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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषताओं की विवेचना करें।
अथवा, भारतीय दर्शन की मूलभूत विशेषताएँ क्या हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर:
भारतीय दर्शन वैविध्यपूर्ण है। इसके विभिन्न सम्प्रदाय विभिन्न विचारधाराओं के समर्थक हैं। इसमें कुछ आस्तिक हैं तो कुछ नास्तिक। फिर भी कुछ ऐसी सामान्य बातें अवश्य हैं जिन पर सभी भारतीय सम्प्रदाय एकमत हैं। इन्हीं सामान्य बातों को भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषताओं की संज्ञा दी जाती है। ये प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखत हैं-

(क) जीवन के प्रति निश्चित दृष्टिकोण- पाश्चात्य विचारकों के लिए दर्शन एक मानसिक व्यायाम (mental exercise) मात्र है। वहाँ दर्शन की उत्पत्ति मानव जिज्ञासा की शांति के लिए होती है। किन्तु भारतीय दर्शन को केवल मानसिक कसरत नहीं कहा जा सकता। इसका व्यावहारिक पक्ष इसके सैद्धांतिक पक्ष से अधिक सबल है। यह जीवन के अत्यन्त नजदीक है। बुद्धि को सन्तुष्ट करना ही इसका लक्ष्य नहीं है। बल्कि ज्ञान के प्रकाश में जीवन को सुव्यवस्थित बनाना इसका मुख्य उद्देश्य है। जीवन की समस्याओं का समाधान ढूँढना भारतीय विचारक अपना पवित्र उद्देश्य मानते हैं। इस प्रकार भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण व्यावहारिक है।

(ख) भारतीय दर्शन की उत्पत्ति आध्यात्मिक असन्तोष के चलते होती है- विश्व में दुःख एवं बुराई का साम्राज्य पाकर भारतीय विचारक एक प्रकार से आध्यात्मिक असन्तोष का अनुभूत करते हैं और फलस्वरूप इनका दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ होता है। भारतीय विचारकों का प्रधान लक्ष्य मानव को दुःखों से मुक्त करना है। महात्मा बुद्ध ने अपने दर्शन में दुःख का विशद वर्णन किया है। इनके चार आर्य-सत्य दुःख के विचार पर आधारित है।

(क) दुख है (ख) का कारण है (ग) दु:ख का निरोध सम्भव होता है, There is cessation of suffering और (घ) दुख निरोध का मार्ग है। इसी प्रकार अन्य भारतीय दर्शन भी दुख के भावों से ओत-प्रोत हैं।

(ग) विश्व को एक नैतिक रंग-मंच मानना- प्रायः सभी भारतीय दार्शनिक विश्व को एक नैतिक रंग मंच मानते हैं। मनुष्य अपने विगत कर्म के अनुसार ईश्वर का प्रकृति की ओर से शरीर, इन्द्रिय एवं वातावरण प्राप्त करके विश्वरूपी रंग-मंच पर उपस्थित होता है। जिस प्रकार, किसी रंग-मंच पर, पात्र अपने विभिन्न वस्त्रों में सजधज कर, अपना पार्ट अदा करते हैं और इसके बाद रंग-मंच से अलग हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार, विश्वव्यापी रंग-मंच पर भी विभिन्न प्राणी अपने कर्मों का कमाल दिखाकर विदा हो जाते हैं। प्राणियों को अच्छे कर्मों द्वारा सफल अभिनेता बनने का प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार साधारण रंग-मंच पर पुराने पात्र स्थान रिक्त करते जाते हैं और नये पात्र इन रिक्त स्थानों पर आते-जाते रहते हैं। इसी प्रकार विश्व भी एक ऐसा मंच है जहाँ पुराने और नये चेहरे सदैव आते-जाते रहते हैं।

(घ) विश्व की शाश्वत नैतिक अवस्था में विश्वास- विश्व में एक शाश्वत नैतिक अवस्था का समर्थन प्रायः भारतीय विचारक करते हैं। विश्व में जो भी हम करते हैं, इसका हमें निश्चित रूप मिलता है। अच्छे कर्मों के लिए परस्कार और बुरे कर्मों के लिए दण्ड का भागी होना पड़ता है।

यही कर्म सिद्धान्त (The Law of Karma) है। इस सिद्धांत के अनुसार हमारा वर्तमान जीवन हमारे विगत जीवन का फल है और भावी जीवन की आधारशिला हमारे वर्तमान जीवन के कर्मों पर आधारित है। जिस प्रकार भौतिक जगत की व्यवस्था की व्याख्या कार्य-करण नियम जिसमें (Law of causation) के आधार पर की जाती हैं, उसी प्रकार नैतिक जगत की व्यवस्था कर्म सिद्धान्त द्वारा ही सम्भव है। यहाँ भाग्यवाद या नियतिवाद (Fatalism) का खण्डन किया जाता है। व्यक्ति का भाग्य निर्माण स्वयं इसके साथ है।

(ङ) आत्मा के अस्तित्व में विश्वास- चार्वाक और बौद्ध को छोड़कर सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा की सत्ता में अटूट विश्वास करता है। यहाँ आत्मा को शरीर से भिन्न एक आध्यात्मिक सत्ता माना गया है। यह नित्य (eternal) एवं अविनाशी (Indestructible) है। शंकर ने तो आत्मज्ञान (self-realisation) को ही ब्रह्म ज्ञान (realization of Brahma) माना है। इस प्रकार प्रायः सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा को नित्य, अविनाशी, आध्यात्मिक सत्ता के रूप में स्वीकार करता है। उपनिषदों एवं वेदों में भी आत्मा के महत्त्व पर काफी बल दिया गया है।

आत्मा के स्वरूप को लेकर भारतीय दर्शन में कई विचारधाराओं का जन्म हुआ है। चार्वाक के अनुसार चेतन शरीर ही आत्मा है। बौद्धों के अनुसार चेतना का प्रवाह (Stream of Consciousness) है। William James के विचार से बौद्ध मत मिलता-जुलता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा या जीवन चैतन्य युक्त है। इसमें चार प्रकार की पूर्णता पायी जाती है-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द।

(च) अज्ञान दुख एवं बंधन को उत्पन्न करता है और ज्ञान से मोक्ष मिलता है- भारतीय दर्शन में अज्ञान को बंधन (Bondage) और दुख का कारण बतलाया गया है। जन्म-मरण एवं पूर्वजन्म के चक्कर में पड़कर दुख झेलना ही बंधन है। जन्म, पूर्वजन्म के जाल से मुक्त हो जाना ही मोक्ष (Liberation) कहलाता है। प्रायः सभी भारतीय विचारक अज्ञानता (Ignorance) को दुखों के कारण मानते हैं। बुद्ध ने अज्ञान को दुखों का मूल कारण बतलाया है। अज्ञान का नाश से ही सम्भव होता है। इसलिए सभी दर्शनों में मोक्ष को अपनाने के लिए ज्ञान को परमावश्यक माना गया है।

(छ) आत्म नियन्त्रण पर जोर- मोक्ष की प्राप्ति के लिए मस्तिष्क से बुरे विचारों को निष्कासित करके उत्तम विचारों को प्रतिष्ठित करना एवं आत्मसंयम रखना भी अनिवार्य माने गये हैं। मस्तिष्क से दूषित भावनाओं को समूल नष्ट करने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है। आत्मसंयम का अर्थ राग, द्वेष, वासना आदि का निरोध और ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का नियन्त्रण माना जाता है। आत्मनियन्त्रण पर जोर देने के फलस्वरूप सभी दर्शनों में नैतिक अनुशासन और सदाचार-संबंधित जीवन को आवश्यक माना गया है। चार्वाक के सिवा अन्य सभी भारतीय विचारकों ने आत्मनियन्त्रण को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बतलाया है।

(ज) मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है- चार्वाक के सिवा सम्पूर्ण भारतीय दर्शन मोक्ष को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। दुख रहित अवस्था को ही मोक्ष कहते हैं। कुछ अन्य विचारकों ने इसे आनंदमय अवस्था बतलाया है। इस प्रकार मोक्ष के सम्बन्ध में दो मत हैं-निषेधात्मक और भावात्मक। निषेधात्मक रूप से मोक्ष दुखरहित अवस्था है और भावात्मक रूप से यह आनन्दमय अवस्था है। मोक्ष दो प्रकार के होते हैं-जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति। शरीर धारण करते हुए भी इसी जीवन में मुक्त हो जाना ही जीवन मुक्ति है। मृत्यु के बाद शरीर छोड़कर मुक्ति पाना विदेह मुक्ति है। मोक्ष को निर्वाण, कैवल्य आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। मोक्ष सर्वोच्च साध्य है। यह किसी अन्य साधन का साध्य नहीं हो सकता।

प्रश्न 2.
गीता के “निष्काम कर्म’ की व्याख्या करें।
अथवा, गीता के अनासक्त कर्म की विवेचना करें।
उत्तर:
अनासक्त या निष्काम कर्म गीता का मौलिक तथा नैतिक उपदेश है। निष्काम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के निः काम से हुई है जिसका अर्थ है बिना फल के तथा कर्म का अर्थ क्रियाशील होना अतः शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से निष्काम कर्म का अर्थ है कि कर्ता को बिना फल या परिणाम की कामना के क्रियाशील होना। निष्काम शब्द का विपरीत सकाम है, जिसका अर्थ है फल प्राप्ति की कामना के साथ कर्म करना। निष्काम कर्म गीता का मुख्य विषय है।

