Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

Bihar Board Class 11 Sociology पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय व्यवस्था Additional Important Questions and Answers

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

कार्ल माक्स – 1818 – 1833

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
मार्क्स का वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत संक्षेप में बताइए?
उत्तर:
मार्क्स का मत है कि “आज तक का मानव समाज का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है।” समाज में उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर शोषक का एकाधिकार होता है। इस वर्ग को बुर्जुआ अथवा पूंजीपति वर्ग भी कहते हैं दूसरी तरफ समाज का साधनविहीन वर्ग जिस श्रमिक वर्ग या सर्वहारा वर्ग भी कहते हैं, उत्पादन के साधनों से पूर्वरूपेण वंचित होता है।

इस वर्ग के पास अपने श्रम को बचने के अतिरिक्त कुछ नहीं होता है। मार्क्स का स्पष्ट मत है कि पूंजिपति वर्ग तथा श्रमिक वर्ग के हित समान नहीं होते हैं। इन दोनों वर्गों के बीच हितों के अधार पर ध्रुवीकरण जारी रहता है। मार्क्स का मत है कि पूजीवाद के विनाश के बीच संघर्ष तेज हो जाता है। यह वर्ग संघर्ष अपने अंतिम बिंदु पर हिंसा में बदल जाता है।

प्रश्न 2.
द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की केन्द्रीय विषय-वस्तु बताइए।
उत्तर:
‘द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की रचना कार्ल मार्क्स तथा उनके सहयोगी एंजर में की। ‘द कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की केन्द्रीय विषय-वस्तु वर्ग-संर्घष है। मार्क्स का दृढ़ मत है कि इतिहास समाजिक वर्गों संर्घष की श्रृंखला है । शोषक तथा शोषित अथवा श्रमिम वर्ग को सर्वहारा कहते हैं।

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प्रश्न 3.
“आर्थिक संगठन. विशेषतया संपत्ति का अधिकार समाज के शेष संगठनों का निर्धारण करता है।” मार्क्स के उक्त कथन को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स का मत है कि पूंजीवादी समाज, जिसका आधार श्रमिकों का शोषण होता है, में उत्पादन के शाधनों तथा उत्पादित वस्तुओं के वितरण पर पूंजीपतियों अथवा संपन्न वर्ग का अधिकार होता है। इसे बुर्जुआ वर्ग भी कहते हैं।

दूसरी तरह श्रमिक अथवा सर्वहारा वर्म जिसे प्रोलिअयिट भी कहते हैं, आर्थिक साधनों पर नियंत्रण रखता है। श्रमिक वर्ग के पास अपने श्रम को बचने के अलावा कुछ नहीं होता है। पूंजीपति वर्ग श्रमिकों का शोषण करके मुनाफा कमाता है। इस प्रकार, संपन्न वर्ग सर्वहारा वर्ग का लगातार शोषण करता रहता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
बौद्धिक ज्ञानोदय किस प्रकार समाजशास्त्र के विकास के लिए आवश्यक है?
उत्तर:
मानव व्यवहार एवं मानव समाज के व्यवस्थित अध्ययन का आरंभ 18 वीं सदी के उत्तरार्द्ध के यूरोपीय र.माज में देखा जा सकता है। इस नए दृष्टिकोण की पृष्टभूमि, क्रांति तथा औद्योगिक क्रांति के परिपेक्ष्य में मानव समाज के अध्ययन को एक नई दिशा प्राप्त हुई। यूरोपीय समाज प्रखर प्रांसीसी चिंतकों की चेतना को निश्चित रूप से व्यक्ति किया गया है।

यह सुनिश्चित किया गया कि प्रकृति तथा समाज दोनों का वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन किया जा सकता है। समाज की सभी मुख्य धारणओं-धर्म, समुदाय, सत्ता उत्पादन, संपत्ति, वर्ग आदि की नवीन व्यवस्थाएं होने लगीं। इतिहास के इसी स्वर्णिम समय में समाजशास्त्र का जन्म हुआ। ऑगस्त कॉम्टे ने समाजशास्त्र की स्थापना की।

प्रश्न 2.
औद्योगिक क्रांति किस प्रकार समाजशास्त्र के जन्म के लिए उत्तदायी है?
उत्तर:
राजनीतिक परिवेश का तख्ता पलट देने वाले किसी हिंसक विप्लव को ही क्रांति नहीं समझा जाता, बल्कि किसी भी क्षेत्र में, चाहे वह धार्मिक क्षेत्र हो या सामाजिक, यदि किसी सुधारात्मक, विश्वासात्मक, सांस्कृतिक या दार्शनिक परिवर्तन हो जाये तो उसे भी हम क्रांति ही कहेंगे। इंग्लैंड में जक तक यह ज्ञान नहीं हुआ था कि कोई भौतिक शक्ति ऐसी भी है जो यंत्रों को तीव्र गति से चला सकती है और वह यंत्र बनाये भी जा सकते हैं तथा उनसे मानव समाज द्वारा उपयोग की जाने वाली वस्तुओं का उत्पादन पुराने ढर्रे से ही होता था, जिनका व्यापारिक महत्व शून्य ही था।

कुटीर उद्योगों के रूप में उनका निर्माण किया जाता था और स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो कुछ वस्तुएँ बचती थीं, उनके बदले अन्य आवश्यकताओं की वस्तुएँ भी प्राप्त की जाती थी परंतु आचनक जेम्सवाट ने जब भाप की भौतिक शक्ति को पहचाना तो उसने भाप से चलने वाला इंजन बना डाला और भी मशीनें बनाने के लिए लोहा तथा भापीय शक्ति प्राप्त करने के लिए कोयला प्राप्त हो गया। इसके बाद सन् 1970 तक इंगलैंड ऐसी स्थिति में आ गया कि वहीं वस्त्रोत्पादन मशीनों द्वारा बड़े पैमाने पर होने लगा।

अन्य उत्पादों में भी बढ़ोत्तरी हुई जो व्यापक स्तर पर तैयार होने लगे। उद्योग जगत में काफी उलटफेर हो गया जा इंगलैंड कभी अपने यहाँ उत्पादों के निर्यात की सोच भी नहीं सकता था, वह बहुत-सी वस्तुओं का निर्यातक देश बन गया। वहां भारी मशीनें बनी और बड़े-बड़े कारखाने स्थापित हुए, जिनमें बड़ी संख्या में मजदूर कार्य करने लगे, इसी को औद्योगिक क्रांति कहा गया। सन् 1884 में सबसे पहले आरनोल्ड टायनबी ने इंग्लैंड के इस “औद्योगिक परिवर्तन को औद्योगिक क्रांति का नाम दिया।

नेल्सन का कहना है कि आद्योगिक शब्द इसलिये प्रयोग नहीं किया गया है कि परिवर्तनों की प्रक्रिया बहुत तीव्र थी, बल्कि इसलिये कि होने पर जो परिवर्तन हुए वे मौलिक थे।” औद्योगिक क्रांति ने ही वैज्ञानिक चिंतन तथा प्रहार बौद्धिक चेतना को नया आधार प्रदान किया। नए-नए मानवीय विषय जन्में, इनमें समाजशास्त्र भी एक था।

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प्रश्न 3.
क्या आप मार्क्स के इस विचार से सहमत हैं कि “ऐसा समय आएगा जब सर्वहारा वर्ग द्वारा बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंका जाएगा और एक वर्गविहीन समाज का निमार्ण होगा?” अपने विचार दीजिए।
उत्तर:
कार्ल मार्क्स का संपूर्ण चिंतन वर्ग संघर्ष की धारणा पर आधारित है। मार्क्स का स्पष्ट मत है कि अब तक के मानव-समाज का इतिहास वस्तुत: वर्ग संघर्ष का इतिहास है। मार्क्स का यह कथन है कि सर्वहारा वर्ग एक दिन बुर्जुआ वर्ग को उखाड़ फेंखगा के संबंधों में निम्नलिखित बिंदु महत्वपूर्ण है:

(i) वर्ग संघर्ष-मार्क्स के अनुसार मानव जाति का इतिहास साधन संपन्न अथवा साधनहीनता का इतिहास है। सामंती तथा पूंजीवादी अवस्थाओं में व्यक्तिगत संपति की अवधारणा के कारण समाज में दो वर्ग आ गए है।

  • शोषक अथवा बुर्जआ वर्ग अथवा पूँजीपति वर्ग
  • शोषित अथवा सर्वहारा अथवा श्रमिक वर्ग

मार्क्स का मत है कि पूँजीवादी व्यवस्था अपनी अंतर्निहित दुर्बलताओं अथवा अंतर्विरोधों के कारण स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। वर्ग संघर्ष से वर्ग चेतना से आर्थिक हितों में द्वंद्व होगा तथा इसका बिंदु हिंसक क्रांति होगी। इसके बाद व्यवस्था में परिवर्तन हो जाएगा। पूंजीवादी व्यवस्था के स्थान पर समाम्यवादी व्यवस्था हो जाएगी। यही कारण था कि मार्क्स ने आज तक के मानव समाज के इतिहास को “वर्ग-संघर्ष का इतिहास कहा है।”

(ii) सर्वहारा वर्ग की तानाशाही – कार्ल मार्क्स का मत था कि पूंजीवादी व्यवस्था के विनाश के बीज उसमें ही अंतनिहीत हैं। पूंजीवादी व्यवस्था का शोषण श्रमिकों में अंसतोष तथा जागरूकता को उत्तरोत्तर बढ़ाएगा तथा उन्हें हिंसक क्रांति के लिए बाध्य का देगा। मार्क्स का विचार था कि पूंजीवाद के विनाश के पश्चात् सर्वहारा वर्ग की तनाशाही अपरिहार्य है।

पूंजीवादी वर्ग सर्वहारा वर्ग की क्रांति को असफल बानाने के लिए षड्यंत्र तथा प्रतिक्रिांति का आलंबन कार सकता है। मार्क्स का मत था कि इस संक्रमण काल की स्थिति उस समय तक रहेगी, जब तक कि सामाजवादी व्यवस्था मजबूत न हो जाय। सर्वहारा वर्ग की यह व्यवस्था की यह व्यवस्था अल्पकालीन के पूर्ण विकास के बाद समाज में केवल एक वर्ग अर्थात् सर्वहारा वर्ग ही रह जाएगा

(iii) वर्गविहीन तथा राज्यविहीन समाज की स्थापना-कार्ल मार्क्स का मत का था कि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही पूंजीवादी व्यवस्था तथा पंजीपतियों को पूर्ण-रूपेण समाप्त कर देगी। इसके बाद समाज में कोई वर्ग व्यवस्था एक आदर्श व्यवस्था होगी । मार्क्स के अनुसार इस आदर्श साम्यवादी व्यवस्था, “प्रत्येक व्यक्ति अपनी पूर्ण योग्यता तथा क्षमता के अनुसार कार्य करेगा तथा अपनी आवश्यकतानुसार वस्तुएँ लेना।”

प्रश्न 4.
उत्पादन के तरीकों के विभिन्न संघटक कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
मुनष्य उत्पादन के उपकरण या उत्पादन प्रणाली के द्वारा भौतिक वस्तुओं या मूल्यों कर उत्पादन करते हैं। उत्पादन करने में मनुष्यों की कार्यकुशलता व उत्पादन उपयोग होता रहता है। मनुष्य, उत्पादन अनुभव और श्रम कौशल आदि सब तत्व मिलकर तत्व मिलकर उत्पाद शक्ति का निर्माण करते हैं लेकिन यह उत्पादक शक्ति उत्पाद प्रणाली केवल कए पक्ष या (पहलू) का ही प्रतिनिधित्व करता है, जबकि उत्पादन प्रणाली का दूसरा पक्ष या पहलू उत्पादन संबंधों का प्रतिनिधित्व करता है।

भौतिक वस्तुओं या मूल्यों के उत्पाद में मनुष्य को प्रकृति से जूझना पड़ता है, संघर्ष करना पड़ता है, परंतु मनुष्य यह सब कुछ अकेले नहीं कर सकता है। उसे अन्य व्यक्तियों से मिल-जुलकर सामूहिक रूप से उत्पादान करना होता है। उत्पादन किसी व्यक्ति विशेष का नहीं, वरन् प्रत्येक परिस्थिति और प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के साथ मिलता-जुलता है, प्रयास करता है और किसी न किसी प्रकार के संबंधों को अन्य व्यक्तियों के . साथ स्थापित कर लेता है। इस दृष्टि से उत्पादन के लिए व्यक्तियों की एक-दूसरे के प्रति क्रियाशीलता और कार्यों का आदान-प्रदान ही उत्पादन सम्बंधों का निर्माण करते हैं।

इस संदर्भ में श्री मार्क्स ने स्वयं लिखा हैं, “उत्पान में मावन केवल प्रकृति के साथ ही नहीं, वरन एक-दूसरे के ाथ भी क्रियाशील होता है । किसी न किसी प्रकार द्वारा ही वह उत्पान कार्य करते हैं । उत्पादन करने के लिए उन्हें एक-दूसरे से मिलने के लिए निश्चित संबंधों को बनाना होता है और केवल इन्हीं सामाजिक मिलन व संबंधों को बनाना होता है और केवल इन्हीं सामाजिक मिलन व संबंधों को बनाना होता है और केवल इन्हीं सामाजिक मिलन व संबंधों के अन्तर्गत ही उत्पादन कार्य चलता है।”
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प्रस्तुत चार्ट द्वारा उत्पादन प्रणाली को और सरलता व स्पष्टता से समझा जा सकता है-उत्पादन प्रणाली स्थायी या स्थिर नहीं रहती है, इनमें सदैव परिवर्तन व विकास होता रहता है। इस प्रकार उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन होने के कारण ही सम्पूर्ण सामाजिक संरचना, विचार, कला, धर्म, संस्थाओं आदि में परिवर्तन होना आवश्यक हो जाता है। सच है कि विकास के विभिन्न स्तरों पर मानव भिन्न-भिन्न युगों या स्तरों में सामाजिक संरचना, आचार विचार प्रतिमान, संस्थाएँ धर्म-कर्म तक एक समान नही रहे। अतः यह कहना ठीक ही होगा कि समाज के विकास का इतिहास वास्तव में उत्पादन प्रणाली के विकास का इतिहास अथवा उत्पादन शक्ति और उत्पादन सम्बंधों के विकास का इतिहास है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अलगाव के सिद्धांत के प्रमुख तत्त्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अलगाव का अर्थ-अलगाव स्वविमुखता की स्थिति है। अलगाव के परिणामस्वरूप श्रमिक अपने कार्य से अलग हो जाते हैं। अलगाव की स्थिति उस समय उत्पन्न हो जाती है जब श्रमिक तथा उसके कार्य में संबंधों की श्रृंखला टुट जाती है। कोजर के अनुसार “अलगाव की स्थिति में व्यक्ति स्व-निर्मित शक्तियों द्वारा नियंत्रित होते हैं, जब उसका आमना-सामाना अलगावादी शक्तियों से होता है” इस प्रकार अलगाव का तात्पर्य है अपने ही लोगों तथा उत्पादन से पृथक हो जाना । एक पूंजीवादी व्यवस्था में अलगाव समस्त धार्मिक, आर्थिक तथा राजनैतिक संस्थओं के क्षेत्रों को नित्रित तथा प्रभावित करता है।

आर्थिक अलगाव तथा उसका प्रभाव – कार्ल मार्क्स के अनुसार विभिन्न प्रकार के अलगावों में आर्थिक अलगाव महत्त्वपूर्ण है। आर्थिक अलगाव व्यक्तियों की दैनिक गतिविधियों से संबंधित होता है। मार्क्स के अनुसार अलगाव की धारणा में निम्नलिखित चार पहलू महत्त्वपूर्ण होते हैं, जिनके कारण श्रमिकों में अलगाव की प्रकृति उत्पन्न होती है।

  • वस्तु जिसका वह उत्पादन करता है।
  • उत्पादन की प्रक्रिया।
  • स्वयं से।
  • अपने समुदाय के व्यक्तियों से।

उत्पादन की प्रक्रिया में श्रमिक की स्थिति एक आयामी व्यक्ति की होती है-श्रमिक अलगाव उस वस्तु में लगाए गए श्रम के साथ-साथ उत्पादन की प्रक्रिया से भी हो जाता है। इसके कारण स्वयं से भी अलगाव हो जाता है तथा उसके व्यक्तित्व के अनेक पक्षों का विकास नहीं हो पाता है। अलगाव की स्थिति में श्रमिक अपने कार्यस्थल पर सुख तथा शांति का अनुभव नहीं करता है। ऐसी विषम स्थिति में श्रमिक सदैव यह सोचता रहता है कि जिस कार्य को वह कर रहा है उसका संबंध अन्य व्यक्ति से है। श्रमिक अपनी पूर्ण क्षमता के द्वारा वस्तु के उत्पादन करता है। लेकिन वही वस्तु उससे पृथक् हो जाती है तथा इस प्रकार उसके शोषण की शक्ति बढ़ जाती है।

इसके कारण श्रमिक के मन में अपने कार्य तथा स्वयं की पूर्ति उदासिनतां तथा विमुखता उत्पन्न हो जाती है। हबैर्ट मर्कजे ने इन मनः स्थिति को एक आयामी व्यक्ति कहा है। कार्ल माक्स ने इस स्थिति को ‘पहिए का दांत’ कहा है। इस प्रकार उत्पादन की प्रक्रिया में श्रमिक की स्थिति में पूर्ण अलगाव उत्पन्न हो जाता हैं। उसका व्यक्तित्व तथा अस्तित्व दोनों ही शून्य हो जाती हैं। श्रमिक का स्वयं तथा अपने साथियों से अलगाव-मार्क्स का मत है कि विरोधी शक्तियों किसी श्रमिक को उसके उत्पादक के पृथक् कर देती है

  • पंजीपति जो उत्पादन प्रक्रिया को नयंत्रित करता है।
  • बाजार की स्थिति जो पूंजी तथा उत्पादन की प्रक्रिया को नियंत्रित करती है।

श्रमिक द्वारा तैयार वस्तु किसी अन्य व्यक्ति से संबंधीत होती है तथा वह शक्ति उसे अपनी इच्छानुसार प्रयोग करने में स्वतंत्र होता है। इस प्रकार बजार में वस्तु के मूल्य में उतार-चढ़ाव तथा पूंजी की गतिशीलता श्रमिक पर विपरित प्रभाव डालते हैं। पूंजीपति लगातार शक्तिशाली होस चला जाता है। ऐसी स्थिति में श्रमिक का न केवल स्वयं से अपितु अपने साथियों से भी अलगाव हो जाता है।

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प्रश्न 2.
मार्क्स के अनुसार विभिन्न वर्गों में संघर्ष क्यों होते हैं?
उत्तर:
कार्लमार्क्स तथा एन्जिल्स कम्युनिष्ट घोषणा-पत्र में लिखते हैं, “आज तक प्रत्येक समाज शोषण तथा शोषित वर्गों के विरोध पर आधारित रहा है।”

कम्युनिष्ट घोषणा – पत्र में अंकित उपरोक्त शब्द मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धान्त का आधार है। उत्पादन की प्रणाली के फलस्वरूप जो वर्ग बनते हैं, उनके कुछ निहित स्वार्थ होते हैं। जिस वर्ग के हाथ में उत्पादन के साधन होते हैं वह शोषक और शासक बनकर श्रमिक वर्ग को निर्बल बना देता है। आज का वितरण समान होने से एक वर्ग समस्त सम्पत्ति पर अधिकार करने का प्रयत्न करता है जिसके कारण विरोध उत्पन्न होने लगता है।

शोषित वर्ग में असन्तोष की भावना उत्पन्न होती है। दोनों वर्गों के हितों में विरोध होने के कारण एक-दूसरे के प्रति घृणा और शत्रुता का भाव पनपता है और संघर्ष की प्राथमिक अवस्था उत्पन्न होती है। इस प्रकार वर्गों में संघर्ष होने से पहले वर्ग विरोध की अवस्था आवश्यक है, किन्तु यह आवश्यक नहीं कि प्रत्येक वर्ग विरोध, वर्ग-संघर्ष में परिवर्तित हो जाए। वर्ग-संघर्ष की अवस्था तभी उत्पन्न होती है, जबकि शोषित वर्ग अपने अधिकारों और आवश्यकताओं के प्रति जागरुक हो और उन्हें प्राप्त करने के लिए आवश्यक आधार भी रखता हो।

शोषित वर्ग राज्य सत्ता के प्रयोग से इस शक्ति के दमन का प्रयन्न करता है। ऐसी स्थिति में शोषित वर्ग के लिए राज्य सत्ता पर अधिकार करना आवश्यक हो जाता है। अतः प्रत्येक वर्ग-संघर्ष एक प्रकार से राजनैतिक संघर्ष ही होता है। सत्तारूढ़ शोषक, वर्ग, धर्म, नैतिकता और राष्ट्रीयता के आवरण में अपने स्वार्थों को बचाने की चेष्य करता है किन्तु क्रांति हो जाती है। मार्क्स के विचार से वर्ग-संघर्ष मानव समाज में अनिवार्य सिद्धान्त के रूप में पाया जाता है। मानव समाज के प्रारम्भिक काल में मालिकों और दासों में संघर्ष, हुआ, जिसके फलस्वरूप दास प्रथा का अन्त हो गया किन्तु वर्ग-भेद चलता रहा।

सामान्तशाही युग में विरोध की चरम सीमा सामंतों और भूमिहीन किसानों के हिंसात्मक संघर्ष के रूप में प्रकट हुई। जागीदारों के शक्ति अर्धदासों अर्थात् कृषि मजदूरों के द्वारा समाप्त कर दी गई। वर्ग-संघर्ष शान्त हो गया पर समाप्त नहीं हुआ, क्योंकि वर्ग-भेद बना रहा है। सामन्त वर्ग का स्थान नवविकसित पूंजीपतियों ने ले लिया और दासों और किसानों का स्थान श्रमिकों ले ले लिया। व्यापारी, उद्योगपति, शोषक और शासक अधिक धनी बन गये तथा मजदूर वर्ग शोषित, शासित तथा निर्धन वर्ग. में धन पूंजी बन गया। वर्ग-भेद स्पष्ट हो गया और वर्ग-विरोध भी (अतः आज भी वर्ग-संघर्ष) समाप्त नहीं . हुआ । यह संघर्ष बुर्जुआ और सर्वहारा वर्गों के बीच है। मार्क्स का कथन है कि जब तक वर्ग रहेंगे, तब तक संघर्ष रहेगा। अतः वर्गों की समाप्ति ही मानव-संघर्ष की समाप्ति है।

एमिल दुर्खाइम – (1857-1917)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
‘समाजिक तथ्य’ क्या हैं ? हम उन्हे कैसे पहचानते हैं?
उत्तर:
दुर्खाइम के अनुसार समाजशास्त्र कुछ प्रघटनाओं के अध्ययन तक सीमित है। सामाजिक तथ्य किसी व्यक्ति विशेष के मस्तिष्क की उपज नहीं होते हैं। सामाजिक तथ्य स्वतंत्र होते हैं। सामाजिक तथ्य व्यक्तियों या सार्वभौमक मानवीय स्वभाव से पूर्णतः अप्रभावित रहते हैं। सामाजिक तथ्य विशिष्ट होते हैं। तथा इनकी उत्पति व्यक्तियों के सहयोग से होती है।

दुर्खाइम के अनुसार, सामूहिक प्रतिनिधि ही समाजिक तथ्य हैं। समाजिक तथ्य हमारे बीच होते हैं। हमें केवल इन्हें पहचानना होता है। इसके लिए हमें अपने आसापास के पर्यावरण पर दृष्टि रखनी चाहिए। समाज में क्या घटित हो रहा है? पूर्व परिस्थितियाँ क्या थौं? इन सभी बातों का तथ्य निकलकर आते हैं।

प्रश्न 2.
सामूहिक प्रतिनिधित्व का अर्थ स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
दुर्खाइम की सामूहिक प्रतिनिधित्व की धारणा सामाजिक तथ्यों के विशलेषण पर आधारित है। दुर्खाइम का मत है कि प्रत्येक समाज में कुछ ऐसे विश्वास, मूल्य, विचारधारएं तथा आदि विद्यमान होती है जो समाज के सभी सदस्यों को मान्य होती है।

दुर्खाइम का मत है कि सामान्य विश्वास, मूल्य, विचारधारएँ तथा भावनाएँ किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित न होकर सामूहिक चेतना स उत्पन्न होती है। इन्हें समूह के सदस्यों के द्वारा स्वीकार किया जाता है। इस प्रकार ये समूह का प्रतिनिधित्व करती है, अतः इन्हें सामूहिक प्रतिनिधान कहते हैं।

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प्रश्न 3.
दुर्खाइम के आत्महत्या के सिद्धांत का संक्षेपन में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एमिल दुर्खाइम ने आत्महत्या के मनोवैज्ञानिक आधारों को स्वीकार नहीं किया है। दुर्खाइम का मत है कि आत्महत्या की व्याखा एक रुग्ण समाज के संदर्भ में की जा सकती है। दुर्खाइम का मत है कि आत्महत्या के सिद्धांत को सामाजिक कारकों, जैसे सामाजिक दृढ़ता, सामूहिक चेतना, समाजिकता तथा प्रतिमानहीनता के संदर्भ में की जा सकती है।

प्रश्न 4.
पवित्र एवं अपवित्र में अंतर किजिए।
उत्तर:
दुर्खाइम ने श्रम विभाजन तथा आत्महत्या की भाँति धर्म को भी सामाजिक तथ्य स्वीकार किया है। दुर्खाइम न समाजिक जीवन के दो पहलू बताए है।

पवित्र तथा अपवित्र – दुर्खाइम का मत है कि धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं, विश्वासों तथा महत्त्वपूर्ण सामाजिक अवसरों से है प्रत्येक समाज में कुछ वस्तुओं को पवित्र समझा जाता है। पवित्र वस्तुओं की श्रेणी में धार्मिक ग्रंथ, विश्वास, त्योहार, पेड़-पौधे, भूत-प्रेत तथा दैवी सत्ता को सम्मिलित किया जाता है। इस प्रकार ‘पवित्र’ में समाज के महत्त्वपूर्ण मूल्य निहित होते हैं। पवित्र वस्तुएँ संसारिक वस्तुओं से ऊपर होती हैं।

कुछ ऐसी वस्तुएं भी होती है जिनका महत्त्व उनकी उपयोगिता पर निर्भर करता है। इसके अंतर्गत संसारिकता के दैनिक कार्यों को सम्मिलित किया जाता है। इनमें उत्पादन की मशीनों, संपति तथा आधुनिक सामाजिक संगठन को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 5.
अंहवादी आत्महत्या के विषय में संक्षेप में लिखिए?
उत्तर:
अंहवादी आत्महत्या में व्यक्ति यह अनुभव करने लगता है कि सामाजिक परंपराओं द्वारा निश्चित भूमिका को वह निभाने में असफल रहा है। यह तथ्य उसकी प्रतिष्ठा तथा सम्मान के विपरित होता है। दुर्खाइम के अनुसार जब व्यक्ति को दूसरों से संबद्ध करने वाले बंधन कमजोर हो जाते हैं तो अहंवाद उत्पादन होता है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति द्वारा अपने अंह को महत्त्व दिया जाता है। इस प्रकार व्यक्ति समाज से समुचित रूप से एकीकृत नही हो पाता है। इस प्रकार परिवार, धर्म तथा राजनैतिक संगठनों में बंधनों के कमजोर हो जाने से अहंवादी आत्महत्या की दर में वृद्धि हो जाती है। जापान में हारा-किरी की प्रथा अहंवादी आत्महत्या का उपयुक्त उदाहरण है।

प्रश्न 6.
दुर्खाइम समाजशास्त्र को किस प्रकार परिभाषित करते हैं?
उत्तर:
दुर्खाइम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक The Rules of Sociological Method-1895 में समाज शास्त्र की प्रकृति तथा विषय-वस्तु का विवेचन किया है। समाजशास्त्रीय अध्ययन में दुर्खाइम ने तथ्यपरक, वस्तुपरक एवं अनुभवी अध्ययन पद्धति पर विशेष बल दिया है। दुर्खाइम का मत है कि समाजशास्त्र का विषय क्षेत्र प्रघटनाओं के अध्ययन तक सीमीत रहना चाहिए । इन्हीं घटनाओं कों दुर्खाइम ने सामाजिक तथ्य कहा है।

दुर्खाइम समाजशास्त्र को मनोविज्ञान के प्रभावों से दूर रखना चाहते हैं। वे समाजशास्त्र में उन्हीं प्रघटनाओं के अध्ययन पर जोर देते हैं जो व्यक्ति मस्तिष्क की उत्पत्ति है। इस प्रकार समाजशास्त्र जैसा दुर्खाइम ने कहा है कि सामाजिक संस्थाओं, उनकी उत्पत्ति तथा प्रकार्यत्मक शैली से संबंधित है।

प्रश्न 7.
दुर्खाइम ने संस्था को किस प्रकार परिभाषित किया है?
उत्तर:
दुर्खाइम ने एक व्यापक अर्थ में संस्था का निर्वाचन किया है। उसने संस्था का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा है कि –

  • संस्था कार्य करने के कुछ साधन है।
  • निर्णय करने के कुछ उपाय हैं।

ये व्यक्ति विशेष से पृथक होते हैं तथा स्वतंत्रता पूर्वक कार्य करते हैं। इस प्रकार संस्था को व्यवहार के समस्त विश्वासों तथा स्वरूपों को रूप परिभाषित किया जा सकता है जो सामूहिकता के द्वारा लागू होते हैं।

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प्रश्न 8.
एनोमिक आत्महत्या के विषय में संक्षेप बताइए।
उत्तर:
ऐनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनतामूलक आत्महत्या प्रायः उन समाजों में पायी जाती हैं जहाँ सामाजिक आदर्शों में अकस्मात् परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में समाज में वैयक्तिक विघटन की सामाजिक घटनाएँ बढ़ने लगती हैं। दुर्खाइम इस स्थिति को एनामी अथवा नियमविहीनता कहते हैं।

दुर्खाइम का मत है कि अत्यधिक विभिन्नीकरण, विशेषीकरण नियमविहीन श्रम विभाजन के कारण जैविकीय दृढ़ता की स्थिति में आशानुरूप, सामाजिक, सामूहिक चेतना तथा अन्योन्याश्रितता कमी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी विषम-स्थिति में व्यक्ति का समाज से अलगाव हो जाता है। दुर्खाइम के अनुसार ऐसी स्थिति में समाजिक मानक समाप्त हो जाते हैं। व्यक्ति में समाजिक स्थिति से उत्पन्न तनावों को सहन करने की क्षमता कम हो जाती है।

ऐसी स्थिति में व्यक्ति के समक्ष जब भी तनावपूर्ण स्थिति आती है तो उसका संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है तथा वह आत्महत्या कर लेता हैं। व्यापार में अनाचक घाटा तथा राजनीतिक उतार-चढ़ाव आदि के कारण व्यक्ति आत्महत्या कर लेते है। इस प्रकार समाज में एनोमिक अथवा नियमविहीनता की स्थिति उत्पन्न होने से आत्महत्याओं के दर में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 9.
भाग्यवादी आत्महत्या किसे कहते हैं?
उत्तर:
दुर्खाइम के मतानुसार समाज में अत्यधिक नियमों तथा कठोर शासन व्यवस्था के कारण भाग्यवादी आत्महत्याओं की दर में वृद्धि हो जाती है। दुर्खाइम ने भाग्यवादी आत्महत्या। का उदाहरण दास प्रथा बताया है। जब दास यह समझने लगते हैं कि उनका विषय स्थिति से छुटकारा असंभव है तो वे भाग्यवादी हो जाते हैं तथा आत्महत्या कर लेते हैं।

प्रश्न 10.
परसुखवादी आत्महत्या का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या में सामाजिक चेतना तथा सामाजिक दृढ़ता की मात्र अत्यधिक पायी जाती है।

  • दुर्खाइम के अनुसार परसुखवादी आत्महत्या में व्यक्ति में समाज के प्रति बलिदान की भावना पायी जाती है। देश की आजादी के लिए
  • प्राण न्योछावर कर देना या जौहर प्रथा परसुखवादी आत्महत्या के उदाहरण हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
‘यांत्रिक’ और ‘सावयवी’ में क्या अन्तर है?
उत्तर:
दुर्खाइम ने सामाजिक दृढ़ता के आधार पर समाज को दो भागों में विभाजित किया है।

  • यांत्रिक एकता पर आधारित समाज तथा
  • सावयवी एकता पर आधारित समाज

यांत्रिक एकता में व्यक्ति समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबंधित होता है। यांत्रिक एकता वाले समाज में समूह के सभी सदस्य समान विश्वास तथा भावनाएँ रखते हैं। समूह के सदस्यों के बीज सामूहिकता की भावनाएँ अत्यधिक प्रबल होती हैं। समाज में व्यक्तियों की चेतना की चेतना सामूहिक होती है। समुदाय के सदस्य परस्पर एक-दूसरे की आवश्यकताओं की पूर्ति तथा नैतिक आदान-से संबंध रखते हैं। सामूहिक चेतना यांत्रिक एकता वाले समाजों में अत्यधिक सुदृढ़ होती है।

इस संदर्भ में दुर्खाइमे ने हिब्रू जनजाति का उदाहरण दिया है। ऐसे समाज में व्यक्तियों में समानता पायी जाती है। व्यक्तियों में विशेषीकरण या तो नाम मात्र का होता है या बिलकुल नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति या तो कृषक होगा या योद्धा। व्यक्तियों में सामान्य विचार पाये जाने के कारण अत्यधिक सुदृढ़ सामूहिक चेतना पयी जाती है।

यदि व्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना का उल्लंघन किया जाता है तो उस कठोर दंड दिया जाता है। वैयक्तिक स्तर पर सभी मत भेद गौण हो जाते हैं तथा व्यक्ति सामूहिक समग्र का अभिन्न अंग बन जाता है। सदस्यों में सामूहिक चेतना के साथ-साथ आज्ञापालक की सुदृढ़ भावना पायी जाती है। समाज में दमनात्मक कानून पाये जाते हैं। जनसंख्या का घनत्व भी कम पया जाता है।

सावयवी एकता वाला समाज यंत्र की तरह न होकर एक सजीव समाजिक तथ्य होता है। सपयवी एकता विभिन्न तथा विशिष्ट प्रकार्यों की व्यवस्था होती है। सावयवी एकता वाले समाज में व्यवस्था के संबंध समाज के सदस्यों के ऐक्यबद्ध करते हैं। सावयवी शब्द समाज की प्रकार्यात्मक अंतर्संबद्धता के तत्वों का संदर्भ प्रस्तुत करता है।

यांत्रिक एकता वाला समाज जनसंख्या के घनत्व के बढ़ने के साथ-साथ सावयवी एकता वाले समाज में परिवर्तित हो जाते है। श्रम विभाजन के विकास के साथ-साथ व्यक्ति पाररिक आवश्यकताओं के कारण प्रकार्यात्मक रूप से भी अंतर्संबधित होते हैं श्रम विभाजन की प्रक्रिया में जैसे-जैसे विशेषीकरण बढ़ता जाता है। वैसे-वैसे व्यक्तियों में अत्मनिर्भरता बढ़ती है। श्रम विभाजन में वृद्धि के कारण व्यवसायों में भी वृद्धि तथा विभिन्नता बढ़ती जाती है। दुर्खाइम में अनुसार “समाज की अवस्था में धीरे-धीरे में परिवर्तन होता है। परिवर्तन का क्रम यांत्रिक सामाजिक एकता से सावयवी एकता की ओर होता है तथा समाज में दमनकारी कानून के स्थान पर प्रतिकारी कानून आ जाता है”

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

प्रश्न 2.
सामूहिक चेतना क्या है?
उत्तर:
सामूहिक चेतना की अवधारणा दुर्खाइम के चिंतन का केन्द्र बिन्दु है। दुर्खाइम का मत है कि सामाजिक एकात्मकता की उत्पति साझेदारीपूर्ण भावात्मक अनुभव से होती है। समाज में व्यक्तियों में समूहिक चेतना पायी जाती है। दुर्खाइम सामूहिक चेतना को विश्वासों तथा भावनाओं को स्वरूप मानते हैं, जो कि समाज के सदस्यों में औसतन रूप से समान रूप से पायी जाती है। सामूहिक चेतना वस्तुतः समुदाय के सदस्यों में उपस्थित वह भावना है।

जिसके कारण वे परस्पर आवश्यकताओं की पूर्ति तथा नैतिक अदान-प्रदान से संबद्ध होते हैं। दुर्खाइम कहते हैं कि यांत्रिक एकता वाले समाजों में सामूहिक चेतना आत्यधिक सुदृढ़ थी। इस संदर्भ में दुर्खाइम ने ओल्ड टेस्टामेंट की हिब्रू जनजाति का उदाहरण दिया है। ऐसे समाजों में अधिकतर व्यक्ति एक समान होते हैं। इसलिए उनमें सामूहिक चेतना अत्यधिक सृदृढ़ रूप में पायी जाती है। व्यक्तियों में विचार की उत्पति सामान्य अनुभवों से होती है। ऐसी स्थिति में सामूहिक चेतनाका उल्लघंन होने पर कानून द्वारा सख्त दंड का प्रावधान होता है।

प्रश्न 3.
सामान्य व्याधिकीय तथ्यों में अंतर बताइए?
उत्तर:
दुर्खाइम अपराध को सामन्य माना है। उनका विचार है कि सामान्य तथ्य स्वस्थ होते हैं तथा समाज की गतिविधियों में सहायक होते हैं। दुर्खाइम ने अपराध को एक सामान्य सामाजिक प्रक्रिया निम्नलिखित आधरों पर स्वीकार किया है –

(i) अपराध का किया जाना तथा उससे संबंधित दंड समाज के सदस्यों को समाज के मूल्यों तथा मानकों के विषय में बताते हैं। इस प्रकार समाज में समाजिक तादात्म्य कायम करने में सहायता करते हैं। इसके साथ-साथ सामाजिक मूल्यों तथा सीमाओं पर पुनर्बल दिया जाता है।

(ii) अपराध सामाजिक परिवर्तन की यांत्रिकी है। यह समान सामाजिक सीमाओं को चुनौती . दे सकता है उदाहरण के लिए सुकरात के अपराध ने एथेन्स के कानून को चुनौति दी तथा उसके कारण समाज में परिवर्तन आया।

दुर्खाइम ने बताया कि व्याधिकीय तथ्य सामान्य तथ्यों के विपरीत समाज की गतिविधियों में बाधा उत्पन्न करते हैं। इनके कारण समाज के कार्य में व्यवधान उत्पन्न होता है। दुर्खाइम के अनुसार, “जब अकस्मात् परिवर्तन होता है तो समाज के नियामक नियमों की आदर्शात्मक संरचना में शिथिलता उत्पन्न हो जाती है, अत: यह व्यक्ति को ज्ञात नहीं होता है कि क्या उचित है अथवा अनुचित। उसके संवेग अत्यधिक होते हैं जिनकी संतुष्टि हेतु वह विसंगति समाज के सदस्यों में मतैक्य अथवा सामाजिक दृढ़ता का अभाव तथा सामाजिक असंतुलन की स्थिति है”

दुर्खाइम का मत है कि श्रम का अतिविभाजन सामाजिक विघटन की स्थिति उत्पन्न करता है इसके सामाजिक दृढ़ता कमजोर हो जाती है तथा सामाजिक संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाते हैं। इस प्रकार श्रम का अति विभाजन परिवार, समुदाय तथा संस्थाओं में व्यधिकीय स्थिति उत्पन्न कर देता है।

प्रश्न 4.
उदाहरण सहित बताएँ कि नैतिक संहिताएँ सामाजिक एकता को कैसे दर्शाती हैं।
उत्तर:
दुर्खाइम द्वारा प्रतिपादित सामजिक एकता की धारणा अत्यंत महत्वपूर्ण है ये तो उनके पहले भी उनके सामजिक विचारकों प्लेटों, अरस्तु, एडम स्मिथ, सैट, साइम, कॉम्टे आदि ने इस विषय पर अपने विचार प्रकट किए हैं लेकिन दुर्खाइम ने अपने सिद्धांत को एक नवीन रूप में प्रस्तुत किया है और इसकी सत्यता को प्रमाणित करने के लिए सामाजिक जीवन के अनेक तथ्यों व आंकड़ों को संकलित किया है। दुर्खाइम के अनुसार सामजिक एकता एक नैतिक प्रघटना है इसमें व्यक्तियों के नैतिक विकास की अभिव्यक्ति होती है। क्लोस्टरमायर ने लिखा है, “सामूहिक एकता व्यक्तियों के नैतिक किवास की अभिव्यक्ति है। यह व्यक्तियों को आत्म-अनुशासित बनाती है।”

दुर्खाइम का विचर है कि अंहकारपूर्ण तथा सुखवादी समाजिक व्यवस्था सामाजिक एकीकरण, सुदृढ़ता या एकता का आधार नहीं बन सकती। नैतिक संहिता के कारण एकता निर्धनता और आदमियता में भी मनुष्यों को प्रसन्न तथा संतुष्ट रहने की प्रेरणा देती है। उदाहरण के लिए प्रचीन समाजों में भौतिकता के अभाव के बावजूद अधिक प्रसन्नता और संतोष दिखाई देता था। उसका कारण प्राचीन समाज में पाई जाने वाली नैतिक संहिता थी जो समाजिक एकता की सूचक थी।

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प्रश्न 5.
इतिहासं की भौतिकवादी व्याख्या करें?
उत्तर:
इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या ही मार्क्स के विचारों का आधार है। मार्क्स के अनुसार प्रत्येक देश को एतिहासिक घटनाएं वहाँ की आर्थिक व्यवस्था को प्रभावित करती है। समाज की सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्था पर आर्थक व्यवस्था का प्रभाव पड़ता है और सभी सामाजिक संबंध आर्थिक संबंधों पर आधारित होते हैं।

किसी समय का इतिहास उस समय की आर्थिक व्यवस्था का चित्रण होता है। समाज में उत्पादन के साधनों तथा वितरण प्रणाली में परिवर्तन होने से समाज में परिवर्तन आता है और इतिहास बनाता है। सभी घटनाओं के अधार में अधिकांशतः आर्थि घटनायें होती हैं। तथापि इस  प्रकार की धारणा या मान्यता उचित नहीं कि प्रत्येक घटनायें मात्र आर्थिक घटनाओं पर आधारित होती हैं।

प्रश्न 6.
धर्म पर दुर्खाइम का दृष्टिकोण क्या है?
उत्तर:
दुर्खाइम ने धर्म का एक सामाजिक तथ्य स्वीकार किया है। धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं, विश्वासों तथा महत्वपूर्ण सामाजिक अवसरों से होता है। प्रत्येक सामज में वस्तुओं को पवित्र समझा जाता है। दर्खाइम के अनुसार इस श्रेणी में धार्मिक ग्रंथ, विश्वास, उत्सव, पेंड़ तथा पौधे, भूत-प्रेत तथा अमूर्त देवी सत्ता को सम्मिलित किया जाता है।

धर्म की उत्पति के विषय में दुर्खाइम पूर्ववर्ती सिद्धांतों से अपनी असहमति दिखाते हैं। उनका मत है कि धर्म की उत्पति में सामूहिक उत्सवों तथा क्रमकांडों का महत्वपूर्ण स्थान है। दुर्खाअम का मत है कि सामूहिक उत्सवों के साथ पवित्रता की भावना जुड़ी होती है। यह भावना समाज तथा सामूहिकता ईश्वर के समक्ष कर देती है। दुर्खाइम का मत है कि धर्म सामाजिकता एकता की भावना को सामूहिक मिलन उत्सवों कर्मकांडों के जरिए शक्तिशाली बनता है।

दुर्खाइम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Elementary Forms of Religous Life में धर्म को एक सामाजिक तथ्य माना है। दुर्खाइम ने टोटा बाद को आदिम तथा साधारण धर्म की संज्ञा दी है। जीवन की शुद्धता तथा पवित्रता धार्मिक जावन का सर्वमान्य तत्व है। टोटमवाद का अर्थ स्पष्ट करते हुए दुर्खाइम कहते हैं कि यह विश्वासों तथा संस्कारों से जुड़ी हुई व्यवस्था है। टोटमं एक वृक्ष अथवा पशु हो सकता है, जिससे किसी समूह के सदस्य सुदृढ़ तथा रहस्यात्मक संबंध रखते हैं।

वृक्ष अथवा पशु के रूप में समूह के सदस्य टोटम का सम्मान करते है तथा उसे सामान्य दशओं में नष्ट नहीं करते हैं। टोटम समूह के सदस्यों के लिए पवित्र होता है। टोटम तक पुहँचने के लिए संस्कार तथा रस्में आवश्यक हैं। एक टोटम की पूजा करने वाले व्यक्ति अपना समूह बनाते हैं तथा समूह में वैवाहिक संबंध स्थापित करते हैं। इस प्रकार टोटम समूह की भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है।
दुर्खाइम धर्म को विश्वासों तथा रीति-रिवाजों की एकीकृत व्यवस्था मानते हैं । धर्म का संबंध पवित्र वस्तुओं से होता है। धर्म के द्वारा समुदाय सदस्य नैतिक बंधन में बंधे होते हैं। सभी धर्मों के निम्नलिखित दो मूल तत्व पाये जाते हैं:

  • विश्वास तथा
  • धार्मिक कृत्य अथवा रीति-रिवाज

दुर्खाइम का मानना है कि किसी भी धर्म में पवित्रता’ केन्द्रीय विश्वास होता है। पवित्र सबसे पृथक् होता है तथा समूह के सभी सदस्य इसकी पूजा करते हैं। दुर्खाइम का मत है कि सामाजिक जीवन की समस्त प्रघटनाओं पर वस्तुओं में निम्नलिखित दो भागों में बाँटा जा सकता है:

  • पवित्र तथा
  • अपवित्र

दुर्खाइम का मत है धर्म का सम्बन्ध पवित्र वस्तुओं का स्तर सांसारिकता की अपेक्षा ऊँचा होता है। समाज द्वारा पवित्र कार्यों, उत्सवों तथा रीति-रिवाजों में भाग लेने वाले व्यक्ति को विशेष सम्मान प्रदान किया जाता है। जिन वस्तुओं को समाज के सदस्य पवित्र समझते हैं उन्हें अपवित्र अथवा साधारण से सदैव दूर रखने का प्रयास करते है।

अपवित्र भौतिक वस्तुएँ सामान्य सांसारिक व उपयोगितावादी पक्षों से सबंद्ध होती है। इस प्रकार, पवित्र का अनुसरण धर्म है तथा पवित्र को अपवित्र से मिला देना पाप है। अंत में, दुर्खाइम के अनुसार “धर्म पवित्र वस्तुओं से संबंधित विश्वासों तथा आचरणों की समग्र व्यवस्था है जो इन पर विश्वास करने वालों को एक नैतिक समुदाय (चर्च) में संयुक्त करती है।”

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
एमिल दुर्खाइम की श्रम विभाजन की धारणा स्पष्ट किजिए? अथवा, श्रम विभाजन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए?
उत्तर:
एमिल दुर्खाइम ने 1893 में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध ग्रंथ Divisional of Labout in society. में श्रम विभाजन की धारणा को स्पष्ट किया है:

(i) समाज सामान्य नैतिक व्यवस्था पर आधारित है-दुर्खाइम के अनुसार समाज सामान्य नैतिक व्यवस्था पर आधारित है न कि विवेकपूर्ण स्वहित पर । दुर्खाइम के अनुसार समाज में व्यक्ति के स्वहित से अधिक कुछ और भी पाया जाता है। उसने इस कुछ को ही सामाजिक एकता का एक रूप कहा है। श्रम विभाजन केवल समाज में व्यक्ति की प्रसन्नताएँ बढ़ाने की विधि नहीं है वरन् एक नैतिक तथा समाजिक तथ्य होता है जिसका उद्देश्य समाज को सूत्रबद्ध करना होता है।

(ii) श्रम विभाजन के मुख्य कारण-दुर्खाइम ने श्रम विभाजन के दो प्रमुख कारण बताए है –

  • जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि होना
  • जनसंख्या के नैतिक घनत्व में वृद्धि होना।

दुर्खाइम का मत है कि जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि होने के साथ-साथ सामाजिक संरचना जटिल होती है। मनुष्य की आवश्यकताओं में निरंतर वृद्धि होती रहती है। चूँकि एक ही समूह अथवा व्यक्ति के लिए समस्त कार्यों को कारना संभव नहीं हो पाता है। अतः श्रम विभाजन अपरिहार्य हो जाते है।

श्रम विभाजन के प्रश्न पर दुर्खाइम सुखवादियों तथा उपयोगितावादियों से सहमत नहीं हैं। दुर्खाइम का मत है कि श्रम विभाजन व्यक्ति के अपने हितों, विचारों, आंनद या उपयोगिता पर . आधारित नहीं हैं। दुर्खाइम श्रम विभाजनं को एक विशुद्ध सामाजिक प्रक्रिया मानते है।

सामाजिक प्रक्रिया के निम्नलिखित दो पक्ष है –

  • जनसंख्या में वृद्धि होना
  • नैतिक पक्ष

दुर्खाइम का मत है कि यह नैतिक दायित्व है कि जनंसख्या में वृद्धि के साथ-साथ प्रत्येक व्यक्ति को समुचित कार्य तथा स्थिति प्रदान करें।

(iii) समाज का वर्गीकरण तथा श्रम विभाजन – दुर्खाइम की श्रम विभाजन की अवधारणा को उसके समाज के वर्गीकरण, समाजिक एकता के प्रकारों तथा कानून के जरिए समझा जा सकता है। दुर्खाइम ने सामाजिक एकता अथवा दृढ़ता के आधार पर समाज का विभाजन दो भागों में किया है –

(a) यांत्रिक एकता पर आधारित समाज – एमिल दुर्खाइम ने यांत्रिक एकता वाले समाज की निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है:

  • व्यक्ति समाज से प्रत्यक्ष रूप से संबद्ध होता है।
  • समाज के सदस्यों में एक ही प्रकार के विश्वास तथा भावनाएँ पाए जाते हैं।
  • सामूहिकता की भावना अत्यधिक प्रबल होती है।
  • समाज में विभिन्नीकरण अपनी प्रांरभिक अवस्था में पाया जाता है। लिंग तथा आयु विभिन्नीकरण के मुख्य आधार होते हैं।
  • प्रकार्यों का स्वरूप अत्यधिक साधारण होता है।
  • समाज के सदस्य एक जैसे होते हैं।
  • समाज के सदस्यों में प्रबल समूहिक चेतना तथा आज्ञापलन की भावना पायी जाती है।
  • समाज में दमनात्मक कानून पाये जाते हैं।

(b) सावयवी एकता पर आधारित समाज-दुर्खाइम का मत है कि जनसंख्या के घनत्व के बढ़ने के साथ-साथ यांत्रिक एकता वाले समाज धीरे-धीरे सावयवी अथवा जैविकीय एकता वाल समाज में परिवर्तित हो जाते हैं।

दुर्खाइम ने सावयवी अथवा जैविकीय एकता पर आधारित समाज की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी है –

  • विभिन्नीकरण की प्रक्रिया जटिल तथा अग्रिम अवस्था में पायी जाती है।
  • समाज के विभिन्न भागों तथा व्यक्तियों में पारस्परिक आवश्यकताओं के आधार पर अन्योन्याश्रितता में वृद्धि होती रहती है।
  • श्रम विभाजन में निंतर वृद्धि के कारण विभिन्न व्यवसायों तथा पेशों का विकास होता है।
  • यद्यपि समाज में वैयक्तिकता की भावना में वृद्धि होती है तथापि पारस्परिकता तथा अन्योन्याश्रितता की भावना निरंतर बढ़ती रहती है।
  • श्रम विभाजन से विशेषीकरण बढ़ता है तथा इससे पारस्परिक निर्भरता की भावना और अधिक प्रबल हो जाती है हालांकि अति-
  • विशेषीकरण अलगाव भी उत्पन्न कर देता है।
  • समाज में दमनात्मक कानून का स्थान नागरिक तथा पुनर्स्थापना वाले कानून ले लेते हैं।
  • अति-श्रम विभाजन तथा अति-विशेषीकरण का परिणाम-हमिल दुर्खाइम का मत है कि अति-श्रम विभाजन का अति-विशेषीकरण से समाज में निम्नलिखित समस्याएँ आ सकती हैं :
    (i) अत्यधिक व्यक्तिवादिता जिससे में पृथकता तथा अलगाव उत्पन्न होता है।
    (ii) व्यक्तियों में सामूहिक तथा अन्योन्याश्रिता की भावना में उत्तरोत्तर कमी होती चली जाती है।
    (iii) समाज में एनोमिक अथवा प्रतिमानहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

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प्रश्न 2.
सामाजिक तथ्य क्या है?
उत्तर:
सामाजिक तथ्य का तात्पर्य-दुर्खाइम के अनुसार समाजशास्त्र का क्षेत्र कुछ प्रघटनाओं तक सीमित है। वे इन्ही प्रघटनाओं को सामजिक तथ्य कहते हैं। दुर्खाइम का मत है कि सामाजिक तथ्य व्यक्ति की व्यक्तिगत विशेषताओं अथवा मानव प्रकृति के गुणों से स्वतंत्र होते हैं। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि सामजिक तथ्य विचार अनुभव अथवा क्रिया का ऐसा रूप है कि जिसका निरीक्षण वस्तुमरक आधार पर किया जा सकता है तथा जो एक विशेष तरीके से व्यवहार करने के लिए बाध्य करता है।

दुर्खाइम के अनुसार, “सामाजिक तथ्य पूर्णतया स्वतंत्र . नियमों या प्रथाओं का एक वर्ग है।” व्यक्तिगत तथ्य सामाजिक तथ्य में अंतर-व्यक्ति जो अपने लिए जो कार्य करता है वह व्यक्तिगत तथ्य कहलाता है। उदाहरण के लिए व्यक्ति का चिंतन करना तथा सोना आदि व्यक्तिगत तथ्य है।

दूसरी तरफ, अनेक ऐसे कार्य होते हैं जिनका निर्धारण व्यक्ति के इच्छा द्वारा नहीं होता है। उदाहरण के लिए समुदाय के सदस्यों के द्वारा प्रयोग की जाने वाली भाषा, किसी देश की मुद्रा व्यवस्था या किसी व्यवस्था के मानक तथा नियम विनियम व्यक्ति की अपनी इच्छा पर निर्भर नहीं करते है इस प्रकार, समाजिक तथ्य व्यक्ति के मस्तिष्क की उपज नहीं होते हैं। सामाजिक तथ्य व्यक्ति के सोचने तथा अनुभव करने की ऐसी – पद्धति है जिसका अस्तित्व की चेतना से बाहर होता है।

सामाजिक तथ्यों की प्रमुख विशेषताएँ-सामाजिक तथ्यों की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित है –

  • सामाजिक तथ्यों की प्रकृति संपूर्ण समाज में सामान्य होती है।
  • सामाजिक तथ्य व्यक्ति के मस्तिष्क से बाहर स्वतंत्र अस्तित्व रखते हैं।
  • सामाजिक तथ्यों के व्यवहार पर बाह्य नियंत्रण रखते हैं।

उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर सामाजिक तथ्यों के दो स्वरूप पाये जाते हैं –

  • बाह्ययता
  • बाध्यता

1. बाहयता – सामाजिक तथ्यों को उनकी बाह्य विशेषताओं के आधार पर पृथक् किया जाता है। सामाजिक तथ्यों की प्रकृति विशिष्ट होती है। ये व्यक्तियों की क्रियओं का परिणाम होने के बाबजूद भी उससे अलग बाह्य शक्ति हैं। इनका स्वरूप व्यक्तिगत चेतना से भिन्न होता है। उदाहरण के लिए किसी विशेष सामाजिक मान्यता के विकास में अनेक सदस्यों का सहयोग हो सकता है। लेकिन सामाजिक मान्यता के बन जाने पर वह किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित नहीं। होती हैं। इस प्रकार दुर्खाइम सामूहिक प्रतिनिधानों को सामाजिक तथ्य मानते हैं।

2. बाध्यता – सामाजिक तथ्यों के निर्माण में व्यक्तियों के चिंतन, विचारों तथा भावनाओं का सम्मिलित होता है। व्यक्ति अपने को इनका एक हिस्सा मानता है तथा उनके अनुरूप अपने म ए गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट टू (उच्च माध्यमिक) समाजशास्त्र, वर्ग-114 व्यवहार समायोजित करता है। व्यक्ति धर्म, पंरपतरा, नैतिक आचरण, मूल्य ,रीति-रिवाजों तथा परंपराओं आदि से नियंत्रण प्राप्त करते हैं।

व्यक्ति को सामाजिक तथ्यों के निर्देशों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाता है। जब व्यक्ति सामाजिक तथ्यों का प्रतिरोध करता है या इनके नियमों का उल्लघंन करने का प्रयास करता है तो समाज की विरोधी प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है। व्यक्ति को सामाजिक नियमों के अनुप कार्य करने के लिए बाध्य किया जाता है।

प्रश्न 3.
आत्महत्या के प्रकार को दुर्खाइम ने किस प्रकार वर्गीकृत किया है समझाए?
उत्तर:
दर्खाइम ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ सुसाइड 1897 में आत्महत्या के कारणों तथा प्रकारों की समाजशास्त्रीय व्याख्या की है। दुर्खाइम आत्महत्या के मनोवैज्ञानिक कारणों से सहमत नहीं हैं। दुर्खाइम आत्महत्या को एक सामाजिक तथ्य मानते हैं। उनके अनुसार आत्महत्या सामाजिक एकता के अभाव को प्रकट करती है। व्यक्ति सामाजिक एकता के अभाव में असुरक्षा की भावना से ग्रस्त हो जाता है तथा ऐसी अवस्था में वह अपने आत्मविनाश की बात सोच सकता है। दुर्खाइम की आत्महत्या संबंधी व्याख्या की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

  • आत्महत्या एक सामाजिक तथ्य है।
  • मनौवैज्ञानिक कारकों के संदर्भ में सामान्य समाज में आत्महत्या की उपयुक्त व्याख्या संभव नहीं है।
  • एक सामान्य समाज में आत्महत्या तथा अपराध की दर में अकस्मात वृद्धि नहीं होती है।
  • दुर्खाइम ने आत्महत्या की व्याख्या अनेक सामाजिक कारकों जैसे समाजिक एकता, सामूहिक चेतना, सामाजिकता तथा प्रतिमानहीनता के संदर्भ में की है।
  • समाज की विभिन्न परिस्थितियों तथा कारण विभिन्न प्रकार की आत्महत्याओं का परिणाम होती है।
  • आधुनिक समाजों में सामाजिक बंधनों में शिथिलता के परिणामस्वरूप व्यक्ति या तो अलगाव से ग्रस्ति हो जाता है या समाज में आत्मविस्मृत हो जाता है।

दुर्खाइम ने चार प्रकार की आत्महत्याओं का उल्लेख किया है:
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(i) अहंवादी आत्महत्या – अहंवादी आत्महत्या में व्यक्ति यह अनुभव करने लगाता है कि सामजिक परम्पराओं द्वारा निर्धारित भूमिकाओं को वह निभाने में असफल रहा है, यह तथ्य उसकी प्रतिष्ठा तथा सम्मान के विपरित होता है। दुर्खाइम के अनुसार जब व्यक्ति के दूसरों से संबंध करने वाले बंधन कमजोर हो जाते हैं तो अहंवाद की उत्पति होती है।

ऐसी परिस्थितियों में व्यक्ति द्वारा अपने अहं को आत्यधिक महत्व दिया जाता है। अत: व्यक्ति समाज से समुचित रूप से एकीकृत नहीं हो पता है। इस प्रकार परिवार धर्म तथा राजनीतिक संगठनों बंधनों के कमजोर हो जाने से अहंवादी आत्मवादी आत्महत्या की दर से वृद्धि हो जाती है: जपान में हरा-किरी की प्रथा अहंवादी आत्महत्या का उपयुक्त उदाहरण है।

(ii) परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या – परसुखवादी अथवा परमार्थमूलक आत्महत्या में सामूहिक चेतना तथा सामाजिक एकता की मात्र अत्यधिक पायी जाती है। दुर्खाइम के अनुसार परसुखवादी आत्महत्या में व्यक्ति में समाज में प्रति बलिदान की भावना पायी जाती है। देश की आजादी के लिए प्राणों की बलिदान कर देना अथवा जौहर प्रथा परसुखवादी आत्महत्या के उदाहरण हैं।

(iii) एनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनता मूलक आत्महत्या – ऐनोमिक आत्महत्या अथवा प्रतिमानहीनता मूलक आत्महत्या प्रायः उन समाजों में पायी जाती हैं जहाँ सामाजिक आदर्शों में अकस्मात परिवर्तन हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में समाज में वैयक्तिक विघटन की सामाजिक घटनाएँ घटनाएँ बढ़ने लगती हैं। दुर्खाइम इस स्थिति को एनोमिक अथवा प्रतिमानहीनता कहते हैं।

दुर्खाइम का मत है कि अत्यधिक विभिन्नीकरण, नियमविहीन श्रम विभाजन के कारण जैविकीय दृढ़ता की स्थिति में आशानुरूप सामजिकता, सामूहिक चेतना तथा अन्योन्याश्रितता की कमी उत्पन्न हो जाती है। ऐसी विषय स्थिति में व्यक्ति में व्यक्ति का समाज से अलगाव हो जाता है। दुर्खाइम का मत है कि ऐसी स्थिति में सामाजिक मानक समाप्त हो जाते हैं व्यक्ति में सामाजिक स्थिति से उत्पन्न तनावों को सही न करने की क्षमता कम हो जाती है।

ऐसी स्थिति में व्यक्ति के समक्ष जब भी तनाव पूर्ण स्थिति आती है तो उसका संतुलन अव्यवस्थित हो जाता है तथा वह आत्महत्या कर लेता है। व्यापार में आचानक घटा तथा राजनैतिक उतार-चढ़ाव आदि के कारण भी व्यक्ति आत्महत्या कर लेता हैं। इस प्रकार, समाज में एनोमिक अथवा नियमहीनता अथवा प्रतिमानहीनता की स्थिति उत्पन्न होने से आत्महत्याओं की दर से वृद्धि हो जाती है।

(iv) भाग्यवादी आत्महत्या – दुर्खाइम के अनसार सामज में अत्यधिक नियमों तथा कठोर शासन व्यवस्था के कारण भाग्यवादी आत्महत्याओं की दर से वृद्धि हो जाती है। दुर्खाइम ने दासा प्रथा को भाग्यवादी आत्महत्या का उपयुक्त उदाहरण बताया है। जब दास यह समझने लगते हैं कि उनका नारकीय जीवन छुटकारा असंभव है तो वे भाग्वादी हो जाते हैं तथा आत्महत्या कर लेते हैं।

मैक्स वेबर – (1864-1920)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नौकरशाही की अवधारणा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक विश्व में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी का महत्व निरंतर बढ़ रहा है। व्यापार तथा उद्योग का आधार तार्किक गणनाएँ हैं। राज्यों की बढ़ती हुई जटिलताओं के कारण नौकरशाही अथवा तार्किक वैधानिक सत्ता पर निर्भर हो जाता है।

ब्यूरो का शाब्दिक अर्थ है कि एक कार्यालय अथवा कानूनों, नियमों व नियमों की व्यवस्था, जो विशिष्ट प्रकार्यों को परिभाषित करती है। इसका तात्पर्य है एक समूह संगठित कार्य प्रक्रिया। मैक्य वैबर के अनुसार, “नौकरशाही पदानुक्रम में एक सामाजिक संगठन है। नौकशाही में प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ शक्ति तथा सत्ता होती है। नौकरशाही का उद्देश्य आधुनिक समाजों में प्रशासन, राज्यों या अन्य संगठनों, जैसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी एवं औद्योगिक तथा वाणिज्य . संगठनों को तार्किक रूप से चलना है।” मैक्स वैबर प्रजातंत्र तथा नौकरशाही में घनिष्ठ संबंध स्थापित करते हैं।

प्रश्न 2.
वैबर का धर्म का समाजशास्त्र समझाइए।
उत्तर:
मैक्स दूंबर के अनुसार धर्म मल्यों, विश्वासों तथा व्यवहारों की एक व्यवस्था है जो मानव के कार्यों तथा अभिविन्यास को निश्चित आकार प्रदान करता है। धर्म एक सामाजिक प्रघटना है जो अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं से घनिष्ठतापूर्वक संबंधित। होती है। मैक्स वैबर ने धार्मिक विचारों तथा आर्थिक संस्थाओं के बीच संबंधों में गहरी रुचि प्रदर्शित की है।

प्रश्न 3.
प्रशासन के स्वरूप के संदर्भ में नौकरशाही की विशिष्ट विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
मैक्स वैबर ने प्रशासन के स्वरूप के संदर्भ में नौकरशाही की निम्नलिखित विशिष्ट विशेषताएं बतायी हैं:

  • निरंतरता
  • पदानुक्रम या संस्तरण
  • संसाधनों के मालले में सरकारी कार्यालयों के निजी स्वामित्व या निंत्रण से पृथक रखना।
  • लिखित दस्तावेजों का प्रयोग
  • वेतनभोगी पूर्णकालिक व्यावसायिक आधार पर विशेषज्ञ।

प्रश्न 4.
सामाजिक क्रिया के अर्थ को समझने के लिए मैक्स वैबर ने किन दो अंत संबंधित विधियों का उल्लेख किया है?
उत्तर:
मैक्स वैबर ने सामाजिक क्रिया के अर्थ को समझने के लिए दो अंत:संबंधित विधियों का उल्लेख किया है:

  • वर्सतेहन तथा
  • आदर्श प्रारूपों की मदद से विशेलषण

प्रश्न 5.
आदर्श प्रारूप का अर्थ संक्षेप मे बताइए?
उत्तर:
आदर्श प्रारूप एक अस्तित्व की विशेषताओं का समूह है जो, कि:

  • तार्किक रूप से निरंतर होती है।
  • जो उसके अस्तित्व को संभव बनाती है।

आदर्श प्रारूपों कुछ तत्वों विशेषताओं या लक्षणों का चयन है जो कि अध्ययन की जाने वाली प्रघटनाओं के लिए विशिष्ट तथा उपयुक्त है। यद्यपि आदर्श प्रारूप का निमार्ण समाज में पायी जाने वाली वास्तविकताओं के आधार पर होता है तथापि वे (आदर्श-प्रारूप) समस्त वास्तविकताओं का वर्णन तथा प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं वस्तुतः आदर्श प्रारूप एक मानसिक निमार्ण है।

प्रश्न 6.
व्याख्यात्मक समाजशास्त्र से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मैक्स वैबर समाजशास्त्र को सामाजिक क्रिया का व्याख्यात्मक बोध मानते हैं। समाज शास्त्र के द्वारा सामाजिक क्रिया की आंतरिक उन्मुखता तथा अर्थों को समझाने का प्रयास किया जाता है। वैबर इसे ही व्याख्यात्मक समाजशास्त्र कहता है। व्यख्यात्मक समाजशास्त्र द्वारा निम्नलिखित कारकों के अध्ययन, व्याख्या तथा पहचान पर विशेष जोर दिया जाता है

  • सामाजिक क्रिया
  • सामाजिक क्रिया की आंतरिक उन्मुखता
  • अंतनिर्हित अर्थ
  • अन्य व्यक्तियों की ओर उन्मुख होने से विकसित पारस्परिकता।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 पाश्चात्य समाजशास्त्री-एक परिचय

प्रश्न 7.
तर्कसंगत वैधानिक सत्ता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मैक्स वैबर के अनुसार तर्कसंगत वैधानिक सत्ता तर्कसंगत वैधता पर आधारित होती है। तर्कसंगत वैधानिक सत्ता नियामक नियमों की वैधता के विश्वास पर आधारित होती है। तर्कसंगत वैधानिक सत्ता उन व्यक्तियों के अधिकारों को स्वीकार कारती है जो वैधानिक यप से परिभाषित नियमों के अंतर्गत सत्ता का प्रयोग आदेश देने के लिए करते हैं।

प्रश्न 8.
पारंपरिक सत्ता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
पारंपरिक सत्ता वस्तुतः वैधता पर निर्भर करती है। पारंपरिक वैधता प्राचीन परंपराओं की पवित्रता के स्थापित विश्वासों पर आधारित होती है। पारंपरिक सत्ता चिंतन के स्वाभाविक तरीको पर निर्भर करती है।

प्रश्न 9.
करिश्माई सत्ता से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
मैक्स वैबर के अनुसार करिश्माई सत्ता का आधार करिश्माई वैधता है। करिश्माई का अर्थ है ‘सुंदरता का उपहार’ करिश्माई वैधता का संबंध उस व्यक्ति से होता है जिसका चरित्र विशिष्ट तथा अपवादस्वरूप है तथा जो नायक है तथा जिसका उदाहरण श्रद्धापूर्वक दिया जाता है। करिश्माई सत्ता उन नियामक प्रतिमानों पर निर्भर होती है जिनका निर्धारण करिश्माई व्यक्ति द्वारा किया जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
वेबर की वर्ग, प्रस्थिति व शक्ति की अवधारणा की व्याख्या कीजिए?
उत्तर:
वेबर की वर्ग की अवधारणा-वैबर की वर्ग को व्यक्तियों की श्रेणी के रूप में परिभाषित किया है। उन व्यक्तियों में जीवन की संभावनाओं के विशिष्ट घटक को सामान्य रूप से देखा जाता है। यह घटक विशिष्ट रूप से आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करता है, जिनमे वस्तुओं पर स्वामित्व तथा आय के अवसर हों। इस उपयोग की वस्तुओं की तरह प्रस्तुत किया जाता है। श्रम बाजार के वर्ग कभी भी वर्ग नहीं हो सकते।

वेबर की प्रस्थिति की अवधारणा-यद्यपि स्थिति समूह समुदाय हैं। प्रस्थिति का निश्चय निर्धारण एक विशिष्ट सकारात्मक अथवा नाकारात्मक सामाजिक सम्मान से होता है। इसका निर्धारण आवश्यक रूप से वर्ग स्थिति के द्वारा नहीं होता है। प्रस्थिति समूह के सदस्य उपयुक्त जीवन शैली की धारणा अथवा उपभोग प्रतिमानों के द्वारा अन्य व्यक्तियों द्वारा प्रदान किए सामाजिक सम्मान की धारणा से जुड़े होते हैं। प्रस्थिति विभेद सामाजिक अंत:क्रिया पर प्रतिबंधों की आशाओं से संबद्ध होते हैं ऐसे व्यक्ति जो विशेष स्थिति समूह से संबंध नहीं होते हैं तथा जो अपने से निम्न प्रस्थिति के व्यक्तियों से सामाजिक दूरी कायम कर लेते हैं।

वेबर की शक्ति की अवधारणा – वैबर के अनुसार शक्ति अथवा सत्ता एक अन्य दुलर्भ संसाधन है। शक्ति एक व्यक्ति अथवा अनेक व्यक्तियों द्वारा दूसरों के प्रतिरोध के बावजूद अपनी इच्छा को समुदायिक क्रिया के रूप में सभी पर लागू करते हैं अनके व्यक्ति अधिक से अधिक शक्ति संचय करना चाहते हैं।

वास्तविकता यह है कि सभी व्यक्ति दूसरे व्यक्तियों की सत्ता के नियंत्रण से बचना चाहते हैं। शक्ति के लिए संघर्ष सभी समाजों में पाया जाता है। शक्ति का यह संघर्ष राजनीतिक समूहों या आधुनिक समाजों में राजनीतिक दलों के द्वारा किया जाता है। शक्ति के मैदान में दलों के समूह पाए जाते हैं। उनकी क्रियाओं का निर्धारण सामाजिक शक्ति अर्जित करने में होता है। इस प्रकार, शक्ति के आधार पर असमान्त का जन्म होता है।

प्रश्न 2.
बुद्धिसंगत, वैध व पारंपरिक सत्ता में अंतर स्पष्ट किजिए?
उत्तर:
बुद्धिसंगत, वैध व पारंपरिक सत्ता में निम्नलिखित अंतर है –
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प्रश्न 3.
सामाजिक क्रिया किसे कहते हैं?
उत्तर:
मैक्स वेबर सामाजिक क्रिया को समाजशास्त्र के अध्ययन की मुख्य विषय-वस्तु मानते हैं। वेबर का मत है कि जब व्यक्ति एक व्यक्ति एक-दूसरे की तरफ उन्मुख होते हैं तब इस उन्मुखता में आंतरिक अर्थ निहित होता है, वह सामाजिक क्रिया कहलाती है। बैबर ने समाजिक क्रिया में आंतरिक अर्थ निहित है, वह सामाजिक क्रिया कहलाती है। वैबर ने समाजिक क्रिया में चार तत्व बताए हैं –

  • कर्ता
  • परिस्थिति
  • साधन तथा
  • लक्ष्य

सामाजिक क्रिया के निम्नलिखित चार प्रकार होते हैं:

  • धार्मिक क्रिया – इसके अंतगर्त कर्मकांड तथा धार्मिक उत्सव जैसी क्रियाएँ आती हैं इन सामाजिक क्रियाओं को धर्म द्वारा स्वीकार किया जाता है।
  • विवेकपूर्ण क्रिया – आर्थिक क्रियाएँ जैसे उत्पादन, वितरण तथा उपयोग विवेकपूर्ण क्रियाएँ हैं। इसमें साध्य तथा साधन के विवेकपूर्ण संतुलन पर विशेश बल दिया जाता है।
  • परंपरागत क्रिया – वैबर परंपरागत क्रिया के अंतर्गत प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों को सम्मिलित करते हैं।
  • भावनात्मक क्रिया – वैबर प्रेम, क्रोध नकरात्मक व्यवहार तथा इनका अन्य व्यक्तियों पर प्रभाव को भावनात्मक क्रिया के अंतर्गत सम्मिलित करते हैं।

प्रश्न 4.
मार्क्स और वेबर ने भारत के विषय में क्या लिखा है, पता करने की कोशिश कीजिए?
उत्तर:
मार्क्स के समय भारत में 1857 का विद्रोह हो चुका था। 1857 में मार्क्स फ्रांस आकर रहने लगे थे। उनकी प्रसिद्ध रचना ‘कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो’1857 में प्रकाशित हुई। उसके 10 वर्ष बाद भारत में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हुआ। मार्क्स चूंकि पूंजीवाद के विरोधी थे इसलिए उन्होंने इस बिद्रोह के पूजीवाद व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का एक प्रयास बताया। लंदन में प्रकाशित एक समाचार पत्र में मार्क्स ने टिप्पणी की “फ्रांस की क्रांति जब मजदूर को उसका हक दिला सकती है तो भारत में यह क्यों नहीं हो सकता।”

14 मार्च, 1853 को मार्क्स का निधन हो गया। वे भारत के बारे में उत्कृष्ट विचार रखते थे। मैक्स वेबर भी एक समाजशास्त्री थे। प्रथम विश्वयुद्ध को उन्होंने अपनी आँखों से देखा था। वे भारत द्वारा इस गृह युद्ध में भाग लेने के विरोधी थे। वे भारत की स्वतंत्रता के पक्षधर थे। 14 जून, 1920 के वेबर का निधन हो गया।

प्रश्न 5.
‘आदर्श प्रारूप’ से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मैक्स वेबर का मत है कि समाज जटिल होता है। तथा इसमें सदैव शक्तियों के परिवर्तन का खेल चलता रहता है। वेबर ने आदर्श प्रारूपों की अपने धारणा का विकास किया, जिससे. अंनत जटिल तथा परिवर्तनशील दुनिया को समझकर उसके आधार पर वैज्ञानिक सामान्यीकरण हो सके।

आदर्श प्रारूप एक अस्तित्व में विशेषताओं का समूह है जो कि –

  • तार्किक रूप निरंतर होती है।
  • जो उसे अस्तित्व को संभव बनाती है।

आदर्श प्रारूप कुछ तत्वों, विशेषताओं या लक्षणों का चयन है जो कि अध्ययन की जानेवाली प्रघटनाओं के लिए विशिष्ट तथा उपयुक्त है। यद्यपि आदर्श प्रारूप का निर्माण समाज में पायी जाने वाली वास्तविकताओं के आधार पर होता है तपापि वे (आदर्श-प्रारूप) सपस्त वास्तविकताओं का वर्णन तथा प्रतिनिधत्व नहीं करते हैं। वस्तुत: आदर्श प्रारूप एक मानसिक निमार्ण है।

आदर्श प्रारूपों को गुणात्मक सामाजिक तथ्यों का ऐसा प्रतिनिधि स्वरूप या मानदंड कहा जाता है जिनका चयन तर्किक आधार पर विचारपूर्वक किया जाता है। मैक्स वैबर ने अपनी अध्ययन विषय-वस्तु के विश्लेषण में सत्ता, शक्ति, धर्म, पूँजीवाद आदि आदर्श प्रारूपों का चयन किया है।

मैक्स वेबर के अनुसार आदर्श प्रारूपों के अंतर्गत केवल तार्किक तथा महत्त्वपूर्ण तत्वों को ही सम्मिलित किया जाता है। वैबर का मत है कि आदर्श प्रारूप अपने आप में साध्य नहीं है वरन् ऐतिहासिक तथ्यों के व्यापक विश्लेषण में उपकरण अथवा सहायक यंत्र है।

प्रश्न 6.
शासन के तीन प्रकार कौन से हैं?
उत्तर:
मैक्स वैबर ने शासन के आदर्श प्रारूप की रचना की है। वैबर ने शासन के निम्नलिखित तीन प्रारूप बताए हैं:

(i) तार्किक अथवा बुद्धिसंपन्न शासन – शासन का यह आदर्श प्रारूप के अंतगर्त शासन के प्रारूप विवेक कानून तथा आदेश के द्वारा न्यायसंगत होता है। शासन के इस प्रारूप में समस्त प्रशासन का व्यापक आधार विवेक सम्मत कानून होते हैं।

(ii) पारंपरिक शासन – पारंपरिक शासन के प्रारूप के अंतर्गत शासन के प्रारूप को अतीत के रीति-रिवाजों तथा परंपराओं द्वारा न्यायसंगत ठहराया जाता है। कोई भी शासन व्यवस्था पारंपरिक शासन से पूर्णरूपेण मुक्त नहीं हो सकती है। वास्तव में शासन पारंपरिक तथा आधुनिक दोनों ही आधरों का मिला-जुला स्वरूप होता है। परंपराएँ, रीति-रिवाज तथा जाति आदि कारक शासन के स्वरूप, दिशा तथा प्रगति आदि को निर्धारित करने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

(iii) करिश्माई शासन – करिश्माई शासन को करिश्माई नेता के व्यक्तिगत तथा अपवादस्वरूप गुणों के आधार पर न्यायसंगत ठहराया जाता है। करिश्माई नेता का उपयोग वास्तविक राजनीतिक शासन प्रणाली को विश्लेषणात्मक रूप से समझने तथा उसके पुनर्निर्माण में किया जा सकता है। करिशमाई नेताओं में महत्मा गाँधी तथा अब्राहम लिंकन आदि का नाम उल्लेखनीय है। जहाँ तक शासन प्रणाली के समग्र एकीकृत स्वरूप का प्रश्न है, प्रत्येक प्रकार की शासन व्यवस्था में तार्किक, पारंपरिक तथा करिश्माई तीनों ही प्रकार के तत्व होने आवश्यक हैं।

दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि कोई भी शासन का आर्दश प्रारूप किसी एक तत्व की अनुपस्थिति में सुचारु रूप से हनीं चल सकता है। उदाहरण के लिए करिश्माई नेता तो हो, लेकिन शासन के प्रारूप में तार्किक अथवा विवेक न हो तो शासन का प्रारूप आर्दश प्रारूप नहीं कहलाएगा।

प्रश्न 7.
पूंजीवाद के प्रमुख तत्व क्या हैं?
उत्तर:
मैक्स वैबर पूँजीवाद को एक आधुनिक तथा विवेकशील पद्धति मानते हैं। वैबर का प्रसिद्ध ग्रंथ The Protestat Eithic and the Spirit of Capitalism 1904 में प्रकाशित हुआ था । वैबर का मत है कि प्रोटेस्टेंट धर्म की आचार संहिता आर्थिक क्षेत्र में पूँजीवाद के जन्म के महत्त्वपूर्ण कारक हैं। मैक्स वैबर ने लिखा है। कि “प्रोटस्टेंट धर्म की कुछ ऐसी विशेषताएँ हैं जिनसे इस प्रकार की आर्थिक मान्यताएँ उत्पन्न होती हैं जिन्हें हम पूँजीवाद के नाम से जानते हैं तथा वह प्रोटेस्टेंट सुधार ही था जिसने पँजीवादी अर्थव्यवस्था के विकास में प्रत्यक्ष रूप से प्रेरणा प्रदान की।”

इस प्रकार प्रोटेस्टेंटवाद ने आधुनिक पूँजीवाद की भावना को प्रोत्साहित किया। आधुनिक पूँजीवाद में निरंतर धन कमाने तथा लाभ के लिए उसका पुनर्निवेश किया जाता है। मैक्स वैबर ने फ्रैंकलिन के लेखों से पूँजीवाद के शुद्ध मनोभाव का निर्माण किया है। वैबर ने पूँजीवाद के निम्नलिखित लक्षण बताए हैं:

  • समय ही धन होता है।
  • साख ही धन होता है।
  • धन से ही धन प्राप्त होता है। कभी भी एक पैसा गलत नहीं खर्च करना चाहिए तथा पैसा बेकार नहीं पड़ा रहना चाहिए।
  • प्रत्येक व्यक्ति का ऋण चुकाने में पाबंद होना चाहिए। इसी कारण कहा गया है कि नियत समय पर ऋण चुकाने वाला व्यक्ति दूसरे
  • व्यक्ति के पर्स का स्वामी बन जाता है। इसका तात्पर्य है कि निमित समय पर ऋण चुकाने वाला पुनः धन उधार ले सकता है।
  • व्यक्ति के द्वारा आया तथा व्यय का विशद विवरण रखना चाहिए।
  • व्यक्ति की पहचान उसकी बुद्धिमता तथा परिश्रम से होनी चाहिए।
  • व्यक्ति को व्यर्थ समय नष्ट नहीं करना चाहिए।

मैक्स बेबर का मत है कि उपरोक्त वर्णित नियमों के पालन से आधुनिक पूँजीवाद के मनोभावों. का पोषण होता है। आधुनिक पूँजीवाद का मनोभाव है, वह दृष्टिकोण जो तार्किक तथा व्यवस्थित तरीक से लाभ कमाए। वह अविरल तथा तार्किक लाभ अर्जित करने का दर्शन है।

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प्रश्न 8.
क्या आप कारण बता सकते हैं कि हमें उन चिंतको के कार्यों का अध्ययन क्यों करना चहिए जिनकी मृत्यु हो चुकी है? इनके कार्यों का अध्ययन न करने के कुछ कारण क्या हो सकते हैं?
उत्तर:
साहित्य कभी मरता नहीं है। विचार भी कभी मरता नहीं हैं। साहित्य और विचार हमेशा जीवित रहते हैं इसलिए ऐसे विचारक जो अब इस संसार में नही हैं उनकी रचनाएँ हमें अवश्य पढ़नी चाहिए। इससे हम उनके समय की विचारधारा व तथ्यों को तो जान ही सकेंगे, साथ ही उनसे आने वाले समय के लिए मार्गदर्शन प्रेरणा प्राप्त कर सकेंगे।

प्रश्न 9.
सामाजिक क्रिया के चार प्रकारों का वर्णन कीजिए?
अथवा
सामाजिक क्रिया का अर्थ स्पष्ट कीजिए तथा इसके चार प्रकारों का उल्लेख कीजिए?
उत्तर:
सामाजिक क्रिया का अर्थ-मैक्स वेबर सामाजिक क्रिया को समाजशास्त्र के अध्ययन की प्रमुख विषय-वस्तु मानता है। मैक्स वबर का मत है कि जब व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति उन्मुख होते हैं तथा इस उन्मुखता में आंतरिक अर्थ निहित होता है, तब उसे सामाजिक क्रिया कहा जाता है।

सामाजिक क्रिया के अर्थ को स्वष्ट करने हुए मैक्स वैबंर करते हैं कि “किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया उसी स्थिति में कहा जाएगा जब उस क्रिया का निष्पादन कारने वाले व्यक्ति उस क्रिया में अन्य व्यक्तियों के दृष्टिकोण एवं क्रियाओं को समावेशित किया जाए तथा उन्हीं के परिप्रेक्ष्य में उनकी गतिविधियाँ भी निश्चित की जाएँ।” मैक्स वैबर सामाजिक क्रिया में निम्नलिखित चार तत्वों को आवश्यक मानते हैं –

  • कर्ता
  • परिस्थिति
  • साधन तथा
  • लक्ष्य

मैक्स वैबर ने किसी भी क्रिया को सामाजिक क्रिया मानने के दृष्टि कोण से निम्नलिखित तथ्यों का उल्लेख किया है:

  • सामाजिक क्रिया को दूसरे व्यक्तियों को अतीत, वर्तमान तथा भविष्य का व्यवहार प्रभावित कर सकता है।
  • प्रत्येक प्रकार के क्रिया का सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता है।
  • व्यक्तियों के समस्तु संपर्कों को सामाजिक क्रिया की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।

इस संदर्भ में मैक्स वैबर ने उदाहरण देते हुए कहा है कि यदि दो साइकिल सवार आपस में टकराते हैं तो यह केवल एक घटना है न कि सामाजिक क्रिया; लेकिन जब दोनों साइकिल सवार एक दूसरे को मार्ग प्रदान करते हैं अथवा टकराने के पश्चात् झगड़ा करते हैं या समौझाता करते हैं तो इसे हम सामाजिक क्रिया कहेंगे।

अनेक व्यक्तियों द्वारा की जाने वाली क्रिया को सामाजिक क्रिया नहीं कहा जा सकता है। सामाजिक क्रिया का व्यक्ति से संबंधित होना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, वर्षा होने की स्थिति में सड़क पर चलने वाले व्यक्तियों द्वारा छाते का प्रयोग सामाजिक क्रिया नहीं है। व्यक्तियों की इस क्रिया का संबंध वर्षा से है न कि व्यक्तियों से। मैक्स वैबर के अनुसार सामाजिक क्रिया तार्किकता से गहराई से संबद्ध होती है।

सामाजिक क्रिया के प्रकार : मैक्स वैबर ने सामाजिक क्रिया निम्नलिखित चार प्रकार बताए हैं –

  • लक्ष्य-युक्तिमूलक क्रिया
  • मूल्य-युक्तिमूलक क्रिया
  • भावात्मक क्रिया तथा
  • पारंपरिक क्रिया।

1. लक्ष्य-युक्तमूल्य क्रिया – लक्षय युक्तिमूलक क्रिया में व्यक्ति अपने व्यावहारिक लक्ष्यों तथा साधनों का स्वयं तार्किक रूप से चयन करता है। लक्ष्यों तथा साधनों का चयन तार्किक रूप से किया जाता है।

2. मूल्य युक्तिमूलक क्रिया – मूल्य युक्ति मूलक क्रिया इस अर्थ में तार्किक है कि इसका निर्धाण कर्ता के धार्मिक तथा नैतिक विश्वासों के द्वारा होता है। इस प्रकार की क्रिया के स्वरूप का मूल्य समग्र होत है तथा वह परिणामों में स्वतंत्र होता है। इस प्रकार की सामाजिक क्रिया का संपादन नैतिक मूल्यों के प्रभाव में किया जाता है।

3. भावात्मक क्रिया – जब क्रिया के साधनों का चयन भावानात्मक आधार पर किया जाता हैं, तो इसे भावानात्मक क्रिया कहते हैं। ये क्रियाएँ चूंकि संवेगात्मक प्रभावों में की जाती हैं, अतः ये तार्किक हो भी सकती हैं अथवा नहीं भी हो सकती हैं।

4. पारंपरिक क्रिया-पारंपरिक क्रिया के अंतर्गत रीति-रिवाजों के द्वारा साध्यों तथा साधनों का चयन किया जाता है।

प्रश्न 10.
सामाजिक विज्ञान में किस प्रकार विशिष्ट तथा भिन्न प्रकार की वस्तुनिष्ठता की आवश्यकता होती है?
उत्तर:
जब किसी घटना का निरीक्षण उसके वास्तविक या सत्य रूप में किया जाता है और इस प्रकार के निरीक्षणों द्वारा निरीक्षणकर्ता की मनोवृति का प्रभाव नहीं पड़ता है तब ऐसे निरीक्षणों को वस्तुनिष्ठ निरीक्षण और प्राप्त परिणामों को वस्तुनिष्ठ परिणाम कहते हैं। वस्तुष्ठि परिणामों की एक पहचान यह है कि यदि किसी समस्या का अध्ययन कई अध्ययनकर्ता एक ही निष्कर्ष पर पहुचते हैं तो कहा जाता है कि प्राप्त निष्कर्ष वस्तुनिष्ठ है।

विशिष्ट और विपरीत परिस्थतियों में समाज विज्ञान में वस्तुनिष्ठता के विभिन्न प्रकारों की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि अनुसंधान की व्यक्तिनिष्ठता अनुसंधान के परिणामों को प्रभावित न करें।

प्रश्न 11.
क्या आप ऐसे विचार अथवा सिद्धांत के बारे में जानते हैं जिसने आधुनिक भारत में किसी सामाजिक आन्दोलन को जन्म दिया है?
उत्तर:
वर्तमान समय में सामाजिक आंदोलन को बढ़ावा देने से आशय यहां भारतीय समाजशास्त्र को विकसित करने की संभावना से है। इस विषय को समाजशास्त्री डॉ. बी. आर. चौहान ने निम्न तथ्य प्रस्तुत किए हैं। उन समस्याओं का, जो देश के सामने आई हुई हैं अथवा उन मद्दों को, जिनका समाज को समाना करना है, विश्लेषण प्रस्तुत करना। के ज्ञान तथा लोगों के कथनों की परीक्षणीय अव्यक्तिगत प्राक्कलपानाओं के रूप में वैज्ञानिक स्तर पर लाना। जिस सीमा तक भारत में समाजशास्त्र इन स्थितियों का अध्ययन – कर सकते है, उस सीमा तक वे अपनी उपाधि तथा स्थान को उचित ठहरा सकते हैं।

डॉ. चौहान ने भारतीय समाजशास्त्र के विकास की संभावनाओं के लिए निम्न सुझाव दिए हैं –

(i) भारतीय विश्वविद्यालयों में सामजशास्त्र के पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री में अपने देश की सर्वाधिक महत्वपूर्ण समस्याओं को सम्मिलित करना आवश्यक है। उन्हीं के शब्दों में, “विभिन्न विश्वविद्यालयों के हमारे पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री की यह आश्यर्चजनक विशेषता है कि वे सर्वाधिक महत्त्व ही समस्याएं, जिनका हमारे देश को सामना करना पड़ रहा है, विषय-सामग्री में हमारे ध्यान से ही छूट गई हैं।

हमारे पाठ्यक्रम में उन समस्याओं को सम्मिलित किया, गया है जिनका सामना पश्चिमी समाज को करना पड़ता है और साथ ही हमने उन्हीं का साहित्य भी लिया है। ऐसे विषयों से उदाहरणों का भी महत्त्व कम हो जाता है। उदारहण किसी अमूर्त कल्पना को पाठक के जीविता अनुभव में स्पष्ट करने के लिए दिये जाते है।” अतः स्पष्ठ है कि भारतीय समाजशास्त्र के विकास के लिए यह आवश्यक है कि विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों की विषय-सामग्री हमारे समाज की प्रमुख समस्याओं से संबंधित हो।

(ii) डॉ. चौहान ने एक अन्य इस तथ्य पर जोर दिया है कि “यदि हम निर्णायक महत्त्व की प्रमुख समस्याओं का अध्ययन करें तो अधिक अच्छे अवबोधक के लिए यह प्रयास करना चाहिए कि राष्ट्र-समुदाय के उदय के प्रश्नों पर ध्यान दिया जाय, साथ ही पड़ोसी देशों से विदेशी संबंध बनाये रखना तथा उन राष्ट्रों से भी जिनसे विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी से हमें सहायता प्राप्त होती हों अथवा जिन्हें हम ऐसी ही सहायता दे सकते हों, से संबंध बनाये रखने की समस्याओं पर ध्यान देना चाहिए।

शिक्षा प्रणाली पर अनुसंधान तथा शिक्षण स्तर पर हमें अधिक ध्यान देना होगा। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि उन समस्याओं को, जिन्हें राष्ट्र द्वारा आयोजन के संदर्भ में हल किया जाता है, अध्ययन किया जाना चाहिए।”

(iii) डॉ. चौहान का मत है कि सामाजशास्त्रियों के स्तर पर विशिष्ट समस्याओं के तदर्थ अध्ययन तथा आयोजित परिवर्तन के संदर्भ में वैयक्तिक अध्ययन करना संभव है। साथ ही यह भी संभव है कि अन्तः संरचनात्मक समाज के संदर्भ में परिवर्तनों का अध्ययन किया जाए और प्रजातंत्र, समाजवाद तथा परम्परागत समाज के संदर्भ में प्रणाली रचना का अभ्यास करने का प्रयत्न भी किया जाये।

(iv) डॉ चौहान का मत है कि भारतीय समाजशास्त्रीय विकास की संभावना के अंतर्गत सामजशास्त्र विचार पद्धति में आयोजन के प्रश्न को महत्व दिया जाय। डॉ. चौहान ने इस संबंध में लिखा है कि, “हमारे देश में समाजशास्त्रीय विचार-पद्धति का यहा एक आश्चर्यजनक लक्षण है कि कोई ऐसा संगठन अथवा सम्मेलन अब तक नहीं हुआ कि जिसमें विशिष्ट रूप से आयोजन से संबंधित प्रश्नों का उठाया गया हो। यह तथ्य इस लक्षण का परिणाम रहा है कि आयोजन तो किसी न किसी रूप में समाजशास्त्रियों के ध्यान से ही ओझल हो गया है।

परिणाम यह हुआ है वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षत तथा देशी ढंग से स्व-प्रशिक्षित दोनों ही प्रकार के सामाजिक कार्यक्रम इन समस्याओं पर बोले हैं और उन्होंने इतर परामर्श की अनुपस्थिति में सुझावों को स्वीकृत कीर लिया है और एक प्रकार के परीक्षण तथा गलती के द्वारा आगे बढ़ने के लिए एक तदार्थ आधार प्रदान कर दिया गया है।”

इससे पूर्व कि सामाजशास्त्री आयोजित विकास तथा सामाजिक सुधारों पर विचारों के रूप में अपना दावा स्वीकार कराने में सफल हों, उन्हें इन विषयों पर अनुसंधान स्तर के ग्रंथों का निर्माण करना होगा और इस प्रक्रिया को आरंभ करना होगा जिनके द्वारा ऐसे अध्ययन किये जा सकें। समाजशास्त्रियों को ऐसे प्रश्नों पर स्वयं के सर्वक्षण तथा प्रयोजनाओं को शीघ्रता से अथवा सीमित समय में पूरा करना होगा, ताकि प्रशासन, आयोजन तथा अधिकांश लोग उन्हें समझ सकें।

(v) डॉ चौहान ने भारतीय समाजशास्त्र के विकास की संभावना के संदर्भ में एक अन्य सुझाव दिया है। कि “यदि भारत के कुछ समाजशास्त्री अपनी शक्तियों को विषय की शास्त्रियों सामग्री को समृद्ध करने के विचार से किसी विषय के अनुशीलन में केन्द्रित करें तो उनके प्रत्यनों. पर ही ध्यान दिया जाना चाहिए।”

भारत के विषय में प्राचीन साहित्य तथा सामाजिक संरचना के सजीव प्रारूप, लिखित तथा मौखिक साहित्य, कला तथा मूल्यों के प्रणालियाँ विद्यमान हैं जिनका न केवल मूल उद्भव प्राचीन है, अपितु उनकी स्वयं की अविच्छिन्ता भी है। इन पर विदेशी कारकों का संघात भी पड़ा है। जो कभी रचनात्मक तो कभी विघटनात्मक रहा है और संस्कृति की पुनर्व्याख्या के प्रश्न के साथ समाज की आविनिछन्ना भी समस्यापूर्ण रही है।

मूल्यों तथा सामाजिक संरचना एवं धर्म की पुष्ठभूमि में एक ओर तो अंतः संरचानात्मक परिवर्तन तथा दूसरी ओर शिक्षा, प्रौद्योगिकी एवं प्रजातंत्र आदि के प्रश्न है जो इस संदर्भ में पहले प्रकट नहीं हुए थे। भारतीय समाज का अपना विशिष्ट स्वरूप ही इस समय कतिपय प्रश्नों के अध्ययन की मांग करता है जिसमे विभिन्न प्रकार के अध्ययन स्रोतों को टटोलना तथा उनसे परिचित होना पड़ता है।

“ऐसे पर्यावरण में अध्ययन के उपकरण अधिक विविधतापूर्ण होंगे कुछ प्राचीन भाषाओं तथा बोलियों पर अच्छा अधिकार होगा एवं सामाजशास्त्रीय ढंग से संबद्ध जानकारी तथा आधार-समाग्री को प्रचलित विकसित स्रोतों से निकलने के लिए तकनीकी होगी।

कई विशयों पर प्रचलित ज्ञान सहायक रूप में उपयोग में लाया जा सकता है तथा अन्य विषयों पर अतिरिक्त तकनीक को विकसित किया जा सकता है जिन्हें क्षेत्रीय परिस्थति का सामाना करना होता है, उनके लिए यह सामान्य ज्ञान है कि अनुसंधान पद्धतियों पर पाठ्य-पुस्तक को अनेक स्थानों पर भूल जाना पड़ता है और अनुसंधान का कार्य करने वाले को परिस्थति से निपटने के लिए स्वयं अपनी तकतीकी विकसित करनी पड़ती है।

यदि इन अन्वेषणों को अलेखन करके उन्हें सहिंता का रूप दे दिया जाता है तो विकास के संबंध में घोषणा करना संभव हो जाता है, जो पहले किया जा चुका है। इस प्रकार डॉ. चौहान का मत है कि यदि नवीन तकनीक तथा प्रचलित तकनीकों के नवीन संयोजन को विकसित किया जाये तो अधिक अध्ययन किये जा सकेंगे तथा निम्नलिखित विषयों पर अधिक खोज हो सकेगी:

  • भारत में समाज के लिए निर्णायक महत्त्व के प्रश्न
  • अनुसंधान तकनीकें तथा उनके संयोजन
  • वे अवधारणाएँ जो विशिष्ट रूप से भारतीय पर्यावरण का वर्णन करती हों।
  • प्राचीन लोक, आधुनिक मूल्य, अर्थव्यवस्था तथा राज्यतंत्र के अंत: संबंधों के पक्ष।

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प्रश्न 12.
नौकरशाही के बुनियादी विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
नौकरशाही का अर्थ-मैक्स वैबर ने नौकरशाही को पदानुक्रम अथवा संस्तरण सामाजिक संगठन कहा है। नौकरशाही में प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ शक्ति तथा सत्ता होती है। नौकरशाही का लक्ष्य प्रशासन को तार्किकता के आधार पर चलना होता है। मैक्स वैबर ने नौकरशाही तथा लोकतंत्र में नजदीकी संबंध बताया है।

नौकरशाही की विशेषताएँ – मैक्स वैबर ने नौकशाही के अंतः संबंधित विशेषताओं का उल्लेख किया है। इनके द्वारा क्रिया की तार्किकता कायम रहती है।

(i) नौकरशाही का संगठन के रूप में शासकी कार्यों को निरंतर करती है।

(ii) जो व्यक्ति इन शासकीय कार्यों को करते हैं उनमें विशिष्ट योग्यता होती है। इन व्यक्तियों को अपने शासकीय कार्यों के निष्पादन के लिए सत्ता प्रदान की जाती है।

(iii) सत्ता का वितरण भिन्न-भिन्न स्वरूपों में किया जाता है। अधिकारियों का पदानुक्रम निर्धारित किया जाता है। शीर्ष अधिकारियों के अपने अधीनस्थ की अपेक्षा अधिक नियंत्रण तथा निरीक्षण के कार्य होते हैं।

(iv) सत्ता के प्रयोग हेतु कुछ विशिष्ट योग्यताओं की आवश्यकता होती है। अधिकारों का चुनाव नहीं होता वरन् उन्हें उनकी औपचारिक योग्यताओं के आधार पर नियुक्त किया जाता है। साधारणतया ये नियुक्तियाँ परीक्षओं के आधार पर होती हैं।

(v) नौकरशाही के कार्य करने वाले अधिकारियों का उत्पादन तथा प्रशासन के साधनों पर अधिकार नहीं होता है। इसके साथ-साथ अधिकारी सत्ता को अपनी निजी उद्देश्यों के लिये प्रयोग नहीं कर सकते हैं।

(vi) प्रशासनिक कार्यों का लिखित अभिलेख रखा जाता है। यही तथ्य प्रशासनिक प्रक्रिया की प्रकृति की निरंतरता का मुख्य कारण है।

(vii) नौकशाही प्रशासन में अधिकारियों के अवैयक्तिक रूप से तथा नियमों के अनुसार कार्य करना अपरिहार्य है, जो उनकी योग्यता के विशिष्ट क्षेत्रों से परिभाषित होता है।

(viii) अधिकारियों का सेवा काल सुरक्षित होता है। उन्हें विधि के अनुसार वेतन तथा वेतन वृद्धि दिए जाते हैं। उन्हें आयु, अनुभव तथा श्लाध्य कार्यों के आधार पर पदोन्नति प्रदान की जाती है। एक निश्चित सेवाकाल पूर्ण करने के पश्चात् नौकरशाहों को एक निश्चित आयु के पश्चात् पेंशन प्रदान की जाती है।

इस प्रकार, अधिकारियों की अपने उच्च अधिकारियों तथा राजनैतिक सत्ताधारियों की सनक व स्वेच्छाचारिता के सुरक्षा प्रदान की जाती है। इस प्रकार नौकरशाह तार्किक रूप से तथा कानून के अनुसार कार्य कर सकते हैं।

इस प्रकार, प्रशासन के एक स्वरूप के रूप नौकशाही की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • निरंतरता
  • पदानुक्रम अथवा संस्तरण
  • स्पष्ट रूप से परिभाषित नियम
  • सार्वजनिक कार्यालयों के संसाधनों को निजी व्यक्तियों के नियंत्रण से पृथक् रखना
  • लिखित दस्तावेजों का प्रयोग
  • वेतनभोगी पूर्णकालिक व्यवसायिक विशेषज्ञ जिनका सेवाकाल निश्चित हो।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

Bihar Board Class 11 Political Science न्यायपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनश्चित करने के विभिन्न तरीके कौन-कौन से हैं? निम्नलिखित में जो बेमेल हो उसे छाँटें।

  1. सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सलाह ली जाती है।
  2. न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता।
  3. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।
  4. न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद की दखल नहीं है।

उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के निम्नलिखित तरीके हैं –

  1. सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से सर्वोच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति में सलाह ली जाती है।
  2. न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है। न्यायाधीशों को अमूमन अवकाश-प्राप्ति की आयु से पहले नहीं हटाया जाता। उन्हें कार्यकाल की सुरक्षा प्राप्त है।
  3. न्यायाधीशों की नियुक्ति में व्यवस्थापिका को सम्मिलित नहीं किया गया है। न्यायाधीशों की नियुक्ति में संसद का दखल नहीं है इससे यह सुनिश्चित किया जाता है कि न्यायाधीशों की नियुक्तियों में दलित राजनीति की कोई भूमिका न रहे।
  4. न्यायपालिका व्यवस्थापिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती अन्यथा न्यायालय की अवमानना का दोषी पाये जाने पर न्यायपालिका को उसे दंडित करने का अधिकार है।

प्रश्न के अंदर दिए गए बिन्दुओं में जो बेमेल है वह है:
एक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश का तबादला दूसरे उच्च न्यायालय में नहीं किया जा सकता।

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प्रश्न 2.
क्या न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि न्यायपालिका की किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है। अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
भारतीय संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए अनेक प्रावधान किए गए हैं परंतु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि न्यायपालिका की किसी के प्रति जवाबदेही नहीं है। वास्तव में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्व का अभाव नहीं। न्यायपालिका भी देश की लोकतांत्रिक परम्परा और जनता के प्रति जवाबदेह है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ उसे निरंकुश बनाना नहीं, वरन उसे बिना किसी भय तथा दलगत राजनीति के दुष्प्रभावों से दूर रखने का प्रयास करना है। न्यायपालिका, विधायिका व कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है जब वह उसके विरुद्ध महाभियोग पर विचार कर रही है हो। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से निर्णय करती है।

प्रश्न 3.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए संविधान के विभिन्न प्रावधान कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए आवश्यक शर्ते –

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति:
न्यायाधीश ऐसे व्यक्तियों को नियुक्ति किया जाना चाहिए जिनमें कुछ कानूनी ज्ञान तथा संविधान के प्रति निष्ठा और ईमानदारी की भावना विद्यमान हो। उन व्यक्तियों के बारे में यह सिद्ध हो चुका हो कि वे निष्पक्षता से काम लेने वाले देश के योग्यतम व्यक्तियों में से हैं।

2. न्यायाधीशों की नियुक्ति का तरीका:
विश्व में न्यायाधीशों की नियुक्ति के तीन तरीके प्रचलित हैं –

  • जनता द्वारा चुनाव
  • व्यवस्थिापिका द्वारा चुनाव
  • कार्यपालिका द्वारा नियुक्ति

कुछ देशों में न्यायाधीशों का चुनाव जनता द्वार किया जाता है परंतु इस प्रणाली से योग्य व्यक्ति न्यायाधीश नहीं बन पाते और न्यायाधीश राजनैतिक दलबंदी के शिकार हो जाते हैं। स्विट्जरलैंड तथा कुछ अन्य देशों में न्यायाधीशों का चुनाव व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है और वे व्यवस्थापिका के हाथों की कठपुतली बन जाते हैं। अतः विश्व के अधिकतर देशों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा की जाती है। यह पद्धति भी पूर्णतया दोष रहित तो नहीं है लेकिन दूसरी पद्धतियों की तुलना में श्रेष्ठ है। इसके लिए प्रस्तावित किया जाता है कि कार्यपालिका से न्यायाधीश की नियुक्ति निर्धारित योग्यता के अनुसार करे।

3. न्यायाधीशों का लम्बा कार्यकाल:
न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि न्यायाधीशों की नियुक्ति लम्बे समय के लिए की जाय। अल्प अवधि होने पर एक तो वे दोबारा पद प्राप्त करने का प्रयत्न करेंगे तथा दूसरे वे अपने भविष्य की चिन्ता में किसी प्रलोभन में पड़ सकते हैं। परिणामस्वरूप वे निष्पक्षता और स्वतंत्रतपूर्वक कार्य नहीं कर सकते। अतः यदि न्यायाधीशों का कार्यकाल लम्बा होगा तो वे अधिक निष्पक्ष होकर स्वतंत्रतापूर्वक अपने कर्तव्यों को निभा सकेंगे।

4. न्यायपालिका का कार्यपालिका से पृथक्कीकरण:
आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए यह भी आवश्यक समझा जाता है कि न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् रखा जाय। इसके अनुसार कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के क्षेत्र पृथक्-पृथक होने चाहिए और दोनों प्रकार के पद अलग-अलग व्यक्तियों के हाथों में होना चाहिए।

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प्रश्न 4.
नीचे दी गई समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और उनमें निम्नलिखित पहलुओं की पहचान करें –

  1. मामला किस बारे में है।
  2. इस मामले में लाभार्थी कौन है?
  3. इस मामले में फरियादी कौन है?
  4. सोचकर बताएँ कि कंपनी की तरफ से कौन-कौन से तर्क दिए जाएँगे?
  5. किसानों की तरफ से कौन-से तर्क दिए जाएंगे?
  6. सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से दहानु के किसानों का 300 करोड़ रुपये देने को कहा।

मुम्बई:
सर्वोच्च न्यायालय ने रिलायंस से मुम्बई के बाहरी इलाके दहानु में चीकू फल उगाने वाले किसानों को 300 करोड़ रुपये देने के लिए कहा है। चीकू उत्पादक किसानों ने अदालत में रिलायंस के ताप-ऊर्जा संयत्र से होने वाले प्रदूषण के विरुद्ध अर्जी दी थी। अदालत ने इसी मामले में अपना फैसला सुनाया है। दहानु मुंबई से 150 किमी दूर है। एक दशक पहले तक इलाके की अर्थव्यवस्था खेती और बागवानी के बूते आत्मनिर्भर थी और दहानु की प्रसिद्धि यहाँ के मछली-पालन तथा जंगलों के कारण थी। सन् 1989 में इस इलाके में ताप-ऊर्जा संयंत्र चालू हुआ और इसी के साथ शुरू हुई इस इलाके की बर्बादी।

अगले साल इस उपजाऊ क्षेत्र की फसल पहली दफा मारी गई। कभी महाराष्ट्र के लिए फलों का टोकरा रहे दहानु की अब 70 प्रतिशत फसल समाप्त हो चुकी है। मछली पालन बंद हो गया है और जंगल विरल होने लगे हैं। किसानों और पर्यावरणविदों का कहना है कि ऊर्जा संयंत्र से निकलने वाली राख भूमिगत जल में प्रवेश कर जाती है और पूरा पारिस्थितिकी-तंत्र प्रदूषित हो जाता है। दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को प्रदूषण नियंत्रण की इकाई स्थापित करने का आदेश दिया था ताकि सल्फर का उत्सर्जन कम हो सके।

सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्राधिकरण के आदेश के पक्ष में अपना फैसला सुनाया था। इसके बावजूद सन् 2002 तक प्रदूषण नियंत्रणं का संयंत्र स्थापित नहीं हुआ। सन् 2003 में रिलायंस ने ताप-ऊर्जा संयंत्र को हासिल किया और सन् 2004 में उसने प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र लगाने की योजना के बारे में एक खाका प्रस्तुत किया। प्रदूषण नियंत्रण संयंत्र चूँकि अब भी स्थापित नहीं हुआ था इसलिए दहानु तालुका पर्यावरण सुरक्षा प्राधिकरण ने रिलायंस से 300 करोड़ रुपये की बैंक-गारंटी देने को कहा।
उत्तर:

  1. यह रिलायंस ताप-ऊर्जा संयंत्र द्वारा प्रदूषण के विषय का विवाद है।
  2. किसान इस मामले में लाभार्थी हैं।
  3. इस मामले में किसान तथा पर्यावरणविद प्रार्थी/फरियादी हैं।
  4. कंपनी द्वारा उस क्षेत्र के लोगों के लिए ताप-ऊर्जा संयंत्र के द्वारा लेने वाले लाभों का तर्क दिया जायगा। क्षेत्र में ऊर्जा की कमी नहीं रहेगी ऐसा आश्वासन भी दिया जाएगा।
  5. किसानों की तरफ से यह तर्क दिए जाएँगे कि ताप-ऊर्जा-संयंत्र के कारण न केवल उनकी चीकू की फसलें बरबाद हुई हैं वरन् उनका मछली-पालन का कारोबार भी ठप पड़ गया है। क्षेत्र के लोग बेरोजगार हो गए हैं।

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प्रश्न 5.
नीचे की समाचार-रिपोर्ट पढ़ें और चिह्नित करें कि रिपोर्ट में किस-किस स्तर पर सरकार सक्रिय दिखाई देती है।

  1. सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका की निशानदेही करें।
  2. कार्यपालिका और न्यायपालिका के कामकाज की कौन-सी बातें आप इसमें पहचान सकते हैं?
  3. इस प्रकरण से संबद्ध नीतिगत मुद्दे, कानून बनाने से संबंधित बातें, क्रियान्वयन तथा कानून की व्याख्या से जुड़ी बातों की पहचान करें।

सीएनजी-मुद्दे पर केन्द्र और दिल्ली सरकार एक साथ:
स्टाफ रिपोर्टर, द हिंदू, सितंबर 23, 2011 राजधानी के सभी गैर-सीएनजी व्यावसायिक वाहनों को यातायात से बाहर करने के लिए केन्द्र और दिल्ली सरकार संयुक्त रूप से सर्वोच्च न्यायालय का सहारा लेंगे। दोनों सरकारों में इस बात की सहमति हुई है। दिल्ली और केन्द्र की सरकार ने पूरी परिवहन को एकल ईंधन प्रणाली से चलाने के बजाय दोहरे ईंधन-प्रणाली से चलाने के बारे में नीति बनाने का फैसला किया है क्योंकि एकल ईंधन प्रणाली खतरों से भरी है और इसके परिणामस्वरूप विनाश हो सकता है।

राजधानी के निजी वाहन धारकों ने सीएन जी के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने का भी फैसला किया गया है। दोनों सरकारें राजधानी में 0.05 प्रतिशत निम्न सल्फर डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में दबाव डालेगी। इसके अतिरिक्त अदालत से कहा जाएगा कि जो व्यावसायिक वाहन यूरो-दो मानक को पूरा करते हैं उन्हें महानगर में चलने की अनुमति दी जाए। हालाँकि केन्द्र और दिल्ली सरकार अलग-अलग हलफनामा दायर करेंगे लेकिन इनमें समान बिंदुओं को उठाया जायगा। केन्द्र सरकार सीएन जी के मसले पर दिल्ली सरकार के पक्ष को अपना समर्थन देगी।

दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केन्द्र पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्री श्री राम नाईक के बीच हुई बैठक में ये फैसले लिए गए। श्रीमती शीला दीक्षित ने कहा कि केन्द्र सरकार अदालत से विनती करेगी कि डॉ आर ए मशेलकर की अगुआई में गठित उच्चस्तरीय समिति को ध्यान में रखते हुए अदालत बसों को सी.एन.जी. में बदलने की आखिरी तारीख आगे बढ़ा दे क्योंकि 10,000 बसों को निर्धारित समय में सी.एन.जी. में बदल पाना असंभव है। डॉ. मशेलकर की अध्यक्षता में गठित समिति पूरे देश के ऑटो ईंधन नीति का सुझाव देगी। उम्मीद है कि यह समिति छः माह में अपनी रिपोर्ट पेश करेगी।

मुख्यमंत्री ने कहा कि अदालत के निर्देशों पर अमल करने के लिए समय की जरूरत है। इस मसले पर समग्र दृष्टि अपनाने की बात कहते हुए श्रीमती दीक्षित ने बताया-सीएनजी से चलने वाले वाहनों की संख्या, सी.एन.जी. की आपूर्ति करने वाले स्टेशनों पर लगी लंबी कतार की समाप्ति, दिल्ली के लिए पर्याप्त मात्रा में सी.एन.जी. ईंधन जुटाने तथा अदालत के निर्देशों को अमल में लाने के तरीके और साधनों पर एक साथ ध्यान दिया जायगा।

सर्वोच्च न्यायालय ने ….. सी.एन.जी. के अतिरिक्त किसी अन्य ईंधन से महानगर में बसों को चलाने की अपनी मनाही में छूट देने से इंकार कर दिया था लेकिन अदालत का कहना था कि टैक्सी और ऑटो-रिक्शा के लिए भी सिर्फ सी.एन.जी. इस्तेमाल किया जाय, इस बात पर उसने कभी जोर नहीं डाला। श्री राम नाईक का कहना था कि केन्द्र सरकार सल्फर की कम मात्रा वाले डीजल से बसों को चलाने की अनुमति देने के बारे में अदालत से कहेगी, क्योंकि पूरी यातायात व्यवस्था को सीएनजी पर निर्भर करना खतरनाक हो सकता है। राजधानी में सी.एन.जी. की आपूर्ति पाईप लाइन के जरिए होती है और इसमें किसी किस्म की बाधा आने पर पूरी सार्वजनिक यातायात प्रणाली अस्त-व्यस्त हो जायगी।
उत्तर:
1. इस समाचार रिपोर्ट में दो सरकारों के संयुक्त रूप से एक समस्या को सुलझाने के प्रयास का वर्णन है।

  • भारत सरकार
  • दिल्ली सरकार

केन्द्र सरकार तथा दिल्ली सरकार सर्वोच्च न्यायालय को सी.एन.जी. विवाद पर संयुक्त रूप से प्रस्तुत करने को सहमत हुए।

2. सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका:
प्रदूषण से बचने के लिए यह तय किया गया कि राजधानी में सरकारी तथा निजी प्रकार की बसों में सी.एन.जी. का प्रयोग हो। उच्चतम न्यायालय ने सिटी बसों को सी.एन.जी. के प्रयोग से छूट देने को मना किया परंतु कहा कि उसने टैक्सी और आटोरिक्सा के लिए कभी सी.एन.जी. के लिए दबाव नहीं डाला।

3. इस रिपोर्ट में न्यायालय की भूमिका:
शहर में (राजधानी में) प्रदूषण हटाना और इस हेतु उच्चतम न्यायालय ने सरकार को आदेश दिया कि केवल सी.एन.जी. वाली बसें ही महानगर में चलायी जाएँ। यह भी तय किया गया कि वाहनों के मालिकों को सी.एन.जी. के प्रयोग के लिए उत्साहित किया जाए। केन्द्र सरकार तथा दिल्ली सरकार दोनों के पृथक्-पृथक् शपथ पत्र दाखिल करने को कहा गया।

4. इस रिपोर्ट में नीतिगत मुद्दा प्रदूषण हटाना है। सभी व्यावसायिक वाहनों जो यूरो-2 मानक को पूरा करते हैं उन्हें शहर में चलाने की अनुमति दी जाए। सरकार यह भी चाहती थी कि समय सीमा बढ़ायी जाए क्योंकि 10000 बसों के बेड़े को सी.एन.जी. में परिवर्तित करना निश्चित समय में सम्भव नहीं है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 6.
देश के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में राष्ट्रपति की भूमिका को आप किस रूप में देखते हैं? (एक काल्पनिक स्थिति का ब्योरा दें और छात्रों से उसे उदाहरण के रूप में लागू करने को कहें)।
उत्तर:
भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है। वर्षों से एक परम्परा बनी हुई थी कि मुख्य न्यायाधीश वरिष्ठता क्रम से नियुक्ति किया जाए, परंतु 1973 में अजीत नाथ रे प्रकरण में तीन वरिष्ठतम न्यायाधीशों (जस्टिस शैलट, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर) की उपेक्षा करके चौथे नम्बर के न्यायाधीश श्री अजीत नाथ रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। फिर से 1975 में भी एच. आर, खन्ना की उपेक्षा करके एम. एच. बेग को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया।

दूसरे न्यायाधीशों की नियुक्ति मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करके राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। लेकिन अन्ततः यह सरकार का ही अधिकार है। उच्चतम न्यायालय के सभी न्यायाधीश 65 वर्ष तक की आयु तक अपने पद पर बने रह सकते हैं। यद्यपि सरकार के दूसरे अंग कार्यपालिका एवं विधायिका न्यायपालिका के कार्यों में दखल नहीं देते परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि न्यायपालिका निरंकुश हो जाए।

न्यायपालिका भी संविधान के प्रति उत्तरदायी है। न्यायापालिका भी वास्तव में देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक ढाँचे का ही एक भाग है। यदि सरकार के अंग विधायिका या मंत्रिपरिषद् न्यायपालिका की प्रक्रिया में हस्तक्षेप करते हैं तो उच्चतम न्यायालय उसे रोकने में सक्रिय होता है। इस प्रकार राष्ट्रपति की शक्तियाँ तथा राज्यपाल आदि को भी न्यायिक पुनर्व्याख्या के अन्तर्गत लाया गया है।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित कथन इक्वाडोर के बारे में है। इस उदाहरण और भारत की न्यायपालिका के बीच आप क्या समानता अथवा असमानता पाते हैं?
उत्तर:
सामान्य कानूनों की कोई संहिता अथवा पहले सुनाया गया कोई न्यायिक फैसला मौजूद होता तो पत्रकार के अधिकारों को स्पष्ट करने में मदद मिलती। दुर्भाग्य से इक्वाडोर की अदालत इस रीति से काम नहीं करती। पिछले मामलों में उच्चतर अदालत के न्यायाधीशों ने जो फैसले दिए हैं उन्हें कोई न्यायाधीश उदाहरण के रूप में मानने के लिए बाध्य नहीं है।

संयुक्त राज्य अमेरिका के विपरीत इक्वाडोर (अथवा दक्षिण अमेरिका में किसी और देश) में जिस न्यायाधीश के सामने अपील की गई है उसे अपना फैसला और उसका कानूनी आधार लिखित रूप में नहीं देना होता। कोई न्यायाधीश आज एक मामले में कोई फैसला सुनाकर कल उसी मामले में दूसरा फैसला दे सकता है और इसमें उसे यह बताने की जरूरत नहीं कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।

इस उदाहरण तथा भारत की न्याय-व्यवस्था में कोई समानता नहीं है। भारत में भ्यायिक निर्णय आधुनिक काल में कानून के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं। प्रसिद्ध न्यायाधीशों के निर्णय दूसरे न्यायालयों में उदाहरण बन जाते हैं और पूर्व के निर्णय के आधार पर निर्णय दिए जाने लगते हैं और इन पूर्व के निर्णयों को उसी प्रकार की मान्यता होती है जैसे कि संसद द्वारा बनाये गए कानूनों की।

न्यायाधीश अपने विवेक से निर्णय देते हैं और उनके द्वारा की गयी व्याख्याएँ विवादों का निर्णय करती हैं। अतः वे कानून में विस्तार करते हैं, कानूनों में संशोधन करते हैं तथा उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के निर्णय प्रायः वकीलों द्वारा प्रभावी तरीके से उद्धत किए जाते हैं। उपरोक्त उदाहरण में इक्वाडोर के न्यायालय में इस प्रकार से कार्य नहीं किया जाता। वहाँ पर न्यायालयों के पूर्व निर्णयों को आधार बनाकर निर्णय नहीं दिए जाते। वहाँ न्यायाधीश एक दिन एक तरीके से और दूसरे दिन दूसरे तरीक से निर्णय देते हैं और वह बिना कारण बताए ऐसा करते रहते हैं।

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प्रश्न 8.
निम्नलिखित कथनों को पढ़िए और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अमल में लाए जाने वाले विभिन्न क्षेत्राधिकार; मसलन-मूल, अपीली और परामर्शकारी-से इनका मिलान कीजिए।

  1. सरकार जानना चाहती थी कि क्या वह पाकिस्तान-अधिग्रहीत जम्मू-कश्मीर के निवासियों की नागरिकता के संबंध में कानून पारित कर सकती है।
  2. कावेरी नदी के जल विवाद के समाधान के लिए तमिलनाडु सरकार अदालत की शरण लेना चाहती है।
  3. बांध स्थल से हटाए जाने के विरुद्ध लोगों द्वारा की गई अपील को अदालत ने ठुकरा दिया।

उत्तर:

  1. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का आशय उन विवादों से है जो उच्चतम न्यायालय में सीधे तौर पर लिए जाते हैं। ये विवाद किसी अन्य निचले न्यायालय में नहीं लिए जा सकते।
  2. अपीलीय क्षेत्राधिकार से अभिप्राय है कि वे विवाद जो किसी उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में लाए जा सकते हैं।
  3. परामर्शदायी क्षेत्राधिकार वह क्षेत्राधिकार है जिसमें राष्ट्रपति किसी विवाद के बारे में उच्चतम न्यायालय से परामर्श माँगता है। उच्चतम न्यायालय चाहे तो परामर्श दे सकता है और चाहे तो मना भी कर सकता है। राष्ट्रपति भी उच्चतम न्यायालय के परामर्श को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

प्रश्न में दिए गए कथनों को विभिन्न क्षेत्राधिकारों से निम्न प्रकार से मिलान किया जा सकता है –

  • सरकार यह जानना ……….. परामर्शदायी क्षेत्राधिकार
  • तमिलनाडु सरकार ………. प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार
  • न्यायालय लोगों से ……….. अपीलीय क्षेत्राधिकार

प्रश्न 9.
जनहित याचिका किस तरह गरीबों की मदद कर सकती है?
उत्तर:
जब किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकार छिनते हैं या जब वह किसी विवाद में फँसता है तो वह न्यायालय की शरण लेता है। परंतु 1979 में एक ऐसी न्यायिक प्रक्रिया भी चालू की गई जिससे पीड़ित व्यक्ति की ओर से वह स्वयं नहीं वरन् उसे गरीबों के हित में दूसरा व्यक्ति डालता है। इस वाद में किसी एक व्यक्ति के लिए नहीं वरन् जनहित में सुनवाई की जाती है। गरीब आदमियों के हित में बहुत से स्वयंसेवी संगठन न्यायालय में याचिका दायर करते हैं।

गरीबों का जीवन सुधारने के लिए, गरीब व्यक्तियों के अधिकार की पूर्ति करने के लिए, वातावरण को प्रदूषित होने से बचाने के लिए, बंधुआं मजदूरों की मुक्ति के लिए, लड़कियों से देहव्यापार कराने को रोकने के लिए, अवैध रूप में बिना लाइसेंस के ही गरीब रिक्सा चलाने वाले मजदूरों से रिक्सा चलवाने पर रोक लगाकर रिक्सा चालक को रिक्सा का कब्जा दिलवाने के लिए और इसी प्रकार की गरीब व्यक्तियों को उत्पीड़न की समस्याओं से छुटकारा दिलवाने के लिए स्वयंसेवी संगठन या दूसरे एन.जी.ओ. की तरफ से न्यायालय में जनहित याचिकाएँ भेजकर न्यायालय से हस्तक्षेप करने की माँग की जाती है। न्यायालय इन शिकायतों को आधार बनाकर उन पर विचार शुरू करता है और न्यायिक सक्रियता के द्वारा पीड़ित व्यक्तियों को छुटकारा मिल जाता है।

कभी-कभी न्यायालय ने समाचार पत्रों में छपी खबरों के आधार पर भी जनहित में सुनवाई की। 1980 के बाद जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रुचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते। 1980 में तिहाड़ जेल के एक कैदी के द्वारा भेजे गए पत्र के द्वारा कैदियों की यातनाओं की सुनवाई की। परंतु अब पत्र भेजने के द्वारा याचिका स्वीकार करना बंद कर दिया गया है।

बिहार की जेलों में कैदियों को काफी लम्बी अवधि तक रखा गया और केस की सुनवाई नहीं की गई। एक वकील के द्वारा एक याचिका दायर की गई और सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकदमा चला। इस वाद को ‘हुसैनारा खतुन बनाम बिहार सरकार” के नाम से जाना जाता है। इन जनहित याचिकाओं के प्रचलन से यद्यपि न्यायालयों पर कार्यों का बोझ बढ़ा है परंतु गरीब आदमी को लाभ हुआ। इसने न्याय व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाया। इससे कार्यपालिका जवाबदेह बनने पर बाध्य हुई वायु और ध्वनि प्रदूषण दूर करना, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच, चुनाव सुधार आदि अनेक सुधार होने का लाभ गरीब आदमी को मिलता है। अनेक बंधुआ मजदूरों को शोषण से बचाया गया है।

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प्रश्न 10.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिका में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
भारतीय न्यायपालिका को न्याय पुनः निरिक्षण की शक्ति प्राप्त है जिसके आधार पर न्यायपालिका विधानपालिका के द्वारा पारित कानूनों तथा कार्यपालिका के द्वारा जारी आदेशों की संवैधानिक वैधता की जाँच कर सकता है, अगर ये संविधान के विपरीत पाये जाते हैं तो न्यायपालिका उनको अवैध घोषित कर सकती है। परंतु न्यायपालिका को यह शक्ति सीमित है अर्थात न्यायपालिका नीतिगत विषय पर टिप्पणी नहीं कर सकता व ना ही कानूनों या आदेशों के इरादों में जा सकती है। परंतु पिछले कुछ वर्षों में न्यायपालिका ने अपनी इस सीमा को तोड़ा है कार्यपालिका के कार्यों में लगातार हस्तक्षेप व बाधा करती रही है जिसको राजनीतिक क्षेत्रों में न्यायिक सक्रियता कहा जाता है। जिसके परिणामस्वरूप कार्यपालिका व न्यायपालिका में टकराव पैदा हो गया है।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति कौन और किस की सलाह से करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत का राष्ट्रपति करता है। इस कार्य में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से परामर्श करता है।

प्रश्न 2.
भारत के उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार की दो प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:

  1. शक्ति विभाजन से संबंधित केन्द्र तथा राज्य के बीच अथवा राज्यों के परस्पर झगड़े निपटाना।
  2. मौलिक अधिकारों की रक्षा करना।

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प्रश्न 3.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश सिद्ध कदाचार या असमर्थता के कारण पद से कैसे हटाए जा सकते हैं?
उत्तर:
यदि संसद के दोनों सदन अलग-अलग अपने कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से इसको अयोग्य या आपत्तिजनक आचरण करने वाला घोषित कर दे तो राष्ट्रपति के आदेश से उस न्यायाधीश को उसके पद से हटाया जा सकता है।

प्रश्न 4.
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य तथा अन्य न्यायाधीश को कुल कितना वेतन मिलता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को मासिक वेतन 33,000 रुपये तथा कई तरह के भत्ते भी मिलते हैं। अन्य न्यायाधीशों को 30,000 रुपये प्रतिमाह वेतन मिलता है। स्टाफ, कार तथा पेट्रोल की सुविधा भी मिलती है। किरायामुक्त आवास भी मिलता है।

प्रश्न 5.
न्यायपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
न्यायपालिका का अर्थ-न्यायपालिका सरकार का तीसरा अंग है। यह लोगों के आपसी झगड़ों का वर्तमान कानूनों के अनुसार निबटारा करती है। जो लोग कानून का उल्लंघन करते हैं कार्यपालिका उनको न्यायपालिका के सामने प्रस्तुत करती है और न्यायपालिका उनका निर्णय करती है तथा अपराधियों को कानून के अनुसार दंड देती है। गिलक्राइस्ट का कहना है कि “न्यायपालिका से अभिप्राय शासन के उन अधिकारियों से है जो वर्तमान कानूनों को व्यक्ति-विवादों में लागू करते हैं।”

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प्रश्न 6.
आधुनिक युग में न्यायपालिका का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
न्यायपालिका का नागरिकों के लिए बड़ा महत्त्व है। यह वह संस्था है जो नागरिकों के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा करती है, उन्हें कार्यपालिका की मनमानी से छुटकारा दिलाती है, गरीब को अमीर के दुर्बल को शक्तिशाली के अत्याचारों से मुक्ति दिलाती है। यह कार्यपालिका और विधायिका की स्वेच्छाचारिता पर अंकुश लगाती है और राज्यों के हितों की केन्द्र के हस्तक्षेप से रक्षा करती है। जब भी किसी को गैर-कानूनी तरीके से तंग किया जाता है या उसके अधिकारों में हस्तक्षेप होता है तो वह न्यायपालिका की ही शरण लेता है। न्यायपालिका भी अपने उत्तरदायित्व को उसी समय निभा सकती है जबकि वह ईमानदार, निष्पक्ष और स्वतंत्र हो और किसी अन्य अंग के दबाव या प्रभाव में न हो।

प्रश्न 7.
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका के कोई तीन कार्य बताओ।
उत्तर:
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका में तीन कार्य –
आधुनिक राज्य में न्यायपालिका एक स्वतंत्र अंग के रूप में कार्य करती है और इसके कई कार्य होते हैं। इनमें से तीन प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. न्यायपालिका उन सभी मुदकमों का निर्णय करती है जो किसी कानून का उल्लंघन करने के आधार पर कार्यपालिका द्वारा इसके सामने प्रस्तुत किए जाते हैं या किसी वादी ने निजी तौर पर दायर किए हों।
  2. न्यायपालिका संविधान तथा संविधान के कानूनों की व्याख्या करती है और जब भी इनके अर्थों के बारे में कोई मतभेद हो, वह उसका निबटारा करती है।
  3. न्यायपालिका नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रताओं की रक्षा भी करती है।

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प्रश्न 8.
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ बताओ।
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन के दो लाभ-न्यायिक पुनरावलोकन की अमेरिका तथा भारत दोनों देशों में व्यवस्था है। इसके कुछ लाभ हैं। इनमें से दो लाभ निम्नलिखित हैं –

  1. संघीय व्यवस्था में न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था का होना आवश्यक है क्योंकि इसके द्वारा ही संघीय व्यवस्था, संविधान तथा केन्द्र की इकाइयों के अधिकारों की रक्षा हो सकती है।
  2. एक लिखित संविधान की रक्षा जिसमें सरकार के विभिन्न अंगों में शक्तियों का स्पष्ट विभाजन है, न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवथा ही कर सकती है। इससे सरकार का कोई अंग अपने अधिकार क्षेत्र की सीमा का उल्लंघन नहीं कर सकता।

प्रश्न 9.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
वर्तमान युग में न्यायपालिका का महत्त्व इतना बढ़ गया है कि न्यायपालिका इन कार्यों को तभी सफलतापूर्वक एवं निष्पक्षता से कर सकती है जब न्यायपालिका स्वतंत्र हो। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि न्यायधीश स्वतंत्र, निष्पक्ष तथा निडर हो। न्यायाधीश निष्पक्षता से न्याय तभी कर सकते हैं जब उन पर किसी प्रकार का दबाव न हो। न्यायपालिका विधायिका तथा कार्यपालिका के अधीन नहीं होना चाहिए और विधायिका तथा कार्यपालिका को न्यायपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। यदि न्यायपालिका, कार्यपालिका के अधीन कार्य करेगी तो न्यायाधीश जनता के अधिकारों की रक्षा नहीं कर पाएंगे।

प्रश्न 10.
न्यायपालिका की स्वतंत्रता के महत्त्व का संक्षिप्त विवेचन कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक युग में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का विशेष महत्त्व है। स्वतंत्र न्यायपालिका ही नागरिकों के अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं की रक्षा कर सकती है। लोकतंत्र की सफलता के लिए न्यायपालिका का स्वतंत्र होना आवश्यक है। संघीय राज्यों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का महत्त्व और भी अधिक है। संघ राज्यों में शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में विभाजन होता है। कई बार शक्तियों का केन्द्र और राज्यों में झगड़ा हो जाता है। इन झगड़ों को निपटाने के लिए स्वतंत्र न्यायपालिका का होना आवश्यक है।

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प्रश्न 11.
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से स्वतंत्र क्यों रखा जाता है?
उत्तर:
न्यायपालिका को सरकार के अन्य अंगों से स्वतंत्र इसलिए रखा गया है ताकि राज्य के नागरिक स्वतंत्रतापूर्वक अपने कार्य कर सकें और उनके व्यक्तित्व का विकास हो सके। आधुनिक युग में न्यायपालिका का महत्त्व व क्षेत्र बहुत व्यापक हो चुका है। न्यायपालिका अपने कर्तव्यों को तब तक पूरा नहीं कर सकती, जब तक योग्य तथा निष्पक्ष व्यक्ति न्यायाधीश न हों तथा उन्हें अपने कार्यक्षेत्र में पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त न हो। गार्नर ने कहा है “यदि न्यायधीशों में प्रतिभा, सत्यता और निर्णय देने की स्वतंत्रता न हो तो न्यायपालिका का सारा ढाँचा खोखला प्रतीत होगा और उस उद्देश्य की सिद्धि नहीं होगी जिसके लिए उसका निर्माण किया गया है।”

प्रश्न 12.
भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने के लिए कौन-कौन सी योग्यताएँ आवश्यक हैं?
उत्तर:
राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त कर सकता है, जिसमें निम्नलिखित योग्यताएँ हो –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह कम से कम 5 वर्ष तक एक या एक से अधिक उच्च न्यायालयों में न्यायाधीश के पद पर रह चुका हो। अथवा, वह कम से कम 10 वर्षों तक किसी उच्च न्यायालय में अधिवक्ता रह चुका हो। अथवा, वह राष्ट्रपति की दृष्टि में प्रसिद्ध कानून-विशेषज्ञ हो।

प्रश्न 13.
उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार क्या हैं?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार –

  1. केन्द्र-राज्य अथवा एक राज्य का किसी दूसरे से विवाद अथवा विभिन्न राज्यों में विवाद उच्चतम न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आते हैं।
  2. यदि कुछ राज्यों के बीच किसी संवैधानिक विषय पर कोई विवाद उत्पन्न हो जाए तो वह विवाद भी उच्चतम न्यायालय द्वारा ही निपटाया जाता है।
  3. मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित कोई विवाद सीधा उच्चतम न्यायालय के सामने ले जाया जा सकता है।
  4. यदि राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव के बारे में कोई विवाद हो तो उसका निर्णय उच्चतम न्यायालय ही करता है।

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प्रश्न 14.
उच्चतम न्यायालय का गठन कैसे होता है? अथवा, भारत में उच्चतम न्यायालय को मुख्य न्यायाधीश तथा अन्य न्यायाधीश की नियुक्ति कैसे की जाती है?
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा कुछ न्यायाधीश होते हैं। आजकल उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त 25 अन्य न्यायाधीश हैं। न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायाधीशों के ऐसे न्यायाधीशों की सलाह लेता है, जिन्हें वह उचित समझता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति मुख्य न्यायाधीश की सलाह अवश्य लेता है।

प्रश्न 15.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों के वेतन तथा अन्य सुविधाओं का संक्षेप में विवेचन कीजिए।
उत्तर:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। वेतन के अतिरिक्त उन्हें कुछ भत्ते भी मिलते हैं। उन्हें रहने के लिए बिना किराए का निवास स्थान भी मिलता है। उसके वेतन, भत्ते तथा दूसरी सुविधाओं में उनके कार्यकाल में किसी प्रकार की कमी नहीं की जा सकती तथापि आर्थिक संकटकाल की उद्घोषणा के दौरान न्यायाधीशों के वेतन आदि घटाए जा सकते हैं। सेवानिवृत्ति होने पर उन्हें पेंशन मिलती है।

प्रश्न 16.
“उच्चतम न्यायालय भारतीय संविधान का संरक्षक है।” व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संविधान भारत का सर्वोच्च प्रलेख है और किसी भी व्यक्ति, सरकारी कर्मचारी, अधिकारी अथवा सरकार का कोई अंग इसके विरुद्ध आचरण नहीं कर सकता। इसकी रक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय का कर्त्तव्य है इसलिए सर्वोच्च न्यायालय को विधानमंडलों द्वारा बनाए गए कानूनों तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए आदेशों पर न्यायिक निरीक्षण का अधिकार प्राप्त है। उच्चतम न्यायालय इस बात की जाँच-पड़ताल तथा निर्णय कर सकता है कि कोई कानून या आदेश संविधान की धाराओं के अनुसार है या नहीं।

यदि सर्वोच्च न्यायालय को यह विश्वास हो जाए कि किसी कानून से संविधान का उल्लंघन हुआ है तो वह उसे असंवैधानिक घोषित करके रद्द कर सकता है। इस अधिकार द्वारा उच्चतम न्यायालय सरकार के अन्य दोनों अंगों पर नियंत्रण रखता है और उन्हें अपने अधिकारों का दुरुपयोग या सीमा का उल्लंघन नहीं करने देता। संघ और राज्यों को भी वह अपने सीमा क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ने देता।

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प्रश्न 17.
उच्चतम न्यायालय को सबसे बड़ा न्यायालय क्यों माना जाता है?
उत्तर:

  1. यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है।
  2. इसका फैसला अंतिम होता है जो सबको मानना पड़ता है।
  3. यह संविधान के विरुद्ध पास किए गए कानूनों को रद्द कर सकता है।
  4. यह केन्द्र और राज्यों के बीच तथा विभिन्न राज्यों के आपसी झगड़ों का फैसला करता है। संविधान की व्याख्या करता है और मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है।
  5. इसके फैसले के विरुद्ध कोई अपील नहीं हो सकती।

प्रश्न 18.
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति का संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय उच्चतम न्यायालय को न्यायिक समीक्षा करने का अधिकार प्राप्त है। न्यायिक समीक्षा का अर्थ है कि संसद तथा विभिन्न राज्यों के विधानमंडल द्वारा पारित कानूनों और कार्यकारिणी द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों की न्यायालयों द्वारा समीक्षा करना। भारत में न्यायिक पर्यवेक्षण का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी इस शक्ति द्वारा यह देखता है कि विधानपालिका द्वारा पास किए गए कानून तथा कार्यकारिणी द्वारा जारी किए गए अध्यादेश संविधान की धारा के अनुकूल है या नहीं। यदि न्यायालय इन कानूनों को संविधान के प्रतिकूल पाता है तो उन्हें अवैध घोषित कर सकता है।

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प्रश्न 19.
भारत के महान्यायवादी पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
महान्यायवादी:
भारत महान्यायवादी सरकार तथा राष्ट्रपति का कानूनी सलाहकार होता है। भारत का राष्ट्रपति किसी भी ऐसे व्यक्ति को महान्यायवादी के पद पर नियुक्त कर देता है जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर योग्यताएँ रखता हो। महान्यायवादी किसी भी कानूनी समस्या जिस पर उससे सलाह माँगी जाय, राष्ट्रपति को व भारत सरकार को अपना परार्मश देता है। महान्यायवादी को भारत की संसद के किसी भी सदन में बोलने और कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार है वह किसी संसदीय समिति का सदस्य भी बन सकता है, पर उसे उस समिति में मतदान का अधिकार नहीं है।

प्रश्न 20.
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाए जाने की प्रक्रिया का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय के किसी भी न्यायाधीश को उसके दुर्व्यवहार अथवा असमर्थता के लिए पद से हटाया जा सकता है। इस सम्बन्ध में संसद के दोनों सदन पृथक-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद से अलग होने का आदेश देता है।

प्रश्न 21.
अभिलेख न्यायालय (कोर्ट ऑफ रिकार्ड) के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय भी है। इसका अभिप्राय यह है कि इसके निर्णयों को सुरक्षित रखा जाता है और किसी प्रकार के अन्य मुकदमों में उनका हवाला दिया जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किए गए निर्णय सभी न्यायालय मानने के लिए बाध्य हैं। यह न्यायालय अपनी कार्यवाही तथा निर्णयों का अभिलेख रखने के लिए उन्हें सुरक्षित रखता है।

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प्रश्न 22.
जिला स्तर के अधीनस्थ न्यायालयों पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालयों का संगठन देश भर में लगभग समान रूप से है। प्रत्येक जिले में तीन प्रकार के न्यायालय होते हैं –

  1. दिवानी
  2. फौजदारी
  3. भूराजस्व न्यायालय। ये न्यायालय राज्य के उच्च न्यायालय के नियंत्रण में काम करते हैं। जिला न्यायालय में उप-न्यायाधीशों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं। ये न्यायालय सम्पत्ति, विवाह, तलाक सम्बन्धी विवादों की सुनवाई भी करते हैं।

प्रश्न 23.
“लोक अदालत” पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत में गरीब, दलित, जरूरतमंद लोगों को तेजी से, आसानी से व सस्ता न्याय दिलाने के लिए हमारे देश में न्यायालयों की एक नई व्यवस्था शुरू की गई है जिसे लोक अदालत के नाम से जाना जाता है। लोक अदालतों की योजना के पीछे बुनियादी विचार यह है कि न्याय दिलाने में होने वाली देरी खत्म हो और जितनी जल्दी हो सके, वर्षों से अनिर्णित मामलों को निपटाया जाय। लोक अदालतें ऐसे मामलों को तय करती हैं जो अभी अदालत तक नहीं पहुँचे हों या अदालतों में अनिर्णीत पड़े हों। जनवरी 1989 में दिल्ली में लगी लोक अदालत ने सिर्फ एक ही दिन में 531 मामलों पर निर्णय दे दिए।

प्रश्न 24.
जनहित सम्बन्धी न्याय व्यवस्था पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत के उच्चतम न्यायालय ने जनहितार्थ न्याय के संबंध में नया कदम उठाया है। इसके द्वारा एक साधारण आवेदन पत्र या पोस्टकार्ड पर लिखकर कोई भी व्यक्ति कहीं से अन्याय की शिकायत के बारे में आवेदन करे तो शिकायत पंजीकृत की जाती है और आवश्यक आदेश जारी किए जा सकते हैं। इस योजना के अंतर्गत कमजोर वर्गों के लोगों, बंधुआ मजदूरों तथा बेगार लेने पर रोक लगाई जा सकती है। जनहित के मुकदमों से अभिप्राय यह है कि गरीब, अनपढ़ और अनजान लोगों की एवज में दूसरे व्यक्ति या संगठन भी न्याय माँगने का अधिकार रखते हैं।

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प्रश्न 25.
भारत का सबसे बड़ा न्यायालय कौन-सा है? इसके न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करता है?
उत्तर:
सर्वोच्च न्यायालय भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश होते हैं।

प्रश्न 26.
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश किस आयु पर अवकाश ग्रहण करते हैं?
उत्तर:
भारत में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक अपने पद पर रह सकते हैं। इससे पूर्व स्वयं त्यागपत्र दे सकते हैं या संसद द्वारा सिद्ध कदाचार अथवा असमर्थता के कारण हटाए जा सकते हैं।

प्रश्न 27.
संविधान के दो प्रमुख उपबंध बताइए, जो उच्चतम न्यायालय को स्वतंत्र तथा निष्पक्ष बनाते हैं।
उत्तर:

  1. राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत न्यायपालिका को कार्यपालिका से स्वतंत्र करने का परामर्श देते हैं।
  2. सभी न्यायाधीशों की नियुक्ति निर्धारित न्यायिक अथवा कानूनी योग्यताओं के आधार पर की जाती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
निर्वाचित न्यायपालिका और मनोनीत न्यायपालिका में भेद लिखिए।
उत्तर:
न्यायपालिका सरकार का तीसरा महत्त्वपूर्ण अंग है। यह लोगों के आपसी झगड़ों का वर्तमान कानूनों के अनुसार निर्णय करती है और जो लोग कानून का उल्लंघन करते हैं, न्यायपालिका उन अपराधियों को दण्ड देती है। विश्व के विभिन्न देशों में न्यायपालिका के रूप में न्यायधीशों की नियुक्ति मुख्यत: दो तरीकों से होती है-पहला, निर्वाचन के द्वारा तथा दूसरा सरकार द्वारा।

अमेरिका के कुछ राज्यों तथा कुछ अन्य देशों में न्यायपालिका के सदस्यों अर्थात् न्यायाधीशों का चुनाव जनता के द्वारा किया जाता है। स्विट्जरलैंड जैसे कुछ देशों में न्यायाधीशों का चुनाव विधानमंडल द्वारा होता है। दूसरी ओर विश्व के अधिकतर देशों में न्यायपालिका के सदस्यों को मुख्य कार्यपालिका अर्थात् राष्ट्रपति तथा राजा द्वारा मनोनीत किया जाता है। वे न्यायधीशों की निर्धारित योग्यताओं के आधार पर काम करते हैं। भारत तथा इंग्लैंड में यही प्रथा प्रचलित है।

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प्रश्न 2.
भारत में शीघ्र और सस्ते न्याय के लिए दो सुझाव दीजिए।
उत्तर:
शीघ्र और सस्ता न्याय एक अच्छी और सुदृढ़ न्याय व्यवस्था की कुंजियाँ हैं। परंतु हमारे देश में न्यायपालिका में ये दोनों विशेषताएँ नहीं पायी जाती। हमारे देश में न्याय पाने में बहुत देर लगती है तथा यह महँगा भी है। भारत के नागरिकों को शीघ्र और सस्ता न्याय दिलवाने के लिए हमारी केन्द्रीय सरकार ने लोक अदालतों का कार्यक्रम शुरू किया है।
भारत में शीघ्र और सस्ता न्याय दिलवाने के लिए दो मुख्य सुझाव इस प्रकार हैं –

  1. भारत के प्रत्येक राज्य में राज्य स्तर व जिला स्तर पर लोक अदालतों की व्यवस्था की जानी चाहिए और इन्हें लोकप्रिय बनाने जाने के लिए प्रचार किया जाना चाहिए।
  2. न्याय को शीघ्र पाने के लिए पिछले बचे हुए मुकदमों का तेजी से निपटारा किया जाना चाहिए और आवश्यतानुसार नए न्यायालयों की व्यवस्था की जानी चाहिए। न्याय को सस्ता करने के लिए न्यायालयों के खर्चों तथा वकीलों की फीसों को सरकार द्वारा कम किया जाना चाहिए।

प्रश्न 3.
भारत के उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार कौन-कौन से हैं? अथवा, उच्चतम न्यायालय राष्ट्रपति को कब परामर्श देता है क्या राष्ट्रपति उसकी सलाह मानने को बाध्य है?
उत्तर:
भारत में उच्चतम न्यायालय के तीन क्षेत्राधिकार निम्नलिखित हैं –

1. प्रारंभिक क्षेत्राधिकार:
सर्वोच्च न्यायालय को कुछ मुकदमों में प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं अर्थात् कुछ मुकदमे ऐसे हैं जो सर्वोच्च न्यायालय में सीधे ले जा सकते हैं।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
कुछ मुकदमे सर्वोच्च न्यायालय के पास उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपील के रूप में आते हैं। ये अपीलें संवैधानिक, दीवानी तथा फौजदारी तीनों प्रकार के मुकदमों में सुनी जा सकती हैं।

3. सलाहकारी क्षेत्राधिकार:
राष्ट्रपति किसी सार्वजनिक महत्त्व के विषय पर सर्वोच्च न्यायालय से कानूनी सलाह ले सकता है, परंतु राष्ट्रपति के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श के अनुसार कार्य करे।

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प्रश्न 4.
भारत में दीवानी न्यायालयों के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
दीवानी न्यायालय रुपये-पैसे और जमीन-जायदाद आदि के झगड़ों के मुकदमों का फैसला करते हैं। भारत में पंचायतें सबसे छोटी दीवानी अदालतें हैं और ये 200 रुपये तक के झगड़ों का फैसले कर सकती हैं। पंचायतों के बाद कोलकाता, मुम्बई व चेन्नई आदि बड़े-बड़े नगरों में लघुवाद न्यायालय 500 रुपये से 2000 रुपये तक के झगड़ों का फैसला करते हैं। इसके बाद सब-जज के न्यायालय होते हैं जिन्हें बड़ी-बड़ी रकमों के मुकदमे सुनने का फैसला करने का अधिकार है। दीवानी मुकदमे सुनने के लिए जिले में सबसे बड़ा न्यायालय जिला जज का होता है। राज्यपाल जिला जज एवं न्यायाधीशों व मजिस्ट्रेटों की नियुक्ति संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है। जिला न्यायालय में अधीन न्यायालयों के विरुद्ध अपीलें सुनी जाती हैं।

प्रश्न 5.
अनुच्छेद 32 के अधीन विभिन्न ‘लेखों (रिट)’ को बताएँ।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए निम्नलिखित लेख (रिट) जारी कर सकता है –
(क) बंदी प्रत्यक्षीकरण
(ख) परमादेश
(ग) प्रतिषेध
(घ) अधिकारपृच्छा
(ङ) उत्पेषण

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के गठन के बारे में लिखिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का गठन

1. रचना –
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है, शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके द्वारा किया गया निर्णय सर्वमान्य होता है। संविधान द्वारा इस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 8 निश्चित की गई थी जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश थे, परंतु आवश्यकता के अनुसार इनकी संख्या बढ़ा दी गई। आजकल सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश काम कर रहे हैं।

2. योग्यताएँ –

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • कम से कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।
  • कम से कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों का एडवोकेट रह चुका हो।
  • राष्ट्रपति के विचार से वह कानून-शास्त्र का प्रख्यात विद्वान हो।

3. कार्यकाल:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वे त्यागपत्र दे सकते हैं।

4. पद से हटना:
किसी भी न्यायाधीश को उसके दुर्व्यवहार अथवा असमर्थता के लिए पद से हटाया जा सकता है। इस संबंध में संसद के दोनों सदन पृथक्-पृथक् सदन की समस्त संख्या के बहुमत और उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 के बहुमत से प्रस्ताव पास करके राष्ट्रपति के पास भेजते हैं। इस प्रस्ताव के आधार पर राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद छोड़ने का आदेश देता है।

5. वेतन तथा भत्ते:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये और प्रत्येक अन्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उन्हें मुफ्त सरकारी आवास, स्टाफ, कार तथा अन्य सुविधाएँ मिलती हैं। पद मुक्त हो जाने पर उन्हें पेंशन भी मिलता है।

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प्रश्न 2.
मौलिक अधिकारों के रक्षक के रूप में उच्चतम न्यायालय पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत के नागरिकों को भारतीय संविधान द्वारा छः मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं। इन मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का उत्तरदायित्व भारत की न्यायपालिका को दिया गया है। इस कार्य में मुख्य भूमिका भारत के सर्वोच्च न्यायालय व राज्यों के उच्च न्यायालयों द्वारा निभायी जाती है।

यदि सरकार नागरिकों के मौलिक अधिकारों को कुचलती है या अन्य नागरिक दूसरे नागरिकों को उसके मौलिक अधिकारों का प्रयोग स्वतंत्रापूर्वक नहीं करने देते तो उन नागरिकों के पास यह मौलिक अधिकार है कि वे अपने मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय या अपने राज्य के उच्च न्यायालय की शरण ले सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय “संवैधानिक उपचारों के अधिकार” के अन्तर्गत संविधान में वर्णित नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हैं। मौलिक अधिकारों की रक्षा करते समय ये न्यायालय निम्नलिखित लेख या आदेश जारी कर सकते हैं –

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण का आदेश-इसका अर्थ है:
शरीर को हमारे समक्ष प्रस्तुत करो। यदि न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि किसी व्यक्ति को अनुचित ढंग से बंदी बनाया गया है तो उसकी रिहाई के आदेश दे सकता है।

2. परमादेश:
इसका अर्थ है हम आदेश देते हैं। जब कोई व्यक्ति, संस्था, निगम या अधीनस्थ न्यायालय अपने कर्तव्य का पालन न कर रहा हो, तब यह आदेश पत्र जारी किया जा सकता है। इसके द्वारा उसे कर्त्तव्य पालन का
आदेश दिया जाता है।

3. प्रतिषेध:
जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जा रहा हो या कानून की प्रक्रिया के विरुद्ध जा रहा हो तो उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय उस अधीनस्थ न्यायालय को ऐसा करने से प्रतिषेध कर सकता है।

4. अधिकार पृच्छा:
इसका अर्थ है किस अधिकार से ? यदि कोई व्यक्ति किसी पद या अधिकार को कानून के विरुद्ध प्राप्त करके बैठा हो तो उसे ऐसा करने से रोका जा सकता है।

5. उत्प्रेषण लेख:
इसका अर्थ है और अधिक सूचित कीजिए। इसके द्वारा न्यायालय किसी अधीन न्यायालय या किसी मुकदमे को अपने पास या किसी ऊँचे न्यायालय में भेजने के लिए कह सकता है।

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प्रश्न 3.
उच्चतम न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकारों एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के संरचना का वर्णन कीजिए। इसके अपील संबंधी क्षेत्राधिकार का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत के सर्वोच्च न्यायालय की संरचना, शक्तियों एवं भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारत के सर्वोच्च न्यायालय का संगठन –

1. संरचना:
संविधान के अनुसार भारत में एक सर्वोच्च न्यायालय की व्यवस्था की गई है। यह भारत का सबसे बड़ा न्यायालय है, शेष सभी न्यायालय इसके अधीन हैं। इसके द्वारा किया गया निर्णय सर्वमान्य होता है। संविधान द्वारा इस न्यायालय के न्यायाधीशों की संख्या 8 निश्चित की गई थी जिसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा 7 अन्य न्यायाधीश थे, परंतु आवश्यकता के अनुसार इसकी संख्या बढ़ा दी गई। आजकल सर्वोच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीश काम कर रहे हैं।

2. योग्यताएँ:

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • कम से कम 5 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय में न्यायाधीश रह चुका हो।
  • कम से कम 10 वर्ष तक किसी उच्च न्यायालय या लगातार दो या दो से अधिक न्यायालयों का एडवोकेट रह चुका हो।

3. राष्ट्रपति के विचार से वह कानून:
शास्त्र का प्रख्यात विद्वान हो।

4. कार्यकाल:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने पद पर 65 वर्ष तक की आयु तक रह सकते हैं। इससे पूर्व भी वे त्यागपत्र दे सकते हैं।

5. वेतन तथा भत्ते:
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 33,000 रुपये और प्रत्येक अन्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है। इसके अतिरिक्त उन्हें वाहन भत्ता और रहने के लिए मुफ्त सरकारी मकान भी प्राप्त होता है। केवल वित्तीय संकट के काल को छोड़कर और किसी भी स्थिति में किसी न्यायाधीश के वेतन व भत्ते आदि में कमी या कटौती नहीं की जा सकती।

सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार एवं शक्तियाँ:
सर्वोच्च न्यायालय को बहुत ही विस्तृत क्षेत्राधिकार प्राप्त है। इस विषय में कृष्ण स्वामी अय्यन ने कहा है – “भारत के सर्वोच्च न्यायालय की दुनिया के किसी भी सर्वोच्च न्यायालय की अपेक्षा अधिक अधिकार प्राप्त हैं।”

(I) प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार –

  • यदि दो या दो से अधिक सरकारों के मध्य आपस में कोई विवाद या झगड़ा उत्पन्न हो जाए तो वह मुकदमा सीधा सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जाता है।
  • यदि किसी विषय पर केन्द्रीय सरकार तथा एक अथवा एक से अधिक राज्यों के बीच कोई मतभेद उत्पन्न हो जाये तो वह मुकदमा सीधा सर्वोच्च न्यायालय में पेश किया जा सकता है।
  • मौलिक अधिकारों के संरक्षक के रूप में सर्वोच्च न्यायालय ऐसे मुकदमों को भी सीधे सुन सकता है जिनमें नागरिकों के मौलिक अधिकारों को सरकार या किसी व्यक्ति द्वारा छीना गया हो।

(II) अपील संबंधी क्षेत्राधिकार –
सर्वोच्च न्यायालय एक अतिम अपीलीय न्यायालय है। यह उच्च न्यायालय के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुन सकता है।

1. संवैधानिक विषय:
यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि उसके विचारानुसार किसी मुकदमे में संविधान की किसी धारा की.ठीक व्याख्या के संबंध में विवाद है तो ऐसे मुकदमों की अपील सर्वोच्च न्यायालय सुन सकता है।

2. दीवानी मुकदमे:
दीवानी मुकदमे सम्पत्ति से संबंधित होते हैं। उच्च न्यायालयों द्वारा दीवानी मुकदमों में दिए गए निर्णयों के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है। लेकिन अपील केवल उन्हीं निर्णयों के विरुद्ध की जा सकती है जिनमें सार्वजनिक महत्त्व का कोई कानून निहित हो और जिसकी व्याख्या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की जानी आवश्यक है। आरम्भ में केवल उन्हीं मुकदमों की अपील करने की व्यवस्था की गई थी, जिसमें 20,000 या उससे अधिक रुपयों की सम्पत्ति का दावा निहित हो। 1972 ई. के 30 वें संशोधन में यह सीमा समाप्त कर दी गई।

3. फौजदारी मुकदमे:
सर्वोच्च न्यायालय विभिन्न प्रकार के फौजदारी मुकदमों की अपीलें सुन सकता है। जैसे –
(अ) उच्च न्यायालय ने निम्न न्यायालय से मुकदमा अपने पास मंगाकर अपराधी को मृत्यु-दण्ड दिया हो।
(ब) जब उच्च न्यायालय ने किसी ऐसे अपराधी को मृत्यु-दण्ड दिया हो जिसे निम्न न्यायालय ने बरी कर दिया हो।
(स) जब उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि किसी मामले के संबंध में कोई अपील सर्वोच्च न्यायालय के सुने जाने के योग्य है।

4. परामर्श देने का अधिकार:
संविधान द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को परामर्श संबंधी अधिकार दिया गया है। यदि राष्ट्रपति किसी विषय पर सर्वोच्च न्यायालय की बात जानना चाहता है। तो यह न्यायालय को अपना परामर्श दे सकता है।

5. संविधान के व्याख्याता के रूप में संविधान की किसी भी धारा के संबंध में व्याख्या करने का अंतिम अधिकार सर्वोच्च न्यायालय के पास है कि संविधान की किस धारा का सही अर्थ क्या है?

6. अभिलेख न्यायालय:
सर्वोच्च न्यायालय को संविधान द्वारा अभिलेख न्यायालय बनाया गया है। अभिलेख न्यायालय का अर्थ ऐसे न्यायालय से है जिसके निर्णय दलील के तौर पर सभी न्यायालयों को मानने पड़ते हैं। इस न्यायालय को अपने अपमान के लिए किसी को भी दण्ड देने का अधिकार प्राप्त है।

7. न्यायिक पुनर्निरीक्षण का अधिकार-इसका अर्थ यह है कि सर्वोच्च न्यायालय व्यवस्थापिका के उन कानूनों को और कार्यपालिका के उन आदेशों को अवैध घोषित कर सकता है जो कि संविधान के विरुद्ध हो । यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय के पास बहुत ही महत्त्वपूर्ण शक्ति है। इस शक्ति के द्वारा ही वह संविधान की रक्षा करता है तथा मौलिक अधिकारों का संरक्षक है।

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प्रश्न 4.
न्यायिक समीक्षा की क्या-क्या सीमाएँ हैं?
उत्तर:
भारत में न्यायिक समीक्षा का क्षेत्र संयुक्त राज्य अमरीका की अपेक्षा कम विस्तृत है। उच्चतम न्यायालय की शक्तियों की निम्नलिखित सीमाएँ हैं –

1. कानून के विवेक व उसकी नीति को चुनौती नहीं दी जा सकती:
न्यायालय को यह अधिकार नहीं है कि विधायिका की ‘बुद्धि’ या ‘विवेक’ की समीक्षा करे। उसका कार्य तो केवल यह देखना है कि क्या विधानमंडल अथवा कार्यपालिका को अमुक कानून बनाने का अधिकार है? कानून अच्छा है या बुरा यह निर्णय करने की शक्ति उसे प्रदान नहीं की गयी है। जवाहर लाल नेहरू के शब्दों में “न्यायालय को विधायिका का तीसरा सदन नहीं बनाया जा सकता।”

2. संविधान की नौवीं अनुसूची:
प्रथम संशोधन द्वारा संविधान में एक अनुसूची (9वीं अनुसूची) जोड़ दी गई और यह व्यवस्था की गयी कि जिन कानूनों को इस अनुसूची में डाल दिया जायगा उनकी वैधता को किसी भी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी। अनेक भूमि सुधार कानूनों तथा राष्ट्रीयकरण सम्बन्धी कानूनों को न्यायालय की परिधि से बाहर रखने के लिए इस अनुसूची में डाल दिया जाता है।

3. अन्तर्राष्ट्रीय नदियों के जल का बँटवारा:
अन्तर्राष्ट्रीय नदियों के जल के बँटवारे के विवाद का निर्णय उच्चतम न्यायालय न करे, संसद यह व्यवस्था कर सकती है।

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प्रश्न 5.
भारत के उच्चतम न्यायालय की न्यायिक पर्यवेक्षण की शक्ति का विवेचन कीजिए। अथवा, भारत के उच्चतम न्यायालय का न्यायिक समीक्षा का अधिकार क्या है? न्यायिक समीक्षा के महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
न्यायिक समीक्षा से अभिप्राय-संविधान की व्याख्या करने की शक्ति को न्यायिक समीक्षा की शक्ति के नाम से पुकारा जाता है। इसी को ‘न्यायिक पुनर्निरीक्षण’ अथवा ‘पुनरावलोकन’ भी कहते हैं। पुनर्निरीक्षण का अर्थ है-‘फिर से देखना’ अर्थात् “विधायिका द्वारा पारित कानून और कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए आदेश का जाँच करना और यह देखना कि वे संविधान के अनुकूल हैं अथवा नहीं। “यदि न्यायालय यह समझे कि अमुक कानून (चाहे वह ‘संसद द्वारा निर्मित हो या राज्य विधानमण्डल द्वारा) अथवा आदेश संविधान की धाराओं के विरुद्ध है तो उसे अवैध असंवैधानिक घोषित कर सकता है।

इसी प्रकार केन्द्र अथवा राज्य सरकारों के किसी कृत्य को संवैधानिक अथवा गैर-संवैधानिक घोषित करने की शक्ति को ही न्यायिक समीक्षा के नाम से पुकारा जाता है। क्योंकि उच्चतम न्यायालय एक सर्वोच्च अदालत है इसलिए किसी भी मामले में उसका निर्णय अंतिम निर्णय माना जाएगा। इस अधिकार के अन्तर्गत उच्चतम न्यायालय निम्नलिखित शक्तियों का उपयोग करता है –

1. यदि केन्द्र और राज्यों के बीच कोई संवैधानिक विवाद हो तो उच्चतम न्यायालय उसका निर्णय कर सकता है।

2. यदि संसद या राज्यों के विधान मंडल कोई ऐसा कानून बनाये अथवा कार्यपालिका कोई ऐसा आदेश जारी करे जो संविधान की धाराओं के अनुकूल न हो तो उच्चतम न्यायालय को यह अधिकार है कि उसे अवैध यानि ‘शून्य या निष्क्रिय’ घोषित कर दे। दूसरे शब्दों में, “संसद व राज्यों के विधानमण्डलों को अपने-अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर रहते हुए सब कार्य करने चाहिए।”

3. उच्चतम न्यायालय मूलभूत अधिकारों का भी रक्षक है। अधिकारों की रक्षा के लिए उसे कई प्रकार के आदेश व लेख जारी करने का अधिकार है, जैसे बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख तथा परमादेश आदि।

4. संविधान में यदि कोई अस्पष्टता है अथवा किसी शब्द या अनुच्छेद के विषय में कोई संशय या मतभेद है तो उच्चतम न्यायालय को अधिकार है कि वह संविधान के अर्थों का स्पष्टीकरण करे।

न्यायिक समीक्षा का महत्त्व:

1.  लिखित संविधान के लिए न्यायिक समीक्षा अनिवार्य है-लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। इसलिए संविधान की व्याख्या का प्रश्न जब-तब जरूर उठेगा।

2. संविधान में केन्द्र और राज्यों को सीमित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं:
संघीय शासन में राजशक्ति को केन्द्र और इकाइयों के बीच बाँट दिया जाता है। अपने-अपने क्षेत्र में ये सरकारें एक-दूसरे के नियंत्रण से प्रायः मुक्त होती हैं। यदि केन्द्र अथवा राज्य सरकारें अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य-संचालन मुश्किल हो जाएगा। केन्द्र और राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों का ठीक से निबटारा एक उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है।

3. संविधान की व्याख्या का कार्य न्यायालय ही अच्छी तरह कर सकता है:
जस्टिस के.के. मैथ्यू के अनुसार “संसद की सदस्य संख्या बहुत बड़ी होती है।” सदस्य जब तब बदलते रहते हैं और उनमें दलबंदी की भावना होती है। इसके अतिरिक्त उनके ऊपर का ज्यादा असर होता है। इन कारणों से संविधान की व्याख्या के लिए जितनी निष्पक्षता की जरूरत होती है उतनी निष्पक्षता उनमें नहीं होती।” दूसरी ओर, न्यायालय की रचना इस प्रकार की होती है कि उसके ऊपर क्षणिक आवेश या राजनीतिक प्रभावों का असर नहीं पड़ता। संविधान की व्याख्या करते समय वह निष्पक्षतापूर्वक सभी मुकदमों पर विचार कर सकता है।

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प्रश्न 6.
भारत के उच्चतम न्यायालय को स्वतंत्र व निष्पक्ष रखने के लिए कौन-कौन से कदम उठाए गए हैं? अथवा, “भारत के उच्चतम न्यायालय की स्वतंत्रता” पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई है जिससे भारत का उच्चतम न्यायालय अपने कार्यों में निष्पक्ष रह सके और स्वतंत्रता से कार्य कर सके। सर्वोच्च न्यायालय की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए जो व्यवस्थाएँ की गई हैं, उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं –

1. सर्वोच्च न्यायालय के न्यायधीशों की नियुक्तियाँ:
भारत में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति का ढंग बहुत अच्छा है। इसकी नियुक्ति संविधान में निश्चित की गई योग्यताओं के आधार पर राष्ट्रपति के द्वारा की जाती है, लेकिन राष्ट्रपति के पास इनको इनके पद से हटाने की शक्ति नहीं है। इस प्रकार न्यायाधीश अपने पद से हटाए जाने के भय से दूर रहकर स्वतंत्रापूर्वक अपना कार्य कर सकते हैं।

2. अपदस्थ करने की कठिन विधि:
चरित्रहीनता अथवा कार्य में अयोग्यता के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पदों से अपदस्थ किया जा सकता है, लेकिन यह शक्ति केवल संसद के पास है। किसी न्यायाधीश को उसके पद से हटाने के लिए संसद के दोनों सदनों (लोकसभा एवं राज्यसभा) के 2/3 सदस्य उसके विरुद्ध प्रस्ताव पास करके उसको हटाने की सिफारिश राष्ट्रपति से कर सकते हैं। अतः उन्हें हटाने की विधि इतनी कठिन है कि कोई राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या राजनीतिक दल उन पर दबाव डालकर उनके स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करने में रुकावट नहीं डाल सकते।

3. न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते:
न्यायाधीशों के वेतन व भत्ते आदि देश की संचित निधि में से दिए जाते हैं। लोकसभा में इस प्रकार के व्यय पर वाद-विवाद तो हो सकता है परंतु मत नहीं लिए जा सकते। उनके वेतन तथा भत्तों में भी कमी नहीं की जा सकती। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश मंत्रिमंडल के प्रभाव क्षेत्र से बाहर रहकर निष्पक्ष रूप से निर्णय कर सकते हैं।

4. सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों एवं कार्यों पर वाद:
विवाद नहीं हो सकता-सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय अंतिम होते हैं। उसके निर्णयों की आलोचना नहीं की जा सकती। यदि कोई ऐसा करता है तो सर्वोच्च न्यायालय उसे दण्ड देने की शक्ति रखता है। इसके अतिरिक्त संसद न्यायाधीशों के ऐसे कार्यों पर वाद-विवाद नहीं कर सकती जो उन्हें अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए किए हैं।

5. न्यायिक पर्यवेक्षण की शक्ति:
सर्वोच्च न्यायालय को संसद द्वारा बनाए हुए कानूनों का निरीक्षण करने का पूरा अधिकार है। इस शक्ति के द्वारा सर्वोच्च न्यायालय संसद द्वारा पास किसी कानून को अवैध घोषित कर सकता है, यदि वह संविधान की किसी धारा के प्रतिकूल हो। इस अधिकार से उसका गौरव बहुत बढ़ गया है और उसे अपने क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान प्राप्त है।

6. प्रशासकीय अधिकार:
सर्वोच्च न्यायालय को अपनी कार्य-विधि के सम्बन्ध में नियम बनाने का पूर्ण अधिकार है। इसके अतिरिक्त न्याय-विभाग के कर्मचारियों की नियुक्तियाँ आदि करने व अन्य प्रशासकीय व्यवस्थाएँ करने में वह पूर्ण स्वतंत्र है।

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प्रश्न 7.
क्या आप मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता से न्यायपालिका और कार्यपालिक में विरोध पनप सकता है? क्यों?
उत्तर:
न्यायिक सक्रियता के कारण कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच तनाव बढ़ सकता है। वास्तव में न्यायिक सक्रियता राजनीतिक व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डालती है। यह कार्यपालिका को उत्तरदायी बनाने को बाध्य करती है। न्यायिक सक्रियता के द्वारा चुनाव प्रणाली को और आसान बनाया गया है। न्यायालय उम्मीदवारों की आय, सम्पत्ति, शिक्षा और उनके आचरण सम्बन्धी शपथ पत्र भरवाने को कहता है। इस कारण उम्मीदवार न्यायपालिका से संतुष्ट नहीं रहते। परिणामस्वरूप कार्यपालिका और न्यायपालिका में टकराव होता है।

जनहित याचिका और न्यायिक सक्रियता का यह नकारात्मक पहलू भी है। इससे न्यायालयों में जहाँ कार्य का बोझ बढ़ा है वहीं कार्यपालिका, न्यायपालिका और व्यवस्थापिका के कार्यों के बीच का अंतर धुंधला हो या है। जो कार्य कार्यपालिका को करने चाहिए थे उन्हें भी न्यायपालिका को करना पड़ रहा है। राजधानी दिल्ली में सी.एन.जी. बसों का चलन कार्यपालिका को करना चाहिए था परंतु यह कार्य कराने को लेकर न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा। न्यायालय उन समस्याओं में उलझ गया जिसे कार्यपालिका को करना चाहिए।

उदाहरणार्थ वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करना या चुनाव सुधार करना वास्तव में न्यायपालिका के नहीं कार्यपालिका के कर्त्तव्य हैं। ये सभी कार्य विधायिका की देखरेख में प्रशासन को करना चाहिए। अत: कुछ लोगों का विचार है कि न्यायिक सक्रियता से सरकार के तीनों अंगों के बीच पारस्परिक संतुलन रखना कठिन हो गया है जबकि लोकतंत्रीय शासन का आधार सरकार के अंगों में परस्पर सहयोग और संतुलन होता है। प्रत्येक अंग दूसरे अंग का सम्मान करे। न्यायिक सक्रियता से मूलभूत लोकतांत्रिक सिद्धांत को भी धक्का लग सकता है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि न्यायिक सक्रियता से कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच तनाव बढ़ सकता है।

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प्रश्न 8.
न्यायिक समीक्षा से क्या अभिप्राय है? इसके महत्त्व का संक्षिप्त विवेचन कीजिए। किस आधार पर इसकी आलोचना की जा सकती है?
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि संसद तथा विभिन्न राज्यों के विधानमंडलों द्वारा पारित कानूनों व कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए अध्यादेशों की न्यायालय द्वारा समीक्षा करना। भारत में न्यायिक पर्यवेक्षण का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय अपनी इस शक्ति द्वारा यह देखता है कि विधानपालिका द्वारा पास किए गए कानून तथा कार्यपालिका द्वारा जारी किए गए अध्यादेश संविधान की धाराओं के अनुकूल हैं या नहीं। यदि न्यायालय इन कानूनों को संविधान के प्रतिकूल पाता है तो वह इन्हें अवैध घोषित कर सकता है। सर्वोच्च न्यायालय का इस विषय में निर्णय अंतिम तथा सर्वमान्य होता है। कुछ समय पहले सर्वोच्च न्यायालय ने ‘प्रिवी पर्स’ तथा बैंकों के राष्ट्रीयकरण को न्यायिक समीक्षा के आधार पर अवैध घोषित कर दिया था।

संविधान के 42 वें संविधान के एक नए अनुच्छेद (144-ए) को जोड़कर यह आवश्यक बना दिया गया था कि कानूनों की संवैधानिक वैधता का निर्णय करने वाली सर्वोच्च न्यायालय की बैच में कम-से-कम 7 न्यायाधीश हों और वह 2/3 बहुमत से निर्णय करें कि किसी कानून को अवैध घोषित किया जा सकेगा अन्यथा नहीं। परंतु 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम ने इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया और अब संवैधानिक वैधता के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता नहीं है।

न्यायिक पुनर्निरीक्षण का महत्व –

1. लिखित संविधान के लिए न्यायिक समीक्षा अनिवार्य है:
लिखित संविधान की शब्दावली कहीं-कहीं अस्पष्ट और उलझी हो सकती है। इसलिए संविधान की व्याख्या का प्रश्न जब-तब जरूर उठेगा।

2. संविधान में केन्द्र और राज्यों को सीमित शक्तियाँ प्रदान की गई हैं:
संघीय शासन में राजशक्ति को केन्द्र और इकाइयों के बीच बाँट दिया जाता है। अपने-अपने क्षेत्र में ये सरकारें एक-दूसरे के नियंत्रण से प्रायः मुक्त होती हैं। यदि केन्द्र अथवा राज्य सरकारें अपनी सीमाओं का उल्लंघन करें तो कार्य-संचालन मुश्किल हो जाएगा। केन्द्र और राज्यों के बीच उत्पन्न विवादों का ठीक से निबटारा एक उच्चतम न्यायालय ही कर सकता है।

3. संविधान की व्याख्या का कार्य न्यायालय ही अच्छी तरह कर सकता है:
जस्टिस के.के. मैथ्यू के अनुसार “संसद की सदस्य संख्या बहुत बड़ी होती है।” सदस्य जब तब बदलते रहते हैं और उनमें दलबंदी की भावना होती है। इसके अतिरिक्त उनके ऊपर का ज्यादा असर होता है। इन कारणों से संविधान की व्याख्या के लिए जितनी निष्पक्षता की जरूरत होती है उतनी निष्पक्षता उनमें नहीं होती। दूसरी ओर, न्यायालय की रचना इस प्रकार की होती है कि उसके ऊपर क्षणिक आवेशों या राजनीतिक प्रभावों का असर नहीं पड़ता। संविधान की व्याख्या करते समय वह निष्पक्षतापूर्वक सभी मुकदमों पर विचार कर सकता है।

न्यायिक पुनर्निरीक्षण की आलोचना-न्यायिक पुनर्निरीक्षण के सिद्धांत की अब कटु आलोचना की जाती है। आलोचकों का आरोप है कि यह न्यायपालिका के स्थान को ऊँचा उठाकर, उसे महाविधायिका बना देता है। आश्चर्य की बात है कभी-कभी संयुक्त राज्य अमरीका का सर्वोच्च न्यायालय पाँच-चार के सामान्य बहुमत से पारित कर चुके होते हैं। साथ ही, सर्वोच्च न्यायालय के पुनर्निरीक्षण के अधिकार के इस्तेमाल से संयुक्त राज्य अमरीका में प्रगतिशील सामाजिक विधि-निर्माण का कार्य बाधित हुआ है।

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प्रश्न 9.
उच्च न्यायालय के गठन, क्षेत्राधिकार तथा अधिकारों का वर्णन कीजिए। अथवा, भारत में किसी राज्य के उच्च न्यायालय के संगठन तथा शक्तियों का विश्लेषण कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुसार राज्य में एक उच्च न्यायालय की स्थापना की जानी चाहिए। किसी-किसी स्थान पर दो राज्यों का भी एक उच्च न्यायालय है। जैसे कि आजकल पंजाब, हरियाणा तथा केन्द्र-शासित प्रदेश चण्डीगढ़ का एक ही उच्च न्यायालय चण्डीगढ़ में स्थित है।

उच्च न्यायालय का संगठन –

1. रचना तथा न्यायाधीशों की नियुक्ति:
राज्य के उच्च न्यायालय में एक मुख्य न्यायाधीश तथा कुछ अन्य न्यायाधीश होते हैं जिनकी संख्या आवश्यकतानुसार घटती-बढ़ती रहती है। न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति करता है। मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति वह सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है। अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के समय राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं उस राज्य के राज्यपाल की सलाह लेता है।

2. योग्यताएँ:

  • वह भारत का नागरिक हो।
  • वह कम से कम 10 वर्ष तक वकालत कर चुका हो।
  • वह किसी उच्च न्यायालय में 10 वर्ष तक वकालत कर चुका हो।

3. कार्यकाल:
उच्च न्यायालय के न्यायाधीश 62 वर्ष तक अपने पद पर कार्य कर सकते हैं। ये स्वयं इस अवधि से पूर्व भी त्यागपत्र दे सकते हैं तथा जब यह प्रमाणित हो जाए कि कोई न्यायाधीश अपने पद पर कार्य ठीक नहीं कर रहा तो संसद बहुमत द्वारा प्रस्तावित करके उसे हटा भी सकती है।

4. वेतन तथा भत्ते:
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को 30,000 रुपये मासिक वेतन मिलता है तथा अन्य भत्ते भी मिलते हैं:

उच्च न्यायालय की शक्तियाँ –
1. प्रारंभिक क्षेत्राधिकार-जो विवाद सीधे ही उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हों, उन्हें प्रारंभिक क्षेत्राधिकार के नाम से जाना जाता है। उच्च न्यायालय के प्रारंभिक क्षेत्राधिकार में आने वाले प्रमुख विषय हैं:

  • नागरिकों के मौलिक अधिकारों से संबंधित विवाद अथवा मुकदमे सीधे उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हैं क्योंकि उनकी सुनवाई का अधिकार अन्य किसी छोटे न्यायालय को प्राप्त नहीं है।
  • मौलिक अधिकारों की रक्षा हेतु उच्च न्यायालय के द्वारा विभिन्न प्रकार के लेख जारी किए जा सकते हैं।
  • संविधान की व्याख्या से संबंधित झगड़े सीधे उच्च न्यायालय में ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
  • 1977 ई. से चुनाव विवादों से संबंधित मुकदमों की सुनवाई भी उच्च न्यायालयों द्वारा ही की जा रही है।
  • नौकाधिकरण, वसीयत, विवाह, संबंधी तथा न्यायालय के मानहानि संबंधी मुकदमे भी सीधे उच्च न्यायालय में प्रस्तुत किए जा सकते हैं।
  • कोलकाता, चेन्नई और मुम्बई के उच्च न्यायालयों को संबंधित क्षेत्रों के दीवानी मामलों में प्रारंभिक क्षेत्राधिकार प्राप्त हैं किन्तु वही मुकदमे लाए सकते हैं जिनकी कीमत दो हजार या उससे अधिक हो।

2. अपीलीय क्षेत्राधिकार:
उच्च न्यायालय दीवानी तथा फौजदारी मुकदमों की अपील सुनते हैं।

  • दीवानी मुकदमों के मामलों में जिला न्यायाधीश के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकती है।
  • उच्च न्यायालय में फौजदारी के मुकदमे में सेशन जज के निर्णय के विरुद्ध अपील की जा सकी है।
  • उपरोक्त मुकदमों के अलावा उच्च न्यायालय को आयकर, बिकीकर, पटेन्ट और डिजाइन, उत्तराधिकार, दिवालियापन और संरक्षक से संबंधित मुकदमों की अपील सुनने का अधिकार प्रदान किया गया है।

3. लेख जारी करने का अधिकार:
मूल संविधान के अनुच्छेद 226 के द्वारा उच्च न्यायालयों को मौलिक अधिकारों को लागू करने तथा अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लेख, आदेश तथा निर्देश जारी करने का अधिकार प्रदान किया गया है।

जहाँ पर किसी कानूनी प्रावधान का उल्लंघन हुआ हो और इस उल्लंघन से वादी को सारभूत आघात पहुँचा है। जहाँ पर ऐसी अवैधानिकता हो कि उससे न्याय को सारभूत असफलता मिली हो। प्रत्येक मामले में वादी के द्वारा न्यायालय को यह संतोष दिलाना होगा कि उसे अन्य कोई उपचार प्राप्त नहीं है।

4. न्यायिक पुनर्निरीक्षण की शक्ति:
42 वें संवैधानिक संशोधन द्वारा उच्च न्यायालयों में न्यायिक पुनर्निरिक्षण की शक्ति को भी सीमित कर दिया गया है। अब उच्च न्यायालय को किसी केन्द्रीय कानून की वैधता पर विचार करने का अधिकार नहीं होगा, लेकिन अनुच्छेद 131ए’ प्रावधानों को दृष्टि में रखते हुए उच्च न्यायालय राज्य के कानून की संवैधानिक वैधता का निर: – कर सकेगा। एक राज्य का कानून उच्च न्यायालय द्वारा निम्नलिखित प्रकार से ही अवैध घोधित किया जा सकेगा यदि बैंच में 5. अधिक न्यायाधीश हैं तो संबंधित बैंच के द्वारा कम से कम दो तिहाई बहु. से कानून को असंवैधानिक घोषित किया जाय। यदि 5 से कम न्यायाधीश हैं तो सभी न्याया। द्वारा उसे असंवैधानिक घोषित किया जाना चाहिए।

5. उच्च न्यायालय एक अभिलेख न्यायालय है:
सर्वोच्च न्यायालय की भाँति न्यायालय भी एक अभिलेख न्यायालय है अर्थात् इसके निर्णयों को प्रमाण के रूप में अन्य न्यायालयों में पेश किया जा सकता है तथा उन्हें किसी न्यायालय में पेश किए जाने पर वैधानिकता पर संदेह नहीं किया जा सकता। उच्च न्यायालय के द्वारा अपनी अवमानना है किसी भी व्यक्ति को दण्डित किया जा सकता है।

6. उच्च न्यायाल की प्रशासनिक शक्तियाँ:
उच्च न्यायालय को निम्नलिखित प्रशासनिक शक्तियाँ प्राप्त हैं –

  • अनुच्छेद 227 के अनुसार उच्च न्यायालय अपने अधीन न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर निरीक्षण का अधिकार रखता है। अपने इन अधिकारों के अन्तर्गत वह अपने अधीन न्यायालयों में से किसी भी मुकदमे से संबंधित कागजात मँगाकर देख सकता है।
  • उच्च न्यायालय किंसी विवाद को एक अधीन न्यायालय से दूसरे अधीन न्यायालय में भेज सकता है।
  • अधीन न्यायालयों की कार्यपद्धति, रिकार्ड, और रजिस्टर तथा हिसाब इत्यादि रखने के संबंध में भी एक उच्च न्यायालय अपने अधीन न्यायालयों के लिए नियम बना सकता है।
  • यह अधीन न्यायालय के शेरिफ, क्लर्क, अन्य कर्मचारियों तथा वकील आदि के वेतन, सेवा शर्ते और फीस निश्चित कर सकता है।
  • यह जिला न्यायालय तथा छोटे-छोटे न्यायालयों के अधिकारियों की नियुक्ति, अवनति, उन्नति और अवकाश इत्यादि के संबंध में नियम बना सकता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश कितने वर्ष तक अपने पद पर बने रहते हैं?
(क) 62 वर्ष तक
(ख) 65 वर्ष तक
(ग) 60 वर्ष तक
(घ) आजीवन
उत्तर:
(ख) 65 वर्ष तक

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 न्यायपालिका

प्रश्न 2.
न्यायपालिका का कार्य है –
(क) कानूनों का निर्माण
(ख) कानूनों की व्याख्या
(ग) कानूनों का क्रियान्वयन
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) कानूनों का क्रियान्वयन

प्रश्न 3.
पटना उच्च न्यायालय की स्थापना कब हुई?
(क) 1950 में
(ख) 1935 में
(ग) 1916 में
(घ) 1917 में
उत्तर:
(ग) 1916 में

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प्रश्न 4.
संविधान सभा के अस्थायी अध्यक्ष थे –
(क) डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
(ख) डॉ. भीमराव अम्बेदकर
(ग) डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा
(घ) पं. जवाहर लाल नेहरू
उत्तर:
(ग) डॉ. सच्चिदानंद सिन्हा

प्रश्न 5.
संविधान का संरक्षक किसे बनाया गया है?
(क) सर्वोच्च न्यायालय को
(ख) लोक सभा को
(ग) राज्य सभा को
(घ) उपराष्ट्रपति को
उत्तर:
(क) सर्वोच्च न्यायालय को

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 5 विधायिका

Bihar Board Class 11 Political Science विधायिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे। अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रीगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधयिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इस बात से सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ?
उत्तर:
आलोक का यह विचार बिल्कुल ठीक नहीं है क्योंकि यदि विधायिका नहीं होगी तो प्रधानमंत्री और मंत्री के कार्यों पर किसी का नियंत्रण नहीं रहेगा। विधायिका कार्यपालिका को निरंकुश होने से रोकती है।

प्रश्न 2.
किसी कक्षा में द्वि-सदनीय प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आयीं। इन तर्कों को पढ़िए और इनसे अपनी सहमति-असमति के कारण बताइए। नेहा ने कहा कि द्वि-सदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता। शमा का तर्क था कि राज्य सभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए। त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
उत्तर:
1. नेहा ने कहा कि द्विसदनात्मक व्यवस्था से कोई उद्देश्य पूरा नहीं होता। परंतु यह सत्य नहीं है क्योंकि भारत जैसे विशाल देश के अंदर जहाँ अनेक विविधताएँ हैं; 28 राज्य और 7 संघ शासित क्षेत्र हैं, वहाँ पर दूसरा सदन होना ही चाहिए जो विभिन्न राज्यों और संघ शासित क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व कर सके तथा प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक भी लगायी जा सके।

2. शमा का तर्क है कि द्वितीय सदन में विशेषज्ञों को मनोनीत किया जाना चाहिए। हमारे देश में राष्ट्रपति राज्यसभा में कला, साहित्य, विज्ञान और समाज सेवा के क्षेत्र से जुड़े 12 सदस्यों की नियुक्ति करता है।

3. त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघात्मक राज्य नहीं है तो वहाँ द्वितीय सदन की आवश्यकता ही नहीं होती। परंतु यह विचार भी गलत है क्योंकि भले ही द्वितीय सदन संघात्मक राज्यों में इकाइयों का प्रतिनिधित्व करता है किन्तु द्वितीय सदन प्रत्येक मामले में दोहरा नियंत्रण करने का काम भी करता है।

क्योंकि एक सदन द्वारा लिया गया प्रत्येक निर्णय दूसरे सदन के लिए भेजा जाता है। अर्थात् प्रत्येक विधेयक और नीति पर दोबारा विचार होता है। इससे हर मुद्दे को दो बार जाँचने का मौका मिलता है। यदि एक सदन जल्दबाजी में कोई निर्णय ले लेता है, तो दूसरे सदन में बहस के दौरान उस पर पुनर्विचार सम्भव हो जाता है।

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प्रश्न 3.
लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियंत्रण में रख सकती है?
उत्तर:
लोकसभा कार्यपालिका पर राज्यसभा की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली ढंग से नियंत्रण रखती है। इसका कारण यह है कि प्रधानमंत्री और मंत्रिपरिषद् लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है राज्यसभा के प्रति नहीं। इसका आशय यह हुआ कि राज्यसभा मंत्रिपरिषद् से प्रश्न पूछ सकती है परंतु मंत्रिपरिषद् को हटा नहीं सकती। दूसरी ओर लोकसभा मंत्रिपरिषद पर सीधा नियंत्रण रखती है। प्रधानमंत्री लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल या बहुमत प्राप्त गठबंधन का नेता होता है। जब तक लोकसभा का विश्वास मंत्रिपरिषद पर बना हुआ है तब तक यह (मंत्रिपरिषद) कार्य करती रहेगी।

लोकसभा यदि सरकार के प्रति अविश्वास पारित कर दे तो सरकार गिर जाती है। राज्यसभा मंत्रिपरिषद की आलोचना तो कर सकती है परंतु उसे हटा नहीं सकती। राज्य सभा की अपेक्षा लोकसभा द्वारा अधिक प्रभावशाली नियंत्रण (कार्यपालिका पर) रखने का एक सफल कारण यह भी है कि लोकसभा जनता द्वारा चुनी जाती है, जबकि राज्यसभा के सदस्यों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से होता है। जनता राज्यों में निम्न सदन के विधायक चुनती है और इन विधायकों के द्वारा राज्यसभा के सदस्यों का एकल संक्रमणीय मत प्रणाली द्वारा चुनाव किया जाता है। प्रश्न काल सरकार के कार्यपालिका व प्रशासकीय एजेन्सियों पर निगरानी रखने का सबसे प्रभावशाली तरीका है।

प्रश्न 4.
लोकसभा कार्यपालिका का कारगर ढंग से नियंत्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
उत्तर:
लोकसभा यद्यपि कार्यपालिका पर नियंत्रण बनाए रखती हैं लेकिन नियंत्रण के अतिरिक्त भी लोकसभा एक ऐसा प्लेटफार्म है जहाँ जनता की इच्छाओं और उनके भावों की अभिव्यक्ति की जाती है। संसद देश में वाद-विवाद का सर्वोच्च मंच है। लोकसभा क्योंकि लोगों का सदन है, यहाँ पर प्रत्येक राजनीतिक समस्या का पूर्णतः विश्लेषण किया जाता है। लोकसभा जिन-जिन कार्यों को करती है, वे निम्न प्रकार हैं –

यह संघ सूची और समवर्ती सूची के विषय पर कानून बनाती है। धन विधेयक और सामान्य विधेयकों को प्रस्तुत और पारित करती है। कर प्रस्तावों और बजट को स्वीकृति देती है। संविधान में संशोधन करने में भाग लेती है। प्रश्न पूछकर, पूरक प्रश्न पूछकर, संकल्प प्रस्ताव और अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से कार्यपालिका को नियंत्रित भी करती है। विभिन्न विधेयकों का प्रस्तुतीकरण किसी भी सदन में कर सकते हैं परंतु धन विधेयक पहले लोकसभा में ही प्रस्तुत किया जा सकता है। वहाँ से पारित होने के बाद ही वह राज्यसभा में प्रस्तुत किया जायगा।

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प्रश्न 5.
नीचे संसद को ज्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे? संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए। संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए। अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दंडित कर सकें।
उत्तर:
1. संसद का कार्यकाल अधिक लम्बा रखा जाय:
ससंद में यद्यपि राज्यसभा तो स्थायी सदन है जिसके एक तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष बाद रिटायर होते हैं। राज्यसभा सदस्य 6 वर्ष के लिए चुने जाते हैं। लोकसभा (निम्न सदन) का कार्यकाल 5 वर्ष है। यदि यह अवधि लम्बे समय के लिए बढ़ायी जाएगी तो संसद सदस्य एक बार लम्बी अवधि के लिए चुने जाने पर जनता की आशाओं और उनके हितों का ध्यान नहीं रखेंगे।

2. संसद सदस्यों के लिए सदन में उपस्थिति अनिवार्य बनाया जाय:
यह सुझाव स्वीकार किया जाना चाहिए, क्योंकि सांसद अपने कर्तव्यों का पालन ईमानदारी से नहीं करते । बहुत से सांसद सदन में होने वाली चर्चा में भाग ही नहीं लेते। सांसद तो आवश्यक चर्चा के दौरान च्यूगम चबाते देखे जा सकते हैं।

3. स्पीकर को यह अधिकार होना चाहिए कि वह सदन की कार्यवाही में बाधा पहुँचाने वाले सदस्यों को दण्डित करे:
स्पीकर लोकसभा की कार्यवाही चलाने में अंतिम अधिकारी है। वह लोकसभा का अध्यक्ष है। उसे लोकसभा में अनुशासन बनाये रखना है। परंतु आजकल संसद सदस्य सदन के अंदर इस प्रकार से व्यवधान उत्पन्न करते हैं कि सदन की कार्यवाही चलाना कठिन हो जाता है। सत्र चलने के समय में अधिकांश समय सदन स्थगित रहते हैं, क्योंकि सांसदों द्वारा गलत व्यवहार किया जाता है। उनकी गतिविधियाँ शर्मनाक होती हैं। ऐसे में स्पीकर को ऐसे सदस्यों को दण्डित करने का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। स्पीकर को और अधिक शक्तियाँ दी जानी चाहिए।

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प्रश्न 6.
आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अक्सर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे?
उत्तर:
आरिफ द्वारा पूछे गए प्रश्न में जो महत्वपूर्ण बात उठायी गयी है कि जब महत्वपूर्ण बिल मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित किए जाते हैं और बहुमत दल उसको पारित करवा ही देता है तो फिर संसद की क्या भूमिका रह जाती है? वास्तव में संसदात्मक शासन में बहुमत दल के लिए यह आवश्यक है कि मंत्रियों द्वारा प्रस्तावित विधेयक अवश्य पारित हो जाने चाहिए अन्यथा सरकार गिर जायगी। मत्रिमंडल को त्यागपत्र देना पड़ता है। इस बात को देखते हुए सरकार को बचाने के लिए सत्ता दल को वे विधेयक पारित करवाने अनिवार्य हो. जाते हैं।

परंतु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि फिर विधि निर्माण प्रक्रिया में संसद की कोई भूमिका नहीं है। साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में प्रस्तावित किया जाता है। धन विधेयक लोकसभा में प्रस्तावित किए जाते हैं। अनेक गैर सरकारी विधेयक जो मंत्रियों से अलग संसद सदस्यों द्वारा प्रस्तावित किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त निजी विधेयक भी संसद में प्रस्तावित किए जाते हैं। संसद में उन सभी विधेयकों पर अलग-अलग सोपानों में चर्चाएँ होती हैं। विधेयक को विभिन्न सोपानों से गुजरना पड़ता है। जैसे –

(क) प्रस्तुतीकरण व प्रथम वाचन
(ख) द्वितीय वाचन
(ग) समिति स्तर
(घ) रिपोर्ट स्तर
(ङ) तृतीय वाचन

इन सोपानों के बाद ही विधेयक पर मतदान होता है। पारित होने के बाद वह दूसरे सदन में भेजा जाता है जहाँ उसे इन्हीं सोपानों से गुजरना पड़ता है। जब दूसरा सदन भी उसे पारित कर देता है तो राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर हो जाने पर विधेयक कानून बन जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि संसद की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।

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प्रश्न 7.
आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का करण दें। सांसद/विधायकों को अपनी पसंद की पार्टी में शामिल होने की छूट होनी चाहिए। दलबदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसदों/विधायकों पर बढ़ा है। दलबदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के अयोग्य करार दिया जाना चाहिए।
उत्तर:
जब एक सांसद/विधायक किसी पार्टी को छोड़ कर किसी अन्य पार्टी में मिलने की इच्छा करता है और नई पार्टी में मिल जाता है अर्थात् नयी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लेता है तो यह प्रक्रिया दल-बदल कहलाती है। दल-बदल पर रोक लगाने सम्बन्धी संशोधन से ही दल-बदल पर रोक लग पाएगी वरन् इसमें तो पार्टी नेतृत्व को और अधिक शक्ति मिल गयी है। सदन का पीठासीन अधिकारी इसमें अंतिम निर्णय लेने का अधिकारी है। दल-बदल करने वाले व्यक्ति को अयोग्य करार दिया जाता है। उसकी सदन की सदस्यता भी समाप्त कर दी जाती है।

उसे किसी भी राजनीतिक पद के अयोग्य घोषित कर दिया जाता है। इन तीनों कथनों में से पहले कथन में विधायक को उसकी पसंद की पार्टी में जाने की छूट नहीं दी जा सकती क्योंकि यह उन नागरिकों की इच्छा का दमन होगा जिन्होंने उसे चुनकर विधानमण्डल में भेजा था। तीसरे विकल्प में उस व्यक्ति या विधायक को अगले दो वर्ष तक बने रहना काफी नहीं हो सकता क्योंकि उसकी सदस्यता (लोकसभा में) बराबर नहीं रहेगी।

अतः द्वितीय कथन ही सही है कि दल-बदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी के सांसदों/विधायकों पर बढ़ा है। इसका कारण यह है कि नेताओं का आदेश सांसदों और विधायकों को मानना पड़ता है अन्यथा वे दल-बदल विरोधी कानून के अन्तर्गत अपनी सदस्यता से हाथ धो बैठते हैं। पार्टी नेतृत्व का इसमें दबदबा रहता है और पार्टी अध्यक्ष सदस्यों को सदन में उपस्थित रहने के लिए व्हिप जारी करते हैं। किसी विधेयक पर मतदान के लिए भी व्हिप जारी कर दिया जाता है। व्हिप का उल्लंघन करने वाले सदस्यों की सदस्यता समाप्त कर दी जाती है।

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प्रश्न 8.
डॉली और सुधा में इस बात की चर्चा चल रही थी कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी है, धराशायी हुई है। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन-सा तर्क देंगे?
उत्तर:
जब हम दूरदर्शन पर संसद की कार्यवाही का सीधा प्रसारण देख रहे होते हैं तो मालूम होता है कि सदन में सदस्य किस प्रकार कटुता लिए हुए एक-दूसरे की टाँग खींचते हैं। विभिन्न दलों के सदस्यों में आपस में बहस होती रहती है। कई बार ऐसा लगता है कि राष्ट्र का धन बर्बाद हो रहा है। परंतु वास्तव में संसद तो वाद-विवाद का मंच है। संसद इस वाद-विवाद के माध्यम से अपने तमाम महत्वपूर्ण कार्यों को निपटा लेती है । वाद-विवाद सार्थक तथा शान्तिपूर्ण होना चाहिए। कुछ सदस्य अपने दायित्वों की पूर्ति ईमानदारी से नहीं कर रहे हैं।

उनका व्यवहार पक्षतापूर्ण है। वे सदन में शोर-शराबा उत्पन्न करते हैं। उपरोक्त प्रश्न में डॉली के विचार से यह संसद में गिरावट का समय चल रहा है क्योंकि वाद-विवाद में समय कम लगाया जा रहा है और संसद की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने में अधिक समय खर्च किया जा रहा है। वे कभी-कभी गैरसंसदीय तरीके भी प्रयोग में लाते हैं पर अधिकांश सदस्य अपने अधिकारों का प्रयोग संसद में उचित रूप से करते हैं। वह सदन में वाद-विवाद में ईमानदारी से भाग लेते हैं और सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलती है।

इससे संसद की गरिमा बनी रहती है। आजकल गठबंधन सरकारों का समय है। अतः संसद सदस्यों को अपना व्यवहार उचित और ईमानदारी से परिपूर्ण रखना चाहिए। उन्हें अपने दल के सदस्यों का व्यवहार नियंत्रित रखना चाहिए ताकि वे संसद की कार्यवाही में उचित व्यवहार करें और संसद की कार्यवाही को उचित रूप से चलने दें।

यदि वे अनुचित व्यवहार करें तो पीठासीन अधिकारी को उनके गलत व्यवहार के लिए उन्हें दण्डित करना चाहिए। संसदात्मक गणतंत्र या संसदीय लोकतंत्र में जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति करने, जनता का प्रतिनिधित्व करने वाला विधानमण्डल होता है जिसकी स्थिति और दायित्व बहुत ऊँचे होते हैं। संसदात्मक लोकतंत्र में जनता की इच्छाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली व्यवस्थापिका अत्यन्त शक्तिशाली और उत्तरदायी संस्था है। अत: इसके सदस्यों का व्यवहार भी औचित्यपूर्ण होना चाहिए।

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प्रश्न 9.
किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है उन्हें क्रमवार सजाएँ।
किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है-समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
संबद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
विधि मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
उत्तर:
विधेयक पारित होने की विभिन्न अवस्थाएँ:

  1. विधि मंत्रालय का कानून विभाग विधेयक तैयार करता है।
  2. सम्बद्ध मंत्री विधेयक की आवश्यकता के बारे में प्रस्ताव करता है।
  3. किसी विधेयक पर चर्चा के लिए स्वीकृति का प्रस्ताव पारित किया जाता है।
  4. विधेयक उपसमिति के पास भेजा जाता है। समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
  5. विधेयक की प्रत्येक धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
  6. विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में किया जाता है, उसमें यह पारित होता है।
  7. विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और पारित हो जाता है।
  8. विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है।

राष्ट्रपति की स्वीकृति से विधेयक कानून बन जाता है परंतु यदि राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर न करें, वह उसे रोक लें या उस पर स्वीकृति न दें जैसा कि 1986 में निवर्तमान राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने डाक विधेयक पर हस्ताक्षर नहीं किए तथा अभी 2006 (31 मई) को राष्ट्रपति ए. पी. जे. अब्दुल कलाम द्वारा ‘लाभ के पद’ पर विधेयक को संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज दिया गया। ऐसी स्थिति में संसद यदि दोबारा उस विधेयक को पारित करके राष्ट्रपति के पास भेजती है तो राष्ट्रपति को उस पर अपनी स्वीकृति देनी ही होती है। लेकिन संसद से पास पुनर्विचार के लिए भेजने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गयी है और इस प्रकार राष्ट्रपति इस विधेयक को ठंडे बस्ते में भी डाल सकता है।

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प्रश्न 10.
संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
संसद केवल अधिवेशन के दौरान ही बैठती है इसलिए उसके पास अत्यन्त सीमित समय होता है। कार्य की अधिकता और समय की अल्पता के कारण वह किसी विधेयक पर गहराई से विचार नहीं कर सकती। कानून बनाने के लिए विधेयक के अन्तर्निहित विषय का गहन अध्ययन करना पड़ता है। इसके लिए अधिक समय की आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त और भी महत्वपूर्ण कार्य संसद को करने होते हैं जैसे विभिन्न मंत्रालयों के अनुदान माँगों का अध्ययन, विभिन्न विभागों के खर्चों की जाँच, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच आदि। इन सब कारणों से विभिन्न विधायी कार्यों के लिए समितियों का गठन विधायी प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण भाग बन चुका है।

यह समितियाँ कानून बनाने में ही नहीं वरन् सदन के दैनिक कार्यों में भी हाथ बँटती है। 1983 ई. में भारत में संसद की स्थायी समितियों की प्रणाली विकसित हुई। विभिन्न विभागों से सम्बन्धित ऐसी 20 समितियाँ हैं। स्थायी समितियाँ विभागों के कार्यों, उनके बजट, खर्चे तथा उनसे सम्बन्धित विधेयकों की देखरेख करती हैं। स्थायी समितियों के अतिरिक्त संयुक्त संसदीय समितियाँ भी होती हैं। इनमें ससंद के दोनों सदनों के सदस्य होते हैं। इनका गठन किसी विधेयक पर संयुक्त चर्चा अथवा वित्तीय अनियमितताओं की जाँच के लिए किया जाता है। समिति व्यवस्था से संसद का कार्य भी हल्का हो जाता है। समितियों के सुझाव को आम तौर पर संसद स्वीकार कर लेती है।

प्रत्येक सदन में स्थायी समितियाँ और कुछ संयुक्त समितियाँ होती हैं। कार्यों के अनुसार इन समितियों को निम्न प्रकार श्रेणीबद्ध किया जा सकता है –

वित्तीय समितियाँ:

  1. प्राकलन समिति
  2. सरकारी उपक्रमों सम्बन्धी समिति
  3. लोक लेखा समिति

सदन की समितियाँ:

  1. कार्य मंत्रणा समिति
  2. गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयकों तथा संकल्पों सम्बन्धी समिति
  3. नियम समिति

जाँच समितियाँ:

  1. याचिका समिति
  2. विशेषाधिकार समिति

छानबीन समितियाँ:

  1. सरकारी आश्वासनों सम्बन्धी समिति
  2. अधीनस्थ विधान सम्बन्धी समिति

सेवा समितियाँ:

  1. आवास समिति
  2. ग्रन्थालय समिति

Bihar Board Class 11 Political Science विधायिका Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संसद के दोनों सदनों के नाम तथा उनके कार्यकाल का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संसद के दोनों सदनों का नाम और कार्यकाल निम्नलिखित है।
(क) लोकसभा-यह संसद का निचला सदन है। इसके सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से देश की सभी वयस्क नागरिकों द्वारा किया जाता है। इसका कार्यकाल 5 वर्ष है।
(ख) राज्यसभा-यह संसद का ऊपरी सदन है। इसके सदस्यों का चुनाव राज्यों की विधान सभाओं द्वारा किया जाता है। यह एक स्थायी सदन है और इसके 1/3 सदस्य प्रति 2 वर्ष बाद अवकाश ग्रहण कर लेते हैं। अतः प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष हो जाता है।

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प्रश्न 2.
भारत की संसद की तीन विधायी शक्तियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संसद को तीन विधायी शक्तियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. कानून निर्माण-भारतीय संसद आवश्यकतानुसार नए कानूनों का निर्माण करती है और पुराने कानूनों में संशोधन करती है।
  2. अध्यादेशों को मंजूरी देना-जब संसद का अधिवेशन न हो रहा हो और राष्ट्रपति कोई अध्यादेश जारी कर दे तो संसद अधिवेशन के समय उस अध्यादेश को मंजूरी देती है और उसे पूर्ण कर कानून का दर्जा प्राप्त हो जाता है।
  3. संविधान में संशोधन-संसद के पास भारत के संविधान में संशोधन करने का अधिकार है।

प्रश्न 3.
संसद के चार गैर-विधायी का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:

  1. संसद का मंत्रिमण्डल पर नियंत्रण होता है। मंत्रिमण्डल को तब तक अपने पद पर बने रहने का अधिकार है जब तक उसे संसद का बहुमत प्राप्त होता रहता है।
  2. संसद राष्ट्रीय नीतियों को निर्धारित करती है।
  3. संसद अगर चाहे तो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटा सकती है।
  4. संसद् उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है तथा राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेती है।

प्रश्न 4.
राज्यसभा की रचना का संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संविधान के अनुसार राज्यसभा के सदस्यों की संख्या अधिक-से-अधिक 250 हो सकती है, जिसमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे, 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं, जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो चुकी है। राज्यसभा की रचना में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देने का वह सिद्धांत जो अमेरिका की सीनेट की रचना अपनाया गया है, भारत में नहीं अपनाया गया। हमारे देश में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यो की संख्या संविधान द्वारा निश्चित की गई है।

प्रश्न 5.
लोकसभा का गठन कैसे होता है?
उत्तर:
प्रारम्भ में लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 50 निश्चित की गई थी। 1963 ई. में संविधान के 14 वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 525 निश्चित की गई है। 31वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 545 निश्चित की गई है। इस प्रकार वर्तमान में लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 545 है। 2 सदस्य (एंग्लो-इण्डियन) राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जा सकते हैं।

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प्रश्न 6.
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए क्या योग्यता होनी चाहिए?
उत्तर:
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ आवश्यक हैं –

  1. उम्मीदवार भारत का नागरिक हो।
  2. वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह संसद द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएँ रखता हो।
  4. वह पागल तथा दिवालिया न हो।
  5. भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो।

प्रश्न 7.
लोकसभा का सदस्य बनने के लिए क्या योग्यताएँ होनी चाहिए?
उत्तर:
लोकसभा का सदस्य वही व्यक्ति बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएँ:

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
  3. वह भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पर पद आसीन न हो।
  4. वह संसद द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएँ रखता हो।
  5. वह पागल या दिवालिया न हो।
  6. किसी न्यायालय द्वारा पद के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो। यदि चुने जाने के बाद किसी सदस्य में कोई अयोग्यता उत्पन्न हो जाए तो उसे अपना पद त्यागना पड़ेगा।

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प्रश्न 8.
राज्यसभा के सदस्यों के विशेषाधिकार बताइए।
उत्तर:
राज्यसभा के सदस्यों को निम्नलिखित विशेषाधिकार प्राप्त हैं –

  1. राज्य सभा के सदस्यों को अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता है। सदन में दिए गए भाषण के कारण उनके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।
  2. अधिवेशन के दौरान सदन के किसी भी सदस्य को दीवानी अभियोग के कारण गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
  3. सदस्यों को वे सभी विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं जो संसद द्वारा समय-समय पर निश्चित किए जाते हैं।

प्रश्न 9.
द्वितीय सदन की उपयोगिता उसके स्थायित्व में है। स्पष्ट करों।
उत्तर:
द्वितीय सदन की उपयोगिता उसके स्थायित्व में है। प्रायः सभी देशे में द्वितीय सदन स्थायी सदन होते हैं। अमेरीका की सीनेट, भारत की राज्यसभा अथवा इंग्लैण्ड की लॉर्ड सभा, सभी स्थायी सदन हैं तथा इनके सदस्य बड़े अनुभवी होते हैं। उनकी योग्यता और अनुभव का लाभ देश को मिलता रहता है।

प्रश्न 10.
सरकार किसे कहते हैं?
उत्तर:
सरकार कानून बनाने और लागू करने वाली एक विशिष्ट संस्था है।

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प्रश्न 11.
देश किसके आधार पर शासित होता है?
उत्तर:
देश संविधान के कुछ आधारभूत कानूनों के आधार पर शासित होता है।

प्रश्न 12.
संविधान में दिए गए मौलिक नियमों पर आधारित कानून कौन बनाता है?
उत्तर:
विधायिका संविधान में दिए गए मौलिक नियमों पर आधारित कानूनों को बनाती है।

प्रश्न 13.
देश या राज्य में कानूनों की व्याख्या कौन करता है?
उत्तर:
कार्यपालिका देश या राज्य में कानून को लागू करता है।

प्रश्न 14.
देश के कानूनों की व्याख्या कौन करता है?
उत्तर:
न्यायपालिका देश के कानूनों की व्याख्या करती है।

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प्रश्न 15.
कानून बनाना, लागू करना तथा उसकी व्याख्या करना जैसे कार्य कौन करता है?
उत्तर:
देश की विधायिका द्वारा कानून बनाए जाते हैं, कार्यपालिका द्वारा लागू किए जाते हैं तथा न्यायापालिका द्वारा उनकी व्याख्या की जाती है।

प्रश्न 16.
सरकार क्या है? समझाइए।
उत्तर:
राज्य के चार आवश्यक अंग होते हैं जिनमें से सरकार एक है। सरकार राज्य का एक महत्वपूर्ण अंग है। सरकार उस संस्था को कहते हैं जो देश के शासन को चलाती है। शासन चलाने के लिए वह कानून बनाती है, उन्हें लागू करती है और कानून का पालन न करने वालों को उचित दंड देती है।

प्रश्न 17.
सरकार की क्या आवश्यकता है?
उत्तर:
किसी भी देश में सरकार की आवश्यकता निम्नांकित कारणों से होती है –

  1. कानून निर्माण के लिए सरकार का सबसे प्रमुख अंग विधायिका है। विधायिका सरकार की कानून बनाने वाली संस्था है।
  2. कानूनों को लागू करने के लिए-कार्यपालिका सरकार का दूसरा अंग है। इसका प्रमुख कार्य कानूनों को लागू करना है।
  3. कानून न मानने वालों को दंडित करना-न्यायपालिका भी सरकार का एक आवश्यक अंग है। यह कानूनों का उल्लंघन करने वालों को दंड देती है।

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प्रश्न 18.
प्रजातंत्रीय शासन क्या है?
उत्तर:
प्रजातंत्रीय शासन ऐसे शासन को कहते हैं जिनमें जनता स्वयं अथवा जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि शासन करते हैं। इसे जनता द्वारा, जनता के लिए तथा जनता का शासन कहते हैं। प्रजातंत्र दो प्रकार का होता है –
(क) प्रत्यक्ष प्रजातंत्र, एवं
(ख) अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र

प्रश्न 19.
तानाशाही शासन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
तानाशाही शासन में सरकार की सारी शक्तियाँ केवल एक ही व्यक्ति या समूह के हाथ में होती हैं जिसे तानाशाही कहते हैं। जनता का इस शासन में कोई हाथ नहीं होता। इस शासन में लोगों को किसी प्रकार के कोई अधिकार प्रदान नहीं किए जाते और न ही लोगों को किसी प्रकार की कोई स्वतंत्रता प्रदान की जाती है। यह शासन प्रजातंत्र का विरोधी होता है और युद्ध में विश्वास रखता है।

प्रश्न 20.
तानाशाही शासन की दो मुख्य विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
तानाशाही शासन की दो प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. स्वतंत्रता का अभाव-तानाशाही का आधार जनमत न होकर निरंकुश शक्ति होती है। तानाशाह प्रायः शक्ति द्वारा शासन करता है। तानाशाही में नागरिकों को कोई स्वतंत्रता प्राप्त नहीं होती। वह स्वतंत्र रूप से अपने विचार भी व्यक्त नहीं कर सकती।
  2. सरकार का उत्तरदायी न होना-तानाशाही सरकार में नागरिक के प्रति किसी विषय में भी सरकार की जिम्मेदारी नहीं होती और न ही लोगों को अपनी सरकार बनाने या हटाने का अधिकार होता है।

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प्रश्न 21.
विधायिका के दो प्रमुख विधायी कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर:
(क) यह अपने क्षेत्र में आने वाले विषयों पर कानून बनाती है। यह कानूनों में संशोधन भी कर सकती है।
(ख) यह राज्य के संविधान में आवश्यक संशोधन कर सकती है।

प्रश्न 22.
विधायिका के दो गैर-विधायी कार्यों का वर्णन करो।
उत्तर:
(क) विधायिका के सदस्यों द्वारा मंत्रियों से प्रश्न पूछे जाते हैं तथा मंत्री उनके उत्तर देते हैं।
(ख) विधायिका मंत्रिमंडल के विरुद्ध विश्वास तथा अविश्वास का प्रस्ताव तैयार करती है।

प्रश्न 23.
भारतीय संसद की कोई चार विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
(क) भारत में संसद देश में कानून बनाने वाली सर्वोच्च संस्था है।
(ख) भारत में संसद द्विसदनात्मक है, अर्थात् इसके दो सदन हैं।
(ग) भारतीय संसद के निम्न सदन को लोकसभा और उच्च सदन को राज्यसभा कहते हैं।
(घ) दोनों सदनों की शक्तियाँ समान नहीं हैं और इनका गठन भी भिन्न-भिन्न प्रकार से होता है।

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प्रश्न 24.
केन्द्रीय सरकार की संरचना अथवा गठन का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत में केन्द्रीय सरकार का रूप संसदात्मक है। सरकार के तीन अंग होते हैं –

  1. विधायिका (संसद के दोनों सदन अर्थात् लोकसभा व राज्यसभा)
  2. कार्यपालिका (राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री व उसकी मंत्रिपरिषद्)
  3. न्यायपालिका (सर्वोच्च न्यायालय)।

प्रश्न 25.
भारतीय संसद के बारे में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
भारतीय संसद के दो सदन हैं –
(क) लोकसभा
(ख) राज्यसभा

लोकसभा संसद का निम्न सदन है और वह सारे देश की जनता का प्रतिनिधित्व करती है। राज्यसभा संसद का ऊपरी सदन है और यह देश के राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है। औपचारिक रूप से राष्ट्रपति को भी संसद का अंग माना जाता है।

प्रश्न 26.
राज्य विधानसभा के कोई दो मुख्य कार्य बताइए।
उत्तर:
राज्य विधानसभा बहुत से कार्य करती हैं जिनमें से उसके दो मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

  1. राज्य विधानसभा राज्य सूची के विषयों पर विधेयक पारित करती है।
  2. राज्य विधानसभा राज्य के आय-व्यय का ब्यौरा बजट के रूप में पास करती है।

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प्रश्न 27.
भारत में कुल कितने संघ राज्य क्षेत्र हैं? किन्हीं पाँच के नाम लिखिए।
उत्तर:
भारत में कुल सात संघ राज्य क्षेत्र हैं। उनमें से पाँच हैं –
(क) अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह
(ख) चंडीगढ़
(ग) दादर और नागर हवेली
(घ) दमन और दीव
(ङ) लक्षद्वीप

प्रश्न 28.
संघ क्या है? संघ की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
कुछ राजनीतिक इकाइयों से मिलकर जब एक राज्य बनता है तब उसे संघ कहते हैं। संघ को दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –
(क) संघ का संविधान लिखित व कठोर होता है।
(ख) संघ में केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों में शक्तियाँ विभाजित होती हैं।

प्रश्न 29.
विधायिका से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सरकार के तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका और. न्यायपालिका में से विधायिका सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। विधायिका के द्वारा ही किसी देश में सरकार की इच्छा व्यक्त होती . है। विधायिका केवल नए कानूनों का निर्माण ही नहीं करती, बल्कि उनमें संशोधन भी करती है और प्रशासन की नीति भी निश्चित करती है। विधायिका दो प्रकार की होती है –
(क) एक सदनीय विधायिका एवं
(ख) द्विसदनीय विधायिका

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प्रश्न 30.
विधायिका के चार कार्यों का विवेचन कीजिए।
उत्तर:

  1. विधायिका का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कानून निर्माण करना है।
  2. विधायिका राज्य के वित्त पर नियंत्रण करती है। बजट पास करना विधायिका का कार्य है।
  3. सभी लोकतंत्रीय राज्यों में संविधान में संशोधन करने का अधिकार विधायिका के पास है।
  4. विधायिका का कार्यपालिका पर थोड़ा-बहुत नियंत्रण अवश्य होता है। संसदीय शासन प्रणाली में कार्यपालिका विधायिका के प्रति उत्तरदायी होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
राज्य के अनिवार्य तत्व बताइए।
उत्तर:
राज्य के अनिवार्य तत्व निम्नांकित हैं –
1. जनसंख्या:
मनुष्यों के बिना किसी राज्य की कल्पना नहीं की जा सकती। किसी भी ऐसे स्थान हो, जहाँ जीवित मनुष्य न रहते हों, राज्य नहीं कहा जा सकता । अतः राज्य का सबसे पहला अनिवार्य तत्व जनसंख्या है।

