Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.
BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 संविधान का राजनीतिक दर्शन
Bihar Board Class 11 Political Science संविधान का राजनीतिक दर्शन Textbook Questions and Answers
संविधान का राजनीतिक दर्शन के प्रश्न उत्तर Bihar Board प्रश्न 1.
नीचे कुछ कानून दिए गए हैं। क्या इनका संबंध किसी मूल्य से है? यदि हाँ, तो वह अंतर्निहित मूल्य क्या है? कारण बताएँ।
(क) पुत्र और पुत्री दोनों का परिवार की संपत्ति में हिस्सा होगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं के बिक्री-कर का सीमांकन अलग-अलग होगा।
(ग) किसी भी सरकारी विद्यालय में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जायगी।
(घ) ‘बेगार’ अथवा बंधुआ मजदूरी नहीं कराई जा सकती।
उत्तर:
(क) परिवार की नियुक्ति में पुत्री एवं पुत्र दोनों का बराबर हिस्सा होना सामाजिक मूल्य से सम्बन्धित है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संविधान में स्त्री और पुरुष दोनों को समान अधिकार प्रदान किया गया है। यह एक लिंग-न्याय कहा जाएगा। सामाजिक न्याय का अर्थ है कि लिंग, जाति, नस्ल, धर्म अथवा क्षेत्र आदि के आधार पर कोई भेदभाव न हो। अतः पुत्री और पुत्र दोनों को समान हिस्सा दिया जाना सामाजिक न्याय के अन्तर्गत या लिंग न्याय की श्रेणी में रखा जायगा।
(ख) अलग-अलग उपभोक्ता वस्तुओं पर बिक्रीकर का सीमांकन अलग-अलग करना आर्थिक न्याय का उदाहरण है।
(ग) सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा न दिया जाना, धर्म निरपेक्षता के मूल्य पर आधारित है।
(घ) किसी से बेगार न लेना और बन्धुआ मजदूरी का निषेध करना यह भी सामाजिक न्याय के मूल्य पर आधारित है। समाज में किसी भी वर्ग का शोषण नहीं किया जाना चाहिए।
संविधान का राजनीतिक दर्शन प्रश्न उत्तर Bihar Board प्रश्न 2.
नीचे कुछ विकल्प दिए जा रहे हैं। बताएँ कि इसमें किसका इस्तेमाल निम्नलिखित कथन को पूरा करने में नहीं किया जा सकता? लोकतांत्रिक देश को संविधान की जरूरत …..
(क) सरकार की शक्तियों पर अंकुश रखने के लिए होती है।
(ख) अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से सुरक्षा देने के लिए होती है।
(ग) औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है।
(घ) यह सुनिश्चित करने के लिए होती है कि क्षणिक आवेग में दूरगामी के लक्ष्यों से कहीं विचलित न हो जाएँ।
(ङ) शांतिपूर्ण ढंग से सामाजिक बदलाव लाने के लिए होती है।
उत्तर:
इस वाक्य को पूरा करने में तीसरा विकल्प –
(ग) का प्रयोग नहीं किया जा सकता अर्थात् औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता अर्जित करने के लिए होती है, का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
संविधान का राजनीतिक दर्शन पाठ के प्रश्न उत्तर Bihar Board प्रश्न 3.
संविधान सभा की बहसों को पढ़ने और समझने के बारे में नीचे कुछ कथन दिए गए हैं –
- इनमें से कौन-सा कथन इस बात की दलील है कि संविधान सभा की बहसें आज भी प्रासंगिक हैं? कौन-सा कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं?
- इनमें से किस पक्ष का आप समर्थन करेंगे और क्यों?
(क) आम जनता अपनी जीविका कमाने और जीवन की विभिन्न परेशानियों के निपटाने में व्यस्त होती हैं। आम जनता इन बहसों की कानूनी भाषा को नहीं समझ सकती।
(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से अलग हैं। संविधान निर्माताओं के विचारों को पढ़ना और अपने नये जमाने में इस्तेमाल करना दरअसल अतीत को वर्तमान में खींच लाना है।
(ग) संसार और मौजूदा चुनौतियों को समझाने की हमारी दृष्टि पूर्णतया नहीं बदली है। संविधान सभा की बहसों से हमें यह समझने के तर्क मिल सकते हैं कि कुछ संवैधानिक व्यवहार क्यों महत्त्वपूर्ण हैं एक ऐसे समय में जब संवैधानिक व्यवहारों को चुनौती दी जा रही है, इन तर्कों को न जानना संवैधानिक-व्यवहारों को नष्ट कर सकता है।
उत्तर:
1.
(क) जब आम जनता अपने जीविकोपार्जन में व्यस्त रहती है तो यह कथन यह तर्क प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं हैं।
(ख) आज की स्थितियाँ और चुनौतियाँ संविधान बनाने के वक्त की चुनौतियों और स्थितियों से अलग हैं। यह तर्क भी प्रस्तुत करता है कि ये बहसें प्रासंगिक नहीं है।
(ग) यह कथन प्रस्तुत करता है कि बहसें प्रासंगिक हैं क्योंकि संसार और वर्तमान चुनौतियाँ पूर्णतया नहीं बदली हैं।
2.
(क) मैं इस बात से सहमत हूँ कि आम जनता अपनी जीविका कमाने में व्यस्त है।
(ख) मैं इस बात से सहमत हूँ क्योंकि आज की स्थितियाँ उस समय से अलग हैं। पिछले लगभग 56 वर्षों में 93 के लगभग संशोधन हो चुके हैं।
(ग) क्योंकि समस्त चुनौतियाँ और यह संसार पूर्णतया नहीं बदले अतः मैं इस बात से सहमत हूँ कि बहसें प्रासंगिक हैं।
संविधान का राजनीतिक दर्शन Class 11 प्रश्न उत्तर Bihar Board प्रश्न 4.