गीता के अनुसार मनुष्य को स्वधर्म का पालन करना चाहिए, जिससे वह अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हो सके। गीता संसार में मनुष्य को सक्रिय जीवन व्यतीत करने का उपदेश देती है, जिससे उसका आन्तरिक जीवन परमात्मा के साथ जुड़ा रहे। भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन को कर्म की समस्या की अत्यधिक सूक्ष्मता की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि-गहना कर्मणे गतिः। अर्थात् कर्म की गति गहन है। हमारे लिए कर्म से बचना संभव नहीं है। अर्जुन अज्ञानता के कारण युद्ध करना नहीं चाहता है। भगवान कृष्ण अर्जुन को स्वधर्म या निष्काम भाव से कर्म करने का उपदेश देते हैं और अर्जुन युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाता है। कृष्ण ने कहा है, कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल में कभी नहीं तुम कर्म-फल का हेतु भी मत बनो. अकर्मण्यता से तुम्हारी आसक्ति न हो। ‘गीता का निष्काम कर्म कर्मों के त्याग के स्थान पर कर्म-फल त्याग का उपदेश देती है। गीता कर्म कल त्यागने को अवश्य कहती है। परन्तु उसका उद्देश्य कर्म से संन्यास नहीं है। जो कर्म-फल को छोड़ देता है वही वास्तविक त्यागी है। गीता में कहा गया है-

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥”

इस प्रकार, गीता प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच समन्वय करती है। मनुष्य को कर्म प्रवृत्ति तथा फल निवृत्ति होना चाहिए। अर्थात् मनुष्य को कर्म करना चाहिए, फल के बारे में नहीं सोचना चाहिए। प्रो० हरियाना के शब्दों में “The Gita teaching stands nor for renuciation of action but for renunciation in action.”

अगर हम कर्म के फल में अनासक्ति और परमात्मा के प्रति समर्पण की भावना विकसित कर लें तो हम कर्म करते हुए भी नित्य संन्यासी हैं। इस प्रकार, गीता हमें पूर्णतः सक्रिय जीवन व्यतीत करने का आदेश देती है।

गीता के निष्काम कर्मयोग की तुलना प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कांट के “Duty for the sake of Duty” के साथ की जा सकती है। कांट ने भी यह कहा है कि मनुष्य को कर्तव्य करते समय कर्त्तव्य के लिए तत्पर रहना चाहिए। कर्त्तव्य करते समय फल की आशा का भाव छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार गीता तथा कांट के बीच समता दीखता है। लेकिन दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि यहाँ कांट इन्द्रियों को दमन की बात करते हैं। वहाँ गीता इन्द्रियों के नियंत्रित करने की बात करती है। कामनाओं का दमन व्यक्तित्व के विकास के लिए घातक है।

अत: निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि साधारण मनुष्य के कर्म निष्काम नहीं बल्कि सकाम होते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि निष्काम कर्म असंभव है। एक असाधारण व्यक्ति का कर्म निष्काम होता है। क्योंकि वह लोकसंग्रह की भावना से प्रेरित होकर कर्म करता है। अतः निष्काम कर्मयोग या अनासक्त कर्म गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।

प्रश्न 3.
बुद्ध के चार आर्य सत्य की व्याख्या करें।
उत्तर:
बौद्ध दर्शन के प्रवर्तक गौतम बुद्ध हैं। बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म कपिलवस्तु के राज-परिवार में हुआ था। परन्तु राजसी जीवन से वे संतुष्ट नहीं थे और जीवन की सच्चाई को समझने के लिए ज्ञान प्राप्त करने हेतु अपने राजसी जीवन का परित्याग कर जंगलों एवं पहाड़ों में एक भिक्षु का जीवन व्यतीत करने लगे। कई वर्षों की साधना एवं ध्यान के बाद मध्यम मार्ग के माध्यम से बोधगया में पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। बुद्ध द्वारा. प्राप्त ज्ञान को चार आर्य सत्यों के रूप में संकलित किया गया है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. मानव जीवन में दुःख का होना नितांत अनिवार्य है।
  2. मानव-जीवन दुःख का कारण अवश्य है।
  3. इन दुखों को हटाया जा सकता है।
  4. इन दु:खों को हटाने का मार्ग विद्यमान है।

जब मनुष्य अपने जीवन से इन दुःखों को हमेशा के लिए हटाने में सफल होता है। तब उसके जीवन के उस स्थिति को निर्वाण की स्थिति कहीं जाती है। कोई भी मनुष्य बुद्ध द्वारा बतलाये गये आष्टांगिक मार्ग को अपनाते हुए निर्वाण की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। आष्टांगिक मार्ग एक दुःख निरोध मार्ग हैं जो चतुर्थ आर्यसत्य के अन्तर्गत आता है। यह एक नैतिक और आध्यात्मिक साधना का मार्ग है जहाँ पूजा, शील और समाधि पर संयुक्त रूप से बल दिया जाता है। इस मार्ग के आठ अंग हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  • सम्यक् दृष्टि- सम्यक् शब्द का अर्थ है उचित। अतः सम्यक् दृष्टि का तात्पर्य उचित ज्ञान है। यह बुद्ध के उपदेशों में श्रद्धा और आर्य सत्यों का ज्ञान है।
  • सम्यक् संकल्प- यह आर्य मार्गों पर चलने का दृढ़ निश्चय है।
  • सम्यक् वाक्- यह मार्ग साधक को अपने वाणी की पवित्रता और सत्यता बनाये रखने की प्रेरणा देता है।
  • सम्यक् कर्मान्त- यहाँ साधक को हिंसा द्वेष और दुराचरण का त्याग तथा सत्य कर्मों का आचरण करने को बतलाया गया है।
  • सम्यक् आजीव- यहाँ साधक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने जीविकोपार्जन के लिए भी अनैतिक कर्मों का सहारा नहीं लेगा तथा न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन करता रहेगा।
  • सम्यक् व्यायाम- यह वह मानसिक प्रयास हैं जहाँ मन में दबे हुए सभी नए एवं पुराने अशभ विचारों. विकारों एवं मान्यताओं को निरस्त कर नये, अच्छे एवं शुभ विचारों का समावेश किया जाता है।
  • सम्यक् स्मृति- यह साधक के लिए उचित स्मरण की स्थिति है जहाँ वह अभी तक प्राप्त सभी ज्ञान को बार-बार यह करता है। साधक को हमेशा यह याद रखना है कि इस संसार में कुछ भी नित्य नहीं है। “जिसे वह नित्य समझता है। वास्तव में वह क्षणभंगुर है।”
  • सम्यक् समाधि- यह चित्त की एकाग्रता की परम स्थिति हैं जहाँ साधक सुख-दुःख से परे की अवस्था को प्राप्त करता है। इसी अवस्था में निर्वाण की प्राप्ति होती है। या कह सकते हैं कि चित्त की एकाग्रता की यह प्रम स्थिति निर्वाण की अवस्था है। इसकी तुलना भगवत् गीता के ‘स्थित प्रज्ञ’ की अवस्था से की जा सकती है।

प्रश्न 4.
काण्ट के अनुसार ‘समीक्षावाद’ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जर्मन दार्शनिक काण्ट का ज्ञानशास्त्रीय मत समीक्षावाद कहलाता है, क्योंकि समीक्षा के बाद ही इस सिद्धान्त का जन्म हुआ। काण्ट के समीक्षावाद के अनुसार बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही सिद्धान्तों में आंशिक सत्यता है। जिन बातों को बुद्धिवाद और अनुभववाद स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं, और जिन बातों का खण्डन करते हैं, वे गलत हैं- “They are . justified in what they affirm but wrong in what they deny”।

अनुभववाद के अनुसार संवेदनाओं के बिना ज्ञान में वास्तविकता नहीं आ सकती है और बुद्धिवाद के अनुसार सहजात प्रत्ययों के बिना ज्ञान में अनिवार्यता तथा असंदिग्धता नहीं आ सकती है। समीक्षावाद इन दोनों सिद्धान्तों के उपर्युक्त पक्षों को स्वीकार करता है। फिर अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की अनिवार्यता के अनुसार संवेदनाओं को ज्ञान का रचनात्मक अंग नहीं माना जाता है। पर हमें दोनों सिद्धान्तों के इस अभावात्मक (Negative) पक्षों को अस्वीकार करना चाहिए। समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों के भावात्मक अंशों को मिलाकर ग्रहण किया जाता है।

ज्ञान की परिभाषा- काण्ट (Kant) ज्ञान को संश्लेषणात्मक प्रागनुभविक निर्णयों के एकतंत्र (A system of Synthetica priorijudgements) के रूप में परिभाषित करते हैं। निर्णय दो प्रत्ययों (Ideas) उद्देश्य तथा विधेय के मेल को कहते हैं। जैसे-‘मेज गोल है’ एक निर्णय है जिसका निर्माण ‘मेज’ तथा ‘गोलापन’ प्रत्ययों के मिलाने से हुआ है। इसमें ‘मेज’ उद्देश्य है तथा ‘गोलापन’ विधेय है। संश्लेषणात्मक निर्णय वैसे निर्णय को कहते हैं जो अनुभव पर आधारित हो, यानी जिसके अनुभव विधेय में अनुभव के आधार पर उद्देश्य के सम्बन्ध में कोई नयी बात कही जाए सिर्फ उद्देश्य का विश्लेषण भर नहीं कर दिया जाए। संश्लेषणात्मक निर्णयों के विपरीत काण्ट विश्लेषणात्मक (Analaytic), निर्णयों को लेते हैं जिनके विधेय में उद्देश्य का सिर्फ विश्लेषण किया गया रहता है, उसके सम्बन्ध में कोई नयी बात नहीं कही जाती है।

