Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण

Bihar Board Class 11 Biology शरीर द्रव तथा परिसंचरण Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
रक्त के संगठित पदार्थों के अवयवों का वर्णन करें तथा प्रत्येक अवयव के एक प्रमुख कार्य के बारे में लिखें।
उत्तर:
इसके अन्तर्गत रुधिर (blood) तथा लसीका (lymph) आते हैं। इसका तरल मैट्रिक्स प्लाज्मा (plasma) कहलाता है। प्लाज्मा में तन्तुओं का अभाव होता है। प्लाज्मा में पाई जाने वाली कोशिकाओं को रुधिराणु (corpuscles) कहते हैं। तरल ऊतक सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर वाहिनियों (vessels) और केशिकाओं (capillaries) में बहता रहता है। कोशिकाएँ या रुधिराणु स्वयं प्लाज्मा का स्राव नहीं करती हैं।

रुधिर (Blood):
रुधिर जल से थोड़ा अधिक श्यान (viscous), हल्का क्षारीय (pH 7.3 से 7.4 के बीच) तथा स्वाद में थोड़ा नमकीन होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में रक्त शरीर के कुल भार का 7% से 8% होता है। रुधिर की औसत मात्रा 5 लीटर होती है। रुधिर के दो मुख्य घटक (components) होते है –

  1. प्लाज्मा (Plasma)
  2. रुधिर कोशिकाएँ (Blood Corpuscles)

1. प्लाज्मा (Plasma):
यह हल्के पीले रंग का, हल्का क्षारीय एवं निर्जीव तरल है। यह रुधिर का लगभग 55% भाग बनाता है। प्लाज्मा में 90% जल होता है। 8 से 9% कार्बनिक पदार्थ होते हैं तथा लगभग 1% अकार्बनिक पदार्थ होते हैं।

(क) कार्बनिक पदार्थ (Organic Substances):
रक्त प्लाज्मा में लगभग 7% प्रोटीन होती है। प्रोटीन्स मुख्यत: Trafita (albumin), migfra (globulin), utentiam (prothrombin) तथा फाइब्रिनोजन (fibrinogen) होती है। इनके अतिरिक्त हॉर्मोन्स, विटामिन्स, श्वसन गैसें, हिपैरिन (heparin), यूरिया अमोनिया, ग्लूकोस, ऐमीनो अम्ल, वसा अम्ल, ग्लिसरॉल प्रतिरक्षी (antibodies) आदि होते हैं। प्लाज्मा प्रोटीन रुधिर का परासरणी दाब (osmotic pressure) बनाए रखने में सहायक है। कुछ प्रोटीन्स प्रतिरक्षी की भाँति कार्य करती है। प्रोथ्रोम्बिन तथा फाइब्रिनोजन रुधिर स्कन्दन (blood clotting) में सहायता करते हैं। हिपैरिन प्रतिस्कंदक (anticoagulant) है।

(ख) अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Substances):
अकार्बनिक पदार्थों में सोडियम, कैल्सियम, ,मैग्नीशियम तथा पोटैशियम के फॉस्फेट, बाइकार्बोनेट, सल्फेट तथा क्लोराइड्स आदि पाए जाते हैं।

2. रुधिर कणिकाएँ या रुधिराणु (Blood Cells or Blood Corpuscles):
ये रुधिर का 45% भाग बनाते हैं। रुधिराणु तीन प्रकार के होते हैं। इनमें लगभग 99% लाल रुधिराणु हैं। शेष श्वेत रुधिराणु तथा रुधिर प्लेटलेट्स होते हैं।

(क) लाल रुधिराणु (Red Blood Corpuscles or Erythrocytes):
मेंढक के रक्त में इनकी संख्या 4.5 लाख से 5.5 लाख प्रति घन मिनी होती है। मनुष्य में इनकी संख्या 54 लाख प्रति घन मिमी होती है। स्तनियों के रुधिराणु केन्द्रकरहित, गोल तथा उभयावतल (biconcave) होते हैं।

