Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 8 किशोरों की कुछ समस्याएँ

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 8 किशोरों की कुछ समस्याएँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 8 किशोरों की कुछ समस्याएँ

Bihar Board Class 11 Home Science किशोरों की कुछ समस्याएँ Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किसी भी कार्य को सफल होने के लिए क्या आवश्यक है ? [B.M.2009A]
(क) नैतिकता
(ख) अनुशासन
(ग) जानकारी
(घ) भावना
उत्तर:
(ख) अनुशासन

प्रश्न 2.
किशोरावस्था की सामाजिक समस्याओं को भागों में बाँटा गया है –
(क) 2 भागों में
(ख) 4 भागों में
(ग) 6 भागों में
(घ) 8 भागों में
उत्तर:
(ख) 4 भागों में

प्रश्न 3.
किशोर अपराध के कारणों को मुख्यतः वर्गों में बाँटा गया –
(क) 2
(ख) 4
(ग) 6
(घ) 8
उत्तर:
(क) 2

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प्रश्न 4.
“समस्याओं की आयु” कहा जाता है –
(क) बाल्यावस्था
(ख) किशोरावस्था
(ग) युवावस्था
(घ) प्रोढ़ावास्था
उत्तर:
(ख) किशोरावस्था

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अवनतिशील तथा अग्रशील स्मृतिलोप क्या है ?
उत्तर;
अवनतिशील (Retrograde) तथा अग्रशील (Anterograde) स्मृतिलोपअवनतिशील स्मृति लोप का परिणाम भूतकाल की बातें भूलने वाला होता है जबकि अग्रशील का परिणाम. कुछ नया सीखने की अयोग्यता है। दोनों को मिलाकर Global Amnsia होता है, जिससे स्मरण-शक्ति पर अग्रशील प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 2.
नशीली दवा क्या होती है ?
उत्तर:
नशीली दवाएँ (Drugs)-दवा एक रासायनिक पदार्थ है। जब इसका दुरुपयोग किया जाता है तब वह शारीरिक क्रियाओं पर प्रभाव डालती है। दुष्प्रभाव डालने वाली दवाएँ नशीली दवाएँ कहलाती हैं।

प्रश्न 3.
किन्हीं दो नशीली दवाओं के नाम बताएँ जिनसे किशोरों को नशे की आदत हो सकती है।
उत्तर:
1. Opium
2. Heroin

प्रश्न 4.
‘किशोर-अपराध’ (Juvenile Delinquency) से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
किसी भी प्रकार के असामाजिक व्यवहार को किशोर-अपराध कहा जा सकता है। किशोर, जो समाज की सुविधाओं का प्रयोग तो करता है किन्तु समाज द्वारा जिस व्यवहार की उससे आशा की जाती है, वह नहीं करता। ऐसे ही किशोर को किशोर-अपराधी कहा जाता है। अतः सामाजिक व्यवहार में असफलता ही ‘किशोर-अपराध’ है।

प्रश्न 5.
उदासीनता (Depression) से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
जब किशोर जीवन के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाता है तो ऐसी स्थिति को उदासीनता कहा जाता है।

प्रश्न 6.
ऐसी दो परिस्थितियों के नाम लिखें जब किशोर दबाव या तनाव (Tension) का अनुभव करते हैं।
उत्तर:
किशोरावस्था में आते ही किशोरों को प्रौढ़ावस्था के उत्तरदायित्व निभाने के लिए तैयार होना पड़ता है। इस कारण बढ़ता हुआ किशोर तनाव में रहने लगता है।

दो परिस्थितियाँ निम्न हैं जब वे तनाव का अनुभव करते हैं –

  • जब उसका आकार आवश्यकता से अधिक बढ़ने लगता है।
  • जब वह अपने माता-पिता की आकांक्षा के अनुरूप शैक्षिक जीवन स्तर पर खरा नहीं उतर पाता।

प्रश्न 7.
किशोरावस्था की सामाजिक समस्याओं को कितने भागों में बाँटा गया है ?
उत्तर:
किशोरावस्था की सामाजिक समस्याओं (Social Problems of Adolescence) को चार वर्गों में बाँटा जा सकता है

  • प्रतिष्ठा की समस्या (Problem of Fame)।
  • स्वतन्त्रता की समस्या (Problem of Independence)।
  • जीवन दर्शन की समस्या (Problem of Philosophy) ।
  • कार्य-सम्बन्धी समस्याएँ (Problem of Profession)।

प्रश्न 8.
बालक को अपराधी कब कहते हैं ?
उत्तर:
जिस बालक के कार्य इतना गंभीर रूप ले लें कि उसे उस कुमार्ग से हटाने के लिए दण्ड देना पड़े ताकि अन्य बालक उससे शिक्षा ग्रहण कर सके। उस बालक को अपराधी कहा जाता है।

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लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
बाल अपराध कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर:
बाल अपराध के प्रकार (Kinds of Delinquenents)
(क) चुनौती देने वाली बालोपराधिक प्रवृत्तियाँ (Challenging nature of Delinquenents):
किशोरों में इस प्रकार की प्रवृत्तियों की अभिव्यक्ति निम्न रूपों में पायी जाती हैं –

  1. चोरी करना।
  2. झूठ बोलना।
  3. उद्देश्यहीन घूमना।
  4. तंग करना।
  5. लड़ना-झगड़ना।
  6. धूम्रपान करना।
  7. शेखी हांकना।
  8. पलायनशीलता (घर अथवा विद्यालय में)।
  9. दीवार पर लिखना।
  10. स्कूल की चीजें नष्ट करना।

(ख) यौन अपराध (Sex Delinquency): इनको भी दो भागों में बाँटा जा सकता है –

1. भिन्न लिंग अपराध (Different Sex Delinquency):
इसके दो रूप होते हैं –
(क) इच्छा रखने वाले समान अवस्था के सदस्य के साथ।
(ख) इच्छा न रखने वाले छोटी अवस्था के सदस्य के साथ।

2. वे प्रयास अपराध (Same sex Delinquent):
इसके तीन रूप होते हैं –
(क) समलिंग अपराध।
(ख) हस्तमैथुनी।
(ग) निर्लज्ज प्रदर्शन तथा नंगापन।

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प्रश्न 2.
किशोरों में “स्वतंत्रता एवं नियंत्रण” (Independence and Control) की समस्या पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
किशोरावस्था को प्रायः संघर्ष एवं तनाव का काल कहा जाता है क्योंकि किशोरों के सामने कुसमायोजन की अनेक समस्याएँ होती हैं।
किशोरावस्था की एक प्रमुख समस्या है स्वतंत्रता प्राप्त करने की समस्या । जिस कारण कई बार किशोर घर की पाबंदियों के विरुद्ध विद्रोह करते हैं और अपने भाग्य को कोसते हैं।

प्रश्न 3.
‘मानसिक तनाव’ (Mental Tension) या ‘निराशा’ से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
जब किशोर जीवन के प्रति नकारात्मक रवैया अपनाने लगता है तो इस स्थिति को मानसिक तनाव या निराशा की स्थिति कहते हैं।
मानसिक तनाव, निराशा या उदासीनता के कारण वह अप्रसन्न रहने लगता है, किसी भी काम में दिलचस्पी नहीं लेता, अपने-आपको कोसता है तथा उसके मन में आत्मघाती विचार आने की संभावना भी बढ़ जाती है।

किशोरों में उदासीनता या निराशा आने के दो निम्न कारण हो सकते हैं –
1. जब किशोर-किशोरी अपने महत्त्वपूर्ण लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए हर संभव प्रयत्न करके भी असफल रहते हैं तो मानसिक कुंठा उत्पन्न होती है जो निराशा का कारण है।
2. प्रौढ़ावस्था के उत्तरदायित्व निभाने के लिए जो तैयारी किशोर को करनी पड़ती है, उसका तनाव किशोर के मन पर पड़ता है। वह अपनी पहचान बनाने के लिए चिन्तित रहते हैं और उसके कारण ‘निराशा’ से ग्रस्त हो जाते हैं।

प्रश्न 4.
शराब के कुप्रभाव क्या हैं ?
उत्तर:
कुप्रभाव (Negative Effects):
इन आदतों का बालकों के तन व मन दोनों पर कुप्रभाव पड़ता है। सांस व हृदय की बीमारियाँ कम आयु में ही घेर लेती हैं। आत्म-विश्वास व आत्म-नियन्त्रण कम हो जाता है। वह अपनी जिम्मेदारी सम्भालने योग्य नहीं रहता । मानसिक व शारीरिक दोनों ही शक्तियाँ क्षीण हो जाती हैं। शराब से यकृत (Liver) खराब हो जाता है।

प्रश्न 5.
नशे (Drugs) के कुप्रभाव क्या हैं ?
उत्तर:
नशे से कुछ देर तो व्यक्ति बहुत हल्का महसूस करता है। अपनी परेशानियाँ भूल जाता है पर धीरे-धीरे ये उसके शरीर को खोखला कर देते हैं। नशा न मिलने पर वह भयानक पीड़ा से ग्रस्त होता है व अपनी सुध-बुध खो बैठता है। इसे प्राप्त करने के लिए वह भयंकर से भयंकर अपराध भी कर सकता है। अपने अच्छे-बुरे की उसे पहचान नहीं रहती। इस गलत आदत से छुटकारा भी आसान नहीं है।

प्रश्न 6.
किशोरों में नशे की आदत के क्या कारण हैं ?
उत्तर:
आज की युवा पीढ़ी की एक गम्भीर समस्या नशे की है। किशोरों में प्रायः नशे की आदत निम्न कारणों से लगती है

  1. हीन भावना।
  2. माता-पिता का कठोर अनुशासन।
  3. अनुचित साथी-समूह की संगति व उनका दबाव।
  4. मित्रों व समाज द्वारा किशोरों की शारीरिक, सामाजिक एवं मानसिक आवश्यकताओं को न समझा जाना।
  5. उत्सुकता।
  6. माता-पिता के कटु सम्बन्धों के कारण अनुभव किया गया तनाव व निराशा।

प्रश्न 7.
किशोर अवस्था में सेक्स संबंधी अपराध किस प्रकार विकसित होते हैं ?
उत्तर:
सेक्स सम्बन्धी अपराध (Sex related delinquency): किशोर इस समय सेक्स के बारे में जानने को बहुत उत्सुक होते हैं। उन्हें इस विषय में सही जानकारी माता-पिता या किसी अन्य से नहीं मिल पाती है । वे अपने साथियों या गलत साहित्य पढ़कर यह जानकारी प्राप्त करते हैं । सिनेमा व टी० वी० पर दिखाए गए अश्लील दृश्यों का भी उन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। किशोरियाँ बिन ब्याही माँ बन जाती हैं व गलत लोगों की संगत में वेश्यावृत्ति के लिए मजबूर हो जाती हैं। लड़के छेड़खानी, बलात्कार आदि करके अपना भविष्य हमेशा के लिए खराब कर बैठते हैं।

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प्रश्न 8.
पारिवारिक सदस्यों द्वारा अपराध रोकने के कौन-कौन से उपाय हैं ?
उत्तर:
पारिवारिक सदस्यों द्वारा अपराध रोकने के उपाय (Ways to control delinquency by the family members) :

  1. सबका व्यवहार बालकों के प्रति उचित होना चाहिए।
  2. बालकों को दुरुपयोग करने के लिए पैसा न दें।
  3. घर में लड़ाई-झगड़े आदि जैसा गंदा वातावरण नहीं होना चाहिए।
  4. घर में परिवार सीमित रखना चाहिए ताकि प्रत्येक बालक को उचित लालन-पालन दिया जा सके।
  5. बालक को बुरी संगति में नहीं जाने देना चाहिए। उन्हें आवश्यकता से अधिक स्वतंत्रता भी नहीं दी जानी चाहिए तथा उनकी उम्र में पड़ सकने वाली बुरी आदतों से सतर्क रहना चाहिए।

प्रश्न 9.
कुसमायोजन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
कुसमायोजन (Maladjustment): किशोर अचानक अपने को अपने साथियों से अलग पाते हैं। उनमें शारीरिक परिवर्तन आने शुरू हो जाते हैं और वे सोचते हैं कि उनके साथी वैसे ही हैं जिससे वे अपने प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण पैदा कर लेते हैं और अपने को सबसे दूर कर लेते हैं। अपनी बेचैनी के कारण वे बहुत जल्दी गुस्सा हो जाते हैं, झगड़ालू प्रवृत्ति के हो जाते हैं। दोस्ती व परिवार दोनों जगह वे समायोजन स्थापित नहीं कर पाते। इससे वे स्वयं व उनके परिवार के सदस्य सभी कठिनाई महसूस करते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नशीले पदार्थों से अपनी युवा पीढ़ी को किन साधनों द्वारा बचाया जा सकता है ?
उत्तर:
नशे के भयंकर परिणामों को देखते हुए नशीले पदार्थों से अपनी युवा पीढ़ी को निम्नलिखित साधनों से बचाया जा सकता है।
1. किशोरों के लिए अवकाशकाल के सदुपयोग के लिए आवश्यक साधन जुटाना-किशोरों के पास अत्यधिक ऊर्जा होती है जिसका सही ढंग से प्रयोग करना जरूरी है अन्यथा वह अनेक बुराइयों में फंस सकते हैं। यह परिवार, विद्यालय व समाज का उत्तरदायित्व है कि वह किशोरों के स्वस्थ मनोरंजन के लिए आवश्यक साधन जुटाने का प्रबन्ध करें।

2. जनसाधारण को प्रचार माध्यमों द्वारा नशीले पदार्थों के सेवन से होने वाले कुप्रभावों से अवगत कराना-प्रायः किशोर नशीले पदार्थों के सेवन से होने वाले प्रभावों से अनभिज्ञ होते हैं और उन्हें इनका ज्ञान तभी होता है जब वह इसके प्रभाव में इतना आ जाते हैं कि वह उनकी आवश्यकता बन चुकी होती है। प्रसार माध्यमों, जैसे रेडियो, दूरदर्शन, सिनेमा आदि द्वारा बहुत। ही प्रभावी तरीके से नशीले पदार्थों से होने वाले कुप्रभावों को दर्शाया जा सकता है।

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3. नशाबंदी सम्बन्धी नियमों को लागू करना-सरकार ने नशीले पदार्थों के कुप्रभावों को ध्यान में रखते हुए नशाबन्दी सम्बन्धी कई नियम बनाए हैं जो निम्नलिखित हैं

  • नशे से सम्बन्धित सभी चीजों जैसे सिगरेट, शराब आदि का प्रचार करते समय तथा उनके पैकटों पर चेतावनी लिखना अनिवार्य है कि यह पदार्थ स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।
  • सार्वजनिक स्थानों जैसे होटलों, क्लबों, समारोहों आदि में शराब पीने पर प्रतिबन्ध है। सिनेमाघरों तथा अन्य स्थानों जहाँ पर भीड़ होती है वहाँ धूम्रपान करने की भी मनाही होती है।
  • किशारों को नशीले पदार्थों से बचाने के लिए विद्यालयों, कॉलेजों, छात्रावासों आदि. के निकट इनकी बिक्री पर प्रतिबंध है।
  • नशीली दवाइयों को बेचने वालों, संग्रह करने वालों तथा खरीदने वालों को कड़ा दंड दिया जाता है, जिसमें जमानत नहीं दी जाती है।

परिवार के सदस्यों व समाज को इन नशीले पदार्थों का सेवन करने वाले किशोरों के साथ सहानुभूति का व्यवहार करना चाहिए तथा यह समझना चाहिए कि यह एक रोग है, जिसका निवारण सम्भव है। इन युवकों को इन नशीले पदार्थों को छोड़ने के लिए प्रेरित करना तथा उसकी सहायता करना आवश्यक है।

कई स्वयंसेवी संस्थाओं एवं सरकारी अस्पतालों में इन किशोरों को दवाइयाँ देकर तथा कड़ी निगरानी में रखकर इस रोग से मुक्ति दिलाई जाती है। किशोरों में नशे की आदत को केवल सरकारी कानूनों से रोकना सम्भव नहीं है। इसके लिए किशोरों के माता-माता, मित्रों, अन्य परिवारजनों, शिक्षकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं को मिलकर एक आन्दोलन के रूप में नशाबन्दी के लिए कार्य करना चाहिए।

प्रश्न 2.
किशोर-अपराध से आप क्या समझती हैं ? किशोर-अपराध के कारणों को किन वर्गों में बाँटा गया है ?
उत्तर:
किशोर-अपराध (Juvenile Delinquency): किसी भी प्रकार के असामाजिक व्यवहार को किशोर-अपराध कहा जा सकता है। किशोर, जो समाज की सुविधाओं का प्रयोग तो करता है किन्तु समाज द्वारा जिस व्यवहार की उससे आशा की जाती है, वह नहीं करता।

ऐसे ही किशोर को ‘किशोर: अपराधी’ कहा जाता है। अतः सामाजिक व्यवहार में असफलता ही किशोर-अपराध है। उदाहरण के लिए ऐसे किशोरों को भी अपराधी माना जाता है जो घर से भाग कर आवारागर्दी करते हैं, माता-पिता अथवा संरक्षकों की आज्ञा का पालन नहीं करते हैं, गन्दी भाषा का प्रयोग करते हैं, चरित्रहीन व्यक्तियों के सम्पर्क में रहते हैं, स्कूल से बिना किसी उचित कारण के अनुपस्थित रहते हैं तथा अनैतिक व अनधिकृत क्षेत्रों में घूमते पाए जाते हैं। किशोर-अपराध अनेक जटिल कारणों के फलस्वरूप होता है तथा इसकी रोकथाम इतनी सरल नहीं है।

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किशोर-अपराध के कारणों को मुख्यतः दो वर्गों में विभाजित किया जाता है –
1. व्यक्तिगत कारण (Individual factors)
2. सामाजिक कारण (Social factors)

1. व्यक्तिगत कारण (Individual factors): किशोरों में ऐसे कुछ व्यक्तिगत कारण होते हैं जो उनमें अपराधी प्रवृत्ति जागृत करते हैं, जैसे –

(क) शारीरिक दोष (Physical Defects): किसी भी प्रकार के शारीरिक दोष से ग्रस्त किशोर अपने में कुछ कमी समझने लगता है और हीन भावना से ग्रस्त हो जाता है और जब उसके दोष पर व्यंग्य किया जाता है तो वह प्रायः असामाजिक व्यवहार अपना लेता है। उसमें समाज के विरुद्ध प्रतिनिया का विकास होता है क्योंकि वह अपने दोष का उत्तरदायी समाज को ही समझने लगता है।

(ख) मन्द बुद्धि होना (Slow mental development): मन्द बुद्धि किशोर प्रायः अनैतिक व्यवहार की ओर सरलता से और शीघ्रता से खिंचते हैं क्योंकि उनमें यह समझने की शक्ति क्षीण होती है कि उचित सामाजिक व्यवहार क्या हैं।

(ग) जल्दी या देर से परिपक्वता होना (Early or late maturity): जब किसी किशोर में अपनी आयु की अपेक्षा जल्द या देर से परिपक्वता आती है तो उसमें समायोजन की कठिनाई होती है क्योंकि ऐसे किशोर अपनी आयु वाले किशोरों से बड़े या छोटे प्रतीत होते हैं। इससे किशोर में असन्तोष उत्पन्न होता है और वह असामाजिक व्यवहार करने लगता है।

2. सामाजिक कारण (Social factors): सामाजिक वातावरण सम्बन्धी अनेक कारण ऐसे हैं जो किशोर में अपराध की प्रवृत्ति जागृत करते हैं। कुछ सामाजिक कारणों का उल्लेख नीचे किया गया है

(क) माता-पिता का व्यवहार (Behaviour of parents): माता-पिता के अवहेलनात्मक व्यवहार से भी किशोरों को कुण्ठाएँ घेर लेती हैं जो उनमें उन्मुक्त व्यवहार को बढ़ावा देती हैं तथा जिससे किशोर अपराधी बन जाते हैं। अध्ययन द्वारा यह स्पष्ट है कि अपराधी किशोरों के माता-पिता, घर तथा बाहर कड़ा अनुशासन रखते हैं और तर्क के स्थान पर दण्ड देने में विश्वास रखते हैं।

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(ख) घर का वातावरण (Home Environment): किशोर अपराध का एक मुख्य कारण घर का अनुचित वातावरण है, जिससे प्रायः परिवार के प्रत्येक सदस्य के सम्मुख समायोजन की समस्या होती है। घर के वातावरण के अनुचित होने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं माता-पिता के आपसी झगड़े, बिखरा हुआ परिवार, बड़ा परिवार, किशोरों को आवश्यकता से अधिक नियंत्रण में रखना या बिल्कुल स्वतंत्र छोड़ना, घर में अनुशासन का अभाव, परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी न होना जिससे किशोर की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती, किशोर का हीन भावना से ग्रस्त होना या फिर किशोर में श्रेष्ठ होने की भावना का पनपना आदि।

(ग) घर के बाहर का वातावरण (Environment outside home): घर ही नहीं अपितु घर के बाहर का वातावरण भी किशोरों में अपराध प्रवृत्ति जागृत करता है। अध्ययनों द्वारा ज्ञात हुआ है कि घनी आबादी वाले क्षेत्रों में अपराध प्रवृत्ति अधिक पायी जाती है। प्रायः ऐसे क्षेत्रों में भारी संख्या में प्रौढ़ अपराधी पाए जाते हैं, भीड़-भाड़ अधिक होती है, आस-पास अधिक कारखाने होते हैं या झुग्गी-झोपड़ी क्षेत्र होते हैं, जिससे किशोरों का विकास उचित प्रकार से नहीं हो पाता है और अपराध की प्रवृत्ति उनमें पनपने लगती है।

प्रश्न 3.
किशोरों की यौन-सम्बन्धी समस्याओं (Problems related to sex) का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
यौन सम्बन्धी समस्याएँ (Problems related to sex): मनुष्यों की अनेक नैसर्गिक प्रवृत्तियों (instincts) में से एक प्रवृत्ति काम (sex) की भी है। काम भावना किशोर के जीवन में अत्यधिक महत्त्व रखती है, अतः उसका उचित विकास आवश्यक है। किशोरावस्था एक ऐसी अवस्था है जिसमें किशोरों को अपनी लैंगिक भूमिका समझनी, सीखनी व स्वीकारनी होती है।

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अध्ययनों द्वारा यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि किशोरों में यौन-सम्बन्धी समस्याएँ, यौन-सम्बन्धी जिज्ञासा के बढ़ने तथा यौन सम्बन्धी ज्ञान के अभाव से उत्पन्न होती हैं। किशोरों में लिंगीय भेद एवं काम-भावना की सही-सही जानकारी होना तथा काम के प्रति उनका स्वच्छ दृष्टिकोण होना आवश्यक है जिससे वह सुन्दर एवं सफल सामाजिक जीवन व्यतीत कर सकें तथा बुराइयों से बच सकें।

किशोरावस्था में जब किशोर तारुण्य को प्राप्त होते हैं तब उनमें यौन-सम्बन्धी जननेन्द्रियों का विकास एवं किशोरों में शुक्राणु एवं उसके स्राव होते हैं तथा किशोरियों में रजःस्राव होता है जिससे वे अनेक प्रकार की भयभीत करने वाली कल्पनाएँ करते हैं। इन विभिन्न कल्पनाओं से अपने को दोषी ठहराते हैं और लिंग अवयवों के सम्बन्ध में अनेक प्रकार की ऐसी धारणाएँ बना लेते हैं जो बिल्कुल ही भ्रान्त एवं अशुद्ध होती हैं। कई बार तो किशोरों को यह विश्वास हो जाता है कि वे किसी विशेष रोग से पीडित हैं और हीनभावना के शिकार हो जाते हैं।

यही हीनभावनाएँ किशोरों में अनेक प्रकार की यौन-सम्बन्धी समस्याएँ उत्पन्न करती हैं जिनका यदि समय पर निवारण न किया जाए तो किशोर के व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है और उसमें अपराध प्रवृत्ति पनपने लगती है। हमारे देश में यौन-सम्बन्धी भ्रान्त धारणाओं व झूठे मानसिक कष्टों तथा हीन-भावना से ग्रस्त किशोर हैं जिन्हें उचित लिंग-सम्बन्धी जानकारी देकर यौन सम्बन्धी समस्याओं से बचाया जा सकता है।

प्रश्न 4.
किशोर-अपराध की रोकथाम में परिवार और विद्यालय की क्या भूमिका है ?
उत्तर:
किशोर-अपराध की रोकथाम (Control of children delinquency): रोग चाहे शारीरिक हो अथवा मानसिक प्रायः चिकित्सा से रोकथाम बेहतर होती है। किशोर-अपराध भी एक मानसिक रोग है। जहाँ एक अपराधी किशोर को सुधारना कठिन है वहाँ उचित वातावरण एवं देखभाल से एक किशोर को अपराधी बनने से सहज ही रोका जा सकता है।

किशोर-अपराध रोकने में परिवार की भूमिका (Role of family in the control of child delinquency):
किशोर अपराध रोकने के लिए :

  1. घर का परिवेश स्वस्थ होना चाहिए तथा माता-पिता व अन्य सम्बन्धियों में प्रेमपूर्ण सम्बन्ध होने चाहिए।
  2. किशोरों के प्रति उचित दृष्टिकोण रखना चाहिए। उन्हें न तो अत्यधिक नियंत्रण में रखना चाहिए और न ही खुली छूट देनी चाहिए। इन्हें न तो आवश्यकता से अधिक लाड़-प्यार करना चाहिए और न ही अधिक कठोर व्यवहार करना चाहिए। किशोरों की समस्याएँ हल करने में उनकी सहायता करनी चाहिए तथा सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करना चाहिए।
  3. माता-पिता को किशोर के मनोविज्ञान को समझकर उन्हें उचित निर्देशन देना चाहिए।
  4. किशोरों की बुरी आदतों पर नजर रखनी चाहिए तथा अंकुश लगाना चाहिए।
  5. यौन जिज्ञासा होना किशोर में स्वाभाविक है। किशोरों को आवश्यक यौन शिक्षा देकर उनमें यौन के प्रति स्वस्थ धारणा बनानी चाहिए।
  6. किशोरों के मित्रों का ध्यान रखना चाहिए जिससे वह अपराधियों व बिगड़े हुए लोगों की संगति न कर पाए।
  7. परिवार नियोजित रखना चाहिए। छोटे परिवार में किशोर की उचित देखभाल कर सकते हैं।
  8. किशोर को आवश्यकता से अधिक जेब खर्च नहीं देना चाहिए।

किशोर अपराध रोकने में विद्यालय की भूमिका (Role of school in the control of child delinquency): किशोरों को उपयोगी एवं योग्य नागरिक बनाने में विद्यालय एक शक्तिशाली संस्था है। विद्यालय को केवल शिक्षा प्रदान करने वाली संस्था न बनाकर, एक ऐसी व्यावहारिक संस्था का रूप देना चाहिए जिसमें किशोर विद्यार्थी शिक्षकों को अपना मित्र समझे, स्वयं अनुशासन (Self discipline) में रहना सीखे, उत्तम जीवन मूल्यों व जीवन लक्ष्यों का निर्धारण करे तथा समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों को समझे, परन्तु जब किशोरों को विद्यालयों में उपयुक्त वातावरण नहीं मिलता तथा विद्यालय के पास उनके लिए पर्याप्त कार्यक्रम नहीं होते हैं और बाहर की दुनिया उन्हें अधिक आकर्षक लगती है तो अपराध की दुनिया में उनका पहला कदम उठता है-विद्यालय से भाग खड़े होने का अर्थात् भगोड़ापन (Truancy)। किशोरों में भगोड़ेपन को रोकने के लिए विद्यालयों को ऐसे सुनियोजित एवं व्यावहारिक कार्यक्रम बनाने चाहिए जिससे समाज व विद्यालय के मूल्यों में टकराव न हो तथा शिक्षकों एवं विद्यार्थियों के सम्बन्ध मधुर एवं प्रजातान्त्रिक हों।

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प्रश्न 5.
किशोर अवस्था में बढ़ती हुई जिज्ञासा और अपूर्ण ज्ञान किस प्रकार बेचैनी उत्पन्न करता है?
उत्तर:
बढ़ती हुई जिज्ञासा और अपूर्ण ज्ञान (Increased curiosity and inadequate knowledge): इस अवस्था में काम (sex) संबंधी अनेक भावनाएँ उत्पन्न होने के कारण, शारीरिक परिवर्तनों के कारण, संबंधों में बदलाव के कारण, बच्चों में अपने संबंध में अनेक जिज्ञासाएँ होती हैं। उन जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए उनको कोई औपचारिक शिक्षा (formal education) नहीं मिलती इसलिए अपनी काम (sex) संबंधी जानकारी के लिए वह घनिष्ठ मित्रों से बात करते हैं।

घनिष्ठ मित्रों से उनकी बातचीत का विषय प्रेम, प्यार, सच्चा प्यार, लैंगिक-संबंध, लैंगिक-क्रियाएं, लैंगिक परिपक्वता लैंगिक-आकर्षण, रजःस्राव, शिश्न (penis), वासना इत्यादि होता है। अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए कुछ ऐसे खेल भी खेलते हैं जिसमें लैंगिक संतुष्टि मिलती हो जैसे चुंबन लेना (Kiss)। उनकी बढ़ी हुई जिज्ञासा और अपूर्ण ज्ञान उनमें बेचैनी उत्पन्न करता है और उनके संबंधों में अनेक ऐसे परिवर्तन लाता है जो लैंगिक असंतुष्टि उत्पन्न करते हैं, जैसे दीवानापन। उनकी लैंगिक असंतुष्टि शारीरिक स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती है, जैसे उनमें भूख न लगना, नींद न आना आदि।

समय से उनकी जिज्ञासाएँ शांत हो जाएं, उनके स्वास्थ्य पर लैंगिक परिपक्वता बुरा प्रभाव छोड़ने के बजाय अच्छा प्रभव छोड़े इसके लिए आवश्यक है कि उपयुक्त समय पर उन्हें यौन-संबंधी शिक्षा तथा नैतिक शिक्षा प्रदान की जाए। सिर्फ यौन-संबंधी शिक्षा प्रदान करने से उनमें कामुकता की जागृति होती है अत: नैतिक शिक्षा द्वारा वे जागृत कामुकता पर नियंत्रण कर सकारात्मक कार्यों में स्वयं ही अपना ध्यान लगा कर अपराधी होने से बच सकते हैं। इस प्रकार उन्हें अपराधी बनने से पहले ही उचित निर्देशन देकर प्रजातांत्रिक ढंग से नियन्त्रित कर उन्हें उत्तम नागरिक बनाया जा सकता है क्योंकि निवारण ही इलाज से ज्यादा बेहतर है (Prevention is better than cure)

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 7 किशोरों को कुछ विशेष आवश्यकताएँ

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 7 किशोरों को कुछ विशेष आवश्यकताएँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

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वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतवर्ष एक देश है –
(क) विकसित देश
(ख) विकासशील देश
(ग) अर्द्ध-विकासशील देश
(घ) पिछड़ा
उत्तर:
(ख) विकासशील देश

प्रश्न 2.
पूर्व किशोरावस्था में लड़के को प्रतिदिन आवश्यक कैलोरी चाहिए –
(क) 2190
(ख) 2060
(ग) 1640
(घ) 2070
उत्तर:
(क) 2190

प्रश्न 3.
पूर्व किशोरावस्था में लड़कियों को आवश्यक कैलोरी चाहिए –
(क) 2450
(ख) 2660
(ग) 2640
(घ) 1970
उत्तर:
(घ) 1970

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प्रश्न 4.
पूर्व किशोरावस्था को प्रभावित करने वाले कारक हैं –
(क) 5
(ग) 6
(घ) 7
उत्तर:
(घ) 7

प्रश्न 5.
संतुलित आहार (Balance Diet) मिलता है – [B.M.2009A]
(क) दूध में
(ख) माँस
(ग) सोयाबीन में
(घ) पालक में
उत्तर:
(क) दूध में

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरावस्था की विशेष आवश्यकताओं से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर-किशोरावस्था जीवनकाल का वह महत्त्वपूर्ण हिस्सा है जिसमें जटिल समस्याओं के समाधान हेतु कुछ महत्त्वपूर्ण विशेष आवश्यकताएँ होती हैं।

प्रश्न 2.
किशोरावस्था की आवश्यकताओं में लड़के और लड़कियों में अन्तर क्यों होता है ?
उत्तर:
किशोरावस्था में लड़के और लड़कियों में कई भौतिक अन्तर स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं तथा इनमें कई आन्तरिक अन्तर भी आ जाते हैं जिससे उनकी शारीरिक आवश्यकताओं में भिन्नता आ जाती है।

प्रश्न 3.
किशोरावस्था में लड़के और लड़कियों में शारीरिक वृद्धि में क्या भिन्नता होती है ?
उत्तर:
लड़कों में लड़कियों की अपेक्षा बढ़ोत्तरी अधिक समय तक होती रहती है। लड़कियों में वृद्धि सामान्यत: 15 वर्ष की आयु तक समाप्त हो जाती है परन्तु लड़कों में इस आयु में बढ़ोत्तरी और तीव्र हो जाती है।

प्रश्न 4.
किशोरों में निम्न पोषण के मुख्य कारण क्या हैं ?
उत्तर:
किशोरों में निम्न पोषण के मुख्य कारण हैं-निर्धनता, अज्ञानता एवं परम्परागत भोजन सम्बन्धी आदतें, मानसिक अस्थिरता आदि।

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प्रश्न 5.
किशोरों के लिए प्रतिदिन व्यायाम करना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
व्यायाम करने से मांसपेशियाँ क्रियाशील रहती हैं व उनकी कार्य करने की क्षमता बढ़ जाती है तथा आलस्य एवं निष्क्रियता दूर होती है और स्फूर्ति उत्पन्न होती है।

प्रश्न 6.
किशोरावस्था में मनोरंजन का क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
किशोरावस्था में मनोरंजन से व्यक्तित्व का विकास होता है तथा मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है।

प्रश्न 7.
माता-पिता द्वारा किशोरों को समझना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
किशोरावस्था में किशोरों को अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक व सामाजिक समस्याएँ घेरती हैं जिनका उचित समाधान करना आवश्यक है। इसलिए माता-पिता द्वारा किशोरों को समझना आवश्यक है।

प्रश्न 8.
किशोरावस्था में होने वाले कुपोषण के दो प्रमुख कारण लिखें।
उत्तर:
किशोरावस्था अत्यन्त तीव्र व आकस्मिक गति से वृद्धि होने का काल है। इस कारण यदि उचित व पौष्टिक भोजन न मिले तो प्रायः किशोर कुपोषण के शिकार हो जाते हैं। कुपोषण के दो प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:

  • तीव्र वृद्धि के कारण बढ़ती हुई आवश्यकताएँ सामान्य आहार द्वारा पूरी न हो पाना ।
  • दिनचर्या नियमित न होने के कारण निश्चित समय पर भोजन न कर पाना ।

प्रश्न 9.
किशोरावस्था में आहार में लोहे की मात्रा को क्यों बढ़ाया जाना चाहिए?
उत्तर:
ऊतकों के निर्माण एवं रक्त की बढ़ोत्तरी के लिए लोहे की आवश्यकता किशोरावस्था में वयस्कों की अपेक्षा अधिक होती है। शारीरिक वृद्धि हेतु अतिरिक्त ऊर्जा चाहिए और ऊर्जा उत्पत्ति के लिए रक्त की ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता अधिक होनी चाहिए । ऑक्सीजन ले जाने की क्षमता हीमोग्लोबिन की मात्रा पर निर्भर करती है जो एक प्रकार का लोहे का यौगिक होता है।

प्रश्न 10.
“किशोरावस्था में पोषण” से तात्पर्य समझाएँ।
उत्तर:
किशोरावस्था में तीव्र विकास एवं वृद्धि के कारण आहार में पर्याप्त व गुणात्मक पोषक तत्त्वों का दिया जाना “किशोरावस्था में पोषण” कहलाता है।

प्रश्न 11.
किशोरावस्था में ऊर्जा की आवश्यकता क्यों बढ़ जाती है ?
उत्तर:
किशोरावस्था अत्यन्त तीव्र व आकस्मिक वृद्धि की अवधि है। शारीरिक वृद्धि एवं अधिक क्रियाशीलता के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

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प्रश्न 12.
शारीरिक व्यायाम करने से शरीर पर कौन-से दो प्रमुख प्रभाव पड़ते हैं ?
उत्तर:
शारीरिक व्यायाम करने से शरीर पर निम्नलिखित दो प्रभाव पड़ते हैं
(क) पुष्टिकर प्रभाव-नियमित रूप से व्यायाम करने से मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं।
(ख) सुधारात्मक प्रभाव-व्यायाम से मानसिक थकान कम होती है, अनुचित आसन की आदत में सुधार होता है।

प्रश्न 13.
किशोरावस्था में संतुलित आहार की प्राप्ति न होने के दो मुख्य कारण लिखें।
उत्तर:
किशोरावस्था तनाव व तूफान का काल माना जाता है। इसमें संतुलित आहार न मिलने के दो कारण निम्नलिखित हैं :

  • तीव्र वृद्धि स्फुरण के कारण शरीर की पौष्टिक आवश्यकताएँ बढ़ जाती हैं और उसके अनुरूप भोजन नहीं मिल पाता।
  • पोषण सम्बन्धी अज्ञानता के कारण भी पोषण संतोषजनक नहीं होता।

प्रश्न 14.
किशोरावस्था में कुपोषण से बचने हेतु कौन-कौन-से दो मुख्य उपाय हैं ?
उत्तर:

  • किशोरावस्था में संतुलित आहार सम्बन्धी प्रशिक्षण देना।
  • वृद्धि स्फुरण के कारण बढ़ती हुई प्रोटीन, कैल्शियम सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उत्तम प्रोटीनयुक्त खाद्य पदार्थ सम्मिलित करना ।

प्रश्न 15.
किशोरावस्था में कैल्शियम अधिक मात्रा में क्यों दिया जाना चाहिए?
उत्तर:
किशोरावस्था में तीव्र वृद्धि के कारण हड्डियों के बढ़ने हेतु व दाँतों की पुष्टता के लिए व शारीरिक क्रियाओं के लिए अधिक मात्रा में कैल्शियम दिया जाना चाहिए। कैल्शियम की पूर्ति के साथ फॉस्फोरस की पूर्ति स्वतः ही हो जाती है।

प्रश्न 16.
किशोरावस्था में. उचित वृद्धि हेतु कौन-कौन-से दो मुख्य उपाय हैं ?
उत्तर:
किशोरावस्था में उचित वृद्धि हेतु दो महत्त्वपूर्ण कारक हैं :

  • सन्तुलित एवं पौष्टिक भोजन
  • उचित व्यायाम।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरों के लिए आहार योजना (Meal Planning) करते समय किन प्रमुख बातों का ध्यान रखना चाहिए?
उत्तर:
किशोरों के लिए आहार योजना करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए –

  • उन्हें उत्तम व सन्तुलित भोजन उपलब्ध कराना व उसका उत्तम स्वास्थ्य से सम्बन्ध का ज्ञान कराना अति आवश्यक है। सामान्य भार सन्तुलित आहार का सूचक है। यदि कुपोषण है तो मुरझाया हुआ चेहरा व आँखें स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु सुपोषण खिले हुए चेहरे का द्योतक है।
  • भोजन की पौष्टिकता पर विशेष ध्यान देना चाहिए। सभी वर्गों के पदार्थ बदल-बदल कर सम्मिलित किये जाने चाहिए।
  • वृद्धि स्फुरण के कारण बढ़ती हुई हड्डियों के लिए उत्तम प्रोटीन व दूध से बने पदार्थ सम्मिलित किये जाने चाहिये।
  • भोजन करने का समय नियमित रखना चाहिए।
  • तलना, भूनना व मिर्च मसालों का प्रयोग कम करना चाहिए।

प्रश्न 2.
भारतवर्ष में किशोरों के निम्न पोषण स्तर (Nutrition level) के क्या
मारतवर्ष एक विकासशील देश है। बढ़ती जनसंख्या के कारण खाद्यान्न प्रति व्यक्ति उपलब्ध नहीं हो पाते। को ज

किशोरों का पोषण स्तर निम्न होने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –

  • निर्धनता के कारण सन्तुलित आहार का उपलब्ध न होना।
  • पोषण सम्बन्धी अज्ञानता के कारण व परम्परागत कई त्रुटिपूर्ण भोजन सम्बन्धी रीति-रिवाजों के कारण आवश्यकतानुसार पोषण तत्त्व न मिल पाना।
  • दिनचर्या नियमित न होने के कारण उचित समय पर भोजन न ग्रहण कर पाना।
  • मानसिक अस्थिरता एवं चिड़चिड़ेपन के कारण सन्तुलित आहार ग्रहण करने में असमर्थता।
  • लड़कियों के स्थूल होने के भय से ‘डायटिंग’ की प्रथा जिसमें पौष्टिक पदार्थों विशेषतः दूध का समावेश न करना।
  • मानसिक तनावों व भावनात्मक दबावों के कारण पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता में बढ़ोत्तरी होना व उनके अनुरूप पोषक तत्त्व ग्रहण न कर पाना।

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प्रश्न 3.
किशोरावस्था में निर्देशन (Guidance) का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
1. निर्देशन (Guidance):

1. व्यक्तिगत निर्देशन (Personal Guidance): किशोर की व्यक्तिगत समस्याओं की खोज और समाधान से सम्बन्धित निर्देशन ।

2. सामूहिक निर्देशन (Group Guidance): यह सामूहिक क्रिया है जिसका मुख्य उद्देश्य समूह में प्रत्येक व्यक्ति को इस प्रकार व्यक्तिगत सहायता पहुँचाना होता है कि वह अपनी समस्याओं को सुलझा सके और समायोजन स्थापित कर सके। कई बार कोई समस्या एक किशोर की नहीं बल्कि पूरे समूह की होती है। तब इस प्रकार के निर्देशन की आवश्यकता होती है।

3. शैक्षिक निर्देशन (Educational Guidance): वह सहायता जो किशोरों को इसलिए प्रदान की जाती है कि वे अपने लिए उपयुक्त विद्यालय, पाठ्यक्रम, पाठ्य-विषय तथा अन्य क्रियाओं का चयन कर सकें और उनसे समायोजन स्थापित कर सकें।

4. व्यावसायिक निर्देशन (Occupational Guidance): वह निर्देशन जिसके द्वारा किशोर अपने लिए उपयुक्त व्यवसाय का चुनाव कर पाता है, उसके लिए तैयारी करता है और उस व्यवसाय में प्रवेश करके उन्नति करता है।

5. स्वास्थ्य निर्देशन (Health Guidance): स्वास्थ्य निर्माण तथा उसकी रक्षा के लिए दिया गया निर्देशन जिसका पालन करके किशोर शारीरिक ही नहीं, मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है।

प्रश्न 4.
मनोरंजन और व्यायाम का क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
मनोरंजन और व्यायाम (Entertainment and Exercise) पूर्व किशोरावस्था के आरम्भ तक बालक काफी खेलता-कूदता है और उसी से उसका पर्याप्त व्यायाम हो जाता है, परन्तु धीरे-धीरे वह एकांतप्रिय तथा साथी-समूह से दूर होता जाता है जिसके कारण उसके खेल-कूद में भारी कमी आ जाती है। इससे उसका शारीरिक ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य भी बिगड़ सकता है। अत: उन्हें इसके लिए प्रेरित किया जाना आवश्यक है।

स्वयं को. सम्मिलित करके उनके आत्मविश्वास को दृढ़ किया जा सकता है। साधारणतया लड़कियों के रजःस्राव के कारण वे मानसिक रूप से खिन्न तथा चिंतित हो जाती हैं और बाहर निकल कर अपने साथीसमूह में मिलकर खेलों में भाग नहीं ले पातीं और स्वयं को एकान्त में कैद करने की कोशिश करती हैं। उचित मार्ग प्रशस्त करके तथा उनकी सुविधाओं का आवश्यकतानुसार ध्यान रखकर उन्हें इस तनाव की स्थिति से बाहर निकालने में माता तथा शिक्षिका का अद्भुत योगदान हो सकता है।

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खेल के द्वारा व्यायाम होता है इसमें कोई शंका नहीं, परन्तु सक्रिय खेल ही व्यायाम करा पाते हैं। निष्क्रिय या मन बहलाव के खेल ज्यादा श्रम नहीं कराते तथा उनमें बालक कम से कम गतियाँ करके न्यूनतम ऊर्जा खर्च करता है । अतः उन्हें सक्रिय खेलों में भाग लेने के लिए उत्साहित किया जाना चाहिए। इसके लिए सबसे अच्छा उपाय उन्हें उनके मनपसंद कार्य में संलग्न कर देना है जैसे कुछ किशोरों को बाजार जाकर वयस्कों की भाँति खरीदारी करना आदि।

प्रश्न 5.
मनोरंजन के कोई तीन स्रोतों का वर्णन करें जो आपको सबसे अधिक रुचिकर लगते हैं।
उत्तर:
जिस प्रकार शारीरिक विकास के लिए उचित व्यायाम महत्त्वपूर्ण है ठीक उसी प्रकार मानसिक, सामाजिक एवं संवेगात्मक विकास के लिए स्वस्थ मनोरंजन आवश्यक है। मनोरंजन सभी के लिए अनिवार्य है और किशोरावस्था में इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है क्योंकि बिना मनोरंजन के सन्तुलित व्यक्तित्व को बनाये रखना सम्भव नहीं। किशोरों के लिए मनोरंजन का अर्थ पूर्णतया बदल जाता है । वही खेल तथा कार्यकलाप जो बाल्यावस्था में आनंददायी होते थे अब बचकाने तथा समय नष्ट करने वाले बन जाते हैं। उनकी मनोरंजन सम्बन्धी रुचियाँ भी बदल जाती हैं। इस अवस्था में मनोरंजन के तरीके बदल जाते हैं।

मनोरंजन जिनमें अधिक शक्ति व्यय होती है के स्थान पर ऐसे मनोरंजन पसंद किये जाने लगते हैं जिनमें खिलाड़ी निष्क्रिय दर्शक होता है। मनोरंजन के तीन स्रोत जो अधिक रुचिकर लगते हैं वे हैं पढ़ना, सिनेमा और रेडियो व टेलीविजन सुनना व देखना आदि। पढ़ने में लड़कियाँ रोमांस वाली व लड़के विज्ञान और आविष्कारों की पुस्तकें एढ़ना पसन्द करते हैं। प्रेमप्रधान, साहसिक तथा हँसी-मजाक वाले सिनेमा पसन्द किये जाते हैं। रेडियो व टेलीविजन.सबसे प्रिय मनोरंजन का साधन बन गये हैं क्योंकि ये सभी आर्थिक स्थिति के लोगों के लिए सुविधापूर्ण मनोरंजन के साधन हैं।

प्रश्न 6.
माता-पिता को अपने किशोर बच्चों को समझना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
माता-पिता को अपने किशोर बच्चों को समझना अति आवश्यक है ताकि उसका विकास सही दिशा में हो और उसका व्यक्तित्व एक संतुलित व्यक्तित्व बन सके। किशोरों की समस्याओं का समाधान केवल तभी सम्भव है जब माता-पिता उनकी समस्याओं को समझें तथा उनके समाधान में सहायता करें। कई बार माता-पिता की नासमझी किशोर को पथभ्रष्ट भी कर सकती है क्योंकि वे अपनी समस्याओं के समाधान हेतु किसी गलत व्यक्ति की भी सलाह ले सकते हैं। यदि माता-पिता अपने किशोर की रुचियों एवं विश्वासों को भली प्रकार जान लें तो उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना की जा सकती है।

यदि बच्चे की विज्ञान में रुचि नहीं है तो उसे विज्ञान लेने के लिए कभी भी बाध्य नहीं करना चाहिए। माता-पिता उनकी अभिवृत्तियों को प्रोत्साहित करके उनकी योग्यताओं और कुशलताओं में वृद्धि कर सकते हैं। माता-पिता के लिए यह आवश्यक है कि वह किशोरों के मित्रों के बारे में पूर्ण जानकारी रखें। उस गुट की भी पूर्ण जानकारी रखें जिसमें किशोर उठता-बैठता है और अपने अवकाश का समय बिताता है। किशोर अपराध को रोकने के लिए माता-पिता को अपने किशोरों की आवश्यकताओं को समझना अति आवश्यक है।

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प्रश्न 7.
पूर्व किशोरावस्था (Early Maturity) में माता-पिता के प्रति किशोर किस प्रकार का व्यवहार करता है ?
उत्तर:
नव किशोर का अपने माता-पिता के प्रति आरम्भ में मधुर सम्बन्ध नहीं होता। नव किशोर माता-पिता द्वारा ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं करता जैसे उसके बचपन में वे उससे करते रहे हैं। माता-पिता यदि किशोर की आवश्यकताओं या समस्याओं को ठीक प्रकार से न समझें तो किशोर माता-पिता को चिढ़ाने वाली सभी करतूतें करता है।

जैसे-सबसे तर्क करना, सबकी बातों की नुक्ताचीनी करते रहना, कर्त्तव्यों का पालन न करना, माता-पिता की आज्ञाओं का उल्लंघन करना आदि। इस कारण माता-पिता उसे टोकते हैं, या बिना सजा दिये स्वीकार नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप किशोरावस्था में संघर्ष और अधिक बढ़ जाता है। माता-पिता व नवकिशोर के सम्बन्ध तनावपूर्ण हो जाते हैं। परन्तु यदि अभिभावक समझदारी का रवैया अपनाएँ तो किशोरों की उन्नति का :मार्ग स्वयं ही प्रशस्त हो जाता है।

प्रश्न 8.
भोजन नियंत्रण के कारण किशोर में हुई दो कठिनाइयों के बारे में बताइए। अत्यधिक भार को कम करने के लिए किशोर को दो उपाय समझाइए।
उत्तर:

  • ऊर्जा का ह्रास (Loss of Energy)
  • कमी के रोग (Defficiency Disease)
  • तनाव (Depression)।

सुझाव (Suggestion)

  • संतुलिता 4769 (Balanced Diet)
  • व्यायाम (Exercise)।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
किशोरावस्था में व्यायाम के महत्त्व को समझाएं।
उत्तर:
किशोरावस्था तीव्र व असमान वृद्धि की अवधि है जिसमें शरीर अत्यन्त तीव्र गति से बढ़ोत्तरी करता है। अतः इस अवस्था में व्यायाम का महत्त्व भी बढ़ जाता है। आधुनिक युग में जब हाथों द्वारा कम व मशीनों द्वारा अधिक काम किया जाता है, तब उचित व्यायाम द्वारा ही शारीरिक स्वस्थता को बनाये रखा जा सकता है। शारीरिक व्यायाम तीन प्रभावों के कारण जीवन में महत्त्व रखता है –
(क) पुष्टिकर प्रभाव
(ख) सुधारात्मक प्रभाव
(ग) विकासात्मक प्रभाव (Health Effect)

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(क) पुष्टिकर प्रभाव: नियमित रूप से व्यायाम करने से शरीर के समस्त अंग समान रूप से पुष्ट होते हैं। शरीर में शीघ्र ऊष्मा उत्पन्न होने के कारण रक्त प्रवाह में तीव्रता आती है। तन्तुओं को ऑक्सीजन अधिक मात्रा में मिलते हैं, परिणामस्वरूप मांसपेशियों में दृढ़ता आती है। इतना ही नहीं पाचन संस्थान, शक्ति संस्थान शक्तिशाली होता है जिससे भोजन के पाचन, अवशोषण और निष्कासन में तीव्रता आती है।

(ख) सुधारात्मक प्रभाव (Improvemental Effect): व्यायाम से मानसिक थकान कम होती है। अनुचित आसन की आदत में सुधार होता है। व्यायाम से अनुचित शरीर जैसे कन्धों का झुका होना, पैर की हड्डी का झुकाव इत्यादि में सुधार लाया जा सकता है।

(ग) विकासात्मक प्रभाव (Developmental Effect): निरन्तर व्यायाम से चहुँमुखी विकास पर प्रभाव पड़ता है। शारीरिक वृद्धि सामान्य होती है, मानसिक शक्ति बढ़ती है, इच्छाओं पर नियन्त्रण होता है और व्यक्ति नियमों का पालन कर अनुशासित होकर जीना सीखता है।

प्रश्न 2.
किशोरावस्था को कितने भागों में बाँटा जा सकता है ? – [B.M. 2009A]
उत्तर:
से 18 वर्ष के बीच के अवस्था को किशोरावस्था कहते हैं। हर व्यक्ति के जीवन में अवस्था सर्वाधिक मा.त्वपूर्ण होती है। जी स्टेनेल हॉल ने इसे तूफान और तनाव की अवस्था कहा है। किशोरावस्था के अध्ययन करने के लिए इसे तीन अवधियों में बाँटा जा सकता है।

  • पूर्व किशोरावस्था
  • मध्य किशोरावस्था
  • उत्तर किशोरावस्था

1. पूर्व किशोरावस्था-पूर्व किशोरावस्था 12 से 15 वर्ष की आयु की व्युवटि पिरीयड कहते है इस अवधि में शारीरिक परिवर्तन शुरू होता है क्या किशोर इन परिवर्तन के कारण सजग हो जाते है। इस अवस्था में हार्मोनल परिवर्तन के कारण लैंगिक परिपक्वता आरंभ होती है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का विकास तीव्र गति से होता है। यही कारण कि वे लड़कों के मुकाबले बड़ी होती है।

पूर्व किशोरावस्था को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं –

  • अंत:स्रावी ग्रंथियों की क्रियाएँ
  • अनुवांशिक
  • पोषक एवं स्वास्थ्य
  • सामाजिक स्तर,
  • आर्थिक स्तर,
  • क्षेत्र का तापमान
  • व्यक्तिगत भिन्नता

2. मध्य किशोरावस्था: 15 से 16 वर्ष की आयु को मध्य किशोरावस्था कहते हैं। इस अवस्था में हो रहे परिवर्तन को जल्दी स्वीकार नहीं किया जाता है। इस अवस्था को. ‘टिन्स’ अवस्था भी कहते हैं। टीन्स अवस्था में हो रहे परिवर्तन का असर किशोरों की सोच सामाजिक संबंध पर पड़ता है। यह उनके नए व्यक्तित्व की नींव का आधार बनता है।

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3. उत्तर किशोरावस्था: इस अवस्था में किशोर की आयु 16 से 18 वर्ष की होती है तथा परिवर्तन लगभग पूर्ण हो जाते हैं। इस आयु में सभी प्रकार के विकास, शारीरिक मानसिक, संवेगात्मक विकास एक साथ चलते हैं। 16 से 18 वर्ष की आयु को ‘सुनहरी अवस्था’ भी कहतें हैं। लड़कियों के परिपक्व होने की अधिकतम आयु सीमा 18 वर्ष एवं लड़कों की 21 वर्ष निध रिक्त की गई है।

प्रश्न 3.
किशोरावस्था की दैनिक पौष्टिक आवश्यकताएँ क्या हैं?
उत्तर:
किशोरावस्था की दैनिक पौष्टिक आवश्यकताएँ निम्नलिखित हैं:

किशोरावस्था की. दैनिक पौष्टिक आवश्यकताएँ –
(Daily Nutritional Requirement of Adolescent)
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1. ऊर्जा की आवश्यकता (Requirement of Energy): किशोरावस्था में शारीरिक वृद्धि एवं अधिक क्रियाशीलता के लिए अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। 13-14 वर्ष के लड़कों को 2450 कैलोरी तथा 16-18 वर्ष के लड़कों को 2640 कैलोरी की आवश्यकता होती है। लड़कियों को लड़कों की अपेक्षा कम ऊर्जा की आवश्यकता होती है। किशोर लड़कियों को केवल 2060 कैलोरी की आवश्यकता होती है।

2. प्रोटीन की आवश्यकता (Requirement of Protein): किशोरावस्था में प्रोटीन की आवश्यकता अत्यधिक होती है। 13-15 वर्ष के लड़कों को 70 ग्राम तथा 16-18 वर्ष के लड़कों को 78 ग्राम प्रोटीन की आवश्यकता होती है। 13-15 वर्ष की लड़कियों के लिए 65 ग्राम प्रोटीन की आवश्यकता होती है, जो 16-18 वर्ष की लड़कियों के लिए घट कर 63 ग्राम हो जाती है।

3.विटामिनों की आवश्यकता (Requirement of vitamins): ‘बी’ समूह के विटामिनों के अतिरिक्त अन्य विटामिनों की आवश्यकता किशोरों को वयस्कों के समान होती है। किशोरावस्था में कैलोरी की मात्रा बढ़ने के कारण थायमिन, राइबोफ्लेविन एवं निकोटिनिक अम्ल की आवश्यकता बढ़ जाती है।

4. खनिज लवणों की आवश्यकता (Requirement of Minerals): किशोरावस्था में लड़के और लड़कियाँ दोनों के लिए कैल्शियम की आवश्यकता अधिक होती है। हड्डियों के बढ़ने, दांतों की पुष्टता और अनेक शारीरिक क्रियाओं के लिए उचित मात्रा में कैल्शियम की प्राप्ति अनिवार्य है। ऐसा विश्वास किया गया है कि किशोरों में मानसिक द्वन्द्व एवं तनावों के कारण शरीर में कैल्शियम संचित नहीं हो पाता है। अतः आहार में प्रतिदिन कैल्शियमयुक्त पदार्थ सम्मिलित करना अति आवश्यक है।

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13-15 वर्ष के किशोरों को 600 मिग्रा कैल्शियम तथा 1618 वर्ष के किशोरों को 500 मिग्रा कैल्शियम की आवश्यकता होती है। कैल्शियम की पूर्ति के साथ फास्फोरस की पूर्ति स्वतः हो जाती है। न किशोरावस्था में ऊतकों के निर्माण एवं रक्त की बढ़ोत्तरी के लिए लोहे की आवश्यकता वयस्कों से अधिक होती है।

किशोर लड़के को लड़कियों की अपेक्षा अधिक लोहे की आवश्यकता होती है क्योंकि इनमें शारीरिक वृद्धि तीव्र गति से होती है। 13-15 वर्ष के लड़कों को 41 मिग्रा. तथा 16-18 वर्ष के लड़कों को 50 मिग्रा. लोहे की आवश्यकता होती है। इसी प्रकार 13-15 वर्ष की लड़कियों को 28 मिग्रा. तथा 16-18 वर्ष की लड़कियों को 30 मिग्रा. लोहे की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 4.
मनोरंजन द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण कैसे होता है ?
उत्तर:
मनोरंजन द्वारा व्यक्तित्व का निर्माण (Personality development through entertainment)

  1. मनोरंजन द्वारा मानसिक संतुष्टि मिलती है जिससे व्यक्ति अपने तनावों इत्यादि को भूलता है।
  2. शारीरिक खेलों द्वारा मनोरंजन करने से शारीरिक व्यायाम भी हो जाता है।
  3. कार्य करने की नई शक्ति तथा क्षमता मिलती है।
  4. मनोरंजन द्वारा अपने मित्रों, बड़ों तथा छोटों से सम्बन्ध बनाने में सहायता मिलती है।
  5. मानसिक खेलों जैसे चेस (Chess) आदि द्वारा मनोरंजन करने से मानसिक व्यायाम हो . जाता है।
  6. विषमलिंगियों से सम्बन्ध बनाने में सहायता मिलती है।
  7. मनोरंजन के लिए किताबें पढ़ने, टी.वी. देखने, अखबार पढ़ने तथा रेडियो सुनने से ज्ञान भी बढ़ता है।
  8. मनोरंजन की विभिन्न स्थितियों द्वारा विभिन्न लोगों से मिलना-जुलना तथा समाज के नियमों और कानूनों जैसे चौराहे पर लाल बत्ती (Red light) को जानने का अवसर मिलता है।
  9. अकेले रहकर मनोरंजन करनेवाले किशोरों को एकांत की महत्ता का ज्ञान होता है और वे कम आयु में अधिक विचारने वाले और अधिक दार्शनिक प्रवृत्ति के हो जाते हैं।
  10. मनोरंजन से किशोरों की कुंठाएं (Frustration) दूर होती हैं और वे फिर से अपनी सामान्य अवस्था में आ जाते हैं।
  11. मनोरंजन किशोरों के बहुमुखी विकास के लिए एक महत्त्वपूर्ण टॉनिक (Tonic) का कार्य करता है।

प्रश्न 5.
शारीरिक व्यायाम का शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
शारीरिक व्यायाम का प्रभाव (Effect of Physical exercise):
(क) पुष्टिकर प्रभाव
(ख) सुधारात्मक प्रभाव
(ग) विकासात्मक प्रभाव

(क) पुष्टिकर प्रभाव (Health Effect): नियमित रूप से व्यायाम करने से शरीर के समस्त अंग समान रूप से पुष्ट होते हैं। इससे शरीर में शीघ्र ही ऊष्मा उत्पन्न हो जाती है। हृदय गति तीव्र हो जाती है। इस प्रकार रक्त प्रवाह में तीव्रता आ जाती है। समस्त शरीर के तन्तुओं को ऑक्सीजन और ग्लाइकोजन अधिक मात्रा में प्राप्त होता रहता है। परिणामस्वरूप मांसपेशियों में दृढ़ता आती है।

व्यायाम करते समय श्वास की गति तेज हो जाती है जिससे फेफड़े अधिक स्वस्थ रहते हैं और शरीर की शक्ति में वृद्धि होती है। शरीर अधिक मात्रा में श्वसन द्वारा ऑक्सीजन ग्रहण करता है तथा अशुद्धियों का कार्बन डाइऑक्साइड के रूप में निष्कासन करता है। व्यायाम से पाचन संस्थान शक्तिशाली होता है, पाचन शक्ति बढ़ती है तथा शरीर के मल निष्कासन में सहायता मिलती है और अपच, कब्ज आदि रोग दूर हो जाते हैं।

(ख) सुधारात्मक प्रभाव (Improvement Effect): व्यायाम से मानसिक थकान कम होती है, अनुचित आसन की आदत में सुधार होता है और शारीरिक विकृतियों जैसे झुके कन्धे, रीढ़ की हड्डी का झुकाव व चपटे पैर आदि में पूर्णतः सुधार लाया जा सकता है।

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(ग) विकासात्मक प्रभाव (Development Effect): निरन्तर नियमित रूप से व्यायाम करने से मांसपेशियों के आकार तथा शक्ति में विकास होता है और मांसपेशियों पर इच्छा-शक्ति का नियंत्रण बढ़ जाता है।

व्यायाम सम्बन्धी कुछ नियम (Laws of Exercise):
व्यायाम सम्बन्धी निम्नलिखित नियमों का पालन करना आवश्यक है –

  • व्यायाम ऐसा होना चाहिए जिससे शरीर के समस्त अंग जिन्हें विकास की आवश्यकता हो, समान रूप से लाभ उठा सकें।
  • व्यायाम धीरे-धीरे सरल से कठिन की ओर करने चाहिए । अत्यन्त कठिन व्यायाम नहीं करने चाहिए क्योंकि इससे हृदय पर जोर पड़ने का भय पाता है। व्यायाम की मात्रा धीरे-धीरे नित्य प्रति बढ़ानी चाहिए।
  • व्यायाम करने के कम-से-कम एक घण्टा पश्चात् पसीना सूखने पर स्नान अवश्य करना चाहिए । पसीना सूखने पर त्वचा पर मैल जमा रह जाता है जिसे स्वच्छ करना अत्यन्त आवश्यक
  • व्यायाम नियमित रूप से खुले हवादार स्थान में करना चाहिए जिससे फेफड़ों में शुद्ध वायु द्वारा ऑक्सीजन अधिक मात्रा में पहुँचे।
  • अस्वस्थ व्यक्तियों को व्यायाम नहीं करना चाहिए।
  • व्यायाम के बाद थोड़ी देर आराम करना आवश्यक है।
  • मानसिक कार्य करने वालों को हल्के व्यायाम करने चाहिए जैसे टेनिस, फुटबॉल, बॉलीवल आदि खेलना उनके लिए उचित व्यायाम है।
  • व्यायाम करने से पूर्व भोजन नहीं करना चाहिए या भोजन करने के तुरत बाद व्यायाम नहीं करना चाहिए।
  • व्यायाम करने का सर्वोत्तम समय प्रात:काल का है। सायंकाल खेलकूदों में भाग लेकर व्यायाम किया जा सकता है।
  • व्यायाम हर आयु के व्यक्ति के लिए भिन्न होना चाहिए। बालकों, किशोरों, प्रौढ़ों तथा वृद्धों का व्यायाम अलग-अलग प्रकार का होना चाहिए। किशोर बालकों तथा प्रौढ़ों की अपेक्षा तेज व्यायाम कर सकते हैं।

प्रश्न 6.
माता-पिता द्वारा किशोरों को समझे जाने की आवश्यकता क्यों है ?
उत्तर:
माता-पिता द्वारा समझे जाने की आवश्यकता (Understanding of Parents)किशोरों के पूर्ण व्यक्तित्व के विकास के लिए यह अति आवश्यक है कि माता-पिता उसे भली प्रकार समझें और उसके विकास में सहायक हों।

1. माता-पिता द्वारा किशोरों की समस्याओं को समझना (Understanding the problems of adolescents by the parents): किशोरों की समस्याओं का समाधान केवल तभी सम्भव है जब माता-पिता उनकी समस्याओं को समझें तथा उनके समाधान में सहायता करें।

किशोरावस्था में किशोरों को अनेक प्रकार की शारीरिक, मानसिक व सामाजिक समस्याएँ घेरती हैं जिनका उचित समाधान करना आवश्यक है। माता-पिता ही अपने बच्चों के सबसे बड़े शुभचिन्तक होते हैं और वे ही उनकी समस्याओं को भली प्रकार समझकर उनका समाधान निकाल सकते हैं। कई बार माता-पिता की नासमझी के कारण किशोर अपनी समस्याओं के समाधान हेतु गलत व्यक्तियों का सहरा लेते हैं और अनेक उलझनों में फंस जाते हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 7 किशोरों को कुछ विशेष आवश्यकताएँ

2. माता-पिता को किशोरों के मित्रों व उसके समूह को समझना (Understanding the friends and their group of adolescents): माता-पिता के लिए आवश्यक है कि वह किशोरों के मित्रों के बारे में पूर्ण जानकारी रखें तथा उस गुट की भी जानकारी रखें जिसमें किशोर उठता-बैठता है और अपने अवकाश का समय बिताता है । कई बार किशोर गलत मित्रों का चयन करके अनेक असामाजिक तत्त्वों से प्रभावित हो जाते हैं जिससे उनमें अपराध की प्रवृत्ति आती है। किशोर-अपराध को रोकने के लिए माता-पिता को अपने किशोरों की आवश्यकताओं को समझना अति आवश्यक है।

3. माता-पिता द्वारा किशोरों की रुचियों, अभिवृत्तियों एवं विश्वासों को समझना (Understanding the interest, taste and confidence of adolescents): माता-पिता को अपने किशोर बच्चों की रुचियों एवं विश्वासों को भली प्रकार समझना बहुत आवश्यक है क्योंकि इन्हीं के आधार पर किशोर अपने भविष्य का निर्माण करता है।

कई बार माता-पिता बिना सोचे-समझे किशोरों के भविष्य के बारे में ऐसे निर्णय ले लेते हैं जो उनकी रुचियों, अभिवृत्तियों आदि से भिन्न होते हैं जिससे किशोरों के सामने समायोजन की समस्याएँ आती हैं। उदाहरण के लिए कई बार विज्ञान में रुचि न होते हुए भी माता-पिता की नासमझी के कारण बच्चे को विज्ञान पढ़ना पड़ता है जिससे किशोर कक्षा में पिछड़ा हुआ रहता है तथा हीनभावना से ग्रस्त भी हो सकता है।

माता-पिता को किशोरों की शारीरिक, मानसिक व सामाजिक आवश्यकताओं की जानकारी प्राप्त करके उन्हें उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु ऐसा घर व वातावरण प्रयुक्त करवाना चाहिए जिसमें परिवार के सदस्यों में परस्पर स्नेह, मैत्री, सभी के अधिकारों व आवश्यकताओं को समझने की क्षमता हो, जिससे उनके व्यक्तित्व का विकास हो सके। घर ऐसा होना चाहिए जिसमें प्रजातांत्रिक वातावरण तथा माता-पिता के मध्य उचित समायोजन हो।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 6 वैयक्तिक भिन्नताएँ

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 6 वैयक्तिक भिन्नताएँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 6 वैयक्तिक भिन्नताएँ

Bihar Board Class 11 Home Science वैयक्तिक भिन्नताएँ Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
बाल्यावस्था के विकास की कितनी अवस्थाएँ हैं। [B.M.2009A]
(क) तीन
(ख) पाँच
(ग) चार
(घ) दो
उत्तर:
(ग) चार

प्रश्न 2.
‘पीढ़ियों का अंतर’ किस अवस्था में अधिक प्रभावित करता है –
(क) बाल्यावस्था
(ख) वृद्धावस्था में
(ग) किशोरावस्था में
(घ) प्रौढ़ावस्था में
उत्तर:
(ग) किशोरावस्था में

प्रश्न 3.
वैयक्तिक भिन्नता के मुख्य कारक हैं –
(क) दो
(ख) एक
(ग) चार
(घ) छ:
उत्तर:
(क) दो

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प्रश्न 4.
गुणसूत्र में होता है –
(क) R.N.A.
(ख) D.N.A
(ग) Rh factor
(घ) Nucleus
उत्तर:
(ख) D.N.A

प्रश्न 5.
पुरुष में गुणसूत्र होते हैं –
(क) X
(ख) XY
(ग) XP
(घ) XT
उत्तर:
(ख) XY

प्रश्न 6.
मानव में रक्त समूह की संख्या होती है –
(क) दो
(ख) चार
(ग) छः
(घ) तीन
उत्तर:
(ख) चार

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
वैयक्तिक भिन्नताएँ से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
वैयक्तिक भिन्नताएँ (Individual differences) वे भिन्नताएँ हैं जिनके कारण एक ही समूह के सदस्य एक-दूसरे से शारीरिक, मानसिक व सामाजिक गुणों में भिन्न होते हैं।

प्रश्न 2.
व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार क्या हैं ?
उतर:
व्यक्तिगत भिन्नताएँ (Individual differences) के आधार:

  • वंशानुक्रम (Heredity)।
  • वातावरण (Environment)

प्रश्न 3.
आनुवंशिकता (Heredity) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
यह माता-पिता की विषमताओं को बच्चों में अवतरण करने की प्रक्रिया है। गुण सूत्र में उपस्थित जीन माता-पिता की विशेषताओं के अवतरण के लिए उत्तरदायी हैं।

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प्रश्न 4.
समलिंगीय किशोरों के विकास में दो भिन्नताओं के नाम बताएँ।
उत्तर:

  • शीघ्र परिपक्व होने वाले किशोर (Early maturers)।
  • देर से परिपक्व होने वाले किशोर (Late Maturers)।

प्रश्न 5.
वातावरण (Environment) को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
हमारे आस-पास जो कुछ भी है, उसे वातावरण कहते हैं। माता-पिता, भाई-बहन, दादा-दादी, मित्र, पड़ोसी, अध्यापक, भौतिक वस्तुएँ आदि सभी वातावरण के अवयव हैं।।

प्रश्न 6.
वातावरण की भिन्नताओं के आधार कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर:
परिवार (Family), साथी (Pear), विद्यालय (School), सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर (Socio-cultural heritage)।

प्रश्न 7.
किशोर-किशोरी को क्या-क्या सुविधाएँ व अवसर मिलेंगे यह किस बात पर निर्भर करता है ?
उत्तर:
किशोर-किशोरी को सुविधाओं व अवसर का मिलना उसके परिवार के आर्थिक स्तर या सामाजिक वर्ग पर निर्भर करता है।

प्रश्न 8.
व्यक्तिगत भिन्नता के मुख्य आधार हैं ?
उत्तर:
व्यक्तिगत भिन्नता के प्रमुख आधार आनुवंशिकता और वातावरण हैं।

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प्रश्न 9.
माता-पिता के गुण बच्चों में कैसे आते हैं ?
उत्तर:
माता-पिता के गुण बच्चों में ‘जीन्स’ के द्वारा आते हैं जो गुणसूत्रों में उपस्थित होते हैं।

प्रश्न 10.
बच्चे के लिंग निर्धारण का उत्तरदायी कौन होता है ?
उत्तर:
बच्चे के लिंग निर्धारण का उत्तरदायी नर (पिता) है।

प्रश्न 11.
शीघ्र परिपक्व होने वाले किशोर समाज के साथ अधिक समायोजित क्यों होते हैं?
उत्तर:
यौवनारम्भ शीघ्र होने के कारण इनका बाल्यकाल तो छोटा हो जाता है परन्तु किशोरावस्था लम्बी हो जाती है। अतः इन्हें समाज के साथ समायोजन के लिए अधिक समय मिल जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
आनुवंशिक गड़बड़ी (Heredity Disorders) को स्पष्ट करें।
उत्तर:
कई प्रकार के रोग व अवगुण माता-पिता से बच्चों को विरासत में मिलते हैं, जैसे हीमोफीलिया, मधुमेह, गठिया आदि।

प्रश्न 2.
शीघ्र तथा देर से आने वाली परिपक्वता (Maturity) से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
जब गोनैडों के असामान्य विकास के कारण यौवनारंभ होने में विलम्ब हो जाता है, उसे देर से आने वाली परिपक्वता कहते हैं। जब गोनैडों की अति क्रियाशीलता से यौवनारंभ समय से पूर्व आता है तो उसे शीघ्र आने वाली परिपक्वता कहते हैं।

प्रश्न 3.
माता-पिता के गुण बालकों में कैसे आते हैं ? समझाइए।
उत्तर:
बालकों में माता-पिता के गुण (Qualities): मानव शरीर अनेक कोशिकाओं से मिलकर बना है। माता व पिता के अण्डाणु व शुक्राणु की कोशिका में जो केन्द्रक (Nucleus) होता है, उनमें गुणसूत्र पाए जाते हैं। उन्हीं पर बहुत-से बिंदु, जिन्हें हम जीन्स कहते हैं, पाए जाते हैं। ये ही विभिन्न गुणों को माता-पिता से बालकों तक भेजते हैं। जब अण्डाणु व शुक्राणु का मेल होता है तो दोनों के केन्द्रक आपस में मिल जाते हैं। इसी मेल में जो जीन्स अधिक ताकतवर हो जाते हैं, उनके गुण बालकों के व्यक्तित्व का निर्धारण करते हैं। यह मिलन अनेक संयोजनों (Combination) की संभावना रखता है।

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प्रश्न 4.
शीघ्र तथा विलम्ब से होने वाली परिपक्वता से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
शीघ्र तथा विलम्ब से होने वाली परिपक्वता (Early and late maturers): विकास की दर में भिन्नता होने के कारण कुछ किशोर शीघ्र परिपक्व हो जाते हैं तो कुछ किशोर देर से परिपक्व होते हैं। किशोरावस्था में विकास की दर बहुत कुछ यौन परिपक्वता पर निर्भर करती है क्योंकि यौन परिपक्वता के साथ किशोर की शारीरिक विकास की गति का सीधा सम्बन्ध है। जिन किशोर बालकों में यौन परिपक्वता शीघ्र आती है उनका शारीरिक गठन, ऊँचाई एवं भार उन किशोरों की अपेक्षा भिन्न होता है जिनमें यौन परिपक्वता देर से आती है।

शीघ्र परिपक्व होने वाले किशोर लड़कों का शारीरिक आकार जैसे कूल्हे चौड़े और टांगें छोटी होती हैं जबकि देर से परिपक्व होने वाले किशोर लड़कों का शारीरिक आकार पतला, कंधे चौड़े और टांगे लम्बी होती हैं। इसका मुख्य कारण है कि देर से परिपक्वता प्राप्त करने वाले किशोरों की वृद्धि प्रायः अनियमित और असंयमित होती है, जबकि शीघ्र परिपक्वता प्राप्त करने वाले किशोरों की वृद्धि अधिक नियमित होती है और अंगों की वृद्धि में भी कम असन्तुलन होता है।

प्रश्न 5.
समलिंगियों एवं विषमलिंगियों की भिन्नताओं में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
समलिंगियों एवं विषमलिंगियों में भिन्नताएँ (Interdifference between same sex and opposite sex)-प्रायः विकास के सभी पहलू जैसे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक व संवेगात्मक में समलिंगियों एवं विषमलिंगियों में भिन्नताएँ पायी जाती हैं। शारीरिक परिपक्वता की आयु में विभिन्नताएँ अंत:स्रावी ग्रन्थियों की क्रियाओं की भिन्नताओं के कारण होती हैं। अंत:स्रावी ग्रन्थियों पर भी व्यक्ति की आनुवंशिकता, बुद्धि तथा उसके सामान्य स्वास्थ्य का प्रभाव पड़ता है।

मानवीय विकास का क्रम बिना टूटे लगातार चलता रहता है। गर्भाधान के क्षण से लेकर मरने तक परिवर्तन निरन्तर होते रहते हैं। इन परिवर्तनों की गति कभी धीमी होती है और कभी तेज होती है। विकास के क्रम के अन्दर शारीरिक और मानसिक विकास में गहरा सम्बन्ध होता है। एक ही आयु एवं लिंग के व्यक्तियों के शारीरिक एवं मानसिक विकास में भिन्नता होती है। सभी व्यक्तियों में विकास का क्रम एक-सा होता है परन्तु उनमें विकास की गति भिन्न होती है।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
वैयक्तिक भिन्नताओं के दो कारण क्या हैं ? इनकी सूची बनाएँ।
उत्तर:
वैयक्तिक भिन्नताओं के दो मुख्य कारण हैं –
1. आनुवंशिकता
2. वातावरण या परिवेश।

1. आनुवंशिकता (Heredity): वैयक्तिक भिन्नताओं का पहला कारक है, आनुवंशिकता, जिसका सम्बन्ध जन्मजात विशेषताओं और लक्षणों से है। ये वे गुण हैं जो माता-पिता से बच्चों को मिलते हैं। शरीर की बनावट, आंख, त्वचा का रंग, ऊँचाई, मानसिक गुण जैसे, मानसिक योग्यता और निपुणता विरासत में मिलते हैं।

2. वातावरण/परिवेश (Environment): वातावरण अर्थात् समस्त बाह्य शक्तियों, प्रभावों और परिस्थितियों का सामूहिक प्रभाव जो व्यक्ति के जीवन, स्वभाव, व्यवहार, अभिवृद्धि, विकास तथा प्रौढ़ता पर पड़ता है। वस्तुतः वातावरण में वह सभी कुछ सम्मिलित हैं, जिनका व्यक्ति के मानसिक, नैतिकता व आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्ध है।

इसमें व्यक्ति विशेष का आहार, आस-पास का वातावरण, रहने का स्थान, परिवार और साथियों से परस्पर क्रिया-प्रतिक्रिया, अनुभव व उपलब्ध अवसर, विद्यालय तथा सामाजिक वर्ग सम्मिलित हैं। जन्मजात गुण परिवेश के बिना विकसित नहीं होते और कितना भी अच्छा परिवेश क्यों न हो वह आनुवंशिक गुणों को पैदा नहीं कर सकता।

प्रश्न 2.
अपने वातावरण (Environment) के चार कारक लिखें जिससे आप अच्छा कार्य-प्रदर्शन (Performance) कर पाएँ।
उत्तर:
व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में परिवेश या वातावरण का प्रमुख स्थान है। आनुवंशिकता के साथ यदि उचित वातावरण न मिले तो उच्चतम सीमा तक नहीं पहुंचा जा सकता है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। अच्छे कार्य-प्रदर्शन हेतु उचित वातावरण अति आवश्यक है।

  • पौष्टिक आहार की उपलब्धि (Availability of Nutritous food): आहार का शारीरिक परिपक्वता व वृद्धि पर अत्यन्त प्रभाव पड़ता है। पौष्टिक आहार से स्वास्थ्य का स्तर ऊँचा हो जाता है जो अच्छे कार्य प्रदर्शन के लिए अति आवश्यक है।
  • परिवार का सहयोग (Co-operation of the family): माता-पिता का सहयोग, प्रेम व व्यवहार अच्छे कार्य प्रदर्शन हेतु अति आवश्यक है। स्वतंत्रता के गुणों के प्रदर्शन हेतु सही मार्गदर्शन व माता-पिता का प्रोत्साहन एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • विद्यालय का प्रभाव (Influence of School): जो व्यक्ति शिक्षाकाल में बच्चों के साथ सम्पर्क स्थापित करते हैं, उनका प्रभाव कशोर पर काफी गहरा पड़ता है। विद्यालय में वे सभी वस्तुएँ सम्मिलित हैं जो किशोर के समुचित विकास के लिए आवश्यक हैं। पुस्तकालय, संघ, गोष्ठियाँ आदि किशोर में स्वस्थ प्रतियोगिता विकसित करते हैं जो अच्छे कार्य प्रदर्शन के लिए अत्यन्त आवश्यक हैं।
  • साथीसमूह (Peer group): किशोर के साथी जो प्रायः उसके साथ उठते-बैठते, खेलते कूदते हैं, उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव डालते हैं। अच्छी संगति किशोर को अच्छे कार्य प्रद नि हेतु प्रोत्साहित करती है, व काफी हद तक उत्तरदायी भी है।

प्रश्न 3.
व्यक्तिगत भिन्नता का महत्त्वपूर्ण कारण जीन्स हैं। संक्षेप में लिखिा’
उत्तर:
जीन्स-हर गुण के लिए अलग जीन्स होते हैं, जैसे आँख, बाल, त्वचा, लम्बाई, ड्राई, चेहरे की बनावट, बुद्धि, सृजनात्मकता व अन्य गुण। जिस समय दोनों (अंडाणु और शुक्राए। के केन्द्रकों का मिलन होता है उस समय जो संयोजन जीन्स का बनता है उसी के अनुरूप शिर् का व्यक्तित्व बनता है। इसी कारण भाई-बहन भी आपस में मिलते हैं क्योंकि उन्हें उन्हीं माता – रता के जीन्स प्राप्त होते हैं पर संयोजन में थोड़ा-सा अन्तर हो जाता है (कलाईडियोस्कोप जैसे)। वह आपस में मिलते-जुलते हैं पर बिल्कुल एक नहीं होते हैं। वैयक्तिक भिन्नता का यही एक महत्त्वपूर्ण कारण है।

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प्रश्न 4.
शीघ्र परिपक्व होने वाले किशोर और देर से परिपक्व होने वाले किशोर में क्या अन्तर हैं ?
उत्तर:
शीघ्र परिपक्व होने वाले किशोर (Early Maturers):

  • हमउम्र समलिंगियों से बड़े दिखाई देते हैं।
  • शारीरिक वृद्धि एवं विकास के लिए अपेक्षाकृत कम समय मिलता है।
  • इनकी बाल्यावस्था छोटी तथा किशोरावस्था लम्बी होती है।
  • इन्हें प्रौढ़ जीवन की तैयारी के लिए अधिक समय मिलता है और प्रौढ़ावस्था में यह अपने दायित्व अच्छी तरह निभाते हैं।
  • इनमें यौन परिपक्वता शीघ्र आती है।

देर से परिपक्व होने वाले किशोर (Late Maturers):

  • हमउम्र समलिंगियों से छोटे दिखाई देते हैं।
  • शारीरिक वृद्धि एवं विकास के लिए अपेक्षाकृत अधिक समय मिलता है।
  • इनकी बाल्यावस्था बड़ी तथा किशोरावस्था छोटी होती है।
  • इन्हें प्रौढ़ जीवन की तैयारी के लिए कम समय मिलता है। यह अधिक समय तक बच्चे बने रहते हैं।
  • इनमें यौन परिपक्वता देर से आती है।

प्रश्न 5.
वंशानुक्रम नियम क्या है ? विस्तार से लिखिए।
उत्तर:
वंशानुक्रम नियम (Laws of heredity) वंशानुक्रम के कुछ सामान्य नियम निर्धारित किये जा सकते हैं, जो इस प्रकार हैं
(क) समान समान को ही जन्म देती है
(ख) भिन्नता का नियम और
(ग) प्रत्यागमन।

(क) समान समान को जन्म देती है (Like begets like): इस नियम से तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार के माता-पिता होते हैं, उसी प्रकार की उनकी सन्तान होती है। बुद्धिमान माता-पिता के बच्चे बुद्धिमान, सामान्य बुद्धिवाले माता-पिता की संतान मन्दबुद्धि वाले होती है। इसी प्रकार गोरे रंग के माता-पिता के बच्चे गोरे और श्याम रंग के माता-पिता के बालक श्याम रंग के होते हैं।

इस नियम को हम पूर्ण रूप से सत्य मानकर नहीं चल सकते क्योंकि इसके भी अपवाद मिलते हैं। यह देखा गया है कि कभी-कभी गोरे रंग के माता-पिता की संतान काली होती है और काले माता-पिता की गोरे रंग की सन्तान होती है। इस अनियमितता और अपवाद के कारणों की व्याख्या वंशानुक्रम के दूसरे भिन्नता के नियम द्वारा की गई है।

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(ख) भिन्नता का नियम (Laws of Variation): बच्चे अपने माता-पिता की सच्ची प्रतिकृति नहीं हुआ करते। वे अपनी आकृति और बनावट में माता-पिता से कुछ-न-कुछ भिन्न – अवश्य होते हैं। इस भिन्नता का कारण माता-पिता के बीज-कोषों की विशिष्टताएँ हुआ करती हैं। बीज-कोषों के अन्दर पित्राक या जीन्स होते हैं जो विभिन्न संयोजनों में मिलते हैं तथा आपस . में भिन्न होने के कारण ऐसी संतानों को जन्म देते हैं जो आपस में भिन्न होती हैं।

एक ही माता-पिता के बालक में भिन्न-भिन्न पित्राक-संयोजन के कारण उनमें आपस में। भिन्नता आ. जाती हैं। यह भी देखा गया है कि एक ही माता-पिता कभी गोरी सन्तान और कभी काली सन्तान को जन्म देते हैं। गोरेपन और कालेपन का निश्चय पित्राकों के संयोग से होता है। भिन्नता का नियम हमें यह बतलाता है कि एक ही परिवार के बालकों में शारीरिक, मानसिक और रंग-रूप की भिन्नता क्यों है, किन्तु यह निश्चित है कि वे आपस में अधिक समानता रखते हैं।

(ग) प्रत्यागमन (Regression): सारेनसन के अनुसार “प्रतिभाशाली माता-पिता के कम प्रतिभाशाली सन्तान होने की प्रवृत्ति और निम्न कोटि के माता-पिता के कम निम्न कोटि की सन्तान होने की प्रवृति ही प्रत्यागमन है।” प्रकृति में कुछ ऐसा नियम है कि वह प्रत्येक गुण (Trait) को सामान्य रूप में प्रकट करना चाहती है इसलिए एक प्रतिभाशाली माता-पिता की सन्तान में ‘सामान्य बुद्धि’ की ही प्रवृत्ति के गुण पाये जाएंगे। इससे तात्पर्य यह नहीं है कि सदैव ही सब प्राणियों में ‘प्रत्यागमन’ होता है किन्तु यह प्रवृत्ति पाई जाती है : यह तो प्रायः देखा जाता है कि अत्यन्त मेधावी माता-पिता की संतान उतनी मेधावी नहीं होती है। प्रत्यागमन के कारण इस प्रकार हैं

1. माता-पिता जो अत्यन्त प्रतिभाशाली होते हैं, उनके अन्दर अपने पितरों से प्राप्त बीजकोषों का संयोग होता है जो उन्हें प्रतिभा सम्पन्न बना देता है। पिता के सर्वोतम गुण (Best Trait) जब माता के सर्वोत्कृष्ट गुण वाहक पित्राकों से मिलते हैं तो प्रतिभा सम्पन्न बालक का जन्म होता है परन्तु इस प्रकार उत्पन्न प्रतिभावान माता-पिता में सामान्य अथवा न्यून कोटि के बीजकोष होते हैं जो उस संयोग की अपेक्षा जिससे उनका जन्म हुआ, हीन होते हैं, अत: इन माता-पिता के संयोग से बालक उत्पन्न होते हैं जिनमें निम्न कोटि के गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है।

2. प्रतिभावान माता अथवा पिता का दूसरे ऐसे व्यक्ति से समागम होता है जिसमें उसी के समान प्रतिभा उत्पादक तत्त्व नहीं होते तो इस समागम में उस प्रकार के उत्कृष्ट बीजकोषों का मेल नहीं हो सकता जैसा कि दो प्रतिभावान व्यक्तियों के संयोग से होता है। फलस्वरूप बालक उतना प्रतिभावान नहीं होगा।

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प्रश्न 6.
विषमलिंगीय किशोरों के विकास में क्या भिन्नताएँ पायी जाती हैं ?
उत्तर:
विषमलिंगीय किशोरों के विकास में भिन्नताएँ (Inter differences between opposit sex): किशोर एवं किशोरियों के विकास में भी अनेक भिन्नताएँ पाई जाती हैं जो कि उनके विकास दर में भिन्नताओं के कारण होती हैं।

किशोर लड़कियाँ (Adolescent Girls)

  • किशोर लड़कियों में विकास की दर आरम्भ में तीव्र होती है जो कुछ समय पश्चात् धीमी हो जाती है।
  • लड़कियों में पतली आवाज बदलकर भरी हुई और सुरीली हो जाती है। स्वर परिवर्तन लड़कों की अपेक्षाकृत स्वर में भारीपन आ जाता है।
  • लड़कियों को पूर्ण रूप से परिपक्व होने में लगभग तीन वर्ष तक का समय लगता है।
  • किशोर लड़कियों में यौन परिपक्वता शीघ्र आती है जिसके कारण उनका लड़कों के प्रति आकर्षण जल्दी होता है।
  • प्रारम्भिक किशोरावस्था में लड़कियाँ अपनी आयु के लड़कों से बड़ी दिखाई देती हैं।
  • उत्तर किशोरावस्था में आते-आते लड़कियाँ विकसित हो जाती हैं और अपनी आयु के लड़कों से अपेक्षाकृत छोटी लगने लगती हैं।

किशोर लड़के (Adolescent Boys)

  • किशोर लड़कों में विकास की दर आरम्भ में धीमी होती है जो बाद में तीव्र हो जाती है।
  • लड़कों में किशोरावस्था में आरम्भ में स्वर में परिवर्तन आने लगते हैं। उनके कम होता है।
  • लड़कों को पूर्ण रूप से परिपक्व होने में लगभग दो से चार वर्ष तक का समय लगता है।
  • किशोर लड़कों में यौन परिपवक्ता देर से आती है। प्रायः किशोरावस्था के अन्त में लड़के लैंगिक रूप से परिपक्व होते हैं।
  • प्रारम्भिक किशोरावस्था में लड़के अपनी आयु की लड़कियों से छोटे दिखाई देते हैं।
  • किशोरावस्था में लड़के पूर्ण रूप से विकसित हो जाते हैं और अपना शारीरिक रूप व गठन प्राप्त कर लेते हैं।

प्रश्न 7.
व्यक्तियों में वातावरण किन आधारों से बनता है ?
उत्तर:
वातावरण (Environment): डारविन के सिद्धान्त ने यह बताया है कि वातावरण के अनुकूल अपने को व्यवस्थित करने के प्रयास में प्राणियों में कुछ स्वाभाविक शारीरिक परिवर्तन आ जाते हैं। ये परिवर्तन एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में संक्रमित होते हैं और दृढ़ होते हैं। कालान्तर में जीव का स्वरूप अपने मौलिक रूप से एकदम भिन्न हो सकता है। साधारण बोलचाल की भाषा में हम वातावरण का अर्थ अपने चारों तरफ की परिस्थितियों से लगाते हैं।

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डगलस (Dougles) और हालैण्ड (Holland) ने अपनी पुस्तक “एजूकेशनल साइकोलॉजी” में वातावरण शब्द की व्याख्या इस प्रकार की है-“वातावरण वह शब्द है जो समस्त बाह्यशक्तियों, प्रभावों और परिस्थितियों का सामूहिक रूप से वर्णन करता है, जो जीवधारी के जीवन, स्वभाव, व्यवहार, अभिवृद्धि विकास और प्रौढ़ता पर प्रभाव डालता है।”

वस्तुतः वातावरण के अन्तर्गत वह सभी कुछ सम्मिलित हैं जिनका व्यक्ति के मानसिक, नैतिक व आध्यात्मिक जीवन से सम्बन्ध है। किसी भी व्यक्ति के वातावरण के निम्नलिखित संघटक होते हैं, जो व्यक्तिगत भिन्नताओं के आधार हैं –

  • परिवार (Family)
  • साथी (Peer)
  • विद्यालय (School)
  • पास-पड़ोस (Neighbourhood)।

इन सबसे मिलकर ही व्यक्ति को सर्वांगीण विकास के लिए उचित मानसिक वातावरण (Mental Environment) तथा सामाजिक दायरा प्राप्त होता है।

मानसिक वातावरण (Mental Environment): बालक कुछ सहज योग्यताएँ लेकर जन्म लेता है। यदि उसे अनुकूल वातावरण के द्वारा कोई उपयुक्त उद्दीपन नहीं प्रदान किया जाता तो वे योग्याताएँ अपने प्राकृत स्वरूप में विकसित होती हैं। यद्यपि एक व्यक्ति की शारीरिक रचना, जैसे-लम्बाई, ठिगनापन आदि उसके वंशानुक्रम से निर्धारित होती हैं किन्तु यदि वे गन्दे वातावरण में कार्य करता है, जहाँ उसके शरीर को स्वस्थ वायु नहीं मिलती तो उसकी जीवन शक्ति के मर्म पर आघात होता है।

इसी प्रकार से बालक में किसी भी प्रकार की सम्भावनाएँ और योग्यताएँ क्यों न हों, जब तक उसे उचित मानसिक वातावरण नहीं मिलेगा वह उनका समुचित विकास नहीं कर सकता है। मानसिक वातावरण से हमारा तात्पर्य उन सभी परिस्थितियों से है जिनमें बालक का वांछित विकास हो सके और जो उसके मन पर प्रभाव डाल सके। एक छोटा परिवार जिसमें माता-पिता अपने बच्चों को प्यार करते हैं और उनकी सभी समस्याओं को दूर करने का प्रयत्न करते हैं बच्चों के व्यक्तित्व के विकास के लिए उत्तम मानसिक वातावरण प्रदान करते हैं।

