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Bihar Board 12th Political Science Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के प्रमुख उद्देश्य क्या थे ? संयुक्त राष्ट्र के संगठन और इसके अंगों के प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
अथवा, उन मुख्य उद्देश्यों का वर्णन कीजिए जिन पर संयुक्त राष्ट्र आधारित है ? कहाँ तक उनकी प्राप्ति हो सकी है ?
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र एक ऐसी अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जिसकी स्थापना युद्धों को रोकने, आपसी शांति और भाईचारा स्थापित करने तथा जन-कल्याण के कार्य करने के लिए की गई है। आजकल संसार के छोटे-बड़े लगभग 192 देश इसके सदस्य हैं। इस संस्था की विधिवत स्थापना 24 अक्टूबर, 1945 ई० को हुई थी। इस संस्था का मुख्य कार्यालय न्यूयॉर्क, अमेरिका में है।

उद्देश्य (Aims)-

  1. अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखना।
  2. भिन्न-भिन्न राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को बढ़ावा देना।
  3. आपसी सहयोग द्वारा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा मानवीय ढंग की अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को हल करना।
  4. ऊपर दिये गये हितों की पूर्ति के लिए भिन्न-भिन्न राष्ट्रों की कार्यवाही में तालमेल करना।

संयुक्त राष्ट्र का संगठन (Organization of the United Nations)-
1. साधारण सभा या महासभा (General Assembly) – यह सभा संयुक्त राष्ट्र का अंग है। इसमें जब सदस्य राष्ट्रों के प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं। संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य देश इसके भी सदस्य हैं। प्रत्येक सदस्य राष्ट्र 5 प्रतिनिधि भेज सकता है परंतु उनका वोट एक ही होता है। इसका अधि वेशन वर्ष में एक बार होता है।

कार्य (Functions)- 1. यह सभा शांति तथा सुरक्षा कार्यों पर विचार करती है। 2. यह सभा संयुक्त राष्ट्र का बजट पास करती है। 3. महासभा संयुक्त राष्ट्र के बाकी सब अंगों के सदस्यों का चुनाव करती है।

सुरक्षा परिषद (Security Council) – यह परिषद संयुक्त राष्ट्र की कार्यकारिणी है। इसके कुल 15 सदस्य होते हैं जिनमें 5 स्थायी सदस्य हैं और 10 अस्थायी। 5 स्थायी सदस्य हैं- (i) अमेरिका, (ii) रूस, (iii) फ्रांस, (v) साम्यवादी चीन। अस्थायी सदस्यों का चुनाव साधारण सभा द्वारा 2 वर्ष के लिए किया जाता है।

सुरक्षा परिषद् के कार्य (Function of Security Council) –

  • यह परिषद विश्व में शांति स्थापित करने के लिए जिम्मेदार है। कोई भी देश अपनी शिकायत इस परिषद के सामने रख सकता है।
  • यह झगड़ों का निर्णय करती है और यदि उचित समझे तो किसी भी देश के विरुद्ध सैनिक शक्ति का प्रयोग कर सकती है।
  • साधारण सभा के सहयोग से अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के जजों को नियुक्त करती है।

3. आर्थिक तथा सामाजिक परिषद् (Economic and Social Council) – इस परिषद के 27 सदस्य होते हैं जो साधारण सभा के द्वारा 3 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। इनमें एक-तिहाई सदस्य हर वर्ष टूट जाते हैं। उनके स्थान पर नये सदस्य चुन लिए जाते हैं।

कार्य (Functions)- यह परिषद अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक और स्वास्थ्य सम्बन्धी मामलों पर विचार करती है।

4. संरक्षण परिषद् (Trusteeship Council)- यह परिषद उन प्रदेशों के शासन की देखभाल करती है जिन्हें संयुक्त राष्ट्र ने अन्य देशों के संरक्षण में रखा हो। इसके अतिरिक्त यह इस बात का भी प्रयत्न करती है कि प्रशासन चलाने वाले देश इन प्रदेशों को हर प्रकार से उन्नत करके स्वतंत्रता के योग्य बना दें।

कार्य (Functions)- संरक्षण परिषद समय-समय पर संरक्षित इलाकों की उन्नति का अनुमान लगाने के लिए मिशन भेजती है।

5. अन्तर्राष्टीय न्यायालय (International Court of Justice) – यह न्यायालय संयुक्त राष्ट्र संघ का प्रमुख न्यायिक अंग है। इस न्यायालय के 15 न्यायाधीश होते हैं जो साधारण सभा तथा सुरक्षा परिषद् द्वारा 9 वर्षों के लिए चुने जाते हैं। यह न्यायालय संयुक्त राष्ट्र के भिन्न-भिन्न अंगों द्वारा उनकी समाजसेवी संस्थाओं को न्यायिक परामर्श भी देता है।

कार्य (Functions) – यह न्यायालय उन झगड़ों का फैसला करता है जो भिन्न-भिन्न देश उसके सामने पेश करते हैं।

6. सनिवालय (Secretariat) – यह संयुक्त राष्ट्र का मुख्य कार्यालय है। इसका सबसे बडा अधिकारी महासचिव (Secretary General) होता है जिसकी सुरक्षा परिषद की सिफारिश पर साधारण सभा नियुक्त करती है। यह संयुक्त राष्ट्र का मुख्य प्रबन्धक होता है। उसके अधीन दफ्तर के लगभग 6000 कर्मचारी काम करते हैं जो भिन्न-भिन्न देशों के होते हैं।

कार्य (Functions) – संयुक्त राष्ट्र के सचिवालय का प्रमुख कार्य सारे विश्व में फैले संयुक्त राष्ट्र के अंगों की शाखाओं का प्रबन्ध करता है और उनकी आर्थिक एवं अन्य आवश्यकताओं को पूरा करता है।

