Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.
BSEB Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग
Bihar Board Class 11 Psychology अभिप्रेरणा एवं संवेग Text Book Questions and Answers
प्रश्न 1.
अभिप्रेरणा के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अभिप्रेरणा का संप्रत्यय इस बात पर प्रकाश डालता है कि किसी व्यक्ति के व्यवहार में गति कैसे आती है? किसी विशेष लक्ष्य की ओर निर्दिष्ट सतत व्यवहार की प्रक्रिया, जो किन्हीं अंतर्नाद शक्तियों का नतीजा होती है, उसे अभिप्रेरणा कहते हैं। अभिप्रेरणा के लिए प्रयुक्त अभिप्रेरक वे सामान्य स्थितियाँ होती हैं जिनके आधार पर विभिन्न प्रकार के व्यवहारों के लिये पूर्वानुमान लगा सकते हैं। इसी कारण अभिप्रेरणा को व्यवहारों का निर्धारक माना जाता है। मूल प्रवृत्तियाँ, अंतर्नाद, आवश्यकताएँ, लक्ष्य एवं उत्प्रेरक अभिप्रेरणा के विस्तृत दायरे में आते हैं।
किसी आवश्यक वस्तु का अभाव (भूख, प्यास, तृष्णा) या न्यूनता ही आवश्यकता कहलाते हैं। आवश्यकता अन्तर्नाद (आन्तरिक बल) को जन्म देती है। किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किए गए प्रयासों अथवा उत्पन्न तनाव या उद्वेलन को अन्तर्नाद रूपी बल की तरह प्रयोग करके लक्ष्य की प्राप्ति की जाती है। लक्ष्य मिलने के बाद आवश्यकता की तीव्रता शून्य हो जाती है, प्रयास घट जाता है। अर्थात् व्यक्ति सामान्य स्थिति में पहुँच जाता है।
चित्र: अभिप्रेरणात्मक चक्र
जैसे-एक छात्र बरसात में कीचड़ भरे रास्ते से होकर पैदल विद्यालय चला जाता है। विद्यालय जाने की इच्छा जताने का कारण किसी प्रकार के लक्ष्य की पूर्ति करना है। ज्ञान प्राप्ति, मित्र से मिलना, घर के कामों से मुक्त होना, माता-पिता को खुश करना आदि में से किसी लक्ष्य की प्राप्ति इच्छा से एक आंतरिक बल का आभास होता है जिसके प्रभाव में छात्र विद्यालय जाने को तत्पर हो जाता है। जहाँ क्रियाशील आंतरिक बल को ही अभिप्रेरणा मान सकते हैं।
अर्थात् अभिप्रेग्णा एक आन्तरिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति के व्यवहार को अभीष्ट दिशा या गति के साथ बदलने के लिए शक्ति प्रदान करता है तथा किसी विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति की ओर व्यक्ति के व्यवहार को मोड़ने का कार्य करता है। भूखे के द्वारा भोजन खोजने के लिए, प्यासे को पानी नीचे के लिए जो आन्तरिक बल उकसाता है, प्रोत्साहित करता है, उसे अभिप्रेरणा मान सकते हैं। जीवन में अधिकांश व्यवहारों की व्याख्या अभिप्रेरणा या अभिप्रेरकों के आधार पर की जाती है। अभिप्रेरक व्यवहारों का पूर्वानुमान करने में भी सहायता करते हैं।
प्रश्न 2.
भूख और प्यास की आवश्यकताओं के जैविक आधार क्या हैं?
उत्तर:
किसी भी प्राणी की आवश्यकताएँ अंतर्नाद उत्पन्न करती है। व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति कुछ कार्य करने के अंत:प्रेरण को प्रदर्शित करता है। मूल प्रवृत्ति का एक बल यह आवेग होता है जो प्राणी को कुछ ऐसी क्रिया करने के लिए चालित करता है जो उस बल या आवेग को कम कर सके। भूख और प्यास दो प्रमुख जैविक आवश्यकताएँ हैं।
भूख:
जीवधारियों के शरीर में किसी चीज की कमी को आवश्यकता कहा जाता है। जीवन रक्षा तथा शक्ति संचार के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन की आवश्यकता को भूख का कारण माना जा सकता है। भूख लगने पर व्यक्ति को भोजन प्राप्त करने तथा उसे खाने के लिए अभिप्रेरणा करती है। भूख के उद्दीपकों में अमाशय का संकुचन, ग्लुकोज की सान्द्रता में कमी, वस्त्र के स्तर में गिरावट, ईंधन की कमी के प्रति यकृत की प्रतिक्रिया अहम भूमिका अदा करते हैं। यकृत के उपाचचयी क्रियाओं में होने वाला परिवर्तन को भूख की अनुभूति कराने वाला माना जाता है। भोज्य पदार्थों की उपलब्धता, रंग, स्वाद, उपयोग आदि भूख की तीव्रता बढ़ाने वाले कारक माने जाते हैं। हमारी भूख अधश्चेतक में स्थित पोषण तृप्ति की जटिल व्यवस्था, यकृत और शरीर के कुछ अन्य अंगों तथा परिवेशीय कारकों के द्वारा नियंत्रित होती है।
पाश्विक अधश्चेतक भूख संदीपन को समझता है जबकि मध्य अधश्चेतक भूख के अंतर्नाद को विरुद्ध बनाकर भूख को नियंत्रित रखता है। अतः सारांशतः यह माना जा सकता है कि भूख को शान्त करके हम जीवन की सुरक्षा के साथ संतुलित शरीर के लिए आवश्यक तत्त्वों को ग्रहण करके भूख के कारण होनेवाले कष्ट को मिटा पाने में समर्थ होते हैं। प्यास-शरीर को जब पानी की आवश्यकता महसूस होती है तो हम प्यास का अनुभव करते हैं। प्यास को जन्मजात प्रेरक माना जा सकता है।
प्यास लगने पर हमारा मुँह और गला सूखने लगता है और शरीर के उत्तकों में निर्जलीकरण की अवस्था आ जाती है। इन कठिनाइयों से मुक्ति पाने के लिए प्यास बुझाने के लिए पानी पीना आवश्यक हो जाता है। पानी नहीं पीने से कोशिकाओं से.पानी का क्षय होना जारी हो जाता है तथा रक्त में पानी का अनुमान लगाकर घटने लगता है। पानी पी लेने के परिणामस्वरूप आमाशय में उत्पन्न उद्दीपन रुक जाता है, परसारग्राही के द्वारा निर्जलीकरण नियंत्रित हो जाता है। प्यास की अवस्था में कोई भी व्यक्ति अधिक कार्यशील बन जाता है। लार का अभाव उसे बेचैन कर देते हैं। अर्थात् प्यास की जैविक आवश्यकता के रूप में संतोषप्रद जीवन जीने के साथ-साथ निर्जलीकरण से मुक्ति के लिए उपाय ढूँढ़ना है। शरीर के उत्तकों को स्वाभाविक कार्य करते रहने के योग्य बनाया जाता है।
प्रश्न 3.
किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि, संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताएँ कैसे प्रभावित करती हैं? उदाहरणों के साथ समझाइये।
उत्तर:
बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य का संक्रमण काल (11 से 21 वर्ष तक की उम्र) किशोरावस्था कहलाता है। इसे जैविक तथा मानसिक दोनों ही रूप से तीव्र परिवर्तन की अवधि माना जाता है। इस अवस्था की एक मुख्य विशेषता मौन परिपक्वता है। यह भी माना जाता है कि किशोर के विचार अधिक अमूर्त, तर्कपूर्ण एवं आदर्शवादी होते हैं। प्रयत्न-त्रुटि उपागम के विपरीत समस्या समाधन करने में किशोरों का चिंतन अधिक व्यवस्थित होता है। किशोर वैकल्पिक नैतिक संहिता को भी जानते हैं। किशोरों के व्यवहारों में लचीलापन, प्रदर्शन, प्रतियोगिता जैसी भावनाओं का प्रभाव देखने को मिलता है। किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि, संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताओं को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
1. उपलब्धि अभिप्रेरक:
उत्कृष्टता के मापदंड को प्राप्त कर लेने की आवश्यकता उपलब्धि अभिप्रेरक कहलाते हैं। किशोर अपने माता-पिता, मित्र, पड़ोसी, शुभचिंतक जैसे व्यवहार-निपुण लोग से प्रेरित होकर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का उपयोग करके व्यवहारों का अर्जन तथा निर्देशन की युक्ति सोखते हैं। उपलब्धि को पाने के लिए किशोर चुनौती भरे कठिन कार्यों को भी पूरा कर लेना चाहते हैं। जैसे-वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए किशोर अध्ययन के विकास के लिए तरह-तरह के प्रस्तावों का अध्ययन करते हैं, साथियों से सहयोग माँगते हैं।
माता-पिता से उचित परामर्श तथा आर्थिक सहयोग चाहते हैं। कई समस्याओं से घिरे होने पर भी किशोर अपने संकल्प की दृढ़ता का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते हैं। अंत में वे वर्ग में प्रथम स्थान पाकर स्वयं तो खुश होते ही हैं और वे प्रशंसा के शब्द भी सुनते हैं। अर्थात् किशोर अपने व्यवहारों में किसी भी तरह का परिवर्तन स्वीकारते हैं जिससे उनका लक्ष्य उपलब्धि के रूप में उन्हें अवश्य मिल जाए।
2. संबंधी:
समूहों का निर्माण मानव व्यवहार की एक विशेषता होती है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किशोर का प्रयास किस प्रकार से संबंध बनाना होता है। किशोर कभी भी अकेला रहना पसंद नहीं करता है। सच तो यह है कि दूसरों को चाहना तथा भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से उनके निकट आने की चाह को संबंधन माना जाता है। संबंधन में सामाजिक सम्पर्क की अभिप्रेरणा अंतनिर्हित होती है। संबंधन की आवश्यकता उस समय उद्दीपन कहलाती है जब कोई किशोर अपने को खतरे में अथवा असहाय अवस्था में पाता है। कभी-कभी अपनी खुशी को प्रकट करने केलिए भी संबंधन की आवश्यकता महसूस करते हैं।
किशोरों को ऐसे अवसर आते हैं जब वे मित्रातापूर्ण संबंधन के महत्त्व मानते हैं। जैसे, मोटरसायकिल से गिरने के बाद उसे मानव सहायता की आवश्यकता होती है। नौकरी पाने के लिए सही स्थान या मार्गदर्शन बतलाने वाले मित्रों की आवश्यकता होती है। सफलता के कारण मिलने वाले पदक को दिखलाने या अपनी कविता को सुनाने हेतु मित्रों की याद आती है। किसी भी कठिन परस्थितियों (चोर, आतंकवादी, चेकिंग) में किशोर संबंधन का उपयोग करना चाहता है।
3. शक्ति अभिप्रेरक:
शक्ति की आवश्यकता व्यक्ति की वह योग्यता है जिसके कारण वह दूसरों के संवर्गों तथा व्यवहारों पर अभिप्रेत प्रभाव डालता है। डेविड मैकक्लीलैंड ने शक्ति अभिप्रेरक की अभिव्यक्ति के चार सामान्य बताए हैं –
(क) शक्ति पर बाहरी स्रोतों का प्रभाव
(ख) शक्ति पर व्यक्ति को आंतरिक क्षमता का प्रभाव
(ग) शक्ति के प्रयोग में प्रदर्शन की झलक
(घ) संगठन के द्वारा शकित प्रदर्शन का प्रभाव अर्थात् किशोर अपनी शक्ति को समझने के लिए बाहरी साधनों का उपयोग करता है।
जैसे, पत्र-पत्रिकाओं में छपे स्तंभों के पढ़कर किसी लोकप्रिय व्यक्ति के सम्बन्ध में सब कुछ जान लेना चाहता है। कभी-कभी किशोर शारीरिक गठन करके अपनी क्षमता का प्रदर्शन करना चाहता है। इसमें किशोरों को भावना या संवेग पर नियंत्रण रखना के समीप होता है। प्रतियोगिता, खेल, परीक्षा, इन्टरव्यू, राजनीतिक दल जैसी विभिन्न स्थितियों में किशोर अपनी योग्यता, समझ अथवा निर्णय को सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहता है ताकि लोग उससे प्रभावित हो जाएँ। अर्थात् किशोरों के व्यवहार में नया मोड़ लाने के लिए उपलब्धि (जैसे-एम. ए. की डिग्री), संबंधन (मित्र या शुभचिंतक) और शक्ति, (प्रभाव और प्रदर्शन) की आवश्यकता वांछनीय प्रतीत होती है।
प्रश्न 4.
