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Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
हैजा रोग के लक्षण एवं फैलने के कारण बताएँ।
उत्तर:
यह रोग बेसिलस जीवाणु द्वारा फैलता है जो ‘बिब्रियो कोम’ के नाम से जाना जाता है। यह रोग बहुत तीव्र गति से संक्रमित होता है। इसलिए महामारी का रूप धारण करता है। यह गर्मी तथा बरसात के दिनों में अधिक होता है।

लक्षण-

  • रोगी को उल्टी तथा पतले दस्त आते हैं।
  • रोगी को पेट में दर्द रहता हैं।
  • आँखें पीली पड़ जाती है।
  • उसे अधिक ठंढ लगती है और अधिक प्यास लगती है और मूत्र का आना बंद हो जाता है या बहुत कम मात्रा में आता है।
  • उचित समय पर इलाज न करने पर शरीर में पानी की कमी हो जाती है और निर्जलीकरण हो जाता है।

फैलने के कारण-

  • संक्रमित जल, दूध अथवा पेय पदार्थ
  • अस्वच्छता का वातावरण
  • रोगी के गंदे वस्त्र
  • हैजे के रोगी की देखभाल कर रहे व्यक्ति की अस्वच्छता द्वारा।

प्रश्न 2.
कुकर खाँसी के लक्षण, उपचार एवं रोकथाम लिखें।
अथवा, रात को तेज खाँसी है तथा उसमें ‘बू’ की आवाज भी है। वह किस रोग से ग्रस्त है ? इस रोग के दो अन्य लक्षण लिखिए तथा इस रोग से कैसे बचा जा सकता है ?
उत्तर:
कुकर खाँसी (Whooping Cough or Pertusis)- यह रोग बैसीलस परट्यूसिस (Bacillus Pertusis) नामक जीवाणु के संक्रमण द्वारा विशेषकर बच्चों में होता है।

लक्षण-

  1. प्रारंभ में बच्चे को खाँसी आने लगती है जो बाद में बढ़कर गम्भीर रूप धारण कर लेती है।
  2. खाँसी के साथ-साथ बच्चे को छींके आना, नाक बहना व आँखों से पानी निकलने लगता है।
  3. खाँसते-खाँसते बच्चों का मुँह लाल हो जाता है और कई बार वह वमन भी कर देता है।
  4. बच्चे को खाँसी के साथ छाती से एक विशेष प्रकार की आवाज भी निकलती है जिसके कारण इसे Wooping Cough कहते हैं।
  5. खाँसी के साथ हल्का बुखार भी रहता है।

उपचार एवं रोकथाम-

  1. लक्षण दिखाई देने पर डॉक्टर को दिखाना चाहिए।
  2. रोगी बच्चे को स्वस्थ बच्चों से अलग रखना चाहिए।
  3. रोगी बच्चे की ठण्ड व सीलन से रक्षा करनी चाहिए तथा उन्हें हवादार कमरे में रखना चाहिए।
  4. रोगी को हल्का व आसानी से पचने वाला भोजन देना चाहिए।
  5. शिशु को सही समय व अन्तराल का डी० पी० टी० के टीके लगवाने चाहिए।
  6. रोगी के वस्त्रों, वस्तुओं व कमरे आदि को विसंक्रमित करना चाहिए।

प्रश्न 3.
पोलियो रोग के लक्षण, उपचार एवं रोकथाम के बारे में लिखें।
उत्तर:
पोलियो- यह रोग प्राय: 1-2 वर्ष के बच्चों में अधिक होता है। यह रोग विषाणुओं के संक्रमण के कारण होता है।
लक्षण-

  • पोलियो का आरम्भ बच्चे को तेज बुखार चढ़ने के साथ होता है।
  • इस रोग के विषाणु बच्चे के तंत्रिका तन्त्र को प्रभावित करते हैं जिससे प्रभावी अंग लगभग बेकार हो जाता है और सूखने लगता है।

उपचार व रोकथाम-

  • बच्चे को ठीक समय पर तथा सही अन्तराल पर पोलियो की प्रतिरोधक दवाई बूंदों के रूप में अवश्य देनी चाहिए।
  • भारत सरकार पोलियो जैसी शरीर असमर्थता पैदा करने वाली बीमारी से बच्चों को बचाने के लिए पोलियो पल्स (Polio Pulse) कार्यक्रम द्वारा प्रत्येक छोटे बच्चे को पोलियो की दवा निःशुल्क देती है।

प्रश्न 4.
क्षय रोग क्या होता है ? इसके कारण लक्षण व उपचार के बारे में बताएँ।
उत्तर:
क्षय रोग दीर्घकालीन बैक्टीरिया से उत्पन्न बीमारी है। इस रोग को टी० बी० (तपेदिक) या ट्यूबरक्लुलोसिस भी कहा जाता है। वह रोग वायु के द्वारा फैलता है। यह रोग बहुत भयानक है जो शरीर के कई भागों में हो सकता है। जैसे-फेफड़ों का तपेदिक-जिसे टी० बी० कहते हैं, आंतों का तपेदिक, ग्रंथियों का तपेदिक, हड्डियों का तपेदिक (रीढ़ की हड्डी) मस्तिष्क का तपेदिक आदि।

रोग का कारण-

  • यह रोग सूक्ष्मदर्शी जीवाणु बैक्टीरियम (Micro-bacterium) तथा ट्यूबर्किल बेसिलस (Tubercele Bacillus) से फैलता है। यह जीवाणु सूर्य की किरणों से नष्ट हो जाता है।
  • भीड़-भाड़, खुली हवा की कमी तथा धूप की कमी से भी यह रोग फैलता है।
  • इस रोग का कारण, रोगी का गाय, भैंस का दध पीना भी है।
  • रोगी के मल, बलगम तथा खांसने से रोग फैलता है।
  • मक्खियाँ भी रोग फैलाने का कारण है।
  • माता-पिता को यदि तपेदिक हो तो बच्चों में इस रोग की संभावना हो जाती है।

