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Bihar Board 12th Political Science Important Questions Long Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
राष्ट्रीय विकास परिषद् के क्या कार्य हैं ?
उत्तर:
राष्ट्रीय विकास परिषद्-राज्यों तथा केंद्रों के बीच शक्तियों के विभाजन को देखते हुए योजना तैयार करने में राज्यों का भाग लेना अनिवार्य था। इसलिए 1952 में राष्ट्रीय विकास परिषद् की स्थापना की गयी। राष्ट्रीय विकास परिषद् का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है तथा सभी राज्यों के मुख्यमंत्री इसके पदेन सदस्य होते हैं।

परिषद् की स्थापना के उद्देश्य-

  • योजना आयोग की सहायता के लिए राज्य के स्रोतों तथा परिश्रम को सुदृढ़ करने तथा उनको गतिशील बनाना।
  • सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों में समरूप आर्थिक नीतियों के अंगीकरण को प्रोत्साहित करना।
  • देश के सभी भागों के तीव्र तथा संतुलित विकास के लिए प्रयास करना।

परिषद् के कार्य-

  • राष्ट्रीय योजना की प्रगति पर समय-समय पर विचार करना।
  • राष्ट्रीय विकास को प्रभावित करने वाली आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों संबंधी विषयों पर विचार तथा
  • राष्ट्रीय योजना के निर्धारित लक्ष्यों तथा उद्देश्यों को प्राप्ति के लिए सुझाव देना।

प्रश्न 2.
वर्तमान समय के संदर्भ में भारत और चीन के संबंधों की विवेचना करें।
उत्तर:
चीन के साथ भारत का संबंध (India’s Relations with China)-
(i) प्रस्तावना (Introduction) – पश्चिमी साम्राज्यवाद के उदय से पहले भारत और चीन एशिया की महाशक्ति थे। चीन का अपने आसपास के इलाकों पर भी काफी प्रभाव था और आसपास के छोटे देश इसके प्रभुत्व को मानकर और कुछ नजराना देकर चैन से रहा करते थे। चीनी राजवंशों के लम्बे शासन में मंगोलिया, कोरिया, हिन्द-चीन के कुछ इलाके और तिब्बत इसकी अधीनता मानते रहे थे। भारत के भी अनेक राजवंशों और साम्राज्यों का प्रभाव उनके अपने राज्य से बाहर भी रहा था।

भारत हो या चीन, इनका प्रभाव सिर्फ राजनैतिक नहीं था-यह आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक भी था। पर चीन और भारत अपने प्रभाव क्षेत्रों के मामले में कभी नहीं टकराए थे। इसी कारण दोनों के बीच राजनैतिक और सांस्कृतिक प्रत्यक्ष सम्बन्ध सीमित ही थे। परिणाम यह हुआ कि दोनों देश एक-दूसरे को ज्यादा अच्छी तरह से नहीं जान सके और जब बीसवीं सदी में दोनों देश एक-दूसरे से टकराए तो दोनों को ही एक-दूसरे के प्रति विदेश नीति विकसित करने में मश्किलें आई।

(ii) ब्रिटिश शासन के उपरांत भारत-चीन संबंध (After British rule India-China relations) – अंग्रेजी राज से भारत के आजाद होने और चीन द्वारा विदेशी शक्तियों को निकाल बाहर करने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि ये दोनों मुल्क साथ आकर विकासशील दुनिया और खास तौर से एशिया के भविष्य को तय करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएँगे। कुछ समय के लिए हिंदी-चीनी भाई-भाई का नारा भी लोकप्रिय हुआ। सीमा विवाद पर चले सैन्य संघर्ष ने इस उम्मीद को समाप्त कर दिया। आजादी के तत्काल बाद 1950 में चीन द्वारा तिब्बत को हड़पने तथा भारत-चीन सीमा पर बस्तियाँ बनाने के फैसले से दोनों देशों के बीच संबंध एकदम गड़बड़ हो गए। भारत और चीन दोनों मुल्क अरुणाचल प्रदेश के कुछ इलाकों और लद्दाख के अक्साई चीन क्षेत्र पर प्रतिस्पर्धी दावों के चलते 1962 ई० में लड़ पड़े।

(iii) भारत-चीन युद्ध और उसके बाद (Indo-China War and later on) – 1962 ई० के युद्ध में भारत को सैनिक पराजय झेलनी पड़ी और भारत-चीन सम्बन्धों पर इसका दीर्घकालिक असर हुआ। 1976 तक दोनों देशों के बीच कूटनीतिक सम्बन्ध समाप्त होते रहे। इसके बाद धीरे-धीरे दोनों के बीच सम्बन्धों में सुधार शुरू हुआ। 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध में चीन का राजनीतिक नेतृत्व बदला। चीन की नीति में भी अब वैचारिक मुद्दों की जगह व्यावहारिक मुद्दे प्रमुख होते गए। इसलिए चीन भारत के साथ सम्बन्ध सुधारने के लिए विवादास्पद मामलों को छोड़ने को तैयार हो गया। 1981 ई. सीमा विवादों को दूर करने के लिए वार्ताओं की श्रृंखला भी शुरू की गई।

(iv) भारत-चीन संबंध-राजीव गांधी के काल में (Indo-China relation period Rajiv Gandhi Period) – दिसम्बर 1988 ई. में राजीव गाँधी द्वारा चीन का दौरा करने से भारत-चीन सम्बन्धों को सुधारने के प्रयासों को बढ़ावा मिला। इसके बाद से दोनों देशों ने टकराव टालने और सीमा पर शांति और यथास्थिति बनाए रखने के उपायों की शुरूआत की है। दोनों देशों ने सांस्कृतिक आदान-प्रदान, विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में परस्पर सहयोग और व्यापार के लिए सीमा पर चार पोस्ट खोलने के समझौते भी किए हैं।

(v) भारत-चीन संबंध शीत युद्ध के बाद (Indo-China relation after Cold War) – शीत युद्ध की समाप्ति के बाद से भारत चीन सम्बन्धों में महत्त्वपूर्ण बदलाव आया है। अब इनके संबंधों का रणनीतिक ही नहीं, आर्थिक पहलू भी है। दोनों ही खुद को विश्व-राजनीति की उभरती शक्ति मानते हैं और दोनों ही एशिया की अर्थव्यवस्था और राजनीति में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाना चाहेंगे।

(vi) भारत-चीन के आर्थिक संबंध, 1992 से (Since 1992 India Sino-Economic relation) – 1999 से भारत और चीन के बीच व्यापार सालाना 30 फीसदी की दर से बढ़ रहा है। इससे चीन के साथ संबंधों में नयी गर्मजोशी आयी है। चीन और भारत के बीच 1992 ई० में 33 करोड़ 80 लाख डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ था जो 2006 ई० में बढ़कर 18 अरब डॉलर का हो चुका है। हाल में, दोनों देश ऐसे मसलों पर भी सहयोग करने के लिए राजी हुए हैं। जिनसे दोनों के बीच विभेद पैदा हो सकते थे, जैसे-विदेशों में ऊर्जा-सौदा हासिल करने का मसला। वैश्विक धरातल पर भारत और चीन ने विश्व व्यापार संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठनों के संबंध में एक जैसी नीतियाँ अपनायी हैं।