प्रश्न 2.
भारत की विदेश नीति विश्व शांति की स्थापना में किस प्रकार सहायक सिद्ध हुई है ?
उत्तर:
प्रस्तावना – भारत ने स्वतंत्रता-प्राप्ति के पश्चात् जो विदेश नीति अपनाई उसके अनसार गुटनिरपेक्षता की नीति को अपनी विदेशी नीति का आधार बनाया। विश्व के सभी देशों के साथ और विशेषतया अपने पड़ोसी देशों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध बनाये रखना और विश्व शांति को बनाए रखना भारत की विदेश नीति के उद्देश्य रहे हैं। विश्व शांति की स्थापना में भारत के योगदान का संक्षिप्त विवेचन निम्नलिखित है-

विश्व शांति की स्थापना में भारत का योगदान (Contribution of Indian in maintaining world-peace)-
(i) भारत की तटस्थता की नीति (India’s policy of neutrality) – अन्तर्राष्ट्रीय मामलों में भारत ने हमेशा तटस्थता की नीति को अपनाया है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद सारा विश्व दो विरोधी गुटों में बँटा हुआ है और ये दोनों गुट संयुक्त राष्ट्र के उद्देश्यों की पूर्ति के रास्ते में एक रुकावट सिद्ध हो रहे थे। इन दोनों गुटों के आपसी खिंचाव के कारण तृतीय विश्वयुद्ध की शंकाएँ बढ़ती जा रही है परंतु भारत हमेशा इन दोनों गुटों से तटस्थ रहा है और दोनों महाशक्तियों को एक-दूसरे से नजदीक लाने के लिए कोशिशें करता रहा है।

(ii) सैनिक गुटों का विरोध (Opposition of the military alliances) – विश्व में बहुत-से सैनिक गुट बने जैसे नाटो, सैन्ट्रो आदि। भारत का हमेशा यह विचार रहा है कि ये सैनिक गुट बनने से युद्धों की संभावना बढ़ जाती है और ये सैनिक गुट विश्व शांति में बाधक हैं। अतः भारत ने हमेशा इन सैनिक गुटों की केवल आलोचना ही नहीं कि बल्कि इनका पूरी तरह से विरोध किया है।

(iii) निःशस्त्रीकरण में सहायता (Support of disarmament) – संयुक्त राष्ट्र संघ ने निःशस्त्रीकरण के प्रश्न को अधिक महत्त्व दिया है। इस समस्या को हल करने के लिए वहुत से प्रयास किए हैं। भारत ने इस समस्या को समाधान करने के लिए हमेशा संयुक्त राष्ट्र की मदद की है क्योंकि भारत को यह विश्वास है कि पूर्ण नि:शस्त्रीकरण के द्वारा ही संसार में शांति की स्थापना हो सकती है। सातवें गुटनिरपेक्ष शिखर सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कहा था, “विकास स्वतंत्रता, निःशस्त्रीकरण और शांति परस्पर एक-दूसरे से संबंधित हैं। क्या नाभिकीय अस्रों के रहते शाति संभव है?’ एक नाभिकीय विमानवाहक पर जो खर्च होता है वह 53 देशों के सकल राष्ट्रीय उत्पादन से अधिक है। नाग ने अपना फन फैला दिया है। समूची मानव जाति भयाक्रांत और भयभीत निगाहों से उसे इस झूठी आशा के साथ देख रही है कि वह उसे काटेगा नहीं।”

(iv) जातीय भेदभाव का विरोध (Opposition of the policy of discriminations based on caste, creed and colour) – भारत ने अपनी विदेश नीति के आधार पर जातीय भेदभाव को समाप्त करने का निश्चय किया है। जब संसार का कोई भी देश जाति प्रथा के भेदभाव को अपनाता है तो भारत सदैव उसका विरोध करता रहा है। दक्षिण अफ्रीका ने जब तक जातीय भेदभाव की नीति को अपनाता तो भारत ने उसका विरोध किया और अब भी कर रहा है।

(v) संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन (Co-operation to the United Nation) – संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों को भारतीय संविधान में भी स्थान दिया गया है तथा भारत शुरू से ही इसका सदस्य रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ को शक्तिशाली बनाना और उसके कार्यों में सहयोग देना भारत की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धांत रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किए गए शांति प्रयासों में भारत ने हर प्रकार की सहायता प्रदान की। जैसे स्वेज नहर, हिन्द-चीन के प्रश्न, वियतनाम की समस्या, साइप्रस आदि में भारत ने संयुक्त राष्ट्र की प्रार्थना पर अपनी सेनाएँ भी भेजी थी। भारत कई बार सुरक्षा परिषद् का भी सदस्य चुना गया है तथा संयुक्त राष्ट्र संघ की विभिन्न एजेन्सियों का सदस्य बनकर क्रियात्मक योगदान प्रदान कर रहा है। वर्तमान में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थापना सदस्यता के लिए भारत प्रयासरत है।

प्रश्न 3.
“यदि बड़े और संसाधन संपन्न देश अमेरिकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत छोटी और कमजोर राज्येतर संस्थाएँ अमरीकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध कर पाएँगी।” इस कथन की जाँच करें और अपनी राय बताएँ।
उत्तर:
1. हमारी राय के अनुसार यह कथन कि यदि बड़े संसाधन संपन्न देश अमेरिकी वर्चस्व का प्रतिकार नहीं कर सकते तो यह मानना अव्यावहारिक है कि अपेक्षाकृत छोटी और कमजोर राज्येत्तर संस्थाएँ अमेरिकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध कर पाएँगी। अमेरिका दुनिया का सबसे धनी और सैन्य दृष्टि से शक्तिशाली देश है।