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माता-पिता के पारस्परिक सम्बन्धों, आचरणों एवं विचारों का प्रभाव भी बच्चों पर पड़ता है। टूटे हुए परिवारों, माता-पिता के झगड़ों आदि का बच्चों के व्यक्तित्व पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विद्यालय के वातावरण का भी बच्चे पर बहुत प्रभाव पड़ता है। विद्यालय की वे सभी वस्तुएँ मानसिक वातावरण के अन्तर्गत आती हैं जिनसे बच्चे का समुचित विकास होता है।

बच्चे के समुचित विकास के लिए विद्यालय को बच्चे के शारीरिक विकास हेतु उचित वातावरण (खेलकूद, व्यायाम आदि) का प्रबन्ध करना चाहिए तथा मानसिक विकास के लिए उचित ‘मानसिक वातावरण का प्रबन्ध पुस्तकालय, प्रयोगशालाएँ, संघ या गोष्ठी द्वारा बच्चों में स्वस्थ प्रतियोगिता की भावना पैदा की जा सकती है।

प्रत्येक शिक्षण संस्थान को अपने विद्यार्थियों के लिए एक स्वस्थ उपयुक्त मानसिक वातावरण प्रदान करना बहुत आवश्यक है क्योंकि केवल इसी से बच्चों का पूर्ण विकास सम्भव है। मानसिक वातावरण पर बच्चे के साथियों एवं पास-पड़ोस का प्रभाव भी पड़ता है। जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, वह घर के बाहर पास-पड़ोस में तथा विद्यालय में साथी बनाता है। इन साथियों का समूह बनता है जो प्रायः आपस में एक साथ उठते-बैठते व खेलते हैं।

एक समूह में नियमित सदस्यों के अतिरिक्त एक नेता होता है जो समूह का नेतृत्व करता है। इन समूहों का उनके सदस्यों के व्यक्तित्व पर गहरा प्रभाव पड़ता है। विद्यालय में भी बच्चे का जो समूह होता है उसका उसके व्यक्तित्व पर प्रभाव पड़ता है। कई बार गलत संगति में पड़कर बच्चा कई असामाजिक कार्यों में भी फंस सकता है और उसमें अपराध की प्रवृत्ति प्रबल हो जाती है। इसके विपरीत जिन बच्चों को अच्छा समूह और अच्छे साथी मिल जाते हैं, वे अपने जीवन में सफल होते हैं।

सामाजिक धरोहर (Social Heritage): किसी समाज की प्राचीन एवं अर्वाचीन संस्कृति ही उस सामाजिक समुदाय की धरोहर कहलाती है। वही उसकी सामाजिक सम्पत्ति होती है। यह सामाजिक धरोहर जाति की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तान्तरित होती रहती है, किन्तु यह माता-पिता के बीजकोषों द्वारा संक्रमित न होकर रीति-रिवाजों, परम्पराओं, भाषा, साहित्य, शिष्टाचार और जातीय दर्शन द्वारा होती है।

किसी भी जाति की सामाजिक धरोहर उसके लिए गर्व का विषय होती है। जाति की प्रत्येक पीढ़ी इसे आगामी पीढ़ी में संक्रमित करती है और अपने सामाजिक जीवन को उनके अनुरूप बनाने की चेष्टा करती है, किन्तु इस हस्तान्तरण में प्रत्येक पीढ़ी में उस सामाजिक धरोहर में कुछ-न-कुछ और जुड़ जाता है।इस प्रकार संस्कृत का विकास होता रहता है और हर पीढ़ी के योगदान से उस जाति की संस्कृति का विकास होता रहता है। संस्कृति समृद्धशाली बनती है जो पुनः आगे की पीढ़ियों में संक्रमितहो जाती है।

व्यक्ति को सामाजिक धरोहर उसे उसके परिवार, शिक्षक अथवा साथियों द्वारा प्राप्त होती है। जिन बच्चों को उनके माता-पिता व शिक्षकों द्वारा उत्तम सांस्कृतिक दृष्टिकोण के कारण अपनी संस्कृति की वीरतापूर्ण गाथाएँ, साहित्य एवं कविताओं का ज्ञान प्राप्त होता है उनका व्यक्तित्व, उन बच्चों की अपेक्षा जिन्हें अपनी सांस्कृतिक धरोहर अथवा सामाजिक धरोहर का ज्ञान प्राप्त नहीं होता, बहुत उत्तम व सन्तुलित होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

Bihar Board Class 11 Psychology संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
ज्ञानेन्द्रियों की प्रकार्यात्मक सीमाओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
परिवेशीय ज्ञान अर्जित करने वाले सहायक के रूप में हमारी पाँचों ज्ञानेन्द्रियों (आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा) के कार्य बहुत ही महत्वपूर्ण होते हैं। ये परिवेश से प्राप्त सभी प्रकार की संवेदनाओं को मस्तिष्क के विशिष्ट क्षेत्रों तक पहुंचाने का कार्य करती हैं, जहाँ संवेदनाओं की परिणामी व्याख्या की जाती है। हमारी ज्ञानेन्द्रियों की प्रकार्यात्मक सीमा पूर्व निर्धारित होती है। यह संवेदनाओं को अति उच्च एवं अति निम्न प्रखरता अथवा प्रबलता के कारण उन्हें ग्रहण नहीं कर पाती है।

अर्थात् ज्ञानेन्द्रियाँ कुछ सीमाओं में कार्य करने की क्षमता रखती है। जैसे हमारी आँख अति तीव्र प्रकाश से चमकने वाली वस्तुओं के सामने चकाचौंध में पड़कर स्पष्ट दृष्टि ज्ञान से वंचित रह जाती है तथा कम प्रकाश के कारण धूंधली आकृति वाली वस्तु को स्पष्टतः देख नहीं पाती है। दृष्टि की न्यूनतम दूरी 25 सेमी से नजदीक वाली वस्तु की देख पाने में असमर्थ हो जाती है। अतः ज्ञानेन्द्रियों के सफल उपयोग के लिए उद्दीपक में इस्टतम तीव्रता अथवा परिणाम का होना वांछनीय होता है।

मनोभौतिकी में संवेदनाओं तथा संवेदनग्राही के बीच के सम्बन्ध का अध्ययन करने की व्यवस्था रहती है। उद्दीपक का वह न्यूनतम मान या वचन जो किसी संवही तंत्र को क्रियाशील करने के लिए आवश्यक होता है उसे निरपेक्ष सीमा अथवा निरपेक्ष (A.L.) कहा जाता है। निरपेक्ष सीमा किसी निश्चित मान के रूप में प्रसारित नहीं की जा सकती है क्योंकि यह व्यक्तियों की आंतरिक दशाओं के आधार पर बदल भी सकते हैं। जैसे, चीनी के निश्चिन कणों क जल में मिलाने पर किसी व्यक्ति को वह मीठा प्रतीत होता है तो कुछ व्यक्तियों को मीठा का आभास भी नहीं होता है।

अत: उद्दीपकों (अथवा ज्ञानेन्द्रियों) के लिए प्रकार्यात्मक सीमा के लिए कोई सर्वमान्य पठन-संभव नहीं होता है। प्रकार्यात्मक सीमा के निर्धारण के लिए हमें परीक्षण के रूप में किये जाने वाले प्रयासों को कई बार प्रयुक्त किये जाने पर एक औसत मान के रूप में स्वीकार कर लेना होता है।

दो भिन्न उद्दीपकों के लिए प्रकार्यात्मक सीमा के मान में भिन्नता पाई जाती है जो उनकी पहचान बन जाती है जैसे, चुटकी भर नमक गलने का पानी खारा हो जाता है लेकिन उसी परिणाम में डाली गई चीनी का प्रभाव महसूस भी नहीं होता है। उद्दीपकों के लिए निर्धारित प्रकार्यात्मक सीमा का सही उपयोग तभी संभव होता है जब व्यक्ति के तंत्रिका तंत्र की प्रकृति का सही ज्ञान उपलब्ध नहीं होता है। ग्राही.अंग, तंत्रिका मार्ग, मस्तिष्क क्षेत्र का संरचनात्मक या प्रकार्यात्मक गुण-दोष के आधार पर ही ज्ञानेन्द्रियों के लिए प्रकार्यात्मक सीमा का निर्धारण उद्देश्यपूर्ण माना जाता है।

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प्रश्न 2.
प्रकाश अनुकूलन एवं तम-व्यनुकूलन का क्या अर्थ है? वे कैसे घटित होते हैं?
उत्तर:
प्रकाश पर आधारित दृष्टि नामक संवेदना हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होता है। दृष्टि के लिए दंड और शंकु दृष्टि के ग्राही माने जाते हैं जहाँ दंड के लिए निम्न तीव्रता वाला प्रकाश चाहिए तो शंकु की क्रियाशीलता उच्च तीव्रता वाले प्रकाश में सक्रिय होती है। प्रकाश अनुकूलन तथा तम-व्यनुकूलन चाक्षुष व्यवस्था के दो रोचक गोचर हैं। पिण्ड पर पड़नेवाले प्रकाश के परिमाण अथवा तीव्रता में आनेवाले आकस्मिक परिवर्तन या अन्तर को नेत्र तुरंत स्वीकार नहीं करता है।

खुले मैदान से बन्द कमरे में पहुंचते ही वस्तु ठीक-ठीक दिखाई नहीं पड़ता है जबकि कुछ देर बाद हम किताब पढ़ने लग जाते हैं। इस प्रकार अधिकार में बैठा व्यक्ति बल्ब के जला दिये जाने पर कुछ क्षण तक चकाचौंध के चक्कर में पड़ जाता है। उसे बल्ब के प्रकाश में कुछ भी देखने की क्षमता समाप्त होती हुई प्रतीत होती है। प्रकाश की तीव्रता के परिवर्तन का नेत्र स्नायु पर पड़ने वाले प्रभाव से जुड़ा यह (चाक्षुष अनुकूलन) प्रकाश अनुकूलन तथा तम-व्यनुकूलन है। प्रकाश की विभिन्न तीव्रताओं के साथ सर्मजन करने की प्रक्रिया को ‘चाक्षुष अनूकूलन’ कहते हैं।

1. प्रकाश अनुकूलन:
प्रकाश की तीव्रता के बढ़ जाने से उत्पन्न प्रभाव के साथ नेत्र स्नायु का सामयोजन करने की प्रक्रिया को प्रकाश अनुकूलन कहा जाता है। अंधकार से प्रकाश में आने पर इस प्रकार के समायोजन की आवश्यकता होती है। प्रकाश समायोजन की इस प्रकार की प्रक्रिया में लगभग एक से दो मिनट का समय लग जाता है।

2. तम-व्यनुकूलन:
प्रकाश की तीव्रता के हठात घट जाने से उत्पन्न प्रभाव के साथ नेत्र-स्नायु का समायोजन करने की प्रक्रिया को तम-व्यनुकूलन कहा जाता है। तीव्र प्रकाश के प्रभावन के बाद मंद प्रकाश वाले वातावरण से समायोजन की स्थिति हम-व्यनुकूलन का एक प्रमुख लक्षण है। इस श्रेणी के समायोजन में लगभग आधा घंटा का समय लग जाता है। चाक्षुष अनुकूलन (प्रकाश अनुकूलन तथा तम-व्यनुकूलन) के कारण-चाक्षुष अनुकूलन के भौतिक कारण पुतली के छिद्रों के बढ़ने या घटने से रेटीना पर पहुँचने वाले प्रकाश का परिमाण है।

तीव्र या मंद प्रकाश का किसी स्थायी स्थिति में नेत्र की पुतली का छिद्र प्राप्त होने वाले प्रकाश की तीव्रता के आधार पर अपना आकार निश्चित कर लेता है। प्रकाश की तीव्रता में द्रुत परिवर्तन होने से पुतली का बढ़ा छेद अधिक प्रकाश को भेजकर चकाचौंध की स्थिति ला देता है तथा पुतली का छोटा छेद कम प्रकाश पाने के कारण अंधकार की स्थिति उत्पन्न कर देता है। प्रकाश की तीव्रता की नई स्थिति में पुनः समायोजन की आवश्यकता हो जाती है जिसमें कुछ समय लग जाता है।

प्राचीन मत के अनुसार चाक्षुष अनुकूलन का कारण प्रकाश-रासायनिक प्रक्रिया है। दृष्टि पटल में स्थित प्रकाश संवदी कोशिकाओं से बना दण्ड (rods) एक प्रकाश संवदेनशील पदार्थ (रेडोप्सिन या चाक्षुष पर्पल) से युक्त होता है। प्रकाश के प्रभाव में आकर रोडोप्सिन के अणु टूट जाते हैं। इन दशाओं में प्रकाश अनुकूलन की क्रिया सम्पन्न होती है। प्रकाश की कमी होने पर विटामिन ‘ए’ की सहायता से दंडों में वर्णक पुनरुत्पादित करने हेतु पुनःस्थापन की प्रक्रिया चलने लगती है। इसी कारण विटामिन ‘ए’ की कमी से रतौंधी रोग हो जाते हैं। शंकुओं में आयडोप्सिन नामक रासायनिक पदार्थ पाये जाते हैं।

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प्रश्न 3.
रंग दृष्टि क्या है तथा रंगों की विमाएँ क्या हैं?
उत्तर:
परिवेश में देखी जाने वाली वस्तुओं की पहचान में उसका रंग एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। रंग हमारी संवेदी अनुभवों में एक विशिष्ट स्थान रखता है। रंग की पहचान तो नेत्रानुभव की बात है किन्तु उसे व्यक्त करने के लिए अलग-अलग रंगों के लिए उनके तरंगदैर्घ्य को बताना स्पष्ट परिचय देने में सहयोग करता है। बात है कि दृश्य वर्णपट का ऊर्जा परास 300-380 नैनोमीटर होता है जो विस्तृत क्षेत्र का सूचक हे। इस तुलना में हमारे नेत्र की क्षमता ही कम होती है।

दृश्य वर्णपट के रंगों के तरंगदैर्ध्य से कम या अधिक मान वाले तरंगदैर्घ्य वाली किरणें आँखों को नुकसान पहुंचा सकती है। जैसे अवरक्त किरणें तथा पराबैगनी किरणों के तरंगदैर्ध्य क्रमशः दृश्य किरणों से कम तथा अधिक होती है। सूर्य के प्रकाश में संयुक्त सात रंगों (वैनीआहपीनाला या VIBGYOR) को आधार मानकर हम वस्तुओं को विभिन्न रंगों से पहचानते हैं। रंग दृष्टि का सामान्य अर्थ है दृश्य किरणों, अवरक्त किरणों तथा पराबैगनी किरणों में अन्तर समझना तथा दृश्य वस्तुओं को देखकर उनके रंगों की व्याख्या करना या प्रभाव बतलाना।

प्रकाश की किरणों के रंगों में एक रोचक संबंध होता है। तीन मूल रंगों (लाल, नीला तथा पीला) से उत्पन्न अनेक रंगों (बैंगनी, आसमानी, हरा आदि) की उपस्थिति का भी प्रभाव हम पर पड़ता है। फोन से भेजे गये संदेशों के लिए उत्पन्न आवाज की प्रकृति तथा उसके रंग हमारे जीवन पद्धति में अन्तर कर सकते हैं। किसी वस्तु को ध्यान से देखने पर स्पष्ट हो जाता है कि रंगों की सही उपयोगिता क्या है? दृष्टि स्नायु के द्वारा ग्रहण किये गये प्रकाशीय अंश अपने रंगों के आधार पर रंग की विशेषताओं को व्यक्त करता है।

प्रश्न 4.
श्रवण संवेदना कैसे घटित होता है?
उत्तर:
श्रवण एक महत्त्वपूर्ण संवेदन प्रकारता है जहाँ ध्वनि कान के लिए उद्दीपक की उत्पत्ति बाह्य वातावरण में दाब विभिन्नता के कारण होती है। यह वायु में एक विशेष प्रकृति का विक्षोभ (बाधा) उत्पन्न करते हुए वायु अणुओं को आगे-पीछे करके दाब में परिवर्तन को जारी रखती है। सामान्य ध्वनि तरंग एकल रूप में दाब में अनुक्रमिक परिवर्तन करती है। ध्वनि तरंग शृंग तथा गर्न की रचना करते हुए फैलाता है।
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कुछ विशेष दशाओं में ध्वनि तरंगों का निर्माण मूल रूप से संपीडन और विसंपीडन (विरलन) के कारण होता है। संपीडन से विरलन पुनः विरलन से संपीडन की आवृत्ति के कारण वायु के दाब में पूर्ण परिवर्तन से एक तरंग चक्र का निर्माण होता है। श्रवण संवेदना के घटित होने का प्रमुख कारण श्रृंग, गर्त अथवा संपीडन-विरलन के द्वारा किये जाने वाला दाब-परिवर्तन को माना जा सकता है। ज्ञात है कि ये एकान्तर क्रम में सक्रिय होकर दाब परिवर्तन के द्वारा संवेदना के प्रभावित करते हैं जहाँ आवृत्ति तथा तरंगदैर्ध्य में प्रतिलोम संबंध होता है। इस घटना का सीधा संबंध ध्वनि की तीव्रता, तारत्व तथा स्वर विशेषता से होती है। आवृत्ति ध्वनि तरंगों के तारत्व को निर्धारित करता है।

श्रवण संवेदना तब प्रारम्भ होती है जब ध्वनि हमारे कान में प्रवेश करती है तथा सुनने के प्रमुख अंगों को उद्दीप्त करती है। कान श्रवण उद्दीपकों का प्राथमिक ग्राही होता है। पिन्ना ध्वनि कंपन को एकत्रित करके श्रवण द्वारा कर्ण पटल तक पहुँचाती है। टिम्पैनिक गुहिका में स्थित तीन छोटी-छोटी अस्तिकाओं (निहाई, टिकाव और हथोड़ा) को प्रभावित करते हुए ध्वनि तरंग आंतरिक कान तक पहुँच जाती है।

कॉक्लिया के द्वारा ग्रहण किया गया ध्वनि तरंग कंपन के रूप में अंतर्लसिका में गतिमान होता है जो कोर्ती अंक में उत्पन्न कंपन का कारण भी होता है। उत्पन्न कम्पन्न से श्रवण तंत्रिका और श्रवण वल्कुट भी प्रभावित होता है। इस प्रकार हमें श्रवण संवेदनाओं का स्पष्ट ज्ञान मिल जाता है ओर आवेग की व्याख्या करके संवाद को समझते हैं।

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प्रश्न 5.
अवधान को परिभाषित कीजिए। इसके गुणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अवधान की परिभाषा-दो या अधिक उद्दीपकों में से कुछ वांछनीय उद्दीपकों के चयन से संबंधित मानसिक प्रक्रिया को अवधान कहा जाता है। अतः अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए तत्परता दिखाता है। अवधान के गुण-अवधान की प्रमुख विशेषताएँ अथवा उसके गुण निम्नलिखित हैं –

  1. अवधान का संबंध तीन प्रमुख तत्वों सतर्कता, एकाग्रता तथा खोज से पूर्णत: स्थापित रहता है।
  2. अवधान का एक केन्द्र और एक किनारा होता है जहाँ जानकारी को क्रमशः केन्द्रित रूप में तथा धुंधले रूप में माना जाता है।
  3. अवधान का स्वरूप चयनात्मक होता है।
  4. अवधान में विभाजन का गुण होता है।
  5. अवधान में अस्थिरता तथा उच्चलन का गुण भी मन्मिाहत होता है।
  6. अवधान की विस्तृति सीमित होती है।
  7. अवधान में व्यक्ति की प्रेरणा तथा इच्छा का प्रमुख स्थान होता है।
  8. अवधान के दो रूप प्रमुख हैं-चयनात्मक तथा संधृत अवधान।
  9. अवधान के लिए आकस्मिक एवं तीव्र उद्दीपकों में ध्यानाकर्षण की अद्भुत क्षमता होती है।

प्रश्न 6.
चयनात्मक अवधान के निर्धारण का वर्णन कीजिए। चयनात्मक अवधान संधृत अवधान से किस प्रकार भिन्न होता है?
उत्तर:
चयनात्मक अवधान का सामान्य उद्देश्य उद्दीपकों में से कुछ उद्दीपकों का चयन करना होता है। किसी समय विशेष में हम सीमित संख्या में उद्दीपकों पर विशिष्ट ध्यान रख सकते हैं। उद्दीपकों में से कुछ को अधिक महत्त्व देकर चयन तथा प्रकरण करने के क्रम में निम्नलिखित निर्धारण प्रभावकारी कारक की भूमिका निभाते हैं। चयनात्मक अवधान को प्रभावित करने वाले कारक-सामान्य उद्दीपकों की विशेषताओं तथा संबंधित व्यक्तियों की दक्षता पर निर्धारक के दो रूप होते हैं –
(क) बाह्य कारक तथा
(ख) आंतरिक कारक

(क) बाह्य कारक (वस्तुनिष्ठ निर्धारक):

(i) आकार:
जो उद्दीपक आकार में बड़ा होता है व्यक्ति के अवधान में शीघ्रता से आ जाता है। यही कारण है कि समाचार-पत्रों में समाचार के मुख्य बिन्दुओं को बड़े आकार वाले अक्षरों के माध्यम से व्यक्त किया जाता है। ग्राहकों को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए बड़े नमूने बड़े साइनबोर्ड तथा बड़े दरवाजे का उपयोग किया जाता है।

(ii) उद्दीपन की तीव्रता:
द्युतिमान (चमकता हुआ) पिण्ड लोगों को सरलता से आकृष्ट कर लेते हैं। अधिक तीव्र उद्दीपन कम तीव्र उद्दीपन की अपेक्षा व्यक्ति का ध्यान जल्द और सरलता से अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। भिन्न-भिन्न रंगों वाले प्रकाश, नये चमकीले पोशाक, देहरे की द्युति, सफेद कपड़े को नील देकर चमकाना आदि अधिक आकर्षक बने होने का प्रमाण है जिससे लोग नहीं चाहकर भी उन वस्तुओं की ओर देख ही लेते हैं।

(iii) गतिशील उद्दीपक:
गतिशील उद्दीपक हमारे अवधान में शीघ्रता से आ जाते हैं। मंच को सजाने के लिए ऐसे बल्बों को निश्चित क्रम में जोड़ा जाता है जिससे वे घूमते हुए प्रतीत हों। आसमान में गतिमान जहाज देखने के लिए लोगों का ध्यान आकाश की ओर चला जाता है। सिनेमाघरों में चलते-नाचते चित्रों को देखने के लिए भारी भीड़ जुटती है।

(iv) उद्दीपन का स्वरूप:
बन्दूक के आकार वाली पिचकारी, शेर की आकृति वाला लेमन जूस, अप्सरा के स्वरूप वाली गुड़िया आदि इस बात के प्रमाण हैं कि व्यक्ति की वस्तु की आकृति या स्वरूप भी ध्यान खींचने का काम करता है।

(v) आकस्मिक एवं तीव्रता:
सहसा परिवर्तन से व्यक्ति चौंक जाता है। मेघ गर्जन, वाहन का हॉर्न, अचानक रेडियों का बजना आदि की तरह अचानक उत्पन्न ध्वनि या प्रकाश लोगों को उस ओर कुछ देखने को प्रेरित कर देते हैं। अचानक गाड़ी के रुकने या किसी पड़ोसी के घर में हल्ला की आवाज सुनना अवधान का कारण बन जाता है।

(vi) उद्दीपन की अवधि:
मालिक के इनकार किये जाने पर भी कर्मचारी का खड़ा रह जाना मालिक को उसके बारे में कुछ अधिक सोचने को मजबूर होना पड़ता है। अतः किसी विशेष उद्दीपन का देर तक उपस्थित रह जाना गहरे प्रभाव का कारण बन जाता हैं।

(vii) उद्दीपन की नवीनता:
ग्रामीण क्षेत्र में मारुति कार को देखने बच्चे दौड़ पड़ते हैं। यदि किसी पदाधिकारी को खेत में कुदाल चलाते पाया जाता है, सदैव धोती-कुरता पहनने वाला पैंट-शर्ट पहनकर बाहर निकल जाता है, उन नई स्थितियों के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ जाता है। अत: कोई व्यक्ति एकरसता से बचने के लिए नया दृश्य देखने में अधिक रुचि प्रकट करता है।

(viii) उद्दीपन की पुनरावृत्ति:
दरवाजे पर किसी लड़के का बार-बार आना, टी.वी. किसी पर निश्चित विज्ञापन को बार-बार दिखाना उसके महत्त्व को बढ़ाने का कारण बन जाता है। अत: किसी उद्दीपन की पुनरावृत्ति भी ध्यान खींचने का एक प्रत्यक्ष कारण है।

(ix) मानसिक तत्परता:
किसी के आने की प्रतीक्षा में बैठा व्यक्ति थोड़ी-सी आहट पाकर सतर्क हो जाता है। परीक्षा के निकट आते ही प्रमुख प्रश्नों के उत्तर को दुहरा लेने के लिए छात्र तत्परता दिखाते हैं।

(ख) चयनात्मक अवधान के आंतरिक कारक:

(i) अभिप्रेरणात्मक कारक:
जैविक तथा सामाजिक आवश्यकताओं की ओर व्यक्ति का ध्यान आकर्षित हो जाता है। घर से भागा हुआ बालक, भूख से तडपता भिखारी किसी भी व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर खींचने में समर्थ होता है। चुनाव के समय किसी विशिष्ट नेता को देखने तथा उसके भाषण सुनने निजी काम को छोड़कर भी उमड़ती भीड़ में शामिल हो जाते हैं।

(ii) संज्ञानात्मक कारक:
संज्ञानात्मक कारक के तीन प्रबल पक्ष होते हैं-अभिरुचि, अभिवृत्ति तथा पूर्व विन्यास।

(क) अभिरुचि:
देहाती मेले में बच्चे मनपसन्द खिलौने की दुकान खोजते हैं, मनोरंजन प्रेमी व्यक्ति किसी शहर में पहुँचकर सबसे पहले सिनेमा की खबर जानना चाहता है। अर्थात् व्यक्ति अपनी अभिरुचि की वस्तुओं की ओर जल्द और जरूर आकर्षित होते हैं।

(ख) अभिवृत्ति:
जिन वस्तुओं अथवा घटनाओं के प्रति अनुकूल दृष्टि रखते हैं, उन पर शीघ्रता से ध्यान चला जाता है। खेल में रुचि रखनेवाला कमेन्ट्री सुनकर संचार साधनों के प्रति आकर्षण प्रकट करता है।

(ग) पूर्व विन्यास:
पूर्व विन्यास के अन्तर्गत एक प्रेरक दशा के द्वारा ध्यानाकर्षण के लिए प्रेरित बल लगाना माना जाता है। यदि एक साथी दूसरे से कहता है अमुक गाँव में आज नाटक खेला जा रहा है तो श्रोता साथी साथ चलने की तैयार हो जाता है। इसके अतिरिक्त, अवधान को प्रभावित करने वाले कारकों में आंतरिक कारकों के रूप में मनोवृत्ति, आवश्यकता, जिज्ञासा, अर्थ, लक्ष्य, प्रशिक्षण, मनोभाव आदि का भी प्रभाव देखने को मिलता है। आवेगशीलता, अधिक पेशीय सक्रियता तथा अवधान की अयोग्यता जैसे विकार की प्रमुख विशेषता संधृत अवधान में मिलती है।

चयनात्मक अवधान और संधृत अवधान में भिन्नता-प्रक्रिया-उन्मुख विचार की दृष्टि से अवधान को दो मुख्य वर्गों में विभाजित किया जा सकता है –

(क) चयनात्मक अवधान और
(ख) संधृत अवधान

अवधान के दोनों प्रमुख वर्गों में निम्नलिखित भिन्नता पाई जाती है –
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प्रश्न 7.
चाक्षुष क्षेत्र के प्रत्यक्षण के संबंध में गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों की प्रमुख प्रतिज्ञाप्ति क्या है?
उत्तर:
चाक्षुष क्षेत्र विविध प्रकार के अंशों (बिन्दु; रेखा, रंग आदि) का समूह होता है किन्तु इन अंशों को संगठित रूप में देखा जाता है। गेस्टाल्ट (एक नियमित आकृति) मनोवैज्ञानिकों के अनुसार हम विभिन्न उद्दीपकों को विविक्त अंशों के रूप में नहीं देखते हैं, बल्कि एक संगठित समग्र के रूप में देखते हैं। किसी वस्तु का रूप उसके समग्र में होता है जो उनके अंशों के योग से भिन्न होता है क्योंकि हमारी प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ हमेशा अच्छी आकृति का प्रत्यक्षण करने के लिए उन्मुख होती है।

आकृति की कुछ विशेषताएँ उल्लेखनीय होती हैं, जैसे –

  1. आकृति का एक निश्चित रूप होता है।
  2. आकृति अपनी पृष्ठभूमि की अपेक्षा अधिक संगठित होता है।
  3. आकृति की स्पष्ट परिरेखा होती है।
  4. आकृति अधिक स्पष्ट होती है।

गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने चाक्षुष क्षेत्र में उद्दीपक को अर्थवान बनाने तथ संगठित रूप से देखे जाने के संबंध में कुछ महत्त्वपूर्ण नियमों अथवा सिद्धान्तों को प्रतिज्ञप्ति के रूप में प्रस्तुत किया है जो निम्नलिखित हैं –

1. निकटता का सिद्धान्त:
परस्पर निकट पाने वाली वस्तुएँ एक समूह के रूप में दिखाई देती हैं। अंकित चित्र में बिन्दुओं को श्रृंखला के रूप में देखा जा सकता है, अर्थात् ये बिन्दुओं के एक समूह के रूप में प्रकट होते हैं।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ img 3
चित्र: निकटता

2. समानता का सिद्धान्त:
कुछ विशिष्ट बिन्दुओं को समान क्रम में सजाने पर वे एक समूह के रूप में प्रत्यक्षित होते हैं यदि वे बिन्दुएँ आकृति और विशेषताओं में समान होते हैं। प्रस्तुत चित्र में छोटे वृत्तों एवं वर्गों को इस प्रकार सजाकर रखा गया है ताकि वे संगठित रूप में एक वर्ग दिखाई दें।
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चित्र: समानता
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ img 5
चित्र: निरंतरता

3. निरंतरता का सिद्धान्त:
एक सतत प्रतिरूप में वस्तुओं को सजाकर रखा जाता है तो उनका प्रत्यक्षण एक-दूसरे से संबंधित के रूप में प्राप्त किये जाते हैं। परस्पर काटती हुई दो रेखाएँ अ-ब तथा स-द को देखने पर यह अभ्यास होता है कि चार रेखाओं का मिलन-बिन्दु ‘स’ है।

4. लघुता का सिद्धान्त:
बड़े पृष्ठभूमि की तुलना में कोई छोटी आकृति स्पष्टतः देखी जा सकती है।

5. सममिति का सिद्धान्त:
असममिति पृष्ठभूमि की तुलना में सममिति क्षेत्र आकृति के रूप में देखी जा सकती है।

6. अविच्छिनता का सिद्धान्त:
जब एक क्षेत्र कई अन्य क्षेत्रों के मध्य घिरा होता है तो वह क्षेत्र एक स्पष्ट आकृति के रूप में देखी जा सकती है।

7. पूर्ति का सिद्धान्त:
किसी उद्दीपन में यदि कुछ अंश में अस्पष्ट या लुप्त रह जाते हैं तो उसे पूरा कर देने पर उनकी आवलेति अलग-अलग भागों की जगह एक समग्र आकृति के रूप में दिखाई देती है। प्रस्तुत चित्र में तीन छोटे-छोटे कोणों को इस प्रकार सजाकर रखा गया है कि वे निकट होने के बावजूद अलग-अलग दिखें जिसमें उनके छोटे-छोटे खाली अंश कारण है। यदि इन छोटे अंशों को पूरा कर दिया जाये तो ये तीनों आकृतियों मिलकर एक त्रिभुज के रूप में देखे जा सकते हैं।
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चित्र: पूर्ति

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प्रश्न 8.
स्थान-प्रत्यक्ष कैसे घटित होता है?
उत्तर:
हमारी प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ हमेशा अच्छी आकृति का प्रत्यक्ष करने के लिए उन्मुख होते हैं। मानव जाति जगत का एक संगठित समग्र के रूप में देखती है। उसे पता है कि आकृति का एक निश्चित रूप होता है तथा वे पृष्ठभूमि से अलग दिखने के लिए प्रस्तुत रहते हैं। चाक्षुष क्षेत्र या सतह जहाँ वस्तुएँ रहती हैं वह तीन विमाओं से संगठित होता है।

प्रत्यक्षण कारक किसी स्थान पर रखी वस्तु को जब देखती है तो वह विभिन्न वस्तुओं को मात्र आकार, रूप, दिशा (स्थानिक अभिलक्षण) पर ही ध्यान नहीं देता बल्कि अपनी बुद्धि एवं चेतना के माध्यम से उस स्थान में पाई जानेवाली सभी वस्तुओं के बीच की दूरी को भी महसूस करके निर्धारित वस्तुओं की एक सच्ची प्रतिमा का निर्माण करने में सफल हो जाता है।

यद्यपि हमारे दृष्टि पटल पर वस्तुओं की प्रक्षेपित प्रतिमाएँ समतल तथा द्विविम होती हैं जिसके चलते हम वस्तुओं के बाएँ, दाएँ, ऊपर, नीचे की वस्तुस्थिति से अवगत होते हैं, परन्तु प्रत्यक्ष के अधिक उद्देयपूर्ण बनाने के लिए हम स्थान में तीन विमाओं का प्रत्यक्ष करते हैं। चूंकि हम द्विविम दृष्टिपटलीय दृष्टि को त्रिविम अर्थात् स्थान प्रत्यक्षण को सफल बनाने हेतु मनोवैज्ञानिक संकेतों तथा अर्जित अनुभवों का प्रयोग करके सभी तीन विमाओं के सम्बन्ध में वांछनीय जानकारियों को जमा करते हैं।

प्रश्न 9.
गहनता प्रत्यक्षण के एकनेत्री संकेत क्या हैं? गहनता प्रत्यक्षण में द्विनेत्री संकेतों की भूमिका की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
किसी वस्तु के प्रत्यक्ष के क्रम में जगत को तीन विमाओं से देखने की प्रक्रिया को दूरी अथवा गहनता प्रत्यक्षण कहते हैं जो दैनिक जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण होता है। जैसे ध्पनि की तीव्रता के आधार पर श्रोता भी वक्ता के बीच की दूरी का अन्दाज लगाया जाता है। किसी वस्तु को एक नेत्र के देखने के क्रम में गहनता प्रत्यक्षण के लिए एकनेत्री संकेत प्रभावी होता है। द्विविस सतहों में गहराई अथवा दूरी का निर्णय लेने में एकनेत्री संकेत उपयोगी होता है। एकनेत्री संकेतन से संबंधित कुछ विशिष्ट लक्षण निम्नलिखित होते हैं –

1. सापेक्ष आकार:
वस्तु के दूर जाते समय दूरी के बढ़ने के साथ-साथ दृष्टि पटलीय प्रतिमा का आकार छोटा होता है। अतः छोटी दिखने वाली वस्तु के लिए दूर में स्थित के रूप में उसका प्रत्यक्षण करते हैं।

2. आच्छादन अथवा अतिव्याप्ति:
जो वस्तु आच्छादित होती है वह दूर तथा जो वस्तु आच्छादन करती है वह निकट दिखाई देती है।

3. रेखीय परिप्रेक्ष्य:
रेल की पटरियां, बीच की दूरी के समान होने पर भी दूरी बढ़ने पर एक-दूसरे से मिलती हुई प्रतीत होती है।

4. आकाशी परिपेक्ष्य:
दूर की वस्तुएँ धुंधली या अस्पष्ट दिखती है।

5. प्रकाश एवं छाया:
वस्तु के प्रकाशित भाग एवं छाया के आधार पर उसकी दूरी या स्थिति की जानकारी मिलती है।

6. सापेक्ष ऊँचाई:
जो वस्तु बड़ी प्रतीत होती है वह छोटी दिखाई देने वाली वस्तु से अधिक लम्बी होती है।

7. रचना गुण प्रवणता:
जिस चाक्षुष क्षेत्र में कोई वस्तु सघनता के साथ प्रकट होती है वह विरल प्रतीत होने वाली वस्तु की अपेक्षा अधिक दूरी पर होती है।

8. गति दिगंतराभास:
गति दिगंतराभास को एक गतिम एकनेत्री संकेत माना जाता है निकट की वस्तुओं की अपेक्षा दूरस्थ वस्तुएँ धीरे-धीरे गति करती हुई प्रतीत होती हैं। अत: वस्तुओं की गति की दर उसकी दूरी का एक संकेत प्रदान करती है। गहनता प्रत्यक्षण में द्विनेत्री संकेत की भूमिका-किसी वस्तु को दोनों नेत्रों से देखने पर त्रिविम स्थान में गहनता प्रत्यक्षण के कुछ संकेत मिलते हैं। द्विनेत्री संकेत के तीन प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं:

9. दृष्टि परीक्षण अथवा द्विनेत्री असमता:
दोनों आँखों से किसी वस्तु को देखने पर संभव है कि दोनों रेटिना पर प्रक्षेपित प्रतिमाएँ कुछ भिन्न हों। दूर की वस्तुओं के लिए प्रतिमाओं की असमता कम होती है जबकि निकट की वस्तुओं की असमता अधिक होती है।

10. अभिसरण:
निकट की वस्तुओं को दोनों आँखों से देखने पर हमारी आँखें अन्दर की और अभिसरित होती हैं जिससे प्रतिमा प्रत्येक आँख की गर्तिका पर आ सके। जैसे-जैसे वस्तु प्रेक्षक से दूर होती जाती है, वैसे-वैसे अभिसरणं की मात्रा घटती जाती है।

11. समंजन:
दोनों नेत्रां के प्रयोग से सम्बन्धित एक विशिष्ट प्रक्रिया, जिसमें पक्ष्माभिकी पेशियों की सहायता से हम प्रतिमा को दृष्टि पटल पर फोकस करते हैं। जैसे ही वस्तु निकट आती है, मांसपेशियों में संकुचन की क्रिया होने लगती है तथा लेन्स की सघनता बढ़ती जाती है। दूरी बढ़ने पर मांसपेशियाँ शिथिल हो जाती हैं।

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प्रश्न 10.
भ्रम क्यों उत्पन्न होते हैं?
उत्तर:
किसी वस्तु के लिए प्रत्यक्षण से प्राप्त जानकारी तथा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त सूचनाओं में भिन्नता प्रकट होने को भ्रम माना जाता है। जैसे-रस्सी को साँप मान लो, मालिक समझकर नौकर का पैर छू लेना भ्रंश का उदाहरण माना जा सकता है। संवेदी सूचनाओं की सही व्याख्या नहीं कर पाने के कारण भ्रम नामक गलतफहमी उत्पन्न हो जाती है। गलत प्रत्यक्षण अथवा बाह्य उद्दीपन की स्थिति में दोष, अनुभव की कमी अथवा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त सूचनाओं की गलत व्याख्या से प्राप्त होनेवाले गलत प्रत्यक्ष के कारण भ्रम उत्पन्न होते हैं।

प्रेक्षक की योग्यता, अनुभव और सही समझ का अभाव भी भ्रम उत्पन्न होने के कारण माने जाते हैं। कुछ शारीरिक कमजोरियों तथा परिवार का अस्वाभाविक हो जाना (अंधकार, वर्षा) भ्रम के कारण बन जाते हैं। कभी-कभी पूर्वनिर्धारित योजना या समय में अन्तर आने से भी भ्रम उत्पन्न हो जाते हैं। जैसे, नियत समय रोज आनेवाले डाकिया के बदले कोई दूसरे व्यक्ति को भी डाकिया समझ लेना, घंटी बजाने पर रोज भोजन की थाली मिलते रहने की स्थिति में घंटी बजने पर नौकर के हाथ की किताब को भी थाली समझ लेना स्वाभाविक भ्रम है। अर्थात् भ्रम कारण प्रेक्षक, ज्ञानेन्द्रियों, स्थितियों में आनेवाले अन्तर के साथ-साथ प्राप्त सूचनाओं की गलत व्याख्या भी है।

प्रश्न 11.
सामाजिक-सांस्कृतिक कारण हमारे प्रत्यक्षण को किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ अपने बाह्य अथवा आंतरिक जगत के संबंध में मूल सूचना प्रदान करती हैं। प्राप्त ज्ञान के आधार पर अनेक भौतिक उद्दीपकों के संबंध में वांछनीय जानकारी संग्रह करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों के उद्दीपनों के परिणामस्वरूप हम प्रकाश की क्षण दीप्ति अथवा ध्वनि अथवा घ्राण का अनुभव करते हैं। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सूचनाओं के बारे में उचित व्याख्या करके सूचना को अर्थवान बनाने का प्रयास किया जाता है जिसमें सामाजिक-सांस्कृतिक कारक की सहायता ली जाती है। वस्तुओं अथवा घटनाओं को पूर्णतः पहचानने के क्रम में निम्न बातें स्पष्ट होती हैं –

  1. प्रत्यक्षणकर्ता की आवश्यकताएँ एवं इच्छाएँ उसके प्रत्यक्षण को अत्यधिक प्रभावित करती हैं।
  2. किसी दी गई स्थिति में हम जिसका प्रत्यक्षण कर सकते हैं उसकी प्रत्याशाएँ भी हमारे प्रत्यक्षण को प्रभावित करती हैं।
  3. हम जिस तरह पर्यावरण का प्रत्यक्षण करते हैं, उसे प्रयोग में लाई जाने वाली शैली (संज्ञानात्मक) भी प्रभावित करती है।
  4. विभिन्न सांस्कृतिक परिवेशों में लोगों को उपलब्ध विविध अनुभव एवं अधिगम के अवसर पर भी उनके प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं। जैसे, चरित्रविहीन परिवेश से आनेवाले लोग कलात्मक चित्रों के माध्यम से प्रकट किये जाने वाले भावनात्मक संदेश को नहीं समझ पाते हैं।
  5. स्थान, क्षेत्र, योग्यता, दशा, स्थिति आदि मानवीय विषमताओं से भी प्रत्यक्षण स्पष्टता प्रभावित करता है। जैसे, शहरी लोगों की तुलना में जंगली लोग कंम्प्यूटर के संबंध में बहुत कम जानकारी व्यक्त करते हैं। संगीत का जानकार किसी वाद्य-यंत्रों से उत्पन्न ध्वनि में लय का पता लगा सकता है। भूखा व्यक्ति दो और दो का योगफल चार रोटियाँ बतलाना है, चार कलम नहीं।
  6. प्रत्यक्षण की प्रक्रिया में प्रत्यक्षणकर्ता की अहम भूमिका होती है। उनमें इतना क्षमता तो होनी ही चाहिए कि लोगों के द्वारा व्यक्त प्रत्युत्तरों में से सार्थक सूचनाओं को छोर सके।
  7. लोग अपनी व्यक्तिगत, सामाजिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों के आधार पर उद्दीपकों का प्रक्रमण एवं व्याख्या अपने ढंग से करते हैं। इनमें उचित संशोधन की आवश्यकता होती है।
  8. गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दिये गये सिद्धान्तों (निकटता, समानता, निरंतरता, लघुता, सममिति का सिद्धान्त) प्रत्यक्षण के लिए आवश्यक तत्त्वों की जानकारी देते हैं।
  9. प्रत्यक्षण के लिए एकनेत्री संकेत तथा द्विनेत्री संकेतों की उपयोगिता आवश्यक मनोवैज्ञानिक संकेत है।
  10. प्रत्यक्षण के लिए द्विविम तथा त्रिविम सतहों का अध्ययन उपयोगी सिद्ध होता है।
  11. प्रत्यक्षण पर लोगों की रुचि और संस्कार के साथ-साथ आवास तथा पेशा (नौकरी, दूकानदारी) से प्राप्त अनुभव और प्रतिक्रिया का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

अतः सामाजिक-सांस्कृतिक कारक हमारे प्रत्यक्षण को प्रत्यक्षतः प्रभावित करते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
संवेदना किस प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है?
उत्तर:
संवेदना सरल एवं ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 2.
संवेदना के गुण कौन-कौन हैं?
उत्तर:
टिचनर से संवेदना के चार गुणों की चर्चा की है। प्रकार, तीव्रता, स्पष्टता तथा संताकाल इसके अलावा स्टाउट ने दो और गुणों की चर्चा की है-विस्तार तथा स्थानीय चिन्ह।

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प्रश्न 3.
श्रवण संवेदन का संबंध किससे रहता है?
उत्तर:
श्रवण संवेदन का संबंध शंखपालि से रहता है।

प्रश्न 4.
कोई संवेदना किस न्यूरॉन से प्राप्त होती है?
उत्तर:
कोई संवेदना संवेदी न्यूरॉन से प्राप्त होती है।

प्रश्न 5.
किसी उद्दीपन के प्रति प्राणी की प्रथम अनुक्रिया को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
किसी उद्दीपन के प्रति की प्रथम अनुक्रिया संवेदना है।

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प्रश्न 6.
मस्तिष्क का कौन हिस्सा श्रवण संवेदना के लिए जिम्मेवार होता है?
उत्तर:
श्रवण संवेदना के लिए मस्तिष्क में संशपालि जिम्मेवार होता है।

प्रश्न 7.
संवेदन प्रकारताओं की उपयोगिता बतावें।
उत्तर:
संवेदन प्रकारताएँ भिन्न-भिन्न प्रकार के उद्दीपकों से प्राप्त सूचनाओं के परस्पर संबंध के द्वारा विशिष्ट जानकारियों का पता लगाते हैं।

प्रश्न 8.
ज्ञानेन्द्रियों की प्रकार्यात्मक सीमाओं को बतलाने वाले उदाहरण दें।
उत्तर:
हमारी आँखें वैसी वस्तुओं को देखने में असमर्थ हो जाती है जो बहुत ही धुंधला हो या बहुत ही चमकदार हो। पानी में चीनी का एक निश्चित परिमाण मिलाने पर ही उसका स्वाद मीठा प्रतीत होता है।

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प्रश्न 9.
वस्तु को दृश्यमान बनाने के लिए आरोपित प्रकाश के तरंगदैर्ध्य का परास क्या होना चाहिए?
उत्तर:
हमारी आँखें 380 नैनीमीटर से 780 नैनीमीटर तक के तरंगदैर्ध्य वाले प्रकाश के प्रति संवेदनशील बनकर वस्तु को दृश्यमान बनाता है।

प्रश्न 10.
मानव आँख की गोलक की सबसे ऊपरी परत को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
श्वेत पटल।

प्रश्न 11.
मानव आँख के किस हिस्से में खून की आपूर्ति नहीं होती है?
उत्तर:
कॉर्निया तथा लेंस दोनों में खून की आपूर्ति नहीं होती है।

प्रश्न 12.
आँख के (नेत्र गोलक के) बाहर भाग को क्या कहा जाता है?
उत्तर:
नेत्र गोलक के बाहरी भाग को बाह्य पटल या श्वेत पटल कहते हैं।

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प्रश्न 13.
नेत्र गोलक के बीच में कौन-सा तरल पदार्थ भरा होता है?
उत्तर:
नेत्र गोलक के बीच में काँच द्रव्य भरा होता है।

प्रश्न 14.
रेटिना पर कौन-कौन सेल पाया जाता है?
उत्तर:
रेटिना पर दण्ड एवं सूचियाँ पायी जाती हैं?

प्रश्न 15.
फेबिया पर किस सेल की मात्रा अधिक होती है?
उत्तर:
फेबिया पर सूचियों की मात्रा अधिक होती है।

प्रश्न 16.
अंध बिन्दु किसे कहते हैं?
उत्तर:
अन्तः पटल पर फेबिया के बगल में एक ऐसा स्थान है जहाँ न तो दण्ड होती है और न सूचियाँ, उस स्थान को अंध बिन्दु कहते हैं। इस स्थान पर प्रकाश पड़ने से कोई प्रतिक्रिया नहीं होती है।

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प्रश्न 17.
दण्ड और सूचियाँ क्या हैं?
उत्तर:
दण्ड और सूचियाँ ग्राहक कोष हैं जो आँखों में रेटिना पर होती है। तेज प्रकाश में सूचियाँ सक्रिय होती हैं जबकि मन्द प्रकाश में दण्ड सक्रिय होता है।

प्रश्न 18.
जगत की ज्ञान हमें किस तरह मिलता है?
उत्तर:
जगत में पाई जानेवाली तरह-तरह की वस्तुओं का ज्ञान हमें ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा दी गई सूचनाओं के आधार पर मिलता है।

प्रश्न 19.
हमारे पास कुल कितनी ज्ञानेन्द्रियाँ हैं?
उत्तर:
हमारे पास कुल सात ज्ञानेन्द्रियाँ हैं। पाँच संवेदन ग्राही (आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा तथा दो (गतिसंवेदी और प्रधान तंत्र) गहन इन्द्रियाँ हैं।

प्रश्न 20.
वस्तुओं की सही पहचान के प्रमुख आधार हैं?
उत्तर:
वस्तुओं की सही पहचान उसके आकार, रंग, आकृति, स्वभाव, कठोरता आदि की परख के आधार पर की जाती है।

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प्रश्न 21.
जगत का ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें किन-किन प्रक्रियाओं पर निर्भर रहना होता है?
उत्तर:
संवेदना, अवधान और प्रत्यक्षण तीन ऐसी प्रक्रिया है जिन पर हम वस्तुओं के वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति के लिए निर्भर रहते हैं।

प्रश्न 22.
उद्दीपक के स्वरूप और विविधता को एक-एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर:

  1. देखे जाने योग्य उद्दीपक-घर, मन्दिर।
  2. सुने जा सकते हैं-संगीत, कोलाहल
  3. जिन्हें हम सूंघ कर गन्ध जान सकते हैं-फूल, इत्र।
  4. जिसका स्वाद ग्रहण कर सकते हैं-मिठाई, चटनी।
  5. जिससे स्पर्श का अनुभव होता है-चिकनी सतह, रुखड़ा टेबुल।
  6. जो स्वभाव का बोध करता है-द्युतिमान, धुंधला।
  7. जो कानों को प्रभावित करता है-श्रुतिमधुर, कर्णप्रिय।

प्रश्न 23.
संवेदन की परिभाषा दें।
उत्तर:
संवेदन की परिभाषा देते हुए यह कहा जा सकता है कि संवेदन एक सरलतम संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से उपस्थित उद्दीपनों का केवल आभास होता है।

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प्रश्न 24.
स्पष्ट संवेदन के होने के लिए कौन तत्त्व आवश्यक है?
उत्तर:
स्पष्ट संवेदन के होने के उद्दीपनों में स्पष्टता और तीव्रता होना आवश्यक है। साथ ही उद्दीपन कुछ विशेष अवधि के लिए व्यक्ति के सामने उपस्थित होना चाहिए।

प्रश्न 25.
संवेदना की परिभाषा क्या है?
उत्तर:
संवेदना एक सरल ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें उपस्थित उत्तेजना का तात्कालिक ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 26.
तरंगदैर्ध्य क्या होती है?
उत्तर:
दो क्रमागत शृंगों के बीच की दूरी को तरंगदैर्ध्य कहते हैं।

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प्रश्न 27.
तरंगदैर्ध्य, आवृत्ति और ध्वनि किस मात्रक से मापा जता है?
उत्तर:
तरंगदैर्ध्य का मात्रक एंगस्ट्रम है। आवृत्ति का मात्रक हर्ट्स (Hz) है। ध्वनि की तीव्रता डेसिबल में मापी जाती है।

प्रश्न 28.
अवधान किसे कहते हैं?
उत्तर”
कई उद्दीपकों का एक साथ सक्रिय हो जाने पर किसी एक को अध्ययन अथवा कार्य हेतु चुनकर उस पर ध्यान केन्द्रित करना अवधान कहलाता है।

प्रश्न 29.
अवधान या ध्यान का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अवधान या ध्यान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए कोशिश करता है।

प्रश्न 30.
अवधान के वस्तुनिष्ठा निर्धारक का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अवधान के वस्तुनिष्ठ निर्धारण का अर्थ उद्दीपन की उन विशेषताओं या गुणों से होता है जिनके कारण व्यक्ति का ध्यान उस उद्दीपन को ओर चला जाता है।

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प्रश्न 31.
अवधान के आत्मनिष्ठा निर्धारक का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अवधान या ध्यान के आत्मनिष्ठ निर्धारक का अर्थ उन आत्मगत तथा व्यक्तिगत कारकों से होता है जिनके कारण व्यक्ति किसी वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान देता है।

प्रश्न 32.
अवधान के अतिरिक्त कौन-सा बिन्दु है जो सहायक माने जाते हैं?
उत्तर:
चयन के अतिरिक्त अवधान अन्य गुणों जैसे-सतकर्ता, एकाग्रता तथा खोज से भी संबंधित होते हैं।

प्रश्न 33.
अवधान के दो मुख्य रूप क्या हैं?
उत्तर:
(क) चयनात्मक अवधान और
(ख) संधृत अवधान।

प्रश्न 34.
चयनात्मक अवधान से संबंधित बाह्य कारक के प्रमुख तत्त्व (आधार) क्या हैं?
उत्तर:
उद्दीपकों के आकार, तीव्रता और गति अवधान के प्रमुख आधार माने जाते हैं।

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प्रश्न 35.
चयनात्मक अवधारणा से संबंधित आंतरिक कारक के दो मुख्य रूप क्या हैं?
उत्तर:
(क) अभिप्रेरणात्मक तथा
(ख) संज्ञानात्मक

प्रश्न 36.
संज्ञानात्मक कारक के लिए किन विशेषताओं पर अधिक बल दिया जाता है?
उत्तर:
अवधान से संबंधित संज्ञानात्मक कारक की सफलता अभिव्यक्ति और पूर्वविन्यास पर आधारित होती है।

प्रश्न 37.
निम्न सिद्धान्तों का विकास किसने और कब किया?
(क) निस्पंदन क्षीणन सिद्धान्त
(ख) बहुविधिक सिद्धान्त
उत्तर:
(क) ट्रायसमैन के द्वारा सन् 1962 में और
(ख) जॉनसटन के द्वारा सन् 1978 में विकास किया गया था।

प्रश्न 38.
संधृत अवधान के प्रभावित कारक कौन-कौन हैं?
उत्तर:

  1. संवेदन प्रकारता
  2. उद्दीपन की स्पष्टता
  3. स्थानिक अनिश्चितता।

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प्रश्न 39.
प्रत्यक्ष की परिभाषा दें।
उत्तर:
प्रत्यक्षण को परिभाषित करते हुए यह कहा जा सकता है कि यह एक जटिल संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा वातावरण में उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान होता है।

प्रश्न 40.
दृष्टि-संवेदना मस्तिष्क के किस भाग से सम्पन्न होती है?
उत्तर:
दृष्टि-संवेदना ऑक्सीविटल लोब से सम्पन्न होती है।

प्रश्न 41.
तेज रोशनी आँख पर पड़ने से पुतली का आकार कैसा हो जाता है?
उत्तर:
तेज रोशनी आँख पर पड़ने से पुतली का आकार छोटा हो जाता है।

प्रश्न 42.
प्रकाश ग्राही की दृष्टि से दंड और शंकु की विशेषता बतावें।
उत्तर:
दण्ड-शलाका दृष्ट (रात्रि दृष्टि, मंद प्रकाश) के ग्राही होते हैं जबकि शंकु को प्रकाशानुकूली (दिवा प्रकाश) के ग्राही मानते हैं। अर्थात् दण्ड प्रकाश की निम्न तीव्रता में कार्य करते हैं तथा शंकु उच्च स्तर के तेज प्रकाश में सक्रिय रहते हैं।

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प्रश्न 43.
प्रकाश एवं अंधकार अनुकूलन के प्रकाश-रासायनिक आधार क्या है?
उत्तर:
दण्ड में संयुक्त रोडोप्सिन नामक रासायनिक पदार्थ के अणु प्रकाश के प्रतिकूल परिमाण के कारण टूट जाते हैं जिससे आँख प्रकाश अनुकूलन में सक्षम हो जाता है। तम-व्यनुकूलन को विटामिन ‘ए’ की सहायता से आँखों को पुनः स्थापित किया जाता है।

प्रश्न 44.
रंगों के तीन मूल विमाओं के नाम बतावें।
उत्तर:
रंगों के तीन मूल विमाएँ हैं-वर्ण, संतृप्ति तथा द्युति।

प्रश्न 45.
लाल, नीला और हरा रंग के लिए तरंगदैर्घ्य का औसत मान बतावें।
उत्तर:
लाल रंग का तरंगदैर्घ्य – 780 नैनीमीटर
नीले रंग का तरंगदैर्घ्य – 465 नैनीमीटर
हरे रंग का तरंगदैर्घ्य – 500 नैनीमीटर

प्रश्न 46.
उत्तर प्रतिमाएँ क्या होती हैं?
उत्तर”
किसी दृष्टि क्षेत्र से चाक्षुष उद्दीपन के हट जाने पर भी कुछ समय तक उद्दीपक का प्रभाव बना रहता है। इसी विशिष्ट प्रभाव को उत्तर प्रतिमा कहते हैं।

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प्रश्न 47.
श्रवण संवेदना कब प्रारम्भ होता है?
उत्तर:
भाषित सम्प्रेषण से सम्बन्धित श्रवण संवेदना का प्रारम्भ तब होता है जब कोई ध्वनि तरंग हमारे कान में प्रवेश करती है।

प्रश्न 48.
बाहरी कान का हिस्सा क्या कहलाता है?
उत्तर:
बाहरी कान का हिस्सा पिन्ना कहलाता है।

प्रश्न 49.
मध्यकाल में स्थित तीन छोटी-छोटी हड्डियों को क्या कहा जाता है।
उत्तर:
मध्यकाल में तीन छोटी-छोटी हड्डियों को निहाई, रिकाव एवं हथौड़ा कहा जाता है।

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प्रश्न 50.
अन्दरुनी कान की शुरुआत किससे होती है?
उत्तर:
अन्दरंनी कान की शुरुआत कर्णपट्ट से होती है।

प्रश्न 51.
मध्य कर्ण का प्रमुख कार्य क्या है?
उत्तर:
कध्य कर्ण का प्रमुख कार्य ध्वनि-तरंगों की तीव्रता के बढ़ाना है।

प्रश्न 52.
कर्ण दोल का स्थान कहाँ है?
उत्तर:
कर्ण दोल या कर्ण पटल बाह्य कान एवं मध्य कान के बीच में होता है।

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प्रश्न 53.
अर्द्धवृत्ताकार नालिका का क्या लाभ है?
उत्तर:
अर्द्धवृत्ताकार नालिका अन्तः कर्ण में स्थित होती है जो शारीरिक संतुलन बनाए रखने का काम करती है।

प्रश्न 54.
कोकलिया का आकार किस तरह का होता है?
उत्तर:
कोकलिया का आकार शंख या धूंधे के समान होता है।

प्रश्न 55.
ध्वनि का संचरण किस प्रकार होता है?
उत्तर:
ध्वनि कान के लिए उद्दीपक होती है जो बाहरी परिवेश में दाब में भिन्नता आने से प्रकट होता है। ध्वनि का संरचना शृंग ओर गर्त के एकान्तर क्रम से होता है। कभी-कभी खासकर गैसीय माध्यम में ध्वनि संपीडन और विरलन का माध्यम से आगे बढ़ता है।

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प्रश्न 56.
देश प्रत्यक्षीकरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
देश प्रत्यक्षीकरण विस्तार प्रत्यक्ष मुख्य रूप से तीन तत्त्वों पर आधारित होता है-व्याप्ति, स्थानीय चिन्ह और गीत। इन तीनों के द्वारा जो प्रत्यक्षीकरण होता है उसे देश प्रत्यक्षीकरण कहा जाता है।

प्रश्न 57.
प्रत्यक्षीकरण की समुचित परिभाषा क्या है?
उत्तर:
प्रत्यक्षीकरण एक जटिल ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान प्राप्त होता है।

प्रश्न 58.
प्रत्यक्षीकरण किस प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है?
उत्तर:
प्रत्यक्षीकरण जटिल एवं ज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 59.
प्रत्यक्षीकरण में कौन-कौन प्रक्रिया शामिल रहती है?
उत्तर:
प्रत्यक्षीकरण में चार उप-प्रक्रियाएँ शामिल होती हैं-ग्राहक प्रक्रिया, प्रतीकात्मक प्रक्रिया, एकीकरण की प्रक्रिया एवं भावात्मक प्रक्रिया।

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प्रश्न 60.
प्रत्यक्षीकरण में प्रतीकात्मक प्रक्रिया क्या है?
उत्तर:
व्यक्ति जब किसी उत्तेजना का प्रत्यक्षीकरण करता है तो अपने पूर्व अनुमति के कारण उस उत्तेजना से संबंधित कुछ अनुभव उसे प्रतीक के रूप में स्वतः आ जाते हैं जिसे प्रतीकात्मक प्रक्रिया कहते हैं।

प्रश्न 61.
प्रत्यक्षीकरण में भावात्मक प्रक्रिया किसे कहते हैं?
उत्तर:
किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण के पश्चात् व्यक्ति उस वस्तु के प्रति सुखद या दुखद भाव का अनुभव करता है जिसे भावात्मक प्रक्रिया कहते हैं।

प्रश्न 62.
संज्ञानात्मक शैली से क्या समझते हैं?
उत्तर:
किसी विषय, घटना अथवा उद्दीपकों के संबंध में किए जाने वाले अध्ययनों में व्यापक रूप से प्रयुक्त शैली (क्षेत्र आश्रित या क्षेत्र अनाश्रित) को मनोवैज्ञानिक शैली कहते हैं।

प्रश्न 63.
गेस्टाल्ट क्या है?
उत्तर:
गेस्टाल्ट एक नियमित आकृति या रूप को कहते हैं।

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प्रश्न 64.
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने वस्तु को किस रूप में देखा?
उत्तर:
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किसी वस्तु का रूप उसके सम्र में होता है।

प्रश्न 65.
प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ किस ओर उन्मुख होती है?
उत्तर:
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के मतानुसार प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ सदैव अच्छी आकृति की ओर उन्मुख होती हैं।

प्रश्न 66.
गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के द्वारा दिये गये पूर्ति का सिद्धान्त का कथन क्या है?
उत्तर:
उद्दीपन के आकृति निरूपण में जो अंश रिक्त (लुप्त या अधूरे) रह जाता है उसे पूरा करने पर वस्तुओं का प्रत्यक्षण करके अलग-अलग भागों के रूप के बदले समग्र आकृति का बोध कराता है।

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प्रश्न 67.
एकनेत्री संकेत किस प्रकार के निर्णय लेने में हमारी सहायता करता है?
उत्तर:
एकनेत्री संकेत द्विविम सतहों में गहराई एवं दूरी का निणर्य लेने में हमारी सहायता करते हैं।

प्रश्न 68.
रचना गुण प्रवणता से क्या अभिप्राय निकलता है?
उत्तर:
रचना गुण प्रवणता एकनेत्री संकेत से सम्बन्धित एक ऐसा गोचर है जिसके द्वारा हमारे चाक्षुष क्षेत्र, जिनमें तत्वों की सघनता अधिक होती है, दूरी पर होने का आभास देते हैं।

प्रश्न 69.
भ्रम किसे कहते हैं?
उत्तर:
ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त सूचनाओं की गलत व्याख्या से उत्पन्न गलत प्रत्यक्षण को सामान्यतया भ्रम कहते हैं।

प्रश्न 70.
विभ्रम किसे कहते है?
उत्तर:
विभ्रम एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को उद्दीपन की अनुपस्थिति में हो उसकी ज्ञान या अनुमान होता है।

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प्रश्न 71.
प्रत्यक्षण पर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव को स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्रत्यक्षण पर लोगों के निवास स्थान, भाषा, आदत, पेशा, आर्थित स्थिति, सामाजिक व्यवहार आदि का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। इसके कारण लोगों में प्रात्यक्षिक अनुमान की कुछ आदतों एवं उद्दीपकों की प्रमुखता के प्रति विभेदक अंतरंगता उत्पन्न कर कार्य करते हैं।

प्रश्न 72.
कुछ प्रात्यायिक भ्रम सार्वभौम होते हैं। उदाहरण देकर स्पष्ट करें।
उत्तर:
कुछ प्रात्यायिक भ्रम सब लोगों के लिए समान अर्थ बतलाते हैं। जैसे दूरी बढ़ते जाने पर रेल की पटरियाँ परस्पर एक-दूसरे के निकट आती हुई प्रतीत होती हैं तब दोनों पटरियों के बीच की दूरी सब जगह समान होती है। इसी प्रकार ऊँचाई से देखने पर पिण्ड का आकार छोटा हो जाता है।

प्रश्न 73.
संवेदना और प्रत्यक्षीकरण में क्या अंतर है?
उत्तर:
संवेदना में उपस्थित उद्दीपन का सही अर्थरहित ज्ञान होता है, जबकि प्रत्यक्षीकरण में उपस्थित उद्दीपन का अर्थ सहित ज्ञान होता है।

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प्रश्न 74.
विपर्यय से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
विपर्यय एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को उपस्थिति उद्दीपन का गलत ज्ञान प्राप्त होता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भेद सीमा अथवा भेद देहली (DL) से क्या समझते हैं?
उत्तर:
मनोभौतिकी के अध्ययन से पता चलता है कि ज्ञानेन्द्रियों तथा उद्दीपकों के कार्य करने के लिए उत्तेजक को एक निर्धारित सीमा के अन्दर पहुँचाना आवश्यक है। जैसे, धुंधले प्रकाश में अथवा बहुत ही तीव्र रोशनी के कारण हम पढ़ नहीं पाते हैं। शोर या कोलाहल की तीव्रता के कारण हम किसी कथन का सही अर्थ समझ नहीं पाते हैं। किसी विशेष संवेदी तंत्र को क्रियाशील करने के लिए जो न्यूनतम मूल्य अपेक्षित होता है उसे निरपेक्ष सीमा अथवा निरपेक्ष देहली कहते हैं।

जैसे, एक ग्लास पानी को मीठा बनाने के लिए कम-से-कम कितनी चीनी की आवश्कता होती है। यह मिठास की निरपेक्ष सीमा कहलाती है। निरपेक्ष सीमा व्यक्तियों अथवा परिस्थितियों के बदलने से बदल जा सकती है। उद्दीपकों के मध्य अन्तर कर पाना भी संभव नहीं होता है। इसके लिए इतना तो जानना आवश्यक हो जाता है कि उद्दीपकों के मान में न्यूनतम अन्तर क्या होना चाहिए। आवश्यक न्यूनतम अन्तर को भेद सीमा अथवा भेद देहली माना जाता है। ज्ञातव्य है कि विविध प्रकार के उद्दीपकों (चाक्षुष, श्रवण) की निरपेक्ष देहली को समझे बिना संवेदना को समझना असंभव हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 2.
जगत का ज्ञान प्राप्त करने में हमारी सहायता कौन करता है?
उत्तर:
सम्पूर्ण जगत वस्तुओं, लोगों तथा घटनाओं की विविधता, से पूर्ण है। हम उनमें से प्रत्येक कारक के संबंध में सब कुछ जान लेना चाहते हैं। विविध वस्तुओं का ज्ञान प्राप्त करने में हमारी सहायता सात ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, गति संवेदी तथा प्रधान तंत्र) करती हैं। हमारी ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा दी गई सूचनाएँ ही हमारे समस्त ज्ञान का आधार है। ज्ञानेन्द्रियों वस्तुओं के आकार, आकृति, रंग के साथ-साथ अन्य विशेषताओं का अनुभव पाने का अवसर देती हैं। जगत का ज्ञान तीन प्रमुख प्रक्रियाओं-संवेदन, अवधान तथा प्रत्यक्षण पर निर्भर करता है। ये तीनों प्रक्रियाएँ परस्पर अंतर्संबंधित होती हैं। फलतः इन्हें एक ही प्रक्रिया-संज्ञान के विभिन्न अंशों के रूप में समझ लिया जाता है।

देखना (नेत्र), सुनना (कान), सूंघना (नाक), चखना (जीभ), स्पर्श (त्वचा) से जुड़े, अनुभवों के साथ हमें संगीत का लय, कपड़े की चिकनाहट, धुंधला प्रकाश, शक्तिशाली बिजली, असह्य गर्मी, भयानक चेहरा, क्रोधाग्नि, खुशी, हँसी-मजाक आदि का अनुभव पाने में ज्ञानेन्द्रियाँ हमारी सहायता करता है क्योंकि हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ मात्र बाह्य जगत से ही नहीं बल्कि हमारे अपने शरीर से भी सूचनाएँ संग्रह कर लेती हैं। बाह्य अथवा आंतरिक जगत के संबंध में प्राप्त होनेवाली सूचनाओं से हमें तरह-तरह के अनुभव मिलते हैं और हम उद्दीपकों के विविध गुणों को पहचानने लगते हैं। अनुभव ही ज्ञान के रूप में हमें निखारता हैं।

प्रश्न 3.
श्वेत पटल से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
श्वेत पटल (Selerotic covat):
श्वेत पटल नेत्र गोलक की सबसे ऊपरी सतह है। यह कड़ा तथा इसका रंग उजला होता है। यह अपारदर्शी है, अतः इससे होकर प्रकाश अन्दर नहीं आता। कड़ा होने के कारण यह बाहर के किसी भी प्रकार के आधात से आँख की रक्षा करता है। साथ ही, इसके अपारदर्शी होने के कारण प्रकाश चारों ओर से आँख में प्रवेश नहीं करता, फलतः किसी चीज को हम ठीक से देख पाते हैं। श्वेत-पटल का अगला भाग उभरा तथा पारदर्शी है। इसी के द्वारा प्रकाश आँख में प्रवेश करता है। श्वेत-पटल के इस पारदर्शी भाग को कोर्निया कहते हैं।

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प्रश्न 4.
मध्य पटल का वर्णन करें?
उत्तर:
मध्य पटल (Choroid) यह आँख का दूसरा आवरण है। यह प्रायः काले और भूरे रंग का होता है। यह भी पूर्णतः अपारदर्शी होता है अतः इससे भी प्रकाश का अन्दर प्रवेश करना संभव नहीं है। इसके आगे भाग को उपतारा (Iris) कहते हैं। उपतारा कनीनिका (Comea) के पीछे होता है। इसका प्रधान कार्य प्रकाश ग्रहण करना है। कनीनिका और उपतारा के बीच का स्थान जल द्रव से भरा रहता है। उपतारा के मध्य में पुतली है। उपतारा एवं पुतली से सटे पीछे लेंस है। पुतली से जो प्रकाश आँखों में प्रवेश करता है उसकों अक्षि-पटल में यथास्थान पहुंचाने का काम लेंस का है।

लेंस नजदीक की चीजों को देखने के लिए छोटा तथा दूर की चीजों को बड़ा होकर देखता है। लेंस का छोटा, उभरा एवं बाहर निकलना या बड़ा, चिपटा होना इसके दोनों ओर लगे मांसपेशियों पर निर्भर करता है। यह सिलियरी पेशियों के साथ-साथ कुछ और पतली-पतली तार जैसी माँसपेशियाँ सिलियरी पेशी से निकलकर लेंस से मिली हुई हैं। ये माँसपेशियाँ साइकिल के ‘स्कोप’ की तरह लगी हैं। इनमें सस्पेंसरी लिगामेंट रहते हैं। इनका प्रमुख कार्य लेंस को उनकी जगह पर संतुलित रूप में रखना है। लेंस के पीछे की जगह में काँच द्रव भरा रहता है। यह एक पारदर्शी द्रव है। इसका कार्य आँख के स्वरूप या नेत्रगोलक को कायम रखना है। आँख के फूट जाने पर यह द्रव बाहर निकल जाता है जिससे दृष्टि-संवेदना नहीं होती है।

प्रश्न 5.
दृष्टि पटल का वर्णन करें।
उत्तर:
अक्षि-पटल या दृष्टि-पटल (Retina):
मध्य के नीचे आँख की तीसरी और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण सतह दृष्टि-पटल है। इसका प्रधान कार्य प्रकाश को ग्रहण करना है। श्वेत-पटल तथा मध्य-पटल का काम मात्र प्रकाश को यहाँ तक पहुँचा देने का है। प्रकाश को ग्रहण करने के लिए दृष्टि-पटल में कुछ खास कोष (Cells) हैं, जिन्हें ग्राहक-कोशिकाएँ कहते हैं। दृष्टि-पटल की ग्राहक कोशिकाएँ दो प्रकार की होती है-एक को शलाका (Rods) कहते हैं तथा दूसरे को सूचियाँ (Cones)। शलाकाएँ आकार में लम्बी और पतली होती हैं। दूसरी ओर, सूवियाँ कुछ मोटी और छोटी होती हैं। रचना में इनमें अन्तर तो है ही, साथ ही इनके कार्य में भी अन्तर है। शलाकाएँ अन्धकार या धूमिल प्रकाश में क्रियाशील होती हैं।

और सूचियाँ तेज प्रकाश में कार्य करती हैं हम ऐसे व्यक्तियों को जानते हैं जिन्हें रात में नजर नहीं आता। इनकी आँख की शलाकाएँ कमजोर अथवा क्षतिग्रस्त हुई रहती है। उसी तरह चमगादड़ या उल्लू को दिन में नजर नहीं आता। इसका कारण भी यही है कि इनमें सूचियों का अभाव रहता है। शलाका और सूचियों के कार्य में एक अन्तर है। लाल, हरा, नीला, पीला आदि तरह-तरह के रंगों की संवेदना सूचियों के क्रियाशील होने से होती है। रंगविहीन का अर्थ उजली, काली और भूरी चीजों से है। इसी तरह प्रकाश और रंग के अनुसार हम शलाका या सूचियों के द्वारा किसी चीज को ग्रहण करते हैं। संक्षेप में हम कह सकते है कि प्रकाश और रंगों का संवेदन सूचियों के सहारे होता है और अन्धकार तथा रंगहीन चीजों की संवेदना शलाकाओं की मदद से होती है।

दृष्टि पटल के बीच थोड़ी-सी एक धंसी हुई जगह है जिसे फोबिया कहते हैं। फोबिया में केवल सूचियाँ पायी जाती हैं। फलस्वरूप जब किसी देखी जानेवाली चीज की प्रतिमा फोबिया पर पड़ती है तो वह बहुत अधिक स्पष्ट दीख पड़ती है। यही कारण है कि इसे स्पष्टतम दृष्टि-बिन्दु कहते हैं। फोबियां से बाहर ज्यो-ज्यों हम दृष्टि-पटल के छोर की ओर बढ़ते हैं, शलांकाओं की संख्या बढ़ती जाती है और सूचियों की संख्या कम होती जाती है। पक्षमाभिकी पेशियों के निकट तो सूचियाँ इतनी कम हैं कि वहाँ केवल शलाकाएँ मालूम पड़ती है।

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प्रश्न 6.
संवेदन का अर्थ बतावें।
उत्तर:
संवेदन एक सरलतम संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से उपस्थित उद्दीपनों का आभासमात्र होता है। इससे स्पष्ट है कि संवेदन में अर्थहीनता तथा अस्पष्टता होती है। इसके द्वारा उद्दीपनों का यथार्थ ज्ञान न होकर मात्र उनका आभास होता है। संवेदन चूँकि एक सरलतम आरंभिक मानसिक प्रक्रिया है, अतः इसका विश्लेषण संभव नहीं है। यही कारण है कि बच्चे, वयस्क तथा बूढ़े किसी को भी शुद्ध संवेदन (pure sensation) नहीं हो पाता है।

प्रश्न 7.
क्या व्यक्ति को शुद्ध संवेदन होता है?
उत्तर:
शुद्ध संवेदन का संप्रत्यय (concept) एक सैद्धांतिक संप्रत्यय है। हमलोग यह मान लेते हैं कि प्रत्यक्षण, चिंतन आदि के पहले उद्दीपनों का शुद्ध संवेदन होता है और जब उसमें कुछ विशेष अर्थ जोड़ दिया जाता है, तो उसका प्रत्यक्ष होता है। लेकिन, व्यावहारिक रूप में ऐसा नहीं होता है। सच्चाई यह है कि हमें किसी वस्तु या उद्दीपन का अर्थहीन ज्ञान या शुद्ध संवेदन नहीं होता है। हम जैसे ही किसी उद्दीपन पर ध्यान देते हैं, तो एक अर्थपूर्ण ज्ञान होता है न कि पहले उसका शुद्ध संवेदन और तब उसके अर्थ का ज्ञान। कुछ लोगों का मत है कि बच्चे को शुद्ध संवेदन होता है। परंतु उनका यह मत भी सही नहीं है। क्योंकि बच्चे जब भी किसी उद्दीपन या वस्तु पर ध्यान देते हैं तो उसका कोई-न-कोई अर्थ अवश्य लगाते हैं, भले ही वह अर्थ गलत ही क्यों न हो। निष्कर्ष यह है कि बच्चे, वयस्क तथा बूढा कोई भी व्यक्ति क्यों न हो उसमें शुद्ध संवेदन नहीं होता है।

प्रश्न 8.
दृष्टिपटल की बनावट तथा कार्य का वर्णन करें।
उत्तर:
दृष्टिपटल (retina) आँख का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग होता है। इससे दो तरह की प्रकाशग्राही कोशिकाएँ (light-receptor cells) होती हैं:
शलाकाएँ (rods) तथा सूचियाँ (cones)। शलाकाओं के उत्तेजित होने पर रंगहीन संवेदन होते हैं तथा सूचियों के उत्तेजित होने पर रंगीन संवेदन होते हैं। शलाकाएँ धूमिल रोशनी तथा रात में देखने में मदद करती हैं तथा सूचियाँ तीव्र रोशनी एवं दिन में देखने में मदद करती हैं। दृष्टितम का वह स्थान जहाँ केवल सूचियाँ (cones) ही पाई जाती हैं, को फोबिया (fovea) कहा जाता है। इसे स्पष्टतम दृष्टि बिन्दु भी कहा जाता है। दृष्टिपटलं का वह भाग जहाँ से दृष्टि तंत्रिका निकलकर मस्तिष्क में पहुँचती है, उसे अंधबिन्दु (blind spot) कहा जाता है जहाँ से देखन संभव नहीं हो पाता है। दृष्टि तंत्रिका आवेग इसी तंत्रिका से होकर मस्तिष्क में पहुँचता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को दृष्टि संवेदन या प्रत्यक्षण होता है।

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प्रश्न 9.
लेंस की बनावट या संरचना तथा कार्य पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
लेंस मानव आँख के मध्य पटल (choroid) का एक प्रमुख हिस्सा है। लेंस का स्थान पुतली के पीछे होता है। लेंस में खून की आपूर्ति (supply) नहीं होती है। फलतः यह अपना पोषक पदार्थ जल द्रव (aqueous hurmour) से ही प्राप्त करता है। इसका प्रधान कार्य पुतली द्वारा भीतर आनेवाली रोशनी को आँख की भीतरी सतह की एक विशेष जगह पर पहुंचा देना होता है। लेंस की विशेषता यह कि यह फोटो खींचनेवाले कैमरा के लेंस के समान ही यह लेंस भी किसी वस्तु की प्रतिमा को उल्टा करके आँख के भीतरी भाग की निर्धारित जगह पहुँचा देता है। इसका छोटा या बड़ा होना इसके दोनों किनारों पर स्थित मांसपेशियों जिन्हें पक्ष्माभिकी मांसपेशियाँ (ceiliary muscles) कहा जाता है, पर निर्भर करता है। सामान्यतः लेंस नजदीक की चीजों को देखने के लिए छोटा हो जाता है तथा दूर की चीजों के देखने के लिए बड़ा हो जाता है।

प्रश्न 10.
मध्य-कर्ण का वर्णन करें।
उत्तर:
मध्य-कर्ण (Middle Ear) कान के मध्य भाग की सीमा का प्रारम्भ कान की नली जहाँ जाकर रुक जाती है वहाँ से होता है। कर्णढोल मध्यकर्ण का सबसे पतला भाग है। वह मियटस से जुड़ा हुआ है। ‘मियटस’ ध्वनि को कर्णढोल तक पहुँचाती है। एक बहुत ही झिल्लीदार पर्दा जैसा है। इस कर्ण-ढोल से सटी हड्डियाँ जो तीन प्रकार की हैं-मुग्दर (Hummer), निहाई (Anvil or incus) और रकाब (stirrup) ये तीनों हड्डियाँ परस्पर सटी हुई हैं।

मुग्दर का एक छोर कान की झिल्ली (कर्णपट्ट) से सटा है और दूसरा भाग निहाई से मिला है। निहाई से सटी हुई रकाब नामक हड्डी है। रकाब का आखिरी भाग एक छेद से लगा है। इस छेद को हम अण्डाकार खिड़की कहते हैं। इसी की बगल में एक दूसरा गोल छेद भी है, जिसे गोल खिड़की कहते हैं। इन खिड़कियों के बाद से ही अन्त:कर्ण शुरू होता है। मध्य-कर्ण की तीनों हड्डियाँ एक-दूसरी से सटी हुई हैं। ध्वनि-तरंगें (Sound waves) कर्णढोल को प्राकम्पित करती है।

इसके प्रकम्पन के फलस्वरूप इससे सटी इन तीनों हड्डियों में भी कम्पन्न शुरू होता है। मुग्दर प्रकम्पित होने से उनमें लगी हुई निहाई से भी प्रकम्पन होता है जिसके परिणामस्वयप रकाब, जो निहाई से लगा हुआ है, भी प्रकम्पिक हो उठता है चूँकि रकाब मध्य-कर्ण की दूसरी सीमा अंडाकार खिड़की (Oval window) से लगा हुआ है। अतः यह वह प्रकम्पन है जो सबसे पहले कर्ण-ढोल में उत्पन्न हुआ था। वह क्रमश: मुग्दर, निहाई तथा रकाब से होता हुआ अण्डाकार खिड़की तक पहुँचता है।

वह अण्डाकार खिड़की के सहारे अन्तःकर्ण में प्रवेश कर जाता है। हड्डियों में प्रकम्पन होने से ध्वनि की तीव्रता बहुत अधिक बढ़ जाती है। अनुमान किया जाता है कि उसकी तीव्रता में पच्चीस या तीस गुनी वृद्धि होती है। मध्यकर्ण में कर्ण-कण्ठनली भी है। यह नली मध्यकर्ण से कण्ठ तक गयी है। बहुत तेज आवाज होने पर अक्सर हमारा मुंह खुल जाता है, क्योंकि वैसी हालत में कान के भीतर का प्रकम्पन इस नली के सहारे कण्ठ तक चल जाता है। यदि वह नली नहीं रहती तो जोरों की आवाज होने पर कर्णपट्ट फट जाता। यह नली कर्ण पट्ट नली (पतली झिल्ली) की रक्षा करती है।

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प्रश्न 11.
बाह्य कर्ण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
बाह्य कर्ण (Outer Ear):
बाह्य कर्ण कान का वह भाग है जो बाहर से दिखाई पड़ता है। इसके दो भाग हैं –

1. एक वह जो बाहर की ओर निकला हुआ है। इसे पिन्ना या आरीक्ल या ग्राहक कोष्ठक भी कहते हैं। यह कार्टिलेज का बना होता है। पहले यह विचार था कि पिन्ना ध्वनि-तरंगों को संग्रहित कर ग्रहण करने में सहायता पहुंचाता है, परंतु बाद में किये गये प्रयोगों से यह पता चला है कि पिन्ना को जड़ से काट देने पर भी श्रवण-संवेदना में किसी प्रकार की क्षति नहीं आती है। बाह्य कर्ण का दूसरा भाग कर्णांजली का बाह्य मियटस (External meatus) है।

यह पिन्ना की जड़ से शुरू होकर कर्ण ढोल तक फैली है। इसे कान की नली (Auditory meatus) भी कहा जाता है। पिन्ना से टकराकर अथवा इकट्ठी होकर ध्वनि तरंगें कान की नली में प्रवेश करती हैं। यह नली बाहर से दिखती है। इस नली की लम्बाई 25 मिलीमीटर है। इनमें छोटे-छोटे बाल तथा कान के मैल भरे रहते हैं। यह मैल इतना जहरीला होता है कि यदि भूल से भी कोई कीड़ा कान की नली में चला जाता है तो यह मैल उसकी जान ही ले सकता है।

इस प्रकार इससे कान की रक्षा होती है। कान की नली अन्दर में एक पतली झिल्ली से बन्द है। इसे कान की झिल्ली अथवा कर्ण पट्ट कहते हैं। कान की नली से जो ध्वनि तरंगें अन्दर प्रवेश करती हैं वे इस झिल्ली से टकराती हैं। यह झिल्ली बहुत कोमल और संवेदनशील होती है, अत: तरंग की चोट से बहुत अधिक प्रकम्पित होने लगती है। इसी झिल्ली या कर्ण पट्ट के बाद से ही मध्य-कर्ण की शुरुआत होती है।

प्रश्न 12.
कोक्लिया की संरचना तथा कार्य का वर्णन करें।
उत्तर:
कोक्लिया अंत:कर्ण (inner rear) का सबसे प्रमुख भाग है। देखने में कोक्लिया का आकार शंख या घोंघे के तरह दाई लपेटे के समान होता है। इसके भीतर में तीन नलिकाएं अर्थात् वेस्टीब्यलर नलिका कोक्लियर नलिका तथा टवैनिक नलिका होती है जो एक-दूसरे से विशेष झिल्ली (membrance) से अलग होती है। इन नलिकाओं में तरल पदार्थ भरा रहता है। कोक्लियर नलिका तथा टिम्पैनिक नलिका के बीच एक विशेष प्रकार की झिल्ली होती है जिसे बेसीलर झिल्ली (basilar membrance) कहा जाता है।

इस बेसीलर झिल्ली पर आर्गन ऑफ कोर्टी (organ of corti) होती है जिसमें पतली-पतली केश कोशिकाएँ (haircells) होती हैं जो सेवार के घास के समान दिखती है। जब ध्वनि तरंगों द्वारा वेस्टीब्युलर नलिका, के तरल पदार्थ में हलचल उत्पन्न होती है तो इससे टिम्पैनिक नली के तरल पदार्थ में हलचल पैदा हो जाती है और फिर उस हलचल से बेसीलर झिल्ली प्रकाशित हो जाती है जिससे कोशिकाएँ उत्तेजित हो जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप तंत्रिका आवेग उत्पन्न होकर तंत्रिका द्वारा शंखपालि (temporal lobe) में पहुँचता है और उससे फलस्वरूप व्यक्ति को श्रवण संवेदन हो पाता है।

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प्रश्न 13.
अवधान या ध्यान से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ कई तरह के उद्दीपकों से प्रभावित होता रहती हैं। उनमें हम कुछ ही उद्दीपनों के प्रति चुनकर प्रतिक्रिया कर पाते हैं। मनोविज्ञान में इस तरह की चयनात्मक प्रक्रिया को अवधान या ध्यान कहा जाता है। अत: यह कहा जा सकता है कि अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा (bodily posture) बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए तत्परता दिखाता है।

प्रश्न 14.
अन्तः कर्ण क्या है? बतायें।
उत्तर:
अन्तः कर्ण (Inner Ear):
अन्त:कर्ण अण्डाकार खिड़की से शुरू होकर कोर्टी-इन्द्रिय (Organ of corti) एवं अर्द्धचक्राकार नली तक फैला है। यह कनपट्टी की हड्डी के भीतर स्थित है। अन्तः कर्ण की दीवार एक पतली झिल्ली से ढंकी रहती है जिसमें निरन्तर एक तरल पदार्थ फैला रहता है। जब तरल पदार्थ में किसी तरह की गति होती है तो व्यक्ति का शारीरिक संतुलन नष्ट हो जाता है। जब कोई व्यक्ति एक ही स्थान पर खड़ा होकर तेजी से चक्कर लगाता है तब उसकी अर्द्ध चक्राकार नलिका के तरल पदार्थ में गति उत्पन्न हो जाती है। परिणामस्वरूप उसका शारीरिक संतुलन बिगड़ जाता है। रुक जाने पर भी उसे लगता है जैसे अभी शरीर घूम रहा है, स्थिर खड़ा रहना मुश्किल हो जाता है, वह लड़खड़ाने लगता है। इस प्रकार, अर्द्धचक्राकार नलिका का विशेष महत्त्व शारीरिक संतुलन बनाये रखने में है, श्रवण-संवेदना में नहीं।

प्रश्न 15.
प्रत्यक्षण तथा संवेदन में अंतर करें।
उत्तर:

  1. संवेदन एक सरलतम मानसिक प्रक्रिया है जबकि प्रत्यक्षण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
  2. प्रत्यक्षण में चार तरह की उपक्रियाएँ अर्थात् बाहर प्रक्रिया, प्रतीकात्मक प्रक्रिया, एकीकरण प्रक्रिया तथा भावात्मक प्रक्रिया सम्मिलित होती हैं, परंतु संवेदन में मात्र ग्राहक प्रक्रिया होती है।
  3. संवेदन द्वारा उद्दीपन का अर्थहीन ज्ञान होता है जबकि प्रत्यक्षण द्वारा उद्दीपन का अर्थपूर्ण ज्ञान होता है।
  4. संवेदन की प्रक्रिया का विश्लेषण संभव नहीं है जबकि प्रत्यक्षण की प्रक्रिया का विश्लेषण संभव है।
  5. एक ही उद्दीपन भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में समान संवेदन तो पैदा करता है, परंतु अनेक कारणों से एकसमान प्रत्यक्षण नहीं उत्पन्न कर पाता है।

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प्रश्न 16.
भ्रम क्या है? भ्रम तथा विभ्रम में अंतर बतावें।
उत्तर:
भ्रम में अयथार्थ प्रत्यक्षण (false perception) होता है। रस्सी को साँप समझ बैठना क भ्रम का उदाहरण है। विभ्रम में बिना किसी उद्दीपन के ही व्यक्ति की उद्दीपन का प्रत्यक्षण होता है। जैसे-बिना किसी के पुकारे ही यह लगे कि कोई पुकार रहा है, तो यह विभ्रम का उदाहरण होगा। इन दोनों में मुख्य अंतर निम्नांकित हैं –

  1. भ्रम में उद्दीपन उपस्थित रहता है जबकि विभ्रम में उद्दीपन अनुपस्थिति रहता है।
  2. भ्रम सामान्य तथा व्यक्तिगत दोनों ही होते हैं जबकि विभ्रम का स्वरूप सिर्फ व्यक्तिगत होता है।
  3. भ्रम सामान्य तथा असामान्य दोनों तरह के व्यक्तियों को होता है जबकि विभ्रम अधिकतर असामान्य व्यक्तियों को ही होता है।

प्रश्न 17.
विभ्रम का उदाहरणसहित अर्थ बतावें।
उत्तर:
विभ्रम एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति को उद्दीपन की अनुपस्थिति में ही उसके बारे में ज्ञान होता है। जैसे-बिना किसी के द्वारा पुकारे यदि किसी व्यक्ति को यह लगता है कि कोई उसे पुकार रहा है तो यह विभ्रम का उदाहरण होगा। इसी तरह अँधेरे कमरे में यदि व्यक्ति को यह महसूस होता है कि कोई आदमी खड़ा है जबकि वास्तव में कोई खड़ा नहीं है तो यह भी एक विभ्रम का उदाहरण होगा। उद्दीपनरहित होने के कारण विभ्रम का स्वरूप क्षणिक होता है।

प्रश्न 18.
मूलर-लायर भ्रम किसे कहते हैं?
उत्तर:
मूलर-लायर भ्रम एक तरह का सर्वव्यापी भ्रम (universal illusion) है जिसमें तीर रेखा तथा पंख रेखा को साथ-साथ उपस्थित करने पर व्यक्ति तीर रेखा को पंख रेखा से छोटा समझता है, हालाँकि दोनों की लम्बाई बराबर-बराबर होती है।

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प्रश्न 19.
स्वचालित प्रक्रमण की तीन प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
एक ही साथ कई उद्दीपनों पर ध्यान देने के लिए बाध्य हो जाने पर किसी मुख्य उद्दीपकों के प्रति विशेष ध्यान का देना स्वतः निर्धारित हो जाता है। जैसे कार चलाते समय टेपरिकार्डर बजाना, मोबाइल सुनना, कमीज का बटन लगाना, सिगरेट सुलगाना गौण हो जाता है और व्यक्ति का ध्यान मूलतः गाड़ी चलाने पर होता है। इसे स्वचालित प्रक्रमण का एक उदाहरण माना जा सकता है। स्वचालित प्रक्रमण की तीन प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. स्वचालित प्रक्रमण का कोई पूर्व निर्धारित अभिप्राय नहीं होता है।
  2. यह अचेतन रूप में क्रियाशील नहीं होती है।
  3. इसमें विचार प्रक्रियाओं की आवश्यकता नहीं होती है। जैसे-पुस्तक को रहते समय जूतों की फीते का बाँध लेना।

प्रश्न 20.
अवधान विस्तृति से क्या समझते हैं?
उत्तर:
हमारे अवधान में उद्दीपकों को ग्रहण करने की क्षमता सीमित होती है। किन्तु कभी-कभी मूल उद्दीपक के साथ-साथ कुछ अन्य उद्दीपकों पर क्षणिक ध्यान देना आवश्यक हो जाता है। कार के चालक को पीछे से किसी आवाज को सुनने पर उस और झाँकना पड़ता है। वस्तुओं की संख्या, जिन पर कोई व्यक्ति क्षणिक ध्यान देने के लिए वाध्य हो जाता है, उसे अवधान विस्तृति कहा जाता है।

अर्थात् अवधान विस्तृति का सामान्य अर्थ यह है कि कोई व्यक्ति मुख्य उद्दीपकों को ध्यान में रखते हुए अतिरिक्त उद्दीपकों की झलक पाने के लिए अपना ध्यान अस्थायी रूप से अल्प तो बाँट सकता है। अनेक प्रयोगों के आधार पर मिलर ने बताया है कि हमारी अवधान विस्तृति सात से दो अधिक या दो कम की सीमा के भीतर बदलती रहती है। अवधान विस्तृति का निर्धारण ‘टैनुस्टों स्कोप’ नामक यंत्र की सहायता से की जा सकती है।

