Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 4

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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
पूर्व-स्थापित सामंजस्य सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
पूर्व-स्थापित सामंजस्य सिद्धान्त के अन्तर्गत कहा गया है कि बिना खिड़कियों वाले अनेक कमरे होते हैं जिनमें परस्पर कोई समवाद नहीं होता परन्तु पूर्व-स्थापित सामंजस्य के कारण आपस में बिना किसी टकराव अथवा द्वन्द्व के वे एक साथ रहते हैं।

प्रश्न 2.
क्या पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का अध्ययन प्रासंगिक है?
उत्तर:
नीतिशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान होने के नाते इस बात की भी अध्ययन करता है की मनुष्य या समाज के बीच एक पूर्ण संबन्ध हो तथा व्यक्ति के अधिकार एवं कर्तव्य उचित कार्यों के लिए पुरष्कार और अनुचित डंड का निर्धारण भी करता है नीतिशास्त्र में पर्यावरण सम्बन्ध 7 बातों का भी अध्ययन किया जाता है इसलिएए पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का अध्ययन प्रासंगिक है।

प्रश्न 3.
शिक्षा दर्शन की एक विशेषता पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
शिक्षा दर्शन की एक विशेषता के अन्तर्गत शिक्षा लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साध न है यदि दर्शन जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करता है तो शिक्षा उस लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन है। दर्शन तथा शिक्षा का घनिष्ट सम्बन्ध है।

प्रश्न 4.
भारतीय दर्शन में कितने प्रमाण स्वीकृत हैं?
उत्तर:
भारतीय दर्शन में निम्नलिखित चार प्रमाण स्वीकृत है-

  1. प्रत्यक्ष (Perception),
  2. अनुमाण (Inference),
  3. उपमाण (Comtarison),
  4. शब्द (Verbal Autority)।

प्रश्न 5.
योगज प्रत्यक्ष क्या है?
उत्तर:
योगज प्रत्यक्ष एक ऐसा प्रत्यक्ष है जो भूत, वर्तमान और भविष्य के गुण तथा सूक्ष्म, निकट तथा दुरस्त सभी प्रकार की वस्तुओं की साक्षात अनुभूती कराता है। यह एक ऐसी शक्ति है जिसे हम घटा बढ़ा सकते हैं जब यह शक्ति बढ़ जाती है तो हम दूर की चीजे तथा सूक्ष्म चीजों को भी प्रत्यक्ष कर पाते हैं। यहि स्थिति योगज प्रत्यक्ष कहलाता है।

प्रश्न 6.
What do you know about the orthodox school of Indian philosophy ? (भारतीय दर्शन के आस्तिक सम्प्रदाय के बारे में आप क्या जानते हैं ?) अथवा, भारतीय दर्शन में आस्तिक सम्प्रदाय किसे कहते हैं ?
उत्तर:
भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों को दो भागों में बाँटा गया है। वे हैं-आस्तिक एवं. नास्तिक।
व्यावहारिक जीवन में आस्तिक का अर्थ है–ईश्वरवादी तथा नास्तिक का अर्थ है-अनीश्वरवादी। ईश्वरवादी का मतलब ईश्वर में आस्था रखनेवालों से है। लेकिन दार्शनिक विचारधारा में आस्तिक शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है। भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है, जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास करता हो। इस प्रकार, आस्तिक का अर्थ है वे का अनुयायी। इस प्रकार, भारतीय दर्शन में छः दर्शनों को आस्तिक माना जाता है। वे हैं-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। ये सभी दर्शन किसी-न-किसी रूप में वेद पर आधारित हैं।

प्रश्न 7.
What do you know about the heterodox school? (नास्तिक सम्प्रदाय के बारे आप क्या जानते हैं ?)
उत्तर:
व्यावहारिक जीवन में नास्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर का निषेध करता है। भारतीय दार्शनिक विचारधारा में नास्तिक शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है। यहाँ नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद को प्रमाण नहीं मानता है। नास्तिक दर्शन के अन्दर चर्वाक, जैन और बौद्ध को रखा जाता है। इस प्रकार नास्तिक दर्शन की संख्या तीन है।

प्रश्न 8.
Explain the meaning of Karma Yoga in Bhagvad Gita. (भगवद्गीता में कर्मयोग के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
गीता का मुख्य विषय कर्म-योग है। गीता में श्रीकृष्ण किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को निरन्तर कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। गीता में सत्य की प्राप्ति के निमित्त कर्म को करने का आदेश दिया गया है। वह कर्म जो असत्य तथा अधर्म की प्राप्ति के लिए किया जाता है, सफल कर्म की श्रेणी में नहीं आते हैं। गीता में कर्म से विमुख होने को महान मूर्खता की संज्ञा दी गयी है। व्यक्ति को कर्म के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने की बात की गयी है साथ ही कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करने की बात भी कही गयी है। गीता में कर्मयोग को ‘निष्काम कर्म’ की भी संज्ञा दी गयी है। इसका अर्थ है, कर्म को बिना किसी फल की अभिलाषा से करना। डॉ. राधाकृष्णन ने कर्मयोग को गीता का मौलिक उपदेश कहा है।

प्रश्न 9.
What is the meaning of Right views in the Eightford Noble Path ? (अष्टांगिक-मार्ग में सम्यक् दृष्टि का क्या अर्थ है ?)
उत्तर:
गौतम बुद्ध ने दुख का मुख्य कारण अविद्या को माना है। अविद्या से मिथ्या-दृष्टि . :(Wrong views) का आगमन होता है। मिथ्या-दृष्टि का अन्त सम्यक् दृष्टि (Right views) से ही
संभव है। अत: बुद्ध ने सम्यक् दृष्टि को अष्टांगिक मार्ग की पहली सीढ़ी माना है। वस्तुओं के यथार्थ .स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि कहा जाता है। सम्यक् दृष्टि का मतलब बुद्ध के चार आर्य सत्यों
का यथार्थ ज्ञान भी है। आत्मा और विश्व सम्बन्धी दार्शनिक विचार मानव को निर्वाण प्राप्ति में बाधक का काम करते हैं। अत: दार्शनिक विषयों के चिन्तन के बदले निर्वाण के लिए बुद्ध ने चार आर्य-सत्यों के अनरूप विचार ढालने को आवश्यक माना।

प्रश्न 10.
What do you know about the Jain Philosophy? (जैन-दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं?)
उत्तर:
जैन-दर्शन, बौद्ध-दर्शन की तरह छठी शताब्दी के विकसित होने के कारण समकालीन दर्शन कहे जा सकते हैं। जैन मत के प्रवर्तक चौबीसवें तीर्थंकर थे। ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे। महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे। जैनमत के विकास और प्रचार का श्रेय अन्तिम तीर्थंकर महावीर को जाता है। बौद्ध की तरह जैन दर्शन भी वेद-विरोधी हैं। इसलिए बौद्ध-दर्शन की तरह जैन दर्शन को भी नास्तिक कहा जाता है। इसी तरह जैन-दर्शन भी ईश्वर में अविश्वास करता है। दोनों दर्शनों में अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया गया है। जैन-दर्शन में भी मुख्य दो सम्प्रदाय हैं। वे हैं-श्वेताम्बर तथा दिगम्बर। जैन-दर्शन का योगदान प्रमाण-शास्त्र तथा तर्क-शास्त्र के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है। जैन-दर्शन प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में उपलब्ध हैं।

प्रश्न 11.
What do you know about Buddhism? (बौद्ध-दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं ?)
उत्तर:
बौद्ध-दर्शन के संस्थापक महात्मा बुद्ध माने जाते हैं। बोधि (Cenlightment) यानि तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद वे बुद्ध कहलाए। उन्हें तथागत और अहर्ता की संज्ञा भी दी गयी। बुद्ध के उपदेशों के फलस्वरूप बौद्ध-धर्म एवं बौद्ध-दर्शन का विकास हुआ। बौद्ध-दर्शन के अनेक अनुयायी थे। उन अनुयायियों में मतभेद रहने के कारण बौद्ध-दर्शन की अनेक शाखाएँ निर्मित हो गयी जिसके फलस्वरूप उत्तरकालीन बौद्ध-दर्शन में दार्शनिक विचारों की प्रधानता बढ़ी। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्यों ने उपदेशों का संग्रह त्रिपिटक में किया। त्रिपिटक की रचना पाली . साहित्य में की गई है।

सुत्तपिटक, अभिधम्म पिटक और विनय पिटक तीन पिटकों के नाम हैं। सुत्त पिटक में धर्म सम्बन्धी बातों की चर्चा है। बौद्धों की गीता ‘धम्मपद’ सुत्तपिटक का ही एक अंग है। अभिधम्म पिटक में बुद्ध के दार्शनिक विचारों का संकलन है। इसमें बुद्ध के मनोविज्ञान सम्बन्धी विचार संग्रहीत है। विनयपिटक में नीति-सम्बन्धी बातों की व्याख्या हुई है।

प्रश्न 12.
Discuss the meaning of post by the base of Philosophy. (न्याय-दर्शन के आधार पर ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
Or,
Discuss the meaning of word in Indian Philosophy. अथवा, (भारतीय दर्शन में ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
जिस किसी शब्द में अर्थ या संकेत की स्थापना हो जाती है, उसे ‘पद’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में शक्तिमान शब्द को हम पद कहते हैं। किसी पद या शब्द में निम्नलिखित अर्थ या संकेत को बतलाने की शक्ति होती है-
(अ) व्यक्ति-विशेष (Individual)-यहाँ ‘व्यक्ति’ का अर्थ है वह वस्तु जो अपने गुणों के साथ प्रत्यक्ष हो सके। जैसे–’गाय’ शब्द को लें। वह द्रव्य या वस्तु जो गाय के सभी गुणों की उपस्थिति दिखावे गाय के नाम से पुकारी जाएगी। न्याय-सूत्र के अनुसार गुणों का आधार-स्वरूप जो मूर्तिमान द्रव्य है, वह व्यक्ति है।

(ब) जाति-विशेष (Universal)-अलग-अलग व्यक्तियों में रहते हुए भी जो एक समान गुण पाये जाए, उसे जाति कहते हैं। पद में जाति बताने की भी शक्ति होती है। जैसे-संसार में ‘गाय’ हजारों या लाखों की संख्या में होंगे लेकिन उन सबों की ‘जाति’ एक ही कही जाएगी।

(स) आकृति-विशेष (Form)-पद में आकृति (Form) को बतलाने की शक्ति होती है। आकृति का अर्थ है, अंगों की सजावट। जैसे–सींग, पूँछ, खूर, सर आदि हिस्से को देखकर हमें ‘जानवर’ का बोध होता है। उसी तरह, दो पैर, दो हाथ, दो आँखें, शरीर, सर आदि को देखकर आदमी (मानव) का बोध होता है।

प्रश्न 13.
What is means of object perception?
(पदार्थ-प्रत्यक्ष का क्या अभिप्राय है ?)
उत्तर:
किसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हमारे सामने कोई पदार्थ वस्तु या द्रव्य हो। जब हमारे सामने ‘गाय’ रहेगी तभी हमें उसके सम्बन्ध में किसी तरह का प्रत्यक्ष भी हो सकता है। अगर हमारे सामने कोई पदार्थ या वस्तु नहीं रहे तो केवल ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रत्यक्ष का निर्माण कर सकती है। इसलिए प्रत्यक्ष के लिए बाह्य पदार्थ या वस्तु का होना आवश्यक है। न्याय दर्शन में सात तरह के पदार्थ बताए गए हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय एवं अभाव। इनमें ‘द्रव्य’ को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसके बाद अन्य सभी द्रव्य पर आश्रित हैं।

प्रश्न 14.
Discuss relation between Comarison and inference. (उपमान एवं अनुमान के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करें।)
Or,
What is relation between Comparison and inference ? अथवा, (उपमान एवं अनुमान के बीच क्या सम्बन्ध है ?)
उत्तर:
अनुमान प्रत्यक्ष के आधार पर ही होता है, लेकिन अनुमान प्रत्यक्ष से बिल्कुल ही भिन्न क्रिया है। अनुमान का रूप व्यापक है। उसमें उसका आधार व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal rclation) रहता है, जिसमें निगमन यानि निष्कर्ष में एक बहुत बड़ा बल रहता है तथा वह सत्य होने का अधिक दावा कर सकता है। दूसरी ओर, उपमान भी प्रत्यक्ष पर आधारित है लेकिन अनुमान की तरह व्याप्ति-सम्बन्ध से सहायता लेने का सुअवसर प्राप्त नहीं होता है। उपमान से जो कुछ ज्ञान हमें प्राप्त होता है, उसमें कोई भी व्याप्ति-सम्बनध नहीं बतलाया जा सकता है। अतः उपमान से जो निष्कर्ष निकलता है वह मजबूत है और हमेशा सही होने का दाबा कभी नहीं कर सकता है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुमान को उपमान पर उस तरह निर्भर नहीं करना पड़ता है जिस तरह उपमान अनुमान पर निर्भर करता है। सांख्य और वैशेषिक दर्शनों में ‘उपमान’ को ही बताकर अनुमान का ही एक रूप बताया गया है। अगर हम आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि उपमान भले ही ‘अनुमान’ से अलग रखा जाए लेकिन अनुमान का काम ‘उपमान’ में हमेशा पड़ता रहता है।

प्रश्न 15.
Explain ‘Substance’ as ‘first Padartha’. (प्रथम पदार्थ के रूप में द्रव्य की चर्चा करें।)
उत्तर:
द्रव्य कणाद का प्रथम पदार्थ है। द्रव्य गुण एवं कर्म का आधार है। द्रव्य के बिना गुण एवं कर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है। द्रव्य गुण एवं कर्म का आधार हाने के अतिरिक्त अपने कार्यों का समवायिकरण (material cause) है। उदाहरण के लिए-सूत से कपड़ा का निर्माण होता है। अतः सूत को कपड़े का समवायि कारण कहा जाता है। द्रव्य नौ प्रकार के होते हैं। वे हैं-पृथ्वी अग्नि, वायु, जल, आकाश, दिक् काल, आत्मा एवं मन। इन द्रव्यों में पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश को पंचभूत कहा जाता है। पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के परमाणु नित्य हैं तथा उनसे बने कार्य-द्रव्य अनित्य हैं। परमाणु दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।

परमाणुओं का अस्तित्व, अनुमान से प्रमाणित होता है। परमाणु का निर्माण एवं नाश असंभव है। पाँचवाँ भौतिक द्रव्य ‘आकाश’ परमाणुओं से रहित है। ‘शब्द’ आकाश का गुण है। सभी भौतिक द्रव्यों का अस्तित्व ‘दिक्’ और ‘काल’ में होता है। दिक् और काल के बिना भौतिक द्रव्यों की व्याख्या असंभव है।

प्रश्न 16.
Explain the meaning of ‘Sankhya’ in the Sankhya philosophy. (सांख्य-दर्शन में सांख्य के अर्थ की व्याख्या करें।)
उत्तर:
सांख्य-दर्शन में ‘सांख्य’ नामकरण के सम्बन्ध में दार्शनिकों के बीच, अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ दार्शनिकों के अनुसार ‘सांख्य’ शब्द ‘सं’ और ख्या’ के संयोग से बना है। ‘स’ का अर्थ सम्यक् तथा ‘ख्या’ का अर्थ ज्ञान होता है। अत: सांख्य का वास्तविक अर्थ ‘सम्यक् ज्ञान’ हुआ। सम्यक् ज्ञान का अभिप्राय पुरुष और प्रकृति के बीच भिन्नता का ज्ञान होता है। दूसरी ओर कुछ दार्शनिकों के अनुसार ‘सांख्य’ नाम ‘संख्या’ शब्द से प्राप्त हुआ है। सांख्य-दर्शन का सम्बन्ध संख्या से होने के कारण ही इसे सांख्य कहा जाता है।

सांख्य दर्शन में तत्त्वों की संख्या बतायी गयी है। तत्वों की संख्या पचीस बतायी गयी है। एक तीसरे विचार के अनुसार ‘सांख्य’ को सांख्य कहे जाने का कारण सांख्य के प्रवर्तक का नाम ‘संख’ होना बतलाया जाता है। लेकिन यह विचार प्रमाणित नहीं है। महर्षि कपिल को छोड़कर अन्य को सांख्य का प्रवर्तक मानना अनुचित है। सांख्य-दर्शन वस्तुतः कार्य-कारण पर आधारित है।

प्रश्न 17.
Explain the meaning of ‘Satva’ in Sankhya Philosophy.
(सांख्य-दर्शन में ‘सत्व’ के अर्थ बतावें।)
उत्तर:
सांख्य दर्शन में गुण तीन प्रकार के होते हैं। वे हैं-सत्व, रजस् और तमस्। सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है। यह खुद प्रकाशमय है तथा दूसरों को भी प्रकाशित करता है। सत्व के कारण ही मन तथा बुद्धि विषयों को ग्रहण करते हैं। इसका रंग श्वेत (उजला) है। यह सुख का कारण होता है। सत्व के कारण ही सूर्य पृथ्वी को प्रकाशित करता है तथा ऐनक में प्रतिबिम्ब की शक्ति होती है। इसका स्वरूप हल्का तथा छोटा (लघु) होता है। सभी हल्की वस्तुओं तथा धुएँ का ऊपर की दिशा में गमन ‘सत्व’ के कारण ही संभव होता है। सभी सुखात्मक अनुभूति यथा हर्ष, तृप्ति, संतोष, उल्लास आदि सत्य के ही कार्य माने जाते हैं।

प्रश्न 18.
Explain positive ideas of Sankara about the Absolute. (ब्रह्म के सम्बन्ध में शंकर के भावात्मक विचार को स्पष्ट करें।) Or, Explain the meaning of Sachchidananda. अथवा, (‘सच्चिदानन्द’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
शंकर ने ‘ब्रह्म’ की निषेधात्मक व्याख्या के अतिरिक्त भावात्मक विचार भी दिए हैं। शंकर के अनुसार ब्रह्म सत् (real) है जिसका अर्थ हुआ कि वह असत् (Un-real) नहीं है। वह चित् (Conscisouness) है जिसका अर्थ कि वह अचेत् नहीं है। वह आनन्द (bliss) है जिसका अर्थ है कि वह दुःख स्वरूप नहीं है। अतः ब्रह्म सत्, चित् और आनन्द है यानि सच्चिदानन्द है। सत्, चित् और आनन्द में अवियोज्य सम्बन्ध है। इसीलिए ये तीनों मिलकर एक ही सत्ता का निर्माण करते हैं। शंकर ने यह भी बतलाया कि ‘सच्चिदानन्द’ के रूप में जो ब्रह्म की व्याख्या की जाती है वह अपूर्ण है। हालाँकि भावात्मक रूप से सत्य की व्याख्या इससे और अच्छे ढंग से संभव नहीं है।

प्रश्न 19.
What are proofs of the existence of Brahma according to Shankar. (शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व के क्या प्रमाण दिये?)
उत्तर:
शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कुछ प्रमाण दिए हैं। उन्हें हम . श्रुति प्रमाण, मनोवैज्ञानिक प्रमाण, प्रयोजनात्मक प्रमाण, तात्विक प्रमाण तथा अपरोक्ष अनुभूतिप्रमाण कहा जाता है। श्रुति प्रमाण के अन्तर्गत शंकर के दर्शन का आधार उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्र है। उनके अनुसार इन ग्रन्थों के सूत्र में ब्रह्म के अस्तित्व का वर्णन है अतः ब्रह्म है। इसी मनोवैज्ञानिक प्रमाण के अन्तर्गत शंकर ने कहा है कि ब्रह्मा सबकी आत्मा है। हर व्यक्ति अपनी आत्मा के अस्तित्व को अनुभव करता है। अतः इससे भी प्रमाणित होता है कि ब्रह्म का अस्तित्व है।

प्रयोजनात्मक प्रमाण के अन्तर्गत कहा गया है कि जगत् पूर्णतः व्यवस्थित है। इस व्यवस्था का कारण जड नहीं कहा जा सकता। अतः व्यवस्था का एक चेतन कारण है. उसे ही हम ब्रह्म कहते हैं। इसी तरह तात्त्विक प्रमाण के अन्तर्गत बताया गया है कि ब्रह्म वृह धातु से बना है जिसका अर्थ है वृद्धि। ब्रह्म की सत्ता प्रमाणित होती है। अन्ततः ब्रह्म के अस्तित्व का सबसे सबल प्रमाण अनुभूति है। वे अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा जाने जाते हैं। अपरोक्ष अनुभूति के फलस्वरूप सभी प्रकार के द्वैत समाप्त हो जाते हैं तथा अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।

प्रश्न 20.
Explain the concept of Soul according to Shankar.
(शंकर के ‘आत्मा’ की अवधारणा को स्पष्ट करें।)
Or,
Explain the relationship between the Soul and the Absolute. अथवा, (आत्मा और ब्रह्म के बीच सम्बन्ध की व्याख्या करें।)
उत्तर:
शंकर आत्मा को ब्रह्म की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार दोनों एक ही वस्तु के दो भिन्न-भिन्न नाम है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। आत्मा स्वयं सिद्ध (Axioms) अतः उसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा देश, काल और कारण-नियम की सीमा से परे हैं। वह त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है। शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। शंकर ने एक ही तत्त्व को आत्मनिष्ठ दृष्टि से ‘आत्मा’ तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म कहा है। शंकर आत्मा और ब्रह्म के ऐक्य को ‘तत्तवमसि’ (that thou art) से पुष्टि करता है।

प्रश्न 21.
Explain the quantitative marks of the cause.
(कारण के परिमाणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।)
उत्तर:
परिमाण के अनुसार कारण और कार्य के बीच मुख्यतः तीन प्रकार के विचार बताए गए हैं-
(क) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में अधिक हो सकता है,
(ख) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कम हो सकता है,
(ग) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कभी अधिक और कभी कम हो सकता है।

अतः, इन तीनों को असत्य साबित किया गया है। यदि कारण अपने कार्य से कभी अधिक और कभी कम होता है तो इसका यही अर्थ है कि प्रकृति में कोई बात स्थिर नहीं है। किन्तु, प्रकृति में स्थिरता में समरूपता है, अत: यह संभावना भी समाप्त हो जाता है।

इसी तरह पहली और दूसरी संभावना भी समाप्त हो जाती है। ये तीनों संभावनाएँ निराधार हैं। अतः, निष्कर्ष यही निकलता है कि कारण-कार्य मात्रा में बराबर होते हैं और यही सत्य भी है।

प्रश्न 22.
Explain the composition of causes
(कारणों का संयोग की व्याख्या करें।)
उत्तर:
जब बहुत से कारणं मिलकर संयुक्त रूप से कार्य पैदा करते हैं तो वहाँ पर कारणों के मेल को कारण-संयोग कहा जाता है। यह भी कारण-कार्य नियम के अंतगर्त पाया जाता है। जैसे-भात-दाल, सब्जी, दूध, दही, घी, फल आदि खाने के बाद हमारे शरीर में खून बनता है। इसलिए खून यहाँ बहुत से कारणों के मेल से बनने के कारण कार्य-सम्मिश्रण हुआ तथा दाल, भात आदि कारणों का मेल कारण-संयोग कहा जाता है। अतः, कारणों के संयोग और कार्यों के सम्मिश्रण में अंतर पाया जाता है।

प्रश्न 23.
Compare between caused and condition. (कारण और उपाधि की तुलना करें।)
उत्तर:
आगमन में कारण का एक हिस्सा स्थित बतायी गई है। जिस तरह से हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर के अंग हैं और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं। उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और उपाधि में तीन तरह के अंतर हैं-
(क) कारण एक है और उपाधि कई हैं।
(ख)कारण अंश रूप में रहता है और उपाधि सम्पूर्ण रूप में आता है।
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं। इस तरह कारण और उपाधि में अंतर है।

प्रश्न 24.
What are Affirmative Conditions ? (भावात्मक कारणांश या उपाधि क्या है?)
उत्तर:
भावात्मक कारणांश उपाधि का एक भेद है। उपाधि प्रायः दो तरह के हैं-भावात्मक तथा अभावात्मक। ये दोनों मिलकर ही किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। यह कारण का वह भाग या हिस्सा है जो प्रत्यक्ष रूप में पाया जाता है। इसके रहने से कार्य को पैदा होने में सहायता मिलती है। जैसे-नाव का डूबना एक घटना है, इसमें भावात्मक उपाधि इस प्रकार है-एकाएक आँधी का आना, पानी का अधिक होना, नाव का पुराना होना तथा छेद रहना, वजन अधिक हो जाना आदि ये सभी भावात्मक उपाधि के रूप में जिसके कारण नाव पानी में डूब गई।

प्रश्न 25.
Explain in brief the Ontological proof. (सत्ता या तत्त्व सम्बन्धी प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।)
उत्तर:
अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईबनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की धारणा है. अतः यह धारणा केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक में होगी। ईश्वर की यथार्थता (existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है।

संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की. जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा, नंगा और दरिद्र न होता।

प्रश्न 26.
How did Kant criticize the Cosmological Proof. (विश्व सम्बन्धी प्रमाण की आलोचना काण्ट ने कैसे की?)
उत्तर:
काण्ट के अनुसार वैश्विक प्रमाण को आनुभविक नहीं समझना चाहिए, क्योंकि आपातकाल वस्तुओं को कोई इन्द्रियानुभविक लक्षण नहीं है। यह अनुभव वस्तुओं का अतिसामान्य अमूर्त लक्षण है जिसे अनुभवाश्रित मुश्किल से कहा जा सकता है। वैश्विक प्रमाण का मुख्य उद्देश्य यही है कि यह अनिवार्य सत्ता के प्रत्यय (Idea) को स्थापित करे तथा इस अनिवार्य सत्ता से ईश्वर की वास्तविकता सिद्ध करे। ऐसा करने पर यह सत्तामूलक प्रमाण का रूप धारण कर लेता है।

जिस प्रकार पूर्ण (perfect) ईश्वर की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, उसी तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार वैश्विक प्रमाण वस्तुतः सत्तामूलक प्रमाण का ही छुपा रूपं है, अतः यह सिद्धान्त भी ईश्वर के अस्तित्व को नहीं सिद्ध कर पाता है।

प्रश्न 27.
Explain in brief ther Teleological Proof. , (उद्देश्य मूलक प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।)
उत्तर:
उद्देश्य मूलक प्रमाण के अनुसार जहाँ तक मानव का अनुभव प्राप्त होता है, वहाँ तक सम्पूर्ण विश्व में क्रम व्यवस्था, साधन-साध्य की सम्बद्धता दिखाई देती है। अतः प्राकृतिक समरूपता व्यवस्था, सौन्दर्य आदि से स्पष्ट होता है कि कोई परम सत्ता है, जिसने इस विश्व की रचना अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए की है। काण्ट ने इस प्रमाण को भी उपयुक्त नहीं माना। उनके अनुसार उद्देश्य मूलक प्रमाण से इतना ही सिद्ध हो पाता है कि विश्व का कोई शिल्पकार (architect) है, न कि इस विश्व का कोई सृष्टिकर्ता। सृष्टिकर्ता वह है जो विश्व के उपादान और उसके रूप दोनों का रचयिता हो। वस्तुतः उद्देश्य मूलक प्रमाण से अपरिमित, निरपेक्ष, परम सत्ता का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। काण्ट की दृष्टि में सभी प्रमाण अन्त में सत्तामूलक प्रमाण के ही विभिन्न चरण हैं।

प्रश्न 28.
What are modern ideas regarding mind-body problem?
(‘मन-शरीर समस्या के सम्बन्ध में आधुनिक विचार क्या है?)
उत्तर:
मन-शरीर के सम्बन्ध की विवेचना एक जटिल दार्शनिक समस्या है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार शारीरिक प्रक्रियाओं के अतिरिक्त मन की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं : किया जा सकता है। इस दृष्टि से मन और शरीर के बीच सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। शारीरिक या मानसिक प्रक्रियाओं के तंत्र को ही ‘मन’ की संज्ञा दी जाती है। लेकिन मन को स्वतंत्र मानने को मशीन में भूत (ghost in the machine) के बराबर काल्पनिक सिद्धान्त कहा • जाता है। व्यवहारतः यन्त्र अपने-आप चलता है, न कि कोई भूत इसे चलाता है।

प्रश्न 29.
What is virtue ? (सद्गुण क्या है ?).
उत्तर:
सद्गुण से हमारा तात्पर्य किसी व्यक्ति के नैतिक विकास से रहता है। सद्गुण के अन्तर्गत तीन बातें आती हैं। वे हैं-कर्तव्य का पालन इच्छा से हो तथा सद्गुण का अर्जन। निरन्तर अभ्यास द्वारा कर्तव्य पालन करने से जो स्थिर प्रवृत्ति में श्रेष्ठता आती है-वही सद्गुण है। उचित कर्मों का पालन करना ही हमारा कर्त्तव्य है और अनुचित कर्मों का त्याग भी कर्तव्य ही है। जब कोई मानव अभ्यास पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है तो उसमें एक प्रकार का नैतिक गुण स्वतः विकसित होने लगता है। यही विकसित गुण सद्गुण है। वस्तुत: अच्छे चरित्र का लक्षण ही सद्गुण है। कर्त्तव्य हमारे बाहरी कर्म का द्योतक है जबकि सद्गुण हमारे अन्तः चरित्र का द्योतक है। सुकरात ने तो सद्गुण ज्ञान को ही माना है।

प्रश्न 30.
What do you mean by the Preventive theory of Punishment ? (दण्ड के निवर्तन सिद्धांत से आप क्या समझते हैं?)
उत्तर:
निवर्तन सिद्धान्त की मूल धारणा है कि दण्ड देने के पीछे हमारा एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि भविष्य में व्यक्ति वैसे अपराध की पुनरावृत्ति न करें। दण्ड एक तरह से व्यक्ति के ऊपर अंकुश डालता है। यदि किसी व्यक्ति को कठिन-से-कठिन दण्ड देते हैं तो उसका उद्देश्य दो माने जाते हैं। पहला, वह व्यक्ति भविष्य में अपराध करने के लिए हिम्मत नहीं कर पाता है। साथ ही जब दूसरा व्यक्ति अपराधकर्मी को दण्ड भोगते देखता है तो वह व्यक्ति भी भय से अपराध नहीं करता है। जैसे किसी को गाय चुराने के लिए दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि वह गाय चुरा चुका है बल्कि इसलिए दिया जाता है कि वह भविष्य में गाय चुराने की हिम्मत न करे। इस प्रकार निवर्तनवादी सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य अपराधी कार्य पर नियंत्रण लगाना माना जाता है। “.

प्रश्न 31.
Explain the relationship between social philosophy and Ethics.
(समाजदर्शन एवं नीतिशास्त्र के बीच सम्बन्धों की विवेचना करें।)
उत्तर:
नीतिशास्त्र का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के उन लक्ष्यों (ends) से है जिन्हें प्राप्त करना मानव-जीवन का उद्देश्य होता है। अतः समाज दर्शन का जितना गहरा सम्बन्ध नीतिशास्त्र से है उतना किसी अन्य शास्त्र से नहीं। समाजदर्शन वास्तव में नीतिशास्त्र का एक अंग कहा जा सकता है। इसी तरह नीतिशास्त्र को भी समाज-दर्शन का अंग कहने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इसके बावजूद सुविधा की दृष्टि से हम दोनों में अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं। नीतिशास्त्र मुख्य रूप से व्यक्तियों के आचरण (conduct) से सम्बन्धित है, दूसरी ओर समाज का निर्माण व्यक्तियों से ही होता है तथा वे लक्ष्य जिन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति तथा समाज प्रयत्न करते हैं लगभग समान होते हैं। .

प्रश्न 32.
नैतिकता का ईश्वर से क्या संबंध है?
उत्तर:
नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है। यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता है और जगत में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुतः नहीं माना जा सकता है किन्तु नैतिक मूल्यों का वस्तुगत न मान कोई भी दार्शनिक मानव को संतुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानना ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना है।

Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 4

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Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 4

प्रश्न 1.
प्रकाश का वेग अधिकतम होता है :
(a) हवा में
(b) काँच में
(c) पानी में
(d) निर्वात में
उत्तर:
(d) निर्वात में

प्रश्न 2.
किसी माध्यम से प्रकाश का वेग निर्भर करता है :
(a) प्रकाश स्रोत की तीव्रता पर
(b) प्रकाश स्रोत की आवृत्ति पर
(c) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) प्रकाश स्रोत की आवृत्ति पर

प्रश्न 3.
प्रकाश की तरंगें अनुप्रस्थ (Transverse) है यह साबित होता है :
(a) व्यतिकरण से
(b) विवर्तन से
(c) ध्रुवण से
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) ध्रुवण से

प्रश्न 4.
ब्रूस्टर का नियम (Brewster’s law) है :
(a) μ = sinip
(b) μ = cosip
(c) μ = tanip
(d) μ = tan2ip
उत्तर:
(c) μ = tanip

प्रश्न 5.
Laser beam है :
(a) उच्च एक वर्ण प्रकाश
(b) एक वर्ण प्रकाश
(c) स्वभाव में hetrogenous
(d) एक वर्ण प्रकाश या ऊर्जा पर नहीं निर्भर करता है
उत्तर:
(a) उच्च एक वर्ण प्रकाश

प्रश्न 6.
Leaser एक स्रोत (Source) है :
(a) विद्युत धारा का
(b) ध्वनि का
(c) अकलाबद्ध प्रकाश (Incoherent light)
(d) कलाबद्ध प्रकाश (choherent light)
उत्तर:
(d) कलाबद्ध प्रकाश (choherent light)

प्रश्न 7.
चित्र में दो समाक्षीय उत्तल लेंस L1 तथा L2 कुछ दूरी से विलंगति है जिनके फोकस लौटा क्रमशः F1 तथा F2है। L1 तथा L2 के बीच की दूरी है-
Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 4 1
(a) F1
(b) F2
(c) F1 + F2
(d) F1 – F2
उत्तर:
(c) F1 + F2

प्रश्न 8.
f फोकस लम्बाई वाले दो पतले लेन्स को जोड़ने पर समतुल्य (Equivalent) फोकस लम्बाई होगा।
(a) 2f
(b) 4f
(c) \(\frac{f}{2}\)
(d) 3f
उत्तर:
(c) \(\frac{f}{2}\)

प्रश्न 9.
fo, तथा fE, फोकस लम्बाई के अभिदृश्यक (objective) तथा नेत्रिका के संयुक्त
सूक्ष्मदर्शी में होता है
(a) fo > fE
(b) fo < fE
(c) fo = fE
(d) fo = 2fE
उत्तर:
(b) fo < fE

प्रश्न 10.
संयुक्त सूक्ष्मदर्शी के अभिदृश्यक (objective) तथा नेत्रिका का आवर्द्धन क्षमता (Magnifying power) क्रमश m1 तथा m2 हो तो सूक्ष्मदर्शी का आवर्द्धन क्षमता होगा :
(a) m1 + m2
(b) m1 – m2
(c) m1 m2
(d) m1/m2
उत्तर:
(c) m1 m2

प्रश्न 11.
बहुमूल्य रत्नों की पहचान के लिए प्रयुक्त होता है-
(a) परा बैगनी किरणों
(b) अवरक्त किरणें
(c) x-किरण
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(a) परा बैगनी किरणों

प्रश्न 12.
विनाशी व्यतिकरण (Destructive interference) में path diff. होता है :
(a) n λ
(b) (n+ 1) λ
(c) (2n+1) λ
(d) (2n+1)\(\frac{\lambda}{2}\).
उत्तर:
(d) (2n+1)\(\frac{\lambda}{2}\).

प्रश्न 13.
संपोषी ब्यतिकरण (constructive interference) में path diff. होता है :
(a) n λ
(b) (n+ 1) λ
(c) (2n+1)\(\frac{\lambda}{2}\)
(d) (2n + 1) λ
उत्तर:
(a) n λ

प्रश्न 14.
विद्युत चुम्बकीय तरंगें होती हैं :
(a) अनुदैर्घ्य
(b) अनुप्रस्थ
(c) कभी अनुदैर्घ्य तथा कभी अनुप्रस्थ
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) अनुप्रस्थ

प्रश्न 15.
एक परमाणु के नाभिक (nucleus) में रहता है :
(a) प्रोटॉन
(b) प्रोटॉन तथा इलेक्ट्रॉन
(c) प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन
(d) 4-कण
उत्तर:
(c) प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में से कौन मूल कण (Fundamental paricle) नहीं है ?
(a) न्यूट्रॉन
(b) प्रोटॉन
(c) α-कण
(d) इलेक्ट्रॉन
उत्तर:
(c) α-कण

प्रश्न 17.
फ्रेजनेल दूरी Zf का मान होता है-
(a) \(\frac{a}{\lambda}\)
(b) \(\frac{a^{2}}{\lambda}\)
(c) \(\frac{\lambda}{a}\)
(d) \(\frac{\lambda}{a^{2}}\)
उत्तर:
(b) \(\frac{a^{2}}{\lambda}\)

प्रश्न 18.
नाभिक (Nucleus) का आकार होता है :
(a) 10-13 cm
(b) 10-23 cm
(c) 10-8 cm
(d) 10-10 cm
उत्तर:
(a) 10-13 cm

प्रश्न 19.
द्रव्यमान तथा ऊर्जा के बीच सम्बन्ध है :
(a) E = mc2
(b) E = mc
(c) E = mc3
(d) E = m2c
उत्तर:

प्रश्न 20.
λ = 1Å के x-किरणों की आवृत्ति होते हैं-
(a) 3 × 108Hz
(b) 3 × 1018Hz
(c) 3 × 1010Hz
(d) 3 × 1015Hz
उत्तर:
(b) 3 × 1018Hz

प्रश्न 21.
चैडविक (Chadwick) खोज किये थे :
(a) Radioactivity
(b) Electron
(c) प्रोटॉन
(d) न्यूट्रॉन
उत्तर:
(d) न्यूट्रॉन

प्रश्न 22.
एक परमाणु में परमाणु संख्या तथा द्रव्यमान संख्या है। इसके प्रोटॉन की संख्या होगी :
(a) Z
(b) A
(c) A – Z
(d) A + Z
उत्तर:
(a) Z

प्रश्न 23.
Electron पर आवेश होता है. :
(a) 1.6 × 10-1C
(b) 1.6 × 10-9C
(c) 1.6C
(d) 1.6 × 10-10C
उत्तर:
(d) 1.6 × 10-10C

प्रश्न 24.
γ- किरणें समान होता है :
(a) α किरणों से
(b) कैथोड किरणों से
(c) x किरणों से
(d) β – किरणों से।
उत्तर:
(c) x किरणों से

प्रश्न 25.
Radioactivity संबंधित है :
(a) नाभिकीय संलग्न से
(b) नाभिकीय decay से
(c) x-rays के उत्पादन से
(d) तापयनिक उत्सर्जन (Thermionic emission) से
उत्तर:
(b) नाभिकीय decay से

प्रश्न 26.
λ तरंग लम्बाई के Photon की ऊर्जा होती है :
(a) \(\frac{h}{\lambda}\)
(b) \(\frac{h c}{\lambda}\)
(c) \(\frac{h}{c}\)
(d) \(\frac{h \lambda}{c}\)
उत्तर:
(b) \(\frac{h c}{\lambda}\)

प्रश्न 27.
P- n Jn का उपयोग किया जाता है :
(a) ताप मापने में।
(b) A.C. को D.C. में बदलने में।
(c) निम्न वोल्टेज को उच्च बोल्टेज में बदलने में।
(d) उच्च वोल्टेज को निम्न वोल्टेज में बदलने में।
उत्तर:
(b) A.C. को D.C. में बदलने में।

प्रश्न 28.
J.C. Bose के अनुसार e.m. wave में तरंग लम्बाई का range होता है :
(a) 1 mm – 10 mm
(b) 25 mm – 50 mm
(c) 200 mm – 500 mm
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) 25 mm – 50 mm

प्रश्न 29.
m द्रव्यमान एवं e आवेश वाले electron r त्रिग्यावाला वृत्तीय पथ पर घुम रहा रहा है जिसका कोणीय संवेग L है। इसका चुम्बकीय आघूर्ण होगा-
(a) eLm
(b) \(\frac{e L}{m}\)
(c) \(\frac{e L}{2 m}\)
(d) \(\frac{2 e L}{2 m}\)
उत्तर:
(c) \(\frac{e L}{2 m}\)

प्रश्न 30.
मैक्सवेल की परिकल्पना के अनुसार परिवर्ती विद्युत क्षेत्र स्रोत है
(a) एक emf का
(b) विद्युत धारा का
(c) दाब प्रवणता का
(d) चुम्बकीय क्षेत्र का
उत्तर:
(d) चुम्बकीय क्षेत्र का

प्रश्न 31.
E.m. wave में विद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्र के बीच Phase diff. होता है :
(a) Zero
(b) 90°
(c) 120°
(d) 180°
उत्तर:
(a) Zero

प्रश्न 32.
पृथ्वी के सतह से Ozone परत रहता है :
(a) 40 km – 50 km
(b) 100 km – 400 km
(c) 500 km – 1000 km
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) 40 km – 50 km

प्रश्न 33.
पृथ्वी के सतह से Ionosphere रहता है :
(a) 50 km – 100 km
(b) 200 km – 400 km
(c) 500 km – 1000 km
(d) 1000 km – 1500 km
उत्तर:
(b) 200 km – 400 km

प्रश्न 34.
E.m. spectrum (वि० चु० वर्णपट ) में उच्च आवृत्ति होती है :
(a) α – किरणों का
(b) β – किरणों का
(c) γ – किरणों का
(d) कैथोड किरणों का
उत्तर:
(c) γ – किरणों का

प्रश्न 35.
NOR-गेट के लिए बुलियन-व्यंजक होता है
(a) \(\overline{A \cdot B}\) =y
(b) \(\overline{A+B}\) = y
(c) A . B =y
(d)A + B =y
उत्तर:
(b) \(\overline{A+B}\) = y

प्रश्न 36.
लॉजिक-संकेत IM होता है
(a) OR-गेट का
(b) AND-गेट का
(c) NOR-गेट का
(d) NAND-गेट का
उत्तर:
(c) NOR-गेट का

प्रश्न 37.
सामान्य आँख के लिए, स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी होता है।
(a) 100 cm
(b) 50 cm
(c) 250 cm
(d) 25 cm
उत्तर:
(d) 25 cm

प्रश्न 38.
निम्नलिखित में से कौन विद्युत क्षेत्र द्वारा विच्छेदित होता है-
(a) γ – किरण
(b) x-किरण
(c) UV विकिरण
(d) कैथोड किरण
उत्तर:
(d) कैथोड किरण

प्रश्न 39.
TV संप्रेषण टॉवर की ऊँचाई 245 m पृथ्वी पर के किसी स्थान पर है। इस टॉपर से कितनी दूरी तक संप्रेषण भेजा जा सकता है।
(a) 245m
(b) 245 km
(c) 56 km
(d) 112 km
उत्तर:
(c) 56 km

प्रश्न 40.
6.62J के विकिरण के उत्सर्जन में 1014Hz आवृत्ति के फॉटोन की संख्या होगी-
(a) 1010
(b) 1015
(c) 1020
(d) 1025
उत्तर:
(c) 1020

प्रश्न 41.
TV प्रसारण के लिए audio signal के लिए किस प्रकार का modulan किया ‘ जाता है?
(a) आयाम मॉडुलन
(b) स्पंद (pulse) मोडुलन
(c) आवृत्ति मोडुलन
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(c) आवृत्ति मोडुलन

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 3

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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
जल प्रदूषण क्या है?
उत्तर:
जल की भौतिक, रासायनिक तथा जैवीय विशेषताओं में (मानव स्वास्थ्य तथा जलीय जीवों पर) हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तनों को जल प्रदूषण कहते हैं।

जल में स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता होती है परंतु जब मानव जनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषकों का जल में इतना अधिक जमाव हो जाता है कि जल की सहन शक्ति तथा स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता से अधिक हो जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है।

प्रश्न 2.
चिकित्सा नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आज चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी फैल चुकी है। एक समय था कि भारत देश में सुश्रुत चरक, धन्वन्तरि जैसे महान चिकित्साशास्त्री हुए थे जिन्हें समाज में भगवान के रूप में माना जाता था। इन चिकित्साशास्त्रियों ने न केवल चिकित्साशास्त्र का ज्ञान दिया, बल्कि वैद्य का गुण भी बताया।

लेकिन आज चिकित्सा ने पेशा का रूप ग्रहण कर लिया है और ईमानदारी, सहानुभूति, सत्यवादिता, दयालुता, प्रेम आदि को बाहर कर दिया है। किसी रोगी के साथ ईमानदारी से व कार्य कुशलता से व्यवहार किया जाये तो उसके. मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और रोगी का कुछ रोग तो अपने-आप ही ठीक हो जाता था।

मगर आज के समय में चिकित्सक मोटी फीस, महँगे ऑपरेशन, खर्चीली दवाईयाँ पर रोगी का इतना खर्चा करा देते हैं कि रोगी अपने रोग से न मरकर अपने इलाज के खर्च तले ही आकर मर जाता है।

प्रश्न 3.
मानसिक पर्यावरण क्या है?
उत्तर:
मानसिक पर्यावरण ज्ञान संपादन पर्यावरण अथवा क्रिया को कहते हैं। ज्ञान में मन के अंदर एक तरह का पदार्थ विद्यमान रहता है जिसके माध्यम से यथार्थ वस्तु का ज्ञान होता है। इसी को ज्ञान का विषय कहते हैं। हर एक ज्ञान का संकेत अपने से भिन्न किसी वस्तु की ओर होता है। इसी वस्तु को ज्ञान की वस्तु कहते हैं, क्योंकि ज्ञान इसी का होता है।

प्रश्न 4.
मोक्ष कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
भारतीय नैतिक दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति की व्यावहारिक स्तर पर भी सम्भव माना गया है। अगर हम कुछ निश्चित मार्ग को अपनायें तो हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। वैसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों की चर्चा की गयी है, किन्तु हम सुविधा के दृष्टिकोण से इन्हें तीन मार्गों के रूप में उल्लेख कर सकते हैं-

  • ज्ञान मार्ग-जिसके अनुसार ज्ञान के आधार पर मोक्ष संभव माना जाता है।
  • कर्म मार्ग-जिसके अनुसार निष्काम कर्मों के सम्पादन करने से हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं।
  • भक्ति मार्ग-जिसमें यह माना जाता है कि निष्कपट भक्ति या ईश्वर के ऊपर पूर्ण . आस्था रखकर उनके ऊपर सभी चीजों को छोड़कर हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। “

प्रश्न 5.
बुद्ध के अनुसार निर्वाण प्राप्ति का मार्ग क्या है?
उत्तर:
बुद्ध के अनुसार दुःख की समाप्ति एवं निर्वाण की प्राप्ति के मार्ग में आठ सीढ़ियाँ हैं। इसलिए इसे अष्टांग मार्ग या आष्टांगिक मार्ग कहते हैं। इसके आठ सोपान हैं जिन पर आरूढ़ होकर सत्व जीवन के चरम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। वे इस प्रकार से हैं