2. आज वैचारिक दृष्टि से भी पूँजीवाद, समाजवाद को बहुत पीछे छोड़ चुका है। लगभग 70 वर्षों तक सोवियत संघ पूँजीवाद के विरुद्ध लड़ा। वहाँ की जनता को अनेक नागरिक स्वतंत्रता और अधिकारों से वंचित रहना पड़ा। वहाँ विचारों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं थी। एक ही राजनैतिक पार्टी की तानाशाही भी रही लेकिन वहाँ के लोगों ने महसूस किया कि उपभोक्ता संस्कृति और विकास की दर से पश्चिमी देशों की तुलना में न केवल सोवियत संघ बल्कि अधिकांश पूर्वी देश भी पिछड गए।

3. अब विश्व में सबसे बड़ा साम्यवादी देश चीन है। वहाँ पर भी ताइवान, तिब्बत और अन्य क्षेत्रों में अलगाववाद, उदारीकरण, वैश्वीकरण के पक्ष में आवाज उठती रहती है, माहौल बनता रहा। जब ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, भारत और चीन जैसे अमेरिका के वर्चस्व को खुलकर चुनौती नहीं दे सकते तो छोटे देश जिनकी संख्या 160-170 से भी ज्यादा है। वे अमेरिका को चुनौती किस प्रकार से दे सकेंगे। वस्तुतः हाल में यह सोचना गलत होगा। छोटी और कमजोर राज्येत्तर संस्थाएँ अमेरिकी वर्चस्व का कोई प्रतिरोध नहीं कर पाएँगी। अभी तो उदारीकरण, वैश्वीकरण और नई अर्थव्यवस्था का बोलबाला है। भविष्य अनिश्चित है फिर भी अनुमान लगाना मनुष्य के स्वभाव और प्रकृति का अभिन्न अंग है।

प्रश्न 4.
संयुक्त राष्ट्र की महासभा का संगठन और कार्य लिखिए।
उत्तर:
महासभा (General Assembly) – महासभा संयुक्त राष्ट्र का सर्वोच्च अंग है और एक प्रकार से विश्व की संसद के समान है। संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्य इसके सदस्य होते हैं और प्रत्येक सदस्य राष्ट्र इसमें पाँच प्रतिनिधि भेजता है परन्तु उनका मत एक ही होता है। प्रायः वर्ष में एक बार इसका अधिवेशन होता है। इसकी स्थापना के समय इसके सदस्यों की कुल संख्या 51 थी जो बाद में बढ़ते-बढ़ते अब 185 के लगभग है। 1992 के आरंभ में सोवियत संघ के समाप्त होने से उसके पूर्व स्वायत्त गणराज्य अब स्वतंत्र होकर इसके सदस्य बन गए हैं।

महासभा के प्रमुख कार्य अग्रलिखित हैं-

  1. यह सभा अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा सम्बन्धी मामलों पर विचार करती है और निर्णय लेती है।
  2. यह संयुक्त राष्ट्र का बजट पास करती है।
  3. महासभा नये राज्यों को संयुक्त राष्ट्र का सदसय बनाये जाने का निर्णय करती है और किसी पुराने सदस्य की सदस्यता को समाप्त करने का निर्णय ले सकती है।
  4. संयुक्त राष्ट्र के अन्य अंगों के सदस्यों का चुनाव महासभा द्वारा होता है।
  5. महासभा अपना प्रधान एक वर्ष के लिए चुनती है।
  6. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव की नियुक्ति सुरक्षा परिषद की सिफारिश से महासभा द्वारा की जाती है।

प्रश्न 5.
‘किसी देश की सुरक्षा, आंतरिक शांति और कानून व्यवस्था पर निर्भर करती है।’ इस कथन को समझाते हुए बताइए कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विश्व की दो महान शक्तियों ने अपनी सीमाओं के बाहर खतरों पर ध्यान क्यों केन्द्रित किया ?
उत्तर:
1. पारंपरिक धारणा के अनुसार किसी देश की सुरक्षा आंतरिक शांति और कानून व्यवस्था पर अवलंबित होती है। अगर किसी देश के भीतर रक्तपात हो रहा हो अथवा होने की आशंका हो तो वह देश सुरक्षित कैसे हो सकता है? यह बाहर के हमलों से निपटने की तैयारी कैसे करेगा जबकि खुद अपनी सीमा के भीतर सुरक्षित नहीं है? इसी कारण सुरक्षा की परंपरागत धारणा का जरूरी अंदरूनी सुरक्षा से भी है।

2. दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से इस पहलू पर ज्यादा जोर नहीं दिया गया तो इसका कारण यही था कि दुनिया के अधिकांश ताकतवर देश अपनी अंदरूनी सुरक्षा के प्रति कमोबेश आश्वस्त थे। हमने पहले कहा था कि संदर्भ और स्थिति को नजर में रखना जरूरी है। आंतिरक सुरक्षा ऐतिहासिक रूप से सरकारों का सरोकार बनी चली आ रही थी लेकिन दूसरे विश्वयुद्ध के बाद ऐसे हालात और संदर्भ सामने आये कि आतिरक सुरक्षा पहले की तुलना में कहीं कम महत्त्व की चीज बन गई।

3. सन् 1945 के बाद ऐसा जान पड़ा कि संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ अपनी सीमा के अंदर एकीकृत और शांति संपन्न है। अधिकांश यूरोपीय देशों, खासकर ताकतवर पश्चिमी मुल्कों के सामने अपनी सीमा के भीतर बसे समुदायों अथवा वर्गों से कोई गंभीर खतरा नहीं था। इस कारण इन देशों ने अपना ध्यान सीमापार के खतरों पर केन्द्रित किया।