संक्रमण कारक एवं उद्भव काल-

  • वायु।
  • संक्रमित प्राणियों को छोड़ी हुई श्वास द्वारा।
  • उद्भवकाल-कुछ सप्ताह के कुछ सालों तक की 4-6 सप्ताह।

मुख्य लक्षण-

  • कमजोरी व थकावट।
  • भार में कमी तथा हड्डियाँ दिखाई देना।
  • भूख में कमी।
  • हल्का ज्वर रहना तथा रात को पसीना आना।
  • खांसी, बलगम में खून आना।
  • छाती व गले में दर्द तथा सांस फूलना।
  • हृदय की धडकन कम हो जाना।
  • स्त्रियों में मासिक कम होना।

उपचार तथा रोकथाम-

  • दूध को दस मिनट तक उबालने पर टी० बी० के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं।
  • रोगी को खुली हवा, प्रकाश तथा पूरा आराम देना चाहिए।
  • रोगी को संतुलित एवं पौष्टिक आहार देना चाहिए।
  • डॉक्टर की सलाह से रोगी को स्ट्रैप्टोमाइसिन के टीके 2 1/2 महीने तक लगवाना चाहिए।
  • दवा के साथ A तथा D तथा कैल्शियम की गोलियाँ देना आवश्यक है।

रोकथाम-

  • रोगी को दूसरे लोगों से अलग रखना चाहिए।
  • घरों में सूर्य के प्रकाश तथा हवा का आवागमन रखना जरूरी है।
  • रोगी के विसर्जन को जला देना चाहिए।
  • बच्चों को जन्म के पश्चात् पहले माह के अंदर बी०सी०जी० का टीका लगाना चाहिए।
  • प्रसार माध्यम से इस रोग की जानकारी सभी लोगों को देनी चाहिए ताकि लोग जागरूक हों।

प्रश्न 5.
एक बालक के जन्म से एक वर्ष तक का सामाजिक विकास समझाये।
उत्तर:
जन्म के समय शिशु न सामाजिक होता है और न ही असामाजिक बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है। चाईल्ड के अनुसार, सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता है।

सामाजिक विकास की अवस्थाएँ-जन्म के समय बालक उस समय तक दूसरे बालकों में रूचि नहीं लेता है जब तक उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति सामान्य ढंग से होती है। दो माह की आयु तक बालक बहुत तीव्र उत्तेजनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करता है। तीन माह की आयु तक बालक विभिन्न ध्वनियों में भेद पहचानने लगता है। वह दूसरे के मुखमंडल की भाव-भंगिमाओं को समझने लगता है। चार माह का बालक समायोजन करने लगता है। पाँच-छ: माह की आयु में वह क्रोध तथा मित्रता का भाव समझने लगता है। आठ-नौ माह में वह वाणी संबंधी ध्वनियों का अनुसरण करने लगता है। एक वर्ष का बालक अपरिचितों को देखकर डरने लगता है।
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प्रश्न 6.
संवेगों के प्रकार संक्षिप्त रूप में समझाइए।
उत्तर:
संवेगों के प्रकार (Types of Emotions)- व्यक्ति के व्यवहार में किसी न किसी अंश में संवेग अवश्य विद्यमान होते हैं। जिस प्रकार सुगन्ध दिखाई न देने पर भी फूल में विद्यमान रहते हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे व्यवहार में संवेग व्याप्त रहते हैं। संवेग बच्चे की प्रसन्नता को बढ़ाने के साथ-साथ उसकी क्रियाशीलता को भी बढ़ाते हैं।

विभिन्न संवेगों को दो वर्गों में बाँटा जाता है-

  1. दुःखद संवेग (Unpleasent Emotions)-क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि।
  2. सुखद संवेग (Pleasent Emotions)-हर्ष, स्नेह, जिज्ञासा आदि।

1. दुःखद संवेग-
(i) क्रोध (Anger)- शैशवकाल में प्रदर्शित होने वाले सामान्य संवेगों में क्रोध सर्वप्रमुख है क्योंकि शिशु के पर्यावरण में क्रोध पैदा करने वाले अनेक उद्दीपन होते हैं। शिशु को बहुत जल्दी ही यह मालूम हो जाता है कि दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए या फिर अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए जोर से रोकर, चीखकर या चिल्लाकर अपना क्रोध प्रकट करना सबसे आसान तरीका है। यही कारण है कि शिशु केवल भूख या प्यास लगने पर ही नहीं रोता अपितु जब वह चाहता है कि उसकी माता उसे गोद में उठाए तब भी जोर-जोर से रोता है।

जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है तब अपने कार्य में बाधा डालने के परिणामस्वरूप भी गुस्सा करने लगता है, जैसे जब वह खिलौनों से खेलना चाहे उस समय उसे कपड़े पहनाना, उसे कमरे में अकेला छोड़ देना, उसकी इच्छा की पूर्ति न करना आदि।

प्रायः सभी बच्चों के गुस्सा होने के कारण अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु गुस्सा होने पर सभी एक-सा व्यवहार करते हैं जैसे रोना, चीखना, हाथ-पैर पटकना, अपनी सांस रोक लेना, जमीन पर लेट जाना, पहुँच के अन्दर जो भी चीज हो उसे उठाकर फेंकना या फिर ठोकर मारना आदि।

(ii) भय (Fear)- क्रोध के विपरीत, शिशु में भय पैदा करने वाले उद्दीपन अपेक्षाकृत कम होते हैं। शैशवावस्था में शिशु प्रायः निम्न स्थितियों में डरता है। अंधेरे कमरे, ऊँचे स्थान, तेज शोर, दर्द, अपरिचित लोग व जगह, जानवर आदि। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है उसके मन में भय की संख्या और तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है।