  1. सम्यक् दृष्टि,
  2. सम्यक् संकल्प,
  3. सम्यक् वाक्,
  4. सम्यक् कर्मान्त,
  5. सम्यक् आजीव,
  6. सम्यक् व्यायाम,
  7. सम्यक् स्मृति,
  8. सम्यक् समाधि।

प्रश्न 6.
ध्वनि प्रदूषण क्या है?
उत्तर:
ध्वनि की भौतिक, रासायनिक तथा जीविय विशेषताओं में (मानव स्वास्थ्य तथा जीवों पर) हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तन को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं।

ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर सरकार द्वारा बनायी कानून भी सख्त होती है। इस प्रकार ध्वनि प्रदूषण से शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्तियों में असंतोष उत्पन्न होता है।

प्रश्न 7.
नैराश्यवाद क्या है? व्याख्या करें।
उत्तर:
कतिपय विचारकों ने भारतीय दर्शन को निराशावादी दर्शन कहकर आलोचना का विषय बनाया है। लॉर्ड रोनाल्डशॉ का विचार है कि “निराशावाद समस्त भारतीय भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में व्याप्त है।” चेले ने अपनी पुस्तक ‘एडमिनिस्ट्रेटिव प्राब्लम्स’ में लिखा है कि “भारतीय दर्शन आलस्य और शाश्वत विश्राम की कामना से उत्पन्न हुआ है।”

निराशा का अभिप्राय-निराशा से अभिप्राय सांसारिक जीवन को दु:खमय समझना है। निराशा मन की एक प्रवृत्ति है जो जीवन को दुःखमय समझती है। भारतीय दर्शन को इस अर्थ में निराशावादी कहा जा सकता है कि उसकी उत्पत्ति भौतिक संसार की वर्तमान परिस्थितियों के प्रति असंतोष के कारण हुई है, भारतीय दर्शनों ने संसार को दुःखमय कहकर मनुष्य के जीवन को दुःख से परिपूर्ण प्रतिपादित किया है। संसार दु:खमय है। भारतीय दार्शनिक संसार की इस दु:खमय अवस्था का विश्लेषण करता है न केवल अपने जीवन के दु:खमय होने से ही वरन् कहीं-कहीं साक्षात् आशा को भी धिक्कारा गया है। निराशावाद की प्रशंसा की गयी है। एक स्थान पर कहा गया है कि
तेनपधीतं श्रुतं तै सर्वत्रमनुष्ठिन्।
ये नाशय पृष्ठतः कृत्वा नैराश्यमबलम्बित्तम।।
अर्थात् पढ़ना, लिखना तथा अनुष्ठान उसी का सफल है जो आशाओं से पिंड छुड़ाकर निराशा का सहारा पकड़ता है।

आशा को आशीविषी भी कहा है। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है कि “यदि निराशावाद से तात्पर्य जो कुछ है और जिसकी सत्ता हमारे सामने है उसके प्रति असंतोष से है तो भले ही इसे केवल इन अर्थों में निराशावादी कहा जाये। इन अर्थों में तो सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र निराशावादी. कहला सकता है।”

प्रश्न 8.
जैन दर्शन के जीव विचार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जैन-दर्शन के अनुसार चेतन द्रव्य को जीव या आत्मा कहते हैं। संसार की दशा से आत्मा जीव कहलाता है। उसमें प्राण और शारीरिक, मानसिक तथा इन्द्रिय शक्ति है। शुद्ध अवस्था में जीव में विशुद्ध ज्ञान और दर्शन अर्थात् सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञान रहता है। किन्तु कर्म के प्रभाव से जीव, औपशमिक, क्षायिकक्षायों, पशमिक औदायिक तथा परिमाणिक इन पाँच भावप्राणों से युक्त रहता है। द्रव्य रूप में परिणत होकर ही भाक्दशापन्न प्राण पुदगल कहलाता है। अतः भाव द्रव्य में और द्रव्य भाव में परिवर्तित होते रहते हैं।

जीव स्वयं प्रकाश है और अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। वह नित्य है। वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। शुद्ध दृष्टि से जीव में ज्ञान तथा दर्शन है। जीव अमूर्त, कर्ता, स्थूल शरीर के समान लम्बा-चौड़ा कर्मफलों का भोक्ता सिद्ध तथा ऊर्ध्वगामी है। अनादि अविद्या के कारण उसमें कर्म प्रवेश करता है और बन्धन में बंध जाता है। बुद्ध जीव, चेतन और नित्य परिणामी है। संकोच और विकास के गुणों के कारण वह जिस शरीर में प्रवेश करता है उसी का रूप धारण कर लेता है। जीव का विस्तार जड़ के विस्तार से भिन्न है। वह शरीर को घेरता नहीं परन्तु उसका प्रत्येक भाग में अनुभव होता है। एक जड़ द्रव्य में दूसरा जड़ द्रव्य प्रविष्ट नहीं हो सकता। परन्तु जड़ में आत्मा और जीव में जीव प्रविष्ट हो सकता है।

प्रश्न 9.
जैन दर्शन के विरल की व्याख्या करें।
उत्तर:
जैन दर्शन में त्रिरत्न सिद्धांत का बड़ा ही महत्व है। इसके अंतर्गत तीन प्रकार के सम्प्रत्ययों को सम्मिलित किया जाता है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र। सम्यक् ज्ञान जैन आगमों का ज्ञान है, सम्यक् दर्शन आगमों (जैनी ग्रंथों) एवं तीर्थकरों में आस्था है और सम्यक चरित्र अनुशासन है, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह शामिल है।

प्रश्न 10.
देकार्त के दर्शन में ईश्वर क्या है?
उत्तर:
देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए दो प्रकार के प्रस्तावों को प्रस्तुत किया हैं-कारर्ण कार्य पर आधारित प्रमाण तथा सत्तामूलक प्रमाण। कारण कार्य प्रमाण के अनुसार मानव कार्य है। उसका कार्य भी होगा। मानव में पूर्ण, नित्य, शाश्वत, ईश्वर की भावना है, अत: मानव के अंदर पूर्ण ईश्वर की भावना को अंकित करने वाला भी पूर्ण, नित्य एवं शाश्वत पूर्ण ईश्वर ही हो सकता है। दूसरी ओर सत्तामूलक प्रमाण में देकार्त का मानना है कि ईश्वर प्रत्यय में ही ईश्वर का अस्तित्व निहित है।

ईश्वर की भावना है कि वह सब प्रकार से पूर्ण हैं। ‘पूर्णता’ से ध्वनित होता है कि उसकी वास्तविकता भी अवश्य होगी। कारण-कार्य प्रमाण के संबंध में वह आपत्ति है कि ईश्वर मानव विचारों और जगत् से परे स्वतंत्र सत्यता है जिसमें कारण-कार्य की कोटि लागू नहीं होती है। इसी तरह सत्तामूलक प्रमाण के संबंध में कहा जाता है कि भावना से वास्तविकता सिद्ध नहीं होती है।

प्रश्न 11.
लोक संग्रह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सुख सुविधा हेतु द्रव्यों का संग्रहण लोक संग्रह कहलाता है।

प्रश्न 12.
चित्रवृत्तियाँ क्या हैं?
उत्तर:
दो वस्तुओं के बीच प्राप्ति का एक आवश्यक संबंध जो व्यापक माना जाता है, चित्तवृत्तियाँ कहलाती हैं।

प्रश्न 13.
विश्वमूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर:
विश्व का निर्माण प्रकृति या सृष्टि ने किया है। प्रकृति जड़ है अकेली है किन्तु सक्षम है विश्व का निर्माण करने के लिए। यह विश्वमूलक प्रमाण है।

प्रश्न 14.
वैशेषिक के अनुसार पदार्थ क्या है?
उत्तर:
वैशेषिक दर्शन में पदार्थ (substance) को एक विशेष अर्थ में लिखा गया है। पदार्थ वह है, जो गुण और कर्म को धारण करता है। गुण और बिना किसी वस्तु या आधार के नहीं रह सकते। इसका आधार ही पदार्थ कहलाता है। गुण और कर्म पदार्थ में रहते हुए भी पदार्थ से भिन्न है। पदार्थ गुण युक्त है किन्तु गुण और कर्म गुणरहित है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ नौ प्रकार के हैं-

  1. आत्मा
  2. अग्नि या तेज
  3. वायु
  4. आकाश
  5. जल
  6. पृथ्वी
  7. दिक्
  8. काल और
  9. मन।

प्रश्न 15.
काण्ट के ज्ञान-विचार को समीक्षावाद क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
जर्मन दार्शनिक काण्ट का ज्ञानशास्त्रीय मत समीक्षावाद कहलाता है, क्योंकि समीक्षा के बाद ही इस सिद्धान्त का जन्म हुआ। काण्ट के समीक्षावाद के अनुसार बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही सिद्धान्तों में आंशिक सत्यता है। जिन बातों को बुद्धिवाद और अनुभववाद स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं, और जिन बातों का खण्डन करते हैं, वे गलत हैं- “They are justified in what they affirm but wrong in what they deny”| अनुभववाद के अनुसार संवेदनाओं के बिना ज्ञान में वास्तविकता नहीं आ सकती है और बुद्धिवाद के अनुसार सहजात प्रत्ययों के बिना ज्ञान में अनिवार्यता तथा असंदिग्धता नहीं आ सकती है। समीक्षावाद इन दोनों सिद्धान्तों के उपर्युक्त पक्षों को स्वीकार करता है।

फिर अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की अनिवार्यता के अनुसार संवेदनाओं को ज्ञान का रचनात्मक अंग नहीं माना जाता है। पर हमें दोनों सिद्धान्तों के इस अभावात्मक (Negative) पक्षों को अस्वीकार करना चाहिए। समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों के भावात्मक अंशों को मिलाकर ग्रहण किया जाता है।

प्रश्न 16.
कारण और हेतु में क्या अन्तर है?
उत्तर:
आगमन में कारण का एक हिस्सा हेतु बताया गया है। जिस तरह से हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर के अंग है और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं, उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और हेतु में तीन तरह के अंतर हैं-
(क) कारण एक है और हेतु कई हैं।
(ख) कारण अंश रूप में रहता है और हेतु सम्पूर्ण रूप में आता है।
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं।
इस तरह कारण और हेतु में अंतर है।

प्रश्न 17.
लोकप्रिय वस्तुवाद की परिभाषा दें।
उत्तर:
प्रिय वस्तु सभी को प्रिय लगती है। भारतीय आचार दर्शन के क्षेत्र में वे भौतिक साधन जिसके आधार पर हम जीवन यापन करते हैं। इनका असीम रूप से अर्जन लोकप्रिय वस्तुवाद कहलाता है।

प्रश्न 18.
पीनीयल ग्रंथि किसे कहते हैं?
उत्तर:
हाइपोथेलेमस स्थित ग्रंथि की पीनीयल ग्रंथि कहा जाता है। इससे बुद्धि हार्मोन स्रावित होता है।

प्रश्न 19.
नैतिक संप्रत्यय के रूप में शुभ की व्याख्या करें।
उत्तर:
शुभ से तात्पर्य मनुष्य के उन लक्ष्यों से है जिसके द्वारा वह अपना जीवन निर्विघ्नता से जी सके। वह जो भी कार्य करे शुभ हो। शुभ समाप्त हो। शुभ शुरूआत हो आदि। इस शुभ की इच्छा ही नैतिक संप्रत्यय के रूप में शुभ बन जाती है।

प्रश्न 20.
व्यावहारिक दर्शन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
व्यावहारिक दर्शन का अर्थ है ज्ञान, प्रेम या अनुराग। वह दर्शन जिसमें व्यावहारिक रूप से पदार्थ सम्पूर्णता में हमारे पास हो।

प्रश्न 21.
यम क्या है?
उत्तर:
यम योग का प्रथम अंग है। बाह्य अभ्यांतर इंद्रिय के संयम की क्रिया को यम कहा जाता है। यम पाँच प्रकार के होते हैं-

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. आस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य
  5. अपरिग्रह।

प्रश्न 22.
अनासक्त कर्म पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गीता का कर्मयोग हमें त्याग की शिक्षा नहीं देता बल्कि फल त्याग की शिक्षा देती है गीता का यह उपदेश व्यवहारिक दृष्टिकोण से भी सही है यदि हम किसी फल की इच्छा से कर्म करना प्रारम्भ करते हैं तो फल की चाह इतनी अधिक हो जाती है कि कर्म में भी हम सही से काम नहीं कर पाते हैं किन्तु कर्म फल त्याग की भावना से अगर हम कर्म करते हैं तो उससे उसका फल और अधिक निश्चित हो जाता है।

प्रश्न 23.
स्याद्वाद का अर्थ बतावें।
उत्तर:
स्याद्वाद जैन दर्शन के प्रमाण शास्त्र से जुड़ा हुआ है। जैन मत के अनुसार प्रत्येक वस्तु के अन्नत गुण होते हैं मानव वस्तु के एक ही गुण का ध्यान एक समय पा सकता है वस्तुओं के अन्नत गुणों का ज्ञान मुक्त व्यक्ति द्वारा सम्भव है समान मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आशिक होता है। वस्तु के आशिक ज्ञान को (नय) किसी वस्तु के समझने के विविध दृष्टिकोण है इनसे सापेक्ष सत्य की प्राप्ति होती है न कि निरपेक्ष सत्य की।

प्रश्न 24.
न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या कितनी है?
उत्तर:
न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या चार है जो निम्नलिखित है

  1. प्रत्यक्ष (Perception),
  2. अनुमाप (Inference),
  3. उपमाण (Comtarison),
  4. शब्द (Verbal Authority)।

प्रश्न 25.
प्रकृति के तीन गुणों के नाम बतावें।
उत्तर:
प्रकृति के तीन गुणों के नाम निम्नलिखित हैं-

  1. सत्त्व
  2. रजस्
  3. तमस्।

प्रश्न 26.
पदार्थ की परिभाषा दें।
उत्तर:
पदार्थ शब्द “पद” और “अर्थ” शब्दों के मेल से बना है पदार्थों का मतलब है जिसका नामकरण हो सके जिस पद का कुछ अर्थ होता है उसे पदार्थ की संज्ञा दी जाती है पदार्थ के अधीन वैशेशिक दर्शन में विश्व की वास्तविक वस्तुओं की चर्चा हुई है।

प्रश्न 27.
क्या जगत् पूर्णतः असत्य है? व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर ने जगत को पुर्णतः सत्य नहीं माना है शंकर की दृष्टि में ब्राह्म ही एक मात्र सत्य है शेष सभी वस्तुएँ ईश्वर, जीव, जगत प्रपंच है शंकर ने जगत को रस्सी में दिखाई देने वाले ताप को तरह माना है।

प्रश्न 28.
माया के दो कार्यों को बतावें।
उत्तर:
माया के दो कार्य है-आरोण और विछेपण जैसे माया रस्सी के असली रूप को ढक देती है आरोण हुआ फिर उसका दूसरा रूप विछेपण सांप के रूप दिखाती है ठीक उसी प्रकार माया ब्राह्म के वास्तविक स्वरूप पर आग्रण डाल देती है और उसका विश्लेषण जगत के रूप में प्रस्तुत करती है।

प्रश्न 29.
बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर:
बुद्धिवाद के अनुसार वास्तविक ज्ञान का स्रोत तर्क चिंतन है ज्ञान का विषय संसार के अस्थाई और परिवर्तनशील तथ नहीं है यर्थात ज्ञान का उत्पत्ति बुद्धि से होती है और बुद्धि के अलावा इसका अन्य कोई साधन नहीं है।

प्रश्न 30.
काण्ट के आलोचनात्मक दर्शन को रेखांकित करें।
उत्तर:
काण्ट क आलोचनात्मक दर्शन में ज्ञानशक्तियों का समीक्षा प्रस्तुत की गई है साथ ही 17वीं और 18वीं शताब्दी के इन्द्रीयवाद एवं बुद्धिवाद की समिक्षा हैं विचार सामग्री के अरजन में इन्द्रीयों की माध्यमिकता को स्वीकृती में काण्ट इन्द्रीवासियों से सहमत था।

प्रश्न 31.
अरस्तू के उपादान कारण की चर्चा करें।
उत्तर:
अरस्तु के अनुसार किसी वस्तु के बनाने में द्रव्य की आवश्यकता होती है बिना द्रव्य के वह चीज नहीं बन सकती है अतः द्रव्य किसी वस्तु के बनाने में कारण होता है जैसे टेबूल के बनाने में जिस वस्तु की सहायता ली जाती है वह उपादान कारण है।

प्रश्न 32.
क्या ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है?
उत्तर:
ईश्वर ब्राह्म का सर्वोच्च आभास है ईश्वर का व्यक्तित्वपूर्ण है। वे सर्वपूर्ण सम्पन्न है उनका स्वरूप सच्चीदानन्द है सत् चित् और आनन्द तीन गुण नहीं है अपीतू एक और ईश्वर स्वरूप है ईश्वर माया पति है माया के स्वामी है। वे सृष्टि के कर्ता हर्ता है। इसलिए ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण नहीं है।

Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 3

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Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 3

प्रश्न 1.
एक चक्र में प्रत्यावतां धारा का माध्य मान होता है-
(a) शून्य
(b) 2I
(c) \(\frac{I}{2}\)
(d) I
उत्तर:
(a) शून्य

प्रश्न 2.
प्रत्यावर्ती धारा का शिखर मान I0 हो तो वर्ग माध्य मूल का माना होगा-
(a) \(\frac{I_{0}}{2} \)
(b) I0
(c) \(\frac{I_{0}}{\sqrt{2}}\)
(d) \(\sqrt{2} I_{0}\)
उत्तर:
(c) \(\frac{I_{0}}{\sqrt{2}}\)

प्रश्न 3.
प्रतिघात का मात्रक है-
(a) ओम
(b) म्हो
(c) फैराड
(d) ऐम्पियर
उत्तर:
(a) ओम

प्रश्न 4.
यदि विद्युत आपूर्ति की आवृत्ति 50 Hz हो तो धारा का मान शून्य होने की आवृत्ति होगी-
(a) 25 Hz
(b) 50 Hz
(c) 100 Hz
(d) 200 Hz
उत्तर:
(c) 100 Hz

प्रश्न 5.
L-C-R परिपथ में विद्युत अनुनाद होने के लिए आवश्यक है-
(a) WL = \(\frac{1}{W C}\)
(b) WL = WC
(c) W=WC
(d) None.
उत्तर:
(a) WL = \(\frac{1}{W C}\)

प्रश्न 6.
चुम्बकीय फ्लक्स का मात्रक है-
(a) ओम
(b) वेबर
(c) टेसला
(d) ऐम्पियर
उत्तर:
(c) टेसला

प्रश्न 7.
तारे के टिमटिमाने का कारण होता है-
(a) परावर्तन
(b) विवर्तना
(c) आवर्तन
(d) ऊर्जा का उत्सर्जन
उत्तर:
(c) आवर्तन

प्रश्न 8.
चित्र में धारा प्रवाहित होता हुआ एक लुप x – y तल में रखा गया है। z-अक्ष के दिशा में चुम्बकीय क्षेत्र जब आरोपित किया जाता है तो लुप-
Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 3 1
(a) +x अक्ष की दिशा चलता।
(b) x-अक्ष की दिशा चलता
(c) लुप संकुचित होता है
(d) लुप फैल जाता है
उत्तर:
(d) लुप फैल जाता है

प्रश्न 9.
एक उत्तल लेन्स को पानी में डुबाया जाता है। इसकी क्षमता-
(a) बढ़ेगी
(b) घटेगी
(c) अपरिवर्तित होगी
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) विवर्तन

प्रश्न 10.
एक वर्ण प्रकाश की किरण जब एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाती है तब निम्नलिखित में से कौन नहीं बदलता है?
(a) तरंगदैर्घ्य
(b) आवृत्ति
(c) वेग
(d) आयाम
उत्तर:
(b) आवृत्ति

प्रश्न 11.
एक माध्यम से दूसरे माध्यम में जाने से प्रकाश की किरण मुड़ जाती है। इस घटना को कहते हैं :
(a) विवर्तन
(b) वर्ण-विक्षेपण
(c) आवर्तक
(d) परावर्तन
उत्तर:
(c) आवर्तक

प्रश्न 12.
अवरोधक (obstacle) के किनारे से प्रकाश-तरंगों के मुड़ने की घटना को कहते हैं :
(a) विवर्तन
(b) वर्ण विक्षेपण
(c) आवर्तन
(d) परावर्तन
उत्तर:
(a) विवर्तन

प्रश्न 13.
किस कारण से हवा का एक बुलबुला पानी के अन्दर चमकता नजर आता है?
(a) अपवर्तन से
(b) परावर्तन से
(c) विवर्तन से
(d) पूर्ण आन्तरिक परावर्तन से
उत्तर:
(d) पूर्ण आन्तरिक परावर्तन से

प्रश्न 14.
पानी में डुबाने पर एक लेन्स का फोकस लम्बाई (F) हो जायेगा :
(a) F
(b) 2F
(c) \(\frac{1}{F^{2}}\)
(d) 4F
उत्तर:
(d) 4F

प्रश्न 15.
एम्पीयर का परिपथीय नियम किसके अनुरूप हैं-
(a) गैस प्रमेय के
(b) विद्युत स्थैतिकी के कुलम्ब नियम के
(c) गुरुत्वाकर्षण नियम के
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(a) गैस प्रमेय के

प्रश्न 16.
चम्बकीय ध्रुव पर एक लेन्स का फोकस लम्बाई (F) हो जायेगा
(a) F
(b) N/Am
(c) Am
(d) T
उत्तर:
(c) Am

प्रश्न 17.
एक लेन्स का फोकस लम्बाई f मीटर है। इसकी क्षमता होगी :
(a) fडायोप्टर
(b) \(\frac{1}{f}\) डायोप्टर
(c) f2 डायोप्टर
(d) \(\frac{1}{f^{2}}\) डायोप्टर
उत्तर:
(b) \(\frac{1}{f}\) डायोप्टर

प्रश्न 18.
20 cm तथा -40 cm फोकस लम्बाई के दो लेन्स सम्पर्क में हैं। इसके संयोजन की क्षमता होगी:
(a) 5D
(b) 25 D
(c) -25D
(d) -5D
उत्तर:
(b) 25 D

प्रश्न 19.
वस्तु से बड़ा आभासी प्रतिबिम्ब बनता है :
(a) उत्तल दर्पण से.
(b) अवतल दर्पण से
(c) समतल दर्पण से
(d) अवतल लेन्स से
उत्तर:
(b) अवतल दर्पण से

प्रश्न 20.
एक सरल सूक्ष्मदर्शी से बना हुआ प्रतिबिम्ब होता है :
(a) काल्पनिक और सीधा
(b) काल्पनिक और उल्टा
(c) वास्तविक और सीधा
(d) वास्तविक और उल्टा
उत्तर:
(a) काल्पनिक और सीधा

प्रश्न 21.
ग्लास (μg = 1.5) में प्रकाश की चाल 2 × 108 m/s है। किसी द्रव में प्रकाश की चाल 2.6 × 108 m/s पाया जाता है तो इस द्रव का अपवर्तनांक (μ1) होगा?
(a) 1.5
(b) 1.2
(c) 1
(d) 2.1
उत्तर:
(b) 1.2

प्रश्न 22.
एक सूक्ष्मदर्शी की नली की लम्बाई बढ़ायी जाती है। इससे इसकी आवर्द्धन क्षमता:
(a) बढ़ती है
(b) घटती है
(c) शून्य रहती है
(d) अपरिवर्तित रहती है
उत्तर:
(a) बढ़ती है

प्रश्न 23.
खगोलीय दूरबीन (Astronomical telescope) के वस्तु लेन्स के लिए होना आवश्यक है:
(a) उच्च शक्ति
(b) बड़ी फोकस लम्बाई
(c) उच्च अपवर्तनांक
(d) कम अपवर्तनांक
उत्तर:
(b) बड़ी फोकस लम्बाई

प्रश्न 24.
खगोलीय दूरबीन (Astronomical telescope) में अन्तिम प्रतिबिम्ब होता है :
(a) वास्तविक और सीधा
(b) वास्तविक और उल्टा
(c) काल्पनिक और उल्टा
(d) काल्पनिक और सीधा
उत्तर:
(c) काल्पनिक और उल्टा

प्रश्न 25.
निकट दृष्टि के दोष रहने पर आँख से देखा जा सकता है :
(a) अनन्त पर की वस्तु
(b) दूर की वस्तु
(c) निकट की वस्तु
(d) सभी दूर पर की वस्तु
उत्तर:
(c) निकट की वस्तु

प्रश्न 26.
दीर्घ दृष्टि वाले दोष को दूर करने के लिए आदमी को उपयोग करना पड़ता है :
(a) एक अवतल लेन्स
(b) बेलनाकार लेन्स
(c) एक समतल अवतल लेन्स
(d) उत्तल लेंस
उत्तर:
(d) उत्तल लेंस

प्रश्न 27.
जरा दृष्टि दोष (Old sight defect) को दूर करने के लिए चाहिए :
(a) उत्तल लेन्स
(b) अवतल लेन्स
(c) बेलनाकार लेन्स
(d) Bifocal लेन्स
उत्तर:
(d) Bifocal लेन्स

प्रश्न 28.
यौगिक सुक्ष्मदर्शी के वास्तविक द्वारा बनाया गया प्रति होता है-
(a) आभासी और छोटा
(b) वास्तविक और छोटा
(c) वास्तविक और बड़ा
(d) आभासी और बड़ा
उत्तर:
(c) वास्तविक और बड़ा

प्रश्न 29.
अविन्दुकता (Astigametism) को दूर करने के लिए चाहिए :
(a) उत्तल लेन्स
(b) अवतल लेन्स
(c) बेलनाकार लेन्स
(d) Bifocal लेन्स
उत्तर:
(c) बेलनाकार लेन्स

प्रश्न 30.
Cornea के सतहों की वक्रता त्रिज्या असमान रहने पर उत्पन्न दोष को कहते हैं:
(a) निकट दृष्टि
(b) दूर दृष्टि
(c) जरा दृष्टि
(d) अबिन्दुकता
उत्तर:
(d) अबिन्दुकता

प्रश्न 31.
आँख के रेटिना पर वस्तु का बना हुआ प्रतिविम्ब होता है :
(a) काल्पनिक और सीधा
(b) काल्पनिक और उल्टा
(c) वास्तविक और उल्टा
(d) वास्तविक तथा सीधा
उत्तर:
(c) वास्तविक और उल्टा

प्रश्न 32.
जब एक श्वेत प्रकाश की किरण प्रिज्म से गुजरता है तब प्रकाश का न्यूनतम विचलन होता है :
(a) लाल में
(b) बैंगनी में
(c) पीला में
(d) हरा में
उत्तर:
(a) लाल में

प्रश्न 33.
किस रंग का तरंगदैर्ध्य सबसे अधिक होता है?
(a) लाल
(b) पीला
(c) बैंगनी
(d) हरा
उत्तर:
(a) लाल

प्रश्न 34.
तारे का वर्णपट होता है :
(a) लगातार
(b) रेखा
(c) काली रेखा वर्णपट
(d) पट्टीदार वर्णपट
उत्तर:
(c) काली रेखा वर्णपट

प्रश्न 35.
आकाश का रंग नीला (Blue) जिस घटना के कारण है वह है-
(a) परावर्तन
(b) अपवर्तन
(c) प्रकिरण
(d) विवर्तन
उत्तर:
(c) प्रकिरण

प्रश्न 36.
रेखा वर्णपट प्राप्त होता है.
(a) Atomic अवस्था में
(b) molecular अवस्था में
(c) गैसीय अवस्था में
(d) तरल अवस्था में
उत्तर:
(a) Atomic अवस्था में

प्रश्न 37.
पतले प्रिज्म द्वारा न्यूनतम विचलन होता है :
(a) (μ – 1)A2
(b) (μ – 1)A
(c) (μ + 1)A
(d) (1 – μ)A
उत्तर:
(b) (μ – 1)A

प्रश्न 38.
सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय क्षितिज लाल होने का कारण है :
(a) प्रकाश का ध्रुवण
(b) सूर्य का रंग
(c) प्रकाश का प्रकीर्णक
(d) आकाश का रंग
उत्तर:
(c) प्रकाश का प्रकीर्णक

प्रश्न 39.
प्राथमिक इन्द्रधनुष उत्पन्न होता है :
(a) एक परावर्तन से
(b) एक पूर्ण आन्तरिक परावर्तन से
(c) एक वर्ण विक्षेपण से
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) एक पूर्ण आन्तरिक परावर्तन से

प्रश्न 40.
प्रकाश के तरंग दैर्ध्य में वृद्धि के साथ, प्रकाशित माध्यम का अपवर्तनांक
(a) बढ़ता है
(b) घटता है
(c) अपरिवर्तित रहता है
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(b) घटता है

प्रश्न 41.
निर्वात में वि०चु० तरंग की चाल होता है-
(a) μ00
(b) \(\sqrt{\mu_{0} \in_{0}}\)
(c) \(\frac{1}{\sqrt{\epsilon_{0} \mu_{0}}}\)
(d) \(\frac{1}{\sqrt{\mu_{0} \epsilon_{0}}}\)
उत्तर:
(d) \(\frac{1}{\sqrt{\mu_{0} \epsilon_{0}}}\)

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4 in Hindi

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Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4 in Hindi

प्रश्न 1.
विनिमय दर से आप क्या समझते हैं ? विनिमय को निर्धारित करनेवाले मुख्य कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एक मुद्रा का दूसरी मुद्रा में मूल्य विनिमय दर कहलाती है। दूसरे शब्दों में दूसरी मुद्रा के रूप में एक मुद्रा की कीमत को विनिमय दर कहते हैं। वास्तव में विदेशी मुद्रा की एक इकाई मुद्रा का क्रय करने के लिए घरेलू मुद्रा की जितनी इकाइयों की जरूरत पड़ती है उसे विनिमय दर कहते हैं।

विनिमय दर का निर्धारण- जहाँ विदेशी मुद्रा की माँग को पूर्ति समान हो जाती है, विनिमय दर वहाँ निर्धारित होती है। विदेशी मुद्रा की माँग व पूर्ति का साम्य बिन्दु वह होता है जब मुद्रा का माँग वक्र तथा पूर्ति एक-दूसरे को काटते हैं। साम्य बिन्दु पर विनिमय दर को साम्य विनिमय दर तथा माँग व पूर्ति की मात्रा को साम्य मात्रा कहते हैं।

विनिमय दर को निर्धारित करने वाले कारक-
1. स्थिर विनिमय दर- इस विनिमय दर से अभिप्राय सरकार द्वारा निर्धारित स्थिर विनिमय दर से है। स्थिर विनिमय दर की उप-पद्धतियाँ इस प्रकार है-

(a) विनिमय दर की स्वर्णमान पद्धति- 1920 में पूरे विश्व में इस पद्धति को व्यापक स्तर पर प्रयोग किया गया। इस व्यवस्था में प्रत्येक भागीदार देश को अपनी मुद्रा की कीमत सोने के रूप में घोषित करनी पड़ती थी। मुद्राओं का विनिमय स्वर्ण के रूप में तय की गयी कीमत सोने की स्थिर कीमत पर होता है।

(b) बेनवड पद्धति- विनिमय दर की इस प्रणाली में भी विनिमय दर स्थिर रहती है। इस प्रणाली में सरकार अथवा मौद्रिक अधिकारी तय की गयी विनिमय दर में एक निश्चित सीमा तक परिवर्तन की अनुमति प्रदान कर सकते हैं। सभी वस्तुओं का मूल्य इस प्रणाली में अमेरिकन डॉलर में घोषित करना पड़ता था। अमेरिकन डॉलर की सोने में कीमत घोषित की जाती थी लेकिन दो देश मुद्राओं का समता मूल्य अंत में केवल स्वर्ण पर ही निर्भर होता था। प्रत्येक देश की मुद्रा के. समता मूल्य में समायोजन विश्व मुद्रा कोष का विषय था।

2. लोचशील विनिमय दर- यह वह विनिमय दर होती है जिसका निर्धारण अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विदेशी मुद्रा की माँग व पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। जिस विनिमय दर पर विदेशी मुद्रा की माँग व पूर्ति समान हो जाती है वही दर साम्य विनिमय दर कहलाती है। आजकल समूचे विश्व में विभिन्न देशों के मध्य आर्थिक लेन-देन का निपटारा लोचशील विनिमय दर के आधार पर होता है।

प्रश्न 2.
एकाधिकार क्या है ? इसकी प्रमुख विशेषताओं में से किसी एक का वर्णन करें।
उत्तर:
एकाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु का एक ही उत्पादक अथवा एक ही विक्रेता होता है तथा उसकी वस्तु का कोई निकट का स्थानापन्न नहीं होती है।

एकाधिकार बाजार की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएँ होती हैं-

  • अकेला उत्पादक
  • स्वतंत्र कीमत नीति
  • प्रवेश पर प्रतिबंध
  • निकट की स्थापन्न वस्तु का नहीं होता
  • कीमत विभेद संभव हैं कीमत विभेद का अर्थ है उत्पादक द्वारा अपनी वस्तु को अलग-अलग व्यक्तियों को अथवा अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग कीमतों पर बेच सकता है। यह कीमत विभेद तभी संभव है जब दो बाजारों के बीच पर्याप्त दूरी हो ताकि एक बाजार के क्रेता दूसरे बाजार में नहीं पहुँच सकें।

प्रश्न 3.
राजस्व घाटा किसे कहते हैं ? इसे कम करने के दो उपाय बतायें।
उत्तर:
राजस्व घाटा सरकार के राजस्व व्यय की राजस्व प्राप्तियाँ पर अधिकता को दर्शाता है। राजस्व घटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ राजस्व घाटा यह बताता है कि सरकार अबचत कर रही है। अर्थात् सरकार की परिसंपत्तियों में कमी हो जाती है। इसे कम करने के दो उपाय निम्नांकित हैं-

  • करों की दरों में वृद्धि करके सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है जिससे प्राप्तियों तथा व्यय का अंतर कम किया जा सकता है।
  • करों के आधार को विस्तृत करके भी सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है तथा प्राप्तियों एवं व्यय के अंतर को कम करने का प्रयास करती है।
  • सार्वजनिक व्यय में कटौती करके।

प्रश्न 4.
अत्यधिक मांग क्या है ? इसे किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है ?
उत्तर:
जब एक बार पूर्ण रोजगार स्तर निर्धारित हो जाता है तो माँग में वृद्धि का उत्पाद तथा रोजगार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। माँग में वृद्धि से उत्पाद तथा रोजगार में वृद्धि हुए बिना केवल मौद्रिक व्यय में वृद्धि होती है। ऐसी अवस्था को अतिरेक माँग अथवा अत्याधिक मांग की अवस्था कहते हैं। अतिरेक माँग कुल माँग का वह स्तर है जो पूर्ण रोजगार के लिए आवश्यक कुल पूर्ति के स्तर से अधिक है। यदि आय. का संतुलन स्तर पूर्ण रोजगार बिन्दु के बाद निर्धारित होता है तो यह अत्यधिक माँग की स्थिति है। यह स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब पूर्ण रोजगार के स्तर पर सामूहिक मांग, सामूहिक पूर्ति से अधिक होती है।

ऐसी स्थिति में सामूहिक माँग उस स्तर से अधिक होगी जितनी की पूर्ण रोजगार के स्तर के उत्पादन के लिए आवश्यक है। दूसरे शब्दों में माँग का स्तर, अधिक है और उसके लिए साधनों के पूर्ण प्रयोग द्वारा संभव उत्पादन पर्याप्त नहीं है। पूर्ण रोजगार के स्तर पर सामूहिक माँग जितनी अधिक है, सामूहिक पूर्ति से यह अत्याधिक माँग का विस्तार (Extent) है। अत्यधिक माँग का विस्तार स्फीतिक अंतराल (Inflationary gap) भी कहलाता है। पूर्ण रोजगार के स्तर के बाद सामूहिक माँग में वृद्धि से उत्पादन और रोजगार नहीं बढ़ते, फलतः कीमतें बढ़ती हैं। अतः इस स्थिति में मौद्रिक आय बढ़ती है, वास्तविक आय नहीं बढ़ती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 1
उपरोक्त चित्र में AS कुल पूर्ति वक्र तथा AD कुल माँग वक्र है। प्रारम्भिक स्थिति में माना संतुलन पूर्ण रोजगार आय के स्तर अर्थात् OZ पर होता है। माना अर्थव्यवस्था की कुल माँग AD से बढ़कर AD1 हो जाता है और नया संतुलन बिन्दु G के स्थान पर E हो जाता है। अर्थव्यवस्था में OZ आय स्तर पर पूर्ण रोजगार की स्थिति विद्यमान है। अतः अब रोजगार का स्तर नहीं बढ़ सकता। मौद्रिक आय बढ़ने से कीमत स्तर में वृद्धि हो जाती है। FG अर्थव्यवस्था में अत्यधिक माँग का स्तर है। इसे हम स्फीतिक अंतराल भी कहते हैं।

सरकार तीन प्रकार की नीतियों द्वारा अतिरिक्त माँग पर नियंत्रण रख पाने में सफल हो सकती है-
1.मौद्रिक नीति (Monetary Policy)- मौद्रिक नीति में केन्द्रीय बैंक द्वारा संपन्न किए जाने वाले कार्य आते हैं जिनके माध्यम से मौद्रिक अधिक मुद्रा तथा साख नियंत्रण रखने में सफल होता है।

(a) बैंक मदा पर नियंत्रण- केन्द्रीय बैंक व्यापारिक बैंकों द्वारा किए जाने वाले साख निर्माण पर नियंत्रण रखने के लिए अपनी बैंक दर नीति (bank rate policy), खुली बाजार प्रक्रियाएँ (Open market operations), साख की राशनिंग (Rationing of credit), न्यूनतम नकद कोष में परिवर्तन (Variation in reserve requirements) आदि रीतियों का प्रयोग कर सकता है। जब मुद्रा अधिकारी केवल कुछ बैंकों अथवा विशेष प्रकार के लेन-देन पर ही नियंत्रण लगाना पर्याप्त समझता है तो साख नियंत्रण की गुणात्मक रीतियाँ (Qualitative methods of credit control) का प्रयोग किया जाता है।

अतिरेक माँग को अर्थात् उपभोग को हतोत्साहित कर बचत प्रोत्साहित करनी चाहिए। बचत को प्रोत्साहन देने के लिए ब्याज की दर में वृद्धि करनी चाहिये। इससे आवश्यक निवेश स्वयं ही हतोत्साहित हो जाता है।

2. राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)- इस श्रेणी में सरकार के वे सभी वित्त संबंधी कार्य आते हैं जो प्रचलन में मुद्रा की मात्रा कम करने में सहायक होते हैं। मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण लगाने के लिए करों में वृद्धि करनी चाहिये जिससे उपभोग व्यय में कमी हो। सरकारी व्यय में कमी करनी चाहिए। इससे सरकार को घाटे के स्थान पर बेशी (Surplus) का बजट होना चाहिए। सरकार को अधिकाधिक मात्रा में जनता से ऋण लेकर उन्हें उत्पादक कार्यों पर व्यय करना चाहिए। सरकार को अपनी राजकोषीय नीति के द्वारा उपभोग को हतोत्साहित और बचत को प्रोत्साहित करना चाहिये।

3. अन्य उपाय (Other Measures)- मुद्रा स्फीति को रोकने के अन्य उपायों में विशेष रूप से दो अधिक महत्वपूर्ण हैं-प्रथम उत्पादन में वृद्धि तथा द्वितीय व्यापार कीमतों पर नियंत्रण रखना।

  • उत्पादन बढ़ाने की दिशा में सरकार को हर संभव प्रयास करना चाहिये।
  • घरेलू संसाधनों की माँग का सही अनुमान लगाने के लिए कुल माँग में से आयात माँग को घटाना पड़ता है।
  • अतिरेक माँग को कम करने का एक अन्य प्रत्यक्ष उपाय यह है कि मजदूरी की दरों पर नियंत्रण रखा जाए।

प्रश्न 5.
किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारकों को समझाइये।
उत्तर:
किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारक (Factors determining the demand for a commodity)- किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-

(i) वस्तु की कीमत (Price of a commodity)- सामान्यतः किसी वस्तु की माँग की मात्रा उस वस्तु की कीमत पर आश्रित होती है। अन्य बातें पूर्ववत् रहने पर कीमत कम होने पर वस्तु की मांग बढ़ती है और कीमत के बढ़ने पर माँग घटती है। किसी वस्तु की कीमत और उसकी माँग में विपरीत सम्बन्ध होता है।

(ii) संबंधित वस्तुओं की कीमतें (Prices of related goods)- संबंधित वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं-
पूरक वस्तुएँ तथा स्थानापन्न वस्तुएँ- पूरक वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो किसी आवश्यकता को संयुक्त रूप से पूरा करती हैं और स्थानापन्न वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग की जा सकती हैं। पूरक वस्तुओं में यदि एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो उसकी पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि स्थानापन्न वस्तुओं में किसी एक की कीमत कम हो जाती है तो दूसरी वस्तु की माँग भी कम हो जाती है।

(iii) उपभोक्ता की आय (Income of Consumer)- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर सामान्यतया उसके द्वारा वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है।

आय में वृद्धि के साथ अनिवार्य वस्तुओं की माँग एक सीमा तक बढ़ती है तथा उसके बाद स्थिर हो जाती है। कुछ परिस्थितियों में आय में वृद्धि का वस्तु की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसा खाने-पीने की सस्ती वस्तुओं में होता है। जैसे नमक आदि।

विलासितापूर्ण वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ लगातार बढ़ती रहती है।
घटिया (निम्नस्तरीय) वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि साथ-साथ कम हो जाती है लेकिन सामान्य वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ बढ़ती है और आय में कमी से कम हो जाती है।

(iv) उपभोक्ता की रुचि तथा फैशन (Interest of Consumer and Fashion)- परिवार या उपभोक्ता की रुचि भी किसी वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार या स्कूटर की माँग बढ़ सकती है।

(v) विज्ञापन तथ प्रदर्शनकारी प्रभाव (Advertisement and Demonstration Effect)- विज्ञापन भी उपभोक्ता को किसी विशेष वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार या स्कूटर की माँग बढ़ सकती है।

(vi) जनसंख्या की मात्रा और बनावट (Quantity and Composition of population) अधिक जनसंख्या का अर्थ है परिवारों की अधिक संख्या और वस्तुओं की अधिक माँग। इसी प्रकार जनसंख्या की बनावट से भी विभिन्न वस्तुओं की माँग निर्धारित होती है।

(vii) आय का वितरण (Distribution of Income)- जिन अर्थव्यवस्था में आय का वितरण सामान है वहाँ वस्तुओं की माँग अधिक होगी तथा इसके विपरीत जिन अर्थव्यवस्था में आय का वितरण असमान है, वहाँ वस्तुओं की माँग कम होगी।

(viii) जलवायु तथा रीति-रिवाज (Climate and Customs)- मौसम, त्योहार तथा विभिन्न परंपराएँ भी वस्तु की माँग को प्रभावित करती हैं। जैसे-गर्मी के मौसम में कूलर, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक आदि की माँग बढ़ जाती है।

प्रश्न 6.
माँग की लोच को निर्धारित करने वाले कारक समझाएँ।
उत्तर:
माँग की लोच को निर्धारित करने वाले कारक (Factors determining the elasticity of demand)- माँग की लोच को निर्धारित करने वाले तत्त्व निम्नलिखित हैं-
(i) प्रतिस्थापन वस्तुओं की उपलब्धता (Availability of substitute goods)- यदि किसी वस्तु की बहुत सी प्रतिस्थापन वस्तुएँ बाजार में उपलब्ध हैं तो उसकी माँग लोचदार होगी। इसके विपरीत उत्तम प्रतिस्थापन वस्तुओं के अभाव में माँग बेलोचदार होगी। जैसे-नमक की माँग इसलिए अधिक बेलोचदार है, क्योंकि उसकी अच्छी प्रतिस्थापन्न वस्तु नहीं है।

(ii) वस्तु की प्रकृति (Nature of goods)- अनिवार्य वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है जबकि विलासितापूर्ण या आरामदायक वस्तुओं की माँग लोचदार होती है।

(iii) वस्तु के विविध उपयोग (Different Uses of Goods)- यदि किसी वस्तु का प्रयोग एक से अधिक कार्यों में किया जाता है तो उसकी माँग लोचदार होगी क्योंकि कीमत बढ़ने पर उपभोक्ता उस वस्तु का प्रयोग केवल आवश्यकता पड़ने पर ही करेगा। जैसे-बिजली, ऐलुमिनियम।

(iv) उपभोग का स्थगन (Postponement of the use)- जिन वस्तुओं के उपभोग को भविष्य के लिए स्थगित किया जा सकता है, उनकी माँग बेलोचदार (inelastic) होती है, इसके विपरीत जिन वस्तुओं की माँग को भविष्य के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता, उनकी माँग बेलोचदार होती है।

(v) उपभोक्ता की आय (Income of the Consumer)- जिन लोगों की आय बहुत अधिक या कम होती है उनके द्वारा माँगी जाने वाली वस्तुओं की माँग साधारणतया बेलोचदार होती है। इसके विपरीत, मध्यम वर्ग के लोगों द्वारा खरीदी जाने वाली वस्तुओं की माँग लोचदार होती है।

(vi) उपभोक्ता की आदत (Habit of the Consumer)- लोगों को जिन वस्तुओं की आदत पड़ जाती है जैसे-पान, सिगरेट, चाय आदि इनकी माँग बेलोचदार होती है। इन वस्तुओं की कीमत बढ़ने पर भी एक उपभोक्ता इसकी माँग को कम नहीं कर पाता।

(vii) किसी वस्तु पर खर्च की जाने वाली आय का अनुपात (Proportion of incomes spent on the purchase of commodity)- एक उपभोक्ता जिन वस्तुओं पर अपनी आय का बहुत थोड़ा भाग खर्च करता है जैसे-अखबार, टूथपेस्ट, सुइयाँ आदि इनकी माँग बेलोचदार (inelastic) होती है इसके विपरीत एक उपभोक्ता जिन वस्तुओं पर अपनी आय का अधिक भाग व्यय करता है, उसकी माँग लोचदार (elastic) होती है।

प्रश्न 7.
माँग की लोच का महत्त्व लिखें।
उत्तर:
माँग की लोच का महत्त्व (Importance of elasticity of demand)- माँग की लोच का महत्व निम्नलिखित कारणों में है-
(i) एकाधिकारी के लिए उपयोगी (Useful for monopolist)- अपने उत्पादन के मूल्य निर्धारण में एकाधिकारी माँग की लोच का ध्यान रखता है। एकाधिकारी का मख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है। वह उस वस्तु का मूल्य उस वर्ग के लिए कम रखेगा जिसकी माँग अधिक लोचदार है और उस वर्ग के लिए अधिक रखेगा जिस वर्ग के लिए वस्तु की माँग बेलोचदार है।