‘त्रिभुज तीन भुजाओं से घिरा क्षेत्र है’ निर्णय विश्लेषणात्मक है चूँकि इसका विधेय इसके उद्देश्य ‘त्रिभुज’ का विश्लेषण मात्र है। परन्तु ‘गुलाब लाल है’ एक संश्लेषणात्मक निर्णय है चूँकि ‘लाली’ गुलाब के विश्लेषण से नहीं निकलती बल्कि अनुभव के आधार पर गुलाब के साथ जोड़ा जाता है जो गुलाब के सम्बन्ध में एक नवीन ज्ञान देता है। प्रागानुभविक निर्णय वैसे निर्णय हैं जिनकी सत्यता किसी विशिष्ट अनुभव तक ही सीमित नहीं है बल्कि विशिष्ट अनुभवों के परे सभी स्थान, सभी काल आदि के लिए अनिवार्यतः सत्य है। उदाहरणस्वरूप दो और दो का योग चार होता है। भौतिक पदार्थों में फैलाव (Extension) होता है आदि निर्णय प्रागानुभविक हैं। ऐसे ही निर्णयों के एक तंत्र (System) को जो संश्लेषणात्मक तथा प्रागानुभविक दोनों हो काण्ट ज्ञान की संज्ञा देते हैं।

ज्ञान का निर्णय-अब प्रश्न उठता है कि ऐसे ज्ञान का निर्माण कैसे होता है। इस प्रश्न का उत्तर काण्ट ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘Critique of pure Reason’ में दिया है। इसमें उन्होंने बताया है कि ज्ञान का निर्माण दो पक्षों के सम्मिलित प्रयास से होता है। एक को वे संवेदन-शक्ति (Sensibility) तथा दूसरे को बुद्धि (understanding) कहते हैं। संवेदन-शक्ति से ज्ञान की वस्तु प्राप्त होती है तथा बुद्धि से उसका आकार। संवेदनाएँ मन को दिक् तथा काल के आकारों से होकर ही प्राप्त होती हैं। संवेदनायें अपने आप में बिल्कुल असम्बद्ध तथा अव्यवस्थित होती हैं।

सिर्फ उन्हें प्राप्त कर लेने से ही ज्ञान का निर्णय नहीं हो जाता। उन्हें आकार देकर व्यवस्थित करना तथा. निर्णयों का निर्माण करने का काम मन करता है। संवेदनाओं को पूर्ण आकार में ढालकर निर्णय का निर्माण करना मन के उस पक्ष का काम है जिसे बुद्धि की संज्ञा दी गयी है। काण्ट के अनुसार मन के अन्दर सोचने के बारह आकार जन्मजात आकारों के रूप में मौजूद हैं जिसे, “Categories of Understanding” कहा जाता है। ये बारह आकार बारह साँचे के समान हैं जिनमें ढालकर संवेदनाएँ आकार पाती हैं। बुद्धि के ये बारह आकार निम्नलिखित हैं-

  1. अनेकता (Plurity)
  2. एकता (Unity)
  3. सम्पूर्णता (Totality)
  4. भाव (Affirmation)
  5. अभाव (Negation)
  6. सीमितभाव (Limitation)
  7. कारण कार्यभाव (Causality)
  8. गुणभाव (Substantiality)
  9. अन्योन्याश्रय भाव (Reciprocity)
  10. सम्भावना (Possibility)
  11. वास्तविकता (Actuality)
  12. अनिवार्यता (Necessity)।

कान्टीय सिद्धांत की समीक्षा-काण्ट अपने सिद्धान्त के द्वारा बुद्धिवाद तथा अनुभववाद के एकांगी मतों के बीच एक समन्वय स्थापित करते हैं जो बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। परन्तु जिस प्रकार के ज्ञान की क्रिया में अनुभव तथा बुद्धि दोनों के कार्यों का विश्लेषण करते हैं और जिस प्रकार बेमेल अवधारणाओं को ज्ञान की व्याख्या में वे एक साथ मिलाने की कोशिश करते हैं। उनके फलस्वरूप उनके सिद्धान्त में कई दोषों का समावेश हो जाता है जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं-

सर्वप्रथम काण्ट द्वारा ज्ञान की वास्तविक प्रक्रिया का किया गया विश्लेषण एक मनगढन्त तथा कृत्रिम सिद्धान्त लगता है। काण्ट का यह कहना कि अमुक प्रकार से संवेदनाएँ आती हैं और तब फिर मन अपने बुद्धि के आकारों के द्वारा व्यवस्था प्रदान करता है और तब फिर प्रज्ञा अन्तिम * व्यवस्था प्रदान करती है, मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से असत्य है। ज्ञान की क्रिया इस यांत्रिक रूप में सम्पन्न नहीं होती।

काण्ट का यह कहना है कि संवेदनाएँ अपने आप में बिल्कुल असम्बद्ध तथा अव्यवस्थित होती हैं यथार्थ प्रतीत नहीं होता। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक William James का कहना है कि संवेदनाएँ बिल्कुल असंबद्ध रूप में मन में नहीं आती। उन्हें ग्रहण करने तथा व्यवस्थित करने की क्रियाएँ कुछ इस प्रकार अभिन्न हैं कि यह कहा जा सकता है कि पहले वे एक असम्बद्ध रूप में मन में आती है तब मन अपने आकारों द्वारा उनमें व्यवस्था लाता है। एक व्यवस्थित रूप में ही मन संवेदनाओं को ग्रहण करता है।

प्रश्न 5.
देकार्त के दर्शन में शरीर एवं मन के संबंध की व्याख्या करें।
उत्तर:
मन और शरीर के आपसी सम्बन्ध की समस्या दर्शन के इतिहास में अत्यन्त ही पुरानी एवं विवादास्पद है। देकार्त ने मन और शरीर के बीच सम्बन्ध की व्याख्या अपने द्रव्य विचार के अन्तर्गत किया है। इन्होंने मन और शरीर को सापेक्ष द्रव्य स्वीकार करते हुए दोनों को विरोधात्मक कहा है। आत्मा का मौलिक गुण चेतना है तथा शरीर का मौलिक गुण विस्तार है।

देकार्त ने इन दोनों के बीच सम्बन्ध की व्याख्या क्रिया-प्रक्रिया के द्वारा करने का प्रयास किया है। हमारे अन्दर पिनियस ग्लैन्ड नामक एक विशेष प्रकार की ग्रन्थि है, जिसके सहारे मन और शरीर एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। मन शरीर के बीच आपसी सम्बन्ध के लिए देकार्त ने घोड़ा और घुड़सवार का भी उदाहरण दिया है। जिस प्रकार घुड़सवार घोड़ा को अपने ऐंड से मारता है तो घोड़ा तेज भागता है, उसी प्रकार मन के निर्देश देने के बाद शरीर सक्रिय हो जाता है। देकार्त के मन और शरीर के स्वतंत्र सत्ता मानने के कारण ही इन्हें द्वैतवादी कहा जाता है।

प्रश्न 6.
अनुभववाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
अनुभववाद वह ज्ञानशास्त्रीय दार्शनिक सिद्धान्त है, जो समस्त ज्ञान का स्रोत बाह्य इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव को मानता है। यह बुद्धिवाद का पूर्णतः विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववाद के अनुसार अनुभव ही एक मात्र ज्ञान का साधन है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य का प्रत्येक ज्ञान अर्जित है, जन्म के समय मनुष्य के मस्तिष्क में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए अनुभववाद का कहना है कि जन्म के समय हमारा मस्तिष्क कोरे कागज के तरह रहता है तथा बाद में अनुभव के आधार पर ज्ञान अंकित होते हैं।

ज्ञान के मनुष्य तत्त्व प्रत्यय है। इन प्रत्ययों की उत्पत्ति अनुभव से होता है। बुद्धि प्रत्यय को मात्र ग्रहण करता है, उत्पन्न नहीं करता है। बुद्धि के प्रत्ययों को निष्क्रिय ढंग से ग्रहण करती है। इसलिए प्रत्यय का एक मात्र जननी अनुभव है। अनुभववाद के समर्थक प्रमुख तीन दार्शनिक हैं . लॉक, बर्कले और ह्यूम है। इन तीनों दार्शनिक ग्रेट ब्रिटेन के तीन प्रदेशों, लंदन, आयरलैण्ड और स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे।

(i) जॉन लॉक का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान प्रत्ययों से बनता है। लेकिन हमारे सामने एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रत्यय क्या हैं ? इसके उत्तर में लॉक का कहना है कि प्रत्यय किसी बाह्य वस्तु के प्रतिनिधि होते हैं। जैसे-टेबुल, कुर्सी, पुस्तक आदि बाह्य पदार्थ है। जब इसे देखते हैं तो हमारे मन में एक प्रतिबिम्ब द्वारा वस्तु का बनता है। जब आँख बंद कर लेते हैं तो उस वस्तु का प्रतिमा बनी रहती है। यही प्रतिमा लॉक के अनुसार प्रत्यय है। अतः समस्त ज्ञान इन्हीं प्रत्ययों से बनता है जो अनुभव के द्वारा प्राप्त होता है।

लॉक अनुभव का कहना है कि जन्म के समय हमारा मन एक स्वच्छ कोरे कागज के समान रहता है। इस मन में कुछ भी पूर्व से अंकित नहीं रहती है बल्कि समस्त ज्ञान प्रत्ययों से प्राप्त “Black tabula, table rase, white paper empty calamity”.