(vi) सैनिक उतार-चढ़ाव एवं कूटनीतिक संबंध (Military development and diplomatic relations) – 1998 ई० में भारत के परमाणु हथियार परीक्षण को कुछ लोगों ने चीन से खतरे के मद्देनजर उचित ठहराया था लेकिन इससे भी दोनों के बीच संपर्क कम नहीं हुआ। यह सच हैं कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम में भी चीन को मददगार माना जाता है। बंगलादेश और म्यां से चीन के सैनिक संबंधों को भी दक्षिण एशिया में भारतीय हितों के खिलाफ माना जाता है, पर इनमें से कोई भी मुद्दा दोनों मुल्कों में टकराव करवा देने लायक नहीं माना जाता।

इस बात का (क प्रमाण यह है कि इन चीजों के बने रहने के बावजूद सीमा विवाद सुलझाने की बातचीत और सैन्य स्तर पर सहयोग का कार्यक्रम जारी है। चीन और भारत के नेता तथा अधिकारी अब अक्सर नयी दिल्ली और बीजिंग का दौरा करते हैं। परिवहन और संचार मार्गों की बढ़ोत्तरी, समान आर्थिक हित तथा एक जैसे वैश्विक सरोकारों के कारण भारत और चीन के बीच संबंधों को ज्यादा सकारात्मक तथा मजबूत बनाने में मदद मिली है।

प्रश्न 3.
भारत-पाकिस्तान के संबंधों की मुख्य समस्यायें क्या हैं ?
उत्तर:
भारत अपने पड़ोसी देशों के साथ शांति एवं मित्रता का संबंध बनाए रखना चाहता है। भारत की स्वतंत्रता के साथ ही पाकिस्तान का जन्म एक पड़ोसी के रूप में हुआ। अपने पड़ोसी देशों से मधुर संबंध रहे तो संबंधित राज्य मानसिक चिंताओं और तनाव के वातावरण से मुक्त होकर अपने साधनों का इस्तेमाल विकास संबंधी कार्यों में लगा सकता है। भारत के पड़ोसी राज्यों से लगभग अच्छे हैं। चीन के साथ हमारे सीमा विवाद का समाधान अभी तक नहीं हुआ है। पाकिस्तान के साथ बनते-बिगड़ते संबंधों के चलते हमारी परेशानियां बढ़ी हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों में भारत अपने पड़ोसियों के साथ शांति और मित्रता से रहना चाहता है। आकार और जनसंख्या में बड़ा होने पर भी वह छोटे देशों के साथ समानता के आधार पर सहयोग करना चाहता है। भारत पाकिस्तान के मध्य संबंधों में कटुता विद्यमान है, ये समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  • कश्मीर का मामला
  • शरणार्थियों का प्रश्न
  • आतंकवाद
  • नहर पानी विवाद
  • ऋण की अदायगी का प्रश्न।

ये ऐसी समस्याएँ है जिसके चलते दोनों के बीच काफी उग्रता उत्पन्न हुई हैं पाकिस्तान ने तोड़-फोड़ जासूसी सीमा अतिक्रमण, आदि कार्यवाहियों के अलावा 1947, 1965 और 1971 में आक्रमण भी किया।

प्रश्न 4.
हरित क्रांति क्या है ? हरित क्रांति के सकारात्मक एवं नकारत्मक पहलुएँ बताइए।
उत्तर:
हरित क्रांति का अर्थ : सरकारी खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कृषि की एक नई रणनीति अपनाई। जो इलाके अथवा किसान खेती के मामले में पिछड़े हुए थे शुरू में सरकार ने उनको ज्यादा सहायाता देने की नीति अपनायी थी। इस नीति को छोड़ दिया गया। सरकार ने अब उन इलाकों पर ज्यादा संसाधन लगाने का फैसला किया जहाँ सिंचाई सुविधा मौजूद थी और जहाँ के किसान समृद्ध थे। इस नीति के पक्ष में दलील यह दी गई कि जो पहले से ही सक्षम हैं वे कम उत्पादन को तेज रफ्तार से बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं। सरकार ने उच्च गुणवत्ता के बीच, उर्वरक, कीटनाशक और बेहतर सिंचाई सुविधा बड़े अनुदानित मूल्य पर मुहैया कराना शुरू किया। सरकार ने इस बात की भी गारंटी दी कि उपज को एक निर्धारित मूल्य पर खरीद लिया जाएगा। यही उस परिघटना की शुरूआत थी, जिसे ‘हरित क्रांति’ कहा जाता है।

हरित क्रांति के दो सकारात्मक परिणाम (Two Positive Results of Green Revolution)-

  • हरित क्रांति में धनी किसानों और बड़े भू-स्वामियों को सबसे ज्यादा फायदा हुआ। हरित क्रांति से खेतीहर पैदावार में सामान्य किस्म का इजाफा हुआ। (ज्यादातर गेहूँ की पैदावार बढ़ी) और देश में खाद्यान्न उपलब्धता में बढ़ोत्तरी हुई।
  • इससे समाज के विभिन्न वर्गो और देश के अलग-अलग इलाकों के बीच ध्रुवीकरण तेज हुआ। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश जैसे इलाके कृषि के लिहाज से समृद्ध हो गए जबकि बाकी इलाके खेती के मामले में पिछड़े रहे।

हरित क्रांति के दो नकारात्मक परिणाम (Two Negative Reseults of Green Revolution)-

  • इस क्रांति का एक बुरा परिणाम तो यह हुआ कि गरीब किसानों और भू-स्वामियों के बीच का अंत: मुखर हो उठा। इससे देश के विभिन्न हिस्सों में वामपंथी संगठनों के लिए गरीब किसानों को लामबंद करने के लिहाज से अनुकूल स्थित पैदा हुई।
  • हरित क्रांति के कारण कृषि में मंझोले दर्जे के किसानों यानी मध्यम श्रेणी के भू-स्वामित्व वाले किसानों का उद्धार हुआ। इन्हें बदलावों से फायदा हुआ था और देश के अनेक हिस्सों में ये प्रभावशाली बनकर उभरे।

प्रश्न 5.
संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत की भूमिका पर संक्षिप्त निबंध लिखें।
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना 24 अक्टूबर, 1945 को हुई। इसका मुख्य उद्देश्य विश्व में शांति स्थापित करना तथा ऐसा वातावरण बनाना जिससे सभी देशों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक समस्याओं को सुलझाया जा सके। भारत संयुक्त राष्ट्र संघ का संस्थापक सदस्य है तथा इसे अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना तथा विश्व शांति के लिए एक महत्वपूर्ण संस्था मानता है।

संयुक्त राष्ट्र में भारत की भूमिका (India’s Role in the United Nations)-
(i) चार्टर तैयार करवाने में सहायता (Help in Preparation of theU.N. Charter) – संयुक्त राष्ट्र का चार्टर बनाने में भारत ने भाग लिया। भारत की ही सिफारिश पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने चार्टर में मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रताओं को बिना किसी भेदभावं के लाग करने के उद्देश्य से जोड़ा। सान फ्रांसिस्को सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधि श्री स. राधास्वामी मुदालियर ने इस बात पर जोर दिया कि युद्धों को रोकने के लिए आर्थिक और सामाजिक न्याय का महत्त्व सर्वाधिक होना चाहिए। भारत संयुक्त राष्ट्र के चार्टर पर हस्ताक्षर करने वाले प्रारंभिक देशों में से एक था।