निम्नलिखित प्रसंगों के आलोक में भारतीय संविधान और पश्चिमी अवधारणा में अंतर स्पष्ट करें –
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ
(ख) अनुच्छेद 370 और 371
(ग) सकारात्मक कार्य-योजना या अफरमेटिव एक्शन
(घ) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार
उत्तर:
(क) धर्मनिरपेक्षता की समझ:
धर्म निरपेक्षता के मामले में भारतीय संविधान पश्चिमी अवधारणा से बिल्कुल भिन्न है। पश्चिमी अवधारणा में धर्म व्यक्ति की अपनी निजी धारणा है। राज्य उसमें किसी प्रकार का योगदान या हस्तक्षेप नहीं करता, परंतु भारतीय संविधान में सभी धर्मों को समान आदर दिया गया है।
(ख) अनुच्छेद 370 और 371:
अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर राज्य के सम्बन्ध में अस्थायी या संक्रमणकालीन व्यवस्था ही करता है। अनुच्छेद 371 उत्तर-पूर्व के राज्यों के लिए है। भारतीय संविधान और पाश्चात्य अवधारणा में यह अंतर है कि पाश्चात्य देशों में राज्यों के अपने अलग संविधान होते हैं परंतु भारतीय संविधान में राज्यों के अलग संविधान नहीं हैं, परंतु जम्मू और कश्मीर का 26 जनवरी, 1957 से अपना अलग संविधान भी है जिसमें जम्मू-कश्मीर राज्य के विशेष उपबंध हैं।
371 (a) नागालैण्ड राज्य के सम्बन्ध में विशेष उपबंध हैं
371 (b) असम के, 371
(c) मणिपुर, 371
(d) आन्ध्र प्रदेश, 371
(e) आन्ध्र प्रदेश में केन्द्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना के
371 (f) सिक्किम राज्य के सम्बन्ध में विशेष उपबंध हैं 371
(g) मिजोरम, 371
(h) अरुणाचल प्रदेश
1. गोवा के सम्बन्ध में विशेष उपबंध हैं। इन राज्यों को छोड़कर पाश्चात्य धारणा और भारतीय संविधान में अंतर है परंतु 370 और 371 अनुच्छेदों वाले राज्यों पर केन्द्र का सीधा-नियंत्रण अथांत् उन राज्यों की सहमति के आधार पर संसद के नियमों को लागू कराया जा सकता है। एक सीमा तक ये प्रदेश स्वायत्तता का उपयोग कर सकते हैं जैसा कि पाश्चात्य धारणा में तो राज्यों की स्वायत्तता होती ही है।
(ग) सकारात्मक कार्ययोजना:
भारतीय संविधान और पाश्चात्य धारणा में सकारात्मक कार्ययोजना के सम्बन्ध में बड़ा अंतर है जैसा कि अमेरिका के संविधान में जहाँ संविधान 18 वीं शताब्दी में लिखा गया था उस समय के मूल्य और प्रतिमान आज इक्कीसवीं सदी में लागू करना भद्दा होगा परंतु भारतीय संविधान में निर्माताओं ने सकारात्मक कार्ययोजना हमारे मूल्यों, आदशौँ तथा विचारधारा के साथ संविधान का निर्माण किया।
भारतीय राजनीतिक दर्शन उदारवाद, लोकतंत्र समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और संघात्मकता तथा अन्य सभी धारणाओं जो भारतीय संस्कृति को प्रकट करती है, वसुधैव कुटुम्बकम अर्थात् सबको एक समान मानते हुए अल्पसंख्यकों का आदर करते हुए एक राष्ट्रीय पहचान बनाए रखते हुए भारतीय संविधान में रखा गया है परंतु पाश्चात्य विचारधारा में ऐसा नहीं होता।
(घ) सार्वभौम वयस्क मताधिकार:
पाश्चात्य अवधारणा में स्त्रियों को मताधिकार अभी हाल में दिया गया है जबकि संविधान निर्माण के समय नहीं दिया गया था परंतु भारतीय संविधान में सार्वभौम वयस्क मताधिकार (सभी स्त्री, पुरुष व नपुंसक को) दिया गया है।
संविधान का राजनीतिक दर्शन Class 11 Question Answer Bihar Board प्रश्न 5.
निम्नलिखित में धर्मनिरपेक्षता का कौन-सा सिद्धांत भारत के संविधान में अपनाया गया है?
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य का धर्म से नजदीकी रिश्ता है।
(ग) राज्य धर्मों के बीच भेदभाव कर सकता है।
(घ) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
(ङ) राज्य को धर्म के मामलों में हस्तक्षेप करने की सीमित शक्ति होंगी।
उत्तर:
भारतीय संविधान में धर्म-निरपेक्षता के निम्नलिखित सिद्धांत अपनाए गए हैं –
(क) राज्य का धर्म से कोई लेना-देना नहीं है।
(ख) राज्य धार्मिक समूहों के अधिकार को मान्यता देगा।
संविधान का राजनीतिक दर्शन पाठ के प्रश्न उत्तर कक्षा 11 Bihar Board प्रश्न 6.