लॉक को दो भागों में विभक्त किया है-सरल प्रत्यय से मिश्र प्रत्यय का निर्माण होता है और हमारा समस्त ज्ञान बनता है। जितने भी बुद्धिवादी दार्शनिक है वे सहज प्रत्यय को जन्मजात मानते हैं। बुद्धिवादियों का कहना है कि ईश्वर, आत्मा, धार्मिक और नैतिक मूल्य आदि प्रत्यय हमारे मन में जन्म से ही बैठा दी जाती है। वे प्रत्यय पर और अनिवार्य होते हैं। इसके विरुद्ध में लॉक का कहना है कि सहज प्रत्यय नाम का कोई भी चित्र अनुभव से पूर्व मन में स्थित नहीं होती।

(ii) अनुभववाद के दूसरा प्रबल समर्थक बर्कले का कहना है कि ज्ञान केवल अनुभव के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ये एक रोचक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक बार मुझे जिज्ञासा हुई कि फाँसी लगाते समय कैसा अनुभव होता है यह जाना जाए। इसलिए अनुभववादी बर्कले ने स्वयं फाँसी के फंदे गले में लगा लिया। जब उसके मित्र फाँसी के फंदै खोले तो बर्कले बेहोश थे। इतना कट्टर अनुभववादी होते हुए भी भौतिकवादी न होकर अध्यात्मवादी हैं।

बर्कले अपने अनुभववादी विचार को लॉक के विचारों से ताल मेल कराते हुए आगे बढ़ाई है। बर्कले लॉक के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को मानकर कहते हैं कि हमारा समस्त ज्ञान संवेदनाओं और इन संवेदनाओं के द्वारा होता है। इन्द्रिय बौधी समस्त ज्ञान को उत्पन्न करते हैं किन्तु ऐन्द्रिय बोध जो बर्कले प्रत्यय कहते हैं, वह मन में ही रहते हैं लॉक ने इसके श्रोत के रूप में स्थित पदार्थ की कल्पना की थी, पर बर्कले का मत है कि ऐसा किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता। हम केवल मन्स के प्रत्यय का अनुभव करते हैं, जो प्रत्यय इन्द्रियों का देन है, भौतिक पदार्थों का नहीं।

जैसे हमें आँख से रंग या प्रकाश का ज्ञान होता है, जीभ से स्वाद, कान से शब्द इत्यादि का बोध होता है। ये प्रत्यय एकत्र होकर वस्तु की संज्ञा देते हैं और ये संवेदना के द्वारा मिलते हैं। इन प्रत्ययों का संहार रूप वस्तुओं से हमारे मन में सुख-दु:ख, प्रेम, घृणा, आशा-निराशा इत्यादि भावों का ज्ञान होता है। इनका ज्ञान एवं संवेदना से होता है जिसे बर्कले हमारे मन में कल्पना प्रस्तुत और स्मृति जन-प्रत्यय भी है। इसी को बर्कले में प्रत्ययवादी कहते हैं। इस प्रकार बर्कले के लिए अनुभव ज्ञान का साधन है किन्तु वह भौतिक पदार्थों का नहीं बल्कि ईश्वरीय प्रत्ययों का अनुभव है।

(iii) अनुभववाद के तीसरा प्रबल समर्थक ह्यूम ने लॉक और बर्कले के तरह यह मानते हैं कि सभी ज्ञान अनुभवजन्य होते हैं। ह्यूम का कहना है कि अनुभव प्रत्ययों का होता है वस्तु का नहीं। ह्यूम का अनुभववादी विचार लॉक और बर्कले के अनुभववादी विचार के अस्वीकार करते हुए जड़, जगत, ईश्वर और आत्मा के सत्ता को इंकार करते हैं और कहते हैं कि अनुभव केवल प्रत्ययों का ही होता है, जो लगातार आते-जाते रहता है।

हम भ्रमवश एक स्थायी आत्मा की कल्पना कर बैठते हैं, जबकि आत्मा नाम की चीज मनुष्य के पास नहीं है। ह्यूम कार्य कारण नियम का खंडन करता है, जिसे उसके पूर्व लॉक और बर्कले स्वीकार करते हैं। इनका कहना है कि कार्य कारण नियम कोई वृद्धिजन्य और सार्वभौम नियम नहीं है। बल्कि हम अपने अनुभव के आधार पर कार्य कारण के संबंध का ज्ञान प्राप्त करते हैं। हम केवल संवेदना और स्व-संवेदना का अनुभव करते हैं। किसी जड़ पदार्थ का नहीं। इसी तरह आत्मा के बारे में ह्यूम का कहना है कि हमें कभी भी आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। आत्मा कुछ नहीं है। केवल भिन्न-भिन्न संवेदनाओं का प्रवाह मात्र है। इसी प्रकार ईश्वर का भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। इसलिए इसकी पत्ता को भी ह्यूम इंकार करते हैं।

प्रश्न 7.
अरस्तू के कारणता सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर:
कारणता सिद्धांत को सामान्य मानव, दार्शनिक तथा वैज्ञानिक सभी स्वीकारते हैं। जिसका मूल सिद्धांत है कि प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। इस मत को पाश्चात दार्शनिक अरस्तू भी स्वीकारते हैं। अरस्तू के अनुसार किसी घटना के चार कारण होते हैं। वे हैं-

  1. उपादान कारण (Material cause)
  2. निर्मित कारण (Efficient cause)
  3. आकारिक कारण (Formal cause)
  4. प्रयोजन कारण (Final cause)

उपादान कारण- किसी वस्तु के निर्माण में जिस उपादान या सामग्री की आवश्यकता पड़ती है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे-मिट्टी घड़ा के लिए उपादन कारण है।

नामत कारण- किसी वस्तु का निर्मित कारण वह है, जो उपादान में शक्ति या गति प्रदान कर उसमें परिवर्तन लाता है। जैसे-कुम्हार घड़ा का निर्मित कारण माना जाता है।

आकारक कारण- किसी उपादान सामग्री को एक निश्चित दिशा में गति प्रदान करने का काम आकारिक कारण द्वारा सम्पन्न होता है। जैसे कुम्हार द्वारा घड़ा का बनाया जाना है। उनके मन में घड़ा का आकार विद्यमान रहता है तब वो घड़ा बनाता है।

प्रयोजन कारण – किसी वस्तु के निर्माण में प्रयोजन या लक्ष्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इसी प्रयोजन या लक्ष्य की पूर्ति के लिए किसी वस्तु का निर्माण होता है। घड़ा का बनकर तैयार होना प्रयोग कारण कहलाता है।

अरस्तू का चारों कारणों को आगे चलकर दो कारणों में सीमित कर देते हैं। उपादान कारण और आकारिक कारण में। निमित कारण एवं प्रयोजन कारण को आकारिक कारण में मिला देते हैं।

अरस्तु के अनुसार किसी भी वस्त के निर्माण में दो तत्त्व रहते हैं- उपादान और आकार। उपादान एक संभावनामार्ग है, परन्तु आकार वास्तविकता संभावना को वास्तविकता में परिणत होना ही किसी वस्तु का उत्पन्न होता है। इस प्रकार किसी वस्तु के निर्माण में आकार मूल प्रेरक का कार्य करता है।

प्रश्न 8.
वैशेषिक के अभाव पदार्थ की व्याख्या करें।
Ans.
वैशेषिक दर्शन में पदार्थों की संख्या दो बताई गई है-

  • भाव पदार्थ जिसका संख्या छ; है। वो है-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय।
  • अभाव, अभाव पदार्थ के अंतर्गत अभाव को रखा गया है। वैसे वैशेषिक सूत्र में अभाव की चर्चा नहीं की गई है। बाद के भाष्करों ने अभाव का वर्णन किया है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में दर्शन की संख्या सात हो जाते हैं।

अभाव किसी वस्तु का न होना कहा जाता है। अभाव का अर्थ किसी वस्तु का किसी विशेष काल में किसी विशेष स्थान में अनुपस्थित है। जैसे-रात्रि में बिस्तर में सर्प का अभाव। अभाव दो प्रकार के होते हैं-

  1. संसर्गाभाव
  2. अन्योन्यभाव।

संसर्गाभाव-दो वस्तुओं के सम्बन्ध के अभाव को कहा जाता है जब एक वस्तु का दूसरी वस्त में अभाव होता है तो उस अभाव को संसर्गाभाव कहा जाता है। जैसे जल में अग्नि का अभाव। संसर्गाभाव तीन प्रकार के होते हैं। प्रागभाव, ह्वसीभाव और अत्यन्ताभाव उत्पत्ति के पूर्व कार्य का भ्रांतिक कारण में अभाव प्रागाभाव है। जैसे-मिट्टी में घड़ा का अभाव। ध्वंस समावय का अर्थ है विनाश के बाद किसी चीज का अभाव। जैसे-घड़े के टूटे हुए टुकड़ों में घड़ा का अभाव। अन्यन्ताभाव दो वस्तुओं के सम्बन्ध का अभाव जो भूत, वर्तमान और भविष्य में रहता है।