इनमें लौहयुक्त यौगिक हीमोग्लोबिन पाया जाता है। ये ऑक्सीजन परिवहन का कार्य करते हैं। अन्य कशेरुकियों में लाल रुधिराणु अण्डाकार तथा केन्द्रकयुक्त होते हैं। लाल रुधिराणु ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) का कार्य करते हैं। इसका हीमोग्लोबिन (haemoglobin) ऑक्सीजन को ऑक्सीहीमोग्लोबिन (oxyhaemoglobin) के रूप में ऊतकों तक पहुँचाता है।

(ख) श्वेत रुधिराणु या ल्यूकोसाइट्स (leucocytes) इनकी संख्या 6000-8000 प्रतिघन मिमी होती है। ये केन्द्रकयुक्त, अमीबा के आकार की तथा रंगहीन होती है। श्वेत रुधिराणु मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं –

  • कणिकामय (Granulocytes)
  • कणिकारहित (Agranulocytes)

1. कणिकामय (Granulocytes):
केन्द्रक की संरचना के आधार पर ये तीन प्रकार की होती हैं –

(अ) बेसोफिल्स (Basophils):
इनका केन्द्रक बड़ा तथा 2.3 पालियों में बँटा दिखाई देता है।

(ब) इओसिनोफिल्स (Eosinophils):
इनका केन्द्रक दो स्पष्ट पिण्डों से बँटा होता है। दोनों भाग परस्पर तन्तु से जुड़े होते हैं। ये एलर्जी (allergy), प्रतिरक्षण (immunity) एवं अति संवेदनशीलता में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।

(स) न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils):
इनका केन्द्रक 2 से 5 भागों में बँटा होता है। ये सूत्र द्वारा परस्पर जुड़े रहते हैं। ये भक्षकाणु (phagocytosis) द्वारा रोगाणुओं का भक्षण करते हैं।

2. एग्रैन्यूलोसाइट्स (Agranulocytes):
इनका कोशिकाद्रव्य कणिकारहित होता है। इनका केन्द्रक अपेक्षाकृत बड़ा व घोड़े की नाल के आकार का (horse – shoe shaped) होता है। ये दो प्रकार की होती हैं –

(अ) लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes):
ये छोटे आकार के श्वेत रुधिराणु हैं। इनका कार्य प्रतिरक्षी (antibodies) का निर्माण करके शरीर की सुरक्षा करना है।

(ब) मोनोसाइट्स (Monocytes):
ये बड़े आकार की कोशिकाएं हैं, जो भक्षकाणु क्रिया (phagocytosis) द्वारा शरीर की सुरक्षा करती हैं।
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चित्र – मनुष्य की रुधिर कोशिकाएँ

कार्य (Functions):
श्वेत रुधिराणु रोगाणुओं एवं हानिकारक पदार्थों से शरीर की सुरक्षा करते हैं।

(ग) रुधिर बिम्बाणु या रुधिर प्लेटलेट्स (Blood Platelets or Thrombocytes):
इनकी संख्या 2 लाख से 5 लाखं प्रति घन मिमी होती है। ये उभयोत्तल (biconvex), तश्तरीनुमा होते हैं। ये रुधिर स्कंदन में सहायक होते हैं। स्तनधारियों के अतिरिक्त अन्य कशेरुकियों में रुधिर प्लेटलेट्स के स्थान पर स्पिंडल कोशिकाएँ (spindle cells) पाई जाती हैं। इनमें केन्द्रक पाया जाता है।

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प्रश्न 2.
प्लाज्मा (प्लैज्मा) प्रोटीन का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
रक्त प्लाज्मा में घुलनशील, सरल, गोलाकार प्रोटीन्स पाई जाती है। इनका महत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. ये रक्त के परासरणी दाब को बनाये रखती हैं।
  2. प्रतिरक्षी प्रोटीन्स (ग्लोबुलिन्स प्रतिरक्षी) शरीर को संक्रमण बचाती हैं।
  3. फाइब्रिनोजन प्रोटीन्स तथा प्रोथ्रोम्बिन प्रोटीन्स रक्त का थक्का बनाने में सहायक होती हैं।
  4. कुछ प्रोटीन्स एन्जाइम्स की तरह कार्य करती हैं।
  5. अनेक प्रोटीन्स रक्त के pH मान को बनाए रखती हैं।