भय को बढ़ाने वाली निम्न दो स्थितियाँ हैं-
(i) अचानक तथा अप्रत्याशित स्थिति,
(ii) नई स्थिति।

(i) अचानक तथा अप्रत्याशित स्थिति- बच्चे के सामने जब कोई अप्रत्याशित स्थिति आती है तो वह अपने आप को उसके अनुरूप एकदम ढाल नहीं सकता है। यही कारण है कि जब बच्चे के सामने कोई अपरिचित व्यक्ति आता है तो वह डर जाता है।
(ii) नई स्थिति- जब बच्चे के सामने नई स्थिति या अजनबी स्थिति आती है जैसे उसके माता या पिता या फिर कोई अन्य परिचित व्यक्ति अलग किस्म के कपड़े पहन कर बच्चे के सामने आए तो इससे भी बच्चा डर जाता है।

डर कर शिशु चिल्लाकर या सांस रोककर अपने आपको डरावनी स्थिति से दूर करने की कोशिश करता है और अपना सिर घुमाकर चेहरे को छिपाने का प्रयत्न करता है। जब बच्चा चलना सीख जाता है तब वह भाग कर किसी व्यक्ति के पीछे या किसी चीज के पीछे छुप जाता है और डरावनी स्थिति से दूर होने की प्रतीक्षा करता है।

(iii) ईर्ष्या (Jealousy)- ईर्ष्या का अर्थ है-किसी के प्रति गुस्से से भरा विरोध करना। ईर्ष्या प्रायः सामाजिक स्थितियों द्वारा उत्पन्न होती है। जब परिवार में नया शिशु आता है तब छोटे बच्चे में उस शिशु के प्रति ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है क्योंकि उसे लगता है कि उसके माता-पिता जो पहले केवल उससे प्यार करते थे, अब उस शिशु से भी प्यार करने लगे हैं। दो वर्ष से पाँच वर्ष के बीच बच्चे में ईर्ष्या सर्वाधिक होती है। छोटा बच्चा कई बार अपने से बड़े भाई अथवा बहन से भी ईर्ष्या करने लगता है क्योंकि उसे लगता है कि उनका ध्यान अधिक करना या फिर बीमारी . या डर होने का दिखावा करके बड़ों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करता है।

2. सुखद संवेग-
(i) हर्ष (Joy or pleasure)- हर्ष का अर्थ है खुशी अथवा प्रसन्नता। शिशु एक माह से दो माह का होने पर सामाजिक परिस्थितियों में भी मुस्कराना और हंसना शुरू कर देता है (Social Smile)। इसके पश्चात् बच्चा छेड़छाड़ करने पर, गुदगुदा जाने पर हर्ष प्रकट करता है। दो वर्ष का होने पर बच्चा कई परिस्थितियों में खुश होता है जैसे खिलौनों से खेलना, अन्य बच्चों के साथ खेलना, दूसरे बच्चों को खेलते देखना या रोचक ध्वनियाँ पैदा करना।

सभी बच्चे अपनी खुशी मुस्करा कर या हँस कर प्रकट करते हैं। इस आयु में बच्चा हँसने के साथ बाँहों और टाँगों को भी हिलाता है। बच्चा जितना अधिक खुश होता है, उतनी ही अधिक उसकी शारीरिक गतियाँ होती हैं। डेढ़ वर्ष का बच्चा अपनी ही चेष्टाओं पर मुस्कराता है। दो वर्ष का होने पर वह दूसरों के साथ मिलकर हँसने लगता है।

(ii) स्नेह (Affection)- बच्चे में लोगों के प्रति स्नेह की अनुक्रियाएँ धीरे-धीरे विकसित होती हैं। बच्चे का किसी के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होकर उसकी गोद में आने के प्रयास से दिखाई देता है। पहले शिशु उस व्यक्ति के चेहरे को ध्यान से देखता है, इसके पश्चात् अपनी टाँगें चलाता है, बाँहों को फैलाकर हिलाता है तथा मुस्करा कर अपने शरीर को ऊपर उठाने की कोशिश करता है। प्रारम्भ में चूँकि शिशु के शरीर की गतियाँ असमन्वित होती हैं इसलिए वह उस व्यक्ति तक पहुँचने में असफल होता है। छः माह का होने पर शिशु उस व्यक्ति के प्रति स्नेह दिखाता है और धीरे-धीरे अपरिचित व्यक्ति भी बच्चे के स्नेह के पात्र बन जाते हैं।

दो वर्ष का होने पर बच्चा परिचित व्यक्तियों के स्थान पर अपने आप से तथा अपने खिलौनों से स्नेह करने लगता है। घर में पालतू जानवर होने पर शिशु उससे डरे बिना उसके साथ खेलता है और उससे प्यार करने लगता है। प्रायः शिशु अपना स्नेह प्रकट करने के लिए चिपटना, थपथपाना, सहलाना या चूमने जैसी क्रियाएँ करता है। जिन बच्चों को अपने स्नेह की भावना को व्यक्त करने के सभी सामान्य अवसर नहीं मिलते हैं, उनके शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे उनके सामाजिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है।

(iii) जिज्ञासा (Curiosity)- जन्म के दो-तीन माह पश्चात् तक शिशु की आँखों का समन्वय भली-भाँति विकसित नहीं होता है और उसका ध्यान केवल तीव्र उद्दीपन से ही आकर्षित होता है। लेकिन आयु वृद्धि के साथ जैसे ही शिशु साफ-साफ और अलग-अलग देख सकता है वैसे ही कोई भी नई या असाधारण बात से आकर्षित होता है बशर्ते उसका नयापन इतना अधिक न हो कि भय पैदा कर सके। शिशु का भय कम होने के साथ उसकी जिज्ञासा बढ़ती है। शिशु अपनी जिज्ञासा को मुँह खोलकर, जीभ बाहर निकालकर, चेहरे की मांसपेशियाँ कस कर तथा माथे पर’ बल डालकर अभिव्यक्त करता है। एक से डेढ़ वर्ष का बच्चा जिज्ञासा जागृत करने वाली चीज की ओर झुककर उसे पकड़ने की कोशिश करता है और उस चीज के हाथ में आ जाने पर उसे हिलाता, खींचता व बजाता है।

