BSEB Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 3 are the best resource for students which helps in revision.
Bihar Board 12th Entrepreneurship Important Questions Long Answer Type Part 3 in Hindi
प्रश्न 1.
कार्यशील पूँजी के स्रोतों का वर्णन करें।
उत्तर:
कार्यशील पूँजी के मुख्य स्रोत निम्नलिखित हैं-
1. वाणिज्य बैंकों से ऋण (Loan from Commercial Banks)- लघु उद्योग वाणिज्य बैंकों से प्रतिभूति या गैर-प्रतिभूति ऋण प्राप्त कर सकते हैं। ऋण लेने की इस प्रणाली में कानूनी औपचारिकताएं पूरी करने की आवश्यकता नहीं होती हैं सिवाय प्रतिभूति के रूप में सम्पत्तियों की व्यवस्था करने के। ऋण की अदायगी एक-मुश्त अथवा विभिन्न किस्तों में की जा सकती है।
अल्पकालीन ऋण भी कम्पनी निदेशकों के व्यक्तिगत प्रतिभूति के आधार पर लिया जा सकता है। इस तरह के ऋण को ‘क्लीन एडवांस’ कहते हैं। वाणिज्य बैंकों द्वारा लघु उद्योगों को रियायती ब्याज दर पर ऋण दिया जाता है। अतः उद्यमियों के लिए कार्यशील पूँजी प्राप्त करने का यह एक सरल एवं सुविधाजनक स्रोत है। हालाँकि, वाणिज्य बैंकों से ऋण लेने में अधिक समय एवं धैर्य की आवश्यकता होती है।
2. जनता से निक्षेप (Public Deposits)- कभी-कभी कम्पनी अल्पकालीन वित्त की व्यवस्था अंशधारी, कर्मचारी एवं आम जनता की बचत को जमा प्राप्त कर करती है। कोष वृद्धि करने की वस्तुतः यह एक सरल विधि है और कम्पनी अधिनियम से अधिकृत है। जनता से इस तरह की जमा राशि अधिक ब्याज प्रस्तावित कर प्राप्त की जाती है। हालाँकि यह राशि कम्पनी के दत्त पूँजी के 25% से अधिक नहीं हो सकती।
3. व्यापार साख (Trade Credit)- जिस प्रकार कम्पनी अपने ग्राहकों को उधार माल बेचती है, कम्पनी भी आपूर्तिकर्ता से उधार माल क्रय कर सकती है। अतः आपूर्तिकर्ता का अदत्त राशि को वित्त का स्रोत माना जाता है। सामान्यतः आपूर्तिकर्ता अपने ग्राहकों को 3 से 6 माह की अवधि के उधार देते हैं। अतः इस रूप में वे कम्पनी को अल्पकालीन वित्त प्रदान करते हैं। वास्तव में, इस प्रकार के वित्त की उपलब्धता व्यवसाय के आकार पर निर्भर करती है।
यदि व्यवसाय का आकार बड़ा होगा तो इस प्रकार का ऋण अधिक दिया जायेगा एवं विपरीत स्थिति में कम ऋण दिया जायेगा। हाँ, व्यापार साख की मात्रा कम्पनी की प्रतिष्ठा, वित्तीय स्थिति, बाजार में प्रतिस्पर्धा के स्तर पर निर्भर करती है। हालाँकि, व्यापार साख से रोकड़-बट्टा की हानि होती है क्योंकि रोकड़ बट्टा तभी दिया जाता है जब भुगतान क्रय की तिथि से 7 से 10 दिनों के अन्तर्गत कर दिया जाये। रोकड़-बट्टा की इस हानि को व्यापार साख की अन्तर्निहित लागत कही जाती है।।
4. फैक्टरिंग (Factoring)- फैक्टरिंग एक वित्तीय सेवा है जिसका उद्देश्य कम्पनी की सेवा करना है जिसके अन्तर्गत कम्पनी के पुस्तकीय-ऋण एवं प्राप्यों को बेहतर ढंग से व्यवस्थित किया जाता है। कम्पनी के पुस्तकीय ऋण एवं प्राप्य किसी बैंक के सुपुर्द कर दिये जाते हैं (उक्त प्रक्रिया को फैक्टर कहा जाता है) तथा बैंक से अग्रिम राशि प्राप्त कर ली जाती है। इस सेवा के लिए बैंक कुछ कमीशन लेता है तथा देनदारों से राशि वसूलने की जिम्मेवारी लेता है।
अल्पकालीन वित्त व्यवस्या करने की यह एक विधि है जिसे फैक्टरिंग कहते हैं। इससे एक ओर आपूर्तिकर्ता कम्पनी को उधार बिक्री की राशि नगद में प्राप्त हो जाती है वहीं दूसरी ओर ग्राहकों से राशि वसूलने के झंझट से यह मुक्त हो जाती है। इस प्रणाली का दोष यह है कि वैसे ग्राहक जो वास्तव में संकट की स्थिति में इस व्यवस्था के अन्तर्गत वस्तु खरीद नहीं सकते, जबकि इस व्यवस्था का प्रचलन नहीं होने पर कम्पनी से खरीद सकते थे। वर्तमान संदर्भ में स्थिति उत्पन्न हो गई है, फैक्टरिंग प्रणाली की सिफारिश उपयुक्त प्रतीत होती है।
5. विनियोग बिल का बट्टा (Discounting Bill of Exchange)- जब माल उधार बेचा जाता है तो विक्रेता के ऊपर स्वीकृत के लिए नियम विपत्र लिखता है जिस पर क्रेता हस्ताक्षर कर विक्रेता को वापस कर देता है। सामान्यतः यह विनिमय बिल 3 से 6 माह की अवधि के लिए लिखा जाता है। व्यवहार में बिल लिखने वाला पक्ष बिल को भुगतान तिथि तक अपने पास न रखकर बैंक से बट्टा करवा कर शेष रकम प्राप्त कर लेता है।
बट्टा की दर भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित होती है। भुगतान तिथि पर बिल स्वीकार करने वाला पक्ष बैंक को बिल की रकम की अदायगी कर देता है। यदि देय तिथि पर बिल अप्रतिष्ठित हो जाता है तो बिल की रकम की अदायगी बिल लिखने वाले पक्ष के द्वारा ही की जाती है। अल्पकालीन वित्त की व्यवस्था के लिए कम्पनियों के बीच यह एक प्रचलित विधि बन गई है।
6. बैंक अधिविकर्ष एवं नगद साख (Bank Overdraft and Cash Credit)- बैंक अधिविकर्ष की सुविधा बैंक द्वारा केवल चालू खाता वाले ग्राहकों को ही दी जाती है। इसके अन्तर्गत अधिविकर्ष की सुविधा सामान्यतः एक सप्ताह के लिए होती है। ग्राहक अपने चालू खाता से एक सीमा तक जो कि जमा राशि से अधिक होती है, आहरण कर सकता है। जमा से अधिक आहरित राशि पर ग्राहक को ब्याज देना होता है। कभी-कभी यह सुविधा भी प्रतिभूति के आधार पर दी जाती है।
दूसरी ओर, नगद साख बैंक द्वारा दी जाने वाली एक ऐसी व्यवस्था है जिसके अन्तर्गत ग्राहक एक निश्चित सीमा तक पैसा ले सकता है जिसे नगद साख सीमा कहते हैं। नगद साख सुविधा प्रतिभूति के आधार पर दी जाती है। प्रतिभूति के मूल्य के आधार पर नगद साख बढ़ायी जा सकती है। ब्याज केवल आहरित रकम पर ही लिया जाता है।
बैंक अधिविकर्ष एवं नगद साख पर लिए जाने वाले ब्याज की दर जमा धन पर मिलने वाले ब्याज की दर से अधिक होती है। अल्पकालीन वित्त की व्यवस्था के लिए बैंक अधिविकर्ष एवं नगद साख प्रणाली कम्पनियों के बीच काफी प्रचलित है।
7. ग्राहकों के अग्रिम (Advance from Customers)- अल्पकालीन वित्त प्राप्त करने की यह भी एक प्रचलित विधि है। उदाहरण के लिए कार की बुकिंग करने से अग्रिम राशि लिया जाना, फ्लैट की बुकिंग करते समय अग्रिम राशि लिया जाना, टेलिफोन कनेक्शन की बुकिंग के समय अग्रिम राशि लिया जाना, आदि ग्राहकों से अग्रिम राशि लेकर वित्त व्यवस्था करना सबसे मितव्ययी विधि है क्योंकि-
- अग्रिम राशि पर ग्राहकों को ब्याज नहीं दिया जाता है एवं
- यदि अग्रिम राशि पर कोई कम्पनी ब्याज देती भी है तो वह भी नाममात्र का।
8. उपार्जित खाते (Accrual Accounts)- सामान्यतया किसी आय के अर्जित होने तथा प्राप्त होने के बीच एक निश्चित समय अन्तराल होता है। इसी प्रकार किसी व्यय के उत्पन्न होने एवं भुगतान करने के बीच भी एक निश्चित समय अन्तराल होता है। उदाहरण के लिए वेतन प्रत्येक माह के अंत में उपार्जित होता है किन्तु इसका भुगतान दूसरे माह के प्रथम सप्ताह में होता है। यहाँ दोनों अवधियों के बीच एक सप्ताह का अन्तराल होता है। वेतन के मद में देय रकम व्यवसाय में एक सप्ताह के लिए कार्यशील पूँजी के रूप में काम करती है। कार्यशील पूँजी प्राप्त करने की विधि की कोई लागत नहीं होती है।
प्रश्न 2.
