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Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 6
प्रश्न 1.
असहयोग आन्दोलन के क्या-क्या कारण थे ? यह स्थगित क्यों हुआ ?
उत्तर:
असहयोग आन्दोलन की पृष्ठभूमि में अनेक कारण थे जिनका वर्णन निम्नलिखित तथ्य बिन्दुओं के अंतर्गत किया जा सकता है-
1. युद्ध के बाद भारतीयों में असंतोष – प्रथम विश्वयुद्ध के समय में भारत ने ब्रिटिश सरकार को पूर्ण सहयोग दिया था। ब्रिटेन ने यह युद्ध स्वतंत्रता और प्रजातंत्र की रक्षा के नाम पर लड़ा था। ब्रिटिश विजय में भारतीयों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, जिसे स्वयं अंग्रेजों ने स्वीकार किया था। भारतवासियों को यह विश्वास था कि युद्ध की समाप्ति पर ब्रिटेन संसार को दिये गए अपने वचनों का पालन करेगा। भारत के अधिकाशं जागरूक व्यक्ति यह आशा करने लगे कि उन्हें “स्व-शासन” अब मिलने ही वाला है परन्तु स्वायत्त शासन के नाम पर भारत को माण्टफोर्ड सुधार दिये गए जिससे कि भारतीयों में असंतोष फैला जो कि असहयोग आन्दोलन का एक कारण बना।
2. भारतीय अर्थव्यवस्था पर युद्ध का प्रभाव – प्रथम विश्वयुद्ध का आर्थिक परिणाम भी बड़ा बुरा हुआ। सभी आवश्यक वस्तुओं का अभाव हो गया। इस अभाव के कारण वस्तुओं का मूल्य बढ़ गया था।, चोर बाजारी बढ़ गयी थी। विभिन्न उपायों द्वारा सरकार ने जनता से युद्ध के लिए धन एकत्र किया था। करों में भी वृद्धि कर दी गयी थी। इन कारणों से जनता को भयंकर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा था। युद्ध के बाद देश में प्लेग, इन्फ्लुएंजा आदि महामारियों का प्रकोप हुआ। इसी समय देश को भयंकर अकाल का भी सामना करना पड़ा। फलतः जनता की आर्थिक स्थिति बहुत ही सोचनीय हो गई। इस आर्थिक असंतोष के कारण कई जगहों पर बलवे हुए, हड़तालें हुई और भूखी जनता ने लूट-पाट भी की। अतः हम कह सकते हैं कि आर्थिक असंतोष ने लोगों में अंग्रेजों के प्रति घृणा पैदा कर दी। फलतः सभी लोग असहयोग के लिए तैयार हो गए।
3. सेना संबंधी नीति – युद्ध के दौरान लोगों को सेना में भर्ती होने के लिए बाध्य कर दिया गया। लेकिन युद्ध की समाप्ति के बाद बहुत से सैनिकों को नौकरी से अलग कर दिया गया। फलतः लोगों में असंतोष फैला जो कि असहयोग आन्दोलन का एक कारण बना।
4. सरकार की दमनकारी नीति – असहयोग आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण कारण सरकार की दमनकारी नीति भी थी। शासन के द्वारा एक ओर तो युद्ध में सहायता प्राप्त करने का प्रयत्न किया जा रहा था, दूसरी ओर वह निर्ममता पूर्वक दमन चक्र का प्रयोग कर रही थी। राष्ट्रीय आन्दोलन को कुचलने के लिए शासन द्वारा प्रेस अधिनियम और द्रोहात्मक अधिनियम का सहारा लिया गया। बंगाल और पंजाब में इस दमन चक्र का खुलकर प्रयोग किया जा रहा था और सरकार के इन दमन कार्यों ने क्रांतिकारियों के दृढ़ संगठन को जन्म दिया।
5. रॉलेट ऐक्ट – युद्ध के दौरान भारत में क्रांतिकारी सक्रिय रहे। उन्हें दबाने के लिये अंग्रेजों ने विशिष्ट अधिकारों के अंतर्गत अपना दमन-चक्र चलाया। युद्ध के बाद इस दमनचक्र की कोई आवश्यकता नहीं थी। परन्तु शासन क्रांतिकारियों के भय से आतंकित था। उसने अपना दमन चक्र बन्द नहीं किया, बल्कि इसको विधिवत रूप देने के लिए उसने एक आयोग स्थापित किया। आयोग की अध्यक्षता सर सिडनी रॉलेट ने की। अप्रैल 1918 में रॉलेट महोदय ने अपनी रिपोर्ट दी, जिसके आधार पर रॉलेट अधिनियम पास किया गया। इस अधिनियम के अनुसार शासन को किसी भी व्यक्ति को संदिग्ध घोषित कर, बिना दोषी सिद्ध किये, जेल में बंद करने का अधिकार दिया गया।
महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि वे इस काले कानून के विरोध में आंदोलन चलायेंगे। अतः उन्होंने घोषणा की कि 6 अप्रैल को सारे भारत में रॉलेट अधिनियम को ‘मातम दिवस’ मनाया जाय। उनकी पुकार पर भारत के अनेक नगरों में हड़तालें और प्रदर्शन हुए। इस आन्दोलन की तीव्रता को देखकर शासन ने गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया। परन्तु गाँधीजी की गिरफ्तारी ने आग में घी का काम किया। यद्यपि गाँधीजी तो छोड़ दिये गए लेकिन अंग्रेजों की पाशविकता बढ़ गई। जिसके फलस्वरूप पंजाब में जालियाँवाला बाग काण्ड हुआ।
6. जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड (1919) – जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड ने आग में घी का काम किया। 10 अप्रैल 1919 को पंजाब के प्रसिद्ध नेता डॉ० सत्यपाल तथा किचलू को गिरफ्तार करके किसी अज्ञात स्थान में भेज दिया गया। उसी के विरोध में 13 अप्रैल 1919 को वैशाखी के दिन अमृतसर के जालियाँवाला बाग में एक सभा की गई। हालांकि जनरल डायर ने इस सभा को अवैध घोषित किया था, लेकिन जनता को बाग में एकत्रित होने दिया। जब उसमें हजारों व्यक्ति एकत्रित हो गये तो जनरल डायर 100 भारतीय तथा 50 अंग्रेज सैनिकों को लेकर जालियाँवाला बाग में घुस गया और बिना कोई चेतावनी दिए अपने सिपाहियों को निहत्थी और शांतिमयी सभा पर गोली चलाने का आदेश दे दिया। हजारों स्त्री, पुरुष और बच्चे इस सभा में एकत्रित हए थे। बाग से निकलने के लिए एक ही मार्ग था। उसको भी जनरल डायर ने रोक लिया था। परिणामस्वरूप लोग भागने में असमर्थ रहे। फलस्वरूप सरकारी आँकडे के अनसार 379 लोग मारे गये और लगभग 200 घायल हुए, जबकि सेवा समिति के अनुसार मारे जाने वालों की संख्या 500 तथा पंजाब चैम्बर कॉमर्स के अध्यक्ष प्रत्यक्षदर्शी लाला गिरधारी लाल के अनुसार उनकी संख्या 1000 थी।