मैस्लो के आवश्यकता पदानुक्रम के पीछे प्राथमिक विचार क्या हैं? उपयुक्त उदाहरणों की सहायता से व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
‘भूखे भजन न होय गोपाला’ अर्थात् भोजन की तुलना में भजन निरर्थक है चाहे वह कितना भी गरिमामयी क्यों न हो। मैस्लो ने भी आवश्यकताओं को महत्त्व के आधार पर श्रेणीबद्ध करके बतलाना चाहा है कि जीवन निर्वाह के लिए मूल शरीर क्रियात्मक मूल आवश्यकता है। मैस्लो का पिरामिड संप्रतययित रूप है एक लोकप्रिय मॉडल का जिसमें पदानुक्रम के तल में मूल जैविक आवश्यकताओं को जगह मिली है।
चित्र: अभिप्रेरणात्मक चक्र
मैक्लो (1968, 1970) ने मानव व्यवहार को चित्रित करने के लिए आवश्यकताओं को एक पदानुक्रम में व्यवस्थित किया है। आवश्यकताओं की व्यवस्था से पता चलता है कि मानव अपने स्वभाव से महत्त्वाकांक्षी होता है। भूख समाप्त होते ही वह सुरक्षा की चिन्ता करने लगता है। सुरक्षा की उचित व्यवस्था पाकर वह शुभचिंतकों का समूह पाना चाहता है। इसके बाद सम्मान और आत्मसिद्धि की इच्छा जागती है। मैस्लो के पदानुक्रम के पीछे प्राथमिक विचार बहुत ही स्वाभाविक है। पदानुक्रम में व्यवस्थित निम्न स्तर की आवश्यकता जब नहीं हो जाती तब तक कोई व्यक्ति उच्चस्तरीय आवश्यकता की ओर सोचता तक नहीं है। किसी आवश्यकता की पूर्ति से ज्योंहि व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है, क्योंकि उच्चस्तरीय आवश्यकता उसकी चिंता का कारण बन जाती है।
जैसे, भूखे व्यक्ति को रडियो नहीं चाहिए, क्योंकि वह तो रोटी की खोज में व्यस्त है। खा-पीकर जब आदमी संतुष्ट हो जाता है तो उसे मनोरंजन, नाच-गाना सभी कुछ अच्छा लगने लगता है। एक व्यक्ति टमटम चलाता है। सबसे पहले उसे यात्री मिलने की चिन्ता रहती है। ज्योहि उसे एक साथ पाँच यात्री मिल जाते हैं तो वह घर से मिलने के बारे में सोचने लगना है। घर के बच्चे के लिए मिठाई का चयन उसे परेशान कर देते हैं। जब मिठाई लेकर घर पहुँचता है तो किवाड़ नहीं बंद हो सकने की चिन्ता हो जाती है। अत: उसकी चिन्ता बदलती रहती है लेकिन वह पूर्णतः समाप्त नहीं हो पाती है।
प्रश्न 5.
क्या शरीर क्रियात्मक उद्वेलन सांवेगिक अनुभव के पूर्व या पश्चात घटित होता है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक एवं परिष्कृत उपकरणों की सहायता से शरीर क्रियात्मक परिवर्तनों (क्रोध से शरीर का काँपना, पसीना निकलना, हृदय गति का तेज होना) का यथार्थ मापन किया जा सकता है जो संवेग की शरीर क्रियात्मक सक्रियकरण की श्रृंखला पर निर्भर करता है, जिसमें चेतक, अधश्चेतक, उपवल्कुटीय व्यवस्था का प्रमस्तिष्कीय वल्कुट महत्त्वपूर्ण रूप से अंतर्निहित हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी विचार या घटना के बारे में सोचते ही उत्तेजित या क्रुद्ध होते हैं तो उसकी हृदय गति बढ़ जाती है। मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों में चयनात्मक सक्रियकरण, भिन्न-भिन्न संवेगों का उद्वेलन प्रदर्शित करता है।
जेम्स लांजे सिद्धांत के अनुसार पर्यावरणी उद्दीपक हृदय या फेफड़े जैसे आंतरिक अंग में शरीर क्रियात्मक अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं जो पेशीय गति से सम्बद्ध होते हैं। जैसे अचानक तीव्र शोर या उच्च तीव्रता वाली ध्वनि सुनने के साथ ही अंत- संगी तथा पेशीय अंगों में सक्रियकरण उत्पन्न हो जाता है जिसका अनुसरण संवेगात्मक उद्वेलन करता है। जेम्स लांजे का तर्कना कि शारीरिक परिवर्तनों का व्यक्ति द्वारा किया गया प्रत्यक्षण (साँस का तेज होना, अंगों का हिलना) संवेगात्मक उद्वेलन उत्पन्न करता है। अर्थात् विशिष्ट घटनाएँ या उद्दीपक विशिष्ट शरीर क्रियात्मक परिवर्तनों के उत्तेजित करती है जो प्रत्यक्षण और संवेगों की अनुभूति से ताल-मेल करता है।
कैननबार्ड सिद्धांत के अनुसार संवेगों की सारी प्रक्रिया की मध्यस्थता चेतक के द्वारा की जाती है जो कि संवेग उद्दीपक करने वाले उद्दीपकों के प्रत्यक्षण के पश्चात् यह सूचना सहकालिक रूप से प्रमस्तिष्कीय वल्कुट, कंकाल पेशियों तथा अनुरूपी तंत्रिका तंत्र को देता है। इसके बाद प्रत्यक्षित अनुभव की प्रकृति का पता लगाया जाता है। स्वायत्त तंत्रिका के द्वारा शरीर की क्रियात्मक उद्वेलन उत्प्रेरित होता है। आजकल जेम्स-लांजे सिद्धांत की अपेक्षा कैननबार्ड सिद्धांत पर ज्यादा विश्वास किया जाता है। कैननबार्ड सिद्धांत के अनुसार अत: अनुकंपी एवं परानुकंपी तंत्र यद्यपि परस्पर विरोधी तरीके से कार्य करते हैं, किन्तु वे संवेगों के अनुभव और अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को पूरा करने में परस्पर पूरक हैं।
चित्र: कैनन-बार्ड का संवेग सिद्धांत
अर्थात् अन्ततः यही सच है कि संवेगात्मक अनुभूति और संवेगात्मक व्यवहार साथ-साथ होता है। कैननबार्ड ने भी माना है कि सबसे पहले संवेगात्मक उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण, उसके बाद संवेगात्मक अनुभूति और संवेगात्मक व्यवहार दोनों साथ-साथ होता है। स्टैनली शैक्टर तथा जेरोम सिंगार ने संवेगों के द्विकारक सिद्धांत के माध्यम से माना है कि हमारे संवेगों में शरीर क्रियात्मक समानता होती है, क्योंकि हृदय तभी धड़कता है जब हम भयभीत होते हैं।
प्रश्न 6.
क्या संवेगों की चेतन रूप से व्याख्या तथा नामकरण करना उनको समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए चर्चा कीजिए।
उत्तर:
हमारे संज्ञान अर्थात् हमारे प्रत्यक्षण, स्मृतियाँ एवं व्याख्याएँ हमारे संवेग के आवश्यक हैं। संवेग और उसके कारण और प्रभाव का पता बताने के लिए संवेगात्मक क्रिया-कौशल की व्याख्या संवेगों को स्पष्टतः समझने में सहायक होता है। स्टैनली शैक्टर तथा जेरोम सिंगर ने शारीरिक और संज्ञानात्मक संवेगों का अध्ययन कर बताया कि संवेगों की अनुभूति हमारे तात्कालिक उद्वेलन के प्रति जागरुकता के द्वारा उत्पन्न होती है। उन दोनों का मत है कि किसी संवेगात्मक अनुभव के लिए उद्वेलन की चेतना व्याख्या की आवश्यकता होती है।
माना कोई व्यक्ति किसी कविता की रचना करके श्रोता को संगीत-स्वर में सुनाता है। वह अपनी करनी से बहुत खुश और गौरवान्वित है। इसी क्रम में कोई श्रोता उसके प्रयास को फूहर प्रदर्शन कह डाला। व्यक्ति, श्रोता और आलोचना के बीच संवेगात्मक दशा में अंतर आना स्वाभाविक है। हमें इसके कारण, प्रभाव और परिणाम की स्पष्ट जानकारी के लिए सम्पूर्ण घटना की विस्तृत व्याख्या करनी चाहिए।
इसी आवश्यकता अथवा प्रयास के सम्बन्ध में शैक्टर तथा सिंगर (1962) ने प्रतिभागियों को उच्च स्तर का उद्वेलन उत्पन्न करने वाली दवा ‘एपाइनफ्राइन’ की सूई देकर उसे दूसरे से व्यवहारों का प्रेक्षण करने को कहा गया। प्रेक्षण के क्रम में उल्लासोन्माद को व्यक्त करने वाला रद्दी को टोकरी पर कागज फेंक कर अपनी खुशी को व्यक्त किया तथा दूसरा क्रोध का प्रदर्शन करते हुए पैर पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गया। इस तरह का व्यवहार संवेगों की चेतना व्याख्या का अवसर जुटा दिया।
संवेगों का नामकरण-कुछ मूल संवेग (भूख, प्यास) सभी लोगों में समान रूप से अभिव्यक्ति का अवसर देता है। चाहे व्यक्ति किसी उम्र, जाति या श्रेणी का हो किन्तु कुछ संवेग विशिष्ट होते हैं। विशिष्ट संवेगों के लक्षणों पर पर्यावरण, स्थान, समझ तथा संस्कार का प्रभाव मिलता है। जैसे-सुख, दुख, प्रसन्नता, क्रोध, घृणा आदि को मूल संवेग और आश्चर्य, अवमानना, शर्म तथा अपराध को विशिष्ट संवेग के रूप में जाना जाता है। क्योंकि भारत में जिस क्रिया के लिए शर्म या आश्चर्य प्रकट किया जाता है, अमेरिका में उसे आधुनिकता मान-लिया जाता है।
संवेगों के स्वरूप की सही पहचान के लिए उनका नामकरण वांछनीय है। जैसे–पत्र-पत्रिकाओं से लगभग दो सौ चित्रों को काटकर उन्हें कूट पर चिपका कर चित्रकार्ड का रूप दे दिया गया। अब उन्हें अलग-अलग संवेगों पर आधारित चित्रों का समुच्चय बना लिया गया। माना हँसता हुआ 20 कार्ड, रोता हुआ 50 कार्ड, क्रोध का मुद्रा वाला 80 चित्र तथा अन्यान्य मुद्रा वाले शेष चित्रों का समूह बनाकर संचित कर लिया गया। अब हमें किस समूह की आवश्यकता है उसे बिना नामकरण का कैसे व्यक्त करना संभव है। अर्थात् संवेगों की चेतन रूप से व्याख्या तथा नामकरण करना उन्हें समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है।
प्रश्न 7.
संस्कृति संवेगों की अभिव्यक्ति को कैसे प्रभावित करती है?
उत्तर:
संवेगों की अभिव्यक्ति में पूरी शक्ति से प्रभाव डालती है। चूंकि संवेग एक आन्तरिक अनुभूति होती है, अतः संवेगों का अनुमान वाचिक तथा अवाचिक अभिव्यक्तियों के द्वारा ही होती है। वाचिक तथा अवाचित अभिव्यक्तियाँ संचार माध्यम का कार्य करती हैं। संचार के वाचिक माध्यम में स्वरमान और बोली का ऊँचापन, दोनों सन्निहित होते हैं।
अवाचिक माध्यकों में चेहरे का हाव-भाव, मुद्रा, भंगिमा तथा शरीर की गति तथा समीपस्थ व्यवहार शामिल रहते हैं। चेहरे के हाव-भावों से होने वाली अभिव्यक्ति सांवेगिक संचार का सबसे अधिक प्रचलित माध्यम है। व्यक्ति के संवेगों का सुखद या दुखद होना, क्रोधित होना, काफी खुश रहना, गौरव महसूस करना, आदि चेहरे को देखकर समझा जा सकता है। भूख द्वारा अभिव्यक्तियों में हर्ष, भय, क्रोध, विरुचि, दुख तथा आश्चर्य आदि जन्मजात तथा सार्वभौम होती है।
शारीरिक गति अर्थात् हाथ:
पैर हिलाना, संवेगों के संचार को अधिक सरल बना देती है। भारतीय शास्त्रीय नृत्य शरीर की गति के माध्यम से अपनी भावनाओं को सरलता से पेश करने में समर्थ होता है। संवेगों में अन्तर्निहित प्रक्रियाएँ संस्कृति द्वारा काफी प्रभावित होती हैं। स्मृति शोध, मुख की अभिव्यक्ति, जटिलता से मुक्त प्रदर्शन आदि संवेगों का स्वाभाविक चित्र दिखाते हैं। संवेग के आत्मनिष्ठ अनुभव तथा प्रकट अभिव्यक्ति के बीच मुख का प्रदर्शन एक कड़ी का काम करता है।
संवेगों की अभिव्यक्ति में अन्य अवाचिक माध्यमों का प्रभावों भी असरदार होती है। जैसे-टकटकी लगाकर देखने, तरह-तरह की चेष्टा (शारीरिक भाव) का प्रदर्शन, पराभाषा तथा समीपस्थ व्यवहार इत्यादि के माध्यम से भी संवेगों की अभिव्यक्त की जा सकती है। चीन में ताली बजाना आकुलता या निराशा का सूचक है तथा क्रोध को विचित्र हँसी के द्वारा व्यक्त किया जाता है। भारत में मौन रहकर गहरे संवेग को अभिव्यक्ति किया जाता है। संवेगात्मक आदान-प्रदान के दौरान, शारीरिक दूरी (सान्निध्य) विभिन्न प्रकार के संवेगात्मक अर्थों को व्यक्त करती है।
जैसे- भारत के लोग खुशी जाहिर करने के लिए गले मिलते हैं। स्पर्श से संवेगात्मक उष्णता का बोध होता है। कभी विमुखता महसूस करने वाला व्यक्ति दूर से ही अंतःक्रिया करना चाहता है। सारांशतः माना जा सकता है कि संवेगों की अभिव्यक्ति में संस्कृति का प्रबल योगदान है। यह सच है कि संस्कृति की भिन्नता के कारण स्थान बदलने से उनके अर्थ एवं विधियाँ बदल जाते हैं। संवेगों की अभिव्यक्ति मुख, संकेत, हाव-भाव तथा शारीरिक क्रिया के माध्यम से सरलता से संभव होता है। जैसे-कृपया कहने वाला, गाली देने वाले से अलग-संवेग का प्रदर्शन करता है।
प्रश्न 8.
निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन क्यों महत्त्वपूर्ण है? निषेधात्मक संवेगों के प्रबंधन हेतु उपाय सुझाएँ।
उत्तर:
संवेग हमारे दैनिक जीवन तथा अस्तित्व के अंश हैं एवं संवेग एक सांतात्मक के प्रमुख हिस्सा बनकर हमें तरह-तरह के अनुभवों से परिचित कराता है। दैनिक जीवन में कई द्वन्द्वात्मक दशाओं तथा कठिन और दबावमय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। भय, दुश्चिता, विरुचि जैसी प्रवृत्ति उत्पन्न होकर निषेधात्मक संवेग के घनत्व को बढ़ा देती है।
यदि निषेधात्मक संवेगों को लम्बी अवधि तक किनारों के अनवरत चलते रहने दिया जाए, तो सम्बन्धित व्यक्ति के शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। हीनता की भावना, द्वेष, क्रोध, चिड़चिड़ापन, रक्तचाप, भोजन से अरुचि जैसी विषय तथा कष्टदायक स्थिति उत्पन्न होने लगती है। संवेगों के उत्तम प्रबंधन के द्वारा निषेधात्मक संवेगों में कमी तथा विध्यात्मक संवेगों (भरोसा, आशा, खुशी, सर्जनात्मकता, साहस, उमंग, उल्लास) में वृद्धि लाने का प्रयास करना प्रमुख लक्ष्य माना जाता है।
क्रोध, भय, दुश्चिता, असमर्थता, हीनता की भावना जैसे निषेधात्मक संवेगों से मौन मुक्ति तथा क्रियाकलापों को आशा, उत्साह, खुशी, उमंग आदि से जोड़कर पूरा कर लेने की प्रवृत्ति का सराहनीय विकास निषेधात्मक संवेगों से उत्पन्न होने वाले शारीरिक एवं मानसिक विकारों से यथासंभव मुक्ति मिल सकती है। आजकल सफल संवेग प्रबंधन को प्रभावी सामाजिक प्रबंधन का मुख्य आधार माना जा रहा है ताकि समाज में मनोविकार वाले व्यक्तियों की संख्या में होने वाली वृद्धि को रोका जा सके।
निषेधात्मक संवेगों के प्रबंधन हेतु उपाय-निषेधात्मक संवेगों में कमी तथा विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि करके वांछित प्रबंधन को सुपरिणामी और सार्थक स्वरूप प्रदान किया जा सकता है जिसके लिए निम्नलिखित युक्तियाँ सफल हो सकती हैं –
1. आत्म-जागरुकता में वृद्धि:
किसी भी परिस्थिति को समझकर उससे संबंधित धनात्मक या ऋणात्मक प्रभावों को जानने तथा उसके प्रति अनुकूलता प्रदर्शित करने के लिए सदा जागरुक रहना खतरा से मुक्ति दिलाने में तथा संभावित लाभप्रद परिणामों के सदुयोग में सरल मार्ग मिल जाता है।
2. परिस्थिति की सम्पूर्ण पहचान:
कोई परिस्थिति क्यों उत्पन्न हुई, इसका क्या-क्या प्रभाव पड़ सकता है, इसका उपयोग किस स्थिति में लाभप्रद या हानिकारक होगा जैसे जिज्ञासु प्रश्नों के. सही उत्तर जानकर उत्पन्न परिस्थिति का डटकर मुकाबला करने की प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहिए।
3. आत्म-परीक्षण:
व्यक्ति को अपनी दक्षता, कौशल या योग्यता का सही अनुमान होना चाहिए। अपने विचारों तथा कला-कौशल को पहचानकर उसके सही प्रयोग की ओर उचित ध्यान देने से ऋणात्मक प्रभाव से मुक्ति मिल सकती है।
4. ऋणात्मक प्रवृत्तियों से मुक्ति:
अपने आपको आत्मग्लानि, भय, चिंता, अवसाद जैसी भावनाओं से मुक्त रखकर सृजनात्मक कार्यों में जुट जाइए। अपनी रुचि या शौक के अनुसार किसी अच्छे कार्य का चयन करके उसे पूरा करने में व्यस्त रहिए।
5. शुभचिंतकों की संख्या में वृद्धि:
अपनी भाषा एवं व्यवहार से लोगों को प्रभावित करके उन्हें शुभचिंतकों की श्रेणी में लाकर लाभ उठाने का प्रयास कीजिए।
6. उत्तम आदत:
पूजा, व्यायाम, निद्रा, सफाई, भोजन आदि से संबंधित अच्छी आदतों को अपनाकर शेष व्यक्तियों के लिए आदर्श बन जाइए। लोगों की प्रशंसा, खुशामद, श्रद्धा के कारण आपका मनोबल बढ़ेगा और आपकी सोच सर्जनात्मक हो जाएगी।
निषेधात्मक संवेगों के कुप्रभाव से बचाने के लिए सबसे सरल उपाय है कि किसी भी प्रभाव को आप स्वाभाविक क्रिया मानकर स्वीकार कीजिए। यह मानकर चलिए कि बहुत से लोग हैं जो हारते हैं, बहुतों के घर में चोरी हुई है। आत्म-सम्मान की रक्षा करते हुए सहयोग, परोपकार, दया, कर्मठता, चिंतन आदि को अपने जीवन में जगह देकर आप अपनी जिन्दगी को गति दे सकते हैं। जमाना बदल रहा है, आप भी बदलिये। किसी को दोषी मानने के पहले, अपनी गलतियों को पहचानिये। अभ्यास और चिंतन समस्याओं से निबटने का महामार्ग है।
Bihar Board Class 11 Psychology अभिप्रेरणा एवं संवेग Additional Important Questions and Answers
अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
प्रेरणा से उत्पन्न व्यवहार कब तक जारी रहता है?
उत्तर:
प्रेरणा से उत्पन्न व्यवहार प्रोत्साहन की प्राप्ति तक जारी रहता है।
प्रश्न 2.
प्रेरणा प्राणी की किस प्रकार की अवस्था है?
उत्तर:
प्रेरणा प्राणी की आन्तरिक अवस्था है जो व्यक्ति को व्यवहार करने के लिए शक्ति प्रदान करती है।
प्रश्न 3.
प्रेरणा से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्रेरणा एक आन्तरिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति को व्यवहार करने के लिए शक्ति प्रदान करती है तथा किसी विशेष उद्देश्य की ओर व्यवहार को ले जाती है।
प्रश्न 4.
प्रेरण-चक्र क्या है?
उत्तर:
आवश्यकता-प्रणोदन और प्रोत्साहन-सूत्र को प्रेरण-चक्र कहते हैं।
प्रश्न 5.
प्रेरणा की उत्पत्ति किस प्रकार होती है?
उत्तर:
प्रेरणा की उत्पत्ति आवश्यकता से होती है।
प्रश्न 6.
संवेग की उत्पत्ति किस ढंग से होती है?
उत्तर:
संवेग की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक ढंग से होती है।
प्रश्न 7.
संवेग में क्या सन्निहित होता है?
उत्तर:
संवेग में चेतन अनुभव व्यवहार और अन्तरावयव संबंधी कार्य सन्निहित होता है।
प्रश्न 8.
संवेग की क्या विशेषता होती है?
उत्तर:
संवेग सतत होता है, संवेग सम्पूर्ण रूप से होता है, संवेग संचयी होता है तथा संवेग का स्वरूप प्रेरणात्मक होता है।
प्रश्न 9.
संवेग का कौन सिद्धांत है जिसमें हाइपोथैलेमस को संवेग का केन्द्र माना गया है?
उत्तर:
कैनन-बार्ड ने अपने सिद्धांत में हाइपोथैलेमस को संवेग का केन्द्र माना है।
प्रश्न 10.
वाटसन ने किस संवेग को मौलिक माना है?
उत्तर:
वाटसन ने क्रोध, भय और प्रेम को मौलिक संवेग माना है।
प्रश्न 11.
विलियन जेम्स और कार्ल कहाँ के निवासी थे?
उत्तर:
विलियन जेम्स अमेरिका तथा कार्ल लाँजे डेनमार्क के निवासी थे।
प्रश्न 12.
संवेग के जेम्स-लांजे सिद्धांत के विरोध में किस सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ है?
उत्तर:
संवेग के जेम्स-लांजे सिद्धांत के हाइपोथैलेमिक सिद्धांत का प्रतिपादन कैनन-बार्ड ने किया है।
प्रश्न 13.
जेम्स-लाँजे के अनुसार संवेग का क्रम क्या है?
उत्तर:
जेम्स-लाँजे के अनुसार सबसे पहले संवेगात्मक उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण, उसके बाद शारीरिक परिवर्तन और अन्य में संवेगात्मक अनुभूति होती है।
प्रश्न 14.
कैनन-बार्ड के अनुसार संवेग का क्रम क्या है?
उत्तर:
कैनन-बार्ड के अनुसार सबसे पहले संवेगात्मक उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण, उसके बाद संवेगात्मक अनुभूति और संवेगात्मक व्यवहार दोनों साथ-साथ होता है।
प्रश्न 15.
प्रो. मैस्लो द्वारा आवश्यकता के सम्बन्ध में दिये गये विचार को बतायें।
उत्तर:
प्रो. मैसलो ने आवश्यकता पर अधिक बल दिया। उसने आवश्यकता की तीव्रता को आधार बनाया है। उनके अनुसार कुछ आवश्यकताएँ ऐसी होती हैं जिन्हें तुरंत पूरा करना होता है। कुछ आवश्यकताएँ ऐसी होती हैं जो फुर्सत से पूरी की जा सकती है।
प्रश्न 16.
प्रो. मैस्लो ने अभिप्रेरकों को कितने भागों में बाँटा है?
उत्तर:
प्रो. मैस्लो ने अभिप्रेरकों को दो भागों में बाँटा है-जन्मजात अभिप्रेरक और अर्जित अभिप्रेरक।
प्रश्न 17.
प्रेरकों का द्वन्द्व क्या है?
उत्तर:
प्रेरकों का द्वन्द्व का अर्थ उस अवस्था से है जिसमें दो से अधिक बेमेल व्यवहार प्रकट होते हैं जो एक समय में पूर्ण रूप से संतुष्टि नहीं पा सकते।
प्रश्न 18.
प्रेरणा की विफलता क्या है?
उत्तर:
मनुष्य को कभी-कभी विलम्ब से लक्ष्य की प्राप्ति होती है। कभी-कभी अपने बहुत प्रयासों के बाद भी व्यक्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर पाता है। इसे ही प्रेरणा की विफलता कहते हैं।
प्रश्न 19.
सम्प्रत्यय क्या है?
उत्तर:
सम्प्रत्यय व्यक्ति के मानसिक संगठन में एक प्रकार का चयनात्मक तंत्र है जो पूर्व अनुभूतियों तथा वर्तमान उत्तेजना में एक संबंध स्थापित करता है।
प्रश्न 20.
संचार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
भाषा, संकेत एवं चिह्नों आदि के माध्यम से अपने चिंतन एवं विचार को दूसरों तक पहुँचाने एवं दूसरों के चिंतन एवं विचार से अवगत होना ही संचार है।
प्रश्न 21.
अन्तर्नाद या प्रणोदन क्या हैं?
उत्तर:
अन्तर्नोद या प्रणोदन एक ऐसी अवस्था है, जिससे प्राणी में क्रियाशीलता आती है और उसका व्यवहार एक निश्चित दिशा की ओर क्रियाशील हो जाता है।
प्रश्न 22.
प्रेरणा में प्रोत्साहन क्या है?