अन्योन्यभाव-अन्योन्यभाव का मतलब दो वस्तुओं की भिन्नता। अर्थात् एक वस्तु में दूसरे का पूर्ण निषेध। जैसे-घोड़े गाय नहीं हो सकता। इसे एक रेखा चित्र द्वारा दर्शाया जा सकता है।

प्रश्न 9.
जैन के स्याद्वाद सिद्धान्त की व्याख्या करें। अथवा, स्याद्वाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
जैन दर्शन के अनुसार वस्तुओं के अनन्त धर्म होते हैं- ‘अनन्त धर्मकर्म वस्तु’। हम किसी भी वस्तु के जितने गुणों या लक्षणों को जानते हैं, उतने ही गुण या लक्षण उस वस्तु में नहीं होते। वस्तु के ‘अनन्त धर्म’ को जीतना हमारे लिए संभव नहीं है। यह जैन का अनेकान्तवाद है। अब चूँकि हम वस्तु के अनन्त धर्म को नहीं जान सकते। अतः यह कहा जा सकता है कि वस्तु को हम सही-सही नहीं जानते हैं। अत: वस्तुओं के विषय में हमारा ज्ञान एकांगी है। यहाँ जैन दर्शन का स्याद्वाद हमारी सहायता करता है। स्याद्वाद बतलाता है कि हम निरपेक्ष रूप से नहीं कह सकते हैं कि कोई वस्तु है या नहीं है।

स्याद्वाद जैनदर्शन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसकी धारणा है कि सत् का स्वरूप अत्यधिक अनियत भिन्न-भिन्न (निष्कर्ष वाला) है। ‘स्यात्’ शब्द संस्कृत की अस धातु (होना) के विधिलिंग का एक रूप है। इसका अर्थ है-हो सकता है शायद, इसलिए स्याद्वाद शायद का सिद्धांत है। इस सिद्धांत का तात्पर्य है कि वस्तु को अनेक दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है और प्रत्येक दृष्टिकोण से एक भिन्न निष्कर्ष प्राप्त होता है। किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में हमारा जो निर्णय होता है वह सभी दृष्टियों से सत्य नहीं होता। साधारण मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आंशिक होता है।

हमारे मतभेद का कारण यह है कि हम उपर्युक्त सिद्धान्त को भूल जाते हैं और अपने विचारों को सर्वथा सत्य मानते हैं। इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। छः अन्धे, हाथी के आकार के ज्ञान जानने के उद्देश्य से, हाथी के अंग का स्पर्श करते हैं। कोई उसका पेट, कोई पैर, कोई कान, कोई पूँछ तथा कोई उसका लँड पकड़ता है। प्रत्येक अंधा सोचता है कि उसी ज्ञान में सब कुछ है, शेष गलत है। किन्तु जैसे ही उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि प्रत्येक ने हाथी का एक-एक अंग स्पर्श किया है, उनका मतभेद दूर हो जाता है। इस आंशिक ज्ञान के आधार पर जो परामर्श होता है उसे ही ‘नय’ कहते हैं। ‘नय’ एक दृष्टिकोण है जिसके आधार पर तप किसी पदार्थ के विषय में कोई कथन कहते हैं। ‘नय’ को स्पष्ट करते हुए Dr. C. D. Sharma ने लिखा है-A mere statement of relative truth calling it either absolute relative is called Naya.

स्याद्वाद के सम्बन्ध में दो तरह के मत देखने को मिलते हैं। पहला मत उपनिषदों का था कि सत् ही तत्त्व है और दूसरा मत छान्दोग्य उपनिषद् का, किन्तु अस्वीकृत, कि असत ही तत्त्व है। जैनदर्शन के अनुसार ये दोनों ही मत अंशत: सही हैं। जैनों के विचार से तत्त्व का स्वरूप इतना जटिल है कि उसके बारे में इन मतों में से प्रत्येक अंशतः तो सही हैं, लेकिन पूर्णतः सही नहीं है। अतः जैन इस बात का आग्रह करते हैं कि प्रत्येक नया के प्रारम्भ में ‘स्यात’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। स्यात शब्द से यह संकेत होता है कि इसके साथ के प्रयुक्त वाक्य की सत्यता प्रसंग विशेष पर ही निर्भर करती है। अन्य प्रसंगों में वह मिथ्या भी हो सकता है। अतः स्याद्वाद वह सिद्धांत है जो मानता है कि मनुष्य का ज्ञान एकांगी तथा आशिक है।

जैनियों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से परामर्श (Judgement) के भेद किए हैं। जिस परामर्श में किसी वस्तु के साथ उसके अपने धर्म या लक्षण का संबंध जोड़ा जाता है उसको अस्तिवाचक परामर्श कहते हैं। जिस परामर्श में किसी वस्तु का किसी अन्य वस्तु के धर्म या लक्षण के साथ संबंध भाव दिखलाया जाता है, उसे नास्तिवाचक परामर्श कहते हैं। जैन दर्शन के सात प्रकार के. परामर्श के अंतर्गत ये दो परामर्श भी निहित हैं। जैन-दर्शन में इस वर्गीकरण को ‘सप्त-भंगी नय’ कहा जाता है।

प्रश्न 10.
शिक्षा का उद्देश्य क्या है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
शिक्षा का उद्देश्य एवं पद्धति समय के अनुसार बदलते रहा है। प्राचीन काल में शिक्षा उद्देश्य चारित्रिक विकास करना होता था तथा धार्मिक शिक्षा दी जाती थी जबकि वर्तमान शिक्षा पद्धति का आधार रोजगार परक है। अर्थात् वही शिक्षा उचित है जो रोजगार दे सके। लेकिन शिक्षा का उद्देश्य न सिर्फ रोजगार परक होना चाहिए, बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। इसलिए इस संदर्भ में महात्मा गाँधी ने कहा है शिक्षा ऐसे होनी चाहिए जिससे व्यक्तित्व का विकास हो तथा उसे रोजगार मिल सके। इसीलिए उन्होंने मूल्य युक्त तकनीक शिक्षा की वकालत की है।

वर्तमान में विश्व के सामने अनेकों समस्याएँ, जैसे-भ्रष्टाचार की समस्या, धार्मिक उन्माद, सम्प्रदायवाद, नक्सलवाद आदि। इन सभी के मूल में देख पाते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था दोषपूर्ण हैं। तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ नैतिक मूल्यपरक शिक्षा आवश्यक है। आध्यात्मिक शिक्षा आवश्यक है। तकनीकी शिक्षा लोगों को रोजगार तो अवश्य दे देता है पर जीने की कला नहीं सिखाती मानव मशीनी जीवन जीते-जीते स्वयं मशीन बन जाता है।

इसलिए व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ मूल्यपरक शिक्षा दिया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को समझे। परिवार के प्रति, समाज के प्रति एवं राष्ट्र के प्रति क्या कर्त्तव्य होना चाहिए। साथ ही आज धर्म के नाम प्रतिदिन हजारों लोगों की जान जाती है क्यों? क्योंकि धर्म के वास्तविक अर्थ को हम नहीं समझ पाते हैं इसलिए इतिहास, भूगोल की तरह सभी धर्मों की भी शिक्षा प्राथमिक स्तर में दिशा जाना चाहिए।

प्रश्न 11.
बुद्धिवाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
बुद्धिवाद वह ज्ञान शास्त्रीय सिद्धान्त है जिसके अनुसार ज्ञान की प्राप्ति मात्र बुद्धि से संभव है। इसके निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(a) इस सिद्धांत के अनुसार बुद्धि ज्ञानप्राप्ति का एकमात्र साधन है। अनुभव के द्वारा यथार्थ ज्ञान कदापि नहीं मिल सकता।

(b) इस सिद्धांत के अनुसार यथार्थ ज्ञान वह है, जो सार्वभौम (Universal) और अनिवार्य (Necessary) हो। यह ज्ञान सार्वभौम है; क्योंकि यह सभी स्थानों (Place) और सभी कालों (Time) में सत्य होता है। यह ज्ञान अनिवार्य है; क्योंकि इसका अपवाद या विपरीत सत्य नहीं हो सकता। उदाहरण- 2 + 2 = 4। यह हमेशा और सभी स्थान में सत्य है और इसका अपवाद कभी सत्य नहीं हो सकता। बुद्धिवादियों का दावा है कि इस प्रकार के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति केवल बुद्धि द्वारा ही। हो सकती है। अनुभव सीमित है, इसलिए इसके द्वारा सार्वभौम और अनिवार्य ज्ञान मिलना असंभव है।

(c) इस सिद्धांत में जन्मजात या सहज प्रत्यायों (Innate Ideas) का समर्थन किया गया है। जन्मजात प्रत्यय मनुष्य के मस्तिष्क में जन्मकाल से ही विद्यमान रहते हैं। इन्हें अनुभव के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। ये स्वयं सिद्ध (Self-proved) है; क्योंकि इनको सिद्ध करने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती। संपूर्ण ज्ञान इन्हीं जन्मजात प्रत्ययों में अव्यक्त रूप से निहित हैं। इन्हीं प्रत्ययों को विकसित करके बुद्धि हमें यथार्थ ज्ञान देती है। इसलिए, बुद्धिवाद को सहज ज्ञानवाद (Innatism) या अनुभवनिरपेक्षवाद (Apriorism) भी कहा जाता है।