प्रबन्ध के सिद्धान्तों का उल्लेख करें।
उत्तर:
प्रबन्ध एक जीवन विज्ञान है। समय-समय पर, विषय के विचारकों ने प्रबन्ध के सिद्धान्तों के सम्बन्ध में अपने मत प्रकट किए हैं एवं इन सिद्धान्तों की किसी संगठन की नीति का निर्मित करने में प्रयुक्त भूमिका को उजागर किया है। टेलर, फेयाल (Fayol), कून्टज (Koontz) एवं ओडोनल, फॉलेटं तथा उरविक कुछ एक विचारक हैं जिन्होंने अपने अनुभव एवं समय की आवश्यकता अनुसार प्रबन्ध के सिद्धान्तों की व्याख्या की है। एल० एफ० उरविक ने छः सिद्धान्त दिए जबकि कीथ ने 4, फेयाल (Fayol) ने 14 सिद्धान्तों की लम्बी सूची दी। उन सभी मदों को ध्यान में रखते हुए, हम 14 सिद्धान्तों की गणना व व्याख्या निम्न हैं-
1. नीति निर्माण का सिद्धान्त (Principle of Policy Making)- एक प्रभावशाली प्रबन्ध को एक स्पष्ट एवं सुलझी हुई नीति की आवश्यकता होती है। बनायी गई नीतियाँ ऐसी होनी चाहिये जो सभी को मान्य हों। श्रमिकों में रुचि उत्पन्न करें तथा उन सभी को प्रेरित करें जिन्हें नीति को व्यावहारिक रूप देने को कहा जाए।
2. सुधार एवं तालमेल सम्बन्धी सिद्धान्त (Principle of Improvement and Adjustment)- एक उपक्रम एक निरन्तर चलने वाला होता है। यह धीरे-धीरे परन्तु निश्चित रूप से पग-पग विकसित होता है। प्रबन्ध को एक जीवट विज्ञान के रूप में सिद्ध करना होता है। इसे एक लोचशील (न कि स्थिर) विज्ञान सिद्ध होना चाहिए। इसे निरन्तर सुधार स्वीकार करना शाहिए तथा परिस्थिति के अनुसार अपने आप को व्यवस्थित करना चाहिए। इस प्रकार प्रबन्ध को समाज के उपभोक्ताओं की पूर्ति के प्रति स्वीकार्य एवं प्रभावी सिद्ध होना चाहिये।
3. सन्तुलन सिद्धान्त (Principle of Balance)- एक उद्यम को कुशलता एवं बचत करते हुए यदि निरन्तर बढ़ना है तो इसे एक सन्तुलित ढाँचा तैयार करना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु, मुख्य कार्यकारी अधिकारी को सभी विवरण बारीकी से देखना चाहिए तथा कर्तव्यों, दायित्वों. अधिकारों एवं अधिकृति अधिकार के बीच संतुलन स्थापित करना चाहिए। उद्यम के सभी पक्षों द्वारा समन्वय से कार्य करना चाहिए। इस प्रकार के समन्वय स्थापित करने हेतु सभी वर्गों में तालमेल होने से संगठन में एक अच्छा वातावरण निर्मित होता है।
4. कार्य एवं निष्पादन में सम्बन्ध का सिद्धान्त (Principle of Relationship of Task and Accomplishment)- प्रत्येक व्यक्ति को अपने कार्य पर उसकी योग्यता, ज्ञान, रुचि एवं अनुभव अनुसार स्थापित करना चाहिए जिससे कि कार्य कुशलता एवं समक्ष सुनिश्चित हो, प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता से सर्वाधिक दे सकता है, यदि वह अपने कार्य को समझता है, उसमें रुचि विकसित होती है, कार्य को प्रसन्नता से निष्पादित करता है। कर्मिकों का चयन वैज्ञानिक विधियों द्वारा करने से तथा उन्हें उचित कार्य पर स्थापित करने से प्रबन्ध को अभीष्ट प्रतिफल की प्राप्ति होती है।
5. व्यक्तिगत प्रभावशीलता का सिद्धान्त (Principle of Individual Effectiveness)- हैनरी फेयॉल ने व्यक्तिगत प्रभावशीलता बढ़ाने हेतु वैज्ञानिक प्रशिक्षण का सुझाव दिया जो आज भी उपयुक्त है। वानिक प्रशिक्षण के अतिरिक्त, श्रेष्ठ मजदूरी नीति, मानवीय सम्बन्ध, स्वस्थ वातावरण आदि संगठन में कार्यरत व्यक्तियों की प्रभावशीलता बढ़ाने में सहायक होते हैं।
6. सरलता का नियम (Principle of Simplicity)- एक संगठन की कार्य व्यवस्था संभवतः सरल होनी चाहिए। सरलता के सिद्धान्त के अनुसार उत्पाद में प्रयोग लाए गए प्लाण्ट, साधारण कार्यों की पद्धतियाँ तथा सामग्री एवं मानव शक्ति का उपयोग सभी सरल होना चाहिए। अनावश्यक कार्यवाही दैनिक कार्यों में से हटानी चाहिए।
7. विशिष्टीकरण का सिद्धान्त (Principle of specialization)- वैज्ञानिक प्रबन्ध का मुख्य केन्द्र बिन्दु प्रमापीकरण है जोकि विशिष्टीकरण द्वारा प्राप्त होता है। विशिष्टीकरण उत्पादकता बढ़ाता है। जिससे उत्पाद की किस्म श्रेष्ठ होती है। उत्पादन लागत नीचे आती है और इस प्रकार विशिष्टीकरण से उद्यम को समृद्धि प्राप्त होती है।
8. वित्तीय अभिप्रेरण का सिद्धान्त (Principle of Financial Incentive)- वित्तीय अभिप्रेरण आधारित पारिश्रमिक नीति श्रमिकों का सहयोग प्राप्त कर लेती है जिससे उद्यम का विकास एवं. उसे समृद्ध बनाती है। प्रबन्ध को वित्तीय अभिप्रेरण नीति का पालन करना चाहिए जिससे अधिक लाभदायकता प्राप्त की जा सके। समाज की हर संभव तरीके से सेवा करना, प्रबन्ध का एक अन्य लक्ष्य है, यदि श्रमिक संतुष्ट हों तथा उद्यम की सेवा अपनी अधिकतम क्षमता अनुसार करें। वित्तीय अभिप्रेरण सिद्धान्त भी इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सहायक सिद्ध हो सकता है।
9. नियोजन का सिद्धान्त (Principle of planning)- नियोजित कार्य उद्यम के सुसंचालन में सहायक होता है। योजना यह तय करती है कि कार्य क्या, कब, कैसे एवं किसके द्वारा सम्पन्न किया जाए। पूर्व निर्धारित उद्देश्य एवं सुनियोजित योजनाएँ प्रबन्ध को अनेक स्तरों पर उपलब्धि एवं सफलता प्राप्त करवाते हैं।
10. नियन्त्रण का सिद्धान्त (Principle of Control)- भले ही एक श्रमिक कितना भी अनुशासित, कुशल एवं उत्तरदायी क्यों न हो, उसे निरीक्षण एवं नियन्त्रण की आवश्यकता होती है।
11. सहयोग का सिद्धान्त (Principle of Co-operation)- सहयोग से विश्वास आता है, जो पारस्परिक सम्मान उत्पन्न करता है। दोनों ही उचित एवं निर्विघ्न कार्य के लिए आवश्यक हैं। इसलिए सहयोग सिद्धान्त एवं उद्यम में सभी वर्गों में परस्पर सहयोग की आवश्यकता होती है।
12. नेतृत्व का सिद्धान्त (Principle of Leadership)- नेतृत्व, मार्ग दर्शन एवं निर्देशन से पूर्व निरीक्षण एवं नियन्त्रण आते हैं। जब तक इनकी समुचित व्यवस्था न की जाए, निरीक्षण एवं नियन्त्रण की कोई भी मात्रा, उद्यम के सुसंचालन एवं इसके उद्देश्यों की पूर्ति को सुनिश्चित नहीं कर सकते। अच्छा नेतृत्व, श्रेष्ठ निर्देशन आवश्यक मार्गदर्शन द्वारा सहयोग एवं श्रेष्ठ मानवीय सम्बन्धों को सुनिश्चित करते हैं।
13. उत्तरदायित्व का सिद्धान्त (Principle of Responsibility)- कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्व अधिकार एवं अधिकृतता (authority) साथ-साथ चलते हैं। अधिकार एवं आधिकृतता तब तक लागू नहीं किए जा सकते, जब तक उन्हें अच्छी प्रकार न समझा जाए। इसी प्रकार कर्तव्य एवं दायित्व तब तक चलाए नहीं जा सकते जब तक समुचित अधिकार एवं अधिकृत्व न प्राप्त हों। इसलिए उद्यम के प्रत्येक श्रमिक एवं वर्ग के पास अधिकारों एवं दायित्वों की सूची दी जानी चाहिए जो कि उनके कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों के निष्पादन हेतु आवश्यक है।
14. अपवाद का सिद्धान्त (Principle of Exception)- इस सिद्धान्त के अनुसार उच्च प्रबन्ध को साधारण कार्यों से मुक्त रखना चाहिए ताकि वे समस्याओं के समाधान ढूँढने के लिए अध्ययन कर सके। उच्च प्रबन्ध को निर्णयन की जिम्मेदारी वहन करनी चाहिए ताकि वह नीति नियोजन कर सके।
प्रश्न 3.
