BSEB Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 2 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
बौद्ध दर्शन के तृतीय आर्य सत्य की व्याख्या करें।
उत्तर:
बौद्ध दर्शन के संस्थापक महात्मा बुद्ध माने जाते हैं और उन्होंने नैतिक जीवन के सर्वोच्च आदर्श के रूप में निर्वाण की प्राप्ति को स्वीकार किया है। निर्वाण के स्वरूप की चर्चा उन्होंने अपने तृतीय आर्य-सत्य के अंतर्गत किया है। इसे ही दुःख निरोध कहा जाता है। वह अवस्था जिसमें सभी प्रकार के दु:खों का अंत हो जाता है, निर्वाण कहा जाता है। भारतीय दर्शन के अन्य सम्प्रदायों में जिसे मोक्ष या मुक्ति की संज्ञा दी गयी है, उसे ही बौद्ध दर्शन में निर्वाण कहा जाता है। बुद्ध के अनुसार, निर्वाण की प्राप्ति जीवन काल में भी संभव है। जब मनुष्य अपने जीवन काल में राग, द्वेष, मोह, अहंकार इत्यादि पर विजय प्राप्त कर लेता है तो वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है। निर्वाण प्राप्त व्यक्ति निष्क्रिय नहीं होता बल्कि लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर वह कर्म सम्पादित करता है।

निर्वाण को लेकर बौद्ध दर्शन में दो प्रकार के विचार हैं। निर्वाण का एक अर्थ है ‘बुझा हुआ’। इस आधार पर कुछ लोग यह समझते हैं “जीवन का अंत।” परन्तु यह उचित नहीं, क्योंकि स्वयं बुद्ध ने ही जीवन में निर्वाण की प्राप्ति की थी।

निर्वाण के स्वरूप की व्याख्या नहीं की जा सकती। निर्वाण का स्वरूप अनिर्वचनीय है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण की प्राप्ति को नैतिक जीवन के सर्वोच्च आदर्श के रूप में स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 2.
प्रत्ययवाद एवं भौतिकवाद में अंतर करें।
उत्तर:
प्रत्ययवाद ज्ञान का एक सिद्धान्त है। प्रत्ययवाद के अनुसार ज्ञाता से स्वतंत्र ज्ञेय की कल्पना संभव नहीं है। यह सिद्धान्त ज्ञान को परमार्थ मानता है।
वस्तुवाद वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता से स्वतंत्र मानता है। यह सिद्धान्त प्रत्ययवाद (idealism) का विरोधी माना जाता है।

प्रश्न 3.
काण्ट के अनुसार ज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर:
काण्ट के अनुसार बुद्धि के बारह आकार हैं। वे हैं-अनेकता, एकता, सम्पूर्णता, भाव, अभाव, सीमित भाव, कारण-कार्यभाव, गुणभाव, अन्योन्याश्रय भाव, संभावना, वास्तविकता एवं अनिवार्यता

प्रश्न 4.
अनुभववाद की परिभाषा दें। अथवा, अनुभववाद से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
अनुभववाद ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन इन्द्रियानुभूति को मानता है। अनुभववादियों के अनुसार सम्पूर्ण अनुभव की ही उपज है तथा बिना अनुभव से प्राप्त कोई भी ज्ञान मन में नहीं होता है। वस्तुतः अनुभववाद, बुद्धिवाद का विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववादियों के अनुसार जन्म के समय मन साफ पट्टी के समान है और जो कुछ ज्ञान होता है उसके सभी अंग अनुभव से ही प्राप्त होते हैं। इसमें मन को निष्क्रिय माना जाता है। अनुभववाद के अनुसार आनुभविक अंग पृथक्-पृथक् संवेदनाओं के रूप में पाए जाते हैं। यदि इनके बीच कोई सम्बन्ध स्थापित किया जाय तो सहचार के नियमों पर आधारित यह सम्बन्ध बाहरी ही हो सकता है। अंततः अनुभववाद में पूरी गवेषणा न करने के कारण इसमें सदा यह दृढ़ विचार बना रहता है कि ज्ञान के सभी अंग आनुभविक हैं जब यह बात सिद्ध नहीं हो पाती, तब संदेहवाद इसका अंतिम परिणाम होता है।

प्रश्न 5.
प्रमाण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
‘प्रमा’ को प्राप्त करने के जितने साधन हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहा गया है। गौतम के अनुसार प्रमाण के चार साधन हैं।

