Bihar Board Class 10 Hindi Book Solutions Bihar Board Class 10 Hindi रचना निबंध लेखन Questions and Answers, Notes.

BSEB Bihar Board Class 10 Hindi रचना निबंध लेखन

Bihar Board Class 10 Hindi रचना निबंध लेखन Questions and Answers

होली

मस्ती का त्योहार – भारत उत्सवों का देश है। होली सबसे अधिक रंगीन और मस्त उत्सव है। इस दिन भारतवर्ष में सभी फक्कड़ता और मस्ती की मांग में मस्त रहते हैं। होली वाले दिन लोग छोटे-बड़े, ऊंच-नीच, गरीब-अमीर, ग्रामीण-शहरी का भेद भुलाकर एक-दूसरे से गले मिलते हैं तथा परस्पर गुलाल मलते हैं।

हाला का महत्त्व- होली के मूल में हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद और होलिका प्रसंग आता है। हिरण्यकश्यप ने प्रहाद को मार डालने के लिए होलिका को नियुक्त किया था। होलिका के पास एक ऐसी चादर थी, जिसे ओढ़ने पर व्यक्ति आग के प्रभाव से बच सकता था। होलिका ने उस चादर को ओढ़कर प्रह्लाद को गोद में ले लिया और अग्नि में कूद पड़ी। वहाँ दैवीय चमत्कार हुआ। होलिका आग में जलकर भस्म हो गई, परंतु प्रह्लाद का बाल भी बाँका न हुआ। तब से लेकर आज तक होलिका दहन की स्मृति में होली का पर्व मनाया जाता है।

मनाने की विधि- होली का उत्सव दो प्रकार से मनाया जाता है। कछ लोग रात्रि में लकड़ियाँ, झाड़-झंखाड़ एकत्र कर उसमें आग लगा देते हैं और समूह में इकट्ठे होकर गीत गाते हैं। आग जलाने की यह प्रथा होलिका दहन की याद दिलाती है। ये लोग रात को अतिशबाजी
आदि चलाकर भी अपनी खुशी प्रकट करते हैं।

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होली मनाने की दूसरी प्रथा आज सारे समाज में प्रचलित है। होली वाले दिन लोग प्रात:काल से दोपहर 12 बजे तक अपने हाथों में लाल, हरे, पीले रंगों का गुलाल लिए हुए परस्पर प्रेमभाव से गले मिलते हैं।

गली-मुहल्लों में ढोल-मजीरे बजते सुनाई देते हैं। कोई नीले-पीले वस्त्र लिए घूमता है, तो ___ कोई जोकर की मुद्रा में मस्त है। बच्चे पानी के रंगों में एक-दूसरे को नहलाने का आनंद लेते हैं। बच्चे पिचकारियों से भी रंग की वर्षा करते दिखाई देते हैं। परिवारों में इस दिन लड़के-लड़कियां, बच्चे-बूढ़े, तरुण-तरुणियाँ सभी मस्त होते हैं। प्रौढ़ महिलाओं की रंगबाजी बड़ी… रोचक बन पड़ती है। इस प्रकार यह उत्सव मस्ती और आनंद से भरपूर है।

दीपावली

भूमिका- दीपावली हिंदुओं का महत्त्वपूर्ण उत्सव है। यह कार्तिक मास की अमावस्या की रात्रि में मनाया जाता है। इस रात को घर-घर में दीपक जलाए जाते हैं। इसलिए इसे ‘दीपावली’ कहा गया। रात्रि के घनघोर अंधेरे में दीपावली का जगमगाता हुआ प्रकाश अति सुंदर दृश्य की रचना करता है।

ऐतिहासिक, धार्मिक और पौराणिक प्रसंग- ऐसी मान्यता है कि इस दिन श्री रामचंद्र जी रावण का संहार करने के पश्चात् वापस अयोध्या लौटे थे। उनकी खुशी में लोगों ने घी के दीपक जलाए थे। भगवान महावीर ने तथा स्वामी दयानंद ने इसी तिथि को निर्वाण प्राप्त किया था। इसलिए जैन संप्रदाय तथा आर्य समाज में भी इस दिन का विशेष महत्त्व है। सिक्खों के छठे गुरु हरगोविंद सिंह जी भी इसी दिन कारावास से मुक्त हुए थे। इसलिए गुरुद्वारों की शोभा इस दिन दर्शनीय होती है। इसी दिन भगवान कृष्ण ने इंद्र के क्रोध से ब्रज की जनता को बचाया था।

व्यापारियों का प्रिय उत्सव- व्यापारियों के लिए दीपावली उत्सव-शिरोमणि है। व्यापारी-वर्ग विशेष उत्साह से इस उत्सव को मनाता है। इस दिन व्यापारी लोग अपनी-अपनी दुकानों का काया-कल्प तो करते ही हैं, साथ ही ‘शुभ-लाभ’ की आकांक्षा भी करते हैं। बड़े-बड़े व्यापारी प्रसन्नता में अपने ग्राहकों में मिठाई आदि का वितरण करते हैं। घर-घर में लक्ष्मी का पूजन होता है। ऐसी मान्यता है कि उस रात लक्ष्मी घर में प्रवेश करती है। इस कारण लोग रात को अपने घर कदरवाजे खुले रखते हैं। हलवाई और आतिशबाजी की दुकानों पर इस दिन विशेष उत्साह . होता है। बाजार मिठाई से लद जाते हैं। यह एक ऐसा दिन होता है, जब गरीब से अमीर तक, कंगाल से राजा तक सभी मिठाई का स्वाद प्राप्त करते हैं। लोग आतिशबाजी चलाकर भी अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। गृहणियाँ इस दिन कोई-न-कोई बर्तन खरीदना शगुन समझती हैं।

ईद

ईद को ईद-उल-फितर भी कहा जाता है। यह मुसलमानों का एक महान पर्व है। रमजान का महीना खत्म होने के बाद अगले महीने की पहली तिथि को चाँद दिखाई देने पर ‘ईद’ मनाई जाती है। इस अवसर पर सर्वत्र चहल-पहल और धूमधाम रहती है।

मुहम्मद साहब इस्लाम धर्म के पैगम्बर थे। उन्होंने ही इस्लाम धर्म की स्थापना की थी। इन्होंने सच्चे मुसलमानों के लिए कुछ कायदे-कानून निर्धारित किए जिनमें नमाज पढ़ना, रोजा रखना (दिन भर भूखा रहना), हज करना आदि प्रमुख हैं। अत: इनके अनुयायी प्रतिवर्ष रमजान में महीने भर रोजा रखते हैं और सूर्यास्त के बाद खाते-पीते हैं। पूरे महीने विभिन्न मस्जिदों में काफी चहल-पहल रहती है। इस महीने के बाद नए महीने में ‘ईद’ मनाई जाती है।

‘रमजान’ को इस्लाम धर्म के लोग सबसे ज्यादा पवित्र महीना मानते हैं। अतः वे इस पूरे महीने में सूर्योदय से सूर्यास्त तक उपवास रखते हैं जिसे ‘रोजा रखना’ कहा जाता है। सूर्यास्त के बाद हर रोज सभी इष्ट-मित्रों, संगे-संबंधियों और अतिथियों के साथ रोजा खोलते हैं जिसे ‘इफ्तार’ कहा जाता है। इसमें वे विभिन्न प्रकार के पकवान खाते और खिलाते हैं। इस कार्यक्रम. में अन्य धर्मों के लोग भी सहर्ष शामिल होते हैं। इस महीने में लोग शुद्ध मन से केवल अच्छा आचरण करते हैं और गरीबों को दान देते हैं।

‘रमजान’ महीना के अंतिम दिन ‘रोजा’ समाप्त हो जाता है और चाँद देखने के बाद अगले दिन ‘ईद’ त्योहार के रूप में मनायी जाती है। बच्चे-बूढ़े, युवा एवं औरतें, सभी नए-नए कपड़े पहनते हैं। लोग ‘ईदगाह’ पर जमा होकर नमाज अदा करते हैं और एक-दूसरे को गले लगाकर ‘ईद’ की मुबारकबाद देते हैं। हर तरफ प्रेम और सद्भाव का वातावरण व्याप्त रहता है। ‘सेवई’ खिलाने के साथ-साथ ‘इत्र’ लगाया जाता है और बच्चों को ‘ईदी’ भी दी जाती है।

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इस अवसर पर दोस्तों और संबंधियों के यहाँ आने-जाने का सिलसिला देर रात तक चलता रहता है। एक साथ मिल-जुलकर ईद की खुशियाँ मनाने का मजा ही कुछ और है। ईद की खुशियाँ महीने भर की कठोर साधना के बाद मिलती हैं।

यह त्योहार इस्लाम के बन्दों के लिए हर्ष का प्रतीक है। इस दिन सभी लोग छुट्टी और खुशी मनाते हैं। यह आपसी एकता, मेल-मिलाप, भाईचारा और सौहार्द्र बढ़ानेवाला त्योहार है। बच्चों के लिए तो यह मेले-जैसी खुशी और उत्साह लाता है। ऐसे त्योहार बन्धुत्व और सद्भाव में वृद्धि करते हैं और भारतीय संस्कृति को प्रदर्शित करते हैं। वस्तुतः ईद मुसलमानों का एक महान पर्व है।

गणतंत्र-दिवस (26 जनवरी)

मत गणतंत्र-दिवस अर्थात् 26 जनवरी (1950) भारत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्व है। इस दिन भारत का संविधान लागू हुआ था।
मनाने का ढंग यह दिन समूचे भारतवर्ष में बड़े उत्साह तथा हर्षोल्लास के साथ मनाया ‘ जाता है। समूचे देश में अनेकानेक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। प्रदेशों की सरकारें सरकारी स्तर पर अपनी-अपनी राजधानियों में तथा जिला स्तर पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का तथा अन्य अनेक कार्यक्रमों का आयोजन करती हैं।

दिल्ली का उत्सव… बिहार की राजधानी पटना में इस राष्ट्रीय पर्व के लिए विशेष समारोह का आयोजन किया जाता है, जिसकी भव्यता देखते ही बनती है। समूचे राज्य के विभिन्न भागों में असंख्य व्यक्ति इस समारोह में सम्मिलित होने तथा इसकी शोभा देखने के लिए आते हैं।

विविध झांकिया गाँधी मैदान में राज्यपाल राष्ट्रीय धुन के साथ ध्वजारोहण करते हैं उन्हें 31 तोपों की सलामी दी जाती है। राज्यपाल जल, नंभ तथा थल-तीनों सेनाओं की टुकड़ियों का अभिवादन स्वीकार करते हैं। सैनिकों का सीना तानकर अपनी साफ-सुथरी वेशभूषा में कदम-से-कदम मिलाकर चलने का दृश्य बड़ा मनोहारी होता है। इस भव्य दृश्य को देखकर मन में राष्ट्र के प्रति असीम भक्ति तथा हृदय में असीम उत्साह का संचार होने लगता है। इन सैनिक टुकड़ियों के पीछे आधुनिक शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित वाहन निकलते हैं। इनके पीछे स्कूल-कॉलेज के छात्र-छात्राएँ एन.सी.सी. की वेशभूषा में सज्जित कदम-से-कदम मिलाकर चलते हैं।

उल्लास और उमंग का वातावरण मिलिट्री तथा स्कूलों के अनेक बैंड सारे वातावरण को देश-भक्ति तथा राष्ट्र-प्रेम की भावना से गुंजायमान कर देते हैं। विभिन्न प्रदेशों की झाँकियाँ वहाँ के सांस्कृतिक जीवन, वेश-भूषा, रीति-रिवाजों, औद्योगिक तथा सामाजिक क्षेत्र में आए परिवर्तनों का चित्र प्रस्तुत करने में पूरी तरह.समर्थ होती हैं। उन्हें देखकर भारत का बहुरंगी रूप सामने आ . . जाता है। यह पर्व अतीव प्रेरणादायी होता है।

मेरा जीवन-स्वप्न

मैं क्या बनना चाहता है. क्यों- प्रत्येक मानव का कोई-न-कोई लक्ष्य होना चाहिए। लक्ष्य बनाने से जीवन में रस आ जाता है। मैंने यह तय किया है कि मैं पत्रकार बनूंगा। आजकल सबसे प्रभावशाली स्थान है—प्रचार-माध्यमों का। समाचार-पत्र, रेडियो, दूरदर्शन आदि चाहें तो देश में आमूलचूल बदलाव ला सकते हैं। मैं भी ऐसे महत्त्वपूर्ण स्थान पर पहुंचना चाहता हूँ जहाँ से मैं देशहित के लिए बहुत कुछ कर सकूँ। पत्रकार बनकर मैं देश को तोड़ने वाली ताकतों के विरुद्ध संघर्ष करूंगा और भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करूंगा।

जीवन-स्वप्न की प्रेरणा- मेरे पड़ोस में एक पत्रकार रहते हैं-मि. नटराजन। वे दैनिक जागरण के संवाददाता तथा भ्रष्टाचार-विरोधी विभाग के प्रमुख पत्रकार हैं। उन्होंने पिछले वर्ष गैस एजेंसी की धांधली को अपने लेखों द्वारा बंद कराया था। उन्हीं के लेखों के कारण हमारे शहर में कई दीन-दुखी लोगों को न्याय मिला है। इन कारणों से मैं उनका बहुत आदर करता हूँ। मेरा भी दिल करता है कि मैं उनकी तरह श्रेष्ठ पत्रकार बनें और नित्य बढ़ती समस्याओं का मुकाबला करूं।

विशेषताएं, सीमा, चनौतिचा- मुझे पता है कि पत्रकार बनने में खतरे हैं तथा पैसा भी . बहुत नहीं है। परंतु मैं पैसे के लिए या धंधे के लिए पत्रकार नहीं बनूँगा। मेरे जीवन का लक्ष्य होगा-समाज की कुरीतियों और भ्रष्टाचार को समाप्त करना। यदि मैं थोड़ी-सी बुराइयों को भी हटा सका तो मुझे बहुत संतोष मिलेगा। मैं स्वस्थ समाज को देखना चाहता हूँ। इसके लिए पत्रकार बनकर हर दुख-दर्द को मिटा देना मैं अपना धर्म समझता हूँ।

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देश और समाज के लिए उपयोगिता- पत्रकारिता को जनतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। आज के युग में यदि भ्रष्टाचार और अत्याचार पर रोक लगाई जा सकती है तो पत्रकारिता के बल पर। यह प्रजातंत्र का शोधक कारखाना है। मैं सच्चाई दिखाने भर से बुराइयों पर लगाम लगा सकता हूँ। दीन-दुखियों को न्याय दिला सकता हूँ। बेसहारा बेजुबानों की आवाज बन सकता हूँ।

कैसे प्राप्त करू. मेरी योजना- केवल सोचने भर से लक्ष्य नहीं मिलता। मैंने इसे पाने के लिए कुछ तैयारियाँ भी शुरू कर दी हैं। मैं दैनिक समाचार-पत्र पढ़ता हूँ, रेडियो-दूरदर्शन के समाचार तथा अन्य सामयिक विषयों को ध्यान से सुनता हूँ। मैंने हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा का गहरा अध्ययन करने की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं ताकि लेख लिख सकूँ। वह दिन दूर नहीं, जब मैं पत्रकार बनकर समाज की सेवा करने का सौभाग्य पा सकूँगा।

आदर्श विद्यार्थी

विद्यार्थी का अर्थविद्यार्थी का अर्थ है–विद्या पाने वाला। आदर्श विद्यार्थी वही है जो सीखने की इच्छा से ओतप्रोत हो, जिसमें ज्ञान पाने की गहरी ललक हो। विद्यार्थी अपने जीवन में सर्वाधिक महत्त्व विद्या को देता है।

जिज्ञासा और अदा विद्यार्थी का सबसे पहला गुण है—जिज्ञासा। वह नए-नए विषयों के बारे में नित नई जानकारी चाहता है। वह केवल पुस्तकों और अध्यापकों के भरोसे ही नहीं रहता, अपितु स्वयं मेहनत करके ज्ञान प्राप्त करता है। सच्चा छात्र श्रद्धावान होता है। कहावत भी है… ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्’। श्रद्धावान ही ज्ञान पा सकता है।

तपस्वी सच्चा छात्र सांसारिक सुख और आराम का कायल नहीं होता। वह कठोर जीवन जीकर तपस्या का आनंद प्राप्त करता है। संस्कृत में एक सूक्ति भी है

‘सखार्थिनः कतो विद्या, विद्यार्थिनः कतो सखम्’

आदर्श विद्यार्थी परिश्रम, लगन तपस्या की आँच में पिघलकर स्वयं को सोना बनाता है। जो छात्र सुख-सुविधा और आराम के चक्कर में पड़े रहते हैं, वे अपने जीवन की नींव को ही कमजोर बना लेते हैं।

अनशासित और नियमित जीवन- आदर्श छात्र अपनी निश्चित दिनचर्या बनाता है और उसका कठोरता से पालन करता है। वह अपनी पढ़ाई, खेल-कूद, व्यायाम, मनोरंजन तथा अन्य गतिविधियों में तालमेल बैठाता है। उसके अध्ययन के घंटे निश्चित होते हैं जिनके साथ वह कभी समझौता नहीं करता। वह खेल-कूद और व्यायाम के लिए भी निश्चित समय रखता है।

सादा जीवन आदर्श छात्र फैशन और ग्लैमर की दुनिया से दूर रहता है। वह सादा जीवन जीता है और उच्च विचार मन में धारण करता है। जो छात्र बनाव-शृंगार, व्यसन, सैर-सपाटा, चस्केबाजी आदि में आनंद लेते हैं, वे विद्या के लक्ष्य से भटक जाते हैं।

पाठयेतर गतिविधियों में रुचि-सच्चा छात्र केवल पाठ्यक्रम तक ही सीमित नहीं रहता। वह विद्यालय में होने वाली अन्य गतिविधियों में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेता है। गाना, अभिनय, एन.सी.सी., स्काउट, खेलकूद, भाषण आदि में से किसी-न-किसी में वह अवश्य भाग लेता है।

छात्र-अनुशासन

अनुशासन का अर्थ और महत्त्व-‘अनुशासन’ शब्द का अर्थ हैं-‘शासन अर्थात् व्यवस्था के अनुसार जीवन-यापन करना।’ यदि कोई व्यवस्था निश्चित है तो उसके अनुसार जीना। यदि व्यवस्था निश्चित नहीं है तो जीवन में कोई नियम-व्यवस्था या क्रम बनाना। अनुशासन जीवन को चुस्त-दुरुस्त बना देता है। इससे कार्यकुशलता बढ़ती है। समय का पूरा-पूरा सदुपयोग होता है।

अनुशासन की प्रथम पाठशाला परिवार अनुशासन का पाठ पहले-पहल परिवार से सीखा जाता है। यदि परिवार में सब कार्य व्यवस्था से किए जाते हैं तो बच्चा भी अनुशासन सीख जाता है। इसलिए मनुष्य को सबसे पहले अपना घर अनुशासित करना चाहिए।

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व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन के लिए अनशासन आवश्यक अनुशासन न केवल व्यक्तिगत जीवन के लिए आवश्यक है, अपितु सामाजिक जीवन के लिए भी परम आवश्यक है। व्यक्तिगत जीवन में अनुशासन का अर्थ है. छात्र को हर कार्य समय और व्यवस्था से करने की
आदत होनी चाहिए। उसके काम करने के घंटे निश्चित होने चाहिए। दिनचर्या निश्चित होनी चाहिए।

सामाजिक जीवन में अनुशासन होना अनिवार्य है। जैसे – गाड़ियाँ, बसें, विद्यालय कार्यालय सभी समय से खुलें, समय से बंद हों। कर्मचारी ठीक समय पर अपने-अपने स्थान पर कार्य के लिए तैयार हों। वहाँ टालमटोल न हो। इसी के साथ छात्र भी सामाजिक कार्यों में यथासमय पहुंचे।  वे वहाँ की सारी नियम-व्यवस्था का पालन करें।

अनशासन एक महत्त्वपूर्ण जीवन-मूल्य- पास
जीवन वास्तव में अनुशासन एक स्वभाव है। एक विद्या है। अनुशासन का लक्ष्य हैं-जीवन को समधुर और सुविधापूर्ण बनाना। अनुशासित व्यक्ति को सुशिक्षित और सभ्य कहा जाता है। वह न केवल स्वच्छता पर ध्यान देता है, बल्कि अपने बोलचाल और व्यवहार पर भी ध्यान देता है। वह समाज के बीच खलल नहीं डालता, बल्कि व्यवहार की गरिमा बढ़ाता है। इस प्रकार अनुशासन जीवन-मूल्य है, मनुष्य का आदर्श है।

यदि मैं अपने विद्यालयका प्रधानाचार्य होता

मेग लागशील मन अनेक बार स्वयं को भिन्न-भिन्न रूप में देखता है। कभी-कभी मैं कल्पना करता हूँ कि यदि मैं अपने विद्यालय का प्रधानाचार्य होता तो क्या होता? प्रधानाचार्य होने की कल्पना से ही मुझे लगता है कि मानो मेरे ऊपर बड़ी जिम्मेदारी आ गई है।
विद्यालय की यानिमितता प्रधानाचार्य बनते ही सर्वप्रथम मैं विद्यालय की सारी व्यवस्थाओं को नियमित करूंगा। विद्यालय नियमपूर्वक ठीक समय पर खुले, ठीक समय पर उपस्थिति, प्रार्थना आदि हो तथा निश्चित समयानुसार सभी. कालांश (पीरियड) लगें, इस काम
को मैं प्राथमिकता दूंगा।