निम्नलिखित कथनों को सुमेलित करें –
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी।
(ख) संविधान-सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्कबुद्धि के आधार पर लिया जाना।
(ग) व्यक्ति के जीवन से समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना।
(घ) अनुच्छेद 370 और 371
(ङ) महिलाओं और बच्चों को परिवार की संपत्ति में असमान
अधिकार:
- आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
- प्रक्रियागत उपलब्धि
- लैंगिक-न्याय की उपेक्षा
- उदारवादी व्यक्तिवाद
- धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना
उत्तर:
(क) विधवाओं के साथ किए जाने वाले बरताव की आलोचना की आजादी।
(ख) संविधान सभा में फैसलों का स्वार्थ के आधार पर नहीं बल्कि तर्क बुद्धि के आधार पर लिया जाना
(ग) व्यक्ति के जीवन में समुदाय के महत्त्व को स्वीकार करना
(घ) अनुच्छेद 370 और 371
(ङ) महिलाओं और बच्चों के परिवार की संपत्ति में असमान
अधिकार:
- प्रक्रियागत उपलब्धि
- आधारभूत महत्त्व की उपलब्धि
- उदारवादी व्यक्तिवाद
- धर्म-विशेष की जरूरतों के प्रति ध्यान देना
- लैंगिक न्याय की उपेक्षा
- नीति
Samvidhan Ka Rajnitik Darshan Question Answer Bihar Board प्रश्न 7.
यह चर्चा एक कक्षा में चल रही थी। विभिन्न तर्कों को पढ़ें और बताएं कि आप इनमें किस से सहमत हैं और क्यों?
जयेश:
मैं अब भी मानता हूँ कि हमारा संविधान एक उधार का दस्तावेज है।
सबा:
क्या तुम यह कहना चाहते हो कि इसमें भारतीय कहने जैसा कुछ है ही नहीं? क्या मूल्यों और विचारों पर हम ‘भारतीय’ अथवा ‘पश्चिमी’ जैसा लेबल चिपका सकते हैं? महिलाओं और पुरुषों की समानता का ही मामला लो। इसमें पश्चिमी’ कहने जैसा क्या है? और, अगर ऐसा है भी तो क्या हम इसे सहज पश्चिमी. होने के कारण खारिज कर दें?
जयेश:
मेरे कहने का मतलब यह है कि अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई लड़ने के बाद क्या हमने उनकी संसदीय-शासन की व्यवस्था नहीं अपनाई?
नेहा:
तुम यह भूल जाते हो कि जब हम अंग्रेजों से लड़ रहे थे तो हम सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ थे। अब इस बात का, शासन की जो व्यवस्था हम चाहते थे उसको अपनाने से कोई लेना-देना नहीं, चाहे यह जहाँ से भी आई हो।
उत्तर:
इस चर्चा में जयेश का विचार; कि ‘हमारा संविधान केवल उधार का थैला है। यहाँ. पर आलोचना का विषय है कि भारतीय संविधान मौलिक नहीं है, बहुत से अनुच्छेद तो भारतीय शासन अधिनियम, 1935 से शब्दशः लिए गए हैं। बहुत से अनुच्छेद विदेशों के संविधानों से लिए गए हैं। इसमें अपना देशी कुछ भी नहीं है। इसमें हिन्दुकाल की सभा या समिति का कुछ भी वर्णन नहीं है। इसमें मध्यकालीन भारत का भी कुछ नहीं है परंतु सब का कहना है कि कोई मूल्य या आदर्श भारतीय या पाश्चात्य नहीं हुआ करते, मूल्य तो मूल्य हैं, आदर्श तो आदर्श होते हैं।
जब हम कहते हैं कि स्त्री और पुरुष में कोई भेदभाव नहीं किया जाना चाहिए तो यह बात पाश्चात्य और भारतीय दोनों दृष्टिकोण से ही ठीक है। हमें कोई बात इस कारण से नकारनी नहीं चाहिए कि वह पाश्चात्य अवधारणा से ली गई है परंतु नेहा का कथन है कि हम ब्रिटिश के खिलाफ अपनी आजादी के लिए लड़े थे तो हम ब्रिटिश के विरुद्ध नहीं बल्कि औपनिवेशिक पीतियों के खिलाफ लड़े थे।
हमें कोई भी बात जो हमारे लिए उपयोगी है उसमें यह नहीं देखना कि यह कहाँ से ली गई है। इस प्रकार दूसरे देशों से ली गयी बातें गलत हों, यह कहना सही नहीं हो सकता वरन् मानव की अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप जो बात जिस देश के संविधान से ली जाए उसमें कुछ भी गलत नहीं है। इसके विपरीत यदि हम पुरातन भारतीय, राजनीतिक संस्थाओं को लेना चाहें तो आधुनिक युग में यह जरूरी नहीं कि वे फिट बैठ सकें।
आलोचक भारतीय संविधान की आलोचना करते हुए जिन विशेषणों का प्रयोग करते हैं, उनमें प्रमुख हैं ‘मौलिकता का अभाव’ ‘उधार का थैला’ और ‘भानुमति का पिटारा’ आदि। आलोचकों का कहना है कि संविधान में ‘भारतीयता का पुट’ नहीं है परंतु उपर्युक्त आलोचना न्यासंगत नहीं है। विशेष बात यह है कि विदेशी संविधानों से सोच-विचारकर ही ग्रहण किया गया है और जो कुछ ग्रहण किया गया है उसे भारतीय परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया गया है।
ग्रेनविल आस्टिन के अनुसार भारतीय संविधान के निर्माण में परिवर्तन के साथ चयन की कला को अपनाया गया है। इसे भारतीय संविधान का गुण कहा जा सकता है। वास्तव में संविधान के मौलिक विचारों पर किसी का स्वात्वाधिकार नहीं होता। संविधान निर्माताओं ने अन्य देशों के संविधानों और उनके व्यावहारिक अनुभवों से लाभ उठाकर कोई गलती नहीं की वरन् दूरदर्शिता का ही कार्य किया है।
Samvidhan Ki Raajnitik Darshan Question Answer Bihar Board प्रश्न 8.