प्रश्न 21.
अवधान या ध्यान की प्रमुख विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए तत्परता दिखाता है। अवधान की कुछ विशेषताएँ हैं जिनसे इसका स्वरूप स्पष्ट होता है –

  1. अवधान का स्वरूप चयनात्मक (selective) होता है।
  2. अवधान में विशेष शारीरिक मुद्रा होती है।
  3. अवधान उद्देश्यपूर्ण होता है।
  4. अवधान की विस्तृति (span) सीमित होती है।
  5. अवधान में तत्परता की स्थिति होती है।
  6. अवधान में विभाजन का भी गुण होता है।
  7. अवंधान में अस्थिरता (fluctuation) तथा उच्चलन (shifting) का गुण होता है।

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प्रश्न 22.
अवधान के वस्तुनिष्ठ निर्धारक से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अवधान के निर्धारण से तात्पर्य उन कारकों से होता है जिनसे यह पता चलता है कि व्यक्ति किसी उद्दीपन पर ध्यान क्यों देता है। वस्तुनिष्ठ निर्धारक (objective condition) से तात्पर्य उद्दीपन की उन विशेषताओं या गुणों से होता है जिनके कारण व्यक्ति का ध्यान उस उद्दीपन की ओर चला जाता है। जैसे-उद्दीपन का आकार, तीव्रता, परिवर्तन, रंग, नवीनता, स्थिति, गति, पुनरावृत्ति (repetition), विलगन (isolation), अवधि तथा विरोध (contrast) आदि को अवधान के वस्तुनिष्ठ निर्धारक की श्रेणी में रखा गया है। वस्तुनिष्ठ निर्धारक की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें उद्दीपन की विशेषता महत्त्वपूर्ण होती है न कि ध्यान देनेवाले व्यक्ति का वैयक्तिक गुण (personal characteristic)।

प्रश्न 23.
अवधान के आत्मनिष्ठ निर्धारण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अवधान के निर्धारण से तात्पर्य उन कारकों से होता है जिससे यह पता चलता है कि व्यक्ति किसी उद्दीपन (stimulus) पर ध्यान क्यों देता है। आत्मनिष्ठ निर्धारक से तात्पर्य उन आत्मगत तथा वैयक्तिक (individual) कारकों से होता है जिनके कारण किसी वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान देता है। आत्मनिष्ठा निर्धारण की विशेषता यह होती है कि इसमें ध्यान देनेवाले की आत्मगत या व्यक्ति (personal) कारकों की प्रधानता होती है न कि उद्दीपन के गुणों का। व्यक्ति की अभिरुचि, आदत, जिज्ञासा, आवश्यकता, मनोवृत्ति, अर्थ, मानसिक तत्परता तथा प्रशिक्षण आदि को ध्यान के आत्मनिष्ठ निर्धारक की श्रेणी में रखा जाता है।

प्रश्न 24.
प्रत्यक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रत्यक्षण एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति को उपस्थित उद्दीपनों का ज्ञान होता है। अतः प्रत्यक्षण को परिभाषित करते हुए यह कहा जाता है कि यह एक जटिल संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा वातावरण में उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान होता है। इससे प्रत्यक्षण के बारे में निम्नांकित तथ्य प्राप्त होते हैं –

  1. प्रत्यक्षण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है।
  2. प्रत्यक्षण एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
  3. प्रत्यक्षण में उद्दीपनों का तात्कालिक ज्ञान होता है।
  4. प्रत्यक्षण के लिए उद्दीपन की उपस्थिति अनिवार्य है।

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प्रश्न 25.
गति दिगंतराभास किसे कहते हैं?
उत्तर:
गति दिगंतराभास एक गतिक एक नेत्री संकेत होता है। इसके अनुसार सापेक्ष गति से गतिमान पिण्डों में से जो निकट होता है उसकी तुलना में दूरस्थ पिण्ड धीरे-धीरे गति करती हुई प्रतीत होती है। जैसे बस का यात्री निकट की वस्तुओं को विपरीत दिशा में तथा दूर की वस्तुओं को बस के गति की दिशा के साथ गतिमान देखता है।

प्रश्न 26.
फ्राई-घटना किसे कहा जाता है?
उत्तर:
फ्राई-घटना का संबंध आभासी गति भ्रम से है। जब कई क्रमिक चित्रों को लगातार जल्दी-जल्दी दिखाई जाती है तो स्थिर चित्र चलता-फिरता हुआ प्रतीत होता है। सिनेमा में कलाकारों को दौड़ते, बोलते देख पाना आभासी गति भ्रम के कारण ही संभव होता है। जलते-बुझते बिजली के बल्बों को एक निश्चित क्रम में संयोजित करके आभासी गति भ्रम उत्पन्न की जा सकती है। इस आभासी गति भ्रम के कारण होने वाली घटना को फ्राई-घटना कहते हैं।

प्रश्न 27.
उर्ध्वगामी तथा अधोगामी प्रक्रमण के लक्षण बतावें।
उत्तर:
उद्दीपकों के संबंध में प्राप्त सूचनाओं के प्रत्यक्षण के क्रम में प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया उपयोगी सिद्ध हुई है। जब प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया अंशों से प्रारम्भ होती है और जो समग्र प्रत्यभिज्ञान का आधार बनती है, उसे उर्ध्वगामी प्रक्रमण कहते हैं। जब प्रत्यभिज्ञान प्रक्रिया समग्र से प्रारम्भ होती है और उसके आधार पर विभिन्न घटकों की पहचान की जाती है, तो उसे अधोगामी प्रक्रमण कहा जाता है। उर्ध्वगामी उपगाम प्रत्यक्षण उद्दपकों के विविध लक्षणों पर ध्यान देता है जबकि अधोगामी उपागम प्रत्यक्षण करने वालों को महत्त्व देता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 28.
आकृति प्रत्यक्षण की परिभाषा निरूपित करें।
उत्तर:
शरीर हो या कोई उपकरण उसका निर्माण विभिन्न अंगों के समूह के रूप में होता है। जैसे साइकिल कहलाने वाले साधन का निर्माण, सीट, पहिया, हैण्डिल, टायर, ट्यूब आदि के संयोग के रूप में होता है। सभी भाग या अंग मिलकर सम्पूर्ण साइकिल का निर्माण करता है। चाक्षुष क्षेत्र को अर्थयुक्त समग्र के रूप में संगठित करने को प्रत्यक्षण कहते हैं। गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों के अनुसार किसी वस्तु का रूप उसके समग्र में होता है जो उनके अंशों के योग से भिन्न होता है। प्रमस्तिष्कीय प्रक्रियाएँ हमेशा अच्छी आकृति का प्रत्यक्षण करने के लिए उन्मुख होती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रत्यक्षीकरण संगठन के नियम कौन-कौन हैं? उदाहरण सहित विवेचना कीजिए। या, प्रात्यक्षिक संगठन के गेस्टाल्ट नियमों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
प्रमुख गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने, जिनमें वाइपर, कोफ्का, कोहलर आते हैं, प्रत्यक्षीकरण के दौरान उद्दीपक विशेषताओं के समूहीकरण का अध्ययन किया है। इन वैज्ञानिकों की धारणा है कि उद्दीपकों को पृथकीकरण अथवा समूहीकरण कुछ आन्तरिक एवं बाह्य विशेषताओं के कारण हो पाता है और प्रात्यक्षिक क्षेत्र में विद्यमान उद्दीपक विशेषताएँ कुछ सीमित इकाइयों के रूप में संगठित हो जाती हैं। प्रात्यक्षिक क्षेत्र में रहने वाले विभिन्न अवयव अलग-अलग नहीं दिखाई पड़ते बल्कि पारस्परिक संबंधों के आधार पर संगठित हो जाते हैं और इस प्रकार जब भी संभव होता है आकृतियाँ स्वत: समूहों के रूप में ही प्रत्यक्षित होती हैं।

समूहीकरण सदैव आकृति की सुन्दरता या सुधरता (goodness) की दिशा में होती है। गैस्टाल्ट मनोविज्ञान की भाषा में इसे “प्रॉग्नान्ज का नियम” (Law of Prognans) कहते हैं। प्राग्नान का नियम यह बतलाता है कि यदि उद्दीपक अवयवों का समूहीकरण कई तरह से संभव हो तो समूहीकरण अनिश्चित या यादृच्छिक न होकर उस रूप में होता है जो उपलब्ध संगठनों में सर्वाधिक सुन्दर हो। यही कारण है कि प्रात्यक्षिक संगठन नियमित (regukar), एकरूप (unified), सहज (simplified) तथा समानरूपी (similar) होते हैं। प्रात्यक्षिक संगठन के नियम इसी प्रकार प्राग्नान को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं। ये नियम उद्दीपक विशेषताओं के आधार पर आंतरिक एवं बाह्य दो प्रकारों में विभाजित किए जा सकते हैं।

प्रात्यक्षिक संगठन के नियम (Law of Perceptual Organization):
प्रात्यक्षिक संगठन के वे नियम जो उद्दीपक में अन्तर्निहित विशेषताओं से सम्बन्धित हैं और जो अनुभवों पर आश्रित नहीं होते हैं, आन्तरिक नियम के रूप में जाने जाते हैं। इन नियमों के द्वारा ऐसे समरूपों का निर्माण संभव होता है जिनसे प्रत्यक्षीकरण में प्राग्नान बना रहता है। ये नियम निम्नलिखित हैं –

1. निकटता का नियम (Law of Proximity):
प्रात्यधिक क्षेत्र के वे अंग या अवयव जो समय की दृष्टि से जल्दी प्रस्तुत किए जा रहे हों अथवा स्थान की दृष्टि से पास में स्थित हों वे सदैव उपसमूहों में संगठित हो जाते हैं और उनका प्रत्यक्षीकरण उनकी निकटता के आधार पर निर्णित होता है। यदि अन्य विशेषताएँ उद्दीपकों के प्रत्यक्षीकरण में सहायक न हो सके तो निकटता के कारण उद्दीपकों का समूहीकरण हो जाता है।

2. समानता का नियम (Law of Similarity):
यदि प्रत्यक्षिक क्षेत्र विभिन्न अंग विभिन्न रूप वाले हों और निकटता के कारण उनका समूहीकरण कठिन हो रहा हो तो उन उद्दीपकों का संगठन समानता के आधार पर होता है। ऐसा होने के लिए यह जरूरी होता है कि समान उद्दीपक पर्याप्त मात्रा में प्रस्तुत किए जाएँ ताकि उनका पृथक संगठन बन सके।

3. निरंतरता तथा दिशा का नियम (Continuity and Direction):
इस नियम के अनुसार प्रत्यक्षीकरण सदैव निरंतर और अविच्छिन दिशा की ओर उन्मुख होता है। विच्छिन्न और खण्डित उद्दीपकों की अपेक्षा अविच्छिन और निरन्तर दिशा के उद्दीपक ज्यादा प्रभावी होते हैं। इस नियम के अनुसार उद्दीपकों का ऐसा संगठन बनता है जो निरंतर हो और यदि कोई संगठन विद्यमान है तो अन्य सम्बद्ध उद्दीपक भी उसी के साथ जुड़ जाते हैं।

4. पूर्ति का नियम (Law of Closure):
अधूरी या अंशतः अपूर्ण आकृति ‘पूर्ति के नियम’ के अनुसार समूह बनाती है और अधूरी आकृति भी पूर्ण जैसी लगती है। इस प्रकार यह नियम अपूर्ण को पूर्ण करते हुए प्रत्यक्ष करने पर जोर देता है।

5. समान नियति का नियम (Law of Common Fate):
उद्दीपक की कोई शृंखला जब एक साथ समान वेग से समान दिशा में विद्यमान रहती है तो उन अवयवों में संगठन बन जाता है। समान नियति का अर्थ है समान वातावरण में उपस्थित उद्दीपक एक जैसी नियति के कारण परस्कर आबद्ध हो जाते हैं। डेम्बर (1960) के अनुसार वातावरण से पूरी तरह घुला-मिला डद्दीपक भी जब पृष्ठभूमि से भिन्न रूप में उभरता है तो परस्पर असंबद्ध अंशों का समूहीकरण हो जाता है।

6. समावेश का नियम (Law of Inclusion):
संगठित पूर्ण आकृति के अन्तर्गत विद्यमान आंशिक पूर्ण आकृति की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं रह जाती है। वह अंश अलग न दिखाई देकर पूर्ण आकृति में समाविष्ट हो जाता है।

7. सममितता का नियम (Law of Symmetry):
उद्दीपक का वह अंश जो ज्याद सुडोल और सममित होता है आसानी से समूह बना डालता है। समान प्रकार की आकृतियाँ यदि किसी चित्र में समान भाव से वितरित की गयी हों तो वे परस्पर संगठन बना लेने के कारण सुगठित हो जाती है।

8. विन्यास का नियम (Law of Orientation):
उद्दीपन का एक दिशा का होना उद्दीपक के निर्धारण के लिए सहायक हो सकता है। यदि दो चित्र हो जिनमें से एक में कोई आकृति उर्ध्व (Vertical) और क्षैतिज किनारों को सम्मिलित करते हुए बनाई गई हो और दूसरे चित्र में तिरछे किनारों का उपयोग आकृति के लिए किया गया हो तो पहली आकृति अधिक स्पष्टता से और सरलता से होगी दूसरी नहीं, क्योंकि उर्ध्व और क्षैतिज (vertocal and horizonral) रेखाएँ हमेशा चित्र के लिए सहायक मानी गई हैं न कि तिरछी (Oblique), लम्बवत् किनारे वाली (Limbs) रेखाएँ। हमारे स्वयं के विन्यास का प्रभाव यह नहीं है वरन् चित्र जो विन्यास बनाता है उसका निर्देशन इस प्रकार होता है।

ऊपर वर्णित आंतरिक नियमों के अतिरिक्त कुछ बाह्य नियम भी गेस्टाल्ट मनोवैज्ञानिकों ने प्रतिपादित किए हैं, क्योंकि जब उद्दीपक की संरचनात्मक विशेषताएँ अस्पष्ट सी रहती हैं तब आकृति का प्रत्यक्षीकरण केवल आंतरिक विशेषताओं के कारण नहीं हो पाता। उद्दीपक आकृति की संरचनात्मक अस्पष्टता (Structural ambiguity) की स्थिति में प्रयोज्य का पूर्वानुमान (Past experience), परिचय (Familarity), मनोविन्यास (set) आदि दिशाएँ निर्धारण का कार्य करती हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 2.
संवेदन से आप क्या समझते हैं? उसके प्रमुख गुणों का विशेषताओं का वर्णन करें। या, संवेदन की परिभाषा दें और इसकी विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
संवेदन एक सरलतम मानसिक प्रक्रिया है जिसकी उत्पत्ति के लिए किसी-न-किसी तरह का उद्दीपन (stimulus) का होना अनिवार्य हैं। परंतु, संवेदनं द्वारा उद्दीपन का ज्ञान नहीं होता है, मात्र उसका आभास होता है। मस्तिष्क के इस प्रारंभिक एवं सरलतम मानसिक प्रक्रिया का बहुत सूक्ष्म विश्लेषण नहीं किया जा सकता है अतः, शुद्ध संवेदन (pure sensation) का होना असंभव है। कोई भी सामान्य वयस्क व्यावहारिक रूप से शुद्ध संवेदन कभी भी प्राप्त नहीं कर सकता है क्योंकि जैसे ही वह संवेदन प्राप्त करता है, वह अपनी पूर्व अनुभूति के आधार पर चेतन या अचेतन रूप में उसमें अर्थ जोड़ने का भरसक प्रयास करता है।

शैशवावस्था में जब शिशुओं में पूर्व अनुभूति की कमी होती है तो शायद वे शुद्ध संवेदन का अनुभव करते हों, परंतु इसकी पुष्टि नहीं हो पाई है बल्कि हकीकत यह है कि शिशु भी उद्दीपन का कोई-न-कोई अर्थ अवश्य ही लगा लेते हैं भले ही वह अर्थ गलत ही क्यों न हो। यदि हम संवेदन की एक परिभाषा देना चाहें तो इस प्रकार दे सकते हैं – “संवेदन एक ऐसी सरल मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हमें उद्दीपनों का एक आभासमात्र होता है क्योंकि इसमें अर्थहीनता तथा अस्पष्टता होती है।” इस परिभाषा का विश्लेषण करने पर हमें संवेदन के स्वरूप के बारे में निम्नांकित चार प्रमुख तथ्य। प्राप्त होते हैं –

  1. संवेदन एक सरल मानसिक प्रक्रिया है।
  2. संवेदन एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया (cognitive mental process) है; क्योंकि इसके द्वारा हमें उपस्थित उद्दीपनों के बारे में इसका आभास या ज्ञान अवश्य प्राप्त होता है।
  3. संवेदन में उद्दीपन का अर्थहीन ज्ञान होता है।
  4. संवेदन के लिए उद्दीपन का होना अनिवार्य है।

संवेदन के गुण:
संवेदन के कई गुण (attributes) होते हैं। इन गुणों या विशेषताओं के अभाव में संवेदन का अस्तित्व ही कायम नहीं रह सकता है टिचेनर (Titchener) ने संवेदन के चार गुणों का उल्लेख किया है-प्रकार (quality), तीव्रता (intensity), अवधि (duration) तथा स्पष्टता (clearness)। स्टाउट (Stout) ने संवेदन के उपर्युक्त गुणों के अतिरिक्त दो और गुण भी बताए हैं-विस्तार (extensity) तथा स्थानीय चिन्ह (local sign)।

इस तरह, संवेदन छह गुण हो जाते हैं जिनकी व्याख्या निम्नांकित है –

1. प्रकार (Quality):
प्रत्येक संवेदन एक निश्चित प्रकार का होता है। कोई श्रवण संवेदन होता है तो कोई दृष्टि संवेदन और कोई स्पर्श संवेदन आदि-आदि। इस तरह, संवेदन का सबसे प्रमुख गुण यह होता है कि इसका कोई-न-कोई प्रकार होता है। ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं दिया जा सकता है जिसमें संवेदन हो परंतु उसमें प्रकार का कोई गुण नहीं हो। संवेदन का ‘प्रकार’ गुण दो तरह का होता है – जातीय प्रकार (generic quality) तथा विशिष्ट प्रकार (specific quality)।

संवेदनाओं की उत्पत्ति अलग-अलग ज्ञानेन्द्रियों से होती है, तो इसे उसका जातीय प्रकार कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, किसी एक ज्ञानेन्द्रिय से उत्पन्न संवेदन दूसरे ज्ञानेन्द्रिय से उत्पन्न संवेदन से भिन्न होते हैं। संवेदन के इस गुण को जातीय प्रकार का गुण कहा जाता है। जैसे, सभी देखी जानेवाली वस्तुओं के संवेदन को दृष्टि संवेदन कहा जाता है। जो एक खास जातीय प्रकार के गुण का उदाहरण है। एक ही ज्ञानेन्द्रिय से भिन्न-भिन्न तरह के भी संवेदन उत्पन्न होते हैं।

ऐसे संवेदन का विशिष्ट प्रकार (specific quality) कहा जाता है। जैसे, मान लिया जाए कि हम पिता की आवाज सुनते हैं तथा मामा की भी आवाज सुनते हैं। ये दोनों ही श्रवण संवेदन के उदाहरण हैं। परंतु, दोनों में अंतर है। यह अंतर संवेदन के विशिष्ट प्रकार के गुण का एक उदाहरण है क्योंकि दोनों ही संवेदन विशिष्ट प्रकार के हैं।

2. तीव्रता (Intensity):
संवेदन का अन्य गुण उसकी तीव्रता है। संवेदन की तीव्रता अलग-अलग होती है। कोई संवेदन अधिक तीव्र होता है तो कोई संवेदन कम तीव्र होता है। इस तरह, एक ही संवेदन मात्र तीव्रता के अंतर के कारण व्यक्ति में विभिन्न ढंग की अनुभूतियाँ उत्पन्न करता है। एक भोजन की वस्तु में कम नमक डालने से जो स्वाद का संवेदन होगा, वह अधिक नमक डाले हुए भोजन के स्वाद से भिन्न होगा। संवेदन की तीव्रता दो बातों पर आधारित होती है –

उद्दीपन की तीव्रता (intensity of stimulus) तथा उत्तेजित ज्ञानेन्द्रिय। तीव्र उद्दीपन से उत्पन्न संवेदन की मात्रा एक मंद उद्दीपन से उत्पन्न संवेदन की मात्रा से भिन्न होती है। जैसे, यदि व्यक्ति की त्वचा पर सूई की नोक को हल्के ढंग से गड़ाया जाए तथा फिर जोर से गड़ाए जाए, तो स्पष्टतः दो तरह के स्पर्श संवेदन होंगे। एक ही ज्ञानेन्द्रिय के अन्दर के ग्राहक कोशों (receptor cells) की संवेदनशीलता में भी विभिन्नता पाई जाती है जिसके कारण विशेष तीव्रता के एक उद्दीपन को यदि हाथ पर स्पर्श किया जाए तथा फिर उसी से होठ पर स्पर्श कराया जाए तो उत्पन्न संवेदन की मात्रा में विभिन्नता पाई जाएगी। यहाँ पर दोनों संवेदनाओं में विभिन्न कारण उद्दीपन की तीव्रता नहीं है बल्कि त्वचा में स्थित विभिन्न प्रकार के ग्राहक कोशों की संवेदनशीलता में अंतर का होना है।

3. अवधि (Duration):
संवेदन का अन्य गुण उसकी अवधि होता है। संवेदन जितना ही समय के लिए होता है, उसे संवेदन की अवधि कहा जाता है। प्रत्येक संवेदन एक खास समय तक के लिए होता है। ऐसा नहीं होता है कि संवेदन भी हो और उसमें कुछ समय न लगे। संवेदन की अवधि छोटी भी हो सकती है या बड़ी भी। छोटी अवधि तक हुआ संवेदन बड़ी अवधि तक हुए संवेदन से भिन्न होता है। जैसे, यदि हमें कोई ध्वनि संवेदन पाँच सेकंड तक होता है तथा वही संवेदन उसी हालत में 15 सेकंड के लिए होता है तब दोनों प्रकार के संवेदनों में हमें अंतर महसूस होता है। यह अंतर अवधि (duration) में अन्तर के कारण होता है।

4. स्पष्टता (Clearmess):
स्पष्टता संवेदन का एक अन्य गुण है। कोई संवेदन अधिक स्पष्ट होता है तो कम। सच पूछा जाए तो स्पष्टता संवेदन का कोई स्वतंत्र गुण नहीं है और यह बहुत कुछ तीव्रता तथा अवधि के गुण पर आधारित होता है। जो संवेदन अधिक तीव्र होगा, वह व्यक्ति के सामने बहुत देर तक रहेगा तथा वह अधिक स्पष्ट भी होगा। यदि किसी उद्दीपन को धुंधली रोशनी में बहुत समय के लिए दिखाया जाए और फिर उसी वस्तु को तीव्र रोशनी में अधिक समय तक के लिए दिखाया जाए तो दूसरी परिस्थिति में पहली परिस्थिति की तुलना में अधिक स्पष्ट संवेदन होगा। स्पष्ट हुआ कि संवेदन की स्पष्टता बहुत हद तक संवेदन की तीव्रता तथा उसकी अवधि पर आधारित होती है।

5. प्रसार (Extensity):
संवेदन में विस्तार का भी गुण पाया जाता है। किसी भी संवेदन की उत्पत्ति में ज्ञानेन्द्रिय का जितना भाग उत्तेजित होता है, उसे संवेदन का प्रसार कहा जाता है। जैसे, एक अंगुली को गर्म पानी में डालने से संवेदन का विस्तार कम होगा, परन्तु पूरा हाथ डालने से संवेदन का विस्तार अधिक होगा। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि गर्म पानी में एक अंगुली डालने से ज्ञानेन्द्रिय (त्वचा) का कम भाग उत्तेजित हुआ पूरा हाथ डालने से अधिक भाग उत्तेजित हुआ। अतः, विस्तार संवेदन का एक अन्य मुख्य गुण है।

6. स्थानीय चिन्ह (Local sign):
स्थानीय चिन्ह भी संवेदन का एक प्रमुख गुण होता है। व्यक्ति किसी भी संवेदन का अनुभव तो करता ही है, साथ-ही-साथ उसका स्थान-निर्धारण (localization) भी करता है। जैसे, यदि हमारे शरीर के किसी भाग में दर्द हो रहा है तो हमें ज्ञान हो जाता है कि यह दर्द शरीर के किस भाग में हो रहा है।

उसी तरह यदि पीठ पर पीछे से कोई व्यक्ति हाथ रखे देता है तो हम बिना देखे ही अनुभव कर पाते हैं कि कोई व्यक्ति उसकी पीठ के अमुक हिस्से पर हाथ रखे हुए है। ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि संवेदन में स्थान-निर्धारण का गुण होता है। दूसरे शब्दों में, संवेदन में स्थानीय चिन्ह का गुण होता है। निष्कर्षत: यह कहा जा सकता है कि संवेदन, जो एक सरलतम संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है, की अपनी कुछ विशेषताएँ या गुण होते हैं जिनके कारण उसकी अपनी विशिष्टता बनी रहती है।

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प्रश्न 3.
मानव आँख की संरचना या बनावट तथा कार्य का वर्णन करें।
उत्तर:
मानव शरीर में ग्राहक (receptor) या ज्ञानेन्द्रिय (sense organ) एक महत्त्वपूर्ण भाग है। इन ज्ञानेन्द्रियों में आँख का स्थान सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। मानव आँख की संरचना या बनावट फोटो खींचनेवाले कैमरे की संरचना से मिलती है। आँखं ऊपर से देखने में गोलाकार लगता है। इस गोल आकार के कारण इसे नेत्रगोलक (eyeball) कहा जाता है। नेत्रगोलक में तीन तहें या परतें होती हैं जिनकी संरचना या बनावट तथा कार्य का वर्णन निम्नांकित है –

(क) श्वेत पटल (Sclerotic coat)
(ख) मध्य पटल (Choroid) (ग) दृष्टि पटल (Retina)

इन तीनों का वर्णन निम्नांकित है –

(क) श्वेत पटल (Sclerotic coat):
मानव आँख की सबसे बाहरी परत को श्वते पटल कहा जाता है। यह चारों ओर से अपारदर्शी होता है तथा सामने से पारदर्शी होता है। इसका रंग उजला होता है तथा यह परत अधिक ठोस एवं कड़ा होता है। यह अपारदर्शी होत है, इसलिए इससे होकर रोशनी अंदर नहीं जा सकती है। ठोस एवं कड़ा होने के कारण यह आँख के भीतर भागों जैसे लेंस, रेटिना, परितारिका, पुतली आदि की रक्षा भी करता है। श्वेत पटल का वह भार जो आगे की ओर उभरा होता है तथा साथ-ही-साथ पारदर्शी भी, उसे कॉर्निया (cormea) कहा जाता है। कॉर्निया द्वारा ही रोशनी आँख में प्रवेश करती है।

(ख) मध्य पटल (Choroid):
मध्य पटल आँख की दूसरी परत है जिसका रंग काला या भूरा होता है। मध्य पटल का आगे का भाग भी थोड़ा उभरा हुआ होता है जिसे उपतारा या पारितारिका (iris) कहा जाता है। यह कॉर्निया के थोड़ा पीछे होता है। इसका काम प्रकाश का ग्रहण करना होता है। कॉर्निया तथा परितारिक के बीच की जगह में एक प्रकार का तरल पदार्थ भरा रहता है जिसे जलद्रव (aqueous humour) कहा जाता है। इसका द्रव प्रत्येक चार घंटे पर अपने-आप परिवर्तित होता रहता है। कॉर्निया में खून की आपूर्ति (supply) नहीं होती है।

परिणामतः यह अपना पोषक पदार्थ इसी जलद्रव से प्राप्त करता है। परितारिका के बीच एक गोल छेद होता है जिसे पुतली (pupil) कहा जाता है। पुतली के द्वारा ही कॉयिी से आती हुई रोशनी आँख के भीतरी भाग में प्रवेश करती है। पुतली का काम आँख के भीतर प्रवेश करनेवाली रोशनी पर नियंत्रण रखना है।

तीव्र रोशनी की स्थिति में पुतली सिकुड़ जाती है तथा कम रोशनी की स्थिति में पुतली फैल जाती है ताकि उपयुक्त तथा सही मात्रा में रोशनी भीतर प्रवेश कर सके। पुतली के पीछे लेंस (lens) होता है। लेंस में भी खून की आपूर्ति (supply) नहीं होता है और वह अपना पोषक जलद्रव से प्राप्त करता है। पुतली से होकर जब प्रकाश आँख में प्रवेश करता है तब लेंस ही उसे दृष्टिपटल या अक्षिपटल (retina) में सही जगह पर पहुंचा देता है। लेंस अत्यंत ही लचीला होता है तथा इसका आकार छोटा-बड़ा होता है। इसका छोटा या बड़ा होना।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ img 7
मानव आँख का चित्र

सिलियरी मांसपेशी (ciliary muscles) जो लेंस के दोनों किनारों पर होती है, पर निर्भर करता है। दूर की वस्तुओं को देखते समय मांसपेशियाँ फैल जाती हैं जिससे लेंस बड़ा हो जाता है तथा नजदीक की वस्तुओं को देखते समय मांसपेशियाँ सिकुड़ जाती हैं जिससे लेंस छोटा हो जाता है।

(ग) दृष्टि पटल (Retina):
नेत्रगोलक की सबसे भीतरी और तीसरी परत दृष्टिपटल (retina) है। यह वह पटल है जिसपर वस्तु की प्रतिमा बनती है। इसमें दो तरह के प्रकाशग्राही कोशिकाएँ (light-receptor cells) होती हैं-शलाकाएँ (rods) तथा सूचियाँ (cones)। शलाकाएँ कुछ लंबी तथा सूचियाँ कुछ छोटी मोटी होती हैं। शलाकाओं द्वारा व्यक्ति धूमिल रोशनी तथा रात में देख पाता है जबकि सूचियों द्वारा दिन तथा तीव्र प्रकाश में व्यक्ति देख पाता है। शलाकाओं द्वारा व्यक्ति को रंगीन वस्तुओं अर्थात् काले, श्वेत तथा धूसर रंग का ज्ञान होता है तथा रंगीन वस्तुओं का ज्ञान सूचियों द्वारा होता है।

दृष्टिपटल में एक विशेष धंसा स्थान है जहाँ सिर्फ सूचियों की संख्या काफी अधिक होती हैं। इस स्थान को फोबिया (fovea) कहा जाता है। अतः, जब कभी किसी वस्तु की प्रतिमा फोबिया पर पड़ती है तब वह बहुत ही स्पष्ट दिखाई पड़ती है। यही कारण है कि इसे स्पष्टतम दृष्टि बिन्दु (point of clearest vision) भी कहा जाता है।

फोबिया के बाहर शलाकाएँ तथा सूचियाँ दोनों ही असमान संख्या में पाई जाती हैं। जब शलाकाएँ या सूचियाँ प्रकाश को ग्रहण करती हैं तो उनमें दृष्टि तंत्रिका (optive nerve) के सहारे दृष्टिपटल में मस्तिष्क में पहुँचता है। दृष्टिपटल का वह भाग जहाँ से दृष्टि तंत्रिका निकलकर मस्तिष्क में जाती हैं, उसे अंधबिन्दु (blind spot) कहा जाता है जहाँ न तो शलाकाएँ होती हैं और न सूचियाँ ही। इसके परिणामस्वरूप यहाँ से देखना संभव नहीं है। स्पष्ट हुआ कि मानव आँख की बनावट काफी जटिल है तथा इसकी संरचनाओं एवं कार्यो में विशिष्टता पाई जाती है।

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प्रश्न 4.
चयनात्मक अवधान का स्वरूप क्या है? वर्णन करें।
उत्तर:
चयानात्मक अवधान एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति कुछ खास क्रिया उद्दीपक पर अपनी मानसिक एकाग्रता (mental concentration) दिखलाता है तथा अन्य क्रियाओं या उद्दीपकों पर न के बराबर ध्यान देता है। मैटलिन (Matilin) के शब्दों में चयनात्मक अवधान को इस प्रकार परिभाषित किया जाता है – “चयनात्मक अवधान एक ऐसी घटना है जिसमें हमलोग एक क्रिया पर अपनी मानसिक क्रियसाशीलता को एकाग्रचित करते हैं तथा अन्य क्रियाओं के बारे में बहुत ही कम ध्यान दे पाते हैं।” जैसे यदि एक साथ कई व्यक्ति मिलकर बगल के कमरे में बातचीत कर रहे हों और आप उनमें से किसी एक व्यक्ति की बात पर ध्यान दे रहो हों तो इसमें आप उस व्यक्ति के बात को ठीक ढंग से सुन पायेंगे तथा अन्य व्यक्तियों के बातों को यदा-कदा। यह चयनात्मक अवधान का उदाहरण होगा।

चयनात्मक अवधान का विशेष गुण या लाभ यह है कि इसमें व्यक्ति एक तरह के कार्य पर दूसरों कार्यों से बिना किसी तरह का अवरोध अनुभव किये एकाग्रचित (concentrate) कर सकता है। इससे मानसिक निष्पादन (mental performance) की उत्कृष्टता बढ़ जाती है। परन्तु चयनात्मक अवधान में कुछ हानि (disadvantages) भी होती है। चयनात्मक अवधान व्यक्ति में कुछ विशेष परिस्थिति में खासकर उस परिस्थिति में कुंठा (frustration) उत्पन्न करने लगता है जब उसे एक ही साथ कई क्रियाओं पर ध्यान देना आवश्यक हो जाता है। ऐसी परिस्थिति में लाचारी में व्यक्ति को अन्य क्रियाओं को अवहेलना करनी पड़ती है।

चयनात्मक अवधान के क्षेत्र में सबसे महत्त्वपूर्ण अध्ययन चेरी (Cherry) द्वारा किया गया। इस प्रयोग में उन्होंने छायाभासी प्रविधि (shadowing technique) का प्रतिपादन किया जिसमें प्रयोज्य को सुने हुए शब्दों को ठीक उसी रूप में बोलने के लिए कहा जाता है। चेरी ने एक प्रवक्ता (speaker) की आवाज में दो अलग-अलग सूचनाओं (message) का अभिलिखित किया। प्रयोज्यों को आकर्णक यंत्र (earphone) लगा लेने के लिए कहा गया तथा प्रत्येक कान में अलग-अलग सूचनाओं को दिया गया तथा उन्हें किसी एक सूचना को ठीक उसी ढंग से बोलकर दोहराने के लिए कहा गया है इस तरह के कार्य को द्विभाजित सुनना (diachotic listening) कहा जाता है।

परिणाम में देखा गया कि प्रयोज्यों द्वारा दोनों में से एक ही सूचना, जिसपर वे ध्यान दे सके थे, का प्रत्याव्हान (recal) किया गया। दूसरी सूचना जिसपर वे ध्यान नहीं दे सके (unattended message), से वे बहुत कम प्रत्याव्हान कर सकने में समर्थ हुए। हाँ, जब इस दूसरे तरह की सूचना में कुछ परिवर्तन कर दिया जाता या जैसे इसे पुरुष की आवाज में न कहकर महिला की आवाज में कहा जाता था, तो वैसी परिस्थिति में प्रयोज्यों का ध्यान उस ओर चला जाता था।

इस प्रयोग से स्पष्ट होता है कि व्यक्ति को जब कई तरह की सूचनाओं पर एक साथ ध्यान देने के लिए कहा जाता है उसमें कुछ सूचना पर वह न दे पाता है तथा कुछ पर एक साथ ध्यान नहीं दे पाता है। हाँ, जिन सूचनाओं पर वह ध्यान नहीं दे पाता है अगर उसके स्वरूप में कुछ परिवर्तन कर दिया जाता है (जैसे पुरुष से महिला से पुरुष की आवाज में परिवर्तन होने से तो उस व्यक्ति का ध्यान चला जाता है।) मोरे (Moray) ने अपने एक प्रयोग में पाया कि जिन सूचनाओं पर प्रयोज्य ध्यान नहीं दे पाता है उनमें यदि प्रयोज्य का नाम कहीं-कहीं पर जोड़ दिया जाता है, तो वह उस पर ध्यान देने में समर्थ हो पाता है। चयनात्मक अवधान की व्याख्या करने के लिए मनोवैज्ञानिकों ने कई तरह के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं –

  1. मार्गविरोधी सिद्धान्त (Bottleneck theories)
  2. नॉरमैन एवं बोवरो मॉडल (Normm& Bobrow’s model)
  3. नाईसर मॉडल (Neisser model)

स्पष्ट हुआ कि चयनात्मक अवधान (selective attention) की व्याख्या करने के लिए कई तरह के मॉडल का विकास किया गया है। इन विभिन्न मॉडल या सिद्धान्त में कौन सबसे अच्छा है, इसका उत्तर सही-सही ढंग से नहीं दिया जा सकता है।

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प्रश्न 5.
अवधान की परिभाषा दें। अवधान के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या सोदाहरण करें।
उत्तर:
अवधान की परिभाषा-व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियाँ किसी भी समय अनेक तरह के उद्दीपनों से प्रभावित होती रहती है। वह इनमें सबों के प्रति अनुक्रिया न करके कुछ खास-खास उद्दीपन को उनमें से चुनकर उनके प्रति अवश्य ही अनुक्रिया करता है। मनोविज्ञान में इस तरह की चयनात्मक प्रक्रिया को अवधान (attention) कहा जाता है। यदि हम अवधान की एक उत्तम परिभाषा देना चाहें तो इसे प्रकार दे सकते हैं-“अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति विशेष शारीरिक मुद्रा (bodily posture) बनाकर किसी उद्दीपन की चेतना केन्द्र में ला पाता है।”

उक्त परिभाषा का विश्लेषण करने पर हमें अवधान के स्वरूप के बारे में निम्नांकित तथ्य निश्चित रूप से मिलते हैं –

  1. अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है।
  2. अवधान में विशेष शारीरिक मुद्रा (bodily posture) होती है।
  3. अवधान में सिर्फ कुछ ही उद्दीपन चेतना केन्द्र में होते हैं।

अवधान का स्वरूप चयनात्मक (selective) इसलिए होता है, क्योंकि व्यक्ति किसी भी समय में उपस्थित कई उद्दीपनों में सिर्फ कुछ ही उद्दीपन को चुनकर उनपर ध्यान दे पाता है। जब भी व्यक्ति किसी उद्दीपन या वस्तु पर ध्यान देता है तो उस समय शरीर के अंगों द्वारा एक विशेष मुद्रा (posture) अपना ली जाती है। अवधान में व्यक्ति सिर्फ उपस्थित बहुत सारे उद्दीपनों में से कुछ उद्दीपन का चयन ही नहीं करता बल्कि व्यक्ति चुने हुए उद्दीपन को चेतना केन्द्र में भी लाता है। जब उद्दीपन चेतना केन्द्र में आ जाते हैं, तब उसकी स्पष्टता अधिक बढ़ जाती है।

अवधान कई प्रकार के होते हैं जो निम्नांकित हैं –

(क) ऐच्छिक अवधान (Voluntary attention):
ऐच्छिक ध्यान वह ध्यान है जिसमें व्यक्ति अपनी इच्छा, आवश्यकता, उद्देश्य आदि के अनुकूल किसी उद्दीपन या वस्तु पर ध्यान देता है। इस तरह ऐसे ध्यान में व्यक्ति की इच्छा की प्रधानता होती है तथा व्यक्ति जान-बुझकर किसी वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान देता है। इसमें कुछ बाधा भी उपस्थित हो सकती है। फिर भी, व्यक्ति उस उद्दीपन या वस्तु की ओर ध्यान देने के लिए काफी प्रयत्नशील रहता है। जैसे, परीक्षा के समय छात्र मनोरंजन के साधनों सिनेमा, दूरदर्शन आदि पर ध्यान न देकर पढ़ाई पर ध्यान अधिक देते हैं यद्यपि पढ़ाई उन्हें नीरस ही क्यों न लगे। इस तरह, ऐच्छिक अवधान की कुछ स्पष्ट विशेषताएँ हैं जिन्हें बिन्दुवार इस प्रकार बताया जा सकता है –

  • ऐच्छिक अवधान में व्यक्ति की प्रेरणा तथा इच्छा की प्रधानता होती है।
  • ऐच्छिक अवधान में कोई-न-कोई निश्चित उद्देश्य होता है।
  • ऐच्छिक अवधान में व्यक्ति जान-बुझकर उपस्थित कई उद्दीपनों में कुछ भी अवहेलना करके किसी इच्छित एवं वांछित वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान देता है।

(ख) अनैच्छिक अवधान (Involuntary attention):
अनैच्छिक अवधान वैसे अवधान को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति की इच्छा या प्रेरणा की प्रधानता नहीं होती है सचमुच अनैच्छिक अवधान न केवल व्यक्ति की इच्छा या प्रेरणा के बिना ही होता है बल्कि कभी-कभी उसके विरुद्ध भी होता है। इस तरह के ध्यान में उद्दीपन (stimulus) का महत्त्व काफी होता है। उद्दीपन अपनी विशेषताओं या गुणों के कारण व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर खींच लेते हैं। अतः, यह कहा जा सकता है कि जब कोई उद्दीपन अपने विशेष गुण या विशेषता के कारण व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेता है तो उस ध्यान को अनैच्छिक ध्यान (involuntary attention) की संज्ञा दी जाती है।

जैसे, यदि कोई छात्र अपने कमरे में पढ़ने में तल्लीन है और बगल में बम का धमाका हो तो उसका ध्यान न चाहने पर भी धमाके की ओर चला जाता है। वहाँ उद्दीपन (बम) की विशेषता अर्थात् तीव्रता एक विशेष गुण है जिसके कारण व्यक्ति का ध्यान उस ओर चला जाता है।

(ग) अभ्यस्त या स्वाभाविक अवधान (Habitual attention):
इस तरह के ध्यान में व्यक्ति की इच्छा की कोई खास प्रधानता नहीं होती है बल्कि इसमें व्यक्ति की अभिरुचि, प्रशिक्षण, आदत अदि की प्रधानता होती है और इसी के कारण वह किसी वस्तु या उद्दीपन पर ध्यान दे पाता है। जैसे, शराबी का ध्यान शराब की दुकान की ओर, पान खानेवालों का ध्यान पान की दुकान की ओर, बिल्ली का ध्यान चूहे की ओर, डॉक्टर का ध्यान रोगी की ओर जाना एक अभ्यस्त-अवधान का उदाहरण है।

इन उदाहरणों से यह स्पष्ट है कि अभ्यस्त अवधान में व्यक्ति अपनी, आदत, अभिरुचि के कारण ही किसी उद्दीपन या वस्तु पर ध्यान दे पाता है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि अवधान की प्रक्रिया. एक चयनात्मक प्रक्रिया (selective process) है जिससे व्यक्ति कुछ उद्दीपनों को अपने चेतना केन्द्र में लाता है। अवधान के तीन प्रकार हैं जिनकी कुछ अपनी विशेषताएँ होती हैं।

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प्रश्न 6.
मानव कान की बनावट तथा कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
कान द्वारा हम सुनते हैं। अतः, कान ध्वनि का ज्ञानेन्द्रिय है। मानव कौन की बनावट को तीन भागों में बाँटा गया है –
(क) बाह्य कर्ण (outer ear)
(ख) मध्य कर्ण (middle ear) (ग) अंत: कर्ण (inner ear)

(क) बाह्य कर्ण (Outer ear):
कान का जो भाग बाहर से दिखाई देता है, उसे बाह्य कर्ण कहा जाता है। बाह्य कर्ण के दो भागों में बाँटा गया है –

  • पिन्ना (pinna) तथा
  • कान की नली (auditory canal)।

इन दोनों का वर्णन इस प्रकार है –

1. पिन्ना (Pinna):
कान का सबसे ऊपरी भाग जो सीप के आकर का होता है, उसे पिन्ना कहा जाता है। यह भाग मुलायम हड्डियों से बना होता है। पिन्ना का मुख्य कार्य ध्वनि तरंगों को इकट्ठा करके उसे कान की नली में भोजन होता है। मानव के लिए यह भाग कोई खास महत्त्वपूर्ण नहीं होता है, क्योंकि ऐसा देखा गया है कि इसे नष्ट हो जाने पर भी सुनने में कोई कमी नहीं आती है। इसका स्पष्ट मतलब यह हुआ कि सुनने में पिन्ना का योगदान बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं होता है।
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मानव कान का चित्र

  • कान की नली
  • कर्णपट
  • मुगदर
  • निहाई
  • रकाब
  • गाल खिड़की
  • अंडाकार खिड़की
  • अर्द्धवृत्ताकार नालिका
  • काक्लिया
  • श्रवण तंत्रिका
  • कर्णकंठ नली

2. कान की नली (Auditory canal):
बाह्यकर्ण का दूसरा भाग कान की नली (auditory tube) होती है। यह करीब एक इंच लम्बी होती है। यह नली कुछ टेढ़ी-मेढ़ी होती

(ख) मध्य कर्ण (Middle ear):
मध्यकर्ण का प्रारम्भ कर्णपट्ट में होता है। मध्यकर्ण में एक छोटी-सी जगह होती है जिसे कोटर typmanic cavity) कहा जाता है। इसमें तीन हड्डियाँ होती हैं-मुग्दर (hummer), निहाई (anvil) तथा रकाब (stirrup) ये तीनों हड्डियों एक-दूसरे से सटी होती हैं। इनमें जो हड्डी कर्णपट्ट से सटी होती है, उसे मुग्दर कहा जाता है। मुग्दर दूसरी ओर निहाई का छोर रकाब से सटा होता है। रकाब का दूसरा छोर अंत:कर्ण की अंडाकार खिड़की (oval window) से सटा होता है। जब कोई ध्वनि तरंग कर्णपट्ट को प्रकपित करता है, जब मुग्दर, निहाई तथा रकाब तीनों ही प्रकपित हो जाते हैं जहाँ से अंत:कर्ण (inner ear) की शुरुआत होती है।

(ग) अंतः कर्ण (Inner ear):
अंत:कर्ण कान का सबसे प्रमुख भाग है। इसकी शुरुआत अंडाकार खिड़की (oval window) से होती है। अंत:कर्ण की बनावट तथा कार्य को ठीक ढंग से समझने के लिए भागों में बाँटा गया है –

(i) अर्द्धवृत्ताकार नलिका (Semi-circular canal):
जब व्यक्ति किसी ध्वनि को सुनने को कोशिश करता है, तो उस समय उसके शरीर का एक विशेष मुद्रा (posture) की जरूरत पड़ती है ताकि कान उस ध्वनि तरंग को ठीक ढंग से ग्रहण कर सके। अर्द्धवृत्ताकार नलिका वैसी मुद्रा बनाए रखने में काफी मदद करती है। इसका मतलब यह हुआ कि अर्द्धवृत्ताकार नलिका यद्यपि कान में अवस्थित है, फिर भी इसका संबंध सुनने से प्रत्यक्ष रूप से नहीं है। इसका विशेष महत्त्व शारीरिक संतुलन बनाए रखने से होता है। इस नलिका में एक तरह पदार्थ होता है जिसमें किसी तरह की गति उत्पन्न हो जाने से व्यक्ति का शारीरिक संतुलन नष्ट हो जाता है तथा वह लड़खड़ाने भी लगता है।

(ii) कोक्लिया (Chochlea):
कोक्लिया अंत:कर्ण का सबसे प्रमुख भाग होता है। सुनने की क्रिया में इस भाग का महत्त्व सबसे अधिक है। यह घोंघे या शंख के आकार का होता है। इसके भीतर तीन नलिकाएँ होती हैं जिनमें तरल पदार्थ भरा रहता है। ये तीन नलिकाएँ हैं-वेस्टीब्युलर नलिका, कोक्लियर नलिका तथा टिपैनिक नलिका। कोक्लियर नलिका तथा टिपैनिक नलिका के बीच की झिल्ली होती है जिसे बेसीलर झिल्ली (basilar membrance) कहा जाता है।

इस बेसिलर झिल्ली पर आर्गन ऑफ कोर्टी (organ of corti) होती है जिसमें सेवार के घास के समान पतली-पतली केश कोशिकाएँ होती हैं। जब ध्वनि तरंगें अंडाकार खिड़की में प्रकंपन उत्पन्न करती हैं तो इससे वेस्टीब्युलर नलिका के तरल पदार्थ में भी कंपन उत्पन्न हो जाती है।

इससे टिंपैनिक नलिका के तरल पदार्थ भी प्रकापत हो उठते हैं। इस हलचल से बेसीलर झिल्ली भी प्रकपित हो जाती है जिसके परिणामस्वयप झिल्ली की कोशिकाएँ भी उत्तेजित हो जाती हैं और उनमें श्रवण तंत्रिका आवेग उत्पन्न हो जाता है जो श्रवण तंत्रिका (auditory nerve) द्वारा मस्तिष्क में पहुँचता है और उसके बाद व्यक्ति ध्वनि को सुन पाता है तथा उसका अर्थ समझ पाता है।

इस तरह, स्पष्ट है कि बाह्य कर्ण का मुख्य कार्य ध्वनि तरंगों को ग्रहण करके कान के भीतर भेजना होता है। मध्यकर्ण का मुख्य कार्य ध्वनि तरंग द्वारा उत्पन्न प्रकंपन को कई गुना तेज कर देना होता है तथा अंत:कर्ण का मुख्य कार्य श्रवण तंत्रिका आवेग (auditory nerve impulse) को उत्पन्न करके उसे मस्तिष्क में भेज देना होता है।

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प्रश्न 7.
ध्यान के वस्तुनिष्ठ निर्धारकों को बतायें।
उत्तर:
ध्यान या अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति एक विशेष शारीरिक मुद्रा बनाकर किसी वस्तु को चेतना केन्द्र में लाने के लिए तत्पर रहता है। व्यक्ति जब उद्दीपन की विशेषताओं के कारण. उनपर ध्यान देता है, तब इस स्थिति को ध्यान का वस्तुनिष्ठ निर्धारक (objective determinant) कहा जाता है। वस्तुनिष्ठ निर्धारकों में निम्नलिखित कारकों (factors) की भूमिका प्रधान है –

1. उद्दीपन का आकार (Size of stimulus):
ध्यान को आकृष्ट करने में उद्दीपन के आकार का हाथ काफी महत्त्वपूर्ण है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि छोटे आकार के उद्दीपन की अपेक्षा बड़े आकार के उद्दीपन की ओर व्यक्ति का ध्यान तेजी से खींच जाता है।

इसलिए पुस्तकों, समाचारपत्रों आदि में मुख्य विषयों तथा खबरों को अधिक मोटे-मोटे अक्षरों में दिया जाता है। खासकर अखबारों में जी विज्ञापन दिया जाता है, वह बहुत ही बड़े-बड़े अक्षरों में रहता है जिससे पाठकों का ध्यान सबसे पहले उसी ओर जाता है। ठीक इसी तरह दुकानदार भी लोगों के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए बड़े आकार का साइनबोर्ड दुकान में लगाते हैं।

2. उद्दीपन की तीव्रता (Intensity of stimulus):
अधिक तीव्र उद्दीपन कम तीव्र उद्दीपन की अपेक्षा व्यक्ति का ध्यान जल्द अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। शायद यही कारण है कि बिजली के बल्ब की तीव्र रोशनी पर हमारा ध्यान लालटेन की रोशनी की अपेक्षा जल्द चला जाता है। उसी तरह यदि कोई व्यक्ति अपने कमरे में रेडियों सुन रहा है और पड़ोसी के यहाँ लाउडस्पीकर बजना प्रारम्भ हो जाता है, तो उस व्यक्ति का ध्यान बरबस लाउडस्पीकर की आवाज की ओर चला जाता है। इसका कारण लाउडस्पीकर की आवाज का रेडियों की आवाज से अधिक तीव्र होना है।

3. उद्दीपन का स्वरूप (Nature of stimulus):
किसी उद्दीपन पर ध्यान देने का एक कारण उसका स्वरूप भी होता है। उद्दीपन के स्वरूप से तात्पर्य उसके प्रकार (kinds) से होता है। जैसे, दृष्टि उद्दीपन (visual stimulus), श्रवण उद्दीपन (auditory stimulus), घ्राण उद्दीपन (olfactory stimulus), स्पर्श उद्दीपन (touch stimulus) आदि।

श्रवण उद्दीपन में भाषण, संगीत, बाद्य यंत्रों की आवाज आदि प्रमुख हैं। यदि किसी जगह मधुर संगीत हो रहा है, तो व्यक्ति का ध्यान उसकी ओर अपने-आप चला जाता है। इसी तरह दृष्टि उद्दीपन भी हमारे ध्यान को आकृष्ट करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यही कारण है कि फिल्मी सितारों के चित्र साधारण व्यक्ति की अपेक्षा आधुनिक नवयुवकों एवं नवयुवतियों का ध्यान अपनी ओर जल्द आकृष्ट कर लेते हैं।

4. उद्दीपन की अवधि (Duration of stimulus):
जो उद्दीपन देर तक व्यक्ति को ज्ञानेन्द्रिय को प्रभावित करता है, उसपर व्यक्ति का ध्यान उन उद्दीपनों की अपेक्षा जल्द चला जाता है जो व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रिय को क्षणभर के लिए प्रभावित करता है। जैसे, यदि किसी चित्र को क्षणभर हमारे सामने रखकर हटा लिया जाए तो संभव है कि उसपर हमारा ध्यान नहीं भी जाय, परन्तु यदि उसी चित्र को कुछ मिनट तक हमारे सामने रखा जाता है, तो हमारा ध्यान उस ओर निश्चित रूप से जाता है। अतः, उद्दीपन की अवधि निश्चित रूप से व्यक्ति के ध्यान का निर्धारण करती है।

5. उद्दीपन का रंग (Colour of stimulus):
व्यक्ति का ध्यान उद्दीपन पर उसके रंग के कारण भी जाता है। शायद यही कारण है कि रंगीन विज्ञापनों पर व्यक्ति का ध्यान काले-उजले (black-and-white) में किए गए विज्ञापनों की अपेक्षा से जाता है। सिनेमाघर तथा सिनेमा के पोस्टरों को विभिन्न रंगों से सजाने के पीछे छिपा तर्क यही होता है कि ऐसे उद्दीपन व्यक्ति के ध्यान को आसानी से अपनी ओर आकृष्ट कर सकने में सफल हो सकेंगे।

6. उद्दीपन में परिवर्तन (Change in stimulus):
व्यक्ति का ध्यान किसी उद्दीपन की ओर इसलिए भी चला जाता है, क्योंकि उसमें सहसा परिवर्तन आ जाता है। सड़क पर चलती मोटरगड़ी यदि अचानक रुक जाती है, तो सड़क पर चल रहे व्यक्ति का ध्यान उसपर तुरंत चला जाता है। ठीक उसी प्रकार कमरा में बज रहा रेडियो यदि अचानक बंद हो जाता है, तो कमरे में बैठे सभी व्यक्तियों का ध्यान उस ओर चला जाता है। इस तरह उद्दीपन में परिवर्तन भी ध्यान आकृष्ट करने का एक प्रमुख कारक है। उद्दीपन में सहसा परिवर्तन की ओर क्रमिक परिवर्तन की अपेक्षा ध्यान तेजी से जाता है।

7. उद्दीपन की गति (Movement of stimulus):
गतिशील उद्दीपन स्थिर उद्दीपन की अपेक्षा व्यक्ति का ध्यान जल्द हो अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है। सिनेमाघरों की उन सजावटों की ओर व्यक्ति का ध्यान जल्द चला जाता है जो गति का आभास प्रदान करते हैं। सड़क पर चलती मोटरगाड़ी खड़ी मोटरगाड़ी की अपेक्षा का ध्यान जल्द आकृष्ट कर लेती है, क्योंकि चलती मोटरगाड़ी में गति होती है।

8. उद्दीपन की नवीनता (Novelty of stimulus):
जब व्यक्ति के सामने कोई नया उद्दीपन या पुराना उद्दीपन नए रूप में आता है, तो व्यक्ति का ध्यान उसकी ओर अनायास ही चला जाता है। सचमुच, व्यक्ति ऊब एवं एकरसता से बचने के लिए इस नवीनता की ओर ध्यान देता है। जैसे, देहाती इलाके में यदि कोई अंगरेज महिला चली जाए तो पूरे गाँवभर के लागों का ध्यान उसकी ओर इसलिए चला जाता है कि वैसी महिला उस परिस्थिति के लिए एक नवीन उद्दीपन होती है। उसी प्रकार कोई युवती पैंट ओर शर्ट या कुरता पहनकर देहाती इलाके में जाती है तो उस ओर लोगों का ध्यान अपने-आप चला जाता है।

9. उद्दीपन की पुनरावृत्ति (Repetition of stimulus):
जो उद्दीपन बार-बार एक व्यक्ति के सामने आता है, उस ओर उसका ध्यान शीघ्र चला जाता है। परन्तु, यदि उसी उद्दीपन को सिर्फ एक बाद व्यक्ति के सामने लाया जाए तो हो सकता है कि उसकी ओर उसका ध्यान न जाए। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर किसी चीज का विज्ञापन बार-बार किया जाता है। खासकर, चुनाव प्रचार करते समय लोगों का ध्यान अपने उम्मीदवार की ओर आकृष्ट करने के लिए प्रचारक लाउडस्पीकर द्वारा उसके नाम और चुनाव चिन्ह को बार-बार दोहराता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर रेडियों से अमुक्त फिल्म तथा वस्तु के बारे में थोड़े-थोड़े समय अंतराल के बाद बार-बार पुनरावृत्ति की जाती है।

10. उद्दीपन में विरोध (Contrast in stimulus):
जब दो या दो से अधिक उद्दीपनों में। आपस में विरोध होता है, तब इस कारण भी व्यक्ति का ध्यान उस उद्दीपन की ओर अनायास चला जाता है। इस विरोध के कारण ही बहुत काली लड़कियों के बी एक गोरी लड़की पर या. गोरी लड़कियों के बीच एक काली लड़की पर हमारा ध्यान तेजी से चला जाता है। इसी प्रकार किसी सुंदरी के गोरे गाल पर काला तिल छोटा होने पर भी विरोध के कारण ध्यान आकृष्ट कर लेता है। घोर अँधेरे में टिमटिमाता दीपक हमारे ध्यान को अपनी ओर खींच लेता है।

11. उद्दीपन का विलगन (Isolation of atimulus):
उद्दीपन का विलगन भी एक कारक है जो ध्यान को प्रभावित करता है। विलगन का अर्थ किसी उद्दीपन का अन्य उद्दीपनों से अलग होने से होता है। इस तथ्य को मद्देनजर रखते हुए सिगरेट आदि के प्रचारक बहुत बड़े बैलून में सिगरेट के ब्रांड का नाम लिखकर उसे एक डोर से बाँधने के बाद आकाश में कुछ ऊँचाई पर छोड़ देते हैं।

जो लोग भी उधर से गुजरते हैं, उनका ध्यान उस ओर अवश्य चला जाता है। फिर किसी क्लास में बैठे छात्रों के बीच से कोई एक छात्र खड़ा हो जाता है, तो सबका ध्यान उस ओर चला जाता है। इन सबका कारण उद्दीपन का विगलन है। स्पष्ट हुआ कि उद्दीपन की कई ऐसी विशेषताएँ होती हैं जिनके कारण व्यक्ति का प्रयास अनायास उनकी ओर चला जाता है।

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प्रश्न 8.
ध्यान की परिभाषा दें। इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
ध्यान की परिभाषा-व्यक्ति की ज्ञानेन्द्रियाँ किसी भी समय अनेक तरह के उद्दीपनों से प्रभावित होती रहती है। वह इनमें सबों के प्रति अनुक्रिया न करके कुछ खास-खास उद्दीपन को उनमें से चुनकर उनके प्रति अवश्य ही अनुक्रिया करता है। मनोविज्ञान में इस तरह की चयनात्मक प्रक्रिया को अवधान (attention) कहा जाता है। यदि हम अवधान की एक उत्तम परिभाषा देना चाहें तो इस प्रकार दे सकते हैं-“अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति विशेष शारीरिक मुद्रा (bodily posture) बनाकर किसी उद्दीपन की चेतना केन्द्र में ला पाता है।”

ध्यान की विशेषताएँ (Characteristics of attention):
ध्यान की परिभाषा का विश्लेषण करने पर हमें ध्यान की कुछ निश्चित विशेषताओं का पता चलता है जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं –

1. ध्यान या अवधान एक चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया है (Attention is a selective mental process):
वातावरण में उपस्थित अनेक उद्दीपन हर समय हमारी ज्ञानेन्द्रियों की प्रभावित करते रहते हैं। लेकिन, उनमें कुछ ही उद्दीपन हमारे चेतना केन्द्र (focus of consciousness) में आते हैं, बाकी सभी उपेक्षित हो जाते हैं। व्यक्ति इन उद्दीपनों में से किसी एक को चुन लेता है और उसी पर ध्यान देता है। इसलिए ध्यान को चयनात्मक मानसिक प्रक्रिया कहा जाता है।

2. ध्यान एक प्रेरणात्मक प्रक्रिया है (Attention is a motivational process):
ध्यान तथा प्रेरणा (motivation) में घनिष्ठ संबंध है। खासकर उत्तेजनाओं के चयन में प्रेरणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं, अभिरुचियों, मनोवृत्तियों आदि से प्रेरित होकर किसी उद्दीपन को चेतना केन्द्र में लाता है अर्थात् उसपर ध्यान देता है।

3. ध्यान का विस्तार सीमित होता है (Span of attention is limited):
एक समय में उपस्थित कई उद्दीपनों में व्यक्ति जितने अधिक-से-अधिक उद्दीपनों पर ध्यान दे पाता है, उसे ही ध्यान का विस्तार कहा जाता है। प्रयोगों द्वारा यह स्पष्ट है कि एक क्षण में सीमित वस्तुओं पर ही ध्यान केन्द्रित हो पाता है। इन प्रयोगों में यह स्पष्ट है कि क्षणभर में 6 से 11 अक्षरों या अंकों पर ही ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। अर्थपूर्ण अक्षरों के ध्यान का विस्तार 11 तक होता है –

और निरर्थक शब्दों का ध्यान का विस्तार 6 से 8 तक का होता है। जिस उपकरण से ध्यान विस्तार का अध्ययन किया जाता है, उसे “टैचिस्टोस्कोप’ (tachistoscope) कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि ध्यान का विस्तार तो सीमित होता ही है, साथ-ही-साथ विभिन्न प्रकार के उद्दीपनों के लिए ध्यान-विस्तार अलग-अलग होता है।

4. ध्यान उद्देश्यपूर्ण होता है (Attention is purposive):
हम एक साथ अनेक उद्दीपनों या वस्तुओं पर ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाते। जब हम अनेक उद्दीपनों में से चुनकर किसी एक उद्दीपन पर ध्यान केन्द्रित करते हैं तब उसके पीछे किसी उद्देश्य की पूर्ति का भाव छिपा रहता है। जैसे, यदि कोई छात्र परीक्षा के समय खेलकूद से ध्यान हटाकर पुस्तकों की ओर केन्द्रित करता है तब इसके पीछे उसका उद्देश्य परीक्षा में अधिक अंक लाकर उच्च स्थान प्राप्त करना होता है। इस तरह ध्यान उद्देश्यपूर्ण होता है।

5. ध्यान में अस्थिरता तथा उच्चलन का गुण होता है (Attention has the property of fluctuation and shifting)”
ध्यान में अस्थिरता तथा उच्चलन दोनों का गुण होता है। ऐसा देखा गया है कि व्यक्ति का ध्यान प्रायः एक ही उद्दीपन के एक पहलू से दूसरे पहलू पर परिवर्तित होता रहता है। यह गुण का ध्यान अस्थिरता (fluctuation of attention) कहा जाता है।

जैसे, यदि कोई व्यक्ति किसी सुन्दर चित्रकारी पर देखता है, तो उसका ध्यान चित्रकारी के एक बूटे से दूसरे बूटे तथा फिर दूसरे बूटे से तीसरे बूटे पर अपने-आप जाता है। ध्यान के इस गुण को ध्यान एक अस्थिरता (fluctuation of attention) कहा जाता है। ऐसा भी होता है कि व्यक्ति का ध्यान एक उद्दीपन से दूसरे उद्दीपन तथा दूसरे से तीसरे उद्दीपन पर परिवर्तित होता है। ध्यान के इस गुण को ध्यान उच्चलन (shifting of attention) कहा जाता है। जैसे, कपड़ा की दुकान में जब व्यक्ति का ध्यान एक कपड़े से दूसरे कपड़े तथा दूसरे से तीसरे कपड़े पर जाता है, त वह ध्यान उच्चलन (shifting of attention) का उत्तम उदाहरण बनता है।

6. ध्यान में विभाजन का गुण होता है (There occurs division in attention):
ध्यान में विभाजन संभव है। सामान्यतः जब एक ही समय में व्यक्ति दो भिन्न कार्यों को करने लगता है तब इस प्रक्रिया में उसका ध्यान उन दोनों कार्यों पर होता है। अवधान की इस स्थिति को अवधान विभाजन (division of attention) कहा जाता है। अक्सर देखा जाता है कि छात्र किताब पढ़ते समय धीमा करके अपना रेडियो भी चालू रखते हैं। इस तरह, उनका ध्यान कुछ किताब पर तथा कुछ रेडियो पर होता है। इस,उदाहरण से यह स्पष्ट है कि ध्यान में विभाजन का गुण होता है।

7. ध्यान में एक विशेष तरह की शारीरिक मुद्रा होती है (Attention involves particular bodily posture):
जब भी व्यक्ति किसी वस्तुया उद्दीपन पर ध्यान देता है तो इसमें एक विशेष शारीरिक मुद्रा भी होती है ताकि वह उद्दीपन का ठीक ढंग से प्रत्यक्षण करे। जैसे, वर्ग में शिक्षक का भाषण सुनते समय छात्र अपने सिर, हाथ, पैर आदि को विशेष ढंग से कर लेते हैं जिसे देखने से यह लगता है कि वे ध्यानमग्न होकर उनका भाषण सुन रहे हैं। इस तरह, प्रत्येक ध्यान में एक विशेष शारीरिक मुद्रा होती है। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि ध्यान की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिनके आधार पर इसके स्वरूप को भनीभांति समझा जाता है।

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प्रश्न 9.
भ्रम से आप क्या समझते हैं? या, भ्रम कितने तरह के होते हैं?
उत्तर:
एक उत्तेजना के उपस्थित होने पर ज्ञानेन्द्रियों का सम्पर्क उस उत्तेजना का एक सामाजिक और सर्वमान्य अर्थ होता है। पर कभी-कभी प्राणी उत्तेजनाओं के सम्पर्क में आने के पश्चात् भी उनके सामाजिक एवं सर्वमान्य अर्थ को समझने में भूल कर जाता है। ऐसी अवस्थाओं को ही विपर्यय या भ्रम की संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार मनोविज्ञान का दृष्टि से भ्रम का मानसिक क्रिया है जिसके द्वारा किसी उपस्थित उद्दीपन का गलत ज्ञान प्राप्त होता है। इस प्रकार भ्रम के सम्बन्ध में तीन बातें उल्लेखनीय हैं।

1. भ्रम एक मानसिक क्रिया है।

2. भ्रम के लिए किसी उद्दीपन का उपस्थित रहना जरूरी है। किसी को अंधेरे में पेड़ के उपस्थित रहने पर चोर का भ्रम होता है। ठीक उसी प्रकार रस्सी के उपस्थित रहने पर साँप का भ्रम होता है, किसी मुसाफिर को देखकर मित्र का भ्रम होता है। यदि पेड़, रस्सी और मुसाफिर न रहें, तो क्रमशः चोर, साँप और मित्र का भ्रम नहीं होगा।

3. भ्रम से उद्दीपन का गलत ज्ञान प्राप्त होता है। यही भ्रम होता है। यही भ्रम की सबसे प्रमुख विशेषता है जो इसे प्रत्यक्षीकरण से भिन्न करती है। रस्सी को देखकर साँप समझना रस्सी का गलत ज्ञान है। भ्रम या विपर्यय के प्रकार (Kinds of Illusion) विपर्यय प्रायः सभी सामान्य व्यक्तियों में होता है। विपर्यय क्षणिक तथा स्थायी दोनों हो सकता है। यह भौतिक तथा. मानसिक दोनों प्रकार की परिस्थितियों के कारण हो सकता है। इस दृष्टिकोण से विपर्यय के दो प्रकार हो सकते हैं –

(अ) वैयक्तिक विपर्यय (Personal Illusion):
मानसिक परिस्थिति के कारण समुत्पन्न विपर्यय वैयक्तिक कोटि का होता है। यह परिस्थिति के अनुसार क्षणिक अथवा स्थायी दोनों हो सकता है। जैसे, रस्सी को साँप समझ लेना या पेड़ को आदमी समझ लेना, पेड़ को चोर समझ लेना अथवा पानी को सूखा समझ लेना आदि वैयक्तिक विपर्यक के उदाहरण हैं। यह नितांत क्षणिक-कोटि का दोष उससे दूर चला जाता है। जैसे, चिराग आते ही रस्सी को रस्सी तथा चटाई को चटाई समझ लेना अथवा पाँव पड़ते ही पानी और सूखी जमीन का सही ज्ञान हो जाना इसके प्रमाण हैं। इस प्रकार विपर्यय में वैयक्तिक भिन्नता होती है। एक ही व्यक्ति में भी यह देश, काल तथा संदर्भ में परिस्थिति के अनुसार बदलता रहता है। इसका आधार पूर्णतः मानसिक होता है।

(ब) विश्वजनीय विपर्यय (Universal Illusion):
इसे सामान्य विपर्यय भी कहा जाता है। यह स्थायी होता है। इसका कारण भौतिक होता है। अपनी बुद्धि से ही सही अर्थ लगा लेने पर उसमें विशेष परिवर्तन नहीं होता। सचेष्ट रहने पर भी इस प्रकार की गलती होती है। इस प्रकार की गलती प्राय: सभी आदमी करते हैं। अत: इस कारण किसी को असामान्य नहीं कहा जा सकता। इसका अपवाद सामान्यतः कोई नहीं हो सकतः। इसके अनेक प्रमाण हमारे दैनिक जीवन में मिलते हैं। उदाहणार्थ –

  • पृथ्वी स्थिर है और सूर्य चलता हुआ नजर आता है।
  • जहाँ कहीं भी खड़े होरक आप अपनी आँखें फैलायें तो चारों ओर आकाश जमीन को छूता हुआ नजर आता है।
  • चलती रेलगाड़ी की खिड़कियों से झाँकने पर ऐसा लगता है मानो अलग-अलग के वृक्ष तथा बिजली के खम्भे पीछे की ओर भागते हों।
  • स्टेशन पर किसी एक गाड़ी में आप बैठे हैं। यदि बगल की दूसरी गाड़ी चलने लगे तो आपको ऐसा लगेगा मानों आपकी ही गाड़ी चल रही है।
  • रेल की दो पटरियों के बीच बैठकर आगे की ओर देखने पर ऐसा लगता है मानो दोनों पटरियाँ कुछ दूरी पर जाकर बिल्कुल सट रही हों।

इस प्रकार के वस्तुगत तत्त्वों से समुत्पन्न स्थायी विपर्यय सभी सामान्य व्यक्तियों में पाये जाते हैं। कभी-कभी पूर्ण वैयक्तिक स्तर का भी अस्थायी विपर्यय होते देखा जाता है। माँ-बाप, गुरु तथा हितैषी, अभिभावक के डाँट-फटकार, भर्त्सना आदि का गलत अर्थ लगाकर आत्महत्या कर लेना, अथव उन्हें अपना जानी दुश्मन समझकर उनसे बदला लेने का प्रयास करना इसका व्यावहारिक प्रमाण है। प्रयोगशाला में इस व्यवहार का विशेष अध्ययन किया गया है। इसका महत्त्वपूर्ण प्रमाण दृष्टिगम विपर्यय में मिलता है। इसे ज्यामितिय विपर्यय भी कहते हैं।

(स) दृष्टिगत विपर्यय:
दृष्टिगत विपर्यय को हम पाँच भागों में बाँट सकते हैं –

  • दूरी सम्बन्धी
  • लम्बाई सम्बन्धी
  • भरा स्थान
  • मूलर लायर और
  • विपरीत

अब हम इन पर विचार करेंगे –

1. दरी सम्बन्धी विपर्यय:
इसमें किसी रेखा की लम्बाई अथवा चित्र के आकार को समझने में कठिनाई हो सकती है।

2. लम्बाई विपर्यय:
समान लम्बाई की रेखाओं में खड़ी रेखा पड़ी रेखा से लम्बी मालूम पड़ती है। वण्ट के अनुसार खड़ी रेखा को देखने पर पड़ी रेखा की अपेक्षा अधिक समय और श्रम लगता है, इसमें आँख को अधिक गति करनी पड़ती है इसलिए उनका अधिक मूल्यांकन हो जाता है। हेल्महोज ने इसमें आदत का मान भी है।

3. भरा स्थान विपर्यय:
समान लम्बाई की दो रेखाएँ लीजिए। एक को बराबर दूरी पर चार जगह काट दीजिए। दूसरी को यों ही भरा पूरा छोड़ दीजिए। आप देखेंगे कि भरा स्थान रिक्त की अपेक्षा लम्बा पड़ता है।

4. मूलर लायर विपर्यय:
समान लम्बाई को एक पंख पड़ी. रेखा तथा दूसरी बाण रेखा को एक साथ देखने से पंख रेखा बाण रेखा से बड़ी मालूम होती है। थायरी महोदय ने इसकी व्याख्या दृश्य के आधार पर की है। उनके मुताबिक खुली रेखा विस्तृत होने के कारण अधिक जगह का ढंक लेती है। बन्द रेखा सीमित रहती है। अत: वास्तविक लम्बाई समझने में गलती होती है।

5. विपरीत विपर्यय:
दो समान क्षेत्रफल के वृत्तों को लीजिए। एक को छोटे तथा दूसरे को बड़े वृत्त के क्षेत्रफल में रख दीजिये। यहाँ छोटे वृत्तों के बीच वाला वृत्त अपेक्षाकृत बड़ा मालूम होगा। इस प्रकार लम्बे व्यक्ति के साथ खड़ा रहने पर नाटा व्यक्ति बहुत ही नाटा लगता है।

कोण विपर्यय:
कोण से दिशा का बोध होता है। जीलनर, हेरिंग, वुण्ट तथा पोंगेनजर्फ के चित्रों में इनका विशेष प्रमाण मिलता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि एक समकोण से कमवाले कोण का अधिक मूल्यांकन होता है तथा एक समकोण से अधिक वाले कोण का कम मूल्यांकन होता है। इनके अतिरिक्त लिपिशोधक भ्रम तथा चलिचत्र भ्रम के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। ये भी सामान्य कोटि के स्थायी विपर्यय हैं। ये विश्वजनीन होते हैं।

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प्रश्न 10.
प्रत्यक्षीकरण में पूर्वानुभव का क्या हाथ है? वर्णन करें। या, प्रत्यक्षीकरण में गत अनुभव का महत्त्व बतलायें।
उत्तर:
पूर्व अनुभूति का प्रत्यक्षीकरण में स्थान के विषय में मनोवैज्ञानिक विचारकों में दो श्रेणियाँ हैं। कुछ विचारकों के अनुसार, पूर्व अनुभूति मनुष्य में एक मानसिक अवस्था को उत्पन्न करती है। फलत: मनुष्य पूर्व में देखी हुई वस्तुओं को पूर्व की तरह देखता है। प्रत्यक्षीकरण से जो ज्ञानात्मक व्यवहार या अनुभव उत्पन्न होते हैं उनका आधार पूर्व अनुभूति ही होती है। इन मनोवैज्ञानिकों का मत है कि मनुष्य पूर्व-अनुभूति के अभाव में किसी भी चीज का प्रत्यक्षीकरण नहीं कर सकता। इस विचार की पुष्टि के लिए मनोवैज्ञानिकों ने अनेक प्रयोग किये हैं। थाउलैंस महोदय ने एक प्रयोग किया है जिसमें व्यक्ति को कुर्सी दिखलाई।

कुर्सी जिस व्यक्ति को दिखाई गयी, उस व्यक्ति की आँखों में अक्षिपट पर विशेष प्रबन्ध द्वारा उस कुर्सी का प्रतिबिम्ब इस प्रकार गिराया गया कि यह प्रतिबिम्ब कुर्सी उलट कर देखने पर होने वाले प्रतिबिम्ब की तरह था। ऐसी अवस्था में व्यक्ति को कुर्सी उल्टी हुई नजर आनी आवश्यक थी, पर ऐसा न हुआ। कुर्सी उस व्यक्ति को सीधी ही जान पड़ती थी। कुर्सी को सीधा रख देखने का एकमात्र कारण मनुष्य की पूर्व अनुभूति थी, जिसने मनुष्य में एक मानसिक स्थिति को उत्पन्न कर पूर्व की देखी वस्तु को पहले की ही तरह देखने की प्रवृत्ति का सम्पन्न किया।

अर्थात् उसने कभी भी उलटी हुई कुर्सी का उस अवस्था में देखने की अनुभव नहीं किया था। पूर्व का अनुभव कुर्सी को सीधा देखने का था फलतः उसने कुर्सी को सीधा हो रखा देना। इस प्रयोग से यह स्पष्ट है कि पूर्व-अनुभूति के अभाव में प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है एक दुसरा प्रयोग एक जमान्ध व्यक्ति पर भी किया गया था जन्मान्ध व्यक्ति की आँखों को ऑपरशन म ठीक करने पर जब उसकी आँखों में रोशनी आ गयी त उसे त्रिभुज और वन क आकार की दा भिन्न आकृतियाँ दिखलाई गयी। उस व्यक्ति ने पहले कभी इन आकृतियों को नहीं देखा था। परिणामस्वरूप यह पाया गया कि वह व्यक्ति इन दोनों चीजों के आपसी अन्तर को पहचानने में असमर्थ था। इसकी दष्टि में वत्त एवं त्रिभज में कोई अन्तर नहीं था। इस प्रयोग से भी पूर्व अनुभूति की महत्ता स्पष्ट हो जाती है।

दूसरे वर्ग के विचारक गेस्टाल्टवादी हैं। गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों के अनुसार प्रत्येक प्रत्यक्षीकरण में आकार और पृष्ठभूमि का सम्बन्ध रहता है। अर्थात् मनुष्य के अनुभवों में भी पृष्ठभूमि और सम्बन्ध देखने को मिलता है। इसके अनुसार प्रत्यक्षीकरण संवेदना और अर्थ का योग नहीं है। दूसरे शब्दों में, ऐसा नहीं होता कि किसी उद्दीपन के सम्बन्ध में जो अर्थ हमें मालूम है उसकी वही अर्थ हम हमेशा लगावें। हमेशा अर्थ पहले से निश्चित नहीं रहता है।

प्रत्यक्षीकरण प्राप्त करते समय परिस्थिति का महत्त्वपूर्ण हाथ रहता है। किसी भी वस्तु का प्रत्यक्षीकरण किसी पृष्ठभूमि में होता है। यह पृष्ठभूमि वस्तु के प्रत्यक्षीकरण में परिवर्तन ला सकती है। उदाहरणार्थ, हमें यह अनुभव है कि पेड़ स्थिर रहते हैं, ये चल नहीं सकते। लेकिन जब चलती रेलगाड़ी में सफर करते हैं तो अगल-बगल के पेड़-पौधे विपरीत दिशा में भागते हुए दीख पड़ते हैं।

इसी तरह दौड़ते हुए बादल की पृष्ठभूमि में चाँद दौड़ता हुआ लगता है। अतः उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण हमेशा पूर्व निश्चित दिशा में ही नहीं होता। कभी-कभी गत अनुभव पृष्ठभूमि के रूप में काम करते हैं। इस प्रकार प्रत्यक्षीकरण में गत अनुभव का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कभी तो गत अनुभव किए मानसिक वृत्ति का काम करता है जिसके परिणामस्वरूप किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण पूर्व निश्चित रूप में होता है और कभी यह पृष्ठभूमि का भी काम करता है जिसके फलस्वरूप प्रत्यक्षीकरण एक खास तरह का होता है।

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प्रश्न 11.
संक्षिप्त टिप्पणी लिखें –
(क) उत्तेजना
(ख) प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक
(ग) प्रत्यक्षीकरण के आकार तथा पृष्ठभूमि।
उत्तर:
(क) उत्तेजना (Stimulus):
मस्तिष्क में वर्तमान संगठन करने की क्रिया कार्यशील – होना उत्तेजना पर निर्भर है। वातावरण की उत्तेजनाएँ मस्तिष्क में संगठन करने की क्रिया उत्पन्न करती है। यह क्रिया जब मस्तिष्क में उत्पन्न होती है तो व्यक्ति की मानसिक अवस्था कुछ खास तरह की हो जाती है। व्यक्ति को प्रत्यक्षीकरण मस्तिष्क की इस अवस्था के ही अनुरूप.होता है। इस प्रकार गेस्टाल्टवादियों के अनुवाद वातावरण में, उपस्थित उत्तेजना एवं प्रत्यक्षीकरण में कोई अनुरूपता नहीं रहती, किन्तु व्यक्ति के अनुभव और मानसिक क्रियाओं में काफी अनुरूपता देखी जाती है।

गेस्टाल्टवादियों ने यह पूर्णतः स्पष्ट कर दिया है कि भौतिक वातावरण में उपस्थित उत्तेजनाएँ हमारे अनुभव में पूर्णरूपेण नहीं मिलती हैं। व्यक्ति का वातावरण-सम्बन्धी ज्ञान का अनुभव स्नायुमण्डल के स्तर पर हुए संगठन की देन है। इस संगठन के फलस्वरूप ही व्यक्ति संवेदनाओं के द्वारा प्राप्त प्रदत्ता को ज्यों का त्यों ग्रहण नहीं करता, बल्कि उन प्रदत्तों का एक भिन्न अनुभव इसे होता है, जिसको अभिव्यक्ति वह अपने व्यवहारों में करता है। स्नायुमण्डल पर हुए संगठन के फलस्वरूप व्यक्ति वातावरण का संगठित अनुभव करता है तथा वातावरण की उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण वह आकार एवं पृष्ठभूमि में करता है।

(ख) प्रत्यक्षीकरण के निर्धारक (Factors of perception):
गेस्टाल्टवादियों के अनुसार प्रत्यक्षीकरण संवेदनाओं और गत अनुभवों के आधार पर व्याख्या नहीं की जा सकती। वस्तु का वास्तविक रूप पूर्ण में है। जर्मनी में इसको गेस्टाल्टन (Gestaltan) और अंग्रेजी में गेस्टाल्ट या जेस्टाल्ट (Gestalt) कहा जाता है। वस्तु के प्रत्यक्षण में उसके इन जेस्टाल्ट का बड़ा महत्व है।

गेस्टाल्ट के प्रभाव से ही चेहरा सुन्दर दिखलाई पड़ता है। प्रत्यक्षीकरण सम्बन्धी इस सिद्धांत का प्रतिपादन सबसे पहले गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने किया था। 1912 में बर्दाईमर ने प्रयोगों के आधार पर यह बतलाा कि उत्तेजना का प्रत्यक्षीकरण उसको पूर्ण रूप में होता है। इस प्रकार आँख, नाक, कान, जिह्वा आदि विभिन्न इन्द्रियों से जो प्रत्यक्षीकरण होता है वह पूर्ण रूप से ही होता है। हारमोनियम से निकली लय (Tune) बड़ी मोहक लगती है, परन्तु इस लय के सा, रे, ग, म, को अलग-अलग कर दिया जाय तो वह लय गायब हो जायगी।

गेस्टाल्टवादियों के अनुसार, प्रत्यक्षीकरण भौतिक पदार्थों की उत्तेजना के फलस्वरूप प्राणी के स्नायु-संस्थान में होने वाली शारीरिक क्रियाओं से निर्धारित होता है। व्यक्ति को जो कुछ दिखाई पड़ता है वह बहुत कुछ उसे दिखलाई देने वाली वस्तु से उत्पन्न संवेदनाओं पर निर्भर होता है। वातावरण में उपस्थित उत्तेजनाओं का प्रत्यक्षीकरण गेस्टाल्टवादियों के अनुसार मस्तिष्क द्वारा वातावरण को संगठित करने पर आश्रित है। यह सत्य है कि उत्तेजनाओं के उपस्थित होने पर संवेदनाएँ प्राप्त होती हैं, किन्तु व्यक्ति केवल इन संवेदनाओं के आधार पर ही प्रत्यक्षीकरण नहीं करता। वह मस्तिष्क में स्थित संगठन-क्रिया के सहारे वातावरण को देखता है जिससे उसके सामने उपस्थित होनेवाली उत्तेजनाएँ अर्थपूर्ण एवं संगठित होती हैं।

इस प्रकार गेस्टाल्टवादियों के मतानुकूल स्पष्टतः प्रत्यक्षीकरण एक जन्मजात क्रिया है। इस क्रिया के प्रमुख उद्देश्य-संगठन पर ही वस्तु का ज्ञान आश्रित है। ज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट संगठन को निर्धारित करने वाले स्वतंत्र संवेदनात्मक अंग प्रत्यक्ष क्रिया के रचनात्मक अंग कहलाते हैं। इन्हीं के आधार पर गेस्टाल्टवादी मनोवैज्ञानिकों ने संगठन के कुछ नियम निकाले हैं। मुख्य निम्नलिखित हैं –

1. समग्रता का नियम:
गेस्टाल्टवादियों ने समग्रता के नियम को संगठन का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत माना है। इस नियम के अनुसार प्रत्यक्षीकरण में समस्त परिस्थिति का एक साथ प्रत्यक्ष होता है। संवेदन-समूह प्राणी के मस्तिष्क पर संगठित आकार के रूप में असर डालता है। यह संगठित आकार ही जर्मन भाषा में जेस्टाल्टन कहलाता है। किसी चित्र को देखने पर आप का ध्यान सबसे पहले समग्र संगठन की ओर जाता है और आप यह नोट करते हैं कि कुछ बिन्दु जोड़े में दिए गए हैं।

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पूरे चित्र में जितने बिन्दु हैं उनकी संख्या की ओर आपका ध्यान बाद में जाता है और किसी विशेष बिन्दू की ओर तो आप कठिनता से ही ध्यान दे पाते हैं। अर्थात् एक अकेले बिन्दु को आप शायद ही कभी देखते हैं। समग्रता के नियम का मतलब है कि प्रत्यक्षीकरण में समग्रता सबसे पहले दिखाई पड़ती है। इसी कारण कभी-कभी देखने वाले का ध्यान चित्र के छोटे-मोटे दोष की ओर नहीं जाता।

यदि हम कोशिश करके देखें तो हमको आपने जाने-पहचाने व्यक्तियों के चेहरे में भी आँख, नाक आदि की अलग-अलग विशेषताएँ याद नहीं आयेंगी जबकि हमने कभी जान-बूझकर उसकी ओर गौर नहीं किया हो। इसका कारण यह है कि हमने समग्र चेहरे को एक साथ देखा है। चेहरे के विशेष अंगों की ओर ध्यान नहीं दिया है। समग्रता के नियम को जेस्टाल्टवादियों ने कई तरह के विपर्ययों से सिद्ध किया है।

2. आकृति और पृष्ठभूमि का नियम (Law of Figure and Black-ground):
व्यक्ति के सामने उसके वातावरण में अनेक उत्तेजनाएँ रहती हैं। व्यक्ति अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप वातावरण में उपस्थित इन उत्तेजनाओं में से किसी को अपने सामने आकार के रूप में रखता है। अन्य उत्तेजनाओं सामने आकार के रूप में रहने वाली उत्तेजना की पृष्ठभूमि में रहती हैं। आकार और पृष्ठभूमि का सम्बन्ध वातावरण को संगठित करने में आवश्यक सहयोग देता है। रूबिन महोदय ने कहा है कि उत्तेजना के उपस्थित होने पर प्रथम तो व्यक्ति को उत्तेजनाओं के साथ सम्बन्ध परिलक्षित होने लगता है। अर्थात् व्यक्ति सामने की वर्तमान एक उत्तेजना के अतिरिक्त अन्य उत्तेजनाओं को भी सम्बन्धित पाता है।

प्रत्यक्षीकरण की इस दूसरी अवस्था के उपरान्त व्यक्ति इन अनेक उत्तेजनाओं को एक-दूसरे से पृथक करने लगता है। इस पृथक्कीकरण की क्रिया के फलस्वरूप एक उत्तेजना अत्यन्त स्पष्ट एवं सामने अन्य उत्तेजनों की पृष्ठभूमि में उपस्थित होती है। इस प्रकार आकार और पृष्ठभूमि का सम्बन्ध प्रत्येक प्रत्यक्षीकरण की क्रियाओं में परिलक्षित होती है। एक सामान्य अनुभव को हम लें, हम वर्ग में बैठे पढ़ रहे हैं। सामने दिवाल में लगे ब्लैक बोर्ड को दिवाल से अलग नहीं देखते। यहाँ ब्लैक बोर्ड पीछे फैली दिवाल के ऊपर उभरा हुआ होता है।

इस प्रकार दिवाल पृष्ठभूमि के रूप में और ब्लैक बोर्ड आकार के रूप में उपस्थित होता है। सेण्डर महोदय ने ‘आकार और पृष्ठभूमि’ के रूप में प्रत्यक्षीकरण करने की प्रवृत्ति को जन्मजात माना है। इन्होंने एक प्रयोग जन्मान्ध व्यक्ति पर किया। इस जन्मान्ध व्यक्ति की आँखें इलाज के बाद ठीक हो जाने के पश्चात् उसके सामने कुछ उत्तेजनाओं को उपस्थित किया गया। उत्तेजनाओं की उपस्थिति के बाद व्यक्ति में आकार और पृष्ठभूमि का अनुभव एक प्राथमिक अनुभव है जिसके अभाव में प्रत्यक्षीकरण असंभव हो जायेगा।

(क) आकार देखने में उभरा हुआ एवं ऊपर निकला हुआ मालूम होता है, परन्तु पृष्ठभूमि आकार के पीछे दूर तक फैली रहती है।
(ख) आकार का स्थानीयकरण संभव है, परन्तु पृष्ठभूमि के फैले रहने के कारण उसका स्थान निरूपण नहीं कर सकते।
(ग) आकार का अपना रंग होता है जो सतह पर केन्द्रीभूत रहता है। किन्तु पृष्ठभूमि का रंग अस्पष्ट एवं परिवर्तनशील रहता है।
(घ) आकार मध्य चेतना में रहने के कारण अधिक दिनों तक स्मृति में रहता है। परन्तु पृष्ठभूमि चेतना के मध्य में नहीं होती, अत: इसकी स्मृति व्यक्ति को अधिक दिनों तक नहीं रहती।

गेस्टाल्टवादियों ने केवल संगठन के नियम ही नहीं बतलाये बल्कि बहुत से प्रयोगों के आधार पर आकृति और पृष्ठभूमि निर्धारित करने वाले नियम भी बतलाये हैं जो निम्नलिखित हैं –

  1. समानता का नियम (Law of Similarity): पहला नियम समानता क नियम है। रंग, आकृति, विस्तार आदि किसी भी प्रकार की समान्ता रखनेवाले अंगों में परस्पर संगठित होने की प्रवृत्ति रहती है।
  2. समीपता का नियम (law of Proximity): आकृति तथा पृष्ठभूमि का निर्धारक दूसरे नियम समीपता का नियम है। देश-काल में एक-दूसरे के नजदीक के अंगों में संगठित होने की प्रवृत्ति होती है और उनका समग्र प्रत्यक्षीकरण होता है।
  3. संगति का नियम Haw of symmetry): तीसरा नियम स्गति का नियम है। संगति से सभी अंग संगठित ह जात हैं और उनका समग्र से प्रत्यक्षाकरण हाता है। इतना प्रभाव समीपता और समानता का भी नहीं मालम पड़ता जितना कि संगति का है।
  4. सजातीयता का नियम (‘.aw of Homogenity): आकृति तथा पृष्ठभूमि का निर्धारक तीसरा नियम सजातीयता का निगम है। समान तीव्रता अथवा दीप्ति रखने वाले अंग संगठित हो। जाते हैं।
  5. निरन्तरता: निरन्तरता क भी संगठन पर प्रभाव पड़ता है। निरन्तरता के आधार पर सत्यता का नियम बना है।
  6. आच्छादन (Closure): निरन्तरता के समान ही आच्छादन का भी विभिन्न अंगों के संगठन पर प्रभाव पड़ता है।

उपर्युक्त छः बाह्य कारकों (Peripheral Factors) के अलावा बर्दाईमर आदि गेस्टाल्टवादियों ने संगठन में सहायक कुछ केन्द्रीय कारक (Central Factors) भी बतलाये हैं। ये केन्द्रीय कारक व्यक्ति में होते हैं। इसके कारण व्यक्ति को मिली उत्तेजनाएँ एक खास तरह से संगठित हो जाती हैं वे केन्द्रीय कारक निम्नलिखित हैं –

1. परिचय (Familiarity):
जिस तरह के संगठन से व्यक्ति का परिचय हो जाता है वह उसको शीघ्र और आसानी से दिखाई टने लगता है। किसी परिचित चित्र पहेली को दोबारा देखने पर हम उसकी वास्तविकता को एकदम जान जाते हैं और बाकी आकृति से इसमें कोई बाधा नहीं पड़ती। यदि किसी ऐसे व्यक्ति को यह चित्र दिखाया जाय जिसने उसे पहले कभी न देखा हो तो उसकी वास्तविकत. को नहीं पहचान पायेगा। अत: जेस्टाल्टबादियों के अनुसार यह जरूरी नहीं कि परिचय से प्रत्यक्षीकरण पर जरूर असर पड़े।

