Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 7 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 7 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 7 प्राणियों में संरचनात्मक संगठन

Bihar Board Class 11 Biology प्राणियों में संरचनात्मक संगठन Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
एक शब्द या एक पंक्ति में उत्तर दीजिए –

  1. पेरिप्लेनेटा अमेरिकाना का सामान्य नाम लिखिए।
  2. केंचुए में कितनी शुक्राणुधानियाँ पाई जाती हैं?
  3. तिलचट्टे में अण्डाशय की स्थिति क्या है?
  4. तिलचट्टे के उदर में कितने खण्ड होते हैं?
  5. मैल्पीघी नलिकाएँ कहाँ पाई जाती हैं?

उत्तर:

  1. पैरिप्लेनेटा अमेरिकाना का सामान्य नाम कॉकरोच है।
  2. केंचुए में चार जोड़ी शुक्रधानियाँ (spermatheca) पाई जाती हैं।
  3. तिलचट्टे में अण्डाशय उदर के 4, 5 तथा 6ठे खण्ड में स्थित होते हैं।
  4. तिलचट्टे के उदर में दस खण्ड होते हैं।
  5. मैल्पीघी नलिकाएँ कीटों की आहारनाल के मध्यतन्त्र तथा पश्चान्त्र के मध्य स्थित होती हैं।

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प्रश्न 2.
निम्न प्रश्नों के उत्तर दीजिए –

  1. वृक्कक का क्या कार्य है?
  2. अपनी स्थिति के अनुसार केंचुए में कितने प्रकार के वृक्कक पाए जाते हैं?

उत्तर:
1. वृक्कक (Nephridia) का कार्य:
संघ ऐनेलिडा के प्राणियों में उत्सर्जन हेतु विशेष प्रकार की कुण्डलित रचनाएँ वृक्कक पाई जाती हैं। ये जल सन्तुलन का कार्य भी करती हैं।

2. वृक्क क के प्रकार (Types of Nephridia):
स्थिति के अनुसार वृक्कक निम्नलिखित तीन प्रकार के होते है –

  • पटीय वृक्क क (Septal nephridia)
  • अध्यावरणी वृक्कक (integumentary nephridia)
  • ग्रसनीय वृक्क क (pharyngeal nephridia)।

प्रश्न 3.
केंचुए के जननांगों का नामांकित चित्र बनाइए।
उत्तर:
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चित्र – केंचुआ : जननांगों का पृष्ठ दृश्य

प्रश्न 4.
तिलचट्टे की आहारनाल का नामांकित चित्र बनाइए।
उत्तर:
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चित्र – तिलचट्टे की आहारनाल

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प्रश्न 5.
निम्न में विभेद करें –
(अ) पुरोमुख एवं परितुण्ड
(ब) पटीय वृक्कक और ग्रसनीय वृक्कक
उत्तर:
(अ) पुरोमुख एवं परितुंड में अन्तर
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(ब) पटीय और ग्रसनीय वृक्कक में अन्तर
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प्रश्न 6.
रुधिर के कणीय अवयव क्या हैं?
उत्तर:
रुधिर के कणीय अवयव (Cellular Components of Blood):
रुधिर हल्के पीले रंग का, गाढ़ा. हल्का क्षारीय (pH7.3 – 7.4) होता है। स्वस्थ मनुष्य के रुधिर रक्त में कुल क्षार भार का 7% से 8% होता है। इसके दो मुख्य घटक होते हैं –

  1. निर्जीव तरल मैट्रिक्स प्लाज्मा (plasma) तथा
  2. कणीय अवयव रुधिर कणिकाएँ (blood corpuscles)।

रुधिर कणिकाएँ रुधिर का लगभग 45% भाग बनाती हैं। ये तीन प्रकार की होती हैं –
(क) लाल रुधिर कणिकाएँ
(ख) श्वेत रुधिर कणिकाएँ तथा
(ग) रुधिर प्लेटलेट्स।

लाल रुधिर कणिकाएँ (Red Blood Corpuscles or Erythrocytes = RBC)

लाल रुधिर कणिकाएँ कशेरुकी जन्तुओं (vertebrates) में ही पाई जाती हैं। मानव में लाल रुधिराणु 7.5 – 8µ व्यास तथा 1 – 2µ मोटाई के होते हैं। पुरुषों में इनकी संख्या लगभग 50 से 55 लाख किन्तु स्त्रियों में लगभग 45 से 50 लाख प्रति घन मिमी होती है। ये गोलाकार एवं उभयावतल (biconcave) होती हैं।

निर्माण के समय इनमें केन्द्रक (nucleus) सहित सभी प्रकार के कोशिकांग (cell organelle) होते हैं किन्तु बाद में केन्द्रक, गॉल्जीकाय, माइटोकॉन्ड्रिया, सेन्ट्रियोल आदि संरचनाएँ लुप्त हो जाती हैं, इसीलिए स्तनियों के लाल रुधिराणुओं को केन्द्रकविहीन (non-nucleated) कहा जाता है। ऊँट तथा लामा में लाल रुधिराणु केन्द्रकयुक्त (nucleated) होते हैं। लाल रुधिराणुओं में हीमोग्लोबिन (haemoglobin) प्रोटीन होती है। स्तनियों में इनका जीवनकाल लगभग 120 दिन होता है। वयस्क अवस्था में इनका निर्माण लाल अस्थिमज्जा में होता है।

हीमोग्लोबिन, हीम (haem) नामक वर्णक तथा ग्लोबिन (globin) नामक प्रोटीन से बना होता है। हीम पादपों में उपस्थित क्लोरोफिल के समान होता है, जिसमें क्लोरोफिल के मैग्नीशियम के स्थान पर हीमोग्लोबिन में लौह (Fe) होता है। हीमोग्लोबिन का अणु सूत्र = C0872 H4816 O780 S8 Fe4 होता है। हीमोग्लोबिन के एक अणु का निर्माण हीम के 4 अणुओं के एक ग्लोबिन अणु के साथ संयुक्त होने से होता है। हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन परिवहन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

लाल रुधिराणुओं के कार्य (Functions of Red Blood Corpuscles):
लाल रुधिराणुओं के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

1. यह एक श्वसन वर्णक है। यह ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) के रूप में कार्य करता है। हीमोग्लोबिन का एक अणु ऑक्सीजन के चार अणुओं का संवहन करता है।
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चित्र – स्तनि (खरगोश ) की रूधिर कोशिकाएँ

2. शरीर के अन्त:वातावरण में pH सन्तुलुन को बनाए रखने में हीमोग्लोबिन सहायता करता है।

3. कार्बन डाइऑक्साइड का परिवहन (transport) कार्बनिक एनहाइड्रेज (carbonic anhydrase) नामक एन्जाइम की उपस्थिति में ऊतकों से फेफड़ों की ओर करता है।

श्वेत रुधिर कणिकाएँ (White Blood Corpuscles or Leucocytes):
श्वेत रुधिर कणिकाएँ अनियमित आकार की, केन्द्रकयुक्त, रंगहीन तथा अमीबीय (amoeboid) कोशिकाएँ हैं। इनके कोशिकाद्रव्य की संरचना के आधार पर इन्हें दो समूहों में वर्गीकृत किया जाता है –

(अ) ग्रैन्यूलोसाइट्स (granulocytes) तथा
(ब) एग्रैन्यूलोसाइट्स (agranulocytes)।

(अ) ग्रैन्यूलोसाइट्स (Granulocytes):
इनका कोशिकाद्रव्य कणिकामय तथा केन्द्रक पालियुक्त (lobed) होता है, ये तीन प्रकार की होती हैं –

  • बेसोफिल्स
  • इओसिनोफिल्स तथा
  • न्यूट्रोफिल्स।

1. बेसोफिल्स (Basophils):
ये संख्या में कम होती हैं। ये कुल श्वेत रुधिर कणिकाओं का लगभग 0.5 से 2% होती हैं। इनका केन्द्रक बड़ा तथा 2-3 पालियों में बँटा दिखाई देता है। इनका कोशिकाद्रव्य मेथिलीन ब्लू (methylene blue) जैसे-क्षारीय रंजकों से अभिरंजित होता है। इन कणिकाओं से हिपैरिन, हिस्टैमीन एवं सेरेटोनिन स्रावित होता है।

2. इओसिनोफिल्स का एसिडोफिल्स (Eosinophils or Acidophils):
ये कुल श्वेत रुधिर कणिकाओं का 2-4% होते हैं। इनका केन्द्रक द्रिपालिक (bilobed) होता है। दोनों पालियाँ परस्पर महीन तन्तु द्वारा जुड़ी रहती हैं। इनका कोशिकाद्रव्य अम्लीय रंजकों जैसे इओसीन से अभिरंजित होता है। ये शरीर की प्रतिरक्षण, एलर्जी तथा हाइपरसेन्सिटिवटी का कार्य करते हैं। परजीवी कृमियों की उपस्थिति के कारण इनकी संख्या बढ़ जाती है, इस रोग को इओसिनोफिलिया कहते हैं।

3. न्यूट्रोफिल्स या हेटेरोफिल्स (Neutrophils or Heterophils):
ये कुल श्वेत रुधिर कणिकाओं का 60-70% होती हैं। इनका केन्द्रक बहुरूपी होता है। यह तीन से पाँच पिण्डों में बँटा होता है। ये सूत्र द्वारा परस्पर जुड़े रहते हैं। इनके कोशिकाद्रव्य को अम्लीय, क्षारीय व उदासीन तीनों प्रकार के रंजकों से अभिरंजित कर सकते हैं। ये जीवाणु तथा अन्य हानिकारक पदार्थों का भक्षण करके शरीर की सुरक्षा करते हैं। इस कारण इन्हें मैक्रोफेज (macrophage) कहते हैं।

(ब) एग्रैन्यूलोसाइट्स (Agranulocytes):
इनका कोशिकाद्रव्य कणिकारहित होता है। इनका केन्द्रक अपेक्षाकृत बड़ा व घोड़े की नाल के आकार का (horse-shoe shaped) होता है। ये दो प्रकार की होती हैं –

(i) लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes):
ये छोटे आकार के श्वेत रुधिराणु हैं। इनका कार्य प्रतिरक्षी (antibodies) का निर्माण करके शरीर की सुरक्षा करना है।

(ii) मोनोसाइट्स (Monocytes):
ये बड़े आकार की कोशिकाएँ हैं, जो भक्षकाणु क्रिया (phagocytosis) द्वारा शरीर की सुरक्षा करती हैं।

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प्रश्न 7.
निम्न क्या हैं तथा प्राणियों के शरीर में कहाँ मिलते हैं?
(अ) उपास्थि अणु (कोन्ड्रोसाइट)
(ब) तन्त्रिकाक्ष (ऐक्सॉन)
(स) पक्ष्माभ उपकला।
उत्तर:
(अ) उपास्थि अणु या कोन्ड्रोसाइट्स (Chondrocytes)-उपास्थि (cartilage) के मैट्रिक्स में स्थित कोशिकाएँ कोन्ड्रोसाइट्स कहलाती हैं। ये गर्तिकाओं या लैकुनी (lacunae) में स्थित होती है। प्रत्येक गर्तिका में एक दो या चार कोन्ड्रोसाइट्स होते हैं। कोन्ड्रोसाइट्स की संख्या वृद्धि के साथ-साथ उपास्थि में वृद्धि होती है। कोन्ड्रोसाइट्स द्वारा ही उपास्थि का मैट्रिक्स स्रावित होता है। यह कॉन्ड्रिन प्रोटीन (chondrin protein) होता है। उपास्थियाँ प्रायः अस्थियों के सन्धि स्थल पर पाई जाती हैं।

(ब) तन्त्रिकाक्ष या ऐक्सॉन (Axon):
तन्त्रिका कोशिका (neuron) तन्त्रिकातन्त्र का निर्माण करती है। प्रत्येक तन्त्रिका कोशिका के तीन भाग होते हैं –

  • साइटॉन (cyton)
  • डेन्ड्रॉन्स (dendrons) तथा
  • ऐक्सॉन (axon)।

साइटॉन से निकले प्रवर्षों में से एक प्रवर्ध अपेक्षाकृत लम्बा, मोटा एवं बेलनाकार होता है। इसे ऐक्सॉन (axon) कहते हैं। यह साइटॉन के फूले हुए भाग ऐक्सॉन हिलोक (axon hillock) से निकलता है। इसकी शाखाओं के अन्तिम छोर पर घुण्डी सदृश साइनैप्टिक घुण्डियाँ (synaptic buttons) होती हैं। ये अन्य तन्त्रिका, कोशिका के डेन्ड्रॉन्स के साथ सन्धि बनाती हैं।

ऐक्सॉन मेड्यूलेटेड (medullated) या नॉन-मेड्यूलेटेड (non-medullated) होते हैं। ऐक्सॉन श्वान कोशिकाओं (Schwannn cells) से बने न्यूरीलेमा (neurilemma) से घिरा होता है। मेड्यूलेटेड ऐक्सॉन में न्यूरीलेमा तथा ऐक्सॉन के मध्य वसीय पदार्थ साइलिन होता है।

(स) पक्ष्माभ उपकला (Ciliated Epithelium):
इसकी कोशिकाएँ स्तम्भाकार या घनाकार होती हैं। कोशिकाओं के बाहरी सिरों पर पक्ष्म या सीलिया होते हैं। प्रत्येक पक्ष्म के आधार. पर एक आधारकण (basal granule) होता है। पक्ष्मों की गति द्वारा श्लेष्म व अन्य पदार्थ आगे की ओर धकेल दिए जाते हैं। यह श्वास नाल, ब्रौंकाई, अण्डवाहिनी, मूत्रवाहिनी आदि की भीतरी सतह पर पाई जाती हैं।

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प्रश्न 8.
रेखांकित चित्र की सहायता से विभिन्न उपकला ऊतकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उपकला ऊतक (Epithelial Tissue):
संरचना तथा कार्यों के आधार पर उपकला ऊतक को दो समूहों में बाँटा जाता है-आवरण उपकला (covering epithelium) तथा ग्रन्थिल उपकला (glandular epithelium)।

(क) आवरण उपकला (Covering Epithelium):
यह अंगों तथा शरीर सतह को ढके रखता है। यह सरल तथा संयुक्त दो प्रकार की होती है –

1. सरल उपकला या सामान्य एपिथीलियम (Simple Epithelium):
यह उपकला उन स्थानों पर पाई जाती है, जो स्रावण, अवशोषण, उत्सर्जन आदि का कार्य करते हैं। यह निम्नलिखित पाँच प्रकार की होती हैं –

(i) सरल शल्की उपकला (Simple Squamous Epithelium):
कोशिकाएँ चौड़ी, चपटी, बहुभुजीय तथा परस्पर सटी रहती हैं। शल्की उपकला वायु कूपिकाओं, रुधिर वाहिनियों के आन्तरित स्तर, हृदय के भीतरी स्तर, देहगुहा के स्तरों आदि में पाई जाती हैं।

(ii) सरल स्तम्भी उपकला (Simple Columnar Epithelium):
इस उपकला की कोशिकाएँ लम्बी तथा परस्पर सटी होती हैं। आहारनाल की भित्ति का भीतरी स्तर इसी उपकला का बना होता है। ये पचे हुए खाद्य पदार्थों का अवशोषण भी करती है।

(iii) सरल घनाकार उपकला (Simple Cuboidal Epithelium):
इस उपकला की कोशिकाएँ घनाकार होती हैं। यह ऊतक श्वसनिकाओं, मूत्रजनन नलिकाओं, जनन ग्रन्थियों आदि में पाया जाता है। जनन ग्रन्थियों (gonads) में यह ऊतक जनन उपकला (germinal epithelium) कहलाता है।
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चित्र सामान्य उपकला : (A) – शल्की (squamous), (B) स्तम्भी (columnar) तथा (C) घनाकार (cuboidal) उपकलाएं।

(iv) पक्ष्माभी उपकला (Ciliated Epithelium):
इसकी कोशिकाएँ स्तम्भाकार अथवा घनाकार होती हैं। इन कोशिकाओं के बाहरी सिरों पर पक्ष्म या सीलिया होते हैं। प्रत्येक पक्ष्म के आधार पर आधार कण (basal granule) होता है। पक्ष्मों की गति द्वारा श्लेष्म तथा अन्य कार्य आगे की ओर धकेले जाते हैं। यह उपकला श्वासनाल, अण्डवाहिनी (oviduct), गर्भाशय आदि में पाई जाती है।
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चित्र – सरल स्तम्भी उपकला

(v) कूटस्तरित उपकला (Pseudostratified Epithelium):
यह सरल स्तम्भाकार उपकला का रूपान्तरित स्वरूप है। इसमें कोशिकाओं के मध्य गोब्लेट या म्यूकस कोशिकाएँ स्थित होती हैं। ये ट्रेकिया, श्वसनियों (bronchi), ग्रसनी, नासिका गुहा, नर मूत्रवाहिनी (urethra) आदि में पाई जाती हैं।
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चित्र – कूट स्तरित पक्ष्माभी उपकला

2. संयुक्त या स्तरित एपिथीलियम या उपकला (Compound or Stratified Epithelium):
इसमें उपकला अनेक स्तरों से बनी होती है। कोशिकाएँ विभिन्न आकार की होती है। कोशिकाएँ आधारकला (basement membrane) पर स्थित होती है। सबसे निचली पर्त की कोशिकाएँ निरन्तर विभाजित होती रहती है। बाहरी स्तर की कोशिकाएँ मृत होती हैं। कोशिकाओं की संरचना के आधार पर ये निम्नलिखित प्रकार की होती हैं –

(i) स्तरित शल्की उपकला (Stratified Squamous Epithelium):
इसमें सबसे बाहरी स्तर की कोशिकाएँ चपटी व शल्की होती है तथा सबसे भीतरी स्तर की कोशिकाएँ स्तम्भी या घनाकार होती हैं। आधारीय जनन स्तर की कोशिकाओं में निरन्तर विभाजन होने से त्वचा के क्षतिग्रस्त होने पर इसका पुनरुद्भवन होता रहता है। स्तरित शल्की उपकला किरेटिनयुक्त या किरेटिनविहीन होती है। स्तरित शल्की उपकला त्वचा की अधिचर्म, मुखगुहा ग्रसनी, ग्रसिका, योनि, मूत्रनलिका, नेत्र की कॉर्निया, नेत्र श्लेष्मा आदि में पाई जाती हैं।

(ii) अन्तवर्ती या स्थानान्तरित उपकला (Transitional Epithelium):
इसमें आधारकला तथा जनन स्तर नहीं होता है। इसकी कोशिकाएँ लचीले संयोजी ऊतक पर स्थित होती हैं। सजीव कोशिकाएँ परस्पर अंगुली सदृश प्रवर्धा (interdigitation) द्वारा जुड़ी रहती हैं। ये कोशिकाएँ फैलाव व प्रसार के लिए रूपान्तरित होती है। यह मूत्राशय, मूत्रवाहिनियों (ureters) की भित्ति का भीतरी स्तर बनाती हैं।

(iii) तन्त्रिका संवेदी उपकला (Neurosensory Epithelium):
यह स्तम्भाकार उपकला के रूपान्तरण से बनती है। कोशिकाओं के स्वतन्त्र सिरों पर संवेदी रोम होते हैं। कोशिका के आधार से तन्त्रिका तन्तु (nerve fibres) निकलते हैं। यह नेत्र के रेटिना (retina), घ्राण अंग की श्लेष्मिक कला, अन्त:कर्ण की उपकला आदि में पाई जाती है।
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चित्र – (A) स्तरित शल्की उपकला, (B) अन्तवर्ती उपकला, (C) तन्त्रिका संवेदी उपकला।

(ख) ग्रन्थिल उपकला (Glandular Epithelium):
ये घनाकार या स्तम्भाकार उपकला से विकसित होती हैं। ग्रन्थिल कोशिकाएँ एकाकी या सामूहिक होती हैं।

(i) एककोशिकीय ग्रन्थियाँ (Unicellular Glands):
ये स्तम्भाकार उपकला में एकल रूप में पाई जाती है। इन्हें श्लेष्म या गॉब्लेट कोशिकाएँ (goblet cells) कहते हैं।

(ii) बहुकोशिकीय ग्रन्थियाँ (Multicellular Glands):
ये उपकला के अन्तर्वलन से बनती हैं। इसका निचला भाग स्त्रावी (glandular) तथा ऊपरी भाग नलिकारूपी होता है; जैसे-श्वेद ग्रन्थियाँ, जठर ग्रन्थियाँ आदि। रचना के आधार पर बहुकोशिकीय ग्रन्थियाँ नलिकाकार, कूपिकाकार होती हैं। ये सरल, संयुक्त अथवा मिश्रित प्रकार की होती हैं। स्वभाव के आधार पर प्रन्थियाँ मीरोक्राइन (merocrine), एपोक्राइन (apocrine) या होलोक्राइन (holocrine) प्रकार की होती हैं।
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चित्र – विभिन्न प्रकार की सरल बहुकोशिकीय ग्रन्थियाँ।

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प्रश्न 9.
निम्नलिखित में विभेद कीजिए –
(अ) सरल उपकला तथा संयुक्त उपकला ऊतक
(ब) हृदय पेशी तथा रेखित पेशी
(स) सघन नियमित एवं सघन अनियमित संयोजी ऊतक
(द) वसामय तथा रुधिर ऊतका
(य) सामान्य तथा संयुक्त ग्रन्थि।
उत्तर:
(अ) सरल उपकला तथा संयुक्त उपकला में अन्तर (Difference between Simple and Compound Epithelium):
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(ब) हृदय पेशी और रेखित पेशी में अन्तर (Difference between Cardiac and Striated Muscles):
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(स) सघन नियमित एवं सघन अनियमित संयोजी ऊतक (Difference between Dense Regular and Dense Irregular Connective Tissue):
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(द) वसामय तथा रुधिर ऊतक में अन्तर (Difference between Adipose Tissue and Blood Tissue):
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(य) सामान्य तथा संयुक्त ग्रन्थि में अन्तर (Difference between Simple and Compound Glands):
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प्रश्न 10.
निम्न शृंखलाओं में सुमेलित न होने वाले अंशों को इंगित कीजिए –
(अ) एरिओलर ऊतक, रुधिर, तन्त्रिका कोशिका (न्यूरॉन), कंडरा (टेंडन)
(ब) लाल रुधिर कणिकाएँ, सफेद रुधिर कणिकाएँ, प्लेटलेट्स, उपास्थि
(स) बाह्यस्रावी, अन्तःस्रावी, लार-ग्रन्थि, स्नायु (लिंगामेन्ट)
(द) मैक्सिला, मैन्डिबल, लेब्रम, शृंगिका (एंटिना)
(य) प्रोटोनीमा, मध्यवक्ष, पश्चवक्ष तथा कक्षांग (कॉक्स)।
उत्तर:
(अ) न्यूरॉन (neuron)
(ब) उपास्थि (cartilage)
(स) स्नायु (लिंगामेन्ट-ligament)
(द) शृंगिका (एंटिना antennae)
(य) प्रोटोनीमा (protonema)।

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प्रश्न 11.
स्तम्भ – I और स्तम्भ – II को सुमेलित कीजिए –
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उत्तर:
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प्रश्न 12.
केंचुए के परिसंचरण तन्त्र का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
केंचुए का रुधिर परिसंचरण तन्त्र (Circulatory System of Earthworm):
केंचुए में रुधिर परिसंचरण ‘बन्द प्रकार का होता है। रुधिर लाल होता है। हीमोग्लोबिन प्लाज्मा में घुला होता है। रुधिराणु रंगहीन तथा केन्द्रकमय होते हैं। केंचुए के रुधिर परिसंचरण में निम्नलिखित अनुदैर्ध्य रुधिर बाहिनियाँ होती हैं –
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चित्र – केंचुए का रूधिर परिसंचरण तन्त्र

1. पृष्ठ रुधिरवाहिनी (Dorsal Blood Vessel):
यह आहारनाल के मध्य पृष्ठ तल पर स्थित होती है। यह पेशीय, कपाटयुक्त रुधिरवाहिनी होती है। यह अन्तिम खण्डों से रुधिर एकत्र करके प्रथम 13 खण्डों में वितरित कर देती है। रुधिर का अधिकांश भाग चार जोड़ी हृदय द्वारा अधर रुधिरवाहिनी में पहुँच जाता है।

2. अधर रुधिरवाहिनी (Ventral Blood Vessel):
यह आहारनाल के मध्य अधर तल पर स्थित होती है। यह अनुप्रस्थ रुधिर वाहिनियों द्वारा रुधिर का वितरण करती है। इसमें कपाट नहीं पाए जाते।

3. पार्श्व ग्रसनिका रुधिर वाहिनियाँ (Lateral Oesophageal Blood Vessels):
एक जोड़ी रुधिर वाहिनियाँ दूसरे खण्ड से 14वें खण्ड तक आहारनाल के पावों में स्थित होती हैं। ये रुधिर एकत्र करके ग्रसिकोपरि वाहिनी (supraoesophageal blood vessel) को पहुँचाती है।

4. ufuantuft afecit (Supra-oesophageal Blood Vessel):
यह आहारनाल के पृष्ठ तल पर 9वें खण्ड तक फैली होती है। यह पार्श्व ग्रसनिका से 2 जोड़ी अग्रलूपों (anterior loops) द्वारा रुधिर एकत्र करके अधर रुधिरवाहिनी को पहुँचा देती है।

5. अधो तन्त्रिकीय रुधिरवाहिनी (Sub-neural Blood Vessel):
यह आहारनाल के आंत्रीय भाग में तन्त्रिका रज्जु के नीचे मध्य-अधर तल पर स्थित होती है। यह खण्डीय भागों में रुधिर एकत्र करके योजि वाहिनियों द्वारा पृष्ठ रुधिरवाहिनी में पहुँचा देती है।

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प्रश्न 13.
मेंढक के पाचन तन्त्र का नामांकित चित्र बनाइए।
उत्तर:
मेंढक का पाचन तन्त्र (Digestive System of Frog):
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चित्र – मेंढक का पाचन तन्त्र

प्रश्न 14.
निम्न के कार्य बताइए –
(अ) मेंढक की मूत्रवाहिनी
(ब) मैल्पीची नलिका
(स) केंचए की देहभत्ति.
उत्तर:
(अ) मेंढक की मूत्रवाहिनी (Ureter of Frog):
नर मेंढक में वृक्क से मूत्रवाहिनी निकलकर क्लोएका में खुलती हैं। यह मूत्रजनन नलिका का कार्य करती है। मादा मेंढक में मूत्रवाहिनी तथा अण्डवाहिनी (oviduct) क्लोएका में पृथक्-पृथक् खुलती है। मूत्रवाहिनी वृक्क से मूत्र को क्लोएका तक पहुँचाती है।

(ब) मैल्पीघी नलिकाएँ (Malpighian tubules):
ये कीटों में मध्यान्त्र तथा पश्चान्त्र के सन्धितल पर पाई जाने वाली पीले रंग की धागे सदृश उत्सर्जी रचनाएँ होती हैं। ये उत्सर्जी पदार्थों को हीमोसील से ग्रहण करके आहारनाल में पहुँचाती हैं।

(स) केंचुए की देहभित्ति (Bodywall of Earthworm):
केंचुए की देहभित्ति नम तथा चिकनी होती है। यह श्वसन हेतु गैस विनिमय में सहायक होती है। देहभित्ति का श्लेष्म केंचुए के बिलों (सुरंग) की सतह को चिकना एवं मजबूत बनाता है।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 6 पुष्पी पादपों का शारीर

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 6 पुष्पी पादपों का शारीर Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 6 पुष्पी पादपों का शारीर

Bihar Board Class 11 Biology पुष्पी पादपों का शारीर Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
विभिन्न प्रकार के मेरिस्टेम की स्थिति तथा कार्य बताइए।
उत्तर:
मेरिस्टेम (Meristem):
इसके अन्तर्गत आने वाले ऊतक की कोशिकाओं में कोशिका विभाजन की क्षमता पाई जाती है। यह ऊतक पौधे के वर्धी भागों में पाया जाता है। मेरिस्टेम की कोशिकाएँ पतली भित्ति वाली एवं जीवित होती है। इनमें सघन कोशिकाद्रव्य तथा स्पष्ट केन्द्रक पाया जाता है। कोशिकाओं के मध्य अन्तराकोशिकीय अवकाश नहीं पाया जाता। स्थिति के आधार पर मेरिस्टेम निम्नलिखित तीन प्रकार का होता है –
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 6 पुष्पी पादपों का शारीर
चित्र – मेरिस्टेम (स्थिति के आधार पर)।

  1. शीर्षस्थ मेरिस्टेम (Apical meristem)
  2. अन्तर्विष्ट मेरिस्टम (Intercalary meristem)
  3. पाीय मेरिस्टेम (Lateral meristem)।

1. शीर्षस्थ मेरिस्टेम (Apical Meristem):
यह जड़ तथा तने के शिखर पर पाया जाता है। इसकी कोशिकाओं में निरन्तर कोशिका विभाजन के फलस्वरूप जड़ तथा तने की लम्बाई में वृद्धि होती रहती है। अतः ये जड़ तथा तने के वृद्धि बिन्दु (growing points) कहलाते हैं। शीर्षस्थ मेरिस्टेम से ही अन्तर्विष्ट तथा पाशवीय मैरिस्टेम कोशिकाओं का निर्माण होता है। शीर्षस्थ मेरिस्टेम की कोशिकाओं से पौधों के विभिन्न ऊतक तन्त्र का निर्माण होता है। हैन्सटीन (Hanstein, 1870) के अनुसार शीर्षस्थ मेरिस्टेम कोशिकाओं को तीन क्षेत्रों में विभाजित करते हैं –

  • डर्मेटोजन (dermatogen)
  • पेरीब्लेम (periblem) तथा
  • प्लीरोम (plerome)।

श्मिट (Schmidt, 1924) के अनुसार शीर्षस्थ मैरिस्टेम को – दो क्षेत्रों में विभाजित करते हैं –

  • ट्यूनिका (tunica) तथा
  • कॉर्पस (corpus)

2. अन्तर्विष्ट मेरिस्टेम (Intercalary meristem):
यह पर्व के आधार पर, पर्व-सन्धि के आधार पर या पर्वसन्धियों पर पाया जाता है। इसका निर्माण शीर्षस्थ मेरिस्टेम से होता है। इसके द्वारा लम्बाई में वृद्धि होती है।