प्रश्न 3.
स्तम्भ I का स्तम्भ II से मिलान कीजिए –
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उत्तर:
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प्रश्न 4.
रक्त को एक संयोजी ऊतक क्यों मानते हैं?
उत्तर:
रक्तः संयोजी ऊतक (Blood : Connective Tissue):
रक्त तथा लसीका तरल संयोजी ऊतक कहलाते हैं। इसका पूरे शरीर में परिसंचरण होता रहता है। इसे निम्नलिखित कारणों से तरल संयोजी ऊतक माना जाता है –

  1. इनमें आधारभूत पदार्थ मैट्रिक्स तरल प्लाज्मा होता है।
  2. प्लाज्मा में तन्तु नहीं पाए जाते।
  3. प्लाज्मा में रुधिराणु पाए जाते हैं।
  4. रुधिराणु प्लाज्मा का स्रावण नहीं करते।

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प्रश्न 5.
लसिका एवं रुधिर में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
रक्त तथा लसिका में अन्तर:
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प्रश्न 6.
दोहरे परिसंचरण से क्या तात्पर्य है? इसकी क्या महत्ता है?
उत्तर:
पक्षी और स्तनियों में शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त-पृथक् रहता है। हृदय का बांया भाग पल्मोनरी हृदय तथा दायां भाग सिस्टेमिक हृदय कहलाता है। इनमें क्रमशः शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त प्रवाहित होता है। शरीर के किसी भाग से रक्त को पुनः उसी भाग में पहुँचने के लिए दो बार हृदय से होकर गुजरना होता है।

इस प्रकार का परिसंचरण दोहरा रक्त परिसंचरण कहलाता शुद्ध और अशुद्ध रक्त के पृथक् रहने से इसका परिसंचरण अधिक प्रभावशाली रहता है और O2 वितरण प्रभावी होता है। इस प्रकार दोहरे परिसंरण में कहीं भी शुद्ध व अशुद्ध रुधिर का मिश्रण न होने के कारण परिसंचरण अधिक प्रभावशाली (efficient) रहता है। इसके अतिरिक्त दो अलग-अलग बन्द कक्ष के कारण रुधिर प्रवाह के लिए अधिक दाब उत्पन्न होता है।

प्रश्न 7.
भेद स्पष्ट कीजिए –
(क) रक्त एवं लसीका
(ब) खुला तथा बन्द परिसंचरण तन्त्र
(ग) प्रकुंचन तथा अनुशिथिलन
(घ) P तरंग तथा T तरंग।
उत्तर:
(क) प्रश्न संख्या 5 का उत्तर देखिए।
(ख) खुले रक्त परिसंचरण तथा बन्द रक्त परिसंचरण में अन्तर:
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(ग) प्रकुंचन तथा अनुशिथिलन में भेद (Difference between Systole and Diastole):
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(घ) P तरंग तथा T तरंग में भेद (Difference between P-wave and T-wave):
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प्रश्न 8.
कशेरुकी के हृदयों में विकासीय परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर:
कशेरुकी प्राणियों में हृदय का निर्माण भ्रूण के मध्य स्तर (mesoderm) से होता है। भ्रूण अवस्था में आद्यान्त्र (archenteron) के नीचे आधारीय आन्त्र योजनी (mesentry) में दो अनुदैर्ध्य अन्तःस्तरी नलिकाएँ (endothelia canals) परस्पर मिलकर हृदय का निर्माण करती हैं। हृदय एक पेशीय थैलीनुमा रचना होती है। यह शरीर से रक्त एकत्र करके धमनियों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पम्प करता है। कशेरुकी प्राणियों में हृदय निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

(क) एककोष्ठीय हृदय (Single chambered Heart):
सरलतम हृदय सिफैलोकॉर्डेटा (cephalochordates) जन्तुओं में पाया जाता है। ग्रसनी के नीचे स्थित अधरीय एऑर्टा पेशीय होकर रक्त को पम्प करने का कार्य करता है। इसे एककोष्ठीय हृदय मानते हैं।