प्रबन्ध के महत्त्व का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रबन्ध न्यूनतम श्रम द्वारा अकितम समृद्धि प्राप्त करने की कला है। जहाँ भी सामान्य लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु ससुंगठित व्यक्ति समूह लगे रहते हैं, किसी प्रकार का प्रबन्ध आवश्यक है। पीटर एफ डुक्कर (Peter F. Drucker) के अनुसार, “प्रबन्धं एक संगठन को गतिशील जीवन देने वाला तत्त्व है। इसके अभाव में, उत्पादन के साधन केवल साधन बनकर रह जाते हैं, न कि उत्पादना” (“Management is a dynamic life giving element in an organisation. In its absence, the resources of production remain resources and never become production.”)
निम्न बिन्दु प्रबन्ध के महत्त्व को और स्पष्ट करते हैं-
1. साधनों का कुशलतम उपयोग (Optimum Utilisation of Resources)- कोई भी व्यावसायिक गतिविधि उत्पादन के पाँच घटकों बिना सम्पन्न नहीं हो सकती है, यथा-भूमि, श्रम । पूँजी, उद्यम एवं प्रबन्ध। प्रथम चार घटक पाँचवें, अर्थात् प्रबन्ध के बिना प्रभावकारी नहीं हो सकते। केवल प्रबन्ध ही साधनों का कुशलतम उपयोग करता है।
2. समूह उद्देश्यों की पूर्ति (Achievement of Group Objectives)- यह प्रबन्ध ही है जो लोगों को समूह के लक्ष्यों से अवगत करवाता है एवं उन्हें उद्देश्यों के प्रति श्रमबद्ध करता है। यह मानवीय एवं भौतिक साधनों को इकट्ठा कर, लोगों को संगठन के लक्ष्यों की प्राप्ति के प्रति कार्यशील बनाता है।
3. लागत निम्नीकरण (Cost Minimisation)- आज की बढ़ती हुई प्रतियोगिता में, केवल वही व्यावसायिक इकाइयाँ जीवित रहती हैं जो अच्छी किस्म उत्पादन, न्यूनतम लागत पर उत्पादित कर सकें। श्रेष्ठ नियोजन, सुदृढ़ संगठन एवं प्रभावशील नियन्त्रण द्वारा प्रबन्ध उद्यम को लागत कम करने एवं प्रतिस्पर्धा को काटने की क्षमता प्रदान करता है।
4. अधिक लाभ (Increasing Profit)- किसी संगठन में लाभ को दो उपायों से बढ़ाया जा सकता है-बिक्री राशि बढ़ाकर अथवा लागत को कम करके। बिक्री बढ़ाना संगठन के अधिकार से बाहर है। लागत कम करके प्रबन्ध अपने लाभ बढ़ा सकता है। भविष्य के विकास के अवसर प्रस्तुत कर सकता है।
5. व्यवसाय का सुसंचालन (Smooth Operation of Business)- प्रबन्ध श्रेष्ठ नियोजन, सदृढ़ संगठन, प्रभावी नियन्त्रण एवं प्रबन्ध के अन्य यंत्रों द्वारा व्यवसाय का कुशल एवं श्रेष्ठ संचालन सुनिश्चित करता है।
6. विकासशील देशों के लिए महत्त्व (Importance to Developing countries)- विकासशील देशों जैसे भारत के लिए एक विशेष भूमिका अर्पित करनी होती है क्योंकि इनके साधन सीमित तथा उत्पादकता कम होती है। यह ठीक ही कहा गया है अर्द्धविकसित देश नहीं होते, अर्द्ध-प्रबन्धित देश होते हैं।
7. सामाजिक लाभ (Social Benefits)- प्रबन्ध, व्यावसायिक उपक्रमों के लिए ही उपयोगी नहीं है, अपितु समाज के प्रति भी उपयोगी है। यह लोगों का जीवन स्तर, कम लागत पर श्रेष्ठ किस्म के उत्पाद एवं सेवाएं प्रदान कर उसे समुचित करता है। यह सीमित साधनों का कुशलतम उपयोग करते हुए समाज को समृद्धि एवं शान्ति प्रदान करता है।
8. नव निर्माण प्रदान करना (Provides Innovation)- प्रबन्ध संगठन को नये विचार, संकल्पना एवं व्यापक दृष्टि प्रदान करता है।
9. विकास में परिवर्तन (Change in Growth)- एक उद्यम परिवर्तनशील वातावरण में कार्य करता है। प्रबन्ध उद्यम को इस परिवर्तन हेतु ढालता है। यह न केवल संगठन को ढालता है अपितु वातावरण को परिवर्तित कर, व्यवसाय को सफल बनाता है। स्वचालिकता एवं उन्नत प्रौद्योगिकी की जटिलताओं की चुनौती को स्वीकार करने के लिए, प्रबन्ध को विकसित करने की आवश्यकता है।
प्रश्न 4.
विपणन की विचारधारा का वर्णन करें।
उत्तर:
विपणन बाजार का अभिन्न अंग है। बाजार वह स्थान है जहाँ विक्रेता एवं क्रेता अपने उत्पादों को मुद्रा (इसके विपरीत भी) के बदले विनिमय करने हेतु एकत्रित होते हैं। उत्पादन, विपणन से पूर्ण किया जाता है। परिवर्तित व्यावसायिक वातावरण के अनुसार उत्पादन भी समय-समय पर . परिवर्तित होता है। तदानुसार, विपणन की विचारधारा में भी समय-समय पर परिवर्तित होता है। तदानुसार, विपणन की विचारधारा में भी समय-समय पर परिवर्तन हुए हैं। इन विचारधाराओं को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-
- परम्परागत विचार
- आधुनिक विचार
1. परम्परागत विचार (Traditional Concept)- यह विचार, पहले उत्पादन स्तर से जुड़ा है जबकि बाजार में निर्मित वस्तुओं की साधारणत: कमी रहती थी। तब विपणन का प्रमुख कार्य, वस्तुओं को ग्राहकों तक व्यापक रूप में सहनीय कीमतों पर उपलब्ध कराना था। विपणन विचार भी तदानुसार था। निम्न परिभाषाओं से विपणन की परम्परागत विचारधारा को अनुभव किया जा सकता है-
कानवर्स, राज्जी एवं मिचल (Converse, Huegy and Mitchell) के अनुसार, “विपणन के अन्तर्गत उत्पादन से उपभोग तक की सभी क्रियाएँ सम्मिलित हैं।”
अमरीकन एकाउंटिंग एसोसिएशन (American Accounting Association) के अनुसार, “उन व्यावसायिक गतिविधियों के आचरण को जिनके द्वारा उत्पादकों से उपभोक्ताओं तक माल एवं सेवाओं का प्रत्यक्ष प्रवाह होता है, विपणन कहा जाता है।”
अतः विपणन की परम्परागत विचारधारा उत्पाद उन्मुख है।
2. आधुनिक विचारधारा (Modern Concept)- समय बीतने पर औद्योगिक गतिविधि में उत्तेजना आने के साथ-साथ उत्पादों की विविधिता, किस्म एवं मात्रा में भी वृद्धि हुई है। इसने ग्राहक को अधिक विवेकशील एवं चयनकर्ता बना दिया। अब, ग्राहक वह सब कुछ जो उसे उत्पादक प्रस्तुत करें, क्रय करने के लिए तैयार नहीं है। उन्होंने ऐसे उत्पादों एवं सेवाओं का क्रय करना आरम्भ कर दिया जो मात्रा, कीमत, सन्तुष्टि, दीर्घायु, सौन्दर्य आदि में उसके लिए लाभकारी हों। ऐसी ग्राहक के लाभ मूर्त अथवा अमूर्त हो सकते हैं। इसलिए, उत्पादकों ने वह सभी कुछ उत्पादन करना आरम्भ किया हो ग्राहक चाहते हैं। इस प्रकार, एक नयी वैज्ञानिक सोच का जन्म हुआ। नयी सोच के अन्तर्गत .उन वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन एवं प्रस्तुति करना आवश्यक हो गया जोकि उपभोक्ता की मांग के अनुरूप हो। इसे ‘विपणन उन्मुखी’ कहा जाता है। इस आधुनिक विपणन विचार को निम्नांकित परिभाषाओं से समझा जा सकता है-
स्टैण्टेन (Stanton) के अनुसार, “विपणन व्यवस्था के अन्तर्गत सभी व्यावसायिक क्रियाएँ सम्मिलित हैं जो माँग पूर्ति वाली वस्तुओं एवं सेवाओं के नियोजन, कीमत, संवर्द्धन एवं वर्तमान प्रभावी उपभोक्ताओं को वितरित की जाएँ।”
कोटलर (Kotler) के अनुसार, “विपणन एक सामाजिक एवं प्रबन्धकीय प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति एवं समूह, प्राप्त करते हैं, जो वह चाहते हैं और जो वस्तुओं एवं सेवाओं के परस्पर विनिमय से सम्बद्ध है।”
अब हम दोनों विचारधाराओं में अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं। परम्परागत विचार विपणन उत्पादकों अर्थात् विक्रेताओं की आवश्यकता पर बल देता है। इसके विपरीत, आधुनिक विचार, उपभोक्ता को जरूरतों से प्रतिबद्ध है।
प्रश्न 5.