परीक्षाओं की योजना – मेरी दृष्टि में परीक्षाओं की योजना पढ़ाई के लिए अत्यंत हितकर है। अत: मैं प्रयास करूंगा कि छात्रों की समय-समय पर छोटी-छोटी परीक्षाएं हों। वर्ष में दो बार बड़ी परीक्षाएँ हों ताकि छात्र छोटी परीक्षाओं के माध्यम से विषय को सारपूर्वक समझ लें और बड़ी परीक्षाओं के द्वारा पूरा पाठ्यक्रम तैयार कर लें। मैं नकल और धोखाधड़ी को पूर्णतया समाप्त कर दूंगा, चाहे इसके लिए किसी का दबाव क्यों न सहना पड़े।

गरीब तथा योग्य छानों की व्यवस्था में विद्यालय में उन गुदड़ी के तालों को पहचानने और विकसित करने का पूरा प्रयास करूंगा जो गरीबी के कारण अपनी प्रतिभा का विकास नहीं कर पाते। ऐसे छात्रों को प्रोत्साहन और सहायता दिलवाने का प्रयास करूंगा।

खेल-कट को प्रोत्साहन खेल-कूद को बढ़ावा देने के लिए मैं ऐसी व्यवस्था करूंगा कि प्रत्येक रूचिवाने छात्र को अपना प्रिय खेल खेलने का अवसर मिल सके। इसके लिए मैं कभी-कभी विद्यालय के छात्रों की विभिन्न खेल-प्रतियोगिताएं आयोजित करूँगा।

सांस्कृतिक कार्यकर मुझे भाषण, वाद-विवाद, कविता-पाठ, नाटक, अभिनय आदि सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गहरी रुचि है। मैं चाहूँगा कि मेरे विद्यालय के छात्र इन कार्यक्रमों में अधिकाधिक भाग लें। इसके लिए मैं कलासंपन्न अध्यापकों का एक उत्साही मंडल तैयार करूँगा जो बच्चों में ये कलाएं विकसित करें तथा उनका चहुंमुखी विकास करें।

अध्यापक-छात्र संबंध – मेरा प्रयास होगा कि मेरे विद्यालय के छात्र केवल ग्राहक न हों और अध्यापक ज्ञान-विक्रेता न हों। उनमें ज्ञान, श्रद्धा और प्रेम का गहरा संबंध होना चाहिए। इसके लिए मैं अनेक युक्तियों से प्रयास करूंगा। मैं अपने अध्यापकों और छात्रों के मध्य निर्भयता का वातावरण बनाऊँगा ताकि सब अपनी भावनाएँ एक-दूसरे को कह-सुन सकें। मैं समझता हूँ कि इन उपायों से मेरा विद्यालय एक श्रेष्ठ विद्यालय बन पाएगा।

छात्र और शिक्षक

घर-प्रारंभिक पाठशाला, माता-पिता प्रथम शिक्षक – यदि हर सीखने वाले को छात्र मानें . तो बच्चा पैदा होते ही छात्रं हो जाता है। वह अपने माता-पिता और घर के वातावरण से संस्कार ग्रहण करता है। अतः उसके माता-पिता प्रथम शिक्षक हुए और घर प्रारंभिक पाठशाला हुई।

विद्यालय में शिक्षक ही माता-पिता- कोई बच्चा जब घर की दहलीज पार करके सीखने जाता है तो वह विद्यालय में प्रवेश लेता है। वहाँ उसके शिक्षक उसे शिक्षा प्रदान करते हैं। प्राथमिक कक्षाओं के शिक्षक माता-पिता के समान बहुत स्नेही और सावधान होते हैं। वे बच्चे को स्नेह देते हुए शिक्षा देते हैं। वे शिक्षक और माता-पिता दोनों की भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि बच्चे शिक्षक को माता-पिता से भी अधिक मान देते हैं।

शिक्षक का दायित्व : पढ़ाना, दिशा-निर्देशन, सत्कार्यों की प्रेरणा- शिक्षक का काम केवल पुस्तकें पढ़ाना नहीं होता। वह बच्चों को अक्षर-ज्ञान देता है। अक्षरों में छिपे अर्थ समझाता है। उनसे भी बढ़कर उन्हें जीवन जीने की सही दिशा समझाता है तथा शुभ कर्मों की ओर आगे बढ़ाता है। वह मार्गदर्शक और प्रेरक का काम भी करता है।

छात्र का दायित्व— छात्र का दायित्व बनता है कि वह शिक्षक के प्रति सम्मान प्रकट करे। उन्हें श्रद्धा दे। कहा भी गया है-श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्। श्रद्धावान को ही ज्ञान प्राप्त होता है। अतः छात्रों को चाहिए कि वे अध्यापकों के प्रति श्रद्धा प्रकट करें तथा उनकी एक-एक बात को जीवन में उतारें।

परस्पर संबंध- छात्र और शिक्षक का संबंध ग्राहक और दुकानदार जैसा नहीं है। उनमें श्रद्धा और दान का संबंध है। छात्र को चाहिए कि वह अध्यापकों को सम्मान दे। अध्यापकों को चाहिए कि वे छात्रों को पुत्र की तरह स्नेह दें।

दोनों परस्पर अपने-अपने दायित्वों को समझें- कबीर ने छात्र-अध्यापक संबंध के बारे में कहा है

गुरु कुम्हार सिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि का? खोट।
अंतर हाथ पसारिए, बाहर-बाहर चोट॥

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यदि गुरु को कभी शिष्य को डाँटना भी पड़े तो अवश्य डाँटे, किंतु उसके संस्कार के लिए सुधार के लिए। ऐसा सद्गुरु सौभाग्य से प्राप्त होता है।

दूरदर्शन का विद्यार्थियों पर प्रभाव

दूरदर्शन के प्रति विद्यार्थियों में बढ़ता आकर्षण- एक समय था, जब विद्यार्थी विद्यालय से घर पहुंचते ही माता-पिता से नमस्कार करके भोजन माँगते थे। अब स्थिति यह है कि वे आते ही टी.वी. खोल लेते हैं। वे रास्ते में ही आने वाले कार्यक्रम का रस लेने लगते हैं। दूरदर्शन विद्यार्थियों की जान बनता जा रहा है।

शैक्षिक और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम – दरदर्शन पर अनेक प्रकार के शैक्षिक तथा ज्ञानवर्धक कार्यक्रम भी पमारित किए जा रहे हैं। डिस्कवरी और नेशनल ज्योग्राफिक चैनल शुद्ध रूप से .. ज्ञानवर्धक हैं। इसके अतिरिक्त अनेक समाचार-चल भी जान में वृद्धि करते हैं। अनेक चैनलों द्वारा प्रश्नोत्तरी, चर्चा, वाद-विवाद, बहस आदि दिखाई जाती हैं। इन्हें दखकर जात्रा का बहुत ज्ञानतंर्शन होता है।

समय और स्वास्थ्य की हानि – दुर्भाग्य से छात्र दूरदर्शन में केवल मनारंजन की सामग्री ढूँढ़ते हैं। वे चलचित्र, टी.वी. सीरियल, संगीत, खेलकूद या अन्य मनोरंजक प्रतियोगिताओं में रुचि लेते हैं। इससे उनको दोहरी हानि होती है। वे खेल-कूद का समय काटकर टी.वी. पर खेलकूद देखते हैं। इससे उनका मन तो तरंगित होता है किंतु शरीर निष्क्रिय रहता है। परिणामस्वरूप बच्चे अस्वस्थ रह जाते हैं। आज के बच्चे पहले की तुलना में कमजोर, अस्वस्थ और आलसी हैं। उनका बहुत-सा समय टी.वी. देखने में ही व्यय हो जाता है।

अध्ययन में सबसे बड़ी बाधा- टी.वी. छात्रों के अध्ययन में सबसे बड़ी बाधा है। इस पर ऐसे-ऐसे आकर्षक, सनसनीखेज और मनोरंजक कार्यक्रम दिखाए जाते हैं कि छात्र चाहकर भी उन्हें छोड़ नहीं पाते। परिणामस्वरूप उनका ध्यान पढ़ाई में नहीं लगता। विद्यालय में भी वे टी. वी. सीरियलों की चर्चा में रुचि लेते हैं। यदि वे एक बार टी.वी खोल लें तो फिर बंद करने का नाम ही नहीं लेते।

संतुलन की आवश्यकता छात्र मानव है। उसके पास मन है। मन को रंजन चाहिए, मनोरंजन चाहिए। परंतु उसकी भी सीमा होनी चाहिए। टी.वी. अपने लुभावने कार्यक्रमों से उस सीमा को तोड़ता है। छात्रों को चाहिए कि वे उसके लालच से बचें। पढ़ाई की कीमत पर टी. वी. न देखें। तब टी.वी. उनके लिए सौभाग्य का दूत कहलाएगा।

भारतीय संस्कृति : अनेकता में एकता

भारतीयता का विकास-भारतवर्ष एक विशाल सागर है, जिसमें अनेक नदियाँ गिरती हैं। जिस प्रकार नदियाँ अपना पृथक् अस्तित्व खोकर समुद्र में लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार भारत के विभिन्न समुदाय अपनी-अपनी विशेषताओं को लिए हुए भी ‘भारतीय’ कहलाते हैं। कोई हिंदू भारतीय है, कोई मुसलिम भारतीय है, कोई बौद्ध, सिख या ईसाई भारतीय है। ये सभी भिन्न-भिन्न धर्मों को मानते हुए भी भारतीय जीवन के साथ एकाकार हो गए हैं। भारत की यही विशेषता इस देश को औरों से अलग करती है।

समरसता–भारत की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है—यहाँ के जीवन की समरसता। यहाँ हर प्रदेश में मंदिर, मसजिद, गुरुद्वारे या गिरजाघर मिल जाएंगे। यहाँ के लोग सब धर्मों के प्रति श्रद्धा रखते हैं। सभी धर्मों के त्योहार भी पूरे उत्साह से मनाए जाते हैं। ईद, क्रिसमिस, होली-दीपावली पर पूरा देश खुशियाँ मनाता है। 15 अगस्त तथा 26 जनवरी यहाँ के राष्ट्रीय त्योहार हैं। हर वर्ग का भारतीय इनमें उत्साहपूर्वक सम्मिलित होता है।

समान भाषा-भारतीय संस्कृति की एकता उसकी भाषा में भी व्यक्त होती है। यहाँ के हिंदुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, सिक्खों, बौद्धों, जैनों की अलग-अलग भाषाएँ नहीं हैं। एक प्रांत के सभी निवासी एक-सी भाषा का व्यवहार करते हैं। पंजाब का मुसलमान यदि पंजाबी बोलता है तो तमिल का मुसलमान तमिल बोलता है। इससे पता चलता है कि चाहे यहाँ लोगों के धर्म भिन्न .. हों, परंतु उनकी संस्कृति समान है। भारत में 19 मान्य राष्ट्रीय भाषाएँ हैं, सैकड़ों बोलियाँ हैं। फिर भी सारा देश हिंदी को राष्ट्रभाषा मानकर आपस में संपर्क स्थापित करता है।

वेश-भूषा-भारत के सभी प्रांतों की अलग-अलग वेशभूषा है। यह वेशभूषा स्थानीय मौसम तथा आवश्यकतानुसार विकसित हुई है। उदाहरणतया, पूरे उत्तर प्रदेश में किसान. धोती-कुर्ता पहनते हैं और सिर पर पगड़ी धारण करते हैं। नगर के शिक्षित युवक पैंट-कमीज पहनते हैं। महिलाएं साड़ी या सूट पहनती हैं।

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नृत्य-संगीत. भारत में नृत्य की एक नहीं, अनेक शैलियाँ हैं। भरतनाट्य, ओडिसी, कुचिपुडि, कथकली, मणिपुरी, कत्थक आदि परंपरागत नृत्य शैलियाँ हैं तो भंगड़ा, गिद्दा, नगा, बिहू आदि लोकप्रचलित नृत्य हैं। आज इन विविध नृत्य-शैलियों पर पूरे देश के लोग थिरकते हैं।

भोजन-भारत में पकवानों की विधिता भी बहुत अधिक है। राजस्थान में दाल-बाटी, कोलकाता में चावल-मछली, पंजाब में रोटी-साग, दक्षिण में इडली-डोसा। इतनी विविधता के बीच एकता का प्रमाण यह है कि आज दक्षिण भारत के लोग दाल-रोटी उसी शौक से खाते हैं, जितने शौक से उत्तर भारतीय लोग इडली-डोसा खाते हैं। सचमुच भारत एक रंगबिरंगा गुलदस्ता है।

मेरा प्यारा भारत देश

प्राकृतिक सुंदरता – मेरा देश भारत संसार के देशों का सिरमौर है। यह प्रकृति की पुण्य – लीलास्थली है। माँ भारती के सिर पर हिमालय मुकुट के समान शोभायमान है। गंगा तथा यमुना . . इसके गले के हार हैं। दक्षिण में हिंदमहासागर भारत माता के चरणों को निरंतर धोता रहता है। संसार में केवल यही एक देश है जहाँ षड्ऋतुओं का आगमन होता है। गंगा, यमुना, सतलुज, व्यास, गोमती, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी अनेक नदियाँ हैं जो अपने अमृत-जल से इस देश की धरती की प्यास शांत करती हैं।

धन-संपन्नता–भारत पर प्रकृति की विशेष कृपा है। यहाँ पर खनिज पदार्थों की भरमार है। अपनी अपार संपदा के कारण ही इसे ‘सोने की चिड़िया’ की संज्ञा दी गई है। धन-संपदा के कारण ही हमारा देश विदेशी आक्रमणकारियों के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र रहा है।

श्रेष्ठ सभ्यता-संस्कृति–भारत की सभ्यता और संस्कृति संसार की प्राचीनतम सभ्यताओं में गिनी जाती है। मानव-संस्कृति के आदिम ग्रंथ ऋग्वेद की रचना का श्रेय इसी देश को प्राप्त है। संसार की प्रायः सभी प्राचीन संस्कृतियाँ नष्ट हो चुकी हैं परंतु भारतीय संस्कृति समय की
आँधियों और तूफानों का सामना करती हुई अब भी अपनी उच्चता और महानता का शंखनाद – कर रही है। संगीतकला, चित्रकला, मूर्तिकला, स्थापत्य कला आदि के क्षेत्र में भी हमारी उन्नति आश्चर्य में डाल देने वाली है। जिस समय संसार का एक बड़ा भाग घुमंतू जीवन बिता रहा था, हमारा देश भारत उच्चकोटि की नागरिक सभ्यता का विकास कर चुका था। सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ सर जॉन मार्शल लिखता है.–‘सिंधु घाटी का साधारण नागरिक सुविधाओं और विलास का जिस मात्रा में उपयोग करता था, उसकी तुलना उस समय के सभ्य संसार के दूसरे भागों से नहीं की जा सकती।’

ज्ञान में अग्रणी – हमारा प्यारा देश ‘विश्व गुरु’ रहा है। यहाँ की कला, ज्ञान-विज्ञान, ज्योतिष, आयुर्वेद संसार के प्रकाशदाता रहे हैं। यह देश ऋषि-मुनियों, धर्म-प्रवर्तकों तथा महान कवियों का देश है। त्याग हमारे देश का सदा से मूल मंत्र रहा है। जिसने त्याग किया, वही महान कहलाया। बुद्ध, महावीर, दधीचि, रंतिदेव, राजा शिवि, रामकृष्ण परमहंस, गाँधी इत्यादि महान विभूतियाँ इसका जीता-जागता प्रमाण हैं।

विविधता में एकता–भारत विविध रंगबिरंगे फूलों का गुलदस्ता है। यहाँ जाति, रंग, धर्म, मन, परंपरा, खान-पान, ऋतु, पहनावे-सबकी विविधता दिखाई देती है। उन विविधताओं में भी अद्भुत मेल है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई बड़े प्रेम से साथ-साथ रहते हैं।

संसार का सबसे बड़ा गणतंत्र-भारत संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। यहाँ सभी कानून जनता को इच्छा से जनता के प्रतिनिधि बनाते हैं। सैकड़ों कमियों के बावजूद भारत का लोकतंत्र वास्तविक है। यहाँ की जनता में इकट्ठे चलने की, कदम से कदम मिलाकर काम करने की अद्भुत शक्ति है।

देश के लिए हमारा कर्तव्य – हमारे देश का इतिहास गौरवमय है। हमें इसके गौरव की रक्षा के लिए गौरवशाली कर्म करने चाहिए। तभी तो जयशंकर प्रसाद लिखते हैं-

जिएं तो सदा इसी के लिए,
यही अभिमान रहे, यह हर्ष।
निछावर कर दें हम सर्वस्व,
हमारा प्यारा भारतवर्ष।

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स्वेदश प्रेम

देश से स्वाभाविक लगाव-जिस देश में हम जन्मे हैं, जिस धरती का हमने अन्न-जल लिया है, जिसकी रज में हम खेल-कूदकर बड़े हुए हैं, उसके प्रति हमारा स्वाभाविक लगाव हो जाता है। यही स्वाभाविक लगाव ‘देश-प्रेम’ कहलाता है। देश-प्रेम का अर्थ है देश के कण-कण से प्रेम होना, उसके पेड़-पौधे, पत्थर, जीव-जंतु और सभी मानवों से प्रेम होना। कुछ लोग देश के लिए मरने वालों को ही देश-प्रेमी मानते हैं। यह धारणा गलत है। असली देश-प्रेमी वही है जो स्वदेश-हित के लिए जीता है और आवश्यकता पड़ने पर जान भी दे देता है।

मातृभूमि ‘माँ’ के समान संस्कृत की उक्ति है ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् माता और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है। बिना स्वदेश के जीवन धारण करना ही कठिन है। इसीलिए देश को माँ की संज्ञा दी जाती है। जिस प्रकार हमारे अपनी माँ के प्रति कुछ कर्तव्य और स्नेह-संबंध होते हैं, वैसे ही अपने देश के प्रति भी कुछ दायित्व होते हैं। देश-भावना से शून्य व्यक्ति समाज पर बोझ होता है। मैथिलीशरण गुप्त के अनुसार-

है भरा नहीं जो भावों से, बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह हृदय नहीं, वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं॥

बलिदान की उच्च भावना–देश-प्रेम की भावना बड़ी उच्च भावना है। उसी भावना से प्रेरित होकर देशभक्त देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देते हैं। क्या नहीं था महाराणा प्रताप के पास? धन, धरती, वैभव, सिंहासन -और यदि वे मानसिंह की भाँति अकबर से समझौता . कर लेते तो और भी क्या नहीं मिलता?….लेकिन फिर वह कौन-सी तड़प थी कि हल्दीघाटी के युद्ध-तीर्थ पर उन्होंने सब बलिवेदी पर चढ़ा दिया; वन-वन भटके, गुफाओं में रहे, घास की रोटियाँ खाई ? वह थी देश-प्रेम की तीव्र अभिलाषा। स्वतंत्रता-संग्राम के समय कितने ही देश-भक्तों ने जेल की यातनाएँ भोगी, हँसते-हँसते लाठियाँ खाईं, दिन का चैन और रात की नींद गवाई और सहर्ष फाँसी के तख्तों को चूम लिया। यह देश-प्रेम ही तो था कि लाला लाजपतराय ने छाती चौड़ी कर क्रूर अंग्रेजों की लाठियाँ खाईं, सुभाष बाबू ने विदेश में जाकर आजाद हिंद फौज का गठन किया तथा नेहरू ने ऐश्वर्य और वैभव के जीवन को ठुकरा दिया। संसार के अन्य देशों के इतिहास भी देश-प्रेम की गाथाओं से रँगे पड़े हैं।

राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक – देश-प्रेम की भावना राष्ट्रीय एकता के लिए परम आवश्यक है। आज देश जाति, भाषा, वर्ण, वर्ग, प्रांत, दल आदि के नाम पर बँटा हुआ है। सारा देश टूटता हुआ नजर आ रहा है। ऐसे समय में देशभक्ति की भावना इस टूटन और बिखराव को दूर करके सारे देश को एकजुट कर सकती है।

राष्ट्रीय एकता

अर्थ और महत्त्व – राष्ट्रीय एकता का तात्पर्य है—राष्ट्र के सब घटकों में भिन्न विचारों और भिन्न आस्थाओं के होते हुए भी आपसी प्रेम, एकता और भाईचारे का बना रहना। अर्थात् देश में भिन्नताएं हों, फिर भी सभी नागरिक राष्ट्र-प्रेम से ओतप्रोत हों। देश के नागरिक पहले ‘भारतीय’ हों, फिर हिंदू या मुसलमान। राष्ट्रीय एकता का भाव देश रूपी भवन में सीमेंट का काम करता है।

भारत में विभिन्नता- भारत अनेकताओं का देश है। यहाँ अनेक धर्मों, जातियों, वर्गों, संप्रदायों और भाषाओं के लोग निवास करते हैं। यहाँ के लोगों का रहन-सहन, खान-पान और पहनावा भी भिन्न है। भौगोलिक, सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ भी कम नहीं हैं।

अनेकता में एकता – भारत में विभिन्नता होते हुए भी एकता या अविरोध विद्यमान है। यहाँ . सभी जातियां घुल-मिल गहाँ पाय लोग एक दसरे के धर्म का आदर करते हैं। आदर न भी करें तो दूसरे के प्रति सहनशील है.

राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्त्व- भारत की राष्ट्रीय एकता क लिए अनेक खतरे हैं। सबसे बड़ा खतरा है-कुटिल राजनीति। यहा के राजनेता ‘वोट-बैंक’ बनाने के लिए कभी अल्पसंख्यकों में अलगाव के बीज बोते हैं, कभी आरक्षण के नाम पर पिछड़े वर्गों को देश की मुख्य धारा से अलग करते हैं। इस देश के हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी परस्पर प्रेम से हना चाहते हैं, लेकिन भ्रष्ट राजनेता उन्हें बाँटकर रखना चाहते हैं। राष्ट्रीय एकता में अन्य बाधक तत्त्व हैं—विभिन्न . धार्मिक नेता, जातिगत असमानता, आर्थिक असमानता आदि।

परस्पर संघर्ष के परिणाम जब देश में कोई भी दो राष्ट्रीय घटक संघर्ष करते हैं तो उसका दुष्परिणाम पूरे देश को भुगतना पड़ता है। मामला आरक्षण का हो या अयोध्या के । राम-मंदिर का, उसकी गूंज पूरे देश के जनजीवन को कुप्रभावित करती है।

समाधान – प्रश्न यह है कि राष्ट्रीय एकता को बल कैसे मिले? संघर्ष का शमन कैसे हो? इसका एकमात्र उत्तर यही है कि देश में सभी असमानता लाने वाले कानूनों को समाप्त किया जाए। मुसलिम पर्सनल लॉ, हिंदू कानून आदि अलगाववादी कानूनों को तिलांजलि दी जाए। उसकी जगह एक राष्ट्रीय कानून लागू किया जाए। सब नागरिकों को एक समान अधिकार पाप्त हों। किसी नाम पर भी विशेष सुविधा या विशेष दर्जा न जाए। भारत में पति नीति बंद हो।

राष्ट्रीय एकता को बनाने का दूसरा उपाय यह है कि लोगों के हृदयों में परस्पर आदर का भाव जगाया जाए। यह काम साहित्यकार, कलाकार, विचारक और पत्रकार कर सकते हैं।

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आधनिकता और भारतीयता

आशनिकता आधुनिकता का अर्थ है-नए जमाने के अनुसार जीना। पाषाण-युग से लेकर आज तक मनुष्य-जीवन गतिशील है। आगे भी यह प्रगति निरंतर चलती रहेगी। जिस प्रकार एक हजार साल पुरानी चीजें हमारे लिए खंडहर हो चुकी हैं। सौ साल पुरानी चीजें भी बेकार हो चुकी हैं। दस साल पुराने साधन भी धीरे-धीरे अनुपयोगी होते जा रहे हैं। कारण यह है कि आज उनसे भी अधिक उपयोगी साधन हमारे सामने आ चुके हैं। मनुष्य का स्वभाव है कि वह नई उपयोगी चीजों की ओर आकर्षित होता है और पुरानी चीजों को बेकार समझकर छोड़ देता है।

पनी संस्कति त्याज्य नहीं पुराने साधन तो पुराने पड़ सकते हैं, किंतु पुराने लोग, पुराने रिश्ते, पुराने भाव और विचार आवश्यक नहीं कि त्याज्य हों। मनुष्य प्राचीन काल से जिन आदतों, भावनाओं और आदर्शों को निभाता आया है, उनमें आज भी उपयोगी आदतें बची हुई हैं। उदाहरणतया, भरे-पूरे परिवार में रहना, माता-पिता का सम्मान करना, ईश्वर की भक्ति करना, बड़ों को आदर और छोटों को स्नेह देना हमारे पुराने संस्कार हैं। बोकी परंपरा बहुत पुरानी है। ये परंपराएँ आज भी शुभ हैं। इन्हें छोड़ना नहीं चाहिए। जिन लोगों ने अपनी प्रगति के लिए बूढ़े माता-पिता को त्यागा है, उन्होंने अपना तथा माता-पिता का अहित ही किया है।

पाश्चात्य संस्कृति आधुनिक नहीं – आवश्यक नहीं कि पाश्चात्य संस्कृति आधुनिक हो। पायजामे की जगह कटी-छटी एंप्री पहनना, ब्लाउज की बजाय स्लीवलैस टॉप पहनना, साड़ी की जगह जींस पहनना, दादी की बजाय फ्रैंच-कट रखना-पाश्चात्य संस्कृति की निशानियाँ तो हो सकती हैं किंतु आधुनिक होने की नहीं। दूध-छाछ की जगह कोक पीने से और रोटी-मक्खन की जगह पीजा-बर्गर खाने से कोई आधुनिक नहीं हो सकता। आधुनिक तो वह है जो अपने देश और परिस्थिति के अनुकूल धोती-कुर्ता, लस्सी, सत्तू आदि को भी अपनाने में शर्म न करे। भला, गर्म देश में कोट-पेंट, टाई कैसे आधुनिक हो सकती है?

भारतीय संस्कृति-भापनिकता की मांग भारतीय संस्कृति कभी पुरानी नहीं पड़ती। कारण यह है कि वह सबको उदारतों का पाठ पढ़ाती है। वह धर्म, देश, प्रांत के भेद भुलाकर सबको आगे बढ़ने का अवसर देती है। वह कभी किसी विदेश पर आक्रमण नहीं करती। वह विदेशी आक्रमणकारी पर भी बम न चलाकर उसे अहिंसापूर्वक बाहर निकालती है। यह शांति का मार्ग है। इसी से यह नया विश्व जीवित रह सकता है। सर्वे भवन्तु सुखिनः, वसुधैव कुटुम्बकम्, अहिंसा आदि ऐसी बातें भारतीय संस्कृति में आज भी जीवित हैं जो पुरानी होते हुए भी नई हैं और आज की माँग हैं। यही कारण है कि आज अमेरिका के कई विश्वविद्यालयों में गीता को पढ़ाना अनिवार्य कर दिया गया है। गीता पुराना ग्रंथ होते हुए भी अत्याधुनिक है। इसी से विश्व-शांति बची रह सकती है। अत: भारतीयों को अगर आधुनिक होना है तो वे पाश्चात्य संस्कृति नहीं, भारतीय संस्कृति को अपनाएँ।

भारत के गाँव

भारत की आत्मा: गाँव– भारत की 85% जनता गाँवों में रहती है। भारत की सच्ची तस्वीर गाँवों में ही देखी जा सकती है। हमारे कवियों ने गाँवों के अत्यंत लुभावने चित्र खींचे हैं। किसी ने उन्हें भारत की आत्मा कहा तो किसी ने देश का हृदय-स्पंदन।

गांव का मनोरम वातावरण भारत के गाँव प्रकृति के झूले हैं। हरे-भरे खेत, झमती सरसों, बरसता सावन, खुली हवा, सुगंधित हवा के झोंके, निर्दोष वातावरण, प्रदूषण से मुक्त रहन-सहन, . शांत-मनोरम ऋतु-चक्र, कूकती कोयल, नाचते मार, धन्य-धान्य से भरे खेत-खलिहान—यह है । गाँव का मनोरम सत्य। इन बातों को देखकर प्रत्येक व्यक्ति का मन गाँवों में बसने को करता है।

सामाजिक जीवन- गाँवों का सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी अत्यंत मनोहारी है। यहाँ के निवासी स्वभाव से सरल-हृदय, भोले और मधुर होते हैं। यही कारण है कि वे प्रकृति की हर लय पर नाचते-गाते और गुनगुनाते हैं। होली, दीपावली, तीज आदि त्योहारों पर ग्रामवासियों की मस्ती देखने योग्य होती है।

ग्रामवासी भाईचारे के अटूट बंधन में बंधे होते हैं। इसलिए वे एक-दूसरे के दुख-सुख में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते हैं। यहाँ की सामाजिक परंपराएँ भी बहुत रंगीली हैं। विवाह की रस्में, गीत, विदा के क्षण ग्रामवासियों की भावुकता को प्रकट करते हैं।

परिश्रमी जीवन – ग्रामीण जीवन परिश्रम का प्रतीक है। यहाँ निकम्मे, निठल्ले व्यक्ति का क्या काम ? यहाँ के परिश्रमी किसान सारे देश के लिए अन्न उपजाते हैं और मजदूर लोग बड़े-बड़े भवन, बाँध, सड़क, वस्त्र-उद्योग आदि को चलाने में अपनी सारी ताकत लगा देते हैं। सच ही कहा है कवि गोपालसिंह नेपाली ने –

मेरा देश बड़ा गर्वीला, रीति-रस्म, ऋतु रंग-रंगीली।
नीले नभ में बादल काले, हरियाली में सरसों पीली।
शहरों को गोदी में लेकर, चली गाँव की डगर नुकीली।

प्रगति में पीछे – भारत के गाँव बहुत सुंदर होते हुए भी प्रगति की दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। यहाँ सड़कें, स्वच्छ जल, वैज्ञानिक सुख-साधन, संचार-व्यवस्था, विकसित बाजार, प्रगत शिक्षालय और चिकित्सालय नहीं हैं। यही कारण है कि सारी सुंदरता के होते हुए भी वे उपेक्षित हैं। गाँवों को शहरों जैसा सुंदर बनाने की चिंता किसी को नहीं है।

आशा की किरण- सौभाग्य से आज ग्रामीण जनता जाग उठी है। ग्रामीण प्रजा ने यह आवाज उठा दी है कि देश की प्रगति का केंद्र अब गाँव होना चाहिए। केंद्रीय सरकार ने गाँवों को समृद्धि पर पर्याप्त राशि लगाने का निर्णय लिया है। यह शुभ चिह्न है। आशा है, शीघ्र ही गाँवों की धरती वैज्ञानिक सुख-साधन और उन्नत सुविधाओं से संपन्न होकर स्वर्गिक बन जाएगी।

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भारतीय नारी की महत्ता

समर्पण की मूर्ति नारी-भारत की नारी का नाम सुनते ही हमारे सामने प्रेम, करुणा, दया, त्याग और सेवा-समर्पण की मूर्ति अंकित हो जाती है। जयशंकर प्रसाद ने नारी के महत्त्व को यों प्रकट किया है –

नारी तुम केवल श्रद्धा हो,
विश्वास रजत नग पदतल में।
पीयूष स्रोत-सी बहा करो,
जीवन के सुंदर समतल में।

नारी के व्यक्तित्व में कोमलता और सुंदरता का संगम होता है। वह तर्क की जगह भावना से जीती है। इसलिए उसमें प्रेम, करुणा, त्याग आदि गुण अधिक होते हैं। इन्हीं की सहायता से वह अपने तथा अपने परिवार का जीवन सुखी बनाती है।

पश्चिमी नारी-उन्नत देशों को नारियाँ प्रगति की अंधी दौड़ में पुरुषों से मुकाबला करने लगी हैं। वे पुरुषों के समान व्यवसाय और धन-लिप्सा में संलग्न हैं। उनहें अपने माधुर्य, ममत्व और वात्सल्य की कोई परवाह नहीं है। अनेक नारियाँ माता बनने का विचार ही मन में नहीं लाती। वे केवल अपने सुख, सौंदर्य और विलास में मग्न रहना चाहती हैं। भोग-विलास की यह जिंदगी भारतीय आदर्शों के विपरीत है।

भारतीय नारी-भारतवर्ष ने प्रारंभ से नारी के ममत्व को समझा है। इसलिए यहाँ नारियों की सदा पूजा होती रही है। प्रसिद्ध कथन है-

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते तत्र रमन्ते देवता।

भारत की नारी प्राचीन काल में पुरुषों के समान ही स्वतंत्र थी। मध्यकाल में देश की स्थितियाँ बदलीं। आक्रमणकारियों के भय के कारण उसे घर की चारदीवारी में सीमित रहना पड़ा। सैकड़ों वर्षों तक घर-गृहस्थी रचाते-रचाते उसे अनुभव होने लगा कि उसका काम बर्तन-चौके तक ही है। परंतु वर्तमान युग में यह धारणा बदली। बदलते वातावरण में भारतीय नारी को समाज में खुलने का अवसर मिला। स्वतंत्रता-आंदोलन में सरोजिनी नायडू, कमला नेहरू, सत्यवती जैसी महिलाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। परिणामस्वरूप स्त्रियों में पढ़ने-लिखने और कुछ कर गुजरने की
आकांक्षा जाग्रत हुई।

वर्तमान नारी-भारत की वर्तमान नारी विकास के ऊंचे शिखर छू चुकी है। उसने शिक्षा… – के क्षेत्र में पुरुषों से बाजी मार ली है। कंप्यूटर के क्षेत्र में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। नारी-सुलभ
क्षेत्रों में उसका कोई मुकाबला नहीं है। चिकित्सा, शिक्षा और सेवा के क्षेत्र में उसका योगदान अभूतपूर्व है। आज अनेक नारियाँ इंजीनियरिंग, वाणिज्य और तकनीकी जैसे क्षेत्रों में भी सफलता प्राप्त कर रही हैं। पुलिस, विमान-चालन जैसे पुरुषोचित क्षेत्र भी अब उससे अछूते नहीं रहे हैं।

दोहरी भूमिका- वास्तव में आज नारी की भूमिका दोहरी हो गई है। उसे घर और बाहर दो-दो मोचों पर काम संभालना पड़ रहा है। घर की सारी जिम्मेदारियाँ और ऑफिस का कार्य-इन दोनों में वह जबरदस्त संतुलन बनाए हुए है। उसे पग-पग पर पुरुष-समाज की ईर्ष्या, घृणा, हिंसा और वासना से भी लड़ना पड़ता है। सचमुच उसकी अदम्य शक्ति ने उसे इतना महान बना दिया है।

वर्तमान भारतीय नारी की चुनौतियों

पुरुष-प्रधान समाज में नारी का संघर्ष-जिस समाज में हम जी रहे हैं, वह पुरुष-प्रधान है। यहाँ नारी कहने को देवी अवश्य है किंतु व्यवहार में उसका स्थान पुरुषों से कम है। इसलिए उसकी उन्नति में पग-पग पर बाधाएँ हैं। पुरुष-समाज नारी को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता। वह नारी पर अपना दबदबा कायम रखना चाहता है। इसलिए पुरुष या तो नारी के जन्म को रोकता है। अगर वह पैदा हो जाए तो उसे शिक्षा से वंचित रखना चाहता है। वह शिक्षा पा लें तो उसे नौकरी में नहीं आने देना चाहता। वह नौकरी में आ जाए तो उससे घर के सारे काम करवाना चाहता है, ताकि वह दोहरे बोझ के नीचे पिसते-पिसते स्वयं ही हाथ खड़े कर दे। सचमुच पुरुष-प्रधान समाज में नारी का संघर्ष बहुत भीषण है।

घर-परिवार की सीमाओं से बाहर नई चुनौतियों-नारी जब से घर-परिवार की सीमाओं को लाँघकर बाहर निकली है, उसके सामने चुनौतियाँ भी बढो हैं। उसे पुरुषों के समाज में पग-पग पर पुरुषों से ही खतरे झेलने पड़ते हैं। पुरुष हमेशा नारी को अकेल देखकर उस पर अपना नियंत्रण
करना चाहता है। बॉस के रूप में, सहकर्मी के रूप में, मातहत के रूप में, राह चलते यात्री के .रूप में, आवारगर्द बदमाश के रूप में हर रूप में वह सरी को परेशान करता है। नारी को नुकीले दाँतों के बीच रहने वाली कोमल जीभ की तरह रहना पड़ता है। फिर भी पुरुषों से मुकाबला करना पड़ता है और विजय भी प्राप्त करनी होती है।

विविध क्षेत्रों में नारी का योगदान भारत की वर्तमान नारी विकास के ऊँचे शिखर छू चुकी है। उसने शिक्षा के क्षेत्र में पुरुषों से बाजी मार ली है। कंप्यूटर के क्षेत्र में उसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। नारी-सुलभ क्षेत्रों में उसका कोई मुकाबला नहीं है। चिकित्सा, शिक्षा और सेवा के क्षेत्र में उसका योगदान अभूतपूर्व है। आज अनेक नारियाँ इंजीनियरिंग, वाणिज्य और तकनीकी जैसे क्षेत्रों में भी सफलता प्राप्त कर रही हैं। पुलिस, विमान-चालन जेसे पुरुषोचित क्षेत्र भी अब उससे अछूते नहीं रहे हैं।

नारी और नौकरी : दोहरी भूमिका कितनी संभव है, कितनी जरूरी- वास्तव में आज नारी की भूमिका दोहरी हो गई है। उसे घर और बाहर दो-दो मोर्चों पर काम सँभालना पड़ रहा है। घर की सारी जिम्मेदारियाँ और ऑफिस का कार्य-इन दोनों में वह जबरदस्त संतुलन बनाए हुए है। उसे पग-पग पर पुरुष-समाज की ईर्ष्या, घृणा, हिंसा और वासना से भी लड़ना पड़ता है। सचमुच उसकी अदम्य शक्ति ने उसे इतना महान बना दिया है।

भारतीय कृषक

गाँधी जी का कथन- गाँधी जी ने कहा था “भारत का हृदय गाँवों में बसता है। गांवों में ही सेवा और परिश्रम के अवतार किसान बसते हैं। ये किसान ही नगरवासियों के अन्नदाता हैं, सृष्टि-पालक हैं।”

सरल जीवन- भारत के किसान का जीवन बड़ा सहज तथा सरल होता है। उसमें किसी प्रकार की कृत्रिमता नहीं होती। वह अपने जीवन की आवश्यकताओं को सीमित रखता है। रूखा-सूखा भोजन करके भी वह स्वर्गीय सुख का अनुभव करता है। माँ प्रकृति की गोद में उसे . बड़ा संतोष मिलता है। प्रकृति से निकट का संबंध होने के कारण भारतीय किसान हृष्ट-पुष्ट तथा स्वस्थ रहता है। वह स्नेहशील, दयालु तथा दूसरों के सुख-दुख में हाथ बँटाता है। वह सात्त्विक जीवन जीता है।

परिश्रमी- भारत का किसान बड़ा परिश्रमी है। वह गर्मी-सर्दी तथा वर्षा की परवाह किए बिना अपने कार्य में जुटा रहता है। जेठ की दोपहरी, वर्षा ऋतु की उमड़ती-घुमड़ती काली मेघ-मालाएं तथा शीत ऋतु की हाड़ कंपा देने वाली वायु भी उसे अपने कर्तव्य से रोक नहीं पाती। भारतीय किसान का जीवन कड़ा तथा कष्टपूर्ण है।

अभाव- भारतीय कृषक का जीवन अभावमय है। दिन-रात कठोर परिश्रम करने पर भी वह जीवन की आवश्यकताएँ नहीं जुटा पाता। न उसे पेट-भर भोजन मिलता है और न शरीर ढंकने : के लिए पर्याप्त वस्त्र। अभाव और विवशता के बीच ही वह जन्मता है तथा इसी दशा में मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।

दुरवस्था के कारण – निरक्षरता भारतीय कृषक की पतनावस्था का मूल कारण है। शिक्षा । के अभाव के कारण वह अनेक कुरीतियों से घिरा है। अंधविश्वास और रूढ़ियाँ उसके जीवन के अभिन्न अंग बन गए हैं। आज भी वह शोषण का शिकार है। वह धरती की छाती को फाड़कर, हल चलाकर अन्न उपजाता है किंतु उसके परिश्रम का फल व्यापारी लूट ले जाता है। उसकी मेहनत दूसरों को सुख-समृद्धि प्रदान करती है।

निष्कर्ष- देश की उन्नति किसान के जीवन में सुधार से जुड़ी है। किसान ही इस देश की आत्मा है। अत: उसके उत्थान के लिए हमें हर संभव प्रयत्न करना चाहिए। किसान के महत्त्व को जानते हुए ही लालबहादुर शास्त्री ने नारा दिया था ‘जय जवान जय किसान।’ जवान देश की सीमाओं को सुरक्षित करता है, तो किसान उस सीमा के भीतर बस रहे जन-जन को समृद्धि प्रदान करता है।

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जीवन में खेल-कदका का महत्त्व

स्वामी विवेकानंद ने अपने देश के नवयुवकों को संबोधित करते हुए कहा था ‘सर्वप्रथम हमारे नवयुवकों को बलवान बनाना चाहिए। धर्म पीछे आ जाएगा।’ स्वामी विवेकानंद के इस कथन से स्पष्ट है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास संभव है और शरीर को स्वस्थ तथा हृष्ट-पुष्ट बनाने के लिए खेल अनिवार्य हैं।