3. पावीय मेरिस्टेम (Lateral meristem):
यह पार्श्व स्थिति में पाया जाता है। उत्पत्ति के आधार पर यह प्राथमिक अथवा द्वितीयक होता है। प्राथमिक पावीय मेरिस्टेम का निर्माण शीर्षस्थ मेरिस्टेम से होता है। द्वितीयक पावीय मेरिस्टेम का निर्माण स्थायी मृदूतक कोशिकाओं से होता है। पावीय मेरिस्टेम के कारण जड़ तथा तने की मोटाई में वृद्धि (द्वितीयक वृद्धि) होती है।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 6 पुष्पी पादपों का शारीर

प्रश्न 2.
कॉर्क कैम्बियम ऊतकों से बनता है जो कॉर्क बनाते हैं। क्या आप इस कथन से सहमत हैं? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कॉर्क एधा (कैम्बियम) का निर्माण द्वितीयक वृद्धि के समय वल्कुट क्षेत्र में होता है। कॉर्क एधा कोशिकाओं का निर्माण जीवित मृदूतक कोशिकाओं से होता है। कॉर्क एधा कोशिकाओं से विभाजन के फलस्वरूप कोशिकाएँ परिधि की ओर कॉर्क (फेलम) बनाती है। कॉर्क कोशिकाएँ सुबेरिनमद (suberized) होने के कारण मृत हो जाती हैं।

ये कोशिकाएँ सघन होती हैं, इनमें अन्तराकोशिकीय अवकाश (intercellular space) नहीं होते। ये कोशिकाएँ जल के लिए अपारगम्य होती हैं। कोशिकाओं में वायु भरी रहती है। कॉर्क पौधे को यान्त्रिक शक्ति प्रदान करती है। कॉर्क एक कुसंवाहक (bad conductor) का कार्य करती है। कॉर्क एधा से केन्द्र की ओर द्वितीयक वल्कुट (फेलोडर्म) का निर्माण होता है।

प्रश्न 3.
चित्रों की सहायता से काष्ठीय एन्जियोस्पर्म के तने में द्वितीयक वृद्धि के प्रक्रम का वर्णन कीजिए। इसकी क्या सार्थकता है?
उत्तर:
द्वितीयक वृद्धि (Secondary Growth):
शीर्षस्थ विभज्योतक की कोशिकाओं के विभाजन, विभेदन और परिवर्द्धन के फलस्वरूप प्राथमिक ऊतकों का निर्माण होता है। अतः शीर्षस्थ विभज्योतक के कारण पौधे की लम्बाई में वृद्धि होती है। इन्हें प्राथमिक वृद्धि कहते हैं। द्विबीजपत्री तथा जिम्नोस्पर्स आदि काष्ठीय पौधों में पार्श्व विभज्योतक के कारण तने तथा जड़ की मोटाई में वृद्धि होती है। इस प्रकार मोटाई में होने वाली वृद्धि की द्वितीयक वृद्धि (secondary growth) कहते हैं। जाइलम और फ्लोएम के मध्य विभज्योतक की संवहन एधा (vascular cambium) तथा वल्कुट या परिरम्भ में विभज्योतक को कॉर्क एधा (cork cambium) कहते हैं।

द्वितीयक वृद्धि-द्विबीजपत्री तना (Secondary Growth : Dicot Stem):
द्वितीयक वृद्धि संवहन एधा (vascular cambium) तथा कॉर्क एधा (cork cambium) की क्रियाशीलता के कारण होती हैं।

संवहन एधा की क्रियाशीलता (Activity of Vascular Cambium):
द्विबीजपत्री तने में संवहन बण्डल वर्षी (open) होते हैं। संवहन बण्डलों के जाइलम तथा फ्लोएम के मध्य अन्तः पूलीय एधा (intrafascicular cambium) होती है। मज्जा रश्मियों की मृदूतक कोशिकाएँ जो अन्त: पूलीय एधा के मध्य स्थित होती हैं, विभज्योतकी होकर आन्तरपूलीय एधा (interfascicular cambium) बनाती हैं। पूलीय तथा आन्तरपूलीय एधा मिलकर संवहन एधा का घेरा बनाती है।

संवहन एधा वलय (vascular cambium ring) की कोशिकाएँ तने की परिधि के समानान्तर तल अर्थात् स्पर्शरेखीय तल (tangential plane) में ही विभाजित होती हैं। इस प्रकार प्रत्येक कोशिका के विभाजन से जो नई कोशिकाएँ बनती है उनमें से केवल एक जाइलम या फ्लोएम की कोशिका में रूपान्तरित हो जाती है, जबकि दूसरी कोशिका विभाजनशील (meristematic) बनी रहती है।

परिधि की ओर बनने वाली कोशिकाएँ फ्लोएम के तत्वों में तथा केन्द्र की ओर बनने वाली कोशिकाएँ जाइलम के तत्वों में परिवर्द्धित हो जाती हैं। बाद में बनने वाला संवहन ऊतक क्रमश: द्वितीयक जाइलम (secondary xylem) तथा द्वितीयक फ्लोएम (secondary phloem) कहलाता है। ये संरचना तथा कार्य में प्राथमिक जाइलम तथा फ्लोएम के समान होते हैं।
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चित्र-पूलीय एधा की कोशिका का क्रमिक विभाजन; जाइलम और फ्लोएम का निर्माण।

कॉर्क एधा की क्रियाशीलता (Activity of Cork Cambium):
संवहन एधा की क्रियाशीलता से बने द्वितीयक ऊतक पुराने ऊतकों पर दबाव डालते हैं जिसके कारण भीतरी (केन्द्र की ओर उपस्थित) प्राथमिक जाइलम अन्दर की ओर दब जाता है। इसके साथ ही परिधि की ओर स्थित प्राथमिक फ्लोएम नष्ट हो जाता है। इससे पहले कि बाह्य त्वचा (epidermis) की कोशिकाएँ एक निश्चित सीमा तक खींचने के बाद टूट-फूट जाएँ, अधस्त्वचा (hypodermis) के अन्दर की कुछ मृदूतंकीय कोशिकाएँ विभज्योतक (meristem) होकर कॉर्क एधा (cork cambium) बनाती हैं। कॉर्क एधा कभी-कभी वल्कुट, अन्तस्त्वचा, परिरम्भ (pericycle) आदि से बनती है।

कॉर्क एधा तने की परिधि के समानान्तर विभाजित होकर बाहर की ओर सुबेरिनयुक्त (suberized) कॉर्क या फेलम (cork or phellem) का निर्माण करती है। यह तने के अन्दर के भीतरी ऊतकों की सुरक्षा करती है।

कॉर्क एधा से केन्द्र की ओर बनने वाली मृदूतकीय (parenchymatous), स्थूलकोणीय अथवा दृढ़ोतकी कोशिकाएँ द्वितीयक वल्कुट (phelloderm) का निर्माण करती हैं। कॉर्क एधा से बने फेलम तथा फेलोडर्म को पेरीडर्म (periderm) कहते हैं। पेरीडर्म में स्थान-स्थान पर गैस विनिमय के लिए वातरन्ध्र (lenticels) बन जाते हैं। द्वितीयक जाइलम वसन्त काष्ठ तथा शरद् काष्ठ में भिन्नित होता है। इसके फलस्वरूप कुछ पौधों में स्पष्ट वार्षिक वलय बनते हैं।
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चित्र-द्विबीजपत्री तने की द्वितीयक वृद्धि की क्रमिक अवस्थाएँ।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में विभेद कीजिए –
(अ) ट्रैकीड तथा वाहिका
(ब) पैरेन्काइमा तथा कॉलेन्काइमा
(स) रसदारु तथा अन्तःकाष्ठ
(द) खुला तथा बन्द संवहन बण्डल।
उत्तर:
(अ) ट्रैकीड तथा वाहिका में अन्तर (Difference between Tracheid and Vessel):
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(ब) पैरेन्काइमा (मृदूतक) तथा कॉलेन्काइमा (स्थूलकोण ऊतक) में अन्तर (Difference between Parenchyma and Collenchyma):
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(स) रसदारु तथा अन्तःकाष्ठ में अन्तर (Difference between Sapwood and Heartwood):
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(द) खुले तथा बन्द संवहन बण्डल में अन्तर (Difference between Open and Closed Type Vascular Bundle):
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प्रश्न 5.
निम्नलिखित में शारीर के आधार पर अन्तर कीजिए –
(अ) एकबीजपत्री मूल तथा द्विबीजपत्री मूल
(ब) एकबीजपत्री तना तथा द्विबीजपत्री तना।
उत्तर:
(अ) एकबीजपत्री मूल तथा द्विबीजपत्री मूल में अन्तर (Difference between Monocot and Dicot Root):
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(ब) एकबीजपत्री तने तथा द्विबीजपत्री तने में अन्तर (Differences between Monocot and Dicot Stem):
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प्रश्न 6.
आप एक शैशव तने की अनुप्रस्थ काट का सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन करें। आप कैसे पता करेंगे कि यह एक बीजपत्री तना अथवा द्विबीजपत्री तना है? इसके कारण बताइए।
उत्तर:
शैशव तने की अनुप्रस्थ काट का सूक्ष्मदर्शीय अवलोकन करके निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर एकबीजपत्री या द्विबीजपत्री तने की पहचान करते हैं –

(क) तने के आन्तरिक आकारिकी लक्षण (Anatomical Characters of Stem):

  • बाह्य त्वचा पर उपचर्म (cuticle), रन्ध्र (stomata) तथा बहुकोशीय रोम पाए जाते हैं।
  • अधस्त्वचा (hypodermis) उपस्थित होती है।
  • अन्तस्त्वचा प्रायः अनुपस्थित या अल्पविकसित होती
  • परिरम्भ (pericycle) प्रायः बहुस्तरीय होता है।
  • संवहन बण्डल संयुक्त (conjoint), बहिःफ्लोएमी (collateral) या उभयफ्लोएमी (bicollateral) होते हैं।
  • प्रोटोजाइलम एण्डार्क (endarch) होता है।

(ख) एकबीजपत्री तने के आन्तरिक आकारिकी लक्षण (Anatomical Characters of Monocot Stem):

  • बाह्यत्वचा पर बहुकोशिकीय रोम अनुपस्थित होते हैं।
  • अधस्त्वचा दृढ़ोतक (sclerenchymatous) होती है।
  • भरण ऊतक (ground tissue) वल्कुट, अन्तस्त्वचा, परिरम्भ तथा मज्जा में अविभेदित होता है।
  • संवहन बण्डल भरण ऊतक में बिखरे रहते हैं।
  • संवहन बण्डल संयुक्त, बहि:फ्लोएमी तथा अवर्धी (closed) होते हैं।
  • संवहन बण्डल चारों ओर से दृढ़ोतक से बनी बण्डल आच्छद से घिरे होते हैं।
  • जाइलम वाहिकाएँ (vessels) ‘V’ या ‘Y’ क्रम में व्यवस्थित रहती हैं।

(ग) द्विबीजपत्री तने के आन्तरिक आकारिकी लक्षण (Anatomical Characters of Dicot Stem):

  • बाह्य त्वचा पर बहुकोशिकीय रोम पाए जाते हैं।
  • अधस्त्वचा (hypodermis) स्थूलकोण ऊतक से बनी होती है।
  • संवहन बण्डल एक या दो घेरों में व्यवस्थित होते हैं।
  • भरण ऊतक वल्कुट, अन्तस्त्वचा, परिरम्भ, मज्जा तथा मज्जा रश्मियों में विभेदित होता है।
  • संवहन बण्डल संयुक्त, बहि:फ्लोएमी या उभयफ्लोएमी और वर्धा (open) होते हैं।
  • जाइलम वाहिकाएँ रेखीय (linear) क्रम में व्यवस्थित होती हैं।

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प्रश्न 7.
सूक्ष्मदर्शी किसी पौधे के भाग की अनुप्रस्थ काट में निम्नलिखित शारीर रचना दिखाती है –
(अ) संवहन बण्डल संयुक्त, फैले हुए तथा उसके चारों ओर स्क्लेरेन्काइमी आच्छद हैं।
(ब) फ्लोएम पैरेन्काइमा नहीं है।
आप कैसे पहचानोगे कि यह किसका है?
उत्तर:
एकबीजपत्री तने की आन्तरिक आकारिकी या शारीर में संवहन बण्डल भरण ऊतक बिखरे रहते हैं। संवहन बण्डल संयुक्त तथा अवर्धी होते हैं। संवहन बण्डल के चारों ओर स्क्लेरेन्काइमा बण्डल आच्छद (bundle sheath) होती है। फ्लोएम में फ्लोएम मृदूतक का अभाव होता है। अतः सूक्ष्मदर्शी में प्रदर्शित पौधे का भाग एकबीजपत्री तना हैं।

प्रश्न 8.
जाइलम तथा फ्लोएम को जटिल ऊतक क्यों कहते हैं?
उत्तर:
जटिल ऊतक (Complex Tissue):
इसका निर्माण दो या अधिक प्रकार की कोशिकाओं से होता है। सभी कोशिकाएँ मिलकर किसी कार्य को सामूहिक रूप से क्रियान्वित करती हैं। जाइलम तथा फ्लोएम जटिल ऊतक हैं। जाइलम का निर्माण वाहिनिकाओं (tracheids), वाहिकाओं (vessels), काष्ठ मृदूतक तथा काष्ठ रेशों से होता है।

कोशिकाएँ मिलकर जल एवं खनिज पदार्थों के संवहन का कार्य करती हैं। फ्लोएम का निर्माण चालनी नलिकाओं (sieve tubes), सहकोशिकाओं (companion cells), फ्लोएम मृदूतक तथा फ्लोएम रेशे (phloem fibres) से होता है। संभी कोशिकाएँ परस्पर मिलकर कार्बनिक भोज्य पदार्थों के स्थानान्तरण का कार्य करती हैं।

प्रश्न 9.
रन्ध्री तन्त्र क्या है? रन्ध्र की रचना का वर्णन कीजिए और इसका चिन्हित चित्र बनाइए।
उत्तर:
रन्ध्री तन्त्र (Stomatal Apparatus):
रन्ध्र (stomata) मुख्यतया पत्तियों की सतह पर पाए जाते हैं। रन्ध्र (stoma or pore), रक्षक कोशिकाएँ (guard cells) तथा सहायक कोशिकाएँ (subsidiary cells) मिलकर रन्ध्री तन्त्र बनाती हैं।

रन्ध्र की संरचना (Structure of Stomata):
पौधों के वायवीय, हरे तथा कोमल भागों की बाह्य त्वचा पर पाए जाने वाले छिद्रों को रन्ध्र (stomata) कहते हैं। यह दो वृक्काकार कोशिकाओं से घिरा होता है। इन कोशिकाओं को द्वार कोशिकाएँ (guard cells) कहते हैं। द्वार कोशिकाएँ स्टोमा या रन्ध्र (stoma) को छोटा-बड़ा करने या बन्द करने का कार्य करती हैं। द्वार कोशिकाओं के जीवद्रव्य में क्लोरोप्लास्ट्स होते हैं। इनकी बाहरी भित्ति पतली तथा भीतरी (रन्ध्र की ओर वाली) भित्ति स्थूल होती है। द्वार कोशिकाओं को घेरने वाली इन कोशिकाओं को सहायक कोशिकाएँ (accessory cells) कहते हैं।

कार्य (Function):
रन्ध्र सामान्यत: दिन के समय खुले रहते हैं तथा रात्रि के समय बन्द हो जाते हैं। इनके द्वारा गैसों का आदान-प्रदान होता है। वाष्पोत्सर्जन की क्रिया भी रन्ध्रों के द्वारा होती है। रन्ध्र के नीचे उपस्थित अधोरन्ध्रीय गुहा (substomatal cavity) के द्वारा पौधे का सम्बन्ध बाह्य वातावरण के साथ बना रहता है।
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चित्र-पत्ती की बाह्य त्वचा में रन्ध्र (बाई) तथा रन्ध्र की विस्तृत संरचना (दाईं)।

रन्ध्रों का वितरण (Distribution of Stomata):
पौधों के लगभग सभी वायवीय भागों पर रन्ध्र मिलते हैं। पत्तियाँ प्रकाश संश्लेषण, श्वसन और वाष्पोत्सर्जन के प्रमुख अंग हैं। अतः इन्हीं पर सबसे अधिक रन्ध्र पाए जाते हैं। सामान्य रूप से द्विबीजपत्री पौधों की पत्तियों के एक ही तल पर प्रकाश पड़ता है (पृष्ठाधारी = dorsiventral)। अतः इन पत्तियों की निचली सतह (abaxial surface) पर ही रन्ध्र पाए जाते हैं और यदि ऊपरी सतह पर होते भी हैं तो इनकी संख्या अपेक्षाकृत कम होती है। एकबीजपत्री पौधों की पत्तियों (आइसोबाइलेटरल isobilateral) की दोनों सतह पर रन्ध्र लगभग बराबर संख्या में होते हैं।

जल पर तैरने वाली पत्तियों (जैसे-कमल) की निचली सतह और जल में डूबी पत्तियों को दोनों सतहों पर रन्ध्र नहीं पाए जाते हैं। शुष्कोद्भिद् पौधों की पत्तियों पर रन्ध्र बहुत कम होते हैं। ये गड्ढों या खाँचों में धंसे हुए होते हैं। कभी-कभी रन्ध्रों के ऊपर बहुत-से रोम आदि पाए जाते हैं। गर्तपय रन्ध्रों के कारण पौधे पर वायुमण्डल की शुष्कता का कम प्रभाव पड़ता है। जैसे-कनेर (Nerium), कन्तला (Agave) आदि में। पत्ती की सतह पर रन्ध्रों की संख्या सामान्य रूप से 250-300 प्रतिवर्ग मिमी होती है। यह संख्या 14 से 1038 प्रति वर्ग मिमी तक हो सकती है। रन्ध्र सम्पूर्ण पत्ती का लगभग 1.2% भाग घेरते हैं।

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प्रश्न 10.
पुष्पी पादपों में तीन मूलभूत ऊतक तन्त्र बताइए। प्रत्येक तन्त्र के ऊतक बताइए।
उत्तर:
पुष्पी पादप के मूलभूत ऊतक तन्त्र (Fundamental Tissue System of Flowering Plants):
पुष्पी पादपों में ऊतक तन्त्र निम्नलिखित तीन प्रकार के होते हैं –

1. अधिचर्म ऊतक तन्त्र (Epidermal Tissue System):
इसका निर्माण शीर्षस्थ मेरिस्टेम की त्वचाजन (dermatogen) से होता है। यह मुख्यतया मृदूतकी कोशिकाओं से बना होता है। इसके अन्तर्गत बाह्यत्वचा या मूलीय त्वचा आती है। अधिचर्म की कोशिकाएँ अनियमित अथवा बहुभुजीय दिखाई देती हैं। अनुप्रस्थ काट में कोशिकाएँ ढोलकनुमा (barrel shaped) दिखाई देती हैं।

बाह्यत्वचा (epidermis) की कोशिकाएँ उपचर्म (cuticle) के आवरण से ढकी रहती है। बाह्यत्वचा पर स्थान-स्थान पर रन्ध्र (stomata) पाए जाते हैं। प्रत्येक रन्ध्र दो रक्षक कोशिकाओं (guard cells) से घिरा होता है। वृक्काकार रक्षक कोशिकाओं की भीतरी सतह स्थूल तथा बाहरी सतह पतली भित्ति वाली होती है।

रक्षक कोशिकाओं में हरितलवक पाए जाते हैं। रक्षक कोशिकाओं के चारों ओर स्थित हरितलवक रहित सहायक कोशिकाएँ (subsidiary cells) होती हैं। रन्ध्रों का खुलना तथा बन्द होना रक्षक कोशिकाओं की आशून अथवा श्लथ दशा पर निर्भर करता है। बाह्यत्वचा पर बहुकोशिकीय रोम या ट्राइकोम्स (trichomes) होते हैं। जड़ो की मूलीय त्वचा (epiblemma) पर उपचर्म तथा रन्ध्रों का अभाव होता है। मूलीय त्वचा से एककोशिकीय मूलरोम (root hairs) निकलते हैं। चित्र के लिए प्रश्न 9 का चित्र देखिए)।

2. भरण ऊतक तन्त्र (Ground Tissue System) इसका निर्माण शीर्षस्थ मेरिस्टेम के पेरीब्लेम (periblem) तथा प्लीरोम (plerome) स्तर से होता है। भरण ऊतक तन्त्र का निर्माण मृदूतक (parenchyma), स्थूलकोण ऊतक तथा दृढ़ोतक (sclerenchyma) से होता है। भरण ऊतक तन्त्र को मुख्य रूप से निम्नलिखित क्षेत्रों में विभाजित किया जाता है –

(क) वल्कुट (Cortex):
यह सामान्यतया मृदूतक (parenchyma) से बना स्तर है। इसे अधस्त्वचा (hypodermis), सामान्य वल्कुट (general cortex) तथा अन्तस्त्वचा (endodermis) में विभाजित करते हैं। अधस्त्वचा तने में पाया जाता है। द्विबीजपत्री तने में यह स्थूलकोण (collenchyma) से तथा एकबीजपत्री तने में दृढ़ोतक (sclerenchyma) से बना होता है। जड़ तथा पत्ती में अधस्त्वचा का अभाव होता है। वल्कुट का सबसे भीतरी स्तर अन्तस्त्वचा (endodermis) कहलाता है। जड़ में यह स्तर स्पष्ट होता है। जाइलम के सम्मुख स्थित मार्ग कोशिकाओं (passage cells) को छोड़कर शेष कोशिकाओं में अपारगम्य कैस्पेरियन पट्टियाँ (casparian strips) पाई जाती हैं।

(ख) परिरम्भ (Pericycle):
यह मृदूतक तथा दृढ़ोतक कोशिकाओं से बना होता है। जड़ों में परिरम्भ एकस्तरीय तथा तनों में बहुस्तरीय होता है।

(ग) मज्जा (Pith):
यह जड़ तथा तनों का केन्द्रीय भाग होता है। यह मृदूतकी कोशिकाओं से बना होता है। कभी-कभी ये कोशिकाएँ स्थूलित हो जाती हैं। इसका कार्य सामान्यतया भोजन संचय करना है।

(घ) मज्जा रश्मि (Medullary Rays):
ये द्विबीजपत्री तनों में पाई जाती हैं। ये मृदूतकी कोशिकाओं से बनी होती हैं। मज्जा रश्मि जल एवं भोजन वितरण में सहायक होती है।

3. संवहन ऊतक तन्त्र (Vascular Tissue System):
यह शीर्षस्थ मेरिस्टेम के प्लीरोम (Plerome) स्तर से बनता है। जाइलम तथा प्लोएम संवहन ऊतक का कार्य करते हैं। जाइलम तथा फ्लोएम संवहन पूल (vascular bundle) में व्यवस्थित होते हैं। संवहन पूल निम्नलिखित तीन प्रकार के होते है –

(क) संयुक्त (Conjoint)
(ख) अरीय (Radial)
(ग) संकेन्द्री (Concentric)

संयुक्त संवहन पूल तनों में, अरीय संवहन पूल जड़ों में तथा संकेन्द्री संवहन पूल कुछ एकबीजपत्री पौधों में पाए जाते हैं। वर्धी संयुक्त संवहन पूल में जाइलम तथा फ्लोएम के मध्य विभज्योतकी एधा कोशिकाएँ पाई जाती हैं।

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प्रश्न 11.
पादप शारीर का अध्ययन हमारे लिए कैसे उपयोगी है?
उत्तर:
फार्माकोनोसी (Pharmaconosy) विज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत औषधीय महत्त्व के पदार्थों के स्रोत, विशेषताओं और उनके उपयोग का अध्ययन प्राकृतिक अवस्था में किया जाता है। यह अध्ययन मुख्य रूप से पौधों के शारीर (anatomy) पर निर्भर करता है। इमारती लकड़ी (timber) की दिन-प्रतिदिन कमी होती जा रही है, इसीलिए अच्छी इमारती लकड़ी के स्थान पर खराब इमारती लकड़ी का उपयोग किया जा रहा है। शारीर अध्ययन द्वारा लकड़ी को किस्म (quality) का पता लगाया जा सकता है।

शरीर अध्ययन द्वारा एकबीजपत्री तथा द्विबीजपत्री तने और जड़ की पहचान की जा सकती है। जीवाश्म शारीर (fossil anatomy) अध्ययन द्वारा प्राचीनकालीन पौधों का ज्ञान होता है। इससे जैवविकास का ज्ञान होता है कि आधुनिक पौधों की उत्पत्ति किस प्रकार हुई है। सूक्ष्मदर्शीय अध्ययन द्वारा चाय, कॉफी, तम्बाकू, केसर, हींग, वनस्पति रंगों, पादप औषधियों में मिलावट (adulteration) का अध्ययन किया जा सकता है। मिलावट के कारण इनकी आन्तरिक संरचना में भिन्नता आ जाती है।

प्रश्न 12.
परिचर्म क्या है? द्विबीजपत्री तने में परिचर्म कैसे बनता है?
उत्तर:
परिचर्म (Periderm) कॉर्क एधा की जीवित मृदूतक कोशिका से परिचर्म का निर्माण होता है। कॉर्क एधा या कागजन (cork cambium or phellogen) की कोशिकाएँ विभाजित होकर परिधि की ओर जो कोशिकाएँ बनाती हैं, वे सुबेरिनयुक्त (suberinized) कोशिकाएँ होती हैं। सुबेरिनयुक्त कोशिकाओं से बना यह स्तर कॉर्क या फेलम (cork or phellem) कहलाता है। कॉर्क एधा (cork cambium) से भीतर की ओर बनने वाली मृदूतकीय कोशिकाएँ द्वितीयक वल्कुट या फ्लोडर्म (phelloderm) बनाती है। फेलम (कॉर्क), कॉर्क एधा तथा द्वितीयक वल्कुट मिलकर पेरिचर्म (Periderm) बनाती हैं।

प्रश्न 13.
पृष्ठाधर पत्ती की भीतरी रचना का वर्णन चिन्हित चित्रों की सहायता से करो।
उत्तर:
पृष्ठाधारी पत्ती की आन्तरिक संरचना-पृष्ठाधारी पत्ती. की उदग्र काट में बाह्य त्वचा, पर्ण मध्योतक तथा संवहन बण्डल स्पष्ट दिखाई देते हैं। ऊपरी बाह्य त्वचा पर उपचर्म का मोटा स्तर होता है। निचली सतह पर प्रचुर संख्या में रन्ध्र पाए जाते हैं। पृष्ठ बाह्य त्वचा के नीचे लम्बी खम्भ कोशिकाओं की एक यो दो पर्त होती हैं।

हरित लवक युक्त ये कोशिकाएँ प्रकाश संश्लेषण के लिए विशिष्टीकृत होती हैं। गोलाकार या अण्डाकार मृदूतक कोशिकाओं के मध्य बड़े-बड़े अन्तराकोशिकीय अवकाश पाए जाते हैं। स्पंजी पैरेन्काइमा के बीच में वायु गुहिकाएँ पायी जाती हैं। संवहन पूल संयुक्त बहि:फ्लोएमी तथा मध्य आदिदारुक होते हैं। इनके चारों ओर बण्डल आच्छद पायी जाती है।
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चित्र-द्विबीजपत्री की अनुप्रस्थ काट

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प्रश्न 14.
त्वक् कोशिकाओं की रचना तथा स्थिति उन्हें किस प्रकार विशिष्ट कार्य करने में सहायता करती हैं?
उत्तर:
त्वक् कोशिकाएँ (Epidermal Cells):
ये पादप शरीर के सभी भागों पर सबसे बाहरी रक्षात्मक आवरण बनाती हैं। यह प्राय: एक कोशिका मोटा स्तर होता है। कोशिकाएँ अनुप्रस्थ काट में ढोलकनुमा (barrel shaped) दिखाई देती है। बाहर से देखने पर ये अनियमित आकार की फर्श के टाइल्स की तरह अथवा बहुभुजीय दिखाई देती हैं। ये परस्पर एक-दूसरे से मिलकर अखण्ड सतह बनाती हैं।

ये कोशिकाएँ मृदूतकीय कोशिकाओं का रूपान्तरण होती हैं। इन कोशिकाओं में कोशिकाद्रव्य की मात्रा बहुत कम होती है तथा प्रत्येक कोशिका में एक बड़ी रिक्तिका होती है। पौधे के वायवीय भागों की त्वक कोशिकाएँ उपचर्म (cuticle) से ढकी होती है, परन्तु मूलीय त्वचा की कोशिकाओं पर उपचर्म का रक्षात्मक आवरण नहीं होता।

र तने, पत्ती आदि की त्वक् कोशिकाओं के मध्य रन्ध्र (stomata) पाए जाते हैं। रन्ध्र द्वार कोशिकाओं (guard cells) से घिरे होते हैं। द्वार कोशिकाएँ वृक्काकार होती हैं। द्वार कोशिकाओं के चारों ओर पाई जाने वाली कोशिकाओं को सहायक कोशिकाएँ कहते हैं। रन्ध्रों का खुलना तथा बन्द होना रक्षक कोशिकाओं का आशूनता पर निर्भर करता है। रन्ध्र वाष्पोत्सर्जन तथा गैसों के आदान-प्रदान का कार्य करते हैं। रन्ध्रों की स्थिति, संख्या, संरचना, उपचर्म की मोटाई आदि वाष्पोत्सर्जन की दर को प्रभावित करती है।

जड़ों को त्वक कोशिकाओं से एककोशिकीय मूलरोम बनते हैं। ये मृदा से जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं। तने और पत्तियों की त्वक कोशिकाओं से बहुकोशिकीय रोम बनते हैं। पत्ती एवं तने की रोमयुक्त सतह वाष्पोत्सर्जन की दर को नियन्त्रित करने में सहायक होती है। रन्ध्रों के रोमों से ढके रहने के कारण मरुद्भिद् पौधों में वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है। त्वक कोशिकाएँ वातावरणीय दुष्प्रभारों से पौधों की सुरक्षा करती है।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी

Bihar Board Class 11 Biology पुष्पी पादपों की आकारिकी Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
मूल के रूपान्तरण से आप क्या समझते हैं? निम्नलिखित में किस प्रकार का रूपान्तरण पाया जाता है –
(अ) बरगद
(ब) शलजम
(स) मैंग्रोव वृक्ष।
उत्तर:
मूल के रूपान्तरण (Modification of Roots):
जड़ का सामान्य कार्य पौधे को स्थिर रखना और जल एवं खनिज पदार्थों का अवशोषण करना है। इसके अतिरिक्त जड़े कुछ विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के लिए रूपान्तरित हो जाती हैं।

(अ) बरगद (Banyan Tree):
इसकी शाखाओं से जड़ें निकलकर मिट्टी में धंस जाती हैं। इन्हें स्तम्भ मूल (prop roots) कहते हैं। ये शाखाओं को सहारा प्रदान करने के अतिरिक्त जल एवं खनिजों का अवशोषण भी करती हैं। ये अपस्थानिक होती हैं।

(ब) शलजम (Turnip):
इसकी मूसला जड़ भोजन संचय के कारण फूलकर कुम्भ रूप हो जाती है। इसे कुम्भीरूप जड़ (napiform root) कहते हैं।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
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चित्र – (A) बरगद की स्तम्भ मूल, (B) शलजम की कुम्भीरूप जड़ (C) राइजोफोरा की श्वसन मूल।

(स) मैंग्रोव वृक्ष (Mangroove Tree):
ये पौधे लवणोद्भिद् होते हैं। इनकी कुछ जड़ों के अन्तिम छोर खूटी की तरह मिट्टी से बाहर निकल आते हैं। इन पर श्वास रन्ध्र पाए जाते हैं। ये जड़े श्वसन में सहायक होती है। अत: इन्हें श्वसन मूल कहते हैं; जैसे – राइजोफोरा (Rhizophora) में।

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प्रश्न 2.
बाह्य लक्षणों के आधार पर निम्नलिखित कथनों की पुष्टि कीजिए –

  1. पौधों
  2. फूल

उत्तर:
1. जड़ भ्रूण के मूलांकुर से विकसित भूमिगत संरचना होती है। इस पर पर्व तथा पर्वसन्धियाँ, कलिकाएँ तथा पत्ती सदृश संरचनाएँ नहीं होतीं। आलू के कन्द (tubers), अदरक के प्रकन्द (rhizome), अरबी का घनकन्द (corm) भूमिगत रूपान्तरित तने हैं। इन पर पर्व तथा पर्वसन्धियाँ (internode and node), कक्षस्थ एवं अग्रस्थ कलिकाएँ तथा शल्क पत्र (scaly leaves) पाए जाते हैं। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि सभी भूमिगत भाग सदैव मूल नहीं होते।

  • पौधों के सभी भूमिगत भाग सदैव मूल नहीं होते।
  • फूल एक रूपान्तरित प्ररोह है।

2. फूल एक रूपान्तरित प्ररोह है (Flower is a modified shoot):
पुष्प एक रूपान्तरित प्ररोह (modified shoot) है। पुष्प का पुष्पासन अत्यन्त संघनित अक्षीय तना है। इसमें पर्वसन्धियाँ अत्यधिक पास-पास होती हैं। पर्व स्पष्ट नहीं होते। झुमकलता (Passiflora suberosa) में बाह्यदल तथा दल पुष्पासन के समीप लगे होते हैं, लेकिन पुंकेसर व अण्डप कुछ ऊपर एक सीधी अक्ष पर होते हैं। इसे पुमंगधर (androphore) कहते हैं। हुरहुर (Gynandropsis) में पुष्प दलपुंज व पुमंग के मध्य पुमंगधर तथा पुमंग एवं जायांग के मध्य जायांगधर (gynophore) पर्व स्पष्ट होता है। कभी कभी गुलाब के पुष्पासन की वृद्धि नहीं रुकती और पुष्प के ऊपर पत्तियों सहित अक्ष दिखाई देती है।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – (A) झुमकलता में पुमंगधर, (B) हुरहुर में पुमंगधर तथा जायांगधर, (C) गुलाब में पुष्प निर्माण के पश्चात् पुष्यासन में वृद्धि

बाह्यदल, दल, पुंकेसर, अण्डप, पत्तियों के रूपान्तरण हैं। मुसेन्डा (Mussaenda) में एक बाह्यदल पत्ती सदृश रचना बनाता है। गुलाब में बाह्यदल कभी-कभी पत्ती सदृश रचना प्रदर्शित करते हैं। लिली (निम्फिया) बाह्यदल एवं दल के मध्य की पत्ती जैस रचना है। गुलाब, कमल, केना आदि में अनेक पुंकेसर दलों । बदले दिखाई देते हैं। आदिपादपों के पुंकेसर पत्ती समान थे जैसे-ऑस्ट्रोबेलिया (Austrobaileya) में प्रदर्शित होता है।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – केना में दल व दलाभ पुंकेसर के मध्य की विभिन्न अवस्थाएँ

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प्रश्न 3.
एक पिच्छाकार संयुक्त पत्ती हस्ताकार संयुक्त पत्ती से किस प्रकार भिन्न हैं?
उत्तर:
पिच्छाकार संयुक्त तथा हस्ताकार संयुक्त पत्ती में अन्तर (Difference between Pinnate Compound and Palmate Compound Leaf):
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प्रश्न 4.
विभिन्न प्रकार के पर्णविन्यास का उदाहरण सहित वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पर्णविन्यास-पर्व सन्धियों पर पत्तियों के लगने की व्यवस्था को पर्णविन्यास कहते हैं। पर्णविन्यास निम्नलिखित प्रकार के होते हैं।
(क) एकान्तर:
प्रत्येक पर्वसन्धि से एकान्तर क्रम में एक-एक पत्ती निकलती है। ये एक-दूसरे से विपरीत दिशा में लगी होती है। जैसे-गुड़हल, सरसों आदि।

(ख) अभिमुख:
एक पर्व सन्धि से दो पत्तियाँ निकलती हैं। यह दो प्रकार का होता है –

(i) अध्यारोपित:
जब ये पत्तियाँ पर्व सन्धि से एक ही दिशा में लगी होती है, तो इन्हें अध्यारोपित कहते हैं।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – पर्णविन्यास: (A) एकान्तर, (B) सर्पिल, (C) अभिमुख-क्रॉसित

(ii) क्रॉसित:
जब एक पर्व सन्धि की पत्तियाँ दूसरी पर्वसन्धि के समकोण पर होती है, तो इन्हें क्रॉसित कहते हैं। जैसेआक।

(ग) चक्रिक:
जब पर्व सन्धि पर दो से अधिक पत्तियाँ लगी होती हैं, तो इन्हें चक्रिक कहते हैं। जैसे-कनेर।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित की परिभाषा लिखिए –
(अ) पुष्पदल विन्यास
(ब) बीजाण्डासन
(स) त्रिज्यासममिति
(द) एकव्यास सममिति
(य) ऊर्ध्ववर्ती
(र) परिजायांगी पुष्य
(ल) दललग्न पुंकेसर।
उत्तर:
(अ) पुष्पदल. विन्यास (Aestivation):
कलिका अवस्था में बाह्यदलों या दलों (sepals or petals) की परस्पर सापेक्ष व्यवस्था को पुष्पदल विन्यास कहते हैं। यह कोरस्पर्शी, व्यावर्तित, कोरछादी या वैक्जीलरी प्रकार का होता है।

(ब) बीजाण्डासन (Placentation):
अण्डाशय में जरायु (placenta) पर बीजाण्डों की व्यवस्था को बीजाण्डासन कहते हैं। बीजाण्डन्यास सीमान्त, स्तम्भीय, पित्तीय, मुक्त स्तम्भीय, आधार-लग्न या धरातलीय प्रकार का होता है।

(स) त्रिज्यासममिति (Actinomorphy):
जब पुष्प को किसी भी मध्य लम्ब अक्ष से काटने पर दो सम अर्द्ध-भागों में विभक्त किया जा सके तो इसे त्रिज्यासममिति (actinomorphy) कहते हैं।

(द) एकव्याससममिति (Zygomorphy):
जब पुष्प केवल एक ही मध्य लम्ब अक्ष से दो सम अर्द्ध-भागों में विभक्त किया जा सके तो इसे एकव्यासममिति कहते हैं।
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चित्र – पर्णविन्यास: (A) त्रिज्यासममिति, (B) एकव्याससममिति

(य) ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय (Superior Ovary):
जब पुष्प के अन्य भाग अण्डाशय के नीचे से निकलते हैं तो पुष्प को अधोजाय तथा अण्डाशय को ऊर्ध्ववर्ती (superior) कहते हैं।

(र) परिजायांगी पुष्प (Perigynous Flower):
यदि पुष्पीय भाग पुष्पासन से अण्डाशय के समान ऊँचाई से निकलते हैं तो इस प्रकार के पुष्प परिजायांगी (Perigynous) कहलाते हैं। इसमें अण्डाशय आधा ऊर्ध्ववर्ती (half superior) होता है।

(ल) दललग्न पुंकेसर (Epipetalous Stamens):
जब पुंकेसर दल से लगे होते हैं तो इन्हें दललग्न (epipetalous) कहते हैं।

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित में अन्तर लिखिए –
(अ) असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम
(ब) झकड़ा जड़ (मूल) तथा अपस्थानिक मूल
(स) वियुक्ताण्डपी तथा युक्ताण्डपी अण्डाशय।
उत्तर:
असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम में अन्तर (Difference between Racemose and Cymose Inflorescence)
(अ) असीमाक्षी तथा ससीमाक्षी पुष्पक्रम:
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(ब) झकड़ा जड़ (मूल) तथा अपस्थानिक मूल (Difference between Fibrous and Adventitious Roots):
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(स) वियुक्ताण्डपी तथा युक्ताण्डपी अण्डाशय। (Difference between Apocarpous Ovary and Syncarpous Ovary):
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प्रश्न 7.
निम्नलिखित के चिन्हित चित्र बनाओ –
(अ) चने के बीज
(ब) मक्के के बीज का अनुदैर्ध्यकाट
उत्तर:
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चित्र – (अ) द्विबीजपत्री (चना) बीज की संरचना
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चित्र – (ब) एकबीजपत्री (मक्का) बीज की संरचना

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प्रश्न 8.
उचित उदाहरण सहित तने के रुपान्तरों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
तने के रूपान्तरण (Modification of Stems):
तने का मुख्य कार्य पत्तियों, पुष्यों एवं फलों को धारण करना; जल एवं खनिज तथा कार्बनिक भोज्य पदार्थों का संवहन करता है। हरा होने पर तना भोजन निर्माण का कार्य भी करता है। तने में थोड़ी मात्रा में भोजन भी संचित रहता है। विशिष्ट कार्यों को सम्पन्न करने के लिए तने रूपान्तरित हो जाते हैं। कभी-कभी तो रूपान्तरण के पश्चात् तने को पहचानने में भी कठिनाई होती है। सामान्यतया तनों में भोजन संचय, कायिक जनन, बहुवर्षीयता प्राप्त करने हेतु, आरोहण एवं सुरक्षा हेतु रूपान्तरण होता है।

I. भूमिगत रूपान्तरित तने (Underground Modified Stems):

भूमिगत तने चार प्रकार के पाए जाते हैं –

  • घनकन्द
  • तना कन्द तथा
  • शल्क कन्द।

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चित्र – प्रकन्द (अदरक)

  • प्रकन्द
  • घनकन्द
  • तना कन्द तथा
  • शल्क कन्द।

1. प्रकन्द (Rhizome):
भूमि के अन्दर भूमि के क्षैतिज तल के समानान्तर बढ़ने वाले ये तने भोजन संग्रह करते हैं। इनमें पर्वसन्धि तथा पर्व स्पष्ट देखे जा सकते हैं। अग्रस्थ कलिकाओं के द्वारा इनकी लम्बाई बढ़ती है तथा शाखाएँ कक्षस्थ कलिकाओं के द्वारा। कछ कलिकाएँ आवश्यकता पड़ने पर वायवीय प्ररोह का निर्माण करती हैं; जैसे-अदरक, केला, केली, फर्न, हल्दी आदि।

2. घनकन्द (Corm):
इनके लक्षण प्रकन्द की तरह होते हैं, किन्तु ये ऊर्ध्वाधर रूप में बढ़ने वाले भूमिगत तने होते हैं।
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चित्र – कुछ घनकन्द: (क) जिमीकन्द (ख) घुइयाँ तथा (ग) बण्डा में

इस प्रकार के तनों में भी पर्वसन्धियाँ तथा पर्व होते हैं। भोजन संग्रहीत रहता है। कलिकाएँ होती हैं। कक्षस्थ कलिकाएँ विरोहक बनाती हैं। उदाहरण-अरबी, बण्डा, जिमीकन्द इत्यादि।

3. तना कन्द (Stem Tuber):
ये भूमिगत शाखाओं के अन्तिम सिरों पर फूल जाने के कारण बनते हैं। इनका आकार अनियमित होता है। कन्द पर पर्व या पर्वसन्धियाँ होती हैं जो अधिक मात्रा में भोजन संग्रह होने के कारण स्पष्ट नहीं होती। आलू की सतह पर अनेक आँखें (eyes) होती हैं, जिनमें कलिकाएँ तथा इन्हें ढकने के लिए शल्क पत्र होते हैं। कलिकाएँ वृद्धि करके नए वायवीय प्ररोह बनाती हैं।
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चित्र – भूमिगत तने: (क) आलू के पौधों पर कन्द, (ख) एक आँख का आवर्धन

4. शल्क छन्द (Bulbs):
इस प्रकार के रूपान्तर में तना छोटा (संक्षिप्त शंक्वाकार या चपटा) होता है। इसके आधारीय
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चित्र – प्याज का शल्ककन्द
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चित्र – प्याज के शल्क कन्द की अनुलम्ब काट

भाग से अपस्थानिक जड़ें निकलती हैं। इस तने पर उपस्थित अनेक शल्क पत्रों में भोजन संगृहीत हो जाता है। तने के अग्रस्थ सिरे पर उपस्थित कलिका के अनुकूल परिस्थितियों वायवीय प्ररोह का निर्माण होता है। शल्क पत्रों के कक्ष में कक्षस्थ कलिकाएँ भी बनती है। उदाहरण-प्याज (onion), लहसुन (garlic), लिली (lily) आदि के शल्क कन्द।

II. अर्द्धवायवीय रूपान्तरित तने (Modified Subaerial Stems):

कुछ पौधों के तने कमजोर तथा मुलायम होते हैं। ये पृथ्वी की सतह के ऊपर या आंशिक रूप से मिट्टी के नीचे रेंगकर वृद्धि करते हैं। ये तने कायिक प्रजनन में भाग लेते हैं। इनकी पर्वसन्धियों से अपस्थानिक जड़ें निकलकर मिट्टी में धंस जाती हैं। पर्व के नष्ट होने या कट जाने पर नए पौधे बन जाते हैं। ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  1. उपरिभूस्तारी (Runner)
  2. भूस्तारी (Stolon)
  3. अन्तःभूस्तारी (Sucker)
  4. भूस्तारिका (Offset)

1. उपरिभूस्तारी (Runner):
इनका तना कमजोर तथा पतला होता है। यह भूमि की सतह पर फैला रहता है। पर्वसन्धियों से पत्तियाँ, शाखाएँ तथा अपस्थानिक जड़े निकलती हैं। शाखाओं के शिखर पर शीर्षस्त कलिता होती है। पत्तियों के कक्ष में कक्षस्थ कलिका होती है; जैसे-दूबघास (Cymodon), खट्टी-बूटी (Oxalis), ब्राह्मी (Centella asiatica) आदि।
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चित्र – खट्टीबूटी का उपरिभूस्तारी
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चित्र – भूस्तारी तना : स्ट्राबेरी

2. भूस्तारी (Stolon):
इसमें भूमिगत तने की पर्वसन्धि से कक्षस्थ कलिका विकसित होकर शाखा बनाती है। यह शाखा प्रारम्भ में सीधे ऊपर की ओर वृद्धि करती है, परन्तु बाद में झुककर क्षैतिज के समानान्तर हो जाती है। इस शाखा की पर्वसन्धि से कक्षस्थ कलिकाएँ तथा अपस्थानिक जड़ें निकलती हैं; जैसे-स्ट्राबेरी, अरबी (घुइयाँ)।

3. अन्तःभूस्तारी (Sucker):
इनमें पौधे के भूमिगत तने की आधारीय पर्वसन्धियों पर स्थित कक्षस्थ कलिकाएँ वृद्धि करके नए वायवीय भाग बनाती हैं। ये प्रारम्भ में क्षैतिज दिशा में वृद्धि करते हैं, फिर तिरछे होकर भूमि से बाहर आ जाते हैं और वायवीय शाखाओं की तरह वृद्धि करने लगते हैं। इनकी पर्व सन्धियों से अपस्थानिक जड़े निकलती हैं; जैसे-पोदीना (Mentha arvensis), गुलदाउदी (Chrysanthemum) आदि।
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चित्र – अन्त:भूस्तारी-पोदीना

4. भूस्तारिका (Offset):
जलीय पौधों में पाया जाने वाला उपरिभूस्तारी की तरह का रूपान्तरित तना है। मुख्य तने से पार्श्व शाखाएँ निकलती हैं। पर्वसन्धि पर पत्तियाँ तथा अपस्थानिक जड़ें निकल आती हैं। इनके पर्व छोटे होते हैं। गलने या टूटने से नए पौधे स्वतन्त्र हो जाते हैं। उदाहरण-समुद्र सोख (water hyacinth = Eichhornia sp), जलकुम्भी (Pistia sp) आदि।
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चित्र – जलकुम्भी का भूस्तारी

III. वायवीय रूपान्तरित तने (Modified Aerial Stems)

कुछ पौधों में तने का वायवीय भाग विभिन्न कार्यों के लिए रूपान्तरित हो जाता है। रूपान्तरण के फलस्वरूप इन्हें तना कहना आसान नहीं होता है। इनकी स्थिति एवं उद्भव के आधार पर ही इनकी पहचान होती है। ये निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

  1. पर्णाभ स्तम्भ और पर्णाभ-पर्व (Phylloclade and Cladode)
  2. स्तम्भ-प्रतान (Stem tendril)
  3. स्तम्भ कंटक (Stem thorns)
  4. पत्र प्रकलिकाएँ (Bulbils)

1. पर्णाभ स्तम्भ और पर्णाभ:
पर्व (Phylloclade and Cladode):
शुष्क स्थानों में उगने वाले पौधों में जल के वाष्पोत्सर्जन को कम करने के लिए पत्तियाँ प्राय: कंटकों में रूपान्तरित हो जाती हैं। पौधे का तना चपटा, हरा व मांसल हो जाता है, ताकि पौधे के लिए खाद्य पदार्थों का निर्माण प्रकाश संश्लेषण के द्वारा होता रहे। तने पर प्रायः मोटी उपचर्म (cuticle) होती है जो वाष्पोत्सर्जन को रोकने में सहायक होती है। पत्तियों का कार्य करने के कारण इन रूपान्तरित तनों को पर्णाभ या पर्णायित स्तम्भ कहते हैं। प्रत्येक पर्णाभ में पर्वसन्धियाँ तथा पर्व पाए जाते हैं।

प्रत्येक पर्वसन्धि से पत्तियाँ निकलती हैं जो शीघ्र ही गिर जाती हैं (शीघ्रपाती) या काँटों में बदल जाती है। पत्तियों के कक्ष से पुष्प निकलते हैं। उदाहरण-नागफनी (Opuntia) तथा अन्य अनेक कैक्टाई (cactii), अनेक यूफोर्बिया (Euphorbia sp.), कोकोलोबा (Cocoloba), कैजुएराइना (Casuarina) आदि। पर्णाभ-पर्व केवल एख ही पर्व के पर्णाभ स्तम्भ हैं। इनके कार्य भी पर्णाभ स्तम्भ की तरह ही होते हैं। उदाहरण-सतावर (Asparagus) में ये सुई की तरह होते हैं। यहाँ पत्ती एक कुश में बदल जाती है। कोकोलोबा की कुछ जातियों में भी इस प्रकार के पर्णाभ-पर्व दिखाई पड़ते हैं।
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चित्र – वायवीय तना –
(क) नागफनी का पर्णाभ स्तम्भ
(ख) वायवीय तना-कोकोलोबा (म्यूलेनबेकिया) का पर्णाभ स्तम्भ
(ग) सतावर में पर्णाभ-पर्व

2. स्तम्भ प्रतान (Stem Tendril):
प्रतान लम्बे, पतले आधार के चारों ओर लिपटने वाली संरचनाएँ हैं। तने के रूपान्तर
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चित्र – वायवीन तने : (A) हरजोर में अग्रस्थ कलिका से, (B) झुमकलता में कक्षस्थ तथा (C) एण्ट्रीगोनॉन में पुष्यावली वन्तसे बने प्रतान

से बनने वाले प्रतानों को स्तम्भ प्रतान कहते हैं। स्तम्भ प्रतान आधार पर मोटे होते हैं। इन पर पर्व व पर्वसन्धियाँ हो सकती हैं, कभी-कभी पुष्प भी लगते हैं। ये सामान्यत: कक्षस्थ कलिका से और कभी-कभी अग्रस्थ कलिकाँओं से बनते हैं; जैसे झुमकलता (Passiflora) में कक्षस्थ कलिका से, किन्तु अंगूर की जातियों (Vitis sp) में अग्रस्थ कलिका से रूपान्तरित होते हैं। काशीफल (Cucurbita) और इस कुल के अनेक पौधों के प्रतान अतिरिक्त कक्षस्थ कलिकाओं के रूपान्तर से बनते हैं। एण्टीगोनॉन (Antigonon) में तो पुष्पावली वृन्त ही प्रतान बनाता है।

3. स्तम्भ कंटक (Stem thorns):
कक्षस्थ या अग्रस्थ कलिकाओं से बने हुए काँटे स्तम्भ कंटक कहलाते हैं। स्तम्भ कंटक सुरक्षा, जल की हानि को रोकने अथवा कभी-कभी आरोहण में सहायता करने हेतु रूपान्तरित संरचनाएँ हैं। कंटक प्रमुखतः मरुद्भिदी पौधों का लक्षण है। उदाहरण-करोंदा, बोगेनविलिया (Bougainvillea), ड्यूरेण्टा (Duranta), आडू (Prunus) आदि।
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चित्र – वायवीय तने : बोगेनविलिया (B) अंकेरिया में अंकुश तथा
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चित्र – वायवीय तने : डयूरेण्टा में

4. पत्र प्रकलिकाएँ (Bulbils):
ये कलिकाओं में भोजन संगृहीत होने से बननी है। इनका प्रमुख कार्य कायिक प्रवर्धन है। ये पौधे अलग होकर अनुकूल परिस्थितियाँ मिलने पर नया पौधा बना लेती हैं; जैसे-लहसुन, केतकी (Agave), रतालू (Dioscoria), खट्टी-बूटी (Oxalis), अनन्नास आदि।
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चित्र – रतालू में पत्र प्रकलिका

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प्रश्न 9.
फेबेसी तथा सोलेनेसी कुल के एक-एक पुष्प को उदाहरण के रूप में लीजिए तथा उनका अर्द्ध तकनीकी विवरण प्रस्तुत कीजिए। अध्ययन के पश्चात् उनके पुष्पीय चित्र भी बनाइए।
उत्तर:
कुल फेबेसी (Family Fabaceae):
कुल फेबेसी (Family Fabaceae) (Papilionatae) लेग्यूमिनोसी कुल का उपकुल है। मटर (पाइसम सैटाइवम-Pisum sativum) इस उपकुल का एक प्रारूपिक उदाहरण है।

आवास एवं स्वभाव (Habit and Habitat):
यह एकवर्षीय शाक (herb) एवं आरोही, समोद्भिद् पादप।

मूल (Root):
मूसला, जड़, ग्रन्थिल (nodulated) जड़ें ग्रन्थियों में नाइट्रोजन स्थिरीकरण जीवाणु राइजोबियम लेग्यूमिनोसेरम कहते हैं।

स्तम्भ (Stem):
शाकीय, वायवीय, दुर्बल, आरोही, बेलनाकार, शाखामय, चिकना तथा हरा।

पत्ती (Leaves):
स्तम्भिक और शाखीय, एकान्तर, अनुपर्णी (stipulate) अनुपर्ण पर्णाकार, पत्ती के अग्र पर्णक प्रतान (tendril) में रूपान्तरित।

पुष्पक्रम (Inflorescence):
एकल कक्षस्थ (solitary axillary) या असीमाक्षी (racemose)।

पुष्प (Flower):
सहपत्री (bracteate), सवृन्त, पूर्ण, एकव्याससममित (zygomorphic), उभयलिंगी, पंचतयी, परिजायांगी (perigynous), चक्रिक।

बाह्यदलपुंज (Calyx):
बाह्यदल 5, संयुक्त बाह्यदली (gamosepalous), कोरस्पर्शी (valvate) अथवा कोरछादी विन्यास (imbricate aestivation)

दलपुंज (Corolla):
दल 5, पृथक्दली, वैक्जीलरी (vexillary) विन्यास, एक ध्वज (standard) पश्च तथा बाहरी, दो पंख (wings), दो जुड़े छोटे दल नाव के आकार के नौतल (keel), आगस्तिक (papilionaceous) आकृति।

पुमंग (Androecium):
पुंकेसर 10, द्विसंघी (diadelphous), 9 पुंकेसरों के पुतन्तु संयुक्त व एक पुंकेसर, स्वतन्त्र, द्विकोष्ठी परागकोश, आधारलग्न (basifixed), अन्तर्मुखी (introrse)।

जायांग (Gynoecium):
एकअण्डपी (monocarpellary), अण्डाशय ऊर्ध्वी या अर्द्ध-अधोवर्ती, एककोष्ठीय, सीमान्त (marginal) बीजाण्डन्यास, वर्तिका लम्बी तथा मुड़ी हुई, वर्तिकाग्र समुण्ड (capitate)।
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चित्र – मटर (Pisum sativum) के पौधे के विभिन्न भाग, पुष्प तथा उसके अवयव

फल:
शिम्ब या फली (legume)।
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चित्र-मटर का पुष्पीय चित्र

कुल सोलेनेसी (Family Solanaceae)
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चित्र-मकोय (सोलेनम नाइग्रम के पौधे के विभिन्न भाग, पुष्प एवं उसके अवयव, पुष्प चित्र

सोलेनेसी (Solanaceae) कुल सोलेनेसी (Family Solanacea) कुल का सामान्य पौधा सोलेनम नाइग्रम (Solanum nigrum, मकोय) है। यह एक जंगली शाकीय पौधा है जो स्वत: आलू, टमाटर के खेतों में उग आता है।

आवास एवं स्वभाव (Habit and Habitat):
जंगली, वार्षिक शाकीय पादप।

मूल (Roots):
शाखामय मूसला जड़ तन्त्र।

स्तम्भ (Stem):
वायवीय, शाकीय, बेलनाकार, शाखामय, चिकना, हरा।

पत्ती (Leaves):
स्तम्भिक और शाखीय, एकान्तर, सरल, अननुपर्णी (exstipulate) एकशिरीय जालिकावत् (unicostate reticulate)।

पुष्पक्रम (Inflorescence):
एकलशाखी कुण्डलिनीय (uniparous helicoid), ससीमाक्षी।

पुष्प (Flower):
असहपत्री (ebracteate), सवृन्त, पूर्ण, द्विलिंगी, त्रिज्यासममित, पंचतयी (pentamerous), अधोजाय (hypogynous), छोटे एवं सफेद।

बाह्यदलपुंज (Calyx):
5 संयुक्त बाह्यदल (gamopetalous), कोरस्पर्शी (valvate), हरे, चिरलग्न (persistent)।

दलपुंज (Corolla):
5 संयुक्त दल (gamopetalous), चक्राकार (rotate), या व्यावर्तित (twisted) दलविन्यास।

पुमंग (Androecium):
5 दललग्न पुंकेसर, दल के एकान्तर में व्यवस्थित, अन्तर्मुखी, परागकोश लम्बे एवं द्विपालित, पुंतन्तु छोटे। परागवेश्म में स्फुटन अग्र छिद्रों (apical pores) द्वारा।

जायांग (Gynoecium):
द्विअण्डपी (bicarpellary), युक्ताण्डपी (syncarpous), अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior ovary), स्तम्भीय बीजाण्डन्यास (axile placentation), जरायु तिरछा तथा फूला हुआ। वर्तिका एक, वर्तिकाग्र द्विपालित।

फल (Fruit):
सरस, बेरी।

पुष्प सूत्र:
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प्रश्न 10.
पुष्पी पादपों में पाए जाने वाले विभिन्न प्रकार के बीजाण्डन्यासों का वर्णन करो।
उत्तर:
बीजाण्डन्यास (Placentation):
अण्डाशय में मृदूतकीय जरायु (placenta) पर बीजाण्डों के लगने के क्रम को बीजाण्डन्यास (placentation) कहते हैं। यह निम्नलिखित प्रकार का होता है –

1. सीमान्त (Marginal):
यह एकअण्डपी अण्डाशय में पाया जाता है। अण्डाशय एककोष्ठीय होता है, बीजाण्ड अक्षीय सन्धि पर विकसित होते हैं; जैसे-चना, मटर, सेम आदि के शिम्ब फलों में।

2. स्तम्भीय (Axile):
यह द्विअण्डपी, त्रिअण्डपी या. बहुअण्डपी, युक्ताण्डपी अण्डाशय में पाया जाता है। अण्डाशय में जितने अण्डप होते हैं, उतने ही कोष्ठकों का निर्माण होता है। बीजाण्ड अक्षवर्ती जरायु से लगे रहते हैं; जैसे-आलू, टमाटर, मकोय, गुड़हल आदि में।

3. भित्तीय (Parietal):
यह बहुअण्डपी, एककोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है। इसमें जहाँ अण्डपों के तट मिलते हैं, वहाँ जरायु विकसित हो जाता है। जरायु (बीजाण्डासन) पर बीजाण्ड लगे होते हैं, अर्थात् बीजाण्ड अण्डाशय की भीतरी सतह पर लगे रहते हैं; जैसे-पपीता, सरसों, मूली आदि में।

4. मुक्त स्तम्भीय (Free central):
यह बहुअण्डपी, एककोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है। इसमें बीजाण्ड केन्द्रीय अक्ष के चारों ओर लगे होते हैं। केन्द्रीय अक्ष का सम्बन्ध अण्डाशय भित्ति से नहीं होता; जैसे-डायएन्थस, प्रिमरोज आदि।

