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Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 4
प्रश्न 1.
अल्लाउद्दीन खिलजी के शासन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
अथवा, अल्लाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक एवं सैनिक सुधारों का वर्णन करें।
उत्तर:
अलाउद्दीन एक सुयोग्य शासक और कुशल राजनीतिज्ञ था। उसमें उच्चकोटि की मौलिकता थी और नये प्रयोगों को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने की क्षमता। उसमें रचनात्मक प्रतिभा थी और वह नये-नये प्रयोगों को करने के लिए सदैव उत्सुक रहता था। पुरानी परिपाटियों और संस्थाओं से उसे संतोष नहीं था।
उसने अपने शासनकाल में सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी सुधार किये थे जिनकी उसके पूर्वाधिकारियों ने कल्पना भी नहीं की थी। प्रत्येक क्षेत्रों में अलाउद्दीन ने ऐसी नवीन नीति का अनुसरण किया जो उसकी प्रतिभा का परिचय देती है। नीचे प्रत्येक क्षेत्र में अलाउद्दीन के सुधारों का वर्णन दिया जाता है-
प्रशासनिक सुधार – अलाउद्दीन उच्च कोटि का प्रबन्धक और शासनकर्त्ता था। उसमें एक जन्मजात सेनानायक और प्रशासक के गुण विद्यमान थे। अतएव एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने के साथ-साथ उसने उस साम्राज्य को सरक्षित ससंगठित तथा सव्यवस्थित रखने के किया। उसका शासन पूर्ण रूप से स्वेच्छाचारी, निरंकश और विशद्ध सैनिक शासन था। राज्य की सारी शक्तियाँ सुल्तान के हाथ में थी और वह सभी अधिकारों का स्रोत था। राज्य के सभी कार्य उसकी आज्ञा और आदेश से होता था। शासन के प्रत्येक भाग पर उसका नियंत्रण रहता था। उसका गुप्तचर-विभाग इतना सुसंगठित और सक्षम था कि राज्य की सारी घटनाओं की सूचना उसे मिलती रहती थी। वह अपने कर्मचारियों पर कड़ा नियंत्रण रखता था। इस प्रकार अलाउद्दीन का शासन एक केन्द्रीभूत सैनिक शासन था।
अलाउद्दीन ने भी बलवन के राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। वह राजा के प्रताप में विश्वास करता था और उसे पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था। उसका दृढ़ विश्वास था कि सुल्तान अन्य मनुष्यों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान होता है, इसलिए उसकी इच्छा ही कानन होनी चाहिए। वह इस सिद्धान्त में विश्वास करता था कि राजा . का कोई सम्बन्धी नहीं होता है और राज्य के सभी निवासी उसके सेवक होते हैं। इसलिए वह राज्य के मामले में उलेमा के हस्तक्षेप का विरोधी था। वह यह मानता था कि धर्म और प्रशासन दो भिन्न विषय हैं। उसने किसी भी अधिकारी को यह अनुमति न दी कि वह उसे किसी बात में सलाह दे या धर्म का दबाव डालकर उसे कोई काम करने के लिए मजबूर करे। केवल दिल्ली का कोतवाल काजी अलाउल मुल्क ही ऐसा व्यक्ति था जिसकी सलाह का सुल्तान सम्मान करता था।
वह राज्य प्रबन्ध के सम्बन्ध में स्पष्ट कहता था कि, “मुझे जो बात पसन्द आयेगी, वही मैं करूँगा। जो बात मैं देश के हित के लिए समशृंगा, चाहे वह धर्म के विपरीत हो या अनुकूल, वही कार्य मैं करूँगा। जो बात मैं देश के हित के लिए समझूगा, चाहे वह धर्म के विपरीत हो या अनुकूल, वही कार्य मैं करूँगा। मैं नहीं जानता कि मेरा आचरण धार्मिक-कानून की दृष्टि में उचित है अथवा विपरीत। मैं तो राज्य की भलाई के लिए जो कुछ ठीक समझता हूँ अथवा अवसर के अनुकूल मुझे जो कुछ ठीक अँचता है, वह मैं कर डालता हूँ। मैं नहीं जानता कि कयामत के दिन ईश्वर के दरबार में मेरा क्या होगा।” इस प्रकार अलाउद्दीन दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने धर्म पर राज्य का नियंत्रण स्थापित किया।
अलाउद्दीन के शासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उसने राजनीति को धर्म से अलग कर दिया था। वह राजनीति में उलेमा के हस्तक्षेप का विरोधी था। शासन में मुल्लाओं का कोई प्रभाव नहीं था। वह वही करता था, जिसे वह राज्य के हित में ठीक समझता था। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, “उसे जो सामग्री उपलब्ध थी, उसी की सहायता से वह दृढ़तापूर्वक अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता जाता था और उसकी मैकियावेलियन राजनीति में नैतिकता और धार्मिक निर्णय के लिए कोई स्थान न था।” इस प्रकार बलवन की भाँति अलाउद्दीन ने भी लौकिक शासन की स्थापना की, जिसका अनुसरण आगे चलकर अकबर और शेरशाह ने किया।
अलाउद्दीन ने अपनी न्याय व्यवस्था को भी लौकिक रूप दिया था। उसने इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया कि परिस्थिति और लोक-कल्याण के विचार से जो नियम उपयुक्त हो, वही राज्य का नियम होना चाहिए। इस प्रकार उसने राज्य के नियम को धर्म के चंगुल से मुक्त किया। न्यायाध श के पद पर चरित्रवान और नीति-निपुण व्यक्तियों को नियुक्त किया गया। न्यायाधीशों की सहायता के लिए पुलिस और गुप्तचर की नियुक्ति की गयी। प्रत्येक नगर में कोतवाल का कार्य अपराधी का पता लगाना था। गुप्तचर भी अपराधियों का पता लगाने में सहायता करते थे। दण्ड-विधान अत्यन्त ही कठोर था। बिना किसी भेदभाव के अपराधियों को दण्ड दिया जाता था।
सैनिक व्यवस्था – अलाउद्दीन का शासनतंत्र पूर्णतया सैन्य शक्ति पर आधारित था। उसका विश्वास था कि बाह्य आक्रमण से साम्राज्य की सुरक्षा और आन्तरिक शांति के लिए एक सुसज्जित एवं सुसंगठित सेना का होना आवश्यक है। अतः उसने सैन्य-सुधार की ओर ध्यान दिया और निम्नलिखित सुधार किए-
(i) स्थायी सेना की व्यवस्था – दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जिसने स्थायी सेना रखने की व्यवस्था की थी। उसने 4,75,000 (चार लाख पचहत्तर हजार) स्थायी सेना का संगठन किया और सेना के प्रधान के पद पर ‘अरोज-ए-मुमालिक’ (सेना-मंत्री) की नियुक्ति की। स्थायी सेना की मदद से ही अलाउद्दीन ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी।
(ii) सेना में भर्ती करने की व्यवस्था – यद्यपि सेना में सैनिकों की भर्ती सेना-मंत्री द्वारा की जाती थी, लेकिन इसे साथ-ही-साथ सुल्तान स्वयं सेना की भर्ती करता था। सेना में भर्ती योग्यता के आधार पर होती थी। प्रत्येक सैनिक सम्बन्धी जानकारी एक राजकीय रजिस्टर में अंकित रहती थी, ताकि सैनिक के स्थान पर कोई न आ सके।
(iii) नकद वेतन की व्यवस्था – अलाउद्दीन ने सैनिकों को जागीरें देने के स्थान पर नकद वेतन देने की व्यवस्था चलायी। प्रत्येक सैनिक को 234 टंका वेतन दिया जाता था तथा एक घोड़ा रखने वाले को 78 टंका अधिक मिलता था। सैनिक को वेतन राजकीय कोष से मिलता था तथा उन्हें घोड़े, हथियार तथा युद्ध की अन्य सामग्री भी राज्य की ओर से दी जाती थी।
(iv) घोड़ों पर दाग लगाने की व्यवस्था – अलाउद्दीन के पहले सैनिक लोग अच्छी नस्ल के घोड़ों के स्थान पर रद्दी नस्ल के घोड़े रखकर राज्य को धोखा दिया करते थे। अत: अलाउद्दीन ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए घोड़ों पर दाग लगवाने की प्रथा चलायी। फरिश्ता के अनुसार उसकी सेना में 47,500 अश्वारोही सैनिक थे। अच्छी नस्ल के घोड़े बाहर से मँगवाये गये थे
(v) ये दुर्गों का निर्माण तथा पुराने दुर्गों की मरम्मत करने की व्यवस्था – अलाउद्दीन ने मंगोलों के आक्रमण को रोकने के लिए सीमान्त प्रदेश में कुछ नये दुर्गों का निर्माण करवाया था । तथा पुराने किलों की मरम्मत करवायी, क्योंकि उसके शासन काल में मंगोलों के आक्रमणों के कारण अत्यधिक अशांति रही थी। इन दुर्गों में शक्तिशाली सेनाएँ रखी गईं जो किसी भी बाह्य आक्रमण का सामना करने के लिए सदैव तत्पर रहती थीं।
इन सुधारों के परिणामस्वरूप अलाउद्दीन की सेना का संगठन बहुत सुदृढ़ हो गया और वह अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सफल रहा। उसका सेना पर पूर्ण नियंत्रण था। उसके इस सैन्य-संगठन ने ही उसकी निरंकुशता को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया था।
राजस्व-व्यवस्था – अलाउद्दीन की आर्थिक व्यवस्था उसकी सैन्य व्यवस्था का परिणाम थी, क्योंकि एक विशाल स्थायी सेना का प्रबन्ध और उसका व्यय आसानी से चलाना असम्भव था। इसलिए उसने आर्थिक व्यवस्था में सुधार करने का संकल्प किया और अत्यधिक धन प्राप्त करने के लिए अनेक उपायों को अपनाया था। वह राज्य के आर्थिक साधनों को भी बढ़ाना चाहता था। इसलिए उसने राजस्व-विभाग में सुधार की ओर ध्यान दिया। पहले के शासकों में वैज्ञानिक राजस्व-नीति निर्धारित करने का प्रयास नहीं किया था। उन्होंने हिन्दू-काल की पुरातन-व्यवस्था को कायम रखा। किन्तु अलाउद्दीन एक साहसी शासन-सुधारक था। वह राजस्व में वृद्धि करने के लिए मौलिक परिवर्तन का इच्छुक था। इस उद्देश्य से उसने एक नियमावली प्रचलित की जिससे राजस्व-व्यवस्था में परिवर्तन आया। उसने मुसलमान माफीदारों तथा धार्मिक व्यक्तियों की राज्य द्वारा दी गयी सम्पत्ति, पेंशन और वक्फ आदि के रूप में मिली हुई भूमि जब्त कर ली। मुकद्दम, खुत तथा चौधरी आदि अधिकारियों को विशेषाधिकार से वंचित कर दिया गया। उन्हें भी भूमि, मकान तथा चारागाह पर कर देना पड़ता था।