प्रश्न 6.
‘शक्ति-संतुलन’ क्या है ? कोई देश इसे कैसे कायम करता है ?
उत्तर:
1. परंपरागत सुरक्षा-नीति का एक तत्त्व और है। इसे शक्ति-संतुलन कहते हैं। कोई देश अपने अड़ोस-पड़ोस में देखने पर पाता है कि कुछ मुल्क छोटे हैं तो कुछ बड़े। इससे इशारा मिल जाता है कि भविष्य में किस देश से उसे खतरा हो सकता है। मिसाल के लिए कोई पड़ोसी देश संभव है यह न कहें कि वह हमले की तैयारी में जुटा है हमले का कोई प्रकट कारण भी नहीं जान पड़ता हो। फिर भी यह देखकर कि कोई देश बहुत ताकतवर है यह भांपा जा सकता है कि भविष्य में वह हमलावर हो सकता है इस वजह से हर सरकार दूसरे देश से अपने शक्ति-संतुलन को लेकर बहुत संवेदनशील रहती है।

2. कोई सरकार दूसरे देशों से शक्ति-संतुलन का पलड़ा अपने पक्ष में बैठाने के लिए जी-तोड़ कोशिश करती है। जो देश नजदीक हों, जिनके साथ अनबन हो या जिन देशों के साथ अतीत में लड़ाई हो चुकी हो उनके साथ शक्ति-संतुलन को अपने पक्ष में करने पर खास तौर पर जोर दिया जाता है। शक्ति-संतुलन बनाये रखने को अपने पक्ष में करने पर खास तौर पर जोर दिया जाता है। शक्ति-संतुलन बनाये रखने की यह कवायद ज्यादातर अपनी सैन्य-शक्ति बढ़ाने की होती है लेकिन आर्थिक और प्रौद्योगिकी की ताकत भी महत्त्वपूर्ण है क्योंकि सैन्य-शक्ति का यही आधार है।

प्रश्न 7.
भारत मानव अधिकारों का प्रबल समर्थक क्यों है ? तीन कारण बताकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
I. मानव अधिकार ऐसे अधिकारों को कहते हैं जो कि प्रत्येक मनुष्य को पहचान देने के नाते अवश्य ही प्राप्त होने चाहिए।
II. भारत मानव अधिकारों का प्रबल समर्थक है। इसके तीन प्रमुख कारण अग्रलिखित हैं..

  1. भारत का यह मानना है कि आधुनिक युग में कोई भी स्वतंत्र व लोकतांत्रिक देश मानव अधिकारों के बिना न तो प्रगति कर सकता है और न ही उस देश में शांति स्थापित कर सकती है।
  2. मानव अधिकार ऐसे अधिकार हैं जो कि मानव की उन्नति व प्रगति के लिए अति आवश्यक व महत्त्वपूर्ण हैं।
  3. भारत विश्व शांति तथा मानवता के उत्थान में विश्वास रखता है। इसलिए वह मानव अधिकारों का प्रबल समर्थक है।

प्रश्न 8.
प्रति वर्ष 10 दिसंबर को संपूर्ण विश्व में मानव अधिकार दिवस के रूप में क्यों मनाया जाता है ?
उत्तर:
10 दिसंबर को संपूर्ण विश्व में “मानव अधिकार दिवस” के रूप में इसलिए मनाया जाता है क्योंकि 10 दिसंबर, 1948 ई० को “मानव अधिकारों का घोषणा-पत्र’ (Charter of Human Rights) स्वीकार किया था। इस घोषणा-पत्र के द्वारा संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों की सरकारों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपने नागरिकों का आदर करेंगी। मानव अधिकार वे अधिकार हैं जो कि सभी मनुष्यों को मानव होने के नाते मिलने ही चाहिए।

संयुक्त राष्ट्र की आर्थिक सामाजिक परिषद् ने 1946 ई० में मानव अधिकारों की समस्या के बारे में एक आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने 1948 ई० में अपनी रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की महासभा को प्रदान की और संयुक्त राष्ट्र की महासभा ने 10 दिसंबर, 1948 ई० को मानव अधिकारों के घोषणा-पत्र को स्वीकृति दे दी जिसमें 20 मानव अधिकारों की एक सूची का वर्णन किया गया था। अतः प्रति वर्ष 10 दिसंबर को संपूर्ण विश्व में मानव अधिकार दिवस मनाकर प्रत्येक देश की सरकार को यह याद दिलाया जाता है कि वे अपने नागरिकों को उन्नति व विकास के लिए मानव अधिकार प्रदान करें।

प्रश्न 9.
निरस्त्रीकरण शब्द को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
निरस्त्रीकरण का अर्थ है कि मानवता का संहार करने वाले अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण बंद हों व आणविक शस्त्रों पर प्रतिबंध लगे। विश्व के अनेक देशों ने अणुबम तथा हाइड्रोजन बम बना लिए हैं और कुछ बनाने की तैयारी कर रहे हैं। इससे अंतर्राष्ट्रीय शांति को दिन-प्रतिदिन खतरा बढ़ रहा है। एक देश द्वारा बनाए गए संहारक शस्त्रों का उत्तर दूसरा देश अधिक विनाशक शस्त्रों का निर्माण करके देता है। भारत प्रारंभ से ही निरस्त्रीकरण के पक्ष में रहा है। इस दृष्टि से संसार में होने वाले किसी भी सम्मेलन का भारत ने स्वागत किया है। 1961 ई० में भारत ने अणुबम न बनाने का प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्रसंघ की साधारण सभा में रखा था। जेनेवा में होने वाले निरस्त्रीकरण सम्मेलन में भारत ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंत में हम यह कह सकते हैं कि निरस्त्रीकरण में ही विश्व का कल्याण निहित है।