ऐसा क्यों कहा जाता है कि भारतीय संविधान को बनाने की प्रक्रिया प्रतिनिधिमूलक नहीं थी? क्या इस कारण हमारा संविधान प्रतिनिध्यात्मक नहीं रह जाता? अपने उत्तर के कारण बताएँ।
उत्तर:
भारत के संविधान की एक आलोचना यह कहकर की जाती है कि यह प्रतिनिध्यात्मक नहीं है। भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया था जिसका गठन नवम्बर 1946 में किया गया था। इसके सदस्य प्रान्तीय विधानमण्डलों द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए थे। संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें से 292 ब्रिटिश प्रान्तों से तथा 93 देशी रियासतों से थे। चार सदस्य चीफ कमिश्नर वाले क्षेत्रों से थे।
3 जून, 1947 के माउन्टबेटन योजना के तहत भारत का विभाजन हुआ और संविधान सभा की कुल सदस्य संख्या घटकर 299 रह गई जिसमें 284 सदस्यों ने 26 नवम्बर, 1949 को संविधान पर हस्ताक्षर किए यद्यपि कुछ संविधान विशेषज्ञ संविधान सभा को संप्रभु नहीं मानते थे क्योंकि यह ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित की गई थी। अगस्त, 1947 में भारत के आजाद होने के बाद इस संविधान सभा ने पूर्ण संप्रभु होकर कार्य किया। इस सभा के सदस्यों का चुनाव क्योंकि सार्वभौम वयस्क मताधिकार द्वारा नहीं हुआ था अतः कुछ विद्वान इसे प्रतिनिधि मूलक नहीं मानते परंतु यदि हम संविधान सभा के डिवेट (वाद-विवाद) का अध्ययन करें तो पता चलता है कि विभिन्न विचारों के आदान-प्रदान के बाद ही इसके प्रावधान बनाए गए।
कुछ लोगों का यह कथन भी ठीक नहीं प्रतीत होता कि संविधान सभा वास्तव में प्रतिनिधि संस्था नहीं थी इस कारण वह भारतीयों के लिए संविधान बनाने की अधिकारिणी नहीं थी। इसके अनुसार न तो सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से हुआ और न ही जनमत संग्रह द्वारा ही संविधान को जनता द्वारा अनुसमर्थित कराया गया, इसलिए यह कहा जा सकता है कि संविधान को लोकप्रिय स्वीकृति प्राप्त नहीं थी परंतु इस आलोचना में भी कोई सार नहीं है। 1946 में जिन परिस्थितियों में संविधान सभा का निर्माण हुआ, उनमें वयस्क मताधिकार के आधार पर इस प्रकार की सभा का निर्माण सम्भव नहीं था।
यदि संविधान का गठन प्रत्यक्ष निर्वाचन के आधार पर होता अथवा यदि इस संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान के प्रारूप पर जनमत संग्रह करवाया जाता, तब भी संविधान का स्वरूप कम या अधिक रूप में ऐसा ही होता। इस विचार को बल देने वाला तथ्य यह है कि 1952 के प्रथम आम चुनाव जो नई सरकार के गठन के साथ-साथ संविधान के स्वरूप के आधार पर लड़े गए थे, में संविधान सभा के अधिकांश सदस्यों ने चुनाव – लड़ा और काफी अच्छे बहुमत से विजय प्राप्त की। इन सबके अतिरिक्त यह भी तथ्य है कि तत्कालीन भारत के सबसे प्रमुख संगठन ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ ने संविधान सभा को अधिकाधिक प्रतिनिधि स्वरूप प्रदान करने की प्रत्येक सम्भव और अधिकांश अंशों में सफल चेष्टा की थी।
संविधान का राजनीतिक दर्शन के प्रश्न उत्तर बताइए Bihar Board प्रश्न 9.
भारतीय संविधान की एक सीमा यह है कि इसमें लैंगिक-न्याय पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया है। आप इस आरोप की पुष्टि में कौन-से प्रमाण देंगे? यदि आज आप संविधान लिख रहे होते, तो इस कमी को दूर करने के लिए उपाय के रूप में किन प्रावधानों की सिफारिश करते?
उत्तर:
भारतीय संविधान की कुछ सीमाएँ भी हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि यह एक सम्पूर्ण तथा दोष रहित प्रलेख है। इनमें से एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण लैंगिक न्याय विशेषतया परिवार की संपत्ति के अन्तर्गत ऐसा है। परिवार की संपत्ति में स्त्रियों और बच्चों को समान अधिकार नहीं दिए गए। बेटे और बेटी में अंतर किया जाता है। मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किए गए हैं जबकि उन्हें मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए था।
राज्य नीति निर्देशक तत्त्वों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। समान कार्य के लिए स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान वेतन राज्य के द्वारा संरक्षित किया गया है। यह नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया गया है। यह भी मौलिक अधिकार का भाग होना चाहिए था क्योंकि राज्य पूरी तरह से तभी समान कार्य के लिए स्त्री-पुरुष दोनों को समान वेतन दिला सकता है। नीति निर्देशक तत्वों के लिए राज्य केवल प्रयास करेगा। हमारी संविधान की सीमाओं में से एक यह भी है कि आज तक स्त्रियों को तैंतीस प्रतिशत आरक्षण संसद व राज्य विधानमंडल में नहीं दिलवाया जा सका।
हमारे संविधान की सीमाएँ मुख्यतः निम्नलिखित हैं –
- भारत का संविधान राष्ट्रीय एकता का केन्द्रीयकृत विचार रखता है।
- यह कुछ प्रमुख लैंगिक न्याय के विषयों विशेष तौर पर परिवार के अंदर व्याख्या किए हुए है।
- यह स्पष्ट नहीं हो सका कि क्योंकि एक निर्धन विकासशील देश में कुछ निश्चित मूल सामाजिक-आर्थिक अधिकार मूल अधिकारों की श्रेणी में न रखकर राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में शामिल किया गया है।
संविधान का राजनीतिक दर्शन के पाठ के प्रश्न उत्तर Bihar Board प्रश्न 10.