प्रश्न 7.
शारीरिक रूप से अपंग बच्चों के समक्ष आने वाली कुछ समस्याओं का ब्यौरा दीजिए। स्कूल उन्हें किस प्रकार से मदद कर सकता है ?
उत्तर:
विभिन्न प्रकार की असमर्थता/विकलांगता- विकलांगता शारीरिक, वाणी दोष तथा तंत्रिकी दोष संबंधी होती है।
शारीरिक-

  • आँख-पूर्ण या अपूर्ण अन्धापन।
  • कान-पूर्ण या अपूर्ण बहरापन।
  • अंगहीनता/कमजोर अंग।
  • शारीरिक विषमताएँ झिल्लीदार उंगलियाँ, कूबड़, छांगा, शशा ओष्ठ (Hare lip), दीर्ण तालु, (Cleft Palates), मुख व शरीर पर जन्म चिह्न।

वाक दोष- इनके कारण बच्चा हकलाने लगता है और उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
क्रमिक दोष- जो दोष क्रम में सदा होते रहते हैं, उन्हें क्रमिक दोष कहते हैं। हृदय रोग, गठिया तथा माँसपेशी रोग।

तंत्रिकी (Neurological) दोष- ये दोष केन्द्रीय नाड़ी मण्डल की अस्वस्थता के कारण उत्पन्न होते हैं जैसे दिमागी-पक्षाघात, (Cerebralpalsy), मिर्गी (Epilepsy), तथा सिजोफेरेनिया। दिमागी पक्षापात में मस्तिष्क के ठीक कार्य न करने के कारण विभिन्न अंगों में भी पक्षाघात हो जाता है। अनियंत्रित आक्रमण के कारण मूर्छा आना और सन्तुलन खोना मिर्गी के रोगी के आम लक्षण हैं।

विशेष शिक्षा तथा शैक्षणिक संस्थाओं की आवश्यकता (Need for Special Education and Educational Institutions)- इन बालकों की विकलांगता के अनुसार अलग-अलग प्रकार की शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होती है। बधिरों के लिए ओष्ठपठन तथा अंधों को विशेष ब्रेल लिपि द्वारा पढ़ाया जाना आवश्यक है। अतः इन बालकों को उचित उपकरण दिये जाने से ये शिक्षा प्राप्त करने में किसी भी सामान्य बालक की बराबरी कर पाते हैं। अन्य शारीरिक विकलांगताओं जैसे लंगड़ापन, हाथ कटा होना आदि पर बनावटी पैर तथा हाथ लगा कर विकलांगता को एक हद तक दूर किया जा सकता है। ऊँचा सुनने वाले बच्चों की भी श्रवण यंत्रों द्वारा बधिरता को दूर किया जा सकता है। इससे ये अन्य बालकों की भाँति शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।

मानसिक न्यूनता वाले बच्चों के लिए विशेष संस्थानों की आवश्यकता होती है क्योंकि इसका मानसिक विकास उनकी उम्र के सामान्य बालकों से कम होता है तथा वे कुछ भी सीखने में अधिक समय लगाते हैं। अतः इन्हें इनके कौशल को पहचान कर शिक्षा दी जानी चाहिए जो इनकी आगे चलकर आजीविका भी प्रदान करे।

प्रश्न 8.
भाषा विकास को परिभाषित कीजिए। छोटे बच्चों में भाषा का विकास किस प्रकार होता है:
उत्तर:
भाषा सम्प्रेषण का लोकप्रिय माध्यम है। भाषा के माध्यम से बालक अपने विचारों, इच्छाओं को दूसरे पर व्यक्त कर सकता है और दूसरे के विचारों, इच्छाओं तथा भावनाओं को समझ सकता है। हरलॉक के अनुसार भाषा में सम्प्रेषण के वे साधन आते हैं, जिसमें विचारों तथा भावों की प्रतीकात्मक बना दिया जाता है जिससे कि विचारों और भावों को दूसरे के अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके। बच्चे में भाषा का विकास, बच्चे बोलना शनैः-शनैः सीखते हैं। पाँच वर्ष की शब्दावली के लगभग 2000 शब्द बोलते हैं। अर्थपूर्ण शब्दों और वाक्यों से दूसरे में सम्बन्ध स्थापित करते हैं।

  • 0-3 माह- नवजात शिशु केवल रोने की ध्वनि निकाल सकता है, रोकर ही वह अपनी माता को अपनी भूख व गीला होने के आभास कराता है। तीन माह तक कूजना सीख जाती है। जिसे क, ऊ, उ की ध्वनि निकाल सकता है।
  • 4-6 माह- इस आयु में बच्चे अ, आ की ध्वनि निकाल सकते हैं। फिर वे पा, मा, टा, वा, ना आदि ध्वनि निकाल सकते हैं।
  • 7-9 माह- इस आयु में बच्चे दोहरी आवाज निकाल सकते हैं। जैसे-बाबा, पापा, मामा, टाटा आदि इसे बैवलिंग या शिशुवार्ता कहते हैं।
  • 10-12 माह- बच्चे सहज वाक्य बोलने लगते हैं। वे तब बानीबॉल या बाबी बोल सकते हैं।
  • 1-2 वर्ष-अब बच्चे तीन या चार शब्दों के वाक्य बोलने लगते हैं।
  • 3-5 वर्ष- बच्चों की आदत हो जाती है कि वे नये सीखे शब्दों को बार-बार बोलते हैं। वे आवाज की नकल करते हैं।