(ii) वित्त मंत्री के लिए उपयोगी- माँग की लोच वित्त मंत्री के लिए भी उपयोगी है। वित्त मंत्री कर लगाते समय माँग की लोच को ध्यान में रखेगा। जिस वस्तु की माँग अधिक लोचदार होती है उस पर कम दर से कम कर लगाकर अधिक धनराशि प्राप्त करता है। इसके विपरीत वह उन वस्तुओं पर अधिक कर लगाएगा जिन वस्तुओं की माँग की लोच कम है।”

(iii) साधन कीमत के निर्धारण में सहायक (Helpful in determining the price of factors)- उत्पादक प्रक्रिया में साधनों को मिलने वाले प्रतिफल की स्थिति इसके द्वारा स्पष्ट होती है वे साधन जिनकी माँग बेलोचदार होती है, लोचदार माँग वाले साधनों की तुलना में अधिक कीमत प्राप्त करते हैं।

(iv) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उपयोगी (Useful in international trade)- माँग की लोच की जानकारी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बहुत ही सहायक है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में निर्यात की जाने .वाली जिन वस्तुओं की माँग विदेशों में बेलोचदार है उनकी कीमत अधिक रखी जाएगी और जिन वस्तुओं की माँग विदेशों में बेलोचदार है उनकी कीमत अधिक रखी जाएगी।

(v) निर्धनता का विरोधाभास (Paradox of Poverty)- कई वस्तुओं की फसल बहुत अच्छी होने पर भी उनसे प्राप्त होने वाली आय बहुत कम होती है। इसका अर्थ यह है कि किसी वस्तु के उत्पादन में वृद्धि होने से आय बढ़ने के स्थान पर कम हो गई। इस अस्वाभाविक अवस्था को ही निर्धनता का विरोधाभास कहते हैं। इसका कारण यह है कि अधिकतर कृषि पदार्थों की माँग बेलोचदार होती है। इन वस्तुओं की पूर्ति के बढ़ने पर कीमत में काफी कमी आती है तो भी इनकी माँग में विशेष वृद्धि नहीं हो पाती। इसलिए इनकी बिक्री से प्राप्त कुल आय पहले की तुलना में कम हो जाती है।

(vi) राष्ट्रीयकरण की नीति के लिये महत्त्वपूर्ण (Important for the policy of nationalisation)- राष्ट्रीयकरण की नीति से अभिप्राय है कि सरकार का निजी क्षेत्र के उद्योगों का स्वामित्व, नियन्त्रण तथा प्रबंध स्वयं अपने हाथों में लेना। जिन उद्योगों में उत्पादित वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है, उनकी कीमत में बहुत अधिक वृद्धि किये जाने पर भी उनकी माँग में विशेष कमी नहीं आती। यदि ऐसे उद्योग निजी क्षेत्र में रहते हैं तो उन उद्योगों के स्वामी अपनी उत्पादित वस्तुओं की अधिक कीमत लेकर जनता का शोषण कर सकते हैं। जनता को उनके शोषण से बचाने के लिए सरकार उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर सकती है।

(vii) कर लगाने में सहायक (Helpful in imposing taxes)- कर लगाते समय सरकार वस्तु की माँग लोच को ध्यान में रखती है।

प्रश्न 8.
पूर्ण प्रतियोगी श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण कैसे किया जाता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण (Determination of wage in Perfectly Competitive Labour Market)- श्रम बाजार में परिवार श्रम की पूर्ति करते हैं और श्रम की माँग फर्मों द्वारा की जाती है। श्रम से अभिप्राय श्रमिकों द्वारा किए गए काम के घंटों से है न कि श्रमिकों की संख्या से। श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर माँग वक्र तथा पूर्ति वक्र आपस में काटते हैं।

मजदूरी निर्धारण में हम यह मान लेते हैं कि श्रम ही केवल परिवर्तनशील उत्पादन का साधन है तथा मजदूर बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता है अर्थात् प्रत्येक फर्म के लिए मजदूरी दी गई है। प्रत्येक फर्म का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है। हम यह भी मानकर चलते हैं कि फर्म की उत्पादन तकनीक दी गई है और उत्पाद का ह्रासमान नियम लागू है।

जैसा कि प्रत्येक फर्म का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है, अत: फर्म उस बिन्दु तक श्रमिकों की नियुक्ति करती रहेगी जब तक अन्तिम श्रम पर होने वाला अतिरिक्त (Extra) व्यय उस श्रम से प्राप्त अतिरिक्त लाभ के समान नहीं होता। एक अतिरिक्त श्रम के लगाने की अनि मजदूरी पर (W) कहलाती है और एक अतिरिक्त मजदूर के लगाने से प्राप्त आय उस श्रम की सीमान्त उत्पादकता (MPL) कहलाती है। उत्पाद की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई के बचने से प्राप्त होने वाली आय सीमान्त आय (आगम) कहलाती है। फर्म उस बिन्दु तक श्रम को लगाती है,

जहाँ
W = MRPL
यहाँ MRPL = MR x MPL

प्रश्न 9.
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में निम्नलिखित अन्तर है-
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल:

  1. उत्पादन के चारों साधनों के एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अध्ययन पैमाने के प्रतिफल के अन्तर्गत किया जाता है।
  2. यह नियम दीर्घकाल में लागू होता है।
  3. इसमें उत्पत्ति के चारों साधन परिवर्तन शील हैं।
  4. चारों साधनों में अनुपात स्थिर रहता है।
  5. उत्पादन का पैमाना बदल जाता है।
  6. पैमाने के वर्द्धमान प्रतिफल-चारों साधनों में एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन उस अनुपात से अधिक बढ़ता है।
  7. पैमाने के ह्रासमान प्रतिफलः चारों साधनों में एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन उस अनुपात से कम बढ़ता है।

पैमाने के प्रतिफल:

  1. अन्य साधनों को स्थिर रखकर किसी एक परिवर्तनशील साधन की इकाई में वृद्धि करने से कुल उत्पादन का क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अध्ययन परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल के अन्तर्गत किया जाता है।
  2. यह नियम अल्पकाल में लागू होता है।
  3. इसमें एक साधन परिवर्तनशील है जबकि अन्य साधन स्थिर हैं।
  4. परिवर्तनशील तथा स्थिर साधनों में अनुपात बदला जाता है।
  5. उत्पादन के पैमाने में कोई परिवर्तन नहीं होती।
  6. उत्पत्ति वृद्धि नियमः अन्य साधनों को स्थिर रखकर श्रम की इकाइयों में वृद्धि करने पर कुल उत्पादन बढ़ती हुई दर से बढ़ता है तथा औसत और सीमान्त उत्पादन बढ़ते हैं।
  7. उत्पत्ति वृद्धि नियमः अन्य साधनों को स्थिर रखकर श्रम की इकाइयों में वृद्धि करने पर कुल उत्पादन घटती हुई दर से बढ़ता है तथा औसत और सीमान्त उत्पादन घटता है।

प्रश्न 10.
तीन विभिन्न विधियों की सूची बनाइए जिसमें अल्पाधिकारी फर्म व्यवहार कर सकता है।
उत्तर:
तीन विभिन्न विधियाँ (Three different ways)- नीचे तीन विभिन्न विधियाँ दी गई हैं जिनमें अल्पाधिकार फर्म व्यवहार कर सकती हैं-

1. द्वि-अधिकारी फर्म आपस में सांठ-गांठ करके यह निर्णय ले सकती हैं कि वे एक दूसरे से स्पर्धा नहीं करेंगे और एक साथ दोनों फर्मों के लाभ को अधिकतम स्तर तक ले जाने का प्रयत्न करेंगे। इस स्थिति में दोनों फर्मे एकल एकाधिकारी की तरह व्यवहार करेंगी जिनके पास दो अलग-अलग वस्तु उत्पादन करने वाले कारखाने होंगे।

2. दो फर्मों में प्रत्येक यह निर्णय ले सकती है कि अपने लाभ को अधिकतम करने के लिये वह वस्तु की कितनी मात्रा का उत्पादन करेंगी। यहाँ यह मान लिया जाता है कि उनकी वस्तु की मात्रा की पूर्ति को कोई अन्य फर्म प्रभावित नहीं करेंगी।

3. कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है अल्पाधिकार बाजार संरचना में वस्तु की अनन्य पहुँचेगा, क्योंकि इस स्तर पर सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत समान होंगे और निर्गत में वृद्धि के लाभ से किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होगी।

दूसरी ओर यदि फर्म प्रतिशत से अधिक मात्रा में निर्गत का उत्पादन करती है तो सीमांत लागत सीमांत संप्राप्ति से अधिक होती है। अभिप्राय यह है कि निर्गत की एक इकाई कम करने से कुल लागत में जो कमी होती है, वह इसी कमी के कारण कुल संप्राप्ति में हुई हानि से अधिक होती है। अतः फर्म के लिए यह उपयुक्त है कि वह निर्गत में कमी लाए। यह तर्क तब तक समीचीन होगा जब तक सीमांत लागत वक्र सीमांत संप्राप्ति वक्र के ऊपर अवस्थित और फर्म अपने निर्गत संप्राप्ति के मूल्य समान हो जाएँगे और फर्म अपने निर्गत में कमी को रोक देगी।

फर्म अनिवार्य रूप से प्रतिशत निर्गत स्तर पर पहुँचती है। अतः इस स्तर को निर्गत स्तर का संतुलन स्तर कहते हैं। निर्गत का यह संतुलन स्तर उस बिन्दु के संगत होता है जहाँ सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत के बराबर होती है। इस समानता को एकाधिकारी फर्म द्वारा उत्पादित निर्गत के लिये संतुलन की शर्त कहते हैं।

प्रश्न 11.
एक फर्म की कुल स्थिर लागत, कुल परिवर्तनशील. लागत तथा कुल लागत क्या हैं ? ये आपस में किस प्रकार संबंधित हैं ?
उत्तर:
(i) कुल स्थिर लागत (Total Fixed Cost)- बेन्हम के अनुसार एक फर्म की स्थिर लागतें वे लागतें होती हैं, जो उत्पादन के आकार के साथ परिवर्तित नहीं होती। ये लागतें सदैव स्थिर रहती हैं। इनका संबंध उत्पादन की मात्रा के साथ नहीं होता अर्थात् उत्पादन की मात्रा के घटने या बढ़ने का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्थिर लागतों में भूमि अथवा फैक्टरी, इमारत का किराया, बीमा व्यय, लाइसेंस, फीस, सम्पत्ति कर आदि लागतें शामिल होती हैं। स्थिर लागतों को अप्रत्यक्ष कर भी कहा जाता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 2
बगल के चित्र द्वारा स्थिर लागत को दर्शाया गया है।

(ii) कुल परिवती लागत (Total Variable Cost)- कुल परिवर्ती (अथवा परिवर्तनशील) लागतें वे लागतें हैं जो उत्पाद के आकार के साथ घटती बढ़ती रहती हैं। ये लागतें उत्पादन की मात्रा के साथ बढ़ती हैं और उत्पादन के घटने पर घटती हैं। कच्चा माल, बिजली, ईंधन, परिवहन आदि पर होने वाले व्यय परिवर्ती लागतें कहलाती हैं। बेन्हम के अनुसार, “एक फर्म की परिवर्ती लागतों में वे लागतें शामिल की जाती हैं जो उसके उत्पादन के आकार के साथ परिवर्तित होती हैं।” कुल परिवर्ती लागतों के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि आरम्भ में ये लागतें घटती दर से बढ़ती हैं, परन्तु एक सीमा के बाद वे बढ़ती हुई दर से बढ़ती हैं। कुल परिवर्ती लागतों को ऊपर के चित्र द्वारा दर्शाया गया है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 3

(iii) कुल लागत (Total Cost)- कुल लागत कुल स्थिर लागत तथा कुल परिवर्ती लागत का योग होती है। कुल लागत से अभिप्राय किसी वस्तु के उत्पादन पर होने वाले कुल व्यय से है। उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर उत्पादन की कुल लागत में भी परिवर्तन हो जाता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 4
कुल परिवर्ती लागत, कुल स्थिर लागत तथा कुल लागत का पारस्परिक सम्बन्ध (Interrelationship between Total Variable Costs. Total Fixed Costs and Total Costs) कुल परिवर्ती लागतों, कुल स्थिर लागतों तथा कुल लागतों के आपसी सम्बन्धों को ऊपर चित्र द्वारा दर्शाया गया है।

चित्र से पता चलता है कि कुल लागत, कुल स्थिर लागत तथा कुल परिवर्ती लागत के योग हैं। उत्पादन के शून्य स्तर पर कुल लागत तथा स्थिर लागत बराबर होती है। परिवर्तनशील लागतों के बढ़ने से कुल लागतें बढ़ती हैं।

प्रश्न 12.
आर्थिक क्रियाओं के विभिन्न प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आर्थिक क्रियाएँ वैसी क्रियाएँ हैं जिनसे आय के रूप में धन की प्राप्ति होती है। इसके विभिन्न प्रकार होते हैं, जो निम्नलिखित हैं-
(i) व्यवसाय- व्यवसाय के अंतर्गत उन सभी मानवीय आर्थिक क्रियाओं को शामिल किया जाता है जो वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण के लिए की जाती है और जिनका उद्देश्य लाभ कमाना होता है तथा जो निजी अथवा सार्वजनिक संस्थाओं के माध्यम से स्वतंत्रतापूर्वक एवं नियमित रूप से की जाती है।।

(ii) पेशा- पेशा वह धन्धा है जिसमें एक व्यक्ति अपने विशिष्ट ज्ञान और प्रशिक्षण के आधार पर अन्य व्यक्तियों की व्यक्तिगत सेवा करता है। जैसे-एक डॉक्टर अपनी योग्यता एवं अनुभव के आधार पर रोग का पता करता है और उसका उपचार करता है। .

(iii) रोजगार या नौकरी- वे व्यक्ति रोजगार या नौकरी में आते हैं जो एक विशिष्ट समझौते के अधीन मासिक, साप्ताहिक अथवा दैनिक वेतन पाते हैं तथा किसी व्यक्ति अथवा संस्था के अधीन व उनके निर्देशन में काम करते हैं। यह नौकरी अथवा सेवा सरकारी भी हो सकती है अथवा निजी भी। पेशेवर व्यक्ति भी नौकरी कर सकते हैं और गैर-पेशेवर भी।

प्रश्न 13.
वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसकी कठिनाइयाँ बताइए।
उत्तर:
वस्तु विनिमय प्रणाली को अदला-बदली भी कहते हैं। वस्तुओं की वस्तुओं के साथ प्रत्यक्ष अदल-बदल की प्रणाली को वस्तु विनिमय या अदल-बदल कहते हैं। मुद्रा के माध्यम के बिना एक वस्तु अथवा सेवा का दूसरी वस्तु अथवा सेवा के साथ-साथ सीधा विनिमय ही अदल-बदल अथवा वस्तु-विनिमय कहलाता है।

दूसरे शब्दों में वस्तु विनिमय प्रणाली वह प्रणाली है जिनमें वस्तु का वस्तु द्वारा ही लेनदेन होता है और विनिमय का कोई सर्वमान्य माध्यम नहीं होता।

प्रो० आर० पी० केन्ट के शब्दों में वस्तु विनिमय मुद्रा का विनिमय माध्यम के रूप में प्रयोग किए. बिना वस्तुओं के लिए प्रयत्न विनिमय है।

इसके प्रमुख दोष निम्न हैं-

  • दोहरे संयोग का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत विनिमय केवल उसी समय संभव हो सकता है जबकि व्यक्तियों के पास एक-दूसरे की आवश्यकता की वस्तु हो और साथ ही वे आपस में एक-दूसरे से बदलने को तैयार हो परन्तु ऐसा संयोग सदैव संभव नहीं है।
  • संचय में कठिनाई- वस्तु विनिमय प्रणाली में एक प्रमुख कठिनाई यह है कि भविष्य के लिए विनिमय शक्ति संचय नहीं किया जा सकता क्योंकि अधिकांश वस्तुएँ क्षयशील प्रकृति की होती है।
  • सर्वमान्य मूल्य मापक का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत मूल्य का कोई मानक न होने के कारण विनिमय की जानेवाली वस्तु का मूल्य निश्चित करना एक कठिन काम है।
  • वस्तु विभाजन में कठिनाई- विनिमय होनेवाली वस्तुओं में कुछ वस्तुएँ ऐसी होती है जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता।
  • मूल्य हस्तान्तरण का अभाव- वस्तु विनिमय में मूल्य या क्रयशक्ति के स्थानान्तरण में बहुत कठिनाई होती है।
  • भावी भुगतान का अभाव- बहुत सी वस्तुओं का क्रय-विक्रय ऐसे होता है जिनका भुगतान तुरन्त न होकर भविष्य में किया जाता है परन्तु वस्तु-विनिमय प्रणाली में ऐसा संभव नहीं था क्योंकि वस्तु-विनिमय प्रणाली में सभी वस्तुओं के मूल्य में स्थिरता का अभाव था इसलिए एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का विनिमय के समय ही लेना अथवा देना आवश्यक होता था।

प्रश्न 14.
दोहरी गणना की समस्या से क्या अभिप्राय है ? इस समस्या से कैसे बचा जा सकता है ? उदाहरण स्पष्ट करें।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय की गणना के लिए जब किसी वस्तु या सेवा के मूल्य की गणना एक से अधिक बार होती है, तो उसे दोहरी गणना कहते हैं। दोहरी गणना के फलस्वरूप राष्ट्रीय आय बहुत अधिक हो जाती है। दोहरी गणना की समस्या को निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है-

मान लीजिए एक किसान 500 रुपये के गेहूँ का उत्पादन करता है और उसे आटा मिल को बेच देता है। आटा मिल द्वारा गेहूँ की खरीद मध्यवर्ती उपभोग व्यव है। आटा मिल गेहूँ से आटे का उत्पादन करने के बाद उस आटे को बेकरी को 700 रुपये में बेच देती है। बेकरी के लिए आटे पर व्यव मध्यवर्ती उपभोग पर व्यव है। बेकरी वाला आटे से बिस्कुट का निर्माण करके 900 रुपये के बिस्कुट उपभोक्ताओं को बेच देता है।

जहाँ तक किसान आटा मिल और बेकरी वाले का संबध है। उत्पादन को मूल्य 500 + 700 + 900 = 2100 रुपये हैं, क्योंकि प्रत्येक उत्पादन जब वस्तु बेचता है। उसे अन्तिम मानता है। लेकिन आटे के मूल्य में गेहूँ का मूल्य शामिल है और बिस्कुट के मूल्य में गेहूँ का मुल्य तथा आटे मिल की सेवाओं का मूल्य शामिल है। इस प्रकार गेहूँ के मूल्य की तीन बार और आटा मिल की सेवाओं की दो बार गणना होती है। अतः एक वस्तु या सेवा के मूल्य की गणना जब एक से अधिक बार होती है तो इसे दोहरी गणना कहते हैं।

मूल्य वृद्धि विधि द्वारा दोहरी गणना की समस्या से बचा जा सकता है। या दोहरी गणना से बचने के लिए हमें अंतिम वस्तुएँ के मूल्य को ही राष्ट्रीय आय में शामिल करना चाहिए।

प्रश्न 15.
निवेश गुणक की परिभाषा दें। निवेश गुणक तथा उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति में क्या सम्बन्ध हैं ?
उत्तर:
निवेश में वृद्धि के फलस्वरूप राष्ट्रीय आय वृद्धि के अनुपात को निवेश गुणक कहते हैं।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 5
संक्षेप में निवेश गुणक से आशय निवेश में परिवर्तन और आय में परिवर्तन के अनुपात से है।

  • वेंज- के अनुसार, “निवेश गुणक से ज्ञात होता है कि जब कुल निवेश में वृद्धि की जाती है तो आय में जो वृद्धि होगी वह निवेश में होने वाली वृद्धि से K गुणा अधिक होगी।”
  • डिल्लर्ड- के अनुसार, “निवेश में की गयी वृद्धि के फलस्वरूप आय में होने वाली वृद्धि के अनुपात को निवेश गुणक कहा जाता है।”
  • निवेश गुणक तथा उपभोग की सीमांत प्रवृति में संबंध- निवेश गुणक का सीमांत उपयोग प्रवृति (MPC) से प्रत्यक्ष संबंध है। MPC के बढ़ने से निवेश गुणक बढ़ता है तथा कम होने से कम होता है।

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प्रश्न 1.
हैजा रोग के लक्षण एवं फैलने के कारण बताएँ।
उत्तर:
यह रोग बेसिलस जीवाणु द्वारा फैलता है जो ‘बिब्रियो कोम’ के नाम से जाना जाता है। यह रोग बहुत तीव्र गति से संक्रमित होता है। इसलिए महामारी का रूप धारण करता है। यह गर्मी तथा बरसात के दिनों में अधिक होता है।

लक्षण-

  • रोगी को उल्टी तथा पतले दस्त आते हैं।
  • रोगी को पेट में दर्द रहता हैं।
  • आँखें पीली पड़ जाती है।
  • उसे अधिक ठंढ लगती है और अधिक प्यास लगती है और मूत्र का आना बंद हो जाता है या बहुत कम मात्रा में आता है।
  • उचित समय पर इलाज न करने पर शरीर में पानी की कमी हो जाती है और निर्जलीकरण हो जाता है।

फैलने के कारण-

  • संक्रमित जल, दूध अथवा पेय पदार्थ
  • अस्वच्छता का वातावरण
  • रोगी के गंदे वस्त्र
  • हैजे के रोगी की देखभाल कर रहे व्यक्ति की अस्वच्छता द्वारा।

प्रश्न 2.
कुकर खाँसी के लक्षण, उपचार एवं रोकथाम लिखें।
अथवा, रात को तेज खाँसी है तथा उसमें ‘बू’ की आवाज भी है। वह किस रोग से ग्रस्त है ? इस रोग के दो अन्य लक्षण लिखिए तथा इस रोग से कैसे बचा जा सकता है ?
उत्तर:
कुकर खाँसी (Whooping Cough or Pertusis)- यह रोग बैसीलस परट्यूसिस (Bacillus Pertusis) नामक जीवाणु के संक्रमण द्वारा विशेषकर बच्चों में होता है।

लक्षण-

  1. प्रारंभ में बच्चे को खाँसी आने लगती है जो बाद में बढ़कर गम्भीर रूप धारण कर लेती है।
  2. खाँसी के साथ-साथ बच्चे को छींके आना, नाक बहना व आँखों से पानी निकलने लगता है।
  3. खाँसते-खाँसते बच्चों का मुँह लाल हो जाता है और कई बार वह वमन भी कर देता है।
  4. बच्चे को खाँसी के साथ छाती से एक विशेष प्रकार की आवाज भी निकलती है जिसके कारण इसे Wooping Cough कहते हैं।
  5. खाँसी के साथ हल्का बुखार भी रहता है।

उपचार एवं रोकथाम-

  1. लक्षण दिखाई देने पर डॉक्टर को दिखाना चाहिए।
  2. रोगी बच्चे को स्वस्थ बच्चों से अलग रखना चाहिए।
  3. रोगी बच्चे की ठण्ड व सीलन से रक्षा करनी चाहिए तथा उन्हें हवादार कमरे में रखना चाहिए।
  4. रोगी को हल्का व आसानी से पचने वाला भोजन देना चाहिए।
  5. शिशु को सही समय व अन्तराल का डी० पी० टी० के टीके लगवाने चाहिए।
  6. रोगी के वस्त्रों, वस्तुओं व कमरे आदि को विसंक्रमित करना चाहिए।

प्रश्न 3.
पोलियो रोग के लक्षण, उपचार एवं रोकथाम के बारे में लिखें।
उत्तर:
पोलियो- यह रोग प्राय: 1-2 वर्ष के बच्चों में अधिक होता है। यह रोग विषाणुओं के संक्रमण के कारण होता है।
लक्षण-

  • पोलियो का आरम्भ बच्चे को तेज बुखार चढ़ने के साथ होता है।
  • इस रोग के विषाणु बच्चे के तंत्रिका तन्त्र को प्रभावित करते हैं जिससे प्रभावी अंग लगभग बेकार हो जाता है और सूखने लगता है।

उपचार व रोकथाम-

  • बच्चे को ठीक समय पर तथा सही अन्तराल पर पोलियो की प्रतिरोधक दवाई बूंदों के रूप में अवश्य देनी चाहिए।
  • भारत सरकार पोलियो जैसी शरीर असमर्थता पैदा करने वाली बीमारी से बच्चों को बचाने के लिए पोलियो पल्स (Polio Pulse) कार्यक्रम द्वारा प्रत्येक छोटे बच्चे को पोलियो की दवा निःशुल्क देती है।

प्रश्न 4.
क्षय रोग क्या होता है ? इसके कारण लक्षण व उपचार के बारे में बताएँ।
उत्तर:
क्षय रोग दीर्घकालीन बैक्टीरिया से उत्पन्न बीमारी है। इस रोग को टी० बी० (तपेदिक) या ट्यूबरक्लुलोसिस भी कहा जाता है। वह रोग वायु के द्वारा फैलता है। यह रोग बहुत भयानक है जो शरीर के कई भागों में हो सकता है। जैसे-फेफड़ों का तपेदिक-जिसे टी० बी० कहते हैं, आंतों का तपेदिक, ग्रंथियों का तपेदिक, हड्डियों का तपेदिक (रीढ़ की हड्डी) मस्तिष्क का तपेदिक आदि।

रोग का कारण-

  • यह रोग सूक्ष्मदर्शी जीवाणु बैक्टीरियम (Micro-bacterium) तथा ट्यूबर्किल बेसिलस (Tubercele Bacillus) से फैलता है। यह जीवाणु सूर्य की किरणों से नष्ट हो जाता है।
  • भीड़-भाड़, खुली हवा की कमी तथा धूप की कमी से भी यह रोग फैलता है।
  • इस रोग का कारण, रोगी का गाय, भैंस का दध पीना भी है।
  • रोगी के मल, बलगम तथा खांसने से रोग फैलता है।
  • मक्खियाँ भी रोग फैलाने का कारण है।
  • माता-पिता को यदि तपेदिक हो तो बच्चों में इस रोग की संभावना हो जाती है।

संक्रमण कारक एवं उद्भव काल-

  • वायु।
  • संक्रमित प्राणियों को छोड़ी हुई श्वास द्वारा।
  • उद्भवकाल-कुछ सप्ताह के कुछ सालों तक की 4-6 सप्ताह।

मुख्य लक्षण-

  • कमजोरी व थकावट।
  • भार में कमी तथा हड्डियाँ दिखाई देना।
  • भूख में कमी।
  • हल्का ज्वर रहना तथा रात को पसीना आना।
  • खांसी, बलगम में खून आना।
  • छाती व गले में दर्द तथा सांस फूलना।
  • हृदय की धडकन कम हो जाना।
  • स्त्रियों में मासिक कम होना।

उपचार तथा रोकथाम-

  • दूध को दस मिनट तक उबालने पर टी० बी० के जीवाणु नष्ट हो जाते हैं।
  • रोगी को खुली हवा, प्रकाश तथा पूरा आराम देना चाहिए।
  • रोगी को संतुलित एवं पौष्टिक आहार देना चाहिए।
  • डॉक्टर की सलाह से रोगी को स्ट्रैप्टोमाइसिन के टीके 2 1/2 महीने तक लगवाना चाहिए।
  • दवा के साथ A तथा D तथा कैल्शियम की गोलियाँ देना आवश्यक है।

रोकथाम-

  • रोगी को दूसरे लोगों से अलग रखना चाहिए।
  • घरों में सूर्य के प्रकाश तथा हवा का आवागमन रखना जरूरी है।
  • रोगी के विसर्जन को जला देना चाहिए।
  • बच्चों को जन्म के पश्चात् पहले माह के अंदर बी०सी०जी० का टीका लगाना चाहिए।
  • प्रसार माध्यम से इस रोग की जानकारी सभी लोगों को देनी चाहिए ताकि लोग जागरूक हों।

प्रश्न 5.
एक बालक के जन्म से एक वर्ष तक का सामाजिक विकास समझाये।
उत्तर:
जन्म के समय शिशु न सामाजिक होता है और न ही असामाजिक बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है। चाईल्ड के अनुसार, सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता है।

सामाजिक विकास की अवस्थाएँ-जन्म के समय बालक उस समय तक दूसरे बालकों में रूचि नहीं लेता है जब तक उसकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति सामान्य ढंग से होती है। दो माह की आयु तक बालक बहुत तीव्र उत्तेजनाओं के प्रति ही प्रतिक्रिया करता है। तीन माह की आयु तक बालक विभिन्न ध्वनियों में भेद पहचानने लगता है। वह दूसरे के मुखमंडल की भाव-भंगिमाओं को समझने लगता है। चार माह का बालक समायोजन करने लगता है। पाँच-छ: माह की आयु में वह क्रोध तथा मित्रता का भाव समझने लगता है। आठ-नौ माह में वह वाणी संबंधी ध्वनियों का अनुसरण करने लगता है। एक वर्ष का बालक अपरिचितों को देखकर डरने लगता है।
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 1, 1
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 1, 2

प्रश्न 6.
संवेगों के प्रकार संक्षिप्त रूप में समझाइए।
उत्तर:
संवेगों के प्रकार (Types of Emotions)- व्यक्ति के व्यवहार में किसी न किसी अंश में संवेग अवश्य विद्यमान होते हैं। जिस प्रकार सुगन्ध दिखाई न देने पर भी फूल में विद्यमान रहते हैं, ठीक उसी प्रकार हमारे व्यवहार में संवेग व्याप्त रहते हैं। संवेग बच्चे की प्रसन्नता को बढ़ाने के साथ-साथ उसकी क्रियाशीलता को भी बढ़ाते हैं।

विभिन्न संवेगों को दो वर्गों में बाँटा जाता है-

  1. दुःखद संवेग (Unpleasent Emotions)-क्रोध, भय, ईर्ष्या आदि।
  2. सुखद संवेग (Pleasent Emotions)-हर्ष, स्नेह, जिज्ञासा आदि।

1. दुःखद संवेग-
(i) क्रोध (Anger)- शैशवकाल में प्रदर्शित होने वाले सामान्य संवेगों में क्रोध सर्वप्रमुख है क्योंकि शिशु के पर्यावरण में क्रोध पैदा करने वाले अनेक उद्दीपन होते हैं। शिशु को बहुत जल्दी ही यह मालूम हो जाता है कि दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए या फिर अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए जोर से रोकर, चीखकर या चिल्लाकर अपना क्रोध प्रकट करना सबसे आसान तरीका है। यही कारण है कि शिशु केवल भूख या प्यास लगने पर ही नहीं रोता अपितु जब वह चाहता है कि उसकी माता उसे गोद में उठाए तब भी जोर-जोर से रोता है।

जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है तब अपने कार्य में बाधा डालने के परिणामस्वरूप भी गुस्सा करने लगता है, जैसे जब वह खिलौनों से खेलना चाहे उस समय उसे कपड़े पहनाना, उसे कमरे में अकेला छोड़ देना, उसकी इच्छा की पूर्ति न करना आदि।

प्रायः सभी बच्चों के गुस्सा होने के कारण अलग-अलग हो सकते हैं परन्तु गुस्सा होने पर सभी एक-सा व्यवहार करते हैं जैसे रोना, चीखना, हाथ-पैर पटकना, अपनी सांस रोक लेना, जमीन पर लेट जाना, पहुँच के अन्दर जो भी चीज हो उसे उठाकर फेंकना या फिर ठोकर मारना आदि।

(ii) भय (Fear)- क्रोध के विपरीत, शिशु में भय पैदा करने वाले उद्दीपन अपेक्षाकृत कम होते हैं। शैशवावस्था में शिशु प्रायः निम्न स्थितियों में डरता है। अंधेरे कमरे, ऊँचे स्थान, तेज शोर, दर्द, अपरिचित लोग व जगह, जानवर आदि। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होता है उसके मन में भय की संख्या और तीव्रता भिन्न-भिन्न होती है।

भय को बढ़ाने वाली निम्न दो स्थितियाँ हैं-
(i) अचानक तथा अप्रत्याशित स्थिति,
(ii) नई स्थिति।

(i) अचानक तथा अप्रत्याशित स्थिति- बच्चे के सामने जब कोई अप्रत्याशित स्थिति आती है तो वह अपने आप को उसके अनुरूप एकदम ढाल नहीं सकता है। यही कारण है कि जब बच्चे के सामने कोई अपरिचित व्यक्ति आता है तो वह डर जाता है।
(ii) नई स्थिति- जब बच्चे के सामने नई स्थिति या अजनबी स्थिति आती है जैसे उसके माता या पिता या फिर कोई अन्य परिचित व्यक्ति अलग किस्म के कपड़े पहन कर बच्चे के सामने आए तो इससे भी बच्चा डर जाता है।

डर कर शिशु चिल्लाकर या सांस रोककर अपने आपको डरावनी स्थिति से दूर करने की कोशिश करता है और अपना सिर घुमाकर चेहरे को छिपाने का प्रयत्न करता है। जब बच्चा चलना सीख जाता है तब वह भाग कर किसी व्यक्ति के पीछे या किसी चीज के पीछे छुप जाता है और डरावनी स्थिति से दूर होने की प्रतीक्षा करता है।

(iii) ईर्ष्या (Jealousy)- ईर्ष्या का अर्थ है-किसी के प्रति गुस्से से भरा विरोध करना। ईर्ष्या प्रायः सामाजिक स्थितियों द्वारा उत्पन्न होती है। जब परिवार में नया शिशु आता है तब छोटे बच्चे में उस शिशु के प्रति ईर्ष्या का भाव उत्पन्न होता है क्योंकि उसे लगता है कि उसके माता-पिता जो पहले केवल उससे प्यार करते थे, अब उस शिशु से भी प्यार करने लगे हैं। दो वर्ष से पाँच वर्ष के बीच बच्चे में ईर्ष्या सर्वाधिक होती है। छोटा बच्चा कई बार अपने से बड़े भाई अथवा बहन से भी ईर्ष्या करने लगता है क्योंकि उसे लगता है कि उनका ध्यान अधिक करना या फिर बीमारी . या डर होने का दिखावा करके बड़ों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करता है।

2. सुखद संवेग-
(i) हर्ष (Joy or pleasure)- हर्ष का अर्थ है खुशी अथवा प्रसन्नता। शिशु एक माह से दो माह का होने पर सामाजिक परिस्थितियों में भी मुस्कराना और हंसना शुरू कर देता है (Social Smile)। इसके पश्चात् बच्चा छेड़छाड़ करने पर, गुदगुदा जाने पर हर्ष प्रकट करता है। दो वर्ष का होने पर बच्चा कई परिस्थितियों में खुश होता है जैसे खिलौनों से खेलना, अन्य बच्चों के साथ खेलना, दूसरे बच्चों को खेलते देखना या रोचक ध्वनियाँ पैदा करना।

सभी बच्चे अपनी खुशी मुस्करा कर या हँस कर प्रकट करते हैं। इस आयु में बच्चा हँसने के साथ बाँहों और टाँगों को भी हिलाता है। बच्चा जितना अधिक खुश होता है, उतनी ही अधिक उसकी शारीरिक गतियाँ होती हैं। डेढ़ वर्ष का बच्चा अपनी ही चेष्टाओं पर मुस्कराता है। दो वर्ष का होने पर वह दूसरों के साथ मिलकर हँसने लगता है।

(ii) स्नेह (Affection)- बच्चे में लोगों के प्रति स्नेह की अनुक्रियाएँ धीरे-धीरे विकसित होती हैं। बच्चे का किसी के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार उस व्यक्ति की ओर आकर्षित होकर उसकी गोद में आने के प्रयास से दिखाई देता है। पहले शिशु उस व्यक्ति के चेहरे को ध्यान से देखता है, इसके पश्चात् अपनी टाँगें चलाता है, बाँहों को फैलाकर हिलाता है तथा मुस्करा कर अपने शरीर को ऊपर उठाने की कोशिश करता है। प्रारम्भ में चूँकि शिशु के शरीर की गतियाँ असमन्वित होती हैं इसलिए वह उस व्यक्ति तक पहुँचने में असफल होता है। छः माह का होने पर शिशु उस व्यक्ति के प्रति स्नेह दिखाता है और धीरे-धीरे अपरिचित व्यक्ति भी बच्चे के स्नेह के पात्र बन जाते हैं।

दो वर्ष का होने पर बच्चा परिचित व्यक्तियों के स्थान पर अपने आप से तथा अपने खिलौनों से स्नेह करने लगता है। घर में पालतू जानवर होने पर शिशु उससे डरे बिना उसके साथ खेलता है और उससे प्यार करने लगता है। प्रायः शिशु अपना स्नेह प्रकट करने के लिए चिपटना, थपथपाना, सहलाना या चूमने जैसी क्रियाएँ करता है। जिन बच्चों को अपने स्नेह की भावना को व्यक्त करने के सभी सामान्य अवसर नहीं मिलते हैं, उनके शारीरिक एवं मनोवैज्ञानिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है जिससे उनके सामाजिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है।

(iii) जिज्ञासा (Curiosity)- जन्म के दो-तीन माह पश्चात् तक शिशु की आँखों का समन्वय भली-भाँति विकसित नहीं होता है और उसका ध्यान केवल तीव्र उद्दीपन से ही आकर्षित होता है। लेकिन आयु वृद्धि के साथ जैसे ही शिशु साफ-साफ और अलग-अलग देख सकता है वैसे ही कोई भी नई या असाधारण बात से आकर्षित होता है बशर्ते उसका नयापन इतना अधिक न हो कि भय पैदा कर सके। शिशु का भय कम होने के साथ उसकी जिज्ञासा बढ़ती है। शिशु अपनी जिज्ञासा को मुँह खोलकर, जीभ बाहर निकालकर, चेहरे की मांसपेशियाँ कस कर तथा माथे पर’ बल डालकर अभिव्यक्त करता है। एक से डेढ़ वर्ष का बच्चा जिज्ञासा जागृत करने वाली चीज की ओर झुककर उसे पकड़ने की कोशिश करता है और उस चीज के हाथ में आ जाने पर उसे हिलाता, खींचता व बजाता है।

प्रश्न 7.
शारीरिक रूप से अपंग बच्चों के समक्ष आने वाली कुछ समस्याओं का ब्यौरा दीजिए। स्कूल उन्हें किस प्रकार से मदद कर सकता है ?
उत्तर:
विभिन्न प्रकार की असमर्थता/विकलांगता- विकलांगता शारीरिक, वाणी दोष तथा तंत्रिकी दोष संबंधी होती है।
शारीरिक-

  • आँख-पूर्ण या अपूर्ण अन्धापन।
  • कान-पूर्ण या अपूर्ण बहरापन।
  • अंगहीनता/कमजोर अंग।
  • शारीरिक विषमताएँ झिल्लीदार उंगलियाँ, कूबड़, छांगा, शशा ओष्ठ (Hare lip), दीर्ण तालु, (Cleft Palates), मुख व शरीर पर जन्म चिह्न।

वाक दोष- इनके कारण बच्चा हकलाने लगता है और उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है।
क्रमिक दोष- जो दोष क्रम में सदा होते रहते हैं, उन्हें क्रमिक दोष कहते हैं। हृदय रोग, गठिया तथा माँसपेशी रोग।

तंत्रिकी (Neurological) दोष- ये दोष केन्द्रीय नाड़ी मण्डल की अस्वस्थता के कारण उत्पन्न होते हैं जैसे दिमागी-पक्षाघात, (Cerebralpalsy), मिर्गी (Epilepsy), तथा सिजोफेरेनिया। दिमागी पक्षापात में मस्तिष्क के ठीक कार्य न करने के कारण विभिन्न अंगों में भी पक्षाघात हो जाता है। अनियंत्रित आक्रमण के कारण मूर्छा आना और सन्तुलन खोना मिर्गी के रोगी के आम लक्षण हैं।

विशेष शिक्षा तथा शैक्षणिक संस्थाओं की आवश्यकता (Need for Special Education and Educational Institutions)- इन बालकों की विकलांगता के अनुसार अलग-अलग प्रकार की शिक्षा प्रणाली की आवश्यकता होती है। बधिरों के लिए ओष्ठपठन तथा अंधों को विशेष ब्रेल लिपि द्वारा पढ़ाया जाना आवश्यक है। अतः इन बालकों को उचित उपकरण दिये जाने से ये शिक्षा प्राप्त करने में किसी भी सामान्य बालक की बराबरी कर पाते हैं। अन्य शारीरिक विकलांगताओं जैसे लंगड़ापन, हाथ कटा होना आदि पर बनावटी पैर तथा हाथ लगा कर विकलांगता को एक हद तक दूर किया जा सकता है। ऊँचा सुनने वाले बच्चों की भी श्रवण यंत्रों द्वारा बधिरता को दूर किया जा सकता है। इससे ये अन्य बालकों की भाँति शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।

मानसिक न्यूनता वाले बच्चों के लिए विशेष संस्थानों की आवश्यकता होती है क्योंकि इसका मानसिक विकास उनकी उम्र के सामान्य बालकों से कम होता है तथा वे कुछ भी सीखने में अधिक समय लगाते हैं। अतः इन्हें इनके कौशल को पहचान कर शिक्षा दी जानी चाहिए जो इनकी आगे चलकर आजीविका भी प्रदान करे।

प्रश्न 8.
भाषा विकास को परिभाषित कीजिए। छोटे बच्चों में भाषा का विकास किस प्रकार होता है:
उत्तर:
भाषा सम्प्रेषण का लोकप्रिय माध्यम है। भाषा के माध्यम से बालक अपने विचारों, इच्छाओं को दूसरे पर व्यक्त कर सकता है और दूसरे के विचारों, इच्छाओं तथा भावनाओं को समझ सकता है। हरलॉक के अनुसार भाषा में सम्प्रेषण के वे साधन आते हैं, जिसमें विचारों तथा भावों की प्रतीकात्मक बना दिया जाता है जिससे कि विचारों और भावों को दूसरे के अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके। बच्चे में भाषा का विकास, बच्चे बोलना शनैः-शनैः सीखते हैं। पाँच वर्ष की शब्दावली के लगभग 2000 शब्द बोलते हैं। अर्थपूर्ण शब्दों और वाक्यों से दूसरे में सम्बन्ध स्थापित करते हैं।

  • 0-3 माह- नवजात शिशु केवल रोने की ध्वनि निकाल सकता है, रोकर ही वह अपनी माता को अपनी भूख व गीला होने के आभास कराता है। तीन माह तक कूजना सीख जाती है। जिसे क, ऊ, उ की ध्वनि निकाल सकता है।
  • 4-6 माह- इस आयु में बच्चे अ, आ की ध्वनि निकाल सकते हैं। फिर वे पा, मा, टा, वा, ना आदि ध्वनि निकाल सकते हैं।
  • 7-9 माह- इस आयु में बच्चे दोहरी आवाज निकाल सकते हैं। जैसे-बाबा, पापा, मामा, टाटा आदि इसे बैवलिंग या शिशुवार्ता कहते हैं।
  • 10-12 माह- बच्चे सहज वाक्य बोलने लगते हैं। वे तब बानीबॉल या बाबी बोल सकते हैं।
  • 1-2 वर्ष-अब बच्चे तीन या चार शब्दों के वाक्य बोलने लगते हैं।
  • 3-5 वर्ष- बच्चों की आदत हो जाती है कि वे नये सीखे शब्दों को बार-बार बोलते हैं। वे आवाज की नकल करते हैं।

प्रश्न 9.
जन्म से तीन वर्ष तक के बच्चों में होने वाले सामाजिक विकास का वर्णन करें।
उत्तर:
जन्म के समय शिशु न सामाजिक होता है और न ही असामाजिक बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ-साथ सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है। चाईल्स के अनुसार, सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता है।

सामाजिक विकास की अवस्थाएँ :
0 से 3 माह की अवस्था में

  • आवाज की ओर मुड़ता है।
  • हँसता है।
  • दूसरे व्यक्तियों के मुस्कराने पर मुस्कराकर जवाब देता है।
  • ‘कू’ करता है।
  • खुशी से चीखता है।

6 माह की अवस्था में

  • व्यंजन-स्वर के संयोग से बबलाता है।
  • प्रत्यक्ष रूप से आपको देखता है।
  • ध्वनि की ओर मुड़ता है।
  • नकल ध्वनियों का प्रयास करता है।
  • शोर तथा क्रोध की आवाज पर प्रतिक्रिया करता है।
  • ध्यान केन्द्रित करने के लिए बड़बड़ाता है।

7 से 8 माह की अवस्था में

  • मित्रतापूर्ण सम्पर्क।
  • देखने, मुस्कराने तथा साथी को पकड़ने के लिए प्रतिबंधित।
  • अव्यक्तिगत तथा सामाजिक रूप से खेल सामग्री की सुरक्षा के लिए अंधे प्रयासों में झगड़ा।

9 माह की अवस्था में

  • नाम से पुकारने पर उत्तर देता है।
  • चार या चार से अधिक भिन्न ध्वनि उत्पन्न करता है।
  • प्रायः बा, दा का शब्दांशों का प्रयोग करता है।
  • ‘नहीं’ तथा ‘बाय-बाय’ समझता है।
  • ध्वनि की नकल करता है।

12 माह की अवस्था में

  • ताका-झाँकी खेलता है।
  • ध्वनियाँ तथा ध्यान केन्द्रित करने के हाव-भाव दोहराता है।
  • छुपी हुई वस्तु के लिए खोज करता है।
  • लम्बे बबलाने वाले वाक्यों का प्रयोग करता है जो अनर्थक है।
  • साधारण आदेशों को समझता है।
  • विनती पर खिलौने देता है।
  • ऐच्छिक वस्तु के लिए संकेत देता है।
  • दो या तीन शब्द कहता है।
  • परिचित शब्दों की नकल करता है।
  • ‘नहीं’ के सिर हिलाता है।
  • परिचित पशुओं की आवाज की नकल करना पसंद करता है।
  • बाय-बाय के लिए हाथ हिलाता है।

13 माह की अवस्था में

  • झगड़े व्यक्तिगत हो जाते हैं।
  • अत्यधिक झगड़े खेल-सामग्री के लिए होते हैं।

18 माह की अवस्था में

  • लगभग 20 शब्द कह सकता है।
  • जिन वस्तुओं तथा व्यक्तियों को अच्छी तरह जानता है, उनके चित्र पहचानता है।
  • शरीर के तीन अंगों का संकेत करता है (नाक, आँखें, मुँह)।
  • दो शब्दों को मिलाना प्रारंभ करता है (सब गये या बाय-बाय)।
  • पूछने पर पहचानी वस्तुओं को लाता है।
  • 5 वस्तुओं के लिए संकेत कर सकता है।
  • शब्दों तथा ध्वनियों की अधिक स्पष्टता से नकल करता है। खेल सामग्री से हटकर अपने साथी के प्रति ध्यान केन्द्रित करता है।