खेलों से लाभ – हाला पाश्चात्य विद्वान पी. साइरन ने कहा है-‘अच्छा स्वास्थ्य एवं अच्छी समझ ,जीवन के दो सर्वोत्तम वरदान हैं।’ इन दोनों की प्राप्ति के लिए जीवन में खिलाड़ी की भावना से खेल खेलना आवश्यक है। खेलने से शरीर पुष्ट होता है, मांसपेशियाँ उभरती हैं, भूख बढ़ती है, शरीर शुद्ध होता है तथा आलस्य दूर होता है। न खेलने की स्थिति में शरीर दुर्बल, रोगील.तथा आलसी हो जाता है। इन सबका कुप्रभाव मन पर पड़ता है जिससे मनुष्य की सूझ-बूझ समाप्त हो जाती है। मनुष्य निस्तेज, उत्साहहीन एवं लक्ष्यहीन हो जाता है। शरीर तथा मन से दुर्बल एवं रोगी व्यक्ति जीवन के सच्चे सुख और आनंद को प्राप्त नहीं कर सकता। बीमार होने की स्थिति में मनुष्य अपना तो अहित करता ही है, समाज का भी अहित करता है। गाँधी जी तो बीमार होना पाप का चिह्न मानते थे।

खेल विजयी बनाते हैं – खेल खेलने से मनुष्य को संघर्ष करने की आदत लगती है। उसकी जुझारू शक्ति उसे नव-जीवन प्रदान करती है। उसे हार-जीत को सहर्ष झेलने की आदत लगती है। खेलों से मनुष्य का मन एकाग्रचित होता है। खेलते समय खिलाड़ी स्वयं को भूल जाता है। खेल हमें अनुशासन, संगठन, पारस्परिक सहयोग, आज्ञाकारिता, साहस, विश्वास और औचित्य की शिक्षा प्रदान करते हैं।

मनोरंजन – खेल हमारा भरपूर मनोरंजन करते हैं। खिलाड़ी हो अथवा खेल-प्रेमी, दोनों को खेल के मैदान में एक अपूर्व आनंद मिलता है। मनोरंजन जीवन को सुमधुर बनाने के लिए आवश्यक है। इस दृष्टि से भी जीवन में खेलों का अपना महत्त्व है।

किसी मैच काआँखों देखा वर्णन

टीमों का मैदान में आना – पिछले दिनों मुझे डी.सी.एम. और मोहन बागान के मध्य हो रहे फुटबाल मैच को देखने का मौका मिला। निश्चित समय से पाँच मिनट पहले दोनों टीमें पूरी सज-धज के साथ पंक्तिबद्ध होकर मैदान में उतरीं। डी.सी.एम. की टीम ने हरी शर्ट और सफेद नेकर पहनी थी और मोहन बागान लाल कमीज तथा पीली नेकरों में थी। दर्शकों ने गर्मजोशी से
तालियाँ बजाकर उनका स्वागत किया। औ

मैच का संघर्षपूण अरंभ :
ठीक पाँच बजे निर्णायक ने लंबी सीटी बजाई। निर्णायक ने गेंद को मध्यरेखा के पास ऊपर उछाला और मैच प्रारंभ हो गया। खेल के शुरू में ही गति आ गई। डी.सी.एम. के खिलाड़ियों ने गेंद संभाली। लंबे पास देते हुए वे चार ही पासों में मोहन बागान दल की डी में पहुंच गए। अगले ही क्षण उन्होंने डी.सी.एम. के गोल पर धावा बोल दिया। वहाँ के क्षेत्ररक्षकों ने खूब हाथ-पाँव मारे किंतु बागान के भट्टाचार्य और वासुदेवन ऐसे कुशल खिलाड़ी थे कि उन्होंने फुटबाल को अपने नियंत्रण से छिनने नहीं दिया। वासुदेवन ने गोल के अंदर किक मारी। किक सटीक थी। गोल होने ही वाला था कि गोलची के हाथ के धक्के से गेंद उछलकर गोल के ऊपर से निकल गई। इस प्रकार बागान दल का वह सुंदर आक्रमण गोलची के कुशल रक्षण से निष्फल हो गया।

दसरे दल का आक्रमणगाल : गोलची ने फुटबाल को किक लगाई, जो आकाश को छूती हुई-सी. सीधे आक्रामक खिलाड़ी कुटप्पन के पास जा पहुंची। बागान के गोल में कुटप्पन को तीन खिलाड़ी घेरे हुए थे। जल्दी में कुटप्पन ने निशाना दागा, जो कि बागान के खिलाड़ी द्वारा बाधित होकर व्यर्थ कर दिया गया। अत: बिना किसी गोल के मध्यांतर हो गया।

डी.सी.एम. के दो गोल- मध्यांतर के उपरांत दोनों दलों के गोल परस्पर बदल गए। खेल प्रारंभ होते ही डी.सी.एम. के कुटप्पन, महेंद्र और अशोक की तिकड़ी ने वह धावा बोला कि बागान का गोलची घबरा उठा। महेंद्र की सधी हुई किक से गोल. होने. ही वाला था कि चटर्जी ने उसे गलत ढंग से रोका। परिणामस्वरूप उन्हें पैनल्टी किक मिली, जिसे कुटप्पन ने अपने सधे हुए निशाने से गोल में बदल दिया। तालियों की गड़गड़ाहट से स्टेडियम गूंज उठा। फुटबाल फिर मध्य में उछाली गई। अब की बार फिर डी.सी.एम. के खिलाड़ी आक्रमण पर थे। क्षेत्र-रक्षकों ने उन्हें रोका किंतु उनकी बिजली-सी गति को वे रोक नहीं पाए और अशोक ने एक और गोल कर दिया। यह फील्ड गोल था।

रोमांचक अंत-दो गोल खाने के बाद बागान के खिलाड़ियों का मानो पौरुष जाग उठा। वे फुटबाल पर बुरी तरह पिल पड़े। उधर डी.सी.एम. ने रक्षक नीति अपनाई। मैच समाप्त होने से पाँच मिनट पहले बागान ने एक गोल उतार दिया। मैच में पुनः रंग आ गया। दर्शकों की धड़कनें .. अति तीव्र हो गईं। बागान के खिलाड़ियों ने जान लगा दी परंतु उन्हें 2-1 से हारकर संतोष करना पड़ा।

भारतीय खेलों का भविष्य

भमिका- भारत आध्यात्मिक देश हैं यह संतो-ऋषियों की भूमि है। यहाँ महत्त्व ज्ञान को दिया गया। आज भी भारत के माता-पिता अपने बच्चों को इंजीनियर, डॉक्टर, प्रोफेसर, वकील, पत्रकार आदि बनाना चाहते हैं। खिलाड़ी कोई नहीं बनाना चाहता। यदि कोई बच्चा खेलों में अधिक रूचि लेता पाया जाए तो उसे माता-पिता से डाँट सुनने को मिलती है। भारत के लोग अब भी खेलों में भविष्य नहीं मानते। यही कारण है कि यहाँ खेलों का विकास नहीं हो पाता।

खेलों में भारत की वर्तमान स्थिति – खेल-जगत में भारत का स्थान निराशाजनक है। 110 करोड़ आबादी वाला देश किसी भी खेल में चैंपियन नहीं है। आज क्रिकेट में भारत ने दबदबा तो दिखाया है किंतु यह स्थायी नहीं है। हॉकी में कभी हमारा देश विश्व-चैंपियन होता था। इस बार हम ओलंपिक के लिए क्वालीफाई भी नहीं कर पाए। टेनिस, लॉन टेनिस, कुश्ती, तैराकी, मुक्केबाजी, फुटबाल, बैंडमिंटन, वालीबॉल-किसी भी खेल में हमारा नाम तक नहीं है।

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2008 के बीजिंग ओलंपिक में जहाँ लगभग 1000 पदक दाँव पर थे, भारत ने केवल तीन पदक प्राप्त किए। हमने 302 खेलों में से केवल 12 खेलों में ही भाग लिया। इसके लिए न तो हमारी सरकार चिंतित है, न समाज और न स्वतंत्र अकादमियाँ।

खेल-प्रोत्साहन के उपाय- प्रश्न है कि खेलों को प्रोत्साहन कैसे मिले? इसके अनेक उपाय हैं। खेलों को भी ‘भविष्य’ के रूप में स्थापित किया जाए। जिस प्रकार नए-नए इंजीनियरिंग . कॉलेज, मैडिकल कॉलेज, मैनेजमेंट कॉलेज खुल रहे हैं, वैसे ही खेल-अकादमियाँ और प्रशिक्षण-संस्थान खोले जाएँ। वहाँ खेल-आधारित पाठ्यक्रम हों। वहाँ नियुक्त स्टाफ को सम्मानपूर्ण धन दिया जाए।

दूसरा उपाय यह है कि शिक्षा में खेलों को अनिवार्य अंग बनाया जाए। बच्चे के प्रमाण-पत्र और चरित्र में शिक्षा-ज्ञान, खेल और कला-तीनों के अंक निर्धारित होने चाहिए। ऐसा होने पर बच्चे के मां-बाप.बच्चे को खेलों के लिए भी प्रोत्साहित करेंगे।

तीसरा उपाय यह है कि जिए प्रकार गीत-संगीत, नाटक, नृत्य, फैशन आदि को प्रोत्साहन देने के लिए समाज में अनेक संस्थाएं बनी हैं। वे संस्थाएँ प्रतियोगिता कराकर, पुरस्कार, सम्मान या प्रदर्शन के अवसर देकर प्रोत्साहन देती हैं, उसी प्रकार खेलों के लिए भी संस्थाएं आगे आएं।

भविष्य – खेलों को लेकर अभी तक भारतवासियों का रवैया बहुत उत्साहप्रद नहीं है। इसलिए सरकारें भी लगभग मौन हैं। अभी भारत को खेलों के विकास के लिए और कुछ वर्षों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। अभी दो-तीन किरणें फूटी हैं पूरा सूरज खिलने में अभी देर है।

ओलंपिक खेलों में भारत

भमिका – जब विश्व-खेलों की परंपरा शुरू हुई, तब भारत गुलाम था। स्वतंत्रता के बाद भारत गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, जनसंख्या-विस्फोट जैसी समस्याओं से घिरा रहा। इसलिए खेलों की तरफ बहुत ध्यान नहीं दिया जा सका। न तो भारत ने आलपिक खेलों में अधिक भागीदारी की, न अधिक सफलता प्राप्त की।

ओलंपिक खेलों में भारत का इतिहास- भारत ने 1920 के ओलंपिक खेलों में पहली बार पाँव रखे थे। 1928 में हॉकी में पहला स्वर्णपदक जीता। तब से लेकर 1980 के ओलंपिक तक भारत ने आठ बार हॉकी में स्वर्णपदक पर कब्जा जमाया। हॉकी और भारत पर्याय हो गए। भारत. के कप्तान ध्यानसिंह को ‘हॉकी का जादूगर’ कहा जाने लगा। उसके बाद हॉकी प काले बादल छाने शुरू हुए। 2008 के बीजिंग ओलंपिक में हमारी यह स्वर्णिम टीम क्वालीफाई ही नहीं कर सकी।

व्यक्तिगत खेलों में पदक- व्यक्तिगत पदकों में भी भारत के पास कोई स्वर्णिम परंपरा नहीं है। सन् 1952 के हेलसिकी ओलंपिक में पहली बार के.डी. जाधव ने कुश्ती में कांस्य-पदक प्राप्त किया था। उसके 56 साल बाद इस बार दिल्ली के सुशील कुमार ने फिर से कांस्य-पदक प्राप्त किया है। टेनिस, भारोत्तोलन और मुक्केबाजी में भारत के नाम एक-एक पदक है। 1996 में भारत ने टेनिस में कांस्य पदक प्राप्त किया। 2000 के ओलंपिक में हरियाणा की मल्लेश्वरी देवी ने भारोत्तोलन में कांस्य-पदक जीता। 2008 के बीजिंग ओलंपिक में हरियाणा के मुक्केबाज बिजेंद्र सिंह ने पहली बार कांस्य-पदक प्राप्त किया है।

निशानेबाजी का खेल पिछले दो ओलंपिकों में भारत के लिए फलदायी रहा है। 2004 के . ओलंपिक में राजस्थान के राज्यवर्द्धन राठौर ने डबल ट्रैप निशानेबाजी में रजत पदक प्राप्त किया था। इस बार के ओलंपिक में चंडीगढ़ के अभिनव बिंद्रा ने 10 मीटर एयर रायफल स्पर्धा में स्वर्णपदक जीतकर भारत को नया विश्वास प्रदान किया है।

उपसंहार- इतने विशाल भारत की ये छोटी-सी उपलब्धियाँ संतोषजनक नहीं कही जा सकतीं। परंतु पहली बार भारत में व्यक्तिगत स्वर्णपदक आया है। पहली बार, एक नहीं तीन-तीन खेलों में पदक आए हैं। यह एक अच्छी शुरूआत कही जा सकती है। अब भारत की आशाएँ बढ़ गई हैं। अवश्य ही हमारे खिलाड़ी परिश्रम भी करेंगे।

स्वास्थ्य और व्यायाम

स्वस्थ तन-मन के बिना जीवन बोझ- जीवन एक उत्सव है। यह आनंदमय है। इसका आनंद उठाने के लिए शरीर भी स्वस्थ चाहिए और मन भी। मन तभी स्वस्थ रहता है, जबकि शरीर स्वस्थ हो। तन में कोई रोग न हो। ऐसे शरीर वाला मनुष्य मन से भी खुश रहता है। जिसके पास न स्वस्थ तन है, न स्वस्थ मन, उसका जीवन बोझ होता है।

अच्छे स्वास्थ्य के लिए अपेक्षित कार्यक्रम- व्यायाम सोद्देश्य क्रिया है। अपने शरीर को सुगठित करने के लिए, अपने नाड़ी-तंत्र को मजबूत बनाने के लिए तथा भीतरी शक्तियों को तेज करने के लिए जो भी क्रियाएं की जाती हैं, वे निश्चित रूप से शरीर को लाभ पहुंचाती हैं। कुछ लोगों का कहना है कि सभी प्रकार के खेल व्यायाम के अंतर्गत आ जाते हैं। दूसरी ओर, कुछ विद्वान खेलों, पहलवानी आदि थका देने वाली क्रियाओं को छोड़कर शेष क्रियाओं को व्यायाम . कहते हैं।

शारीरिक स्वास्थ्य और व्यायाम- व्यायाम करने से मनुष्य का शरीर सुगठित, स्वस्थ, सुंदर तथा सुडौल बनता है। हजारों की भीड़ में से कसरती बगदन वाला व्यक्ति सहज ही पहचान लिया । जाता है। कसरती व्यक्ति का शरीर-तंत्र स्वस्थ बना रहता है। उसकी पाचन-शक्ति तेज बनी रहती है। रक्त का प्रवाह तीव्र होता है। शरीर के मल उचित निकास पाते हैं। परिणामस्वरूप देह में शुद्धता आती है। भूख बढ़ती है। खाया-पिया शीघ्रता से पचता है। रक्त-मांस उचित मात्रा में बनते हैं। शरीर स्वस्थ और चुस्त बनता है। आलस्य दूर भागता है। दिन भर स्फूर्ति और उत्साह बना रहता है। मांसपेशियों लचीली हो जाती हैं, जिससे उनकी क्रिया-शक्ति बढ़ जाती है। छाती व पुट्ठों के विकास से शरीर में अनोखा आकर्षण आ जाता है। व्यायाम से शरीर में वीर्य का कोष भर जाता है जिससे तन दमक उठता है। मस्तक पर तेज छा जाता है।

मानसिक स्वास्थ्य और व्यायाम व्यायाम का प्रभाव मन पर भी पड़ता है। जैसा तन, वैसा मन। शरीर जर्जर और बीमार हो तो मन भी शिथिल हो जाता है। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन और आत्मा का निवास होता है। व्यायाम के पश्चात मन में तेज आ जाता है। उत्साह और उमंग से व्यक्ति जिस भी काम को हाथ लगाता है, वह पूरा हो जाता है। मन में संघर्ष करने की इच्छा बलवती होती है। निराशा दूर भागती है। आशा का संचार होता है।

व्यायाम से अनुशासन का सीधा संबंध है। कसरती व्यक्ति के मन में संयम का स्वयमेव संचार होने लगता है। स्वयं के शरीर पर संतुलन, मन पर नियंत्रण आदि गुण व्यायाम करने से स्वयं आते चले जाते हैं। अतः प्रत्येक व्यक्ति को व्यायाम करना चाहिए।

स्वस्थ व्यक्ति से स्वस्थ समाज का निर्माण स्वस्थ समाज स्वस्थ व्यक्तियों से बनता है। यदि व्यक्ति स्वस्थ और प्रसन्न होंगे तो वह समाज भी स्वस्थ होगा, सुखी होगा, सशक्त होगा। वह हर बीमारी से लड़ सकेगा। हर उत्सव का आनंद ले सकेगा।

जीवन में कंप्यूटर की उपयोगिता

वर्तमान यग-कंप्यटर यग – वर्तमान युगे-कंप्यूटर युग है। यदि भारतवर्ष पर नजर दौड़ाकर देखें तो हम पाएंगे कि औज जीवन के लगभग सभी क्षेत्रों में कंप्यूटर का प्रवेश हो गया है। बैंक, रेलवे स्टेशन, हवाई-अड़े, डाकखाने, बड़े-बड़े उद्योग, कारखाने, व्यवसाय, हिसाब-किताब, रुपये गिनने की मशीनें तक कंप्यूटरीकृत हो गई हैं। अब भी यह कंप्यूटर का प्रारंभिक प्रयोग है। आने वाला समय इसके विस्तृत फैलाव का संकेत दे रहा है।

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कंप्यटर की उपयोगिता- आज मनुष्य-जीवन जटिल हो गया है। सांसारिक गतिविधियों. परिवहन और संचार-उपकरणों आदि का अत्यधिक विस्तार हो गया है। आज व्यक्ति के संपर्क बढ़ रहे हैं, व्यापार बढ़ रहे हैं; गतिविधियाँ बढ़ रही हैं, आकांक्षाएँ बढ़ रही हैं, साधन बढ़ रहे हैं। परिणामस्वरूप सब जगह भागदौड़ और आपाधापी चल रही है।

स्वचालित गणना-प्रणाली – इस पागल गति’ को सुव्यवस्था देने की समस्या है। कंप्यूटर एक ऐसी स्वचालित प्रणाली है, जो कैसी भी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदल सकती है। हड़बड़ी में होने वाली मानवीय भूलों के लिए कंप्यूटर रामबाण-औषधि है। क्रिकेट के मैदान में अंपायर की निर्णायक-भूमिका हो, या लाखों-करोड़ों-अरबों की लंबी-लंबी गणनाएँ, कंप्यूटर पलक झपकते ही आपकी समस्या हल कर सकता है। पहले इन कामों को करने वाले कर्मचारी हड़बड़ाकर काम करते थे। परिणामस्वरूप काम कम, तनाव अधिक होता था। अब कंप्यूटर की सहायता से काफी सुविधा हो गई है। .
कार्यालयाने

कार्यालय तुथा इंटरनेट में सहायक
कंप्यूटर ने फाइलों की आवश्यकता कम कर दी है। कार्यालय की सारी गतिविधियाँ फेलोपो में बंद हो जाती हैं। इसलिए फाइलों के स्टोरों की जरूरत अब नहीं रही। अब समाचार-पत्र भी इंटरनेट के माध्यम से पढ़ने की व्यवस्था हो गई है। विश्व के किसी कोने में छपी पुस्तक, फिल्म, घटना की जानकारी इंटरनेट पर ही उपलब्ध है। एक समय था जब कहते थे कि विज्ञान ने संसार को कुटुंब बना दिया है। कंप्यूटर ने तो मानो उस कुटुंब को आपके कमरे में उपलब्ध करा दिया है

नवीनतम उपकरणों में उपयोगिता- आज टेलीफोन, रेल, फ्रिज, वाशिंग मशीन आदि उपकरणों के बिना नागरिक जीवन जीना कठिन हो गया है। इन सबके निर्माण या संचालन में कंप्यूटर का योगदान महत्त्वपूर्ण है। रक्षा-उपकरणों, हजारों मील की दूरी पर सटीक निशाना बाँधने, .. सूक्ष्म-से-सूक्ष्म वस्तुओं को खोजने में कंप्यूटर का अपना महत्त्व है। आज कंप्यूटर ने मानव-जीवन को सुविधा, सरलता, सुव्यवस्था और सटीकता प्रदान की है। अतः इसका महत्त्व बहुत अधिक है।

विज्ञान और मानव

विज्ञान और मानव का अटूट संबंध- विज्ञान और मानव का अटूट संबंध है। मानव ने सारा विकास ज्ञान और विज्ञान के सहारे किया है। विज्ञान का अर्थ है-प्रामाणिक ज्ञान। तकनीकी ज्ञान भी विज्ञान के अंतर्गत आता है।।

विज्ञान द्वारा सुख-सुविधा में वृद्धि- विज्ञान ने मानव को हर दृष्टि से सुखी और समृद्ध बनाया है। जीवन का कोई भी क्षेत्र ले लें। वहीं आज विज्ञान के चमत्कारों को बोलबाला है। विज्ञान ने अग्नि को माचिस और लाइटर में, पवन को पंखे में, गर्मी को हीटर में, ठंडक को कूलर में . कैद कर लिया है। चरखे की जगह स्वचालित कलें, चूल्हे की जगह गैस के आधुनिक उपकरण, बैलगाड़ी की जगह मोटर-कारें, इनके अतिरिक्त फ्रिज, वाशिंग मशीन, कैमरा, जहाज, क्रेन, रेल, बसें, खेलघर, सिनेमा, चित्रपट, विडियो अनगिनत साधनों की सहायता से आज का जीवन सरल हो गया है।

