BSEB Bihar Board 12th Geography Important Questions Long Answer Type Part 1 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Geography Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
व्यापारिक बागानी कृषि की विस्तृत व्याख्या करें।
उत्तर:
व्यापारिक बागानी कृषि के रोपण कृषि एक विकसित कृषि-प्रणाली है, जिसमें कृषि की नवीन पद्धतियों का उपयोग किया जाता है। औद्योगिक प्रबंध के नियमों पर आधारित इस कृषि के सभी फसल निर्यात आधारित होते हैं। उष्ण कटिबंधीय विकासशील देशों में होने वाले इस कृषि में विकासशील देशों के श्रमिक किंतु विकसित देशों की पूँजी लगी है। विस्तृत कृषि भूमि उपलब्ध होने के कारण विश्व के विभिन्न भागों में इस कृषि प्रकार में विविध किंतु किसी एक ही फसल की खेती की जाती है। फलतः इसे ‘एकल कृषि’ प्रकार भी कहा जाता है।

इस कृषि के अंतर्गत थाईलैंड, इंडोनेशिया, भारत, मलेशिया, विषुवतीय अफ्रीकी क्षेत्र, ब्राजील तथा मध्य अमेरिकी देशों में रबड़; ब्राजील, कोलंबिया, जमैका, दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका, दक्षिण-पश्चिम एशिया और भारत में कहवा; विषुवतीय अफ्रीका और दक्षिण-पश्चिम अफ्रीका में कोक; दक्षिण एशिया, चीन दक्षिण-पश्चिम एशिया और पूर्वी अफ्रीकी देशों में चाय मुख्य फसल है। भारत, श्रीलंका, मोजांबिक, केन्या और हिंद महासागर के द्वीपीय देशों में मसाले; उष्ण कटिबंधीय तटवर्ती देशों भारत, श्रीलंका और फिलीपींस में नारियल तथा मध्य अमेरिका, केनारी द्वीप तथा दक्षिण एशियाई देशों में केला का प्रमुखता से उत्पादन किया जाता है।

प्रश्न 2.
दक्षिण-पश्चिमी एशिया में पेट्रोलियम के वितरण एवं उत्पादन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एशिया महाद्वीप के दक्षिण-पश्चिम में खनिज तेल के विस्तृत भंडार उपलब्ध हैं। विश्व के समस्त खनिज तेल के उत्पादन का 15 प्रतिशत, एशिया के इस भाग से प्राप्त होता है। इस क्षेत्र में इराक, ईरान, कुवैत, बहरीन, सऊदी अरब प्रमुख तेल उत्पादक देश हैं।

  • इराक में विश्व का सबसे बड़ा तेल क्षेत्र (112 किलोमीटर की लम्बाई में) किरकुक से उत्तर में बाबागुरगुर तक फैला है। इस देश से तेल 1,000 किलोमीटर लम्बी पाईप लाईन के द्वारा टर्की होकर भूमध्य सागर के तटवर्ती भागों को भेजा जाता है।
  • ईरान के प्रमुख तेल क्षेत्र दक्षिण-पश्चिम में स्थित है जहाँ मस्जिदे, सुलेमान (28 वर्ग किलोमीटर) तथा दूसरा क्षेत्र 64 किलोमीटर दक्षिण में 88 वर्ग किलोमीटर में फैला है। ईरान के अन्य तेल उत्पादक केन्द्र गचसारन, करमनशाह, आगाजमी, नफ्थसफेद और लाली है।
  • सऊदी अरब में खनिज तेल का उत्पादन पश्चिम में दम्माम क्षेत्र में किया जाता है जहाँ से खनिज तेल 40 किलोमीटर लम्बी पाईप लाईन द्वारा बहरीन भेज दिया जाता है। प्रमुख तेल उत्पादन केन्द्र दम्माम, कातिफ, अबाक्वेक, बुक्का मुख्य है।
  • कुबैत में बुर्गन की पहाड़ियों में लगभग 1.067 मीटर की गहराई से खनिज तेल निकाला जाता है।
  • कतार में दुरबान के क्षेत्र से तेल निकाला जाता है। पाईप लाईन द्वारा तेल उम्मसईद के शोध संस्थान को भेजा जाता है।
  • बहरीन-फारस की खाड़ी में स्थित बहरीन द्वीप में खनिज तेल निकाला जाता है।
  • संयुक्त अरब अमीरात, आबुधाबी, दुबई, शारजाह में तेल मिलता है।

पाकिस्तान – पंजाब के खौर तथा धुलियन क्षेत्रों से तेल प्राप्त होता है। रावलपिण्डी से 65 किलोमोटर दक्षिण में जोयामेल में भी तेल निकाला जाता है।

भारत – भारत में गुजरात तथा असाम राज्य प्रमुख तेल उत्पादक राज्य हैं। मुम्बई के निकट हाई से भी तेल प्राप्त किया जाता है। अभी हाल में आन्ध्र के गोदावरी डेल्टा में तेल प्राप्त हुआ है। यहाँ 2003-04 में देश में 331 लाख टन तेल का उत्पादन हुआ।

म्यांमार – विश्व के उत्पादन का 1 प्रतिशत खनिज तेल म्यांमार से प्राप्त होता है। इराददी घाटी में तेल कूप खोदे गये हैं।

इण्डोनेशिया – सुमात्रा, कालीमण्टन, जावा आदि द्वीपों से तेल प्राप्त होता है। सुमात्रा के पूर्वी तट पर जम्बी और पैलेमबाग में तेल कूप खोदे गये हैं।

प्रश्न 3.
मानव भूगोल की परिभाषा दीजिये तथा उसके अध्ययन के उद्देश्य एवं विषय-क्षेत्र को बताइये।
उत्तर:
मानव भूगोल : परिभाषा तथा उद्देश्य :
फ्रांसीसी विद्वान वीडाल-डी-ला-ब्लाश (Vidal-de-la-Blache) के अनुसार, मानव भूगोल पृथ्वी और मानव के पारस्परिक सम्बन्धों को एक नया विचार देता है, जिसमें पृथ्वी को नियंत्रित करने वाले भौतिक नियमों का तथा पृथ्वी पर निवास करने वाले जीवों के पारस्परिक सम्बन्धों का अधिक संयुक्त ज्ञान प्राप्त होता है।

जीन ब्रून्श (Jean Brunches) के अनुसार, मानव भूगोल उन सभी तथ्यों का अध्ययन है जो मानव के क्रिया-कलापों से प्रभावित है और जो हमारी पृथ्वी के धरातल पर घटित होने वाली घटनाओं में से छाँटकर एक विशेष श्रेणी में रखे जा सकते हैं।

अमेरिकन भूगोलवेत्ता एल्सवर्थ हंटिंगटन (Ellsworth Huntington) ने मानव भूगोल की परिभाषा इस प्रकार दी है-‘मानव भूगोल भौगोलिक वातावरण और मानव के कार्यकलाप एवं गुणों के पारस्परिक सम्बन्ध के स्वरूप और वितरण का अध्ययन है।’

कुमारी सेम्पुल के अनुसार, ‘मानव भूगोल क्रियाशील मानव व अस्थायी पृथ्वी के परिवर्तनशील सम्बन्धों का अध्ययन है।’

जर्मन विद्वान रेटजेल (Ratzel) के अनुसार, “मानव भूगोल के दृश्य सर्वत्र वातावरण से सम्बन्धित होते हैं, जो स्वयं भौतिक दशाओं का एक योग होता है।”