2. भू-भाग:
राज्य के लिए एक निश्चित भूभाग का होना भी आवश्यक है। खानाबदोशों पर न तो कोई स्थायी शासन कर सकता है और न ही खानाबदोश लोग किसी राज्य की स्थापना कर सकते हैं। उदाहरण के लिए जब तक यहूदी लोग संसार में बँटे रहे और किसी निश्चित भूभाग पर नहीं बसे, तब तक वे कोई राज्य नहीं बना सके। जब वे इजराइल के निश्चित भूभाग पर बस गए, तब उन्होंने अपने राज्य की स्थापना कर ली।

3. सरकार:
राज्य के अस्तित्व के लिए राजनैतिक संगठन या सरकार का होना भी अति आवश्यक है। बिना सरकार के राज्य नहीं बन सकता क्योंकि सरकार के बिना एक सभ्य समाज का अस्तित्व संभव ही नहीं।

4. संप्रभुता:
राज्य का सबसे अधिक महत्वपूर्ण तत्व संप्रभुता को माना जाता है। किसी विशेष भूभाग में रहने वाले लोग एक संगठित सरकार के रहते हुए भी राज्य की स्थापना नहीं करा सकते यदि उनके पास संप्रभुता न हो। अंग्रेजी युग में भारत को एक राज्य नहीं माना जा सकता था क्योंकि तब इसके पास संप्रभुता नहीं थी।

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प्रश्न 2.
सरकार के चार परम्परागत कार्यों का वर्णन करें।
उत्तर:
सरकार के चार परम्परागत कार्य इस प्रकार हैं –

  1. देश की रक्षा-सरकार का सबसे पहला कार्य बाहरी आक्रमणों से देश की रक्षा करना है। देश की रक्षा करने के लिए सरकार सेना व पुलिस की सहायता लेती है।
  2. कानून और व्यवस्था-सरकार का कार्य है कि राज्य में कानून और व्यवस्था बनाए रखे। ऐसा न करने से राज्य में अराजकता फैल सकती है।
  3. कर एकत्र करना-सरकार को अपने असंख्य कार्य करने के लिए धन की आवश्यकता होती है। यह धन लोगों से कर के रूप में एकत्र किया जाता है। यदि सरकार कर एकत्र करने की ओर ध्यान न दे तो राज्य-कोष में धन की कमी आ जायगी।
  4. अपराधियों को दंड देना-कुछ लोग अनजाने में परंतु कुछ लोग जान-बूझकर कानूनों का उल्लंघन करते हैं और अपराध (मारपीट, चोरी-डकैती, हत्या, अपहरण आदि) करते हैं। अतः सरकार का कर्तव्य है कि ऐसे व्यक्तियों को सजा दे।

प्रश्न 3.
संसदीय कार्यपालिका के तीन मुख्य दोष कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
संसदीय कार्यपालिका के निम्नलिखित तीन मुख्य दोष हैं –
(क) इसमें कार्यपालिका की अवधि निश्चित नहीं होती है। विधायिका कभी भी अविश्वास प्रस्ताव पास करके सरकार को हटा सकती है। अतः इस प्रणाली में सरकार अस्थिर रहती है।
(ख) इस प्रकार की सरकार में नौकरशाही कार्यकुशलता नहीं होती।
(ग) संसदीय कार्यपालिका.में धन का दुरुपयोग होता है। प्रत्येक विभाग का अध्यक्ष कोई मंत्री होता है। मंत्रियों तथा उनके विभागों में काम करने वाले असंख्य कर्मचारियों को बहुत-सा धन वेतन एवं भत्तों के रूप में देना पड़ता है।

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प्रश्न 4.
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका के मुख्य तीन दोष कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका के दोष इस प्रकार हैं –
(क) यह निश्चित अवधि के लिए चुनी जाती है। अत: विधानमंडल में बदलते हुए जनमत का ठीक प्रकार से प्रतिनिधित्व नहीं करती।
(ख) इसमें राष्ट्रपति या मंत्रियों पर व्यवस्थापिका का वैसा नियंत्रण नहीं होता जैसा संसदीय कार्यपालिका में होता है।
(ग) अध्यक्षात्मक कार्यपालिका को विधानमंडल में व्यक्त किए गए विचारों की तुरंत सूचना प्राप्त नहीं होती, क्योंकि कार्यपालिका के सदस्य विधानमंडल में उपस्थित नहीं होते।

प्रश्न 5.
नागरिकों द्वारा सरकार के कार्यों में भाग लेने के महत्व सम्बन्धी पाँच बातों का वर्णन करो।
उत्तर:
(क) इसमें नागरिक सरकार द्वारा बनाए हुए कानूनों से ही शासित होते हैं। ऐसे कानून नागरिकों की आवश्यकताओं और इच्छाओं के अनुकूल होते हैं।
(ख) इससे सरकार सावधान रहती है और कानून के अनुसार ही धन का व्यय करती है।
(ग) नागरिक अपने अधिकारों का स्वतंत्रतापूर्वक प्रयोग करते हैं तथा उन अधिकारों की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हैं जो अधिकार अभी तक उन्हें नहीं मिल सके।
(घ) इससे सरकार जनमत के प्रति उत्तरदायी रहती है और मनमानी नहीं कर सकती।
(ङ) इससे सुनिश्चित हो जाता है कि जनता और सरकार एक दूसरे के प्रति कर्त्तव्यों का पालन करें तथा उनमें परस्पर सहयोग बना रहे।

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प्रश्न 6.
आधुनिक सरकारों से जनता के लिए किन चार शैक्षणिक कार्यों की अपेक्षा की जाती है?
उत्तर:
(क) सरकार को चाहिए कि वे ऐसी व्यवस्था करे जिससे सब नागरिकों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा प्राप्त हो।
(ख) नागरिकों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जिसको प्राप्त करके वे अपनी आजीविका प्राप्त कर सकें। अतः सरकार को उच्च एवं व्यावसायिक शिक्षा का प्रबंध करना चाहिए।
(ग) सरकार से यह भी आशा की जाती है कि वह प्रौढ़ों की शिक्षा का प्रबंध करे।

प्रश्न 7.
अविश्वास प्रस्ताव पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अविश्वास प्रस्ताव-भारत में संसदीय सरकार की स्थापना की गई है और संसदीय सरकार में कार्यपालिका अर्थात् प्रधानमंत्री व मंत्रिपरिषद् अपने समस्त कार्यों के लिए संसद (विशेष तौर से लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी होती है। संसद मंत्रियों से उनके विभागों के कार्यों के सम्बन्ध में उनसे प्रश्न पूछकर, उनके विरुद्ध काम रोको प्रस्ताव तथा निन्दा प्रस्ताव पास कर सकती है। इनके अतिरिक्त लोकसभा यदि मंत्रिपरिषद के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो सारी मंत्रिपरिषद को त्याग पत्र देना पड़ता है। इस प्रकार अविश्वास प्रस्ताव द्वारा लोकसभा मंत्रिपरिषद पर नियंत्रण रखती है।

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प्रश्न 8.
लोकसभा अध्यक्ष के तीन प्रमुख कार्य बताओ।
उत्तर:
लोकसभा अध्यक्ष बहुत से कार्य करता है जिनमें से प्रमुख कार्यों का विवेचन निम्नलिखित है –

  1. वह लोकसभा की अध्यक्षता करता है।
  2. वह लोकसभा में अनुशासन बनाए रखता है।
  3. कोई विधेयक धन विधेयक है अथवा नहीं इसका निर्णय भी लोकसभा अध्यक्ष ही करता है।

प्रश्न 9.
संसद किस प्रकार मंत्रिपरिषद पर नियंत्रण रखती है?
उत्तर:
संसदीय प्रणाली की एक प्रमुख विशेषता है कि कार्यपालिका और विधायिका में घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। मंत्रिपरिषद् का निर्माण संसद में से ही होता है। निम्न सदन में बहुमत दल के नेता को प्रधानमंत्री तथा उसकी सिफारिश से अन्य मंत्री बनाए जाते हैं। प्रत्येक सदस्य को संसद का सदस्य होना आवश्यक है। इस प्रकार मंत्रिपरिषद् संसद का अंग है। मंत्रिपरिषद् तभी तक सत्ता में बनी रह सकती है, जब तक कि लोकसभा का बहुमत उसका समर्थन करता रहे।

मंत्रिपरिषद के सदस्यों से प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछते रहते हैं, उसकी आलोचना करते हैं। निन्दा प्रस्ताव, काम रोको प्रस्ताव, कटौती प्रस्ताव आदि के द्वारा अपना विरोध प्रकट कर सकते हैं। अंतिम रूप में लोकसभा के द्वारा अविश्वास का प्रस्ताव पास करके मंत्रिपरिषद को हटाया जा सकता है। कार्यपालिका पर नियंत्रण की शक्ति के अन्तर्गत ही संसद संघीय लोकसेवा आयोग, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक, वित्त आयोग, भाषा आयोग व अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की रिपोर्ट पर विचार करती है।

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प्रश्न 10.
संघीय व्यवस्था में द्वितीय सदन की भूमिका का अवलोकन कीजिए।
उत्तर:
संघीय व्यवस्था में दूसरे सदन का होना आवश्यक है। निम्न सदन में जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि होते हैं। संघ की इकाइयों का प्रतिनिधित्व दूसरे सदन में ही दिया जा सकता है। निचले सदन में विभिन्न इकाइयों को जनसंख्या के आधार पर सदस्य भेजने का अधिकार होता है। ऊपरी सदन में उनको समान प्रतिनिधित्व देकर उनमें एकता व सहयोग की भावना को दृढ़ बनाया जा सकता है जो संघ की स्थिरता के लिए आवश्यक है। उदाहरणतः अमरीका में कांग्रेस के द्वितीय सदन सीनेट में संघ की प्रत्येक इकाई को चाहे उसकी जनसंख्या व क्षेत्रफल कितना भी हो, दो सदस्य भेजने का अधिकार है।

द्वितीय सदन के लाभ:

  1. कानून निर्माण में जल्दबाजी पर रोक लगता है।
  2. संघ की एकता और असहयोग की भावना को दृढ़ बनाता है।
  3. प्रथम सदन की निरंकुशता पर रोक लगता है।

द्वितीय सदन की हानियाँ:

  1. दूसरा सदन व्यर्थ अथवा शरारती होता है। अबेसियस के अनुसार “यदि उच्च सदन निम्न सदन से सहमत होता है तो वह शरारती है।”
  2. दूसरा सदन गतिरोध पैदा करता है। अबेसियस के अनुसार “जहाँ दो सदन होते हैं वहाँ विरोध तथा विभाजन अनिवार्य है।”
  3. संघात्मक सरकार में भी दूसरा सदन अनिवार्य नहीं है। दूसरे सदन के सदस्य भी राजनैतिक दलों के आधार पर चुने जाते हैं और उनकी निष्ठा दल के प्रति अधिक रहती है अपने राज्य के प्रति कम।

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प्रश्न 11.
उन परिस्थितियों को बताइए जब संसद उन विषयों पर भी कानून बना सकती है जो राज्य सूची में शामिल हैं।
उत्तर:
कानून निर्माण करना संसद का प्रमुख कार्य है। भारत में संघीय शासन की व्यवस्था होने के कारण कानूनों का निर्माण दो स्थानों पर होता है। केन्द्र में संसद सम्पूर्ण देश के लिए कानून बनाती है और विभिन्न राज्यों के विधानमण्डल अपने-अपने राज्यों के लिए कानून बनाता है। इस प्रकार कानून निर्माण के सम्बन्ध में शक्तियों का केन्द्र व राज्यों में विभाजन किया गया है और इस उद्देश्य के लिए तीन सूचियाँ बनाई गई हैं –
(क) संघ सूची
(ख) राज्य सूची
(ग) समवर्ती सूची

संघीय सूची में दिए गए सभी विषयों पर संसद को कानून बनाने का अधिकार है। राज्य सूची पर साधारण अवस्था में संसद राज्य के विषयों पर भी कानून बना सकती है। यह अवस्था दो प्रकार से उत्पन्न हो सकती है। प्रथम, उस अवस्था में जब राज्य की सूची का कोई विषय राष्ट्रीय महत्त्व का बन जाता है तब राज्यसभा यदि 2-3 के बहुमत से इस प्रकार का प्रस्ताव पारित करती है कि राज्य सूची का कोई विषय राष्ट्रीय महत्त्व का बन गया है तो इस कारण इस विषय पर कानून बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त हो जाता है। दूसरे आपातकालीन घोषणा के पश्चात् राज्य की सूची पर केन्द्र को कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न 12.
भारतीय संसद का कौन-सा सदन अधिक क्षमता सम्पन्न है? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संसद के दो सदन हैं-लोकसभा तथा राज्य सभा। लोकसभा निम्न सदन है जिसमें जनता के प्रत्यक्ष रूप से चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं और राज्य सभा ऊपरी सदन है जिसमें राज्यों के प्रतिनिधि अप्रत्यक्ष रूप से चुने जाते हैं। इनमें लोकसभा अधिक शक्तिशाली सदन है। लोकसभा के अधिक क्षमता सम्पन्न होने के कारण निम्नलिखित हैं –

1. साधारण बिल के संबंध में:
साधारण बिल किसी भी सदन में पेश हो सकता है। एक सदन से पास होने के बाद दूसरे सदन में जाता है। यदि किसी साधारण बिल पर दोनों सदनों में मतभेद हो, या एक सदन से पास होने के बाद दूसरा सदन उस पर 6 महीने तक कोई कार्यवाही न करे या ऐसे रद्द कर दे तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुलाता है और बिल या उसका विवादास्पद भाग उसके सामने रखा जाता है और संयुक्त बैठक में साधारण बहुमत से उसका निर्णय होता है। क्योंकि लोकसभा की सदस्य संख्या राज्यसभा की सदस्य संख्या से दो गुणा से भी अधिक है इसलिए संयुक्त बैठक में लोकसभा की इच्छानुसार ही निर्णय होता है।

2. वित्त बिल के संबंध में:
वित्त विधेयक केवल लोकसभा में ही पेश हो सकता है, राज्यसभा चाहे उसे रद्द कर दे, चाहे संशोधित कर दे, चाहे 14 दिन तक उस पर कोई कार्यवाही न करे, सभी दिशाओं में वह बिल दोनों सदनों से पास समझा जाता है और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है। इस प्रकार राज्यसभा धन विधेयक को केवल 14 दिन तक पास होने से रोक सकती है।

3. कार्यपालिका पर नियंत्रण:
लोकसभा कार्यपालिका के सदस्यों अर्थात् प्रधानमंत्री और उसकी मंत्रिपरिषद् के सदस्यों को उनके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पास करके हटा सकती है जबकि राज्यसभा के पास ऐसी कोई शक्ति नहीं है। निष्कर्ष-ऊपर लिखित बातों से स्पष्ट है कि लोकसभा राज्यसभा से अधिक शक्तिशाली है। राज्यसभा लोकसभा के रास्ते में कुछ समय के लिए बाधा तो उत्पन्न कर सकती है परंतु उसे निष्फल नहीं बना सकती।

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प्रश्न 13.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए।
(क) संविधान संशोधन
(ख) अनुदान माँगें
(ग) कटौती प्रस्ताव
(घ) विनियोजन विधेयक
उत्तर:
(क) संविधान संशोधन-भारत के संविधान में संशोधन की प्रक्रिया का वर्णन अनुच्छेद 368 में किया गया है। यह संशोधन प्रक्रिया न तो ब्रिटेन की तरह सरल है और न ही संयुक्त राज्य अमरीका की तरह जटिल। भारतीय संविधान की यह विशेषता है कि वह अंशतः कठोर है और कुछ अंश तक लचीला है। संशोधन सम्बन्धी कोई भी विधेयक संसद के किसी भी सदन में रखा जा सकता है। कुछ अनुच्छेद 3, 4, 169, 239(A) आदि ऐसे हैं जिनके संशोधन के लिए दोनों सदनों में केवल साधारण बहुमत से ही विधेयक पारित होना चाहिए।

इनमें राज्यों के नाम, उनकी सीमाओं में परिवर्तन, किसी राज्य के विधानमण्डल के द्वितीय सदन को समाप्त करना अथवा जहाँ द्वितीय सदन नहीं है उसका निर्माण करना आदि आते हैं। इनमें साधारण विधेयक की तरह ही संशोधन किया जा सकता है। परंतु महत्त्वपूर्ण अनुच्छेद में संशोधन संसद के दोनों सदनों के दो-तिहाई बहुमत से ही किया जा सकता है। उसके बाद राष्ट्रपति उस पर अपनी स्वीकृति दे तो संविधान में संशोधन हो जाता है।

इस प्रकार के प्रावधानों में मौलिक अधिकार व नीति निर्देशक सिद्धांत जैसे प्रावधान आते हैं। कुछ संशोधनों के प्रकरणों में यह अनिवार्यता भी होती है कि राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजने से पूर्व कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डल भी संशोधन का अनुमोदन करें। इस प्रकार के प्रावधानों में राष्ट्रपति का निर्वाचन, केन्द्रीय कार्यपालिका की शक्तियाँ, उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों से सम्बन्धित व्यवस्थाएँ, संघ शासित क्षेत्र में उच्च न्यायालय की स्थापना, संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व तथा अनुच्छेद 368 का संशोधन सम्मिलित है।

(ख) अनुदान माँगें:
बजट प्रस्तुत किए जाने के बाद उस पर आम चर्चा होती है। आम चर्चा खत्म होने पर आकलनों को लोकसभा के सामने विशेष शीर्षकों के अन्तर्गत अनुदान माँगों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। मंत्रिगण अपने-अपने विभागों की अनुदान माँगों को स्वीकृत या अस्वीकृत कर सकता है। माँगों की अस्वीकृति की स्थिति में संशोधन रखे जाते हैं। सदन के नेता से परामर्श करके अध्यक्ष अनुदान की मांगों पर चर्चा के लिए दिनों की संख्या निश्चित करता है और फिर मतदान करवाता है। अनुदान माँगों पर मतदान के लिए आवंटित अंतिम दिन शाम को पाँच बजे मतदान कराया जाता है।

(ग) कटौती प्रस्ताव:
सदन का कोई भी सदस्य किसी भी मंत्री द्वारा रखी गई अनुदान की माँग में कटौती का प्रस्ताव रख सकता है। कटौती के प्रस्ताव पर बहस होती है और इससे सदस्य को सम्बन्धित मंत्रालय या विभाग की कार्यकुशलता की आलोचना करने का अवसर मिलता है। कटौती का प्रस्ताव प्रायः विपक्षी दलों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है और सत्तारूढ़ दल उसे पास नहीं होने देता, क्योंकि ऐसे प्रस्ताव के पास न होने का अर्थ मंत्रिमण्डल में सदन का अविश्वास समझा जाता है और ऐसी स्थिति में मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देना पड़ता है।

(घ) विनियोजन विधेयक:
जब लोकसभा मांगों को स्वीकार कर लेती है तो उन सारी माँगों और जितना भी व्यय देश की संचित निधि से होना है उन्हें मिलाकर एक विधेयक का रूप दे दिया जाता है। उसे विनियोजन विधेयक कहते हैं। लोकसभा उसे धन विधेयक के रूप में पास कर देती है। राज्यसभा 14 दिन के भीतर उस विधेयक को अपनी सिफारिशों सहित लोकसभा को लौटा देगी। राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद वह कानून का रूप धारण कर लेता है। विनियोजन अधिनियम द्वारा किए गए विनियोजन के अन्तर्गत ही भारत की संचित निधि से धन निकाला जा सकता है।

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प्रश्न 14.
साधारण विधेयक एवं धन विधेयक में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
साधारण विधेयक एवं धन विधेयक में निम्नलिखित अंतर है –

  1. साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में सर्वप्रथम पेश हो सकता है। जबकि धन विधेयक सर्वप्रथम लोकसभा में ही पेश होगा।
  2. साधारण विधेयक संसद में पेश करने के पहले राष्ट्रपति से आवश्यक नहीं है।
  3. साधारण विधेयक संसद से पास हो जाने के बाद राष्ट्रपति उसे पुनर्विचार के लिए संसद को लौटा सकते हैं।
  4. साधारण विधेयक के मामलों में दोनों सदनों में गतिरोध की संभावना बनी रहती है जबकि धन विधेयक के मामलों में गतिरोध की संभावना नहीं के बराबर रहती है।

प्रश्न 15.
प्रधानमंत्री के कार्य क्या हैं?
उत्तर:
प्रधानमंत्री का पद भारतीय राजनीतिक प्रणाली का प्रमुख पद है। यह कार्यपालिका का वास्तविक मुखिया है जिसकी पूरी व्यवस्था पर नियंत्रण होता है। प्रधानमंत्री के कार्यों को निम्न रूपों में समझ सकते हैं –

  1. मंत्रिमंडल का निर्माण करना।
  2. मंत्रियों में विभागों का वितरण करना।
  3. मंत्रिमंडल की बैठकों की अध्यक्षता करना।
  4. राष्ट्रपति के प्रमुख सलाहकार के रूप में कार्य करना।
  5. विभिन्न मंत्रालयों में तालमेल करना।
  6. मंत्रिमंडल एवं राष्ट्रपति के बीच कड़ी का कार्य करना।
  7. संसद एवं राष्ट्रपति के बीच कड़ी का कार्य करना।
  8. विदेश नीति का प्रमुख निर्माता होता है।
  9. महत्वपूर्ण नियुक्ति करना।
  10. सदन के नेता के रूप में कार्य करता है।
  11. अपने दल के नेता के रूप में कार्य करना।
  12. राष्ट्र के नेता के रूप में कार्य करना।

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प्रश्न 16.
73 वें संविधान संशोधन की 11वें अनुसूची के मुख्य प्रावधान क्या हैं?
उत्तर:
भारतीय संसद द्वारा अप्रैल 1993 में 73 वाँ संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया। इस अधिनियम में 11 वीं अनुसूची को जोड़ा गया है। इस अनुसूची के द्वारा पंचायती राज संस्थाओं के विस्तृत कार्यों का उल्लेख किया गया है। इसमें 29 विषय हैं जिसमें सिंचाई, पीने का पानी, पशुपालन, स्वास्थ्य की देखरेख, शिक्षा, बिजली, रसोई के लिए ईंधन, रोजगार के साधनों को बढ़ावा देना। तकनीकी एवं व्यावसायिक शिक्षा का प्रबंधन जिससे गरीबी कम हो। महिला एवं शिशु कल्याण के कार्य अपंग, मानसिक रूप से अविकसित तथा कमजोर वर्ग के कल्याण का कार्य पंचायती संस्था को सौंपा गया।

प्रश्न 17.
सरकार से क्या अभिप्राय है? सरकार के तीन अंगों के नाम लिखिए।
उत्तर:
सरकार से अभिप्राय-सरकार राज्य का अनिवार्य तत्व है। सरकार के अभाव में राज्य का कल्याण व्यर्थ है। कुछ विद्वान राज्य और सरकार में कोई भेद नहीं करते हैं, परंतु इन दोनों में काफी अंतर है। मेकाइवर के अनुसार-“राज्य एक अमूर्त, अदृश्य और अपरिवर्तशील व्यक्ति है और सरकार उसकी अभिकर्ता या एजेण्ट है।” राज्य की सम्प्रभुता का प्रयोग सरकार ही करती है। गार्नर सरकार का अर्थ बताते हैं-“जिस संस्था अथवा अभिकरण द्वारा राज्य की इच्छा का निर्माण, उसकी अभिव्यक्ति तथा उसका क्रियान्वयन होता है, उसे सरकार कहते हैं। सरकार के अंग-सरकार की शक्ति तीन अंगों में विभाजित है। कानून बनाने वाला अंग विधायिका, शासन करने वाला अंग कार्यपालिका और न्याय का प्रबंध करने वाला अंग न्यायपालिका कहलाता है।

प्रश्न 18.
द्विसदनीय विधायिका के पक्ष में दो तर्क दीजिए।
उत्तर:
द्विसदनीय विधायिका के पक्ष में दो तर्क:

1. कानून निर्माण में जल्दबाजी तथा आवेश पर रोक:
द्वितीय सदन में प्रथम सदन की अपेक्षा अधिक आयु वाले अनुभवी तथा रूढ़िवादी सदस्य होते हैं। ये सदस्य प्रथम सदन के नवयुवक प्रतिनिधियों के द्वारा जल्दबाजी तथा आवेश में आकर पास किए गए कानून पर रोक, लगाते हैं और किसी प्रकार की भावना में न बहकर केवल उपयोगिता को ध्यान में रखकर सहमति देते हैं।

2. जनमत निर्माण का समय मिल जाता है:
द्विसदनात्मक व्यवस्था में प्रत्येक विधेयक निम्न सदन में स्वीकृत होने के पश्चात् उच्च सदन में भेजा जाता है। परिणामस्वरूप विधेयक को कानून का रूप धारण करने में काफी समय लग जाता है। इस बीच जनता को उसके संबंध में विचार और मनन करके अपना मत प्रकट करने का अवसर मिल जाता है। इस प्रकार कानून पास होने से पहले ही उसके बारे में पता चल जाता है कि जनता उसको पसंद करती है या नहीं।

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प्रश्न 19.
विधायिका से क्या अभिप्राय है? विधायिका के दो प्रकार कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
विधायिका से अभिप्राय-सरकार के सभी अंगों में विधायिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। गार्नर के मतानुसार-“राज्य की इच्छा जिन अंगों द्वारा व्यक्त होती है, उनमें विधायिका का स्थान नि:संदेह सर्वोच्च है। विधायिका केवल कानून का निर्माण ही नहीं करती बल्कि प्रशासन की नीति भी निश्चित करती है।”

विधायिका के प्रकार:
इसके दो प्रकार हैं –

(क) एक सदनीय और
(ख) द्वि-सदनीय

वर्तमान काल में अधिकांश देशों में द्वि-सदनीय प्रणाली प्रचलित है। 18 वीं और 19 वीं शताब्दी के आरम्भ में द्वि-सदनीय प्रणाली की कटु आलोचना की गई और एक-सदनीय प्रणाली को अच्छा माना गया। द्वि-सदनीय विधायिका की तुलना एक ऐसा घोड़ा-गाड़ी से की गई जिसके दोनों पहिए विपरीत दिशा में जा रहे हों।

प्रश्न 20.
विधायिका किस प्रकार कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है?
उत्तर:
प्रत्येक संसदीय शासन प्रणाली वाले देश में कार्यपालिका (प्रधानमंत्री एवं मंत्रिपरिषद) अपने सभी कार्यों के लिए विधायिका (संसद) के प्रति उत्तरदायी हैं। विधायिका कार्यपालिका पर निम्न प्रकार से नियंत्रण रखती है –
(क) विधायिका के सदस्य, कार्यपालिका के सदस्यों अर्थात् मंत्रियों से उनके विभागों एवं कार्यों के बारे में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर उन पर नियंत्रण रखते हैं।
(ख) विधायिका के सदस्य कार्यपालिका के सदस्यों के विरुद्ध ‘काम रोको प्रस्ताव’ और ‘निन्दा प्रस्ताव’ पास करके उन पर अपना नियंत्रण रखते हैं।
(ग) यदि विधायिका के सदस्य कार्यपालिका (मंत्रिपरिषद) की नीतियों व कार्यों से संतुष्ट न हों तो वे उसके विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पेश कर सकते हैं। यदि यह प्रस्ताव पास हो जाए तो प्रधानमंत्री सहित सारी मंत्रिपरिषद को अपदस्थ कर दिया जाता है।

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प्रश्न 21.
पुलिस राज्य तथा कल्याणकारी राज्य में अंतर बताइए। अथवा, कल्याणकारी राज्य की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
पुलिस राज्य वह राज्य होता है जहाँ केवल पुलिस कार्य (अथवा पुलिस शक्ति पर आधारित कार्य) होते हैं। ऐसे राज्य केवल तीन प्रकार के कार्य करते हैं –
(क) बाहरी आक्रमणों से रक्षा (युद्ध करना)
(ख) अपराधों की रोकथाम
(ग) यातायात आदि पर नियंत्रण रखना

आधुनिक युग में अनेक देशों में कल्याणकारी राज्य स्थापित हैं। कल्याणकारी राज्य उपरोक्त तीन कार्यों के अलावा नागरिकों के सामान्य कल्याण के लिए भी अनेक कार्य करते हैं। जैसे-सड़कें बनवाना, विद्यालय खोलना, अस्पताल खोलना, नहरों का निर्माण करना, उद्योग खोलना, विज्ञान की उन्नति के लिए प्रयोगशालाएँ स्थापित करना आदि।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
संसद में धन विधेयक कैसे पारित होता है? अथवा, कोई विधेयक कानून बनने के लिए किन अवस्थाओं से गुजरता है, उनका वर्णन कीजिए।
उत्तर:
धन विधेयक से अभिप्राय-ऐसे विधेयक को धन विधेयक कहा जाता है, जिसका सम्बन्ध सरकार से धन प्राप्त करने, तथा सरकारी निधियों के संरक्षण या उनमें से खर्च के लिए होता है। धन विधेयक को पास करने का तरीका साधारण विधेयक से मिलता-जुलता है। धन विधेयक में साधारण विधेयक की तुलना में तीन अंतर होते हैं –
(क) धन विधेयक केवल लोकसभा में ही प्रस्तावित किया जा सकता है, राज्यसभा में नहीं।
(ख) धन विधेयक सरकारी विधेयक होता है और वित्त मंत्री या उसकी अनुपस्थिति में कोई अन्य मंत्री ही पेश कर सकता है, कोई साधारण सदस्य नहीं।
(ग) धन विधेयक लोकसभा में केवल राष्ट्रपति की सिफारिश से ही पेश किया जा सकता है।

धन विधेयक को भी लोकसभा में पास होने में लगभग साधारण बिल वाली अवस्थाओं से ही गुजरना पड़ता है। लोकसभा में इसे पास करके राज्य सभा के पास भेजी देती है। राज्य सभा को धन विधेयक में संशोधन करने या उसे अस्वीकार करने का अधिकार नहीं होता। वह केवल इस पर विचार करके 14 दिनों के भीतर ही अपनी सिफारिशों के साथ लोकसभा को लौटा देती है। यदि राज्यसभा 14 दिन तक धन विधेयक को न लौटाए तो उसे पारित मान लिया जाता है। लोकसभा चाहे तो राज्यसभा की सिफारिशें माने या न माने। यदि लोकसभा सिफारिशें मान लेती है तो विधेयक पारित हो जाता है और उसे राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजा जाता है।

विधेयक के कानून बनने की विभिन्न अवस्थाएँ:

1. विधेयक को पेश करना तथा उसका प्रथम वाचन:
कानून बनाने की प्रक्रिया में सबसे पहले विधेयक को सदन में ऐश करना होता है। ये विशेश्या प्रकार के होते हैं –
(क) सरकारी
(ख) गैर-सरकारी। यदि विधेयक सरकारी होता है तो उसे प्रस्तावित करने की सूचना मंत्री सात दिन पहले ही सदन को देता है और यदि विधेयक गैर-सरकारी होता है तो उसकी सूचना सदन – को एक महीना पहले दी जाती है। प्रस्तावित विधेयक की एक प्रति सदन के सचिवालय को भेजता है। सदन का अध्यक्ष विधेयक को निश्चित तिथि को सदन की कार्यवाही सूची में शामिल कर लेता है।

निश्चित तिथि को प्रस्ताव सदस्य अपने स्थान पर खड़ा होकर विधेयक के शीर्षक को पढ़ता है तथा उसके मुख्य उपबंधों पर प्रकाश डालता है और उसकी आवश्यकता बतलाता है। इस अवस्था में विधेयक पर विस्तृत रूप से विचार नहीं होता। सदन में विधेयक के प्रस्तावित होने के बाद उसे सरकारी गजट में छाप दिया जाता है।

2. द्वितीय वाचन:
विधेयक के प्रस्तावित और गजट में प्रकाशित होने के बाद निश्चित तिथि को द्वितीय वाचन प्रारम्भ होता है। प्रस्तावक इस अवस्था में निम्न प्रस्तावों में से कोई एक प्रस्ताव रखता है –

(क) सदन विधेयक पर शीघ्र विचार करे।
(ख) विधेयक को प्रवर समिति को सौंप दिया जाय।
(ग) विधेयक दोनों सदनों की संयुक्त समिति को सौंपा दिया जाय।
(घ) जनमत प्राप्त करने के लिए विधेयक को प्रसारित कर दिया जाय।

विधेयकों को अधिकतर प्रवर समिति के पास ही भेज दिया जाता है। द्वितीय वाचन में विधेयक के गुण-दोषों पर सामान्य रूप से प्रकाश डाला जाता है। उसकी मुख्य धाराओं पर विस्तारपूर्वक वाद-विवाद नहीं हो सकता और न इस स्तर पर संशोधन के प्रस्ताव ही प्रस्तुत किए जा सकते हैं।

3. समिति स्तर:
विधेयक की धाराओं पर समिति अच्छी तरह विचार करती है। समिति के प्रत्येक सदस्य को विधेयक की धाराओं, उपधाराओं पर विचार प्रकट करने तथा उसमें आवश्यक संशोधन प्रस्ताव रखने का अधिकार होता है। समिति अगर जरूरी समझे तो विशेषज्ञों से इसके विषय में राय ले सकती है। उसके बाद समिति अपनी रिपोर्ट तैयार करती है।

4. रिपोर्ट स्तर:
समिति की रिपोर्ट तैयार होने के पश्चात् सदन के सदस्यों में बाँट दी जाती है तथा विचार करने की तिथि निश्चित की जाती है। उस तिथि पर विधेयक पर पूरी तरह से विचार-विमर्श किया जाता है तथा सदस्यों को भी इस समय संशोधन प्रस्ताव रखने का अधिकार होता है। वाद-विवाद के पश्चात् प्रत्येक खण्ड तथा संशोधन पर मतदान होता है। संशोधन यदि बहुमत से स्वीकार हो जाते हैं तो विधेयक के अंग बन जाते हैं और उसके अनुसार विधेयक पास हो जाता है।

5. तृतीय वाचन:
प्रवर समिति की रिपोर्ट पर विचार करने के पश्चात् तृतीय वाचन की तिथि निश्चित की जाती है। इस अवस्था में विधेयक की भाषा या शब्दों के परिवर्तन के विषय में विचार किया जाता है। विधेयक पर मतदान कराकर उसे पास कर दिया जाता है। सदन का अध्यक्ष इसे प्रमाणित करता है और उसे दूसरे सदन में भेज दिया जाता है।

6. विधेयक पर दूसरे सदन में विचार:
विधेयक पर दूसरे सदन में भी इसी प्रकार विचार किया जाता है जैसा कि पहले सदन में कहा गया है अर्थात् दूसरे सदन में भी विधेयक उपरोक्त सभी स्तरों से गुजरता है। यदि दूसरा सदन विधेयक को पास कर देता है तो उसे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेज दिया जाता है।

7. राष्ट्रपति की स्वीकृति:
राष्ट्रपति की स्वीकृति मिलने पर विधेयक कानून बन जाता है मोष्ट्रपति की असहमति होने पर किसी विधेयक को एक बार अस्वीकार भी कर सकता है, परंतु दोबारा संसद द्वारा पारित किए जाने पर राष्ट्रपति को अपनी स्वीकृति देनी ही होती है। धन विधेयक के बारे में राष्ट्रपति स्वीकृति पहली बार ही दे देता है, क्योंकि धन विधेयक में राष्ट्रपति की स्वीकृति लेकर ही संसद में प्रस्तुत किए जाते हैं।

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प्रश्न 2.
भारतीय संसद के गठन एवं शक्तियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संसद के दो सदन है, इसके ऊपरी सदन को राज्यसभा और निचले सदन को लोकसभा के नाम से जाना जाता है। इन दोनों सदनों के गठन एवं शक्तियों का विवेचन इस प्रकार है –

राज्यसभा की रचना –
राज्यसभा की अधिकतम सदस्य संख्या संविधान द्वारा 250 निश्चित की गई है। इनमें से 238 सदस्य राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों से चुनकर आते हैं तथा 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं। राष्ट्रपति उन सदस्यों को मनोनीत करता है, जो साहित्य, कला, और विज्ञान आदि में विशेष योग्यता रखते हों।

सदस्यों का चुनाव –
राज्यसभा के सदस्यों को राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशे से चुना जाता है। राज्यों से चुने जाने वाले सदस्यों को राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य आनुपातिक प्रतिनिधि पद्धति के आधार पर एकल संक्रमणीय मत द्वारा चुनते हैं। केन्द्रशासित प्रदेश के प्रतिनिधियों के निर्वाचन की प्रणाली संसद द्वारा निश्चित की जाती है।

योग्यताएँ –

  1. वह भारत का नागरिक हो
  2. वह कम से कम 30 वर्ष की आयु का हो
  3. वह सरकारी लाभ के पद पर आसीन न हो

अवधि –
राज्यसभा एक स्थायी सदन है। इसे किसी भी स्थिति में भंग नहीं किया जा सकता। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष का होता है तथा इसके एक-तिहाई सदस्यों को हर दो वर्ष के बाद हटा दिया जाता है।

लोकसभा की रचना –

सदस्यों के लिए योग्यताएँ –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 25 वर्ष से कम न हो।
  3. किसी न्यायालय द्वारा उसे पागल या दिवालिया घोषित न किया गया हो।
  4. वह भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद पर न हो।

अवधि:
संविधान के अनुसार लोकसभा का कार्यकाल चुनाव के पश्चात् 5 वर्ष के लिए निश्चित किया गया है। राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की सलाह से इस अवधि से पहले भी लोकसभा भंग कर सकता है। संकटकालीन स्थिति में राष्ट्रपति की सलाह से इसकी अवधि एक बार में एक वर्ष बढ़ा दी जाती है, लेकिन संकटकालीन स्थिति समाप्त हो जाने के बाद 6 महीने के अंदर लोकसभा का चुनाव होना आवश्यक होता है।

भारतीय संसद की शक्तियाँ एवं कार्य:

1. विधायी शक्तियाँ:
कानून निर्माण करना संसद का एक प्रमुख कार्य है। भारत में कानून निर्माण के संबंध में शक्तियों के केन्द्र व राज्यों में विभाजन किया गया है और इस उद्देश्य के लिए तीन सूचियाँ बनाई गई हैं –
(क) संघ सूची
(ख) राज्य सूची
(ग) समवर्ती सूची

संघ सूची में दिए गए सभी विषयों पर संसद को ही कानून बनाने का अधिकार है। संकटकाल की स्थिति में अथवा राज्य सभा द्वारा प्रस्ताव पारित करने पर संसद को राज्य सूची पर भी कानून बनाने का अधिकार प्राप्त हो जाता है। समवर्ती सूची के विषयों पर संसद व राज्यों, दोनों को कानून बनाने का अधिकार है परंतु यदि किसी विषय पर संसद का बनाया हुआ कानून लागू होगा, राज्य विधानमण्डल का नहीं।

2. वित्तीय शक्तियाँ:
भारतीय संसद का देश के धन पर पूर्ण नियंत्रण है। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति की आज्ञा से वित्तमंत्री आगामी वर्ष के लिए आय-व्यय के पूर्ण विवरण को बजट के रूप में लोकसभा के सामने प्रस्तुत करता है। बिना बजट पास हुए सरकार न कोई कर लगा सकती है, न कर के रूप में कोई पैसा वसूल कर सकती है और न ही कोई खर्च कर सकती है।

3. कार्यपालिका पर नियंत्रण:
भारत में संसद कार्यपालिका अर्थात् प्रधानमंत्री व मंत्रिपरिषद् पर नियंत्रण रखती है। मंत्रिपरिषद् अपने समस्त कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी है। संसद मंत्रियों से उनके विभागों के सम्बन्ध में उनसे प्रश्न पूछकर, उनके विरुद्ध काम रोको प्रस्ताव पास करके अविश्वास का प्रस्ताव पास करके नियंत्रण रखती है।

4. न्यायिक शक्तियाँ:
भारतीय संसद को न्याय सम्बन्धी शक्तियाँ भी प्राप्त हैं। संसद राष्ट्रपति को महाभियोग लगाकर हटा सकती है। वह उपराष्ट्रपति को भी हटा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके असंवैधानिक तथा अनैतिक कार्यों के लिए उनके पद से हटा सकती है।

5. चुनाव सम्बन्धी शक्तियाँ:
संसद राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेती है। उपराष्ट्रपति का चुनाव करती है। लोकसभा अपने स्पीकर व डिप्टी-स्पीकर का तथा राज्य सभा अपने उपसभापति का चुनाव करती है।

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प्रश्न 3.
विधान सभा और विधान परिषद की शक्तियों तथा कार्यों की तुलना कीजिए।
उत्तर:
राज्य विधान सभा में विधान परिषद को उच्च सदन और विधान सभा को निम्न सदन कहा जाता है। विधान परिषद को उच्च सदन केवल परम्परावश कहा जाता है। वास्तव में विधान सभा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली है। दोनों सदनों की तुलना निम्न आधारों पर की जा सकती है –

1. विधायी क्षेत्र में दोनों सदन विधि:
निर्माण में भाग लेते हैं। विधान सभा विधेयक पास करके विधान परिषद के पास भेजती है और यदि वह भी पास कर देती है तो उसे राज्यपाल के पास स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है। यदि किसी विधेयक के विषय में दोनों सदनों में मतभेद है तो जीत विधान सभा की होती है। विधान परिषद उसे पहली बार में तीन महीने और विधान सभा से दूसरी बार पास करने पर केवल एक महीने के लिए रोक सकती है।

2. वित्तीय क्षेत्र:
वित्तीय क्षेत्र में विधान परिषद को कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। धन विधेयक विधान सभा में प्रस्तावित होता है। वह उसे पास करके विधान परिषद में भेज देती है। विधान परिषद में केवल 14 दिन समय दिया जाता है। इस अवधि में विधेयक को चाहे स्वीकार, अस्वीकार या संशोधित करके भेजे। 14 दिन के बाद पास मान लिया जाता है और राज्यपाल की स्वीकृति के लिए भेज दिया जाता है।

3. कार्यपालिका पर नियंत्रण के क्षेत्र में:
दोनों सदनों के सदस्य कार्यपालिका से प्रश्न या पूरक प्रश्न पूछ सकते हैं। कोई भी प्रशासनिक सूचना माँग करते हैं। सरकार की आलोचना कर सकते हैं, किन्तु कार्यपालिका केवल विधानसभा के प्रति उत्तरदायी है। विधान सभा द्वारा पास किए गए अविश्वास प्रस्ताव पर मंत्रिमण्डल त्यागपत्र देता है।

4. अन्य क्षेत्रों में:
राष्ट्रपति के चुनाव में केवल विधानसभा के सदस्य ही भाग लेते हैं। इसी प्रकार संविधान की स्वीकृति विधानसभा से ही ली जाती है। उपरोक्त तुलना में स्पष्ट हो जाता है कि विधानपरिषद विधानसभा की तुलना में बहुत ही शक्तिहीन सदन है।

यह कहना ठीक है कि दोनों सदनों समान विधायी शक्तियों से युक्त नहीं हैं। वित्त विधेयक के विषय में तो विधान परिषद केवल 14 दिन की देरी ही कर सकती है। साधारण विधेयक के विषय में भी विधान सभा अधिक शक्तिशाली है। यदि विधान सभा किसी विधेयक को पास कर दे और वह विधान परिषद के पास भेजा जाए तो विधान परिषद या तो उस विधेयक को उसी रूप में पारित कर सकती है या उसे अस्वीकार भी कर सकती है अथवा उसमें संशोधन कर सकती है।

यह भी हो सकता है कि तीन महीने तक विधानपरिषद कोई निर्णय ही न ले। इसका यह अर्थ मान लिया जाता है कि विधानपरिषद ने उसे अस्वीकार कर दिया है। तीनों अवस्थाओं में विधेयक फिर से विधान सभा के पास जाता है। विधान सभा विधान परिषद के द्वारा किए गए संशोधन को माने या न माने। विधानसभा यदि दोबारा उस विधेयक को पारित कर दे तो विधान परिषद उस पर एक महीने तक अपनी स्वीकृति या अस्वीकृति दे सकती है। यदि विधान परिषद उसे अब भी स्वीकार नहीं करती तो यह मान लिया जाता है विधेयक दोनों सदनों द्वारा स्वीकार किया जा चुका है। उसके बाद विधेयक राज्यपाल के पास भेजा जाता है। इस प्रकार विधायी शक्तियों में विधानसभा अधिक शक्तिशाली है।

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प्रश्न 4.
लोकसभा के अध्यक्ष (स्पीकर) के कार्यों का उल्लेख कीजिए। अथवा, लोक सभा के अध्यक्ष का चुनाव कैसे होता है? अध्यक्ष की शक्तियों व कार्यों का वर्णन कीजिए। अथवा, लोकसभा अध्यक्ष के अधिकार क्या हैं?
उत्तर:
संसद के निचले सदन लोक सभा की कार्यवाही को चलाने के लिए संविधान में एक अध्यक्ष की व्यवस्था की गई है जिसे साधारण भाषा में स्पीकर कहते हैं। स्पीकर का चुनाव नव-निर्वाचित लोकसभा के सदस्य प्रथम अधिवेशन में अपने सदस्यों में से बहुमत के आधार पर करते हैं। स्पीकर चुने जाने के बाद वह सदस्य अपने राजनीतिक दल को छोड़कर निष्पक्ष रूप से कार्य करता है। स्पीकर की शक्तियाँ एवं कार्य –

1. लोक सभा की बैठकों की अध्यक्षता करना:
स्पीकर लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। उसकी आज्ञा का पालन सभी सदस्य करते हैं। सदन में अनुशासन व व्यवस्था बनाए रखना उसकी जिम्मेवारी है।

2. प्रस्ताव रखने की अनुमति देना:
लोक सभा में प्रस्तुत किए जाने वाले प्रस्तावों के सम्बन्ध में उसका निर्णय अंतिम होता है कि कोई प्रस्ताव किया जा सकता है या नहीं। ‘काम रोको प्रस्ताव’ को प्रस्तावित करने के लिए पर्याप्त कारण हैं अथवा नहीं, यह देखकर उसको अनुमति देने या न देने का निर्णय अध्यक्ष ही करता है।

3. नियुक्तियाँ करना:
लोक सभा का अध्यक्ष सदन की प्रवर समिति तथा अन्य समितियों के सभापतियों व सदस्यों की नियुक्तियाँ करता है।

4. प्रधानमंत्री को परामर्श देना:
लोक सभा का अध्यक्ष प्रधानमंत्री को, जो कि लोक सभा का नेता है, परामर्श देकर लोकसभा का कार्यक्रम निर्धारित करता है। जैसे उन प्रस्तावों का क्रम क्या हो जिन्हें सदन में रखा जाना है, इत्यादि।

5. सदस्यों के भाषण से सम्बन्धित शक्ति:
लोक सभा में दिए जाने वाले भाषण अध्यक्षता को सम्बोधित करके दिए जाते हैं। वह भाषणों के लिए समय निश्चित करता है। यह भी निश्चित करता है कि कौन-सा सदस्य भाषण करे और किस सदस्य का कितना भाषण अप्रासंगिक है।

6. लोकसभा के सदस्यों में अनुशासन बनाए रखना:
लोक सभा में अनुशासन व व्यवस्था को बनाये रखना अध्यक्ष का महत्वपूर्ण कार्य है। यदि कोई सदस्य सदन की व्यवस्था भंग करे तो उसे वह चेतावनी दे सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसे सदन से बाहर चले जाने को बाध्य कर सकता है।

7. सदन की बैठक स्थगित करना:
यदि अध्यक्ष यह महसूस करे कि सदन में गंभीर अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है तो वह जितने समय के लिए उचित समझे सदन की बैठक को स्थगित कर सकता है।

8. विधेयक का निर्णय-कौन:
सा विधेयक धन सम्बन्धी है और कौन-सा साधारण है. इसका निर्णय लोकसभा का अध्यक्ष ही करता है। उसका निर्णय अंतिम होता है।

9. सदन में पास हो गए विधेयकों पर हस्ताक्षर:
जो विधेयक लोकसभा पास कर देती है उन विधेयकों पर स्पीकर अपना हस्ताक्षर करके आवश्कतानुसार राष्ट्रपति के पास भेज देता है।

10. विधेयकों पर मतदान करवाना:
किसी विधेयक को सदन स्वीकार करता है अथवा अस्वीकर करता है। इस संबंध में वह विधेयकों व प्रस्तावों पर मतदान कराता है। वह उनकी स्वीकृति और अस्वीकृति की भी घोषण करता है।

11. निर्णायक मत देना:
यदि किसी विधेयक के पक्ष व विपक्ष में मतों की संख्या बराबर हो जाए तो अध्यक्ष को निर्णायक मत देने का अधिकार है।

12. सदस्यों के विशेषाधिकारों की सुरक्षा:
अध्यक्ष लोकसभा के सदस्यों के विशेषाधिकारों की रक्षा करता है। अपने अधिकारों से सम्बन्धित यदि किसी सदस्य को कोई शिकायत हो तो वह अपनी शिकायत अध्यक्ष के सामने रखता है।

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प्रश्न 5.
भारतीय संसद के मुख्य कार्य क्या हैं? उन विधियों का परीक्षण कीजिए जिनके द्वारा संसद कार्यकारिणी को नियंत्रित करती है।
उत्तर:
संसद के मुख्य कार्य-भारत की संसद के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

1. विधायी कार्य:
संसद का सबसे महत्वपूर्ण कार्य कानूनों का निर्माण करना है। संसद को संघीय सूची के 97 विषयों तथा समवर्ती सूची के 47 विषयों पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। आपातकाल के समय संसद द्वारा राज्य सूची के विषयों पर भी कानून का निर्माण किया जा सकता है। दो या दो से अधिक राज्यों के विधान मण्डलों की प्रार्थना पर संसद सामान्य काल में भी राज्य सूची के किसी विषय पर कानून बना सकती है। राज्य सभा दो तिहाई बहुमत से यदि किसी राज्य सूची के विषय को राष्ट्रीय महत्व का घोषित करे तो संसद उस पर भी कानून बना सकती है।

2. संविधान संशोधन:
संविधान संशोधन का प्रस्ताव संसद में ही प्रस्तावित किया जा सकता है। कुछ विषयों में संसद के दोनों सदनों के पृथक्-पृथक् साधारण बहुमत से तथा कुछ में दो तिहाई बहुमत से संशोधन पारित किया जाता है। संविधान की कुछ व्यवस्थाओं में भारतीय संघ के आधे राज्यों के विधानमंडलों की स्वीकृति भी आवश्यक होती है।

3. वित्तीय कार्य:
संसद द्वारा बजट पारित किया जाता है। राष्ट्रीय वित्त पर संसद का पूर्ण नियंत्रण होता है। राष्ट्रपति की आज्ञा से वित्तमंत्री आगामी वर्ष के आय-व्यय के पूर्ण विवरण को बजट के रूप में लोकसभा के समक्ष प्रस्तुत करता है। बिना बजट पारित हुए सरकार न कोई कर लगा सकती है और न कर के रूप में कोई पैसा वसूल सकती है और न ही खर्च कर सकती है।

4. न्यायिक कार्य:
संसद को राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने का अधिकार है। वह सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को भी उनके पद से हटा सकती है।

5. अन्य कार्य:
भारतीय संसद राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनावों में भाग लेती है।। लोकसभा अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के चुनाव लोकसभा द्वारा तथा राज्यसभा के उपसभापति का चुनाव राज्यसभा द्वारा होता है।

6. प्रशासन पर नियंत्रण:
संसद मंत्रिपरिषद पर अपना नियंत्रण रखती है। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। संसद सदस्य मंत्रियों से प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछते हैं। काम रोको प्रस्ताव, निन्दा प्रस्ताव तथा आवश्यकता पड़ने पर संसद का निम्न सदन लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव भी पारित कर सकती है।

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प्रश्न 6.
लोकसभा का गठन कैसे होता है? इसके कार्य बताएँ।
उत्तर:
लोकसभा का गठन-लोकसभा संसद का प्रथम अथवा निम्न सदन है। इसके कुल सदस्यों की संख्या अधिकतम 550 हो सकती है। इनमें से 530 सदस्य राज्यों की जनता के द्वारा तथा 20 सदस्य केन्द्र शासित प्रदेशों की जनता के प्रतिनिधि हो सकते हैं। इसके सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।

आजकल लोकसभा में 545 सदस्य हैं जिनमें से दो सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत एंग्लो-इण्डियन हैं। सदस्यों के निर्वाचन में वयस्क मताधिकार का प्रयोग होता है। प्रत्येक 18 वर्ष की आयु वाले नागरिक वोट डालते हैं। 25 वर्ष की आयु वाला नागरिक जिसका नाम मतदाता सूची में हो, चुनाव लड़ सकता है। सदस्यों का चुनाव 5 वर्ष के लिए किया जाता है।

लोकसभा का कार्य –

  1. लोकसभा संघ की सूची के विषयों पर कानून बनाती है। संसद में कोई विधेयक लोकसभा और राज्य सभा दोनों में अलग-अलग पारित किया जाता है, तभी राष्ट्रपति उस पर हस्ताक्षर करता है। उसके बाद वह विधेयक कानून बन जाता है।
  2. वित्त विधेयक लोकसभा में ही प्रस्तावित किए जाते हैं तथा अंतिम रूप से इसी के द्वारा पास किए जाते हैं।
  3. लोकसभा राष्ट्रपति तथा उपराष्ट्रति के निर्वाचन में भाग लेती है।
  4. लोकसभा में बहुमत दल के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री बनाया जाता है।
  5. लोकसभा लोगों की सभा है। लोगों के कल्याण के लिए यहाँ अनेक प्रस्ताव पास किए जाते हैं।
  6. लोकसभा मंत्रिमंडल पर नियंत्रण रखती है। वह उसके प्रति अविश्वास का प्रस्ताव भी पारित कर सकती है, जिससे मंत्रिमण्डल को त्याग-पत्र देना पड़ता है। इसके अतिरिक्त निन्दा प्रस्ताव, काम रोको प्रस्ताव लाकर, प्रश्न पूछ कर लोकसभा मंत्रिमण्डल पर नियंत्रण रखती है।
  7. राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने का अधिकार संसद को है। इस प्रकार लोकसभा इस कार्य में भी राज्यसभा की सहभागी है। वह सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को भी उनके पद से हटा सकती है।

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प्रश्न 7.
विधानसभा अध्यक्ष के चार प्रमुख कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
विधानसभा का अध्यक्ष:
नव निर्वाचित विधानसभा के सदस्य अपनी पहली बैठक में ही अपने में से एक अध्यक्ष का चुनाव करते हैं। अध्यक्ष विधानसभा का सबसे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति होता है। वह सदन की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा सदन में शांति और व्यवस्था बनाए रखता है।

अध्यक्ष के चार प्रमुख कार्य –

  1. विधानसभा की बैठकों की अध्यक्षता करना-अध्यक्ष विधानसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है। उसकी आज्ञा का पालन सभी सदस्यों को करना पड़ता है। सदन में अनुशासन व व्यवस्था बनाए रखना उसकी जिम्मेदारी है।
  2. प्रस्ताव रखने की अनुमति देना-विधानसभा में प्रस्तुत किए जाने वाले प्रस्तावों के संबंध में उसका निर्णय अंतिम होता है। कोई प्रस्ताव किया जा सकता है या नहीं, काम रोको प्रस्ताव को प्रस्तावित करने के लिए पर्याप्त कारण हैं अथवा नहीं; यह देखकर उसको अनुमति देने या न देने का निर्णय अध्यक्ष ही करता है।
  3. विधेयक का निर्णय-कौन-सा विधेयक धन सम्बन्धी विधेयक है और कौन-सा साधारण विधेयक है यह निर्णय विधानसभा का अध्यक्ष ही करता है। उसका निर्णय अंतिम होता है।
  4. निर्णायक मत-सामान्य स्थिति में वह मतदान में भाग नहीं लेता किंतु पक्ष और विपक्ष में बराबर मत आएं तो वह निर्णायक मत का प्रयोग कर सकता है।

प्रश्न 8.
बिहार विधान परिषद् का गठन कैसे होता है? इसके कार्य एवं अधिकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 168 के अधीन बिहार में द्विसदनात्मक विधानमंडल की व्यवस्था की गई है। जिसमें उच्च सदन विधान परिषद् और निम्न सदन विधान सभा है। बिहार विधान परिषद एक स्थायी सदन है लेकिन इसके सदस्यों का कार्यकाल 6 वर्ष का है। इसके 1/3 सदस्य प्रत्येक 2 वर्ष पर अवकाश ग्रहण करते हैं। बिहार विधान परिषद में सदस्यों की संख्या 75 है जिसमें 1/3 सदस्य स्थानीय संस्थाओं द्वारा, 1/3 सदस्य विधान सभा के सदस्यों द्वारा, 1/12 सदस्य माध्यमिक एवं उच्च कक्षा में अध्यापन कर रहे शिक्षकों द्वारा, 1/6 सदस्य राज्यपाल द्वारा मनोनीत होती है।

बिहार विधान परिषद के सदस्यों के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ निर्धारित हैं –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. वह कम-से-कम 30 वर्ष की आयु प्राप्त कर चुका हो।
  3. विधान सभा द्वारा निर्धारित अन्य योग्यताएँ रखता है।

बिहार विधान परिषद के कार्य एवं अधिकार निम्नलिखित हैं –

  1. विधायी शक्तियों के अन्तर्गत साधारण विधेयक किसी भी सदन में पेश हो सकता है, परंतु दोनों सदनों से अनुमोदन होना आवश्यक है। इसलिए साधारण विधेयक में विधान सभा के समकक्ष ही विधान परिषद की शक्तियाँ हैं।
  2. वित्तीय शक्तियाँ वित्तीय मामलों में विधान परिषद विधान सभा से कमजोर है। वित्त विधेयक पहले विधान सभा में ही पेश हो सकता है। विधान परिषद मात्र 14 दिन तक ही उसे रोक सकता है।

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प्रश्न 9.
जनहित याचिका पर एक लेख लिखें।
उत्तर:
न्यायपालिका के क्षेत्र में जनहित याचिका एक नवीन परंपरा विकसित करता है। इस परंपरा के अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी मामले को न्यायालय में रख सकता है जिससे वह प्रत्यक्ष रूप से सम्बद्ध न भी हो और वह विवाद सार्वजनिक हित से सम्बद्ध हो, इसे जनहित याचिका कहते हैं। न्यायालय के द्वारा इस परंपरा की शुरूआत 1979 ई. में हुई। 1979 में समाचार पत्रों में विचाराधीन कैदियों के बारे में खबर छपी कि जिन अपराधों के लिए उन्हें बंदी बनाया गया था।

यदि उन अपराधों के लिए उन्हें सजा भी हो जाती तो वे उतनी लंबी अवधि तक कैद में नहीं रहते। इस खबर को आधार बनाकर सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय में यह मुकदमा चला। यह पहली जनहित याचिका के रूप में प्रसिद्ध हुआ। जनहित याचिका न्यायालय के क्षेत्राधिकार काफी विस्तृत कर दिया है। सामाजिक हितों की रक्षा, पर्यावरण संरक्षण आदि के लिए जनहित याचिका के माध्यम से न्याय की मांग करना, व्यक्ति का अधिकार है जिसे न्यायालय ने स्वीकार कर लिया।

प्रश्न 10.
मुख्यमंत्री के कार्य एवं अधिकारों की समीक्षा करें।
उत्तर:
मुख्यमंत्री राज्य का वास्तविक प्रधान है। यह राज्यमंत्री परिषद में तारों के बीच चन्द्रमा के समान राज्य सरकार का केन्द्र बिन्दु है। यह विधान सभा का नेता होता है। इसलिए मुख्यमंत्री राज्य कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान है। मुख्यमंत्री को व्यापक कार्य एवं अधिकार प्राप्त है, जो निम्नलिखित है –

  1. मुख्यमंत्री राज्य मंत्रिपरिषद का अध्यक्ष होता है। इसलिए वह मंत्रिपरिषद का निर्माण करता है।
  2. मुख्यमंत्री मंत्रिमंडल के बैठक की अध्यक्षता करता है और मंत्रिमंडल को निर्णय में इसकी निर्णायक भूमिका होती है।
  3. कार्यपालिका का वास्तविक प्रधान होने के कारण मुख्यमंत्री समस्त प्रशासनिक कार्यों का निरीक्षण करता है।
  4. मुख्यमंत्री विधान सभा का नेता होता है। वह विधान सभा के अध्यक्ष से मिलकर सदन के विधायी कार्यसम की रूपरेखा तय करता है।
  5. राज्य प्रशासन से जिन पदों पर नियुक्ति करने का अधिकार राज्यपाल को है उसका वास्तविक उपयोग मुख्यमंत्री करता है।
  6. जैसे एडवोकेट जनरल, राज्य लोक सेवा आयोग अध्यक्ष एवं सदस्य आदि की नियुक्ति राज्यपाल मुख्यमंत्री के परामर्श से करते हैं। इस प्रकार मुख्यमंत्री को राज्य प्रशासन में वही स्थान प्राप्त है जो केन्द्रीय प्रशासन में प्रधानमंत्री को है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत की संसद को लोक सेवा लेखा समिति के अध्यक्ष को कौन नाम निर्देशित करता है?
(क) प्रधानमंत्री
(ख) राष्ट्रपति
(ग) राज्य सभा का सभापति
(घ) लोक सभा का अध्यक्ष
उत्तर:
(घ) लोक सभा का अध्यक्ष

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प्रश्न 2.
वर्तमान में लोकसभा की सदस्य संख्या कितनी है?
(क) 545 सदस्य
(ख) 600 सदस्य
(ग) 550 सदस्य
(घ) 525 सदस्य
उत्तर:
(क) 545 सदस्य

प्रश्न 3.
लोकसभा का विघटन कौन करता है?
(क) उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
(ख) प्रधानमंत्री
(ग) राष्ट्रपति
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) राष्ट्रपति

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प्रश्न 4.
भारत की संसद में निम्नलिखित समाहित है –
(क) लोकसभा, राज्यसभा तथा मंत्रीपरिषद
(ख) लोकसभा, राज्यसभा तथा प्रधानमंत्री
(ग) लोकसभा तथा राज्यसभा
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 5.
मंत्रिमंडलीय शासन की विशेषता है:
(क) सामूहिक उत्तरदायित्व
(ख) राजनीतिक सजातीयता
(ग) लोक सदन के विघटन का अधिकार
(घ) उपर्युक्त तीनों
उत्तर:
(ख) राजनीतिक सजातीयता

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Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 4 कार्यपालिका Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

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Bihar Board Class 11 Political Science कार्यपालिका Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
संसदीय कार्यपालिका का अर्थ होता है –
(क) जहाँ संसद न हो वहाँ कार्यपालिका का होना।
(ख) संसद द्वारा निर्वाचित कार्यपालिका।
(ग) जहाँ संसद कार्यपालिका के रूप में काम करती है।
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के समर्थन पर निर्भर हो।
उत्तर:
(घ) ऐसी कार्यपालिका जो संसद के समर्थन पर निर्भर हो।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित संवाद पढ़ें। आप किस तर्क से सहमत हैं और क्यों?
अमित:
संविधान के प्रावधानों को देखने से लगता है कि राष्ट्रपति का कार्य सिर्फ ठप्पा मारना है।

शमा:
राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। इस कारण उसे प्रधानमंत्री को हटाने का अधिकार भी होना चाहिए।

राजेश:
हमे राष्ट्रपति की जरूरत नहीं । चुनाव के बाद, संसद बैठक बुलाकर एक नेता चुन सकती है जो प्रधानमंत्री बने।

उत्तर:
हम शमा के तर्क से कुछ हद तक सहमत हो सकते हैं कि क्योंकि राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है अत: उसे प्रधानमंत्री को हटाने का अधिकार भी होना चाहिए। सिद्धांत रूप में ऐसा है भी कि राष्ट्रपति ही प्रधानमंत्री की औपचारिक रूप से नियुक्ति करता है व संविधान के अनुच्छेद 78 के अनुरूप प्रधानमंत्री अपना कार्य ना करे व राष्ट्रपति को मांगी गई सूचना ना दे तो वह प्रधानमंत्री को हटा भी सकता है जैसा कि राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह व प्रधानमंत्री श्री राजीव गाँधी के सम्बन्धों में हुआ भी।

परंतु व्यवहारिकता में राष्ट्रपति उसी व्यक्ति को प्रधानमंत्री के पद पर नियुक्त करता है जिसको संसद में बहुमत प्राप्त होता है व प्रधानमंत्री के पद से वह व्यक्ति हटता है जो कि संसद में अपना बहुमत खो चुका हो। अतः प्रधानमंत्री को हटाने में राष्ट्रपति की कोई भूमिका नहीं है। अतः जो बात शमा के तर्क में है वह सिद्धांत रूप में प्रचलित हैं परंतु व्यवहार में ऐसा नहीं है।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित को सुमेलित करें –
(क) भारतीय विदेश सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ख) प्रादेशिक लोक सेवा केंद्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती है जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं और।
(ग) अखिल भारतीय सेवा जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) केन्द्रीय सेवा भारत के लिए विदेशों में कार्यरत।
उत्तर:
(क) प्रादेशिक लोक सेवा जिसमें बहाली हो उसी प्रदेश में काम करती है।
(ख) अखिल भारतीय सेवा केन्द्रीय सरकार के दफ्तरों में काम करती है जो या तो देश की राजधानी में होते हैं या देश में कहीं और।
(ग) केन्द्रीय सेवा जिस प्रदेश में भेजा जाए उसमें काम करती है, इसमें प्रतिनियुक्ति पर केन्द्र में भी भेजा जा सकता है।
(घ) भारतीय विदेश सेवा भारत के लिए विदेशों में कार्यरत।

प्रश्न 4.
उस मंत्रालय को पहचान करें जिसने निम्नलिखित समाचार को जारी किया होगा। यह मंत्रालय प्रदेश की सरकार का है या केंद्र सरकार का और क्यों?
(अ) अधिकारिक तौर पर कहा गया है कि सन् 2004-05 में तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम कक्षा 7, 10 और 11 की नई पुस्तकें जारी करेगा।
(ब) भीड़ भरे तिरूवल्लुर-चेन्नई खंड में लौह-अयस्क निर्यातकों की सुविधा के लिए एक नई रेल लूप लाइन बिछाई जाएगी। नई लाइन लगभग 80 किमी. की होगी। यह लाइन पुत्तूर से शुरू होगी और बंदरगाह के निकट अतिपटू तक जाएगी।
(स) रमयमपेट मंडल में किसानों की आत्महत्या की घटनाओं की पुष्टि के लिए गठित तीन सदस्यीय सब डिविजनल समिति ने पाया कि इस माह आत्महत्या करने वाले दो किसान फसल के मारे जाने से आर्थिक समस्याओं का सामना कर रहे थे।
उत्तर:
(अ) यह खबर राज्य मंत्रिमंडल द्वारा जारी की गई क्योंकि इसमें तमिलनाडु पाठ्यपुस्तक निगम द्वारा सातवीं, दसवीं और ग्यारहवीं कक्षाओं के लिए नया सत्र शुरू करना था। अत: यह तमिलनाडु राज्य के शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी की गई है।

(ब) तिरूवल्लुर-चेन्नई खंड से 80 किमी. लम्बी रेलवे लाइन पुत्तूर से अलग होकर अतिपटू बन्दरगाह के निकट पहुँचेगी। यह रेलवे मंत्रालय जो केन्द्रीय मंत्रालय है के द्वारा जारी की गई है।

(स) इस महीने रमयमपेट मंडल में दो किसानों ने आत्महत्या की जिसके लिए तीन सदस्यीय सब डिविजनल समिति ने-जाँच की ये किसान फसल न होने की वजह से आर्थिक समस्या से परेशान थे और इसलिए आत्महत्या कर ली। यह मामला कृषि मंत्रालय का है जिसे राज्य मंत्रिमंडल द्वारा किया जाना है। इसे केन्द्र सरकार भी राज्य सरकार के माध्यम से किसानों की सहायता करने के लिए जारी कर सकती है।

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प्रश्न 5.
प्रधानमंत्री की नियुक्ति करने में राष्ट्रपति –
(क) लोकसभा के सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ख) लोकसभा में बहुमत अर्जित करने वाले गठबंधन-दलों में सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(ग) राज्यसभा में सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।
(घ) गठबंधन अथवा उस दल के नेता को चुनता है जिसे लोकसभा के बहुमत का समर्थन प्राप्त हो।
उत्तर:
(ख) लोकसभा में बहुमत अर्जित करने वाले गठबंधन-दलों में सबसे बड़े दल के नेता को चुनता है।

प्रश्न 6.
इस चर्चा को पढ़कर बताएँ कि कौन-सा कथन भारत पर सबसे ज्यादा लागू होता है –
आलोक-प्रधानमंत्री राजा के समान है। वह हमारे देश में हर बात का फैसला करता है।
शेखर-प्रधानमंत्री सिर्फ ‘बराबरी के सदस्यों में प्रथम’ है। उसे कोई विशेष अधिकार प्राप्त नहीं है। सभी मंत्रियों और प्रधानमंत्री के अधिकार बराबर हैं।
बॉबी-प्रधानमंत्री को दल के सदस्यों तथा सरकार को समर्थन देने वाले सदस्यों का ध्यान रखना पड़ता है। लेकिन कुल मिलाकर देखें तो नीति-निर्माण तथा मंत्रियों के चयन में, प्रधानमंत्री की बहुत ज्यादा चलती है।
उत्तर:
तीसरा कथन अर्थात् बॉबी का कथन भारत के सन्दर्भ में सबसे अधिक उपयुक्त है। यद्यपि प्रधानमंत्री को अपने राजनीतिक दल के सदस्यों और दूसरे सरकार के समर्थन करने वालों की अपेक्षाओं का भी ध्यान रखना पड़ता है परंतु अन्ततः प्रधानमंत्री का ही ये अधिकार है कि वह अपनी इच्छा के मंत्रियों का चयन करे तथा नीतियों का निर्माण करे।

प्रश्न 7.
क्या मंत्रिमंडल की सलाह राष्ट्रपति को हर हाल में माननी पड़ती है ? आप क्या सोचते हैं ? अपना उत्तर अधिकतम 100 शब्दों में लिखें।
उत्तर:
ऐसा इसलिए सोचा जाता है कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य है क्योंकि संसदीय शासन प्रणाली में राष्ट्रपति कार्यपालिका का नाममात्र का अध्यक्ष होता है। अनुच्छेद. 74 (i) के अनुसार राष्ट्रपति को सहायता करने के लिए एक मंत्रिपरिषद होगी जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री होगा। राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद की सलाह को मानेगा। यद्यपि वह एक बार मंत्रिपरिषद की सलाह पुनः भेजी जाती है तो वह (राष्ट्रपति) उस सलाह को मानने को बाध्य है।

प्रश्न 8.
कार्यपालिका की संसदीय-व्यवस्था ने कार्यपालिका को नियंत्रण में रखने के लिए विधायिका को बहुत-से अधिकार दिए हैं। कार्यपालिका को नियंत्रित करना इतना जरूरी क्यों है। आप क्या सोचते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के द्वारा संसदात्मक व्यवस्था की स्थापना की गयी है। अतः (व्यवहार में लोकसभा) के प्रति उत्तरदायी होता है। कार्यपालिका का निर्माण भी संसद के दोनों सदनों के सदस्यों में से किया जाता है। यदि कोई मंत्री संसद के किसी सदन का सदस्य नहीं है तो उसे 6 माह के अंदर संसद की सदस्यता ग्रहण करने के लिए चुनाव लड़ना जरूरी है। मंत्रियों से सरकारी नीति के सम्बन्ध में प्रश्न तथा पूरक प्रश्न पूछकर कार्यपालिका पर अंकुश लगाते हैं।

संसद सरकारी विधेयक अथवा बजट को स्वीकार करके, मंत्रियों के वेतन में कटौती का प्रस्ताव स्वीकार करके अथवा किसी सरकारी विधेयक में ऐसा संशोधन करके जिसमें सरकार सहमत न हो, अपना विरोध प्रदर्शित कर सकता है। वह काम रोको प्रस्ताव, निंदा प्रस्ताव तथा अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखती है। विधायिका द्वारा कार्यपालिका पर नियंत्रण रखना अति आवश्यक है। आधुनिक काल में सरकार का कार्यपालिका अंग अधिक शक्तिशाली हो गया है। संसदीय शासन व्यवस्था में कार्यपालिका क्योंकि बहुमत दल या बहुमत प्राप्त गठबंधन से बनती है अत: वह निरंकुश होने लगती है। यही कारण है कि कार्यपालिका की निरंकुशता पर रोक लगाने के उद्देश्य से कार्यपालिका पर विधायिका का नियंत्रण बना रहना चाहिए।

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प्रश्न 9.
कहा जाता है कि प्रशासनिक-तंत्र के कामकाज में बहुत ज्यादा राजनीतिक हस्तक्षेप होता है। सुझाव के तौर पर कहा जाता है कि ज्यादा से ज्यादा स्वायत्त एजेंसियाँ बननी चाहिए जिन्हें मंत्रियों को जवाब न देना पड़े।
(क) क्या आप मानते हैं कि इससे प्रशासन ज्यादा जन-हितैषी होगा?
(ख) क्या आप मानते हैं कि प्रशासन की कार्यकुशलता बढ़ेगी?
(ग) क्या लोकतंत्र का अर्थ यह है कि चुने गये निर्वाचित प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण हो?
उत्तर:
(क) जैसा कि जानते हैं कि प्रशासनिक मशीनरी वह है जिसके द्वारा सरकार की लोक कल्याणकारी नीतियाँ जनता तक पहुँचती हैं। मंत्रिगण जो नीतियाँ बनाते हैं प्रशासनिक अधिकारी या नौकरशाही द्वारा उन नीतियों को क्रियात्मक रूप दिया जाता है और प्रायः लोगों के कल्याण के लिए उन नीतियों के प्रभावी बनाया जाता है। आम आदमी की पहुँच प्रशासनिक अधिकारियों तक नहीं होती। नौकरशाही आम नागरिकों की माँगों और आशाओं के प्रति संवेदशील नहीं होती।

परंतु राजनीतिक हस्तक्षेप से प्रशासन की इस कमी को प्रजातंत्र में यद्यपि दूर करने का प्रयास किया गया था लेकिन आज स्थिति दूसरी बन गयी है और अधिक से अधिक राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण प्रशासन राजनीतिज्ञों के हाथ का खिलौना बन गया है। इस प्रकार की कमियों से बचने के लिए यह सुझाव दिया जाता है कि अधिक से अधिक स्वायत्त संस्थाएँ होनी चाहिए जो मंत्रियों के प्रति उत्तरदायी न हो। यदि ऐसा होता है तो प्रशासन अधिक से अधिक जनता के साथ मित्रवत होगा।

(ख) इस प्रकार से प्रशासन अधिक से अधिक कुशल होगा क्योंकि राजनीतिक हस्तक्षेप से प्रशासनिक अधिकारी कार्य स्वतंत्रतापूर्वक नहीं कर पाते।

(ग) लोकतंत्र का अर्थ यह है कि शासन जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप हो। जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अर्थात् मंत्री जब प्रशासन पर नियंत्रण रखते हैं जो जनता की आशाओं के अनुकूल उनकी समस्याओं को प्रभावी तरीके से हल किया जा सकता है। लेकिन जब राजनीतिज्ञों अर्थात् चुने हुए प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियंत्रण हो जाता है तो नौकरशाही राजनीतिज्ञों की हाँ में हाँ मिलाने लगती है और प्रशासन संवेदनशील नहीं रहता। अत: यह कहना सही नहीं है कि लोकतंत्र का अर्थ है कि चुने हुए प्रतिनिधियों का प्रशासन पर पूर्ण नियत्रंण हो।

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प्रश्न 10.
नियुक्ति आधारित प्रशासन की जगह निर्वाचन आधारित प्रशासन होना चाहिए-इस विषय पर 200 शब्दों में एक लेख लिखो।
उत्तर:
यदि प्रशासनिक कर्मचारियों को नियुक्ति के आधार के बजाए निर्वाचन के आधार पर लिया जाए तो क्या होगा, वास्तव में यह हानिप्रद होगा क्योंकि निर्वाचित प्रशासक नीतियों को बदल देंगे। इस तरह नीतियों के लागू करने में अनिश्चितता और अस्थिरता बनी रहेगी। नियुक्त प्रशासन पक्षपातरहित होता है। सिविल कर्मचारियों को केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों द्वारा नियुक्त किया जाता है। इनकी नियुक्ति एक स्वतंत्र संघ लोक सेवा आयोग की सिफारिश पर की जाती है।

इससे प्रशासन में निष्पक्षता बनी रहती है परंतु यदि लोक सेवकों की भर्ती चुनाव द्वारा हुआ करती तो प्रत्येक बार चुनाव में अलग-अलग पार्टी के उम्मीदवारों की जीत होने पर नीतियों को लागू करने में अड़चने आतीं । इस प्रकार संघ लोक सेवा आयोग या राज्यों के लोक सेवा आयागों द्वारा चयनित किए गए प्रशासक योग्य और कुशल होते हैं। वे प्रशासन तंत्र में स्थायी रूप से बने रहते हैं। सरकार के स्थायी कर्मचारियों के रूप में कार्य करने वाले प्रशिक्षित व प्रवीण अधिकारी नीतियों को बनाने तथा उसे लागू करने में मंत्रियों का सहयोग करते हैं परंतु वे राजनीतिक रूप से तटस्थ रहते हैं। लेकिन यदि ये प्रशासनिक कर्मचारी भी चुनाव द्वारा लिए जाते तो वे राजनीतिक रूप से तटस्थ नहीं रहते और उनकी राजनीतिक निष्ठा प्रशासन को प्रभावित करती।

Bihar Board Class 11 Political Science कार्यपालिका Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
एक कुशल कार्यपालिका के मुख्य गुण क्या हैं?
उत्तर:
कार्यपालिका शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। एक कुशल कार्यपालिका वह है जो एकजुट होकर शीघ्रता से कोई कदम उठा संक्षेप में, कार्यपालिका में निम्नलिखित चार गुण होने चाहिए –

  1. उद्देश्य की एकता
  2. कार्यवाही की गोपनीयता
  3. निर्णय लेने में शीघ्रता
  4. शक्तिशाली ढंग से निर्णयों को लागू करना

प्रश्न 2.
निम्नलिखित संवाद पढ़ें। आप किस तर्क से सहमत हैं और क्यों?
अमित-संविधान के प्रावधानों को देखने से लगता है कि राष्ट्रपति का काम सिर्फ ठप्पा मारना है।
शमा-राष्ट्रपति प्रधानमंत्री की नियुक्ति करता है। इस कारण उसे प्रधानमंत्री को हटाने का भी अधिकार होना चाहिए।
राजेश-हमें राष्ट्रपति की जरूरत नहीं। चुनाव के बाद, संसद की बैठक बुलाकर एक: नेता चुन सकती है जो प्रधानमंत्री बने।
उत्तर:
उक्त संवाद में राष्ट्रपति की स्थिति पर चर्चा की गयी है। प्रथम कथन में राष्ट्रपति को रबड़ की मुहर बताया गया है। परंतु यह कहना सत्य नहीं है क्योंकि राष्ट्रपति कई अवसरों पर स्व-निर्णय भी लेता है। वह संसद द्वारा पारित विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटा सकता है। लौटाने के लिए भी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है।

अतः विधेयक को लौटाने के लिए विलम्ब किया जा सकता है। प्रधानमंत्री की नियुक्ति में भी आजकल लोकसभा में अकेले दल का बहुमत न होने के कारण राष्ट्रपति अपने विवेक का प्रयोग करता है। तीसरे कथन में राष्ट्रपति के पद की आवश्यकता ही नहीं और संसद की बैठक (चुनाव के तुरंत बाद) में प्रधानमंत्री का चयन करने की बात कही गई परंतु सदन में ऐसे अवसर पर जब एक ही दल का बहुमत न हो तो निर्णय लेने में कठिनाइयाँ पैदा होंगी।

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प्रश्न 3.
मुख्य कार्यपालक के प्रत्यक्ष चुनाव का एक गुण तथा एक दोष बताइए।
उत्तर:
गुण: प्रत्यक्ष चुनाव के द्वारा आम जनता में एक प्रकार की रुचि उत्पन्न होती है। योग्यता और एकता में जनता का विश्वास हो।

दोष:

  1. इससे भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है।
  2. इस व्यवस्था में मतदाता को उम्मीदवार के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं हो पाती।

प्रश्न 4.
बहुल कार्यपालिका का क्या अर्थ है?
उत्तर:
जब कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग एक व्यक्ति या एक समूह के बजाय व्यक्तियों के समूह के द्वारा किया जाता है और प्रत्येक सदस्य बराबर सत्तावान होता है तो उसे बहुल कार्यपालिका कहते हैं। स्विट्जरलैंड बहुल कार्यपालिका का उदाहरण है जहाँ पर कार्यकारी शक्तियाँ बहुत से व्यक्तियों में विभक्त हैं। वहाँ पर फेडरल काउन्सिल सात सदस्यों से मिलकर बनती है। काउन्सिल का चेयरमैन एक वर्ष के लिए चुना जाता है। वह भी समकक्षों में प्रथम कहलाता है।

प्रश्न 5.
उपराष्ट्रपति के दो कार्य बताइए।
उत्तर:

  1. उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन अध्यक्ष होता है। अत: राज्यसभा की कार्यवाही का संचालन करता है।
  2. राष्ट्रपति का पद उसकी मृत्यु होने पर या त्यागपत्र देने से या महाभियोग द्वारा हटाए. जाने पर या किसी अन्य कारण से रिक्त होने पर उपराष्ट्रपति राष्ट्रपति के पद पर कार्य करता है।

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प्रश्न 6.
राष्ट्रपति भी संसद का अनिवार्य अंग है। क्या आप इस कथन से सहमत हैं?
उत्तर:
हाँ, राष्ट्रपति संसद का अनिवार्य अंग है। संसद राज्य सभा, लोकसभा तथा राष्ट्रपति तीनों अंगों से मिलकर बनती है।

प्रश्न 7.
उपराष्ट्रपति का चुनाव कौन करता है? उसको पदच्युत कैसे किया जा सकता है?
उत्तर:
उपराष्ट्रपति का चुनाव संसद के दोनों सदन समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली से करते हैं। उपराष्ट्रपति को पद से हटाया जा सकता है यदि राज्य सभा इस प्रकार का प्रस्ताव पारित करे और लोकसभा उसका अनुमोदन करे किन्तु ऐसे प्रस्ताव की सूचना 14 दिन पूर्व दी जानी आवश्यक है।

प्रश्न 8.
भारत के उपराष्ट्रपति के पद के लिए उम्मीदवार की योग्यताएँ क्या हैं?
उत्तर:
उपराष्ट्रपति पद के लिए निम्नलिखित योग्यताएँ होनी आवश्यक हैं:

  1. उम्मीदवार भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु कम से कम 35 वर्ष हो।
  3. वह राज्य सभा का सदस्य चुने जाने की योग्यता रखता हो।
  4. वह कोई लाभ का पद धारण न किए हुए हो।

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प्रश्न 9.
उपराष्ट्रपति का वेतन तथा पेंशन आदि का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत के उपराष्ट्रपति को 40,000 रु. मासिक वेतन, 10,000 रुपय मासिक भत्ता, 20,000 रुपये प्रतिमाह पेंशन तथा कार्यकाल व्यय 12,000 रुपये प्रति वर्ष कर दिया गया है।

प्रश्न 10.
किसी राज्य का राज्यपाल बनने के लिए क्या योग्यताएँ आवश्यक होती हैं?
उत्तर:
राज्यपाल के पद की योग्यताएँ –
(क) उम्मीदवार भारत का नागरिक हो।
(ख) उसकी आयु 35 वर्ष हो।
(ग) वह संसद सदस्य या राज्य विधानमंडल का सदस्य न हो। यदि है तो उसे त्यागपत्र देना होगा।

प्रश्न 11.
राज्यपाल की नियुक्ति कैसे होती है?
उत्तर:
राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वह अपने पद पर राष्ट्रपति के प्रसाद-पर्यन्त रह सकता है। उसकी नियुक्ति 5 वर्ष के लिए की जाती है। राज्यपाल को वैधानिक प्रधान के रूप में कार्य करना चाहिए परंतु वह केन्द्र सरकार का प्रतिनिधि होने के कारण दोहरी भूमिका निभाता है।

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प्रश्न 12.
वित्तीय आपातकाल पर टिप्पणी लिखो।
उत्तर:
वित्तीय आपातकाल:
जब राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि भारत या उसके किसी भाग की वित्तीय साख खतरे में पड़ गयी है तो संविधान के अनुच्छेद 360 के अन्तर्गत वह वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकता है। राष्ट्रपति संघ राज्य के कर्मचारियों के वेतन में कटौती कर सकता है। संघीय कार्यपालिका राज्य सरकार को निर्देश दे सकती है। ऐसे निर्देश में यह भी व्यवस्थ हो सकती है कि विधान मण्डल द्वारा पारित धन विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखा जाए।

प्रश्न 13.
भारत के राष्ट्रपति की स्थिति का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रपति की स्थिति-भारत का राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख है और संविधान के अनुसार शासन की सारी शक्तियाँ उसे दी गई हैं परंतु वास्तव में उसकी इन सारी शक्तियों का प्रयोग उसके नाम पर मंत्रिमण्डल कर सकता है। वह अपनी इच्छा से कोई भी कार्य नहीं करता बल्कि वही करता है जो मंत्रिमण्डल उसे करने के लिए कहता है। वह राज्य का प्रधान तो है परंतु कार्यपालिका का नहीं अर्थात् वह राष्ट्र का वैधानिक प्रमुख है, परंतु राष्ट्र पर शासन नहीं करता। परंतु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि राष्ट्रपति का कोई महत्व नहीं है। उसका पद बहुत प्रभावशाली है और राष्ट्र में सबसे अधिक सम्मानजनक है।

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प्रश्न 14.
भारत के राष्ट्रपति को उसके पद से हटाने का क्या तरीका है? अथवा, राष्ट्रपति पर महाभियोग कैसे लगाया जाता है?
उत्तर:
राष्ट्रपति को पाँच वर्ष के लिए चुना जाता है परंतु यदि कोई राष्ट्रपति अपनी शक्तियों के प्रयोग में संविधान का उल्लंघन करे तो पाँच वर्ष से पहले भी उसे अपने पद से हटाया जा सकता है। उसे महाभियोग द्वारा अपदस्थ किया जा सकता है। सदन राष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप लगाता है। आरोपों के प्रस्ताव पर सदन में उसी समय में विचार हो सकता है जब सदन के 1/4 सदस्यों के हस्तक्षर द्वारा इस आशय का नोटिस कम से कम 14 दिन पहले राष्ट्रपति को दिया. जा चुका हो। यदि एक सदन में प्रस्ताव 2/3 बहुमत से उन आरोपों की पुष्टि कर दे तो राष्ट्रपति को उसी दिन अपना पद छोड़ना पड़ता है। जब तक दूसरा सदन राष्ट्रपति हटाए जाने का प्रस्ताव नहीं करता, उस समय तक राष्ट्रपति अपने पद पर आसीन रहता है।

प्रश्न 15.
कार्यपालिका किसे कहते हैं?
उत्तर:
सरकार के तीन अंगों में दूसरा अंग कार्यपालिका है। कार्यपालिका ही विधायिका द्वारा पारित कानूनों को लागू करती है। गार्नर के अनुसार “कार्यपालिका के अन्तर्गत वे सभी व्यक्ति और कर्मचारी आ जाते हैं जिनका कार्य राज्य की इच्छा को जिसे विधायिका ने व्यक्त कर कानून का रूप दिया है, कार्य रूप में परिणत करना है।”

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
राज्यपाल की विवेकी शक्तियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
राज्यपाल विवेकी शक्तियों का प्रयोग निम्न परिस्थितियों में कर सकता है। इन शक्तियों का प्रयोग करने में उसे मंत्रिमंडल के परामर्श की आवश्यकता नहीं होती।

1. राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए विधेयकों को सुरक्षित रखना:
यदि राज्यपाल को ऐसा अनुभव हो कि राज्य विधानमंडल द्वारा पास कोई विधेयक केन्द्रीय कानून या केन्द्रीय सरकार की नीतियों के अनुसार नहीं है तो वह ऐसे विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखने में स्वविवेक से कार्य करता है।

2. राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने में:
यदि राज्यपाल को ऐसा लगे कि राज्य में शासन संविधान के अनुसार नहीं चलाया जा रहा है तो वह राष्ट्रपति से सिफारिश कर सकता है कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाए।

3. मुख्यमंत्री का चयन:
यदि राज्य विधान सभा में किसी दल को बहुमत न मिले तो राज्यपाल मुख्यमंत्री के चयन में स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है।

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प्रश्न 2.
मंत्रिपरिषद का सामूहिक उत्तरदायित्व से क्या अभिप्राय है? राज्य की मंत्रिपरिषद किसके प्रति उत्तरदायी है?
उत्तर:
सामूहिक उत्तरदायित्व का अर्थ है कि मंत्रिपरिषद् के सभी सदस्य सामूहिक रूप से विधायिका के प्रति उत्तरदायी होते हैं। वे एक साथ तैरते हैं और एक साथ ही डूबते हैं। यदि किसी एक मंत्री के मंत्रालय की नीति पर अविश्वास हो तो सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना पड़ता है। राज्य की मंत्रिपरिषद् राज्य विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी है।

प्रश्न 3.
किसी राज्य के मुख्यमंत्री की नियुक्ति कैसे होती है? मुख्यमंत्री के राज्यपाल तथा विधान सभा के प्रति तीन उत्तरदायित्वों का वर्णन भी कीजिए।
उत्तर:
मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। राज्यपाल विधान सभा में बहुमत दल के नेता को मुख्यमंत्री बनाता है। यदि किसी एक दल या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत न मिले तो राज्यपाल को स्वविवेक का प्रयोग करके मुख्यमंत्री का चयन करना पड़ता है।

मुख्यमंत्री के राज्यपाल के प्रति दायित्व –

  1. मुख्यमंत्री राज्यपाल को शासन के सभी कार्यों की सूचना देता है।
  2. मुख्यमंत्री का दायित्व है कि वह राज्यपाल को मंत्रिपरिषद के सभी निर्णयों से परिचित कराए या सूचित करे।
  3. मुख्यमंत्री राज्यपाल को प्रदेश में बड़े-बड़े पदों पर नियुक्ति के लिए सलाह देता है।

मुख्यमंत्री के विधान सभा के प्रति दायित्व –

  1. मुख्यमंत्री अपने मंत्रियों सहित विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है।
  2. मुख्यमंत्री से विधायक प्रश्न सकते हैं और प्रशासन के बारे में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। उनको संतुष्ट करने का दायित्व मुख्यमंत्री का है।
  3. सरकार की नीति को लागू करने से पहले मुख्यमत्री उसे विधानसभा से पारित करवाने को जिम्मेदार है और अपने दल के द्वारा पेश किए गए विधेयकों को पास कराने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

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प्रश्न 4.
“राष्ट्रपति पर महाभियोग” पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत का राष्ट्रपति पाँच वर्ष के लिए चुना जाता है। इससे पहले साधारणतया राष्ट्रपति को पदच्युत नहीं किया जा सकता। राष्ट्रपति को केवल महाभियोग द्वारा ही पद से हटाया जा सकता है। राष्ट्रपति पर संविधान की अवहेलना के आधार पर महाभियोग लगाया जा सकता है। महाभियोग का प्रस्ताव संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है परंतु इस आशय का प्रस्ताव किसी भी सदन में उस समय तक पेश नहीं किया जा सकता जब तक कि इसकी सूचना सदन के एक चौथाई सदस्यों के हस्ताक्षरों द्वारा, कम से कम 14 दिन पहले राष्ट्रपति को न दी गई हो।

यह प्रस्ताव सदन में दो-तिहाई बहुमत से पास होना चाहिए। फिर यह प्रस्ताव दूसरे सदन के पास जाता है जो राष्ट्रपति पर लगाए गए दोषों की छानबीन करता है। और यदि दूसरा सदन उन दोषों को ठीक पाए तथा दो-तिहाई बहुमत से अपनी सम्मति का प्रस्ताव पास कर दे तो उसी समय से राष्ट्रपाति अपने पद से पदच्युत माना जाता है। राष्ट्रपति को स्वयं या अपने किसी प्रतिनिधि द्वारा सदन के सामने उपस्थत होकर अपनी सफाई देने का अधिकार है।

प्रश्न 5.
भारत का राष्ट्रपति बनने के लिए किसी व्यक्ति में कौन-सी योग्यताओं का होना आवश्यक है?
उत्तर:
भारत का राष्ट्रपति बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताओं का होना आवश्यक है –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
  3. वह लोकसभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो।
  4. वह पागल या दिवालिया न हो।
  5. कोई भी व्यक्ति जो केन्द्र सरकार के अधीन लाभ के पद पर कार्य कर रहा है वह राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार नहीं हो सकता।
  6. सन् 1974 में संसद ने राष्ट्रपति निर्वाचन (संशोधन) अधिनियम पास किया जिसके अनुसार उम्मीदवार को 2500 रुपये जमानत के रूप में जमा करवाना होगा तथा निर्वाचक मण्डल के 10 सदस्यों द्वारा नामांकन पत्र प्रस्तावित तथा 10 सदस्यों द्वारा अनुमोदित करवाना होगा।
  7. 1997 में संशोधन करके जमानत राशि 10,000 रुपये कर दी गई तथा नामांकन पत्र निर्वाचक मण्डल के 20 सदस्यों द्वारा प्रस्तावित तथा 20 सदस्यों द्वारा अनुमोदित करवाना अनिवार्य कर दिया गया है।

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प्रश्न 6.
भारत के राष्ट्रपति का निर्वाचन कैसे होता है?
उत्तर:

  1. अप्रत्यक्ष चुनाव-भारत के राष्ट्रपति के चुनाव की मुख्य विशेषता यह है कि यह चुनाव जनता के द्वारा सीधा न होकर अप्रत्यक्ष रूप से राज्यों की विधानसभाओं तथा संसद के निर्वाचित सदस्यों द्वारा होता है।
  2. निर्वाचक मण्डल द्वारा चुनाव-संविधान की धारा 41 के अनुसार राष्ट्रपति के चुनाव में “संसद के दोनों सदनों तथा राज्यों की विधानसभाओं के निर्वाचित सदस्य भाग लेंगे।” इस धारा के अनुसार राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से निर्वाचक मण्डल द्वारा होता है। इसमें शामिल होते हैं –

(क) संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य।
(ख) राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य।

राष्ट्रपति का चुनाव एक विशेष तरीके से होता है जिसे “आनुपातिक प्रधिनिधित्व व एकल संक्रमणीय मत प्रणाली” के नाम से पुकारा जाता है।

प्रश्न 7.
स्थायी कार्यपालिका और राजनीतिक कार्यपालिका में अंतर कीजिए।
उत्तर:
स्थायी कार्यपालिका राजनीतिक कार्यपालिका से भिन्न होती है। राजनीतिक कार्यपालिका में जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जैसे कि राष्ट्रपति और मंत्रिमंडल के सदस्य। ये अपनी नीतियाँ अपने राजनीतिक दल के कार्यक्रम के अनुसार बनाते हैं। स्थायी कार्यपालिका के अन्तर्गत सिविल सेवाओं के सदस्य आते हैं। सिविल सेवाओं से अभिप्राय है-प्रशासनिक अधिकारी व राज कर्मचारी। ये लोग योग्यता के आधार पर छाँटे जाते हैं। ये स्थायी रूप से अपने पदों पर रहते हैं। मंत्रिमण्डल बदलते रहते हैं पर सिविल कर्मचारियों की नौकरी स्थायी हुआ करती है। एक निश्चित आयु प्राप्त करने के बाद वे रिटायर हो जाते हैं।

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प्रश्न 8.
संसदीय समितियों का कार्य क्या है?
उत्तर:
संसदीय समिति के कार्य-संसद के कार्य संचालन में सहायता के लिए समितियों की व्यवस्था की गई है। सामान्यतः संसदीय समितियाँ दो प्रकार की होती हैं-स्थायी तथा तदर्थ स्थायी। समितियों का गठन प्रतिवर्ष या एक निश्चित समय के लिए होता है तथा इनका कार्य अनवरत चलता रहता है। तदर्थ समितियों का गठन आवश्यकतानुसार तदर्थ आधार पर किया जाता है तथा कार्य समिति के बाद उनका विघटन हो जाता है। स्थायी समिति में प्रमुख वित्तीय समिति होता है। इसमें प्राक्कलन सरकारी उपक्रम संबंधी एवं लोक लेखा समिति है। ये वित्तीय नियंत्रण, वित्तीय लेन-देन की जाँच का कार्य करती है जबकि अन्य समिति अपने निश्चित दायित्वों को पूरा करती है।

प्रश्न 9.
कैबिनेट तथा मंत्रिपरिषद में क्या अंतर हैं?
उत्तर:
मंत्रिपरिषद् तथा मंत्रिमंडल को अधिकतर लोग एक ही संस्था मानते हैं परंतु इन दोनों “बहुत से अंतर हैं –

1. मंत्रिपरिषद् एक संवैधानिक संस्था है:
संविधान में मंत्रिपरिषद् का उल्लेख किया गया है तथा उसे संवैधानिक मान्यता प्राप्त है जबकि मंत्रिमण्डल की रचना प्रशासनिक सुविधा के लिए की गई है।

2. मंत्रिमंडल एक बड़ी सभा है:
मंत्रियों के मिले-जुले संगठन को मंत्रिपरिषद् कहते हैं तथा मंत्रिमंडल मंत्रिपरिषद् का एक अंग होता है। इसमें सिर्फ महत्त्वपूर्ण विभागों के मंत्री, जो कैबिनेट मंत्री कहलाता है होते हैं। मंत्रिमंडल में मंत्रिपरिषद् के अनुभवी तथा प्रभावशाली नेताओं को ही स्थान दिया जात है। भारत की मंत्रिपरिषद् में लगभग 50-60 सदस्य होते हैं तथा मंत्रिमंडल में लगभग 18-20 तक।

3. मंत्रिमंडल अधिक महत्त्वशाली है:
सभी निर्णय मंत्रिमंडल की बैठकों में ही लिए जाते हैं और वे मंत्रिपरिषद् के निर्णय कहलाते हैं। रेम्जेम्योर ने मंत्रिमंडल की परिभाषा इस प्रकार की है – “यह मंत्रिपरिषद् का हृदय है, संसद का परिचालक यंत्र है, जिसमें सभी महत्त्वपूर्ण विभागों के राजनीतिक अध्यक्ष सम्मिलित रहते हैं तथा कुछ प्राचीन प्रतिष्ठित पदों के अधिकारी भी।” अतः यह स्पष्ट है कि मंत्रिमंडल का महत्त्व मंत्रिपरिषद् की अपेक्षा अधिक है।

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प्रश्न 10.
अध्यक्षीय प्रणाली क्या है?
उत्तर:
अर्ध-अध्यक्षीय प्रणाली अध्याक्षत्मक एवं संसदीय व्यवस्था का मिश्रित रूप है। इस पद्धति में राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री दोनों पद का प्रावधान होता है लेकिन तुलनात्मक दृष्टि से राष्ट्रपति अधिक शक्तिशाली होता है। प्रधानमंत्री संसद के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी होता है जबकि राष्ट्रपति जनता के प्रति प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदायी होता है। पंचम गणतंत्र के बाद फ्रांस, रूस, श्रीलंका अध्यक्षीय प्रणाली का उदाहरण है।

प्रश्न 11.
संविधान शासन की शक्तियों को किस प्रकार सीमित करता है?
उत्तर:
संविधान राष्ट्र का सर्वोच्च कानून होता है। यह न सिर्फ राज्य के कानून से सर्वोपरि है बल्कि राज्य के सभी महत्वपूर्ण अंगों एवं संस्थाओं का निर्माण संविधान के ही अधीन होता है। विधायिका, कार्यपालिका संविधान के विरुद्ध कार्य नहीं कर सकते। इस स्थिति में न्यायपालिका उन कार्यों को अवैध घोषित कर सकती है। सांविधानिक सीमा में कार्य करने के लिए बाध्य होते हैं। इस आधार पर शासन की शक्ति द्वारा सीमित माना जाता है।

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प्रश्न 12.
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की विशेषता क्या है?
उत्तर:
अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली की प्रमुख विशेषताएँ निम्न हैं –

  1. राष्ट्रपति शासन का वास्तविक अध्यक्ष होता है।
  2. राष्ट्रपति का नेतृत्व एकल कार्यपालिका के रूप में होता है।
  3. शक्ति पृथक्करण के आधार पर विधायिका एवं कार्यपालिका में कोई संबंध नहीं।
  4. कार्यपालिका प्रत्यक्षतः विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती।
  5. राष्ट्रपति का एक निश्चित कार्यकाल होता है।

प्रश्न 13.
उपराष्ट्रपति के अधिकार क्या हैं?
उत्तर:
भारत का उपराष्ट्रपति संसद के उच्च सदन (राज्यसभा) का पदेन अध्यक्ष है। राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में राष्ट्रपति के कार्यों का भार भी उस पर रहता है। वह राज्यसभा के संचालन हेतु सभी महत्वपूर्ण निर्णयों का संवहन भी करता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत के राष्ट्रपति का चुनाव, वेतन, कार्यकाल का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
भारत के राष्ट्रपति के निर्वाचन का तरीका-भारत के राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष निर्वाचन विधि से समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली की एकल संक्रमणीय मत प्रथा द्वारा एक निर्वाचन मंडल द्वारा किया जाता है। इस निर्वाचन मंडल में ससंद के दोनों सदनों के निर्वाचन सदस्य तथा राज्य विधान सभाओं और 70 वें संविधान (1992) के अनुसार संघ शासित क्षेत्रों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य सम्मिलित होते हैं। चुनाव में सफलता प्राप्त करने के लिए न्यूनतम कोटा प्राप्त करना आवश्यक होता है।
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राज्य या संघीय क्षेत्र की विधान सभा के सदस्य के मतों की संख्या
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सदस्य राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की योग्यताएँ –

  1. उम्मीदवार भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष से कम न हो।
  3. उसमें लोकसभा सदस्य चुनने की योग्यता हो।
  4. वह किसी सरकारी लाभ के पद पर न हो।

चुनाव का संचालन:
राष्ट्रपति के निर्वाचन का संचालन निर्वाचन आयोग के निर्देशन द्वारा होता है। आयोग नामांकन पत्र दाखिल करने, नाम वापस लेने तथा उसकी जाँच और मतदान की तिथि निर्धारित करता है। प्रत्येक उम्मीवार के लिए पचास निर्वाचक प्रस्ताव तथा पचास निर्वाचकों द्वारा अनुमोदन किया जाना आवश्यक है।

वेतन:
4 अगस्त, 1998, को संसद ने एक विधेयक पारित कर राष्ट्रपति का मासिक वेतन 50 हजार रु. कर दिया जो आय कर से मुक्त होगा। एक निःशुल्क आवास तथा संसद द्वारा स्वीकृत अन्य भत्ते मिलते हैं। राष्ट्रपति को 3 लाख रुपये वार्षिक पेंशन तथा 12 हजार रुपये वार्षित सचिवालय के खर्च के लिए दिए जाते हैं। पूर्व राष्ट्रपति को भी निःशुल्क आवास, बिजली, पानी, कार आदि की सुविधा दी जाती है।

कार्यकाल:
राष्ट्रपति का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया गया। पुनर्निर्वाचन के लिए कोई प्रतिबंध नहीं है।

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प्रश्न 2.
“नौकरशाही” की भूमिका का वर्णन कीजिए। अथवा, आधुनिक राज्य में नौकरशाही के कार्यों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
नौकरशाही का शासन पर बहुत प्रभाव बढ़ गया है। बिना नौकरशाही के शासन चलाना और देश का विकास करना अत्यन्त कठिन कार्य है। नौकरशाही का महत्व इसलिए बढ़ गया है कि आधुनिक राज्य एक कल्याणकारी राज्य है। कल्याणकारी राज्य होने के कारण राज्य के कार्य इतने बढ़ गए हैं कि सब कार्य मंत्री नहीं कर सकते। मंत्रियों के फैसलों को कार्यरूप देने के लिए स्थायी कर्मचारियों अर्थात् नौकरशाह की आवश्यकता पड़ती है। इसके अतिरिक्त मंत्रियों के पास वैसे भी समय कम होता है, जिसके कारण वे प्रत्येक सूचना स्वयं प्राप्त नहीं कर पाते। आधुनिक राज्य में नौकरशाही की भूमिका का वर्णन हम निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत कर सकते हैं –

लोक सेवकों के कार्य –

1. मंत्रियों को परामर्श देना:
संसदीय शासन में मंत्री जनता के प्रतिनिधि होते हैं जो अपने राजनीतिक दल की नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए वचनबद्ध होते हैं। इस दृष्टि से शासन की नीतियों का निर्धारण करने का कार्य मंत्री ही करते हैं किन्तु इन मंत्रियों को अपने विभाग की बारीकियों का पता नहीं होता। अत: नीतियों को कार्यान्वित करने के लिए विभाग के सचिवों का कर्तव्य होता है कि वे सम्बन्धित जानकारी मंत्री तक पहुँचाएँ। वे आवश्यक जानकारी सूचनाएँ व आँकड़े एकत्रित करते हैं और उन नीतियों की सफलता के सम्बन्ध में मंत्रियों को परामर्श देते हैं। इस प्रश्न के अभाव में नीतियों को सफलतापूर्वक लागू करना बहुत कठिन है।

2. नीतियों को कार्यान्वित करना:
मंत्रियों द्वारा निश्चित की गई नीति को सफल बनाना लोक प्रशासकों का कर्तव्य होता है। मंत्री अपने सचिव को नीति सम्बन्धी आवश्यक निर्देश देता है और सचिव अपने लोक सेवकों को तत्सम्बन्धी आदेश व निर्देश देता है, जिससे नीति को सफल बनाया जा सके। विभाग के विभिन्न छोटे-बड़े कर्मचारियों का दायित्व होता है कि ऊपर से प्राप्त निर्देश का पालन करें और निर्धारित नीति को ईमानदारी से लागू करें।

3. विभागों में समन्वय स्थापित करना:
लोक सेवाओं के कार्यों का प्रशासन के अंग के रूप में अध्ययन किया जाता है। यद्यपि प्रशासन विभिन्न विभागों में विभाजित होता है और प्रत्येक विभाग की आवश्यकताएँ भी भिन्न-भिन्न होती हैं, किन्तु इन विभागों में समन्वय स्थापित करना नितान्त आवश्यक है क्योंकि प्रत्येक विभाग अलग से कार्य नहीं कर सकता।

प्रत्येक विभाग अन्य विभागों पर निर्भर करता है। कृषि; कुटीर उद्योग, अन्य उद्योग, सिंचाई तथा प्रतिरक्षा आदि अपने में स्वतंत्र दिखाई देते हैं किन्तु ये एक-दूसरे पर कम या अधिक निर्भर रहते हैं। इसी से प्रशासन का कुशलतापूर्वक संचालन सम्भव होता है। लोक-सेवाएँ इस दृष्टि से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

4. लोक सेवाओं के संगठन से सम्बन्धित कार्य:
लोक सेवकों का कार्य यह भी है कि वे लोक सेवकों की नियुक्ति, उनकी पदोन्नति, प्रशिक्षण तथा उन्हें दी जाने वाली अन्य सुविधाओं का भी समुचित प्रबंध करे। देश के प्रतिभा सम्पन्न युवक लोक सेवाओं की ओर आकृष्ट हों, यह नितान्त आवश्यक है। अतः इसकी आवश्यकताओं तथा इनके कार्यों का समन्वय किया जाता है। लोक सेवाओं के संगठन से सम्बन्धित विभिन्न कार्यों का सम्पादन लोक सेवकों द्वारा किया जाता है।

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प्रश्न 3.
आधुनिक प्रजातंत्रीय देशों में कार्यपालिका के द्वारा कौन-कौन से कार्य किए जाते हैं?
उत्तर:
आधुनिक राज्य पुलिस राज्य न होकर कल्याणकारी राज्य है। राज्य का मुख्य उद्देश्य जनता की भलाई के लिए कार्य करना है। कल्याणकारी राज्य के उदय होने से कार्यपालिका का मुख्य कार्य विधानमण्डल के बनाए हुए कानूनों को लागू करना है। इस कार्य के अतिरिक्त कार्यपालिका को अनेक कार्य करने पड़ते हैं। कार्यपालिका के कार्य भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न हैं। वास्तव में कार्यपालिका के कार्य सरकार के स्वरूप पर निर्भर करते हैं। आधुनिक राज्य में कार्यपालिका के मुख्य कार्य निम्नलिखित हैं –

कार्यपालिका के प्रमुख कार्य –

1. प्रशासनिक कार्य:
कार्यपालिका का प्रथम कार्य विधानमंडल के कानूनों को लागू करना तथा देश में शान्ति एवं व्यवस्था को बनाए रखना होता है। कार्यपालिका का कार्य कानूनों को लागू करना है चाहे वह कानून बुरा हो या अच्छा। कार्यपालिका देश में शान्ति-व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस का प्रबंध करती है। पुलिस उन व्यक्तियों को जो कानून तोड़ते हैं, गिरफ्तार करती है और उन पर मुकदमा चलाती है।

2. कूटनीतिक कार्य:
वर्तमान युग में कोई देश दूसरे देशों से सम्बन्ध बनाए बिना नहीं रह सकता। दूसरे, बहुत-से राज्य आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर नहीं हैं। अतः उन्हें दूसरे उन्नत देशों को मदद प्राप्त होती है। इसलिए प्रत्येक देश को दूसरे देशों से कूटनीतिक सम्बन्ध रखने पड़ते हैं। आज का युग एक औद्योगिक युग है।

बड़ी-बड़ी मशीनें हर प्रकार सामान उत्पन्न करती हैं, इसलिए सभी देश व्यापार करते हैं, जो वस्तु जिस देश में नहीं है वह दूसरे देश से मंगा ली जाती हैं। अर्थात् आज अनेक कारणों से आधुनिक युग में रहने वाले देशों को परस्पर सम्बन्ध बनाए रखने पड़ते हैं। इसलिए कार्यकारिणी का एक अलग विभाग होता है जिसे विदेश मंत्रालय कहते हैं। यह विदेशों से कूटनीतिक सम्बन्ध रखता है और युद्ध व संधि आदि का उत्तरदायित्व इसी पर होता है।