2. मानसिक तत्परता (Mental set):
दूसरा केन्द्रीय कारक मानसिक तत्परता है। मानसित तत्परता से उत्तेजनाओं के संगठन पर बड़ा असर पड़ता है। मानसिक तत्परता का एक कारण आदत हो सकती है। उदाहरणार्थ, दार्शनिक जगत के तात्विक पक्ष की ओर देखता है और व्यापारी दुनिया तत्परता किसी विशेष परिस्थिति में भी बन जाती है, जैसे-जब कोई व्यक्ति किसी स्थान:पर बहुत जल्दी पहुँचाना चाहता है तो उसको तेज से तेज सवारी की गति भी धीमी जान पड़ती है।

मानसिक तत्परता के भेद के कारण ही अलग-अलग तरह की दिखाई पड़ती है। बाह्य तथा केन्द्रीय कारक के अलावा गेस्टाल्टवादियों ने संगठन के सहायक तत्त्वों में प्रोत्साहक कारकों (Reinforcing factors) को भी माना है। इससे उभार तथा अच्छी आकृति को गिना जाता है। अधूरे को पूरा करना मस्तिष्क की प्रवृत्ति है, इसी कारण टूटीं रेखाओं से बना वृत्त पूरा दिखाई पड़ता है और उनके अन्तर की ओर हमारा ध्यान नहीं जाता । किसी चित्र में उभरे हुए अंगों की ओर सबसे पहले हमारा ध्यान जाता है।

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प्रश्न 12.
विपर्यय और विभ्रम में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
विपर्यय की तरह विभ्रम (Hallucination) में भी अयथार्थ प्रत्यक्षीकरण होता है। लेकिन फिर भी इन दोनों में अन्तर है। विपर्यय और विभ्रम में पहला भेद यह है कि विपर्यय के लिए बाह्य उत्तेजा की उपस्थिति अनविर्या है। जब हमारे सामने कोई वस्तु उत्तेजना के रूप में उपस्थित की जाती है और हमें उसका यथार्थ प्रत्यक्षीकरण होता है, तब उसको विपर्यय कहते हैं, जैसे-अंधेरी रात में जमीन में पड़ी रस्सी को देखकर उसे साँप समझना, ठूठे पेड़ को देखकर उसे चोर या भूत समझना हमारा विपर्यय है।

किन्तु विभ्रम तो कभी-कभी प्रत्यक्ष बाह्य उत्तेज: से भी होता है। उदाहरणार्थ, सुनसान स्थान में कभी-कभी किसी के पुकारने की आवाज सुनाई पड़ती है अथवा ऐसा जान पड़ता है कि कोई हमारा पीछा कर रहा है। वास्तव में, वहाँ न तो:कोई आवाज ही होती है और न कोई पीछा करनेवाला ही। वस्तुतः यह हमारा विभ्रम है।

विपर्यय का अनुभव प्रायः सभी व्यक्तियों को होता है, किन्तु विभ्रम का अनुभव बहुत थोड़े से व्यक्तियों को ही होता है। विभ्रम प्रायः मानसिक रोगयुक्त तथा नशे में चूर व्यक्तियों को होता है। हाँ, कभी-कभी सामान्य व्यक्तियों (Normal persons) में भी विभ्रम पाया जाता है। किसी-किसी मानसिक रोगी व्यक्ति को ऐसा अनुभव होता है कि किसी ने पीछे से आकर उसकी गर्दन दबा दी। वैसे ही, नशे में चूर व्यक्ति को ऐसा लगता है कि वह राजा है और सभी लोग उसकी प्रजा। वस्तुतः ये मानसिक प्रतिमा मात्र हैं।

एक तरह की परिस्थिति सभी व्यक्तियों में एक तरह का ही विपर्यय उत्पन्न करती है, किन्तु विभ्रम के साथ ऐसी बात नहीं है। उदाहरण के लिए हम मूलर-लायर-विपर्यय (Muller-Lyer Illusion) को ले सकते हैं, जिसकी विशद व्याख्या विपर्यय के प्रकार की चर्चा करते समय की जायगी। जहाँ तक विभ्रम का सम्बन्ध है, यह कहा जा सकता है कि एक ही परिस्थिति विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न प्रकार के विभ्रम उत्पन्न कर सकती है। उदाहरणार्थ, सुनसान रात में किसी को अपना नाम सुनने का विभ्रम होता है, तो किसी को चोरों की आहट का, किसी को भूत का विभ्रम होता है, तो किसी को हत्यारे का।

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प्रश्न 13.
अंतर बतावें –
(क) प्रत्यक्षण तथा विपर्यय
(ख) प्रत्यक्षण तथा विभ्रम
(ग) विपर्यय तथा विभ्रम
उत्तर:
(क) प्रत्यक्षण तथा विपर्यय में अन्तर (Distinction beteen Perception and Illusion):
प्रयत्क्षण तथा विपर्यय दोनों ही मानसिक प्रक्रियाएँ हैं जिनके द्वारा उपस्थित उद्दीपनों के बारे में ज्ञान होता है। इस समानता के बावजूद दोनों में अन्तर है जो निम्नांकित हैं –

(i) प्रत्यक्षण में उद्दीपन का सही ज्ञान होता है, परन्तु विपर्यय में उद्दीपन का गलत ज्ञान होता है। जैसे, यदि कोई व्यक्ति कलम को देखकर कलम समझता है, तब यह प्रत्यक्षण का उदाहरण है परन्तु कारण से यह कलम को पेंसिल समझ बैठता है या अंधेरे में रस्सी को साँप समझ बैठता है, तो यह विपर्यय का उदाहरण होगा।

(ii) प्रत्यक्षण का स्वरूप स्थायी होता है जबकि विपर्यय का स्वरूप अस्थायी होता है। जैसे, जब किसी व्यक्ति को सामने रखे कलम का प्रत्यक्षण हो रहा है, तब वह उसका हमेशा कलम के रूप में ही प्रत्यक्षण करेगा। उसी तरह कोई व्यक्ति आम देख रहा है, तो वह उसका हमेशा आम के रूप में ही प्रत्यक्षण करेगा। परन्तु, अँधेरे में पड़े रस्सी को साँप समझ लेना एक विपर्यय का उदाहरण है जो तबतक बना रहता है जबतक कि रोशनी का अभाव होता है। पर्याप्त रोशनी पड़े ही व्यक्ति का यह विपर्यय समाप्त हो जाता है और वह उस रस्सी का रस्सी के ही रूप में प्रत्यक्षण करने लगता है।

(iii) किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षण सभी को एक समान होता है, परन्तु एक ही उद्दपन का विपर्यय विभिन्न व्यक्तियों में अलग-अलग हो सकता है। जैसे, बकरी को देखने पर सभी व्यक्ति उसका बकरी के रूप में तो कोई भूत-प्रेत के रूप में भी प्रत्यक्षण कर सकता है। स्पष्टतः, एक ही खंभे (उद्दीपन) विभिन्न व्यक्तियों में भिन्न-भिन्न विपर्यय उत्पन्न कर रहा है। स्पष्ट हुआ कि प्रत्यक्षण तथा विपर्यय में अन्तर कर रहा है।

(ख) प्रत्यक्षण तथा विभ्रम में अन्तर (Distiction between Perception and Hallucination):
प्रत्यक्षण तथा विभ्रम दोनों ही मानसिक प्रक्रियाएं हैं। फिर भी, दोनों में अन्तर है जो निम्नांकित हैं –

(i) प्रत्यक्षण में उद्दीपन उपस्थित होता है जबकि विभ्रम में उद्दीपन होता ही नहीं है बल्कि इसमें उद्दीपन की उपस्थिति का मात्र आभास होता है। जैसे, ‘नारंगी’ का फल रख देने पर व्यक्ति उसका नारंगी के रूप में प्रत्यक्षण करता है। परन्तु, जब किसी व्यक्ति को बिना किसी के द्वारा पुकारे यह लगे कि कोई उसे पुकार रहा है या रात्रि के अँधेरे में यह लगे कि कोई उसके पीछे-पीछे आ रहा है, तो विभ्रम का उदाहरण होगा।

(ii) प्रत्यक्षण में उद्दीपन का अनुभव सभी व्यक्तियों को समान रूप से होता है जबकि विभ्रम में उद्दीपन का चूँकि अभाव होता है, इसलिए विभिन्न व्यक्तियों में विभ्रम अलग-अलग प्रकार के होते हैं।

(iii) प्रत्यक्षण सामान्य व्यक्तियों के लिए होता है जिसके लिए सामान्य और स्वस्थ मस्तिष्क। की जरूरत होती है। दूसरी तरफ, विभ्रम अधिकतर मानसिक रोग से ग्रसित व्यक्तियों, नशे में चूर व्यक्तियों, थके-माँदे व्यक्तियों को ही होता है। इससे स्पष्ट है कि प्रत्यक्षण सामान्य अवस्था में होता है जबकि विभ्रम असामान्य अवस्थाओं में ही अधिक होता है।

(iv) प्रत्यक्षण का स्वरूप स्थायी होता है है जबकि विभ्रम का स्वरूप अस्थायी होता है। चूँकि प्रत्यक्षण में किसी उद्दीपन का सही ज्ञान होता है, इसलिए इसका स्वरूप स्थायी होता है। परन्तु, विभ्रम का स्वरूप हमेशा अस्थायी होता है। जैसे, यदि किसी व्यक्ति को यह महसूस होता है कि कोई उसके पीछे-पीछे आ रहा है और वह यदि पीछे मुड़कर देखता है, तो उसका विभ्रम तुरन्त ही समाप्त हो जाता है, क्योंकि उसके पीछे तो कोई व्यक्ति होता ही नहीं है।

(v) प्रत्यक्षण में उद्दीपन वास्तविक एवं मूर्त होता है, परन्तु विभ्रम में उद्दीपन अमूर्त एवं काल्पनिक होता है। सच्चाई यह है कि विभ्रम में उद्दीपन नहीं बल्कि उद्दीपन की मात्र कल्पना होती है।

(vi) प्रत्यक्षण में उद्दीपन का सही या यथार्थ ज्ञान होता है, परन्तु विभ्रम में अनुपस्थित उद्दीपन का मिथ्या या गलत एहसास होता है।

(ग) विपर्यय या भ्रम तथा विभ्रम में अंतर (Distinction between Illusion and Hallucination):
भ्रम तथा विभ्रम दोनों ही मानसिक प्रक्रियाएँ हैं। भ्रम एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें उद्दीपन का अयथार्थ ज्ञान होता है तथा विभ्रम एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें उद्दीपन की अनुपस्थिति में ही उसका ज्ञान होता है। फिर भी; इन दोनों में अन्तर है जो निम्नांकित हैं –

(i) विपर्यय में उद्दीपन उपस्थित रहता है, परन्तु विभ्रम में उद्दीपन अनुपस्थित रहता है।

(ii) विपर्यय में उपस्थित उद्दीपन का गलत प्रत्यक्षण होता है, परन्तु विभ्रम में उद्दीपन नहीं रहने पर भी उसका ज्ञान व्यक्ति को हो जाता। अँधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना विपर्यय का उदाहरण है तथा अँधेरे में बिना किसी के पीछा किए ही यह समझ लेना कि कोई उसका पीछा कर रहा है, एक विभ्रम का उदाहरण है।

(iii) विपर्यय के दो मुख्य प्रकार होते हैं-सामान्य या सर्वव्यापी विपयर्य (common or universal illusion) तथा व्यक्तिगत विपर्यय (Personal illusion)। आगे अधिक दूरी पर देखने पर धरती और आकाश सटा हुआ नजर आना एक सामान्य विपर्यय का उदाहरण है तथा अँधेरे में रस्सी को साँप समझना एक व्यक्तिगत विपर्यय का उदाहरण है। विभ्रम का कोई ऐसा प्रकार नहीं होता है। हाँ, ज्ञानेन्द्रिय के अनुभव के आधार पर इसे दृष्टि विभ्रम, श्रवण विभ्रम आदि श्रेणियाँ में बाँटा जा सकता है।

(iv) सामान्य विपर्यय (common illusion) सभी व्यक्तियों में एक समान होता है, परन्तु विभ्रम का स्वरूप हमेशा व्यक्तिगत (personal) ही होता है। रेल की पटरियों को काफी दूर तक देखने में एक बिन्दु पर सटा हुआ नजर आना एक सामान्य विपर्यय का उदाहरण है जो सभी व्यक्तियों में होता है।

उसी तरह आगे अधिक दूरी पर देखने से धरतो और आकाश का सटा हुआ नजर आना भी एक सामान्य विपर्यय का उदाहरण है जो सभी व्यक्तियों को होता है। इसका स्वरूप व्यक्तिगत ही होता है। सुनसान अँधेरी रात में बिना किसी आवाज के दिए जाने का विभ्रम यदि किसी व्यक्ति को होता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि उस परिस्थिति में ऐसा अनुभव सभी व्यक्तियों को हो। अतः, विभ्रम का स्वरूप हमेशा व्यक्तिगत ही होता है। स्पष्ट हुआ कि विपर्यय तथा विभ्रम में अन्तर है।

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प्रश्न 14.
प्रत्यक्षण की परिभाषा दें। प्रत्यक्षीकरण में सन्निहित प्रक्रियाओं की व्याख्या करें। या, किसी वस्तु के प्रत्यक्षण में निहित प्रक्रियाओं की सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर:
प्रत्यक्षण की परिभाषा (Definition of Perception):
प्रत्यक्षण एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति को उद्दीपन का ज्ञान होता है। स्पष्टतः प्रत्यक्षणं एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया (cognitie mental process) है। यदि हम प्रत्यक्षण की एक परिभाषा देना चाहें, तो इस प्रकार दे सकते हैं – “प्रत्यक्षण एक जटिल संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा पर्यावरण में किसी उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान होता है।” इस परिभाषा का विश्लेषण करने पर हमें प्रत्यक्षण के स्वरूप के बारे में निम्नांकित तथ्य प्राप्त होते हैं –

1. प्रत्यक्षण एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है (Perception is a complex mental process):
प्रत्यक्षण को एक जटिल मानसिक प्रक्रिया इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें कई तरह की उपप्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं।

2. प्रत्यक्षण एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है (Perception is a cognitive mental process):
प्रत्यक्षण को एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसके द्वारा व्यक्ति को बाह्य तथा आंतरिक दोनों तरह के उद्दीपनों का अर्थपूर्ण ज्ञान होता है।

3. प्रत्यक्षण में उद्दीपनों का तात्कालिक ज्ञान होता है (Perception gives immediate knowledge of stimulus):
प्रत्यक्षण में वातावरण में उपस्थित उद्दीपनों का तात्कालिक ज्ञान होता है। दूसरे शब्दों में, जब व्यक्ति के सामने कोई उद्दीपन उपस्थित रहता है, तब उसका ज्ञान उसे तात्कालिक होता है न कि उसके बारे में कुछ देर तक सोचने के बाद।

4. प्रत्यक्षण के लिए उद्दीपन की उपस्थिति अनिवार्य होती है (For perception the presence of stimulus is essential):
प्रत्यक्षण के लिए यह आवश्यक है कि उद्दीपन व्यक्ति के सामने उपस्थित हो। जो उद्दीपन व्यक्ति के सामने उपस्थित नहीं रहता है, व्यक्ति उसके बारे में मात्र चिंतन कर सकता है, प्रत्यक्षण नहीं। प्रत्यक्षण में सन्निहित उपप्रक्रियाएँ (subprocesses involved in perception) प्रत्यक्षण में कई तरह की उपप्रक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं। इन उपप्रक्रियाओं में निम्नांकित प्रमुख हैं –

  • ग्राहक प्रक्रिया (receptor process)
  • प्रतीकात्मक प्रक्रिया (symbolic process)
  • एकीकरण की प्रक्रिया (unification process)
  • भावात्मक प्रक्रिया (affective process)

इन चारों का वर्णन निम्नांकित है –

1. ग्राहक प्रक्रिया (Receptor process):
प्रत्यक्षण की यह सबसे पहली तथा प्रमुख प्रक्रिया है। इसमें दो चीजों का रहना आवश्यक है-उद्दीपन तथा ज्ञानेन्द्रिय। प्रत्यक्षण के लिए जब कोई उद्दीहपन व्यक्ति के सामने उपस्थित होता है तब समुचित ज्ञानेन्द्रिय उसे ग्रहण करती है। इसमें उसमें तंत्रिका आवेग (nerve impulse) पैदा होता है जो संवेदी तंत्रिका (sensory nerve) द्वारा सुषुम्ना तथा मस्तिष्क में पहुँचता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को उस उद्दीपन का ज्ञान होता है। ज्ञानेन्द्रिय से प्रारभ होकर मस्तिष्क तक होनेवाली इस पूरी प्रक्रिया को ग्राहक प्रक्रिया (receptor process) की संज्ञा दी जाती है।

2. प्रतीकात्मक प्रक्रिया (Symbolic process):
किसी उद्दीपन के प्रत्यक्षण में गत अनुभूतियों (Past expriences) के कारण उस उद्दीपन से संबंधित कुछ अन्य अनुभव प्रतीक (symbol) के रूप में याद आ जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति उस उद्दीपन का प्रत्यक्षण और भी स्पष्ट ढंग से करता है। जैसे, गुलाब के फूल को देखकर अपनी फुलवारी का याद आ जाना प्रतीकात्मक प्रक्रिया का उदाहरण है। उपहार में प्राप्त कलम को देखकर उसके देनेवाले व्यक्ति का याद आ जाना प्रतीकात्मक प्रक्रिया का एक उत्तम उदाहरण है।

3. एकीकरण की प्रक्रिया (Unification process):
जब व्यक्ति किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षण करता है, तब वह उसके विभिन्न पहलुओं का अलग-अलग प्रत्यक्षण न करके उसका समग्र रूप से (as a whole) प्रत्यक्षण करता है। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति उस उद्दीपन का एक सम्पूर्ण इकाई के रूप में प्रत्यक्षण करता है।

जैसे, जब व्यक्ति किसी साइकिल का प्रत्यक्षण करता है, तब वह उसका हैंडिल, पहिया, घंटी आदि का अलग-अलग प्रत्यक्षण न करके उसका एक सम्पूर्ण इकाई (अर्थात् साइकिल) के रूप में प्रत्यक्षण करता है। उसी तरह यदि हम किसी व्यक्ति के चेहरे पर देखते हैं, तो उसके नाक, होंठ, मुँह, भौंह, गाल आदि का अलग-अलग प्रत्यक्षण न करके एक साथ एक इकाई के रूप में प्रत्यक्षण करते हैं।

4. भावात्मक प्रक्रिया (Affective process):
प्रत्यक्षण में भावात्मक प्रक्रिया भी सम्मिलित होती है। किसी उद्दीपन को देखने के बाद व्यक्ति में सुखद या दुःखद या तटस्थ भाव. अवश्य ही उत्पन्न होते हैं। व्यक्ति के अंदर इस प्रकार की होनेवाली प्रक्रिया को भावात्मक प्रक्रिया कहा जाता है। जैसे, हम दोस्त को देखते हैं तो हम में सुखद भाव तथा दुश्मन को देखते हैं तो दुःखद भाव उत्पन्न होता है।

परन्तु, अपने घर के सदस्य को जिन्हें रोज देखते हैं, देखने पर न तो सुखद भाव और न ही दुःखद भाव बल्कि तटस्थ भाव (neutral affect) उत्पन्न होते हैं। इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि प्रत्यक्षण में भावात्मक प्रक्रिया भी सम्मिलित होती है। उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्यक्षण में कई तरह की उपक्रियाएँ सम्मिलित होती हैं जिनसे इसका स्वरूप जटिल हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 5 संवेदी, अवधानिक एवं प्रात्यक्षिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 15.
प्रत्यक्षण का अर्थ बतायें। प्रत्यक्षण तथा संवेदन में अंतर करें।
उत्तर:
प्रत्यक्षण की परिभाषा (Definition of perception):
प्रत्यक्षण एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है कि जिसके द्वारा व्यक्ति को उद्दीपन का ज्ञान होता है। स्पष्टतः प्रत्यक्षण एक संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया (cognitive mental process) हैं। यदि हम प्रत्यक्षण की एक परिभाषा देना चाहे, तो इस प्रकार दे सकते हैं-“प्रत्यक्षण एक जटिल संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा पर्यावरण में किसी, उपस्थित उद्दीपन का तात्कालिक ज्ञान होता है।”

प्रत्यक्षण तथा संवेदन में अंतर (Distinction between sensation and percep tion):
प्रत्यक्षण तथा संवेदन में प्रमुख अंतर निम्नांकित हैं –

1. संवेदन एक सरलतम संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है जबकि प्रत्यक्षण एक जटिल संज्ञानात्मक मानसिक प्रक्रिया है। जब कोई उद्दीपन ज्ञानेन्द्रिय को उत्तेजित करता है, तब उसमें तंत्रिका आवेग उत्पन्न हो जाते हैं। तंत्रिका आवेग जब मस्तिष्क में पहुँचता है, तब सबसे पहली जो मानसिक प्रक्रिया होती है, उसे संवेदन कहा जाता है जिसमें उद्दीपन का आभासमात्र होता है। लेकिन, प्रत्यक्षण इतनी सरल मानसिक प्रक्रिया नहीं है। इसमें जटिलताएँ होती हैं, क्योंकि इसमें अनेक उपप्रक्रियाएँ (subprocesses) सम्मिलित होती हैं।

2. संवेदन द्वारा उद्दीपन (stimulus) का आभासमात्र अर्थात अर्थहीन ज्ञान होता है। लेकिन, प्रत्यक्षण में उद्दीपन का अर्थपूर्ण ज्ञान होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि संवेदन में उद्दीपन का मात्र आभास मिलता है, उसका पूर्ण ज्ञान नहीं होता है। परन्तु, प्रत्यक्षण में उस उद्दीपन का पूर्ण ज्ञान हमें प्राप्त होता है जिसके परिणामस्वयप हम यह पहचान कर पाते हैं कि अमुक उद्दीपन क्या है। इसका कारण यह है कि संवेदन में मस्तिष्क का मात्र संवेदी क्षेत्र (sensory area) ही कार्य करता है जबकि प्रत्यक्षण में संवेदी क्षेत्र के साथ-ही-साथ साहचर्य क्षेत्र (association area) भी कार्य करता है।

3. संवेदन में मुख्य रूप से ग्राहक प्रक्रिया (receptor process) ही होती है, लेकिन प्रत्यक्षण में ग्राहक प्रक्रिया के अलावा एकीकरण की प्रक्रिया, भावात्मक प्रक्रिया तथा प्रतीकात्मक प्रक्रिया भी होती है। संवेदन की उत्पत्ति के लिए ज्ञानेन्द्रिय का उद्दीपन द्वारा प्रभावित होकर उसमें तंत्रिका आवेग उत्पन्न होना और फिर उसे संवेदी तंत्रिका द्वारा सुषुम्ना होते हुए मस्तिष्क में पहुँचना ही पर्याप्त होता है।

परन्तु, प्रत्यक्षण के लिए इतना ही काफी नहीं है बल्कि इसके आगे की क्रियाएँ, जैसे भावात्मक प्रक्रिया, प्रतीकात्मक प्रक्रिया तथा एकीकरण की प्रक्रिया आदि भी सम्मिलित होती है। यही कारण है कि जब हम किसी उद्दीपन का प्रत्यक्षण करते हैं, तब हममें सुख या दु:ख का भाव, उस उद्दीपन से संबंधित कुछ अन्य चीजों की याद तथा उस उद्दीपन का समग्र एवं समन्वित प्रत्यक्षण होता है।

4. एक ही उद्दीपन भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में लगभग एक समान संवेदन उत्पन्न करता है। परन्तु, कई कारणों से वही उद्दीपन सभी व्यक्तियों में एक समान प्रत्यक्षण उत्पन्न नहीं कर पाता है। जैसे, यदि एक उजले कागज पर अस्पष्ट चित्र व्यक्ति को थोड़ी देर के लिए दिखाया जाय, तो उससे भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में संवेदन (आभासमात्र) लगभग एक समान होगा। परन्तु, इसका प्रत्यक्षण सभी व्यक्तियों में एक समान नहीं होगा। अपनी आवश्यकता (need), अभिप्रेरणा (motive) आदि के अनुसार उस अस्पष्ट चित्र का प्रत्यक्षण व्यक्ति अलग-अलग ढंग से करेगा।

5. संवेदन की प्रक्रिया इतनी प्रारंभिक है कि इसका विश्लेषण नहीं किया जा सकता है और यदि कोशिश की भी गई तो खुद संवेदन ही समाप्त हो जाएगा, परन्तु, प्रत्यक्षण की प्रक्रिया ऐसी नहीं होती है। इसका विश्लेषण संभव है। इस गुण के कारण ही प्रत्यक्षण को एक जटिल एवं मूर्त (complex and concrete) प्रक्रिया कहा जाता है जबकि संवेदन को एक प्रारंभिक एवं अमूर्त (abstract) प्रक्रिया कहा जाता है।

6. संवेदन में ज्ञानेन्द्रिय की प्रधानता अधिक होती है। इसमें मस्तिष्क की प्रधानता उतनी नहीं होती है। तंत्रिका आवेग (nerve impulse) मस्तिष्क में ज्योति पहुँचता है, संवेदन उत्पन्न हो जाता है। लेकिन, प्रत्यक्षण में मस्तिष्क का कार्य इसके बाद प्रारंभ होता है जिसके परिणामस्वरूप प्रतीक, भाव एवं संगठन से संबंधित प्रक्रियाएँ हो पाती हैं। स्पष्ट है कि प्रत्यक्षण में मस्तिष्क की क्रियाशीलता संवेदन की क्रियाशीलता की अपेक्षा अधिक होती है। स्पष्ट हुआ कि संवेदन तथा प्रत्यक्षण एक-दूसरे से भिन्न है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अवधान के कितने प्रकार हैं –
(a) 1
(b) 3
(c) 2
(d) 4
उत्तर:
(c) 2

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास

Bihar Board Class 11 Psychology मानव विकास Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
विकास किसे कहते हैं? यह संवृद्धि तथा परिपक्वता से किस प्रकार, भिन्न है?
उत्तर:
विकास का अर्थ:
विकास जैविक संज्ञानात्मक तथा समाज सांवेगिक प्रक्रियाओं की परस्पर क्रिया प्रभावित होने वाली वैसी दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तनों के अन्तर्गत गतिशील, क्रमबद्ध तथा पूर्वकथनीय परिवर्तनों का प्रारूप होता है तथा जो प्रक्रिया गर्भाधान से प्रारम्भ होता है तथा जीवन पर्यन्त चलता रहता है और परिपक्वता की ओर निर्देशित रहता है।

विकास की विशेषताएँ:

  1. विकास जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है जो परिपक्वता प्राप्ति की ओर निर्देशित रहता है।
  2. विकास सम्बन्धी विभिन्न प्रक्रियाँ (जैविक, संज्ञानात्मक समाज-संवेगात्मक) किसी व्यक्ति के विकास में एक दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित रहते हैं।
  3. विकास बहु-दिशा है अर्थात् विकास के एक आयाम का कुछ अन्य आयामों में वृद्धि या हास का प्रदर्शन किया जाता है।
  4. विकास अत्यधिक लचिला या संशोधन योग्य होता है।
  5. विकास ऐतिहासिक दशाओं से प्रभावित होते हैं।
  6. विकास अनेक शैक्षणिक विधाओं के लिए एक महत्त्वपर्ण सरोकार है।
  7. सकारात्मक घटनाएँ और प्रकट की गई अनुक्रिया से विकास प्रभावित हो सकता है।

विकास को प्रभावित करने वाले कारक-शारीरिक लक्षण, बुद्धि, अधिगम, योग्यता, स्मृति, मानसिक लक्षण, आनुवांशिकता, आनुवंशिक कूट, प्रपंच परिवेश या पर्यावरण आदि को विकास से संबंधित कारक मान सकते है। अर्थात् माता-पिता से प्राप्त जीव के अनुकूल परिवेश मिलने पर अच्छे विकास की संभावना बढ़ जाती है।

जीवन भर निरन्तर होने वाले विविध परिवर्तनों के रूप में विकास-क्रम चलता रहता है। विकास बहुदिश के साथ-साथ बहुआयामी भी माना जाता है। लोग किसी व्यक्ति के विकास का आधार अलग-अलग दृष्टिकोण को मानते हैं। कोई कद की लम्बाई के बढ़ जाने को विकास मानता है तो कोई मोटापा को। कोई वंग-संख्या को तो कोई लब्धांक को विकास कहता है। बैंक में लॉकरों की संख्या बढ़ा देने पर लोग समझते हैं कि वह अब विकास कर रहा है। कोई अतिथि सत्कार को नहान मानता है तो उसे मानसिक रूप से विकसित माना जाता है।
विकास-क्रम में विविध स्थितियाँ आती हैं जिनमें से दो प्रमुख स्थितियां अधिक महत्त्वपूर्ण हैं –

  1. संवृद्धि और
  2. परिपक्वता

1. संवृद्धि:
शारीरिक अंगों अथवा सम्पूर्ण जीव की बढ़ोत्तरी को संवृद्धि कहा जाता है। संवृद्धि का मापना अथवा मात्राकरण किया जा सकता है। उदाहरणार्थ कोई व्यक्ति कितना लम्बा हो गया, या कितना भारी हो गया? इन प्रश्नों के उत्तर मीटर या किलोग्राम में दिये जा सकते हैं। संवृद्धि विकास का मात्र एक पक्ष है।

2. परिपक्वता:
परिपक्वता शारीरिक एवं मानसिक विकास का कारण माना जाता है। अतः परिपक्वता उन परिवर्तनों को इंगित करता है जो एक निर्धारित क्रम का अनुसरण करते हैं तथा प्रधानतः उस आनुवंशिक रूप रेखा से सुनिश्चित होते हैं जो हमारी संवृद्धि एवं विकास में समानता उत्पन्न करते हैं। अर्थात् मनुष्य के अन्दर उत्पन्न उन विशेषताओं से संबंधित परिवर्तन को परिपक्वता मानते हैं जो माता-पिता एवं अन्य पूर्वजों से ग्रहण किये जाते हैं। चेहरे पर एकाएक दाढ़ी मूंछ का उग जाना, आवाज में भारीपन का अनुभव होना, बच्चों का दौड़ना, खड़ा हो जाना आदि परिपक्वता के उदाहरण हैं।

इस प्रकार माना जा सकता है कि विकास एक लम्बी प्रक्रिया है तथा संवृद्धि और परिपक्वता उस विकास क्रम के दो निश्चित मात्र है। विकास से अनेक कायिक-मानसिक-सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तनों का बोध होता है जबकि संवृद्धि और परिपक्वता विकास संबंधी दो लक्षण मात्र हैं। संवृद्धि और परिपक्वता को विकास क्रम से जोड़ा जा सकता है, लेकिन सभी विकास क्रम के साथ इन दोनों पंदों की व्याख्या करना आवश्यक नहीं होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास

प्रश्न 2.
विकास के जीवनपर्यंत परिप्रेक्ष्य की मुख्य विशेषताओं का वर्णन कीजिए?
उत्तर:
मानव जीवन भर धनात्मक या ऋणात्मक परिवर्तन के अधीन जीता है। परिवर्तन की एक नियत दिशा होती है तथा मानव विकास कुछ विशिष्ट विशेषताओं के साथ मानव को प्रभावित करते रहता है। विकास के जीवनपर्यंत परिप्रेक्ष्य की प्रमुख विशेषताओं निम्न वर्णित हैं –

1. विकास एक नियत प्रणाली का अनुसरण करता है:
मानव का विकास मनचाहे ढंग से नहीं होता है बल्कि विकास नियमित और सुव्यवस्थित प्रणाली के आधार पर परिवर्तन लाता है आदमी किस उम्र में चलना प्रारम्भ करेगा, कब वह पढ़ने जायेगा, यह लगभग पूर्व निर्धारित अवधि के अनुसार परिवर्तन के रूप में देखा जाता है। यहाँ तक कि अब विकास से संबंधित ऊँचाई-उम्र, मानसिक दशा, सामाजिक विकास-उम्र इत्यादि की भविष्यवाणी की जा सकती है।

2. विकास जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है:
गर्भाधान से वृद्धावस्था एका सभी स्तरों पर कुछ-न-कुछ परिवर्तन होते ही रहते हैं चाहे उससे लाभ मिले या हानि, कभी घुटने के बल खिसकने वाला बच्चा लम्बी दौड़ में प्रथम स्थान पाता है तो कभी गन्ना चुसने वाला युवक दाँत गंवाकर खाने के लिए मजबूत हो जाता है। अर्थात् सम्पूर्ण जीवन-विस्तार में गत्यात्मक विधियों से होनेवाला परिवर्तन मानव व्यवहार और क्षमता को प्रभावित करते रहता है।

3. विकास प्रक्रमों में पारस्परिक संबंध होते हैं:
जन्म से मृत्यु के बीच मनुष्य जीने के क्रम से जैविक, संज्ञानात्मक तथा समाज सवेगात्मक परिवर्तन से जूझता रहता है। इन विभिन्न प्रक्रियाओं के प्रभाव और परिणाम में भिन्नता अवश्य होती है लेकिन विकास क्रय में ये हानिप्रद रूप से संबंधित रहते है। एक व्यक्ति से मित्रता बढ़ाने से हो सकता है कि दूसरा व्यक्ति नराज हो जाए। टहलने से स्वास्थ्य-लाभ मिलता है। लेकिन समय की क्षति होने से पूर्व निर्धारित काम अधूरा रह जा सकता है जो कर्मठता को अविश्वसनीय स्थिति में ला देता है।

4. विकास बहुदिश अथवा बहुआयामी होता है:
विकास क्रम में होने वाला कोई एक परिवर्तन मानवीय क्रिया के घटक को लाभ पहुंचाता है यह भी संभावना रहती है कि कोई दूसरा घटक क्षति की दशा में पहुँच जाए। एक ही बुद्धि दूसरे धटक के ह्रास का कारण बन सकता है। उम्र के अनुभव बढ़ता है, लेकिन शारीरिक क्षमता में कमी आ जाने से वह पहले की तरह दौड़ नहीं सकता है। मानसिक वृद्धि और शारीरिक क्षमता में कमी दोनों साथ-साथ होने वाले परिवर्तन हैं।

5. विकास अत्यधिक लचिला या संशोधन के योग्य होता है:
विकास क्रम में होने वाला परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से मान्य नहीं भी हो सकता है। अतः एक व्यक्ति परिवर्तन में वृद्धि चाहता है तो दूसरा उस परिवर्तन पर अंकुश लगा देना चाहता है। कुछ ऐसे परिवर्तन होते हैं जो हमारी इच्छा के अनुसार अपना रूप या प्रभाव बदल सकते हैं। आज जो छात्र कम अंक पाता हैं, स्वभाव से चोर हैं वही बालक अभ्यास और प्रयास करके आदर्श छात्र तथा इंसान बनकर उपस्थित होता है। कला, कौशल, आदत, योग्यता आदि से संबंधित परिवर्तन को मानव अपने अधीन रखकर वांछनीय संशोधन करके उसे लचीला होने का प्रयास जुटा लेता है।

6. विकास ऐतिहासिक दशाओं से प्रभावित होता है:
विकास क्रम में होने वाला कोई परिवर्तन जो पहले के जमाने में प्रशंसा पाता था वही परिवर्तन अब मजाक एवं हँसी का विषय बन जाता है। पैर छूकर प्रणाम करने की प्रवृति पहले जितना ही भला माना जाता था आधुनिक काल में पिछड़ापन का संकेत देता है। पूर्व में प्राप्त की गई उपाधि रोजगार का अवसर देने में, पूर्णतः समक्ष या लेकिन आज बड़ी-बड़ी उपाधि लेकर भी मनुष्य बेरोजगार का शर्मीन्दगी झेल रहा है। पहले के जमाने में 20 वर्ष का युवक जो अनुभव और योग्यता रखता था वह आज से काफी अलग है।

7. विकास अनेक शैक्षणिक संस्थाओं के लिए एक महत्त्वपूर्ण सरोकार है:
शिक्षण संस्थाओं में मनोविज्ञान, मानवशास्त्र, समाजशास्त्र, तंत्रिका विज्ञान के साथ-साथ अब यौन शिक्षा की व्यवस्था किए जाने का अर्थ है कि जानकार लोग मानव विकास के पक्षधर हैं और वे चाहते हैं कि मानव में इतनी क्षमता आ जाए कि वह किसी भी परिवर्तन को अपने अनुकूल बनाने की क्षमता बना ले।

8. एक व्यक्ति परिस्थिति अथवा संदर्भ के आधार पर अनुक्रिया करता है:
मानव अपने जीवन में सदा विकास की आकांक्षा करता है। वह अवरोधक के प्रति असंतोष एवं क्षोभ प्रकट करने के लिए स्वतंत्र होता है। इस संदर्भ के अंतर्गत वंशानुगत रूप से प्राप्त विशेषताएँ (भौतिक पर्यावरण, सामाजिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक) शामिल हो जाती हैं।

जैसे-माता-पिता की मृत्यु, दुर्घटना, भूकम्प, बाढ़, प्राकृतिक अपदा आदि हमारी खुशी और शान्ति को छीन लेते हैं तो दूसरी ओर सफलता, जीत, पुरस्कार, नौकरी आदि हमारी प्राकृति में उत्साह का संचार कर देता है। अतः नकारात्मक और सकारात्मक परिवर्तन हमारे विकास को प्रभावित करते हैं। आदमी परिवर्तन का कारण, दशा, परिणाम को जान-समझकर अपने आप को अनुकूलित कर लेने का प्रयास जमकर करता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास

प्रश्न 3.
विकासात्मक कार्य क्या है? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मानव जीवन विविधताओं के भण्डार का मालिक होता है। तरह-तरह के परिवर्तन, आकांक्षाएँ, कला, व्यवहार एवं अवस्था के साथ वह बाल्यावस्था से वृद्धावस्था को प्राप्त कर लेता है। भिन्न-भिन्न मानव अपने परिवेश, आनुवंशिकता, परिस्थिति और अवस्था के वशीभूत होकर अलग-अलग विकास परिणाम को पाता है। मानवीय विकास सामान्यतया अवधि या अवस्थाओं के रूप में सम्पन्न होता है। लोग तरह-तरह के आचरण और परिणाम के हकदार बनकर जीते हैं।

एक ही घटना का प्रभाव बच्चे, युवा, वृद्ध पर अलग-अलग देखा जाता है। मानव जीवन विभिन्न अवस्थाओं से होते हुए आगे बढ़ते है। युव फिल्म देखना पसन्द करता है तो वृद्ध sभजन में तल्लीन रहता है। विकासात्मक अवस्थाएँ अस्थायी रूप से कार्यरत होते हैं तथा प्रभावों लक्षण के द्वारा पहचाने जाते हैं। कारण-परिणाम की व्याख्या अवधि और अवस्था के आधार पर की जा सकती है। कोई वर्तमान की दशा से संतुष्टि रहता है तो कोई भविष्य कामना में साधना करता हुआ देखा जाता है।

नि:संदेह विकास की एक अवस्था से दूसरी अवस्था के मध्य विकास के समय और दर के सापेक्ष व्यक्ति निश्चित रूप से भिन्न होते है। यह भी सत्य है कि कला, कौशल, प्रशिक्षण और निपुणता एक विशिष्ट अवस्था को अनुकूल माना जाता है। संबंधित कार्य का विकासात्मक कार्य माना जाता है। विकासात्मक कार्य व्यक्ति की अवस्था एवं निपुणता पर आधारित होता है जो अवधि, अवस्था एवं परिवेश के कारण कम और अधिक, मंद और तीव्र अच्छा या बुरा कुछ भी हो सकता है।

प्रश्न 4.
‘बच्चों के विकास में बच्चे के परिवेश की महत्त्पूर्ण भूमिका है।’ उदाहरण की सहायता से अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
बच्चों के विकास पर वंशानुक्रम कारक के अलावा परिवेश की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। आधुनिक मत के अनुसार दोनों कारकों को अपर्याप्त माना जाता है। अर्थात् दोनों कारक एक-दूसरे के पूरक हैं। पूर्वजों से प्राप्त जान विकास की सीमाओं का निर्धारण मात्र करते हैं और परिवेश वांछनीय विकास को प्रत्यक्षतः प्रभावित करता है। बच्चों के विकास में जिन एक विशिष्ट रूप रेखा तथा समय-सारणी प्रदान करते हैं, लेकिन जिनका अलग से कोई अस्तिव नहीं माना जाता है। बच्चों के विकास में बच्चे के परिवेश की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। जीन तो स्वयं परिवेश के कारण अपना प्रभाव प्रदर्शित कर पाता है।

पूर्वजों के जीन के कारण कोई नाटा कद का बच्चा जब जन्म लेता है तो वह बच्चा किसी भी विधि से लम्बा नहीं होगा। परिवेश उस नाटे बच्चे को बहिर्मुखी बनाने में सक्षम होता है। आनुवंशिक तौर पर यदि कोई बच्चा मंद बुद्धि वाला होता है तो परिवेश के प्रयास से वह बुद्धिमान बन सकता है। अत: जीन के कारण आने वाली कमी को परिवेश संभवत: विकास के पथ पर ला सकता है। बुद्धिमान अभिभावक अपने बच्चे को अच्छा संस्कार, बुद्धि, निर्णय क्षमता सभी कुछ देने में समर्थ है। जीन के प्रभाव से उत्पन्न आवश्यकताओं या रुचि को परिवेश उत्तम अवसर दे सकता है। संगीत या खेलकूद में रुचि रखने वाले बच्चे को परिवेश के माध्यम से उचित साधन और अवसर मिल सकते हैं।

एक ग्रामीण क्षेत्र का बुद्धिमान बच्चा उन्नत परिवेश में नहीं पलने के कारण किसी प्रतियोगिता में असफल हो जा सकता है। कम्प्यूटर की जानकारी नहीं होने के कारण बच्चा बुद्धिमान होने पर भी सही भावना को अभिव्यक्त नहीं कर पाता है। यदि बच्चे को विकसित करना होता हैं तो उसे उचित अवसर और अच्छा परिवेश दिया जाता है। अच्छी शिक्षण पद्धित, सीखने के योग्य अनूकूल परिवेश पाकर बच्चा उस स्थिति से पूर्णतः अवगत हो जाता है और वांछनीय विकास का पात्र बन जाता है। अर्थात् पूर्वजों से मिले ज्ञान की उपयोगिता अनुकूल दशा में तभी होती है जब परिवेश अभ्यर्थी को योग्य बनाकर समक्ष पात्र के रूप में उपस्थित होता है और परिवेशीय वातावरण में उसकों विकास करने का अवसर देने में समक्ष होता है।

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प्रश्न 5.
विकास को सामाजिक-सांकृतिक कारक किस प्रकार प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
किसी व्यक्ति के सम्पूर्ण जीवन काल में अभिलाषा, आवश्यकता और परिवेश के प्रभाव से संबंधित असंख्य अनुभव प्राप्त करने का अवसर मिलता है। जैसे, अच्छे विद्यालय में प्रवेश पाकर योग्य नागरिक बनने की अभिलाषा, नौकरी पाने की आवश्यकता के साथ-साथ ‘किशोर बनना, विवाह करना, पिता कहलाना, समाज सेवक जैसा कार्य करना, उद्घाटन करना जैसे कार्य साहसी विकास और परिवर्तन से प्रभावित होना पड़ता है।

ज्ञात है कि विकास निर्वात में किसी विशिष्ट सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ में सन्निहित होना है। यह भी सत्य है कि जीवन काल में परवेश और परिणाम में कभी भी परिवर्तन हो सकता हैं। युरी ब्रानफेन ब्रेनर के विचार से व्यक्ति के विकास में परिवेशीय कारकों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। उसके विचार के निरूपन निम्नांकित आरेख से स्पष्ट हो जाता है प्रस्तुत आरेख के विभिन्न पहलुओं से निम्न सूचनाएँ प्राप्त होती हैं –

लघु मंडल:
यह परिवेश के महत्त्व का समर्थन करते हुए साथी-सहयोगी, अध्यापक, परिवार, पड़ोस आदि का प्रभाव प्रदर्शित करता है। इसके अनुसार व्यक्ति अपने निकटतम परिवेश से प्रत्यक्षतः अन्त:क्रिया करता है।
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चित्र ब्रानफेन ब्रेनर का विकास का पारिस्थितिपरक दृष्टिकोण

मध्य मंडल:
इसके अन्तर्गत प्रमुख सामाजिक गुणों को अपनाये जाने के लिए परिवेश के मध्य संबंध की पुष्टि होती है। अध्यापक, अतिथि, पड़ोसी के साथ किये जाने वाले उत्तम व्यवहार की शिक्षा एवं अनुभव किसी व्यक्ति को परिवेश के बीच पलने-बढने से मिलता है।

बाह्य मंडल:
बाह्य मंडल के अन्तर्गत ऐसे अनुभव का अध्ययन किया जाता है जो सामाजिक परिवेश की वे घटनाएँ होती हैं जिसमें कोई बच्चा या व्यक्ति प्रत्यक्षतः प्रतिभागिता नहीं करता है किन्तु घटना का प्रभाव उसके जीवन-विधि पर अवश्य पड़ता है। पिता का कार्यालय दूर हो जाने पर पिता के चिन्तित होते ही हैं लेकिन बच्चों या आश्रितों के कार्यक्रम एवं सुविधा में परिवर्तन। से नहीं बच पाते हैं। वे भी तनाव चिन्ता महसूस करते हैं। साथी, खेलकूद, पठन-पाठन, पुस्तकालय, बाजार की आवश्यकता एवं उपयोगिता जीवन-विधि पर बुरा प्रभाव छोड़ने लगता है।

वृहत मंडल:
यह सांस्कृतिक व्यवहार की ओर ध्यान ले जाता है। इसके अनुसार हमारे आचरण पर परिवेश का सीधा प्रभाव पड़ता है। अहिंसक, सत्यवादी, आदर्श छात्र, कार्यकुशल सभी कुछ बनना परिवेश से प्राप्त अनुभव का ही प्रतिफल होता है।

घटना मंडल:
किसी आकस्मिक घटना के कारण हमारे विकास की गति किस प्रकार प्रभावित होती है, इसका सही अध्ययन सभी संदर्भ में संभव है। जैसे, माता-पिता के तलाक, पिता का नौकरी से निलम्बन, घर में चोरी हो जाना, आर्थिक क्षति पहुँचना आदि हमारे विकास क्रम में अवरोध बनकर आते है।

सारांशत: यह माना जाता है कि किसी व्यक्ति के विकास क्रम पर परिवेश का धनात्मक तथा ऋणात्मक दोनों प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। परिवेश से प्राप्त अनुभवों, साधनों (खिलौना, गेन्द), संस्थाओं (विद्यालय, चिड़ियाघर, पुस्तकालय) में से प्रत्येक का प्रभाव हमारे विकास पथ पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते है। कुछ अनुभव हमें उत्साहित कर धनात्मक विकास की स्थिति में ला देता है तो कुछ विषय परिस्थिति में उत्पन्न कर असुविधाजनक दशा में पहुँचाकर विकासात्मक अवरोध जैसा काम करते हैं। फलतः सीखने-पढ़ने-बढ़ने में काई कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती हैं।

महान मनोवैज्ञानिक दुर्गानन्द सिन्हा (1977) ने भी विकास के क्रम में परिवेश को ही महत्त्वपूर्ण कारक है। उनके द्वारा एक परिस्थितिक मॉडल प्रस्तुत किया गया था जिसके आधार पर ‘ऊपरी एवं अधिक दृश्य परत’ तथा आसपास की परतें के रूप में दो परिवेशीय स्थिति की कल्पना की गई थी। पहली दशा में ये निम्न स्थितियों का अध्ययन किया था –

  1. घर में रहने वाले लोगों की अत्यधिक संख्या से उत्पन्न कठिनाइयाँ (स्थान, खेल, मनोरंजन आदि में उपलब्धता की कमी)
  2. विद्यालय के पठन-पठन संबंधी अनिमितता तथा गुणवत्ता में कमी।
  3. अवस्था के कारण व्यवहार में लाये गये अन्तर।

दूसरी दशा में निम्न कारकों को विकास का अधार बतलाया गया है –

  1. भौगोलिक परिवेश (क्षेत्रफल, जनसंख्या, नदी, पहाड़)
  2. जाति, वर्ग,धर्म रुचि के कारण परिवेश के स्वभाव में उत्पन्न स्थिति।
  3. आवश्यक सुख-सुविधा के साधन (पीने का जल, खेल का मैदान, बिजली, सिनेमाघर)

दृश्य एवं आसपास की परत सम्बद्ध कारक अच्छा-बुरा दोनों प्रकार के कार्य करते हैं। अतः परिवेश का प्रभाव व्यक्ति की प्रकृति पर भी निर्भर करता है। कोई व्यक्ति परिवेश को कितना समझता है, परिवेश का उपयोग किस प्रकार करता है, इसपर भी विकास की गति आश्रित होती है।

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प्रश्न 6.
विकसित हो रहे बच्चों में होने वाले संज्ञानात्मक परिवर्तन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
विकसित हो रहे बच्चों संसार के संबंध में अपनी समझ की रचना सक्रिय रूप से करते हैं। जॉन पियाजे के अनुसार बच्चे परिवेश से प्राप्त सूचनाओं के आधार पर नए विचारों को जन्म देते हैं। वे स्वयं परिवेश के प्रति अनुकूलित हो जाना चाहते हैं। उनकी समझ में लगातार सुधार हेता है। संज्ञानात्मक विकास की विभिन्न अवस्थाओं को पियाजे द्वारा प्रतिपादित निम्न तालिका से विचारों की श्रृखंला का ज्ञान हो जाता है।
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प्रस्तुत तालिका से स्पष्ट हो जाता है कि बच्चों के सोचने का तरीका अलग होता है। दो वर्ष की अवस्था पाने तक कोई बच्चा देखने, सुनने, मुँह चलाने, वस्तुओं को पकड़ने जैसे कार्य में स्वयं को सक्षम मानते हैं तथा क्रिया-आनुक्रिया द्वारा अपनी चतुराई सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। नवजात शिशु अपने वर्तमान में जाकर भूत-भविष्य की कल्पना तक नहीं कर पाता हैं। उसके द्वारा प्राप्त अनुभव एवं प्रतिक्रिया उसके दृष्टि क्षेत्र और मन को अप्रभावित रखता है।

किन्तु बच्चे तात्कालिक संवेदी अनुभवों से मुक्त नहीं रह पाते हैं। उनमें वस्तु स्थापित नामक चेतना का उदय, हो जाता है। आठ माह तक बच्चा छिपाई गई चीजों को पाने का प्रयास करने लगता है। बच्चे मानसिक प्रतिकों का उपयोग करना सीखने लगते है। ये शारीरिक कार्यों को मानसिक रूप से पूरा करने की कोशिश करने लगते हैं। पूर्व बाल्यावस्था में संज्ञानात्मक विकास पियाजे के पूर्व-संक्रियात्मक विचार की अवस्था पर ध्यान केन्द्रित करता है।
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परिणामतः बच्चे किसी वस्तु को प्रत्यक्षतः नहीं देख पाने की स्थिति में उसे मानसिक रूप से निरूपित लेते है। वे सोची गई वस्तुओं को चित्र या आकृति प्रदान करके उसमें संलग्न रहने की स्थिति में स्वयं को पहुँचा देता है। पूर्ण संक्रियात्मक विचार की एक प्रमुख विशेषता के रूप में अहं केन्द्रवाद का जन्म हो जाता है जिसके कारण बच्चे जीववाद में लिप्त हो जाते हैं। वे निर्जाव वस्तुओं के साथ सजीवों के साथ किये गये व्यवहार को थोपना चाहता है। किवाड़ से चोट लगने के कारण रोने वाले बच्चे किवाड़ को पीटने पर रोना बन्द कर देते हैं।

आयु के बढ़ने के साथ साथ उनमें जिज्ञासा की प्रवृति भी बढ़ने लगती है। वे अपने परिवेश की प्रत्येक घटना (वर्षा होना, वृक्ष का बढ़ना, आकाश का नीला रंग) के संबंध में कारण और परिणास समझ लेना चाहत है। पियाजे के विचार से बच्चों की इसे जिज्ञासु अवस्था को अन्तः प्रज्ञात्मक विचार के रूप में मान्यता मिली है। बच्चों के विचार के संबंध में केन्द्रीकरण की प्रवृति का स्थान भी महत्त्वपूर्ण है। बच्चे आकार को ज्यादा महत्त्व देते है। उसे मात्रा का ज्ञान बहुत कम होता है।

चौड़े ग्लास और लम्बे ग्लास में अन्तर बतलाना. बच्चों के सामर्थ्य के बाहार की बात है। जब बच्चे की उम्र 7 से 11 के करीब पँहुचता है तो अंतर्बोधक विचार बदलकर तार्किक विचार के रूप में प्रकट हो जाता है। उसे मूर्त संक्रिया का विचार कहा जाता है जो प्रतिक्रमणीय मानसिक क्रिया का एक विशष्ट रूप से है। बच्चे किसी वस्तु के संबंध में अधिकाधिक जानकारी पाना चाहता है। वह भौगोलिक तथा गणितीय समस्याओं के संबंध में अधिकाधिक जानकारी पाना चाहता है। वह भौगोलिक तथा गणितीय समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करने लगता है। बच्चों की बढ़ती हुई संज्ञानात्मक योग्यताएँ भाषा अर्जन के लिए सुगम स्थिति उत्पन्न करती है। बच्चे अपने अनुभव एवं ज्ञान को बोलकर बतलाने क प्रयास करने लगता है।

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प्रश्न 7.
‘बचपन में विकसित हुए आसक्तिपूर्ण बंधनों का दूरगामी प्रभाव होता है।’ दिन-प्रतिदिन के जीवन क उदाहरणों से इनकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
आसक्ति (attachment) का सामान्य अर्थ किसी सजीव (माता-पिता, मित्र) अथवा निर्जीव (खिलौना, गेन्द, पोशाक, गाड़ी) के प्रति उत्पन्न लगाव समझा जाता है। आसक्ति एक विशिष्ट प्रकार का सामाजिक-संवेगात्मक विकास के अन्तर्गत बंधन विकसित होता है, उसे आसक्ति कहतें हैं। उत्पन्न आसक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव तब देखा जा सकता है जब कोई बच्चा अपने पालनकर्ता के घनिष्ठ संबंधित को देखते ही मुस्कराकर उनसे लिपटने के लिए हाथ-पैर चलाने लगता है। डरकर चौंकना, रोना या पीड़ा की अभिव्यक्ति आदि आसक्ति के अभाव का प्रमाण होता है।

आसक्ति उत्पन्न होने में प्यार-दुलार, सहानुभूति, प्रशंसा, प्रोत्साहन के साथ-साथ आभार प्रदान करना जैसी प्रक्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आसक्ति उत्पन्न होने पर सम्पर्क सुख नामक लक्षण प्रकट होता है। बच्चे को अपने खिलौनों के प्रति आसक्त होते हम सबों ने देखा-समझा है। बच्चों को सुख-संतोष एवं भयमुक्त वातवरण देने वाले के प्रति आसक्त हो जाना स्वाभाविक बात है एरिक एरिक्सन नामक मनोवैज्ञानिक के मतानुसार आसक्ति के विकास क लिए जीवन का प्रथम वर्ष सबसे उपयुक्त समय होता है। इस उम्र में बच्चे प्यार-दुलार क संकेतों का उपयुक्त प्रत्योत्तर देते हैं। सुरक्षा और विश्वास के आधार पर सुख की अनुभूति प्रकट होती है जो आसक्ति उत्पन्न करने का प्रमुख कारक माना जाता है।

आसक्ति के लक्षण का निर्धारण सम्पर्क के व्यक्ति (माता-पिता) के ज्ञान और संवेदनशील के कारण बदल जाते हैं। सतर्क माता-पिता की देखरेख और निर्देशन में बच्चे में अच्छे संस्कार को पाक स्वाभिमान और समक्षता को बोध उत्पन्न होता है तथा इसके विपरीत असंवेदनशील अज्ञानी माता-पिता के कारण बच्चे में आत्मसंदेह की भावना जग जाती है। बच्चों के भविष्य के लिए आवश्यक आत्मबोध का जन्म सम्पर्क के व्यक्तियों पर आधारित होता है। अत: बच्चे के स्वस्थ विकास के लिए संवेदनाशील एवं स्नेहिल प्रौढ़ो के साथ घनिष्ठ अत: क्रियात्मक संबंध का होना अति आवश्यक होता है।

बचपन में उदय होने वाले भावनाओं में से स्व, लिंग तथा नैतिक विकास से संबंधित भावना को प्रमुख रूप से प्रभावकारी माना जाता है। बच्चे को आत्म सम्मान तथा स्वयं की क्षमता पर गौरव महसूस करना सिखलाया जाता है। उसे ऐसे कामों से बचाकर रखा जाता है जिससे भय, आत्मग्लानि, हीनता के भाव उत्पन्न होते हैं। उदाहरणार्थ, बच्चों को साथी या खेल चुनने में मात्र परामर्श दिया जाना चाहिए।

अभिभावक हो या अध्यापक सभी को बच्चे के लक्षण और क्रियाकलाप पर दूर से ही निरक्षण करते रहना चाहिए। माता-पिता को धार्मिक अनुष्ठान में भाग लेते हुए देखकर बच्चा भजन प्रेमी हो जाता है। विद्यालय में संचालित समारोहों से बच्चे समाज-सेवक बनकर उपयोगी कार्य करने की प्रेरणा पाते हैं। प्रतियोगिता, आदर्श तथा जनन संबंधी उचित शिक्षा के माध्यम से किसी भी बच्चे का चरित्र निर्माण किया जा सकता है जो भविष्य में उसे प्रभावशाली नागरिक बनाने में सहयोग करता है।

विद्वान एरिक्सन ने भी माना है कि बच्चों को स्वप्रेरित क्रियाओं के प्रति माता-पिता जिस प्रकार से प्रतिक्रिया करते हैं वही पहला शक्ति बोध अथवा अपराध बोध को विकसित करता है। अतः आसक्ति से जुड़े व्यक्तियों अथवा साधनों से सुप्रभाव द्वारा अच्छे भविष्य का निर्माण किया जाता है जिसके लिए संवेदनशीलता, व्यवहार, कुशल, दक्ष एवं निपुण व्यक्तियों के सहयोग एवं निर्देशन की आवश्यकता होती है। अर्थात् यह सत्य है कि बचपन में विकसित हुए आसक्तिपूर्ण बंधनों का दूरगामी प्रभाव होता है।

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प्रश्न 8.
किशोरावस्था क्या है? अहं केन्द्रवाद के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
किशोरावस्था:
मानव जीवन विभिन्न अस्थायी अवस्थाओं से होते हुए वृद्धावस्था को पाता है। जब कोई बच्चा 12 वर्ष की उम्र पार कर जाता है तो किशोरावस्था प्रारम्भ हो जाता है। किशोरावस्था किसी व्यक्ति के जीवन मे बाल्यावस्था और प्रौढ़ावस्था के मध्य का संक्रमण काल है। इस अवस्था में व्यक्ति को ‘परिपक्व रूप में विकसित’ माना जाता है जिसका प्रारम्भ यौवनारंभ कहलाता है तथा व्यक्ति को यौन परिपक्वता वाला मान लिया जाता है। किशोरावस्था का मुख्य लक्षण या विशेषताएँ निम्नलिखित होते हैं –

  1. किशोरावस्था में प्रजनन करने की क्षमता प्राप्त कर ली जाती है।
  2. किशोरावस्था को जैविक तथा मानसिक दोनों ही रूप से तीव्र परिवर्तन की अवधि मानी जाति है।
  3. क्रमिक प्रक्रिया के अंग माने जाने वाले यौवनारंभ की अवस्था में स्रावित होनेवाले हार्मोन के कारण मूल एवं गौण लैंगिक लक्षण विकसित होते हैं।
  4. त्वरित संवृद्धि, चेहरों पर बालों का उगना तथा स्वर में भारीपन का आभास होना आदि लक्षण देखे जाते हैं।
  5. लड़कियों की ऊँचाई में तीव्र संवृद्धि, मासिक धर्म प्रारम्भ, शारीरिक संरचना में विकास आदि लक्षण देखे जाते हैं।
  6. किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक विकास के साथ मानसिक परिवर्तन भी होते हैं।
  7. किशोर यौन संबधी मामलो में अधिक रुचि का प्रदर्शन करते हैं।
  8. अपने शारीरिक-स्व अथवा शारीरिक परिपक्वता को स्वीकार करना किशोरावस्था का विकासात्मक कार्य है।
  9. किशोर के विचार अधिक अमूर्त, तर्कपूर्ण एवं आदर्शवादी होते हैं।
  10. किशोर अमूर्त रूप से चिंतन एवं तर्कना प्रारम्भ कर देते हैं।
  11. उन्हें चिंतन की परिकल्पनात्मक निगमनात्मक तर्कना आदि पर विश्वास हो जाता है तथा नैतिक तर्कना पर बल देने लगते हैं।
  12. किशोरों का नैतिक चितंन लचीला होता है।
  13. डेविड एलकाइड के अनुसार काल्पनिक श्रोता एवं व्यक्तिगत दंतकथा किशोरों के अहं केन्द्रवाद के दो घटक हैं।
  14. किशोर अपने माता-पिता से अलग पहचान बनाना चाहते हैं।
  15. किशोरों में उत्पन्न पहचान-भ्रम नकारात्मक परिणाम वाले होते हैं।
  16. आत्मविश्वास और असुरक्षा की भावना के बीच शीघ्रता से परिवर्तित होते रहना किशोरावस्था की एक विशिष्टता है।
  17. किशोरावस्था पाकर व्यक्ति उपचार, मादक द्रव्यों का दुरुपयोग तथा आहार ग्रहण करने संबंधी विकारों को प्रमुख चुनौतियाँ मानते हैं।
  18. किशोरावस्था मे व्यक्ति सस्ते मनोरंजन को पसंद करने लग जाते हैं।
  19. किशोरावस्था में अहम्, कोध, बल-प्रयोग जैसे कई अवगुण विकास को अनियमित कर देते हैं।

अहं केन्द्रवाद के संप्रत्यय:
अंह केन्द्रवाद को पूर्व-संक्रियात्मक विचार की एक प्रमुख विशेषता के रूप में पहचाना जाता है। इस विशेषता के कारण बच्चे दुनिया को केवल अपने दृष्टिकोण से देखते हैं। ये दूसरों के विचार, परामर्श क्षमता को उद्देश्यहीन मानकार ठुकरा देते हैं। किशोर भी एक विशिष्ट प्रकार के अहं केन्द्रवाद विकसित करते हैं जिसके दो प्रमुख घटक हैं –

  1. काल्पनिक श्रोता तथा
  2. व्यक्तिगत दंतकथा होते हैं।

काल्पनिक श्रोता किशोरों का एक विश्वास है कि दूसरे लोग उनसे काफी आकर्षित हैं तथा उनका निरीक्षण कर स्वयं को बहलाना चाहते है। जैसे कुछ लड़के अपने शर्त के धब्बे से तथा कुछ लड़कियाँ मुँहासे से काफी चिन्तित रहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि लोग क्या कहेंगे जो किशोर को आत्म सचेत बना देता है। व्यक्तिगत दंतकथा किशोरों की अहं केन्द्रवाद का एक प्रमुख भाग है जिसमें किशोर स्वयं को अद्वितीय समझता है तथा दूसरे को नासमझ, अज्ञानी, स्वार्थी, पिछड़ा हुआ तथा संकुचित विचार वाला व्यक्ति मानने की भूल करता है।

अपनी अच्छाई और विशिष्टता को सही प्रमाणित करने के लिए वह तरह-तरह की काल्पनिक घटनाओं की चर्चा करके अपना प्रभाव जमाना चाहता है। यही कारण है कि अब किशोरों को माता-पिता से यह कहते सुनना आम बात हो गई है कि आप मुझे समझ नहीं पाते हैं, हमारी क्षमता आपसे कई गुण अधिक है। इस आधार पर माना जा सकता है कि अहं केन्द्रवाद किसी किशोर को अच्छाई की ओर ले जाने वाला प्रेरक बल हो सकता है लेकिन इसके कुप्रभाव से बचे रहने की बहुत जरूरत है।

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प्रश्न 9.
किशोरावस्था में पहचान निर्माण को प्रभावित करने वाले कौन-कौन-से कारक हैं। उदाहरण की सहायता से अपने उत्तर की पुष्टि कीजिए।
उत्तर:
अपने माता-पिता से अलग अपनी पहचान बनाने की प्रवृति प्रायः सभी किशोरों में पाई जाती है। किशोरावस्था में विलग्नता या अनासक्ति के द्वारा एक किशोर अपने व्यक्तिगत विश्वासों को पूरे समाज पर थोपकर सर्वमान्य बन जाने का प्रयास करता है। पहचान-युक्त नामक विसंगति या द्वन्द्व के बाबजूद भी पीछे रहने को तैयार नहीं होता है। किशोर नहीं चाहता है कि कोई उसे असमर्थ या अक्षम माने या उसे सदैव बच्चा ही समझा जाए। इसी समझ से ऊबकर वह अपनी पहचान बनाने को तत्पर रहता है।

किशोरावस्था में पहचान का निर्माण अनेक कारकों के संयुक्त प्रभाव के कारण संभव होता है। इस काम में उसे सांस्कृति पृष्ठभूमि, पारिवारिक जटिलता, सामाजिक मूल्य, सजातीय पृष्ठभूमि तथा समाजिक-आर्थिक स्तर के माध्यम से किया जाने वाला प्रभावी प्रयास है। इसके अतिरिक्त व्यावसायिक प्रतिबद्धता भी पहचान बनाने के लिए किशोरों को प्रेरित करता है। एक किशोर जनसेवा में अपना बहुमूल्य समझ दे पाने के लिए माता-पिता से अलग पहचान बनाना चाहता है।

परिवार में व्यवस्था या साधनों के चलते उठने वाले विवादों से मुक्ति पाने के लिए किशोर अपनी पहचान बनाने के लिए उत्सुक हो जाता है। बार-बार अच्छे साथियों से तुलना करने के क्रम में उदासिनता प्रकट करने लगता है। जीविकोपार्जन के लिए जब किशोर घर से बाहर जाता है तो सहकर्मी का व्यवहार परिवार के सदस्यों के व्यवहार से अधिक प्रिय प्रतीत होता है। अपने ज्ञान और कौशल का स्वतंत्रतापूर्वक प्रदर्शन करने के लिए लोभ में वह अपनी पहचान कायम करना चाहता है।

कभी-कभी समकक्षियों के साथ अन्तः क्रिया उन्हें अपने पारिवारिक संबंध कम करने को बाध्य कर देते हैं। मात-पिता के साथ संघर्षपूर्ण परिस्थितियों के कारण किशोर अपने समकक्षियों से सहायता लेने को बाध्य हो जाता है। बड़े होकर भविष्य में कोई किशोर क्या बनेगा? कहाँ और कैसे रहेगा? जैसे प्रश्न किशोरों में व्यावसायिक प्रतिबद्धता की भवना जग जाती है।

वह भविष्य की योजना को स्वयं अपने अनुकूल निर्धारित करना चाहता है। एक किशोर जब मता-पिता तथा समकक्षियों के प्रति भरोसा खोने लगता है तो उसके पास अलग पहचान के नर्माण के सिवा कोई अलग विकल्प नहीं बचता है। किशोरों में उत्पन्न होने वाली मृगतृष्णा को रोकने के लिए अभिभावकों को मित्रवत आचरण करते हुए उसकी समस्या को समझना चाहिए तथा समस्या समाधान में अधिक-से-अधिक सहयोग करना चाहिए।

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प्रश्न 10.
प्रौढावस्था में प्रवेश करने पर व्यक्तियों को कौन-कौन-सी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है?
उत्तर:
कोई व्यक्ति जब 21 वर्ष से अधिक उम्र वाला हो जाता है तो उसे प्रौढ़ मान लिया जाता है। प्रौढ़ावस्था प्राप्त व्यक्ति का अधिकतम सामर्थ्य वाला सम्पूर्ण मानव मानकर उससे अनेक प्रकार की आकांक्षाओं को पूरा करने की आशा जग जाती है। प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करने पर व्यक्तियों को तरह-तरह की निम्नलिखित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है –

1. एक नया अनुभव:
प्रौढ़ावस्था में प्रवेश करने पर व्यक्तियों को सामाजिक, सांस्कृतिक, शारीरिक, मानसिक परिवर्तनों के लिए नया अनुभव मिलता है। परिवर्तन संबंधित नये अनुभव के क्रम में अपने आपको संतुलन की अवस्था में रख पाना एक गंभीर चुनौती है।

2. दायित्व:
किसी प्रौढ़ व्यक्ति का परिवार और समाज के प्रति कई आवश्यक दायित्वों के निर्वहन के बोझ को ढोना पड़ता है।

3. परिपक्व और स्वावलम्बी:
समाज में सम्मानजनक स्थान पाने के लिए प्रौढ़ में परिपक्व और स्वावलम्बी की भूमिका अदा करना होता है।

4. अध्ययन और नौकरी साथ-साथ:
समाज और परिवार की आवश्यकताओं तथा आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए प्रौढ़ को अध्ययन और नौकरी साथ-साथ करने की नौबत आ जाती है।

5. महत्त्वपूर्ण घटनाओं से संस्कृति में बदलाव:
विवाह नौकरी तथा बच्चों को जन्म देना ऐसी महत्त्वपूर्ण घटनाएँ हैं जो संस्कृति से स्वरूप में भिन्नता ला देते हैं। संस्कृति के बदल जाने पर भी विकास-क्रम को पूर्ववत गतिमान रखना प्रौढ़ों के लिए कठिन चुनौती है।

6. दो प्रमुख कार्यों का सम्पदान:
प्रारम्भिक प्रौढ़ावस्था के दो मुख्य कार्य होते हैं –

(क) प्रौढ़ जीवन की संभावना को तलाशना तथा
(ख) स्थायी जीवन की संरचना का विकास करना। शिक्षा, पेशा एवं व्यवहार के द्वारा प्रौढ़ इन कार्यों को पूरा करने को बाध्य रहता है।

7. निर्भरता से स्वंतत्रता की ओर:
प्रौढ़ावस्था के पूर्व व्यक्ति आश्रित बनकर माता-पिता पर निर्भर रहता है। किन्तु प्रौढ़ावस्था में वही व्यक्ति विवाह बन्धन में बंधकार पिता बना जाता है और निर्भरता को छोड़कर स्वतंत्र जीवन जीने को बाध्य हो जाता है।

8. जीविका एंव कार्य:
परिवार के सभी सदस्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्रौढ़ को किसी न किसी व्यवसाय का चयन करना होता है तथा कठोर श्रम करके निर्धारित कार्य को पूरा करके संसाधन जुटाना होता है। इसमें उसे अपनी दक्षता और निष्पादन को सिद्ध करने के लिए प्रत्याशाओं के प्रति समायोजन स्थापित करना पड़ता है। जीविका विकसित करके उसका सही मूल्यांकण करना प्रौढ़ व्यक्ति के लिए वांछनीय हो जाता है।

9. विवाह, मातृ:
पितृत्व एवं परिवार-किसी दूसरे परिवेश में पली-बढ़ी कन्या से विवाह करके कोई प्रौढ़ व्यक्ति भिन्न संस्कार अथवा संस्कृति के अनुकूल बनकर सुखमय जीवन जीने का प्रयास करता है। पति-पत्नी में स्पष्ट समझ एवं सहयोग की भावना को बनाये रखना प्रौढ़ के लिए एक चुनौती होती है। पिता बन जाने के बाद किसी प्रौढ़ों को बच्चों की संख्या, सामाजिक आलम्बन की उपलब्धता तथा विवाहित युगल की प्रसन्नता को ध्यान में रखते हुए जीवन-क्रम को आगे बढ़ाना पड़ता है।

10. तलाक:
तलाक अथवा मृत्यु के कारण कभी-कभी प्रोढ़ों को एकाकी जीवन जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है। संरक्षण और देख-रेख सम्बंधी आवश्यकता प्रौढ़ को परेशान करने लगती है जिससे समाधान का रास्ता पाना एक चुनौती भरा काम है।

11. शारीरिक परिवर्तन:
कभी-कभी दृष्टिकोण या विकलांगता या आकस्मित रोग प्रौढ़ को संकट में डाल सकता है। कुछ कामों में निपुणता का अभाव, स्मृति में कमी आदि संकट बनकर प्रौढ़ की क्षमता को ललकारने लगते हैं।

अत: उम्र अथवा अवस्था बदलने से वैयक्तिक भिन्नता बढ़ जाती है। स्वभाव, साधन, तकनीकी ज्ञान आदि में आने वाले अन्तर गंभीर चुनौतियों के रूप में प्रोढ़ को सक्षम प्रमाणित करने के लिए बाध्य करने लगते हैं क्योंकि सभी प्रौढ़ ज्ञानी नहीं होते हैं। अर्थात् प्रौढ़ावस्था में प्रवेश पाना गंभीर चुनौतियों का सामना करना स्वाभाविक दशा है।

Bihar Board Class 11 Psychology मानव विकास Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
विकास का परिस्थितिपरक दृष्टिकोण का निरूपण का निरूपण किन-किन खण्डों में किया जाता है?
उत्तर:

  1. लघु मंडल
  2. मध्य मंडल
  3. बाह्य मंडल
  4. वृहत् मण्डल और
  5. घटना मंडल

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प्रश्न 2.
विकास के अध्ययन की दो विधियों के नाम बतायें।
उत्तर:
बच्चों के विकास संबंधी अध्ययन करने के लिये दो विधियों का उपयोग किया जाता है जिनके नाम इस प्रकार हैं –

  1. बड़े समूह का मापन
  2. पुनः परीक्षण

प्रश्न 3.
संवेदी विकास से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
संवेदी विकास से तात्पर्य वैसे विकास से होता है जिसमें नवजात शिशु के ज्ञानेन्द्रियों का इतना विकास हो जाता है कि वह अपने वातारण की चीजों की सही-सही प्रत्याक्षीकरण कर सके।

प्रश्न 4.
संवेदी विकास पर किन कारकों का प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
बच्चों के संवेदी विकास पर पारिवारिक वातावरण, यौन, बुद्धि आदि कारकों का प्रभाव पड़ता है।

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प्रश्न 5.
संवेदी विकास के मुख्य प्रकार कौन-कौन हैं?
उत्तर:
संवेदी विकास पाँच प्रकार के होते हैं-दृष्टि संवेदना, श्रवण संवेदना, घ्राण संवेदना, स्वाद संवेदना एवं त्वक् संवेदना।

प्रश्न 6.
क्या शरीर की लम्बाई, वजन तथा मोटापा में वृद्धि को ही विकास माना जाता है?
उत्तर:
नहीं, विकास का वास्तविक अर्थ शारीरिक विकास के साथ मानसिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तनों पर भी निर्भर करता है।

प्रश्न 7.
विकास से सबंधित दो प्रमुख मान्यताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:

  1. विकास जीवन भर चलने वाली प्रक्रिया है।
  2. विकास अत्यधिक लचिला अथवा संशोधन योग्य होता है।

प्रश्न 8.
संवृद्धि क्या है? दो उदाहरण दें।
उत्तर:
शारीरिक अंगों की माप मे हानेवाली वृद्धि संवृद्धि कहलाती है। जैसे-

  1. शरीर की ऊँचाई (कद) का बढ़ना
  2. विकास वजन में वृद्धि।

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प्रश्न 9.
प्राकृतिक चयन क्या है? यह किसे लाभ पहुंचाती है?
उत्तर:
प्राकृति चयन एक विकास वादी प्रक्रिया है। यह उन व्यक्त्यिों या प्रजातियों को लाभ पहुँचता है जो अपनी जीवन-रक्षा तथा प्रजनन करने के लिए सर्वश्रेष्ठ रूप से अनुकूलित होते हैं।

प्रश्न 10.
यूरी ब्रानफेन ब्रेनर का व्यक्ति के विकास के संबंध में क्या दृष्टिकोण है?
उत्तरी:
विकास का परिस्थितिपरक दृष्किोण के अनुसार विकास के परिवेशीय कारकों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 11.
विकासात्मक मनोविज्ञान की समुचित परिभाषा क्या है?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है, जिसमें गर्भाधान से मृत्यु तथा मनुष्यों की विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है।

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प्रश्न 12.
विकास की गति को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बच्चे का शारीरिक एवं मानसिक विकास उसके जीवन कोष की बनावट पर निर्भर करता है जैसे जीवकोष (germ cell) होगा बच्चे का विकास भी वैसा ही होगा फिर भी बच्चों की क्रियायें, भोजन, अभ्यास, शिक्षा इत्यादि का भी उसकी विकास गति पर काफी पड़ता है।

प्रश्न 13.
बाल्यावस्था क्या है?
उत्तर:
सामान्य रूप से जन्म लेकर अपरिपक्वता तक की अवस्था को बाल्यावस्था कहा जाता है अर्थात् 2 वर्ष से लेकर 11 वर्ष तक की अवस्था को ही बाल्यावस्था कहते हैं।

प्रश्न 14.
वयस्कावस्था क्या है?
उत्तर:
वयस्कावस्था 17 से 21 वर्ष तक ही होती है। इस अवस्था में बच्चे का विकास पूर्ण रूप से हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त करने पर व्यक्ति समाज और कानून क दृष्टिकोण से परिपक्व हो जाता है।

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प्रश्न 15.
क्रियात्मक विकास की क्या विशेषताएँ हैं?
उत्तर:
क्रियात्मक विकास परिपक्वता पर निर्भर होता है, तंत्रिका विकास, वैयक्तिक भिन्न्ता, मस्तकाधोमुखी क्रम, निकट दूर का क्रम आदि क्रियात्मक विकास की विशेषताएँ है।

प्रश्न 16.
बच्चों में क्रियात्मक विकास का क्रम क्या होता है?
उत्तर:
बच्चों में क्रियात्मक विकास के क्रम में सिर के भाग्य में क्रियात्मक विकास, धड़ के क्षेत्र में क्रियात्मक विकास, बाँह और हाथ के क्रियात्मक विकास तथा पैरों एवं अंगुलियों में क्रियात्मक विकास आदि आते हैं।

प्रश्न 17.
क्रियात्मक विकास से तात्पर्य है?
उत्तर:
क्रियात्मक विकास वैसे विकास को कहा जाता है जिसके सहारे बच्चे अपने मांसपेशियों एवं तंत्रिकाओं को समन्वित करके अपने शरीर के अंगों द्वारा किये जाने वाले गतियों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करते है।

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प्रश्न 18.
क्रियात्मक विकास पर किन कारकों का प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
बच्चों के क्रियात्मक विकास पर शारीरिक गठन, बौद्धिक स्तर, माता-पिता द्वारा प्रोत्साहन जन्म,-क्रम, यौन आदि कारकों का प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 19.
क्रियात्मक विकास का पैटर्न क्या है?
उत्तर:
बच्चों में क्रियात्मक विकास का क्रम दो प्रकार होता है-मस्तकाधोमुखी विकास क्रम तथा निकट-दूरस्थ विकास क्रम।

प्रश्न 20.
मस्तकाधोमुखी विकास क्रम क्या है?
उत्तर:
मस्तकाधोमुखी विकास क्रम में पहले सिर तथा गर्दन के भाग में, फिर बाँह तथा हाथ के हिस्सों में, फिर धड़ में और अन्त मे पैर तथा उनकी उँगलियों में विकास होता है।

प्रश्न 21.
सामाजिक विकास की विभिन्न अवस्थाएँ क्या हैं?
उत्तर:
सामाजिक विकास की अवस्थाओं में मौखिक अवस्था, गुदावस्था, अव्यक्तावस्था, किशोरावस्था, वयस्कावस्था तथा वृद्धावस्था आदि मुख्य हैं।

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प्रश्न 22.
विकास का क्या अर्थ है?
उत्तर:
विकास उन प्रगतिशील परिवर्तनों को कहते हैं जिनका प्रारम्भ नियमित एवं क्रमिक रूप से होता है तथा परिपक्वता प्राप्ति की ओर निर्देशित रहता है।

प्रश्न 23.
किशोरावस्था से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामान्य बच्चों में तरुणावस्था की शुरूआत से लेकर परिपक्वावस्था को ही किशोरावस्था कहा जाता है अर्थात् 11-13 वर्ष के बीच की उम्र से शुरू होकर 21 वर्ष तक की अवस्था को किशोरावस्था कहा जाता है।

प्रश्न 24.
बुढ़ापा की अवस्था क्या है?
उत्तर:
जब व्यक्ति 50 वर्ष से ऊपर आयु का होता है तो बुढ़ापा की अवस्था प्रारंभ हो जाती है। बुढ़पा की अवस्था में व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक गति धीरे-धीरे कम होने लगती है। वह शरीर से अस्वस्थ होने लगता है।

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प्रश्न 25.
शिशुओं के दृष्टिं विकास कितनी उम्र में होती है?
उत्तर:
नवजात शिशु का दृष्टिपटल, दृष्टि-स्नायु, आँख के लेन्स को नियंत्रित करने वाली मांसपेशियाँ जन्म के समय परिपक्व नहीं होती, परन्तु छ:-सात माह की उम्र में परिपक्व जो जाती है और दृष्टि संवेदना विकसित हो जाती है।

प्रश्न 26.
शिशुओं में बैठने की क्रिया कितनी उम्र में होती है?
उत्तर:
शिशु नौ महीने की उम्र में बिना सहारा के ही बैठना प्रारंभ कर देता है।

प्रश्न 27.
बच्चे कितनी उम्र से चलना प्रांरभ करते हैं?
उत्तर:
सामान्यतः बच्चे ग्यारह से पन्द्रह महीने की उम्र से चलना प्रांरभ कर देते हैं।

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प्रश्न 28.
विकासात्मक अवस्थाओं की भारतीय अवधारणा क्या है?
उत्तर:
भारतीय अवधारणा के अनुसार विकास की चार अवस्थाएँ हैं –
ब्रह्मचर्य या शिक्षार्थी अवस्था, गृहस्थ या पालक अवस्था, वाणप्रस्थ या प्रत्याहार की अवस्था तथा संन्यास या परित्याग की अवस्था।

प्रश्न 29.
विकास की प्रक्रिया कब से प्रारम्भ होती हैं?
उत्तर:
व्यक्ति के विकास की प्रक्रिया गर्भाधान से प्रारंभ होती है।

प्रश्न 30.
किशोरावस्था तक विकास की कौन-कौन अवस्थाएँ हैं?
उत्तर:
किशोरावस्था तक विकास की मुख्य अवस्थाएँ –
पूर्व प्रसूतिकाल, शैशवास्था, बचपनावस्था, बाल्यावस्था, तरुणावस्था एवं किशोरावस्था है।

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प्रश्न 31.
पूर्व प्रसूतिकाल में कब से कब तक होता है?
उत्तर:
गर्भधारण से प्रारम्भ होकर जन्म होने तक के काल को पूर्व प्रसूतिकाल कहा जाता है।

प्रश्न 32.
शैशवावस्था में बच्चा कितने दिनों तक रहता है?
उत्तर:
जन्म से लेकर चौदह दिन तक बच्चा शैशवावस्था में रहता है।

प्रश्न 33.
बचपनावस्था कब से कब तक रहती है?
उत्तर:
बचपनावस्था चौदह दिनों के बाद से प्रारम्भ होकर दो वर्ष की उम्र तक रहता है।

प्रश्न 34.
बाल्यावस्था किस उम्र से प्रारम्भ होती है?
उत्तर:
बाल्यावस्था दो वर्ष की उम्र से ग्यारह वर्ष की उम्र तक होती है।

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प्रश्न 35.
तरुणावस्था की अवधि क्या होती है?
उत्तर:
तरुणावस्था की अवधि ग्यारह से तेरह वर्ष की उम्र तक होती हैं?

प्रश्न 36.
किशोरावस्था किस उम्र को कहते हैं?
उत्तर:
किशोरावस्था तेरह साल से उन्नीस-बीस साल तक की उम्र को कहते हैं?

प्रश्न 37.
शैशावस्था से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जन्म से लेकर 10-14 दिनों की अवस्था को ही शैशावस्था कहा जाता हैं। इस अवस्था के बच्चे को नवजात शिशु कहा जाता है।

प्रश्न 38.
आनुवंशिकता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
आनुवंशिकता से तात्पर्य एक प्रजाति में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक विशेषताओं को पहुँचाने की प्रक्रिया है।

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प्रश्न 39.
सामाजिक विकास से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सामाजिक विकास से तात्पर्य एक सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुरूप व्यवहार करने की क्षमता से होती है।

प्रश्न 40.
बच्चों के समाजीकरण पर किन कारकों का प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
बच्चों के समाजीकरण पर उसके स्वास्थ, बुद्धि, शारीरिक बनावट, परिवारिक वातावरण, स्कूल आदि कारकों का प्रभाव पड़ता है।

प्रश्न 41.
बच्चों में होने वाले प्रारंभिक सामाजिक विकास के मुख्य प्रकार कौन हैं?
उत्तर:
प्रारंभिक सामाजिक विकास के अर्न्तगत अनुकरण, सहयोग, मित्रता, सहानुभूति, प्रतिद्वन्द्विता आदि आते हैं।

प्रश्न 42.
किसी घर में क्षमता से अधिक लोगों के रहने से क्या-क्या कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं?
उत्तर:
प्रयुक्त किये जाने वाले साधनों (खिलौने, टी. वी.) के लिए छीना-झपटी होने लगता है। पठन-पाठन एवं व्यवस्था संबंधी सहजता का अभाव कष्ट देता है।

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प्रश्न 43.
प्रमस्तिष्क की महत्त्वपूर्ण भूमिका क्या होती है?
उत्तर:
भाषा, प्रत्यक्षण एवं बृद्धि के संचालन में सक्रिय योगदान करता है।

प्रश्न 44.
बाल अपराध से क्सा तात्पर्य है?
उत्तर:
बाल अपराध से तात्पर्य किसी स्थान-विशेष के नियमों के अनुसार एवं निश्चित उम्र से कम बच्चे या किशोर द्वारा किया जाने वाला अपराध है।

प्रश्न 45.
पुनः परीक्षण विधि से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पुनः परीक्षण एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा एक ही व्यक्ति या कई व्यक्तियों का अध्ययन बार-बार कुछ-कुछ समय के बाद किया जाता है। यह पुनः परीक्षण हरेक दिन के बाद या हर एक सप्ताह या हर एक महीने या हर एक साल के बाद किया जा सकता है।

प्रश्न 46.
तलाक की अवस्था क्या है?
उत्तर:
जब पति-पत्नी के बीच मतभेद उत्पन्न हो जाता है और वे वैवाहिक संबंध-विच्छेद कर लेते हैं और उसके बीच पति-पत्नी का संबंध समाप्त हो जाता है तो इस स्थिति को तलाक कहा जाता है।

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प्रश्न 47.
विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता किसके लिए है?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता बच्चों, बच्चों माता-पिता, शिक्षक बाल-सुधारकों, समाज एवं बाल न्यायालयों के लिए हैं।

प्रश्न 48.
विकासात्मक मनोविज्ञान का क्षेत्र क्या है?
उत्तर:
प्रसव पूर्व विकास, नवजात शिशु, ज्ञानात्मक भाषा, शारीरिक, संवेदी क्रियात्मक, संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास आदि विकासात्मक मनोविज्ञान के क्षेत्र हैं।

प्रश्न 49.
विकासात्मक मनोविज्ञान में व्यक्ति का अध्ययन कब-से-कब तक किया जाता है?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति का अध्ययन गर्भावस्था से लेकर मृत्यु तक किया जाता है।

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प्रश्न 50.
एक सामान्य महिला में किस प्रकार का गुणसूत्र पाया जाता है?
उत्तर:
एक समान्य महिला xx में का गुणसूत्र पाया जाता है।

प्रश्न 51.
परम्परागत रूप से सेवा-निवृति को व्यक्ति की किस अवस्था से जोड़ा जाता है?
उत्तर:
सेवा-निवृति को वृद्धावस्था से जोड़ा जाता है।

प्रश्न 52.
विधवाओं तथा विधुरों में किसकी संख्या अधिक होती है?
उत्तर:
विधवाओं की संख्या विधुरों. से अधिक होती है।

प्रश्न 53.
मेडागास्कर की टनाला संस्कृति में मृत्यु का कारण किसे माना जाता है?
उत्तर:
टलाना संस्कृति में मृत्यु का कारण प्राकृतिक शक्तियों को माना जाता है।

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प्रश्न 54.
बच्चों में समाजिक विभेदन की क्षमता किसे उम्र में विकसित होती हैं?
उत्तर:
बच्चों में समाजिक विभेदन की क्षमता 12-13 साल की उम्र में होती है।

प्रश्न 55.
भारत में किसी उम्र के व्यक्ति द्वारा अपराध करने पर उसे बाल अपराध के अन्तर्गत रख जाता है?
उत्तर:
बाल अपराध के मुख्य कारकों में मनोवैज्ञानिक कारक, पारिवारिक कारक, सामाजिक कारक तथा आर्थिक कारक आदि आते हैं।

प्रश्न 56.
बाल अपराध के मुख्य कारक क्या हैं?
उत्तर:
बाल अपराध के मुख्य कारकों में मनोविज्ञानिक कारक, पारिवारिक कारक, सामाजिक कारक, तथा आर्थिक कारक आदि आते हैं।

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प्रश्न 57.
शैशवावस्था में भी संवेदी योग्यताएँ होती हैं, इसका एक लक्षण बतावें।
उत्तर:
जन्म के कुछ घंटे बाद बच्चे अपनी माँ की आवाज को पहचान सकते हैं। मुँह की आकृति बदलकर तथा हाथ-पैर हिलाकर वह अपनी खुशी को प्रकट करता है।

प्रश्न 58.
आसक्ति किसे कहते हैं?
उत्तर:
किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति आंतरिक लगाव या स्नेह से उत्पन्न सांवेगिक बंधन को आसक्ति कहते हैं।

प्रश्न 59.
लिंग प्ररूपण कब उत्पन्न होता है?
उत्तर:
किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति आंतरिक लगाव या स्नेह से उत्पन्न सांवेगिक बंधन को आसक्ति कहते हैं।

प्रश्न 60.
डेविड एलकाइड के अनुसार किशोरों के अहं केन्द्रवाद के दो मुख्य घटक क्या हैं?
उत्तर:
(क) काल्पनिक श्रोता तथा
(ख) व्यक्तिगत दंतकथा

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प्रश्न 61.
किशोरों की पहचान निर्माण का कारक ‘व्यावसायिक प्रतिबद्धता’ का आधार कहलाने योग्य एक प्रश्न का उल्लेख करें।
उत्तर:
बड़े होकर आप क्या करेगें?