(ख) द्विकोष्ठीय हृदय (Two chambered Heart):
मछलियों में द्विकोष्ठीय हृदय होता है। यह अनॉक्सीजनित रक्त को गिल्स (gills) में पम्प कर देता है। गिल्स ने यह रक्त ऑक्सीजनित होकर शरीर में वितरित हो जाता है। इसमें धमनीकाण्ड एवं शिराकोटर सहायक कोष्ठ तथा अलिन्द एवं निलय वास्तविक कोष्ठ होते हैं, इस प्रकार के हृदय को शिरीय हृदय (venous heart) कहते हैं।
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चित्र – कशेरुकियों में हृदय का विकास

(ग) तीन कोष्ठीय हृदय (Three chambered Heart):
उभयचर (amphibians) में तीन कोष्ठीय हृदय पाया जाता है। इसमें दो अलिन्द तथा एक निलय होता है। शिराकोटर (sinus venosus) दाहिने अलिन्द के पृष्ठ तल पर खुलता है। बाएँ अलिन्द में शुद्ध तथा दाहिने अलिन्द में अशुद्ध रक्त रहता है। निलय पेशीय होता है। वान्डरवॉल तथा फॉक्सन के अनुसार उभयचरों में मिश्रित रक्त वितरित होता है। इसमें रुधिर संचरण एक परिपथ (single circuit) वाला होता है।

(घ) चारकोष्ठीय हृदय (Four chambered Heart):
अधिकांश सरीसृपों में दो अलिन्द तथा दो अपूर्ण रूप से विभाजित निलय पाए जाते हैं। मगरमच्छ के हृदय में दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। पक्षी तथा स्तनी जन्तुओं में दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। बाएँ अलिन्द तथा बाएँ निलय में शुद्ध रक्त भरा होता है।

इसे दैहिक चाप द्वारा शरीर में पम्प कर दिया जाता है। दाएँ अलिन्द में शरीर के विभिन्न भागों से अशुद्ध रक्त एकत्र होता है। यह दाएँ निलय से शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में भेज दिया जाता है। इस प्रकार हृदय का बायाँ भाग पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) तथा दायाँ भाग सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) कहलाता है। इन प्राणियों में दोहरा परिसंचरण होता है। इसमें रक्त के मिश्रित होने की सम्भावना नहीं होती।

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प्रश्न 9.
हम अपने हृदय को पेशीजनक (मायोजेनिक) क्यों कहते हैं?
उत्तर:
हृदय की भित्ति हद पेशियों (cardiac muscles) से बनी होती है। हृद पेशियाँ रचना में रेखित पेशियों के समान होती है, लेकिन कार्य में अरेखित पेशियों के समान अनैच्छिक होती है। हृदय पेशियाँ मनुष्य की इच्छा से स्वतन्त्र, स्वयं बिना थके, बिना रुके, एक निश्चित दर (मनुष्य में 72 बार प्रति मिनट) और एक निश्चित लय (rhythm) से जीवनभर संकुचित और शिथिल होती रहती है। प्रत्येक हृदय स्पन्दन में संकुचन की प्रेरणा, प्रेरणा-संवहनीय पेशी के तन्तुओं ‘S-A node’ से प्रारम्भ होती है।

S-A node से संकुचन प्रेरणा स्व:उत्प्रेरण द्वारा उत्पन्न होकर A-V node तथा हिस के समूह (bundle of His) से होकर पुरकिन्जे तन्तुओं द्वारा अलिन्दं और निलयों में फैलती है। हृदय पेशियों में संकुचन के लिए तन्त्रिकीय प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। पेशियों में संकुचन पेशियों के कारण होते हैं अर्थात् संकुचन पेशीजनक (Myogenic) होते हैं। यदि हृदय में जाने वाली तन्त्रिकाओं को काट दें तो भी हृदय अपनी निश्चित दर से धड़कता रहता है। तन्त्रिकीय प्रेरणाएँ हृदय की गति की दर को प्रभावित करती हैं। हृदय पेशियों के तन्तुओं में उर्जा उत्पादन हेतु प्रचुर मात्रा में माइटोकॉन्ड्रिया पाए जाते हैं।