5. आधारलग्न (Basifixed):
यह द्विअण्डपी, एककोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है जिसमें केवल एक बीजाण्ड पुष्पाक्ष से लगा रहता है; जैसे-कम्पोजिटी कुल के सदस्यों में।

6. धरातलीय (Superficial):
यह बहुअण्डपी, बहुकोष्ठीय अण्डाशय में पाया जाता है। इसमें बीजाण्डासन या जरायु कोष्ठकों की भीतरी सतह पर विकसित होते हैं, अर्थात् बीजाण्ड कोष्ठकों की भीतरी सतह पर व्यवस्थित रहते हैं; जैसेकुमुदिनी (water lily) में।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – विभिन्न प्रकार के बीजाण्डन्यास – (A) सीमान्त, (B) भित्तीय, (C) स्तम्भीय, (D) मुक्त स्तम्भीय, (E) आधारलग्न, (F) धरातलीय

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी

प्रश्न 11.
पुष्प क्या है? यह एक प्ररूपी एन्जियोस्पर्म पुष्प के भागों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुष्प (Flower):
एन्जियोस्पर्स में जनन हेतु बनने वाली संरचना वास्तव में रूपान्तरित प्ररोह (modified root) है। इसका पुष्पासन संघनित तना है जिसमें पर्व का अभाव होता है, केवल पर्वसन्धियाँ होती हैं। सन्धियों पर पाई जाने वाली पत्तियाँ रूपान्तरित होकर विभिन्न पुष्पीय भाग बनाती हैं। पुष्प विभिन्न आकार, आकृति, रंग के होते हैं। सरसों के पुष्य के निम्नलिखित भाग होते हैं –

  1. बाह्यदलपुंज
  2. दलपुंज
  3. पुमंग
  4. जायांग।

बाह्यदलपुंज तथा दलपुंज सहायक अंग और पुमंग तथा जायांग जनन अंग कहलाते हैं। पुष्पीय भाग पुष्पवृन्त के शिखर पर स्थित पुष्पासन पर लगे रहते हैं।

1. बाह्यदलपुंज (Calyx):
यह पुष्प का सबसे बाहरी चक्र है। इसकी इकाई को बाह्यदल (sepal) कहते हैं! ये प्रायः हरे होते हैं। सरसों के बाह्यदल हरे-पीले रंग के होते हैं। बाह्यदल अन्य पुष्पीय भागों की सुरक्षा करते हैं। भोजन का निर्माण करते हैं। रंगीन होने पर परागण में सहायक होते हैं। चिरलग्न बाह्यदल प्रकीर्णन में सहायता करते हैं।

2. दलपुंज (Corolla):
यह पुष्प का दूसरा चक्र है। इसका निर्माण रंगीन दलों (petals) से होता है। सरसों में चार पीले रंग के दल होते हैं। इनका ऊपरी सिरा चौड़ा तथा निचला सिरा पतला होता है। ये परस्पर क्रॉस ‘X’ रूपी आकृति बनाते हैं; अत: इनको क्रॉसरूपी (cruciform) कहते हैं। ये एक-दूसरे से स्वतन्त्र अर्थात् पृथकदली (polypetalous) होते हैं। दल परागण में सहायक होते हैं।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – सरसों के पुष्प के विभिन्न भाग: पुष्प, पुष्य के विभिन्न भाग, बाह्य दल, दल, पुमंग एवं जायांग

3. पुमंग (Androecium):
यह पुष्प का नर जनन अंग है। इसका निर्माण पुंकेसरों (stamens) से होता है। प्रत्येक पुंकेसर के तीन भाग होते हैं – पुंतन्तु, योजि तथा परागकोश (anther)। परागकोश में परागकण या लघुबीजाणु (pollen grains or microspores) बनते हैं। सरसों में 6 पुंकेसर होते हैं। ये 4 + 2 के चक्रों में व्यवस्थित होते हैं। भीतरी चक्र में 4 लम्बे पुंतन्तु वाले तथा बाहरी चक्र में 2 छोटे पुतन्तु वाले पुंकेसर होते हैं। पुंकेसरों के आधार पर मकरकन्द ग्रन्थियाँ पाई जाती हैं।

4. जायांग (Gynoecium):
यह पुष्प का मादा जनन अंग है। इसका निर्माण अण्डपों से होता है। प्रत्येक अण्डप (carpel) के तीन भाग होते हैं-अण्डाशय (ovary), वर्तिका (style) तथा वर्तिकाग्र (stigma)। सरसों का जायांग द्विअण्डपी (bicarpellary), yollugut (syncarpous) 791 sectarif (superior) अण्डाशय युक्त होता है। अण्डाशय में बीजाण्ड भित्तिलग्न बीजाण्डन्यास में लगे होते हैं। अण्डाशय पहले एक कोष्ठीय होता है। बाद में कूटपट (replum) बनने के कारण द्विकोष्ठीय हो जाता है, वर्तिका एक तथा वर्तिकाग्र द्विपालित होता हैं।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
निषेचन के पश्चात् बीजाण्ड से बीज तथा अण्डाशय से फल का निर्माण होता है। सरसों के फल सरल, शुष्क, सिलिकुआ (siliqua) होते हैं।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी

प्रश्न 12.
पत्तियों के विभिन्न रूपान्तरण पौधे की कैसे सहायता करते हैं?
उत्तर:
पत्तियों के रूपान्तरण: (Modifications of Leaves) पत्तियों का प्रमुख कार्य प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन निर्माण करना है। इसके अतिरिक्त वाष्पोत्सर्जन, श्वसन आदि सामान्य कार्य भी पत्तियाँ करती हैं, किन्तु कभी-कभी विशेष कार्य करने के लिए इनका स्वरूप ही बदल जाता है। ये रूपान्तरण सम्पूर्ण पत्ती या पत्ती के किसी भाग या फलक के किसी भाग में होते हैं। उदाहरण के लिए –

1. प्रतान (Tendril):
सम्पूर्ण पत्ती या उसका कोई – भाग, लम्बे, कुण्डलित तन्तु की तरह की रचना में बदल जाता है। इसे प्रतान (tendril) कहते हैं। प्रतान दुर्बल पौधों की आरोहण में सहायता करते हैं। जैसे –

(क) जंगली मटर (Lathyrus aphaca) में सम्पूर्ण पत्ती प्रतान में बदल जाती है।
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चित्र – पर्ण प्रतान : (A) मटर, (B) जंगली मटर तथा (C) क्लीमेटिस में
(ख) मटर (Pisum sativum) में अगले कुछ पर्णक प्रतान में बदल जाते हैं।
(ग) ग्लोरी लिली (Gloriosa superba) में पर्णफलक का शीर्ष (apex) प्रतान में बदल जाता है।

इसके अतिरिक्त क्लीमेटिस (clematis) में पर्णवृन्त तथा चोभचीनी (Smilax) में अनुपर्ण आदि प्रतान में बदल जाते हैं।

2. कंटक या शूल (Spines):
वाष्पोत्सर्जन को कम करने और पौधे की सुरक्षा के लिए पत्तियों अथवा उनके कुछ भाग काँटों में बदल जाते हैं। जैसे –

(क) नागफनी (Opuntia):
इसमें प्राथमिक पत्तियाँ छोटी तथा शीघ्र गिरने वाली (आशुपाती) होती हैं। कक्षस्थ कलिका से विकसित होने वाली अविकसित शाखाओं की पत्तियाँ काँटों में बदल जाती हैं।
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चित्र – पर्णकंटक : (A) बारबेरी, (B) बिगनोनिया तथा (C) यूलेक्स में

बारबेरी (barberry) में पर्वसन्धि पर स्थित पत्तियाँ स्पष्टतः काँटों में बदल जाती हैं। इनके कक्ष से निकली शाखाओं पर उपस्थित पत्तियाँ सामान्य होती हैं।

(ख) बिगनोनिया की एक जाति (Bignonia unguiscati) में पत्तियाँ संयुक्त होती हैं। इनके ऊपरी कुछ पर्णक अंकुश (hooks) में बदल जाते हैं और आरोहण में सहायता करते हैं।

3. पर्ण घट (Leaf Pitcher):
कुछ कीटाहारी पौधों में कीटों को पकड़ने के लिए सम्पूर्ण पत्ती प्रमुखतः पर्णफलक एक घट (pitcher) में बदल जाता है; जैसे-नेपेन्थीज डिस्कीडिया (Dischidia rafflesiana) एक उपरिरोही पादप है। इसकी कुछ पत्तियाँ घट (pitchers) में बदल जाती हैं। इससे वर्षा का जल तथा अन्य कार्बनिक व अकार्बनिक पदार्थ एकत्रित होते रहते हैं। पर्वसन्धि से जड़े निकलकर घट के अन्दर घुस जाती हैं तथा विभिन्न पदार्थों को अवशोषित करती हैं।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – नेपेन्श्रीज का घटपर्णी
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – डिस्कीडिया का घटपर्णी

4. पर्ण थैली (Leaf bladders):
कुछ पौधों में पत्तियाँ या इनके कुछ भाग रूपान्तरित होकर थैलियों में बदल जाते हैं। इस प्रकार का अच्छा उदाहरण ब्लैडरवर्ट या यूटीकुलेरिया (Utricularia) है। यह पौधा इन थैलियों के द्वारा कीटों को पकड़ता है। अन्य कीटाहारी पौधों में पत्तियाँ विभिन्न प्रकार से रूपान्तरित होकर कीट को पकड़ती हैं। उदाहरण-ड्रॉसेरा (Drosera), डायोनिया (Dionea), बटरवर्ट या पिन्यूयीक्यूला (Pinguicula) आदि।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – यूट्रीकुलेरिया में पर्ण थैलियाँ

5. पर्णाभ वृन्त (Phyllode):
इससे पर्णवृन्त हरा, चपटा तथा पर्णफलक के समान हो जाता है और पत्ती की तरह भोजन निर्माण का कार्य करता है; जैसे-ऑस्ट्रेलियन बबूल में।

6. शल्कपत्र (Scale Leaves):
ये शुष्क भूरे रंग की, पर्णहरितरहित, अवृन्त छोटी-छोटी पत्तियाँ होती हैं। ये कक्षस्थ कलिकाओं की सुरक्षा करती हैं; जैसे-अदरक, हल्दी आदि में।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी

प्रश्न 13.
पुष्पक्रम की परिभाषा दीजिए। पुष्पी पादपों मे विभिन्न प्रकार के पुष्पक्रमों के आधार का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुष्पक्रम (Inflorescence):
पुष्पी अक्ष (peduncle) पर पुष्पों के लगने के क्रम को पुष्पक्रम कहते हैं। अनेक पौधों में शाखाओं पर अकेले पुष्प लगे होते हैं, इन्हें एकल (solitary) पुष्प कहते हैं। ये एकल शीर्षस्थ (solitary terminal) या एकल कक्षस्थ (solitary axillary) होते हैं।
पुष्पक्रम मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं –

(क) असीमाक्षी पुष्पक्रम
(ख) असीमाक्षी पुष्पक्रम

(क) असीमाक्षी पुष्पक्रम (Racemose Inflorescence):
इससे पुष्पी अक्ष (peduncle) की लम्बाई निरन्तर बढ़ती रहती है। पुष्प अग्राभिसारी क्रम (acropetal succession) में निकलते हैं। नीचे के पुष्प बड़े तथा ऊपर के पुष्प क्रमश: छोटे होते हैं। असीमाक्षी पुष्पक्रम निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

(i) असीमाक्ष (Raceme):
इसमें मुख्य पुष्पी अक्ष पर सवृन्त तथा सहपत्री या असहपत्री पुष्प लगे होते हैं; जैसे – मूली, सरसों, लार्कस्पर आदि में।

(ii) स्पाइक (Spike):
इसमें पृथ्वी अक्ष पर अवृन्त पुष्प लगते हैं; जैसे-चौलाई (Amaranthus), चिरचिटा (Achyranthus) आदि में।

(iii) मंजरी (Catkin):
इसमें पुष्पी अक्ष लम्बा एवं कमजोर होता है। इस पर एकलिंगी तथा पंखुड़ीविहीन पुष्प लगे होते हैं; जैसे-शहतूत, सेलिक्स आदि में।

(iv) स्पाइकलेट (Spikelet):
ये वास्तव में छोटे-छोटे स्पाइक होते हैं। इनमें प्राय: एक से तीन पुष्प लगे होते हैं। आधार पर पुष्प तुष-निपत्रों (glume) से घिरे रहते हैं; जैसे-गेहूँ, जौ, जई आदि में।

(v) स्थूल मंजरी (Spadix):
इसमें पुष्पी अक्ष गूदेदार होती है इस पर अवृन्त, एकलिंगी पुष्प लगे होते हैं। पुष्पी अक्ष का शिखर बन्ध्य भाग अपेन्डिक्स (appendix) कहलाता है। पुष्पी अक्ष पर नीचे की ओर मादा पुष्प, मध्य में बन्ध्य पुष्प तथा ऊपर की ओर नर पुष्प लगे होते हैं। पुष्प रंगीन निपत्र (spathe) से ढके रहते हैं; जैसे-केला, ताड़, अरबी आदि में।
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चित्र – असीमाक्षी पुष्पक्रम –

(i) सरसों का असीमाक्ष
(ii) चिरचिटा का स्पाइक
(iii) शहतूत का मंजरी
(iv) गेहूँ का स्पाइकलेट
(v) अरबी का स्थूल मंजरी
(vi) केसिया का समशिख
(vii) पूनस का पुष्पछत्र
(viii) सूरजमुखी का मुण्डक (A, B)।

(vi) समशिख (Corymb):
इसमें मुख्य अक्ष छोटा होता है। नीचे वाले पष्पों के पुष्पवृन्त लम्बे तथा ऊपर वाले पुष्पों के पुष्पवृन्त क्रमश: छोटे होते हैं। इससे सभी पुष्प लगभग एकसमान ऊँचाई पर स्थित होते हैं; जैसे-कैण्डीटफ्ट, कैसिया आदि में।

(vii) पुष्प छत्र (Umbel):
इसमें पुष्पी अक्ष बहुत छोटी होती है। सभी पुष्प एक ही बिन्दु से निकलते प्रतीत होते हैं तथा छात्रकरूपी रचना बनाते हैं। इसमें परिधि की ओर बड़े तथा केन्द्र की ओर छोटे पुष्प होते हैं; जैसे-धनिया, जीरा, सौंफ, घनस आदि में।

(viii) मुण्डक (Capitulum):
इसमें पुष्पी अक्ष एक चपटा आशय होता है। इस पर दो प्रकार के पुष्पक (florets) लगे होते हैं। परिधि की ओर रश्मि पुष्पक (ray florets) तथा केन्द्रक में बिम्ब पुष्पक (disc florets)। सम्पूर्ण पुष्पक्रम एक पुष्प के समान दिखाई देता है; जैसे – सूरजमुखी, गेंदा, जीनिया, डहेलिया आदि।

(ख) ससीमाक्षी पुष्पक्रम (Cymose Inflorescence):
इसमें पुष्पी अक्ष की अग्रस्थ कलिका के पुष्प में परिवर्धित हो जाने से वृद्धि रुक जाती है। इससे नीचे स्थित पर्वसन्धियों से पार्श्व निकलकर पुष्प बनाती है। इस कारण पुष्पों के लगने का क्रम तलाभिसारी (basipetal) होता है। केन्द्रीय पुष्प बड़ा और पुराना तथा नीचे के पुष्प छोटे और नए होते हैं। ससीमाक्षी पुष्पक्रम निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

(i) एकलशाखी ससीमाक्ष (Monochasial Cyme) इसमें पुष्पी अक्ष एक पुष्प में समाप्त होती है। पर्वसन्धि से एक बार में केवल एक ही पार्श्वशाखा उत्पन्न होती है, जिस पर पुष्प बनता है। पार्श्व शाखाएँ दो प्रकार से निकलती हैं –
(अ) जब सभी पार्श्व शाखाएँ एक ही और निकलती हैं तो इसे कुण्डलिनी रूप एकलशाखी ससीमाक्ष (helicoid uniparous cyme) कहते हैं; जैसे-मकोय, बिगोनिया आदि में।
(ब) जब पार्श्व शाखाएँ एकान्तर क्रम मे निकलती हैं तो इसे वृश्चिकी एकलशाखी ससीमाक्ष (scorpioid uniparous cyme) कहते हैं। जैसे-हीलियोट्रोपियम, रेननकुलस आदि।

(ii) युग्मशाखी ससीमाक्ष (Dichasial Cyme):
इसमें पुष्पी अक्ष के पुष्प में समाप्त होने पर नीचे की पर्वसन्धि से दो पाीय शाखाएँ विकसित होकर पुष्प की निर्माण करती हैं; जैसे-डायएन्थस, स्टीलेरिया आदि में।

(iii) बहुशाखी ससीमाक्ष (Polychasial Cyme):
इसमें पुष्पी अक्ष के पुष्प में समाप्त होने पर नीचे स्थित पर्वसन्धि से एकसाथ अनेक शाखाएँ निकलकर पुष्प का निर्माण करती हैं जैसे-हैमीलिया, आक आदि में। (यह छत्रक की भाँति प्रतीत होता है, लेकिन इसका केन्द्रीय पुष्प बड़ा होता है और परिधीय पुष्प छोटे होते हैं)।
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चित्रससीमाक्ष पुष्पक्रम –

  1. कुण्डलिनी रूप एकलशाखी
  2. वृश्चिकी एकलशाखी
  3. युग्मशाखी
  4. बहुशाखी ससीमाक्ष पुष्पक्रम।

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प्रश्न 14.
ऐसे फूल का सूत्र लिखिए जो त्रिज्यासममित, उभयलिंगी, अधोजायांगी, 5 संयुक्त बाह्यदली, 5 मुक्तदली, पाँच मुक्त पुंकेसरी, द्वियुक्ताण्डपी तथा ऊर्ध्ववर्ती अण्डाशय हो।
उत्तर:
उपर्युक्त विशेषताएँ सोलेनेसी कुल के पुष्प की हैं। इसका पुष्पसूत्र निम्नवत् हैं –
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प्रश्न 15.
पुष्पासन पर स्थिति के अनुसार लगे पुष्पी भागों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पुष्पासन पर पुष्पी भागों का निवेशन (Insertion of Floral Parts on the Thalamus):
पुष्पासन पर बाह्यदल, दल, पुंकेसर तथा अण्डप की स्थिति के आधार पर पुष्प निम्नलिखित प्रकार के होते हैं –

1. अधोजाय (Hypogynous):
इसमें जायांग पुष्पासन पर सर्वोच्च स्थान पर स्थित और अन्य अंग नीचे होते हैं। इस प्रकार के पुष्पों में अण्डाशय ऊर्ध्ववर्ती (superior) जैसेसरसों, गुड़हल, टमाटर आदि।

2. परिजाय (Perigynous):
इसमें पुष्पासन पर जायांग तथा अन्य पुष्पीय लगभग ऊँचाई पर स्थित होते हैं। इसमें अण्डाशय आधा अधोवर्ती या आधा ऊर्ध्ववर्ती होता है; जैसे-आडू आदि में। इसमें पुष्पासन तथा अण्डाशय संयुक्त नहीं होते।

3. उपरिजाय या अधिजाय (Epigynous):
इसमें पुष्पासन के किनारे वृद्धि करके अण्डाशय को घेर लेते हैं और अण्डाशय से संलग्न हो जाते हैं। अन्य पुष्पीय भाग अण्डाशय के ऊपर स्थित रहते हैं। जैसे-अमरूद, अनार, लौकी आदि में।
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 5 पुष्पी पादपों की आकारिकी
चित्र – पुष्पासन पर पुष्पीय भागों की स्थिति – (A) अधोजाय, (B, C) परिजाय, (D) उपरिजाय।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 13 उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 13 उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 13 उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण

Bihar Board Class 11 Biology उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
एक पौधे को बाहर से देखकर क्या आप बता सकते हैं कि वह C3 है अथवा C4? कैसे और क्यों?
उत्तर:
C3 पौधे में कार्बन डाइऑक्साइड उपयोग करने की क्षमता कम होती है। ये वायुमण्डल में CO2 की मात्रा के 50 ppm से अधिक होने पर ही इसका उपयोग कर पाते हैं। C3 पौधों के लिए उपयुक्त तापमान लगभग 20 – 25°C होता है। इनमें प्रकाश-श्वसन प्रक्रिया होने से ऊर्जा की क्षति होने की सम्भावना होती है। ये अधिक मात्रा में जल वाष्पोत्सर्जित करते हैं। इनकी उत्पादक क्षमता कम होती है। जालिकावत् शिराविन्यास वाली पत्तियों वाले अधिकांश पौधे C3 होते हैं।

C4 पौधे प्राय: उष्ण कटिबन्धी जलवायु में पाए जाते हैं। C4 पौधों के लिए उपयुक्त तापमान 30 – 35°C होता है। ये वायुमण्डल में CO2 की मात्रा के 10 ppm होने पर भी इसका उपयोग कर लेते हैं। इनमें प्रकाश-श्वसन (photo respiration) क्रिया नहीं होती। इनमें जैवभार अधिक उत्पन्न होता है। ये कम मात्रा में जल वाष्पोत्सर्जित करते हैं। एकबीजपत्री पौधे सामान्यत: C4 पौधे होते हैं। समानान्तर शिराविन्यास वाली पत्तियों वाले पौधे सामान्यतया C4 पौधे होते हैं।

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प्रश्न 2.
एक पौधे की आन्तरिक संरचना देखकर क्या आप बता सकते हैं कि वह C3 है अथवा C4? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पत्तियों की आन्तरिक संरचना को देखकर C3 तथा C4 पौधों में अन्तर किया जा सकता है। C4 पौधों की पत्तियों की शारीरिकी (anatomy) क्रान्ज प्रकार (Kranz Type) की होती है। पत्तियों का पर्णमध्योतक अभिन्नत स्पन्जी मृदूतकीय ऊतक से बना होता है। संवहन बण्डल के चारों ओर मृदूतकीय कोशिकायें एक पर्त के रूप में व्यवस्थित होती है। पूलाच्छद (bundle sheath) कोशिकायें बड़ी होती हैं।

इनमें बड़े हरित लवक पाये जाते हैं, पूलाच्छद कोशिकाओं के हरितलवकों में ग्रैना कम विकसित होते हैं। पर्णमध्योतक कोशिकाओं में हरित लवक छोटे होते हैं। लेकिन इसमें प्रैना विकसित होते हैं। अर्थात् पौधों में हरित लवक द्विरूपी होते हैं।

ये पौधे उष्ण कटिबन्धी तथा उपोष्ण कटिबन्धी जलवायु में पाये जाते हैं। C3 पौधों की पत्तियों में पर्णमध्योतक खम्भ ऊतक तथा स्पन्जी मृदूतक में भिन्नित होता है। सभी कोशिकाओं में समान प्रकार के हरित लवक पाये जाते हैं। इसमें क्रान्ज आकारिकी नहीं पायी जाती। ये पौधे सभी प्रकार की जलवायु में पाये जाते हैं।
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चित्र – C4 पौधे की पत्ती की अनुप्रस्थ काट।

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प्रश्न 3.
हालांकि C4 पौधे में बहुत कम कोशिकाएँ जैव संश्लेषण कैल्विन-पथ को वहन करते हैं, फिर भी वे उच्च उत्पादकता वाले होते हैं। क्या इस पर चर्चा कर सकते हो कि ऐसा क्यों है?
उत्तर:
C3 तथा C4 सभी प्रकार के पौधों में कैल्विन पथ (Calvin’s pathway) पाया जाता है। प्रकाश तीव्रता के अधिक होने पर C3 तथा C4 पौधों में प्रकाश संश्लेषण की दर में वृद्धि होती है। C3 पौधों को C4 पौधों की तुलना में कम CO2 उपलब्ध हो पाती हैं; क्योंकि C3 पौधे उच्च CO2 सान्द्रता पर ही CO2 का उपयोग कर पाते हैं।

C3 पौधों में वातावरण में CO2 की मात्रा के 50 ppm से अधिक होने पर ही इसका उपयोग करने की क्षमता होती है, जबकि C4 पौधे वातावरण में CO2 कम सान्द्रता पर उपलब्ध होने (10 ppm) पर भी इसका उपयोग करने की क्षमता रखते हैं। C3 पौधों के लिए CO2 का स्तर प्रायः सीमाकारी कारक (limiting factor) का कार्य करता हैं।

C3 या कैल्विन पथ:
C4 पौधों में केवल पूलाच्छद कोशिकाओं में पाया जाता है। C4 पौधों की पर्णमध्योतक कोशिकाओं में C3 चक्र सम्पन्न नहीं होता। C3 पौधों में कुछ O2, रुबिस्को (RuBisCo) से बंधित हो जाने से CO2, का यौगिकीकरण या कार्बन स्वांगीकरण (carbon assimilation) : कम हो जाता है। यहाँ RuBP 3-फॉस्फोग्लिसरिक अम्ल (PGA) के अणुओं में बदलने की अपेक्षा O2, से मिलकर फॉस्फोग्लाइकोलेट बनाते हैं।

इस प्रक्रिया को प्रकाश श्वसन (photo-respiration) कहते हैं। प्रकास श्वसन में शर्करा तथा ATP का निर्माण नहीं होता। अतः यह एक निरर्थक प्रक्रिया होती है। C4 पौधों में प्रकाश श्वसन न होने के कारण जैवभार अधिक उत्पन्न होता है। अर्थात् पौधे उच्च उत्पादकता वाले होते हैं।

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प्रश्न 4.
रुबिस्को (RuBisCo) एक एन्जाइम है जो कार्बोक्सिलेस और ऑक्सीजिनेस के रूप में काम करता है। आप ऐसा क्यों मानते हैं कि C4 पौधों में रुबिस्को अधिक मात्रा में कार्बोक्सिलेशन करता है?
उत्तर:
कैल्विन चक्र (Calvin Cycle) में CO2 ग्राही RuBP से क्रिया करके 3-फॉस्फोरस अम्ल (PGA) के 2 अणु बनाता है। यह क्रिया रुबिस्को (RuBisCo) के द्वारा उत्प्रेरित होती है।
RuBP + CO2 + H2O → 2(3PGA)

रुबिस्को:
संसार में सबसे अधिक मात्रा में पाया जाने वाला प्रोटीन (एन्जाइम) है। यह O2 तथा CO2 दोनों से बन्धित हो सकता है। रुबिस्को में O2, की अपेक्षा CO2 के लिए अधिक बन्धुता होती है लेकिन आबन्धता O2 तथा CO2 की सापेक्ष सान्द्रता पर निर्भर करती है।

C3 पौधों में कुछ O2 रुबिस्को से बन्धित हो जाने के कारण CO2 का यौगिकीकरण कम हो जाता है; क्योंकि रुबिस्को O2 से बन्धित होकर फॉस्फो ग्लाइकोलेट अणु बनाता है। इस प्रक्रम को प्रकाश श्वसन (photorespiration) कहते हैं। प्रकाश श्वसन के कारण शर्करा नहीं बनती और न ही ऊर्जा ATP के रूप में संचित होती है।

C3 पौधों में प्रकाश श्वसन नहीं होता। C4 पौधों में पर्णमध्योतक का मैलिक अम्ल पूलाच्छद में टूटकर पाइरुविक अम्ल तथा CO2 बनाता है। इसके फलस्वरूप CO2 की सान्द्रता बढ़ जाती है और रुबिस्को एक कार्बोक्सिलेस (carboxylase) के रूप में ही कार्य करता है। इसके फलस्वरूप उत्पादकता बढ़ जाती है। वहाँ रुबिस्को ऑक्सीजिनेस (oxygenase) का कार्य नहीं करता।

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प्रश्न 5.
मान लीजिए यहाँ पर क्लोरोफिल ‘बी’ की उच्च सान्द्रता युक्त, मगर क्लोरोफिल ‘ए’ की कमी वाले पेड़ थे। क्या ये प्रकाश संश्लेषण करते होंगे? तब पौधों में क्लोरोफिल ‘बी’ क्यों होता है? और फिर दूसरे गौण वर्णकों की क्या जरूरत है?
उत्तर:
क्लोरोफिल ‘बी’, जैन्थोफिल तथा कैरोटिन सहायक वर्णक (accessory pigments) होते हैं। ये प्रकाश को अवशोषित करके ऊर्जा को क्लोरोफिल ‘ए’ को स्थानान्तरित कर देते हैं। वास्तव में ये वर्णक प्रकाश संश्लेषण को प्रेरित करने वाली उपयोगी तरंग दैर्ध्य के क्षेत्र को बढ़ाने का कार्य करते हैं। और क्लोरोफिल ‘ए’ को फोटो ऑक्सीडेशन (Photo oxidation) से बचाते हैं। क्लोरोफिल ‘ए’ प्रकाश संश्लेषण में प्रयुक्त होने वाला मुख्य वर्णक है। अतः क्लोरोफिल ‘ए’ की कमी वाले पौधों में प्रकाश संश्लेषण प्रभावित होगा।

प्रश्न 6.
यदि पत्ती को अँधेरे में रख दिया गया हो तो उसका रंग क्रमशः पीला वं हरा-पीला हो जाता है? कौन-से वर्णक आपकी सोच में अधिक स्थायी हैं?
उत्तर:
पौधे के हरे भागों में हरितलवक पाया जाता है। हरितलवक की उपस्थिति में पौधे प्रकाश संश्लेषण द्वारा भोजन का संश्लेषण करते हैं। पौधे के अप्रकाशिक भागों में अवर्णीलवक पाया जाता है। प्रकाश की उपस्थिति में अवर्णीलवक हरितलवक में बदल जाता है। हरितलवक की ग्रैना पटलिकाओं में पर्णहरित, कैरोटिनॉयड्स (carotenoids) पाए जाते हैं। कैरोटिनॉयड्स दो प्रकार के होते हैं-जैन्थोफिल (Xanthophyl) तथा कैरोटिन (carotene)। ये क्रमश: पीले एवं नारंगी वर्णक होते हैं। पर्णहरित निर्माण के लिए प्रकाश की उपस्थिति आवश्यक होती है।