उत्तर:
प्रोत्साहन एक बाह्य लक्ष्य या वस्तु है, जिससे ऐसी उत्तेजना प्राप्त होती है जो प्राणी को लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रेरित करती है और जिससे आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है।
प्रश्न 23.
प्रेरणा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
अभिप्रेरकों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-जन्मजात अभिप्रेरक तथा अर्जित अभिप्रेरक।
प्रश्न 24.
जैविक अभिप्रेरक किसे कहते हैं?
उत्तर:
जैविक या जन्मजात अभिप्रेरक वैसे अभिप्रेरक को कहा जाता है जो प्राणी में जन्म के समय से ही वर्तमान रहता है।
प्रश्न 25.
सामाजिक या अर्जित अभिप्रेरक किसे कहते हैं?
उत्तर:
सामाजिक या अर्जित अभिप्रेरक से तात्पर्य उन प्रेरकों से है, जिसे व्यक्ति अपने जीवन काल में अर्जित करता है; क्योंकि इसके अभाव में उसका सामाजिक जीवन अर्थहीन हो जाता है।
प्रश्न 26.
जैविक अभिप्रेरक कौन-कौन हैं?
उत्तर:
जैविक अभिप्रेरक के अन्तर्गत भूख, प्यास, यौन, मातृक प्रणोदन आदि आते हैं।
प्रश्न 27.
अर्जित प्रेरक के अन्तर्गत कौन-कौन प्रेरक आते हैं?
उत्तर:
अर्जित प्रेरक के अन्तर्गत सामुदायिक, अर्जनात्मकता, कलह, आत्म स्थापना आदि आते हैं।
प्रश्न 28.
उपलब्धि अभिप्रेरक किसे कहते हैं?
उत्तर:
उपलब्धि अभिप्रेरक से तात्पर्य श्रेष्ठता का एक खास स्तर प्राप्त करने की इच्छा से है।
प्रश्न 29.
कोई व्यक्ति किस प्रकार के अभिप्रेरक के कारण विभिन्न परिस्थितियों में कठोर श्रम करेगा?
उत्तर:
कोई व्यक्ति तीव्र उपलब्धि अभिप्रेरक के कारण विद्यालय में, खेल में, संगीत में तथा अन्य कई भिन्न परिस्थितियों में कठोर श्रम करेगा।
प्रश्न 30.
आवश्यकता की उत्पत्ति कब होती है?
उत्तर:
मानव जीवन के लिए किसी वांछनीय वस्तु का अभाव या न्यूनता आवश्यकता की उत्पत्ति का कारण होता है।
प्रश्न 31.
यादृच्छिक क्रिया-कलाप को किसके कारण ऊर्जा उपलब्ध होती है?
उत्तर:
आवश्यकता के कारण उत्पन्न तनाव या उद्वेलन के रूप में जो अंतर्नाद जन्म लेता है, उसी के कारण यादृक्षिक क्रिया-कलाप को ऊर्जा मिलती है।
प्रश्न 32.
अभिप्रेरक के दो प्रकार क्या हैं?
उत्तर:
- जैविक तथा
- मनोसामाजिक अभिप्रेरक।
प्रश्न 33.
सामान्य मानवीय मूल प्रवृत्ति के चार उदाहरण दें।
उत्तर:
- जिज्ञासा
- पलायन
- प्रतिकर्षण और
- प्रजनन।
प्रश्न 34.
भूख की अनुभूति को तीव्र बनाने में किन बाह्य कारकों का हाथ होता है?
उत्तर:
भोजन का स्वाद, रंग, सुगंध तथा दूसरे को भोजन करते हुए देखना आदि खाने की इच्छा को बढ़ाने वाले कारक हैं।
प्रश्न 35.
जैविक प्रेरकों का मापन किस विधि से होता है?
उत्तर:
जैविक प्रेरक को मापने की कई विधियाँ हैं जिनमें पसंद विधि, अवरोधन विधि, शिक्षण विधि, क्रिया पिंजड़ा विधि आदि मुख्य हैं।
प्रश्न 36.
संवेग की समुचित परिभाषा क्या है?
उत्तर:
संवेग व्यक्ति में एक तीव्र उपद्रव की अवस्था है, जिसका प्रभाव उस पर संपूर्ण रूप से पड़ता है । इसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक ढंग से होती है और जिसमें चेतन अनुभव, व्यवहार और अन्तरावयव संबंधी कार्य सम्मिलित होते हैं।
प्रश्न 37.
प्रभावशाली संचार की बाधाओं से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
वैसे कारक जो संचार को प्रभावशाली बनने में बाधा उत्पन्न करती है उसे संचार की बाधाएँ कहा जाता है।
प्रश्न 38.
प्रभावशाली संचार की बाधाएँ क्या हैं?
उत्तर:
सूचना में अस्पष्टता, ग्रहणकर्ता के क्षमता की सीमाएँ, भौतिक बाधाएँ, माध्यम में गुणवत्ता का अभाव, वैयक्तिक बाधाएँ आदि प्रभावशाली संचार की बाधाएँ हैं।
प्रश्न 39.
संचार स्रोत की क्या विशेषताएँ होती हैं?
उत्तर:
संचार स्रोत की विशेषताओं में विश्वसनीयता, आकर्षण तथा समानता आदि प्रमुख हैं।
प्रश्न 40.
संचार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
सूचना भेजने वाले तथा सूचना प्राप्त करने वाले के बीच विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम को संचार कहा जाता है।
प्रश्न 41.
प्रभावशाली संचार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जिस संचार से लक्ष्य की प्राप्ति हो उसे प्रभावशाली संचार कहा जाता है।
प्रश्न 42.
संचार के माध्यम क्या हैं?
उत्तर:
संचार के माध्यम का मतलब यह होता है कि सूचना किस तरह से स्रोत द्वारा व्यक्ति या सूचना प्राप्तकर्ता को दिया जाता है।
प्रश्न 43.
द्विवैयक्तिक संचार किसे कहते हैं?
उत्तर:
जब दो व्यक्तियों के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता है तो उसे द्विवैयक्तिक संचार कहते हैं।
प्रश्न 44.
संचार को कितने भागों में बांटा गया है?
उत्तर:
संचार को दो मुख्य भागों में बाँटा गया है-शाब्दिक संचार एवं अशाब्दिक संचार।
प्रश्न 45.
अशाब्दिक संचार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अशाब्दिक संचार का मतलब वैसे संचार से है जिसमें व्यक्ति अशाब्दिक संकेतों का उपयोग कर अपने विचारों एवं भावों को अभिव्यक्त करता है।
प्रश्न 46.
शाब्दिक संचार किसे कहते हैं?
उत्तर:
शाब्दिक संचार उस संचार को कहते हैं जिसमें विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति लिखित या मौखिक रूप से शब्दों या वाक्यों को बोलकर किया जाता है।
प्रश्न 47.
आनन अभिव्यक्ति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
चेहरे में परिवर्तन के आधार पर अपने भावों को अभिव्यक्त करना आनन अभिव्यक्ति है।
प्रश्न 48.
संचार की प्रभावशीलता को कौन-कौन कारक प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
सूचना को विषय-वस्तु स्रोत की विशेषता, संचार का माध्यम, ग्रहणकर्ता की विशेषताएँ संचार की प्रभावशीलता. को प्रभावित करते हैं।
लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
आवश्यकता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
किसी भी अभिप्रेरणात्मक व्यवहार की उत्पत्ति आवश्यकता (need) से होती है। प्राणी के शरीर में किसी चीज की कमी या अति की अवस्था को आवश्यकता (need) कहा जाता है। जब व्यक्ति के शरीर में पानी की कमी हो जाती है तब उसमें प्यास की आवश्यकता (need) का अनुभव होता है। उसी तरह जब शरीर में अनावश्यक चीजों जैसे मल-मूत्र का जमाव अधिक हो जाता है तब मल-मुत्र त्यागने की आवश्यकता उत्पन्न होती है।
ये सभी जैविक आवश्यकता (biological need) के उदाहरण हैं। इन जैविक आवश्यकताओं के अलावा कुछ मनोवैज्ञानिक आवश्यकता (Psychological need) भी होते हैं। जैसे, धन कमाने की आवश्यकता, सामाजिक प्रतिष्ठा पाने की आवश्यकता, स्नेह पाने की आवश्यकता मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के उदाहरण हैं जिनसे भी व्यक्ति का व्यवहार अभिप्रेरित होता है।
प्रश्न 2.
अभिप्रेरणा का अर्थ बतायें।
उत्तर:
अभिप्रेरणा एक ऐसा आंतरिक बल (intermal force) होता है जो व्यक्ति को किसी उद्देश्य (goal) की ओर व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है। जैसे, एक भूखे व्यक्ति का उदाहरण लें। भूखे व्यक्ति को होटल या किसी ऐसी जगह जहाँ उसे भोजन मिल सकता है, की ओर ले जाता है। जबतक उसे भोजन नहीं मिल जाता है, उसका व्यवहार भोजन खोजने में लगा रहता है।
इस उदाहरण में भूख आवश्यकता (need) है। इससे व्यक्ति में जो तनाव (tension) की अवस्था उत्पन्न होती है जिसके कारण वह भोजन ढूँढने का व्यवहार करता है, प्रणोद (drive) कहलाता है। भोजन एक प्रोत्साहन (incentive) है जिसके पाने से प्रणोद में कमी तथा आवश्यकता की तुष्टि हो जाती है। इस तरह, प्रत्येक अभिप्रेरण में आवश्यकता-प्रणोद-प्रोत्साहन (need-drive-incentive) का एक क्रम पाया जाता है।
प्रश्न 3.
जन्मजात अभिप्रेरक का अर्थ उदाहरण सहित बताएँ।
उत्तर:
जन्मजात अभिप्रेरक से तात्पर्य वैसे अभिप्रेरक से है जो व्यक्ति में जन्म से ही पाए जाते हैं तथा इनके अभाव में व्यक्ति का अस्तित्व संभव नहीं है। भूख, प्यास, काम जन्मजात अभिप्रेरक के उदाहरण हैं। इन तीनों के अभाव में व्यक्ति का अस्तित्व संभव नहीं है। कोई भी व्यक्ति भूख, प्यास तथा काम की आवश्यकता को संतुष्टि किये बिना जिन्दा नहीं रह सकता है।
प्रश्न 4.
प्रणोद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रणोद (drive) एक ऐसी मानसिक तनाव की अवस्था है जो आवश्यकता के कारण उत्पन्न होती है तथा जो व्यक्ति को क्रियाशील बना देती है। जैसे, भूख की आवश्यकता में व्यक्ति भोजन खोजने के लिए क्रियाशील हो उठता है तथा उसमें एक मानसिक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। प्रणोद का स्वरूप जैविक तथा मनोवैज्ञानिक कुछ भी हो सकता है। जब जैविक आवश्यकता अर्थात् भूख, प्यास, काम आदि द्वारा प्रणोद उत्पन्न होता है तो उसका स्वरूप जैविक होता है, परंतु यदि अर्जित आवश्यकता जैसे संबंधन (affiliation) की आवश्यकता, उपलब्धि की आवश्यकता आदि द्वारा प्रणोद उत्पन्न होता है जब उसका स्वरूप मनोवैज्ञानिक या सामाजिक होता है।
प्रश्न 5.
आवश्यकता-प्रणोदन-प्रोत्साहन सूत्र का वर्णन करें।
उत्तर:
किसी भी अभिप्रेरित व्यवहार में तीन महत्त्वपूर्ण संप्रत्यय होता है-आवश्यकता, प्रणोदन तथा प्रोत्साहन। आवश्यकता से तात्पर्य कमी या अति की शारीरिक अवस्था से होता है। जैसे, प्यास की आवश्यकता उत्पन्न होने पर व्यक्ति के शरीर की कोशिकाओं में पानी की कमी पायी जाती है। प्रणोदन जो आवश्यकता से उत्पन्न होता है, एक ऐसी मानसिक तनाव की अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति अपनी प्यास बुझाने के लिए जल की तलाश में तरह-तरह का व्यवहार करता है। जैसे, एक प्यासा व्यक्ति अपनी प्यास बुझाने के लिए जल की तलाश में इधर-उधर भटकता है। प्रोत्साहन से तात्पर्य उस लक्ष्य से होता है जिसकी प्राप्ति से प्राणी की आवश्यकता की पूर्ति होती है। जैसे प्यासे व्यक्ति के लिए जल एक प्रोत्साहन है, जिससे प्रणोदन में कमी होती है तथा आवश्यकता की संतुष्टि होती है।
प्रश्न 6.