नियोजन की परिभाषा दें। इसकी क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर:
प्रबन्ध के क्षेत्र में यद्यपि नियोजन सबसे अधिक जाना-पहचाना एवं लोकप्रिय शब्द है किन्तु फिर भी इसकी एक सर्वमान्य परिभाषा देना कठिन है। कुछ प्रमुख प्रबन्ध विद्वानों द्वारा दी गयी नियोजन की परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं-
- बिली ई० गोज के अनुसार, “नियोजन ‘प्राथमिक रूप में चयन’ करना है तथा नियोजन की समस्या उसी समय उत्पन्न होती है, जबकि वैकल्पिक कार्यपक्षों का पता चलता है।”
- कुण्ट्ज एवं ओ’ डोनेल के अनुसार, “नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है, कार्य करने के मार्ग का सचेत निर्धारण है, निर्णयों को उद्देश्यों, तथ्यों तथा पूर्व-विचारित अनुमानों पर आधारित करना है।”
- ऐलन के अनुसार, “नियोजन भविष्य को पकड़ने के लिए बनाया गया पिंजरा है।”
निष्कर्ष- उपर्युक्त परिभाषा, नियोजन की उपर्युक्त परिभाषाओं का अध्ययन करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि, “निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए भावी कार्य-कलापों के विषय में वैकल्पिक क्रियाओं में से सर्वोत्तम के चयन हेतु निर्णय लिया जाना एवं निर्धारण किया जाना ही नियोजन हैं।”
नियोजन के लक्षण अथवा विशेषताएँ अथवा प्रकृति (Characteristics or Nature of Planning)-
1. निर्धारित उद्देश्य एवं लक्ष्य (Definite Object and Goal)- नियोजन का कार्य निर्धारित लक्ष्य एवं उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता है, अतः प्रत्येक नियोजक इस लक्ष्य को सदैव ध्यान में रखता है और उसी के अनुरूप अपनी योजनाएँ बनाता है।
2. पूर्वानुमान लगाना (Forecasting)- नियोजन का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण भविष्य के बारे में देखना अर्थात् पूर्वानुमान लगाना है। फेयोल के अनुसार, “नियोजन विभिन्न प्रकार के पूर्वानुमानों का, चाहे वे अल्पकालीन हों अथवा दीर्घकालीन, सामान्य हों अथवा विशिष्ट, संश्लेषण (Synthesis) होता है।” इसके लिए उन्होंने एक-वर्षीय एवं दस-वर्षीय पूर्वानुमानों की सिफारिश की। एक चीनी कहावत के अनुसार, “अपनी वार्षिक योजनाएँ बसन्त के मौसम में तैयार कीजिए तथा दैनिक योजनाएँ प्रात:काल उठते ही तैयार कीजिए।”
3. एकता (Unity)- फेयोल के अनुसार, एकता भी नियोजन का एक आवश्यक लक्षण है। एक समय में केवल एक योजना ही कार्यान्वित की जा सकती है क्योंकि दो विभिन्न योजनाओं के होने पर दुविधा, भ्रान्ति एवं अव्यवस्था फैलेगी।
4. विभिन्न वैकल्पिक क्रियाओं में से सर्वोत्तम का चयन (Selection of the best among Alternative Courses of Actions)- नियोजन का चतुर्थ महत्वपूर्ण लक्षण विभिन्न वैकल्पिक क्रियाओं में से सर्वोत्तम क्रिया का चयन किया जाना है। प्रबन्धक के सामने विभिन्न लक्ष्य, नीतियाँ, विधियाँ तथा कार्यक्रम होते हैं। इन्हें पूरा करने के लिए सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव करना होता है। उपक्रम की सफलता बहुत कुछ सीमा तक इस चयन के आधार पर ही निर्भर करती है।
5. नियोजन की सर्वव्यापकता (Pervasiveness of Planning)- नियोजन का पांचवा लक्षण इसकी सर्वव्यापकता का होना है। कोई व्यक्ति चाहे कम्पनी का अध्यक्ष हो अथवा साधारण फोरमैन-संगठन के प्रत्येक स्तर पर नियोजन की आवश्यकता पड़ती है। उदाहरण के लिए, अध्यक्ष का नियोजन-कार्य नीति-निर्धारण से सम्बन्ध रखने वाला होता है। इस प्रकार संगठन का स्तर जितना अधिक ऊँचा होगा, नियोजन का क्षेत्र उतना ही अधिक विस्तृत एवं व्यापकं होगा। नियोजन तो सर्वत्र व्याप्त है। प्राध्यापक महोदय भी किसी कक्षा में प्रवेश करने से पूर्व नियोजन का ही सहारा लेते हैं।
6. नियोजन एक निरन्तर एवं लोचयुक्त प्रक्रिया (Planning is a Continuous and a Flexible Process)- भविष्य अज्ञात है। कल क्या होने वाला है, यह निश्चयात्मक रूप में कोई नहीं कह सकता; चूँकि नियोजन भी भविष्य के लिए किया जाता है, अतः, इसमें भी अनिश्चितता का रहना स्वाभाविक ही है। नियोजन का एक महत्वपूर्ण लक्षण यह भी है कि इसमें निरन्तरता एवं लोच रहनी चाहिए, ताकि बदलती हुई परिस्थितियों के अनुरूप इसमें आवश्यक परिवर्तन किया जा सके।
7. पारस्परिक निर्भरता (Interdependence)- नियोजन का एक महत्वपूर्ण लक्षण इसकी पारस्परिक निर्भरता का होना है। सुविधा की दृष्टि से एक उपक्रम के कार्यक्रमों को कई भागों में विभाजित किया जाता है। उदाहरणत: उत्पादन विभाग, क्रय विभाग, विक्रय विभाग, सेविवर्गीय प्रशासन विभाग आदि। यद्यपि इन सभी विभागों की अलग-अलग योजनाएँ हैं किन्तु ये उपक्रम की सामूहिक योजना (Master Plan) का एक अंग होती है। ये विभागीय योजनाएँ एक-दूसरे पर निर्भर होती हैं।
8. प्राथमिक कार्य (Primary Function)- नियोजन प्रबन्ध प्राथमिक कार्य है। किसी भी प्रबन्धकीय प्रक्रिया में नियोजन को सबसे पहले एवं प्रमुख स्थान दिया जाता है, अन्य सभी कार्य नियोजन के पश्चात् ही सम्पन्न किये जाते हैं। संस्था का लक्ष्य, जिसकी पूर्ति के लिए समस्त प्रबन्धकीय क्रियाएँ सम्पन्न होती हैं, नियोजन द्वारा ही निर्धारित किया जाता है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए प्रबन्ध के अन्य सभी कार्य सम्पन्न किये जाते हैं।
9. बौद्धिक एवं मानसिक प्रक्रिया (Intellectual and Mental Process)- नियोजन प्राथमिक रूप में एक बौद्धिक एवं मानसिक प्रक्रिया है क्योंकि योजना बनाने वालों को सम्भावित कार्य विधियों एवं विकल्पों में से सर्वोत्तम का चयन करना होता है और यह कार्य दूरदर्शिता, विवेक एवं चिन्तन पर निर्भर करता है जिसे हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। नियोजन के इस लक्षण को हैयन्स एवं मैसी ने निम्नलिखित शब्दों में स्वीकारा है-“नियोजन एक बौद्धिक प्रक्रिया है जिसके लिए सृजनात्मक चिन्तन एवं कल्पना की आवश्यकता होती है।”
10. अन्य- (i) नियोजन का व्यावहारिक होना नितान्त आवश्यक है। (ii) नियोजन में समय तत्व अधिक महत्व रखता है। (iii) नियोजन एक मार्गदर्शक का कार्य करता है। (iv) नियोजन प्रबन्धकों की कार्य-कुशलता का आधार है। (v) निर्णयन नियोजन का एक अंग है, अतः नियोजन का क्षेत्र निर्णयन की तुलना में व्यापक है। (vi) नियोजन में सीमित साधनों का ध्यान रखा जाता है।
प्रश्न 6.
