध में निर्णय- संसाधनों का अनुमान लगाना, पर्याप्त संसाधान जुटाने के लिए इसकी आपूर्ति पर ध्यान देना।
  • संगठनात्मक प्रतिनिधि के रूप में निर्णय करना- अंशधारियों, कर्मचारियों, लेनदारों, समाज, व्यापारियों, सरकार तथा देश के हितों की रक्षा करना।

इस प्रकार प्रबन्धन निर्णय लेने की प्रक्रिया है। इसका अर्थ यह है कि विभिन्न विकल्पों में से उचित एवं सही विकल्प का चुनाव करना है ताकि आवश्यक कदम उठाया जा सके।

प्रश्न 14.
स्थायी (स्थिर) लाग्न तथा परिवर्तनशील लागत में अंतर बताइये।
उत्तर:
स्थायी लागत तथा परिवर्तनशील लागत में निम्नलिखित अंतर है-
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