इस प्रकार भूमि-कर के सम्बन्ध में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कोई अन्तर नहीं था। खेती योग्य भूमि का पता लगाने के लिए भूमि की नाप करवायी गयी। भूमि का नाप कराना हिन्दूकालीन राजस्व-व्यवस्था की एक विशेषता थी। भूमि का बन्दोबस्त करने से पहले उसने यह पता लगाया कि राज्य के प्रत्येक गाँव में कितनी खेती के योग्य जमीन है और उससे कितना लगान आता है। भूमि-सम्बन्धी नियमों को लागू करने के लिए योग्य तथा ईमानदार राजस्व पदाधिकारी नियुक्त किये गये। इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि राज्य की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई और उसका बोझ किसानों, भूमिहरों तथा समाज के अन्य वर्गों पर पड़ा। किन्तु इस व्यवस्था का अधिक भार हिन्दुओं पर पड़ा क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दू भूमि से सम्बन्धित थे।
इन सुधारों का कृषकों और प्रजा पर बहुत भयंकर प्रभाव पड़ा। उनको किसी-न-किसी प्रकार से कर देना ही पड़ता था। दिल्ली तथा दोआब के आस-पास के किसानों को उनकी उपज का पचास प्रतिशत कर के रूप में देना पड़ता था। गैर-मुस्लिम प्रजा को जजिया देना पड़ता था। अधिकांश जनता को अपनी उपज का अर्ध भाग और चरागाहों पर भारी कर देना पड़ता था। सुल्तान उनको ऐसा परिस्थिति में कर देना चाहता था कि न वे अस्त्र उठा सकें, न अश्वों पर आरूढ़ हो सकें, न सुन्दर वस्त्र धारण कर सकें और न जीवन के अन्य ऐश्वर्य साधनों का उपयोग कर सकें। वास्तव में उनकी दशा अति दयनीय थी।
प्राचीन जागीरदार तथा हिन्दू जो अपनी खोई स्वतन्त्रता के लिए विद्रोह कर रहे थे, उसकी स्थिति अब ऐसी दयनीय हो गई थी कि उनकी जबान पर अब विद्रोह शब्द नहीं आता। जनता से किसी-न-किसी प्रकार का बहाना करके धन लिया जाता था। अनेक हिन्दू धनहीन हो गये और अन्त में ऐसा हो गया कि बड़े अमीरों, उच्च पदाधिकारियों तथा चोटी के व्यापारियों को छोड़कर अन्य लोगों के घरों में सोना देखने को न मिलता था। सम्पूर्ण राज्य में हिन्दू दुख और दरिद्रता में डूब गये। यदि कोई ऐसा वर्ग था जिसकी दशा दूसरों से अधिक दयनीय थी तो वह वंशानुगत कर निर्धारित तथा वसूल करने वाले पदाधिकारियों का था जिसका पहले समाज में सबसे अधिक सम्मान था। समकालीन इतिहासकार बनी इस नियमों के परिणामों का सारांश इस प्रकार लिखता है-“चौधरी, और मुकद्दम इस योग्य न रह गये थे कि घोड़े पर चढ़ सकते, हथियार बाँध सकते, अच्छे वस्त्र पहन सकते अथवा पान का शौक कर सकते। कोई भी हिन्दू सर ऊँचा नहीं कर सकता था। उनके घरों में सोने, चाँदी, पीतल या टंका के कोई अलंकार का चिन्ह नहीं दिखाई पड़ता था। निर्धनता की मार से त्रस्त होकर हिन्दु मुखियों और जमीन्दारों के घरों की स्त्रियाँ मुसलमान के घरों में जाकर मजदूरी करती थीं।”
मुनाफाखोरों के साथ-साथ निरीह जनता को भी पिसना पड़ा। उसने भी नाना प्रकार के कर लिए जाते थे। अधिक दरिद्र तथा दुखी हो जाने से खेती-बाड़ी से उनका विश्वास हट गया था। इस विश्वास को फिर से स्थापित करने के लिए तथा खेती को प्रोत्साहन देने के लिए गयासुद्दीन तुगलक को भूमि-कर में कमी करनी पड़ी।
कुछ विद्वानों का कथन है कि अलाउद्दीन ने ये नियम हिन्दुओं को दबाने के लिए नहीं बनाये थे। हिन्दुओं को इसलिए पिसना पड़ा कि अधिकांश हिन्दू किसी-न-किसी रूप से जमीन पर आश्रित थे।
प्रश्न 2.
अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें।
उत्तर:
अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल में आर्थिक जीवन के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सुधार लागू किये। वे थे कृषि और व्यापार कृषि-क्षेत्र में सुधारों का सम्बन्ध लगान व्यवस्था से था। लगान अथवा भू-राजस्व राज्य की आमदनी का प्रमुख साधन था और अलाउद्दीन राज्य की आमदनी में पर्याप्त वृद्धि करने का इच्छुक था। इसके अतिरिक्त वह मध्यस्थ भूमिपति वर्ग का दमन भी करना चाहता था जो राज्य में विद्रोह का एक प्रमुख कारण था। इस प्रकार अलाउद्दीन के राजस्व-सुधार दो उद्देश्यों से प्रेरित थे, राज्य की आमदनी में पर्याप्त वृद्धि जिससे कि साम्राज्य-विस्तार के लिए विशाल सेना का निर्माण किया जा सके, मध्यस्थ भूमिपति वर्ग का दमन और उसका धन छीनना ताकि इस वर्ग द्वारा विद्रोह एवं उपद्रव की समस्या का समाधान हो सके।
प्रथम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अलाउद्दीन ने तीन महत्वपूर्ण उपाय किए-उसने दोआब – (गंगा और यमुना के बीच के क्षेत्र) में लगान की दर में वृद्धि के आदेश दिये। किसानों को उपज के 1/3 अथवा 33% के स्थान पर 1/2 अथवा 50% लगान के रूप में देने के आदेश दिये गये। इससे राज्य की आमदनी में वृद्धि हुई। दूसरी ओर अलाउद्दीन ने दोआब क्षेत्र में कर-मुक्त भूमि पर केन्द्रीय नियंत्रण स्थापित कर दिया और भूमि अनुदान वापस ले लिए। इक्ता, मिल्क, वक्फ आदि के रूप में सीमान्तों, अधिकारियों और उलेमा के पास जो भूमि थी उसे खालसा (सुल्तान के प्रत्यक्ष शासन के अधीन) भूमि में परिवर्तित करने के आदेश दिये गये। इस प्रकार राज्य की आमदनी में और वृद्धि संभव हुई। अलाउद्दीन ने संभवतः लगान निर्धारण की पद्धति में सुधार लाया। बरनी के अनुसार, उसने भूमि की माप के आधार पर लगान के निर्धारण के आदेश दिये। इस पद्धति के लिए ‘मसाहत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। परन्तु बरनी ने इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी नहीं दी है। उसने मात्र इतना ही लिखा है कि अलाउद्दीन ने प्रति ‘बिस्वा’ में उपज के आधार पर लगान निर्धारण करने के आदेश दिये। लगान, वसूली के कार्य में व्याप्त दोषों को दूर करने के लिये अलाउद्दीन ने एक नये विभाग ‘दीवान मुस्तखरज’ की स्थापना की। इस विभाग द्वारा लगान वसूलने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा बकाया राशि की वसूली के लिए कठोर उपाय किये गये।
मध्यस्थ भूमिपति वर्ग के दमन के लिए भी अलाउद्दीन ने कई उपाय किये। इस वर्ग के लिए बरनी ने ‘खूत मुकद्दम एवं चौधरी’ शब्द का प्रयोग किया है। ये विभिन्न श्रेणियों के भूमिपति थे जो लगान वसूली के काम में राज्य का सहयोग देते थे। इनके द्वारा किसान से लगान वसूल कर राज्य को पहुँचाया जाता था। इस सेवा के बदले में राज्य द्वारा कुछ सुविधाएँ इन्हें दी जाती थीं। जैसे ये लोग अपनी भूमि का रियायती दर पर लगान देते थे और किसानों से ये राज्य के लगान के अतिरिक्त अपने लिए भौकर आदि वसूल सकते थे। राज्य को दिया जानेवाला लगान सामान्य रूप से ‘खिराज’ कहलाता था, जबकि भूमिपतियों द्वारा लिया जानेवाला कर ‘हुक्क’ कहलाता था। ऐसा देखा गया था कि इस वर्ग के लोग अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते थे। किसानों से अधिक लगान और अपने कर वसूल कर ये धन अर्जित कर रहे थे, जबकि राज्य को लगान की राशि का पूर्ण भुगतान न करके ये लोग धनी हो गये थे। धनी होने के कारण इनके लिए अपनी निजी सेना भरती करना आसान था और इन सैनिकों के माध्यम से ये विद्रोह और उपद्रव खड़े करते थे।
अलाउद्दीन ने इस वर्ग को कमजोर बनाने के लिए इसका धन छीनना आवश्यक समझा। उसने सर्वप्रथम इन भूमिपतियों को लगान देने की सुविधा से वंचित कर दिया। द्वितीय उसने इन्हें रियायती दर पर लगान वसूली के काम से मुक्त कर दिया। तृतीय उसने इनके सभी ‘हुक्क’ अवैध घोषित कर दिये। इन उपायों से इस वर्ग की आर्थिक स्थिति पर आघात पहुँचा। बरनी के अनुसार अब इस वर्ग के लिए घुड़सवारी करना, हथियार रखना, उत्तम वस्त्र पहनना और पान खाना संभव नहीं रहा। इनके घरों की औरतें अब दूसरों के घरों में काम करने पर बाध्य हुई। वरनी के ये विचार अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। परन्तु मध्य भूमिपतियों की स्थिति निश्चित रूप से कमजोर पड़ी और उनकी उद्दण्डता समाप्त हो गयी।
अलाउद्दीन ने कर-प्रणाली में भी सुधार किया। खिराज (भूमिकर) की दर में उसने वृद्धि की। खम्स (युद्ध में लूटे गये धन में राज्य का 1/5 अंश) की दर उसने बदलकर 4/5 कर दी। उसने कई नये कर लगाये जिनमें घरों (मकान पर लगने वाला कर) और चराई (चरागाह पर लगनेवाला कर) प्रमुख हैं। पूर्वकाल से प्रचलित ‘जजिया’ और ‘जकात’ कर भी उसके समय में लिये जाते रहे।