विपणन के कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
विपणन के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
I. विनियम के कार्य (Functions of Exchange)- इस वर्ग में मुख्य दो कार्य सम्पन्न किए जाते हैं-
1.क्रय कार्य (Buying)- क्रय एवं इक्कठा करने का तात्पर्य है आवश्यकता का मूल्यांकन, आपूर्ति के श्रोत ढूँढना, शर्ते आदि तय करना, आर्डर भेजना, वस्तुओं की प्राप्ति एवं भुगतान। इसके अन्तर्गत विभिन्न स्रोतों से क्रय किए गए स्टॉक के रखाव करना शामिल हैं।
2. विक्रय (Selling)- विक्रय कार्य क्रेताओं की खोज से आरम्भ होकर, सम्पर्क स्थापन, क्रेताओं के विज्ञापन के माध्यम से आकर्षित करने एवं भिन्न-भिन्न विक्रय माध्यमों द्वारा उन्हें सन्तुष्ट करने तथा उपभोक्ताओं के उत्पाद की बिक्री के पश्चात् समाप्त होता है। व्यवसाय का प्राथमिक उद्देश्य माल बेचना एवं इस कार्य में विक्रय के विभिन्न पहलू सम्मिलित होते हैं।
II. भौतिक आपूर्ति के कार्य (Functions of Physical Supply)-
1. यातायात (Transportation)- बाजार उत्पादन-स्थान से दूर भी स्थित हो सकते हैं। यातायात द्वारा माल के स्थान उपयोगिता सृजित होती है। इसके अन्तर्गत उत्पादों को उत्पादन स्थान से उपभोग स्थान तक पहुँचना सम्मिलित है। उत्पादन एवं उपभोक्ता के बीच दूरी होती है तथा यातायात उस खाई को पाटता है।
2. भण्डार एवं गोदाम में रखना (Storage or Warehousing)- उत्पाद एवं माल की बिक्री (उपभोग) के बीच स्थान उपयोगिता सृजित होती है। इसके अन्तर्गत उत्पादों को उत्पादन स्थान से उपभोग स्थान तक पहुँचना सम्मिलित है। उत्पादन एवं उपभोक्ता के बीच दूरी होती है तथा यातायात उस खाई को पाटता है।
III. सुसाध्यीकरण कार्य (Facilitating Functions)-
1. प्रमापीकरण (Standardisation)- प्रमापीकरण से अभिप्राय वस्तु की किस्म के प्रमाप अथवा सीमाएँ एवं विशेषताएँ निर्धारित करने से है जिसके अनुसार उत्पादक को माल निर्मित करने के सम्बन्ध में बाध्य किया जाए। अनेक प्रकार के प्रमाप हैं जैसे ISI, Agmark, Wolmark आदि। प्रमापीकरण से माल का लेन-देन सरल हो जाता है क्योंकि विक्रेता को माल बेचते समय ज्यादा विस्तार से गुणों की व्याख्या नहीं करनी पड़ती तथा उपभोक्ता को भी कम उत्पाद-निरीक्षण करने पड़ते हैं।
2. वित्तीयन (Financing)- व्यवसाय की अनेक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वित्त की आवश्यकता होती है। व्यवसाय की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु वित्त की आवश्यकता का मूल्यांकन करने का तीव्र प्रयास किया जाता है, ताकि वित्त इकट्ठा किया जा सके एवं उसका सही उपयोग भी किया जा सके। वित्त की आवश्यकता कई कारणों से होती है, जैसे-पर्याप्त भण्डारण हेतु माल का स्टॉक, विज्ञापन, विक्रय संवर्द्धन प्रयास एवं माल का वितरण हेतु आदि ।
3. जोखिम वहन (Risk Taking)- जोखिम व्यवसाय का अभिन्न अंग है। बिना जोखिम का व्यवसाय सम्भव नहीं होता। जोखिम का लाभ से सीधा सम्बन्ध है। जोखिम कीमत उच्चावच के कारण उत्पन्न होता है। इसी तरह रुचियों, फैशन, पसन्दी, उपभोक्ताओं की नापसन्दी, माल का समय वर्जित, सरकारी नीति में परिवर्तन भी जोखिम उत्पन्न करते हैं। अग्नि, बाढ़, चोरी भी जोखिम के कारण हैं परन्तु इन जोखिमों का बीमा करवाया जा सकता है। व्यवसायी को अपना जोखिम उठाने एवं हानि उठाने की शक्ति का मूल्यांकन करते रहना चाहिए तथा उसकी व्यवस्था करनी चाहिए।
4. बाजार सूचना (Market Information)- बाजार सूचना के बिना कोई व्यवसाय स्थापित नहीं रह सकता। अत: व्यवसायी को अपने कान और आँखें खोलकर, आसपास की जानकारी रखनी चाहिए।
केवल बाजार सूचना की सहायता से विपणनकर्ता जाँच सकता है कि उसे क्या, कैसे एवं किस कीमत पर बेचना चाहिए। उसे अन्य परिवर्तनों जैसे प्रतिस्पर्धा, प्रौद्योगिकी, फैशन आदि की भी जानकारी रखनी चाहिए। बाजार की नवीनतम सूचना के आधार पर विक्रेता व्यवसाय की विभिन्न चुनौतियों की जानकारी प्राप्त कर सकता है।
प्रश्न 7.
वितरण प्रणालियों का वर्णन करें।
उत्तर:
यह सत्य है कि उत्पादन उपभोग के लिए किया जाता है। वस्तु के उत्पादन के पश्चात्, इन्हें एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में स्थित उपभोक्ताओं तक पहुँचाने की आवश्यकता होती है। अनेक बार अपने माल क्रेता तक पहुँचना सम्भव नहीं होता, फर्म को इस सम्बन्ध में विपणन बिचौलियों की आवश्यकता पड़ती है, जैसे कि थोक विक्रेता एवं फुटकर व्यापारी जिनके माध्यम से माल उपभोक्ता तक पहुँच सके। यह बिचौलिए ऐसी प्रणालियों का कार्य करते हैं जो माल को ग्राहक तक पहुँचाते हैं। अनेक लेखकों ने वितरण प्रणालियों को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है-
अमरीकन विपणन परिषद् (American Marketing Association) के अनुसार, “विपणन मार्ग कम्पनी संगठन के अंदर संरचना है जो कम्पनी से बाहर, प्रतिनिधियों एवं व्यापारियों, थोक एवं फुटकर व्यापारियों को सम्मिलित कर, जो कि माल एवं सेवा का विपणन करें।”
डावर (Daver) के अनुसार, “वितरण एक प्रक्रिया अथवा कार्यों की कड़ी है जो भौतिक रूप से उत्पादित माल को निर्माता से अन्तिम उपभोक्ता तक पहुँचाए।”
वास्तव में, वितरण मार्ग, पाइप लाईन की भाँति है जो कि सही उत्पाद की सही मात्रा सही स्थान तक जहाँ उपभोक्ता पहुँचाने के लिए कहे, सही समय पर पहुँचाते हैं। यह मार्ग उन प्रक्रियाओं को सम्बोधित करता है जिन वितरण मार्गों द्वारा माल उत्पादक से उपभोक्ता तक पहुँचता है। इन वितरण मार्गों को विपणन विधियाँ भी कहा जाता है।
अनेक मध्यस्थों के कारण वितरण प्रणालियों को तीन वर्गों में बाँटा गया है-
1. शून्य-स्तर प्रणाली (Zero-level Channel)- जब उत्पादन वितरण सीधे उत्पादक से उपभोक्ता तक हो। इसे प्रत्यक्ष विक्रय भी कहते हैं।
2. एक-स्तरीय प्रणाली (One-level Channel)- इस प्रणाली के अन्तर्गत माल उत्पादक से फुटकर व्यापारी के पास तथा फुटकर व्यापारी से उपभोक्ता तक पहुँचाया जाता है। इसे फुटकर व्यापारी के माध्यम से वितरण भी कहा जाता है।
3. द्वि-स्तरीय प्रणाली (Two-level Channel)- जब उत्पादक एवं उपभोक्ता के बीच दो प्रकार के मध्यस्थ हों। अन्य शब्दों में, इस प्रणाली के अन्तर्गत, निर्माता माल थोक व्यापारी को एवं वह उसे फुटकर व्यापारी को बेचकर, उपभोक्ता को माल बेचता है। इसे थोक एवं फुटकर व्यापारी वितरण कहते हैं।
यह सभी तीन प्रणालियाँ निम्न चार्टों की सहायता से समझाई गई हैं-
I.शून्य स्तरीय वितरण मार्ग अथवा प्रत्यक्ष बिक्री मार्ग (Zero-Level Channel/Direct Selling Channel)
II. एक-स्तरीय वितरण मार्ग अथवा उत्पादक से फुटकर व्यापारी से उपभोक्ता वितरण प्रणाली (One-Level Channel of Distribution)
III. द्वि-स्तरीय वितरण प्रणाली अथवा उत्पादन से थोक व्यापारी से फुटकर व्यापारी से उपभोक्ता प्रणाली (Two-level Channal of Distribution)