प्रश्न 10.
‘हरित क्रांति एवं इसके राजनीतिक त्याग’ विषय पर निबंध लिखिए।
उत्तर:
हरित क्रांति (Green Revolution) – हरित क्रांति से अभिप्राय कृषि की उत्पादन तकनीकी को सुधारने एवं कृषि उत्पादन में तीव्र वृद्धि करने से है। हरित क्रांति के मुख्य तत्व थे-
(i) रासायनिक खादों का प्रयोग, (ii) उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग, (iii) सिंचाई सुविधाओं में विस्तार, (iv) कृषि का मशीनीकरण आदि। हरित क्रांति के प्रयासों के फलस्वरूप कृषि क्षेत्र में बहुमुखी प्रगति हुई है। कृषि क्रांति से पूर्व देश को भारी मात्रा में खाद्यान्नों को आयात करना पड़ता था जबकि आज हमारा देश इस क्षेत्र में लगभग आत्मनिर्भर हो गया है। यद्यपि राष्ट्र को हरित क्रांति से लाभ हुआ परंतु प्रयोग की जानेवाली तकनीकी जोखिम से मुक्त नहीं थी। इसके बारे में संक्षेप में दो संशय थे- (i) इससे छोटे तथा बड़े किसानों के बीच असमानता बढ़ जायेगी और (ii) उन्नत किस्म के बीजों पर जीव-जन्तु शीघ्र आक्रमण करते हैं, परंतु ये दोनों संशय सही नहीं निकले।

हरित क्रांति के राजनैतिक त्याग (Political Sacrifies of the Green Revolution)-

  • भुखमरी राज्य की स्थिति से भारत- खाद्यान्न निर्माण करने वाले राज्य के रूप में परिवर्तित हो गया। इस गतिविधि ने राष्ट्रों के सौहाद्रं से, विशेषकर तीसरी दुनिया से काफी प्रशंसा प्राप्त की।
  • हरित क्रांति उन तत्वों में से एक था जिसने श्रीमती इंदिरा गांधी (1967-84) तथा उनके दल, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को, भारत में एक शक्तिशाली राजनीति शक्ति बना डाला।
  • हरित क्रांति सभी हिस्सों और जरूरतमंद किसानों को फायदा नहीं पहुंचा सकी। 1950 से 1980 के बीच भारत की अर्थव्यवस्था सालाना 3-3.5 प्रतिशत की धीमी रफ्तार से आगे बढ़ी।
  • सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ उद्यमों में भ्रष्टाचार और अकुशलता का जोर बढ़ा। नौकरशाही भी आर्थिक विकास में ज्यादा सकारात्मक भूमिका नहीं निभा रही थी। सार्वजनिक क्षेत्र अथवा नौकरशाही के प्रति शुरू-शुरू में लोगों में गहरा विश्वास था लेकिन बदले हुए माहौल में यह विश्वास टूट गया। जनता का भरोसा टूटता देख नीति-निर्माताओं ने 1980 के दशक के बाद से अर्थव्यवस्था में राज्य भूमिका को कम कर दिया।

प्रश्न 11.
कश्मीर समस्या पर एक लघु निबंध लिखें।
उत्तर:
अगस्त 14-15 मध्यरात्रि 1947 ई० में जब ब्रिटिश ने भारत को भारत तथा पाकिस्तान में विभाजित किया था, तब उत्कृष्ट (Pre-dominently) रूप में मुसलमान राज्य पर अलोकप्रिय तथा निरकुंश महाराजा हरी सिंह कश्मीर तथा जम्मू पर शासन कर रहा था और इसने शायद इस आशा में कि वह भारत तथा पाकिस्तान से भिन्न एक स्वतंत्र एवं स्वायत्त शासन स्थापित कर सकेगा, दोनों राज्यों में से किसी एक में भी विलय होने के दबाव का प्रतिरोध किया। समय को टालने तथा अपने महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसने पाकिस्तान के साथ अगस्त, 16, 1947 को एक समझौता किया और ऐसा ही एक समझौता भारत के साथ करने की ठानी।

कश्मीर के पश्चिमी भाग में मुसलमानों के महाराजा के विरुद्ध बगावत की और अपनी ही स्वतंत्र (आजाद) कश्मीर सरकार की स्थापना की। इस अवसर पर लाभ उठाने के लिए तथा कश्मीर के अवशेष राज्य को पाकिस्तान में सम्मिलित कराने के लिए 22 अक्टूबर, 1947 ई. को उत्तरी-पश्चिम सीमा प्रांत (NWFP) के सशस्त्र-पठान कबीलों ने कश्मीर पर आक्रमण कर दिया। वह उस राज्य की राजधानी श्री नगर के पंद्रह मील दूर तक पहुंच गए थे। इस आक्रमण से सावध न होकर हरी सिंह ने भारत से सैनिक सहायता की माँग की परंतु भारत ने तब तक मदद करने से इंकार कर दिया जब तक महाराजा ‘सम्मिलन के दस्तावेज पर हस्ताक्षर नहीं कर देता।