प्रकाश का अवशोषण या प्रकाश ऊर्जा को ग्रहण करने का कार्य मुख्य रूप से पर्णहरित करता है। पौधे को अन्धकार में रख देने पर प्रकाश संश्लेषण क्रिया अवरुद्ध हो जाती है। पौधे में संचित भोज्य पदार्थ समाप्त हो जाते हैं तो इसके फलस्वरूप पत्तियों में पाए जाने वाले पर्णहरित का विघटन प्रारम्भ हो जाता है। इसके फलस्वरूप पत्तियाँ कैरोटिनॉयड्स के कारण पीली या हरी-पीली दिखाई देने लगती हैं। कैरोटिनॉयड्स पर्णहरित की तुलना में अधिक स्थायी होते हैं।

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प्रश्न 7.
एक ही पौधे की पत्ती का छाया वाला (उल्टा) भाग देखें और उसके चमक वाले (सीधे) भाग से तुलना करें अथवा गमले में लगे धूप में रखे हुए तथा छाया में रखे हुए पौधों के बीच तुलना करें। कौन-सा गहरे रंग का होता है और क्यों?
उत्तर:
जब हम पत्ती की पृष्ठ सतह को देखते हैं तो यह अधर तल की अपेक्षा अधिक गहरे रंग की और चमकीली दिखाई देती है। इसी प्रकार धूप में रखे हुए गमले की पत्तियाँ छाया में रखे हुए गमले की पत्तियों की अपेक्षा अधिक गहरे रंग की और चमकीली प्रतीत होती हैं। इसका कारण यह है कि पृष्ठ तल पर अधिचर्म (epidermis) के नीचे खम्भ ऊतक (palisade tissue) पाया जाता है।

खम्भ ऊतक में हरितलवक अधिक मात्रा में पाया जाता है। खम्भ ऊतक प्रकाश संश्लेषण के लिए विशिष्टीकृत कोशिकाएँ होती हैं। धूप में रखे गमले की पत्तियाँ छाया में रखे गमले की अपेक्षा अधिक गहरे रंग की प्रतीत होती हैं। पत्तियों के अधिक गहरे रंग का होने का मुख्य कारण कोशिकाओं में पर्णहरित की मात्रा अधिक होती है; क्योंकि पर्णहरित निर्माण के लिए प्रकाश एक महत्त्वपूर्ण कारक होता है। इसके अतिरिक्त प्रकाश संश्लेषण के कारण पृष्ठ सतह की कोशिकाओं में अधिक स्टार्च का निर्माण होता है।

प्रश्न 8.
प्रकाश संश्लेषण की दर पर प्रकाश का प्रभाव पड़ता है। ग्राफ के आधार पर निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए –
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 13 उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण
(अ) वक्र के किस बिन्दु अथवा बिन्दुओं पर (क, ख अथवा ग) प्रकाश एक नियामक कारक है?
(ब) ‘क’ बिन्दु पर नियामक कारक कौन-से हैं? (स) वक्र में ‘ग’ और ‘घ’ क्या निरूपित करता है?
उत्तर:
(अ) प्रकाश की गुणवत्ता, प्रकाश की तीव्रता प्रकाश संश्लेषण को प्रभावित करती है। उच्च प्रकाश तीव्रता प्रकाश नियामक कारक नहीं होता; क्योंकि अन्य कारक सीमित हो जाते हैं। कम प्रकाश तीव्रता पर प्रकाश एक नियामक कारक ‘क’ बिन्दु पर होता है।
(ब) ‘क’ बिन्दु पर नियामक कारक कौन-से हैं?
(स) वक्र में ‘ग’ बिन्दु प्रकाश संतृप्तता को प्रदर्शित करता है। इस बिन्दु पर प्रकाश तीव्रता बढ़ने पर भी प्रकाश संश्लेषण की दर नहीं बढ़ती। ‘घ’ बिन्दु यह निरूपित करता है कि प्रकाश तीव्रता इस बिन्दु पर सीमाकारक हो सकता है।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 13 उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण

प्रश्न 9.
निम्नांकित में तुलना करें –
(अ) C3 एवं C4 पथ
(ब) चक्रीय एवं अचक्रीय फोटोफॉस्फोरिलेशन
(स) C3 एवं C4 पादपों की पत्ती की शारीरिकी।
उत्तर:
(अ) C3 तथा C4 पथ में अन्तर (Difference between C3 and C4 Pathway):
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 13 उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण

(ब) चक्रीय एवं अचक्रीय फोटोफॉस्फोरिलेशन (Difference in Cyclic and Non-Cyclic Photophoshorylation):
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 13 उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण

(स) C3 एवं C4 पादपों की पत्ती की शारीरिकी में अन्तर (Difference between the Anatomy of C3 and C4 Plants)
Bihar Board Class 11 Biology Chapter 13 उच्च पादपों में प्रकाश-संश्लेषण

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 12 खनिज पोषण

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 12 खनिज पोषण Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 12 खनिज पोषण

Bihar Board Class 11 Biology खनिज पोषण Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
“पौधे में उत्तरजीविता के लिए उपस्थित सभी · तत्वों की अनिवार्यता नहीं है।” टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
अभी तक 105 खनिज तत्वों में से 60 से अधिक खनिज तत्व पौधों में पाए गए हैं। लेकिन उनकी उपयोगिता के आधार पर पौधधों के लिए 17 पोषक तत्व अनिवार्य माने जाते हैं। अनिवार्य पोषक तत्वों को उनकी परिमाणात्मक आवश्यकता के आधार पर दो वर्गों में बाँट लेते हैं –
(क) वृहत् या दीर्घमात्रा पोषक तत्व
(ख) सूक्ष्म या लघुमात्रा पोषक तत्व।

(क) वृहत् या दीर्घमात्रा पोषक तत्व (Macronutrient elements):
ये पौधों के शुष्क पदार्थ की 1 से 10 मिलीग्राम/लीटर की सान्द्रता में पाए जाते हैं; जैसे – कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, पोटैशियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम, फॉस्फोरस, सल्फर।

(ख) सूक्ष्म या लघुमात्रा पोषक तत्व (Micronutrient elements):
ये पौधों के शुष्क पदार्थ की 0.1 मिलीग्राम/लीटर की सान्द्रता या उससे कम मात्रा में पाए जाते हैं; जैसे – क्लोरीन, बोरोन, लौह, मैंगनीज, जिंक, ताँबा, निकिल, मॉलिब्डेनमा।

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प्रश्न 2.
जल संवर्धन में खनिज पोषण हेतु अध्ययन में जल और पोषक लवणों की शद्धता जरूरी क्यों है?
उत्तर:
जुलियस वॉन सॉक्स (J.V Sachs) ने मृदा की अनुपस्थिति में पोषक विलयन में पौधों को वयस्क अवस्था तक उगाया। इस विधि द्वारा पोषक तत्वों की उपयोगिता का अध्ययन किया जा सकता है। इसके लिए शुद्ध जल तथा पोषक पदार्थों का होना आवश्यक है। इस विधि में किसी एक तत्व को डाला जाता है या हटाया जाता है और कमी के कारण प्रदर्शित होने वाले लक्षणों का अध्ययन किया जाता है। अशुद्ध पोषक पदार्थों (तत्वों) का उपयोग करके पोषक तत्वों की अनिवार्यता का अध्ययन करना सम्भव नहीं है।

प्रश्न 3.
उदाहरण के साथ व्याख्या कीजिए-वृहत् पोषक, सूक्ष्म पोषक, हितकारी पोषक, आविष तत्व और अनिवार्य तत्व।
उत्तर:
1. वृहत् पोषक (Macronutrients):
शुष्क पदार्थ में अधिक सान्द्रता में पाए जाने वाले तत्वों को वृहत् पोषक (macronutrients) कहते हैं; जैसे-कार्बन, ऑक्सीजन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, सल्फर, फॉस्फोरस, पोटैशियम, कैल्सियम आदि।

2. सूक्ष्म पोषक (Micronutrients):
शुष्क पदार्थ में कम सान्द्रता में पाए जाने वाले तत्वो को सूक्ष्म पोषक (micronutrients) कहते हैं। ये पौधों को बहुत सूक्ष्म मात्रा (1.0 ppm या इससे कम) में चाहिए; जैसे- क्लोरीन, बोरोन, लौह, ताँबा, जिंक, निकिल, मॉलिब्डेनमा।

3. हितकारी पोषक (Beneficial Elements):
अनिवार्य पोषक तत्रों के अतिरिक्त कुछ लाभदायक तत्व उच्च श्रेणी के पौधों के लिए आवश्यक होते हैं, इन्हें हितकारी पोषक तत्व कहते हैं।

4. आविष या आविषालु तत्व (Toxic Elements):
किसी खनिज आयन की वह जो सान्द्रता ऊतकों के शुष्क भार में 10% की कमी करता है। आविषालु तत्व माना जाता है। विभिन्न पोषक तत्वों का आविषालुंकता स्तर भिन्न-भिन्न होता है; जैसेमैंगनीज (Mn) आविषालु।

5. अनिवार्य तत्व (Essential Elements):
पौधों के लिए 17 खनिज तत्व अनिवार्य होते हैं। इनकी मात्रा के आधार पर अनिवार्य तत्वों को दो समूहों में बाँट लेते हैं –
(क) वृहत् तत्व
(ख) सूक्ष्म तत्व।
वृहत् तत्वों के अन्तर्गत C, H, O, N, S, K, Ca, Mg, P
और सूक्ष्म तत्व के अन्तर्गत CI, B, Fe, Mn, Zn, Cu, Ni, MO सम्मिलित हैं।

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प्रश्न 4.
पौधों में कम-से-कम पाँच अपर्याप्तता के लक्षण दीजिए। उसे वर्णित कीजिए और खनिजों की कमी से उसका सहसम्बन्ध बनाइए।
उत्तर:
1. पोटैशियम की कमी (Deficiency of Potassium):
इससे पत्तियों पर निर्जीव धब्बे बन जाते हैं। पौधे झाड़ी सदृश (bushy) हो जाते हैं। रोगों के लिए प्रतिरोध क्षमता कम हो जाती है।

2. कैल्सियम की कमी (Deficiency of Calcium):
इससे हरितलवक सुचारु रूप से कार्य नहीं करता। पुष्प शीघ्र झड़ जाते हैं। पौधों में बीज नहीं बनते।

3. मैग्नीशियम की कमी (Deficiency of Magnesium):
इससे हरिमहीनता (chlorosis) हो जाती है।

4. बोरोन की कमी (Deficiency of Boron):
इससे जड़ों का विकास कम होता है। पुष्पों की संख्या कम और फलों का आकार छोटा रहता है। तना भंगुर (brittle) हो जाता है। पौधे बौने रह जाते हैं।

5. जिंक की कमी (Deficiency of Zinc):
इससे पत्तियाँ चितकबरी (mottled) व पीली हो जाती है।

6. ताँबे की कमी (Deficiency of Copper):
इससे पत्तियों में हरिमहीनता (chlorosis) मुरझाना और सूखापन के लक्षण विकसित होते हैं। अग्रस्थ कलिकाएँ नष्ट हो जाती हैं तथा पत्तियाँ मुड़ जाती हैं।

7. नाइट्रोजन की कमी (Deficiency of Nitrogen):
इससे पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं। इनकी वृद्धि रूक जाती है। पुष्पम देर से होता है तथा अनाज के दाने सिकुड़ जाते हैं।

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प्रश्न 5.
अगर एक पौधे में एक से ज्यादा तत्वों की कमी के लक्षण प्रकट हो रहे हैं तो प्रायोगिक तौर पर आप कैसे पता करेंगे कि अपर्याप्त खनिज तत्व कौन-से हैं?
उत्तर:
किसी तत्व की अपर्याप्तता से कई तत्वों की कमी के लक्षण प्रकट होते हैं। ये लक्षण एक तत्व की कमी से या विभिन्न तत्वों की कमी के कारण प्रकट हो सकते हैं। अतः अपर्याप्त तत्व को पहचानने के लिए पौधे के विभिन्न भागों में प्रकट होने वाले लक्षणों का अध्ययन करना पड़ता है और उपलब्ध तथा मान्य तालिका से उनकी तुलना करनी पड़ती है। समान तत्व की कमी होने पर अलग-अलग पौधों में अलग-अलग लक्षण प्रदर्शित होते हैं।

प्रश्न 6.
कुछ निश्चित पौधों में अपर्याप्तता लक्षण सबसे पहले नवजात भाग में क्यों पैदा होता है, जबकि कुछ अन्य में परिपक्व अंगों में?
उत्तर:
पोषक तत्वों की कमी से पौधों में कुछ आकारिकीय बदलाव (morphological change) आते हैं। ये परिवर्तन अपर्याप्तता को प्रदर्शित करते हैं। ये विबिन्न तत्वों के अनुसार अलग-अलग होते हैं। अपर्याप्तता के लक्षण पोषक तत्वों की गतिशीलता पर निर्भर करते हैं। ये लक्षण कुछ पौधों के नवजात भागों में या पुराने ऊतकों में पहले प्रकट होते हैं।

पादप में जहाँ तत्व सक्रियता से गतिशील रहते हैं तथा तरुण विकासशील ऊतकों में निर्यातित होते हैं। वहाँ अपर्याप्तता के लक्षण पुराने ऊतकों में पहले प्रकट होते हैं; जैसे – N, K, Mg अपर्याप्तता के लक्षण सर्वप्रथम जीर्णमान पत्तियों में प्रकट होते हैं पुरानी पत्तियों से ये तत्व विभिन्न जैव अणुओं के विखण्डित होने से उपलब्ध होते हैं और नई पत्तियों तक गतिशील होते हैं।

जब तत्व अगतिशील होते हैं और वयस्क अंगों से बाहर अभिगमित नहीं होते तो अपर्याप्तता लक्षण नई पत्तियों में प्रकट होते हैं; जैसे-कैल्सियम, सल्फर आसानी से स्थानान्तरित नहीं होते। अपर्याप्तता लक्षणों को पहचानने के लिए पौधे के विभिन्न भागों में प्रकट होने वाले लक्षणों का अध्ययन मान्य तालिका के अनुसार करना होता है।

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प्रश्न 7.
पौधों के द्वारा खनिजों का अवशोषण कैसे होता हैं।
उत्तर:
पौधे खनिज तत्वों का अवशोषण निम्न प्रकार से करते हैं –

1. ऐपोप्लास्ट पथ (Apoplast pathway):
कोशिका के बाह्य स्थलों से आयन्स का निष्क्रिय अवशोषण तीव्र गति से होता है। कोशिका कला प्रोटीन्स से बनी होती है। इसमें छिद्र पाये जाते हैं।

2. सिमप्लास्ट पथ (Symplast Pathway):
कोशिकाओं के आन्तरिक स्थान में आयन का अन्तर्ग्रहण सक्रिय अवशोषण द्वारा होता है। आयन्स के प्रवेश और निष्कासन में उपापचयी ऊर्जा की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 8.
राइजोबियम के द्वारा वातावरणीय नाइट्रोजन के स्थिरीकरण के लिए क्या शर्ते हैं तथा N2 स्थिरीकरण में इनकी क्या भूमिका है?
उत्तर:
वायुमण्डलीय नाइट्रोजन स्थिरीकरण की शर्ते (Conditions for Atmospheric Nitrogen Fixation)

  1. नाइट्रोजिनेस एन्जाइम (Nitrogenase enzyme)
  2. लेग्हीमोग्लोबीन (Leghaemoglibin, lb)
  3. ATP
  4. अनॉक्सी वातावरण।

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चित्र – नाइट्रोजन स्थिरीकरण में नाइट्रोजिनेस एन्जाइम की भूमिका।

मुख्यतया मटर कुल के पौधों की जड़ों में ग्रन्थिकाएँ पाई जाती हैं। इनमें राइजोबियम (Rhizobium) जीवाणु पाया जाता है। ग्रन्थिकाओं में नाइट्रोजिनेस (nitrogenase) एन्जाइम एवं लेग्हीमोग्लोबीन (leghaemoglobin) आदि सभी जैवरासायनिक संघटक पाए जाते हैं। नाइट्रोजिनेस एन्जाइम वातावरणीय नाइट्रोजन को अमोनिया में बदलने के लिए उत्प्रेरित करता है। नाइट्रोजिनेस एन्जाइम की सक्रियता के लिए अनॉक्सी वातावरण आवश्यक होता है।

लेग्हीमोग्लोबीन ऑक्सीजन से नाइट्रोजिनेस एन्जाइम की सुरक्षा करता है। अमोनिया संश्लेषण के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। एक अमोनिया अणु को 8 ATP ऊर्जा की आवश्यकता होती है। ऊर्जा की आपूर्ति पोषक कोशिकाओं के ऑक्सी श्वसन से होती है। अमोनिया ऐमीनो अम्ल में ऐमीनो समूह के रूप में सम्मिलित हो जाती है।

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प्रश्न 9.
मूल ग्रन्थिका के निर्माण हेतु कौन-कौन से चरण भागीदार हैं?
उत्तर:
मूल ग्रन्थिका निर्माण (Formation of Root Nodules):
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चित्र – सोयाबीन में मूल ग्रन्थिका का विकास –
(A) राइजोबियम जीवाणु मूलरोम के समीप बहुगुणित होते हैं।
(B) संक्रमण के पश्चात् मूलरोम में संकुचन, प्रेरित होता है।
(C) संक्रमित जीवाणु मूलरोम द्वारा वल्कुट कोशिकाओं तक पहुँचता है। वल्कुट एवं परिरम्भ कोशिकाएँ विभाजित होने लगती हैं और ग्रन्थिका का निर्माण हो जाता है।
(D) ग्रन्थिका जीवाणुओं का सम्बन्ध पोषक कोशिका से स्थापित हो जाता है।

पोषक पौधों (सामान्यतया मटर कुल के पौधे) की जड़ एवं राइजोबियम में पारस्परिक प्रक्रिया के कारण ग्रन्थिकाओं का निर्माण निम्नलिखित चरणों में होता है –

राइजोबियम जीवाणु बहुगुणित होकर जड़ के चारों ओर एकत्र होकर मूलरोम एवं मूलीय त्वचा से जुड़ जाते हैं। जीवाणु संक्रमण के कारण जीवाणु मूलरोम से होकर वल्कुट (cortex) में पहुँच जाते हैं। वल्कुट में जीवाणुओं के कारण कोशिकाओं का विशिष्टीकरण नाइट्रोजन स्थिरीकरण कोशिकाओं के रूप में होने लगता है। इस प्रकार ग्रन्थिकाओं (nodules) का निर्माण हो जाता है। ग्रन्थिकाओं के जीवाणुओं का पोषक पादप से पोषक तत्वों के आदान-प्रदान हेतु संवहनी सम्बन्ध स्थापित हो जाता है।

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प्रश्न 10.
निम्नांकित कथनों में कौन सही हैं? अगर गलत है तो उन्हें सही कीजिए –
(क) बोरोन की अपर्याप्तता से स्थूलकाय अक्ष बनता है।
(ख) कोशिका में उपस्थित प्रत्येक खनिज तत्व उसके लिए अनिवार्य है।
(ग) नाइट्रोजन पोषक तत्व के रूप में पौधे में अत्यधिक अचल है।
(घ) सूक्ष्म पोषकों की अनिवार्यता निश्चित करना अत्यन्त ही आसान है, क्योंकि ये सूक्ष्म मात्रा में लिए जाते हैं।
उत्तर:
(क) सत्य कथन।
(ख) असत्य कथन। 105 खनिज तत्वों में से लगभग 60 तत्व विभिन्न पौधों में पाए गए जिनमें से 17 खनिज तत्व ही अनिवार्य होते हैं।
(ग) असत्य कथन। नाइट्रोजन अत्यधिक गतिमान पोषक खनिज तत्व है।
(घ) असत्य कथन। सूक्ष्म पोषक तत्वों की अनिवार्यता निश्चित करना अत्यन्त कठिन कार्य होता है; क्योंकि ये अति सूक्ष्म मात्रा में प्रयोग किए जाते हैं। सामान्यतया पोषक लवणों में अशुद्धता के कारण इनकी अनिवार्यता स्थापित करना कठिन होता है।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 11 पौधों में परिवहन

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Bihar Board Class 11 Biology पौधों में परिवहन Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
विसरण की दर को कौन-से कारक प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
विसरण की दर को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting Rate of Diffusion):
विसरण की दर को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं –

  1. सान्द्रता की प्रवणता (gradient of concentration)
  2. दो घोलों को पृथक् करने वाली झिल्ली की पारगम्यता (permeability of membrane)
  3. diy (temperature)
  4. दाब (pressure)

विसरण एक सामान्य भौतिक निष्क्रिय क्रिया है। इसमें ऊर्जा व्यय नहीं होती। यह सजीव और निर्जीव दोनों में होती है।

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प्रश्न 2.
पोरीन्स क्या है? विसरण में ये क्या भूमिका निभाते हैं?
उत्तर:
पोरीन्स (Porins):
जीवाणु, माइटोकॉन्ड्रिया, लवक आदि की बाह्य झिल्ली में पोरीन प्रोटीन्स पाई जाती है। यह बाह्य झिल्ली में बड़े छिद्रों का निर्माण करती है। यह झिल्ली अणुओं के आर-पार जाने के लिए रास्ता बनाती है। ये रास्ते हमेशा खुले रहते हैं और कुछ नियन्त्रित भी हो सकते हैं। कुछ रास्ते बड़े होते हैं जिससे अन्य प्रोटीन्स के छोटे अणु इनसे होकर आ-जा सकें।

चित्र से स्पष्ट है कि बाह्य कोशिका अणु परिवहन प्रोटीन पर अनुबन्धित होकर कोशिका झिल्ली की भीतरी सतह पर पहुँचकर अणु को मुक्त कर देती है। तन्त्रिका कोशिकाओं में तन्त्रिका कला से सोडियम-पोटैशियम का आवागमन विद्युत विभव परिवर्तन द्वारा नियन्त्रित होता है। Na+ तथा K+ गेट विद्युत परिवर्तनों के फलस्वरूप खुलते और बन्द होते हैं।
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चित्रं – सुसाध्य विसरण (Faciliated diffusion)

प्रश्न 3.
पादपों में सक्रिय परिवहन के दौरान प्रोटीन पम्प के द्वारा क्या भूमिका निभाई जाती है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सक्रिय परिवहन (Active Transport):
सक्रिय परिवहन सान्द्रता प्रवणता (concentration gradient) के विरुद्ध अणुओं को पम्प करता है। इस प्रक्रिया में ऊर्जा व्यय होती है। गतिज ऊर्जा ATP से प्राप्त होती है। सक्रिय परिवहन झिल्ली प्रोटीन्स द्वारा सम्पन्न होता है। अणुओं को ले जाने वाले पम्प प्रोटीन्स पदार्थों को कम सान्द्रता से अधिक सान्द्रता [शिखरोपरि (अपहिल) परिवहन की ओर ले जाते हैं। पम्प या वाहक प्रोटीन्स पदार्थों को झिल्ली के आर-पार ले जाने के लिए एन्जाइम्स की भाँति अति विशिष्ट होते हैं।

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प्रश्न 4.
शुद्ध जल का सबसे अधिक जल विभव क्यों होता है? वर्णन कीजिए।
उत्तर:
शुद्ध जल का सबसे अधिक जल विभव (water potential) होता है; क्योंकि –

1. जल अणुओं में गति ऊर्जा पायी जाती है। यह तरल और गैस दोनों अवस्था में गति करते हुए पाए जाते हैं। गति स्थिर तथा तीव्र (constant and rapid) दोनों प्रकार की हो सकती है।

2. किसी माध्यम में यदि अधिक मात्रा में जल हो तो उसमें गतिज ऊर्जा तथा जल विभव अधिक होगा। शुद्ध जल में सबसे अधिक जल विभव (water potential) होता है।

3. जब दो जल तन्त्र परस्पर सम्पर्क में हों तो पानी के अणु उच्च जल विभव (या तनु घोल) वाले तन्त्र से कम जल विभव (सान्द्र घोल) वाले तन्त्र की ओर जाते हैं।

4. जल विभव को ग्रीक चिह्न Psi or Ψ से चिन्हित करते हैं। इसे पास्कल (pascal) दाब इकाई में व्यक्ति किया जाता है।

5. मानक परिस्थितियों में शुद्ध जल का जल विभव (water potential) शून्य होता है।

6. किसी विलयन यन्त्र का जल विभव उस विलयनन से जल बाहर निकलने की प्रवृत्ति का मापन करता है। यह प्रवृत्ति ताप एवं दाब के साथ बढ़ती जाती है, लेकिन विलेय (solute) की उपस्थिति के कारण घटती है।

7. शुद्ध जल में विलेय को घोलने पर घोल में जल की सान्द्रता और जल विभव कम होता जाता है। अत: सभी विलयनों में शुद्ध जल की अपेक्षा जल विभव कम होता है। जल विभव के कम होने का कारण विलेय विभव (solute potential ys) होता है। इसे परासरण विभव (osmotic potential) भी कहते हैं।

जल विभव तथा विलेय विभव ऋणात्मक होता है। कोशिका द्वारा जल अवशोषित करने के फलस्वरूप कोशिका भित्ति पर दबाव पड़ता है, जिससे यह आशून (स्फीत) हो जाता है। इसे दाब विभव (pressure potential) कहते हैं. दाब विभव प्राय: सकारात्मक होता है। लेकिन जाइलम के जल स्तम्भ में ऋणात्मक दाब विभव रसोरोहण में महत्त्वपूर्ण भूमिक निभाता है।

8. किसी पादप कोशिका में जलीय विभव (Ψ) तीन बलों द्वारा नियन्त्रित होता है-दाब विभव (Ψp) परासरणीय विभव या विलेय विभव (Ψs) मैट्रिक्स विभव (Ψm) मैट्रिक्स विभव प्रायः नगण्य होता है।

अतः कोशिका के जलीय विभव की गणना निम्नलिखित सूत्रानुसार करते हैं –
Ψ = Ψp + ΨS
9. जीवद्रव्यकुंचित कोशिका का जलीय विभव परासरणीय विभव के बराबर होता है; क्योंकि दाब विभव शून्य होता है। पूर्ण स्फीत कोशिका में दाब विभव और परासरणीय विभव के बराबर हो जाने से जलीय विभव शून्य हो जाता है।

10. जल विभव सान्द्रता (concentration), प्रवणता (gravity) और दाब (pressure) से प्रभावित होता है।

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प्रश्न 5.
निम्नलिखित के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए –
(क) विसरण एवं परासरण
(ख) वाष्पोत्सर्जन एवं वाष्पीकरण
(ग) परासारी दाब तथा परासारी विभव
(घ) विसरण एवं अन्तःशोषण
(ङ) पादपों में पानी के अवशोषण का एपोप्लास्ट और सिमप्लास्ट पथ
(च) बिन्दुस्राव एवं परिवहन (अभिगमन)।
उत्तर:
(क) विसरण एवं परासरण में अन्तर (Difference between Diffusion and Osmosis):
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(ख) वाष्पोत्सर्जन एवं वाष्पीकरण में अन्तर (Difference between Evaporation and Transpiration):
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(ग) परासारी दाब तथा परासारी विभव में अन्तर (Difference between Osmotic Pressure and Osmotic Potential):
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(घ) विसरण एवं अन्तःशोषण में अन्तर (Difference between Diffusion and Imbibition):
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(ङ) पादपों में पानी के अवशोषण का एपोप्लास्ट और सिमप्लास्ट पथ (Difference between Apoplasty, and Symplast Pathways of Water absorption in Plants):
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चित्र – जल एवं पोषक तत्वों का एपोप्लास्ट तथा सिमप्लास्ट पथ तथा जड़ों में प्रवाह

(च) बिन्दु स्राव एवं परिवहन (अभिगमन) में अन्तर (Difference between Guttation and Transporation):
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प्रश्न 6.
जल विभव का संक्षिप्त वर्णन कीजिए। कौन-से कारक इसे प्रभावित करते हैं? जल विभव, विलेय विभव तथा दाब विभव में आपसी सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
शुद्ध जल का सबसे अधिक जल विभव (water potential) होता है; क्योंकि –

1. जल अणुओं में गति ऊर्जा पायी जाती है। यह तरल और गैस दोनों अवस्था में गति करते हुए पाए जाते हैं। गति स्थिर तथा तीव्र (constant and rapid) दोनों प्रकार की हो सकती है।

2. किसी माध्यम में यदि अधिक मात्रा में जल हो तो उसमें गतिज ऊर्जा तथा जल विभव अधिक होगा। शुद्ध जल में सबसे अधिक जल विभव (water potential) होता है।

3. जब दो जल तन्त्र परस्पर सम्पर्क में हों तो पानी के अणु उच्च जल विभव (या तनु घोल) वाले तन्त्र से कम जल विभव (सान्द्र घोल) वाले तन्त्र की ओर जाते हैं।

4. जल विभव को ग्रीक चिह्न Psi or Ψ से चिन्हित करते हैं। इसे पास्कल (pascal) दाब इकाई में व्यक्ति किया जाता है।

5. मानक परिस्थितियों में शुद्ध जल का जल विभव (water potential) शून्य होता है।

6. किसी विलयन यन्त्र का जल विभव उस विलयनन से जल बाहर निकलने की प्रवृत्ति का मापन करता है। यह प्रवृत्ति ताप एवं दाब के साथ बढ़ती जाती है, लेकिन विलेय (solute) की उपस्थिति के कारण घटती है।

7. शुद्ध जल में विलेय को घोलने पर घोल में जल की सान्द्रता और जल विभव कम होता जाता है। अत: सभी विलयनों में शुद्ध जल की अपेक्षा जल विभव कम होता है। जल विभव के कम होने का कारण विलेय विभव (solute potential ys) होता है। इसे परासरण विभव (osmotic potential) भी कहते हैं।

जल विभव तथा विलेय विभव ऋणात्मक होता है। कोशिका द्वारा जल अवशोषित करने के फलस्वरूप कोशिका भित्ति पर दबाव पड़ता है, जिससे यह आशून (स्फीत) हो जाता है। इसे दाब विभव (pressure potential) कहते हैं. दाब विभव प्राय: सकारात्मक होता है। लेकिन जाइलम के जल स्तम्भ में ऋणात्मक दाब विभव रसोरोहण में महत्त्वपूर्ण भूमिक निभाता है।