इन सभी उपायों से अलाउद्दीन अपने दोनों लक्ष्य प्राप्त करने में सफल रहा। धन अर्जित करने और राज्य में सुव्यवस्था बनाये रखने में अलाउद्दीन की सफलता पूर्णतः स्पष्ट है।
अलाउद्दीन के सुधारों में सबसे अधिक महत्व उसकी मूल्य-निर्धारण योजना अथवा बाजार नियंत्रण की नीति का है। इतिहासकारों में इस योजना के उद्देश्य, क्षेत्र एवं प्रभाव के सम्बन्ध में मतभेद है। इसके उद्देश्यों के सम्बन्ध में के. एस. लाल ने बरनी के विचार से सहमति व्यक्त की और कहा कि यह योजना कम खर्च पर विशाल सेना को बनाए रखने के लिए लागू की गयी थी। उनके अनुसार अलाउद्दीन ने साम्राज्य विस्तार एवं मंगोल आक्रमण का सामना करने के लिए विशाल सेना का निर्माण किया। इस कार्य में राज्य को अत्यधिक धन खर्च करना पड़ता था। अतः अलाउद्दीन ने सैनिकों का वेतन निर्धारित कर दिया। 234 टंका प्रतिवर्ष वेतन और 78 टंका भत्ते के रूप में सैनिकों को दिया जाता था। अब यह अनिवार्य हो गया कि उस निर्धारित वेतन में ही सैनिकों को सभी आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराई जाएँ अन्यथा इनमें असंतोष फैलता। बाजार नियंत्रण की योजना इसलिए लागू की गई।
योजना कार्यान्वित करने के लिए अलाउद्दीन ने एक नये विभाग का गठन किया जिसे ‘दीवाने रियासत’ नाम दिया। यह वाणिज्य विभाग था तथा इसका प्रधान सरे-रियासत कहा जाता था। इस विभाग के अधीन प्रत्येक बाजार के लिए निरीक्षक नियुक्त किया गया। इन्हें शहना कहते थे जो योजना लागू करने के लिए उत्तरदायी थे। गुप्तचर अथवा बरीद एवं मुन्हीयाँ नियुक्त किये गये ताकि बाजार की गतिविधियों और शहना पर निगरानी रखें। इसके अतिरिक्त अलाउद्दीन स्वयं भी अपने दासों और अन्य व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर बाजार से सामान मँगा कर अपनी सन्तुष्टि करता था। आदेशों का उल्लंघन करने वाले व्यापारियों के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था, अधिक मूल्य लेने पर कोड़े मारने की सजा थी तथा कम तौलने पर अनुपात में मांस व्यापारी के शरीर से काट लिया जाता था। इस कठोर दण्ड एवं कुशल गुप्तचर व्यवस्था के माध्यम से अलाउद्दीन ने योजना को पूरी कड़ाई से लागू किया।
समकालीन इतिहासकारों के अनुसार अलाउद्दीन ने निम्नलिखित बाजार स्थापित किये-
- मण्डी-जहाँ अनाज का व्यापार होता था।
- सराय अदल-जहाँ वस्त्र का व्यापार होता था।
- दास, घोड़ों और मवेशियों एवं अन्य वस्तुओं के लिए सामान्य बाजार।
उसने विभिन्न वस्तुओं के लिए मूल्य निर्धारित कर दिये। गेहूँ 7 1/2 जीतल प्रति मन, चावल 5 जीतल प्रति मन, जौ 4 जीतल प्रति मन, चना 5 जीतल प्रति मन आदि मूल्य निर्धारित किये। कपड़े में रेशमी वस्त्र सोलह टंका से लेकर दो टंका के बीच बिकता था, जबकि सूती कपड़ा 36 जीतल से 6 जीतल के बीच बिकता था। उत्तम श्रेणी के घोड़े 100 से 120 टंका एवं मामूली टटू 10 से 25 टंका में बिकते थे। दासों का मूल्य 5 टंका से 40 टंका के बीच था।
मण्डी में अनाज की आपर्ति के लिए अलाउद्दीन ने लगान की वसली अनाज के रूप में करने का आदेश दिया। इसके अतिक्ति उसने किसान से निजी आवश्यकता से अधिक अनाज निर्धारित मूल्य पर खरीदने का आदेश दिया। इन उपायों से राज्य को अनाज का विस्तृत भण्डार उपलब्ध हो गया जिसे बाजारों के माध्यम से मण्डी तक पहुँचाया गया। मण्डी में यह अनाज लाइसेंस प्राप्त व्यापारियों द्वारा बेचने का आदेश दिया गया। व्यापारियों को निर्धारित मात्रा में ही अनाज प्रतिदिन बेचने का आदेश था। यह अनाज राज्य के अतिरिक्त भण्डार से उपलब्ध कराया जाता था। इन उपायों से अलाउद्दीन ने सभी परिस्थितियों में अनाज का व्यापार नियंत्रित मूल्य पर ही होने की व्यवस्था की जो कि निश्चित रूप से एक असाधारण सफलता थी।
वस्त्र बाजार में विदेशों से आयात किये गये रेशमी कपड़ों का मूल्य-निर्धारित करना कठिन था। अतः अलाउद्दीन ने मुल्तानी व्यापारियों को राज्य ऋण प्रदान किया ताकि वे व्यापारियों से उपलब्ध मूल्य पर कपड़ा खरीदें और उसे बाजार लाकर निर्धारित मूल्य पर बेच दें। इस व्यापार में जो हानि होती थी वह राज्य द्वारा पूरी की जाती थी तथा व्यापारियों को उनकी सेवा के बदले में कमीशन प्रदान किया जाता था। महँगे वस्त्र केवल विशेष परमिट के आधार पर ही खरीदे जा सकते थे।
दासों, घोड़ों एवं मवेशियों के बाजार में मूल्य वृद्धि की समस्या दलालों द्वारा उत्पन्न की जाती थी जो व्यापारी एवं ग्राहक दोनों से कमीशन वसूलते थे। अत: अलाउद्दीन ने इन दलालों को बाजार से निष्कासित कर दिया एवं राज्य द्वारा व्यापारियों के लिए कुछ नियम निर्धारित कर दिये। हर व्यापारी को अपने सामान सरकारी अधिकारियों द्वारा निरीक्षित कराना पड़ता था। इस आधार पर इनकी श्रेणियाँ निर्धारित कर दी जाती थीं। प्रत्येक श्रेणी के लिए निर्धारित मूल्य के अनुसार ही उन्हें अपना सामान बेचना पड़ता था।
अलाउद्दीन ने इन उपायों से सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित कर दिया और अपने शासन काल की पूरी अवधि में इनमें किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होने दी। यह एक प्रशंसनीय सफलता थी, किन्तु प्रश्न यह उठता है कि ये उपाय क्या सभी वर्गों के लिए लाभदायक एवं हितकारी सिद्ध हुए ? के० एस० लाल के अनुसार अलाउद्दीन का उद्देश्य केवल सैनिक और सामान्त वर्ग को ही सन्तुष्ट रखना था ताकि इनके समर्थन से वह अपनी निरंकुश सत्ता को मजबूत बना सके। उसने अन्य सभी वर्गों के शोषण पर इस व्यवस्था को विकसित किया और किसान, शिल्पकार एवं व्यापारी इससे असंतुष्ट रहे। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि अलाउद्दीन के इन उपायों का उद्देश्य केवल दिल्ली की प्रजा को सन्तुष्ट रखना था ताकि वे उसके निरंकुश शासन के विरुद्ध आवाज न उठाएँ।
इसके लिए उसने सीमावर्ती क्षेत्रों की प्रजा का शोषण किया । सक्सेना आदि ने इन विचारों को गलत बताते हुए स्पष्ट किया है कि स्वयं बरनी के अनुसार अलाउद्दीन ने सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने के पूर्व उत्पादन पर हुई लागत को ध्यान में रखा अर्थात् मूल्य-निर्धारण मनमाने ढंग से नहीं हुआ। बरनी के ही शब्दों में अलाउद्दीन ने मुनाफाखोरी को समाप्त करने का प्रयास किया, साधारण व्यापार को अस्त-व्यस्त करने का नहीं। यह भी स्मरणीय है कि अलाउद्दीन ने सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित किया । यदि किसान को निर्धारित मूल्य पर अनाज बेचना था तो उन्हें निर्धारित मूल्य पर ही वस्त्र एवं अन्य वस्तुएँ उपलब्ध कराई जा रही थीं। इसलिए किसानों और शिल्पकारों पर योजना का बुस प्रभाव पड़ना तर्कसंगत नहीं लगता। व्यापारी वर्ग निश्चित रूप से योजना से अप्रसन्न था परन्तु इरफान हबीब ने बरनी के वर्णन के आधार पर स्पष्ट किया है कि योजना का लाभ वास्तव में केवल सामन्त और सैनिक वर्ग को ही प्राप्त हुआ। सामान्य जनता को इसका लाभ इसलिए नहीं हुआ कि मूल्य में कमी के साथ-साथ मजदूरी की दर भी घटी।
अतः केवल उसी वर्ग को वास्तविक लाभ हुआ और उसकी क्रयशक्ति में वृद्धि हुई जो वेतन पाता था, जैसे सैनिक या सामन्त जिनके पास संचित धन था। अलाउद्दीन के जीवन काल में तो व्यापारी ने योजना का विरोध करने का साहस नहीं कर सके। किन्तु उसकी मृत्यु के बाद व्यापारियों ने योजना का विरोध करना आरम्भ किया और मुबारक खिलजी जैसे अयोग्य शासक के लिए योजना को जारी रखना असम्भव हो गया। अतः योजना स्थगित हो गयी। किन्तु के. एस. लाल के अनुसार मुबारक खिलजी ने योजना इसलिए स्थगित कर दी थी कि अब पहले की तरह सैनिक खर्च की आवश्यकता नहीं रह गयी थी।
इरफान हबीब के अनुसार योजना स्थगित करने का कारण यह था कि उसकी उपयोगिता सीमित समय के लिए ही थी। मूल्यों में कमी से आगे चलकर राज्य का भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता था, क्योंकि मूल्यों में कमी से राज्य की आय का वास्तविक मूल्य भी कम हो रहा था। अतः अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी ने इसे स्थगित कर दिया।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि मूल्य-निर्धारण की योजना अलाउद्दीन खिलजी की एक विशिष्ट उपलब्धि थी जो उसकी असाधारण प्रतिभा का व्यापक प्रमाण प्रस्तुत करती है। इस योजना के लिए उसकी प्रशंसा समकालीन, मुगलकालीन और आधुनिक इतिहासकारों ने भी की है। दुर्भाग्यवश यह सारी उपलब्धि एक व्यक्ति की प्रतिभा पर आधारित थी और उस व्यक्ति अर्थात् अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् इस योजना का कार्यान्वयन कारगर रूप से सम्भव नहीं रहा।
प्रश्न 3.
कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
कुतुबुद्दीन का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। बचपन से ही वह कुशाग्र बुद्धि का था। बचपन में ही उसे गुलाम बनाकर फारस के एक व्यापारी काजी फखरुद्दीन अब्दुल अजीज कूफी के हाथ बेच दिया गया था। वहाँ उसने काजी के पुत्रों के साथ पढ़ने-लिखने के अलावे सैनिक घुड़सवारी का प्रशिक्षण लिया। काजी फखरुद्दीन की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ने उसे बेच दिया। अंत में मुहम्मद गोरी ने उसे खरीदा। यह उसकी प्रतिभा एवं योग्यता से काफी प्रभावित हुआ और उसे अपनी सेना की एक टुकड़ी का नायक बना दिया। बाद में उसका साहस, कर्तव्यनिष्ठा तथा स्वामिभक्ति से प्रभावित होकर उसने ‘अमीर-ए-आखूर’ (अस्तबल का अध्यक्ष) के सम्मानित पद पर प्रतिष्ठित किया।
अब से वह गोरी के साथ सैनिक अभियानों में भाग लेने लगा। गोरी के भारत आक्रमण के समय उसने अपनी योग्यता प्रदर्शित की तथा उसे पूर्ण सहयोग दिया। उसकी योग्यता एवं सक्रिय सहायता से गोरी को भारतीय शासकों के विरुद्ध सफलता मिली। उसकी योग्यता एवं स्वामिभक्ति देखकर गोरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई०) में अजमेर तथा दिल्ली के शासक पृथ्वीराज ने शासन-व्यवस्था को अपनी राजधानी दिल्ली बनाई और गोरी की अनुपस्थिति में ही विजय अभियान चलाकर गोरी के राज्य तथा यश की काफी वृद्धि की। 1192 ई० से 1205 ई० के बीच उसने गोरी के विरुद्ध राजपूतों के विद्रोहों का दमन किया तथा कई नए प्रदेशों को भी जीता।
मुहम्मद गोरी का गुलाम कुतुबद्दीन ऐबक गोरी की मृत्यु के बाद 1206 ई० में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसकी उपलब्धियों को हम दो भागों में विभक्त कर दर्शा सकते हैं। पहले गोरी के सूबेदार के रूप में तथा दूसरे शासक के रूप में।
सूबेदार के रूप में ऐबक की उपलब्धियाँ – 1192 ई० में जब गोरी ने उसे भारतीय प्रांतों का सूबेदार बनाकर गजनी लौट गया तो पृथ्वीराज का भाई हरि राय ने विद्रोह कर दिया तथा रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया। ऐबक ने उस विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया। पुनः अजमेर के पास राजपूतों ने जटवन नामक सरदार के नेतृत्व ने विद्रोह किया और हौसी को घेर लिया। लेकिन ऐबक ने उसे भी दबा दिया। बुलंदशहर पर भी उसने अधिकार कर लिया। 1192 ई० में ही उसने मेरठ पर विजय की। 1193 ई० में दिल्ली के तोमर राजा को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उसने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाई। उसके बाद वह गजनी चला गया।
1194 ई० में वह पुनः गजनी से लौटकर आया। उसने अलीगढ़ पर विजय प्राप्त की। उसी वर्ष गोरी में राजपूतों की शक्ति के प्रमुख केन्द्र कनौज (जहाँ का राजा जयचन्द था) पर आक्रमण कर उसे परास्त किया। उसमें ऐबक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विजय के बाद गोरी जब लौटकर चला गया तो ऐबक ने स्वामी के विजय अभियान को जारी रखा। 1195 ई० में पृथ्वीराज के भाई हरि राय ने पुनः विद्रोह कर दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयास किया। लेकिन ऐबक ने उसे विफल कर दिया। 1195 ई० में उसने अलीगढ़ (कोइल) को जीता।
1196 ई० में उसने रणथम्भौर का दुर्ग जीतकर अजमेर पहुँचा जहाँ विद्रोह हो गये थे। 1197 ई० में उसने विद्रोह को दबाकर वहाँ अपनी स्थिति मजबूत बनाई। 1197 ई० में ही उसने गुजरात की राजधानी अन्हिलबाड़ा पर आक्रमण किया। उसे हराकर काफी सम्पत्ति लूटी क्योंकि वहाँ का चालुक्य राजा भीमदेव द्वितीय का हाथ अजमेर के विद्रोह में था। 1197 से 1203 ई० के बीच उसने कोटा बदायूँ, चन्दवर, सिरोह, उज्जैन तथा काशी को जीता। 1202-03 ई० कालिंजर (बुंदेलखंड), महोबा, खजुराहो तथा कालपी पर विजय प्राप्त की। इस तरह उस समय तक लगभग सम्पूर्ण पश्चिमोत्तर भारत ऐबक के अधीन हो गया। यही कारण था कि गोरी की हत्या (15 मार्च, 1206 ई०) के बाद उसे यहाँ का शासक बनने में काफी आसानी हुई।
शासक के रूप में उसकी उपलब्धियाँ – गोरी की मृत्यु के लगभग 3 महीने बाद ऐबक ने 24 जून 1206 ई० को राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली और गुलामवंश की स्थापना की, क्योंकि गोरी का भतीजा तथा उत्तराधिकारी ग्यासुद्दीन मोहम्मद गोर इतना योग्य नहीं था कि गजनी के साथ-साथ वह भारतीय राज्य को भी सम्हाल सके। अतः लाहौर की जनता के आमंत्रण पर उसने अपना राज्याभिषेक किया। लेकिन उस समय उसने सुल्तान की उपाधि नहीं धारण की क्योंकि उस समय उसकी स्थिति बहुत नाजुक थी। गोरी का उत्तराधिकारी गयासुद्दीन रजनी और अफगानिस्तान का शासक एल्दौज, कुबाचा (सिन्ध का शासक) अली मर्दान तथा कई तुर्क अमीर ऐबक के विरोधी थे। इनके अलावे भारत में भी राजपूत शासक पुनः अपने को स्वतंत्र कर रहे थे। सभी जगह विद्रोह हो रहे थे। इस तरह वह आंतरिक तथा बाह्य कठिनाइयों से घिरा हुआ था।
ऐसी विषम स्थिति में भी उसने हिम्मत नहीं हारी और धैर्य, वीरता, कुशलता एवं दूरदर्शिता से उनका सामना किया। उसने लगभग 4 वर्षों तक शासन किया। उस समय वह कोई नयी विजय नहीं कर सका बल्कि अपनी स्थिति सुरक्षित एवं सुदृढ़ करने में लगा रहा।
अपनी स्थिति को सुरक्षित एवं सुदृढ़ करने के उद्देश्य से उसने वैवाहिक संबंधों का सहारा लिया और इल्तुतमिश, कुबाचा तथा एल्दौज के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। गजनी और अफगानिस्तान का शासक ताजुद्दीन एल्दोज से ऐबक को सर्वाधिक खतरा महसूस होता था। उसने गयासुद्दीन से मुक्ति पत्र पा लिया था लेकिन एल्दौज गजनी का शासक होने के का अपने आपको भारतीय राज्य का भी संप्रभु मानता था। जब ख्वारिज्म के शाह ने (जो मध्य एशिया में अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था।) गजनी पर चढ़ाई कर एल्दौज को वहाँ से निकाल दिया तो वह 1208 में भारत आकर पंजाब पर आक्रमण किया लेकिन ऐबक ने उसे पीछे धकेल दिया और पीछा करते-करते गजनी पहुँच गया और वहाँ अधिकार कर लिया। लेकिन मात्र 80 दिन ही वह वहाँ रह सका। जब वहाँ के नागरिकों में असंतोष फैला तो वह लौटकर यहाँ चला आया। एल्दौज पुनः वहाँ अधिकार कर लिया। इसके बाद एल्दौज पुनः भारतीय राज्य की ओर नजर नहीं घुमाई तथा अपनी लड़की की शादी ऐबक से कर अच्छे संबंध बना लिए।
सिन्ध तथा उच्च का शासक नासिरउद्दीन कुबाचा भी काफी महत्वाकांक्षी था। गोरी की मृत्यु के बाद वह स्वतंत्र शासक बन गया था। उसकी शक्ति का भी विस्तार हो चुका था। वह भी भारतीय राज्य पर अधिकार करना चाहता था। ऐबक ने उसे अपने पक्ष में करने हेतु अपनी बहन की शादी कुबाचा से कर दी। इसके कारण दोनों के संबंध मधुर हो गए।
अपनी स्थिति सुरक्षित करने के बाद उसने आंतरिक स्थिति को ठीक करने हेतु कदम उठाये। बख्तियार खिलजी के मरने के बाद अली मर्दान खाँ बंगाल तथा बिहार का स्वतंत्र शासक बन बैठा था। लेकिन स्थानीय खिलजी सरदारों ने उसे पदच्युत कर जेल में बंद कर दिया था। वह किसी तरह से जेल से निकलकर ऐबक से मिला। ऐबक ने खिलजी सरदारों से समझौता करवाकर उसे पुनः बंगाल का नवाब बना दिया। उसने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली।
गोरी की मृत्यु के बाद कई राजपूत शासकों ने बुन्देलखंड, ग्वालियर, बदायूं आदि कई स्थानों पर अधिकार कर लिया था। ऐबक को उन प्रदेशों को जीतने की फुर्सत नहीं मिली। फिर भी राजाओं पर दबाव डालकर बदायूँ पर पुनः अधिकार कर लिया और अपने योग्य गुलाम इल्तुतमिश को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। 4 नवंबर, 1210 ई० को लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय अचानक घोड़े पर से गिर गया। पोलो की छड़ी का नुकीला. भाग छाती तथा पेट में गड़ गया। साथ ही घोड़ा भी उसपर चढ़ गया। इस कारण उसकी मृत्यु हो गई।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक काफी योग्य, प्रतिभावान, दूरदर्शी एवं साहसी था। उसमें स्वामीभक्ति की भावना भी कूट-कूटकर भरी हुई थी। जैसा कि हम देखते हैं कि अपने मालिक गोरी का वह सबसे प्रिय एवं विश्वासी व्यक्ति था। उसने मात्र दूरदर्शिता से विजय पायी वह उसकी कुशलता का परिचायक था।
भारतीय इतिहास में उसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसने गोरी द्वारा स्थापित भारतीय राज्य में शत्रुओं का दमन कर अपना शासन (गुलाम वंश) की स्थापना की। यद्यपि समय की कमी के कारण वह अपने राज्य को बढ़ा नहीं सका लेकिन उसकी स्थिति सुरक्षित, सुदृढ़ अवश्य कर दी। समयाभाव के कारण वह शासन संबंधी सुधार नहीं ला सका फिर भी वह अपने राज्य में शांति स्थापित करने में बहुत हद तक सफल रहा। इस तरह हम कह सकते हैं कि ऐबक जो एक गुलाम था ने अपनी प्रतिभा, शौर्य, वीरता तथा साहस के बदौलत भारत में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित कर सका। इसलिए यदि उसे भारत प्रथम मुस्लिम बादशाह कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।
प्रश्न 4.