प्रश्न 62.
उपचार से संबंधित दो प्रमुख पद बतावें।
उत्तर:

  1. अपराध तथा
  2. कर्त्तव्य विमुखता

प्रश्न 63.
मादक द्रव्यों का दुरुपयोग मनुष्य के किस अवस्था मे अधिक पाया जाता है?
उत्तर:
किशोरावस्था का समय।

प्रश्न 64.
आहार ग्रहण संबंधी विकास का एक उदाहरण दें?
उत्तर:
मनोग्रस्ति अवस्था भूखा रहकर शरीर को दुबला एवं आकर्षक बनाने का कठिन प्रयास आहार संबंधी एक प्रचलित विकार है।\

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प्रश्न 65.
पति-पत्नी की तलाक का प्रभाव पति पर किस प्रकार पड़ता है?
उत्तर:
पति अकेलापन महसूस करता है तथा बच्चों की देख-रेख तथा भोजन निर्माण संबंधी समस्याओं में उलझ जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
विकासात्मक मनोविज्ञान क्या है?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान मनोविज्ञान की ऐसी शाखा है जो गर्भधारण से मृत्यु तक मनुष्यों में होनेवाले विकास का अध्ययन करता है तथा जिसमें जीवन-अवधि के विभिन्न अवस्थाओं में होनेवाले परिवर्तनों पर बल डाला जाता है। इस मनोविज्ञान में 19-20 साल तक होनेवाले कुछ खास-खास विकासात्मक परिवर्तन, सामाजिक विकास में परिवर्तन, खेल विकास में परिवर्तन, नैतिक एवं चारित्रिक विकास में परिवर्तनों आदि के अध्ययन पर अधिक बल डाला जाता है।

प्रश्न 2.
विकासात्मक मनोविज्ञान की विषय-वस्तु क्या है?
उत्तर:
विकासात्मक की विषय-वस्तु विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन करना है। प्राणी के विकास से तात्पर्य समय बीतने के साथ उनमें होनेवाले एक क्रमिक परिवर्तन से होता है। विकास से सबंधित परिवर्तनों को विकासात्मक परिवर्तन कहा जाता है। ऐसे तो मानव व्यवहार में विकासात्मक परिवर्तन जीवन अवधि के सभी अवस्थाओं (stages) में होता है, परन्तु 19-20 साल की अवधि तक ऐसे परिवर्तन बहुत ही स्पष्ट रूप से होते हैं। इन परिवर्तनों में संवेदी विकास में परिवर्तन, सामाजिक विकास में परिवर्तन, खेल विकास में परिवर्तन, दैनिक परिवर्तन आदि प्रमुख हैं। इन परिवर्तनों के अलावा विकासात्मक मनोविज्ञान में विकास के सामान्य नियमों का भी गहन रूप से अध्ययन किया जाता है।

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प्रश्न 3.
विकासात्मक मनोविज्ञान से प्रमुख उद्देश्य क्या हैं?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति के जीवन अवधि के भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों को समझना तथा उसके बारे में भविष्यवाणी करना है। विकासात्मक मनोविज्ञानिक बच्चों के जीवन के विभिन्न अवस्थाओं विशेषकर 19-20 साल तक की अवधि में होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों को समझने की कोशिश करते हैं तथा उसके आधार पर वे उनके द्वारा आगे चलकर किये जाने वाले व्यवहारों की भविष्यवाणी भी करते हैं।

इस तरह से विकासात्मक मनोवैज्ञानिक बच्चों के वर्तमान विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन करके उनके सामाजिक विकास, सांवेगिक विकास, भाषा विकास, खेल विकास चारित्रिक विकास आदि के बारे में उत्तम भविष्यवाणी कर पाते हैं। इससे उन्हें विकास के क्रम (sequence) कों समझने में भी विशेष मदद मिलती है।

प्रश्न 4.
मानव विकास को प्रभावित करने वाली प्रमुख क्रियाओं के लिए एक-एक उदाहरण दें।
उत्तर:
मानव विकास को प्रभावित करने वाली तीन क्रियाएँ निम्नलिखित है –

  1. जैविक क्रिया-लम्बाई, वजन हृदय एवं फेफड़ों का विकास।
  2. संज्ञानात्मक क्रिया-लम्बाई, वजन, हृदय एवं फेफड़ों का विकास।

प्रश्न 5.
संवृद्धि का संबंध किस स्तर की वृद्धि से है?
उत्तर:
हाथ, पैर, वजन मोटापन जैसे शारीरिक अंगों की वृद्धि का संबंध संवृद्धि से है। संवृद्धि सम्पूर्ण जीव की बढ़ोतरी को भी कहते हैं। एक बच्चा कम समय में ही यदि काफी लम्बा हो जता है तो माना जाता है कि बच्चे मे शारीरिक संवृद्धि हुई है।

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प्रश्न 6.
विकास से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
विकास का अर्थ (Meaning of Development):
विकास उन प्रगतिशील परिवर्तनों को कहते हैं, जिनका प्रारम्भ नियमित एवं क्रमिक होता है तथा परिपक्वता-प्राप्ति की ओर निर्देशत रहता है। ‘विकासात्मक क्रम’ (Development sequence) की हर अवस्था और इसके बाद वाली अवस्था में एक निश्चित प्रकार का सम्बन्ध है। विकास एक ऐसे प्रकार के ‘परिवर्तन’ (types of change) हैं जिनके द्वारा बच्चों में नई ‘विशेषताओं’ (characteristics) एवं योग्यताओं (abilities) का समावेश हो जाता है।

बच्चे के जीवन की प्रारम्भिक अवस्था मे उसके बाद के जीवन की अपेक्षा अधिक तेजी से परिवर्तन होता है, परन्तु सबसे अधिक तेजी से परिवर्तन ‘जन्म के पूर्व अवस्था’ (prental stage) में हो जाता है। इस अवस्था में होनेवाले परिवर्तन, विकास उन्हीं नियमां (principles of development) का अनुसरण करते हैं, जिनका अनुसरण ‘जन्म के बाद होनेवाले विकास कहते हैं। बच्चे में सामान्य विकास किस तरह होते हैं, उसकी जानकारी से कई ‘लाभ’ (advantages) हैं –

(क) इससे इस बात का ज्ञान होता है कि बच्चे का हर उम्र (all ages) में कितना विकास होना चाहिए और बच्चे के विभिन्न प्रकार के व्यवहार कब शुरू हो गये और किस अवस्था में परिपक्व (matured) हो जाएंगे।

(ख) चूँकि प्रत्येक बच्चे में समान प्रकार की विकास प्रणाली पाई जाती है, इसलिए यह जानना आसान हो जाता है कि किस बच्चे का विकास सामान्य (normal) ढ़ग और विकास असामन्य (abnormal) ढंग का हो रहा है।

(ग) उचित विकास के लिए इस ज्ञान के आधार पर बच्चों को समय-समय पर निर्देशित (guided) किया जाना सम्भव हो जाता है।

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प्रश्न 7.
बड़े समूहों का मापन क्या है?
उत्तर:
बड़े समूहों का मापन (Measurement of large groups):
इस विधि द्वारा विभिन्न उम्र-स्तर (age-levels) के बच्चों के बड़े समूहों का अध्ययन किया जाता है। ऐसा करने का लक्ष्य (aim) है एक विशिष्ट उम्र-स्तर (age-level) में बच्चों में होनेवाले प्रामाणिक विकास (standard development) का पता लगाना। इस विधी का उपयोग विशेषकर बच्चों के शरीरिक विकास-ऊँचाई, वजन तथा सामान्य बुद्धि के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने हेतु ही किया गया है।

यह ‘पुनः परीक्षण’ (re-examination) विधि से, जिसकी चर्चा आगे की जाएगी, आसानी से उपयोग में लया जाता है और इसमें ज्यादा समय भी नही लगता। इसमें पुनर्निरीक्षण-विधि की तरह प्रत्येक वर्ष बच्चों के एक ही समूह का अध्ययन बार-बार नहीं किया जाता, इसलिए इसके उपयोग में समय भी कम लगता है।

परन्तु, इस विधि में भी ‘त्रुटिया’ हैं। इस विधि की सबसे बड़ी त्रुटि यह है कि करीब-करीब बराबर संख्या में भिन्न-भिन्न उम्र के बच्चों का मिलना मुश्किल है। अत: इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर देना कठिन है कि क्या एक बार चार वर्ष के बच्चों के समूहों की जाँच प्रत्येक एक वर्ष के बाद करने पर उनमें वे सभी शारीरिक एवं मानसिक विकास पाए जाएँगे, जैसा कि विभिन्न उम्र के भिन्न-भिन्न समूहों के बच्चों में पाए गए थे और जिनके आधार पर उस उम्र-विशेष में होनेवाले प्रामाणित, शारीरिक एवं मानसिक विकास (standard, physical and mental development) का पता लगाया गया।

यदि हम इस विधि के आधार पर किसी सही निष्कर्ष पर पहुँचना चाहें तो हमें काफी संख्या में प्रत्येक उम्र-स्तर (age-level) के बच्चों को विभिन्न समुदायों (different community) से ‘अनियमित ढंग से चुनकर’ (random sampling) उनका अध्ययन करना पड़ेगा। तत्पश्चात् जो प्रदत प्राप्त होंगे, उनके आधार पर हम प्रत्येक उम्र स्तर (age-level) में होनेवाले शारीरिक एवं मानसिक विकास का पता लगाएँगे और उन्हें हम प्रामाणिक (standard) मान सकते है। इसके आधार पर हम किसी एक खास बच्चे के विकास के संबंध में सही एवं विश्वसनीय निष्कर्ष निकाल सकते हैं।

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प्रश्न 8.
परिपक्वता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
परिपक्वता (Maturation):
शारीरिक एवं मानसिक गुणों के विकास का कारण इन गुणों की ‘परिपक्वता’ (maturation) भी है। परिपक्वता का अर्थ है मनुष्य के अन्दर वर्तमान उन गुणों का विकास होना, जो वे अपने माता-पिता एवं अन्य पूर्वजों से ग्रहण रते हैं। परिपक्वता के द्वारा जिन गुणों का आविर्भाव होता है वे एकाएक (suddenly) आते है; जैसे-ज्योंही बच्चे युवावस्था का प्राप्त करते हैं उनके चेहरे पर एकाएक बाल उग आते हैं और उनकी बोली भी भारी हो जाती है।

शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ उनकी मनोवृति (attitudes) में भी परिवर्तन हो जाता है। विशेषकर विषमलिंगियों (opposite sex) के प्रति उनकी मनोवृति मे काफी परिवर्तन होता है। यही कारण है कि इस उम्र में लड़के लड़कियों को और लड़कियाँ लड़कों का चाहने लगती हैं।

प्रश्न 9.
पर्यावरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पर्यावरण क्या है, इस संदर्भ में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने इसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। पर्यावरण दो शब्दों के मेल से बना है परि और आवरण। परि का तात्पर्य चारों ओर तथा आवरण का अर्थ ढंका हुआ होता है। इस अर्थ में हम कह सकते हैं कि पर्यावरण वह है जो व्यक्ति को चारों ओर से घेरे हुए है।

जिस्बर्ट ने पर्यावरण को परिभाषित करते हुए लिखा है “पर्यावरण वह है जो वस्तु को चारों ओर से घेरे हुए है तथा उस पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।” रॉस के शब्दों में “पर्यावरण कोई भी बाहरी शक्ति है, जो हमें प्रभावित करती है।” उपर्युक्त परिभाषाओं से पर्यावरण का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। वस्तुतः पर्यावरण एक विस्तृत अवधारणा है। यह व्यक्ति के जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करता है।

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प्रश्न 10.
पुनः परीक्षण विधि से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पुनः परीक्षण विधि (Re-examination):
इस विधी द्वारा एक ही व्यक्ति या कई व्यक्तियों का अध्ययन बार-बार कुछ-कुछ समय के बाद किया जाता है। वह ‘पुनः परीक्षण’ हर एक दिन के बाद या हर एक सप्ताह या हर एक महीने या हर एक साल के बाद किया जा सकता है।

यह विधि पहली विधि की अपेक्षा अधिक समय लेती है और इसके उपयोग करने में काफी कठिनाइयों का सामना भी करना पड़ता है। इस विधि द्वारा एक खास उम्र के बच्चों के एक बड़े समूह का अध्ययन न कर, एक ही बच्चे का अध्ययन बार-बार किया जाता है। अतः इससे बच्चों की विभिन्न अवस्थाओं में होनेवाले शारीरिक एवं मानसिक विकास का समुचित ज्ञान प्राप्त हो जाता है।

इस विधि द्वारा किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट है कि सामान्य बच्चों में होनेवाले विकास का क्रम एवं गति करीब-करीब एक समान होते हैं। इसलिए बच्चों के बड़े समूहों का अध्ययन करना अनिवार्य नहीं है किन्तु, इस विधि को उपयोग में लाने के समय कुछ कठिनाइयाँ सामने आती हैं; जैसे-प्रत्येक वर्ष पन: परीक्षण के लिए अध्ययन किए गए उन्हीं सारे बच्चों के मिलने में काफी दिक्कत होती है। बच्चों की ‘बुद्धि का विकासात्मक अध्ययन’ करने के लिए टरमन (Terman) ने इस विधि का उपयोग किया है।

गेंसेल (Gensell) ने भी येल साइकोलॉजिकल क्लिनिक (Yale Psycho logical Clinic) में इस विधि द्वारा 100 बच्चों का अध्ययन हर एक महीने के बाद किया और विकास-नियम (development norms) की भी स्थापना की। इसके अतिरिक्त, शर्ली (Shirley) बर्नसाइड (Burnside) तथा हालवरसन (Halverson) ने भी इस विधि का उपयोग बच्चों के अध्ययन हेतु किया, जिसकी विशद व्याख्या करना यहाँ अभीष्ट नहीं है।

प्रश्न 11.
जन्म के पूर्व की अवस्था से आप क्या समझते हैं।
उत्तर:
जन्म के पूर्व की अवस्था (pre-neriod):
यह ‘गर्भाधान (conception) से लेकर जन्म हाने (birth) तक की अवस्था’ है। यह अवस्था करीब-करीब 9 महीने या 280 दिन की होती है। इतनी छोटी अवधि होने पर भी इस अवस्था में विकास किसी भी अन्य अवस्था की अपेक्षा अधिक तेजी से होता है। इस अवस्था में बच्चे का विकास एक सूक्ष्म जीवकोष (germ-cell) से 9 महीने के अन्दर की छह से आठ पौण्ड के वजन (Weight) और करीब-करीब 20 इंच की लम्बाई में हो जाता है। निस्सन्देह, इस विकास को हम एक ‘तीव्र विकास’ (rapid development) कहेंगे। इस समय होनेवाले विकास अधिकतर शारीरिक (physiological) ही होते हैं।

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प्रश्न 12.
वंशाक्रम से आप क्या समझते हैं? व्यक्ति पर वंशानुक्रम के पड़ने वाल प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर:
व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास पर मुख्य रूप से दे कारकों का प्रभाव पड़ता है ये कारक हैं वंशानुक्रम एवं वातावरण। मनोवैज्ञानिकों के विभिन्न समूहों ने दोनों करकों की भूमिका तथा प्रभाव का उल्लेख किया है। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व किास के लिए सिफ वंशानुक्रम का ही महत्त्वपवूर्ण मान है और कहा है कि जैसी वंश-परंपरा होगी वैसी ही उसकी संतानें भी होगी। जबकि इसके विपरीत कुछ मानोवैज्ञानिकों मत है कि व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास पर पर्यावरण का.प्रभाव पड़ता है।

वाटसन ने वातावरण के महत्त्व को स्थापित करते हुए कहा है कि “मुझे एक दर्जन स्वस्थ बच्चे दीजिए मैं उसे किसी भी रूप में विकसित कर सकता हूँ। उसे डॉक्टर, वकील, इंजीनियर, नेता, व्यापारी, अथवा चोर बना सकता हूँ।” उपर्युक्त विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि मनोवैज्ञानिक में एक मत का अभाव है। अतः वंशानुक्रम एवं वातावरण के अध्ययन से स्पष्ट हो सकता है कि किसका प्रभाव सर्वाधिक होता है। वंशानुक्रम से तात्पर्य व्यक्तियों में पीढी-दर-पीढ़ी संचारित होने वाले शारीरिक, बौद्धिक एवं अन्य व्यक्तित्व के शीलगुणों से है।

इस मान्यता के अनुसार जिस प्रकार के मात-पिता होंगे संताने भी उसी के अनुरूप होंगी। बेंकन ने वंशानुक्रम को परिभाषित करते हुए कहा जाता है, “दो पीढ़ियों को जोड़ने वाली श्रृंखला को वंशानुक्रम कहते हैं। जिसबर्ट के अनुसार, “वंशानुक्रम का तात्पर्य माता-पिता द्वारा संतानों के जैवकीय अथवा मनोवैज्ञानिक विशेषताओं के हस्तांतरण से हैं।

रूथ बेनेडिक्ट ने कहा है, “माता-पिता के संतान को हस्तांतरित होने वाले गुणों को वंशानुक्रम कहते हैं। उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट है कि वंशानुक्रम का गुण बच्चों को माता-पिता से प्राप्त होता है। इसमें माता-पिता जो गुण अपने पीढ़ियों से प्राप्त करते हैं उसे अपनी संतान तक पुहँचाने का कार्य करते हैं।

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प्रश्न 13.
विकास की गति को प्रभावित करने वाली कारक का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बच्चे का शारीरिक एवं मानसिक विकास उसके जीवकोष (germ-cell) की बनावट (structure) पर निर्भर करता है। जैसा जीवकोष होगा, बच्चे का विकास भी वैसा ही होगा । फिर भी ‘बच्चों की क्रियाएँ’ (activities), ‘भोजन’ (food) अभ्यास’ (exercise) ‘शिक्षा’ (education) इत्यादि की भी उसकी विकास गति पर काफी प्रभाव पड़ता है।

चिकित्सकों ने इस बात को प्रमाणित कर दिया है कि बचपन का ‘पौष्टिक भोजन’ बच्चों के विकास में काफी सहायक होता है। बच्चे के विकास की गति में परिवर्तन एवं परिमार्जन, उसकी विकास-प्रक्रिया (growth-process) की गति को बढ़ाकर या घटाकर या इसको प्रभावित करनेवाले अंगों (factors) को नियंत्रित (control) कर लाया जा सकता है।

प्रश्न 14.
बाल्यावस्था पर संक्षिप्त नोट लिखें।
उत्तर:
बाल्यावस्था (Childhood):
साधारणतः ‘जन्म से लेकर अपरिपक्वता (immatu rity) तक की अवस्था’ को बाल्यावस्था (Childhood) कहा जाता है, परन्तु वस्तुत: ‘2 वर्ष से लेकर 11 वर्ष की अवस्था’ (जिसे तरुणावस्था भी कहते हैं।)को ही बाल्यावस्था कहा जाता है। इस अवस्था कर सबसे प्रथम विकास होता है। वातावरण पर नियंत्रण (control of environment) इस अवस्था में बच्चा सामाजिक अभियोजन (social adjustment) करना भी सीख लेता है। छह वर्ष उम्र के करीब से ‘समाजीकरण’ (socialisation) का स्थान महत्त्वपूर्ण रहता है। 6 से 11 वर्ष की अवस्था को गैंग एज (gange age) या दल की अवस्था कहते हैं। इस अवस्था का बच्चे के जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।

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प्रश्न 15.
किशोरावस्था पर प्रकाश डालें?
उत्तर:
किशोरावस्था (Adolescence):
सामान्य बच्चों (normal children) में ‘तरुणावस्था’ (puberty) की शुरूबात से लेकर परिपक्वावस्था (maturity) को ही किशोरावस्था (adoles cence) कहते हैं, अर्थात् ’11 से 13 वर्ष के बीच की उम्र से शुरू होकर 21 वर्ष तक की अवस्था’ को किशोरावस्था कहा जाता है चूँकि यह एक बहुत लम्बी अवस्था है और इस अवस्था के विभिन्न उम्रों में विभिन्न प्रकार के विकास होते हैं, इसलिए इस अवस्था को भी निम्नलिखित भागों में बाँटा गया है –

1. किशोरावस्था के पूर्व की अवस्था (pre-adolescence):
यह ‘किशोरावस्था के एक वर्ष की पूर्व की अवस्था’ है। लड़कियों में साधारणत: यह अवस्था 11-13 वर्ष के बीच हाती है और लड़कों में यह लगभग इसके लगभग एक वर्ष बाद आती है। इस अवस्था को बुलहर (Buhler) ने निषेधात्मक अवस्था (Negative phase) कहा है।

2. प्रारम्भिक किशोरावस्था (Early adolescence):
किशोरावस्था के पूर्व की अवस्था (pre-adolescence) के बाद अर्थात् ’13 से लेकर 16-17 वर्ष की अवस्था’ को प्रारम्भिक किशोरावस्था (early akolescence) कहते हैं। इस अवस्था में शारीरिक और मानसिक विकास में पूर्णता (completeness) आ जाती है।

3. किशोरावस्था की अन्तिम अवस्था (Late adolesxence):
विकासात्मक अवस्थाओं की यह सबसे अन्तिम अवस्था है, जो ’17-21 वर्ष तक’ होती है। इसे अवस्था में लड़के और लड़कियाँ सदा इस बात पर ध्यान देते हैं कि वे दूसरों के ध्यानाकर्षण का केन्द्र बन जाएँ। इस अवस्था में लड़के और लड़कियाँ एक-दूसरों के अपनी ओर आकर्षित करते हैं।

इसी अवस्था में बच्चे का विकास हर तरह से ‘पूर्ण’ (complete) हो जाता है और वह एक वयस्क (adult) का रूप धारण कर लेता है और पूर्णरूपेण स्वावलम्बी (completely self-dependent) हो जाता है तथा अपने जीवन की योजना (plan of life) अपने मनोनुकूल बनाता है। संक्षेप में, हम कह सकते हैं कि विकास के लम्बे क्रम में, जो गर्भाधान के समय से शुरू होता है, यह सबसे अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था को प्राप्त करने पर व्यक्ति समाज एवं कानून (society and law) के दृष्टिकोण से परिपक्व (matured) हो जाता है।

प्रश्न 16.
शैशवावस्था क्या है?
उत्तर:
शैशवावस्था (Infancy):
जन्म से लेकर 10-14 दिनों की अवस्था’ को ही शैशवावस्था (infancy) कहते हैं। इस अवस्था के बच्चों का नियोनेट या नवजात शिशु (newborn infant) कहते हैं। इस अवस्था में बच्चे में कोई विकास नहीं होता है, क्योंकि इस समय वह अपने नए वातावरण से अपने को अभियोजित करने में व्यस्त रहता है।

प्रश्न 17.
बचपनावस्था का अर्थ बतायें?
उत्तर:
बचपनावस्था (Babyhood):
दो सप्ताह से लेकर करीब दो वर्ष तक’ की अवस्था को ही बचपनावस्था (babyhood) कहते हैं। इस अवस्था में बच्चा बिल्कुल निस्सहाय (helpless) रहता है। वह अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इस अवस्था में दूसरों पर ही निर्भर रहता है। धीरे-धीरे बच्चा अपनी मांसपेशियों को नियंत्रित करना सीख लेता है। फलतः वह अधिक आत्मनिर्भर (Self-dependent) हो जाता है तथा स्वयं खाने, चलने, पोशाक पहनने और खेलने लगता है।

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प्रश्न 18.
वृद्धावस्था में होने वाले शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन का वर्णन करें?
उत्तर:
वृद्धावस्था में पारिवारिक संरचना में परिवर्तन तथा नयी भूमिकाओं से समायोजन की आश्यकता होती है वृद्धावस्था में व्यक्ति शक्तिहीनता का अनुभव एवं स्वास्थ तथा वित्तीय संपत्तियों का क्षणी होना, असुरक्षा एवं निर्भरता को जन्म देता है सक्रियता व्यावसायिक जीवन से सेवानिवृति होना महत्त्वपूर्ण होता है। पति या पत्नी की मृत्यु होने पर वे दुःख का अनुभव करते हैं इन्हें अकेलापन, अवसाद वित्तीय क्षति से समायोजन स्थापित करना होता है।

प्रश्न 19.
वृद्धावस्था को क्यों नहीं पसन्द किया जाता है?
उत्तर:
वृद्धावस्था प्राप्त व्यक्ति को लोग भयावह स्थिति में पहुँच जाने वाला व्यक्ति मान लेते हैं। वृद्धावस्था अनेक समस्याओं को साथ लाता है –

  1. वृद्धावस्था सेवानिवृति हो जाने का प्रमुख कारण माना जाता है। इससे व्यक्ति को समय काटना मुश्किल हो जाता है।
  2. आर्थिक सहयोग तथा अकेलापन दूर करने के लिए वृद्ध अपने बच्चे पर निर्भर हो जाते हैं।
  3. बीमारी और शक्ति क्षीणता के साथ संवेदी अंगों में आनेवाली विसंगति या वृद्ध व्यक्ति को असहाय जैसी जिन्दगी दे देता है।
  4. वृद्ध स्वतंत्रता, मृत्यु और सुरक्षा की दृष्टि से स्वयं को आश्रित मान लेते हैं।

प्रश्न 20.
आप किस आधार पर कह सकते हैं कि ‘नवजात शिशु’ उतना असहाय नहीं होता है जितना कि आप सोचते हैं?
उत्तर:
नवजात शिशु जीवन की कार्य-प्राणाली को बनाए रखने के लिए सभी आवश्यक क्रियाओं को व्यवहार में लाना जानता है। जैसे, वह माँ का दूध पीना जानता है, चम्मच से पिलाने पर किसी भी द्रव को निगलना जानता है, आवश्यकतानुसार वह मूल-मूत्र त्याग करने की कला भी सीख चुका होता है। नवजात शिशु जीवन के प्रथम सप्ताह में ही ध्वनि की दिशा पहचानता है।

अपनी माँ की आवाज को पहचान लेता है। खुशी या गम को बताने के लिए रोना-हँसना, जीभ बाहर निकालना तथा मुँह खोलना सभी तरह का ज्ञान हासिल कर लेता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि नवजात शिशु अनुमान से अधिक जानकारी ग्रहण करके असहाय कहलाने से बचने के योग्य बन जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास

प्रश्न 21.
वस्तु स्थायित्व का अर्थ सोदाहरण बतावें?
उत्तर:
वस्तु स्थायित्व एक संवेदी अनुभव की स्थिति होती है जिसमें बच्चों को वस्तु के छिपा दिये जाने का आभास नहीं होता है, लेकिन उसका अस्तित्व उसके दिमाग में बना रहता है। बच्चा उस वस्तु के नष्ट हो जाने का भाव व्यक्त करने पर भी उस वस्तु की प्राप्ति के लिए प्रयास करता रहता है। इस विशिष्ट चेतना या जानकारी की आवश्यकता तब होगी है जब वस्तु स्पष्ट रूप से नजर के सामने नहीं रहता है। जब कोई बच्चा कलम लेकर उसे तोड़ना चाहता है तो हम यह कहकर कलम को छिपा देते हैं कि कलम को कौआ लेकर भाग गया। कभी-कभी हम कलम को दूर फेकने का अभिनय भी करते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
विकास की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
मानव-विकास की बहुत-सारी विशेषताएँ (characteristic) हैं, जो उसे प्रभावित करती रहती हैं। उन सबकी व्याख्या करना यहाँ सम्भव नहीं। अत: उनमें से कुछ मुख्य विशेषताओं की चर्चा उनको ‘प्रधानता’ (importance) के अनुसार एक-एक नीचे की जाती है –

1. विकास एक प्रणाली का अनुसरण करता है (Development follows a pattern):
इस प्रकार के जीव में, चाहे वह जानवर हो या मनुष्य, विकास एक ‘विशिष्ट प्रणाली’ होती है। हर जाति (specien) का प्रत्येक जीव इस विकास प्रणाली अनुसरण करता है।

मानव-शिशु का विकास अनियमित और अव्यवस्थित ढंग का नहीं होता, वरन् यह ‘नियमित और सुव्यवस्थि’ होता है। बच्चों के जन्म के पूर्व एवं बाद में होनेवाले विकास-दोनों के संबंध में ये बातें पाई जाती हैं। गेसेल (Gesell) ने बाल विकास-संबंधी येल क्लीनिक (Yale Clinic of Child Development) द्वारा प्राप्त प्रदतों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि बच्चों के व्यवहार में होनेवाले परिवर्तन एक ‘क्रमिक प्रणाली’ का अनुसरण करते हैं और इन पर अनुभवों (experiences) का अपेक्षाकृत कम प्रभाव पड़ता है।

चूँकि विकास प्रणाली की विभिन्न अवस्थाएँ’ (stages) इस तरह स्थायी ढंग से एक खास उम्र में एक-दूसरे के बाद आती हैं कि एक खास उम्र में होने वाले विकास के संबंध में ‘नियम’ (standard or norm) भी बनाए जा सकते हैं और इसके आधार पर किसी एक समान्य बालक विशेष में किस उम्र में कितना विकास होगा, इस संबध में ‘सही भविष्यवाणी’ करना भी संम्भव है। यही कारण है कि अब वजन-उम्र (weight-age) ऊँचाई-उम्र (height-age), मानसिक उम्र, सामाजिक विकास-उम्र इत्यादि से सम्बद्ध प्रामाणित मापदण्ड (standard scale) हमें उपलब्ध है। विकास निम्नलिखित दो ‘कम्रो’ (sequences) का अनुसरण करता है –

(क) मस्तकाधोमुखी क्रमों या सेफालोकाउडल सीक्वेन्स (Cephalcaudal sequence) तथा
(ख) निकट-दूर का विकासक्रम (proximo-distal sequence) नीचे संक्षेप में इन दोनों की चर्चा की जाती है।

(क) मस्तकाधोमुखी क्रय (Cephalocaudal sequence):
प्रायः बच्चों का विकास के संबंध में यह प्रश्न उठता है-उनका विकास किस ‘दिशा’ (direction) में होता है-पहले विकास सिर में होता हैं या धड़ में या पैर में? मनोविज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह प्रमाणित कर दिया है कि बच्चों के जन्म के पूर्व (prenatal) तथा जन्म के बाद (postnatal) होनेवाले दोनो प्रकार के विकास मस्तकाधोमुखी क्रम (cephalocaudal sequence) यानी “सिर से पैर की ओर’ का अनुसरण करते हैं।

अर्थात् पहले सिर में विकास होता है, तब धड़ में और सबसे अन्त में पैर में। यदि किसी शिशु को पेट के बल (औंधे) जमीन पर सुला दिया जाए, तो पहले वह अपने सिर को उठाने में समर्थ होता है, तब गर्दन को, फिर छाती को और उसके बाद ही वह बैठ जाता है। बच्चे में अपने धड़ (trunk) की मांसपेशियों पर नियंत्रण करने की क्षमता अपनी बाँहों और पैर की मांसपेशियों से पहले तथा हाथ-पैर की मांसपेशियों पर नियंत्रण की क्षमता इसके बाद आती है।

(ख) निकट-दूर का विकासक्रम (Proximo-distal sequence):
यह विकास-प्राणाली न सिर्फ मस्तकाधोमुखी क्रम (cephalocaudal sequnence) – का अनुसरण करती है। इसका अर्थ यह हुआ कि विकास शरीर के उन अंगों में पहले होता है जो शरीरकेन्द्र (body-axis) के निकट होते हैं और जो इससे दूर होते हैं उनमें विकास बाद में होता है। जैसे-पहले विकास पेट के अंगों में होता है, तब जाँघ में और उसके बाद पैर में। ठीक इसी तरह, बच्चा पहले कन्धे (shoulders) और बाँहों (arms) की मांसपेशियों पर नियंत्रण कर पाता है, सभी हाथ और उंगलियों पर।

यहाँ पर स्मरण रखने योग्य बात है कि विकास के क्रम में विकास के गति के द्वारा कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता है – ऐसा गेसेल (Gesell) ने अपने अध्ययनों के आधार पर पाया है। इसी बात का समर्थन एमिस (Ames) ने भी किया है। विकास का क्रम ‘परिपक्वता’ (maturation) से निर्धारित होता है। इस पर अनुभव (experience) का प्रभाव नहीं पड़ता। इस संबंध में स्मरणीय दूसरी बात यह है कि बच्चों में होने वाले सभी विशिष्ट प्रकार के विकास-संवेगात्मक (emotional), सामाजिक (social), क्रियात्मक (motor) इत्यादि-भी एक विकासक्रम का अनुसरण करते हैं।

2. सामान्य से विशिष्ट प्रतिक्रया की ओर विकास होता है:
(Development proceeds from general to specific responses) –
बच्चों के सभी प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक विकास में बच्चों की प्रतिक्रियाएँ आरम्भ में ‘सामान्य प्रकार’ (general) की होती है। और बाद में ये ‘विशिष्ट’ (specific) जो जाती है। यह बात सर्वप्रथम बच्चों की स्नायविक प्रतिक्रियाओं (muscular responses) के संबंध में देखी जाती है। बच्चा पहले अपने सारे शरीर में गति लाता और उसके बाद में उसके शरीर के विभिन्न अंगों में गति देखी जाती है। वह शुरू में अपने हाथ और पाँव को अनियमित ढंग से फेकता है।

धीरे-धीरे उसके शरीर के विभिन्न अंगों की मांसपेशियों के परिपक्व होने पर वह किसी खास अंग की मांसपेशियों पर नियंत्रण कर पाता है और उसके पश्चात् ही उसकी प्रतिक्रियाएँ विशिष्ट ढंग (specific type) की हो जाती है। किसी चीज को पकड़ने के लिए बच्चा अपने शरीर से कोशिश करता है। वह अपने दोनों हाथ से उसे पकड़ना है और उसके बाद पैरों की गति के साथ पाई जाती है। पहले बच्चा अनियमित ढंग से अपने दोनों पैरों को फेंकता है, बाद में वह रेंगने, खिसकने और चलने लगता है।

ठीक यह बात बच्चों के ‘प्रत्यय-विकास’ (concept development) के साथ भी पाई जाती है। बच्चों का प्रत्यय-विकास भी सामान्य से विशिष्ट की ओर होता है। बच्चों के संवेगात्मक विकास के सम्बन्ध में भी विकास का यह क्रम पाया जाता है। जन्म के समय बच्चे संवेगात्मक उत्तेजनाओं के प्रति कोई विशिष्ट प्रतिक्रिया नहीं करते हैं, वरन् उनकी प्रतिक्रियाएँ सामान्य ढंग की होती हैं। और धीरे-धीरे उनमें विशिष्ट संवेगों-भय, क्रोध, प्रेम आदि का विकास होता है।

3. अविराम गति से विकास होता है (Development is continous):
गर्भाधारण (conception) के समय से परिपक्वता (maturity) तक बच्चे का विकास ‘अविराम गति’ से होता रहता है। हालाँकि बच्चों का विकास को कई ‘विकासात्मक कालों’ (developmental periods) में बाँट दिया गया है, फिर भी उनका विकास अविराम गति से होता रहता है। यह वर्गीकरण सिर्फ उनमें होने वाले शारीरिक एवं मानसिक विकास को समुचित ढंग से समझने के हेतु ही किया जाता है तथा यह स्पष्ट करने के लिए किया जाता है कि कौन विशिष्ट प्रकार का विकास किस अवस्था में होता है।

यह समझना विल्कुल गलत है कि किसी भी शारीरिक या मानसिक गुण का विकास ‘एकाएक’ (suddenly) होता है बच्चे में दाँत का विकास पाँच महीने के पहले ये मसूढे से बाहर नहीं निकल पाते हैं। बच्चे का भाषा विकास भी एकाएक नहीं होता, वरन् यह भी धीरे-धीरे जन्म-क्रन्दन से शुरू होकर विकास की कई अवस्थाओं को पार कर होता है। अतः स्पष्ट है कि बच्चे में शारीरिक और मानसिक विकास अविराम गति से होते हैं परन्तु यह सही है कि शुरू में विकास की गति तेज होती है और बाद में मन्द पड़ जाती है। चूँकि विकास की गति अविराम (continous) है, एक अवस्था में होने वाले विकास और इसके बाद वाली अवस्था में होनेवाले विकास में परस्पर संबंध है और यह दूसरी अवस्था के विकास को भी प्रभावित करता है।

4. विकास की गति में होने वाले वैयक्तिक विभिन्नताएँ स्थायी ढंग की होती हैं (Individual differences in rate of development remain constant):
विकास की गति में सदा एकरूपता (consistency) पाई जाती है। जिन बच्चों का विकास. आरम्भ में तीव्र गति से होता है, उनका विकास आगे चलकर भी इसी तरह होता है।

इसके विपरीत, जीन बच्चों का प्रारम्भिक विकास मन्द गति से होता है, उनमें आगे चलकर होने वाले विकास की गति भी मन्द होती है; जैस-जो बच्चा सामान्य उम्र के पहले बैठने लगता है, वह सामान्य उम्र के बच्चों से पहले चलने भी लगेगा और जो बच्चा सामान्य उम्र में देर से बैठता है, वह सामान्य अवस्था (standrad period) के बाद में ही चल सकेगा। परन्तु, यहा बात तब नहीं पाई जाती है जब बच्चे के विकास के मन्द पड़ जाने का कारण कोई ऐसी बीमारी है, जिसकी चिकित्सा हा सकती है। चिकित्सा के पश्चात् उसके विकास की गति फिर से सामान्य ढंग की हो जाती है। गेसेल (Gesell) तथा टरसन (Terman) ने भी यह एकरूपता (consistency) बच्चों के मानकिसक विकास (mental growth) के संबंध में पाई है।

5. शरीर के विभिन्न अंगों का विकास भिन्न-भिन्न गति से होता है (Development occurs at different rate for different parts of the body):
शरीर के विभिन्न अंगों का विकास एक ही गति से नहीं होता है ठीक इसी प्रकार मानसिक विकास (mental growth) की गति भी एक समान नहीं होती है। यही कारण है कि सभी प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक विकास एक ही समय परिपक्वता (maturity) नहीं प्राप्त करते। मस्तिष्क छह से लेकर आठ वर्ष तक के अन्दर परिक्वता आकर (matured size) प्राप्त कर लेता है। पैर, हाथ, नाक का पूर्ण विकास किशोरावस्था के प्रारम्भ में हो जाता है।

हृदय (heart), पाचन संस्थान (digestive system) यकृत (liver) इत्यादि भी किशोरावस्था (adolescence) में ही अपना विकसित रूप धारण कर लेते हैं। अध्ययनों द्वारा यह स्पष्ट हो चुका है कि बच्चा प्रथम छह वर्ष की अवस्था में अन्य किसी अवस्था से अधिक नई-नई चीजें सिखता है। खेलने-कूदने की क्रिया सबसे अधिक बाल्यावस्था (childhood) में पाई जाती है। विकासक्रम की इस विशेषता की पुष्टि के लिए इसी तरह के कई-एक ओर भी उदाहरण दिए जा सकते है।

6. अधिकाश गुणों के विकास में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है (Most traits are correlated in development):
पहले लोग बच्चे के विकास के सम्बन्ध में क्षतिपूर्ति (compensation) के सिद्धांत को मानते थे। अर्थात् जो बच्चा एक गुण (trait) में औसत से कम (below the average) है, वह इस क्षति की पूर्ति दूसरें गुण में औसत से बढ़कर रखता है, उसमें दूसरे गुण का विकास औसत से कम होता है। परन्तु यह विचार गलत साबित हुआ है।

वास्तविकता तो यह है कि जिन बच्चों का विकास एक गुण में औसत से बढ़ कर होता है, उनमें दूसरे गुणों का विकास भी औसत से बढ़कर होता है। जिन बच्चों का मानसिक विकास औसत से बढ़कर होता हैं, उनका शारीरिक विकास भी औसत से बढ़कर होता है और ठीक इसके विपरीत, जिनका मानसिक विकास औसत से कम होता है, उनका शारीरिक विकास भी औसत से कम होता है। अतः स्पष्ट है कि अधिकांश गुणों का विकास में पारस्परिक सम्बन्ध (correlation) है।

7. विकास के संबध में भविष्यवाणी करना सम्भव है (Development is predictable):
सभी सामान्य बच्चों में एक खास उम्र में ही एक प्रकार का विकास होता है, और उनके विकास की गति भी एक समान होती है। अतः एक विशिष्ट बच्चे की विभिन्न अवस्थाओं (different ages) में होनेवाले शारीरिक एवं मानसिक विकास के संबंध में भविष्यवाणी करना संभव है। इसके आधार पर बच्चे को उचित शिक्षा दी जा सकती है, गेसेल (Gesell), टरमन (Terman) आदि के अध्ययन इस दिशा में उल्लेखनीय हैं। यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य है कि सही भविष्यवाणी सिर्फ ‘सामान्य विकास’ (normal development) के संबंध में ही की जा सकती है, सामान्य विकास के संबंध में नहीं।

8. प्रत्येक विकासात्मक अवस्था का अपना-अपना गुण होता है (Each develop mental phase has characteristic of it):
बच्चे के विकास की प्रत्येक अवस्था में कुछ. गुणों का विकास अन्य गुणों की अपेक्षा अधिक तेजी से होता है। विकास की अन्य अवस्थाओं (periods) की अपेक्षा जन्म की पूर्व की अवस्था (pre-natal period), बच्चपन काल (baby hood) और किशोरावस्था (adolescence) में शारीरिक विकास (physical development) की प्रधानता रहती है।

शरीर के ऊपरी नियोजन का विकास बचपनकाल (babyhood) की एक मुख्य विशेषता है और सामाजिक (sociability) का विकास बाल्यावस्था के अन्तिम काल (late childhood) की विशेषता (characteristic) है। अतः उपयुक्त बातो सेयह स्पष्ट है कि विकास की विभिन्न अवस्थाओं (development periods or phases) का अपना-अपना विशिष्ट गुण होता है।

9. बहुत प्रकार के व्यवहार, जिन्हें अनुचित समझा जाता है, जिस अवस्था-विशेष में पाए जाते हैं, उस अवस्था के लिए सामान्य व्यवहार हैं (Many norms of so-called problem behaviour are normal behaviour of the age in which they occur):

प्रत्येक ‘विकासात्मक अवस्था’ (developmental stage) में कुछ ऐसे अनुचित व्यवहार बच्चों में पाए जाते हैं, जो उस अंवस्था-विशेष के लिए सामान्य व्यवहार (normal behaviour) हैं। परन्तु उस अवस्था विशेष को पार करते ही उन व्यवहारों का लोप हो जाता है।

जैसे-बाल्यावस्था के प्रारम्भिक दिनों में बच्चे बहुत जिद्दी स्वभाव (obstinate nature) के रहते हैं, परन्तु बाल्यावस्था के अन्त तक पहुँचते-पहुँचते सामान्यतः इसका लोप हो जाता है। प्राथमिक स्कूल अवस्थाओं (elementary school years) में अधिकांश लड़कियाँ लड़कों से घृणा करती हैं, परन्तु थोड़ ही समय के बाद जब वे किशोरावस्था में प्रवेश करती हैं, मर्दो की ओर उनकी अभिरुचि विशेष रूप से देखी जाती है।

10. प्रत्येक व्यक्ति सामान्यतः
विकास की हर प्रमुख अवस्था से गुजरता हैं (Each individual normally passes through each major stage of development):
यह सत्य है कि एक अवस्थाविशेष में होने वाले विशिष्ट,विकास को पूरा होने के लिए कितने समय की आवश्यकता होती है, इस संबंध में वैयक्तिक विभिन्नता (individual difference) पाई जाती है फिर भी, यह देखा जाता है कि सामान्यतः विकास का काम 21 वर्ष की अवस्था में पूरा हो जाता है।

बहुत निम्न कोटी के बुद्धिवाले व्यक्तियों में ही यह बात नहीं पाई जाती, चूंकि वे विकास सभी की सभी अवस्थाओं से नहीं गुजर पाते हैं। अनुपयुक्त वातावरण, क्षीण स्वास्थ्य, विकास के लिए प्रेरणा का अभाव इत्यादि के कारण भी विकास की समान्य गति में बाधा पहुँच सकती है। परन्तु, इन सभी का प्रभाव ‘क्षगिक’ होता है।

अत में, यह कह देना अभीष्ट होगा कि विकास से नियमों (principles of development) की जानकारी से मुख्यत: ‘दो लाभ’ (advantages) हैं –

(क) यह हमें इस बात की जानकारी कराता है कि बच्चे में कब (when) और किस (What) तरह के विकास की आशा रखनी चाहिए। इसके अभाव में हम बच्चों से वैसी बातों की आशा करने लगते हैं जो उनके लिए करना असम्भव है और उसके ठीक विपरीत, जब किसी बच्चे से किसी बात की आशा करनी चाहिए तब हम ऐसा नहीं करते। ये दोनों ही बातें बच्चों के आगे के विकास में हानिकारक हैं।

(ख) इससे दूसरा लाभ यह है कि हमें इस बात का ज्ञान हो जाता है कि कब बच्चे के विकास की गति को बढ़ने की कोशिश करनी चाहिए और कब नहीं। उचित समय में दिए गए प्रशिक्षण से बच्चे के विकास में वृद्धि होती है। जब बच्चे की बोलने की क्षमता (ability to speak) का विकास हो जाता है तो उसे बोलने के लिए सिखाने पर उसके भाषा-विकास की गति बढ़ती है। उसका भाषा-विकास समुचित ढंग का हो पाता है।

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प्रश्न 2.
विकास से आप क्या समझते है? विकास से होने वाले परिवर्तनों का प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
विकास का तात्पर्य गर्भावस्था से प्राणी में होने वाले निरंतर रूपान्तरण है। प्रारंभ में बच्चों के विकास का अध्ययन जन्मकाल से किया जाता था। परन्तु आधुनिक युग में गर्भावस्था से ही उसके विकास का अध्ययन किया जाता है। विकास प्रगतिशील परिवर्तनों की वह नियमित और संगठित प्रणाली है जो व्यक्ति को परिपक्वता की ओर अग्रसर करती है।

विकास से परिवर्तन होती है जिसमें एक निश्चित दिशा होती है। ये परिवर्तन नियमित और संगठित होते हैं। विकास के क्रम एक-दूसरे से संबंधित हैं अर्थात् विकास का पहला क्रम दूसरे क्रम पर आधारित होता है। विकास के परिणामस्वरूप बच्चों में नयी-नयी विशेषताएँ आती हैं। विकास को परिभाषित करते हए वाटसन ने कहा है, “निषेचित अण्डाणु से माता-पिता के समान प्राणी के रूप में होने वाले रूपान्तरण को विकास की प्रक्रिया कहते हैं।”

विकास की प्रक्रिया को दो भागों में बाँटा जा सकता है –

  1. जन्म के पूर्व विकास की अवस्था
  2. जन्म के बाद विकास की अवस्था।

जन्म के पूर्व बच्चों का विकास माँ के गर्भ में होता है। 280 दिनों तक गर्भ शिशु का पूर्ण विकास हो जाता हो जाता है तब उसका जन्म होता है।

विकास से होने वाले परिवर्तन:
विकास की अवस्था में बच्चों में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं। इन परिवर्तनों का विवरण निम्नलिखित है –

1. आकार में परिवर्तन:
विकास का सबसे पहला लक्षण है कि बच्चों के शरीर के आकार में वृद्धि होती है। जन्म के समय बच्चे अठारह इंच के होते हैं जो बढ़कर बाहर वर्षा में 48 इंच के हो जाते हैं। इसी प्रकार जन्म के समय उसमें बोलने की क्षमता नहीं होता है, एक वर्ष में दो-तीन शब्दों को बोलने लगता है।

2. अनुपात में परिवर्तन:
अनुपात में परिवर्तन से तात्पर्य यह है कि शरीर के विभिन्न अंगों का विकास समान अनुपात में नहीं होता है। किसी अंग का विकास अधिक और किसी अंग का कम विकास होता है। जन्म के बाद सिर का जितना विकास होता है उससे बहुत ज्यादा विकास पैरों का होता है।

3. पुरानी विशेषताओं का लुप्त होना:
विकास में केवल शरीर का विकास ही नहीं बल्कि बचपन की अनेक विशेषताएँ लुप्त होने लगती हैं। उसमें थाइमस ग्रन्थि का स्त्राव क्रमशः कम होते जाता है। जन्म के समय शिशु के शरीर पर रोएँ, होते हैं जो धीरे-धीरे समाप्त हो जाता हैं। दूध के दाँत अपने-आप समय आने पर टूट जाते हैं। इसी प्रकार चूसना, मुट्ठी बाँधना आदि क्रियाएँ धीरे-धीरे समाप्त होती जाती हैं। चिन्तन करते समय बच्चे बोलते हैं, उम्र वृद्धि के साथ यह क्रिया भी धीरे-धीरे लुप्त हो जाती है।

4. नई विशेषताओं की प्राप्ति:
बच्चे जैसे-जैसे बड़े होते हैं, उनमें नई-नई विशेषताएँ उत्पन्न होती चली जाती हैं। नई विशेषताओं का उत्पन्न होना परिपक्वता और शिक्षण पर निर्भर करता है। परिपक्वता के आधार पर जो नई विशेषताएँ उत्पन्न होती हैं, उन्हें रोका नहीं जा सकता है। परन्तु जो परिवर्तन प्रयास के फलस्वरूप होते हैं उसे बच्चे वातावरण के प्रभाव से सीखते हैं। दाढ़ी-मूंह निकलना, दाँत टूटने के बाद नए दाँत निकलना आदि परिपक्वता के कारण होता है, जबकि भाषा का सीखना, मनोवृत्तियों का निर्माण आदि शिक्षण के आधार पर होता है।

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प्रश्न 3.
भारत में मनोविज्ञान के विकास का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय मनोविज्ञान का आधुनिक काल कलकत्ता विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में 1915 में प्रारंभ हुआ प्रयोगिक मनोविज्ञान का प्रथम पाठ्यक्रम प्रयोगशाला स्थापित हुई। दुर्गानंद सिन्हा ने अपनी पुस्तक साइकोलॉजी इन वर्ल्ड कन्ट्री दि इंडियन एन स्पीरियन्स में भारत में सामाजिक विज्ञान के रूप में चार चरणों में आधुनिक मनोविज्ञान के इतिहास को खोजा है प्रथम चरण में प्रयोगात्मक, मनोविश्लेषणात्मक एवं मनोवैज्ञानिक अनुसंधान पर बहुत बल था, जिसने पश्चात्य देशों का मनोविज्ञान के विकास में योगदान परिलक्षित हुआ था द्वितीय चरण में भारत में मनोविज्ञान की विविध शाखाओ में विस्तार का समय था।

इस चरण में मनोवैज्ञानिकों की इच्छा थी कि भारतीय सन्दर्भ में जोड़ा जाय। फिर भी, भारत में मनोविज्ञान 1960 के साथ के बाद भरतीय समयज के लिए समस्या केन्द्रित अनुसंधान द्वारा सार्थक हुआ। चतुर्थ चरण के रूप में 1970 के अंतिम समय में देशज मनोविज्ञान का उदय हुआ। इसमें भारतीय मनोवैज्ञानिकों ने ऐसी समझ विकसित करने का आवश्यकता पर बल दिया जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से सार्थक ढाँचे पर आधारित था। इस रुझान की झलक उन प्रयासों में दिखी, जिनसे पारंपरिक भारतीय मनोविज्ञान पर आधारित उपागनों का विकास हुआ, इस प्रकार इस चरण की विशेषता को देशज मनोविज्ञान के विकास, जो भारतीय सांस्कृतिक संदर्भ से उत्पन्न-हुआ था तथा भारतीय मनोविज्ञान एवं समाज के लिए सार्थकता।

प्रश्न 4.
बच्चों के नैतिक विकास को क्यों और कैसे उपयोगी बनाया जा सकता है?
उत्तर:
समाजीकरण और संस्कृतिकरण का पाठ समझाकर बच्चों के नैतिक विकास को आसान बनाया जा सकता है। समाज में प्रचलित परम्पराओं, प्रथाओं, आदतों को गलत या सही. समझने की योग्यता बढ़ाकर बच्चे को आदर्श नागरिक बनाया जा सकता है। जैसे, विवाह में दहेज प्रथा, समाज में भ्रूण हत्या का बढ़ता प्रचलन, प्रौढ़ शिक्षा बंधुआ मजदूर, बाल श्रमिक जैसे अनेक विन्दु हैं जिस पर विचार करके उचित निर्णय लेने की आवश्यकता है।

प्रत्यन और परिणाम की शिक्षा देकर बच्चों की मानसिक दक्षता बढ़ाई जा सकती है। आज के बच्चे कुछ विशिष्ट स्थितियों में द्वन्द्व की चपेट में पढ़े जाते हैं। कुछ बच्चे खेल को विकास का माध्यम मानते हैं तो कुछ इसे समय और श्रम का दुरुपयोग समझते हैं। बच्चों को सही व्याख्या के माध्यम किसी भी कार्य के दोनों पक्षों (लाभ-हानि) का ज्ञान देकर उसे निर्णय लेने के मामले में परिपक्व बना देना चाहिए।

मानवीय क्रियाओं के सही या गलत होने के मध्य अन्तर करने की योग्यता को बढ़ाना अभिभावक या अध्यापक ही कुशलतापूर्वक करने में सक्षम होते हैं। बच्चे अपराधबोध, नशा की लत, अहंकार, छल की प्रवृति, दिखावा का शौक आदि से बचाने के लिए उचित अवसर, उदाहरण और निर्देशन की आवश्यकता होती है।

बच्चों को दया, स्नेह, सहयोग, एकता आदि की उत्तम शिक्षा देनी चाहिए। लॉरेन्स कोहल्वर्ग के मतानुसार, बच्चे नैतिक विकास के भिन्न-भिन्न स्तरों से गुजरते हैं तथा नैतिक विकास को आयु की एक माँग के रूप में स्वीकारते हैं। लोक कथाएँ, बातचीत, पुस्तकालय जैसी संस्था या साधन के माध्यम से उन्हें महापुरुषों के आचरण से प्रेरणा लेने की सीख देनी चाहिए। दण्ड एवं पुरस्कार, प्रोत्साहन एवं दुतकार तथा सामान्य और विशिष्ट के बीच अन्तर समझने का परामर्श देते रहना चाहिए।

पूर्व अर्जित ज्ञान, स्थापित नियमों, प्रचलित विधियों से विकासात्मक अंशो को चुनकर ग्रहण, करने से उनका नैतिक बल सामर्थ्यवान बनेगा। दूसरों को छोटा, अक्षम, आलसी, कर्त्तव्यहीन समझकर उससे घृणा, द्वेष पालने की प्रवृति से मुक्ति का मार्ग बताना चाहिए। तुलना अथवा अनुकरण करना सही है जब उसमें अच्छे विकार का शामिल कर लिया जाए। अर्थात् उचित शिक्षण, प्रशिक्षण, निर्देशन के द्वारा बच्चों में उत्पन्न दोष को हटाकर सदगुणों को भरा जा सकता है। नैतिक शिक्षा पाकर कोई भी बच्चा समाज का हितैषी बनकर गौरव ग्रहण कर सकता है।

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प्रश्न 5.
विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विकास की प्रणाली (Pattern of development) एवं इसकी गति (rate) को प्रभावित करनेवाले अंग शरीर के अन्दर (within) और बाहर (outside) भी पाए जाते हैं। शारीरिक विकास (physical growth) को प्रभावित करने वाले मुख्य अंग है – भोजन, सामान्य स्वास्थ की स्थिति तथा सूर्य की रोशनी, स्वच्छ हवा और जलवायु। पर, यहाँ पर स्मरण रखने योग्य बात यह है कि विकास किसी एक ही अंग (factor) द्वारा प्रभावित नहीं होता है, वरन् इस पर कई-एक अंगों का प्रभाव पड़ता है, जो स्वयं एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित (interdependent) है। परन्तु यह सत्य है कि विकास के ऊपर कुछ अंगों का प्रभाव दूसरों की अपेक्षा अधिक पड़ता है। विकास को प्रभावित करनेवाले कुछ अंगो की चर्चा इनकी महत्ता के अनुसार (in order of importance) नीचे की जा रही है –

1. बुद्धि (Intelligence):
विकास को प्रभावित करने में इसका स्थान सबसे प्रमुख है। प्रखर बुद्धि वाले व्यक्तियों का शारीरिक विकास भी मन्द बुद्धिवालों की अपेक्षा तेजी से होता है। टरमन (Terman) के अध्ययनों के आधार पर यह पाया गया है कि प्रखर बुद्धि के बालक मन्द बुद्धि के बच्चों की अपेक्षा पहले चलने (walking) और बोलने (talking) लगते हैं।

2. यौन (Sex):
यौन (sex) का भी स्थान विकास को प्रभावित करने में कम नहीं है। यह सही है कि जन्म के समय लड़कियाँ लड़कों से छोटी रहती हैं, किन्तु बाद में उनका विकास लड़को की अपेक्षा तेजी से होता है और वे लड़कों से जल्द परिपक्वता (maturity) भी प्राप्त कर लेती हैं। सामान्यतः लैंगिक परिपक्वता (sexual maturity) लडकियों में लड़कों से एक वर्ष पूर्व होती है और वे उनसे पहले ही मानसिक परिपक्वता (mental maturity) प्राप्त कर लेती हैं।

3. अन्तः स्त्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine glands):
आधुनिक काल में यह प्रमाणित हो चुका है कि अन्तःस्त्रावी ग्रन्थियों का भी बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास को प्रभावित करने में मुख्य स्थान है। इसका प्रभाव जन्म के पूर्व तथा बाद दोनों ही अवस्थाओं में होनेवाले विकास के ऊपर पड़ता है। कैल्शियम (Calcium) जो पाराथायरायड (parathyroid) ग्रन्थि का स्त्राव है, में कमी हो जाने पर शरीर की हड्डियों (bones) का समुचित विकास नहीं हो पाता है, आयोडीन (Iodine) थायरायड-गन्थि (thyroid gland) का स्राव है। इसका भी शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करने में मुख्य स्थान है।

थायरायड-गन्थि के ठीक से काम नहीं करने पर बच्चे का शारीरिक और मानसिक विकास रूक जाता है। फलस्वरूप, उसमें क्रेटिनिज्म (cretinism) नामक रोग हो जाता है। थायमस-ग्रन्थि (thymus gland) और पिलियल-ग्रन्थि (pineal gland) के अत्यधिक क्रियाशील हो जाने पर बच्चों के सामान्य शारीरिक एवं मानसिक विकास में पिछड़ा रहता है। गोनैड्स (gonads) के अत्यधिक क्रियाशील हो जाने पर बच्चे को समय से पहले दाढ़ी-मूछ हो जाती है और उसमें लैंगिक परिपक्वता (sexual maturity) भी आ जाती है।

4. पोषाहार (Nutrition):
बच्चों के प्रारम्भिक जीवन में पौष्टिक आहार का शारीरिक विकास में बहुत बड़ा स्थान है। भोजन की मात्रा (quantity) के साथ-साथ भोजन के सार-तत्त्व (vitamin content) का भी काफी महत्त्व है बचपन की बीमारियों, रिकेट्स (rickets) त्वचा-रोग (skin diseases) आदि का कारण असंतुलित भोजन ही है।

5. स्वच्छ हवा और सूर्य की रोशनी (Fresh air and sunlight):
सामान्य स्वास्थ की स्थिति, शरीर के आकार, बच्चों की परिपक्व (matured) होने की उम्र इत्यादि को स्वच्छ हवा और सूर्य की रोशनी भी प्रभावित करती है। इनका प्रभाव विकास के प्रारम्भिक दिनों में विशेष रूप से पड़ता है। इनके अभाव में बच्चों में नाना प्रकार के रोग (disease) पाए जाते हैं।

6. रोग तथा आघात (Diseases and injuries):
बच्चे किसी रोग (disease) से पीड़ित रहते है अथवा किसी अघात (injury) के शिकार होते हैं तो इसका उनके मानसिक एवं शारीरिक विकास का बुरा प्रभाव (bad effect) पड़ता है। जब बच्चे के मस्तिष्क (brain) में या किसी अन्य अंग में किसी तरह का आघात (injury) पहुँचता है, तब उनके शारीरिक और मानसिक विकास में बाधा पहुँचती है। परन्तु विशेषकर शारीरिक विकास में ही बाधा पँहुचती है।

7. प्रजाति (Race):
प्रजाति विभिन्नता (racial difference) का भी बच्चे के शरीरिक एवं मानसिक विकास को प्रभावित करने में मुख्य स्थान है। यह देखा गया है कि सामान्य (normal) नीग्रो (Negro) सथा भारतीय (Indian) बच्चों का विकास अंग्रेज (Whites) के बच्चों की अपेक्षा धीरे-धीरे होता है। कारण यह है कि दोनों की जाति (race) में अन्तर (difference) है।

8. संस्कृति (Culture):
इस संबंध में डेनिस (Denis) के अध्ययन (study) उल्लेखनीय हैं। उन्होंने बच्चों के विकास के ऊपर उनकी ‘सास्कृतिक विभिन्नता’ (cultural difference) के पड़नेवाले प्रभावों का अध्ययन किया। उन्होंने होपी-संस्कृति (Hopi culture) तथा अमेरिकी बच्चों (American chiledren) का तुलनात्मक अध्ययन (comparative study) किया। उनका निष्कर्ष यह है कि सांस्कृतिक विभिन्नता के होते पर भी होपी तथा अमेरीकी बच्चों के विकास में कोई खास अन्तर दृष्टिगोचर नहीं हुआ।

9. परिवार में स्थान (Position in the family):
परिवार में बच्चे का कौन-सा स्थान (position) है, इसका भी उसके विकास पर प्रभाव पड़ता है। साधारणतः परिवार के दूसरे, तीसरे और चौथे बच्चों का विकास पहले बच्चे की अपेक्षा तेजा से होता है। परन्तु स्मरण रखना चाहिए कि यह प्रभाव ‘आनुवंशिक’ (hereditary) नहीं है, वरन् वातावरणर में अन्तर के कारण ही इनके विकास में अन्तर होता है।

छोटे बच्चों (younger children) को बड़े बच्चों (older children) के व्यवहारों का अनुसरण कर नई-नई बातों को सीखने का अवसर प्राप्त होता है। परिवार के सबसे छोटे बच्चे का विकास अन्य बच्चों की अपेक्षा अधिक देर से और मन्द गति से होता है; चूँकि परिवार में सबसे छोटा होने के कारण परिवार के सभी लोग उस अत्यधिक प्यार कररते हैं और उसे पूर्णरूप से विकसित होने का मौका ही नहीं देते।

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प्रश्न 5.
विकास के विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें। विकास की प्रक्रिया में परिपक्वता के महत्त्व का उल्लेख करें? अथवा, विकास की परिभाषा दें। उनकी आवश्यक अवस्थाओं को स्पष्ट करें?
उत्तर:
बाल विकास में कई अवस्थाएँ होती हैं। उनका अपना विशेष लक्षण होता है। इस अवस्था या स्तर भी कहते हैं। प्रत्येक अवस्था का अपना विशेष लक्षण होता है। इस समय बालक की कुछ विशेष समस्याएं रहती हैं और उनका समाधान अपनी सीमित शक्तियों से करता रहता है। इसी संदर्भ में उसके भावी विकास में परिवर्तन का निर्धारण होता है।

यद्यपि इन विभिन्न विकासात्मक अवस्थाओं के बीच कोई स्पष्ट विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती है तथापि अध्ययनों के आधार पर इनकी सत्यता प्रमाणित होती है। अवस्था विशेष में लक्षण-विशेष की प्रधानता होती है। अवस्था बलते ही वह लक्षण समाप्त हो जाता और दूसरी अवस्था का दूसरा लक्षण विकसित होता है। इस प्रकार इसके निम्नांकित विभाग किए गए हैं –

1. जन्म पूर्वकाल (pre-natal):
यह गर्भाधान से लेकर जन्म काल तक की अवधि है। यह सामान्यतः दो सौ अस्सी दिनों का होता है। इसे भी गर्भाधान, काल, भ्रूणकाल, गर्भावस्था में बाँटा गया है। इस अवस्था में विकास की गति बड़ी तीव्र रहती है । इस समय वह प्रायः बीस इंच लम्बा और आठ पौण्ड वजन का होता है और अपनी सारी जैव-क्रियाओं का सम्पादन कर वह जीवित रहता है।

2. शैशव काल (Infancy):
यह अवस्था जन्म से चौदह दिनों का होती है। इस समय बालक को नवजात शिशु कहा जाता है। इस समय उसमें एक भी नया विकास नहीं होता, वरन् पूर्व विकसित गुणों के आधार पर वातावरण से अभियोजित होने का क्रम होता है। गर्भावस्था में उसे अपने लिए कुछ भी कारने की आवश्यकता नहीं रहती।

माँ के स्वस्थ जीवन-यापन से ही उसका विकास होता रहता है, किन्तु जन्म के बाद उसे अपने लिए ये सब कुछ करना पड़ता है अन्यथा वह हीवित नहीं रह सकता है। इस समय उसका विकास सर्वथा रुक जाता है। अभियोजनात्मक योग्यता विकसित हो जाने के बाद पुनः विकास का क्रय प्रारम्भ हो जाता है। इसे आराम की अवस्था कहते हैं। ग्राफ खींच कर भी विकास का पठार बनाया जा सकता है।

3. बचपन काल (Babyhood):
यह दो सप्ताह से लेकर प्राय: दो वर्ष की अवस्था तक की अवधि है। इस समय बालक नितान्त असहास एवं परावलम्बी होता है। आयु की वृद्धि के साथ ही उसकी आश्यकताएँ बढ़ती हैं, किन्तु स्वयं शक्ति एवं क्षमता के अभाव में वह कुछ कर नहीं सकता। अतः उसे दूसरे पर निर्भर रहना पड़ता है। क्रमशः परिपक्वता के आधार पर उसी क्रियात्मक क्षमताओं एवं ज्ञानात्मक योग्यताओं का अविर्भाव होता है। इसी अनुपात में उसमें आत्मनिर्भरता का उदय होता है।

4. बाल्याकाल (childhood):
यह दो साल से लेकर प्राय: चार साल तक की अवधि होती है। यह बाल विकास की महत्वपूर्ण अवस्था है। इस समय वातावरण का सन्दर्भ के बालक अपने को समझने का सफल प्रयास करता है। वातावरण पर नियंत्रण प्राप्त करता है। समाज, समदाय, मित्रता, नेतृत्व, सहानुभूति, प्रतियोगिता आदि ध्यानगत्मक सामाजिक प्रतिक्रियाओं का आविर्भाव होता है। साथ ही झूठ बोलना, हठ करना गाली देना, चोरी करना, अवज्ञा, अनुशासनहीनता आदि निषेधात्मक सामाजिक प्रतिक्रियाओं का भी उदय होता है। परिवार, समाज तथा पाठशाला का विभिन्न परिस्थितियों से अभियोजन में वह सर्वथा व्यस्त रहता है।

5. किशोराकाल (Adolescence):
इसकी अवधि तेरह साल से प्रायः इक्कीस साल तक की होती है। यह अवस्था लैंगिक चेतना से प्रारम्भ होती है। इस समय विपरीत लिंग (Opposite sex) की ओर बच्चों का ध्यान जाता है, किन्तु अवसर एवं सुविधा के अभाव में समलिगियों से सम्पर्क अधिक रहता है। यह सम्पूर्ण विकास प्रायः निषेधात्मक कोटि का होता है। मानसिक तनाव, अन्तर्द्वन्द्व साधनों से कन्नी काटना, अन्धाधुन मनमाना व्यवहार, किसी मौके पर दुस्साहसपूर्ण उत्साह के साथ मिल जाना, उत्तरदायित्वहीन काम करना आदि इस अवस्था के प्रधान लक्षण हैं।

एक शब्द में इसे तूफानी अवस्था कह सकते हैं। गौण लैंगिक लक्षणों (मूंछ, स्तन) के विकास इसी काल में होते हैं। इससे उसमें कामुकता की प्रवृति की वृद्धि होती है। विपरीत लिंगियों के प्रति आकर्षण वृति से उसमें और अधिक तीव्रता आती है। उसमें गुणात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक योग्यता का सर्वथा असफल, संयमविहीन, अनियंत्रित एवं अवांछित माना जाता है, किन्तु उसे अपने आप पर अजीव मिथ्या विश्वास रहता है। आत्म प्रवंचना तथा मिथ्या प्रतिष्ठा-ज्ञान के अंधकार में वह अत्यंन्त जटिल स्थिति में उलझन पूर्ण जीवन व्यतीत करता है। इन सम्पूर्ण अवस्था के कई उप-विभाजन किए जा सकते हैं।

(क) पूर्ण किशोरकाल (pre-adolescence):
यह अवस्था किशोरावस्था का प्रथम चरण है। यह बहुत कम समय का होता है। लड़कियों में ग्यारह तेरह साल तक तथा लड़कों में तेरह साल से चौदह साल तक की अवधि होती है। इसमें यौन विकास हो जाता हैं। इसे निषेधात्मक अवगुण माना जाता है। गौण लैंगिक लक्षणों के विकास होते हैं। संवेगात्मक विकृर का उदय होता है अतः सामाजिक अभियोजन का भंग होना प्रारम्भ हो जाता है। बाद में आनेवाली तूफानी अवस्था का. बीजारोपण इसी समय हो जाता है।

(ख) प्रारम्भिक किशोरावस्था (Early adolescence):
यह तेरह से लेकर सोलह-सत्रह साल की अवधि होती है। यह बालकों की पाठशालीय अवस्था हाती है। उनका शरीरिक, मानसिक विकास प्रायः पूर्ण हो जाता है। लड़कियाँ पूर्ण परिपक्व हो जाती हैं। लड़कों में यह परिपक्वता बहुत बाद में आती है। प्रायः पच्चीस वर्ष में वह पूर्णता प्राप्त करता है तथापि उसका सबल पृष्ठधार इसी समय पूर्ण हो जाता है। अतः आवश्यकतानुकूल वह छोटे-बड़े, हल्के-मोटे सरल-जटिल, सभी तरह के कार्य स्वयं करने की योग्यता की हमी भरने लगता है।

यह बढ़ेगी, अजीबो-गरीब अवस्था है। इस समय वह कुछ भी नहीं रहता है और सब कुछ करने का दावा करता है। उत्तरदायित्व उठ नहीं सकता है, किन्तु अपने माथे पर दुनिया उठाए नाचता फिरता है। अभिभावक के सहयोग एवं सहानुभूति के बिना एक कदम नहीं बढ़ा सकता है, किन्तु उनकी परछाई भी देखना पसन्द नहीं करता है। इस समय उसका जीवन पूरा बेतरतीब उजड्ड गँवार, असभ्य कोटी का होता है। सचेष्ट एवं संज्ञान अभिभावक अपनी सूझबूझ एवं सचेष्टा से ही उसे इस दलदल से निकाल कर भावी सफल जीवन की ओर ले जाने में समर्थ होते हैं।

(ग) उत्तर किशोरावस्था:
यह इस काल की अन्तिम अवस्था है। यह सतरह से लेकर इक्कीस वर्ष की अवधि की है। इसके बाद वह वयस्क हो जाता है। इस समय वह विश्वविद्यालय का छात्र रहता है उच्च शिक्षा में लगा रहता है। अब वह चुस्त-दुरुस्त, सजग, सचेष्ट एवं चैतन्य रहता है। निर्णय, विचार, समझ में परिपक्व होता है। विषमलिंगियों के प्रति रुचि, ध्यान एवं झुकाव बढ़ जाता है। अवसर एवं सुविधा के अनुसार उसका ध्यान उस पर स्थित हो जाता है। उत्तरदायित्व संतुलन एवं परिपक्वता का उसमें स्पष्ट प्रमाण पाया जाता है। इसके बाद ही वह सभ्य सुव्यवस्थित नागरिक बनकर सफल अभियोजन करता है।

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प्रश्न 7.
जन्म के पूर्व विकास की प्रमुख अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
विकास क्रम में जन्म के पूर्व बच्चों के विकास की अवस्था का बहुत अधिक महत्त्व है। यह अवस्था गर्भाधान से जन्मकाल तक होती है। स्त्री और पुरुष के सम्भोग से स्त्री के रज:कोष और पुरुष के शुक्रकीट के मिलने से निषेचन होता है जो 280 दिनों में शिशु के रूप में जन्म ग्रहण करता है। बच्चों का शारीरिक विकास उसकी गर्भावस्था से प्रारम्भ होता है।

गर्भावस्था में यह विकास बहुत तीव्र गति से होता है। गर्भावस्था में शिशुओं का अध्ययन अल्ट्रासाउंड, कार्डियों ग्राफ, एक्स-रे आदि यंत्रों के माध्यम से किया जाता है। इन यंत्रों के सहारे गर्भस्थ शिशुओं की स्थिति, चलना, दिल का धड़कना इत्यादि क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। साधारणतः लोग माँ के रिपोर्ट से बच्चे की स्थिति और उसकी गति का अध्ययन करते हैं। गर्भ की अवस्था में बच्चों को विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। जन्म के पूर्व विकास की अग्रलिखित अवस्थाएं हैं –

1. बीजावस्था (Germinal Period):
यह विकास की प्रारम्भिक अवस्था है। इसकी अवधि गर्भाधान से लेकर पंद्रह दिनों तक होती है। इस स्थिति में शिशु का अस्तित्व केवल डिम्बकोष की तरह होता है। इसे बाहर से किसी प्रकार का पोषण प्राप्त नहीं होती है। इसके अन्दर कोष-पुंज भ्रूण के रूप में विकसित होने लगता है। यह उर्वरीकृत बीजकोष गर्भाशय की दीवार से मुक्त रहता है इस बिजाकोष को पोषण प्राप्त करने के लिए विशेष प्रकार के हारमोन्स की आवश्यकता होती है जो गर्भाशय के अन्दर अनुकूल वातावरण तैयार है।

इसके प्रभाव से गर्भाशय दीवारें मोटी और मुलायम बन जाती हैं और उसके निकलने वाल स्त्राव से बीजकोष का पोषण होता है। लगभग दस दिनों के बाद यह उर्वरीकृत. बीजकोष गर्भाशय की दीवार से सम्बन्धित हो जाता है और इस प्रकार सम्बद्ध शरीर के द्वारा पोषक तत्त्व प्राप्त करता है। कभी-कभी रजःकोषक लोपियन ट्यूब में ही शुक्र कोष के द्वारा उर्वरीकृत हो जाता है। जब यह उर्वरीकृत बीजकोष वहाँ से गर्भाशय तक नहीं आ पाता है तब इस स्थिति को नलीय गर्भाधान कहते हैं।

2. भ्रूणावस्था (Embryonic period):
यह जन्म के पूर्व विकास की दूसरी अवस्था है जो दो से छः सप्ताह तक रहती है। भ्रूण एक निश्चित रूप ग्रहण करता है तथा गर्भाशय में उसका निश्चित स्थान हो जाता है और नाभि रज्जु के सहारे माँ के शरीर से सम्बन्धित हो जाता है। इस समय उसके शरीर में नए-नए परिवर्तन होते रहते हैं। इसका रूप अमरलती की तरह हो जाता है। इसका पोषण यहीं से होता है। अब तक इसके निजी स्नायुमंडल की रूप-रेखा तैयार हो जाती है और स्थान निरूपण हो जाता है।

3. गर्भावस्था (Fatal period):
जन्म के पहले विकास की अन्तिम अवस्था है। यह दूसरे महीने क अन्त से लेकर जन्म होने तक की अवस्था है। इस अवस्था में बच्चों को गर्भस्थ शिशु कहा जाता है। गर्भास्थ शिशु विकास की सबसे लम्बी अवस्था है। इसका विस्तार दूसरे से नौवें महीने के अन्त तक होता है। भ्रूणावस्था के बाद की अवस्था में ही किस नयी आकृति का निर्माण हो जाता है। आठवें महीने के अन्त तक इसकी लम्बाई सोलह से आठारह इंच लम्बी और वजन में चार से पाँच पौण्ड का हो जाता है।

इस अवस्था में विकास की गति बहुत तेज होती है। बच्चे की लम्बाई तीन महीने में जीतनी होती है उनसे सात गुणा अधिक जन्म के समय हो जाती है। गर्भस्थ शिशुकाल में विकस की गति प्रारंभिक दिनों की अपेक्षा बाद ही अवस्था में मन्द रहता है। बच्चों में अंगों के आपसी अनुपात में भी परिवर्तन होता है। इस अवस्था में चेहरा पहले की अपेक्षा थोड़ा चौड़ा हो जाता है। तीसरे महीने के पहले बाँहों की लम्बाई पैरों की अपेक्षा अधिक होती है।

परन्तु बाद में पैरों की लम्बाई बाँहों की लम्बाई से अधिक हो जाती है। इस अवस्था में ही वह अपना कार्य भी करना प्रारंभ कर देता है। पाँचवें महीने के अन्त में ही स्नायु आकृतियों का भी विकास हो जाता है। शरीर की मांसपेशियों का विकास भी इस समय तक काफी हो जाता है। परन्तु उसकी गति अनियमित एवं अव्यवस्थित रहती है।

इसके एक महीने के बाद ही इसकी गति पहले की अपेक्षा अधिक नियमित हो जाती है और सातवें महीने में अन्त में शिशु रहने योग्य हो जाता है। यानि सातवें महीने में जन्म लेने के बाद भी बच्चा जिन्दा रह सकता है। इस प्रकार, स्पष्ट है कि गर्भस्थ शिशु का विकास इन तीन अवस्थाओं में सभी बाह्य एवं आन्तरिक दोनों तरह की आकृतियों का निर्माण हो जाता है। भ्रूणावस्था में ही सभी आकृतियों का निर्माण हो जाता है और शिशुकाल में सभी आकृतियों का विकास धीरे-धीरे होता है।

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प्रश्न 8.
वृद्धा मनोविकृति के लक्षण एवं कारणों की व्याख्या करें। या वृद्धा मनोविकृति से आप क्या समझते हैं? वृद्धा अवस्था की मुख्य समस्याओं का वर्णन करें।
उत्तर:
विकास की अन्य प्रक्रियाओं की तरह वृद्ध होना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। कोई बच्चा जन्म लेता है, बाल्यावस्था, युवावस्था को पार करता हुआ वृद्धा अवस्था में पहुँचता है। इस अवस्था में शारीरिक शक्ति का ह्रास हो जाता है। उसकी मांसपेशियों में समन्वय की कमी हो जाती है, हड्डियों तथा जोड़ो का लचीलापन कम जाता है।

पुरे शरीर की त्वचा में झुर्रियाँ पड़ जाती हैं। ज्ञानेन्द्रियों की कार्य क्षमता कम हो जाती है उसके मस्तिष्क में स्नायुओं का एक परत जम जाता हैं। जो मस्तिष्क की क्रियाओं को प्रभावित करता है। इन शारीरिक परिवर्तनों के अलावा मनोवैज्ञानिक परिवर्तन भी होते हैं, जिसमें स्मृति की कमी, चिन्तन की योग्यता में कमी आदि प्रमुख हैं।

वृद्धा मनोविकृति का मुख्य कारण अधिक उम्र के बीत जाता है। मनोविकृति व्यवहार में विकृति हैं। यदि यह विकृति अधिक उम्र के लोगों को होता है ते. इसे वृद्धा मनोविकृति कहते हैं। इस प्रकार के व्यवहार विकृति के अनेक करण हैं, इनमें एक कारण वृद्धा अवस्था या अधिक उम्र बीत जाना है। इसलिए वृद्धा अवस्था के कारण जो व्यवहार में विकृति आती है उसे (Senile psychosis) या (Senile brain disease) कहा जाता है।

यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि वृद्धा के कारण दूसरी अन्य विकृतियाँ भी होती है। इस प्रकार की विकृति को (Arterioscle rosis) कहा जाता है। इसके अलावा वृद्धा अवस्था में अन्य मानसिक बीमारियाँ, जैसे-उत्साह, विषाद, मनोविकृति, मनोविदलता, स्थिर व्यामोह आदि के लक्षण भी देखे जाते हैं। कुछ लोगों में चिन्ता, उन्माद, झक, बाध्यता आदि के लक्षण निम्नलिखित हैं –

(A) वृद्धा अवस्था मनोहास मनोविकृति:
यह भी वृद्धा अवस्था की एक प्रमुख समस्या है। अधिक उम्र बीत जाने के पश्चात् मस्तिष्क में एक प्रकार की विकृति उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण व्यक्ति में कुछ ऐसे लक्षण विकसित हो जाते हैं जो मनोविदलता के लक्षणों के समान होते हैं।

इस सम्बन्ध में अमेरिका में एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया गया जिससे पता चलता है कि वह रोग साठ से लेकर नब्बे वर्ष के व्यक्तियों को अधिक होता है, यह लक्षण स्त्रियों में अधिक विकसित होता है। सर्वेक्षण के अनुसार पुरुषों में लगभग 11% और स्त्रियों में 30% लोगों को इस रोग के होने की संभावना रहती है। कोलमैन ने वृद्धा अवस्था में होने वाले इस रोग को पाँच प्रमुख भागों में बाँटा है –

  • साधारण मानसिक हास
  • स्थिर व्यामोह प्रतिक्रिया
  • तीव्र प्रकार
  • अति तीव्र प्रकार
  • उत्साह-विषाद् प्रकार

1. साधारण मानसिक हास:
यह वृद्धा मनोविकृति का एक सामान्य लक्षण है। इस अवस्था में व्यक्ति अपना सम्बन्ध सीमित कर लेता है। उसका सम्पर्क बाह्य वातावरण से कम होने लगता है। वृद्धा अवस्था आने पर व्यक्ति की स्मरण शक्ति क्षीण होने लगती है। उसमें परिवर्तनों को स्वीकार करने की क्षमता का अभाव हो जाता है। उसकी बैचनी बढ़ जाती है, नींद की कमी हो जाती है, निर्णय लेने की क्षमता का अभाव हो जाता है। एक मनोवैज्ञानिक सर्वेक्षण से पता चलता है कि लगभग पचास प्रतिशत वृद्ध व्यक्तियों में इस प्रकार के लक्षण विकसित हो जाते हैं।

2. स्थिर व्यामोह प्रतिक्रिया:
स्थिर व्यामोह प्रतिक्रिया वृद्धा अवस्था में विकसित होने वाला एक गंभीर मनोविकृति है। इस प्रकार की विकृति का शिकार होने पर व्यक्ति में विभिन्न प्रकार के व्यामोह देखे जाते हैं। इस व्यामोह में, दण्ड-सम्बन्धी व्यामोह, यौन से सम्बन्धित व्यामोह और उच्च विचार सम्बन्धी व्यामोह की अधिकता रहती है। इसमें व्यक्ति को यह विश्वास हो जाता है कि उसके परिवार के लोग उसके विरुद्ध हो गए हैं और उसे जान से मान देने का षड्यंत्र बना रहे हैं। इस प्रकार के रोगियों में विभ्रम के लक्षण भी देखे जाते हैं।

3. तीव्र प्रकार:
वृद्धा अवस्था मनोविकृति का यह भी एक गंभीर लक्षण है। इस प्रकार के व्यक्तियों में स्मृति बहुत अधिक क्षीण हो जाती है। रोगी हमेशा सतक मुद्रा में दिखाई देता है। वह निरुद्देश्य कार्यों में लगा रहता है तथा उसकी बातों में विरोधाभास देखा जाता है। कभी-कभी उसमें आक्रामक व्यवहार भी देखे जाते हैं। एक सर्वेक्षण के मुताबिक, इसे प्रकार के लक्षण लगभग आठ प्रतिशत लोगों में देखा जाता है।

4. अति तीव्र प्रकार”
यह वृद्धा अवस्था मनोविकृति का बहुत अधिक गंभीर लक्षण है। इस अवस्था में व्यक्ति बुरी तरह बेचैन हो जाता है, बात-बात में जिद्द करना है, बातें असंगत होती हैं। रोगी को स्थान और समय का ज्ञान भी नहीं रहता है। यह लक्षण बहुत कम लोगों में देखा जाता है।

5. उत्साह-विषाद प्रकार:
इस प्रकार के व्यक्तियों में वही लक्षण विकसित हो जाते हैं जो उत्साह-विषाद के रोगियों में पाया जाता है। रोगी कभी उत्साह की अवस्था मे रहता है तो कभी विषाद की अवस्था में। कभी-कभी व्यक्ति ऐसा समझता है कि उसे कोई भयानक रोग हो गया है, जिससे उसकी मृत्यु निश्चित है। कभी वह समझता है कि वह बहुत बड़ा पापी है और उसे आत्महत्या कर लेनी चाहिए। रोगी को यह विश्वास हो जाता हैं कि परिवार के सभी लोग उससे नफरत करते हैं और उसके मरने की कामना करते हैं।

(B) वृहत्मस्तिष्क धमनी-काठिन्युक्त मनोविकृति:
व्यक्ति जब वृद्धा अवस्था में पहुँचता है तो उसके मस्तिष्क की क्रियाओं में हास होने लगता है। मानव मस्तिष्क में असंख्या कोष पाए जाते हैं जिसका पोषण मस्तिष्कीय रक्तवाहिनी धमनियों के माध्यम से होता है। जब व्यक्ति अधिक उम्र का हो जाता है तो मस्तिष्क के कोषों के नष्ट होने से व्यक्ति में cerebral arteriosecterotic psychosis के लक्षण विकसित हो जाते हैं। इससे मस्तिष्क के कार्यों में विकृति आने लगती है।

Rothschild and Yalam ने बताया है कि छोटी रक्त धमनियों के नष्ट होने से वृहत् मस्तिष्क का पोषक तत्त्व अवरुद्ध ही जाता है जिससे व्यक्ति रोग का शिकार हो जाता है। परन्तु जब बड़ी धमनी नष्ट होती है तो इसका आघात भयानक होता है। वह मूर्छित रहने लगता है। अस्पतालों में इस प्रकार के रोगियों की संख्या लगभग पन्द्रह प्रतिशत होती है। इस रोग का प्रभाव 55 वर्ष के बाद ही देखा जाता है। इस प्रकार के रोग से रोगी चिड़चिड़ा हो जाता है तथा उसकी मानसिक क्षमता समाप्त हो जाती है। कुछ रोगी लकवाग्रस्त होकर पड़ा रहता है। इसमें कमजोरी थकान, सिरर्दद, खिन्नता आदि लक्षण देखे जाते हैं। इस रोग के विकसित होने पर रागी अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह पता है।

कारण (Causes):
पहले के मनोचिकित्सकों का विचार था कि यह मानसिक रोग मस्तिष्क की क्षति के कारण होता है, परन्तु आधुनिक अनुसंधानों से पता चलता है कि इसका एक कारण मस्तिष्क की क्षति है परन्तु इसके अलावा भी कई कारण हैं जिसके चलते व्यक्ति इस मानसिक रोग का शिकार हो जाता है। इसके कारणों को मुख्य रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है –

  • जैविक कारक
  • मनोवैज्ञानिक कारक
  • सामाजिक कारक

(I) जैविक कारक (Biological factors):
मनोविकृति चाहे कोई भी हो इसके पीछे जैविक कारकों का आवश्यक रूप से हाथ होता है, ऐसा अध्ययनों से स्पष्ट हो चुका है। अतः इस मनोविकृति के विकास में भी जैविक कारक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। अतः इस मनोविकृति के विकास में भी जैविक कारक की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इस सम्बंध में Post ने एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया है। उन्होंने जुड़वा बच्चों पर अध्ययन करके पाया कि वृद्धा अवस्था में मनोविकृति के कारण शरीर के कोषों का बनना और टूटना है।

Post ने 78 वृद्धा मनोविकृति से पीड़ित व्यक्तियों का अध्ययन किया और इस बात की पुष्टि की है इस रोग की उत्पत्ति में वंश परम्परा का हाथ होता है Mayer के अध्ययन से भी Post के विचारों का समर्थन होता है। इन्होंने अपना अध्ययन 100 लोगों पर किया। जैविक कारकों के अन्तर्गत शारीरिक बनाबट, दैहिक रसायन, गर्भावस्था में भोजन की कमी, जन्म के पश्चात् उचित मात्रा में विटामिन और कैलोरी नहीं प्राप्त होना आदि आते हैं।

अनेक मनोवैज्ञानिकों ने कहा है कि अधिक उम्र बीत जाने पर वृहत् मस्तिष्क की धमनियों में परिवर्तन से कोषों के टूटने का प्रभाव पड़ता है जिसके कारण व्यक्ति का मानसिक ह्रास होने लगता है। इस सम्बंध में एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी होती है कि रक्त संचार में बाधा के चलते ऑक्सीजन के खपत में कमी आ जाती है स्नायुकोषों की क्षति से मनोभ्रंश को शिकायत हो जाती है। कोषों का टूटना अन्तःस्त्रावी ग्रंथियों के दोष या भोजन में विटामिन की कमी के कारण भी होता है। यदि व्यक्ति को भोजन में समुचित मात्रा में प्रोटीन नहीं मिलता है तो वृद्धा मनोविकृति की संभावना अधिक रहती है। कुछ आधुनिक अनुसंधानों से पता चलता है कि व्यक्ति में बहुत ज्यादा तनाव, अधिक वयायुक्त भोजन आदि की वृद्धि मनोविकृति का एक कारक है।

(II) मनोवैज्ञानिक कारक:
वृद्धा मनोविकृति के विकास में मनोवैज्ञानिक कारकों का महत्त्वपूर्ण हाथ होता है। व्यक्ति उस वक्त अपने को बूढ़ा समझने लगता है जब उसे जीवन का सबसे आघातपूर्ण अनुभव होता है। यह व्यक्ति के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि परिस्थितयों के साथ किस प्रकार से अभियोजन करता है। वृद्धा मनोविकृति के विकास में जिन मनोवैज्ञानिक कारकों का प्रभाव पड़ता है, वे निम्नलिखित हैं –

(i) व्यक्तिगत कारक:
कुछ ऐसे व्यक्तित्व कारक होते हैं जो senile psychosis के लिए जिम्मेवार होते हैं। Post ने इस रोग से पीड़ित कई व्यक्तियों का अध्ययन किया। उन्होंने देखा कि अधिकांश रोगी ऐसे थे जिनकी युवा अवस्था कुसमायोजित थी। अर्थात् जावानी में ही वे कुसमायोजन का शिकर हो गए थे। इस आधार पर कहा जा सकता है कि ऐसे व्यक्ति जिनकी आयु के मध्य भाग में कुसमायोजन हो जाता है या वे परिस्थितियों के साथ सफलतापूर्वक अभियोजन में सफल नहीं हो पाते हैं, वे वृद्धा अवस्था में senile psychosis के शिकार हो जाते हैं।

(ii) चिन्तापूर्ण स्थिति:
इस रोग की होने की संभावना अधिक होती है, जब वृद्धा अवस्था में तनाव पूर्ण वातावरण झेलना पड़ता है। जब व्यक्ति बुढ़पा की अवस्था में आ जाता है तो उसमें असुरक्षा के भाव विकसित हो जाते हैं। आर्थिक संकट क अलावा सामाजिक मान्य मर्यादा में भी कमी आ जाती है। इन परिस्थितियों में व्यक्ति को senile psychosis होने की पूरी संभावना रहती है।

(iii) निर्भरता तथा व्यर्थता का भाव:
वृद्धा अवस्था में व्यक्ति कमोजार हो जाता है, वह धन कमाने योग्य नहीं रह जाता है। ऐसी स्थिति में वह परिवार के दूसरे सदस्यों पर य सगे-सम्बन्धियों पर निर्भर हो जाता है। अतः उसमें आश्रित होने का भाव जागृत हो जाता है जो व्यक्ति अपने जवानी की अवस्था में काफी स्वतंत्र रहा है उस व्यक्ति में यह भाव. विशेष रूप से देखा जाता है। वह अपने को परिवार का बोझ समझने लगता है तथा उसे जीवन व्यर्थ लगने लगता है। इस प्रकार की परिस्थिति में व्यक्ति वृद्धा मनोविकृति का शिकार हो जाता है।

(iv) लैंगिकता का अभाव:
व्यक्ति के यौन इच्छाओं में क्रमिक ढंग से ह्रास होता है। परन्तु इसमें वैयक्तिक भिन्नता होता है। किन्स ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि अधिकांश वृद्ध व्यक्तियों में यौन इच्छाओं में कमी नहीं आती है। जिन लोगों में लैंगिकता की कमी होती है वे लोग इसके लिए चिन्तित रहा करते हैं जिससे उनका शारीरिक आकर्षण कम हो जाता है। इस प्रकार की परिस्थितियों को वृद्ध व्यक्ति झेलने में असमर्थ हो जाते हैं और वे वृद्धा मनोविकृति के शिकार हो जाते हैं।

(v) अलगाव या एकाकीपन:
अलगाव भी इस मानसिक रोग का एक प्रमुख कारण है। वृद्धा अवस्था में उसके सभी पुराने साथी बिछुड़ जाते हैं तथा नये लोग के साथ उनका समायोजन नहीं हो पता है। फलतः वे एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाते हैं। उनके बच्चे बड़े होकर अलग परिवार के साथ अन्यत्र जीवन-यापन के लिए चले जाते हैं। उनकी अभिरुचियों में कमी आ जाती है। Busse ने कहा कि वृद्ध व्यक्ति अपने के महत्त्वपूर्ण नहीं समझते हैं। उनका संसार से नाता टूट जाता है और वे वृद्धा मनोविकृति के शिकार हो जाते हैं।

(III) सामाजिक कारक:
वृद्धा अवस्था मनोविकृति के विकास में सामाजिक कारकों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। कुछ मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों से पता चलता है कि यह रोग ग्रामीण लोगों की तुलना में शहरी लोगों को अधिक होती है। कोलमेन ने कहा है कि ग्रामीण की तुलना में शहरी लोगों को यह रोग दुगुनी संख्या में होती है। इसका मुख्य कारण यह है कि शहर के लोग अपने-अपने काम में ज्यादा व्यस्त रहते है। जिससे वृद्धि अकेलापन महसूस करता है।

इसके अलावा शहर का प्रदूषण, कोलाहलपूर्ण वातावरण, भिड़ आदि का भी प्रभाव पड़ता है। जबकि ग्रामीण क्षेत्र में वृद्धों के परिवार के लोग भार नहीं समझते हैं, उनकी सेवा करते है, उनकी सामाजिक मर्यादा बनी रहती है, फलतः वे इस प्रकार के वातावरण में अपने को अभियोजित करने में कठिनाई का अनुभव नहीं करते हैं।

वे अधिक उम्र तक कार्य में व्यस्त रहते हैं, उनकी बातों का महत्त्व होता है। सामाजिक कारकों के अलावा सांस्कृतिक कारक भी वृद्धा मनोविकृति को बढ़ाने में अपना योगदान करते हैं। इस प्रकार का रोग उस संस्कृति में अधिक देखा जाता है जहाँ भौतिकता अधिक होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि वृद्धा मनोविकृति के अनेक कारण हैं। यदि इन कारणों पर विशेष रूप से ध्यायन दिया जाए तो वृद्धों को इस प्रकार के मनोविकृति से बचाया जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास

प्रश्न 9.
गर्भस्थ शिशु को प्रभावित. कारने वाले विभिन्न कारकों का वर्णन करें?
उत्तर:
अध्ययनों के द्वारा यह पता चलता है कि गर्भास्थ शिशु के विकास को प्रभावित करनेवाले कई कारक (Factors) हैं, परन्तु यहाँ हम उनमें सिर्फ मुख्य कारकों (main factors) की चर्चा एक-एक कर करेंगे।

1. भोजन (Food):
भोजन का प्रभाव गर्भस्थ शिशु के विकास पर काफी पड़ता है। निषेचन काल (Fertilization) के दस दिन बाद से ही अण्डाणु (ovum) अपने माँ के गर्भाशय की दीवारों से सट जाता है और यह पराश्रयी (parasitic) हो जाता है अर्थात् अपनी माँ से इसे पोषाहार (Nourishment) मिलना शुरू हो जाता है।

माँ के भोजन का बच्चे के विकास पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि माँ के भोजन में आवश्यक विटामिन पर्याप्त मात्रा में न हो तो गर्भावस्था में बच्चे में तन्तुओं का विकास का निर्माण ठीक से नहीं होता और उनका विकास भी समान्य ढंग का नहीं हो पाता। यही कारण है कि गर्भावस्था में माँ के भोजन के पर काफी ध्यान दिया जाता है और विटामिन से युक्त भोजन खाने को दिया जाता है। अतः स्पष्ट है कि बच्चों के सामान्य विकास पर गर्भावस्था में माँ जैसा भोजन करती है उसका प्रभाव काफी पड़ता है।

2. बीमारी (Disease):
माता की बीमारीयों का भी असर गर्भावस्था शिशु के विकास पर काफी पड़ता है। इन बीमारियों में प्रमुख है सिफलिस (Syphilis), गोनोरिया (Gonorrhoea), अन्त: स्रावी पिंडो (ग्रथियों) में गड़बड़ी (Endocrinal disorders)। क्षय रोग इत्यादि। गर्भाधान अथवा गर्भावस्था में यदि माताएँ इन बीमारियों से पीड़ित रहती हैं तो इसका बच्चों के विकास पर बुरा असर पड़ता है।

3. मदिरा (Alcohol):
साधारण लोगों का विचार है कि मदिरा का भी गर्भस्थ शिशु . के विकास पर प्रभाव पड़ता है परन्तु इस सम्बध में कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। जो माताएँ मदिरापान करती हैं, उनके बच्चों में मानसिक दुर्बलता पायी जाती हैं, परन्तु यह भी देखा जाता है जिन बच्चों की माताएँ मदिरापान कभी नहीं करती है, उनके बच्चों में भी दुर्बलता पायी जाती है इसका कारण यह है कि माताएँ जो मदिरापान नहीं करती हैं, परन्तु पति करते हैं जिससे उनके जीव कोश (Germ-Cell) गर्भाधान (Concription) के पहले ही कमजोर पड़ जाते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि मदिरापान का गर्भस्थ शिशु पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है।

