Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

Bihar Board Class 11 Philosophy अवलोकन एवं प्रयोग Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
आगमन का वास्तविक आधार है –
(क) प्रयोग
(ख) निरीक्षण
(ग) दोनों
(घ) कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

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प्रश्न 2.
निरीक्षण तथा प्रयोग को आगमन के वास्तविक आधार के रूप में किसने स्वीकार किया है?
(क) मिल ने
(ख) बेन ने
(ग) कार्बेथ रीड ने
(घ) जेवन्स ने
उत्तर:
(ख) बेन ने

प्रश्न 3.
निरीक्षण है –
(क) किसी प्रकार देखना
(ख) प्राकृतिक घटनाओं का उद्देश्यपूर्ण पर्यवेक्षण
(ग) तथ्यों का पर्यवेक्षण
(घ) उपर्युक्त में कोई नहीं
उत्तर:
(ख) प्राकृतिक घटनाओं का उद्देश्यपूर्ण पर्यवेक्षण

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प्रश्न 4.
प्रयोग है –
(क) प्राकृतिक घटनाओं का निरीक्षण
(ख) मनुष्य द्वारा निर्मित कृत्रिम घटनाओं का निरीक्षण
(ग) (क) तथा (ख) दोनों
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ख) मनुष्य द्वारा निर्मित कृत्रिम घटनाओं का निरीक्षण

प्रश्न 5.
प्रयोग से प्राप्त निष्कर्ष होते हैं –
(क) संभाव्य
(ख) अनिश्चित
(ग) निश्चित
(घ) संदिग्ध
उत्तर:
(ग) निश्चित

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प्रश्न 6.
“निरीक्षण में हम तथ्य को पाते हैं तथा प्रयोग में उसको बनाते हैं।” यह कथन है –
(क) बेन का
(ख) बेकन का
(ग) मिल का
(घ) फाउलर का
उत्तर:
(क) बेन का

प्रश्न 7.
निरीक्षण की शर्त नहीं है –
(क) मानसिक
(ख) शारीरिक
(ग) नैतिक
(घ) आध्यात्मिक
उत्तर:
(घ) आध्यात्मिक

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प्रश्न 8.
निरीक्षण की भूलें (Fallacies) होती है –
(क) अनिरीक्षण की
(ख) मिथ्या निरीक्षण की
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

प्रश्न 9.
प्रयोग निरीक्षण से –
(क) अधिक महत्त्वपूर्ण है
(ख) कम महत्त्वपूर्ण है
(ग) दोनों बराबर महत्त्वपूर्ण है
(घ) अनुपयोगी
उत्तर:
(क) अधिक महत्त्वपूर्ण है

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प्रश्न 10.
निरीक्षण है आगमन का –
(क) आकारिका आधार (Formal ground)
(ख) वास्तविक आधार (Material ground)
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) वास्तविक आधार (Material ground)

प्रश्न 11.
किसने कहा था कि आगमन में कल्पना का स्थान प्रमुख नहीं बल्कि गौण है?
(क) जे. एस. मिल
(ख) हेवेल
(ग) पियर्सन
(घ) डेकार्ड
उत्तर:
(क) जे. एस. मिल

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प्रश्न 12.
निरीक्षण में पाया जाता है –
(क) कारण से कार्य की ओर
(ख) कार्य से कारण की ओर
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

प्रश्न 13.
इन्द्रियाँ निरीक्षण का एक –
(क) साधन है
(ख) असाधन है
(ग) शारीरिक शर्त है
(घ) (क) एवं (ग) दोनों
उत्तर:
(ग) शारीरिक शर्त है

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प्रश्न 14.
निरीक्षण के दोष (Fallacy of observation) है –
(क) गलत निरीक्षण (Mal observation) की भूल
(ख) नहीं निरीक्षण (Non-observation) की भूल
(ग) (क) एवं (ख) दोनों का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) (क) एवं (ख) दोनों का

प्रश्न 15.
सही कथन को चुनें –
(क) गलत निरीक्षण की भूल भावनात्मक दोष है
(ख) नहीं-निरीक्षण की भूल निषेधात्मक है
(ग) गलत निरीक्षण इन्द्रीय दोष का कारण है, जबकि नहीं निरीक्षण पक्षपातपूर्ण होने का कारण है
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी

Bihar Board Class 11 Philosophy अवलोकन एवं प्रयोग Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
निरीक्षण के दोष (Fallacy of observation) कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
निरीक्षण के दोष दो प्रकार के होते हैं। वे हैं-गलत निरीक्षण की भूल एवं नहीं निरीक्षण की भूल।

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प्रश्न 2.
निरीक्षण की मानसिक शर्त से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
निरीक्षण के लिए मानसिक या बौद्धिक लक्ष्य का होना नितांत आवश्यक है। किसी वस्तु या घटना को जानने की इच्छा से ही वह उसका निरीक्षण करना चाहता है। जानने की इच्छा से मानसिक शर्त का निर्माण होता है।

प्रश्न 3.
प्रयोग (Experiment) क्या है? अथवा, प्रयोग की परिभाषा दें।
उत्तर:
मानव-निर्मित परिस्थितियों में कृत्रिम घटनाओं का निरीक्षण है। फाउलर के अनुसार प्रयोग में हम घटना पर निर्भर नहीं करते हैं। बल्कि घटना हम पर निर्भर करती है तथा हम उसका निर्माण करते हैं। जिस प्रकार की हम घटना चाहें, उपस्थित कर सकते हैं।

प्रश्न 4.
नहीं-निरीक्षण (Non-Observation) की भूल से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नहीं-निरीक्षण की भूल में जिस वस्तु को देखना चाहिए उसे नहीं देखते हैं। जिसे देखना चाहिए उसे नहीं देखना ही नहीं-निरीक्षण की भूल है। यह दोषकर्ता की असावधानी या पक्षपातपूर्ण होने से होता है।

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प्रश्न 5.
गलत निरीक्षण की भूल एवं नहीं-निरीक्षण की भूल में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर:
गलत-निरीक्षण की भूल में भावात्मक दोष है जबकि नहीं निरीक्षण की भूल में निषेधात्मक दोष है। गलत-निरीक्षण इंद्रिय-दोष के कारण होता है जबकि नहीं-निरीक्षण पक्षपात पूर्ण होने के कारण होता है।

प्रश्न 6.
निरीक्षण की शारीरिक शर्त से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
निरीक्षण की शारीरिक शर्त का अभिप्राय है कि इंद्रियाँ निरीक्षण के साधन हैं। अतः निरीक्षण के लिए स्वस्थ शरीर का होना अनिवार्य है क्योंकि शरीर के अस्वस्थ रहने पर निरीक्षण दोषपूर्ण हो जाएगा।

प्रश्न 7.
गलत निरीक्षण (Mal-Observation) की भूल क्या है?
उत्तर:
निरीक्षण में जो वस्तु दी गयी होती है उसे उसके यथार्थ तथा वास्तविक रूप में न देखकर किसी अन्य रूप में देखना ही गलत निरीक्षण की भूल कहलाती है। जैसे-मृगतृष्णा गलत निरीक्षण की भूल है।

प्रश्न 8.
निरीक्षण की परिभाषा दें। अथवा, निरीक्षण क्या है?
उत्तर:
प्राकृतिक परिस्थितियों के बीच प्राकृतिक घटनाओं के उद्देश्यपूर्ण प्रत्यक्षीकरण को ही निरीक्षण कहते हैं। प्रो. बी. एन. राय के अनुसार निरीक्षण नियमित प्रत्यक्षीकरण है।

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प्रश्न 9.
निरीक्षण एवं प्रयोग में मुख्य अंतर क्या है?
उत्तर:
निरीक्षण प्राकृतिक है जबकि प्रयोग कृत्रिम है। निरीक्षण को निष्क्रिय कहा गया है जबकि प्रयोग को सक्रिय कहा गया है। निरीक्षण में परिस्थितियों पर हमारा नियंत्रण नहीं होता है जबकि यहाँ परिस्थितियों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण होता है।

प्रश्न 10.
प्रयोग आगमन का कौन-सा आधार है?
उत्तर:
निरीक्षण की तरह ही प्रयोग आगमन का वास्तविक आधार (Material ground of Induction) है।

प्रश्न 11.
आगमन के वास्तविक आधार किसे कहते हैं?
उत्तर:
निरीक्षण एवं प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या प्रयोग में यंत्रों का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर:
किसी भी तरह के प्रयोग में प्रयोगकर्ता यंत्रों का प्रयोग करता ही है। इसमें इच्छानुसार हेर-फेर करता है। मनचाहे परिवर्तन भी करता है। इन सभी परिवर्तनों के बाद वह घटना का निरीक्षण करता है। परन्तु, निरीक्षण में प्रयोगकर्ता यंत्र का प्रयोग तो करता ही है, किन्तु उसमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं करता है। परिवर्तन तो मात्र प्रयोग ही में संभव है। चूंकि प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का ही होता है। प्रयोगकर्ता उस घटना को स्वयं बनाकर उसकी जाँच करता है। अतः, निष्कर्ष है कि प्रयोग में यंत्रों का प्रयोग प्रयोगकर्ता करता है।

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प्रश्न 2.
स्थायी कारण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
कारण मुख्यतः दो प्रकार के हैं –

(क) स्थायी कारण और
(ख) अस्थायी कारण

इसमें स्थायी कारण वे हैं जो सृष्टि के समय से ही चले आ रहे हैं। जैसे-सूरज, चाँद, सितारे, पृथ्वी संबंधी। इस तरह बहुत-सी विभिन्न परिस्थितियों में उन स्थायी कारणों से कई तरह के कार्य उत्पन्न होते चले आ रहे हैं। इसका अंत कहाँ और कब होगा, यह मानव के ज्ञानसीमा के बाहर है। मिल साहब ने स्थायी कारण के सत्ता को स्वीकार किया है। उनका कहना है कि यह कोई आवश्यक नहीं है कि स्थायी कारण कोई वस्तु या ठोस पदार्थ ही हो। वह इससे भिन्न भी रह सकता है। पृथ्वी अपनी धूरी पर घुमती है। उसका धूरी पर घुमना एक स्थायी कारण है। इसी तरह सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के स्थायी कारण हैं जो घुमते-घुमते अमावस्या या पूर्णिमा को ही लगेगा।

प्रश्न 3.
अस्थायी कार्य क्या है?
उत्तर:
अस्थायी कार्य कुछ ही क्षणों के लिए रहता है। यह भी कारण से ही उत्पन्न होता है। कुछ क्षणों के बाद इस प्रकार से कार्य समाप्त हो जाते हैं। जैसे-बादलों के संघर्ष से बिजली उत्पन्न होती है या बिजली चमकती है। जो अस्थायी कार्य है। विज्ञान में अस्थायी कार्य को उचित मान्यता नहीं दी गई है। बिजली चमकना और गायब हो जाना क्षणभंगुरता होती है। लेकिन ऐसा सोचना शंकारहित भी नहीं है। बिजली जो एक शक्ति है, वह लुप्त नहीं होती है बल्कि उसका रूप बदल जाता है।

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प्रश्न 4.
प्रगतिशील कार्य क्या है?
उत्तर:
प्रगतिशील कार्य की परिभाषा तार्किक ने दी है। “उस मिश्रित कार्य को प्रगतिशील कार्य कहते हैं जो किसी स्थायी कारण से संचित प्रभाव से उत्पन्न होता है।” किसी वस्तु को एक अवस्था में छोड़ दें। उस पर प्रकाश, हवा, धूप, जल आदि का प्रभाव पड़ता रहता है और वह वस्तु दिन प्रतिदिन क्षीण होती है। कई वर्षों के बाद वह वस्तु टूटकर मिट्टी में मिल जाती है। इस तरह भिन्न-भिन्न कारणांशों के प्रभाव से वस्तु विलीन हो जाती है। यही कार्य प्रगतिशील कार्य कहलाता है। क्योंकि कार्य अपने रूप को धीरे-धीरे प्राप्त करता है। इस प्रकार से प्रगतिशील कार्य आगमन तर्कशास्त्र में कारण-कार्य नियम के अंतर्गत ही आता है।

प्रश्न 5.
निरीक्षण और प्रयोग में अंतर बताएँ।
उत्तर:
आगमन में निरीक्षण और प्रयोग दोनों वास्तविक आधार माने गए हैं। दोनों से वास्तविक सत्य की प्राप्ति होती है। फिर भी दोनों में कुछ अंतर हैं –
1. निरीक्षण प्राकृतिक घटनाओं का होता है। प्रकृति जिस घटना को हमारे सामने प्रस्तुत करती है उसी का निरीक्षण हम करते हैं, जैसे-सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, का निरीक्षण करना, किन्तु प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का प्रयोगशालाएँ होता है। प्रयोग में प्रयोगकर्ता स्वयं घटना को रचकर बनाकर उसका निरीक्षण करता रहता है।

2. निरीक्षण की घटनाएँ जो होती हैं उसकी सभी परिस्थितयाँ प्रकृति के हाथ में रहती है परन्तु, प्रयोग में घटना की सभी स्थितियाँ या परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में रहती हैं।

3. निरीक्षण में यंत्र का व्यवहार कभी-कभी होता है। परन्तु, उसमें परिवर्तन नहीं होता है जबकि प्रयोग में यंत्र का व्यवहार हमेशा होता है तथा उसमें हेर-फेर या परिवर्तन भी होता रहता है। इस तरह निरीक्षण एवं प्रयोग में अंतर अधिक है।

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प्रश्न 6.
क्या निरीक्षण चयनात्मक है?
उत्तर:
निरीक्षण प्रायः प्राकृतिक घटनाओं का ही होता है। प्रकृति जिस घटना को हमारे सामने जिस रूप में प्रस्तुत करती है, उसी का पर्यवेक्षण हम करते हैं। प्रकृति बहुत विशाल एवं जटिल है। इसमें नित्य प्रतिदिन कई प्रकार की घटनाएँ घटती रहती हैं। सभी घटनाओं का निरीक्षण हम नहीं कर पाते हैं। अतः, इसके लिए हमें किसी एक घटना का चयन करना पड़ता है। यदि हम चयन नहीं करें तो निरीक्षण संभव नहीं है। जैसे-रात्रि में हम प्रतिदिन आकाश की ओर तारों को देखते हैं, किन्तु जब किसी तारे को चयन कर देखते हैं, जैसे-ध्रुवतारा तो इसे निरीक्षण कहेंगे। अतः, निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि निरीक्षण चयनात्मक होता है।