विजयनगर राज्य का ‘चरमोत्कर्ष और पतन’ नामक विषय पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
विजयनगर साम्राज्य का चरमोत्कर्ष – राजनीति में सत्ता के दावेदारों में शासकीय वंश के सदस्य तथा सैनिक कमांडर शामिल थे। पहला राजवंश, जो संगम वंश कहलाता था, ने 1485 ई० तक नियंत्रण रखा। उन्हें सुलुवों ने उखाड़ फेंका, जो सैनिक कमांडर थे और वे 1503 ई० तक सत्ता में रहे। इसके बाद तुलुवों ने उनका स्थान लिया। कृष्णदेव राय तुलुव वंश से ही संबद्ध था।
कृष्णदेव राय के काल में विजयनगर – कृष्णदेव राय के शासन की चारित्रिक विशेषता विस्तार और दृढीकरण था। इसी काल में तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों के बीच का क्षेत्र (रायचूर दोआब) हासिल किया गया (1512), उड़ीसा के शासकों का दमन किया गया (1514) तथा बीजापुर के सुल्तान को बुरी तरह पराजित किया गया था (1520)। हालाँकि राज्य हमेशा सामरिक रूप से तैयार रहता था, लेकिन फिर भी यह अतुलनीय शांति और समृद्धि की स्थितियों में फला-फूला। कुछ बेहतरीन मंदिरों के निर्माण तथा कई महत्त्वपूर्ण दक्षिण भारतीय मंदिरों में भव्य गोपुरमों को जोड़ने का श्रेय कृष्णदेव को ही जाता है। उसने अपनी माँ के नाम पर विजयनगर के समीप ही नगलपुरम् नामक उपनगर की स्थापना भी की थी। विजयनगर के संदर्भ में सबसे विस्तृत विवरण कृष्णदेव राय के या उसके तुरंत बाद के कालों से प्राप्त होते हैं।
विजयनगर कष्णदेव राय की मत्य के उपरान्त – कृष्णदेव की मत्य के पश्चात 1529 ई० में राजकीय ढाँचे में तनाव उत्पन्न होने लगा। उसके उत्तराधिकारियों को विद्रोही नायकों या सेनापतियों से चुनौती का सामना करना पड़ा। 1542 ई० तक केन्द्र पर नियंत्रण एक अन्य राजकीय वंश, अराविदु के हाथों में चला गया, जो सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक सत्ता पर काबिज रहे। पहले की ही तरह इस काल में भी विजयनगर शासकों और साथ ही दक्कन सल्तनतों के शासकों की सामरिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते समीकरण बदलते रहे। अंततः यह स्थिति विजयनगर के विरुद्ध दक्कन सल्तनतों के बीच मैत्री-समझौते के रूप में परिणत हुई।
विजयनगर का पतन – 1565 ई० में विजयनगर की प्रधानमंत्री रामराय के नेतृत्व में राक्षसी-तांगड़ी (जिसे तालीकोटा के नाम से भी जाना जाता है) के युद्ध में उतरी जहाँ उसे बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा की संयुक्त सेनाओं द्वारा करारी शिकस्त मिली। विजयी सेनाओं ने विजयनगर शहर पर धावा बोलकर उसे लूटा। कुछ ही वर्षों के भीतर यह शहर पूरी तरह से उजड़ गया। अब साम्राज्य का केंद्र पूर्व की ओर स्थानांतरित हो गया जहाँ अराविदु राजवंश ने पेनुकोण्डा से और बाद में चन्द्रगिरि (तिरुपति के समीप) से शासन किया।
प्रश्न 5.
विजयनगर साम्राज्य के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं कलात्मक स्थिति का वर्णन करें।
उत्तर:
दक्षिण भारत के इतिहास में विजयनगर का महत्त्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि इसके राजाओं ने एक सुदृढ़ और विशाल साम्राज्य की स्थापना की, बल्कि इसका महत्त्व इस कारण भी है कि इस समय यह राज्य ‘हिन्दु-पुनरुत्थान’ का केन्द्र था। तत्कालीन अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों एवं यूरोपीय, मध्य एशियाई एवं पुर्तगाली यात्रियों के विवरणों से इस राज्य की आंतरिक व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
प्रशासनिक व्यवस्था – विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत साम्राज्य की आर्थिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक सर्वथा नई राज्य व्यवस्था का विकास हुआ। राजा शासन का प्रधान होता था। प्रत्येक राजा शासन में गहरी रुचि लेता था। वह राय कहलाता था। राजा राज्य में न्याय, समता, धर्मनिरपेक्षता, शांति और सुरक्षा की व्यवस्था करता था। वह आर्थिक और सामाजिक मामलों में भी अभिरुचि रखता था। वह प्राचीन राजधर्म को ध्यान में रखते हुए शासन करता था। सिद्धांततः उसकी भक्ति असीम थी, परंतु व्यवहारतः उसे धर्मानुकूल शासन करना पड़ता था। युवराज को भी प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। कभी-कभी दो राजा साथ-साथ शासन करते थे, जैसे हरिहर एवं बुक्का, विजयराय और देवराय। नाबालिग राजाओं के लिए संरक्षक नियुक्त किए जाते थे, जो कभी-कभी सारी शक्ति स्वयं अपने ही हाथों में केन्द्रित कर लेते थे। राजपरिषद् राजा की सलाहकार समिति थी। इसमें प्रांतीय शासकों, सामंतों, व्यापारिक निगमों इत्यादि को स्थान दिया गया था। राज्य के नीति-निर्धारण का कार्य इसी के जिम्मे था।
मंत्रिपरिषद् का प्रधान महाप्रधानी या प्रधानमंत्री होता था। इसमें राज्य के मंत्रियों, उप-मंत्रियों और विभागीय अध्यक्षों के अतिरिक्त राजा के निकट संबंधी भी होते थे। परिषद् के सदस्यों की संख्या करीब 20 थी। राजा की सहायता के लिए दंडनायक (अधिकारियों की एक विशिष्ट श्रेणी) एवं कार्यकर्ता (अधिकारियों का एक अन्य वर्ग) थे। राजा और युवराज के पश्चात् महाप्रधानी ही शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी था। केन्द्र में एक सचिवालय होता था, जो पूरे प्रशासन पर नियंत्रण रखता था। इसमें विभिन्न विभागों के प्रधान एवं उनके प्रमुख सहकर्मी रहते थे, जैसे, मानेय प्रधान (गृहमंत्री), रायसम् (सचिव), कर्णिकम् (हिसाब-किताब रखनेवाले), मुद्राकर्ता (राजकीय मुद्रा रखने वाला) इत्यादि। विजयनगर के राजा न्याय के संपादन में भी दिलचस्पी लेते थे। राजा स्वयं सर्वोच्च न्यायाधीश था, यद्यपि केन्द्रीय एवं स्थानीय स्तर पर अनेक न्यायालय थे। विजयनगर की सेना विशाल, स्थायी एवं सुदृढ़ थी। सेना में पैदल, घुड़सवार, हाथी तथा तोपखाने की टुकड़ियाँ थीं। इस सेना में मुसलमानों और तुर्की अश्वारोहियों एवं धनुर्धरों की भी भर्ती की गई। यद्यपि सैन्य व्यवस्था सामंती सिद्धांतों पर आधृत थी, तथापि इस पर कठोर निगरानी रखी जाती थी। राज्य में शांति व्यवस्था की स्थापना के लिए पुलिस का प्रबंध भी था। राज्य की आमदनी के साधन विभिन्न कर थे, जैसे भूमि कर, व्यापार, उद्योग इत्यादि से प्राप्त होनेवाली आय, व्यावसायिक कर, विवाह-कर इत्यादि।
प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण साम्राज्य विभिन्न प्रांतों (राज्य) में विभक्त था। इनकी संख्या बदलती रहती थी। प्रांत मंडल, कोट्टम् या वलनाडु में विभाजित थे। कोट्टम से छोटी इकाई नाडु थी। नाडु मेलाग्राम (पचास गाँवों का समूह) में विभक्त था। सबसे छोटी इकाई उर या ग्राम था। प्रांतों का शासन प्रांतपतियों के जिम्मे सुपुर्द किया गया था। यह पद राजपरिवार से सम्बद्ध व्यक्तियों एवं महत्त्वपूर्ण सैनिक-पदाधिकारियों को सौंपा जाता था। इन्हें पर्याप्त प्रशासनिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। केन्द्र सामान्यतया प्रांतीय मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था। प्रांतीय गवर्नरों का मुख्य कार्य राजस्व की वसूली एवं कानून-व्यवस्था को बनाए रखना था। प्रांतीय व्यवस्था के साथ-साथ नायंकर व्यवस्था भी प्रचलित थी। नायंकर भी प्रांतीय गवर्नरों के ही समान क्षेत्र-विशेष में राज्य करते थे एवं उन्हें भी प्रशासनिक स्वायत्तता प्राप्त थी। नायंकर एक प्रकार से सैनिक सामंत थे, जो राजस्व वसूली के अतिरिक्त अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाए रखते थे, न्याय करते थे, राजा के लिए सेना एकत्र करते थे तथा आर्थिक विकास के कार्य करते थे। इन्हें प्रांतीय गवर्नरों से भी अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, जिसका दुरुपयोग भी इन लोगों ने किया। स्थानीय शासन में प्राचीन संस्थाएँ सभा, नाडु अब भी वर्तमान रही, किन्तु आयगार-व्यवस्था (बारह व्यक्तियों का समूह) की स्थापना ने स्थानीय शासन की स्वायत्तता समाप्त कर दी।
सामाजिक जीवन – विजयनगर राज्य का सामाजिक जीवन वर्ण व्यवस्था पर आधृत था। राज्य समस्त वर्गों के हितों की रक्षा करता था। समाज में प्रथम स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। वे मृत्युदण्ड से परे थे। उन्हें सेना एवं शासन में उच्च पद प्राप्त थे। क्षत्रियों के विषय में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। तीसरा वर्ग शेट्टी या चेट्टी का था। इसी वर्ग के अंतर्गत बड़े एवं छोटे व्यापारी, दस्तकार (वीर-पांचाल) रेड्डी,लोहार, स्वर्णकार, बढ़ई, जुलाहे, मूर्तिकार इत्यादि आते हैं।डोंबर (बाजीगर), जोगी, मछुआरों इत्यादि की स्थिति निम्न थी। समाज में दास-प्रथा भी प्रचलित थी। पुरुष एवं स्त्री दोनों ही दास बनते थे। उत्तरी भारत से दक्षिण आकर बसनेवाली जातियाँ वडवा कहलाती थी। इनका भी सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान था।