4. तम्बाकू (Tobacco):
तम्बाकू, बीड़ी, सिगेरट का गर्भस्थ शिशु के विकास पर बुरा प्रभाव पड़ता है। यह इस लिए होता है कि तम्बाकू में निकोटीन (Nicotine) नामक एक विषैली पदार्थ रहता है जो रक्त चाप (Blood pressure) तथा हृदय की गति (Hartaction) में असंतुलन ला देता है। जानवरों के साथ प्रयोगात्मक करने पर देखा गया है कि निकोटिन का सेवन न करने पर दूध देने की क्रिया में कामी आ जाती है, परन्तु गर्भावस्था में माताओं पर इस तरह का प्रभाव पड़ता है या नहीं, इसका कोई निश्चित वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है।

5. माताओं का संवेगात्मक अनुभव (Emotional Experiences of the mother):
माताओं का संवेगात्मक अनुभव का प्रभाव गर्भस्थ शिशु-विकास पर पड़ता है। कुछ लोगों का तो यहाँ तक विचार है कि गर्भावस्था में माताओं के चिन्ताग्रस्त रहने पर बच्चे भी जन्म के बाद दुःखी रहने लगते हैं और वे अन्तर्मुखी (Introvert) स्वभाव के हो जाते हैं, लेकिन इस संबंध में बहुत थोड़ा वैज्ञानिक प्रामाण है, अर्थात् यह निश्चित रूप से कहना सम्भव नहीं है कि माताओं के संवेगात्मक अनुभवों (Emotional experiences of mother) का गर्भस्थ शिशु के विकास (Pre-natal development) पर क्या प्रभाव पड़ता है।

6. माता-पिता की उम्र (Age of Parents):
माता-पिता की उम्र का गर्भस्थ शिशु वकास पर क्या प्रभाव पड़ता है, इस सम्बंध में कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है। अतः इस संबंध में कुछ भी निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है। फिर भी इस सम्बन्ध में किये गये कुछ अध्ययनों से पता चलता है कि कम उम्र वाले माता-पिता के बच्चे अधिक उम्र वाले मात-पिता के बच्चे से कम बुद्धिमान होते हैं। परन्तु यह भिन्न्ता दोनों प्रकार के बच्चों के माता-पिता की उम्र के कारण नहीं, बल्कि उनके सामजिक स्तर (Social Status) के अन्तर के कारण भी होती है।

उच्च सामाजिक स्तर तथा प्रखर बुद्धि वाले स्त्री पुरुषों के शादी कम उम्र में ही हो जाती है, अत: उनसे उत्पन्न बच्चों की बुद्धि में अन्तर होता है। एलिस (Ellis), गाल्टन (Galton), टरमन (Terman) इत्यादि के अध्ययनों से स्पष्ट है कि जिन माता-पिता की उम्र में अन्तर कम होता है। वे उन बच्चों की बुद्धिवाले होते हैं जिनके माता-पिता की उम्र में अधिक का अन्तर होता है हालाकि ऊपर कई कारकों (Factors) का वर्णन किया गया है, जिनका गर्भस्थ शिशु-विकास पर प्रभाव पड़ता है। फिर भी वैज्ञानिक अध्ययनों के अभाव में बहुत-से कारकों के सम्बन्ध में यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता हैं कि उनका गर्भस्थ शिशु विकास पर कैसा प्रभाव पड़ता है।

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प्रश्न 10.
प्रौढ़वस्था की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
प्रौढ़ावस्था में किसी व्यक्ति की दायित्वों का निर्वाह की दृष्टि से समक्ष माना जाता है। उसे स्वावलम्बी बनकर समाज से जुड़ना होता है। प्रौढ़ के गुणों के विकास में भिन्नता पाई . जाती है। प्रौढ़ावस्था की कुछ प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. प्रौढ़ को वैवाहिक बंधन में बंध जाना आवश्यक माना जाता है।
  2. माता-पिता के रूप में प्रौढ़ को बच्चों के लालन-पालन और सुरक्षा का भार उठाना पड़ता।
  3. प्रौढ़ों को जीवन की संभावनाओं को तलाशना होता है।
  4. प्रौदों को स्थायी जीवन की संरचना कर विकास करना होता है।
  5. प्रौढ़ को जीवन क्रम में निर्भरता से स्वतंत्रता की ओर कदम बढ़ाना होता है।
  6. प्रौढ़ों को व्यवसायिक जीवन में प्रवेश पाने को बाध्य होना पड़ता है।
  7. प्रौढों को अपनी कुशलता तथा दक्षता के प्रदर्शन के लिए तैयार होना होता है।
  8. प्रौढ़ों को अपने एवं नियोजक की प्रत्याशाओं के बीच संतुलन बनाकर रखना होता है।
  9. प्रौढों को विवाह, मातृ-पितृत्व एवं परिवार के प्रति आदर्श दायित्व निभाने का अवसर अवश्य मिलता है।
  10. परिवार के अन्य बच्चों के साथ भी अपने की तरह बिना भेद-भाव किये स्नेहमयी व्यवहार करना होता है।
  11. प्रौढ़ों को सामाजिक एवं सांस्कृति व्यवहारों के लिए लागों की प्रशंसा पाने के लिए निरन्तर प्रयास करते रहना पड़ता है।

अतः प्रौढ़ावस्था में पहुँचकर व्यक्ति अपने प्रभावकारी आचरण तथा परिणामी प्रयास के द्वारा सम्पर्कक अन्य व्यक्तियों की सभी आकांक्षाओं का ख्याल रखना होता है।

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प्रश्न 11.
किशोरावस्था में उत्पन्न पहचान-भ्रम का कारण और प्रभाव का उल्लेख करें?
उत्तर:
अपनी एक अलग पहचान बनाने की प्रक्रिया में किशोर अपने मात-पिता के साथ तथा स्वयं अपने अन्दर द्वन्द्व का अनुभव कर सकते हैं। इस प्रक्रिया में किशोर अनेक प्रकार के दायित्वों के बोझ से दबने लगता है। उसमें एक नया आत्म-बोझ प्रकट हो जाता है। जो किशोर नये आत्म बोध को समझने में यहा स्वीकार करने में सक्षम नहीं होते हैं वे पूर्णतः भ्रमित हो जाते हैं।

एरिक्सन के अनुसार यह पहचान-भ्रम व्यक्ति को अपने साथियों तथा परिवार से स्वयं को अलग कर लेने के लिए प्रेरित कर सकता है अथवा वे भीड़ में अपनी पहचान खो सकते है। किशोर स्वतंत्र सत्ता बनाने का पक्षधर बनने के साथ-साथ मता-पिता के संरक्षण के अभाव में स्वयं को संभालने से डरते भी हैं। आत्मविश्वास और असुरक्षा की भावना के बीच शीघ्रता से परिवर्तित होते रहना इस अवस्था की एक विशिष्ट सत्ता है।

एक अलग पहचान प्राप्त करने में किशोर के स्वयं में निरंतरता और एकरूपता का खोज करना, अधिक उत्तरदायित्वों का वहन करना तथा पहचान का स्पष्ट बोध प्राप्त करना सन्निहित है। इसके लिए वांछनीय कठिन प्रयास में अस्थिर होते ही पहचान-भ्रम उत्पन्न हो जाता है। फलतः किशोर हतप्रभ होकर गलत निर्णय लेकर अपने भविष्य को अन्धकारमय बना लेता है। वह मात-पिता की सहयता एवं निर्णय से वंचित हो जाता है। उसे भयमुक्त आत्मबोध के लिए तैयार होना होता है। किशोरावस्था में पहचान का निर्माण अनेक कारकों से प्रभावित होता है।

सांस्कृति पृष्ठभूमि पारिवारिक तथा सामाजिक मूल्य, सजातीय पृष्ठभूमि, आर्थिक स्तर आदि को एक साथ एक स्थान पर उपलब्ध करने के लिए किशोरों को अधिक प्रयास करना होता है। रोजी-रोटी की खोज में किशोरों को घर से दूर जाना पड़ सकता है जिसके कारण उसे पारिवारिक सुख एवं संरक्षण से वंचित हो जाना पड़ता है। माता-पिता से संघर्षपूर्ण स्थितयों में संबंध रखना होता है। किशोरों को आर्थिक समस्या का स्थायी एवं सुपरिणामी हल खोजने के लिए व्यावसायिक प्रतिबद्धता के लिए तैयार होना होता है। भविष्य निर्माण की चिन्ता बढ़ जाती है तथा अकेले उस खाई से निकलना बड़ा कठिन प्रतीत होता है।

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प्रश्न 12.
विकासात्मक मनोविज्ञान को परिभाषित करें?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान जो पहले बाल मनोविज्ञान के नाम से जाना जाता था, मनोविज्ञान की ऐसी शाखा है जिसमें बच्चों के व्यवहारों अर्थात् उनके शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है। पहले ऐसी धारणा थी कि इस मनोविज्ञान में बच्चों की शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का अध्ययन जन्मोपरांत प्रांभव किया जाता है तथा उनका अध्ययन वयस्क होने तक किया जाता है। परंतु इस तरह की धारणा को गलत साबित कर दिया गया है और आधुनिक विकासात्मक मनोवैज्ञानिक यह मानते है कि चूंकि शिशुओं के शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का विकास गर्भधारण से ही प्रारंभ हो जाता है, अतः विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन जन्म से नहीं बल्कि गर्भाधारण से ही किया जाना चाहिए।

इसे ध्यान में रखते हुए आधुनिक विकासात्मक मानोवैज्ञानिकों, जैसे हरलॉक (Hurlock) लाइबर्ट (Libert) तथा उनके सहयोगियों ने विकासात्मक मनोविज्ञान को मनुष्य में गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों के अध्ययन का एक विज्ञान माना है। यदि हम विकासात्मक मनोविज्ञान की एक परिभाषा देना चाहें, तो इस प्रकार दे संकेत हैं-विकासात्मक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें गर्भधारण स मुत्यु तक मनुष्यों के विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों का एक वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। (Development Psychology is that branch of psychology in which a scientific study of developmental changes of the different stages of human beings taking place from conception to death is done)

यदि हम इस परिभाषा का विश्लेषण करें तो हमें निम्नाकिंत प्रमुख तथ्य प्राप्त होते हैं –

1. विकासात्मक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की एक प्रमुख शाखा है:
इस शाखा का स्वरूप कुछ ऐसा है कि इसे एक समर्थ विज्ञान (Positive science) माना गया है, क्योंकि यह बच्चों के व्यवहारों में होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों का ज्यों-का-त्यों अध्ययन करता है।

2. विकासात्मक मनोविज्ञान गर्भधारण से मृत्यु तक होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन करता है:
विकासात्मक मनोविज्ञानी शिशु क शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का अध्ययन गर्भधारण से ही आरंभ कर देते हैं तथा इस बात की कोशिश करते हैं कि मृत्यु तक ऐसे होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया जाए। इस कोशिश क बावजूद एक सफल विकासात्मक मनोविज्ञानों किशोरावस्था तक होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों को अधिक गहन रूप से अध्ययन करता है, क्योंकि यह परिवर्तन बहुत ही तीव्र होता है तथा इसी के स्वरूप पर वयस्कावस्था तथा वृद्धावस्था का विकासात्मक परिवर्तन आधारित होता है।

विकासात्मक मनोवैज्ञानकों ने गर्भधारण से किशोरावस्थां की अवधि को कई छोटी-छोटी अवस्थाओं, जैसे पूर्वप्रसूति काल, शैशवावस्था, बचपनावस्था (Babyhood), बाल्यावस्था (Childhood) आदि में बाँटकर प्रत्येक में होने वाले शारीरिक विकास में परिवर्तन, क्रियत्मक विकास में परिवर्तन, सामाजिक विकास में परिवर्तन, खेल विकास में परिवर्तन, नैतिक एवं चरित्रिक विकास में परिवर्तन आदि का अध्ययन करते हैं। विकासात्मक मनोविज्ञान चूँकि गर्भधारण से लेकर मुत्यु तक होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन करने की कोशिश करता है। यही कारण है कि इसे जीवन-अवधि विकासात्मक मनोविज्ञान (Life-span development psychology) का संज्ञा भी दी गयी है।

3. विकासात्मक मनोविज्ञान मनुष्यों के विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से करता है:
विकासात्मक मनोविज्ञान का विषय-वस्तु विकासात्मक परिवर्तनों (Development change) है, जिसका का अध्ययन वैज्ञानिक विधियों द्वारा किया जाता है। प्रयोगत्मक विधि, अनुदैर्ध्य विधि (longitudinal method), साक्षात्कार विधि, प्रश्नावली विधि तथा प्रेक्षण विधि आदि द्वारा विकासात्मक मनोवैज्ञानिक बच्चों के विकासात्मक परिवर्तनों का वैज्ञानिक अध्ययन करते है। ध्यान रहे कि ऐसे अध्ययनों में विकासात्मक मनोवैज्ञातिक का दृष्टिकोण हमेशा विकासात्मक होता है।

वे वक्ति के भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में विकास की प्रक्रिया, उनपर पड़ने वाले प्रभावों एवं विकास की परिवर्तनशीलता का अध्ययन करते हैं। स्पष्ट हुआकि विकासात्मक मनोविज्ञान व्यक्ति के गर्भाधारण से लेकर मृत्यु तक होने वाले विकासात्मक प्रक्रियाओं एवं परिवर्तनों का सामान्य रूप से तथा गर्भाधारण से 19-20 साल तक के विकासात्मक प्रक्रियाओं एवं परिवर्तनों को विशिष्ट रूप से वैज्ञानिक अध्ययन करने वाला मनोविज्ञान है।

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प्रश्न 13.
किशोरों को व्यवहार संबंधी किन चुनौतियों का समना करना होता है? या किशोरावस्था से संबंधित प्रमुख चिन्ताओं को स्पष्ट करें।
उत्तर:
किशोरावस्था की अवधि में विभिन्न प्रकार के द्वन्द्वों, अनिश्चितताओं और कुछ विशेष दशा में अकेलापन की पीड़ा को सहन करते समय मानना पड़ता है कि किशोरावस्था अति संवेदनशील अवधि है। इस अवधि में किसी भी किशोर को समकक्षियों का प्रभाव, नयी अर्जित स्वतंत्रता और अनेक अनुसुलक्षी समस्याएँ कठिनाइयाँ उत्पन्न करने में सफल हो जाते है। किशोरों की समकक्षियों के दबाव में चलने की बाध्यता होती है। किशोरों को गलत आदतों का शिकार बनाने और परिवार के मधुर रिश्ते में दरार पड़ने जैसी समस्याओं को जूझना पड़ता है। इस अवस्था में माता-पिता द्वारा बनाये गये नियमों को तोड़ने में अपनी खुशी खोजते हैं।

किशोरावस्था में भिन्न-भिन्न प्रकार की चिन्ताओं को बर्दास्त करना होता है। जैसे-किशोरों के जीवन की विधि में अनिश्चितता, अकेलापन, आत्मसंदेह, दुश्चिंता तथा स्वयं एवं स्वयं के भविष्य के प्रति दश्चिंता आदि का समाना करना पड़ता है। कुछ आंतरिक विसंगतियाँ भी पैदा हो जाती हैं। जैसे-उत्तेजना, हर्ष तथा समक्षमता आदि। कुछ गलत पदार्थों के प्रयोग तथा विकार उत्पन्न करनेवाले कारकों के अनुप्रयोग से उत्पन्न कुप्रभाव। अपचार, मादक द्रव्यों का दुरुपयोग तथा आहार ग्रहण करने संबंधी विकार का उत्पन्न हो जाना आदि चुनौतियों के रूप में व्यवहार करते हैं।

1. अपचार:
सामाजिक रूप से अस्वीकार किये जाने वाले व्यवहारों को अपराध तथा आपराधिक कृत्य का कारण बना दिया जाता है। कर्त्तव्य विमुखता, घर से भाग जाना, चोरी या सेंधमारी, बर्बतापूर्ण व्यवहार को विसंगतियाँ या दोष कहलाते हैं। अपचार प्रायः माता-पिता के कम सहयोग, अनुप्रयुक्त अनुशासन का निर्वाह करना किशोरों की मजबूती मान ली जाती है।

किशोरावस्था में माता-पिता के कम सहायोग, मिलना, अनुप्रयुक्त अनशासन घटना या साधन का गलत प्रयोग में लाना तथा पारिवारिक विवाद आदि समस्याओं से उलझना पड़ता है, अपचार के धनात्मक या ऋणात्मक परिणामों से कुछ भी मिल सकता है। यदि सम्पर्क का व्यक्ति या उसका परिवार संस्कारहीन कार्यों (चोरी, पॉकेटमारी, शराबी, दुष्ट) कर्मों से जुड़ा होता तो बच्चे के बिगड़ जाने का भय बढ़ जाता है। विकारों का अनुकरण करना अहितकारी होता है। अपचार सकारात्मक तथा ऋणात्मक लक्षण वाले होते हैं।

2. मादक द्रव्यों का दुरुपयोग:
किशोरा अवस्था मे व्यक्ति मादक पदार्थों के सेवन को शान का प्रतिक मानते हैं लेकिन मादक द्रव्य का सेवन व्यक्ति को संवेदनशील होने से रोकता है। शराब, सिगरेट, चरस, अफीम, ब्राउन सुगर आदि का प्रयोग व्यक्ति की नैतिकता को अक्रिय बना देता है।

3. आहार ग्रहण सम्बन्धी विकास:
सपकक्षियों की नकल करके तुलात्मक महान कहलाने के लिए फास्ट-फूड जैसे हानिकारक आरह को ग्रहण करने में संकोच नहीं करते हैं। आहार संबंधी विकार आर्थिक, मानसिक, शारीरिक सभी प्रकार की क्षति पहुँचाने के लिए सक्रिय साधन माना जाता है। एनोरेक्सिया समोसा एक ऐसा ही आहार ग्रहण संबंधी विकार है जिसमें स्वयं को भूखा रखते हुए दुबला बनने की असहनशील प्रवृति होती है। किशोरावस्था वाल व्यक्ति को ऐसे खतरनाक निर्णय से बचकर रहना चाहिए।

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प्रश्न 14.
विकासात्मक मनोविज्ञान के विषय-विस्तार या क्षेत्र का वर्णन करें?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की ऐसी. शाखा है जिसमें विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक सामान्य रूप से, पंरतु गर्भधारण से लेकर किशोरावस्था तक विशिष्ट रूप से किया जाता है। यह मनोविज्ञान शिशुओं, बच्चों एवं किशोरों के शारीरिक परिवर्तानों तथा मानसिक परिवर्तनों का वैज्ञानिक अध्ययन विकासात्मक दृष्टिकोण से करता है। अत: इसके विषय-विस्तार का क्षेत्र (scope or field) में वे सभी परिस्थियाँ आती हैं जो शिशुओं, बच्चों तथा किशोरों के शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं से संबंधित होती हैं। सुविधा के लिए विकासात्मक मनोविज्ञान के विषय-विस्तार या क्षेत्र को निम्नांकित चार प्रमुख भागों में बाँटकर प्रस्तुत किया जा सकता है –

(क) विभिन्न विकासात्मक प्रक्रियाएँ (different developmental process):
विकासात्मक मनोविज्ञान में व्यक्ति के जीवन के भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के विकासात्मक प्रक्रियाओं (developmental process) का अध्ययन किया जाता है। ये सारी विकासात्मक प्रक्रियाएँ गर्भधारण से ही प्रारंभ हो जाती हैं। विकासात्मक मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किये जानेवाले प्रमुख प्रक्रियाओं का वर्णन निम्नांकित हैं –

(i) प्रसव पूर्व विकास (Pre-natal development):
गर्भाधारण से जन्म तक शिशुओं में होनेवाले विकास को प्रसवपूर्व विकास कहा जाता है। इस अवस्था में शिशुओं का शारीरिक विकास मुख्य रूप से होता है।

(ii) नवजात शिशु का विकास (Neonatal development):
इसमें तुंरत के जन्मे शिशुओं के शारीरिक एवं मानसिक विकास का अध्ययन किया जाता है।

(iii) संज्ञानात्मक विकास (Cognitive development):
संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बच्चों में किसी संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसपर चिन्तन करने तथा क्रमिक रूप से उसे इस लायक बना देने से होता है जिसका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में करके वह कई समस्याओं का समाधान आसानी से कर लेते है।

(iv) भाषा विकास (Language development):
बच्चों में विकास कई चरणों में होता है। और विकासात्मक मनोविज्ञान उन सभी चरणों का विस्तृत रूप से अध्ययन करते हैं। भाषा विकास से तात्पर्य एक ऐसी क्षमता से होती है जिसके माध्यम से बच्चे अपनी भावो, इच्छाओं एवं विचारों को दूसरे तक पहुँचाते हैं तथा दूसरे के भावों एवं इच्छाओं को ग्रहण भी करते हैं।

(v) शारीरिक विकास (Physical development):
विकासात्मक मनोविज्ञानिक बच्चों के शारीरिक विकास का भी अध्ययन भी विस्तृत ढंग से करते हैं। शारीरिक विकास से तात्पर्य बच्चों के उम्र के अनुसार शारीरिक आकर, शारीरिक अनुपात, हड्डियों, मांसपेशियों एवं स्नायुमंडल (nervous ststem) के समुचित विकास से होता है।

(vi) संवेदी विकास (Sensory development):
बच्चों के संवेदी विकास का अध्ययन भी इसके विषय-विस्तार का एक विशेष पहलू है। संवेदी विकास में बच्चों के संवदी पहलूओं जैसे दृष्टि प्रत्यक्षण, श्रव्य प्रत्यक्षण, घ्राण प्रत्यक्षण, स्वाद प्रत्यक्षण तथा त्वक् प्रत्यक्षण आदि का अध्ययन किया जाता है।

(vii) क्रियात्मक या पेशीय विकास (Motor development):
क्रियात्मक विकास से तात्पर्य मांसपेशियों, तंत्रिकाओं एवं तंत्रिका केन्द्रों के समन्वित क्रियाओं द्वारा शारीरिक गति, जैसे-चलने, खेलने, दौड़ने लिखने, बोलने आदि पर नियंत्रित पाने से होता है।

(viii) संप्रत्ययात्मक विकास (Conceptual development):
वस्तुओं के समान्य गुणों के आधार परं बनने वाले मानसिक प्रारूप को संप्रत्ययों के विकास का विस्तृत अध्ययन करते हैं।

(ix) खेल विकास (Play development):
बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य के विकास के लिए खेल को प्रभावित करने वाले कारकों तथा उनके सिद्धांतो का अध्ययन विकासात्मक मनोवैज्ञानिक करते हैं।

(x) नैतिक एवं चारित्रिक विकास (Moral and character development):
बच्चों में नैतिक विकास एवं चारित्रिक विकास का अध्ययन भी विकासात्मक मनोविज्ञान के विषय-विस्तार का एक प्रमुख भाग है। इसमें बच्चों की नैतिकता तथा चरित्र संबंधी व्यवहारों का विकास किन-किन परिस्थितियों में अधिक होता है, उसके अध्ययन पर बल डाला जाता है।

(xi) संवेगात्मक विकास (Emotional development):
बच्चों के किन-किन अवस्थाओं में किस तरह का संवेग उत्पन्न होता है तथा उसका विकास होता है, इसका भी अध्ययन विकासात्मक मनोविज्ञान के गहण रूप से किया जाता है।

(xii) सामाजिक विकास (Social development):
बच्चों का सामाजिक कारण तथा उनके सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारकों का विस्तृत रूप से अध्ययन विकासात्मक मनोविज्ञान में किया जाता है।

(xiii) यौन-भूमिका विकास (Sex-role development):
लड़के या लड़कियों को अपने यौन के अनुसार कुछ कार्य सीखना आवश्यक हो जाता है और वे इन भूमिकाओं को किन परिस्थितियों में उत्तम ढंग से सीखते हैं, इसका अध्ययन विकासात्मक मनोविज्ञान में विस्तृत ढंग से किया जाता है।

(ख) विकास की अवस्थाएँ (Stages of development):
विकासात्मक मनोवैज्ञानिक विकासात्मक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने के ख्याल से विकास की कई अवस्थाओं का निर्धारण किये हैं, जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं –

  • पूर्व प्रसूति काल (Pre – naral period): यह अवस्था गर्भधारण से प्रारंम होकर जन्म तक होती है।
  • शैशवावस्था (Infancy hood): यह अवस्था जन्म से लेकर प्रथम 14 दिनों तक की होती है।
  • बचपनावस्था (Babyhood): यह अवस्था जन्म के दो सप्ताह बाद प्रारंभ होकर 2 साल तक होती है।
  • बाल्यावस्था (Childhood): यह अवस्था 2 साल से प्रारंभ होकर 12 साल होती है। 2 साल से 6 साल की अवस्था को आरंभिक बाल्यावस्था (early childhood) तथा 6 साल से 12 साल की अवस्था को उत्तर बाल्यावस्था (later childhood) कहा जाता है।
  • तरुणावस्था या प्राक् किशोरावस्था (Puberty or pre-adolescence): यह अवस्था 11से 13 साल की होती है।
  • किशोरावस्था (Adolescence): यह अवस्था 13 साल से 19-20 साल की हाती है। इस अवस्था में शारीरिक एवं मानसिक विकास बहुत तेजी से होता है।

(ग) बाल मार्गदर्शन (Child guidance):
बाल मार्गदर्शन को विकासात्मक मनोविज्ञान का एक प्रमुख कार्य क्षेत्र माना जाता है। इसमें विकासात्मक मनोवैज्ञानिक विभिन्न नियमों एवं सिद्धांतों के सहारे बाल समस्याओं की पहचान करते हैं तथा उसके समाधान के लिए उपयुक्त सलाह देते हैं तथा उनका सही मार्गदर्शन करते हैं।

(घ) असामान्य बच्चों की समस्याओं का अध्ययन (Study of problems of abnormal children):
विकासात्मक मनोविज्ञान का विषय-विस्तार या क्षेत्र का एक प्रमुख भाग असामान्य बच्चों के व्यवहारों का भी अध्ययन करना है। विकासात्मक मनोविज्ञान में बाल मनोविदलता (childhood schizophrenia),शैशव आत्म विमोह (infantile autism), किशोर अपराध (juvenile delinquency) आदि जैसे व्यवहारों का भी अध्ययन किया जाता है। स्पष्ट हुआ कि विकासात्मक मनोविज्ञान का विषय-विस्तार या क्षेत्र काफी विस्तृत है, जिसमें मुख्य रूप से बालकों एवं किशोरों की समस्याओं एवं उनके विकासात्मक प्रक्रियाओ के अध्ययन पर बल डाला जाता है।\

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प्रश्न 15.
विकासात्मक मनोविज्ञान की विषय-वस्तु का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करें।
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जिसमें गर्भाधारण से लेकर जन्म लेने के बाद परिपक्वता (मृत्यु तक) तक मनुष्यों के व्यवहारों का वैज्ञानिक अध्ययन विकासात्मक के दृष्टिकोण से किया जाता है। विकासात्मक मनोविज्ञान का मुख्य विषय-वस्तु विकासात्मक परिवर्तनों (developmental changes) का अध्ययन करना होता है। विकासात्मक मनोविज्ञानी बच्चों के शरीरिक एवं मानसिक क्रियाओं में होनेवाले परिवर्तनों, उन पर पड़ने वाले प्रभावों, रुकावटों आदि का अध्ययन करने हैं।

ऐसे परिवर्तनों को पूर्णरूपेण समझने के लिए वे विकास के कई अवस्थाओं, जैसे पूर्व-प्रसूतिकाल (per-natal period), शैशवास्था (infancy hood), बाल्यावस्था (babyhood), बचपनावस्था (childhood), किशोरावस्था (adolescence), युवावस्था (adulthood), वृद्धावस्था (old age) का भी वर्णन किये हैं। इनमें से किशोरावस्था तक विकासात्मक मनोविज्ञानिकों की सक्रियता तुलनात्मक रूप से अधिक होती है।

विकासात्मक मनोविज्ञान की विषय-वस्तु (subject-matter) की सबसे उत्तम व्याख्या निम्नांकित बिन्दुओं पर प्रकाश डालने से हो पाता है –

1. विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन (Study of developmental changes):
विकासात्मक मनोविज्ञान का सबसे प्रमुख अध्ययन विषय मनुष्यों में होनेवाले विभिन्न विकासात्मक परिवर्तनों का वैज्ञानिक अध्ययन करना है। विकास से तात्पर्य व्यक्ति में उन सभी परिवर्तनों से होता है जो धीरे-धीरे क्रमबद्ध एवं संगत पैटर्न (pattern) पर होता है।

विकासात्मक परिवर्तन से तात्पर्य उन सारे शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तनों से होता हैं जिसका स्वरूप गुणात्मक (qualitative) तथा परिमाणात्क (quantitative) कुछ भी हो सकता है। शारीरिक आकार में परिवर्तन परिमाणात्मक मनोविज्ञानिक भिन्न-भिन्न प्रकार के विकासात्मक परिवर्तनों, जैसे भाषा विकास, सांवेगिक विकास, सामाजिक विकास, क्रियात्मक विकास, संवेदी विकास आदि का वैज्ञानिक अध्ययन करते हैं।

2. गर्भधारण से मृत्यु तक सामान्य रूप से परंतु गर्भधारण से किशोरावस्था तक विशिष्ट रूप से शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का अध्ययन (Study of physical and mental activities from conception to death in general and from conception to adolescence in particular):
विकासात्मक मनोविज्ञान में ऐसे तो गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक मनुष्यों के शरीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का अध्ययन विकासात्मक दृष्टिकोण से किया जाता है परंतु गर्भधारण से लेकर किशोरावस्था (19-20 साल) तक होने वाले शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं के अध्ययन पर अधिक बल डाला जाता है। इस अवस्था में बच्चों में होने वाले शारीरिक परिवर्तन, संज्ञानात्मक परिवर्तन, सामाजिक परिवर्तन, संवेगात्मक परिवर्तन आदि का विशेष रूप से अध्ययन विकासात्मक मनोवैज्ञानिक द्वारा किया जाता है।

3. fachlicht om foreretyai fregiati a ufiurga (Formulation of principles and theories of development):
विकासात्मक मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के जीवन के विभिन्न अवस्थाओं में होने वाले विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन ही नहीं करते हैं बल्कि उसके आधार पर वे विकास के नियमों एवं सिद्धांतों का भी प्रतिपादन करते हैं। इन नियमों एवं सिद्धांतो के सहारे वे बच्चों के विभिन्न शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं को समझते हैं, उसकी व्याख्या करते हैं तथा उसके बारे में पूर्वानुमान (prediction) लगते हैं।

प्रत्येक अवस्था के व्यक्तियों से विशेष प्रकार की सामाजिक उम्मीदें (social expectations) बना सकने में वे सफल हो पाते हैं, जिससे यह पता चल जाता है कि अमुक उम्र में व्यक्ति से किस तरह की अनुक्रियाएँ (responses) की उम्मीद की जा सकती हैं। हेभिगहर्स्ट (Havighurst) ने इसे विकासात्मक पाठ (developmen tal task) कहा है, जिसका निर्धारण विकासात्मक मनोविज्ञान की विषय-वस्तु का एक मुख्य पहलू स्पष्ट हुआ है कि विकासात्मक मनोविज्ञान की विषय-वस्तु बच्चों के विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन करना है तथा साथ-ही-साथ उससे संबंधित नियमों एवं सिद्धांतों का प्रतिपादन करके उसे एक ठोस रूप देना होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास

प्रश्न 16.
विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता का वर्णन करें?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान मनोविज्ञान की एक ऐसी शाखा है जो बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का अध्ययन गर्भधारण से परिपक्वता तक विकासात्मक दृष्टिकोण से करता है। अतः इसकी उपयोगिताएँ काफी हैं। इसकी प्रमुख उपयोगिताएँ निम्नांकित हैं –

  1. माता-पिता के लिए उपयोगिता (Uses for parents)
  2. शिक्षकों के लिए उपयोगिता (Uses for teachers)
  3. शोधकर्ताओं के लिए उपयोगिता (Uses for research workders)
  4. बच्चों के लिए उपयोगिता (Uses for chilerens)
  5. बाल सुधारकों के लिए उपयोगिता (Uses for child reformers)
  6. समाज के लिए उपयोगिता (Uses for society)
  7. बाल न्यायालयों के लिए उपयोगिता (Uses for juvenile courts)

इन सबों का वर्णन निम्नांकित हैं –

1. माता-पिता के लिए उपयोगिता (Uses for parents):
विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता माता-पिता के लिए काफी है। विकासात्मक मनोविज्ञान के सिद्धांतों, नियमों तथा तथ्यों की जानकारी होने से माता-पिता अपने बच्चों के मानसिक एवं शारीरिक विकास के क्रम। (sequence) के बारे-बारे में सही-सही अनुमान लगा पाते हैं तथा उन्हें सही मार्गदर्शन करके उनके व्यक्तित्व विकास करने में योगदान करते हैं।

2. शिक्षकों के लिए उपयोगिता (Uses for teachers):
शिक्षकों के लिए विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता दोहरी बतलायी गयी है। इस मनोविज्ञान से शिक्षकों को यह पता चल जाता है कि बच्चों का संज्ञानात्मक विकास, भाषा विकास तथा सांवेगिक विकास किस स्तर तक हुआ है। इससे वे इसकी अभिक्षमता तथा अभिरुचि के अनुरूप शिक्षा दे पाते हैं। दूसरा, विकासात्मक मनोविज्ञान से यह भी पता चल जाता है कि बच्चा प्रतिभाशाली है या कम बृद्धि का है। इन दोनों तरह के बच्चों को वे सामान्य बच्चों से अलग कक्षा में प्रशिक्षण देकर उन्हें शिक्षित करते हैं।

3. शोधकर्ताओं के लिए उपयोगिता (Uses for research workders):
विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता इस क्षेत्र के शोधकर्ताओं के लिए काफी है। शोधकर्ता बच्चों के भाषा विकास, सांवेगिक विकास, संज्ञानात्मक विकास, संप्रत्ययात्मक विकास (conceptual development), खेल का विकास, नैतिक एवं चारित्रिक विकास के मूल तत्वों एवं नियमों का गहन अध्ययन कर संबंधित क्षेत्र में नये-नये सिद्धांतो का प्रतिपादन करते हैं जिससे विकासात्मक मनोविज्ञान का कार्य क्षेत्र में तेजी से वस्तिार होता पाया गया है।

4. बच्चों के लिए उपयोगिता (Uses for childrens):
विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता स्वयं बच्चों के लिए भी काफी अधिक है। यदि बच्चों का पालन-पोषण एवं उनके व्यवहारों का नियंत्रण विकासात्मक नियमों के आधार पर किया जाता है, तो इससे पूर्वानुमान लगाने में काफी असानी होती है कि वयस्क होने पर बच्चे का व्यक्तित्व कैसा होगा। यह आसानी से समझा जा सकता है कि वयस्कता आने पर उनके व्यक्तित्व में सामाजिक शीलगुण (social traits)
अधिक होगें।

5. बाल सुधारकों के लिए उपयोगिता (Uses for child reformers):
विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता बाल-सुधाराकों के लिए काफी अधिक है। प्रायः देखा गया है कि बच्चे कुछ विशेष कारण से अपराधी या समस्यात्मक (problematic) हो जाते है। इन बच्चों को सुधारने के ख्याल से बाल-सुधारकों को विकासात्मक मनोविज्ञान का ज्ञान होना आवश्यक है। विकासात्मक मनोविज्ञान के सिद्धांत, नियम तथा तथ्यों की जानकारी से बाल-सुधारक ऐसे बच्चों की समस्याओं के कारण का पता लगा पाते हैं तथा फिर उनके समुचित सुधार के लिए कदम उठा पाते हैं।

6. समाज के लिए उपयोगिता (Uses for society):
विकासात्मक मनोविज्ञान के ज्ञान से यह पता लगाना आसान हो जाता है कि किसी बच्चे का उत्तम सामाजिक विकास कैसे हो सकता है और यदि ऐसा विकास ठीक ढंग से नहीं हुआ है तो फिर उसे समाजीकृत (socialize) कैसे किया जा सकता है। यदि समाज या कोई अन्य सामाजिक संस्थान उन कारकों पर अधिक ध्यान देता है जिससे बच्चे समाजीकृत (socialize) हो पाते हैं, तो इससे इस बात की संभावना काफी बढ़ जाती है कि बच्चे का सामाजिक विकास ठीक ढंग से हो पाएगा और फिर ऐसे बच्चे समाज का उत्थान कर सकने में धनात्मक भूमिका निभाएंगे।

7. बाल न्यायालयों के लिए उपयोगिता (Uses for juvenile courts):
सामान्यत: बाल अपराधियों के मुकदमें की सुनवाई सामान्य न्यायालयों में नहीं करके बाल-न्यायालयों में किया जाता है। ऐसे न्यायालयों के न्यायाधीश विकासात्मक मनोविज्ञान के नियमों, तथ्यों तथा सिद्धांतों की सहायता लेकर अपराध संबंधी कारणों का पता लगाते हैं तथा अपना निर्णय उसी के आलोक में देते हैं। क्योंकि उनका प्रयास यही होता है कि बच्चों के अपराधिक प्रवृति को नियंत्रित करने का पूरा-पूरा मौका कारावास में दी जाए। निष्कर्ष यह कहा जा सकता है कि विकासात्मक मनोविज्ञान की उपयोगिता कई तरह के लोगों के लिए है।

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प्रश्न 17.
विकासात्मक मनोविज्ञान के उद्देश्य या लक्ष्य का वर्णन करें?
उत्तर:
विकासात्मक मनोविज्ञान में गर्भधारण से लेकर मृत्यु तक की प्रक्रियाओं का सामान्य रूप से तथा गर्भधारण से किशोरावस्था तक की प्रक्रियाओं का विशिष्ट रूप से विकासात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन किया जाता है। विकासात्मक मनोविज्ञान के लक्ष्य या उद्देश्य को दो भागों में बाँटकर उपस्थित किया जा सकता है –

(क) सामान्य उद्देश्य (general aims)
(ख) विशिष्ट उद्देश्य (specific aims)

इन दोनों का वर्णन निम्नांकित है –

(क) सामान्य उद्देश्य (general aims):
विकासात्मक मनोविज्ञान का सामन्य उद्देश्य बाल व्यवहारों की भविष्यवाणी (predicition), मार्गदर्शन (guidance) तथा नियंत्रण (control) करना होता है।

इन तीनों का वर्णन इस प्रकार है –

1. भविष्यवाणी (Prediction):
विकासात्मक मनोविज्ञान बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं का विकासात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन करके यह भविष्यवाणी करता है कि बच्चों का भविष्य में भाषा विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास, संज्ञानात्मक विकास आदि कैसा होगा।

2. मार्गदर्शन (Guidance):
मार्गदर्शन का अर्थ होता है बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक योग्यता के अनुरूप उन्हें जीवन क्षेत्र के सही रास्ता अपनाने की सलाह देना। विकासात्मक मनोविज्ञान का मुख्य उद्देश्य बच्चों की बौद्धिक क्षमता, कल्पनाशक्ति, संवेगात्मक एवं संज्ञानात्मक व्यवहारों को ध्यान में रखकर उन्हें जिन्दगी में ठीक ढंग से समायोजन करने के लिए निर्देशन देना होता है।

3. नियंत्रण (Control):
बच्चों में स्वस्थ शारीरिक एवं मानसिक क्रियाओं के विकास के लिए कुछ अवांछित कारकों को नियंत्रित करके रखना आवश्यक हो जाता है। चूंकि विकास की प्रक्रिया गर्भ से ही प्रारंभ हो जाती है, अतः गर्भ के दौरान शिशुओं के विकास को खराब ढंग से प्रभावित करने वाले कारक जैसे माँ का मानसिक तनाव, कुपोषण आदि को नियंत्रित करना या इसे दूर करने के उपाय बतलाना विकासात्मक मनोविज्ञान का एक मुख्य उद्देश्य है। इनता ही नहीं जन्म के बाद बच्चों के शारीरिक एवं मानसिक विकास को अवरुद्ध करने वाले कारकों को भी नियंत्रित करना विकासात्मक मनोविज्ञान का एक प्रमुख उद्देश्य है।

(ख) विशिष्ट उद्देश्य (specific aims):
हरलॉक (Hurlock) के अनुरूप विकासात्मक मनोविज्ञान के निम्नांकित पाँच विशिष्ट उद्देश्य हैं –

(i) विभिन्न विकासात्मक कालों में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन करना (To study changes place in different developmental period):
विकासात्मक मनोविज्ञानियों द्वारा विभिन्न विकासात्मक कालों जैसे पूर्वप्रसूति काल, शैशवावस्था, बचपनावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था आदि में होनेवाले विशिष्ट परिवर्तनों का अध्ययन गहन रूप से किया जाता है ताकि उसके विकासात्मक स्वरूप को ठीक ढंग से समझा जाए।

(ii) विकासात्मक अवधि में होने वाले परिवर्तनों के समय का पता लगना (To find out time when changes during development period take place):
विभिन्न विकासात्मक काल में बच्चे अलग-अलग व्यवहार करते है। हरलॉक के अनुसार विकासात्मक मनोविज्ञान का एक उद्देश्य यह पता लगाना होता है कि किसी अमुक अवस्था के शुरू होने पर बच्चे कब कैसा व्यवहार करते हैं।

(iii) उन परिस्थितियों या करकों का पता लगाना जिससे विकासात्मक परिवर्तन प्रभावित होते हैं (To locate those factors or situations which in fluence development):
बच्चों में पर्याप्त विकासात्मक परिवर्तन (developmental changes) कुछ खास परिस्थिति में ठीक ढंग से होता है। जैस, बच्चों मे भाषा विकास तभी ठीक ढंग से होता है जब उसके वागिन्द्रिय (vocal organ) परिपक्व हो गए हों तथा उसमें मानसिक परिपक्वता आ गयी हो। विकासात्मक मनोविज्ञानी उपयुक्त विकासात्मक परिवर्तन के लिए उपयुक्त परिस्थिति की पहचान करते हैं।

(iv) बच्चों के व्यवहार पर विकासात्मक परिवर्तन के पड़ने वाने प्रभावों का पता लगाना (To find out the impact of developmental changes upon the behaviour of the children):
विकासात्मक मनोवैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि विकासात्मक परिवर्तन का प्रभाव बच्चों पर कैसा पड़ता है। इस तरह के प्रभाव के बारे में ज्ञान प्राप्त कर विकासात्मक मनोवैज्ञानिक प्रत्येक अवस्था में बच्चों द्वारा किये जाने वाले व्यवहारों का अनुमान लगा पाते हैं।

(iv) बच्चों के व्यवहार पर विकासात्मक परिवर्तन के पड़ने वाले प्रभावों का पता लगाना (To find out the impact of development changes upon the behaviour of the children):
विकासात्मक मनोवैज्ञानिक यह पता लगाने की कोशिश करते हैं कि विकासात्मक परिवर्तन का प्रभाव बच्चों पर कैसा पड़ता है। इस तरह के प्रभाव के बारे में ज्ञान प्राप्त कर विकासात्मक मनोवैज्ञानिक प्रत्येक अवस्था में बच्चों द्वारा किये जाने वाले व्यवहार का अनुमान लगा पाते हैं।

(v) विकासात्मक परिवर्तन के बारे में पुर्वानुमान लगाना (To predict about develop mental changes):
विकासात्मक मनोविज्ञान जीवन के विभिन्न अवस्थाओं में होनेवाले विकासात्मक परिवर्तन के बारे में पूर्वानुमान लगा पाते हैं। कुछ परिवर्तन स्पष्ट एवं सभी बच्चों में एक समान होते हैं। अतः ऐसे परिवर्तनों का तो पूर्वानुमान आसानी से लगा लिया जाता है। परंतु, कुछ परिवर्तन अस्पष्ट होते हैं तथा भिन्न-भिन्न बच्चों में अलग-अलग ढंग से होते हैं।

विकासात्मक मनोविज्ञान में ऐसे परिवर्तनों के बारे में भी पूर्वानुमान लगाते हैं। स्पष्ट हुआ कि विकासात्मक मनोविज्ञान के कई उद्देश्य हैं। उनके सामान्य उद्देश्य तथा विशिष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखत हुए यह कहा जा सकता है कि विकासात्मक मनोविज्ञान बालकों के व्यवहारात्मक परिवर्तन का विकासात्मक दृष्टिकोण से अध्ययन करने का एक बहुत ही उपयोगी विज्ञान है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
मानव का सर्वाधिक विकास किस अवस्था में होता हैं?
(a) गर्भावस्था में
(b) शैशवावस्था
(c) जन्म के बाद
(d) बाल्यावस्था में
उत्तर:
(a) गर्भावस्था में

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 4 मानव विकास

प्रश्न 2.
बच्चों का पूर्व पाठशालीय अवस्था को कब से कबतक मानी जाती है?
(a) दो वर्ष से पांच वर्ष
(b) तीन से छ: वर्ष
(c) चार से सात वर्ष
(d) बाल्यावस्था में
उत्तर:
(b) तीन से छ: वर्ष

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचयः

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Amrita Bhag 1 Chapter 4 क्रियापदपरिचयः Text Book Questions and Answers, Summary.

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Bihar Board Class 6 Sanskrit क्रियापदपरिचयः Text Book Questions and Answers

अभ्यास

मौखिकः

प्रश्न 1.
उच्चारण करें –

प्रश्न (क)
धातुरूप – लट् लकार प्रथम पुरुष तीनों वचनों में –

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प्रश्न (ख)
शब्द रूप प्रथमा विभक्ति तीनों वचनों में –

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लिखित

प्रश्न 2.
रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

प्रश्न (i)
पठसि – पठथः

  1. _______ – लिखथः – _______
  2. गच्छसि – _______ – _______
  3. _______ – हसथ: – _______
  4. क्रीडसि – _______ – _______

उत्तर- मध्यम पुः तीनों वचन में –

  1. लिखसि – लिखथः – लिखथ
  2. गच्छसि – गच्छथ: – गच्छथ
  3. हससि – हसथः – हसथ
  4. क्रीडसि – क्रीडथ: – क्रीडथ:

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचयः

प्रश्न (ii)
तीनों वचनों में भरें –

जैसे- खादामि – खादाव: – खादामः

  1. चलामि – _______ – _______
  2. वदामि – _______ – _______
  3. ______ – ______ – पिबामः
  4. ______ – हसाव: – ______

उत्तर-

  1. चलामि – चलाव: – चलाम:
  2. वदामि – वदावः – वदामः
  3. पिबामि – पिबावः – पिबामः
  4. हसामि – हसाव: – हसामः

प्रश्न 3.
मिलान करें

  1. अहम् – (क) खादथ
  2. बालक: – (ख) खेलामः
  3. यूयम् – (ग) पिबन्ति
  4. बालिका – (घ) कूर्दन्ति
  5. वयम् – (ड.) खादसि
  6. त्वम् – (च) लिखामि
  7. गजाः – (छ) गच्छति

उत्तर-

  1. अहम् – (च) लिखामि
  2. बालक: – (छ) गच्छति
  3. यूयम् – (क) खादथ
  4. बालिकाः – (घ) कूर्दन्ति
  5. वयम् – (ख) खेलामः
  6. त्वम् – (ड.) खादसि
  7. गजाः – (ग) पिबन्ति

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचयः

प्रश्न 4.
क्रियापदों से वाक्य बनाएँ –

पठामि – लिखसि – गच्छन्ति
हसामः – आगच्छथ – खादाव:
उत्तर-
अहं पठामि । त्वं लिखसि । ते गच्छन्ति । वयम् हसामः । यूयम् आगच्छथ। आवाम् खादावः

प्रश्न 5.
उचित शब्दों से खाली जगहों को भरें त्वम्, अहम्, बालिका, वयम्, यूयम्

प्रश्न (क)
………………. क्रीडति।
उत्तर-
बालिका क्रीडति।

प्रश्न (ख)
…………………पठामः।
उत्तर-
वयम् पठामः।

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प्रश्न (ग)
………………..पिबसि।
उत्तर-
त्वम् पिबसि।

प्रश्न (घ)
…………………वदामि।
उत्तर-
अहम् वदामि।

प्रश्न (ङ)
…………………गच्छ था ।
उत्तर-
यूयम् गच्छथा

प्रश्न 6.
रिक्त स्थानों में ‘अस्ति, स्तः, सन्ति’ में से उचित क्रियापद भरें
यथा-
एकम् पुस्तकम् अस्ति ।

प्रश्न-

(क) द्वे पुस्तके स्तः ।
(ख) त्रीणि पुस्तकानि सन्ति ।

प्रश्न (ग)
एका बालिका……..।
उत्तर-
एका बालिका अस्ति।

प्रश्न (घ)
द्वे बालिके …….. ।
उत्तर-
द्वे बालिके स्तः ।

प्रश्न (ड.)
तिस्रः बालिकाः ……।
उत्तर-
तिम्र: बालिका: सन्ति।

प्रश्न (च)
पञ्च फलानि …….. ।
उत्तर-
पञ्च फलानि सन्ति।

प्रश्न (छ)
द्वौ हस्तौ …………. ।
उत्तर-
द्वौ हस्तौ स्तः ।

प्रश्न 7.
वर्गों को संयोजित करके शब्द लिखें –

प्रश्न (i)
म् + अ + न् + ओ + ह् + अ + र् + अः
उत्तर-
मनोहर:

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचयः

प्रश्न (क)
स् + अ + ञ् + ज् + अ + य् + अ
उत्तर-
संजय

प्रश्न (ख)
म् + अ + न् + त् + र + ई
उत्तर-
मन्त्री या मंत्री

प्रश्न (ग)
क् +आ +र् +य् + अ + क् + र् +अ +म् +अ:
उत्तर-
कार्यक्रम

प्रश्न (घ)
द् + ए + व् + ए+ न् + द् + र् + अ: ।
उत्तर-
देवेन्द्रः

प्रश्न (ii)
अपने पाँच मित्रों के नाम के वर्णों को अलग-अलग करें
उत्तर-

  • रमेशः = र् + अ + म् + ए + श् + अः।
  • मदनः = म् + अ + द् + अ + न्. अः।
  • सोहनः = स् + ओ + ह् + अ + न् + अः।
  • महेशः = म् + अ + ह + ए + श् + अः।
  • सुरेशः = स् + उ + र् + ए + श् + अः।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित वाक्यों को बहुवचन में बदलें

उदाहरण सः पठति । ते पठन्ति ।
(क) बालकः धावति । ________
(ख) पुष्पं पतति । ________
(ग) बालिका वदति । ________
(घ) मृगः चरति । ________
(ड.) खगः उत्पतति । ________
उत्तर-
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Bihar Board Class 6 Sanskrit क्रियापदपरिचयः Summary

बालकः धावति।
अर्थ –
एक लड़का दौड़ता है।

बालको धावतः ।
अर्थ –
दो लड़के दौड़ते हैं।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचयः

बालकाः धावन्ति ।
अर्थ –
लड़के दौड़ते हैं।

त्वम् हससि ।
अर्थ-
तुम हँसते हो।

युवाम् हसथः ।
अर्थ –
तुम दोनो हँसती हो।

यूयम् हसथ ।
अर्थ –
तुम सब हँसती हो।

अहं पठामि ।
अर्थ –
मैं पढ़ता हूँ।

आवाम पठावः ।
अर्थ –
हम दोनों पढ़ते हैं।

वयम् पठामः।
अर्थ –
हमसब पढ़ते हैं।

बालिका लिखति ।
अर्थ –
लड़की लिखती है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचयः

बालिके धावतः।
अर्थ –
दो लड़कियाँ दौड़ती हैं।

बालिकाः पठन्ति ।
अर्थ –
लड़कियाँ पढ़ती हैं।

पुष्पम् अस्ति ।
अर्थ-
एक फूल है।

पुष्प स्तः।
अर्थ –
दो फूल हैं।

पुष्पाणि सन्तिा मोहनः
अर्थ-
तीन फूल हैं।

विद्यालयम् गच्छति ।
अर्थ –
मोहन स्कूल जाता है।

बालिके अत्र आगच्छतः ।
अर्थ –
दो लड़किय यहाँ अती हैं

वयम् जलम् पिबामः ।
अर्थ –
हमसब जल पीते हैं।

घोटक: धावति ।
अर्थ-
घोड़ा दौड़ता है।

घोटको धावतः ।
अर्थ-
दो घोड़े दौड़ते हैं।

घोटकाः धावन्ति ।
अर्थ –
घोड़े दौड़ते हैं।

गजः गच्छति ।
अर्थ –
हाथी जाता है।

गजौ गच्छतः।
अर्थ –
दो हाथी जाते हैं।

गजाः गच्छन्ति।
अर्थ-
तीन हाथी जाते हैं।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचयः

एतत् किम् अस्ति।
अर्थ –
यह क्या है।

एतत् फलम् अस्ति।
अर्थ –
यह फल है।

एते के स्तः।
अर्थ-
ये दोनों कौन हैं।

एते फले स्तः।
अर्थ-
ये दोनों फल हैं।

एतानि कानि सन्ति।
अर्थ –
ये सब कौन हैं।

एतानि फलानि सन्ति।
अर्थ-
ये सब फल हैं।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचयः

शब्दार्था:- बालकः – लड़का/ एक लड़का । बालको- दो लड़के। बालकाः – लड़के (बहुवचन) त्वम् – तुम। युवाम् – तुम दोनों । यूयम् – तुम सब तुम लोग । अहम् – मैं । आवाम् – हम दोनों । वयम् – हम सब / हमलोग। बालिका – लड़की/ एक लड़की। बालिके – दो लड़कियाँ। बालिकाः – (दो से अधिक) लड़कियाँ। पुष्पम् – एक फूल। पुष्ये – (दो) फूल। पुष्पाणि – (अनेक) फूल। धावति – (एक) दौड़ता है। धावतः – (दो) दौड़ते हैं। धावन्ति – (अनेक) दौड़ते हैं। हससि – (तुम) हँसते हो । हसथः – (तुम दोनों) हँसते हो। हसथ – (तुम सब / तुमलोग) हँसते हो। पठामि – पढ़ता / पढ़ती हूँ। पठावः – (हम दोनों) पढ़ते हैं। पठामः – (हम सब) पढ़ते हैं। लिखति – लिखता है। अस्ति – है। स्तः – (दो) हैं। सन्ति – हैं । घोटक:- घोड़ा । गजः- हाथी। एतत् – यह। एते – ये दो। दो एतानि – ये सब। आगच्छति – आता है।

व्याकरण

पुरुष-संस्कृत क्रियारूपों के प्रसंग में ‘पुरुष’ की चर्चा होती है। सभी क्रियारूप (धातुरूप) पुरुष और वचन के अनुसार पृथक्-पृथक् होते हैं। तीन पुरुष और तीन वचन से विभक्त होने के कारण प्रत्येक काल (लकार) में नौ-नौ रूप होते हैं।

पुरुष का अर्थ है वक्ता, श्रोता या चर्चित व्यक्ति । वक्ता को उत्तम पुरुष (अहम्, आवाम्, वयम्), श्रोता को मध्यम पुरुष (त्वम्, युवाम्, यूयम्) तथा चर्चित व्यक्ति को प्रथम पुरुष (सः, तौ, ते, अयम्, इमौ, इमे) कहते हैं । पुरुप और वचन का प्रभाव धातुरूपों पर पड़ता है। इसलिए पुरुष-विशेष और वचन-विशेष के कारण क्रियापदों में भेद होता है। नीचे के उदाहरण में देखें

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 4 क्रियापदपरिचय 4

विशेष – संस्कृत क्रियापदों का प्रयोग सभी लिंगों के लिए एकसमान होता है। इसलिए लड़की के पढ़ने के विषय में भी – सा पठति, त्वम् पठसि (तुम पढ़ती हो), अहम् पठामि (मैं पढ़ती हूँ) इत्यादि प्रयोग होते हैं।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 6 सुभाषितानि

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Amrita Bhag 1 Chapter 6 सुभाषितानि Text Book Questions and Answers, Summary.

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Bihar Board Class 6 Sanskrit सुभाषितानि Text Book Questions and Answers

अभ्यास

मौखिक –

प्रश्न 1.
निम्नलिखित भावार्थ को बताने वाले सुभाषित बताएँ।

  1. भूखा व्यक्ति क्या नहीं कर सकता ?
  2. राजा को अपने देश में सम्मान मिलता है, जबकि विद्वान् सभी जगह पूजे जाते हैं।
  3. उदार विचार वालों के लिए संसार ही कुटुम्ब है ।
  4. अपने से विपरीत आचरण दूसरों के लिए न करें ।
  5. आचरण के विना ज्ञान व्यर्थ है।
  6. महान् व्यक्ति सदा एक-सा रहता है।
  7. सज्जनों की सम्पत्ति दूसरों के उपकार के लिए होती है।

उत्तर-

  1. बुभुक्षितः किं न करोति पापम्।
  2. स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान सर्वत्र पूज्यते।
  3. उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।
  4. आत्मनः प्रतिकूलानि न परेषां समाचरेत्।
  5. ज्ञानं भारः क्रियां विना।
  6. सम्पत्तौ च विपत्तौ च महतामेकरूपता।
  7. परोपकाराय सतां विभूतयः

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 6 सुभाषितानि

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के अर्थ बताएँ –

(परोपकाराय, कुटुम्बकम्, सुखार्थिनः, निरामयाः; स्वदेशे )
उत्तर-

  • परोपकाराय -दूसरों की भलाई
  • कुटम्बकम् – परिवार
  • सुखार्थिन: – सुख चाहनेवाले को
  • निरामयाः – नीरोग
  • स्वदेशे – अपना देश।

प्रश्न 3.
ऊपर लिखे गए सुभाषितों का पाठ करें।
उत्तर-
छात्र स्वयं करें। लिखितः

प्रश्न 4.
दिये गए प्रश्नों के उत्तर लिखें

प्रश्न (क)
किसके लिए सम्पूर्ण पृथ्वी परिवार के समान है ?
उत्तर-
उदार हृदय वालों के लिए सम्पूर्ण पृथ्वी परिवार के समान है।

प्रश्न (ख)
विद्या किसे प्राप्त नहीं होती?
उत्तर-
सुख चाहने वालों को विद्या प्राप्त नहीं होती है।

प्रश्न (ग)
किस प्रकार की वाणी बोलनी चाहिए ?
उत्तर-
सत्य एवं प्रिय वाणी बोलनी चाहिए।

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प्रश्न (घ)
कौन सभी जगह पूजे जाते हैं ?
उत्तर-
विद्वान सभी जगह पूजे जाते हैं।

प्रश्न (ड.)
विद्या से क्या प्राप्त होती है ?
उत्तर-
विद्या से विनय प्राप्त होती है।

प्रश्न 5.
विलोम (विपरीतार्थक) शब्द लिखें –

  1. सत्यम्
  2. प्रियम्
  3. सुखम्
  4. विद्वान्
  5. ज्ञानम
  6. पापम्
  7. आत्मनः

उत्तर-

  1. असत्यम्
  2. अप्रियम्
  3. दु:खम्
  4. मूर्खः
  5. अज्ञानम्
  6. पुण्यम्
  7. परात्मनः।

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प्रश्न 6.
रिक्त स्थानों को भरें

  1. …………………….. सतां विभूतयः ।
  2. विद्वान् ……………. पूज्यते । । ।
  3. सर्वे सन्तु …………………….. ।
  4. ……………….. परं सुखम् । ।
  5. विद्या ……………….. विनयम् ।

उत्तर-

  1. परोपकाराय सतां विभूतयः ।
  2. विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।
  3. सर्वे सन्तु निरामयः ।
  4. न संतोषात् परं सुखम् ।
  5. विद्या ददाति विनयम् ।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित शब्दों को सुमेलित करें –

  1. परोपकाराय – (क) वसुधैव कुटुम्बकम्
  2. उदारचरितानां तु – (ख) सतां विभूतयः
  3. स्वदेशे पूज्यते – (ग) विनयम्
  4. बुभुक्षितः किं न – (घ) राजा
  5. विद्या ददाति – (ड.) करोति पापम्

उत्तर-

  1. परोपकाराय – (ख) सतां विभूतयः
  2. उदारचरितानां तु – (क) वसुधैव कुटुम्बकम्
  3. स्वदेशे पूज्यते – (घ) राजा
  4. बुभुक्षितः किं न – (ड.) करोति पापम्
  5. विद्या ददाति – (ग) विनयम्

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 6 सुभाषितानि

प्रश्न 8.
निम्नांकित शब्दों से वाक्य बनाएँ –
(राजा, विद्वान्, स्वदेशे, सुखिनः, विद्या।)
उत्तर-

  • राजा – राजा स्वदेशे पूज्यते ।
  • विद्वान् – विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।
  • स्वदेशे – स्वदेशे पूज्यते राजा ।
    सुखिनः – सुखिनः सर्वे भवन्तु ।
  • विद्या – विद्या सर्वत्र पूज्यते ।

ज्ञानविस्तार

निवार . संस्कृत भाषा में सुभाषित उपयोगी वाक्यों की अधिकता है। ये जीवन में पालन करने योग्य तो हैं ही इनका प्रयोग किसी भी भाषण, बातचीत या लेख को सुन्दर बना देता है। इन्हें सुभाषित कहते हैं। सुभाषित का अर्थ है-सुन्दर कथन, अच्छी बातें। कहीं कहीं सुभाषित पूरे श्लोक के रूप में हैं और कहीं श्लोक के खण्ड के रूप में हैं। प्रस्तुत पाठ में श्लोकांश के रूप में सुभाषित हैं। इनका भावार्थ इस प्रकार है

1. सज्जन परोपकार को अपना धर्म समझते हैं। अपनी सारी सम्पत्ति तथा समय को वे परोपकार में लगा देते हैं। विपत्ति में पड़े हुए व्यक्ति की सहायता करना ही परोपकार है।

2 जो व्यक्ति हृदय से उदार अर्थात् सबको अपना समझने वाले हैं, उन्हें सर्वत्र अपना परिवार ही दिखाई पड़ता है। सारी पृथ्वी उन्हें बन्धु-बान्धव जैसी लगती है। ऐसा सबको होना चाहिए। किसी से वैर-भाव नहीं रखना चाहिए।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 6 सुभाषितानि

3. विद्या अर्जन करने में सुख-दुःख का विचार नहीं करना चाहिए । विद्यार्थी का जीवन एक तपस्या है। केवल सुख की खोज करने वाला विद्यार्थी नहीं हो सकता।

4. सत्य को प्रिय वाणी से जोड़ना चाहिये। ऐसा सत्य न बोलें कि किसी को अप्रिय लगे । इसलिए सत्य तथा प्रिय दोनों में समझौता होना चाहिए।

5. बड़े होने का लक्षण है कि सुख-दु:ख में एक समान रहें। सुख के समय अहंकार से भर जाएँ और विपत्ति के समय कायर या दीन-हीन हो जाएँ, – यह बड़े होने की पहचान नहीं है।

6. राजा और विद्वान् में अन्तर है। राजा वहीं सम्मानित होता है जहाँ उसका राज्य है। किन्तु विद्वान को उन सभी स्थानों में सम्मान मिलता है जहाँ ज्ञान को आदर दिया जाता है।

7. भारत के सन्तों की यह मुख्य कामना रहती है कि सभी लोग सुखी और नीरोग रहें। एक-एक व्यक्ति यही चाहता है।

8. लोष दु:ख का कारण है और सन्तोष सुख देता है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 6 सुभाषितानि

9. जो बात हमें प्रतिकूल (कष्टकारक) लगती है वह दूसरों को भी वैसी. ही लगती है। इसलिए हम ऐसी बात किसी के प्रति न करें जो उसे कष्ट

10. भूखा व्यक्ति विवश होता है। वह नियम-विरुद्ध कार्य भी कभी-कभी करने लगता है। इसमें उसकी परिस्थिति का दोष है, अपना नहीं।

11. विद्या का फल है विनम्रता । सच्चा विद्वान् वही है जो विनम्र हो । उद्दण्डता विद्वान् का लक्षण नहीं है। विद्या में कहीं कमी होने से ही कोई उग्र होता

12. ज्ञान की सार्थकता तभी है जब इसके अनुकूल आचरण किया जाये । आचरण के बिना कोरा ज्ञान व्यर्थ है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit सुभाषितानि Summary

  1. परोपकाराय सतां विभूतयः
  2. उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ।
  3. सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतः सुखम् ।
  4. सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
  5. सम्पत्ती च विपत्तौ च महतामेकरूपता ।
  6. स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।
  7. सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
  8. न लोभेन समं दुःखं न सन्तोषात् परं सुखम् ।
  9. आत्मनः प्रतिकूलानि न परेषां समाचरेत्।
  10. बुभुक्षितः किं न करोति पापम् ।।
  11. विद्या ददाति विनयम् ।
  12. ज्ञानं भारः क्रियां विना ।

अर्थ-

  1. सज्जनों की सम्पत्तियाँ परोपकार के लिए होती है।
  2. ऊँचे विचार वालों के लिए सारी धरती परिवार है।
  3. सुख चाहने वालों को विद्या कहाँ? और विद्या चाहने वालों को सख कहाँ।
  4. सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए।
  5. सुख-दु:ख दोनों में महान व्यक्ति एक समान रहते हैं।
  6. राजा अपने देश में पूजित होते हैं लेकिन विद्वान की पूजा सब जगह होती है। होती है।
  7. सभी सुखी हों, सभी नीरोग हों।
  8. लोभ के समान कोई दु:ख नहीं और संतोष के बराबर काई सुख नहीं।
  9. अपने से विपरीत (भिन्न) दूसरों के लिए आचरण नहीं करना चाहिए।
  10. भूखा व्यक्ति कौन-सा पाप नहीं करता है।
  11. विद्या विनम्रता देती है।
  12.  क्रिया के बिना ज्ञान भार बन जाता है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 6 सुभाषितानि

शब्दार्था :-सुभाषितानि – सुन्दर कथन। परोपकाराय – दूसरों के उपकार के लिए (पर + उपकाराय) सतां -सज्जनों की। विभूतयः – ध न-सम्पत्तियाँ। उदारचरितानाम् – ऊँचे (उदार) विचार वालों का। वसुधैव – (वसुधा+एव) पृथ्वी /संसार ही। कुटुम्बकम् -परिवार (कुटुम्ब)। सुखार्थिनः – (सुख अर्थिन:) सुख चाहने वाले को। कुतो (कुतः) – कहाँ । विद्यार्थिन:- विद्या चाहने वालों को। ब्रूयात् – बोलना चाहिए। सत्यमप्रियम् -(सत्यम् + अप्रियम्) अप्रिय सत्य। सम्पत्तौ- सुख में। विपत्ती- दुःख में। महताम् – महान व्यक्ति। स्वदेशे – अपने देश में। पूज्यते – पूजा जाता है। आदर पाता है। भवन्तु- होवें/हों । सन्तु – हों/ होवें। निरामयः – (निर+ आमय:) नीरोग। लोभेन समम् -लोभ के बराबर । सर्वे – सभी। सन्तोषात् – संतोष से। परम् – बढ़कर। अत्मनः – अपने से। प्रतिकूलानि – भिन्न/विपरीत। परेषा – दूसरों के । को लिए। न- नहीं। समाचरेत् – (सम्+आचरेत्) आचरण करना चाहिए। बुभुक्षितः – भूखा। करोति – करता है। ददाति – देता है/देती है। विनयम् – विनम्रता। भारः – भार (बोझ)।

व्याकरणम्

पर + उपकाराय -परोपकाराय । वसुधा + एव – वसुधैव । सुख अर्थिन: – सुखार्थिनः । विद्या + अर्थिनः – विद्यार्थिनः सत्यम् + अप्रियम् – सत्यमप्रियम् । पूज्यते -पूज् + लट्लकार समाचरेत् – सम् + आ + चर+ विधि लिड्. । करोति – कृलिट् लकार ददाति – दा+लट् लकार

Bihar Board Class 9 History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

Bihar Board Class 9 Social Science Solutions History इतिहास : इतिहास की दुनिया भाग 1 Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज Text Book Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Social Science History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

Bihar Board Class 9 History कृषि और खेतिहर ममाज Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
दलहन फसल वाले पौधे की जड़ की गाँठ में पाया जाता है
(क) नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु
(ख) पोटाशियम स्थिरीकरण जीवाणु
(ग) फॉस्फेटी स्थिरीकरण जीवाणु
(घ) कोई नहीं।
उत्तर-
(क) नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु

Bihar Board Class 9 History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

प्रश्न 2.
शाही लीची बिहार में मुख्यतः होता है
(क) हाजीपुर
(ख) समस्तीपुर
(ग) मुजफ्फरपुर
(घ) सिवान
उत्तर-
(ग) मुजफ्फरपुर

प्रश्न 3.
रबी फसल बोया जाता है
(क) जून-जुलाई
(ख) मार्च-अप्रैल
(ग) नवम्बर
(घ) सितम्बर-अक्टूबर
उत्तर-
(ग) नवम्बर

Bihar Board Class 9 History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

प्रश्न 4.
केला बिहार में मुख्यतः होता है
(क) समस्तीपुर
(ख) हाजीपुर
(ग) सहरसा
(घ) मुजफ्फरपुर
उत्तर-
(ख) हाजीपुर

प्रश्न 5.
बिहार में, चावल का किस जिले में सबसे ज्यादा उत्पादन होता है ?
(क) सिवान
(ख) रोहतास
(ग) सीतामढ़ी
(घ) हाजीपुर
उत्तर-
(ख) रोहतास

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प्रश्न 6.
गरमा फसल किस ऋतु में होता है-
(क) ग्रीष्म ऋतु
(ख) शरद ऋतु
(ग) वर्षा ऋतु
(घ) वसंत ऋतु
उत्तर-
(क) ग्रीष्म ऋतु

प्रश्न 7.
रेशेदार फसल को चनें
(क) आम
(ख) लीची
(ग) धान
(घ) कपास
उत्तर-
(घ) कपास

प्रश्न 8.
अगहनी फसल को चुनें
(क) चावल
(ख) जूट
(ग) मूंग
(घ) गेहूँ
उत्तर-
(क) चावल

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रिक्त स्थान की पूर्ति करें :

1. कपास एक …………… फसल है।
2. मक्का ………….. फसल है। ।
3. भारत एक …………… प्रधान देश है।
4. भारत की …………… तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है।
5. एग्रिकल्चर लैटिन भाषा के दो शब्दों ……….: तथा ………. से बना है।
6. चावल सर्वाधिक …………… जिला में उत्पादन होता है।
7. बिहार की कृषि गहन निर्वाहक प्रकार की है, जिसके अन्तर्गत वर्ष में …………… फसलें बोयी या काटी जाती है।
8. चावल के लिए ………….. जलवायु की आवश्यकता है।
9. गेहूँ के लिए ………….. मिट्टी चाहिए।
10. मकई के लिए …………… जलवायु की आवश्यकता है।
उत्तर-
1. रेशेदार,
2. खाद्य,
3. कृषिप्रधान,
4. दो,
5. एग्रोस, कल्चर,
6. रोहतास,
7. चार,
8. उष्णार्द,
9. दोमट,
10. गर्म एवं आर्द्र ।

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लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत में मुख्यतः कितने प्रकार की कृषि होती है ?
उत्तर-
भारत में मुख्यतः छः प्रकार की खेती होती है।

  • झूम खेती-आदिवासी समाज के लोग जंगलों को साफ करके इस प्रकार की खेती करते हैं । विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में यह खेती होती है।
  • पारम्परिक खेती-इस प्रकार की खेती में हल-बैल की सहायता से बीज की बुआई कर इस प्रकार की खेती करते हैं।
  • गहन खेती-इसे विकसित गहन खेती भी कहते हैं । जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा है, वहाँ इस प्रकार की खेती की जाती हैं।
  • फसल चक्र-दो खाद्यान फसलों के बीच एक दलहनी फसल लगाया जाता है ताकि मिट्टी में उर्वरा कायम रहे ।
  • मिश्रित खेती-एक ही खेत में समान समय में दो या तीन फसल लगाने को मिश्रित खेती कहते हैं।
  • रोपण या बगानी कृषि-इसे झाड़ी कृषि या वृक्षा कृषि भी कहते हैं । जैसे-रबर की खेती, चाय की खेती, कहवा, कोको, नारियल, सेव, अंगूर, संतरा आदि की खेती आते हैं।

प्रश्न 2.
पादप-संकरण क्या है ?
उत्तर-
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषकों के लिए लाभदायक होगा। पादप-संस्करण यही वैज्ञानिक कृषि है। किसानों को पादप-संस्करण द्वारा विकसित उच्च स्तर के बीजों, रासायनिक, उर्बरकों, कीट-पतंगे, खरपतवारनाशी दवाओं, सिंचाई के विकसित साधनों एवं आधुनिक कृषि मशीनों का व्यवहार करने का उत्प्रेरित किया जा रहा है। भारत के कुछ भागों में पादप संस्करण का सहारा लिया जा रहा है।

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प्रश्न 3.
रबी फसल और खरीफ फसल में क्या अन्तर है ?
उत्तर-
रबी फसल और खरीफ फसल में निम्नलिखित अन्तर हैंरबी फसलें –

  • ये फसलें मानसून की समाप्ति पर बोई जाती हैं।
  • बीज अक्टूबर या नवम्बर में बोये जाते हैं।
  • फसलों की कटाई अप्रैल-मई में होती है।
  • फसलें मृदा की आर्द्रता पर निर्भर करती है।
  • गेहूँ, चना, सरसों अन्य तेलहन आदि फसलें हैं।

प्रश्न 4.
मिश्रित खेती क्या है ?
उत्तर-
इस प्रकार की खेती में एक ही खेत में एक ही समय में दो-तीन फसल उगाई जाती है। इससे यह लाभ होता है कि एक ही समय में विभिन्न प्रकार के और अधिक फसल उगाए जा सकते हैं।

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प्रश्न 5.
हरित क्रांति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
1960 के दशक में भारत में ‘हरित क्रान्ति’ लाने का प्रयास किया गया । केन्द्र और राज्य सरकारों के प्रयास से कृषि और कृषकों के जीवन में उल्लेखनीय बदलाव आया । उन्नत बीज, खाद, नई तकनीक एवं मशीनों के उपयोग तथा सिंचाई के साधनों के व्यवहार से कृषि उत्पादनों में वृद्धि हुई है। फलतः किसानों की स्थिति में सुधार आया । ये सब हरित क्रान्ति की ही देन था।

प्रश्न 6.
गहन खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
जिन क्षेत्रों में सिंचाई संभव हुई है, उन क्षेत्रों में किसान उर्वरकों और कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर उपयोग करने लगे हैं। कृषि की विभिन्न प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए मशीनों के प्रयोग द्वारा कृषि का यंत्रीकरण हो गया है। इससे प्रति हेक्टेयर ऊपज में कृषि का विकास हुआ है। गहन कृषि का तात्पर्य है, एक ही खेत में अधिक फसल लगाना ।

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प्रश्न 7.
झूम खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
इस प्रकार की खेती वन्य और पहाड़ी भागों में प्रचलित थी। कुछ आदिवासी आज भी इस प्रकार की खेती करते हैं । यह स्थानान्तरण भी कहलाता है । आदिवासी समाज पृथ्वी को अपनी माता समझते हैं और उस पर हल नहीं चलाना चाहते हैं अतः वे वर्षा के पहले जंगल के कुछ भाग में आग लगा देते थे और उसके राख पर बीज छिड़क देते थे। वर्षा होने पर उस बीज से पौधे निकल आते थे । इस प्रकार अगले वर्ष में नीचे की तरफ आग लगाकर खेती करते थे।

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प्रश्न 8.
फसल चक्र के बारे में लिखें।
उत्तर-
यह कृषि की एक नई पद्धति है। लगातार लम्बे समय तक एक ही प्रकार की फसल उगाने से जमीन की उर्वरा शक्ति कमजोर पड़ जाती है। इसको रोकने के लिए दो खाद्यानों के बीच एक दलहनी पौधे को लगाया जाता है। बदल कर फसल लगाने की इस पद्धति को फसल चक्र कहते हैं। दलहनी फूल के पौधों की जड़ की गाँठ में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु होते हैं । जीवाणु वातावरण के नाइट्रोजन को स्थिरीकृत कर भूमि की उर्वरा शक्ति बढ़ाते हैं । तथा खेतों की उर्वराशक्ति को बढ़ाने के लिए रसायनिक खाद का भी प्रयोग करते हैं।

प्रश्न 9.
रोपण या बागानी खेती से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
रोपण कृषि को झाड़ी खेती या वृक्षा या बगानी खेती भी कहते हैं। 19वीं शताब्दी में इसे अंग्रेजों ने शुरू किया था। इसमें एक ही फसल का उत्पादन किया जाता है ऐसी फसलों में रबर, चाय, कहवा कोको, मसाले, नारियल, सेव, संतरा आदि हैं । इस तरह की खेती में अधिक पूँजी की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार की खेती भारत में उत्तर-पूर्वी भाग में होती है। पश्चिम बंगाल के उप हिमालय क्षेत्रों तथा प्रायद्वीपीय भारत की नीलगिरी, अन्नामलाई व इलाइची की पहाड़ियों में की जाती है।

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प्रश्न 10.
वर्तमान समय में ग्रामीण अर्थव्यवस्था में परिवर्तन के उपाय बतावें ।
उत्तर-
ग्रामीण अर्थव्यवस्था में विभिन्न प्रकार की खेतियों की बहुत आवश्यकता है। क्योंकि अधिकांशतः ग्रामीण कृषि पर ही आधारित हैं, गाँवों या शहरों की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, इसलिए आवश्यकता है आधुनिक ढंग से कृषि करने का । कृषि के आधुनिकीकरण से मृदा की उर्वरा शक्ति तो पुनः प्राप्त होती ही है साथ-साथ अत्यधिक उत्पादन से अर्थव्यवस्था भी सुदृढ़ होती है। नकदी फसल करने से उद्योग में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ किसानों को अच्छी आमदनी भी होती है। उपर्युक्त उपायों के द्वारा किसानों की अर्थव्यवस्था में सुधार लाया जा सकता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत एक कृषि प्रधान देश है, कैसे ?
उत्तर-
भारत एक कृषि प्रधान देश है। इसलिए कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। लगभग दो तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर करती है। जहाँ विश्व की 11% प्रतिशत भूमि कृषि योग्य है, वहीं भारत की कुल भूमि का 51% भाग कृषि योग्य है । ‘कृषि’ भारत के कुल राष्ट्रीय आय का लगभग 35% योगदान करता है। भारत के पास विशाल स्थल क्षेत्र, उपजाऊ भूमि का उच्च प्रतिशत है।

भारत में कृषि जीवन की रीढ़ है । भारत में कृषि परम्परागत ढंग से होती रही । अतः स्वतंत्रता की प्राप्ति के बाद इस पहलू पर विचार किया गया कि समग्र आर्थिक विकास के साथ-साथ कृषि का विकास होना आवश्यक है । भूव्यवस्था में परिवर्तन, सिंचाई के साधनों आदि में विकास से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है।

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1960 के दशक में भारत सरकार ने ‘हरित क्रान्ति’ को लाया। इसके कारण खाद्यान उत्पादन में आशातीत बढ़ोत्तरी हुई । यहाँ से कृषि में उच्च तकनीकी एवं वैज्ञानिक पद्धति का प्रवेश होता है। पादप-संकरण द्वारा उच्च प्रकार के बीजों के किस्मों का विकास किया गया । उर्वरक, पीड़क, नाशी, खरफतवार नाशी के प्रयोग एवं बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं के द्वारा सिंचाई में विकास तथा आधुनिक यंत्रों द्वारा कृषि कार्य के कारण कृषि एक व्यवसाय के रूप में विकसित हुआ है।

कृषि की प्रधानता होने के कारण ही भारत सरकार बहुउद्देश्यीय परियोजनाओं में कृषि पर अधिक बल दिया गया और दिया जा रहा है।

प्रश्न 2.
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषि के लिए लाभदायक है, कैसे ?
उत्तर-
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषकों के लिए काफी लाभदायक होगा। पारंपरिक खेती से किसानों की उपज अच्छी नहीं होती थी, वहीं एक ही प्रकार के खाद्यान लगाने से मृदा की उर्वरा शक्ति भी क्षीण पड़ जाती थी सिंचाई के लिए वर्षा निर्भरता से या तो अनावृष्टि के कारण फसल सूख जाता था या अतिवृष्टि के कारण फसल नष्ट हो जाते थे। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण खेती के लिए कुछ इस प्रकार कृषि के लिए लाभदायक हुआ-हरित क्रांन्ति-1960 के दशक में हरित क्रान्ति (Green Revolution) लाने का प्रयास किया गया । केन्द्रीय और राज्य सरकारों के प्रयासों से कृषि और किसानों के जीवन में उल्लेखनीय बदलाव आया है। उन्नत बीज, खाद, नई तकनीक एवं मशीनों के उपयोग से तथा सिंचाई के साधनों के व्यवहार से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है।

पादप-संस्करण-पादप-संस्करण द्वारा उच्च प्रकार के बीजों के किस्मों का विकास किया गया। इसके द्वारा विकसित उच्च प्रकार की बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीट-पतंगे, खर-पतवार नाश करने वाली दवाओं, सिंचाई के विकसित साधनों एवं आधुनिक कृषि मशीनों का व्यवहार करने को उत्प्रेरित किया जा रहा है।

Bihar Board Class 9 History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

ये सब वैज्ञानिक पहलु है जिन्हें कृषि में लगाया जा रहा है। निश्चित तौर पर परम्परागत खेती से अधिक लाभदयक सिद्ध हो रहा है। अब भारत खाद्यान के मामलों में पूर्णतः आत्म-निर्भर है।

प्रश्न 3.
बिहार की कृषि “मानसून के साथ जुआ” कहा जाता है, कैसे ?
उत्तर-
बिहार कृषि प्रधान राज्य है । यहाँ की 70% जन संख्या कृषि पर आधारित है। लेकिन मानसूनी वर्षा पर निर्भरता के कारण यहाँ की कृषि को मानसून के साथ जुआ’ कहा जाता है।

इसका मुख्य कारण है-यहाँ नदियों की संख्या अत्यधिक है फिर भी सिंचाई का प्रबंध अभी तक नहीं हो पाया है । किसान पूर्णत: मानसून पर निर्भर करते हैं और मानसून अनिश्चित है । मानसून की अनिश्चितता के कारण कभी वर्षा बिलकुल ही नहीं होती तो कभी सूखाड़ हो जाता है । फसल सूख जाते हैं और कभी यदि अत्यधिक वर्षा हुई तो फसलें पानी में डूबकर नष्ट हो जाती हैं। कभी-कभी वर्षा अनुकूल होती है तो कृषि अच्छी होती है। इस प्रकार यहाँ की खेती

‘जुआ’ है। आया तो आया नहीं तो गया । यही कारण है कि बिहार की कृषि को ‘मानसून के साथ जुआ’ कहा जाता है।

प्रश्न 4.
कृषि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम हो सकता है, कैसे?
उत्तर-
भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारतीय समाज एक कृषक समाज है। इसलिए कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। लगभग दो तिहाई जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। लेकिन कृषकों की स्थिति में वांछित सुधार नहीं आया है । अभी भी छोटे किसानों की स्थिति दयनीय है । अनेक स्थानों पर तो स्थिति बहुत नाजुक है । अतः किसानों की समस्याओं की ओर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। कृषि और कृषकों को स्थिति में सुधार लाए बिना सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में सुधार नहीं हो सकता है। कृषि में और आर्थिक सुधार लाने की आवश्यकता है।

Bihar Board Class 9 History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

इसके लिए कृषि को उद्योग का दर्जा देना होगा। इससे कृषि और कृषकों की स्थिति में वांछित बदलाव आएगा । परम्परागत कृषि के स्थान .पर वैज्ञानिक कृषि को बढ़ावा देना होगा। कृषि कार्य में लगे लोगों को सामाजिक सम्मान भी देना होगा जिससे आनेवाली पीढ़ियाँ कृषि कार्य में अभिरूचि ले सके।

भावी पीढ़ी को कृषि की ओर आकृष्ट करने के लिए आवश्यक है स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यक्रमों में कृषि शिक्षा को स्थान दिया जाय तथा इस विषय का पढ़ाई हो। कृषि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम बन सकता है। कृषि में सुधार होने से किसानों की आर्थिक स्थिति में बदलाव आएगा। इसका लाभ उठाकर वे अपनी सामाजिक स्थिति में सुधार ला सकते हैं। आमदनी बढ़ने से यंत्रीकृत कृषि शुरू होगी। इस प्रकार समाज में परिवर्तन आएगा ।

प्रश्न 5.
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण क्या है ? समझावें
उत्तर-
कृषि में वैज्ञानिक दृष्टिकोण कृषकों के लिए काफी लाभदायक होगा। पारंपरिक खेती से किसानों की उपज अच्छी नहीं होती थी, वहीं एक ही प्रकार के खाद्यान लगाने से मृदा की उर्वरा शक्ति भी क्षीण पड़ जाती थी सिंचाई के लिए वर्षा निर्भरता से या तो अनावृष्टि के कारण

फसल सूख जाता था या अतिवृष्टि के कारण फसल नष्ट हो जाते थे। लेकिन वैज्ञानिक दृष्टिकोण खेती के लिए कुछ इस प्रकार कृषि के लिए लाभदायक हुआ-हरित क्रांन्ति-1960 के दशक में हरित क्रान्ति (Green Revolution) लाने का प्रयास किया गया । केन्द्रीय और राज्य सरकारों के प्रयासों से कृषि और किसानों के जीवन में उल्लेखनीय बदलाव आया है। उन्नत बीज, खाद, नई तकनीक एवं मशीनों के उपयोग से तथा सिंचाई के साधनों के व्यवहार से कृषि उत्पादन में वृद्धि हुई है।

पादप-संस्करण-पादप-संस्करण द्वारा उच्च प्रकार के बीजों के किस्मों का विकास किया गया। इसके द्वारा विकसित उच्च प्रकार की बीजों, रासायनिक उर्वरकों, कीट-पतंगे, खर-पतवार नाश करने वाली दवाओं, सिंचाई के विकसित साधनों एवं आधुनिक कृषि मशीनों का व्यवहार करने को उत्प्रेरित किया जा रहा है।

Bihar Board Class 9 History Solutions Chapter 8 कृषि और खेतिहर ममाज

ये सब वैज्ञानिक पहलु है जिन्हें कृषि में लगाया जा रहा है। निश्चित तौर पर परम्परागत खेती से अधिक लाभदयक सिद्ध हो रहा है। अब भारत खाद्यान के मामलों में पूर्णतः आत्म-निर्भर है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

Bihar Board Class 11 Political Science संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन-सा वाक्य सही है –

  1. संविधान में समय-समय पर संशोधन करना आवश्यक होता है क्योंकि
  2. परिस्थितियाँ बदलने पर संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक हो जाता है
  3. किसी समय विशेष में लिखा गया दस्तावेज कुछ समय पश्चात् अप्रासंगिक हो जाता है
  4. हर पीढ़ी के पास अपनी पसंद का संविधान चुनने का विकल्प होना चाहिए
  5. संविधान में मौजूदा सरकार का राजनीतिक दर्शन प्रतिबिंबित होना चाहिए

उत्तर:
किसी भी संविधान का समय-समय पर संशोधित किए जाने की आवश्यकता होती है और उसमें उचित परिवर्तन करना जरूरी हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

प्रश्न 2.
निम्नलिखित वाक्यों के सामने सही/गलत का निशान लगाएँ।

  1. राष्ट्रपति किसी संशोधन विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए नहीं भेज सकता।
  2. संविधान में संशोधन करने का अधिकार केवल जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के पास ही होता है।
  3. न्यायपालिका संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव नहीं ला सकती परंतु उसे संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है। व्याख्या के द्वारा वह संविधान को काफी हद तक बदल सकती है।
  4. संसद संविधान के किसी भी खंड में संशोधन कर सकती है।

उत्तर:

  1. सत्य
  2. असत्य
  3. सत्य
  4. असत्य

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के संशोधन करने में निम्नलिखित से कौन-कौन लिप्त हैं? वे किस प्रकार इसमें योगदान करते हैं?

  1. मतदाता
  2. भारत का राष्ट्रपति
  3. राज्य विधान सभाएँ
  4. संसद
  5. राज्यपाल
  6. न्यायपालिका

उत्तर:
1. मतदाता:
भारत के संविधान में मतदाता भाग नहीं लेते।

2. भारत का राष्ट्रपति:
भारत का राष्ट्रपति संविधान संशोधन में भाग लेता है। संसद के दोनों सदनों से पारित होने के बाद संशोधन विधेयक राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। राष्ट्रपति उस पर अपने हस्तक्षर कर देता है। राष्ट्रपति को किसी भी संशोधन विधेयक को वापस भेजने का अधिकार नहीं है।

3. राज्य विधान सभाएँ:
संविधान की कुछ प्रमुख धाराओं (अनुच्छेदों) में परिवर्तन या संशोधन करने में जहाँ संसद के दो तिहाई (विशिष्ट) बहुमत की आवश्यकता है। उसके साथ-साथ कम से कम 50 प्रतिशत राज्यों के विधान सभाएँ से भी अनुमति लेनी पड़ती है।

4. संसद:
भारतीय संविधान के संशोधन में संसद का सबसे अधिक लिप्त होना अनिवार्य है क्योंकि भारत के संविधान में कुछ धाराओं में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है। दूसरे प्रकार के संशोधनों में संसद के दोनों सदनों में उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से तथा कुल सदस्यों के आधे से अधिक के बहुमत से संशोधन किया जाता है। तीसरे प्रकार से संविधान की कुछ अहम धाराओं में संसद के विशिष्ट बहुमत से संशोधन विधेयक को पारित होने के बाद पचास प्रतिशत राज्यों से भी अनुमति ली जाती है। इस प्रकार के संशोधन में संसद के दोनों सदनों का हाथ अवश्य रहता है।

5. राज्यपाल:
संविधान के जिन-जिन अनुच्छेदों में संशोधन हेतु पचास प्रतिशत राज्यों के विधानमंडलों से अनुमति लेनी होती है केवल वहाँ राज्यपाल की लिप्तता पायी जाती है, क्योंकि राज्य विधानमंडल से पारित संशोधन विधेयक पर राज्यपाल को हस्तक्षर करने होते हैं।

6. न्यायपालिका:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान के अनेक संशोधन इन्हीं मतभेदों की उपज के रूप में देखे जा सकते हैं।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज

प्रश्न 4.
इस अध्याय में आपने पढ़ा कि संविधान का 42 वाँ संशोधन अब तक का सबसे विवादास्पद संशोधन रहा है। इस विवाद के क्या कारण थे?