प्रश्न 9.
जन्म से तीन वर्ष तक के बच्चों में होने वाले सामाजिक विकास का वर्णन करें।
उत्तर:
जन्म के समय शिशु न सामाजिक होता है और न ही असामाजिक बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है। चाईल्स के अनुसार, सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता है।

सामाजिक विकास की अवस्थाएँ :
0 से 3 माह की अवस्था में

  • आवाज की ओर मुड़ता है।
  • हँसता है।
  • दूसरे व्यक्तियों के मुस्कराने पर मुस्कराकर जवाब देता है।
  • ‘कू’ करता है।
  • खुशी से चीखता है।

6 माह की अवस्था में

  • व्यंजन-स्वर के संयोग से बबलाता है।
  • प्रत्यक्ष रूप से आपको देखता है।
  • ध्वनि की ओर मुड़ता है।
  • नकल ध्वनियों का प्रयास करता है।
  • शोर तथा क्रोध की आवाज पर प्रतिक्रिया करता है।
  • ध्यान केन्द्रित करने के लिए बड़बड़ाता है।

7 से 8 माह की अवस्था में

  • मित्रतापूर्ण सम्पर्क।
  • देखने, मुस्कराने तथा साथी को पकड़ने के लिए प्रतिबंधित।
  • अव्यक्तिगत तथा सामाजिक रूप से खेल सामग्री की सुरक्षा के लिए अंधे प्रयासों में झगड़ा।

9 माह की अवस्था में

  • नाम से पुकारने पर उत्तर देता है।
  • चार या चार से अधिक भिन्न ध्वनि उत्पन्न करता है।
  • प्रायः बा, दा का शब्दांशों का प्रयोग करता है।
  • ‘नहीं’ तथा ‘बाय-बाय’ समझता है।
  • ध्वनि की नकल करता है।

12 माह की अवस्था में

  • ताका-झाँकी खेलता है।
  • ध्वनियाँ तथा ध्यान केन्द्रित करने के हाव-भाव दोहराता है।
  • छुपी हुई वस्तु के लिए खोज करता है।
  • लम्बे बबलाने वाले वाक्यों का प्रयोग करता है जो अनर्थक है।
  • साधारण आदेशों को समझता है।
  • विनती पर खिलौने देता है।
  • ऐच्छिक वस्तु के लिए संकेत देता है।
  • दो या तीन शब्द कहता है।
  • परिचित शब्दों की नकल करता है।
  • ‘नहीं’ के सिर हिलाता है।
  • परिचित पशुओं की आवाज की नकल करना पसंद करता है।
  • बाय-बाय के लिए हाथ हिलाता है।

13 माह की अवस्था में

  • झगड़े व्यक्तिगत हो जाते हैं।
  • अत्यधिक झगड़े खेल-सामग्री के लिए होते हैं।

18 माह की अवस्था में

  • लगभग 20 शब्द कह सकता है।
  • जिन वस्तुओं तथा व्यक्तियों को अच्छी तरह जानता है, उनके चित्र पहचानता है।
  • शरीर के तीन अंगों का संकेत करता है (नाक, आँखें, मुँह)।
  • दो शब्दों को मिलाना प्रारंभ करता है (सब गये या बाय-बाय)।
  • पूछने पर पहचानी वस्तुओं को लाता है।
  • 5 वस्तुओं के लिए संकेत कर सकता है।
  • शब्दों तथा ध्वनियों की अधिक स्पष्टता से नकल करता है। खेल सामग्री से हटकर अपने साथी के प्रति ध्यान केन्द्रित करता है।

21 माह की अवस्था में
कुछ छोटे वाक्यांशों को उत्पन्न करता है।

22 माह की अवस्था में

  • दो शब्द वाक्यों में बात करता है। उदाहरण-पापा, काम जाओ।
  • मुझे तथा मेरा सर्वनामों का प्रयोग करता है।
  • दो कदम आदेशों का पालन करता है, उदाहरण के लिए-“अपने जूते उठाओ तथा इसे मेरे पास लाओ।” इन शब्द ध्वनियों का प्रयोग करता है-प, ब, म, व, ह, न इत्यादि।
  • लगभग 300 शब्दों का प्रयोग करता है अथवा कहता है।
  • संकेत करके या दूसरी क्रियाओं द्वारा कुछ साधारण प्रश्नों के उत्तर देता है। जैसे-कहाँ, क्या, क्यों आदि।
  • चार से आठ तक शरीर के अंगों को जानता है।
  • सामाजिक सम्पर्क का अवसर मिलने पर वह संचार कर सकता है।

2 वर्ष 3 माह की अवस्था में
बालक अहम् का भाव विकसित करेगा। वह जानता है कि वह कौन है तथा नाम से बुला सकता है। जो वह चाहता है उसके बारे में अधिक सकारात्मक हो जाएगा। वह न की तुलना में, जो देख-रेख करने वाला कहता है उसके विरुद्ध अपनी इच्छा रखेगा। वह ईंटों से मकान तथा महल बनाने का प्रयास करेगा।

2 वर्ष 6 माह की अवस्था में
वह अपना पहला नाम तथा कुलनाम दोनों जान लेगा। वह साधारण घरेलू कार्य करने में आनन्द प्राप्त करेगा। जैसे-मेज लगाना।

3 वर्ष की अवस्था में

  • शिशु के सामाजिक कौशल उन्नत हो जायेंगे तथा दूसरे बालकों के साथ खेलना पसंद करेगा। वह ऊपर, नीचे तथा पीछे जैसे शब्दों का भली-भांति अर्थ समझ लेगा तथा पूर्ण जटिल वाक्य बनाने योग्य हो जायेगा।
  • बालक विभिन्न भूमिकाएँ कर लेता है।