8. किसी पादप कोशिका में जलीय विभव (Ψ) तीन बलों द्वारा नियन्त्रित होता है-दाब विभव (Ψp) परासरणीय विभव या विलेय विभव (Ψs) मैट्रिक्स विभव (Ψm) मैट्रिक्स विभव प्रायः नगण्य होता है।

अतः कोशिका के जलीय विभव की गणना निम्नलिखित सूत्रानुसार करते हैं –
Ψ = Ψp + ΨS
9. जीवद्रव्यकुंचित कोशिका का जलीय विभव परासरणीय विभव के बराबर होता है; क्योंकि दाब विभव शून्य होता है। पूर्ण स्फीत कोशिका में दाब विभव और परासरणीय विभव के बराबर हो जाने से जलीय विभव शून्य हो जाता है।

10. जल विभव सान्द्रता (concentration), प्रवणता (gravity) और दाब (pressure) से प्रभावित होता है।

प्रश्न 7.
तब क्या होता है जब शुद्ध जल या विलयन पर पर्यावरण के दाब की अपेक्षा अधिक दाब लागू किया जाता है।
उत्तर:
जब शुद्ध जल या विलयन पर पर्यावरण के दाब की अपेक्षा अधिक दाब लागू किया जाता है तो इसका जल विभव बढ़ जाता है। जब पौधों या कोशिका में जल विसरण द्वारा प्रवेश करता है तो कोशिका आशून (turgid) हो जाती है। इसके फलस्वरूप दाब विभव (pressure potential) बढ़ जाता है। दाब विभव अधिकतर सकारात्मक होता है। इसे (Ψp) से प्रदर्शित करते हैं। जल विभव घुलित तथा दाब विभव से प्रभावित होता है।

प्रश्न 8.
(क) रेखांकित चित्र की सहायता से पौधों में जीवद्रव्यकुंचन की विधि का वर्णन उदाहरण देकर कीजिए।
(ख) यदि पौधे की कोशिका को उच्च जल विभव वाले विलयन में रखा जाए तो क्या होगा?
उत्तर:
(क) रिक्तिकामय पादप कोशिका को अतिपरासारी विलयन (hypertonial solution) में रख देने पर कोशिकारस कोशिका से बाहर आने लगता है। यह क्रिया बहिःपरासरण (exosmosis) के कारण होती है। इसके फलस्वरूप जीवद्रव्य सिकुड़कर कोशिका में एक ओर एकत्र हो जाता है। इस अवस्था में कोशिका पूर्ण श्लथ (fully flaccid) हो जाती है। इस क्रिया का जीवद्रव्यकुंचन (plasmolysis) कहते हैं।

जीवद्रव्यकुंचित कोशिका की कोशिका भित्ति और जीवद्रव्य के मध्य अतिपरासारी विलयन एकत्र हो जाता है, लेकिन यह विलयन कोशिकारिक्तिका में नहीं पहुँचता। इससे यह स्पष्ट होता है कि कोशिका भित्ति पारगम्य होती है और रिक्तिका कला अर्द्धपारगम्य होती है। जीवद्रव्यकुंचित कोशिका को आसुत जल या अल्पपरासारी विलयन (hypotonic solution) में रखा जाए तो कोशिका पुनः अपनी पूर्व स्थिति में आ जाती है। इस प्रक्रिया को जीवद्रव्यविकुंचन (deplasmolysis) कहते हैं।
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चित्र – जीवद्रव्यकुंचन की विभिन्न अवस्थाएँ: (A) आशून कोशिका, (B) तथा (C) जीवद्रव्यकुंचन की क्रमिक अवस्थाएँ, (D) श्लथ दशा

कोशिका को समपरासारी विलयन (isotonic solution) में रखने पर कोशिका में कोई परिवर्तन नहीं होता, जितने जल अणु कोशिका से बाहर निकलते हैं उतने जल अणु कोशिका में प्रवेश कर जाते हैं।
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चित्र – कोशिका को समपरासारी, अतिपरासारी तथा अल्पपरासारी विलयन में रखने पर परिवर्तन

(ख) अल्पपरासारी विलयन (hypotonic solution):
कोशिकारस या कोशिकाद्रव्य की अपेक्षा तनु (dilute) होता है, इसका जल विभव (water potential) अधिक होता है। अतः पादप कोशिका को अल्पपरासारी विलयन में रखने पर अन्त:परासरण की क्रिया होती है। इस क्रिया के फलस्वरूप अतिरिक्त जल कोशिका में पहुँचकर स्फीति दाब (turgor pressure) उत्पन्न करता है।

स्फीति दाब भित्ति दाब (wall pressure) के बराबर होता है। स्फीति दाब को दाब विभव (pressure potential) भी कहते हैं। कोशिका भित्ति की दृढ़ता एवं स्फीति दाब के कारण कोशिका भित्ति क्षतिग्रस्त नहीं होती। स्फीति या आशूनता के कारण कोशिका में वृद्धि होती है। स्फीति दाब एवं परासरण दाब के बराबर हो जाने पर कोशिका में जल का आना रुक जाता है।

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प्रश्न 9.
पादप में जल एवं खनिज के अवशोषण में माइक्रोराइजलीय (कवकमूल सहजीवन) सम्बन्ध कितने सहायक हैं?
उत्तर:
माइकोराइजल या कवकमूलीय सहजीवन (Mycorrhizal Association):
अनेक उच्च पादपों की जड़ें कवक मूल द्वारा संक्रमित हो जाती है; जैसे-चीड़, देवदार, ओक आदि। कवक तन्तु की जड़ों की सतह पर बाह्यपादपी कवकमूल (ectophytic mycorrhiza) बनाता है। कभी-कभी कवक तन्तु जड़ के अन्दर पहुँच जाते हैं और अन्तः पादपी कवकमूल बनाते हैं।

कवक मूल संगठन में कवक तन्तु अपना भोजन पोषक (host) की जड़ों से प्राप्त करते हैं तथा वातावरण की नमी व भूमि की ऊपरी सतह से लवणों का अवशोषण कर पोषक पौधे को प्रदान करने का कार्य करते हैं। कुछ आवृत्तबीजी पौधे; जैसे-निओशिया (Neottia), मोनोट्रोपा (Monotropa) भी कवकमूल सहजीवन प्रदर्शित करते हैं। इन पौधों को अगर कवच सहजीविता समय पर उपलब्ध नहीं होती तो ये मर जाते हैं। चीड़ के बीज कवक सहजीविता स्थापित न होने की स्थिति में अंकुरित होकर नवोद्भिद् (seedlings) नहीं बना पाते।

प्रश्न 10.
पादप में जल परिवहन हेतु मूलदाब क्या भूमिक निभाता है?
उत्तर:
मूलदाब (Root Pressure):
मूल वल्कुट (root cortex) की कोशिकाओं की स्फीत (आशून) स्थिति में अपने कोशिकाद्रव्य पर पड़ने वाले दाब को मूलदाब (root pressure) कहते हैं। मूलदाब के फलस्वरूप जल (कोशिकारस) जाइलम वाहिकाओं में प्रवेश करके तने में कुछ ऊँचाई तक ऊपर चढ़ता है। मूलदाब शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम स्टीफन हेल्स (Stephans Hales, 1927) ने किया।

स्टॉकिंग (Stocking, 1956) के अनुसार जड़ के जाइलम में उत्पन्न दाब, जो जड़ की उपापचयी क्रियाओं से उत्पन्न होता है, मूलदाब कहलाता है। मूलदाब सामान्यतया +1 से + 2 बार (bars) तक होता है। इससे जल कुछ ऊँचाई तक चढ़ सकता है। शुष्क मृदा में मूलदाब उत्पन्न नहीं होता। बहुत-से पौधों; जैसे-अनावृत्तबीजी (gymnosperms) में मूलदाब उत्पन्न ही नहीं होता। अतः आधुनिक मतानुसार रसारोहण में मूलदाब का विशेष कार्य नहीं है।

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प्रश्न 11.
पादपों में जल परिवहन हेतु वाष्पोत्सर्जन खिंचाव मॉडल की व्याख्या कीजिए। वाष्पोत्सर्जन क्रिया को कौन-सा कारक प्रभावित करता है, पादपों के लिए कौन उपयोगी है?
उत्तर:
रसारोहण या जल परिवहन | (Ascent of Sap or Transport of Water in Plants):
पौधे जड़ों द्वारा जल एवं खनिज लवणों का अवशोषण करते हैं। अवशोषित जल गुरुत्वाकर्षण के विपरीत पर्याप्त ऊँचाई तक (पत्तियों तक) पहुँचता है। यह ऊँचाई सिकोया (Sequoia) में 370 फुट होती है। गुरुत्वाकर्षण के विपरीत जल के ऊपर चढ़ने की क्रिया को रसारोहण कहते हैं। सर्वमान्य वाष्पोत्सर्जनाकवर्षण जलीय संसंजक मत (Transpiration Pull Cohesive Force of Water Theory) के अनुसार रसारोहण निम्नलिखित कारणों से होता है –

1. वाष्पोत्सर्जनाकर्षण (वाष्पोत्सर्जन खिंचाव मॉडल):
पत्तियों की कोशिकाओं से जल के वाष्पन के फलस्वरूप कोशिकाओं की परासरण सान्द्रता तथा विसरण दाब न्यूनता (Diffusion pressure deficit) अधिक हो जाती है।

इसके फलस्वरूप जल जाइलम से परासरण द्वारा पर्ण कोशिकाओं में पहुँचता रहता है। जलवाष्प रन्ध्रों से वातावरण में विसरित होती रहती है। इसके फलस्वरूप जाइलम में उपस्थित जल स्तम्भ पर एक तनाव उत्पन्न हो जाता है। वाष्पोत्सर्जन के कारण उत्पन्न होने वाले इस तनाव को वाष्पोत्सर्जनाकर्षण (transpiration pull) कहते हैं।
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चित्र – वाष्पोत्सर्जन के कारण जल का जड़ों से पत्तियों तक पहँचने का प्रदर्शन

2. जल अणुओं का संसंजन बल (Cohesive Force of Water Molecules):
जल अणुओं के मध्य संसंजन बल (cohesive force) होता है। इसी संसंजन बल के कारण जल स्तम्भ 400 वायुमण्डलीय दाब पर भी खण्डित नहीं होता और इसकी निरन्तरता बनी रहती है। संसंजन बल के कारण जल 1500 मीटर ऊँचाई तक चढ़ सकता है।

3. जल तथा जाइलम भित्ति के मध्य आसंजन (Adhesion between Water and wall of Xylem Tissue):
जाइलम ऊतक की कोशिकाओं और जल अणुओं के मध्य आसंजन (adhesion) का आकर्षण होता है। यह आसंजन जल स्तम्भ को सहारा प्रदान करता है। वाष्पोत्सर्जन के कारण उत्पन्न तनाव जल स्तम्भ को ऊपर खींचता है।

वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारक (Factors affecting Transpiration):
पौधों में वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करने वाले कारकों को दो समूहों में बाँट लेते हैं –

(अ) बाह्य कारक (External Factors)
(ब) आन्तरिक कारक (Internal Factors)
(अ) बाह्य कारक (External Factors)

1. वायुमण्डल की आपेक्षिक आर्द्रता (Relative Humidity of Atmosphere):
वायुमण्डल की आपेक्षिक आर्द्रता कम होने पर वाष्पोत्सर्जन अधिक होता है। आपेक्षिक आर्द्रता अधिक होने पर वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।

2. प्रकाश (Light):
प्रकाश के कारण रन्ध्र खुलते हैं, तापमान में वृद्धि होती है, अत: वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है। रात्रि में रन्ध्र बन्द हो जाने से वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।

3. वायु (Wind):
वायु गति अधिक होने पर वाष्पोत्सर्जन दर अधिक हो जाती है।

4. तापक्रम (Temperature):
ताप के बढ़ने से आपेक्षिक आर्द्रता कम हो जाती है और वाष्पोत्सर्जन की दर बढ़ जाती है। ताप कम होने पर आपेक्षिक आर्द्रता अधिक हो जाती है और वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।

5. उपलब्ध जल (Available Water):
वाष्पोत्सर्जन की. दर जल की उपलब्धता पर निर्भर करती है। मृदा में जल की कमी होने पर वाष्पोत्सर्जन की दर कम हो जाती है।

(ब) आन्तरिक कारक (Internal Factors):
पत्तियों की संरचना, रन्ध्रों की संख्या एवं संरचना आदि वाष्पोत्सर्जन को प्रभावित करती है।

वाष्पोत्सर्जन की उपयोगिता (Importance of Transpiration):

  • पौधों में अवशोषण एवं परिवहन के लिए वाष्पोत्सर्जन खिंचाव उत्पन्न करता है।
  • मृदा से प्राप्त खनिजों के पौधों के सभी अंगों (भागों) तक परिवहन में सहायता करता है।
  • पत्ती की सतह को वाष्पीकरण द्वारा 10-15°C तक ठण्डा रखता है।
  • कोशिकाओं को स्फीत रखते हुए पादपों के आकार एवं बनावट को नियन्त्रित रखने में सहायता करता है।

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प्रश्न 12.
पादपों में जाइलम रसारोहण के लिए जिम्मेदार कारकों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
रसारोहण (Ascent of Sap):
गुरुत्वाकर्षण के विपरीत मूलरोम से पत्तियों तक कोशिकारस (cell sap) के ऊपर चढ़ने की क्रिया को रसारोहण (ascent of sap) कहते हैं। रसारोहण मुख्य रूप से वाष्पोत्सर्जनाकर्षण (Transpiration pull) के कारण होता है। यह निम्नलिखित कारकों से प्रभावित होता है –

1. संसंजन (Cohesion):
जल के अणुओं के मध्य आकर्षण।

2. आसंजन (Adhesion):
जल अणुओं का ध्रुवीय सतह (जैसे-जाइलम ऊतक) से आकर्षण।

3. पृष्ठ तनाव (Surface Tension):
जल अणुओं की द्रव अवस्थआ में गैसीय अवस्था। जल की उपर्युक्त विशिष्टताएँ जल को उच्च तन्य सामर्थ्य (high tensile strenght) प्रदान करते हैं। वाहिकाएँ एवं वाहिनिकाएँ (tracheids & vessels) केशिका (capillary) के समान लघु व्यास वाली कोशिकाएँ होती हैं।

प्रश्न 13.
पादपों में खनिजों के अवशोषण के दौरान अन्तःत्वचा की आवश्यक भूमिका क्या होती है?
उत्तर:
जड़ों की अन्तस्त्वचा कोशिकाओं की कोशिकाकला पर अनेक वाहक प्रोटीन्स पाई जाती है। ये प्रोटीन्स जड़ों द्वारा अवशोषित किए जाने वाले घुलितों की मात्रा और प्रकार को नियन्त्रित करने वाले ‘बिन्दुओं की भाँति कार्य करती हैं। अन्तस्त्वचा की सुबेरिनमय (suberinised) कैस्पेरी पट्टियों (casparian strips) द्वारा खनिज या घुलित पदार्थों के आयन्स या अणुओं का परिवहन एक ही दिशा (unidirection) में होता है। अत: अन्तस्त्वचा (endodermis) खनिजों की मात्रा और प्रकार (quantity & type) को जाइलम तक पहुँचने को नियन्त्रित करती है। जल तथा खनिजों की गति मूलत्वचा (epiblemma) से अन्तस्त्वचा तक सिमप्लास्टिक (symplastic) होती है।

प्रश्न 14.
जाइलम परिवहन एकदिशीय तथा फ्लोएम परिवहन द्विदिशीय होता है। व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जाइलम परिवहन (Xylem Transport):
पौधे अपने लिए आवश्यक जल एवं खनिज पोषक मृदा से प्राप्त करते हैं। ये सक्रिय या निष्क्रिय अवशोषण या सम्मिश्रित प्रक्रिया द्वारा अवशोषित होकर जाइलम तक पहुँचते हैं। जाइलम द्वारा जल एवं पोषक तत्वों का परिवहन एकदिशीय (unidirectional) होता है। ये पौधों के वृद्धि क्षेत्र की ओर विसरण द्वारा पहुँचते हैं।

फ्लोएम परिवहन (Phloem Transport):
प्लोएम द्वारा सामान्यतया कार्बनिक भोज्य पदार्थों का परिवहन होता है। कार्बनिक पदार्थों का संश्लेषणं पत्तियों द्वारा होता है। पत्तियों में निर्मित भोज्य पदार्थों का पौधे के संचय अंगों (कुण्ड-सिंक) तक परिवहन होता है। लेकिन यह स्रोत (पत्तियाँ) और कुण्ड (संचय अंग) अपनी भूमिकाएँ मौसम और आवश्यकतानुसार बदलते रहते हैं; जैसे-जड़ों में संचित अघुलनशील भोज्य पदार्थ वसन्त ऋतु के प्रारम्भ में घुलनशील शर्करा में बदलकर वर्धी और पुष्प कलिकाओं तक पहुँचने लगता है। इससे स्पष्ट है कि संश्लेषण स्रोत और संचय स्थल (कुण्ड-सिंक) का सम्बन्ध बदलता रहता है। अतः फ्लोएम में घुलनशील शर्करा का परिवहन द्विदिशीय या बहुदिशीय (bidirectional or multidirectional) होता है।

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प्रश्न 15.
पादपों में शर्करा के स्थानान्तरण के दाब प्रवाह परिकल्पना की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
शर्करा के स्थानान्तरण की दाब प्रवाह परिकल्पना (The Pressure Flow or Mass Flow Hypothesis of Sugar Translocation):
खाद्य पदार्थों (शर्करा) के वितरण की सर्वमान्य क्रियाविधि दाब प्रवाह परिकल्पना है। पत्तियों के संश्लेषित, ग्लूकोस, सुक्रोस (sucrose) में बदलकर फ्लोएम की चालनी नलिकाओं और सहज कोशिकाओं द्वारा पौधों के संचय अंगों में स्थानान्तरित होता है। पत्तियों में निरन्तर भोजन निर्माण होता रहता है।
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चित्र – भोज्य पदार्थों के स्थानान्तरण की प्रक्रिया की आरेखीय प्रस्तुति

फ्लोएम ऊतक की चालनी नलिकाओं में जीवद्रव्य के प्रवाहित होते रहने के कारण उसमें घुलित भोज्य पदार्थ के अणु भी प्रवाहित होते रहते हैं। यह स्थानान्तरण अधिक सान्द्रता वाले स्थान से कम सान्द्रता वाले स्थानों की ओर होता है। पत्तियों की कोशिकाओं में निरन्तर भोज्य पदार्थों का निर्माण होता रहता है, इसलिए पत्ती की कोशिकाओं में परासरण दाब अधिक रहता है।

जड़ों तथा अन्य संचय भागों में भोज्य पदार्थों के अघुलनशील पदार्थों में बदल जाने या प्रयोग कर लिए जाने के कारण इन कोशिकाओं का परासरण दाब कम बना रहता है। भोज्य पदार्थों के परिवहन हेतु जल जाइलम ऊतक से प्राप्त होता है। संचय अंगों में मुक्त जल जाइलम ऊतक में वापस पहुँच जाता है। इस प्रकार फ्लोएम द्वारा सुगमतापूर्वक कार्बनिक भोज्य पदार्थों का संवहन होता रहता है।

प्रश्न 16.
वाष्पोत्सर्जन के दौरान रक्षक द्वार कोशिका खुलने एवं बन्द होने के क्या कारण हैं?
उत्तर:
वाष्पोत्सर्जन (Transpiration):
पौधों के वायवीय भागों से होने वाली जल हानि को वाष्पोत्सर्जन (transpiration) करते हैं। यह सामान्यतया रन्ध्र (stomata) द्वारा होता है। उपचर्म (cuticle) तथा वातरन्ध्र (lenticel) इसके सहायक होते हैं। रन्ध्र रक्षक द्वार कोशिकाओं (guard cellls) से घिरा सूक्ष्म छिद्र होता है। रक्षक कोशिकाएँ सेम के बीज या वृक्क के आकार की होती है। ये चारों ओर से बाह्य त्वचीय कोशिकाओं अथवा सहायक कोशिकाओं से घिरी रहती है। रक्षक द्वार कोशिका में केन्द्रक तथा हरितलवक (chloroplast) पाए जाते हैं। रक्षक द्वार कोशिका की भीतरी सतह मोटी भित्ति वाली तथा बाह्य सतह पतली भित्ति वाली होती है –

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चित्र – (A) पर्ण रन्ध्र की संरचना, (B) खुली अवस्था तथा (C) बन्द

अवस्था रन्ध्र का खुलना या बन्द होना रक्षक द्वार कोशिकाओं की स्फीति (turgidity) पर निर्भर करता है। जब रक्षक कोशिकाएँ स्फीत होती हैं तो रन्ध्र खुला रहता है और जब ये श्लथ (flaccid) होती हैं तो रन्ध्र बन्द हो जाते हैं। रन्ध्र के खुलने में रक्षक कोशिका की भित्तियों में उपस्थित माइक्रोफाइबिल सहायता करते हैं। ये अरीय क्रम में व्यवस्थित रहते हैं। सामान्यतया रन्ध्र दिन के समय खुले रहते हैं और रात्रि के समय बन्द हो जाते हैं।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 10 कोशिका चक्र और कोशिका विभाजन

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 10 कोशिका चक्र और कोशिका विभाजन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 10 कोशिका चक्र और कोशिका विभाजन

Bihar Board Class 11 Biology कोशिका चक्र और कोशिका विभाजन Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
स्तनधारियों की कोशिकाओं की औसत कोशिका चक्र अवधि कितनी होती है?
उत्तर:
स्तनधारियों (मनुष्य) की कोशिकाओं की औसत कोशिका चक्र अवधि 24 घण्टे होती है।

प्रश्न 2.
कोशिकाद्रव्य (जीवद्रव्य) विभाजन व केन्द्रक विभाजन में क्या अन्तर है?
उत्तर:
कोशिकाद्रव्य विभाजन तथा केन्द्रक विभाजन में अन्तर (Difference between Cytokinesis and Karyokinesis):
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प्रश्न 3.
अन्तरावस्था में होने वाली घटनाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
कोशिका चक्र (cell cycle) की दो प्रमुख अवस्थाएँ होती हैं –

  1. अन्तरावस्था (interphase) तथा
  2. सूत्री विभाजन अवस्था (M-phase)।

अन्तरावस्था (Interphase):
इस अवस्था में कोशिका विभाजन के लिए तैयार होती है। इस समय कोशिका वृद्धि तथा D.N.A. द्विगुणन की क्रिया होती है। अन्तरावस्था दो क्रमिक एम-प्रावस्थाओं (M-phase) के मध्य की प्रावस्था को व्यक्त करता है।

अन्तरावस्था को तीन प्रावस्थाओं में विभाजित किया जाता है –

  1. पश्चसूत्री विभाजन अन्तरालकाल प्रावस्था (G1 phase)
  2. संश्लेषण प्रावस्था (S-phase)
  3. पूर्वसूत्री. विभाजन अन्तरालकाल प्रावस्था (G2 phase)

1. पश्चसूत्री विभाजन अन्तरालकाल प्रावस्था (G1 phase):
इस प्रावस्था में R.N.A. तथा प्रोटीन का संश्लेषण, D.N.A. संश्लेषण हेतु आवश्यक एन्जाइम्स का संश्लेषण एवं संग्रह होता है। इसमें कोशिका चक्र का लगभग 30-40% समय लगता है। G1 प्रावस्था के बाद कोशिका के दो विकल्प होते हैं। कोशिका S-phase में प्रवेश करती है अथवा G0 phase (शान्त प्रावस्था) में आ जाता है। G0 phase में कोशिका अविभाजित रहती है; जैसे-हृदय पेशियाँ, तन्त्रिका कोशिका आदि।

2. संश्लेषण प्रावस्था (S-phase or Phase of D.N.A. Synthesis):
इसमें D.N.A. का द्विगुणन होता है। प्रत्येक गुणसूत्र से दो अर्द्धगुणसूत्र (chromatids) बनते हैं। इसमें कोशिका चक्र का लगभग 30-50% समय लगता है।
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चित्र-कोशिका चक्र की विभिन्न प्रावस्थाएँ

3. पूर्वसूत्री विभाजन अन्तरालकाल प्रावस्था (G2 phase):
S-phase के पश्चात् यह प्रावस्था आती है। इसमे कोशिका विभाजन की की तैयारी करती है। इसमें कोशिकाचक्र का कुल 10-20% समय लगता है। कोशिका चक्र का नियमन साइक्लिन निर्भर प्रोटीन काइनेस (cyclin dependent protein kinase) एन्जाइम्स द्वारा होता है।

4. एम-प्रावस्था (Mitotic phase or M – phase):
यह G2 phase के पश्चात् आती है। इसमें केन्द्रक तथा कोशिकाद्रव्य का विभाजन होता है। इसमें कोशिकाद्रव्य का कुल 5-10% समय लगता है।

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प्रश्न 4.
कोशिका चक्र का G0 (प्रशान्त प्रावस्था) क्या है।
उत्तर:
G0 (प्रशान्त प्रावस्था-Quiescent phase) इसमें G1 phase के पश्चात् कोशिका S-phase में प्रवेश नहीं करती। कोशिका G1 phase से निष्क्रिय या प्रशान्त प्रावस्था में पहुँच जाती है। ऐसी कोशिका में कोशिका विभाजन नहीं होता, यद्यपि कोशिका उपापचयी रूप से सक्रिय होती है।

प्रश्न 5.
सूत्री विभाजन को समविभाजन क्यों कहते हैं?
उत्तर:
सूत्री विभाजन के फलस्वरूप बनी संतति कोशिकाओं में गुणसूत्रों की संख्या मातृ कोशिका के समान होती है। संतति कोशिकाएँ संरचना एवं लक्षणों में मातृकोशिका के समान होती हैं। इस कारण सूत्री विभाजन को समविभाजन कहते है।

प्रश्न 6.
कोशिका चक्र की उस अवस्था का नाम बताएँ, जिसमें निम्नलिखित घटनाएँ सम्पन्न होती हैं –

  1. गुणसूत्र तङ मध्य रेखा की तरफ गति करते हैं।
  2. गुणसूत्र बिन्दु का टूटना व अर्द्धगुणसूत्र का पृथक होना।
  3. समजात गुणसूत्रों का आपस में युग्मन होना।
  4. समजात गुणसूत्रों के बीच विनिमय का होना।

उत्तर:

  1. मध्यावस्था।
  2. पश्चावस्था।
  3. अर्द्धसूत्री प्रथम पूर्वावस्था की जाइगोटीन उपअवस्था।
  4. अर्द्धसूत्री प्रथम पूर्वावस्था की पैकीटीन उपअवस्था।

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प्रश्न 7.
निम्न के बारे में वर्णन कीजिए –

  1. सूत्रयुग्मन
  2. युगली
  3. काइऐज्मेटा।

उत्तर:
1. सूत्रयुग्मन (Synapsis):
अर्द्धसूत्री विभाजन की प्रथम पूर्वावस्था (Prophase-I) की युग्मपट्ट (zygotene) उपअवस्था में समजात गुणसूत्र (homologous chromosomes) जोड़े बनाते हैं। इसे सूत्रयुग्मन (synapsis) कहते हैं।

2. युगली (Bivalent):
अर्द्धसूत्री विभाजन की प्रथम पूर्वावस्था की युग्मपट्ट (zygotene) उपअवस्था में समजात गुणसूत्र जोड़े बनाते हैं। गुणसूत्रों के इन जोड़ों (pairs) को युगली गुणसूत्र (bivalent chromosomes) कहते हैं।

3. काइऐज्मेटा (Chiasmata):
अर्द्धसूत्री विभाजन की पूर्वावस्था प्रथम उपअवस्था द्विपट्ट (डिप्लोटीन-diplotene) में युग्मित गुणसूत्रों के अर्द्धगुणसूत्र कुछ स्थानों पर क्रॉस (Cross) बनाते हैं। इन स्थानों को काइऐज्मेटा (chiasmata) कहते हैं। इन स्थानों पर गुणसूत्रों के क्रोमैटिड्स टूटकर पुनः जुड़ते हैं। इस प्रक्रिया में समजात गुणसूत्रों के क्रोमैटिड्स परस्पर बदल जाते हैं। इसे पारगमन या विनिमय (crossing over) कहते हैं।

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प्रश्न 8.
पादप व प्राणी कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य विभाजन में क्या अन्तर है?
उत्तर:
पादप और प्राणी कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य विभाजन में अन्तर (Difference between Cytokinesis of Plant and Animal Cells):
पादप कोशिकाओं में कोशिकाद्रव्य विभाजन क्रिया में पुत्री केन्द्रकों के मध्य में गॉल्जीकाय के उत्पाद, कुछ कण तथा सूक्ष्म नलिकाएँ एकत्र होकर एक-दूसरे से जुड़ जाते हैं, इन्हें प्रैग्मोप्लास्ट (phragmoplast) कहते हैं।

इससे मध्य पटलिका (middle lamellae) का निर्माण होता है। मध्य पटलिका पर सेलुलोस की भित्ति बन जाने से मातृ कोशिका विभाजित होकर दो संतति कोशिकाओं का निर्माण करती है। जन्तु कोशिकाओं में पुत्री केन्द्रकों के मध्य भाग में प्लाज्मा कला के अन्तर्वलन (invagination) द्वारा कोशिकाद्रव्य का ‘बँटवारा हो जाता है और मातृ कोशिका दो संतति कोशिकाओं में बँट जाती है।

प्रश्न 9.
अर्द्धसूत्री विभाजन के बाद बनने वाली चार संतति कोशिकाएँ कहाँ आकार में समान और कहाँ भिन्न आकार की होती हैं?
उत्तर:
अर्द्धसूत्री विभाजन (Meiosis) द्वारा युग्मक निर्माण होता है। शुक्राणुजनन (spermatogenesis) में मातृ कोशिका के विभाजन से बनने वाली चारों पुत्री कोशिकाएँ समान होती हैं। ये शुक्रकायान्तरण द्वारा शुक्राणु का निर्माण करती हैं। शुक्रजनन में बनने वाली चारों सतति कोशिकाएँ आकार में समान होती हैं। अण्डजनन (oogenesis) में मातृ कोशिका से बनने वाली संतति कोशिकाएँ आकार में भिन्न होती हैं।

अण्डजनन के फलस्वरूप एक अण्डाणु तथा पोलर कोशिकाएँ बनती हैं। पोलर कोशिकाएँ आकार में छोटी होती हैं। पौधों के बीजाण्ड में गुरुबीजाणुजनन (अर्द्धसूत्री विभाजन) के फलस्वरूप गुरुबीजाणु, से चार कोशिकाएँ बनती हैं। इनमें आधारीय कोशिका अन्य कोशिकाओं से भिन्न होती हैं। यह वृद्धि और विभाजन द्वारा भ्रूणकोष (embryo sac) बनाता है। पौधों में लघु-बीजाणु जनन द्वारा लघु बीजाणु या परागकण बनते हैं। ये आकार में समान होते हैं।

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प्रश्न 10.
सूत्री विभाजन की पश्चावस्ता, अर्द्धसूत्री विभाजन की पश्चावस्था I में क्या अन्तर है?
उत्तर:
सूत्री विभाजन तथा अर्द्धसूत्री विभाजन की पश्चावस्था I में अन्तर (Difference between the Anaphase Stage of Mitosis and Meiosis 1):
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प्रश्न 11.
सूत्री एवं अर्द्ध सूत्री विभाजन में प्रमुख अन्तरों को सूचीबद्ध कीजिए।
उत्तर:
समसूत्री तथा अर्द्धसूत्री विभाजन में अन्तर:
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प्रश्न 12.
अर्द्धसूत्री विभाजन का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
अर्द्धसूत्री विभाजन का महत्त्व

  1. अर्द्धसूत्री विभाजन के कारण पीढ़ी पर पीढ़ी गुणसूत्रों की संख्या निश्चित बनी रहती है।
  2. गुणसूत्रों में विनिमय के कारण गुणसूत्रों की संरचना एवं जीवधारी के लक्षणों में विभिन्नता आ जाती है।
  3. युग्मक के अनियमित रूप से मिलने के कारण गुणसूत्रों के नये संयोग बनते हैं। इससे नये-नये लक्षणों का विकास होता है। ये भिन्नतायें जैव विकास का आधार मानी जाती हैं।

प्रश्न 13.
अपने शिक्षक के साथ निम्नलिखित के बारे में चर्चा कीजिए –

  1. अगुणित कीटों व निम्न श्रेणी के पादपों में कोशिका विभाजन कहाँ सम्पन्न होता है?
  2. उच्च श्रेणी पादपों की कुछ अगुणित कोशिकाओं में कोशिका विभाजन कहाँ नहीं होता है?