राज्य सामाजिक मामलों में यदा-कदा हस्तक्षेप कर सामाजिक करीतियों एवं तनाव को समाप्त करने की कोशिश करता था। उदाहरणस्वरूप 1424-25 ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि राज्य ने दहेज-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था। सामाजिक नियमों को तोड़नेवालों के लिए दण्ड की व्यवस्था की गई थी। स्त्रियों की स्थिति बहुत उच्च नहीं थी। सामान्यतः, उन्हें भोग्या ही माना जाता था। आभिजात्य वर्ग की महिलाओं की स्थिति कुछ अच्छी थी। उन्हें नृत्य, संगीत एवं साहित्य की शिक्षा दी जाती थी। निम्न वर्गों की स्त्रियाँ विभिन्न व्यवसायों और दस्तकारियों में प्रवीण होती थीं। सामान्य वर्गों में एकात्मक विवाह ही होते थे, परंतु राजपरिवार एवं सामंत वर्गों में बहुपत्नीत्व की प्रथा प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त राजपरिवार में असंख्य दासियाँ एवं रखैलें भी रहती थीं। समाज में देवदासियों एवं गणिकाओं की भी भरमार थी। इनका सामाजिक जीवन उपेक्षित न होकर सम्मानित था। परदा प्रथा का प्रचलन नहीं था, परंतु सती प्रथा विद्यमान थी। सामान्यतया यह प्रथा राजपरिवारों और सैनिक पदाधिकारियों के परिवारों तक ही सीमित थी। सती स्त्रियों के सम्मान में पाषाण स्मारक स्थापित किए जाते थे।
यद्यपि राज्य विधवा विवाह को प्रोत्साहन देता था, (विधवा विवाह करनेवाले दम्पत्ति विवाह कर से मुक्त थे) तथापि विधवाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। इस समय के लोग वस्त्र आभूषण एवं श्रृंगार के प्रसाधनों के शौकीन थे। कुलीन वर्ग के वस्त्र आभूषण विशिष्ट प्रकार के होते थे। लोग मांस मदिरा का सेवन भी करते थे। मनोरंजन के साधनों में नाटक, नृत्य, संगीत, शतरंज एवं पासा का खेल तथा जुआ खेलना प्रचलित था। संक्षेप में विजयनगर राज्य का सामाजिक जीवन, अंतर्विरोधों और तनावों के बावजूद शांत, सुखी एवं समृद्ध था।
आर्थिक स्थिति – विजयनगर एक समद्ध एवं वैभवपूर्ण राज्य था। तत्कालीन इतालवी और पोर्तुगीज यात्रियों ने इस नगर के वैभव का वर्णन किया है। कोण्टी, अब्दुर रज्जाक, पेईज, बारबोसा, सभी विजयनगर को समृद्धि का वर्णन करते हैं। इनके वर्णनों से राज्य की आर्थिक स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। राज्य की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। राज्य की तरफ से कृषि के विकास के लिए अनेक कदम उठाए गए। बंजर और जंगली भूमि को भी कृषि योग्य बनाकर कृषि का विस्तार किया गया। सिंचाई की सुविधा के लिए राज्य, मंदिर, व्यक्तियों और अनेक संस्थाओं ने प्रयास किया। अनेक नहरें एवं तालाब खुदवाए गए। जो व्यक्ति सिंचाई की सुविधा के लिए प्रयास करते थे एवं सिंचाई के साधनों की देखभाल करते थे, उन्हें राज्य की तरफ से करमुक्त भूमि अनुदान में दी जाती थी।
भू-व्यवस्था में भी इस समय महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। भू-स्वामित्व के अनेक रूप इस समय देखने को मिलते हैं। इनमें प्रमुख हैं भंडारवाद ग्राम (राज्य के सीधे नियंत्रणवाली भूमि), ब्रह्मदेय, देवदेथ, मठापुर भूमि (ब्राह्मणों, मठों मंदिरों को दान में दी गई भूमि), अमरम् भूमि (सैनिक एवं असैनिक कार्यों के बदले दी जाने वाली जमीन), उबलि (ग्राम में विशिष्ट सेवा के बदले दी गई जमीन) कट्टगि (पट्टे पर दी जाने वाली भूमि) इत्यादि। इस भूमि व्यवस्था का एक दुष्परिणाम यह निकला कि राज्य में बड़े भू-स्वामियों की संख्या बढ़ गई एवं छोटे किसानों की स्थिति बिगड़ गई। उनमें अनेक कुदि या कृषक मजदूर बन गए।
इस समय उपजाई जाने वाली फसलों में प्रमुख थी चावल, जौ, दलहन, तिलहन, नील, कपास, काली मिर्च, अदरक, इलायची, नारियल इत्यादि। विभिन्न प्रकार के उद्योगों एवं व्यवसायों का भी विकास हुआ। धातुकर्म का व्यवसाय सबसे अधिक उन्नत अवस्था में था। इस समय देशी और विदेशी व्यापार की भी प्रगति हुई। पुर्तगाल, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापारिक संबंध उन्नत था। विजयनगर से इस्पात एवं इस्पात से बने सामान, शक्कर, वस्त्र एवं शोरा विदेशों को भेजे जाते थे तथा बाहर से घोड़े, सिल्क, जवाहरात इत्यादि मँगवाए जाते थे। बारबोसा के अनुसार, विजयनगर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र था। उसका कहना है कि ‘नगर विस्तृत और घना बसा हुआ है तथा चालू व्यापार का केन्द्र है; हीरे, पीगू के लाल, चीन और सिकंदरिया का रेशम, कपूर, सिन्दूर, कस्तूरी तथा मालावार की काली मिर्च और चन्दन इन वस्तुओं का अधिक क्रय-विक्रय होता है।” आर्थिक समृद्धि के कारण जनता का जीवन खुशहाल था। करों की संख्या अधिक रहने पर भी करों का बोझ हल्का था।
धार्मिक व्यवस्था-विजयनगर के राजाओं का शासनकाल हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का समय माना जाता है। दक्षिण में इस्लामी राजाओं के उत्थान और प्रसार के बावजूद विजयनगर के.शासक हिन्दूधर्म की दृढ़तापूर्वक रक्षा कर सके। यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। विजयनगर साम्राज्य में वैष्णव और शैवधर्म प्रधान थे। यज्ञ, आहुति और बलि की प्रथा प्रचलित थी। देवताओं के मंदिर बने। उनकी मूर्तियाँ भी बनाई गई। समाज में ब्राह्मणों (पुरोहितों) का यथेष्ट सम्मान था। विजयनगर के राजाओं ने हिन्दूधर्म को प्रश्रय देते हुए भी उदार धार्मिक नीति अपनाई। सभी धर्मानुयायियों के साथ उदारतापूर्वक व्यवहार किया गया। फलतः, हिन्दू धर्म के साथ-साथ इस्लाम, जैन एवं ईसाई धर्म के माननेवाले भी राज्य में शांति और सम्मान के साथ रहते थे।
शैक्षणिक एवं साहित्यिक प्रगति – यद्यपि विजयनगर के राजाओं ने राज्य की तरफ से शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की तथा चोलों और पल्लवों की तरह राजकीय विद्यालयों की भी स्थापना नहीं की, तथापि स्वतंत्र शैक्षणिक संस्थाओं को दान एवं संरक्षण देकर शिक्षा के विकास में सहायता पहुँचाई। मठ, मंदिर एवं अग्रहार शिक्षा के प्रचार का कार्य करते थे। राज्य विद्वानों को संरक्षण देता था। उन्हें करमुक्त भूमि दान में दी जाती थी। इस युग में संस्कृत, तेलुगु, तमिल तथा कन्नड़ भाषाओं का पर्याप्त विकास हुआ। कृष्णदेवराय के समय में साहित्यिक प्रगति पराकाष्ठा पर पहुंच गई। उसने तेलुगु और संस्कृत में कई ग्रंथों की रचना की। उसके द्वारा रचित ग्रंथों में आमुक्त माल्यद (तेलुगु) सबसे प्रसिद्ध है। इस युग के प्रसिद्ध विद्वानों में विद्यारण्य, सायणाचार्य एवं माधवाचार्य के नाम प्रमुख हैं। अलसनी तेलुगु का महान कवि था।
कलात्मक विकास – विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत विभिन्न कलाओं का भी विकास हुआ। स्थापत्य के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई। इस युग के राजाओं ने सुंदर और भव्य महलों, झीलों, नहरों, पुलों, तालाबों का निर्माण करवाया। विजयनगर की प्रशंसा विदेशी यात्रियों ने की है। इतालवी यात्री निकोलो कोण्टी लिखता है कि “नगर की परिधि 60 मील है; उसकी दीवारें पर्वत-शिखरों तक पहुँचती हैं और उनके चरणों को घाटियाँ घेरे हुई हैं; इससे उसका विस्तार और भी अधिक बढ़ जाता है……”। बारबोसा के अनुसार नगर विस्तृत और धनी आबादीवाला था। अब्दुर रजाक तो नगर की सुंदरता देखकर विमुग्ध हो गया था। वह कहता है कि “विजयनगर ऐसा है, जिसकी समता का दूसरा नगर पृथ्वी पर आँख से न देखा और न कान से सुना।” इस काल में सुंदर एवं भव्य मंदिरों का भी निर्माण हुआ। विजयनगर के मंदिरों में सबसे अधिक विख्यात कृष्णदेव राय द्वारा निर्मित हजार खम्भों वाला मंदिर तथा विट्ठलस्वामी का भव्य मंदिर है। विभिन्न ललित कलाओं-नृत्य, संगीत, अभिनय के साथ-साथ चित्रकला एवं मूर्तिकला की भी प्रगति हुई। वस्तुतः विजयनगर साम्राज्य दक्षिण भारत के मध्यकालीन राज्यों में राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों ही क्षेत्रों में, सबसे प्रमुख बन गया।
प्रश्न 6.