प्रश्न 7.
क्या निरीक्षण प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित है?
उत्तर:
निरीक्षण मूलतः प्रकृति घटनाओं पर आधारित है, किन्तु कभी-कभी कृत्रिम घटनाओं का भी निरीक्षण होता है। यहाँ पर निरीक्षण का अर्थ या निरीक्षण का विषय अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाओं का ही होता है। जैसे-भूकंप, सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, बाढ़, महामारी आदि का निरीक्षण करते समय प्राकृतिक घटनाओं पर हमारा कुछ अपना दाब नहीं रहता है। बल्कि प्रकृति में घटनाएँ जिस प्रकार से घटती हैं उसका निरीक्षण हम उसी तरह से करेंगे, उसमें परिवर्तन करना हमारे अधिकार में नहीं है। इसलिए निरीक्षण करते समय हम निष्क्रिय और प्रकृति के गुलाम बने रहते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि निरीक्षण अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित होता है।

प्रश्न 8.
क्या प्रयोग कृत्रिम होता है?
उत्तर:
ऐसा कहा जाता है कि प्रयोग कृत्रिम होता है क्योंकि प्रयोगकर्ता स्वयं किसी घटना को प्रयोगशाला में बनाता है और इच्छानुसार उसका निरीक्षण करता है। प्रयोग प्राकृतिक घटनाओं का संभव नहीं है क्योंकि प्राकृतिक घटनाएँ प्रकृति के हाथ में है। जैसे-आकाश में इन्द्र धनुष को हम नहीं बना सकते हैं। यह प्रयोगशाला में भी संभव नहीं है। इसी तरह चन्द्रग्रहण, भूकंप, सूर्यग्रहण, बाढ़ आदि का निर्माण प्रयोगशाला में नहीं किया जा सकता है। अतः, प्राकृतिक घटनाओं पर ही संभव है। क्योंकि प्रयोग में घटना की सारी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में ही रहती है। अतः, निष्कर्ष निकलता है कि प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का ही होता है।

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प्रश्न 9.
कारण और कार्य की पारस्परिकता का वर्णन करें।
उत्तर:
तार्किकों के अनुसार कारण और कार्य की पारस्परिकता का संबंध कारण-कार्य नियम के अंतर्गत ही पाया गया है। कारण और कार्य के बीच एक प्रकार का संबंध पाया जाता है। यदि कारण है तो कार्य भी होगा। दोनों एक-दूसरे के ऊपर निर्भर करते हैं। जैसे-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने पर ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस भी उत्पन्न होता है। फिर उसी पानी से ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस भी उत्पन्न किया जाता है। इस तरह की संभावना को ही हम कारण और कार्य की पारस्परिकता कहते हैं।

प्रश्न 10.
कारण के प्रचलित यंत्रों की व्याख्या करें।
उत्तर:
कारण के प्रचलित यंत्र को जनसाधारण यंत्र भी कहते हैं। कारण वही है जो घटना के पहले आवे। यहाँ कारण का केवल अनुमान किया जाता है। उसका वैज्ञानिक निरूपण नहीं करते हैं। खाली घड़ा देखने पर गाड़ी छूट जाना, तेली को देखने से यात्रा खराब होना, बिल्ली को मार्ग काटने से किसी अशुभ घटना का कारण समझना आदि अंधविश्वास। इसी तरह के प्रचलित कारण के रूप भी हैं। कभी-कभी दैवी प्रकोप भी कारण बनता है, जैसे-हैजा, प्लेग आदि का होना भगवती या काली माँ का प्रकोप कहा जाता है। लेकिन आज वैज्ञानिक युग में ऐसे कारणों का तर्कशास्त्र में उचित स्थान नहीं दिया गया है। क्योंकि ये सब आकस्मिक घटनाएँ हैं। जो कभी होती है कभी नहीं भी होती है।

प्रश्न 11.
क्या प्रयोग में यंत्रों का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर:
किसी भी तरह के प्रयोग में प्रयोगकर्ता यंत्रों का प्रयोग करता ही है। इसमें इच्छानुसार हेर-फेर भी करता ही है। मनचाहे परिवर्तन भी करता हैं इन सभी परिवर्तनों के बाद वह घटना का निरीक्षण करता है। परन्तु, निरीक्षण में प्रयोगकर्ता यंत्र का प्रयोग तो करता ही है, किन्तु उसमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं करता है। परिवर्तन तो मात्र प्रयोग ही में संभव है। चूँकि प्रयोग कृत्रिम.घटनाओं का ही होता है। प्रयोगकर्ता उस घटना को स्वयं बनाकर उसकी जाँच करता है। अतः, निष्कर्ष है कि प्रयोग में यंत्रों का प्रयोग प्रयोगकर्ता करता है।

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प्रश्न 12.
आगमन का आकारिक आधार क्या है?
उत्तर:
आगमन तर्कशास्त्र में पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना हेतु आधार की जरूरत होती है। यह आधार दो प्रकार की है-आकारिक आधार और वास्तविक आधार। आकारिक आधार के अंतर्गत प्राकृतिक समरूपता नियम तथा कार्य-कारण नियम दो प्रकार के आधार हैं। प्रकृति में एक प्रकार की समरूपता है, जिसके आधार समान परिस्थितियों में समान घटनाएँ भविष्य में घटती रहती हैं। इसी तरह कारण-कार्य नियम के अनुसार कारण उपस्थित होने पर कार्य भी अवश्य उपस्थित हो जाएगा। जैसे – यदि बादल आता है तो वर्षा होगी। तीसी, सरसों से तेल अवश्य उत्पन्न होगा। इस तरह प्राकृतिक-समरूपता नियम तथा कारण-कार्य दो आगमन के आकारिक आधार हैं।

प्रश्न 13.
गलत देखने की भूल क्या है?
उत्तर:
तार्किकों ने निरीक्षण में दो तरह की भूलों का वर्णन किया है, जिसमें एक को गलत देखने की भूल कहा जाता है और दूसरे को नहीं देखने का भूल कहा जाता है। निरीक्षण में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा कार्य किया जाता है। कर्म करने में कभी ज्ञानेन्द्रियाँ धोखा खा जाती हैं क्योंकि हम किसी वस्तु को गलत देख लेते हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि वस्तु का जो वास्तविक रूप है उसे नहीं देखकर गलत रूप को देखते हैं। अतः, इसे ही Fallacy of mal observation अर्थात् गलत देखने की भूल कहा जाता है। जैसे अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना, ठूठ पेड़ को भूत या चोर समझ लेना आदि गलत देखने की भूल कहा जाता है।

प्रश्न 14.
क्या निरीक्षण प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित हैं?
उत्तर:
निरीक्षण मूलतः प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित है, किन्तु कभी-कभी कृत्रिम घटनाओं का भी निरीक्षण होता है। यहाँ पर निरीक्षण का अर्थ या निरीक्षण का विषय अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाओं का ही होता है। जैसे-भूकंप, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, बाढ़, महामारी आदि का निरीक्षण करते समय प्राकृतिक घटनाओं पर हमारा कुछ अपना दबाव नहीं रहता है। बल्कि प्रकृति में घटनाएँ जिस प्रकार से घटती हैं उसका निरीक्षण हम उसी तरह से करेंगे उसमें परिवर्तन करना हमारे अधिकार में नहीं है। इसलिए निरीक्षण करते समय हम निष्क्रिय और प्रकृति के गुलाम बने रहते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि निरीक्षण अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित होता है।

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प्रश्न 15.
आगमन का वास्तविक आधार क्या है?
उत्तर:
तर्कशास्त्र में सत्य दो तरह के होते हैं-आकारिक सत्य तथा वास्तविक सत्य। आगमन में वास्तविक सत्य की प्राप्ति के लिए निरीक्षण और प्रयोग दो विधियों की स्थापना की गई है। जबकि आकारिक सत्यता की प्राप्ति के लिए प्राकृतिक समरूपता नियम तथा कारण-कार्य नियम दो बताए गए हैं। निरीक्षण और प्रयोग के आधार पर निष्कर्ष निकाला जाता है जिसके आधार पर प्राप्त ज्ञान को सत्य समझा जाता है। जो सत्य के साथ ही साथ वास्तविक भी होता है। इस प्राप्त ज्ञान में शंका की गुंजाइश किसी तरह की नहीं होती है। अतः, आगमन का वास्तविक आधार निरीक्षण और प्रयोग दोनों हैं।

प्रश्न 16.
क्या प्रयोग कृत्रिम होता है?
उत्तर:
ऐसा कहा जाता है कि प्रयोग कृत्रिम होता है क्योंकि प्रयोगकर्ता स्वयं किसी घटना को प्रयोगशाला में बनाता है और इच्छानुसार उसका निरीक्षण करता है। प्रयोग प्राकृतिक घटनाओं का संभव नहीं है क्योंकि प्राकृतिक घटनाएँ प्रकृति के हाथ में है। जैसे-आकाश में इन्द्रधनुष को हम नहीं बना सकते हैं। प्रयोगशाला में कभी संभव नहीं है। इसी तरह चन्द्रग्रहण, भूकंप, सूर्यग्रहण, बाढ़ आदि का निर्माण प्रयोगशाला में नहीं किया जा सकता है। अतः, प्राकृतिक घटनाओं पर प्रयोग कृत्रिम रूप से नहीं हो सकता है। यह कृत्रिम घटनाओं पर ही संभव है। क्योंकि प्रयोग में घटना की सारी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में ही रहती है। अतः निष्कर्ष निकलता है कि प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का ही होता है।

प्रश्न 17.
क्या निरीक्षण चयनात्मक है?
उत्तर:
निरीक्षण प्रायः प्राकृतिक घटनाओं का ही होता है। प्रकृति जिस घटना को हमारे सामने जिस रूप में प्रस्तुत करतो है, उसी का पर्यवेक्षण हम करते हैं। प्रकृति बहुत विशाल एवं जटिल है। इसमें नित्य-प्रतिदिन कई प्रकार की घटनाएँ घटती रहती हैं। सभी घटनाओं का निरीक्षण हम नहीं कर पाते हैं। अतः, इसके लिए हमें किसी एक घटना का चयन करना पड़ता है। यदि हम चयन नहीं करें तो निरीक्षण संभव नहीं है। जैसे रात्रि में हम प्रतिदिन आकाश की ओर तारों को देखते हैं, किन्तु जब किसी तारे को चयन कर देखते हैं, जैसे-ध्रुवतारा तो इसे निरीक्षण कहेंगे। अतः, निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि निरीक्षण चयनात्मक होता है।

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प्रश्न 18.
निरीक्षण और प्रयोग में अंतर बताएँ।
उत्तर:
आगमन में निरीक्षण और प्रयोग दोनों वास्तविक आधार माने गए हैं। दोनों से वास्तविक सत्य की प्राप्ति होती है। फिर भी दोनों में कुछ अंतर हैं –

1. निरीक्षण प्राकृतिक घटनाओं का होता है। प्रकृति जिस घटना को हमारे सामने प्रस्तुत करती है उसी का निरीक्षण हम करते हैं, जैसे सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण का निरीक्षण करना, किन्तु प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का प्रयोगशाला में होता है। प्रयोग में प्रयोगकर्ता स्वयं घटना को रचकर, बनाकर उसका निरीक्षण करता रहता है।

2. निरीक्षण की घटनाएँ जो होती हैं उसकी सभी परिस्थितियाँ प्रकृति के हाथ में रहती हैं परंतु, प्रयोग में घटना की सभी स्थितियाँ या परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में रहती हैं।

3. निरीक्षण में यंत्र का व्यवहार कभी-कभी होता है। परंतु, उसमें परिवर्तन नहीं होता है जबकि प्रयोग में यंत्र का व्यवहार हमेशा होता है तथा उसमें हेर-फेर या परिवर्तन भी होता रहता है। इस तरह निरीक्षण एवं प्रयोग में मात्रा का भेद अधिक है।

प्रश्न 19.
नहीं देखने की भूल क्या है?
उत्तर:
तार्किकों के अनुसार यह भी एक प्रकार से निरीक्षण के दोष के अंतर्गत ही आता है। यह भूल प्रायः तब होती है जब हम उस वस्तु या स्थिति को ठीक से नहीं देखते हैं जिसे हमें देखना चाहिए था। हड़बड़ी, ध्यान का अभाव या पक्षपात के कारण हम बहुत-सी चीजों या परिस्थितियों को नहीं देख पाते हैं जिनके कारण नहीं देखने की भूल होती है। यह दो प्रकार की है –

(क) उदाहरण को नहीं देखने की भूल तथा

(ख) आवश्यक स्थिति या परिस्थिति को नहीं देखने की भूल। कुछ गाढ़े लाल रंग के फूलों को गंधहीन पाकर हम कहते हैं कि सभी गाढ़े लाल रंग के फूल गंधहीन हैं। यहाँ उदाहरण को नहीं देखने की भूल है। इसी तरह कोई गुंडा किसी लड़की के साथ बलात्कार करना चाहता है, किन्तु कोई छात्र उसे बचाने के क्रम में गुंडा उससे चोट खाकर मर जाता है। इस परिस्थिति में यदि उसे सजा मिलती है तो यहाँ आवश्यक परिस्थिति को नहीं देखने की भूल कहा जाएगा।

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प्रश्न 20.
प्रकृति-समरूपता नियम का संक्षिप्त व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम आगमन का आकारिक आधार है। तार्किकों ने इसकी परिभाषा देकर इसकी व्याख्या किए हैं क्योंकि इसकी परिभाषा देना संभव नहीं है। मूल सिद्धान्त या नियम की परिभाषा नहीं दी जाती है बल्कि उसका वर्णन किया जाता है। प्रकृति में जो भी घटना-घटती है वह समरूपता घटती है। इसमें प्रकार की विभिन्नता नहीं रहती है। अतः प्रकृति एकरूप है। अर्थात् प्राकृतिक घटनाएँ एक समान घटती हैं। भविष्य अतीत की तरह होता है। प्रकृति में घटनाएँ पुनः-पुनः उसी रूप में होती रहती है। भविष्य में घटनेवाली घटना की गारंटी प्राकृतिक समरूपता नियम के कारण ही हैं समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती रहती है। प्रकृति में कहीं पक्षपात नहीं है। प्रकृति एकरस है।

प्रश्न 21.
कारण-कार्य नियम की व्याख्या करें।
उत्तर:
कारण-कार्य नियम आगमन का एक प्रबल स्तंभ के रूप में आधार है। इसकी भी परिभाषा तार्किक ने न देकर इसकी व्याख्या किए हैं। कारण-कार्य नियम के अनुसार इस विश्व में कोई घटना या कार्य बिना कारण के नहीं हो सकती है। सभी घटनाओं के पीछे कुछ-न-कुछ कारण अवश्य छिपा रहता है। कारण संबंधी विचार अरस्तू के विचारणीय हैं। अरस्तू के अनुसार चार तरह के कारण हैं –

  1. द्रव्य कारण (Material Cause)
  2. आकारिक कारण (Formal Cause)
  3. निमित कारण (Efficient Cause)
  4. अंतिम कारण (Final Cause)