प्रश्न 10.
शिरा अलिन्द पर्व (कोटरालिन्द गाँठ SAN) को हृदय का गति प्रेरक (पेस मेकर) क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
शिरा अलिन्द पर्व (कोटरालिन्द गाँठ SAN):
दाएँ अलिन्द की भित्ति के अग्र महाशिरा छिद्र के समीप शिरा अलिन्द घुण्डी (Sino Atrial Node, SAN) स्थित होती है। इसे गति प्रेरक (pace maker) भी कहते हैं। इससे स्पंदन संकुचन प्रेरणा स्वत: उत्पन्न होती है।

इसके तन्तुओं में 55 से 60 मिलीवोल्ट का विश्राम विभव (resting potential) होता है, जबकि हृदय पेशियों में यह 85 से 95 मिली वोल्ट और हृदय में फैले विशिष्ट चालक तन्तुओं में -90 से -100 मिलीवोल्ट होता है। शिरा अलिन्द पर्व (SAN) से सोडियम आयनों के लीक होने से हृदय स्पंदन प्रारम्भ होता है। शिरा अलिन्द पर्व की लयबद्ध उत्तेजना प्रित मिनट 72 स्पंदनों की एक सामान्य विराम दर पर जीवन पर्यन्त चलती रहती है।

प्रश्न 11.
अलिन्द निलय गाँठ (AVN) तथा अलिन्द निलय बण्डल (AVB) का हृदय के कार्य में क्या महत्त्व है?
उत्तर:
अलिन्द निलय गाँठ (Auriculo ventricular Node):
शिरा अलिन्द पर्व के तन्तु अन्त में अपने चारों ओर के अलिन्द पेशी तन्तुओं के साथ मिलकर शिरा अलिन्द पर्व तथा अलिन्द निलय गाँठ (VAN) के बीच एक अन्तरापर्वीय पथ का निर्माण करते हैं।

अलिन्द निलय गाँठ अन्तराअलिन्द पट के दाहिने भाग में हृद कोटर (कोरोनरी साइनस) के छिद्र के निकट होती है। अलिन्द निलय गाँठ के पेशीय तन्तु अलिन्द निलय बण्डल (bundle of His or Atrio Ventricular Bundle, AVB) से मिलकर निलय में दाएँ-बाएँ बँट जाते हैं।

इनसे पुरकिन्जे तन्तुओं (Purkinje fibres) का निर्माण होता है। शिरा अलिन्द पर्व (SAN) में उत्पन्न संकुचन एवं शिथिलन के उद्दीपन अलिन्द निलय गाँठ (AVN) तथा अलिन्द निलय बण्डल (AVB) या हिस का बण्डल (Bundle of His) से होते हुए निलय में स्थित पुरकिन्जे तन्तुओं में पहुंचते हैं। इसके फलस्वरूप हृदय के अलिन्द तथा निलय में क्रमशः संकुचन एवं शिथिलन होता रहता है। हृदय शरीर के विभिन्न भागों से रक्त को एकत्र करके पुनः पम्प करता रहता है।

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प्रश्न 12.
हृद चक्र तथा हृद निकास को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
हृद चक्र (Cardiac Cycle):
एक हृदय स्पन्दन के आरम्भ से दूसरे स्पन्दन के आरम्भ होने के बीच के घटनाक्रम को हृद चक्र (cardiac cycle) कहते हैं। इस क्रिया में दोनों अलिन्दों तथा दोनों निलयों का प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन सम्मिलित होता है। हृदय स्पन्दन एक मिनट में 72 बार होता है। अतः एक हृदय चक्र का समय 0.8 सेकण्ड होता है।