यह एक ऐसी मानक प्रक्रिया थी जिसके अंतर्गत अन्य देशी नरेशों के राज्य भारत अथवा पाकिस्तान के साथ सम्मिलित हुए। नेशनल कान्फ्रेंस दल के धर्म-निरपेक्ष तथा लोकप्रिय नेता शेख अब्दुला से सहमति प्राप्त होने के पश्चात् भारत ने इस सम्मेलन को स्वीकार किया। हरी सिंह ने इस समझौते पर 27 अक्टूबर, 1947 ई० को हस्ताक्षर किए और उसी दिन भारतीय सेना ने छापामारों को पीछे धकेलने के लिए कश्मीर में प्रवेश किया।

भारतीय सेना को तुरंत जम्मू-कश्मीर भेजा गया। भारत इस मामले को संयुक्त राष्ट्र में भी ले गया और पाकिस्तान पर आक्रमण करने का आरोप लगाया। संयुक्त राष्ट्र ने एक जनवरी 1949 ई. को युद्ध विराम लागू करवाया । पाकिस्तान द्वारा अधिगृहीत कश्मीर को खाली कराने के लिए भारत के आग्रह के बावजूद पाकिस्तान ने इसे खाली नहीं किया। जम्मू और कश्मीर की जनता द्वारा निर्वाचित संविधान सभा ने एक बार फिर स्पष्ट किया कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है।

कबाइलियों की सहायता से जम्मू-कश्मीर को हड़पने के पाकिस्तान के प्रयास विफल रहे। बाद के वर्षों में पाकिस्तान अलग-अलग समय पर भिन्न-भिन्न तरीकों को अपनाता रहा। इन तरीकों में पाकिस्तान का पश्चिमी सैन्य गुट में शामिल होना, पाकिस्तान अधिकृत भारतीय क्षेत्र का एक भाग चीन को सौंपना, भारत के विरूद्ध खुला आक्रमण, सीमा पर आतंकवाद और जम्मू-कश्मीर के घुसपैठ सम्मिलित है।

प्रश्न 12.
“मुल्कों की शांति और समृद्धि क्षेत्रीय संगठनों को बनाने और मजबूत करने पर टिकी है।” इस कथन की पुष्टि करें।
उत्तर:
प्रत्येक देश की शांति और समृद्धि क्षेत्रीय आर्थिक संगठनों के निर्माण और उन्हें सुदृढ़ बनाने पर टिकी है क्यों क्षेत्रीय आर्थिक संगठन बनने पर कृषि, उद्योग-धंधों, व्यापार, यातायात, आर्थिक संस्थाओं आदि को बढ़ावा देती है। ये आर्थिक संगठन बनेंगे तो लोगों को प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में रोजगार मिलेगा। रोजगारी गरीबी को दूर करती है। समृद्धि का प्रतीक राष्ट्रीय आय और प्रतिव्यक्ति आय का बढ़ाना प्रमुख सूचक है।

जब लोगों को रोजगार मिलेगा, गरीबी दूर होगी तो, आर्थिक विषमता कम करने के लिए साधारण लोग भी अपने-अपने आर्थिक संगठनों में आवाज उठाएँगे। श्रमिकों को उनका उचित हिस्सा, अच्छी मजदूरियों/वेतनों, भत्तों, बोनस आदि के रूप में मिलेगा तो उनकी क्रय शक्ति बढेगी। वे अपने परिवार के जनों को शिक्षा, स्वास्थ्य, यातायात, संवादवहन आदि की अच्छी सुविधाएँ प्रदान करेंगे। क्षेत्रीय आर्थिक संगठन बाजार शक्तियों और देश की सरकारों की नीतयों से गहरा संबंध रखती है।

हर देश अपने यहाँ कृषि, उद्योगों और व्यापार को बढ़ावा देने के लिए परस्पर क्षेत्रीय राज्यों (देशों) से सहयोग माँगते हैं और उन्हें पड़ोसियों को सहयोग देना होता है। वे चाहते हैं कि उनके उद्योगों को कच्चा माल मिले वे अतिरिक्त संसाधनों का निर्यात करना चाहते हैं। ये तभी संभव होगा जब क्षेत्रों और राष्ट्रीय स्तर पर शांति होगी। बिना शांति के विकास नहीं हो सकता। क्षेत्रीय आर्थिक संगठन पूरा व्यय नहीं कर सकते। पूरा उत्पादन हुए बिना समृद्धि नहीं आ सकती। संक्षेप में क्षेत्रीय आर्थिक संगठन विभिन्न देशों में पूँजी निवेश, श्रम गतिशीलता, यातायात सुविधाओं के विस्तार, विद्युत उत्पादन वृद्धि में सहायक होते हैं। यह सब मूल्कों की शांति और समृद्धि को सुदृढ़ता प्रदान करते हैं।

प्रश्न 13.
दक्षिणी-पूर्वी एशियाई राष्ट्रों का संगठन (आसियान) के परिणामों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
(i) बुनियादी रूप से आसियान एक आर्थिक संगठन था और वह ऐसा ही बना रहा। आसियान क्षेत्र की कुल अर्थव्यवस्था अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान की तुलना में काफी छोटी है पर इसका विकास इन सबसे अधिक तेजी से हो रहा है। इसके चलते इस क्षेत्र में और इससे बाहर इसके प्रभाव में तेजी से वृद्धि हो रही है।

(ii) आसियान आर्थिक समुदाय का उद्देश्य आसियान देशों का साझा बाजार और उत्पादन आधार तैयार करना तथा इस इलाके के सामाजिक और आर्थिक विकास में मदद करना है। यह संगठन इस क्षेत्र के देशों के आर्थिक विवादों को निपटाने के लिए बनी मौजूदा व्यवस्था को भी सुधारना चाहेगा।

(iii) आसियान ने निवेश, श्रम और सेवाओं के मामले में मुक्त व्यापार क्षेत्र बनाने पर भी ध्यान दिया है। इस प्रस्ताव पर आसियान के साथ बातचीत करने की पहल अमेरिका और चीन ने कर भी दी है।