फ्रांसीसी विद्वान डीमाजियां (Demageon) के अनुसार, मानव भूगोल मानव समुदायों और समाजों के भौतिक वातावरण से सम्बन्धों का अध्ययन है।”

लेबान (Leban) के अनुसार ‘मानव भूगोल एक समष्टि भूगोल है जिसके अन्तर्गत मानव और उसके वातावरण के मध्य के सम्बन्धों के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली सामान्य समस्या का स्पष्टीकरण किया जाता है।’

जर्मन विद्वान रेटजेल (Ratzel) को मानव भूगोल का जनक कहा जाता है। उन्होंने सर्वप्रथम 1882 में एन्थ्रोपोज्योग्राफी (Anthropogeography) नामक ग्रन्थ का प्रथम खण्ड प्रकाशित कराया जिसमें उन्होंने मानव और वातावरण के सम्बन्धों का अध्ययन कर भूगोल को एक नया रूप दिया जो आगे चलकर भूगोल की एक महत्वपूर्ण शाखा ‘मानव भूगोल’ के रूप में विकसित हुआ। रेटजेल के मतानुसार मानव अपने वातावरण की उपज है और वातावरण की प्राकृतिक शक्तियाँ ही मानव जीवन को ढालती है। दूसरे शब्दों में मानव अपने वातावरण का जीव (Creature of his environment) हैं।

विभिन्न परिभाषाओं से स्पष्ट है कि मनुष्य के ऊपर वातावरण का प्रभाव पड़ता है। यह मात्र भौगोलिक वातावरण ही नहीं सांस्कृतिक वातावरण भी होता है जिसका समग्र प्रभाव मानव पर पड़ता है।

हार्लन बैरोज (H. H. Barrows) ने बताया है कि मानव पारिस्थितिकी (Human Ecology) में केवल प्राकृतिक वातावरण और मानव के सम्बन्धों का ही अध्ययन नहीं होता क्योंकि पारिस्थितिकी में केवल प्राकृतिक वातावरण और मानव के सम्बन्धों का अध्ययन ही किया जाता है जबकि मानव भूगोल में मनुष्य का भौगोलिक तथा सांस्कृतिक दोनों ही वातावरण के संदर्भ में अध्ययन किया जाता है। यद्यपि मनुष्य अपने वातावरण से अत्यधिक प्रभावित होता है फिर भी वह अपने वातावरण का दास नहीं है। जहाँ एक ओर वह वातावरण के अनुकूलन संशोधित . (adaptation) का प्रयास करता है। वहीं दूसरी ओर वह वातावरण को भी अपने अनुकूल संशोधित (modification) करता है। फेब्रे का मत है कि ‘मनुष्य एक भौगोलिक-दूत है, पशु नहीं’ (Man is a geographic agent and not a beast.)।

मनुष्य व वातावरण को अलग-अलग करके मानव पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी नहीं की जा सकती। अत: यह स्पष्ट होता है कि मानव भूगोल में मनुष्य और उसके वातावरण के अन्तर्सम्बन्धों से उत्पन्न समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। मनुष्य वातावरण से हर समय घिरा रहता है। इसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रभाव मानव पर अवश्य पड़ता है। मनुष्य व वातावरण के मध्य कार्यात्मक सम्बन्ध (functional relation) पाया जाता है।

प्रश्न 4.
संभववाद की संकल्पना का परीक्षण करें।
उत्तर:
संभववाद को सर्वप्रथम फ्रांसीसी विद्वान फेब्बरे ने नाम दिया। इस विचारधारा के विद्वानों का मत है कि मानव प्रकृति के तत्वों को चुनने के लिए स्वतंत्र होता है। सर्वत्र संभावनाएँ हैं और मनुष्य इन संभावनाओं का स्वामी है। फेब्बरे (Febvre) का विचार है, “कहीं अनिवार्यता नहीं है, सब जगह संभावनाएं हैं।” मानव उसके स्वामी के रूप में उनका निर्णायक है। संभावनाओं के उपयोग से स्थिति में जो परिवर्तन होता है, उससे मानव को, मात्र मानव को ही प्रथम स्थान प्राप्त होता है। पृथ्वी, जलवायु या विभिन्न स्थानों की नियतिवादी परिस्थितियों को वह कदापि नहीं मिल सकता। ब्लांश का मानना है कि मानव को अपने वातावरण में रहकर कार्य करना पड़ता है, परंतु इसका अर्थ यह नहीं है कि वह वातावरण का दास है।

मानव एक क्रियाशील प्राणी है जिसमें वातावरण में परिवर्तन लाने की असीम क्षमता है अर्थात् वह अकर्मण्य तभी होता है जब भौतिक विश्व उसे निष्प्राणित कर देता है। वास्तव में जब तक वह जीवित रहता है, तब तक क्रिया-प्रतिक्रिया करता रहता है। ब्लांश ने उदाहरण प्रस्तुत किया कि गेहूँ प्रारम्भ में भूमध्य सागरीय क्षेत्रों की उपज थी, परंतु मानव के प्रयत्नों के फलस्वरूप पश्चिमी यूरोप में गेहूँ की उपज क्षेत्रों की उपज भूमध्य सागरीय क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक है। उन्होंने कहा कि “प्रकृति एक सलाहकार के अधिक नहीं है।” (Nature is never more than an advisor.) साम्यवाद के समर्थकों में ब्रून्श, ईसा बोमेन, कार्ल सॉवर, रसल स्मिथ आदि थे। इन सभी विद्वानों ने मानव.को प्रकृति से अधिक सक्रिय एवं बुद्धिमान माना।

प्रश्न 5.
नव निश्चयवाद की विचारधारा पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
उत्तर:
वर्तमान में अनेक विद्वान इस विचारधारा के समर्थक हैं। इस सिद्धान्त के समर्थकों ने इस विवाद में न पड़कर कि प्रकृति अधिक शक्तिशाली है, अथवा मनुष्य, प्रकृति व मनुष्य के मध्य आपसी तालमेल को महत्त्व दिया है। नव निश्चयवादी विद्वान भी मनुष्य पर प्रकृति का पूर्ण नियंत्रण न बताकर केवल प्रभाव बताते हैं।

इस विचारधारा के समर्थकों का मत है, कि प्रकृति मनुष्य को अवसर प्रदान करती है परन्तु साथ ही कुछ सीमायें निर्धारित करती है। इन सीमाओं में रहकर ही मनुष्य को अपना कार्य करना चाहिए।

ग्रिफिथ टेलर इस विचारधारा के जनक माने जाते हैं। इन्होंने इस विचारधारा को वैज्ञानिक निश्चयवाद व ‘रुको और जाओ निश्चयवाद’ भी कहा है। जॉर्ज टॉथम ने इसे क्रियात्मक संभववाद का नाम दिया है। इसमें मनुष्य द्वारा छाँट का विचार भी सम्मिलित है।

इस विचारधारा के जन्म व विकास में अमरीकी भूगोलवादियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। इस विचारधारा को अमरीकी विचारधारा भी कहते हैं। इस विचारधारा के समर्थकों ग्रिफ्फिथ टेलर के अलावा जॉर्ज टॉथम, एल्सबर्थ हटिंगटम, रॉक्सवी, कार्ल सॉवर, एच० जे० फ्ल्यूर आदि प्रमुख हैं। इस सिद्धान्त में मानव व प्रकृति के मध्य समझौते पर विशेष बल दिया गया है। इस विचारधारा के विचारकों का मत है कि यदि मानव सांस्कृतिक विकास करना चाहता है तो उसे प्रकृति की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए। प्रकृति मौन रहती है, निर्णय मानव करता है। यह मानव पर ही निर्भर है, कि उसका निर्णय किस प्रकार का है। यदि मानव बुद्धिमत्तापूर्ण है, तो मनुष्य भव्य सांस्कृतिक भू-दृश्य का निर्माता बनता है और यदि मूर्खतापूर्ण है, तो मानव कुछ नहीं कर पाता।