I. प्रत्यक्ष बिक्री मार्ग (Direct Selling Channel)- इसे उत्पादक से उपभोक्ता प्रणाली भी कहा जाता है। इस प्रणाली के अन्तर्गत वस्तुओं का निर्माता, अन्तिम उपभोक्ता से सीधे सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास करता है एवं विक्रय की अनेक विधियाँ जिसमें घर-घर जाकर सम्पर्क करना सम्मिलित है, का प्रयोग करना है। यह औद्योगिक विपणन में लोकप्रिय है विशेषकर पूँजीगत उत्पाद हेतु जैसे औद्योगिक रसायन, भारी यन्त्र आदि।
लाभ (Advantages)-
- उपभोक्ता से निकट सम्बन्ध द्वारा उत्पादक को उपभोक्ता की आवश्यकता एवं उसमें परिवर्तन से अवगत कराना है।
- लाभ मध्यस्थ को नहीं जाता।
- उपभोक्ता को माल शीघ्र पहुँचता है क्योंकि वह इस मार्ग के लिए मध्यस्यों का प्रयोग नहीं करता।
II. एक-स्तर प्रणाली अथवा उत्पादक से फुटकर प्रणाली से उपभोक्ता प्रणाली (One Level Channel)- यह एक अप्रत्यक्ष विक्रय है। यह प्रणाली थोक व्यापारी को अलग रखता है। यह उपयुक्त है जहाँ उत्पाद नाश्य हो एवं वितरण में गति महत्त्वपूर्ण हो। इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रायः फैशन वस्तुएँ, उत्पाद जिन्हें स्थापित करना हो, अधि-मूल्य माल आदि शामिल हैं।
III. द्वि-स्तरीय प्रणाली अथवा उत्पादक से थोक व्यापारी से फुटकर व्यापारी से उपभोक्ता प्रणाली (Two-level Channel)
इस प्रणाली को परम्परागत प्रणाली भी कहते हैं। यह सर्वाधिक श्रेष्ठ वितरण प्रणाली है जिसमें उत्पादक माल थोक विक्रेता को जो, फिर थोक विक्रेता से फुटकर विक्रेता, जो अन्त में, उपभोक्ता को बेचता है। इस व्यवस्था में, थोक व्यापारी को लाभ का एक हिस्सा दिया जाता है जिससे वह उधार क्रय, विक्रय, सुपुर्दगी एवं ऋण दे सकता है। यह प्रणाली प्रायः गृह-उपयोग्य विक्रेताओं, दवाइयाँ आदि के व्यापार में लोकप्रिय हैं। निम्न उत्पादकों को यह वितरण प्रणाली उपयुक्त है-
- जो वित्तीय साधनों से कमजोर हों।
- जिनकी उत्पाद-रेखा संकीर्ण है और
- जिनकी वस्तुएँ फैशन आदि परिवर्तनों एवं भौतिक नाशवान नहीं है परन्तु स्थायी है।
प्रश्न 8.
परियोजना प्रतिवेदन के उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
परियोजना प्रतिवेदन के प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
- विपणन, तकनीक, वित्त, कर्मचारी, उत्पादन उपभोक्ता संतोष तथा सामाजिक वृतिदान क्षेत्रों में अनुमानित प्रदर्शन पाने के लिए पूर्व में ही योजना तैयार करना।
- यह मूल्यांकन करना की संगठन के उद्देश्यों को किस सीमा तक पूरा किया गया है। इसके लिए उद्यमी से यह उम्मीद की जाती है कि वह निवेश सूचना को ध्यान में रखे, इन सूचनाओं का विश्लेषण करे, परिणामों का अनुमान लगाए, सबसे अच्छे विकल्प का चुनाव करे, आवश्यक कदम उठाए, परिणामों को अनुमानों के साथ तुलना करे।
- उद्देश्यों के निर्धारण के लिए प्रयास करना तथा उन्हें परिमेय, मूर्त, सत्यापनीय तथा प्राप्य बनाना।
- संसाधनों पर प्रतिबंध के प्रभावों का मूल्यांकन करना। संसाधनों में मानवशक्ति, उपकरण, वित्त, तकनीक आदि सम्मिलित हैं।
- वित्तीय संसाधनों से वित्तीय सुविधा प्राप्त करना, जैसे कि इसके लिए सुव्यवस्थित प्रतिवेदन की आवश्यकता पड़ती है, जिसके आधार पर परियोजना के वित्त प्रबन्ध की वांछनीयता का मूल्यांकन किया जाता है।
- परियोजना प्रतिवेदन में प्रस्तावित कार्य करने के तरीके का परीक्षण करना। प्रायः किसी भी परियोजना की सफलतापूर्वक क्रियान्वयन परियोजना प्रतिवेदन में दिए गए कार्य करने की विधि से नियंत्रित
प्रश्न 9.
विज्ञापन के उद्देश्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
विज्ञापन के प्रमुख उद्देश्य निम्नांकित हैं-
1. स्थिति को सूचना दना (To give Information regarding Existence)- विज्ञापन का प्रथम उद्देश्य है ग्राहकों को एक विशिष्ट वस्तु को बाजार में लाने एवं उसके बाजार में उपलब्ध होने की सूचना देना।
2. मांग उत्पन्न करना (To create Demand)- एक अन्य उद्देश्य नयी वस्तु की माँग उत्पन्न करने हेतु लोगों को इसके लिये आकर्षित करना है।
3.उत्पन्न मांग को बनाये रखना (To maintain to create demand)- उत्पन्न माँग को निरन्तर प्रचार के माध्यम से बनाये रखना विज्ञापन का अन्य उद्देश्य है।
4. माल के प्रयोग करने की शिक्षा देना (To instruct about the use of goods)- विज्ञान न केवल नयी वस्तु के सम्बन्ध में लोगों को सूचना देता है अपितु उन्हें उसके उपयोग करने की शिक्षा भी देता है।
5. प्रतिस्पर्धा हटाना (To remove competition)- विज्ञापन द्वारा प्रतिस्पर्धा हटाई जा सकती है। विज्ञापन की सहायता से विशेष वस्तु के गुणों का प्रचार मार्केट में प्रतिद्वन्द्वी वस्तुओं की तुलना में जानकारी देकर (अनावश्यक) प्रतिस्पर्धा दूर कर सकते हैं।
6. संशय एवं सकाच हटाना (To remove Doubts and Confusion)- एक वस्तु का लोकप्रियता बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि उस वस्तु के सम्बन्ध में संकोच व संशयों को दूर किया जाये, जिसके लिए विज्ञापन आवश्यक होता है।
7.उपभोक्ताओं को उत्साहित करना (To encourage Consumers)- विज्ञापन का अभिप्राय, वर्तमान उपभोक्ताओं की संख्या बढ़ाना। साथ ही, उन्हें वस्तुओं के उपभोग से संतुष्ट कर प्रोत्साहित करना होता है।
8. विक्रेताओं को सहायता पहुँचाना (Help to Sellers)- विज्ञापन उपभोक्ताओं को विज्ञापनकर्ता के निकट लाता है। इस प्रकार विज्ञापन विक्रेताओं के कार्य को सरल बनाता है।
9. सावधान करना (To make Caution)- विज्ञापन का एक कार्य जनता एवं व्यवसायी को नशीली वस्तुओं एवं प्रतिस्थापकों से सावधान कर्ना होता है।
10. उन व्यक्तियों तक पहुँचना जिन्हें विक्रता नहीं मिले (To reach the people whom salesman could not reach)- विज्ञापन द्वारा दूरस्थ स्थानों तक संदेश पहुँचाना है। इसके अतिरिक्त सूचना विस्तृत क्षेत्र तक प्रस्तावित की जा सकती है। इस प्रकार उन व्यक्तियों तक भी विज्ञापन द्वारा सूचना पहुँचाई जाती है जिनसे विक्रेता नहीं मिल सकता।
11. विज्ञापक का प्रतिष्ठा बढ़ाना (To Increase the goodwill of Advertiser)- विज्ञापन का एक उद्देश्य विज्ञापक की ख्याति बढ़ाना है। उदाहरण के तौर पर, “लिपटन का अर्थ अच्छी चाय”, ऐसा विज्ञापन जिसका उद्देश्य विज्ञापनकर्ता, लिपटन चाय कम्पनी की ख्याति बढ़ाना भी है।
12. उत्पादन एवं बिक्री लागत कम करना (To reduce the Production and Sales Cost)- विज्ञापन का एक उद्देश्य उत्पादन एवं विक्रय लागतों में कमी लाना है। यह इसलिए है क्योंकि विज्ञापन द्वारा माँग की मात्रा बढ़ती है जिसके फलस्वरूप वृहदाकार उत्पादन करने से प्रति इकाई उत्पादन लागत कम होती है।
13. वस्तु का चयन करना सरल (To make the selection of Commodity Easy)- विज्ञापन वतुओं की उपयोगिताओं को स्पष्ट करता है। जिससे उनकी उपयोगिताओं का तुलनात्मक अध्ययन कर, वस्तु विशेष का चयन सरल हो जाता है। . .