(ii) संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता बढ़ाने में सहयोग (Co-operation for increasing the membership of United Nations) – संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनने के लिए भारत ने विश्व के प्रत्येक देश को कहा है। भारत ने चीन, बांग्लादेश, हंगरी, श्रीलंका, आयरलैंड और रूमानिया आदि देशों को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

(iii) आर्थिक और सामाजिक समस्याओं को सुलझाने में सहयोग (Co-operation for solving the Economic and Social Problems) – भारत ने विश्व की सामाजिक व आर्थिक समस्याओं को सुलझाने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ के माध्यम से एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत ने हमेशा आर्थिक रूप से पिछड़े हुए देशों के आर्थिक विकास पर बल दिया है
और विकसित देशों से आर्थिक मदद और सहायता देने के लिए कहा है।

(iv) निःशस्त्रीकरण के बारे में भारत का सहयोग (India’s Co-operation to U. N. for the disarmament) – संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर में महासभा और सुरक्षा परिषद दोनों के ऊपर यह जिम्मेदारी डाल दी गई है कि नि:शस्त्रीकरण के द्वारा ही विश्व शांति को बनाये रखा जा सकता है और अणु शक्ति का प्रयोग केवल मानव कल्याण के लिए होना चाहिए। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी ने अक्टूबर, 1987 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा में बोलते हुए पुनः पूर्ण परमाणविक निःशस्त्रीकरण की अपील की थी।

संयुक्त राष्ट्र संघ के राजनीतिक कार्यों में, भारत का सहयोग (India’s Co-operation in the Political Functions of the United Nations) – भारत ने संयुक्त संघ द्वारा सुलझाई गई प्रत्येक समस्या में अपना पूरा-पूरा सहयोग दिया। ये समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

(i) कोरिया की समस्या (Korean Problems) – जब उत्तर कोरिया ने दक्षिण कोरिया पर आक्रमण कर दिया तो तीसरे विश्व युद्ध का खतरा उत्पन्न हो गया क्योंकि उस समय उत्तरी कोरिया रूस के और दक्षिण कोरिया अमेरिका के प्रभाव क्षेत्र में था! ऐसे समय में भारत की सेना कोरिया में शांति स्थापित करने के लिए गई। भारत ने इस युद्ध को समाप्त करने तथा दोनों देशों के युद्धबन्दियों के आदान-प्रदान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

(ii) स्वेज नहर की समस्या (Problems concerned with Suez Canal) – जुलाई, 1956 के बाद में मिस्र ने स्वेज नहर के राष्ट्रीयकरण की घोषणा कर दी। इस राष्ट्रीयकरण से इंग्लैंड और फ्रांस को बहुत अधिक हानि होने का भय था अत: उन्होंने स्वेज नहर पर अपना अधिकार जमाने के उद्देश्य से इजराइल द्वारा मित्र पर आक्रमण करा दिया। इस युद्ध को बन्द कराने के लिए संयुक्त राष्ट्र ने सभी प्रयास किये। इन प्रयासों में भारत ने भी पूरा सहयोग दिया और वह युद्ध बन्द हो गया।

(iii) हिन्द-चीन का प्रश्न (Issue of Indo-China) – सन् 1954 में हिन्द-चीन में आग भड़की। उस समय ऐसा लगा कि संसार की अन्य शक्तियाँ भी उसमें उलझ जायेगी। जिनेवा में होने वाली अंतर्राष्ट्रीय कान्फ्रेंस में भारत ने इस क्षेत्र की शांति स्थापना पर बहुत बल दिया।

(iv) हंगरी में अत्याचारों का विरोध (Opposition of Atrocities in Hangery) – जब रूसी सेना ने हंगरी में अत्याचार किये तो भारत ने उसके विरुद्ध आवाज उठाई। इस अवसर पर उसने पश्चिमी देशों के प्रस्ताव का समर्थन किया, जिसमें रूस से ऐसा न करने का अनुरोध किया गया था।

(v) चीन की सदस्यता में भारत का योगदान (Contribution of India in greating membership to China) – विश्व शांति की स्थापना के सम्बन्ध में भारत का मत है कि जब तक संसार के सभी देशों का प्रतिनिधित्व संयुक्त राष्ट्र में नहीं होगा वह प्रभावशाली कदम नहीं उठा सकता। भारत के 26 वर्षों के प्रयत्न स्वरूप संसार में यह वातावरण बना लिया गया। इस प्रकार चीन सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य भी बन गया है।

(vi) नये राष्ट्रों की सदस्यता (Membership to New Nations) – भारत का सदा प्रयत्न रहा है कि अधिकाधिक देशों को संयुक्त राष्ट्र का सदस्य बनाया जाये। इस दृष्टि से नेपाल, श्रीलंका, जापान, इटली, स्पेन, हंगरी, बल्गारिया, ऑस्ट्रिया, जर्मनी आदि को सदस्यता दिलाने में भारत ने सक्रिय प्रयास किया।

(vii) रोडेशिया की सरकार (Government of Rodesia) – जब स्मिथ ने संसार की अन्य श्वेत जातियों के सहयोग से रोडेशिया के निवासियों पर अपने साम्राज्यवादी शिकंजे को कसा तो भारत ने राष्ट्रमण्डल तथा संयुक्त राष्ट्र के मंचों से इस कार्य की कटु आलोचना की।

(viii) भारत विभिन्न पदों की प्राप्ति कर चका है (India had worked at different posts) – भारत की सक्रियता का प्रभाव यह है कि श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित को साधारण सभा का अध्यक्ष चुना गया। इसके अतिरिक्त मौलाना आजाद यूनेस्को के प्रधान बने, श्रीमती अमृत कौर विश्व स्वास्थ्य संघ की अध्यक्षा बनीं! डॉ. राधाकृष्णन् आर्थिक व सामाजिक परिषद के अध्यक्ष चुने गये। सर्वाधिक महत्त्व की बात भारत को 1950 में सुरक्षा परिषद का अस्थायी सदस्य चुना जाना था।

अब तक छः बार 1950, 1967, 1972, 1977, 1984 तथा 1992 में भारत अस्थायी सदस्य रह चुका है। डॉ॰ नगेन्द्र सिंह 1973 से ही अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीश रहे। फरवरी, 1985 में मुख्य न्यायाधीश चुने गये। श्री के. पी. एस. मेनन कोरिया तथा समस्या के सम्बन्ध में स्थापित आयोग के अध्यक्ष चुने गये थे।

प्रश्न 6.
भारतीय विदेश नीति के मुख्य तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विदेश नीति (Foreign Policy) – साधारण शब्दों में विदेश नीति से तात्पर्ग उस नीति से है जो एक राज्य द्वारा राज्यों के प्रति अपनाई जाती है। वर्तमान युग में कोई भी स्वतंत्र देश संसार के अन्य देशों से अलग नहीं रह सकता। उसे राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा करने के लिए एक-दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। इस संबंध को स्थापित करने के लिए वह जिन नीतियों का प्रयोग करना है उन नीतियों को उस राज्य की विदेश नीति कहते हैं।