प्रश्न 10.
बाल्यावस्था के विभिन्न रोग क्या हैं ?
अथवा, बाल्यावस्था के सामान्य रोगों से आप क्या समझते हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर:
किसी प्राणी को अपना वातावरण की चुनौतियों के अनुकूल प्रतिकार में असफलता के अनुभव रोग कहते हैं। बालक में वैसे भी प्रतिकारता कम होती है। थोड़ी-सी असावधानी से वह रोगग्रस्त हो जाता है। बाल्यावस्था में होने वाले रोग निम्नलिखित हैं-

  • डिप्थीरिया (Diptheria)- जन्म से 5 वर्ष की आयु तक के बालक को यह रोग हो सकता है। इससे बचाव के लिए तीन खुराक छः सप्ताह से प्रारंभ करके 4 से 6 सप्ताह के अंतराल पर दी जाती है।
  • क्षय रोग (Tuberculosis)- जन्म से लेकर सभी आयु के बालक को यह रोग होता है। इससे बचाव के लिए जन्म के समय या दो सप्ताह के भीतर बी० सी० जी० का टीका लगाते हैं।
  • टिटनस (Tetanus)- बच्चों को टिटनस से बचाव के लिए डी० पी० टी० का टीका लगाते हैं।
  • काली खाँसी (Whooping Cough)- जन्म के कुछ सप्ताह बाद से यह रोग हो जाता है। इससे बचाव के लिए डी० पी० टी० का टीका बच्चों को लगाया जाता है।
  • खसरा (Measles)- कुछ माह से लेकर 8 वर्ष तक की आयु तक यह रोग हो सकता है। इससे बचाव के लिए एम० एम० आर० का टीका लगाते हैं।
  • गलसुआ (Mumps)- यह रोग भी बाल्यावस्था में अधिक होता है। इससे बचाव के लिए भी एम० एम० आर० का टीका लगाया जाता है।
  • पीलिया रोग (Hepatities)- यह एक गंभीर रोग होता है। इससे बचाव के लिए Hepatities B-Vaccine बालक को देते हैं। पहली खुराक जन्म के समय, दूसरी 1-2 माह बाद एक तीसरी पहली खुराक के 6-8 महीने बाद भी देते हैं।
  • हैजा (Cholera)- 2 से 10 वर्ष की आयु के बच्चों को यह रोग विशेष रूप से होता है। इसमें रिहाइड्रेशन पद्धति का प्रयोग करते हैं।
  • पोलियो (Polio)- यह रोग भी विशेष रूप से बाल्यावस्था में होता है। पोलियो की दवा तीन खुराकों में दी जाती है जो छः सप्ताह बाद से 4 से 6 सप्ताह के अंतराल पर दी जाती है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बाल्यावस्था के बहुत सारे रोग होते हैं जिससे बचाव के लिए प्रतिकारिता की जाती है ताकि बच्चे स्वस्थ रहें।

प्रश्न 11.
वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर:
वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार (Kinds ofSubstitute Child Care)- वैकल्पिक शिशु देखभाल निम्नलिखित से प्राप्त की जा सकती है-

  • बड़े बहन-भाई से
  • सम्बन्धियों/पड़ोसियों से
  • किराये पर ली गई सहायता (Hired Help) से
  • क्रेच/डे-केअर केंद्रों (Day Care Centres) से
  • प्री-नर्सरी/नर्सरी स्कूल/बालवाड़ी (Pre-nursery/Nursery/Balwadi) से

अब आप उपर्युक्त सभी सुविधाओं की योग्यताओं का अध्ययन करेंगे।
भाई-बहन की देखभाल (Sibling Care)- निम्न आर्थिक स्थिति के परिवारों में यह आम है। छोटे-छोटे बच्चे आयु में कुछ बड़े बच्चों की देख-रेख में छोड़ दिये जाते हैं। आपको छः वर्ष का बच्चा अक्सर दो या तीन वर्ष की आयु के बच्चों की देखभाल करता दिखेगा। यह देखभाल कितनी सुरक्षित हो सकती है ? अधिक नहीं-क्योंकि छ: वर्ष के बच्चे में शिशुपालन की योग्यता नहीं होती। कुछ बड़े बच्चे भी इस देखभाल के लिए परिपक्व नहीं होते। इसलिए शिशुपालन के लिए कोई और उपाय खोजना चाहिए।

संबंधी व पड़ोसी (Relatives and Neighbours)- घर पर ही रहकर बच्चे की अच्छी देखभाल करने में सहायता कर सकते हैं व करते हैं। बड़े-बूढ़ों का परिवार में होना बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान है। दादा-दादी, नाना-नानी से बच्चों को प्यार व सुरक्षा मिलती है।

पड़ोसी भी अपने परिवार से अलग अपना ही परिवार होता है। माता की अनुपस्थिति में पड़ोसी बच्चे की वैकल्पिक देखभाल में सहायता कर सकते हैं। ऐसी देख-रेख आम तौर पर अल्पकालीन ही होती है। अगर पड़ोसी के पास समय हो और वह विधिवता देखभाल करने के लिए तैयार हो तो उससे खुलकर बात करनी चाहिए ताकि आप उसकी सहायता का उचित पारिश्रमिक उसे दे सकें।

किराये पर ली गई सहायता (Hired Help)- अमीर शहरी घरानों में यह व्यापक रूप से पायी है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता व योग्यता परख कर ही उसे रखना चाहिए। क्या आपने आया/नौकरानी को रखने से पहले पुलिस शिनाख्त के बारे में सुना है ? अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए।

क्रेच (Creche)-“यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देखरेख में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।”

क्रेच एक आवासी देखभाल केंद्र है। अपना कार्य समाप्त करके माता-पिता बच्चों को घर ले जाते हैं। क्या आप कभी क्रेच में गए हैं ?