प्रश्न 6.
पुरुषार्थ के रूप में धर्म की व्याख्या करें।
उत्तर:
धर्म शब्द का प्रयोग भी भिन्न-भिन्न अर्थों में किया जाता है। सामान्यतः धर्म से हमारा तात्पर्य यह होता है जिसे हम धारण कर सकें। जीवन में सामाजिक व्यवस्था कायम रखने के लिए यह अनिवार्य माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन स्तर पर कुछ-न-कुछ क्रियाओं का सम्पादन करें। इसी उद्देश्य से वर्णाश्रम धर्म की चर्चा भी की गयी है। भारतीय जीवन व्यवस्था में चार वर्ण माने गये हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। प्रत्येक वर्ण के लिए कुछ सामान्य धर्म माने गये हैं। किन्तु कुछ ऐसे धर्म भी हैं जिनका पालन किया जाना किसी वर्ग (वर्ण) विशेष के सदस्यों के लिए भी वांछनीय माना जाता है। इसी प्रकार आश्रम की संख्या चार है। यहाँ आदर्श जीवन 100 वर्षों का माना जाता है और इसे चार आश्रम में बाँटा गया है। इन्हें हम क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास के नाम से पुकारते हैं।

प्रश्न 7.
प्रमेय क्या है?
उत्तर:
न्याय दर्शन में प्रमेय को प्रमाण का रूप बताया गया है। उपमान का होना, सादृश्यता या समानता के साथ संज्ञा-संज्ञि संबंध का ज्ञान प्रमेय कहलाता है।

प्रश्न 8.
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर:
कभी-कभी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान तो होता है, लेकिन उसका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। उसका सिर्फ आभास मात्र होता है। उदाहरण के लिए, गंभीर चिंतन या अध्ययन में मग्न होने पर सामने की वस्तुओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। हमें सिर्फ यह ज्ञान होता है कि कुछ है, लेकिन क्या है, इसको नहीं जानते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को मनोविज्ञान में संवेदना के नाम से भी जानते हैं।

प्रश्न 9.
पुरुष एवं प्रकृति की व्याख्या करें।
उत्तर:
सांख्य दर्शन की मान्यता है कि प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि होती है। जब प्रकृति पुरुष के संसर्ग में आती है तभी संसार की उत्पत्ति होती है। प्रकृति और पुरुष का संयोग इस तरह का साधारण संयोग नहीं है जो दो भौतिक द्रव्यों जैसे रथ और घोड़े, नदी और नाव में होता है। यह एक विलक्षण प्रकार का संबंध है। प्रकृति पर पुरुष का प्रभाव वैसा ही पड़ता है जैसा किसी विचार का प्रभाव हमारे शरीर पर। न तो प्रकृति ही सृष्टि का निर्माण कर सकती है क्योंकि वह जड़ है और न अकेला पुरुष ही इस कार्य को सम्पन्न कर सकता है; क्योंकि यह निष्क्रिय है।

अतः सृष्टि निर्माण के लिए प्रकृति और पुरुष का संसर्ग नितांत आवश्यक है। पर प्रश्न उठता . है कि विरोधी धर्मों को रखने वाले ये तत्त्व एक-दूसरे से मिलते ही क्यों हैं.? उसके उत्तर में सांख्य का कहना है जिस प्रकार एक अंधा और एक लंगड़ा आग से बचने के लिए दोनों आपस में मिलकर एक-दूसरे की सहायता से जंगल पार कर सकते हैं, उसी प्रकार जड़ प्रकृति और निष्क्रिय पुरुष, परस्पर मिलकर एक-दूसरे की सहायता से अपना कार्य सम्पादित कर सकते हैं। प्रकृति कैवल्यार्थ या अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने में पुरुष की सहायता लेती है।

प्रश्न 10.
व्याप्ति क्या है?
उत्तर:
दो वस्तुओं के बीच एक आवश्यक सम्बन्ध जो व्यापक माना जाता है, इसे व्याप्ति सम्बन्ध (Universal relation) से जानते हैं। जैसे-धुआँ और आग में व्याप्ति सम्बन्ध है।