कंप्यूटर, ऑफसेट प्रिटिंग, रोबोट, मिजाइल, पनडुब्बी, सैन्य उपकरणों आदि ने तो मनुष्य को आश्चर्य में डाल दिया है। इनकी सहायता से मनुष्य का परिश्रम बचा है, समय बढ़ा है और जीवन सुंदरता हुआ है।

चिकित्सा-क्षेत्र में वरदान- विज्ञान की सहायता से आज मौत के मुंह में गए प्राणी को भी बचा लिया जाता है। कृत्रिम हृदय लगाना, प्लास्टिक सर्जेरी, अंग-प्रत्यारोपण, टैस्ट ट्यूब बेबी आदि विज्ञान के ही चमत्कार हैं। विभिन्न असाध्य रोगों के उपचार ढूँढकर विज्ञान ने मनुष्य के जीवन
को विश्वसनीय बना दिया है।

दासता से मुक्ति – प्राचीन युग में अमीरों को अपनी सेवा-टहल के लिए श्रमिकों की स्थायी .. आवश्यकता थी। इसीलिए दास-प्रथा का प्रारंभ हुआ। दुर्भाग्य से कुछ लोगों को आजीवन दास बनकर नारकीय जीवन बिताना पड़ता था। आज सौभाग्य से विज्ञान ने हर श्रम को स्वचालित मशीनों के जरिए कराकर दास-प्रथा को मुक्ति दे दी है।

वसुधैवकुटुंबकम की भावना- विज्ञान की सहायता से ही यह वसुधा कुटुंब की भांति बन पाई है। आज तार, बेतार, टेलीफोन, उपग्रह-संचार आदि के इतने तीव्र माध्यम खोजे जा चुके हैं कि मिनटों में विश्वभर के समाचार एक जगह से दूसरी जगह पर पहुंच जाते हैं। परिवहन की सुविधा के सहारे सारा विश्व दो दिन में घूमा जा सकता है। आज विश्व के किसी कोने में आपत्ति आए, तो अन्य देश पलक झपकते ही उसकी सहायता के लिए आ पहुंचते हैं।
इस प्रकार विज्ञान की उपलब्धियों से मानव-जीवन सरल ही नहीं, बल्कि विस्तृत, सुखी और विश्वसनीय भी बना है।

मोबाइल फोन : वरदान या अभिशाप

मोबाइल फोन-आज की आवश्यकता- विज्ञान के कारण मानव को अनेक सुविधाएं प्राप्त . हुई हैं। उनमें मोबाइल फोन का सबसे ऊंचा और विशिष्ट स्थान है। शेष अधिकांश साधन अपनी-अपनी जगह स्थिर रहते हैं। मनुष्य को उनका लाभ उठाने के लिए उनके पास जाना पड़ता : है। परंतु मोबाइल ऐसा सेवक है जो आपकी जेब में रहता है। यह न केवल आपके समूचे घर-संसार को आपसे जोड़ता है, बल्कि आपके लिए समय, कलैंडर, संगणक, घड़ी, टार्च, अलार्म, सचेतक, स्मारक, कैमरा और न जाने कितने-कितने काम एक-साथ निपटाता है। सच तो यह है कि आजकल यह हमारे लिए एक जरूरत बन गया है।

सभी वर्गों की जरूरत-मोबाइल फोन समाज के सभी वर्गों के लिए जरूरत बन चुका है। जब आप खेतिहर किसान को ट्रैक्टर चलाते समय मोबाइल पर बातें करते देखते हैं, बिजली-मिस्त्री को अपने नए ग्राहक से वादा करते देखते हैं, तो यही अनुभव होता है कि आज मोबाइल सबके लिए आवश्यक हो चुका है। इसकी सहायता से व्यापारियों का व्यापार देश-विदेश में फैल गया है। परिवार के सभी सदस्य चौबीसों घंटे एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। बूड़े दादा-दादी, जो अपने पोतों से बात करने को तरस जाते थे, अब मोबाइल से बातें करके दिल हल्का कर लेते हैं। सचमुच वरदान है यह।

फैशन भी और जरूरत भी-कुछ लोगों के लिए मोबाइल एक फैशन है, जरूरत नहीं। वे उसे अपने सामाजिक स्तर का प्रतीक मानते हैं। खासकर बच्चे, युवक और महिलाएं इसे फैशन – के तौर पर अपनाते हैं। उन्हें समाज को यह दिखाना होता है कि उनके पास जैसे विदेशी घड़ी, सूट, चूड़ियाँ, चश्मा या जूते हैं, वैसे ही नए डिजाइन का एक मोबाइल भी है। उन्हें न तो जरूरत की कोई बात करनी होती है, न कहीं संदेश देना होता है, उन्हें अपने समाज में अपने धन-वैभव का दबदबा बढ़ाना होता है।

मोबाइल-परेशानी का कारण मोबाइल की परेशानियां भी अनगिनत हैं। इसके कारण आप पर अनेक अनचाही मुसीबतें आ पड़ती हैं। कई बार आप गहरी नींद में सोए हैं और कोई गलत नंबर आकर आधी रात में आपकी धड़कनें बढ़ा देता है। कितने ही अनचाहे गलत नंबर, कंपनियों के विज्ञापन, एम.एम.एस. आपके जीवन में खलल डालते हैं। इन अनचाहे संदेशों ने हमारे व्यस्त जोवन का जंजाल और अधिक बढ़ा दिया है।

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विद्यालय-परिसर में इसका उपयोग-काम के समय मोबाइल का उपयोग बहुत परेशानी पैदा करता है। डॉक्टर ऑप्रेशन कर रहा है और मोबाइल आ गया। नेताजी मंच पर भाषण दे रहे हैं और मोबाइल बजने लगता है। अध्यापक कक्षा में पढ़ा रहे हैं और उनका या किसी छात्र का मोबाइल बजने लगता है। ये सब अरुचि पैदा करते हैं। इनसे काम में बाधा पड़ती है।

विद्यालय परिसर में मोबाइल के उपयोग पर रोक लगनी चाहिए। इससे अध्यापक और छात्र दोनों ध्यानपूर्वक पढ़ाई कर सकेंगे। यदि छात्रों को परिसर में मोबाइल लाने की छूट दे दी जाए, तो वे एक-दूसरे को एम.एम.एस. करते रहते हैं, फोटो खींचते रहते हैं या खेल खेलते रहते हैं। .. उनका ध्यान पढ़ाई से उचटता है। निष्कर्ष यह है कि मोबाइल हमारे लिए एक आवश्यक साधन है। इसका मर्यादित उपयोग होना चाहिए।

टी.वी. : वरदान या अभिशाप

दूरदर्शन के लाभ-भारत जैसे विशाल देश में दरदर्शन अत्यंत महत्त्वपर्ण साधन है। आज हमारे देश के सामने अनेकानेक समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। दूरदर्शन के माध्यम से उन समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट कर उनके समाधान की दिशा में प्रयत्न किया जा सकता है। ज्ञान-विज्ञान, समाज-शिक्षा तथा खेती-बाड़ी संबंधी विषयों के संबंध में जानकारी द्वारा लोगों का ज्ञानवर्द्धन किया जा सकता है। देश में मद्यपान के कुप्रभावों, परिवार नियोजन की आवश्यकता, भारतीय जीवन में विविधता होते हुए भी एकता इत्यादि विषयों पर विभिन्न कार्यक्रम दिखाकर लोगों को अधिक जागरूक बनाया जा सकता है। इस दिशा में हमारा दूरदर्शन अब रूचि लेने. लगा है, यह प्रसन्नता का विषय है।

उपयोगी कार्यक्रम-आजकल दूरदर्शन के अनेक चैनलों पर बहुत ही समाजोपयोगी कार्यक्रम दिखाए जा रहे हैं। डिस्कवरी, ज्याग्राफिक जैसे चैनल पूरी तरह ज्ञानवर्द्धक हैं। कुछ समाचार-चैनल दिन-रात विविध प्रकार के समाचार विचार-विमर्श, वाद-विवाद या साक्षात्कार प्रसारित करते हैं। इनसे हमारा ज्ञानवर्द्धन होता है। इसी तरह कुछ मनोरंजन चैनल विविध समस्याओं पर आधारित हैं। आजकल ‘बालिका वधू’ और ‘उतरन’ जैसे सीरियल नारी के शोषण और अशिक्षा के दंश को दिखाकर समाज को जागरूक बना रहे हैं। इसी प्रकार कुछ चैनल देश की नन्हीं प्रतिभाओं को ऊपर उठाने में लगे हुए हैं।

हानिकारक कार्यक्रम जब से दूरदर्शन के निजी चैनलों को हरी झंडी मिली है, तब से कुछ खतरे भी सामने आने लगे हैं। खुले मनोरंजन के नाम पर नंगेपन को बढ़ावा मिल रहा है। नृत्य के नाम पर कैबरे डांस का प्रचलन बढ़ गया है। इधर कुछ धार्मिक चैनल धर्म के नाम पर अंधविश्वासों को बढ़ावा देने में लगे हुए हैं। इन चैनलों पर दिन-रात भूत-प्रेत, नाग-पूजा, पुनर्जन्म, शनि-देवता के कारनामे दिखाए जाते हैं। इनके कारण समाज का लाभ होने की बजाय हानि होती है। कुछ भोले-भाले नए दर्शन इनकी झूठी-सच्ची बातों में आकर अपनी हानि कर लेते हैं।

निष्कर्ष_ प्रश्न है कि क्या अंधविश्वास वाले कार्यक्रमों पर रोक लगाई जा सकती है? इसका उत्तर आसान नहीं है। भारत धार्मिक देश है। यहाँ धर्म और विश्वास को अपनाने की आजादी है। जो लोग ज्योतिष, धर्म, हस्तरेखा, शनि, जादू, भूत-प्रेत पर विश्वास करते हैं, उन्हें अपने मत के प्रचार से कैसे रोका जाए। कुछ लोग योग, भक्ति और प्रवचनों को ढोंग मानते हैं। दूसरी ओर करोड़ों लोग इन पर जान छिड़कते हैं। अतः यह प्रश्न आसान नहीं है। इसका निर्णय देश की जनता पर छोड़ देना चाहिए।

कंप्यूटर और टी.वी. का प्रभाव

कंप्यूटर और टेलीविजन का महत्त्व-कंप्यूटर और टेलीविजन आज की जीवनधारा के अनिवार्य अंग बन चुके हैं। इनके बिना सामान्य जीवन की गति नहीं हो सकती। आज अधिकतर काम कंप्यूटर या कंप्यूटर द्वारा चालित मशीनों से होने लगे हैं। रेल, जहाज, मैट्रो आदि की टिकटें, बड़े-बड़े शो-रूमों के बिल, बिजली बिल, बीमा-बैंक, स्कूल-कॉलेज सभी में कंप्यूटरों का उपयोग होने लगा है। पल भर के लिए भी कंप्यूटर रूक जाएँ तो सारी गतिविधियां ठहर जाती हैं। इसी प्रकार टेलीविजन हमारे लिए सूचना और मनोरंजन का अनिवार्य साधन बन गया है। यह हमारे मित्र की भूमिका निभाता है।

दोनों के लाभ- कंप्यूटर और टेलीविजन के लाभ अनगिनत हैं। इनकी सहायता से हमारा जीवन अत्यंत सुगम, सरल और सुविधाजनक बन गया है। अब न तो बिल भरने की लंबी-लंबी लाइनों में लगने की आवश्यकता है, न कोई फार्म खरीदने के लिए देश-विदेश जाने की। आप घर बैठे-बैठे बिल भर सकते हैं, फार्म भर सकते हैं, परीक्षा-फल देख सकते हैं, टिकटें खरीद सकते हैं। यानि सभी झंझटों से मुक्त हो सकते हैं। यदि इंटरनेट का प्रयोग करें तो विश्व-भर की सारी जानकारियाँ अपने घर में प्राप्त कर सकते हैं।

टेलीविजन के द्वारा आप विश्व-भर के सभी पर्यटन स्थलों का आनंद ले सकते हैं। आप संसार की सभी जातियों, परंपराओं, धर्मों, उत्सवों के बारे में जान सकते हैं। आपको घर बैठ-बैठे पल-पल की जानकारी मिल जाती है। न केवल आप क्रिकेट या हॉकी के मैच का आनंद उठा सकते हैं बल्कि आगामी मौसमों की जानकारी भी प्राप्त कर सकते हैं। मनोरंजन के क्षेत्र में तो इसका कोई सानी नहीं।

हानियां-हर लाभ के पिछले पन्ने पर हानियों का लंबा सिलसिला लिखा होता है। इन दोनों उपकरणों के आने से मनुष्य की गतिविधियाँ ठहर-सी गई हैं। मनुष्य प्रकृति के खुले आँगन में विचरण करने की बजाय अपने टी.वी., कंप्यूटर-रूम में कैद रहने लगा है। उसके संबंध-सरोकार सीमित हो गए हैं। इसका सीधा प्रभाव उसके स्वास्थ्य तथा सामाजिक जीवन पर पड़ा है। आज का मानव अधिक बीमार रहने लगा है। आँखों पर चश्मे, मोटे पेट, शुगर और हार्ट अटैक की बीमारियाँ अधिक फैलने लगी हैं। सामाजिक संबंध कम होने से वह सुख-दुख को बाँट नहीं पाता। . . इस कारण तनाव, अकेलापन और.अजनबीपन की समस्याएँ बढ़ने लगी हैं। व्यक्ति आत्मकेंद्रित होने लगा है। ऐसे लोगों के लिए ही जयशंकर प्रसाद ने कहा था-

अपने में सीमित कर कैसे व्यक्ति विकास करेगा?
यह एकांत स्वार्थ भीषण है, अपना नाश करेगा। ।

हानियों.से बचने के उपाय_हानियों से बचने के उपाय हानियों के भीतर ही छिपे हुए होते हैं। मनुष्य हमेशा यह ध्यान रखे कि ये उपकरण हमारे साधन हैं, साध्य नहीं। ये हमारे लिए हैं, हम इनके लिए नहीं। हमें इनकी सहायता से अपनी खुशी बढ़ानी है। अपने सामाजिक संबंध, उत्सव, उल्लास बढ़ाने हैं। इसके लिए कभी-कभी. इन पर रोक भी लगानी पड़े तो लगाएँ। संयम से ही हम इनके वरदानों को अपने जीवन में खिला सकते हैं।

महात्मा गाँधी

जन्म तथा परा नाम – 2 अक्तूबर, सन् 1869 को भारत की धरती ने एक ऐसा महामानव पैदा किया जिसने न केवल भारतीय राजनीति का नक्शा बदला, बल्कि संपूर्ण विश्व को सत्य, अहिंसा, शांति और प्रेम की अजेय शक्ति के दर्शन कराए। उनका जन्म पोरबंदर काठियावाड़ में हुआ। माता-पिता ने उसका नाम मोहनदास रखा.

शिक्षा- मोहनदास स्कूल-जीवन में साधारण कोटि के छात्र थे। परंतु व्यावहारिक जीवन में .. उनकी विशेषता प्रकट होने लगी थी। उन्होंने अध्यापक द्वारा नकल कराए जाने पर नकल करने से इनकार कर दिया। वे 1887 में कानून पढ़ने के लिए विलायत चले गए।

दक्षिणी अफ्रीका में वकालत के सिलसिले में उन्हें एक बार दक्षिणी अफ्रिका जाना पड़ा। वहाँ भारतीयों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। स्वयं मोहनदास के साथ भी ऐसा।

दुर्व्यवहार हुआ। उसे देखकर उनकी आत्मा चीत्कार कर उठी। उन्होंने 1894 में ‘नटाल इंडियन कांग्रेस’ की स्थापना करके गोरी सरकार के विरुद्ध बिगुल बजा दिया। सत्याग्रह का पहला प्रयोग ‘ उन्होंने यहीं किया था।

भारतीय राजनीति में – भारत आकर गाँधी जी स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े। उन्होंने सत्य और अहिंसा को आधार बनाकर राजनीतिक स्वतंत्रता का आंदोलन छेड़ा। 1920-22 में उनहोंने अंग्रेज सरकार के विरुद्ध असहयोग आंदोलन छेड़ दिया। सन् 1929 में गाँधी जी ने पुनः आंदोलन प्रारंभ किया। यह आंदोलन ‘नमक-सत्याग्रह’ के नाम से प्रसिद्ध है। गाँधी जी ने स्वयं साबरमती आश्रम से डांडी तक पदयात्रा की तथा वहाँ नमक बनाकर नमक कानून का उल्लंघन किया। सन् 1931 में आप ‘राउंड टेबल कांफ्रेस’ में सम्मिलित होने के लिए लंदन गए। सन् 1942 में आपने : – ‘भारत आंदोलन छेड़ दिया। देश-भर में क्रांति की ज्वाला सुलगने लगी। देश का बच्चा-बच्चा अंग्रेजी सरका को उखाड़ फेंकने पर उतारू हो गया। 15 अगस्त, 1947 को देश स्वतंत्र हो गया।

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बलिदान – भारत-पाक विभाजन हुआ। देश के विभिन्न स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे होने लगे। । उन्हें रोकने के लिए गाँधी जी ने आमरण अनशन रखा। इससे सांप्रदायिकता की आग तो बुझ गई परंतु वे स्वयं उसके शिकार हो गए। 30 जनवरी, 1948 को संसार का यह एक महान मानव एक हत्यारे की गोली का शिकार बन परलोक सिधार गया।

देन गाँधी जी सत्य और अहिंसा के पुजारी थे। वे सभी धर्मों का समान आदर करते थे। उनकी प्रसिद्ध उक्ति है—’ईश्वर अल्ला तेरे नाम। सबको सन्मतिं दे भगवाना’ वे कुशल राजनीतिज्ञ
और महान संत थे।

अंतरिक्ष-परीकल्पना चावला

पंरिचय- भारत की जिन नारियों ने अपने बलबूते पर देश का मस्तक ऊँचा किया, उनमें एक और नाम जुड़ गया है कल्पना चावला। प्यार से उसे पूरा देश ‘अंतरिक्ष-परी’ कहता है। हरियाणा के करनाल नगर में जन्मी कल्पना के पिता का नाम बनारसी लाल चावला है।

शिक्षा कल्पना ने मॉडल टाउन करनाल के टैगोर विद्यालय से आरंभिक शिक्षा प्राप्त की। वह आरंभ से ही कुशाग्र-बुद्धि, दृढ़ निश्चयी, प्रतिभाशालिनी तथा मौन थी। उसने पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज, चंडीगढ़ से एरो स्पेस में बी.ई. की डिग्री प्राप्त की।

आकांक्षा और रुचि-कल्पना की बचपन से एक ही आकांक्षा थी—चाँद-सितारों को छूना। इसलिए उसने पंजाब इंजीनियरिंग कॉलेज में एरोनाटिक्स में प्रवेश लेने की इच्छा व्यक्त की तो वहाँ के एक प्रोफेसर ने भी कहा कि यह क्षेत्र लड़कियों के लिए नहीं है। परंतु अपनी दृढ़ इच्छा-शक्ति का परिचय देते हुए उसने यही क्षेत्र चुना। बाद में उसने अमेरिका के टेक्सास विश्वविद्यालय से मास्टर डिग्री प्राप्त की। 1988 में उसकी नियुक्ति अमेरिका के सर्वोच्च अंतरिक्ष-अनुसंधान केंद्र नासा में हुई। सन् 1994 में उसे अंतरिक्ष यात्रा के लिए चुना गया। 19 नवंबर, 1997 को वह सौभाग्यशाली दिन आया, जब वह विश्व की पहली महिला अंतरिक्ष यात्री के रूप में आकाश में उड़ी। कल्पना के आकाश में तो सभी उड़ते हैं किंतु कल्पना वास्तविक आकाश में उड़ी।

स्वभाव-कल्पना अत्यंत सौम्य स्वभाव की महिला थी। अखबार की सुर्खियों में आने के बाद भी उसमें अहंकार नहीं आया। उसकी सखियाँ, उसके अध्यापक, उसके पड़ोसी, माता-पिता, मित्र, प्रशंसक और अनुज सभी उसे अपना बहुत निकट मानते थे। कल्पना ने एक विदेशी युवक से विवाह किया। उसके पति भी उसकी सादगी और कर्मठता पर मुग्ध थे। उसके मधुर स्वभाव ने उसके पति को भी भारत का प्रेमी बना दिया।

विशेषज्ञ कल्पना कोलंबिया अंतरिक्ष अभियान के 28वें सफर में मिशन-विशेषज्ञ थी। उसे दूसरी बार अंतरिक्ष अभियान के लिए चुना गया। विशेषज्ञ दल ने कुशलतापूर्वक सभी कार्य संपन्न किए।

अंतिम यात्रा–1 फरवरी, 2003 को भारतीय समय के अनुसार 7.46 पर अंतरिक्ष यान को अमेरिका की धरती पर उतरना था। परंतु दुर्भाग्य सिर पर मँडरा रहा था। यान धरती के वायुमंडल में प्रवेश करना चाह रहा था कि अंतरिक्ष यान में विस्फोट हो गया। उसमें सवार सभी यात्री काल के गाल में समा गए। कल्पना भी उन्हीं के साथ इतिहास बन गई। जो लोग ढोल-नगाड़ों के साथ अपनी अंतरिक्ष-परी के अनुभव सुनने के लिए व्यग्र थे, वे ठगे-से रह गए। बस हमारे पास आँसू के सिवाय कुछ न था। परंतु ये आँसू गौरव के आँसू थे, श्रद्धा के आँसू थे। कल्पना चावला मर कर भी अमर हो गई। उसका नाम सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।

मेरी प्रिय पुस्तक

पुस्तक का नाम और लेखक मुझे श्रेष्ठ पुस्तकों से अत्यधिक प्रेम है। यों मुझे अनेक पुस्तकें पसंद हैं, लेकिन जिसने मुझे सबसे अधिक प्रभावित किया, वह है तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’।

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विषय – रामचरितमानस’ में दशरथ-पुत्र राम की जीवन-कथा का वर्णन है। श्रीराम के जीवन की प्रत्येक लीला मन को भाने वाली है। उन्होंने किशोर अवस्था में ही राक्षसों का वध और यज्ञ-रक्षा का कार्य जिस कुशलता से किया है, वह मेरे लिए अत्यंत प्रेरणादायक है। उनकी वीरता और कोमलता के सामने मेरा हृदय श्रद्धा से झुक जाता है।

प्रिय होने का आधार–रामचरितमानस में मार्मिक स्थलों का वर्णन तल्लीनता से हुआ है। राम-वनवास, दशरथ-मरण, सीता-हरण, लक्ष्मण-मूर्छा, भरत-मिलन आदि के प्रसंग दिल को छूने वाले हैं। इन अवसरों पर मेरे नयनों में आँसुओं की धारा उमड़ आती है। विशेष रूप से राम और भरत का मिलन हृदय को छूने वाला है। .