21 माह की अवस्था में
कुछ छोटे वाक्यांशों को उत्पन्न करता है।

22 माह की अवस्था में

  • दो शब्द वाक्यों में बात करता है। उदाहरण-पापा, काम जाओ।
  • मुझे तथा मेरा सर्वनामों का प्रयोग करता है।
  • दो कदम आदेशों का पालन करता है, उदाहरण के लिए-“अपने जूते उठाओ तथा इसे मेरे पास लाओ।” इन शब्द ध्वनियों का प्रयोग करता है-प, ब, म, व, ह, न इत्यादि।
  • लगभग 300 शब्दों का प्रयोग करता है अथवा कहता है।
  • संकेत करके या दूसरी क्रियाओं द्वारा कुछ साधारण प्रश्नों के उत्तर देता है। जैसे-कहाँ, क्या, क्यों आदि।
  • चार से आठ तक शरीर के अंगों को जानता है।
  • सामाजिक सम्पर्क का अवसर मिलने पर वह संचार कर सकता है।

2 वर्ष 3 माह की अवस्था में
बालक अहम् का भाव विकसित करेगा। वह जानता है कि वह कौन है तथा नाम से बुला सकता है। जो वह चाहता है उसके बारे में अधिक सकारात्मक हो जाएगा। वह न की तुलना में, जो देख-रेख करने वाला कहता है उसके विरुद्ध अपनी इच्छा रखेगा। वह ईंटों से मकान तथा महल बनाने का प्रयास करेगा।

2 वर्ष 6 माह की अवस्था में
वह अपना पहला नाम तथा कुलनाम दोनों जान लेगा। वह साधारण घरेलू कार्य करने में आनन्द प्राप्त करेगा। जैसे-मेज लगाना।

3 वर्ष की अवस्था में

  • शिशु के सामाजिक कौशल उन्नत हो जायेंगे तथा दूसरे बालकों के साथ खेलना पसंद करेगा। वह ऊपर, नीचे तथा पीछे जैसे शब्दों का भली-भांति अर्थ समझ लेगा तथा पूर्ण जटिल वाक्य बनाने योग्य हो जायेगा।
  • बालक विभिन्न भूमिकाएँ कर लेता है।

प्रश्न 10.
बाल्यावस्था के विभिन्न रोग क्या हैं ?
अथवा, बाल्यावस्था के सामान्य रोगों से आप क्या समझते हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर:
किसी प्राणी को अपना वातावरण की चुनौतियों के अनुकूल प्रतिकार में असफलता के अनुभव रोग कहते हैं। बालक में वैसे भी प्रतिकारता कम होती है। थोड़ी-सी असावधानी से वह रोगग्रस्त हो जाता है। बाल्यावस्था में होने वाले रोग निम्नलिखित हैं-

  • डिप्थीरिया (Diptheria)- जन्म से 5 वर्ष की आयु तक के बालक को यह रोग हो सकता है। इससे बचाव के लिए तीन खुराक छः सप्ताह से प्रारंभ करके 4 से 6 सप्ताह के अंतराल पर दी जाती है।
  • क्षय रोग (Tuberculosis)- जन्म से लेकर सभी आयु के बालक को यह रोग होता है। इससे बचाव के लिए जन्म के समय या दो सप्ताह के भीतर बी० सी० जी० का टीका लगाते हैं।
  • टिटनस (Tetanus)- बच्चों को टिटनस से बचाव के लिए डी० पी० टी० का टीका लगाते हैं।
  • काली खाँसी (Whooping Cough)- जन्म के कुछ सप्ताह बाद से यह रोग हो जाता है। इससे बचाव के लिए डी० पी० टी० का टीका बच्चों को लगाया जाता है।
  • खसरा (Measles)- कुछ माह से लेकर 8 वर्ष तक की आयु तक यह रोग हो सकता है। इससे बचाव के लिए एम० एम० आर० का टीका लगाते हैं।
  • गलसुआ (Mumps)- यह रोग भी बाल्यावस्था में अधिक होता है। इससे बचाव के लिए भी एम० एम० आर० का टीका लगाया जाता है।
  • पीलिया रोग (Hepatities)- यह एक गंभीर रोग होता है। इससे बचाव के लिए Hepatities B-Vaccine बालक को देते हैं। पहली खुराक जन्म के समय, दूसरी 1-2 माह बाद एक तीसरी पहली खुराक के 6-8 महीने बाद भी देते हैं।
  • हैजा (Cholera)- 2 से 10 वर्ष की आयु के बच्चों को यह रोग विशेष रूप से होता है। इसमें रिहाइड्रेशन पद्धति का प्रयोग करते हैं।
  • पोलियो (Polio)- यह रोग भी विशेष रूप से बाल्यावस्था में होता है। पोलियो की दवा तीन खुराकों में दी जाती है जो छः सप्ताह बाद से 4 से 6 सप्ताह के अंतराल पर दी जाती है।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि बाल्यावस्था के बहुत सारे रोग होते हैं जिससे बचाव के लिए प्रतिकारिता की जाती है ताकि बच्चे स्वस्थ रहें।

प्रश्न 11.
वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर:
वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार (Kinds ofSubstitute Child Care)- वैकल्पिक शिशु देखभाल निम्नलिखित से प्राप्त की जा सकती है-

  • बड़े बहन-भाई से
  • सम्बन्धियों/पड़ोसियों से
  • किराये पर ली गई सहायता (Hired Help) से
  • क्रेच/डे-केअर केंद्रों (Day Care Centres) से
  • प्री-नर्सरी/नर्सरी स्कूल/बालवाड़ी (Pre-nursery/Nursery/Balwadi) से

अब आप उपर्युक्त सभी सुविधाओं की योग्यताओं का अध्ययन करेंगे।
भाई-बहन की देखभाल (Sibling Care)- निम्न आर्थिक स्थिति के परिवारों में यह आम है। छोटे-छोटे बच्चे आयु में कुछ बड़े बच्चों की देख-रेख में छोड़ दिये जाते हैं। आपको छः वर्ष का बच्चा अक्सर दो या तीन वर्ष की आयु के बच्चों की देखभाल करता दिखेगा। यह देखभाल कितनी सुरक्षित हो सकती है ? अधिक नहीं-क्योंकि छ: वर्ष के बच्चे में शिशुपालन की योग्यता नहीं होती। कुछ बड़े बच्चे भी इस देखभाल के लिए परिपक्व नहीं होते। इसलिए शिशुपालन के लिए कोई और उपाय खोजना चाहिए।

संबंधी व पड़ोसी (Relatives and Neighbours)- घर पर ही रहकर बच्चे की अच्छी देखभाल करने में सहायता कर सकते हैं व करते हैं। बड़े-बूढ़ों का परिवार में होना बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान है। दादा-दादी, नाना-नानी से बच्चों को प्यार व सुरक्षा मिलती है।

पड़ोसी भी अपने परिवार से अलग अपना ही परिवार होता है। माता की अनुपस्थिति में पड़ोसी बच्चे की वैकल्पिक देखभाल में सहायता कर सकते हैं। ऐसी देख-रेख आम तौर पर अल्पकालीन ही होती है। अगर पड़ोसी के पास समय हो और वह विधिवता देखभाल करने के लिए तैयार हो तो उससे खुलकर बात करनी चाहिए ताकि आप उसकी सहायता का उचित पारिश्रमिक उसे दे सकें।

किराये पर ली गई सहायता (Hired Help)- अमीर शहरी घरानों में यह व्यापक रूप से पायी है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता व योग्यता परख कर ही उसे रखना चाहिए। क्या आपने आया/नौकरानी को रखने से पहले पुलिस शिनाख्त के बारे में सुना है ? अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए।

क्रेच (Creche)-“यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देखरेख में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।”

क्रेच एक आवासी देखभाल केंद्र है। अपना कार्य समाप्त करके माता-पिता बच्चों को घर ले जाते हैं। क्या आप कभी क्रेच में गए हैं ?

क्रेच में तीन साल तक की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देख-रेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं।

प्रश्न 12.
बच्चों की वैकल्पिक देखरेख की आवश्यकता क्या है ?
उत्तर:
आमतौर पर बच्चों की देखभाल का दायित्व माता-पिता का होता है। परंतु कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं कि उनकी देखभाल के लिए वैकल्पिक साधन ढूँढने पड़ते हैं। निम्नलिखित कारणों से बच्चों की वैकल्पिक देखभाल की आवश्यकता पड़ती है-

1. माता या पिता की मृत्यु हो जाने पर- जब माता या पिता में से किसी एक की मृत्यु हो जाती है तो ऐसी स्थिति में बच्चों को पालना कठिन हो जाता है। अतः घर के बाहर वैकल्पिक व्यवस्था का सहारा लेना पड़ता है।

2. एकाकी परिवार का होना- आज औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के कारण एकाकी परिवार का प्रचलन लोकप्रिय है। यदि माता-पिता कामकाजी हैं तो घर में बच्चों की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहता है। अतः बच्चों की देखभाल के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करनी पड़ती है।

3. माता का घर से बाहर काम करना- जब महिला (माता) को घर से बाहर जाकर काम करना पड़ता है तो बच्चों की देखभाल के वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

4. वैवाहिक संबंध टूटने पर- जब वैवाहिक संबंध टूटता है तो बच्चे की देखभाल की जिम्मेवारी किसी एक अभिभावक पर आ जाती है। फलतः अपने व्यावसायिक दायित्वों को पूरा करने में तथा बच्चों की देखभाल में अनेक दिक्कतें आती हैं। इस बजट से वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

5. परिवार के प्रतिमान में परिवर्तन- आज दिन-प्रतिदिन परिवार के प्रतिमानों में परिवर्तन हो रहा है और पारिवारिक संबंधों में कमी आ रही है। फलस्वरूप बच्चों की देखभाल हेतु वैकल्पिक व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है।

6. रिश्तेदारों के संबंधों में परिवर्तन- आज रिश्तेदारों के संबंधों में भी परिवर्तन हुआ है। इस वजह से आपसी स्नेह में कमी आयी है और व्यक्ति दूसरे की जिम्मेदारियों को उठाने में रूचि नहीं रखता है। इस कारण माता-पिता को घर के बाहर विकल्प ढूँढने पड़ते हैं।

7. पड़ोसियों के संबंधों में परिवर्तन- पहले पारिवारिक संबंधों में पड़ोसियों का भी महत्वपूर्ण योगदान होता था। परंतु आज पड़ोसियों के संबंधों में परिवर्तन आ गया है। शहर में तो लोग अपने पड़ोसियों को जानते भी नहीं है। अतः आज पड़ोसियों के भरोसे बच्चे को नहीं छोड़ा जा सकता है।

प्रश्न 13.
नवजात शिशु के जन्म के पश्चात् की आवश्यकताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
नवजात शिशु की जन्म के पश्चात् की आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं-

  • वायु- पूर्वाधात शिशुओं को, जो जन्म होने पर साँस नहीं ले रहे होते हैं, सजीव करना।
  • गर्माहट- जन्म के समय बालक को सुखाना, त्वचा से त्वचा सम्पर्क द्वारा गर्माहट को बनाये रखना, पर्यावरण तापमान तथा सिर और शरीर को ढंकना। कम वजन वाले शिशुओं के लिए कंगारू देखभाल को प्रोत्साहन देना।
  • स्तनपान- जन्म के बाद शिशु को पहले चार घंटों के भीतर स्तनपान कराना। छः माह तक उसे स्तनपान कराते रहना।
  • देखभाल- नवजात शिशु को माता-पिता तथा अन्य देखभाल करने वाले वयस्क व्यक्तियों के निकट रखना। माता को स्वस्थ रखना।
  • रोग संक्रमण पर नियंत्रण- सफाई का विशेष ख्याल रखना ताकि रोग पर नियंत्रण रखा जा सके।
  • जटिलताओं का प्रबंधन- वैसी परिस्थितियाँ जो शिशु के जीवन को कष्टकारी बनाती है, को पहचानना और उसे दूर करने का प्रयत्न करना।

प्रश्न 14.
एक नवजात शिशु की वैकल्पिक देखभाल संबंधियों द्वारा किये जाने के लाभों की चर्चा करें।
अथवा, बच्चों की देखभाल की क्या-क्या वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है ?
उत्तर:
वैकल्पिक शिशु देखभाल के विभिन्न प्रकार (Kinds of Substitute Child Care)- वैकल्पिक शिशु देखभाल निम्नलिखित से प्राप्त की जा सकती है-

  • बड़े बहन-भाई से
  • सम्बन्धियों/पड़ोसियों से
  • किराये पर ली गई सहायता (Hired Help) से
  • क्रेच/डे-केअर केंद्रों (Day Care Centres) से
  • प्री-नर्सरी/नर्सरी स्कूल/बालवाड़ी (Pre-nursery/Nursery/Balwadi) से

अब आप उपर्युक्त सभी सुविधाओं की योग्यताओं का अध्ययन करेंगे।

भाई-बहन की देखभाल (Sibling Care)- निम्न आर्थिक स्थिति के परिवारों में यह आम है। छोटे-छोटे बच्चे आयु में कुछ बड़े बच्चों की देख-रेख में छोड़ दिये जाते हैं। आपको छः वर्ष का बच्चा अक्सर दो या तीन वर्ष की आयु के बच्चों की देखभाल करता दिखेगा। यह देखभाल कितनी सुरक्षित हो सकती है ? अधिक नहीं, क्योंकि छः वर्ष के बच्चे में शिशुपालन की योग्यता नहीं होती। कुछ बड़े बच्चे भी इसे देखभाल के लिए परिपक्व नहीं होते। इसलिए शिशुपालन के लिए कोई और उपाय खोजना चाहिए।

संबंधी व पड़ोसी (Relatives and Neighbours)- घर पर ही रहकर बच्चे की अच्छी देखभाल करने में सहायता कर सकते हैं व करते हैं। बड़े-बूढ़ों का परिवार में होना बच्चों के लिए बहुत बड़ा वरदान है। दादा-दादी, नाना-नानी से बच्चों को प्यार व सुरक्षा मिलती है।

पड़ोसी भी अपने परिवार से अलग अपना ही परिवार होता है। माता की अनुपस्थिति में पड़ोसी बच्चे की वैकल्पिक देखभाल में सहायता कर सकते हैं। ऐसी देख-रेख आम तौर पर अल्पकालीन ही होती है। अगर पड़ोसी के पास समय हो और वह विधिवता देखभाल करने के लिए तैयार हो तो उससे खुलकर बात करनी चाहिए ताकि आप उसकी सहायता का उचित पारिश्रमिक उसे दे सकें।

किराये पर ली गई सहायता (Hired Help)- अमीर शहरी घरानों में यह व्यापक रूप से पायी जाती है। आया/नौकरानी की अच्छी तरह छानबीन करके उसकी विश्वसनीयता व योग्यता परख कर ही उसे रखना चाहिए। क्या आपने आया/नौकरानी को रखने से पहले पुलिस शिनाख्त के बारे में सुना है ? अपने बच्चे की सुरक्षा के लिए माता-पिता को इन पर कड़ी निगरानी रखनी चाहिए।

क्रच (Creche)- “यह एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देख-रेख. में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों।”

क्रेच एक आवासी देखभाल केंद्र है। अपना कार्य समाप्त करके माता-पिता बच्चों को घर ले जाते हैं। क्या आप कभी क्रेच में गए हैं ?

क्रेच में तीन साल तक की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देख-रेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं।

प्रश्न 15.
आहार आयोजन के महत्त्व क्या हैं ?
उत्तर:
परिवार के सभी सदस्यों को स्वस्थ रखने के लिए आहार का आयोजन आवश्यक होता है। आहार आयोजन का महत्त्व निम्न कारणों से है-

1. श्रम, समय एवं ऊर्जा की बचत- आहार आयोजन में आहार बनाने के पहले ही इसकी योजना बना ली जाती है। आवश्यकतानुसार यह आयोजन दैनिक, साप्ताहिक, अर्द्धमासिक तथा मासिक बनाया जा सकता है। इससे समय, श्रम तथा ऊर्जा की बचत होती है।

2. आहार में विविधता एवं आकर्षण- आहार में सभी भोज्य वर्गों का समायोजन करने से आहार में विविधता तथा आकर्षण उत्पन्न होता है। साथ ही आहार पौष्टिक, संतुलित तथा स्वादिष्ट हो जाता है।

3. बच्चों में अच्छी आदतों का विकास करना- चूँकि आहार में सभी खाद्य वर्गों को शामिल किया जाता है इससे बच्चों को सभी भोज्य पदार्थ खाने की आदत पड़ जाती है। इससे ऐसा नहीं होता कि बच्चा किसी विशेष भोज्य पदार्थ को ही पसंद करे तथा अन्य को ना पसंद करे।

4. निर्धारित बजट में संतुलित एवं रूचिकर भोजन- आहार का आयोजन करते समय निर्धारित आय की राशि को परिवार की आहार आवश्यकताओं के लिए इस प्रकार वितरित किया जाता है जिससे प्रत्येक व्यक्ति के लिए उचित आहार का चुनाव संभव हो सके। आहार आयोजन करते समय प्रत्येक व्यक्ति की रुचि तथा अरुचि का भी ध्यान रखा जाता है और प्रत्येक व्यक्ति को संतुलित आहार भी प्रदान किया जाता है। आहार आयोजन के बिना कोई भी व्यक्ति कभी भी आहार ले सकता है। परंतु व्यक्ति की पौष्टिक आवश्यकताओं को पूरा करने में समर्थ नहीं हो सकता है। आहार आयोजन के बिना परिवार की आय को आहार पर खर्च करने से बजट. भी असंतुलित हो जाता है।

प्रश्न 16.
वृद्धों के लिए आहार आयोजन करते समय किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
वृद्धों के लिए आहार आयोजन करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-

  • आहार आसानी से चबाने योग्य हों ताकि वृद्ध उसे अच्छी तरह से चबाकर खा सके।
  • भोजन सुपाच्य हो।
  • भोजन अधिक तले-भूने तथा मिर्च मसालेदार नहीं हो।
  • भोजन में सभी पौष्टिक तत्व मौजूद हों।
  • रफेज की प्राप्ति हेतु नरम सब्जियों तथा फलों का प्रयोग किया जाना चाहिए।
  • वृद्ध की रुचि के अनुसार भोज्य पदार्थों का चुनाव किया जाना चाहिए ताकि वह प्रसन्नतापूर्वक रुचि के साथ खा सके। (vii) तरल तथा अर्द्ध तरल भोज्य पदार्थों, जैसे–सूप, फलों का रस, दलिया, खिचड़ी आदि को भी आहार में शामिल करना चाहिए।
  • आहार आयोजन इस तरह होना चाहिए कि वृद्ध को उतनी ही कैलोरी मिलनी चाहिए जितनी कि उसके शरीर के लिए आवश्यक है।
  • अस्थि विकृति तथा रक्तअल्पता के बचाव के लिए आहार में पर्याप्त मात्रा में दूध, दूध से बने व्यंजन, यकृत, माँस एवं हरी पत्तेदार सब्जियाँ होनी चाहिए।
  • कब्ज से बचाव के लिए पर्याप्त मात्रा में रेशेदार भोज्य पदार्थों का समावेश होना चाहिए।
  • भोजन बदल-बदल कर दिया जाना चाहिए ताकि खाने में रुचि बनी रहे।
  • बासी तथा खुले भोजन से परहेज होना चाहिए।
  • प्रोटीन की पूर्ति के लिए आहार में प्राणिज भोज्य पदार्थों (अण्डा, दूध, मांस, मछली, यकृत तथा दालों) का समावेश होना चाहिए।
  • पर्याप्त मात्रा में पानी का सेवन किया जाना चाहिए।
  • विटामिन ‘सी’ की पूर्ति हेतु आहार में नींबू, संतरा, अमरूद, आँवला तथा अन्य खट्टे फलों का समावेश किया जाना चाहिए।

Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
समरूप विद्युत क्षेत्र में विद्युत द्विधुव पर बल आघूर्ण (Torque) के लिए व्यंजक प्राप्त करें।
उत्तर:
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 1
AB एक विद्युत द्विध्रुव (electric dipole) है। इसके A पर आवेश +Q तथा B पर आवेश -Q है। इसके बीच की दूरी 2l है। E एक समान विद्युत क्षेत्र है। E के साथ विद्युत द्विध्रुव को कोण α है।
E विद्युत क्षेत्र के कारण A औरB पर बल (F) = QEA पर यह बल, E की दिशा में तथा B पर E के विपरीत दिशा में काम करता है। ये दोनों बल मिलकर एक बलयुग्म (couple) बनाते हैं जो द्विध्रुव AB को क्षेत्र E की दिशा में लाना चाहता है।
इस बलयुग्म का आघूर्ण (T)
= बल × लम्बवत दूरी
= QE · AC =QE. 2lsinθ
[∵ ΔABC से sinθ \(=\frac{A C}{B C}=\frac{A C}{2 l}\)
= ME sinθ
[∵ 2la = M (द्विध्रुव आघूर्ण)]
यदि AB द्विध्रुव को विद्युत क्षेत्र के लम्बवत रखा जाय तो a= 90°
∴ बलयुग्म का आघूर्ण (T) = ME sin 90°
= ME [∵ sin 90° = 1 ]
यह आघूर्ण अधिकतम होता है।
(T max) = ME

प्रश्न 2.
Is coulomb’s law is universal law?
(क्या कूलम्ब का नियम एक सार्वत्रिक नियम है?)
उत्तर:
कूलम्ब का नियम सार्वजनिक नियम नहीं है क्योंकि यह आवेशों के बीच के माध्यम पर निर्भर करता है। यह नियम rest में बिन्दु आवेश के लिए लागू होता है।

प्रश्न 3.
What is conservation of charge?
(आवेशों का संरक्षण क्या है?)
उत्तर:
एक isolated (विगलित) system का विद्युत आवेश संरक्षित रहता है। इसमें न उत्पन्न किया जा सकता है और न नष्ट ही । इसे दिखलाने के लिए एक ग्लास छड़ तथा सिल्क कपड़ा लेते हैं। दोनों को आपस में रगड़ा जाता है। इसके.ग्लास छड़ (+ve) आवेश तथा सिल्क पर (-ve) आवेश उत्पन्न होता है। दोनों पर आवेश का मान समान रहता है। अतः system का कुल आवेश शून्य रहता है। यही शून्य आवेश, रगड़ने के पहले भी रहता था। यह आवेश के सरंक्षण को दिखलाता है।

प्रश्न 4.
What is electric field? Obtain an expression for the electric field at any point.
(विद्युत क्षेत्र क्या है? किसी बिन्दु पर विद्युत क्षेत्र के लिए व्यंजक प्राप्त करें।)
उत्तर:
विद्युत क्षेत्र -क्षेत्र में स्थिति किसी बिन्दु पर के इकाई धन आवेश पर क्षेत्र के कारण जितना काम लगता है उसे उस बिन्दु पर “विद्युत क्षेत्र” कहते हैं।
व्यंजक (Expression)-
मान लिया कि A एक चालक है। इस पर आवेश +Q है। इसमें r दूरी पर P एक बिन्दु है। P पर इकाई धन आवेश की कल्पना करते हैं।
A के कारण P पर बल = \(\frac{1}{4 \pi \epsilon_{0}} \frac{Q \cdot 1}{r^{2}}\)
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 2
∴ P पर विद्युत क्षेत्र = \(\frac{1}{4 \pi \epsilon_{0}} \frac{Q}{r^{2}}\)
यदि A और P के बीच हवा न रहकर कोई दूसरा माध्यम हो तो
P पर विद्युत क्षेत्र = \(\frac{1}{4 \pi \epsilon_{0} \in_{r}} \frac{Q}{r^{2}}\)
इसका मात्रक बोल्यमीटर (Vm-1) या न्यूटन/कूलम्ब (NC-1) है।

प्रश्न 5.
What is electric dipole ? (विद्युत द्विध्रुव क्या है?)
उत्तर:
“समान परिमाण के (+ ve) तथा (-ve) आवेश एक-दूसरे से बहुत कम दूरी पर हो तो उसे “विद्युत द्विध्रुव. (Electric dipole) कहते हैं।”

यदि आवेश का परिमाण +Q तथा –Q हो तथा इनके बीच की दूरी 21 हो तो विद्युत द्विध्रुव आघूर्ण (electric dipole moment)-
= आवेश x दूरी = 2lQ
इसे साधारणत: M से सूचित करते हैं। .
∴ M = 2lQ

प्रश्न 6.
Differentiate the difference between the electrical potential and electrical intensity at a point in an electric field.
(किसी वैद्युत क्षेत्र के किसी बिन्दु पर विभव एवं तीव्रता में अन्तर स्पष्ट करें।)
उत्तर:
किसी विद्युत क्षेत्र के किसी बिन्दु पर विभव एवं तीव्रता में निम्नलिखित अंतर है-

वैद्युत तीव्रताबैद्युत विभव
(i) किसी विद्युत क्षेत्र में किसी बिन्दु पुर तीव्रता उस बिन्दु पर रखे इकाई धन आवेश पर लगने वाला बल है।(i) वैद्युत क्षेत्र के किसी बिन्दु पर इकाई धन आवेश को अनन्त से उस बिन्दु तक लाने में संपादित कार्य होता है।
(ii) यह एक सदिश राशि।(ii) यह एक अदिश राशि है।
(iii) किसी वैद्युत क्षेत्र के किसी बिन्दु पर वैद्युत तीव्रता उस बिन्दु पर ऋणात्मक विभाव प्रवणता (negative potential gradient) के बराबर होता है यानी
E = \(\frac{-d v}{d x}\)
(iii) किसी बिन्दु पर वैद्युत तीव्रता का रेखा समाकलन (line integral) उस बिन्दु पर विभव के बराबर होता है।
यानी V = \(\int E d x\)
(iv) इसका S.I. मात्रक न्यूटन कुलम्ब (NC-1) होता है।(iv) इसका S.I. मात्रक वोल्ट (Volt) होता है।

प्रश्न 7.
Deduce an expression for the intensity of the electric field near charged plane conductor or prove coulomb’s theorem in Electrostatics.
(किसी आवेशित समतल चालक के समीप विद्युत क्षेत्र की तीव्रता के लिए एक व्यंजक निकालें। अथवा, स्थिर विद्युत में कूलम्ब प्रमेय को सिद्ध करें।)
उत्तर:
मान लिया कि एक समतल चालक है, तल AB पर आवेश का सतही घनत्व (surface density) 0 है। इस तल के बहुत ही निकट कोई बिन्दु p है जहाँ पर इस आवेशित चालक के कारण विद्युत-क्षेत्र की तीव्रता निकालनी है। मान लिया कि विद्युत क्षेत्र की तीव्रता E है। अब हम एक ऐसे बेलनाकार तल pqrs की कल्पना करते हैं जिसके समतल सिरे pr व qs तल AB के समान्तर है तथा वक्रतल चालक के तल AB के लम्बवत् है। बिन्दु P समतल सिरे qs पर स्थित है और बेलन का समतल सिरा qr चालक S के भीतर है। मान लिया कि तल pr व qs के क्षेत्रफल ds है। अब चूँकि विद्युत क्षेत्र की तीव्रता की दिशा चालक के तल AB के
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 3
लम्बवत् है, अत: बेलनाकार तल के वक्र सतह से गुजरने वाला विद्युत “फ्लक्स” शून्य होगा। फिर, इस बेलनाकार तल का सिरा qr चालक के भीतर है। अतः इस सतह से गुजरने वाला विद्युत “फ्लक्स” भी शून्य होगा क्योंकि आवेशित चालक के अन्दर तीव्रता शून्य होती है। इसलिए सिरे qs से.गुजरने वाला विद्युत “फ्लक्स = E × ds”, और वही बेलनाकार तल से गुजरने वाला कुल विद्युत फ्लक्स है।

चूँकि बेलनाकार तल के भीतर चालक का क्षेत्रफल ds स्थित है, इसलिए इस पर आवेश का कुल परिणाम ods होगा। अतः गॉस के प्रमेय से बेलनाकार तल का कुल विद्युत “फ्लक्स
\(\frac{\Sigma q}{\epsilon_{0}}=\frac{\sigma d s}{\epsilon_{0}}\)
∴ E × dx = \(\frac{\sigma d s}{\epsilon_{0}}\)
या, E = \(\frac{\sigma}{\epsilon_{0}}\)
यही कूलम्ब का प्रमेय है।

प्रश्न 8.
A good potentiometer consists of 10 wires each of 1m in length connected in series, why?
(एक अच्छे विभक्यापी में श्रेणीक्रम में 10 तार की प्रत्येक लम्बाई Imजुड़े होते हैं, क्यों?)
उत्तर:
अगर विभवमापी के तार के प्रति इकाई लम्बाई का प्रतिरोध p हो और इसमें 1 ऐम्पियर की धारा प्रवाहित हो तो प्रति इकाई लम्बाई तार पर विभव पतन PI होगा।
यदि किसी सेल का वि० वा० बल E हो और तार की लम्बाई पर संतुलन प्राप्त हो, तो
E = pIl
dE = P I dl
या, \(\frac{d l}{d \epsilon}=\frac{1}{P I}\)
\(\frac{d l}{d E}\)विभवमापी की सुग्राहिता बतलाता है। अतः यदि 1 का मान बढ़ाया जाय तो I का मान घटेगा और विभवमापी की सुग्राहिता बढ़ेगी। अतः अच्छे विभवमापी में एक तार की अपेक्षा एक-एक मीटर के दस तार श्रेणीक्रम में लगाये जाते हैं।

प्रश्न 9.
What is electric current ? (विद्युत धारा क्या है ?)
उत्तर:
किसी चालक में आवेश प्रवाह के दर को “विद्युतधारा” कहते हैं। मान लिया कि t sec. में चालक के किसी भाग से Q आवेश प्रवाहित होता है।
∴ विद्युत धारा (i) = Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 4 = \(\frac{Q}{t}\)
विद्युत धारा एक अदिश राशि (Scalar quantity) है। इसका S.I. Unit “ऐम्पियर (Ampere)” है।
अतः 1 Amp. = Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 5

प्रश्न 10.
What is electrical conductivity and specific conductivity? (विद्युत चालकता तथा विशिष्ट चालकता क्या है?)
उत्तर:
विद्यत चालकता-किसी पदार्थ से विद्युत का प्रवाह कितनी आसानी से हो सकता है इसकी माप चालकता से होती है। यह चालकता, प्रतिरोध पर निर्भर करता है।
अतः विद्युत चालकता पदार्थ का वह गुण है जो यह बतलाता है कि उससे होकर कितनी आसानी से विद्युत प्रवाहित हो सकती है। इसे G से सूचित करते हैं।
इसकी माप प्रतिरोध के व्युत्क्रमानुपाती (Inversely proportional) द्वारा की जाती है।

अर्थात् चालकता = Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 6 या, G = \(\frac{1}{R}\)
इसका मात्रक “ओम-1 ( Ω-1) या मो (mho)” है।

विशिष्ट चालकता (Specific conductivity)-किसी पदार्थ के विशिष्ट प्रतिरोध के व्युत्क्रम को “विशिष्ट चालकता” कहते हैं। इसे प्रायः σ (सिग्मा) से दिखलाते हैं।
अर्थात् σ = Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 7
= \(\frac{1}{\rho}\)
इसका मात्रक ओम-1 मीटर या-1 (मो-मीटर-1) होता है।

प्रश्न 11.
What is Eddy current ? (भंवर धारा क्या है ?)
उत्तर:
भंवर धारा (Eddy.current)-यदि किसी धातु के टुकड़ों को किसी परिवर्तनशील चुम्बकीय क्षेत्र में रखा जाय या उन टुकड़ों को किसी स्थानीय चुम्बकीय क्षेत्र में घूर्णित किया जाय तो उसमें प्रेरित धारा उत्पन्न होती है। प्रेरित धारा चक्करदार होती है। अतः वह “भंवर धारा” कही जाती है। इसे फूको धारा भी कहा जाता है क्योंकि इसका पता फूको ने लगाया था।
‘इस धारा का उपयोग चलकुण्डल गैल्वेनोमीटर में कुण्डली की गति को अवदित करने में किया जाता है।

प्रश्न 12.
अधिकतम शक्ति प्रमेय (Maximum Power Theorem) क्या है ? इसे प्रमाणित करें?
उत्तर:
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 8
Maximum Power Theorem :
यह प्रमेय यह बतलाता है कि, “किसी बाह्य परिपथ को दी गयी शक्ति का मान महत्तम तब होता है जब स्रोत की आन्तरिक प्रतिरोध का मान बाह्य परिपथ के प्रतिरोध के बराबर होता है।”
प्रमाण : मान लिया E वि० वा० बल एवं आन्तरिक प्रतिरोध का एक विद्युत स्रोत को बाह्य प्रतिरोध R से जोड़ा गया है।
धारा भेजता है तो लोड द्वारा उपमुक्त (Consumed) शक्ति
p = i2R \(=\left(\frac{E}{R+r}\right)^{2}\) .R
स्पष्टः शक्ति का मान लोड के प्रतिरोध पर निर्भर करता है। अतः शक्ति को अधिकतम होने के लिए \(\frac{d P}{d R}\) = 0 होना चाहिए,
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 9
(R+r)2 = 2R (R+r)
R=r यही महत्तम शक्ति ह्रास का शर्त है।

प्रश्न 13.
Ampere के परिपथीय नियम को लिखें एवं समझायें।
उत्तर:
एम्पीयर के परिपथीय नियम-
यह नियम यह बतलाता है कि, “निर्वात में किसी बंद पथ के लिए चुम्बकीय क्षेत्र के प्रेरण \(\vec{B}\)का रेखा समाकलन का मान उस बंद पथ के क्षेत्र से गुजरते कुल धारा I का μ0गुणा होता है।”
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 10
एक खुले सतह पर विचार करते हैं जिसके सतह से धारा i गुजरती है। इसका परिधि एक बंद वक्र C है। अगर बंद वक्र के किसी बिन्दु पर चुम्बकीय क्षेत्र \(\vec{B}\) है तो इसका स्पर्शरेखीय घटक Bt और अल्पाक्षीय लम्बाई dl का गुणनफल = Bt dl = B cosθ dl = \(\vec{B} \cdot \overrightarrow{d l}\)

इस प्रकार Product का सम्पूर्ण बंद वक्र C के लिए समाकलन \(\oint \vec{B} \cdot \overrightarrow{d l}\)को बंद वक्र के लिए रेखा चुम्बकीय क्षेत्र का रेखा समाकलन (line integral of magnetic field) कहा जाता है।
अतः एम्पीयर के परिपथीय नियम के अनुसार
\(\oint \vec{B} \cdot \overrightarrow{d l}=\mu_{0} I\)
इस नियम से एक चिन्ह परीपाटी जुड़ा है। जो दाहिने हाथ के अंगुठे के नियम से ज्ञात होता है।
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 11

प्रश्न 14.
A potentiometer can measure potential difference as well as current. Explain how?
(एक विभवमापी द्वारा विभवांतर एवं धारा दोनों को मापा जा सकता है। समझाएँ कैसे?
उत्तर:
विभवमापी एक आदर्श वोल्टमीटर (अनन्त प्रतिरोध वाले वोल्टमीटर) जैसा व्यवहार करता है। वह विभवांतर का सटिक मान मापता है। विभवमापी में काफी लम्बा तार लकड़ी के तख्ते पर फैला रहता है जिसके दोनों सिरों के बीच ज्ञात विभवांतर स्थापित किया जाता है। जिस विभवान्तर को मापना होता है उसे तार की कुल लम्बाई के बीच विपरीत दिशा में आरोपित किया जाता है। तार की लंबाई इस तरह से समजित की जाती है कि जिससे दूसरे विद्युत परिपथ में शून्य धारा प्रवाहित हो। विभवमापी से अज्ञात धारा का मान जानने के लिए एक प्रामाणिक प्रतिरोध का व्यवहार किया जाता है।

इस प्रामाणिक प्रतिरोध का मान ज्ञात रहता है। अज्ञात धारा को इस प्रतिरोध से प्रवाहित करने पर जो विभवांतर उत्पन्न होता है उसे ज्ञात कर लिया जाता है। इस विभवान्तर को प्रामाणिक प्रतिरोध से भाग देने पर प्राप्त फल अज्ञात धारा का मान देता है। इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि विभवमापी द्वारा विभवांतर एवं धारा दोनों ही मापे जा सकते हैं।

प्रश्न 15.
What do you always connect a ammeter in series and a voltmeter in parellel ? (आमीटर को हमेशा श्रेणीक्रम में तथा वोल्टमीटर को समान्तर क्रम में जोड़ जाता है, क्यों ?)
उत्तर:
आमीटर किसी विद्युत परिपथ में प्रवाहित होने वाली धारा का मान देता है। किसी परिपथ में यह श्रेणीक्रम (Series) में जोड़ा जाता है, ताकि मापी जाने वाली कुल धारा इससे होकर गुजरे और उसके संगत विक्षेप उत्पन्न करे। आमीटर का प्रतिरोध आवश्यक रूप से बहुत ही कम होता है जिससे कि मापी जाने वाली धारा में इसके संयोजन के कारण नगण्य कमी हो।

इसके विपरीत वोल्टमीटर किसी विद्युत परिपथ के किसी भाग पर उत्पन्न विभवान्तर की माप प्रदान करता है। परिपथ के जिस भाग पर उत्पन्न विभवान्तर की माप ज्ञात करनी रहती है, वोल्टमीटर. को उस भाग को समान्तर क्रम में जोड़ा जाता है।

अतः वोल्टमीटर के उस तार (विशेष प्रतिरोध) के समान्तर क्रम में जोड़ना पड़ता है, जिसके बीच का विभवांतर मापना है। वोल्टमीटर का प्रतिरोध आवश्यक रूप से बहुत अधिक रहता है, जिससे कि इस यंत्र से होकर नगण्य धारा प्रवाहित हो।

प्रश्न 16.
Compare between A.C. & D.C. (A.C. तथा D.C. में तुलना करें।)
उत्तर:
A.C. के लाभ-

  • A.C. के वि० वा० बल तथा धारा की दिशा बदलती रहती है परन्तु D.C. में दिशा एक ही रहती है।
  • A.C. के विद्युत वाहक बल को ट्रान्सफॉर्मर के द्वारा विद्युत ऊर्जा को नष्ट किये बिना घटाया-बढ़ाया जा सकता है। परन्तु सीधी धारा (D.C.) में प्रतिरोध लगाकर यह काम लिया जा सकता है जिसमें कि विद्युत ऊर्जा की बहुत हानि होती है।
  • A.C. के वि० वा० बल को काफी अधिक बढ़ाकर हर स्थानों में भेजा जाता है। . फिर वहाँ ट्रान्सफॉर्मर की मदद से वि० वा० बलं को कम कर दैनिक कार्य किया जा सकता है, परन्तु D.C. में इस तरह की बात नहीं है।

A.C. के हानि-

  • A.C. से विद्युत विच्छेदन (Electrolysis) की क्रिया नहीं हो पाती है। अतः इसके द्वारा कलई नहीं की जा सकती है। D.C. से यह कार्य किया जा सकता है।
  • A.C. को संचायक (Accumulators) में जमा नहीं किया जा सकता है। परन्तु D.C. को सेल में जमा किया जा सकता है।
  • A.C. किसी चीज को आकर्षित करता है। इस कारण से यह खतरनाक है। परन्तु D.C. किसी चीज को विकर्षित अर्थात् धक्का देता है। :

प्रश्न 17.
How does a hot wire ammeter measure alternating current ? (तप्त तार आमीटर से प्रत्यावर्ती धारा को किस प्रकार मापा जाता है ?).
उत्तर:
जब किसी तार से धारा प्रवाहित की जाती है तब वह तार गर्म हो जाता है। धारा के ऊष्मीय प्रभाव का उपयोग तप्त तार आमीटर बनाये जाते हैं। धारा के प्रवाह के कारण उत्पन्न ऊष्मा धारा के वर्ग के अर्थात् I2 के समानुपाती होती है। जब अज्ञात धारा तप्त तार आमीटर में लगे तार से प्रवाहित की जाती है, तब तार गर्म होकर कुछ ढीला पड़ जाता है। इससे जुड़ा स्प्रिंग इसे खींचता है और तार में लगा एक संकेतक एक पैमाने पर विक्षेपित होता है। तार की लंबाई में वृद्धि तार व कारण उत्पन्न ऊष्मा के समानुपाती होती, परन्तु संकेतक का विक्षेप धारा के वर्ग (I2) के मानुपाती होता है।

चूंकि, विक्षेप धारा के वर्ग के समानुपाती होता है। इसलिए विक्षेप धारा दिशा पर निर्भर नहीं ता है। प्रत्यावर्ती धारा की दिशा समयों के आधार पर बदलती रहती है, परन्तु आमीटर के तार उत्पन्न ऊष्मा धारा के मान पर न कि उसकी दिशा पर निर्भर करती है।

प्रश्न 18.
What do you understand by electrical work, energy and power?
(विद्युतीय कार्य, ऊर्जा और शक्ति से आप क्या समझते हैं ?)
or,
Show that want × Volt Ampere
अथवा, (दिखलायें = वोल्ट × आम्पीयर)
उत्तर:
विद्यु तिया कार्य, ऊर्जा और सक्ति (Electrical work, energy and power).. मान लिया AB चालक के सिरों के बीच विभवान्तर ν है-
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 12
∴ इकाई धन आवेश को B से A तक लाने में किया गया कार्य =V
∴ Q इकाई धन आवेश को B से A तक लाने में किया गया कार्य = QV
या, कार्य = QV
या, कार्य = vct [ ∵ धारा = Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 13 c= \(\frac{Q}{t}\) ]
कार्य करने की क्षमता को “ऊर्जा (Energy)” कहते हैं।
अर्थात ऊर्जा = νct
कार्य करने की दर को विद्युत शक्ति कहते हैं।
अर्थात् विद्युत शक्ति = Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 14 = \(\frac{v c t}{t}\)
= νc जूल/से० … (i)
परन्तु 1 जूल/से० = 1 वाट
समी० (i) में सबों का मात्रक देने पर,
वाट = वोल्ट × आम्पीयर

प्रश्न 19.
What do you mean by mutual induction and coefficient of mutual induction.
(अन्योन्य प्रेरण तथा अन्योन्य प्रेरण गुणांक से आप क्या समझते हैं?)
उत्तर:
मान लिया कि A और B दो कुण्डली है। A कुण्डली को सेल तथा कुंजी से श्रेणीक्रम में जोड़ देते हैं। परन्तु B कुण्डली से एक galν. जुड़ा रहता है।

अब A कुण्डली में धारा प्रवाहित करते हैं तथा बन्द करते हैं। साथ ही साथ धारा के मान में परिवर्तन करते हैं। इन स्थितियों में B कुण्डली में एक प्रेरित वि० वा० बल उत्पन्न होता है। इस घटना को “अन्योन्य प्रेरण (Mutual induction)” कहते हैं।
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 15
Aकुण्डली को प्राथमिक कुण्डली (Primary coil) तथा B कुण्डली को द्वितीयक कुण्डली (Secondary coil) कहते हैं।
अतः “किसी एक कुण्डली में धारा के मान में परिवर्तन करने से उसके पास रखी दूसरी कुण्डली में विद्युत चुम्बकीय प्रेरण की घटना को अन्योन्य प्रेरण (Mutual induction) कहते हैं।”

मान लिया कि प्राथमिक कुण्डली में ip धारा प्रवाहित करने से द्वितीयक कुण्डली में होकर गुजरने वाली बल रेखाओं की संख्या Ns है।
∴ Ns ∝ ip
= M . ip
जहाँ M एक स्थिर राशि है। इसे कुण्डली का “अन्योन्य प्रेरण गुणांक (Coeff. of mutual induction)” या “अन्योन्य प्रेरकत्व (Mutual inductance)” कहते हैं।
यदि ip = 1 हो तो Ns = M

अतः “प्राथमिक कुण्डली में इकाई धारा प्रवाहित करने के कारण दूसरी कुण्डली होकर जितनी चुम्बकीय बल रेखाएँ जाती हैं, उसे “अन्योन्य प्रेरण गुणांक कहते हैं।” इसकी इकाई “हेनरी (Henry)” है।

प्रश्न 20.
Obtain an expression for forces between two parallel curuarrying conductors.
(चालकों के दो समानान्तर धाराओं के बीच बल के लिए व्यंजक प्राप्त करें।)
उत्तर:
मान लिया कि MN तथा PQ दो समानान्तर चालक है। इसके बीच की दूरी r है। इसमें क्रमशः I1तथा I2 धारा बहती है।
MN के धारा के कारण PQ पर चुम्बकीय क्षेत्र (B)
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 16
\(=\frac{\mu_{0} I_{1}}{2 \pi r}\) …(1)
इसकी दिशा I1 तथा r पर लम्बवत् होगा। साथ ही साथ I2 के भी लम्बवत् होगा
अब PQ तार के एक छोटे भाग dl की कल्पना करते हैं। इस dl पर B के कारण
= B I2dl sin90°
= \(\frac{\mu I_{1}}{2 \pi r}\). I2dl [(i) से B का मान]
यदि तार की कुल लम्बाई l हो तो
कुल बल = \(\frac{\mu_{1} I_{2} l}{2 \pi r}\) ….(2)

इसकी दिशा PQ तार पर बायीं ओर यानी MN की ओर होगी। इसी प्रकार I2 धारा द्वारा MN पर बल दायीं ओर लगेगा। अतः तार में एक दिशा में धारा बहने पर उनके बीच आकर्षण का बल काम करने लगता है। ठीक इसके विपरीत जब धारा विपरीत दिशा में रहती हो तो उनके बीच विकर्षण का बल लगता है।

प्रश्न 21.
Describe definition of ampere. (आम्पीयर की परिभाषा का वर्णन करें।)
उत्तर:
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 17
धारा के मात्रक “आम्पीयर” है।
दो तार एक-दूसरे को समानान्तर हैं। इसमें प्रवाहित धारा I1 तथा I2 हैं। इसकी लम्बाई l है। इसके बीच की दूरी d है।
धारा के कारण दोनों के बीच लगनेवाला बल
F = \(\frac{\mu_{0} I_{1} I_{2} l}{2 \pi d}\)
यदि I1 = I2 = 1 आम्पीयर,l = 1 मीटर,
d = 1 मीटर हो तो
F = \(\frac{\mu_{0}}{2 \pi}\) = \(\frac{4 \pi \times 10^{-7}}{2 \pi}\)
= 2 × 10-7 न्यूटन
अतः “1 आम्पीयर धारा वह धारा है जो इकाई लम्बाई तथा इकाई दूरी पर स्थित चाल के बीच प्रवाहित होकर 2 × 10-7
न्यूटन का आकर्षण या विकर्षण का बल लगाता है।”