उत्तर:
1. नर मधुमक्खियाँ अर्थात् ड्रोन्स (drones) अगुणित होते हैं। इनमें सूत्री विभाजन अनिषेचित अगुणित अण्डों में होता है। निम्न श्रेणी के पादपों; जैसे-एककोशिकीय क्लैमाइडोमोनास (chlamydomonas), बहुकोशिकीय यूलोथ्रिक्स (Ulothrix) आदि में समसूत्री विभाजन द्वारा जनन होता है। इनमें अगुणित युग्मक बनते हैं। युग्मकों के परस्पर मिलने से युग्माणु (zygote) बनते हैं। जाइगोट में अर्द्धसूत्री विभाजन होता है। इसके फलस्वरूप बने अगुणित बीजाणु समसूत्री विभाजन द्वारा नए पादपों का विकास करते हैं।

2. उच्च श्रेणी के पादपों में द्विगुणित बीजाण्डकाय में गुरुबीजाणु मातृ कोशिका में अर्द्धसूत्री विभाजन के कारण चार अगुणित गुरुबीजाणु बनते हैं। इनमें से तीन में कोशिका विभाजन नहीं होता। सक्रिय गुरुबीजाणु से भ्रूणकोष (embryo sac) बनता है। भ्रूणकोष की अगुणित प्रतिमुख कोशिकाओं (antipodal cells) तथा सहायक कोशिकाओं (synergids) में कोशिका विभाजन नहीं होता। साइकस के लघुबीजाणुओं (परागकण) के अंकुरण के फलस्वरूप नर युग्मकोद्भिद् बनता है। इसकी प्रोथैलियल chilfgrat (prothallial cell) an africht alleicht (tubecell) में कोशिका विभाजन नहीं होता।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 10 कोशिका चक्र और कोशिका विभाजन

प्रश्न 14.
क्या S प्रावस्था में बिना डी० एन० ए० प्रतिकृति के सूत्री विभाजन हो सकता है?
उत्तर:
‘S’ प्रावस्था में D.N.A. की प्रतिकृति के बिना सूत्री विभाजन नहीं हो सकता।

प्रश्न 15.
क्या बिना कोशिका विभाजन के डी० एन० ए० प्रतिकृति हो सकती है?
उत्तर:
कोशिका विभाजन के बिना भी D.N.A. प्रतिकृति हो सकती है। सामान्यतया D.N.A. से R.N.A. का निर्माण प्रतिकृति के फलस्वरूप ही होता रहता है।

प्रश्न 16.
कोशिका विभाजन की प्रत्येक अवस्थाओं के दौरान होने वाली घटनाओं का विश्लेषण कीजिए और ध्यान दीजिए कि निम्नलिखित दो प्राचलों में कैसे परिवर्तन होता है?

  1. प्रत्येक कोशिका की गुणसूत्र संख्या (N)
  2. प्रत्येक कोशिका में डी० एन० ए० की मात्रा (C)।

उत्तर:
अन्तरावस्था की G1 प्रावस्था में कोशिका उपापचयी रूप से सक्रिय होती है। इसमें निरन्तर वृद्धि होती रहती है। S-प्रावस्था में D.N.A. की प्रतिकृति होती है। इसके फलस्वरूप D.N.A. की मात्रा दोगुनी हो जाती है। यदि D.N.A. की प्रारम्भिक मात्रा 2C से प्रदर्शित करें तो इसकी मात्रा 4C हो जाती है, जबकि गुणसूत्रों की संख्या में कोई परिवर्तन नहीं होता।

यदि G, प्रावस्था में गुणसूत्रों की संख्या 2N है तो G2 प्रावस्था में भी इनकी संख्या 2N रहती है। अर्द्धसूत्री विभाजन की पूर्वावस्था प्रथम की युग्मपट्ट (जाइगोटीन) अवस्था में समजात गुणसूत्र जोड़े बनाते हैं। पश्चावस्था प्रथम में गुणसूत्रों का बँटवारा होता है। यदि गुणसूत्रों की संख्या 2N है तो अर्द्धसूत्री विभाजन के पश्चात् गुणसूत्रों की संख्या N रह जाती है। जननांगों (2N) में युग्मकजनन अर्द्धसूत्री विभाजन के फलस्वरूप होता है। इसके फलस्वरूप युग्मकों में गुणसूत्रों की संख्या घटकर अगुणित (आधी-N) रह जाती है।

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 9 जैव अणु

Bihar Board Class 11 Biology Solutions Chapter 9 जैव अणु Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

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Bihar Board Class 11 Biology जैव अणु Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
वृहत् अणु क्या है? उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
वृहत् अणु (Macromolecules):
जीव ऊतक (जैसे – यकृत या सब्जी आदि) को ड्राइक्लोरोऐसीटिक अम्ल के साथ पीसकर जो गाढ़ा तरल (slurry) प्राप्त होता है, उसे कपड़े में रखकर निचोड़ लेते हैं। अम्ल में घुलनशील निस्यंद (filtrate) में जैव अणु (biomolecules) तथा अम्ल अविलेय अंश में वृहत् अणु (macromolecules) पाए जाते हैं; जैसेपॉलीसैकेराइड्स (polysaccharides), प्रोटीन्स (proteins), न्यूक्लीक अम्ल (nucleic acids)। वृहत् अणु बहुलक (polymers) होते हैं। इनका अणुभार बहुत अधिक (दस हजार डाल्टन या अधिक) होता है। लिपिड्स का अणुभार 800 डाल्टन से अधिक नहीं होता; अतः ये वृहत् अणु नहीं कहलाते।

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प्रश्न 2.
ग्लाइकोसिडिक, पेप्टाइड तथा फॉस्फोडाइएस्टर बन्धों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ग्लाइकोसिडिक बन्ध (Glycosidic Bonds):
अनेक मोनोसैकेराइड अणु परस्पर ग्लाइकोसिडिक बन्ध से जुड़कर पॉलीसैकेराइड्स बनाते हैं। ग्लाइकोसिडिक बन्ध दो समीपवर्ती मोनोसैकेराइड के मध्य बनता है। यह क्रिया संघनन (condensation) एवं निर्जलीकरण (dehydration) के फलस्वरूप होती है। ग्लाइकोसिडिक बन्ध उत्क्रमणीय होता है, अर्थात् जल अपघटन (hydrolysis) द्वारा जुड़े अणु पृथक् हो जाते हैं।

पेप्टाइड बन्ध (Peptide Bond):
प्रोटीन्स ऐमीनो अम्लो के बहुलक हैं। प्रोटीन अणु में बहुत-से ऐमीनो अम्ल पेप्टाइड बन्ध (peptide bonds) द्वारा जुड़े रहते हैं। एक ऐमीनो अम्ल का कार्बोक्सिल समूह (-COOH) दूसरे ऐमीनो अम्ल के ऐमीनो समूह (-NH2) से पेप्टाइड बन्ध द्वारा जुड़ा रहता है। यह क्रिया निर्जलीकरण के फलस्वरूप होती है और जल अणु मुक्त होता हैं।

फॉस्फोडाइएस्टर बन्ध (Phosphodiester Bonds):
न्यूक्लीक अम्ल के न्यूक्लिओटाइड्स (nucleotides) फॉस्फोडाइएस्टर बन्धों (phosphodiester bonds) द्वारा एक-दूसरे से संयोजित होकर पॉलीन्यूक्लियोटाइड श्रृंखला बनाते हैं। फॉस्फोडाइएस्टर बन्ध समीपवर्ती दो न्यूक्लियोटाइड्स के फॉस्फेट अणुओं के मध्य बनता है। D.N.A. की दोनों पॉलीन्यूक्लियोटाइड शृंखलाओं के नाइट्रोजन क्षारक हाइड्रोजन बन्धों द्वारा जुड़े होते हैं।

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प्रश्न 3.
प्रोटीन की तृतीयक संरचना से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्रोटीन की तृतीयक संरचना (Tertiary Structure of Protein):
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चित्र – एक कल्पित प्रोटीन अणु की तृतीयक संरचना।

पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला में त्रिविमीय वलन (three dimensional folding) से बनी सघन गोलाकार आकृतियाँ प्रोटीन की तृतीयक संरचना को प्रदर्शित करती हैं। यह संरचना ग्लोबुलर प्रोटीन्स (globular proteins) में पाई जाती है। इसमें द्वितीयक संरचना वाली लहरदार या α – कुण्डलिनी श्रृंखलाओं का पुन: कुण्डलन एवं वलन होता है।

ये वलन पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला में दूर-दूर स्थित ऐमीनो अम्लों के R – समूहों (पार्श्व शृंखलाओं) के बीच में तथा पास-पास आने और मुड़ने से बनते हैं इसके फलस्वरूप ऐमीनो अम्लों के अध्रुवीय जलविरागी (hydrophobic) R – समूह प्रोटीन अणु के अन्दर की ओर छुप जाते हैं तथा जलस्नेही (hydrophilic) ऐमीनो (NH2) समूह प्रोटीन अणु की सतह पर आ जाते हैं।

प्रोटीन के सक्रिय भाग भी सतह पर आ जाते हैं। प्रोटीन अणु के सक्रिय क्षेत्रों को डोमेन (domaiii) कहते हैं। त्रिविन संरचना वाली पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला के ऐमीनो अम्लों के R-समहों के मध्य हाइड्रोजन बन्ध, आयनिक बन्ध, कोवैलेन्ट बन्ध (hydrogen, ionic and covalent bonds) आदि पाए जाते हैं। ये प्रोटीन अणु की संरचना को स्थिरता प्रदान करते हैं।

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प्रश्न 4.
10 ऐसे रुचिकर सूक्ष्म जैव अणुओं का पता लगाइए जो कम अणुभार वाले होते हैं व इनकी संरचना बनाइए। ऐसे उद्योगों का पता लगाइए जो इन यौगिकों का निर्माण विलगन द्वारा करते हैं? इनको खरीदने वाले कौन हैं? मालूम कीजिए।
उत्तर:
सूक्ष्म जैव अणु (Micro Biological Molecules):
जीवधारियों में पाए जाने वाले सभी कार्बनिक यौगिकों को जैव अणु कहते हैं।

  1. कार्बोहाइड्रेट्स (Carbohydrates); जैसे – ग्लूकोस, फ्रक्टोस, राइबोस, डिऑक्सीराबोस शर्करा, माल्टोस आदि।
  2. वसा व तेल (Fat & Oils) – पामिटिक अम्ल, ग्लिसरॉल, ट्राइग्लिसराइड, फॉस्फोलिपिड्स, कोलेस्टेरॉल आदि।
  3. ऐमीनो अम्ल (Amino Acids) – ग्लाइसीन, ऐलेनीन, सीरीन आदि।
  4. नाइट्रोजन क्षारक (Nitrogenous Base) – ऐडेनीन (adenine), ग्वानीन (guanine), थायमीन (thymine), यूरेसिल (uracil), सायटोसीन (cytosine) आदि।

जीव ऊतकों में पाये जाने वाले कम अणुभार के कार्बनिक यौगिकों की संरचनाएँ:
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शर्करा (कार्बोहाइड्रेट्स)
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ऐमीनो अम्ल
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ट्राइग्लिसराइड R2, R2 व R3
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फॉस्फोलिपिड (लेसीथीन)
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वसा व तेल (लिपिड्स)
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शर्करा उद्योग, तेल एवं घी उद्योग, औषधि उद्योग आदि इनका निर्माण करते हैं। मनुष्य इनका उपयोग अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करता है।

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प्रश्न 5.
प्रोटीन में प्राथमिक संरचना होती है, यदि आपको जानने हेतु ऐसी विधि दी गई है जिसमें प्रोटीन के दोनों किनारों पर ऐमीनो अम्ल है तो क्या आप इस सूचना को प्रोटीन की शुद्धता अथवा समांगता (homogeneity) से जोड़ सकते हैं?
उत्तर:
प्रोटीन्स की पॉलीपेप्टाइड श्रृंखलाएँ लम्बी व रेखाकार होती हैं। प्रोटीन कुण्डलन एवं वलन द्वारा विभिन्न प्रकार की आकृति धारण करती है। इन्हें प्रोटीन्स के प्राकृत संरूपण (native conformation) कहते हैं। प्रोटीन के प्राकृत संरूपण चार स्तर के होते हैं – प्राथमिक, द्वितीयक, तृतीयक एवं चतुष्क स्तर। पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला में पेप्टाइड बन्धों द्वारा जुड़े ऐमीनो अम्लों के अनुक्रम प्रोटीन की संरचना का प्राथमिक स्तर प्रदर्शित करते हैं। प्रोटीन से ऐमीनो अम्लों का अनुक्रम इसके जैविक। प्रकार्य का निर्धारण करता है।
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चित्र – कल्पित प्रोटीन के अंश की प्राथमिक संरचना N व C प्रोटीन के दो सिरों को प्रकट करता है। ऐमीनो अम्ल का एकल अक्षरीय कूट तथा 3-अक्षरीय कूट दर्शाया गया है।

पॉलीपेप्टाइड श्रृंखला के एक सिर पर प्रथम ऐमीनो अम्ल का खुला ऐमीनो समूह तथा दूसरे सिरे पर अन्तिम ऐमीनो अम्ल का खुला कार्बोक्सिल समूह (carboxyl group) होता है। अतः इन सिरों को क्रमश: N – छोर तथा C – छोर कहते हैं। इससे प्रोटीन की शुद्धता या समांगता प्रदर्शित होती है।

प्रश्न 6.
चिकित्सार्थ अभिकर्ता (therapeutic agents) के रूप में प्रयोग में आने वाले प्रोटीन का पता लगाइए व सूचीबद्ध कीजिए। प्रोटीन की अन्य उपयोगिताओं को बताइए। (जैसे-सौन्दर्य प्रसाधन आदि)।
उत्तर:
कुछ प्रोटीन्स विषाक्त (toxic) होते हैं; जैसे – रोगजनक जीवाणुओं के प्रोटीन्स, सर्पविष का प्रोटीन, कपास के बीज में पाए जाने वाला प्रोटीन (Gossypiun) रेंडी के बीज का प्रोटीन (ricin) आदि। इन प्रोटीन्स का उपयोग औषधियों के रूप में रोगों के उपचार हेतु किया जाता है।

प्रोटीन्स के अन्य उपयोग (Other Uses of Proteins):

  1. पोषक प्रोटीन्स: दूध का केसीन (casein), पक्षी के अण्डों का ऐल्बुमिन (albumin), अनाज; जैसे – गेहूँ का ग्लूटेलिन, मक्का का जाइन्स (zeins), मटर का फैसिओलिन (phaseolin) प्रोटीन आदि पोषक प्रोटीन हैं।
  2. रेशम कीट की फाइब्रोइन प्रोटीन सूखकर रेशम धागे का निर्माण करता है।
  3. कुछ पौधों द्वारा निर्मित मोनेलिन (monellin) अत्यन्त मीठा होता है। इसका उपयोग मधुमेह रोगियों के लिए कृत्रिम शर्करा के रूप में किया जाता है।
  4. शीतल जल में रहने वाली मछलियों में रुधिर को जमने. से रोकने के लिए प्रतिहिम प्रोटीन (antifreeze protein) पाया जाता है। इसका उपयोग ट्रान्सजेनिक जन्तु एवं पादपों के लिए किया जा रहा है।

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प्रश्न 7.
ट्राइग्लिसराइड के संघटन का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ट्राइग्लिसराइड (Triglyceride):
ग्लिसरॉल (glycerol) का एक अणु वसीय अम्लों (fatty acids) के तीन अणुओं से क्रिया करके वसा का एक अणु बनाता है। ग्लिसरॉल तथा वसा अम्ल अणुओं के बीच सहसंयोजन बन्धों को एस्टर बन्ध (ester bonds) कहते है।

ग्लिसरॉल एक ट्राइहाइड्रिक ऐल्कोहॉल है जिसकी कार्बन शृंखला के तीनों कार्बन परमाणुओं से एक-एक हाइड्रॉक्सिल समूह (-OHgroup) जुड़ा होता है। इसी कारण वसा अणु को ट्राइग्लिसराइड (triglyceride) कहते हैं। यह क्रिया निर्जलीकरण-संघनन संश्लेषण (dehydrationcondensationsynthesis) द्वारा होती है। ट्राइग्लिसराइड अणु के तीनों वसा अम्ल समान या असमान हो सकते हैं।
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ट्राइग्लिसराइड (R1, R2 व R3 वसीय अम्ल हैं।)

प्रश्न 8.
क्या आप प्रोटीन की अवधारणा के आधार पर वर्णन कर सकते हैं कि दूध का दही अथवा योगर्ट में परिवर्तन किस प्रकार होता है?
उत्तर:
दूध की विलेय प्रोटीन केसीनोजन (caseinogen) की अविलेय केसीन (casein) में बदलने का कार्य रेनिन (rennin) एन्जाइम तथा स्ट्रेप्टोकोकस जीवाणु करते हैं। ये किण्वन द्वारा दूध को दही या योगर्ट में बदल देते हैं; क्योंकि केसीनोजन प्रोटीन अवक्षेपित हो जाती है।

प्रश्न 9.
क्या आप व्यापारिक दृष्टि से उपलब्ध परमाणु मॉडल (बॉल व स्टिक नमूना) का प्रयोग करते हुए जैव अणुओं के उन प्रारूपों को बना सकते हैं?
उत्तर:
बॉल व स्टिक नमूना (Ball and Stick Model) के द्वारा जैव अणुओं के प्रारूपों को प्रदर्शित किया जा सकता है।

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प्रश्न 10.
ऐमीनो अम्लों को दुर्बल क्षार से अनुमापन (titrate) कर, ऐमीनो अम्ल में वियोजी क्रियात्मक समूहों का पता लगाने का प्रयास कीजिए।
उत्तर:
ऐमीनो अम्लों का दुर्बल क्षार से अनुमापन करने से कार्बोक्सिल समूह (-COOH) तथा ऐमीनो समूह (-NH2) पृथक हो जाते हैं।

प्रश्न 11.
ऐलैनीन ऐमीनो अम्ल की संरचना बताइए।
उत्तर:
ऐलैनीन एमीनो अम्ल एक उदासीन अम्ल है जिसका निर्माण एक एमीनो समूह तथा कार्बोक्सिल समूह से होता है।
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एमीनो अम्ल

प्रश्न 12.
गोंद किससे बने होते हैं? क्या फेविकोल इससे भिन्न है?
उत्तर:
गोंद (Gum):
यह एक द्वितीयक उपापचयज (secondary metabolite) है। यह एक कार्बोहाइड्रेट बहुलक, (polymer) है। गोंद पौधों की काष्ठ वाहिकाओं (xylem vessels) से प्राप्त होने वाला उत्पाद है। यह कार्बनिक घोलक में अघुलनशील होता है। गोंद जल के साथ चिपचिपा घोल (sticky solution) बनाता है। फेविकोल (fevicol) एक कृत्रिम औद्योगिक उत्पाद है।

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प्रश्न 13.
प्रोटीन, वसा व तेल, ऐमीनो अम्लों का विश्लेषणात्मक परीक्षण बताइए एवं किसी भी फल के रस, लार, पसीना तथा मूत्र में इनका परीक्षण कीजिए?
उत्तर:
प्रोटीन एवं अमीनो अम्ल का परीक्षण (Protein and Amino Acid Test):
प्रोटीन के वृहत् अणु (macromolecules) ऐमीनो अम्लों की लम्बी श्रृंखलाएँ होते हैं। ऐमीनो अम्ल पेप्टाइड बन्धों द्वारा जुड़े रहते हैं। इनका आण्विक भार बहुत अधिक होता है। अण्डे की सफेदी, सोयाबीन, दालों (मटर, राजमा आदि) में प्रोटीन (ऐमीनो अम्ल) प्रचुर मात्रा में पाई जाती है। अण्डे की सफेदी या दालों (सेम, चना, मटर, राजमा) आदि को जल के साथ पोरकर पतली लुगदी बना लेते हैं। इसे जल के साथ उबाल कर छान लेते हैं। निस्वंद द्रव में प्रोटीन (ऐमीनो अम्ल) होती है।

प्रयोग 1:
एक परखनली में 3 मिली प्रोटीन निस्यंद लेकर, इसमें 1 मिली सान्द्र नाइट्रिक अम्ल (HNO3) मिलाइए। सफेद अवक्षेप बनता है। परखनली को गर्म करने पर अवक्षेप घुल जाता है तथा विलयन का रंग पीला हो जाता है। अब इसे ठण्डा करके इसमें 10% सोडियम हाइड्रॉक्साइड (NaOH) विलयन मिलाते हैं। परखनली में विलयन का रंग पीले से नारंगी हो जाता है।

प्रयोग 2:
एक परखनली में प्रोटीन निस्यंद की 1 मिली मात्रा लेकर इसमें लगभग 1 मिली मिलन अभिकर्मक (Millon’s Reagent) मिलाने पर हल्के पीले रंग का अवक्षेप बनता है। इस अवक्षेप में 4-5 बूँदे सोडियम नाइट्रेट (NaNO3) की मिलाकर विलयन को गर्म करने पर अवक्षेप का रंग लाल हो जाता है।

वसा व तेल का परीक्षण (Fat and Oil Test):
ये जल में अविलेय और ईथर, पेट्रोल, क्लोरोफार्म आदि में घलनशील (विलेय) होती है। साधारण ताए पर जब वसाएँ ठोस होती हैं तो वसा (चर्बी – Fat) और जब ये तरल होती है तो तेल (oil) कहलाती है। पादप वस्साएँ असंतृप्त (नारियल का तेल तथा ताड़ का तेल संतृप्त) तथा जन्तु वसाएँ संतृप्त होती हैं।

प्रयोग 1:
मूंगफली के कच्चे दाने लेकर उनको सफेद कागज पर रखकर पीस लीजिए। अब इस कागज के टुकड़े को प्रकाश के किसी स्रोत की ओर रखकर देखिए। यह अल्पपारदर्शी नजर आता है। इस पर एक बूंद पानी डालकर देखिए। कागज पर पानी का प्रभाव नहीं होता। यह प्रयोग जन्तु वसा (देशी घी) के साथ भी किया जा सकता है।

प्रयोग 2:
एक परखनली में 0.5 मिली परीक्षण तेल या वसा तथा 0.5 मिली जल (दोनों बराबर मात्रा में) लेते है। अब इसमें 2-3 बूंदे सुडान – III विलयन की डालकर हिलाते हैं तथा पाँच मिनट तक ऐसे ही रख देते हैं। परखनली में जल तथा तेल की पृथक् पतों में, तेल की पर्त लाल नजर आती है। नोट-फल के रस, लार, पसीना तथा मूत्र में इनका परीक्षण उपर्युक्त विधियों द्वारा किया जा सकता है।

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प्रश्न 14.
पता लगाइए कि जैवमण्डल में सभी पादपों द्वारा कितने सेलुलोस का निर्माण होता है? इसकी तुलना मनुष्यों द्वारा उत्पादित कागज से करें। मानव द्वारा प्रतिवर्ष पादप पदार्थों की कितनी खपत की जाती है? इसमें वनस्पतियों की कितनी हानि होती है?
उत्तर:
सेलुलोस (cellulose) पृथ्वी पर सबसे अधिक मात्रा में पाए जाने वाला कार्बोहाइड्रेट है। यह जटिल बहुलक होता है। पादपों में सेलुलोस की मात्रा सर्वाधिक होती है। यह पादप कोशिकाओं की कोशिका भित्ति को यान्त्रिक दृढ़ता प्रदान करता है। पौधों के काष्ठीय भागों व कपास तथा रेशेदार पौधों में इसकी मात्रा बहुत अधिक होती है। काष्ठ में लगभग 50% तथा कपास के रेशे में इसकी मात्रा लगभग 90% होती है। मनुष्य द्वारा सेलुलोस का उपयोग ईधन तथा इमारती लकड़ी के रूप में, तन्तुओं के रूप में वस्त्र निर्माण, कृत्रिम रेशे निर्माण, कागज निर्माण में प्रमुखता से किया जाता है।

नाइट्रोसेलुलोस का उपयोग विस्फोटक पदार्थ के रूप में किया जाता है। इसका उपयोग पारदर्शी प्लास्टिक सेलुलॉयड (celluloid) बनाने के लिए किया जाता है जिससे खिलौने, कंघे आदि बनाए जाते हैं। मनुष्य सेलुलोस का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। मनुष्य अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनस्पतियों को हानि पहुँचा रहा है। इसके फलस्वरूप प्राकृतिक वन क्षेत्रों में निरन्तर कमी होतो जा रही है। पारितन्त्र के प्रभावित होने के कारण अनेक पादप प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं।

प्रश्न 15.
एन्जाइम के महत्त्वपूर्ण गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एन्जाइम्स की विशेषताएँ (गण) (Characteristics of Enzymes):
एन्जाइम्स के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं –

  1. एन्जाइम्स कोलॉइडी प्रोटीन्स होते हैं। ये जल, नमक के घोल तथा ग्लिसरीन में विलेय होते हैं।
  2. एन्जाइम्स का कार्य-क्षेत्र अति विशिष्ट होता है। सामान्यतया एक एन्जाइम एक प्रतिक्रिया को ही उत्प्रेरित करता हैं।
  3. एन्जाइम्स 25-35°C पर सर्वाधिक क्रियाशील होते हैं। 60°C से अधिक ताप पर ये नष्ट हो जाते हैं। 0°C ताप पर ये निष्क्रिय हो जाते हैं।
  4. इनकी कार्य-क्षमता अत्यधिक होती है। ये प्रति मिनट लाखों अणुओं को उत्प्रेरित कर सकते हैं।
  5. एन्जाइम्स की सूक्ष्म मात्रा ही क्रिया को प्रेरित कर देती हैं।
  6. एन्जाइम्स की क्रियाशीलता pH मान से प्रभावित होती है। pH मान की अधिकता या कमी इनकी कार्य-क्षमता को प्रभावित या नष्ट कर देती है।
  7. एन्जाइम नष्ट नहीं होते। एन्जाइम क्रिया के पश्चात् जैसे के तैसे बच जाते हैं।
  8. एन्जाइम्स सहकारक (cofactor) की उपस्थिति में क्रियाशील होते हैं। सहकारक प्रोस्थैटिक समूह (prosthetic group), सहएन्जाइम (coenzyme) या अकार्बनिक आयन (inorganic ions) होते हैं।
  9. एन्जाइम की क्रियाएँ प्रायः शृंखलाबद्ध होती हैं। एक एन्जाइम क्रिया का उत्पाद (product) दूसरे एन्जाइम के लिए क्रियाधार (substrate) का कार्य करता है।
  10. एन्जाइम सामान्यतया जल-अपघटन (hydrolysis), कार्बोक्सिलीकरण (decarboxylation), ऑक्सीकरण व अवकरण (oxidation and reduction) आदि रासायनिक क्रियाओं को प्रेरित करते हैं।

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पा (पिव् ) (पीना) परस्मैपदी धातु 

लट् लकार (वर्तमान काल)

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लोट् लकार (अनुज्ञा)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 2

लृट् लकार (भविष्यत् काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 3

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि

लङ् लकार (भूतकाल)

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विधिलिङ् (औचित्य)

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भू (भव) (होना) परस्मैपदी

लट् लकार (वर्तमान काल)

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लोट् लकार (अनुज्ञा)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 7

लङ् लकार (भूतकाल)

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Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि

विधिलिङ् (औचित्य)

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पद् (पढ़ना) परस्मैपदी ।

लट् लकार (वर्तमान काल)

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लोट् लकार (अनुज्ञा)

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लोट् लकार (अनुज्ञा)

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लङ् लकार (भूतकाल)

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विधिलिङ् (औचित्य)

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गम् (गच्छ) (जाना) परस्मैपदी

लट् लकार (वर्तमान काल)

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लोट् लकार (अनुज्ञा)

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लृट् लकार (भविष्यत काल)

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लङ् लकार (भूतकाल)

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विधिलिङ् (औचित्य)