प्रश्न 10.
विज्ञापन के महत्त्व का वर्णन करें।
अथवा, व्यवसाय में विज्ञापन के महत्व को बताएँ।
उत्तर:
विज्ञापन ग्राहकों का ज्ञान विस्तृत करता है। विज्ञापन की सहायता से उपभोक्ता बिना समय खोये, आवश्यक वस्तुएँ ढूँढकर क्रय करते हैं। इससे वस्तुओं की बिक्री तेजी से बढ़ती है। विज्ञापन के मुख्य लाभ निम्न प्रकार हैं-
(i) निर्माताओं को लाभ (Benefits to Manufactures)-
- यह उत्पाद के प्रति आकर्षण पैदा कर उनकी विक्रय मात्रा बढाता है।
- नये उत्पादों को आसानी से बाजार में लाया जा सकता है।
- उत्पाद की छवि एवं प्रतिष्ठा बढ़ाते हैं।
- निर्माता एवं उपभोक्ता में प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित करता है।
- उत्पाद की माँग में वृद्धि होती है।
- यह एक उत्तरदायी बाजार निर्मित करता है।
- बिक्री की मात्रा में वृद्धि कर विक्रय लागत प्रति इकाई को कम करता है।
- कार्यकर्मियों एवं श्रमिकों की कार्यकुशलता बढ़ाने की प्रेरणा देता है।
- उत्पादकों को प्रतिस्पर्धा का सामना करने में सहायता देता है।
(ii) थोक एवं फुटकर व्यापारियों को महत्त्व (Importance to Wholesaler and Retailers)-
- क्योंकि उपभोक्ता उत्पाद एवं उसकी किस्म को विज्ञापन द्वारा जानते हैं, बिक्री आसान हो जाती है।
- स्टॉक का आवर्तन बढ़ाते हैं।
- यह विक्रय क्रियाओं का पूरक है।
- फुटकर एवं थोक व्यापारियों को विज्ञापन की आवश्यकता नहीं होती क्योंकि उत्पादक उत्पादन का विज्ञापन करता है।
- इससे अधिक सस्ती बिक्री होती है।
- इससे सभी को उत्पाद सूचना मिलती रहती है।
(iii) उपभोक्ताओं को महत्त्व (Importance to Consumers)-
- यह उपभोक्ता को कम कीमत पर उच्च किस्म का माल प्रदान करता है।
- उत्पाद एवं उपभोक्ता में विज्ञापन प्रत्यक्ष सम्बन्ध स्थापित कर मध्यस्थ को निकालता है।
- यह उनका माल कहाँ और कब उपलब्ध है, की जानकारी देता है।
- यह अनेक वस्तुओं एवं उत्पादों का तुलनात्मक अध्ययन करवाता है।
- वस्तुओं के नये प्रयोगों की जानकारी देता है।
(iv) विक्रेताओं को महत्त्व (Importance to Salesmen)-
- यह विक्रेता को अपना कार्य प्रभावी रूप से आरम्भ करने में सहायक सिद्ध होता है।
- नये उत्पादों को सरल एवं सुविधाजनक तरीके से परिचित कराता है।
- विक्रेता द्वारा ग्राहकों से बनाये गए सम्बन्ध बने रहते हैं।
(v) समाज को महत्त्व (Importance to Society)-
- विज्ञापन साधारण रूप से प्रकृति से शैक्षिक है।
- इससे उत्पादन वृहदाकार हो जाता है।
- यह अनन्त इच्छाओं एवं उनकी सन्तुष्टि कर, लोगों का जीवन स्तर ऊँचा करता है।
- इससे रोजगार के अवसर बढ़ते हैं।
- यह देश की जीवन शैली की झलक प्रदान करता है।
- यह निर्माताओं के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का सृजन करता है।
प्रश्न 11.
विज्ञापन के साधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
विज्ञापन के दो माध्यम हैं
1. घरेलू विज्ञापन साधन (Indoor Advertising Media)- यह उन संदेशवाहक से सम्बद्ध है जिनके द्वारा विज्ञापनकर्ता लक्ष्य समूहों के घरों तक संदेश पहुँचाते हैं। ये साधन निम्नलिखित हैं-
- समाचार-पत्र विज्ञापन (Newspaper Advertising)
- पत्रिकाएँ विज्ञापन (Magazine Advertising)
- रेडियो विज्ञापन (Radio Advertising)
- टेलीविजन विज्ञापन (Television Advertising)
- फिल्म विज्ञापन (Film Advertising)
2. बाह्य विज्ञापन माध्यम (Outdoor Advertising Media)- यह उन तकनीकों से सम्बद्ध है जो ग्राहकों को तब सम्पर्क करता है जब वे घर के बाहर होते हैं। ऐसे माध्यम निम्न हैं-
- पोस्टर विज्ञापन (Poster Advertising)
- प्रिण्ट निरूपण विज्ञापन (Print Display Advertising)
- विद्युत् चिन्ह विज्ञापन (Electric Signs Advertising)
- यात्रा निरूपण विज्ञापन (Travelling Display Advertising)
- आकाश लेखन विज्ञापन (Sky Writing Advertising)
प्रश्न 12.
नियोजन की प्रक्रिया का संक्षिप्त वर्णन करें।
उत्तर:
नियोजन में निहित आवश्यक कदम (Steps involved in Planning)- नियोजन प्रक्रिया के लिए विभिन्न विद्वानों जैसे मेरी कुशिंग नाइलस, जॉर्ज आर. टेरी, रिचार्ड टी, केस तथा कुण्ट्रज एवं ओ डोनेल ने अलग-अलग बातों को सम्मिलित किया है। इसमें से प्रमुख इस प्रकार हैं-
(i) उद्देश्यों का निर्धारण (Establishment of Objectives) सर्वप्रथम नियोजन प्रक्रिया का प्रारम्भ उद्देश्य निर्धारण करके किया जाता है। उसके बाद विभागों एवं उपविभागों के उद्देश्यों को निर्धारित करना चाहिए। उद्देश्यों के निर्धारण से प्रबन्ध को ज्ञात हो जाता है कि उद्देश्य की पूर्ति के लिए नवीन नियोजन की आवश्यकता तो नहीं है और यदि है तो पुरानी योजना में कितना सुधार करना होगा।
(ii) सूचनाओं का वर्गीकरण तथा विश्लेषण (Analysis and Classification Information)- प्राप्त सूचनाओं का वर्गीकरण तथा विश्लेषण करके यह मालूम करना चाहा कि इनका नियोजन से कितना सम्बन्ध है या कितना नहीं।
(iii) सम्बन्धित क्रियाओं के विषय में पूरी जानकारी (Obtaining Complete Information about the activities Involved)- उद्देश्यों को निश्चित करने के पश्चात् नियोजन से सम्बन्धित क्रियाओं के विषय में भी आवश्यक पूरी जानकारी प्राप्त कर लेनी चाहिए। पूरी जानकारी प्राप्त करने में प्रतियोगी संस्थाओं के कार्यकलापों का ज्ञान, पुराने रिकॉर्ड तथा अनुसंधान आदि सहायक हो सकते हैं।
(iv) नियोजन के आधार पर निर्माण (Determination of Planning Base)- नियोजन का आधार भविष्य की अनिश्चित परि। पतियों से सम्बन्धित होता है जिनका अनुमान लगाना नियोजन की सफलता के लिए परमावश्यक होता है। जैसे- भविष्य में वस्तु की माँग कितनी होगी, बाजार की स्थिति कैसे होगी, कीमतों की प्रकृति कैसी होगी, पूँजी बाजार की दशा, करों की क्या दर होगी तथा सरकारी नीति और कर नीति कैसी होगी।
(v) वैकल्पिक कार्य-विधि का निर्धारण (Determining Alternative Procedures)- किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए एक विधि नहीं होती अपितु अनेक विधियाँ होती हैं। इसलिए सर्वोत्तम विधि की खोज करके उसका निर्धारण करना चाहिए।
(vi) वैकल्पिक कार्य-विधियों का मूल्यांकन (Evaluation of Alternative Procedures)- वैकल्पिक कार्यविधि के निर्धारण के बाद मूल्यांकन करना चाहिए। मूल्यांकन करते समय पर्याप्त सावधानी तथा कई बातों को ध्यान में रखना चाहिए। प्रत्येक कार्य-विधि किसी दृष्टि से संस्था को लाभदायक होती है। एक कार्य-विधि बहुत अधिक संस्था को लाभप्रद है। लेकिन उसको लागू करने के लिए बड़ी मात्रा में पूँजी एवं जोखिम उठानी झेलनी पड़ सकती है। जबकि कोई कार्य विधि कम लाभप्रद है। उसके लिए कम पूँजी कम जोखिम की आवश्यकता है। इस प्रकार संस्था के हित को ध्यान में रखकर मूल्यांकन करना चाहिए।
(vii) श्रेष्ठ कार्यविधि का चुनाव (Selection of the best Producers)- नियोजन के लिए वैकल्पिक कार्य-विधियों में से श्रेष्ठ कार्य विधि वही होती है जो कि न्यूनतम लागत पर अधिकतम लाभ संख्या को प्राप्त करता है। कभी-कभी नियोजन के लिए एक कार्य-विधि उपयोगी न होकर कई विधियों का मिश्रण का चुनाव किया जाता है तो ऐसी दशा में किसी एक कार्य विधि का चुनाव . न करके कई कार्यविधियों का चुनाव करना होता है।
(viii) सहायक योजनाओं का निर्माण (Formulation of derivative Plans)- एक मुख्य योजना के निर्माण के बाद उसे ठीक प्रकार से लागू करने के लिए कई सहायक योजनाओं को बनाने की आवश्यकता होती है। ये सहायक योजनाएँ मूल योजना का ही अंग होती हैं ताकि मूल योजना सरलता से पूरी की जा सके।
(ix) योजना पूरी करने में सहयोग लेना (Testing co-operation in execution of Plan)- पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नियोजन के क्रियान्वयन में उस समय के प्रत्येक व्यक्ति से सहयोग प्राप्त करना चाहिए। इसके लिए सम्बन्धित प्रत्येक व्यक्ति को नियोजन की जानकारी देनी चाहिए, उसकी राय ली जानी चाहिए। इस प्रकार सभी कर्मचारियों का सहयोग प्राप्त करके नियोजन का क्रियान्वयन करना चाहिए।
(x) नियोजन का अनुवर्तन (Follow up the Plan)- नियोजन प्रक्रिया में वांछित परिणामों को मालूम करते रहना चाहिए। पूर्व-निर्धारित उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो पाती तो इसके कारणों को मालूम करके नियोजन में आवश्यकतानुसार सुधार करना चाहिए।
प्रश्न 13.