प्रश्न 22.
What are the difference between e.m.f.and potential difference? (वि० वा० बल तथा विभवान्तर के बीच क्या अन्तर है ?)
उत्तर:

वि० वा० बलविभवान्तर
(i) यह सेल का परिपथ खुला रहने पर विभव के अन्तर को बतलाता है।(i) यह सेल का परिपथ बन्द रहने पर विभव के अन्तर को बतलाता है।
(ii) यह प्रतिरोध पर निर्भर नहीं करता है।(ii) यह प्रतिरोध के समानुपाती होता है।
(iii) यह परिपथ के बन्द नहीं रहने पर exist करता है।(iii) यह परिपथ के बन्द रखने पर exist करता है।
(iv) यह विभवान्तर से बड़ा होता है।(iv) यह वि० वा० बल से छोटा होता है।
(v) इसे वोल्ट में मापा जाता है।(v) इसे भी वोल्ट (Volt) में मापा जाता है।

प्रश्न 23.
How can convert galvenometer into ammeter?
(गैल्वेनोमीटर की आमीटर में कैसे बदला जा सकता है?)
उत्तर:
गैल्वेनोमीटर के समानान्तर क्रम में कम मान के प्रतिरोध को लगाकर आमीटर में बदला जा सकता है। स्केल को ‘आम्पीयर’ में अंकित कर देते हैं।
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 18
मान लिया कि galν. का प्रतिरोध = g
कम मान का प्रातराव = S
galν. से धारा = Ig
तथा शंट से धारा = Is
A और B के बीच विभवान्तर
= Ig . g
= Is . S
∴ Ig . g = Is . S
= (I- Ig) • S .
[∵ I = Ig + Is या, Is + I – Ig]
या, S = \(\frac{I g \cdot g}{I-I g}\)
अतः gav. के समानान्तर क्रम में S = \(\frac{I_{g} g}{I-I g}\)मान का प्रतिरोध लगाकर galv. को आमीटर में बदला जा सकता है।

प्रश्न 24.
How can convert galvenometer into voltmeter ? (गैल्वेनोमीटर को वोल्टमीटर में कैसे बदला जा सकता है.?)
उत्तर:
गैल्वेनोमीटर (Galvenometer) के श्रेणीक्रम में उच्च प्रतिरोध जोड़ देने से गैल्वेनोमीटर वोल्टमीटर में बदल जाता है।
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 2 19
मान लिया कि गैलवेनोमीटर का प्रतिरोध = G
उच्च प्रतिरोध = R
प्रवाहित धारा = I
A और B के बीच विभवान्तर = धारा × प्रतिरोध
V=I (G+R)
जहाँ v → A और B के बीच विभवान्तर
या, G + R = \(\frac{V}{I}\)
या, R= \(\frac{V}{I}\) – G
अतः गैल्वेनोमीटर के श्रेणीक्रम में उच्च प्रतिरोध अर्थात् = \(\frac{V}{I}\) – G लगा देने से गैल्वेनोमीटर वोल्टमीटर के जैसा काम करता है।

प्रश्न 25.
What is Watless current. (वाटहीन धारा क्या है ?)
उत्तर:
L या C एक A.C circuit की कल्पना करते हैं। इसका ohmic प्रतिरोध शून्य है धारा तथा वोल्टेज के बीच Phase diff. 90° है। इस समय औसत शक्ति की हानि
= VrmsIrms . cos 90° जहाँ Vrms तथा Irms RMS वोल्टेज तथा धारा है।
=Vrms Irms 0 = 0
ऊपर से यह स्पष्ट होता है कि circuit से धारा का प्रवाह हो रहा है परन्तु उसकी औसत शक्ति शून्य है, इस धारा को “वाटहीन धारा (Wattless current)” कहते हैं।

प्रश्न 26.
How can it be tested experimentally wheather a given liquid is paramagnetic or diamagnetic?
(प्रयोग से किस प्रकार जाँच की जा सकती है कि दिया गया द्रव अनुचुम्बकीय प्रति चुम्बकीय है?)
उत्तर:
अनुचुम्बकीय पदार्थ को चुम्बकन क्षेत्र में रखने पर यह बल रेखाओं के समानान्तर तथा शक्तिशाली क्षेत्र की ओर भागता है, जबकि प्रति चुम्बकीय पदार्थ, बल रेखाओं के लम्बवत् तथा कमजोर क्षेत्र में. भागता है।
एक watch glass में इस द्रव को लेकर एक चुम्बकन क्षेत्र के बीच रखते हैं। यदि द्रव glass के बीच में ऊपर उठ जाता है तथा किनारे में धंस जाता है तथा द्रव अनुचुम्बकीय होता है। इसके विपरीत यदि द्रव बीच में धंस जाता है तथा किनारे में ऊपर उठ जाता है तब पदार्थ, प्रति चुम्बकीय होता है।

प्रश्न 27.
What is power of lens? (लेन्स की क्षमता क्या है ?)
उत्तर:
प्रकाश की किरणें लेन्स पर आपतित होती है। अपवर्तन के बाद अपने मार्ग से मुड़ जाती है। उत्तल लेन्स (convex lens) में लेन्स की ओर तथा अवतल लेन्स (concave lens) में लेन्स से दूर मुड़ती है। प्रकाश को अधिक मोड़ने वाले लेन्स की क्षमता अधिक होती है।
अतः “पतले लेन्स की क्षमता इसकी फोकस दूरी के व्युत्क्रम (reciprocal) होती है।” यदि फोकस दूरी मीटर में हो तो
क्षमता (P) = \(\frac{1}{f}\)
इसका unit डायोप्टर (Diopter) होती है।

प्रश्न 28.
What do you mean by magnifying power ? (आवर्द्धन क्षमता से आप क्या समझते हैं ?)
उत्तर:
किसी यंत्र की आवर्द्धन क्षमता उसके द्वारा वस्तु का बनाया गया magnified प्रतिबिम्ब होता है।
किसी यंत्र की आवर्द्धन क्षमता (magnifying power) उसके द्वारा बनाये गये अन्तिम प्रतिबिम्ब द्वारा नेत्र पर बनाये गये दर्शन कोण तथा उसी स्थान पर रखी वस्तु द्वारा नेत्र पर बनाये गये दर्शन कोण का अनुपात होता है। इसे “कोणीय आवर्द्धन” (Angular magnification) भी कहते हैं।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3 In Hindi

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Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3 in Hindi

प्रश्न 1.
बैंक दर एवं ब्याज दर में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
बैंक दर वह दर है जिस पर केन्द्रीय बैंक सदस्य बैंकों के प्रथम श्रेणी के व्यापारिक बिलों की पुर्नकटौती करता है और उन्हें ऋण देता है।

ब्याज दर वह दर है जिस पर देश के व्यापारिक बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थाएँ ऋण देने को तैयार होती हैं।

प्रश्न 2.
मुद्रा के किन्हीं दो कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर:
आधुनिक युग को मौद्रिक युग कहा जाता है। इस युग के विकास से मुद्रा के कार्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। मुद्रा के कार्यों को तीन वर्गों में बाँटा गया है-

  1. प्राथमिक कार्य : (A) विनिमय का माध्यम, (B) मूल्य की इकाई।
  2. गौण अथवा सहायक कार्य : (A) स्थगित भुगतानों का मान, (B) मूल्य का संचय, (C) मूल्य का हस्तांतरण।
  3. आकस्मिक कार्य : (A) साथ निर्माण का आधार, (B) अधिकतम सन्तुष्टि का माप, (C) राष्ट्रीय आय का वितरण, (D) निर्णय का वाहक, (E) शोधन क्षमता की गारंटी, (F) पूँजी की तरलता में वृद्धि।

प्रश्न 3.
सीमांत उपयोगिता और कुल उपयोगिता की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए इनके बीच अंतर को स्पष्ट करें।
उत्तर:
एक वस्तु की विभिन्न इकाइयों के उपभोग से प्राप्त होने वाली सीमांत उपयोगिता के जोड़ को कुल उपयोगिता कहा जाता है।
TU = MU1 + MU2 ………… EMU
किसी वस्तु की अतिरिक्त इकाई का उपभोग करने से कुल उपयोगिता में होने वाली वृद्धि को सीमान्त उपयोगिता कहते हैं।
MU = TUn – TUn – 1

MU और TU में अंतर :

  • MU घटती है तो TU घटती दर पर बढ़ती है।
  • MU शून्य तो TU अधिकतम।
  • MU ऋणात्मक तो TU घटती है।

प्रश्न 4.
किसी वस्तु की माँग के तीन प्रमुख निर्धारक तत्त्वों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
वस्तु की माँग के तीन निर्धारक तत्त्व हैं-

  • वस्तु की कीमत (Px) : जब X वस्तु की कीमत बढ़ती है तब माँग की मात्रा घटती है और इसमें विपरीत भी होती है।
  • उपभोक्ता की आय : उपभोक्ता के आय के बढ़ने या घटने से सामान्य वस्तु की माँग बढ़ती या घटती है।
  • सम्भावित कीमत : वस्तु की सम्भावित कीमत के बढ़ने/घटने से उसकी वर्तमान माँग में वृद्धि या कमी हो जाएगी।

प्रश्न 5.
उत्पादन, आय और व्यय के चक्रीय प्रवाह से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
प्रत्येक अर्थव्यवस्था में होने वाली आर्थिक क्रियाओं के फलस्वरूप उत्पादन, आय तथा व्यय का चक्रीय प्रवाह निरन्तर चलता रहता है। इसका न आदि है और न अन्त। उत्पादन आय को जन्म देता है और प्राप्त आय से वस्तुओं और सेवाओं की माँग की जाती है और माँग को पुरा करने के लिए व्यय किया जाता है। अर्थात् आय व्यय को जन्म देता है। व्यय से उत्पादकों को आय प्राप्त होता है और फिर उत्पादन का जन्म देता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 1

प्रश्न 6.
पूर्ण प्रतियोगता में AR वक्र की प्रकृति की व्याख्या करें।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म अपने उत्पादन को उद्योग द्वारा निर्धारित मूल्य पर बेचती है जो सभी फर्मों के लिए दी गई होती है। क्योंकि फर्म कीमत स्वीकारक होती है। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म दिए हुए मूल्य पर उत्पादन की जितनी मात्रा है चाहे बेच सकती है। उपराक्त चित्र में PP मूल्य रेखा या AR रेखा है और OP कीमत पर फर्म उत्पादन की किसी भी मात्रा को बेच सकती है। AR रेखा X अक्ष के समानान्तर होती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 2

प्रश्न 7.
राजकोषीय नीति क्या है ? किसी अर्थव्यवस्था में अत्यधिक माँग को सुधारने के लिए राजकोषीय उपाय क्या हैं ?
उत्तर:
राजकोषीय नीति वह नीति है जिसके द्वारा देश की सरकार निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सरकार की आय, व्यय तथा ऋण सम्बन्धी नीति में परिवर्तन करती है।

अत्यधिक माँग को सही करने के लिए निम्नलिखित राजकोषीय नीति अपनाये जा सकते हैं-

  • सार्वजनिक निर्माण, सार्वजनिक कल्याण, सुरक्षा आदि पर सरकारी व्यय घटाना चाहिए।
  • हस्तान्तरण भुगतान तथा आर्थिक सहायता पर सार्वजनिक व्यय घटाना चाहिए।
  • करों में वृद्धि करनी चाहिए।
  • घाटे की वित्त व्यवस्था कम करनी चाहिए।
  • सार्वजनिक ऋण में वृद्धि की जाये ताकि क्रय शक्ति को कम किया जा सके। सरकार द्वारा लोगों से प्राप्त ऋणों को खर्च करने पर रोक लगानी चाहिए।

प्रश्न 8.
मौद्रिक नीति के मुख्य उपायों के नाम लिखें।
उत्तर:
मौद्रिक नीति के उपाय-

  • बैंक दर नीति- बैंक को उधार देने के लिए ब्याजपर नियंत्रण करना। इसके द्वारा न्यून माँग को संतुलित करने का प्रयास करता है। इसके लिए समुचित मौद्रिक उपायों को लागू करता है।
  • खुले बाजार की क्रियाएँ- सरकारी प्रतिभूतियों को व्यापारिक बैंक के साथ क्रय-विक्रय करने का कार्य संपादित करता है। इस प्रकार यह व्यापार असंतुलन को नियंत्रण करता है।
  • सुरक्षित कोष अनुपात में परिवर्तन- सुरक्षित कोष अनुपात दो प्रकार के होते हैं-नकद जमा अनुपात तथा संवैधानिक तरलता अनुपात। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया न्यून मॉग के ठीक करने के लिए नकद जमा अनुपात तथा संवैधानिक तरलता अनुपात पर निरंतर समुचित परिवर्तन करता रहता है।
  • मुद्रा की आपूर्ति तथा साख का नियंत्रण- रिजर्व बैंक देश में मुद्रा की आपूर्ति तथा साख की आपूर्ति को नियंत्रित करता है। इसके लिए यह मौद्रिक नीति की रचना करता है।

प्रश्न 9.
प्रत्यक्ष कर के तीन विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रत्यक्ष कर की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • ये कर जिस व्यक्ति पर लगाये जाते हैं, वही इन करों का भुगतान करता है। ये किसी अन्य व्यक्ति पर टाला नहीं जा सकता।
  • ये कर प्रगतिशील होते हैं।
  • ये कर अनिवार्य होते हैं।

प्रश्न 10.
माँग वक्र की ढलान ऋणात्मक क्यों होती है ?
उत्तर:
निम्नांकितं कारणों से माँग वक्र की ढलान ऋणात्मक होती है-

  • घटती सीमांत उपयोगिता का नियम- उपभोक्ता वस्तु की सीमांत उपयोगिता को दिये गये मूल्य के बराबर करने के लिए कम कीमत होने पर अधिक क्रय करता है। P = MU
  • प्रतिस्थापन प्रभाव- मूल्य कम होने पर उपभोक्ता अपेक्षाकृत महँगी वस्तु के स्थान पर सस्ती वस्तु का प्रतिस्थापन करता है।
  • आय प्रभाव- मूल्य में कमी के फलस्वरूप उपभोक्ता आय वृद्धि की स्थिति को महसूस करता है और क्रय बढ़ा देता है।
  • नये उपभोक्ताओं का उदय।

प्रश्न 11.
उत्पादन फलन किसे कहते हैं ? समझायें।
उत्तर:
उत्पादन की आगतों तथा अन्तिम उत्पाद के बीच तकनीकि फलनात्मक संबंध को उत्पादन फलन कहते हैं। उत्पादन फलन यह बताता है कि एक निश्चित समय में आगतों में परिवर्तन से उत्पादन में कितना परिवर्तन होता है। यह आगतों तथा उत्पादन के भौतिक मात्रात्मक संबंध को बताता है। इसमें मूल्य शामिल नहीं होता है।

उत्पादन फलन Q= f (L, K)
L = उत्पत्ति के साधन (श्रम)
K= उत्पत्ति के साधन (पूंजी)
Q= उत्पादन की भौतिक मात्रा

प्रश्न 12.
पूर्ण प्रतियोगी बाजार को क्या विशेतायें होती हैं ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी बाजार की निम्नांकित विशेषतायें होती हैं-

  1. फर्मों का उद्योग में स्वतंत्र प्रवेश तथा निकास
  2. क्रेताओं तथा विक्रेताओं की बहुत अधिक संख्या
  3. वस्तु की समरूप इकाइयाँ
  4. बाजार दशाओं का पूर्ण ज्ञान
  5. साधनों की पूर्ण गतिशीलता
  6. शून्य यातायात व्यय
  7. पूर्ण रोजगार
  8. क्षैतिज AR वक्र।

प्रश्न 13.
उत्पादन सम्भावना वक्र की विशेषतायें लिखें।
उत्तर:
उत्पादन संभावना वक्र की विशेषतायें (Properties of P.P.C.)- उत्पादन संभावना वक्र की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) उत्पादन संभावना वक्र का ढलान नीचे की ओर दाई तरफ होता है (Downward sloping of PPC)- उत्पादन संभावना वक्र का ढलान ऊपर से नीचे की ओर बाएँ से दाएँ होता है। इसका कारण यह है कि पूर्ण रोजगार की स्थिति में दोनों वस्तुओं के उत्पादन को एक साथ नहीं बढ़ाया जा सकता है। यदि एक वस्तु जैसे Y का उत्पादन अधिक किया जाए तो दूसरी वस्तु जैसे Y का उत्पादन कम हो जाएगा।

(ii) उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु के अवतल (Concave to Origin)-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 3
यह वक्र बिन्दु के नतोदर (Concave) होता है। इसका कारण यह है कि X वस्तु की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने के लिए Y वस्तु की पहले की तुलना में अधिक इकाइयों का त्याग करना होगा अर्थात् X वस्तु की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने की अवसर लागत Y वस्तु के उत्पादन में होने वाली हानि के रूप में बढ़ने की ४] प्रवृत्ति प्रकट होता है अर्थात् उत्पादन बढ़ती अवसर लागत के नियम के आधार पर होता है।

प्रश्न 14.
“क्या उत्पादन किया जाए” की समस्या समझाइए।
उत्तर:
“क्या उत्पादन किया जाए” की समस्या (Problem of What to Produce)- प्रत्येक अर्थव्यवस्था की सबसे पहली समस्या यह है कि सीमित साधनों से किन वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन किया जाए जिससे हम अपनी अधिकतम आवश्यकताओं की संतुष्टि कर सकें। इन समस्या के उत्पन्न होने का मुख्य कारण यह है कि हमारी आवश्यकतायें अधिक हैं और उनकी पूर्ति करने के लिये साधन सीमित हैं तथा उनके वैकल्पिक प्रयोग हैं। इस समस्या के अंततः दो बातों का निर्णय करना पड़ता है।

पहला निर्णय लेना पड़ता है कि हम किस प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन करें-उपभोक्ता वस्तुओं (जैसे चीनी, घी आदि) का या पूँजीगत वस्तुएँ (मशीनों, टैक्टर, आदि या दोनों प्रकार की वस्तुओं) का। दूसरा निर्णय यह लेना पड़ता है कि उपभोक्ता वस्तुओं का कितना उत्पादन किया जाए और पूँजीगत वस्तुओं का कितना।

प्रश्न 15.
एक आर्थिक समस्या क्यों उत्पन्न होती है ? “कैसे उत्पादन किया जाए” की समस्या को समझाइए।
उत्तर:
आर्थिक समस्या असीमित आवश्यकताओं तथा सीमित साधनों (जिनके वैकल्पिक प्रयोग भी हैं) के कारण उत्पन्न होती है।

कैसे उत्पादन किया जाए ? (How to Produce)- यह अर्थव्यवस्था की दूसरी मुख्य केन्द्रीय समस्या है। इस समस्या का संबंध उत्पादन की तकनीक का चुनाव करने से है। इसके लिए श्रम-प्रधान तकनीक (Labour-intensive technique) काम में ली जाए या पूँजी-प्रधान तकनीक (Capital-intensive technique) प्रयोग में लाई जाए। एक अर्थव्यवस्था को यह चुनाव करना पड़ता है कि वह कौन-सी तकनीक का प्रयोग किस उद्योग में करे। सबसे कुशल तकनीक वह है जिसके प्रयोम से समान मात्रा का उत्पादन करने के लिए सीमित साधनों की सबसे कम आवश्यकता होती है। उत्पादन न्यूनतम लागत पर करना संभव होता है। उत्पादन कुशलतापूर्वक किया जा सकता है। एक अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों को उपलब्धता और उनके मूल्यों पर उत्पादन की तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए

प्रश्न 16.
एक अर्थव्यवस्था सदैव उत्पादन संभावना वक्र पर ही उत्पादन करती है, उसके अंदर नहीं। इस कथन के पक्ष-विपक्ष में तर्क दें।
उत्तर:
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 4
यह कहना गलत है कि एक अर्थव्यवस्था सदैव उत्पादन संभावना वक्र पर ही उत्पादन करती है। यह तभी हो सकता है जब अर्थव्यवस्था में साधनों का पूर्णतः तथा कुशलता से प्रयोग किया जा रहा हो। यदि साधनों का अल्प प्रयोग, अकुशलता से किया जा रहा है तो उत्पादन संभावना वक्र के अंदर ही होगा न कि उत्पादन संभावना वक्र पर।

प्रश्न 17.
मॉग के नियम की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
माँग का नियम वस्तु की कीमत और उस कीमत पर माँगी जाने वाली मात्रा के गुणात्मक संबंध को बताता है। उपभोक्ता अपनी मनोवैज्ञानिक पद्धति के अनुसार अपने व्यावहारिक जीवन में ऊँची कीमत पर वस्तु को कम मात्रा खरीदता है और कम कीमत पर वस्तु की अधिक मात्रा। उपभोक्ता की इसी मनोवैज्ञानिक उपभोग प्रवृत्ति पर माँग का नियम आधारित है। माँग का नियम यह बताता है कि अन्य बातें समान रहने पर वस्तु की कीमत एवं वस्तु की मात्रा में विपरीत संबंध पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, अन्य बातें समान रहने की दशा में किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी माँग में कमी हो जाती है तथा इसके विपरीत कीमत में कमी होने पर वस्तु के माँग में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 18.
उदासीन वक्र के निर्माण की विधि लिखें।
उत्तर:
उदासीन वक्र का निर्माण (Construction of indifferent Curve)- उदासीन वक्र के निर्माण के लिए तटस्थता तालिका की आवश्यकता होती है। तटस्थता तालिका ऐसी तालिका को कहते हैं जिसमें दो वस्तुओं के ऐसे दो वैकल्पिक संयोगों को प्रदर्शित किया जाता है जिसमें उपभोक्ता को समान संतुष्टि प्राप्त होती है। जब तालिका के विभिन्न संयोगों को एक वक्र में प्रस्तुत किया जाता है तो उसे तटस्थता वक्र ऋणात्मक ढलान वाला होता है क्योंकि उपभोक्ता दोनों वस्तुओं का उपभोग करना चाहता और कम वस्तुओं की तुलना में अधिक वस्तुओं को प्राथमिकता देता है।

प्रश्न 19.
एक देश में भूकंप से बहुत से लोग मारे गये उनके कारखाने ध्वस्त हो गए। इसका अर्थव्यवस्था के उत्पादन संभावना वक्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
उत्तर:
बहुत से लोगों के मरने तथा कारखानों के ध्वस्त होने से संसाधनों में कमी होगी। संसाधनों की कमी होने पर संभावना वक्र बाईं ओर खिसक जाता है। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 5

प्रश्न 20.
अर्थशास्त्र में संतुलन से क्या अभिप्राय है ? समझायें।
उत्तर:
संतलन (Equilibrium)- भौतिक विज्ञान में संतुलन का अर्थ स्थिर अवस्था से लिया जाता है। संतुलन की अवस्था में परिवर्तन की सम्भावना नहीं होती या किसी प्रकार की गति नहीं होती किन्तु अर्थशास्त्र में संतुलन का अर्थ स्थिर अथवा अर्थव्यवस्था में गतिहीनता से नहीं लिया जाता। अर्थशास्त्र में संतुलन की अवस्था उस स्थिति को कहते हैं जिसमें गति तो होती है परन्तु गति की दर में परिवर्तन नहीं होता। यह वह अवस्था है जिसमें अर्थव्यवस्था की कोई एक इकाई या भाग या सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था अपने इष्ट बिन्दु पर होती है और उनमें उस बिन्दु से हटने की.कोई प्रवृत्ति नहीं होती।

प्रश्न 21.
प्रारम्भिक उपयोगिता, सीमान्त उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
(i) प्रारंभिक उपयोगिता (Initial Utility)- किसी वस्तु की प्रथम इकाई के उपभोग करने से जो उपयोगिता प्राप्त होती है, उसे प्रारम्भिक उपयोगिता कहते हैं। मान लो एक संतरा खाने में 10 इकाइयों (यूनिटों) की उपयोगिता प्राप्त होती है तो यह उपयोगिता प्रारम्भिक उपयोगिता कहलाएगी।

(ii) सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility)- किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के उपभोग करने से कुल उपयोगिता में जो वृद्धि होती है, उसे सीमान्त उपयोगिता कहते हैं। मान लो एक आम खाने से कुल उपयोगिता 10 यूनिट है और दो आम खाने से कुल उपयोगिता 18 यूनिट है। ऐसी अवस्था में दूसरे आम से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता 8 (18-10) होगी। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु की अन्तिम इकाई से प्राप्त होने वाली उपयोगिता सीमान्त उपयोगिता कहलाती है।

(iii) कल उपयोगिता (Total Utility)- किसी निश्चित समय में कुल इकाइयों के उपभोग से प्राप्त उपयोगिता कुल उपयोगिता होती है। कुल उपयोगिता की गणना करने के लिए सीमान्त उपयोगिताओं को जोड़ा जाता है।

प्रश्न 22.
उपयोगिता से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
उपयोगिता (Utility)- उपयोगिता पदार्थ का वह गुण है जिसमें किसी आवश्यकता की संतुष्टि होती है। प्रा० एडवर्ड के शब्दों में “अर्थशास्त्र में उपयोगिता के अर्थ उस संतुष्टि आनन्द या लाभ से है जो किसी व्यक्ति को धन या सम्पत्ति के उपभोग से प्राप्त होती है।” उपयोगिता का सम्बन्ध प्रयोग मूल्य (Value use) से होता है। जिन वस्तुओं में प्रयोग मूल्य होता है, उसमें . उपयोगिता विद्यमान होती है। उपयोगिता आवश्यकता की तीव्रता का फलन है।

उपयोगिता की विशेषताएँ (Characteristics of utility)-

  • उपयोगिता भावगत (subjective) है। यह व्यक्ति के स्वभाव, आदत व रुचि पर निर्भर करती है।
  • वस्तुओं की उपयोगिता समय तथा स्थान के साथ बदलती रहती है।
  • उपयोगिता का लाभदायकता से कोई निश्चित सम्बन्ध नहीं होता।
  • उपयोगिता कारण है तथा संतुष्टि परिणाम है।
  • उपयोगिता का. किसी वस्तु को स्वादिष्टता से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

प्रश्न 23.
विदेश मुद्रा के हाजिर बाजार क्या होते हैं ?
उत्तर:
हाजिर बाजार : विदेशी विनिमय बाजार में यदि लेन-देन दैनिक आधार पर होते हैं तो ऐसे बाजार को हाजिर बाजार या चालू बाजार कहते हैं। इस बाजार में विदेशी मुद्रा की तात्कालिक दरों पर विनिमय होता है।

प्रश्न 24.
केन्द्रीय बैंक का अर्थ लिखिए।
उत्तर:
एक अर्थव्यवस्था में मौद्रिक प्रणाली की सर्वोच्च संस्था को केन्द्रीय बैंक कहते हैं। केन्द्रीय बैंक अर्थव्यवस्था के लिए मौद्रिक नीति बनाता है और उसका क्रियान्वयन करवाता है। यह ऋणदाताओं का अन्तिम् आश्रयदाता होता है।

प्रश्न 25.
सीमान्त उपयोगिता तथा उपयोगिता में क्या संबंध है ?
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता में सम्बन्ध (Relationship between Marginal Utility and Total Utility)-

  • कुल उपयोगिता आरम्भ में लगातार बढ़ती है और एक निश्चित बिन्दु के पश्चात् यह घटनी शुरू हो जाती है, परन्तु सीमान्त उपयोगिता आरम्भ से ही घटना शुरू कर देती है।
  • जब कुल उपयोगिता बढ़ती है तो सीमान्त उपयोगिता धनात्मक होती है।
  • जब कुल उपयोगिता अधिकतम होती है तब सीमान्त उपयोगिता शून्य होती है।
  • जब कुल उपयोगिता घटती है तब सीमान्त उपयोगिता ऋणात्मक होती है।

प्रश्न 26.
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम समझाएं।
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम (Law of diminishing marginal utility)- सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम इस तथ्य की विवेचना करता है कि जैसे-जैसे उपभोक्ता किसी वस्तु की अगली इकाई का उपभोग करता है अन्य बातें समान रहने पर उसे प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। एक बिन्दु पर पहुँचने पर यह शून्य हो जाती है और यदि उपभोक्ता इसके पश्चात् भी वस्तु की सेवन जारी रखता है तो यह ऋणात्मक हो जाती है।

इस नियम के लागू होने के दो मुख्य कारण हैं-

  • वस्तुएँ एक दूसरे की पूर्ण स्थानापन्न नहीं होती तथा
  • एक विशेष समय पर एक विशेष आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है।

प्रश्न 27.
माँग में वृद्धि तथा माँग में कमी में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
माँग में वृद्धि तथा माँग में कमी (Increase in demand and decrease in demand)-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 6
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 7

प्रश्न 28.
आय प्रभाव, प्रतिस्थापन प्रभाव और कीमत प्रभाव से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
आय प्रभाव (Income Effect)- वस्तु की कीमत कम होने पर उपभोक्ता उसी आय से अधिक मात्रा में वस्तुएँ खरीद सकता है। जब उपभोक्ता की क्रय शक्ति में वृद्धि हो जाती है, तो वह वस्तु की अधिक मात्रा खरीदता है। इसे आय प्रभाव कहते हैं।

प्रतिस्थापन प्रभाव (Substitution Effect)- किसी वस्तु (चाय) की कीमत बढ़ने पर जब उपभोक्ता उसकी माँग पर कम और उसकी प्रतिस्थापन वस्तु (कॉफी) की माँग अधिक करते हैं तो इसे प्रतिस्थापन प्रभाव कहते हैं।

कीमत प्रभाव (Price Effect)- आय प्रभाव और प्रतिस्थापन प्रभाव के योग को कीमत प्रभाव कहते हैं।

प्रश्न 29.
माँग की लोच मापने की कुल व्यय विधि समझाएँ।
उत्तर:
माँग की लोच को मापने की कुल व्यय विधि (Total outlay method to measure the elasticity of demand)- इस विधि के अन्तर्गत कीमत परिवर्तन के फलस्वरूप वस्तु एवं होने वाले कुल व्यय पर प्रभाव का अध्ययन किया जाता हैं इस विधि से केवल यह ज्ञात किया जा सकता है कि माँग की कीमत लोच इकाई के बराबर है, इकाई से अधिक है अथवा इकाई से कम। इस प्रकार इस विधि के अनुसार माँग की लोच तीन प्रकार की होती है- (i) इकाई से अधिक लोचदार, (ii) इकाई के बराबर लोच तथा (iii) इकाई से कम लोचदार माँग।

  • इकाई से अधिक लोचदार मांग (Greater than unit)- जब कीमत के कम होने पर कुल व्यय बढ़ता है और उसके बढ़ने पर कुल व्यय घटता है तब माँग की लोच इकाई से अधिक होती है।
  • इकाई के बराबर लोच (Unitary elastic)- जब कीमत में परिवर्तन होने पर कुल व्यय स्थिर रहता है, तब माँग की लोच इकाई के बराबर होती है।
  • इकाई से कम लोचदार मांग (Less than unit)- जब कीमत बढ़ने से कुल व्यय बढ़ना है और कीमत के कम होने पर कुल व्यय घटता है तो उस समय माँग की लोच इकाई से कम होती है।

प्रश्न 30.
माँग के नियम की विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
माँग के नियम की विशेषताएँ (Characteristics of law.of demand)-

  • माँग के नियम के अनुसार किसी वस्तु की कीमत और माँग की गई मात्रा में विपरीत संबंध होता है।
  • यह नियम माँग में परिवर्तन की दिशा का बोध कराता है, न कि उसकी मात्रा में परिवर्तन का।
  • इस नियम के अनुसार कीमत और माँग में आनुपातिक संबंध नहीं है।
  • यह नियम वस्तु की कीमत में परिवर्तन का उसकी माँगी गई मात्रा पर प्रभाव बताता है, न कि माँग में परिवर्तन का वस्तु की कीमत पर।

प्रश्न 31.
माँग के नियम के मुख्य अपवाद लिखें।
उत्तर:
माँग के नियम के मुख्य अपवाद (Exceptions to the law of demand)- माँग के नियम के मुख्य अपवाद निम्नलिखित हैं-

  • घटिया वस्तएँ (Inferior Goods)- प्रायः घटिया वस्तुओं पर माँग का नियम लागू नहीं होता। घटिया वस्तुओं की माँग उनकी कीमत गिरने से कम हो जाती है।
  • दिखावे की वस्तुएँ (Prestigious Goods)- माँग का नियम प्रतिष्ठामूलक वस्तुओं जैसे-हीरे-जवाहरात तथा अन्य वस्तुएँ जैसे कीमती वस्त्र, ए. सी., कार आदि पर लागू नहीं होता।
  • अनिवार्य वस्तुएँ (Essential Goods)- अनिवार्य वस्तुएँ जैसे अनाज, नमक, दवाई आदि पर माँग का नियम लागू नहीं होता।
  • फैशन (Fashion)- फैशन में आने वाली वस्तुओं पर भी माँग का नियम लागू नहीं होता।

प्रश्न 32.
मांग की कीमत लोच का एकाधिकारी, वित्तमंत्री तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
(i) एकाधिकारी के लिए महत्त्व (Importance for Monopolist)- एकाधिकारी वस्तु की कीमत का निर्धारण वस्तु की मांग की लोच के आधार पर करता है। यदि वस्तु की मांग लोचदार है तो वह नीची कीमत निर्धारित करेगा। इसके विपरीत यदि माँग बेलोचदार है तो एकाधिकारी ऊँची कीमत निर्धारित करेगा।

(ii) वित्त मंत्री या सरकार के लिए महत्त्व (Importance for Finance Minister or Government)- सरकार अधिकतर उन वस्तुओं पर कर लगाती है जिनकी माँग बेलोचदार होती है ताकि अधिक से अधिक आगम गप्त हो सके। इसके विपरीत लोचदार वस्तुओं पर कर लगाने से उनकी माँग कम हो जाती है जिससे सरकार को करों के रूप में कम आगम प्राप्त हो सकती है।

(iii) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में महत्त्व (Importance in International Trade)- जिन वस्तुओं की माँग बेलोचदार है उनके लिए एक देश अन्य देशों से अधिक कीमत ले सकता है।

प्रश्न 33.
व्यक्तिगत माँग वक्र तथा बाजार माँग वक्र में क्या अन्तर बताएं।
उत्तर:
व्यक्तिगत माँग वक्र तथा बाजार माँग वक्र में अन्तर (Difference between individual demand curve and market demand curve)- व्यक्तिगत माँग वक्र वह वक्र है जो किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर एक उपभोक्ता द्वारा उस वस्तु की मांगी गई मात्राओं को प्रकट करता है। इसके विपरीत बाजार माँग वह वक्र है जो किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर बाजार के सभी उपभोक्ताओं द्वारा मांगी गई मात्राओं को प्रकट करता है। बाजार माँग वक्र को व्यक्तिगत वक्रों के समस्त जोड़ के द्वारा खींचा जाता है।

प्रश्न 34.
माँग की आय लोच समझाइये।
उत्तर:
माँग की आय लोच से अभिप्राय इस बात को माप करने से है. कि उपभोक्ता की आय में परिवर्तन के परिणामस्वरूप उसकी माँगी गई मात्रा में कितना परिवर्तन होता है। माँग की आय लोच को मापने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 8
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 9
यहाँ ∠Q = माँगी गई मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन
ΔY = माँगी गई मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन
Y = प्रारम्भिक परिवर्तन
Q = प्रारम्भिक माँग

माँग की आय लोच की तीन श्रेणियाँ हैं-

  • ऋणात्मक,
  • धनात्मक तथा
  • शून्य।

प्रश्न 35.
उत्पादन फलन की विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
उत्पादन फलन की विशेषतायें-

  • उत्पादन के साधन एक दूसरे के स्थानापन्न हैं अर्थात् एक या कुछ साधनों में परिवर्तन होने पर कुल उत्पादन में परिवर्तन हो जाता है।
  • उत्पादन के साधन एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात् चारों साधनों के संयोग से ही उत्पादन होता है।
  • कुछ साधन विशेष वस्तु के उत्पादन के लिये विशिष्ट होते हैं।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3

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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिए विश्वमूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर:
जगत् सम्बन्धी तर्क द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने से तात्पर्य उस तर्क से है जिसके अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को जगत् के अस्तित्व के आधार पर सिद्ध किया जाता है। विश्व विषयकं तर्क द्वारा ईश्वर के अस्तित्व के विषय में देकार्त ने यह कहा है कि विश्व की समस्त वस्तुओं और जीवों के शरीर का स्रष्टा कोई-न-कोई अवश्य है। इस दिशा में यदि मनुष्य को इनका स्रष्टा माना जाए तो उसे पूर्ण मानना पड़ेगा जो कि वह नहीं है। इसके अतिरिक्त यदि मनुष्य सृष्टि कर सकता तब वह अपनी भी सृष्टि करता अर्थात् स्वयं अपने शरीर का भी स्रष्टा होता और यदि अपने शरीर को वह स्वयं बनाता तब उसे पूर्ण बनाता और स्वयं अपने आप को जन्म दे लेता क्योंकि उसका स्रष्टा के रूप में जन्म से पूर्व भी अस्तित्व रहता किन्तु ऐसा मानना और फिर जन्म मानना दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं।

इसलिए ऐसा होना सम्भव नहीं, अतः मनुष्य को तो स्वयं अपना ही स्रष्टा नहीं माना जा सकता तब जगत् की अन्य वस्तुओं का स्रष्टा कैसे माना जा सकता है ? इसके अतिरिक्त यदि मनुष्य का स्रष्टा उसके माता-पिता को माना जाए तब यह प्रश्न पुनःउपस्थित होगा कि यदि मेरे माता-पिता मेरे स्रष्टा इस कारण से हैं कि उन्होंने मुझे जन्म दिया है तब मेरे संरक्षण की पूर्ण सामर्थ्य भी उनमें होनी चाहिए। इसके साथ वे अपूर्ण हैं इसलिए वे भी मेरे शरीर अर्थात् मानव शरीर के स्रष्टा नहीं हैं। इस खिला में यदि विचार करना आरम्भ किया जाए तब यह पता चलता है मैं अपूर्ण हूँ इसलिए मेरे स्रष्टा न मैं हूँ औन न मेरे माता-पिता क्योंकि वे भी अपूर्ण हैं। अतः अन्त में ऐसे स्थान पर आकर रुकना पड़ता है जो पूर्ण है और जगत् तथा समस्त जीवों के शरीरों का स्रष्टा है। वही ईश्वर है। इस प्रकार जगत् का अस्तित्व ही ईश्वर के अस्तित्व का सबसे प्रबल प्रमाण है।

विश्व/जगत् प्रमाण की आलोचना-ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए विश्व विषयक तर्क के विरुद्ध निम्नलिखित आक्षेप किये जाते हैं-

(i) असिद्ध आधार से आधेय की सिद्धि-जगत् विषयक तर्क में जगत् अस्तित्व को सत्य मानकर इसके आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है किन्तु इस सम्बन्ध में अनेक दार्शनिक तो जगत् के अस्तित्व पर ही शंका करते हैं तब उनकी शंका का निवारण किये बिना और जगत् के अस्तित्व को सिद्ध किये बिना ईश्वर को सिद्ध करना तो रेत के कणों से दीवार बनाने के समान है।

(ii) आत्माश्रय दोष-ईश्वर के अस्तित्व हेतु दिये गये जगत् विषयक तर्क में आत्माश्रय दोष हैं क्योंकि इसमें यह कहा गया है कि जगत् का अस्तित्व है और इसके स्रष्टा के रूप में ईश्वर का अस्तित्व है। इस तर्क के विषय में सामान्यतया जब जगत् के अस्तित्व के विषय में संशय किया जाता है तब यही उत्तर मिलता है कि जगत् का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि ईश्वर इसका सृष्टा है और ईश्वर धोखेबाज नहीं है अर्थात् वह जिस संसार में हमारा सृजन करता है वह धोखा नहीं हो सकता। देकार्त ने इसी प्रकार के तर्क द्वारा जगत् का अस्तित्व सिद्ध किया। यद्यपि इस तर्क में आत्माश्रय दोष है क्योंकि जिस ईश्वर को सिद्ध करना है उसके अस्तित्व को जगत् के अस्तित्व के रूप में पूर्व ही मान लिया गया है।

(iii) ईश्वर को कारण मानने सम्बन्धी कठिनाई-जगत् विषयक तर्क में ईश्वर को जगत् । और जीवों का सृष्टा उसी रूप में माना है जिस रूप में कुम्हार घड़े का सृष्टा है अर्थात् ईश्वर को जगत् का निमित्त कारण माना गया है, अतः जो कठिनाई निमित्तेश्वरवाद के सम्बन्ध में है वही इस तर्क के सम्बन्ध में भी है।

(iv) ईश्वर को सृष्टा मानना मात्र एक कल्पना-जगत् विषयक तर्क में ईश्वर को जगत् का सष्टा माना है। यह तर्क कोरी कल्पना मात्र है क्योंकि समस्त सीमित वस्तुओं का सष्टा भी सीमित ही होता है, यथा घड़े का सृष्टा कुम्हार भी सीमित ही होता है और यह कहना कि अपूर्ण का सृष्टा, अपूर्ण नहीं हो सकता यह भी यथार्थ नहीं है क्योंकि जगत् की अनेक अपूर्ण वस्तुएँ अपूर्ण द्वारा ही बनायी जाती है। इसी प्रकार न ही तो सीमित वस्तुओं का सृष्टा असीम को माना जा सकता है और न ही अपूर्ण का सृष्टा पूर्ण को माना जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो यह प्रश्न स्वभावतः उत्पन्न होता है, कि जब वह पूर्ण है तब उसने अपूर्ण को क्यों बनाया?