इस पुस्तक में तुलसीदास ने मानव के आदर्श व्यवहार को अपने पात्रों के जीवन में साकार होते दिखाया है। राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे आदर्श राजा, आदर्श पुत्र, आदर्श पति और आदर्श भाई हैं। भरत और लक्ष्मण आदर्श भाई हैं। उनमें एक-दूसरे के लिए सर्वस्व त्याग की भावना प्रबल है। सीता आदर्श पत्नी है। हनुमान आदर्श सेवक है। पारिवारिक जीवन की मधुरता का जैसा सरस वर्णन इस पुस्तक में है, वैसा अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।

रामचरितमानस की भाषा अवधी है। इसे दोहा-चौपाई शैली में लिखा गया है। इसका एक-एक छंद रस और संगीत से परिपूर्ण है। इसकी रचना को लगभग 500 वर्ष हो चुके हैं। फिर भी आज इसके अंश मधुर कंठ में गाए जाते हैं।

पुस्तक का संदेश- यह पुस्तक केवल धार्मिक महत्त्व की नहीं है। इसमें मानव को प्रेरणा देने की असीम शक्ति है। इसमें राजा, प्रजा, स्वामी, दास, मित्र, पति, नारी, स्त्री, पुरुष सभी को अपना जीवन उज्ज्वल बनाने की शिक्षा दी गई है। राजा के बारे में उनका वचन है–
जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवस नरक अधिकारी। – तुलसीदास ने प्रायः जीवन के सभी पक्षों पर सूक्तियाँ लिखी हैं। उनके इन अनमोल वचनों के कारण यह पुस्तक अमरता को प्राप्त हो गई है।

पुस्तक के संबंध में कुछ सम्मतियाँ- समस्त विदेशी विद्वानों ने स्वीकार किया है “रामचरितमानस उत्तरी भारत का सबसे लोकप्रिय ग्रंथ है और इसने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उच्चाशयता लाने में सफलता पाई है।” माता प्रसाद गुप्त कहते हैं- “रामचरितमानस ने समस्त उत्तरी भारत पर सदियों से अपना अद्भुत प्रभाव डाल रखा है और यहाँ के आध्यात्मिक जीवन का निर्माण किया है।”

प्रदूषण : कारण और निवारण

प्रदूषण का अर्थ-प.दूषण का अर्थ है–प्राकृतिक संतुलन में दोष पैदा होना। न शुद्ध वायु मिलना, न शुद्ध जल मिलना, न शुद्ध खाद्य मिलना, न शांत वातावरण मिलना। प्रदूषण कई प्रकार का होता है। प्रमुख प्रदूषण हैं-वायु-प्रदूषण, जल-प्रदूषण और ध्वनि-प्रदूषण।

वायु-प्रदूषण— महानगरों में यह प्रदूषण अधिक फैला हुआ है। वहाँ चौबीसों घंटे कल-कारखानों . तथा मोटर-वाहनों का काला धुआँ इस तरह फैल गया है कि स्वस्थ वायु में साँस लेना दूभर हो गया है। यह समस्या वहाँ अधिक होती है जहाँ सघन आबादी होती है और वृक्षों का अभाव होता है।

जल-प्रदूषण– कल-कारखानों का दूषित जल नदी-नालों में मिलकर भयंकर जल-प्रदूषण पैदा करता है। बाढ़ के समय तो कारखानों का दुर्गंधित जल सब नदी-नालों में घुल-मिल जाता है। इससे अनेक बीमारियाँ पैदा होती हैं।

ध्वनि-प्रदूषण- मनुष्य को रहने के लिए शांत वातावरण चाहिए। परंतु आजकल कल-कारखानों का शोर, यातायात का शोर, मोटर-गाड़ियों की चिल्ल-पों, लाउडस्पीकरों की कर्णभेदक ध्वनि ने बहरेपन और तनाव को जन्म दिया है।

प्रदूषणों के दुष्परिणाम– उपर्युक्त प्रदूषणों के कारण मानव के स्वस्थ जीवन को खतरा पैदा . हो गया है। खुली हवा में लंबी साँस लेने तक को तरसं गया है आदमी। गंदे जल के कारण के बीमारियाँ फसलों में चली जाती हैं जो मनुष्य के शरीर में पहुँचकर घातक बीमारियाँ पैदा करती हैं। पर्यावरण-प्रदूषण के कारण न समय पर वर्षा आती है, न सर्दी-गर्मी का चक्र ठीक चलता है। सूखा, बाढ़, ओला आदि प्राकृतिक प्रकोपों का कारण भी प्रदूषण है।

प्रदूषण के कारण- प्रदूषण को बढ़ाने में कल-कारखाने, वैज्ञानिक साधनों का अधिकाधिक उपयोग, फ्रिज, कूलर, वातानुकूलन, ऊर्जा संयंत्र आदि दोषी हैं। वृक्षों को अंधाधुंध काटने से मौसम का चक्र. बिगड़ा है। घनी आबादी वाले क्षेत्रों में हरियाली न होने से भी प्रदूषण बढ़ा है।

प्रदूषण का निवारण – विभिन्न प्रकार के प्रदूषणों से बचने के लिए चाहिए कि अधिकाधिक वृक्ष लगाए जाएँ, हरियाली की मात्रा अधिक हो। सड़कों के किनारे घने वृक्ष हों। आबादी वाले क्षेत्र खुले हों, हवादार हों, हरियाली से ओतप्रोत हों। कल-कारखानों को आबादी से दूर रखना चाहिए और उनसे निकले प्रदूषित मल को नष्ट करने के उपाय सोचने चाहिए।

बाढ़ की विभीषिका

बाढ़ के सम्बन्ध में पौराणिक आस्थाएँ थीं कि यह परमात्मा द्वारा भेजा हुआ अभिशाप है। जब धरती पर पापाचार बढ़ जाता है तो भगवान दैविक विपत्तियों को भेजते हैं. एक ओर तो विध्वंस के लिए और दूसरी ओर विलास और पापपूर्ण तन्द्रा में अलसाए हुए व्यक्तियों को सचेत करने के लिए।

वर्षा का पानी बड़े-बड़े पहाड़ों एवं समतल भूमियों पर गिरता है। नदी की सतह सबसे नीचे है, इसलिए वर्षा का सम्पूर्ण जल नदियों में तथा अन्य निम्न सतह वाली भूमि में चला जाता है। अतिवृष्टि होती है तो नदी-नाला एवं अन्य स्रोत वर्षा के सभी पानी को अपने तल में नहीं रख सकते। तब पानी उनके किनारों पर वह चलता है और मैदान, फसल और वास के स्थानों को डुबो देता है। यह बाढ़ कहलाता है। पहाड़ों पर बर्फ के पिघलने से बाढ़ आती है। बर्फ के पिघलने से नदी के पानी का आयतन बढ़ जाता है। बाँध के टूटने से भी बाढ़ आती है। अप्रत्याशित आकस्मिक ढंग से गरजता हुआ जल-प्रवाह कितना खतरनाक हो सकता है. इसकी कल्पना की जा सकती है।

बाढ़ आने से हमारे सामान बह जाते हैं। घर गिर पड़ते हैं। हमलोग गृह-विहीन हो जाते हैं। बहुत-से लोग और पशु नंदी की धारा में प्रवाहित हो जाते हैं। बाढ़ रेलवे लाइन को भी नष्ट कर देती है। व्यापक रोग फैल जाते हैं। अकाल पड़ जाता है। लोगों के साधन और औजार नष्ट हो जाते हैं। लोगों की जीविका नष्ट हो जाती है। बाढ़ रेलवे लाइन को भी नष्ट कर देती हैं। गाड़ियों का आना-जाना बन्द हो जाता है। कुछ दिनों तक पानी के जमे रह जाने से वहाँ सडाँध फैल जाती है और तरह-तरह की बीमारियाँ लोगों में घर दबाती हैं। खाने के लिए अन्न नहीं रहता, रहने के लिए मकान नहीं रहते, सारी आवश्यक सुविधाएँ बाढ़ के जल में बह जाती हैं। ऐसा भी देखा गया है कि लोग पेड़ों पर रहने लगते हैं और कभी-कभी वह पेड़ भी जल से कमजोर पड़कर सारे सामानों के साथ गिर पड़ता है। आँख के आगे चिल्लाते हुए बच्चे पानी के प्रवाह में बह जाते हैं और माँ-बाप विवश भाव से देखते रहते हैं। मानव-सभ्यता की हरी-भरी खेती को आक्रोश की एक ही हुँकार से त्रस्त कर देने वाला यह प्रकोप वास्तव में अनिष्टकारी है।

बिहार की कोसी, उड़ीसा की महानदी और बंगाल की दामोदर नदी में हमेश्च बाढ़ आती है। हजारों एकड़ जमीन की फसलों को नष्ट कर देती है। कोसी के अंचल में प्रायः प्रत्येक वर्ष बाढ़ आती है। इधर हाल में उत्तरी बिहार में जो भयानक बाढ़ आई थी वह भूली नहीं जा सकती। पानी का प्रबल वेग अप्रत्याशित रूप से रातों-रात घर में प्रविष्ट कर गया। लोग नीट की खुमारी में डूबे हुए थे। सहसा चारों ओर गाँव में हल्ला मच उठा और लोग बेतहाशा भाने लगे। जब तक पूरी तरह से चेते, तब तक बहुत कुछ समाप्त हो गया था। तुरंत यातायात के साधन भी नहीं। जुट सके और लोग चुपचाप प्रकृति के उन्मुक्त ताण्डव का नंगा रूप देखते रहे-उसके क्रूर हाथों द्वारा लूटते रहे, पिटते रहे। कोई किसी का न मित्र रहा, न कोई किसी का साथ देना वाला।

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इस प्रकार हम देखते हैं कि बाढ़ भारतवर्ष के लिए एक गम्भीरतम समस्या है जिसका निराकरण देखने में असमभव जान पड़ता है। भारत की पंचवर्षीय योजनाओं में नदी घाटी योजनाओं की जो रूप-रेखा बनी है उसकी सर्वतोभावेन पूर्ति के बाद ही इस आकस्मिक विपत्ति
का सामना हो सकेगा।

पर्यावरण प्रदूषण

पर्यावरण का अर्थ- ‘पर्यावरण’ का शाब्दिक अर्थ है—चारों ओर का वातावरण, जिसमें हम सब साँस लेते हैं। इसके अंतर्गत वायु, जल, धरती, ध्वनि आदि से युक्त पूरा प्राकृतिक वातावरण आ जाता है।

प्रदूषण के कारण – आज हमारी सबसे बड़ी समस्या यही है कि जिस पर्यावरण में हमारा जीवन पलता है, वही प्रदूषित होता जा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण है–अंधाधुंध वैज्ञानिक प्रगति। अधिक उत्पादन की होड़ में हमने अत्यधिक कल-कारखाने लगा लिए हैं। उनके द्वारा उत्पादित रासायनिक कचरा, गंदा जल, और मशीनों से उत्पन्न शोर हमारे पर्यावरण के लिए खतरा बन गए हैं। परमाणु-ऊर्जा के प्रयोग ने आकाश में व्याप्त ओजोन गैस की पस्त में छेद कर दिया है।

प्रदूषण बढ़ने का दूसरा बड़ा कारण है – जनसंख्या-विस्फोट। अत्यधिक जनसंख्या को अन्न-जल-स्थल देने के लिए वनों को काटना आवश्यक हो गया। इससे भी पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा।

प्रदूषण के प्रकार-प्रदूषण के अनेक प्रकार हैं। उनमें कुछ मुख्य प्रदूषण इस प्रकार हैं

वायु-प्रदूषण–आज महानगरों की वायु पूरी तरह प्रदूषित हो चुकी है। तेल से चलने वाले वाहनों और बड़े-बड़े उद्योगों के कारण वायु में विषैले तत्त्व घुल गए हैं। इनके कारण अनेक असाध्य रोग उत्पन्न होने लगे हैं।

जल-प्रदूषण…-फैक्टरियों के निकले दूषित कचरे के कारण न केवल नदी-नाले प्रदूषित हुए हैं, बल्कि भूमि-जल भी दूषित होने लगा है। जिन क्षेत्रों में फैक्टरियाँ अधिक हैं, वहां प्रायः घरती से लाल-काला जल बाहर निकलता है।

ध्वनि-प्रदूषण आज फैक्टरियों, मशीनों, ध्वनि-विस्तारकों, वाहनों और आनंद-उत्सवों में इतना अधिक शोर होने लगा है कि लोग बहरे होने लगे हैं। शोर तनाव को भी बढ़ाता है।

प्रदूषण का निवारण प्रदूषण की रोकथाम का उपाय लोगों के हाथों में है। इसे जनचेतना से रोका जा सकता है। यद्यपि सरकों भी जनहित में अनेक उपाय कर रही हैं। हरियाली को बढ़ावा देना, वृक्ष उगाना, प्रदूषित जल और मल का उचित संसाधन करना, शोर पर नियंत्रण करना ये उपाय सरकार और जनता दोनों को अपनाने चाहिए। हर व्यक्ति इन प्रदूषणों को रोकने की ठान ले, तभी इसका निवारण संभव है।

शहरी जीवन में बढ़ता प्रदूषण

शहरों का निरंतर विस्तार-आजकल धीरे-धीरे गांवों के लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। जिसे भी अवसर मिलता है, शहरों में बस जाता है। इस कारण पिछले वर्षों में कई कस्बे नगर बन गए हैं और नगर महानगर। महानगर भी समुद्र की भाँति फैलते चले जा रहे हैं। इस बढ़ते घनत्व के कारण महानगरों में हर प्रकार का प्रदूषण बढ़ रहा है।

बढ़ती जनसंख्या–भारत की बढ़ती जनसंख्या भी प्रदूषण के लिए खाज का काम कर रही है। आजादी के समय भारत की जनसंख्या 33 करोड़ थी। 50 वर्षों में यह तिगुनी हो गई। वही धरती, वही आकाश, वही नदियाँ, वही पहाड़ लेकिन जनसंख्या तिगुनी। साधन. वही, उपभोक्ता तीन गुने। इसका सीधा प्रभाव बढ़ते प्रदूषण पर पड़ा।

शहरों में बढ़ते विविध प्रकार के प्रदूषण-शहरों में अनेक प्रकार से प्रदूषण जा रहा है। सबसे प्रत्यक्ष है…-वायु-प्रदूषण। महानगरों के लोग स्वस्थ वायु में साँस नहीं ले पाते। सड़कों पर चलते हुए वाहनों का काला धुआँ पीना पड़ता है। अत्यधिक जनसंख्या के कारण जगह-जगह गंदगी के ढेर लगे रहते हैं। फैक्टरियों का धुआँ वातावरण को विषैला बना देता है। परिणामस्वरूप आदमी निर्मल वायु के लिए भी तरस जाता है। .

जल-प्रदूषण महानगरों की बड़ी समस्या बन चुकी है। दिल्ली में बहने वाली यमुना में इतने नाले मिलते हैं कि यमुना के जल का रंग काला हो गया है। फैक्टरियों के दूषित जल के कारण
भूमि का जल भी लाल-काला हो गया है।

ध्वनि-प्रदूषण की स्थिति यह है कि महानगरों के लोगों में बहरापन और तनाव आम बीमारियाँ हो गई हैं। शांति का स्थान शोर ने ले लिया है। इसके लिए वैज्ञानिक साधनों के साथ-साथ आम लोग भी बराबर के दोषी हैं।

प्रदषण की रोकथाम के उपाय प्रदूषण की रोकथाम का पहला उपाय है सचेत होना। दूसरा उपाय है—प्रदूषण के कारणों और उससे बचने के तरीकों को जानना। जो उपाय आम जनता के हाथों में हैं, उनका व्यापक प्रचार-प्रसार करना ताकि लोग सजग हो सकें। जो उपाय सरकार के हाथों में हैं, उन पर सख्त कानून बनाए जाने चाहिए तथा उनका कठोरता से पालन करना चाहिए। सरकार तथा जनता के सम्मिलित सहयोग से ही प्रदूषण-मुक्त वातावरण तैयार हो सकता है।

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भारत की बढ़ती जनसंख्या

चिंताजनक जनसंख्या-वद्धि-11 मई, 2000 को पटना के पी० एम० सी० एच० में अपर्णा नामक शिशु ने जन्म लिया। अनुमान के अनुसार यह भारत का एक अरबवाँ शिशु था। उसके जन्म के साथ भारत के माथे पर चिंता की रेखा और अधिक गहरी हो गई। यद्यपि जनसंख्या वृद्धि पूरे विश्व में हो रही है, किंतु भारत के लिए तो यह वृद्धि परमाणु-विस्फोट से भी अधिक बढ़कर है। 11 मई, 2006 आते-आते 9 करोड़ आबादी और बढ़ चुकी है।

भारत की आबादी विश्व की कुल आबादी का 16 प्रतिशत है। परंतु उसके पास विश्व की कुल भूमि का केवल 2 प्रतिशत ही है। इस कारण भारत की भूमि पर जनसंख्या का घनत्व बढ़ गया है। यहाँ साधन और सुविधाएँ तो सीमित हैं, लेकिन खाने वाले निरंतर बढ़ रहे हैं। रोज-रोज बढ़ने वाली यह भीड़ भारत के लिए चिंताजनक बनती जा रही है।

कारण भारत में जनसंख्या बढ़ने का प्रमुख कारण है-मृत्यु-दर में कमी। जन्म-दर पर नियंत्रण न रख पाना दूसरा बड़ा कारण है। यद्यपि भारत ने सबसे पहले परिवार नियोजन कार्यक्रम चलाए, फिर भी जन्म-दर की गति को प्रभावी ढंग से रोका नहीं जा सका। यहाँ की जनता अंधविश्वासी है, गरीब और अनपढ़ है। इस कारण वह जनसंख्या घटाने का महत्त्व नहीं समझती।

हानियाँ जनसंख्या-दबाव के कारण बेरोजगारों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ रही है। इस कारण अपराध बढ़ रहे हैं। यद्यपि देश में प्रगति हो रही है। नए स्कूल, अस्पताल, कार्यालय खुल रहे हैं, परंतु जनसंख्या की बाढ़ में सब व्यवस्थाएँ धरी-की-धरी रह जाती हैं। परिणामस्वरूप आज भारत एक भीड़ में बदल गया है। आज सर्वाधिक सड़क दुर्घटनाएं हो रही हैं। कहीं लोग मेलों में दबकर मर रहे हैं तो कहीं भागदौड़ में।

उपाय जनसंख्या पर नियंत्रण पाना आज भारत की प्रमुखतम चुनौती बन चुकी है। इसके लिए आवश्यक है शिक्षा का प्रसार, सीमित परिवार के महत्त्व का ज्ञान तथा गर्भ-निरोधक उपायों का और अधिक प्रचलन। सरकार इस दिशा में अग्रसर है, किंतु समाज के सहयोग के बिना ये काम संभव नहीं हैं।

आतंकवाद

भारत में आतंकवाद भारत मूलतः शांतिप्रिय देश है। इसलिए यहाँ की धरती ने बद्ध, महावीर, गाँधी जैसे अहिंसक नेता पैदा किए हैं। आतंकवाद की प्रवृत्ति यहाँ की जमीन से मेल नहीं खाती। परंतु दुर्भाग्य से पिछले दो दशकों से भारतवर्ष आतंकवाद की लपेट में आता जा रहा है। सन् 1967 में बंगाल में नक्सलवाद का उदय हुआ।