टेलर ने अपनी पुस्तक ‘ज्योग्राफी इन दी ट्वंटीयेथ सेंचुरी’ में स्पष्टतः बताया है कि मानव पर प्रकृति के नियंत्रण को नकारा नहीं जा सकता। उदाहरणार्थ साइबेरिया व कनाडा के विस्तृत क्षेत्र में, सहारा व आस्ट्रेलिया के मरुस्थलों में व अंटार्कटिका के हिम क्षेत्र में मानव को प्रकृति का आदेश मानना पड़ता है। ये क्षेत्र अभी बहुत समय तक यों ही पिछड़े पड़े रहेंगे। फिलहाल इन पर इन विकसित राष्ट्र बनाना संभव नहीं है। परन्तु इतना अवश्य है कि प्रकृति में सांस्कृतिक प्रगति मनुष्य द्वारा ही की जाती है। साथ-साथ यह भी सत्य है कि प्रगति, प्रकृति की सीमाओं में रहकर ही करनी चाहिए। उसे प्रकृति पर नियंत्रण उसी प्रकार करना चाहिए, जिस प्रकार एक चौराहे पर यातायात नियंत्रक यातायात को नियंत्रित करता है। वह वाहनों की गति परिवर्तित करता है, दिशा नहीं।

इस विवारधारा के समर्थकों के अनुसार मानव प्रकृति पर विजय प्राप्त कर सकता है, परन्तु कुछ सीमा तक ही। मध्य अकृीका में कांगों व नाइजर नदियों के बेसिनों में पिग्मी व नीग्रो लोग रहते हैं। उन्होंने वातावरण के साथ समायोजन किया है। पहले ये लोग अधिक गर्मी के कारण निर्वस्त्र रहते थे। समय के साथ-साथ उनकी त्वचा उस गर्मी को सहन करने योग्य हो गई। आर्थिक व सामाजिक विकास होने पर उन्होंने वस्त्र पहनने आरम्भ कर दिये। परन्तु आज भी कांगों व नाइजर बेसिनों में ऐसे लोग निवास करते हैं, जो वस्त्र धारण नहीं करते हैं। निश्चय ही वे अपने चारों ओर के वातावरण से प्रभावित हैं।

संघर्ष मनुष्य की प्रकृति की प्रवृत्ति रही है। यदि प्रकृति उसे एक सुविधा प्रदान करती है, तो मनुष्य संघर्ष के माध्यम से अनेक सुविधायें प्राप्त करना चाहता है। प्रकृति ने मानव को कृषि के लिए समतल मैदान प्रदान किये हैं, परन्तु मानव ने सीढ़ीदार खेत बनाकर पर्वतों पर कृषि प्रारम्भ कर दी। प्रतिदिन कोई-न-कोई व्यक्ति एवरेस्ट पर चढ़ने का प्रयास करता है, चाहे जीवन ही क्यों न समाप्त हो जाये। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि संघर्ष की प्रवृत्ति मानव के रोम-रोम में बसी है। परन्तु मानव को संघर्ष नहीं करना चाहिए जहाँ उसे सफलता की आशा हो।

साइबेरिया में मानव ने कृषि करनी चाही पर्याप्त मात्रा में श्रम व धन व्यय किया। परन्तु अंततः उसे हार माननी ही पड़ी। इसी प्रकार यदि टुण्डा क्षेत्र या ध्रुवीय क्षेत्रों में सांस्कृतिक भू-दृश्य का निर्माण किया जाए तो कोई लाभ न होगा क्योंकि वहाँ उसका कोई दर्शक नहीं होगा। अतः मनुष्य को प्रयल वहीं तक करना चाहिए जहाँ तक प्रकृति उसे अनुमति दे। मानव को प्रकृति की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए।

क्लब ऑफ रोम की एक पुस्तक ‘लिमिट्स टु गोथ’ में मानव प्रकृति के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया था। इस पुस्तक में इस तथ्य को एक चित्र के माध्यम से समझाया गया है कि मानव द्वारा प्रकृति में हस्तक्षेप बढ़ता ही गया, तो एक दिन मानव व प्रकृति के बीच का संतुलन टूट जायेगा क्योकि मानव की सारी प्रगति व्यर्थ हो जायेगी। इस तथ्य से हमें स्पष्ट झलक मिलती है कि मानव ने प्रकृति की सीमाओं में अंधाधुन्ध हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। उसे अपना विकास प्रकृति की सीमाओं में रहकर ही करना चाहिए।

ईसा बोमैन के अनुसार, “मानव शक्तिशाली है। वह बुद्धिमान है। वह विषम परिस्थितियों में भी लाभदायक परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकता है।” परन्तु ऐसा कब तक होगा?

प्रकृति व मानव के मध्य से संघर्ष हटाकर सहयोग का भाव स्थापित करना ही इस विचारधारा का मुख्य उद्देश्य है।

प्रश्न 6.
निश्चयवाद के विषय में विभिन्न लेखकों की विचारधारा का वर्णन कीजिये।
अथवा, निश्चयवाद की विचारधारा को स्पष्ट कीजिये।
उत्तर:
निश्चयवाद की संकल्पना – निश्चयवाद की संकल्पना का विकास जर्मनी में हुआ। रैटजेल इसके प्रमुख सूत्रधार थे। वैसे मानव पर पर्यावरण के प्रभाव को बहुत पहले से ही अनुभव किया जाने लगा था। इस विचारधाराओं के मानने वालों का मत है कि मानव के समस्त क्रिया कलाप प्रकृति द्वारा नियंत्रित होते हैं। प्रकृति के अनुसार उसे अपनी आवश्यकतायें व इच्छायें नियंत्रित करनी पड़ती है। बिना प्रकृति से सहयोग करे मानव उन्नति नहीं कर सकता। इस विचारधारा के समर्थनों में रैटजेल, हम्बोल्ट, सैंपुल कांट, डिमोलींस, अरस्तु, हिप्पोक्रेटस आदि है।

अनेक प्राचीन ग्रन्थों में मानव और प्रकृति के निकट के सम्बन्धों पर प्रकाश डाला गया है। अनेक यूनानी विचारकों ने भी इस विषय में अपने विचार प्रकट किये हैं। ईसा छठी सदी पूर्व थेल्स व अनैग्जीमैंडर ने जलवायु, वनस्पति पर लिखी एक पुस्तक में-पवन, जल व स्थानों तथा मानव समाज का वर्णन किया है। यह पुस्तक लगभग 420 वर्ष पहले लिखी गई थी। ईसा पूर्व हिप्पोक्रेट्स नामक विद्वान ने भी एशिया व यूरोप के मनुष्यों की तुलना प्रकृति के प्रभावों से की थी।

हिप्पोक्रेट्स ने वातावरण के प्रभाव को न केवल मानव स्वभाव पर स्पष्ट किया वरन् मनुष्य की शारीरिक बनावट से भी वातावरण का गहन सम्बन्ध बताया। एशिया व यूरोप के निवासियों की शारीरिक बनावट का अध्ययन करने के पश्चात् उसने निष्कर्ष निकाला कि इन दोनों क्षेत्रों के निवासियों की शारीरिक बनावट में बहुत अन्तर है।