3. सैनिक कार्य:
कार्यकारिणी का एक महत्वपूर्ण काम देश की रक्षा करना है। इसके लिए उसे थल, जल और वायु सेनाएँ रखनी पड़ती हैं जो हर समय प्रहरी की तरह देश की रक्षा करती हैं। जिस देश के पास अपनी सुरक्षा के लिए सुदृढ़ सेनाएँ तथा आधुनिक अस्त्र-शस्त्र नहीं होते है, वह शक्तिशाली देशों की लालसा की दृष्टि का शिकार बन जाता है।

4. कानून सम्बन्धी कार्य:
कानून विधानमंडल बनाता है और कार्यकारिणी कोई भी कानून स्वयं पास नहीं कर सकती, लेकिन उसके कानून सम्बन्धी अधिकार निम्नलिखित हैं –

(क) विधानमंडल कानून पास करता है, परंतु कौन-से कानून देश के लिए उपयुक्त हैं, और प्रशासन के लिए कौन-कौन से नये कानूनों की आवश्यकता है, इसका निर्णय कार्यकारिणी करती है। यह कानून की रूपरेखा तैयार करके विधानमंडल के सामने रखती है जिसे विधेयक कहते हैं। इसे पास करना या न करना विधानमंडल के हाथों में होता है। प्रायः कार्यकारिणी उसी पार्टी की बनती है जिसे विधानमंडल में बहुमत प्राप्त होता है तथा वह जो बिल विधानमंडल के सामने रखती है, प्रायः पास हो जाता है। इसलिए कानून पास करना या न करना अप्रत्यक्ष रूप से कार्यकारिणी के अधीन ही होता है।

(ख) कार्यपालिका का मुखिया ही विधानमंडल की बैठकें बुलाता है और उन्हें स्थगित करता है। वह विधानमंडल को भंग भी कर सकता है।

(ग) विधानमंडन द्वारा पास किए गए सभी बिल कार्यपालिका के प्रधान के पास ही स्वीकृति के लिए जाते हैं, उसके हस्ताक्षर के बिना कोई भी बिल कानून नहीं बन सकता है।

5. न्याय सम्बन्धी कार्य:
न्याय करना न्यायपालिका का मुख्य कार्य है परंतु कार्यपालिका के पास भी कुछ न्यायिक शक्तियाँ होती हैं। बहुत से देशों में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कार्यपालिका के द्वारा नियुक्त किए जाते हैं। कार्यपालिका के अध्यक्ष के पास अपराधी के दण्ड को क्षमा करने तथा उसे कम करने का भी अधिकार होता है। भारत और अमेरिका में राष्ट्रपति को क्षमादान का अधिकार प्राप्त है। इंग्लैंड में यह शक्ति सम्राट के पास है। राजनीतिक अपराधियों को मुक्तिदान देने का अधिकार भी कई देशों में कार्यपालिका के पास है।

6. वित्तीय शक्तियाँ:
देश के धन पर विधानमंडल का नियंत्रण होता है और विधानमंडल की स्वीकृति के बिना कार्यपालिका ही बजट को तैयार करती है और विधानमंडल में पेश कर सकती है, क्योंकि कार्यपालिका को विधानमंडल में बहुमत का समर्थन प्राप्त है, इसलिए प्रायः बजट पास हो जाता है। नए कर लगाने, कर घटाने तथा कर समाप्त करने के बिल कार्यपालिका ही विधानमंडल में पेश करती है। अध्यक्षात्मक सरकार में कार्यपालिका स्वयं बजट पेश नहीं करती, परंतु बजट कार्यपालिका की देखरेख में ही तैयार किया जाता है। अमेरिका में राष्ट्रपति बजट की देखरेख करता है जबकि भारत में वित्तमंत्री बजट पेश करता है।

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प्रश्न 4.
राष्ट्रपति की कार्यपालिका तथा न्यायिक शक्तियों का विवेचन कीजिए। अथवा, भारत के राष्ट्रपति की न्यायिक शक्तियों का विवेचन कीजिए। अथवा, भारत के राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत का राष्ट्रपति भारतीय गणराज्य का प्रमुख है। वह राज्याध्यक्ष है न कि शासनाध्यक्ष। भारत संविधान ने भारत के राष्ट्रपति को बहुत सी शक्तियाँ प्रदान की हैं। राष्ट्रपति की शान्तिकालीन शक्तियों को निम्नलिखित चार भागों में बाँटा जा सकता है।

कार्यपालिका शक्तियाँ –

1. प्रधानमंत्री तथा मंत्रिपरिषद् के सदस्यों की नियुक्ति:
राष्ट्रपति लोकसभा के आम चुनाव के बाद यह देखता है कि किस राजनैतिक दल को बहुमत प्राप्त हुआ है। उसके पश्चात् वह उस दल के नेता को प्रधानमंत्री नियुक्त कर देता है। उसके पश्चात् वह प्रधानमंत्री की सलाह से मंत्रिपरिषद् के मंत्रियों की नियुक्ति करता है और उनमें विभागों का बँटवारा करता है।

2. अधिकारियों की नियुक्ति करना:
राष्ट्रपति को विभिन्न उच्च अधिकारियों को नियुक्त करने का अधिकार है। वह राज्यों के राज्यपालों, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक तथा भारत के महान्यायवादी की नियुक्ति करता है। संघीय लोकसेवा आयोग के प्रधान एवं अन्य सदस्यों की नियुक्ति वही करता है।

3. सैनिक शक्तियाँ:
राष्ट्रपति भारत की जल, थल तथा वायु तीनों सेनाओं का सर्वोच्च सेनापति होता है। वह तीनों के सेनापतियों की नियुक्ति करता है। वह दूसरे देशों के साथ युद्ध की घोषणा करता है तथा शान्ति के लिए संधि करता है लेकिन इसके लिए उसे संसद की स्वीकृति लेनी पड़ती है।

4. वैदेशिक क्षेत्र से संबंधित शक्तियाँ:
राष्ट्रपति, अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में देश का प्रतिनिधित्व करता है। वह दूसरे देशों के लिए अपने देशों के राजदूतों की नियुक्ति करता है। वह अन्य देशों से आए हुए राजदूतों के प्रमाणपत्र स्वीकार करता है और उन्हें अपने देश में ठहरने की इजाजत देता है।

वैधानिक शक्तियाँ –

1. संसद के गठन के विषय में शक्तियाँ:
राष्ट्रपति को राज्यसभा में उन 12 सदस्यों को मनोनीत करने का अधिकार है जो ज्ञान, साहित्य, कला या समाज सेवा आदि के क्षेत्रों में प्रसिद्ध व्यक्ति होते हैं। वह लोकसभा में दो आंग्ल-भारतीयों को मनोनीत कर सकता है।

2. संसद का अधिवेशन बुलाना व स्थगित करना:
राष्ट्रपति संसद के दोनों सदनों (लोकसभा व राज्यसभा) का अधिवेशन बुलाता है। उसके पास अधिवेशन को स्थगित करने का अधिकार है। यदि किसी विधेयक को पारित करने के विषय में दोनों सदनों में मतभेद हों तो राष्ट्रपति दोनों सदनों की संयुक्त बैठक भी बुला सकता है।

3. लोकसभा को भंग करने की शक्ति:
संविधान के अनुसार भारत के राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान की गई है कि संसद के निचले सदन अर्थात् लोकसभा को उसकी संवैधानिक अवधि पूरी होने से पहले ही भंग कर सकता है। वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग केवल प्रधानमंत्री की सलाह से ही कर सकता है।

4. विधेयक पर स्वीकृति देना:
राष्ट्रपति संसद द्वारा पास किए गए विधेयकों पर हस्ताक्षर करता है तभी वह विधेयक कानून का रूप लेता है। वह साधारण विधेयकों को अपने कुछ सुझावों के साथ संसद के पास फिर से विचार करने के लिए भेज सकता है। यदि संसद उस विधेयक को उसके सुझावों के बिना दोबारा पास कर देती है तो राष्ट्रपति को उस विधेयक पर स्वीकृति देनी ही पड़ती है।

वित्तीय शक्तियाँ:

1. संसद के सामने बजट पेश करना:
राष्ट्रपति प्रति वर्ष आगामी वर्ष के बजट (आय और व्यय के ब्यौरे) को वित्त मंत्री द्वारा संसद में प्रस्तुत करता है। राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से ही धन-संबंधी मांगें संसद से की जा सकती है।

2. धन बिल से संबंधित शक्तियाँ:
कोई भी धन विधेयक राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के बिना लोकसभा में प्रस्तावित नहीं किया जा सकता। जब राष्ट्रपति किसी धन विधेयक को स्वीकृति दे देता है तो वह लोकसभा में पेश किया जा सकता है।

3. आकस्मिक निधि का नियंत्रण:
भारत की आकास्मिक निधि राष्ट्रपति के नियंत्रण में होती है। वह किसी भी आकस्मिक खर्चे के लिए संसद की स्वीकृति से पूर्व ही इस निधि से धन दे देता है।

न्यायिक शक्तियाँ:

1. न्यायाधीशों की नियुक्ति:
राष्ट्रपति सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश.तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है। वह राज्यों के उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों तथा अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति करता है।

2. परामर्श लेने का अधिकार:
राष्ट्रपति को किसी भी कानूनी विषय पर सर्वोच्च न्यायालय से परामर्श लेने का अधिकार है।

3. क्षमादान का अधिकार:
राष्ट्रपति न्यायालयों द्वारा दिए गए मृत्युदंड या किसी अन्य दण्ड को कम या क्षमा करने की शक्ति रखता है।

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प्रश्न 5.
भारत का राष्ट्रपति किन आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग कर सकता है? अथवा, भारत के राष्ट्रपति की आपातकालीन शक्तियाँ कौन-कौन सी हैं?
उत्तर:
भारतीय राष्ट्रपति संविधान के अनुसार राष्ट्र का वैधानिक मुखिया होता है। : संकटकाल के समय राष्ट्रपति को विशेष अधिकार प्राप्त है। वह तीन अवस्थाओं में संकटकाल की घोषणा कर सकता है ये अवस्थाएँ निम्न प्रकार हैं:

1. जब देश पर किसी विदेशी शक्ति का आक्रमण हुआ हो या होने की सम्भावना हो या देश में सशस्त्र विद्रोह फैला हो या इसकी सम्भावना हो:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के अनुसार, भारत के राष्ट्रपति को यह शक्ति प्रदान की गई है कि यदि युद्ध, बाह्य आक्रमण, आन्तरिक अशान्ति के कारण देश के किसी भी भाग या पूरे देश की सुरक्षा खतरे में है, तब राष्ट्रपति आपातकालीन या संकटकालीन स्थिति की घोषणा कर सकता है। देश में ऐसी स्थिति है या नहीं, इसमें राष्ट्रपति का निर्णय अंतिम है और इसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।

राष्ट्रपति यह घोषणा प्रधानमंत्री व मंत्रिमण्डल की सलाह से करता है। आपातकालीन घोषणा दोनों सदनों के समर्थन के बिना केवल दो मास तक रह सकती है। लोकसभा भंग की स्थिति में राज्य सभा की स्वीकृति लेनी होगी। आपातकालीन स्थिति जारी रखने के लिये संसद से हर छ: मास बाद प्रस्ताव पारित कराना होगा। साधारण बहुमत द्वारा पारित प्रस्ताव से इस स्थिति को समाप्त किया जा सकता है।

प्रभाव:

  • संसद सारे भारत या किसी भी भाग के लिए उन विषयों के सम्बन्ध में भी कानून बना सकती है जो राज्य सूची के अन्तर्गत आते हैं।
  • केन्द्रीय सरकार राज्यों की कार्यपालिका को आदेश या निर्देश दे सकती है।
  • इस स्थिति में अनुच्छेद 19 में दी गई स्वतंत्रताएँ स्थगित की जा सकती हैं। इस प्रकार की शक्तियों पर संघ सरकार का पूरा नियंत्रण हो जाता है।

2. राष्ट्रपति को जब यह विश्वास हो जाए कि किसी राज्य में शासन का कार्य संविधान के अनुसार नहीं चल रहा है तो वह संकट काल की घोषणा कर सकता है:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के अनुसार राज्यों में संविधान के असफल होने की दशा में राष्ट्रपति प्रान्तीय आपातकालीन घोषणा कर सकता है। इसके लिए राज्यपाल को सूचना मिलना आवश्यक नहीं। इस घोषणा को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना होगा और दो महीने तक उसकी स्वीकृति न मिलने से यह घोषणा रद्द समझी जाएगी।

लोकसभा भंग की स्थिति में राज्यसभा की स्वीकृति ली जा सकती है, परंतु नई लोकसभा के प्रथम अधिवेशन शुरू होने के एक महीने के अंदर इसकी स्वीकृति लेना आवश्यक है। हर छः महीने बाद संसद से इसकी स्वीकृति लेनी होगी। किसी भी दशा में इस प्रकार की संकटकालीन स्थिति को तीन वर्ष से अधिक जारी नहीं रखा जा सकता।

प्रभाव:

  • राज्य की विधानसभा व मंत्रिपरिषद् को भंग कर दिया जाता है।
  • राज्य का शासन राष्ट्रपति के हाथ में आता है। वह राज्यपाल तथा अन्य अधिकारियों की सहायता से राज्य का शासन चलाता है।
  • राज्य के कानून बनाने व बजट की सभी शक्तियाँ संसद को मिल जाती हैं।
  • उस राज्य के नागरिकों के कुछ स्वतंत्रताओं पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है परंतु उच्च न्यायालय की शक्ति को केन्द्र अपने हाथ में नहीं ले सकता। इस प्रकार उस राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता है।

3. राष्ट्रपति को जब यह विश्वास हो जाए कि देश भर में आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया है तथा सारे देश की या किसी राज्य की स्थिति डावांडोल हो गई है:
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 360 के अनुसार यदि राष्ट्रपति को इस बात का विश्वास हो जाए कि पूरे भारत या इसके किसी भाग में आर्थिक व्यवस्था को खतरा पैदा हो गया है। संसद की स्वीकृति से आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर सकता है। संसद की स्वीकृति के बिना इसकी अवधि दो मास तक है परंतु स्वीकृति के बाद तब तक जारी रहेगी, जब तक राष्ट्रपति इसकी समाप्ति की घोषणा न कर दे।

प्रभाव:

  • धन-बिल राष्ट्रपति की स्वीकृति के बिना पेश नहीं किए जा सकते।
  • वह राज्य की वित्तीय साख को बनाए रखने के लिए आवश्यक आदेश व निर्देश दे सकता है।
  • वह संघ व राज्यों में वित्त के विभाजन में परिवर्तन कर सकता है।
  • संघ, राज्य सरकारों के कर्मचारियों, उच्च तथा उच्चतम न्यायालयों के न्यायाधीशों के वेतनों में कटौती कर सकता है।
  • राज्य संघ के आदेशों या निर्देशों का पालन कर रहा है या नहीं, इसकी जाँच के लिए राष्ट्रपति केन्द्रीय अधिकारियों की नियुक्ति कर सकता है।

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प्रश्न 6.
भारत के राष्ट्रपति की स्थिति का विवेचन कीजिए। अथवा, भारत के राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति क्या है?
उत्तर:
भारतीय राष्ट्रपति राष्ट्र का प्रमुख है और संविधान के अनुसार उसे बहुत व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। वह प्रधानमंत्री व मंत्रिपरिषद के सदस्यों की नियुक्ति करता है। वह देश में बड़े-बड़े अधिकारियों की नियुक्ति करता है। वह जल, स्थल तथा वायु सेना का मुख्य सेनापति होता है। उसके हस्ताक्षर के बिना कोई कानून पास नहीं हो सकता। वह मंत्रियों को अपदस्थ कर सकता है और लोकसभा को भंग कर सकता है । वह संकटकाल की घोषणा करके सारे देश की शक्तियाँ अपने हाथ में ले सकता है और नागरिकों के मौलिक अधिकारों को भी स्थगित कर सकता है।

राष्ट्रपति की इन सारी शक्तियों को देखते हुए यह बात स्पष्ट है कि यदि वह वास्तव में इन सभी शक्तियों का प्रयोग करे तो एक तानाशाह बन सकता है परंतु भारत में संसदीय सरकार की स्थापना की गई है और संसदीय शासन में राष्ट्रपति देश का नाममात्र का प्रमुख होता है। इसकी सभी शक्तियों का प्रयोग उसके नाम से मंत्रिमण्डल ही करता है। वह अपनी शक्तियों व अधिकारों का प्रयोग कुछ ही परिस्थितियों में कर सकता है। भारत के संविधान में राष्ट्रपति की स्थिति को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया गया है।

भारत के राष्ट्रपति की स्थिति –

  1. राष्ट्रपति संवैधानिक अध्यक्ष के नाते काम करता है। राष्ट्रपति की स्थिति भारतीय संविधान के अनुसार ठीक वही है जो इंग्लैण्ड के संविधान में वहाँ के सम्राट या सम्राज्ञी की है। डॉ. अम्बेडकर के शब्दों में, “राष्ट्रपति राज्य का मुखिया होता है परंतु कार्यपालिका का नहीं, वह राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है पर राष्ट्र पर शासन नही करता।
  2. संविधान में यह स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि शासन चलाने के लिए सभी निर्णय प्रधानमंत्री व मंत्रिपरिषद करेंगे और उनको राष्ट्रपति के नाम से लागू किया जाएगा।
  3. राष्ट्रपति स्वयं अपनी मर्जी से लोकसभा को भंग नहीं कर सकता। वह ऐसा केवल प्रधानमंत्री की सलाह से ही कर सकता है।
  4. यदि राष्ट्रपति निरंकुश बनने का प्रयत्न करे या कोई देशद्रोह का काम करे या उसमें चरित्रहीनता आ जाए तो संसद उसे महाभियोग द्वारा हटा भी सकती है।

राष्ट्रपति की वास्तविक स्थिति –

1. राष्ट्रपति सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधि होता है:
राष्ट्रपति पद पर आसीन व्यक्ति से यह आशा की जाती है कि वह अपने को किसी दल विशेष का न समझकर सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधि समझे। ऐसी अवस्था से सरकारी और विरोधी दोनों दलों को वह समान आधार पर रखता है और सम्पूर्ण देश का प्रिय नेता बन जाता है। सभी दल उसका सम्मान करते हैं। वह देश का प्रतीक बन जाता है और असीमित शक्तियाँ प्राप्त होते हुए भी उनसे ऊपर उठकर अपने मंत्रियों के परामर्श पर व्यवहार करता है।

2. वह सरकार को चुनौती व प्रोत्साहन देता है:
यद्यपि वह अपने व्यक्तिगत विचारों से सरकार के कार्यों को प्रभावित नहीं करता क्योंकि मंत्रिमण्डल अपने दल के सिद्धांतों के आधार पर शासन करता है, किन्तु फिर भी कई बार मंत्रिमण्डल दलबंदी में पड़कर देश के स्थान पर अपने दल को अधिक महत्व देने लगता है जिससे आगामी चुनाव के समय उसके दल को विजय प्राप्त हो सके। ऐसी अवस्था में देश का राष्ट्रपति, जो दलबंदी से ऊपर देश के हित सम्बन्ध में ही विचार करेगा, सरकार को चेतावनी दे सकता है। इसी प्रकार वह मंत्रिमण्डल द्वारा किए गए अच्छे कार्यों पर उसे प्रोत्साहित कर सकता है।

निष्कर्ष:
उपरोक्त लिखित बातों से हमें यह नहीं समझना चाहिए कि भारत का राष्ट्रपति केवल एक हस्ताक्षर करने वाली मशीन है। वास्तव में उसका पद महान प्रतिष्ठा, गौरव और गरिमा का पद है। उसे मंत्रिपरिषद् को सलाह देने, उत्साहित करने तथा चेतावनी देने का पूरा अधिकार है। वह किसी भी विषय पर मंत्रिपरिषद् व संसद को अपने सुझाव दे सकता है। प्रधानमंत्री उसे मंत्रिपरिषद के प्रत्येक निर्णय से अवगत कराता है। वह भारत का प्रथम नागरिक है और देश की एकता का प्रतीक है।

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प्रश्न 7.
भारत के उपराष्ट्रपति पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। उसे किस प्रकार अपदस्थ किया जा सकता है?
उत्तर:
भारतीय संविधान राष्ट्रपति के पद के साथ एक उपराष्ट्रपति के पद का भी व्यवस्था करता है। अनुच्छेद 63 में कहा गया कि “भारत का एक उपराष्ट्रपति होगा।” भारतीय संविधान निर्माताओं ने उपराष्ट्रपति के पद की विशेषता अमेरिका के संविधान से ली है। राष्ट्रपति का स्थान किसी भी समय किसी भी कारण से रिक्त हो जाने पर उपराष्ट्रपति उसका कार्यभार सम्भाल लेता है।

योग्यताएँ –

  1. वह भारत का नागरिक हो।
  2. उसकी आयु 35 वर्ष के ऊपर हो।
  3. वह राज्य सभा का सदस्य बनने की योग्यता रखता हो।
  4. वह संसद के किसी सदन का या किसी राज्य के विधानमण्डल का सदस्य न हो। यदि इनमें से किसी का सदस्य हो तो उपराष्ट्रपति निर्वाचित होने के पश्चात् त्यागपात्र दे।

उपराष्ट्रपति का चुनाव:
उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनो सदनों के सदस्य एवं संयुक्त अधिवेशन में करते हैं। यह निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के अनुसार एकल संक्रमणीय प्रणाली द्वारा होता है। उपराष्ट्रपति के निर्वाचन में राज्य विधानमण्डलों के सदस्य भाग नहीं लेते। संसद के दोनों सदनों में बहुमत द्वारा उपराष्ट्रपति को उसके पद से हटाया जा सकता है।

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प्रश्न 8.
उपराष्ट्रपति की शक्तियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  1. राज्यसभा का सभापति-उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन अध्यक्ष होता है। इस नाते वह राज्य सभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है।
  2. राष्ट्रपति की अनुपस्थिति में राष्ट्रपति का कार्यभार सम्भालना-संविधान में यह व्यवस्था है कि जब राष्ट्रपति का पद रिक्त हो तो उपराष्ट्रपति, राष्ट्रपति के पद पर कार्य करेगा और ऐसा करते हुए वह उन सभी शक्तियों, वेतन, भत्ते तथा सुविधाओं व विशेषाधिकारों का प्रयोग करने का अधिकारी होगा जो राष्ट्रपति को मिलते हैं।

यदि उपराष्ट्रपति उस समय राष्ट्रपति के पद पर कार्य करे जबकि वह पद राष्ट्रपति की मृत्यु, त्यागपत्र, महाभियोग द्वारा हटाए या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उसके चुनाव को अवैध घोषित किए जाने के कारण रिक्त हो तो उपराष्ट्रपति अधिक से अधिक 6 महीने तक उस पद पर रह सकता है और इस अवधि में नए राष्ट्रपति का चुनाव हो जाना आवश्यक है। यदि वह उस दशा में जबकि राष्ट्रपति बीमारी या देश से बाहर जाने के कारण अपना कार्य न कर सकता हो, राष्ट्रपति पद पर कार्य करे तो उस समय तक इस पद पर रह सकता है जब तक कि राष्ट्रपति अपना कार्य करने के योग्य नहीं हो जाता।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
राज्यपाल को शपथ ग्रहण करवाता है –
(क) राष्ट्रपति
(ख) प्रधानमंत्री
(ग) सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश
(घ) उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
उत्तर:
(घ) उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश

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प्रश्न 2.
बिहार विधार परिषद में कितने सदस्यों को राज्यपाल मनोनीत कर सकता है?
(क) 1/3 सदस्यों को
(ख) 1/6 सदस्यों को
(ग) 1/12 सदस्यों को
(घ) 1/8 सदस्यों को
उत्तर:
(ख) 1/6 सदस्यों को

प्रश्न 3.
भारत में कार्यपालिका का संवैधानिक प्रधान है –
(क) प्रधानमंत्री
(ख) राष्ट्रपति
(ग) सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
(घ) उपराष्ट्रपति
उत्तर:
(ख) राष्ट्रपति

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन सदन का सदस्य हुए बिना सभापति का कार्य करता है?
(क) भारत का अध्यक्ष
(ख) लोकसभा का अध्यक्ष
(ग) विधान परिषद् का अध्यक्ष
(घ) विधान सभा का अध्यक्ष
उत्तर:
(क) भारत का अध्यक्ष

प्रश्न 5.
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति कौन करते हैं?
(क) सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
(ख) राष्ट्रपति
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) संसद
उत्तर:
(ख) राष्ट्रपति

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प्रश्न 6.
राष्ट्रपति का वेतन प्रत्येक महीना कितना है?
(क) 50,000 रु.
(ख) 1,50,000 रु.
(ग) 1,00,000 रु.
(घ) 90,000 रु.
उत्तर:
(ख) 1,50,000 रु.

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में कौन भारतीय राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेते हैं?
(क) विधान परिषद के सदस्य
(ख) राज्यसभा के मनोनीत सदस्य
(ग) लोकसभा के निर्वाचित सदस्य
(घ) सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश
उत्तर:
(ग) लोकसभा के निर्वाचित सदस्य

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प्रश्न 8.
धन विधेयक संसद में पेश करने से पहले किससे अनुमति लेना आवश्यक है?
(क) वित्त मंत्री से
(ख) प्रधानमंत्री से
(ग) राष्ट्रपति से
(घ) उपराष्ट्रपति से
उत्तरं:
(ग) राष्ट्रपति से

प्रश्न 9.
दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकता है –
(क) राष्ट्रपति
(ख) मंत्रीपरिषद
(ग) प्रधानमंत्री
(घ) उपराष्ट्रपति
उत्तर:
(क) राष्ट्रपति

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प्रश्न 10.
उपराष्ट्रपति राज्यसभा का –
(क) सदस्य होता है
(ख) पदेन सभापति होता है
(ग) सदस्य नहीं होता है
(घ) उपर्युक्त में से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) पदेन सभापति होता है

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 3 पर्यावरण और समाज

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 3 पर्यावरण और समाज Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 3 पर्यावरण और समाज

Bihar Board Class 11 Sociology पर्यावरण और समाज  Additional Important Questions and Answers

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 3 पर्यावरण और समाज

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
पारिस्थितिकी सिर्फ प्राकृतिक तक ही क्यों सीमित नहीं है?
उत्तर:
पारिस्थितिकी एक वृहद् व्यवस्था है। इसके अंतर्गत मानवीय समूह, पशु समूह, पेड़-पौधों तथा पर्यावरण को सम्मिलित किया जाता है। आधुनिक समय में विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी ने वनस्पतियों तथा पर्यावरण के अंत:संबंधों को प्रभावित किया है। अपनी वृहद् व्यवस्था के कारण पारिस्थितिकी प्रकृति की शक्ति के रूप में सीमित नहीं है।

प्रश्न 2.
पर्यावरण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण की परिभाषा-पर्यावरण एक गतिशील संकल्पना है, जिसमें सम्प्राण जैव और निष्प्राण (अजैव) वस्तुओं के साथ किसी जीव के संबंध भी शामिल होते हैं। जैव पर्यावरण में पेड़-पौधे, जीव-जंतु सम्मिलित हैं। अजैव पर्यावरण में भूमि जल, वायु अपने विविध भौतिक तत्वों के साथ शमिल हैं।

पर्यावरण की उपर्युक्त परिभाषा को सरल शब्दों में समझने/समझाने के लिए कहा जा सकता है कि पर्यावरण शब्द से तात्पर्य हमारे इर्द-गिर्द मौजूद सभी तत्वों, प्रक्रियाओं और दशाओं तथा उनके अंत:संबंधों से है। पर्यावरण को हमारे चारों ओर पाई जानेवाली तथा एक-दूसरे को प्रभावित करने वाली सभी सप्राण और निष्प्राण वस्तुओं के कुल योग के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 3 पर्यावरण और समाज

प्रश्न 3.
आजकल प्राकृतिक संसाधन तेजी से क्यों घट रहे हैं?
उत्तर:
अतीत में संसाधनों की कमी की कोई समस्या नहीं थी। लेकिन हाल के वर्षों में जनसंख्या विस्फोट के कारण प्राकृतिक संसाधनों के हमारे उपभोग की दर में वृद्धि हुई है तथा वह प्रकृति द्वारा सृजन या पुनर्सजन दर से अधिक हो गई है। मानव शहरीकरण तथा हर क्षेत्र में विकास (उद्योग-धंधों, यातायात) कर रहा है। अतः प्राकृतिक संसाधनों के भंडार बड़ी तेजी से घट रहे हैं।

प्रश्न 4.
विगत वर्षों में पर्यावरण प्रदूषण के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
विगत वर्षों में औद्योगिक प्रगति के साथ पर्यावरण प्रदूषण में वृद्धि हुई है। वायुमंडल में कार्बन डाइ-ऑक्साइड की 25% वृद्धि हो गई। वायुमंडल में ओजोन की 3% कमी हो गई है, जिसमें पराबैंगनी विकिरण से त्वचा का कैंसर होने का भय है। 1952 में लंदन में घूम कुहरे से दम घुटने से 4000 व्यक्ति मरे । इसी तरह 1984 ई. में भोपाल गैस कांड से भी हजारों लोग जहरीली गैस से दम घुटने से मरे तथा लाखों आज भी आँखों तथा अन्य बीमारियों से तड़प रहे हैं।

प्रश्न 5.
जल प्रदूषण के उदाहरण कीजिए।
उत्तर:
प्रदूषित वायु (धुआँ, धूल से युक्त) से होकर जब वर्षा होती है तो उसके साथ ही कई तरह के जहरीले तत्व जलाशयों, नदियों और महासागरों में चले जाते हैं।

प्रश्न 6.
“मानव को पर्यावरण का उपयोग बहुत समझदारी से करना चाहिए। अन्यथा बहुत हानिकारक परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं।” इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य को अपने पर्यावरण का प्रयोग बड़ी समझदारी से करना चाहिए। पर्यावरण हमारे जीवन के लिए अनिवार्य तत्व है। यदि हम सावधानी से पर्यावरण का उपयोग नहीं करेंगे तो उसका सीधा प्रभाव हमारी आजीविका तथा उसके साधनों पर पड़ेगा। जल प्रदूषण से हमें साफ पानी नहीं मिल पाएगा। इस कारण जल की सफाई में हमें पूरा ध्यान देना चाहिए।

इस प्रकार हमें अपने चारों ओर के वातावरण को स्वच्छ रखने के लिए प्रयास करने चाहिए। सफाई न होने से पर्यावरण दूषित होता है और हमारे जन-जीवन पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। अतः हमें बड़ी सावधनी तथा समझदारी से अपने पर्यावरण का उपयोग करना चाहिए।

प्रश्न 7.
पारिस्थितिकी से आपका क्या अभिप्राय हैं? अपने शब्दों में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
पारिस्थितिक समाजशास्त्र के क्षेत्र में समुदायों तथा पर्यावरण के मध्य संबंधों का अध्ययन है। पर्यावरण से अनुकूलन को ही पारिस्थितिकी कहते हैं। इस प्रकार परिस्थितिकी अवधारणा के अंतर्गत पृथ्वी पर मानव के संपूर्ण जीवन के ताने-बाने का अध्ययन किया जाता है।

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प्रश्न 8.
सामाजिक परिस्थिति की से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सामाजिक पारिस्थितिकी के अंतर्गत किसी क्षेत्र विशेष के भोतिक, जैविक तथा सांस्कृतिक लक्षणों के अंत: संबंधों का अध्ययन किया जाता है। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि सामाजिक पारिस्थितिकी जीवित वस्तुओं जैसे-व्यक्ति, पेड़-पौधे तथा पशु एवं वातावरण के मध्य संबंधों का अध्ययन है। सामाजिक पारिस्थितिकी का संबंध ग्रामीण तथा नगरीय समाजों के संदर्भ में उनके पर्यावरण के साथ सामंजस्य से है।

प्रश्न 9.
नगरीय परिस्थितिकी का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र की जिस शाखा द्वारा नगरों, व्यक्तियों तथा पर्यावरण के संबंधों का अध्ययन किया जाता है, उसे नगरीय पारिस्थितिकी कहते हैं।

प्रश्न 10.
नगरवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किसने किया? नगरवाद के विषय में संक्षेप में बताइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री लुईस बर्थ ने 1928 में अपने निबंध अर्बनिज्म इज ए वे ऑफ लाइफ में नगरवाद के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। नगरवाद के संरचनात्मक तत्व हैं –

  • दीर्घ आकार
  • जनसंख्या का उच्च घनत्व तथा
  • विजातीयता नगरीय जीवन में द्वितीयक तथा तृतीयक संबंधों की प्रधानता होती है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
पर्यावरण की गुणवत्ता लोगों को किस प्रकार प्रभावित करती है?
उत्तर:
प्राकृतिक एवं मानव-निर्मित पर्यावरण से जुड़ा अन्य महत्वपूर्ण पक्ष पर्यावरण की गुणवत्ता का है। इस मामले में भी प्राकृतिक अपने महत्वपूर्ण घटकों, जैसे वायु, जल आदि को स्वच्छ करने में समर्थ है। इस क्षमता की सहायता से प्राकृतिक वायु, जल आदि की न्यूनतम मौलिक गुणवत्ता को बनाए रख सकती है, जो सभी जीवों के जीवन तथा स्वस्थ विकास के लिए आवश्यक है। वायु-हमने कई बार अनुभव किया है, जब कारखानों की चिमनियों से निकलने वाले धुएँ और मोटर वाहनों की निकास नलियों से निकलने वाले धुएँ से वायु की गुणवत्ता घट जाती है

यानि अगर वायु प्रदूषित हो जाती है तब हम सांस लेने में परेशानी होने लगती हैं यदि वायु की गुणवत्ता में बहुत अधिक अंतर होता है तो विभिन्न बीमारियाँ फैलने लगती हैं। पेड़-पौधे और अन्य प्राणी भी वायु की गुणवत्ता में हुए ह्रास से प्रभावित होते हैं।

जल-पानी के मामले में यही बात लागू होती है। मनुष्य सहित अन्य सभी प्राणियों को जीवित रहने के लिए पानी में न्यूनतम मौलिक गुणवत्ता होनी चाहिए। हम सभी यह सुनते हैं कि खराब (प्रदूषित) पानी पीने के कारण लोगों को उलटी दस्त और पीलिया जैसी बीमारियाँ हो जाती है। पानी की गुणवत्ता में ह्रास के कारण अन्य प्राणियों का जीवन और वृद्धि भी दुष्प्रभावित होती है। ध्वनि-मानव स्वभाव से शांतिप्रिय है। जोर-जोर की ध्वनि या शोर कानों को अच्छा नहीं लगता। हमारे मन की शांति भंग करता है। वृद्धों तथा बीमारों के आराम में बाधा डालता है।

प्रश्न 2.
सामाजिक परिस्थितिकी से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सामाजिक परिस्थितिकी का अर्थ-सामाजिक पारिस्थितिकी के अंतर्गत किसी क्षेत्र विशेष के भौतिक, जैविक तथा सांस्कृतिक लक्षणों के अंत:संबंधों की विषय-वस्तु का अध्ययन किया जाता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री ऑम्बर्न तथा निमकॉफ ने सामाजिक पारिस्थितिकी को समुदायों तथा पर्चावरण का संबंध बताया है। क्यूबर के अनुसार, “सामाजिक पारिस्थितिकी एक समुदाय में मनुष्यों एवं मानवीय संस्थाओं के प्रतीकात्मक संबंधों एवं उनसे उत्पन्न क्षेत्रीय प्रतिमानों का अध्ययन है।”

अतः हम कह सकते हैं कि सामाजिक पारिस्थितिकी मानव के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन अथवा क्षेत्रीय पारिस्थितिकी के विशेष संदर्भ में वैज्ञानिक तथा वस्तुगत अध्ययन करता है।

मानव द्वारा पर्यावरण की दशाओं में सामंजस्य है –

  • मानव द्वारा भौगोलिक तथा संस्कृतिक दशाओं से अनुकूलन किया जाता है।
  • मानव अपनी आवश्यकतानुसार पर्यावरण को नियंत्रित करने का प्रयास करता है।
  • मनुष्य विभिन्न प्रकार की पारिस्थितिकी स्थितियों, जैसे सम व विषम जलवायु, रेगिस्तान अथवा भारी वर्षा वाले क्षेत्र आदि में अपने जीवन को सुविधापूर्वक बनाने का प्रयास करते हैं।
  • मानव ने आधुनिक प्रौद्योगिक की सहायता से प्रकृति को नियंत्रित करने का प्रयास किया है।
  • इस प्रकार सामाजिक पारिस्थितिकी पर्यावरण से सामंजस्य के संदर्भ में ग्रामीण तथा नगरीय समाजों से संबंधित है।

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प्रश्न 3.
पर्यावरण से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
पर्यावरण का तात्पर्य – पर्यावरण का तात्पर्य प्राणी के अतिरिक्त जो कुछ भी उसके चारों ओर है, वह उसका पर्यावरण है। रॉस के अनुसार, “कोई भी बाह्य शक्ति जो हमें प्रभावित करती है, पर्यावरण होती है।” मेकाइवर के अनुसार, “संपूर्ण पर्यावरण से हमारा तात्पर्य उस सब कुछ से है जिसका अनुभव सामाजिक मनुष्य करता है, जिसका निर्माण करने में व्यक्ति सक्रिय रहता है तथा उससे स्वयं भी प्रभावित होता है।”

पर्यावरण एक जटिल प्रघटना है। वास्तव में वे सब परिस्थितियाँ जो मनुष्य को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करती हैं, पर्यावरण कही जाती हैं। मेकाइवर ने कहा है कि “यह (पर्यावरण) प्राणी के पूर्णरूपेण अपृथकनीय है, जिस प्रकार (पर्यावरणरूपी) तना, जिसमें प्राणीरूपी बना डाल दिया गया हो, समाज के सजीव वस्त्र बनता है।”

पर्यावरण के स्वरूप :

अनुकूल पर्यावरण – पर्यावरण का वही स्वरूप प्राणी के विकास में सहायता पहुँचाता है। इससे प्राणी का विकास होता है।
प्रतिकूल पर्यावरण – पर्यावरण का यह स्वरूप प्राणी के विकास में बाधक होता है लेकिन पर्यावरण का एक स्वरूप किसी प्राणी के लिए लाभदायक तथा किसी दूसरे प्राणी के लिए हानिकारक भी हो सकता है।

पर्यावरण का वर्गीकरण – विभिन्न विद्वानों ने पर्यावरण के विभिन्न वर्गीकरण को निम्नलिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है –
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प्रश्न 4.
पर्यावरण का संरक्षण क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
पर्यावरण संरक्षण की आवश्यकता –
(i) हम अपने जीवित रहने और विकास के लिए सभी संसाधन अपने आस-पास के पर्यावरण, विशेष रूप से प्राकृतिक पर्यावरण से ही प्राप्त करते हैं। स्वच्छ जल, शुद्ध वायु और पौष्टिक भोजन हमारी मूलभूत आवश्यकताएँ हैं। इसके बिना हम जीवित नहीं रह सकते तथा स्वस्थ एवं प्रसन्न जीवनयापन तो कर ही नहीं सकते।

(ii) जनसंख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ जीवित रहने और विकास के लिए आवश्यक प्रकृतिक संसाधनों की मांग में भारी वृद्धि हो रही है। लेकिन सच्चाई यह है कि प्राकृतिक संसाधनों के भंडार असीमित या अक्षय नहीं हैं। यदि हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग अविवेकपूर्ण ढंग से और इतनी तेज गति से करते जाएंगे तो हमारी भावी पीढ़ियों के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं बचेंगे। अतः हमें न तो पीने के लिए पानी मिलेगा, न खाने के लिए भोजन और न ही प्रतिदिन काम आने वाली वस्तुएँ मिलेंगी। इस प्रकार हमारा जीवित रहना असंभव हो जाएगा और हम मानवों के साथ अन्य प्राणियों का अस्तित्व भी पृथ्वी के धरातल से मिट जाएगा।

(iii) पर्यावरण के संरक्षा के लिए दूसरा भी कारण है और वह है उत्तम कोटि के प्राकृतिक संसाधनों की हमारी आवश्यकता। जैसे कि हम जानते हैं, हमें जीवित रहने और विकास के लिए वायु, जल, मृदा आदि प्राकृतिक संसाधनों की एक न्यूनतम मौलिक गुणवत्ता की आवश्यकता होती है।

(iv) घटते हुए पर्यावरण (वनों की कटाई, कृषि योग्य भूमि की कमी आदि) के कारण मृदा के अपरदन और मृदा की ऊपरी परत के बहने पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है और भूजल का पुनर्भरन दिन-प्रतिदिन कम होता जा रहा है। वर्षा के जल के साथ मिट्टी के कट-कटकर बहते जाने से हमारी प्रमुख नदियों में गाद जमा होने की समस्या निरंतर गंभीर होती जा रही है। इन सबका परिणाम है कि अभूतपूर्व पैमानों पर बाढ़े आ रही हैं। सिंचाई और घरेलू उपयोग के लिए जल की उपलब्धता घटती जा रही है और मृदा ह्रास होने से कृषि की उत्पादकता में कमी आ रही है।

प्रश्न 5.
उस दोहरी प्रक्रिया का वर्णन करें जिसके कारण सामाजिक पर्यावरण का उद्भव होता है।
उत्तर:
जनसंख्या संरचना – जनसंख्या संरचना सामाजिक पर्यावरण के अभ्युदय में प्रक्रिया के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। जनसंख्या का घनत्व, जनसंख्या का क्षेत्रीय वितरण, जनसंख्या के घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक, जनसंख्या का विकास, जनसंख्या नियोजन आदि से सामाजिक पर्यावरण का निर्माण होता है।

निवास स्थल का स्वरूप – सामाजिक पर्यावरण के अभ्युदय में निवास स्थल की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। जीवन में व्यक्ति अपना समय अपने निवास स्थल में ही व्यतीत करता है। अतः निवास स्थल और उसके निकट के पर्यावरण स्वच्छ होना चाहिए।

प्रश्न 6.
वायु प्रदूषण की हानियों का वर्णन करों।
उत्तर:
जीवाश्म ईंधनों के जलने के कारण वायु का प्रदूषण होता है। इसके अतिरिक्त कारखानों की गैसों से भी वायु का प्रदूषण होता रहता है। इसकी मुख्य हानियाँ निम्नलिखित हैं –

(i) वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड गैस की वृद्धि हो रही है। इस वृद्धि के कारण तापमान बढ़ रहा है। यदि तापमान इसी गति से बढ़ता रहा तो एक समय ऐसा आएगा जब ध्रुवों पर बर्फ की चादर पिघल जाएगी और समुद्र के पानी की सतह एक मीटर ऊपर हो जाएगी। फलस्वरूप समुद्र के तटीय प्रदेश पानी में डूब जाएँगे।

(ii) वायुमंडल में तरह-तरह की गैसों तथा कारखानों का कचरा सम्मिलित हो रहा है। कई बार इससे हजारों की संख्या में लोगों की मृत्यु हुई है। 1952 में लंदन में धूलकुहरे के कारण 4000 लोगों की मृत्यु हुई। भोपाल गैस कांड भी इसी प्रकार के प्रदूषण का ही परिणाम था।

(iii) ओजोन परत में 3% से 4% की कमी हुई है। यही वह परत है जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों को धरती पर आने से रोकती है। पराबैंगनी किरणें कैंसर का कारण हैं।

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प्रश्न 7.
पर्यावरण की समस्याएँ सामाजिक समस्याएँ भी हैं। कैसे? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण समस्याएँ ही सामाजिक समस्याओं की जन्मदाता हैं। पर्यावरणीय समस्याएँ समाज में पाए जाने वाले विभिन्न समूहों की सामाजिक असमानता को भी प्रभावित करती हैं। सामाजिक स्थिति और शक्ति भी पर्यावरणीय समस्या को हल करने और अन्य के लिए समस्या बन जाने के कारण भी बनती है। इसका एक उदाहरण देखें कच्छ (गुजरात) में जहाँ पानी की स्थिति दयनीय है, कुछ धनी किसानों ने बहुत साधन व्यय करके गहरे बोरिंग कर लिए और अच्छी नकदी फसलों को प्राप्त की।

दूसरी ओर वर्षा नहीं हुई, गाँवों के कुएँ सूख गए, सूखा पड़ गया, लोगों को पीने के लिए भी पानी नसीब न हुआ। एक ओर हरे-भरे खेत वाले धनी किसान थे। दूसरी ओर अत्यन्त दयनीय दशा में प्रकृति पर निर्भर किसान। यहाँ सामाजिक असमानता की समस्या और अधिक बढ़ गई। इसका कारण रहा पर्यावरणीय दृष्टि से जल प्रबंधन का न होना। स्पष्ट है कि पर्यावरणीय समस्याएँ सामाजिक समस्याओंकी सहभागिता होती हैं।

प्रश्न 8.
सामाजिक संस्थाएँ कैसे तथा किस प्रकार से पर्यावरण तथा समाज आपसी रिश्तों को आकार देती हैं?
उत्तर:
सामाजिक संगठन का संबंध समाज के विभिन्न पहलुओं; जैसे समूहों, समुदायों तथा सामूहिकता की अंत:निर्भरता से है। पर्यावरण और समाज में भी यही समूह, समुदाय तथा सामूहिकता की अंत:निर्भरता अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। समाज का निर्माण भी इन्हीं से होता है। यदि समाज में समूह, समुदाय व एक दूसरे के प्रति निर्भरता न हो तो समाज का अर्थ ही समाप्त हो जाए।

यदि काल-कारखानों के लिए समाज से मानवीय संसाधन प्राप्त न हों तो उत्पादन कार्य ठप्प हो जाए और समाज का औद्योगिक पर्यावरण निर्मित न हो। इस उदाहरण से स्पष्ट है कि सामाजिक संगठन ही पर्यावरण और समाज के बीच संबंधों का रूप लेता है।

प्रश्न 9.
संसाधनों की क्षीणता से संबंधित पर्यावरण के प्रमुख मुद्दे कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
प्रयुक्त किए जाने वाले अनवीनीकृत प्राकृतिक संसाधन एवं गंभीर पर्यावरण समस्या है। जैसे प्राकृतिक गैस, कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ इनका एक बार दोहन हो जाने के पश्चात् ये पुनरुत्पादित नहीं होते। इसी प्रकार मृदा क्षरण तथा जल क्षरण भी गंभीर पर्यावरणीय समस्या है। संपूर्ण भारत में भूमिगत जल का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश में इसकी स्थिति गंभीर है। ऐसी ही स्थिति रही तो कृषि और जरूरी कार्यों के लिए पानी का मिलना कठिन हो जाएगा।

इसी प्रकार वन, घास भूमियाँ आदि संसाधन क्षरण के शिकार हो रहे हैं। वन भूमि को कृषि भूमि के रूप में बदला जा रहा है। इस प्रकार स्पष्ट है कि पर्यावरण से जुड़ी सभी समस्याएँ संसाधनों के क्षरण से उत्पन्न हुई हैं।

प्रश्न 10.
पर्यावरण व्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण तथा जटिल कार्य क्यों है?
उत्तर:
पर्यावरण प्रबंधन वह विज्ञान है, जो पर्यावरण के प्रभावशाली, उचित एवं कुशल प्रबंधन को व्यापार करता है। यदि मानव समाज को अंतिम तबाही से बचाता है तो इस विज्ञान को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए। पर्यावरण प्रबंधन का अर्थ है कि अच्छी तरह से विचार किया गया या हमारे प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण प्रयोग हो।

इस विज्ञान का अभिप्राय यह नहीं कि आर्थिक वृद्धि को रोका या कम किया जाए या मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग ही न करे, बल्कि यह अनुभव कराता है कि विकास तथा आवश्यकताओं में एक संतुलन बनाया जाए, जो कि हमें स्थायी वृद्धि की ओर ले जाए एवं किसी भी तरह से पर्यावरण को हानि न पहुँचाए।

एक एकीकृत विचार से पर्यावरण प्रबंधन भविष्य को एक महत्वपूर्ण उद्देश्य की तरह से सुनियोजित करता है। पर्यावरणविद् किसी विशिष्ट क्षेत्र में रहने वाले मनुष्यों की आवश्यकताओं का अध्ययन है और प्राकृतिक संसाधनों के लिए उनकी आवश्यकताओं को तार्किक बनाने का प्रयत्न करते हैं।

सर्वाधिक महत्व क्षेत्रीय पर्यावरण संरक्षण को दिया जाता है। संसाधनों की प्रभावशाली योजना एवं उचित प्रबंधन दुरुपयोग को रोक सकता है। नष्ट हुए प्राकृतिक संसाधनों को पुनः उत्पादन बहुत कठिन है। पर्यावरण प्रबंधन समाज के लिए एक जटिल एवं बड़ा कार्य है। इसके लिए समाज में जागरुकता की कमी है।

जैसे हम जानते हैं कि पीने योग्य पानी बहुत उपयोगी वस्तु है फिर भी इसका कारों को धोने में, फर्श धोने में, पशुओं को नहलने में या पौधों को सींचने में प्रयोग किया जाता है। जनजागृति का अभियान बड़े स्तर पर पानी के गलत प्रयोग को रोकने के लिए किया जा रहा है, पर उसका असर कम ही दिखाई देता है। स्पष्ट है कि पर्यावरण प्रबंधन समाज के लिए एक जटिल व वृहद कार्य है।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक पारिस्थितिकी के विभिन्न पहलुओं का वर्णन कीजिए। अथवा, सामाजिक पारिस्थितिकी के चार पहलुओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
ऑग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार, सामाजिक पारिस्थितिकी समुदायों तथा पर्यावरण के संबंधों का अध्ययन है। इसके अंतर्गत व्यक्ति अपना अनुकूलन एक ओर तो भौगोलिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण के अनुसार करता है तथा दूसरी ओर वह अपनी जरूरतों के अनुसार पर्यावरण को नियंत्रित करने का प्रयास करता रहता है। सामाजिक पारिस्थितिकी के अंतर्गत ग्रामीण तथा नगरीय समाज पर्यावरण के साथ सामंजस्य करते हुए लगातार विकास की दिशा में अग्रसर हो रहे हैं।

सामाजिक पारिस्थितिकी के चार पहलू निम्नलिखित हैं –

  • जनसंख्यार
  • पर्यावरण
  • प्रौद्योगिकी तथा
  • सामाजिक संगठन

1. जनसंख्या – जनसंख्या तथा पर्यावरण के बीच पारस्पिरिक संबंध पाया जाता है। जनसंख्या के बढ़ने अथवा घटने से इन संबंधों पर प्रभाव पड़ता है।

2. पर्यावरण – पर्यावरण तथा पर्यावरण की दशाओं का जनसंख्या पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। इससे जनसंख्या का स्वरूप प्रभावित होता है। जिन क्षेत्रों में मानव जीवन की अनुकूल दशाएँ होती है वहाँ जनसंख्या का घनत्व भी अधिक पाया जाता है। ब्रन्हस के अनुसार, “साइबेरिया के टुंड्रा, सहारा के हमादा अथवा आमेजन के जंगलों में मनुष्य लगभग शून्य हैं।” पर्यावरण के अनेक पक्ष; जैसे-भौगोलिक पर्यावरण, सांस्कृतिक पर्यावरण तथा सामाजिक पर्यावरण आदि भी जनसंख्या पर प्रभाव डालते हैं।

ब्लैश के अनुसार, “खाद्यान्न पूर्ति मनुष्य तथा उसके पर्यावरण के बीच निकटतम कड़ी है।” इस संबंध में हटिंग्टन ने उचित की कहा है कि “प्रत्येक कारक के प्रति मानव प्रतिक्रिया धस स्थिति के अनुसार बदलती रहती है जो सभ्यता द्वारा प्राप्त की जाती है।” हंटिग्टन ने जलवायु संबंधी पर्यावरणीय दशाओं के विषय में लिखा है कि “स्वास्थ्य तथा शक्ति को नियंत्रित करने में वायु में नमी की मात्रा महत्वपूर्ण कारकों में से एक है।” रॉस ने कहा है कि “इसलिए यह मध्यस्थ जलवायु में होता है कि ऐसे लक्षण पनपते हैं, जैसे-शक्ति, आकांक्षा, आत्मविश्वास, परिणाम मितव्ययता।”

3. प्रौद्योगिकी – प्रौद्योगिकी का विकास मनुष्य के विकास का संकेत है। प्रौद्योगिकी रूपी माध्यम के द्वारा ही पर्यावरण से अनुकूलन सुगमतापूर्वक किया जा सकता है। प्रौद्योगिकी द्वारा सामाजिक संगठन के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित किया जाता है। आग्बर्न के अनुसार, ‘प्रौद्योगिकी समाज को हमारे पर्यावरण के परिवर्तन द्वारा जिसके प्रति हमें अनुकूलित होना पड़ता है, परिवर्तित होता है।

यह परिवर्तन प्रायः भौतिक पर्यावरण में आता है तथा हम इन परिवर्तनों के साथ जो अनुकूलन करते हैं उसमें प्रथाओं तथा सामाजिक प्रथाओं में परिवर्तन होता है।” प्रौद्योगिकी ने हमारे परिवारिक, आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक पर्यावरण को निश्चत रूप से न केवल प्रभावित किया है वरन् नए आयाम भी प्रस्तुत किए हैं।

4. सामाजिक संगठन-विश्व में अनेक प्रकार के समाज पाए जाते हैं :
(a) शिकार व भोजन एकत्रित करने वाला जनजाति समाज – हमारे देश में अनेक आदिवासी समाज शिकार तथा भोजन एकत्रित करते हैं। इनमें आन्ध्र प्रदेश कञ्चु, छत्तीसगढ़ के कोडकु, केरल के कादर, लघु अंडमान के ओंगे तथा झारखंड के बिरहोर आदि प्रमुख हैं। ऐसे जनजाति समाजों में प्रायः पुरुष शिकार करते हैं तथा शत्रुओं से युद्ध करते हैं जबकि स्त्रियाँ पारिवारिक कार्य करती है।

(b) चरवाहा समाज – चरवाहा समुदाय के लोगों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन होता है। खानाबदोश तथा अर्ध-खानाबदोश जीवन उनकी प्रमुख विशेषता होती है। सिक्किम प्रदेश की भोटिया जनजाति चरवाहा समुदाय का उपयुक्त उदाहरण है।

(c) कृषि (कृषक) समाज – कृषि समाजों का प्रमुख व्यवसाय कृषि होता है तथा ये स्थायी रूप से गाँवों में रहते हैं। इस समाज के लोगों ने प्रौद्योगिकी विकास की ओर ध्यान दिया है। इनके द्वारा शिल्पकला तथा कुटीर उद्योगों की ओर विशेष ध्यान दिया जा रहा है।

(d) नगरीय औद्योगिक समाज – अब कृषि-प्रधान समाज नगरीय औद्योगिक समाजों में परिवर्तित होते जा रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों से जनसंख्या का नगरीय क्षेत्रों में पलायान हो रहा है। इससे नगरों में सामाजिक तथा आर्थिक संगठन में भी तेजी से परिवर्तन आ रहे हैं। उद्योगों का तेजी से विकास हो रहा है। तीव्र औद्योगीकरण तथा जनसंख्या के बढ़ते हुए दबाव के कारण अनेक पर्यावरण संबंधी समस्याएँ भी उत्पन्न हो रही हैं।

प्रश्न 2.
पर्यावरण किसे कहते हैं? पर्यावरण प्रदूषण की परिभाषा लिखिए।
उत्तर:
वायुमंडल, स्थलमंडल और जलमंडल मिलकर पर्यावरण की रचना करते हैं। पृथ्वी पर जीवन के अस्तित्व में इन तीनों परिमंडलों की एक विशेष एवं महत्वपूर्ण भूमिका रहती है। स्थलमंडल, जलमंडल और वायुमंडल के बीच में स्थित पेड़-पौधों तथा मनुष्य के लिए विशेष महत्वपूर्ण है, इसको जैवमंडल कहा जाता है। जीवन पूर्णरूपेण इसी पट्टी में विद्यमान है। पर्यावरण के तीन प्रमुख तत्वों भूमि, जल और वायु में पदार्थों के स्थानांतरण के कारण जैवमंडल में विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु तथा पेड़-पौधे पाए जाते हैं।

पेड़-पौधे तथा जीव – जंतु अपने पोषण के लिए स्थलमंडल से पोषक तत्व प्राप्त करते हैं। वायुमंडल द्वारा इनको ऑक्सीजन, कॉर्बन डाइऑक्साइड तथा सौर ऊर्जा प्राप्त होती है, जो इनको बढ़ने, फलने-फूलने के लिए अत्यावश्यक है। जीव-जंतुओं और वनस्पति के सड़ने-गलने पर इनमें विघटन होता है। यह विघटन सूक्ष्म जीवाणुओं जैसे वैक्टीरिया द्वारा होता है। इस प्रकार मृदा के पोषक तत्व फिर मिल जाते हैं। मृदा स्थलमंडल का बहुत ही महत्वपूर्ण तत्व है। प्रवाहित जल द्वारा कुछ पोषक तत्व घोल लिए जाते हैं और वह इनको घोल के रूप में जलशयों में पहुँचा देता है।

ये तीनों परिमंडल मिलकर ही हर समय मिलकर कार्य करते रहते हैं। सौर ऊर्जा के कारण जलमंडल में वाष्पीकरण होता है। वाष्प वायुमंडल में पहुँच कर संघनन प्रक्रिया को जन्म देती है। इससे वायुमंडल आर्द्रता बढ़ जाती है। वायुमंडल की आर्द्रता वर्षण के रूप में स्थलमंडल पर पहुँच जाती है और जल परिसंचरण का चक्र पूरा हो जाता है। जैवमंडल के जीव (पेड़-पौधे तथा जीव-जंतु) जल परिसंचरण प्रक्रिया द्वारा जल प्राप्त करते हैं।

जल ही जीवन है। इसी कारण जैवमंडल में जीवों का अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार हमारा पर्यावरण समग्र रूप में कार्य करता है। इस समग्रता को हमें संपूर्णता में देखना चाहिए। एक तत्व की अनुपस्थिति में दूसरे तत्व का कोई महत्व या अस्तित्व नहीं होता।

पर्यावरण प्रदूषण के कारण समस्त मानव जाति त्रस्त है। औद्योगिक एवं विकासशील राष्ट्र विशेष रूप से पीड़ित हैं। इस समस्या के समाधन हेतु आज भी सभी राष्ट्रों की सरकारें एवं विद्वान पर्यावरण प्रदूषण पर नियंत्रण के लिए प्रत्यनशील हैं। यदि समय रहते हुए पर्यावरण प्रदूषण के प्रसार पर नियंत्रण एवं सफलता नहीं पायी, तो यह समस्या मानव जाति का जीवित रहना दूभर कर देंगी। 2 दिसम्बर, 1984 को भारत में भोपाल गैस दुर्घटना के दुष्परिणामों से कौन सजग व्यक्ति अवगत नहीं है।

द्वितीय महायुद्ध के अंतिम चरणों में अमेरिका द्वारा जापान के नागासाकी तथा हिरोशिमा नगरों पर अणुबमों के प्रयोग के कुपरिणामों को वहाँ के जापानी लोग आज भी भोग रहे हैं।

परिभाषा – पर्यावरण प्रदूषण को परिभाषित करने का प्रयत्न अनेक विद्वानों ने किया है। रॉथम हैरी ने अपनी पुस्तक A study of Pollution in Industrial Societies में पर्यावरण प्रदूषण के विषय में लिखते हुए उल्लेख किया है-“पर्यावरण प्रदूषण, जो मानवीय समस्याओं को प्रगति के ताने-बाने तक पहुँचाता है, स्वयंसेवी सामान्य संकट का प्रमुख अंग है । यदि सभ्यता को लौटाकर बर्बर सभ्यता तक नहीं लाना है तो उस पर विजय प्राप्त करना अत्यावश्यक है।”

दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है, कि पर्यावरण प्रदूषण की समस्या वस्तुतः विज्ञान की देना है, बड़े उद्योगों की समृद्धि का बोनस है, मानव को मृत्यु के मुँह में धकेलने के अनचाही चेष्टा है, बीमारियों को बिना माँगे शरीर में प्रवेश की सुविधा है, प्राणिमात्र के अमंगल की अप्रत्यक्ष कामना है, प्रदूषण प्रौद्योगिकी की प्रगति का नहीं, अपितु उसके दुर्गति का कारण है। नि:संदेह पर्यावरण प्रदूषण एक गंभीर समस्या है।

आज हम सभी वायु, जल, मिट्टी, विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों इत्यादि में शुद्धता को अभाव पाते हैं। मानवीय जीव प्रदूषण से दिन-प्रतिदिन अधिकाधिक प्रभावित होता जा रहा है। जनसंख्या वृद्धि के कारण परिवहन के साधनों पर अत्यधिक दबाव, अंधाधुंध नगशीकरण, औद्योगीकरण, यंत्रीकरण कृषि, अत्यधिक वृक्ष कटाव इत्यादि के कारण वातावरण में प्रदूषण व्याप्त होता जा रहा है। आज पर्यावरण प्रदूषण की समस्या एक-दो या कुछ राष्ट्रों तक ही सीमित नहीं रह गई है, वरन् यह विश्वव्यापी समस्या बन गई है।

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प्रश्न 3.
पर्यावरण प्रदूषण के प्रमुख कारणों पर प्रकाश डालते हुए पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव लिखिए।
उत्तर:
पर्यावरण प्रदूषण के अधोलिखित कारण हैं –

  • पर्यावरण प्रदूषण का स्वयं उत्पन्न होना। ऐसे कारण या कारक होते हैं जिन पर मानव का अपना कोई नियंत्रण नहीं होता है। यदि मानव का इन पर कोई नियंत्रण होता भी तो वह भी बहुत कम।
  • मानव – जन्य बहिःस्राव जैसे मूल-मूत्र इत्यादि से पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न करते हैं।
  • कृषि कार्यों अथवा पशुओं के मूल-मूत्र इत्यादि से पर्यावरण में प्रदूषण की उत्पत्ति होती है।
  • औद्योगिक इकाइयों से प्रवाहित किया जाने वाला दूषित तरल पदार्थ, नदियों में छोड़ा जाने वाला अपशिष्ट पदार्थ एवं वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसों के निष्कासन से पर्यावरण में प्रदूषण उत्पन्न होता है।
  • नगरों में गदी बस्तियों के कारण पर्यावरण दूषित होता है। इनके कारण पारिस्थितिक पर्यावरण में असंतुलन तथा मानव पर्यावरण में निम्न जीवन-स्तर उत्पन्न होता है।
  • रासायनिक अपशिष्टों तथा अणुशक्ति संयंत्रों से निकले कचरे से नदियाँ एवं झीलें प्रदूषित होती हैं । वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसों के फेंके जाने से वायुमंडल प्रदूषित होता रहता है।
  • इस प्रकार का पर्यावरण प्रदूषण औद्योगिक प्रदेशों एवं विकसित राष्ट्रों में अधिक पाया जाता है।
  • अणुबमों के समय-समय पर जो परीक्षण किए जाते हैं, उनसे वायुमंडल प्रदूषित होता है।
  • परिवहन के विभिन्न साधनों के द्वारा पर्यावरण प्रदूषित होता रहा है। यह समस्या विशेषकर नगरों एवं महानगरों में अधिक अनुभव की जाती है।
  • कृषि के अंतर्गत कीटनाशक औषधियों के प्रयोग के कारण भी पर्यावरण अत्यधिक प्रदूषित होता है।
  • बिना सोचे-समझे अंधाधुंध वनों के काटने से पर्यावरण प्रदूषण की समस्या और भी अंधिक गंभीर होती जा रही है।

पर्यावरण प्रदूषण के प्रभाव – प्रदूषण एक गंभीर समस्या बन गई है। इसके समाधान हेतु लगभग सभी राष्ट्र इस समस्या के समाधान एवं नियंत्रण हेतु अपनी आय का काफी बड़ा भाग खर्च कर रहे हैं। वास्तव में प्रदूषण के कारण न केवल मानव ही कुप्रभावित होता है, वरन् संसार के अन्य भौतिक तत्व जैसे-जलवायु, वनस्पति, अन्य जीव-जंतु, पदार्थ, भवन इत्यादि भी विपरीत अर्थात् प्रतिकूल रूप से प्रभावित होते हैं।

प्रदूषण का दूषित प्रभाव अधोलिखित रूप से आंका जा सकता है –

(i) स्वास्थ्य पर प्रभाव – प्रदूषण के विविध प्रकारों का प्रतिकूल प्रभाव मानव एवं अन्य जंतुओं पर पड़ता है। प्रदूषण के विविध प्रकारों के कारण मानव स्वास्थ्य में गिरावट आती है तथा अनेक रोगों की उत्पत्ति होती है। प्रदूषण के कारण उत्पन्न बीमारियों की यदि सूची तैयार की जाए तो वह काफी लंबी होगी। प्रदूषित वातावरण मानव के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण संबंधी कुछ प्रभाव तो दीर्घकालीन होते हैं।

दीर्घकालीन कुप्रभावों के ज्वलंत उदाहरण हैं-नागासाकी एवं हिरोशिमा पर हुई बमवर्षा के आज भी उत्पन्न जापानी संतानें कुष्ट, अंधापन, लंगड़ापन कुरूप इत्यादि के रूप में भोग रही है। नगरीय समुदाय में सिर-दर्द, खाँसी, तपेदिक, अस्थमा इत्यादि रोगों से अनेक लोग पीड़ित मिलते हैं। ये सभी बीमारियाँ अधिकतर प्रदूषण की देन हैं। अधिक प्रदूषण के कारण श्वांस संबंधी अनेक रोग उत्पन्न हो जाते हैं। फेफड़ों में श्वांस द्वारा गैस, कण, रसायन इत्यादि पहुंच जाते हैं जो कुछ समयान्तर में फेफड़ों को नष्ट कर देते हैं।

कार्बन-मोनो-ऑक्साइड में श्वसन के कारण रक्त का थक्का जमने लगता है तथा हृदय गति. रुक जाती है और मृत्यु हो जाती है। इसमें ब्रोंकाइटिस, पल्मोनरी, एम्फीसेमा अथवा दमा जैसे रोग हो जाते हैं। इनके कारण लोगों में श्वसन समस्याएँ कुष्ठ, स्नायविक-दुर्बलता, आँख में जलन, सुगंध के प्रति असुहावनी प्रतिक्रिया आदि होने लगती है।

(ii) जलवायु पर प्रभाव – प्रदूषण का कुप्रभाव मौसम तथा जलवायु पर भी स्पष्ट देखने को मिलता है। प्रदूषण का कुप्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा नगरीय या शहरी क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलता है। शीत ऋतु में ईंधन का चूँकि अपेक्षाकृत अधिक प्रयोग होता है, इस कारण वायुमंडल में उन दिनों विविक्त की मात्रा अधिक हो जाती है तथा सौर शक्ति भी नगरीय क्षेत्रों में ग्रामीण क्षेत्रों की अपेक्षा 15 प्रतिशत से 20 प्रतिशत कम पहुँचती है। इस कारण जाड़ों में ग्रामीण क्षेत्रों में अपेक्षा नगरीय क्षेत्रों में दृश्यता भी कम हो जाती है। इनसे संघनन की क्रिया उत्पन्न होती है जिसके फलस्वरूप मेघ बनते हैं तथा ग्रामों की तुलना में नगरों में 5 प्रतिशत से लेकर 10 प्रतिशत तक अधिक वर्षा होती है।

इस प्रकार प्रदूषण मौसम को न केवल प्रभावित करता है वरन् उसे संशोधित भी करता है। इसी कारण नगरों का वातावरण ग्रामों से कुछ भिन्न हो जाता है। वैज्ञानिक अध्ययन से विदित होता है कि कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि प्रतिवर्ष 2 प्रतिशत की दर से हो रही है। इस आधार पर पृथ्वी का तापमान विगत 50 वर्षों से 1° सेंटीगेड बढ़ गया है। वैज्ञानिकों का मत है कि यदि पृथ्वी के तापमान में वृद्धि 3.6° सेंटीग्रेड और अधिक गई तो आर्कटिक तथा अंटार्कटिक के हिमखंड पिघल जाएँगे तथा ऐसा होने पर पृथ्वी की सतह 100 मीटर और ऊँची हो जायेगी।

आज विश्व की महाशक्तियों के पास अनुमानतः 50 हजार आण्विक अस्त्र हैं जिनकी विस्फोटक क्षमता 13 हजार मेगावाट के लगभग है यदि इन आण्विक अस्त्रों द्वारा बमबारी हुई तो 200 से लेकर 6500 लाख टन धुआँ निकलेगा जो सूर्य के प्रकाश को भी ढक लेगा।

(iii) वनस्पति पर प्रभाव – प्रदूषण का कुप्रभाव न केवल मानव एवं जीवन पर ही पड़ता है, वरन पेड़-पौधों पर भी पड़ता है। प्रदूषण द्वारा पौधे दो रूपों में प्रभावित होते हैं। प्रथम-प्रदूषण के पौधों की शारीरिक प्रक्रिया कुप्रभावित होती है जिसके परिणामस्वरूप पौधे का गुण परिवर्तित हो जाता है। पौधों का इसके कुप्रभाव के कारण विकास अवरुद्ध हो जाता है और उनकी उत्पादकता कम हो जाती है। इसमें कोई दृश्य प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता है।

प्रश्न 4.
प्रदूषण संबंधित प्राकृतिक विपदाओं के मुख्य रूप कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
प्रदूषण की समस्या का जन्म जनसंख्या की वृद्धि के साथ-साथ हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगिक एवं रासायनिक कचरे ने जल ही नहीं. वायु और पृथ्वी को भी प्रदूषित किया है। पर्यावरणीय बाधाओं के रूप में प्रदूष्क्षण के प्रमुख प्रकारों को हम निम्न प्रकार विवेचित कर सकते हैं

(i) वायु प्रदूषण – वायुमंडल में विभिन्न प्रकार की गैसें विशेष अनुपात में उपस्थित रहती हैं। जीवधारी अपनी क्रियाओं द्वारा वायुमंडल में ऑक्सीजन और कार्बन डाइ ऑक्साइड का संतुलन बनाए रखते हैं किंतु कल-कारखानों से निकलने वाला धुआँ, मोटर-कारों, घर में जलाने वाले ईंधन आदि से वायु प्रदूषण फैल रहा है। यह पर्यावरण की सबसे प्रमुख बाधा है।

(ii) जल प्रदूषण – सभी जीवधारियों के लिए जल महत्वपूर्ण और आवश्यक है। जल में अनेक प्रकार के खनिज तत्व, कार्बनिक और अकार्बनिक पदार्थ तथा गैसें घुली रहती हैं। यदि जल में ये पदार्थ आवश्यकता से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाते हैं तो जल अशुद्ध होकर हानिकारक हो जाता है और वह प्रदूषित जल कहलाता है।

देश के नगरों में पेयजल किसी निकटवर्ती नदी से लिया जता है और प्रायः इसी नदी में शहर के मल-मूत्र और कचरे तथा कारखनों से निकलने वाले अवशिष्ट पदार्थों को प्रवाहित कर दिया जाता है। परिणामस्वरूप हमारे देश में अधिकांश नदियों का जल प्रदूषित होता जा रहा है। यह भी एक पर्यावरणीय बाधा है।

(iii) ध्वनि प्रदूषण – अनेक प्रकार के वाहन, जैस-मोटर कार, बस, जेट विमान, टैक्टर आदि तथा लाउडस्पीकर, बाजे एवं कारखानों के सायरन व विभिन्न प्रकार की मशीन आदि से ध्वनि प्रदूषण उत्पन्न होता है। अधिक. तेज ध्वनि से मानव की श्रवण शक्ति का ह्रास होता है। उसे भलीभाँति नींद नहीं आती है मानव का स्नायुरांत्र भी इससे प्रभावित हो जाता है।

(iv) रेडियोधर्मी प्रदूषण – परमाणु शक्ति उत्पादन केंद्रों और परमाणु परीक्षण के फलस्वरूप जल, वायु तथा पृथ्वी का प्रदूषण निरंतर बढ़ता जा रहा है। वह प्रदूषण आज की पीढ़ी के लिए ही नहीं वरन् आने वाली पीढ़ियों के लिए भी हानिकारक सिद्ध होगा। विस्फोट के समय उत्पन्न रेडियोधर्मी पदार्थ वायुमंडल की बाह्य परतों में प्रवेश कर जाते हैं। जहाँ पर वे ठंढे होकर संघनित अवस्था में बूंदों का रूप ले लेते हैं और बाद में ठोस अवस्था में बहुत छोटे-छोटे धूल के कणों के रूप में वायु में फैलते रहते हैं और वायु के चलने के साथ संपूर्ण विश्व में फैल जाते हैं।

(v) रासायनिक प्रदूषण-प्रायः किसान अधिक उत्पादन के लिए कीटनाशक, शाकनाशक और रोगानाशक दवाइयों तथा रसायनों का प्रयोग करते हैं। इनका स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव पड़ता है। आधुनिक पेस्टीसाइडों का अंधाधुंध प्रयोग भी लाभ के स्थान पर हानि ही पहुँचा रहा है। जब से रसायन वर्षा के जल के साथ बहकर नदियों द्वारा सागर में पहुँच जाते हैं तो ये समुद्री जीव-जंतुओं तथा वनस्पति पर घातक प्रभाव डालते हैं। इतना ही नहीं, किसी-न-किसी रूप में मानव शरीर भी इनसे प्रभावित होता है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 3 पर्यावरण और समाज

प्रश्न 5.
पर्यावरण संबंधित कुछ विवादस्पद मुद्दे जिनके बारे में आपने पढ़ा या सुना हो उनका वर्णन कीजिए। (अध्याय के अतिरिक्त)
उत्तर:
पर्यावरण से जुड़े कुछ मुद्दे निम्नलिखित हैं –
नर्मदा बचाओ आंदोलन – मध्यप्रदेश की जीवन रेखा नर्मदा को प्रदूषण से बचाने के लिए सन् 1995 में ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ प्रारंभ किया गया। इसके अच्छे परिणाम सामने आए। इस आंदोलन की सफलता के लिए अरुन्धती राय को पुरस्कार से नवाजा गया था।

चिपको आंदोलन – उत्तरांचल राज्य में वनों को बचाने के लिए भी सुंदरलाल बहुगुणा ने 27 मार्च, 1973 को चिपको आंदोलन की शुरूआत की। श्री बहुगुणा पर्यावरण को बचाने के सिलसिले में कई बार जले भी गए। इसी प्रकार कुछ व्यक्तियों का भी यहाँ उल्लेख करना लाभप्रद रहेगा, जिन्होंने पर्यावरण संरक्षण के लिए कार्य किया है

(i) श्रीमती मेनका गांधी – पूर्व पर्यावरण एवं वन राज्यमंत्री एवं समाज सेवी, ये वन्य जीवों के संवर्द्धन एवं संरक्षण के लिए अंतर्राष्ट्रीय एवं राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित कर चुकी हैं एवं समाज को वन्य जीवों को प्रति दया भाव एवं उनकी सुरक्षा के जनचेतना का भी कार्य किया है।

(ii) राजेंद्र सिंह – राजस्थान राज्य को सूखे से एवं मरुस्थलीकरण से बचाव में जुटे स्वयं सेवी संस्थान के सामाजिक कार्यकर्ता राजेन्द्र सिंह को वर्ष 2001 के रैमने मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इन्होंने छोटे-छोटे बाँधों का निर्माण एवं जल संचय की नई विधियों का इस्तेमाल करके ग्रामीण परिवेश में नई क्रांति को जन्म दिया है।

(iii) डॉ. सालिम अली (1896-1987) – विश्व विख्यात प्रकृति विज्ञानी एवं पक्षी विशेषज्ञ। इन्हें भारत का बर्ड्समैन भी कहते हैं। इन्हें 1976 में पद्म विभूषण तथा 1983 में वन्य प्राणी संरक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

(iv) अशोक मेहता – आगरा में स्थित विश्व की अनमोल धरोहर की रक्षा के लिए चलाए जा रहे अभियान “ताज बचाओ आंदोलन’ के प्रणेता । इन्हें भी इनके उत्कृष्ट कार्य के लिए रैमने मैग्सेसे पुरस्कार
किया जा चुका है।

(v) विवेक मेनन – ये भारत के वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट के कार्यकारी निदेशक हैं। इन्होंने असम राज्य में गैंडों एवं हाथियों के अवैध शिकार के विरुद्ध कार्य किया है, जिसके लिए इन्हें वर्ष 2001 का ब्रिटिश रॉयल जियोग्राफिक सोसायटी का प्रतिष्ठित सफर्ड पर्यावरण पुरस्कार प्रदान किया गया।

(vi) माइक एच. पांडेय – वन्यजीव फिल्म निर्माता माइक एच. पांडेय पांडा पुरस्कार जीतने वाले पहले भारतीय हो गए हैं। पांडे को ग्रीन ऑस्कर के नाम से लोकप्रिय यह पुरस्कार एशियाई हाथी पर बनी वेनेशिंग जायट्स के लिए दिया गया है। उन्हें पुरस्कार तीसरी बार मिला है। इससे पूर्व उन्होंने वर्ष 2000 तथा 1994 में भी यह पुस्कार प्राप्त किया था।

(vii) चारुदत मिश्र – हिमालय की चोटियों पर पाए जाने वाले बीर्फीले तेंदुए की लुप्त हो रही प्रजाति को बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले भारतीय पर्यावरण वैज्ञानिक चारुदत मिश्र को अप्रैल, 2005 में ब्रिटेन के महत्वपूर्ण पर्यावरण संरक्षक पुरस्कार व्हाइटले गोल्ड प्रदान किया गया।

प्रश्न 6.
पर्यावरण संतुलन पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
पर्यावरण संतुलन-यह सर्वविदित तथ्य है कि पर्यावरणीय क्रियाएँ अबाध रूप से चलती रहती हैं। यदि मनुष्य इन क्रियाओं से जाने-अनजाने हस्तक्षेप करता है तो भी प्रकृति पर्यावरण संतुलन रखने का प्रयास करती है। जब तक प्रकृति का यह प्रयास सार्थक रहता है तब तक मनुष्य को हानि प्रत्यक्ष रूप से नहीं होती। अत: उसका ध्यान इस तथ्य की ओर नहीं जाता कि वह कोई ऐसा कार्य कर रहा है जिससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ना आरंभ हो गया है।

पर्यावरण असंतुलन उत्पन्न हो जाने के कारण यदि उसे कई शारीरिक या मानसिक कष्ट भी हो जाता है तो वह उसे बीमारी समझकर उसके उपचार में जुट जाता है परंतु जब मनुष्य का हस्तक्षेप लगातार होता ही रहता है और हस्तक्षेप की तीव्रता बढ़ती चली जाती है तो प्राकृति पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने में असफल हो जाती है। परिणामस्वरूप मनुष्य को शारीरिक कष्ट के साथ-साथ दैविक आपदाओं का भी सामना करना पड़ता है और तब उसका ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित होता है कि कहीं उसकी क्रियाएँ पर्यावरण का संतुलन तो नहीं बिगाड़ रही हैं ? अनेक परीक्षण इसके लिए वह करता है क्योंकि वर्तमान मानव हर तथ्य का वैज्ञानिक आधर ढूंढता। है।

आज विज्ञान ने स्वयं यह चेतावनी दी है कि यदि मनुष्य ने समय रहते सुधार न किया और पर्यावरणीय क्रियाओं को उनकी प्राकृतिक गति से न चलने दिया तो उसका विनाश निश्चित है। अतः आज मानव ने इस बात की आवश्यकता का अनुभव किया है कि पर्यावरण संरक्षण स्वयं उसके जीवित रहने के लिए आवश्यक है। प्रत्येक अवस्था में पारिस्थिति संतुलन बना रहना आवश्यक ही नहीं वरन् परमावश्यक भी है अन्यथा मानव का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 3 पर्यावरण और समाज

प्रश्न 7.
पर्यावरण के प्रति सामाजिक उत्तरदायित्व के क्रियान्वयन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
विकास एवं पर्यावरण में समाज की भूमिका-पर्यावरण से संबंधित अनेकों कार्य हैं जो प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्येक, पड़ोसी, संपूर्ण समाज के हिस्से पर प्राण की अपेक्षा करते हैं। जब तक प्रत्येक व्यक्ति कर्त्तव्य न निभाए हम निर्णय ले सकते हैं कि पर्यावरण की गुणवत्ता कम हो जाएगी। बचाव, सुरक्षा तथा पुर्ननिर्माण द्वारा वर्तमान पीढ़ी के लिए पर्यावरण सुरक्षित रखना चाहिए। अत्यधिक नगरीकरण एवं

प्रदूषण आदि के दुष्परिणाम के विषय में भी बताना चाहिए। पर्यावरण के संबंध में बालकों से ही जानकारी को समाज से सभी वर्गों में पहुँचाना चाहिए। पारिस्थितिक क्लब-पारिस्थितिक कल्ब एक क्रिया-कलाप है जिसे सभी विद्यालयों में लागू किया जाना चाहिए। पारिस्थितिक क्लब छात्रों में पारिस्थितिक को समझने में सहायता करता है। पारिस्थितिक क्लब के विभिन्न तत्व तथा विभिन्न पर्यावरण विषय हमारे जीवन को प्रभावित करते हैं। यह एक मंच है जिसके द्वारा इस संबंध में अपने ज्ञान का प्रस्तुतीकरण करते हैं।

छात्रों को स्वयं उत्साहित करने के लिए उनके मित्र तथा सामान्य जनता को पारिस्थितिकी को सुरक्षित रखने हेतु अपने अनुभवों तथा प्रयासों से अवगत कराती है। हमें प्रकृति एवं सुंदर विश्व जिसमें हम रहते हैं, को अधिक से अधिक जानना चाहिए तथा उससे मनोरंजन करना सीखना चाहिए। पारिस्थितिक क्लब के क्रिया-कलापों के अंतर्गत हमें भावी महीनों में किए जाने वाले क्रिया-कलापों की सूची तैयार करनी चाहिए। स्थानीय संस्थाओं की सहायता से वीडियो फिल्म दिखाई जानी चाहिए। जल एवं मृदा परीक्षण पर भी कुछ कार्यक्रम संयोजित किए जा सकते हैं। सदस्यों की सहायता से एक समाचारपत्र प्रकाशित किया जा सकता है।

पर्यावरण संबंधी अभियान-अनेकों शैक्षिक एवं सूचना संबंधी अभियान स्कूल स्तर पर ही प्रारंभ किए जा सकते हैं। उन्हें कॉलेज स्तर पर तथा पड़ोस स्तर पर भी प्रारंभ किया जा सकता है। उनमें से कुछ अभियान निम्न प्रकार के हो सकते हैं :

  • विद्यालय परिसर की सफाई।
  • विद्यालय परिसर की हरियाली।
  • कागज, जल विद्युत का संरक्षण करना, जैव-अनिम्नीकरण, पदार्थों का कम उपयोग, परिवहन संबंधी प्रदूषण को कम करना, धूम्रपान न करना आदि।
  • प्राणियों एवं वनस्पतियों की सुरक्षा करना।

छात्रों को इस संबंध में वाद-विवाद प्रतियोगिता, वार्ता, चार्ट तैयार करना आदि के लिए प्रेरित किया जा सकता है। सभी छात्रों को इन अभियानों में भाग लेना चाहिए। श्रेष्ठता के आधार पर भाग लेने वाले को पुरस्कृत किया जाना चाहिए।

जनसंख्या शिक्षा कार्यक्रम – सरकार समय-समय पर जनसंख्या शिक्षण कार्यक्रम को अपने अधिकार में ले लेती है जिससे जनता को प्रशिक्षित किया जा सके कि अधिक जनसंख्या से क्या-क्या हानियाँ होती हैं। इस संबंध में सरकार विज्ञान, पोस्टर्स, सूचना पत्र, रेडियो, समाचार-पत्र दूरदर्शन आदि द्वारा लोगों को मुफ्त सलाह देता है व लोगों को उत्साह पुरस्कार देकर उन्हें इस और प्रेरित करती है।

नीति-निर्माण में जनभागीदारी – नगरों में आवासीय कल्याणकारी संगठन को अच्छे जीवन स्तर संबंधी वातावरण के नीति निर्माण एवं विकास कार्यक्रमों में सम्मिलित किया जाता है। उनसे आवासीय एवं व्यापारिक क्षेत्र को सीमितत एवं चिह्नित करने के लिए राय ली जा सकती है। सड़कों की सफाई, गलियों की सफाई, जनता को वृक्षारोपरण हेतु स्थानों को सीमित करने, सफाई अभियान, कालोनियों के रख-रखाव आदि कार्यों में भी इन संगठनों का सहयोग लिया जा सकता है। ग्राम स्तर पर पंचायती, ग्राम सेवक, सेविका का सहयोग अति आवश्यक है। गाँव के बुजुर्ग, नवयुवकों से भी गाँव के विकास के लिए सलाह ली जा सकती है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

Bihar Board Class 11 Sociology ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था Additional Important Questions and Answers

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक परिवर्तन तथा सांस्कृतिक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? अथवा, सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन का अर्थ संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन-सामाजिक संस्थाओं, प्रस्थितियों, भूमिकाओं तथा प्रतिमानों में समय-समय पर होने वाले परिवर्तन की प्रक्रिया को सामाजिक परिवर्तन कहा जाता है। इसके अंतर्गत परिवार, विवाह, नातेदारी आर्थिक-राजीनीतिक, जनसंख्या आदि में होने वाले परिवर्तन सम्मिलित किए जाते हैं।

सांस्कृतिक परिवर्तन-सांस्कृतिक परिवर्तन का तात्पर्य समाज की संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों से है। इसके अंतर्गत विचार, ज्ञान, मूल्य, नैतिकता, कला तथा धर्म आदि में होने वाले परिवर्तन सम्मिलित किए जाते हैं।

प्रायः सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन की अवधारणाएँ एक-दूसरे पर अन्योन्याश्रित होती हैं। दोनों ही पक्षों में होने वाले परिवर्तनों को सामाजिक-सांस्कृतिक परिवर्तन कहते हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
जोन्स के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन वह शब्द है जो सामाजिक प्रक्रियाओं, सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक अंत:क्रिया या सामाजिक संगठन के किसी पक्ष में अन्त या रूपांतर को वर्णित करने के लिए प्रयोग किया जाता है।” कोइनिंग के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन व्यक्तियों के जीवन प्रतिमानों में घटित होने वाले अंतरों को सूचित करता है।”

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प्रश्न 3.
प्रौद्योगिकी विकास किसी भी समाज में सामाजिक परिवर्तन लाने का महत्वपूर्ण कारक किस प्रकार है?
उत्तर:
प्रौद्योगिक रूप से विकसित समाजों में सामाजिक अंत:क्रिया का क्षेत्र व्यापक होने के कारण सामाजिक परिवर्तन की गति तीव्र होती है जबकि परंपरागत समाजों अथवा प्रौद्योगिक रूप से पिछड़े समाजों में सामाजिक परिवर्तन की गति अपेक्षाकृत मंद होती है। ऐसे समाजों में श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण नहीं पाया जाता है।

प्रश्न 4.
नए सामाजिक मूल्य तथा विश्वास किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन लाते हैं?
उत्तर:
समाज में पाए जानेवाले परंपरागत सामाजिक मूल्यों तथा विश्वासों का नए सामाजिक मूल्यों तथा विश्वासों में संघर्ष होता है। नए तथा पुराने सामाजिक मूल्यों तथा विश्वासों में होने वाले संघर्ष से सामाजिक परिवर्तन होते हैं।

कार्ल मार्क्स का मत है कि धर्म तथा विश्वास परिवर्तन का विरोध करते हैं। भारत में हिंदुओं के संदर्भ में मैक्स वैबर का मत है कि उनमें उद्यमिता तथा पूँजीवादी दृष्टिकोण के अपेक्षित विकास न होने के कारण आर्थिक विकास की गति धीमी रही है।

प्रश्न 5.
प्रसार किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन का महत्वपूर्ण कारक है?
उत्तर:
विभिन्न संस्कृतियों के पारस्परिक संपर्क प्रसार के कारण ही सामाजिक मूल्यों, विचारों तथा प्रौद्योगिकी को एक समाज दूसरे समाज से ग्रहण करता है। इस प्रकार प्रसार सामाजिक परिवर्तन का महत्वपूर्ण कारक है। प्रसार के माध्यम से पिछड़े समाज प्रौद्योगिकी रूप से उन्नत समाजों का अनुसरण करते हैं। इस प्रकार पिछड़े समाजों में भी सामाजिक परिवर्तन की गति तीव्र हो जाती है।

प्रश्न 6.
सामाजिक परिवर्तन के महत्वपूर्ण कारक बताइए।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के महत्वपूर्ण कारक निम्नलिखित हैं :

  • पर्यावरण
  • जनसंख्या
  • प्रौद्योगिकी
  • मूल्य तथा विश्वास
  • प्रसार

प्रश्न 7.
पर्यावरण सामाजिक परिवर्तन को किस प्रकार प्रभावित करता है?
उत्तर:
पारिस्थितिकी विज्ञान, जिसे सामान्य रूप से पर्यावरण कहते हैं, सामाजिक परिवर्तन पर काफी अधिक प्रभाव पड़ता है। पर्यावरणीय दशाएँ सामाजिक परिवर्तन की गति को तीव्र तथा मंद कर सकती है। अनुकूल पर्यावरणीय परिस्थितियों में सामाजिक परिवर्तन तीव्र गति से होते हैं। इसके विपरीत, भौगोलिक रूप से पृथक् क्षेत्रों में सामाजिक अंतःक्रिया बहुत कम होती है। ऐसे समाज अथवा क्षेत्र सांस्कृतिक दृष्टि से भी विकसित नहीं होते हैं। अतः ऐसे समाजों में सामाजिक परिवर्तन अत्यंत धीमे या आंशिक होते हैं।

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प्रश्न 8.
सत्ता क्या है? यह कानून तथा प्रभुत्व से किस प्रकार संबद्ध है?
उत्तर:
वियरस्टेड के अनुसार, “सत्ता शक्ति के प्रयोग का संस्थात्मक अधिकार है। वह स्वयं शक्ति नहीं है।” सी राइट मिल्स के अनुसार, “सत्ता का तात्पर्य निर्णय लेने के अधिकार तथा दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार को अपनी इच्छानुसार तथा संबंधित व्यक्तियों की इच्छा के विरुद्ध प्रभावित करने की। क्षमता है।”

संप्रभुता या प्रभुत्व एक महत्वपूर्ण राजनीतिक अवधारणा है। इसका स्पष्ट संबंध शक्ति के साथ होता है और शक्ति सत्ता में निहित है इसलिए सत्ता का ही काम है। बिना सत्ता के कानून का निर्माण व पालन करना भी सत्ता का ही काम है। बिना सत्ता के कानून का पालन-निर्माण संभव नहीं है।

अतः हम कह सकते हैं कि सत्ता/कानून/प्रभुत्व सभी एक-दूसरे से संबंधित हैं।

प्रश्न 9.
शक्ति से आप क्या समझते हैं? शक्ति के प्रकृति को निर्धारित करने वाले महत्वपूर्ण कारक बताइए।
अथवा
शक्ति पर संक्षेप में टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
व्यक्ति सामाजिक जीवन में कुछ कार्यों को स्वेच्छा से करता है तथा कुछ कार्यों को करने के लिए बाध्य होता है। शक्ति की अवधारण में भौतिक तथा दबावात्मक पहलू पाए जाते हैं। शक्ति, सत्ता का अनुभवात्मक तथा भौतिक पहलू होता है। शक्ति के कारण ही संपूर्ण समाज तथा उसके सदस्य सत्ता के निर्णयों को बाध्यता अथवा दबाव के कारण स्वीकार करते हैं।

शक्ति की प्रकृति को निर्धारित करने वाले महत्वपूर्ण पहलू निम्नलिखित हैं –

  • सामाजिक प्रस्थिति
  • सामाजिक प्रतिष्ठा
  • सामाजिक ख्याति
  • शारीरिक तथा भौतिक शक्ति तथा
  • शिक्षा, ज्ञान तथा योग्यता

प्रश्न 10.
सत्ता की परिभाषा दीजिए। सत्ता के प्रमुख तत्त्व बताइए।
उत्तर:
सत्ता की परिभाषा – सी. राइट मिल्स के अनुसार सत्ता का तात्पर्य निर्णय लेने के अधिकार तथा दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार को अपनी इच्छानुसार तथा संबंधित व्यक्तियों की इच्छा के विरुद्ध प्रभावित करने की क्षमता से है।

रॉस का मत है कि सत्ता का तात्पर्य प्रतिष्ठा से है। प्रतिष्ठित वर्ग के पास सत्ता भी होती है। सत्ता के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं –

  • प्रतिष्ठा
  • प्रसिद्धि
  • प्रभाव
  • क्षमता
  • ज्ञान
  • प्रभुता
  • नेतृत्व तथा
  • शक्ति

प्रश्न 11.
शक्ति तथा सत्ता में मुख्य अंतर बताइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वैबर ने शक्ति तथा सत्ता में अंतर बताया है। वैबर के अनुसार यदि कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति पर उसकी इच्छा के विरुद्ध अपना प्रभाव स्थापित करता है तो इस प्रभाव को शक्ति कहते हैं। दूसरी तरफ, सत्ता वह प्रभाव है जिसे उन व्यक्तियों द्वारा स्वेच्छापूर्वक स्वीकार किया जाता है जिनके प्रति इसका प्रयोग होता है। इस प्रकार सत्ता एक वैधानिक शक्ति है।

अतः हम सत्ता को सामाजिक रूप से प्रभाव कह सकते हैं। जब शक्ति को वैधता प्रदान कर दी जाती है तो वह सत्ता का स्वरूप धारण कर लेती है तथा व्यक्ति इसे स्वेच्छापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं।

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प्रश्न 12.
पारंपरिक सत्ता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
पांरपरिक सत्ता को व्यक्तियों द्वारा आदतन स्वीकार किया जाता है। उनसे पहले के व्यक्तियों ने भी उसे स्वीकार किया था। अतः सत्ता का अनुपालन एक परंपरा बन जाता है।

परंपरागत सत्ता की प्रकृति व्यक्तिगत तथा अतार्किक होती है पारंपरिक सत्ता के प्रमुख उदाहरण हैं –

  • जनजाति का मुखिया
  • मध्यकाल के राजा तथा सामंत
  • परंपरागत पितृसत्तात्मक परिवार का मुखिया आदि

प्रश्न 13.
करिश्माई सत्ता के विषय संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
करिश्माई सत्ता से युक्त व्यक्ति में असाधारण प्रतिभा, नेतृत्व का जादुई गुण तथा निर्णय लेने की क्षमता पायी जाती है। जनता द्वारा ऐसे व्यक्ति का सम्मान तथा उसमें विश्वास प्रगट किया जाता है। यही कारण है कि व्यक्तियों द्वारा करिश्माई सत्ता के आदेशों का पालन स्वेच्छापूर्वक किया जाता है। करिश्माई सत्ता की प्रकृति व्यक्तिगत तथा तार्किक होती है। अब्राहम लिंकन, महात्मा गाँधी आदि करिश्माई व्यक्तित्व थे।

प्रश्न 14.
सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप के विषय में दो बिंदु दीजिए।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के अनेक स्वरूप पाए जाते हैं। यथा उद्विकास, प्रगति तथा क्रांति आदि। उद्विकास के माध्यम से परिवर्तन धीमी गति से होते हैं। उदाहरण के लिए सामाजिक संस्थाओं, जैसे परिवार और विवाह आदि में होने वाले परिवर्तन प्रगति के जरिए सामाजिक परिवर्तन धीमे अथवा तीव्र दोनों प्रकार के हो सकते हैं। क्रांति द्वारा होने वाले सामाजिक परिवर्तन अकस्मात तथा अप्रत्याशित होते हैं।

प्रश्न 15.
सामाजिक परिवर्तन के एक कारक के रूप में उद्विकास की दिशा बताइए।
उत्तर:
उद्विकास सामाजिक परिवर्तन की निरंतर तथा धीमी प्रक्रिया है। उद्विकास सामाजिक व्यवस्था को निश्चित दिशा प्रदान करता है। यह सामाजिक संरचना को सरलता से जटिलता की ओर ले जाता है। उद्विकास की दिशा सदैव सरलता से जटिलता, समानता से असमानता तथा अनश्चितता से निश्चितता की ओर होती है।

प्रश्न 16.
क्रांति की परिभाषा दीजिए। सामाजिक परिवर्तन के एक प्रमुख कारक के रूप में इसका महत्व बताइए।
उत्तर:
जॉन इ. कॉनक्लिन के अनुसार, “क्रांति समाज के राजनीतिक, आर्थिक तथा संस्तरण की व्यवस्थाओं में मूलभूत तथा तीव्र परिवर्तन लाती है। क्रांति का प्रारंभ संघर्ष से होता है। यह संघर्ष हिंसात्मक स्वरूप भी ले सकता है। क्रांति के माध्यम से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक संस्थाओं में अकस्मात् तथा आधारभूत परिवर्तन आ जाते हैं। कार्ल मार्क्स का मत है कि क्रांति के जरिए समाज में संरचनात्मक परिवर्तन आते हैं। क्रांति द्वारा लाए गए परिवर्तन व्यापक होते हैं।

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प्रश्न 17.
प्रगति की परिभाषा दीजिए। प्रगति का अवधारणा के प्रमुख तत्व बताइए।
उत्तर:
लूम्ले के अनुसार, “प्रगति परिवर्तन, लेकिन इच्छित अथवा अन्य दिशा में परिवर्तन है, न कि प्रत्येक दिशा में।” हॉबहाउस के अनुसार, “सामाजिक प्रगति से मैं सामाजिक जीवन के उन गुणों की वृद्धि समझता हूँ जिन्हें मनुष्य मूल्यों से आंक सके अथवा तर्कपूर्ण रीति से मूल्य जोड़ सके।”

प्रश्न 18.
गांव, कस्बा तथा नगर एक-दूसरे से किस प्रकार भिन्न हैं?
उत्तर:
सेंडरसन ने अपनी पुस्तक में स्पष्ट किया है कि एक गाँव में स्थानीय क्षेत्र में लोगों की सामाजिक अंतःक्रिया और उनकी संस्थाएँ सम्मिलित होती हैं। साथ ही गाँव के खेतों के चारों ओर झोपड़ियाँ बनी होती हैं तथा उनमें वे निवास करते हैं। मानव की अनिवार्य आवश्यकताओं में से कुछ भी आपूर्ति ग्रामों से ही होती है। ग्रामों में कृषि उपज की प्राप्ति के बाद उसे कस्बों तथा नगरों में भेज देते हैं जिससे नगरों व कस्बों के लिए भोजन की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।

कस्बा नगर का छोटा रूप है। कस्बे से ही नगर का विकास होता है। ग्राम-नगर-कस्बा एक-दूसरे के पूरक हैं। नगरों के उद्योग के लिए मानव संसाधन कस्बों से ही प्राप्त होते हैं जबकि कस्बों के लिए आवश्यक उत्पाद नगरों से। इस प्रकार दोनों का काम एक-दूसरे के बिना नहीं चल सकता है।

प्रश्न 19.
गाँव से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
गाँव मान्य और स्थायी पारस्परिक संबंधों द्वारा आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से एक एकीकृत समुदाय है। कृषि ही लोगों की आजीविका का प्रमुख साधन है। जजमानी व्यवस्था इसकी एकता का सबसे बड़ा प्रतीक है।

प्रश्न 20.
भारतीय ग्रामों की क्या विशेषताएँ हैं?
उत्तर:
भारतीय ग्रामों की निम्नलिखित विशेषता है –

  • भारतीय ग्रामों का प्रमुख व्यवसाय कृषि है।
  • जनसंख्या का घनत्व कम है।
  • ग्रामवासियों का प्रकृति से प्रत्यक्ष संबंध है।
  • गाँव के सदस्यों का रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज और जीवन पद्धति एक जैसी है।
  • सामाजिक गतिशीलता कम पाई जाती है।
  • ग्रामों में सीमित आकार के कारण प्राथमिक संबंध पाए जाते हैं।
  • जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में धर्म का प्रमुख स्थान है।
  • परंपराओं, प्रथाओं, जनरीतियों का सामाजिक नियंत्रण में अधिक प्रभाव है।

प्रश्न 21.
संयुक्त परिवार प्रथा में क्या परिवर्तन आ रहे हैं?
उत्तर:
संयुक्त परिवार प्रथा में आज क्रांतिकारी परिवर्तन आ रहे हैं। पहले परिवार के सभी सदस्य मिल-जुलकर खेतीबाड़ी का कार्य करते थे, परंतु औद्यागीकरण के साथ-साथ संयुक्त परिवार में पाई जाने वाली यह एकता नष्ट होती गई। नौकरी की खोज में लोग दूर-दूर स्थानों पर जाकर बसने लगे। संयुक्त परिवार विघटित होने लगा।

प्रश्न 22.
वर्तमान काल में स्त्रियों की स्थिति में क्या परिवर्तन आ रहे हैं?
उत्तर:
आज स्त्री शिक्षा प्राप्त कर रही है। नौकरी के अवसर पुरुष के साथ-साथ स्त्री को भी प्राप्त हो रहे हैं। अब स्त्रियाँ नौकरी कर रही हैं, ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच रही हैं इसलिए वे आर्थिक मामलों में परिवार पर कम निर्भर हैं। उनमें आत्मविश्वास और सम्मान की भावना बढ़ी है।

प्रश्न 23.
आधुनिक युग में धार्मिक जीवन में क्या परिवर्तन आ रहे हैं?
उत्तर:
वैज्ञानिक आविष्कारों के साथ-साथ धार्मिक कट्टरता में कमी आई है। गाँव के लोग जो धार्मिक पूजा-पाठ में अधिक विश्वास करते थे आज उनके दृष्टिकोण में अंतर आ रहा है।

प्रश्न 24.
आधनिक यग में जाति व्यवस्था में क्या परिवर्तन आ रहे हैं?
उत्तर:
आज विभिन्न जातियों के लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। परस्पर विवाह संबंध करते हैं और इच्छानुसार किसी भी पेशे को अपनाते हैं। आज समाज में ऊँचे-नीच का स्तर जाति के आधार पर नहीं अपितु धन, शिक्षा या वैयक्तिक योग्यता पर आधारित है। राजनीति में जाति का महत्व बढ़ गया है।

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प्रश्न 25.
सांस्कृतिक जीवन में क्या परिवर्तन दिखाई पड़ते हैं?
उत्तर:
पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति के प्रभाव के कारण स्त्रियों की शिक्षा में वृद्धि हो रही है। स्त्रियाँ आज पहले से अधिक रोजगार परक कार्यों में लगी हैं। प्रेम विवाह बढ़ रहे हैं। विवाह के पश्चात् विवाह-विच्छेदों की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है। पर्दा प्रथा समाप्त हो रही है। रहन-सहन और वेशभूषा पर पश्चिमी प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। भारतीय समाज में नैतिकता संबंधी अनेक परिवर्तन आ रहे हैं। अपराध, भ्रष्टाचार, झूठ व धोखाड़ी आदि का अधिक बोलबाला। है। नैतिकता की दृष्टि से समाज का स्तर गिरा है।

प्रश्न 26.
आधुनिक औद्योगिक समाज में सत्ता का स्वरूप बताइए।
अथवा
विवेकपूर्ण वैधानिक सत्ता के विषय में संक्षेप में लिखिए।
उत्तर:
आधुनिक औद्योगिक समाजों में सत्ता का स्वरूप वैधानिक तथा तार्किक होता है। वैधानिक तथा तार्किक सत्ता औपचारिक होती है तथा इसके विशेषाधिकार सीमित तथा कानून द्वारा सुपरिभाषित होते हैं।

वैधानिक – तार्किक सत्ता की प्रकृति अवैयक्तिक तथा तार्किक होती है। आधुनिक औद्योगिक समाजों में नौकरशाही को वैधानिक तार्किक सत्ता का उपयुक्त उदाहरण समझा जाता है।

प्रश्न 27.
नगर से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नगर से अभिप्राय ऐसी केंद्रीयकृत बस्तियों के समूह से है जिसमें सुव्यवस्थित केन्द्रीय व्यापार क्षेत्र, प्रशासनिक इकाई, आवागमन के साधन, संचार सुविधाएँ और अन्य नागरिक सुविधाएँ होती हैं। एक नगर में जनसंख्या का घनत्व भी अधिक होता है।

प्रश्न 28.
नगरों में जनसंख्या का घनत्व क्यों बढ़ रहा है?
उत्तर:
सर्वप्रमुख कारण से रोजगार की प्राप्ति है-अधिकतर कारखाने नगरों के पास ही स्थापित किए जाते हैं जिनमें काम करने के लिए लोग ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं और वे आकार नगर से बस जाते हैं। इससे नगरों में जनसंख्या का घनत्व बढ़ जाता है।

प्रश्न 29.
स्वतंत्रता से पूर्व ग्रामों की क्या स्थिति थी?
उत्तर:
स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय ग्रामों की स्थिति अच्छी नहीं थी। लोग गरीब थे, बेरोजगारी फैली हुई थी। अधिकतर ग्रामवासी कर्ज में डूबे थे। अशिक्षा, अंधविश्वास आदि फैले हुए थे। शिक्षा, चिकित्सा आदि की सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थीं।

प्रश्न 30.
ग्रामीण समुदाय से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
ग्रामीण समुदाय से अभिप्राय ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करने वाले लोगों से है जो मुख्य रूप से कृषि पर आधारित कार्यों को करके अपना जीवन-निर्वाह करते हैं।

प्रश्न 31.
जजमानी व्यवस्था क्या है?
उत्तर:
व्यक्ति को अपनी आवश्यकताओं के लिए दूसरों से सेवाएँ प्राप्त करनी पड़ती है। सेवा लेने वाले और सेवा प्रदान करने वाले के बीच के संबंध को जजमानी प्रथा कहते हैं।

प्रश्न 32.
व्यक्ति अपने पास-पड़ोस के लोगों से संबंध क्यों बनाते हैं?
उत्तर:
व्यक्ति की आवश्यकताएँ असीम होती हैं जिन्हें वह अकेले पूरा नहीं कर सकता। उसे अपने पास-पड़ोस में रहने वाले लोगों से सहायता लेनी पड़ती है। वह न केवल सहायता लेता है वरन् आवश्यकता पड़ने पर सहायता देता भी है।

प्रश्न 33.
भारत में कुल कितने नगर हैं?
उत्तर:
1991 की जनगणना के अनुसार भारत में 5109 नगर थे। भारत में नगरों की सूचना राज्य सरकारों द्वारा विभिन्न नियमों के अनुसार की जाती है। नगरों में नगर निगम, नोटीफाइड एरिया और नगरपालिका होती है। एक लाख से अधिक जनसंख्या वाली बस्ती नगर कहलाती है। 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगर महानगर कहलाते हैं। पाँच हजार से कम जनसंख्या वाले क्षेत्र को गाँव कहते हैं।

प्रश्न 34.
संयुक्त परिवार से क्या समझा जाता है?
उत्तर:
संयुक्त परिवार से अभिप्राय एक ऐसे परिवार से है जिसमें दादा-दादी, पिता-माता, चाचा-चाची, भाई-बहन, चचेर भाई-बहन आदि तीन या चार पीढ़ियों के लोग आपस में मिलकर रहते हैं। परिवार के सबसे बड़े सदस्य की आज्ञा का पालन करते हैं। सभी मिलकर परिवार का व्यय चलाने में सहयोग करते हैं।

प्रश्न 35.
महानगर की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
महानगर से एक विशाल नगर और उसके चारों ओर उपनगरों का बोध होता है; जैसे-राज्य की राजधानियाँ।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
शक्ति क्या है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:शक्ति व्यक्तियों और समूहों के बीच संबंधों का एक पक्ष है। एक व्यक्ति या समूह किसी दूसरे व्यक्ति या समूह की तुलना में शक्तिशाली हो सकता है। मैक्स वैबर के शब्दों में “व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के विपरीत या विरोध की स्थित में भी सामुदायिक गतिविधि द्वारा इच्छापूर्ति की संभावना को शक्ति कहते हैं।”

शक्ति से तात्पर्य सत्ता अथवा प्रभाव से भी लगाया जा सकता है। कौटिल्य शक्ति शब्द का प्रयोग ‘बल’ के प्रयोग के रूप में करता है, “समस्त सांसारिक जीवन का आधार दंड शक्ति ही है।” एक व्यक्ति की शक्ति वास्तव में उसका दूसरे व्यक्तियों के संबंध में यह प्रभाव है जो कि दूसरों पर डालने में समर्थ होता है। एक व्यक्ति जिस सीमा तक दूसरों को प्रभावित करता है, वह उसकी शक्ति है। शक्ति मानवीय अंत:संबंधों को प्रभावित करती है। क्षमता रहित व्यक्ति शक्तिधारी नहीं हो सकता। शक्ति का उद्देश्य व्यवहार परिवर्तन से है।

प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन को अन्य प्रकार के परिवर्तनों से किस प्रकार अलग किया जा सकता है?
अथवा
सामाजिक परिवर्तन, परिवर्तन के अन्य प्रकारों से विशिष्ट क्यों है?
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन अपने आप में अन्य परिवर्तनों की अपेक्षा विशिष्ट है। इसका कारण है सामाजिक परिवर्तन से समाज के मूल्य और विश्वासों में भी परिवर्तन आ जाता है बल्कि अन्य परिवर्तनों से ऐसा नहीं होता है। एच.एन. जॉनसन ने स्पष्ट किया है कि मूल्य के आधार पर सामाजिक संरचना में व्यापक पैमाने पर परिवर्तन होता है। उनके अनुसार यह आशा की जाती है कि सामाजिक मूल्यों का प्रभाव सामाजिक ढाँचे के विभिन्न पक्षों पर होता है।

सामाजिक मूल्य सामाजिक प्रणालियों को विभिन्न रूपों में प्रभावित करते हैं। जॉनसन ने भारतीय परिवेश के आधार पर सामाजिक मूल्यों की व्याख्या की है। उदाहरण के लिए भारत में कोई भी व्यक्ति जो साधु जीवन व्यतीत करता है, चाहे वह किसी भी जाति का क्यों न हो उसकी सराहना की जाती है। निश्चित रूप से सामाजिक मूल्य एक आधारभूत सांस्कृतिक तत्व है तथा इसमें बदलाव होने से चिरकालिक परिवर्तन के संकेत मिलते हैं।