प्रश्न 11.
शब्द की परिभाषा दें।
उत्तर:
बौद्ध, जैन, वैशेषिक दर्शन शब्द को अनुमान का अंग मानते हैं जबकि गौतम के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण (Source of knowledge) है। उनके शब्दों एवं वाक्यों द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है उसे हम शब्द कहते हैं। सभी तरह के शब्दों में हमें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। अतः ऐसे ही शब्दों को हम प्रमाण मानेंगे जो यथार्थ तथा विश्वास के योग्य हों। भारतीय विद्वानों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जब वह विश्वासी आदमी का निश्चयबोधक वाक्य हो, जिसे आप्त वचन भी कह सकते हैं। संक्षेप में, “किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।” अतः रामायण, महाभारत या पुराणों से हमें जो ज्ञान मिलता है, वह प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान के द्वारा नहीं मिलता है, बल्कि ‘शब्द’ (verbal authority) के द्वारा होता है।

‘शब्द’ के ज्ञान में तीन बातें मुख्य हैं। वे हैं-शब्द के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया। शब्द ऐसे मानव के हों जो विश्वसनीय एवं सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय, जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हों। शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हों। कहने का अभिप्राय है कि यदि कृष्ण के उपदेश को अंग्रेजी भाषा में हिन्दी भाषियों को सुनाया जाय तो उन्हें समझ में नहीं आयेगा।

प्रश्न 12.
आत्मनिष्ठ प्रत्ययवाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्रत्ययवाद आम जनता का सिद्धान्त नहीं है। साधारण मनुष्य वस्तुवादी (Realistic) होता है। वह मानता है कि जिन वस्तुओं का ज्ञान उसे होता है वे उसके मन पर निर्भर नहीं हैं। उदाहरणस्वरूप यदि किसी हलवाहे से कोई कहे कि उसके हल बैल उसके मन पर निर्भर हैं तो वह कहनेवाले को पागल ही समझेगा। किन्तु जब मनुष्य अपने ज्ञान के स्वरूप पर चिंतन करने लगता है तो उसे ज्ञेय पदार्थों की स्वतंत्रता पर शंका होने लगती है। एक ही छड़ी जमीन पर सीधी और पानी में टेढ़ी लगती है।

एक ही वृक्ष निकट से बड़ा लगता है और दूर से छोटा। जब उक्त वस्तुएँ ज्ञाता से स्वतंत्र हैं तो उसकी प्रतीतियों में भिन्नता क्यों आती है ? इस कठिनाई के सामने मनुष्य का स्वाभाविक वस्तुवाद डगमगाने लगता है। लेकिन प्रत्ययवाद को स्वीकार करने से ऐसी कठिनाइयाँ नहीं पैदा होती। प्रत्ययवाद के अनुसार जब वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर है तो एक ही वस्तु का भिन्न-भिन्न ज्ञाताओं का या भिन्न-भिन्न दशाओं में एक ही ज्ञाता को भिन्न-भिन्न रूप में प्रतीत होना आश्चर्यजनक नहीं है। जब ज्ञाता भिन्न है तो ज्ञेय का जो उन पर निर्भर है, भिन्न होना स्वाभाविक है।

प्रश्न 13.
भारतीय दर्शन की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
भारत में फिलॉसफी को ‘दर्शन’ कहा जाता है। दर्शन शब्द दृश धातु से बना है जिसका अर्थ है–जिसके द्वारा देखा जाए। भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। इसलिए इसे तत्व दर्शन कहा जाता है। यहाँ दर्शन की परिभाषा यह कहकर दिया गया है-“हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्तिसंगत व्याख्या कर वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।

पाश्चात्य में दर्शन को फिलॉसफी कहा जाता है। फिलॉसफी का अर्थ ‘विधानुराग’ होता है। फिलॉस प्रेम, सौफिया अनुराग। बेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयल है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करती है।

प्रश्न 14.
योग का क्या अर्थ है?
उत्तर:
योगदर्शन भारतीय दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है। योग युज् धातु से बना है, जिसका अर्थ है मिलना। अतः योग का अर्थ ‘मिलन’ से है। जिन क्रियाओं द्वारा मनुष्य ईश्वर से मिल पाता है, उसे योग कहते हैं। लेकिन योग दर्शन में योग का एक विशेष अर्थ है। इस दर्शन के अनुसार चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा जाता है।

प्रश्न 15.
‘कर्म में त्याग’ की व्याख्या करें।
उत्तर:
कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दुःखों से मुक्त हो जाता है। उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता। वह जानता है कि वह दे रहा है और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसलिए वह दुःख के चंगुल में नहीं पड़ता। वह जानता है कि दुःख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है।

गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो, तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ और मिथ्या आचरण करने वाला कहा गया है। कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है।

उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएंगे। इससे लोक स्थिति के लिए किए जाने वाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनष्य को भी जो प्रकति के बंधन से मक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए। अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फल प्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।

प्रश्न 16.
सविकल्पक प्रत्यक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर:
जब किसी वस्तु के अस्तित्व का केवल आभास मिले और उसके विषय में पूर्ण ज्ञान न हो, तब इसे ‘निर्विकल्पक प्रत्यक्ष’ (Indeterminate Perception) कहते हैं। उदाहरण-सोए रहने । पर किसी की आवाज सुनाई पड़ती है, किन्तु इस आवाज का कोई अर्थ नहीं जान पड़ता। यह ज्ञान मूक (Dumb) या अभिव्यक्तिरहित रहता है। ज्ञान का यह आरंभबिन्दु है। यह ज्ञान विकसित होकर सविकल्पक प्रत्यक्ष बन जाता है।

प्रश्न 17.
पुग्दल क्या है?अथवा, जैन के पुद्गल का वर्णन करें।
उत्तर:
साधारणतः जिसे भूत कहा जाता है, उसे ही जैन दर्शन में ‘पुग्दल’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है। जैनों के मतानुसार जिसका संयोजन और विभाजन हो सके, वही पुग्दल है। भौतिक द्रव्य ही जैनियों के अनुसार पुग्दल है। पुग्दल या तो अणु (Atom) के रूप में रहता है अथवा स्कन्धों (Compound) के रूप में। किसी वस्तु का विभाजन करते-करते जब हम ऐसे अंश पर पहुँचते हैं जिसका विभाजन नहीं किया जा सके तो उसे ही अणु (Atom). कहते हैं। स्कन्ध दो या दो से अधिक अणुओं के संयोजन से मिश्रित होता है पुग्दल, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप जैसे गुणों से परिपूर्ण है। जैनियों द्वारा ‘शब्द’ को पुग्दल का गुण नहीं माना जाता है!

प्रश्न 18.
स्थितप्रज्ञा का अर्थ लिखें।
उत्तर:
लोकसंग्रह के लिए स्थितप्रज्ञा की आवश्यकता होती है। स्थितप्रज्ञा का अर्थ है कि : बुद्धि की स्थिरता। जिसकी बुद्धि में स्थिरता होती है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। अतः स्थितप्रज्ञ ही लोक कल्याण कर सकता है। कहा गया है-कुर्यात् विद्वान् असक्तः चिकीर्षु लोकसंग्रहः। (विद्वान को अनासक्त होकर लोकसंग्रह के लिए कार्य करना चाहिए।) विद्वान वही होता है जिसकी बुद्धि सुख-दुःख, हर्ष-विषाद सभी परिस्थितियों में समान रूप से स्थिर रहती है। जो हर परिस्थिति को. उदासीन (तटस्थ) भाव से, निर्विकार रूप में, ग्रहण करता है, उसकी बुद्धि ही समान होती है। ऐसे ही समान या समबुद्धिवाले को विद्वान या स्थितप्रज्ञ कहते हैं। दूसरे शब्दों में, स्थितप्रज्ञता वह स्थिति है जहाँ सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि विकारों का पूर्णतः अन्त हो जाता है।

इन विकारों के अंत होने पर बुद्धि स्थिर हो पाती है अर्थात् मनुष्य हर परिस्थिति में अप्रभावित रहता है, उसमें किसी प्रकार की उद्विग्नता नहीं रहती है। अद्विग्नताविहीन बुद्धि, विकारहीन बुद्धि ही ‘समबुद्धि’ कहलाती है। गीता में कहा गया है कि जो मनुष्य सहदयों, मित्रों, शत्रुओं, तटस्थ व्यक्तियों, ईर्ष्यालुओं, पापियों आदि में समबुद्धिवाला होता है, वही विशिष्ट होता है। यह विशिष्ट व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