राजनीतिशास्त्र के प्रसिद्ध विद्वान बोदिन ने मनुष्य पर वातावरण के प्रभाव को वहाँ की सरकार से सम्बन्धित किया है। उन्होंने बताया है कि किस प्रकार की जलवायु में किस प्रकार की सरकार बनने की संभावना रहती है। अरस्तु ने एशिया व यूरोप के निवासियों की तुलना की व उनमें पाये जानेवाले अन्तर का कारण वातावरण ही पाया। ईसा पूर्व प्लिनी ने जलवायु का प्रभाव मानव पर स्पष्ट करते हुए बताया या कि गर्म जलवायु के निवासी आलसी होते हैं।

रेटजैल के मानव भूगोल का जनक माना जाता है। उनका दृढ़ विश्वास था कि मानव सर्वथा प्रकृति पर ही आश्रित रहता है। रेटजैल ने प्रकृति को पेड़ माना है व मानव को एक पक्षी। उन्होंने कहा कि पक्षी चाहे कितनी ही ऊँची उड़ान क्यों न भरे अन्त में आश्रय वृक्ष पर ही लेता है। इसी प्रकार मानव भी प्रकृति की शरण में रहता है।

मिस एलेन चर्चिल सैंपुल रेटजैल की शिष्या थीं। वे भी निश्चयवाद की समर्थक थीं। उन्होंने अपने विचारों की पुष्टि हेतु अनेक उदाहरण दिये। उन्होंने बताया कि पर्वतीय क्षेत्रों में निवास करने वाले व्यक्तियों को प्रकृति ने ही लोहे जैसे कठोर पैर प्रदान किये हैं। दूसरी ओर समुद्र के पास रहने वाले लोगों के शरीर का ऊपरी हिस्सा अधिक शक्तिशाली होता है जिससे वे सुगमता से सागर में नौकायन कर सकें। एलेन चर्चिल का विचार है कि मानव भूतल की उपज है और पृथ्वी उसके रोम-रोम में व्याप्त है।

प्रसिद्ध भूगोलविद् कांट ने भी इस संकल्पना का समर्थन किया है। उन्होंने विभिन्न स्थानों पर मनुष्य पर प्रकृति का भिन्न-भिन्न प्रभाव देखा। नीदरलैंड, हालैंड का धरातल समुद्र तल से बहुत नीचा है। वहाँ प्रायः दलदल बन जाते हैं। दलदल में मच्छर व मक्खियों की उत्पत्ति होती है। मच्छर व मक्खियाँ प्रायः नाक व आँख पर प्रहार करते हैं। अतः ये लोग इन अंगों का विशेष ध्यान रखने लगे। आँख की रक्षा के लिये बार-बार पलक झपकते थे। परिणामस्वरूप उन्हें जल्दी-जल्दी पलक झपकाने की आदतें पड़ गईं। कालांतर में इनकी आँखों का आकार काफी छोटा हो गया। अतः डच लोगों के आँखों के छोटे आकार के लिये वातावरण ही उत्तरदायी है।

डीमोलीस के अनुसार समाज का निर्माण हमेशा प्रकृति से प्रभावित रहता है।

इस्लाम धर्म का उदय मक्का मदीना में हुआ था। यह क्षेत्र मरुस्थलीय है। वहाँ पानी सीमित मात्रा में ही प्राप्त होता है। अतः पानी का प्रयोग बड़ी सावधानीपूर्वक करना पड़ता है। उसके संरक्षण के लिये विभिन्न उपाय करने पड़ते हैं। पानी का संरक्षण करने के दृष्टिकोण से ही मुसलमान सप्ताह में केवल एक बार स्नान किया करते थे। कालांतर में जब इस्लाम धर्म का प्रसार अन्य स्थानों पर हुआ तो अन्य स्थानों से व्यक्ति भी सप्ताह में एक बार ही नहाने लगे। यह तथ्य उनके लिये धर्म का प्रतीक बन गया।

इसी प्रकार रेगिस्तान में धूल व रेत भरी आँधियों से बचने के लिये लोग घर के दरवाजे पर टाट के पर्दे डाल लेते थे। घर से बाहर निकलते समय लबादा व बुर्का आदि का प्रयोग करते थे। ये तथ्य आज रीति-रिवाज बन गये हैं।

आज भी पर्वतीय क्षेत्रों में बहुपति प्रथा पाई जाती है। इसका कारण भी वहाँ का वातावरण ही है। पर्वतों की जलवायु कठोर होती है। कृषि करने लायक क्षेत्र कम होता है। परिणामस्वरूप खाद्यान्न की कमी रहती है। यदि परिवार में सभी विवाह करेंगे तो उनके बच्चे अधिक होंगे। यदि बच्चे अधिक होंगे तो उन्हें भुखमरी का सामना करना पड़ेगा। अतः प्रत्येक परिवार में केवल बड़े भाई का विवाह होता है। उसकी पत्नी ही सब भाइयों की पत्नी होती है। इस प्रकार की विचारधारा के समर्थकों ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि मानव प्रतिपल प्रकृति के बन्धनों में बंधा रहता है। वह प्रकृति की सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता।

प्रश्न 7.
विश्व में जनसंख्या वितरण और घनत्व को प्रभावित करने वाले कारकों की विवेचना करें।
उत्तर:
लोग ऐसे स्थानों पर बसना चाहते हैं जहाँ उन्हें भोजन, पानी, घर बसाने के लिए उपयुक्त स्थान मिल जाए। जनसंख्या के वितरण को निम्न कारक सम्मिलित रूप से प्रभावित करते हैं। इनको निम्न वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

1. प्रक्रुतिक कारक (Physiological factors)-
(i) उच्चावच (Relief) – पर्वतीय, पठारी अथवा उबड़-खाबड़ प्रदेशों में कम लोग रहते हैं जबकि मैदानी क्षेत्रों में लोगों का निवास अधिक होता है क्योंकि इन क्षेत्रों में भूमि उर्वरा होती है और कृषि की जा सकती है। यही कारण है कि नदी घाटियाँ जैसे गंगा, ब्रह्मपुत्र, ह्वांग-हो आदि की घाटियाँ अधिक घनी बसी हैं।

(ii) जलवायु (Climate) – अत्यधिक गर्म या अत्यधिक ठंडे भागों में कम जनसंख्या निवास करती है। ये विरल जनसंख्या वाले क्षेत्र हैं। इसके विपरीत शीतोष्ण जलवायु तथा मानसूनी प्रदेशों में अधिक जनसंख्या निवास करती है।

(iii) मृदा (Soil) – जनसंख्या के वितरण पर मृदा की उर्वरा शक्ति का बहुत प्रभाव पड़ता है। उपजाऊ मिट्टी वाले क्षेत्रों में खाद्यान्न तथा अन्य फसलें अधिक पैदा की जाती हैं तथा प्रति हेक्टेयर उपज अधिक होती है। इसलिए नदी घाटियों को उपजाऊ मिट्टी वाले क्षेत्र अधिक घने बसे हैं।

(iv) खनिज पदार्थ (Minerals) – विषम जलवायु होने पर भी उपयोगी खनिजों की उपलब्धि से लोग वहाँ बसने लगते हैं। उदाहरण के लिए, सऊदी अरब के भीषण गर्मी वाले क्षेत्र में खनिज तेल के मिल जाने से अधिक घने बसे हैं। कालगूर्डी और कूलगर्डी की गर्म जलवायु में सोने की प्राप्ति तथा अलास्का में तेल कुओं की उपलब्धता के कारण वहाँ अधिक लोग रहते हैं।