यही चार कारण मिलकर किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। जैसे-मकान के लिए ईंट, बालू, सीमेंट, द्रव्य कारण हैं। मकान का एक नक्शा बनाना आकारिक कारण है। राजमिस्त्री और मजदूर ईंट, बालू, सीमेंट को तैयार कर उसे एक पर एक खड़ा कर तैयार करते हैं। इसमें एक शक्ति आती है जिसे Efficient Cause या निमित कारण कहते हैं। इसी तरह मकान बनाने का उद्देश्य रहता है-अपना रहना या किराया पर लगाना। जिसे अंतिम कारण (Final Cause) कहते हैं। प्रचलित कारण को स्वीकार नहीं किया गया है।

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प्रश्न 22.
कारण के गुणात्मक लक्षण क्या है?
उत्तर:
कारण के गुणात्मक लक्षण मुख्यतः चार प्रकार के बताए गए हैं –
(क) कारण पूर्ववर्ती होता है
(ख) कारण नियत पूर्ववर्ती होता है
(ग) कारण उपाधिरहित पूर्ववर्ती होता है तथा
(घ) कारण तात्कालिक पूर्ववर्ती होता है।

इन्हीं चारों को आगमन में स्वीकार किया गया है। कारण कार्य की व्याख्या में कहा गया है कि यह एक के उपस्थित में होने पर दूसरा भी उपस्थित होता है। कारण-कार्य के पहले आता है इसलिए इसे पूर्ववर्ती कहा जाता है। कार्य बाद में आता है। इसलिए इसे अनुवर्ती कहा जाता है। कारण नियत पूर्ववर्ती है। क्योंकि हर हालत में बिना कारण के कार्य नहीं होता है। इसके साथ-ही-साथ तार्किकों ने कहा कि कारण उपाधिरहित एवं तात्कालिक पूर्ववर्ती भी होता है।

प्रश्न 23.
कारण के परिमाणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
परिमाण के अनुसार कारण और कार्य के बीच मुख्यतः तीन प्रकार के विचार बताए गए हैं –

(क) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में अधिक हो सकता है
(ख) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कम हो सकता है
(ग) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कभी अधिक और कभी कम हो सकता है।

अतः इन तीनों को असत्य साबित किया गया है। यदि कारण अपने कार्य से कभी अधिक और कभी कम होता है तो इसका यही अर्थ है कि प्रकृति में कोई बात स्थिर नहीं है। किन्तु, प्रकृति में स्थिरता एवं समरूपता है, अतः यह संभावना भी समाप्त हो जाता है। इसी तरह पहली और दूसरी संभावना भी समाप्त हो जाती है। ये तीनों संभावनाएँ निराधार हैं। अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि कारण-कार्य मात्रा में बराबर होते हैं और यही सत्य भी है।

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प्रश्न 24.
कारण और उपाधि की तुलना करें।
उत्तर:
आगमन में कारण का एक हिस्सा स्थित बतायी गई है। जिस तरह से हाथ, पैर आँख, कान, नाकं आदि शरीर के अंग हैं और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं। उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और उपाधि में तीन तरह के अंतर हैं –
(क) कारण एक है और उपाधि कई हैं
(ख) कारण अंश रूप में रहता है और उपाधि संपूर्ण रूप में आता है
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं। इस तरह कारण और उपाधि में अंतर है।

प्रश्न 25.
भावात्मक कारणांश या उपाधि क्या है?
उत्तर:
भावात्मक कारणांश उपाधि का एक भेद है। उपाधि प्रायः दो तरह के हैं-भावात्मक तथा अभावात्मक। ये दोनों मिलकर ही किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। यह कारण का वह भाग या हिस्सा है जो प्रत्यक्ष रूप में पाया जाता है। इसके रहने से कार्य को पैदा होने में सहायता मिलती है। जैसे-नाव का डूबना एक घटना है, इसमें भावात्मक उपाधि इस प्रकार है – एकाएक आँधी का आना, पानी का अधिक होना, नाव का पुराना होना तथा छेद रहना, वजन अधिक हो जाना आदि ये सभी भावात्मक उपाधि के रूप है जिसके कारण नाव पानी में डूब गई।

प्रश्न 26.
अभावात्मक कारण या उपाधि क्या है?
उत्तर:
कारणांश या उपाधि के मुख्यतः दो भेद हैं –

(क) भावात्मक कारणांश एवं
(ख) अभावात्मक कारणांश।

इसमें घटना के घटने में जो कारण अनुपस्थित रहते हैं उसे अभावात्मक उपाधि कहते हैं जैसे – नाव डूबना एक घटना है। इसमें भावात्मक तथा अभावात्मक उपाधि मिलकर घटना को घटने में सहायता प्रदान करते हैं। इसमें अभावात्मक उपाधि इस प्रकार है जो अनुपस्थित है – मल्लाह का होशियार नहीं होना, किनारे का नजदीक नहीं होना, नाव का बड़ा नहीं होना। इस प्रकार की अनुपस्थिति उपाधि हैं जिससे नाव को डूबने में अप्रत्यक्ष रूप से सहायता मिलती।

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प्रश्न 27.
कार्यों के सम्मिश्रण का विवेचन करें?
उत्तर:
जब किसी कमरे में बहुत से दीपक या मोमबत्ती जलाते हैं तो उससे अधिक प्रकाश होता है। यहाँ सभी दीपक और मोमबत्ती मिलकर उस प्रकाश को कार्यरूप में पैदा करते हैं। अतः प्रकाश कार्य-सम्मिश्रण के रूप में आता है। ये कार्य-सम्मिश्रण दो प्रकार के होते हैं –

(क) सजातीय कार्य-सम्मिश्रण तथा।
(ख) विविध जातीय कार्य-सम्मिश्रण।

सजातीय कार्य-सम्मिश्रण में हम देखते हैं कि विभिन्न कारणों के मेल से जो कार्य पैदा होता है उसमें समीकरण एक ही तरह या एक ही जाति के होते हैं, जैसे-घर में एक सौ दीपक के जलाने से अधिक प्रकाश होता है। यहाँ सभी दीपक एक ही जाति के हैं, किन्तु जो कार्य विभिन्न कारणों के मेल से बनता है उसे विविध जातीय कार्य सम्मिश्रण कहा जाता है, जैसे-भात, दाल, दूध, दही, घी, सब्जी आदि से खून का बनाना।

प्रश्न 28.
कारणों का संयोग की व्याख्या करें।
उत्तर:
जब बहुत से कारण मिलकर संयुक्त रूप से कार्य पैदा करते हैं तो वहाँ पर कारणों से मेल को कारण-संयोग कहा जाता है। यह भी कारण-कार्य नियम के अंतर्गत पाया जाता है जैसे-भात-दाल, सब्जी, दूध, दही, घी, फल आदि खाने के बाद हमारे शरीर में खून बनता है। इसलिए खून यहाँ बहुत से कारणों के मेल से बनने के कारण कार्य-सम्मिश्रण हुआ तथा दाल, भात आदि कारणों का मेल कारण-संयोग कहा जाता है। अतः कारणों के संयोग और कार्यों के सम्मिश्रण में अंतर पाया जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आपके विचार से तूफान और भूकंप प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुकूल है? क्या यह कहना सत्य है कि प्रकृति में एक समरूपता नहीं बल्कि अनेक समरूपताए है।
उत्तर:
कुछ तार्किकों का कथन है कि प्रकृति समरूपता नियम के अनुकूल तूफान और भूकंप नहीं है। प्रकृति समरूपता नियम का अर्थ होता है कि प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता का होना। प्रकृति में जो घटना आज घटती है हमारा विश्वास है कि भविष्य में भी वही घटना घटेगी। भूकंप, तूफान, आँधी एकाएक आ जाती है। प्रकृति के व्यवहार को एक माना गया तो ऐसी घटनाएँ अचानक नहीं होना चाहिए। 1 जनवरी, 1934 ई. में बिहार में भूकंप हुआ था तो जनवरी 1935-36 के महीने में भूकंप होना चाहिए था, किन्तु नहीं हुआ। अतः, प्रकृति में समरूपता नहीं है।

ऐसा विचार प्रकृति समरूपता नियम का गलत अर्थ लगाने के कारण यह सही लगता है। प्रकृति समरूपता नियम का यह अर्थ नहीं है कि जो घटना आज घटती है वह प्रतिदिन घटनी चाहिए। ऐसा सोचना गलत है कि भूकंप, आँधी रोज आना चाहिए। प्रकृति समरूपता का अर्थ है कि समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता रहती है। भूकंप होने का कारण प्रत्येक . दिन नहीं हो सकता है। इसलिए भूकंप प्रत्येक दिन नहीं होता है। यदि कारण हो और कार्य न हो तो ऐसा कहा जा सकता है कि प्रकृति में समरूपता नहीं है। समान परिस्थिति में प्रकृति के कार्य में समरूपता रहती है न कि प्रत्येक परिस्थिति में।

एकाएक तूफान या भूकंप का होना प्रकृति समरूपता का खंडन नहीं करता है एकाएक हमारी अज्ञानता का द्योतक है न कि प्रकृति समरूपता की असत्यता का। हम आँधी, तूफान के कारण को नहीं जानते हैं इसलिए कह देते हैं कि एकाएक ये घटनाएँ घटती हैं। भूकंप और तूफान, आँधी, भूकंप, बाढ़ इत्यादि का होना प्रकृति समरूपता नियम के विरुद्ध नहीं जाता है बल्कि ये प्रकृति समरूपता नियम के अनुकूल हैं। एक समरूपता या अनेक समरूपताएँ-बेन साहब (Bain) का कहना है कि संसार में एक समरूपता नहीं बल्कि अनेक समरूपताएँ हैं।

बेन तथा अन्य तार्किकों के अनुसार, प्रकृति के अनेक विभाग हैं। प्रत्येक विभाग के अलग-अलग नियम हैं। अतः, प्रकृति में समरूपता नहीं बल्कि अनेक समरूपताएँ हैं। यहाँ विवाद एकवचन और बहुवचन का है प्रकृति में बहुत से विभागों के होते हुए भी उसमें इकाई का रूप पाया जाता है। प्रकृति में अनेकता में भी एकता है। There is unity and wholeness in Nature. हम अपनी सुविधा के लिए प्रकृति को अनेक विभागों में बाँटते हैं और प्रकृति उन विभागों की एक व्यवस्थित समष्टि है। “अनेक समरूपताओं के बीच एक समरूप है”। सभी समरूपताएँ एक समरूपता में आकर मिल जाती है जिस तरह अनेक नदियाँ एक समुद्र में मिल जाती है। अतः, निष्कर्ष यही है कि एक समरूपता है जिसे प्राकृतिक समरूपता नियम कहते हैं।

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प्रश्न 2.
आगमन के आकारिक एवं वास्तविक आधार क्या हैं? उन्हें आकारिक एवं वास्तविक आधार क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
आगमन में हम अंशव्यापी से पूर्णव्यापी की ओर जाते हैं इसमें कुछ उदाहरणों के निरीक्षण के आधार पर सामान्य नियम की स्थापना करते हैं। प्रश्न है कि किस आधार पर हम ‘कुछ’ से ‘सब’ की ओर जाते हैं? किस आधार पर वर्तमान से भविष्य की ओर जाते हैं? इसका उत्तर है कि हम प्राकृतिक समरूपता नियम के आधार पर कुछ से सब की ओर जाते हैं। हमारा विश्वास प्राकृतिक समरूपता नियम में है। समान परिस्थिति में समान कारण की उत्पत्ति हमेशा होती है। भविष्य की गारंटी इस नियम से मिलती है कि अगर मनुष्य मरणशील है तो भविष्य में भी मरणशील रहेगा। अटूट एवं अनिवार्य संबंध किस आधार पर स्थापित करते हैं? इसका उत्तर है कि कार्य-कारण नियम के आधार पर। कार्य-कारण नियम का अर्थ है कि प्रत्येक घटना का एक कारण होता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य उपस्थित होगा।

अतः, प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य कारण नियम आगमन के आकारिक आधार हैं क्योंकि इन नियमों का संबंध आगमन के आकार से है। ये आगमन के स्वरूप को निर्धारित करते हैं। आगमन की आकारिक सत्यता से इन दोनों का संबंध होने के कारण इन्हें आगमन का आकारिक आधार कहते हैं। इसी तरह निरीक्षण और प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार हैं। अनुमान का विषय वास्तविक रूप से सत्य होता है। विषय कल्पित नहीं रहता है। विषय अनुभव पर आश्रित है।

हम अनुभव में पाते हैं कि आग में ताप है। इसी अनुभव के आधार पर सामान्य नियम बनाते हैं कि “सभी आग में ताप है।” अनुभव के भी दो स्रोत हैं – निरीक्षण और प्रयोग (Observation and experiment) व्यवस्थित एवं नियंत्रित निरीक्षण ही प्रयोग है। निरीक्षण एवं प्रयोग के द्वारा आगमन के विषय की प्राप्ति होती है। इसलिए आगमन निरीक्षण और प्रयोग विषयगत आधार कहलाते हैं। पुनः आगमन के निष्कर्ष की सत्यता की जाँच निरीक्षण और प्रयोग से होती है, इसलिए भी निरीक्षण और प्रयोग को आगमन का वास्तविक आधार कहते हैं। अतः निष्कर्ष निकलता है कि प्राकृतिक समरूपता नियम और कार्य-कारण नियम आगमन के आकारिक आधार हैं तथा निरीक्षण और प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार हैं। आकारिक आधार का संबंध आगमन के आकस्मिक सत्यता से है और निरीक्षण एवं प्रयोग का संबंध आगमन की वास्तविक सत्यता से है।

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प्रश्न 3.
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण नियम के बीच संबंध की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण नियम दोनों आगमन के आकारिक आधार हैं। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार, समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता पायी जाती है। समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहेगा। दोनों नियमों के संबंध को लेकर तीन मत हैं जो निम्नलिखित हैं –

1. मिल तथा बेन साहब के अनुसार प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक है तथा कारणता के नियम प्राकृतिक समरूपंता नियम का एकरूप है। बेन के अनुसार समरूपता तीन प्रकार की है। उनमें एक अनुक्रमिक समरूपता है (Uniformities of succession) इसके अनुसार एक घटना के बाद दूसरी घटना समरूप ढंग से आती है। कार्य-कारण नियम अनुक्रमिक समरूपता है। कार्य-कारण नियम के अनुसार भी एक घटना के बाद दूसरी घटना अवश्य आती है। अतः, कार्य-कारण नियम स्वतंत्र नियम न होकर समरूपता का एक भेद है। जैसे-पानी और प्यास बुझाना, आग और गर्मी का होना इत्यादि घटनाओं में हम इसी तरह की समरूपता पाते हैं।