सन् 1981 से 1991 तक भारत का पंजाब प्रांत आतंकवाद की काली छाया से घिरा रहा। तत्कालीन भ्रष्ट राजनीति और पाकिस्तान की साजिश के कारण फैला सिख-आतंकवाद हजारों निरपराधों की जान लेकर रहा।

काश्मीर में आतंकवाद पाकिस्तान जब पंजाब में हिंदू-सिख को लड़ाने में सफल न हो पाया तो उसने काश्मीर में अपनी गतिविधियाँ तेज कर दी। पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों की योजनाबद्ध घुसपैठ हुई। नौजवान युवकों को जबरदस्ती आतंक के रास्ते पर डालने के लिए घृणित हथकंडे अपनाए गए। जान-बूझकर काश्मीर में भारत-विरोधी वातावरण का निर्माण किया गया। वहाँ के अल्पसंख्यक हिंदुओं के साथ दिल दहलाने वाले भयंकर अत्याचार किए गए, ताकि वे काश्मीर छोड़कर अन्यत्र जा बसें और काश्मीर पर पाकिस्तान का कब्जा हो सके।

काश्मीर का आतंकवाद आज कैंसर का रूप धारण कर चुका है। पाकिस्तानी आतंकवादी कभी मुंबई में तो कभी कोलकाता में बम विस्फोट करते हैं, कभी गुजरात के अक्षरधाम में तो कभी काश्मीर की मसजिद में खून-खराबा करते हैं। 11 जुलाई, 2006 को एक साथ काश्मीर और मुंबई में हुए 13 धमाकों ने सिद्ध कर दिया कि भारत में आतंकवादी तत्त्व जड़ जमा चुके

अंतर्राष्ट्रीय आतंकवाद – आज आतंकवाद राष्ट्र की सीमाओं को पार करके पूरे विश्व में
अपना जाल फैला चुका है। ओसामा बिन लादेन ने अफगानिस्तान की भूमि पर रहकर अमेरिका के ट्विन टावरों को पल भर में भूमिसात कर दिया।

आतंकवाद फैलने के कारण आज विश्व में जो आतंकवाद फैल रहा है, उसका प्रमुख कारण है-धार्मिक कट्टरता। ओसामा बिन लादेन, तालिबान, लश्करे-तोएबा, सीरिया, पाकिस्तान, फिलीस्तीन सबके पीछे सांप्रदायिक शक्तियाँ काम कर रही हैं। आज आतंकवादी आधुनिक तकनीक का भरपूर प्रयोग करते हैं। उनके पास विध्वंस की ढेरों सामग्री है।

भारत में आतंकवाद फैलने का एक अन्य कारण है – क्षेत्रवाद और राजनीतिक स्वार्थी वोट के भूखे राजनेता जानबूझकर आतंकवाद को प्रश्रय देते हैं।

समाधान- आतंकवाद की समस्या मनुष्यों की बनाई हुई है, इसलिए आसानी से सुलझाई जा सकती है। जिस दिन अमेरिका की तरह. पूरा विश्व दृढ़ संकल्प कर लेगा और आतंकवाद को जीने-मरने का प्रश्न बना लेगा, उस दिन यह धरती आतंक से रहित हो जाएगी।

दहेज : एक कुप्रथा

सामाजिक कप्रथाओं में दहेज सबसे अधिक निंदनीय- भारत में अनेक सामाजिक समस्याएँ हैं। उनमें से दहेज समस्या सबसे बड़ी है। इस प्रथा के कारण लड़कियों को माँ-बाप . पर बोझ समझा जाता है। इसलिए माता-पिता लड़की को जन्म ही नहीं देना चाहते। देते हैं तो उसे खर्चा मानते हैं। इसलिए यह समस्या सबसे अधिक घिनौनी और निंदनीय है।

दहेज-प्रथा कप्रथा कैसे बनी- दहेज देना माँ-बाप की स्वाभाविक इच्छा होती है। अपनी बेटी को विदा करते समय सुख-सुविधा का सामान देना एक अच्छी परंपरा थी। परंतु धीरे-धीरे लड़के वाले दहेज को अपना अधिकार मानने लगे। वे लड़की के माँ-बाप से जबरदस्ती धन-संपत्ति और उपहार चाहने लगे। तब से यह प्रथा कुप्रथा बन गई। दुर्भाग्य से आजकल दहेज की जबरदस्ती माँग की जाती है। दूल्हों के भाव लगते हैं। बुराई की हद यहाँ तक बढ़ गई है कि जो जितना शिक्षित है, समझदार है, उसका भाव उतना ही तेज है। आज डॉक्टर, इंजीनियर का भाव 15-20 लाख, आई.ए.एम. का 70-80 लाख, प्रोफेसर का आठ-दस लाख, ऐसे अनपढ़ व्यापारी, जो खुद कौड़ी के तीन बिकते हैं, उनका भी भाव कई बार कई लाखों तक जा पहुँचता है। ऐसे में कन्या का पिता कहाँ मरे ? वह दहेज की मंडी में से योग्यतम वर खरीदने के लिए धन कहाँ से लाए ? बस यहीं से बुराई शुरू हो जाती है।

दहेज के दुष्परिणाम- दहेज-प्रथा के दुष्परिणाम विभिन्न हैं। या तो कन्या के पिता को .. लाखों का दहेज देने के लिए घूस, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, काला-बाजार आदि का सहारा लेना पड़ता है, या उसकी कन्याएँ अयोग्य वरों के मत्थे मढ़ दी जाती हैं। हम रोज समाचार-पत्रों में पढ़ते हैं कि अमुक शहर में कोई युवती रेल के नीचे कट मरी, किसी बहू को ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला, किसी ने छत से कूदकर आत्महत्या कर ली। ये सब घिनौने परिणाम दहेज रूपी दैत्य के ही हैं।

दहेज लेना और देना अपराध- अब सरकार ने दहेज निषेध अधिनियम बनाकर दहेज लेने और देने को अपराध घोषित कर दिया है। दुल्हन की शिकायत पर ही वर पक्ष के लोगों को जेल में बंद कर दिया जाता है। परंतु अभी तक समस्या का समाधान नहीं हो सका है।

दहेज-प्रथा को रोकने के उपाय- दहेज-प्रथा को रोकने का सबसे सशक्त उपाय है जन-जागृति। जब तक युवक दहेज का बहिष्कार नहीं करेंगे और युवतियाँ दहेज-लोभी युवकों का तिरस्कार नहीं करेंगी, तब तक यह कोढ़ चलता रहेगा।

दहेज अपनी शक्ति के अनुसार दिया जाना चाहिए, धाक जमाने के लिए नहीं। दहेज दिया जाना ठीक है. माँगा जाना ठीक नहीं। दहेज को बुराई वहाँ कहा जाता है, जहाँ माँग होती है। दहेज प्रेम का उपहार है, जबरदस्ती खींच ली जाने वाली संपत्ति नहीं।

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बेरोजगारी : समस्या और समाधान

भूमिका-आज भारत के सामने अनेक समस्याएँ चट्टान बनकर प्रगति का रास्ता रोके खड़ी हैं। उनमें से एक प्रमुख समस्या है–बेरोजगारी। महात्मा गाँधी ने इसे ‘समस्याओं की समस्या’
कहा था।

अर्थ-बेरोजगारी का अर्थ है-योग्यता के अनुसार काम का न होना। भारत में मुख्यतया तीन प्रकार के बेरोजगार हैं। एक वे, जिनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। वे पूरी तरह खाली हैं। दूसरे, जिनके पास कुछ समय काम होता है, परंतु मौसम या काम का समय समाप्त होते ही वे बेकार हो जाते हैं। ये आंशिक बेरोजगार कहलाते हैं। तीसरे वे, जिन्हें योग्यता के अनुसार
काम नहीं मिला।

कारण – बेरोजगारी का सबसे बड़ा कारण है-जनसंख्या-विस्फोट। इस देश में रोजगार देने की जितनी योजनाएँ बनती हैं, वे सब अत्यधिक जनसंख्या बढ़ने के कारण बेकार हो जाती हैं। एक अनार सौ बीमार वाली कहावत यहाँ पूरी तरह चरितार्थ होती है। बेरोजगारी का दूसरा कारण है—युवकों में बाबूगिरी की होड़। नवयुवक हाथ का काम करने में अपना अपमान समझते हैं। विशेषकर पढ़े-लिखे युवक दफ्तरी जिंदगी पसंद करते हैं। इस कारण वे रोजगार-कार्यालय की
धूल फांकते रहते हैं।

बेकारी का तीसरा बड़ा कारण है—दूषित शिक्षा-प्रणाली। हमारी शिक्षा-प्रणाली नित नए बेरोजगार पैदा करती जा रही है। व्यावसायिक प्रशिक्षण का हमारी शिक्षा में अभाव है। चौथा कारण है—गलत योजनाएँ। सरकार को चाहिए कि वह लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। मशीनीकरण को उस सीमा तक बढ़ाया जाना चाहिए जिससे कि रोजगार के अवसर कम न हों। इसीलिए गाँधी जी ने मशीनों का विरोध किया था, क्योंकि एक मशीन कई कारीगरों के हाथों को बेकार बना डालती है।

दुष्परिणाम बेरोजगारी के दुष्परिणाम अतीव भयंकर हैं। खाली दिमाग शैतान का घर। बेरोजगार युवक कुछ भी गलत-शलत करने पर उतारू हो जाते हैं। वही शांति को भंग करने में सबसे आगे होते हैं। शिक्षा का माहौल भी वही बिगाड़ते हैं जिन्हें अपना भविष्य अंकारमय लगता है।

समाधान-बेकारी का समाधान तभी हो सकता है, जब जनसंख्या पर रोक लगाई जाए। युवक हाथ का काम करें। सरकार लघु उद्योगों को प्रोत्साहन दे। शिक्षा व्यवसाय से तथा रोजगार के अधिकाधिक अवसर जुटाए जाएँ।

पर्यटन का महत्त्व

पर्यटन का अर्थ- पर्यटन का अर्थ है-चारों ओर घूमना। निरुद्देश्य घूमना। आनंद के लिए घूमना। इसलिए पर्यटन स्वयं में पूर्ण आनंद है। घूमने वाला प्राणी संसार की अनेक चिंताओं से दूर रहता है। वह संग्रह करने के अवगुण से दूर रहता है। पर्यटन और संग्रह शत्रु हैं। जब तक मनुष्य घुमंतू था, तब तक वह संग्रह से दूर रहता था। इसलिए उसके जीवन में आनंद था, मस्ती थी, निश्चितता थी। उसे खोने का भय नहीं था।

विकास का सूत्रधार- परम घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन कहते हैं – आज तक संसार का जितना भी विकास हुआ है, वह घुमक्कड़ों की कृपा से हुआ है। जितने भी धर्म विकसित हुए हैं, घुमक्कड़ों की कृपा से विकसित हुए हैं। कोलंबस और वास्को-डि-गामा ने पर्यटन से ही भारत
और अमेरिका की खोज की। आज भी सबसे अधिक धनी व्यक्तियों का कारोबार पूरे विश्व में फैला हुआ है।

पर्यटन-एक उद्योग- आज पर्यटन एक उद्योग बन चुका है। भारत में अनेक पर्यटन-स्थल हैं। काश्मीर, कुल्लू-मनाली, मसूरी, नैनीताल, ऊटी जैसी मनोरम पहाड़ियाँ हर वर्ष लाखों पर्यटकों को अपनी ओर खींचती हैं। हरिद्वार, मथुरा, द्वारिका, वैष्णो देवी, अजमेर शरीफ, कन्याकुमारी, कांचीपुरम, इलाहाबाद जैसे धार्मिक स्थलों पर भी लाखों-करोड़ों पर्यटक हर वर्ष घूमने जाते हैं। काश्मीर, हिमाचल और आसाम में पर्यटन उद्योग ही वहाँ की आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ है। ।

पर्यटन के लाभ- पर्यटन से मनुष्य को अनेक लाभ होते हैं। पर्यटक विश्व की अनेक संस्कृतियों के संपर्क में आता है। इससे वह सबकी खूबियों से परिचित होता है। उसकी दृष्टि विशाल बनती है। पर्यटन से विश्व में आपसी भाईचारा बनता है। ‘वसुधैवकुटुंबकम्’ का नारा तभी सार्थक होता है, जब विश्व-भर के लोग एक-दूसरे को अपने परिवार का सदस्य मानते हैं। यह केवल पर्यटन से ही संभव है।

पर्यटन-एक शौक- आज पर्यटन मनोरंजन का साधन बनता जा रहा है। आम लोग भी पर्यटन पर अपनी आय का कुछ भाग व्यय करने लगे हैं। पर्यटन सच में मानव को दैनंदिन की चिंताओं से दूर करके मुक्त करता हैं यह मानव-मुक्ति का अच्छा साधन है।

एक अविस्मरणीय यात्रा /
किसी प्राकृतिक स्थल की यात्रा

प्रकृति और मनुष्य का संबंध मनुष्य प्रकृति का पुत्र है। उसका जन्म न केवल प्रकृति की गोद में हुआ है, बल्कि जल, वायु, पृथ्वी, अग्नि और आकाश से मिलकर हुआ है। इसलिए प्रकृति मनुष्य को माँ की गोद जैसी सुहानी लगती है।

प्राकृतिक स्थल, दृश्य, पदार्थ आदि मनुष्य के आनंद के कारण- प्रकृति के विभिन्न रूप, दृश्य, पदार्थ मनुष्य को बरबस अपनी ओर खींचते हैं। उसे गर्मी, वर्षा, सावन, फल-फूल-फुलवाड़ी सब आनंदित करते हैं। वह पहाड़ों, नदियों, मैदानों, रेगिस्तानों-सबका दीवाना है।

कहाँ की यात्रा की? वहाँ जाने का अवसर कब, कैसे मिला?— मुझे पिछली गर्मियों . की छुट्टियों में यमुनोत्री की यात्रा करने का सौभाग्य मिला। मेरे लिए यह पहली पहाड़ी-यात्रा थी। इसलिए इस यात्रा का क्षण-क्षण मेरे लिए रोमांचक था। हम स्कूल के बीस बच्चे अपने दो अध्यापकों के साथ घूमने जा रहे थे। रात को 10.00 बजे हमारी बस दिल्ली से चली। सभी सो गए। नींद खुली तो मैंने स्वयं को देहरादून में पाया। सुबह के 5.00 बज चुके थे।

एक होटल के दालान में 45 मिनट बस रूकी। छात्रों ने हाथ-मुँह धोया, तैयार हुए। कुछ नं चाय-नाश्ता किया। तरो-ताजा होकर सब अपनी-अपनी सीटों पर आ विराजे। बस ऊंचे-नीचे रास्तों पर चढ़ने-उतने लगी। रास्ते टेढ़े-मेढ़े थे। कभी सांप की तरह सड़क मुड़ जाती थी, कभी अंग्रेजी के वी या यू की तरह एकदम मोड़ आता था। जब बस ऊपर चढ़ती थी तो लगता था इंजन को काफी जोर लगाना पड़ रहा है और ढलान पर ऐसे लगता था मानो बस हवा में बही जा रही है। खिड़की से नीचे के गहरे खडु-खाई दीखते थे तो डर लगता था।

प्राकतिक सौंदर्य-वर्णन तीन घंटे चढ़ाई करने के बाद यमुना नदी का निर्मल जल दिखाई देने लगा। यह यमुना दिल्ली की गंदे जल वाली यमुना से बिल्कुल अलग थी। जल हरे रंग का था। पत्थरों से टकराती हुई उसकी जलधारा सफेद गुच्छों का रूप धारण कर लेती थी। वातावरण में ठंडक बढ़नी शुरू हो गई। हनुमानचट्टी नामक स्थान पर पहुँचते-पहुँचते सभी ने स्वेटर, जर्सी या शाल-दुशाले ओढ़ लिए। यह स्थान समुद्र से 11000 फुट ऊँचाई पर था। यहाँ जून में भी दिसंबर-जनवरी जैसी ठंड थी। हम रात को लकड़ी से बने जिस होटल में ठहरे, वह यमुना के किनारे और पहाड़ों की गोद में था। यमुना का शाय-शॉय करता जल रात की नीरवता को भंग
कर रहा था। मुझे अतीव आनंद आ रहा था।

अविस्मरणीय यात्रा कैसे?_हनुमानचट्टी से यमुनोत्री तक 13 किलोमीटर की पैदल चढ़ाई थी। पैदल-यात्रा के लिए गांच-छ: फुट चौड़ा रास्ता पहाड़ों को काटकर बनाया गया था। यह यात्रा अत्यंत रोमांचक थी, इसलिए अविस्मरणीय थी। हम सभी उछलते-फलाँगते पैदल चले। बीच में फूलचट्टी और जानकीचट्टी नामक स्थान आए। इन स्थानों पर हमने चायपान किया और आध-आध घंटा विश्राम किया। अंतिम पाँच किलोमीटर की चढ़ाई बहुत कठिन थी। यमुना नदी साथ-साथ बह रही थी। बीच-बीच में भयानक पहाड़ आ जाते थे। कहीं से रास्ता फिसलनदार भी था। बिल्कुल खड़ी चढ़ाई थी। बीच-बीच में पहाड़ों से बहते झरने मन मोह लेते थे।

यमनोत्री के दर्शन और वापसी यमुनोत्री में बर्फ से ढंके पहाड़ थे जिनसे पिघलकर यमुना का जल बह रहा था। वहाँ गंधक का गर्म चश्मा था जिसके जल में नहाकर हम तरोताजा हो गए। वहाँ यमुनादेवी का मंदिर बना हुआ था। उसके दर्शन करके हम वापसी को चले।

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मेरी अविस्मरणीय रेल-यात्रा

यात्रा का उत्साह यह बात सन् 2005 की है। मुझे दिल्ली से चंडीगढ़ जाना था। मैं पिताजी के साथ था। मैं पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। पिताजी ने बतलाया था कि दोपहर 12.30 पर नई दिल्ली से चलने वाली फ्लाईंग मेल से हमें चंडीगढ़ के लिए चलना है। यह मेरी प्रथम रेल-यात्रा थी। अतः मैं प्रात: से बहुत उत्साहित था।

स्टेशन का दृश्य हम 12.00 बजे ही नई दिल्ली स्टेशन पर पहुंच गए। साफ-सुथरा चहल-पहल से भरा रेलवे स्टेशन था। कोई कुली को आगे किए अटैचियाँ लिए आ रहा था, कोई अपना बैग सँभाले गाड़ियों की ओर लपका जा रहा था। 12.05 पर हमने अपनी जगह ढूंढ निकाली। मुझे खिड़की के पास बैठने का मौका मिला।

गाडी का दश्य ठीक 12.30 पर गाड़ी चली। लगभग सभी सीटें यात्रियों से भर गई थीं। लोग अपने-अपने सगे-संबंधियों के साथ किसी-न-किसी क्रिया में व्यस्त थे। अधिकांश लोग पत्र-पत्रिका, समाचार-पत्र या पुस्तक आदि पढ़ रहे थे। एकाध जगह ताश का खेल चल रहा था। बुजुर्ग लगने वाले यात्री देश-विदेश की चर्चा में व्यस्त थे।

गाडी से बाहर का दश्य गाड़ी के चलते ही मेरा ध्यान बाहर के दृश्यों की तरफ खिंच गया। मेरे लिए तो यह सर्जीव चलचित्र था। मैं दिल्ली से चंडीगढ़ के सारे दृश्यों को पी लेना चाहता था। मेरा ध्यान पटरी के काँटे बदलती गाड़ी की ओर गया। मैं समझ नहीं पाया कि गाड़ी कैसे उन आड़ी-तिरछी पटरियों में से अपना रास्ता ढूंढ़ पा रही है। यह मैं समझ पाऊं कि गाड़ी रूक गई। यह सब्जी मंडी स्टेशन था।

चहल-पहल- सब्जी मंडी से गाड़ी चली कि एक भक्ति-स्वर सुनाई दिया। यह कोई सूरदास जी थे, जो यात्रियों को गीत सुनाकर अपना पेट भरते थे। यात्रियों ने उसका मीठा गीत सुना और बदले में उसे पैसे दिए। अब खिड़की के बाहर हरे-भरे खेतों, पुलों, नदियों, मकानों, रेलवे-फाटकों, छोटे-छोटे रेलवे स्टेशनों की श्रृंखला शुरू हो गई, जिन्हें. मैं रूचिपूर्वक देखता रहा। मुझे सब कुछ भा रहा था। यह सब मेरे लिए नया था।

गाड़ी में खाने-पीने का सामान बेचने वाले, जूते-पालिश करने वाले, भीख मांगने वाले, खिलौने बेचने वाले आ-जा रहे थे। जहाँ जिस स्टेशन पर गाड़ी रूकती थी, वहीं चहल-पहल शुरू हो जाती थी। चाय, बोतल, पुस्तकें, पकौड़े आदि बेचने वाले अधीर हो उठते थे। इस सारी चहल-पहल में कब पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र, अंबाला आकर चला गया, मुझे पता ही न चला। मेरा ध्यान तो तब टूटा, जब पिताजी ने कहा बेटा पुरु! चलो जूते पहनो, स्टेशन आ गया है। मेरी वह प्रथम रेल-यात्रा आज भी मुझे स्मरण है।