उत्पादन रूप रेखा क्या है? उत्पादन रूपरेखा के चरणों को समझाइए।
उत्तर:
किसी भी उपक्रम की रीढ़ वे उत्पाद एवं सेवाएँ हैं, जिन्हें यह प्रस्तुत करती है इसलिए क्रिया व्यवस्था के विकास हेतु क्या और कब उत्पादन करें, का विचार प्रथम चरण है। अन्य शब्दों में, किसी उपक्रम द्वारा सर्वप्रथम उत्पाद की रूपरेखा तैयार करना, उसके निर्णयन कार्य का प्राथमिक सामरिक निर्णय है। अनुभव सुझाता है कि एक उपक्रम की छवि एवं उसकी लाभ-उपार्जन क्षमता, बड़ी सीमा तक, उसी उत्पाद रूपरेखा पर निर्भर करती है। क्योंकि एक बार बनाई गई उत्पाद रूपरेखा एक लम्बी अवधि तक चलती है। अत: उत्पाद रूप-रेखा तैयार करने से पूर्व अनेक घटकों जैसे वातावरणीय परिवर्तन, प्रौद्योगिकी एवं उपभोक्ता रुचि व उनकी आवश्यकताओं पर विचार किया जाता है। इसका यह भी अर्थ है कि उत्पाद का प्रारम्भ बाजार की माँग द्वारा शासित होता है परन्तु रूपरेखा एक सरल कार्य नहीं है जोकि कोई व्यक्ति अपने आप ही सम्पन्न कर सके। एक सही प्रकार की उत्पाद रूपरेखा के निर्माण पर व्यय करता हैं उतने ही उसकी सफलता के अवसर होते हैं। साधारणतया उत्पाद रूपरेखा बनाते समय अग्रलिखित तथ्यों का विचार करना चाहिए-
- प्रमापीकरण,
- विश्वसनीयता,
- रख-रखाव,
- सेवा व्यवस्था,
- पुनः उत्पादनशीलता,
- बनाये रखने का स्थायित्व,
- उत्पाद सरलीकरण,
- लागत को ध्यान में रखते हुए गुणवत्ता,
- उत्पाद मूल्य एवं
- उपभोक्ता किस्म।
प्रश्न 14.
“विज्ञापन पर किया गया खर्च व्यर्थ है।” विवेचना कीजिए।
अथवा, विज्ञापन के दोषों का वर्णन करें।
उत्तर:
अत्यन्त उपयोगी होते हुए भी विज्ञापन के दोष हैं। प्रमुख दोषों की सूची इस प्रकार है-
1. मूल्य वृद्धि- विज्ञापन व्यय क्योंकि मूल्य में शामिल होता है इसलिए वस्तुओं के मूल्यों में अनावश्यक वृद्धि हो जाती है।
2. मानवीय असंतुष्टि- विज्ञापन से सामान्य जनता को नई-नई वस्तुओं की जानकारी मिलती है जिसके कारण वह उनको क्रय करने के बारे में सोचते रहते हैं जबकि उनके पास उन सभी वस्तुओं को क्रय करने के पर्याप्त साधन नहीं होते। इस कारण विज्ञापन से मानवीय असंतुष्टि । असंतोष में वृद्धि होती है।
3. घटिया वस्तुओं का विक्रय- कुछ उत्पादकों ने विज्ञापन को घटिया उत्पाद विक्रय करने का साधन मान लिया है तथा वह इसके द्वारा जनता को मिथ्या सूचनाएँ देकर उच्च मूल्य पर घटिया उत्पाद विक्रय करने में सफल हो जाते हैं।
4. अनावश्यक प्रतिस्पर्धा- विज्ञापन के कारण विनियोजनकर्ता को यह विश्वास हो गया है कि वह जो भी वस्तु उत्पन्न करेंगे, वह विक्रय हो जायेगी। इस कारण उन क्षेत्रों में भी अपने उद्योग शुरू कर रहे हैं जहाँ पहले ही आवश्यकता से अधिक औद्योगिक इकाइयाँ हैं। इससे बाजार में अनावश्यक प्रतिस्पर्धा में वृद्धि हो गई है।
5. एकाधिकार की प्रवृत्ति- विज्ञापन की सहायता से बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ लाखों रुपए व्यय कर बाजार में अपनी उत्पाद ब्राण्ड का एकाधिकार बनाने में सफल हो जाती हैं जिससे बाद में वह उपभोक्ताओं का शोषण करती हैं।
6. अश्लील चित्रों का प्रयोग- विज्ञापन की सफलता उसकी आकर्षण शक्ति पर निर्भर होती है। विज्ञापनकर्ताओं ने आकर्षण शक्ति बढ़ाने के लिए अश्लील चित्रों का प्रयोग शुरू कर दिया है जिसका समाज के चरित्र पर बुरा प्रभाव पड़ता है।
7. विज्ञापन पर अधिक बल- कुछ प्रबंधकों ने विज्ञापन को ही विक्रय वृद्धि का मुख्य आधार मान लिया है जो सत्य नहीं है। विक्रय वृद्धि के लिए विज्ञापन स्वयं पर्याप्त नहीं है। उत्पादन की किस्म, मूल्य तथा विक्रय कला भी समान महत्त्व रखती है। यदि एक संस्था इनकी ओर ध्यान नहीं देती तब वह केवल विज्ञापन की सहायता से सफल नहीं हो सकती है। इसलिए वह कहते हैं जब विज्ञापन पूर्ण नहीं है तब इसे अनावश्यक तथा अत्यधिक महत्त्व देने की आवश्यकता नहीं है तथा न ही इस पर इतना अधिक व्यय करने की आवश्यकता है।
आलोचनाओं का खण्डन (Criticism Assailed)- उपरोक्त तथ्यों को देखने से एक बात स्पष्ट होती है कि ये दोष विज्ञापन के नहीं है बल्कि विज्ञापन के प्रयोग करने वालों के हैं। यदि रोगी ने दवाई को गलत ढंग से प्रयोग कर उससे हानि उठाई है तब डॉक्टर को दोषी नहीं कह सकते। इसी तरह विज्ञापन को इन आधारों पर दोष देना उचित व न्यायपूर्ण नहीं है। यदि उत्पादक विज्ञापन का प्रयोग समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्व को महसूस करते हुए करे तो इनमें से अधिकांश दोष दूर हो सकते हैं तथा अन्य दोष विज्ञापन के महत्त्व के समक्ष बहुत ही कम रह जाते हैं। इस कारण विज्ञापन को अनावश्यक तथा व्यर्थ कहना उपयुक्त नहीं।
यह तथ्य तो वर्तमान हालत देखने से भी स्पष्ट हो जाता है। यदि विज्ञापन अनावश्यक तथा व्यर्थ होता तब यह अब तक समाप्त हो गया होता। परंतु इसका प्रयोग समय बीतने के साथ-साथ बढ़ता जा रहा है तथा न ही इससे प्रयोग में कमी होने की संभावना ही है।