2. जोसेफ एवं मेलोन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम मौलिक है प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक नहीं है स्वतंत्र नहीं है। बल्कि प्राकृतिक समरूपता नियम इसी में समाविष्ट है। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण सदा कार्य को उत्पन्न करता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहता है। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार भी समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। अतः कार्य-कारण नियम से जो अर्थ निकलता है। वही प्राकृतिक समरूपता नियम से भी। अतः, कार्य-कारण नियम ही मौलिक है और प्राकृतिक समरूपता नियम उसमें अतभूत (implied) है।

3. वेल्टन, सिगवर्ट तथा बोसांकेट के अनुसार दोनों नियम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं दोनों मौलिक हैं। दोनों का अर्थ भिन्न हैं। दोनों दो लक्ष्य की पूर्ति करता है। कार्य-कारण नियम से पता चलता है कि प्रकृति में समानता है। अतः, ये दोनों नियम मिलकर ही आगमन के आकारिक आधार बनते हैं। आगमन की क्रिया में दोनों की मदद ली जाती है। जैसे – कुछ मनुष्य को मरणशील देखकर सामान्यीकरण कहते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील है। कुछ से सब की ओर जाने में प्राकृतिक समरूपता नियम का मदद लेते हैं। प्रकृति के व्यवहार में समरूपता है।

इसी विश्वास के साथ कहते हैं कि मनुष्य भविष्य में भी मरेगा। सामान्यीकरण में निश्चितता आने के लिए कार्य-कारण नियम की मदद लेते हैं। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण के उपस्थित रहने पर अवश्य ही कार्य उपस्थित रहता है। मनुष्यता और मरणशीलता में कार्य-कारण संबंध है। इसी नियम में विश्वास के आधार पर कहते हैं कि जो कोई भी मनुष्य होगा वह अवश्य ही मरणशील होगा। अतः दोनों स्वतंत्र होते हुए भी आगमन के लिए पूरक हैं। दोनों के संयोग से आगमन संभव है। अतः दोनों में घनिष्ठ संबंध है।

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प्रश्न 4.
कारण के गुणात्मक लक्षणों की सोदाहरण व्याख्या करें। अथवा, “कारण तात्कालिक अनौपाधिक और नियत पूर्ववर्ती घटना है।” इस – परिभाषा को ध्यान में रखते हुए कारण के विभिन्न लक्षणों का सोदाहरण वर्णन करें।
उत्तर:
गुण के अनुसार हम कारण गुण का वर्णन करने में कार्य-कारण के गुणात्मक स्वरूप का वर्णन करते हैं। इसमें कार्वेथ रीड तथा मिल की परिभाषाओं पर विचार करते हैं। मिल ने कारण में पूर्ववर्ती एवं अनौपाधिक लक्षणों पर बल दिया तो कार्वेथ रीड ने पूर्ववर्तिता, नियतता, अनौपाधिता एवं तात्कालिकता चार लक्षणों पर बल दिया है।

इसमें कार्वेथ रीड के अनुसार – “The cause of an event is qualitatively” the immediate, unconditional invariable anticedent of an effect.” अर्थात् गुणात्मक दृष्टि से किसी भी घटना का कारण “कार्य का तात्कालिक, अनौपाधिक नियतपूर्ववर्ती है तथा मिल साहब के अनुसार – The cause of a phenomenon to be “the anticedent or the concurrence of anticedents on which it is invariably and unconditionally consequent.” अर्थात् किसी घटना का कारण “वह पूर्ववर्ती या पूर्ववर्तियों का समूह है जिसके या जिनके होने के बाद कारण के निम्नलिखित लक्षण पाते हैं –

1. पूर्ववर्ती होना (Anticedent):
कारण और कार्य सापेक्ष पद है। एक के बाद दूसरा एक क्रम में पाया जाता है जिसका आदि और अंत हमें नहीं पता चलता हैं अतः, किसे कारण समझा जाए? इस समस्या को समझने के लिए मिल साहब का कहना है कि किसी घटना के पहले घटनेवाली घटना को कारण समझ लेना ठीक होगा। जैसे-शान्त तालाब में पत्थर फेंकने पर पानी में जो कंपन होता है उसका कारण पत्थर फेंकना ही कहा जाएगा।

यह भी सही है कि कारण और कार्य दोनों अलग-अलग नहीं पाए जाते हैं। इसलिए मेलोन साहब (Mellone) का विचार है कि कारण और कार्य के बीच एक गणित की रेखा है जिसमें चौड़ाई नहीं होती है, “अर्थात् कारण और कार्य एक-दूसरे से अलग नहीं बल्कि एक तथ्य के दो छोर हैं। जो हमें पूर्ववर्ती के रूप में पहले दिखाई पड़ता है उसे कारण कहते हैं और बाद में जो अनुवर्ती के रूप में दिखाई पड़ता है उसे कार्य का रूप देते हैं। अतः, इसके अनुसार कारण-कार्य के पहले आता है।”

2. नियत अनियत होना (Invariable):
पहले घटनेवाली घटना को कारण तो कहा जाता है लेकिन सभी पहले घटने वाली घटना कारण नहीं हो सकता है। ऐसा कहने से अंधविश्वास का जन्म हो सकता है। पहले घटनेवाली घटनाएँ दो तरह की है –

(क) अनियत पूर्ववर्ती (Invariable anticedent)
(ख) नियत पूर्ववर्ती (Variable anticedent)।

(क) अनियत पूर्ववर्ती (Invariable anticedent):
वे घटनाएँ हैं जो कार्य के पहले नियमित रूप से नहीं पायी जाती है। कभी होता है कभी नहीं भी। जैसे-वर्षा के पहले घटनेवाली घटनाओं के रूप में हम फुटबॉल मैच, राम की शादी, कॉलेज में सभा इत्यादि को पा सकते हैं लेकिन नियमित रूप से वर्षा के पहले हमेशा नहीं आते हैं इसलिए ये कारण भी हो सकते हैं। अनियत घटनाएँ कारण कभी नहीं भी हो सकते हैं। अतः, अनियत घटनाएँ कारण कभी नहीं हो सकती है।

(ख) नियत पूर्ववर्ती (Invariable anticedent):
वे घटनाएँ हैं जो किसी कार्य के पहले देखा या निश्चित रूप से पायी जाती है, जैसे-वर्षा के पहले बादल का घिर जाना। जब कभी भी वर्षा होगी आकाश में बादल का रहना जरूरी है। अतः बादल का होना नियत पूर्ववर्ती घटना है। ऐसा विचार ह्यूम (Hume) का है। घटना के पहले जो भी आवे जो कुछ भी घटे सबों को बिना विचारे कारण मान लेना एक दोष पैदा कर सकता है। जिसे हम पूर्ववर्ती घटनाओं के रूप में पाते हैं, परन्तु वे सभी आकस्मिक या परिवर्तनशील हैं। इसलिए अनियत पूर्ववर्ती घटना के कारण बनने का योग कभी भी प्राप्त नहीं होगा। इसलिए ह्यूम साहब ने हमेशा की नियम पूर्ववर्ती घटना को कारण मानना उचित बताया है।

3. अनौपाधिक होना (Unconditional):
कभी-कभी ह्यूम के विचारों को मानने से एक समस्या आ जाती है जिसे Carveth Read ने हमारे सामने दिन और रात का उदाहरण रखा। है। दिन के पहले रात और रात के पहले दिन नियम पूर्ववर्ती घटना के रूप में पाए जाते हैं। यदि हम ह्यूम की बात को न माने तो दिन का कारण रात और रात का कारण दिन का होना ही होगा।

ऐसा कहना हास्यास्पद होगा। क्योंकि दिन और रात का होना एक शर्त पर निर्भर करता है-वह है पृथ्वी का चौबीस घंटे में अपनी कील पर सूरज के चारों तरफ एक बार घूम जाना। वास्तव में यही दिन और रात का अलग-अलग कारण हो सकता है। इस समस्या को दूर करने के लिए मिल साहब कहते हैं कि इसी प्रकार की घटना को नियमपूर्ववर्ती घटना का कारण माना जा सकता है जो किसी शर्त पर निर्भर नहीं करे अर्थात् वह अनौपाधिक (Unconditional) हो।

4. तात्कालिक होना (Immediate):
तात्कालिक कारण का अंतिम गुणात्मक लक्षण तात्कालिकता है। कारण को कार्य तात्कालिक पूर्ववर्ती होना चाहिए। अतः, कारण से तुरन्त पहले आनेवाली पूर्ववर्ती में खोजना चाहिए। दूरस्थपूर्ववर्ती को कारण नहीं मानना चाहिए। जैसे-कॉलेज में सुबह पढ़ना, शाम को टहलना, रात को ओस में सोना इत्यादि घटनाओं के बाद हमें खूब जोर से सर दर्द होता है। यहाँ सर दर्द के पहले ओस में सोना तात्कालिक घटना है और अन्य घटनाएँ दूर की है। इस तरह पूर्ववर्ती नियम अनौपाधिक एवं तात्कालिक मिश्रण है।

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प्रश्न 5.
कारण सभी उपाधियों-भावात्मक एवं अभावात्मक का दर्शन है। इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
मिल साहब के अनुसार हमें कारण और स्थिति (Cause and condition) को ठीक से समझना होगा।

स्थिति उपाधि (Condition):
कारण का एक हिस्सा स्थिति या उपाधि होता है। जिस तरह हाथ, पैर, आँख, नाक, कान इत्यादि मिलकर शरीर का निर्माण करते हैं उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती है। अतः, दोनों में पूर्ण और हिस्से (Whole and part) का संबंध है। स्थिति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में किसी कारण को कार्य के रूप में परिणत होने के लिए सहायक होता है, जैसे यदि बीज (Seed) कारण है और वृक्ष कार्य है तो बीज में धूप हवा, पानी, खाद्य इत्यादि से सहायता मिलती है, जिन्हें हम स्थितियों के रूप में ही पाते हैं।

इसलिए कार्वेथ रीड ने कहा है – “स्थिति कारण का कोई आवश्यकीय भाग है” (Conditions is any necessary factor of the cause) Conditions के दो रूप बताए गए हैं-भावात्मक और अभावात्मक (Positive and Negative)। भावात्मक स्थिति-यह कारण का वह हिस्सा है जो प्रत्यक्ष रूप में पाया जा सकता है। उसके रहने से कार्य को पैदा होने में सहायता मिलती है। जैसे-बीज से वृक्ष होने में खाद्य, पानी, हवा, धूप आदि भावात्मक स्थितियाँ है। नाव से पानी में झांकना और ऐसा करने से पानी में डूबकर मरना भावात्मक स्थिति है। इस तरह भावात्मक स्थिति स्पष्ट रहती है।

अभावात्मक स्थिति (Negative Condition):
यह कारण का वह हिस्सा है जिसकी अनुपस्थिति में कोई कार्य होता है। इसलिए मिल साहब के अनुसार, “बाधा उत्पन्न करनेवाली परिस्थिति का अभाव ही अभावात्मक स्थिति है। जैसे – बीज के वृक्ष होने में हवा, पानी, तूफान का नहीं आना, कड़ी धूप का नहीं होना, जानवरों का नहीं खाना आदि बातें भी अप्रत्यक्ष रूप से कार्य करती रहती है।

इसलिए वे बीज के लिए अभावात्मक स्थितियाँ हैं। इनका अभाव ही कारण के लिए सहायक होता है। इसी तरह नाव से नदी की धारा में गिरना भावात्मक स्थिति है तो उस आदमी को तैरने नहीं आना, और घबड़ा जाना अभावात्मक स्थिति है। अगर वह तैरना जानता तो डूबता नहीं। इसलिए डूबने का कारण उसका तैरना नहीं आना भी होगा। इसे अभावात्मक स्थिति कहते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर भावात्मक और अभावात्मक स्थिति की समान जरूरत है। इसलिए मिल साहब ने कहा कि भावात्मक और अभावात्मक स्थितियों का योगफल ही कारण कहलाता है।

आलोचना –

  1. अभावात्मक स्थितियों को कारण का एक अंश मानना एक उलझन पैदा कर सकता है। क्योंकि जो कारण अनुपस्थित है वह किसी भी कार्य के कारण का एक अंग कैसे बन सकता है?
  2. सभी अभावात्मक स्थितियों का वर्णन करना एक अत्यंत कठिन कार्य है। यह कभी भी पूरा नहीं हो सकता है। सभी अभावात्मक स्थितियों की गणना संभव नहीं है।
  3. भावात्मक उपाधियों में भी एक दिक्कत है सभी गणना संभव नहीं है।

कारण एवं उपाधि में संबंध-उपाधि की परिभाषा से ही संबंध स्पष्ट होता है। उपाधि कारण का अंश है। अनेक उपाधियों के योग से कारण बनता है। अतः, दोनों में वही संबंध है जो संबंध शरीर और अंगों के बीच है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न अंगों के जोड़ से पूर्ण शरीर बनता है उसी प्रकार उपाधियों में है। अंगों के निकाल देने पर शरीर का अंत हो जाता है। उसी प्रकार उपाधियों को हटा देने से कारण नाम की कोई वस्तु नहीं बचती है।

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प्रश्न 6.
कारण और कार्य दोनों बराबर है। इसकी व्याख्या करें। अथवा, कार्य-कारण से अन्तर्निहित है और कारण कार्य में अभिव्यक्त रहता है इस कथन की व्याख्या करें। अथवा, कार्य-कारण नियम के परिमाणगत लक्षणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
कारण और कार्य दोनों परिणाम के अनुसार बिल्कुल बराबर होते हैं (A cause is equal to effect quantity) इसका अर्थ यही हुआ कि कारण और कार्य, द्रव की मात्रा हमेशा ही एक समान रहती है। वह कभी घटती-बढ़ती नहीं है बल्कि उसका रूप परिवर्तन होते रहता है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दो गैस है जिनके मिलाने से पानी बनता है। यहाँ पर भी पानी दोनों गैसों की मात्रा के बराबर रहता है। इसी तरह शक्ति की अविनाशिता का नियम (Law of conservation of Energy) यह कहता है कि दुनिया में शक्ति का विनाश कभी नहीं होता है। वह हमेशा एक ही समान रहती है। केवल उसके रूप में परिवर्तन होता रहता है। शक्ति दो तरह की होती है –

(क) गति संबंधी (Kinetic)
(ख) संभावित शक्ति (Potential Energy)

एक में गति रहती है दूसरे में नहीं। एक किसी वस्तु को गतिशील बनाता है दूसरी स्थिर। इन्हीं दोनों में शक्ति का रूप परिवर्तन होता रहता है। उसका नाश कभी नहीं होता है। दोनों मात्रा में भी बराबर पा सकते हैं।
थोड़ी देर के लिए यदि हम मान लें कि कारण और कार्य बराबर नहीं है तो इसके बाद तीन संभावनाएँ हो सकती है।