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दृश् ( पश्य ) (देखना) परस्मैपदी

लट् लकार (वर्तमान काल)

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लोट् लकार (अनुज्ञा)

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लृट् लकार (भविष्यत काल)

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लङ् लकार (भूतकाल)

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विधिलिङ् (औचित्य)

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अस् (होना) परस्मैपदी

लट् लकार (वर्तमान काल)

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लोट् लकार (अनुज्ञा)

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लृट् लकार (भविष्यत् काल)

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लङ् लकार (भूतकाल)

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विधिलिङ् (औचित्य)

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हन् (मारना) परस्मैपदी

लट् लकार (वर्तमान काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 31

लोट् लकार (अनुज्ञा)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 32

लट् लकार (भविष्यत् काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 33

लङ् लकार (भूतकाल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 34

विधिलिङ् (औचित्य)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 35

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि

कृ (करना) (उभयपदी)

लट् लकार (वर्तमान काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 36

लोट् लकार (अनुज्ञा)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 37

लुट् लकार (भविष्यत काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 38

लङ् लकार (भूतकाल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 39

विधिलिङ् (औचित्य)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 40

ब्रू (कहना) परस्मैपद

लट् लकार (वर्तमान काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 41

लोट् लकार (अनुज्ञा)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 42

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि

लुट् लकार (भविष्यत् काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 43

लङ् लकार (भूतकाल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 44

विधिलिङ् (औचित्य)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 45

दा धातु (परस्मैपद)

लट् लकार (वर्तमान काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 46

लोट् लकार (अनुज्ञा)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 47

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि

लृट् लकार (भविष्यत् काल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 48

लङ् लकार (भूतकाल)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 49

विधिलिङ लकार (चाहिए अर्थ)

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण धातु-रूपाणि 50

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण कारक

Bihar Board Class 7 Sanskrit Solutions व्याकरण कारक

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण कारक

किसी क्रिया के साथ जिसका प्रत्यक्ष संबंध होता है, उसे ‘कारक’ कहते हैं । ‘कारक’ के छह भेद होते हैं- कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान एवं अधिकरण । ‘क्रिया’ के साथ प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं रहने के कारण संस्कृत भाषा में ‘सम्बन्ध’ और ‘सम्बोधन’ कारक नहीं कहलाते हैं । इन्हें मात्र ‘विभक्ति’ माना जाता है, जबकि उपर्युक्त छह को कारक-विभक्ति । हिन्दी भाषा में इन आठों को ही ‘कारक’ माना जाता है ।

आगे की पंक्तियों में इन सभी कारकों पर अलग-अलग संक्षेप में सोदाहरण विचार किया जाता है ।

कर्ता कारक

किसी ‘क्रिया’ को करने वाले को ‘कर्ता कारक’ कहा जाता है। कर्तवाच्य और कर्मवाच्य, दोनों में ही कर्ता-पद प्रधान होता है । कर्तवाच्य में कर्ता-पद प्रधान होता है और कर्म-पद गौण । कर्मवाच्य में कर्ता-पद गौण होता है और कर्मपद प्रधान । उदाहरण के लिए नीचे के वाक्यों को देखा जा सकता है

  • कर्तवाच्य – रामः फलम् खादति । (राम फल खाता है ।)
  • कर्तृवाच्य- रामेण फलम् खाद्यते । (राम द्वारा फल खाया जाता है ।)

कर्तृवाच्य के कर्ताकारक में प्रथमा विभक्ति होती है । यथा-बालक: खादति । (बालक खाता है ।) यहाँ ‘खादति’ क्रिया का सम्पादक ‘बालक’ है, इसलिए ‘बालक’ कर्ता हुआ और उसमें प्रथमा विभक्ति हुई। ऐसे ही-सीता पठति, रमा गच्छति आदि में समझना चाहिए । सम्बोधन में भी प्रथमा विभक्ति होती है । यथा- हे बालक । (हे बालक) अयि सीते (हे सीते) । अरे बालकाः (ओ लड़के) इत्यादि ।

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‘कर्ता कारक’ के वाक्यों के अन्य उदाहरण हैं –

  1. बालकः क्रीडति । (लड़का खेलता है।)
  2. मयूरः नृत्यति । (मोर नाचता है ।)
  3. नदी प्रवहति । (नदी बहता है ।)
  4. धेनुः रचति । (गाय चरती है।)
  5. फलम् पतति । (फल गिरता है ।)
  6. पत्रम् तरति । (पत्ता तैरता है।)

करण कारक

कोई क्रिया करने में जो अत्यन्त सहायक हो, उसे ‘करण कारक’ कहते हैं। ‘करण-कारक’ में तृतीया विभक्ति होती है । यथा- रामः लगडेन ताडयति । (राम पैने से मारता है ।) यहाँ ‘ताडयति’ क्रिया का अत्यन्त सहायक . ‘लगुड’ (पैना) है, इसीलिए यह करण कारक हुआ और इसमें तृतीया विभक्ति

‘सह’, ‘साकम्’, ‘सार्द्धम्’ (साथ) जैसे शब्दों में योग में भी तृतीया विभक्ति होती है । यथा- भ्रात्रा सह सोहनः आगच्छति (भाई के साथ सोहन आता है ।) त्वया साकं गीता गमिष्यति’। (तुम्हारे साथ गीता जायेगी ।) यहाँ ‘सह’ का योग रहने के कारण ‘भ्राता’ और ‘त्वया’ में तृतीया विभक्ति हुई है।

‘करण कारक’ के अन्य उदाहरण:लेखक:

  1. लेखन्या पत्रं लिखति । (लेखक कलम से चिट्ठी लिखता है।)
  2. रवीन्द्रः नयनाभ्यां चन्द्रं पश्यति । (रवीन्द्र आँखों से चन्द्रमा को देखता है।)
  3. अश्वः पादैः चलति । (घोड़ा पैरों से चलता है ।)
  4. त्वं कर्णाभ्यां शृणोषि । (तुम कानों से सुनते हैं ।)
  5. भवान् कराभ्यां गृह्णाति । (आप हाथों से ग्रहण करते हैं ।)
  6. सः शस्त्रेण छिन्दति । (वह शस्त्र से काटता है।)

सम्प्रदान कारक

जिस व्यक्ति को कुछ दिया जाय, उसे ‘सम्प्रदान’ कहते हैं । सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा- विप्राय गां देहि (ब्राह्मण को गाय दो ।) यहाँ ‘ब्राह्मण’ (व्यक्ति) को कुछ (गाय) दिया रहा है।

अत: इसमें चतुर्थी विभक्ति हुई है।

नमः स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा आदि के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है; जैसे

  • श्री महादेवाय नमः । (महादेव जी को प्रणाम है ।)
  • अग्नये स्वाहा । (अग्निदेव को समिधा स्वीकार हो ।)

सम्प्रदान कारक के अन्य उदाहरण:-

  1. बालकाय मोदकं देहि । – (लडके को लड्डू दो ।)
  2. भिक्षुकाय अन्नं देहि । (भिक्षुक को अन्न दो ।)
  3. दरिद्राय धनं देहि । (दरिद्र को धन दो.)
  4. श्रीहरये नमः (श्रीहरि को नमस्कार है।)
  5. सोमाय स्वाहा । (सोम देवता को समिधा स्वीकार हो ।)
  6. विवादाय अलम् । (विवाद करना बेकार है ।)

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अपादान कारक

जहाँ व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि को किसी व्यक्ति, वस्तु आदि का अलग होना या उत्पन्न होना सूचित हो, उसे ‘आपादान कारक’ कहते हैं । अपादान कारक में पंचमी विभक्ति होती है । यथा- वृक्षात् फलं पतति । (पेड़ से फल गिरता है।) यहाँ वृक्ष से फल गिरकर अलग होता है, इसीलिए ‘वृक्ष’ में पंचमी विभक्ति हुई है । ऐसे ही-ज्ञानात् सुखं भवति । (ज्ञान से सुख होता है।) दुग्धात् दधि जायते । (दूध से दही तैयार होता है।) आदि वाक्यों में समझना चाहिए।’

‘आपादान कारक’ के अन्य उदाहरण:-

  1. वृक्षात् पत्राणि पतन्ति । (पेड़ से पत्ते गिरते हैं ।)
  2. सः पाटलिपुत्रात् आगच्छति । (वह पटने से आता है ।)
  3. गंगा हिमालयात प्रभवति । (गंगा हिमालय से निकलती है।)
  4. ते काशीत: गच्छन्ति । (वे काशी से जाते हैं ।)

सम्बन्ध (विभक्ति)

संस्कृत भाषा में ‘सम्बन्ध’ को कारक नहीं माना जाता । कारण कर्ता कारक से इसका सीधा सम्बन्ध नहीं होता । इससे किसी व्यक्ति, वस्तु, भाव आदि का दूसरे व्यक्ति, वस्तु, भाव आदि से संबंध ही सूचित होता है । अतः

‘सम्बन्ध’ में षष्ठी विभक्ति होती है । यथा- गोपालस्य भ्राता अस्ति । (गोपाल का भाई है।) यहाँ गोपाल के साथ ‘भाई’ का सम्बन्ध है, अतः ‘गोपाल’ में षष्ठी विभक्ति हुई है । ऐसे ही ‘तव पुस्तिका’ (तुम्हारी पुस्तिका), ‘मम उद्यानम्’, (मेरा बगीचा), तस्य गृहम् (उसका घर), ‘राधाया आभूषणम्’ (राधा का आभूषण) आदि उदाहरणों को देखा जा सकता है।

सम्बन्ध-विभक्ति के अन्य उदाहरण-

  1. अस्मांक देशः भारतवर्षम् (हमलोगों का देश भारतवर्ष है।)
  2. गायत्री शिवशंकरस्य भगिनी । (गायत्री शिवशंकर की बहन है ।)
  3. सुग्रीवस्य मित्रं गच्छति । (सुग्रीव का मित्र जाता है ।)
  4. उद्यानस्य पुष्पाणि विकसन्ति । (उद्यान के फूल खिलते हैं।)
  5. गोपेशस्य पुस्तकानि सन्ति । (गोपेश की पुस्तकें हैं ।)

अधिकरण कारक

किसी भी क्रिया, वस्तु, भाव आदि के आधार को ‘अधिकरण’ कहते हैं। अधिकरण कारक में सप्तमी विभक्ति होती है । यथा ‘शिक्षक’ विद्यालये अस्ति ।’ (विद्यालय में शिक्षक है ।) यहाँ ‘शिक्षक’ का आधार या पढ़ाने का अधिष्ठान विद्यालय है। इसीलिए यह अधिकरण कारक हुआ तथा इसमें सप्तमी विभक्ति हुई है । ऐसे ही ‘स्वर्णपात्रे दुग्धम् अस्ति ।’ (स्वर्णपात्र में दुध है।) ‘कृषक: गृहे तिष्ठति ।’ (किसान घर में रहता है ।) आदि उदाहरणों को देखा जा सकता है।

अधिकरण कारके के कुछ आदर्श उदाहरण:-

  1. जनाः गृहे वसन्ति । (लोग घर में रहते हैं ।)
  2. छात्राः कक्षायां पठति । (छात्र वर्ग में पढ़ते हैं )
  3. मत्स्याः नद्यां तरन्ति । (मछलियाँ नदी में तैरती हैं
  4. अश्वाः पथि धावन्ति । (घोड़े सड़क पर दौड़ते हैं ।)
  5. रथाः मार्गे चलन्ति । (रथ रास्ते पर चलते हैं ।)

सूत्रों का सोदाहरण अर्थ-लेखन

1. कर्तरि प्रथमा-कर्तृवाच्य में जहाँ कर्ता उक्त अर्थात् कर्ता के अनुसार क्रिया के लिंग, वचन और पुरुष हों, तो ऐसे कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है। यथा-बालकः विद्यालयं गच्छति ।

2. कर्मणि द्वितीया-कर्मकारक को द्वितीया विभक्ति होती है। यथा-रामः महाभारतं पठति

3. क्रियाविशेषणे द्वितीया-क्रिया-विशेषण में द्वितीय विभक्ति होती है। क्रियाविशेषण शब्द सदा द्वितीया विभक्ति में एकवचनान्त और नपुंसकलिंग वाला होता है। यथा-सा, मन्द-मन्दं धावति ।

4. करणे तृतीया-क्रिया की सिद्धि में कर्ता के साधक को ‘करण’ कहते हैं और करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है। यथा-बालकः लेखन्या लिखिति।

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण कारक

5. योनगाङ्गविकारः-जिस अंग के विकार में वर्णित अंगों का विकार प्रकट हो, उस विकृतं अंगवाचक शब्द में तृतीया विभक्ति होती है। यथा-सः पादेन खञ्जः अस्ति ।

6. ‘ध्रुवमपायेऽपादानम्’-‘अपाय’ में अर्थात् पृथक् या अलग होने में जिस निश्चित (ध्रुव) वस्तु से कोई पृथक् होती है, वह अपादान कारक होती है। जैसे-बालकः ग्रामात् आयाति । (बालक गाँव से आता है।) यहाँ ‘ग्रामात्’ में पंचमी कारक-विभक्ति है।

7. प्रकृत्यादिभ्यः उपसंख्यानम्-प्रकृति, जाति, आकृति, गोत्र, नाम आदि के वाचक शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है। यथा-गोत्रेण वत्सः

8. हेतौ तृतीया-किसी कार्य के हेतु अर्थात् कारण में तृतीया विभक्ति होती है। यथा-दण्डेन घटः भवति ।

9. सहयुक्तेऽप्रधाने-‘सह’ अथवा ‘सह’ (साथ) के अर्थवाले शब्दों के योग में जो ‘अप्रधान’ (गौण) व्यक्ति होता है, उसके बोधक पद के साथ तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-पुत्रेण सह पिता गच्छति ।

10. सम्प्रदाने चतुर्थी-सम्प्रदान कारक में चतुर्थी वभिक्ति होती है। यथा-सः विप्राय भोजनं पचति ।।

11. स्पृहेरीप्सिततः-‘स्पृह्’ धातु के योग में जिस वस्तु की इच्छा की जाए, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा-योगिनः ज्ञानाय स्पृह्यति।

12. यतश्च निर्धारणम्-किसी व्यक्ति या व्यक्ति-समूह समुदायवाचक शब्द में षष्ठी अथवा सप्तमी विभक्ति होती है। यथा-नदीषु नदीनां वा गंगा पवित्रतमा । अथवा कविषु कविनां वा कालिदासः श्रेष्ठः।

13. दानार्थे चतुर्थी-(यस्मै दानं सम्प्रदानम्)-जिसे कोई वस्तु दानस्वरूप दी जाए, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा-नृपः विप्राय धनं ददाति ।

14. इत्थं भूतलक्षणे-किसी विशेष चिह्न से यदि किसी की पहचान की जाती है तो उसके लिए प्रयुक्त शब्द के साथ तृतीया विभक्ति होती है। यथा-जहाभिः तापसः।

15. अपवर्गे तृतीया-क्रिया की समाप्ति और फल की प्राप्ति के होने पर ‘काल’ वाचक और ‘मार्ग’ वाचक शब्दों के साथ तृतीया विभक्ति होती है। यथा-सोहनः मासेन व्याकरणं पठितवान् । क्रोशेन कथा समाप्ता जाता।

16. रुच्यर्थानां प्रीयमाण:-‘रुच्’ धातु और उसके समानार्थक धातुओं के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है। यथा बालकाय मोदकं रोचते । हरयं भक्तिः रोचते।

17. भीत्रार्थानां भयहेतुः-भयार्थक और सार्थक धातुओं के योग में जो ‘भय’ ‘ का कारण हो, उसमें पचमी विभक्ति होती है। यथा-मनुष्यः व्याघ्रात् बिभेति ।

18. अपादाने पञ्चमी-अपादान कारक में पज्ञमी विभक्ति हुआ करती है। यथा-‘वृक्षात्’ फलानि पतन्ति ।

19. सप्तम्यधिकरणे च (आधारोऽधिकरणम्)-कर्ता और कर्म के आश्रय को अधिकरण’ कहते हैं। जिस स्थान पर क्रिया होती है, उसे ‘आधार’ कहते हैं। आधार के साथ सप्तमी विभक्ति होती है। यथा-छात्राः विद्यालये पठन्ति ।।

20. ‘धारि’ धातु के साथ उत्तमर्ण (साहुकार या ऋण देनेवाल) सम्प्रदान कारक होता है। जैसे-रामः श्यामाय शतं धारयति (राम श्याम के सौ रुपये कर्ज धारता है।) यहाँ कर्ज देनेवाला श्याम सम्प्रदाय कारक (श्यामाय) है। किया.

21. भावे सप्तमी ( यस्य च भावेन भावलक्षणम्)-यदि किसी पूर्वकालिक क्रिया के काल से दूसरी क्रिया और उसके कर्ता में सप्तमी विभक्ति लगती है। यथा-‘अस्तं गते सूर्ये बालकाः स्वगृहान् अगच्छन्।

कारक-संबंधी प्रश्न एवं उनके उत्तर-

प्रश्न 1.
‘कोशं दुटिला नदी-इस वाक्य में ‘क्रोशं’ पद में कौन-सी विभक्ति है और किस सूत्र के आधार पर यह विभक्ति है और किस सूत्र के आधार यह विभक्ति हुई है ? विभक्ति एवं सूत्र लिखें।
उत्तर-
‘क्रोश’ कुटिला नदी के ‘क्रोशं’ पद में द्वितीया विभक्ति है और वह ‘कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे’ सूत्र के अनुसार हुई है। अत्यन्त संयोग होने पर ‘मार्ग”के वाचक को द्वितीया विभक्ति होती है।

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प्रश्न 2.
पुत्रेण सह पिता विपणिम् अगच्छत् ।’-इस वाक्य में ‘पुत्रेण’ पद में कौन-सी विभक्ति है?
(क) प्रथमा विभक्ति
(ख) तृतीया विभक्ति
(ग) पञ्चमी विभक्ति
(घ) षष्ठी विभक्ति
उत्तर-
(ख) तृतीया विभक्ति

प्रश्न 3.
(क) रामः पित्रा सह विद्यालयं गच्छति’-इस वाक्य में ‘पित्रा’ पद में कौन-विभक्ति है ? यह विभक्ति किस सूत्र के आधार पर हुई है। उस सूत्र को लिखें।
उत्तर-
‘पित्रा’ में तृतीया विभक्ति हुई है। यहाँ ‘सहार्थे तृतीया’ इस सूत्र के आधार पर ‘पित्रा’ में तृतीया विभक्ति हुई है।

(ख) ‘राभ: सीतया लक्ष्मणेन सह वनम् अगच्छत् ।-इस वाक्य के
‘सीतया’ शब्द में कौन-सी विभक्ति है और यह विभक्ति किस कारक-सूत्र के अनुसार हुई है?
उत्तर –
तृतीया विभक्ति है और ‘सहार्थे तृतीया’ इस सूत्र के अनुसार

प्रश्न 4.
कविना कालिदासः श्रेष्ठः।’-इस वाक्य में ‘कवीनां’ पद में कौन-सी विभक्ति है ?
(क) पञ्चमी
(ख) तृतीया
(ग) षष्ठी
(घ) द्वितीया
उत्तर-
(ग) षष्ठी

प्रश्न 5.
‘बालिका मन्द-मन्दं गायति ।-इस वाक्य में ‘मन्द-मन्दं’ पद में कौन-सी विभक्ति है ?
(क) प्रथमा विभक्ति
(ख) सप्तमी विभक्ति
(ग) तृतीया विभक्ति
(घ) द्वितीया विभक्ति
उत्तर-
(क) प्रथमा विभक्ति

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण कारक

प्रश्न 6.
‘बालकाय फलं रोचते।’-इस वाक्य में ‘बालकाय’ पद में कौन-सी विभक्ति लगी है और ऐसा किस कारक-सूत्र के अनुसार हुआ है।
उत्तर-
चतुर्थी विभक्ति,-‘रुच्याणां प्रीयमाणः’ इस सूत्र के आधार पर ।

प्रश्न 7.
गोपालः सर्पात् विभेति ।’-इस वाक्य में ‘सत्’ पद में कौन-सी विभदित लगी है और ऐसा किस कारक-सूत्र के आधार पर हुआ है?
उत्तर-
पचमी विभक्ति – ‘भीत्राणां भयहेतुः’ इस सूत्र के आधार पर ।

प्रश्न 8.
‘श्रमेण विना विद्या न भवति।’-इस वाक्य में ‘श्रमेण’ पद में कौन-सी विभक्ति है और किस सूत्र के आधार पर हुई है ?
उत्तर-
‘श्रमेण’ में तृतीया विभक्ति लगी हुई है, जो ‘पृथकविनानानाभ-स्तृतीयान्यतरस्याम’ सूत्र के आधार पर हुई है।

प्रश्न 9.
‘ल्यब्लोपे कर्मण्यधिकरणे।’ सत्र की सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर-
ल्यप्-प्रत्ययान्त शब्दों के लोप होने पर कर्म और अधिकरण कारक में पंचमी विभक्ति होती है। जैसे-गणेशः प्रासादात् पश्यति ।

प्रश्न 10.
‘ईश्वरः पापात् त्रायते -इस वाक्य में ‘पापात्’ में कौन-सी विभक्ति है?
उत्तर-
‘पपात्’ में पंचमी विभक्ति है, जो ‘भीत्राणां भयहेतुः’ से

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प्रश्न 11.
‘ग्रामम् अभितः वृक्षाः सन्ति’-इस वाक्य में ‘ग्रामम्’ शब्द में कौन-सी विभक्ति है ?
उत्तर-
‘ग्रामम्’ में द्वितीया विभक्ति है।

प्रश्न 12.
‘सः मोहनाय शतं धारयति’-इस वाक्य में ‘मोहनाय’ में कौन-सी विभक्ति हैं तथा किस सूत्र से हुई है ?
उत्तर-
‘मोहनाय’ में चतुर्थ विभक्ति है तथा यह धारेत्तमर्णः’ सूत्र के आधार पर हुई है।

प्रश्न 13.
‘यस्य भावेन भावलक्षणम्’ सत्र की सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर-
जब एक कार्य के पूर्ण होने के बाद दूसरा कार्य होता हो तो जो कार्य हो चुका है उसमें षष्ठी या सप्तमी विभक्ति होती है। जैसे-उदिते उदितस्य वा सूर्ये सूर्यस्य वा सः गृहात् प्रस्थितः।

प्रश्न 14.
‘अस्तं गते सूर्ये सः आगतः’-इस वाक्य में ‘अस्तं गते’ में कौन-सी विभक्ति लगी हुई है?
उत्तर-
सप्तमी विभक्ति । ‘यस्य भावेन भावलक्षणम्’ के आधार पर।

प्रश्न 15.
‘उपाध्यायादधीते’ इस वाक्य में ‘उपाध्यायात’ पद में कौन-सी विभक्ति है और यह विभक्ति किस सूत्र के आधार पर हुई है?
उत्तर-
‘उपाध्यायात् अधीते’ में ‘उपाध्यायात्’ में पज्ञमी विभक्ति है और यह ‘आख्यातोपयोगे’ सूत्र के आधार पर हुई है। उपाध्याय’ आख्यात है और । उससे पञ्चमी विभक्ति हुई है।

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प्रश्न 16.
(क) ‘पितृभ्यः स्वधा’-इस वाक्य के पितृभ्यः पद में कौन-सी
विभक्ति है और यह विभक्ति किस सूत्र के आधार पर हुई है? (उस सूत्र को लिखें।)
उत्तर-
पितृभ्यः स्वधा’ इस वाक्य में चतुर्थी विभक्ति है और वह ‘नमः स्वस्तिस्वाहा – स्वधालंवषट् योगाच्च’ इस सत्र के कारण हुई है।

(ख) ‘हनुमते नमः’ इस वाक्य के ‘हनुमते’ पद में कौन-सी विभक्ति है ? यह विभक्ति किस सूत्र के आधार पर हुई है ?
उत्तर-
हनुमते’ में चतुर्थी विभक्ति होती है और ‘नमः स्वस्ति-स्वाहास्वधा’, सूत्र के अनुसार होती है।

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सत्संगतिः

मानवाः सामाजिकः प्राणी वर्तते । यादृशे समाजे मानवः वसति तादृशमेव गुणं दोष वा स आदत्ते । अतएव उच्यते– संसर्गजा दोष-गुणा भवन्ति इति । यथा चन्दन वृक्ष संपर्केण कुटजादि वृक्षाः अपि चन्दनाः भवन्ति तथैव सतां सम्पर्केण दुष्टाः अपि सज्जनाः भवन्ति ।

पुस्तकालयः

पुस्तकानाम् आलय: पुस्तकालयः कथ्यतं । पुस्तकालये विभिन्नां विषयाणाम् उत्तमोत्तमानि पुस्तकानि सुरक्षितानि तिष्ठन्ति । तेषां पुस्तकानाम् अध्ययनेन मानवानां ज्ञानं वर्धते । ये विद्वांसः यावन्ति अधिकानि पुस्तकानि पठन्ति तेषां तवात् अधिकं ज्ञानम् भवति । पुस्तकालयस्य प्रभावेणैव वयं स्वकीय इतिहास विद्मः । लक्षाणां वर्षाणाम् व्यवधानेन अपि तेषां दर्शनं कुर्मः ।

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परोपकारः

स्वार्थ परित्यज्य परार्थभावनाया परेषा उपकारः परोपकारः कथ्यते । यैः गुणैः मानव श्रेष्ठः गण्यते तेषु गुणेषु परोपकारस्य प्रथम स्थानं वर्तते । यस्मिन् मानवे परोपकाररूपो गुणो नास्ति स पशुः एव विद्यते: । पशवः अपि खादन्ति पिबन्ति तथा शयनं जागरणं च कुर्वन्ति । ईश्वर: वाञ्छति यत् सर्वे परोपकार कुर्वन्तु । प्रकृति अपि परोपकारस्य शिक्षा ददाति ।

विद्या

“विद् ज्ञाने’ इति धातो: विद्या शब्द: सिध्यति । वेत्ति जानति यथा सा विद्या ज्ञानं द्विविधं भवति स्वाभाविक नैमित्तिक च । स्वाभाविक ज्ञानं सर्वेषु प्राणिषु तिष्ठति । नैमित्तकं ज्ञानं मानवानां किमपि निमित्तमासाद्य भवति । मानवानां नैमित्तिके ज्ञाने विद्याया: मुख्यं स्थानं भवति । अतएव उच्यते विद्याविहीनः पशु इति ।

गङ्गा

नदीषु गङ्गा श्रेष्ठा । गङ्गा पवित्रतमा नदी विद्यते । एषा हिमालयात् निःसरति बङ्गीयसागरे च पतति । अस्याः तटे अनेकानि नगराणि तीर्थस्थानानि च सन्ति । गङ्गाजलं रोगनाशकं भवति । अस्याः जलं परमं पवित्रं भवति । गङ्गाजलं कीटाणवोऽपि न जायन्ते ।

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वसन्तः

वसन्तः ऋतुनां राजा कथ्यते । वसन्तो हि प्रकति रञ्जयति । ऋतौ वसन्ते निखिलं जगत् चारुतरं सम्पद्यते । तरवो लताश्च प्रसीदन्ति पुष्पोद्भवे । तरुणा: तरुणयश्च मधुरायनते यौवन-विभ्रमेण कमलानि विकसन्ति, मधुकराः मधुरं गुजन्ति, कोकिला: कलं कूजन्ति मलयानिलश्च मन्दं संचरन् सर्वान् नन्दयति ।

विद्यालयः

विद्यायाः आलयः विद्यालयः कथ्यते । विद्यालये विद्यार्थिनः शिक्षकेभ्यः विद्यां प्राप्नुवन्ति । सम्प्रति प्रायः ग्रामे-ग्रामे विद्यालयाः विराजन्ते । प्रति विद्यालये अनेक अध्यापका: बहवः छात्राश्च भवन्ति । विद्यालयस्य प्रकोष्ठेष श्यामपटाः, शिक्षाकाणाम् उपवेशनार्थ आसन्धः छात्राणां कृते च आसनानि आपि भवन्ति ।

गौः

गौः कृषिप्रधानस्य भारतस्य आर्थिकोन्नतेः सुदृढं मूलमस्ति । गौः वत्सा: वृषभाः सन्तः कर्षन्ति शकटं च बहन्ति । गौः स्वकीयेन दुग्धेन मातृवत् अस्मान् सर्वान् पालयति : गौ: दुग्धम् मानवानां पौष्टिक आहार बालानां रोगिणां च कृते मधुरं पथ्यं भवति । गो: मूत्रं पुरीषं च सर्वेत्ति शस्यखाद्यं भवति । अत: गोपालन अस्माभिः कर्त्तव्यम् ।

अस्माकं ग्रामः

अयं अस्माकं ग्राम: नद्याः तटे विद्यते । अत्रत्यः विशुद्धः शीतलश्च वायुः ग्राम्याणां क्लमं दूरीकरोति । अस्माकं ग्राम्याणां जीवनं सरलं स्वावलम्बिनं च भवति । ग्रामे शान्तिः विराजते । ग्राम गृहाणां समहो भवति. गृहाणि च लध्वाकारी भवन्ति । तेषु गृहेषु प्रकृतेः सर्व सोविध्यं तिष्ठति । तत्र नगराणाम् प्रदूषणं न भवति । शुद्धं वातावरणं शुद्धानि च भोज्यवस्तूनि मिलन्ति ।

Bihar Board Class 7 Sanskrit व्याकरण अनुच्छेद-लेखनम

वर्षाकाल:

श्रावणे भाद्रश्चेति मासद्वयं वर्षाः भवति । अस्मिन् ऋतौ मेघाः जलं वर्षन्ति । ग्रीष्मतापतप्ता धरित्री वर्षतौ पुनः सरसा जायते । शुष्यमाणाः पादपाः जीवनं लभन्ते । वापी-कूप-तडागाः नद्यश्च जलौधेन पूर्णाः भवन्ति । कृषकाः कृषिकार्येषु संलग्नाः दृश्यन्ते । प्रकृति नटी नवीनां हरिताम् आकृति- दधाना शोभते । कृष्णवर्णाः मेघघटाः गर्जन्ति, वर्षन्ति च । अस्मिन् काले मयूराः नर्तनं कुर्वन्ति ।