क्रेच में तीन साल तक की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देख-रेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं।

प्रश्न 12.
बच्चों की वैकल्पिक देखरेख की आवश्यकता क्या है ?
उत्तर:
आमतौर पर बच्चों की देखभाल का दायित्व माता-पिता का होता है। परंतु कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं कि उनकी देखभाल के लिए वैकल्पिक साधन ढूँढने पड़ते हैं। निम्नलिखित कारणों से बच्चों की वैकल्पिक देखभाल की आवश्यकता पड़ती है-

1. माता या पिता की मृत्यु हो जाने पर- जब माता या पिता में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है तो ऐसी स्थिति में बच्चों को पालना कठिन हो जाता है। अतः घर के बाहर वैकल्पिक व्यवस्था का सहारा लेना पड़ता है।

2. एकाकी परिवार का होना- आज औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण एकाकी परिवार का प्रचलन लोकप्रिय है। यदि माता-पिता कामकाजी हैं तो घर में बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहता है। अतः बच्चों की देखभाल के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ती है।

3. माता का घर से बाहर काम करना- जब महिला (माता) को घर से बाहर जाकर काम करना पड़ता है तो बच्चों की देखभाल के वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

4. वैवाहिक संबंध टूटने पर- जब वैवाहिक संबंध टूटता है तो बच्चे की देखभाल की जिम्मेवारी किसी एक अभिभावक पर आ जाती है। फलतः अपने व्यावसायिक दायित्वों को पूरा करने में तथा बच्चों की देखभाल में अनेक दिक्कतें आती हैं। इस बजट से वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

5. परिवार के प्रतिमान में परिवर्तन- आज दिन-प्रतिदिन परिवार के प्रतिमानों में परिवर्तन हो रहा है और पारिवारिक संबंधों में कमी आ रही है। फलस्वरूप बच्चों की देखभाल हेतु वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

6. रिश्तेदारों के संबंधों में परिवर्तन- आज रिश्तेदारों के संबंधों में भी परिवर्तन हुआ है। इस वजह से आपसी स्नेह में कमी आयी है और व्यक्ति दूसरे की जिम्मेदारियों को उठाने में रूचि नहीं रखता है। इस कारण माता-पिता को घर के बाहर विकल्प ढूँढने पड़ते हैं।

7. पड़ोसियों के संबंधों में परिवर्तन- पहले पारिवारिक संबंधों में पड़ोसियों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता था। परंतु आज पड़ोसियों के संबंधों में परिवर्तन आ गया है। शहर में तो लोग अपने पड़ोसियों को जानते भी नहीं है। अतः आज पड़ोसियों के भरोसे बच्चे को नहीं छोड़ा जा सकता है।

प्रश्न 13.
नवजात शिशु के जन्म के पश्चात् की आवश्यकताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
नवजात शिशु की जन्म के पश्चात् की आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-

  • वायु- पूर्वाधात शिशुओं को, जो जन्म होने पर साँस नहीं ले रहे होते हैं, सजीव करना।
  • गर्माहट- जन्म के समय बालक को सुखाना, त्वचा से त्वचा सम्पर्क द्वारा गर्माहट को बनाये रखना, पर्यावरण तापमान तथा सिर और शरीर को ढंकना। कम वजन वाले शिशुओं के लिए कंगारू देखभाल को प्रोत्साहन देना।
  • स्तनपान- जन्म के बाद शिशु को पहले चार घंटों के भीतर स्तनपान कराना। छः माह तक उसे स्तनपान कराते रहना।
  • देखभाल- नवजात शिशु को माता-पिता तथा अन्य देखभाल करने वाले वयस्क व्यक्तियों के निकट रखना। माता को स्वस्थ रखना।
  • रोग संक्रमण पर नियंत्रण- सफाई का विशेष ख्याल रखना ताकि रोग पर नियंत्रण रखा जा सके।
  • जटिलताओं का प्रबंधन- वैसी परिस्थितियाँ जो शिशु के जीवन को कष्टकारी बनाती है, को पहचानना और उसे दूर करने का प्रयत्न करना।

प्रश्न 14.
एक नवजात शिशु की वैकल्पिक देखभाल संबंधियों द्वारा किये जाने के लाभों की चर्चा करें।
अथवा, बच्चों की देखभाल की क्या-क्या वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है ?
उत्तर:
वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार (Kinds of Substitute Child Care)- वैकल्पिक शिशु देखभाल निम्नलिखित से प्राप्त की जा सकती है-

  • बड़े बहन-भाई से
  • सम्बन्धियों/पड़ोसियों से
  • किराये पर ली गई सहायता (Hired Help) से
  • क्रेच/डे-केअर केंद्रों (Day Care Centres) से
  • प्री-नर्सरी/नर्सरी स्कूल/बालवाड़ी (Pre-nursery/Nursery/Balwadi) से

अब आप उपर्युक्त सभी सुविधाओं की योग्यताओं का अध्ययन करेंगे।

भाई-बहन की देखभाल (Sibling Care)- निम्न आर्थिक स्थिति के परिवारों में यह आम है। छोटे-छोटे बच्चे आयु में कुछ बड़े बच्चों की देख-रेख में छोड़ दिये जाते हैं। आपको छः वर्ष का बच्चा अक्सर दो या तीन वर्ष की आयु के बच्चों की देखभाल करता दिखेगा। यह देखभाल कितनी सुरक्षित हो सकती है ? अधिक नहीं, क्योंकि छः वर्ष के बच्चे में शिशुपालन की योग्यता नहीं होती। कुछ बड़े बच्चे भी इसे देखभाल के लिए परिपक्व नहीं होते। इसलिए शिशुपालन के लिए कोई और उपाय खोजना चाहिए।