(क) कारण-कार्य से मात्रा में बड़ा होता है।
(ख) कारण-कार्य से मात्रा में छोटा होता है।
(ग) कभी कारण बड़ा होता है और कभी छोटा।

इसमें यदि हम पहले को सही मान लें तो बहुत-सी असंभव घटनाएँ हमारे सामने आ जाएँगी। इसी तरह दूसरी संभावना भी गलत है कि जिसमें कारण-कार्य से छोटा कहा गया है। इसी तरह तीसरी संभावना भी नहीं मानी जा सकती है। क्योंकि उसे मान लेने से प्राकृतिक समरूपता नियम का उल्लंघन होता है। प्रकृति की घटनाओं में एकरूपता हो। अतः तीनों को देखने के बाद सही मानना पड़ता है कि कारण और कार्य परिणाम के अनुसार बिल्कुल बराबर होते हैं।

इसे मान लेने के बाद हमें यह भी कहने का अवसर मिलता है कि कारण में कार्य छिपा रहता है और कार्य में कारण का छिपा हुआ रूप रहता है। (Cause is nothing but effect can cealed and effect is nothing but cause evealed) कारण और कार्य परिणामों के अनुसार बराबर होते हैं। कार्य कारण में पहले से ही निवास करता है जैसे-बीज में वृक्ष, सरसों में तेल। वृक्ष बीज का खुला हुआ रूप है और तेल सरसों का। वृक्ष और तेल कोई नया चीज नहीं है। अतः परिणाम के अनुसार कारण और कार्य बिल्कुल बराबर होते हैं केवल उनके रूप में परिवर्तन होता हैं अतः दोनों बराबर है।

कार्य-कारण नियम और प्राकृतिक समरूपता नियम के बीच संबंध (Relation between in law of causation and this Law of uniformity of Nature):
दोनों नियम आगमन की आकस्मिक आधार हैं। इन दोनों की सहायता से ही आगमन में अत्यधिक सत्यता की स्थापना की जाती है। इन दोनों के बीच के संबंध को लेकर विद्वानों में दो मत हैं।

(क) मिल, बेन और वेन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम को प्राकृतिक समरूपता नियम का ही हिस्सा माना गया है। इन लोगों का कहना है कि प्राकृतिक समरूपता नियम एक मूल नियम है जो प्रकृति के सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। अतः, कार्य-कारण का नियम भी उसी का एक अंग है।

(ख) Sigwart, Bossanquet, Welton आदि विद्वानों के अनुसार कार्य:
कारण का नियम और प्राकृतिक समरूपता नियम दो अलग-अलग नियम हैं इसमें कोई एक-दूसरे का अंग या अंश नहीं है। ये दोनों नियम अलग-अलग रूप में आगमन की आकारिक सत्यता को पाने में मदद करते हैं। इन दोनों मतों को देखने से पता चलता है कि प्राकृतिक समरूपता नियम सभी प्रकार से आगमन का आधार है और कार्य-कारण नियम वैज्ञानिक आगमन का आधार है। वास्तव में दोनों नियम एक-दूसरे के सहायक एवं पूरक के रूप में हैं।

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प्रश्न 7.
बहुकारणवाद की व्याख्या एवं परीक्षण करते हुए उसकी कठिनाइयों का उल्लेख करें। या एक ही घटना विभिन्न कारणों से विभिन्न समय में उत्पन्न होती है। विवेचना करें।
उत्तर:
बहुकारणवाद के अनुसार एक ही घटना अलग-अलग समय में विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती है। एक कार्य को अनेक कारणों का बहुकारणवाद कहते हैं। जैसे-मृत्यु एक कार्य है जिसकी उत्पत्ति अनेक कारणों से होती है। मृत्यु कभी बीमारी से, कभी विष खाने से, कभी गोली लगने से, कभी दुर्घटना होने से और कभी गिरने से होती है। अतः विभिन्न समय के मृत्यु के विभिन्न कारण हैं। रोशनी, सूर्य, चन्द्र, लालटेन, दीपक, बिजली-मोमबत्ती, अनेक कारणों से उत्पन्न होती है। इस पर कार्वेथ रीड ने कहा है The same event may be due at different times to different antecedents, that in fact there may be various cause अर्थात् एक ही घटना भिन्न-भिन्न समय में अलग-अलग पूर्ववर्ती अवस्थाओं से घटती है।

अतः उसके भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं। मिल साहब ने भी बहुकारणवाद का समर्थन किया है। इनके शब्दों में “Many causes may produce mechanical mot on, many causes may produce. Produce same kind of sensation, many causes may produce death” अर्थात् अनेक कारण यांत्रिक गति उत्पन्न कर सकते हैं, कई कारण समान संवेदना उत्पन्न कर सकते हैं, कई कारणों से मृत्यु हो सकती है। स्पष्ट है कि एक ही घटना विभिन्न समय में विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती है। जैसे मृत्यु एक घटना है इसके कई कारण हो सकते हैं नदी में डूबना, टी.बी., हैजा, प्लेग, जहर खाना, ट्रेन से कट जाना आदि इसके अनेक कारण बताए जा सकते हैं।

बहुकारणवाद सिद्धांत की कठिनाइयों की आलोचना-() बहुकारणवाद कारण की नियतता के विरूद्ध है। कारण नियम पूर्ववर्ती है। नियम पूर्ववर्ती का अर्थ है कि वही पूर्ववर्ती कारण है जो अपरिवर्तनशील है, जो किसी घटना के पहले सर्वदा उपस्थित है। इसका अर्थ है कि एक कार्य का संबंध सर्वदा एक कारण से रहता है, परन्तु बहुकारणवाद के अनुसार एक कार्य का संबंध अनेक कारण से रहता है। इस सिद्धांत को मान लेने पर Valiable अनियत हो जाता है। अतः यह सिद्धांत कारण की नियतता के विरुद्ध जाता है।

1. यह सिद्धांत विज्ञान के विरुद्ध जाता हैं। विज्ञान के अनुसार एक घटना का एक कारण होता है तथा एक कारण का एक कार्य होता है। बहुकारणवाद के अनुसार एक कार्य में अनेक कारण होते हैं। अतः, सिद्धांत विज्ञान की मान्यता के विरुद्ध जाता है।

2. यह सिद्धांत प्राकृतिक समरूपता नियम के विरुद्ध भी जाता है। समान परिस्थिति में समान कारण से सफल कार्य की उत्पत्ति होती हैं इसका अर्थ होता है कि एक कार्य का एक कारण होता है। लेकिन बहुकारणवाद के अनुसार एक कार्य के अनेक कारण होते हैं। अतः, यह सिद्धांत प्राकृतिक समरूपता नियम के विरुद्ध जाता है जो कठिनाइयों को दूर कर सकते हैं? बहुकारणवाद में जो सत्यता दिखाई पड़ती है वह वास्तविक सत्यता नहीं है। यह तो हमारी असावधानी और अज्ञानता पर आधारित है। वस्तुतः प्रकृति में एक घटना का एक ही कारण है। बहुकारणवाद की असत्यता को दो तरह से दूर किया जा सकता है।

  • कार्यों का विशेषीकरण (specialisation of effects) तथा
  • कारणों के सामान्यीकरण द्वारा (Generalisation of causes) द्वारा।

(i) कार्यों का विशेषीकरण:
हमलोग प्रायः कारण में भेद करते हैं, किन्तु कार्य में भेद नहीं करते हैं। अलग-अलग कारणों से उत्पन्न कार्य जिसे हम एक समझते हैं वास्तव में एक नहीं बल्कि अनेक प्रकार का है। सूर्य, चन्द्र, लालटेन, बिजली, मोमबत्ती, दीपक से उत्पन्न प्रकाश को एक समझते हैं। परन्तु ध्यान से देखने पर भिन्नता दिखाई पड़ती है। बिजली का प्रकाश दीपक से प्रकाश से भिन्न है। दीपक की रोशनी, लालटेन की रोशनी से भिन्न है जब भिन्नता है तो फिर उसे एक नाम से नहीं परखना चाहिए। हमें सूर्य का प्रकाश, बिजली का प्रकाश, लालटेन की रोशनी, दीपक का प्रकाश अलग-अलग कहना चाहिए। जब ऐसा करते हैं तो एक कार्य का एक कारण होगा न कि अनेक।
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इस तरह एक कार्य का एक ही कारण सिद्ध होता है न कि अनेक। विभिन्न कार्यों की विशेषता बतलाना कार्यों का विशेषीकरण कहलाता है। अतः, कार्य का साफ-साफ व्यक्त करना ही कार्य का विशेषीकरण कहलाता है।

(ii) कार्यों का सामान्यीकरण:
इसका अर्थ है विभिन्न कारणों में निहित सामान्य (Common) तत्त्व का पता लगाना। यदि कारणों में सामान्य तत्त्व का पता लगता है तब एक कार्य का एक कारण होगा। विभिन्न कार्यों की भिन्नता पर ध्यान न देकर उसे एक नाम से पुकारते हैं। यहाँ न्याय का अंतर है कि विभिन्न कारणों की भिन्नता पर ध्यान न देकर उनके सामान्य तत्त्व का पता लगाकर उन्हें एक नाम से जान सकते हैं। जैसे मृत्यु का अनेक कारण कहते हैं-हैजा, प्लेग, विषपान, गोली लगना, नदी में डूबकर आदि, किन्तु ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि उन कारणों में एक सामान्य बात है “हृदय की गति का रुकना या प्राण शक्ति समाप्त होना” यहाँ मृत्यु का एक ही कारण है-प्राण शक्ति का समाप्त हो जाना।

इस तरह कारणों के सामान्यीकरण तथा कार्यों के विशेषीकरण के द्वारा बहुकारणवाद की असत्यता को प्रमाणित किया जा सकता है। बेन ने कहा है “Plurality of causes is more an ancident of our imperfect knowledge than a fact in the nature of things” अर्थात् कारणों की अनेकता वस्तुओं के विषय में कोई सत्यता नहीं हैं बल्कि अधूरे ज्ञान का परिणाम है। इसी तरह जाजेफ के शब्दों में “Plurality is more apparent than real.” अर्थात् अनेक कारण केवल दिखावटी हैं, यथार्थ नहीं। इसी तरह कार्वेथ रीड ने भी कहा है कि “यदि हम तथ्यों को पर्याप्त सूक्ष्मता से समझेंगे तो हम देखेंगे कि प्रत्येक कार्य का एक ही कारण होता है।” अतः, बहुकारणवाद सही सिद्धान्त नहीं है, कार्यों कि यह विज्ञान के विरुद्ध है।

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प्रश्न 8.
कारण-संयोग एवं कार्य सम्मिश्रण की सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर:
जब बहुत से कारण मिलकर संयुक्त रूप में कार्य पैदा करे तो वहाँ पर कारणों से मेल को कारण-संयोग (conjunction of causes) कहते हैं और उनसे उत्पन्न कार्य को कार्य-सम्मिश्रण (Intermixture of effects) कहते हैं। अतः, अनेक कारणों को मिलकर कार्य करना, कारणों का संयोग कहलाता है। B.N. Roy ने कहा है “The acting together of serveral of causes producing a joint effect is called conjunction of causes.” जैसे दाल, भात, दूध, घी, दही, तरकारी खाने के बाद हमारे शरीर में खून बनता है। इसलिए यहाँ पर ‘खून’ बहुत कारणों के मेल से बनने का कारण कार्य-सम्मिश्रण हुआ भात, दाल, दूध, दही, घी, तरकारी आदि कारणों का मेल कारण-संयोग कहलाया।

इसी तरह यदि हम अपने रूम में एक सौ दीपक जला दें तो उससे एक अच्छा प्रकाश होगा। यहाँ सभी दीपक मिलकर उन प्रकाश को कार्य रूप में पैदा करते हैं। इसलिए वे प्रकाश-सम्मिश्रण कार्य और सभी दीपक कारण संयोग के रूप में होगा। कार्य-सम्मिश्रण (Intermixture of Effects) दो तरह के हैं –

  1. सजातीय
  2. विजातीय।

1. सजातीय कार्य सम्मिश्रण (Homogeneous):
इसमें विभिन्न कारणों के मेल से जों कार्य पैदा होता है उसमें समीकरण एक ही तरह या जाति के होते हैं। जैसे-यदि हम अपने कमरे में एक सौ दीपक जला दें तो उससे खूब प्रकाश होगा। यहाँ प्रकाश कार्य है और इसके कारण सभी एक ही तरह के दीपक हैं इसे सजातीय कार्य सम्मिश्रण कहा जाता है।

2. विजातीय कार्य सम्मिश्रण (Heterogeneous):
इसमें कार्य विभिन्न कारणों के मेल से बनता है। वे सभी कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। जैसे ‘खून’ का कार्य-सम्मिश्रण लेने पर पता चलता है कि इसके कारण भात, दाल, दूध, घी, पानी, तरकारी आदि हैं ये सभी भिन्न-भिन्न जाति के हैं फिर भी इन सबों के मेल से ही ‘खून’ बनता है इसलिए यह विविध जाति जातीय कार्य सम्मिश्रण कहलाएगा।

कारण संयोग एवं बहुकारणवाद में अंतर (Difference between conjunction of causes and plurality):
दोनों में निम्नलिखित अंतर हैं –

(i) बहुकारणवाद में बहुत से कारण मिलते हैं, जैसे – मृत्यु के लिए नदी में डूबना, हैजा, प्लेग, ट्रेन से कटना आदि। किन्तु, एक समय में एक ही कारण काम करते हैं। दूसरी तरफ कारण संयोग में जो अनेक कारण मिलते हैं वे सभी एक-दूसरे से मिलकर ही उस कार्य को पैदा करते हैं अकेले नहीं।

(ii) बहुकारणवाद में जो कारण हमें मिलते हैं उनमें एक कारण अकेला ही उस तरह के कार्य को पैदा करने की ताकत रखता हैं जैसे नदी में डूबना या हैजा या प्लेग आदि में कोई एक अकेले वह कार्य पैदा कर सकता है, परन्तु ऐसी व्यक्ति संयोग में एक कारण के पास नहीं मिलती है। अकेले भात या दाल उस तरह का खून नहीं पैदा कर सकता है अकेलें ऑक्सीजन या हाइड्रोजन पानी पैदा नहीं कर सकता है।

(iii) बहुकारणवाद के कार्य में सरलता रहती है, क्योंकि एक समय में सूर्य के लिए एक ही कारण काम करता है दूसरी तरह कारण-संयोग में सभी कारण मिलकर कार्य करता है इसलिए उससे जो कार्य पैदा होता है वह जटिल या मिश्रित होता है।

(iv) बहुकारणवाद की आलोचना करते हुए इसे गलत और अवैज्ञानिक बताया गया है। परन्तु कारण-संयोग सही और वैज्ञानिक होने का दावा कर सकती है।