(d) बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति निगमनात्मक पद्धति (Deductive Method) द्वारा होती है। गणितशास्त्र में निगमनात्मक या ज्यामितिक विधि (Geometrical Method) का सुंदर प्रयोग होता है। गणित में और विशेषकर ज्यामिति में कुछ स्वयंसिद्ध वाक्यों (Axioms) से आरंभ कर निगमनात्मक विधि द्वारा निष्कर्ष निकाला जाता है। इसी प्रकार, बुद्धि स्वसिद्ध जन्मजात प्रत्ययों के आरंभ कर उनके विश्लेषण द्वारा हमें यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराती है। यह निगमनात्मक विधि है।

(e) बुद्धि के अनुसार मानव-मस्तिष्क हमेशा सक्रिय रहता है। (Human mind is always active)। यह विचार अनुभववादी विचारक लॉक के मत से सर्वथा भिन्न है। लॉक के अनुसार मस्तिष्क सदा निष्क्रिय (Passive) रहता है। बुद्धिवाद के अनुसार मस्तिष्क सक्रिय होकर ही सहज प्रत्ययों को सुव्यवस्थित करके हमें यथार्थ ज्ञान दिलाने में समर्थ होता है।

प्रश्न 12.
बौद्ध दर्शन के द्वितीय आर्य सत्य की व्याख्या करें। अथवा, द्वितीय आर्य सत्य को द्वादश निदान क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
बुद्ध का दूसरा आर्य सत्य दु:ख समुदय है। समुदय का अर्थ है-कारण। दुःख समुदय अर्थात दु:ख का कारण। इस प्रकार द्वितीय आर्य सत्य में बुद्ध ने दुःख की उत्पत्ति या कारण पर विचार किया है। बुद्ध मानते हैं कि प्रत्येक घटना का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। दुःख भी एक घटना या कार्य है। इसलिए इसका भी कोई कारण अवश्य होना चाहिए। प्रायः सभी भारतीय विचारकों ने अज्ञान को ही दुःख का मूल कारण माना है। बुद्ध ने भी दुःख का कारण अज्ञान को ही माना है। बौद्ध दर्शन का यह दु:ख उत्पत्ति का सिद्धान्त बौद्धों के प्रतीत्य समुत्पाद अर्थात् कार्य कारण का सिद्धान्त भी कहलाता है।

प्रतीत्य समुत्पाद या द्वादश निदान का सिद्धान्त बौद्ध दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन के अन्य दार्शनिक सिद्धान्त जैसे-क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, संघातवाद, कर्म का सिद्धान्त तथा अर्थक्रिया करित्वा का सिद्धान्त इसी पर आधारित है। प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ है–एक वस्तु के प्राप्त होने से दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा कारण के आधार पर कार्य की उत्पत्ति। प्रतीत्य समुत्पाद के एक सूत्र में कहा जाता है-“अस्मिन् सति इदम् भवति” यह होने पर यह होता है। इस प्रकार प्रतीत्य समुत्पाद सापेक्ष कारणतावाद का सिद्धान्त है। बुद्धि अविछिन्न कारण कार्य के प्रवाह को नहीं मानते। एक के होने से दूसरे की उत्पत्ति वे स्वीकार करते हैं।

प्रतीत्य समुदाय का नियम अमिट और अटल है। यह हेतु समूह को बताता है जो संस्कार आदि की उत्पत्ति के लिए एक-एक हेतु को निर्दिष्ट करता है। बुद्ध मानते हैं कि संसार के सभी ‘सत्व’ इस नियम के वशीभूत हैं। यह अनादि और अनन्त है तथा भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कालों में निर्बाध रूप से लागू होता है। बुद्ध प्रतीत्य समुत्पाद को महत्त्व देते हुए कहते हैं-जो देखता है वह धर्म देखता है। और जो धर्म देखता है वह प्रतीत्य समुत्पाद देखता है।

प्रतीत्य समुत्पाद सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों है। सापेक्ष दृष्टि से संसार और उसके हेतु निर्देश करता है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण का। कुछ मानते हैं कि यह बौद्ध धर्म है। इसको भूल जाना ही दुःख का कारण है और इसके ज्ञान से दुःख का अन्त होता है। नागार्जुन कहता है कि यह सिद्धान्त समस्त प्रपंच को समाप्त कर आनन्द देता है।

प्रतीत्य समुत्पाद में द्वादश अंग हैं। इन अंगों को निदान भी कहते हैं। इसमें एक अंग दूसरे के प्रत्यय से होता है। कारण कार्य की यह शृंखला स्वयं चलती रहती है। बुद्ध ने इसे भावचक्र भी कहा है।

गौतम ने रोग और जरामरण के दृश्यों को देखकर इनकी समस्या को सुलझाने के लिए घर-बार छोड़कर कठिन तपस्या और ध्यान किया। तब उन्हें समस्या के हल के रूप में कारण-कार्य श्रृंखला का यह सिद्धान्त प्राप्त हुआ जिसे वे सीधे और उल्टे दोनों ही क्रम से विवेचित करते हैं। दुःख निर्मिति के स्पष्टीकरण के रूप में उपर्युक्त द्वादश निदान हैं। प्रतीत्य समुत्पाद को कई नामों से पुकारा जाता है। द्वादश निदान, भावचक्र, जन्म-मरण चक्र और धर्मचक्र आदि। तिब्बत के बौद्ध भिक्षु चक्र घुमा-घुमाकर इन बारह कड़ियों का स्मरण करते रहते हैं।

1. अविद्या-अविद्या का अर्थ अज्ञान है। अविद्या के कारण ही संसार का दुःख रूप छिपा है। इसे अज्ञान, मोह, अदर्शन आदि भी कहते हैं। अनित्य में नित्यता, दुःख में सुख और अनात्म भूत जगत में आत्मा को खोजना यह अज्ञान ही अविद्या है। इससे ही संस्कार आदि समस्त भाव विरोधिनी है। अविद्या सभी बुराइयों का बीज है।

2. संस्कार-संस्कार या पूर्वजन्म की कर्मावस्था। अविद्या के कारण सत्य जो भी भला-बुरा कर्म करता है, वही संस्कार कहलाता है। जैसे संस्कार होते हैं वैसी ही उनका फल होता है। यह वह संकल्प शक्ति है जो नवीन अस्तित्व को उत्पन्न करती है। कर्म संस्कार, मनः संस्कार और वाक् संस्कार-ये संस्कार के तीन भेद किये जाते हैं।

3. विज्ञान-विज्ञान वे चित्त धाराएँ हैं जो पूर्ण जन्म में सत्व कर्म करता है उनके विपाक स्वरूप प्रकट होती है। शरीर, संवेदना, इन्द्रियाँ आदि नष्ट होने पर भी विज्ञान बचता है। यह प्राणी के माता के गर्भ में प्रवेश करता है और नवीन जन्म की ओर ले जाता है।

4. नाम रूप- विज्ञान से नामरूप का जन्म होता है। रूप में पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल ये चार महाभूत तथा नाम से संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध आते हैं। दोनों को मिलाकर ही पंच स्कन्ध नामरूप कहलाते हैं जब विज्ञान माता के गर्भ में प्रति सन्धि ग्रहण करता है। तभी से नाम रूप उत्पन्न होना शुरू हो जाते हैं।

5. षडायतन- पाँच इन्द्रियाँ और मन षडायतन कहलाते हैं। इनसे ज्ञान की प्राप्ति में सहायता मिलती है । आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा और मन ये छ: इन्द्रियाँ माता के उदर से बाहर आने पर सत्व प्रयुक्त करता है।

6. स्पर्श- षडायतन से बाह्य संसार का जो सम्पर्क होता है, उसे स्पर्श कहते हैं । ये पंचेन्द्रिय और मन इन भेदों से छः प्रकार का होता है।

7. वेदना- वेदना का अर्थ अनुभव करना है। बाह्य जगत की वस्तुओं के स्पर्श से जो प्रथम प्रभाव मन पर उत्पन्न होता है, वह वेदना है। यह तीन प्रकार की होती है-सुख वेदना, असुखा-दुखा, वेदना।

8. तृष्णा-वेदना से तृष्णा उत्पन्न होती है। यह सब दुखों का मूल है। तृष्णा तीन प्रकार की है

  • काम तृष्णा-इन्द्रिय सुखों की इच्छा,
  • भव तृष्णा-जीवन के लिए,
  • विभव तृष्णा-वैभव के लिए।

ये तीनों तृष्णाएँ सत्व को भव चक्र में घुमाती रहती हैं। जबतक इच्छा या तृष्णा बाकी रहती है तब तक सत्व का जन्म होता रहता है और जब तृष्णा नहीं रह जाती तब के लिए कोई अवसर नहीं रहता।

9. उपादान-उपादान अर्थात् जगत को वस्तुओं के प्रति राग और मोह से सत्व का दृढ़तापूर्वक बन्धन उपादान की तृष्णा की आग को ईंधन प्रदान करते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं-

  • शीलवतोपादान-व्यर्थ के शीलाचार में लगे रहना
  • दृष्ट्युपादान-मिथ्या सिद्धान्तों में विश्वास करना
  • आत्मवादोपादान-आत्मा के अस्तित्व में दृढ़ आग्रह करना
  • कालोपादान-अर्थात् वासनाओं में चिपटे रहना ।