प्रश्न 3.
आधुनिक समाज में राज्य की शक्ति का वितरण दीजिए।
उत्तर:
आधुनिक औद्योगिक समाज में शक्ति राजकीय संस्थाओं में केंद्रित होती है और इसके नागरिकों में बंटी होती है। मैक्स वैबर के अनुसार राज्य, लोगों की एक ऐसी संस्था है जिसे एक निश्चित क्षेत्र में भौतिक बल के प्रयोग का वैधानिक रूप से एकाधिकार प्राप्त है। राज्य सामाजिक नियंत्रण की ऐसी इकाई है जिसे अपने कार्य को करने के लिए कानून का संरक्षण प्राप्त है। भौतिक बल के प्रयोग से राज्य समाज में अनुशासन और व्यवस्था कायम करता है।

राज्य के अधीन पुलिस, सेना और न्यायपालिका जैसी संस्थाएँ जो सामाजिक नियंत्रण के लिए प्रयोग की जाती हैं। लोग अपने आप समाज और संविधान के मूल्यों और मानदंडों को स्वीकार करते हैं। राज्य एक ऐसा क्षेत्रीय समुदाय है जो प्रभुसत्ता संपन्न सरकार द्वारा नियमित हो और बाहरी नियंत्रण से मुक्त हो। राज्य की चार विशेषताएँ हैं, जनसंख्या, क्षेत्र, सरकार व प्रभुत्व। राज्य को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता की आवश्यकताओं होती है। इसका विकास ऐतिहासिक प्रक्रिया से होता है।

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प्रश्न 4.
पारसंस के शक्ति संबंधी विचारों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
पारसंस के अनुसार शक्ति एक सामाजिक संसाधन है। सत्ताधारी लोग उस शक्ति का प्रयोग सबके हित के लिए सुनिश्चित करते हैं। शक्ति वह क्षमता है जिससे सामाजिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए समाज के संसाधनों को संचालित किया जाता है। सामान्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सामूहिक प्रयासों से शक्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त की जाती है। शक्ति के प्रयोग का अर्थ है सहयोग और पारस्परिक का उत्पन्न होना जो समाज के स्थायित्व के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 5.
राज्य के आवश्यक तत्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
राज्य एक ऐसा क्षेत्रीय समुदाय है जो प्रभुसत्तात्मक सरकार द्वारा नियमित हो और बाहरी नियंत्रण से मुक्त हो । राज्य एक ऐसी संस्था है जिसे एक निश्चित क्षेत्र में भौतिक बल के प्रयोग का वैधानिक रूप से एकाधिकार प्राप्त है। इस संदर्भ में राज्य के निम्नलिखित तत्वों का उल्लेख किया जा सकता है :

(i) जनसंख्या – सभी राज्यों में जनसंख्या का अस्तित्व होता है किसी राज्य की जनसंख्या राज्य की प्राकृतिक, सामाजिक, आर्थिक आदि परिस्थितियों के ही अनुसार होती है।

(ii) निश्चित क्षेत्र – राज्य का एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है जहाँ पर राज्य का अधिकार होता है। क्षेत्रीय सीमाएँ घटती-बढ़ती हैं परंतु फिर भी उसका रूप निश्चित होता है।

(iii) सरकार – राज्य के संचालन व नियमन के लिए सरकार होती है। सरकार के अभाव में न तो राज्य की शक्ति को व्यावहारिक रूप प्रदान किया जा सकता है और न जनता पर नियंत्रण रखा जा सकता है। सभी राज्यों में सरकार का स्वरूप भिन्न होता है। कहीं पर प्रजातांत्रिक सरकार होती है तो कहीं कुलीनतंत्र होता है। राज्य के लिए सरकार अनिवार्य है।

(iv) प्रभुसत्ता – सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए, राज्य के आदेशों की अवहेलना करने तथा बाहरी आक्रमणों की स्थिति में राज्य अपनी शक्ति का प्रयोग करता है। राज्य बिना सर्वोच्च अधिकार के नागरिकों को सरकार द्वारा निर्मित कानूनों को पालन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।

प्रश्न 6.
सत्ता की प्रकृति से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
मैक्स वैबर का मत है कि समाज में सत्ता का महत्वपूर्ण स्थान होता है। सत्ता द्वारा व्यक्ति अपने उद्देश्यों की प्राप्ति करता है। वही व्यक्ति अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने में सफल होता है जिसके हाथ में शक्ति या सत्ता होती है। सत्ता समाज की संस्थापित व वैधानीकृत शक्ति है। सत्ता नियंत्रण को सर्वस्वीकृति प्राप्त होती है क्योंकि इसे उचित माना जाता है। शासित लोग यह मानते हैं कि सत्ता के माध्यम से शक्ति का प्रयोग उनके हितों में ही होती है न कि केवल शक्तिशाली लोगों के लिए जो सत्ता में स्थित हैं।

सत्ता समाज के किसी एक व्यक्ति या वर्ग में केन्द्रित हो सकती है, या यह पूरे समाज में फैली हुई हो सकती है। पारंपरिक समाजों में दोनों प्रकार के शक्ति वितरण के उदाहरण मिलते हैं। जैसे किसी राजा, अभिजात वर्ग या धार्मिक संस्था के मखिया द्वारा प्रभावी शक्ति का प्रयोग तथा रिवाजों के अनसार सारे समाज में वितरित शक्ति।

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प्रश्न 7.
ग्रामीण और नगरीय समुदाय की परिभाषा कीजिए।
उत्तर:
सभ्यता के प्रारंभ में कुछ लोग एक निश्चित भू-भाग पर स्थायी रूप से प्राकृतिक वातावरण में रहने लगे। उसी भू-भाग को ग्रामीण समुदाय के नाम से पुकारा जाने लगा। मैरिल तथा एल्डरीज ने ग्रामीण समुदाय की परिभाषा देते हुए लिखा है कि “ग्रामीण समुदायों के अंतर्गत संस्थाओं और ऐसे व्यक्तियों का संकलन होता है जो छोटे से केन्द्र के चारों और संगठित होते हैं तथा सामान्य प्राथमिक संबंधों द्वारा जुड़े होते हैं।”

ग्रामीण जीवन का अर्थ वह सामुदायिक जीवन है जो अनौपचारिक सरल तथा समाज की प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।” नगरीय समुदाय की परिभाषा विद्वानों ने जनसंख्या के आकार तथा घनत्व को सामने रखकर की है। किंग्सले डेविस के अनुसार, “नगर एक ऐसा समुदाय है जिसमें सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक विषमता पाई जाती है तथा जो कृत्रिमता, व्यक्तिवादिता, प्रतियोगिता और घनी जनसंख्या के कारण नियंत्रण के औपचारिक साधनों द्वारा संगठित होता है।”

प्रश्न 8.
ग्रामीण और शहरी जीवन में सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्रों में सांस्कृतिक एकता होती है। सामान्य मूल्यों को उत्सवों, धार्मिक कर्मकांडों, पुरानी प्रथाओं के द्वारा शक्तिशाली बनाया जाता है। आज भी भारतीय गाँव सभ्यता और संस्कृति के वाहक हैं। वहाँ सभी कार्य परंपरागत भारतीय पंचाग के द्वारा संचालित होते हैं। ग्रामीण परिवेश में बहुत कम नवीनता देखने को मिलती है। नगरों में नवीनता, अनुकूलता और अनुकरण की प्रवृति देखने को मिलती है। नगरों में अधिक खुलापन होता है। ऐसे परिवर्तन सरकारी ढाँचों के द्वारा प्रोत्साहित होते हैं और नगरों में ऐसी संस्थाएँ होती हैं जो इन परिवर्तनों को स्थायी बनाए रखती हैं।

प्रश्न 9.
सामाजिक संगठन की दृष्टि से नगरों और ग्रामों की स्थिति में भेद बताइए।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्रों में संयुक्त परिवार का बहुत अधिक महत्व है। कृषि अर्थव्यवस्था होने के कारण कृषि कार्य के लिए अधिक लोगों की आवश्यकता पड़ती है। नगरों में संयुक्त परिवारों को पसंद नहीं किया जाता। यहाँ एकाकी परिवारों को पसंद किया जाता है। रिश्तेदारों के संबंधों को राजनीतिक या आर्थिक लाभ के लिए पसंद किया जाता है परंतु सदस्यों के निजी जीवन में ये संबंध प्रायः कमजोर होते हैं। भारत में विवाह को अपनिवर्तनीय बंधन समझा जाता है।

यह एक धार्मिक संस्कार है। ग्रामों में अंतर्जातीय विवाहों को अच्छा नहीं समझा जाता है। जबकि नगरों में प्रेम-विवाह, अंतर्जातीय विवाह बढ़ रहे हैं। नगरों में युवक-युवतियाँ अधिक आयु में विवाह कर रहे हैं। ग्रामीण जीवन में सामाजिक स्थिति जाति पर आधारित होती है। नगरों में जाति सहायक भूमिका निभाती है। ग्रामीण समाज परस्पर सहयोग की भावना और मित्रता के भाव पर आधारित होता है जबकि नगरों में लोग अपने पड़ोस में रहनेवालों से प्रायः संबंध नहीं रखते। यहाँ सहयोग और सहानुभूति की कमी देखने को मिलती है।

प्रश्न 10.
कस्बे शहरों से किस प्रकार भिन्न हैं?
उत्तर:
भारत में नगरीय क्षेत्रों का निर्धारण राज्य सरकारों द्वारा होता है और इसके लिए भिन्न-भिन्न राज्यों ने भिन्न-भिन्न मापदंड निर्धारित किए हैं। जनगणना के आधार पर भी शहरों को परिभाषित किया जाता है। जनगणना अधिकारियों द्वारा किसी स्थान को शहर या कस्बा घोषित करने के लिए अग्रलिखित मानदण्ड निर्धारित किए हैं :

  • न्यूनतम जनसंख्या 5000 या उससे अधिक होनी चाहिए।
  • कम से कम 75 प्रतिशत वयस्क पुरुष जनसंख्या कृषि कार्यों में व्यक्त न होकर दूसरे कार्यों पर आश्रित हो ।
  • जनसंख्या. घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. होना चाहिए।

भारतीय जनगणना, आकार और जनसंख्या के घनत्व के आधार पर तीन प्रकार के आवासों का निर्धारण किया जाता है –

  • वह आवास जिसकी जनसंख्या 1,00,000 या अधिक हो, नगर कहलाता है।
  • पांच हजार से एक लाख तक की जनसंख्या वाले स्थान कस्बा या शहर कहलाते हैं।
  • नगर की शासन व्यवस्था नगर महापालिका चलाती है, जबकि कस्बे की व्यवस्था नगर पालिका या गाँव की पंचायत चलाती है।

नगर और शहरों को एक साथ नगरीय वर्ग में तथा शेष आवासों को ग्रामीण वर्ग में रखा गया है। आकार, घनत्व, व्यवसाय-संरचना तथा प्रशासनिक व्यवस्था के आधार पर नगर और कस्बे के बीच अंतर रखा गया है।

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प्रश्न 11.
ग्रामीण जीवन में सामुदायिक भावना के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
ग्रामीण जीवन कृषि पर आधारित है। कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें सारा ग्रामीण समुदाय एक-दूसरे पर निर्भर करता है। सभी लोग फसलों की बुआई, कटाई आदि में एक-दूसरे का सहयोग करते हैं। ग्रामीण जीवन में सरलता और मितव्ययता एक महत्वपूर्ण विशेषता है। ग्रामों में अपराध और पथभ्रष्ट व्यवहार जैसे चोरी, हत्या, दुराचार आदि बहुत कम होते हैं क्योंकि ग्रामीणों में बहुत सहयोग होता है।

वे भगवान से भय खाते हैं और परंपरावादी होते हैं। ग्रामीण लोग नगरों की चकाचौंध और मोह से कम प्रभावित होते हैं और साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। उनके व्यवहार और कार्यकलाप गाँव की प्रथाओं, रूढिओं, जनरीतियों आदि से संचालित होते हैं।

प्रश्न 12.
पर्यावरण से संबंधित कुछ सामाजिक परिवर्तनों के बारे में बताइए।
उत्तर:
पर्यावरण निश्चित रूप से सामाजिक परिवर्तन को प्रभावित करता है। वास्तव में प्राणी के अतिरिक्त जो कुछ उसके चारों तरफ है वह उसका पर्यावरण कहलाता है। रॉस के अनुसार, “कोई भी बाहरी शक्ति जो हमें प्रभावित करती है, पर्यावरण कहलाती है।”

पर्यावरण तथा प्राणी एक-दूसरे से संबंधित होते हैं। विशेष पारिस्थितिकी दशाओं में समाज का विकास होता है। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “पर्यावरण जीवन के प्रारंभ से ही यहाँ एक उत्पादन कोशिकाओं में भी उपस्थित है।” जीवन तथा पर्यावरण को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है। मेकाइवर तथा पेज के शब्दों में “जीवन तथा पर्यावरण को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता है। मेकाइवर तथा पेज के शब्दों में “जीवन तथा पर्यावरण, वास्तव में परस्पर संबंधी हैं।”

मानव जीवन में यहाँ एक ओर पर्यावरण से प्रभावित होता है वहाँ दूसरी ओर पर्यावरण को प्रभावित भी करता है। मेकाइवर तथा पेज के अनुसार “मनुष्य स्वयं को स्वयं के पर्यावरण के अनुकूल बनाता है।” सामाजिक पर्यावरण मनुष्य के मूल्यों तथा विचारों को निश्चित करता है। अनुकूल पर्यावरण में सामाजिक परिवर्तन की गति तीव्र होती है, जबकि प्रतिकूल पर्यावरण में सामाजिक परिवर्तन की गति मंद हो जाती है।

मनुष्य का सामाजिक व्यवहार किसी न किसी रूप में भौगोलिक पर्यावरण से प्रभावित होता है। जो समाज भौगोलिक रूप से एकाकी क्षेत्रों में बसे होते हैं, उनमें दूसरे समाजों की अपेक्षा कम सामाजिक अन्त:क्रिया पायी जाती है। ओडम का मत है कि “मनुष्य पृथ्वी की संतान है। उसे पृथक नहीं किया जा सकता है।” प्राकृतिक प्रकोप जैसे बाढ़, चक्रवात, समुद्री झंझावात तथा सूखा आदि समाज में तेजी से परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं।

प्रश्न 13.
ग्रामीण और नगरीय आर्थिक में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि उत्पादन का प्रमुख आधार है। पशुपालन और कुटीर उद्योग भी कृषि पर आधारित होते हैं। यह अनेक लोगों को जीवन निर्वाह को साधन है। ग्रामों में नकदी फसलें, खाद्य संस्करण और छोटे उद्योग भी व्यवसाय और आय को बढ़ने में सहायता करते हैं। आय का स्तर नीचा होता है। अतः उपभोग का स्तर भी नीचा होता है और लोगों की जीवन पद्धति सरल होती है।

नगरों में उद्योग और सेवा क्षेत्रों का विकास होता है। यहाँ रोजगार के अच्छे साधन हैं। नगरों में श्रम विभाजन और विशेषीकरण पाया जाता है। श्रम की गतिशीलता व्यक्ति को आय के अधिक अवसर प्रदान करती है। यहाँ साक्षरता की दर अधिक है। नगरों में आय के अधिक अवसर विद्यमान हैं। अधिकतर लोग उद्योगों और कार्यालयों में काम करते हैं। नगरों की संस्कृति पर विदेशी भौतिकवाद और प्रौद्योगिकी का बहुत अधिक प्रभाव पड़ा है। किसी व्यक्ति की आय और उसकी जीवन शैली से ही व्यक्ति का मूल्य आँका जाता है। नगरों में अनेक लोग गैर-कानूनी क्रियाओं द्वारा अधिक आय प्राप्त करने में सफल हो जाते हैं।

प्रश्न 14.
एकाकी परिवार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
परिवार के आकार और इसमें सम्मिलित पीढ़ियों की संख्या के आधर पर परिवारों को संयुक्त परिवार और एकाकी परिवारों में विभाजित किया जाता है। सामान्य रूप से इस प्रकार के परिवारों में केवल पीढ़ियों के सदस्य ही पाए जाते हैं अर्थात् पति-पत्नी तथा उनके अविवाहित बच्चे। एकाकी परिवार की परिभाषा देते हुए श्री.एम.एन. श्रीनिवास ने कहा है, “व्यक्ति, उसकी पत्नी और अविवाहित बच्चों वाले गृहस्थ समूह को प्रारंभिक अथवा एकाकी परिवार कहते हैं।”

एकाकी परिवार का आकार छोटा होता है। इसमें पति-पत्नी और उनके अविवाहित बच्चे रहते हैं। इस प्रकार के परिवार का संबंध दो परिवारों के साथ होता है। एकाकी परिवार एक स्वतंत्र सामाजिक इकाई है और हर मामले में केवल एक ही व्यक्ति का नियंत्रण रहता है। एकाकी परिवार के सभी सदस्यों के बीच मित्रों जैसे संबंध होते हैं। अपने-अपने कार्यों से निपटने के पश्चात् सभी सदस्य एक-दूसरे की सहायता करते हैं। इसमें माता-पिता की प्रधानता होती है।

जब तक बच्चों के विवाह नहीं हो जाते हैं उस समय तक माता-पिता बच्चों पर नियंत्रण रखते हैं। इन परिवारों में माता-पिता द्वारा ही बच्चों का समाजीकरण किया जाता है। बच्चों को भाषा, रहन-सहन और नियमित जीवन व्यतीत करने की शिक्षा परिवार में ही दी जाती है। एकाकी परिवारों में स्त्रियों की दशा अपेक्षाकृत ठीक रहती है। उनका स्थान ऊँचा और सम्मानजनक होता है। इन परिवारों में सामाजिक समस्याएँ अधिक नहीं होती।

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प्रश्न 15.
ग्रामीण समुदाय का अर्थ भारतीय सदंर्भ में स्पष्ट करें।
उत्तर:
भारत की आत्मा गाँवों में वास करती है। भारतवर्ष की 72 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों या गाँवों में निवास करती है । समाज शास्त्र में गाँव को ग्रामीण समुदाय के रूप में परिभाषित किया गया है। सैंडर्सन के अनुसार “एक ग्रामीण समुदाय वह स्थानीय क्षेत्र है, जिसमें वहाँ निवास करने वाले लोगों की सामाजिक अन्तःक्रिया और उनकी संस्थाएँ सम्मिलित हैं, जिनमें वह खेतों के चारों ओर झोपड़ियों या गाँवें रहती हैं जो उनके सामान्य गतिविधियों के केंद्र होते हैं।”

सामान्यः गाँव या ग्राम ऐसे परिवारों के समूह होते हैं जिनके प्रमुख व्यवसाय कृषि होते हैं। और जो कच्चे-पक्के मकानों में निवास करते हैं ए.आर.देशाई के अनुसार-“ग्राम एक रंगमंच है जहाँ ग्रामीण जीवन का प्रमुख भाग स्वंय प्रकट होते हैं और कार्य करते हैं; भारतीय संदर्भ पूर्णतः सत्य सिद्ध होता है।”

प्रश्न 16.
ग्रामीण जीवन में गरीबी और अशिक्षा के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
ग्रामीण जीवन में कृषक परिवारों की प्रधानता है। उनका प्रकृति से प्रत्यक्ष संबंध है। ग्रामीण परिवेश में परस्पर सहयोग व समुदाय का भाव होता है लेकिन ग्रामीण जीवन में गरीबी और अशिक्षा अंग्रेजों के शासनकाल से ही चली आ रही है। भूमि की गैर लाभकारी छोटी और बिखरी हुई जोतों के कारण गाँवों में निर्धनता बनी हुई है। अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई के साधनों का अभाव है। अधिकतर भूमि बंजर पड़ी है जो भूमि सरकार ने अधिग्रहण की है वह उपजाऊ नहीं है।

ग्रामीण जनसंख्या का एक बड़ा प्रतिशत गरीबी की रेखा के नीचे रहता है। अभी भी ग्रामीण मौलिक सुविधाओं से वंचित हैं। वहाँ शिक्षा, स्वास्थ्य, आवागमन, संचार और उद्योगों की कमी है। यद्यपि सरकार ने स्वतंत्रता के पश्चात् ग्रामीण जीवन की स्थिति को सुधारने का बहुत प्रयास किया है परंतु कृषि की उत्पादकता और अन्य सुख-सुविधाओं की कमी के कारण ग्रामीण जीवन अभी भी निम्न स्तर का है।

प्रश्न 17.
सामाजिक नियंत्रण की दृष्टि से ग्रामीण और नगरीय जीवन की तुलना करो।
उत्तर:
सामान्य शब्दों में प्रत्येक व्यक्ति को समाज द्वारा मान्य आदर्शों व प्रतिमानों के अनुसार अपने को ढालना पड़ता है तथा उसी के अनुसार वह व्यवहार और आचरण करने के लिए बाध्य होता है। यह बाध्यता ही सामाजिक नियंत्रण कहलाती है। यह वह विधि है जिसके द्वारा एक समाज अपने सदस्यों और समूहों के व्यवहार का नियमन करता है।

मेकाइवर और पेज के अनुसार “सामाजिक नियंत्रण से अभिप्राय उस ढंग से है जिसमें कि समस्त सामाजिक व्यवस्था समन्वित रहती है और अपने को बनाए रखती है अथवा वह जिससे संपूर्ण व्यवस्था एक परिवर्तनशील संतुलन के रूप में क्रियाशील रहती है।”

सामाजिक नियंत्रण का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इसके द्वारा प्राचीन काल से चली आ रही सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने में सहायता मिलती है। सामाजिक नियंत्रण द्वारा पूर्वजों की अपनाई गई परंपराओं और रीति-रिवाजों को उनकी संतानें मानने के लिए बाध्य होती हैं। ग्रामीण जीवन में परिवार, जाति और धर्म सामाजिक नियंत्रण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। ग्रामीण समुदाय के सभी लोगों को इन अनौपचारिक नियमों का पालन करना आवश्यक होता है। इन नियमों की अवहेलना करने का साहस किसी में भी नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति ऐसा करता है तो ग्राम पंचायत उन लोगों को दंडित करती है।

नगरों में व्यक्ति सामाजिक नियंत्रण से मुक्त रहते हैं। नगर प्रायः अकेलेपन का भाव पैदा करता है। नगर की आकार जितना बड़ा होता है, उतनी ही बड़ी समस्या सामाजिक नियंत्रण की होती है । सामाजिक नियंत्रण के साधन भी जटिल हो जाते हैं। नगरों में न्यायिक सत्ता दबाव वर्ग के रूप में कार्य करती है।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
संरचनात्मक परिवर्तन से आप क्या समझते हैं? पुस्तक से अलग उदाहरणों द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
हैरी एम. जॉनसन के अनुसार सामाजिक परिवर्तन अपने संकुचित अर्थ में सामाजिक संरचना में परिवर्तन है। हैरी. एम. जॉनसन ने सामाजिक संरचना में परिवर्तन के निम्नलिखित पाँच प्रकारों का उल्लेख किया है:

  • सामाजिक मूल्यों में होने वाला परिवर्तन
  • संस्थाओं में होने वाला परिवर्तन
  • संपदा तथा पुस्कारों के वितरण में होने वाला परिवर्तन
  • कार्मिकों में परिवर्त
  • कार्मिकों की अभिवृत्तियों तथा योग्यताओं में परिवर्तन।

1. सामाजिक मूल्यों में होने वाला परिवर्तन – सामाजिक संरचना में परिवर्तन का तात्पर्य सामाज के मूल्यों तथा मानकों में होने वाले परिवर्तनों से है। सामाजिक मूल्य वस्तुतः सामाजिक भूमिकाओं तथा सामाजिक अंत:क्रियाओं को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। इन सामाजिक मूल्यों में परिवर्तन के दूरगामी परिणाम सामाजिक व्यवस्था की प्रकार्यात्मकता पर अवश्य पड़ते हैं।

2. संस्थाओं में होने वाला परिवर्तन – संस्थाओं में होने वाले परिवर्तन अपेक्षाकृत अधिक निश्चित संरचनाओं में होते हैं। इन परिवर्तनों के अंतर्गत संगठनों, भूमिकाओं तथा भूमिकाओं की
विषय-वस्तु सम्मिलित किए जाते हैं, इन्हें ही संस्थाओं में होने वाला परिवर्तन कहा जाता है। उदाहरण के लिए नगरीकरण तथा उत्तरोत्तर बढ़ती गतिशीता के कारण संयुक्त परिवार व्यवस्था एकाकी परिवारों में परिवर्तित हो रही है। इससे एकाकी परिवारों के सदस्यों के मध्य अंत:संबंध प्रभावित हुए हैं।

3. संपदा तथा पुरस्कारों के वितरण में होने वाला परिवर्तन – कुछ विशेष मामलों में संपदा तथा पुरस्कारों के वितरण में अत्यधिक निकट संबंध मिलता है लेकिन फिर भी दोनों स्थितियों में विश्लेषणात्मक अंतर पाया जाता है। उदाहरण के लिए व्यक्तियों को दिया जाने वाला वेतन उनकी सेवाओं का पुरस्कार तथा स्वीकृति दोनों है। इसी संदर्भ में प्रतिष्ठा ख्याति तथा प्रेम एवं स्नेह अमूर्त पुरस्कार हैं, जो निरंतर परिवर्तित होते रहते हैं। वास्तव में पुरस्कार एक प्रकार की शक्ति कहे जा सकते हैं जो निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।

4. कार्मिकों में परिवर्तन – सामाजिक परिवर्तन सामाजिक व्यवस्था की भूमिकाओं को धारण करने वाले कार्मिकों में परिवर्तन के कारण भी होता है। इस प्रकार के परिवर्तन मूल्यों को महत्वपूर्ण परिवर्तन कहते हैं। जो किसी विशेष सामाजिक पद पर आसीन होता है, उसकी कार्यपद्धति भी विशिष्ट होती है इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमताओं तथा योग्यताओं के आधार पर अन्य व्यक्तियों से भिन्न होता है। कार्मिकों के परिवर्तन से मूल्यों तथा संस्थागत प्रतिमानों में परिवर्तन आता है उदाहरण के लिए, किसी संस्था के शीर्ष यक्ति के बदलने पर उस संस्था की कार्य पद्धति तथा अभिवृत्तियों व मूल्यों में परिवर्तन आ सकते हैं।

5. कार्मिकों की योग्यताओं तथा मनोवृत्तियों में परिवर्तन – संरचनात्मक परिवर्तन कार्मिकों की मनोवृत्तियों में परिवर्तन होने से हो भी सकता है अथवा नहीं भी हो सकता है। उदाहरण के लिए, दूरदर्शन तथा दूरभाष के आविष्कारों ने न केवल परिवारों में वरन् सामाजिक व्यवस्था में अनेक परिवर्तन ला दिए हैं।

प्रश्न 2.
सामाजिक परिवर्तन के विभिन्न स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप-सामाजिक परिवर्तन व्यक्तियों के जीवन प्रतिमानों में होने वाले परिवर्तनों की ओर संकेत करता है। गर्थ तथा मिल्स के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन के द्वारा हम उसको संकेत करते हैं जो समय के साथ-साथ कार्यों, संस्थाओं या उन व्यवस्थाओं से होता है जो सामाजिक संरचना व उनकी उत्पत्ति, विकास तथा पतन में संबंधित है।”

समाजशास्त्रियों द्वारा सामाजिक परिवर्तन के निम्नलिखित स्वरूपों का उल्लेख किया गया है:

  • उद्विकास
  • क्रांति तथा
  • प्रगति

1. उद्विकास – उद्विकास सामाजिक परिवर्तन की धीमी प्रक्रिया है। उद्विकास से होने वाला सामाजिक परिवर्तन लगातार परिवर्तन करते हुए सामाजिक संरचना का विकास सरलता से जटिलता की ओर करता है। उद्विकास की दिशा का स्वरूप निम्नलिखित होता है :

  • सरता से जटिलता की ओर
  • समानता से असमानता की ओर तथा
  • अनिश्चितता से निश्चितता की ओर

सामाजिक उद्विकास की परिभाषा करते हुए हाबहाउस ने कहा है कि “सामाजिक उद्विकास नियोजित अनियोजित विकास को कहते हैं, जो सांस्कृतिक तथा सामाजिक संबंधों के स्वरूपों अथवा सामाजिक अंत:क्रियाओं के स्वरूपों का होता है।”

ऑगस्तं कोंत ने सभी समाजों में विकास की निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ बतायी हैं –

  • धार्मिक अवस्था
  • अध्यात्मिक अवस्था तथा
  • प्रत्यक्षवादी अवस्था

हरबर्ट स्पेंसर ने सामाजिक परिवर्तन की अवधारण को स्पष्ट करने के लिए चार्ल्स डार्विन के सिद्धांत योग्यतम की उत्तरजीविता को आधार बनाया।

लेविस हैनरी मोर्गन ने अपनी पुस्तक ‘एनसिएंट सोसाइटी’ में उद्विकास की तीन अवस्थाएँ बतायी हैं –

  • जंगली अवस्था
  • बर्बरता की अवस्था तथा
  • सभ्यता की अवस्था

2. क्रांति – उद्विकास की भाँति क्रांति भी सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया है। उद्विकास में सामाजिक परिवर्तन मंद गति से होते हैं, जबकि क्रांति में सामाजिक परिवर्तन तेजी से तथा प्रायः अकस्मात होते हैं। जॉन ई. कॉनक्लिन ने क्रांति की परिभाषा देते हुए लिखा है कि “क्रांति समाज के राजनीतिक, आर्थिक तथा संस्तरण की व्यवस्थाओं में आधारभूत तथा तीव्र परिवर्तन लाती है।”

क्रांति का संघर्ष सामाजिक परिवर्तन का वाहक है। इस संघर्ष का स्वरूप हिंसात्मक भी हो सकता है। क्रांति का प्रारंभ राजनीतिक समूहों तथा वर्गों के बीच होता है। क्रांति के माध्यम से राजनीतिक, आर्थिक व सांस्कृतिक संस्थाओं में मौलिक परिवर्तन होते हैं। कार्ल मार्क्स का मत है कि क्रांति के माध्यम से समाज में संरचनात्मक परिवर्तन आते हैं। क्रांति का स्वरूप राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक या प्रौद्योगिक हो सकता है लेकिन इसके द्वारा समाज में व्यापक परिवर्तन लाए जाते हैं।

विद्वानों के द्वारा क्रांति के दो उपागम बताए गए हैं –

  • जैविकीय उपगाम
  • संरचनात्मक उपागम

1776 की अमेरिकन क्रांति, 1789 की फ्रांसीसी क्रांति तथा 1917 की रूसी क्रांति विश्व की प्रमुख क्रांतियाँ हैं।

3. प्रगति – समाज की गतिशील पहलू, उद्विकास, विकास तथा प्रगति के माध्यम से प्रतिबंधित होता है। प्रगति सामाजिक गतिशीलता को केन्द्रीय तत्व है। ऑगस्त कोंत के अनुसार प्रगति, भौतिक, नैतिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक हो सकती है।

लूम्ले के अनुसार, “प्रगति परिवर्तन है लेकिन यह इच्छित तथा स्वीकृत दिशा में परिवर्तन है, न कि प्रत्येक दिश में परिवर्तन।” गुरविच तथा मूर के अनुसार, प्रगति स्वीकृत मूल्यों के संदर्भ में इच्छित उद्देश्य की ओ बढ़ना है।” वार्ड के शब्दों में, “प्रगति उसे कहते हैं जो मानव संख्या में वृद्धि करती है।” हाबहाउस के अनुसार, उद्विकास से मैं सामाजिक जीवन के उन गुणों की वृद्धि समझता हूँ जिन्हें मनुष्य मूल्यों से संबद्ध कर सके अथवा तर्कपूर्ण तरीके से मूल्य जोड़ सके।

प्रगति का तात्पर्य विशिष्ट साध्य की ओर तथा आदर्श की ओर सूचित करने से है। वस्तुतः प्रगति की अवधारणा में श्रेष्ठता की ओर परिवर्तन का तत्व निहित है।

उपरोक्त वर्णन के आधर पर प्रगति के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं:

  • प्रगति किसी विशिष्ट दिशा में परिवर्तन है।
  • प्रगति के माध्यम से वांछित लक्ष्य की पूर्ति की जाती है।
  • प्रगति सामूहिक रूप से होती है।
  • प्रगति के लिए संकल्प तथा इच्छा आवश्यक है।
  • एक अवधारणा के रूप में प्रगति परिवर्तनशील है। प्रगति के चिह्न सदैव बदलते रहते हैं।
  • प्रगति मनुष्य के सचेत प्रयत्नों का परिणाम है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

प्रश्न 3.
क्या आप इस बात से सहमत हैं कि तीव्र सामाजिक परिवर्तन मनुष्य के इतिहास में तुलनात्मक रूप से नवीन घटना है? अपने उत्तर के लिए कारण दें।
उत्तर:
मानव एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में ही रह सकता है। समाज एक निरंतर परिवर्तनशील अवधारणा है। एच.एन. जॉनसन ने लिखा है “अपने मूल अर्थ में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ सामाजिक संरचना में परिवर्तन से है।’ गिलिन एवं गिलिन ने अपनी रचना में सामाजिक परिवर्तन जीवन की मानी हुई रीतियों में परिवर्तन को कहते हैं।

जिस प्रकार समय की गति को कोई अवरुद्ध नहीं कर सकता है, ठीक उसी प्रकार परिवर्तन की धारा को कोई रोक नहीं सकता है। अति प्राचीन काल में, मानव समाज के विकास के आरंभिक चरण में मानव पैदल चलता था और लंबी दूरी को तय करता था। कालांतर में लकड़ी की गाड़ी का अवष्किार हुआ, सड़कों पर बैलगाड़ियाँ दौड़ने लगीं। घोड़े की सवारी सामने आई। हाथी पर बैठकर लोगों ने मंजिल तय करना आरंभ किया।

इक्का, बघी, तांगे का समय भी आया पहियों के सहारे साईकिल चलने लगी। एक दिन पटरियाँ बिछ गईं और रेलगाड़ी का इंजन दौड़ने लगा। कार, बस, ट्रैक्टर देखते-देखते क्या-क्या नहीं आया? और एक दिन पक्षी की तरह आदमी के पंख लग गए और वह हवाई जहाज में उड़ने लगा, लोगों ने कहा चमत्कार हो गया। विज्ञान ने चमत्कार कर दिखाया, परंतु चमत्कार इससे भी अधिक हुआ। आंतरिक्ष में यात्रा की शुरूआत हुई और यात्रियों ने चंद्रलोक की यात्रा पूरी की। चमत्कार और भी हो रहे हैं, विज्ञान का कमाल और भी होने वाला है। परिवर्तन का कदम और भी बढ़ने वाला है।

परिवर्तन की गति तेज हुई है बाजारों में शेयर मार्केट की धूम मची हुई है। सेंसेक्स के उतार-चढ़ाव चल रहे हैं । येन, रूबल आरं डॉलर से बाजार में चकाचौंध बढ़ रही है। संसार में हर 30 मिनट में कोई न कोई परिवर्तन हो रहा है। निश्चित ही तीव्र सामाजिक घटनाएँ अभूतपूर्व परिवर्तन है। इसका मूलभूत कारण विज्ञान की उन्नति है।

प्रश्न 4.
कानून के उद्देश्य एवं प्रकार लिखिए।
उत्तर:
कानून के उद्देश्य-कानून का उद्देश्य समाज में व्यक्ति का पूर्ण विकास करना है। इसके मुख्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं :

(i) शांति और व्यवस्था – कानून का सबसे पहले, किंतु महत्वपूर्ण उद्देश्य शांति स्थापित करना होता है।

(ii) समानता उत्पन्न करना – कानून का दूसरा उद्देश्य समानता उत्पन्न करता है समानता से तात्पर्य समान अवसर से है। कानून समानता के सिद्धांत पर आधारित रहता है और बिना भेदभाव के प्रत्येक नागरिक को विकास का समान अवसर प्रदान करना ही इसका उद्देश्य है।

(iii) व्यक्ति की रक्षा तथा विकास – व्यक्ति का विकास ही सामाजिक जीवन का उद्देश्य होता है। कानून का लक्ष्य व्यक्ति के जीवन, धन तथा स्वतंत्रता की रक्षा करना, तथा उसके विकास में आनेवाली बाधाओं को दूर करना है। कानून पैशाचिक प्रवृतियों पर प्रतिबंध लगाकर व्यक्तियों को कुमार्ग पर जाने से रोकता है तथा उसकी भिन्न-भिन्न शक्तियों के विकास में सहायक होता है।

(iv) आवश्यकताओं की पूर्ति – व्यक्ति के विकास के लिए भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक है। जिस समाज में अधिकांश व्यक्तियों की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होगी, उस समाज के व्यक्तियों के व्यक्तित्व का विकास स्वप्नमात्र है। कानून का उद्देश्य यह है कि ऐसी व्यवस्था करे जिससे नागरिकों की भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हो।

(v) स्वतंत्रता की रक्षा – कानून का उद्देश्य मनुष्य की स्वतंत्रता की रक्षा करना भी है। प्रसिद्ध रोमन विद्वान सिसरो लिखता है, “हम स्वतंत्रत होने के लिए कानून के गुलाम बनते हैं।” मनुष्य की सामाजिक उन्नति के मार्ग में जो बाधाएँ हैं, उन्हें दूर करने का नाम ही स्वतंत्रता है और यह स्वतंत्रता कानून द्वारा ही प्राप्त होती है। वस्तुतः कानून सामाजिक जीवन की सफलता की कुंजी है।

(vi) उद्योग – धंधों की रक्षा-कानून का एक उद्देश्य उद्योग धंधों की रक्षा करना भी है। कानून द्वारा ही व्यक्तिगत सम्पत्ति की रक्षा होती है और ऐसी व्यवस्था का निर्माण होता है, जिसमें विभिन्न व्यवसायों का विकास हो। कानून के बल पर लोग दूर-दूर स्थानों में जाकर पूँजी लगाते तथा वाणिज्य एवं व्यवसाय करते हैं। कानून के प्रकार-राजनीतिक शास्त्र के अंतर्गत कानूनों का वर्गीकरण कई आधारों पर किया जाता है।

कुछ विद्वान कानून का वर्गीकरण कानून-निर्माण करने वाली सत्ता के आधार पर करते हैं। कुछ विद्वान कानून का वर्गीकरण निजी या सार्वजनिक विशेषताओं के आधार पर करते हैं।

कानून के विभिन्न प्रकारों का वर्णन इस प्रकार किया जा सकता है –

(i) राष्ट्रीय कानून – राष्ट्रीय कानून वे कानून हैं जिनका संबंध राज्य की भूमि, उसके निवासी तथा राज्य के अंतर्गत संगठित विविध समुदायों से होता है। राष्ट्रीय कानून संपूर्ण राष्ट्रीय जीवन को व्यवस्थित करते हैं।

(ii) अंतर्राष्ट्रीय कानून – अंतर्राष्ट्रीय कानून वे नियम हैं, जो विविध राज्यों के पारस्परिक संबंध निश्चित करते हैं। इसे राज्य एक राज्य के प्रति कैसा व्यवहार करे, इसका निर्णय अंतर्राष्ट्रीय कानून के ही अंतर्गत होता है। विज्ञान की प्रगति तथा यातायात की सुविधाओं के कारण अंतर्राष्ट्रीय कानून में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। प्रो. हॉलैण्ड के अनुसार, “अंतर्राष्ट्रीय कानून आचरण के वे नियम हैं, जिनमें संपूर्ण सभ्य राष्ट्र पारस्परिक रूप में अपने को बँधा हुआ समझते हैं

और जिन नियमों में वह शक्ति होती है, जो मनुष्य की अंतरात्मा में होती है, जो उसे देश के नियमों के पालन के लिए प्रेरित करती है और जो उन राष्ट्रों के विचार में अपराध करने पर लागू हो सकते हैं। ओपेनहाइम के अनुसार, “अंतर्राष्ट्रीय कानून प्रथाओं और परंपराओं का वह समूह है, जो सभ्य राज्यों द्वारा अपने आपसी संबंध में कानूनी तौर पर बाध्य समझा जाता है।”

(iii) सांविधानिक कानून – प्रत्येक राज्य में दो प्रकार के कानून होते हैं। एक प्रकार के कानून से राज्य शासित होता है और दूसरे प्रकार के कानून द्वारा राज्य अपने नागरिकों पर शासन करता है। संवैधानिक कानून राज्य की शासन-व्यवस्था के आधार होते हैं। वे राज्य के कर्तव्य, राज्य-शासन का संगठन, उसमें विभिन्न अंगों के पारस्परिक संबंध और शासितों के अधिकारों तथा शासक और शासित के संबंध का नियमन करते हैं। सांविधानिक कानून लिखित और अलिखित दोनों होते हैं। ये कानून निर्मित या विकसित भी होते हैं।

(iv) साधारण कानून – संविधानिक कानूनों को छोड़कर राज्य के अन्य कानून साधारण कानून कहलाते हैं। इन कानूनों द्वारा राज्य नागरिकों का आचरण नियमित तथा नियंत्रित करता है। साधारण कानूनों के निर्माण सामान्यतः विधानमंडल द्वारा है, परंतु रीति-रिवाज, धर्मशास्त्र, नजीर इत्यादि भी इनके आधार होते हैं।

(v) व्यक्तिगत कानून – व्यक्तिगत कानून वे कानून हैं, जो मनुष्य के पारस्परिक संबंध निर्धारित करते हैं। व्यक्तिगत कानूनों का संबंध मनुष्य के सामाजिक जीवन से नहीं, अपितु इनमें नागरिकों के परस्परिक संबंध का विश्लेषण रहता है। साधारण कानून केवल यह बताते हैं कि एक नागरिक का दूसरे नागरिक के साथ क्या संबंध होना चाहिए। दीवानी के कानून, जायदाद खरीदने या बेचने से संबद्ध कानून, कर्ज-संबंधी कानून, विवाह-संबंधी कानून इत्यादि व्यक्तिगत कानून हैं।

(vi) सार्वजनिक कानून – सार्वजनिक कानून वे कानून हैं जो व्यक्ति का राज्य के साथ संबंध निर्धारित करते हैं। सार्वजनिक कानून के द्वारा नागरिकों को यह बताया जाता है कि उन्हें सार्वजनिक और सामाजिक क्षेत्र में किस प्रकार का कार्य नहीं करना चाहिए। उदाहरणार्थ, चोरी-डकैती, नरहत्या, धोखा इत्यादि रोकने के कानून सार्वजनिक कानून हैं। सार्वजनिक और व्यक्तिगत कानून का विभेद करते  हुए हॉलैंड ने बताया, “व्यक्तिगत कानून से संबंद्ध दोनों पक्ष नागरिक ही होते हैं और राज्य उनके बीच एक निष्पक्ष पंच का काम करता है। सार्वजनिक कानूनों में राज्य यद्यपि एक निष्पक्ष पंच के रूप में विद्यमान रहता है, तथापि वह दोनों संबद्ध पक्षों में एक पक्ष अपना ही रहता है।”

(vii) प्रशासकीय कानून – प्रशासकीय कानून वे कानून हैं, जिनसे सरकारी कर्मचारियों के पद उत्तरदायित्व तथा अधिकारों का नियमन होता है। प्रो. डायसी के अनुसार, “ये (प्रशासकीय कानून) वे नियम हैं, जो राज्य के सभी कर्मचारियों के अधिकारों तथा कर्तव्यों के निश्चित करते हैं।” प्रो. गेटेल के अनुसार, “यह (प्रशासकीय कानून) सार्वजनिक कानून का वह अंश है, जो प्रशासकीय अधिकारियों का संगठन और उनकी योग्यता का निर्धारण करता है और व्यक्तिगत रूप में नागरिकों को उनके अधिकारों का उल्लंघन किए जाने की स्थिति में सुरक्षा का उपाय बताता है।”

प्रशासकीय कानूनों को लागू करने के लिए प्रशासकीय न्यायालय पृथक होते हैं। इंग्लैंड, अमेरिका तथा भारत में सभी नागरिकों के लिए एक ही तरह के कानून हैं, अतः इन देशों में विधि का शासन है। फ्रांस, इटली स्विटजरलैंड इत्यादि देशों में सरकारी कर्मचारियों के पृथक न्यायालय एवं कानून हैं, जिन्हें प्रशासकीय कानून कहा जाता है।

(a) सामान्य कानून – प्रशासकीय कानून की तरह की सामान्य कानून भी सार्वजनिक कानून के अंतर्गत आते हैं। सामान्य कानून राज्य तथा व्यक्तियों के बीच के संबंध का निश्चय करते हैं। इसके निम्नलिखित भेद हैं :

  • संविधि – संविधि वे कानून हैं, जिनका निर्माण राज्य का कानून बनाने वाली संस्था दैनिक शासन करने के लिए करती है।
  • अध्यादेश – अध्यादेश उन नियमों को कहते हैं, जो असाधारण परिस्थितियों का सामना करने के लिए सरकार की कार्यकारिणी द्वारा बनाए जाते हैं।
  • साधारणत – अध्यादेशों की अवधि तीन महीने, छः महीने या एक वर्ष की होती है।
  • नजीर या मुकदमे के कानून – नजीर या मुकदगे के कानून वे कानून हैं, जिन्हें न्यायाधीश मुकदमों पर विचार तथा निर्णय करते समय बनाते हैं। ऐसे कानूनों का प्रयोग वकील अपने मुदकमों के सिलसिले में करते हैं।
  • प्रथागत कानून – प्रथागत कानून वे कानून हैं, जिनकी उत्पत्ति प्रथाओं या रीति-रिवाजों से होती है। ये कानून नहीं हैं लेकिन न्यायालय इन्हें अनुविहित कानून की तरह मान्यता प्रदान करते हैं।

प्रश्न 5.
सत्ता से आप क्या समझते हैं? शक्ति के वैधानिकरण के कौन-कौन से आधार है?
उत्तर:
सत्ता का अर्थ – सी, राइट मिल्स के अनुसार सत्ता का तात्पर्य निर्णय लेने के अधिकार तथा दूसरे व्यक्तियों के व्यवहार को अपनी इच्छानुसार तथा संबंधित व्यक्तियों की इच्छा के विरुद्ध प्रभावित करने की क्षमता से है।

रॉस का मत है कि सत्ता का तात्पर्य प्रतिष्ठा से है। प्रतिष्ठित वर्ग के पास सत्ता भी होती है।
सत्ता के प्रमुख तत्व हैं –

  • प्रतिष्ठा
  • प्रसिद्धि
  • प्रभाव
  • क्षमता
  • ज्ञान
  • प्रभुता
  • नेतृत्व तथा
  • शक्ति

मैक्स वैबर का मत है कि सत्ता वह प्रभाव है जिसे वे व्यक्ति स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करते हैं, जिनके प्रति इसका प्रयोग किया जाता है। सत्ता एक वैधानिक शक्ति है। सत्ता समाज द्वारा स्वीकृत प्रभुत्व है। आधुनिक समाजों में राज्य के प्रमुख द्वारा प्रयोग किए जाने वाला बल वस्तुतः सत्ता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते हैं कि जब शक्ति को वैधता प्रदान कर दी जाती है तो यह सत्त का स्वरूप धारण कर लेती है।

शक्ति के वैधानीकरण के विभिन्न आधार-प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वैवर ने सत्ता के वैधानिकरण के निम्नलिखित तीन आधार बताए हैं –

  • पारंपरिक सत्ता
  • करिश्माई सत्ता तथा
  • वैधानिक-तार्किक सत्ता।

1. पारंपरिक सत्ता –

  • पारंपरिक सत्ता को व्यक्तियों द्वारा आदतन स्वीकार किया जाता है।
  • व्यक्तियों द्वारा किसी भी शक्ति को केवल इसलिए स्वीकार किया जाता है कि उनसे पहले के व्यक्तियों ने भी उसे स्वीकार किया था अतः सत्ता का अनुपालन एक परंपरा बन जाता है।
  • परपरागत सत्ता की प्रकृति व्यक्तिगत तथा अतार्किक होती है। पारंपरिक सत्ता के प्रमुख उदाहरण हैं –
    (a) जनजाति का मुखिया
    (b) मध्यकाल के राजा तथा सामंत एवं
    (c) परंपरागत पितृसत्तात्मक परिवार का मुखिया।

2. करिश्माई सत्ता – करिश्माई सत्ता से युक्त व्यक्ति में असाधारण प्रतिभा, नेतृत्व का जादुई गुण तथा निर्णय लेने की अद्भुत कमता पायी जाती है। जनता द्वारा ऐसे व्यक्ति का सम्मान किया जाता है तथा उसमें विश्वास प्रगट किया जाता है। यही कारण है कि व्यक्तियों द्वारा करिश्माई व्यक्ति के आदेशों का पालन स्वेच्छापूर्वक किया जाता है। करिश्माई सत्ता की प्रकृति व्यक्तिगत तथा तार्किक होती है। अब्राहम लिंकन, महात्मा गाँधी तथा लेनिन करिश्माई व्यक्तित्व थे।

3. वैधानिक – तार्किक सत्ता –

  • आधुनिक औद्योगिक समाजों में सत्ता स्वरूप वैधानिक तथा तार्किक होते हैं।
  • वैधानिक तथा तार्किक सत्ता औपचारिक होती है तथा इसके विशेषाधिकार सीमित तथा कानून के द्वारा सुपरिभाषित होते हैं।
  • वैधानिक-तार्किक सत्ता का समावेश व्यक्ति विशेष में निहित न होकर उसके पद तथा प्रस्थिति में निहित होता है।
  • वैधानिक-तार्किक सत्ता की प्रकृति अवैयक्तिक तथा तार्किक होती है। आधुनिक औद्योगिक समाजों में नौकरशाही को वैधानिक तार्किक सत्ता का उपयुक्त उदाहरण समझा जाता है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

प्रश्न 6.
अपराध के विभिन्न कारण क्या हैं? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मनुष्य अपराध क्यों करता है? इस प्रश्न का उत्तर देना सरल नहीं है। किसी मनुष्य के द्वारा अपराध करने के अनेक उद्देश्य हो सकते हैं। कभी-कभी अपराधी बिना किसी उद्देश्य के अपराध कर बैठता है। वास्तव में, अपराध एक प्रवृति है। जब कोई व्यक्ति अपराध करता है तो उसके अनेक कारण हो सकते हैं।

अपराध के कारण – अपराध के कारणों का वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है।

  • भौगोलिक कारक
  • जैविकीय कारक
  • आर्थिक कारक
  • वैयक्तिक कारक
  • सामाजिक कारक तथा
  • अन्य कारक।

(i) भौगोलिक कारक – भौगोलिकवादियों ने भौगोलिक पर्यावरण में अपराध के अनेक कारण खोजे हैं। उनके अनुसार भौगोलिक पर्यावरण अपराध को प्रोत्साहित करता है । भौगोलिकवादियों के अनुसार अपराध के कारण निम्नलिखित हैं :

(a) जलवायु – मॉण्टेस्कू जो एक प्रसिद्ध भौगोलिकवादी हुआ है, का विश्वास है कि भूमध्य रेखा की ओर बढ़ने पर अपराधों की दरें भी बढ़ती जाती हैं। उत्तरी तथा दक्षिणी ध्रुवों की ओर बराबर होने पर मद्यपान अधिक देखा जा सकता है। भूगोलशास्त्रियों के अनुसार गर्म तथा आर्द्र जलवायु भी अपराध की प्रकृति निश्चित करती है।

(b) प्राकृतिक अवस्थाएँ – अपराधशास्त्री साम्ब्रासो का कथन है कि पहाड़ी क्षेत्रों में मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक बलात्कार के अपराध होते हैं। उसका विश्वास है कि मैदानी क्षेत्रों में व्यक्ति से संबंधित अपराध अधिक होते हैं। इसी मत के अनुसार समुद्रतटीय प्रदेशों में अपेक्षाकृत अधिक अपराध होते हैं।

(c) ऋतुएँ – भूगोलशास्त्री यह भी मानते हैं कि एक विशेष ऋतु में एक विशेष प्रकार के अपराध होते हैं।

भूगोलशास्त्री लैकेसन ने अपराध तथा ऋतुओं में संबंध स्थापित किया है। उसका कथन है –

  • शिशु-हत्या के माह जनवरी, फरवरी, मार्च तथा अप्रैल है।
  • संपत्ति से संबंधित अपराध का माह जनवरी तथा दिसंबर है।
  • जून तथा जुलाई में बलात्कार तथा मानव-हत्या के अपराध बढ़ जाते हैं।
  • युवतियों पर बलात्कार सबसे अधिक जून में तथा सबसे कम नवंबर में किए जाते हैं।
  • उसने जनवरी तथा अक्टूबर के माह पितृ-हत्या के लिए बताए हैं।

इस प्रकार भूगोलशास्त्री भौगोलिक पर्यावरण को ही अपराध के लिए उत्तरदायी ठहराते हैं: परंतु आधुनिक समय में समाजशास्त्रियों के द्वारा इसे स्वीकार नहीं किया जाता। अपराधों के लिए भौगोलिक कारकों के अतिरिक्त अन्य परिस्थितियाँ भी उत्तरदायी हो सकती हैं।

(ii) जैविकीय कारक – कुछ विद्वानों के अनुसार अपराध का कारण व्यक्ति की जैवकीय विशेषताएँ होती हैं-अपराध करने से संबंधित उनके तर्क इस प्रकार हैं :

(a) वंशानुक्रम – कुछ विद्वानों, जिनमें लाम्ब्रासो प्रमुख है, का विश्वास है कि अपराध का एक मात्र कारण दोषपूर्ण वंशानुक्रम है। इसके अनुसार अपराधी जन्मजात होते हैं। वे जन्म से ही कुछ ऐसी विशेषताएँ लेकर पैदा होते हैं जो अपराधी प्रवृति को बढ़ावा देती है। इस प्रकार लाम्ब्रोसों के अनुसार अपराध के सभी आधार वंशानुक्रम में निहित होते हैं। डगडेल का कथन है कि चरित्रहीन माता-पिता के सन्तान भी चरित्रहीन होती है। उसने इस तथ्य का 1877 में ज्यूक्स के वंशजों का अध्ययन करके पता चलाया। सन् 1720 में जन्म लेने वाला ज्यूक्स एक चरित्रहीन व्यक्ति था।

उसकी पत्नी भी उसी के समान चरित्रहीन थी। नन ने इसमें लिखा है, “5 पीढ़ियों के लगभग 1200 व्यक्तियों में से 300 की बचपन में मृत्यु हो गयी। 310 ने दरिद्रगृहों में जीवन बितया। 440 रोग के कारण मर गए। 130 दण्ड-प्राप्त अपराधी थे। केवल 20 ने कोई व्यवसाय सीखा।”

(b) शारीरिक तथा मानसिक दोष – कुछ विद्वानों का कथन है कि शारीरिक दोष अपराध प्रवृत्ति को बढ़ावा देते हैं। शारीरिक विकृतियाँ; जैसे-लंगड़ाना, काना, बहरापन आदि किसी व्यक्ति को अपराधी बना देती है। कुछ विद्वान यह भी मानते हैं कि शारीरिक ग्रंथियाँ मनुष्य में असंतुलन उत्पन्न कर देती है। ग्रंथियाँ किसी अपराध का कारण बन जाती हैं। इन ग्रंथियों से होने वाले स्राव की अधिकता या कमी संवेगात्मक तनाव तथा उत्तेजना उत्पन्न कर देती है। यह तनाव तथा उत्तेजना अपराध का कारण बन जाती है।

बाल अपराध का एक मुख्य कारण बालक का मदंबुद्धि होना है। मानसिक दुर्बलता अनेक मानसिक दोषों को जन्म देती है। यही दोष अपराध के कारण बन जाते हैं। गोडार्ड का विश्वास है कि मंद-बुद्धि व्यक्ति अपने कार्यों के परिणामों के विषय में नहीं सोच पाते। वे उचित-अनुचित में भी भेद नहीं कर पाते। अतः उनका स्वभाव अपराधी-स्वभाव हो जाता है।

(c) लैंगिक भिन्नता – समाजशास्त्रियों ने लिंग को अपराध का एक प्रमुख कारक माना है। संसार के सभी सभ्य समाजों में स्त्रियाँ उतने अपराध नहीं करती, जितने पुरुष करते हैं। यह बात सभी समूहों में, सभी प्रकार के अपराधों में तथा सभी आयु के व्यक्तियों में समान रूप से सत्य है। भारतीय कारागारों में पुरुष अपराधियों की संख्या स्त्री अपराधियों से कहीं अधिक होती है।

(d) आयु का प्रभाव – आयु भी अपराध का एक कारक है। एक विशेष आयु में, एक विशेष प्रकार के अपराध किए जाते हैं। युवकों की अपेक्षा वृद्ध. अपराध कम करते हैं, परंतु वृद्धावस्था के अपराध यौन-अपराधों से संबंधित होते हैं। लगभग 20 से 25 वर्ष तक की आयु के व्यक्ति डकैती, चोरी, गबन, जालसाजी तथा आवारागर्दी के अपराध करते हैं। 20 से 30 वर्ष की आयु के व्यक्ति यौन-अपराध
अधिक करते हैं।

(iii) आर्थिक कारक – कुछ आर्थिक कारक भी अपराध के लिए उत्तरदायी होते हैं। प्रमुख आर्थिक कारक इस प्रकार हो सकते हैं –

(a) निर्धनता-निर्धनता भी अपराध का एक मुख्य कारण है। निर्धन व्यक्ति अनेक प्रकार के आर्थिक अपराध कर बैठते हैं। इसका कारण यह है कि निर्धन व्यक्ति अपनी मौलिक आवश्यकताएँ पूरी नहीं कर पाते। अन्य व्यक्तियों को आराम से रहता देखकर वे भी उसी प्रकार से रहने की कामना करते हैं। फलस्वरूप, वे चोरी करते हैं।

जालसाजी तथा गबन आदि अपराध धन की कमी तथा बढ़ती हुई आवश्यकता के कारण ही किए जाते हैं। यदि किसी व्यक्ति पर अकस्मात् उत्तरदायित्व आ जाता है तो वह इसे पूरा करने के लिए चोरी या गबन करता है। नौकरानी-पेशा व्यक्ति विवाह के पश्चात् प्राय: गबन करते देखे गए हैं।

(b) बेकारी – निर्धनता की भांति बेकारी भी अपराध प्रवृति को बढ़ावा देती है। बेकार व्यक्ति अपनी भोजन संबंधी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाता। ऐसे व्यक्ति अपना पेट भरने के लिए अपराध करते देखे गए हैं। बालक केवल पेट भरने के लिए चोरी करते पकड़े गए हैं।

(c) औद्योगीकरण – जहाँ औद्योगीकरण से अनेक लाभ हुए हैं, वहाँ इसने अनेक समस्याएँ भी उपस्थित कर दी हैं। औद्योगीकरण के कारण श्रम की गतिशीलता में वृद्धि हुई है। नगरों का विकास हुआ है। नगरों की जनसंख्या में वृद्धि हुई है। जनसंख्या की वृद्धि ने अनेक समस्याओं को जन्म दिया है।

श्रमिक नगरों में अकेले ही आते हैं। उनके परिवार के सदस्य ग्रामों में ही निवास करते हैं। फलस्वरूप, श्रमिक मद्यपान तथ वेश्यावृत्ति जैसे आचरण करने लगते हैं। ये सीभी प्रवृतियाँ अपराध को बढ़ावा देती हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि श्रमिकों के पारिवारिक नियंत्रण में कमी आ गई है। वे बुरी संगत में पड़कर अनेक अपराध कर बैठते हैं।

(d) नगरीकरण – नगरीकरण ने भी अनेक समस्याएँ उपस्थित कर दी हैं। नगरीकरण के कारण निवास स्थान की कमी हो गयी है। गंदी बस्तियों का विकास हो गया है। नगरों में जनसंख्या तीव्रगति से बढ़ रही है; परंतु उस अनुपात में भवनों का निर्माण नहीं हो पा रहा है। स्थानाभाव के कारण पति-पत्नी तथा उनके बच्चे एक ही कमरे में रहते हैं। इस प्रकार बालकों को वे अनुभव प्राप्त हो जाते हैं जो उन्हें इस आयु में नहीं होने चाहिए। इस प्रकार उनका नैतिक पतन हो जाता है। नैतिक पतन अपराध प्रवृति को बढ़ाता है।

नगरों में अनेक स्थान होते हैं जो अपराधों को बढ़ावा देते हैं। सिनेमा, नाइट-क्लब, कैबरे, शराबखाना, नाचघर, जुआ खेलने के अड्डे आदि व्यक्ति की अपराधी प्रवृति को उभारते हैं। नगरों की अत्यधिक भीड़ अपराधियों को छिपा लेती है। इसी कारण ग्रामों की अपेक्षा नगरों में अधिक अपराध होते हैं।

(e) व्यापार चक्र – व्यापार में अनेक उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। इसे ही व्यापार चक्र कहते हैं। व्यापार में उतार-चढ़ाव अपराध को बढ़ावा देता है। बांगर के अनुसार अनाज के मूल्य तथा अपराध में सीधा संबंध होता है। जब अनाज के भाव गिर जाते हैं तो अपराध-दर भी कम हो जाती है। अनाज के भाव बढ़ने पर अपराध की दर भी बढ़ जाती है।

(f) अनाज का उत्पादन – किसी वर्ष अनाज का उत्पादन कम होता है तो किसी वर्ष अधिक। अनाज का उत्पादन कम होने पर अपराधों की संख्या में वृद्धि हो जाती है। जब अनाज अधिक मात्रा में उत्पन्न होता है तो अपराध कम होते हैं।

(iv) वैयक्तिक कारक – किसी व्यक्ति के कुछ वैयक्तिक कारक भी अपराध के कारण बन जाते हैं। कुछ वैयक्तिक कारण निम्नलिखित हैं;

(a) शैक्षणिक योग्यता – एक सर्वेक्षण से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि शिक्षित व्यक्ति अशिक्षित व्यक्तियों की अपेक्षा कम अपराध करते हैं परंतु कुछ गंभीर, अपराध; जैसे-तस्करी, जालसाजी, गबन, भ्रूण-हत्या आदि अपराध शिक्षित व्यक्ति ही करते हैं। उनके द्वारा किए गए अपराधों की प्रकृति ऐसी होती है कि वे कानून की पकड़ में आसानी से नहीं आ पाते हैं।

(b) मद्यपान – मद्यपान भी अपराध का एक कारण माना जाता है। व्यक्ति शराब पीकर अपना आपा खो बैठता है और वह कोई भी अपराध कर बैठता है। वास्तव में, मद्यपान कोई अपराध नहीं है । इसे एक बुराई या समस्या माना जा सकता है परंतु मद्यपान अपराध को बढ़ावा देता है। मद्यपान के प्रभाव से मानसिक चेतना समाप्त हो जाती है। व्यक्ति उचित तथा अनुचित में भेद नहीं कर पाता। वह चोरी, डकैती, बलात्कार आदि कर बैठता है। होती होली बांगर का कथन है कि अधिकांश अपराधी, शराबी माता-पिता की संतान होते हैं।

निराशा, प्रेम में असफलता आदि व्यक्ति को शराबी बना देते हैं। कुछ अपराधों को करने से पूर्व शराब पीना आवश्यक होता है। कुछ विद्वानों के अनुसार, अपराध की सफलता के लिए यह आवश्यक समझा जाता है। इस प्रकार मद्यपान अपराध भी है और अपराध का कारक भी।

(v) सामाजिक कारक – अपराध के लिए सामाजिक कारक भी विशेष महत्वपूर्ण होते हैं। सामाजिक कारक निम्नलिखित हो सकते हैं।

(a) टूटे परिवार – टूटे परिवार से आशय उन परिवारों से है जहाँ या तो माता-पिता की मृत्यु हो चुकी है या उनमें तालाक हो चुका है। इस प्रकार के परिवारों की परिस्थितियों अपराध व्यवहार को प्रोत्साहित करती हैं। इंग्लैंड में किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि अधिकांश व्यक्ति शराब पीने लगते हैं या वेश्यागमन करने लगते हैं। इस प्रकार अपराध प्रवृति को बढ़ावा मिलता है।

(b) अपराधी परिवार – यदि परिवार के कुछ व्यक्ति अपराधी हैं तो अन्य व्यक्ति भी अपराधी हो सकते हैं। अन्य सदस्यों को देखकर बालक भी अपराध करना सीख जाते हैं ग्लयूक के एक अध्ययन से पता चलता है कि 84% अपराधी ऐसे परिवारों के थे जहाँ घर के अन्य सदस्य भी अपराधी थे।

(c) धर्म – धर्म स्वयं अपराध का कारण नहीं है। प्रत्येक धर्म सदाचरण की शिक्षा देता है। परंतु धर्म उस समय अपराध का कारण बन जाता है, जब व्यक्ति धर्मांध होकर सांप्रदायिक झगड़ा . कर बैठता है। व्यक्ति धर्म की आड़ में प्रायः अनेक अपराध करते है। धर्म के आधार पर ही अनेक जनजातियों में नरबलि दी जाती है। पुजारी भ्रष्टाचार में लिप्त रहते देखे गए हैं। आतंकवाद धर्म की आड़ में ही फलता-फूलता है।

(d) समाचार पत्र – समाचार-पत्रों में अनेक प्रकार के अपराधों के समाचार छपते हैं। समाचार-पत्रों से बालक अपराध करने के तरीके सीख जाते हैं। इस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से समाचार-पत्र अपराध करने को प्रोत्साहित करते हैं।

(e) चलचित्र – आजकल के चलचित्र कामुकता तथा अपराधों से भरे रहते हैं। बालक तथा बालिकाएँ सिनेमा देखकर अपराध करने की ओर अग्रसर होते हैं। चलचित्रों में व्यक्तियों का रहन-सहन का स्तर अत्यंत उच्च दिखाया जाता है । सिनेमा देखने वाले भी उसी प्रकार का जीवन व्यतीत करना चाहते हैं। इसी प्रयत्न में वे अनेक अपराध कर बैठते हैं। सिनेमा में स्त्रियों का नग्न प्रदर्शन देखकर अनेक व्यक्ति अपना संतुलन खो बैठते हैं। नग्नता तथा कामुकता का प्रचार आधुनिक चलचित्रों की विशेषता है । चलचित्रों में अपराध करने की अनेक प्रविधियाँ दिखायी जाती हैं। ये प्रविधियाँ समाज में अपराधी व्यवहार में वृद्धि करती है।

(f) युद्ध – युद्ध भी अपराध का एक मुख्य कारण है। युद्ध काल में अपराधों की संख्या में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। युद्ध के समय पुरुष युद्ध क्षेत्र में चले जाते हैं। स्त्रियों को उनके स्थान पर कार्य करना पड़ता है। बालक चोरी तथा अनेक यौन अपराध करने लगते हैं। व्यापारी वर्ग में भी युद्ध के समयं चोर-बाजारी, मिलावट, नफाखोरी, धोखाधाड़ी, सामान को जमा करने आदि की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। यह प्रवृति अनेक समस्याओं को जन्म देती है।

युद्ध के समय आर्थिक अपराध बढ़ जाते हैं। युद्ध के समय लड़कियाँ अधिक अपराध करते हुए पाई गई हैं। युद्ध के समय चारों ओर हिंसात्मक वातावरण रहता है। इससे तनाव तथा उत्तेजना बढ़ती है। ये बातें अपराध को बढ़ावा देती हैं।

(g) सामाजिक कुरीतियाँ – अनेक सामाजिक कुरीतियाँ, जैसे विधवा विवाह-निषेध, दहेज प्रथा, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि अपराधों को बढ़ावा देती हैं। यदि किसी युवती-विधवा का विवाह नहीं किया जाता और वह संयम से रहने में असमर्थ है तो वह स्वाभाविक है कि वह यौन-अपराध कर बैठेगी। दहेज प्रथा भी अनेक प्रकार के अपराधों को जन्म देती है। कभी-कभी माता-पिता दहेज न जुटा सकने की कारण अपनी पुत्रियों का विवाह बूढों, विधुर या बीमार व्यक्तियों से कर देते हैं।

ऐसी अवस्था में कुछ स्त्रियाँ आत्म हत्या कर लेती हैं। माता-पिता अपनी पुत्रियों का विवाह करने के लिए कर्ज लेते हैं। वे जीवन भर उस कर्ज से दबे रहते हैं। इसी कारण अनेक समाजों में पुत्रियों को उनके माता-पिता जन्म होते ही मार देते हैं। जाति प्रथा भी अनेक अपराधों को जन्म देती है। जातीय-संघर्ष, जातीय पक्षपात इसके परिणाम हैं। भारत में अस्पृश्यता एक भयंकर बुराई है। हरिजनों को कस प्रकार सताया जाता है, इसका उदाहरण हमें प्रतिदिन समाचार-पत्रों में मिलता रहता है। यह अपराध सामाजिक जीवन को कलंकित करता रहता है।

(vi) अन्य कारक – उपरोक्त वर्णित कारकों के अतिरिक्त कुछ अन्य कारक भी अपराध प्रवृति को बढ़ावा देते हैं। उनमें से कुछ कारक निम्नलिखित हैं :

(a) वैवाहिक स्थिति – कुछ व्यक्तियों का वैवाहिक जीवन सुखी नहीं होता। विवाह-विच्छेद इसी का ही परिणाम होता है । प्रायः देखा गया है कि अविवाहित व्यक्ति तथा विधुर यौन-अपराध अधिक करते हैं। ऐसे व्यक्तियों का पारिवारिक जीवन विघटित होता है। ये असानी से अपराध करने की ओर अग्रसर हो जाते हैं।

(b) मनोरंजन का अभाव – स्वास्थ्य मनोरंजन के अभाव में भी व्यक्ति अपराध कर बैठता है। कुछ व्यक्तियों का मनोरंजन ही अपराध करना होता है। वे बिना किसी उद्देश्य के अपराध कर बैठते हैं।

(c) धन का असमान वितरण – धन का असमान वितरण भी अपराध को जन्म देता है। हमारे समाज में एक ओर तो गगनचुम्बी भवन खड़े हैं तो दूसरी की ओर झोपड़ियाँ हैं। निर्धन, धनिकों को देखकर स्वयं भी उसी प्रकार का जीवन यापन करना चाहते हैं परंतु धन के अभाव में वे ऐसा नहीं कर पाते। फलस्वरूप, धन कमाने की लालसा में वे चोरी, डकेती आदि आर्थिक अपराध कर बैठते हैं।

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प्रश्न 7.
सामाजिक व्यवस्था से क्या आशय है? इसे कैसे बनाये रखा जाता है?
उत्तर:
सामाजिक व्यवस्था का तात्पर्य-सामाजिक व्यवस्था का तात्पर्य सामाजिक घटनाअं की नियमित तथा क्रमबद्ध पद्धति से है। सामाजिक व्यवस्था संरचनात्मक तत्वों के मान्य संबंध का कुलक है। समस्त सामाजिक संगठनों में सामाजिक व्यवस्था पायी जाती है। इसकी संरचन व्यक्तियों के बीच अंतःक्रिया से होता है। सामाजिक व्यवस्था वास्तव में भूमिकाओं का कुलक है। सामाजिक व्यवस्था के सभी अंग प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से परस्पर जुड़े हुए होते हैं।

सामाजिक व्यवस्था समाज द्वारा व्यापक रूप से स्वीकृत मानकों तथा मूल्यों का समूह होती है। सामाजिक व्यवस्था के सदस्यों से सामाजिक मानकों के पालन करने की अपेक्षा की जाती है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति इन मानकों का सदैव पालन ही करें, वे इनसे विचलित भी हो सकते हैं।

सामाजिक व्यवस्था की परिभाषाएँ : मार्शल जोन्स के अनुसार, “सामाजिक व्यवस्था वह स्थित है, जब समाज की विभिन्न क्रियाशील इकाइयाँ परस्पर तथा संपूर्ण समाज के साथ अर्थपूर तरीके से संबंधित होती है।”

पारसंस के अनुसार, “सामाजिक व्यवस्था अनिवार्य रूप से अन्तः क्रियात्मक संबंधों का जाल है।” लूमिस के अनुसार, “सामाजिक व्यवस्था सदस्यों की प्रतिमानित अंतःक्रिया से निर्मित होती है।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट होता है कि –

  • समाज में अनेक भाग पाये जाते हैं।
  • समाज के विभिन्न भागों में प्रकार्यात्मक संबंध पाये जाते हैं।
  • सामाजिक व्यवस्था का निर्माण समाज की संस्कृतिक के अनुसार होता है।

सामाजिक व्यवस्था की विशेषताएँ –

  • सामाजिक अंतःक्रिया सामाजिक व्यवस्था का मुख्य आधार है।
  • सामाजिक व्यवस्था उद्देश्यपूर्ण अंत:क्रियाओं का परिणाम है।
  • सामाजिक व्यवस्था के विभिन्न अंगों में क्रमबद्ध संबद्धता पायी जाती है।
  • सामाजिक व्यवस्था में विभिन्न तत्वों में पायी जाने वाली एकता का आधार प्रकार्यात्मक संबंध होते हैं।
  • प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र, समाज तथा काल से जुड़ी होती है।
  • संस्कृति सामाजिक व्यवस्था का महत्वपूर्ण आधार होती है।
  • सामाजिक व्यवस्था द्वारा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।
  • सामाजिक व्यवस्था में बदलती हुई परिस्थितियों से अनुकूलन की क्षमता होती है।
  • सामाजिक व्यवस्था द्वक्षरा प्रकार्यात्मक संतुलन के माध्यम से सामाजिक जीवन में संतुलन बनाए रखा जाता है।

प्रश्न 8.
ग्रामीण समुदाय की विशेषताएं बताइए।
उत्तर:
भारत की आत्मा ग्रामों में निवास करती है। भारत में लगभग साढ़े पाँच लाख गाँव हैं। ग्रामीण परिवेश आज भी भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को प्रदर्शि करते हैं। ग्रामीण समुदाय की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं :

(i) कृषि – मुख्य व्यवसाय-कृषि भारत में जीवनयापन का साधन ही नहीं है वरन यह एक जीवनशैली है। ग्रामीण परिवेश के सभी संबंध कृषि द्वारा प्रभावित होते हैं। कृषि के अतिरिक्त ग्रामों में कुम्हार, बढ़ई, लुहार आदि दस्तकार भी होते हैं परंतु वे भी अप्रत्यक्ष रूप से कृषि पर ही निर्भर करते हैं।

(ii) संयुक्त परिवार प्रणाली – भारतीय ग्रामीण जीवन में संयुक्त परिवार प्रणाली का बहुत अधिक महत्व है। यद्यपि शहरों में भी संयुक्त परिवार पाए जाते हैं परंतु उनका महत्व ग्रामों में अधिक है।

(iii) जाति व्यवस्था – जाति व्यवस्था सदैव भारतीय ग्रामीण समुदाय का आधार रही है। सामाजिक अंत:क्रिया, धार्मिक अनुष्ठान, व्यवसाय और अन्य बातें काफी सीमा तक जाति के मापदंडों से प्रभावित होती हैं।

(iv) जजमानी व्यवस्था – यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बंधन-दूसरे जातिगत परिवारों से संबंधित होते हैं। प्रत्येक गाँव में दो प्रकार के परिवार रहते हैं। एक थे वे हैं जो भूमि के स्वामी हैं और दूसरे वे जो सेवाएं उपलब्ध कराते हैं। सेवाओं के बदले में अन्न.और नकद मुद्रा प्रदान की जाती है। त्योहारों के अवसर पर पारिश्रमिक और पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है। यह जजमानी प्रथा विभिन्न जातियों को स्थायी संबंधों में बाँधे रखती है।

(v) पंचांग का महत्त्व – अधिकतर गाँवों में परंपरागत भारतीय पंचांग के अनुसार सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक कार्य किए जाते हैं। दिन-प्रतिदिन के कार्यों में मांगलिक अवसरों और तिथियों का बहुत अधिक महत्व है।

(vi) सामुदायिक भावना – गाँव के सभी सदस्य व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे के संपर्क में रहते हैं। उनके संबंध व्यक्तिगत होते हैं। जीवन की सरलता और मित्रता की भावना ग्रामीण जीवन की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। अपराध, चोरी, हत्या, दुराचार आदि कम होते हैं। लोग ईश्वर से डरते हैं और परंपरावादी होते हैं। वे नगरीय जीवन की चकाचौंध और मोह से कम प्रभावित होते हैं। साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। उनका व्यवहार रीतियों और परंपराओं से संचालित होता है।

(vii) निर्धनता और अशिक्षा – ग्रामीण जनसंख्या का एक बड़ा भाग गरीबी रेखा से नीचे जीवन व्यतीत करता है। यहाँ मौलिक नागरिक सुविधाओं का भी अभाव होता है। स्वास्थ्य सुविधाएँ, यातयात, परिवहन, संचार के साधनों की कमी से जीवन-स्तर नीचा है। यद्यपि सरकार ने ग्रामीणों की दशा सुधारने के लिए बहुत प्रयत्न किए हैं परंतु कृषि की उत्पादकता कम है और नगरिक सुविधाओं की कमी है।

(viii) रूढ़िवाद – भारत के ग्रामों में सामाजिक परिवर्तन की गति धीमी है। व्यवसाय में परिवर्तन आसानी से संभव नहीं है। ग्रामीण स्वभाव से रूढ़िवादी होते हैं। उनके सोचने का आधार, नैतिक मूल्य और परंपराएँ सभी रूढ़िवाद पर निर्भर करते हैं।

(ix) कठोर सामाजिक नियंत्रण – परिवार, जाति और धर्म की कट्टरता बहुत अधिक होती है। सदस्यों के लिए अनौपचारिक नियमों का पालन करना बहुत आवश्यक होता है । पंचायत गलत कामों के लिए लोगों को दंडित करती है।

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प्रश्न 9.
अपराध ‘वैयक्तिक विघटन’ है? इसे कैसे रोका जा सकता है। अपने सुझाव दीजिए।
उत्तर:
अपराध समाज के लिए गंभीर समस्या है। समाज को संगठित बनाए रखने के लिए अपराध को रोकना आवश्यक है। हम बता चुके हैं कि अपराध किए जाने का कोई एक कारण नहीं होता। अत: उसका निषेध भी आसान नहीं है।

अपराध की रोकथाम-अपराध की रोकथाम के लिए निम्नलिखित सुझाव दिए जा सकते हैं :

(i) अपराध निषेध के लिए शिक्षा का उपयुक्त वातावरण तैयार किया जाना चाहिए। उपयुक्त वातावरण होने पर समाज का वातावरण दूषित नहीं होगा तथा व्यक्तियों की अपराध की मनोवृत्तियों पर भी अंकुश लग सकेगा।

(ii) सामाजिक परिस्थितियों में सुधार लाया जाना चाहिए। समाज की परिस्थितियों में सुधार करके अपराध रोके जा सकते हैं। समाज से जाति-प्रथा समाप्त की जानी चाहिए। विधवा-विवाह पर लगा नियंत्रण समाप्त किया जाना चाहिए। समाज में बाल-विवाह की प्रथा समाप्त की जानी चाहिए। यदि सामाजिक परिस्थितियों में सुधार लाया जा सके तो अपराध की स्थिति में पर्याप्त सुधार लाया जा सकता है।

(iii) अपराध का एक कारण स्वास्थ्य मनोरंजन का अभाव बताया है। कुछ व्यक्ति मनोरंजन के लिए अपराध कर बैठते हैं। समाज में, यदि अस्वस्थ कर मनोरंजन के स्थान पर स्वस्थ मनोरंजन
प्रदान किए जा सकें तो अपराध की प्रवृति पर रोक लगाई जा सकती है। समाज-विरोधी तथा अपराध प्रवृति को उकसाने वाले चलचित्रों पर भी रोक लगाई जानी चाहिए।

(iv) टूटे परिवारों की दशा सुधारी जानी चाहिए। सदरलैंड के अनुसार टूटे परिवारों की परिस्थितियों में सुधार करने पर अपराध प्रवृति पर अंकुश लगाया जा सकता है। भारत में विवाह परंपरागत विधि से ही होते हैं। इसके स्थान पर लड़के तथा लड़कियों को अपना जीवन-साथी स्वयं चयन करने की अनुमति प्रदान की जानी चाहिए। इससे परिवार टूटने से बच सकेंगे।

(v) लोम्ब्रोसो का कथन है कि अपराधी जन्मजात होते हैं। वह वंशानुक्रम को ही अपराध का कारण मानता है। यदि यह सत्य है कि अपराधी जन्मजात होते हैं तो उनकी प्रजनन, शक्ति को समाप्त कर देना चाहिए। जब वह बच्चों का उत्पन्न ही न कर सकेंगे तो समाज में अपराधी बालक उत्पन्न ही न हो सकेंगे, परंतु यह सुझाव व्यावहारिक प्रती नहीं होता। अपराधी ऐसा करने के लिए तैयार ही न होंगे।

(vi) अपराधी को ऐसी स्थिति में रखा जाना चाहिए कि अपराध की प्रवृति धीरे-धीरे समाप्त हो जाए, परंतु यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि अपराधी की आदतों को एकदम नहीं तोड़ा जा सकता। नैतिक शिक्षा इसमें कुछ योग दे सकती है।

(vii) गंदी बस्तियाँ भी अपराध प्रवृति को बढ़ावा देती हैं। औद्योगिक. नगरों में तो मुख्य कारण गंदी बस्तियाँ हो होती हैं। गंदी बस्तियों के निवासियों के लिए उचित आवास व्यवस्था करक अपराधी बनने से रोका जा सकता है। इस प्रकार औद्योगिक नगरों में अपराध की दर घटायी जा सकती है।

(viii) न्यायालय में कभी-कभी अपराधी छूट जाते हैं और निर्दोष दंड पा जाते हैं। क्या निर्दोष व्यक्ति को समाज के सभी सदस्यों के द्वारा अपराधी माना जाना चाहिए? क्या उसके साथ अपराधी जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए? न्याय का यह तकाजा है कि उसकी परिस्थितियों का निरीक्षण किया जाए। उसकी हरसंभव ढंग से सहायता की जानी चाहिए।

(ix) कुछ व्यक्ति मानसिक रूप से अस्वस्थ्य होते हैं। अपनी मानसिक विकृति के कारण ही वे अपराध कर बैठते हैं। ऐसे मानसिक रोगियों का उपचार किया जाना चाहिए। मानसिक रूप से स्वस्थ हो जाने पर ऐसे व्यक्ति अपराध नहीं करेंगे।

पर्यावरण तथा अपराध – लोम्ब्रोसो अपने कुछ अध्ययनों के आधार पर यह मत व्यक्ति किया कि अपराधी जन्मजात होते हैं। परंतु आज के अधिकतर विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। वे यह नहीं मानते हैं कि अपराधी जन्मजात होते हैं। पर्यावरण या वातावरण ही मनुष्य को अपराधी ‘बना देता है। टूटे परिवार, बुरी संगति, निर्धनता, गंदी बस्तियाँ आदि व्यक्ति को अपराधी बनने में सहायक होती हैं। ये कारण वंशानुक्रम से संबंध नहीं रखते।

उनका संबंध पर्यावरण से होता है। इस प्रकार पर्यावरण व्यकित को अपराधी बनाता है न कि वंशानुक्रम। वस्तुतः मनुष्य अपने पर्यावरण की उपज है। व्यक्ति का आचरण प्रायः उसका पर्यावरण ही निश्चित करता है। एक कहावत है, “मनुष्य अपनी संगति से ही जाना जाता है।” बुरी संगत में रहने वाले बालक प्रायः बुरी आदतों का शिकार हो जाते हैं। चलचित्र जो सामाजिक वातावरण का ही एक अंग है। अपराध प्रवृत्ति को बढ़ावा देता है।

प्रत्येक समाज में अपराध की धारणा भी भिन्न-भिन्न होती है। जो कार्य एक समाज में अपराध माना जाता है, वह आवश्यक नहीं है कि एक दूसरे समाज में भी अपराध माना जाता फिर अपराधी जन्मजात कैसे हो सकते हैं? अतः यह सही नहीं है कि अपराधी जन्मजात होते हैं पर्यावरण उन्हें अपराधी बनाता है।

प्रश्न 10.
भारत के ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों में समानताओं तथा असमानताओं में अंतर कीजिए।
उत्तर:
भारत के ग्रामीण और नगरीय समुदाय सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। सोरोकिन और जिम्मरमैन ने निम्नलिखित के आधार पर ग्रामीण और नगरीय अंतरों को स्पष्ट किया है:
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प्रश्न 11.
नगरीय समुदाय की विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
नगर ग्रामों का बड़ा रूप है। आधुनिक भारतीय नगरों में पाश्चात्य नगरों के समान सभी प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध होती हैं जो ग्रामीण क्षेत्रों में सम्भव नहीं है। भारत के नगरों की कुछ विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(i) सामाजिक विषमता – नगर ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ जनसंख्या का घनत्व अधिक होता है। ये विभिन्न प्रकार के लोगों और संस्कृतियों के मिलन का केन्द्र है। संसार के विभिन्न देशों के लोग यहाँ आकर रहना पसंद करते हैं। एक छोटे से क्षेत्र में बड़ी जनसंख्या के निवास करने के कारण जनसंख्या का केन्द्रीकरण हो जाता है।

(ii) सामाजिक नियंत्रण – नगर ऐसे स्थान हैं जहाँ व्यक्ति सामाजिक नियंत्रण से मुक्त है। यहाँ अकेलेपन का भी बोध होता है और सत्ता के दबाव भी अधिक होते हैं। नगर का आकार जितना बड़ा होता है उतनी ही बड़ी संख्या नियंत्रण की होती है।

(iii) द्वितीयक समूह – आकार के विशाल होने के कारण नगर प्राथमिक वर्ग के अनुरूप कार्यशैली नहीं होता। व्यक्ति मुख्य रूप से एक-दूसरे से अनजान होते हैं और एक-दूसरे के प्रति उदासीन होते हैं। नगरों में संबंध प्रायः औपचारिक होते हैं।

(iv) स्वैच्छिक संस्थाएँ – नगरों की जनसंख्या का आकार, इसकी विभिन्नताएँ और आसानी से बनने वाले कारक स्वैच्छिक संस्थाओं के लिए एक पूर्ण अथवा आदर्श बनाते हैं। नगरों में द्वितीयक समूह एक प्रकार की स्वैच्छिक विशेषता प्राप्त कर लेते हैं। इनकी सदस्यता रिश्तेदारी पर निर्भर नहीं करती। नगरों में विभिन्न क्लव और संस्थाएँ होती हैं जिनके अपने नियम और कानून होते हैं।

(v) व्यक्तिवाद – नगरों में अवसरों की अधिकता होती है और सामाजिक गतिशीलता होती है। ये सभी व्यक्ति को अपना स्वतंत्र निर्णय लेने के लिए बाध्य करते हैं और अपने भविष्य के लिए योजनाएं बनाने को प्रेरित करते हैं। प्रतियोगिता अधिक होने के कारण परिवार की देखभाल के कम अवसर मिलते हैं। स्वार्थ और व्यक्तिवाद को नगरीय जीवन में बढ़ावा मिलता है।

(vi) सामाजिक गतिशीलता – श्रम विभाजन और विशिष्टीकरण के कारक नगरीय जीवन में सामाजिक और व्यावसायिक गतिशीलता देखने को मिलती है। नगरों का प्रबंध योग्य और सक्षम नागरिकों द्वारा संचालित होता है।

(vii) असमानता – नगरों में अत्यधिक गरीबी और समृद्धि दोनों पाई जाती है। एक ओर झुग्गी झोपड़ी होती है तो दूसरी ओर शानदार बंगले। जनसंख्या की विभिन्नता और उनकी रुचियों और विचारों के विषय में सहनशीलता ओर विभिन्नता नगरों की एक विशेषता है।

(viii) स्थान के लिए प्रतियोगिता – बड़े नगरों में कुछ व्यावसायिक केन्द्र अपनी गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध हो जाते हैं। वहाँ बड़े डिपार्टमेंटल स्टोर, थियेटर, बड़े होटल, आभूषण की दुकानें आदि केन्द्रित होती हैं। महँगी व्यावसायिक सेवाएँ जैसे डायग्नोस्टिक क्लीनिक, कानूनी दफ्तर, बैंक आदि केन्द्रित हो जाते हैं। ये सब नगर के केन्द्रित भाग में स्थित होते हैं।

प्रश्न 12.
ग्रामीण और नगरीय समुदाय में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
ग्रामीण और नगरीय समुदायों में अंतर करना सरल नहीं है क्योंकि गाँव की अनेक विशेषताएँ नगरों में पाई जाती हैं फिर भी ग्रामीण और नगरीय समुदायों में निम्नलिखित अंतर हैं:

  • ग्रामीण समुदाय की जनसंख्या कम होती है जबकि नगरीय समुदाय का विस्तार क्षेत्र अधिक होता है। वहाँ अनेक लोग विभिन्न कार्य करते हैं।
  • ग्रामीण समुदाय में कृषि और समान उद्योग-धंधों के कारण सभी सदस्यों की संस्कृति समान होती है। नगरों में सांस्कृतिक विभिन्नता देखने को मिलती है।
  • सामुदायिक भावना में अंतर नगरीय क्षेत्रों में अधिक पाया जाता है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग मिल-जुलकर कार्य करते हैं।
  • ग्रामों में कृषि व्यवस्था होने के कारण सामान्यतः संयुक्त परिवार ही पाए जाते हैं। किंतु नगरीय परिवार का आकार छोटा होता है।
  • ग्रामीण समुदाय में विवाह एक धार्मिक संस्कार है किंतु नगरीय समुदायों में आजकल प्रेम पर आधारित विवाह भी पाए जाते हैं।
  • ग्रामीण समुदाय में बाल विवाह, पर्दा प्रथा, विधवा पुनर्विवाह निषेध आदि बातें पाई जाति हैं परंतु नगरीय समुदायों में सामान्यतः इनका अभाव पाया जाता है।
  • ग्रामीण समुदाय में स्त्रियों का सामाजिक स्तर नीचा होता है। उनके लिए शिक्षा की व्यवस्था नहीं होती जबकि नगरों में स्त्रियों का सामाजिक स्तर पुरुषों के समान होता है। उन्हें शिक्षा के समान अवसर प्राप्त होते हैं।
  • ग्रामीण समुदाय में परिवार, पड़ोस, प्रथाएँ, रीति-रिवाज, धर्म और जाति, पंचायत आदि सामाजिक नियंत्रण के साधन हैं, जबकि नगरों में पुलिस तथा कानून ही सामाजिक व्यवहार के नियंत्रण के औपचारिक साधन हैं।
  • ग्रामीण समुदाय में व्यक्ति का जीवन सरल, पवित्र और परंपरावादी होती है इसलिए व्यक्ति बुराईयों से बचा रहता है। लेकिन नगरों में व्यक्ति शराब आदि का शिकार हो जाता है। इसलिए नगरों में अपराध अधिक होते हैं।
  • नगरों में अधिक सुख-सुविधाएं उपलब्ध होती हैं इसलिए व्यक्ति का जीवन-स्तर ऊँचा रहता है। सामाजिक गतिशीलता भी अधिक होती है जबकि ग्रामों में इन सुविधाओं का अभाव पाया जाता है।

उपर्युक्त आधार पर स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि ग्रामीण समुदाय और नगर समुदाय में पर्याप्त अंतर देखने को मिलता है।

प्रश्न 13.
ग्रामीण क्षेत्रों में सामाजिक व्यवस्था की कुछ विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
ग्रामीण क्षत्र में सामाजिक व्यवस्था की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं:

  • ग्रामीण समुदाय जनसंख्या की दृष्टि से लघु होते हैं। जनसंख्या का घनत्व भी कम होता है।
  • ग्रातीण समुदायों में समातीयता पायी जाती है।
  • ग्रामीण समुदायों में धर्म, जाति तथा वर्ग के आधार पर अधिक स्पष्ट अंतर पाये जाते हैं।
  • ग्रामीण समुदायों में एक भाषाई समूह के व्यक्ति एक साथ रहते हैं।
  • ग्रामीण समुदायों में व्यक्तियों की आय का प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष स्रोत कृषि है।
  • ग्रामीण समुदायों में कृषि के अतिरिक्त अन्य व्यवसायों में बहुत कम लोग कार्य करते हैं।
  • ग्रामीण समुदायों में जातीय कठोरता अधिक पायी जाती है।
  • ग्रामीण समुदायों में अंतः सामुदायिक संबंध कम घनिष्ठ अथवा पूर्णतया अनुपस्थित होते हैं।
  • ग्रामीण समुदायों में व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक संबंध अनौपचारिक तथा व्यक्तिगत स्तर पर पाए जाते हैं।
  • ग्रामीण समुदायों में व्यक्तियों में सामाजिक कृतज्ञता की भावना अपेक्षाकृत अधिक पायी जाती है।
  • ग्रामीण समुदायों में सामाजिक गतिशीलता कम पायी जाती है।
  • ग्रामीण समुदायों में सामाजिक विघटन तथा अलगाव कम पाया जाता है।
  • ग्रामीणं समुदायों में व्यक्तियों के मध्य प्राथमिक संबंध पाए जाते हैं तथा सामाजिक अंतःक्रिया का दायरा सीमित होता है।
  • ग्रामीण समुदाय में विवाह का परिवारिक महत्व होता है।

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प्रश्न 14.
जनसंख्या वृद्धि समाज में किस प्रकार सामाजिक परिवर्तन लाती है?
उत्तर:
जनसंख्या में वृद्धि समाज में निम्न प्रकार से सामाजिक परिवर्तन लाती है:
(i) आर्थिक जीवन में परिवर्तन-जनसंख्या के आधार तथा संघटन में परिवर्तन आने से व्यक्तियों का आर्थिक जीवन प्रभावित होता है। आर्थिक जीवन में होने वाला परिवर्तन सामाजिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक पक्षों को प्रभावित करता है।

(ii) जनसंख्या की वृद्धि तथा संसाधनों की उपलब्धता-जनसंख्या की वृद्धि तथा संसाधनों विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता में संतुलन आवश्यक है। यदि जनसंख्या की वृद्धि के अनुपात में संसाधन उपलब्ध नहीं हो पाते हैं तो सामाजिक संतुलन तथा परिवर्तन की गति दोषपूर्ण हो जाती है। समाज में असुरक्षा, असंतुलन तथा विघटन के तत्व अधिक सक्रिय हो जाते हैं। इस नकारात्मक परिवर्तन के कारण आर्थिक तथा सामाजिक व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। सामाजिक परिवर्तन का स्वरूप बाधित हो जाता है।

(iii) जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक संस्थाओं पर नकारात्मक प्रभाव डालती है : जनसंख्या की अनियंत्रित वृद्धि सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक संस्थाओं के विकास को न केवल मंद कर देती है वरन् उनकी विकासोन्मुख दिशा को अवरुद्ध कर देती है। किसी भी जनसंख्या में निम्नलिखित दोष हो सकते हैं:

  • उच्च जन्म तथा मृत्यु दर
  • शिशुओं तथा वृद्धों की अधिक जनसंख्या
  • पुरुषों तथा स्त्रियों के अनुपात में असंतुलन
  • ग्रामीण जनसंख्या की अधिकता

जनसंख्या के उपर्युक्त दोष समाज में विघटन, बेकारी, निर्धनता, अपराधों में वृद्धि तथा पिछड़ापन उत्पन्न करते हैं। इनके कारण सामाजिक परिवर्तन की गति धीमी तथा दोषयुक्त हो जाती है।

प्रश्न 15.
वे कौन से सामाजिक परिवर्तन हैं? जो तकनीकी तथा अर्थव्यवस्था द्वारा लगाए गए हैं।
उत्तर:
तकनीकी तथा अर्थव्यवस्था सामाजिक परिवर्तन के लिए निम्न प्रकार से उत्तरदायी हैं :

(i) तकनीकी विकास सामाजिक परिवर्तन के मूल कारक के रूप में – तकनीकी विकास किसी भी समाज में सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप को निर्धारित करता है। प्रौद्योगिकीय नवाचार, आविष्कार तथा प्रसार, परंपरागत समाज में सामाजिक परिवर्तन की गति तीव्र कर देते हैं।

(ii) तकनीकी उन्नति सामाजिक संस्थाओं के स्वरूप को बदल देती है – तकनीकी विकास के कारण सामाजिक संस्थाओं के स्वरूप तथा संरचना में परिवर्तन हो जाता है। सामाजिक ‘संस्थाओं की कार्यपद्धति में जटिलता बढ़ती जाती है। प्राथमिक संबंधों के स्थान पर द्वितीयक तथा तृतीयक संबंधों का महत्व उत्तरोत्तर बढ़ता चला जाता है।

आरबर्न के अनुसार “प्रौद्योगिकी समाज को हमारे पर्यावरण में परिवर्तन द्वारा जिसके प्रति हमें अनुकूलित होना पड़ता है, परिवर्तित होती है । यह परिवर्तन प्रायः भौतिक पर्यावरण में आता है तथा हम इन परिवर्तनों के साथ जो अनुकूलन करते हैं, उससे प्रथाओं तथा सामाजिक संस्थाओं में परिवर्तन हो जाता है।”

(iii) तकनीकी विकास के कारण समाज सरल से जटिल की ओर अग्रसर होता है – प्रौद्योगिकी विकास के साथ-साथ समाज में विकास होता है। प्रारंभ में मनुष्य के पास बहुत सरल प्रौद्योगिक ज्ञान था लेकिन प्रौद्योगिकी में विकास के साथ-साथ सा-गाजिक संरचनाओं में जटिलता बढ़ती चली गई। प्रारंभिक अवस्था में प्रौद्योगिकी का आधार पशु शक्ति था जो कि अब औद्योगिक तकनीक में बदल गया है। प्रौद्योगिकी में प्रगति के कारण सरल श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण में बदल गया है। जटिल तथा विशेषीकृत श्रम विभाजन से अनेक क्षेत्रों में व्यावसायिक दक्षता का विकास हुआ है।

(iv) संचार साधनों में तीव्र परिवर्तन – संचार साधनों में तेजी से होने वाले परिवर्तनों ने सामाजिक अंतःक्रिया के प्रभाव को व्यापक बना दिया है। संचार के क्षेत्र में प्रौद्योगिकी परिवर्तनों ने क्रांति कर दी है। रेडियो, टेलीफोन, दूरदर्शन आदि ने जनमत को प्रभावित किया है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री आग्बन ने संस्कृति की एकरूपता तथा विसरण मनोरंजन, यातायात शिक्षा, धर्म, सूचना प्रसारण उद्योग, व्यापार तथा शासन प्रणाली आदि पर रेडियो के 150 तात्कालिक तथा दूरगामी सामाजिक प्रभावों को सूचीबद्ध किया है।

(v) यातायात के साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तन – यातायात के साधनों में क्रांतिकारी परिवर्तनों से सामाजिक दूरी कम हुई है सामाजिक तथा सांस्कृतिक पृथक्ता के अवरोध तेजी से समाप्त हो रहे हैं। पारस्परिक सहयोग तथा अन्योयाश्रितता बढ़ रहे हैं। सार्वभौमिक भ्रातृत्व की भावना बढ़ रही है।

प्रश्न 16.
सामाजिक परिवर्तन से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
सामाजिक परिवर्तन का अर्थ-सामाजिक परिवर्तन का अभिप्राय सामाजिक संरचना तथा सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तनों से है। इस प्रकार सामाजिक संस्थाओं, प्रस्थितियों, भूमिकाओं तथा प्रतिमानों में समय-समय में होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया को सामाजिक परिवर्तन कहते हैं। सामाजिक परिवर्तन की गति सदैव समान नहीं होती है। कभी-कभी ये परिवर्तन धीमी गति से तो कभी-कभी तीव्र गति से होते हैं।

सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा –

  • के. डेविस-के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तनों से हमारा अभिप्राय केवल उन परिवर्तनों से है जो सामाजिक संगठन में होते हैं, अर्थात् समाज की संरचना तथा समाज के कार्यों में।”
  • मैरिल तथा एल्ड्रिज के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य यह है कि समाज के अधिकांश व्यक्ति इस प्रकार के कार्यों में संलग्न हैं जो उनके पूर्वजों से भिन्न हैं।”
  • मेकाइवर तथा पेज के अनुसार “समाजशास्त्री के रूप में हमारा प्रत्यक्ष संबंध केवल सामाजिक संबंधों से है, अतः केवल सामाजिक संबंधों में होने वाले परिवर्तनों को ही हम सामाजिक परिवर्तन कह सकते हैं।”
  • एंडरसन तथा पार्कर के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन में समाजकीय प्रकारों या प्रक्रियाओं की संरचना या क्रिया में परिवर्तन निहित है।”
  • गिन्सबर्ग के अनुसार, “सामाजिक परिवर्तन से मैं सामाजिक संरचना में परिवर्तन समझता हूँ।
  • उदाहरण के लिए, समाज के आकार में उसके संगठन या उसके भागों के संतुलन में या उसके संगठन के स्वरूपों में।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि सामाजिक परिवर्तन की अवधारणा निरंतर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है। इसकी गति धीमी अथवा तीव्र हो सकती है। सामाजिक परिवर्तन वस्तुतः सामाजिक प्रक्रियाओं, प्रतिमानों, अंत:क्रियाओं, अथवा संगठन आदि में होने वाले परिवर्तनों को निर्दिष्ट करता है।

सामाजिक परिवर्तन का स्वरूप – सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:

(i) सामाजिक परिवर्तन एक सार्वभौमिक प्रघटना है – सामाजिक परिवर्तन एक निरंतर होने वाली सार्वभौमिक प्रघटना है। यह प्रत्येक समाज में घटित होता है। सामाजिक परिवर्तन की गति आधुनिक तथा प्रगतिशील समाजों में तीव्र तथा पिछड़े हुए समाजों में मंद होती है।

(ii) सामाजिक परिवर्तन एक अपरिहार्य प्रघटना है – सामाजिक परिवर्तन एक अपरिहार्य प्रघटना है। परिवर्तन प्रकृति का सार्वभौम नियम है। ग्रीन के अनुसार, “परिवर्तन के प्रति उत्साही अनुक्रिया प्रायः जीवन का ढंग बन गई है।”

(iii) सामाजिक परिवर्तन एक निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है – सामाजिक परिवर्तन के विषय में समाजशास्त्री कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं। सामाजिक परिवर्तन की गति के विषय में भी निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है। कभी-कभी सामाजिक परिवर्तन अकस्मात् तथा अपेक्षित हो जाते हैं।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

प्रश्न 17.
ऑगस्त कोंत को सामाजिक परिवर्तन संबंधी विचार समझाइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री ऑगस्त कोंत ने सामाजिक परिवर्तन के संबंध में रेखीय सिद्धांत प्रतिपादित किया है। रेखीय सिद्धांत के अनुसार समाज धीरे-धीरे सभ्यता की उच्च से उच्चतर अवस्था की ओर अग्रसर होता है। परिवर्तन तथा विकास का यह क्रम सदैव आगे की ओर बढ़ता है।

ऑगस्त कोंत ने सभी समाजों के विकास में निम्नलिखित तीन अवस्थाओं का उल्लेख किया है:

  • धार्मिक अवस्था
  • आध्यात्मिक अथवा तात्विक अवस्था
  • प्रत्यक्षवादी अवस्था

धार्मिक अवस्था के अंतर्गत मानव-मन विभिन्न प्रघटनाओं, पदार्थों तथा वस्तुओं की व्याख्या करने का प्रयत्न करता है। धार्मिक स्तर पर सभी प्रघटनाओं का कारण अधिभौतिक सत्ता है। अधिभौतिक सत्ता की अवधारणा निम्नलिखित चार अवस्थाओं से होकर गुजरती है:

  • जादू-टोने में विश्वास
  • ईश्वर को मनुष्य के आकार का मानने का सिद्धांत
  • बहुदेवतावाद
  • एक देववाद

अध्यात्मिक अथवा तात्विक अवस्था वास्तव में धार्मिक अवस्था का परिवर्तित स्वरूप है। धार्मिक अवस्था जो स्थान अधिभौतिक सत्ता का था वह अब अमूर्त सिद्धांतों में बदल जाता है। प्रत्यक्षवादी अवस्था को वैज्ञानिक अथवा सकारात्मक अवस्था भी कहा जाता है। इस अवस्था के अंतर्गत अधिभौतिक या अमूर्त सिद्धांतों के स्थान पर तर्क तथा अवलोकन पर आधारित सिद्धांतों का विकास होता है। ऑगस्त कोंत का मत है कि व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास मनुष्य जाति के मस्तिष्क के विकास कि प्रक्रिया को दिखाता है। इस दृष्टिकोण से व्यक्ति तथा समाज में कोई भिन्नता नहीं है।

इस विश्लेषण के आधार पर समाज के विकास के तीन सोपन हैं –

  • धार्मिक सोपन
  • आध्यात्मिक सोपान तथा
  • प्रत्यक्षवादी अथवा वैज्ञानिक सोपान

प्रश्न 18.
हरबर्ट स्पेंसर के सामाजिक उद्विकास संबंधी विचारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
हरबर्ट स्पेंसर ने डार्विन के जैविकीय उद्विकास के सिद्धांत के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को समझने के लिए अपनाया है। इसे सामाजिक डार्विनवाद कहा गया। स्पेंसर का मत है कि समाजों में परस्पर प्रतियोगिता होती है।

हरबर्ट स्पेंसर के समाज की उद्विकासीय व्याख्या में समाज को व्यक्तियों की सामूहिक संख्या का नाम दिया है। स्पेंसर के अनुसार, “इस प्रकार उद्विकास का सूत्र समस्त अर्थों में स्वयं को अभिव्यक्त करता है। अधिक विशाल आकार, संसक्तता, रूप बाहुल्य एवं निश्चितता की ओर प्रगति होती है।” हरबर्ट स्पेंसर का मत है कि प्राणियों के शरीर के आकार में वृद्धि के साथ जिस रूप में उनकी संरचना में वृद्धि होती है, ठीक उसी प्रकार जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ समाज के आकार में वृद्धि होती है।

स्पेंसर का कहना है कि जिस प्रकार प्राणियों की संरचना सरल से जटिल हो जाती है उसी प्रकार की जटिलता उद्विकास के साथ-साथ समाज में भी दृष्टिगोचर होती है। सामाजिक उद्विकास की स्पेंसर ने निम्नलिखित विशेषताएं बतायी है:

  • समाज का उद्विकास सदैव सरल स्थिति से जटिल स्थिति की ओर होता है।
  • जैसे-जैसे सामाजिक उद्विकास में वृद्धि होती है वैस-वैसे समाज में सजातीयता के स्थान पर विजातीयता की स्थिति उत्पन्न होने लगती है।
  • समाज का विकास कम विभिन्नीकृत स्थिति से अधिक विभिन्नीकृत स्थिति की ओर होने लगता है।
  • सामाजिक उद्विकास की प्रक्रिया निरंतर निम्न स्तर से उच्चतम स्तर की ओर बढ़ती है।
  • हरबर्ट स्पेंसर की उद्विकास की अवधारणा में विकास तथा प्रगति की अवधारणाएँ भी सम्मिलित होते हैं, लेकिन स्पेंसर विकास तथा प्रगति में अंतर नहीं कर पाए।

प्रश्न 19.
प्रसार को सांस्कृतिक के माध्यम के रूप में समझाइए।
उत्तर:
प्रसार सांस्कृतिक परिवर्तन का सशक्त माध्यम है। यह तथ्य निम्नलिखित बिंदुओं द्वारा स्पष्ट हो जाता है –

  • विभिन्न संस्कृतियों के मध्य संपर्क तथा प्रसार के कारण ही सामाजिक मूल्य, विचार तथा प्रौद्योगिकी को एक समाज दूसरे समाज से ग्रहण करता है।
  • प्रसार के माध्यम से ही एक पिछड़ा समाज विकसित समाजों के सांस्कृतिक लक्षण अपनाता है। इससे पिछड़े समाजों में तेजी से परिवर्तन आते हैं।
  • ग्रैबनर, एंकरमान तथा सेहिट आदि विद्वानों के अनुसार संस्कृति का प्रसार किसी स्थान विशेष से न होकर विभिन्न स्थानों से हुआ है।
  • सांस्कृतिक लक्षणों का प्रसार दो अथवा दो से अधिक संस्कृतियों के सदस्यों के मध्य होने वाले आमने-सामने के संपर्क तथा
  • अंर्तक्रियाओं के माध्यम से होता है। प्रसार शैक्षणिक संस्थाओं तथा जनसंचार के माध्यमों के द्वारा भी होता है। इस प्रकार प्रसार सामाजिक परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण निभाता है।
  • सांस्कृतिक लक्षणों का तीव्र गति से प्रसार व्यक्तियों के भौतिक जीवन में द्रुतगामी परिवर्तन लाता है। दूसरी ओर, अभौतिक तत्व जैसे धर्म, विचारधारा, विश्वास तथा मूल्यों में परिवर्तन धीमी गति से होते हैं, आग्बर्न का मत है कि जब अभौतिक संस्कृति भौतिक संस्कृति के साथ समंजन नहीं कर पाती है तो वह (अभौतिक संस्कृति) भौतिक संस्कृति से पिछड़ जाती है।
  • आग्बर्न ने इस स्थिति को सांस्कृतिक विडंबना कहा है।

प्रश्न 20.
सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप के रूप में प्रगति को समझाइए।
उत्तर:
प्रगति का अर्थ-प्रगति गतिशील पक्ष है। प्रगति का तात्पर्य भौतिक तथा नैतिक प्रगति से है। कोंत का मत है प्रगति का अवलोकन समाज के सभी पक्षों में किया जा सकता है। प्रगति का स्वरूप भौतिक, नैतिक, राजनीतिक तथा बौद्धिक हो जाता है। बौद्धिक अवस्था को इतिहास में सर्वाधिक मूलभूत माना जाता। जनसंख्या के घनत्व में वृद्धि बौद्धिक प्रगति का मुख्य कारक है। जनसंख्या में वृद्धि के साथ-साथ श्रम विभाजन में विशेषीकरण अपरिहार्य है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मजमूदार ने प्रगति में निम्नलिखित छः तत्वों का होना आवश्यक बताया है:

  • व्यक्ति के सम्मान में वृद्धि।
  • प्रत्येक मानव-व्यक्ति के लिए सम्मान।
  • अध्यात्मिक खोज तथा सत्य के अन्वेषण हेतु अधिक स्वतंत्रता मिलना।
  • प्रकृति एवं व्यक्ति की रचनाओं के सौंदर्यात्मक आनंद तथा सृजनात्मकता हेतु स्वतंत्रता।
  • एक सामाजिक व्यवस्था को पहले चार मूल्यों को आगे बढ़ाती है।
  • सभी व्यक्तियों के लिए न्याय तथा समता सहित सुख, स्वतंत्रता तथा जीवन की वृद्धि करना।

प्रगति की परिभाषा –

  • आग्बर्न तथा निमाकॉफ के अनुसार, “प्रगति किसी सामान्य समूह द्वारा दर्शनीय भविष्य हेतु वांछित समझे गए उद्देश्य की ओर गति है।”
  • मेकाइवर के अनुसार, “जब हम प्रगति की बात करते हैं तो हम केवल दिशा को सूचित नहीं करते हैं, वरन् उस दिशा को जो किसी अंतिम लक्ष्य, किसी उद्देश्य की ओर ले जाती है
  • आदर्श रूप में निश्चित किया गया है, न कि कार्यरत शक्तियों के वस्तुपरक विचार से।”
  • लूम्ले. के अनुसार, “प्रगति परिवर्तन है लेकिन यह इच्छित अथवा स्वीकृत दिशा में परिवर्तन है।”
  • गुरविच तथा मूर के अनुसार, “प्रगति स्वीकृत मूल्यों के संदर्भ में इच्छित उद्देश्य की ओर बढ़ना है।”
  • हाबहाउस के अनुसार, “सामाजिक प्रगति से मैं सामाजिक जीवन के उन गुणों की वृद्धि समझता हूँ जिन्हें व्यक्ति मूल्यों से आंक सकें तथा तार्किक रूप से मूल्य संबद्ध कर सकें।”

प्रगति सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप में –

  • प्रगति सामाजिक परिवर्तन का सशक्त तथा तर्किक कारक है।
  • प्रगति किसी विशिष्ट दिशा से उद्देश्यपूर्ण तथा इच्छित परिवर्तन है।
  • प्रगति की अवधारणा परिवर्तनशील होती है। जो कारक, कारण तथा प्रतीक आज प्रगतिशील समझे जाते हैं, उन्हें आने वाले कल में अवनति का प्रतीक भी समझा जा सकता है।
  • प्रगति सचेत प्रयत्नों का परिणाम है। कार्ल मार्क्स प्रगति को समाज का नियम मानता है।
  • सामाजिक परिवर्तन के संदर्भ में प्रगति की ऐसी निश्चित अवधारणाएँ विकसित करना कठिन है, जो सार्वकालिक तथा सार्वभौमिक हैं।
  • सामाजिक गतिशीलता प्रगति का केंद्रीय तत्व है। कोई भी सामाजिक व्यवस्था प्रगति तथा विकास की अनुपस्थिति में आगे नहीं बढ़ सकती है।
  • समकालीन सामाजिक अध्ययनों में समाज की प्रगति को साधारणतया औद्योगीकरण तथा आधुनिक तकनीक के विकास में संबद्ध किया गया है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 2 ग्रामीण तथा नगरीय समाज में सामाजिक परिवर्तन तथा सामाजिक व्यवस्था

प्रश्न 21.
नगरीय क्षेत्रों में सामाजिक व्यवस्था के सामने कौन से चुनौतियाँ हैं?
उत्तर:
नगरीय क्षेत्र में सामाजिक व्यवस्था की प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं –
परिवारिक संरचना व्यवस्था में विकृति – नगरीय समुदाय में परिवारिक संरचना व्यवस्था विकृति की स्थिति में है। संयुक्त परिवार का विघटन हो रहा है। एकाकी परिवार का तेजी से विकास हो रहा है। एकाकी परिवारों में महिलाओं की प्रस्थिति तथा भूमिका में परिवर्तन आ गए हैं। नगरों में महिलाओं तथा बच्चों के विकास के प्रति एक नई चेतना दिखाई देती है।

परिवार में आवश्यक जरूरतों की पूर्ति के लिए भी लोगों की सक्रिय उत्तेजना बनी रहती है। आधुनिक सुख-सुविधा के हर समान को जुटाने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार गाँव के पुश्तैनी मकान में मिल-जुलकर फूस तथा झोपड़ी में रहने वाला परिवार नगरों में आकार एक सुनिश्चित, सुनियोजित, सुरुचिपूर्ण परिवार का संवारने का प्रयास करता है।

अंतःपीढ़ी संघर्ष की स्थिति – नगरीय परिवारों में अंत:पीढ़ी संघर्ष की प्रक्रिया दिखाई देती है। पुरानी पीढ़ी तथा नई पीढ़ी के बीच विभिन्न प्रश्नों को लेकर संघर्ष की उत्पन्न हो जाती है। यह संघर्ष धार्मिक कर्मकांड के आधार पर हो सकता है.। जातिगत संकीर्णताओं के आधार पर भी हो सकता है। पुरानी पीढ़ी अतीत की स्मृतियों तथा महिलाओं से सम्मोहित होती है। नई पीढ़ी आसमान की ऊँचाई को छूना चाहती है।

घर एक है, परिवार एक है, फिर भी पिता और पुत्र में अनेक मुद्दों को लेकर तनव जारी है। पुत्र चाहता है हर प्रश्न का समाधन आत्म सम्मान तथा तार्किकता के आधार पर हो । पिता परंपरा का परित्याग करने के लिए तैयार नहीं होता है। इस प्रकार पीढ़ियों के अंतःसंघर्ष के कारण नगरीय समुदाय के परिवार की संरचना व्यवस्था तथा प्रकार्य में व्यापक परिवर्तन का अनुभव किया जा सकता है। यही व्यवस्था भंग की दशा है।

विवाहेतर यौन संबंध-संयुक्त परिवार व्यवस्था के कमजोर पड़ जाने के पश्चात् अनेक मूल्यों तथा मानदंडों में गिरावट का अनुभव किया गया है। समाजशास्त्री अध्ययनों के आधार पर स्पष्ट होता है कि हाल के वर्षों में परिवार के क्षेत्र में यौन संबंधों को लेकर कहीं दबे रूप में कहीं खुले रूप में वाद-विवाद प्रारंभ हो चुका है। भूमंडलीकरण तथा खुले बाजारों के कारण परिवार के विभिन्न संबंधों को लेकर घमासान चल रहा है। नगरीय समुदाय के परिवारों में विवाहेतर यौन संबंधों की घटनाओं में तेजी वृद्धि हो रही है।

अपरिचय बोध : डेविस रिजमैन ने अपनी पुस्तक ‘Lownly Crowld’ में स्पष्ट किया है कि भीड़ में भी अपने-आप को मनुष्य अकेला अनुभव करता है। वह दबावों में होता है। वह तनाव से मुक्त होना चाहता है। तनाव से मुक्त नहीं हो पाता। ममफोर्ड तथा एरिक फ्राम ने भी नगरीय समुदाय की तीव्र जिंदगी का विश्लेषण किया है।

एरिक फ्राम ने अपनी पुस्तक ‘सेन सोसाइटी’ में स्पष्ट किया है कि क्रू हम इन तनावों के बढ़ते हुए बोझ के बावजूद संतुलित मस्तिष्क को बनाये रख जाएँ। स्पष्ट है कि नगरीय समुदाय में परिवर्तन की प्रक्रिया बड़े पैमाने एर चल रही है और इस प्रक्रिया के अंतर्गत नगरीयसामाजिक व्यवस्था के पुराने मिथक टूट रहे हैं।

संकट में बुजुर्ग-ग्रामीण परिवेश में एक अकेले व्यक्ति का जीवन भी सहज एवं स्वाभाविक रूपों में व्यतीत हो सकता है । गाँवों में नातेदारी संबंधों का अस्तित्व अभी भी बना हुआ हैं। नगरों में यह संभव नहीं है। महानगरों, बड़े नगरों तथा बुजुर्ग अकेले अथवा पत्नी के साथ बड़े मकानों में रहते हैं। बीमार होने पर देखभाल करने वाला कोई नहीं होता है।

भय के कारण अंजान लोगों से सहयोग ले नहीं सकते हैं। फिर भी आए दिन बुजुर्ग दंपतियों की हत्या को जाती है। हत्यारे का पता तक नहीं चल पाता है। इस प्रकार अवकाश प्राप्त व्यति एक तरह से अपने परिवार के सदस्यों से भी उपेक्षित होता है। असुरक्षा एवं संशय की स्थिति में अपने-आप को असहाय मानता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Psychology Chapter 1 मनोविज्ञान क्या है?