अतः, बहुकारणवाद में अनेक कारण Separately and independently कार्य को उत्पन्न करते हैं, किन्तु कारण-संयोग में अनेक कारण Jointly कार्य को उत्पन्न करते हैं। जैसे –
कारण संयोग – A + B + C Produce ‘X’
बहुकारणवाद – A or B or C Produces ‘X’

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प्रश्न 9.
कारण और कारणांश क्या है? दोनों में भेद बतावें।
उत्तर:
कारण और कार्य एक सापेक्ष पद है। एक के आने के बाद दूसरा आता है। कारण उपस्थित होने पर कार्य की उपस्थिति होती है। कारण एक घटना है। दो घटनाओं का संबंध इस तरह है कि जो पहले आता है, वह कारण कहा जाता है और जो बाद में आता है उसे कार्य कहा जाता है। बादल और वर्षा दोनों एक प्रकार के घटना हैं। बादल पहले आता है इसलिए बादल कारण है, वर्षा बाद में होती है, इसलिए वर्षा कार्य है। कारण एक हिस्सा है जो एक अर्थ के रूप में रहता है कारणांश एक प्रकार की स्थिति है यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में किसी कारण को कार्य के रूप में परिणत होने के लिए सहायक होता है जैसे यदि बीज कारण है तो वृक्ष कार्य है। कारणांश के दो भेद हैं –

  1. भावात्मक कारणांश
  2. अभावात्मक कारणांश।

1. भावात्मक कारणांश:
यह कारण का वह भाग है जो प्रत्यक्ष रूप से किसी भी कार्य को होने में सहायक होती है। जैसे बीज से वृक्ष होने में हवा, पानी, धूप, खाद्य आदि भावात्मक स्थितियाँ हैं।

2. अभावात्मक कारणांश:
यह कारण का वह हिस्सा है जो किसी भी कार्य में अनुपस्थित होकर कार्य को करने में सहायता प्रदान करती है। बीज से वृक्ष होने में भावात्मक स्थिति के साथ-साथ अभावात्मक स्थिति का भी होना जरूरी है, जैसे-बीज से वृक्ष होने में धूप, हवा, पानी इत्यादि के साथ-ही-साथ आँधी, तूफान का नहीं आना कड़ी धूप का नहीं होना, जानवरों द्वारा नहीं खाया जाना इत्यादि बातों का भी ध्यान रखना पड़ता है। अतः, कारणांश में भावात्मक और अभावात्मक दोनों के हाथ हैं। कारण और कारणांश दोनों में निम्नलिखित अंतर भी हैं –

  • कारण एक होता है, किन्तु कारणांश में कई कारण मिलकर किसी कार्य को करते हैं।
  • कारण अंश के रूप में रहता है, किन्तु कारणांश संपूर्ण के रूप में रहता है।
  • अरस्तू ने चार प्रकार के कारण बताए हैं-द्रव्य कारण, आकारिक कारण, विभिन्न निमित कारण और अन्तिम कारण। ये चारों प्रकार के कारण एक साथ मिलकर किसी भी कार्य को करते हैं। लेकिन कारणांश दो प्रकार के हैं भावात्मक और अभावात्मक कारणांश।

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प्रश्न 10.
समरूपता के मूल भेद क्या हैं? वर्णन करें।
उत्तर:
आगमन में प्राकृतिक समरूपता नियम तथा कार्य-कारण नियम आकारिक आधार के दो प्रमुख भेद बताएँ गए हैं। आगमन के दो मुख्य आधार भी हैं-आकारिक आधार तथा वास्तविक आधार। आकारिक आधार के अंतर्गत हम लोग प्राकृतिक समरूपता नियम में विश्वास करते हैं क्योंकि प्रकृति हमेशा एक समान व्यवहार करती है। इसमें कभी किसी तरह का हेर-फेर नहीं होता है। इस नियम की परिभाषा नहीं, किन्तु व्याख्या की गई है। प्रकृति एकरूप है। प्रकृति की घटनाएँ समान रूप से घटती है, जो अनुपस्थित है, वह उपस्थित के बराबर है। प्रकृति अपने आप में निष्पक्ष एवं ईमानदार है।

समानकारण से समान कार्य पैदा होता है इसका अर्थ यही हुआ कि जिस कारण से जो घटना आज घटती है यदि वही कारण कल भी उपस्थित हो जाए तो वही घटना घटेगी, जैसे यदि आज सरसों से तेल निकलता है तो कल भी निकलेगा। प्रकृति में जिस कारण से जो घटनाएँ घटती है वही कारण उपस्थित होने पर वही कार्य अवश्य होगा। इस तरह प्रकृति में किसी तरह की भिन्नता नहीं की गई है। यदि आज पानी में प्यास बुझाने की क्षमता है तो कल भी पानी में प्यास बुझाने की क्षमता रहेगी। इसी तरह आज आग में जलाने की शक्ति है तो भविष्य में भी आग में जलन शक्ति रहेगी। – अतः, संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जिन कारणों से जो घटना, आज घटती है कल भी वही कारण से वही घटना अवश्य घटेगी। इसकी गारंटी हम प्राकृतिक समरूपता से प्राप्त करते हैं। यहाँ समरूपता के मुख्यतः तीन मूल भेदों का वर्णन किया गया है।

  1. अनुक्रमिक समरूपताएँ
  2. समसत्ता की समरूपताएँ
  3. समान घटनाओं की समरूपताएँ।

1. अनुक्रमिक समयरूताएँ (Uniformities of succession):
इसे कारणता कहते हैं। इस प्रकार की समरूपता में जहाँ पहली घटना घटेगी वहाँ दूसरी घटना अवश्य घटेगी। जैसे – पानी और व्यास का बुझाना। आग का होना और गर्मी का होना। ये सब अनुक्रमिक समरूपताएँ हैं। इसमें प्राकृतिक समरूपता है।

2. समसत्ता की समरूपताएँ (Uniformities of co-existence):
प्रकृति में कुछ घटनाएँ इस प्रकार की घटती हैं जिन्हें साथ-साथ पायी जाती है या धातु के साथ पारदर्शिता सर्वदा रहती है। इसी तरह कुछ उदाहरण है जिनमें दो बातों की समसत्ता देखकर यह कहते हैं कि उनमें समसत्ता की एकरूपता पायी जाती है।

3. समान घटनाओं की समरूपताएँ (Uniformities of Equality):
इसके अंतर्गत देखा गया है कि अगर समान वस्तुओं के बराबर जितनी वस्तुएँ हैं ये सभी आपस में बराबर हैं। जैसे-गणित, विज्ञान जो अंकों के संबंध पर आधारित है, वह उसी प्रकार के उदाहरण से मिलता-जुलता नजर आता है। रेखा गणित में भी इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं। जैसे किसी चतुर्भुज के आमने-सामने वाले कोण यदि बराबर हों तो आमने-सामने वाली भुजाएँ भी समांतर और बराबर होंगी।

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प्रश्न 11.
प्रयोग के ऊपर निरीक्षण के लाभ की व्याख्या करें।
उत्तर:
निरीक्षण और प्रयोग में केवल मात्रा का भेद है फिर भी एक का फायदा दूसरे पर दिखलाया जा सकता है। प्रयोग की अपेक्षा निरीक्षण की विशेष सुविधाएँ या प्रयोग के ऊपर निरीक्षण के निम्नलिखित लाभ हैं।

1. निरीक्षण का क्षेत्र प्रयोग से बड़ा और व्यापक है। निरीक्षण सभी घटनाओं का किया जा सकता है, किन्तु सभी घटनाओं पर प्रयोग नहीं किया जा सकता है। जैसे-सामाजिक, राजनीतिक एवं ग्रह-नक्षत्र-संबंधी घटनाओं पर प्रयोग संभव नहीं है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण को कृत्रिम ढंग से उत्पन्न नहीं किया जा सकता है। इसी तरह अपराध, पाप, आत्महत्या, मानसिक रोग आदि को प्रयोग द्वारा उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। इन घटनाओं का केवल निरीक्षण ही संभव है।

2. निरीक्षण में कारण से कार्य तथा कार्य से कारण दोनों की ओर जाते हैं, परन्तु प्रयोग में केवल कारण से कार्य की ओर जाते हैं। जैसे किसी पशु को विष की सूई देकर हम देखते हैं कि इसका क्या प्रभाव पड़ता है। किन्तु, मरे हुए पशु पर प्रयोग कर यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि उसकी मृत्यु किस कारण से हुई। लेकिन निरीक्षण में शव को देखकर उसकी मृत्यु के कारण का अनुमान निरीक्षण के आधार पर कर सकते हैं। यहाँ कार्य से कारण की ओर जाते।

3. आगमन में पूर्णव्यापी वास्तविक वाक्य की स्थापना निरीक्षण के आधार पर की जाती है, जैसे-राम, श्याम, मोहन, यदु को मरते देखकर सभी मनुष्य मरणशील हैं, ऐसा निरीक्षण पर ही हम करते हैं। यहाँ प्रयोग से काम नहीं लेते हैं। प्रयोग तो निरीक्षण का संशोधित एवं नियंत्रित।

4. निरीक्षण का दावा है कि वह प्रयोग से पहले (Prior) आता है। प्रयोग करते समय भी हम निरीक्षण करते हैं। अतः, निरीक्षण प्रयोग के पहले आने का सही अधिकार रखता है। प्रयोग करने के पहले यंत्रों तथा उपादानों का निरीक्षण करने के बाद ही प्रयोग किया जाता है। ज्ञान का. प्रारंभ निरीक्षण से होता है। बाद में बुद्धि विकसित होने पर प्रयोग से काम लेते हैं।

5. निरीक्षण सबों के लिए सुलभ है इसके लिए विशेष योग्यता और कुशलता की जरूरत नहीं है। जबकि प्रयोग के लिए विशेष योग्यता एवं कुशलता की जरूरत रहती है। अतः, प्रयोग सबों के लिए सुलभ नहीं है।

6. निरीक्षण में घटनाओं को स्वाभाविक तथा शुद्ध रूप में देखते हैं। उनमें कृत्रिमता नहीं रहती है। जैसे-सूर्योदय, सूर्यास्त, वर्षा के मौसम में रिमझिम वर्षा का निरीक्षण आनन्ददायक होता है। किन्तु, प्रयोग में घटना को कृत्रिम ढंग से बनाते हैं। इसलिए उसमें स्वाभाविकता नहीं रहता है।

7. निरीक्षण से एक विशेष सुविधा मिलती है जो प्रयोग में नहीं मिलती है। प्रयोग की अपेक्षा निरीक्षण में कम मेहनत करनी पड़ती है। प्रयोग में अधिक परिश्रम करना पड़ता है।

परिस्थितियों एवं प्रयोगशालाओं का प्रबंध करना पड़ता है। इसमें यंत्रों की सहायता ली जाती है। अतः, यंत्रों का प्रबंध भी जरूरी है। इसमें बहुत झंझट एवं परेशानी है जबकि निरीक्षण का कार्य सुविधाजनक एवं आसान है। इस तरह निरीक्षण से विशेष लाभ प्रयोग की अपेक्षा है।

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प्रश्न 12.
निरीक्षण संबंधी दोषों की सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर:
निरीक्षण में घटनाओं को निष्पक्ष होकर देखा जाता है, किन्तु साधारण लोगों के द्वारा निरीक्षण की क्रिया गलत रूप से भी हो जाती है। इसे निरीक्षण का दोष कहते हैं। निरीक्षण में प्रायः दो तरह के दोष होते हैं। गलत निरीक्षण की भूल और नहीं निरीक्षण की भूल।

1. गलत निरीक्षण की भूल या दोष (Fallacy of mal observation):
निरीक्षण में हमारी ज्ञानेन्द्रियों को बहुत ही काम करना पड़ता है जिसमें कभी-कभी धोखा भी हो जाती है जिससे किसी वस्तु या घटना का गलत ज्ञान हो जाता है जिससे निरीक्षण दोषपूर्ण हो जाता है।

जैसे-चाँदनी रात में शांत वातावरण में बालू के सूखी रेत को पानी, या पानी को ही बालू समझना। अंधेरी रात में रस्सी को साँप या साँप को रस्सी समझना ये सब गलत निरीक्षण का नमूना है। साधारण लोग कहते हैं कि सूर्य पूरब उदय होकर धीरे-धीरे चलकर पश्चिमी में डूब जाता है। ऐसा समझना निरीक्षण का दोष है।

(ii) नहीं निरीक्षण की भूल (Fallacy of non observation):
निरीक्षण के समय हम कभी-कभी बहुत असावधान रहते हैं। इसमें उसके पूरे तथ्य को न देखकर उसमें कुछ ही अंश को देखते हैं। इसमें सत्य के एक पहलू को देखा जाता है तथा दूसरे का निरीक्षण बिल्कुल नहीं करते हैं। यह दोष दो तरह के हैं।

(क) उदाहरणों को नहीं देखना (Non-observation of instances):
सही और वैज्ञानिक निरीक्षण के लिए हमें पक्षपात से दूर रहना पड़ता है। किसी व्यक्ति को ठीक से बताने के लिए उसके भावात्मक तथा अभावात्मक गुणों का वर्णन होना चाहिए। उसके अच्छे-बुरे गुणों का वर्णन होना जरूरी है। यदि उसके बुरे गुणों का वर्णन नहीं करते हैं तो वहाँ निरीक्षण का दोष हो जाता है। अभावात्मक उदाहरणों को छोड़ देना वैज्ञानिक निरीक्षण नहीं है।

जैसे-जब कोई शादी हेतु लड़की वाला लड़का वाला के यहाँ जाता है तो लड़के का गुण बताता है कि लड़का एम. ए. पास है, खिलाड़ी है, समाज सेवक है, सुशील है, गायक है, तेज है। ये सभी उसके गुण हैं। किन्तु, वह शराबी है, झगड़ालू है, बीमार अधिक रहता है, गाली देने का स्वभाव एवं मारपीट करने में आगे रहता है। इन सब उदाहरणों को नहीं देखना केवल एक ही पक्ष देखने से निरीक्षण दोष पूर्ण है, जिसे – Non-observation of fallacy कहते हैं।

(ख) आवश्यक वस्तुओं को नहीं देखना (Non observation of the essential circumstances):
किसी घटना के होने में परिस्थिति का बहुत बड़ा हाथ रहता है। यदि परिस्थिति को तुच्छ और बेकार समझकर ध्यान में नहीं लाते हैं तो वहाँ निरीक्षण का दोष हो जाता है। जैसे-एक छात्र शाम को हॉकी खेलकर हाथ में डंडा लेकर सुनसान बगीचे से गुजर रहा है। एक बदमाश आदमी रुपये के लालच में एक लड़की की हत्या करके उसके आभूषणों को लूटना चाहता है। दोनों में भिड़त हो जाती है। छात्र के डंडे से वह गुंडा चोट खाकर मर जाता है।