भक्ति आंदोलन के परिणामों का वर्णन करें।
उत्तर:
भक्ति आंदोलन का प्रभाव (Effect of Bhakti Movement) – संतों तथा सुधारकों के प्रयासों से जो भक्ति आंदोलन का आरम्भ हुआ उनसे मध्य भारत के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में एक नवीन शक्ति एवं गतिशीलता का संचार हुआ। प्रो० रानाडे के अनुसार भक्ति आंदोलन के परिणामों में साहित्य-रचना का आरम्भ, इस्लाम के साथ सहयोग के परिणामस्वरूप सहिष्णुता की भावना का विकास जिसकी वजह से जाति व्यवस्था के बंधनों में शिथिलता आई और विचार तथा कर्म दोनों स्तरों पर समाज का उन्नयन हुआ।
(i) सामाजिक प्रभाव (Social Impact) – भक्ति आंदोलन के कारण जाति प्रथा, अस्पृश्यता तथा सामाजिक ऊँच-नीच की भावना को गहरी चोट लगी। अधिकतर भक्त संतों ने विभिन्न जातियों के लोगों को अपना शिष्य बनाया। उन्होंने जाति प्रथा का तीव्र विरोध किया एवं ब्राह्मण तथा शूद्र को समान बताया। इस तरह समाज में जाति बंधनों पर गहरा प्रहार हुआ लेकिन यह मानना पड़ेगा कि भक्ति आंदोलन भारतीय समाज से जाति प्रथा के दोषों को पूर्णतया समाप्त नहीं कर सका। भक्त-संतों ने नारी को समाज में उच्च तथा सम्मानीय स्थान दिये जाने का समर्थन किया। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के साथ मिलकर सांसारिक बोझ उठाने का परामर्श दिया। कबीर तथा नानक ने पुरुषों की तरह नारियों को अपनी शिक्षाएँ दीं। उन्होंने सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराई का भी विरोध किया। इस आंदोलन में समाज सेवा की भावना को प्रोत्साहन मिला क्योंकि भक्त संतों ने लोगों को निर्धन. अनाथों. बेसहारा आदि की सेवा करने का उपदेश दिया।
(ii) धार्मिक प्रभाव (Religious Impact) – भक्ति आंदोलन का सर्वाधिक प्रभाव धर्म पर पड़ा। इस आंदोलन के कारण ही इस्लाम तथा हिन्दू धर्म के अनुयायियों में कर्मकांडों और अंधविश्वासों के विरुद्ध वातावरण तैयार हुआ। हिन्दुओं में मूर्तिपूजा की लोकप्रियता में कमी हुई। हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में समन्वय तथा एकता की भावना को प्रोत्साहन मिला। भक्ति आंदोलन के कारण ही सिख धर्म के रूप में नये धर्म का जन्म हुआ। गुरु नानक देव सिखों के प्रथम गुरु तथा गुरु ग्रंथ साहिब सिखों के लिए बाइबल है। गुरु ग्रंथ साहिब में अधिकांश भक्ति-संतों की वाणी ही संकलित है। इससे धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहन मिला। हिन्दु तथा मुसलमानों में जो कटुता व्याप्त थी धीरे-धीरे इस आंदोलन से उसको गहरा आघात पहुँचा। धार्मिक कट्टरता कम हुई तथा धार्मिक सहनशीलता का प्रसार हुआ।
(iii) सांस्कृतिक प्रभाव (Cultural Effects) – भक्ति आंदोलन के कारण सर्वसाधारण की भाषा एवं बोलियाँ अधिक लोकप्रिय हुईं। अनेक प्रांतीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं में अनेक भक्त संतों ने रचनाएँ की। कबीर की भाषा अनेक भाषाओं के सुन्दर समन्वय का अच्छा उदाहरण है जो खिचड़ी भाषा कहलाती है। मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसीदास आदि ने अवधी में अपनी रचनाएँ कीं। सूरदास ने ब्रज तथा नानक ने पंजाबी व हिन्दी को अपनाया। चैतन्य ने बंगला में और अनेक भक्त संतों ने उर्दू में भी रचनाएँ की। यह रचनाएँ समय पाकर भारतीय भाषाओं के साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गईं।
प्रश्न 7.
भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इस आन्दोलन का क्षेत्र एवं इससे जुड़े प्रमुख सन्तों के नाम बताइए।
उत्तर:
(i) भक्ति आन्दोलन का अर्थ (Meaning of Bhakti Movement) – भक्ति आन्दोलन से हमारा अभिप्राय उस आन्दोलन से है जो तुर्कों के आगमन (बारहवीं सदी से पूर्व ही) से काफी पहले ही यहाँ चल रहा था और जो अकबर के काल (इसका अन्त 1605 ई. को हुआ।) तक चलता रहा। इस आन्दोलन ने मानव और ईश्वर के मध्य रहस्यवादी संबंधों को स्थापित करने पर बल दिया। कुछ विद्वानों की राय है कि भक्ति भावना का प्रारम्भ उतना ही पुराना है जितना कि आर्यों के वेद। परन्तु इस आन्दोलन की जड़ें सातवीं शताब्दी से जमीं। शैव नयनार और वैष्णव अलवार ने जैन और बौद्ध धर्म के अपरिग्रह सिद्धान्त को अस्वीकार कर ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति को ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया। उन्होंने वर्ण और जाति भेद को अस्वीकार किया और प्रेम तथा व्यक्तिगत ईश्वर भक्ति का संदेश दिया। उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन का प्रसार दक्षिण भारत से आया यद्यपि इस प्रसार में बहुत कम समय लगा। उत्तर में संत और विचारक दोनों भक्ति दर्शन लाए।
भक्ति आन्दोलन की परिभाषा देते हुए प्रसिद्ध विद्वान तथा इतिहासकार डॉ० युसूफ हुसैन के अनुसार, “भक्ति आंदोलन रूढ़िवादी, सामाजिक तथा धार्मिक विचारों के विरुद्ध हृदय की प्रतिक्रिया तथा भावों का उद्गार है। भारतीय परिवेश में भक्ति आन्दोलन का विकास इन्हीं परिस्थितियों का परिणाम है।”
(ii) क्षेत्र तथा संत (Area and Saints) – भक्ति आन्दोलन व्यापक था और सारे देश में इसका प्रसार हुआ। यह आन्दोलन तेरहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक इस्लाम के सम्पर्क में आया और इसकी चुनौतियों को अंगीकार करता हुआ इससे प्रभावित, उत्तेजित और आन्दोलन हुए। इस आन्दोलन ने शंकराचार्य जैसे महान दार्शनिक के अद्वैतवाद और ज्ञान-मार्ग के विरोध में भक्ति मार्ग पर अधिक जोर दिया। इस आन्दोलन के चार विभिन्न संस्थापकों ने चार मतों को जन्म दिया। वे थे-
(a) बारहवीं शताब्दी के रामानुजाचार्य (विशिष्टद्वैतवाद),
(b) तेरहवीं सदी के मध्वाचार्य (द्वैतवाद),
(c) तेरहवीं शताब्दी के विष्णु स्वामी (शुद्धसद्वैतवाद) और
(d) तेरहवीं शताब्दी के निम्बार्काचार्य (द्वैताद्वैतवाद)। थोड़े बहुत अन्तर होते हुए भी इन चारों मतों की मूल प्रवृत्ति सगुण भक्ति की ओर झुकी हुई थी। इन्होंने ब्रह्म और जीव की पूर्ण एकता को स्वीकार नहीं किया। मध्यकाल में यह आन्दोलन विराट आन्दोलन के रूप में प्रकट हुआ और इसका प्रसार सोलहवीं सदी तक होता रहा।
प्रश्न 8.
सूफीवाद पर संक्षिप्त लेख लिखें।
उत्तर:
सूफीवाद उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रित एक अंग्रेजी शब्द है। सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रंथों में जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है तसत्वुफ। कुछ विद्वानों के अनुसार यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ ऊन है। यह उस खुरदुरे ऊनी कपड़े की ओर इशारा करता है जिसे सूफी पहनते थे। अन्य विद्वान इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ है साफ। यह भी संभव है कि यह शब्द ‘सफा’ से निकला हो जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जहाँ निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के बारे में जानने के लिए इकट्ठी होती थी।
सूफी सन्त के प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या :
- एकेश्वरवाद (Mono God) – सूफी लोग इस्लाम धर्म को मानने के साथ एकेश्वरवाद पर जोर देते थे। पीरों और पैगम्बरों के उपदेशों को वे मानते थे।
- रहस्यवाद (Mistensue) – इनकी विचारधारा रहस्यवादी है। इनके अनुसार कुरान के छिपे रहस्य को महत्त्व दिया जाता है। सफी सारे विश्व के कण-कण में अल्लाह को देखते हैं।
- प्रेम समाधना पर जोर (Stress on Love and Meditation) – सच्चे प्रेम से मनुष्य अल्लाह के समीप पहुँच सकता है। प्रेम के आगे नमाज, रोजे आदि का कोई महत्त्व नहीं।
- भक्ति संगीत (Bhakti Music) – वे ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गायन को विशेष महत्त्व देते थे। मूर्ति-पूजा के वे विरोधी थे।
- गुरु या पीर का महत्व (Importance of Pir or Teacher) – गुरु या पीर को सूफी लोग अधिक महत्त्व देते थे। उनके उपदेशों का वे पालन करते थे।
- इस्लाम विरोधी कछ सिद्धान्त (SomePrinciples Against Islam) – वे इस्लाम विरोधी कुछ बातें-संगीत, नृत्य आदि को मानते थे। वे रोजे रखने और नमाज पढ़ने में विश्वास नहीं रखते थे।
प्रश्न 9.
अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना करें।
उत्तर:
- आरम्भ में अकबर एक कट्टरपंथी मुसलमान था परंतु बैरम खाँ, अब्दुल रहीम खानखाना, फैजी, अबुल फजल, बीरबल जैसे उदार विचारों वाले लोगों के सम्पर्क से उसका दृष्टिकोण बदल गया। हिंदू रानियों का भी उस पर प्रभाव पड़ा। अब वह अन्य धर्मों के प्रति उदार हो गया था।
- 1575 ई० में उसने इबादतखाना बनवाया, जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों को अपने-अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। अक्सर बहस करते समय मौलवी गाली-गलौच पर उतर जाते थे। अतः अकबर को इस्लाम धर्म में रुचि कम हो गई।
- वह स्वयं तिलक लगाने लगा और गौ की पूजा करने लगा। अतः कट्टरपंथी मुसलमान उसे काफिर कहने लगे थे।
- 1579 ई० में उसने अपने नाम का खुतवा पढ़वा कर अपने आप को धर्म का प्रमुख घोषित कर दिया। इससे उलेमाओं का प्रभाव कम हो गया।
- अंत में उसने सभी धर्मों का सार लेकर नया धर्म चलाया, जिसे दीन-ए-इलाही के नाम से जाना जाता है। अपने धर्म को उसने किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया।
- उसने रामायण, महाभारत आदि कई हिन्दु ग्रंथों का भी फारसी में अनुवाद करवाया। वह धर्म को राजनीतिक से दूर रखता था।
- फतेहपुर सीकरी में एक महल, जोधाबाई का महल में भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक देखते हैं।
प्रश्न 10.
दीन-ए-इलाही से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
अकबर इतिहास में महान् की उपाधि से विभूषित है और इसकी महानता का मुख्य कारण है इसका विराट व्यक्तित्व। साम्राज्य की सुदृढता, साम्राज्य में शांति स्थापना पापना तथा मानवीय से उत्प्रेरित अकबर ने न सिर्फ गैर-मसलमानों को राहत दिया. राजपतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया। बल्कि एक कशल प्रशासनिक व्यवस्था भी प्रदान किया। धार्मिक सामंजस्य के प्रतीक के रूप में उसका दीन-ए-इलाही प्रशंसनीय है।
दीन-ए-इलाही द्वारा अकबर ने सर्व-धर्म-समभाव की भावना को उत्प्रेरित किया है।
प्रश्न 11.