प्रश्न 19.
बुद्धिवाद का वर्णन करें।
अथवा, बुद्धिवाद की परिभाषा दें।
उत्तर:
बुद्धिवाद के अनुसार बुद्धि या विवेक की ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन है। ज्ञान की कोई अंश बुद्धि से परे नहीं हैं। बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान दो प्रकार के होते हैं-साधारण ज्ञान और दार्शनिक ज्ञान। सांसारिक विषयों के संबंध में इन्द्रियों तथा किसी व्यक्ति से जो ज्ञान प्राप्ति होता है उसे साधारण ज्ञान कहते हैं। दूसरी ओर दार्शनिक ज्ञान हम उसे कहते हैं जो वस्तुओं को यथार्थ के रूप से व्यक्त करता है। अतः तार्किक ज्ञान सदा यथार्थ होता है। बुद्धिवाद का संबंध वस्तुतः तार्किक ज्ञान से होता है। बुद्धिवाद अनुभववाद का खण्डन करते हुए कहता है कि अनुभवजन्य ज्ञान में सार्वभौमिकता तथा अनिवार्यता का सदा अभाव रहता है, क्योंकि किसी वर्ग के भूत, भविष्य और वर्तमान सभी काल और देशों के पदार्थ का अनुभव करना संभव नहीं है। अतः ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन बुद्धि है।

प्रश्न 20.
भौतिकवाद क्या है?
उत्तर:
भौतिकवाद (Materialism) वह दार्शनिक सिद्धांत है, जिसके अनुसार विश्व का मूल आधार या परमतत्व (Ultimate Reality) जड़ या भौतिक तत्त्व है। अनुभव में हम चार प्रकार के गुणात्मक अंतर (Qualitative Difference) नहीं है। इस सिद्धांत के अनुसार जीव, मनस् तथा चेतना (Life, Mind and Consciousness), जो देखने में अभौतिक लगते हैं, भूत (Matter) से ही उत्पन्न या विकसित हुए हैं।

प्रश्न 21.
शिक्षा का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
शिक्षा का उद्देश्य एवं पद्धति समय के अनुसार बदलते रहा है। प्राचीन काल में शिक्षा उद्देश्य चारित्रिक विकास करना होता था तथा धार्मिक शिक्षा दी जाती थी जबकि वर्तमान शिक्षा पद्धति का आधार रोजगार परक है। अर्थात् वही शिक्षा उचित है जो रोजगार दे सके। लेकिन शिक्षा का उद्देश्य न सिर्फ रोजगार परक होना चाहिए बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। इसलिए इस संदर्भ में महात्मा गाँधी ने कहा है शिक्षा ऐसे होनी चाहिए जिससे व्यक्तित्व का विकास हो तथा उसे रोजगार मिल सके। इसीलिए उन्होंने मूल्य युक्त तकनीक शिक्षा की वकालत की है।

प्रश्न 22.
भारतीय दर्शन सम्प्रदायों के नाम लिखें। अथवा, भारतीय दर्शन के कितने सम्प्रदाय स्वीकृत हैं ?
उत्तर:
भारतीय दर्शन को मूलतः दो सम्प्रदायों में विभाजित किया गया है-आस्तिक (Orthodox) और नास्तिक (Heterodox)। आस्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक आस्तिक दर्शन की कोटि में आते हैं। इन दर्शनों में सभी ईश्वर को नहीं मानते हैं। उन्हें आस्तिक इसलिए कहा जाता है कि ये सभी वेद को मानते हैं। नास्तिक दर्शन की कोटि में चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा गया है। इनके नास्तिक कहलाने का मूल कारण यह है कि ये वेद की निन्दा करते हैं, जैसा कि कहा भी गया है-नास्तिको वेद निन्दकः। अर्थात् भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद में विश्वास नहीं करता है।

प्रश्न 23.
आस्तिक दर्शन के नाम उनके प्रवर्तक के साथ लिखें।
उत्तर:
आस्तिक दर्शन (Theist Schools of Philosophy)-इस वर्ग में प्रमुख रूप से छः दार्शनिक विचारधाराएँ हैं। उन्हें ‘षड्दर्शन’ भी कहा जाता है। ये दर्शन मीमांसा, सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय और वैशेषिक हैं। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के संस्थापक क्रमशः गौतम, कणाद, कपील, पतंजलि, जैमिनी और बादरायण हैं। मीमांसा ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता परंतु इसे आस्तिक वर्ग में इसलिए रखा गया है क्योंकि यह वेदों का प्रमाण स्वीकार करते हैं।
आस्तिक वर्ग में दो प्रकार के दार्शनिक सम्प्रदाय सम्मिलित हैं-