जन्मजात अभिप्रेरक तथा अर्जित अभिप्रेरक में अंतर बतायें।
उत्तर:
जन्मजात अभिप्रेरक वैसे अभिप्रेरक को कहा जाता है जो प्राणी में जन्म से ही मौजूद होते हैं। ऐसे अभिप्रेरकों का मुख्य कार्य प्राणी के दैहिक अस्तित्व (physiological existence) को कायम रखना है। भूख, प्यास, काम (sex) तथा मल-मूत्र त्यागना आदि जन्मजात अभिप्रेरक के उदाहरण हैं। अर्जित अभिप्रेरकरक इनसे भिन्न होते हैं। अर्जित अभिप्रेरक वैसे अभिप्रेरक को कहा जाता है जो व्यक्ति में जन्म से तो मौजूद नहीं रहते हैं, परंतु उन्हें व्यक्ति जन्म के बाद अन्य लोगों से सामाजिक अंत:क्रिया (interactions) करने पर विकसित कर लेते हैं। उपलब्धि की आवश्यकता सत्ता तथा सम्मान की आवश्यकता, संबंधन या सामुदायिकता की आवश्यकता अर्जित आवश्यकता के कुछ उदाहरण हैं।
प्रश्न 7.
प्यास की अभिप्रेरक में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्यास एक ऐसा अभिप्रेरक है जिसमें स्पष्टतः कुछ शारीरिक परिवर्तन (bodily changes) होते हैं। कुछ शारीरिक परिवर्तन बाह्य (external) होते हैं तथा कुछ शारीरिक परिवर्तन आन्तरिक (internal) होते हैं। बाह्य शारीरिक परिवर्तनों में जीभ चटपटाना, कंठ सूखना तथा पानी के लिए दौड़-धूप करना प्रमुख हैं। आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन में लार-ग्रन्थियों से कम लार स्राव होना, प्राणी के शरीर की कोशिकाओं में पानी की कमी होना, रक्त की मात्रा (volume) में कमी आना प्रधान है। सामान्यतः तीव्र प्यास की स्थिति में रक्तचाप (blood pressure) में भी कमी आ जाती है।
प्रश्न 8.
अर्जित अभिप्रेरक का अर्थ उदाहरण सहित बतलाएँ।
उत्तर:
अर्जित अभिप्रेरक से तात्पर्य वैसे अभिप्रेरक से होता है जो व्यक्ति में जन्मजात नहीं होते हैं, परंतु जिसे व्यक्ति जीवनकाल में अर्जित करता है। वह सामाजिक मूल्यों के अनुरूप तरह-तरह के व्यवहार करने की प्रेरणा विकसित कर लेता है, इसे ही अर्जित अभिप्रेरक कहते हैं। आक्रमणशीलता, सामुदायिकता, संग्रहशीलता, उपलब्धि अभिप्रेरक, आदत, आकांक्षास्तर, मनोवृत्ति, अभिरुचि आदि अर्जित अभिप्रेरक के उत्तम उदाहरण हैं। इन अभिप्रेरकों से व्यक्ति का सामाजिक जीवन अधिक प्रभावशाली हो पाता है।
प्रश्न 9.
संवेग का अर्थ बतलाएँ।
उत्तर:
संवेग एक भावात्मक मानसिक प्रक्रिया है। साधारण अर्थ में संवेग व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था का दूसरा नाम है। लेकिन मनोवैज्ञानिकों ने संवेग का अर्थ इससे भिन्न बतलाया है। इस विशिष्ट अर्थ में संवेग व्यक्ति में समग्र रूप से तीव्र उपद्रव की अवस्था है जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिकों कारकों से होती है तथा जिसमें व्यवहार, चेतनानुभूति तथा अन्तरावयवी कार्य होते हैं। इस परिभाषा से संवेग के कई पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है, जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं –
- संवेग में तीव्र उपद्रव की अवस्था होती है।
- संवेग में समग्र रूप से शारीरिक उपद्रव होता है।
- संवेग की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है।
- संवेग में चेतना, अनुभव, व्यवहार तथा अन्तरांगों के कार्यों में परिवर्तन होता है। भय, क्रोध, प्रेम आदि संवेग के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
प्रश्न 10.
उपलब्धि अभिप्रेरक से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
उपलब्धि अभिप्रेरक से तात्पर्य श्रेष्ठता का विशेष स्तर प्राप्त करने से होता है। जिस व्यक्ति में यह अभिप्रेरक अधिक होता है, वह जिन्दगी में अधिक-से-अधिक सफलता प्राप्त करने में सक्षम होता है। सभी व्यक्तियों में उपलब्धि अभिप्रेरक एक समान नहीं होता है। कुछ में कम होता है तो कुछ में अधिक होता है। जिन व्यक्तियों को बचपन में स्वतंत्र प्रशिक्षण (independent training) अधिक मिली होती है, वयस्कावस्था में आने पर उनमें उपलब्धि अभिप्रेरक (achievement motive) अधिक होता है।
प्रश्न 11.
संवेग में होनेवाले शारीरिक मुद्रा में परिवर्तन की व्याख्या करें।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिकों ने यह स्पष्टतः दिखलाया है कि प्रत्येक संवेग में एक खास प्रकार की शारीरिक मुद्रा (bodily posture) होती है। विभिन्न संवेगों में विभिन्न तरह की शारीरिक मुद्राएँ पायी जाती हैं। इन शारीस्कि मुद्राओं को देखकर संबंधित संवेग का अनुमान लगाया जाता है। जैसे, दु:ख के संवेग में व्यक्ति का शरीर कुछ झुका हुआ तथा क्रोध में उसका शरीर कुछ अकड़ा एवं तना हुआ दिखाई पड़ता है। भय के संवेग में व्यक्ति भागने की मुद्रा बना लेता है। स्पष्ट हुआ कि संवेग में कई तरह के शारीरिक परिवर्तन व्यक्ति में होते पाये जाते हैं।
प्रश्न 12.
संवेग में होने वाले आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों का अर्थ. उदाहरणसहित बतलाएँ।
उत्तर:
संवेग में कुछ शारीरिक परिवर्तन ऐसे होते हैं जिसे व्यक्ति बाहर से नहीं देख सकता है। इसका प्रेक्षण करने के लिए विशेष यंत्र या उपकरण की जरूरत होती है, क्योंकि ऐसे परिवर्तन शरीर के भीतर में होते हैं। ऐसे परिवर्तनों को आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन कहा जाता है। जैसे, क्रोध के संवेग में यह अन्य संवेगों, जैसे-डर, प्रेम आदि में व्यक्ति के रक्तचाप का स्तर सामान्य से भिन्न हो जाता है। उसी तरह से हृदय की गति, नाड़ी की गति, श्वसन गति आदि में परिवर्तन हो जाते हैं, जिसका सही-सही प्रेक्षण विशेष उपकरण से किया जाता है। ये सभी आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन के उदाहरण हैं।
प्रश्न 13.
कैनन-बार्ड सिद्धांत का स्वरूप बतलाएँ।
उत्तर:
कैनन-बार्ड सिद्धांत के अनुसार संवेग का केन्द्र हाइपोथैलेमस (hypothalamus) होता है। जब व्यक्ति किसी ऐसे उद्दीपन (stimulus) को देखता है, जिससे संवेग उत्पन्न हो सकता है, तो उससे उसका हाइपोथैलेमस उत्तेजित हो उठता है। हाइपोथैलेमस से एक ही साथ कुछ स्नायु प्रवाह (nerve impulse), प्रमस्तिष्क (cerebrum) में पहुंचते हैं तथा कुछ स्नायु-प्रवाह अन्तरावयव (visceral organs) तथा मांसपेशियों में एक साथ पहुंचते हैं। प्रमस्तिष्क में स्नायु-प्रवाह के पहुँचने से संवेगात्मक व्यवहार होते हैं। अतः इस सिद्धांत के अनुसार संवेगात्मक अनुभूति तथा संवेगात्मक व्यवहार एक-दूसरे पर निर्भर नहीं होते हैं बल्कि दोनों ही एक साथ उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न 14.
जेम्स-लांजे सिद्धांत का स्वरूप बतलाएँ।
उत्तर:
संवेग के जेम्स-लांजे सिद्धांत के अनुसार जब व्यक्ति किसी ऐसे उद्दीपन को देखता है जिससे संवेग उत्पन्न होता है, तो उस उद्दीपन को देखने से उसमें संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) पहले होता है तथा संवेगात्मक व्यवहार बाद में होता है। इसका मतलब यह हुआ कि संवेगात्मक व्यवहार का होना संवेगात्मक अनुभूति के होने पर निर्भर करता है। जैसे, व्यक्ति भालू देखता है, डर जाता है इसलिए भाग जाता है। स्पष्टतः इस सिद्धांत की यह व्याख्या संवेग के सामान्य व्याख्या के विपरीत है।
प्रश्न 15.
अभिप्रेरक के प्रकार बतलाइये।
उत्तर:
अभिप्रेरकों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है। थामसन के अनुसार अभिप्रेरकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। ये निम्न प्रकार हैं –
- प्राकृतिक, एवं
- कृत्रिम।
थामसन ने अभिप्रेरकों को चार भागों में बाँटा है –
- सुरक्षा
- प्रतिक्रिया
- प्रतिष्ठा और
- नई अनुभूतियाँ
शेफर महोदय ने अभिप्रेरकों को निम्न चार भागों में बाँटा है –
- पुष्टिकरण
- विशिष्टता
- आदत और
- संवेग
विभिन्न प्रकार का वर्गीकरण दो वर्गों में इस प्रकार दिया जा सकता है –
1. जैविक अभिप्रेरक:
वह हैं जो जैविक आवश्यकताओं के कारण उत्पन्न होते हैं। वे हैं-भूख, प्यास, काम, विश्राम, मलमूत्र त्यागने की इच्छा, तापक्रम इत्यादि। इन अभिप्रेरकों का आधार शारीरिक होता है।
2. सामाजिक अभिप्रेरक:
यह सामाजिक अभिप्रेरणा के कारण उत्पन्न होते हैं। ये हैं-प्रतिष्ठा, सुरक्षा, संग्रहता, विशिष्टता, सामाजिकता, पुष्टिकरण, सामाजिक मूल्य, समुदाय के साथ एकीकरण इत्यादि।
प्रश्न 16.
संवेग में हाइपोथैलेमस की क्रियाओं के महत्त्व को बताएँ।
उत्तर:
संवेग की अवस्था में हाइपोथैलेमस की क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कैनन (Cannon), बार्ड (Bard) इत्यादि ने भी प्रयोगात्मक आधारों पर इस भाग के महत्व पर बल दिया है। देखा गया है कि जिन जानवरों के मस्तिष्क में से हाइपोथैलेमस भाग निकाल दिया गया वे संवेगात्मक प्रकार्य करने में असमर्थ रहे। यह भी देखा गया कि जब मस्तिष्क के दूसरे भाग हटाए गए तो यह असमर्थता रही नहीं।
यह पाया गया कि जब मस्तिष्क के दूसरे भाग को हटाया गया तो हटाने से इस प्रकार की असमर्थता नहीं रही। इस प्रकार संवेगात्मक प्रकाशन में यह भाग अत्यन्त महत्त्व का सिद्ध हुआ। परंतु यहाँ यह याद रखना चाहिए कि संवेग की अवस्था में केवल यही भाग महत्त्वपूर्ण नहीं है। बल्कि वृहत मस्तिष्कीय ब्लॉक तथा स्वतः चालित नाड़ीमण्डल भी संवेगात्मक अनुभूति के लिए आवश्यक है।
प्रश्न 17.
प्रेरणा की परिभाषा दें तथा उसके प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रेरणा का शाब्दिक अर्थ, जो प्रेरित करें वह प्रेरक है, परंतु यह प्रेरणा का पूर्ण अर्थ स्पष्ट नहीं करता अतः प्रेरणा की परिभाषा तक जारी रखती है। उपरोक्त परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं –
- प्रेरणा एक आंतरिक अवस्था है।
- प्रेरणा से क्रिया की उत्पत्ति होती है।
- प्रेरणा की क्रिया खास दिशा में होती है।
- प्रेरणा का संबंध किसी उद्देश्य से रहता है।
- प्रेरणा उद्देश्य प्राप्ति तक जारी रहती है।
दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर
प्रश्न 1.