अमृतसर के अतिरिक्त लाहौर, कसूर एवं गुजरनवाला में भी हिंसा भड़की तथा पंजाब के पाँच जिलों में मार्शल लॉ लगा दिया गया। अमृतसर के जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड का भारतीय जनता के हृदयों पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा जिसकी प्रतिक्रिया हमें असहयोग आंदोलन के रूप में देखने को मिला।
7. हंटर कमिटी की रिपोर्ट – इस घटना से गाँधीजी को बड़ा क्षोभ हुआ और उन्होंने अंग्रेजी सरकार से मांग की कि भारत के वायसराय को वापस बुला लिया जाय तथा इस हत्याकाण्ड के लिए उत्तरदायी अधिकारियों के विरुद्ध उचित कार्यवाही की जाय। जाँच के लिये नियुक्त हंटर समिति की रिपोर्ट के द्वारा अधिकारियों के कुकृत्य को न्यायपूर्ण ही ठहराया गया। ब्रिटेन की लॉर्डसभा ने जनरल डायर को ब्रिटिश साम्राज्य का शेर कहा तो ब्रिटिश इण्डियन प्रेस ने उसे ब्रिटिश राज्य का रक्षक माना। ऐसी दशा में पंजाब की घटनाओं तथा सरकारी नीति के कारण एक ऐसे वातावरण का निर्माण हुआ, जिसमें क्षुब्धता एवं विरोध की लहर सी दौड़ गयी जिसका परिणाम हमें असहयोग आन्दोलन के रूप में मिला।
8. खिलाफत आन्दोलन – महासमर में तुर्की मित्र राष्ट्र के विरोध में लड़ा था। मुसलमान उसे अपना धर्म गुरु समझते थे। मित्रराष्ट्रों की ओर होना भारतीय मुसलमानों के लिए अपनी धर्म गुरु का विरोध करना था। भारतीय मुसलमानों की ओर से तुर्की के खलीफा की खिलाफत की रक्षा के लिए आन्दोलन चलाया गया। खिलाफत कमिटी ने गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित होने का निश्चय किया। परिणामस्वरूप हिन्दुओं तथा मुसलमानों में एक प्रकार की मैत्री स्थापित हो गयी और इस प्रकार खिलाफत आन्दोलन देशव्यापी बना।
इन्हीं सब कारणों के चलते काँग्रेस ने 1920 ई० के नागपुर अधिवेशन में असहयोग आन्दोलन चलाने का प्रस्ताव स्वीकार किया और गाँधीजी को नेतृत्व करने को कहा। इस प्रकार राष्ट्रीय आन्दोलन के इतिहास में एक नये अध्याय की शुरुआत हुई। पटाभिसितारमैया ने लिखा है कि “नागपुर काँग्रेस से वास्तव में एक नवीन युग का प्रादुर्भाव होता है। निर्बल, क्रोध और आग्रह भारत के इतिहास में पूर्ण प्रार्थनाओं का स्थान उत्तरदायित्व के एक नवीन भाव तथा स्वावलम्बन की एक नवीन भावना ने ले लिया।
असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम – असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम इस प्रकार निर्धारित किया गया-
- सरकारी उपाधियाँ पद व अवैतनिक पद त्याग दिए जाएँ।
- स्थानीय संस्थाओं के नामजद सदस्य अपना त्याग पत्र दे दें।
- सरकारी दरबारी, उत्सवों और स्वागत समारोहों का पूर्ण बहिष्कार।
- सरकारी अथवा सरकारी सहायता प्राप्त स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार।
- सरकारी अदालतों के वकीलों का मुवक्किलों द्वारा बहिष्कार।
- विदेशी माल का बहिष्कार किया जाय।
- 1919 के अधिनियम द्वारा निर्मित विधान मण्डलों के निर्वाचनों में खडे उम्मीदवारों को बैठाना और मतदाताओं को खड़े हुए उम्मीदवार को वोट न देने देना।
उपर्युक्त ध्वंसात्मक (Destructive) कार्यक्रम के अलावा असहयोग आन्दोलन के निम्नलिखित रचनात्मक कार्यक्रम भी था-
- स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग किया जाय।
- प्रत्येक घर में चरखे और कताई-बुनाई का प्रचार किया जाय।
- राष्ट्रीय विद्यालय स्थापित किये जाएँ।
- सरकारी अदालतों के स्थान पर पंचायती अदालतों की स्थापना की जाए।
- हिन्दू मुस्लिम एकता को मजबूत किया जाय।
- अस्पृश्यता का निवारण किया जाय।
गाँधीजी ने कहा कि यदि जनता ने उपर्युक्त कार्यक्रम का पालन किया तो एक वर्ष में स्वराज्य प्राप्त हो जायेगा। उन्होंने आगे कहा कि आन्दोलन में अहिंसा का कड़े रूप में पालन किया जाय।
असहयोग आन्दोलन की प्रगति – गाँधीजी का असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम बहुत ही लोकप्रिय हुआ। सर्वप्रथम गाँधीजी ने स्वयं अपना ‘कैसरे हिन्द’ पदक त्याग दिया। फिर सैकड़ों लोगों ने अपनी पदवियों का परित्याग कर दिया। सुप्रसिद्ध वकील पं० मोतीलाल नेहरू, जवाहरलाल नेहरू, डॉ० राजेन्द्र प्रसाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल आदि ने अदालतों का बहिष्कार किया। विद्यार्थियों ने सरकारी स्कूल एवं कॉलेज छोड़ दिये।
विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया। अनेक स्थानों पर विदेशी कपड़ों की होलियाँ जलाई गयी। स्वदेशी वस्तुओं का खुब प्रचार बढ़ा। इस समय अजीब हिन्दू मुस्लिम एकता देखी गई। आन्दोलन में अनेक प्रमुख मुसलमान नेताओं ने भाग लिया। खिलाफत समिति ने मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरी ‘हराम’ बताई। इस अवसर पर लगभग 40 लाख स्वयं सेवक बने। इस प्रकार आन्दोलन अपने चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया।
सरकार द्वारा दमन चक्र – नवम्बर 1921 में सम्राट जार्ज पंचम के ज्येष्ठ पुत्र प्रिंस ऑफ वेल्स भारत आने वाले थे। काँग्रेस ने उनके बहिष्कार का निर्णय लिया। परिणामस्वरूप सरकार ने आन्दोलन को कुचलने के लिए दमनपूर्ण कानूनों का सहारा लिया। अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। उनपर कोड़े लगवाये गए। सितम्बर 1921 में अली बन्धुओं के जोशीले भाषण के कारण उनको गिरफ्तार कर लिया गया। परन्तु इस घोर दमन और अत्याचार के बाद भी जनता का साहस कम नहीं हुआ।
चौरी-चौरा काण्ड और आन्दोलन का स्थगन – चौरी-चौरा काण्ड के फलस्वरूप गाँधीजी ने अपना असहयोग आन्दोलन एकदम स्थगित कर दिया। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के चौरी-चौरा नामक स्थान पर 5 फरवरी 1922 को एक उत्तेजित भीड़ ने एक पुलिस चौकी में आग लगा दी। पुलिस चौकी में एक सब-इंस्पेक्टर और 21 सिपाहियों को जिन्दा जला दिया गया। इस हिंसात्मक घटना के कारण गाँधीजी की एक बैठक बुलाई जिसमें चौरी-चौरा घटना के कारण सामुहिक सत्याग्रह एवं असहयोग आन्दोलन स्थगित करने का प्रस्ताव कराया। इसी समिति के निर्णय के आधार पर असहयोग आन्दोलन स्थगित हो गया।
इस प्रकार उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भारतीय मुक्ति संग्राम के इतिहास में असहयोग आन्दोलन का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। असहयोग आन्दोलन का सूत्रपात एकाएक नहीं हुआ था बल्कि इसकी पृष्ठभूमि में अनेक कारण थे जैसे युद्ध के बाद भारतीयों में असंतोष, भारतीय अर्थव्यवस्था पर युद्ध का प्रभाव, सेना संबंधी नीति, सरकार की दमनकारी नीति, रॉलेट ऐक्ट, जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड, खिलाफत आंदोलन इत्यादि। असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम भी काफी महत्त्वपूर्ण थे जिसके चलते असहयोग आन्दोलन काफी लोकप्रिय साबित हुआ। इसी बीच चौरी-चौरा काण्ड हुआ। परिणामस्वरूप गाँधीजी ने असहयोग आन्दोलन को बन्द कर दिया।
प्रश्न 2.
सविनय अवज्ञा आंदोलन पर टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
1929 ई० में काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन में गाँधीजी के नेतृत्व में पूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन आरंभ करने का निर्णय लिया गया।
कार्यक्रम – सविनय अवज्ञा आंदोलन के निम्नलिखित कार्यक्रम थे-
- प्रत्येक गाँव में नमक कानून तोड़कर नमकं बनाया जाए।
- शराब और विदेशी कपड़ों की दूकानों पर धरना (विशेषकर महिलाओं द्वारा) दिया जाए।
- विदेशी कपड़ों की होली जलाई जाएँ।
- हिन्दु छुआछूत को पूर्णतया छोड़ दें।
- विद्यार्थियों को सरकारी स्कूल व कॉलेजों में पढ़ना बंद कर देना चाहिए।
- सरकारी कर्मचारियों को सरकारी नौकरियाँ छोड़ देनी चाहिए।
(क) आंदोलन का प्रथम चरण-
- डांडी यात्रा-12 मार्च, 1930 को गाँधीजी ने डांडी यात्रा आरम्भ की तथा डांडी के तट पर पहुँचकर समुद्र के जल से नमक बनाकर नमक कानून को भंग किया।
- आंदोलन में तीव्रता-सारे देश में सरकारी कानूनों का उल्लंघन शुरू हो गया। लोगों ने कर देना बंद कर दिया। विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया गया।
- सरकार की दमन-नीति-सरकार की दमन नीति शुरू हुई। गाँधीजी को गिरफ्तार कर लिया गया। 1931 ई० के आरंभ में लगभग 90,000 व्यक्ति जेलों में थे।
- प्रथम गोलमेज सम्मेलन-पेशावर में भारतीय सिपाहियों ने प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से इनकार कर दिया। स्थिति खराब होते देखकर लंदन में 1930 ई० में गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया किन्तु, काँग्रेस ने इसका बहिष्कार किया।
- गाँधी-इरविन समझौता-जनवरी 1931 में गाँधीजी एवं दूसरे अन्य नेता रिहा कर दिए गए। मार्च 1931 में गाँधी-इरविन समझौता हो गया। सभी राजनैतिक बंदियों के मुकदमें वापस ले लिए गए और गाँधीजी द्वारा आंदोलन स्थगित कर दिया गया।
(ख)आंदोलन का दूसरा चरण-
- भारत के लिए नया संविधान बनाने हेतु द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में गाँधीजी ने भाग लिया। लेकिन कोई खास नतीजा न निकला। गाँधीजी निराश होकर भारत लौटे।
- पुनः आंदोलन प्रारंभ-गाँधीजी ने पुनः सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू कर दिया। यह आंदोलन दो वर्षों तक चला।
- दमनचक्र इस बार सरकार का दमनचक्र पहले से भी भयानक था। गाँधीजी सहित लगभग एक लाख बीस हजार व्यक्तियों को जेलों में बंद कर दिया गया।
प्रश्न 3.