(v) वनस्पति (Vegetation) – अधिक घने वनों के कारण भी जनसंख्या अधिक नहीं पाई जाती है। लेकिन कोणधारी वनों की आर्थिक उपयोगिता अधिक है। इसलिए लोग उन्हें काटने के लिए वहाँ बसते हैं।

2. आर्थिक कारक (Economic factors)-
(i) परिवहन का विकास (Development of means of transport) – परिवहन के साधनों के विकास से लोग दूर के क्षेत्रों में भी जाकर बस गए हैं। परिवहन केन्द्रों पर आर्थिक क्रियायें बढ़ने से रोजगार के अवसर बढ़ जाते हैं। अतः लोग वहाँ बसने लगते हैं।

(ii) अत्यधिक नगरीकरण (Urbanisation) – नगरों में रोजगार के अवसर बढ़ जाने से ग्रामीण क्षेत्रों के लोग उद्योगों में रोजगार तथा शिक्षा के लिए आकर बस जाते हैं। शंघाई, मुम्बई, न्यूयॉर्क आदि महानगर इनके उदाहरण हैं। नगरों में जनसंख्या का संकेन्द्रण उनकी सुविधाओं के कारण अधिक होता है।

3. सांस्कृतिक कारक (Cultural factors)-
(i) प्रौद्योगिकी में विकास (Development in technology)-यह सांस्कृतिक कारक है। कुछ देशों में प्रौद्योगिकी के विकास के आधार पर आवश्यक वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा लिया है। अतः ऐसे देशों में अधिक जनसंख्या के पोषण की क्षमता होती है।

(ii) धार्मिक कारक (Religious factors)-धार्मिक कारणों से लोग अपना देश छोड़ने को मजबूर हो जाते हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान यहूदियों को यूरोप छोड़कर रेगिस्तानी क्षेत्र में नया देश इजरायल बसाना पड़ा था। इसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद नीति के कारण जनसंख्या का वितरण प्रभावित हुआ है।

4. राजनैतिक कारक (Political factors)-किसी देश में गृह युद्ध, अशान्ति आदि के कारण भी जनसंख्या वितरण पर प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, फारस की खाड़ी का युद्ध, श्रीलंका में जातीय संघर्ष आदि के कारण जनसंख्या का पलायन हुआ।

प्रश्न 8.
विश्व में जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति की वर्णन करें।
उत्तर:
वर्तमान समय में विश्व की जनसंख्या 600 करोड़ से अधिक है। ईसा की पहली सदी में जनसंख्या 30 करोड़ से कम थी जो 1750 ई० के आस-पास बढ़कर 55 करोड़ हो गयी। औद्योगिक क्रांति के बाद विश्व की जनसंख्या में विस्फोटक वृद्धि दर्ज की गयी। 1830-1930 ई० के 100 वर्षों के दौरान जनसंख्या एक अरब से बढ़कर 2 अरब हो गयी। 1960-75 के 15 वर्षों के दौरान यह 3 अरब से 4 अरब हो गयी, जबकि 1975-1987 ई० के 12 वर्षों की अवधि में यह 5 अरब तथा अगले 12 वर्षों के दौरान 1999 ई० में 6 अरब हो गयी है।
Bihar Board 12th Geography Important Questions Long Answer Type Part 1, 1
इसी प्रकार, विश्व जनसंख्या को दो गुना होने की अवधि प्रवृत्ति भी उल्लेखनीय है। इसे 50 से 100 करोड़ होने में 200 वर्ष लगे। 100-200 करोड़ होने में 80 वर्ष तथा 200-400 करोड़ होने में 45 वर्ष लगे हैं। जबकि 400-600 करोड़ होने में मात्र 24 वर्ष लगे।

इस प्रकार विश्व की जनसंख्या वृद्धि की प्रवृत्ति से यह स्पष्ट है कि यह घटते हुए समयावधि के दौरान एक अरब बढ़ जाती है।

प्रश्न 9.
जनसंख्या और विकास के बीच अर्न्तसम्बन्धों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
किसी देश की जनसंख्या की वृद्धि वहां के आर्थिक विकास पर धनात्मक एवं ऋणात्मक प्रभाव डालती है। यह प्रभाव धनात्मक होगा या ऋणात्मक इस पर निर्भर करता है कि वह अमुक देश जनसांख्यिकीय संक्रमण की किस अवस्था में है। संसाधनों के दोहन के लिए उत्पादन के एक महत्वपूर्ण कारक के रूप में श्रम शक्ति की क्षमता व उसकी गुणवत्ता अधिक महत्त्वपूर्ण है।

किसी देश के आर्थिक विकास का स्तर उस देश में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के प्रयोग तथा प्रयोग करने की विधि द्वारा निर्धारित होता है। उत्पादन अथवा खाद्य आपूर्ति तथा जनसंख्या वृद्धि में एक संतुलन बनाये रखना आवश्यक है। इस सन्तुलन को बनाये रखने के लिए संसाधनों के विकास, उनका दोहन व रोजगार उत्पन्न होने की प्रक्रिया का जनसंख्या वद्धि के साथ सामंजस्य स्थापित करना आवश्यक है।

इस प्रकार जनसंख्या और विकास में एक अतसंबंध है। एक ओर जनसंख्या की गुणवत्ता विकास के स्तर को बढ़ाने में सहायक है वहीं लगातार जनसंख्या वृद्धि के स्तर को प्रभावित करती है। अतः जनसंख्या एवं विकास के संदर्भ में जनसंख्या वृद्धि एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

प्रश्न 10.
आयु-लिंग पिरामिड का वर्णन करें।
उत्तर:
जनसंख्या की आयु-लिंग पिरामिड का तात्पर्य विभिन्न आयु वर्ग के पुरुषों तथा स्त्रियों की संख्या से है। किसी भी पिरामिड के प्रत्येक आयु वर्ग में बायीं तरफ पुरुषों तथा दायीं तरफ स्त्रियों के प्रतिशत जनसंख्या का निरूपण किया जा सकता है। पिरामिड का आकार होने के कारण ही आयु-लिंग आरेख को पिरामिड आरेख भी कहा जाता है। पिरामिडनुमा आकार वहाँ का छोटा है जहाँ उच्च जन्म-दर के कारण निम्न आयु-वर्ग की जनसंख्या अधिक तथा उच्च स्तरीय स्वास्थ्य सेवाओं की कमी के कारण उच्च वर्ग की संख्या कम होती है।

यह अल्पविकसित देशों का प्रतिनिधित्व करता है। जैसे-मैक्सिको या बंगलादेश का पिरामिड। विकसित देशों का आयु-लिंग पिरामिड का आधार तुलनात्मक संकीर्ण एवं शीर्ष शुंडाकार होता है। ऑस्ट्रेलिया का आयु-लिंग पिरामिड घंटी के आकार का है जो समान जन्म-दर और मृत्यु-दर को इंगित करता है, जबकि जापान जैसे विकसित देशों का पिरामिड संकीर्ण आधार एवं शुंडाकार शीर्ष वाला होता है, जो निम्न जन्म-दर तथा निम्न मृत्यु को प्रदर्शित करता है। इन देशों में जनसंख्या वृद्धि शून्य या ऋणात्मक होती है।

इस प्रकार आयु-लिंग संरचना पिरामिड के द्वारा किसी देश की आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की जानकारी प्राप्त होती है।