अभिप्रेरणा क्या है? अभिप्रेरणा की परिभाषा दीजिये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा के दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं –
1. अभिप्रेरणा व्यक्ति की आन्तरिक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया ज्ञान हमें निरीक्षित व्यवहार की व्याख्या भी देता है और व्यक्ति के भविष्य सम्बन्धी व्यवहार के सम्बन्ध में जानकारी देता है।
2. हम अभिप्रेरणा की प्रकृति निरीक्षित व्यवहार से अनुमान लगाकर. निर्धारित करते हैं। इस अनुमान की सत्यता हमारे निरीक्षणों की विश्वसनीयता पर निर्भर है। यह सत्यता उस समय स्थापित हो जाती है, जब हम दूसरे व्यवहार की व्याख्या करने में उसका प्रयोग कर सकते हैं।
अभिप्रेरणा की परिभाषा (Definition of Motivation):
अभिप्रेरणा की अनेक परिभाषायें विद्वानों ने दी है, जो निम्न प्रकार हैं –
1. बर्नार्ड:
“अभिप्रेरणा द्वारा उन विधियों का विकास कियण जाता है जो व्यवहार के पहलुओं को प्रभावित करती हैं”
2. जानसन:
“अभिप्रेरणा सामान्य क्रिया-कलापों का प्रभाव है जो मानव के व्यवहार को उचित मार्ग पर ले जाती हैं।”
3. मैगोच:
“अभिप्रेरणा शरीर की वह दशा है जो कि दिय गये कार्य के अभ्यास की ओर संकेत करती है और उसके संतोषजनक समापन को परिभाषित करती है।”
4. वुडवर्थ:
“अभिप्रेरणा व्यक्तियों की दशा का वह भग है जो किसी निश्चित उद्देश्य की शर्त के लिये निश्चित व्यवहार को स्पष्ट करती है।’
5. शेफर तथा अन्य:
“अभिप्रेरणा क्रिया की एक ऐसी प्रकृति है जो कि प्रणोदन द्वारा उत्पन्न होती है एवं समायोजन द्वारा समाप्त होती है।”
6. मेग्डूगाल:
“अभिप्रेरणा वे शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक दशाएँ हैं जो किसी कार्य को करने के लिये प्रेरित करती हैं।”
7. थामसन:
“अभिप्रेरणा आरम्भ से लेकर अन्त तक मानव व्यवहार के प्रत्येक प्रतिकारक को प्रभावित करती है, जैसे अभिवृत्ति, आधार, इच्छा, रुचि, प्रणोदन, तीव्र इच्छा आदि जो उद्देश्यों से सम्बन्धित होती है।”
8. गिलफोर्ड:
“अभिप्रेरणा कोई भी एक विशेष आन्तरिक कारक अथवा दशा है जो क्रिया को आरम्भ करने अथवा बनाये रखने के लिए प्रेरित होती है।”
यदि हम इन परिभाषाओं का विश्लेषण करें तो निम्नलिखित आधार प्रकट होंगे –
- अभिप्रेरणा साध्य नहीं साधन है। वह साध्य तक पहुंचने का मार्ग प्रस्तुत करती है।
- अभिप्रेरणा अधिगम का मुख्य नहीं सहायक अंग है।
- अभिप्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को स्पष्ट करती है।
- अभिप्रेरणा से क्रियाशीलता प्रकट होती है।
- अभिप्रेरणा पर शारीरिक तथा मानसिक, बाह्य एवं आन्तरिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।
- अभिप्रेरणा व्यक्ति के अंदर शक्ति परिवर्तन से प्रारम्भ होती है।
- अभिप्रेरणा अभिप्रेरणों भावात्मक जागृति द्वारा वर्णित होती है।
- अभिप्रेरणा पूर्वानुमान द्वारा वर्णित होती है।
अभिप्रेरणा प्रणाली को संगठित उद्देश्य तक पहुँचाने के लिए व्यवहार करने के लिये प्रेरित करती है। अभिप्रेरणा के तीन पक्ष हैं –
- प्राणी में निहित प्रेरक अवस्था गति में होती है, शारीरिक आवश्यकता वातवरणीय उद्दीपक, घटनाएँ तथा शृंखला अभिप्रेरणा के लिये उत्तरदायी हैं।
- इस अवस्था में व्यवहार उत्पन्न होता है और वांछित दिशा में उसका अग्रेषण होता है।
- वांछित उद्देश्य प्राप्ति हेतु व्यवहार उत्पन्न होता है।
अभिप्रेरित व्यक्ति कुछ क्रियाएँ करता है जो उसको अपने उद्देश्य की ओर ले जाती हैं। इन प्रतिक्रियाओं द्वारा व्यक्ति में वह तनाव कम हो जाता है जो शक्ति परिवर्तन से उत्पन्न होता है।
- “अभिप्रेरण एक शब्दावली है जो व्यक्ति को शक्ति प्रदान करने में उसके कार्यों को निर्देशित करने को वर्णित करती है।”
- “अभिप्रेरण की तुलना कभी-कभी एक इंजन तथा स्वचालित यंत्र के चलाने वाले पहिये से की जाती है।”
- “शक्ति एवं निर्देशन अभिप्रेरणा के केन्द्र हैं।”
अभिप्रेरणा:
विभिन्न मत (Motivation : Different Views):
अभिप्रेरणा के विषय में अनेक मत तथा धारणाएँ समाज में प्रचलित रही हैं। उनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं –
1. भग्यवादी मत:
मनुष्य किसी भी कार्य को इसलिये करता है कि वह उसके भाग्य में है। यह मत दैवी शक्तियों और उसके प्रभाव पर आधारित इस बात पर बल देता है कि “मानव दैवी शक्तियों के हाथ की कठपुतली है और अभिप्रेरणा व्यक्ति की बाह्यशक्ति है।” यह मत भाग्य लेखे पर बल देता है।
2. मानव विवेकशील है:
मानव में समय के विकास के साथ-साथ वह विचार भी विकसित हुआ कि वह अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। इस मत का आधार मानव मस्तिष्क है।
3. मानव एक यंत्र है:
वैज्ञानिकों ने मनुष्य को एक यंत्र माना है। इस यंत्र का संचालन उद्दीपनों द्वारा होता है। मनुष्य, वातावरण के विभिन्न उद्दीपनों से क्रियाशील होता है।
4. मानव पशु:
इस मत का प्रतिपादन डार्पिन ने किया था। उसके अनुसार पशुओं और मनुष्य की क्रियाओं में भेद नहीं है। मानव का विकास पशुओं से हुआ है। डार्विन “शक्तिशाली की विजय” पर विश्वास करता है। डार्विन के अनुसार तीन बातें प्रमुख हैं –
- शारीरिक प्रणोदन (Biological) प्रेरक जो व्यक्ति को क्रियाशील बनाते हैं-भूख, प्यास, भय आदि इसी प्रेरक से दूर होते हैं।
- अर्जित प्रेरक (Acquired Drives) जो शारीरिक प्रेरक से ही उत्पन्न होते हैं।
- पशु और मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ एक-सी हैं।
- मानव सामाजिक प्राणी है-मनुष्य का जन्म समाज में होता है और समाज में ही उसकी मान्यताओं के अनुसार वह अपना विकास करता है। मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक प्रभावों के कार्य करने के लिए अभिप्रेरित होता है।
- अचेतन का मत-फ्रायड ने इस मत का प्रतिपादन किया था। मानव की क्रियाशीलता का एक मात्र कारण उसकी अचेतन अभिप्रेरणा है। उसके व्यवहार को अचेतन शक्तियाँ नियंत्रित करती हैं। इस मत के अनुसार अभिप्रेरणा का स्रोत व्यक्ति स्वयं ही है।
अभिप्रेरणा: सम्बन्धित शब्द (Motivation : Glossary):
अभिप्रेरण की विवेचना में कई शब्छ बार-बार आते हैं। इन शब्दों की व्याख्या एवं जानकारी आवश्यक है। ये शब्द इस प्रकार हैं –
1. मानसिक स्थिति (Mental Set):
इस शब्द का अर्थ है व्यक्ति का मानसिक रूप से स्वस्थ होना। मनुष्य जब तक मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं होगा तब तक किसी भी कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित नहीं होगा।
2. प्रेरक (Drives):
प्रेरक अभिप्रेरकों को विकसित करने में बहुत सहयोग देते हैं। प्रेरक का सम्बन्ध कार्य या वस्तुओं से होता है। प्रेरक का सम्बन्ध बाह्य परिस्थितियों से होता है। प्रेरकों को प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा जा सकता।
3. प्रणोद (Incentive):
प्राणी की आवश्यकताओं से प्रणोदन का उत्पत्ति होती है। पानी की आवश्यकता से प्यास की और भोजन की आवश्यकता से भूख की उत्पत्ति होती है। इसीलिये प्रणोदन के बारे में विद्वानों ने कहा है –
(अ) गिबनर एवं सेहोन-“प्रणोदन वह शक्तिशाली उद्दीपन है जो माँग एवं उसकी अनुक्रिया उपस्थित करता है।”
(ब) लैगफील्ड एवं वील्ड-“प्रणोदन आन्तरिक, शारीरिक क्रिया या दशा है जो उद्दीपन के द्वारा विशेष प्रकार का व्यवहार उत्पन्न करती है।”
(स) डैशिल-“मानव जीवन में प्रणोदन शक्ति का मूल स्रोत है जो कि जीव को किसी क्रिया के करने के लिये प्रेरित करता है।”
मनोवैज्ञानिकों ने प्रणोद का वर्गीकरण इस प्रकार किया है –
1. साइमॉड द्वारा किया गया वर्गीकरण –
- सामूहिकता
- अवधान केन्द्रितता
- सुरक्षा
- प्रेम तथा
- उत्सुकता
2. कैसल द्वारा किया गया वर्गीकरण:
- संवेगात्मक सुरक्षा
- ज्ञान प्राप्ति
- समाज में स्थान प्राप्त करना
- शारीरिक संतोष
3. थोर्प द्वारा किया गया वर्गीकरण:
- शारीरिक क्रियायें
- जीवन का उद्देश्य एवं कार्य तथा
- कार्य में स्वतंत्रता
प्रश्न 2.
जेम्स-लॉर्ज सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर:
संवेग का यह एक लोकप्रिय सिद्धांत है जिसका प्रतिपादन विलियम जेम्स (William James) तथा कार्ल-लांजे (Kari Lange) द्वारा स्वतंत्र रूप से अलग-अलग किया गया था। चूँकि संवेग के बारे में इन दोनों मनोवैज्ञानिकों के विचार लगभग एक समान थे, अतः इस सिद्धांत का नाम जेम्स-लॉजे रखा गया।
इस सिद्धांत द्वारा संवेग की व्याख्या संवेग के सामान्य व्याख्या के विपरीत है। सामान्यतः हम यही समझते हैं कि व्यक्ति जब कभी भी संवेदन उत्पन्न करने वाला उद्दीपन (Stimulus) को देखता है, तो पहले उसमें संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) होता है तब संवेगात्मक व्यवहार होता है। जैसे, व्यक्ति भालू या बाघ (संवेगात्मक व्यवहार) है।
जेम्स-लॉजे सिद्धांत की व्याख्या ठीक इसके विपरीत है। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति बाघ या भूल को देखता है, भाग जाता है इसलिए डर जाता है। इससे स्पष्ट है कि इस सिद्धांत के अनुसार किसी संवेगात्मक उद्दीपन को देखने के बाद व्यक्ति में पहले संवेगात्मक अनुभूति होती है और तब संवेगात्मक व्यवहार होता है। संक्षेप में, इस सिद्धांत द्वारा संवेग की व्यख्या का विस्तृत इस प्रकार है –
- संवेग की उत्पत्ति के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति संवेग उत्पन्न करने वाले उद्दीपन (stimuls) का प्रत्यक्षण करें। इसके फलस्वरूप ज्ञानेन्द्रियों में स्नायु-प्रवाह (nerve impulse) पैदा होती है।
- जब स्नायु-प्रवाह मस्तिष्क में पहुँचता है, तो यहाँ से वह फ़िर शरीर के अन्तरावयवों (visceral organs) तथा मांसपेशियों (muscles) में पहुँचता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति संवेगात्मक व्यवहार (emotional behaviour) करता है।
- संवेगात्मक व्यवहार उत्पन्न होने के बाद उसकी सूचना स्नायु-प्रवाह द्वारा मस्तिष्क में पहुँचता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) होती है।
जेम्स-लाँजे सिद्धांत की कुछ आलोचनाएँ हैं जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं –
1. इस सिद्धांत के अनुसार संवेग की अनुभूति अर्थात् संवेगात्मक अनुभूति संवेग के व्यवहार अर्थात् संवेगात्मक व्यवहार पर निर्भर करता है। परंतु वास्तविकता ऐसी नहीं है। प्रायः यह देखा जाता है कि कई तरह के संवेगों में व्यक्ति में लगभग एक ही समान का व्यवहार पाया जाता है। यदि संवेग का अनुभव शारीरिक व्यवहार पर निर्भर करता तो एक तरह के शारीरिक व्यवहार से एक ही तरह के संवेग का अनुभव होना चाहिए था। परंतु एक ही तरह के शारीरिक व्यवहार से भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेगात्मक अनुभूति का होना इस बात का द्योतक है कि संवेगात्मक व्यवहार या संवेगात्मक परिवर्तन पर निर्भर नहीं करता है।
2. इस सिद्धांत के अनुसार संवेगात्मक अनुभूति शारीरिक परिवर्तनों पर आधारित होता है। अगर यह बात सच्ची होती तो जब-जब व्यक्ति में किसी कारण से शारीरिक परिवर्तन होता, उसमें संबंधित संवेग की अनुभूति होती। ब्रेडी (Brady, 1958) द्वारा किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि प्राणी में जब-जब शारीरिक परिवर्तन होता है, तब-तब उसमें संवेग की अनुभूति नहीं होती है। इसका मतलब यह हुआ कि इस सिद्धांत का दावा गलत है।
3. मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि व्यक्ति को संवेगात्मक अनुभव शरीर के भीतरी अंगों में परिवर्तन होने के कुछ पहले ही हो जाता है। इसका स्पष्ट मतलब यह हुआ कि संवेगात्मक अनुभव पहले हो जाते हैं तथा संवेगात्मक परिवर्तन बाद में होते हैं। ऐसी हालत में इस सिद्धांत का यह दावा कि संवेगात्मक अनुभूति संवेगात्मक परिवर्तन द्वारा उत्पन्न होता है, ठीक एवं अर्थपूर्ण नहीं लगता है।
4. इस सिद्धांत के अनुसार, यदि शारीरिक परिवर्तन न हो या उसकी सूचना मस्तिष्क को किसी कारण से नहीं मिलता है, तो संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) नहीं होती है अर्थात् व्यक्ति में किसी प्रकार संवेग नहीं होता है। परंतु कुछ लोगों, जैसे शेरिंगटन (Sherriangton) द्वारा कुत्ते पर किये गए प्रयोगों से यह स्पष्ट हो चुका है कि सिद्धांत का यह दावा गलत है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यद्यपि जेम्स-लाँजे सिद्धांत की आलोचना की गयी है, फिर भी यह सिद्धांत संवेग का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है।
प्रश्न 3.