हृद निकास (Cardiac Output):
हृदय प्रत्येक हृद चक्र में लगभग 70 मिली रक्त पम्प करता है, इसे प्रवाह आयतन (stroke volume) कहते हैं। प्रवाह आयतन को हृदय दर से गुणा करने पर जो मात्रा आती है, उसे हृद निकास (cardiac output) कहते हैं।

हृद निकास = हृदय दर × प्रवाह आयतन
अतः हृद निकास प्रत्येक निलय द्वारा रक्त की मात्रा को प्रति मिनट बाहर निकालने की क्षमता है जो स्वस्थ मनुष्य में लगभग 5 लीटर होती है। खिलाड़ियों का हृद निकास सामान्य मनुष्य से अधिक होता है।

प्रश्न 13.
हृदय ध्वनियों की व्याख्या करें।
उत्तर:
हृदय की ध्वनियाँ (Heart Sounds):
दाएँ एवं बाएँ निलयों में आकुंचन एकसाथ होता है, इसके फलस्वरूप त्रिवलनी (tricuspid) तथा द्विवलनी (bicuspid) कपाट एक तीव्र ध्वनि ‘लब’ (lubb) के साथ बन्द होते हैं। निलयों में आकुंचन दबाव के कारण रक्त दोनों धमनी चापों में पम्प हो जाता है।

आकुंचन के समाप्त हो जाने पर ज्यों ही रक्त धमनी चापों से निलय की ओर गिरता है तो धमनी चापों के आधार पर स्थित अर्द्धचन्द्राकार कपाट अपेक्षाकृत हल्की ध्वनि ‘डप’ (dup) के साथ बन्द हो जाते हैं। हृदय की इन्हीं ध्वनि “लब’ एवं ‘डप’ को स्टेथोस्कोप (stethoscope) से सुनकर हृदय सम्बन्धी रोगों का निदान किया जाता है।

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प्रश्न 14.
एक मानक ईसीजी को दर्शाइए तथा उसके विभिन्न खण्डों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विद्युत हृद लेखन (Electrocardiography):
विद्युत हृद लेख (ECG) एक तरंगित आलेख होता है, इसमें एक सीधी रेखा से तीन स्थानों पर तरंगे उठी दिखाई देती है – P लहर, QRS सम्मिश्र (QRS Complex) तथा T तरंग (T – wave)। P तरंग ऊपर की ओर उठी एक छोटी-सी लहर होती है। 0.1 सेकण्ड के आलिन्दीय संकुचन (atrial systole) को दर्शाती है। इसके समाप्त होने के लगभग 0.1 सेकण्ड बाद QRS सम्मिश्र की लहर प्रारम्भ होती है।

ये तीन तरंगे होती हैं – नीचे की ओर Q तरंग, इससे उठी बड़ी R तरंग तथा इससे जुड़ी नीचे की ओर छोटी तरंग। QRS सम्मिश्र निलयी संकुचन के 0.3 सेकण्ड का सूचक होता है। फिर निलयी संकुचन की अन्तिम अवस्था प्रावस्था और इनके क्रमिक प्रसारण के प्रारम्भ की सूचक T तरंग होती है। ECG में प्रदर्शित तरंगों तथा उनके मध्यावकाशों के तरीके का अध्ययन करके हृदय की दशा का ज्ञान होता है।

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चित्र – कार्डियक चक्र – (A) सामान्य ह्रदय स्पन्दन (B) एवं (C) थ्रोम्बोसिस अवस्था का प्रदर्शन

इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (ECG) प्राप्त करने के लिए, हृदय के समीपवर्ती क्षेत्र में विशिष्ट स्थानों पर इलेक्ट्रोड्स लगा दिए जाएँ तो हृदय संकुचन के समय जो विद्युत विभव शिरा अलिन्द गाँठ (S – A node) से उत्पन्न होकर विशिष्ट संवाही पेशी तन्तुओं (special conducting muscular fiber) से गुजर कर हृदय के मध्य सतर की पेशियों के संकुचन को प्रेरित करता है, इसे नापा जा सकता है। इसे नापने के लिए जिस यन्त्र का प्रयोग किया जाता है, उसे विद्युत हृद लेखी (electro cardiograph) कहते हैं।