क्या आप इस कथन से सहमत हैं-कि ‘एक गरीब और विकासशील देश में कुछ एक बुनियादी सामाजिक-आर्थिक अधिकार मौलिक अधिकारों की केन्द्रीय विशेषता के रूप में दर्ज करने के बजाए राज्य की नीति-निर्देशक तत्त्वों वाले खंड में क्यों रख दिए गए-यह स्पष्ट नहीं है। आपके जानते सामाजिक-आर्थिक अधिकारों को नीति-निर्देशक तत्त्व वाले खंड में रखने के क्या कारण रहे होंगे?
उत्तर:
हमारे संविधान की एक विशेषता नीति निर्देशक तत्त्व हैं। विश्व के अन्य संविधानों में केवल आयरलैंड के संविधान को छोड़कर अन्य किसी देश के संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व नहीं हैं। भारतीय संविधान के निर्माताओं ने संविधान में केवल. राज्य के संगठन की व्यवस्था एवं अधिकार पत्र का वर्णन नहीं किया है वरन् वह दिशा भी निश्चित किया है जिसकी ओर बढ़ने का प्रयत्न भविष्य में भारत राज्य को करना है।
संविधान निर्माताओं का लक्ष्य भारत में लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना था और इसलिए उन्होंने नीति निर्देशक तत्त्वों में से ऐसी बातों का समावेश किया, जिन्हें कार्य रूप में परिणत किए जाने पर एक लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना सम्भव हो सकती है। निर्देशक तत्त्व हमारे राज्य के सम्मुख कुछ आदर्श उपस्थित करते हैं जिनके द्वारा देश के नागरिकों का सामाजिक, आर्थिक एवं नैतिक उत्थान हो सकता है।
इन तत्त्वों की प्रकृति के सम्बन्ध में संविधान की 37 वीं धारा में कहा गया है कि “इस भाग में दिए गए उपबंधों को किसी भी न्यायालय द्वारा बाध्यता नहीं दी जा सकेगी, किन्तु फिर भी इसमें दिए हुए तत्त्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि निर्माण में इन तत्त्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्तव्य होगा।” इस अनुच्छेद (37) से यह बात स्पष्ट है कि निर्देशक तत्त्व को मौलिक अधिकारों के समान वैधानिक शक्ति प्रदान नहीं की गयी है।
इसका अर्थ है कि निर्देशक तत्त्वों की क्रियान्विनी के लिए न्यायालय के द्वारा किसी भी प्रकार के आदेश जारी नहीं किए जा सकते हैं। वैधानिक महत्त्व प्राप्त न होने पर भी ये तत्त्व राज्य शासन के संचालन के आधारभूत सिद्धांत हैं और राज्य का यह नैतिक कर्तव्य है कि व्यवहार में सदैव ही इन तत्त्वों का पालन करे। यहाँ यह बात उल्लेखनीय है कि इतने महत्त्वपूर्ण एवं मौलिक अधिकारों से किसी भी प्रकार कम महत्त्व न रखते हुए भी इन निर्देशक तत्त्वों को राज्य सरकारों की कृपा पर क्या छोड़ा गया।
इसके नजर में यही कहा जा सकता है कि भारत उस समय पराधीनता के चंगुल से छुटा था। उसकी आर्थिक स्थिति इतनी कमजोर थी कि इनका (निर्देश तत्त्वों का) पालन करने की बाध्यता होने से आर्थिक संकट उभर सकना था और उसके कारण समय-समय पर अनेक समस्यायें उठ सकती थीं। अत: राज्य को निर्देश दिया गया तथा नागरिकों को यह अधिकार भी नहीं दिया गया कि वे इन निर्देशक तत्त्वों को पूरा कराने के लिए राज्य के विरुद्ध न्यायालय में जा सकें। इसी कारण राज्य को इन नीति निर्देशक तत्त्वों को पूरा करने का प्रयास भर करने के लिए कहा गया ताकि अपनी सामर्थ्य के अनुकूल शासन इनको पूरा ६. 11 + रुचि ले सके।
Bihar Board Class 11 Political Science संविधान का राजनीतिक दर्शन Additional Important Questions and Answers
अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
संविधान का राजनीतिक दर्शन प्रश्नोत्तरी Bihar Board प्रश्न 1.
‘संविध’ के दर्शन’ का क्या आशय है?