प्रश्न 11.
मानव विकास अवधारणा के अंतर्गत समता और सतत पोषणीयता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
न्याय का अर्थ है सबके लिए समान अवसर प्रदान करना। समान अवसर सबके लिये बिना लिंग भेद, रंग, जाति, धर्म आदि ध्यान रखते हुए मिलने चाहिए। प्रायः सभी वर्ग प्रसन्न नहीं होते। उदाहरण के लिए किसी देश में कौन-से वर्ग के लोग विद्यालय छोड़ देते हैं। यह महिलाओं तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग में अधिक होता है। इससे यह प्रदर्शित होता है कि इन लोगों में ज्ञान कम है।

सतत् पोषणीयता का अर्थ होता है कि अवसरों का सतत् प्राप्यता। सतत् मानव विकास रखने के लिए प्रत्येक पीढ़ी को उन अवसरों को बनाये रखना चाहिए। सभी पर्यावरणीय वित्तीय और मानव संसाधनों का उपयोग भविष्य को ध्यान में रखकर करना चाहिए। इन संसाधनों का दुरुपयोग भविष्य में आने वाली पीढ़ी को कम अवसर प्रदान होगा।

लड़कियों के स्कूल भेजने का महत्त्व का उदाहरण है कि यदि कोई समुदाय लड़कियों को स्कूल भेजने पर जोर नहीं देता तो युवा स्त्रियों के कई अवसर समाप्त हो जायेंगे। उनके जीवन का लक्ष्य पर प्रभाव पड़ेगा तथा इससे अन्य बातों पर भी प्रभाव पड़ेगा। इसलिये प्रत्येक पीढ़ी को अवसरों की उपलब्धि भविष्य के लिए होनी आवश्यक है।

प्रश्न 12.
मानव विकास की संकल्पना की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि विकास का लक्ष्य लोगों का कल्याण होना चाहिए। यदि समग्र दृष्टि से विचार करें तो केवल धन के द्वारा जनकल्याण संभव नहीं है। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विकास जनकल्याण के प्रमुख पक्ष हैं। इसलिए संयुक्त राष्ट्र ने सभी देशों के सामने मानव विकास का लक्ष्य रखा। दीर्घ तथा स्वस्थ जीवन, शिक्षा और उच्च जीवन स्तर मानव विकास के प्रमुख तत्त्व हैं। मानव विकस की संकल्पना में मानवीय विकल्पों को पूरा करने पर बल दिया जाता है। मानव विकास के कतिपय निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

  • राजनीतिक स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता तथा स्वाभिमान प्रत्येक मानव की प्रमुख चाहत हैं।
  • मानव विकास की प्रक्रिया में स्त्री-पुरुष, बच्चे सभी को शामिल किया जाना चाहिए।
  • विकास लोगों के हित और कल्याण के लिए होना चाहिए, न कि लोग विकास के लिए ।
  • विकास सहभागीय होना चाहिए। सभी लोगों को स्वास्थ्य, शिक्षा और प्रशिक्षण की क्षमताओं को विकसित करने के लिए विनिवेश के अवसर मिलने चाहिए।
  • मानव विकास के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए लोगों के सामुदायिक निर्णयों को शामिल करके तथा मानवीय आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता प्रदान करके पूरा किया जा सकता है।

प्रश्न 13.
सतत् विकास की अवधारणा का वर्णन करें।
उत्तर:
साधारणतया विकास शब्द से अभिप्राय समाज विशेष की स्थिति और उसके द्वारा अनुभव किये गये परिवर्तन की प्रक्रिया से होता है। मानव इतिहास के लम्बे अंतराल में समाज और उसके जैव-भौतिकी पर्यावरण की निरंतर अंतरक्रियाएँ समाज की स्थिति का निर्धारण करती है।

विकास की संकल्पना गतिक है और इस संकल्पना का प्रादुर्भाव 20वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुआ है। द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत विकास की संकल्पना आर्थिक वृद्धि की पर्याय थी जिसे सकल राष्ट्रीय उत्पाद, प्रति व्यक्ति आय और प्रति व्यक्ति उपभोग में समय के साथ बढ़ोत्तरी के रूप में मापा जाता था।

1960 के दशक के अंत में पश्चिमी दुनिया में पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर बढ़ती जागरूकता की सामान्य वृद्धि के कारण सतत् पोषणीय धारणा का विकास हुआ। इससे पर्यावरण पर औद्योगिक विकास के अनापेक्षित प्रभावों के विषयों में लोगों की चिंता प्रकट होती थी। 1968 में प्रकाशित एहरलिव की पुस्तक ‘द पापुलेशन बम’ और 1972 में मीकोस और अन्य द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द लिमिट टू ग्रोथ’ के प्रकाशन ने इस विषय पर लोगों और विशेषकर पर्यावरणविदों की चिंता और भी गहरी कर दी। उस घटना के परिप्रेक्ष्य में विकास के एक नए मॉडल जिसे सतत् पोषणीय विकास कहे जाने की शुरूआत हुई।

पर्यावरणीय मुद्दों पर विश्व समुदाय की बढ़ती चिंता को ध्यान में रखकर संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘विश्व पर्यावरण और विकास आयोग (WECD)’ की स्थापना की जिसके प्रमुख नार्वे की प्रधानमंत्री गरो हरलेम ब्रटलैंड थीं। उस आयोग ने अपनी रिपोर्ट ‘अवर कॉमन फ्यूचर’ 1987 में प्रस्तुत की (जिसे ब्रटलैण्ड रिपोर्ट भी कहा जाता है)। WECD ने सतत् पोषणीय विकास की सीधी सरल और वृहत् स्तर पर प्रयुक्त परिभाषा प्रस्तुत की। उस रिपोर्ट के अनुसार सतत् पोषणीय विकास का अर्थ है-‘एक ऐसा विकास जिसमें भविष्य में आने वाली पीढ़ियों की आवश्यकता पूर्ति को प्रभावित किये बिना वर्तमान पीढ़ी द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति करना।’

प्रश्न 14.
मानव विकास सूचकांक क्या है ? इसके आधार पर देशों का वर्गीकरण किस प्रकार किया जाता है ?
उत्तर:
मानव विकास सूचकांक-किसी देश में बुनियादी मानवीय योजना की औसत प्राप्ति की मान मानव विकास सूचकांक कहलाता हैं। इसका आकलन संबंधित देश में जीवन प्रत्याशा, शिक्षा स्तर और वास्तविक आय के आधार पर किया जाता है। इसका मान 0 से 1 के बीच होता है।

मानव विकास सूचकांक के आधार पर देशों का वर्गीकरण निम्नलिखित तीन स्तरों में किया जाता है-

  1. उच्च सूचकांक मूल्य वाले देश – इसके अंतर्गत वैसे देश को शामिल करते हैं, जिसका सूचकांक 0.8 से ऊपर है। 2005 के अनुसार इस वर्ग में 57 देश सम्मिलित थे जिसमें नार्वे, आइसलैण्ड, कनाडा, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका आदि प्रमुख हैं।
  2. मध्यम सूचकांक मूल्य वाले देश – इसके अंतर्गत वैसे देशों को सम्मिलित करते हैं, जिसका सूचकांक 0.5 से 0.799 है। इसके अंतर्गत कुल 88 देश सम्मिलित हैं, जिसमें श्रीलंका, भारत, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया आदि देश है।
  3. निम्न सूचकांक मूल्य वाले देश – इसके अन्तर्गत 0.5 सूचकांक से नीचे वाले देशों को सम्मिलित करते हैं। इसके अंतर्गत कुल 32 देशों को शामिल किया गया है। जिसमें प्रमुख देशसोमालिया, बुरूंडी, इथियोपिया आदि हैं।