  1. यह संशोधन राष्ट्रीय आपातकाल के दौरान किया गया था। आपातकाल की घोषणा अपने आप में ही एक विवाद का मुद्दा था।
  2. यह संशोधन विशेष बहुमत पर आधारित नहीं था।
  3. इसे राज्य विधानपालिकाओं का समर्थन प्राप्त नहीं था।
  4. संशोधन के कुछ उपबंध विवादस्पद थे।

उत्तर:
42 वाँ संविधान संशोधन विभिन्न विवादस्पद संशोधनों में से एक था। उपरलिखित कारणों में से इसके विवादस्पद होने के निम्नलिखित कारण थे –

1. यह संशोधन राष्ट्रीय आपात स्थिति के दौरान किया गया जबकि आपातस्थिति की घोषणा ही अपने आप में विवादस्पद थी।

2. इस संशोधन में कई प्रावधान विवादास्पद थे। यह संविधान संशोधन वास्तव में उच्चतम न्यायालय द्वारा केशवानन्द भारती विवाद में दिए गए निर्णयों को निष्क्रिय करने का प्रयास था। यहाँ तक कि लोकसभा की अवधि को भी पाँच वर्ष से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया गया था।

42 वें संशोधन में न्यायापालिका की न्यायिक समीक्षा की शक्ति को भी प्रतिबंधित कर दिया गया था। इस संशोधन के द्वारा प्रस्तावना, 7 वीं सूची तथा संविधान के 53 अनुच्छेदों में परिवर्तन कर दिए गए। बहुत से सांसदों को, जो विपक्षी दलों से संबंधित थे, जेल में डाल दिया गया।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित वाक्यों में कौन-सा वाक्य विभिन्न संशोधनों के संबंध में विधायिका और न्यायपालिका के टकराव की सही व्याख्या नहीं करता

  1. संविधान की कई तरह से व्याख्या की जा सकती है।
  2. खंडन-मंडन/बहस और मतभेद लोकतंत्र के अनिवार्य अंग होते हैं।
  3. कुछ नियमों और सिद्धांतों को संविधान में अपेक्षाकृत ज्यादा महत्त्व दिया गया है। कतिपय संशोधनों के लिए संविधान में विशेष बहुमत की व्याख्या की गई है।
  4. नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की जिम्मेदारी विधायिका को नहीं सौंपी जा सकती।
  5. न्यायपालिका केवल किसी कानून की संवैधानिक के बारे में फैसला दे सकती है। वह ऐसे कानूनों की वांछनीयता से जुड़ी राजनीतिक बहसों का निपटारा नहीं कर सकती।

उत्तर:
उपरोक्त पाँचों कथनों में से भाग ही विधायिका और न्यायपालिका के बीच तनाव की उचित व्याख्या नहीं है। न्यायपालिका ही किसी निश्चित कानून की संवैधानिकता तय कर सकती है परंतु यह उसकी आवश्यकता के लिए राजनीतिक वाद-विवाद प्रतियोगिता निर्धारित नहीं कर सकती।

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प्रश्न 6.
बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत के बारे में सही वाक्य को चिह्नित करें। गलत वाक्य को सही करें।

  1. (i) संविधान में बुनियादी मान्यताओं का खुलासा किया गया है।
  2. (ii) बुनियादी ढाँचे को छोड़कर विधायिकी संविधान के सभी हिस्सों में संशोधन कर सकती है।
  3. (iii) न्यायपालिका ने संविधान के उन पहलुओं को स्पष्ट कर दिया है जिन्हें बुनियादी ढाँचे के अन्तर्गत या उसके बाहर रखा जा सकता है।
  4. (iv) यह सिद्धांत सबसे पहले केशवानंद भारती मामले में प्रतिपादित किया गया है।
  5. (v) इस सिद्धांत से न्यायपालिका की शक्तियाँ बढ़ी हैं। सरकार और विभिन्न राजनीतिक दलों में भी बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया है।

उत्तर:
1. “संविधान मूल संरचना को निर्धारित करता है।” यह बात सत्य नहीं है क्योंकि संविधान में कहीं भी मूल ढाँचे का वर्णन अलग से नहीं किया गया है। उच्चतम न्यायालय ने केशवानंद भारती विवाद में तथा फिर 1980 में मिनर्वा मिल विवाद में निर्णय दिया कि संविधान के मूल ढाँचे से सम्बन्धित भागों में संशोधन नहीं किया जा सकता। राजनीतिक दलों, राजनेताओं, सरकार तथा संसद के मूल संरचना के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया। मूल संरचना के सिद्धांत ने संविधान के विकास में योगदान दिया। संसद संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती।

2. विधायिका संविधान के मूल ढाँचे के अतिरिक्त अन्य सभी खण्डों में संशोधन कर सकती है। यह एक सही कथन है।

3. न्यायपालिका ने संविधान के मूल ढाँचे को परिभाषित किया है कि संविधान के कौन से खण्ड मूल ढाँचे के अन्तर्गत हैं और कौन से नहीं। मूल ढाँचे का सिद्धांत न्यायपालिका की ही खोज है। संविधान के शब्दों की अपेक्षा संविधान की भावना अधिक महत्त्वपूर्ण है।

4. यह सिद्धांत (मूल संरचना का सिद्धांत) सर्वप्रथम केशवानन्द भारती विवाद के समय अस्तित्व में आया और उसके बाद के विवादों में इसी के आधार पर निर्णय दिए गए। यह सही कथन है।

5. इस सिद्धांत के अस्तित्व में आने से न्यायपालिका की शक्ति में वृद्धि हुई है और राजनीतिक दलों, राजनेताओं और सरकार ने इसको मान्यता दी है। केशवानन्द भारती विवाद के बाद से इस सिद्धांत ने संविधान की व्याख्या में महत्त्पपूर्ण योगदान दिया है। राजनीतिक नेताओं तथा सरकार और संसद ने मूल संरचना के सिद्धांत को स्वीकार किया है। यह कथन सत्य है।

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प्रश्न 7.
सन् 2000 – 2003 के बीच संविधान में अनेक संशोधन किए गए। इस जानकारी के आधार पर आप निम्नलिखित में से कौन-सा निष्कर्ष निकालेंगे।

  1. इस काल के दौरान किए गए संशोधनों में न्यायपालिका ने कोई ठोस हस्तक्षेप नहीं किया।
  2. इस काल के दौरान एक राजनीतिक दल के पास विशेष बहुमत था।
  3. कतिपय संशोधनों के पीछे जनता का दबाव काम कर रहा था।
  4. इस काल में विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच कोई वास्तविक अंतर नहीं रह गया था।
  5. ये संशोधन विवादस्पद नहीं थे तथा संशोधनों के विषय को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच सहमति पैदा हो चुकी थी।

उत्तर:
प्रश्न में दिए गए निष्कर्षों में से सही निष्कर्ष निम्न प्रकार हैं –
(iii) तथा (iv) अर्थात् एक तो जनता की ओर से इस प्रकार के संशोधन करने के लिए दबाव था और दूसरे ये संशोधनों अविवादास्पद प्रकृति के थे तथा राजनीतिक दलों में संशोधनों के विषय में आम सहमति थी। एक समझौता था।

प्रश्न 8.
संविधान में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता क्यों पड़ती है? व्याख्या करें।
उत्तर:
भारत के संविधान में तीन प्रकार से संशोधन होता है। एक साधारण बहुमत की प्रक्रिया के बाद आधे राज्यों की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन प्राप्त करके किया जाता है। यह विशिष्ट बहुमत दो प्रकार से गिना जाता है। पहले तो संसद के दोनों सदनों में अलग-अलग संशोधन विधेयक पारित करने के लिए प्रत्येक सदन में उस सदन की कुल संख्या के आधे से अधिक का बहुमत हो तथा साथ ही उस सदन में उपस्थित सदस्यों की संख्या का दो-तिहाई बहुमत भी होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर लोकसभा की कुल सदस्य संख्या यदि 545 है और उस दिन लोकसभा में कुल 330 सदस्य उपस्थित हैं तो 330 का 2/3 अर्थात् 220 सदस्यों द्वारा पारित होने पर वह पारित नहीं समझा जाएगा क्योंकि 545 का 1/2 अर्थात् 273 की संख्या विधेयक के समर्थन में होना भी अनिवार्य है।

यह विशिष्ट बहुमत इसलिए आवश्यक है ताकि संविधान में संशोधन के लिए विपक्षी पार्टियों का भी उसमें कुछ समर्थन होना चाहिए ताकि संशोधन के पीछे अप्रत्यक्ष जन समर्थन की भावना छिपी हुई हो। केन्द्र और राज्य के बीच शक्ति विभाजन से सम्बन्धित धाराओं में परिवर्तन के लिए राज्यों का भी अनुमोदन उसमें होना चाहिए। इसलिए संसद के दो-तिहाई उपस्थित तथा कुल संख्या के आधे से अधिक संदस्यों द्वारा (विशिष्ट बहुमत से) पारित विधेयक को आधे राज्यों का समर्थन भी आवश्यक बनाया गया है।

राज्यों की शक्ति को केन्द्र की दया पर नहीं छोड़ा जाना चाहिए। इसी कारण संविधान में आधे राज्यों के विधानमण्डल द्वारा अनुमोदन कराया जाना आवश्यक बनाया गया है। संघीय ढाँचे से सम्बन्धित अनुच्छेदों में संशोधन इसी प्रकार किया जाता है। मौलिक अधिकारों में भी इसी विधि से संशोधन किया जा सकता है। संविधान निर्माता इस विषय में बहुत सतर्क थे। केवल आधे राज्यों से उन्होंने अनुमोदन कराना आवश्यक माना तथा इस कठोर प्रणाली में भी थोड़ा लचीलापन लाने के लिए राज्यों के विधानमण्डलों से केवल साधारण बहुमत से पारित कराना पर्याप्त माना गया।

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प्रश्न 9.
भारतीय संविधान में अनेक संशोधन न्यायपालिका और संसद की अलग-अलग व्याख्याओं का परिणाम रहे हैं। उदाहरण सहित. व्याख्या करें।
उत्तर:
संविधान की व्याख्या को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच कई मतभेद पैदा होते रहते हैं। संविधान में कई बार इन्हीं मतभेदों के कारण संशोधन कर दिए जाते हैं। संविधान का पहला संशोधन 1951 में किया गया। इस संविधान में कई परिवर्तन हुए। इसका कारण यह था कि संविधान की व्याख्या अलग-अलग तरीके से की जा रही थी और संविधान की प्रक्रिया को अपनी-अपनी सोच के अनुसार समझा जा रहा था। प्रथम संशोधन द्वारा अनुच्छेद 15, 19, 31, 85, 87, 144, 176, 372 तथा 376 संशोधन किया गया और संविधान में 9 वीं अनुसूची और बढ़ा दी गई।

न्यायपालिका और संसद में टकराव की स्थिति होने पर संसद संशोधन का सहारा लेती है। 1970 से 1975 तक ऐसी अनेक परिस्थितियाँ उत्पन्न हुई। केशवानन्द भारती विवाद में संसद की संशोधन शक्ति को नियंत्रित किया गया। उच्चतम न्यायालय द्वारा कहा गया कि संसद को संविधान के मूल ढाँचे में संशोधन या परिवर्तन करने का अधिकार नहीं है। न्यायालय द्वारा की गई व्याख्या से संसद जब संतुष्ट नहीं होती तो वह संविधान संशोधन कर देती है। 42 वाँ संविधान संशोधन सबसे अधिक विवादास्पद रहा।

इस संशोधन द्वारा न्यापालिका की न्यायिक समीक्षा पर प्रतिबंध लगा दिया गया। यह 42 वाँ संशोधन तथा 38वें, 39वें संशोधन भी आपातस्थिति के दौरान किए गए थे। 43 वाँ और 44 वाँ संशोधन 42 वें संविधान संशोधन द्वारा किए गए परिवर्तनों को निरस्त करने के लिए किए गए। न्यायपालिका ने भी कुछ संशोधन, जो संशोधन न होकर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय हैं, परतु वे आगे के लिए उदाहरण बन गए और जिस तरह उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि आरक्षण की व्यवस्था 50 प्रतिशत से अधिक नहीं दी जा सकती।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मौलिक अधिकार व नीति निर्देशक सिद्धांतों को लेकर संसद और न्यायपालिका में टकराव के कारण तथा निजी सम्पत्ति के दायरे और संविधान में संशोधन के अधिकार की सीमा को लेकर दोनों में विवाद उठते रहे हैं। 1970 से 1975 तक संसद ने न्यायपालिका की प्रतिकूल व्याख्या को निरस्त करते हुए बार-बार संशोधन किए थे। 38, 39 और 42 वें संशोधन आपातस्थिति की पृष्ठभूमि से निकले थे। 1973 में केशवानन्द भारती विवाद में उच्चतम न्यायालय का निर्णय, 1973 के पश्चात् न्यायालयों में कई मामलों में बुनियादी संरचना के सिद्धांत को निर्धारित करने का आधार बन गया।

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प्रश्न 10.
अगर संशोधन की शक्ति जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों के पास होती है तो न्यायापालिका को संशोधन की वैधता पर निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए। क्या आप इस बात से सहमत हैं? 100 शब्दों में व्याख्या करें।
उत्तर:
संशोधन प्रक्रिया बहुत विवादास्पद रही है। संविधान में संशोधन पर मतभेद रहे हैं। यह कहा जाता है कि जब संविधान निर्वाचित प्रतिनिधियों के हाथ में है तो न्यायपालिका को चाहिए कि उसमें हस्तक्षेप न करे। वह संशोधन की विश्वसनीयता निर्धारित करने की अधिकारी न रहे परंतु यह उचित नहीं है। वास्तव में 1970 से 1980 तक के काल में होने वाले संशोधन बहुत विवादास्पद रहे हैं। विपक्षी दलों ने सत्तापक्ष द्वारा किए गए संशोधनों का विरोध किया।

38, 9 और 42 वें संशोधन द्वारा संविधान की अनेक धाराओं को परिवर्तित कर दिया गया। यदि न्यायपालिका चुप रहती तो वे संशोधन ज्यों के त्यों बने रहते और व्यक्ति के अधिकारों पर ये कुठाराघात होता और निर्वाचित प्रतिनिधि अपनी तानाशाही बनाए रखते। यद्यपि संसद में जनता के प्रतिनिधि होते हैं और जनता की इच्छा सर्वोपरि होती है, परंतु निर्वाचित प्रतिनिधि जनता की आकांक्षाओं के बदले अपने स्वार्थों की पूर्ति करने लगते हैं और इस समस्या से बचने के लिए संविधान का नियंत्रण सांसदों पर होता है अर्थात् सांसद यदि संविधान की सीमा का उल्लंघन करते हैं तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही चाहिए। अतः न्यायपालिका को संविधान संशोधन की विश्वसनीयता को परखने की शक्ति होनी ही चाहिए। इससे संसद और सरकार को निरंकुश बनने से रोका जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Political Science संविधान : एक जीवन्त दस्तावेज Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
क्या संविधान अपरिवर्तनीय होते हैं?
उत्तर:
वास्तव में संविधान अपरिवर्तनीय नहीं होते। उनमें समय और परिस्थितिवश परिस्थितिगत बदलाव होते रहते हैं। परिस्थितिगत बदलाव, सामाजिक परिवर्तनों और कई बार राजनीतिक उठापटक के चलते विभिन्न राष्ट्रों ने अपने संविधान को दुबारा तैयार किया है। सोवियत संघ में 74 वर्षों में संविधान को चार बार बदला गया। सोवियत संघ के विघटन के बाद रूस में 1993 में एक नया संविधान अंगीकार किया गया।

प्रश्न 2.
किसी देश के संविधान का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
किसी भी देश के लिए संविधान का होना बहुत आवश्यक है। संविधान के कारण ही सरकार अपने दायित्वों की पूर्ति उचित रूप से करती है। संविधान में ही बताया जाता है कि सरकार के विभिन्न अंगों की क्या-क्या शक्तियाँ और उनके क्या-क्या दायित्व होते हैं।

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प्रश्न 3.
‘राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता’ पर एक संक्षिप्त नोट लिखिये जैसा कि भारतीय संविधान में दिया गया है।
उत्तर:
राष्ट्र की एकता और अखण्डता-संविधान निर्माता ब्रिटिश सरकार की ‘फूट डालो और शासन करो’ की नीति से भली-भाँति परिचित थे। अत: उन्होंने संविधान का निर्माण करते समय यह जोर दिया कि राष्ट्र की एकता और अखण्डता को सुरक्षित रखा जाय। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए भारत को धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित किया जाय तथा इकहरी नागरिकता को अपनाया गया। पूरे देश का एक ही संविधान बनाया गया। राष्ट्र की एकता के साथ 42 वें संविधान के द्वारा अखण्डता शब्द को भी जोड़ा गया।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘समानता’ का अर्थ समझाइए।
उत्तर:
समानता:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रतिष्ठा और अवसर की समानता दी गई है। समानता शब्द का अर्थ है कि प्रत्येक व्यक्ति को बिना किसी भेदभाव के विकास के समान अवसर प्राप्त होते हैं। किसी भी व्यक्ति को कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं होते। प्रत्येक व्यक्ति के विकास के मार्ग में बाधा नहीं आने दी जाती।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है –

  1. प्रस्तावना संविधान की कुंजी है क्योंकि इसमें पूरे संविधान का निष्कर्ष होता है।
  2. प्रस्तावना संविधान के सभी उद्देश्यों और लक्ष्यों को संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत करती है। इसे संविधान का दर्पण कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी।
  3. प्रस्तावना में सरकार के रूप, कार्यपालिका और न्यायपालिका से संबंध आदि सभी पक्षों का संक्षिप्त सारांश प्रस्तुत किया जाता है।
  4. संविधान की प्रस्तावना से आधारभूत दर्शन का ज्ञान होता है। वास्तव में प्रस्तावना संविधान की आधारशिला है।

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प्रश्न 6.
संविधान सभा की क्या भूमिका थी? इसके अध्यक्ष कौन थे?
उत्तर:
संविधान सभा की प्रथम बैठक 9 दिसम्बर को डॉ. सच्चिदानन्द सिंहा के अध्यक्षता में हुई। 11 दिसम्बर, 1946 को डॉ राजेन्द्र प्रसाद को सभा का स्थायी अध्यक्ष चुना गया। इस संविधान सभा ने संविधान निर्माण का कार्य शुरू किया। 2 वर्ष 11 मास 18 दिन के पश्चात् 26 नवम्बर, 1949 को भारत के नये संविधान का निर्माण हुआ। ऐतिहासिक महत्त्व के कारण यह संविधान 26 जनवरी, 1950 को ही लागू किया गया। संविधान सभा की महत्त्वपूर्ण भूमिका भारत के नए संविधान का निर्माण करना था। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद इस सभा के स्थायी अध्यक्ष थे।

प्रश्न 7.
बन्धुता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
बंधुता का अर्थ सभी लोगों के लिए भाई-चारे और नागरिकों की समानता से है। इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रांसीसी अधिकारों के घोषणा पत्र में और फिर संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकारों की घोषणा में किया गया। भारत के इतिहास में बन्धुता की भावना के विकास का विशेष महत्त्व है। संविधान की प्रस्तावना में जिस ‘बन्धुत्व’ की कल्पना की गई है उसे अनुच्छेद 17 व 18 में वर्णित छुआछूत को समाप्त करके, उपाधियाँ प्राप्त करने पर प्रतिबंध लगाकर और अनेक सामाजिक बुराईयों को दूर करके भारतीय समाज में स्थापित किया गया है।

प्रश्न 8.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में दिए ‘गणराज्य’ शब्द से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
भारत के संविधान की प्रस्तावना में “गणराज्य” शब्द का प्रयोग बहुत महत्त्व रखता है। गणराज्य से अभिप्राय है कि भारत का राज्याध्यक्ष जनता द्वारा निर्वाचित होगा।

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प्रश्न 9.
प्रस्तावना से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
प्रस्तावना का शाब्दिक अर्थ होता है भूमिका अथवा प्रारंभिक परिचय। संविधान की प्रस्तावना का संबंध उसके उद्देश्यों, लक्ष्यों, आदर्शों तथा उसके आधारभूत सिद्धांतों से है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना का सीधा संबंध उस उद्देश्य प्रस्ताव से है जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को पारित किया था।

प्रश्न 10.
भारतीय संविधान के प्रस्तावना में दिए गए “लोकतांत्रिक” शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
भारत के संविधान की प्रस्तावना में “लोकतंत्रात्मक” शब्द प्रयुक्त हुआ है। उसका यह अर्थ है कि भारत में जनता का शासन होगा। जनता के प्रतिनिधि चुने जाएंगे और वे जनहित में शासन करेंगे। राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक प्रत्येक क्षेत्र में लोकतंत्र की स्थापना होगी। इस प्रकार एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना होगी।

प्रश्न 11.
भारत के संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द का क्या अर्थ है?
उत्तर:
‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को भी भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42 वें संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया। इसका तात्पर्य यह है कि भारत किसी धर्म या पंथ को राज्य-धर्म के रूप में स्वीकार नहीं करता है तथा न ही किसी धर्म का विरोध करता है। प्रस्तावना के अनुसार भारतवासियों को धार्मिक विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतंत्रता होगी। धर्म व्यक्ति का अपना निजी मामला है। अतः राज्य उस विषय में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा।

प्रश्न 12.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में दिए गए ‘समाजवादी’ शब्द की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
‘समाजवादी’ शब्द को भी 1976 में 42 वें संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। इस शब्द का तात्पर्य यह है कि भारत में किस प्रकार की शासन व्यवस्था हो जिसके अनुसार समाज के सभी वर्गों का विकास व उन्नति के लिए उचित अवसर प्राप्त हों तथा आर्थिक असमानता को कम किया जाए। इस नीति के अनुसार भारत सरकार यह प्रयास करेगी कि उत्पादन और वितरण के साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाय।

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प्रश्न 13.
राजनीतिक और आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में राजनीतिक और आर्थिक न्याय का वर्णन निम्नलिखित सन्दर्भ में किया गया है –

  1. राजनैतिक न्याय: राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सभी व्यक्तियों को धर्म, जाति, रंग आदि भेदभाव के बिना समाज राजनैतिक अधिकार प्राप्त हों। सभी नागरिकों को समान मौलिक अधिकार प्राप्त हों।
  2. आर्थिक न्याय: आर्थिक न्याय से अभिप्राय है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी आजीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हो तथा उसके कार्य के लिए उचित वेतन प्राप्त हो।

प्रश्न 14.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के अनुसार राज्य की प्रकृति क्या है?
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारतीय राज्य की प्रकृति निम्न प्रकार से है –

  1. भारत एक संप्रभु राज्य है
  2. भारत एक गणराज्य है
  3. भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है
  4. भारत एक समाजवादी राज्य है
  5. भारत एक लोकतंत्रात्मक राज्य है

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प्रश्न 15.
प्रस्तावना में दिए गए भारतीय संविधान के उद्देश्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित हमारे संविधान के उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. न्याय-सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक।
  2. स्वतंत्रता-विचार, आभव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं पूजा की।
  3. समानता-प्रतिष्ठा और अवसर की।
  4. बंधुता-व्यक्त की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत के संविधान में किन विषयों में साधारण विधि से संशोधन कर दिया जाता है?
उत्तर:
भारत का संविधान लचीला भी है, कठोर भी है और लचीले और कठोर का समन्वय भी है। कुछ प्रावधानों में संशोधन करने की प्रक्रिया साधारण पारित करने की प्रक्रिया के समान ही है। जैसे –

  1. नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)
  2. राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद) को बनाना या समाप्त करना। (अनुच्छेद 169)
  3. संसद के कोरम के सम्बन्ध में संशोधन। (अनुच्छेद 100 (3)
  4. संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों के सम्बन्ध में संशोधन।
  5. भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में। (अनुच्छेद 5)
  6. देश में आम चुनाव के सम्बन्ध में। (अनुच्छेद.327)
  7. केन्द्र-शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में। (अनुच्छेद 240)
  8. अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना लिखो।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का विवेचना निम्नलिखित शब्दों में किया गया है –

संविधान की प्रस्तावना:
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य बनाने तथा उसके सब नागरिकों को न्याय-सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक। स्वतंत्रता-विचार, अभिव्यक्ति, पूजा, विश्वास एवं धर्म की समानता-प्रतिष्ठा और अवसर की, और उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता सुनिश्चित करने वाली बन्धुत्व की भावना बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 को हम भारत के लोग अंगीकृत अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते हैं।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में संशोधन किस प्रकार किए जाते हैं? अथवा, भारतीय संविधान में संशोधन के विभिन्न तरीकों को बताइए। उनमें से किसी एक ही व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन विधि दी गयी है। भारतीय संविधान की विभिन्न धाराओं के संशोधन के लिए निम्नलिखित तीन प्रणालियाँ प्रयोग में लाई जाती है। इन प्रणालियों का उल्लेख भारतीय संविधान की धारा 368 में किया गया है।

1. साधारण विधि:
संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संसद साधारण बहुमत से संशोधन कर सकती है। संशोधन का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में रखा जा सकता है। जब दोनों सदन उपस्थित सदस्यों के साधारण बहुमत से प्रस्ताव पास कर देते हैं तब वह राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर संशोधन प्रस्ताव पास हो जाता है। इस प्रणाली के द्वारा जिन अनुच्छेदों में संशोधन किया जा सकता है, उनमें से कुछ मुख्य अनुच्छेद निम्न प्रकार से हैं –

  1. नये राज्यों का निर्माण करना, किसी राज्य की सीमाओं को घटाना या बढ़ाना, किसी राज्य की सीमा में परिवर्तन करना या किसी राज्य का नाम बदलना। (अनुच्छेद 2, 3 और 4)।
  2. राज्यों के द्वितीय सदन (विधान परिषद्) को बनाना या समाप्त करना (अनुच्छेद 169)।
  3. संसद के कोरम के संबंध में संशोधन (अनुच्छेद 100 (3))।
  4. संसद सदस्यों के विशेषाधिकारों के संबंध में संशोधन।
  5. भारतीय नागरिकता के सम्बन्ध में (अनुच्छेद 5)
  6. देश में आम चुनाव के सम्बन्ध में (अनुच्छेद 327)।
  7. केन्द्र शासित क्षेत्रों के प्रशासन के विषय में (अनुच्छेद 240)।
  8. अनुसूचित जाति के क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के क्षेत्रों के सम्बन्ध में।

भारतीय संविधान में संशोधन करने की उपरोक्त प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया तथा साधारण विधि-निर्माण में कोई अंतर नहीं किया गया है। इस प्रकार के आधार पर ही बहुत से विद्वान भारत के संविधान को लचीला संविधान मानते हैं।

2. विशेष विधि:
हमारे संविधान की कुछ अन्य धाराओं का संशोधन एक विशेष विधि से होता है। इसके अनुसार संशोधन संबंधी बिल संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है और यदि सदन की कुल संख्या के साधारण बहुमत द्वारा उपस्थित व मत देने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत द्वारा संशोधन बिल एक सदन से पास हो जाय तो दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।

दूसरे सदन के लिए भी यही ढंग अपनाया जाता है। उसके पश्चात् बिल राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए जाता है और उनके हस्ताक्षर करने के बाद संविधान संशोधन बिल पास समझा जाता है। हमारे संविधान के जिन विषयों का उल्लेख पहले और तीसरे वर्ग में किया गया है उनको छोड़कर संविधान की अन्य सभी धाराएँ इसी क्रिया से बदली जाती हैं। मौलिक अधिकार तथा राज्य के नीति निर्देशक तत्त्वों में इसी प्रणाली से संशोधन किया जा सकता है।

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के किन्हीं दो स्रोतों की पहचान कीजिए। संक्षेप में उन प्रावधानों का वर्णन कीजिए जो इन स्रोतों से लिए गए हैं।
उत्तर:
भारत के संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया। यह संविधान सभा 1946 में चुनी गयी। सभा के सभी सदस्य भारतीय थे। ये सभी दलों का प्रतिनिधित्व करते थे परंतु कांग्रेस पार्टी के सबसे अधिक सदस्य थे। इस सभा की शक्तियों पर किसी प्रकार का नियंत्रण नहीं था। संविधान का निर्माण बड़े वाद-विवाद और गहन विचार के बाद किया गया। संविधान बनाते समय इस बात का भी ध्यान रखा गया कि भविष्य में इस दस्तावेज में संशोधन की आवश्यकता भी पड़ सकती है। संविधान में उन आदर्शों, आकांक्षाओं, मूल्यों, प्रेरणाओं और आवश्यकताओं को स्थान देने का प्रयास किया जो भारत की जनता के लिए अधिक से अधिक हितकर हों।

भारतीय संविधान के दो प्रमुख स्रोत –

1. 1935 का भारतीय शासन अधिनियम:
भारतीय संविधान का सबसे अधिक प्रभावशाली स्रोत, भारतीय शासन अधिनियम 1935 ही है। भारतीय संविधान के 395 अनुच्छेदों में से लगभग 250 अनुच्छेद ऐसे हैं जो 1935 के भारतीय शासन अधिनियम से या तो शब्दशः लिये गए हैं या फिर उनमें बहुत थोड़ा परिवर्तन किया गया है। भारतीय शासन अधिनियम 1935 से प्रमुखतया इन प्रावधानों को लिया गया है:

  • शक्ति विभाजन की तीन सूचियों।
  • केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्यपाल पद की व्यवस्था।
  • वर्तमान संविधान 1935 के अधिनियम की भांति ही प्रशासनिक व्यवस्था के उल्लेख सहित एक विस्तृत वैधानिक प्रलेख है।
  • नवीन संविधान और 1935 के शासन अधिनियम में केवल सैद्धान्तिक और सारपूर्ण समानताएँ ही नहीं वरन् भाषा और रचना सम्बन्धी समानताएँ भी हैं।

2. ब्रिटेन का संविधान:
ब्रिटेन के संविधान से संसदात्मक शासन, कानून निर्माण प्रक्रिया, विधायिका के अध्यक्ष का पद, इकहरी नागरिकता, इकहरी न्यायपालिका के ढाँचे का प्रावधान आदि भारतीय संविधान में लिए गए हैं।

3. अमेरिका का संविधान:
अमरीका के संविधान से संघीय व्यवस्था, संविधान की सर्वोच्चता, मौलिक अधिकारों की संवैधानिक व्यवस्था, न्यायिक पुनरावलोकन, निर्वाचित राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की व्यवस्था, संविधान के संशोधन में इकाइयों की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन आदि प्रावधान मुख्य हैं।

4. कनाडा का संविधान:
कनाडा के संविधान में केन्द्र को राज्यों से अधिक शक्तिशाली बनाया गया। अवशिष्ट शक्तियाँ केन्द्र को सौंपी गयी।

5. आयरलैण्ड का संविधान:
राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत आयरलैंड के संविधान से लिये गए हैं।

6. जर्मन संविधान:
आपातकालीन व्यवस्था जर्मनी के संविधान से लिया गया है।

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प्रश्न 3.
आप किस प्रकार कह सकते हैं कि हमारा संविधान एक जीवन्त दस्तावेज है।
उत्तर:
हमारे संविधान को एक जीवन्त दस्तावेज माना गया है। यह दस्तावेज एक जीवन्त प्राणी की तरह समय-समय पर पैदा होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप कार्य करता है। भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 को पंजीकृत किया गया और 26 जनवरी, 1950 से लागू किया गया। 56 वर्षों के बाद भी यह संविधान कार्य कर रहा है परंतु समय-समय पर परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अनुरूप उसमें अब तक 92 संशोधन किए जा चुके हैं। संविधान निर्माताओं को यह आभास था कि भविष्य में इस संविधान में परिवर्तन की आवश्यकता होती रहेगी, अतः उन्होंने इसके संशोधन की विधि को तीन श्रेणियों में विभाजित किया।

कुछ अनुच्छेदों में साधारण विधि प्रक्रिया की भाँति संशोधन किया जा सकता है। कुछ अनुच्छेदों में संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन हो सकता है तथा कुछ महत्त्वपूर्ण अनुच्छेदों में संसद के विशेष बहुमत के साथ आधे राज्यों से भी अनुमति लेनी पड़ती है। अतः समय के साथ-साथ इसमें संशोधन भी हो रहे हैं तथा इसका मूल ढाँचा आज तक अपरिवर्तनीय बना हुआ है। यह संविधान लचीले और कठोर का समन्वय है। हमारा संविधान गतिमान बना हुआ है। जीवन्त प्राणी की ही तरह यह अनुमान से सीखता है। समाज में इतने सारे परिवर्तन होने के बावजूद भी हमारा संविधान अपनी गतिशीलता, व्याख्याओं के खुलेपन और बदलती परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तनशीलता की विशेषताओं के कारण प्रभावशाली रूप से कार्य कर रहा है। यह प्रजातांत्रिक संविधान का असली मापदण्ड है।

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प्रश्न 4.
आपके विचार से लोकतांत्रिक देशों में संविधान का महत्त्व अपेक्षाकृत क्यों अधिक होता है?
उत्तर:
हम निम्नलिखित कारणों की वजह से सोचते हैं कि संविधान भारत जैसे लोकतांत्रिक राज्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है –
1. एक लोकतांत्रिक देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देश के नागरिक सरकार के कार्यप्रणाली में भाग लेते हैं। सरकार ही वह संस्था है जिसमें सारे देश का शक्तियाँ निहित होती हैं इन शक्तियों का उल्लेख संविधान में दिया गया है।

2. हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। संविधान इन तीनों अंगों के कार्यक्षेत्र, कर्तव्यों और अधिकारों आदि का प्राप्य विवरण अपने में समाए होता है। लिखित रूप होने के कारण सरकार के तीनों अंग केवल अपने-अपने अधिकारों और कार्यक्षेत्रों तक सीमित रहते हैं। वे एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते।

3. संविधान लोकतांत्रिक सरकार में नागरिक को अधिकार और कर्तव्य देता है। सरकारें बदलती रहती हैं। कोई भी सरकार अपनी मनमानी करके नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं कर सकती। अगर गलती से वह करना भी चाहती है तो संविधान में न्यायपालिका की व्यवस्था और उस पर नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण का दायित्व दिया होता है।

4. संविधान एक जीवित पत्र होता है जिसमें समयानुसार, नागरिकों का इच्छानुसार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता अनुसार समय-समय पर संशोधन की गुजाइंश होती है उसके लिए निर्धारित प्रक्रिया होती है।

5. कई बार लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अपनाई जाती है। इसके अंतर्गत दो सरकारें-संघ सरकार और राज्य सरकार साथ-साथ कार्य करती है। विषय सूचियों के माध्यम से दोनों सरकारों के अधिकार और कार्यक्षेत्र दिए गए विषयों के माध्यम से निर्धारित होते हैं। कई बार ऐसा होता कि केन्द्र में किसी एक दल या कुछ दलों की संयुक्त सरकार होती है यद्यपि विभिन्न राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें होती हैं।

दोनों स्तरों की सरकारों में टकराव न हो या एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के लगाने के अवसर कम से कम या बिल्कुल भी उत्पन्न न हों ऐसी व्यवस्थाएँ केवल संविधान में ही संभव है। संक्षेप में, लोकतंत्रीय देश में अन्य देशों की अपेक्षा संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है।

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प्रश्न 5.
“संविधान सभा के द्वारा अपना कार्य बड़े उत्साह से सम्पन्न किया गया” कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संविधान सभा की पहली बैंठक 9 दिसंबर, 1946 को दिल्ली में हुई। मुस्लिम लीग के सदस्यों ने इसमें भाग नहीं लिया। कार्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया जिनमें से प्रारूप समिति, केन्द्रीय संविधान समिति, मौलिक अधिकारों से संबंधित समिति इत्यादि प्रमुख थी। 13 दिसम्बर, 1946 को जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में उद्देश्यों संबंधी प्रस्ताव रखा, जिसमें उन्होंने संविधान सभा की जिम्मेदारियों को स्पष्ट किया।

नेहरू जी द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव के अनुसार सभा में भारत को एक स्वाधीन प्रभुता-संपन्न गणराज्य बनाने की दृढ़ इच्छा व्यक्त की गई। इस गणतंत्र में ब्रिटिश भारत और भारतीय देशों राज्यों के अलावा उन सभी क्षेत्रों को मिलाना था जो स्वाधीन प्रभुता-संपन्न भारत में शामिल होने के इच्छा व्यक्त करें। संविधान सभा ने यह घोषणा भी की कि स्वाधीन प्रभुता-संपन्न भारत में सभी व्यक्तियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्वतंत्रता, पद और न्याय, अवसर की तथा विश्वास, मत, पूजा, व्यवस्था, संगठन और कार्य की स्वतंत्रता दी जायगी।

यही संविधान सभा स्वतंत्र भारत की संसद भी थी। 14 अगस्त, 1947 को उसे संबोधित करते हुए प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने ये स्मरणीय शब्द कहे थे-“बहुत वर्ष पहले हमने अपने भाग्य के विषय में निश्चय किया था और अब समय आ गया है कि पूर्णतया नहीं तो बहुत अंश में हम अपना वचन पूरा करें। आधी रात का घंटा बजने के साथ, जबकि पूरा विश्व सो रहा होगा, भारत जीवन और स्वाधीनता के लिए जागृत होगा।

इतिहास में बहुत कम ऐसे क्षण होते हैं जब पुराने से नए की ओर संक्रमण होता है, जब एक युग का अंत होता है और लंबे समय से किसी राष्ट्र की दबी हुई आत्मा मुखर हो उठती है-उचित यही होगा कि हम इस पवित्र क्षण में भारत और उसकी जनता की सेवा के लिए तथा मानवता, उससे भी व्यापकतर मानवता की सेवा के लक्ष्यों के प्रति समर्पित होने का संकल्प करें। संविधान सभा की ओर से उन्होंने भारत की जनता से अपील की कि “वह इस महान अभियान में हममें आस्था और विश्वास रखकर हमारा साथ दें-यह तुच्छ और विनाशकारी आलोचना का समय नहीं है, दुर्भावना पालने और दूसरों को दोष देने का समय नहीं है-हमें स्वतंत्र भारत का ऐसा श्रेष्ठ महल बनाना है, जहाँ उसके सारे बच्चे सुख से रह सकें।”

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प्रश्न 6.
आपके विचार से लोकतांत्रिक देशों में संविधान का महत्त्व अपेक्षाकृत क्यों अधिक होता है?
उत्तर:
हम निम्नलिखित कारणों की वजह से सोचते हैं कि संविधान भारत जैसे लोकतांत्रिक राज्य के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है –
1. एक लोकतांत्रिक देश में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से देश के नागरिक सरकार की कार्यप्रणाली में भाग लेते हैं। सरकार ही वह संस्था है जिसमें सारे देश की शक्तियाँ निहित होती है, इन शक्तियों का उल्लेख संविधान में दिया होता है।

2. हम जानते हैं कि सरकार के तीन अंग-विधायिका कार्यपालिका और न्यायपालिका होती है। संविधान इन तीनों अंगों के कार्यक्षेत्रों और अधिकारों आदि का प्राप्य विवरण अपने में समाए होता है लिखित रूप में होने के कारण सरकार के तीनों अंग केवल अपने-अपने अधिकारों और कायक्षेत्रों तक सीमित रहते हैं। वे एक दूसरे के कार्यक्षेत्र में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करते।

3. संविधान लोकतांत्रिक सरकार में नागरिक को अधिकार और कर्त्तव्य देता है। सरकारें बदलती रहती हैं। कोई भी सरकार अपनी मनमानी करके नागरिकों के अधिकारों का हनन नहीं कर सकती। अगर गलती से वह करना भी चाहती है तो संविधान में न्यायपालिका की व्यवस्था और उस पर नागरिकों के अधिकारों के संरक्षण का दायित्व दिया होता है।

4. संविधान एक जीवित पत्र होता है जिसमें समयानुसार नागरिकों की इच्छानुसार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता अनुसार समय-समय पर संशोधन की गुंजाइश होती है उसके लिए निर्धारित प्रक्रिया होती है।

5. कई बार लोकतंत्र में संघीय व्यवस्था अपनाई जाती है। इसके अन्तर्गत दो सरकारें-संघ सरकार और राज्य सरकार साथ-साथ कार्य करती है। विषय सूचियों के माध्यम से दोनों सरकारों के अधिकार और कार्यक्षेत्र दिए गए विषयों के माध्यम से निर्धारित होते हैं। कई बार ऐसा होता है कि केन्द्र में किसी एक दल या कुछ दलों की संयुक्त सरकार होती है यद्यपि विभिन्न राज्यों में विभिन्न दलों की सरकारें होती हैं। दोनों स्तरों की सरकारों में टकराव न हो या एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के लगने के अवसर कम से कम या बिल्कुल भी न उत्पन्न हों ऐसी व्यवस्थाएँ केवल संविधान में ही संभव है। संक्षेप में लोकतंत्रीय देश में अन्य देशों की अपेक्षा संविधान अधिक महत्त्वपूर्ण और आवश्यक है।

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प्रश्न 7.
संविधान सभा का गठन कैसे हुआ एवं इसके कार्य प्रणाली की समीक्षा करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान का निर्माण. एक संविधान सभा द्वारा हुआ। संविधान सभा के निर्माण का निर्णय कैबिनेट मिशन योजना में लिया गया। इस संविधान सभा में 389 सदस्य थे जिनमें 292 ब्रिटिश प्रांतों के प्रतिनिधि, 5 चीफ कमिश्नर, क्षेत्रों के प्रतिनिधि और 93 देशी रियासत के प्रतिनिधि थे। योजना में कहा गया कि प्रांतों से भेजे जाने वाले प्रतिनिधि प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या पर एक हो। प्रत्येक प्रांत का स्थान तीन प्रमुख समुदायों सामान्य, सिख और मुसलमानों के बीच जनसंख्या के अनुपात में हो।

संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय एसेबम्ली द्वारा अनुपातिक प्रतिनिधित्व एवं एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा किया गया। देशी रियायतों के सदस्य का निर्वाचन उनके परामर्श से किया गया। 3 जून, 1997 में भारत विभाजन के बाद संविधान में सदस्यों की संख्या 296 रह गयी। संविधान सभा की कार्यवाही को संचालित करने के लिए विभिन्न समितियों का गठन किया गया। इन समितियों के माध्यम से विभिन्न विषयों पर खुलकर विचार विमर्श हुए। यह समिति दो तरह के थे प्रथम, संविधान निर्माण प्रक्रिया में प्रश्नों को हल करने वाली समिति और दूसरा संविधान निर्माण की समिति। इन्हीं समितियों के प्रयासोंपरांत 2 वर्ष 11 महीना 18 दिन के बाद 26 नवंबर, 1949 को संविधान बनकर तैयार हुआ और 26 जनवरी, 1950 से लागू हुआ।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत के मूल संविधान में कितने अनुच्छेद हैं?
(क) 400
(ख) 395
(ग) 390
(घ) 385
उत्तर:
(ख) 395

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान –
(क) लचीला है
(ख) लचीला और कठोर का सामजस्य है
(ग) अचल है
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) लचीला और कठोर का सामजस्य है

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

Bihar Board Class 11 Political Science स्थानीय शासन Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
भारत का संविधान ग्राम पंचायत को स्व-शासन की इकाई के रूप में देखता है। नीचे कुछ स्थितियों का वर्णन किया गया है। इन पर विचार कीजिए और बताइए कि स्व-शासन की इकाई बनने के क्रम में ग्राम पंचायत के लिए ये स्थितियाँ सहायक हैं या बाधक?
उत्तर:
(a) प्रदेश की सरकार ने एक बड़ी कंपनी को विशाल इस्पात संयंत्र लगाने की अनुमति दी है। इस्पात संयंत्र लगाने से बहुत-से गाँवों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा। दुष्प्रभाव की चपेट में आनेवाले गाँवों में से एक ग्राम सभा ने यह प्रस्ताव पारित किया कि क्षेत्र में कोई भी बड़ा उद्योग लगाने से पहले गाँववासियों की राय ली जानी चाहिए और उनकी शिकायतों की सुनवाई होनी चाहिए। यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए मददगार है।

(b) सरकार का फैसला है कि उसके कुल खर्चे का 20 प्रतिशत पंचायतों के माध्यम से व्यय होगा। यह स्थिति भी ग्राम पंचायत के लिए मददगार है।

(c) ग्राम पंचायत विद्यालय का भवन बनाने के लिए लगातार धन माँग रही है, लेकिन सरकारी अधिकारियों ने माँग को यह कहकर ठुकरा दिया है कि धन का आबंटन कुछ दूसरी योजनाओं के लिए हुआ है और धन को अलग मद में खर्च नहीं किया जा सकता। यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक है।

(d) सरकार ने डुंगरपुर नामक गाँव को दो हिस्सों में बाँट दिया है और गाँव के एक हिस्से को जमुना तथा दूसरे को सोहना नाम दिया है। अब डुंगरपुर नाम गाँव सरकारी खाते में मौजूद नहीं है। यदि डूंगरपुर के दो हिस्से जमुना और सोहना अलग हैं किन्तु उनकी ग्राम पंचायत एक ही है तो कोई अंतर नहीं पड़ता परंतु यदि सरकार किसी ग्राम के दो हिस्से बनाती है और इसमें वहाँ की ग्राम पंचायत की सहमति नहीं ली जाती तो यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए बाधक है।

(e) एक ग्राम पंचायत ने पाया कि उसके इकाई में पानी के स्रोत तेजी से कम हो रहे हैं। ग्राम पंचायत ने फैसला किया कि गाँव के नौजवान श्रमदान करें और गाँव के पुराने तालाब तथा कुएँ को फिर से काम में आने लायक बनाएँ। यह स्थिति ग्राम पंचायत के लिए मददगार है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 2.
मान लीजिए कि आपको किसी प्रदेश की तरफ से स्थानीय शासन की कोई योजना बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई है। ग्राम पंचायत स्व-शासन की इकाई के रूप में काम करे, इसके लिए आप उसे कौन-सी शक्तियाँ देना चाहेंगे? ऐसी पाँच शक्तियों का उल्लेख करें और प्रत्येक शक्ति के बारे में दो-दो पंक्तियों में यह भी बताएँ कि ऐसा करना क्यों जरूरी है।
उत्तर:
ग्राम पंचायत स्वशासन की इकाई के रूप में कार्य करे, इसके लिए ग्राम पंचायत को निम्नलिखित शक्तियाँ देनी होंगी –

1. ग्राम पंचायत को विकास संबंधी कार्य करने की शक्ति प्रदान की जाएगी। ग्राम में उत्पादन बढ़ाना, कृषकों के प्रयोग के लिए कृषि के यंत्र खरीदना, बेकार भूमि को कृषि योग्य बनाना, पशुओं की नस्ल सुधारना, अच्छे बीजों की व्यवस्था करना, सहकारिता को बढ़ावा देना, कुटीर उद्योग-धंधों को प्रोत्साहन देना और लघु बचत योजना को बढ़ावा देनां। ऐसा करना इसलिए जरूरी है क्योंकि ग्रामीण व्यक्तियों की आय बढ़ाना जरूरी है। गाँव के लोग अत्यधिक गरीब हैं उनको जीवनयापन के लिए खेती और उससे सम्बन्धित कार्यों में सुधार लाना आवश्यक है।

2. गाँव के लोगों को जीवन की आवश्यकता सुविधाएँ प्राप्त करना आवश्यक है। ग्राम पंचायतें इस दिशा में महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती हैं। जैसे रोशनी का प्रबंध, गंदे पानी की निकासी, सफाई के व्यवस्था, पीने की पानी की व्यवस्था, सड़कें और पुल बनवाना आदि।

3. जनकल्याण संबंधी कार्य कराना भी इस ओर एक महत्त्वपूर्ण कदम है। जैसे बच्चों के लिए बाल हित केन्द्र खुलवाना, स्त्रियों के लिए प्रसूति-गृह, पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए विकास के कार्यक्रम बनाना, मनोरंजन के लिए मेले लगवाना, अखाड़ों की व्यवस्था करना आदि।

4. शिक्षा संबंधी कार्य कराना जिससे ग्रामीण लोगों का मानसिक विकास हो। ग्रामोंफोन की सुविधा, पुस्तकालय, वाचनालय खुलवाना आदि। इन सब कार्यों के करने से ग्रामीण नवयुवकों को आगे बढ़ने का अवसर प्राप्त होता है। उनका पिछड़ापन दूर होता है तथा वे राष्ट्रीय धारा में सम्मिलित होकर उन्नति के अवसर खोज सकते हैं।

5. गाँव के बाहर एक खेल स्टेडियम बनवाना। ऐसा करने से गाँव के लड़के-लड़कियों को अपनी खेल प्रतिभा को चमकाने का अवसर मिलेगा।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 8 स्थानीय शासन

प्रश्न 3.
सामाजिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए संविधान के 73 वें संशोधन में आरक्षण के क्या प्रावधान हैं? इन प्रावधानों से ग्रामीण स्तर के नेतृत्व का खाका किस तरह बदला है?
उत्तर:
73 वें संशोधन के बाद पंचायती राज-संस्थाओं में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित है। तीनों स्तरों पर अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। यह व्यवस्था अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में की गयी है। यदि प्रदेश की सरकार जरूरी समझे तो अन्य पिछड़ी जातियों को भी आरक्षण दे सकती है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित स्थानों में भी एक तिहाई स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

राज्य की जनसंख्या के अनुपात में पंचायत के सभी स्तरों पर प्रधानों के स्थान अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित होंगे। प्रधान के पदों का एक तिहाई भाग महिलाओं के लिए आरक्षित होगा। राज्य विधानमंडलों को इस बात की स्वतंत्रता होगी कि वे पंचायतों के प्रधानों के स्थान अन्य पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षित कर सकते हैं। पूरे ग्रामीण समाज का प्रतिनिधित्व हो इसीलिए आरक्षण की व्यवस्थ लागू की गयी है। 2 अक्टूबर, 1994 से सारे देश में पंचायती राज व्यवस्था लागू की गई है। विभिन्न प्रदेशों पंचायत राज की खामियों को दूर करने के लिए ग्रामों में स्वतंत्र या दूसरे शब्दों में ‘ग्राम स्वराज’ की नयी व्यवस्था लागू करने का प्रयास किया गया है।

प्रश्न 4.
संविधान के 73 वें संशोधन से पहले और संशोधन के बाद के स्थानीय शासन के बीच मुख्य भेद बताएँ।
उत्तर:
प्राचीन काल में भारत में ‘सभा’ के रूप में ग्राम समुदाय अपना शासन स्वयं चलाते थे। ब्रिटिश काल में 1882 के बाद स्थानीय शासन के निर्वाचित निकाय अस्तित्व में आए। लार्ड रिपन ने इन निकायों को बनाने की दिशा में पहल की। उसके बाद 1919 के एक्ट में प्रांतों/सूबों में ग्राम पंचायत बनी। 1935 के गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया एक्ट के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही। जब संविधान बना तो स्थानीय शासन का विषय प्रदेशों को सौंपा गया। राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का अंग होने के कारण यह प्रावधान अदालती बाद के दायरे में नहीं आता था और इसकी प्रकृति मुख्यतया सलाह-मशवरा की थी। इस प्रकार पंचायती राज को संविधान में यथोचित महत्त्व नहीं मिला।

परंतु 73 वें संविधान संशोधन के बाद स्थानीय शासन को सुदृढ़ बनाया गया। यूँ तो इससे पहले भी कुछ प्रयास किए गए जैसे 1952 में सामुदायिक विकास कार्यक्रम द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की गयी। 1987 के बाद स्थानीय शासन के गहन पुनरावलोकन की शुरूआत हुई। 1989 में धुंगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफारिश की। 1989 में केन्द्र सरकार ने दो संविधान संशोधनों की बात आगे बढ़ायी। 1992 में संविधान के 73 वें 74 वें संशोधन पारित हुए। 1993 में 73 वाँ संशोधन लागू हुआ। संशोधन के बाद राज्य सरकारों को यह छूट नहीं रही कि वे अपने मर्जी के अनुसार पंचायतों के बारे में कानून बना सकें। प्रदेशों को ऐसे कानून बदलने पड़े ताकि उन्हें संशोधित संविधान के अनुरूप किया जा सके।

प्रदेशों को अपने कानूनों में बदलाव के लिए एक वर्ष का समय दिया गया। 2 अक्टूबर, 1994 से पूरे देश में पंचायती राज व्यवस्था को मजबूती प्रदान कर दी गयी है और सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा त्रिस्तरीय हो गया। 73 वें संशोधन के बाद से ग्राम सभा अनिवार्य रूप से बनायी जानी चाहिए। पंचायती निकायों की अवधि पाँच वर्ष और हर पाँच वर्ष के बाद चुनाव अनिवार्य है। यदि प्रदेश की सरकार पाँच वर्ष पूरे होने से पहले पंचायत को भंग करती है तो उसके 6 माह के भीतर नया चुनाव कराना अनिवार्य है। संविधान के 73 वें संशोधन से पहले कई प्रदेशों जिला पंचायत-निकायों का चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से था परंतु अब यह भी सीधा (प्रत्यक्ष) जनता द्वारा कराया जाता है।

पंचायतों को भंग करने के बाद तत्काल चुनाव के संबंध में कोई प्रावधान नहीं था। इसके अतिरिक्त महिलाओं का आरक्षण संशोधन से पहले नहीं था परंतु संशोधन के बाद एक तिहाई सीटों का महिलाओं के लिए आरक्षण अनिवार्य कर दिया गया है। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण में भी प्रत्येक में महिलाओं का एक तिहाई आरक्षण अनिवार्य है। संशोधन से पूर्व राज्य सूची के 29 विषय अब 11वीं अनुसूचित में दर्ज कर लिए गए हैं। प्रदेशों के लिए हर 5 वर्ष बाद एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना जरूरी है। यह आयोग एक तरफ प्रदेश और स्थानीय शासन की व्यवस्थाओं के बीच तो दूसरी तरफ शहरी और ग्रामीण स्थानीय शासन की संस्थाओं के बीच राजस्व के बँटवारे का पुनरावलोकन करेगा।

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प्रश्न 5.
नीचे लिखी बातचीत पढ़ें। इस बातचीत में जो मुद्दे उठाए गए हैं उनके बारे में अपना मत दो सौ शब्दों में लिखें।
आलोक:
हमारे संविधान में स्त्री और पुरुष को बराबरी का दर्जा दिया गया है। स्थानीय निकायों में स्त्रियों को आरक्षण देने से सत्ता में उनकी बराबर की भागीदारी सुनिश्चित हुई है।

नेहा:
लेकिन, महिलाओं को सिर्फ सत्ता के पद पर काबिज होना ही काफी नहीं है। यह भी जरूरी है कि स्थानीय निकायों के बजट में महिलाओं के लिए अलग से प्रावधान हो।

जयेश:
मुझे आरक्षण का यह गोरखधन्धा पसंद नहीं। स्थानीय निकाय को चाहिए कि वह गाँव के सभी लोगों का ख्याल रखे और ऐसा करने पर महिलाओं और उनके हितों की देखभाल अपने आप हो जायगी।

उत्तर:
यह बातचीत स्त्रियों को समानाधिकार संबंधी विषय से सम्बन्धित है। हमारा संविधान स्त्री और पुरुष को समान अधिकार देता है। अनुच्छेद 15 के अनुसार राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, लिंग, जाति, नस्ल और जन्मस्थान या इनमें से किसी एक के भी आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। अनुच्छेद 39 (क) के अनुसार राज्य अपनी नीति का विशिष्टतया इस प्रकार संचालन करेगा कि सुनिश्चित रूप से पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो तथा 39 (घ) के अनुसार पुरुष और स्त्रियों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन हो।

अनुच्छेद 40 के अनुसार राज्य ग्राम पंचायतों का गठन करने के लिए कदम उठाएगा, परंतु व्यवहार में स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार अभी तक पूरी तरह नहीं दिए गए। समय-समय पर उनके अधिकारों का उल्लंघन होता रहता है। यद्यपि अनुच्छेद 243 के अनुसार ग्राम पंचायतों के अंतर्गत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित स्थानों में भी एक तिहाई स्थान 73 वें संशोधन के बाद, महिलाओं के लिए आरक्षित हैं और एक तिहाई स्थान पूरे पंचायत के अन्तर्गत भी आरक्षित किए गए हैं परंतु अभी भी स्त्रियों के नाम से उनके परिजन ही पंचायत के कार्यों में अपनी भूमिका अदा करते हैं और स्त्रियों को स्वतंत्रातापूर्वक निर्णय नहीं लेने देते।

आलोक के विचार में संविधान स्त्री पुरुष दोनों को समान मानता है। स्थानीय निकायों में आरक्षण से स्त्रियों को पुरुषों के बराबर लाने का प्रयास किया गया है लेकिन नेहा के विचार से बजट में स्त्रियों के लिए अलग से प्रावधान होना चाहिए। परंतु जयेश का विचार है कि स्थानीय निकायों को अपने सभी नागरिकों के हित के लिए कार्यक्रम करने चाहिए अर्थात् पंचायतें सभी ग्रामवासियों के कल्याण के कार्यक्रम बनाएँ तो स्वतः ही स्त्रियों का भी कल्याण होगा। यहाँ यह बात महत्त्वपूर्ण है कि ग्राम पंचायतें कितनी भी नीतियों सभी के कल्याण के लिए बनाएँ जिनमें स्त्रियों का कल्याण भी सम्मिलित है परंतु जब तक स्त्रियाँ सत्ता में अनिवार्य तौर पर भागीदार नहीं बनेगी तब तक उनका हित साधन नहीं हो सकता। अतः आरक्षण भी जरूरी है।

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प्रश्न 6.
73 वें संशोधन के प्रावधानों को पढ़ें। यह संशोधन निम्नलिखित सरोकारों में से किससे ताल्लुक रखता है?
1. पद से हटा दिए जाने का भय जन-प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।
उत्तर:
73 वें संशोधन (1993) के बाद से प्रत्येक 5 वर्ष के बाद पंचायत का चुनाव कराना अनिवार्य है। यदि राज्य सरकार 5 वर्ष से पहले ही पंचायत को भंग करती है तो 6 माह के अंदर चुनाव कराना अनिवार्य है। इस प्रकार चुनाव के भय के कारण प्रतिनिधि उत्तरदायी बने रहते हैं। उन्हें डर रहता है कि कहीं जनता चुनाव में उन्हें हरा न दें।

2. भूस्वामी सामंत और ताकतवर जातियों का स्थानीय निकायों में दबदबा रहता है।
उत्तर:
1993 के 73वें संशोधन के बाद से पंचायत के चुनाव में महिलाओं, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जन जातियों के लिए आरक्षण अनिवार्य बना दिया गया। अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जन जातियों का आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में रखा गया। प्रत्येक वर्ग में महिलाओं को एक तिहाई सीटों पर आरक्षण दिया गया। भूस्वामी सामन्त और ताकतवार जातियों के लोग सत्ता छोड़ना नहीं चाहते थे परंतु इस संशोधन के बाद अनिवार्य तौर पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा महिलाओं को स्थानीय शासन में सत्ता प्राप्त हुई।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में निरक्षरता बहुत ज्यादा है। निरक्षर लोग गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते हैं।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्र में निरक्षरता बहुत है। निरक्षर लोग गाँव के विकास के बारे में फैसला नहीं ले सकते। इस कारण उनको शिक्षित करने के लिए पंचायत के अधिकार में आने वाले 29 विषय ग्यारहवीं अनुसूची में 73वें संशोधन द्वारा डाले गए। प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा इनमें से एक विषय है। राज्य सरकार का दायित्व है कि इन प्रावधानों को लागू करे।

4. प्रभावकारी साबित होने के लिए ग्राम पंचायतों के पास गाँव की विकास योजना बनाने की शक्ति और संसाधन का होना जरूरी है।
उत्तर:
पंचायतों को लेवी कलेक्ट करने, उचित टैक्स लगाने, ड्यूटी टोल टैक्स तथा शुल्क लगाने का अधिकार है जो राज्य सरकार द्वारा बनाये गए प्रावधानों के अन्तर्गत हो। राज्य वित्त आयोग की स्थापना भी हर पाँच वर्ष बाद करने की अनिवार्यता बना दी गई है जो पंचायत के वित्त का रिव्यू करती है। साथ ही राज्य सरकार से यह सिफारिश भी करती है कि पंचायतों को कितना अनुदान दिया जाय। उपरोक्त सभी सरकारों में से सबसे महत्त्वपूर्ण सरोकार जिससे यह संशोधन ताल्लुक रखता है वह (क) भाग है अर्थात् पद से हटा दिए जाने का भय जन प्रतिनिधियों को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है।

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प्रश्न 7.
नीचे स्थानीय शासन के पक्ष में कुछ तर्क दिए गए हैं। इन तर्कों को आप अपनी पसंद से वरीयता क्रम में सजाएँ और बताएँ कि किसी एक तर्क की अपेक्षा दूसरे को आपने ज्यादा महत्त्वपूर्ण क्यों माना है। आपके जानते वेंगेइवंसल गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला निम्नलिखित कारणों में से किस पर और कैसे आधारित था?
(क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है।
(ख) स्थानीय जनता द्वारा बनायी गई विकास योजना सरकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गई विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।
(ग) लोग अपने इलाके की जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।
(घ) आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन-प्रतिनिधियों से संपर्क कर पाना मुश्किल होता है।
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन के पक्ष में जो विभिन्न तर्क दिए गए हैं। इनके वरीयता क्रम निम्न प्रकार हैं –
1. प्रथम वरीयता भाग (घ) को दी जाएगी क्योंकि आम जनता के लिए अपने प्रदेश अथवा राष्ट्रीय विधायिका के जन प्रतिनिधियों से सम्पर्क कर पाना मुश्किल होता है। अतः वे स्थानीय शासन के प्रतिनिधियों से सीधे सम्पर्क में रहने के कारण अपनी समस्याओं की शिकायत उनसे। करके शीघ्र समाधान करा सकते हैं।

2. द्वितीय वरीयता भाग (ग) लोग अपने इलाके, अपनी जरूरत, समस्याओं और प्राथमिकताओं को जानते हैं। सामुदायिक भागीदारी द्वारा उन्हें विचार-विमर्श करके अपने जीवन के बारे में फैसला लेना चाहिए।

3. तीसरे क्रम पर भाग (ख) अर्थात् स्थानीय जनता द्वारा बनायी गई विकास योजना सहकारी अधिकारियों द्वारा बनायी गयी विकास योजना से ज्यादा स्वीकृत होती है।

4. चौथी वरीयता पर भाग (क) सरकार स्थानीय समुदाय को शामिल कर अपनी परियोजना कम लागत में पूरी कर सकती है वा गाँव की ग्राम पंचायत का फैसला इस तक पर आधारित था मन्ना का बनाया यो विकास योजना सरकारी अधिकारी द्वारा बनायी गयी विकास चा स्वीकृत होता है।

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प्रश्न 8.
आपके अनुसार निम्नलिखित में कौन-सा विकेंद्रीकरण का साधन है? शेष को ‘विकेंद्रीकरण के साधन के रूप में आप पर्याप्त विकल्प क्यों नहीं मानते?
(क) ग्राम पंचायत का चुनाव कराना।
(ख) गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन-सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।
(ग) ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत।
(घ) प्रदेश सरकार ने ग्रामीण विकास की एक योजना चला रखी है। प्रखंड विकास अधिकारी (बीडीओ) ग्राम पंचायत के सामने एक रिपोर्ट पेश करता है कि इस योजना में कहाँ तक प्रगति हुई है।
उत्तर:
ग्राम पंचायत का चुनाव करना एक प्रक्रिया है। यद्यपि यह स्थानीय शासन का एक भाग तो है परंतु उपरोक्त प्रश्न में दिए गए कथनों में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विकेन्द्रीकरण का साधन है कि गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है। ग्राम सभा की बैठक बुलाने की ताकत भी उसका एक भाग तो हो सकती है परंतु यह विकेन्द्रीकरण का साधन होने के लिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह बैठक तो उच्च अधिकारी भी बुला सकते हैं।

जब तक गाँव के निवासी ही इस ताकत का प्रयोग न करें तब तक यह विकेन्द्रीकरण का आम नागरिक (ग्रामीण) की समस्या और उसका दैनिक जीवन एवं दैनिक जीवन की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए ग्रामीण लोग ग्राम पंचायत के द्वारा अपनी समस्याओं का सामाधान करें यही सच्चा लोकतंत्र है और लोकतंत्र में सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना ही चाहिए जो कि स्थानीय लोगों की सत्ता में भागीदारी से ही हो सकता है।

एक ग्राम पंचायत को प्रखंड विकास पदाधिकारी द्वारा इस आशय की रिपोर्ट प्राप्त होना कि प्रदेश की सरकार चालू अमुक परियोजना की प्रगति कहाँ तक हुई है, यह विकेन्द्रीकरण का साधन नहीं है। यह इसलिए पर्याप्त नहीं है क्योंकि अमुक परियोजना ग्राम सभा या ग्राम पंचायत के द्वारा तो नहीं चलायी जा रही है। अतः विकेन्द्रीकरण का साधन वास्तव में (ख) भाग ही है अर्थात् गाँव के निवासी खुद तय करें कि कौन सी नीति और योजना गाँव के लिए उपयोगी है।

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प्रश्न 9.
दिल्ली विश्वविद्यालय का एक छात्र प्राथमिक शिक्षा के निर्णय लेने में विकेन्द्रीकरण की भूमिका का अध्ययन करना चाहता था। उसने गाँववासियों से कुछ सवाल पूछे। ये सवाल नीचे लिखे हैं। यदि गाँववासियों में आप शामिल होते तो निम्नलिखित प्रश्नों के क्या उत्तर देते? गाँव का हर बालक/बालिका विद्यालय जाय, इस बात को सुनिश्चित करने के लिए कौन-से कदम उठाए जाने चाहिए-इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा की बैठक बुलाई जानी है।

1. बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला आप कैसे करेंगे? सोचिए कि आपके चुने हुए दिन में कौन बैठक में आ सकता है और कौन नहीं?

  • प्रखंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
  • गाँव का बाजार जिस दिन लगता है।
  • रविवार।
  • नागपंचमी/संक्राति।

2. बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा? कारण भी बताएँ।

  • जिला कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह।
  • गाँव का कोई धार्मिक स्थान।
  • दलित मोहल्ला।
  • ऊँची जाति के लोगों का टोला।
  • गाँव का स्कूल।

3. ग्राम सभा की बैठक में पहले जिला-समाहर्ता (कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया। परिपत्र में बताया गया था कि शैक्षिक रैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम इठये जाएँ और रैली किस रास्ते से होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में, विद्यालय भवन की दशा के बारे में और विद्यालय के खुलने-बंद होने के समय के बारे में भी चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आ सकी। लोगों की भागीदारी के लिहाज से इसको आप अच्छा कहेंगे या बुरा? कारण भी बताएँ।

4. अपनी कक्षा की कल्पना ग्राम सभा के रूप में करें। जिस मुद्दे पर बैठक में चर्चा होनी थी उस पर कक्षा में बातचीत करें और लक्ष्य को पूरा करने के लिए कुछ उपाय सुझायें।
उत्तर:
बैठक के लिए उचित दिन कौन-सा होगा, इसका फैसला करने के लिए यह सोचना होगा कि बैठक में अधिक से अधिक उपस्थिति किस दिन हो सकती है। जो दिन प्रश्न में सुझाये गए हैं वह इस प्रकार है:

  • प्रखंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन।
  • जिस दिन गाँव का बाजार लगता है।
  • रविवार
  • नागपंचमी/संक्राति

इन सब दिनों में प्रखंड विकास अधिकारी अथवा कलेक्टर द्वारा तय किया हुआ कोई दिन उपयुक्त रहेगा क्योंकि जिस दिन बाजार लगता है, ग्रामीण अपनी खरीदारी करते हैं और उपस्थिति कम रहेगी। रविवार का दिन इस कारण उपयुक्त नहीं होगा क्योंकि उस दिन महिला शिक्षक मीटिंग अटैण्ड नहीं कर पायेंगी। नागपंचमी अथवा सक्रांति पर्व पर बैठक बुलाने का कोई औचित्य नहीं क्योंकि उस दिन ग्रामवासी अपना त्योहार मानने में संलग्न रहेंगे।

5. बैठक के लिए उचित स्थान क्या होगा, कारण भी बताएँ। इसके लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विचारणीय प्रश्न यह है कि स्थान वह चुना जाना चाहिए जहाँ अधिकतम ग्रामीण ग्राम सभा की बैठक में उपस्थित हो सकें।

  • जिला कलेक्टर के परिपत्र में बताई गई जगह पर बैठक करने अथवा।
  • किसी धार्मिक स्थान पर गाँव में बैठक का स्थान सोचा जाय या।
  • दलित मोहल्ला अथवा।
  • ऊँची जाति के लोगों का टोला।
  • गाँव का स्कूल।

इन सभी स्थानों पर सभी ग्रामीण एकत्रित नहीं हो सकते क्योंकि दलितों के यहाँ सवर्ण और सवर्णों के टोले पर दलित लोग एतराज कर सकते हैं। धार्मिक स्थान पर भी सभी लोग इकट्ठा होने में एकमत नहीं होंगे। अत: (e) ग्रामीण स्कूल बैठक के लिए सबसे उपयुक्त स्थान होगा।

6. ग्राम सभा के बैठक में पहले जिला-समाहर्ता (कलेक्टर) द्वारा भेजा गया परिपत्र पढ़ा गया। परपित्र में बताया गया था कि शैक्षिक शैली को आयोजित करने के लिए क्या कदम उठाए जाएँ और रैली किस रास्ते से होकर गुजरे। बैठक में उन बच्चों के बारे में चर्चा नहीं हुई जो कभी स्कूल नहीं आते। बैठक में बालिकाओं की शिक्षा के बारे में भी चर्चा नहीं हुई। बैठक रविवार के दिन हुई इसलिए कोई महिला शिक्षक इस बैठक में नहीं आयी। जनता की भागीदारी के लिहाज से बैठक की इस कार्यवाही में कोई कार्य जनता के हित में नहीं किया गया। कलेक्टर द्वारा भेजे गए पत्र में मुख्य समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया क्योंकि स्थानीय समस्याएँ तो स्थानीय व्यक्तियों की भागीदारी से ही सुलझाई जा सकती है।

7. अपनी कक्षा की ग्राम सभा के रूप में कल्पना करते हुए सर्वप्रथम हम एक मीटिंग (बैठक) बुलाने की घोषणा करेंगे। बैठक का एजेण्डा इस प्रकार होगा –

  • उन बच्चों की समस्या पर चर्चा जो कभी स्कूल नहीं आते।
  • गरीबी उन्मूलन के उपाय।
  • ग्राम की गलियों की दशा पर चर्चा।
  • सांस्कृतिक कार्यक्रम।
  • उपरोक्त कार्यक्रम के लिए धन की व्यवस्था।
  • ग्राम प्रधान द्वारा समापन-भाषण।

Bihar Board Class 11 Political Science स्थानीय शासन Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नगर निगम की संरचना और कार्य प्रणाली का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
नगर निगम स्थानीय शहरी निकायों में सबसे ऊपर है। जिन नगरों की जनसंख्या दस लाख से ऊपर होती है, वहाँ नगर निगमों की स्थापना की जाती है। आज भारत में 30 ऐसे नगर हैं जहाँ नगर निगम स्थापित हैं। नगर निगम का चुनाव मतदाता करते हैं। एक नगर निगम में जितनी सीटें होती हैं, उस नगर में उतने ही निर्वाचन क्षेत्र बनाए जाते हैं। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है। इसे सभासद कहते हैं। सभासद कुछ वरिष्ठ सदस्यों का चयन करते हैं। नगर निगम अपनी समितियों द्वारा विभिन्न कार्य करते हैं। निगम में निर्णय बहुमत के आधार पर किए जाते हैं।

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प्रश्न 2.
स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
स्थानीय स्वशासन संस्थाओं से अभिप्राय:
स्थानीय मामलों का प्रबंध करने वाली संस्थाओं को स्वशासन संस्थाएँ कहते हैं। ये संस्थाएँ किसी देश में लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्थानीय स्वायत्त शासन के द्वारा नागरिकों तथा प्रशासन में सम्पर्क बढ़ता है। ग्रामों तथा नगरों के नागरिकों को भी प्रशासन में भाग लेने का अवसर मिल जाता है। ये दोनों बातें लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है। स्थानीय स्वशासन द्वारा किसी विशेष स्थान के लोग अपनी समस्याओं को स्वयं हल कर लेते हैं।

प्रश्न 3.
पंचायत समिति की रचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पंचायत समिति में उस ब्लाक (खण्ड) की सभी पंचायतों के सरपंच, नगरपालिकाओं और सहकारी समितियों के अध्यक्ष तथा उस क्षेत्र से निर्वाचित संसद सदस्य और राज्य विधानमण्डल के सदस्य आदि सम्मिलित होते हैं। पंचायतों की ही भाँति इनमें भी एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। पंचायत समिति का कार्यकाल 5 वर्ष है।

प्रश्न 4.
पंचायती राज की तीन स्तरीय संरचना का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पंचायती राज:
पंचायती राज उस व्यवस्था को कहते हैं जिसके अन्तर्गत ग्रामों में रहने वाले लोगों को अपने गाँवों का प्रशासन तथा विकास, स्वयं अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार दिया गया है। पंचायत भारत में एक बहुत ही प्राचीन संस्था है। बलवन्त राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति 1956 में गठित की गयी। इस समिति की रिपोर्ट के आधार पर सम्पूर्ण देश में त्रिस्तरीय पंचायती राज की स्थापना की गयी। निचले स्तर पर ग्राम पंचायत, मध्यम स्तर पर मंडल या खंड समिति तथा जिला स्तर पर जिला परिषद (जिला पंचायत) की व्यवस्था की गयी।

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प्रश्न 5.
पंचायती राज के किन्हीं दो उद्देश्यों का वर्णन करों।
उत्तर:
भारत में ग्राम पंचायतों की व्यवस्था प्राचीनकाल से ही चली आ रही है। ‘पंचायती’ शब्द से तात्पर्य ‘पाँच व्यक्तियों’ की समिति से लिया जाता है। प्राचीनकाल में ग्राम के ‘पाँच’ प्रतिष्ठित व्यक्तियों को ‘पंच’ बनाया जाता था और वे जो निर्णय देते थे वह सभी को मान्य होता था। भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् यहाँ पंचायती राज की व्यवस्था की गई। इस व्यवस्था के तीन स्तर है: ग्राम पंचायत, पंचायत समिति और जिला परिषद्। पंचायती राज के दो प्रमुख उद्देश्य निम्नलिखित हैं –

  1. ग्रामों का विकास व उन्हें आत्मनिर्भर बनाना।
  2. पंचायती राज की स्थापना का दूसरा उद्देश्य ग्रामीणों को उनके अधिकार और कर्त्तव्य का ज्ञान कराना है।

प्रश्न 6.
नगरपालिका प्रणाली पर नगरीकरण का क्या प्रभाव पड़ा?
उत्तर:
जैसे-जैसे औद्योगीकरण बढ़ा है, वैसे-वैसे नगरीकरण भी बढ़ा है। नगरीकरण के बढ़ने का अर्थ है नगरों में आबादी का बढ़ना। नगरों में जनसंख्या की वृद्धि से नगरपालिका प्रणाली पर काफी प्रभाव पड़ा है। नगरपालिका की समस्याएँ बढ़ी हैं। इसमें सफाई, स्वास्थ्य, पानी, रोशनी, आवास, चिकित्सा संबंधी समस्याएँ उल्लेखनीय हैं। शहरों में भीड़-भाड़ व झोपड़ पट्टी व गंदगी भरी कालोनियाँ बढ़ी हैं तथा नगरों में बीमारी, प्रदूषण, हिंसा, असंतोष, अपराध बढ़े हैं। इन सबका प्रभाव नगरपालिकाओं के कार्यों पर भी पड़ा है। नगरपालिकाओं के कार्यों में वृद्धि हुई है तथा उनकी समस्याएँ बढ़ी हैं।

प्रश्न 7.
पंचायत समिति के कार्यों को लिखें।
उत्तर:
पंचायत समिति के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. पंचायत समिति अपने क्षेत्रों में पंचायतों के कार्यों की देख-रेख करती है।
  2. पंचायत समिति अपने क्षेत्र में घरेलू उद्योग-धन्धे को बढ़ावा देती है।
  3. पंचायत समिति सहकारी समितियों को प्रोत्साहन देती है।
  4. पंचायत समिति अपने क्षेत्र में सामुदायिक विकास परियोजना को लागू करती है।

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प्रश्न 8.
नगरपालिकाओं के प्रमुख कार्य क्या हैं?
उत्तर:
नगरपालिकाओं के प्रमुख कार्यों को निम्न प्रकार व्यक्त किया जा सकता है –

  1. शुद्ध और पर्याप्त जल की व्यवस्था करना।
  2. सार्वजनिक गलियों, स्थानों तथा नालियों की सफाई की व्यवस्था।
  3. अस्पतालों का रख-रखाव व सार्वजनिक चिकित्सा की व्यवस्था करना।
  4. जन्म-मृत्यु के पंजीकरण का व्यवस्था।
  5. सार्वजनिक सड़कों का निर्माण तथा उनकी मरम्मत की व्यवस्था करना।
  6. नगरपालिका क्षेत्र का निर्धारण, खतरनाक भवनों की सुरक्षा अथवा उनका उन्मूलन।
  7. यातायाता सुविधाओं का प्रावधान।

प्रश्न 9.
जिला परिषद् के किन्हीं दो कार्यों की चर्चा करें।
उत्तर:
जिला परिषद् के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. जिला परिषद् अपने क्षेत्र का पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न करती है।
  2. जिला परिषद् अपने क्षेत्र की पंचायत समितियों के कार्यों की देख-रेख करती है।
  3. जिला परिषद् पंचायत समितियों द्वारा तैयार किए गए बजट को स्वीकार करती है तथा उनमें संशोधन के सुझाव दे सकती है।
  4. जिला परिषद् पंचायत द्वारा तैयार की गई विकासकारी योजनाओं में तालमेल उत्पन्न करती है।

प्रश्न 10.
ग्राम सभा पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
ग्राम सभा को पंचायती राज की नींव कहा जाता है। एक ग्राम सभा पंचायत के क्षेत्र के सभी मतदाता ग्राम सभा के सदस्य होते हैं। ग्राम सभा की एक वर्ष में दो सामान्य बैठकें होना आवश्यक है। ग्राम सभा अपना अध्यक्ष और कार्यकारी समिति का चुनाव करती है और अपने क्षेत्र के लिए विकास योजना तैयार करती है। व्यवहार में ग्राम सभा कोई विशेष कार्य नहीं करती क्योंकि इसकी बैठकें बहुत कम होती हैं।

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प्रश्न 11.
नगर क्षेत्र समिति पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
दस हजार से अधिक और बीस हजार से कम जनसंख्या वाले नगरों में स्थानीय स्वशासन के लिए नगर क्षेत्र समिति बनायी जाती है। इस प्रकार की नगर क्षेत्र समिति अथवा टाउन एरिया कमेटी के सदस्यों की संख्या राज्य सरकारें निश्चित करती हैं जिनका चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर संयुक्त निर्वाचन पद्धति द्वारा होता है। कुछ सदस्यों को राज्य सरकार मनोनीत करती है।

प्रश्न 12.
वार्ड समितियाँ किस प्रकार गठित की जाती हैं?
उत्तर:
नगरों के उन स्वशासी क्षेत्रों में जिनकी जनसंख्या तीन लाख या उससे अधिक हो, एक या अधिक वार्डों को मिलाकर वार्ड समितियाँ गठित की जानी चाहिए। राज्य विधान मण्डल विधि द्वारा वार्ड समितियों के संगठन, उनके प्रादेशिक क्षेत्र तथा जिस विधि द्वारा उनमें स्थान भरे जाने चाहिए, इन सबकी व्यवस्था कर सकता है।

प्रश्न 13.
नगरपालिका आयुक्त पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
नगरपालिका आयुक्त नगरपालिका के कार्यकारिणी विभाग का प्रमुख होता है। सामान्यतया वह राज्य सरकार द्वारा तीन वर्ष के लिए नियुक्त किया जाता है। इसलिए उसका वेतन और शर्ते राज्य सरकार द्वारा ही निर्धारित की जाती हैं। उसके वेतन का भुगतान नगरपालिका निधि से होता है। राज्य सरकार अथवा नगरपालिका परिषद् की सिफारिश पर आयुक्त का स्थानान्तरण किया जा सकता है।

प्रश्न 14.
नगर निगम की स्थायी समिति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
स्थायी समिति-स्थायी समिति दिल्ली नगरनिगम की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समिति है। वास्तव में निगम की सम्पूर्ण कार्यपालिका शक्तियाँ इस समिति में ही निहित हैं। वित्त पर इसका पूर्ण नियंत्रण होता है। यह नये कर लगाने की सिफारिश कर सकती है तथा पुराने करों में परिवर्तन का सुझाव दे सकती है।

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प्रश्न 15.
नगर निगम के महापौर के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
महापौर तथा उपमहापौर नगर निगम के राजनीतिक प्रशासक होते हैं। निगम के सदस्य अपनी पहली बैठक में इनका चुनाव करते हैं। यह एक वर्ष के लिए चुने जाते हैं। महापौर का पद वैभवपूर्ण होता है। इसे नगर का प्रथम नागरिक कहा जाता है। वह नगरनिगमों की बैठकों की अध्यक्षता करता है और उसकी कार्यवाही को चलाता है। प्रशासन संबंधी मामलों में वह कमिश्नर से रिपोर्ट प्राप्त करता है। महापौर कमिश्नर और राज्य सरकार के बीच की कड़ी है। हा प्रकार से उसे प्रशासनिक अधिकार भी प्राप्त होते हैं। प्रशासन के साथ-साथ उसका गजिक जीवन में भी महत्वपूर्ण स्थान है। विदेशों से आए हुए अतिथियों का स्वागत उसी केर कमा जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नगरपालिका आलिशप 1992 पर एक मंशिर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
नगरपालिका आंधनियम, 1992 भारत सरकार द्वारो पास किया गया एक महत्त्वपूर्ण का मानना स्थानीय प्रशासन को अत्यधिक लोकतांत्रिक बनाता है। इस कानून के अन्तर्गत नगरपालिकाओं के तीन वर्गों का प्रावधान किया गया है जो कि 20 हजार से तीन लाख की आबादी के बीच होगा। तीसरा वर्ग नगर निगम का है। यह तीन लाख से अधिक आबादी वाले नगरों में गठित किया गया है। इन बड़े नगर निगमों में जहाँ तीन लाख से अधिक आबादी है स्थानीय सरकार की दो स्तरीय प्रणाली का प्रावधान रखा गया है। पहला स्तर वार्ड समितियों का है तथा दूसरा नगर निगम का है। विस्तृत निगम क्षेत्र में वार्ड समिति और निगम के बीच की खाई के बीच सेतु के रूप में एक क्षेत्रीय समिति के प्रशासनिक गठन का प्रावधान है।

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प्रश्न 2.
“शहरीकरण” के प्रमुख कारण क्या हैं?
उत्तर:
शहरीकरण के निम्नलिखित कारण हैं –
1. ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी है तथा शहरी क्षेत्रों में रोजगार के व्यापक अवसर लोगों को प्राप्त हैं

2. ग्रामीण क्षेत्रों में केवल जीवन की आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति हो सकती है, परंतु शहरी क्षेत्रों में अनेक प्रकार की सुविधाएँ तथा आकर्षण की वस्तुएँ मिलती हैं।

3. ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि और उसके आधुनिकीकरण से सभी को पर्याप्त रूप में काम नहीं मिल पाता। इन सभी कारणों की वजह से लोगों का आर्कषण नगरों तथा कस्बों की तरफ अधिक तथा ग्रामीण क्षेत्रों की तरफ घट रहा है। आधुनिकीकरण के कारण भारी संख्या में लोग शहरों की तरफ पलायन कर रहे हैं।

प्रश्न 3.
1992 के 72 वें संविधान संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान क्या हैं?
उत्तर:
1992 के नगरपालिका अधिनियम अर्थात् 74 वें संविधान संशोधन अधिनियम के मुख्य प्रावधान इस प्रकार हैं –

  1. नगरपालिकाओं में समाज के कमजोर वर्गों और महिलाओं को सार्थक प्रतिनिधित्व प्रदान किया गया है।
  2. संविधान की 12 वीं अनुसूची नगरीय संस्थाओं को व्यापक शक्तियाँ प्रदान करती हैं।
  3. नगरीय संस्थाओं के लिए वित्तीय साधन जुटाने के लिए एक वित्तीय आयोग की स्थापना का प्रावधान है।
  4. नगरनिगम या नगरपालिकाओं के भंग हो जाने की दशा में नयी संस्थाओं के गठन के लिए 6 महीनों के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य होगा। चुनावों की जिम्मेवारी ‘राज्य निर्वाचन आयोग’ को सौंपी गयी है।

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प्रश्न 4.
भारत के संदर्भ में सामुदायिक विकास से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सामुदायिक विकास योजना एक ऐसा आंदोलन है जिससे समुदाय के लोगों द्वारा अपने साधनों का प्रयोग करके अपने निजी प्रयत्नों से समस्त समुदाय के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विकास का प्रयत्न किया जाय। इसमें ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले स्वयं इस बात को महसूस करें कि इनकी क्या आवश्यकताएँ और समस्याएँ हैं, उन्हें पूरा करने के लिए उनके पास क्या साधन हैं और इन साधनों का प्रयोग करके वे अपने जीवन का सामुदायिक रूप से किस प्रकार विकास कर सकते हैं।

भारत में सामुदायिक विकास योजना 1952 ई. में लागू की गई थी। ग्रामीण जीवन के विकास की यह योजना एक क्रांतिकारी और महत्त्वपूर्ण कदम है। यद्यपि भारत की जनसंख्या का लगभग 70% भाग गाँवों में रहता है फिर भी विदेशी शासन के दौरान ग्रामीण क्षेत्र के आर्थिक और सांस्कृतिक विकास की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया। भारत में सामुदायिक विकास योजना की एक मुख्य विशेषता यह है इसका उद्देश्य ग्रामीण जीवन का चहुँमुखी विकास करना है और इसलिए इसके अन्तर्गत कृषि, सिंचाई, शिक्षा, उद्योग, पशुपालन, सफाई, चिकित्सा आदि सभी कार्य सम्मिलित हैं।

प्रश्न 5.
पंचायत राज की कार्य प्रणाली की दो कमियों को लिखें।
उत्तर:
पंचायती राज व्यवस्था भारत में निचले स्तर तक लोकतंत्र लाने का साधन है, परंतु इस व्यवस्था की अपनी विशेष कमजोरियाँ भी हैं। इन कमजोरियों को निम्न प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है –

1. ग्रामों में लोकतंत्र वातावरण का अभाव है। ग्रामवासी जाति भेदभाव से अभी ऊपर नहीं उठ पाए हैं।
2. क्योंकि ग्रामों में अधिकांश लोग अभी अशिक्षित हैं, उनसे अनेक प्रकार के राजनीतिक दायित्वों को निभाने की आशा नहीं की जा सकती। अशिक्षा के कारण ग्रामीण राजनीति काफी दूषित होने की स्थिति में आ जाती है। पंचायती व्यवस्था ने ग्रामीण राजनीति को दूषित कर दिया है।

प्रश्न 6.
भारत में नगरीय स्वशासी संस्थाओं के गठन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नगरीय स्वशासी संस्थाओं का गठन-भारत में नगरों की स्वशासी संस्थाओं के गठन का वर्णन निम्न प्रकार है –
छोटे क्षेत्र जो ग्राम से नगर की ओर परिवर्तनोन्मुखी हैं उनके लिए अब संशोधित रूप से नगर पंचायत, छोटे नगरीय क्षेत्रों के लिए नगरपालिका तथा वृहत्तर नगरीय क्षेत्र के लिए नगर निगमों की स्थापना का प्रावधान है, परंतु औद्योगिक संस्थान क्षेत्र में आने वाले क्षेत्रों में नगरपालिका की स्थापना नहीं हो सकती तथा यहाँ या तो उस संस्थान ने नगरपालिका सेवाएँ उपलब्ध करायी हों या उपलब्ध कराने का प्रस्ताव हो।

नगरीय स्वशासी संस्थाओं में सभी स्थान क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाएंगे। राज्य विधान मण्डल विधि द्वारा प्रतिनिधित्व व्यवस्था कर सकता है। नगर की प्रत्येक स्वशासी संस्था में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के उनकी जनंसख्या के अनुपात में स्थान आरक्षित रखे जाने चाहिए। अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित इन स्थानों में एक तिहाई स्थान इन जातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

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प्रश्न 7.
पंचायत समिति के आय के साधनों की चर्चा करें।
उत्तर:
पंचायत समितियों की आय के मुख्य साधन निम्नलिखित हैं –

  1. पंचायत समितियों को उनके क्षेत्र में इकट्ठा होने वाले लगान का कुछ भाग मिलता है।
  2. पंचायत समितियों को मेलों, पशुमंडियों तथा प्रदर्शनियों से आय प्राप्त होती है।
  3. पंचायत समिति लोगों को कई प्रकार के लाइसेंस देती है। लाइसेंस शुल्क से भी इन्हें आय प्राप्त होती है।
  4. पंचायत समितियों का अपनी सम्पत्ति से भी आय प्राप्त होती है।
  5. पंचायत समितियाँ पुस्तकालयों, वाचनालयों तथा मनोरंजन के केन्द्रों पर सदस्यता शुल्क लगाती हैं, अत: इससे भी उन्हें आय प्राप्त होती है।
  6. पंचायत समितियों को राज्य सरकार से वार्षिक अनुदान प्राप्त होता है।

प्रश्न 8.
नगर निगम की आय के दो प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं –
उत्तर:
नगर निगम की आय के दो प्रमुख साधन निम्नलिखित हैं –

  1. जल कर-नगर निगम मकान तथा दुकान के कर मूल्य का लगभग 3 प्रतिशत उसके मालिकों से जल कर के रूप में वसूल करता है।
  2. गृहकर-नगर निगम गृहस्वामियों से उनकी जायदाद के कर के मूल्य का 11 प्रतिशत गृह दर रूप में वसूल करता है।
  3. मनोरंजन कर-नगर निगम विभिन्न सिनेमा घरों, नाटक घरों, संगीत सम्मेलनों, सर्कस आदि मनोरंजन के साधनों पर कर लगाती है। मनोरंजन कर नगरनिगम की आय का एक प्रमुख साधन है।

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प्रश्न 9.
नगरीय स्वशासन संस्थाओं पर राज्य सरकार के नियंत्रण पर एक टिप्पणी लिखो।
उत्तर:
नगरपालिका पर राज्य सरकार का नियंत्रण-नगरपालिका के कार्यों में जिलाधीश या डिप्टी कमिश्नर का अब उतना हस्तक्षेप देखने को नहीं मिलता जितना स्वतंत्रता से पहले था। किन्तु अब भी जिलाधीश राज्य सरकार की अनुमति से नगरपालिका के उन निर्णयों को लागू होने से रोक सकता है जो उसकी दृष्टि में जन सुरक्षा या जन स्वास्थ्य के लिए उचित नहीं है। नगरीय स्वशासन संस्थाओं के हिसाब-किताब की जाँच. सरकारी ऑडीटर करते हैं। नगरनिगम या नगरपालिकाएँ अपने कार्यकाल की समाप्ति से पहले भंग की जा सकती हैं पर उस स्थिति में 6 महीनों के भीतर चुनाव कराना अनिवार्य होगा। नगरीय स्वशासन संस्थाओं के चुनावों की जिम्मेदारी ‘राज्य निर्वाचन आयोग’ को सौंपी गयी है।

प्रश्न 10.
नगरनिगम के दो अनिवार्य कार्य बताइए।
उत्तर:
नगरनिगम के दो अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं:

1. सफाई से संबंधित कार्य:

  • नगर में सफाई रखने का कार्यभार नगर निगम को ही संभालना है। यह कूड़ा-करकट इकट्ठा करवाकर नगर से बाहर फेंकवाता है।
  • नगर के गन्दे पानी के निवास के लिए जमीन के अंदर नालियाँ बनाना नगर निगम का काम है।
  • नगर के गन्दे पानी के निकास के लिए जमीन की सफाई कर्मचारियों द्वारा की जाती है।

2. स्वास्थ्य संबंधित कार्य:

  • अस्पतालों की स्थापना और उनकी व्यवस्था करना।
  • भयंकर रोगों को फैलने से रोकना।
  • चेचक और हैजा जैसी बीमारियों के टीके लगवाना।
  • स्त्रियों के लिए प्रसूति केन्द्र और बच्चों के लिए कल्याण केन्द्र खोलना।
  • खाने की वस्तुओं में मिलावट रोकना।
  • नशीली वस्तुओं की बिक्री पर रोक लगाना।

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प्रश्न 11.
पंचायती राज पर 11वें वित्त आयोग की सिफारिशों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ग्यारवें वित्त आयोग ने वर्ष 2000-2005 के दौरान पंचायतों को 8000 करोड़ रुपये (प्रति वर्ष 1600 करोड़ रुपये) नागरिक सेवाओं के विकास के लिए हस्तान्तरित करने की सिफारिश की है। पंचायतों की वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए निम्न सिफारिशें भी की गयीं –

  1. वित्त आयोग की रिपोर्ट प्रस्तुत होने के बाद राज्य 6 माह के भीतर की गयी कार्यवाही की रिपोर्ट विधान मंडल में रखेंगे।
  2. पंचायतों की सभी श्रेणियों के लिए लेखा परीक्षण एवं नियंत्रण, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक को सौंपे जाएँ।
  3. भूमि एवं कृषि फार्म की आय पर कर को स्थानीय निकायों द्वारा समुचित रूप से लगाकर इस धन का प्रयोग नागरिक सेवाओं में सुधार के लिए किया जाय।
  4. राज्य के लेखाशीर्ष पर 6 पदों का सृजन किया जाय जिनमें 3 पंचायती राज्य की: संस्थाओं के लिए तथा 3 शहरी स्थानीय संस्थाओं के लिए हों।
  5. पंचायतों के पास जहाँ प्रशिक्षित लेखाकार नहीं है। प्रत्येक पंचायत पर 4000 रु. की राशि प्रतिवर्ष लेखों के रख-रखाव पर खर्च की जाय।
  6. पंचायतों के वित्त पोषण के आँकड़ों को जिला, राज्य तथ केन्द्र स्तर पर और कम्प्यूटर तथा टी.वी. सैट के माध्यम से जोड़कर विकसित किया जाय।

प्रश्न 12.
नगरनिगम अथवा नगरपालिका का संविधान की 12 वीं अनुसूची में गिनाए गए सामाजिक-आर्थिक विकास संबंधी कार्यों की विवेचना कीजिए।
उत्तर
74 वें संशोधन ने संविधान में एक नयी अनुसूची (12 वीं अनुसूची) जोड़ दी है, जिसमें कुछ ऐसे कार्यों का विवरण मिलता है जो अब तक नगरीय संस्थाएँ सम्पन्न नहीं किया करती थी। अब नगरनिगम या नगरपालिकाओं के कार्यों को तीन वर्गों में रखा जाता है –

  1. अनिवार्य कार्य
  2. ऐच्छिक कार्य
  3. आर्थिक व सामाजिक विकास संबंधी कार्य

आर्थिक व सामाजिक विकास सम्बन्धी कार्य –

1. संविधान की 12 वीं अनुसूची नगरीय स्वशासन संस्थाओं के कार्यों का उल्लेख करती है। अब नगरनिगम व नगरपालिकाओं को कुछ नये दायित्व सौंपे गए हैं जैसे –

  • सामाजिक-आर्थिक विकास की योजनाएँ तैयार करना
  • समाज के कमजोर वर्गों और अपंग व मानसिक रूप से अशक्त लोगों के हितों की रक्षा करना
  • गरीबी निवारण कार्यक्रम को लागू करना
  • गन्दी बस्तियों को उन्नत करना
  • पर्यावरण को सुरक्षित बनाना

शहरों में रहने वाले गरीबों को रोजगार देने की योजनाएँ नगरपालिकाओं द्वारा लागू की जाती है। 1989 में लागू की गई ‘नेहरू रोजगार योजना’ एक ऐसी ही योजना है। कमजोर भवन जिनमें लोगों के जीवन को खतरा हो उन्हें गिरवाना तथा लोगों के लिए मकान बनवाना भी नगर निगम के कार्यों में आते हैं।

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प्रश्न 13.
नगरनिगम के किन्हीं दो अनिवार्य तथा किन्हीं दो ऐच्छिक कार्यों का वर्णन किजिए।
उत्तर:
नगरनिगम के दो अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं –

1. सफाई से संबंधित कार्य:

  • नगर में सफाई रखने का कार्यभार नगरनिगम संभालता है। यह कूड़ा-करकट इकट्ठा करवाकर नगर से बाहर फेंकवाता है।
  • नगर के गन्दे पानी के निकास के लिए जमीन के अंदर नालियाँ बनाना नगरनिगम का काम है।
  • नगर की बस्तियों की सफाई भी नगरनिगम के सफाई कर्मचारी द्वारा ही की जाती है।