भारत की विदेश नीति की प्रमुख विशेषताएँ (Main features of India’s foreign policy)-
(i) गुट निरपेक्षता (Non-alignment) – दूसरे विश्व युद्ध के पश्चात् विश्व दो गुटों में विभाजित हो गया। इसमें से एक पश्चिमी देशों का गुट था और दूसरा साम्यवादी देशों का। दोनों महाशक्तियों ने भारत को अपने पीछे लगाने के काफी प्रयास किए, परंतु भारत ने दोनों ही प्रकार से सैनिक गुटों से अलग रहने का निश्चय किया और तय किया कि वह किसी सैनिक गठबन्धन का सदस्य नहीं बनेगा, स्वतंत्र विदेश नीति अपनाएगा तथा प्रत्येक राष्ट्रय महत्व के प्रश्न पर स्वतंत्र तथा निष्पक्ष रूप से विचार करेगा।

(ii) उपनिवेशवाद व साम्राज्यवाद का विरोध (Opposition to colonialism and imperialism) – साम्राज्यवादी देश दूसरे देशों की स्वतंत्रता का अपहरण करके उनका शोषण करते हैं। संघर्ष और युद्धों का सबसे बड़ा कारण साम्राज्यवाद है। भारत स्वयं साम्राज्यवादी शोषण का शिकार रहा है। द्वितीय महायुद्ध के बाद एशिया, अफ्रीका व लैटिन अमेरिका के अधिकांश राष्ट्र स्वतंत्र हो गए। पर साम्राज्यवाद का अभी पूर्ण विनाश नहीं हो पाया है। भारत ने एशियाई और अफ्रीकी देशों की एकता का स्वागत किया है।

(iii) अन्य देशों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (Friendly relations with other countries) – भारत की विदेश नीति की अन्य विशेषता यह है कि भारत विश्व के अन्य देशों से अच्छे सम्बन्ध बनाने के लिए सदैव तैयार रहता है। भारत ने न केवल मित्रतापूर्ण सम्बन्ध एशिया के देशों से ही बढ़ाए हैं बल्कि उसने विश्व के अन्य देशों से भी सम्बन्ध बनाएं हैं। भारत के नेताओं ने कई बार स्पष्ट . घोषणा की है कि भारत सभी देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता है।

(iv) पंचशील और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व (Panchsheel) – पंचशील का अर्थ है पाँच सिद्धांत। ये सिद्धांत हमारी विदेश नीति के मूल आधार हैं। इन पाँच सिद्धातों के लिए “पंचशील” शब्द का प्रयोग सबसे पहले 24 अप्रैल 1954 ई० को किया गया था। ये ऐसे सिद्धांत है कि यदि इन पर विश्व के सब देश चलें तो विश्व में शांति स्थापित हो सकती है। ये पाँच सिद्धांत निम्नलिखित हैं-

  • एक-दूसरे की अखण्डता और प्रभुसत्ता को बनाए रखना।
  • एक-दूसरे पर आक्रमण न करना।
  • एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना।
  • शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत को मानना।
  • आपस में समानता और मित्रता की भावना को बनाए रखना।

पंचशील के ये पाँच सिद्धांत विश्व में शांति स्थापित करने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। ये संसार के बचाव की एकमात्र आशा हैं क्योंकि आज का युग परमाणु बम और हाइड्रोजन बम का युग है। युद्ध छिड़ने से कोई नहीं बच पायेगा। अत: केवल इन सिद्धांतों को मानने से ही संसार में शांति स्थापित हो सकती है।

(v) राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा (Safeguarding the national Interests) – भारत प्रारंभ से ही शांतिप्रिय देश रहा है इसलिए उसने अपने विदेश नीति को राष्ट्रीय हितों के सिद्धांत पर आधारित किया है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी भारत ने अपने उद्देश्य मैत्रीपूर्ण रखे हैं। इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए भारत सरकार ने संसार के सभी देशों से मित्रतापूर्ण संबंध स्थापित किए हैं। इसी कारण आज भारत आर्थिक, राजनीतिक व सांस्कृतिक क्षेत्रों में शीघ्रता से उन्नति कर रहा है। इसके साथ-साथ वर्तमान समय में भारत के संबंध विश्व की महाशक्तियों (रूस तथा अमेरिका) एवं अपने लगभग सभी पड़ोसी देशों के साथ मैत्रीपूर्ण और अच्छे हैं।

प्रश्न 7.
आज की चीनी अर्थव्यवस्था नियंत्रित अर्थव्यवस्था से किस तरह अलग है ?
उत्तर:
आज की चीनी अर्थव्यवस्था नियंत्रित अर्थव्यस्था से निम्नलिखित प्रकार से अलग है-

  1. 1978 में तत्कालीन नेता देंग श्याआपेंग ने चीन में आर्थिक सुधारों और ‘खुले द्वार की नीति’ की घोषणा की।
  2. इस घोषणा के पश्चात् यह निश्चित किया गया कि विदेशी पूँजी और प्रौद्योगिकी के निवेश से उच्चतर उत्पादकता को प्राप्त किया जाय। बाजारमूलक अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिए चीन ने अपना तरीका अपनाया।
  3. चीन ने शॉक थेरेपी को महत्त्व नहीं दिया बल्कि अपनी अर्थव्यवस्था को क्रमबद्ध तरीके से आरंभ किया।
  4. कृषि का निजीकरण कर दिया गया जिसके कारण कृषि उत्पादों तथा ग्रामीण में पर्याप्त आय हुई।
  5. ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निजी बचत को महत्व दिया गया जिससे ग्रामीण उद्योगों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई। इस प्रकार उद्योग और कृषि दोनों ही क्षेत्रों में चीन की अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर तेज रही।
  6. व्यापार के नये कानून तथा विशेष आर्थिक क्षेत्रों (Special Economic Zones) का निर्माण किया गया। इससे विदेशी व्यापार में अद्भुत बढ़ोत्तरी हुई।
  7. उसने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को महत्त्व दिया। फलस्वरूप उसके पास विदेशी मुद्रा का विशाल भंडार हो गया है। विदेशी मुद्रा की सहायता से वह दूसरे देशों में निवेश कर रहा है।
  8. 2001 में विश्व व्यापार संगठन में शामिल हो गया है। इस प्रकार वह दूसरे देशों में अपनी अर्थव्यवस्था खोलने में सक्षम हो गया है।

प्रश्न 8.
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के गठन एवं क्षेत्राधिकार का परीक्षण करें।
उत्तर:
भारत का सर्वोच्च न्यायालय भारतीय न्याय व्यवस्था के शीर्ष स्थान पर है। मूल संविधान के अनुसार इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा सात अन्य न्यायाधीश हो सकते थे। परन्तु संविधान संशोधन द्वारा उनकी संख्या में वृद्धि कर दी गई है।

गठन (Composition) – सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश होते हैं। न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है। सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश वही नियुक्त किया जा सकता है जो-

  • भारत का नागरिक हो।
  • एक या एक से अधिक न्यायालयों में पाँच वर्षों तक न्यायाधीश रह चुका हो या किसी एक अथवा एक से अधिक उच्च न्यायालयों में 10 वर्षों तक अधिवक्ता रह चुका हो।
  • राष्ट्रपति की दृष्टि से वह एक सुविख्यात विधिवेत्ता हो।

सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक बना रह सकता है। इसके पहले भी वह त्याग-पत्र देकर हट सकता है। इसके अतिरिक्त कदाचारिता या अक्षमता के आरोप में संसद के दोनों सदनों के पृथक्-पृथक् दो-तिहाई बहुमत में प्रस्ताव पारित कर किसी न्यायाधीश को पदच्युत किया जा सकता है। वर्तमान समय में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को एक लाख रुपये तथा अन्य न्यायाधीश को 90,000 रुपये मासिक वेतन एवं अन्यान्य सुविधायें प्राप्त हैं।

क्षेत्राधिकार (Jurisdiction) – सर्वोच्च न्यायालय के अधिकारों एवं कार्यों को निम्नलिखित वर्ग में बाँटा जा सकता है-
(i) प्रारंभिक अधिकार इस श्रेणी में वे विषय आते हैं जिनकी सुनवाई केवल सर्वोच्च न्यायालय में ही होती है। ऐसे विषय निम्नलिखित हैं-

  • संघ तथा राज्य विवाद।
  • भारत सरकार, राज्य या कई राज्यों तथा एक या उससे अधिक राज्यों के बीच विवाद।
  • दो या दो से अधिक राज्यों की बीच विवाद, जिसमें कोई ऐसा प्रश्न अन्तर्निहित हो, जिस पर किसी वैध अधिकार का अस्तित्व या विस्तार निर्भर हो।

इसके अतिरिक्त मौलिक अधिकार के मामले भी सर्वोचच न्यायालय के अधिकार क्षेत्र में आते हैं। परन्तु इस मामले की सुनवाई उच्च न्यायालय में भी हो सकती है।

(ii) अपीलीय क्षेत्राधिकार – सर्वोच्च न्यायालय केवल उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील सुनता है। यह अपील संवैधानिक, फौजदारी, दीवानी और कुछ विशिष्ट मामलों में सुनी जाती है।

संवैधानिक मामलों में अपील तभी सुनी जा सकती है, जबकि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाण दे कि इस मामले में अपील की जा सकती है, या सर्वोच्च न्यायालय को ऐसा विश्वास हो जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या का प्रश्न निहित है। फौजदारी मामलों में अपील तभी की जा सकती है जबकि-

  • उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय द्वारा किए गए किसी अभियुक्त को मृत्यु दंड का आदेश दिया हो। अथवा
  • उच्च न्यायालय या अपने अधीनस्थ न्यायालय में किसी फौजदारी मामले को मंगाकर अभियुक्त को प्राण दण्ड देना।

दीवानी मामले में निम्नलिखित परिस्थितियों में अपील की जा सकती है-

  • यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाण दे कि इस मामले में कानून की व्याख्या का प्रश्न निहित है।
  • उच्च न्यायालय प्रमाण पत्र दे कि मुकदमा सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने योग्य है। कुछ विशिष्ट मामलों में सर्वोच्च न्यायालय अपील की अनुमति दे सकता है।

(iii) परामर्शदात्री क्षेत्राधिकार – संविधान की धारा 143 के अनुसार राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह किसी भी संवैधानिक मामले अथवा समझौते या सार्वजनिक महत्त्व के प्रश्न से संबंधित किसी भी विषय पर सार्वजनिक न्यायालय के समक्ष विचार के लिए रख सकता है।. सर्वोच्च न्यायालय इस पर अपनी सलाह देता है। परन्तु इस सलाह का मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है।

(iv) आवत्ति संबंधी क्षेत्राधिकार – सर्वोच्च न्यायालय अपने किसी निर्णय पर पूर्ण विचार कर सकता है और उसे परिवर्तित कर भूल सुधार कर सकता है।

(v) अभिलेख न्यायालय – सर्वोच्च न्यायालय को ऊपर वर्णित अधिकारों के अतिरिक्त भी बहुत से अधिकार प्राप्त हैं। जैसे-

यह मौलिक अधिकारों का सबसे बड़ा रक्षक है। उसकी रक्षा के लिए यह विभिन्न नियम जारी कर सकता है। यह संविधान का भी एक रक्षक है। यह संसद तथा राज्य विधान मंडल द्वारा बनाए गए ऐसे कानून को जो संविधान के विरुद्ध हैं, अवैध घोषित कर सकता है। उसे अपनी कार्य-प्रणाली के संचालन के लिए नियम बनाने का भी अधिकार है। यह अपने कर्मचारियों पर भी नियंत्रण रखता है।

प्रश्न 9.
लोक सभा के संगठन और कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
लोकसभा का गठन-लोकसभा संसद का प्रथम अथवा निम्न सदन है। इसके कुल सदस्यों की संख्या अधिकतम 550 हो सकती है। इनमें से 530 सदस्य राज्यों की जनता के द्वारा तथा 20 सदस्य केन्द्र शासित प्रदेशों की जनता के प्रतिनिधि हो सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। आजकल लोकसभा में 545 सदस्य हैं जिसमें से दो सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत एंग्लो-इण्डियन हैं। सदस्यों के निर्वाचन में वस्यक मताधिकार का प्रयोग होता है। प्रत्येक 18 वर्ष की आयु वाले नागरिक वोट डालते हैं। 25 वर्ष की आयु वाला नागरिक जिसका नाम मतदाता सूची में हो, चुनाव लड़ सकता है। सदस्यों का चुनाव 5 वर्ष के लिए किया जाता है।

लोकसभा का कार्य :

  • लोकसभा संघ की सूची के विषयों पर कानून बनाती है। संसद में कोई विधेयक लोकसभा और राज्य सभा दोनों में अलग-अलग पारित किया जाता है, तभी राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर करता है। उसके बाद वह विधेयक कानून बन जाता है।
  • वित्त विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तावित किए जाते हैं तथा अंतिम रूप से इसी के द्वारा पास किए जाते हैं।
  • लोकसभा राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में लेती है।
  • लोकसभा में बहुमत दल के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री बनाया जाता है।
  • लोकसभा लोगों की सभा है। लोगों के कल्याण के लिए यहाँ अनेक प्रस्ताव पास किए जाते हैं।
  • लोकसभा मंत्रिमंडल पर नियंत्रण रखती है। वह उसके प्रति अविश्वास का प्रस्ताव भी पारित कर सकती है, जिससे मंत्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ता है। इसके अतिरिक्त निन्दा प्रस्ताव, काम रोको प्रस्ताव लाकर, प्रश्न पूछकर लोकसभा मंत्रिमण्डल पर नियंत्रण रखती है।
  • राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने का अधिकार संसद को है। इस प्रकार लोकसभा इस कार्य में भी राज्यसभा की सहभागी है। वह सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को भी उनके पद से हटा सकती है।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की आलोचनात्मक व्याख्या करें। इसकी क्या उपयोगिता है ?
उत्तर:
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है। हमारे देश के संविधान का मूल दर्शन (Basic Philosophy) हमें संविधान की प्रस्तावना में मिलता है, जिसे के. एम. मुंशी ने राजनीतिक जन्म-पत्री (Political Horoscope) का नाम दिया है। यद्यपि कानूनी दृष्टि से प्रस्तावना संविधान का अंग नहीं होती और इसे न्यायालयों द्वारा लागू नहीं किया जाता है तथापि संविधान की प्रस्तावना बहुत ही महत्वपूर्ण दस्तवेज है जो संविधान के मूल उद्देश्यों, विचारधाराओं तथा सरकार के उत्तरदायित्वों पर प्रकाश डालता है।