  1. वैदिक ग्रंथों पर आधारित (Based on Vedic Scriptures)।
  2. स्वतंत्र आधार वाले (With Independent Basis)1

प्रश्न 24.
अर्थ पुरुषार्थ की व्याख्या करें।
उत्तर:
“जिन साधनों से मानव जीवन के सभी प्रयोजनों की सिद्धि होती है, उन्हें ही अर्थ कहते हैं।” मानव जीवन की तीनों आवश्यकताएँ सभी प्रयोजन के अंतर्गत आती हैं। ये सभी प्रयोजन या चल सम्पत्ति (रुपये-पैसे) या अचल सम्पत्ति (जमीन-जायदाद) द्वारा सिद्ध होते हैं। इसलिए अर्थ का तात्पर्य धन है (चल या अचल)। धन के बिना मनुष्य का जीवन सुरक्षित व संरक्षित नहीं रह पाता। इसलिए चाणक्य ने कहा है कि “अर्थार्थ प्रवर्तते लोकः” अर्थात् अर्थ के लिए ही यह संसार है। जिसके पास धन है, उसी के सब मित्र हैं।

भारतीय दर्शन के अंतर्गत पुरुषार्थ के रूप में अर्थ के महत्त्व को बताया गया है। अर्थोपार्जन के साथ-साथ व्यय का भी तरीका बताया गया है जिससे मनुष्य अपने अर्थ का दुरुपयोग न करके सदुपयोग करें।

प्रश्न 25.
कर्म के प्रकारों को लिखें।
उत्तर:
वैशेषिक द्वारा कर्म पाँच प्रकार के माने गये हैं, जो निम्नलिखित हैं-

1. उत्क्षेपण (Throwing upward)-उत्क्षेपण कर्म द्वारा द्रव्य ऊपर उठते हैं। उदाहरणार्थ-गेंद, बैलून, राकेट आदि का ऊपर उठना।

2. अवक्षेपण (Downward movement)-अवक्षेपण कर्म द्वारा द्रव्य ऊपर से नीचे आते हैं। उदाहरणस्वरूप-गेंद फल आदि का ऊपर से नीचे आना। – वैशेषिक दर्शन में उत्क्षेपण को ऊखल तथा मूसल के उदाहरण द्वारा बतलाया गया है। हाथ की गति से मूसल ऊपर उठता है। यह उत्क्षेपण है। हाथ की गति से मूसल ऊपर लाया जाता है, जिसके फलस्वरूप इसका संयोग ऊखल से होता है। मूसल का ऊपर उठना ‘उत्क्षेपण’ है और इसका नीचे गिना ‘अवक्षेपण’ है।

3. आकुंचन (Contraction)-आकुंचन का अर्थ है सिकुड़ना। नये वस्त्र को भिगोने पर वह सिकुड़ जाता है और इसमें धागे परस्पर निकट हो जाते हैं। यही आकुंचन कहलाता है।

4. प्रसारण (Expasion)-प्रसारण का अर्थ है फैलना। जब किसी द्रव्य के कण एक-दूसरे से दूर होने लगे तो यह ‘प्रसारण’ कहा जाता है। मुड़े हुए कागज को पहले जैसा कर देना इस कर्म का उदाहरण है। मोड़े हुए हाथ, पैर, वस्त्र आदि को फैलाना ‘प्रसारण’ का उदाहरण है।

5. गमन-गमन’ को सामान्यतः जाने के अर्थ में रखा जाता है। किन्तु वैशेषिक ने उपर्युक्त चारों कर्मों के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म ‘गमन’ के अन्तर्गत. रखे जाते हैं। चलना, दौड़ना आदि ‘गमन’ के ही उदाहरण हैं।

प्रश्न 26.
प्रथम आर्य सत्य का वर्णन करें। अथवा, बौद्ध दर्शन का प्रथम आर्य सत्य क्या है?
उत्तर:
बौद्ध दर्शन के चार आधार हैं-दुःख, दुःख समुदाय, दु:ख निरोध और दुःख निरोध मार्ग। प्रथम आर्य सत्य के अनुसार संसार दुःखमय है। यह व्यावहारिक अनुभव से सिद्ध है। संसार के सर्वपदार्थ अनित्य और नश्वर होने के कारण दु:ख रूप है। लौकिक सुख भी वस्तुतः दुःख से घिरा है। इस सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त हो जाने पर, यह नष्ट न हो जाय यह विचार दुःख देता है और नष्ट हो जाने पर दु:ख तो हैं ही। काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक, रोग, जन्म, जरा और मरण सब दुःख है।