इस हालत में परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उस छात्र को निर्दोष पाया जाएगा। उसे खून की सजा नहीं मिलेगी। यदि जज उस परिस्थिति को ध्यान में न रखकर सजा दे देता है तो वहाँ निरीक्षण का दोष हो जाता है, जिसे हम आवश्यक अवस्थाओं के नहीं, निरीक्षण का दोष कहेंगे। इस तरह अनेक परिस्थितियाँ चोरी, डकैती, हत्या की वृद्धि के लिए जिम्मेवार है।

गरीबी का बढ़ना, बेरोजगारी का बढ़ना, महँगाई, सरकार की कमजोरी, बेकारी की समस्या। इसमें केवल एक परिस्थिति सरकार की कमजोरी पर ध्यान देते हैं तथा अन्य परिस्थितियों का निरीक्षण नहीं करते हैं। अतः निरीक्षण के दोष के कारण जो सामान्यीकरण किया जाता है वह वैज्ञानिक नहीं है। सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में जो सिद्धान्त स्थापित किये जाते हैं उसमें निश्चितता नहीं रहती है।

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प्रश्न 13.
निरीक्षण के ऊपर प्रयोग के लाभ की व्याख्या करें?
उत्तर:
1. प्रयोग में जितनी बार चाहें उतनी बार घटनाओं को बार-बार दुहरा सकते हैं इसमें घटना हमारे हाथ में रहती है। किन्तु, निरीक्षण हमारे हाथ में नहीं रहता है। ऐसा मौका मिलता भी नहीं है। परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में रहती हैं।

2. प्रयोग में जाँच की जानेवाली घटना का अध्ययन दूसरी घटनाओं या परिस्थितियों से अलग करके कर सकते हैं। प्रकृति जटिल है। एक घटना दूसरी घटना से मिली रहती है। निरीक्षण में यह संभव नहीं है कि एक तत्त्व को दूसरे तत्त्व से अलग कर अध्ययन करें। प्रयोग में परिस्थितियाँ अलग की जा सकती हैं। किन्तु, निरीक्षण में ऐसा संभव नहीं है। हवा में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बनडाऑक्साइड इत्यादि मिले रहते हैं। एक बरतन में नाइट्रोजन रखते हैं और दूसरे बरतन में ऑक्सीजन। एक जलती मोमबत्ती नाइट्रोजन के बरतन के नजदीक जाने पर बुझ जाती है, किन्तु ऑक्सीजन के बरतन के नजदीक जाने पर तेज होकर जलने लगती है।

3. निरीक्षण की तुलना में प्रयोग से लाभ यह है कि घटना की जाँच परिस्थितियों से बदल-बदल कर करते हैं। परिस्थिति के परिवर्तन से बतलाता है कि किस परिस्थितियों का संबंध जाँच की जानेवाली घटना से है। जैसे-वैज्ञानिकों ने परिस्थिति को बदल करके पता लगाया कि नाइट्रिक एसिड, पीतल, लोहा, ताँबा, चाँदी को गला सकता है, परन्तु सोना को नहीं। निरीक्षण में परिस्थिति को बदली जा सकती है।

4. निरीक्षण की तुलना में प्रयोग से लाभ है कि प्रयोग में घटना की जाँच प्रयोगकर्ता धैर्य, सावधानी, सतर्कता एवं स्थिरता से करता है। इसमें जल्दीबाजी नहीं रहती है। किन्तु, निरीक्षण में यह सुविधा नहीं है।

5. प्रयोग से जो निष्कर्ष निकलते हैं वे निश्चित एवं संदेह रहित होते हैं। प्रयोग पर आधारित जाँच विश्वसनीय होता है। किन्तु, निरीक्षण से जो निष्कर्ष प्राप्त होता है वह संभाव्य होता है। वह सत्य भी हो सकता है और असत्य भी।

6. विज्ञान का जो कुछ विकास हुआ है उसमें प्रयोग का बहुत बड़ा हाथ है। निरीक्षण से उतना लाभ विद्वानों को नहीं पहुँच पाता है। इसलिए प्रयोग की वैज्ञानिक महत्ता निरीक्षण से अधिक है। भौतिकी एवं रसायन विज्ञान प्रयोग पर आधारित है इसलिए इसकी उन्नति अधिक हुई है। किन्तु मनोविज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्रयोग संभव नहीं है इसलिए इसका विकास कुछ कम हुआ अतः निष्कर्ष निकलता है कि प्रयोग निरीक्षण की अपेक्षा अधिक लाभदायक है। जहाँ प्रयोग संभव है वहाँ प्रयोग की मदद लेनी चाहिए।

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प्रश्न 14.
निरीक्षण की परिभाषा दें। निरीक्षण की मुख्य विशेषताओं की विवेचना करें। अथवा, निरीक्षण क्या है? निरीक्षण के लक्षणों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
निरीक्षण का अर्थ प्रायः देखना या प्रत्यक्षीकरण होता है। ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जो प्रत्यक्षीकरण होता है, उसे निरीक्षण कहते हैं। ये देखना या प्रत्यक्षीकरण दो तरह से होता है। “Observation is the equalited perception of natural events under conditions arrange by natures with an end in view.” अर्थात् प्राकृतिक, स्थितियों के बीच प्राकृतिक घटनाओं के उद्देश्यपूर्ण पर्यवेक्षण को निरीक्षण कहते हैं।” इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं।

1. निरीक्षण उद्देश्यपूर्ण-निरुद्देश्यपूर्ण देखना निरीक्षण नहीं है। जैसे-बाजार में अनेक दुकानों को प्रत्येक दिन देखता हूँ, परन्तु यह देखना साधारण देखना है। यह देखना निरीक्षण नहीं कहला सकता है। यदि किसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु किसी दुकान को देखता हूँ। जैसे कपड़ा खरीदने के लिए तो वह निरीक्षण कहलाएगा। अतः, निरीक्षण उद्देश्यपूर्ण होता है।

2. निरीक्षण नियमित एवं व्यवस्थित होता है-लक्ष्य की पूर्ति निरीक्षण को नियमित और व्यवस्थित करती है। जैसे-कोई ज्योतिषी सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी एवं नक्षत्रों को ध्यान से नियमित रूप से उनकी गतिविधि को अध्ययन के विचार से उनका प्रत्यक्षीकरण करता है तो यह निरीक्षण कहलाता है। लेकिन लोग रात में चाँद और तारे को प्रतिदिन अनियमित रूप से देखते हैं, जिसे निरीक्षण नहीं कहा जाएगा। अतः निरीक्षण नियमित प्रत्यक्षीकरण (Regulated perception) है।

3. निरीक्षण चयनात्मक क्रिया (Selective process):
प्रकृति में अनेक घटनाएँ घटती हैं। प्रकृति में अनेक वस्तुएँ हैं। निरीक्षण में हम सभी वस्तुओं पर ध्यान न देकर केवल उन्हीं वस्तुओं या घटनाओं पर ध्यान देते हैं जिससे लक्ष्य की पूर्ति होती है। अतः, प्रकृति में से घटनाओं का चयन करते हैं और उन्हें ध्यानपूर्वक निरीक्षण भी करते हैं, अतः निरीक्षण एक चयनात्मक क्रिया है।

4. स्वाभाविक स्थिति:
निरीक्षण में जिन वस्तुओं या घटनाओं को देखते हैं उन्हें स्वाभाविक स्थिति में देखते हैं। उसे बिना परिवर्तन के देखते हैं। प्रकृति में घटनाएँ जिस रूप में पस्थित होती हैं उन्हें उसी रूप में देखते हैं। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, सूर्योदय, सूर्यास्त, बाढ़, वर्षा आदि को हम स्वाभाविक स्थिति में ही देखते हैं। अतः, निरीक्षण में प्राकृतिक घटनाओं को प्राकृतिक अवस्था में देखते हैं।

5. निरीक्षणकर्ता की निष्पक्षता:
वैज्ञानिक तटस्थ होकर घटनाओं का निरीक्षण करता है। अपने भाव, संवेग एवं पूर्वाग्रह से अलग होकर वह घटनाओं का अध्ययन करता है। निष्पक्ष हुए बिना निरीक्षण संभव नहीं हो सकता है।

6. ज्ञानेन्द्रियों द्वारा निरीक्षण:
निरीक्षण ज्ञानेन्द्रियों द्वारा किया जाता है और ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति सीमित होती है। अतः निरीक्षण का स्पष्ट एवं प्रभावशाली बनाने के लिए वैज्ञानिक विभिन्न यंत्रों की सहायता भी लेते हैं। जैसे-दूरबीन का व्यवहार, थर्मामीटर, स्टेथेस्कोप का व्यवहार आदि।

7. निरीक्षण बाह्य घटनाओं तक ही सीमित नहीं है:
हम आंतरिक मनोदशा का भी निरीक्षण करते हैं। जैसे-सुख, दुःख, भय, क्रोध, प्रेम, इच्छा, घृणा आदि। मनोविज्ञान में इसे अंतर्निरीक्षण कहते हैं। इस तरह हमें उन तथ्यों को, जिनका हम निरीक्षण करते हैं, उन तथ्यों से भिन्न समझना चाहिए जिनका हम निरीक्षित तथ्यों (Observed facts) से अनुमान करते हैं। Jevons का कथन है कि जबतक हम केवल उन्हीं तथ्यों का वर्णन करते हैं, जिन्हें हमने अपनी ज्ञानेन्द्रियों से निरीक्षित किया है, तो हम त्रुटि नहीं करते हैं, परन्तु जैसे ही हम अन्दाज लगाते हैं या कल्पना करने लगते हैं, वैसे ही गलती कर बैठते हैं।

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प्रश्न 15.
प्रयोग की परिभाषा दें। प्रयोग की विशेषताओं को लिखें।
उत्तर:
प्रयोग भी आगमन का वास्तविक आधार है। यह भी एक प्रकार का निरीक्षण ही है। इसमें भी एक लक्ष्य रहता है, यह भी निरीक्षण की तरह लक्ष्यपूर्ण होती है। यहाँ पर नियंत्रित परिस्थिति में घटना को, कृत्रिम ढंग से उत्पन्न कर अध्ययन किया जाता है। प्रयोग की परिभाषा इस प्रकार दी गई है (Experiment is the observation of this artificial production of events under conditions prearranged by man”) अर्थात् मनुष्यों द्वारा निर्मित स्थितियों में कृत्रिम स्थितियों में कृत्रिम घटनाओं के निरीक्षण को प्रयोग कहते हैं।” इस परिभाषा के विश्लेषण करने पर निम्नलिखित लक्षण पाते हैं।

  1. प्रयोग भी एक तरह का निरीक्षण ही है। इसमें भी किसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु ध्यानपूर्वक किसी घटना या वस्तु को नियंत्रित पर्यवेक्षण (Regulated Perception) कहते हैं।
  2. प्रयोग में घटना को कृत्रिम ढंग से उत्पन्न किया जाता है। जैसे निश्चित मात्रा में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिलाकर पानी बनाया जाता है। यह पानी कृत्रिम होता है। बिजली, बादल को प्रयोग में उत्पन्न करना प्रयोग है, अतः निरीक्षण में घटना पाते हैं, किन्तु प्रयोग में घटना को बनाते हैं।
  3. घटना की उत्पत्ति हेतु जिन परिस्थितियों एवं स्थान की जरूरत पड़ती है उसका प्रबंध एवं चयन प्रयोगकर्ता स्वयं पहले से करता हैं जैसे-पानी या बिजली उत्पन्न करने के लिए प्रयोगकर्ता उनका प्रबंधन पहले करता है, अतः प्रयोग में वातावरण एवं परिस्थिति पर प्रयोगकर्ता का नियंत्रण रहता है। प्रयोगकर्ता अपनी इच्छानुसार परिवर्तन कर घटना का निरीक्षण कर सकता है।
  4. प्रयोग में घटना की उत्पत्ति के बाद उसका निरीक्षण किया जाता है। घटना का अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाता है। प्रयोग के बाद निष्कर्ष निकाला जाता है।
  5. प्रयोग के लिए वैज्ञानिक औजारों तथा विज्ञानशाला का रहना जरूरी है। घास पर बैठकर कोई प्रयोग खाली हाथ नहीं कर सकते हैं।

इस तरह निरीक्षण और प्रयोग को आगमन का वास्तविक आधार कहा जाता है। निरीक्षण और प्रयोग आगमन को विषय प्रदान करते हैं। आगमन में विशिष्ट उदाहरणों के निरीक्षण में आधार पर सामान्य नियम बनाते हैं। निरीक्षण और प्रयोग ही विशिष्ट उदाहरण प्रदान करते हैं जिनके आधार पर सामान्य नियम बनाते हैं।

जैसे-कुछ मनुष्यों को मरते देखकर ही सामान्य नियम बनाते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील हैं। कुछ उदाहरणों के प्रयोग के आधार पर ही विज्ञान में सामान्य नियम बनाते हैं। इसलिए निरीक्षण और प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार कहलाते हैं। पुनः आगमन के निष्कर्ष की वास्तविक सत्यता की जाँच निरीक्षण और प्रयोग से होती है। इसलिए भी निरीक्षण और प्रयोग को आगमन का वास्तविक आधार कहते हैं। आगमन की वास्तविक सत्यता निरीक्षण और प्रयोग पर निर्भर करती है, इसलिए ये आगमन के वास्तविक आधार कहलाते हैं।

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प्रश्न 16.
निरीक्षण और प्रयोग में प्रकार का भेद नहीं बल्कि मात्रा का है, विवेचन करें। अथवा, निरीक्षण और प्रयोग में अन्तर बताएँ। अथवा, निरीक्षण की तुलना प्रयोग से करें।
उत्तर:
निरीक्षण और प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार हैं। दोनों के द्वारा आगमन की वास्तविक सत्य निर्धारित होती है। निरीक्षण की विशेषतापूर्ण अवस्था ही प्रयोग है। दोनों मिलकर आगमन के तथ्य की पूर्ति करते हैं फिर भी दोनों में कुछ मुख्य अंतर हैं।

1. निरीक्षण प्राकृतिक है जबकि प्रयोग कृत्रिम है। जो घटना जिस रूप में प्रकृति में घटती है उसे उसी रूप में देखते हैं। घटनाओं में हेर-फेर नहीं करते हैं। जैसे – प्रयोगशाला में बिजली, बादल, पानी कृत्रिम ढंग से बनाते हैं। आकाश में बादल, नक्षत्र, चाँद-सितारों का देखना निरीक्षण है, अतः निरीक्षण प्राकृतिक है, जबकि प्रयोग कृत्रिम है।