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 1 मनोविज्ञान क्या है? Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 1 मनोविज्ञान क्या है?

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प्रश्न 1.
व्यवहार क्या है? प्रकट एवं अप्रकट व्यवहार का उदहारण दीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण की विभिन्न घटनाओं से उत्पन्न स्थितियों के प्रभाव में मानव मन उद्दीपक (S) और अनुक्रिया (R) में संतुलन बनाये रखने के लिए अपनी प्रकृति तथा प्रवृति के अनुसार जैसा आचरण करता है, उसे संलग्न स्थितियों के प्रति व्यवहार (behaviours) माना जाता है। हमारे मानसिक निर्णय का कार्यकारी परिणाम हमारा व्यवहार माना जाता है। व्यवहार व्यक्ति एवं उसके वातावरण का उत्पाद है। अर्थात् B=f (P.E.)। व्यवहार सामान्य अथवा जटिल, अल्पकालिक या दीर्घकालिक, लाभकारी या हानिकारक किसी भी श्रेणी में रखे जा सकते हैं। कुछ व्यवहार प्रकट होते हैं तो कुछ अप्रकट ।

प्रकट व्यवहार के उदाहरण –

  1. मालिक को सामने पाकर नौकर का सतर्क और सभ्य आचरण करना।
  2. साँप या बाघ को देखते ही उपने को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने के लिए यथासंभव तेजी से भागना।
  3. जेब में डाले हुए हाथ को पकड़ लिये जाने पर पॉकेटमार तथा यात्री के मुखमुद्रा तथा क्रियाओं में आने वाला अन्तर।

अप्रकट व्यवहार के उदहारण –

  1. परीक्षार्थी के परीक्षाभवन में बैठ जाने पर कठिन प्रश्नों की आशंका में किया जाने वाला आचरण।
  2. शतरंज, ताश या कैरमबोर्ड खेलते समय की जाने वाली आगामी चाल के प्रति चिंतित होना।
  3. मित्र के घर मिलने वाल स्वागत, भोजन तथा आमंत्रण की सुखद याद करना।

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प्रश्न 2.
आप वैज्ञानिकामनोविज्ञान को मनोविज्ञान विद्या शाखा की प्रसिद्ध धारणाओं से कैसे अलग करेंगे?
उत्तर:
वैज्ञानिक मनोविज्ञान अनुसंधान एवं अनुप्रयोग की दिशा प्रयोग करने वाले कथ्य पर पूर्णतः आधारित होते हैं। अनुसंधान में व्यवहार और मानसिक घटनाओं की समझ, व्याख्या एवं दोष मुक्त बनाने की क्षमता होती है। यह मात्र कोरी कल्पना पर आधारित नहीं होती है। इसके अन्तर्गत अनेक प्रयोग किये जाते हैं। प्रयोगिक कार्यों से प्राप्त निष्कर्षों को मानव-हित में उपयोग में लाते हैं। सर्वप्रथम प्रयोगों की अभिकल्पना की जाती है।

प्रयोगों को संपादित करते है। अर्थात् प्रयोगों के वृहत्तर आयाम के मनोवैज्ञानिक गोचरों का नियंत्रिण दिशा में अध्ययन किया जाता है जिसका प्रधान उद्देश्य व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के सामान्य सिद्धातों का विकास करना होता है। प्रयोगिक मनोविज्ञान प्रत्यक्षण, अधिगम, स्मृति, चिंतन एवं अभिप्रेरण आदि प्रक्रियाओं से जुड़ी रहती है। वैज्ञानिक मनोवैज्ञानिक के लिए निम्नांकित कथ्य सार्थक प्रतित होते हैं –

  • मनोविज्ञान व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के सिद्धांतों का विकास करने का प्रयास करता है।
  • मानव व्यवहार व्यक्तियों एवं वातावरण के लक्षणों का एक प्रकार्य है।
  • मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग द्वारा मानव व्यवहार को नियंत्रित एवं परिवर्तित किया जा सकता है।
  • मानव व्यवहार उत्पन्न किया जा सकता है।
  • मानव व्यवहार की समझ से संस्कृति निर्मित होती है।

यही कारण है कि मनोविज्ञान की सार्थकता को बढ़ाने के लिए तंत्रिका विज्ञान, शरीर क्रिया विज्ञान, जीवन विज्ञान, आयुर्विज्ञान तथा कम्प्यूटर विज्ञान की सहायता ली जाती है। मनोविज्ञान की सभी विद्या एवं शाखाओं में मानव हित को ध्यान में रखा गया है, किन्तु वैज्ञानिक मनोविज्ञान की तरह यह सर्वमान्य नही होता है। दशा और समय के बदलने से निर्धारित मूल्यों एवं समझदारियों में भी अन्तर आ जाता है।

इसमें विशिष्ट अनुसंधान, कौशल एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। समाज-सेवा हो या मन की उत्सुकता, मानवीय उलझन हो या किसी प्रकार कि समस्या; एक निदान उपयोगी नहीं होता। गरीब-अमीर, शांति-क्रांति, मिलन-वियोग, बरसात-गर्मी जैसे परिवर्तन धारणाओं में अन्तर उत्पन्न कर देते हैं। साधारण-सा उदाहरण है एक मित्र का कही दूर चला जाना। नया मित्र मिल जाने पर ‘दृष्टि ओझल मन ओझल’ का सिद्धांत सही लगता है जबकि नये मित्र के अभाव में मान लिया जाता है कि ‘दूरी से हृदय में प्रेम और प्रगाढ़ होता है।

अर्थात् मनोविज्ञान की विभिन्न विद्या शाखाओं की प्रसिद्ध धारणाओं का विज्ञान अंधकार में तीर चलाने जैसा प्रतीत होता है। मनोविज्ञान द्वारा उत्पादित वैज्ञानिक ज्ञान सामान्य बोझ के प्रायः विरुद्ध होता है। परीक्षा में अनुत्तीर्ण छात्र प्रश्न-पत्र को ही बदनाम कर संतोष कर लेते हैं जबकि उन्हें जानना चाहिए कि –

  • पलायन के बदले प्रयास करते रहना चाहिए।
  • असफलता का कारण प्रयास की कमी होती है।
  • अच्छा अभ्यास ही अच्छा निष्पादन का कारण बनता है।

अर्थात् एक सामाजिक-सांस्कृतिक के संदर्भ में मानव व्यवहार के लिए मनोविज्ञान अपने ज्ञान को मानव विज्ञान, समाजशास्त्र, समाज कार्य विज्ञान, राजनीति विज्ञान एवं अर्थशास्त्र के साथ भी मिलकर बाँटता है। आजकल वास्तविकता की अच्छी समझ के लिए बहु/अंतर्विषयक पहल की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। इससे विद्या शाखाओं में आपसी सहयोग का उदय हुआ है। मनोविज्ञान की रुचि सामाजिक विज्ञानों में परस्पर रूप से व्याप्त है। ऐसे प्रयासों से फलदायी अनुसंधानों एवं उनुप्रयोगों को बढ़ावा मिलता है। मनोविज्ञान अनेक समस्याओं के समाधान में भी समर्थ सिद्ध हुआ है।

प्रश्न 3.
मनोविज्ञान के विकास का संक्षिप्त रूप प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर:
प्राचीन दर्शनशास्त्र के मनोवैज्ञानिक सार्थकता से जुड़ी सूचनाओं से मनोविज्ञान का उद्भव हुआ।

1. संरचनावादी (1879):
मन के अवयवों अथवा निर्माण की इकाइयों का विश्लेषण करने की इच्छा से विलियम वुण्ट ने लिपजिंग, जर्मनी में प्रथम मनोविज्ञान प्रयोगशाला स्थापित किया।

2. प्रकार्यवादी (1890):
एक अमेरीकी मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स ने कैम्ब्रिज, मेसाचुसेट्स में इसका प्रयोगशाला स्थापित किया। उन्होंने मानव मन के अध्ययन के लिए प्रकार्यवादी उपागम का विकास किया। इन्होंने ‘प्रिंसपल ऑफ साइकोलॉजी’ प्रकाशित की। इसी अवधि में जॉन डीवी ने मानव के कार्य करने की पद्धति पर अपना विचार प्रकट किया। सन् 1895 में मनोविज्ञान की एक व्यवस्था के रूप में प्रकार्यवाद की स्थापना हुई। सन् 1990 में सिगमंड फ्रायड ने मनोविश्लेषणवाद का विकास किया।

3. व्यवहारवाद (1910):
जॉन वाटसन ने मानव मन एवं चेतना को अध्ययन का आधार बनाया।

4. 1916 में कलकत्ता विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान का प्रथम विभाग खुला।

5. स्किनर ने व्यवहारवाद का अनुप्रयोग किया।

6. सिगमंड फ्रायड ने मानव व्यवहार को अचेतन इच्छाओं एवं द्वन्द्वों का गतिशील प्रदर्शन बताया। इन्होंने मनोविश्लेषण को एक पद्धति के रूप में स्थापित किया।

7. मानवतावादी परिदृश्य:
कार्ल रोजर्स तथा अब्राहम मैस्लो ने बताया कि व्यवहारवाद, वातावरण की दशाओं से निर्धारित व्यवहार पर बल देता है।

8. संज्ञानात्मक परिदृश्य (1920):
जर्मनी में गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का उदय हुआ। चिंतन, समझ, प्रत्यक्षण, स्मरण करना, समस्या सामाधान तथा अनेक मानसिक प्रक्रियाओं के द्वारा संज्ञानात्मक परिदृश्य प्रस्तुत किया।

9. निर्मितवाद:
मानव मन के विकास का निर्मितपरक सिद्धांत के द्वारा पियाजे (piaget) ने. मानव मन की सक्रिय रचना की खोज की। रूस के एक अन्य मनोविज्ञानिक व्यगाट्स्की (Vygotsky) ने बताया कि मानव का विकास सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से होता है। मन एक संयुक्त सांस्कृतिक निर्मित है तथा वयस्कों एवं बच्चों की अंतः क्रिया के परिणामस्वरूप विकसित हो पाता है।

इसके अतिरिक्त सन् 1978 में निर्णयन पर हर्बर्ट साइमन के द्वारा कार्य किया गया। सन् 2002 में डेनियल बहनेमन द्वारा मानव निर्णयन पर शोध किया गया। सन् 2005 में थामस शेलिंग ने आर्थिक व्यवहार में सहयोग एवं द्वन्द्व की समझ में खेल सिद्धान्त का अनुप्रयोग किया।

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प्रश्न 4.
वे कौन-सी समस्याएं होती हैं जिनके मनोवैज्ञानिकों का अन्य विद्या शाखा के लोगों के साथ सहयोग लाभप्रद हो सकता है? किन्हीं दो समस्याओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मनोविज्ञान, व्यवहार, अनुभव एवं मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है। मनोविज्ञान की जड़ें दर्शनशास्त्र में हाती हैं। मनोविज्ञान केवलं मानव व्यवहार के विषय में सैद्धान्तिक ज्ञान का विकास ही नहीं करता है बल्कि यह विभिन्न स्तरों पर समस्याओं का समाधान भी करती है। मानव व्यवहार को समझने तथा मानव जीवन से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए मनोविज्ञान कई विद्या शाखाओं से जुड़ी होती है। निम्नांकित

विद्या शाखाएँ ऐसी हैं जो मनोविज्ञान की सार्थकता को सुपरिणामी बनाने में समर्थ होते हैं इसी श्रेणी के रुझान के कारण मनोविज्ञान में अंतर्विषयक उपागम का उदय हुआ।

1. दर्शनशास्त्र:
मन का स्वरूप, अभिप्रेरण, संवेग आदि के आधार पर ज्ञान की विधि तथा मानव स्वभाव के विभिन्न क्षेत्रों का अध्ययन।

2. अनुर्विज्ञान:
स्वस्थ शरीर के लिए स्वस्थ मन की आवश्यकता होती है।

3. अर्थशास्त्र, राजनीति विज्ञान एवं समाजशास्त्र:
आर्थिक व्यवहार, उपभोक्ताओं की भावुकताओं एवं आवश्यकताओं का अध्ययन, अर्थशास्त्र के माध्यम से सरल हो जाता है। शक्ति एवं प्रभुक्त के उपयोग, मतदान, मानसिक आचरणों, सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणाओं से जुड़ी समस्याओं आदि का समाधान राजनीति विज्ञान एवं समाजशास्त्र से संभव होता है।

4. कम्प्यूटर विज्ञान:
मानव स्वभाव पर आधारित संज्ञानात्मक विज्ञान का उपयोग करके संवेद एवं अनुभूति को जाना जा सकता है।

5. विधि एवं अपराधशास्त्र:
अभियुक्त की पहचान, सजा का निर्धारण, गवाहों की मानसिकता, पश्चाताप का महत्व आदि को समझने के लिए मनोविज्ञान को विधि एवं अपराधशास्त्र की मदद लेनी होती है।

6. जनसंचार:
मानवीय घटनाओं के अभिप्रेरकों एवं संवेगों का ज्ञान जनसंचार के माध्यम से सरल हो जाता है।

7. संगीत एवं ललितकला:
कार्य निष्पादन तथा संगीत चिकित्सा आदि मानव हित में व्याधि निवारक माने जाते हैं।

8. वास्तुकला एवं अभियांत्रिकी:
भौतिक एवं मानसिक संतुष्टि, सौंदर्यशास्त्रीय विवेचन, सुरक्षा एवं अच्छी आदतों के संरक्षण में सहायता मिलती है। इसी प्रकार –

9. शिक्षा।

10. मनोरोग विज्ञान।

11. शिक्षा आदि से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए मनोवैज्ञानिकों को अन्य विद्या शाखा के लोगों के साथ सहयोग लाभप्रद होता है। जीवन की समस्याओं के निदान में मनोविज्ञान के विभव को अधिक-अधिक महत्व दिया जा रहा है। इस संबंध में संचार सधानों की भूमिका महत्वपूर्ण है। विद्यालयों, चिकित्सालयों, उद्योगों, काराग़ारों, व्यावसायिक संगठनों तथा निजी अभ्यास में मनोवैज्ञानिक परामर्श से काफी हायता मिलती है।

दूसरों के लिए समाज-सेवा प्रदान करने में विद्या शाखाओं की सहयोग सार्थक प्रतीत होती है। अर्थात् मनोविज्ञान मात्र एक विषय के रूप में हमारे मन की उत्सुकताओं को ही नहीं संतुष्ट करता है बल्कि यह अनेक प्रकार की समस्याओं का समाधान भी करता है। शिक्षा, स्वास्थ, पर्यावरण, समाजिक न्याय, महिला विकास, अंर्तसमूह संबंध आदि समस्याओं का समाधान यह किसी अन्य विद्या शाखा के सहयोग से करता है।

प्रश्न 5.
अंतर कीजिए (अ) मनोवैज्ञानिक एवं मनोरोग विज्ञानी तथा (ब) परामर्शदाता एवं नैदानिक मनोवैज्ञानिक में।
उत्तर:
(अ) मनोवैज्ञानिक एव मनोरोग विज्ञानी में अन्तर-मनोवैज्ञानिक लोगों के अनुभवों का अध्ययन करके उत्पन्न समस्याओं का निदान ढूँढता है। मनोवैज्ञानिक व्यवहार एवं अनुभव की व्याख्या से ऐसी अभिनतियों को अनेक तरीकों से कम करने का प्रयास करते हैं। आत्म परावर्तन, व्यक्तिपरकता, वैज्ञानिक विशलेषण आदि को समझ का आधार माना जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने अधिगम, स्मृति, अवधान, प्रत्यक्षण, अभिप्रेरणा एवं संवेग आदि के सिद्धान्तों को विकसित किया है तथा सार्थक प्रगति की है। मनोवैज्ञानिक गोचरों के विषय में सिद्धांत विकसित करता है।

मनोवैज्ञानिक व्यक्तिगत समस्याओं एवं जीवन-वृति योजना के विषय में अपनी सलाह देते हैं। मनोवैज्ञानिक जैविक, शिक्षा, क्रीड़ा, औद्योगिक, विद्यालय आदि से संबंधित अनुसंधान और अनुप्रयोग का अध्ययन कर प्राप्त परिणाम से मानव हित में कार्य करता है। मनोवैज्ञानिक कारणपरक प्रतिरूपों को खोजते हैं।

मनोरोग विज्ञानी-मनोवैज्ञानिक व्यतिक्रमों कारणों, उपचारों तथा उनसे बचाव का अध्ययन करते हैं। मनोरोग विज्ञानी के पास चिकित्सा विज्ञान की उपाधि होती है जो मनोवैज्ञानिक व्यतिक्रम के निदान हेतु वर्षों का विशष्ट प्रशिक्षण प्राप्त किए हुए होते है। मनोरोग विज्ञानी ही दवाइयों का सूझाव दे सकता है तथा विद्युत आघात उपचार प्रदान कर सकता है।

(ब) परामर्शदाता एवं नैदानिक मनोवैज्ञातिक में अन्तर-समाज सेवा प्रदान करने में मनोवैज्ञान के विविध सिद्धांतों की जानकारी रखनेवाले विभिन्न परिस्थितियों से उत्पन्न समस्याओं के सफल निदान हेतु अपने अनुभव के आधार पर परामर्श देते हैं। विद्यालयों, चिकित्सालयों, उद्योगों, कारागारों, व्यावसायिक संगठनों, सैन्य प्रतिष्ठानों तथा प्राइवेट प्रैक्टिस में परामर्शदाता के रूप में जहाँ वे लोगों को अपने क्षेत्र में समस्याओं के समाधान में सहायता करते हैं।

परामर्शदाता मात्र सलाह देता है न कि स्वयं निदान मे जुट जाता है। परामर्श पाने वाले परामर्शदाता के परामर्श के प्रति सकारात्मक तथा संतुलित समझ से रक्षात्मक व्यवहार करते हैं। अर्थात् परामर्शदाता मात्र सलाहकार होता है वह किसी को बाध्य नहीं करता है।

दूसरी ओर नैदानिक मनोविज्ञानिक व्यवहारिक समस्या वाले रोगियों की सहायता करने में विशिष्टता रखते हैं। नैदानिक मनोवैज्ञानिक अनेक मानसिक व्यतिक्रमों तथा दुश्चिता, भय या कार्यस्थल के दबावों के लिए चिकित्सा प्रदान करते हैं। रोगियों की दशाओं का अध्ययन के लिए ये उनका साक्षात्कार करते हैं। उपचार, पुनर्वास, जीविकोपार्जन आदि क्षेत्रों में ये मनोवैज्ञानिक विधियों का उपयोग करते हैं। नैदानिक मनोवैज्ञानिक दवाइयों का सुझाव, विद्युत आघात उपचार आदि में हाथ बँटना नहीं चहाता है।

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प्रश्न 6.
दैनंदिन जीवन के कुछ क्षेत्रों का वर्णन कीजिए जहाँ मनोविज्ञान की समझ को अभ्यास रूप में लाया जा सके।
उत्तर:
मनोविज्ञान का ज्ञान, हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में बहुत ही उपयोगी है तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक दुष्टि से भी लाभप्रद है। मनोविज्ञान मात्र किसी एक विषय के रूप में हमारे मन की उत्सुकताओं को ही नहीं संतुष्ट करता है बल्कि यह एक ऐसा विषय है जो अनेक प्रकार की समस्याओं का समाधान करता है।

(क) व्यक्तिगत क्षेत्र में किसी युवा लकड़ी का अपने शराबी पिता से सामना करने हेतु मनोविज्ञान की समझ उपयोगी होती है। इसी प्रकार किसी माँ का अपने समस्याग्रस्त बच्चों के दिल में आशा और हिम्मत की भावना जगाने में मनोविज्ञान के सिद्धांत का प्रयोग किया जाना चाहिए।

(ख) पारिवारिक पृष्ठभूमि में:
परिवार के सभी सदस्यों के किसी परिवारिक समस्या के समाधान हेतु विचार-विमर्श के क्रम में उत्पन्न उलझन को संवाद एवं अंत:क्रिया की कमी का अभास कराकर खुशनुमा स्थिति उत्पन्न करने में मनोविज्ञान की सहायता ली जा सकती है।

(ग) समुदायिक परिवेश में आतंकवादी समूह को अनैतिक कार्यों के प्रति घृणा उत्पन्न करना, सामाजिक रूप से एकांतिक होने से बचने की प्रेरणा देना मनोविज्ञान के ज्ञान से संभव हो सकता है।

(घ) राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय विमाओं वाली समस्या:
शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, सामाजिक न्याय, महिला विकास, अंतर्समूह संबंध, सीमा युद्ध, खेल प्रतियोगिता जैसी स्थितियों के कारण उत्पन्न विवाद या समस्याओं को सुलझाने में मनोवैज्ञानिक पद्धति सुपरिणामी सिद्ध होती है। इस श्रेणी की समस्याओं के कारण अस्वस्थ चिंतन, अपने प्रति ऋणात्मक प्रवृत्ति तथा व्यवहार की आवांछित शैली आदि का पाया जाना है। इनका समाधान राजनैतिक, आर्थिक एवं सामाजिक सुधार तथा वैयक्तिक स्तर पर हस्तक्षेप आदि में अन्तर लाकर संभव होता है।

(ड.) जीवन की समस्याओं का निदान:
मनोवैज्ञानिक लोगों के गुणात्मक रूप से अच्छे जीवन के लिए हस्तक्षेपी कार्यक्रमों की अभिकल्पना एवं संचालन में सक्रिय भूमिका का निर्वहन करते हैं। समाजिक परिवर्तन तथा विकास, जनसंख्या विस्फोट, गरीबी का अभिशाप, सुनामी लहर का कहर, हिंसा, लूटपाट, बलात्कार, असंख्य समस्याओं से ग्रसित मानव को मनोविज्ञान का ज्ञान ही सही रास्ता बता सकता है।

(च) समाज-सेवा:
दूसरों के लिए समाज सेवा प्रदान करने की प्रेरणा तथा साधन या सिद्धांत मनोविज्ञान के ज्ञान से ही संभव हो पाता है। मनोविज्ञान के सिद्धांत एवं विधियों की सही जानकारी से ही हम दूसरों के दुख का कारण और निदान पा सकते हैं । रक्षात्मक व्यवहार, सर्वप्रिय आदतें, ‘बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय’ का सुविचार सकारात्मक कार्य प्रणाली, संतुलित समझ आदि मनोविज्ञान की ही देन है।

प्रश्न 7.
पर्यावरण के अनुकूल मित्रवत व्यावहार को किस प्रकार उस क्षेत्र में ज्ञान द्वारा बढ़ाया जा सकता है?
उत्तर:
तापमान, आर्द्रता, प्रदूषण तथा प्राकृतिक आपदा पर्यावरण एवं मानव के लिए अहितकारी स्थिति उत्पन्न कर देते हैं। इस दुष्प्रभाव के कारण के रूप में उत्सर्ग प्रबन्धन, जनसंख्या “विस्फोट, ऊर्जा संरक्षण, वन-विनाश, प्राकृतिक संसाधनों का अनुपयोगी दोहन तथा समुदायिक संसाधनों का उपयोग आदि जुड़े हैं जो मानव व्यवहार के प्रकार्य होते हैं।

पर्यावरण अनुकूल मित्रवत व्यवहार को बढ़ाने के लिए मनोवैज्ञानिक अनुसंधान का सार्थक अध्ययन करना उपयोगी होता है। ज्ञान है कि –

  1. मनोवैज्ञानिक व्यतिक्रमों के निदान एवं बचाव से संबंधित होते हैं। संसार में हमारी अंत:क्रियाएँ एवं अनुभव एक व्यवस्था के रूप में गतिमान होकर संगठित होते हैं जो विविध प्रकार की मानसिक प्रक्रियाओं के घटित होने के लिए उत्तरदायी होते हैं।
  2. मानव समुदाय मे क्यों और कैसे समुदायों में लोग एक-दूसरे की कठिनाई के समय सहायता करते हैं तथा त्याग करते हैं।
  3. यदि हम किसी कार्यकर्ता से चाहते हैं कि अपने विगत कार्य से अच्छा कार्य करे तो उसे उत्साहित करना होता है।
  4. फ्रायड ने मानव व्यवहार को अचेतन इच्छाओं एवं द्वन्द्वों का गतिशील प्रदर्शन बताया। मनोविशलेषण को उन्होंने एक पद्धति के रूप में स्थापित किया।
  5. मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों की सहायता से लोगों को समस्याओं के प्रति दक्षतापूर्वक सामना करने योग्य बनाया है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि मानव अर्जित ज्ञान भाईचारा, सहिष्णुता, विनम्रता, सहभागिता आदि का पाठ पढ़ाकर पर्यावरण को अपने अनुकूल बनाया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप जनसंख्या विस्फोट पर नियंत्रण लाकर बेरोजगारी, आंतकवाद, असंतोष, शिक्षा भुखमरी आदि दोषों पर काबू पाया जा सकता है। मनोविज्ञान के रूप में अनुसंसाधन, अनुप्रयोग, प्रकार्यवाद, व्यवहारवाद, बुद्धि परीक्षण, मानववादी सिद्धांत निर्णयन, आर्थिक संतुलन आदि का समुचित अध्ययन के पश्चात् कोई भी मानव पर्यावरण के स्वभाव और महत्व को समझने लगेगा तथा पर्यावरण को अपनी जीवन-शैली के अनुकूल बनाये रखने में समर्थ हो जायगा।

प्राकृतिक आपदा को यदि आधार माना जाय तो मानव की कराह को सांत्वना, सहयोग, साधना एवं सहकार्यिता के द्वारा कम किया जा सकता है। किसी भी क्षेत्र में मानवीय व्यवहार के माध्यम से पर्यावरण को संतुलित बनाये रखना संभव होता है।

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प्रश्न 8.
अपराध जैसी महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या का समाधान खोजने में सहायता करने के लिए आपे अनुसार मनोविज्ञान की कौन-सी शाखा सबसे उपयुक्त है। क्षेत्र की पहचान कीजिए एवं उस क्षेत्र के कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों के सरोकारों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
मनोविज्ञान की प्रत्येक शाखा का सीधा संबंध मानवीय क्रियाकलापों से जुड़ा हुआ है। मनोविज्ञान प्रत्येक क्षेत्र में मानवीय समस्याओं की खोज करता है तथा उनके निदान का उपाय बतलाता है। अपराध जैसी महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या का समाधान की खोज में सहायता करने के लिए विकासात्मक मनोविज्ञान का अध्ययन एवं उपयोग सर्वाधिक उपयुक्त है। विकासात्मक मनोविज्ञान सम्पूर्ण मानव-जीवन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करता है।

भौतिक, समाजिक एवं मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों का अध्ययन करके कारण, परणिाम और सरल निदान की खोज करता है। जो हम हैं वह कैसे हुआ ? बच्चों एवं किशोरों के विकास के साथ-साथ यह वयस्कों एवं काल-प्रभावक विषय में उपयोगी सूचना देता है। वे जैविक समाजिक सांस्कृतिक तथा पर्यावरणीय कारकों जो मनोवैज्ञानिक विशेषताओं (बुद्धि, संज्ञान, संवेग, मिजाज, नैतिकता एवं सामाजिक संबंध) को प्रभावित करते है। यह मनुष्य की संवृद्धि एवं विकास के लिए अन्य शाखाओं से मिलकर कार्य करता है।

विधि एवं अपराधशास्त्र से जुड़कर विकासात्मक मनोविज्ञान अपराध का स्वरूप, अपराधी की छवि, अधिवक्ता का कर्तव्य, गवाहों की प्राथमिकता, न्याय अथवा दंड का आधार से संबधित विभिन्न कारकों की खोज करके अपराध नियंत्रण में सहयोग करता है। दुर्घटना, शीतयुद्ध, गली की लड़ाई, हत्या, बलात्कार, झूठ, पश्चाताप, उम्रकैद, फाँसी, आर्थिक दण्ड, अवहेलना, बहिष्कार जैसी विधियों के द्वारा अपराध को नष्ट करने का सहास जुटाता है। विधी व्यवस्था एवं अपराध नियंत्रण से जुड़े निम्नांकित प्रश्नों के सही उत्तर बतलाने का सफल प्रयास करता है –

  1. अपराध क्यों और कैसे किया गया?
  2. गवाही में कितनी सत्यता है?
  3. जूरी के निर्णयों पर किसका अंकुश है?
  4. क्या उपराधी अपनी करनी पर पछता रहा है?
  5. क्या दिया गया निर्णय या दंड अपराधी की प्रवृति को बदल पायेगा?

अपराध नियंत्रण से जुड़ी सभी संभावनाओं की खोज करने तथा भविष्य में उसके विनाश की स्थिति उत्पन्न करने में मनोवैज्ञानिक अनुसंधान काफी उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology मनोविज्ञान क्या है? Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अनुभव किससे प्रभावित होता है?
उत्तर:
अनुभव, अनुभवकर्ता की आंतरिक एवं बाह्य दशाओं से प्रभावित होते हैं।

प्रश्न 2.
व्यवहार की विशिष्टताएँ क्या हैं?
उत्तर:
व्यवहार क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के प्रति किया गया आचरण होता है जो सामान्य अथवा जटिल, लघुकालिक या दीर्घकालिक तथा प्रकट या अप्रकट कुछ भी हो सकता है।

प्रश्न 3.
मनोविज्ञान की प्रथम प्रयोगशाला कब और कहाँ स्थापित किया गया था?
उत्तर:
सन् 1879 में विलहम वुण्ट ने लिपजिंग, जर्मनी में प्रथम मनोविज्ञान प्रयोगशाला स्थापित किया था।

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प्रश्न 4.
मनोविज्ञान क्या है?
उत्तर:
मनोविज्ञान एक विशिष्ट विद्या शाखा है जो प्राकृतिक विज्ञान एवं सामाजिक विज्ञान के रूप में मानवीय व्यवहारों को नियंत्रित रखता है।

प्रश्न 5.
मानसिक प्रक्रिया क्या है?
उत्तर:
मानवीय चेतना के रूप मे अनुभव करने वाल व्यक्ति के द्वारा प्राप्त आंतरिक ज्ञान का अनुप्रयोग मानसिक क्रिया मानी जाती है।

प्रश्न 6.
मानसिक क्रियाओं के घटित होने के लिए कौन उत्तदायी है?
उत्तर:
संसार में हमारी अंतःक्रियाएँ एवं अनुभव एक व्यवस्था के रूप में गतिमान होकर संगठित होते हैं जो विविध प्रकार की मानसिक प्रक्रियाओं के घटित होने के लिए उत्तरदायी होते हैं।

प्रश्न 7.
व्यवहारवाद से संबंधित पुस्तक किसने लिखी?
उत्तर:
जॉन. बी. वाटसन ने व्यवहारवाद पुस्तक लिखी जिससे व्यवहारवाद की नींव पड़ी।

प्रश्न 8.
किन-किन मनोवैज्ञानिकों को नोबल पुरस्कार मिला?
उत्तर:

  1. कोनराड लारेंज-1973
  2. हर्ट साइमन-1978
  3. डेविड ह्यूवल-1981
  4. रोजर स्पेरी-1981
  5. डेनियल कहनेमन-2002
  6. थॉमस शेलिंग-2005

प्रश्न 9.
गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का उदय कब और कहाँ हुआ?
उत्तर:
सन् 1920 में जर्मनी में गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का उदय हुआ।

प्रश्न 10.
सिगमंड फ्रायड ने किस वाद का विकास किया?
उत्तर:
सिगमंड फ्रायड ने मनोविश्लेषवाद का विकास सन् 1900 में किया।

प्रश्न 11.
NAOP से क्या बोध होता है?
उत्तर:
NAOP = नेशनल एकेडमी ऑफ साइकोलॉजी इसकी स्थापना सन् 1989 में भारत में हुई।

प्रश्न 12.
NBRC क्या है? इसकी स्थापना कब, क्यों और कहाँ की गई?
उत्तर:
NBRC = नेशनल ब्रेन रिसर्च सेन्टर । इसकी स्थापना गुड़गाँव, हरियाणा में सन् 1997 में कि गई जहाँ मनोरोग की जाँच एवं चिकित्सा की जाती है।

प्रश्न 13.
राँची में हास्पीटल फॉर मेंटल डिजीजिज की स्थापना कब हुई?
उत्तर:
सन् 1962 में राँची में हॉस्पीटल फॉर मेंटल डिजीजिज की स्थापना की गई थी।

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प्रश्न 14.
मस्तिष्क विच्छेदन अनुसंधान के लिए किसे और कब नोबल पुरस्कार दिया गया था।
उत्तर:
सन् 1981 में रोजर स्पेरी को मस्तिष्क विच्छेदन अनुसंधान के लिए नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

प्रश्न 15.
क्या मन को मस्तिष्क के समान माना जा सकता है?
उत्तर:
मन मस्तिष्क के बिना नहीं रह सकता है, फिर भी मन एक पृथक सत्ता है।

प्रश्न 16.
मानसिक प्रतिमा से क्या समझते है?
उत्तर:
किसी व्यक्ति द्वारा अतार्किक भय को मिटाने हेतु निरन्तर अभ्यास करने के फलस्वरूप रोग प्रतिरोधक तंत्र को सशक्त करने में मन की भूमिका पर बल देती है।

प्रश्न 17.
मानव व्यवहार के लिए कोई मानक सिद्धांत होते हैं यानहीं?
उत्तर:
अच्छा कार्यफल पाने के लिए उत्साहित करना या दंड देना सर्वमान्य सिद्धांत नहीं है।

प्रश्न 18.
दो समान्य बोध धारणाएँ बतायें जो सदा सत्य नहीं होते?
उत्तर:

  1. पुरुष महिलाओं से अधिक बुद्धिमान होते हैं।
  2. पुरुषों की तुलना में महिलाएँ अधिक दुर्घटना करती हैं।

प्रश्न 19.
मनोवैज्ञानिकों को ज्योतिषयों, तांत्रिकों एवं हस्तरेखा विशारदों जैसा क्यों नही माना जाता है?
उत्तर:
क्योंकि मनोवैज्ञानिक प्रदत्तों पर आधारित बातों का व्यवस्थित अध्ययन करके मानव व्यवहार एवं अन्य मनोवैज्ञानिक गोचरों के विषय में सिद्धांत विकसित करता है।

प्रश्न 20.
प्रकार्यवादी उपागम का विकास क्यों और किसने किया?
उत्तर:
एक अमेरीकी मनोवैज्ञानिक विलियम जैम्स ने मानव मन को अध्ययन के लिए प्रकार्यवादी उपागम का विकास किया।

प्रश्न 21.
व्यवहारवाद से आप क्या समझते है?
उत्तर:
संरचनावाद की प्रतिक्रियास्वरूप विकसित नई धारा को व्यवहारवाद कहा जाता है जो मानव स्वभाव को इंगित करता है।

प्रश्न 22.
भारतीय मनोविज्ञान का आधुनिक काल कब प्रारंभ हुआ?
उत्तर:
भारतीय मनोविज्ञान का आधुनिक काल कोलकत्ता विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में सन् 1915 में प्रारंभ हुआ।

प्रश्न 23.
भारत में प्रथम मनोविज्ञान विभाग का प्रारम्भ कब हुआ?
उत्तर:
कोलकत्ता विश्वविद्यालय ने सन् 1916 में प्रथम मनोविज्ञान तथा 1938 में अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान विभाग प्रारंभ किया गया।

प्रश्न 24.
डॉ. एन. एन. सेन गुप्ता की क्या देन थी?
उत्तर:
प्रोफेसर बोस ने ‘इंडियन साइकोएलिटिकल एसोसिएशन’ की स्थापना 1922 में की थी। उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय एवं पटना विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान के अध्ययन एवं अनुसंधान के प्रारम्भिक केन्द्र आरंभ किया।

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प्रश्न 25.
दुर्गानन्द सिन्हा की प्रसिद्धि का कारण बतायें।
उत्तर:
श्री सिन्हा ने भारत में सामाजिक विज्ञान के रूप में चार चरणों में आधुनिक मनोविज्ञान के इतिहास को खोजा है। सन् 1986 में इनकी एक पुस्तक भी प्रकाशित हुई थी। भारत में मनोविज्ञान का
अनुप्रयोग अनेक व्यवसायिक क्षेत्रों में किया जाने लगा।

प्रश्न 26.
मनोविज्ञान की पाँच प्रमुख शाखाओं के नाम बतायें।
उत्तर:

  1. संज्ञानात्मक मनोविज्ञान
  2. जैविक मनोविज्ञान
  3. विकासात्मक मनाविज्ञान
  4. सामाजिक मनोविज्ञान
  5. पर्यावरणीय मनोविज्ञान

प्रश्न 27.
मनोविज्ञान के अनुसंधान एवं अनुप्रयोग को दिशा प्रदान करने वाले पाँच कथ्य लिखें।
उत्तर:

  1. मानव व्यवहार व्यक्तियों एवं वातारण के लक्षणों का एक प्रकार्य है।
  2. मानव व्यवहार उत्पन्न किया जा सकता है।
  3. मानव व्यवहार की समझ संस्कृति निर्मित होती है।
  4. मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग द्वारा मानव व्यवहार को नियंत्रित एवं परिवर्तित किया जा सकता है।
  5. मनोविज्ञान व्यवहार एवं मानसिक प्रक्रियाओं के सिद्धान्तों का विकास करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 28.
निम्नांकित नाम के साथ संबंधित प्रकाशन का नाम दें।
उत्तर:

  1. विलियम जेम्स
  2. जॉन वी. वाटसन
  3. सन. एम. सेनगुप्ता
  4. कार्ल रोजर्स
  5. वी. एफ. स्किनर
  6. अब्राहम मैस्लो

प्रश्न 29.
मानवतावादी परिदृश्य ने मानव स्वभाव को कैसा बताया?
उत्तर:
मानवतावादी परिदृश्य ने मानव स्वाभव को एक धनात्मक विचार बताया जिसके अनुसार व्यवहावाद, वातारण की दशाओं से निर्धारित व्यवहार पर बल देता है।

प्रश्न 30.
संज्ञानात्मक परिदृश्य को स्पष्ट करें।
उत्तर:
गेस्टाल्ट उपागम के विविध पक्ष तथा संरचनावाद के पक्ष संयुक्त होकर संज्ञानात्मक परिदृश्य का विकास करते हैं जो इस बात पर केन्द्रित होते हैं कि हम दुनिया को कैसे जानते हैं।

प्रश्न 31.
निर्मितावाद किसे कहते हैं?
उत्तर:
मन की सक्रिय रचना तथा मानव मन के विकास से संबंधित विचारधारा को निर्मितावाद कहते हैं।

प्रश्न 32.
मनोविज्ञान से जुड़ी पाँच विद्या शाखाओं का उल्लेख करें।
उत्तर:

  1. दर्शनशास्त्र
  2. अर्थशास्त्र
  3. आयुर्विज्ञान
  4. कम्प्यूटर विज्ञान तथा
  5. जन-संचार

प्रश्न 33.
उपबोधन मनोवैज्ञानिक क्या करते हैं?
उत्तर:
एक उपबोधन मनोवैज्ञानिक व्यावसायिक पुनर्वास कार्यक्रमों अथवा व्यावसायिक चयन में सहायता करते हैं। ये पब्लिक एजेन्सियों के लिए कार्य करते हैं जिसमें मानसिक स्वास्थ केन्द्र, चिकित्सालय, विद्यालय आदि जुड़े होते हैं।

प्रश्न 34.
मनोवैज्ञानिकों के महत्त्वपूर्ण कार्य क्या हैं?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक लोगों के गुणात्मक रूप से अच्छे जीवन के लिए हस्तक्षेपी कार्यक्रमों की अभिकल्पना एवं संचारलन में सक्रिय भूमिका का निर्वहन करते हैं।

प्रश्न 35.
मनोवैज्ञानिक किन क्षेत्रों में परामर्शदाता के रूप में कार्य करते हैं?
उत्तर:
विद्यालयों, चिकित्सालयों उद्योगों, कारागारों, व्यावसायिक संगठनों, सैन्य प्रतिष्ठानों तथा प्राइवेट प्रैक्टिस में परामर्शदाता के रूप में समस्या समाधान के लिए सरल युक्ति बताते हैं।

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प्रश्न 36.
वह कौन-सा कार्य है जिसे मनोरोग विज्ञानी कर सकते हैं, किन्तु नैदानिक। मनोरोग वैज्ञानिक नहीं कर सकते हैं?
उत्तर:
मनोरोग विज्ञानी दवाइयों का सुझाव दे सकता है तथा विधुत आघात उपचार प्रदान कर सकता है जबकि नैदानिक मनोवैज्ञानिक ऐसा नहीं कर सकते हैं।

प्रश्न 37.
विद्यालय मनोविज्ञान का महत्व बतायें।
उत्तर:
बच्चों के बौद्धिक, सामाजिक एवं सांवेगिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करके मनोविज्ञान के ज्ञान का स्कूल परिवेश में अनुप्रयोग करते हैं।

प्रश्न 38.
क्रीड़ा मनोविज्ञान का प्रमुख कार्य क्या हैं?
उत्तर:
क्रीड़ा मनोविज्ञान क्रीड़ा निष्पादन का अभिप्रेरण स्तर बढ़ाकर मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों द्वारा सुधार लाने का प्रयास करता है।

प्रश्न 39.
मनोविज्ञान की पाँच उद्भुत शाखाएँ कौन-कौन हैं?
उत्तर:

  1. वैमानिकी
  2. सैन्य
  3. महिल
  4. राजनैतिक तथा
  5. सामुदायिक मनोविज्ञान

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सिद्ध करें कि मनोविज्ञान एक सामाजिक विज्ञान के रूप में अपनाया जाने लगा है।
उत्तर:
मनोविज्ञान मनुष्यों को समाजिक प्राणी मानते हुए उसके व्यवहार का अध्ययन उसके सामाजिक-सांस्कृति संदर्भो में करना चाहता है। मनोविज्ञान एक सामाजिक विज्ञान है जो व्यक्तियों एवं समुदायों पर उनके सामाजिक सांस्कृतिक एवं भौतिक वातारण के संदर्भ में ध्यान केन्द्रित करता है। जटिल सामाजिक एवं सांस्कृतिक दशाओं में रहने वाले व्यक्तियों के स्वाभाव, अनुभव एवं मानसिक प्रक्रियाओं के कुछ असमानता, कुछ नियमितता एवं व्यवहार में अंतर पाना स्वाभाविक है।

मनोवैज्ञानिक भाँति-भाँति के लोगों में दया, सहयोग, घृणा, त्याग, दान जैसी प्रवृति, को देखता परखता है। मनोविज्ञान अपने प्रमुख लक्षण के रूप में जानना चहता है कि क्यों और कैसे समुदायों में लोग एक-दूसरे की कठिनाई के समय सहायता करते हैं तथा त्याग करते हैं। मनोविज्ञान समाज की सोच के विपरीत रुख पर भी ध्यान देता है जिसमें लोग समान परीस्थितियों में असामाजिक हो जाता है तथा विपदा में लुटने तथा शोषण करने में संलग्न हो जाते हैं। अर्थात् मनोविज्ञान मानव व्यवहार एवं अनुभव का अध्ययन उनके समाज तथा संस्कृति को ध्यान में रखते हुए पुरी करता है। समाज की संरचना, प्रथाएँ, लक्षणों, कुप्रथाओं, परम्परागत नियमों आदि का अध्ययन करके उन्नत समाज की कामना करता है।

प्रश्न 2.
प्रश्नावली सर्वेक्षण का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
प्रश्नावली सूचना प्राप्त करने की सबसे प्रचलित अल्प-लागत वाली विधि है इसमें पूर्व-निर्धारित प्रश्नों का समुच्चय होता है। प्रतिक्रिया दात तो प्रश्न को पढ़ता है और कागज पर उत्तर देता है इसमें दो प्रकार के प्रश्न होते है।

  1. मुक्त-मुक्त प्रश्न में प्रतिक्रिया द्वारा कुछ भी उत्तर दे सकता है जो वह ठीक समझता है।
  2. अमुक्त-इसके प्रश्न तथा उसके उत्तर दिये रहते हैं तथा प्रतिक्रियादाता को सही उत्तर चुनना पड़ता है।
  3. प्रश्नावली का उपयोग पृष्ठभूमी संबंधी एवं जनांकिकीय सूचना, अभिवृति एवं मत व्यक्ति की प्रत्याशाओं एवं आकांक्षाओं की जानकारी
  4. के लिए किया जाता है कभी-कभी सर्वेक्षण डाक द्वारा प्रश्नावाली भेजकर भी किया जाता है।

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प्रश्न 3.
मन एवं व्यवहार की समझ की व्याख्या करें।
उत्तर:
मन एवं व्यवहार की समझ लिए तंत्रिका वैज्ञानिक तथा भौतिकविदों की खोज, प्रयोग एवं उदाहरण, खोज एवं निष्कर्ष का समुचित अध्ययन आवश्यक है। भावपरक तंत्रिका विज्ञान के अनुसार मन एवं व्यवहार में सम्बंध है। यह भी सत्य कि मन मस्तिष्क के बिना नहीं रह सकता, फिर भी मन एक पृथक सत्ता है। धनात्मक चाक्षुषीय तकनीकों तथा धनात्मक संवेगों की अनुभूतियों द्वारा शारीरिक प्रक्रियाओं में सार्थक परिवर्तन लाया जा सकता है। ऐसा पाया गया है किसी दुर्घटना में एक व्यक्ति मस्तिष्क के किसी भाग की क्षतिग्रस्तता का शिकार हुआ था, परन्तु उसका मन बिल्कुल सही था। बाँह खो देने वाला व्यक्ति सामने रखी वस्तु को उठा लेने के प्रयास में बाँह को हिलाने लगता है।

उसके व्यवहार में कोई मौलिक अन्तर नहीं देखा जाता हैं। मस्तिष्क अघात में प्रभावित व्यक्ति अभिभावकों को बिना पहचाने पाखंडी तक कह डालता है। आर्निश नामक मनोवैज्ञानिक ने मानसिक प्रतिमा उदय के माध्यम से रोगियों को गलत सूचना देकर उसे आराम पहुँचाने में सफल हुआ। मनोविज्ञान अब मन और व्यवहार की सही समझ पाकर रोग प्रतिरोधक तंत्र को सशक्त बनाने में सफल हो रहे हैं । अर्थात् मन और व्यवहार को मनोवैज्ञानिक विधियों द्वारा बदला जा सकता है। परिस्थितियों में अंतर लाकर मनुष्य के मन को बिगाड़ना या संभालना संभव है जिसके कारण उसके व्यवहार में भी अन्तर आ जाता है।

प्रश्न 4.
मनोविज्ञान विद्या शाखा की प्रसिद्ध धारणाएँ क्या हैं?
उत्तर:
मनोविज्ञान को ज्योतिषियों, तांत्रिकों एवं हस्तरेखा विशारदों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि मनोवैज्ञानिक प्रदत्तों पर आधारित सूचनाओं का व्यवस्थित अध्ययन करने के बाद ही मानव व्यवहार एवं अन्य मनोवैज्ञानिक गोचरों के विषय में सिद्धांत विकसित करता है। मनोवैज्ञानिक का मानना है कि मानव व्यवहार की समान्य बोध आधारित व्याख्याएँ अंधकार में तीर चलाने जैसी होती है। उदाहरणार्थ, निम्नांकित समझ सही और गलत दोनों हो सकती हैं

  • उत्साहित करने पर कार्यकर्ता अधिक काम करता है।
  • छड़ी प्रयोग द्वारा आलसी को सक्रिय बनाया जा सकता है।
  • घनिष्ठ मित्र के दूर चले जाने पर मित्र पछताता है।

मनोवैज्ञानिक ड्वेक की खोज के अनुसार मनोविज्ञान द्वारा उत्पादित वैज्ञानिक ज्ञान सामान्य , बोध के प्रायः विरुद्ध होता है। उन्होंने असफल छात्रों को समझाने का प्रयास किया था –

  • पलायन के बदले प्रयास की कमी मानी जाती है।
  • असफलता का कारण प्रयास में कमी मानी जाती है।
  • अच्छा अभ्यास करते रहने से अच्छा निष्पादन बढ़ाया जा सकता है।

इस प्रकार मनोविज्ञान विद्या शाखा की प्रसिद्ध धारणाएँ निम्न रूप में संकलित किया जा सकता है –

  • मानव व्यवहार से संबंधित व्यक्तिपरक सिद्धान्त होते हैं।
  • मनोविज्ञान एक विज्ञान के रूप में व्यवहार के स्वरूप को देखता है जिसका पूर्व कथन किया जा सके न कि घटित होने के पश्चात की गई व्याख्या का ।
  • मानव व्यवहार की समान्य बोध पर अधारित व्याख्याएँ अंधकार में तीर चलाने जैसी हैं जिसकी व्याख्या करना सहज नहीं होता है।
  • मनोविज्ञान द्वारा उत्पादित वैज्ञानिक ज्ञान सामान्य बोध के प्रायः विरुद्ध होता है।
  • सत्य प्रतीत होने वाली सामान्य बोध धारणाएँ गलत भी हो सकती हैं।
  • मनोवैज्ञानिक सत्य सूचनाओं के आधार पर कोई निर्णय लेता है।

प्रश्न 5.
गेस्टाल्ट मनोविज्ञान क्या है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक वुण्ट के संरचनावाद के विरुद्ध अपनायी जाने वाली नयी धारा गेस्टाल्ट मनोविज्ञान के रूप में प्रचलित हुआ । इसके अनुसार जब हम दुनिया को देखते हैं तो हमारा प्रत्यक्षित अनुभव प्रत्यक्षण के अवयवों के समस्त भोग से अधिक होता है। अनुभव समग्रतावादी होता है। गेस्टाल्ट मनोविज्ञान का प्रमुख आधार मन के अवयवों की अवहेलना करते हुए प्रत्याक्षित अनुभवों के संगठन पर अधिक ध्यान देना है। उदाहरणार्थ, बल्बों की रोशनी को देखकर प्रकाश की गति का अनुभव होना अथवा चलचित्र देखने के क्रम में स्थिर चित्र को गतिमान मान लेते हैं।

प्रश्न 6.
समसामयिक मनोविज्ञान का सामान्य परिचय दें।
उत्तर:
समसामयिक मनोविज्ञान बहुआयामी छवि के साथ लोकप्रिय हो चुका है। इसमें तरह-तरह के विचारों एवं सिद्धांतों के संग्रह एवं अनुप्रयोग की रुचि पाई जाती है। इसको कई उपागमों अथवा बहुविध विचारों द्वारा पहचाना जाता है। यह विभिन्न स्तरों पर व्यवहार की व्याख्या करके लोगो को अपनी कमी महसूस करने की प्रवृति जगाता है। इससे जुड़े मानवतावादी उपागम में यह क्षमता होती है कि मानव अपने कार्यों की पद्धति और परिणाम को सरलताप से समझ लेता है। प्रत्येक उपागम मानव प्रकार्य की जटिलताओं में अन्तदृष्टि प्रदान करता है। मनोवैज्ञानिक प्रकार्यों के लिए संज्ञानात्मक उपागम चिंतन प्रक्रियाओं को केन्द्रीय महत्व को मानता है।

प्रश्न 7.
अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
सभी मनोविज्ञान अनुप्रयोग का विभव रखते हैं तथा स्वभाव से अनुप्रयुक्त होते हैं। अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान हमें वह संदर्भ देता है जिनमें अनुसंधान से प्राप्त सिद्धान्तों एवं नियमों को सार्थक ढंग से प्रयोग में लाया जा सकता है। बहुत-से क्षेत्र जो पिछले दशकों में अनुसंधान केन्द्रित माने जाते थे, वे भी धीरे-धीरे अनुप्रयुक्त केन्द्रित होने लगे हैं। अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान को मूल मनोविज्ञान भी माना जा सकता है। अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान के महत्वपूर्ण घटक निम्नांकित हैं।

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प्रश्न 8.
सामुदायिक मनोविज्ञान की उपयोगिता बनायें।
उत्तर:
सामुदायिक मनोविज्ञान की उपयोगिता समाज में उत्पन्न विभिन्न समस्याओं को सुलझाना है। मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान देना इसका प्रधान लक्ष्य है। मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित चिकित्सालयों, संस्थानों, सरकारी नीतियों का अध्ययन कर उचित परामर्श एवं सहायता प्रदान करना इनका प्रमुख कार्य है। ये औषधि, पुनर्वास, मनोचिकित्सा आदि से संबंधित कार्यकारी योजना बनाकर समाज हित के कार्य करते है। वयोवृद्धों अथवा विकलांगो की सहायता के लिए भवन, साधन से जुड़े कार्यक्रमों को नई दिशा प्रदान करना इनकी प्रधान रुचि होती है। समुदाय आधारित समस्या अथवा प्रथाओं का अध्ययन करते हुए पुनर्वास जैसे लाभकारी कार्य करके समाज को लाभ पहुंचाते हैं।

प्रश्न 9.
समाज मनोविज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर:
समाज मनोविज्ञान-मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसके अन्तर्गत व्यक्ति के व्यवहार तथा अनुभूति का अध्ययन सामाजिक परिस्थिति में किया जाता है। समाज मनोविज्ञान को एक ओर शुद्ध मनोविज्ञान (Pure Psychology) तथा दूसरी ओर व्यवहारिक मनोविज्ञान माना जाता है। शुद्ध मनोविज्ञान में प्रयोगात्मक अध्ययन किये जाते हैं और प्राप्त निष्कर्ष के आधार पर सिद्धांत नियम बनाये जाते हैं । व्यवहारिक मनोविज्ञान में शुद्ध मनोविज्ञान के नियमों का उपयोग भिन्न-भिन्न व्यवहारिक समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है। समाज मनोविज्ञान इन दोनों प्रकार के कार्यों को करता है। मनुष्य समाज में रहता है और कई रूपों में व्यवहार करता है।

एक ही मनुष्य कहीं आर्थिक मनुष्य के रूप में कहीं सामाजिक मनुष्य के रूपों में तो कहीं राजनैतिक मनुष्य के रूप में देखा जाता है। समाज मनोविज्ञान का संबंध सामाजिक मनुष्य से है। समाज में मनुष्य किस प्रकार दूसरे मनुष्य से प्रभावित होता है और अपने विचार से दूसरे के व्यवहार को किस प्रकार प्रभावित करता है, इसका अध्ययन समाज मनोविज्ञान करता है। एक शुद्ध मनोविज्ञान के रूप में समाज-मनोविज्ञान व्यक्ति के समाजिक परिस्थिति में होनेवाले व्यवहारों का अध्ययन करता है। भिन्न-भिन्न प्रकार के सिद्धान्तों तथा नियमों का निमार्ण करता है।

प्रश्न 10.
मनोविज्ञान की परिभाषा से जुड़े तीन प्रमुख पदों-(क) मानसिक प्रक्रियाएँ (ख) अनुभव और (ग) व्यवहार को स्पष्टतः समझाइये।
उत्तर:
(क) मानसिक प्रक्रियाएँ:
प्रक्रियाएँ सोच एवं चेतना के निकट का पद है। किसी समस्या का समाधान करने के क्रम में हम मानसिक प्रक्रियाओं का उपयोग करते हैं। मानसिक प्रक्रियाओं को मस्तिष्क की क्रियाओं से थोड़ा भिन्न माना गया है। ये दोनों एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं। मस्तिष्क की क्रियाओं के स्तर पर मानसिक प्रक्रियाएँ परिलक्षित होती हैं। संसार में हमारी अंतः क्रियाएँ एवं अनुभव एक व्यवस्था के रूप में गतिमान होकर संगठित होते हुए तथा मिलकर मानसिक प्रक्रियाओं को सक्रिय बनाता है। हमारे अनुभव एवं मानसिक प्रक्रियाओं की चेतना कोशिकीय अथवा मस्तिष्क की क्रियाओं से बहुत अधिक होती है। मन और मस्तिष्क की क्रियाएँ दोनो मानसिक प्रक्रियाओं के निकट का पद है।

हमारा मन कैसे कार्य करता है? हम मानसिक क्षमताओं के अनुप्रयोग में कैसे सुधार ला सकते हैं? इन दोनों प्रश्नों का उत्तर पाने के क्रम में मानसिक प्रक्रियाओं के उपयोग की आवश्यकता होती है जिसके लिए मनोविज्ञानिक स्मरण करने, सीखने, जानने प्रत्यक्षण करने एवं अनेक अनुभूतियों में हम रुचि लेने लगते हैं। मानसिक प्रक्रिया हमारे अनुभव संबंधित आंतरिक प्रक्रिया होती है। जब हम किसी बात को जानने या उसका स्मरण करने के लिए चिंतन करते हैं तो समस्या के समाधान हेतु हम मानसिक प्रक्रियाओं का उपयोग करते हैं।

(ख) अनुभव:
पर्यावरण के प्रभाव में पड़कर काई व्यक्ति कैसा महसूस करता है यह उसका अनुभव माना जाता है। अनुभव स्वाभव से आत्मपरक होते हैं जो हमारी चेतना में रचा-बसा रहता है। अनुभव के स्वरूप को आंतरिक एवं बाह्य दशाओं के जटिल परिदृश्य का विश्लेषण करके समझा जा सकता है। अनुभव, अनुभवकर्ता के लिए आंतरिक होता है। अपने मित्र से मिलने की खुशी में कोई व्यक्ति वाहन के भीड़ से उत्पन्न गर्मी या कठिनाई को खुशी-खुशी झेल लेता है। नशीले पदार्थ से होने वाली समस्या क्षति का ज्ञान रखनेवाला व्यक्ति भी नशा करके खुश दिखाई देता है।

जब कोई योगी ध्यानावस्थित होता है तो वह चेतना के एक भिन्न धरातल पर पहुँचता है। भूख और कष्ट सहन के बाद भी उसे परमात्मा से कुछ पाने की खुशी मिलती है। रोमांस करते समय भी धनात्मक अनुभूतियों की प्रभाव अलग-अलग व्यक्ति को तरह-तरह के

अनुभव का आभास दिलाता है। घटा छा जाने पर कोई मस्काता है तो कोई नाचता है। सर्कस के झूला पर लटकने वाले व्यक्ति को संशय की दशा में रहने पर भी दर्शक मचलता है। अर्थात् असुविधा, सुविधा, खुशी-गम, हँसना-रोना सब अनुभवकर्ता की भवना, दशा स्थिति और स्वार्थ पर निर्भर करता है, जो उसका अनुभव माना जाता है। चोर की भरपूर पिटाई होते समय उसे कैसा महसूस होता है, यह चोर का अपना अनुभव माना जाता है । व्यक्तिपरकता मानव अनुभव का महत्त्वपूर्ण अंग है।

(ग) व्यवहार:
अनुक्रियाओं तथा प्रतिक्रियाओं के बीच पड़ा व्यक्ति कैसा आचरण करता है, यह उसका व्यवहार माना जाता है। काँटा चुभने पर पैर झटक लेने अथवा मुँह से आह की ध्वनि निकालना, उसका व्यवहार माना जा सकता है। परीक्षा में हृदय का धड़कना, अपनी ओर पत्थर का टुकड़ा आता देखकर पलकें बन्द कर लेना, धूप में बाहर निकलने पर माता-पिता के रोके जाने पर बच्चों का चेहरा तमतमा उठना आदि अलग-अलग व्यवहार के लक्षण प्रतित होते हैं । व्यवहार प्रकट या अप्रकट, सामान्य या जटिल, लघुकालीन या दीर्घकालीन कुछ भी हो सकता है। भय, क्रोध, मचलना, इठलाना, पछाताना, रोना, हँसना आदि व्यवहार के प्रत्यक्ष दर्शन माने जाते हैं।

व्यवहार के उद्दीपक (S) एवं अनुक्रिया (B) के मध्य साहचर्य के रूप में अध्ययन किया जो सकता है। उद्दीपक एक अनुक्रिया दोनों आंतरिक अथवा बाहम कुछ भी हो सकते हैं । मित्र के द्वारा पुस्तक लेकर नहीं लौटने पर आप मित्र के लिए कैसा व्यवहार प्रकट करते हैं। यह आपकी दशा पर निर्भर करता है।

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प्रश्न 11.
प्रेक्षण से क्या तात्पर्य है इसके गुण-दोषों को संक्षेप मे वर्णन करें।
उत्तर:
प्रेक्षण का साधारण अर्थ है किसी व्यवहार या घटना को देखना किसी घटना को देखकर क्रमबद्ध रुप से उसका वर्णन कहलाता है।

गुण:

  1. यह विधि वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक होता है।
  2. इसका प्रयोग बच्चे, बूढ़े, पशु, पक्षी सभी पर किया जा सकता है।
  3. इस विधि द्वारा संख्यात्मक परिणाम प्राप्त होता है।
  4. इसमें एक साथ कई व्यक्तियों का अध्ययन संभव है।
  5. इस विधि में पुनरावृति की विशेषता है।

दोष:

  1. इस विधि में श्रम एवं समय का व्यय होता है।
  2. प्रेक्षक के पूर्वाग्रह के कारण, गलती का डर रहता है।
  3. प्रयोगशाला की नित्रित परिस्थिति नहीं होने के कारण निष्कर्ष प्रभावित होता है।

प्रश्न 12.
मनोविज्ञान, एक बहुत पुरानी ज्ञान विद्या शाखा है फिर भी यह एक आधुनिक विज्ञान माना जाता है। क्यों?
उत्तर:
मनोविज्ञान व्यवहार, अनुभव एवं मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने में सक्षम है। आत्म-परिवर्तन एवं आत्मज्ञान की भूमिका को मानव व्यवहार एवं अनुभव की व्याख्या करने वाला कारक माना जाता है। मनोविज्ञान, मानवीय दशाओं का अध्ययन करता है। मानवीय प्रक्रियाओं को वैज्ञानिक एवं वस्तुनिष्ठ बनाकर उनका विश्लेषण करना मनोविज्ञान का प्रधान लक्षण है।

मनोविज्ञान को आधुनिक विज्ञान मानने का प्रथम कारण सन् 1879 में जर्मनी में प्रथम प्रयोगशाला की स्थापना हुई जहाँ मानवीय व्यवहार से संबंधित तरह-तरह के प्रयोग किये जाते हैं। अब मनोविज्ञान के छात्रों को स्नातक विज्ञान की उपाधियाँ मिलने लगी है।

मस्तिष्क प्रतिभा तकनीक (S.M.R.I. तथा E.C.G.) से मस्तिष्क की क्रियाओं का अध्ययन करना, सूचना तकनीक के क्षेत्र में, मानव कम्प्यूटर अत:क्रिया तथा कृत्रिम बुद्धि का विकास संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं में मनोवैज्ञानिक ज्ञान के बिना संभव नहीं हो सकता है। इसी कारण अनेक मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक तथ्यों के अध्ययन में भौतिक एवं जैविक विज्ञान की विधियों का उपयोग किये जाने लगा है।

अब तो सांस्कृतिक विज्ञान को भी मनोविज्ञान के साथ रखा जाने लगा है। अनुसंधानकर्ता का लक्ष्य कारण-प्रभाव संबंध को समझकर व्यवहारपरक गोचरों की व्याख्या अत:क्रिया के रूप में करने की होती है। अंत:क्रिया व्यक्ति एवं उसके सामाजिक-सांस्कृति संदर्भो में घटित होती रहती है। अर्थात् मनोविज्ञान की दो समांतर धाराएँ मान्य हैं –

  1. एक विद्या शाखा के रूप में जो सामाजिक तथ्यों का अध्ययन करता है तथा
  2. एक आधुनिक विज्ञान के रूप में जो सांस्कृतिक विज्ञान तथा मस्तिष्क प्रतिभा के तकनीक पर आधारित होती है।

प्रश्न 13.
मनोविज्ञान को प्राकृतिक विज्ञान मानने का कारण स्पष्ट करें।
उत्तर:
आधुनिक मनोविज्ञान का विकास वैज्ञानिक विधियों के अनुप्रयोग से हुआ है। देकार्त (Descartes) से प्रभावित तथा बाद में भौतिकी में हुए विकास से मनोविज्ञान में परिकल्पनात्मक-निगमनात्मक प्रतिरूप का अनुसरण होने लगा। मनोवैज्ञानिकों ने अब अधिगम, स्मृति, अवधान, प्रत्यक्षण, अभिप्रेरण एवं संवेग आदि के सिद्धांतों को विज्ञान की तरह विकसित किया है। किसी गोचर की व्याखा हेतु सिद्धांत उपलब्ध होने पर वैज्ञानिक उन्नति हो सकती है।

वैज्ञानिक निगमन की परिकल्पना, परिकल्पना का परीक्षण, परिणामों अथवा निष्कर्षों की पहचान आदि वैज्ञानिक पद्धति का प्रयोग अब मनोविज्ञान में भी होने लगा है। विकासात्मक उपागम, जो जैव विज्ञान का एक प्रमुख अंग है, का उपयोग लगाव तथा आक्रोश जैसे विविध मनोविज्ञानिक गोचरों की व्याख्या करने में उपयोगी माना जाने लगा है। लक्ष्य और क्रमिक विधियों के कारण मनोविज्ञान को अब प्राकृतिक विज्ञान माना जाने लगा है।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
दैनिक जीवन में मनोविज्ञान की उपयोगिता स्पष्ट करें।
उत्तर:
दैनिक जीवन में मनोविज्ञान की उपयोगिता-मनोविज्ञान ऐसा विषय है जो हमारे दैनिक जीवन की अनेक समस्या का समाधान करता है ये समस्याएँ व्यक्तिगत या पारिवारिक और बड़े समूह या राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय विमा वाली होती है शिक्षा, स्वास्थ, पर्यावरण आदि समस्या का समाधान राजनैतिक, आर्थिक पर हस्तक्षेप में परिवर्तन लाकर किए जाते हैं इनमें अधिकांश समस्या मनोविज्ञान होती है जिसका उदय हमारे अस्वस्थ चिंतन लोगों के प्रति अवांछित मनोवृति तथा व्यवहार की आवांछित शैली के कारण होता है।

बहुत से मनोविज्ञानिक लोगों के गुणात्मक रूप से अच्छे जीवन के लिए हस्तक्षेपी कार्यक्रम के संचालन में सक्रिय भूमिका का निर्वाहन करते हैं ये विविध परिस्थिति जैसे- विद्यालय, उद्योगों, सैन्य प्रतिष्ठान में परामर्शदाता के रूप में लोगों की समस्या का सामाधान करते हैं। मनोविज्ञान जनसंख्या, गरीबी, पर्यावरणीय गिरावट से संबंधित समस्या का भी समाधान करता है। मनोविज्ञान का ज्ञान हमारे व्यक्तिगत रूप से प्रतिदिन की समस्या का समाधान करता है हमें अपने विषय में सकारात्मक तथा संतुलित समझ रखनी चाहिए। मनोविज्ञान सिद्धांतों का उपयोग कर हम अपने अधिगम एवं स्मृति में सुधार कर अध्ययन की अच्छी आदत विकसित कर सकते हैं, इस प्रकार मनोविज्ञान का ज्ञान, हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन मे बहुत उपयोगी है तथा व्यक्तिगत एवं सामाजिक दृष्टि से भी लाभप्रद है।

प्रश्न 2.
मनोविज्ञान की आधुनिक परिभाषा दें। तथा उसकी व्याख्या करें।
उत्तर:
मनोविज्ञान की आधुनिक परिभाषा-मनोविज्ञान की परिभाषा समयानुसार बदलती रही है। दार्शनिकों ने मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान माना परंतु सार्थक परिणाम की प्राप्ति हो पाने से मनोविज्ञान की विषय वस्तु मन को रखा गया अर्थात् मनोविज्ञान को मन का विज्ञान माना गया। 1879 ई० में उण्ट ने मनोविज्ञान की परिभाषा इस प्रकार दी “मनोविज्ञान चेतन अनुभूति का विज्ञान है।” लेकिन 1912 में वाटसन ने उण्ट द्वारा दी गयी परिभाषा को अस्वीकारा। उन्होंने चेतन अनुभूति के स्थान पर प्राणी व्यवहार को विषय वस्तु माना।

वाटसन के अनुसार मनोविज्ञान की परिभाषा लोकप्रिय हुई। कुछ समय पश्चात् बैरोन ने मनोविज्ञान की परिभाषा इस प्रकार दी है-‘मनोविज्ञान व्यवहार तथा संज्ञात्मक प्रक्रियाओं का विज्ञान है।’ यह परिभाषा सर्वाधिक संतोषजनक एवं आधुनिक साबित हुई। – इसकी व्याख्या-बैरोन द्वारा दी गयी परिभाषा के विश्लेषण से कुछ प्रमुख तथ्य स्पष्ट हुई जो इस प्रकार है

  1. मनोविज्ञान एक विज्ञान है। जैसे-समर्थक विज्ञान, सामाजिक विज्ञान तथा व्यवहार परक विज्ञान।
  2. मनोविज्ञान प्राणी के व्यवहार का अध्ययन करता है। यह सूक्ष्म एवं वृद्ध प्राणी के व्यवहारों का अध्ययन करता है।
  3. मनोविज्ञान प्राणी के संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं का अध्ययन करने वाला विज्ञान है अर्थात् सीखना, प्रत्यक्षीकरण अवधान, स्मरण, वृद्धि,चिंतन व्यक्तित्व आदि का अध्ययन करता है।
  4. मनोविज्ञान विषयगत विधि द्वारा प्राणि के संज्ञानात्मक व्यवहार एवं विदित प्रक्रियाओं का अध्ययन करता है।
  5. मनोविज्ञान में प्राणी के व्यवहारों का अध्ययन अन्तनिरिक्षण विधि, प्रेक्षण विधि, प्रयोगात्मक आदि द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 3.
‘भारत में मनोविज्ञान का विकास’ से संबंधित एक संक्षिप्त निबंध लिखे। अथवा, भारत में मनोविज्ञान का स्तर क्या था और क्या है?
उत्तर:
मनोविज्ञान की जड़े दर्शनशास्त्र में होती हैं। भारतीय दार्शनिक परम्मरा के अनुसार मानसिक प्रक्रियाओं तथा मानव चेतन स्व, मन-शरीर के अनेक पहलू का अध्ययन सुलभ है। अनेक मानसिक प्रकार्य (संज्ञान, प्रत्यक्षण, भ्रम, अवधान, तर्कक आदि) भारतीय दर्शन के सिद्धांत से पूर्णतः आच्छादित हैं। दुर्भाग्य से भारतीय दर्शनिक परम्परा का सीधा प्रभाव आधुनिक मनोविज्ञान के विकास को उपलब्ध नहीं हो सका । भारतीय मनोविज्ञान का विकास पर पाश्चात्य मनोविज्ञान का प्रभुत्व माना गया । कई प्रयास किये जा रहे हैं जससे भारतीय मनोविज्ञान को स्वतंत्र अस्तित्व बताने का अवसर मिले।

भारतीय मनोविज्ञान का आधुनिक काल कोलकत्ता विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग में 1915 में हुआ । यहाँ प्रयोगिक मनोविज्ञान के लिए प्रयोगशाला स्थापित किए गए, नया पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया। सन् 1916 मे प्रथम मनोविज्ञान विभाग तथा 1938 में अनुप्रयुक्त मनोविज्ञान विभाग प्रारम्भ किया गया। डॉ. एन. एन. सेनगुप्ता अपने ज्ञान और प्रशिक्षण के कारण मनोविज्ञान के विकास में योगदान दिया। सन् 1922 में प्रोफेसर बोस ने ‘इंडियन साइकोएनेलिटिकल एसोसिएशन’ की स्थापना की। मैसूर और पटना में अनुसंधान केन्द्र प्रारम्भ किया। करीब 70 विश्वविद्यालय (उत्कल, भुवनेश्वर, इलाहाबाद, आदि) में मनोविज्ञान के पाठ्यक्रम चलाए गए।

प्रारम्भ में मनोविज्ञान भारत में एक सशक्त विद्या शाखा के रूप में विकसित हुआ। मनोविज्ञान अध्यापन, अनुसंधान तथा अनुप्रयोग के अनेक केन्द्र स्थापित किए गए। महान मनोविज्ञानिक दुर्गानन्द सिन्हा की पुस्तक ‘साइकोलॉजी इन ए वर्थ वर्ल्ड कम्पनी : दि इंडियन एक्सपीरियन्स’ सन् 1986 में प्रकाशित हुई । इस पुस्तक मे श्री सिन्हा ने भारत में सामाजिक विज्ञान के रूप में चार चरणों में आधुनिक मनोविज्ञान के इतिहास को खोजा है।

उनकी पुस्तक के अनुसार स्वंतत्रता प्राप्ति तक भारतीय मनोविज्ञान पूर्णतः पाश्चात्य देशों पर आश्रित रहा । सन् 1960 के बाद भारतीय मनोवैज्ञानिक स्वतंत्र अस्तित्व बनाने का प्रयास करने लगे। 1970 के अंतिम समय में देशज मनोविज्ञान का उदय हुआ। 1970 से अब तक मनोविज्ञान का विकास तेजी से हो रहा है। प्राचीन ग्रन्थों से मिली सूचनाओं के अधार पर मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों की रचना की जाने लगी। आज भारतीय मनोविज्ञान को सम्पूर्ण विश्व में एक अलग अस्तित्व के रूप में जाना जाने लगा। कठिन प्रयास से सार्थक परिणाम मिलने लगा। अब भारतीय मनोविज्ञान का अनुप्रयोग व्यवसाय, शिक्षा, बाल विकास, पर्यावरण जैसे क्षेत्रों में होने लगा है। सूचना प्रौद्योगिकी भारतीय मनोविज्ञान की सहायता लेने लगा है।

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प्रश्न 4.
दुर्गानन्द सिन्हा ने किन चार चरणों में आधुनिक मनोविज्ञान के इतिहास को खोजा है?
उत्तर:
पहला चरण – स्वतंत्रता प्राप्ति तक प्रयोगात्मक, मनोविश्लेषात्मक एवं मनोविज्ञानिक परीक्षण अनुसंधान पर आधारित तथ्यों के कारण पाश्चात्य देशों का मनोविज्ञान में विकास का लक्षण देखा गया।

दूसरा चरण – सन् 1960 तक भारतीय मनोविज्ञान में कई प्रमुख शाखाओं का उदय हुआ जिसमें पाश्चात्य मनोविज्ञान को भारतीय मनोविज्ञान के साथ जोड़कर परिणामी सिद्धांत निकाले गये।

तीसरा चरण – 1960 के बाद भारतीय समाज के लिए समस्या केन्द्रित अनुसंधानों द्वारा मानव हित के कार्य किया गया। इस समय भारतीय मनोवैज्ञानिक अपने सामाजिक संदर्भ में पाश्चात्य मनोविज्ञान पर अतिशय निर्भता का अनुभव किया जसे वे नहीं चाहते थे।

चौथा चरण – सन् 1970 के अंतिम समय में देशज मनोविज्ञान का उदय हुआ। सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से सार्थक ढाँचे को आधार मानकर मनोवैज्ञानिक समझ को बढ़ावा दिया जाने लगा। फलतः पारम्परिक भारतीय मनोविज्ञान पर आधारित उपागर्मों का विकास हुआ जो हमने प्राचीन ग्रन्थों एवं धर्मग्रन्थों से लिए थे।

आज नए अनुसंधान अध्ययन, जिसमें तंत्रिका-जैविक तथा स्वास्थ्य विज्ञान के अन्तरापृष्ठीय स्वरूप समाविष्ट हैं, किए जा रहे हैं।

प्रश्न 5.
कार्यरत मनोवैज्ञानिक से क्या अभिप्राय है? इनके पाँच प्रमुख क्षेत्रों की चर्चा करें।
उत्तर:
कार्यरत मनोविज्ञानिक से वैसे मनोवैज्ञानिकों का बोध होता है जो मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों की सहायता से लोगों को जीन से जुड़ी समस्याओं का दक्षतापूर्वक सामना करने के योग्य बनाने के लिए संवाद संचरण तथा आवश्यक प्रशिक्षण देने का काम करते हैं। कार्यरत मनोवैज्ञानिक के पाँच प्रमुख क्षेत्र हैं –

  1. नैदानिक
  2. उपबोधन
  3. सामुदायिक
  4. विद्यालय तथा
  5. संगठनात्मक

1. नैदानिक मनोवैज्ञानिक – इस श्रेणी के मनोवैज्ञानिक मानसिक व्यतिक्रमों तथा दुश्चिता, भय या कार्यस्थल के दबावों के लिए चिकित्सा प्रदान करने है । इसका काम रोगियों का साक्षात्कार और परीक्षण करके लाभकारी उपचार की व्यवस्था करना होता है। ये उपचार के साथ-साथ पुनर्वास एवं नौकरी पाने में भी सहायता करते हैं।

2. उपबोधन मनोवैज्ञानिक – इस श्रेणी के मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणात्मक एवं संवेगात्मक समस्याओं को उलझाने में अपना योगदान देते हैं। इसका प्रमुख कार्य क्षेत्र व्यावसायिक पुनर्वास कार्यक्रमों का सफल संचालन होता है। ये मानसिक स्वास्थ्य केन्द्र, चिकित्सालय, विद्यालय आदि के लिए विकासात्मक कार्य करते हैं।

3. सामुदायिक मनोवैज्ञानिक – इस श्रेणी के मनोवैज्ञानिक समुदायिक मानसिक स्वास्थ पर अधिक ध्यान देते हैं। औषधि पुनर्वास कार्यक्रम का संचालन, अशक्त (वृद्धा अथवा विकलांग) लोगों के लिए सार्थक कार्य करते हैं।

4. विद्यालय मनोवैज्ञानिक  -इस श्रेणी के मनोवैज्ञानिक शैक्षिक व्यवस्था में कार्य करते हैं। परीक्षण और प्रशिक्षण के द्वारा ये छात्रों की समस्या को सुलझाते हैं। विद्यालय के लिए नीति निर्धारण, अभिभावक, अध्यापक तथा प्रशंसकों के बीच संवाद-संचरण द्वारा शैक्षिक प्रगति की योजना बनाते हैं।

5. संगठनात्मक मनोवैज्ञानिक – इस श्रेणी के मनोवैज्ञानिक किसी भी संगठन में अधिकारियों एवं कर्मचारियों के हित में सहायता प्रदान करते हैं। उचित परामर्श एवं सेवा के माध्यम से ये संबंधीत लोगों की दक्षता, कौशल, प्रबंधन आदि को उपयोगी स्तर तक बढ़ाने में सक्रिय भूमिका अदा करते हैं । मानव संसाधन विकास तथा संगठनात्मक विकास एवं परिवर्तन प्रबंधन कार्यक्रमों में विशिष्टता के साथ जुड़े होते हैं।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
बिहार में सर्वप्रथम मनोविज्ञान का विभाग कहाँ खोला गया था?
(a) नालंदा
(b) दरभंगा
(c) पटना
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(a) नालंदा

प्रश्न 2.
मनोविज्ञान का सर्वप्रथम मनोवैज्ञानिक प्रयोगशाला कब खोला गया था?
(a) 1879 ई० में
(b) 1885 ई० में
(c) 1890 ई० में
(d) 1900 ई० में
उत्तर:
(a) 1879 ई० में

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प्रश्न 3.
मनोविश्लेषणवाद का उदय कब हुआ?
(a) 1879 ई० में
(b) 1890 ई० में
(c) 1900 ई० में
(d) 1905 ई० में
उत्तर:
(c) 1900 ई० में

प्रश्न 4.
व्यवहारवादी सम्प्रदाय का प्रतिपादन किसने किया?
(a) वरदाईमर
(b) वुण्ट
(c) विलियम जेम्स
(d) वाटसन
उत्तर:
(b) वुण्ट

प्रश्न 5.
गेस्टाल्टवाद की स्थापना किसने की थी?
(a) मेक्सवदाईमर
(b) वुण्ट
(c) फ्रायड
(d) कोहलर
उत्तर:
(a) मेक्सवदाईमर

प्रश्न 6.
भारत में मनोविज्ञान का प्रथम विभाग कब आरंभ किया गया?
(a) 1879 ई० में
(b) 1885 ई० में
(c) 1900 ई० में
(d) 1924 ई० में
उत्तर:
(c) 1900 ई० में

प्रश्न 7.
मनोविज्ञान किस विषय से निःसृत है?
(a) इतिहास
(b) भूगोल
(c) समाजशास्त्र
(d) दर्शनशास्त्र
उत्तर:
(c) समाजशास्त्र

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 1 मनोविज्ञान क्या है?

प्रश्न 8.
भारत में मनोविज्ञान का आधुनिक काल का प्रारंभ कब से माना जाता है?
(a) 1879 ई० में
(b)1885 ई० में
(c) 1900 ई० में
(d) 1915 ई० में
उत्तर:
(d) 1915 ई० में

प्रश्न 9.
आधुनिक मनोविज्ञान के पिता हैं ……………………
(a) फ्रायड
(b) विल्हम वुण्ट
(c) विलियम जेम्स
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(b) विल्हम वुण्ट

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

Bihar Board Class 11 Sociology भारतीय समाजशास्त्री Additional Important Questions and Answers

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

प्रश्न 1.
गोत्र बहिर्विवाह से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
गोत्र का ब्राह्मणों तथा बाद में गैर-ब्राह्मणों द्वारा पूर्णतया बहिर्विवाह इकाई समझा गया। मूल धारणा यह है कि गोत्र के सभी सदस्य एक-दूसरे से संबंधित होते हैं। उनमें रक्त संबंध होता है अर्थात कोई ऋषि या संत उनका सामान्य पूर्वज होता है। इसी कारण, एक ही गोत्र के सदस्यों के बीच विवाह को अनुचित समझा जाता है।

प्रश्न 2.
भारत में ब्रिटिश शासन से कौन-से तीन प्रकार के परिवर्तन हुए?
उत्तर:
भारत में ब्रिटिश शासन से निम्नलिखित तीन प्रकार के परिवर्तन हुए –

  • कानूनी तथा संस्थागत परिवर्तन, जिनसे सभी व्यक्तियों को कानून के समक्ष समानता के अधिकार प्रदान किए गए।
  • प्रौद्योगिकीय परिवर्तन
  • व्यावसायिक परिवर्तन

प्रश्न 3.
कुछ मानवशास्त्रियों तथा ब्रिटिश प्रशासकों ने जनजातियों को अलग कर देने की नीति की वकालत क्यों की?
उत्तर:
कुछ मानवशास्त्रियों तथा ब्रिटिश प्रशासकों द्वारा जनजातियों को अलग कर देने की नीति की वकालत निम्नलिखित कारणों से की गई –

  • जनजातियों के लोग गैर-जनजातियों व हिंदुओं से भिन्न हैं।
  • जनजातियों के लोग हिंदुओं के विपरित जीवनवादी हैं।
  • जनजाति के लोग हिंदुओं के विपरीत जीवनवाद हैं।
  • जनजातीय लोगों के हिन्दुओं से संपर्क होने के कारण उनकी संस्कृति तथा अर्थव्यवस्था को हानि हुई। गैर-जनजातियों के लोगों ने चालाकी तथा शोषण से उनकी (जनजाति के लोगों की) भूमि तथा अन्य स्रोतों पर कब्जा कर लिया।

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प्रश्न 4.
घुर्ये का भारतीय जनजातियों के हिंदूकरण की प्रक्रिया का विवरण दीजिए।
उत्तर:
घुर्ये ने भारत के जनजातियों के हिंदूकरण में निम्नलिखित तथ्यों का विवरण दिया है –

  • कुछ जनजातियों का हिंदू समाज में एकीकरण हो चुका है।
  • कुछ जनजातियाँ एकीकरण की दिशा में अग्रसर हो रही हैं।

प्रश्न 5.
घुर्ये ने जनजातियों के किस भाग को ‘हिंदू समाज का अपूर्ण एकीकृत वर्ग’ कहा है?
उत्तर:
भारत की कुछ जनजातियाँ जो पहाड़ों अथवा घने जंगलों में रह रही है, अभी तक हिंदू समाज के संपर्क में नहीं आयी हैं। जी.एस.घुर्ये ने इन जनजातियों हिन्दू समाज को ‘अपूर्ण एकीकृत वर्ग’ कहा है।

प्रश्न 6.
जनजातियों के द्वारा हिंदू सामजिक व्यवस्था को क्यों अपनाया गया?
उत्तर:
जनजातियों ने हिंदू सामाजिक व्यवस्था को आर्थिक उद्देश्यों के कारण अपनाया हिंदू धर्म को अपनाने के पश्चात् जनजाति के लोग अल्पविकसित हस्तशिल्प की संकीर्ण सीमाओं से बाहर आ सके। इसके पश्चात् उन्होंने विशेषीकृत व्यवसायों को अपनाया। इन व्यवसायों की समाज में अत्यधिक मांग थी। जनजातियों ने हिंदू सामाजिक व्यवस्था अपनाने का दूसरा कारण जनजातीय निवासों तथा रीतियों के हेतु जाति व्यवस्था की उदारता था।

प्रश्न 7.
इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी की नींव किसने और कब डाली?
उत्तर:
गोविंद सदाशिव घुयें ने 1952 में इंडियन सोशियोलॉजिकल सोसाइटी की नींव डाली।

प्रश्न 8.
घुर्ये ने जाति तथा नातेदारी के तुलनात्मक अध्ययन में किन दो बिंदुओं को महत्त्वपूर्ण बताया है?
उत्तर:
भारत में पायी जाने वाली नातेदारी व जातीय संजाल की व्यवस्था अन्य समाजों में भी पायी जाती है। जाति तथा नातेदारी ने भूतकाल में एकीकरण का कार्य किया है। भारतीय समाज का उद्विकास विभिन्न प्रजातीय तथा नृजातीय समूहों के एकीकरण पर आधारित था।

प्रश्न 9.
घुर्ये ने जाति व्यवस्था में पाए जाने वाले किन छः संरचनात्मक लक्षणों का उल्लेख किया है?
उत्तर:
जी.एन.घुर्ये ने जाति व्यवस्था में पाए जाने वाले निम्नलिखित छः संरचनात्मक लक्षणों का उल्लेख किया है –

  • खंडात्मक विभाजन
  • अनुक्रम या संस्तरण अथवा पदानुक्रम
  • शुद्धता तथा अशुद्धता के सिद्धांत
  • नागरिक तथा धार्मिक निर्योग्यताएँ तथा विभिन्न विभागों के विशेषाधिकार
  • व्यवसाय चुनने संबंधी प्रतिबंध
  • वैवाहिक प्रतिबंध

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प्रश्न 10.
अंनतकृष्ण अययर एवं शरतचंद्र रॉय ने सामजिक मानवविज्ञान के अध्ययन का अभ्यास कैसे किया?
उत्तर:
अंनतकृष्ण अययर प्रारंभ में केवल एक लिपिक थे। बाद में आप अध्यापक हो गए। सन् 1902 में कोचीन राज्य में एक नृजातीय सर्वे कर कार्य अपकों सौंपा गया और आप मानवशास्त्री हो गए। इसी प्रकार ही शरत्चंद्र रॉय कानूनविद् थे। अपने ‘उरावं’ जनजाति पर कुछ शोध किया और आप मानवशास्त्री हो गए।

प्रश्न 11.
जाति-व्यवस्था में विवाह बंधन पर चार पंक्तियाँ लिखिए।
उत्तर:

  • जाति व्यवस्था में अंतजार्तीय विवाहों पर प्रतिबंध था।
  • जातियों में अंतः विवाह का प्रचलन था।
  • प्रत्येक जाति छोटे-छोटे उपसमूहों अथवा उपजातियों में विभाजित थी।
  • घूर्ये अंतः विवाह को जाति प्रथा में प्रमुख कारक मानते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों के बारे में घुर्ये के विचार लिखिए?
उत्तर:
ग्रामीण तथा नगरीय क्षेत्रों के बारे में घुर्य के विचार का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) घुर्ये ने नगरों तथा महानगरों के विकास के बारे में निराशवादी दृष्टिकोण नहीं अपनाया है। नगरों से पुरुषों तथा स्त्रियों की चारित्रिक विशेषताओं को समाप्त नहीं किया है।

(ii) घूर्य के अनुसार विशाल नगर उच्च शिक्षा, शोध, न्यायपालिका, स्वास्थ सेवाएँ तथा प्रिंट मीडिया व मनोरंजन आदि अंततोगत्वा सांस्कृतक वृद्धि करते हैं। नगर का प्रमुख कार्य सांस्कृतिक एकरात्मकता की भूमिका का निर्वाह करना है।

(iii) घूर्ये नगरीकरण के पक्के समर्थक थे। घुर्य के अनुसार नगर नियोजन को निम्नलिखित समस्याओं के समाधान की ओर ध्यान देना चाहिए –

  • पीने की पानी की समस्या
  • मानवीय भीड़-भाड़
  • वाहनों की भीड़-भाड़
  • सार्वजनिक वाहनों के नियम
  • मुम्बई जैसे महानगरों में रेल परिवहन की कमी
  • मृदा का अपरदन
  • ध्वनि प्रदूषण
  • अंधाधुंध पेड़ों की कटाई तथा
  • पैदल यात्रियों की दुर्दशा

(iv) घूर्ये जीवनपर्यत ग्रामीण – नगरीयता के विचारों का समथन करते रहे। उनका मत था कि नगरीय जीवन के लाभों के साथ-साथ प्राकृति की हरीतिमा का भी लाभ उठाना चाहिए। भारत में नगरीकरण केवल औद्योगीकरण के कारण नहीं है। नगर तथा महानगर अपने नजदीकी स्थानों के लिए सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में भी कार्य करते हैं।

(v) घूर्य के अनुसार ब्रिटीश शासन के दौरान ग्रामों तथा नगरीय केन्द्रों के बीच पाए जाने वाले संबंधों की उपेक्षा की गई।

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प्रश्न 2.
जाति तथा नातेदारी के विषय में गोविंद सदाशिव धूर्ये के विचार लिखिए?
उत्तर:
जाति तथा नातेदारी के बारे में जी.एस.घूर्य के विचारों का अध्ययन निम्नलिखित बिंदओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) घुर्ये ने अपनी पुस्तक Caste and Race in India 1932 में ऐतिहासिक मानवशास्त्रीय तथा समाजशास्त्रीय उपागमों को कुशलतापूर्वक संयुक्त किया है घूर्य जाति की ऐतिहासिक उत्पति तथा उसके भौगोलिक प्रसार से संबंधित थे। उन्होंने जाति के तत्कालीन लक्षणों पर ब्रिटिश शासन के प्रभावों को प्रभावों को भी समझने का प्रयास किया है।

(ii) घूर्ये ने अपनी पुस्तक में बाद के संस्करण में भारत की आजादी के बाद जाति व्यवस्था में आने वाले परिवर्तनों का उल्लेख किया है। .