गोलमेज सम्मेलन क्यों आयोजित किये गये? इनके कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
प्रथम गोलमेज सम्मेलन का आयोजन 12 नवम्बर, 1930 को हुआ। सम्मेलन की अध्यक्षता ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने की थी। इस सम्मेलन में 89 प्रतिनिधियों ने भाग लिया। इसमें ब्रिटेन के तीनों दलों का प्रतिनिधिमंडल करने वाले 16 ब्रिटिश संसद सदस्य, ब्रिटिश भारत के 57 प्रतिनिधि जिन्हें वायसराय ने मनोनीत किया था तथा देशी रियासतों के 16 सदस्य सम्मिलित थे। काँग्रेस ने इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था। काँग्रेस की अनुपस्थिति पर ब्रेल्सफोर्ड ने कहा, “सेन्ट जेम्स महल में भारतीय नरेश, हरिजन, सिक्ख, मुसलमान, हिन्दू, ईसाई और जमींदारों, मजदूर संघों और वाणिज्य संघों सभी के प्रतिनिधि इसमें सम्मिलित हुये पर भारत माता वहाँ उपस्थित नहीं थी।
गाँधी-इरविन समझौता-प्रथम गोलमेज सम्मेलन असफल रहा। 19 जनवरी, 1931 को बिना किसी निर्णय के यह समाप्त कर दिया गया। यह स्पष्ट हो गया कि काँग्रेस के बिना कोई संवैधानिक निर्णय नहीं लिया जा सकता है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड तथा इरविन दोनों को ज्ञात हो गया कि काँग्रेस के बिना किसी संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। देश में उचित वातावरण बनाने के लिए इरविन ने काँग्रेस से प्रतिबंध हटा दिया तथा गाँधीजी तथा अन्य नेताओं को छोड़ दिया। अंततः 5 मार्च, 1931 को गाँधी तथा इरविन में समझौता हो गया। सविनय अवज्ञा आंदोलन वापस हो गया व द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में काँग्रेस ने भाग लेना स्वीकार कर लिया।
दूसरा गोलमेज सम्मेलन-गाँधी-इरविन समझौता के तहत दूसरे गोलमेज सम्मेलन में काँग्रेस को भाग लेना था। काँग्रेस की ओर से एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में महात्मा गाँधी ने भाग लिया। मुस्लिम लीग ने मुहम्मद अली जिन्ना ने भाग लिया। 7 सितम्बर, 1931 ई० को दूसरा गोलमेज सम्मेलन आरंभ हुआ। गाँधीजी 12 सितम्बर को लंदन पहुँचे। विभिन्न दल व वर्ग अपना-अपना हित देख रहे थे। गाँधीजी ने कहा, “अन्य सभी दल साम्प्रदायिक हैं। काँग्रेस ही केवल सारे भारत और सब हितों के प्रतिनिधित्व का दावा कर सकती है।”
तीसरा गोलमेज सम्मेलन-भारत मंत्री ने तीसरा गोलमेज सम्मेलन बुलाया। यह सम्मेलन 17 नवम्बर, 1932 ई० से 24 दिसम्बर, 1932 ई० तक चला। काँग्रेस ने इसमें भाग नहीं लिया क्योंकि सभी नेता जेल में बंद थे।
प्रश्न 4.
माउंटबेटन योजना क्या थी ? इसके प्रमुख प्रावधान क्या थे ?
अथवा, माउंटबेटन योजना क्या थी ? इसके प्रमुख परिणामों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
- 3 जून, 1947 को लार्ड माउंटबेटन ने भारत विभाजन योजना रखी। इसमें संविधान सभा का कार्य जारी रखने को कहा गया। यह भी कहा गया कि यह संविधान उन पर लागू नहीं होगा।
- पंजाब व बंगाल का विधानमंडल मुस्लिम और गैर-मुस्लिम जिलों के अनुसार बाँटा जायेगा।
- ब्लूचिस्तान के लोगों को आत्म-निर्णय लेने का अधिकार होगा।
- पंजाब, बंगाल सिलहट में संविधान सभा के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव होगा और भारतीय राजाओं को संप्रभुसत्ता लौटा दी जायेगी।
प्रावधान (Provisions)-
- इसमें कहा गया कि ब्रिटिश सरकार 15 अगस्त, 1947 को भारत की सत्ता ऐसी सरकार को सौंपेगी जिसका निर्माण जनता की इच्छा के अनुसार हुआ हो।
- वर्तमान संविधान सभा में सरकार किसी प्रकार की बाधा नहीं डालेगी।
- संविधान को उन भागों में लागू किया जायेगा जो उसे लागू करना चाहेंगे।
- इस योजना के अनुसार भारत को दो अधिराज्यों में बाँट दिया जायेगा; भारत और पाकिस्तान दोनों को 15 अगस्त 1947 को स्वतंत्रता दे दी जायेगी।
- यह तय किया गया कि बंगाल और पंजाब में विधान सभाओं के अधिवेशन दो भागों में किए जाएंगे। एक भाग में मुस्लिम बहुमत जिलों के प्रतिनिधि होंगे और दूसरे भाग में हिंदू बहुमत जिले के। प्रत्येक भाग बहुमत के आधार पर फैसला करेगा कि वह उस भाग का विधान चाहते हैं या नहीं।
- सिंध का विधान-सभा तय करे कि वह भारत की संविधान सभा में मिलना चाहती है या नहीं।
- असम के मुस्लिम बहुल प्रांत सिलहट जिले में इस बात का निर्णय जनमत संग्रह द्वारा लिया जायेगा कि वहाँ की जनता समय में या पूर्वी बंगाल (बंगला देश) में रहना चाहती है।
- बलूचिस्तान भी तय करे कि वह भारत में रहेगा या अलग।
- उत्तर-पश्चिम प्रांत में जनमत द्वारा निर्णय होगा।
- यदि बंगाल, पंजाब और असम के द्वारा भारत का विभजन मान लिया जाए तो भारत और पाकिस्तान की सीमाएँ तय करने के लिए गवर्नर जनरल एक कमीशन बनाएगा।
- भारत और पाकिस्तान राज्यों के बीच लेन-देन विभाजन के लिए भी समझौता होगा।
- देशी रियासतों को भी भारत या पाकिस्तान में अपनी इच्छानुसार मिलने की छूट होगी।
- भारत और पाकिस्तान को राष्ट्रमंडल की सदस्यता रखने या छोड़ने का अधिकार होगा।
प्रश्न 5.
1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम की मुख्य विशेषताओं पर विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 (India IndependenceAct, 1947) – माउंटबेटन योजना को 18 जुलाई को ब्रिटिश सम्राट ने विधिवत् स्वीकृति दे दी। इस अधिनियम में कुल 20 धारायें थीं। इनमें से कुछ प्रमुख धाराओं को नीचे बतलाया गया है-
- 15 अगस्त, 1947 को भारत और पाकिस्तान नामक दो हिस्से बना दिये जायेंगे और ब्रिटिश सरकार उन्हें सत्ता सौंप देगी।
- दोनों अधिराज्यों का वर्णन किया गया और यह भी बतलाया गया कि बंगाल और पंजाब की विभाजन रेखा निश्चित करने के लिए एक सीमा आयोग होगा।’
- दोनों अधिराज्यों की संविधान सभाओं को शासन की सत्ता सौंपी जायेगी। इन्हें अपना संविधान बनाने का पूर्ण अधिकार होगा।
- इन दोनों अधिराज्यों को अधिकार होगा कि वे ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के सदस्य रहें या उसे त्याग दें।
- दोनों के लिए अलग-अलग एक गवर्नर जनरल होगा जिसकी नियुक्ति उनके मंत्रिमंडल की सलाह से होगी।
- इन हिस्सों के विधानमंडल को कानून बनाने का अधिकार होगा। 15 अगस्त, 1947 के बाद ब्रिटिश सरकार का इन पर कोई अधिकार न होगा, न ही उसका कोई कानून लागू होगा।
- भारत मंत्री का पद समाप्त कर दिया जायेगा।
- जब तक दोनों संविधानों का निर्माण हो तब तक दोनों हिस्सों और प्रांतों का शासन 1935 के भारत शासन अधिनियम के अनुसार चलेगा, परंतु इन पर गर्वनर जनरल, प्रांतीय गवर्नर का कोई विशेषाधिकार न रहेगा।
- जब तक नए विधान के अनुसार चुनाव होंगे, वर्तमान प्रांतीय विधानमंडल कार्य करेंगे।
- 15 अगस्त, 1947 से ब्रिटिश सरकार की देशी रियासतों पर सर्वोच्चता को समाप्त कर दिया जायेगा। इसके पश्चात् देशी रियासतें नवीन अधिराज्यों से अपने राजनीतिक संबंध स्थापित करने में स्वतंत्र होंगी। अब वे इच्छानुसार भारत और पाकिस्तान में चाहे मिल सकती हैं अथवा स्वतंत्र रह सकती हैं।
- भारतीय नागरिक सेवाओं के सदस्य अधिकारों को बनाए रखा जाए।
प्रश्न 6.