2. निरीक्षण में हम प्रकृति के दास रहते हैं, परन्तु प्रयोग में ऐसी बात नहीं है। निरीक्षण में हमें प्रकृति पर निर्भर करना पड़ता है। जब प्रकृति में घटना घटेगी तब हम निरीक्षण कर सकते हैं। प्रकृति में जब चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, भूकम्प होगा तब ही हम उन घटनाओं का निरीक्षण कर सकते हैं। अतः यहाँ हम प्रकृति के दास बने रहते हैं। लेकिन प्रयोग में घटना को उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ हमारे नियंत्रण में रहती हैं। इसलिए इच्छानुसार घटना को उत्पन्न करते हैं। हम प्रकृति पर निर्भर नहीं रहकर प्रकृति को ही प्रयोग के अधीन रखते हैं।

3. निरीक्षण में हम परिस्थितियों को उत्पन्न नहीं करते हैं। परिस्थितियाँ प्रकृति के द्वारा प्रदान की जाती हैं। जिस वातावरण में घटना घटती है, उसी वातावरण और परिस्थिति में घटना का निरीक्षण करना पड़ता है, किन्तु प्रयोग में परिस्थितियों और वातावरण को कृत्रिम ढंग से उत्पन्न किया जाता है। अतः निरीक्षण और प्रयोग में अंतर परिस्थितियों को उत्पन्न करने के विषय में है। निरीक्षण में परिस्थिति प्राकृतिक है, परन्तु प्रयोग में परिस्थिति कृत्रिम है।

4. निरीक्षण में हम घटना को पाते हैं, परन्तु प्रयोग में घटना को बनाते हैं (Observa tion is finding fact an experiment is making one)

5. निरीक्षण में प्रासंगिक परिस्थिति को अप्रासंगिक परिस्थिति से अलग नहीं कर सकते हैं। प्रयोग में परिस्थिति को अप्रासंगिक परिस्थिति से अलग कर घटना का अध्ययन करते हैं।

6. बेकन का कथन है कि प्रयोग में हम प्रकृति से प्रश्न पूछते हैं।

7. स्टॉक साहब का कथन है कि निरीक्षण निष्क्रिय है और प्रयोग सक्रिय है। निष्क्रिय इसलिए कहा जाता है कि निरीक्षणकर्ता प्रकृति की घटनाओं को घटते हुए मात्र देखता है। उसे घटना को उत्पन्न करने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता है। प्रयोग में सक्रिय इसलिए रहना पड़ता है कि घटना को उत्पन्न करना पड़ता है। उत्पन्न करने में स्वाभाविक है कि प्रयोगकर्ता को सक्रिय रहना पड़ता है।

8. निरीक्षण और प्रयोग में अंतर है कि निरीक्षण प्रयोग से पहले आता है। निरीक्षण के द्वारा जिस सत्य का पता लगता है उसे ही प्रयोग के द्वारा परीक्षण करते हैं, अर्थात् सत्यापन करते हैं। फिर भी इतना अन्तर होते हुए भी तार्किकों ने कहा कि दोनों में प्रकार का नहीं, मात्रा का भेद है। दोनों में जो अन्तर दिखाये गए हैं वे सही नहीं हैं। निरीक्षण को प्राकृतिक और प्रयोग को कृत्रिम कहना ठीक नहीं है। दोनों पूर्णतः प्राकृतिक और कृत्रिम नहीं हैं।

निरीक्षण में भी कृत्रिमता की कुछ मात्रा है और प्रयोग में भी प्राकृतिक की कुछ मात्रा है। जब निरीक्षण में यंत्रों-दूरबीन, स्टेथेस्कोप, थर्मामीटर, माइक्रोस्कोप आदि का व्यवहार करते हैं तब निरीक्षण भी कृत्रिम हो जाता है। प्रयोगकर्ता स्वयं कृत्रिम नहीं है। बल्कि प्राकृतिक जीता-जागता बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति है। जिसे हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि प्रकृति प्रदत्त हैं।

अतः प्रयोग शुद्ध रूप से कृत्रिम नहीं है इसमें भी प्राकृतिक व्यक्तियों की सहायता की जाती है। निरीक्षण भी शुद्ध रूप से प्राकृतिक नहीं है। अतः निरीक्षण अधिक प्राकृतिक है और कृत्रिम कम है जबकि प्रयोग अधिक कृत्रिम है और कम प्राकृतिक है। अतः, दोनों में प्रकार का भेद नहीं है, बल्कि मात्रा का भेद है।

स्टाक महोदय का विचार है कि निरीक्षण निष्क्रिय और प्रयोग सक्रिय है। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। निरीक्षण को निष्क्रिय इसलिए कहा गया है कि इसमें हम कुछ करते नहीं हैं, घटना को मात्र घटते हुए देखते हैं। परन्तु, यह कहना ठीक नहीं है। निरीक्षण में मानसिक रूप से सक्रिय रहना पड़ता है। क्योंकि इसमें चुनाव की क्रिया होती है। पुनः निरीक्षण नियमित और व्यवस्थित क्रिया है। इसके लिए सक्रिय होना जरूरी है। निरीक्षण में ध्यान की क्रिया भी सम्मिलित है। ध्यान स्वयं सक्रिय क्रिया है। इसी तरह कुछ वस्तुओं या घटनाओं के लिए हमें शारीरिक रूप से सक्रिय रहना पड़ता है। जैसे, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण के लिए सचेत रहना पड़ता है।

अतः, निरीक्षण पूर्ण रूप से निष्क्रिय नहीं है और प्रयोग पूर्ण रूप से सक्रिय भी नहीं है। प्रयोग में भी प्रयोगकर्ता चुपचाप बैठकर घटना को घटते हुए देखता है। अतः, प्रयोग अधिक सक्रिय है और कम निष्क्रिय। अतः, दोनों में प्रकार का अन्तर नहीं है, बल्कि मात्रा का है। दोनों में विरोध नहीं है दोनों एक ही जाति की दो उपजातियाँ हैं। निरीक्षण जाति है, Genus है। साधारणतः निरीक्षण तथा प्रयोगात्मक निरीक्षण इसका दो उपजातियाँ हैं जिसे हम प्रयोग कहते हैं। यह वास्तव में विशिष्ट निरीक्षण हैं। निरीक्षण को नियमित कर देते हैं तो वह प्रयोग हो जाता है।

प्रयोग में घटना को इच्छानुसार देखना है “Experiment is nothing but observation of facts under condition produced by the observer at will.” पुनः निरीक्षण प्रयोग में बदल जाता है। जब इच्छानुसार परिस्थितियों में लाते हैं, “Observation passes into experiment when we can manipulates the facts as we like.” अतः, निरीक्षण और प्रयोग में प्रकार का भेद नहीं बल्कि मात्रा का है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 17.
प्राकृतिक समरूपता नियम की व्याख्या करें। इसे आगमन का आकस्मिक आधार क्यों कहा जाता है? इसकी महत्ता का वर्णन करें।
उत्तर:
आगमन का लक्ष्य एक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करना है जिसमें वास्तविक सत्यता पायी जाए। आगमन में आजीवन सत्यता का अर्थ है उन व्यापक नियमों का पाना जिनके द्वारा हम पूर्णव्यापी वास्तविक वाक्य की स्थापना करते हैं। उन नियमों के रूप में प्राकृतिक समरूपता नियम (Law of use formality of Nature) की सहायता लेते हैं। यह एक मूल सिद्धान्त है इसकी परिभाषा नहीं दी जा सकती है। बल्कि व्याख्या की जा सकती है। इस व्याख्या में प्राकृतिक समरूपता नियम के निम्नलिखित रूप पाते हैं।

(क) प्रकृति एकरूप है (Nature is uniform) अर्थात् प्रकृति की घटनाएँ एक समान घटती हैं।

(ख) प्रकृति में समान घटनाएँ घटती है (Same events happen in the Nature) आज जिस तरह की घटना घटती है उसी तरह की घटना भविष्य में भी घटेगी।

(ग) भविष्य अतीत के समान होगा (The future will reseneble the past) भूतकाल में जो घटनाएँ घटती हैं, वे भविष्य में भी घटेगी। भूत, वर्तमान और भविष्य में एक मेल पाया जाता है।

(घ) प्रकृति अपनी पुनरावृत्ति करती है (Nature repeats it self) एक तरह की घटना बार-बार घटती हुई दिखाई पड़ती है।

(ङ) अज्ञात ज्ञात के बाद होता है (The unknown is like the known) प्राकृतिक घटनाएँ जो घट चुका है वे तो ज्ञात हैं; किन्तु उसके आधार पर अज्ञात को जान सकते हैं।

(च) ब्रह्माण्ड नियमों द्वारा संचालित हैं (The universe is governed by laws) सारा ब्रह्माण्ड नियमों से संचालित होता है सूर्य, चाँद, ग्रह, ऋतु, तारे, पृथ्वी सभी नियमों में बँधे हुए

(छ) समानकारण से समान कार्य पैदा होता है (The same cause will produce the same effect) इसका अर्थ है कि जिस कारण से जो घटना घटती है घटती रहेगी। प्रकृति में जो घटनाएँ घटेगी वह नियमबद्ध मनमाने ढंग से अंधी घटनाएँ नहीं घट सकती हैं। विभिन्नता इस रूप में नहीं हो तो यही प्राकृतिक समरूपता नियम है।

(ज) जो अनुपस्थित है वह उपस्थित के बराबर है। (The absent is like the present) अर्थात् जो घटना या वस्तु आज अनुपस्थित है, वह समान परिस्थिति में उपस्थिति अवश्य होती है। इस तरह का विश्वास जिस आधार पर चलता है, उसे ही प्राकृतिक नियम कहते हैं।

इन सभी विभिन्न व्याख्याओं का एक ही निचोड़ है कि प्रकृति समान परिस्थिति में समान रूप से व्यवहार का कार्य करती है। (Nature behaves in the same way under similar circumstances) इस तरह प्राकृतिक समरूपता नियम की व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में की गईं हैं जिसका अर्थ स्पष्ट है कि समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। (Same cause will produce same effect) जैसे आग में गर्मी, वर्षा में ठंढक, पानी से प्यास बुझाना, जाड़े के दिनों में जाड़ा, गर्मी के मौसम में गर्मी आदि प्राकृतिक घटनाएँ बिल्कुल नियमित रूप से पायी जाती हैं।

इसलिए तार्किकों ने कह डाला कि “प्रकृति में कोई सनक नहीं है। (There is no such thing as whim or caprice in Nature) इसका समर्थन कुमारी स्टेविंग भी करती हैं। “प्रकृति में जो कुछ भी होता है वह नियमानुकूल होता है और ये नियम इस तरह के होते हैं कि इनका पता लगाया जा सकता है। (What happens, happens in accordance with laws and there laws all such that we can discover them”) प्राकृतिक समरूपता नियम की सत्यता पर कुछ लोग संदेह करते हैं जिसमें पहली आपत्ति है-जब प्रकृति की घटनाएँ एक समान घटती हैं तो कभी कड़ी धूप, कभी भूकंप, कभी गर्मी, कभी खूब वर्षा, कभी कम वर्षा, कभी अकाल, कभी सुखाड़, तो कभी बाढ़ और कभी वे एक दम नहीं पाए जाते हैं।

1934 ई. में बिहार में भूकंप हुआ फिर नहीं हुआ ऐसा क्यों? अतः, प्रकृति में समरूपता नहीं है। Mill साहब कहते हैं कि कोई भी मनुष्य इस बात पर विश्वास नहीं करता है कि इस वर्ष जैसी अच्छी वर्षा और ऋतु हुई आगामी वर्षों में भी ऐसी ही बात पायी जाएगी…कोई भी यह आधार नहीं रखता है कि प्रत्येक रात में मनुष्य एक ही तरह का स्वप्न देखता रहेगा…वस्तुतः प्रकृति की गति केवल एक रूप नहीं बल्कि भिन्न भी है। इसी तरह Carveth Read भी कहते हैं कि-“विभिन्न प्रकार से प्रकृति एक रूप नहीं प्रतीत होती है। वस्तुओं के गुण, आकार, रंग आदि में विभिन्नता पायी जाती है। जलवायु तो अनिश्चित होती है-यहाँ तक कि व्यवसाय और राजनीतिक की घटनाएँ भी एक समान नहीं होती हैं। अतः, प्रकृति में समरूपता पाया जाना असंभव है।

इसका उचित उत्तर है कि ये आपत्तियाँ बेकार हैं। प्रकृति इतना विशाल है कि इसमें विभिन्नताओं का होना जरूरी है। प्रकृति समान परिस्थिति में एक समान व्यवहार करती है (Nature acts or behaves in the same way under similar circumstances”)। भूकंप जिस कारण से 1934 में आया था वही कारण यदि पैदा हो गया तो भूकंप होगा। इसका अर्थ है प्राकृतिक समरूपता अर्थात् कार्य-कारण की समरूपता। प्रकृति के कारण जटिलता ज्ञात नहीं होते हैं। सभी घटनाएँ नियमित और कारणवश ही होती हैं।

दूसरी आपत्ति है कि प्रकृति में कोई एक समरूपता नहीं बल्कि बहुत-सी समरूपताएँ हैं। ऐसा Bain साहब कहते हैं कि The course of the world is not a uniformity but uniformities. प्रकृति में भिन्न-भिन्न नियम हैं नदी, जंगल, पहाड़, कीड़े और मनुष्य में अनेक अलग-अलग नियम हैं और इस तरह नियमों की संख्या भी असंख्य हैं। हमारे सामने आपत्ति के रूप में प्रश्न है कि नियम एक नहीं अनेक हैं। यह झगड़ा एक वचन और बहुवचन का है। दर्पण में तो अनेकताओं में एकता पाना साधारण-सी बात है (One in many) प्राकृतिक का क्षेत्र बहुत ही विशाल और जटिल है। हम उसे संपूर्णता में नहीं जान सकते हैं। उससे कई विभागों में बाँटकर ही उसे उसका ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए एक नियम के अंतर्गत ही अनेक नियम उपनियम बना लेते हैं। प्रकृति में समरूपताएँ बाह्रा हैं वास्तव में समरूपता ही है जिसे Ram of uniformity of Nature कहते।

बेल्टन के अनुसार भी प्रकृति, समरूपता में विविधता एवं अनेकता के लिए स्थान है। महत्त्व-प्रकृति समरूपता को आगमन का आधार माना गया है। इसका महत्त्व इतना अधिक है कि इसे बिना माने आगमन की क्रिया संभव ही नहीं है। आगमन में ‘कुछ’ से ‘सब’ की ओर गणना, भविष्य की गारंटी कहाँ से मिलती हैं? प्राकृतिक समरूपता नियम में विश्वास के आधार पर ही सामान्यीकरण करते हैं। विश्वास पर ही निरीक्षित से अनिरीक्षित की ओर जाते हैं। मिल ने भी इसकी महत्ता स्वीकारा है। विज्ञान भी प्राकृतिक समरूपता नियम पर ही आधारित है। इसी पर आगमन और विज्ञान की क्रियाएँ संभव है।