(v) पूर्ण अपूर्ण का सृष्टा नहीं हो सकता-हम अपने दैनिक अनुभव में देखते हैं कि कोई चित्रकार जिस चित्र को बनाता है उसमें अपनी सम्पूर्ण योग्यता को उड़ेल देता है। दूसरे शब्दों में चित्र चित्रकार की पूर्ण योग्यता की अभिव्यक्ति होती है और इसलिए चित्र को देखते ही दर्शक चित्रकार की योग्यता का मूल्यांकन कर देता है। इस रूप में संसार को यदि ईश्वरीय योग्यता की अभिव्यक्ति माने तब विश्व में फैली अपूर्णता को भी ईश्वर की क्षमता और योग्यता में सम्मिलित करना चाहिए अथवा नहीं।

इस तर्क में इस प्रश्न का समाधान नहीं किया गया है क्योंकि यदि इसको ईश्वर की योग्यता माना जाए तब ईश्वर भी अपूर्ण सिद्ध होता है और जब ईश्वर भी अपूर्ण है और तब भी वह जगत् का सृजन कर सकता है, तब मनुष्य क्यों नहीं कर सकता और यदि इसको सम्मिलित न करें तब इसका उदय कहाँ से और कैसे हुआ इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं होता। अत: जगत् विषयक तर्क ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए उपयुक्त नहीं है।

(vi) असीम सीमित जगत का सजन कैसे किया ?- जगत् के अस्तित्व को ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते समय यह तो कहा कि जगत् के सृष्टा के रूप में ईश्वर का अस्तित्व है किन्तु सृजनों के लिए अनेक साधनों की आवश्यकता होती है, यथा चित्र बनाने के लिए हाथों की ब्रश और अन्य सम्बन्धित समान की। तब ईश्वर किन साधनों से जगत् का सृजन करता है। वे साधन भौतिक होते हैं अथवा अभौतिक ? ईश्वर और उन साधनों में क्या सम्बन्ध है ? आदि अनेक ऐसे प्रश्न हैं जिनका इस तर्क में कोई उत्तर नहीं दिया गया है। अतः जगत् विषयक तर्क द्वारा ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता।

प्रश्न 2.
वैशेषिक के अनुसार पदार्थ का वर्णन करें।
उत्तर:
द्रव्य या पदार्थ वह सत्ता है जो परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होता। वैशेषिक दर्शन में द्रव्य (substance) को एक विशेष अर्थ में लिखा गया है। द्रव्य वह है जो गुण और कर्म को धारण करता है। गुण और बिना किसी वस्तु या आधार के नहीं रह सकते। इसका आधार ही द्रव्य कहलाता है। गुण और कर्म द्रव्य में रहते हुए भी द्रव्य से भिन्न है। द्रव्य गुण युक्त है किन्तु गुण और कर्म गुणरहित है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य या पदार्थ नौ प्रकार के हैं-

  1. आत्मा
  2. अग्नि या तेज
  3. वायु
  4. आकाश
  5. जल
  6. पृथ्वी
  7. दिक्
  8. काल और
  9. मन।

उपर्युक्त नौ द्रव्यों में पाँच द्रव्य पंचमहाभूत (Five Physical Elements) कहे जाते हैं-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। वैशेषिक दर्शन नहीं पंचमहाभूतों से विश्व का निर्माण मानता है। सभी भौतिक पदार्थ भूत ही हैं। कणाद द्रव्यों का वर्गीकरण ज्ञानात्मक आधार पर करते हैं। हमें पाँच ‘इन्द्रियाँ हैं जिनके द्वारा बाह्य जगत का ज्ञान होता है। प्रत्येक इन्द्रिय से वस्तु के किसी खास गुण का ज्ञान होता है। ये गुण किसी द्रव्य में ही रह सकते हैं अतः पाँच विभिन्न गुणों के आधार रूप में पाँच द्रव्यों को यहाँ स्वीकारा गया है।

आँख से बाह्य जगत् के रंग का ज्ञान होता है। रंग गुण को धारण करने वाला द्रव्य तेज कहा जाता है। कान से ‘ध्वनि’ गुण का ज्ञान होता है। इस गुण को धारण करने वाला द्रव्य आकाश है। आकाश सर्वव्यापी और नित्य है। आकाश के टुकड़े या परमाणु नहीं होते। त्वचा से स्पर्श का काम लिया जाता है। इन गुणों का आधार स्वरूप द्रव्य वायु है। नाक से गन्ध का पता चलता हैं। गन्ध को धारण करने वाला द्रव्य पृथ्वी है। जिह्वा से स्वाद का बोध होता है। स्वाद को धारण करने वाला द्रव्य जल है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पंचमहाभूतों में आकाश के अलावे अन्य चारों द्रव्यों के परमाणु होते हैं। वैशेषिक द्रव्यों को नश्वर मानता है किन्तु इनके परमाणु अनश्वर हैं। इन्हीं परमाणुओं से विश्व के सभी पदार्थ बनते हैं। इन परमाणुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता। इनका ज्ञान अनुमान से होता है।

भौतिक द्रव्यों या परमाणुओं की व्यवस्था के लिए दिक् और काल को मानना आवश्यक है। विश्व के सभी भौतिक पदार्थ स्थान घेरते हैं। वे किसी खास काल में रहते हैं अतः वैशेषिक दर्शन में दिक् और काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है।

दिक् कारण ही विश्व की विभिन्न वस्तुएँ अलग-अलग पायी जाती हैं। दिक् अगोचर है। अनुमान के आधार पर इसका ज्ञान होता है। यह नित्य सर्वव्यापी, अभौतिक (Non-material) एवं एक है। यह अविभाज्य है किन्तु व्यावहारिक जीवन सुविधा हेतु इसका कृत्रिम विभाजन ऊपर-नीचे, पूरब-पश्चिम, मील-गज आदि में करते हैं।

काल एक सर्वव्यापक, नित्य एवं अभौतिक है। यह भी अविभाज्य है किन्तु सुविधा के लिए भाव, नव, रात, दिन, घंटा, मिनट, वर्तमान, भविष्य आदि में विभाजन कर देते हैं।

मन एक आन्तरिक इन्द्रिय है। यह अणुरूप है। यह निरधपब है। जिस प्रकार वाक्य पदार्थों की जानकारी के लिए बाह्य इन्द्रियों की आवश्यकता पड़ती है। उसी प्रकार आन्तरिक अनुभूतियों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आन्तरिक इन्द्रिय अर्थात् मन की आवश्यकता है। मन का प्रत्यक्ष नहीं होता इसका ज्ञान अनुमान द्वारा होता है। इसके द्वारा सुख, दुःख, हर्ष, विषाद आदि आन्तरिक अनुभूतियों का ज्ञान होता है। मन अविभाज्य है।

वैशेषिक दर्शन में चेतना आत्मा का आकस्मिक गुण है न कि आवश्यक गुण। आत्मा आकस्मिक गुण है न कि आवश्यक गुण। आत्मा जब शरीर धारण करती है तो उसमें चेतना का उदय होता है। शरीर धारण करने के पूर्व यह अचेतन रहती है। वैशेषिक दर्शन में आत्मा दो प्रकार के माने गए हैं-जीवात्मा और परमात्मा।

जीवात्मा वह है जो शरीर धारण करे और शरीर धारण करने के बाद उसमें चेतना का उदय हो। इस प्रकार यहाँ चेतना का जीवात्मा का आकस्मिक गुण माना गया है न कि आवश्यक गुण। जीवात्मा या जीव शरीर में प्रवेश करते ही उसका मालिक बन जाता है। शरीर के संचालन के लिए चेतना की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार चेतना जीवात्मा से अलग नहीं की जा सकती है।

जीवात्मा अमर एवं नित्य है। यह दिक् और काल से परे है। यह सूक्ष्म और अनन्त है। इसमें ज्ञान इच्छा एवं संकल्प उपस्थित रहने के कारण ही इसे बन्धनग्रस्त होना पड़ता है। फलतः मोक्ष की समस्या उठती है। जीवात्मा के अस्तित्व का प्रत्यक्ष या साक्षात् ज्ञान होता है। प्रायः व्यक्ति कहता है “मैं दु:खी हूँ” इत्यादि। यहाँ मैं का साक्षात् ज्ञान होता है। यह मैं ही जीवात्मा है। वैशेषिकों का कहना है कि इन्द्रियाँ तो ज्ञान के साधन मात्र हैं। ज्ञान जीवात्मा को मिलता है। चेतना : का आधार जीवात्मा को कहा गया है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार जितने शरीर हैं उतने जीवात्मा हैं।

परमात्मा या ईश्वर भी एक प्रकार आत्मा ही है। इसका प्रधान गुण चेतना है अतः चेतना इसका आवश्यक गुण है। परमात्मा को शरीर धारण नहीं करना पड़ता। वह तो सदैव चेतन है। उसमें भी इच्छा संकल्प आदि रहते हैं किन्तु असीम पूर्ण रूप में जीवात्मा के विषय में सुख, दुःख, या पुण्य के प्रश्न उठते हैं न कि परमात्मा के विषय में। परमात्मा नित्य एवं पूर्ण है। वह संसार का रचयिता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता भी है। वह शक्तिशाली, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी शुभ आदि कहा गया है।

प्रश्न 3.
क्या ह्यूम संदेहवादी है? व्याख्या करें।
उत्तर:
‘हाँ’ ह्यूम संदेहवादी है। ह्यूम के दर्शन का अंत संदेहवाद में होता है, क्योंकि संदेहवाद अनुभववाद की तार्किक परिणाम है। ह्यूम एक संगत अनुभववादी होने के कारण उन्होंने उन सभी चीजों पर संदेह किया है जो अनुभव के विषय नहीं है। यही कारण है कि इन्होंने आत्मा, ईश्वर कारणता आदि प्रत्ययों पर संदेह किया।

ह्यूम दार्शनिकों के कार्य-कारण की धारणा का खण्डन करता है। दार्शनिक के अनुसार कार्य और कारण में निश्चित और अनिवार्य संबंध होता है क्योंकि विशिष्ट कारण में विशिष्ट कार्य उत्पन्न करने की गुप्त शक्ति होती है। कार्य और कारण परस्पर अनिवार्य संबंध के सत्र में बँधे होते हैं। अरस्तु केवल विचार और तर्क के आधार पर ही एक को देखकर दूसरे के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कारण का ज्ञान अनिवार्य रूप से कार्य का ज्ञान प्रदान करना है।

कार्य-कारण का उपरोक्त दार्शनिक धारणा से ह्यूम यह प्रश्न उठता है कि हमें शक्ति तथा अनिवार्य संबंध जैसे प्रत्ययों को प्रयोग करने का क्या अधिकार है ? दार्शनिक धारणा की विवेचना के लिए ह्यूम कार्य-कारण संबंध में यथाकथित अनिवार्य संबंध का विश्लेषण करता है।

प्रश्न 4.
जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की अवधारणा की व्याख्या करें।
उत्तर:
पंच महाव्रत अपनाकर ही मनुष्य मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है। ऐसा करने से कर्मों का आश्रय जीव में बन्द हो जाता है तथा पुराने कर्मों का क्षय हो जाता है। फलस्वरूप जीव, अपनी स्वाभाविक अवस्था जिनमें अनन्त शक्ति, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्द मौजूद है को प्राप्त कर लेता है। अतः मोक्ष सिर्फ दुःखों का विनाश ही नहीं, अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति भी है।

स्पष्टतः जैन-दर्शन मोक्ष के दोनों पहलुओं (भावात्मक एवं निषेधात्मक) में विश्वास रखना है। निषेधात्मक रूप से मोक्ष दुःख रहित अवस्था है और भावात्मक रूप से यह अनन्तचतुष्टय की प्राप्ति की भावस्था है।
पंच महाव्रत-

(i) अहिंसा-जैन-धर्म के अनुसार अहिंसा का अर्थ किसी जीव को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचना है। जैन-दर्शन सभी जीवों की एकता का समर्थक है। इसलिए इसने किसी जीव को कष्ट न पहुँचाने का आदेश दिया है। कष्टप्रद मजाक भी त्याज्या कहा गया है।

(ii) सत्य-असत्य भाषण का त्याग एवं सत्य भाषण अपनाना भी आवश्यक है। मोह, राग, द्वेष, के कारण ही असत्य होना है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सत्य का पालन आवश्यक है। जैनों के अनुसार सत्य सदैव मधुर होना चाहिए। अंधे को अंधा कहना कटुसत्य है। ऐसा सत्य अंवाछनीय माना गया है।

(iii) अस्तेय-किसी की सम्पत्ति का अपहरण नहीं करना ही अस्तेय है। जैनों के अनुसार धन व्यक्ति का वाह्य जीवन है। अतः किसी का धन लेना उसकी जान लेना है। बिना मर्जी के किसी का धन लेना या आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करना चोरी माना गया है। महात्मा गाँधी का भी इसी प्रकार का विचार था।

(iv) ब्रह्मचर्य- केवल काम वासना से दूर रहना ही ब्रह्मचर्य नहीं है। इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण ही ब्रह्मचर्य है।

(v) अपरिग्रह- सांसारिक विषय भोगों से दूर रहना ही अपरिग्रह है। व्यक्ति रोग, द्वेष, माया, मोह, इन्द्रियों की तृप्ति आदि में अनासक्त रहता है। फलतः बन्धन ग्रस्त होता है। इन सांसारिक विषय-वासनाओं के प्रति अनासक्त रहना मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक माना गया है।

उपर्युक्त पंचमहाव्रतों में घनिष्ठ सम्बन्ध है । इनमें किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। पंचमहाव्रत मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक शर्त के रूप में स्वीकार किए गए हैं।

प्रश्न 5.
शंकर के माया सम्बंधी सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर के अनुसार माया और भ्रम या अविद्या और अभ्यास के बीच कोई अंतर नहीं है। माया ब्रह्मा की शक्ति है परंतु उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है। ब्रह्म, माया से अलग रह सकता है परंतु माया, ब्रह्म से अलग नहीं रह सकती।

अब प्रश्न उठता है, कि जब माया ब्रह्म का स्वरूप नहीं है तो ब्रह्म कैसे जगत के रूप में उत्पन्न होता है। इस समस्या का समाधान शंकर ने एक उपमा के द्वारा करने का प्रयास किया है। जिस प्रकार कोई जादूगर अपनी जादू की प्रवीणता से एक सिक्के का अनेक सिक्का दिखलाता है बीज से वृक्ष उत्पन्न करता है। किसी की गर्दन काट देता है और दर्शक जो जादू से अनभिज्ञ है मुग्ध हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्म माया के द्वारा विश्व की रचना करते हैं। अज्ञानी इस जगत को सत्य मान बैठते हैं। जिस प्रकार जादूगर अपनी जादू से प्रभावित नहीं होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म पर माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

अब प्रश्न उठता है कि क्या जगत केवल भ्रम मात्र ही है या इनकी कुछ वास्तविकता भी है ? शंकर इस प्रश्न का भावनात्मक उत्तर देते हैं। सर्वप्रथम शंकर के अनुसार प्रत्येक विषय के पीछे एक शुद्ध सत्ता होती है।

यहाँ हम शंकर में Bradley की अनुगुंज पाते हैं। Bradley प्रत्येक मौजूदगी के पीछे वास्तविकता को मानते हैं।

शंकर ने सत्ता को तीन कोटि में विभाजित किया है-

  1. प्रतिभासिक सत्ता
  2. व्यावहारिक सत्ता और
  3. पारमार्थिक सत्ता।

प्रतिभासिक सत्ता वह है जिसकी अनुभूति क्षणमात्र के लिए होती है। परंतु चैतन्य अनुभूति से वह बाधित हो जाता है। इसके विपरीत व्यावहारिक सत्ता की अनुभूति अज्ञानतावश जाग्रतावस्था में सत्य प्रतीत होती है परंतु यथार्थ ज्ञान होने पर असिद्ध साबित होती है। जैसे बचपन में खिलौना हमें अनमोल प्रतीत होता है परंतु बड़ा होने पर वह महत्वहीन सिद्ध होता है। इन दोनों से अलग पारमार्थिक सत्ता है जो सभी देश और काल में समान प्रतीत होता है। जैसे-सोते-जागते अवस्था में हमें अपनी आत्मा की अनुभूति होती है। हम कहते हैं कि मैं खूब सोया। अतः ऐसे आत्मा से समान सत्ता पारमार्थिक सत्ता है। अब यदि ध्यान से देखा जाये तो जगत स्वप्न के सामान असत्य नहीं है क्योंकि हमें वास्तविकता प्रतीत होती है।

प्रश्न 6.
ईश्वर के अस्तित्व को तात्त्विक युक्ति से प्रमाणित करें।
उत्तर:
मध्यकालीन दार्शनिक संत असलेम ने सर्वप्रथम ईश्वर के विषय में तत्त्व विषयक प्रमाण प्रस्तुत किया जिसको बाद में देकार्त ने विकसित किया। इस तर्क के अनुसार हम ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में मानते हैं तथा उसे पूर्ण भी मानते हैं। इस प्रकार जब हम ईश्वर को पूर्ण मानते हैं तब उसका अस्तित्व भी अवश्य होना चाहिए क्योंकि अस्तित्व के अभाव में उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता। इससे स्पष्ट है कि तत्त्व विषयक तर्क के अनुसार ईश्वर की पूर्णता ही उसके अस्तित्व का प्रमाण है। इसके साथ ही यह भी यथार्थ है कि अस्तित्व के अभाव में ईश्वर को सर्वोच्च भी नहीं माना जा सकता।

देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्त्व विषयक तर्क कुछ भिन्न प्रकार से दिया है। उनका कहना है कि हमारे मन में जो असीम सर्वज्ञ और शाश्वत सत्ता का प्रत्यय है वह असीम, सर्वज्ञ और शाश्वत शक्ति के अस्तित्व को सिद्ध करता है क्योंकि यदि यह विचार किया जाए कि ईश्वर को प्रत्यय नहीं माना जा सकता क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है इसलिए वह पूर्ण के प्रत्यय का कारण नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि यह कहा जाए कि असीम प्रत्यय सकारात्मक न होकर नकारात्मक है तब देकार्त का यह कहना है कि असीम का बोध असीम से पूर्व और अधिक स्पष्ट तथा यथार्थ होता है क्योंकि ससीमता असीमता के अपेक्षा रखती है तथा अपूर्ण पूर्ण की अपेक्षा से होता है।

इस प्रकार असीम के प्रत्यय का कारण न तो मनुष्य है और न ही यह नाकरात्मक प्रत्यय है बल्कि इस प्रत्यय का स्वयं ईश्वर ही कारण है। इस विषय में यदि कहा जाए कि मनुष्य ससीम एवं अपूर्ण है तब उसके मन में असीम और पूर्ण का प्रत्यय कैसे बन सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए देकार्त ने कहा है कि यह तो मान्य है कि मनुष्य सीमित है इसलिए वह असीम की धारणा को ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु इस विषय में यह भी स्पष्ट ही है कि मनुष्य यह तो जान सकता है कि उसके मन में जो असीम की धारणा है वह स्वयं से सम्बन्धित नहीं वरन् उसका सम्बन्ध किसी पूर्ण ईश्वर से ही हो सकता है। इस प्रकार स्पष्ट ईश्वर का प्रत्यय या असीम का प्रत्यय ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है।

प्रश्न 7.
कारण के गुणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
मिल ने कारण में पूर्ववर्ती एवं अनौपाधित लक्षणों पर बल दिया तो कारवेथ रीड ने पूर्ववर्तिता, नियतता, अनौपाधिता एवं तात्कालिकता चार लक्षणों पर बल दिया है। इसमें कारवेथ रीड के अनुसार, गुणात्मक दृष्टि से किसी भी घटना का कारण कार्य का तात्कालिक, अनौपाधिक, नियतपूर्ववर्ती है तथा मिल साहब के अनुसार, किसी घटना का कारण “वह पूर्ववर्ती या पूर्ववर्त्तियों का समूह है जिसके या जिनके होने के बाद वह घटना नियत रूप से तथा अनौपाधिक रूप से होती है। दोनों परिभाषाओं को देखने के बाद कारण के निम्नलिखित लक्षण पाते हैं-

(i) पर्ववर्ती होना (Anticedent)- कारण और कार्य सापेक्षवाद है। एक के बाद दूसरा एक क्रम में पाया जाता है जिसका आदि और अंत हमें नहीं पता चलता है। अतः, किसे कारण समझा जाए? इस समस्या को समझने के लिए मिल साहब का कहना है कि किसी घटना के पहले घटने वाली घटना के कारण समझ लेना ठीक होगा। मेलोन साहब का विचार है कि कारण और कार्य के बीच एक गणित की रेखा है. जिसमें चौड़ाई नहीं होती है, अर्थात् कारण और कार्य एक-दूसरे से अलग नहीं बल्कि एक तथ्य के दो छोर हैं। जो हमें पूर्ववर्ती के रूप में पहले दिखाई पड़ता है उसे कारण कहते हैं और बाद में जो अनुवर्ती के रूप में दिखाई पड़ता है उसे कार्य का रूप देता है। अत: इसके अनुसार कारण कार्य के पहले आता है।

(ii) नियत अनियत होना (Invariable)-पहले घटने वाली घटना को कारण तो कहा जाता है लेकिन सभी पहले घटने वाली घटना कारण नहीं हो सकता है। ऐसा कहने से अंधविश्वास का जन्म हो सकता है। पहले घटने वाली घटनाएँ दो तरह की हैं-
(a) नियत तथा
(b) अनियत।

(a) अनियत पूर्ववती (Variable anticedent)-अनियत पूर्ववर्ती घटनाएँ वे हैं जो कार्य के पहले नियमित रूप से नहीं पायी जाती है। कभी होता है और कभी नहीं भी। जैसे-वर्षा के पहले घटने वाली घटनाओं के रूप में हम फुटबॉल मैच, राम की शादी, कॉलेज में सभा इत्यादि को पा सकते हैं लेकिन नियमित रूप से वर्षा के पहले हमेशा नहीं आते हैं इसलिए ये कारण भी हो सकते हैं। अतः अनियत घटनाएँ कारण कभी नहीं हो सकती है।

(b) नियत पूर्ववती (Invariable anticedent)-ये वे घटनाएँ हैं जो किसी कार्य के पहले देय था ही नियत रूप से पायी जाती है, जैसे-वर्षा के पहले बादल का घिर जाना। जब कभी भी वर्षा होगी आकाश में बादल का रहना जरूरी है। अतः बादल का होना नियत पूर्ववर्ती घटना है। ऐसा विचार ह्यूम का है। घटना के पहले जो भी आवे, जो कुछ भी घटे उन सबों को बिना विचारे कारण मान लेना एक दोष पैदा कर सकता है। जिसे हम पूर्ववर्ती घटनाओं के रूप में पाते हैं, परन्तु वे सभी आकस्मिक या परिवर्तनशील हैं। इसलिए अनियत पूर्ववर्ती घटना के कारण बनने का योग कभी भी प्राप्त नहीं होगा। इसलिए ह्यूम साहब ने हमेशा ही नियत पूर्ववर्ती घटना को कारण मानना उचित बताया है।

(iii) अनौपाधिक होना (Unconditional)-कभी-कभी ह्यूम के विचारों का मानने से एक समस्या आ जाती है जिसे कारवेथ रीड ने हमारे सामने दिन और रात का उदाहरण रखा है। दिन के पहले रात और रात के पहले दिन नियत पूर्ववर्ती घटना के रूप में पाए जाते हैं। यदि हम ह्यूम की बात न माने तो दिन का कारण रात और रात का कारण दिन होना ही होगा। ऐसा कहना हास्यास्पद होगा, क्योंकि दिन और रात का होना एक शर्त पर निर्भर करता है, वह है पृथ्वी का चौबीस घंटे में अपनी कील पर चारों तरफ एक बार घूम जाना। वास्तव में यही दिन और रात का अलग-अलग कारण हो सकता है। इस समस्या को दूर करने के लिए मिल साहब कहते हैं कि इसी प्रकार की घटना को नियतपूर्ववर्ती घटना का कारण माना जा सकता है जो किसी शर्त पर निर्भर नहीं करे अर्थात् वह अनौपाधिक हो।

(iv) तात्कालिक होना (Immediate)-कारण का अंतिम गुणात्मक लक्षण तात्कालिकता है। कारण जो कार्य का तात्कालिक पूर्ववर्ती होना चाहिए। अतः कारण से तुरंत पहले आने वाली पूर्ववर्ती में खोजना चाहिए। दूरस्थ पूर्ववर्ती को कारण नहीं मानना चाहिए। जैसे-कॉलेज में सुबह पढ़ना, शाम को टहलना, रात को ओस में सोना इत्यादि घटनाओं के बाद हमें खूब जोर से सर दर्द होता है। यहाँ सर दर्द के पहले ओस में सोना तात्कालिक घटना है और अन्य घटनाएँ दूर की हैं। इस तरह पूर्ववर्ती नियुत अनौपाधिक एवं तात्कालिक मिश्रण है।

प्रश्न 8.
पुरुषार्थ के रूप में अर्थ और काम की व्याख्या करें।
उत्तर:
पुरुषार्थ शब्द दो शब्दों के योग से बना है-पुरुष + अर्थ। पुरुष शब्द आत्मा का पर्यायवाची माना जाता है और इस अर्थ से हमारा तात्पर्य उद्देश्य होता है। इस प्रकार पुरुषार्थ शब्द End या good का पर्यायवाची शब्द माना जा सकता है। भारतीय आचार दर्शन में जीवन के भिन्न-भिन्न पक्ष को ध्यान में रखकर पुरुषार्थों की संख्या चार माना गया है जिन्हें हम क्रमश: अर्थ (Wealth), काम (Enjoyment), धर्म (Virtues), मोक्ष (Salvation or Liberation). कहते हैं।

इन चारों पुरुषार्थों को दो वर्गों में रखा जा सकता है। प्रथम तीन पुरुषार्थ साधन के रूप में पुरुषार्थ माने जाते हैं, किन्तु चौथा पुरुषार्थ परमपुरुषार्थ माना जाता है। जिसके लिए अंग्रेजी शब्द Summan bonum या Supreme good का प्रयोग किया जाता है। इन चारों पुरुषार्थ की व्याख्या अपेक्षित है। सबसे पहला पुरुषार्थ है-अर्थ या Wealth।

अर्थ (Wealth)-अर्थ शब्द का प्रयोग भी भिन्न-भिन्न अर्थों में किया जाता है। किन्तु भारतीय आचार दर्शन के क्षेत्र में अर्थ से हमारा तात्पर्य उन भौतिक साधनों से है जिसके आधार पर हम जीवन-यापन कर पाते हैं। क्या हम असीम रूप से भौतिक साधनों का अर्जन कर सकते हैं ? या इनके अर्जन के सम्बन्ध में कुछ सीमा है, कुछ वैसे प्रश्न हैं जिनका सम्बन्ध मूलतः अर्थ की नैतिकता (Morality of wealth) से है। यह सर्वविदित है कि जहाँ पूँजीवाद के समर्थक यह मानते हैं कि व्यक्ति को असीमित धन अर्जन का अधिकार है वहीं दूसरी ओर साम्यवाद के समर्थक अर्थ के ऊपर व्यक्तिगत नियंत्रण को बिल्कुल अनैतिक मानते हैं।

भारतीय नैतिक व्यवस्था में अर्थ के महत्त्व को आँका गया है, किन्तु यहाँ न तो पूँजीवादी व्यवस्था की तरह असीम धन अर्जन को नैतिक माना गया है और न ही हम यह मानते हैं कि व्यक्ति बिल्कुल ही भौतिक साधनों का परित्याग कर दें। वस्तुतः अर्थ तो मनुष्य का बाह्य जीवन माना गया है किन्तु इसका औचित्य केवल उसी हद तक है जिस हद तक इसे जीवन-यापन के साधन के रूप में किया जाना है या अतिथि-सत्कार के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हमें वह उतना ही (धन) दे जिससे हम जीवन-यापन कर सकें। यह इस कथा से भी स्पष्ट हो जाता है-

“साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।

इसी प्रकार, महात्मा गाँधी का भी विचार था कि हम उसी हद तक भौतिक साधनों का अर्जन करें, जिस हद तक वह उस दिन जीवन-यापन के लिए अनिवार्य हो। इस प्रकार अर्थ का अर्जन इसी हद तक नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जाता है जिसे हद तक इसे हम जीवन-यापन के साधन के रूप में प्रयोग में लाते हैं। अगर इसके आधार पर हम अन्य व्यक्तियों का शोषण प्रारम्भ कर देते हैं तो इसका कोई भी नैतिक औचित्य नहीं रह जाता।

काम (Enjoyment)-भारतीय आचार दर्शन का आचार मानव जीवन का मनोवैज्ञानिक.पक्ष भी माना जाता है जिसके अन्तर्गत काम की नैतिकता (Morality of enjoyment) को स्थान देते हैं। काम शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है। संकुचित अर्थ में इसका तात्पर्य Sexual Activities से लगाया जाता है। किन्तु वृहत् अर्थ में किसी भी इन्द्रियों के उपयोग के आधार पर प्राप्त आनन्द को काम के अन्तर्गत रखा जाता है। काम के सम्बन्ध में दो नैतिक सिद्धांत हैं- एक ओर सुखवाद के समर्थक इसे जीवन का परम आदर्श या परम शुभ मानते हैं तो दूसरी ओर Scepticism के समर्थक यह मानते हैं कि नैतिक जीवन में काम का कुछ भी महत्त्व नहीं है। जहाँ एक ओर पहले सिद्धांत के अनुसार Morality consists in titillation of the senses. दूसरे सिद्धांत के अनुसार Morality consists in denoucing the life of sensibility.

इन दोनों के बीच मध्यम वर्ग के रूप में भारतीय नैतिक दर्शन में काम के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। किन्तु यहाँ इसे हम Restrained enjoyment के रूप में स्वीकार करते हैं। , चार्वाक भले ही इसे परम शुभ के रूप में स्वीकार करते हैं।

प्रश्न 9.
वैशेषिक के समवाय पदार्थ की विवेचना करें।
उत्तर:
‘समवाय’ वह सम्बन्ध है जिसके कारण दो पदार्थ एक-दूसरे में समवेत रहते हैं। यह एक आन्तरिक सम्बन्ध है जो दो अविच्छेद्य (Inseparable) वस्तुओं को सम्बन्धित करता है। उदाहरणस्वरूप,, द्रव्य और गुण या कर्म का सम्बन्ध ‘समवाय’ है। इस सम्बन्ध से जुटी वस्तुएँ एक-दूसरे से अलग नही की जा सकती। प्रभाकर मीमांसा में समवाय अनेक माने गये हैं प्रभाकर के मतानुसार, नित्य वस्तुओं का समवाय नित्य और अनित्य वस्तुओं का समवाय अनित्य होते हैं। परन्तु न्याय वैशेषिक में एक ही नित्य समवाय माना गया है।

समवाय अदृश्य होता है इसलिए ज्ञान अनुमान द्वारा प्राप्त किया जाता है।
समवाय का अच्छी तरह समझने के लिए वैशेषिक द्वारा प्रमाणित दूसरे ‘सम्बन्ध संयोग’ (Conjunction) को समझ लेना आवश्यक है। संयोग और समवाय वैशेषिक के मतानुसार दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। संयोग एक अनित्य सम्बन्ध है। संयोग की परिभाषा देते हुए कहा गया है-‘पृथक-पृथक वस्तुओं का कुछ काल के लिए परस्पर मिलने से जो सम्बन्ध होता है, उसे संयोग (conjunction) कहा जाता है।’ उदाहरणस्वरूप-पक्षी वृक्ष की डाल पर आकर बैठता है। उसके बैठने से वृक्ष की डाल और पक्षी के बीच जो सम्बन्ध होता है उसे ‘संयोग’ कहा जाता है। यह सम्बन्ध अनायास हो जाता है। कुछ काल के बाद यह सम्बन्ध टूट भी सकता है। इसलिए इसे अनित्य सम्बन्ध कहा गया है। यद्यपि समवाय और संयोग दोनों सम्बद्ध हैं फिर भी दोनों के बीच अनेक विभिन्नताएँ दृष्टिगत होती है।

(i) संयोग एक बाह्य सम्बन्ध (External relation) हैं, किन्तु समवाय एक आन्तरिक सम्बन्ध (Internal relation) है।

(ii) संयोग द्वारा सम्बन्धित वस्तुएँ एक-दूसरे के पृथक् की जा सकती है। परन्तु समवाय द्वारा सम्बन्धित वस्तुओं को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। उदाहरणस्वरूप-पुस्तक और टेबुल को एक-दूसरे से पृथक् किया जा सकता है, किन्तु द्रव्य और गुण को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। चीनी में मिठास समवेत है। मिठास को चीनी से पृथक् नहीं किया जा सकता।

(iii) संयोग अस्थायी (Temporary) है, किन्तु समवाय स्थायी (Permanent) होता है।

(iv) संयोग एक प्रकार का आकस्मिक सम्बन्ध (Accidental relation) है, किन्तु समवाय आवश्यक सम्बन्ध (Essential relation) है। संयोग द्वारा सम्बन्धित टेबुल और पुस्तक पहले अलग-अलग थे, किन्तु अकस्मात् इनमें संयोग स्थापित हो गया। किन्तु चीनी और मिठास तथा नमक और खारापन में समवाय है जो आवश्यक सम्बन्ध है।

(v) ‘संयोग’ अपने सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित नहीं करता किन्तु ‘समवाय’ सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित करता है। उदाहरणस्वरूप, टेबुल और पुस्तक संयोग के पहले अलग-अलग थे और ‘संयोग के नष्ट हो जाने पर पुनः अलग-अलग हो जाते हैं।’

संयोग के अभाव या भाव से इनके अस्तित्व और स्वरूप पर कोई असर नहीं पड़ता। इसके विपरीत, “समवाय’ से जुटे पदार्थ अलग होकर अपना अस्तित्व एवं स्वरूप कायम नहीं रख सकते। उदाहरणस्वरूप शरीर और इसके अवयवों में समवाय सम्बन्ध रहता है। शरीर से पृथक अवयवों का अस्तित्व नहीं रह सकता और इसका कार्य भी समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार शरीर भी अवयवों से पृथक् होकर नहीं रह सकता।

(vi) संयोग के लिए दोनों या कम-से-कम एक वस्तु में गति या कर्म का होना अनिवार्य है। किन्तु समवाय किसी कर्म या गति पर आश्रित नहीं है।

(vii) न्याय-वैशेषिक संयोग को स्वतंत्र पदार्थ नहीं मानते, किन्तु समवाय को स्वतंत्र पदार्थ मानते हैं।

वैशेषिक- दर्शन पर विचार करने से स्पष्ट है कि इसमें पदार्थों की मीमांसा हुई है। पदार्थ शब्द ‘पद’ और ‘अर्थ’ शब्द के मेल से बना है। पदार्थ का मतलब है जिसका नामकरण हो सके। जिस पद का कुछ अर्थ होता है उसे पदार्थ की संज्ञा दी जाती है। पदार्थ के अधीन वैशेषिक दर्शन में विश्व की वास्तविक वस्तुओं की चर्चा हुई है।

वैशेषिक दर्शन में पदार्थ के दो प्रकार बताए गए हैं। वे हैं-भाव पदार्थ तथा अभाव पदार्थ। भाव पदार्थ की संख्या छः है। वे हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय। अभाव पदार्थ के अन्दर अभाव (Non-existence) को रखा जाता है। अभाव पदार्थ की चर्चा वैशेषिक सूत्र में नहीं की गयी है। अत: कुछ दार्शनिकों का मानना है कि अभाव पदार्थ का संकल कणाद के बाद हुआ है।

प्रश्न 10.
ज्ञान-विषयक सिद्धान्त के रूप में अनुभववाद पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अनुभववाद वह ज्ञानशास्त्रीय दार्शनिक सिद्धान्त है, जो समस्त ज्ञान का स्रोत बाह्य इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव को मानता है। यह बुद्धिवाद का पूर्णतः विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववाद के अनुसार अनुभव ही एक मात्र ज्ञान का साधन है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य का प्रत्येक ज्ञान अर्जित है, जन्म के समय मनुष्य के मस्तिष्क में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए अनुभववाद का कहना है कि जन्म के समय हमारा मस्तिष्क कोरे कागज के तरह रहता है तथा बाद में अनुभव के आधार पर ज्ञान अंकित होते हैं।

ज्ञान के मनुष्य तत्त्व प्रत्यय है। इन प्रत्ययों की उत्पत्ति अनुभव से होता है। बुद्धि प्रत्यय को मात्र ग्रहण करता है, उत्पन्न नहीं करता। बुद्धि के प्रत्ययों को निष्क्रिय ढंग से ग्रहण करती है। इसलिए प्रत्यय का एक मात्र जननी अनुभव है। अनुभववाद के समर्थक प्रमुख तीन दार्शनिक है लॉक, बर्कले और ह्यूम है। इन तीनों दार्शनिक ग्रेट ब्रिटेन के तीन प्रदेशों, लंदन, आयरलैण्ड और स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे-

(a) जॉन लॉक का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान प्रत्ययों से बनता है। लेकिन हमारे सामने एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रत्यय क्या हैं ? इसके उत्तर में लॉक का कहना है कि प्रत्यय किसी बाह्य वस्तु के प्रतिनिधि होते हैं। जैसे-टेबुल, कुर्सी, पुस्तक आदि बाह्य पदार्थ है। जब इसे देखते हैं तो हमारे मन में एक प्रतिबिम्ब द्वारा वस्तु का बनता है। तब आँख बंद कर लेते हैं तो उस वस्तु का प्रतिमा बनी रहती हैं। यही प्रतिमा लॉक के अनुसार प्रत्यय है। अतः समस्त ज्ञान इन्हीं प्रत्ययों से बनता है जो अनुभव के द्वारा प्राप्त होता है।

लॉक अनुभव का कहना है कि जन्म के समय हमारा मन एक स्वच्छ कोरे कागज के समान रहता है। इस मन में कुछ भी पूर्व से अंकित नहीं रहती है बल्कि समस्त ज्ञान प्रत्ययों से प्राप्त होते हैं। “Blac tabula, table rase, white paper empty calamity”.

लॉक को दो भागों में विभक्त किया है-सरल प्रत्यय से मिश्र प्रत्यय का निर्माण होता है और हमारा समस्त ज्ञान बनता है। जितने भी बुद्धिवादी दार्शनिक हैं वे सहज प्रत्यय कों जन्मजात मानते हैं। बुद्धिवादियों का कहना है कि ईश्वर, आत्मा धार्मिक और नैतिक मूल्य आदि प्रत्यय हमारे मन में जन्म से ही बैठा दी जाती है। वे प्रत्यय पर और अनिवार्य होते हैं। इसके विरुद्ध में लॉक का कहना है कि सहज प्रत्यय नाम का कोई भी चित्र अनुभव से पूर्व मन में स्थित नहीं होती। इसका खण्डन करते हुए, लॉक का कहना है कि-

(i) यदि कोई प्रत्यय जन्मजात होता तो सभी व्यक्तियों का इसका एक समान ज्ञान होना चाहिए था। लॉक महोदय का कहना है कि कुछ नास्तिकों को छोड़कर विश्व में कुछ ऐसे जातियाँ हैं जो ईश्वर से अपरिचित हैं इससे स्पष्ट होता है कि ईश्वर का प्रत्यय है, लेकिन इसमें अनिवार्य और सार्वलौकिकता नहीं है।

यही बात सभी प्रत्यय पर लागू होती है। यह प्रत्यय अगर अनिवार्य और सार्वलौकिक होते तो बच्चों, पागल और मुर्ख व्यक्ति भी इसका ज्ञान अवश्य रखते। लेकिन व्यवहारिक जगत में ऐसा देखने को नहीं मिलता तो इसके विरोध में बुद्धिवादियों का कहना है कि इस सहज प्रत्यय बच्चों एवं पागलों में भी होते हैं लेकिन उसे इसका ज्ञान नहीं हो पाता है। लॉक का कहना है कि यह विशेष बात है कि एक ओर बुद्धिवाद इस सहज प्रत्यय को बुद्धि में निहित मानते हैं और दूसरी ओर कहता है कि व्यक्ति को ज्ञान नहीं है, तो ज्ञान बुद्धि का अनिवार्य तत्त्व है।

(ii) नैतिक सिद्धान्तों को लेकर संहज प्रत्यय को यदि समर्थन किया जाए तो नैतिक प्रत्यय कर्तव्य, अकर्त्तव्य के नियम अच्छे बुरे का विचार, सभी व्यक्तियों में सहज रूप से वर्तमान रहती हैलिांक का कहना है कि इसे भी सार्वभौमिकता कहना भूल होगी। लॉक का कहना है कि एक भी नैतिक ज्ञान ऐसा नहीं है जो सार्वभौमिकता हो। कुछ लोग जो पाप समझते हैं उसे ही दूसरे लोग पुण्य समझते हैं। जैसे कुछ लोग हत्या किसी भी जीव का क्यों नहीं हो, पाप समझते हैं, जब किसी अनेक लोग देवता के सामने बलि देना पुण्य समझते हैं। अतः नैतिकता का प्रत्यय भी सार्वलौकिक प्रत्यय नहीं है जो सभी में जन्मजात है।

(iii) लॉक का कहना है कि हम किसे सहज प्रत्यय कहेंगे यह बुद्धि बल्कि यह स्पष्ट नहीं कहते हैं। यदि अनिवार्यता और सार्वभौमिकता की सहज प्रत्यय की कसौटी हैं तो सूरज और उसका ताप चन्द्रमा और उसका शीतलता भी सार्वभौमिकता प्रत्यय है। इन्हें हम जन्म-जात नहीं कहेंगे। हम इन्हें ल अनभव के द्वारा जान सकते हैं। अत: लॉक जन्मजात प्रत्यय का खंडन करता है। लॉक का कहना है कि ज्ञान निर्माण के तीन तत्त्व हैं-

  1. (i) Subject
  2. (ii) Object
  3. (iii) Ideas

ज्ञान वस्तुओं का होता है। ज्ञान प्राप्त करने वाला अनुभवकर्ता है तथा ज्ञान का माध्यम प्रत्यय है। अतः लॉक अनुभव को ही स्वीकारात्मक है।

(b) अनुभववाद के दूसरा प्रबल समर्थक बर्कले का कहना है कि ज्ञान केवल अनुभव के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ये एक रोचक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक बार मुझे जिज्ञासा हुई कि फाँसी लगाते समय कैसा अनुभव होता है यह जाना जाए। इसलिए अनुभववादी बर्कले ने स्वयं फाँसी के फंदे गले में लगा लिया। जब उसके मित्र फाँसी के फंदे खोले तो बर्कले बेहोश थे। इतना कट्टर अनुभववादी होते हुए भी भौतिकवादी न होकर अध्यात्मवादी हैं।

बर्कले अपने अनुभववादी विचार को लॉक के विचारों से ताल मेल कराते हुए आगे बढ़ाई है। बर्कले लॉक के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को मानकर कहते हैं कि हमारा समस्त ज्ञान संवेदनाओं और इन संवेदनाओं के द्वारा होता है। इन्द्रिय बौधी समस्त ज्ञान को उत्पन्न करते हैं किन्तु इन्द्रिय बोध जो बर्कले प्रत्यय कहते हैं, वह मन में ही रहते हैं लॉक ने इसके स्रोत के रूप में स्थित पदार्थ की कल्पना की थी, पर बर्कले का मत है कि ऐसा किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता। हम केवल मन्स के प्रत्यय का अनुभव करते हैं, जो प्रत्यय इन्द्रियों का देन है, भौतिक पदार्थों का नहीं।

जैसे हमें आँख से रंग या प्रकाश का ज्ञान होता है, जीभ से स्वाद, कान से शब्द इत्यादि का बोध होता है। ये प्रत्यय एकत्र होकर वस्तु की संज्ञा देते हैं और ये संवेदना के द्वारा मिलते हैं। इन प्रत्ययों का संहार रूप वस्तुओं से हमारे मन में सुख-दुःख, प्रेम, घृणा, आशा-निराशा इत्यादि भावों का ज्ञान होता है। इनका ज्ञान एवं संवेदना से होता है जिसे बर्कले हमारे मन में कल्पना प्रस्तुत और स्मृति जन-प्रत्यय भी है। इसी को बर्कले में प्रत्ययवादी कहते हैं। इस प्रकार बर्कले के लिए अनुभव ज्ञान का साधन है किन्तु वह भौतिक पदार्थों का नहीं बल्कि ईश्वरीय प्रत्ययों का अनुभव है।

(c) अनुभववाद के तीसरा प्रबल समर्थक ह्यूम ने लॉक और बर्कले के तरह यह मानते हैं कि सभी ज्ञान अनुभवजन्य होते हैं। ह्यूम का कहना है कि अनुभव प्रत्ययों का होता है वस्तु का नहीं। ह्यूम का अनुभववादी विचार लॉक और बर्कले के अनुभववादी विचार के अस्वीकार करते हुए जड़, जगत, ईश्वर और आत्मा के सत्ता को इंकार करते हैं और कहते हैं कि अनुभव केवल प्रत्ययों का ही होता है, जो लगातार आते-जाते रहता है। हम भ्रमवश एक स्थायी आत्मा की कल्पना कर बैठते हैं, जबकि आत्मा नाम की चीज मनुष्य के पास नहीं है।

ह्यूम कार्य कारण नियम का खंडन करता है, जिसे उसके पूर्व लॉक और बर्कले स्वीकार करते हैं। इनका कहना है कि कार्य कारण नियम कोई वृद्धिजन्य और सार्वभौम नियम नहीं है। बल्कि हम अपने अनुभव के आधार पर कार्य कारण के संबंध का ज्ञान प्राप्त करते हैं। हम केवल संवेदना और स्व-संवेदना का अनुभव करते हैं। किसी जड़ पदार्थ का नहीं। इसी तरह आत्मा के बारे में ह्यूम का कहना है कि कभी भी आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। आत्मा कुछ नहीं है। केवल भिन्न-भिन्न संवेदनाओं का प्रवाह मात्र है। इसी प्रकार ईश्वर का भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। इसलिए इसकी पत्ता को भी राम इंकार करते हैं।

ज्ञान निर्माण के संबंध में ह्यूम का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान अनुभव से है। वे मनुष्य के अनुभव के विश्लेषण करते हुए कहते है कि हमारे अनुभव के मूल में दो वस्तुएँ रहती हैं-

  1. प्रत्यक्ष
  2. संस्कार।

संस्कार वे प्रधान भाव है जो प्रत्यक्षीकरण के साथ ही बड़ी तीव्रता से मन में आता है जो विचार या चिन्तन से बनते हैं वे प्रत्यय हैं। संस्कार के दो प्रकार होते हैं- (i) बाह्य, (ii) आन्तरिक। बाह्य संस्कार में हमारे इन्द्रिय बोध जैसे-देखना, छुना, स्पर्श करना आदि। आन्तरिक संस्कार में हमारे मनोवेग, प्यार, घृणा, क्रोध आदि आते हैं। इस प्रकार प्रत्यय का भी दो रूप हो जाते हैं-

  • सरल प्रत्यय,
  • मिश्र प्रत्यय। सरल प्रत्यय का निर्माण हमेशा संस्कारों के समरूप होता है, जबकि मिश्र प्रत्यय के लिए यह अप्रत्यय नहीं है। इन्हीं प्रत्ययों और संस्कारों से स्मृति और कल्पना शक्ति मिलकर ज्ञान का निर्माण करती है।

ज्ञान निर्माण के संबंध में घूम का कहना है कि बुद्धि बिलकुल निष्क्रिय रहती है। प्रत्ययों का राम के तीन प्रकार के पारस्परिक संबंध स्थापित करते हैं-

  • सदस्य का संबंध- दो वस्तु के समानता होने पर एक को देखने से दूसरे का भी स्मरण हो जाना।
  • विरोध का संबंध- दो वस्तुओं के आन्तरिक विरोध होने पर एक को देखने से दूसरा का स्मरण हो जाना।
  • परिमाण या संख्या का संबंध- इसके अलावे ह्युम तदात्म का संबंध देश काल देशकाल की असंगत का संबंध, जिसे ह्यूम अपने अनुभववाद में स्वीकार किया है।

आलाचना- अनुभववाद एक सुदृढ़ सिद्धान्त होते हुए भी स्वयं अपने आप को, अनेको दोषों से ग्रस्त होते हुए दिखाई देता है। जिसके कारण इसका अनेक आलोचना किया गया है-

  • अनुभववाद ज्ञान के निर्माण में बुद्धि को स्वीकार नहीं करता है इसका अर्थ यह है कि . बुद्धि ही केवल समस्त ज्ञान का निर्माण कर सकती किन्तु यह भी सच है कि केवल अनुभव पर समस्त ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
  • अनुभववाद बुद्धि को निष्क्रिय मानते हैं किन्तु मनोविज्ञान इस विचार को गलत सिद्ध कर दिया है। मनोविज्ञान के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति में हमारा मन सदैव गतिशील रहता है।
  • अनुभववादी लॉक का कहना है कि बुद्धि के पास कोई ऐसा भी नहीं है जो इन्द्रिय के पास नहीं थी। इसमें संशोधन करते हुए बुद्धिवादी दार्शनिक लाइबनित्स का कहना है कि बुद्धि के पास कोई ऐसा चीज नहीं है जो इन्द्रिय के पास नहीं था।J. T. Baxor का कहना है, “A theory can not be sensed and therefore on sensistic premises can not be known.”
  • अनुभववादी स्वयं मानते हैं कि अनुभव के द्वारा हमें सर्वमान्य एवं अवश्यभावी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में अनुभव को सम्य ज्ञान मानना उचित नहीं होगा।
  • ज्ञान का अनुभववादी विचार का प्रमाण ह्यूम का संदेहवाद जहाँ जाकर दर्शन एक अंधेरे गर्त में गिर गया है। यहाँ न नगर की सत्ता है, न ईश्वर की आत्मा की।
  • अनुभववादी संवेदनाओं का मानना है किन्तु वे संवेदनाएँ वहाँ तक अर्थहीन है, जब तक कि बुद्धि के द्वारा इनका कोई अर्थ नहीं लगाया जाए। अंग बुद्धि हमारे ज्ञान के निर्माण में आवश्यक है।

अतः अनुभववाद के उपर्युक्त ह्यूम द्वारा जगत, आत्मा तथा ईश्वर जैसे भयानक परिणाम प्रस्तुत करने के बाबजूद समकालीन दर्शन में बुद्धिवाद से अधिक अनुभववाद का ही समर्थन मिला है। यह मान्य है कि ज्ञान प्राप्ति का साधन मात्र अनुभव ही नहीं कहा जा सकता है बल्कि बुद्धि भी है। अनुभववाद में केवल दोष ही नहीं है इसमें विशेषता भी है बुद्धिवादियों ने ज्ञान को बिल्कुल अमूर्त बना दिया है लेकिन अनुभववादियों ने ज्ञान को संवेदनजन्य कहकर दर्शन के क्षेत्र में एक क्रान्ति ला दिया है। सच पूछा जाए तो अनुभववाद का चरम विकास ही Kant के दर्शन का जन्म देता है। Kant ने दोनों मतों की समीक्षा की और कहा कि दोनों में प्रारंभिक संयत्र है। इसलिए उन्होंने कहा कि, “बुद्धिजीवियों के अनुभव प्रधान है और अनुभव के बिना बुद्धि है।”

प्रश्न 11.
परम तत्व के सिद्धान्त के रूप में भौतिकवाद की समीक्षा करें।
उत्तर:
श्री भगवान को जान लेना या इनका ज्ञान प्राप्त करना ही परम ज्ञान और परम तत्व कहा जता है। इनसे बढ़कर पूरे सृष्टि में अन्य कोई नहीं, इन्हीं की आज्ञा, ब्रह्मा जी, शिव जी, वायु, यमराज, अग्नि, इन्द्र, वसु, ग्रह, नक्षत्र इत्यादि मानने को बाध्य हैं। परम तत्व यानि परम पुरुष का ज्ञान और उनके तत्व की वो कैसे इस सृष्टि को संचालन इत्यादि करते हैं और वो कैसे और कहाँ रहते हैं। कैसे उन्होंने सृष्टि बनायी तथा कैसे इस सृष्टि का प्रलय करते हैं। इसे परम तत्व या परम पुरुष का ज्ञान भी कहते हैं।