जब संविधान की कोई धारा संदिग्ध हो और इसका अर्थ स्पष्ट न हो, तो न्यायालय उसकी व्याख्या करते समय प्रस्तावना की सहायता ले सकते हैं। वास्तव में, प्रस्तावना को ध्यान में रखकर ही संविधान की सर्वोत्तम व्याख्या की जा सकती है। प्रस्तावना से यह पता चलता है कि संविधान-निर्माताओं की भावनाएँ क्या थीं। प्रस्तावना संविधान बनानेवालों को मन की कुंजी है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना से संविधान के उद्देश्यों, लक्ष्यों, विचारधाराओं तथा हमारे स्वप्नों का स्पष्ट पता चल जाता है।

हमारे संविधान की प्रस्तावना की सर्वश्रेष्ठ प्रशंसा सर अर्नेस्ट बार्कर (Sir Earnest Barker) ने अपनी प्रसिद्ध रचना ‘सामाजिक और राजनीतिक विचारधारा के सिद्धान्त पर (Principle of Social and Political Theory) में इन शब्दों में की है : “जब मैं इसे पढ़ता हूँ, तो मुझे लगता है कि इस पुस्तक का अधिकांश तर्क संक्षेप में वर्णित है, अतः इसे इसकी कुंजी कहा जा सकता है। मैं इसे देखने के लिए इसलिए भी और लालायित हूँ कि मुझे इस बात का गर्व है कि भारत के लोग अपने स्वतंत्र जीवन का प्रारम्भ राजनीतिक परम्परा के उन सिद्धान्तों के साथ कर रहे हैं, जिन्हें हम पश्चिम के लोग पाश्चात्य कहकर पुकारते हैं, परन्तु जो अब पाश्चात्य से कहीं अधिक है।” संविधान सभा के सदस्य पण्डित ठाकुर दास भार्गव ने प्रस्तावना की सराहना करते हुए कहा था, “प्रस्तावना संविधान का सबसे मूल्यवान अंग है। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान की कुंजी है। यह संविधान का रत्न है।”

(The Preamble is the most precious part of the Constitution. It is the key to the Constitution. It is the jewel in the Constitution.) कुछ वर्ष पूर्व श्री एन. ए. पालकीवाला ने सुप्रीम कोर्ट में 24, 25 और 29वें संविधानों की आलोचना करते समय कहा कि प्रस्तावना संविधान का एक आवश्यक अंग है।

प्रस्तावना (Preamble) – प्रस्तावना एक वैधानिक प्रलेख में प्राक्कथन के रूप में होती है। संविधान की प्रस्तावना संविधान के अनुसार ही होती है और इसलिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना को संविधान सभा ने संविधान पारित करने के उपरांत पारित किया। संविधान की प्रस्तावना में उन भावनाओं का वर्णन है, जो दिसम्बर, 1946 ई० को पं. जवाहरलाल नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव में रखा था। उद्देश्य प्रस्ताव में कहा गया है कि संविधान सभा घोषित करती है कि इसका ध्येय व दृढ़ संकल्प भारत को सर्वप्रभुत्व सम्पन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाना है और इन्हीं शब्दों का इस्तेमाल प्रस्तावना में किया गया है। 42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में संशोधन करके समाजवाद (Socialism) तथा धर्म-निरपेक्ष (Secular) शब्दों को प्रस्तावना में अकित किया गया। हमारे वर्तमान संविधान की प्रस्तावना इस प्रकार है।

“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुसत्ता सम्पन्न समाजवादी धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने तथा समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय, विचार-अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासना की स्तवंत्रता, प्रतिष्ठा तथा अवसर की समता प्राप्त कराने और उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करनेवाली बन्धुता बढ़ाने के लिए दृढ़-संकल्प होकर अपनी इस विधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, सम्वत् दो हजार छ: विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित तथा आत्मार्पित करते हैं।”

महत्व – M.P. Pylee के अनुसार, “भारतीय संविधान की प्रस्तावना आज तक अकित इस प्रकार के प्रलेखों में सर्वोच्च है। यह विचार, आदर्श और अभिव्यक्ति में अनुपम है। यह संविधान की आत्मा है। यह प्रस्तावना भारतीयों के दृढ़-संकल्प की प्रतीक है कि वे एकता प्राप्त कर ऐसे स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण करेंगे, जिसमें न्याय, स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृभाव की विजय हो।” वी० एन० शुक्ला (V. M. Shukla) ने प्रस्ताव के महत्त्व के सम्बन्ध में लिखा है, “यह सामान्य तथा राजनीतिक, नैतिक व धार्मिक मूल्यों का स्पष्टीकरण करती है, जिन्हें संविधान प्रोत्साहित करना चाहता है।”

भारतीय संविधान की प्रस्तावना स्पष्ट रूप से तीन बातों पर प्रकाश डालती है-

  1. सांविधानिक शक्ति का स्रोत क्या है,
  2. भारतीय शासन-व्यवस्था कैसी है तथा
  3. संविधान के उद्देश्य या लक्ष्य क्या हैं ?

प्रस्तावना के प्रारम्भिक शब्द यह इंगित करते हैं कि भारतीय संविधान का स्रोत जनता है। भारतीय शासन की अंतिम सत्ता जनता में निहित है तथा भारतीय जनता ने ही संविधान को अंगीकृत और अधिनियमित किया है। इसके सम्बन्ध में पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “यह संविधान राज्यों ने नहीं बनाया और न ही कुछ राज्यों के लोगों ने और न ही यह संभव है कि हमारे राज्यों में से एक अथवा उनका एक घटक इस संविधान को भंग कर दे और वे हमसे अलग हो जायँ।” Dr. Ambedkar के अनुसार, “The preamble emobides what is the desire of every member of the house, that this constitution should have its roots, its authority, its sovereignty from the people.”

प्रश्न 11.
राष्ट्रपति शासन से आप क्या समझते हैं ? अथवा, राष्ट्रपति शासन किन परिस्थितियों में लगाया जाता है ?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार किसी राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता की दशा में राष्ट्रपति शासन लागू किया जा सकता है। ऐसा राष्ट्रपति की उद्घोषणा द्वारा संभव है। राष्ट्रपति शासन छः माह की अवधि के लिए लगाया जा सकता है, जिसे पुनः छः माह तक के लिए बढ़ाया जा सकता है। एके वर्ष की अवधि के उपरांत यह तभी लागू रह सकता है जब राष्ट्रीय आपात लागू हो तथा चुनाव आयोग यह प्रमाणित कर दे कि राज्य विधान सभा का चुनाव कराना फिलहाल संभव नहीं है। राष्ट्रपति शासन की दशा में राज्य मंत्रिमण्डल बर्खास्त कर दिया जाता है तथा राज्य की कार्यपालिकीय शक्तियाँ राष्ट्रपति के हाथ में आ जाती हैं। राज्य की विधानसभा या तो बर्खास्त कर दी जाती है या लम्बित रहती है। राष्ट्रपति शासन में राज्य के उच्च न्यायालय की शक्तियों में कोई परिवर्तन नहीं होता।