भारत का विभाजन क्यों हुआ ?
अथवा, 1947 में भारत के विभाजन के कारणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
कई नेताओं के न चाहने पर भी भारत विभाजन को रोका नहीं जा सका। इसके लिए निम्नलिखित कारक उत्तरदायी थे-
- सन् 1909 के कानून में मुसलमानों के लिए निर्वाचन का अधिकार देकर अंग्रेजों ने उन्हें हिन्दओं से अलग करने का प्रयास किया। ‘फट डालो और शासन करो’ की नीति से मस्लिम लीग की पाकिस्तान की मांग भी और तेजी से बढ़ती गई।
- काँग्रेस ने मुस्लिम लीग के साथ सदा समझौता करने की नीति अपनाई। इससे मुस्लिम लीग को यह आशा हो गई कि यदि वह अपनी माँग पर डटी रही, तो एक न एक दिन पाकिस्तान की माँग मान ली जाएगी।
- मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना की हठधर्मिता के कारण हिन्दू-मुस्लिम दंगे भड़क उठे, अतः विवश होकर भारत का विभाजन स्वीकार कर लिया गया।
- साम्प्रदायिक दंगों ने स्थान-स्थान पर नेताओं और जनता को अत्याचार बंद करने को लाचार कर दिया था, अन्यथा पूरा देश रक्त के सागर में डूब जाता।
- सन् 1946 में अंतरिम सरकार में शामिल होने पर मुस्लिम लीग ने काँग्रेस की योजनाओं में रुकावट डालनी प्रारम्भ कर दी। काँग्रेस के नेताओं को भी लगने लगा कि वे मुस्लिम लीग पार्टी के साथ मिलकर सरकार नहीं चला पाएँगे।
- लार्ड माउंटबेटन भारत में राजनैतिक समस्याओं को सुलझाने के लिए यहाँ का वायसराय बनकर आया था। उसने अपने प्रभाव से काँग्रेस पार्टी को विभाजन के लिए तैयार कर लिया था।
प्रश्न 7.
भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के योगदान का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में महात्मा गाँधी की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में इनका स्थान सर्वोच्च है। भारत की स्वाधीनता उन्हीं की भूमिका का फल है। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में एक नये युग का निर्माण किया और जीवन के अंतिम क्षण तक देश सेवा तथा राष्ट्रीय आंदोलन का पथ-प्रदर्शन करते रहे। इसी कारण उन्हें ‘राष्ट्रपिता’ कहा जाता था। वे शांति के दूत थे। सत्य और अहिंसा उनके हथियार थे। उनका आंदोलन इसी पर आधारित था।
वैसे तो 1914 ई० में उन्होंने भारतीय राजनीति में प्रवेश किया था लेकिन 1919 ई० में अत्यंत प्रभावशाली ढंग से राष्ट्रीय आंदोलन को प्रभावित करना शुरू किया और अन्त तक राष्ट्रीय आंदोलन के प्राण बने रहे। 1920 ई० से 1947 ई० तक भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की बागडोर उन्हीं के हाथों में रही। इस अवधि में राष्ट्रीय संग्राम के सर्वोच्च नेता के रूप में भारतीय राजनीति का उन्होंने मार्ग दर्शन किया, उसने साधन दिये, उसको नया दर्शन दिया और उसे सक्रिय बनाया। इसी कारण इस अवधि को ‘गाँधी युग’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने असहयोग आन्दोलन करते हुए भारत को स्वतंत्रता दिलाई। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को जन-आंदोलन का रूप दिया।
1919 ई० में उन्होंने ‘रॉलेट ऐक्ट’ के विरोध स्वरूप देश व्यापी आंदोलन छेड़ा। जालियाँवाला बाग कांड के बाद आंदोलन को और तीव्र रूप दिया। उन्होंने खिलाफत आंदोलन में भाग लेकर मुसलमानों का दिल जीत लिया। वे हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य और अस्पृश्यता के पक्के विरोधी थे। वे क्रांतिकारी तथा आतंकवादी आंदोलन के भी विरोधी थे।
1 अगस्त, 1920 ई० को अंग्रेजी राज्य का अंत करने के लिए ‘असहयोग आंदोलन’ छेड़ा जिसके तहत विद्यार्थियों ने स्कूल, कॉलेज छोड़ा, वकीलों ने वकालत छोड़ी तथा कई लोग नौकरियाँ छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। वे अहिंसा के इतने बड़े पोषक थे कि जब 1922 ई० में चौरा-चौरी काँड में थाने में आग लगाकर 22 सिपाहियों की हत्या कर दी गई तो दुखित होकर उन्होंने आंदोलन को स्थगित कर दिया । गाँधीजी को कैद कर जेल भेज दिया गया। बाद में अस्वस्थता के आधार पर 1924 ई० में उन्हें जेल से रिहा किया गया।
1927 ई० में जब साइमन कमीशन (जिसके सभी सदस्य अंग्रेज थे) भारत की राजनीतिक स्थिति का जायजा लेने भारत आया तो गाँधीजी के नेतृत्व में समूचे देश में इसका बहिष्कार किया गया। 1930 ई० में अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध ‘सविनय अवज्ञा आन्दोलन’ शुरू किया गया। मार्च 1930 ई० में ‘दांडी यात्रा’ कर नमक कानून को तोड़ा और उस कानून में संशोधन के लिए सरकार को बाध्य किया। दिसम्बर 1931 ई० में गाँधीजी गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने इंगलैंड गये। इसकी असफलता पर इंगलैंड से लौटकर 1932 ई० में पुनः सविनय अवज्ञा आन्दोलन चालू कर दिया।
8 अगस्त 1932 ई० को ब्रिटिश सरकार द्वारा ‘साम्प्रदायिक निर्णय’ की घोषणा के विरुद्ध गाँधीजी ने 20 सितम्बर 1932 ई० में आमरण अनशन शुरू कर दिया। गाँधीजी का जीवन बचाने के लिए गणमान्य नेताओं ने बैठकर एक समझौता किया (जिसमें हरिजन नेता डॉ० अम्बेदकर भी थे), जिसे ‘पूना समझौता’ कहा जाता है। 26 सितम्बर 1932 ई० को इसपर गाँधीजी की मुहर लग गई और तब गाँधीजी ने अपना अनशन तोड़ा।