उत्तर:
‘संविधान, दर्शन’ से अभिप्राय है कि संविधान के अंतर्गत दिए गए कानूनों में यद्यपि नैतिक तत्त्वों का होना आवश्यक नहीं है किन्तु बहुत से कानून हमारे भीतर गहराई से बैठे मूल्यों से जुड़े रहते हैं। इन मूल्यों के आधार पर ही संविधान का निर्माण किया जाता है। संविधान के प्रति राजनीतिक-दर्शन का दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। हमारी राष्ट्रीय विचारधारा ही हमारे संविधान में प्रतीत होती है। समानता, स्वतंत्रता, बंधुत्व की भावना, राष्ट्रीय एकता और अखण्डता, समाजवाद और धर्म निरपेक्षता आदि आदर्शों का हमारे संविधान में समावेश है। यही हमारा राजनीतिक दर्शन है। हमारे सामाजिक और राष्ट्रीय मूल्यों का प्रतीक हमारा संविधान होता है।
संविधान का राजनीतिक दर्शन पाठ के क्वेश्चन आंसर Bihar Board प्रश्न 2.
‘धर्म निरपेक्षता’ क्या अभिप्राय है? क्या भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में भारत को एक ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ घोषित किया गया है। राज्य का अपना कोई धर्म नहीं है और न ही राज्य नागरिकों को कोई धर्म विशेष अपनाने की प्रेरणा देता है। राज्य न धर्मी है, न अधर्मी और न धर्म-विरोधी। नागरिकों को धर्म की स्वतंत्रता प्रदान की गई है और सब व्यक्तियों को अपनी इच्छानुसार अपने इष्ट-देव की पूजा करने का अधिकार है।
संविधान का राजनीतिक दर्शन पाठ 10 के प्रश्न उत्तर Bihar Board प्रश्न 3.
भारतीय संविधान की चार प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की अनेक विशेषताएँ हैं, जिनमें चार प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
- भारतीय संविधान के अनुसार भारत एक संप्रभु समाजवादी लोकतंत्रात्मक गणराज्य है।
- भ तीय संविधान के द्वारा भारत को ‘धर्मनिरपेक्ष’ राज्य घोषित किया गया है।
- भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्यों का वर्णन किया गया है।
- भारत के संविधान में संसदात्मक शासन प्रणाली को अपनाया गया है।
Samvidhan Ka Rajnitik Darshan Ke Question Answer Bihar Board प्रश्न 4.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए किन्हीं चार प्रमुख आदर्शों को बताइए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए प्रमुख आदर्श निम्नलिखित हैं –
- न्याय: प्रत्येक भारतीय नागरिक को सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक न्याय प्राप्त होगा।
- स्वतंत्रता: प्रत्येक भारतीय नागरिक को स्वतंत्रता प्राप्त होगी-सोचने की अभिव्यक्ति की, विश्वास की, उपासना की।
- समानता: भारत के प्रत्यके नागरिक को अवसर एवं प्रतिष्ठा को समानता प्रदान – की जायगी।
- बंधुत्व: समस्त भारतीय नागरिकों को उनकी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा का आश्वासन तथा राष्ट्र की एकता व अखंडता को बढ़ावा देने की भावना पैदा की जायगी।
संविधान का राजनीतिक दर्शन Class 11 Bihar Board प्रश्न 5.
भारत के संविधान की आलोचना के चार बिन्दु लिखिए।
उत्तर:
भारत के संविधान की आलोचना के चार बिन्दु निम्नलिखित है –
- संविधान निर्मात्री सभा प्रभुत्व सम्पन्न संस्था नहीं थी।
- संविधान सभा के अधिकांश सदस्य समाज के उच्च वर्ग से थे।
- भारतीय संविधान एक विदेशी दस्तावेज है। एक उधार का थैला है। अनेक दूसरे देशों से संविधान की अनेक बातों को लिया गया है।
- संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान को लोकप्रिय अनुज्ञप्ति प्राप्त नहीं थी।
संविधान का राजनीतिक दर्शन पाठ Bihar Board प्रश्न 6.
संविधान की आवश्यकता और महत्त्व के क्या कारण हैं?
उत्तर:
ब्रिटिश शासन से आजादी प्राप्त करने के बाद राष्ट्रीय आंदोलन के नेताओं ने संविधान को अंगीकार करने की आवश्यकता अनुभव की। उन्होंने स्वयं को और आने वाली पीढ़ियों को संविधान से अनुशासित करने का फैसला किया। इसके निम्न कारण थे –
- संविधान एक ऐसा प्रारूप पैदा करता है, एक ऐसा ढाँचा खड़ा करता है जिसके अनुसार सरकार को कार्य करना होता है।
- यह सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग पर अंकुश लगाता है।
- यह सरकार के विभिन्न अंगों के बीच समन्वय स्थापित करता है।
- यह नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की अद्वितीय विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारत के संविधान की अद्वितीय विशेषताएँ –
- भारत का संविधान एकात्मक और संघात्मक दोनों का मिश्रण है।
- भारत के संविधान में यद्यपि शासन को अपनाया गया है, परंतु इसमें अध्यक्षात्मक शासन के भी कुछ तत्त्व पाये जाते हैं।
- भारत एक संघात्मक राज्य है परंतु यहाँ इकहरी नागरिकता है।
- भारत के संविधान में नागरिकों को मौलिक अधिकार एवं मूल स्वतंत्रताएँ प्रदान की गई हैं परंतु राष्ट्रीय हित में उन पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। आपातस्थिति में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा निलम्बित किया जा सकता है।
- भारत का संविधान भारतीय जनता द्वारा निर्मित है। एक संविधान सभा का निर्माण किया गया जो प्रान्तीय विधान सभाओं द्वारा परोक्ष रूप से निर्वाचित की गयी।
- देश की सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित है।
- भारत को एक गणराज्य घोषित किया गया है।
- संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व दिए गए।
- संघीय तथा राज्य विधानमण्डलों के अधिनियमों और कार्यपालिका के क्रियाकलापों की न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था है।
प्रश्न 2.
राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की मांग पर विचार कीजिए।
उत्तर:
1. राज्यों द्वारा अधिक स्वायत्तता की माँग:
भारत में संघीय व्यवस्था है और संघ तथा राज्यों की शक्तियाँ व अधिकार क्षेत्र बंटे हुए हैं। 1967 तक इन सम्बन्धों के बारे में कोई विवाद खड़ा नहीं हुआ क्योंकि राज्यों की कांग्रेसी सरकारें केन्द्र की कांग्रेस सरकार के नियंत्रण में रहती थी और चुपचाप केन्द्र के आदेशों का पालन करती थी।
2. राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की माँग का आरम्भ:
1967 के चुनाव में बहुत से राज्यों में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला और गैर-कांग्रेसी सरकारें भी अधिक दिन तक नहीं चल सकी। यह महसूस किया गया कि जब तक केन्द्र सरकार अधिक शक्तिशाली है वह किसी अन्य दल की सरकार को राज्य में सहन नहीं कर सकेगी।
इसलिए केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर पुनर्विचार और राज्यों की अधिक स्वायत्तता की माँग शुरू हुई। इसी संदर्भ में कुछ ऐसी माँगें उभर कर आई जो राष्ट्रीय एकता और अखण्डता के लिए खतरा बन सकती है। 1976 में तमिलनाडु में द्रमुक पार्टी सत्ता में आई तो उसने संघीय व्यवस्था के पुनरावलोकन के लिए उच्च न्यायालय के अवकाश प्राप्त न्यायाधीश पी.वी. राजमन्नार की अध्यक्षता में एक, समिति का गठन किया। 1973 में पंजाब में अकाली दल ने इस संबंध में आनन्दपुर साहब प्रस्ताव पास किया।
1977 में भारत के साम्यवादी दल ने पश्चिम बंगाल की सरकार से केन्द्र-राज्य सम्बन्धों पर एक माँगपत्र पेश किया। 1983 में कर्नाटक सरकार ने इस विषय पर एक श्वेतपत्र जारी किया और आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु और पांडिचेरी के मुख्यमंत्रियों ने बंगलौर सम्मेलन में उस पर विचार किया। इसी वर्ष श्रीनगर में 16 गैर कांग्रेसी दलों की बैठक हुई जिसमें इस विषय का 31 सूत्री प्रस्ताव पास किया गया। इन सभी बातों को देखते हुए 1985 में सरकारिया आयोग की नियुक्ति की गई। 1988 में इसकी रिपोर्ट आई। यह बात सत्य है कि केन्द्र को शक्तिशाली होना चाहिए परंतु राज्यों को स्वायत्तता मिलनी चाहिए।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
मूल कर्तव्यों से क्या अभिप्राय है? भारतीय नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
1950 में लागू किए गए भारतीय संविधान में नागरिकों के केवल अधिकारों का ही उल्लेख किया गया था परंतु 42 वें संविधान संशोधन 1976 में संविधान के भाग 4 के बाद भाग 4 (क) जोड़ा गया जिसमें दस मूल कर्त्तव्यों की व्यवस्था की गई। सन् 2002 में अभिभावकों के लिए 6 से 14 वर्ष के अपने बच्चों को शिक्षा का अवसर प्रदान करने का कर्तव्य जोड़ा गया तो अब नागरिकों के निम्नलिखित 11 कर्त्तव्य हैं –
- संविधान का पालन तथा उसके आदर्शों, संस्थाओं और राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान अर्थात् प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह संविधान का पालन करे और उसके आदशों, संस्थाओं, राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्र गान का आदर करे।
- राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों का हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे।
- वह भारत की सम्प्रभुता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण बनाए रखे।
- देश की रक्षा करे और आह्वान पर राष्ट्र की सेवा करे।
- भारत के सभी भागों में समरसता और समान भाईचारे की भावना का विकास करे। ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हों।
- हमारी समन्वित संस्कृति की गौरवशाली परम्परा का महत्त्व समझे और संरक्षण करे।
- प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखे व हिंसा से दूर रहे।
- व्यक्तिगत व सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत् प्रयास करे जिससे राष्ट्र निरंतर बढ़ते हुए प्रगति और उपलब्धि की नवीन ऊँचाइयों को छू सके।
- प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव भी हैं, की रक्षा करे और उनका संवर्धन करे तथा प्राणीमात्र के प्रति दयाभाव रखे।
- वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे।
- 86 वें संशोधन (2002) द्वारा अनुच्छेद 51 (क) में संशोधन करके खण्ड (न) के बाद खंण्ड (ट) जोड़ा गया जिसके अनुसार प्रारम्भिक शिक्षा को सर्वव्यापी बनाने के उद्देश्य से अभिभावकों के लिए भी यह कर्तव्य निर्धारित किया गया कि 6 से 14 वर्ष के अपने बच्चों को शिक्षा का अवसर प्रदान करे।
प्रश्न 2.