10. भव-पुनर्जन्म के कारण कराने वाले कर्म को भव कहा गया है। भव से जन्म होता है।

11. जाति-उत्पन्न होना जाति है। पूर्व भव के कारण सत्व उत्पन्न होता है और वह संसार चक्र में फंसता है।

12. जरा-मरण-बुढ़ापा तथा मृत्यु इन दो अवस्थाओं को जरामरण कहा गया है। बुद्ध इनके अन्दर समस्त दुःखों का समावेश कर लेते हैं। संसार में जन्म के कारण सत्व, दुःख, रोग, निराशा, कष्ट, बुढ़ापा और अन्त में मृत्यु को प्राप्त करता है।

बुद्ध द्वादश निदान को (कार्य कारण) को इस उल्टे क्रम में समझाते हुए कहते हैं कि सत्व के सभी दु:खों तथा जरामरण का कारण जाति है। जाति का कारण भव, भव का कारण उपादान, उपादान का कारण वेदना, वेदना का कारण स्पर्श, स्पर्श का कारण षडायतन, षडायतन का कारण नामरूप, नामरूप का कारण विज्ञान, विज्ञान का कारण संस्कार और संस्कार का कारण अविद्या है। बुद्ध का अभिप्राय है कि हेतु से उत्पन्न होने वाले धर्मों के हेतु को जानना और उनका विरोध करने से निर्वाण की प्राप्त होती है।

ये धम्मा हेतुप्पभवा हेतु तेसं तथा गतो आह।
तेसं चयो निरोधो एवं वादी महसभणो।।

प्रश्न 13.
अन्तक्रियावाद और समानान्तरवाद में अन्तर करें।
उत्तर:
अन्तक्रियावाद (Interactionism)- मन शरीर संबंध का विश्लेषण देकार्त, स्पिनोजा और लाइबनीज ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। देकार्त्त का विचार है अन्तक्रियावाद (Interactionism), स्पिनोजा का विचार समानान्तरवाद (Parallelism) और लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। देकार्त के अनुसार मन और शरीर एक-दूसरे से स्वतंत्र है। मन चेतन है। शरीर जड़ है।

अत: दोनों का स्वरूप भिन्न है। फिर भी उनमें पारस्परिक संबंध है जिसे देकार्त ने अन्तक्रिया संबंध (relation of interaction) कहा है। जब भूख लगती है तो मन खिन्न रहता है। भोजन करने से भूख मिटती है और मन तृप्त होता है। मन में निराशा होती है, तो किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती है। हाथ-पैर हिलाने से काम होता है। इस प्रकार विरोधी स्वभाववाले ये दो सापेक्ष द्रव्य एक-दूसरे पर निर्भर है।

समानान्तारवाद (Parallelism)- पाश्चात्य विचारक स्पिनोजा ने मन-शरीर संबंध की व्याख्या के लिए सिद्धांत का प्रणयन किया है, उसे समानांतरवाद कहा जाता है। स्पिनोजा की मान्यता है कि मन और शरीर सापेक्ष द्रव्य नहीं हैं, जैसा की देकार्त ने स्वीकार किया है। चैतन और विस्तार क्रमश: मन और शरीर के गुण हैं तथा ये गुण ईश्वर में निहित रहते हैं। ये दोनों गुण ईश्वर के स्वभाव हैं। ये दोनों विरोधी स्वभाव नहीं है, बल्कि रेल की पटरियों के समान समानांतर स्वभाव हैं। इन दोनों की क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं। ….

प्रश्न 14.
परिवेशीय नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर:
परिवेश अथवा पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है-परि + आवरण। परि का अर्थ है ‘चारों ओर’ और ‘आवरण’ का अर्थ है ‘घेरा’ अर्थात् हमारे चारों ओर जो भी प्राकृतिक और मानव निर्मित चीजें हैं जिसमें जैव एवं अजैव घटक जैसे-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, पेड़-पौधे, समस्त जीव एवं पशुजगत पर्यावरण के अंतर्गत आते हैं। हरकोविट्ज ने पर्यावरण को परिभाषित करते हुए कहा है-“किसी जीवित तत्त्व के विकास चक्र को प्रभावित करने वाले समस्त बाह्य दशाओं को पर्यावरण कहते हैं।

मानव सभ्यता का विकास पर्यावरण की गोद में हुआ है। मानव सदा से पर्यावरण पर निर्भर रहे हैं लेकिन वर्तमान में वैश्वीकरण, उदारीकरण, औद्योगिकीकरण, जनसंख्या वृद्धि के कारण जिस प्रकार से मानव पर्यावरण का दोहन किया है कि सम्पूर्ण पारिस्थितिकी में असंतुलन उत्पन्न हो गया है जो सम्पूर्ण प्राणी जगत के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। आज पर्यावरण के मुख्य घटक जल, वायु, पृथ्वी आदि प्रदूषित हो गई है। जल प्रदूषण का मूल कारण औद्योगिक करों को सीधे नदी में बहाया जाना शहर की नाली को सीधे नदी में बहाया जाना जिसमें जल प्रदूषण उत्पन्न हो गई है जिसका प्रमुख समस्त प्राणी जगत. पर पड़ रहा है।

वायु प्रदूषण का मूल कारण औद्योगिक चिमनी का वायु में छोड़ा जाना, नाभिकीय विस्फोट, परिवहन का विषैला गैस का वातावरण में छोड़ा जाना जिससे वायुमंडल गर्म हो गया जिसका प्रभाव ग्लोबल वार्मिंग ध्रुवीय प्रदेश का बर्फ का पिघलना, ओजोन परत में छेद होना आदि जिसका समस्त प्राणी जगत पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण की समस्या समस्त प्राणी जगत के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है जिसका निदान आवश्यक है अन्यथा प्राणी जगत का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 15.
शिक्षा दर्शन की व्याख्या करें। अथवा, शिक्षा दर्शन की परिभाषा दें तथा इसके दार्शनिक आधारों की विवेचना करें।
उत्तर:
शिक्षा दर्शनशास्त्र की वह शाखा है जिसमें शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य, स्वरूप और विषय-वस्तु का अध्ययन दार्शनिक दृष्टि से किया जाता है। दार्शनिक दृष्टि का तात्पर्य है कि शिक्षा के विस्तृत आयाम का अध्ययन समग्र रूप में करना। समग्रता ही दर्शन है। दर्शन का मुख्य उद्देश्य सत्य की खोज है। शिक्षा का उद्देश्य सत्य ज्ञान (True knowledge) देना है। दर्शन में हम जिस सत्य की खोज करते हैं वह परमतत्त्व है जिस पर समस्त विश्व आधारित है। उस परमतत्त्व का ज्ञान उसे ही होता है जो शिक्षित है अर्थात् शिक्षा द्वारा सत्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। अतएव शिक्षा और दर्शन में अवियोज्य संबंध है। यदि दर्शन साध्य है तो उसका साधन शिक्षा है। यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि सा विद्या या विमुक्त्ये।

अर्थात् विद्या या ज्ञान या शिक्षा वही है जो मानव को मुक्ति दिलाये। भारतीय दार्शनिकों ने मानव-जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष (मुक्ति) को माना है। बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों ने मुक्ति को क्रमशः निर्वाण और कैवल्य की संज्ञा दी है। चार्वाक दर्शन में देहोच्छेद (मृत्यु) को मोक्ष कहा गया है। यदि मोक्ष की शास्त्रीय अवधारणा पर विचार किया जाय तो मोक्ष मृत्यु नहीं है वरन् मानव-जीवन में निहित विकारों और कुविचारों का अंत है। इनके अंत के साथ ही मानव-व्यक्तित्व अपनी पूर्णता में आ जाता है और सामाजिक समग्रता और समरसता स्थापित हो जाती है। शिक्षा हमें इसी समग्रता और समरसता की ओर ले जाती है।

शिक्षा ‘शिक्ष्’ धातु से व्युत्पन्न है। शिक्ष् का अर्थ सीखना और सिखाना दोनों है। अतएव शिक्षा, जैसा कि पाणिनी ने कहा है, संस्कृत शब्द जो ‘शिक्ष्’ विद्योपादाने धातु से ‘गुरोश्च हल’ सूत्र भावार्थ में ‘अ’ प्रत्यय करने पर निष्पन्न माना गया है। इस परिभाषा में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिक्षा वह है जो गुरु द्वारा प्रस्तुत समाधान से प्राप्त होती है, अर्थात् शिक्षा गुरु के बिना प्राप्त नहीं होती। कहा भी गया है कि
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गरु की. जिन दीऊ बताय।।
तात्पर्य यह है कि शिक्षा के दो मुख्य तत्त्व हैं-गुरु और शिष्य। शिष्य गुरु द्वारा शिक्षा ग्रहण करता है। प्रश्न है गुरु किस तरह शिष्य को शिक्षा देता है ? दूसरे शब्दों में, शिक्षा का तरीका क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व पाश्चात्य दृष्टिकोणं से शिक्षा को परिभाषित करना आवश्यक है।