किसी मेले का आँखों देखा वर्णन

गब्बारे पर अंकित व्यापार मेला- मुझे सन् 2006 में प्रगति मैदान, दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय व्यापार मेला देखने का अवसर मिला। मेले का विज्ञापन करने के लिए आकाश में एक विशाल गैसीय गुब्बारा ताना गया था। जिस पर बड़े-बड़े शब्दों में ‘व्यापार मेला’ लिखा था।

मख्य द्वार- व्यापार मेले में प्रवेश करने के कई द्वार थे। मैं जिस द्वार से गया, उसके बाहर टिकट लेने वालों की सर्पाकार लंबी पंक्ति थी। वह पंक्ति बहुत अनुशासित थी। इसलिए शीघ्र ही प्रवेश का मौका मिल गया। मुख्य द्वार और मार्ग को विविध कलात्मक सज्जाओं से सजाया गया था। हमें दूर से ही बीसियों मोटे-मोटे नाम दिखाई दिए—आसाम, हरियाणा, मध्य प्रदेश, दिल्ली, पंजाब, केस्ल, जापान, अमेरिका, पाकिस्तान आदि।

जर्मनी का मंडप- मैं इन रंगीनियों में खोया हुआ ही,था कि अचानक स्वयं को एक मंडप में खड़ा पाया। यह जर्मनी का मंडप था। इसमें विविध आधुनिकतम सज्जाओं के साथ उस देश की प्रगति को दर्शाया गया था।

घडियों वाला मंडप – आगे हाल ऑफ नेशंस के साथ एक छोटा भवन था जिसमें विश्वभर की घड़ियों की प्रदर्शनी लगी थी। अंदर जाकर विविध घड़ियों के मंडपों को देखा तो हैरान रह गया। एक-से-एक श्रेष्ठ गुणवत्ता वाले टाइमपीस, क्लॉक तथा कलाई घड़ियों ने मन मोह लिया। मैंने भी एक अलार्म घड़ी खरीदी।

हरियाणा का मंडप- हरियाणा का मंडप देखने के लिए मुझे काफी दूर जाना पड़ा। लेकिन उस दूरी का अनुभव भी मनमोहक था। ऐसा लगता था जैसे सारी दिल्ली सज-धजकर उधर आ… उमड़ी हो। कई मीलों में फैले प्रगति मैदान की सड़कें शाम ढल आने पर रंगीन हो उठी थीं। आश्चर्य यह कि कहीं कोई भगदड़ नहीं, शोर-शराबा नहीं, बल्कि ऐसी मंथर गति, जैसे संध्या के समय समुद्र मस्ती में लहरें ले रहा हो। मुझे बहुत अच्छा लगा।

वापसी- रात घिर आई थी। मैं वापसी के लिए द्वार पर चला। आगे देखा—हजारों लोग एक ऊँचे स्थान पर मजमा लगाए खड़े हैं पता चला कि कोई नाटक-कंपनी नाटक खेल रही है। वहीं बहुत लंबी पंक्ति देखी जिसमें फैशन-शो देखने के इच्छुक लोग टिकट लेने के लिए खड़े
थे। मन हटता ही न था। जैसे-तैसे बाहर पहुँचा तो मुड़कर फिर से व्यापार मेले की ओर देखा। रोशनी में जगमगाता हुआ मेला दुलहन की तरह सजकर खड़ा था।

समय का महत्त्व

समय और अवसर कभी नहीं ठहस्ते- समय रुकता नहीं है। जिसे उसका उपयोग उठाना है, उसे तैयार होकर उसके आने की अग्रिम प्रतीक्षा करनी चाहिए। जो समय के निकल जाने पर । उसके पीछे दौड़ते हैं, वे जिंदगी में सदा घिसटते-पिटते रहते हैं। समय सम्मान माँगता है। इसलिए कबीर ने कहा है-

काल करै सो आज कर, आज करै सो अब।
पल में परलय होयगा, बहुरि करेगा कब॥

समय का सदपयोग कैसे – समय के सदुपयोग का अर्थ है-उचित अवसर पर उचित कार्य पूरा कर लेना। जो लोग आज का काम कल पर और कल का काम परसों पर टालते रहते हैं, वे एक प्रकार से अपने लिए जंजाल खड़ा करते चले जाते हैं। मरण को टालते-टालते एक दिन सचमुच मरण आ ही जाता है। जो व्यक्ति उपयुक्त समय पर कार्य नहीं करता, वह समय को नष्ट करता है। एक दिन ऐसा आता है, जबकि समय उसको नष्ट कर देता है। जो छात्र पढ़ने के समय नहीं पढ़ते, वे परिणाम आने पर रोते हैं।

दुरुपयोग के परिणाम- समय का कोई विकल्प नहीं है। जो मनुष्य समय को नष्ट करता है, समय उसे नष्ट कर देता है। जो छात्र समय रहते परिश्रम नहीं करता, उसका एक वर्ष ही नष्ट नहीं होता, बल्कि जीवन में निराशा और उदासी भी घर कर जाती है। ठीक समय पर घायल का उपचार न किया जाए तो उसकी मृत्यु हो सकती है।

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समय का सदपयोग करने वालों के कछ उदाहरण सभी महान पुरुषों ने समय का सही उपयोग किया है। लता ने अपनी गायन-प्रतिभों को पहचाना और पूरा जीवन ही इस कला के नाम कर दिया। परिणामस्वरूप आज वह सर्वोच्च स्थान पर सुशोभित है। अब्दुल कलाम हों या सचिन, सानिया हो या सोनिया-सभी ने उचित समय का सदुपयोग करके ही सफलता पाई है।

सफलता समय की नामी है. वास्तव में सफलता समय की दासी है। जो जाति समय का सम्मान करना जानती है, वह अपनी शक्ति को कई गुना बढ़ा लेती है। यदि सभी गाड़ियाँ अपने निश्चित समय से चलने लगें तो देश में कितनी कार्यकुशलता बढ़ जाएगी। यदि कार्यालय के कार्य ठीक समय पर संपन्न हो जाएँ, कर्मचारी समय के पाबंद हों तो सब कार्य सुविधा से हो सकेंगे।
अतः हमें समय की गंभीरता को समझना चाहिए।

फैक लिन का कथन है- ‘तुम्हें अपने जीवन से प्रेम है, तो समय को व्यर्थ मत गँवाओ क्योंकि जीवन इसी से बना है।’ समय को नष्ट करना जीवन को नष्ट करना है। समय ही तो जीवन है। ईश्वर एक बार एक ही क्षण देता है और दूसरा क्षण देने से पहले उसको छीन लेता है।

यदि मैं प्रधानमंत्री होता

पिका यदि मैं भारत का प्रधानमंत्री बना दिया जाऊँ-यह कल्पना करते ही मेरे कंधों पर दायित्वों का भार आ जाता है। मेरी आँखों के सामने विशाल योजनाएँ आने लगती हैं। जिन प्रश्नों और समस्याओं के बारे में मैं कभी सोचता भी नहीं, वे भी मेरे सम्मुख प्रकट हो जाती हैं।

सुरक्ष- व्यवस्था-
प्रधानमंत्री बनते ही सबसे पहले मैं भारत की आंतरिक और बाहरी सुरक्षा के कड़े प्रबंध करूँगा। पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान की ओर से होने वाली घुसपैठ और आतंकवादी गतिविधियों को पूरी ईमानदारी और शक्ति से कुचल दूंगा। मैं जानता हूँ कि विदेशी आतंकवादियों का जाल पूरे भारत में फैल चुका है। भारत की संसद तक सुरक्षित नहीं है। मैं अपने निर्देशन में एक ऐसा खुफिया तंत्र विकसित करूंगा जिससे गुपचुप होने वाले षड्यंत्रों का ज्ञान होता रहे और समय रहते उन्हें कुचला जा सके। भाव प्रधानमंत्री बनते ही मैं जाति, धर्म, भाषा या प्रांत के नाम पर चल रहे भेदभाव को कम करने का भरसक प्रयत्न करूंगा। मंदिर-मसजिद या गिरजाघर को लड़ने नहीं दूंगा।

शिक्षा में परिवर्तन प्रधानमंत्री बनकर मैं शिक्षा-क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन करूंगा। मैं पूरे देश को साक्षर बनाने का प्रयत्न करूँगा। जो बच्चे मजबूरी के कारण विद्यालय नहीं जा पाते, उन्हें ऐसी सुविधाएँ दूंगा कि वे पढ़ सकें। मैं शिक्षा को रोजगार के साथ जोदूँगा। ऐसी व्यवस्था करूँगा कि छात्र पढ़ने के बाद आजीविका कमा सकें।

बेरोजगारी का समाधान मैं बेरोजगारी दूर करने के लिए उचित कदम उठाऊँगा। बेरोजगार नवयुवकों को निजी व्यवसाय खोलने के लिए प्रशिक्षण, ऋण, बाजार, मार्गदर्शन-सब उपलब्ध कराऊंगा।

आर्थिक विकास भारत आर्थिक दृष्टि से विकास के पथ पर अग्रसर है। मैं प्रयास करूंगा कि भारतीय उद्योगों को फलने-फूलने का भपूर अवसर मिले। भारतीय उद्यमी न केवल भारत में, अपितु विश्व-बाजार में अपने उत्पाद तथा सेवाएँ बेचें।।

वैज्ञानिक विकास भारत में विज्ञान के क्षेत्र में अपार संभावनाएं हैं। कंप्यूटर सॉफ्टवेयर में भारत ने अपनी शक्ति सिद्ध कर दी है। हमारे देश में योग्य इंजीनियरों, डॉक्टरों तथा तकनीशियनों का भंडार है। अभी तक भारतीय मेधा संसार-भर में सेवा कार्य करने में व्यस्त रही है। मैं चाहूँगा कि भारत वैज्ञानिक विकास के क्षेत्र में भी अग्रणी देश बने।

भष्टाचार का विनाश – भारत के आर्थिक विकास को भ्रष्टाचार की दीमकें खाए जा रही हैं। प्रधानमंत्री बनते ही मैं सख्ती से भ्रष्टाचार का उन्मूलन करूँगा। इसके लिए मैं पहले स्वयं ईमानदार बनूंगा। भ्रष्ट मंत्रियों को सरकार से निकाल दूंगा। परिणामस्वरूप सरकारी अफसरों को भी भ्रष्टाचार पर लगाम लगानी पड़ेगी।

विज्ञापन और हमारा जीवन /
रंग बिरंगी अद्भुत न्यारी, विज्ञापन की दुनिया प्यारी

विज्ञापन का उद्देश्य किसी भी वस्तु, व्यक्ति या विचार के प्रचार-प्रसार को विज्ञापन कहते हैं। विज्ञापन का उद्देश्य प्रचार-प्रसार करना होता है। जो विज्ञापन श्रोता, पाठक या उपभोक्ता के मन पर जितनी गहरी छाप छोड़ पाता है, वह उतना ही प्रभावी विज्ञापन कहलाता है।

विज्ञापनों के विविध प्रकार विज्ञापनों का संसार बहुत विस्तृत है। सर्वाधिक विज्ञापन वस्तुओं के होते हैं। साबुन, तेल, कपड़े, कंप्यूटर, टी.वी. आदि के विज्ञापन व्यापारिक विज्ञापन कहलाते हैं। सामाजिक-धार्मिक विज्ञापनों में सामाजिक कार्यक्रमों, महापुरुषों, यज्ञों, समारोहों, कवि-सम्मेलनों आदि के विज्ञापन आते हैं। शैक्षिक विज्ञापनों में पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, कोचिंग कक्षाओं, विद्यालयों आदि के विज्ञापन आते हैं। इनके अतिरिक्त सरकारी सूचनाओं, निर्देशों, नियुक्तियों, विवाह आदि के अनेक विज्ञापन होते हैं।

निर्णय को प्रभावित करने में विज्ञापनों की भमिका ये विज्ञापन पनघट की उस रस्सी के समान होते हैं जो कठोर-से-कठोर पत्थर पर भी निशान डाल देते हैं। हमारी सारी दिनचर्या विज्ञापनों से प्रभावित होती है। हम दुकान पर नमक माँगते हैं-~-टाटा का, पेस्ट माँगते हैं कोलगेट का, साबुन मांगते हैं लक्स का, शेविंग क्रीम मांगते हैं-पामोलिव की, सिरदर्द की गोली माँगते हैं-एनासिन या सैरोडिन। जरा पूछे क्यों ? क्योंकि हमारे रेडियो टी.वी., समाचार-पत्र दिन में बार-बार इन्हीं की रट लगाए रहते हैं। ये हमारे दिल-दिमाग पर इस तरह हावी हो जाते हैं कि हम दुकानदार से चाहे-अनचाहे इन्हीं की माँग कर बैठते हैं।

भ्रामक विज्ञापन और उन पर रोक विज्ञापनों का संसार बड़ा मायावी है। यहाँ कुरूप ओर भौंडे लोगों के भी अति सुंदर चित्र पेश किए जाते हैं। इनके द्वारा बेकार सामग्री को बहुत प्रभावशाली बनाकर प्रस्तुत किया जाता है। टी.वी. तो चित्रों, शब्दों और संवादों के माध्यम से बहुत बड़ा भ्रमजाल फैला देता है, मानो एक हफ्ते में कोई भी फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना सीख लेगा। एक महीने में गंजे के बाल उग आएँगे। दो महीने में कोई ठिग्गा ताड़ का पेड़ हो जाएगा आदि-आदि। ऐसे भ्रामक विज्ञापनों पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। सरकार को विज्ञापनों की सत्यता की जाँच अवश्य करानी चाहिए, वरन विज्ञापनदाताओं पर कठोर जुर्माना ठोकना चाहिए।

विज्ञापनों का सामाजिक दायित्व देखने में आता है कि अधिकतर विज्ञापन मसालेदार होते हैं। उनमें नंगेपन का, लड़कियों की शोख अदाओं का तथा आपत्तिजनक साधनों का दुरुपयोग किया जाता है। यहाँ तक कि बीड़ी के विज्ञापन पर भी लड़कियाँ छापी जाती हैं। विज्ञापनदाताओं को चाहिए कि वे अपने लोभ में समान को गड़े में न गिराएँ। वे सामाजिक मर्यादाओं का पूरा ख्याल रखें।

निष्कर्ष विज्ञापन द्रुत प्रचार-प्रसार के लिए सेना का काम करते हैं। इनका उपयोग है। इन्हें भलाई और लाभ के लिए खूब काम में लाना चाहिए, किंतु इनके अमर्यादित उपयोग पर रोक भी लगनी चाहिए।

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दैनिक जीवन में समाचार-पत्र का महत्त्व

समाचार-पत्र-एक सामाजिक कड़ी समाचार-पत्र वह कडी है जो हमें शेष दनिया से जोड़ती है। जब हम समाचार-पत्र में देश-विदेश की खबरें पढ़ते हैं तो हम पूरे विश्व के अंग बन जाते हैं।

लोकतंत्र का प्रहरी समाचार-पत्र लोकतंत्र का सच्चा पहरेदार है। उसी के माध्यम से लोग अपनी इच्छा, विरोध और आलोचना प्रकट करते हैं। नेपोलियन ने कहा था “में लाखों संगीनों की अपेक्षा तीन विरोधी समाचार-पत्रों से अधिक भयभीत रहता हूँ।” समाचार-पत्र जनमत तैयार करते हैं।

प्रचार का सशक्त माध्यम आज प्रचार का युग है। यदि आप अपने माल को, अपने विचार को, अपने कार्यक्रम को या अपनी रचना को देशव्यापी बनाना चाहते हैं तो समाचार-पत्र का सहारा लें। समाचार-पत्र के माध्यम से रातों-रात लोग नेता बन जाते हैं या चर्चित व्यक्ति बन जाते हैं। यदि किसी घटना को अखबार की मोटी सुर्खियों में स्थान मिल जाए तो वह घटना सारे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लेती है।

व्यापार को फैलाव समाचार-पत्र व्यापार को बढ़ाने में परम सहायक सिद्ध हुए हैं। विज्ञापन की सहायता से व्यापारियों का माल देश में ही नहीं विदेशों में भी बिकने लगता है। रोजगार पाने के लिए भी अखबार उत्तम साधन है। हर बेरोजगार का सहारा अखबार में निकले नौकरी के विज्ञापन होते हैं। व्यापारी नित्य के भाव देखने के लिए तथा शेयरों का मूल्य जानने के लिए अखबार का मुँह जोहते हैं।

ज्ञान-वृद्धि का साधन – जे. पार्टन का कहना है-‘समाचार-पत्र जनता के लिए विश्वविद्यालय हैं।’ उनसे हमें केवल देश-विदेश की गतिविधियों की जानकारी ही नहीं मिलती, अपितु महान विचारकों के विचार भी पढ़ने को मिलते हैं। उनसे विभिन्न त्योहारों और महापुरुषों का महत्त्व पता चलता है। महिलाओं को घर-गृहस्थी संभालने के नए-नए नुस्खे पता चलते हैं। प्रायः अखबार में ऐसे कई स्थायी स्तंभ होते हैं जो हमें विभिन्न जानकारियाँ देते हैं।

मनोरजन का साधन – आजकल अखबार मनोरंजन के क्षेत्र में भी आगे बढ़ चले हैं। उसमें नई-नई कहानियाँ, किस्से, कविताएँ तथा अन्य बालोपयोगी साहित्य छपता है। दरअसल, आजकल समाचार-पत्र बहुमुखी हो गया है। उसमें चलचित्र, खेलकूद, दूरदर्शन, भविष्य-कथन, मौसम आदि. की अनेक जानकारियाँ मिलती हैं।

जन-सुविधा- समाचार-पत्र के माध्यम से आप मनचाहे वर-वधू ढूँढ सकते हैं। अपना मकान, गाड़ी, वाहन खरीद-बेच सकते हैं। खोए हुए बंधु को बुला सकते हैं। अपना परीक्षा परिणाम जान सकते हैं। इस प्रकार समाचार-पत्रों का महत्त्व बहुत अधिक हो गया है।

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परिश्रम का महत्त्व

संसार में आज जो भी ज्ञान-विज्ञान की उन्नति और विकास है, उसका कारण है परिश्रम- सृष्टि के आरंभ से लेकर आज तक मनुष्य ने जो भी विकास किया है, वह सब परिश्रम की ही देन है। जब मानव जंगली अवस्था में था, तब वह घोर परिश्रमी था। उसे खाने-पीने, सोने, पहनने आदि के लिए जी-तोड़ मेहनत कस्नी पड़ती थी। आज, जबकि युग बहुत विकसित हो चुका है, परिश्रम की महिमा कम नहीं हुई है। बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण देखिए, अनेक मंजिले भवन देखिए, खदानों की खुदाई, पहाड़ों की कटाई, समुद्र की गोताखोरी या आकाश-मंडल की यात्रा . का अध्ययन कीजिए। सब जगह मानव के परिश्रम की गाथा सुनाई पड़ेगी।

परिश्रम करने में बुद्धि और विवेक आवश्यक केवल शारीरिक परिश्रम ही परिश्रम नहीं है। जिस क्रिया में कुछ काम करना पड़े, जोर लगाना पड़े, तनाव मोल लेना पड़े, वह मेहनत कहलाती है। महात्मा गाँधी दिन-भर सलाह-मशविरे में लगे रहते थे, परंतु वे घोर परिश्रमी थे। तात्पर्य यह है कि बुद्धि और विवेक द्वारा किया गया परिश्रम भी परिश्रम कहलाता है। ऐसा परिश्रम अधिक मूल्यवान होता है। शारीरिक आलस्य थोड़ी-सी हानि करता है किंतु बौद्धिक या मानसिक । आलस्य नई-नई योजनाओं पर ही पानी फेर देता है।

परिश्रम से मिलने वाले लाभ-पुरुषार्थ का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे सफलता मिलती है। परिश्रम ही सफलता की ओर जाने वाली सड़क है। परिश्रम से आत्मविश्वास पैदा होता . है। मेहनती आदमी को व्यर्थ में किसी की जी-हजूरी नहीं करनी पड़ती, बल्कि लोग उसकी जी-हजूरी करते हैं। तीसरे, मेहनती व्यक्ति का स्वास्थ्य सदा ठीक रहता है। चौथे, मेहनत करने से गहरा आनंद मिलता है। उससे मन में यह शांति होती है कि मैं निठल्ला नहीं बैठा। किसी विद्वान का कथन है जब तुम्हारे जीवन में घोर आपत्ति और दुख आ जाएँ तो व्याकुल और निराश मत बनो; अपितु तुरंत काम में जुट जाओ। स्वयं को कार्य में तल्लीन कर दो तो तुम्हें वास्तविक शांति और नवीन प्रकाश की प्राप्ति होगी।

उपसंहार- राबर्ट कोलियार कहते हैं ‘मनुष्य की सर्वोत्तम मित्र उसकी दस अँगुलियाँ हैं।’ अतः हमें जीवन का एक-एक क्षण परिश्रम करने में बिताना चाहिए। श्रम मानव-जीवन का सच्चा सौंदर्य है।