प्रश्न 12.
भारत के राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकारों का वर्णन कीजिए। अथवा, ‘भारतीय राष्ट्रपति के आपातकालीन अधिकार’ पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
जर्मनी के वाइमर संविधान के राष्ट्रपति की तरह भारत के राष्ट्रपति को भी संकटकाल में उत्पन्न कठिनाइयों का समाधान करने के लिए अत्यन्त ही विस्तृत और निरंकुश अधिकार दिए गए हैं। जब राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा करेगा तब उसके हाथों में ऐसे बहुत-से अधिकार आ जाएँगै जो उसे साधारण स्थिति में प्राप्त नहीं है। संकट तीन प्रकार के हो सकते हैं-

  • युद्ध या युद्ध की संभावना अथवा सशस्त्र विद्रोह से उत्पन्न संकट;
  • राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल होने से उत्पन्न संकट;
  • आर्थिक संकट।

(a) युद्ध या युद्ध की संभावना अथवा आंतरिक अशांति से उत्पन्न संकट – संविधान के अनुच्छे 352 के अनुसार, यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि देश अथवा देश के किसी भाग की सुरक्षा तथा शांति युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह के कारण संकट में है, तो वह संकटकाल की घोषणा कर देश का या देश के किसी भाग का शासन अपने हाथ में ले सकता है। राष्ट्रपति इस आशय की घोषण उस दशा में भी कर सकता है, जब उसे यह विश्वास हो जाए कि युद्ध अथवा सशस्त्र विद्रोह के कारण देश अथवा देश के किसी भाग की सुरक्षा और शांति निकट भविष्य में संकट में पड़नेवाली है। तात्पर्य यह है कि संभावना मात्र से ही राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है।

संविधान के 44वें संशोधन अधिनियम के अनुसार राष्ट्रपति के संकटकालीन अधिकार में अनेक परिवर्तन किए गए; जैसे-

  • अपने मंत्रिमण्डल के निर्णय के बाद प्रधानमंत्री द्वारा लिखित सिफारिश के बाद ही राष्ट्रपति संकटकाल की घोषणा कर सकता है।
  • राष्ट्रपति द्वारा संकटकाल की घोषणा के 30 दिनों के अन्तर्गत घोषणा पर संसद के दोनों सदनों द्वारा दो-तिहाई बहुमत से स्वीकृति आवश्यक है, अन्यथा छह महीने के बाद संकटकाल की घोषणा कर सकता है।
  • यदि लोकसभा के 1/10 सदस्य इस आशय का प्रस्ताव रखें कि संकटकाल समाप्त हो जाना चाहिए तो 14 दिनों के अन्दर ही इस प्रस्ताव पर विचार के लिए सदन की बैठक बुलाने की व्यवस्था की जाएगी।
  • नागरिकों के व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार संकटकाल की घोषणा के बाद भी समाप्त नहीं किए जाएँगे। भारत के राष्ट्रपति ने अपने इस अधिकार का प्रयोग सर्वप्रथम 1962 ई० में किया, जब चीन ने भारत पर आक्रमण किया। दूसरी बार इसका प्रयोग 1971 ई० में किया गया। तीसरी बार इसका प्रयोग 26 जून, 1975 को आंतरिक अशांति के लिए किया गया।

जब तक यह घोषणा लागू रहेगी तब तक

  • संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को यह आदेश दे सकती है कि वह राज्य अपनी कार्यपालिका-शक्ति का किस रीति से उपयोग करें,
  • संसद राज्यों की सूची में वर्णित विषयों पर कानून-निर्माण कर सकती है,
  • नागरिकों के कई मूल अधिकार (स्वतंत्रता-संबंधी अधिकार) स्थगित हो जाएँगे,
  • राष्ट्रपति मूल अधिकारों को कार्यान्वित करने के लिए किसी व्यक्ति के उच्च या अन्य न्यायालयों में जाने के अधिकार को स्थगित कर सकता है और
  • राष्ट्रपति संघ तथा राज्यों के बीच राजस्व-विभाजन-संबंधी समस्त उपबन्ध को स्थगित कर सकता है।

(b) राज्यों में सांविधानिक तंत्र की विफलता से उत्पन्न संकट – संविधान के अनुच्छेद 356 अनुसार, यदि राष्ट्रपति को राज्यपाल से सूचना मिले अथवा उसे यह विश्वास हो जाए कि अमुक राज्य में संविधान के अनुसार शासन चलाना असंभव हो गया है, तो वह घोषणा द्वारा उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है। ऐसी स्थिति में राज्य की कार्यपालिका-शक्ति अपने हाथों में ले सकता है, राज्य के विधानमण्डल की शक्तियाँ संसद राष्ट्रपति को दे सकती है। राष्ट्रपति कभी भी दूसरी घोषणा द्वारा इस घोषणा को रद्द कर सकता है। इस अधिकार का प्रयोग राष्ट्रपति ने अगस्त 1988 को नागालैंड में किया।

इस प्रकार की घोषणा संसद के दोनों सदनों के सामने रखी जाएगी और दो महीने तक लागू रहेगी। लेकिन, यदि इसी बीच संसद की स्वीकृति मिल जाए, तो वह दो महीनों के पश्चात भी स्वीकृति की तिथि से छह महीने तक लागू रहेगी। संविधान के 44वें संशोधन के अनुसार अब किसी राज्य में राष्ट्रपति-शासन अधिक-से-अधिक । वर्ष रह सकता है। 1 वर्ष से अधिक तभी रह सकता है जब निर्वाचन आयोग यह सिफारिश करे कि राज्य में चुनाव करना संभव नहीं है। संविधान का 48वाँ संशोधन-अधिनियम, 1984 के अनुसार पंजाब में राष्ट्रपति शासन को 1 वर्ष और बढ़ाने का प्रावधान है।

इस प्रकार की घोषणा से राष्ट्रपति राज्य से उच्च न्यायालय के अधिकारों को छोड़कर राज्य के समस्त कार्यों और अधिकारों को अपने हाथ में ले सकता है। यदि लोकसभा अधिवेशन में न हो, तो राज्य की संचित निधि में से वह व्यय करने की आज्ञा भी दे सकता है। संविधान द्वारा संघ सरकार का राज्यों की सरकारों के लिए जो निर्देश देने का अधिकार है यदि उनका पालन सुचारू रूप से न होता हो, तो राष्ट्रपति यह समझ सकता है कि राज्य का सांविधानिक तंत्र विफल हो चुका है और वह इस आशय की घोषणा निकाल सकता है।

(c) आर्थिक संकट – संविधान के अनुच्छेद 360 के अनुसार, यदि राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिसमें भारत अथवा उसके राज्य क्षेत्र के किसी भाग की आर्थिक स्थिरता एवं साख को खतरा है, तो वह इस आशय की घोषणा कर सकता है। दूसरी घोषणा के द्वारा उसे इस घोषणा को रद्द करने का भी अधिकार है। यह घोषणा संसद के दोनों सदनों के सामने रखी जाएगी और संसद की स्वीकति मिल जाए तो यह दो महीनों तक लाग रहेगी। दो महीनों तक लागू रहेगी। यदि यह घोषणा उस समय की गई है जबकि लोकसभा के भंग होने के पूर्व स्वीकृति न हुई हो, तो युद्ध अथवा आंतरिक अशांति के लिए निर्धारित व्यवस्था काम में लाई जाएगी।