संबंधी व पड़ोसी (Relatives and Neighbours)- घर पर ही रहकर बच्चे की अच्छी देखभाल करने में सहायता कर सकते हैं व करते हैं। बड़े-बूढ़ों का परिवार में होना बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान है। दादा-दादी, नाना-नानी से बच्चों को प्यार व सुरक्षा मिलती है।

पड़ोसी भी अपने परिवार से अलग अपना ही परिवार होता है। माता की अनुपस्थिति में पड़ोसी बच्चे की वैकल्पिक देखभाल में सहायता कर सकते हैं। ऐसी देख-रेख आम तौर पर अल्पकालीन ही होती है। अगर पड़ोसी के पास समय हो और वह विधिवता देखभाल करने के लिए तैयार हो तो उससे खुलकर बात करनी चाहिए ताकि आप उसकी सहायता का उचित पारिश्रमिक उसे दे सकें।

किराये पर ली गई सहायता (Hired Help)- अमीर शहरी घरानों में यह व्यापक रूप से पायी जाती है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता व योग्यता परख कर ही उसे रखना चाहिए। क्या आपने आया/नौकरानी को रखने से पहले पुलिस शिनाख्त के बारे में सुना है ? अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए।

क्रच (Creche)- “यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देख-रेख. में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।”

क्रेच एक आवासी देखभाल केंद्र है। अपना कार्य समाप्त करके माता-पिता बच्चों को घर ले जाते हैं। क्या आप कभी क्रेच में गए हैं ?

क्रेच में तीन साल तक की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देख-रेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं।

प्रश्न 15.
आहार आयोजन के महत्त्व क्या हैं ?
उत्तर:
परिवार के सभी सदस्यों को स्वस्थ रखने के लिए आहार का आयोजन आवश्यक होता है। आहार आयोजन का महत्त्व निम्न कारणों से है-

1. श्रम, समय एवं ऊर्जा की बचत- आहार आयोजन में आहार बनाने के पहले ही इसकी योजना बना ली जाती है। आवश्यकतानुसार यह आयोजन दैनिक, साप्ताहिक, अर्द्धमासिक तथा मासिक बनाया जा सकता है। इससे समय, श्रम तथा ऊर्जा की बचत होती है।

2. आहार में विविधता एवं आकर्षण- आहार में सभी भोज्य वर्गों का समायोजन करने से आहार में विविधता तथा आकर्षण उत्पन्न होता है। साथ ही आहार पौष्टिक, संतुलित तथा स्वादिष्ट हो जाता है।

3. बच्चों में अच्छी आदतों का विकास करना- चूँकि आहार में सभी खाद्य वर्गों को शामिल किया जाता है इससे बच्चों को सभी भोज्य पदार्थ खाने की आदत पड़ जाती है। इससे ऐसा नहीं होता कि बच्चा किसी विशेष भोज्य पदार्थ को ही पसंद करे तथा अन्य को ना पसंद करे।

4. निर्धारित बजट में संतुलित एवं रूचिकर भोजन- आहार का आयोजन करते समय निर्धारित आय की राशि को परिवार की आहार आवश्यकताओं के लिए इस प्रकार वितरित किया जाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित आहार का चुनाव संभव हो सके। आहार आयोजन करते समय प्रत्येक व्यक्ति की रुचि तथा अरुचि का भी ध्यान रखा जाता है और प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित आहार भी प्रदान किया जाता है। आहार आयोजन के बिना कोई भी व्यक्ति कभी भी आहार ले सकता है। परंतु व्यक्ति की पौष्टिक आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं हो सकता है। आहार आयोजन के बिना परिवार की आय को आहार पर खर्च करने से बजट. भी असंतुलित हो जाता है।

प्रश्न 16.
वृद्धों के लिए आहार आयोजन करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
वृद्धों के लिए आहार आयोजन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

  • आहार आसानी से चबाने योग्य हों ताकि वृद्ध उसे अच्छी तरह से चबाकर खा सके।
  • भोजन सुपाच्य हो।
  • भोजन अधिक तले-भूने तथा मिर्च मसालेदार नहीं हो।
  • भोजन में सभी पौष्टिक तत्व मौजूद हों।
  • रफेज की प्राप्ति हेतु नरम सब्जियों तथा फलों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  • वृद्ध की रुचि के अनुसार भोज्य पदार्थों का चुनाव किया जाना चाहिए ताकि वह प्रसन्नतापूर्वक रुचि के साथ खा सके। (vii) तरल तथा अर्द्ध तरल भोज्य पदार्थों, जैसे–सूप, फलों का रस, दलिया, खिचड़ी आदि को भी आहार में शामिल करना चाहिए।
  • आहार आयोजन इस तरह होना चाहिए कि वृद्ध को उतनी ही कैलोरी मिलनी चाहिए जितनी कि उसके शरीर के लिए आवश्यक है।
  • अस्थि विकृति तथा रक्तअल्पता के बचाव के लिए आहार में पर्याप्त मात्रा में दूध, दूध से बने व्यंजन, यकृत, माँस एवं हरी पत्तेदार सब्जियाँ होनी चाहिए।
  • कब्ज से बचाव के लिए पर्याप्त मात्रा में रेशेदार भोज्य पदार्थों का समावेश होना चाहिए।
  • भोजन बदल-बदल कर दिया जाना चाहिए ताकि खाने में रुचि बनी रहे।
  • बासी तथा खुले भोजन से परहेज होना चाहिए।
  • प्रोटीन की पूर्ति के लिए आहार में प्राणिज भोज्य पदार्थों (अण्डा, दूध, मांस, मछली, यकृत तथा दालों) का समावेश होना चाहिए।
  • पर्याप्त मात्रा में पानी का सेवन किया जाना चाहिए।
  • विटामिन ‘सी’ की पूर्ति हेतु आहार में नींबू, संतरा, अमरूद, आँवला तथा अन्य खट्टे फलों का समावेश किया जाना चाहिए।