प्रश्न 15.
औद्योगिक क्रांति के धनात्मक तथा ऋणात्मक प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर:
औद्योगिक क्रांति से तात्पर्य उन तीव्र परिवर्तनों से है जो इंगलैंड में लगभग 1750 ई. में आरंभ हुए ये परिवर्तन इतने प्रभावशाली थे कि उन्हें क्रांति का नाम दिया गया। अब हाथ के स्थान पर कार्य मशीनों से होने लगा। बड़े-बड़े कारखानों में मशीनों का प्रयोग होने लगा, जिसके फलस्वरूप उत्पादन की दर और मात्रा दोनों में वृद्धि होने लगी। औद्यागिक क्रांति के परिणाम वास्तव में धनात्मक व ऋणात्मक दोनों प्रकार के थे।

औद्योगिक क्रांति के धनात्मक प्रभाव (Positive Impacts of Industrial Revoluation)-
1. कृषि पर प्रभाव (Effects on Farming) – औद्योगिक क्रांति के कारण कच्चे माल के रूप में कपास, पटसन और गन्ने आदि की माँग दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली गई। इस मांग को पूरा करने के लिए कृषि की उपज बढ़ाना जरूरी हो गया। अतः किसानों और जमींदारों ने कृषि करने के नये तरीके अपनाने शुरू किए। जमीन जोतने, फसल बोने, फसल काटने तथा अनाज से भूसा अलग करने के लिए मशीनों का प्रयोग होने लगा। नई-नई फसलें बोई जाने लगीं। सिंचाई के साधनों का विकास हुआ।

2. यातायात पर प्रभाव (Effects on Transport) – औद्योगिक क्रांति के कारण कच्चे माल तथा तैयार माल को लाने-ले जाने के लिए यातायात के साधनों की बड़ी आवश्यकता थी। ऐसी स्थिति में यातायात के क्षेत्र में नए-नए आविष्कारों का होना स्वाभाविक था। नए आविष्कारों के कारण ही पत्थर की रोड़ी से पक्की सड़कें बनवायी गई। जल मार्गों के लिए अनेक नई-नई नहरें खुदवाई गयीं जिनमें छोटे-छोटे जहाज संभव हो गया, बाद में भाप इंजन के आविष्कार से लौह उद्योगों की स्थापना हुई तथा समुद्री जहाज भी काफी मात्रा में बनाए गए। इस प्रकार यातायात तथा परिवहन के साधन में बड़ी उन्नति हुई।

3. संचार पर प्रभाव (Effects on Communication) – औद्यागीकरण के कारण संचार के साधनों में काफी सुधार हुआ है। व्यापार, वाणिज्य और उद्योगों में वृद्धि हो जाने के कारण मनुष्य का जीवन व्यस्त हो गया। वह अब अपने समाचारों को शीघ्र भेजना चाहता था और शीघ्र ही प्राप्त करना चाहता था। इसी कारण आगे चलकर तार, टेलिफोन और वायरलेस का अविष्कार हुआ।

4. व्यापार पर प्रभाव (Effects on Trade) – औद्योगीकरण के कारण चीजों का उत्पादन बढ़ गया। यातायात तथा संचार के साधनों में भी बहुत उन्नति हुई। इसलिए व्यापार का विस्तार हुआ।

5. औद्योगीकरण के कारण शिक्षा की आवश्यकता (Need of Education) – औद्योगीकरण के कारण शिक्षा की बड़ी आवश्यकता अनुभव हुई। मशीनों का ठीक-ठाक प्रयोग व उनकी मरम्मत बिना तकनीकी (ज्ञान) के संभव नहीं थी। विदेशों से वस्तुओं का क्रय-विक्रय विदेशी भाषा सीखे बिना नहीं हो सकता था। कृषि, यातायात तथा संचार के साधनों में नए-नए आविष्कार अच्छी शिक्षा के बिना असंभव थे।

औद्योगिक क्रांति का नकारात्मक प्रभाव (Negative Impact of Industrial Revolution)-
1. औद्योगिक क्रांति का एशिया के देशों पर प्रभाव (Effects of Industrial Revolution on Asian Countries) – औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पादन की दर और मात्रा दोनों में वृद्धि हुई। तैयार माल की बढ़ती हुई माँग को सीमित कच्चे माल द्वारा पूरा करना असंभव था। अतः यूरोप के देशों ने एशिया के देशों को अपना उपनिवेश बनाया, जहाँ औद्योगिक क्रांति नहीं हुई थी। इन देशों को उपनिवेशों से दो लाभ हुए-एक तो इन उपनिवेशों में तैयार माल बड़ी सरलता से बिक जाता था। दूसरा उद्योगों के लिए कच्चा माल बड़ी मात्रा में मिल सकता था।

2. विभिन्न औद्योगिक देशों के बीच संघर्ष (Conflict Among Different Industrial Countries of World) – वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए अधिक से अधिक कच्चा माल प्राप्त करने की होड़ ने विभिन्न यूरोपीय तथा औद्योगिक देशों में आपसी प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष को जन्म दिया।

3. सैन्यवाद और शस्त्रीकरण (Militarisation and Armament) – साम्राज्यवादी देशों की आपसी प्रतिस्पर्धा के धातक अस्त्र-शस्त्रों के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सैन्यवाद व शस्त्रकरण के फलस्वरूप, प्रथम तथा द्वितीय विश्व युद्ध के लिए परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई।

प्रश्न 16.
उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करनेवाले कारकों की विवेचना करें।
उत्तर:
उद्योगों की परम्परागत अवस्थिति को प्रभावित करने वाले विभिन्न कारक निम्न हैं
(i) कच्चा माल – भार-हास वाले कच्चे माल का उपयोग करने वाले उद्योग उन प्रदेशों में स्थापित किये जाते हैं जहाँ ये उपलब्ध होते हैं। भारत में गन्न उद्योग इसका प्रमुख उदाहरण है। कुछ उद्योग कच्चे माल स्रोत में ही स्थापित किये जाते हैं। जैसे-लौह-इस्पात उद्योग, तांबा उद्योग आदि।

(ii) शक्ति – उद्योगों को संचालित करने हेतु शक्ति (ऊर्जा) की आवश्यकता होती है। इसके अंतर्गत कोयला, पेट्रोलियम, आण्विक ऊर्जा इत्यादि आते हैं। एल्युमिनियम एवं कृत्रिम नाइट्रोजन उद्योग की स्थापना शक्ति-स्रोत के निकट किये जाते हैं।

(iii) बाजार – बाजार निर्मित उत्पादों के लिए निर्गम उपलब्ध कराती है। भारी मशीन, औजार, रसायन इत्यादि की उपलब्धता तथा उद्योगों से निर्मित वस्तुओं को बेचने के लिए बाजार की आवश्यकता पड़ती है। कुछ उद्योग जैसे-सूती वस्त्र उद्योग, पेट्रो-रसायन उद्योग, बाजारों के समीप स्थापित किये जाते हैं।

(iv) परिवहन – उद्योगों की स्थापना परिवहन मार्गों के समीप होते हैं जिसके अंतर्गत सड़क मार्ग, रेलमार्ग एवं वायुमार्ग प्रमुख हैं। कच्चे मालों को उद्योगों तक पहुंचाना तथा निर्मित वस्तुओं को बाजारों तक ले जाने में परिवहन साधनों का महत्वपूर्ण स्थान होता है।