उसके बाद उन्होंने सारा ध्यान सक्रिय राजनीति से हटाकर हरिजनों की सेवा और उनके उत्थान में लगाया। उन्होंने 1934 ई० के बम्बई अधिवेशन में काँग्रेस से त्याग-पत्र दे दिया लेकिन 1935 ई० से वे पुनः सक्रिय राजनीति में दिलचस्पी लेने लगे। 1940 ई० में गाँधीजी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया। द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ने के समय अंग्रेजों ने सत्ता हस्तांतरण का प्रलोभन देकर भारतीयों का सहयोग प्राप्त किया था लेकिन जब अंग्रेज अपने वादे से मुकरने लगे तो 7 अगस्त, 1942 ई० को गाँधीजी ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का नारा दिया और आंदोलन शुरू कर दिया। 8 अगस्त, 1942 ई० को गाँधीजी सहित कई नेताओं को कैद कर लिया गया। उसी समय उनकी पत्नी कस्तूरबा बाई का देहान्त हो गया। मई 1944 ई० में अस्वस्थता के कारण उन्हें जेल से रिहा कर दिया गया।
1946 में मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान की माँग दुहराई। कई जगह साम्प्रदायिक दंगे हुए। पूर्वी बंगाल में यह दंगा भीषण रूप धारण कर लिया। गाँधीजी ने घूम-घूमकर साम्प्रदायिक एकता बनाये रखने की अपील की। नवम्बर 1946 ई० से फरवरी 1947 ई० तक गाँधीजी ने बंगाल के नोखाअली जिले में गाँव-गाँव घूमकर दंगा पीड़ितों की सेवा की और सहायता कर साम्प्रदायिक अग्नि को शांत करने की कोशिश की। मार्च 1947 ई० से मई 1947 तक बिहार के दंगा पीड़ित क्षेत्रों का दौरा किया। जब वे कलकत्ता में दंगा की आग बुझा रहे थे उसी समय ‘माउन्टबेटन योजना’ के अन्तर्गत 15 अगस्त, 1947 ई० को भारत को आजाद कर दिया गया। 30 जनवरी 1948 ई० को बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे नामक एक युवक ने प्रार्थना सभा में उन्हें गोलियों का शिकार बना दिया। इस घटना से सम्पूर्ण विश्व मर्माहत हो गया।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में गाँधीजी की भूमिका अत्यंत ही महत्वपूर्ण रही जिसे देश कभी भुला नहीं सकता है। उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को व्यापक बनाया तथा जन-आंदोलन का रूप दिया। उन्होंने शांति, सत्य तथा अहिंसा को आधार बनाकर आंदोलन को एक नया रूप दिया। उन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ने के लिए असहयोग, सविनय अवज्ञा आंदोलन जैसे सकारात्मक कार्यक्रमों को अपनाया। उन्होंने स्वतंत्रता का बिगुल बजाकर जनता में जागृति पैदा कर उसमें नई जान फूंक दी और लोग मुक्ति हेतु उद्यत हो गये। उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के मार्ग में आये संकटों तथा गतिरोधों को दूर कर आंदोलन की दिशा प्रदान की। इस प्रकार उनकी देन सर्वोपरि एवं अमूल्य है। देश को आजादी दिलाने में उनका सर्वोपरि स्थान है। माउन्टबेटन ने कहा था ‘जिस कार्य को पचास हजार हथियारबन्द सिपाही नहीं कर सके, उसको गाँधीजी ने कर दिखाया, उन्होंने वहाँ शान्ति की स्थापना की। वे अकेला हजारों के समान हैं।”
प्रश्न 8.
आधुनिक भारत के निर्माण में डॉ० बी० आर० अम्बेडकर की देनों का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
डॉ० भीमराव अंबेडकर उस तेजपुंज का नाम है जो प्रकाश ही प्रकाश देता है, लेकिन जलाता नहीं। जीवन को समरसता से ग्रहण करते एवं विसंगतियों से संघर्ष करते हुए अपनी निन्दा एवं स्तुति से आत्मशोध की यात्रा में सदा अग्रसर होने वाले महान सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतक बाबा साहब अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 ई० में महाराष्ट्र के महू नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम रामजी सकपाल और माता का नाम भीमाबाई था। ये अपने माता-पिता के चौदहवीं संतान थे। ये महार जाति के थे और उस समय महार को अछूत समझा जाता था। अम्बेडकर ने बचपन से ही अछूत होने की पीड़ा को भोगा था और उनका बाल-मन उसी काल से इस दुर्व्यवस्था से आक्रांत हुआ था। मानवमात्र की सेवा में अपने को समर्पित करने वाला व्यक्तित्व दलितों, दुखियों, शोषितों एवं पीड़ितों की दर्दभरी मूक भाषा को अमर स्वर प्रदान करने वाला महामानव समाज में कभी-कभी ही आविर्भूत होता है और वह जन-जन के मन में परमेश्वर की तरह आराध्य बन जाता है। अम्बेडकर उन्हीं प्रतिभाओं में से एक थे।
बचपन से ही ये मेधावी और गहन चिंतक छात्र थे। चौदह वर्ष की उम्र में ही इनका विघाह रामाबाई से हो गया। इसके बाद वे पिता के साथ 1905 ई० में मुम्बई आ गए और 1907 ई० में मैट्रिक की परीक्षा पास की। 1912 ई० में इन्होंने बी० ए० की परीक्षा पास की। ये उच्च शिक्षा के लिए लालायित थे पर आर्थिक कठिनाई रास्ते में रूकावट बनी हुई थी। बड़ौदा नरेश ने मेधावी छात्र की प्रतिभा को कुंठित होते हुए देखा, तो उन्होंने आर्थिक सहायता देना स्वीकार किया। 1913 ई० में अम्बेडकर बड़ौदा नरेश की सहायता से अमेरिका चले गये। 1915 में इन्होंने वहाँ एम० ए० की डिग्री प्राप्त की और 1916 ई० में इन्हें पी० एच० डी० की डिग्री से सम्मानित किया गया। इसके बाद वे इंगलैण्ड और जर्मनी भी गए जहाँ उन्होंने डी० एस. और ‘बारर एट लॉ’ की डिग्री प्राप्त की। यहीं पर अम्बेडकर ने संसदात्मक प्रजातंत्र उदारवादी प्रजातंत्र पर गहन अध्ययन किया। इसी अध्ययन-क्रम में वे संसारभर के देशों के संविधानों से परिचित हुए।