अभिप्रेरणा का वर्गीकरण क्या है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से अभिप्रेरणा का वर्गीकरण किया है। आगे कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा प्रतिपादित वर्गीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं –
1. थामसन द्वारा किया गया वर्गीकरण (Classication by Thomson):
थामसन ने अभिप्रेरकों को दो भागों में विभाजित किया है –
(i) प्राकृतिक अभिप्रेरक (Natural Motives):
वे अभिप्रेरक हैं जो जन्म से ही व्यक्ति में पाये जाते हैं। भूख, प्यास, सुरक्षा आदि अभिप्रेरकों से मानव जीवन का विकास होता है।
(ii) कृत्रिम अभिप्रेरक (Artificial Motives):
वे अभिप्रेरक होते हैं, जो वातावरण में विकसित होते हैं। इनका आधार तो प्राकृतिक अभिप्रेरणा होते हैं, परंतु सामाजिकता के आवरण में इनकी अभिव्यक्ति का रूप बदल जाता है। जैसे समाज में मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करना, सामाजिक सम्बन्ध बनाना आदि।
2. मैस्लो द्वारा किया गया वर्गीकरण (Classification by Maslow):
मैस्लो ने आवश्यकताओं पर अधिक बल दिया है। उसने आवश्यकताओं की तीव्रता को आधार बनाया है। कुछ आवश्यकताओं ऐसी होती हैं जिन्हें तुरंत पूरा करना पड़ता है। कुछ आवश्यकतायें ऐसी होती हैं जो फुसत से पूरी की जा सकती है। उदाहरणार्थ-भूखा व्यक्ति पहले अपने भोजन की व्यवस्था करता है। भूख मिट जाने के पश्चात् वह सुरक्षा या अन्य किसी आवश्यकता की पूर्ति करता है।
मैस्लो ने अभिप्रेरकों को दो भागों में बाँटा है –
(i) जन्मजात अभिप्रेरक (Inborm Moties):
इसके अन्तर्गत भूख, प्यास, सुरक्षा यौन आदि आ जाते हैं।
(ii) अर्जित अभिप्रेरक (Acquired Motives):
इसके अन्तर्गत वातावरण से प्राप्त अभिप्रेरक आते हैं इनको भी उसने सामाजिक तथा व्यक्तिगत (Social and individual) भागों में बाँटा है। सामाजिक अभिप्रेरकों के अन्तर्गत सामाजिकता, ययुत्सा और आत्मस्थापना एवं व्यक्तिगत अभिप्रेरकों में आदत, रुचि, अभिवृत्ति तथा अचेतन अभिप्रेरक आते हैं।
3. क्रेच एवं क्रचफील्ड द्वारा किया गया वर्गीकरण (Classification by Krech and Crutchfied):
इस प्रकार का वर्गीकरण अभिप्रेरकों की न्यूनता तथा अधिकता पर आधारित है –
(i) न्यूनता (Deficiency) अभिप्रेरक:
अभिप्रेरक मानव के अभाव तथा कमियों को दूर करने में सहायक होते हैं। क्रेच एवं क्रचफील्ड के अनुसार, “न्यूनता का अभिप्रेरक आवश्यकताओं से सम्बन्धित है जिनके द्वारा चिन्ता, डर, धमकी या और कोई मानसिक द्वन्द्व दूर हो जाता है।”
इसका ध्येय मानव का संसार में रहना एवं सुरक्षा प्राप्त करना है। इस प्रकार इन अभिप्रेरकों को चार प्रमुख रूपों में बाँटा गया है –
- शरीर से सम्बन्धित
- वातावरण से सम्बन्धित
- समय से सम्बन्धित और
- स्वयं से सम्बन्धित
(ii) अधिकता (Abundancy) अभिप्रेरक:
इन अभिप्रेरकों का ध्येय संतोष एवं उत्साह है। क्रेच एवं क्रचफील्ड के अनुसार-“अधिकता के अभिप्रेरक का उद्देश्य संतोष प्राप्ति, सीखना, अवबोध, अन्वेषण तथा अनुसंधान रचना एवं प्राप्ति है।”
प्रश्न 4.
अभिप्रेरणा की अवधारणाएँ तथा प्रकार बताइये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा की अवधारणायें (Concepts of Motivation)-अभिप्रेरणा की एक विस्तृत अवधारणा है जो शक्ति एवं व्यवहार के निर्देशन के कारकों से जोड़ दी जाती है। जैसे-अभिरुचि, आवश्यकता, मूल्य, प्रवृत्ति, आकांक्षायें, लक्ष्य आदि।
अभिप्रेरणा का व्यवहार प्रभाव –
- अभिप्रेरणा व्यवहार को शक्तिशाली बनाती है।
- अभिप्रेरणा व्यवहार को उद्देश्य के प्रति निर्देशित करती है।
- अभिप्रेरणा व्यवहार के विभिन्न कार्यों की पूर्ति के लिये समय की मात्रा को निर्धारित करती है।
अभिप्रेरणा के प्रकार –
- एक-मात्र अभिप्रेरक अवधारणा-फ्रायड के अनुसार मानव के अंदर काम वासना शक्ति का होना है। दूसरे मनोवैज्ञानिकों द्वारा कहा गया है कि मानव व्यवहार चाहे भूख, प्यास, प्रेम आदि से प्रेरित हो इनमें कोई अंतर नहीं आता। तीसरे वह अवधारणा जी सब अभिप्रेरकों को मिलाकर एक सामान्य चिन्ता में बदल देती है।
- द्वि-अभिप्रेरक अवधारणा-दो मुख्य विरोधी शक्तियों के रूप में बताया गया है, जैसे-जन्म-मृत्यु, पुरुषत्व-स्त्रीत्व आदि।
- बहु-अभिप्रेरक अवधारणा-मेडसन, मेर आदि अनेक विद्वानों ने आवश्यकताओं को मनोवैज्ञानिक प्रकार से सम्मिलित करके उदाहरण प्रस्तुत किया।
प्रश्न 5.
अभिप्रेरणा के व्यवहार के लक्षण बतलाइये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा: व्यवहार के लक्षण (Motivation : Behaviour Patterns) अभिप्रेरणा देने के पश्चात् कैसे ज्ञात करेंगे कि उत्प्रेरित व्यक्ति किसी कार्य के लिये तैयार हो गया अथवा नहीं। यह ज्ञात करने के साधन अथवा लक्षण इस प्रकार हैं –
1. उत्सकता (Eagermess):
जब बालक क्रिया को करने के लिये अभिप्रेरित किये जाते हैं तो क्रिया के प्रति उत्सुकता दिखाई देती है। जब उत्सुकता दिखाई दे तो समझे कि बालक क्रियाशील हो गया।
2. शक्ति संचालन (Energy mobilisation):
अभिप्रेरणा प्राप्त होत ही व्यक्ति में अतिरिक्त शक्ति उत्पन्न होती है। अभिप्रेरणा प्राप्त होते ही व्यक्ति घंटों तक बिना थकान के काम करते हैं। शक्ति संचालन में व्यक्ति में बड़े-बड़े कार्य करने की क्षमता पैदा हो जाती है। अभिप्रेरणा प्राप्त करके व्यक्ति श्रेष्ठतम कार्य कर सकते हैं।
3. निरन्तरता (Consistency):
जब तक व्यक्ति को अभिप्रेरणा प्राप्त होती है, तब तक वे कार्य में निरंतर लगे रहते हैं।
4. लक्ष्य प्राप्ति से बैचेनी दूर होना (Reduction of Tension by Achievement of Goal):
अभिप्रेरणा से जो व्यवहार प्रकट होते हैं वे लक्ष्य प्राप्ति के बाद संतोष अनुभव करते हैं। समस्या होते ही बेचैनी दूर हो जाती है।
5. केन्द्रित ध्यान (Concentrated Attention):
अभिप्रेरणा प्राप्त करते ही व्यक्ति क्रिया में ध्यानरत हो जाता है। अभिप्रेरित व्यवहार में व्यक्ति कई प्रकार से उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।
अभिप्रेरणात्मक व्यवहार (Motivated Behaviour):
इस प्रकार के. व्यवहार की विशेषतायें निम्न प्रकार हैं –
- अभिप्रेरकों का निर्माण किया जाता है। इससे शक्ति के विकास तथा वृद्धि में गति मिलती है।
- अभिप्रेरित व्यवहार में आन्तरिक परिवर्तन होता है। भूख के अभिप्रेरक से शरीर में रासायनिक क्रिया होती है और मुख मुद्रा तथा शरीर के अवयवों में परिवर्तन प्रतीत होता है।
- भूख के प्रेरक के समान ही यौन अथवा सेक्स का अभिप्रेरक होता है। यौन के प्रति आकर्षण से शरीर में उत्तेजना उत्पन्न होती है। व्यक्ति किसी भी प्रकार से उसे शान्त करने का प्रयास करता है। अभिप्रेरित व्यवहार में व्यक्ति-व्यक्ति तथा संस्कृति-संस्कृति की भिन्नता पाई जाती है।
- मनोवैज्ञानिकों अभिप्रेरकों में समस्या की कठिनाई, वर्गीकरण तथा विश्लेषण निहित होता है।
- मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरक व्यवहार में व्यवहार की दशा का निर्धारण करते हैं।
- संग्रह करने की प्रवृत्ति विकसित होती है।
- व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा तथा ऐश्वर्य प्राप्त के लिये प्रयत्न करता है।
- अभिप्रेरित व्यवहार में प्राथमिकता पाई जाती है।
प्रश्न 6.
अभिप्रेरकों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अभिप्रेरकों से तात्पर्य (Meaning of Motives) अभिप्रेरक वह शक्ति है जो एक व्यक्ति को कार्य करने के लिये उत्तेजित करती है। वे व्यक्ति के व्यवहार की दिशाओं को निर्धारित करते हैं और उनकी क्रियाओं की गति का संचालन करते हैं। जब किसी व्यक्ति को अभिप्रेरक मिलते हैं तो वह एक तनाव एवं असंतुलन अनुभव करता है। व्यक्ति की लगभग सभी क्रियाएँ अभिप्रेरकों से ही होती हैं। अभिप्रेरक तीन प्रकार से कार्य करते हैं –
- यह कार्य का प्रारम्भ करते हैं।
- क्रियाओं को गतिशीलता देते हैं और
- जब तक उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती, क्रियाओं को एक निश्चित दिशा की ओर प्रेरित किये रहते हैं।
इस प्रकार हम एक अभिप्रेरक की परिभाषा इस तरह दे सकते हैं-“यह क्रिया करने की वह प्रवृत्ति है जो एक उद्दीपन द्वारा प्रारम्भ होती है तथा अनुकूलन द्वारा समाप्त होती है।” आवश्यकता, अन्तर्नोद, प्रोत्साहन तथा अभिप्रेरकों में अंतर-वास्तव में अभिप्रेरक के सम्बन्ध में बहुत से शब्द प्रयोग किये जाते हैं-क्षुधा, आवश्यकतायें, अन्तर्नाद एवं अभिप्रेरक।
अन्तर्नोद शब्द उस समय प्रयोग किया जाता है जब हमें शरीर की आवश्यकताओं से उत्पन्न मानसिक तनाव की अनुभूति हो, जैसे-भूख, प्यास आदि। वातावरण का वह तत्त्व जो एक अन्तर्नाद को सन्तुष्टि करता है, प्रोत्साहन कहलाता है। “भूख” के अन्तर्नोद के लिये भोजन “प्रोत्साहन” है। अभिप्रेरक में “आवश्यकता” और “अन्तर्नाद” के साथ-साथ लक्ष्य की प्राप्ति की भावना का समावेश हो जाता है। इस अवस्था को “अभिप्रेरक” की संज्ञा देते हैं।
अभिप्रेरक के आवश्यक अंग निम्नलिखित हैं –
- आवश्यकता एवं अन्तर्नाद जो व्यक्ति में सक्रियता उत्पन्न करती है।
- उद्देश्य-प्राप्ति के ओर व्यवहारों की दिशा का नियंत्रण।
- उद्देश्य प्राप्त कर लेने के पश्चात् क्रियाओं का अन्त।
प्रश्न 7.