भारतीय संविधान में दिए गए राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों की समालोचना कीजिए। संवैधानिक दृष्टिकोण से उनका महत्त्व बताइए।
उत्तर:
भारत के संविधान में अनुच्छेद 38 से 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्त्व दिए गए हैं। इनमें आर्थिक सुरक्षा सम्बन्धी निर्देशक तत्त्व, सामाजिक हित सम्बन्धी निर्देशक तत्त्व, न्याय शिक्षा और प्रजातंत्र सम्बन्धी निर्देशक तत्त्व, सामाजिक स्मारकों की सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व तथा अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा सम्बन्धी तत्त्व दिए गए हैं।
अनुच्छेद 38:
राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा।
अनुच्छेद 39:
समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता।
अनुच्छेद 40:
ग्राम पंचायतों का गठन।
अनुच्छेद 41:
कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार।
अनुच्छेद 42:
काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं तथा प्रसूति सहायता का उपलब्ध।
अनुच्छेद 43:
कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी।
अनुच्छेद 44:
नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता।
अनुच्छेद 45:
बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का उपबंध।
अनुच्छेद 46:
अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ सम्बन्धी हितों की अभिवृद्धि।
अनुच्छेद 47:
पोषाहार स्तर और जीवनस्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार का गठन।
अनुच्छेद 48:
कृषि और पशुपालन का संगठन।
अनुच्छेद 48:
(क) यवःण का संरक्षण।
अनुच्छेद 49:
राष्ट्रीय महत्त्व के स्मरकों का संरक्षण।
अनुच्छेद 50:
कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण
अनुच्छेद 51:
अन्तर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि।
जिस समय संविधान का निर्माण हो रहा था तो निर्देशक तत्त्वों की बड़ी आलोचना हुई। अनेक विद्वानों ने इनकी आलोचना इस प्रकार से की –
- संविधान ने एक ओर तो राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों को देश के शासन में मूलभूत माना है, किन्तु साथ ही वे वैधानिक शक्ति प्राप्त या न्याय योग्य नहीं हैं अर्थात् न्यायालय इनको लागू नहीं करा सकते।
- निर्देशक तत्त्व काल्पनिक आदर्श हैं। इन्हें क्रियान्वित कराना बहुत दूर की बात है।
- एक सम्प्रभुता सम्पन्न राज्य में इस प्रकार के आदेशों का कोई औचित्य नहीं।
- संवैधानिक विधिवेत्ताओं ने आशंका व्यक्त की है कि ये तत्त्व संवैधानिक द्वन्द्व और गतिरोध के कारण भी बन सकते हैं।
- नीति निर्देशक तत्त्व किसी निर्धारित या संगतिपूर्ण दर्शन पर आधारित नहीं हैं।
नीति निर्देशक तत्त्वों का महत्त्व-यद्यपि नीति निर्देशक तत्त्वों की आलोचना की गयी है परंतु इसका तात्पर्य यह नहीं कि ये महत्त्वहीन हैं। वास्तव में राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का बड़ा महत्त्व है –
- नीति निर्देशक तत्त्वों के पीछे जनमत की शक्ति होती है। जनता के प्रति उत्तरदायी सरकार इन तत्त्वों की उपेक्षा नहीं कर सकती।
- यदि निर्देशक तत्त्वों को केवल नैतिक धारणाएँ ही मान लिया जाए तो इस रूप में भी इनका अपार महत्त्व है जैसे कि ब्रिटेन में मैगनाकार्टा, फ्रांस में मानवीय तथा मानसिक अधिकारों की घोषणा तथा अमरीकी संविधान की प्रस्तावना को कोई वैधानिक शक्ति प्राप्त नहीं है, फिर भी इन देशों के इतिहास पर इनका प्रभाव पड़ा है।
- इसी प्रकार उचित रूप में यह आशा की जा सकती है कि ये निर्देशक तत्त्व भारतीय शासन की नीति” की निर्देशित और प्रभावित करेंगे।
- नीति निर्देशक तत्त्वों द्वारा जनता को शासन की सफलता और असफलता की जाँच करने का मापदण्ड भी प्रदान किया जाता है।
- नीति निर्देशक तत्त्व देश के सामाजिक व आर्थिक क्रांति के साधन भी हैं।
- एम. सी. सीतलबाड़ के शब्दों में “राज्य नीति के इन मूलभूत सिद्धांतों का वैधानिक दर्जा प्राप्त न होते हुए भी उनके द्वारा न्यायालयों के लिए उपयोगी प्रकाश स्तम्भ का कार्य किया जाता है।”
- निर्देशक तत्त्व इस दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं कि इनमें गाँधीवाद के आदर्शों को स्थान दिया गया है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि वैधानिक शक्ति न होते हुए भी राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों का अपना महत्त्व और उपयोगिता है।
वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा ‘मानवाधिकारों की सार्वभौमिकता” घोषणा को कब स्वीकार किया गया?
(क) 10 दिसम्बर, 1950 को
(ख) 10 दिसम्बर, 1948 को
(ग) 10 दिसम्बर, 1947 को
(घ) 10 दिसम्बर, 1951
उत्तर:
(ख) 10 दिसम्बर, 1948 को
प्रश्न 2.
संयुक्त राष्ट्रसंघ की स्थापना कब हुई?
(क) 24 अक्टूबर, 1946 में
(ख) 24 अक्टूबर, 1945 में
(ग) 30 अक्टूबर, 1945 में
(घ) 30 अक्टूबर, 1948 में
उत्तर:
(ख) 24 अक्टूबर, 1945 में
प्रश्न 3.
राज्यपाल को वर्तमान में वेतन दिया जाता है –
(क) 80,000 रुपये प्रतिमाह
(ख) 90,000 रुपये प्रतिमाह
(ग) 1,100,00 रुपये प्रतिमाह
(घ) 85,000 रुपये प्रतिमाह
उत्तर:
(ग) 1,100,00 रुपये प्रतिमाह