भगवान का ज्ञान को ज्ञान कहा जाता है और पूरी सृष्टि में इन्हें ही ज्ञान कहा गया है और यही परम पवित्र और सत है। और बाकी भगवान को छोड़कर सभी असत और अज्ञान है।

भौतिकवाद दार्शनिक एकत्ववाद का एक प्रकार हैं जिसका यह मत है कि प्रकृति में पदार्थ ही मूल द्रव्य है और साथ ही सभी दृग्विषय, जिस में मानसिक दृग्विषय और चेतना भी शामिल है भौतिक परस्पर संक्रिया के परिणाम है। भौतिकवाद का भौतिकवाद से गहरा सम्बन्ध है जिसका यह मत है कि जो कुछ भी अस्तित्व में है वह अंततः भौतिक है।

प्रश्न 12.
आत्मा-विषयक अद्वैत वृष्टि का संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर:
शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा. कहा है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। शेष सभी वस्तुएँ व्यावहारिक सत्यता का ही दावा कर सकती है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि “मै नहीं हूँ”, तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है। फिर भी ‘मै’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हैं कि आत्मा का वासतविक स्वरूप निश्चित करने के लिए तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी मैं शब्द का प्रयोग होता है। जैसे–मैं मोटा हूँ। कभी-कभी ‘मैं’ का प्रयोग इन्द्रियों के लिए होता है। जैसे-मैं अन्धा हूँ। अब प्रश्न उठता है कि इसमें किसको आत्मा कहा जाए। शंकर के अनुसार, जो अवस्थाओं में सामान्य होने के कारण मौलिक है। अतः चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप है। इसे दूसरे ढंग से भी प्रमाणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन में हम तीन प्रकार की अनुभूतियाँ पाते हैं-

  1. जाग्रत अवस्था (Waking experience)
  2. स्वप्न अवस्था (Dreaming experience)
  3. सुषुप्ति अवस्था (Dreamless sleep experience)

जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को बाह्य जगत् की चेतना रहती है। स्वप्नावस्था में आभ्यान्तर विषयों की स्वप्न रूप में चेतना रहती है। सुषुप्तावस्था में यद्यपि बाह्य और आभ्यान्तर विषयों की चेतना नहीं रहती है, फिर भी किसी न किसी रूप में चेतना अवश्य रहती है। इसी आधार पर तो हम कहते हैं-“मैं खूब आराम से सोया”। इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चैतन्य सामान्य है। चैतन्य ही स्थायी तत्त्व है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। चैतन्य का अर्थ किसी विषयक चैतन्य नहीं बल्कि शुद्ध चैतन्य है। चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। सत्ता (Existence) चैतन्य में सर्वथा वर्तमान रहती है।

चैतन्य के साथ-ही-साथ आत्मा में आनन्द भी है। साधारण वस्तु में जो आनन्द को सत् + चित् + आनन्द् = सच्चिदानन्द कहा है। शंकर के अनुसार “ब्रह्म” सच्चिदानंद है। चूँकि आत्मा वस्तुत: ब्रह्म ही है इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण संगत प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन के आत्मा सम्बन्धी सभी विचारों में शंकर का विचार अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिक ने आत्मा का स्वरूप सत् माना है। न्याय की आत्मा स्वभावतः अचेतन है। संख्या ने आत्मा को सत् + चित् (Existence Consciousness) माना है। शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द मानकर आत्म सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।

शंकर ने आत्मा को नित्य शुद्ध और निराकार माना है। आत्मा एक है। आत्मा यथार्थताः भोक्ता और कर्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्ता दिखाई पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है, तथा विभिन्न विषयों को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों से स्वतंत्र है। वह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करता है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि आत्मा को साध्य जाना जाए तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगी। इस तरह आत्मा की नित्यता खण्डित हो जायेगी। आत्मा देश, काल और कारण नियम की सीमा से परे है। आत्मा सभी विषयों का आधार स्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य है। आत्मा त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है।

शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। आत्मा ही वस्तुतः ब्रह्म है। शंकर ने आत्मा = ब्रह्म कहकर दोनों की तादात्म्यता को प्रमाणित किया है। एक ही तत्त्व आत्मनिष्ठ दृष्टि से आत्मा है तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म है। शंकर आत्मा और ब्रह्म ने ऐक्य को तत्त्व मसि (that thou art) से पुष्ट करता है। उपनिषद् के वाक्य “अहं ब्रह्मास्सि” (I am Brahman) से भी “आत्मा” और ब्रह्म के भेद का ज्ञान होता है।

प्रश्न 13.
व्यावसायिक नीतिशास्त्र के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता होती है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ, किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है।

व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहती है और समाज में वे अपने कार्यों को आम लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है। परन्तु एक व्यावसायिक का मुख्य उद्देश्य सिर्फ धन का अर्जन नहीं होना चाहिए बल्कि सेवा की भावना भी होनी चाहिए। व्यवसाय में, सेवा भाव का स्थान धन अर्जन के उद्देश्य से अधिक ऊँचा होना चाहिए। उदाहरणस्वरूप-शिक्षक, अभियंता, बैंकर्स, कृषक, चिकित्सक, पेशागत व्यक्ति तथा विभिन्न प्रकार के ऐसे व्यवसाय हैं, जिसमें नैतिकता के अभाव में, उस व्यवसाय में सफलता की. बात नहीं की जा सकती है।

प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है। अतः उसके अलग-अलग उद्देश्य एवं अलग-अलग कार्यशैली का होना भी आवश्यक है। चूँकि सभी व्यक्तियों का व्यवसाय अलग-अलग है, अतः उनकी नैतिकता भी पेशा के अनुकूल ही होनी चाहिए। वर्तमान संदर्भ में व्यावसायिक नैतिकता का होना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है, अतः उनके अलग-अलग उद्देश्य और अलग-अलग कार्यशैली भी है। विभिन्न कार्यशैलियों तथा उद्देश्यों का निर्धारण व्यावसायिक नैतिकता के द्वारा ही संभव है। अतः प्रत्येक व्यवसाय की अपनी आचार-संहित का होना न केवल आवश्क है बल्कि सामाजिक व्यवस्था व प्रगति के लिए भी उपयोगी है।

हमारी भारतीय परम्परा में व्यावसायिक नैतिकता का स्पष्ट रूप वर्णश्रम धर्म में देखने को मिलता है। हमारे भारतीय नीतिशास्त्र में समाज के समुचित विकास के लिए सभी व्यक्तियों को उसके गुण और कर्म के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है। यहाँ चार प्रकार के वर्ण माने गये हैं-ब्रह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शुद्र। इनका विभाजन का आधार श्रम एवं कार्य. विशिष्टीकरण है। इन सभी वर्गों की अपनी व्यावसायिक नैतिकता थी।

प्रश्न 14.
नीतिशास्त्र के क्षेत्र पर संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करें।
उत्तर:
नीतिशास्त्र के क्षेत्र का अर्थ है उसकी विषय-वस्तु की व्यापकता। आदर्शपरक विज्ञान होने के कारण नीतिशास्त्र नैतिक आदर्श की परिभाषा देने का प्रयास करता है।

(क) नैतिक गुण- नीतिशास्त्र का संबंध मुख्य रूप से उचित-अनुचित शुभ-अशुभ पाप-पुण्य इत्यादि नैतिक गुणों से है जिनके आधार पर मानव आचरण का मूल्यांकन किया जाता है।

(ख) नैतिक निर्णय- नीतिशास्त्र व्यक्ति के कर्मों का नैतिक निर्णय प्रस्तुत करता है तथा कमों को उचित या अनुचित शुभ या अशुभ के रूप में निर्मित करता है।

(ग) नैतिक मापदण्ड- नैतिक मापदण्ड के आधार पर ही कर्मो का मूल्यांकन कर नैतिक निर्णय दिया जाता है। नीतिशास्त्र इसी संदर्भ में, नैतिक मापदण्डों को अध्ययन कर उसे निर्धारित करने का प्रयास करता है जिनके आधार पर कर्मों के संबंध में नैतिक निर्णय दिया जा सके।

(घ) नैतिक पद्धति- नैतिक निर्णय के लिए किसी-न-किसी पद्धति को अपनाना आवश्यक है। इसी को ध्यान में रखकर नीतिशास्त्र विभिन्न पद्धतियों का अध्ययन करता है।

(३) कर्तव्य अधिकार एवं नैतिक बाध्यता- नैतिक गुणों के साथ-साथ कर्तव्य में नैतिक बाध्यता की चेतना सन्निहित होती है जो उचित है उसे करना तथा जो अनुचित है उसे नहीं करना व्यक्ति का कर्तव्य है। जब किसी कर्म को सम्पादित करने की बाध्यता समझते हैं तो उसे नैतिक बाध्यता कहते हैं जो एक व्यक्ति का कर्तव्य होता है वह अन्य का अधिकार होता है।

(च) पाप, पुण्य एवं उत्तरदायित्व- जब व्यक्ति उचित कर्मों का संपादन करता है तब उसे पुण्य की प्राप्ति होती है तथा अनुचित कर्मों के सम्पादन से पाप की प्राप्ति होती है।

(छ) पुरस्कार एवं दण्ड- उचित कर्म करने वाले को समाज एवं राज्य की ओर से पुरस्कृत किया जाता है तथा विहित कर्मों के विपरीत आचरण से दण्ड की प्राप्ति होती है।

(ज) नैतिक भावना- उचित कर्म करने से कर्ता को आनंद एवं संतोष की अनुभूति होती है तथा अनुचित कर्म करने से पश्चाताप की भावना उत्पन्न होती है।

(झ) समाजिक राजनीतिक, दार्शनिक एवं अन्य समस्याएं- सर्वोच्च शुभ के अध्ययन के क्रम में नीतिशास्त्र सामाजिक राजनीतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं तत्संबंधी अन्य समस्याओं का भी अध्ययन करता है।

प्रश्न 15.
कारण के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण दोनों आगमन के आकारिक आधार हैं। . प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार, समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता पायी जाती है। समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहेगा। दोनों नियमों के संबंध को लेकर तीन मत हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) मिल साहब तथा बेन साहब के अनुसार प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक है तथा कारणता के नियम प्राकृतिक समरूपता नियम का एक रूप है। ब्रेन के अनुसार समरूपता तीन प्रकार की हैं। उनमें एक अनुक्रमिक समरूपता है (Uniformities of succession), इसके अनुसार एक घटना के बाद दूसरी घटना समरूप ढंग से आती है। कार्य-कारण नियम अनुक्रमिक समरूपता है। कार्य-कारण नियम के अनुसार भी एक घटना के बाद दूसरी घटना अवश्य आती है। अतः, कार्य-कारण नियम स्वतंत्र नियम न होकर समरूपता का एक भेद है। जैसे-पानी और प्यास बुझाना, आग और गर्मी का होना इत्यादि घटनाओं में हम इसी तरह की समरूपता पाते हैं।

(ii) जोसेफ एवंमेलोन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम मौलिक है प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक नहीं है स्वतंत्र नहीं है। बल्कि प्राकृतिक समरूपता नियम इसी में समाविष्ट है। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण सदा कार्य को उत्पन्न करता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहता है। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार भी समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। अतः कार्य-कारण नियम ही मौलिक है और प्राकृतिक समरूपता नियम. उसमें अतभूर्त (implied) है।

(iii) वेल्टन, सिगवर्ट तथा बोसांकेट के अनुसार दोनों नियम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, दोनों मौलिक हैं, दोनों का अर्थ भिन्न है, दोनों दो लक्ष्य की पूर्ति करते हैं। कार्य-कारण नियम से पता चलता है कि प्रत्येक घटना का एक कारण होता है और प्रकृति में समानता है।

अतः, ये दोनों नियम मिलकर ही आगमन के आकारिक आधार बनते हैं। आगमन की क्रिया में दोनों की मदद ली जाती है। जैसे-कुछ मनुष्यों को मरणशील देखकर सामान्यीकरण कहते हैं कि सभी मनुष्य.मरणशील हैं। कुछ से सबकी ओर जाने में प्राकृतिक समरूपता नियम की मदद लेते हैं। प्रकृति के व्यवहार में समरूपता है।

इसी विश्वास के साथ कहते हैं कि मनुष्य भविष्य में भी मरेगा। सामान्यीकरण में निश्चिंतता आने के लिए कार्य-कारण नियम की मदद लेते हैं। कार्य-कारण नियम के अनसार कारण के उपस्थित रहने पर अवश्य ही कार्य उपस्थित रहता है। मनुष्यता और मरणशीलता में कार्य कारण संबंध है। इसी नियम में विश्वास के आधार पर कहते हैं कि जो कोई भी मनुष्यं होगा वह अवश्य ही मरणशील होगा। अतः दोनों स्वतंत्र होते हुए भी आगमन के लिए पूरक हैं। दोनों के सहयोग से आगमन संभव है। अतः दोनों में घनिष्ठ संबंध है।

प्रश्न 16.
Explain the Orthodox and Heterbox School of Indian Philosophy.
(भारतीय दर्शन के आस्तिक तथा नास्तिक सम्प्रदायों की व्याख्या कीजिए।)
उत्तर:
भारतीय दर्शन ज्ञान का अथाह सागर है। वाद-प्रतिवाद की परम्परा से विकसित होने के फलस्वरूप इस चिंतन यात्रा में कई विचार देखने को मिलते हैं जिनको मोटा-मोटी दो वर्गों में रखा गया है-आस्तिक और नास्तिक सम्प्रदाय।

भारतीय दर्शन में आस्तिक और नास्तिक के तीन अर्थ बतलाए गए हैं-

  • आस्तिक वह है जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है। इसके ठीक विपरीत नास्तिक वह है जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता है। यह आस्तिक और नास्तिक पद का साधारण अर्थ हुआ।
  • प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि एवं जयादित्यकृत “काशिका” में आस्तिक और नास्तिक की परिभाषा इस प्रकार से दी गई है कि आस्तिक वह है जो परलोक में विश्वास करता है। नास्तिक वह है जो परलोक में विश्वास नहीं करता है।
  • तीसरा विचार वेदों में आस्था रखने वाले सम्प्रदाय को आस्तिक और वेदों की निन्दा करने वाले को नास्तिक कहता है।

भारतीय दर्शन उपर्युक्त वर्णित तीसरे अर्थ को स्वीकार कर आस्तिक और नास्तिक सम्प्रदायों का निर्धारण करता है। भारतीय दर्शन में आस्तिकता की कसौटी वेदों की चरम प्रमाणिकता की स्वीकृति मान ली गई है। इस क्रम में भारतीय दर्शन के छः सम्प्रदायं-सांख्य योग, न्याय वैशेषिक मीमांसा और वेदान्त आस्तिक कहा गया है। ये ‘षड्दर्शन’ के रूप में भी जाने जाते हैं। इनमें से मीमांसा और वेदान्त वेद की सत्ता में पूर्णतः विश्वास करता है। जहाँ मीमांसा वेद के कर्म काण्ड को प्रश्रय देता है वहीं वेदान्त ज्ञानकाण्ड को स्वीकार करता है। शेष चार सम्प्रदाय वेदभक्त विशेष अर्थ में कहे जाते हैं। नास्तिक सम्प्रदायों के अन्तर्गत चार्वाक, बुद्ध और जैन आते हैं। इसमें चार्वाक हर दृष्टिकोण से नास्तिक माना जा सकता है। यह वेदनिन्दक परलोक में अनास्थावान एवं अनीश्वरवादी है। अतः वह नास्तिक शिरोमणि कहलाता है।

संक्षेप में, भारतीय दर्शन में किए गये आस्तिक और नास्तिक विभाजन को इस प्रकार से दर्शाया जा सकता है-
Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3 1
वेदों की प्रमाणिकता को आस्तिकता की कसौटी मानने से भारतीय दर्शन में वेदों की महत्ता स्पष्ट परिलक्षित होती है। इस मापदण्ड के निर्धारण के पीछे वेदों के प्रति पूर्वाग्रह दीख पड़ता है। बौद्धों और जैनों के भी अपने धार्मिक ग्रन्थ थे और उनकी दृष्टि में षड्दर्शन ही नास्तिक कहे जा सकते थे। इसलिए वेदों की प्रमाणिकता के आधार पर किसी सम्प्रदाय को आस्तिक कहने का कोई युक्ति संगत आधार नहीं दीख पड़ता है। फिर भी भारतीय दर्शन का मूलस्रोत वेदों को मानने के कारण वेद ही आस्तिकता के मापदण्ड के रूप में मान लिए गए हैं।

भारतीय दर्शन के अन्तर्गत जिन षड्दर्शन को स्वीकार किया गया है उसे हिन्दू दर्शन भी कहा जाता है इसके कुछ कारण हैं; जैसे-पहला कारण तो यह है कि इन छः सम्प्रदायों के संस्थापक हिन्दू महर्षि रहे हैं, जैसे-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के संस्थापक क्रमशः गौतम, कणाद, कपील, पतंजलि, जैमिनी और वादरायण हैं। ये सभी संस्थापक हिन्दू ही थे।

तीसरा कारण यह है कि हिन्दू शब्द का व्यापक अर्थ सिर्फ हिन्दू सम्प्रदाय ही न होकर समस्त भारतीय या हिन्दुस्तानी से हो जाता है। यह एक विशेष धर्म या विशेष दर्शन का बल नहीं है। यह समस्त भारतीयों का दर्शन है। यही कारण है कि जैन, बौद्ध और चार्वाक को भी हिन्दू दर्शन के अन्तर्गत रखा जाता है। यह हिन्दू शब्द का असाधारण प्रयोग है। संकीर्ण अर्थ में भारतीय ‘ दर्शन को हिन्दू दर्शन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके अन्तर्गत चार्वाक, बौद्ध और जैन अहिन्दू दर्शन विद्यमान है।

प्रश्न 17.
Discuss important schools of Indian philosophy. (भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण सम्प्रदायों का व्याख्या करें।)
उत्तर:
भारतीय दर्शन को मूलतः दो वर्गों में विभाजित किया गया है-आस्तिक (Orthodox) और नास्तिक (Heterodox)। आस्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक आस्तिक दर्शन की कोटि में आते हैं। इन दर्शनों में सभी ईश्वर को नहीं मानते हैं। उन्हें आस्तिक इसलिए कहा जाता है कि ये सभी वेद को मानते हैं। नास्तिक दर्शन की कोटि में चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा गया है। इनके नास्तिक कहलाने का मूल कारण यह है कि ये वेद की निन्दा करते हैं, जैसा कि कहा भी गया है-नास्तिको वेद निन्दकः। अर्थात् भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद में विश्वास नहीं करता है।

व्यावहारिक जीवन में आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग एक-दूसरे अर्थ में भी होता है। आस्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर में आस्था रखता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर का निषेध करता है। इस प्रकार ‘आस्तिक’ और ‘नास्तिक’ से तात्पर्य क्रमशः ‘ईश्वरवादी’ और ‘अनीश्वरवादी’ है।

यदि भारतीय दर्शन में आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग क्रमशः ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी के अर्थ में होता है तो सांख्य और मीमांसा दर्शन को भी नास्तिक दर्शनों की कोटि में रखा जाता। क्योंकि सांख्य और मीमांसा दोनों ही ईश्वर को नहीं मानने के कारण
अनीश्वरवादी दर्शन हैं। लेकिन ये दोनों वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करते हैं इसलिए आस्तिक – कहे जाते हैं।

आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग एक और अर्थ में होता है। आस्तिक से तात्पर्य है जो परलोक में विश्वास करता है, अर्थात् स्वर्ग और नरक की सत्ता में आस्था रखता है। नास्तिक उसे कहा जाता है जो स्वर्ग और नरक में विश्वास नहीं करता। यदि भारतीय दर्शन में आस्तिक
और नास्तिक का प्रयोग इस दृष्टिकोण से किया जाय तो जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक दर्शन की कोटि में आ जायेंगे क्योंकि वे भी परलोक को मानते हैं। इस दृष्टिकोण से सिर्फ चार्वाक को ही. नास्तिक दर्शन कहा जा सकता है।

भारतीय दर्शन की रूप-रेखा से यह प्रमाणित होता है कि वेद ही एक कसौटी है जिसके आधार पर भारतीय दर्शन के सम्प्रदायों का विभाजन हुआ। इस वर्गीकरण से भारतीय विचारधारा में वेद का महत्त्व स्पष्टतः दृष्टिगत होता है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत दर्शनों को दोनों अर्थों में आस्तिक कहा जाता है क्योंकि वे वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करते हैं साथ ही साथ परलोक की भी सत्ता में विश्वास करते हैं।

चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन को दो अर्थों में नास्तिक कहा जा सकता है। पहला वेद को नहीं मानने के कारण तथा दूसरा ईश्वर के विचार का खण्डन करने अर्थात् अनीश्वरवाद को अपनाने के कारण, नास्तिक कहा जाता है।

भारतीय दर्शन में चार्वा ही एकमात्र दर्शन है जो तीनों ही अर्थों में नास्तिक की कोटि में रखा जाता है। पहले अर्थ में वेद को अप्रमाण मानने के कारण तथा दूसरे अर्थ में परलोक को नहीं मानने के कारण नास्तिक है। चार्वाक दर्शन में वेद का उपहास पूर्ण रूप से किया गया है। ईश्वर को भी प्रत्यक्ष की सीमा से बाहर होने के कारण, चार्वाक नहीं मानता है। क्योंकि प्रत्यक्ष ही उनके अनुसार एकमात्र प्रमाण है। इसी तरह चार्वाक परलोक में भी विश्वास नहीं करता। उसके अनुसार यह संसार ही एकमात्र संसार है। मृत्यु का अर्थ जीवन का अन्त है। अत: परलोक में विश्वास करना चार्वाक के अनुसार मूर्खता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि जिस दृष्टिकोण से भी देखा जाए चार्वाक पक्का नास्तिक प्रतीत होता है। इसलिए चार्वाक को ‘नास्तिक शिरोमणि’ की उपाधि से विभूषित किया गया है।

जब हम आस्तिक दर्शनों के आपसी सम्बन्ध पर विहंगम दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि न्याय और वैशेषिक, सांख्य और योग, मीमांसा और वेदांत संयुक्त सम्प्रदाय प्रतीत होते हैं। न्याय और वैशेषिक दोनों में यों तो न्यूनाधिक सैद्धांतिक भेद है, फिर भी दोनों विश्वात्मा और परमात्मा (ईश्वर) के सम्बन्ध में एक ही विचार रखते हैं। दोनों का संयुक्त सम्प्रदाय ‘न्याय-वैशेषिक’ कहा जाता है। सांख्य और योग भी पुरुष और प्रकृति के समान सिद्धान्त को मानता है। इसलिए दोनों का संकलन ‘सांख्य-योग’ के रूप में हुआ है। न्याय-वैशेषिक और सांख्य-योग स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं। क्योंकि वेद का प्रभाव इन दर्शनों पर परोक्ष रूप में पड़ा है।

इसके विपरीत मीमांसा और वेदांत वैदिक संस्कृति की ही देन कहे जा सकते हैं। वेद में दो विचारधारायें थीं एक का सम्बन्ध कर्म से था तथा दूसरे का ज्ञान से। ये क्रमशः वैदिक कर्म-काण्ड तथा वैदिक ज्ञानकाण्ड के नाम से विदित हैं। मीमांसा वैदिक कर्म-काण्ड पर आधारित हैं और • वेदान्त ज्ञानकाण्ड पर। चूँकि मीमांसा और वेदान्त में वैदिक विचारों की मीमांसा हुई है इसलिए दोनों ही को कभी-कभी मीमांसा कहते हैं। भेद के दृष्टिकोण को पूर्व-मीमांसा या कर्म-मीमांसा तथा वेदान्त को उत्तर मीमांसा या ज्ञान-मीमांसा कहते हैं। ज्ञान मीमांसा में ज्ञान का और कर्म-मीमांसा में कर्म का विचार किया जाता है।

प्रश्न 18.
Explain briefly the Philosophy of the Bhagvad Gita. (भगवद् गीता के दर्शन की संक्षेप में व्याख्या करें।)
Or,
What is the central message of Bhagvad Gita. अथवा, (गीता के मुख्य उपदेश क्या हैं ? वर्णन करें।)
उत्तर:
गीता, हिन्दुओं का अत्यन्त ही पवित्र और लोकप्रिय रचना है। गीता न केवल धार्मिक विचारों से ही भरा है, बल्कि दार्शनिक विचारों से ओत-प्रोत है। यही कारण है कि गीता की प्रशंसा भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने भी मुक्त कंठ से की है। गीता समस्त भारतीय दर्शन का निचोड़ प्रतीत होता है। लोकमान्य तिलक ने इसकी प्रशंसा करते हुए कहा है-It is most luminous and priceless gem which gives peace to afficted souls and makes us masters of spiritual wisdom. महात्मा गाँधी ने गीता की सराहना करते हुए कहा है-जिस प्रकार हमारी पत्नी विश्व में सबसे सुन्दर स्त्री हमारे लिए है उसी प्रकार गीता के उपदेश सभी उपदेशों से श्रेष्ठ है। गाँधीजी ने गीता को प्रेरणा का स्रोत कहा है।

गीता के मुख्य उपदेश की चर्चा बहुत ही सुन्दर ढंग से Annine Besant ने किया है। Annine Besant के अनुसार-It is meant to lift the aspirant from the lower levels of renuciation where objects are renounced, to the loftier heights where desires are dead, and where the yogi dwells in calm and ceaseless contemplation while his body and mind are actively employed in discharging the duties that fall to his lot in life.

गीता का मुख्य उपदेश लोक-कल्याण है। आज के युग में जब मानव स्वार्थ की भावना से प्रभावित रहकर निजी लाभ के संबंध में सोचता है। गीता मानव की परार्थ-भावना का विकास करने में सफल हो सकती है। सम्पूर्ण गीता कर्तव्य करने के लिए मानव को प्रेरित करती है। परन्तु कर्म फल की प्राप्ति की भावना का त्याग करके करना ही परमावश्यक है। प्रो० हिरियाना के शब्दों में “गीता कर्मों के त्याग के बदले कर्म में त्याग का उपदेश देती है।”

भारतीय विचारकों ने जीवन में परमलक्ष्य की प्राप्ति के तीन मार्ग बतलाये हैं। वे हैं-निवृत्ति मार्ग, प्रवृत्ति मार्ग तथा निष्काम कर्मयोग। निवृत्ति मार्ग के अनुसार मुक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही उपाय है और वह क्षुद्र जीवन का त्याग। अर्थात् सांसारिकता से विमुख होकर मोक्ष की प्राप्ति करना। जीवन का दूसरा मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है जिसके अनुसार इहलोक तथा परलोक में सुख की प्राप्ति के लिए वेद निहित कर्मों का करना ही श्रेयस्कर है। अत: जीवन का यह मार्ग सश्रम कर्म की प्रेरणा देता है। इन दोनों से भिन्न गीता के निष्काम कर्म का मार्ग है जो परम्परागत निवृत्ति और प्रवृत्ति दो विरोधी मार्गों का समन्वय प्रस्तुत करता है।

निवृत्ति मार्ग के समर्थक सांसारिक विषयों के त्याग करने में ही मानव-मात्र का कल्याण समझते हैं जबकि प्रवृत्तिमार्गी विचारक अपने विरोधी विचार को जीवन से पलायन समझकर, संसार में रहना ही. श्रेयस्कर मानते हैं। गीता का निष्काम कर्म उनकी अतल गहराईयों में पहुँचकर निरन्तर निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा देता है। यही गीता का मुख्य उद्देश्य है जिसमें ज्ञान कर्म और मुक्ति का समन्वंय है। अतः हम कह सकते हैं कि गीता का निष्काम कर्म वह केन्द्र-विन्दु है जिसके चारों ओर ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि तारामंडल के रूप में सजे हुए हैं। इसे स्पष्ट करते हुए C.C. Sharma ने कहा है-The Gita tries to build up a Philosophy of Karma based on Jnana and supported by Bhakti to in a beautiful manner.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
बौद्ध दर्शन के तृतीय आर्य सत्य की व्याख्या करें।
उत्तर:
बौद्ध दर्शन के संस्थापक महात्मा बुद्ध माने जाते हैं और उन्होंने नैतिक जीवन के सर्वोच्च आदर्श के रूप में निर्वाण की प्राप्ति को स्वीकार किया है। निर्वाण के स्वरूप की चर्चा उन्होंने अपने तृतीय आर्य-सत्य के अंतर्गत किया है। इसे ही दुःख निरोध कहा जाता है। वह अवस्था जिसमें सभी प्रकार के दु:खों का अंत हो जाता है, निर्वाण कहा जाता है। भारतीय दर्शन के अन्य सम्प्रदायों में जिसे मोक्ष या मुक्ति की संज्ञा दी गयी है, उसे ही बौद्ध दर्शन में निर्वाण कहा जाता है। बुद्ध के अनुसार, निर्वाण की प्राप्ति जीवन काल में भी संभव है। जब मनुष्य अपने जीवन काल में राग, द्वेष, मोह, अहंकार इत्यादि पर विजय प्राप्त कर लेता है तो वह निर्वाण प्राप्त कर लेता है। निर्वाण प्राप्त व्यक्ति निष्क्रिय नहीं होता बल्कि लोक कल्याण की भावना से प्रेरित होकर वह कर्म सम्पादित करता है।

निर्वाण को लेकर बौद्ध दर्शन में दो प्रकार के विचार हैं। निर्वाण का एक अर्थ है ‘बुझा हुआ’। इस आधार पर कुछ लोग यह समझते हैं “जीवन का अंत।” परन्तु यह उचित नहीं, क्योंकि स्वयं बुद्ध ने ही जीवन में निर्वाण की प्राप्ति की थी।

निर्वाण के स्वरूप की व्याख्या नहीं की जा सकती। निर्वाण का स्वरूप अनिर्वचनीय है। बौद्ध दर्शन में निर्वाण की प्राप्ति को नैतिक जीवन के सर्वोच्च आदर्श के रूप में स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 2.
प्रत्ययवाद एवं भौतिकवाद में अंतर करें।
उत्तर:
प्रत्ययवाद ज्ञान का एक सिद्धान्त है। प्रत्ययवाद के अनुसार ज्ञाता से स्वतंत्र ज्ञेय की कल्पना संभव नहीं है। यह सिद्धान्त ज्ञान को परमार्थ मानता है।
वस्तुवाद वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता से स्वतंत्र मानता है। यह सिद्धान्त प्रत्ययवाद (idealism) का विरोधी माना जाता है।

प्रश्न 3.
काण्ट के अनुसार ज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर:
काण्ट के अनुसार बुद्धि के बारह आकार हैं। वे हैं-अनेकता, एकता, सम्पूर्णता, भाव, अभाव, सीमित भाव, कारण-कार्यभाव, गुणभाव, अन्योन्याश्रय भाव, संभावना, वास्तविकता एवं अनिवार्यता

प्रश्न 4.
अनुभववाद की परिभाषा दें। अथवा, अनुभववाद से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
अनुभववाद ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन इन्द्रियानुभूति को मानता है। अनुभववादियों के अनुसार सम्पूर्ण अनुभव की ही उपज है तथा बिना अनुभव से प्राप्त कोई भी ज्ञान मन में नहीं होता है। वस्तुतः अनुभववाद, बुद्धिवाद का विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववादियों के अनुसार जन्म के समय मन साफ पट्टी के समान है और जो कुछ ज्ञान होता है उसके सभी अंग अनुभव से ही प्राप्त होते हैं। इसमें मन को निष्क्रिय माना जाता है। अनुभववाद के अनुसार आनुभविक अंग पृथक्-पृथक् संवेदनाओं के रूप में पाए जाते हैं। यदि इनके बीच कोई सम्बन्ध स्थापित किया जाय तो सहचार के नियमों पर आधारित यह सम्बन्ध बाहरी ही हो सकता है। अंततः अनुभववाद में पूरी गवेषणा न करने के कारण इसमें सदा यह दृढ़ विचार बना रहता है कि ज्ञान के सभी अंग आनुभविक हैं जब यह बात सिद्ध नहीं हो पाती, तब संदेहवाद इसका अंतिम परिणाम होता है।

प्रश्न 5.
प्रमाण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
‘प्रमा’ को प्राप्त करने के जितने साधन हैं, उन्हें ही ‘प्रमाण’ कहा गया है। गौतम के अनुसार प्रमाण के चार साधन हैं।

प्रश्न 6.
पुरुषार्थ के रूप में धर्म की व्याख्या करें।
उत्तर:
धर्म शब्द का प्रयोग भी भिन्न-भिन्न अर्थों में किया जाता है। सामान्यतः धर्म से हमारा तात्पर्य यह होता है जिसे हम धारण कर सकें। जीवन में सामाजिक व्यवस्था कायम रखने के लिए यह अनिवार्य माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन स्तर पर कुछ-न-कुछ क्रियाओं का सम्पादन करें। इसी उद्देश्य से वर्णाश्रम धर्म की चर्चा भी की गयी है। भारतीय जीवन व्यवस्था में चार वर्ण माने गये हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र। प्रत्येक वर्ण के लिए कुछ सामान्य धर्म माने गये हैं। किन्तु कुछ ऐसे धर्म भी हैं जिनका पालन किया जाना किसी वर्ग (वर्ण) विशेष के सदस्यों के लिए भी वांछनीय माना जाता है। इसी प्रकार आश्रम की संख्या चार है। यहाँ आदर्श जीवन 100 वर्षों का माना जाता है और इसे चार आश्रम में बाँटा गया है। इन्हें हम क्रमशः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास के नाम से पुकारते हैं।

प्रश्न 7.
प्रमेय क्या है?
उत्तर:
न्याय दर्शन में प्रमेय को प्रमाण का रूप बताया गया है। उपमान का होना, सादृश्यता या समानता के साथ संज्ञा-संज्ञि संबंध का ज्ञान प्रमेय कहलाता है।

प्रश्न 8.
निर्विकल्पक प्रत्यक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर:
कभी-कभी पदार्थों का प्रत्यक्ष ज्ञान तो होता है, लेकिन उसका स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। उसका सिर्फ आभास मात्र होता है। उदाहरण के लिए, गंभीर चिंतन या अध्ययन में मग्न होने पर सामने की वस्तुओं का स्पष्ट ज्ञान नहीं हो पाता है। हमें सिर्फ यह ज्ञान होता है कि कुछ है, लेकिन क्या है, इसको नहीं जानते हैं। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष को मनोविज्ञान में संवेदना के नाम से भी जानते हैं।

प्रश्न 9.
पुरुष एवं प्रकृति की व्याख्या करें।
उत्तर:
सांख्य दर्शन की मान्यता है कि प्रकृति और पुरुष के संयोग से सृष्टि होती है। जब प्रकृति पुरुष के संसर्ग में आती है तभी संसार की उत्पत्ति होती है। प्रकृति और पुरुष का संयोग इस तरह का साधारण संयोग नहीं है जो दो भौतिक द्रव्यों जैसे रथ और घोड़े, नदी और नाव में होता है। यह एक विलक्षण प्रकार का संबंध है। प्रकृति पर पुरुष का प्रभाव वैसा ही पड़ता है जैसा किसी विचार का प्रभाव हमारे शरीर पर। न तो प्रकृति ही सृष्टि का निर्माण कर सकती है क्योंकि वह जड़ है और न अकेला पुरुष ही इस कार्य को सम्पन्न कर सकता है; क्योंकि यह निष्क्रिय है।

अतः सृष्टि निर्माण के लिए प्रकृति और पुरुष का संसर्ग नितांत आवश्यक है। पर प्रश्न उठता . है कि विरोधी धर्मों को रखने वाले ये तत्त्व एक-दूसरे से मिलते ही क्यों हैं.? उसके उत्तर में सांख्य का कहना है जिस प्रकार एक अंधा और एक लंगड़ा आग से बचने के लिए दोनों आपस में मिलकर एक-दूसरे की सहायता से जंगल पार कर सकते हैं, उसी प्रकार जड़ प्रकृति और निष्क्रिय पुरुष, परस्पर मिलकर एक-दूसरे की सहायता से अपना कार्य सम्पादित कर सकते हैं। प्रकृति कैवल्यार्थ या अपने वास्तविक स्वरूप को पहचानने में पुरुष की सहायता लेती है।

प्रश्न 10.
व्याप्ति क्या है?
उत्तर:
दो वस्तुओं के बीच एक आवश्यक सम्बन्ध जो व्यापक माना जाता है, इसे व्याप्ति सम्बन्ध (Universal relation) से जानते हैं। जैसे-धुआँ और आग में व्याप्ति सम्बन्ध है।

प्रश्न 11.
शब्द की परिभाषा दें।
उत्तर:
बौद्ध, जैन, वैशेषिक दर्शन शब्द को अनुमान का अंग मानते हैं जबकि गौतम के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण (Source of knowledge) है। उनके शब्दों एवं वाक्यों द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है उसे हम शब्द कहते हैं। सभी तरह के शब्दों में हमें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। अतः ऐसे ही शब्दों को हम प्रमाण मानेंगे जो यथार्थ तथा विश्वास के योग्य हों। भारतीय विद्वानों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जब वह विश्वासी आदमी का निश्चयबोधक वाक्य हो, जिसे आप्त वचन भी कह सकते हैं। संक्षेप में, “किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।” अतः रामायण, महाभारत या पुराणों से हमें जो ज्ञान मिलता है, वह प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान के द्वारा नहीं मिलता है, बल्कि ‘शब्द’ (verbal authority) के द्वारा होता है।

‘शब्द’ के ज्ञान में तीन बातें मुख्य हैं। वे हैं-शब्द के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया। शब्द ऐसे मानव के हों जो विश्वसनीय एवं सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय, जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हों। शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हों। कहने का अभिप्राय है कि यदि कृष्ण के उपदेश को अंग्रेजी भाषा में हिन्दी भाषियों को सुनाया जाय तो उन्हें समझ में नहीं आयेगा।

प्रश्न 12.
आत्मनिष्ठ प्रत्ययवाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्रत्ययवाद आम जनता का सिद्धान्त नहीं है। साधारण मनुष्य वस्तुवादी (Realistic) होता है। वह मानता है कि जिन वस्तुओं का ज्ञान उसे होता है वे उसके मन पर निर्भर नहीं हैं। उदाहरणस्वरूप यदि किसी हलवाहे से कोई कहे कि उसके हल बैल उसके मन पर निर्भर हैं तो वह कहनेवाले को पागल ही समझेगा। किन्तु जब मनुष्य अपने ज्ञान के स्वरूप पर चिंतन करने लगता है तो उसे ज्ञेय पदार्थों की स्वतंत्रता पर शंका होने लगती है। एक ही छड़ी जमीन पर सीधी और पानी में टेढ़ी लगती है।

एक ही वृक्ष निकट से बड़ा लगता है और दूर से छोटा। जब उक्त वस्तुएँ ज्ञाता से स्वतंत्र हैं तो उसकी प्रतीतियों में भिन्नता क्यों आती है ? इस कठिनाई के सामने मनुष्य का स्वाभाविक वस्तुवाद डगमगाने लगता है। लेकिन प्रत्ययवाद को स्वीकार करने से ऐसी कठिनाइयाँ नहीं पैदा होती। प्रत्ययवाद के अनुसार जब वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर है तो एक ही वस्तु का भिन्न-भिन्न ज्ञाताओं का या भिन्न-भिन्न दशाओं में एक ही ज्ञाता को भिन्न-भिन्न रूप में प्रतीत होना आश्चर्यजनक नहीं है। जब ज्ञाता भिन्न है तो ज्ञेय का जो उन पर निर्भर है, भिन्न होना स्वाभाविक है।

प्रश्न 13.
भारतीय दर्शन की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
भारत में फिलॉसफी को ‘दर्शन’ कहा जाता है। दर्शन शब्द दृश धातु से बना है जिसका अर्थ है–जिसके द्वारा देखा जाए। भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है जिसके द्वारा तत्व का साक्षात्कार हो सके। इसलिए इसे तत्व दर्शन कहा जाता है। यहाँ दर्शन की परिभाषा यह कहकर दिया गया है-“हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्तिसंगत व्याख्या कर वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।

पाश्चात्य में दर्शन को फिलॉसफी कहा जाता है। फिलॉसफी का अर्थ ‘विधानुराग’ होता है। फिलॉस प्रेम, सौफिया अनुराग। बेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयल है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करती है।

प्रश्न 14.
योग का क्या अर्थ है?
उत्तर:
योगदर्शन भारतीय दर्शन का व्यावहारिक पक्ष है। योग युज् धातु से बना है, जिसका अर्थ है मिलना। अतः योग का अर्थ ‘मिलन’ से है। जिन क्रियाओं द्वारा मनुष्य ईश्वर से मिल पाता है, उसे योग कहते हैं। लेकिन योग दर्शन में योग का एक विशेष अर्थ है। इस दर्शन के अनुसार चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहा जाता है।

प्रश्न 15.
‘कर्म में त्याग’ की व्याख्या करें।
उत्तर:
कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दुःखों से मुक्त हो जाता है। उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं करता। वह जानता है कि वह दे रहा है और बदले में कुछ माँगता नहीं और इसलिए वह दुःख के चंगुल में नहीं पड़ता। वह जानता है कि दुःख का बन्धन ‘आसक्ति’ की प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है।

गीता के अनुसार कर्मों से संन्यास लेने अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्मयोग अधिक श्रेयस्कर है। कर्मों का केवल परित्याग कर देने से मनुष्य सिद्धि अथवा परमपद नहीं प्राप्त करता। मनुष्य एक क्षण भी कर्म किए बिना नहीं रहता। सभी अज्ञानी जीव प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम, इन तीन गुणों से नियंत्रित होकर परवश हुए, कर्मों में प्रवृत्त किए जाते हैं। मनुष्य यदि बाह्य दृष्टि से कर्म न भी करे और विषयों में लिप्त न हो, तो भी वह उनका मन से चिंतन करता है। इस प्रकार का मनुष्य मूढ़ और मिथ्या आचरण करने वाला कहा गया है। कर्म करना मनुष्य के लिए अनिवार्य है।

उसके बिना शरीर का निर्वाह भी संभव नहीं है। भगवान कृष्ण स्वयं कहते हैं कि तीनों लोकों में उनका कोई भी कर्तव्य नहीं है। उन्हें कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त करनी नहीं रहती। फिर भी वे कर्म में संलग्न रहते हैं। यदि वे कर्म न करें तो मनुष्य भी उनके चलाए हुए मार्ग का अनुसरण करने से निष्क्रिय हो जाएंगे। इससे लोक स्थिति के लिए किए जाने वाले कर्मों का अभाव हो जाएगा जिसके फलस्वरूप सारी प्रजा नष्ट हो जाएगी। इसलिए आत्मज्ञानी मनष्य को भी जो प्रकति के बंधन से मक्त हो चुका है, सदा कर्म करते रहना चाहिए। अज्ञानी मनुष्य जिस प्रकार फल प्राप्ति की आकांक्षा से कर्म करता है, उसी प्रकार आत्मज्ञानी को लोकसंग्रह के लिए आसक्तिरहित होकर कर्म करना चाहिए। इस प्रकार आत्मज्ञान से संपन्न व्यक्ति ही गीता के अनुसार, वास्तविक रूप से कर्मयोगी हो सकता है।

प्रश्न 16.
सविकल्पक प्रत्यक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर:
जब किसी वस्तु के अस्तित्व का केवल आभास मिले और उसके विषय में पूर्ण ज्ञान न हो, तब इसे ‘निर्विकल्पक प्रत्यक्ष’ (Indeterminate Perception) कहते हैं। उदाहरण-सोए रहने । पर किसी की आवाज सुनाई पड़ती है, किन्तु इस आवाज का कोई अर्थ नहीं जान पड़ता। यह ज्ञान मूक (Dumb) या अभिव्यक्तिरहित रहता है। ज्ञान का यह आरंभबिन्दु है। यह ज्ञान विकसित होकर सविकल्पक प्रत्यक्ष बन जाता है।

प्रश्न 17.
पुग्दल क्या है?अथवा, जैन के पुद्गल का वर्णन करें।
उत्तर:
साधारणतः जिसे भूत कहा जाता है, उसे ही जैन दर्शन में ‘पुग्दल’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है। जैनों के मतानुसार जिसका संयोजन और विभाजन हो सके, वही पुग्दल है। भौतिक द्रव्य ही जैनियों के अनुसार पुग्दल है। पुग्दल या तो अणु (Atom) के रूप में रहता है अथवा स्कन्धों (Compound) के रूप में। किसी वस्तु का विभाजन करते-करते जब हम ऐसे अंश पर पहुँचते हैं जिसका विभाजन नहीं किया जा सके तो उसे ही अणु (Atom). कहते हैं। स्कन्ध दो या दो से अधिक अणुओं के संयोजन से मिश्रित होता है पुग्दल, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप जैसे गुणों से परिपूर्ण है। जैनियों द्वारा ‘शब्द’ को पुग्दल का गुण नहीं माना जाता है!