मुगल शासक अकबर की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
अकबर को भारतीय इतिहास का एक महान और प्रतापी शासक एवं सम्राट माना जाता है। कुछ इतिहासकार उसे राष्ट्रीय भी कहते हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी रचना ‘Discovery of India’ में अकबर को भारतीय राष्ट्रीयता का पिता कहा है। यहाँ पर स्मरणीय है कि राष्ट्रीयता का सिद्धांत आधुनिक युग की देन है और मध्यकालीन भारत में राष्ट्रीय चेतना का वह आधुनिक युग विकसित नहीं हुआ था फिर भी अकबर को एक राष्ट्रीय सम्राट कहा जाता है क्योंकि इसने अपनी नीतियों से ऐसे तथ्यों को प्रोत्साहित किया और ऐसी परिस्थितियों को विकसित किया जिससे राष्ट्रीय चेतना प्रबल हो सकें। एक राष्ट्र निर्माता उस व्यक्ति को कहा जा सकता है जो किसी जनसमूह में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का भान जाए और उन्हें प्रशासनिक एकता के रूप में बाध्य है। 15वीं एवं 16वीं शताब्दी में यूरोप में ऐसे शासकों का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्हें राष्ट्रीय सम्राट (National Monarch) कहा जाता है।
इनमें इंगलैंड के हेनरी सप्तम फ्रांस का लुई चौदह, प्रशा के फ्रेडरिक महान जैसे शासक अग्रगण्य है। इनके मुख्य उपलिब्ध रह रही है कि उन्होंने अपने देशों में सामंतवादी एवं विघटनकारी शक्तियों का अंत किया और भौगोलिक एवं प्रशासनिक एकता स्थापित की। भारत में भी अकबर ने एक विशाल एवं संगठित राज्य का निर्माण किया जो विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एकता एवं सहिष्णुता की भावना पर आधारित था और जिसमें विभिन्न संस्कृति तथा परंपराओं का संतुलित एवं सुंदर समन्वय था। विविधता में एकता का जो लक्ष्य अकबर ने सफलता से प्राप्त किया वह अद्भुत है और इसलिए अकबर को एक महान शासक और राष्ट्र निर्माता के रूप में जाना जाता है।
अकबर ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। मौर्य साम्राज्य के पतनोपरांत लगभग 1000 वर्षों के अंतराल पर एक भारत व्यापी साम्राज्य अकबर ने संगठित किया जिसमें एक रूपी शासन प्रणाली थी। अकबर ने अपने शासन के प्रथम दो दशकों में उत्तरी भारत में साम्राज्य विस्तार किया। मालवा, गांण्डवाना, राजपूताना के अनेक राज्य गुजरात, बिहार और बंगाल की विजय इस काल में सम्पन्न हुई। दूसरे चरण में अकबर ने पश्मिोत्तर सीमांत में साम्राज्य विस्तार किया जिसके फलस्वरूप कश्मीर एवं लद्दाख, काबुल, कंधार, सिंध और मकरान के क्षेत्र मुगल साम्राज्य में सम्मिलित हुए। अंतिम चरण में अकबर ने दक्षिण भारत में साम्राज्य विस्तार किया, जिसके फलस्वरूप खान देश बराट और हमद नगर का एक बड़ा क्षेत्र उसने अपने अधिकार में ले लिया। इस तरह उत्तर में कश्मीर, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में सिंध और पूरब में बंगाल तक फैले हुए क्षेत्र पर अकबर ने राजनीति एकता की स्थापना की। पश्चिमोत्तर क्षेत्र में हिन्दुकुश पर्वतमाला को पारकर अकबर ने काबुल तक साम्राज्य का विस्तार किया।
अकबर द्वारा स्थापित इस विशाल साम्राज्य की विशिष्टता यह थी कि इसमें प्रशासनिक एकरूपता स्थापित की गई। इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप में पहली बार ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था का विकास हुआ, जिसमें स्थानीय और क्षेत्रीय भावनाओं और परम्पराओं के स्थान पर केन्द्रीय नियंत्रण एवं एकरूपता की सिद्धांत को अपनाया गया। अकबर ने मंसवादारी प्रथा का निर्माण किया। मंसवदार लोग प्रशासनिक तथा सैनिक अधिकारी थे, जिनकी वेतनमान एवं सेवा के नियम सारे राज्य में एक थे। इसकी तुलना भारतीय प्रशासनिक सेवा से भी की गई है। इस प्रकार अकबर ने प्रशासकों और सेवकों का एक मिला-जुला वर्ग विकसित किया, जो शासन के प्रति निष्ठा रखता था।
प्रशासनिक एकरूपता लाने के लिए अकबर ने सभी प्रांतों में एक जैसी प्रशासनिक व्यवस्था लागू की। हर प्रांत में एक सूवेदार की नियुक्ति की गई जो प्रांतीय प्रशासन का प्रधान था। उसके सहायता के लिए हर प्रांत में दीवान, वित्त-अधिकारी, बख्सी (सैनिकों का वेतन दाता) वाकियाँ नवीश (गुप्तचर), सदर (धार्मिक एवं न्याय संबंधी मामलों का प्रधान), काजी (न्यायधीश) आदि की नियुक्ति हुई। प्रांत को सरकार एवं हर सरकार को परगना में विभक्त किया गया और सभी स्तरों पर प्रशासनिक एकरूपता लाई गई। प्रत्येक सरकार में 3 प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किये गये। इनमें फौजदार साम्राज्य प्रशासन के लिए, अमल गुजार-लगान वसूली के लिए एवं काजी-न्याय के लिए उत्तरदायी थे। इसी प्रकार हर परगना में तीन अधिकारी बहाल किये गये, जिसमें सिकंदर-साम्राज्य प्रशासन के लिए, अमल गजारा लगान वसूली के लिए एवं काजी न्याय के लिए उत्तरदायी थे।
अकबर ने आर्थिक एकीकरण के लिए भी उपाय किये। उसने अपने राज्य में लगान व्यवस्था में भी एकरूपता लाई और प्रबल व्यवस्था को लागू किया। मुद्रा प्रणाली, माप तौल के उपकरण आदि में एकरूपता लाई गई जिससे कि उत्तरी भारत में एकरूपता स्थापित हई। यू तो शेरशाह के समय में ही अर्थ व्यवस्था में एरूपता लाने के उपाय किये गये थे परंतु अकबर ने इस व्यवस्था को और सदढ एवं स्थायी आधार प्रदान किया। आर्थिक एकीकरण ने राष्ट्रीय एकीकरण के कार्य में सहायता पहचायी।
अकबर ने अपने शासनकाल में सांस्कृतिक एकीकरण के भी उपाय किये। उसने उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया। उसने हिन्दुओं को जजिया कर और तीर्थ भाग कर देने से मुक्त करदिया एवं बलपूर्वक धर्म परिवर्तन को अवैध घोषित कर दिया। अकबर ने हिन्दुओं के अतिरिक्त, ईसाइयों, पारसियों, सिक्खों एवं बौद्धों के साथ भी धार्मिक सहिष्णुता बरती। इन सभी धर्मों के आचारियों को उसने अपनी राजधानी फतेहपुर सिकरी में स्थित इबास्तखाना में निमंत्रित किया। उसने विभिन्न धर्मों के उपदेशों का संकलन करके ‘दीन-ए-इलाही के रूपमें एक ऐसी आचारसंहिता (Code of Corduct) प्रस्तुत किया जिसके अनुसार सभी धर्मों के अनुयायी पूरी निष्ठा रखते हुए भी कार्य कर सकते थे। अशोक के धर्म (धम्म) की तरह दीन-ए-इलाही भी विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच एकता और सद्भावना लाने का एक सराहनीय प्रयास था।
अकबर ने हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच अलगाव एवं भांतियों को दूर करने के लिए दोनों ही धर्मों से संबंधित रचनाओं का अनुवाद करवाया ताकि उसके सिद्धांत को अच्छे ढंग से समझ सकें। उसने मुगल दरबार में हिन्दू उत्सवों और प्रभावों को अपनाया ताकि एक संभावित परम्परा का विकास हो सके। इसी तरह अकबर ने संगीत, चित्रकला और स्थापत्य-कला के क्षेत्रों में एकता लाने का प्रयास किया जिससे भारत में एक समन्वित सांस्कृतिक परम्परा का विकास संभव हो सका।
अकबर ने अपने शासन काल में स्थापत्य कला में एक समन्वित शैली का विकास किया जिसमें ईरानी शैली और राजपूत शैली के साथ-साथ भारत के विभिन्न शैलियों का समावेश था। इस समन्वित शैली का उदाहरण फतेहपुर सिकरी के अनेक भवनों में देखें जा सकते हैं। अकबर ने जो समन्वित शैली विकसित की उसे उसके उत्तराधिकारियों ने बनायें रखा और जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब एवं प्रवर्ती शासकों के काल में भी भवन निर्माण कला का यह समन्वित रूप बना रहा।
अकबर ने संगीत और चित्रकला में भी समन्वित शैली का विकास किया। मुगल दरबार में ईरानी शैली समन्वित रूप को चित्रकला में विकसित हुआ कहा जाता है कि मुगल दरबार में जो शैली विकसित हुई उसका रूप भारतीय था जबकि उसकी आत्मा ईरानी थी। इसमें यूरोपीय शैली की विशेषताएँ सम्मिलित थी। इसलिए मुगल शैली अत्यधिक उन्नत और परिपक्व बनी रही। इसका विकास जहाँगीर के समय में चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। संगीत में भी ईरानी और भारतीय गायन शैलियों के समन्वय से एक नयी मिश्रित परम्परा विकसित हुई इसका सबसे उत्कृष्ट प्रदर्शन तानसेन की गायन शैली में हुआ। यही समन्वित शैली हिन्दुस्तानी शैली कहलायी। अकबर ने दरबार में ऐसी प्रथाएँ और रीति-रिवाज विकसित किये जिससे कि दरबार में समन्वित सांस्कृतिक परम्परा का विकास हुआ। उसने नौ रोज का व्यवहार मुगुले का राष्ट्रीय व्यवहार बना दिया। उसने राजपूतों से झरोखा दर्शन और कलादान की पद्धति मुगल दरबार में लागू की।
अकबर ने हिन्दू और मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों को दूर किया। उसने अपने आप को हिन्दुओं और मुसलमानों का शुभ चिंतक माना। अकबर की नीति की खास विशेषता यह थी कि उसने किसी एक धर्म का सम्प्रदाय से ही अपना संबंध नहीं रखा बल्कि उसने सभी वर्गों, सम्प्रदाय और क्षेत्रों को अपनी प्रजा के रूप में एक जैसा अधिकार और सुविधा प्रदान की जो कि भारतीय इतिहास में एक महत्वपर्ण घटना थी।
इस प्रकार अकबर की उपलब्धियों और उसके प्रयास ही दिशा में एकीकरण के उद्देश्य से प्रेरित थी। उसने राजनैतिक और भौगोलिक एकता स्थापित की प्रशासनिक एवं आर्थिक एकरूपता लाई और सांस्कृतिक क्षेत्र में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के बीच एकता स्थापित करके विविधता में एकता (Unity in diversity) का उद्देश्य प्राप्त करना चाहा।