जेम्स-लॉजे सिद्धांत की सीमाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
जेम्स-लॉजे सिद्धांत की कड़ी आलोचना की गई है और इसके अनेकों दोषों का उल्लेख किया गया है –
- इस सिद्धांत की आलोचना Cannon तथा Bard ने कड़े शब्दों में की है उन्होंने कहा है कि संवेग का आधार सहानुभूतिक मंडल नहीं है बल्कि Hypothalamus है। बिल्ली पर प्रयोग करते हुए इन्होंने जेम्स लौपे के सिद्धांत को खंडित किया।
- इस सिद्धांत की आलोचना Cannon ने करते हुए कहा है कि संवेगात्मक अनुभूति तथा । संवेगात्मक व्यवहार एक ही साथ होते हैं। अतः जेम्स-लॉजे का यह विचार गलत है कि संवेगात्मक व्यवहार पर संवेगात्मक अनुभूति आधारित है।
- इस सिद्धांत की आलोचनात्मक रोरिंगटन ने भी की है। उन्होंने अपने प्रयोगों के आधार पर प्रमाणित किया कि सहानुभूतिक मंडल वास्तव में संवेग का केन्द्र का केन्द्र ही है।
- शारीरिक परिवर्तनों की चेतना के अभाव में संवेगात्मक अनुभूति संभव नहीं है।
प्रश्न 8.
अभिप्रेरणा के प्रभावक प्रतिकारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
अभिप्रेरणा: प्रभावक प्रतिकारक (Motivation : Influencing Factors):
अभिप्रेरणा किस प्रकार प्रभावशाली कार्य करती है, इसका निणर्य अनेक प्रभावक प्रतिकारक करते हैं। अभिप्रेरणा पर कई बातें प्रभाव डालती हैं। प्रमुख प्रभावक तत्त्व निम्न प्रकार हैं –
1. आवश्यकतायें (Needs):
आवश्यकता आविष्कार की जननी है। बालकों तथा बड़ों की भी यही प्रवृत्ति होती है कि वे आवश्यकता के वशीभूत होकर कार्य करते हैं। कार्य से पूर्व आवश्यकता महसूस कराई जाये।
2. अभिवृत्ति (Attitudes):
अभिप्रेरणा व्यक्ति में अभिवृत्ति का विकास करने में सहायक करती है। अभिवृत्ति का विकास होने से वे कार्य को अच्छी तरह करते हैं।
3. रुचि (Interest):
व्यक्ति की जिस काम में रुचि होती है उसे वह तुरंत सीख लेते हैं। प्रस्तुतीकरण से पूर्व व्यक्ति में रुचि पैदा करना आवश्यक है।
4. आदतें (Habits):
आदतें नये ज्ञान को प्रदत्त करने में सहायक होती हैं। नया ज्ञान पूर्व ज्ञान पर आधारित होना चाहिये।
5. संवेगात्मक (Emotional):
स्थिति-संवेगात्मक स्थिति का ध्यान रखना आवश्यक है। सीखे जाने वाले ज्ञान का संवेगात्मक सम्बन्ध स्थापित करने के पश्चात् अभिप्रेरण प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करेगा।
6. पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and Punishment):
पुरस्कार एवं दण्ड का अभिप्रेरणा में अधिक महत्त्व है। ये भावी व्यवहार पर असर डालते हैं। कार्य में अभिवृत्ति उत्पन्न होने से पुरस्कार के प्रति लालच पैदा नहीं होता। पुरस्कार से लाभ इस प्रकार है –
- पुरस्कार से आनन्द प्राप्त होता है।
- पुरस्कार व्यक्ति को कार्य की अभिप्रेरणा देते हैं।
- पुरस्कार रुचिवर्द्धक एवं उत्साहवर्द्धक होते हैं।
- पुरस्कार मनोबल उत्पन्न करते हैं एवं व्यक्ति के अहंकार को सन्तुष्ट करते हैं।
पुरस्कार से हानियाँ इस प्रकार हैं –
- पुरस्कारों से कार्य में अभिरुचि पैदा नहीं होती है।
- पुरस्कार प्राप्ति के लिये धोखा भी दिया जा सकता है।
- बिना त्याग प्राप्ति के भावना को प्रोत्साहन मिलता है।
- केवल पुरस्कार प्राप्ति के लिये कार्य किया जाता है।
विद्यार्थियों में दण्ड के लाभ कुछ इस प्रकार हैं –
- दण्ड अवांछित कार्य करते से रोकते हैं।
- अनुशासन का स्वरूप होते हैं।
- बच्चों को अवांछनीयता. का विश्वास दिलाते हैं।
दण्ड की हानियाँ भी इस प्रकार हैं –
- दण्ड का आधर भय होता है।
- दण्ड ग्रहण करने को तैयार व्यक्ति के लिये दण्ड का महत्त्व समाप्त हो जाता है।
- इससे अप्रिय एवं दुखद अनुभूति पैदा होती है।
- दण्ड के परिणाम स्थायी नहीं होते।
- दण्ड से दुर्भावना पैदा होती है।
- दण्ड की कठोरता की कोई माप नहीं है।
वास्तव में पुरस्कार एवं दण्ड, दोनों का उद्देश्य एक ही है, यानी भावी व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालना। पुरस्कार व्यवहार पर वांछित प्रभाव डालने के लिये तथा दण्ड एक अवांछित कार्य को रोकने के लिये उसके साथ एक अप्रिय अनुभूति को जोड़ता है।
7. प्रतियोगिता (Competition):
प्रतियोगितायें ज्ञान प्राप्ति की अभिप्रेरणा दे सकती है। प्रतियोगितयों दो प्रकार की होती हैं –
- व्यक्तिगत प्रतियोगिता एवं
- सामूहिक प्रतियोगिता
8. प्रगति का ज्ञान (Knowledge of Progress):
व्यक्ति को अपने ज्ञानार्जन की प्रगति को बताये रहना चाहिये। ऐसा करने से क्रियाशीलता आती है।
9. असफलता का भय (Threat of Fear):
व्यक्ति को कभी उसकी असफलताओं का भय भी दिखाते रहना चाहिये।
10. आकांक्षा का स्तर (Level of Aspiration):
व्यक्ति को यह अभिप्रेरित करना चाहिये कि उसकी आकांक्षाओं का आधार उसकी शारीरिक, मानसिक परिपक्वता के अनुकूल होना चाहिये। स्तर से ऊपर होने से कार्य में अरुचि एवं अनिच्छा विकसित हो जाती है।
11. परिचर्चायें तथा सम्मेलन (Seminars and Conferences):
सामूहिक कार्य करने के लिये सीखने पर अधिक बल दिया जाता है। समूह में अधिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है। परिचर्चायें एवं सम्मेलन ज्ञानवर्धन के लिये अतिआवश्यक हैं।
12. वातावरण (Environment):
वातावरण इतना आकर्षण हो कि सीखने वाले को स्वयं अभिप्रेरणा प्राप्त हो। व्यक्ति तथा समूह ही वातावरण का निर्माण करते हैं।
प्रश्न 9.
संवेग के कैनन-बार्ड सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर:
संवेग के इस सिद्धांत की व्यख्या कैनन (Canon) तथा बॉर्ड (Bard) द्वारा किया गया है। इस सिद्धांत द्वारा प्रदत्त व्याख्या जेम्स-लांजे सिद्धांत की व्याख्या के विपरीत है। इस सिद्धांत के अनुसार हाइपोथैलेमस (hypothalamus) ही संवेग का केन्द्र (centre) होता है। संवेग में हाइपोथैलेमस के इस महत्त्व के कारण ही इसे हाइपोथैलेमिक सिद्धांत (hyphothamic theory) भी कहा जाता है। इस सिद्धांत द्वारा संवैग की व्याख्या निम्नांकित चरणों में की गयी है –
- संवेग उत्पन्न करने वाला उद्दीपन (stimulus) को व्यक्ति प्रत्यक्षण करता है जिसके परिणामस्वरूप तंत्रिका आवेग (nerve impuse) व्यक्ति में उत्पन्न होता है।
- तंत्रिका आवेग हाइपोथैलेमस (hypothalamus) होते हुए मस्तिष्क वल्क (cerebral cortex) में पहुँचता है। इससे हाइपोथैलेमस में हल्का-फुल्का उत्तेजना उत्पन्न हाता है।
- प्रमस्तिष्क वल्क से विशेष तंत्रिका आवेग पुनः हाइपोथैलेमस (hypothalamus) में पहुँचता है। इस तंत्रिका आवेग के पहुँचते ही पहले से क्रियाशील हाइपोथैलेमस पर से प्रमिस्तिष्क वल्क का नियंत्रण पूर्णतः हट जाता है जिसके परिणामस्वरूप हाइपोथैलेमस पूर्णतः क्रियाशील या उत्तेजित हो उठता है।
- हाइपोथैलेमस के क्रियाशील होने से वहाँ से एक समय तंत्रिका आवेग दो दिशाओं में जाता है-ऊपरी दिशा तथा निचली दिशा।
- ऊपरी दिशा में जाने वाला तंत्रिका का आवेग प्रमस्तिष्क (cerebrum) में पहुँचता है तथा निचली दिशा में जाने वाला तंत्रिका आवेग अन्तरावयव (visceral organs) तथा मांसपेशियों में पहुंचता है।
- प्रमस्तिष्क में तंत्रिका आवेग को पहुँचने के परिणामस्वरूप व्यक्ति को संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) होता है तथा अन्तरावयव एवं मांसपेशियों में पहुंचने वाले तंत्रिका आवेग से व्यक्ति में संवेगात्मक व्यवहार दोनों ही एक साथ उत्पन्न होते हैं न कि इसमें से संवेगात्मक अनुभूति का होना संवेगात्मक व्यवहार पर निर्भर करता है, जैसा कि जेम्स-लाँजे सिद्धांत की मान्यता है।
इस सिद्धांत के समर्थन में कैनन तथा बार्ड द्वारा स्वतंत्र रूप से कुत्ता पर प्रयोग किया गया। प्रयोग काफी सरल था। प्रयोग में कुत्ते के मस्तिष्क से हाइपोथैलेमस को काटकर निकाल दिया गया या कुछ कुत्ते के हाइपोथैलेमस में घाव (wound) उत्पन्न कर दिया गया। इसके बाद इन कुत्तों के सामने बिल्ली (cat) लायी गयी। परिणाम में देखा गया कि कुत्ता शांतभाव से बिना क्रोध दिखलाये चुपचाप बैठा रहा। इन प्रयोगों के परिणाम के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संवेग का केन्द्र हाइपोथैलेमस होता है।
इस सिद्धांत की कुछ आलोचनाएँ हैं जिसमें निम्नांकित प्रमुख हैं –
1. मासरमैन (Masserman) द्वारा किये गये प्रयोगों से यह स्पष्ट हुआ है कि हाइपोथैलेमस को संवेग का केन्द्र मानना अधिक वैज्ञानिक नहीं है। उन्होंने बिल्ली पर प्रयोग करके यह दिखला दिया है कि सिर्फ हाइपोथैलेमस को उत्तेजित करने से जो संवेग उत्पन्न होता है, वह अस्पष्ट, विकीर्ण, यांत्रिक तथा लगभग अर्थहीन होता है।
इनके प्रयोग में देखा गया कि बिल्ली के हाइपोथैलेमस को बिजली से उत्तेजित करने से उसके शरीर के बाल खड़े हो गए मानो वह क्रोधित हो गयी है। परंतु सचमुच में क्रोध या अन्य कोई संवेग के उत्पन्न होने का कोई निश्चित लक्षण उसमें नहीं था जिसका सबूत यह था कि बिल्ली लगभग सामान्य अवस्था में समान भोजन कर रही थी।
2. कुछ मनोवैज्ञानिकों जैसे किंग तथा मेयर (King & Mayer) द्वारा किये गए प्रयोगों से यह स्पष्ट हुआ है कि हाइपोथैलेमस को संवेग का केन्द्र मानना उचित नहीं है, क्योंकि मस्तिष्क के अन्य भाग जैसे लिम्बिक तंत्र, ऐमिगडाला आदि को उत्तेजित करने से भी प्राणी में संवेग उत्पन्न होता है। इन आलोचनाओं के बावजूद कैनन-बार्ड सिद्धांत संवेग का एक प्रमुख सिद्धांत है तथा अनेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा इस सिद्धांत की मान्यता स्वीकार की गयी है।