आश्रम व्यवस्था की शिक्षा प्रणाली और अकादमी शिक्षा प्रणाली दोनों में यह सम्मिश्रण देखने को मिलता है। ब्रह्मचर्य आश्रम की शिक्षा का आरंभ ईश्वर-भक्ति से होता है। आसन, प्राणायाम आदि शारीरिक क्रियाओं के पश्चात् वेद, वेदांग आदि शास्त्रों की शिक्षा मिलती है। अकादमीय शिक्षा प्रणाली के अनुसार आरम्भ में बच्चों को मात्र शारीरिक शिक्षा (Physical education) देना चाहिए। तत्पश्चात् विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करना चाहिए। शारीरिक शिक्षा शरीर और मन दोनों को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है। अन्य विषयों के ज्ञान से बौद्धिक विकास होता है। शरीर और बुद्धि दोनों का विकास होने पर ही मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है। मानव व्यक्तित्व अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। आज की शिक्षा प्रणाली शारीरिक शिक्षा पर कम ध्यान देती है। मात्र बौद्धिक शिक्षा पर बल देती है। फलतः शिक्षा का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 16.
क्या शंकर के अनुसार जगत् असत्य है ? अथवा, शंकर के जगत विचार की व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर एकतत्ववादी है। ब्रह्म को छोड़कर शेष सभी वस्तुएँ जगत्, ईश्वर सत्य नहीं है। वह ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानता है। उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म के दो स्वरूप है-शब्द, स्पर्श आदि से रहित निर्विवेक, निर्गुण, निराकार, ब्रह्म और गुणों से युक्त सगुण, साकार ब्रह्म। निर्गुण ब्रह्म को परब्रह्म तथा सगुण ब्रह्म को अपर ब्रह्म या ईश्वर कहा गया है। शंकर उपनिषद के समान ब्रह्म के निर्गुण और सगुण भेद को स्वीकार करते हैं। शंकर के अनुसार निर्गुण ब्रह्म को सत्, परमार्थ सत्य, परमार्थ-तत्व, भूमा, निरतिशय, कूटस्थ, नित्य, एक समस्त विशेषण रहित, दिग्देशक, लाद्यनपेक्ष, सर्वसंसार धर्म वर्जित निरस्त, सर्वोपाधिक सर्वगत, चैतन्य मात्र सत्ता, निराकृत सर्वनाम रूप, कर्म ज्ञान ज्ञेय ज्ञात भेद रहित आदि कहा गया है। शंकराचार्य केवल इसी निर्गुण ब्रह्म या आत्मा को एकमात्र तत्व मानते हैं, अतः अद्वैतवादी कहलाते हैं। परमार्थिक दृष्टि से यही परम तत्व है। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से अपर ब्रह्म या ईश्वर भी सत्य है।

शंकर का ब्रह्म सत्य होने के नाते सभी प्रकार के विरोधों से मुक्त है। शंकर का ब्रह्म प्रत्यक्ष विरोध और संभावित विरोध से शून्य है। ब्रह्म त्रिकाल बाधित सत्ता है। ब्रह्म व्यक्तित्व से शून्य है। व्यक्तित्व (Personality) में आत्मा (self) और अनात्मा (Not Self) का भेद रहता है। ब्रह्म सब भेदों से शून्य है। इसलिए ब्रह्म को निर्व्यक्तिक (Impersonal) कहा गया है। ब्रैडले ने भी ब्रह्म को व्यक्तित्व से शून्य माना है। शंकर ने ब्रह्म को अनन्त असीम कहा है। वह सर्वव्यापक है। उसका आदि और अंत नहीं है। वह सबका कारण होने के कारण सब का आधार है।

शंकर के ब्रह्म की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने ब्रह्म को अनिवर्चनीय माना है। ब्रह्म को शब्दों के द्वारा प्रकाशित करना असंभव है। ब्रह्म को भावात्मक रूप से जानना भी संभव नहीं है। हम यह नहीं जान सकते हैं कि “ब्रह्म” क्या है अपितु हम यह जान पाते हैं कि “ब्रह्म क्या नहीं है।” उपनिषद में ब्रह्म का “नेति-नेति’ कहकर वर्णन किया गया है। शंकर उपनिषद के इस विचार के आधार पर ही ब्रह्म की व्याख्या करता है। नेति-नेति का शंकर के दर्शन में इतना प्रभाव है कि वह ब्रह्म को एक कहने की बजाय अद्वैत (Non-dualism) कहते हैं।

शंकर के अनुसार जो सत है वही चित् है, जो चित् है वही सत् है। अतः शंकर ने परमार्थिक सत्य तथा ज्ञानात्मक सत्य में कोई भेद नहीं माना है। ज्ञान के क्षेत्र में भी ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय में कोई भेद नहीं है। शंकर का ब्रह्म सब प्रकार के गुणों से परे होकर भी निषेधात्मक नहीं है। निरपेक्ष सहज ज्ञान द्वारा उसका अनुभव किया जा सकता है। ब्रह्म आनन्द स्वरूप है। ब्रह्मानन्द अनुभव का विषय है। ज्ञान ब्रह्म का गुण नहीं बल्कि स्वरूप है। गुणातीत होने के कारण वह निर्गुण है। शंकर के ब्रह्म का वर्णन नेति-नेति के आधार पर ही किया है। वह सत् है, चित् है तथा आनंद स्वरूप है।

प्रश्न 17.
परार्थानुमान क्या है?
उत्तर:
प्रयोजन के अनुसार अनुमान के दो प्रकार होते हैं-(क) स्वार्थानुमान और (ख) परार्थानुमान। अनुमान दो उद्देश्यों से किया जा सकता है-अपनी शंका के समाधान के लिए या दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए। जब अनुमान अपनी शंका के समाध न के लिए किया जाता है तब उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। ऐसे अनुमान में तीन वाक्य रहते हैं-निगमन हेतु और व्याप्ति वाक्य। उदाहरण-

राम मरणशील है-निगमन
क्योंकि वह मनुष्य है-हेतु
∴ सभी मनुष्य मरणशील है-व्याप्तिवाक्य

जब अनुमान दूसरों को समझाने के लिए किया जाता है तब इसे परार्थानुमान कहते हैं। इसमें पाँच वाक्य होते हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, व्याप्तिवाक्य, उपनय और निगमन। इसे “पंचवयव-न्याय” कहते हैं। इसके द्वारा दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है।

उदाहरण-

  1. राम मरणशील है-प्रतिज्ञा
  2. क्योंकि वह एक मनुष्य है-हेतु
  3. सभी मनुष्य मरणशील है, जैसे-मोहन, रहीम इत्यादि-उदाहरण
  4. राम भी एक मनुष्य है-उपनय
  5. इसलिए राम मरणशील है-निगमन।

प्रश्न 18.
सांख्य की प्रकृति के तीन गुणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्रकृति त्रिगुणात्मक है। सत्व, रजस् और तमस्-वे प्रकृति के तीन गुण हैं। ये तीनों गुण प्रकृति के विशेषण नहीं बल्कि प्रकृति के निर्णायक तत्त्व हैं और इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है।

सत्व- यह ज्ञान का प्रतीक एवं सुख का कारण है। यह प्रकाशक है। मन एवं बुद्धि में प्रकाश, दर्पण में प्रतिबिम्ब की शक्ति, पदार्थों के हल्के होने पर ऊपर उठने की प्रवृत्ति इसी तत्त्व के कारण हैं। यह सुख, प्रेम, आनन्द, उल्लास आदि का सिद्धांत है। इसका रंग सफेद होता है।

रजस- यह दुःख का कारण है। मन का भारीपन एवं हृदय पर बोझ इसी गुण के कारण होता है। यह स्वयं गतिशील और अन्य वस्तुओं को गति प्रदान करता है। इसका रंग लाल होता है।

तमस्- आलस्य, उदासीनता, जड़ता आदि तमस् के कारण होती है। यह अज्ञान एवं अंधकार का प्रतीक है। यह भारी होता है और इसलिए सत्व का विरोधी है और गति में बाधा पहुँचाकर कभी-कभी रजस् का भी विरोधी बन जाता है। इसका रंग काला होता है।

ये तीनों गुण यद्यपि स्वभाव में एक-दूसरे से एकदम ही भिन्न और विरोधी भी हैं, फिर भी तीनों गुणों में सहयोग भी होता है और तीनों साथ-साथ रहते हैं। एक ही वस्तु किसी को सुख, किसी को दुख पहुँचाता है और किसी अन्य में तटस्थता का भाव उत्पन्न करता है। एक सुन्दर स्त्री अपने पति को सुख, ईर्ष्यालु को दुःख पहुँचाती है तो सज्जनों को तटस्थ या उदासीन बनाती है। इन तीनों गुणों में विरोध रहते हुए भी सहयोग होता है। इसे सांख्य ने एक उपमा द्वारा समझाने का प्रयास किया है। जिस प्रकार तेल, बत्ती और अग्नि परस्पर भिन्न होते हुए भी एक साथ मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार ये तीनों गुण परस्पर भिन्न होते हुए भी सहयोग द्वारा सांसारिक वस्तुओं को उत्पन्न करते हैं।

इन गुणों में सतत् परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं-सरूप परिणाम और विरूप परिणाम। सरूप परिणाम परिवर्तन तब होता है जब प्रत्येक गुण अन्य गुणों से अलग होकर अपने आप में सिमट जाता है, सत्व परिवर्तित होता है सत्व में, रजस् रजस् में, तमस् तमस् में। यह अवस्था प्रकृति की शान्तावस्था है। जब किसी कारणवश एक अन्य दो गुणों को दबाकर आगे बढ़ने का प्रयास करता है तो प्रकृति की साम्यावस्था भंग हो जाती है, प्रकृति में एक प्रकार की हलचल सी उत्पन्न हो जाती है। यहाँ सृष्टि का क्रम आरम्भ हो जाता है। इसे ही विरूप परिणाम परिवर्तन कहते हैं।