(iv) आसियान तेजी से बढ़ता हुआ एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय संगठन है। इसके विजन दस्तावेज 2020 ई० में अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में आसियान की एक बहिर्मुखी भूमिका को प्रमुखता दी गई है। आसियान द्वारा अभी टकराव की जगह बातचीत को बढ़ावा देने की नीति से ही यह बात निकली है। इसी तरकीब से आसियान ने कंबोडिया के टकराव को समाप्त किया, पूर्वी तिमोर के संकट को सँभाला है और पूर्व-एशियाई सहयोग पर बातचीत के लिए 1999 ई० से नियमित रूप से वार्षिक बैठक आयोजित की है।

(v) आसियान की मौजूदा आर्थिक शक्ति, खासतौर से भारत और चीन जैसे तेजी से विकसित होने वाले एशियाई देशों के साथ व्यापार और निवेश के मामले में उसकी प्रासंगिता ने इसे और भी आकर्षण बना दिया है। शुरुआती वर्षों में भारतीय विदेश नीति ने आसियान पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। लेकिन हाल के वर्षों में भारत ने अपनी नीति सुधारने की कोशिश की है। भारत ने दो आसियान सदस्यों, सिंगापुर और थाईलैंड के साथ मुक्त व्यापार का समझौता किया है।

(vi) भारत आसियान के साथ भी मुक्त व्यापार संधि करने का प्रयास कर रहा है। आशियान की असली ताकत अपने सदस्य देशों, सहभागी सदस्यों और बाकी गैर-क्षेत्रीय संगठनों के बीच निरंतर संवाद और परामर्श करने की नीति में है। यह एशिया का एकमात्र ऐसा क्षेत्रीय संगठन है जो एशियाई देशों और विश्व शक्तियों को राजनैतिक और सुरक्षा मामलों पर चर्चा के लिए राजनैतिक मंच उपलब्ध कराता है।

प्रश्न 14.
भारत में गठबंधन राजनीति की आवश्यकता एवं संभावना पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
भारत में एकदलीय प्रभुत्व प्रणाली पर पहला आघात 1967 में हुआ जब कई राज्यों में गैर कांग्रेसी गठबंधन सरकारें स्थापित की गयीं। 1977 में राष्ट्रीय स्तर पर गठबंधन की राजनीति का पुनः प्रयोग परिवर्तित रूप में किया गया। विभिन्न विचारधाराओं और नेतृत्वों पर आधारित राजनीतिक दलों को मिलाकर जनता पार्टी का गठन किया गया। जनता पार्टी तकनीकी रूप में एक दल था किन्तु व्यवहारतः यह एक गठबंधन ही था। यह प्रयोग भी असफल रहा।

1989 के बाद भारतीय राजनीति में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। कांग्रेस दिनों-दिन कमजोर होती चली गई। दूसरी ओर भाजपा की लोकप्रियता में अप्रत्याशित वृद्धि हुई । राज्यों में क्षेत्रीय दलों का भी विकास होने लगा। बिहार में राजद, जद (यु), उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी तथा बसपा, आंध्रप्रदेश में तेलगुदेशम, पंजाब में अकालीदल, महाराष्ट्र में शिवसेना आदि क्षेत्रीय दल प्रभावी स्थिति में आ गये। कांग्रेस का बार-बार विघटन होने लगा। कांग्रेस के परम्परागत वोट बैंक-ब्राह्मण, हरिजन तथा अल्पसंख्यक में भी दरार पैदा हो गया।

इन समस्त परिस्थितियों का प्रभाव पड़ा कि कोई भी दल अपने बलबूते सरकार बनाने की स्थिति में नहीं रहा। इस कारण गठबंधन राजनीति का दौर प्रारंभ हुआ।

इस दौर में भी पहला प्रयास अल्पमत सरकारों के गठन का किया गया। इसमें बाह्य समर्थन के आधार पर सरकारें बनाई गई।

अल्पमत सरकारों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह थी कि बाह्य समर्थन देनेवाला दल जहाँ समर्थन दिये जाने का मूल्य वसूलता था वहाँ उत्तरदायित्व के निर्वाह से साफ बच निकलता था। अतः ऐसी आवश्यकता महसूस की गई कि समर्थन देने वाली सभी पार्टियाँ मिलकर सरकार बनाएँ। वे साथ रहकर सामूहिक दायित्व का निर्वाह करें।

गठबंधन सरकार के सफल संचालन का प्रथम श्रेय श्री अटल बिहारी वाजपेयी को दिया जा सकता है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन० डी० ए०) के नाम से उन्होंने सरकार बनाई जो करीब 5 वर्षों से अधिक तक चलती रही। इसे देखकर कांग्रेस ने भी गठबंधन राजनीति से जुड़ने का निर्णय लिया। उसके नेतृत्व में गठित संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा (संप्रग) अपना कार्यकाल पूरा किया और फिर 2009 में सरकार बनी। मनमोहन सिंह इस सरकार के प्रधानमंत्री हैं।

इस प्रकार भारतीय राजनीति गठबंधन की राजनीति के दौर से गुजर रही है। लोकसभा का अगला चुनाव भी दोनों गठबंधनों के बीच हुआ। गठबंधन की रक्षा, सरकार को बचाये रखना, गठबंधन हेतु नये सहयोगियों की खोज, राजनीति प्रक्रिया का मुख्य आयाम हो जाता है।

भविष्य में उम्मीद की जाती है कि गठबंधन राजनीति द्विध्रुवीय राजनीति के रूप में स्थायी रूप ले सकेगा। ऐसा होने पर संसदीय व्यवस्था मजबूत होगी।