अपने देश लौटने पर इन्होंने 1920 ई० में कोल्हापुर के महाराजा की सहायता से ‘मूक नन्ह’ नामक पत्रिका का सम्पादन आरंभ किया, जिसमें सामाजिक विकृतियों पर करारा प्रहार किया। सन् 1923 से 1931 तक का समय अम्बेडकर के लिए कठोर संघर्ष और अभ्युदय का था। इसी बीच वे दलितों के नेता एवं प्रवक्ता के रूप में उभरकर सामने आए। इन्होंने गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया और अंग्रेज शासक से दलितों की गई माँग भारतीय दलितों को इन्होंने कहा-शिक्षित बनो, संघर्ष करो, संगठित रहो।
1935 ई० में इनकी धर्मपनी का देहांत हो गया। इसी साल इन्होंने धर्म परिवर्तन की घोषणा की। इन्होंने बहिष्कृत हितकारी सभा, सिद्धांत महाविद्यालय एवं स्वतंत्र मजदूर की स्थापना की। 1946 ई० तक अम्बेडकर की ख्याति देश के एक कोने से दूसरे कोने तक फैल गयी थी। 1947 ई० में नेहरूजी के मंत्रिमंडल में इन्हें कानून मंत्री बनाया गया। 21 अगस्त, 1950 ई० को इन्होंने भारत का संविधान राष्ट्र को समर्पित कर दिया। इसी साल वे कोलम्बो गए और दिल्ली में अम्बेडकर भवन का शिलान्यास किया। 1956 ई० में उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया और 6 दिसम्बर, 1956 ई० को ही इस महामानव का महापरिनिर्वाण हुआ।
वे अछूतों और दलितों के मसीहा, उद्धारकर्ता और पथ-प्रदर्शक थे। 1990-91 ई० में इनकी जन्म-शताब्दी धूम-धाम से मनायी गयी और भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित की गई। दलितों को समान अधिकार देना और उनका यथोचित उत्थान करना ही बाबा साहब की सच्ची श्रद्धांजलि 155 होगी। भारत के दलितों एवं पीड़ितों को उन्होंने जो जीवन-संदेश दिया था-‘उठकर आगे बढ़ो’ आज उससे सबों के हृदयतंत्र झंकृत हो रहे हैं और उनमें से मधुर संगीत का स्वर फुट रहा है।
प्रश्न 9.
संविधान सभा का गठन कैसे हुआ? संविधान सभा में उठाये गये महत्वपूर्ण मुद्दों का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान (Indian Constitution) – भारतीय संविधान का निर्माण 26 नवम्बर, 1949 ई० को हुआ। इसका निर्माण एक संविधान सभा ने किया जिसका निर्वाचन 1946 ई. की कैबिनेट मिशन योजना के अंतर्गत हुआ था। संविधान सभा के कुल 296 सदस्यों में से 211 काँग्रेस के तथा 73 मुस्लिम लीग के थे। संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसम्बर, 1946 ई० को डॉ० सच्चिदानन्द सिन्हा की अध्यक्षता में हुई। 11 दिसम्बर, 1946 ई० को स्थायी अध्यक्ष चुने गये। इसके बाद एक संविधान प्रारूप समिति बनायी गयी जिसके अध्यक्ष डॉ० भीमराव अम्बेडकर थे। 26 नवम्बर, 1949 ई० को 2 वर्ष, 11 माह, 18 दिन के बाद संविधान बनकर तैयार हुआ और इसे 26 जनवरी, 1950 ई० को लागू किया गया।
संविधान का स्वरूप तैयार करने वाली ऐतिहासिक ताकतें – (i) संविधान का स्वरूप तय करने वाली प्रथम ऐतिहासिक ताकत भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस थी जिसने देश के संविधान को लोकतांत्रिक गणराज्य, धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने में भूमिका अदा की थी।
(ii) मुस्लिम लीग ने देश के विभाजन को बढ़ावा दिया परंतु उदारवादी मुसलमान और वे मुस्लिम जो भारत विभाजन के विरोधी थे और विभाजन के बाद भी विभिन्न दबाव समूहों या राजनैतिक दलों से जुड़े रहे, उन्होंने भी भारत को धर्मनिरपेक्ष बनाए रखने तथा सभी नागरिकों कॊ अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाये रखने में संविधान के माध्यम से आश्वस्त किया।
(iii) दलित या तथाकथित दलित और हरिजनों के समर्थक नेताओं ने संविधान को कमजोर वर्गों के लिए सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक समानता और न्याय दिलाने वाला आरक्षण की व्यवस्था करने वाला, छुआछूत का उन्मूलन करने वाला स्वरूप प्रदान करने में योगदान दिया।
(iv) समाजवादी विचारधारा या वामपंथी विचारधारा वाले लोगों ने संविधान में समाजवादी ढाँचे की सरकार बनाने, भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने और धीरे-धीरे समान काम के लिए समान वेतन, बंधुआ मजदूरी समाप्त करने, जमींदारी उन्मूलन आदि की व्यवस्थायें करने के लिए वातावरण या संवैधानिक व्यवस्थायें तय करने में योगदान दिया।
(v) एन० जी० रांगा और जयपाल सिंह जैसे आदिवासी नेताओं ने संविधान का स्वरूप तय करते समय इस बात की ओर ध्यान देने के लिए जोर दिया कि उनके समाज का गैर मूलवासियों द्वारा शोषण हुआ है। इसलिए आदिवासियों की सुरक्षा तथा उन्हें आम आदमियों की दशा में लाने के लिए संविधान में आवश्यक परिस्थितियाँ बनाने की आवश्यकता है।
प्रश्न 10.
संविधान सभा ने भाषा के विवाद को हल करने के लिए क्या रास्ता निकाला?