(v) श्रम – उद्योगों को संचालित करने हेतु दक्ष, तकनीकी कुशल श्रमिकों की आवश्यकता पड़ती है। भारत जैसे जनसंख्या वाले देश में श्रमिक सस्ते दर पर उपलब्ध हो जाते हैं।

प्रश्न 17.
कच्चे माल के आधार पर उद्योगों का वर्गीकरण प्रस्तुत करें।
उत्तर:
कच्चे माल के आधार पर उद्योगों का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से है-
(i) बड़े पैमाने के उद्योग (Large Scale Industries) – ऐसे उद्योग जिनमें कच्चे माल की अधिकता होती है, बड़े पैमाने के उद्योग कहलाते हैं। जैसे-लोहा-इस्पात उद्योग तथा सूती वस्त्र उद्योग।

(ii) मध्यम पैमाने के उद्योग (Medium Scale Industries) – वे उद्योग जिनमें बड़े उद्योगों की अपेक्षा कम कच्चे माल की सहायता से उत्पादन कार्य किया जाता है, मध्यम पैमाने के उद्योग कहलाते हैं। इनमें प्रायः 50 लाख रुपये तक पूँजी लगी होती है। रेडियो, टी० वी० आदि मध्यम पैमाने के उद्योग माने जाते हैं।

(iii) छोटे पैमाने के उद्योग (Small scale industries) – उद्योग जो स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं, जिनमें थोड़ी पूँजी की आवश्यकता होती है, वे छोटे पैमाने के उद्योग कहलाते हैं। जैसे-साबुन बनाना, बीड़ी बनाना, माचिस बनाना आदि छोटे पैमाने के उद्योग हैं।

प्रश्न 18.
संसार के लौह अयस्क तथा उत्पादक देशों के नाम बताइए।
उत्तर:
विश्व में लौह अयस्क के अनुमानित भंडार 6464.8 करोड़ मीट्रिक टन हैं। विश्व में रूस में सबसे अधिक लौह भंडार हैं। भारत में विश्व का केवल 20% लौह भंडार है।

प्रमुख उत्पादक देश – यूक्रेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, इंग्लैंड, साइबेरिया तथा दक्षिण अफ्रीका प्रमुख देश हैं। इसके अतिरिक्त चीन, ब्राजील, आस्ट्रेलिया, भारत तथा रूस हैं।
Bihar Board 12th Geography Important Questions Long Answer Type Part 1, 2

प्रश्न 19.
विश्व के विकसित देशों के उद्योगों के संदर्भ में आधुनिक औद्योगिक क्रियाओं की मुख्य प्रवृत्तियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
विकसित औद्योगिक देशों में आधुनिक औद्योगिक क्रियाकलापों में परिवर्तनशील प्रवृत्तियाँ देखी गई हैं। ये परिवर्तनशील प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-

  1. उद्योगों की अवस्थिति के लिए उत्तरदायी कारकों के महत्त्व में निरंतर कमी आती जा रही है।
  2. विकसित अर्थव्यवस्था में विकास तथा वैज्ञानिक तकनीक की उन्नति के परिणामस्वरूप उद्योगों की संरचना एवं स्वरूप में परिवर्तन आया है। निरुद्योगीकरण की प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही हैं।
  3. आधुनिक औद्योगिक क्रियाकलापों में भी कई प्रकार के परिवर्तन हुए हैं। उद्योगों में उत्पादन के लिए उच्च तकनीक का प्रयोग किया जा रहा है।
  4. कारखानों के स्थान पर छोटी इकाइयों का बिखराव बहुत बड़े क्षेत्रों में देखा जा रहा है।

विकास की प्रक्रिया में हुए परिवर्तनों की डब्ल्यू. ओलों सो नामक अर्थशास्त्री ने 1980 में विकास के संदर्भ में पाँच घंटी आकृतियों (Five Bell Shapes) की बात की है। ये पाँच आकृतियाँ हैं-

  • आर्थिक विकास दर,
  • सामाजिक असमानता का स्तर,
  • क्षेत्रीय असमानता,
  • स्थानीय संक्रेन्द्रण का स्तर,
  • जनांकिकीय संक्रमण।

ओलोंसो के मतानुसार विकास की प्रक्रिया में पहले भौगोलिक संकेन्द्रण की प्रक्रिया थी। इसके बाद आर्थिक विकास तथा उसके बाद सामाजिक तथा प्रादेशिक असमानता की प्रक्रिया में उतार-चढ़ाव आये।

उद्योगों की संरचना तथा स्वरूप में परिवर्तन-

(i) अर्थव्यवस्था में विकास व प्रौद्योगिक उन्नति के फलस्वरूप उद्योगों की संरचना में परिवर्तन आया है। उदाहरण के लिए विकासशील देशों जैसे भारत में सस्ता श्रम होने के कारण उद्योगों का विस्तार हुआ है।

(ii) 1980 के बाद निम्न प्रौद्योगिकी युक्त श्रमिक प्रधान औद्योगिक इकाइयों को अल्पविकसित देशों की ओर निर्यात किया गया तथा विकसित देशों में उन्नत प्रौद्योगिक युक्त पूर्जे वाले उद्योगों का विकास हो रहा है। इस प्रकार के औद्योगिक परिवर्तन को नवीन अन्तर्राष्ट्रीय श्रम विभाजन कहा गया है।

प्रारम्भ में ब्राजील जर्मनी के लिए लौह अयस्क निर्यात करता था किन्तु अब ब्राजील में ही वह उद्योग विकसित हो रहा है और जर्मनी उसके आधार पर कार जैसे उद्योग विकसित कर रहा है।

(iii) आधुनिक औद्योगिक उत्पादनों में एक नई प्रवृत्ति लोचपूर्ण उत्पादन तथा लोचपूर्ण विशिष्टीकरण की है।

प्रश्न 20.
प्राथमिक एवं द्वितीयक गतिविधियों में क्या अंतर है ?
उत्तर:
प्राथमिक गतिविधियाँ (Primary Activities)-

  • प्राथमिक क्रियाकलाप प्राकृतिक पर्यावरण से प्राप्त संसाधनों के विकास से सम्बन्धित हैं।
  • मानव प्राथमिक क्रियाकलापों के द्वारा प्रत्येक रूप में वस्तुएँ प्राप्त करता है।
  • धरातल से प्राप्त ये पदार्थ कच्चे माल के रूप में भोजन सामग्री बनाने, वस्त्र बनाने तथा अन्य उपयोगी सामान बनाने के लिए प्रयोग किए जाते हैं।
  • आखेट, संग्रहण, पशुचारण, खनन, मछली पकड़ना, लकड़ी काटना, कृषि आदि प्राथमिक क्रियाकलाप हैं।

द्वितीयक गतिविधियाँ (Secondary Activities)-

  • द्वितीयक क्रियाकलापों से तात्पर्य मनुष्य द्वारा कच्चे माल को संशोधित करके उसे नई वस्तुओं में परिवर्तन करने से है।
  • इस प्रकार के क्रियाकलापों में उद्योगों को सम्मिलित किया जाता है जो विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करते हैं।
  • इस प्रकार के क्रियाकलापों के द्वारा उत्पादों की उपयोगिता में वृद्धि होने के साथ-साथ उनके मूल्य में भी वृद्धि होती है।
  • विनिर्माण उद्योग, डेयरी उद्योग, कुटीर उद्योग आदि सभी द्वितीयक क्रियाकलाप हैं।