इस घोषणा का प्रभाव यह होगा कि संघ की कार्यपालिका-शक्ति को राज्यों के आर्थिक मामलों में हस्तक्षेप करने का अधिकार मिल जाएगा। राष्ट्रपति को यह अधिकार होगा कि वह सरकारी नौकरों, यहाँ तक कि सर्वोच्च और न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतन कम करने और राज्यों के विधानमण्डल द्वारा स्वीकृत धन-विधेयक और वित्त-विधेयक को अपनी स्वीकृति के लिए रोक रखने का आदेश दे। इसका प्रयोग नहीं हुआ है।

प्रश्न 13.
किसी राज्य के मुख्यमंत्री के अधिकार एवं कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर:
मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा होती है। राज्यपाल साधारणतः उस व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है जो विधान सभा में बहुमत दल का नेता हो।

अधिकार एवं कार्य- मुख्यमंत्री के निम्नलिखित अधिकार एवं कार्य हैं-

  • वह मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष है। इस हैसियत से वह इसकी बैठकों का सभापतित्व करता है और मंत्रिपरिषद के समक्ष किसी बात को विचार हेतु रखता है।
  • वह यह देखता है कि सभी मंत्री एक टीम के रूप में कार्य करें। उसे सभी प्रशासकीय विभागों के निरीक्षण तथा समन्वय का अधिकार प्राप्त है। इसका निर्णय अन्तिम होता है।
  • विधानमंडल के नेता के रूप में यह देखता है कि कोई भी विधेयक समय पर पास हो जाए, किस विषय पर और कब मतदान लिया जाए तथा किस विषय पर कर लगाया जाए।
  • राज्यपाल मुख्यमंत्री के परामर्श पर नियुक्तियाँ करता है, मंत्रियों की नियुक्ति और पदच्युति तथा. विधान सभा के विघटन के बारे में कार्य करता है।
  • मुख्यमंत्री राज्यपाल तथा मंत्रिपरिषद के बीच में सम्पर्क स्थापित करने के लिए कड़ी का काम करता है। राज्यपाल को सभी निर्णयों की सूचना देना उसका कर्तव्य है।
  • राज्य सरकार तथा सत्तारूढ़ दल का प्रमुख प्रवक्ता होने के कारण उसके शब्द तथा आश्वासन आधिकारिक माने जाते हैं।
  • राज्यपाल महाधिवक्ता तथा राज्य लोकसेवा आयोग के सदस्यों की नियुक्ति करता है, लेकिन ये नियुक्तियाँ वस्तुत: मुख्यमंत्री द्वारा की जाती हैं।
  • अगर राज्यपाल चाहे तो वह मुख्यमंत्री से कह सकता है कि किसी मंत्री द्वारा व्यक्तिगत रूप से लिये गये निर्णय पर सम्पूर्ण मंत्रिमंडल फिर से विचार करे। मंत्रिपरिषद द्वारा स्वीकृत हो जाने पर उस निर्णय को राज्यपाल को मानना ही होगा।

प्रश्न 14.
भारत में साम्प्रदायिकता पर एक संक्षिप्त निबंध लिखें।
उत्तर:
साम्प्रदायिकता का आरंभ उस धारणा से होता है कि किसी समुदाय विशेष के लोगों के एक सामान्य अर्थ के अनुयायी होने के नाते राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक हित भी एक जैसे ही होते हैं। उस मत के अनुसार भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई अलग-अलग सम्प्रदायों से संबंधित हैं। साम्प्रदायिकता की शुरुआत हितों की पारस्परिक भिन्नता से होती है किंतु इसका अंत विभिन्न धर्मानुयायियों में पारस्परिक विरोध तथा शत्रुता की भावना से होता है।

साम्प्रदायवादी वह व्यक्ति है जो स्वयं अपने सम्प्रदाय के हितों या स्वार्थों की रक्षा करता है जबकि एक धर्म निरपेक्ष व्यक्ति व्यापक राष्ट्रीय हितों अथवा सभी सम्प्रदायों के हितों को ध्यान में रखता है। अर्थात् साम्प्रदायवादी हितों को बढ़ावा देने से संबंधित नीति को साम्प्रदायिकता कहा जाता है।

भाजपा को 1980 और 1984 के चुनावों में खास सफलता नहीं मिली। 1986 के बाद उस पार्टी ने अपनी विचारधारा में हिंदू राष्ट्रवाद के तत्वों पर जोड़ देना शुरू किया। भाजपा ने हिंदुत्व की राजनीति का रास्ता चुना और हिंदुओं को लामबंद करने की रणनीति अपनायी।

मुस्लिम साम्प्रदायिकता की जड़ें भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों के कारण गहरी हो चुकी थी। भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक थे। अल्पसंख्यकों की यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति हैं कि उन्हें यह खतरा रहता है कि बहुसंख्यक लोग उन पर हावी न हो जाएँ भले ही ऐसा महसूस करने के कोई वास्तविक आधार मौजूद न हों। इस संबंध में बहुसंख्यकों का विशेष दायित्व होता है। उन्हें एक निश्चित उदारता के साथ व्यवहार करना चाहिए जिससे कि अल्पसंख्यकों का यह भय धीरे-धीरे समाप्त हो जाय। दुर्भाग्यवश हिंदू साम्प्रदायवाद ने उसके विपरीत भूमिका अदा की। उन्होंने भारत को हिंदुओं की भूमि कहा और घोषित किया कि हिंदुओं का यह एक अलग शब्द है।

भाजपा ने अयोध्या मसले को उभारकर देश में हिंदुत्व को लामबंद करने की कोशिश की। उन्होंने जनसमर्थन जुटाने के लिए गुजरात स्थित सोमनाथ से उत्तर प्रदेश स्थित अयोध्या (राम जन्म भूमि) तक की बड़ी रथ यात्रा निकाली।

राम मंदिर निर्माण का समर्थन कर रहे संगठन 1992 के दिसम्बर में एक कार सेवा का आयोजन किया। 6 दिसंबर, 1992 को देश के विभिन्न भागों में लोग अयोध्या पहुँचे और इन लोगों ने बाबरी मस्जिद को गिरा दिया। मस्जिद के विध्वंस की खबर सुनते ही देश के कई भागों में हिंदू और मुसलमानों के बीच झगड़ा हुई। 1993 के जनवरी में एक बार फिर मुम्बई में हिंसा भड़की और अगले दो हफ्तों तक जारी रही। बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि पर गहरा धक्का लगा।

2002 के फरवरी-मार्च में गुजरात के मुसलमानों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। गोधरा स्टेशन पर घटी एक घटना इस हिंसा का तात्कालिक कारण साबित हुई। इस साम्प्रदायिक हिंसा में 1100 व्यक्ति मारे गए जो अधिकतर मुसलमान थे।

1984 के सिक्ख विरोधी दंगों के समान गुजरात के दंगों से भी यह जाहिर हुआ कि सरकारी मशीनरी साम्प्रदायिक भावनाओं के आवेग में आ सकती है। गुजरात में घटी यह घटनाएँ हमें अगाह करती है कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना खतरनाक हो सकता है। इससे हमारी लोकतांत्रिक राजनीति को खतरा पैदा हो सकता है।