उत्तर:
भाषा के विवाद को हल करने के उपाय (Methods or Measures to solve the Language Problem)-
(i) भारत प्रारंभ से ही एक बहुत भाषा-भाषी देश है। देश के विभिन्न प्रांतों और हिस्सों में लोग अलग-अलग भाषाओं का प्रयोग करते हैं, बोलियाँ बोलते हैं। जिस समय संविधान सभा के समक्ष राष्ट्र की भाषा का मामला आया तो इस मुद्दे पर अनेक महीनों तक गरमा-गर्म बहस हुई, कई बार काफी तनाव पैदा हुए।
(ii) आजादी से पूर्व 1930 के दशक तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने यह स्वीकार कर लिया था कि हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का मानना था कि प्रत्येक भारतीय को एक ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे लोग आसानी से समझ सकें। हिंदी और उर्दू के मेल से बनी हिंदुस्तानी भारतीय जनता की बहुत बड़े हिस्से की भाषा थी और अनेक संस्कृतियों के आदान-प्रदान से समृद्ध हुई एक साझी भाषा थी।
(iii) जैसे-जैसे समय बीता, हिंदुस्तानी भाषा ने अनेक प्रकार के स्रोतों से नए-नए शब्द अपने में समा लिए और उसे आजादी के आने तक बहुत सारे लोग समझने लगे। गाँधीजी को ऐसा लगता था कि यही भाषा देश के समुदायों के बीच आचार-विमर्श का माध्यम बन सकती है। हिंदू और मुस्लमानों को एकजूट कर सकती है।
(iv) दुर्भाग्यवश हिंदी और उर्दू पर साम्प्रदायिकता, साम्प्रदायिक दंगों और साम्प्रदायिकता से प्रेरित राजनीति और धार्मिक संकीर्णता का कुप्रभाव पड़ने लगा। हिंदी और उर्दू परस्पर दूर होती जा रही थी। मुसलमान फारसी और उर्दू से ज्यादा से ज्यादा शब्द हिंदी से मिला रहे थे तो अनेक हिंदू भी संस्कृतनिष्ठ शब्दों को ज्यादा से ज्यादा हिंदी में ले रहे थे। परिणाम यह हुआ कि भाषा भी धार्मिक पहचान का राजनतिक हिस्सा बन गई। लेकिन महात्मा गाँधी जैसे महान नेताओं के हिंदुस्तानी (भाषा) के साझे चरित्र में आस्था कम नहीं हुई।
(v) संयुक्त प्रांत के एक कांग्रेसी सदस्य आर० वी० धुलेकर ने आवाज उठाई थी, हिंदी को संविधान बनाने की भाषा के रूप में प्रयोग किया जाए। धुलकर ने उन लोगों का विरोध किया जिन्होंने यह तर्क दिया कि संविधान सभा के सभी सदस्य हिंदुस्तानी भाषा नहीं समझते।।
आर० वी० धुलेकर ने कहा था, “इस सदन में जो लोग भारत का संविधान रचने बैठे हैं और हिंदुस्तानी नहीं जानते वे इस सभा की सदस्यता के पात्र नहीं हैं। उन्हें चले जाना चाहिए।”
(vi) धुलकर की टिप्पणियों से संविधान सभा में हंगामा खड़ा हो गया। अंत में जवाहरलाल के हस्तक्षेप से संविधान सभा में शांति स्थापित हुई। लगभग तीन वर्षों के बाद 12 सितम्बर, 1947 को राष्ट्र की भाषा के प्रश्न पर आर. वी. धुलेकर के भाषण ने एक बार फिर तूफान खड़ा कर दिया। तब तक संविधान सभा की भाषा समिति अपनी रिपोर्ट पेश कर चुकी थी। समिति ने राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर हिंदी के समर्थकों और विरोधियों के बीच पैदा हो गए गतिरोध को तोड़ने के लिए फार्मूला विकसित कर लिया था। समिति ने सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिर्दै भारत की राजकीय भाषा होगी परंतु इस फार्मूले को समिति ने घोषित नहीं किया था।
(vii) भाषा संबंधी समिति का यह विचार था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के मामले में हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए।
(viii) कुछ लोगों का विचार था कि संविधान लागू होने के बाद लगभग पंद्रह वर्षों के बाद तक ब्रिटिश काल की तरह सरकारी कामकाज में अंग्रेजी को जारी रखा जाए। हर प्रांत को अपने कार्यों के लिए कोई एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा। संविधान सभा की समिति ने हिंदी को राष्ट्रभाषा की बजाय राज भाषा कहकर विभिन्न पक्षों की भावना को शांत करने और सर्वस्वीकृत समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया था।
(ix) आर० बी० धुलेकर ने उन लोगों का मजाक उड़ाया जो गाँधी का नाम लेकर हिंदी की बजाय हिंदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाना चाहते थे। मद्रास के सदस्य श्रीमती दुर्गाबाई ने आर० बी० धुलेकर के वक्तव्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि, “अध्यक्ष महोदय, गैर हिंदी भाषायी क्षेत्रों के लोगों को यह महसूस कराया जा रहा है कि भाषा संबंधी झगड़ा या हिंदी भाषा क्षेत्रों का यह दृष्टिकोण वस्तुतः एक राष्ट्र की सांझी संस्कृति पर भारत की दूसरी उन्नत भाषाओं के स्वाभाविक प्रभाव को रोकने की लड़ाई बनाई जा रही है।” उन्होंने आगे कहा हिंदी के लिए हो रहा यह प्रचार प्रांतीय भाषाओं की जड़ें खोदने के प्रयास के तुल्य हैं।”
अंततः कुछ सदस्यों ने दक्षिण भारत से जिनमें महाराष्ट्र, मद्रास आदि के सदस्यों के प्रयासों से सम्पूर्ण सदस्यों को यह अहसास करा दिया कि हिंदी के लिए जो भी किया जाए, बड़ी सावधानी से किया जाए तभी इस भाषा का भला हो जाएगा। सभी सदस्यों ने हिंदी की हिमायत को स्वीकार किया लेकिन इनके वर्चस्व को अस्वीकार कर दिया।
कालांतर में देश की सभी क्षेत्रीय भाषाओं को सूचीबद्ध किया गया। शिक्षा के क्षेत्र में राष्ट्रभाषा बनाए जाने के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेजी को वर्षों तक सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया। हिंदी अधिकांश राज्यों की प्रमुख भाषा है लेकिन इसका प्रचार अब लोकतांत्रिक ढंग से स्वयं होता जा रहा है। जनसंचार माध्यम, दूरदर्शन, रेडियो, प्रेस, साहित्य, फिल्में इसके प्रचार-प्रसार में प्रशंसनीय योगदान दे रहे हैं।