2. स्वास्थ्य संबंधी कार्य –

  • अस्पतालों की स्थापना और उनकी व्यवस्था करना।
  • भयंकर रोगों को फैलने से रोकना।
  • चेचक और हैजा जैसी बीमारियों के टीकें लगवाना।
  • स्त्रियों के लिए प्रसूति केन्द्र तथा बच्चों के लिए कल्याण-केन्द्र खोलना।
  • खाद्य वस्तुओं में मिलावट को रोकना और मिलावट करने वालों को सजा दिलाना।
  • नशीली वस्तुओं के बेचने पर रोक लगाना और इस संबंध में कानून बनाना।

प्रश्न 14.
पंचायतों के संगठन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पंचायतों का संगठन:
73 वें संशोधन द्वारा पंचायतों के गठन के लिए त्रिस्तरीय ढाँचा सुझाया गया। प्रत्येक पंचायत में एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की गई। अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में स्थान आरक्षित किए गए। पंचायतों का कार्यकाल 5 वर्ष रखा गया है। यदि किसी कारण से वे भंग की गई तो 6 महीने के अन्तर्गत उनके चुनाव कराने होंगे। पंचायत में निर्वाचित होने के लिए निम्नतम आयु 21 वर्ष रखी गयी है।

पंचायतों के निर्वाचन का संचालन राज्य का निर्वाचन आयोग करेगा। राज्य विधान मण्डल पंचायतों के गठन संबंधित व्यवस्था करता है। पंचायत के सभी स्थान क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाते हैं। खण्ड ओर जिला स्तर की पंचायतों, ग्राम पंचायतों में ग्राम पंचायतों के अध्यक्षों के प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गई है। उस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्यसभा, लोकसभा तथा विधान सभा के सदस्य भी खण्ड पंचायत तथा जिला पंचायत के सदस्य होते हैं।

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प्रश्न 15.
पंचायत समिति का गठन कैसे होता है इसके कौन-कौन से कार्य हैं?
उत्तर:
पंचायत समिति पंचायती राज व्यवस्था का मध्यवर्ती स्तर है। पंचायत समिति की संरचना विभिन्न राज्यों में भिन्न-भिन्न तरह से होता है। बिहार में पंचायन समिति में अनेक तरह के सदस्य होते हैं। लोकसभा और विधान सभा के सदस्य भी पंचायत समिति के सदस्य होता हैं जिन्हें सहयोगी सदस्य कहा जाता है। ग्राम पंचायत के अन्तर्गत परिषद् में वैसे सदस्य कहा जाता है। राज्यसभा एवं विधान परिषद् में वैसे सदस्य जो उस ग्राम पंचायत के अन्तर्गत निर्वाचक के रूप में निबंधित हो, पंचायत समिति के सदस्य होते हैं एवं पंचायत समिति के क्षेत्र में पड़ने वाले सभी ग्राम पंचायतों के मुखिया इसके सदस्य होते हैं। पंचायत समिति का कार्यकाल 5 वर्षों का होता है। पंचायत समिति के प्रधान ‘प्रमुख’ होते हैं जो पंचायत समिति के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किये जाते हैं।

पंचायत समिति निम्नलिखित कार्य करती हैं –

  1. समिति अपने क्षेत्र के सड़कों का निर्माण एवं रख-रखाव का कार्य करती है। वह इसमें कोई संशोधन नहीं कर सकता है बल्कि आवश्यक सुझाव ही दे सकता है।
  2. कार्यपालिका शक्तियाँ-कार्यपालिका शक्तियाँ के संबंध में भी बिहार विधान परिषद को सीमित शक्तियाँ प्राप्त हैं। इस शक्ति के अंतर्गत विधान परिषद मंत्रियों से केवल स्पष्ट है कि बिहार विधान परिषद की शक्तियाँ अत्यंत सीमित है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
स्थानीय शासन का महत्त्व बताइए तथा नगरनिगम के आवश्यक कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्थानीय शासन का महत्त्व:
स्थानीय मामलों का प्रबंध करने वाली संस्थाओं को स्वशासन संस्थाएँ कहते हैं। स्थानीय संस्थाएँ किसी देश में लोकतंत्र की सफलता के लिए बहुत हत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्थानीय स्वायत्त शासन के द्वारा नागरिकों तथा प्रशासन में सम्पर्क बढ़ता है। ग्रामों तथा नगरों के कर्मचारियों को भी प्रशासन में भाग लेने का अवसर मिल जाता है।

ये दोनों बातें लोकतंत्र की सफलता के लिए आवश्यक हैं। स्थानीय स्वशासन द्वारा किसी विशेष स्थान के लोग अपनी समस्याओं को स्वयं हल कर लेते हैं। स्थानीय संस्थाओं का सीधा संबंध नागरिकों के दैनिक जीवन से होता है। अतः स्थानीय समस्याओं का सही समाधान होता है। स्थानीय लोगों में भी राजनीतिक जागरुकता आती है।

नगर निगम के प्रमुख कार्य:
नगर निगम दो प्रकार के कार्य करता है।

1. अनिवार्य कार्य तथा
2. ऐच्छिक कार्य।

अनिवार्य कार्य नगर निगम के सबसे महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक कार्य होते हैं।

1. सफाई से संबंधित कार्य:

  • नगर में सफाई रखने का कार्य नगर निगम संभालता है। यह कूड़ा-करकट एकत्र कर नगर से बाहर फिकवाता है।
  • नगर के गन्दे पानी के निकास के लिए जमीन के अंदर नालियाँ बनाना नगर निगम का काम है।
  • नगर की बस्तियों की सफाई नगर निगम के सफाई कर्मचारियों द्वारा की जाती है।

2. बिजली का प्रबंध:

  • नगर निगम नगरवासियों के लिए बिजली का प्रबंध करता है।
  • नगर निगम सड़कों और गलियों में बिजली की रोशनी की व्यवस्था करता है।
  • जलापूर्ति-नगर निगम अपने नागरिकों के लिए जलापूर्ति की व्यवस्था करता है।
  • सड़क यातायात सेवा भी नगरनिगम का अनिवार्य कार्य है।
  • शिक्षा प्रबंध-विशेष तौर पर प्राइमरी तथा माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा का प्रबंध करता है।

इनके अतिरिक्त सड़कों का निर्माण, उनका रखरखाव, उनके नाम डालना और उन पर नम्बर डालना, अस्पतालों, प्रसव केन्द्र, शिशु कल्याण केन्द्रों का निर्माण, टीका लगाने का प्रबंध तथा जन्म-मृत्यु पंजीकरण इत्यादि नगरनिगम के आवश्यक कार्य हैं।

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प्रश्न 2.
पंचायती राज व्यवस्था के सामने विद्यमान विभिन्न समस्याएँ लिखिए तथा इन्हें सुधारने के लिए सुझाव दीजिए।
उत्तर:
पंचायती राज व्यवस्था के सामने विद्यमान विभिन्न समस्याएँ निम्नलिखित हैं –

1. अशिक्षा:
निर्धनता और अशिक्षा भारत की सबसे मुख्य समस्याएँ हैं। गाँव के अधिकतर लोग अशिक्षित ही नहीं, निर्धन भी हैं। वे अपने हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते। ऐसे लोग न तो स्वशासन का अर्थ समझते हैं और न ही स्वशासन करने की योग्यता रखते हैं। वे पंचायत के कार्य में रुचि नहीं लेते। वे चुनाव में भी विशेष रुचि नहीं लेते।

यदि वे पंच चुन भी लिए जाएँ तो पंचायतों की बैठकों में उपस्थित नहीं होते। बस गाँव के एक-दो पढ़े-लिखे लोग जो चालाक भी होते हैं, सारे गाँव वालों को जैसा चाहे नचाते हैं, अतः गाँव में शिक्षा प्रसार विशेष रूप से प्रौढ़ शिक्षा का प्रबंध बहुत आवश्यक है। ग्राम पंचायत के सदस्यों की योग्यता में भी कुछ न कुछ शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।

2. सांप्रदायिकता:
सारे भारत में ही सांप्रदायिकता का विष फैला हुआ है और गाँव में तो यह और भी अधिक प्रबल है। सदस्य जाति-पाँति के आधार पर चुने जाते हैं, योग्यता के आधार पर नहीं। पंच चुने जाने के बाद भी जाति-पाँति के झगड़ों से बच नही पाते। इस तरह सीधे-सादे ग्रामीण पंचायत राज में विश्वास खो बैठते हैं। अतः इसके सुधार के लिए आवश्यक है कि शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ ग्रामवासियों को समझाया जाए कि उन सबकी समस्याएँ एक हैं। निर्धनता, भुखमरी, बीमारी बाढ़, सूखा सभी को समान रूप से सताते हैं। अतः सबको भेदभाव भुलाकर व संगठित होकर गाँवों का विकास और कल्याण करना चाहिए।

3. गुटबंदी:
कुछ लोग जो थोड़े चालाक होते हैं, पंचायत में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए गुट बना लेते हैं और चुनाव में यह गुटबंदी और अधिक प्रखर हो जाती है और गाँव वाले झगड़ों में फँस जाते हैं।

4. सरकार का अधिक हस्तक्षेप और नियंत्रण:
बहुत से समझदार लोग पंचायतों के कार्यक्रम में इसलिए भी रुचि नहीं लेते कि वे जानते हैं कि पंचायतों के पास न कोई विशेष स्वतंत्रता है, न अधिकार। सरकार अपने अधिकारों द्वारा पंचायतों के कामों में हस्तक्षेप करती रहती है। यदि एक पंचायत में उस दल का बहुमत है जो दल राज्य सरकार में विरोधी दल है तो राज्य मंत्रिमंडल उस पंचायत को ठीक तरह से कार्य नहीं करने देता। इस कारण लोगों का उत्साह पंचायती राज से कम होने लगता है।

5. धन का अभाव:
धन के अभाव में गाँव की योजनाएँ पूरी नहीं हो पाती। स्कूल नहीं बन पाते, गलियाँ, पुलिया, सड़क आदि की मरम्मत नहीं हो पाती। सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं को अधिक धन अनुदान के रूप में दे।

6. निर्धनता:
गाँव के अधिकांश लोग निर्धनता के शिकार होते हैं। वे न तो पंचायत को कर दे सकते हैं और न ही पंचायत के कामों में रुचि ले सकते हैं, क्योंकि दिन भर वे अपनी नमक, तेल, लकड़ी की चिंता में लगे रहते हैं। अतः वे गाँव के कल्याण या विकास की बात सोच भी नहीं सकते।

7. ग्राम सभा का प्रभावहीन होना:
ग्राम सभा पंचायती राज की प्रारंभिक इकाई है और पंचायती राज की सफलता बहुत हद तक इस संस्था के सक्रिय रहने पर निर्भर करती है, परंतु घ्यावहारिक रूप से इस संस्था की न तो नियमित बैठकें होती हैं और न ही गाँव के लोग इसमें रुचि लेते हैं।

8. राजनीतिक दलों का अनुचित हस्तक्षेप:
यद्यपि राजनीतिक दल पंचायत के चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करते परंतु फिर भी वे इन संस्थाओं के कार्यों में हस्तक्षेप किए बिना नहीं रह सकते। दलों का हस्तक्षेप इन संस्थाओं में गुटबंदी को और भी अधिक तीव्र कर देता है, क्योंकि दलों के सामने सार्वजनिक हित की अपेक्षा अपने सदस्यों का हित अधिक प्रिय होता है।

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प्रश्न 3.
भारत में नगरनिगम की आय के विभिन्न साधन क्या हैं?
उत्तर:
नगरनिगम की आय के प्रमुख साधन निम्नलिखित है –

  1. जल कर: नगरनिगम मकान तथा दुकानों के कर. मूल्य का लगभग 3 प्रतिशत उनके मालिकों से जल कर के रूप में वसूलता है।
  2. गृहकर: नगरनिगम गृहस्वामियों से उनकी सम्पत्ति के कर मूल्य का 11 प्रतिशत गृह कर के रूप में वसूल करता है।
  3. सफाई कर: नगरनिगम सम्पत्ति के कर मूल्य का एक प्रतिशत साफ-सफाई के रूप में वसूल करता है।
  4. अग्निशमन कर: नगरों में सम्पत्ति के कर मूल्य का 1/2 प्रतिशत अग्निशमन कर के रूप में लिया जाता है।
  5. भवन के नक्शों पर कर: भवन निर्माण करने से पूर्व नगरनिगम में भवन का नक्शा पास कराना पड़ता है। भवन निर्माण करने के इच्छुक व्यक्ति को नगरनिगम से नक्शा पास कराने का शुल्क जमा कराना होता है।
  6. मनोरंजन कर: नगरनिगम विभिन्न सिनेमाघरों, नाटकों, संगीत सम्मेलनों, सर्कस आदि मनोरंजन साधनों पर कर लगाता है। मनोरंजन कर नगरनिगम की आय का एक प्रमुख साधन है।

प्रश्न 4.
भारत में नगरपालिकाओं की रचना और उनके महत्त्वपूर्ण कार्यों का विवरण दीजिए।
उत्तर:
नगरपालिका की रचना और संगठन-नगरपालिका के तीन प्रधान अंग हैं –

1. परिषद् अथवा आमसभा:
नगरपालिका के अधिकांश सदस्यों का चुनाव नगर के आम मतदाताओं द्वारा किया जाता है। नयी व्यवस्था के तहत नगरपालिका के कुछ सदस्य राज्य सरकार द्वारा नामांकित किए जाएंगे। केवल ऐसे व्यक्ति ही नामांकित किए जाएंगे। जो निकाय प्रशासन का ज्ञान या अनुभव रखते हों अथवा संसद या विधान सभा में वे उन इलाकों का प्रतिनिधित्व करते हों जो नगरपालिका के क्षेत्र में शामिल हैं।

नगरपालिका के सदस्य को नगर पार्षद कहते हैं। नगरपालिका में कितने सदस्य होंगे, इसका निर्णय राज्य सरकार करती है। उत्तर प्रदेश की बड़ी नगरपालिकाओं की सदस्य संख्या 40-50 तथा छोटी नगरपालिकाओं की सदस्य संख्या 20 30 के लगभग होती है। अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण की व्यवस्था है।

एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। सभी वयस्क स्त्री-पुरुष मत देने का अधिकार रखते हैं। केवल ऐसे व्यक्ति ही चुनाव में खड़े हो सकते हैं जिनका नाम मतदाता सूची में है तथा जिनकी ओर नगरपालिका का कोई कर बकाया न हो। नयी व्यवस्था (74 वें संशोधन) में नगरपालिकाओं का कार्यकाल 5 वर्ष है। यदि नीरपालिका किसी कारण से भंग कर दी जाती है तो राज्यों के लिए यह आवश्यक कर दिया गया है कि 6 महीने के भीतर नयी नगरपालिका का चुनाव अवश्य कराएँ।

2. अध्यक्ष:
नगरपालिका के अध्यक्ष को चेयरमैन भी कहते हैं। इसका चुनाव पार्षदों द्वारा किया जाता है। यह परिषद् की बैठक बुलाता है और उसकी अध्यक्षता करता है। अध्यक्ष कार्यकारी अधिकारी, स्वास्थ्य अधिकारी तथा इंजीनियर को छोड़कर शेष कर्मचारियों को निलम्बित भी कर सकता है।

3. कार्यकारी अधिकारी तथा अन्य अधिकारी:
नगरपालिका के नित्य प्रति के कार्यों की देखभाल एक कार्यकारी अधिकारी करता है। वह नगरपालिका अधिकारियों के राज्य संवर्ग से अथवा राज्य सिविल सर्विस से लिया जाता है। कार्यकारी अधिकारी के अलावा नगरपालिका के और भी कई. महत्त्वपूर्ण अधिकारी हैं, जैसे स्वास्थ्य अधिकारी, इंजीनियर व शुल्क अधिकारी आदि।

नगरपालिका के कार्य-नगरनिगम की भांति नगरपालिका के तीन प्रकार के कार्य होते हैं –
(I) अनिवार्य कार्य:

1. स्वास्थ्य व सफाई:

  • सार्वजनिक शौचालयों का निर्माण करना तथा मल निकासी के लिए नाले व बड़ी-बड़ी नालियाँ बनवाना।
  • अस्पतालों, चिकित्सा केन्द्रों तथा मातृ व शिशु कल्याण केन्द्रों की स्थापना।
  • खाने-पीने की चीजों में मिलावट की रोकथाम।
  • गली-सड़ी चीजों की बिक्री पर रोक लगाना।
  • चेचक, हैजा व अन्य बीमारियों की रोकथाम के लिए टीके लगवाना।

2. शिक्षा:
नगरपालिका प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक स्कूलों की स्थापना करती है। नगरपालिका प्राथमिक स्तर तक निःशुल्क शिक्षा का प्रबंध करती है तथा गरीब व मेधावी छात्रों को छात्रवृत्तियाँ प्रदान करती हैं।

3. पानी व बिजली की आपूर्ति:
नगरपालिका पीने के पानी का प्रबंध करती है। साथी ही घरेलू व औद्योगिक उपयोग के लिए बिजली का प्रबंध करती है। सड़कों व गलियों में प्रकाश की व्यवस्था करती है।

4. सार्वजनिक निर्माण के कार्य:
नगरपालिका सार्वजनिक निर्माण का भी कार्य करती है।

जैसे –

  • नलियों व सड़कों का निर्माण करना।
  • पुल या पुलिया बनवाना।
  • बाजार व दुकानों का निर्माण।
  • पाठशालाएँ बनवाना।
  • बारात घर, टाउन हॉल व कम्युनिटी हाल का निर्माण।

5. ऐच्छिक कार्य:

  • अग्निकांड से नागरिकों की रक्षा।
  • परिवार कल्याण कार्यक्रमों को बढ़ावा देना।
  • सार्वजनिक पार्कों का निर्माण।
  • पुस्तकालयों व वाचनालयों की स्थापना।
  • जिम्नेजियम और स्टेडियम बनवाना।
  • अजायबघर बनवाना।
  • प्रदर्शनी, मेलों और हाटों का प्रबंध करना।

3. सामाजिक और आर्थिक विकास संबंधी कार्य:

  • सामाजिक-आर्थिक विकास की योजनाएँ तैयार करना।
  • पर्यावरण को सुरक्षित बनाना।
  • समाज के कमजोर वर्गों और अपंग व मानसिक रूप से अशक्त लोगों के हितों की रक्षा करना।
  • गरीबी निवारण कार्यक्रम को लागू करना।
  • गन्दी बस्तियों को उन्नत करना।

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प्रश्न 5.
भारत में पंचायती राज के त्रिस्तरीय ढाँचे की कार्यप्रणाली की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
पंचायती राज से हमारा अभिप्राय उस व्यवस्था से है जिसके अनुसार गाँव के लोगों को अपने गाँवों का प्रशासन तथा विकास स्वयं अपनी इच्छानुसार करने का अधिकार दिया गया है। गाँव के लोग अपने इस अधिकार का उपयोग पंचायत द्वारा करते हैं। इसलिए इसे ‘पंचायती राज’ कहा जाता है। पंचायती राज में गाँव के विकास के लिए तीन संस्थाएँ काम करती हैं –

  1. गाँव में पंचायत
  2. खण्ड स्तर पर खण्ड समिति तथा
  3. जिला स्तर पर जिला परिषद्

1. ग्राम पंचायत:
ग्राम पंचायत ग्राम सभा की कार्यपालिका होती है। इसके सदस्यों का निर्वाचन ग्राम सभा द्वारा संयुक्त निर्वाचन के आधार पर किया जाता है। ग्राम पंचायत के प्रधान को सरपंच कहते हैं। इसके प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  • ग्राम पंचायत गाँव में स्वच्छ पानी की व्यवस्था करती है।
  • सफाई का प्रबंध व बीमारियों की रोकथाम करती हैं।
  • बच्चों की शिक्षा के लिए पाठशालाओं का प्रबंध करती है।
  • सड़कों, गलियों, नालियों की मरम्मत तथा उनके निर्माण का प्रबंध करती है।
  • कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन देती है।
  • ग्राम पंचायत कृषि की उन्नति के लिए अच्छे बीजों, उत्तम खाद और उन्नत औजारों का प्रबंध करती है।

2. पंचायत समिति:
पंचायत समिति एक खण्ड की पंचायत होती है। यह खण्ड लगभग 100 ग्रामों का होता है। पंचायत समिति की सदस्यता इस प्रकार होती है –

  • खण्ड या क्षेत्र की सभी ग्राम पंचायतों के सरपंच।
  • नगरपालिकाओं और सहकारी समितियों के अध्यक्ष।
  • उस क्षेत्र का खण्ड विकास अधिकारी।
  • उस क्षेत्र के निर्वाचित सदस्य, विधान सभा और विधान परिषद् के सदस्य।

73 वें संशोधन के बाद पंचायत समिति के सदस्यों का चुनाव सीधे जनता द्वारा होता है। पंचायत समिति के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

  • अपने क्षेत्र की कृषि तथा छोटे उद्योगों की उन्नति करना।
  • अपने क्षेत्र में सफाई तथा स्वास्थ्य का प्रबंध करना तथा बीमारियों की रोकथाम करना।
  • अपने क्षेत्र की विकास योजनाओं को लागू करना।

3. जिला पंचायत:
पंचायती राज योजना में जिला पंचायत सर्वोच्च स्तर की संस्था है। जिला पंचायत के सदस्यों का निर्वाचन भी सीधे जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से कराया जाता है। इसकी अवधि पाँच वर्ष की होती है। यदि प्रदेश सरकार पाँच वर्ष से पहले इसे भंग करती है तो भी 6 माह के भीतर नया चुनाव कराना अनिवार्य है। अनुसूचित जाति व जनजातियों की जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था है। महिलाओं को प्रत्येक वर्ग में एक तिहाई सीटों का आरक्षण दिया गया है। जिला पंचायत के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  • जिले की ग्राम पंचायतों और पंचायत समितियों के कार्यों में समन्वय स्थापित करना।
  • पंचायत समितियों के बजट कार्यों का निरीक्षण करना।
  • पंचायत समितियों के बजट को स्वीकृत करना।
  • जिले के लिए निर्धारित सभी कृषि सम्बन्धी कार्यक्रम, रचनात्मक तथा रोजगार लक्ष्यों, को सही रूप में क्रियान्वित करना।

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प्रश्न 6.
भारत में पंचायती राज अधिक सफल नहीं हुआ है। इसके क्या कारण हैं?
उत्तर:
भारत में स्थापित पंचायती राज अधिक सफल नहीं हुआ है। इसके निम्नलिखित कारण रहे हैं –

1. अशिक्षा:
निर्धनता और अशिक्षा भारत की सबसे मुख्य समस्याएँ हैं। गाँव के अधिकतर लोग अशिक्षित ही नहीं, निर्धन भी हैं। वे अपने हस्ताक्षर तक नहीं कर सकते। ऐसे लोग न तो स्वशासन का अर्थ समझते हैं और न ही स्वशासन करने की योग्यता रखते हैं। वे पंचायत के कार्य में कोई रुचि नहीं लेते। वे चुनाव में भी विशेष रुचि नहीं लेते।

यदि वे पंच चुन भी लिए जाएँ तो पंचायत की बैठकों में उपस्थित नहीं होते। बस गाँव के एक-दो पढ़े-लिखे लोग, जो चालाक भी होते हैं। सारे गाँव वालों को जैसा चाहें, नचाते हैं। अतः गाँव में शिक्षा प्रसार विशेष रूप से प्रौढ़ शिक्षा का प्रबंध बहुत आवश्यक है। ग्राम पंचायत के सदस्यों की योग्यता में भी कुछ न कुछ शिक्षा अनिवार्य होनी चाहिए।

2. सांप्रदायिकता:
सारे भारत में ही सांप्रदायिकता का विष फैला हुआ है और गाँवों में तो यह और भी अधिक प्रबल है। सदस्य जाति-पाति के आधार पर चुने जाते हैं योग्यता के आधार पर नहीं। पंच चुने जाने के बाद भी वे जाति-पाति के झगड़ों से बच नहीं पाते। इस तरह सीधे-सादे ग्रामीण पंचायत राज में विश्वास खो बैठते हैं। अतः इसके सुधार के लिए आवश्यक है कि शिक्षा के, प्रसार के साथ-साथ ग्रामवासियों को समझाया जाए कि उन सबकी समस्याएँ एक हैं। निर्धनता, भुखमरी, बीमारी, बाढ़, सूखा सभी को समान रूप से सताते हैं।

3. गुटबंदी:
कुछ लोग जो थोड़े चालाक होते हैं, पंचायत में अपनी ताकत बढ़ाने के लिए गुट बना लेते हैं और चुनाव में यह गुटबंदी और अधिक प्रखर हो जाती है और गाँव वाले झगड़ों में फँस जाते हैं।

4. सरकार का अधिक हस्तक्षेप और नियंत्रण:
बहुत से समझदार लोग पंचायतों के कार्यक्रम में इसलिए भी रुचि नहीं लेते कि वे जानते हैं कि पंचायतों के पास न कोई विशेष स्वतंत्रता है, न अधिकार। सरकार अपने अधिकारों द्वारा पंचायतों के कामों में हस्तक्षेप करती रहती है। यदि एक पंचायत में उस दल का बहुमत है जो दल राज्य सरकार में विरोधी दल का तो राज्य मंत्रिमंडल उस पंचायत को ठीक तरह से कार्य नहीं करने देता। इस कारण लोगों का उत्साह पंचायती राज से कम होने लगता है।

5. धन का अभाव:
धन के अभाव में गाँव की योजनाएँ पूरी नहीं हो पाती। स्कूल नहीं बन पाते, गलियाँ, पुलिया, सड़क आदि की मरम्मत नहीं हो पाती। सरकार को चाहिए कि इन संस्थाओं को अधिक धन अनुदान के रूप में दे।

6. निर्धनता:
गाँव के अधिकांश लोग निर्धनता के शिकार होते हैं। वे न तो पंचायत को कर दे सकते हैं और न ही पंचायत के कामों में रुचि ले सकते हैं, क्योंकि दिन भर वे अपनी नमक, तेल, लकड़ी की चिन्ता में लगे रहते हैं। अत: वे गाँव के कल्याण या विकास की बात सोच भी नहीं सकते।

7. ग्राम सभा का प्रभावहीन होना:
ग्राम सभा पंचायती राज की प्रारंभिक इकाई है और पंचायती राज की सफलता बहुत हद तक इस संस्था के सक्रिय रहने पर निर्भर करती है, परंतु व्यावहारिक रूप में इस संस्था की न तो नियमित बैठकें होती है और नहीं गाँव के लोग इसमें रुचि लेते हैं।

8. राजनीतिक दलों का अनुचित हस्तक्षेप:
यद्यपि राजनीतिक दल पंचायत के चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़े नहीं करते, परंतु फिर भी वे इन संस्थाओं के कार्यों में हस्तक्षेप किए बिना नहीं रह सकते। दलों का हस्तक्षेप इन संस्थाओं में गुटबंदी को और भी अधिक तीव्र कर देता है क्योंकि दलों के सामने सार्वजनिक हित की अपेक्षा अपने सदस्यों का हित अधिक प्रिय होता है।

9. अयोग्य तथा लापरवाह कर्मचारी:
स्थानीय संस्थाएँ अपने दैनिक कार्यों के लिए अपने कर्मचारियों पर निर्भर करती हैं। चूँकि इन कर्मचारियों की योग्यता, वेतन और भत्ते आदि कम होते हैं तथा इनकी सेवा की शर्ते भी अन्य सरकारी कर्मचारियों के मुकाबले में इतनी अच्छी नहीं होती। वह प्राय: आलसी, अयोग्य तथा लापरवाह होते हैं। वेतन कम होने के कारण वे रिश्वत आदि का भी लालच करते हैं जिससे प्रशासनिक कुशलता गिरती है।

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प्रश्न 7.
नगर पंचायत की रचना और कार्य बताइए।
उत्तर:
भारत में शहरी क्षेत्रों में स्थानीय संस्थाओं का वर्तमान गठन संविधान के 74 वें संशोधन अधिनियम पर आधारित है। संविधान के 74वें संशोधन द्वारा प्रत्येक राज्य में तीन प्रकार की नगरपालिकाएं स्थापित की गयी हैं –

  1. नगर पंचायत
  2. नगरपालिका
  3. नगरनिगम

नगर पंचायत:
जो क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्र से नगरीय क्षेत्र बन रहा है, वहाँ नगर पंचायत की स्थापना होती है। अधिसूचित क्षेत्र समिति को अब नगर पंचायत की संज्ञा दी जा सकती है।

रचना:
नगर पंचायत के अधिकांश सदस्य आम मतदाताओं द्वारा चुने जाते हैं। कुछ सदस्य राज्य सरकार द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। केवल ऐसे व्यक्ति ही मनोनीत किए जाएंगे जो म्युनिसिपल प्रशासन का ज्ञान या अनुभव रखते हैं अथवा संसद या विधान सभा में उन क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करते हों जो नगर पंचायत के क्षेत्र में शामिल हैं। नगर पंचायत का कार्यकाल 5 वर्ष है। यदि किसी कारण से नगर पंचायत भंग कर दी जाय तो 6 महीने में नयी नगर पंचायत के गठन के लिए चुनाव हो जाता चाहिए। नगर पंचायत के सदस्य अपने अध्यक्ष का चुनाव करते हैं। नित्य प्रति के कार्यों का सम्पादन सचिव करता है।

कार्य:
नगर पंचायतें वे सभी कार्य अपने हाथों में ले सकती है जो नगरपालिकाएँ सम्पन्न करती हैं। संक्षेप में उनके कार्य इस प्रकार हैं –
सड़कें बनवाना, उनकी मरम्मत करवाना, चिकित्सा का प्रबंध करना, संक्रामक रोगों की रोकथाम के लिए टीके लगवाना, प्राइमरी विद्यालयों का प्रबंध कराना, मातृ व शिशु कल्याण केन्द्रों का प्रबंध, बिजली की व्यवस्था तथा जन्म-मृत्यु आदि का ब्योरा रखना। नगर पंचायतें सामाजिक, आर्थिक विकास संबंधी योजनाएँ भी लागू करती हैं जिनमें गरीबी निवारण योजना भी शामिल है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नगर निगम के निर्वाचित अध्यक्ष होते हैं –
(क) वार्ड कौंसलर
(ख) महापौर
(ग) उप-महापौर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) महापौर

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में राज्यों को ग्राम पंचायतों की स्थापना का निर्देश दिया गया है?
(क) अनुच्छेद 38
(ख) अनुच्छेद 39
(ग) अनुच्छेद 40
(घ) अनुच्छेद 44
उत्तर:
(ग) अनुच्छेद 40

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प्रश्न 3.
भारत में कितने स्तरीय पंचायती राज की स्थापना की गई है?
(क) द्विस्तरीय
(ख) एक स्तरीय
(ग) चार स्तरीय
(घ) त्रीस्तरीय
उत्तर:
(घ) त्रीस्तरीय

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

Bihar Board Class 11 Political Science संघवाद Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
नीचे कुछ घटनाओं की सूची दी गई है। इनमें से किसको आप संघवाद की कार्य-प्रणाली के रूप में चिह्नित करेंगे और क्यों?

1. केन्द्र सरकार ने मंगलवार को जीएनएलएफ के नेतृत्व वाले दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल को छठी अनुसूची में वर्णित दर्जा देने की घोषणा की। इससे पश्चिम बंगाल के इस पर्वतीय जिले के शासकीय निकाय को ज्यादा स्वायत्तता प्राप्त होगी। दो दिन के गहन विचार-विमर्श के बाद नई दिल्ली में केन्द्र सरकार, पश्चिम बंगाल सरकार और सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाले गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट (जीएनएलएफ) के बीच त्रिपक्षीय समझौते पर हस्ताक्षर हुए।
उत्तर:
यह घटना संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित की जा सकती है, क्योंकि इसमें क्या केन्द्र सरकार, राज्य सरकार (पश्चिम बंगाल सरकार) तथा सुभाष घीसिंग के नेतृत्व वाली गोरखा लिबरेशन फ्रंट तीनों शामिल हुए।

2. वर्षा प्रभावित प्रदेशों के लिए सरकार कार्य-योजना लाएगी –
केन्द्र सरकार ने वर्षा प्रभावित प्रदेशों से पुनर्निर्माण की विस्तृत योजना भेजने को कहा है ताकि वह अतिरिक्त राहत प्रदान करने की उनकी माँग पर फौरन कार्रवाई कर सके।
उत्तर:
यह घटना अथवा प्रक्रिया भी संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित की जायगी।

3. दिल्ली के लिए नए आयुक्त –
देश की राजधानी दिल्ली में नए नगरपालिका आयुक्त को बहाल किया जायगा। इस बात की पुष्टि करते हुए एमसीडी के वर्तमान आयुक्त राकेश मेहता ने कहा कि उन्हें अपने तबादले के आदेश मिल गए हैं और संभावना है कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अशोक कुमार उनकी जगह संभालेंगे। अशोक कुछ अरुणाचल प्रदेश के मुख्य सचिव की हैसियत से काम कर रहे हैं। 1975 बैच के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी श्री मेहता पिछले साढ़े तीन साल से आयुक्त की हैसियत से काम कर रहे हैं।
उत्तर:
यह तबादले का आदेश भी संघात्मक राज्य में केन्द्र सरकार के अधिकार में आता है। अत: यह भी संघात्मक शासन प्रणाली अथवा संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में माना जायगा।

4. मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा –
राज्यसभा ने बुधवार को मणिपुर विश्वविद्यालय को केन्द्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा प्रदान करने वाला विधेयक पारित किया। मानव संसाधन विकास मंत्री ने वायदा किया है कि अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा और सिक्किम
जैसे पूर्वोत्तर के राज्यों में भी ऐसी संस्थाओं का निर्माण होगा।
उत्तर:
उक्त घटना के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि संघवाद में केन्द्र और राज्यों के बीच शक्ति का विभाजन रहता है। अतः केन्द्रीय विद्यालय केन्द्र सरकार के अधीन होगा।

5. केन्द्र ने धन दिया –
केन्द्र सरकार ने अपनी ग्रामीण जलापूर्ति योजना के तहत अरुणाचल प्रदेश को 553 लाख रुपये दिए हैं। इस धन की पहली किश्त के रूप में अरुणाचल प्रदेश को 466 लाख रुपये दिए गए हैं।
उत्तर:
इस घटना में केन्द्र ने राज्य सरकार (अरुणाचल सरकार) को धन मुहैया कराया है। यह भी संघवाद की कार्यप्रणाली के अन्तर्गत आता है।

6. हम बिहारियों को बताएंगे कि मुंबई में कैसे रहना है:
करीब 100 शिवसैनिकों मुंबई के जे.जे. अस्पताल में उठा-पटक करके रोजमर्रा के कामधंधे में बाधा पहुँचाई, नारे लगाए, और धमकी दी कि गैर-मराठियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं की गई तो इस मामले को वे स्वयं ही निपटाएँगे।
उत्तर:
यह कार्यवाही संघवाद कार्यप्रणाली के अनुरूप नहीं है क्योंकि कोई राज्य भारतीय नागरिक को किसी प्रदेश में रहने से नहीं रोक सकता।

7. सरकार को भंग करने की माँग –
कांग्रेस विधायक दल ने प्रदेश के राज्यपाल को हाल में सौंपे एक ज्ञापन में सत्तारूढ़ डमोक्रेटिक एलायंस ऑफ नागालैंड (डीएएन) की सरकार को तथाकथित वित्तीय अनियमितता और सार्वजनिक धन के गबन के आरोप में भंग करने की मांग की है।
उत्तर:
संघवाद की कार्यप्रणाली में जब किसी राज्यों में शासन भ्रष्टाचार में लिप्त हो तो संघ (केन्द्र) राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा सकता है, यदि राज्यपाल इस तरह की सिफारिश करे। उपरोक्त उदाहरण में राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा गया है, अतः इसे संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में देखा जा सकता है।

8. एनडीए सरकार ने नक्सलियों से हथियार रखने को कहा –
विपक्षी दल राजद और उसके सहयोगी कांग्रेस तथा सीपीआई (एम) के वॉकआऊट के बीच बिहार सरकार ने आज नक्सलियों से अपील की कि वे हिंसा का रास्त छोड़ दें। बिहार को विकास के नए युग में ले जाने के लिए बेरोजगारी को जड़ से खत्म करने के अपने वादे को सरकार ने दोहराया।
उत्तर:
उक्त उदाहरण में एक राज्य सरकार के द्वारा किए जाने वाले कार्य को दर्शाया गया है। उसे संघवाद की कार्यप्रणाली के रूप में चिह्नित नहीं किया जा सकता।

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प्रश्न 2.
बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सा कथन सही होगा और क्यों?

  1. संघवाद से इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेल-जोल से रहेंगे और उन्हें इस बात का भय नहीं रहेगा कि एक संस्कृति दूसरे पर लाद दी जायगी।
  2. अलग-अलग किस्म के संसाधनों वाले दो क्षेत्रों के बीच आर्थिक लेन देन के संघीय प्रणाली से बाधा पहुँचेगी।
  3. संघीय प्रणाली इस बात को सुनिश्चित करती है कि जो केन्द्र में सत्तासीन है उनकी शक्तियों सीमित रहें।

उत्तर:
1. उपरोक्त कथन में जो प्रश्न में दिए गए हैं उनमें से यह कथन सही है कि संघवाद से इस बात की सम्भावना बढ़ जाती है कि विभिन्न क्षेत्रों के लोग मेलजोल करेंगे और उन्हें इस बात का डर नहीं रहेगा कि एक की संस्कृत दूसरे पर लाद दी जायगी।

प्रश्न 3.
बेल्जियम के संविधान के कुछ प्रारंभिक अनुच्छेद नीचे लिखे गए हैं। इसके आधार पर बताएँ कि बेल्जियम में संघवाद को किस रूप में साकार किया गया है। भारत के संविधान के लिए ऐसा ही अनुच्छेद लिखने का प्रयास करके देखें।

शीर्षक-1 –
संघीय बेल्जियम, इसके घटक और इसका क्षेत्र अनुच्छेद-1-बेल्जियम एक संघीय राज्य है – जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है।

अनुच्छेद-2 –
बेल्जियम तीन समुदायों से बना है – फ्रेंच समुदाय, फ्लेमिश समुदाय और जर्मन समुदाय।

अनुच्छेद –
3-बेल्जियम तीन क्षेत्रों को मिलाकर बना है-वैलून क्षेत्र, फ्लेमिश क्षेत्र और ब्रूसेल्स क्षेत्र।

अनुच्छेद –
4-बेल्जियम में 4 भाषाई क्षेत्र हैं- भाषी क्षेत्र, ब्रुसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र हार कायन इन भाषाई क्षेत्रों में से किसी एक का हिस्सा है।

अनुच्छेद –
5-वैलून क्षेत्र के अंतर्गत प्रांत हैं-वैलून ब्राबैंट, हेनॉल्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अंतर्गत शामिल प्रांत हैं-एंटीवर्प, फ्लेमिश ब्राबैंट, वेस्ट फ्लैडर्स, ईस्ट: फ्लैंडर्स और लिंबर्ग।
उत्तर:
संघीय बेल्जियम, उसके घटक और उसका क्षेत्र-बेल्जियम एक संघीय राज्य है जो समुदायों और क्षेत्रों से बना है। भारतीय संविधान का यह प्रथम अनुच्छेद है कि –

  1. भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा।
  2. राज्य और उनके राज्य क्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में निर्दिष्ट हैं।
  3. भारत के राज्य क्षेत्र में –

(क) राज्यों के राज्य क्षेत्र
(ख) पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट संघराज्य क्षेत्र और
(ग) ऐसे अन्य राज्य क्षेत्र जो अर्जित किए जाएं समाविष्ट होंगे।

अनुच्छेद 2 –
बेल्जियम तीन समुदायों से बना है-फ्रेंच फ्लेमिश और जर्मन। भारत एक ऐसे समाज के लिए प्रेरित है जो जाति भेद से रहित हो परंतु प्रत्येक प्रान्त में सीटें तीन मुख्य समुदायों में मुस्लिम, सिक्ख और सामान्य में बंटी हैं।

अनुच्छेद 3 –
बेल्जियम तीन क्षेत्रों से बना है –

  1. वैलून क्षेत्र
  2. फ्लेमिश क्षेत्र
  3. ब्रूसेल्स क्षेत्र

भारत में 28 राज्य तथा 7 संघ शासित राज्य हैं। अनुच्छेद 1 के अनुसार भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा। राज्य तथा संघशासित क्षेत्र वे होंगे जो अनुसूची
1. में दिए गए हैं।

अनुच्छेद 4 –
बेल्जियम में 4 भाषायी क्षेत्र हैं-फ्रेंच भाषी क्षेत्र, डच भाषी क्षेत्र, ब्रूसेल्स की राजधानी का द्विभाषी क्षेत्र तथा जर्मन भाषी क्षेत्र। राज्य का प्रत्येक ‘कम्यून’ इन भाषायी क्षेत्रों में किसी एक का हिस्सा है।

भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में इस समय कुल 22 भाषाएँ दी गयी हैं। असमिया, बंगला, गुजराती, हिन्दी, कन्नड़ कश्मीरी, मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलगू, उर्दू, कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली, बोडो, डोंगरी, मैथिली और नेपाली को 71 वें संविधान संशोधन द्वारा 1992 में, बोडो, डोंगरी, मैथिली और संथाली को 92 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा जोड़ा गया। इस प्रकार अब कुल 22 भाषाओं को राजभाषा के रूप में संवैधानिक मान्यता प्राप्त है।

संविधान के अनुच्छेद 345 के अधीन प्रत्येक राज्य के विधानमंडल को यह अधिकार दिया गया है कि वह संविधान की आठवीं अनुसूची में अन्तर्निहित भाषाओं में से किसी एक या अधिक को सरकारी कार्यों के लिए राज्य की भाषा के रूप में अंगीकार कर सकता है। किन्तु राज्यों के परस्पर सम्बन्धों तथा संघ और राज्यों के परस्पर सम्बन्धों में संघ की राजभाषा को ही प्राधिकृत भाषा माना जायगा।

अनुच्छेद 5 –
वैलून क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले प्रान्त हैं – वैलून, ब्राबैन्ट, हेनान्ट, लेग, लक्जमबर्ग और नामूर। फ्लेमिश क्षेत्र के अन्तर्गत शामिल प्रान्त हैं एन्टवर्प, फ्लेमिश ब्राबैन्ट, वेस्ट फ्लेंडर्स, इस्ट फ्लेंडर्स और लिम्बर्ग। भारत में अलग-अलग क्षेत्र संविधान में नहीं दिए गए हैं, परंतु इनकी तुलना हम पहाड़ी क्षेत्र, उत्तरी क्षेत्र, पश्चिमी क्षेत्र, दक्षिणी क्षेत्र, पूर्वी क्षेत्र, पूर्वोत्तर भारत तथा मध्य भारत आदि के रूप में कर सकते हैं। संविधान के अनुच्छेद प्रथम में केवल इतना कहा गया है कि भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा जिसमें राज्य तथा संघ शासित प्रदेश इस प्रकार सम्मिलित होंगे जैसा अनुसूची – में वर्णन किया गया है।

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प्रश्न 4.
कल्पना करें कि आपको संघवाद के संबंध में प्रावधान लिखने हैं। लगभग 300 शब्दों का एक लेख लिखें जिसमें निम्नलिखित बिन्दुओं पर आपके सुझाव हों

  1. केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा
  2. वित्त-संसाधनों का वितरण
  3. राज्यपालों की नियुक्ति

उत्तर:
1. केन्द्र और प्रदेशों के बीच शक्तियों का बँटवारा:
भारतीय संविधान द्वारा संघ और राज्यों के बीच शक्ति विभाजन तो किया गया है, लेकिन शक्ति विभाजन की इस सम्पूर्ण योजना में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति प्रबल है। केन्द्रीय सूची में 97 विषय, राज्य सूची में 66 विषय ओर समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर संघ और राज्य दोनों को ही कानून बनाने की शक्ति प्राप्त है, लेकिन पारस्परिक विरोध की स्थिति में संघीय सरकार के कानून ही मान्य होंगे। अवशिष्ट शक्तियों भी केन्द्रीय सरकार को प्राप्त हैं। अनुच्छेद 249 के अनुसार राज्य सूची के विषय में राष्ट्रीय हित में कानून बनाने की शक्ति भी संसद के पास है।

मूल संविधान द्वारा केन्द्रीय सरकार और इकाइयों की सरकारों के बीच जो शक्ति विभाजन किया गया, उसमें 42वें संशोधन (1976) द्वारा महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। इस संविधानिक संशोधन द्वारा राज्य सूची के चार विषय-शिक्षा, वन, वन्य जीव जन्तुओं और पक्षियों का रक्षण तथा नाप-तौल समवर्ती सूची में कर दिए गए और समवर्ती सूची में एक नवीन विषय जनसंख्या नियंत्रण और परिवार नियोजन जोड़ा गया है।

केन्द्र-राज्य संबंध-संवैधानिक प्रावधान

अनुच्छेद 246 –
संसद को सातर्वी अनुसूची की सूची में प्रमाणित विषयों पर कानून बनाने की शक्ति।

अनुच्छेद 248 –
अवशिष्ट शक्तियाँ संसद के पास।

अनुच्छेद 249 –
राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में राष्ट्रीय हित में विधि बनाने की शक्ति संसद के पास।

अनुच्छेद 250 –
यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में हो तो राज्य सूची के विषय के सम्बन्ध में कानून बनाने की संसद की शक्ति।

अनुच्छेद 252 –
दो या अधिक राज्यों के लिए उनकी सहमति से कानून बनाने की संसद की शक्ति।

अनुच्छेद 257 –
संघ की कार्यपालिका किसी राज्य को निर्देश दे सकती है।

अनुच्छेद 257 –
(क) संघ के सशस्त्र बलों या अन्य बलों के अभियोजन द्वारा राज्यों की सहायता।

अनुच्छेद 263 –
अन्तर्राज्यीय परिषद का प्रावधान।

2. वित्तीय संसाधनों का वितरण –
संविधान द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के मध्य वित्तीय संबंधों का निरूपण इस प्रकार किया जाता है; जातीय संविधान में संघ तथा राज्यों के मध्य कर निर्धारण की शक्ति का पूर्ण विभाजन कर दिया गया है। करों से प्राप्त आय का बँटवारा होता है। संघ के प्रमुख राजस्व स्रोत इस प्रकार हैं-निगमकर, सीमा शुल्क, निर्यात शुल्क, कृषि भूमि को छोड़कर अन्य सम्पत्ति पर सम्पदा शुल्क, विदेशी ऋण, रेलें, रिजर्व बैंक, शेयर बाजार आदि। राज्यों के राजस्व स्रोत हैं-प्रति व्यक्ति कर, कृषि भूमि पर कर, सम्पदा शूल्क, भूमि और भवनों पर कर, पशुओं तथा नौकाओं पर कर, बिजली के उपयोग तथा विक्रय पर कर, वाहनों पर चुंगी कर आदि।

संघ द्वारा आरोपित संग्रहीत तथा विनियोजित किए जाने वाले शुल्कों के उदाहरण हैं-बिल, विनियमों, प्रोमिसरी नोटों, हुण्डियों, चेकों आदि पर मुद्रांक शुल्क और दवा, मादक द्रव्य पर कर, शौक-शृंगार की चीजों पर कर तथा उत्पादन शुल्क। संघ द्वारा आरोपित तथा संगृहीत किन्तु राज्यों को सौंपे जाने वाले करों के उदाहरण हैं – कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति के उत्तराधिकार पर कर, कृषि भूमि के अतिरिक्त अन्य सम्पत्ति शुल्क, रेल, समुद्र, वायु द्वारा ले जाने वाले माल तथा यात्रियों पर सीमांत कर, रेलभाड़ों तथा वस्तु भाड़ों पर कर, शेयर बाजार तथा सट्टा बाजार के आदान-प्रदान पर मुद्रांक शुल्क के अतिरिक्त कर, समाचार पत्रों के क्रय-विक्रय तथा उसमें प्रकाशित किए गए विज्ञापनों पर और अन्य अन्तर्राज्यीय व्यापार तथा वाणिज्य से माल के क्रय-विक्रय पर कर।

3. अन्तर्राज्यीय झगड़ों का निपटारा –
संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों के बीच आपसी विवाद भी होते रहते हैं। प्रायः दो प्रकार के विवाद होते हैं-एक है सीमा-विवाद मणिपुर व नागालैंड के बीच, पंजाब व हरियाणा के बीच, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि राज्यों में सीमा विवाद बना हुआ है। नदियों के जल बँटवारे को लेकर भी गम्भीर विवाद है। कावेरी जल विवाद इसका प्रमुख उदाहरण है।

तमिलनाडु और कर्नाटक के बीच यहाँ विवाद चल रहा है। संसद को यह अधिकार है कि नदियों के जल के बँटवारे से सम्बन्धित किसी विवाद को निपटाने के लिए उचित कानून बनाए। 1956 में संसद ने एक ‘जलविवाद अधिनियम’ बनाया था जिसके अनुसार इस प्रकार के विवाद केवल एक सदस्य वाले एक ट्रिव्यूनल को सौंपे जाएँगे, जिसके जज की नियुक्ति उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश करेंगे।

राज्यों के बीच विवादों को उच्चतम न्यायालय में ले जाया जा सकता है। परंतु कभी-कभी राज्यों के बीच इस प्रकार के विवाद उठते हैं, जिनका कोई कानूनी आधार नहीं होता। संविधान निर्माताओं ने इसी कारण एक अन्तर्राज्यीय परिषद की स्थापना पर बल दिया है।

4. राज्यपालों की नियुक्ति –
राज्यों में राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। राष्ट्रपति देश का संवैधानिक प्रमुख होने के कारण राज्यपाल की नियुक्ति प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद के परामर्श से करता है। अतः प्रधानमंत्री ऐसे व्यक्ति को राज्यपाल बनाना चाहेंगे जो उसका विश्वासपात्र हो क्योंकि ऐसे व्यक्ति द्वारा आवश्यकता पड़ने पर राज्य पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता है। राज्यपाल राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकता है। 1980 के दशक में केन्द्रीय सरकार ने आन्ध्र-प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त कर दिया।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित में कौन-सा प्रांत के गठन का आधार होना चाहिए और क्यों?

  1. सामान्य भाषा
  2. सामान्य आर्थिक हित
  3. सामान्य क्षेत्र
  4. प्रशासनिक सुविधा

उत्तर:
किसी प्रांत के गठन का आधार क्या होना चाहिए? आधुनिक युग में इस पर नये दृष्टिकोण की आवश्यकता है। ब्रिटिश भारत में प्रांतों का गठन प्रशासनिक सुविधाओं को ध्यान में रखकर किया गया था, परंतु आज के युग में भाषाई क्षेत्र के आधार पर प्रांतों का गठन उचित माना जाता है, क्योंकि समाज में अनेक विविधताएँ होती हैं और आपसी विश्वास से संघवाद का कामकाज आसानी से चलाने का प्रयास किया जाता है।

कोई एक इकाई, प्रांत, भाषायी समुदाय आदि मिलकर संघ का निर्माण करते हैं और संघवाद मजबूती के साथ आगे बढ़े इसके लिए इकाइयों में टकराव कम से कम हो। अत: भारत में राज्यों का पुनर्गठन भाषायी आधार पर किया गया है। कोई एक भाषायी समुदाय पूरे संघ पर हावी न हो जाए इस कारण इकाई क्षेत्रों की अपनी भाषा, धर्म, सम्प्रदाय या सामुदायिक पहचान बनी रहती है और वे इकाई अपनी अलग पहचान होते हुए भी संघ की एकता में विश्वास रखती है।

प्रश्न 6.
उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश तथा बिहार के अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाय तो क्या ऐसा करना संघवाद के विचारों से संगत होगा? तर्क दीजिए।
उत्तर:
उत्तर भारत के प्रदेशों-राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार के अधिकांश लोग हिन्दी बोलते हैं। यदि इन सभी प्रांतों को मिलाकर एक प्रदेश बना दिया जाए तो ऐसा करना संघवाद के विचार से असंगत होगा। जैसा कि हम जानते हैं कि संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं को समाहित करती है। इसमें एक प्रांतीय स्तर की होती है और दूसरी केन्द्रीय स्तर की। लोगों की दोहरी पहचान होती है। दोहरी निष्ठाएँ होती हैं-वे अपने क्षेत्र के भी होते हैं और राष्ट्र के भी। अतः उपरोक्त प्रदेशों को केवल हिन्दी भाषी होने के कारण एक प्रदेश बनाना संघवाद के विचार से असंगत है।

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प्रश्न 7.
भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताओं का उल्लेख करें जिसमें प्रादेशिक सरकार की, अपेक्षा केन्द्रीय सरकार को ज्यादा शक्ति प्रदान की गई है।
उत्तर:
भारत के संविधान में दो प्रकार की सरकारों की बात मानी गयी है एक सम्पूर्ण भारत के लिए संघीय सरकार और दूसरी प्रत्येक संघीय इकाई के लिए राज्य सरकार। ये दोनों ही संवैधानिक सरकारें हैं और इनके स्पष्ट कार्य क्षेत्र हैं। भारतीय संविधान की ऐसी चार विशेषताएँ निम्नलिखित हैं जिनमें केन्द्रीय सरकार को राज्य सरकार की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया गया है:

1. किसी राज्य के अस्तित्व और उसकी भौगोलिक सीमाओं के स्थायित्व पर संसद का नियंत्रण है। अनुच्छेद 3 के अनुसार संसद ‘किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र अलग अथवा दो या अधिक राज्यों को मिलाकर नये राज्य का निर्माण कर सकती है।’ वह किसी राज्य की सीमाओं या नाम में परिवर्तन कर सकती है पर इस शक्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए संविधान पहले प्रभावित राज्य के विधानमंडल को विचार व्यक्त करने का अवसर देता है।

2. संविधान में केन्द्र को अत्यधिक शक्तिशाली बनाने वाले कुछ आपातकालीन प्रावधान भी दिए गए हैं। आपातकाल में संसद को यह शक्ति प्राप्त हो जाती है कि वह राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है।

3. सामान्य स्थिति में भी केन्द्र सरकार को अत्यन्त वित्तीय शक्ति प्राप्त है। पहला, आय के प्रमुख संसाधनों पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण है। केन्द्र के पास आय के अनेक संसाधन हैं और राज्य अनुदानों और वित्तीय सहायता के लिए केन्द्र पर आश्रित है। दूसरा, स्वतंत्रता के बाद भारत की आर्थिक प्रगति के लिए नियोजन का प्रयोग किया गया। केन्द्र योजना आयोग की नियुक्ति करता है जो राज्यों के संसाधन-प्रबंध की निगरानी करता है। केन्द्र सरकार राज्यों को अनुदान और ऋण देती है जिसमें विभिन्न राज्यों के साथ भेदभाव भी किया जाता है। विपक्षी दलों की सरकार वाले राज्यों के साथ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाया जाता है।

4. राज्यपाल धारा 356 का दुरुपयोग करते हैं क्योंकि राज्यपाल केन्द्र के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को हटाने और विधान सभा भंग करने का प्रतिवेदन राष्ट्रपति की स्वीकृति को भेज सके। सामान्य परिस्थिति में भी राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रख सकता है।

5. ऐसी परिस्थितियाँ भी आती हैं, जब केन्द्र राज्य सूची के विषय पर कानून बनाए पर ऐसा करने के लिए राज्यसभा की अनुमति लेना आवश्यक है।

6. अनुच्छेद 257 के अनुसार, ‘प्रत्येक राज्य की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस प्रकार करेगी जिससे संघ की कार्यपालिका के कार्य में कोई अड़चन न आए।” संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार किसी राज्य को ऐसे निर्देश देने तक होगा जो भारत सरकार को इस प्रयोजन के लिए आवश्यक प्रतीत हो।

7. अखिल भारतीय सेवा में चयनित अधिकारी राज्यों के प्रशासन में कार्य करते हैं। किसी क्षेत्र में सैनिक शासन (मार्शल ला) लागू हो तो संसद को यह अधिकार हैं कि वह केन्द्र या राज्य के किसी भी अधिकारी के द्वारा शान्ति-व्यवस्था बनाए रखने या उसकी बहाली के लिए किए गए किसी भी कार्य को कानून सम्मत करार दे सके। इसी के अन्तर्गत ‘सशक्त बल विशिष्ट शक्ति अधिनियम’ का निर्माण किया गया।

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प्रश्न 8.
बहुत से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश क्यों हैं?
उत्तर:
राज्यपाल की भूमिका केन्द्र और राज्यों के बीच सदैव तनाव का कारण रही है। भारतीय संविधान के अनुसार राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा होती है और राज्यपाल अपने कार्यों के लिए राष्ट्रपति के प्रति उत्तरदायी होता है। राष्ट्रपति राज्यपाल को जब चाहे हटा सकता है अथवा उसका स्थानान्तरण कर सकता है। कुछ विद्वानों का मत है कि राज्यपाल राज्य में केन्द्र। के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। पिछले कुछ समय से तो राज्यपाल की भूमिका को लेकर भारत में काफी विवाद रहा है।

विशेष तौर से ऐसे राज्यों की सरकारों ने राज्यपाल की भूमिका की कड़ी आलोचना की है जहाँ विरोधी दलों की सरकारे बनी हैं। राज्यपालों से सम्बन्धित विवाद का एक मुख्य प्रश्न यह भी रहा है कि राज्यपाल को किन परिस्थितियों में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करनी चाहिए। कुछ राज्य सरकारों का यह मत रहा है कि कई बार ऐसा होता है कि राज्यों की संवैधानिक मशीनरी विफल नहीं हुई होती तो भी राज्यपाल केन्द्र सरकार के इशारों पर राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर देते हैं। इस तनाव को कम करने के लिए राज्यपालों को समझदारी से काम लेना चाहिए। उत्तर प्रदेश में 21 फरवरी, 1998 को तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भण्डारी ने कल्याण सिंह सरकार को गिराकर राज्यपाल के पद की गरिमा को ठेस पहुँचायी।

2 फरवरी, 2005 को गोवा में हुए नाटकीय घटनाक्रम में तत्कालीन राज्यपाल एस.सी. जमीर ने विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के बावजूद भाजपा की मनोहर पारीकर सरकार को बर्खास्त कर दिया। यह राजनीतिक व्यवस्था पर आघात है। बिहार में तत्कालीन राज्यपाल बूटासिंह का आचरण भी विवादास्पद रहा जब उन्होंने 2005 में विधानसभा भंग कर दी।

सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा भंग किए जाने को अनुचित ठहराया। इन्हीं कारणों से बहुत से प्रदेश राज्यपाल की भूमिका को लेकर नाखुश रहते हैं, क्योंकि राज्यपाल केन्द्र के प्रतिनिधि के रूप में राज्य के संवैधानिक प्रमुख की भूमिका का निर्वहन नहीं करते। राजनीतिक दलों के नित्य नये गठबंधन बनने और टूटने की प्रक्रिया के इस काल में राज्यपाल को अपना स्वतंत्र दृष्टिकोण अपनाना चाहिए और स्वविवेकी शक्तियों का प्रयोग करते समय निष्पक्षता का परिचय देना चाहिए।

प्रश्न 9.
यदि शासन संविधान के प्रावधान के अनुकूल नहीं चल रहा, तो ऐसे प्रदेश में राष्ट्रपति-शासन लगाया जा सकता है। बताएँ कि निम्नलिखित में कौन-सी स्थिति किसी देश में राष्ट्रपति-शासन लगाने के लिहाज से संगत है और कौन-सी नहीं संक्षेप में कारण भी दें।

  1. राज्य की विधान सभा के मुख्य विपक्षी दल के दो सदस्यों को अपराधियों ने मार दिया है और विपक्षी दल प्रदेश की सरकार को भंग करने की मांग कर रहा है।
  2. फिरौती वसूलने के लिए छोटे बच्चों के अपहरण की घटनाएँ बढ़ रही हैं। महिलाओं के विरुद्ध अपराधों में इजाफा हो रहा है।
  3. प्रदेश में हुए हाल के विधान सभा चुनाव में किसी दल को बहुमत नहीं मिला है। भय है कि एक दल दूसरे दल के कुछ विधायकों से धन देकर अपने पक्ष में उनका समर्थन हासिल कर लेगा।
  4. केन्द्र और प्रदेश में अलग-अलग दलों का शासन है और दोनों एक-दूसरे के कट्टर शत्रु हैं।
  5. सांप्रदायिक दंगे में 200 से ज्यादा लोग मारे गए हैं।
  6. दो प्रदेशों के बीच चल रहे जल विवाद में एक प्रदेश ने सर्वोच्च न्यायालय का आदेश मानने से इंकार कर दिया है।

उत्तर:

  1. यह राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने का उचित कारण नहीं है। वास्तव में उन अपराधियों को दण्डित किया जाना चाहिए।
  2. इस समय भी राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करना उचित नहीं वरन् राज्य सरकार को चाहिए कि वह राज्य में कानून और व्यवस्था की स्थिति में सुधार करे।
  3. इस स्थिति में भी बिना किसी ठोस सबूत के केवल आशंका रहने पर राष्ट्रपति शासन लागू करना असंगत है जैसा कि राज्यपाल बूटा सिंह ने बिहार में किया।
  4. यहाँ भी राष्ट्रपति शासन लगाने का उचित कारण नहीं बनता। केन्द्र और राज्यों में अलग-अलग दलों की सरकारें हो सकती हैं।
  5. यहाँ सरकार (शासन) की असफलता का मामला बनता है और इस स्थिति में राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया जाना चाहिए।
  6. ऐसी स्थिति में उस प्रदेश की सरकार के कर्त्तव्य असंवैधानिक कहलाएँगे और राष्ट्रपति शासन भी लगाया जा सकता है। कोर्ट की अवमानना का सामना उस प्रदेश की सरकार को करना पड़ेगा।

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प्रश्न 10.
ज्यादा स्वायत्तता की चाह में प्रदेशों ने क्या माँगें उठाई हैं?
उत्तर:
संविधान ने केन्द्र को राज्यों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली बनाया है। यद्यपि संविधान विभिन्न क्षेत्रों की भिन्न-भिन्न पहचान को मान्यता देता है, लेकिन फिर भी वह केन्द्र को अधिक शक्ति देता है। एक बार राज्य की पहचान के सिद्धांत को मान्यता मिल जाती है तब यह स्वाभाविक ही है कि पूरे देश के शासन में और अपने शासकीय क्षेत्र में राज्यों द्वारा ज्यादा शक्ति तथा भूमिका की माँग उठायी जाए। इसी कारण राज्य ज्यादा शक्ति की माँग करते हैं। समय-समय पर राज्यों ने ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की मांग की है।

1960 के दशक में कांग्रेस के वर्चस्व में कमी आयी और उनके राज्यों में विरोधी दल सत्ता में आ गए। इससे राज्यों की और ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता की माँग बलवती हुई। अलग-अलग राज्यों के लिए स्वायत्तता का अलग-अलग अर्थ है। कुछ राज्य शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदलने की माँग करते हैं। तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने स्वायत्तता का अलग-अलग अर्थ है। कुछ राज्य शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदलने की माँग करते हैं।

तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने स्वायत्तता की मांग उठायी। कुछ राज्यों का स्वायत्तता का अर्थ है कि राज्यों के पास आय के स्रोत अधिक होने चाहिए। कुछ राज्यों के स्वायत्तता का अर्थ केन्द्र के राज्य प्रशासनिक तंत्र पर नियंत्रण को रोकना है। इसके अतिरिक्त स्वायत्तता की माँग सांस्कृतिक और भाषायी मुद्दों से भी सम्बन्धित है। तमिलनाडु में हिन्दी का विरोध, पंजाब में पंजाबी भाषा एवं संस्कृति के प्रोत्साहन की माँग इसी प्रकार के उदाहरण हैं।

प्रश्न 11.
क्या कुछ प्रदेशों में शासन के लिए विशेष प्रावधान होने चाहिए? क्या इससे दूसरे प्रदेशों में नाराजगी पैदा होती है? क्या इन विशेष प्रावधानों के कारण देश के विभिन्न क्षेत्रों के बीच एकता मजबूत करने में मदद मिलती है?
उत्तर:
जब कुछ राज्यों में विशेष प्रावधानों के अन्तर्गत उनका शासन चलाया जाता है तो यह अन्य राज्यों के लिए नाराजगी पैदा करता है। उदाहरणार्थ उत्तरांचल राज्य बनने से पूर्व वह उत्तर प्रदेश का भाग था और उत्तर प्रदेश के लोग जहाँ चाहे रह सकते थे। परंतु अब उत्तरांचल को विशेष दर्जा मिलने के कारण उत्तरांचल के बाहर के लोग वहाँ अचल सम्पत्ति नहीं खरीद सकते, जबकि उत्तरांचल के लोग उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहाँ चाहे सम्पत्ति खरीद सकते हैं।

स्थायी रूप से मूलनिवासी का दर्जा उत्तरांचल अथवा अन्य किसी विशेष दर्जा प्राप्त अर्थात् विशेष प्रावधानों द्वारा शासित राज्य में किसी बाहरी राज्य के व्यक्ति को नहीं मिल सकता। इस कारण दूसरे राज्यों में नाराजगी पैदा होती है। धारा 370 के लागू रहने के कारण जम्मू और कश्मीर को विशेष दर्जा प्राप्त है अत: भारत की संसद वहाँ की विधायिका की अनुमति के बिना उसमें कोई संशोधन नहीं कर सकती।

अतः अन्य राज्यों में नाराजगी पैदा होती है। शक्ति के बँटवारे की योजना के तहत संविधान प्रदत्त शक्तियाँ सभी राज्यों को समान रूप से प्राप्त हैं। परंतु कुछ राज्यों के लिए उनकी विशिष्ट सामाजिक और ऐतिहासिक परिस्थितियों के अनुरूप संविधान कुछ विशेष अधिकारों की व्यवस्था करता है। असम, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम आदि राज्यों में विशेष प्रावधान लागू हैं।

इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल आदि कुछ पहाड़ी राज्यों में भी प्रावधान लागू है। अनेक लोगों की मान्यता है कि संघीय व्यवस्था में शक्तियों का औपचारिक और समान विभाजन संघ की सभी इकाइयों (राज्यों) पर समान रूप से लागू होना चाहिए। अतः जब भी ऐसे विशिष्ट प्रावधानों की व्यवस्था संविधान में की जाती है तो उसका कुछ विरोध भी होता है। इस बात की भी शंका होती है कि विशिष्ट प्रावधानों से उन क्षेत्रों में अलगवादी प्रवृत्तियाँ मुखर हो सकती हैं। संघीय व्यवस्था की सफलता के लिए व राष्ट्र की एकता को बनाए रखने के लिए इन विशेष प्रावधानों का होना आवश्यक है। इन प्रावधानों के कारण उन प्रदेशों की अपनी व्यक्तिगत संस्कृति की पहचान बनी रहती है।

Bihar Board Class 11 Political Science संघवाद Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
राज्य सूची में कौन-कौन से विषय हैं?
उत्तर:
राज्य सूची में 66 विषय होते हैं। इनमें से प्रमुख हैं: पुलिस, जेल, यातायात, न्याय-प्रबंध, शिक्षा, स्वास्थ्य, चिकित्सा एवं स्थानीय सरकारें आदि। इनके सम्बन्ध में राज्य विधानमंडल कानून बनाते हैं।

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प्रश्न 2.
संघ राज्य का निर्माण किस प्रकार होता है?
उत्तर:
संघ राज्य-संघ राज्य का निर्माण तब होता है जब दो या दो से अधिक स्वतंत्र राज्य परस्पर मिलकर एक लिखित समझौते के द्वारा किसी एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति के लिए, एक नवीन राज्य की रचना करते हैं। जिसे (नवीन राज्य को) कुछ निश्चित विषयों में सम्प्रभु अधिकार प्रदान किए जाते हैं जिन पर उसका अनन्य क्षेत्राधिकार रहता है और जो अवशिष्ट विषयों पर अपना क्षेत्राधिकार बनाए रखते हैं।

प्रश्न 3.
इकहरी नागरिकता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
इकहरी नागरिकता से अभिप्राय यह है कि सम्पूर्ण राज्य में नागरिकों को एक ही नागरिकता प्राप्त होती है। वह राज्य के किसी भी भाग में बस सकते हैं। कुछ संघात्मक राज्यों में प्रत्येक व्यक्ति को दो नागरिकता प्राप्त होती है। एक तो वह अपने इकाई राज्य का नागरिक होता है और साथ ही साथ पूरे देश की नागरिकता भी प्राप्त रहती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में दोहरी नागरिकता मिलती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रत्येक नागरिक संयुक्त राज्य अमेरिका का नागरिक होने के साथ-साथ अपने उस राज्य की नागरिका भी प्राप्त करता है, जिसका निवासी है।

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान के दो संघीय तत्त्व लिखें।
उत्तर:
भारतीय संविधान के दो संघीय तत्त्व निम्नलिखित हैं –

  1. यह लिखित संविधान है।
  2. संविधान में केन्द्र व राज्यों के बीच शक्ति विभाजन किया गया है।
    • संघ सूची
    • राज्य सूची
    • समवर्ती सूची। इन तीनों सूचियों में अलग-अलग विषय दिए गए हैं।

प्रश्न 5.
संघ सूची क्या है? इसमें उल्लिखित विषय कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार संघ व राज्यों के बीच शक्तियों का बँटवारा किया गया है। दोनों के अधिकारों को संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची में बाँटा गया है। इनमें से संघ सूची में 97 विषय दिए गए हैं। इन पर संसद को कानून बनाने का अधिकार होता है। इस सूची के कुछ प्रमुख विषय हैं: प्रतिरक्षा, परमाण्विक ऊर्जा, विदेश मामले, रेलवे, डाक-तार, वायु सेवा, बंदरगाह, विदेश व्यापार तथा मुद्रा आदि।

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प्रश्न 6.
द्विसदनीय विधायिका संघात्मक राज्यों के लिए क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदनीय विधायिका आवश्यक है – जिस देश में एकात्मक शासन व्यवस्था होती है वहाँ तो एक-सदन से विधायिका का कार्य चल जाता है, लेकिन संघात्मक शासन व्यवस्था में द्विसदनात्मक विधायिका का होना आवश्यक है क्योंकि प्रथम सदन जनता का प्रतिनिधित्व करता है। इसलिए एक ऐसा भी होना चाहिए जो संत की राजनीतिक इकाइयों का प्रतिनिधित्व कर सके। अतः संघात्मक राज्यों के लिए द्विसदानात्मक विधायिका का होना आवश्यक है।

प्रश्न 7.
संघवाद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संघवाद में दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाएँ होती हैं। संघवाद एक ऐसी संस्थागत प्रणाली है जिसमें केन्द्र तथा राज्य स्तर की दो राजनीतिक व्यवस्थाएँ हैं। संघवाद में दोहरी नागरिकता होती है परंतु भारत में केवल एकल नागरिकता है। केन्द्र व राज्यों के बीच किसी टकराव को सीमित रखने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है।

प्रश्न 8.
संघ सूची में कौन-कौन से विषय शामिल हैं?
उत्तर:
संघ सूची में 97 विषय हैं। इनमें प्रमुख हैं-प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, युद्ध और संधि, रेलवे, विदेशी व्यापार, बीमा कंपनी, बैंक, मुद्रा, डाक व तार, टेलीफोन आदि।

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प्रश्न 9.
संघात्मक संविधान से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
फेडरेशन शब्द लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका अर्थ संधि या समझौता है। इस प्रकार संघात्मक शासन ऐसा शासन है जिसका निर्माण अनेक स्वतंत्र राज्य अपनी पृथक् स्वतंत्रता स्खते हुए तथा समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक केन्द्रीय सरकार के रूप में करते हैं। इसमें संविधान द्वारा केन्द्र और राज्यों में शक्तियों का बंटवारा होता है। ऐसी शासन प्रणाली में कठोर संविधान होता है तथा केन्द्र और राज्यों में झगड़ों का फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की जाती है। जेलीनेक के अनुसार-“संघात्मक राज्य कई एक राज्यों के मेल से बना हुआ प्रभुसत्रासम्पन्न राज्य है।”

प्रश्न 10.
संघ प्रणाली में नूतन प्रवृत्तियों पर टिप्पणी लिखो।
उत्तर:
राज्य की गतिविधियों में विस्तार होने तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विकास के परिणामस्वरूप राज्यों में शक्तियों का केन्द्रीयकरण हुआ है। आर्थिक विकास, सैनिक सुरक्षा तथा योजना पूर्ति हेतु आजकल केन्द्र अधिक शक्तिशाली होती जा रही है। इसके साथ-साथ प्रादेशिक इकाईयाँ विकेन्द्रीकरण की समर्थक होती जा रही है। भारत जैसे संघात्मक देशों में राज्य इकाई अपनी संस्कृति और अपने क्षेत्रीय विकास हेतु केन्द्र सरकारों पर दबाव बनाए रखती है। ब्रिटेन, फ्रांस और स्पेन आदि एकात्मक शासन वाले देशों में भी क्षेत्रीय समस्याओं की माँगों को हल करने के लिए वहाँ भी क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व करने वाले दल अपना दबाव बनाने में लगे रहते हैं। इस प्रकार संघात्मक प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है।

प्रश्न 11.
संघात्मक शासन के पाँच अवगुण लिखो।
उत्तर:
संघात्मक सरकार के पाँच अवगुण निम्नलिखित हैं –

  1. इसमें सरकार दुर्बल होती है।
  2. इसमें केन्द्र और राज्यों में अधिकार क्षेत्र संबंधी झगड़े उत्पन्न हो जाते हैं।
  3. संघ के टूटने का भय बना रहता है।
  4. इसमें शासन की एकरूपता नहीं रहती है।
  5. यह खर्चीला शासन होता है।

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प्रश्न 12.
संघात्मक सरकार के पाँच गुण लिखो।
उत्तर:
संघात्मक सरकार के पाँच गुण निम्नलिखित हैं –

  1. यह आर्थिक विकास के लिए लाभदायक है।
  2. यह बड़े राज्यों के लिए उपयुक्त है।
  3. यह केन्द्रीय सरकार को निरंकुश बनने से रोकती है।
  4. यह निर्बल राज्यों की शक्तिशाली राज्यों से रक्षा करती है।
  5. इसमें स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति ठीक प्रकार से हो जाती है।

प्रश्न 13.
संघात्मक संविधान की कोई पाँच विशेषताएँ बताओ।
उत्तर:

  1. इसमें केन्द्र तथा प्रान्तों के बीच शक्तियों का विभाजन होता है।
  2. इसमें संविधान कठोर होता है।
  3. इसमें संविधान लिखित होता है।
  4. इसमें न्यायपालिका निष्पक्ष तथा स्वतंत्र होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
संघात्मक शासन के मुख्य लक्षण बताइए।
उत्तर:
संघात्मक सरकार-इस शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द से हुई है जिसका अर्थ है संधि अथवा समझौता। अतः समझौते द्वारा निर्मित राज्य को संघ राज्य कहा जा सकता है। संवैधानिक दृष्टिकोण से संघात्मक शासन का तात्पर्य एक ऐसे शासन से होता है जिसमें संविधान द्वारा ही केन्द्रीय सरकार और इकाइयों या राज्य की सरकारों के बीच शक्ति विभाजन कर दिया जाता है। कोई एक अकेला इस शक्ति विभाजन में परिवर्तन नहीं कर सकता।
संघात्मक शासन के मुख्य लक्षण –

  1. संविधान की सर्वोच्चता
  2. शक्तियों का विभाजन
  3. लिखित एवं कठोर संविधान
  4. द्विसदनीय विधानमंडल

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प्रश्न 2.
एकात्मक और संघात्मक शासन में से भारत के लिए कौन-सा शासन उपयोगी है और क्यों?
उत्तर:
भारत के लिए एकात्मक और संघात्मक शासन में संघात्मक शासन अधिक उपयोगी है। इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं –
1. भारत जनसंख्या व क्षेत्रफल, दोनों ही दृष्टियों से एक विशाल देश है इसलिए किसी भी विशाल देश के लिए संघात्मक शासन ही अधिक उपयोगी होता है। क्योंकि इस प्रकार के शासन में सारा देश कुछ राजनैतिक इकाइयों में बँटा होता है इसलिए प्रत्येक राजनीतिक इकाई अपने-अपने क्षेत्र में कुशलतापूर्वक शासन कार्य चला सकती है।

2. भारत में विभिन्न भाषाओं, धर्मों, जातियों व संस्कृतियों के लोग रहते हैं। अतः यह केवल संघात्मक शासन में ही संभव है कि लोगों को सुरक्षा भी प्राप्त हो एवं उनकी संस्कृति भी बनी रहे।

3. भारत बहुत समय तक विदेशी शासन के अधीन रहा है। यदि भारत को छोटे-छोटे कई राज्यों में विभाजित करके उनमें एकात्मक सरकार की स्थापना कर दी जाए तो ये राज्य साम्राज्यवादी शक्तियों से अपनी रक्षा नहीं कर सकते अत: संघात्मक शासन दोनों तरह से उपयुक्त है। इस शासन में एक ओर राज्यों को अपने स्थानीय विषयों में व अपनी संस्कृति को कायम रखने में स्वतंत्रता प्राप्त है तो दूसरी ओर उनको विदेशी आक्रमणकारी शक्तियों से सुरक्षा प्राप्त है।

प्रश्न 3.
संघात्मक और एकात्मक सरकारों में कोई पाँच अंतर बताओ।
उत्तर:

  1. संघात्मक सरकार का संविधान लिखित होता है परंतु एकात्मक सरकार का संविधान अलिखित भी हो सकता है।
  2. संघात्मक सरकार का संविधान कठोर होता है, परंतु एकात्मक सरकार का संविधान लचीला भी हो सकता है।
  3. संघात्मक सरकार में दोहरा शासन होता है, परंतु एकात्मक सरकार में इकहरा शासन होता है।
  4. संघात्मक सरकार में शक्तियों का केन्द्र तथा इकाइयों में बँटवारा होता है, परंतु एकात्मक सरकार में शक्तियों का केन्द्रीयकरण होता है।
  5. संघात्मक सरकार में नागरिकों को दोहरी नागरिकता प्राप्त होती है, परंतु एकात्मक सरकार में नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त होती है।

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प्रश्न 5.
संघ तथा परिसंघ में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
संघ और परिसंघ में प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं –

  1. स्वरूप में अंतर-संघीय शासन की इकाइयाँ प्रभुत्व सम्पन्न नहीं होती जबकि परिसंघ में सदस्य राज्यों की प्रभुसत्ता बना रहती है।
  2. संगठन में अंतर-संघीय शासन में संविधान के द्वारा केन्द्र तथा राज्यों के बीच शक्तियों का बँटवारा होता है, जबकि परिसंघ में शक्तियों का बटवारा समझौते के द्वारा होता है।
  3. सदस्यता में अंतर-संघीय शासन में इकाई राज्यों को संघ छोड़ने की स्वतंत्रता नहीं होती। रूस के संविधान में यद्यपि इकाई राज्यों को संघ छोड़ने की स्वतंत्रता दी गई है, किन्तु यह केवल एक दिखावा मात्र है। परिसंघ में सदस्य राज्य अपनी इच्छानुसार अपनी सदस्यता त्याग सकते हैं।
  4. उद्देश्यों में अंतर-संघ का निर्माण किसी विशेष उद्देश्य को लेकर नहीं किया जाता, जबकि परिसंघ का निर्माण विशिष्ट उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है। यही कारण है कि संघ, परिसंघ के मुकाबले अधिक स्थायी होता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
“भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परंतु उसकी आत्मा एकात्मक है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के निर्माताओं ने देश की परिस्थितियों के अनुसार ऐसी व्यवस्था की है जिससे राष्ट्र की इकाइयों को स्वायत्तता मिली रहे और साथ ही राष्ट्र की एकता भी भंग न हो। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर जहाँ संविधान में संघीय तत्त्व अपनाये गए वहाँ एकात्मक तत्त्व के लक्षण भी पाये जाते हैं। भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न भाषा-भाषी, धर्मों, जातियों के लोग रहते हैं। अतः देश की समस्याओं का समाधान ऐसी ही व्यवस्था में सम्भव था।

भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण –

1. संविधान की सर्वोच्चता –
भारत में न तो केन्द्रीय सरकार सर्वोच्च है और न ही राज्य सरकार। संविधान ही सर्वोच्च है। कोई भी सरकार संविधान के प्रतिकूल काम नहीं कर सकती। देश के सभी पदाधिकारी जैसे राष्ट्रपति, मंत्रीगण आदि अपना पद ग्रहण करने से पूर्व संविधान की सर्वोच्चता को स्वीकार करते हुए इसके प्रति निष्ठा की शपथ लेते हैं।

2. लिखित और कठोर संविधान –
भारत का संविधान लिखित है जो संविधान सभा द्वारा निर्मित किया गया था। इसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 सूचियाँ हैं। ये 22 अध्यायों में विभाजित हैं। इसमें संघ व राज्य सम्बन्धी अधिकारों को स्पष्ट रूप से लिखा गया है। इसके साथ-साथ भारत का संविधान कठोर भी है। इसे आसानी से बदला नहीं जा सकता।

3. अधिकारों का विभाजन –
संविधान में केन्द्र और राज्यों की शक्तियों व कर्तव्यों की। स्पष्ट व्याख्या की गई है। दोनों के अधिकारों को तीन सूचियों में विभक्त किया गया है –

(a) संघ सूची –
इसमें 97 विषय हैं, जैसे-प्रतिरक्षा, विदेशी मामले, युद्ध और संधि, रेलवे, व्यापार, बीमा, मुद्रा डाक-तार, आदि। इस पर संसद ही कानून बना सकती है।

(b) राज्य सूची –
इसमें 66 विषय हैं। इनमें पुलिस, जेल, न्याय-व्यवस्था, स्वास्थ्य चिकित्सा, स्थानीय व्यवस्था प्रमुख हैं। इन पर राज्य के विधानमंडलों को कानून बनाने का अधिकार है।

(c) समवर्ती सूची –
इसमें 47 विषय हैं, जैसे-शिक्षा, वन, कानून, विवाह, तलाक, निवारक नजरबंदी, मिलावट इत्यादि। इन विषयों पर संसद और राज्य सरकार दोनों ही कानून बना सकती है।

4. स्वतंत्र न्यायपालिका –
भारत के संविधान में केन्द्र और राज्यों की समस्या को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई है। वह केन्द्र और राज्यों के उन कानूनों को अवैध घोषित कर सकता है जो संविधान के अनुच्छेदों के अनुकूल न हो।

5. द्वैध शासन व्यवस्था –
प्रत्येक संसदीय देश में दो प्रकार की सरकारें होती हैं-केन्द्रीय व राज्य सरकारें। इनके शासन-क्षेत्र भी अलग-अलग होते हैं। इनके मिलने से इस संघ का निर्माण होता है। भारत के नागरिक दोहरे शासन के अन्तर्गत रहते हैं। इनमें दो प्रकार के, विधानमंडल और प्रशासनिक, अधिकार आते हैं। नागरिकों को दो प्रकार के कर देने पड़ते हैं। इनमें से कुछ केन्द्रीय सरकार लगाती है और कुछ राज्य सरकारें।

6. कठोर संविधान –
भारत का संविधान लिखित होने के साथ-साथ कठोर भी है इसमें संशोधन करने की विधि कठिन है। संविधान के महत्त्वपूर्ण विषयों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत एवं कुल सदस्यों का बहुमत तथा कम-से-कम आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति चाहिए।

7. केन्द्र व राज्य में अलग –
अलग सरकारें-संघात्मक शासन में दो प्रकार की सरकारें होती हैं-केन्द्रीय सरकार और राज्यों की सरकारें। दोनों का गठन संविधान के अनुसार होता है। दोनों सरकारें प्रशासन चलाने के लिए कानून बनाती हैं। प्रो. के. सी. ह्वेयर ने कहा है, “भारत एक ऐसे संघीय राज्य की अपेक्षा जिसमें एकात्मक तत्त्व गौण हों, एक ऐसा एकात्मक राज्य है जिसमें संघीय तत्त्व गौण हैं।” यह भी कहा जाता है कि भारतीय संविधान का स्वरूप भले ही संघात्मक हो परंतु उसकी आत्मा एकात्मक है।

भारतीय संविधान के एकात्मक लक्षण:

1. शक्तिशाली केन्द्र –
भारतीय संविधान में राज्यों की अपेक्षा केन्द्र को अधिक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संविधान द्वारा शक्तियों का विभाजन करके केन्द्रीय सूची में 97 विषय तथा राज्य सूची में 66 विषय रखे गए हैं तथा समवर्ती सूची पर केन्द्र और राज्य सरकारें दोनों कानून बना सकती हैं। लेकिन केन्द्र को इसमें भी प्राथमिकता दी गई है। अवशिष्ट विषयों पर भी केन्द्र कानून बना सकती है। अतः स्पष्ट है कि संविधान निर्माताओं ने एक शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की है।

2. राज्य के विषयों में केन्द्र का हस्तक्षेप –
कुछ परिस्थितियों में केन्द्र राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है वे निम्नलिखित हैं –

  • यदि कभी दो राज्यों की विधान सभाएँ केन्द्र को राज्य सूची में से किसी विषय पर कानून बनाने की प्रार्थना करें तो उस विषय पर केन्द्र कानून बना सकता है।
  • राज्य सभी 2/3 बहुमत से राज्य-सूची के किसी विषय को राष्ट्रीय महत्त्व का घोषित कर दे तो केन्द्रीय सरकार उस विषय पर कानून बना सकती है।
  • संकटकाल की स्थिति उत्पन्न होने पर केन्द्र को राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति प्राप्त हो जाती है। अत: यह स्पष्ट है कि केन्द्रीय सरकार को तीनों सूचियों के विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। अर्थात् केन्द्र अत्यधिक शक्तिशाली है।

3. संकटकालीन शक्तियाँ –
संविधान के अनुसार राष्ट्रपति को संकटकालीन शक्तियाँ दी गई है। राष्ट्रपति युद्ध या आन्तरिक अशांति के कारण देश में आपातस्थिति की घोषणा कर सकता हैं। ऐसी स्थिति में भारत का संघीय ढाँचा एकात्मक हो जाता है। इस स्थिति में केन्द्रीय सरकार राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकती है तथा राज्यों को उस समय केन्द्र के आदेश के अनुसार चलना होता है। यदि राष्ट्रपति को यह मालूम हो जाए कि किसी राज्य में संविधान के अनुसार शासन नहीं चल रहा तो राष्ट्रपति उस राज्य का शासन प्रबंध केन्द्र के हाथ में दे। सकता है।

4. इकहरी नागरिकता –
संघीय देशों में नागरिकों को प्राय: दो प्रकार की नागरिकता प्राप्त होती है, एक नागरिकता तो वहाँ की होती है जहाँ का वह नागरिक रहता है तथा दूसरी नागरिकता उस देश की होती है। परंतु भारत में प्रत्येक व्यक्ति को केवल एक नागरिकता प्राप्त है। वैसे तो ऐसा देश में एकता लाने के लिए किया जाता है, लेकिन यह संघीय व्यवस्था के विपरीत है।

5. राज्यपालों की नियुक्ति –
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति केन्द्रीय मंत्रिमंडल की सलाह से करता है। राज्यपाल प्रत्येक राज्य में केन्द्र के एजेन्ट के रूप में कार्य करता है। सामान्य काल में राज्यपाल राज्यों में केन्द्र के हितों की रक्षा करता है और विधानसभा द्वारा पास किए हुए कुछ बिलों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजता है परंतु राज्य की संकटकालीन स्थिति में राज्य का शासन उसी को ही सौपा जाता है तथा केन्द्र के निर्देशों को राज्य में लागू करता है। इस प्रकार राज्यपाल के माध्यम से केन्द्रीय सरकार राज्य पर अपना नियंत्रण बनाए रखती है।

6. राज्यों की केन्द्र पर वित्त सम्बन्धी निर्भरता –
राज्यों को केन्द्र पर धन के मामले में भी आश्रित रहना पड़ता है। केन्द्र राज्यों को अनुदान के रूप में धन देता है और आवश्यकता पड़ने पर कर्ज भी देता है। क्योंकि राज्यों के पास धन के साधन कम होते हैं इसलिए केन्द्र का उन पर अधिकार बढ़ जाता है।

7. संसद को राज्यों का पुनर्गठन तथा उसके नामों में परिवर्तन करने का अधिकार है:
केन्द्रीय संसद राज्यों का पुनर्गठन कर सकती है तथा उनकी सीमाओं और नामों को भी बदल सकती है। संबंधित राज्य से उसकी राय तो ले ली जाती है, परंतु मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है। संसद का यह अधिकार संघीय व्यवस्था के लिए उपयुक्त नहीं है।

8. अखिल भारतीय सेवाएँ –
संघीय शासन में दोहरी सरकार होने के कारण सिविल सेवाओं को केन्द्रीय सेवाओं में विभक्त किया गया है। इसके अतिरिक्त अखिल भारतीय सेवाओं के प्रशासन को सुचारू रूप से चलाने के लिए बनाया गया है। कर्मचारियों की नियुक्ति केन्द्र द्वारा की जाती है लेकिन ये केन्द्र और राज्य दोनों प्रशासनों के लिए नियुक्ति किए जाते हैं।

इस प्रकार संविधान द्वारा एक शसक्त केन्द्रीय सरकार की स्थापना की गई है। भारत एक विविधताओं वाला देश है। अतः एकता स्थापित करने के लिए ऐसे ही संविधान की आवश्यकता थी जो देश की एकता के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान करे और ऐसा करने में केन्द्र को राज्यों का सहयोग भी प्राप्त हो।

अतः संविधान को ऐसा बनाया गया कि संघ की इकाइयाँ अपने स्थानीय मुद्दों का हल स्वयं कर सकें और राष्ट्रीय महत्त्व के कार्यों का संचालन केन्द्रीय सरकार करे। इसी कारण भारतीय संविधान में संघात्मक और एकात्मक दोनों प्रकार के तत्त्वों का समावेश किया गया। इसीलिए भारत के संविधान का स्वरूप संघात्मक है परंतु उसकी आत्मा एकात्मक है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 7 संघवाद

प्रश्न 2.
“भारत राज्यों का संघ है” इसके कुछ संघात्मक लक्षणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत राज्यों का संघ है। इसका तात्पर्य यह है कि भारत में एक संघात्मक शासन व्यवस्था अपनायी गयी है। इसके अन्तर्गत 28 राज्य तथा 7 केन्द्र शासित प्रदेश हैं। इन सबको मिलाकर भारत को एक पूर्ण संघ बनाया गया है। भारतीय संविधान के संघात्मक लक्षण निम्नलिखित हैं –

1. शक्तियों का विभाजन –
प्रत्येक संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों के विभाजन की तीन सूचियाँ बनायी गयी हैं-संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची। संघ सूची में 97 विषय रखे गए हैं। राज्य सूची में 66 तथा समवर्ती सूची में 47 विषय दिए गए हैं।

2. लिखित संविधान –
संघीय व्यवस्था के लिए लिखित संविधान की आवश्यकता होती है जिसमें केन्द्र और राज्य इकाइयों के बीच शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है। इसमें 395 अनुच्छेद और 12 अनुसूचियाँ हैं। अब तक इसमें लगभग 93 संशोधन हो चुके हैं।

3. कठोर संविधान –
संघीय व्यवस्था में कठोर संविधान होना बहुत आवश्यक है। भारत का संविधान भी कठोर है। संविधान की महत्त्वपूर्ण धारा में संसद के दोनों सदनों के दो तिहाई बहुमत तथा कम से कम आधे राज्यों के विधानमंडलों के बहुमत से ही संशोधन किया जा सकता है।

4. स्वतंत्र न्यायपालिका –
संघात्मक व्यवस्था में संविधान की प्रामाणिक व्यवस्था के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना अनिवार्य है। भारत में भी स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था है। न्यायपालिका के कार्य और अधिकार भारत के संविधान में दिए गए हैं और यह स्वतंत्र रूप से कार्य करती है।

5. संविधान की सर्वोच्चता –
भारत में संविधान को सर्वोच्च रखा गया है। कोई भी कार्य संविधान के प्रतिकूल नहीं किया जा सकता। सरकार के सभी अंग संविधान के अनुसार ही शासन कार्य चलाते हैं। वास्तव में भारत क्षेत्र और जनसंख्या की दृष्टि से अत्यधिक विशाल और बहुत विविधाओं से परिपूर्ण है। ऐसी स्थिति में भारत के लिए संघात्मक शासन व्यवस्था को ही अपनाना स्वाभाविक था और भारतीय संविधान के द्वारा ऐसा ही किया गया है।

संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा गया है कि “भारत राज्यों का एक संघ होगा” लेकिन संविधान निर्माता संघीय शासन को अपनाते हुए भी संघीय शासन की दुर्बलताओं को दूर रखने के लिए उत्सुक थे और इस कारण भारत के संघीय शासन में एकात्मक शासन के कुछ लक्षणों को अपना लिया गया है। वास्तव में, भारतीय संविधान में संघीय शासन के लक्षण प्रमुख रूप से तथा एकात्मक शासन के लक्षण गौण रूप से विद्यमान हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान में वर्णित समवर्ती सूची किस देश के संविधान से लिया गया है?
(क) अमेरिका से
(ख) कनाडा से
(ग) आयरलैंड से
(घ) आस्ट्रेलिया से
उत्तर:
(घ) आस्ट्रेलिया से

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प्रश्न 2.
संघात्मक राज्यों का संविधान होता है।
(क) लिखित और कठोर
(ख) अलिखित और कठोर
(ग) लिखित और लचीला
(घ) अलिखित और लचीला
उत्तर:
(क) लिखित और कठोर

प्रश्न 3.
“भारतीय संविधान अर्द्ध-संघात्मक है” किसने कहा है?
(क) डी. डी. बसु
(ख) एम. वी. पायली
(ग) आइवर जेनिक्स
(घ) के. सी. व्हीयर
उत्तर:
(घ) के. सी. व्हीयर