प्रश्न 27.
उपमान को स्पष्ट करें। अथवा, उपमान क्या है?
उत्तर:
उपमान का न्यायशास्त्र में तीसरा प्रमाण माना गया है। ‘न्यायसूत्र’ में जो इसकी परिभाषा दी गई है, उसके अनुसार ज्ञान वस्तु की समानता के आधार पर अज्ञान वस्तु की वस्तुवाचकता का ज्ञान जिस प्रमाण के द्वारा हो, उसे ही उपमान कहते हैं। इस प्रमाण द्वारा प्राप्त ज्ञान ‘उपमिति’ या उपमानजन्य ज्ञान हैं ‘तर्कसंग्रह’ के अनुसार संज्ञा-सज्ञि-संबंध का ज्ञान ही उपमिति हैं। उपमान वह है, जिसके द्वारा किसी नाम (संज्ञा) और उससे सूचित पदार्थ (संज्ञी) के संबंध का ज्ञान होता है। उपमान ज्ञानप्राप्ति का वह साधन है, जिसके द्वारा किसी पद की वस्तुवाचकता (denotation) का ज्ञान हो।

प्रश्न 28.
स्वार्थानुमान क्या है?
उत्तर:
नैययिकों ने प्रयोजन की दृष्टि से अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किये हैं। स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। जब व्यक्ति स्वयं निजी ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुमान करता है तो उसे स्वार्थानुमान कहा जाता है इसमें तीन ही वाक्यों का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 29.
समानान्तरवाद क्या है?
उत्तर:
पाश्चात्य विचारक स्पिनोजा ने मन-शरीर संबंध की व्याख्या के लिए सिद्धांत का प्रणयन किया है, उसे समानांतरवाद कहा जाता है। स्पिनोजा की मान्यता है कि मन और शरीर सापेक्ष द्रव्य नहीं हैं, जैसा की देकार्त्त ने स्वीकार किया है। चेतन और विस्तार क्रमशः मन और शरीर के गुण हैं तथा ये गुण ईश्वर में निहित रहते हैं। ये दोनों गुण ईश्वर के स्वभाव हैं। ये दोनों ‘ विरोधी स्वभाव नहीं है, बल्कि रेल की पटरियों के समान समानांतर स्वभाव हैं। इन दोनों की क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं।

प्रश्न 30.
धर्म का अर्थ क्या है?
उत्तर:
साधारणतः धर्म का अर्थ पुण्य होता है। परंतु जैन दर्शन में धर्म का प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है। जैनों के अनुसार गति के लिए जिस सहायक वस्तु की आवश्यकता होती है उसे धर्म कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप मछली जल में तैरती है। मछली का तैरना जल के कारण ही ‘संभव होता है। यदि जल नहीं रहे तब मछली के तैरने का प्रश्न उठता ही नहीं है। उपयुक्त उदाहरण में जल धर्म है, क्योंकि वह मछली की गति में सहायक है।

प्रश्न 31.
ब्रह्म क्या है?
उत्तर:
ब्रह्म परमार्थिक दृष्टिकोण से सत्य कहा जा सकता है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान है प्रकाश की तरह ज्योतिर्मय होने के कारण ब्रह्म को स्वयं प्रकाश कहा गया है। ब्रह्म का ज्ञान उसके स्वरूप का अंग है।

ब्रह्म द्रव्य नहीं होने के बावजूद भी सब विषयों का आधार हैं यह दिक् और काल की सीमा से परे हैं तथा कार्य-कारण नियम से भी यह प्रभावित नहीं होता। शंकर के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है। उपनिषदों में ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दो प्रकार माना गया है। यद्यपि ब्रह्म निर्गुण है, फिर भी ब्रह्म को शून्य नहीं कहा जा सकता। उपनिषद् ने भी निर्गुण को गुणमुक्त माना है।

प्रश्न 32.
नैतिकता का ईश्वर से क्या सम्बंध है?
उत्तर:
नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है। यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता है और जगत में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुतः नहीं माना जा सकता है किन्तु नैतिक मूल्यों का वस्तुगत न मान कोई भी दार्शनिक मानव को संतुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानना ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना है।