प्रश्न 18.
स्थितप्रज्ञा का अर्थ लिखें।
उत्तर:
लोकसंग्रह के लिए स्थितप्रज्ञा की आवश्यकता होती है। स्थितप्रज्ञा का अर्थ है कि : बुद्धि की स्थिरता। जिसकी बुद्धि में स्थिरता होती है, उसे स्थितप्रज्ञ कहते हैं। अतः स्थितप्रज्ञ ही लोक कल्याण कर सकता है। कहा गया है-कुर्यात् विद्वान् असक्तः चिकीर्षु लोकसंग्रहः। (विद्वान को अनासक्त होकर लोकसंग्रह के लिए कार्य करना चाहिए।) विद्वान वही होता है जिसकी बुद्धि सुख-दुःख, हर्ष-विषाद सभी परिस्थितियों में समान रूप से स्थिर रहती है। जो हर परिस्थिति को. उदासीन (तटस्थ) भाव से, निर्विकार रूप में, ग्रहण करता है, उसकी बुद्धि ही समान होती है। ऐसे ही समान या समबुद्धिवाले को विद्वान या स्थितप्रज्ञ कहते हैं। दूसरे शब्दों में, स्थितप्रज्ञता वह स्थिति है जहाँ सुख-दुःख, हर्ष-विषाद आदि विकारों का पूर्णतः अन्त हो जाता है।

इन विकारों के अंत होने पर बुद्धि स्थिर हो पाती है अर्थात् मनुष्य हर परिस्थिति में अप्रभावित रहता है, उसमें किसी प्रकार की उद्विग्नता नहीं रहती है। अद्विग्नताविहीन बुद्धि, विकारहीन बुद्धि ही ‘समबुद्धि’ कहलाती है। गीता में कहा गया है कि जो मनुष्य सहदयों, मित्रों, शत्रुओं, तटस्थ व्यक्तियों, ईर्ष्यालुओं, पापियों आदि में समबुद्धिवाला होता है, वही विशिष्ट होता है। यह विशिष्ट व्यक्ति ही स्थितप्रज्ञ कहलाता है।

प्रश्न 19.
बुद्धिवाद का वर्णन करें।
अथवा, बुद्धिवाद की परिभाषा दें।
उत्तर:
बुद्धिवाद के अनुसार बुद्धि या विवेक की ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन है। ज्ञान की कोई अंश बुद्धि से परे नहीं हैं। बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान दो प्रकार के होते हैं-साधारण ज्ञान और दार्शनिक ज्ञान। सांसारिक विषयों के संबंध में इन्द्रियों तथा किसी व्यक्ति से जो ज्ञान प्राप्ति होता है उसे साधारण ज्ञान कहते हैं। दूसरी ओर दार्शनिक ज्ञान हम उसे कहते हैं जो वस्तुओं को यथार्थ के रूप से व्यक्त करता है। अतः तार्किक ज्ञान सदा यथार्थ होता है। बुद्धिवाद का संबंध वस्तुतः तार्किक ज्ञान से होता है। बुद्धिवाद अनुभववाद का खण्डन करते हुए कहता है कि अनुभवजन्य ज्ञान में सार्वभौमिकता तथा अनिवार्यता का सदा अभाव रहता है, क्योंकि किसी वर्ग के भूत, भविष्य और वर्तमान सभी काल और देशों के पदार्थ का अनुभव करना संभव नहीं है। अतः ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन बुद्धि है।

प्रश्न 20.
भौतिकवाद क्या है?
उत्तर:
भौतिकवाद (Materialism) वह दार्शनिक सिद्धांत है, जिसके अनुसार विश्व का मूल आधार या परमतत्व (Ultimate Reality) जड़ या भौतिक तत्त्व है। अनुभव में हम चार प्रकार के गुणात्मक अंतर (Qualitative Difference) नहीं है। इस सिद्धांत के अनुसार जीव, मनस् तथा चेतना (Life, Mind and Consciousness), जो देखने में अभौतिक लगते हैं, भूत (Matter) से ही उत्पन्न या विकसित हुए हैं।

प्रश्न 21.
शिक्षा का उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
शिक्षा का उद्देश्य एवं पद्धति समय के अनुसार बदलते रहा है। प्राचीन काल में शिक्षा उद्देश्य चारित्रिक विकास करना होता था तथा धार्मिक शिक्षा दी जाती थी जबकि वर्तमान शिक्षा पद्धति का आधार रोजगार परक है। अर्थात् वही शिक्षा उचित है जो रोजगार दे सके। लेकिन शिक्षा का उद्देश्य न सिर्फ रोजगार परक होना चाहिए बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। इसलिए इस संदर्भ में महात्मा गाँधी ने कहा है शिक्षा ऐसे होनी चाहिए जिससे व्यक्तित्व का विकास हो तथा उसे रोजगार मिल सके। इसीलिए उन्होंने मूल्य युक्त तकनीक शिक्षा की वकालत की है।

प्रश्न 22.
भारतीय दर्शन सम्प्रदायों के नाम लिखें। अथवा, भारतीय दर्शन के कितने सम्प्रदाय स्वीकृत हैं ?
उत्तर:
भारतीय दर्शन को मूलतः दो सम्प्रदायों में विभाजित किया गया है-आस्तिक (Orthodox) और नास्तिक (Heterodox)। आस्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक आस्तिक दर्शन की कोटि में आते हैं। इन दर्शनों में सभी ईश्वर को नहीं मानते हैं। उन्हें आस्तिक इसलिए कहा जाता है कि ये सभी वेद को मानते हैं। नास्तिक दर्शन की कोटि में चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा गया है। इनके नास्तिक कहलाने का मूल कारण यह है कि ये वेद की निन्दा करते हैं, जैसा कि कहा भी गया है-नास्तिको वेद निन्दकः। अर्थात् भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद में विश्वास नहीं करता है।

प्रश्न 23.
आस्तिक दर्शन के नाम उनके प्रवर्तक के साथ लिखें।
उत्तर:
आस्तिक दर्शन (Theist Schools of Philosophy)-इस वर्ग में प्रमुख रूप से छः दार्शनिक विचारधाराएँ हैं। उन्हें ‘षड्दर्शन’ भी कहा जाता है। ये दर्शन मीमांसा, सांख्य, वेदान्त, योग, न्याय और वैशेषिक हैं। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के संस्थापक क्रमशः गौतम, कणाद, कपील, पतंजलि, जैमिनी और बादरायण हैं। मीमांसा ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता परंतु इसे आस्तिक वर्ग में इसलिए रखा गया है क्योंकि यह वेदों का प्रमाण स्वीकार करते हैं।
आस्तिक वर्ग में दो प्रकार के दार्शनिक सम्प्रदाय सम्मिलित हैं-

  1. वैदिक ग्रंथों पर आधारित (Based on Vedic Scriptures)।
  2. स्वतंत्र आधार वाले (With Independent Basis)1

प्रश्न 24.
अर्थ पुरुषार्थ की व्याख्या करें।
उत्तर:
“जिन साधनों से मानव जीवन के सभी प्रयोजनों की सिद्धि होती है, उन्हें ही अर्थ कहते हैं।” मानव जीवन की तीनों आवश्यकताएँ सभी प्रयोजन के अंतर्गत आती हैं। ये सभी प्रयोजन या चल सम्पत्ति (रुपये-पैसे) या अचल सम्पत्ति (जमीन-जायदाद) द्वारा सिद्ध होते हैं। इसलिए अर्थ का तात्पर्य धन है (चल या अचल)। धन के बिना मनुष्य का जीवन सुरक्षित व संरक्षित नहीं रह पाता। इसलिए चाणक्य ने कहा है कि “अर्थार्थ प्रवर्तते लोकः” अर्थात् अर्थ के लिए ही यह संसार है। जिसके पास धन है, उसी के सब मित्र हैं।

भारतीय दर्शन के अंतर्गत पुरुषार्थ के रूप में अर्थ के महत्त्व को बताया गया है। अर्थोपार्जन के साथ-साथ व्यय का भी तरीका बताया गया है जिससे मनुष्य अपने अर्थ का दुरुपयोग न करके सदुपयोग करें।

प्रश्न 25.
कर्म के प्रकारों को लिखें।
उत्तर:
वैशेषिक द्वारा कर्म पाँच प्रकार के माने गये हैं, जो निम्नलिखित हैं-

1. उत्क्षेपण (Throwing upward)-उत्क्षेपण कर्म द्वारा द्रव्य ऊपर उठते हैं। उदाहरणार्थ-गेंद, बैलून, राकेट आदि का ऊपर उठना।

2. अवक्षेपण (Downward movement)-अवक्षेपण कर्म द्वारा द्रव्य ऊपर से नीचे आते हैं। उदाहरणस्वरूप-गेंद फल आदि का ऊपर से नीचे आना। – वैशेषिक दर्शन में उत्क्षेपण को ऊखल तथा मूसल के उदाहरण द्वारा बतलाया गया है। हाथ की गति से मूसल ऊपर उठता है। यह उत्क्षेपण है। हाथ की गति से मूसल ऊपर लाया जाता है, जिसके फलस्वरूप इसका संयोग ऊखल से होता है। मूसल का ऊपर उठना ‘उत्क्षेपण’ है और इसका नीचे गिना ‘अवक्षेपण’ है।

3. आकुंचन (Contraction)-आकुंचन का अर्थ है सिकुड़ना। नये वस्त्र को भिगोने पर वह सिकुड़ जाता है और इसमें धागे परस्पर निकट हो जाते हैं। यही आकुंचन कहलाता है।

4. प्रसारण (Expasion)-प्रसारण का अर्थ है फैलना। जब किसी द्रव्य के कण एक-दूसरे से दूर होने लगे तो यह ‘प्रसारण’ कहा जाता है। मुड़े हुए कागज को पहले जैसा कर देना इस कर्म का उदाहरण है। मोड़े हुए हाथ, पैर, वस्त्र आदि को फैलाना ‘प्रसारण’ का उदाहरण है।

5. गमन-गमन’ को सामान्यतः जाने के अर्थ में रखा जाता है। किन्तु वैशेषिक ने उपर्युक्त चारों कर्मों के अतिरिक्त अन्य सभी कर्म ‘गमन’ के अन्तर्गत. रखे जाते हैं। चलना, दौड़ना आदि ‘गमन’ के ही उदाहरण हैं।

प्रश्न 26.
प्रथम आर्य सत्य का वर्णन करें। अथवा, बौद्ध दर्शन का प्रथम आर्य सत्य क्या है?
उत्तर:
बौद्ध दर्शन के चार आधार हैं-दुःख, दुःख समुदाय, दु:ख निरोध और दुःख निरोध मार्ग। प्रथम आर्य सत्य के अनुसार संसार दुःखमय है। यह व्यावहारिक अनुभव से सिद्ध है। संसार के सर्वपदार्थ अनित्य और नश्वर होने के कारण दु:ख रूप है। लौकिक सुख भी वस्तुतः दुःख से घिरा है। इस सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त हो जाने पर, यह नष्ट न हो जाय यह विचार दुःख देता है और नष्ट हो जाने पर दु:ख तो हैं ही। काम, क्रोध, लोभ, मोह, शोक, रोग, जन्म, जरा और मरण सब दुःख है।

प्रश्न 27.
उपमान को स्पष्ट करें। अथवा, उपमान क्या है?
उत्तर:
उपमान का न्यायशास्त्र में तीसरा प्रमाण माना गया है। ‘न्यायसूत्र’ में जो इसकी परिभाषा दी गई है, उसके अनुसार ज्ञान वस्तु की समानता के आधार पर अज्ञान वस्तु की वस्तुवाचकता का ज्ञान जिस प्रमाण के द्वारा हो, उसे ही उपमान कहते हैं। इस प्रमाण द्वारा प्राप्त ज्ञान ‘उपमिति’ या उपमानजन्य ज्ञान हैं ‘तर्कसंग्रह’ के अनुसार संज्ञा-सज्ञि-संबंध का ज्ञान ही उपमिति हैं। उपमान वह है, जिसके द्वारा किसी नाम (संज्ञा) और उससे सूचित पदार्थ (संज्ञी) के संबंध का ज्ञान होता है। उपमान ज्ञानप्राप्ति का वह साधन है, जिसके द्वारा किसी पद की वस्तुवाचकता (denotation) का ज्ञान हो।

प्रश्न 28.
स्वार्थानुमान क्या है?
उत्तर:
नैययिकों ने प्रयोजन की दृष्टि से अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किये हैं। स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। जब व्यक्ति स्वयं निजी ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुमान करता है तो उसे स्वार्थानुमान कहा जाता है इसमें तीन ही वाक्यों का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 29.
समानान्तरवाद क्या है?
उत्तर:
पाश्चात्य विचारक स्पिनोजा ने मन-शरीर संबंध की व्याख्या के लिए सिद्धांत का प्रणयन किया है, उसे समानांतरवाद कहा जाता है। स्पिनोजा की मान्यता है कि मन और शरीर सापेक्ष द्रव्य नहीं हैं, जैसा की देकार्त्त ने स्वीकार किया है। चेतन और विस्तार क्रमशः मन और शरीर के गुण हैं तथा ये गुण ईश्वर में निहित रहते हैं। ये दोनों गुण ईश्वर के स्वभाव हैं। ये दोनों ‘ विरोधी स्वभाव नहीं है, बल्कि रेल की पटरियों के समान समानांतर स्वभाव हैं। इन दोनों की क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं।

प्रश्न 30.
धर्म का अर्थ क्या है?
उत्तर:
साधारणतः धर्म का अर्थ पुण्य होता है। परंतु जैन दर्शन में धर्म का प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है। जैनों के अनुसार गति के लिए जिस सहायक वस्तु की आवश्यकता होती है उसे धर्म कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप मछली जल में तैरती है। मछली का तैरना जल के कारण ही ‘संभव होता है। यदि जल नहीं रहे तब मछली के तैरने का प्रश्न उठता ही नहीं है। उपयुक्त उदाहरण में जल धर्म है, क्योंकि वह मछली की गति में सहायक है।

प्रश्न 31.
ब्रह्म क्या है?
उत्तर:
ब्रह्म परमार्थिक दृष्टिकोण से सत्य कहा जा सकता है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान है प्रकाश की तरह ज्योतिर्मय होने के कारण ब्रह्म को स्वयं प्रकाश कहा गया है। ब्रह्म का ज्ञान उसके स्वरूप का अंग है।

ब्रह्म द्रव्य नहीं होने के बावजूद भी सब विषयों का आधार हैं यह दिक् और काल की सीमा से परे हैं तथा कार्य-कारण नियम से भी यह प्रभावित नहीं होता। शंकर के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है। उपनिषदों में ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दो प्रकार माना गया है। यद्यपि ब्रह्म निर्गुण है, फिर भी ब्रह्म को शून्य नहीं कहा जा सकता। उपनिषद् ने भी निर्गुण को गुणमुक्त माना है।

प्रश्न 32.
नैतिकता का ईश्वर से क्या सम्बंध है?
उत्तर:
नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है। यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता है और जगत में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुतः नहीं माना जा सकता है किन्तु नैतिक मूल्यों का वस्तुगत न मान कोई भी दार्शनिक मानव को संतुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानना ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना है।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 1

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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
भारतीय दर्शन एवं पश्चिमी दर्शन में मुख्य अंतर क्या हैं?
उत्तर:
प्रायः दर्शन एवं फिलॉसफी को एक ही अर्थ में लिया जाता है, लेकिन इन दोनों शब्दों का प्रयोग दो भिन्न अर्थ में किया गया है। भारत में ‘दर्शन’ शब्द द्वश धातु से बना है, जिसका अर्थ है, ‘जिसके द्वारा देखा जाए’। यहाँ ‘दर्शन’ का अर्थ वह विद्या है जिसके द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया जा सके। इसलिए इसे तत्त्व दर्शन कहा जाता है। भारतीय दृष्टिकोण से दर्शन की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि-“हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्ति संगत व्याख्या कर वास्तविकता का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।”

पाश्चात्य में दर्शन को ‘फिलॉसफी’ कहा जाता है। ‘फिलॉसफी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है ज्ञान प्रेम या विद्यानुराग। वेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि “दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयत्न है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करता है।”

प्रश्न 2.
भारतीय दर्शन में ‘कर्म सिद्धांत’ के अर्थ को स्पष्ट करें। अथवा, कर्म की व्याख्या करें। अथवा, कर्म क्या है?
उत्तर:
‘कर्म सिद्धान्त’ में विश्वास भारतीय दर्शन की एक मुख्य विशेषता है। चर्वाक को छोड़कर भारत के सभी दर्शनं चाहे वे वेद विरोधी हो या वेद के अनुकूल, कर्म के नियम को स्वीकारते हैं। अतः कर्म-सिद्धान्त को छः आस्तिक दर्शन एवं दो नास्तिक दर्शन भी स्वीकार करते हैं। कर्म सिद्धान्त (Law of Karma) का अर्थ है कि जैसा हम बोते हैं वैसा ही हम काटते हैं।

कहने का अभिप्राय शुभ कर्मों का फल शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल अशुभ होता है। किए हुए कर्मों का फलन नष्ट नहीं होता है तथा बिना किये हुए कर्मों के फल भी प्राप्त नहीं होते हैं। हमें सदा कर्मों के फल प्राप्त होते रहते हैं। वस्तुतः सुख और दुःख क्रमशः शुभ एवं अशुभ कर्मों के अनिवार्य फल माने गए हैं। अतः कर्म सिद्धान्त ‘कारण-नियम’ है जो नैतिकता के क्षेत्र में काम करता है। दर्शनिकों के अनुसार हमारा वर्तमान जीवन अतीत जीवन के कर्मों का फल है। इस तरह कर्म-सिद्धान्त में अतीत, वर्तमान और भविष्य जीवनों को कारण-कार्य की कड़ी में बाँधा गया है।

प्रश्न 3.
स्वधर्म की व्याख्या करें। अथवा, स्वधर्म के तात्पर्य को स्पष्ट करें। अथवा, स्वधर्म की परिभाषा दें।
उत्तर:
गीता के अनुसार जिस वर्ण का जो स्वाभाविक कर्म है, वही उसका स्वधर्म है। स्वभाव के अनुसार जो विशेष कर्म निश्चित है, वही स्वधर्म है। स्वधर्म के पालन से मानव परम सिद्धि का भागी होता है। स्वधर्म का अनुष्ठान मनुष्य के लिए कल्याणकारी है। चारों वर्ण का कर्म प्रत्येक वर्ण के स्वभावजन्य गुणों के अनुसार पृथक्-पृथक् विभाजित किया गया है। इन्द्रियों का दमन, निग्रह, पवित्रता, तप, शान्ति, क्षमा-भाव, सरलता आध्यात्मिक ज्ञान आदि ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं।

शूर वीरता, तेजस्विता, धैर्य, चातुर्य, युद्ध से न भागना, दान देना, स्वामिभाव आदि क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। कृषि, गोपालन, वाणिज्य वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं। अन्ततः सब वर्गों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। गीता के अनुसार जो कर्म स्वधर्म के अनुसार स्थिर कर दिए गए हैं, उनका त्याग करना तथा परधर्म का अनुष्ठान करना उचित नहीं है। गीता के अनुसार अच्छी तरह से न किया गया द्विगुण-स्वधर्म, अच्छी तरह से किए हुए पर धर्म से श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता है।

प्रश्न 4.
शंकर के दर्शन अद्वैतवाद क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
वेदान्त दर्शन के अनेक सम्प्रदाय विकसित हुए, जिसमें शंकर के अद्वैतवाद का प्रमुख स्थान है। शंकर के दर्शन को एकत्ववाद (Monism) नहीं कहकर अद्वैतवाद (Non-dualism) कहा जाता है। इनके अनुसार जीव और ब्रह्म दो नहीं हैं। वे वस्तुतः अद्वैत हैं। इन्होंने ब्रह्म को परम सत्य माना है। यहाँ ब्रह्म की व्याख्या निषेधात्मक ढंग से की गई है। ब्रह्म की व्याख्या के लिए नेति-नेति को आधार माना गया है, ब्रह्म क्या है के बदले ब्रह्म क्या नहीं है, पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म ही एकमात्र पारमार्थिक दृष्टि से सत्य है; ईश्वर, जीव, जगत, माया आदि की व्यावहारिक सत्ता है। आत्मा तथा ब्रह्म अभेद है। ब्रह्म और जीव का द्वैत अज्ञानता के कारण है। इसलिए यहाँ ज्ञान योग के द्वारा मोक्ष प्राप्ति की बात कही गई है, ज्ञान के बाद द्वैत अद्वैत में बदल जाता है।

प्रश्न 5.
बौद्ध दर्शन के अष्टांग मार्ग की व्याख्या करें।
उत्तर:
महात्मा बुद्ध का (चतुर्थ आर्य सत्य) यह वह मार्ग है जिसपर चलकर स्वयं महात्मा बुद्ध ने निर्वाण को प्राप्त किया था। दूसरे लोग भी इस मार्ग का अनुसरण और अनुकरण कर निर्वाण या मोक्ष की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं। यह मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुला है। गृहस्थ, संन्यासी या कोई भी उद्यमी इसे अपना सकता है। बुद्ध द्वारा स्थापित यह मार्ग उनके धर्म और नीतिशास्त्र का आधार स्वरूप है। इसीलिए इस मार्ग की महत्ता बढ़ जाती है। इस मार्ग को आष्टांगिक मार्ग कहा गया है क्योंकि इस मार्ग के आठ अंग स्वीकार किए गए हैं जो निम्न प्रकार हैं-

  1. सम्यक् दृष्टि,
  2. सम्यक् संकल्प,
  3. सम्यक् वाक्,
  4. सम्यक् कर्मान्त,
  5. सम्यक् आजीविका,
  6. सम्यक् व्यायाम,
  7. सम्यक् स्मृति,
  8. सम्यक् समाधि।

प्रश्न 6.
कारण-कार्य नियम की व्याख्या करें। अथवा, ‘कारण हमेशा ही कार्य का पूर्ववर्ती होता है।’ सिद्ध करें।
उत्तर:
कारण कार्य नियम आगमन का एक प्रबल स्तम्भ के रूप में आधार है। इसकी भी परिभाषा तार्किकों ने न देकर इसकी व्याख्या किए हैं। कारण-कार्य नियम के अनुसार इस विश्व में कोई घटना या कार्य बिना कारण के नहीं हो सकती है। सभी घटनाओं के पीछे कुछ-न-कुछ कारण अवश्य छिपा रहता है। कारण संबंधी विचार अरस्तु के विचारणीय हैं। अरस्तु के अनुसार चार तरह के कारण हैं-

  1. द्रव्य कारण,
  2. आकारिक कारण,
  3. निमित्त कारण,
  4. अंतिम कारण।

यही चार कारण मिलकर किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। जैसे-मकान के लिए ईंट, बालू, सीमेन्ट, द्रव्य कारण हैं। मकान का एक नक्शा बनाना आकारिक कारण है। राजमिस्त्री और मजदूर, ईंट, बालू, सीमेन्ट को तैयार कर उसे एक पर एक खड़ा कर तैयार करते हैं। इसमें एक शक्ति आती है जिसे Efficient cause या निमित कारण करते हैं।

प्रश्न 7.
बुद्धिवाद एवं अनुभववाद में क्या अंतर है?
उत्तर:
तर्कवाद या बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही ज्ञानमीमांसीय सिद्धांतों का सम्बन्ध ज्ञान प्राप्त करने के स्रोत अर्थात् साधन से है। दोनों दो भिन्न साधनों को ज्ञान के स्रोत के रूप में स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं दोनों एक-दूसरे के द्वारा बतलाए गये ज्ञान के स्रोत को अस्वीकार भी कर देते हैं। अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की उत्पत्ति का साधन अनुभव है, बुद्धि नहीं। बुद्धिवाद ज्ञान की उत्पत्ति का साधन बुद्धि या तर्क को मानता है, अनुभव को नहीं।

अनुभववाद के अनुसार सभी ज्ञान अर्जित हैं, इसलिए कोई भी ज्ञान जन्मजात नहीं है। बुद्धि के अनुसार आधारभूत प्रत्यय जन्मजात होते हैं। उन्हें जन्मजात प्रत्ययों से अन्य ज्ञानों को बुद्धि तर्क के द्वारा निगमित करती है।

अनुभववाद के अनुसार बुद्धि अपने आप में निष्क्रिय है। क्योंकि पहले वह अनुभव से प्राप्त प्रत्ययों को ग्रहण करती है और उसके उपरान्त ही वह सक्रिय हो सकती है। बुद्धिवाद के अनुसार बुद्धि स्वभावतः क्रियाशील है क्योंकि अपने अन्दर से वह ज्ञान उत्पन्न करती है।

अनुभववाद के अनुसार विशेष वस्तुओं के ज्ञान के आधार पर आगमन विधि द्वारा सामान्य ज्ञान प्राप्त किया जाता है। अतः अनुभववाद तथ्यात्मक विज्ञान को आदर्श ज्ञान का स्रोत मानता है। बुद्धिवाद के अनुसार जन्मजात सहज प्रत्ययों से निगमन-विधि द्वारा सारा ज्ञान प्राप्त होता है। अतः ‘बुद्धिवाद गणित विज्ञान को आदर्श ज्ञान का स्रोत मानता है।

प्रश्न 8.
अरस्तू के कार्य-कारण सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर:
कार्य और कारण का सम्बन्ध जन-जीवन तथा वैज्ञानिक-तकनीकी अन्वेषणों से सम्बन्धित है। अन्य कई दार्शनिकों के साथ-साथ अरस्तू ने भी अपना कारणता सिद्धान्त दिया है लेकिन यह सिद्धान्त अत्यंत प्राचीन है तथा आज की तिथि में अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है। अरस्तू ने किसी कार्य के लिए चार तरह के कारणों की आवश्यकता बतायी है-1. उपादान कारण, 2. निमित्त कारण, 3. आकारिक कारण और 4. प्रयोजन कारण। उदाहरणस्वरूप घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण है, कुम्भकार निमित्त कारण है, कुम्भकार के दिमाग में घड़े की शक्ल का होना आकारिक कारण है तो घड़े में जल का संचयन प्रयोजन कारण है, अरस्तू के बाद जे. एम. मल, ह्यूम आदि कई दार्शनिकों के कारणता संबंधी सिद्धान्त सामने आये।

प्रश्न 9.
भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ का क्या अर्थ है? अथवा, पुरुषार्थ क्या है?
उत्तर:
‘पुरुषार्थ’ शब्द दो शब्दों ‘पुरुष’ तथा ‘अर्थ’ के संयोग से बना है। पुरुष विवेकशील प्राणी का सूचक है तथा अर्थ लक्ष्य का अर्थात् पुरुष के लक्ष्य को ही पुरुषार्थ कहते हैं। पुरुषार्थ की परिभाषा में कहा गया है कि, “A Purasharth is an end which is consciously sought to be accomplished either for this own sake or for the sake of utiliting it as a means to the accomplishment of further end.”

मनुष्य का सर्वांगीण विकास पुरुषार्थ के माध्यम से ही होता है। भारतीय विचार के अनुसार पुरुषार्थ का निर्धारण दो दृष्टिकोण से हुआ है। व्यावहारिक तथा पारलौकिक। व्यावहारिक दृष्टिकोण से काम तथा अर्थ सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है, लेकिन पारलैकिक दृष्टि से धर्म तथा मोक्ष परम पुरुषार्थ है। इस प्रकार, काम, अर्थ, धर्म तथा मोक्ष मनुष्य के चार पुरुषार्थ हैं, जिसे हिन्दू नीतिशास्त्र में चतुःवर्ग भी कहा गया है।

प्रश्न 10.
ईश्वर के अस्तित्व संबंधी प्रमाण कौन-कौन हैं?
उत्तर:
दर्शनशास्त्र की एक शाखा है-ईश्वर विज्ञान (Theology) जिसमें ईश्वर के सम्बन्ध में विशद् अध्ययन किया जाता है। ईश्वरवाद के समर्थकों ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कई युक्तियों का सहारा लिया है। ये युक्तियाँ हैं-

  1. कारण मूलक युक्ति,
  2. विश्वमूलक युक्ति,
  3. प्रयोजनात्मक युक्ति,
  4. सत्तामूलक युक्ति और
  5. नैतिक युक्ति।

इन युक्तियों या तर्कों के सहारे ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है लेकिन महात्मा बुद्ध ने यह कहकर ईश्वरवादियों के इस विचार पर पानी फेर दिया था कि-“ईश्वर की खोज करना अंधेरे कमरे में उस बिल्ली की खोज करना है, जो बिल्ली उस कमरे में है ही नहीं।”

प्रश्न 11.
दर्शन के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
भारत में फिलॉसफी को ‘दर्शन’ कहा जाता हैं। ‘दर्शन’ शब्द दृश धातु से बना है जिसका अर्थ है-‘जिसके द्वारा देखा जाए।’ भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है। जिसके द्वारा तत्त्व का साक्षात्कार हो सके। इसलिए इसे तत्त्व दर्शन कहा जाता है। यहाँ दर्शन की परिभाषा यह कह कर दिया गया है कि “हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्तिसंगत व्याख्या कर वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।”

पाश्चात्य में दर्शन को फिलॉसफी कहा जाता है। फिलॉसफी का अर्थ ‘विद्यानुराग’ होता है। फिलॉस प्रेम, सौफिया अनुराग। वेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि, “दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयत्न है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करता है।”

प्रश्न 12.
वस्तुवाद और प्रत्ययवाद में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
वस्तुवाद तथा प्रत्ययवाद वह ज्ञान शास्त्रीय सिद्धान्त है जो अस्तित्व ज्ञाता और ज्ञेय के आपसी संबंध की व्याख्या करता है। वस्तुवाद की मान्यता है कि ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता से स्वतंत्र है, जबकि प्रत्ययवाद की मान्यता है कि ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर करता है। वस्तुवाद की मान्यता है कि ज्ञाता और ज्ञेय के बीच बाह्य सम्बन्ध है, जबकि प्रत्ययवाद की मान्यता है कि ज्ञाता और ज्ञेय में आन्तरिक संबंध है।

वस्तुवाद का मानना है कि ज्ञान होने पर वस्तु के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि प्रत्ययवाद का मानना है कि बाह्य पदार्थ प्रत्यात्मक होते हैं। ज्ञान होने पर वस्तु के नये स्वरूप का ज्ञान होता है।

वस्तुवाद के मुख्य समर्थक मूर, थेरी हॉल्ट आदि हैं। प्रत्ययवाद के मुख्य समर्थक बर्कले, हीगल तथा ग्रीन आदि हैं। साधारणत: सामान्य व्यक्तियों का विचार वस्तुवादी होता है।

प्रश्न 13.
क्या राम संदेहवादी है?
उत्तर:
ह्यूम के दर्शन का अंत संदेहवाद में होता है, क्योंकि संदेहवाद अनुभववाद की तार्किक परिणाम है। ह्यूम एक संगत अनुभववादी होने के कारण इन्होंने उन सभी चीजों पर संदेह किया है जो अनुभव के विषय नहीं हैं। यही कारण है कि इन्होंने आत्मा, ईश्वर, कारणता आदि प्रत्ययों पर संदेह किया।

प्रश्न 14.
सत्व गुण क्या है?
उत्तर:
सांख्य दर्शन प्रकृति को त्रिगुणमयी कहा है वह सत्त्व, रजस एवं तमस्। सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है। यह स्वयं प्रकाशपूर्ण है तथा अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। सत्व के कारण मन तथा बुद्धि विषयों को ग्रहण करते हैं। इसका रंग श्वेत है। सभी प्रकार की सुखात्मक – अनुभूति, जैसे-उल्लास, हर्ष, संतोष, तृप्ति आदि सत्व के कार्य हैं।

प्रश्न 15.
स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान को स्पष्ट करें।
उत्तर:
नैययिकों ने प्रयोजन की दृष्टि से अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किये हैं। स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। जब व्यक्ति स्वयं निजी ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुमान करता है तो उसे स्वार्थानुमान कहा जाता है इसमें तीन ही वाक्यों का प्रयोग किया जाता है लेकिन जब व्यक्ति दूसरों की शंका को दूर करने के लिए अनुमान का सहारा लेते हैं तो उस अनुमान को परार्थानुमान कहा जाता है। परार्थानुमान के लिए पाँच वाक्यों की आवश्यकता होती है। परार्थानुमान का आधार स्वार्थानुमान का होता है।

प्रश्न 16.
निष्काम कर्म की व्याख्या करें।
उत्तर:
फल की आशा रखे बिना कर्म करना निष्काम कहलाता है। निष्काम कर्म गीता का मौलिक उपदेश है, सकाम कर्म करने वाला व्यक्ति बंधन ग्रस्त होता है, किन्तु निष्काम कर्म से व्यक्ति बंधन में नहीं फँसता, बल्कि मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। बौद्ध दर्शन के चार आधार हैं-दु:ख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध और दुःख निरोध मार्ग। प्रथम आर्यसत्य के अनुसार संसार दुःख भरा है। लौकिक सुख की वस्तुतः दुःख से घिरा है। सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त हो जाने पर यह नष्ट न हो जाए यह विचार दु:ख देता है और नष्ट हो जाने पर दुःख तो हैं ही। पाश्चात्य विचारक काण्ट ने भी कर्त्तव्य-कर्त्तव्य के लिए बात की है, जो गीता के निष्काम कर्म से मेल खाता है।

प्रश्न 17.
भारतीय दर्शन में आस्तिक एवं नास्तिक के विभाजन का आधार क्या है? अथवा, आस्तिक और नास्तिक में भेद करें। अथवा, आस्तिक और नास्तिक का अर्थ निर्धारित करें।
उत्तर:
भारतीय दार्शनिक सम्प्रदाय को दो वर्गों में रखा गया है आस्तिक और नास्तिक। वर्ग विभाजन की तीन आधार है-वेद, ईश्वर और पुनर्जन्म, भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहते हैं जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास रखता है, और नास्तिक उसे कहते हैं जो वेद को प्रमाणिकता में विश्वास नहीं रखता है। इस दृष्टिकोण से भारतीय दर्शन में छः दर्शनों को आस्तिक कहा जाता है-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। ये सभी दर्शन वेद पर आधारित हैं। नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत की चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा जाता है, क्योंकि तीनों वेद को नहीं मानते हैं तथा वेद की निन्दा करते हैं। आस्तिक और नास्तिक का दूसरा आधार ‘ईश्वर’ है जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उसे आस्तिक और जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं उसे नास्तिक कहते हैं।

प्रश्न 18.
क्या भारतीय दर्शन निराशावादी है?
उत्तर:
भारतीय दर्शन में दो प्रकार की विचारधारा सामने आती है एक आशावाद और दूसरा निराशावाद। निराशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के बुरे पहलू पर ही प्रकाश डालती है। इसके अनुसार जीवन दुःखमरा है। इसमें सुख या आनन्द के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके अनुसार जीवन दुःखमय-असहय एवं अवांछनीय है। ठीक इसके विपरीत आशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के सुखमय एवं शुभ की प्राप्ति में सहायक है। यह सत्य है कि भारतीय दर्शन का आरंभ निराशावाद से होता है, अन्त नहीं। इसका अन्त आशा में होता है। भारतीय दर्शन को निराशावादी तब कहा जाता, जब प्रारंभ से अन्त तक दुःख की बात करते। प्रायः दार्शनिकों ने दुःख की अवस्था की चर्चा के बाद उससे छुटकारा के लिए मार्ग बतलाकर आशावादी दर्शन को स्थापित किया है। इसलिए भारतीय दर्शन को निराशावादी कहना भ्रांतिमूलक है।

प्रश्न 19.
अनुमान की परिभाषा दें।
उत्तर:
अनुमान न्याय दर्शन का दूसरा प्रमाण है। अनुमान ‘अनु’ तथा मान के संयोग से बना है। अनु का अर्थ पश्चात् तथा मान का अर्थ ज्ञान से होता है अर्थात् प्रत्यक्ष के आधार पर अप्रत्यक्ष के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अनुमान को प्रत्यक्षमूलक ज्ञान कहा गया है। प्रत्यक्ष ज्ञान संदेहरहित तथा निश्चित होता है। परंतु अनुमानजन्य ज्ञान संशयपूर्ण एवं अनिश्चित होता है। अनुमानजन्य ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। अनुमान का आधार व्यक्ति होता है। अनुमान के तीन अवयव हैं-पक्ष साध्य तथा हेतु।

प्रश्न 20.
व्यावसायिक नीतिशास्त्र की परिभाषा दें। अथवा, व्यावसायिक नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर:
नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है। व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहता है और समाज में वे अपने कार्यों को आम-लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है।

प्रश्न 21.
प्रत्ययवाद क्या है?
उत्तर:
वस्तुवाद के अनुसार मूलतत्त्व का स्वरूप जड़ द्रव्य है। ठीक इसके विपरीत प्रत्ययवाद मानता है कि मूलसत्ता चेतन स्वरूप है। मूलसत्ता को चेतन स्वरूप मानने के कारण आध्यात्मवाद का दृष्टिकोण अप्रकृतिवादी, प्रयोजनवादी, ईश्वरवादी, अतिइन्द्रियवादी तथा आदर्शवादी है। विश्व के प्रकट कार्यकलापों के पीछे एक गहरी आध्यात्मिक सार्थकता है जो किसी निश्चित आदर्श की ओर अग्रसर हो रही है। जो कुछ जिस रूप में वास्तविक नजर आता है वह वास्तविक नहीं है। वास्तविकता का साक्षात्कार करने के लिए केवल बुद्धि पर्याप्त नहीं। जिस प्रकार भौतिकवादियों के बीच जड़द्रव्य के स्वरूप को लेकर कोई निश्चितता नहीं है, उसी प्रकार प्रत्ययवादियों के बीच भी चेतना के स्वरूप को लेकर कोई निश्चितता नहीं है। प्रत्ययवाद चेतन प्रत्यय, आत्मा या मन को विश्व की आधारभूत सत्ता मानते हुए समस्त विश्व को अभौतिक मानता है।

प्रश्न 22.
कारण के स्वरूप की व्याख्या करें। अथवा, कारण की प्रकृति की विवेचना करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण दोनों आगमन के आकारिक आधार हैं। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार, समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता पायी जाती है। समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहेगा। दोनों नियमों के संबंध को लेकर तीन मत हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) मिल साहब तथा ब्रेन साहब के अनुसार प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक है तथा कारणता के नियम प्राकृतिक समरूपता नियम का एक रूप है। ब्रेन के अनुसार समरूपता तीन प्रकार की हैं। उनमें एक अनुक्रमिक समरूपता है (Uniformities of succession), इसके अनुसार एक घटना के बाद दूसरी घटना समरूप ढंग से आती है। कार्य-कारण नियम अनुक्रमिक समरूपता है। कार्य-कारण नियम के अनुसार भी एक घटना के बाद दूसरी घटना अवश्य आती है। अतः, कार्य-कारण नियम स्वतंत्र नियम न होकर समरूपता का एक भेद है। जैसे-पानी और प्यास बुझाना, आग और गर्मी का होना इत्यादि घटनाओं में हम इसी तरह की समरूपता पाते हैं।

(ii) जोसेफ एवं मेलोन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम मौलिक है प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक नहीं है स्वतंत्र नहीं है। बल्कि प्राकृतिक समरूपता नियम इसी में समाविष्ट है। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण सदा कार्य को उत्पन्न करता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहता है। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार भी समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। अतः कार्य-कारण नियम ही मौलिक है और प्राकृतिक समरूपता नियम उसमें अतभूर्त (implied) है।

(ii) वेल्टन, सिगवर्ट तथा बोसांकेट के अनुसार दोनों नियम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, दोनों मौलिक हैं, दोनों का अर्थ भिन्न है, दोनों दो लक्ष्य की पूर्ति करते हैं। कार्य-कारण नियम से पता चलता है कि प्रत्येक घटना का एक कारण होता है और प्रकृति में समानता है।

अतः, ये दोनों नियम मिलकर ही आगमन के आकारिक आधार बनते हैं। आगमन की क्रिया में दोनों की मदद ली जाती है। जैसे-कुछ मनुष्यों को मरणशील देखकर सामान्यीकरण कहते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील हैं। कुछ से सबकी ओर जाने में प्राकृतिक समरूपता नियम की मदद लेते हैं। प्रकृति के व्यवहार में समरूपता है।

इसी विश्वास के साथ कहते हैं कि मनुष्य भविष्य में भी मरेगा। सामान्यीकरण में निश्चिंतता आने के लिए कार्य-कारण नियम की मदद लेते हैं। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण के उपस्थित रहने पर अवश्य ही कार्य उपस्थित रहता है। मनुष्यता और मरणशीलता में कार्य कारण संबंध है। इसी नियम में विश्वास के आधार पर कहते हैं कि जो कोई भी मनुष्य होगा वह अवश्य ही मरणशील होगा। अतः दोनों स्वतंत्र होते हुए भी आगमन के लिए पूरक हैं। दोनों के सहयोग से आगमन संभव है। अतः दोनों में घनिष्ठ संबंध है।

प्रश्न 23.
भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ कितने हैं?
उत्तर:
दो शब्दों ‘पुरुष’ तथा ‘अर्थ के संयोग से पुरुषार्थ शब्द बना है। पुरुष विवेकशील प्राणी का सूचक है तथा अर्थ लक्ष्य का अर्थात् पुरुष के लक्ष्य को ही पुरुषार्थ कहते हैं। मनुष्य के चार पुरुषार्थ काम, अर्थ, धर्म तथा मोक्ष हैं, जिसे हिन्दू नीतिशास्त्र में चतु:वर्ग भी कहा गया है।

प्रश्न 24.
सत्तामूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर:
अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईवनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की . धारणा है, अतः यह धारणा केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में होगी। ईश्वर की यथार्थता (existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है। संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा, नंगा और दरिद्र न होता।

प्रश्न 25.
प्रत्यक्ष की परिभाषा दें। अथवा, न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष का वर्णन करें।
उत्तर:
न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष को एक स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रत्यक्ष की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि “इन्द्रियार्थस-निष्कर्ष जन्य ज्ञानं प्रत्यक्षम्” अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से उत्पन्न हो उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष के द्वारा प्राप्त ज्ञान निश्चित स्पष्ट तथा संदेशरहित होता है।

प्रश्न 26.
वस्तुवाद क्या है? अथवा, वस्तुवाद की एक परिभाषा दें।
उत्तर:
वस्तुवाद ज्ञानशास्त्रीय है जिसकी मूल मान्यता है कि ज्ञेय ज्ञाता से स्वतंत्र होता है तथा ज्ञेय का ज्ञान होने से जग में कोई परिवर्तन नहीं होता है। जो वस्तु जिस रूप में रहती है ठीक उसी रूप में उसका ज्ञान होता है। वस्तुवाद के दो रूप होते हैं-

  1. लोकप्रिय वस्तुवाद और
  2. दार्शनिक वस्तुवाद।

दार्शनिक वस्तुवाद के तीन रूप होते हैं-

  1. प्रत्यय प्रतिनिधित्ववाद
  2. नवीन वस्तुवाद और
  3. समीक्षात्मक वस्तुवाद।

प्रश्न 27.
अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर:
अनुप्रयुक्त अथवा जैव नीतिशास्त्र को सही ढंग से परिभाषित करना थोड़ा कठिन है, क्योंकि अभी यह एक नयी विधा है। जैव नीतिशास्त्र के लिए अंग्रेजी में Bio ethics शब्द का प्रयोग होता है। Bio ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ Life अथवा ‘जीवन’ है और ‘Ethics’ का अर्थ आचारशास्त्र है। इस दृष्टि से यह जीवन का आधार है। अतः हम कह सकते हैं कि “स्वास्थ्य की देख-रेख और जीवन-विज्ञान के क्षेत्र में मानव आचरण का एक व्यवस्थित अध्ययन अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र कहलाता है।”

प्रश्न 28.
पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर:
पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष-परम पुरुषार्थ है चारों में तीन साधन मात्र है तथा मोक्ष : साध्य है। मोक्ष को भारतीय दर्शन में परम लक्ष्य माना गया है। जन्म मरण के चक्र में मुक्ति का नाम मोक्ष है। इसकी प्राप्ति विवेक ज्ञान में माप है। इस प्रकार भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ को स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 29.
अन्तक्रियावाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
अन्तक्रियावाद (Interactionism)-मन शरीर संबंध का विश्लेषण देकार्ड, स्पिनोजा और लाइबनीज ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। देकार्त्त का विचार है अन्तक्रियावाद (Interactionism), स्पिनोजा का विचार समानान्तरवाद (Parallelism) और लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। देकार्त के अनुसार मन और शरीर एक-दूसरे से स्वतंत्र है। मन चेतन है। शरीर जड़ है।

अत: दोनों का स्वरूप भिन्न है। फिर भी उनमें पारस्परिक संबंध है जिसे देकार्त ने अन्तक्रिया संबंध (relation of interaction) कहा है। जब भूख लगती है तो मन खिन्न रहता है। भोजन करने से भूख मिटती है और मन तृप्त हाता है। मन में निराशा होती है, तो किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती है। हाथ-पैर हिलाने से काम होता है। इस प्रकार विरोधी स्वभाव वाले ये दो सापेक्ष द्रव्य एक-दूसरे पर निर्भर है।

प्रश्न 30.
पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। लाइबनिज के चिदणु गवाक्षहीन एवं पूर्ण स्वतंत्र हैं। ये एक-दूसरे को प्रभावित नहीं कर पाते। फिर भी इनमें आन्तरिक सम्बन्ध रहता है। ये सभी अपने-अपने ढंग से विश्व को प्रतिबिम्बित करते रहते हैं। ये विश्व के विभिन्न दर्पण हैं। इनसे बने विश्व में एक अद्भुत सामंजस्य एवं व्यवस्था का दर्शन होता है। इसलिए तो लाइबनिज इस विश्व को सभी संभव संसारों में सर्वश्रेष्ठ बतलाते हैं। यदि चिदणु परस्पर स्वतंत्र हैं तो फिर विश्व में अद्भुत व्यवस्था. एव सामंजस्य किस प्रकार संभव है। पुनः आत्मा एवं शरीर में सम्बन्ध कैसे स्थापित हो पाता है? लाइबनिज ने इस समस्या का समाधान ईश्वरकृत ‘पूर्व-स्थापित सामंजस्यवाद’ (Theory of Preesta-blished Harmony) के आधार पर करना चाहा है।

ईश्वर ही चिदणुओं के निर्माता या रचयिता हैं। उन्होंने सृष्टि के समय ही इनमें कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी है ये स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करते हुए भी एक-दूसरे के कार्यों में बाधा नहीं डाल सकते। इनके क्रियाकलापों में संगति बनी रहती है। यदि आत्मा में कोई परिवर्तन होता है तो तद्नुकूल शरीर में भी वही परिवर्तन होता है। इसलिए हम कहते हैं कि आत्मा के आदेशानुकूल शरीर कार्य करता है। सभी चिदणु स्वतंत्र रूप से क्रिया करते हुए विश्व की व्यवस्था बनाये रखते हैं। ईश्वर ने सृष्टि के समय ही कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी है कि एक चिदणु दूसरे चिदणु के अनुकूल आंतरिक क्रियाशीलता में संलग्न रहता है। सभी चिदणु चेतना को पूर्ण विकसित करने में प्रयत्नशील रहते हैं।

प्रश्न 31.
ऋत की व्याख्या करें। – अथवा, ऋत से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
वैदिक संस्कृति के नैतिक कर्तव्य की धारणा को ऋत कहा जाता है। ऋत की संख्या तीन हैं–देव ऋत से मुक्ति शास्त्र के अनुसार यज्ञ करने से दैव ऋत से मुक्ति मिलती है। ब्रह्मचर्य का पालन, विद्या अध्ययन एवं ऋषि की सेवा करने से ऋषि ऋत से मुक्ति मिलती है और पुत्र की प्राप्ति से पितृ ऋत से मुक्ति मिलती है। शास्त्रार्थ पुरुषार्थ प्राप्ति हेतु इन तीनों प्रकार का ऋत से मुक्ति अनिवार्य है।

प्रश्न 32.
नीतिशास्त्र की परिभाषा दें।
उत्तर:
साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि नीतिशास्त्र चरित्र का अध्ययन करने वाला विषय माना जाता है। भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के द्वारा नौतिशास्त्रों को परिभाषा की कड़ी से बाँधने का प्रयास भी किया गया है। Mackenzie के अनुसार, “शुभ और उचित आचरण का अध्ययन माना जाता है।” विलियम लिली (William Lillie) के अनुसार, “नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्धारक विज्ञान है। यह उन व्यक्तियों के आचरण का निर्धारण करता है जो समाज में रहते हैं।”