प्रश्न 15.
मूलवासी और उनके अधिकार विषय पर निबंध लिखें।
उत्तर:
मूलवासी और उनके अधिकार (Indegenous people and their rights) – मूलवासियों का सवाल पर्यावरण, संसाधन और राजनीति को एक साथ जोड़ देता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1982 में इनकी एक-एक कामकाजी परिभाषा दी। इन्हें ऐसे लोगों का वंशज बताया गया जो आज मौजूद किसी देश में बहुत दिनों से रहते चले आ रहे थे। फिर भी वे लोग किसी दूसरी संस्कृति अथवा जातीय मूल के लोग विश्व के दूसरे हिस्से से उस देश में आये और इन लोगों को अधीन बना लिया। किसी देश के ‘मूलवासी’ आज भी उस देश की संस्थाओं के अनुरूप आचरण करने से ज्यादा अपनी परंपरा, सांस्कृतिक रिवाज तथा अपने खास सामाजिक, आर्थिक ढर्रे पर जीवनयापन करना पसंद करते हैं।

(ii) भारत सहित विश्व के विभिन्न हिस्सों में मौजूद लगभग 30 करोड़ मूलवासियों के सर्व सामान्य विश्व राजनीति के संदर्भ में क्या हैं ? फिलीपीन्स के कोरडिलेस क्षेत्र में 20 लाख मूलगसी लोग रहते हैं। चीले में मापुशे नाम मूलवासियों की संख्या 10 लाख है। बांग्लादेश के चटगाँव पर्वतीय क्षेत्र में 600000 आदिवासी हैं। उत्तरी अमेरिकी मूलवासियों की संख्या 3 लाख 50 हजार, पनामा नहर के पूरब में कुना नामक मूलवासी 50000 की तादाद में हैं और उत्तरी सोवियत में ऐसे लोगों की आबादी 10 लाख है। दूसरी सामाजिक आंदोलनों की तरह मूलवासी भी अपनी संघर्ष एजेंडा और अधिकारों की आवाज उठाते हैं।

(iii) विश्व राजनीति में मूलवासियों की आवाज विश्व बिरादरी में बराबरी का दर्जा पाने के लिए उठी है। मूलवासियों के निवास पहले स्थान मध्य और दक्षिण अमेरिका, अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत में हैं जहाँ इन्हें आदिवासी अथवा जनजाति कहा जाता है।

(iv) ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड समेत ओसियन क्षेत्र के बहुत-से द्वीपीय देशों में हजारों सालों से पॉलिनेशिया, मैलनेशिया और माइक्रोनेशिया वंश के मूलवासी रहते हैं। सरकारों से इनकी माँग है कि इन्हें मूलवासी कौम के रूप में अपनी स्वतंत्र पहचान रखने वाला समुदाय माना जाए। अपने मूल वासस्थान पर अपने हक की दावेदारी में विश्व भर के मूलनिवासी यह जुमला इस्तेमाल करते हैं कि हम यहाँ अनंत काल से रहते चले आ रहे हैं। भौगोलिक रूप से चाहे मूलवासी अलग-अलग जगहों पर न कायम है लेकिन जमीन और उस पर आधारित विभिन्न जीवन प्रणालियों के बारे में इनकी विश्व दृष्टि आश्चर्यजनक रूप से एक जैसी है। भूमि की हानि का अर्थ है, आर्थिक संसाधनों के एक आधार को हानि और मूलवासियों के जीवन के लिए बहुत बड़ा खतरा है। उस राजनीतिक आजादी का क्या मतलब जो जीने के लिए साधन ही न मुहैया कराये ?

(v) भारत में ‘मूलवासी’ के लिए अनुसूचित जनजाति या आदिवासी शब्द का प्रयोग किया जाता है जो कुल जनसंख्या के आठ प्रतिशत हैं। अपवादस्वरूप कुछेक घुमन्तू जनजातियों को छोड़ दें तो भारत की अधिकांश आदिवासी जनता अपने जीवनयापन के लिए खेती पर निर्भर हैं। सदियों से ये लोग बेधड़क जितनी बन पड़े उतनी जमीन पर खेती करते आ रहे थे, लेकिन ब्रितानी औपनिवेशिक शासन कायम होने के बाद से जनजातीय समुदायों का सामना बाहरी लोगों से हुआ।

(vi) यद्यपि राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिहाज से इनको संवैधानिक सुरक्षा हासिल है लेकिन देश के विकास का इन्हें ज्यादा लाभ नहीं मिल सका है। आजादी के बाद से विकास की बहुत-सी समुदाय सबसे बड़ा है। दरअसल इन लोगों ने विकास की बहुत बड़ी कीमत चुकायी है।

(vii) मूलवासी समुदायों के अधिकारों से जुड़े मुद्दे राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय जनजाति में लम्बे समय तक अपेक्षित रहे। हाल के दिनों में इस सवाल पर ध्यान दिया जाने लगा है।

(viii) 1970 के दशक में विश्व के विभिन्न भागों के मूलवासियों के नेताओं के बीच संपर्क बढ़ा। इससे इनके साझे अनुभवों और सरोकारों को एक शक्ल मिली। 1975 में वर्ल्ड काउंसिल ऑफ इंडिजिनस पीपुल का गठन हुआ। संयुक्त राष्ट्रसंघ में सबसे पहले इस परिषद् को परामर्शदायी परिषद् का दर्जा दिया गया। इसके अतिरिक्त आदिवासियों के सरोकारों से सम्बद्ध 10 अन्य स्वयंसेवी संगठन को भी यह दर्जा दिया गया है।