(iii) एक तार्किक विचारक के रूप में वे जाति व्यवस्था का घोर विरोध करते थे। उनका ‘अनुमान था कि नगरीय पर्यावरण तथा आधुनिक शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों से जाति बंधन कमजोर हो जाएँगे। लेकिन उन्होंने पाया कि जातिनिष्ठा तथा जातिय चेतना का रूपांतरण नृजातिय समूहों मं हो रहा है।

(iv) घूर्ये का मत है कि जाति अंत: विवाह तथा बहिर्विवाह के माध्यम से नातेदारी से संबंधित है।

प्रश्न 3.
घूर्य के अनुसार धर्म के महत्व को समझाइए?
उत्तर:
जी.एस.घूर्ये न धार्मिक विश्वासों तथा व्यवहारों के अध्ययन में मौलिक योगदान प्रदान किया है। समाज में धर्म की भूमिका का विशद् वर्णन उन्होंने निम्नलिखित पुस्तकों में किया है –

  • Indian Sadhus (1953)
  • Gods and Men (1962)
  • Religious Consciousnes (1965)
  • Indian Accultrtion (1977)
  • Vedic India (1979)
  • The legacy of Ramayana (1979)

घुर्ये ने संस्कृति के पाँच आधार बताए हैं –

  • धार्मिक चेतना
  • अंत: करण
  • न्याय
  • ज्ञान प्राप्ति हेतु निर्बाध अनुसरण
  • सहनशीलता।

घूर्ये ने अपनी पुस्तक Indian sadhus में महान वेंदातिंक दार्शनिक शंकराचार्य तथा दूसरे धार्मिक आचार्य द्वारा चलाए गए अनेक धार्मिक पंथों तथा केंद्रों का समाजशास्त्रीय विश्लेषण किया है। घूर्ये ने भारत में त्याग की विरोधाभासी प्रकृति को प्रस्तुत किया है। शंकराचार्य के समय से ही हिंदू समाज का कम या अधिक रूप में साधुओं द्वारा मार्गदर्शन किया गया है। ये साधु-एकांतवासी नहीं हैं। उनमें से ज्यादातर साधुमठासी होते हैं। भारत में। मठों का संगठन हिन्दूवाद तथा बोद्धवाद के कारण है।

भारत में साधुओं द्वारा धार्मिक विवादों में मध्यस्थता भी की जाती है। उनके द्वारा धार्मिक ग्रंथों तथा पवित्र ज्ञान को संरक्षण दिय गया है। इसके अतिरिक्त, साधुओं द्वारा विदेशी आक्रमणों के समय धर्म की रक्षा की गई है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
जाति व राजनीति पर घूर्य के विचार लिखिए?
उत्तर:
जाति तथा राजनीति के संबंध में जी.एस.घूर्य के विचारों का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) प्रसिद्ध समाजशास्त्री जी.एस.घूर्ये ने जातिनिष्ठा अथवा जातीय लगाव के प्रति सावधानी बरतने की बात कही है। जातिनिष्ठा तथा जातीय लगाव दोनों ही भारत की एकता के लिए संभावित खतरे हैं।

(ii) यद्यपि ब्रिटिश शासन के दौरान किए गए परिवर्तनों से जाति-व्यस्था के कार्य कुछ सीमा तक प्रभावित तो हुए तथापि उनका पूर्णरूपेण उन्मूलन नहीं हो सक। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान निम्नलिखित तीन प्रकार के परिवर्तन आए –

  • कानूनी तथा संस्थागत परिवर्तन
  • प्रौद्योगिकी परिवर्तन तथा
  • व्यावसायिक परिवर्तन

(iii) घूर्ये का यह स्पष्ट मत है कि भारत में ब्रिटिश शासक जाति व्यवस्था के समाजिक तथा आर्थिक आधारों को समाप्त करने में कभी भी गम्भीर नहीं रहे। उनके द्वारा छुआछूत को समाप्त करने का भी प्रयत्न नहीं किया गया।

(iv) परतंत्र भारत में निम्नलिखित समीकरण पाए गए हैं –

  • जातिय समितियों को अधिकता
  • जातिय पत्रिकाओं की संख्या में वृद्धि
  • जाति पर आधारित न्यासों में वृद्धि
  • नातेदारी ने जातिय चेतना के विचारों को प्रोत्साहित किया।

उपरोक्त वर्णित चारों कारक वास्तविक सामुदायिक तथा राष्ट्रीय भावना के विकास में बाधा उतपन्न करते हैं।

(vi) जी.एस.घूर्ये को इस बात की चिंता थी कि राजनैतिक नेता प्राप्त करने तथा उस काम रखने के लिए जातीय संवेदना का शोषण करेंगे। इस संदर्भ में धूर्य की चिंता निरर्थक नहीं थी। घूर्य ने राजनीति क्षेत्र तथा नौकरियो में वंचित वर्ग के आरक्षण के आंदोलन की भावना की प्रशंसा की। उन्होंने इस बात पर विशेष जोर दिया कि अछूत जातियों को विशेष शैक्षिक सुविधाएँ प्रदान की जाएँ। उनका मत था कि शिक्षा ही उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को बेहतर बना सकती है।

प्रश्न 2.
जनजातियों पर घूर्ये के विचार दीजिए।
उत्तर:
जनजातियों के विषय में घूर्य के विचार का निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत अध्ययन, किया जा सकता है। भारत की जनसंख्या में जनजातियाँ एक महत्त्वपूर्ण भाग है। घूर्ये ने इस बात पर चिंता प्रकट की थी कि कुछ मानवशास्त्री तथा ब्रिटिश प्रशासक जनजातियों को पृथक् कर देने की नीति के हिमायती थे। उन्होंने इस बात पर जोर दिया है कि हर कीमत पर जनजातियों की विशष्टि पहचान बनायी रखी जानी चाहिए। उन्होंने इस संबंध मे निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए

  • जनजातिय गैर-जनजाति या हिंदुओं से पृथक् है।
  • जनजातिय लोग देश के मूल निवासी हैं।
  • जनजातिय लोग हिंदुओं के विपरीत जीववादी हैं।
  • जनजातियं लोग भाषा के आधार पर भी हिंदुओं से अलग हैं।
  • गैर-जनजातिय लोगों के संपर्क में आने से जनजातीय लोगों की संस्कृति तथा अर्थव्यवस्था का नुकसान हुआ है।
  • गैर-जनजातियों लोगों की चालाकी तथा शोषण के कारण जनजातिय लोगो की जमीन तथा अन्य संसाधन समाप्त हो गए।

जी.एस.घूर्य ने उपरोक्त बिंदुओं का ऐतिहासिक आंकड़ों तथा उदाहरणों द्वारा तत्कालीन स्थिति के संदर्भ में विरोधी किया है। जी.एस.घूर्य ने भरतीय जनजातियों के हिंदूकरण की प्रक्रिया का उल्लेख किया है। उनका मत है कि कुछ जनजातियों का हिंदू समाज में एकीकरण हो चुका है तथा कुछ जनजातियाँ एकीकरण की दशा में अग्रसर हो रही है। घूर्ये का मत है कि कुछ जनजातियाँ पहाड़ों तथा जंगलों में रह रही हैं। ये जनजातियाँ हिंदू समाज से अभी तक अप्रभावित हैं। ऐसी जनजातियों को हिंदू समजा का अपूर्ण एकीकृत वर्ग कहा जाता है।

जी.एस.पूर्वे के अनुसार जनजातियों द्वारा हिंदू सामाजिक व्यवस्था को निम्नलिखित दो करणों से अपनाया गया है प्रथम आर्थिक उद्देश्य था। जनजातियों द्वारा हिंदू धर्म की अपनया गया था अंत: उन्हें अपने अल्पविकसित जनजातिय हस्तशिल्प की सीमाओं से बाहर आने का मार्ग मिल गया। इसके पश्चात् जनजातिय लोगों ने बिशिष्ट प्रकार के उन व्यवसायों को अपनाया जिनकी समाज में मांग थी। द्वितीय कारण जनजातिय विश्वासों तथा रीतियों के संदर्भ में जाति व्यवस्था की उदारता थी।

जी.एस.घूर्ये ने इस बात को स्वीकार किया कि भोले जनजातिय लोग गैर-जनजातियों, हिंदू महाजानों तथा भू-माफियाओं द्वारा शोषित किए गए। घूर्ये का मत है कि इसका मूल कारण ब्रिटीश शाशन को दोषपूर्ण राज्स्व तथा न्याय व नीतियाँ थी। ब्रिटिश सरकार की वन संबंधी नीतियों से जनजातिय लोगों के जीवन को और अधिक कठोर बना दिया। इन दोषपूर्ण नीतियों के कारण न केवल जनजातिय लोगों को कष्ट हुआ वरन् गैर-जनजातिय लोगों को भी अनेक कठिनाइयों का समाना कारना पड़ा। वस्तुतः समाज में प्रखलत व्यवस्था ने जनजातिय लोगों तथा गैर-जनजातिय लोगों को समान रूप से कष्ट पहुँचाया।

प्रश्न 3.
घूर्ये के अनुसार जाति के संरचनात्मक लक्षणों का वर्णन कीजिए?
उत्तर:
घूर्य ने जाति के निम्नलिखित छः संरचनात्मक लक्षणों का उल्लेख किया है –
(i) खंडात्मक विभाजन-जी.एस.घूर्य ने जाति को सामजिक समूहों अथवा खंडो के रूप में समझा है। इनकी सदस्यता का निर्धारण जन्म से होता है। सामाज के खंड विभाजन का अभिप्राय जाति के अनेक खंड में विभाजन है। प्रत्येक खंड का अपना जीवन होता है। प्रत्येक जाति के नियम, विनियम, नैतिकता तथा न्याय के मानदंड होते हैं।

(ii) अनुक्रम अथवा संस्मरण अथवा पदानुक्रम-जाति अथवा इसके खंडों में संस्तरण पाया जाता है। संस्तरण की व्यवस्था में जातियाँ एक-दूसरे के संदर्भ में उच्च अथवा निम्न स्थिति में होती है। सभी जगह संस्तरण की व्यवस्था में ब्राह्मणों की स्थिति उच्च तथा अछूतों की निम्न होती है।

(iii) शुद्धता एवं अशुद्धता के सिद्धांत-जातियों तथा खंडों के बीच पृथकता, शुद्धि तथा अशुद्धि के सिद्धांत पर आधारित है। शुद्ध तथा अशुद्ध के सिद्धांत के अंतर्गत दूसरी जीतियों के . संदर्भ में खान-पान संबंधी नियमों का पालन किया जाता है। आमतौर पर ज्यादातर जातियों को ब्राह्मणों द्वारा पकाए गए कच्चे भोजन को ग्रहण करने पर कोई आपत्ति नहीं होती है। दूसरी और, ऊँची जातियों द्वारा निम्न जातियों द्वारा पकाया गया पक्का खाना, जैसे कचौड़ी आदि ग्रहण किया जाता है।

(iv) नागरिक तथा धार्मिक निर्योग्यताएँ तथा विभिन्न भागों में विशेषाधिकार-समाज में संस्तरण के विभाजन के कारण विभिन्न समूहों को प्रदान किए गए विशेषाधिकारों तथा दायित्वों में असमानता पायी जाती है। व्यवसायों का निर्धारण जाति की प्रकृति के अनुसार होता है। ब्राह्मणों की उच्च स्थिति इन्हीं आधारों पर होती है। निम्न जाति के लोग उच्च जाति के लोगों के रीति-रिवाजों तथा वस्त्र धारण करने आदि की नकल नहीं कर सकते थे। उनके द्वारा ऐसा किया जाना समाज के नियमों के विरुद्ध कार्य समझा जाता था।

(v) व्यवसायों के संबंध में प्रतिबंध-प्रत्येक जाति अथवा जाति समूहों किसी न किसी वंशानुगत व्यवसाय से संबंध होते थे। व्यवसायों का वर्गकरण भी शुद्धता तथा अशुद्धता के सिद्धांत के आधार पर किया जाता था। वर्तमान समय में इस स्थिति में परिवर्तन आया है। लेकिन पुरोहित के कार्य पर अभी भी ब्राह्मणों का अधिकार कायम है।

(vi) वैवाहिक प्रतिबंध-जाति व्यवस्था में अंतर्जातीय विवाहों पर प्रतिबंध था। जातियों में अंतः विवाह का प्रचलन था। घूर्ये अंतः विवाह को जाति प्रथा का प्रमुख कारक मानते हैं।

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प्रश्न 4.
‘जनजातिय समुदायों को कैसे जोड़ा जाय’ इस विवाद के दोनों पक्षों के क्या तर्क थे?
उत्तर:
जानजातिय समुदायों से कैसे संबंध स्थापित हो? यह एक गंभीर प्रश्न है। जी.एस. घूर्य ने अपनी पुस्तक ‘द शिड्यूल्ड टाइब्स’ में लिखा है। “अनुसूचित जनजातियों को न तो अदिम कहा जाता है और न आदिवासी न ही उन्हें अपने आप में एक कोटि माना जाता है” यानि पहचान की समस्या गंभीर हैं। जनजातिय समुदायों के साथ संबंध स्थापित करने में निम्न तथ्व भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं

  • भूमि हस्तांतरण तथा शोषण के बिंदुओं को रोका जाए।
  • आर्थिक विकास के अवरोधों को दूर किया जाए।
  • उनके सांस्कृतिक स्वरूप और मूल संस्कृत में कोई परिवर्तन न किया जाए।
  • अशिक्षा की समस्या से दूर किया जाए।
  • ऋणग्रस्तता को समाप्त करने का प्रयास किया जाए।
  • जनजातियों के समग्र विकास के लिए कदम उठाए जाएँ।

इन सभी कार्यों को पूर्ण करने पर निश्चित हो जनजातियों समुदायों से समर्क की समस्या समाम्त हो जाएगी।

प्रश्न 5.
घूर्ये ने भारतीय सामाज की व्याख्या कैसे की?
उत्तर:
घूर्ये ने भारतीय समाज की व्याख्या निम्नलिखित रूप में किये जाते हैं –

  • जन्म पर आधारित जाति व्यवस्था भारतीय समाज की एक विशिष्टता है। उन्होंने भारतीय समाज में जातियों के उपजातियों के रूप में विभाजन को स्वीकार किया है।
  • घूर्ये ने भारतीय जनसंख्या को उनकी शारीरिक विशेषताओं के आधार पर प्रायः छः प्रकार के वर्गों में विभाजित किया है- इंडी आर्यन, पूर्वी द्रविड़, पश्चिमी मुण्डा और मंगोलियन।
  • इनके अनुसार हिंदू, जैन, बौद्ध धर्म के कालात्मक स्मारकों में कई समान तत्वों का समावेश है।
  • उनका मत था कि मुस्लिम भवनों में हिंदू कला का केवल अलंकरण के रूप में प्रयोग हुआ है।
  • घूर्य का विचार था कि बहुलवादी प्रकृतियों ने राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया में बाधा डाली है और यह भारतीय समाज को टुकड़ों में बाँटे जाने को प्रोत्साहन देती है।

प्रश्न 6.
भारत में प्रजाति तथा जाति के संबंधों पर हर्बर्ट रिजले तथा जी.एस.घूर्ये की स्थिति की रूपरेखा दें?
उत्तर:
वास्तव में जाति व्यवस्था भारतीय समाज की अपने एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। जो व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता है, उसे उसी बना रहना पड़ता है। जाति की सदस्यता जन्म से होती है। जाति-‘कास्ट’ एक अंग्रेजी शब्द है जिसकी उत्पति पुर्तगाली भाषा के –

  • जाति की सदस्यता उन व्यक्तियों तक ही सीमित होती है जो उस जाति के सदस्यों से उत्पन्न हुए हों और इस प्रकार उत्पन्न होने वाले
  • सभी व्यक्ति जाति में आते हैं।
    जिसके सदस्य एक अविच्छिन्न सामाजिक नियम के द्वारा समूह के बाहर विवाह करने से रोक दिए जाते हैं।

प्रो.एच.रिजले के अनुसार, “जाति परिवारों के समूह का एक संकलन है जिसका एक सामान्य नाम है, जो काल्पनिक पुरुष अथवा देवताओं से उत्पन्न होने का दावा करती है। एक वंशानुकूल व्यवसाय करने का दावा करती है और उन लोगों की दृष्टि से सजातीय समुदाय बनाती है जो अपना मत देने योग्य हैं।” प्रो.जी.एस.घूर्ये-प्रो.घूर्य ने जाति की परिभाषा देते हुए कहा है, ‘जाति एक जटिल अवधारणा है।’ इस प्रकार रिजले और घूर्ये दोनों जाति के संबंध में अलग-अलग विचार रखते हैं। प्रजाति से आशय यहाँ नस्ल से है : भारत में आर्य ही इस तथ्य पर एक मत हैं कि प्रजातिय विभिन्नता होते हुए भी भारत में जातिय एकता बनी हुई है।

ध्रुजटी प्रसाद मुखर्जी

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
डी.पी. की ‘पुरुष’ की अवधारणा बताइए?
उत्तर:
डी.पी. मुखर्जी ने अपनी ‘परुष’ की अवधारणा में उसे (पुरुष को) समाज तथा व्यक्ति से पृथक् नहीं किया है और न ही वह पुरुष समूह मस्तिष्क के नियंत्रण में है। मुखर्जी के अनुसार ‘पुरुष’ सक्रिय कर्ता के रूप दूसरे व्यक्त्यिों के साथ संबंध स्थापित करता है तथा अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह करना है। मुखर्जी का मत है कि पुरुष का विकास दूसरे व्यक्तियों के साथ संपर्क से होता है। इस प्रकार, उसका मानव समूहों में अपेक्षाकृत अच्छा स्थान होता है।

प्रश्न 2.
कर्ता की स्थिति स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार कर्ता की स्थिति के अंतर्गत व्यक्ति एक कर्ता के रूप में कार्य करता है। एक स्वतंत्र अस्तित्व के रूप में जो कि व्यक्ति के अपने लक्ष्यों तथा हितों को प्राप्त करने की मौलिक विशेषताएँ रखता है।

प्रश्न 3.
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार परंपरा के अर्थ को स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार परंपरा का मूल ‘वाहक’ है जिसका तात्पर्य संप्रेषण करना है। संस्कृत भाषा में इसका समानार्थक परंपरा है, जिसका तात्पर्य है उत्तराधिकारी अथवा ऐतिहासिक जिसका आधार अथवा जुड़े इतिहास में हैं। मुखर्जी के अनुसार परंपराओं का कोई न कोई स्रोत अवश्य होता है। धार्मिक ग्रंथ अथवा महर्षियों के कथन अथवा ज्ञात या अज्ञात पौराणिक नायक परंपराओं के स्रोत हो सकते हैं।

पंरपराओं के स्रोत कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन इनकी एतिहासिकता को समाज के सभी सदस्यों द्वारा मान्यता प्रदान की जाति है। परंपराओं को उद्धत किया जाता है। उन्हें पुन: याद किया जाता है तथा उनका सम्मान किया जाता है। वस्तुतः परंपराओं की दीर्घकालीन संप्रेषणता से सामजिक संबद्धता तथा सामाजिक एकता कायम रखती है।

प्रश्न 4.
भारत में अंग्रजों द्वारा प्रारंभ की गई नगरीय, आद्योगिक व्यवस्था का प्रभाव बताइए।
उत्तर:
भारत में अंग्रजों द्वारा प्रारंभ की गई नगरीय औद्यौगिक व्यवस्था ने प्राचीन संस्थाओं के ताने-बाने को समाप्त कर दिया। इसके द्वारा अनेक परंपरागत जाजियों एवं वर्गों का विघटन हो गया। इन परिवर्तनों के काण एक नयी प्रकार का सामजिक अनुकूलन तथा समायोजन हुआ। इन नए परिवर्तनों के द्वारा भारत नगरीय केंद्रों में शिक्षित मध्यवर्ग समाज का मुख्य बिंदु बनकर सामने आया।

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प्रश्न 5.
डी.पी.मुकर्जी के अनुसार भारत आधुनिकता के मार्ग पर किस प्रकार अग्रसर हो सकता है?
उत्तर:
डी.पी.मुकर्जी के अनुसार भारत अपनी परंपराओं से अनुकूलन तभी कर सकता है जब मध्यवर्गीय व्यक्ति अपना संपर्क आम जनता के पुनः स्थापित करें । मुखर्जी कहते हैं कि इस प्रक्रिया में उन्हें न तो अनावश्यक रूप से क्षमायाचना करनी चाहिए और न ही अपनी परंपराओं के विषय में बढ़-चढ़कर अथवा आत्मश्लाघा करनी चाहिए। उन्हें परंपराओं की जीवंतता को कायम रखना चहिए जिसमें आधुनिकता द्वारा आवश्यक परिवर्तनों के साथ समायोजन हो सके। इस प्रकार व्यक्तिवाद एवं समाजिकता के बीच संतुलन कायम रह सकेगा। इस नए अनुभव से भारत तथा विश्व दोनों ही लाभ प्राप्त कर सकेंगे।

प्रश्न 6.
सामजशास्त्र के क्षेत्र में डी.पी.मुकर्जी का महानतम योगदान बताइए?
उत्तर:
प्रसिद्ध भारतीय सामजशास्त्री डी.पी.मुकर्जी के विचार वर्तमान सामाजिक पररिस्थितियों में पूर्णत: उचित है। मुकर्जी का समाजशास्त्र के क्षेत्र में महानतम योगदान परंपराओं की भूमिकाओं का सैद्धांतिक निरूपण है। डी.पी.मुकर्जी का स्पष्ट मत था कि भारतीय सामाजिक यर्थाथता की समुचित समीक्षा इसकी संस्कृति तथा सामाजिक क्रियाओं, विशिष्ट परंपराओं, विशिष्ट प्रतीकों, विशिष्ट मानकों के संदर्भ में की जा सकती है।

प्रश्न 7.
जाति की सामाजिक मानवशास्त्रीय परिभाषा को सारांश में बताइए?
उत्तर:
जाति जन्म पर आधारित ऐसा समूह है जो अपने सदस्यों को खान-पान, विवाह, व्यवसाय और सामजिक संपर्क के संबंध में कुछ प्रतिबंध मानने को निर्देशित करता है।

प्रश्न 8.
‘जीवंत परंपरा’ से डी.पी.मुकर्जी का क्या तात्पर्य है? भारतीय समाज शास्त्रीयों ने अपनी परंपरा से जुड़े रहने पर बल क्यों दिया?
उत्तर:
प्रो.ए.आर. देसाई ने समाजशास्त्र में भारतीय समाज को लेकर अनेक अध्ययन किये। उन्होंने पाया कि स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक परिदृश्य में तेजी से रूपांतर की स्थिति उत्पन्न हुई है। भारत की जनता क रहन-सहन के परंपरागत स्तर में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दिया।

आधुनिकता के नाम पर कुछ लोगों ने परंपराओं को त्यागने का साहस तो किया पर वे भी कहीं न कहीं उसमें लिप्त रहे। भारतीय समाजशात्रियों के विषय में भी श्री देसाई के विचार यही हैं कि वे अपने अध्ययनों में भारतीय परंपराओं के प्रति जकड़े हुए हैं इससे ऊपर उठकर विचार श्रृंखला मीमांसा नही बन पाती है।

प्रश्न 9.
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रियों के मूलभूत उद्देश्य क्या होने चाहिए?
उत्तर:
डी.पी.मुखजी के अनुसार सामाजिक सामजशास्त्रियों को केवल सामजशास्त्री की सीमा तक ही सीमित नहीं होना चाहिए। भारतीय सामजशास्त्रियों को लोकाचारों, जनरीतियों, रीति-रिवाजों तथा परंपराओं में भागदारी करने के साथ-साथ समाजिक व्यवस्था के अर्थ का समझन का भी प्रयास करना चाहिए।

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प्रश्न 10.
डी.पी. मुखर्जी के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रियों को किन दो उपागमों के संश्लेषण का प्रयास करना होगा?
उत्तर:
डी.पी. मुखर्जी के अनुसार भारतीय समाजशास्त्रियों को निम्नलिखित दो उपागमों के संश्लेषण का प्रयास करना होगा
(i) समाजशास्त्री के द्वारा तुलनात्मक उपागम को अपनाना होगा। एक यही तुलनात्मक उपागम उन विशेषताओं को प्रकाश में लाएगा जिनकी भरतीय समाज अन्य समाजों के साथ भागीदारी करता है। इस उद्देश्य को प्राप्ति हेतु समाजशास्त्री परंपरा का अर्थ समझने का लक्ष्य रखेगे। वे इसके मूल्यों तथ्य प्रतीकों का सावधानीपूवर्क परीक्षण भी करेंगे।

(ii) भारतीय समाजशास्त्री संघर्ष तथा परस्पर विरोधी शक्तियों के संश्लेषण को समझने के लिए द्वंद्वात्मक उपागम का अवलंबन करेंगे।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय समाजशास्त्रियों का समजशास्त्री होना ही पूर्ण नहीं है, उन्हें पहले भारतीय होना चाहिए।” डी.पी. के इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
डी.पी.मुकर्जी ने भारतीय समाज के अपने सामजशास्त्रीय विश्लेषण में यह तथ्य पूर्णरूपेण स्पष्ट कर दिया है कि भारतीय समाजशास्त्र के व्यापक अध्ययन हेतु विभिन्न उपागमों की आवश्यकता है। डी.पी. का स्पष्ट मत है कि भारतीय सामजिक व्यवस्था के अध्ययन हेतु एक पृथक उपागम की आवश्यकता है। यही कारण है कि डी.पी. मुकर्जी का मत है कि भारतीय समाजशास्त्रियों को केवल सामाजशास्त्री होना ही काफी नहीं है, उन्हें भारतीय भी होना चाहिए।

डी.पी. का मत है कि भारतीय समाजशास्त्रियों को भारतीय समाजशास्त्रियों को केवल सामाजशास्त्री होना ही काफी नहीं है, उन्हें भारतीय भी होना चाहिए। भारतीय समाजशास्त्रियों को निम्नलिखित दो उपगामों के संश्लेषण का प्रयास करना चहिए। प्रथम भारतीय समाजशास्त्री तुलनात्मक उमगम को अपनाएँगे। वास्तविक तुलनात्मक उपागम उन सभी विशेषताओं को स्पष्ट करेगी जो भारतीय समाज अन्य समाजों के साथ बाँटेगा। इसके साथ-साथ इसकी परंपराओं की विशेषताओं को भी बाँटेगी।

इसी दृष्टिकोण से, समाजशास्त्री परंपरा का अर्थ समझने का प्रयास करेंगे। उनके द्वारा प्रतीकों तथा मूल्यों का सावधानी पूवर्क परीक्षण किया जाएगा। द्वितीय भारतीय समाजशास्त्रीय विरोधी शक्तियों के संघर्ष तथा संश्लेषण के संरक्षण तथा परिवर्तन का समझने के लिए द्वंद्वात्मक उपागम का अवलंबन करेंगे।

प्रश्न 2.
पश्चिमी सामाजिक विज्ञान के संबंध में डी.पी.मुकर्जी के क्या विचार थे?
उत्तर:
पश्चिमी सामाजिक विज्ञान क विषय में डी.पी.मुकर्जी के विचारों का अध्ययन निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) डी.पी.मुकर्ज पश्चिमी सामाजिक विज्ञानों के प्रत्यक्षवाद के पक्ष में नहीं थे। मुखर्जी का मत है कि पश्चिमी सामजिक विज्ञान ने व्यक्तियों का जैविकीय या मनोवैज्ञानिक इकाइयों तक सीमित कर दिया है. पश्चिमी देशों की औद्योगिकी संस्कृति ने व्यक्ति को आत्मकेंद्रित कर्ता बना दिया है।

(ii) डी.पी.का मत है कि व्यक्तिवाद अथवा व्यक्तियों की भूमिकाओं तथा अधिकारों को मान्यता प्रदान करके प्रत्यक्षवाद के मनुष्य को उसके सामाजिक आधार से पृथक् कर दिया है।

(iii) डी.पी. का मत है कि ‘हमारी मनुष्य की अवधारणा ‘पुरुष’ की है व्यक्ति की नहीं।’ मुखर्जी के अनुसार व्यक्ति शब्द हमारे धार्मिक ग्रंथो अथवा महर्षियों के कथनों में बहुत कम पाया जाता है। ‘पुरुष’ का विकास उसके अन्य व्यक्तियों के साथ सहयोग से तथा अपने समूह के सदस्यों के मूल्यों तथा भागीदरी से होता है।

(iv) डी.पी. क अनुसार भारत की समाजिक व्यवस्था मूलरूप स समूह, संप्रदा अथवा जाति कार्य का मानक अनुस्थापना है। यही कारण है कि आम भारतीय द्वारा नैराश्य का अनुभव नहीं किया जाता है। इस संदर्भ में डी.पी. हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों तथा बौद्धों में कोई विभेद नहीं है।

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प्रश्न 3.
परंपराओं की गतिशीलता किसे कहते हैं?
उत्तर:
डी.पी.मुकर्जी के अनुसार परंपरा का तात्पर्य संप्रेषण से है प्रत्येक सामजिक परंपरा का कोई न कोई उद्गम अवश्य होता है। समाज के सभी सदस्यों द्वारा परंपराओं की ऐतिहासिकता को मान्यता प्रदान की जाती है। परंपरा के द्वारा प्रायः यथास्थिति को कायम रखा जाता है। परंपरा का रूढ़िवादी होना आवश्यक नहीं है। डी.पी. का मत है कि परंपरओं में परिवर्तन होता रहता है।

भारतीय परंपराओं में तीन सिद्धांतो को मान्यता प्रदान की गई है –

  • श्रुती
  • समृति तथा
  • अनुभव

विभिन्न संप्रदायों या पंथो संत-संस्थापकों के व्यक्तिगत अनुभवों से सामूहिक अनुभव की उत्पत्ति होती है, जिससे प्रचलित सामाजिक-धार्मिक व्यवस्था में परिवर्तन होता है। प्रेम या प्यार तथा सहजता का अनुभव या स्वतः स्फूर्त जो इन संतों तथा अनेक अनुयायिकों में पायी जाती है वह सूफी संतों में भी देखने को मिलती है। परंपरागत व्यवस्था द्वारा विरोधी आवाजों को भी सामायोजित किया जाता है। इसके परिणामस्वरूप, सुविधाहीन विभिन्न समूहों की वर्ग चेतना ने जातिय व्यवस्था को जबर्दस्त चुनौती दी है।

प्रश्न 4.
डी.पी.मुखर्जी के अनुसार सामाजिक वास्तविकता का अर्थ है?
उत्तर:
सामाजिक वास्तविकता के संबंध में डी.पी.मुकर्जी के विचारों का अध्ययन निम्नखित बिंदुओं के अंतर्गत किया जा सकता है –
(i) सामाजिक वास्तविकता के अनेक तथा विभिन्न पहलू हैं तथा इसकी अपनी परंपरा तथा भविष्य है।

(ii) सामाजिक वास्तविकता को समझने के लिए विभिन्न पहलू की अंत:क्रियाओंक की प्रकृति को व्यापक तथा संक्षिप्त रूप में देखना होगा। इसके साथ-साथ परंपराओं तथा शक्तियों के अंत: संबंधों को भी भली भाँति समझना होगा। किसी विषय विशेष में संकुचित विशेषीकरण इस तथ्य का समझने में सहायक नहीं है।

(iii) डी.पी.मुखर्जी के अनुसार इस दिशा में सामजशास्त्र अत्यधिक उपयोगी सिद्ध हो सकता है। उनका स्पष्ट मत है कि किसी अन्य सामाजिक विज्ञान की भाँति समाजशास्त्र का अपना फर्श तथा छत है। मुखर्जी का मत है कि समाजशास्त्र का फर्श अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति धरातल में संबद्ध है तथा इसकी छत ऊपर से खुली हुई है।

(iv) डी.पी. मुखर्जी का. मत है कि समाजशास्त्र हमारी जीवन तथा सामाजिक वास्तविकता : का एकीकृतं दृष्टिकोण रखने में सहायता करता है। यही कारण है कि डी.पी.मुखर्जी ने सामाजिक जीवन के विस्तृत चित्र का संक्षिप्त दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। यही कारण है कि डी.पी. ने सामाजिक विज्ञनों के संश्लेषण पर निरंतर जोर दिया है। समाजशास्त्र एक समाजिक विज्ञान के रूप में विभिन्न विषयों के संश्लेषण में महत्त्वपूर्ण प्रयास कर सकता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संस्कृति तथा समाज की क्या विशिष्टताएँ हैं तथा ये बदलाव के ढाँचे की कैसे प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
भारतीय संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में विषमताओं के होते हुए भी मौलिक एकता की भावना इसे संसार की अन्य संस्कृतियों से अलग रखती है। अर्थात् समुद्र के उत्तर में हिमालय के दक्षिण में जो देश है वह भारत नाम का खंड है। वहाँ के लोग भारत की संतान कहलाते हैं। भारत एक विशाल देश है। उत्तर में हिमालय पर्वत दक्षिण में तीन ओर समुंद्र हैं। इसकी भौगालिक विशेषता इसे संसार के अन्य देशों से अलग रखती है।

भारत की भौगोलिक एकता को खण्डित करने का सहास आज तक कोई शक्ति नहीं कर सकी। सांस्कृतिक एकता-भारत के विभिन्न वर्गों ने मिलकर एक ऐसी विशिष्ट और अनोखी संस्कृति को जन्म दिया है जो शेष संसार में सर्वथा भिन्न है। भारतीय संस्कृति संसार में उच्च। स्थान रखती है। भारतीय संस्कृति में एकता का आधार राजनीतिक या भौगोलिक न होकर सांस्कृतिक रहा है।

भाषागत एकता-भारत में प्रचीन काल से ही द्रविड़, आर्य, कोल, ईरानी, यूनानी हुण, शक, अरब, पठान, मंगोल, डच, फेंच, अंग्रेज आदि जातियाँ आती रही है। इन लोगों ने यहाँ की भाषा और संस्कृति को एक सीमा तक अपनाया। अधिकांश भरतीय भाषाओं पर संस्कृत का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। भारत में मुसलमानों के आगमन के पश्चात् उर्दू भाषा का जन्म हुआ। बंगला, तमिल, तेलगु भाषा पर भी संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता पड़ता है। भारत में प्राचीन काल से ही अनेक भाषाओं का जन्म हआ किंत उनमें किसी प्रकार का भी टकराव देखने का नही मिला।

धार्मिक एकता-भारत में विभिन्न धर्मों के मानने वाले निवास करते हैं। प्रत्येक धर्म के अपने विश्वास, रीति-रिवाज, उपासाना और पूजन विधियाँ हैं। हिंदू धर्म में ही आर्य समाजी, सनातन धर्मी, शैव, वैष्णव, नानक पंथी, कबीर पंथी आदि विभिन्न सम्प्रदान हैं, पंरतु विभिन्न मत-मतान्तरों के होते हुए भी भारत में धार्मिक एकता बनी हुई है। संविधान में भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया। सभी धर्मों क पवित्र ग्रंथो का आदर किया जाता हैं।

राजनीतिक एकता-भारत में समय-समय पर अनेक शासन प्रणालियों का प्रचलन रहा है। कि स्वतंत्रता के पश्चात् प्रजातंत्रिक शासन प्रणाली अस्तित्व में आई। अनेक राजनीतिक दल और विचारधाराओं का उदय हुआ किंतु सभी दल भारत की राजनीतिक एकता को सर्वोपरि समझते हैं। सामाजिक-आर्थिक एकता-भारत में विभिन्न धर्मों और विश्वासों को मानने वाले लोग रहते हैं। उनकी परम्पराओं और रीति-रिवाजों में अंतर है परंतु उनके परस्पर संबंधों में उदारता और भाईचारे की भावना वद्यमान है। मानव कल्याण और लोकहित की भावाना से प्ररेणा लेकर संस्कृति की एकता को सुरक्षित बनाए रखा गया है। आर्थिक विषमता के होते हुए भी आत्मसंतोष की भावना विद्यमान है।

उपयुक्त सभी विशेषताएँ भारतीय संस्कृति तथा समाज की है जबकि किसी भी समाज में परिवर्तन होता है तो उसके कुछ निर्धारित प्रारूप होते हैं यथा-समाज में हिंदी में हिंदी भाषा के स्थान पर अंग्रेजी का वर्चस्व यह प्रतिरूप समाज की भाषायी एकता को प्रभावित करता है। इसी प्रकार अन्य तत्व भी परिवर्तन के प्रारूप को प्रभावित करते हैं।

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प्रश्न 2.
परंपरा तथा आधुनिकता के विषय में डी.पी.मुखर्जी के क्या विचार थे?
उत्तर:
परंपरा तथा आधुनिकता के विषय में डी.पी.मुखर्जी के विचार –
(i) परंपरा का अर्थ-प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्रीय डी.पी.मुखर्जी के अनुसार परंपरा का तात्पर्य संप्रेषण से है। प्रत्येक परंपरा का कोई न कोई उदगम स्रोत धार्मिक ग्रंथ तथा महर्षियों के कथन हो सकते हैं। परंपराओं के स्रोत कुछ भी हो सकते हैं, लेकिन इनकी ऐतिहासिकता को प्राय: सभी व्यक्तियों द्वारा मान्यता प्रदान की जाती है। परंपराओं को उद्धत, पुनःस्मरण किय जाता है तथा उनका सम्मान किया जाता है।

(ii) भारतीय परंपराओं की शक्ति-डी.पी.मुखर्जी के अनुसार भारतीय परंपराओं की वास्तविक शक्ति उसके मूल्यों का पारदर्शिता में पाई जाती है। इसकी उत्पति स्त्रियों तथा पुरुषों की अतीत की घटनाओं से संबद्ध जीवन पद्धतियों तथा भावनाओं से होती है, इनमें से कुछ मूल्य अच्छे तथा कुछ बुरे हैं। सोचने वाली बात यह है कि. तकनीक, प्रजातंत्र, नगरीकरण तथा नौकरशाही के नियम आदि विदेशी तत्वों मे उपयोगिता को भारतीय परंपरा में स्वीकार किया गया।

(iii) आधुनिक भारतीय संस्कृति एक आश्चर्यजनक सम्मिश्रण-डी.पी. का यह स्पष्ट मत है कि पश्चिमी संस्कृति तथा भारतीय परंपराओं में समायोजन निश्चित रूप से होगा। डी. पी.आगे कहते हैं कि भारतीय संस्कृति किसी भी दशा में समाप्त नहीं होगी। भारतीय संस्कृति की ननीयता, समायोजन तथा अनूकूलन इसके अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाए रखेंगे। भारतीय संस्कृति ने जनजातिय संस्कृति को आत्मसात किया है, इसके साथ-साथ इसने अनेक आंतरिक विरोधों को भी अपने साथ मिलाया है। यही कारण है कि आधुनिक भारतीय संस्कृति एक आश्चर्य मिश्रण कहलाती है।

(iv) परंपरा व आधुनिकता मे द्वंद्व की स्थिति-डी.पी.का पूर्ण व्यक्ति या संतुलित व्यक्तित्व का अर्थ है –

  • नैतिक उत्साह, सौंदर्यात्मक तथा बौद्धिक समझदारी का मिश्रण है।
  • इतिहास एवं तार्किकता का ज्ञान। उपरोक्त कारणों से ही पंरपरा तथा आधुनिक में द्वंद्व की स्थिति बन जाती है।

(v) भारतीय परंपरा का पश्चात्य संस्कृति से सामना-डी.पी.का मत है कि भारतीय संस्कृति का पाश्चात्य संस्कृति से सामाना होने पर सांस्कृतिक अंत:विरोधों की शक्तियों को मुक्त किया जा सकता है। इस नए मध्य वर्ग को जन्म दिया है। डी.पी. के अनुसार संघर्ष तथा संशलेषण की प्रक्रिया को भारतीय समाज की वर्ग-संरचना को सुरक्षित रखने वाली शक्त्यिों को आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

प्रश्न 3.
डी.पी.मुखर्जी ने नए मध्यम वर्ग की अवधारणा की व्याख्या किस प्रकार की है?
उत्तर:
डी.पी.मुखर्जी ने नए मध्यम वर्ग को व्याख्या के संबंध में निम्नलिखित बिंदुओं पर बल दिया है –
(i) नगरीय-औद्योगिक व्यवस्था-डी.पी. मुखर्जी के अनुसार अंग्रेजों द्वारा भारत में प्रारंभ की गई नगरीय-औद्योगिक व्यवस्था न पुराने ताने-बाने को लगभग समाप्त कर दिया । नगरीय-सामज में नया सामाजिक अनुकूलन तथा समायोजन प्रारंभ हुआ। इस नए सामाजिक ताने-बाने में नगरों में शिक्षित मध्यम वर्ग समाज का मख्य बिंद बन गया।

(ii) शिक्षित मध्यम वर्ग आधुनिक सामाजिक शक्ति के ज्ञान को नियंत्रित करता है-शिक्षित मध्यम वर्ग द्वारा सामाजिक शक्ति के ज्ञान को नियंत्रित किया जाता है। इसका तात्पर्य है कि पश्चिमी देशों द्वारा प्रदत विज्ञान, तकनीक, प्रजातंत्र तथा ऐतिहासिक विकास की भावना भारत में नगरीय समाज में विज्ञान तथा तकनीकी से संबंधित समस्त विशेषताओं तथा मध्ययम वर्ग की सेवाओं के उपयोग की बात कही गई है। डी.पी. का मत है कि मुख्य समास्या इस मध्यम वर्ग के पश्चिमी विचारों तथा जीवनशैली का पूर्णरूपेण अनुकरण करना है।

यही कारण है कि इस तथ्य को प्रसन्नता अथवा तिरस्कार कहा जाए कि हमारे समाज का माध्यम वर्ग भारतीय . वास्तविकताओं तथा संस्कृति से पूर्णतया अनभिज्ञ बना रहता है। दूसरे शब्दों में, हम कह सकते है कि भारतीय मध्य वर्ग पश्चिमी सभयता से अधिक निकट है जबकि भारती संस्कृति तथा विचारों से उसका अलगाव जारी है।

यद्यपि मध्यम वर्ग भारतीय परंपराओं से संबंद्ध नहीं है तथापि परंपराओं मे प्रतिरोध तथा . सीखने की अत्यधिक शक्ति पायी जाती है। यह परंपराएँ मानव के भौगोलिक तथा जनकीय प्रतिमानों के आधार पर भौतिक समायोजन तथा जैविकीय आवेगा के रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करती है। इस संबंध में भारत के संदर्भ में कहा जा सकता है कि यहाँ नगर-नियोजन तथा परिवार नियोजन के कार्यक्रमों परंपराओं से इतना अधिक संबंधित हैं कि नगर-नियोजन तथा समाज सुधारक इनकी अनदेखी नहीं कर सकते है।

यदि वे ऐसा करते हैं तो समस्त नियोजन तथा सुधार कार्य खतरे में पड़ जाएंगे। इस विश्लेषण के संदर्भ में कहा जा सकता है कि नगर-नियोजन भारत का मध्यम वर्ग आधुनिक भारत के निर्माण में आम जनता के नेतृत्व की स्थिति में नहीं है। मध्य वर्ग का विचार क्षेत्र परिश्मी सभयता से संबंधित रहने के कारण यह स्वदेशी परंपराओं से पृथक् हो गया है। यही कारण है कि मध्यम वर्ग का जनता से संपर्क टूट गया है।

(iii) भारत पंरपराओं से अनुकूलन करके आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है-डी.पी.मुखर्जी का मत है कि यदि मध्यम वर्ग आम-जनता से अपना संमक पुनः स्थापित करता है तो भारत परंपराओं से अनुकूलन करके आधुनिकता के मार्ग पर अग्रसर हो सकता है। भारतीयों को अपनी परंपराओं के संदर्भ में न तो क्षमा याचना करने की आवश्यकता है और न ही आत्मश्यलाघा की आवश्यकता है।

उन्हें परंपराओं की जीवतंता को नियंत्रित करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए जिसे आधुनिकता द्वारा आवश्यक परिवर्तनों के साथ समायोजन कर सके। इस प्रकार व्यक्तिवाद तथा सामाजिकता में संतुलन कायम होगा। इस नूतन अनुभवों से भारत तथा विश्व लाभान्वित हो सकेंगे।

अक्षय रमनलाल देसाई – (1915-1994)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रो. देसाई के अनुसार ‘भूमि सुधारों’ में असफलता के कारण थे?
उत्तर:
प्रो. देसाई के अनुसार भूमि सुधार में असफलता के निम्न कारण थे –

  • राजनीतिक संकल्प शक्ति का अभाव।
  • प्रशासनिक संगठन : नीति निर्वाह के अपर्याप्त कारण।
  • कानूनी बाधाएँ।
  • सही एवं अद्यतन अभिलेखों का अभाव।
  • भूमि सुधार को अब तक आर्थिक विकास की मुख्य धारा से अलग करके देखना।

प्रश्न 2.
प्रो. देसाई की दो प्रमुख कृतियों का उल्लेख किजिए?
उत्तर:
श्री देसाई की दो प्रमुख कृतियाँ हैं –

  • Social Background of Indian Nationalism
  • State and Society in Indian

प्रश्न 3.
कल्याणकारी राज्य किसे कहते हैं?
उत्तर:
प्रो.ए.आर. देसाई के अनुसार स्वतंत्रता के पश्चात् भारत में कल्याणकारी राज्य की स्थापना की गई। कल्याणकारी राज्य में लोकतांत्रिक समाजवाद के चिंतन को प्रस्तुत किया गया। प्रो. देसाई के असार भारत में कल्याणकारी राज्य पूँजीवादी संरचना का मुखौटा है। कल्याणकारी राज्य में बुर्जआ वर्ग के हितों की रक्षा की जा रही है। इस प्रकार प्रो. देसाई ने कल्याणकारी राज्य को जन सामान्य के संघर्ष के क्षेत्र में एक सुनियाजित अवरोध के रूप में सामने रखा है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
ए. आर. देसाई ने भारतीय समाजशास्त्रियों की आलोचना किस प्रकार की?
उत्तर:
प्रोफेसर ए. आर. देसाई ने संयुक्त राज्य अमेरिका तथा इंगलैंड से उधार ली गई अवधारणाओं तथा पद्धतियों के आधार पर भारतीय समाजशास्त्रियों के द्वारा सामाजिक-आर्थिक प्रघटनाओं के विशलेषण करने की प्रवृति की कड़ी आलोचना की थी। श्री देसाई के अनुसार भारत में सामाजशास्त्र मुख्यतया उधार ली हुई अवधारणाओं और पद्धतियों का अनुशासन है।

और यह उधार पश्चिमी देशों विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका और इंग्लैंड के परम प्रतिष्ठत केंद्रों से लिया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि परम प्रतिष्ठित मॉडलों का पीछा करते हुए छद्म बुद्धि व्यापार के दलदल में आत्मलाप है। प्रो.ए.आर. देसाई ने बौद्धिक चेतना एवं विश्लेषण के एक नवीन क्षितिज का सृजन किया। समाजशास्त्रीय विचारों की श्रृंखला को एक नई उष्मा प्रदान की। स्पष्ट है कि जनसाधारण के संघर्ष से समाजशास्त्र के विकास में प्रो. देसाई का योगदान अतुलनीय है।

प्रश्न 2.
देसाई की सार्वजनिक क्षेत्र की अवधारणा क्या है?
उत्तर:
प्रो.ए.आर. देसाई ने सार्वजनिक क्षेत्र की अवधारणा को स्पष्ट किया है। वास्तव में अनेक देशों में पूँजीवादी संरचना क विकल्प के रूप में सार्वजनिक क्षेत्र को प्राथमिकता दी जा रही है। जब सरकारी तथा अर्द्धसरकारी स्तर पर उत्पादन के विभिन्न साधनों एवं संगठनों पर नियंत्रण किया जाता है, उसका राष्ट्रीयकरण किया जाता है तो उसमें सार्वजनिक क्षेत्रों का एक स्वरूप निर्मित हा जाता है। जैसे भारत में 1970 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया।

प्रिवीपर्स को समाप्त कर दिया गया। इस प्रकार देश में सार्वजनिक क्षेत्र को महत्त्व देने का प्रयास किया गया। प्रो.ए.आर. देसाई ने अपनी पुस्तक Indian’s path of Development Amarxist Apporach में सार्वजनिक क्षेत्रों का मूल्यांकन किया है। श्री देसाई के अनुसार भारत में सार्वजनिक क्षेत्र का संतुलित विकास नहीं हुआ है। इस कारण पूंजीपतियों को निरंतर प्रश्रय प्राप्त होता रहता है।

प्रश्न 3.
ए. आर देसाई के समाजशास्त्रीय योगदानों को संक्षेप में स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
डॉ. योगेन्द्र सिंह ने तुलनात्मक विश्लेषणों के आधार पर प्रो.ए.आर देसाई के समाजशास्त्रीय योगदान का मूल्यांकन किया है। योगेन्द्र सिंह ने निम्न बिंदुओं के आधार पर प्रो. देसाई के महत्त्व को स्पष्ट किया है।

(i) प्रो. योगेन्द्र सिंह के अनुसार सामाजिक अध्ययनों के मार्क्सवादी प्रतिमानों का विकास विशेषकर युवा समाजशास्त्रियों में देखा जाता है। 1950 के दशक में यह दृष्टिकोण अस्तित्व में था लेकिन वह इतना नहीं था उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि डी.पी.मुखर्जी ने सामाजिक विश्लेषणों में मार्क्सवादी दृष्टिकोण के स्थान पर शास्त्रीय दृष्टिकोण को प्राथमिकता दी थी इस दृष्टिकोण में भारतीय आदर्शों और परंपराओं के साथ द्वंद्वात्मक को तर्क संलग्न किया गया था।

(ii) अपने आरंभिक अध्ययनों में समाजशास्त्रीय रामकृष्ण मुखर्जी ने मार्क्सवादी परंपराओं की बहुत-सी श्रेणीयों और संचालनों का उपयोग किया। लेकिन कालान्तर में, समाजशास्त्र में मार्क्सवादी पद्धतियों को 1950 के दशक की पीढ़ी के समाजशास्त्रियों के मध्य अकेले ए.आर. देसाई ने ही सामजशास्त्र में समान रूप से प्रचारित और प्रयुक्त किया था।

(iii) भारतीय समाजशास्त्र के जिज्ञासात्मक विषय की जड़े व्यापक दृष्टिकोण से मुख्यतः संरचनात्मक, प्रकार्यात्मक अथवा कुछ अर्थों में संरचनात्मकता और ऐतिहासिक संरचनात्मक प्रतिमानों में पाई जाती थीं। यह भारतीय समाजशास्त्र पर ब्रिटिश और अमेरिकी समाजशास्त्री परंपराओं के प्रभाव को स्पष्ट करता है। 1970 और 1980 के दशक के मध्य ये परंपराएँ पाई जाती थीं। इस प्रकार प्रो, योगेन्द्र सिंह न ए.आर. देसाई की सामजशास्त्रीय दृष्टि का तुलनात्मक विश्लेषण किया है।

प्रश्न 4.
ए.आर. देसाई का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
भारतीय सामाजशास्त्रीय अक्षय रमनलाल देसाई का जन्म सन् 1915 में हुआ था। आपकी प्रारंभिक शिक्षा, बड़ौदा, सूरत तत्पश्चात् मुम्बई में संपन्न हुई। आप ऐसे पहले भारतीय समाजशास्त्री थे जो सीधे तौर पर किसी राजनीतिक दल के औपचारिक सदस्य थे। आप जीवन । भर मार्क्सवादी रहे। आप मार्क्सवादी राजनीति में भी सक्रिय रूप से भाग लेते रहे।

श्री देसाई के पिता मध्यवर्गी समाज का प्रतिनिधित्व करने वाल व्यक्ति थे और बड़ौदा राज्य के लोक सेवक थे। वे एक अच्छे उपन्यासकार भी थे। वे समाजवाद, भारतीय राष्ट्रवाद और गाँधी जी की विभिन्न गतिविधियों में रुचि रखते थे। श्री देसाई की माता का देहांत जल्दी हो गया था। श्री देसाई ने अपने पिता के साथ प्रवसन का जीवन अधिक व्यतीत किया, क्योंकि उनके पिता का स्थानांतरण निरंतर होता रहता था।

श्री देसाई का 1948 में पी. एच. डी. की उपाधि मिली। आपकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।

  • Social Background of Indian Nationalism
  • Peasant Struggles in India
  • Agraian Struggles in India
  • State and Society In India

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रो. ए. आर देसाई के समाजशास्त्रीय विचारों को संक्षेप मे लिखिए?
उत्तर:
प्रो. ए. आर देसाई अपने आप में एक विशिष्ट भारतीय समाजशास्त्री हैं जो सीधे तौर पर एक राजनैतिक पार्टी से जुड़े थे और उसके लिए कार्य करते थे। भारतीय समाजशास्त्र में प्रो. देसाई का अवदान अविस्मरणीय है। प्रो. देसाई ने जन-संघर्ष तथा विक्षोभ के वैचारिक आयाम को भारतीय समाजशास्त्र की चिंतन परिधि में एक व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया एक चेतना संपन्न विचारक के रूप में उन्होंने विश्व की प्रमुख घटनाओं तथा मुद्दों का गंभीर अध्ययन किया।

उन्होंने भारतीय सामजिक संरचना मं पाए जाने वाले शोषण तथा सामाजिक मतांतरों का सूक्ष्म विश्लेषण किया। सामाजिक-आर्थिक ऐसी राजनीतिक प्रघटनाओं के विश्लेषण में प्रोफेसर ए.आर. देसाई ने उपलब्ध ऐतिहासिक तथ्यों एवं स्रोतों को प्रयुक्त किया। पूँजीवाद आर्थिक संरचना तथा श्वेत वसन राजनीतिक व्यवस्था के नकाब को उतारकर रख दिया। भारतीय समाजशास्त्र के विस्तृत आयाम पर प्रोफेसर देसाई ने अध्ययन एवं अनुसंधान को एक सर्वथा नवीन दिशा एवं दृष्टि प्रदान की। परिवार, नातेदारी, जाति, विवाह, धर्म तथा संघर्ष के समाजशास्त्र को मार्क्सवादी दृष्टिकोण के आधार पर एक नवीन ऊर्जा तथा एक नवीन उष्मा प्रदान की। प्रोफेसर ए. आर. देसाई ने लिखा है।

“सामाजिक विज्ञान के अभ्यासियों को गंभीर बौद्धिक तथा नैतिक धर्म संकट का सामना करना पड़ेगा या तो वे देश के शासक के तरीकों को सही सिद्ध करते हए अपने लिए सुरक्षा और सम्मान का इंतजाम करें, या हिम्मत बाँधकर और नतीजों का सामना करने के लिए तैयार होकर ऐसा नजरिया अपनाएँ जो विकास के पूंजीवाद रास्ते को अपनानी वाली सरकार के नेतृत्व में काम करती शक्तियों के खिलाफ संघर्ष करते हुए दुख भोगते लोगों के लिए उपयोगी ज्ञान को प्रजनित करें तथा उसका प्रचार-प्रसार करें। उनका संघर्ष पूंजीवादी रास्ते के परिणामों के असर को दूर करने के लिए और उनके विपरित विकास के गैर-पूँजीवादी रास्ते के लिए स्थितियाँ तैयार करने के लिए होगा।

इससे भारत में काम काजी लोगों की विशाल संख्या की उत्पादत क्षमता मुक्त हो जाएगी और सम्मान वितरण संभव होगा।” प्रोफेसर ए.आर. देसाई ने पूँजीवादी आर्थिक संरचना, साम्राज्यवाद एवं दमनकारी शक्तियों के विरुद्ध सामजशास्त्रीय चिंतन परिधि के आधार पर विचार प्रकट किए। उन्होनें साभजशास्त्रीय अध्ययन तथा अनुसंधान को जनसंघर्ष के साथ जोड़ा तथा जन-विक्षोभ के विविध आयामों को वैज्ञानिक दृष्टि दी। उन्होनें स्वतंत्र भारत में परिवर्तन तथा विकास की आलोचनात्मक व्याख्या प्रस्तुत की।

साथ ही पंचवर्षीय योजनाओं, कृषि समस्याओं, विकास कार्यक्रमों, ग्रामीण संरचनाओं एवं लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का गहन एवं गंभीर विश्लेषण किया उनके अनुसार स्वतंत्र भारत में रज्य की प्रकृति तथा समाज के प्रकार के विश्लेषण में बौद्धिक जगत से जुड़े लोग असफल रहे हैं तथा विद्वानों द्वारा निरंतर जन-संघर्ष के केन्द्रीय बिंदु की उपेक्षा की गई। उन्होंने जन-अहसमति, कल्याणकारी राज्य, भारतीय संविधान के नीति निर्देशक तत्व, भरतीय राष्ट्रवाद, संक्रमण स्थिति में भारतीय ग्रामीण समुदाय तथा महात्मा गाँधी के सत्य एवं अहिंसा के सिद्धांतों का आलोचनात्मक परीक्षण किया। उन्होंने अपने विचार तथा चिंतनों के आधार पर सत्ता एवं व्यवस्था का पोषण नहीं किया।

काल्याणकारी राजय के नाम पर पूंजीवादी आर्थिक संरचना के संपोषण की प्रवृति का उन्होंने खलासा किया। एक विद्रोही समाजशास्त्री के रूप में. एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी चिंतक के रूप में तथा जन-असहमति एवं जन संघर्ष के मुद्दों से जुड़े एक प्रखर समाजशास्त्री के रूप में प्रोफेसर ए.आर. देसाई का नाम विचारों की दुनिया में स्वर्णाक्षरों में अंकित है। उन्होंने भारत में राजनीति तथा विकास के विविध आयामों के लिए सामजशास्त्रियों को उत्प्रेरित किया। उन्होंने कल्याणकारी राज्य, संसदीय लोकतंत्र, राजनीति तथा विकास के अध्ययन हेतु ऐतिहासिक भौतिकवाद के आधार पर भारत में राज्य तथा समाज का विश्लेषण किया। साथ ही, समाजशास्त्रीय नजरिये की एक नई उत्तेजना प्रदान की। सामजशास्त्रीय अध्ययन को बहस का विषय बनाया।

क्या मौजूदा समाजशास्त्रीय अध्ययन पिछड़ापन, गरीबी तथा असमानता के समाजिक सरोकारों से जुड़ा हुआ है, क्या भरतीय समाज में तेजी से हो रहे रूपांतरणों की केन्द्रीय प्रवृति को रेखांकित करने में मौजूदा समाजशास्त्रीय अन्वेषण सक्षम है? क्या गरीबों के हक में हस्तक्षेप करने की ताकत सामज शास्त्र में पैदा की जा सकी है? प्रोफेसर देसाई ने स्पष्ट किया कि भारतीय परिदृश्य में समाजशास्त्रीय विश्लेषणों तथा उपागमों पर प्रश्न चिन्ह लगाया जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 भारतीय समाजशास्त्री

प्रश्न 2.
कल्याणकारी राज्य क्या है? ए. आर देसाई इसके द्वारा किए गए दावों की आलोचना क्यों करते हैं?
उत्तर:
प्रो. देसाई अपनी कृति State and Society in India के कल्याणकारी राज्य की अवधारणा प्रस्तुत की है लोक-कल्याणकारी राज्य किसी अहस्तक्षेपी राज्य से भिन्न है। राज्य का अस्तक्षेपी रूप तो केवल एसे कार्य सम्पादित करता है जो पुलिस कार्य कहलाते हैं, जैस-सुरक्षा कानून व्यवस्था? सम्पत्ति का संरक्षण तथा अनुबंधों का प्रयर्तन । इसके अतिरिक्त अस्तक्षेपी राज्य व्यक्ति के अन्य कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता जबकि लोक-कल्याणकारी राज्य उपरोक्त कार्यों के साथ-साथ जन स्वास्थ का भी ध्यान रखता है। वे ऐसी बुनियादी सुविधाएँ भी सुलभ कराता है, जिससे लोगों में राज्य के मामलों का प्रभावी भागीदारी निभाने के लिए आवश्यक न्युनतम शिक्षा का लाभ अवश्य पहुँचे।

इसके अतिरिक्त लोक-कल्याणकारी राज्य तो अनिवार्यात: नागरिकों को काम का अधिकार, निश्चित निर्वाह आय का अधिकार तथा आश्रय पाने का अधिकार सुलभ कराना होता है। बेरोजगारों के निर्वाह भत्ता देना भी ऐसा ही राज्य का दायित्व है। सभी को सामाजिक न्याय दिलाने के लिए लोक कल्याणकारी राज्य मानव अधिकारों में आस्था रखता है। वह आवश्यक रूप से मानव जीवन में हस्तक्षेप नहीं करता लेकिन आर्थिकता, निर्धनता, बीमारी तथा अन्य सामाजिक बुराईयों को दूर करने का प्रयत्न करता है। इस प्रकार अहस्तक्षेपी राज्य एक नकारात्मक राज्य हैं जो सुरक्षात्मक (पुलिस कार्य) करता है, जबकि लोक कल्याणकारी सकारात्मक राज्य हैं जो विकास कार्य करता है।

मैसूर नरसिहाचार श्रीनिवास – (1916 – 1999)

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
श्री.एम.एन. श्री निवास के समाजशास्त्रीय योगदान को दर्शाने वाले दो बिन्दु लिखिए।
उत्तर:
समाजशास्त्री पी.सी. जोशी ने लिखा है कि एम.एन.श्री निवास ने मनुवाद का विरोध किय तथा बड़ौदा विश्वविद्यालय क प्रमुख शिक्षाविद् प्रो.के.टी.शाह के इस प्रास्तव को ठुकरा दिया कि समाजशास्त्र मनु के धर्मशास्त्र का अध्ययन आवश्यक है। एम.एन.श्री निवास ने 1996 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘इंडियन सोसाइटी’ श्रू पर्सनल राइटिंग्स में यह स्पष्ट किया कि समाजशास्त्र के अंतर्गत सामाजिक प्रघटनाओं के विश्लेषण हेतु वैज्ञानिक पद्धति आवश्यक है।

एम.एन. श्रीनिवास ने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय विद्याशास्त्र तथा समाजशास्त्र को पर्यायवाची शब्द के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता है। भारतीय विद्याशास्त्र तथा समाजशास्त्र में बहुत अंतर है। उन्होंने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की कि समाजशास्त्रीय परिदृश्य में भारतीय विद्याशास्त्र को समाजशास्त्र के रूप में गहण करने की दोषपूर्ण प्रवृति रही है। एम.एन. श्री निवास ने यह भी स्पष्ट किया है कि सामजशास्त्रीय अध्ययन एवं अनुसंधान हेतु समाजशास्त्रियों को आम जनता के बीच जाना ही होगा। इस प्रकार उन्होंने क्षेत्रीय शोध कार्य के महत्व को रखांकित किया। पुस्तकों, अभिलेखों, पुरात्वों तथा अन्य संबंधित सामग्रियों का उपयोग द्वितीयक स्रोत के रूप में किया जा सकता है।

सामाजिक वास्तविक्ता एवं सामाजिक प्रघटनाओं के अध्ययन के लिए सुदूर नगरों तथा ग्रामीण क्षेत्रों में अध्ययन के आधार पर ही प्रामाणीक तथ्यों का विश्लेषण वैज्ञानिक औचित्य एवं वस्तुनिष्ठ पद्धतियों के आधार पर संभव है । इस प्रकार उन्होंने पुस्तकीय परिपेक्ष्य को विशेष महत्त्व प्रदान नहीं किया।

प्रश्न 2.
एम. एन. श्रीनिवास की प्रमुख कृतियाँ कौन सी हैं?
उत्तर:

  • ‘रिलीजन एंड सोसाइटी अमंग दि कुर्गस ऑफ साउथ इंडिया’ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, लंदन, 1952 ।
  • ‘मेथड इन सोशल एंथ्रोपॉलोजी’ यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो प्रेस, शिकागो, संपादित, 19581 ।
  • सोशल चेंज इन मॉडर्न इंडिया’ लॉस एंजिलल्स कैलीफोर्निया, 1996 ।
  • ‘कास्ट इन मॉडर्न इंडिया एंड अदर एशज’ मुम्बई एलाइड पब्लिशर्स, 1962 ।
  • ‘द रिमेम्बर्ड विलेज’, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1976 ।
  • ‘द डोमिनेण्ट कास्ट एंड अदर एशेज’ आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1987 ।
  • द कोहेसिव रोड ऑफ.संस्कृताइजेशन’ ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1989 ।
  • ऑन लिविंग इन ए रिवोल्यूशन एंड अदर एशेज’, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1992 1
  • इंडयन सोसाइटी श्रू पर्सलन राइटिंग्स’, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 19961 ।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
पाश्चात्यीकरण की अवधारणा की व्याख्या कीजिए?
उत्तर:
सामजशास्त्री डॉ. श्री निवास के पश्चिमीकरण की अवधारणा को लोकप्रिय बनाया है। पश्चिमीकरण के संदर्भ में उनका विचार है कि “पश्चिमीकरण शब्द अग्रेजों के शासन काल के 150 वर्षों से अधिक के परिणामस्वरूप भारतीय समाज व संस्कृति में होने वाले परिवर्तनों को व्यक्त करता है और इस शब्द में प्रौद्योगिकी संस्थाओं, विचारधारा, मूल्यों आदि के विभिन्न स्तरों में घटित होने वाले परिवर्तनों का समावेश रहता है।”

पश्चिमीकरण का तात्पर्य देश में उस भौतिक सामाजिक जीवन का विकास होता है जिसके अंकुर पश्चिमी धरती पर प्रकट हुए और पश्चिमी व यूरोपीय शक्तियों के विस्तार के साथ-साथ विश्व के विभिन्न कोनों में अविराम गति से बढ़ता गया। पश्चिमीकरण को आधुनिकीकरण भी कहते हैं लेकिन अनेक समस्याएँ होते हुए भी पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण के निए पश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से संपर्क होना आवश्यक है। पश्चिमीकरण एक तटस्थ प्रक्रिया है।

इसमें किसी संस्कृति के अच्छे या बुरे होने का अभास नहीं होता। भारत में पश्चिमीकरण के फलस्वरूप जाति प्रथा में पाये जाने वाले ऊँच-निच के भेद समाप्त हो रहे हैं। नगरीकरण ने जाति प्रथा पर सिधा प्रहार किया हैं। यातायात के साधनों के विकसित होने से, अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से सभी जातियों का रहन-सहन, खान-पान, रीति-रिवाज आदि एक जैसे हो गये है। महिलाओं की सामाजिक स्थिति में सुधार आ रहा है। भारतीय महिलाओ पर पाश्चात्य शिक्षा और संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा है। विवाह की संस्था में अब लचीलापन देखने को मिलता है । विवाह पद्धति में परिवर्तन आ रहे हैं बाल विवाह का बहिष्कार बढ़ रहा है। अन्तर्जातीय विवाह नगरों में बढ़ रहे है। संयुक्त परिवार प्रथा का पालन भी देखने को मिल रहा है। रीति-रिवाजों और खान-पान भी पश्चिमीकरण से प्रभावित हुआ है।

प्रश्न 2.
समाजशास्त्रीय शोध के लिए गांव को एक विषय के रूप में लेने पर एम.एन. श्री निवास तथा लुई ड्यूमों ने इसके पक्ष में क्या तर्क दिए हैं?
उत्तर:
लई ड्यूमों और एम.एन. श्री निवास दोनों ही भारतीय समाजशास्त्री हैं। दोनों ने ही अनेक विषयों पर समाजशास्त्रीय अन्वेषण किया है। दोनों ने ही ‘ग्राम’ पर भी अपने विचार प्रकट किए है। ‘ग्राम’ को समाजशास्त्रीय अन्वेषण का विषय बनाने के संदर्भ में दोनों ने निम्न तर्क प्रस्तुत किए है: ग्रामीण जीवन कृषि पर आधारति है कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें सारा ग्राम कृषि समुदाय एक-दूसरे पर निर्भर करता है। सभी लोग फसलों की बुआई, कटाई आदि में एक-दूसरे।

का सहयोग करते हैं। ग्रामीण जीवन में सरलता और मितव्ययता एक महत्त्वपूर्ण विशेषता है। ग्रामों में अपराध और पथभ्रष्ट व्यवहार जैसे चोरी, हत्या, दुराचार आदि बहुत कम होते हैं क्योंकि ग्रामीण में बहुत सहयोग होता है। वे भगवान से भय खाते हैं और परम्परावादी होते हैं ग्रामीण लोग नगरों की चकाचौंध और माह से कम प्रभावित होते हैं और साधारण जीवन व्यतीत करते हैं। उनके व्यवहार और कार्यकलाप गाँव की प्रथा, रूढ़ि, जनरीतियों आदि से संचालित होते हैं। उनकी इसी सहजता के कारण वे समाजशास्त्री अन्वेषण में बहुत सहयोग देते हैं।

प्रश्न 3.
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
समाजशास्त्री एम.एन. श्री निवास के अनुसार, “संस्कृतिकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा कोई निम्न हिन्दू जाति या कोई जनजाति अथवा अन्य समूह किसी उच्च और प्रायः द्विज जाति की दिशा में अपने रीति-रिवाज, धर्मकांड, विचारधारा और जीवन पद्धति को बदलता संस्कृतिकरण में नए विचारों और मूल्यों को ग्रहण किया जाता है। निम्न जातियाँ अपनी स्थिति को ऊपर उठाने के लिए ब्राह्माणों के तौर तरीकों को अपनाती हैं और अपवित्र समझे जाने वाले मांस मंदिरा के सेवन को त्याग देती हैं। इन कार्यों से ये निम्न जातियाँ स्थानीय अनुक्रम में ऊँचे स्थान की अधिकारी हो गई है। इस प्रकार संस्कृतिकरण नये और उत्तम विचार, आदर्श मूलय, आदत तथा कर्मकांडों को अपनी जीवन स्थित को ऊँचा और परिमार्जित बनाने की क्रिया. है।

संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में स्थिति में अपरिवर्तित होता है। इसमें संरचनात्मक परिवर्तन नहीं होता है। इसमें संरचनात्मक परिवर्तन नही होता। जाति व्यवस्था अपने आप नहीं बदलती। सस्कृतिकरण की प्रक्रिया जातियों में ही नहीं बल्कि जनजातियों और अन्य समूहों में भी पाई जाती है। भरतीय ग्रामीण समुदायों में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में प्रभुजाति की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। वे संस्कृतिकरण करने वाली जातियों के लिए संदर्भ भूमिका का कार्य करती है।

यदि किसी क्षेत्र में ब्रह्मणों प्रभु जाति है तो वह ब्राह्मणवादी विशेषताओं को फैला देगा। जब निचली जातियाँ ऊँची जातियों के विशिष्ट चरित्र को अपनाने लगती हैं तो उनका कड़ा विरोध होता है। कभी-कभी ग्रामों में इसके लिए झगड़े भी हो जाते हैं। संस्कृतिकरण की प्रक्रिया बहुत पहले से चली आ रही है। इसके लिए ब्राह्मणों का वैधीकरण आवश्यक था।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
समाज के स्तरीकरण में जाति का आधार स्पष्ट कीजिए?
उत्तर:
जाति एक ऐसे पदसोपानीकृत संबंध को बताती है जिसमें व्यक्ति जन्म लेते है तथा जिसमें व्यक्ति का स्थान, अधिकार का स्थान, अधिकार तथा कर्तव्य का निर्धारण होता है। व्यक्तिगत उपलब्धियाँ तथा गुण व्यक्ति की जाति में परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। जाति व्यवस्था वस्तुतः हिंदू सामजिक संगठन का आधार हैं।

प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री लुई ड्यूमों ने अपनी पुस्तक होमा हाइरारकीकस में जाति व्यवस्था का प्रमुख आधार शुद्धता तथा अशुद्धता की अवधारणा होता है । ड्यूमों ने पदसोपानक्रम को जाति व्यवस्था की विशेषता माना है।

प्रारंभ मे हिंदू समाज चार वर्गों में विभाजित था :

  • ब्राह्मण
  • क्षत्रिय
  • वैश्य तथा
  • शूद्र

शुद्धता तथा अशुद्धता के मापदंड पर ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च तथ शुद्र का निम्न होता है। वर्ण व्यवस्था मे पदानुक्रम क्षत्रियों का द्वितीय तथा वैश्य का तृतीय स्थान होता है। एम.एन.श्री निवास के अनुसार जिस प्रकार जाति व्यवस्था की इकाई कार्य करती है, उस संदर्भ में वह जाति है, वर्ण नहीं है हालांकि, जाति-व्यवस्था के लक्षणों को वर्ण व्यवस्था से ही लिया गया है लेकिन वर्तमान संदर्भ में जाति प्रारूप अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। एम.एन. श्रीनिवास ने जाति की परिभाषा करते हुए कहा है कि:

  • जाति वंशानुगत होती है।
  • जाति अंतः विवाही होती है।
  • जाति आमतौर पर स्थानीय समूह होती है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

Bihar Board Class 11 Political Science नागरिकता Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
राजनीतिक समुदाय की पूर्ण और समान सदस्यता के रूप में नागरिकता में अधिकार और दायित्व दोनों शामिल हैं। समकालीन लोकतान्त्रिक राज्य में नागरिक किन अधिकारों के उपभोग की अपेक्षा कर सकते हैं? नागरिकों के राज्य और अन्य नागरिकों के प्रति क्या दायित्व है?
उत्तर:
एक समय था जब सुविधाएँ, अधिकार और महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्व समाज के सीमित वर्ग के उन लोगों को दिए गए थे, जो इसके योग्य समझे जाते थे। इसका आधार जाति, आनुवंशिकता और सामाजिक, आर्थिक स्तर था। समाज के अन्य लोग अधिकार और आभार के अयोग्य समझे जाते थे। समाज पूर्ण रूप से पूरक होता था। अब सम्पूर्ण पर्यावरण में बदलाव आ गया है और कोई भी बढ़ती हुई गतिशीलता और आवागमन के साधनों के कारण समाज स्थिर नहीं है।

ऐसी स्थिति में नागरिकता के विचार का अर्थ बदल जाता है। अब नागरिकता अपने अर्थ, क्षेत्र और विस्तार की दृष्टि से विस्तृत अर्थ में स्वीकार किया जाता है। यह अनेक लोगों को नागरिकता प्रदान करती है, जिसमें जाति, रंग, सामाजिक-आर्थिक स्तर का ध्यान नहीं रखा जाता। इसमें अधिकारों और आभार के साथ राजनीतिक समुदाय को पूर्ण एवं समान सदस्यता दी जाती है। आधुनिक उदार प्रजातान्त्रिक व्यवस्थाओं में टी. एच. मार्शल (T. H. Marshal) के फार्मूला के अनुसार नागरिकों को अधिकार एवं कर्त्तव्य प्रदान किए गए हैं।

मार्शल ने तीन प्रकार के अधिकारों का उल्लेख किया है –

  1. नागरिक अधिकार
  2. राजनीतिक अधिकार
  3. सामाजिक अधिकार

1. नागरिक अधिकार:
ये अधिकार व्यक्ति के जीवन और स्वतन्त्रता से सम्बन्धित हैं।

2. राजनीतिक अधिकार:
ये अधिकार व्यक्ति को राजनीतिक प्रक्रिया और सरकार के कार्यों में शामिल होने की प्रेरणा देता है।

3. सामाजिक अधिकार:
ये अधिकार व्यक्ति के शैक्षिक उपलब्धि और रोजगार से सम्बन्धित हैं।

राज्य और सभी राजनीतिक समुदाय नागरिकों से कुछ कर्तव्यों एवं आभार की आशा करते हैं, जो सरकार के प्रजातान्त्रिक ढाँचे में शामिल हैं। यह कानून और व्यवस्था, नैतिकता, राष्ट्रीय सेवा और संस्कृति, ऐतिहासिक स्मारक और सामुदायिक समरसता का सुदृढ़ीकरण का संरक्षण आदि है।

Bihar Board Class 11th Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 2.
सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए तो जा सकते हैं लेकिन हो सकता है कि वे इन अधिकारों का प्रयोग समानता से न कर सकें। इस कथन की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अधिकांश समाज अधिक्रमिक व्यवस्था में संगठित हैं, जो लोगों की योग्यताओं और क्षमताओं पर आधारित होता है। यह उनके सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरण और मौलिक आवश्यकताओं और सुविधाओं की दृष्टि से भिन्न हो सकते हैं। नागरिकता के परिवर्तित और विस्तृत अवधारणा के अर्थ में और राजनीति के प्रजातान्त्रिक ढाँचे के दृष्टि से अधिक से अधिक लोगों को नागरिक के रूप में राज्य के गतिविधियों में शामिल किया जाता है।

नागरिक रूप में वे अनेक अधिकार कर्त्तव्य और सम्बन्धित नैतिक बन्धन के लिए अधिकृत हैं। सार्वजनिक नागरिकता में लोगों की सहभागिता और संलग्नता महत्त्वपूर्ण है। सभी नागरिकों को समान अधिकार और अवसर दिए जा सकते हैं परन्तु यह सामान्य प्रक्रिया नहीं है।

लोगों की विभिन्न समुदायों की विभिन्न आवश्यकताओं, समस्याएँ, योग्यताएँ और समताएँ हो सकती हैं, क्योंकि उनके सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय दशाएँ अलग होती हैं। विभिन्न समुदाय के नागरिकों के अधिकार दूसरे समुदाय के नागरिकों के अधिकारों के विरोधाभासी हो सकते हैं। समान अधिकार का तात्पर्य निश्चित नीति विभिन्न समुदायों के लिए नहीं होता।

लोगों को अधिक से अधिक समान बनाने के लिए लोगों के विभिन्न आवश्यकताओं और माँगों को भी ध्यान में रखना चाहिए। एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि सभी नागरिकों को समान अधिकार दिए जा सकते हैं परन्तु यह आवश्यक नहीं है कि सभी नागरिक इनका उपभोग समान रूप से कर सकते हैं। भारतीय संविधान ने सभी नागरिकों को समान मौलिक अधिकार प्रदान किए हैं परन्तु समाज के कुछ ही वर्ग अपनी क्षमताओं और योग्यताओं से इसका उपभोग करते हैं।

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प्रश्न 3.
भारत में नागरिक अधिकारों के लिए हाल के वर्षों में किए गए किन्हीं दो संघर्षों पर टिप्पणी लिखिए। इन संघर्षों में किन अधिकारों की माँग की गई थी?
उत्तर:
हाल के वर्षों में अनेक ऐसे संघर्ष नागरिकों के अधिकारों के उपभोग के लिए हुए हैं, जिनका उद्देश्य लोगों की आवश्यकताओं में परिवर्तन करना है। ये संघर्ष निम्नलिखित हैं –

  1. महिलाओं के आन्दोलन
  2. दलितों के आन्दोलन

1. महिलाओं के आन्दोलन:
यद्यपि भारत 15 अगस्त, 1947 ई. को आजाद हो गया था तथापि अधिकांश महिलाएँ अन्याय और भेदभाव की शिकार और आश्रित हैं। उन्हें पुरुष की अपेक्षा निम्न माना जाता है और किसी भी कार्य के योग्य नहीं समझा जाता है। ग्रामीण महिलाओं में चेतना आ गयी है और अपनी योग्यताओं और क्षमताओं को पहचानने लगी हैं।

फलस्वरूप महिला आन्दोलन का जन्म हुआ। इस आन्दोलन ने जनता और सरकार का ध्यान आकृष्ट किया, जिससे सरकार की नीतियाँ महिलाओं के पक्ष में बनायी गईं। अब महिलाओं के आन्दोलन के फलस्वरूप महिलाओं ने राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर लिया है। महिलाओं को शक्तिशाली बनाने और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए घोषणा हुई है। भारत में राष्ट्रीय महिला आयोग का निर्माण महिलाओं की उन्नति और उनकी सुरक्षा के लिए किया गया है।

दलित आन्दोलन:
दलित आन्दोलन शोषित वर्ग का एक अन्य आन्दोलन है। भारतीय समाज में इस वर्ग को दबाया गया था। यह आन्दोलन स्वतन्त्रता से पूर्व और बाद में भी हुआ। इस वर्ग का लम्बे समय तक शोषण किया गया और वे अन्याय के शिकार रहे। अनेक सामाजिक सुधारकों ने आन्दोलन शुरू किए, जिसने पूरे दृश्य को बदल दिया। सरकार ने दलितों की दशा सुधारने के लिए कई कदम उठाए।

उनके लिए सरकारी नौकरियों में, शिक्षा और चुनावों में उनके लिए सीट आरक्षित किया। इसके अलावा विधान सभा और सांसद के सीटों में भी इन्हें शामिल किया गया और आज समाज के अंग बन गयी हैं। समाज, राजनीति और प्रशासन में उनकी स्थिति
महत्त्वपूर्ण हो गयी है।

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प्रश्न 4.
शरणार्थियों की समस्याएँ क्या हैं? वैश्विक नागरिकता की अवधारणा किस प्रकार उनकी सहायता कर सकती है?
उत्तर:
शरणार्थी वे लोग होते हैं, जो राज्यविहीन होते हैं और दूसरे राज्य में निवास करने के लिए प्रयास करते हैं और अपनी बस्ती की खोज में रहते हैं। ये शरणार्थी (Refugees) या तो युद्ध के कारण अथवा राष्ट्रीय संकट जैसे-अकाल, बाढ़ आदि से राज्यरहित हो जाते हैं। समान्यतः लोग पड़ोसी देशों में शरणार्थी बन जाते हैं।

शरणार्थियों को अनेक प्रकार के सामाजिक, आर्थिक और मानवतावादी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यदि कोई राज्य उन्हें अपने यहाँ रखने के तैयार नहीं होता, वे अपने घर भी वापस नहीं जा सकते, क्योंकि वे प्रारम्भ से निवास रहित होते हैं। वे निवासरहित, राज्यरहित और अनिश्चितता में होते हैं। इसलिए कैम्प में गैर-कानूनी प्रवजन कर्ता के रूप में रहने के लिए विवश होते हैं।

बहुधा कानूनी तौर पर कार्य नहीं कर सकते हैं और बच्चों को शिक्षा नहीं दे सकते। उनके बच्चों का भविष्य अनिश्चित होता है। वे किसी सम्पत्ति को भी अपना नहीं सकते। उनकी समस्या इतनी गम्भीर है कि संयुक्त राष्ट्र (UNE) ने इनकी सहायता के लिए एक उच्च आयोग (High Commission) नियुक्त किया है। 1947 ई. में भारत विभाजन के समय हजारों लोग शरणार्थी बन गए। सभी शरणार्थियों को कोई भी राज्य अपने अन्दर समन्जित नहीं कर सकता। वस्तुतः इस समस्या का सामना केवल शरणार्थी ही नहीं कर रहे हैं अपितु सम्पूर्ण विश्व समुदाय इससे जूझ रही है।

वैश्विक नागरिकता का विचार निश्चित रूप से इस समस्या को हल कर सकता है चाहे यह पूर्ण रूप से या आंशिक रूप से हो। संचार के नये साधन जैसे इंटरनेट, दूरदर्शन और सेलफोन ने वैश्विक नागरिकता को पर्याप्त ग्रहणीय और अनुकूल बनाया है। वैश्विक नागरिकता के समर्थक तर्क देते हैं कि यद्यपि एक विश्व, समुदाय और वैश्विक समाज आज भी विद्यमान नहीं है, परन्तु लोग राष्ट्रीय सीमा के बाहर के लोगों से जुड़े हुए हैं। अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय के लोग विश्व के किसी भी भाग के प्राकृतिक आपदा के समय एक साथ हो जाते हैं। यह वैश्विक विचार को मजबूत करते हैं, जो आगे चलकर शरणार्थियों की समस्या को हल कर सकते हैं।

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प्रश्न 5.
देश के अन्दर एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में लोगों के अप्रवासन का आमतौर पर स्थानीय लोग विरोध करते हैं। प्रवासी लोग अर्थव्यवस्था में क्या योगदान दे सकते हैं?
उत्तर:
प्रवास की प्रक्रिया और फलस्वरूप शरणार्थियों की बढ़ती संख्या से अनेक समस्या उत्पन्न होती है, जिसकी प्रतिक्रिया स्थानीय लोगों में दिखाई देती है। स्थानीय लोग इन्हें अपना प्रतिद्वन्दी मानते हैं और इस प्रकार दोनों का विभाजन भीतरी और बाहरी (insiders & outsiders) के रूप में हो जाता है। बाहरी लोगों को अपने जीवन में खतरा दिखाई देता है।

इसी प्रकार की प्रवृतियाँ शहरी क्षेत्रों और यहाँ तक कि विभिन्न देशों में दिखाई देती हैं। फिलीस्तीनी लोग अब तक भी व्यवस्थित नहीं हैं। इसी प्रकार का विवाद श्रीलंका में है। स्थानीय लोग हरेक प्रकार का प्रयास बाहरी लोगों के प्रवेश को रोकने के लिए करते हैं। इस समस्या से जुड़े अनेक प्रकार के नारे भी प्रचलित हो गए हैं जैसे-मुम्बई, मुंबई वालों की है, हरियाणा, हरियाणवी के लिए है। उत्तर-दक्षिण का भी विवाद है। इस सन्दर्भ में भूमि-पुत्र का सिद्धान्त भी विकसित हुआ है।

भीतरी लोगों और बाहरी लोगों, स्थानीय और शरणार्थियों के मध्य विवाद के कारण सभी लोगों को पूर्ण और समान सदस्यता देने की आवश्यकता महसूस हुई है। इससे सम्बन्धित अनेक संघर्ष उत्तर-पूर्व राज्यों, मुम्बई और पंजाब में हुए हैं। देश की विभिन्न भागों में बिहार के लोग रोजगार की खोज में प्रवास किए हैं। ऐसे स्थानों पर उनके स्थानीय लोगों के मध्य संघर्ष हुए हैं। लोगों का राज्य के एक भाग से दूसरे भाग में रोजगार की खोज में प्रवास करना नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों पक्ष है।

प्रवास करने वाली के उस स्थान पर बाहरी एवं भीतरी लोगों में विभाजित हैं। उन्हें रोजगार एवं नागरिक सुविधाएँ जैसे–शिक्षा, स्वास्थ्य, जल और विद्युत्त के लिए धमकाया जाता है परन्तु सकारात्मक पहलू भी है। ऐसे प्रवासी लोग सामान्यतः कठोर परिश्रम करते हैं और उस राज्य की अर्थव्यवस्था में उपयोगी योगदान देते हैं, जहाँ वे बाहरी कार्यकर्ता के रूप में कार्य करते हैं। वे वहाँ मजदूर, श्रमिक और विशेषज्ञ कारीगर के रूप में कार्य करते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल के अकुशल श्रमिक हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश और पंजाब में काम करके अपनी जीविका चला रहे हैं, उनको अपने राज्य में रोजगार उपलब्ध नहीं हैं।

यहाँ तक कुछ लोग जीविका के लिए विदेश जाते हैं। कुशल श्रमिकों के लिए देश के विभिन्न भागों में बाजार विकसित हुए हैं। आई. टी. (प्रोफेशनल) अर्थात् कम्प्यूटर इंजीनियर बंगलोर में अच्छा कार्य कर रहे हैं, केरल की नसें देश के विभिन्न भागों में कार्य कर रही हैं। वे उपयोगी और कीमती सेवा मानव जाति की अपने राज्य की चिन्ता किए बिना कर रहीं हैं। मुम्बई में भवन और रोड के विकास में शिक्षित और अशिक्षित लोग कार्य कर रहे हैं। वे अपने लिए और अपने देश के लिए कार्य कर रहे हैं। हमारे देश के आवागमन का अधिकार संविधान से मिला हुआ है, जो अत्यन्त उपयोगी, सिद्ध हुआ है।

Bihar Board Class 11th Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 6.
भारत जैसे समान नागरिकता देने वाले देशों में भी लोकतान्त्रिक नागरिकता का एक पूर्ण स्थापित तथ्य नहीं वरन एक परियोजना है। नागरिकता से जुड़े उन मुद्दे की चर्चा कीजिए, जो आजकल भारत में उठाए जा रहे हैं?
उत्तर:
नागरिकता की आदर्श परिभाषा राजनैतिक समुदाय की पूर्ण एवं समान सदस्यता है। यह परिभाषा एक लोकतान्त्रिक राजनीतिक समुदाय में अधिकाधिक ऐच्छिक है। यह सन्तोष की बात है कि लोकतान्त्रिक नागरिकता अथवा पूर्ण और समान सदस्यता अधिक जागरुकता के साथ विश्व के अधिकांश देशों में हैं। हालाँकि इसकी अधिकांश पृष्ठभूमि अभी व्यवहार में नहीं है।

पूर्ण एवं समान नागरिकता के उद्देश्य को प्राप्त करना अभी दूर ही है। इसलिए यह ठीक ही कहा जाता है कि लोकतान्त्रिक नागरिकता का विचार अभी पूर्ण तथ्य की अपेक्षा एक परियोजना है। यहाँ तक कि लोकतान्त्रिक राजनीतिक समुदाय यथा भारत में भी अभी एक प्रयोग के रूप में है। भारत ने 59 वर्ष से अधिक लोकतान्त्रिक प्रक्रिया को निभाया है, जो वयस्क मताधिकार और लोगों की सहभागिता पर आधारित है।

भारतीय संविधान में आवश्यक लोकतान्त्रिक और समाविष्ट नागरिकता को अपनाया गया है। भारत में नागरिकता जन्म से, निवास से, पंजीकरण से और प्राकृतिकरण से प्राप्त की जा सकती है। नागरिकों के अधिकार एवं आभार को संविधान में उल्लेखित किया गया है। यह भी वर्णन है कि राज्य को नागरिकों के विरुद्ध भेदभाव नहीं करना चाहिए।

इस प्रकार के समाविष्ट अधिकार ऐच्छिक अधिकार को जन्म नहीं देते। महिला आन्दोलन और दलित आन्दोलन धनी और गरीब में गलतफहमी पैदा कर रहे हैं। ये सामाजिक समूह के पूरक या प्रभावी स्थिति को प्रकट करते हैं। सामाजिक परिवर्तन के रूप में नये मुद्दे निरन्तर उठाए जा रहे हैं और समूहों के द्वारा नई माँगें की जा रही है। वे अपने को तटस्थ मानने लगते हैं और समाज के मुख्य धारा से हटा दिए जाते हैं। प्रजातान्त्रिक राज्य में इन मांगों को सामाजिक एकता के लिए ध्यान में रखना चाहिए।

Bihar Board Class 11 Political Science नागरिकता Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
श्री अनिल अभी-अभी एक व्यस्त कारोबारी दौरे से लौटकर आए थे। अगले दिन उसका कार्यालय चुनाव के कारण बन्द था। उन्होंने पूरा दिन फिल्म देखने और सोने में बिताया। श्री अनिल रवैये में क्या गड़बड़ हैं? (Mr. Anil had just come from a busy business tour The next day the office was closed because of elections. He spent the whole day watching a film and sleeping. What is wrong with Mr. Anil’s attitude?)
उत्तर:
उदासीनता अर्थात् गलत रवैये (Wrong attitude) का पनपना या नागरिकता के प्रति अस्वस्थ दृष्टिकोण।

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प्रश्न 2.
पचास शब्दों के बीच भेद कीजिए। (Answer in about 50 words)
1. निम्नलिखित के बीच भेद कीजिए (Distinguish between)
(क) नागरिक और बाहरी व्यक्ति।
(ख) जन्मजात और देशीयकृत नागरिकता।
उत्तर:
(क) नागरिक और बाहरी व्यक्ति के भेद-नागरिक वह व्यक्ति है, जो किसी देश या राज्य का सदस्य होता है, वह उसके प्रति निष्ठावान होता है। वह नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों का उपयोग करता है। वह देश के शासन संचालन में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भाग लेता है। बाहरी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य राज्य (देश) में अस्थाई रूप में निवास किया जाता है। वह नागरिकों की भाँति राजनीतिक अधिकारों का उपयोग नहीं कर सकता और न ही देश के शासन (Administration) में भाग ले सकता है।

(ख) जन्मजात और देशीयकृत नागरिकता में भेद-जन्मजात नागरिक वह कहलाता है, जो किसी देश में पैदा या उसके माता-पिता उस देश के नागरिक होते हैं। देशीयकृत नागरिक वह होता है, जो किसी अन्य देश की नागरिकता कुछ आवश्यक शर्तों को पूर्ण करके प्राप्त करता है।

2. गोआ के लोग भारत के नागरिक कैसे बने? (How did the people of Goa become Indian citizens?)
उत्तर:
गोआ सन् 1961 ई. में पुर्तगाल से स्वतन्त्र होकर भारत का हिस्सा बन गया। अतः गोआवासी, भूमि अधिग्रहण अधिनियम के अन्तर्गत भारतीय बन गए।

3. यदि कोई व्यक्ति अपने देश से कई वर्षों तक बाहर रहे, तो क्या होगा? (What would happen if a person stayed away from his/her country for many years?)
उत्तर:
उस व्यक्ति को दीर्घकालीन अनुपस्थिति के कारण उसे अपने देश की नागरिकता खोनी पड़ेगी।

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प्रश्न 3.
नागरिकता से क्या अभिप्राय है? (What is ineant by citizenship?)
उत्तर:
नागरिकता (Citizenship):
नागरिकता नागरिक की वह विशेषता अथवा गुण है, जिसके कारण उसे राज्य से राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं वह राज्य का नागरिक कहलाता है।

प्रश्न 4.
नागरिक व विदेशी में क्या अन्तर है? (What is the difference between a citizen and a foreigner?)
उत्तर:
नागरिक तथा विदेशी में निम्नलिखित अन्तर हैं –

  1. नागरिक उस राज्य का स्थायी निवासी होता है और विदेशी दूसरे राज्य का होता है।
  2. दोनों के अधिकारों में भी भिन्नता होती है। नागरिकों को राजनीतिक व सामाजिक अधिकार प्राप्त होते हैं, विदेशियों को नहीं।
  3. अपने राज्य के प्रति वफादारी रखना नागरिक का कर्तव्य है परन्तु विदेशी अपने राज्य (जिसका वह नागरिक है) के प्रति वफादार होता है।
  4. युद्ध के समय विदेशियों को राज्य की सीमा से बाहर जाने के लिए कहा जा सकता है परन्तु नागरिकों को नहीं।
  5. नागरिक अपने राज्य की दीवानी तथा फौजदारी न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के अधीन होता है, जबकि विदेशी अस्थायी से निवास वाले राज्य के दीवानी, फौजदारी न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के अधीन होता है।

प्रश्न 5.
नागरिकता अधिनियम, 1955 का निम्नलिखित में से किससे सम्बन्ध है? (Which of the following does the Citizenship Act of 1955 deal with?)
(क) नागरिक की परिभाषा
(ख) बाहरी व्यक्ति की परिभाषा
(ग) बाहरी व्यक्तियों के अधिकार
(घ) नागरिकता की प्राप्ति तथा समाप्ति
उत्तर:
(घ) नागरिकता की प्राप्ति तथा समाप्ति

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प्रश्न 6.
निम्नलिखित में से कौन भारत में बाहरी व्यक्ति हैं?
(From the option give below, choose which of the following are aliens in India?)

  1. रीता जो भारत में जन्मे अपने पिता और फ्रांसीसी माँ के साथ रहती है।
  2. जानकी जो भारत में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए मारीशस से आई है।
  3. श्री विलियम बेकर जो आस्ट्रेलिया के उच्चायोग में विदेश सेवा के अधिकारी हैं।
  4. लखनऊ का रहने वाला एक लड़का खालिद आमीर, अमरिका में पढ़ाई कर रहा है।

उत्तर:
(2) – (3)

प्रश्न 7.
भारत की नागरिकता ग्रहण करने के गलत विकल्प को चुनिए। (Select the incorrect option of acquiring Indian citizenship)
(क) कोई एक भारतीय भाषा बोल सकता/सकती है।
(ख) कम से कम पाँच वर्ष तक भारत में रह चुका/चुकी है।
(ग) जिस देश का/की वह है, वहाँ की नागरिकता छोड़ चुका/चुकी है।
(घ) अच्छा वेतन अर्जित करने में सक्षम है।
उत्तर:
(घ) अच्छा वेतन अर्जित करने में सक्षम है।

प्रश्न 8.
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दीजिए। (Answer the following questions)
1. फिलिप टेलर का जन्म नई दिल्ली में हुआ था, उसके पिता एक अमेरिकी हैं, जो नई दिल्ली में अमेरिकी दूतावास में काम करते हैं। फिलिप किस देश का नागरिक होगा?
(Phillip Taylor was born in New Delhi. His fater is an American working at the American Embassy in New Delhi Which country’s citizenship would Philip have?)
उत्तर:
फिलिप के पास भारतीय या अमरिकी नागरिकता में से कोई एक चुनने का विकल्प है।

1. भारत के श्रीरामदीन को मलेशिया की न्यायपालिका में मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त किया गया है। क्या वे देशीकृत नागरिक बन सकते हैं। (Mr. Ram Deen of Indian has been appointed as a Magistrate in the Malay sian Judiciary. Can he become a naturalized citizen of the country?)
उत्तर:
हाँ, यदि किसी विदेशी को किसी सरकारी पद पर नियुक्त किया जाता है, तो वह उस देश की नागरिकता ग्रहण कर सकता है, जहाँ का वह लोकसेवक बना है।

2. पाकिस्तान का एक भाग, पूर्वी पाकिस्तान, 1971 ई. में मुक्त होकर स्वतन्त्र देश, बंगलादेश बन गया। भूतपूर्व पूर्वी पाकिस्तानियों की नागरिकता पर इसका क्या प्रभाव पड़ा? (In 1971, East Pakistan, a part of Pakistan, was liberated and became an independent country Bangladesh. How did this affect the citizenship of the former East Pakistanis?)
उत्तर:
उन्होंने बंगलादेश की नागरिकता ग्रहण कर ली।

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प्रश्न 9.
निम्नलिखित में से किसे अपनी भारतीय नागरिकता छोड़नी पड़ेगी? (Which of the following would have to surrender their Indian citizen ship?)
(क) ज्योत्सना सिंह, जिसे आस्ट्रेलिया में अध्ययन के लिए शोधवृत्ति मिली है।
(ख) जग्ग, जिसे डकैती डालते हुए पकड़ा गया।
(ग) राधिका, जो छुट्टियाँ मनाने स्वीडेन गई है।
(घ) सिद्धार्थ मेहता, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति का सलाहकार नियुक्त किया गया है।
उत्तर:
(घ) सिद्धार्थ मेहता, जिसे अमेरिकी राष्ट्रपति का सलाहकार नियुक्त किया गया है।

प्रश्न 10.
सही विकल्प चुनिए। (Choose the correct option) अर्थहीन प्रथाओं और अन्धविश्वासों को दूर किया जा सकता है। Meaningless social customs and superstitions can be removed by –
(क) अधिक शहरीकरण से
(ख) अधिक व्यक्तियों को रोजगार देने से
(ग) गरीबी दूर करके
(घ) शिक्षा के प्रसार से
उत्तर:
(घ) शिक्षा के प्रसार से

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
एक आदर्श नागरिक के गुणों का वर्णन कीजिए। (Describe the merits of a good citizen)
उत्तर:
1. सुशिक्षित (Educated):
सुशिक्षित होना आदर्श नागरिक के लिए परमावश्यक है। शिक्षा के अभाव में वह अपने अधिकारों एवं कर्त्तव्यों को नहीं समझ सकता। अतः प्रजातन्त्र की सफलता के लिए अच्छे नागरिकों का सुशिक्षित होना आवश्यक है।

2. स्वस्थ (Healthy):
एक आदर्श नागरिक का स्वस्थ होना आवश्यक है। स्वस्थ नागरिक ही देश व समाज की भली-भाँति सेवा कर सकता है।

3. मताधिकार का उचित प्रयोग (Proper use of vote):
आदर्श नागरिक अपने मताधिकार का सही प्रयोग कर सकता है और अपना मूल्यवान वोट योग्य, शिक्षित, नि:स्वार्थ एवं देशभक्त को दे सकता है।

4. अधिकारों तथा कर्तव्यों का ज्ञान (Awaknes about theirrights and duties):
एक आदर्श नागरिक अपने अधिकारों एवं कर्तव्यों का प्रयोग ठीक से करता है।

5. देशभक्त (Patriot):
एक आदर्श नागरिक को देशभक्त होना चाहिए। देश के प्रति स्वाभाविक अनुराग होना चाहिए।

6. परिश्रमी (Hardworkers):
एक अच्छे नागरिक को परिश्रमी एवं फुर्तीला होना चाहिए, जिससे वह सफलतापूर्वक सामाजिक कार्य कर सके।

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प्रश्न 2.
आधुनिक राज्य अपने नागरिकों को कौन-कौन से राजनैतिक अधिकार प्रदान करते हैं? (Which type of political rights are given to the citizens by the Modern States?)
उत्तर:
आधुनिक युग में अधिकतर देश प्रजातन्त्रीय हैं। ये देश अपने नागरिकों को बहुत से राजनीतिक अधिकार प्रदान करते हैं। उनमें से प्रमुख निम्नलिखित हैं –

1. मतदान का अधिकार (Right to Vote):
जिन देशों में प्रजातन्त्रात्मक शासन की स्थापना की जाती है, उनमें वहाँ के वयस्क नागरिकों को मतदान का अधिकार प्रदान किया जाता है। इस अधिकार के अनुसार लोग समय-समय पर होने वाले चुनावों के द्वारा अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। जनता के प्रतिनिधि ही सरकार का निर्माण करते हैं और शासन चलाते हैं।

2. चुनाव लड़ने का अधिकार (Right to Contest Election):
प्रजातन्त्रीय शासन में, प्रत्येक व्यक्ति जो यह समझता है कि उसके सहयोगी उसे अपना प्रतिनिधि चुनना चाहते हैं, उसे निर्वाचन में खड़ा होने का अधिकार है। निर्वाचित होने के बाद व्यक्ति नागरिकों के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का निर्माण करते हैं।

3. सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार (Right to hold public office):
आधुनिक युग में नागरिकों को बिना किसी भेदभाव के सरकारी नौकरियाँ पाने का अधिकार है।

4. कानून के समक्ष समानता का अधिकार (Right to equality before Law):
आधुनिक राज्यों में नागरिकों को कानून के सम्मुख समानता का अधिकार प्रदान किया जाता है।

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प्रश्न 3.
किसी राज्य की नागरिकता के लिए आवश्यक शर्ते क्या हैं? (What are the essential conditions for the citizenship of a state?)
उत्तर:
नागरिकता के लिए चार चीजों की आवश्यकता होती है –
1. राज्य की सदस्यता-वर्तमान में प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी राज्य का सदस्य अवश्य होता है। राज्य की सदस्यता ही व्यक्ति को उस राज्य की नागरिकता दिलाती है और वह उक्त समाज का अंग बन जाता है।

2. राज्य के प्रति भक्ति-राज्य के प्रति भक्ति होना अत्यन्त आवश्यक है। 1999 ई. में जब पाकिस्तान के कारगिल में सैनिकों ने घुसपैठ की तो सारे भारत में विरोध के बदले की भावना उत्पन्न हुई तथा जनवरी 2001 ई. में गुजरात में जब भूकम्प से जान व माल को नुकसान हुआ, तो भारतीयों में सहयोग की भावना उत्पन्न हुई। यह समाज के प्रति भक्ति का अच्छा उदाहरण है।

3. नागरिक, राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकारों की प्राप्ति-किसी राज्य का नागरिक किसी व्यक्ति को उसी दशा में कहा जा सकता है, जबकि उसे राज्य की ओर से नागरिक, राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकार प्राप्त हों। प्रारम्भ से आज तक किसी न किसी रूप में राज्य ने अपने नागरिकों को ये अधिकार प्रदान किए हैं।

4. कर्तव्य-पालन-राजनीतिक तथा सामाजिक अधिकारों की प्राप्ति के बदले में नागरिक में कर्तव्य पालन की भावना होना आवश्यक है। नागरिक को चाहिए कि वह राज्य के प्रति अपने कर्तव्यों को अवश्य पूरा करे तथा राज्य की सुरक्षा, उन्नति एवं विकास में सभी प्रकार का सहयोग प्रदान करें।

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प्रश्न 4.
नागरिकता ग्रहण करने के कौन-कौन से तरीके हैं? (What are the different ways of acquiring citizenship?)
उत्तर:
नागरिकता ग्रहण करने के तरीके निम्नलिखित हैं –

  1. विवाह-कोई विदेशी स्त्री भारतीय पुरुष से विवाह करने के बाद भारत की नागरिकता ग्रहण कर सकती है। जापान में नागरिकता कानून भिन्न हैं। यदि कोई जापानी स्त्री भारतीय या किसी अन्य राष्ट्र के पुरुष से विवाह करती है, तो वह व्यक्ति जापान की नागरिकता ग्रहण कर सकता है।
  2. सरकारी पद पर कर्मचारी या अधिकारी के रूप में नियुक्ति-यदि किसी विदेशी को किसी सरकारी पद पर नियुक्त किया जाता है, तो वह उस देश की नागरिकता ग्रहण कर सकता/सकती है, जहाँ का वह लोक सेवक बना/बनी है।
  3. अचल संपत्ति की खरीद या क्रय करके-कुछ देशों में यदि किसी व्यक्ति को अचल संपत्ति जैसे घर या जमीन खरीदने का अनुमति है, तो वह नागरिकता भी ग्रहण कर सकता/सकती है।
  4. भूमि का अधिग्रहण-यदि किसी देश की भूमि अन्य देशों के द्वारा अधिग्रहीत कर ली जाती है, तो उस क्षेत्र के सभी निवासी उस देश के नागरिक बन जाते हैं।

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प्रश्न 5.
किसी नागरिक की नागरिकता कैसे समाप्त हो सकती है? (How can a citizen lose her/his citizenship?)
उत्तर:

  1. देशद्रोह या निरन्तर विद्रोही गतिविधियाँ-यदि कोई नागरिक देश के साथ गद्दारी करते हुए संविधान का अनादर करे तथा देश की शान्ति और व्यवस्था को लगातार भंग करे तो उसे देश की नागरिकता से वंचित किया जा सकता है।
  2. किसी भू-भाग के पृथक होने पर-यदि देश का कोई हिस्सा किसी समझौते या संधि द्वारा अलग हो जाए, तो वहाँ के सभी नागरिक दूसरे देश की नागरिकता प्राप्त करेंगे, व उन्हें पहले देश की नागरिकता छोड़नी होगी।
  3. विदेशी में सरकारी अधिकारी के रूप में नियुक्त-जब कोई व्यक्ति किसी विदेशी सरकार की सेवा में पद ग्रहण करता है, तो उसकी मूल नागरिकता समाप्त हो सकती है।
  4. विदेश सेना, नौसेना या वायुसेना में सेवा-रक्षा सेवाएँ किसी देश के संवेदनशील अंग होते हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे देश की रक्षा सेवाओं में पद ग्रहण करता है, तो उसकी मूल नागरिकता समाप्त हो सकती है।
  5. विदेशी से विवाह-यह नागरिकता समाप्त होने के सबसे प्रचलित कारणों में से एक है। यदि कोई भारतीय स्त्री किसी विदेशी से विवाह करती है, तो वह भारतीय नागरिकता छोड़कर अपने पति के देश की नागरिकता ग्रहण कर सकती है।
  6. विदेश में स्थायी निवास-यदि कोई भारतीय किसी अन्य देश में जाकर रहने लगे, तब वह अपने देश की नागरिकता खो देता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
एक नागरिक के तीन प्रमुख कर्त्तव्यों की व्याख्या करें। (Explain three primary duties of a citizen)
उत्तर:
कर्त्तव्य का अर्थ (Meaning of Duty):
साधारण शब्दों में किसी काम को करने या न करने के दायित्वों को कर्तव्य कहते हैं। कर्त्तव्य सकारात्मक या नकारात्मक कार्य है, जो व्यक्ति को दूसरों के लिए करना पड़ता है, चाहे उसकी इच्छा उस कार्य को करने की हो या न हो। संक्षेप में, कर्त्तव्य कुछ ऐसी निश्चित और अवश्य किए जाने वाले कार्यों को कहते हैं, जो कि सभ्य समाज और राज्य में रहते हुए व्यक्ति को प्राप्त किए गए अधिकारों के बदले में करने पड़ते हैं।

नागरिकों के कानूनी कर्तव्य (Legal Duties of the Citizens):
ऐसे कर्तव्य जिनको करने के लिए प्रत्येक नागरिक बाध्य होता है, कानूनी कर्त्तव्य कहलाते हैं, जो व्यक्ति कानूनी कर्तव्यों का पालन नहीं करता, राज्य उन्हें दण्ड दे सकता है। देश के प्रति वफादार रहना, सैनिक सेवा कर देना इत्यादि नागरिकों के कानूनी कर्त्तव्यों की श्रेणी में आते हैं।

1. राज्य के प्रति वफादारी (Loyalty towards the State):
राज्य प्रत्येक नागरिक को अनेक प्रकार के अधिकार प्रदान करता है व कई प्रकार की सुख-सुविधाएँ भी प्रदान करता है। राज्य अपने नागरिकों की बाहरी आक्रमणों से तथा प्राकृतिक विपत्तियों से भी रक्षा करता है और उनके विकास के लिए प्रयत्नशील रहता है। अतः प्रत्येक व्यक्ति से राज्य के प्रति निष्ठा व भक्ति की आशा की जाती है। प्रत्येक नागरिक का यह कानूनी कर्तव्य है कि वह देशद्रोह न करे और देश पर आए संकट के समय अपना तन-मन-धन न्यौछावर करने को तैयार रहे।

2. कानूनों का पालन करना (Obedience of Laws):
कानून-पालन की भावना से राज्यों में शान्ति व व्यवस्था व्यवस्थित हो सकती है। आजकल के प्रजातान्त्रिक देशों में कानूनों का निर्माण जनता के प्रतिनिधि करते हैं। जिस देश में नागरिकों की प्रकृति कानूनों का उल्लंघन करने की होती है, उस देश में शान्ति व व्यवस्था विद्यमान नहीं रहती। अतः कानूनों का पालन करना प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है।

3. टैक्स देना (Payment of taxes):
सरकार को अपने कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है। सरकार धन की प्राप्ति कर लगाकर करती है। अत: नागरिकों का यह कानूनी कर्त्तव्य है कि वे अपने हिस्से के करों को ईमानदारी से चुकाएँ। करों को ईमानदारी से न चुकाने पर राज्य द्वारा दण्ड भी दिया जा सकता है।

4. राजनीतिक अधिकारों का उचित प्रयोग करना (Proper use of the Political Rights):
प्रजातन्त्रीय शासन में नागरिकों को बहुत से राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। उनमें से प्रमुख हैं-मत देने का अधिकार, निर्वाचित होने का अधिकार व सरकारी नौकरी प्राप्त करने का अधिकार। प्रत्येक अधिकार का यह कानूनी कर्त्तव्य है कि वह अपने मत का सदुपयोग करे और किसी अच्छे उम्मीदवार को ही देश का शासन चलाने के लिए अपना प्रतिनिधि चुने। इसके साथ-साथ अपने निर्वाचित होने के अधिकार का भी ईमानदारी से प्रयोग करे।

5. सैनिक सेवा में भाग लेना (To take in defence service):
नागरिकों का यह भी कर्तव्य है कि आवश्यकता पड़ने पर देश की सुरक्षा हेतु सेना में भर्ती हो।

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प्रश्न 2.
लोकतन्त्र में नागरिक की भूमिका की व्याख्या कीजिए। (Explain the role of a citizen in a democracy)
उत्तर:
लोकतन्त्र में नागरिक की भूमिका –
1. लोकतन्त्र लोगों की, लागों द्वारा तथा लोगों के लिए कार्य करने वाली सरकार है। आजकल राज्यों का आकार (जनसंख्या तथा क्षेत्रफल की दृष्टि से) बहुत बड़ा है। नागरिक समय-समय पर मतदान में भाग लेकर, चुनाव लड़कर या अपने दल गठन करने एवं चुनाव के बाद उसके कार्यों में रुचि लेकर एवं सहयोग देकर अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं।

2. अपने कर्तव्यों का पालन करके तथा दायित्वों का निर्वाह करके-लोकतन्त्र में हर नागरिक अपने कार्यों तथा दायित्वों की जिम्मेदारी निष्ठा से निभा कर लोकतन्त्रीय सरकार में योगदान देते हैं या अपनी भूमिका का निर्वाह करते हैं।

3. अनुशासनबद्धता का पालन एवं सार्वजनिक सम्पत्ति की रक्षा करके-नागरिक लोकतन्त्र की सफलता के लिए शान्ति तथा अनुशासन को जरूरी मानते हैं। वे कानून को अपने हाथ में नहीं लेते तथा अपने विचारों को समाचार-पत्रों, टेलीविजन, रेडियो, सभाओं, प्रदर्शनों द्वारा अभिव्यक्त करते हैं। वे सार्वजनिक सम्पत्ति तथा राष्ट्रीय विरासत की रक्षा में भाग लेते हैं।

4. शिक्षा प्राप्त करना तथा संकीर्ण भावनाओं में न बहना-लोकतन्त्र में नागरिक शिक्षा प्राप्त करके तथा ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया को जीवन भर जारी रखते हैं तथा सदैव ही स्वयं को तंग दृष्टिकोण जैसे-जातिवाद, साम्प्रदायिकता, संकीर्ण भाषायी नजरिया, क्षेत्रवाद से बचा कर रखते हैं, क्योंकि वे मानते और जानते हैं कि संकीर्ण भावनाएँ लोकतन्त्र की सफलता की राह में बहुत ही शक्तिशाली अवरोधक (Hindrances) हैं।

5. कर भुगतान तथा उच्च नैतिक मूल्यों को बनाए रखना-लोकतन्त्र में नागरिक प्रायः ईमानदारी के साथ नियमित रूप से कर चुकाते हैं। अपने कर्तव्यों को वे निष्ठापूर्वक रहकर निभाते हैं। वे उच्च नैतिक चरित्र का पालन करते हैं। हर सार्वजनिक गतिविधि की जानकारी रखते हैं। बुरे कानूनों का शान्तिपूर्ण उपायों से विरोध करते हैं। वे देशभक्त होते हैं तथा अपने देश को अपने निजी स्वार्थों से.ऊपर रखते हैं।

Bihar Board Class 11th Political Science Solutions Chapter 6 नागरिकता

प्रश्न 3.
‘नागरिक’ शब्द का अर्थ स्पष्ट कीजिए। भारतीय संविधान नागरिकों के बारे में क्या कहता है? भारत की नागरिकता ग्रहण करने की पाँच पद्धतियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
(क) नागरिक शब्द का अर्थ-नागरिक वह व्यक्ति है, जो किसी राज्य का सदस्य होता है, वह देश के प्रति निष्ठावान होता है, उसे नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्राप्त होते हैं और वह देश के शासन में भागीदारी करता है।

(ख) भारत का संविधान एवं नागरिक-भारत का संविधान कहता है कि निम्नलिखित व्यक्ति संविधान लागू होने के साथ ही भारत का नागरिक बन जाता है –

  • भारत के क्षेत्र में जन्मा कोई भी व्यक्ति।
  • भारत में निवास कर रहा व्यक्ति या जिसके माता-पिता का जन्म भारत में हुआ हो।
  • कोई व्यक्ति जिसके माता-पिता भारत में नहीं जन्मे किन्तु वे संविधान लागू होने के कम से कम पाँच वर्ष पहले से भारत में रह रहे हों।

(ग) भारत की नागरिकता ग्रहण करने की पाँच पद्धतियाँ निम्न हैं –

  • जन्म के आधार पर नागरिकता-भारत में जन्मा हर व्यक्ति जन्म से भारत का नागरिक होगा।
  • वंशानुगत आधार पर नागरिकता-किसी व्यक्ति का जन्म भारत के बाहर हुआ है पर यदि उसके पिता उसके जन्म के समय भारत के नागरिक हैं, तो वह वंशानुगत आधार पर भारत का नागरिक होगा या होगी।
  • पंजीकरण द्वारा नागरिकता-व्यक्तियों के कुछ वर्ग जिन्हें भारतीय नागरिकता प्राप्त नहीं है, निर्धारित अधिकारियों के समक्ष पंजीकरण करवा कर इसे ग्रहण कर सकते हैं। उदाहरण के लिए भारत के किसी नागरिक से विवाहित कोई स्त्री अपना पंजीकरण करवा कर भारतीय नागरिकता ग्रहण कर सकती है।
  • देशीयकरणं के आधार पर नागरिकता-कोई विदेशी व्यक्ति भारत सरकार को देशीयकरण के लिए आवेदन करके भारत की नागरिकता ग्रहण कर सकता है। देशीयकरण का अर्थ है कुछ शर्तों का पालन करके किसी देश की नागरिकता लेना।
  • क्षेत्र के समावेशन के आधार पर नागरिकता-यदि कोई क्षेत्र भारत का भाग बन जाता है, तो भारत सरकार उस क्षेत्र के लोगों को नागरिकता दे देगी।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
नागरिकता निर्धारण का एक कौन-सा तरीका सही नहीं है?
(क) रक्त सम्बन्ध
(ख) जन्मस्थान
(ग) द्वैद्य सिद्धान्त
(घ) पारिवारिक सम्बन्ध
उत्तर:
(घ) पारिवारिक सम्बन्ध

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 समाजशास्त्र : अनुसंधान पद्धतियाँ

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 समाजशास्त्र : अनुसंधान पद्धतियाँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 समाजशास्त्र : अनुसंधान पद्धतियाँ

Bihar Board Class 11 Sociology समाजशास्त्र : अनुसंधान पद्धतियाँ Additional Important Questions and Answers

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 5 समाजशास्त्र : अनुसंधान पद्धतियाँ

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक विज्ञान में विशेषकर समाजशास्त्र जैसे विषय में ‘वस्तुनिष्ठता’ के अधिक जटिल होने का क्या कारण है?
उत्तर:
प्रतिदिन की बोलचाल की भाषा में ‘वस्तुनिष्ठता’ का आशय पूर्वाग्रह रहित, तटस्थ या केवल तथ्यों पर आधारित होता है। किसी भी वस्तु के बारे में वस्तुनिष्ठ होने के लिए, हमें वस्तु के बारे में अपनी भावनाओं या प्रवृत्तियों को अनदेखा करना चाहिए। सामाजिक विज्ञान और समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठता की अधिक जटिलता का कारण ‘व्यक्तिपरकता’ है। इसमें व्यक्ति पूर्वाग्रह से ग्रस्त रहता है और परिणाम स्पष्ट नहीं आते हैं।

प्रश्न 2.
सर्वेक्षण का अर्थ बताइए।
उत्तर:
सर्वेक्षण विधि का अर्थ : सर्वेक्षण विधि का प्रयोग सामाजिक विज्ञानों में गणनात्मक अध्ययन के लिए किया जाता है। अध्ययनकर्ता के द्वारा अध्ययन की समस्या के अनुसार व्यक्तियों से सुनियोजित एवं क्रमबद्ध रूप से प्रश्न पूछे जाते हैं । मोर्स के अनुसार, “संक्षेप में, सर्वेक्षण किसी सामाजिक स्थिति या समस्या अथवा जनसंख्या के परिभाषित उद्देश्यों के लिए वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित रूप से विश्लेषण की एक पद्धति है।”

सर्वेक्षण पद्धति की निम्नलिखित चार प्रमुख प्रक्रियाएँ हैं –

  • सर्वेक्षण का नियोजन
  • आँकड़ों का एकत्रीकरण
  • आँकड़ों का विश्लेषण तथा विवेचन
  • आँकड़ों का प्रस्तुतीकरण।

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प्रश्न 3.
वैज्ञानिक पद्धति का प्रश्न विशेषताः समाजशास्त्र में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
अन्य सभी वैज्ञानिक विषयों की तरह समाजशास्र में भी पद्धतियाँ प्रक्रियाएँ महत्पूर्ण हैं जिसके द्वारा ज्ञान एकत्रित होता है। अंतिम विश्लेषण में सभी समाजशास्त्री एक आम आदमी से अलग होने का दावा कर सकते हैं। इसका कारण यह नहीं है कि वे कितना जानते हैं या वे क्या जानते हैं, परन्तु इसका कारण है कि वे किस ज्ञान को प्राप्त करते हैं? यही एक कारण है कि समाजशास्र में वैज्ञानिक पद्धति का विशेष महत्व है।

प्रश्न 4.
सहभागी प्रेक्षण के दौरान समाजशास्त्री और नृजाति विज्ञानी क्या करते हैं?
उत्तर:
सहभागी प्रेक्षण विधि के अंतर्गत समाजशास्त्री और नृजाति विज्ञान अनुसंधानकर्ता स्वयं भूमिका का संपादन करता है अथवा वह अध्ययन की स्थिति में स्वयं हिस्सा लेता है। प्रतिभागी प्रेक्षण आँकड़े एकत्र करने की एक प्रविधि है। इसमें समाजशास्त्री और नृवंश विधानशास्री अध्ययन किए जाने वाले व्यक्तियों के व्यवहारों को बिना प्रभावित किए उनकी गतिविधियों में भाग लेता है । चूँकि इसमें अनुसंधाकर्ता स्वयं भाग लेता है अत: इसके निष्कर्ष में इसके (अनुसंधानकर्ता संवेगात्मक रूप से संबंद्ध होने का भय बना रहता है।

प्रश्न 5.
“प्रतिबिंबता’ का क्या तात्पर्य है तथा समाजशास्त्र में क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
‘प्रतिबिंबता का तात्पर्य है-एक अनुसंधानकर्ता की वह क्षमता जिसमें वह स्वयं को अवलोकन और विश्लेषण करता है। समाजशास्त्र में अनुसंधानकर्ता प्रतिबिंबित होने के पश्चात् पूर्वाग्रहों से ग्रस्त नहीं रहता जिस कारण परिणाम सदैव सटीक आते हैं।

प्रश्न 6.
असहभागी अवलोकन का अर्थ बताइए।
उत्तर:
असहभागी अवलोकन का अर्थ-असहभागी अवलोकन के अंतर्गत अवलोकनकर्ता जिस समूह का अध्ययन करता है, वह उससे पृथक् अथवा असम्बद्ध रहता है। समूह के लोगों को साधारणतया इस बात की जानकारी नहीं होती है कि उनका अवलोकन किया जा रहा है हमेरस्ले तथा अकिंसन के अनुसार, “इस अपरिचित स्थिति को अनुसंधानकर्ता केवल देखकर तथा सुनकर ही समझ पाता है तथा इसी से (देखकर, सुनकर) वह उस समूह की संरचना तथा संस्कृति को भी समझता है। असहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता अवलोकित व्यक्तियों की गतिविधियों में भागीदारी अथवा हस्तक्षेप नहीं करता है।

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प्रश्न 7.
प्रविधियों की परिभाषा दीजिए तथा इसकी विशेषताएँ बताइये।
उत्तर:
प्रविधियों की परिभाषा-समाज विज्ञानों में वास्तविक तथ्यों तथा संरचनाओं के एकत्रीकरण हेतु कुछ विशेष तरीकों का प्रयोग करना पड़ता है, इन्हें प्रविधि कहा जाता है। मोजर के अनुसार, “प्रविधियाँ एक समाज वैज्ञानिक के लिए वे मान्य तथा सुव्यवस्थित तरीके होते हैं, जिन्हें वह अपने अध्ययन में संबंधित विश्वसनीय तथ्यों को प्राप्त करने हेतु प्रयोग में लाता है।”

प्रविधियों की विशेषताएँ –

  • प्रविधियों के द्वारा संबंधित वस्तुपरक तथा विश्वसनीय तथ्यों को वैज्ञानिक तरीके से एकत्रित किया जाता है।
  • प्रविधियों का चुनाव अनुसंधान की प्रकृति के अनुसार किया जाता है।
  • प्रविधियों का प्रयोग तर्कसंगत तरीके से किया जाता है।

प्रश्न 8.
निदर्शन सर्वेक्षण अथवा प्रतिदर्श का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
निदर्शन सर्वेक्षण अथवा प्रतिदर्श का अर्थ-निदर्शन सर्वेक्षण अथवा प्रतिदर्श के अंतर्गत अध्ययन किए जाने वाले समस्त व्यक्तियों से प्रश्न नहीं पूछे जाते हैं। इसके अंतर्गत जिन इकाइयों का अध्ययन किया जाता है, उनका चयन समग्र से सावधानीपवूक किया जाता है। चयन में इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि निदर्शन सर्वेक्षण में सम्मिलित समस्त व्यक्ति जनसमुदाय की विशेषताओं के प्रतिनिधि हों।

उदाहरण के लिए जब हम दाल पकाते हैं तो एक अथवा दो दानों की जाँच करके यह बता देते हैं कि दाल पक गई अथवा नहीं। इस प्रकार एक या दो पके दाल के दोन संपूर्ण पकी दाल के प्रतिनिधि बन जाते हैं। निदर्शन सर्वेक्षण का प्रयोग वर्तमान समय से सभी सामाजिक विज्ञानों में हो रहा है। राष्ट्रीय स्तर पर नेशनल सेम्पल सर्वे विकास योजनाओं का अध्ययन निदर्शन सर्वेक्षण द्वारा करता है।

प्रश्न 9.
एक प्रविधि के रूप में अवलोकन की सीमाएँ बताइए।
उत्तर:
एक प्रविधि के रूप में अवलोकन की निम्नलिखित सीमाएँ हैं –

  • किसी घटना विशेष के बारे में पूर्वानुमान काफी कठिन कार्य है।
  • किसी घटना विशेष की अवधि के बारे में कोई निश्चित जानकारी नहीं होती है।।
  • अवलोकन प्रविधि के माध्यम से एकत्रित सामग्री को परिमाणीकत नहीं किया जा सकता है।
  • अवलोकन प्रविधि अपेक्षाकृत एक व्ययपूर्ण प्रविधि है।
  • अवलोकन की प्रविधि में विश्वसनीयता तथा वैधता की समस्याएँ आती है।

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प्रश्न 10.
प्रश्नावली प्रविधि के मुख्य लाभ बताइए।
उत्तर:
प्रश्नावली प्रविधि के प्रमुख लाभ निम्नलिखित है।

  • प्रश्नावली प्रविधि अपेक्षाकृत कम खर्चीली है।
  • प्रश्नावली प्रविधि के द्वारा प्रशासकीय समय की भी बचत होती है।
  • प्रश्नावलियाँ एक ही समय में डाक द्वारा सूचनादाताओं के पास भेजी जा सकती हैं।
  • प्रश्नावली प्रविधि की सहायता से एक विस्तृत क्षेत्र से सूचनाएँ एकत्रित की जा सकती हैं।

लुंडबर्ग के अनुसार, “मूल रूप से, प्रश्नावली प्रेरणाओं का एक समूह है, जिसके प्रति शिक्षित व्यक्ति उत्तेजित किए जाते हैं तथा इन उत्तेजनाओं के अंतर्गत वे अपने व्यवहार का वर्णन करते हैं।”

प्रश्न 11.
प्रश्नावली प्रविधि का अर्थ तथा प्रकार बताइए।
उत्तर:
(i) प्रश्नावली प्रविधि का अर्थ – प्रश्नावली प्रविधि के अंतर्गत क्रमब तरीके से प्रश्न पूछे जाते हैं तथा आवश्यक आकड़े एकत्रित किए जाते हैं। इस प्रकार क्रमबद्ध तरीके से तैयार किए गए प्रश्नों के सूचीक्रम को प्रश्नावली अथवा साक्षात्कार तालिका कहते हैं। जे0 डी0 पोप के अनुसार, “एक प्रश्नावली को प्रश्नों के समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।” सूचनादाता को बिना एक अनुसंधानकर्ता या प्रगणक की व्यक्तिगत सहायता के उत्तर देना होता है। साधारणतया, प्रशनावली डाक द्वारा भेजी जाती है, लेकिन इसे व्यक्तियों को बाँटा भी जा सकता है। प्रत्येक स्थिति में यह सूचना प्रदान करने वाले द्वारा भरकर भेजी जाती है।

(ii) प्रश्नावली के प्रकार : प्रश्नावली के प्रमुख निम्नलिखित है।

  • स्तरीय प्रश्नावली
  • खुली अथवा अप्रतिबंधित प्रश्नावली
  • बंद अथवा प्रतिबंधित प्रश्नावली
  • चित्रित प्रश्नावली तथा
  • मिश्रित प्रश्नावली

प्रश्न 12.
वैज्ञानिक पद्धति क्या है?
उत्तर:
वैज्ञानिक पद्धति उस पद्धति को कहते हैं जिसमें अध्ययनकर्ता निष्पक्ष ढंग से किसी विषय समस्या या घटना का वर्णन करता है। वैज्ञानिक पद्धति तथ्यों का व्यवस्थित अवलोकन, वर्गीकरण तथा व्याख्या करता है। इतना ही नहीं बल्कि वैज्ञानिक पद्धति एक सामूहिक शब्द है जो अनेक प्रक्रियाओं को व्यक्त करता है तथा जिनकी सहायता से विज्ञान का निर्माण होता है। वैज्ञानिक पद्धति के अन्तर्गत व्यवस्थित ज्ञान प्राप्त किया जाता है। अतः वैज्ञानिक पद्धति का अर्थ ज्ञान के विशिष्ट संचय से है।

प्रश्न 13.
सामाजिक सर्वेक्षण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सामाजिक सर्वेक्षण समाजिक अनुसंधान की एक विधि है। सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक घटनाओं का अध्ययन करता है। कोई भी शोधकर्ता किसी क्षेत्र में जाकर किसी समस्या से संबंधित तथ्यों का संकलन करता है, उसे सामाजिक सर्वेक्षण कहते हैं।

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लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरण बताइए।
उत्तर:
वैज्ञानिक पद्धति के प्रमुख चरण निम्नलिखित हैं –

  1. समस्या का निर्धारण – वैज्ञानिक पद्धति के अंतर्गत सर्वप्रथम समस्या का निर्धारण किया जाता है। समस्या से संबंधित सामान्य अवधारणाओं में परिभाषा देनी पड़ती है।
  2. अनुसंधान की रूपरेखा का नियोजन करना – वैज्ञानिक पद्धति के दूसरे चरण के अंतर्गत क्रमबद्ध तरीके से आँकड़ों का संकलन, विश्लेषण तथा मूल्यांकन किया जाता है।
  3. क्षेत्र कार्य – आँकड़ों का एकत्रीकरण पूर्व निर्धारित योजना के अंतर्गत किया जाता है।
  4. आँकड़ों का विश्लेषण करना – समाज वैज्ञानिकों द्वारा सावधानीपूर्वक आँकड़ों को संहिताबद्ध किया जाता है। इसके पश्चात् इसका वर्गीकरण तथा सारणीबद्ध करते हैं।
  5. निष्कर्ष निकालना – अनसंधानकर्ता द्वारा आँकड़ों का क्रमबद्ध अंकलन करने के पश्चात् परिणामों का सामान्यीकरण किया जाता है। इस प्रकार, निष्कर्ष निकाल जाते हैं।
  6. निष्कर्षों का पुनः सत्यापन भी किया जाता है।

प्रश्न 2.
वैज्ञानिक अवलोकन की दशाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  • वैज्ञानिक अवलोकन में भी अन्य विज्ञानों की भाँति आँकड़े इंद्रिजन्य अवलोकन के माध्यम से एकत्रित किए जाते हैं।
  • अवलोकन जैसा कि हम जाते हैं कि एक प्रविधि है, जो सामाजिक प्रघटना की प्रत्यक्ष जानकारी को संभव बनाती है।
  • अवलोकन प्रविधिं तुलनात्मक रूप से अच्छी जानकारी तथा विश्वसनीयता निश्चित करती है।
  • अवलोकन शब्द का प्रयोग यहाँ तथा दूसरे स्थानों पर उन समस्त स्वरूपों के लिए किया जाता है, जिनके विषय में हमें जानकारी होती है तथा जो हमारी इंद्रियों पर प्रभाव डालते हैं।
  • हमें यह प्रत्युत्तर तथा एक आँकड़े में अंतर करना चाहिए। एक प्रत्युत्तर किया का प्रकटीकरण है। एक आँकड़ा प्रत्युत्तर के अभिलेखन का उत्पाद है।
    (a) विश्वसनीयता तथा अंतर-व्यक्तिनिष्ठता।
    (b) विश्सनीयता तथा अंतर-व्यक्तिनिष्ठा को अवलोकन प्रक्रिया के दो तत्वों के साथ कार्य करना पड़ता है जिन्हें बोध तथा अभिलेखन कहते हैं।

गालतुंग ने दो सिद्धान्त दिए हैं –

  • अंतर – व्यक्तिनिष्ठा तथा विश्वसनीयता का सिद्धान्त-एक ही अवलोकनकर्ता द्वारा एक ही प्रत्युत्तर का जब बार-बार अवलोकन किया जाता है तो समान आँकड़े प्राप्त होंगे।
  • अंतर – वस्तुनिष्ठता का सिद्धान्त-जब एक ही प्रत्युत्तर को विभिन्न अवलोकनकर्ताओं द्वारा बार-बार दोहराया जाता है तो समान आँकड़े प्राप्त होंगे।

उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर वैधता के सिद्धान्त का उल्लेख किया जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार एक अवलोकन वैध है, जब अवलोकनकर्ता वही अवलोकित रहता है जो वह चाहता है। इस प्रकार वैधता प्रकट तथा प्रच्छन्न संबंधों को स्पष्ट रूप से देखते हैं वैधता के सिद्धान्त के अंतर्गत आँकड़ों को इस प्रकार एकत्रित किया जाता है कि उसके आधार पर उपयुक्त अनुमान प्राप्त किए जा सकें। इन निष्कर्ष द्वारा प्रकट स्तर तथा प्रच्छन्न स्तर के अंतर को स्पष्ट किया जाता है।

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प्रश्न 3.
अवलोकन की परिभाषा दीजिए। इसके लक्षण बताइए।
उत्तर:
(i) अवलोकन की परिभाषा – अवलोकन वस्तुत: वैज्ञानिक पद्धति की मूल प्रविधि है। वैज्ञानिक अवलोकन के माध्यम से ऐसे तथ्यात्मक प्रमाणों को एकत्रित किया जाता है, जिन्हें सत्यापित किया जा सके । वैज्ञानिक अवलोकन के लिए निम्नलिखित चरणों का अनुसरण आवश्यक है –

  • यथार्थता
  • सुस्पष्टता अथवा शुद्धता
  • क्रमबद्धता
  • प्रतिवेदन

मोजर के अनुसार, “अवलोकन को स्पष्ट रूप से वैज्ञानिक अन्वेषण की शास्त्रीय पद्धति कहा जा सकता है।………….वास्तविक रूप में अवलोकन में कानों तथा वाणी की अपेक्षा आँखों का अधिक प्रयोग होता है। पी० वी० यंग के अनुसार, “अवलोकन नेत्रों द्वारा एक विचारपूर्वक अध्ययन है-जिस सामूहिक व्यवहार तथा जटिल सामाजिक संस्थाओं तथा साथ ही साथ संपूर्णता वाली पृथक इकाइयों के अन्वेक्षण हेतु प्रणाली में उपयोग किया जाता है।”

(ii) अवलोकन के प्रमुख लक्षण : ब्लैक तथा चैपियन ने अवलोकन के निम्नलिखित प्रमुख लक्षण बताए हैं –

  • मानव व्यवहार का अवलोकन किया जाता है।
  • अवलोकन के जरिए उन महत्वपूर्ण घटनाओं के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है जिनसे सहभागियों का सामाजिक व्यवहार प्रभावित होता है।
  • जिस व्यक्ति का अवलोकन किया जाता है उसके विषय में वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो जाता है।
  • सामाजिक जीवन की आधार सामग्री जो नियमित थी बार-बार अवलोकित की जाती है, कि परिभाषित की जा सकती है तथा दूसरे अध्ययनों की तुलना में इसे काम में लाया जा सकता है।
  • अवलोकन प्रविधि के माध्यम से अवलोकनकर्ता पर कुद नियंत्रण रखा जाता है। हालाँकि, जिन व्यक्तियों तथा वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है, उन पर अवलोकन प्रविधि कोई नियंत्रण नहीं रखती है।
  • अवलोकन पद्धति उपकल्पनाओं से मुक्त अन्वेषण पर केन्द्रित होती है।
  • अवलोकन प्रविधि स्वतंत्र चर के साथ किसी भी प्रकार के फेर-बदल से बचती है।
  • भिलेखन चयनित नहीं होता है।

प्रश्न 4.
सहभागी अवलोकन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
सहभागी अवलोकन का अर्थ – सहभागी अवलोकन के अंतर्गत अवलोकनकर्ता के अध्ययन की स्थिति में स्वयं भाग लिया जाता है। सहभागी अवलोकन में अवलोकनकर्ता के द्वारा भूमिका का संपादन स्वयं किया जाता है।

सहभागी अवलोकन तीन प्रकार का होता है –

  • सहभागी अवलोकनकर्ता के रूप में – अवलोकन का यह स्वरूप छिपा हुआ नहीं होता है। अवलोकनर्ता की भूमिका संपादन न होकर केवल अवलोकर्ता ही होता है।
  • अवलोकनकर्ता सहभागी के रूप में – अवलोकनकर्ता संबंधित व्यक्ति से मिलकर कुछ प्रश्न पूछता है । इसके साथ-साथ वह परिस्थिति का अवलोकन भी करता है। इस प्रविधि के अंतर्गत अवलोकनकर्ता अवलोकन करता है तथा वह उत्तरदाता का सहभागी बन जाता है।
  • अवलोकनकर्ता एक अवलोकनकर्ता के रूप में – अवलोकन की इस प्रविधि के अंतर्गत अवलोकनकर्ता परिस्थिति का अवलोकन करता है, लेकिन जिन व्यक्तियों का वह अवलोकन करता है उन्हें इस विषय में कोई जानकारी नहीं होती है।

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प्रश्न 5.
प्रश्नावली की संचार और वैधता की समस्या का विवेचना कीजिए।
उत्तर:
(i) प्रश्नावली के संचार की समस्या –

  • यद्यपि प्रश्नावली की विषयवस्तु अध्ययन के उद्देश्या से नियंत्रित होती है तथापि सर्वेक्षण में संचार की समस्या उत्पन्न हो सकती है।
  • प्रश्नों की भाषा स्पष्ट, संक्षिप्त तथा सरल होना चाहिए जिससे उत्तरदाताओं को उन्हें समझने में आसानी हो।

(ii) प्रश्नावली की वैधता की समस्या –

  • प्रश्नों की संरचना इस प्रकार की जानी चाहिए जिससे अनुसंधानकर्ता को इच्छित सूचना मिल जाए।
  • प्रश्नों के उत्तर के विषय में वास्तविक समस्या उस समय उत्पन्न होती है जब उत्तरदाता सही तथ्यों की जानकारी देता है लेकिन अनुसंधानकर्ता उन उत्तरों की विश्वसनीयता तथा तथ्यात्मकता के विषय में आश्वस्त नहीं हो पाता है।
  • वैधता की समस्या उस समय उतपन्न हो जाती है तब उत्तरदाता का कथन तकनीकी रूप से सत्य होता है, लेकिन वास्तव में यह कथन असत्य होता है।
  • उत्तरदाताओं के उत्तरों की वैधता के सत्यापन हेतु वैकल्पिक प्रश्न पूछे जा सकते हैं।

प्रश्न 6.
पद्धति तथा प्रविधि में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पद्धति तथा प्रविधि में निम्नलिखित अन्तर हैपद्धति प्रविधि –
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प्रश्न 7.
एक पद्धति के रूप में सहभागी प्रेक्षण की क्या-क्या खूबियाँ और कमियाँ हैं?
उत्तर:
खूबियाँ –

  • यह छिपा हुआ प्रेक्षण नहीं होता है।
  • अनुसंधानकर्ता समुदाय में अवलोकनकर्ता के रूप में प्रवेश करता है।
  • सीधे व्यक्ति से संपर्क होता है।
  • उत्तरदाता भी सहभागी बन जाता है।

कमियाँ –

  • इससे प्राप्त निष्कर्षों का सामान्यीकरण नहीं हो सकता।
  • यह अधिक समय लेने वाली खर्चीली पद्धति है।
  • निष्कर्षों में वास्तुनिष्ठता की कमी आ जाती है।

प्रश्न 8.
सर्वेक्षण और वैयक्तिक अध्ययन में अन्तर कीजिए।
उत्तर:
सर्वेक्षण तथा वैयक्तिक अध्ययन में निम्नलिखित अंतर हैं –
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प्रश्न 9.
सामाजिक अनुसंधान क्या है?
उत्तर:
अनुसंधान का अर्थ है अन्वेषण या शोध या खोज से हैं। जब कोई भी अनुसंधान सामाजिक जीवन सामाजिक घटनाओं अथवा सामाजिक जटिलताओं से संबद्ध होता है तब उसे सामाजिक अनुसंधान कहा जाता है । सामाजिक अनुसंधान में सर्वप्रथम किसी व्यवहार समस्या या घटना से संबंधित मूल-भूत तथ्यों का अवलोकन किया जाता है ताकि उसकी सामान्य प्रकृति को भली-भाँति समझा जा सके।

सामाजिक अनुसंधान में यर्थाथताओं की वैज्ञानिक विधि द्वारा खोज पर विशेष बल दिया जाता है। सामाजिक अनुसंधान का उद्देश्य तार्किक एवं क्रमांक पद्धतियों के द्वारा नवीन तथ्यों की खोज अथवा पुराने तथ्यों की परीक्षा और सत्यापन, उनके क्रमों, पारस्परिक संबंधों, कार्य-कारण की व्याख्या एवं उन्हें संचालित करनेवाले स्वभाविक नियमों का विश्लेषण करना है।

प्रश्न 10.
अवलोकन की सीमाएँ या कमियाँ बताइए।
उत्तर:
अवलोकन की कमियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. मानव व्यवहार का अवलोकन करते समय अवलोकनकर्ता की प्राथमिकताओं तथा पक्षपातों के कारण अवलोकन में वस्तुनिष्ठता की कमी आ सकती है। इस प्रकार के निष्कर्ष वैज्ञानिक अवलोकन की श्रेणी में रखे जा सकते हैं।
  2. कोई सामाजिक प्रघटना कितनी अवधि तक घटेगी, इसका पूर्वानुमान करने में व्यवहारिक कठिनाइयाँ आती हैं।
  3. अवलोकनकर्ता के मूल्यों, आदर्शों, अभिरुचियों तथा पूर्व निर्धारित दृष्टिकोणों तथा विश्वासों का प्रभाव अवलोकन की प्रक्रिया पर पड़ सकता है।
  4. अवलोकन की प्रविधि में विश्वसनीयता तथा वैधता की समस्याएँ भी उत्पन्न हो जाती हैं।
  5. अवलोकनकर्ता का प्रशिक्षित होना आवश्यक हैं, लेकिन प्रायः प्रशिक्षित अवलोकनकर्ता भी निरपेक्षा रूप से अवलोकन प्रविधि का प्रयोग नहीं कर पाते हैं।’
  6. कभी-कभी अवलोकनकर्ता द्वारा दिए गए निष्कर्षों का पुनः सत्यापन करने पर निष्कर्षों में विभिन्नता आ जाती है।
  7. अवलोकन प्रविधि द्वारा प्राप्त निष्कर्षों में वस्तुनिष्ठता तथा निश्चितता का अभाव हो सकता है।

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रश्नावली और साक्षात्कार अनुसूची को परिभाषित करते हुए उनमें अंतर बताइए।
उत्तर:
(i) प्रश्नावली की परिभाषा – प्रश्नावली का प्रयोग किसी विशेष स्थिति अथवा समस्या के बारे में महत्वपूर्ण आधार सामग्री प्राप्त करने के लिए किया जाता है। जे0 डी0 पोप के अनुसार, “एक प्रश्नावली को प्रश्नों के समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।” सूचनादाता को बिना एक अनुसंधानकर्ता या प्रगणक की व्यक्तिगत सहायता के उत्तर देना होता है लेकिन इसे व्यक्तियों में बाँटा भी जा सकता है। प्रत्येक स्थिति में यह सूचना प्रदान करने वाले द्वारा भरकार भेजी जाती है।

(ii) साक्षात्कार अनुसूची की परिभाषा – संरचित प्रश्नों या समूह जिनके उत्तर स्वयं साक्षात्कारकर्ता द्वारा अभिलेखित किए जाते हैं, साक्षात्कार अनूसूची कहलाती है।
प्रश्नावली तथा साक्षात्कार सूची में अंतर –
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प्रश्न 2.
सर्वेक्षण पद्धति की कुछ कमजोरियों का वर्णन करें।
उत्तर:
अन्य अनुसंधान पद्धतियों की तरह से सर्वेक्षणों की भी अपनी कमजोरियाँ होती हैं। यद्यपि इसमें व्यापक विस्तार की संभावना होती है तथा यह विस्तार की गहनता के आधार पर प्राप्त किया जाता है। सामान्यतया एक बड़े सर्वेक्षण के भाग के रूप में उत्तरदाताओं से गहन सूचना प्राप्त करना संभव नहीं होता। उत्तरदाताओं की संख्या अधिक होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति पर व्यय किया जाने वाला समय सीमित होता है। साथ ही अन्वेषकों की अपेक्षाकृत बड़ी संख्या द्वारा सर्वेक्षण प्रश्नावलियाँ उत्तरदाता को उपलब्ध कराई जाती हैं। इससे यह सुनिश्चित करना कठिन हो जाता है कि जटिल प्रश्नों या जिन प्रश्नों के लिए विस्तृत सूचना चाहिए, उन्हें उत्तरदाताओं से ठीक एक ही तरीके से पूछा जाएगा।

प्रश्न पूछने या उत्तर रिकार्ड करने के तरीके में अन्तरहोने पर सर्वेक्षण में त्रुटियाँ आ सकती हैं। यही कारण है कि किसी भी सर्वेक्षण के लिए प्रश्नावली (कभी-कभी इन्हें सर्वेक्षण का उपकरण भी कहा जाता है) की रूपरेखा सावधानीपूर्वक तैयार करनी चाहिए क्योंकि इसका प्रयोग अनुसंधानकर्ता के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों द्वारा किया जायेगा, अतः इसके प्रयोग के दौरान इसमें त्रुटि को दूर करने या संशोधित करने की थोड़ी-बहुत संभावना रहती है। अन्वेषक तथा उत्तरदाता के बीच किसी प्रकार के दीर्घकालिक संबंध नहीं होते अतः कोई आपसी पहचान या विश्वास नहीं होता। किसी भी सर्वेक्षण में पूछे गए प्रश्न ऐसे होने चाहिए जो कि अजनवियों के मध्य पूछे जा सकते हों तथा उनका उत्तर दिया जा सकता हो।

कोई भी निजी या संवेदनशील प्रश्न पूछा जा सकता या अगर पूछा भी जाता है तो इसका उत्तर सच्चाईपूर्वक देने के स्थान पर ‘सावधानीपूर्वक’ दिया जाता है। इस प्रकार की समस्याओं को कभी-कभी ‘गैर-प्रतिदर्शा त्रुटियाँ’ कहा जाता है अर्थात् ऐसी त्रुटियाँ जो प्रतिदर्श की प्रक्रिया के कारण न हों अपितु अनुसंधान रूपरेखा में कभी या त्रुटि के कारण हों। दुर्भाग्यवश इनमें से कुछ त्रुटियों का पता लगाना तथा इनसे बचना कठिन होता है । इस कारण से सर्वेक्षण में गलती होना तथा जनसंख्या की विशेषताओं के बारे में भ्रामक या गलत अनुमान लगाना संभव होता है।

अंत में, किसी भी सर्वेक्षण के लिए सबसे महत्वपूर्ण सीमा यह है कि इसे सफलतापूर्वक पूरा करने के लिए इन्हें कठोर संरचित प्रश्नावली पर आधारित होना पड़ता है। इसके अतिरिक्त प्रश्नावली की. रूपरेखा चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो, इसकी सफलता अंत में अन्वेषकों तथा उत्तरदाताओं की अंतःक्रिया की प्रकृति पर और विशेष रूप से उत्तरदाता की सद्भावना तथा सहयोग पर निर्भर करती है।

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प्रश्न 3.
वस्तुनिष्ठता परिणाम को प्राप्त करने के लिए समाजशास्त्री को किस प्रकार की कठिनाइयों और प्रयत्नों से गुजरना पड़ता है।
उत्तर:
किसी भी वस्तु के बारे में वस्तुनिष्ठ होने के लिए अथवा वास्तविक परिणाम को प्राप्त करने के लिए हमें वस्तु के अपनी भावनाओं या प्रवृत्तियों को अनदेखा करना चाहिए। दूसरी तरफ ‘व्यक्तिपरकता’ से छुटकारा पाना होगा। व्यक्तिपरकता से आशय है कुछ ऐसा जो व्यक्तिगत मूल्यों तथा मान्यताओं पर आधारित हो । सभी विज्ञानों से वस्तुनिष्ठ होने व केवल तथ्यों पर आधारित पूर्वाग्रह रहित ज्ञान उपलब्ध कराने की आशा की जाती है, परन्तु प्राकृतिक विद्वानों की तुलना में समाज विज्ञान में ऐसा करना बहुत कठिन है।

जब कोई भू-वैज्ञानिक चट्टानों का अध्ययन करता है या वनस्पतिशास्त्री पौधों का अध्ययन करता है तो वे सावधान रहते हैं कि उनके व्यक्तिगत पूर्वाग्रह या मान्यताएँ उनके काम को प्रभावित न कर पाएँ । उन्हें सही तथ्यों को ही प्रस्तुत करना चाहिए। उदाहरण के लिए, उन्हें अपने अनुसंधान कार्य के परिणामों पर किसी विशेष वैज्ञानिक सिद्धान्त या सिद्धांतवादी के प्रति अपनी पसंद का प्रभाव नहीं पड़ने देना चाहिए। हालांकि भू-वैज्ञानिक तथा वनस्पतिशास्त्री स्वयं उस संसार का हिस्सा नहीं होते जिनका वे अध्ययन करते हैं, चट्टानों या पौधों की प्राकृतिक दुनिया इसे विपरीत समाज वैज्ञानिक जिस संसार में रहते हैं, उसका ही अध्ययन करते हैं जो मानव संबंधों की सामाजिक दुनिया है। इससे समाजशास्त्र जैसे सामाजिक विज्ञान में वस्तुनिष्ठता की विशेष समस्या उत्पन्न होती है।

सर्वप्रथम पर्वाग्रह की स्पष्ट समस्या है कि क्योंकि समाजशास्त्री भी समाज के सदस्य हैं. उनकी भी लोगों की तरह से सामान्य पसंद तथा नापसंद होती है। पारिवारिक संबंधों का अध्ययन करने वाला समाजशास्त्री भी स्वयं किसी परिवार का सदस्य होगा और उसके अनुभव का इस पर प्रभाव हो सकता है। यहाँ तक कि समाजशास्त्री को अपने अध्ययनशील समूह के साथ कोई प्रत्यक्ष या व्यक्तिगत अनुभव न होने पर भी उसके अपने सामाजिक संदर्भो के मूल्यों तथा पूर्वाग्रहों का प्रभाव होने का संभावना रहती है। उदाहरणार्थ अपने से अलग किसी जाति या धार्मिक समुदाय का अध्ययन करते समय समाजशास्त्री उस समुदाय की कुछ प्रवृतियों से प्रभावित हो सकता है जो कि उसे अतीत या वर्तमान के सामाजिक वातावरण में प्रचलित हैं।

समाजशास्त्री इनसे किस प्रकार बचते हैं ? –
इसकी प्रथम पद्धति अनुसंधान के विषय के बारे में अपनी भावनाओं तथा विचारों की कठोरता से लगातार जाँचना है। अधिकांशतः समाजशास्त्री अपने कार्य के लिए किसी बाहरी व्यक्ति के दृष्टिकोण को ग्रहण करने का प्रयास करते हैं। वे अपने आपको तथा अपने अनुसंधान कार्य को दूसरे की आँखों से देखने का प्रयास करते हैं। इस तकनीक को ‘स्ववाचक’ या कभी-कभी ‘आत्मवाचक’ कहते हैं। समाजशास्त्री निरंतर अपनी प्रवृत्तियों तथा मतों की स्वयं जाँच करते रहते हैं। वह अन्य व्यक्तियों के मतों को सावधानीपूर्वक अपनाते रहते हैं, विशेष रूप से उनके बारे में जो उनके अनुसंधान का विषय होते हैं।

आत्मवाचक का एक व्यावहारिक पक्ष है किसी व्यक्ति द्वारा किए जा रहे कार्य का सावधानीपूर्वक दस्तावेजीकरण करना। अनुसंधान पद्धतियों में श्रेष्ठता के दावे का एक हिस्सा सभी विधियों के दस्तावेजीकरण तथा साक्ष्य के सभी स्रोतों के औपचारिक संदर्भ में निहित है जो यह सुनिश्चित करता है कि हमारे द्वारा किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने हेतु किए गए उपायों को अन्य अपना सकते हैं तथा वे स्वयं देख सकते हैं, हम सही हैं या नहीं। इससे हमें अपनी सोच या तर्क की दिशा को परखने या पुनः परखने में भी सहायता मिलती है। तथापि समाजशास्त्री आत्मवाचक होने का कितना भी प्रयास करें, अवचेतन पूर्वाग्रह की संभावना सदा रहती है। इस संभावना से निपटने के लिए समाजशास्त्री अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि के उन लक्षणों को स्पष्ट रूप से उल्लिखित करते हैं जो कि अनुसंधान के विषय पर संभावित पूर्वाग्रह के स्रोत के रूप में प्रासांगिक हो सकते हैं। यह पाठकों के पूर्वाग्रह की संभावना से सचेत करता है तथा अनसंधान अध्ययन को पढते समय यह उन्हें मानसिक रूप से इसकी ‘क्षतिपूर्ति करने के लिए तैयार करता है।

समाजशास्र में वस्तुनिष्ठता के साथ एक अन्य स्थिति यह है कि सामाजिक विश्व में ‘सत्य’ के अनेक रूप होते हैं। वस्तुएँ विभिन्न लाभ के बिन्दुओं से अलग-अलग दिखाई देती हैं तथा इसी कारण से सामाजिक विश्व में सच्चाई के अनेक प्रतिस्पर्धी रूप या व्याख्याएँ शामिल हैं। उदाहणार्थ, ‘सही’ कीमत के बारे में एक दुकानदार तथा एक ग्राहक के अलग-अलग विचार हो सकते हैं, एक युवा व्यक्ति के लिए ‘अच्छे भोजन’ या इसी तरह से अन्य विषयों के बारे में अलग-अलग विचार हो सकते हैं।

कोई भी ऐसा सरल तरीका नहीं है जिससे किसी विशेष व्याख्या के अन्य या सही हो के बारे में निर्णय लिया जा सके एवं प्राय: इन शर्तों के तहत सोचना भी लाभप्रद नहीं होता । वास्तव में समाजशास्र इस तरीके से जाँचने का प्रयास भी नहीं करता क्योंकि इसकी वास्तविक रुचि इसमें होती है कि लोग क्या सोचते हैं तथा वे जो सोचते हैं वैसा क्यों सोचते हैं।

एक अन्य कठिनाई स्वयं समाज विज्ञान में उपस्थित बहुविध मतों से उत्पन्न होती है। समाज विज्ञान की तरह समाजशास्त्र भी एक ‘बहु-निर्देशात्मक’ विज्ञान है इसका अर्थ है कि इस विषय में प्रतिस्पर्धी तथा परस्पर विरोधी विचारों वाले विद्यमान हैं। इन सबसे समाजशास्त्र में वस्तुनिष्ठ एक बहुत कठिन तथा जटिल वस्तु बन जाती है। वास्तव में, वस्तुनिष्ठता की प्राचीन धारणा को व्यापक तौर पर एक प्राचीन दृष्टिकोण माना जाता है। समाज वैज्ञानिक अब विश्वास नहीं करते कि ‘वस्तुनिष्ठता एवं अरुचि’ की पारंपरिक धारणा, समाज विज्ञान में प्राप्त की जा सकती है।

वास्तव में ऐसे आदर्श भ्रामक हो सकते हैं। इसका यह आशय नहीं है कि समाजशास्त्र के माध्यम से कोई लाभप्रद ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता या वास्तविक एक व्यर्थ धारणा है। इसका तात्पर्य है कि वस्तुनिष्ठता को पहले से प्राप्त अंतिम परिणाम के स्थान पर लक्ष्य प्राप्ति हेतु निरंतर चलती रहने वाले प्रक्रिया के रूप में लिया न जाना चाहिए।

प्रश्न 4.
सर्वेक्षण पद्धति के आधारभूत तत्त्व क्या हैं ? इस पद्धति का प्रमुख लाभ क्या है?
उत्तर:
सर्वेक्षण पद्धति का प्रयोग सामाजिक विज्ञान में गणनात्मक अध्ययन के लिए किया जाता है। अध्यनकर्ता के द्वारा अध्ययन की समस्या के अनुसार व्यक्तियों से सुनियोजित एवं क्रमबद्ध रूप से प्रश्न पूछे जाते हैं। सर्वेक्षण पद्धति के निम्नलिखित चार आधारभूत तत्व हैं –

  • सर्वेक्षण का नियोजन
  • आँकड़ों का एकत्रीकरण
  • आँकड़ों का विश्लेषण तथा विवेचन
  • आँकड़ों का प्रस्तुतिकरण

सर्वेक्षण पद्धति के लाभ –

  • सामान्यतः सर्वेक्षण का अध्ययन क्षेत्र विशाल होता है।
  • सर्वेक्षण की अवधि कम होती है।
  • सर्वेक्षण प्रविधियाँ विशाल होती हैं।
  • सर्वेक्षण में सामाजिक प्रघटना को विस्तृत आकार में देखा जाता है।
  • सर्वेक्षण में अन्वेषक अपनी समस्या के अनुसार व्यक्तियों से सुनियोजित तथा क्रमबद्ध प्रश्न पूछता है तथा उनका अभिलेख करता है।
  • सर्वेक्षण से प्राप्त आँकड़ों तथा निष्कर्षों का सामान्यीकरण हो सकता है।
  • सर्वेक्षण प्रणाली में निदर्शन सर्वेक्षण अथवा प्रतिदर्श संभव है।

प्रश्न 5.
प्रतिदर्श प्रतिनिधित्व चयन के कुछ आधार बताएँ।
उत्तर:
प्रतिदर्श प्रतिनिधित्व चयन की प्रक्रिया दो मुख्य सिद्धान्तों पर आधारित है –
पहला सिद्धान्त यह है कि जनसंख्या में सभी महत्वपूर्ण उपसमूहों को पहचाना जाए और प्रतिदर्श में उन्हें प्रतिनिधित्व दिया जाए। अधिकतर बड़ी जनसंख्याएँ एक समान नहीं होती, उनमें भी स्पष्ट उप-श्रेणियाँ होती हैं। इसे समाजीकरण कहा जाता है। उदाहरणार्थ जब भारत की जनसंख्या के बारे में बात करते हैं तो हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि यह जनसंख्या शहरी तथा ग्रामीण क्षेत्रों में बँटी हुई है जो कि एक-दूसरे से काफी हद तक अलग है। कभी भी एक राज्य की ग्रामीण जनसंख्या पर विचार करते समय हमें ध्यान रखना होगा कि यह जनसंख्या विभिन्न आकार वाले गाँवों में रहती है।

इसी तरह से किसी एक गाँव की जनसंख्या भी वर्ग, जाति लिंग, आयु, धर्म या अन्य मापदंडों के आधार पर स्तरीकृत हो सकती है। सारांश में स्तरीकरण की संकल्पना हमें बताती है कि प्रतिदर्श का प्रतिनिधित्व दी गई जनसंख्या के सभी संबद्ध स्तरों की विशेषताओं को दर्शाने की सक्षमता पर निर्भर है। किस प्रकार के प्रतिदर्शों को प्रासंगिक माना जाए यह अनुसंधान के अध्ययन के विशिष्ट उद्देश्यों पर निर्भर है। उदाहरणार्थ धर्म के प्रति प्रवृत्तियों के बारे में अध्ययन करते समय यह महत्वपूर्ण हो सकता है कि सभी धर्मों के सदस्यों . को शामिल किया जाए। मजदूर संसाधनों के प्रति प्रवृत्तियों पर अनुसंधान करते समय कामगारों, प्रबंधकों तथा उद्योगपतियों एवं अन्य को शामिल करना चाहिए।

प्रतिदर्श चयन का दूसरा सिद्धांत है वास्तविक इकाई अर्थात् व्यक्ति या गाँव या घर का चयन पूर्णतया अवसर आधारित होना चाहिए। इसे यादृच्छीकरण कहा जाता है जोकि स्वयं संभावित की संकल्पना पर आधारित है। आपने अपने पाठ्यक्रम में संभावित के बारे में पढ़ा होगा। संभावित का आशय घटना के घटित होने के अवसरों तथा विषमताओं से है। उदाहरण के लिए, जब हम सिक्का उछालते हैं तो यह चित की ओर पड़ता है या फिर पट की ओर । सामान्य सिक्कों में चित या पट आने का अवसर या संभावित लगभग एक समान अर्थात् प्रत्येक की 50 प्रतिशत दिखाई देती है। वास्तव में जब आप सिक्का उछालते हैं दोनों में से कौन-सी घटना होनी है अर्थात् चित्त आता है या पट, यह पूरी तरह से अवसर पर निर्भर करता है। इस प्रकार की घटनाओं को यादृच्छिक घटनाएँ कहा जाता है।

हम एक प्रतिदर्श को चुनने में समान आँकड़े का उपयोग करते हैं। हम सुनिश्चित करने का प्रयास करते हैं कि प्रतिदर्श में चयन किए गए व्यक्ति या घर या गाँव पूर्णतः अवसर द्वारा चयनित हों, किसी अन्य तरह से नहीं। अतः प्रतिदर्श में चयन होना किस्मत की बात है, जैसे कि लॉटरी जीतना। यह तभी हो सकता है जब यह सच हो कि प्रतिदर्श एक प्रतिनिधित्व प्रतिदर्श होगा। यदि कोई सर्वेक्षण दल अपने में केवल उन्हीं गाँवों का चयन करता है जो मुख्य सड़क के निकट हों तो यह प्रतिदर्श यादृच्छिक या संयोगवश न होकर पूर्वाग्रहित होंगे। इसी तरह से यदि हम अधिकतर के मध्यवर्ग के परिवारों को या अपने जानकर परिवरों का चयन करते हैं तो प्रतिदर्श पुनः पूर्वाग्रहित होंगे।

यह बात है कि जनसंख्या से संबंधित स्तरों का पता लगाने के बाद प्रतिदर्श घरों या उत्तरदाताओं का वास्तविक चयन पूर्णतया संयोग के आधार पर होना चाहिए । इसे विभिन्न तरीकों से सुनिश्चित किया जा सकता है। इसे प्राप्त करने के लिए विभिन्न तकनीकों का प्रयोग किया जाता है। इनमें सामान्य रूप से (लॉटरी) निकालना, पांसे फेंकना, इस उद्देश्यों हेतु विशेष रूप से बनाई गई प्रतिदर्श नंबर प्लेटों का प्रयोग आदि।

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प्रश्न 6.
प्रश्नावली से आप क्या समझते हैं ? एक प्रश्नावली की विशेषताएँ, प्रकार, गुण तथा दोष बताइए।
उत्तर:
प्रश्नावली का अर्थ तथा परिभाषा-प्रश्नावली प्रविधि के अंतर्गत क्रमबद्ध तरीके से प्रश्न पूछे जाते हैं तथा आवश्यक आँकड़े एकत्रित किए जाते हैं। इस प्रकार क्रमबद्ध तरीके से तैयार किए जा सकते हैं।” इसे साधारणतया, प्रश्नावली अथवा साक्षात्कार तालिका कहते हैं। जे० डी० पोप के अनुसार, “एक प्रश्नावली को प्रश्नों के समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।” साधारणतया, प्रश्नावली डाक द्वारा भेजी जाती है, लेकिन इसे व्यक्तियों को बाँटा भी जा सकता है।

प्रत्येक स्थिति में यह सूचना प्रदान करने वाले द्वारा भरकर भेजी जाती है। लुंडबर्ग के अनुसार, “मूलरूप में, प्रश्नावली प्रेरणाओं का एक समूह है जिसके प्रति शिक्षित व्यक्ति उत्तेजित किए जाते हैं तथा वे इन उत्तेतनाओं के अंतर्गत अपने व्यवहार का वर्णन करते हैं।

प्रश्नावली प्रविधि की विशेषताएँ –

  • प्रश्नावली प्रविधि के द्वारा विशाल क्षेत्र में रहने वाले व्यक्तियों से जानकारी प्राप्त की जा सकती है।
  • किसी स्थिति विशेष अथवा समस्या के विषय में प्रश्नावली विधि के माध्यम से महत्वपूर्ण आधारभूत सामग्री प्राप्त की जा सकती है।
  • सूचनादाता अनुसंधानकर्ता के समक्ष आए बिना प्रश्नों का उत्तर देता है।
  • प्रश्नावली प्रविधि में वैज्ञानिक अन्वेषण की अन्य पद्धति की अपेक्षा कम खर्च होती है।
  • प्रश्नावली प्रविधि के माध्यम से जटिल प्रश्नों तथा समस्याओं के विषय में जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

प्रश्नावली के प्रकार : प्रश्नावली के प्रमुख प्रकार निम्नलिखित है –

  • स्तरीयय प्रश्नावली,
  • खुली प्रश्नावली तथा
  • बंद प्रश्नावली

1. स्तरीय प्रश्नावली –

  • स्तरीय प्रश्नावली के अंतर्गत निश्चित, ठोस तथा पूर्व-विचारित प्रश्न होते हैं।
  • पेक्षाकृत जटिल प्रश्नों के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने हेतु कुछ अतिरिक्त प्रश्न भी होते हैं।
  • सभी उत्तरदाताओं को समान क्रम में संगठित प्रश्न दिए जाते हैं।
  • स्तरीय प्रश्नावली के उत्तरों की तुलना सुगमतापूर्वक की जा सकती है।
  • स्तरीय प्रश्नावली का प्रयोग आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, प्रशासनिक आदि विषयों तथा घटनाओं के बारे में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने हेतु किया जाता है।

2. खुली प्रश्नावली –

  • खुली प्रश्नावली के अंतर्गत वैकल्पिक उत्तर नहीं होते हैं।
  • खुली प्रश्नावली में प्रश्नों को इस प्रकार संचित किया जाता है, जिससे उत्तरदाता प्रश्नों का उत्तर खुले रूप से दे सकें।
  • खुली प्रश्नावली के अंतर्गत विषयों को उठाया जाता है, लेकिन सूचनादाता के लिए वैकल्पिक उत्तरों का प्रावधान नहीं होता है।
  • खुली प्रश्नावली की प्रकृति नमनीय होती है, जिसके कारण अनुसंधानकर्ता को पर्याप्त सूचना मिल जाती है।
  • खुली प्रश्नावली के उत्तर अनुसंधान के उद्देश्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित करते हैं।

3. बंद प्रश्नावली –

  • बंद प्रश्नावली में उत्तर सीमाबद्ध होते हैं।
  • बंद प्रश्नावली में एक प्रश्न के कई वैकल्पिक उत्तर भी दिए जाते हैं।
  • अनेक बार प्रश्न के बार ही संभावित उत्तरों का उल्लेख कर दिया जाता है।
  • आमतौर पर तीन वैकल्पिक उत्तर दिए जाते हैं।
  • बंद प्रश्नावली के निष्कर्ष भ्रमरहित, स्पष्ट तथा तुलनात्मक होते हैं।

प्रश्नावली प्रविधि के गुण –

  • प्रश्नावली प्रविधि द्वारा कम समय में एक विस्तृत क्षेत्र से सूचनाएँ प्राप्त की जा सकती है।
  • प्रश्नावली प्रविधि में खर्चा कम आता है।
  • प्रश्नावली एक ही समय में डाक सभी सूचनादाताओं के पास भेजी जा सकती हैं।
  • प्रश्नावली एक ही समय में डाक द्वारा सभी सूचनादाताओं के पास भेजी जा सकती है।
  • प्रश्नावली में दिए गए प्रश्नों का उत्तर सूचनदाता बिना किसी दबाव के देते हैं।

प्रश्नावली प्रविधि के दोष –

  • प्रश्नावली प्रविधि में व्यक्ति के दृष्टिकोण का कोई अधिक महत्व नहीं होता है।
  • प्रश्नावली प्रविधि में भौतिक अभिव्यक्ति को कोई महत्व प्रदान नहीं किया जाता है।
  • प्रश्नावली प्रविधि के माध्यम से प्राप्त निष्कर्षों में विश्वासनीयता तथा सत्यता का अभाव पाया जाता है।
  • सूचनादाता प्रश्नों का उत्तर देते समय तथ्यों को दिखा सकता है।
  • प्रश्नावली प्रविधि अशिक्षित लोगों के लिए उपयागी नहीं होती है।

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प्रश्न 7.
सामाजिक अनुसंधान एवं सामाजिक सर्वेक्षण में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सामाजिक अनुसंधान एवं सामाजिक सर्वेक्षण को प्रायः एक ही मान लिया जाता है। क्योंकि सामाजिक सर्वेक्षण, सामाजिक अनुसंधान की ही एक विधि है फिर भी दोनों में प्रर्याप्त अंतर है। यद्यपि दोनों ही विज्ञान सामाजिक घटनाओं का ही अध्ययन करता है। दोनों में नवीन तथ्यों की खोज करने का प्रयत्न किया जाता है। इतना ही नहीं बल्कि सामाजिक व्यवहार और उसाकी यर्थाथता को जानने का प्रयत्न किया जाता है ताकि सामाजिक जीवन पर अधिक नियंत्रण पाया जा सके तथापि सामाजिक अनुसंधान एवं सामाजिक सर्वेक्षण में अन्तर पाया जाता है, जो निम्न है –

  • सामाजिक सर्वेक्षण में सामाजिक तथ्यों और घटनाओं का अध्ययन करने में उपकल्पना की आवश्यकता नहीं पड़ती। जबकि सामाजिक अनुसंधान का प्रारंभ ही किसी उपकल्पना का परीक्षण करने हेतु किया जाता है।
  • सामाजिक सर्वेक्षण का संबंध किसी एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र अथवा एक समुदाय में निवास करने वाले लोगें से होता है जबकि सामाजिक अनुसंधान का संबंध अमूर्त समस्याओं से होता है।
  • सामाजिक सर्वेक्षण का प्रमुख उद्देश्य समाज सुधार एवं समाज कल्याण से है जबकि सामाजिक अनुसंधान का उद्देश्य इससे अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  • सामाजिक अनुसंधान का संबंध प्रत्येक प्रकार की सामाजिक घटना संबंधों एवं व्यवहारों से है जबकि सामाजिक सर्वेक्षण सामाजिक समस्याओं का अध्ययन करता है।
  • सामाजिक सर्वेक्षण का संबंध तात्कालिक समस्याओं, आवश्यकताओं के नियंत्रण से है जबकि सामाजिक अनुसंधान सामाजिक समस्याओं के शीघ्र निवारण से संबंध नहीं रखता है।

प्रश्न 8.
अनुसंधान पद्धति के रूप में साक्षात्कार के प्रमुख लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
साक्षात्कार-एक साक्षात्कार मूलत: अनुसंधानकर्ता तथा उत्तरदाता के बीच निर्देशित बातचीत होती है, हालांकि इसके साथ कुछ तकनीकी पक्ष जुड़े होते हैं। प्रारूप की सरलता भ्रामक हो सकती है क्योंकि एक अच्छा साक्षात्कारकर्ता बनने के लिए व्यापक अनुभव तथा कौशल होना जरूरी है। साक्षात्कार. सर्वेक्षण में प्रयोग की गई संरचित प्रश्नावली तथा सहभागी अवलोकन पद्धति की तरह पूर्णरूप से खुली अंत:क्रियाओं के बीच स्थान रखते हैं।

इसका सबसे बड़ा लाभ प्रारूप का अत्यधिक लचीलापन है । प्रश्नों को पुनः निर्मित किया जा सकता है या अलग ढंग से बताया जा सकता है; बातचीत में हुई प्रगति (या प्रगति कम होने पर) के अनुसार विषयों या प्रश्नों का क्रम बदला जा सकता है; जिन विषयों पर अच्छी सामग्री मिल रही हो, उन्हें विस्तारित किया जा सकता है या किसी अन्य अवसर पर बाद में जानने हेतु स्थगित किया जा सकता है और यह . सब स्वयं साक्षात्कार के दौरान किया जा सकता है। । दूसरी तरफ साक्षात्कार विधि के रूप में साक्षात्कार से संबंधित लाभों के साथ अनेक हानियाँ भी हैं।

इसका यह लचीलापन उत्तरदाता की मनोदशा बदल जाने के कारण या फिर साक्षात्कार करने वाले की एकाग्रता में त्रुटि होने के कारण साक्षात्कार को कमजोर बना देता है । इस प्रकार यह एक अविश्वसनीय तथा अस्थिर प्रारूप है जो जब कार्य करता है तो बहुत अच्छा करता है तथा जब असफल होता है तो बहुत बुरी तरह से होता है। साक्षात्कार लेने की अनेक शैलियाँ हैं तथा इससे संबंधित विचार तथा अनुभव लाभों के अनुसार बदलते रहते हैं। कुछ व्यक्ति अत्यंत असंगठित प्रारूप को प्राथमिकता देते हैं जिसमें वास्तविक प्रश्नों के स्थान पर विषय की जाँच सूची ही होती है। अन्य व्यक्ति इसके संगठित रूप से वरीयता देते हैं जिसमें सभी उत्तरदाताओं से विशेष प्रश्न पूछे जाते हैं। परिस्थितियों तथा वरीयताओं के अनुसार साक्षात्कार को रिकार्ड करने के तरीके भी अलग-अलग हैं जिनमें वास्तविक विडियो या ऑडियो रिकार्ड करना, साक्षात्कार के दौरान विस्तृत नोट तैयार करना या स्मरण शक्ति पर निर्भर करना और साक्षात्कार समाप्त होने पर इसे लिखना शामिल है।

रिकार्ड करने वाले या इसी प्रकार के अन्य उपकरणों का बार-बार प्रयोग करने से उत्तरदाता असमान्य महसूस करता है तथा इससे बातचीत में काफी हद तक औपचारिकता आ जाती है। दूसरी तरफ जब रिकार्ड करने की अन्य कम व्यापक विधियों का प्रयोग किया जाता है तो कभी-कभी महत्त्वपूर्ण सूचना छूट जाती है या रिकार्ड नहीं हो पाती है। कभी-कभी साक्षात्कार के समय भौतिक या सामाजिक परिस्थितियाँ भी रिकार्ड के माध्यम को निर्धारित करती हैं। बाद में प्रकाशन के लिए साक्षात्कार को लिखने या अनुसंधान रिपोर्ट के हिस्से के रूप में लिखने का तरीका भी भिन्न हो सकता है। कुछ अनुसंधानकर्ता प्रतिलिपि को संपादित करना तथा इसे ‘स्पष्ट’ नियमित वर्णनात्मक रूप से प्रस्तुत करना पसंद करते हैं; जबकि दूसरे मूल वार्तालाप को यथासंभव वैसा ही बनाए रखना चाहते हैं तथा इसके लिए वे हरसंभव प्रयास करते हैं।

साक्षात्कार को प्रायः अन्य पद्धतियों के साथ अनुरूप के रूप में विशेषता सहभागी अवलोकन तथा सर्वेक्षणों के साथ प्रयुक्त किया जाता है। ‘महत्वपूर्ण सूचनादाता’ (सहभागिता अवलोकन अध्ययन का मुख्य सूचनादाता) के साथ लंबी बातचीत से प्रायः संकेन्द्रित जानकारी प्राप्त हाती है जो साथ में लगाई गई सामग्री प्रदान करती है, स्पष्ट करती है तथा इसी तरह से गहन साक्षात्कारो द्वारा सर्वेक्षण के निष्कर्षों को गहनता तथा व्यापकता प्राप्त होती है। हालांकि एक पद्धति के रूप में साक्षात्कार व्यक्तिगत पहुँच पर और उत्तरदाता तथा अनुसंधानकर्ता के आपसी संबंधों या आपसी विश्वास पर निर्भर होता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
“मूल रूप से, प्रश्नावली प्रेरणओं का एक समूह है, जिसके प्रति शिक्षित व्यक्ति उत्तेजित किए जाते हैं तथा इन उत्तेजनाओं के अन्तर्गत वे अपने व्यवहार का वर्णन करते हैं।” यह कथन है …………………….
(अ) मोजर
(ब) लुंडबर्ग
(स) मोर्स
(द) पी० वी० यंग
उत्तर:
(ब) लुंडबर्ग

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प्रश्न 2.
“अवलोकन नेत्रों द्वारा एक विचारपूर्वक अध्ययन है-जैसे सामूहिक व्यवहार तथा जटिल सामाजिक संस्थाओं तथा साथ ही साथ संपूर्णता वाली पृथक् इकाइयों के अन्वेक्षण हेतु प्रणाली के रूप में उपयोग किया जाता है।” यह कथन है ……………………
(अ) मेजर
(ब) लुंडबर्ग
(स) मोर्स
(द) पी० वी० यंग
उत्तर:
(द) पी० वी० यंग

प्रश्न 3.
“एक प्रश्नावली के प्रश्नों के समूह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। सूचनादाता को बिना अनुसंधानकर्ता या प्रगणक की व्यक्तिगत सहायता के उत्तर देना होता है।साधारणतया प्रश्नावली डाक द्वारा भेजी जाती है, लेकिन इसे व्यक्तियों को बाँटा भी जा सकता है। प्रत्येक स्थिति में यह सूचना प्रदान करने वाले द्वारा भरकर भेजी जाती है।” यह कथन है ………………….
(अ) मोजर
(ब) लुंडबर्ग
(स) मोर्स
(द) पी० वी० यंग
उत्तर:
(स) मोर्स

प्रश्न 4.
“प्रविधियाँ एक समाज वैज्ञानिक के लिये वे मान्य तथा सुव्यवस्थित तरीके होते हैं, जिन्हें वह अपने अध्ययन से संबंधित विश्वसनीय तथ्यों (Reliable facts) को प्राप्त करने हेतु प्रयोग में लाता है।” यह कथन है …………………….
(अ) मोज
(ब) लुंडबर्ग
(स) मोर्स
(द) पी० वी० यंग
उत्तर:
(अ) मोजर

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प्रश्न 5.
“सर्वेक्षण किसी सामाजिक स्थिति या समस्या अथवा जनसंख्या के परिभाषित उद्देश्यों के लिए वैज्ञानिक तथा व्यवस्थित रूप से अवश्लेषण की एक पद्धति है।” यह कथन …………………….
(अ) मोज़र
(स) मोर्स
(ब) लुंडबर्ग
(द) पी० वी० यंग
उत्तर:
(स) मोर्स

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions  Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

Bihar Board Class 11 Political Science भारतीय संविधान में अधिकार Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में कौन मौलिक अधिकारों का सबसे सटीक वर्णन है?
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार।
(ख) कानून द्वारा नागरिक को प्रदत्त समस्त अधिकार।
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त तथा सुरक्षित समस्त अधिकार।
(घ) संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन पर कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर:
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त तथा सुरक्षित समस्त अधिकार।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रत्येक कथन के बारे में बताएँ कि वह सही है या गलत –

  1. अधिकार-पत्र में किसी देश की जनता को हासिल अधिकारों का वर्णन रहता है।
  2. अधिकार-पत्र स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
  3. विश्व के हर देश में अधिकार-पत्र होता है।

उत्तर:

  1. सही
  2. सही
  3. गलत

प्रश्न 3.
निम्नलिखित स्थितियों को पढ़ें। प्रत्येक स्थिति के बारे में बताएं कि किस मौलिक अधिकार का उपयोग या उल्लंघन हो रहा है और कैसे?
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज्यादा है-नौकरी में तरक्की दी गई, लेकिन उनकी ऐसी महिला-सहकर्मियों को दंडित किया गया, जिनका वजन बढ़ गया था।
(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाता है, जिसमें सरकारी नीतियों की आलोचना है।
(ग) एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकलते हैं।
(घ) आन्ध्र-सोसायटी आन्ध्रप्रदेश के बाहर तेलगू माध्यम में विद्यालय चलाती है।
उत्तर:
(क) नेशनल एयरलाइन्स के अधिक भारी पुरुष कर्मचारी को प्रोन्नति दी जाती है। परन्तु उनके साथी महिला कर्मचारी जो अधिक भारी हो जाती हैं, को प्रोन्नति नहीं दी जाती वरन उनको पेनेलाइज्ड किया जाता है। इस दशा में समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता से या समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। अनुच्छेद 15 (i) में कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।

अनुच्छेद 16 (i) के अनुसार राज्य के अधीन किसी नियोजन या नियुक्ति से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी। अनुच्छेद 16 (ii) के अनुसार राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के सम्बन्ध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा। परन्तु उपरोक्त घटना में लिंग के आधार पर भेदभाव किया गया है। अत: महिला कर्मचारियों को लिंग भेद के कारण प्रोमोशन नहीं दिया गया। यह समानता के अधिकार का उल्लंघन है।

(ख) इस घटना में एक निर्देशक के द्वारा डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाकर सरकार की नीतियों की आलोचना की गयी है। अनुच्छेद 19 (i) के अनुसार व्यक्ति को (सभी नागरिकों को) विचार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है।

(ग) इस घटना में क्योंकि बड़े बाँध के निर्माण को लेकर विस्थापित व्यक्तियों द्वारा पुनः स्थापित करने की माँग को लेकर रैली का आयोजन किया गया। यहाँ पर अनुच्छेद 19 (ii) में दिए गए शान्तिपूर्वक सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता के अधिकार का प्रयोग हुआ है।

(घ) इस घटना में अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार प्राप्त है। उसी के आधार पर आन्ध्र सोसायटी, आन्ध्रप्रदेश के बाहर तेलगू भाषा का विद्यालय चलाती है। यहाँ अल्पसंख्यकों के अधिकार का प्रयोग हुआ है।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में कौन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की सही व्याख्या है?
(क) शैक्षिक-संस्था खोलने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के ही बच्चे इस संस्थान में पढ़ाई कर सकते हैं।
(ख) सरकारी विद्यालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक-वर्ग के बच्चों को उनकी संस्कृति और धर्म-विश्वासों से परिचित कराया जाए।
(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।
(घ) भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यक यह माँग कर सकते हैं कि उनके बच्चे उनके द्वारा संचालित शैक्षणिक-संस्थाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्थान में नहीं पढ़ेंगे।
उत्तर:
उपरोक्त चारों कथनों में से (ग) भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने बच्चों को शिक्षा देने के लिए और अपनी व संस्कृति की रक्षा के लिए स्कूल खोलने का अधिकार है। यह कथन सत्य है, क्योंकि यही संस्कृति और शैक्षणिक अधिकार की सही अभिव्यक्ति है। अनुच्छेद 29 (i) के अनुसार अल्पसंख्यक वर्गों के हितों के संरक्षण हेतु भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को जिनकी अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना प्रशासन का अधिकार होगा।

प्रश्न 5.
इनमें कौन-मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और क्यों?
(अ) न्यूनतम देय मजदूरी नहीं देना।
(ब) किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाना।
(स) 9 बजे रात के बाद लाउड-स्पीकर बजाने पर रोक लगाना।
(द) भाषण तैयार करना।
उत्तर:
भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। प्रारम्भ में 7 मूल अधिकार दिए गए थे किन्तु 44वें संविधान द्वारा सम्पत्ति का अधिकार समाप्त कर दिया गया। दिसम्बर 2002 में 86वें संविधान संशोधन द्वारा 6 – 14 वर्ष आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का मूल अधिकार प्रदान किया गया है। अत: मूल अधिकारों की संख्या पुन: 7 हो गयी है। उपरोक्त प्रश्न में 4 घटनाएँ दी गयी हैं। इनमें से पहली घटना न्यूनतम मजदूरी न देना ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ का उल्लंघन माना जाएगा।

परन्तु अन्य तीन घटनाओं में मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं होता, क्योंकि किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने से उस पुस्तक के लेखक के विचार, अभिव्यक्ति पर यद्यपि प्रतिबन्ध तो है। परन्तु समाज के किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुँचाने पर किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। इसी प्रकार तीसरी घटना में रात्रि 9 बजे के बाद लाउडस्पीकर पर प्रतिबन्ध भी समाज के हित में लगाया जाता है। भाषण देना तो विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार की पूर्ति ही है। अत: उपरोक्त घटनाओं में से प्रथम घटना जिसमें न्यूनतम मजदूरी नहीं दी गयी, में उस श्रमिक के ‘शोषण के विरुद्ध मौलिक अधिकार’ का उल्लंघन हुआ है।

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प्रश्न 6.
गरीबों के बीच काम कर रहे एक कार्यकर्ता का कहना है कि गरीबों को मौलिक अधिकारों की जरूरत नहीं है। उनके लिए जरूरी यह है कि नीति निर्देशक सिद्धान्तों को कानूनी तौर पर बाध्यकारी बना दिया जाय। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर:
मैं इस कथन से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि नागरिकों के लिए मौलिक अधिकार नीति निर्देशक तत्त्वों से अधिक जरूरी है. दूसरे नीति निर्देशक तत्त्वों को बाध्यकारी (न्यायसंगत) नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि हमारे पास सभी को नीति निर्देशक तत्त्वों में दी गयी सुविधाओं को देने के लिए पर्याप्त श्रोत नहीं है।

प्रश्न 7.
अनेक रिपोर्टों से पता चलता है कि जो जातियाँ पहले झाडू देने के काम में लगी थीं, उन्हें मजबूरन यही काम करना पड़ रहा है, जो लोग अधिकार-पद पर बैठे हैं, वे इन्हें कोई और काम नहीं देते। इनके बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करने पर हतोत्साहित किया जाता है। इस उदाहरण में किस मौलिक-अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।
उत्तर:
इस उदाहरण में निम्न मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है –

1. स्वतन्त्रता का अधिकार:
जब उन व्यक्तियों को हमेशा उसी व्यवसाय को अपनाने को बाध्य किया गया हो तो उनके स्वतन्त्रता अधिकार का उल्लंघन हुआ है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार संविधान ने सभी नागरिकों को वृत्ति, उपजीविका, व्यापार अथवा व्यवसाय की स्वतन्त्रता प्रदान की है। यह स्वतन्त्रता उनको नहीं दी जा रही है। अत: उनके स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है।

2. संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार:
उपरोक्त घटना में उन व्यक्तियों के संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार का भी उल्लंघन हुआ है। अनुच्छेद 29 के उपखंड (2) के अनुसार राज्य द्वारा घोषित वा राज्यनिधि से सहायता प्राप्त किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के भी आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।

3. समानता का अधिकार:
उपरोक्त घटना में समानता के अधिकार का भी उल्लंघन होता है। अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान समझा जाएगा। अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करता है।

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प्रश्न 8.
एक मानवाधिकार-समूह ने अपनी याचिका में अदालत का ध्यान देश में मौजूद भूखमरी की स्थिति की तरफ खींचा। भारतीय खाद्य-निगम के गोदामों में 5 करोड़ टन से ज्यादा अनाज भरा हुआ था। शोध से पता चलता है कि अधिकांश राशन-कार्डधारी यह नहीं जानते कि उचित-मूल्य की दुकानों से कितनी मात्रा में वे अनाज खरीद सकते हैं। मानवाधिकार समूह ने अपनी याचिका में अदालत से निवेदन किया कि वह सरकार को सार्वजनिक-वितरण-प्रणाली में सुधार करने का आदेश दे।
(अ) इस मामले में कौन-कौन से अधिकार शामिल हैं? ये अधिकार आपस में किस तरह जुड़े हैं?
(ब) क्या ये अधिकार जीने के अधिकार का एक अंग हैं?
उत्तर:
(अ) उक्त उदाहरण के अन्तर्गत संवैधानिक उपचारों का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार तथा स्वतन्त्रता का अधिकार लिप्त है। ये अधिकार आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। भूख से मरने के कारण जीने के अधिकार का उल्लंघन हुआ। गोदामों में पाँच करोड़ टन अनाज होते हुए भी सरकार ने वितरण व्यवस्था ठीक नहीं की और मानव अधिकार समूह द्वारा कोर्ट से प्रार्थना की गयी कि सरकार को पब्लिक वितरण व्यवस्था सुधारने के लिए आदेश दिया जाए अर्थात् संवैधानिक उपचारों का अधिकार सम्मिलित है।

(ब) ये अधिकार यद्यपि सभी अलग-अलग मूल अधिकार हैं। परन्तु ये इस मामले में जीव के अधिकार के भाग बने हुए हैं।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में उद्धृत सोमनाथ लाहिड़ी द्वारा संविधान-सभा में दिए गए वक्तव्य को पढ़ें। क्या आप उनके कथन से सहमत हैं? यदि हाँ तो इसकी पुष्टि में कुछ उदाहरण दें। यदि नहीं तो उनके कथन के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
सोमनाथ लाहिड़ी का संविधान सभा में दिया गया कथन इस प्रकार है – “मैं समझता हूँ कि इसमें ये अनेक मौलिक अधिकारों को एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाया गया है। … आप देखेंगे कि काफी कम अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार के बाद एक उपबन्ध जोड़ा गया है। लगभग प्रत्येक अनुच्छेद के बाद एक उपबन्ध है, जो इन अधिकारों को वापस ले लेता है। … मौलिक अधिकारों की हमारी क्या अवधारणा होनी चाहिए? … हम उस प्रत्येक अधिकार को संविधान में पाना चाहते हैं, जो हमारी जनता चाहती है।”

इस कथन से यह तात्पर्य निकलता है कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकार दिए ही कम हैं, बहुत सी ऐसी बातों को छोड़ दिया गया है, जो मौलिक अधिकारों में शामिल होनी चाहिए थीं। जैसे काम करने का अधिकार, निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, आवास का अधिकार, सूचना प्राप्त करने का अधिकार आदि। दूसरी आलोचना इस कथन से पता चलती है कि प्रत्येक मौलिक अधिकारों के साथ अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं, जिससे यह समझना कठिन हो जाता है कि व्यक्ति को मौलिक अधिकारों से क्या मिला? आलोचकों का मत है कि भारतीय संविधान एक हाथ से अधिकार देता है, तो दूसरे हाथ से उन्हें छीन लेता है।

तीसरी महत्त्वपूर्ण बात उक्त कथन से प्रकट होती है कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकार पुलिस के सिपाही के दृष्टिकोण से दिए गए हैं। इसका यह अर्थ है कि प्रत्येक अधिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं। हरिविष्णु कामथ ने भी संविधान सभा में कहा था कि “इस व्यवस्था द्वारा तानाशाही राज्य और पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।”

इसी प्रकार सरदार हुकमसिंह ने कहा था “यदि हम इन स्वतन्त्रताओं को व्यवस्थापिका की इच्छा पर ही छोड़ देते हैं, जो कि एक राजनीतिक दल के अलावा कुछ नहीं है, तो इन स्वतन्त्रताओं के अस्तित्व में भी सन्देह हो जाएगा।” संविधान में मौलिक अधिकारों पर जो प्रतिबन्ध लगे हैं जैसे विचार अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि किसी की भावना को ठेस न पहुँचे। बिना शस्त्र सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता के अधिकार पर कभी यह प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है कि इससे साम्प्रदायिक दंगा भड़कने की आशंका है। इस प्रकार मौलिक अधिकारों की उपयोगिता ही समाप्त हो जाती है।

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प्रश्न 10.
आपके अनुसार कौन-सा मौलिक अधिकार सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसके प्रावधानों को संक्षेप में लिखें और तर्क देकर समझायें कि यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में दिया गया अन्तिम अधिकार संवैधानिक उपचारों का अधिकार सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह अधिकार है कि अगर संविधान में दिये गये अन्य मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो तो यह अधिकार नागरिकों को न्यायालय में जाने का अधिकार देता है। न्यायालय केस के आधार पर आवश्यक आदेश जारी करता है, जिससे उस अधिकार की रक्षा की जाती है। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने भी इस अधिकार को संविधान का हृदय व आत्मा (Heart and Soul) कहा है।

Bihar Board Class 11 Political Science भारतीय संविधान में अधिकार Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अधिकारों से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
अधिकार:
व्यक्ति की उन माँगों को, जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हो तथा राज्य द्वारा संरक्षण प्राप्त हो, अधिकार कहते हैं। कभी-कभी असंरक्षित माँगें भी अधिकार बन जाती हैं, भले ही उन्हें कानून का संरक्षण प्राप्त न हुआ हो। उदाहरण के लिए काम पाने का अधिकार राज्य ने भले ही स्वीकार न किया हो परन्तु उसे अधिकार ही माना जाएगा क्योंकि काम के बिना कोई भी व्यक्ति अपना सर्वोच्च विकास नहीं कर सकता।

बेन तथा पीटर्स ने अधिकार की परिभाषा देते हुए कहा है, “अधिकारो की स्थापना एक। सुस्थापित नियम द्वारा होती है। वह नियम चाहे कानून पर आधारित हो या परम्परा पर।” अस्टिन के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति की वह सामर्थ्य है, जिससे वह किसी दूसरे से कोई काम करा सकता हो या दूसरे को कोई काम करने से रोक सकता है।” लास्की के अनुसार, “अधिकार सामान्य जीवन की वह परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन को पूर्ण नहीं पर सकता।”

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प्रश्न 2.
मौलिक अधिकारों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मौलिक अधिकार-किसी देश के नागरिकों को लोकतन्त्रिक शासन व्यवस्था में जिन अनेक व्यक्तियों की प्राप्ति होती है, उनमें से कुछ प्रमुख अधिकार, जिनके बिना व्यक्ति अपनी उन्नति व विकास नहीं कर सकता, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। जैसे-जीवन का अधिकार, समानता का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार, शिक्षा व संस्कृति का अधिकार इत्यादि। जिन कारणों से इन अधिकारों को मौलिक कहा जाता है, वे हैं –

  1. ये व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यावश्यक है।
  2. देश के संविधान में इन अधिकारों का वर्णन किया गया है। कोई सरकार स्वेच्छा से इनमें परिवर्तन नहीं कर सकती।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में दिए गए मूल अधिकारों का महत्त्व बताइए।
उत्तर:
ब्रिटिश शासन में जनता के अधिकारों का हनन हुआ जिस कारण भारतीय समाज पिछड़ता गया। इस कारण संविधान निर्माताओं ने मौलिक अधिकारों को संवैधानिक प्रावधानों के द्वारा सुरक्षित बना दिया। संविधान में दिए गए इन अधिकारों का बहुत महत्त्व है। इन अधिकारों के द्वारा व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। ये अधिकार शासन को निरन्कुश होने से रोकते हैं, तथा नागरिकों को आत्म-विकास का अवसर देते हैं। मूल अधिकार देश की एकता बनाए रखने में सहायक होते हैं।

प्रश्न 4.
नागरिकों के दो धार्मिक अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  1. धार्मिक विश्वास का अधिकार-कोई भी मनुष्य अपनी इच्छानुसार धार्मिक विश्वास रख सकता है। धर्म उसका व्यक्तिगत मामला है। अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने धार्मिक विश्वास के अनुसार पूजा-पाठ करने का अधिकार है।
  2. धार्मिक प्रचार का अधिकार-प्रत्येक धर्म के मानने वालों को अपने धर्म का प्रचार करने का समान अधिकार प्राप्त है। धर्म-प्रचारक अपने धर्म के प्रचार के लिए शान्तिपy सम्मेलन कर सकते हैं।

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प्रश्न 5.
नागरिक के किन्हीं दो राजनीतिक अधिकारों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक अधिकार –

  1. चुनाव में उम्मीदवार के रूप में खड़ा होने का अधिकार।
  2. चुनाव में मत देने का अधिकार।
  3. रातनीतिक पद प्राप्त करने का अधिकार।
  4. कानून के समक्ष समानता का अधिकार।

प्रश्न 6.
भारत में स्त्रियों के कल्याण से सम्बन्धित कोई दो निर्देशक सिद्धान्त लिखें।
उत्तर:

  1. महिला और पुरुष दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाए।
  2. स्त्रियों व बच्चों का शोषण न किया जाए। महिला और पुरुष कामगारों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो।
  3. पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो।

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प्रश्न 7.
राज्य के दो नीति निर्देशक सिद्धान्त लिखें जो भारत में बाल कल्याण से सम्बन्धित हैं।
उत्तर:
भारत में बाल कल्याण से सम्बन्धित राज्य के दो नीति निर्देशक तत्व निम्नलिखित हैं –

  1. बालकों को स्वतन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दी जाएँ और बालकों व अल्पवय व्यक्तियों की शोषण तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।
  2. राज्य इस संविधान के प्रारम्भ से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करने का प्रयास करेगा।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
‘प्रतिषेध लेख’ तथा ‘अधिकार पृच्छा’ पर टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
मौलिक अधिकारों से किसी को वंचित न किया जाए इस हेत संविधान ने मौलिक अधिकारों की रक्षा का भार सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को सौंपा है। ये न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध लेख, अधिकार पृच्छा तथा उत्प्रेषण लेख या आदेश जारी करते हैं। इनमें से प्रतिबन्ध लेख तथा अधिकार पृच्छा का वर्णन निम्नलिखित है –

1. प्रतिषेध लेख:
प्रतिषेध का अर्थ है ‘मना करना’। जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जा रहा हो या कानूनी प्रक्रिया के विरुद्ध जा रहा हो तो उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय उस अधीनस्थ न्यायालय को ऐसा करने पर प्रतिषेध (मना) कर सकता है। इसके लिए सम्बन्धित उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालय को इस प्रतिषेध लेख द्वारा उचित कार्यवाही करने के लिए आदेश दे सकता है।

2. अधिकार पृच्छा:
इसका अर्थ है ‘किस अधिकार से?’ यदि किसी व्यक्ति ने कानून के विरुद्ध किसी पद पर अधिकार प्राप्त कर रखा है, तो उच्च न्यायालय उसे ऐसा करने से रोक सकता है। जैसे केन्द्रीय लोकसेवा आयोग के सदस्य की आयु की सीमा 65 वर्ष है। यदि कोई व्यक्ति इस आयु के पश्चात् भी सदस्य बना हुआ है, तो उच्चतम न्यायालय उससे यह पूछ सकता है, कि किस कानून के अन्तर्गत उसने ऐसा किया है, और उसे अधिकार है, कि,आवश्यक समझने पर वह उस व्यक्ति को पदमुक्त करने का आदेश दे सकता है।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए –
(क) गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध संरक्षण।
(ख) अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा।
(ग) बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख।
(घ) परमादेश।
उत्तर:
(क) गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध संरक्षण:
अनुच्छेद 22 के अनुसार जब कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है, तो यथाशीघ्र इसकी गिरफ्तारी का कारण बताया जाना आवश्यक है। गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम न्यायाधीश के सम्मुख पेश किया जाना चाहिए। गिरफ्तार व्यक्ति को अपनी रुचि का वकील करने या वकील से परामर्श लेने का अधिकार है।

(ख) अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा:
अनुच्छेद 39 अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करने तथा उनका प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता देता है। यदि राज्य किसी ऐसी शिक्षण संस्थाओं का आधिपत्य ग्रहण करता है, जिसकी स्थापना अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा हुई हो तो उतना मुआवजा देना अनिवार्य होगा जिससे अल्पसंख्यक के अधिकार समाप्त अथवा सीमित न हों।

(ग) बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख:
लैटिन भाषा के इस शब्द का अर्थ है, कि ‘शरीर को हमारे सम्मुख प्रस्तुत करो।’ इसके द्वारा न्यायालय को अधिकार प्राप्त होता है, कि वह बन्दी बनाए गए किसी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करने का आदेश दे सके यदि बन्दी बनाया गया व्यक्ति यह अनुभव करता है, कि उसे गैरकानूनी अथवा अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है, तो वह स्वयं अथवा उसका कोई साथी उच्च या सर्वोच्च न्यायालय में आवेदन पत्र दे सकता है, कि बन्दी बनाए गए व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष उपस्थित किया जाए।

(घ) परमादेश:
लैटिन भाषा के इस शब्द का अर्थ है, ‘हम आज्ञा देते हैं। जब कोई व्यक्ति या संस्था अपने कर्त्तव्य की पूर्ति न करे तो न्यायालय उसे अपने कर्त्तव्य पालन के लिए परमादेश द्वारा आदेश दे सकता है। जैसे कोई विश्वविद्यालय अपने किसी सफल विद्यार्थी को डिग्री न दे अथवा कोई संस्था अपने कर्मचारी को बिना समुचित कारण बताए नौकरी से निकाल दे और न्यायालय के निर्णय के बाद भी उसे पुनः नियुक्त न करे। ऐसी अवस्था में उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय परमादेश के द्वारा इन संस्थाओं को कर्तव्य पालन करने के लिए आदेश दे सकती है।

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प्रश्न 3.
किन्हीं दो मौलिक अधिकारों का उल्लेख करें, जो संविधान अल्पसंख्यकों को देता है।
उत्तर:
किसी देश के नागरिकों को लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्था में जिन अधिकारों की प्राप्ति होती है, उनमें से कुछ प्रमुख अधिकार, जिनके बिना व्यक्ति अपनी उन्नति व विकास नहीं कर सकता, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। जैसे-जीवन का अधिकार, समानता का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार, शिक्षा व संस्कृति का अधिकार इत्यादि। भारतीय संविधान द्वारा भारत के सभी नागरिकों को छः प्रकार के मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, उनमें से दो मौलिक अधिकार जो अल्पसंख्यकों को दिए गए हैं, निम्नलिखित हैं –

  1. संविधान के अनुच्छेद 16 के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को योग्यता होने पर बिना किसी भेदभाव के नौकरी के लिए समान अवसर प्रदान किए गए हैं, परन्तु अल्पसंख्यकों अथवा पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में कुछ स्थान सुरक्षित रखे गए हैं।
  2. अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार होगा। उसका प्रबन्धन वे स्वयं कर सकेंगें, राज्य उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा।

प्रश्न 4.
मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक तत्वों में कोई दो अन्तर बताएँ।
उत्तर:
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों तथा नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को एक महत्त्वपूर्ण अंग मानकर इसकी व्याख्या की गई है, ताकि इनके द्वारा प्रत्येक अपना विकास कर सकें और सभी को सामाजिक और आर्थिक न्याय मिल सके। यद्यपि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, किन्तु फिर भी दोनों में भिन्न अन्तर हैं –

1. मौलिक अधिकारों को कानूनी संरक्षण प्राप्त है, लेकिन निर्देशक सिद्धान्त को नहीं-संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों को कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया है, अर्थात् यदि सरकार किसी कानून या प्रशासनिक आदेश द्वारा नागरिकों के अधिकार पर आक्षेप करती है तो, नागरिक सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय से न्याय की माँग कर सकता है। इन न्यायालयों का कर्तव्य है, कि वे अधिकारों की रक्षा करें परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को इस प्रकार का कोई कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है।

2. नीति निर्देशक सिद्धान्त राज्य से संबन्धित हैं, लेकिन मौलिक अधिकार नागरिकों से-मौलिक अधिकार नागरिकों को प्राप्त हैं और इनका सम्बन्ध नागरिकों से है, किन्तु नीति निर्देशक सिद्धान्त राज्य से सम्बन्धित हैं। इनका पालन करना राज्य का काम है। मौलिक अधिकार संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान की गई सुविधाएँ हैं, जब कि निर्देशक सिद्धान्तों के द्वारा सरकार को जनता के कल्याण के कार्य करने के लिए निर्देश दिए गए हैं।

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प्रश्न 5.
संविधान के 42 वीं संशोधन द्वारा जोड़े गए राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
42 वीं संविधान संशोधन द्वारा नीति निर्देशक तत्वों का विस्तार किया गया जो निम्नलिखित है –

  1. राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि बच्चों को स्वस्थ, स्वतन्त्र और प्रतिष्ठापूर्ण वातावरण में अपने विकास के लिए अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हों।
  2. राज्य ऐसी कानून प्रणाली के प्रचलन की व्यवस्था करेगा जो समाज में अवसर के आधार पर न्याय का विकास करे। राज्य उपयुक्त कानून या अन्य ढंग से आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का प्रयत्न करंगा।
  3. राज्य उपयुक्त कानून द्वारा या अन्य उपायों से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्धन में भागीदार बनाने के लिए कदम उठाएगा।
  4. राज्य पर्यावरण की सुरक्षा और विकास तथा देश के वन और वन्य जीवों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा।

प्रश्न 6.
शिक्षा और संस्कृति से सम्बन्धित कौन से अधिकार भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए हैं?
उत्तर:
संस्कृति तथा शिक्षा-सम्बन्धी अधिकार- भारतीय संविधान की धारा 29 व 30 में इन अधिकारों का वर्णन है। इन अधिकारों को संविधान में स्थान देकर अल्पसंख्यकों के लिए नया युग आरम्भ किया गया है।

  1. भारत के नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार है।
  2. धर्म, वंश, जाति, भाषा अथवा इनमें से किसी एक के आधार पर किसी भी नागरिक को किसी राजकीय संस्था या राजकीय सहायता प्राप्त संस्था में प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता।
  3. अल्पसंख्यकों को अपनी इच्छानुसार स्कूल, कॉलेज खोलने का अधिकार होगा। इस प्रकार की संस्थाओं को अनुदान देने में राज्य कोई भेदभाव नहीं करेगा।

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प्रश्न 7.
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना से आप क्या समझते हैं? राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में इसे किस प्रकार व्यक्त किया गया है?
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का अर्थ है, कि भिन्न देशों के बीच सहयोग व सद्भावना का वातावरण बना रहे। इससे अभिप्राय यह भी है, कि भिन्न देश एक-दूसरे के साथ मित्र की भाँति व्यवहार करे। निर्देशक सिद्धान्तों में अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना को और अधिक दृढ़ करने के लिए संविधान की धारा 51 में निम्न प्रावधान का मुख्य रूप से उल्लेख किया गया है –

  1. सदस्य देश अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र चार्टर का पालन करें।
  2. आपसी झगड़ों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने का प्रयास करें। अन्तर्राष्ट्रीय विवाद को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने की व्यवस्था को राज्य प्रोत्साहन दे।
  3. आपसी सहयोग को बढ़ाने के लिए एक दूसरे के साथ हरेक प्रकार के सहयोग का आदान-प्रदान करें।
  4. सह-अस्तित्व की भावना पर बल दें। राज्य विभिन्न राज्यों के बीच न्याय और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना के लिए प्रयत्न करे।
  5. अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों व अन्तर्राष्ट्रीय संधियों के प्रति राज्य सरकार आदर की भावना बढ़ाने की कोशिश करे।

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प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत प्रदत्त छः स्वतन्त्रताओं का मूल्यांकन करें। इनकी रक्षा किस प्रकार की जाती है?
उत्तर:
नागरिक स्वतन्त्रता:
अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को सात स्वतन्त्रताएँ दी गई थीं जिनमें से 44 वें संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अर्जन स्वतन्त्रता को निकाल दिया गया है। शेष छः स्वतन्त्रताएँ निम्नलिखित हैं –

1. भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को भाषण, लेख, चलचित्र अथवा अन्य किसी माध्यम से अपने विचार को प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। 44 वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद 361 – A जोड़ा गया है, जिसके अन्तर्गत समाचार पत्रों को संसद, विधानमण्डलों की कार्यवाही प्रकाशित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होगी परन्तु राज्य को अधिकार है कि देश की अखंडता, सुरक्षा, शान्ति, नैतिकता, न्यायालयों के सम्मान और विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए इन अधिकारों पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।

2. शान्तिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के सभा:
सम्मेलन करने की स्वन्तत्रता-नागरिकों को शान्तिपूर्वक एकत्र होकर सभा करने की स्वन्तत्रता है, परन्तु सुरक्षा और शान्ति की दृष्टि से इस अधिकार पर भी उचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

3. संस्था या संघ बनाने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को संस्था व संघ बनाने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु उसका उद्देश्य सुरक्षा व शान्ति को खतरा पहुँचाना न हो।

4. भ्रमण की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को देश की सीमाओं के भीतर घूमने-फिरने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सार्वजनिक हितों तथा जनजातियों की रक्षा के लिए राज्य इस स्वतन्त्रता पर रोक लगा सकता है।

5. देश के किसी भाग में निवास करने और बसने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को देश के किसी भाग में निवास करने और बसने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सार्वजनिक हित और जनजाति, संस्कृति की रक्षा के लिए इस अधिकार पर भी प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

6. व्यवसाय अपनाने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को अपना कोई भी व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता दी गई है, पर सार्वजनिक हित में इस पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। सितम्बर 1989 में एक विवाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि “पटरियों और गली-कूचों में बैठकर या फेरी लगाकर व्यापार करना नागरिकों का मौलिक अधिकार है, पर उसके लिए किसी भी जगह पर स्थायी रूप से बैठने या जम जाने का कोई भी बुनियादी हक उन्हें नहीं है।”

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प्रश्न 2.
राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों को व्यवहारिक रूप देने के लिए भारत सरकार तथा भारत के राज्यों की सरकारों ने क्या किया?
उत्तर:
भारत में केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों ने 1950 ई. से लेकर अब तक निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए बहुत से प्रयत्न किए हैं। उनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं –

  1. भारत में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, कबीलों और अन्य पिछड़े हुए वर्गों को बहुत सी सुविधाएँ प्रदान की गयी हैं। जैसे-संसद और राज्य विधान मण्डलों में इनके लिए सीटें सुरक्षित रखी गयी हैं। इन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त है।
  2. भारत के प्रायः सभी राज्यों में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क तथा अनिवार्य है। कुछ राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा व केन्द्रशासित प्रदेश दिल्ली में तो माध्यमिक स्तर तक शिक्षा निःशुल्क है।
  3. संसद द्वारा कानून बनाकर स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए है। अब स्त्रियों को समान कार्य के लिए पुरुषों के समान वेतन दिया जाता है।
  4. महिला कल्याण के लिए सरकार द्वारा प्रसूति गृह खोले गए हैं, और वेश्यावृत्ति को कानूनन समाप्त किया जा रहा है।
  5. केन्द्र में व भारत के अधिकांश राज्यों में न्यायापालिका को कार्यपालिका से मुक्त रखा गया है।
  6. भारत में कई राज्यों ने नशाबन्दी के लिए प्रयास किए हैं। इन राज्यों में शराब बनाने, बेचने, खरीदने पर पाबन्दी लगा दी गयी है।
  7. समाजवाद के उद्देश्य की पूर्ति के लिए बड़े-बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है। भूतपूर्व राजाओं के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए हैं।
  8. भारत के प्राचीन स्मारकों की रक्षा के लिए भारतीय संसद द्वारा कई कानून बनाए गए हैं, और कार्यपालिका ने उन कानूनों को लागू किया है।
  9. कृषि की उन्नति के लिए सिंचाई योजनाएँ, ट्रैक्टर, उन्नत किस्म के बीज, किसानों को ऋणी सुविधाएँ आदि प्रदान की गयी हैं।
  10. पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया गया है। पंचायतों को अधिक शक्तियाँ भी दी गई हैं।
  11. विदेश नीति को पंचशील के सिद्धान्तों पर आधारित किया है। अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा के लिए भारत ने सदा ही संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को सहयोग प्रदान किया है।

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प्रश्न 3.
संवैधानिक उपचारों का अधिकार से क्या तात्पर्य है? इसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (धारा 32 व 36 ):
इस अधिकार के अनुसार प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार दिया गया है, कि यदि उसे प्राप्त मौलिक अधिकारों में आक्षेप किया जाए या छीना जाए, चाहे वह सरकार की ओर से ही क्यों न हो, वह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय से न्याय की माँग कर सकता है। मूल अधिकारों की रक्षा के लिए ये न्यायालय भिन्न प्रकार के निर्देश, आदेश या लेख जारी कर सकते हैं –

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण:
इसके अन्तर्गत न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त होता है, कि वह बन्दी बनाए गए किसी व्यक्ति को अपने सामने उपस्थित करने का आदेश दे सके ताकि इस बात की जाँच की जा सके कि उसे गैर-कानूनी तौर पर बन्दी नहीं बनाया गया। निर्दोष साबित होने पर उसे तुरन्त छोड़ दिया जाता है।

2. परमादेश:
लैटिन भाषा के इस शब्द का अर्थ है, हम आज्ञा देते हैं। जब किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा अपना कर्त्तव्य पालन न किए जाने की दशा में परमादेश जारी किया जाता है, तो परमादेश जारी होने पर उसे अपना कर्त्तव्य पालन करने का आदेश दिया जाता है।

3. प्रतिषेध:
प्रतिषेध द्वारा किसी अधिकारी या न्यायालय को ऐसा करने से रोका जाता है, जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो।

4. अधिकार पृच्छा:
गैरकानूनी एवं अनुचित तरीके से किसी व्यक्ति द्वारा किसी सरकारी, अर्धसरकारी या निर्वाचित पद को सम्भालने का प्रयत्न जारी करने की स्थिति में सर्वोच्च या उच्च अधिकार पृच्छा जारी करके उसे रोक सकता है। संवैधानिक उपचारों के अधिकार की महत्ता-भारतीय संविधान में भारतीय नागरिकों को जो मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, उनका तब तक कोई महत्त्व नहीं जब तक कि संविधान उनकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे।

संविधान में संवैधानिक उपचारों के अधिकार द्वारा मौलिक अधिकारों की सुरक्षा दी गई है। इन उपचारों का उल्लेख संविधान के 32 और 226 अनुच्छेदों, में किया गया है। इस अधिकार द्वारा संविधान मौलिक अधिकारों के लिए प्रभावी कार्यविधियाँ प्रतिपादित करता है। इस अधिकार के बिना मौलिक अधिकार खोखले वायदे साबित होते हैं। संविधान के 32 और 226 अनुच्छेदों द्वारा नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्य के उच्च न्यायालयों को सौंपा गया है। यदि किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो वह उन न्यायालयों में प्रार्थना पत्र देकर अपने अधिकार की रक्षा कर सकता है।

Bihar Board Class 11th Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

प्रश्न 4.
आपके अनुसार कौन-सा मौलिक अधिकार सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसके प्रावधानों को लिखें और तर्क देकर बताएँ कि यह क्यो महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
मौलिक अधिकार जो भारतीय संविधान में दिए गए थे, उनकी संख्या प्रारम्भ में 7 थी। 44 वें संशोधन द्वारा 1979 में सम्पत्ति का अधिकार समाप्त कर दिया गया और इनकी संख्या 6 हो गयी। परन्तु 86 वें संशोधन द्वारा प्राथमिक शिक्षा का अधिकार भी मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया । इस प्रकार पुनः इसकी संख्या 7 हो गई। भारतीय संविधान द्वारा छः
अधिकारों की सूची निम्न प्रकार है –

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  4. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  5. संस्कृति एवं शिक्षा का अधिकार
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार

इन सभी अधिकारों की उपयोगिता तभी सम्भव है, जबकि इन सभी अधिकारों को भारतीय संविधान में सुरक्षा की गारंटी मिले। यह गारंटी संविधान में संवैधानिक उपचारों के अधिकार द्वारा दी गई है। इन उपचारों का उल्लेख संविधान के 32 और 226 अनुच्छेदों में किया गया है। अधिकार के बिना अन्य मौलिक अधिकारों के लिए प्रभावी कार्यविधियाँ प्रतिपादित करता है। इस अधिकार के बिना अन्य मौलिक अधिकार खोखले वायदे साबित होते हैं।

संविधान के द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्य के उच्च न्यायालयों को सौंपा गया है। यदि किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो वह न्यायालयों में प्रार्थना पत्र (application) देकर अपने अधिकार की रक्षा कर सकता है। न्यायालय इस हेतु बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा तथा उत्प्रेषण लेख जारी कर सकता है। इस अधिकार के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है, कि न्यायालय ऐसे मामलों में तुरन्त कार्यवाही करता है, ताकि एक क्षण के लिए भी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो सके। संक्षेप में संवैधानिक उपचारों का अधिकार सर्वश्रेष्ठ मौलिक अधिकार है।

प्रश्न 5.
‘राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग’ पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में मूल अधिकारों का प्रावधान होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एमनेस्टी इण्टरनेशनल तथा कुछ अन्य मानव अधिकार समर्थकों द्वारा यह कहा जा रहा था कि राज्य के पुलिस बल, अर्धसैनिक बल, सेना और जेल अधिकारियों द्वारा व्यक्ति के अधिकारों का हनन किया जाता है। अतः इस प्रसंग में पहले तो सितम्बर 1993 में राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी किया गया उसके बाद दिसम्बर 1993 में “मानव अधिकार अयोग व न्यायालय’ गठन सम्बन्धी विधेयक पारित किया गया। यह आयोग भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत अधिकारों तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रसविदाओं से मान्यता प्राप्त अधिकारों के हनन की स्थिति में सरकारी कर्मचारियों की उपेक्षा की शिकायतों पर विचार करता है।

आयोग को केवल जाँच करने व सिफारिश करने का अधिकार है। इस आयोग में 8 सदस्य होते हैं। आयोग की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश करते हैं। आयोग के अन्य सदस्यों में सर्वोच्च न्यायालय का एक वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश, दो प्रतिष्ठित व्यक्ति जिन्हें मानवी अधिकारों के विषय में ज्ञान और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त हो, अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष, अनुसूचित जाति व जनजाति का अध्यक्ष तथा महिला आयोग का अध्यक्ष शामिल होंगे। आयोग को सशस्त्र बलों या अन्य सैनिक बलों के सम्बन्ध में जाँच करने का अधिकार नहीं है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को मानव अधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं की स्वतन्त्र रूप से जाँच करने का अधिकार है। आयोग अपने जाँच कार्य में ‘एमनेस्टी इण्टरनेशनल’ अथवा अन्य किसी अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सी की सहायता भी ले सकता है। आयोग को यह भी अधिकार है, कि वह मानवीय अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से, विद्यमान कानूनों में संशोधन के लिए शासन को सुझाव दे सके। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने 1994 ई. के प्रारम्भिक दिनों से ही अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया। टाडा कानून की समाप्ति और बाल श्रम का निषेध करने के बारे में इस आयोग का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

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प्रश्न 6.
भारतीय संविधान में दी गई विभिन्न मूल स्वतन्त्रताओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 से 22 तक विभिन्न स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है। अनुच्छेद 19 में नागरिक स्वतन्त्राओं का वर्णन दिया है।

1. नागरिक स्वतन्त्रताएँ:
अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को सात स्वतन्त्रताएँ दी गई थीं, जिनमें से 44वें संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अर्जन सम्बन्धी स्वतन्त्रता को निकाल दिया गया है। शेष छः स्वतन्त्रताएँ हैं –

(क) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को भाषण, लेख, चलचित्र अथवा अन्य किसी माध्यम से अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। 44 वें संशोधन द्वार संविधान में एक नया अनुच्छेद 361 A जोड़ा गया जिसके अन्तर्गत समाचार-पत्रों को संसद, विधानमण्डलों की कार्यवाही प्रकाशित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होगी परन्तु. राज्य को अधिकार है कि देश की अखन्डता, सुरक्षा, शान्ति, नैतिकता, न्यायालयों के सम्मान और विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए इन अधिकारों पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।

(ख) शान्तिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के सभा:
सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता-नागरिकों को शान्तिपूर्ण एकत्र होने की स्वतन्त्रता है, परन्तु सुरक्षा और शान्ति की दृष्टि से इस अधिकार पर भी उचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

(ग) संस्था या संघ बनाना:
नागरिकों को संस्था व संघ बनाने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सार्वजानिक हितों तथा जनजातियों की रक्षा के लिए इस स्वतन्त्रता पर रोक लगाया जा सकता है।

(घ) देश के किसी भाग में निवास करने और बसने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को देश में कहीं भी बसने की स्वतन्त्रता दी गई है, सार्वजानिक हित में इस पर भी प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

(ङ) व्यवसाय अपनाने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को अपना कोई भी व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता दी गई है पर सार्वजानिक हित में इस पर भी प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। दूसरे, किसी भी व्यवसाय के लिए कुछ व्यावसायिक योग्यताएँ निर्धारित की जा सकता हैं। तीसरे राज्य को स्वयं या किसी सरकारी कम्पनी द्वारा किसी भी व्यापार या धन्धे को अपने हाथों में लेने का अधिकार है।

2. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता:
अनुच्छेद 20, 21, 22 में ये स्वतन्त्रताएँ दी गई हैं। अनुच्छेद 20 के अनुसार –
(क) किसी भी व्यक्ति को किसी ऐसे कानून का उल्लंघन करने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता जो अपराध करते समय लागू न हो।
(ख) किसी व्यक्ति को उससे अधिक दण्ड नहीं दिया जा सकता जो उस कानून के लिए उल्लंघन करते समय निश्चित हो।
(ग) किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक न तो मुकद्दमा चलाया जा सकता है, और न ही दोबारा दण्डित किया जा सकता है।
(घ) किसी भी व्यक्ति को अपने विरुद्ध किसी अपराध में गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

अनुच्छेद 21 में जीवन तथा निजी स्वतन्त्रता की रक्षा की व्यवस्था की गई है। किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी तरीके से जीवन अथवा निजी स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 20 तथा 21 में प्राप्त अधिकारों को आपात स्थिति में भी निलम्बित नहीं किया जा सकता।

3. बन्दीकरण व नजरबन्दी से रक्षा:
अनुच्छेद 22 के अन्तर्गत –
(क) बन्दी बनाये गए व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी का कारण शीघ्र बताया जाएगा।
(ख) बन्दी व्यक्ति को अपनी इच्छा से वकील से सलाह लेने का अधिकार होगा।
(ग) बन्दी बनाए गए व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है।

44 वें संशोधन के अनुसार नजरबन्दी का मामला दो महीने के भीतर सलाहकार मण्डल के पास जाना आवश्यक है। सलाहकार मण्डल का गठन उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाएगा।

आलोचना:
उपरोक्त स्वतन्त्रताओं की निम्न आधार पर आलोचना की जाती है –

  1. नागरिकों की स्वतन्त्रताओं पर अनेक सीमाएँ लगा दी गई हैं। ये स्वतन्त्रताएँ यदि एक हाथ से दी गई हैं तो दूसरे हाथ से छीन ली गई हैं।
  2. सीमाएँ अत्यधिक व्यापक होने के कारण अस्पष्टता से ग्रसित हो जाती है। परिणामस्वरूप विधायिका व न्यायापालिका में टकराव की संभावना बनी रहती है।
  3. निवारक नजरबन्दी का अधिकार राज्य को प्राप्त है, जिसके कारण शान्तिकाल में भी जीवन तथा निजी स्वतन्त्रता का अधिकार अर्थहीन हो जाता है।
  4. न्यायाधीश मुखर्जी के शब्दों में, “जहाँ तक मुझे मालूम है, संसार के किसी भी देश में निवारक मिरोध को संविधान का अटूट भाग नहीं बनाया गया हैं, जैसे भारत में किया गया है। यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है।”

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प्रश्न 7.
भारतीय संविधान में दिए गए समानता के अधिकार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
समानता का अधिकार-समानता का अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक दिया गया है।

1. कानून के समक्ष समानता:
संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है – “राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता अथवा कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। “कानून के समक्ष समानता का तात्पर्य यह है, कि एक जैसे लोगों के साथ एक सा व्यवहार किया जाए।”

2. भेदभाव की मनाही:
अनुच्छेद 15 दो बातें स्पष्ट करता है। प्रथम “राज्य केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग व जन्म स्थान या इनमें से किसी एक आधार पर कोई नागरिक दुकानों, भोजनालयों, मनोरंजन की जगहों, तालाबों और कुओं का प्रयोग करने से वंचित नहीं किया जा सकेगा। परन्तु महिलाओं और बच्चों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए राज्य विशेष प्रकार की व्यवस्था कर सकता है।

3. अवसरों की समानता:
अनुच्छेद 16 के अनुसार सरकारी नियुक्तियों के लिए सभी नागरिकों को समान अवसर दिए जाएंगे। कोई भी नागरिक धर्म, वंश, जाति, जन्मस्थान या निवास स्थान के आधार पर सरकारी नियुक्तियों के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा। इस अनुच्छेद 16 के कुछ अपवाद भी दिए गए हैं –

(क) कुछ विशेष पदों के लिए निवास स्थान सम्बन्धी शर्ते आवश्यक मानी जा सकती हैं।
(ख) पीछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान आरक्षित किए जा सकते हैं।
(ग) यह व्यवस्था. की जा सकेगी कि धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्थाओं के पदाधिकारी किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के ही हों।

अगस्त, 1990 ई. में भारत सरकार ने, सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए समुदायों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। यह घोषणा मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए की गई थी। राज्य स्तर पर तो आरक्षण पिछले कई दशकों से चला आ रहा है, पर केन्द्र के अधीन नौकरियों में आरक्षण की घोषणा पहली बार की गई।

4. अस्पृश्यता की समाप्ति:
अस्पृश्यता अथवा छुआछूत का अन्त अनुच्छेद 17 में कर दिया गया है, और किसी भी रूप में छुआछूत को बरतने की मनाही की गई है। 1976 ई. में संसद ने कैद और जुर्माने की व्यवस्था को और कठोर बना दिया। छुआछूत बरतने या उसका प्रचार करने के अपराध में तीसरी बार या उससे अधिक बार दोषी पाये जाने वाले व्यक्तियों को दो साल की सजा और एक हजार जुर्माना किया जाएगा।

पहली बार किए गए अपराध के लिए कम से कम एक महीने की कैद और एक सौ रुपया जुर्माने की व्यवस्था की गई है। कानून में यह भी कहा गया है, कि छुआछूत के अन्तर्गत दोषी पाया गया व्यक्ति सजा की तारीख से छः वर्षों तक संसद और राज्य विधानमण्डल का चुनाव नहीं लड़ सकता।

5. उपाधियों की समाप्ति:
अनुच्छेद 18 के अनुसार –

  • राज्य सेना या शिक्षा सम्बन्धी सम्मान के सिवाय कोई ओर उपधि प्रदान नहीं करेगा।
  • भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
  • कोई व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं है, राज्य के अधीन लागू या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
  • राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य के या उसके अधीन संस्थान से किसी रूप में कोई भेंट उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।

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प्रश्न 8.
भारतीय संविधान में वर्णित शोषण के विरुद्ध अधिकार का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
शोषण के विरुद्ध का उद्देश्य है समाज के निर्बल वर्ग को शक्तिशाली वर्ग के अन्याय से बचाना। इस मौलिक अधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित व्यवस्थाएँ दी गई है –

1. मानव के क्रय-विक्रय तथा शोषण पर प्रतिबन्ध:
अनुच्छेद 23 के अनुसार मानव तथा किसी भी व्यक्ति से बेगार लेना गैरकानूनी घोषित किया गया है, परन्तु इस अधिकार का यह अपवाद है कि राज्य सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अनिवार्य सेवा लागू कर सकता है। उदाहरण के लिए अनिवार्य सैन्य कानून के अन्तर्गत लोग सेना में भर्ती किए जा सकते हैं । शोषण की मनाही के बावजूद पिछड़े वर्गों के लोग, जनजातियाँ, महिलाएँ और बन्धक मजदूर आज भी शोषण के शिकार हैं।

2. कारखानों आदि में बच्चों को काम करने की मनाही:
अनुच्छेद 24 के अनुसार चौदह वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को फैक्ट्री या खान में नहीं लगाया जाएगा और न किसी अन्य जोखिम के काम पर लगाया जाएगा। ऐसा करना अब एक दण्डनीय अपराध है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है, ताकि उनके स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े। भारत में मध्यकाल में जमींदार, राजा और नवाब तथा अन्य लोग अपने अधीनस्थ लोगों से बेगार लेते थे।

अपना निजी कार्य कराकर उनको बदले में कुछ नहीं देते थे। इसके विपरीत ग्रामों में स्त्रियों, दासों व बालकों के क्रय-विक्रय की कुरीति प्रचलन में थी। स्वतन्त्र हो जाने के बाद भी समाज के दुर्बल वर्ग का सर्वत्र शोषण होता रहा है। भारत के संविधान में दी गई उपरोक्त व्यवस्थाओं से शोषण कुछ रुका है। इस प्रकार बालकों व उपेक्षित वर्ग के शोषण या बेगार पर प्रतिबन्ध लगा है।

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प्रश्न 9.
राज्य के नीति निर्देशक तत्व एवं मौलिक अधिकारों में अन्तर स्पष्ट करें और यह भी स्पष्ट करें की सरकार निर्देशक तत्वों को उपेक्षा कर सकती है।
उत्तर:
मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक तत्व दोनों ही भारतीय लोकतंत्र की आधारभूत संरचना है। फिर भी दोनों में मौलिक अन्तर है, जो निम्नलिखित है –

  1. मौलिक अधिकार नकारात्मक प्रकृति का है। ये राज्य को कुछ कार्य करने से रोकती है। जबकि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक प्रकृति के हैं। ये राज्य को कुछ कार्य करने के लिए निर्देश है।
  2. मौलिक अधिकार का उद्देश्य भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है, जबकि नीति निर्देशक सिद्धान्तों का मुख्य उद्देश्य आर्थिक लोकतन्त्र एवं लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है।
  3. मौलिक अधिकार की प्रकृति कानूनी है। अर्थात् मौलिक अधिकार के उल्लंघन होने पर न्यायालय में जा सकते हैं। जबकि नीति निर्देशक तत्व की प्रकृति राजनीतिक है । लागू नहीं होने पर न्यायालय में नहीं जा सकते हैं। अर्थात् यह न्याय-योग्य नहीं है।
  4. मौलिक अधिकार अधिक स्पष्ट और निश्चित है, जबकि निर्देशक सिद्धान्त अस्पष्ट और अनिश्चित है। इस तरह स्पष्ट है, कि मौलिक अधिकार और निर्देशक तत्व में व्यापक अन्तर है।
  5. जहाँ तक सरकार द्वारा निर्देशक तत्वों की उपेक्षा का प्रश्न है, इसमें उत्तर में कहा जा सकता है। कि निर्देशक तत्वों का संवैधानिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से काफी महत्त्व है, इसलिए इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती है।

नीति निर्देशक तत्व का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज्य और आर्थिक लोकतन्त्र एवं सामाजिक न्याय की स्थापना करना है। यह हमारे पूर्वजों एवं महापुरुषों का सपना है, इसके पीछे जनमत की शक्ति है। इसलिए सरकार इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान स्वीकृत हुआ था –
(क) 30 जनवरी, 1948
(ख) 26 नवंबर, 1949
(ग) 15 अगस्त, 1947
(घ) 26 जनवरी, 1950
उत्तर:
(ख) 26 नवंबर, 1949

प्रश्न 2.
‘संविधान की आत्मा’ की संज्ञा दी गई है?
(क) अनुच्छेद 14 को
(ख) अनुच्छेद 19 को
(ग) अनुच्छेद 21 को
(घ) अनुच्छेद 32 को
उत्तर:
(घ) अनुच्छेद 32 को

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प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में राज्यों को ग्राम पंचायतों की स्थापना का निर्देश दिया गया है?
(क) अनुच्छेद 38
(ख) अनुच्छेद 39
(ग) अनुच्छेद 40
(घ) अनुच्छेद 44
उत्तर:
(ग) अनुच्छेद 40