Bihar Board Class 11th Hindi प्रमुख रचनाकर एवं रचनाएँ

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions

Bihar Board Class 11th Hindi प्रमुख रचनाकर एवं रचनाएँ

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विद्यापति दरभंगा जिले के विसपी ग्राम में महाकवि विद्यापति का जन्म 1380 ई. के आसपास हुआ था। उनके पिता श्रीगणपति ठाकुर मिथिला के तत्कालीन राजदरबार के अत्यंत सम्मानित पंडित थे। विद्यापति का भी उक्त दरबार में ससम्मान प्रवेश हुआ। कीर्तिसिंह के दरबार में तो उन्हें प्रतिष्ठा मिली ही महाराज शिवसिंह एवं उनकी धर्मपत्नी लखिमा देवी के भी वे कृपापात्र थे, जिनकी प्रशंसा उन्होंने अपने अनेक पदों में की है।

विद्यापति की प्रमुख रचनाएँ हैं-‘कीर्तिलता’, ‘कीर्तिपताका’, ‘भू-परिक्रमा’, ‘पुरुष-परीक्षा’, ‘लिखनावली’, ‘शैवसिद्धान्तसार’, ‘गंगावाक्यावली’,’विभागसार’, ‘दानवाक्यावली’, ‘दुर्गाभक्तितरंगिणी’ इत्यादि। ‘कीर्तिलता’ में तिरहुत राजा कीर्तिसिंह की वीरता, उदारता, गुण-ग्राहकता आदि का बड़ा ही मार्मिक वर्णन किया गया है। डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने ‘कीर्तिलता’ के संबंध में लिखा है, “इस रचना से कवि विद्यापति की प्रबंध-प्रतिभा का पता चलता है। यद्यपि यह काव्य मध्यकालीन ऐतिहासिक कथाकाव्यों की शैली में लिखी गई है, किन्तु कवि ने परिपाटी के प्रतिकूल इसमें अपने संरक्षक नरेश की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा प्रायः नहीं की है। मध्यकालीन कथाकाव्य प्रायः पद्य में लिखे गए हैं।

‘कीर्तिलता’ प्रचलित चरितकाव्यों किंचित् भिन्न शैली में लिखी गई है। इसमें अलंकृत पद्य भी है।” इसमें सज्जन-प्रशंसा, दुर्जन-निंदा, नगर-वर्णन, युद्ध-वर्णन जैसे मध्यकालीन कथाकाव्यों की रूढ़ियाँ भी हैं, किन्तु अत्यंत भव्य हैं। कीर्तिपताका’ भी प्रशस्तिमूलक काव्य है, किन्तु इसमें महाराज कीर्तिसिंह के वंशज शिवसिंह महाराज की प्रशंसा है। ‘भू-परिक्रमा’ राजा शिवसिंह की आज्ञा से लिखित भूगोल-संबंधी पुस्तक है।

‘पुरुष-परीक्षा’ में कवि ने दण्डनीति का निरूपण किया है। ‘लिखनवाली’ में चिट्ठी-पत्री लिखने का निदर्शन है। ‘शैवसिद्धान्तसार’ में दान-संबंधी शास्त्र, ‘विभागसार’ संपत्ति के बँटवारे की विविध समस्याओं के समाधान एवं ‘दुर्गाभक्तितरंगिणी’ में दुर्गा की भावपूर्ण भक्ति से संबंधित पद हैं। इनके अतिरिक्त, ‘मंजरी’ नामक एक नाटक की भी रचना उन्होंने की है।

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♣ अमीर खुसरो

कवि अमीर खुसरो इस युग के अत्यंत महत्वपूर्ण एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं। उनके काव्योत्कर्ष का प्रमाण उनकी फारसी रचनाएँ हैं। वे संगीतज्ञ, इतिहासकार, कोशकार, बहुभाषाविद्, सूफी औलिया, कवि बहुत कुछ थे। उनकी हिन्दी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय रही हैं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सखुने अभी तक लोगों की जवान पर हैं। उनके नाम से निम्नलिखित दोहा बहुत प्रसिद्ध है। कहते हैं कि यह दोहा अमीर खुसरो ने हजरत निजामुद्दीन औलिया के देहांत पर कहा था-

गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस।

उनकी हिन्दी रचनाओं का ऐतिहासिक महत्व है। उनकी भाषा, हिन्दी की आधुनिक काव्य भाषा के रूप में पूर्णतः प्रतिष्ठित होने का संकेत देती है। उनकी व्यक्तित्व और उनकी हिन्दी इस बात को प्रमाणित करती है कि हिन्दी काव्य प्रारंभ से ही मध्य देश की मिली-जुली संस्कृति का चित्र रहा है। उन्होंने ऐसी पंक्तियाँ रची हैं जिनमें फारसी और हिन्दी को एक ही ध्वनि प्रवाह ‘ में गुंफित कर दिया गया है। यह कला संस्कृति-साधक का ही सिद्ध कर सकता है-

जे हाल मिसकी मकन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिजॉब दारम ऐ जाँ न लेहु काहे लगाय छतिया।
शबाने हिजा दराज चूं जुल्फ व रोजे वसलत चूं उम्र को तह।
सखी पिया को जो मैं न देखू तो कैसे का, अंधेरी रतियाँ।

♣ कबीर

सन्त कबीर के जन्म और उनके माता-पिता को लेकर बहुत विवाद है। लेकिन यह स्पष्ट है कि कबीर जुलाहा थे, क्योंकि उन्होंने अपनी कविता में खुद को अनेक बार जुलाहा कहा है।

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कबीर का अपना पंथ तथा संप्रदाय क्या था, इसके बारे में कुछ भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता है। वे रामानंद के शिष्य के रूप में विख्यात हैं, किन्तु उनके ‘राम’ रामानंद के ‘राम’ नहीं हैं। शेख तकी नाम के सूफी संत को भी कबीर का गुरु कहा जाता है, किन्तु इसकी पुष्टि नहीं होती। संभवत: कबीर ने इन सबसे सत्संग किया होगा और इन सबसे किसी-न-किसी रूप में प्रभावित भी हुए होंगे।

कबीर के काव्य पर अनेक साधनाओं का प्रभाव है। उनमें वेदांत का अद्वैत, नाथ पंथियों की अंतस्साधनात्मक रहस्य भावना, हठयोग, कुंडलिनी योग, सहज साधना, इस्लाम का एकेश्वरवाद सब कुछ मिलता है।

हठयोग की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग उन्होंने खूब किया है, साथ ही अहिंसा की भावना पर भी बल दिया है। कबीर की वाणी का संग्रह बीजक कहलाता है।

इसके तीन भाग हैं-

  • रमैनी
  • सबद और
  • साखी।

रमैनी और सबद में गेयपद हैं, साखी दोहों में है। रमैनी और सबद ब्रजभाषा में हैं जो तत्कालीन मध्य देश की काव्य भाषा थी।

कबीर ने धार्मिक साधनाओं को आत्मसात अवश्य किया था। किन्तु वे इन साधनाओं को भक्ति की भूमिका या तैयारी मात्र मानते थे। जीवन की सार्थकता वे भक्ति या भगवद् विषयक रति में ही मानते थे। यद्यपि उनके राम निराकार हैं, किन्तु वे मानवीय भावनाओं के आलंबन हैं। इसीलिए कबीर ने निराकार, निर्गुण राम को भी अनेक प्रकार के मानवीय संबंधों में याद किया है। वे ‘भरतार’ हैं, कबीर ‘बहुरिया’ हैं। वे कबीर की माँ हैं-‘हरिजननी मैं बालक तोरा।’ वे पिता भी हैं जिनके साथ कबीर बाजार जाने की जिद करते हैं।

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कबीर भक्ति के बिना सारी साधनाओं को व्यर्थ मानते हैं। इसी प्रेम एवं भक्ति के बल पर वे अपने युग के सारे मिथ्याचार, कर्मकांड, अमानवीयता, हिंसा, परपीड़ा को चुनौती देते हैं। वे बाह्य आडंबरों और पाखंड के प्रबल विरोधी थे और इस भावना को उन्होंने बार-बार अपनी कविताओं में मुखारित किया है। वे ऊँच-नीचे, जात-पात, धर्म-संप्रदाय आदि की संकीर्णताओं का आजीवन विरोध करते रहे। उनके काव्य उनके व्यक्तित्व और उनकी साधना में जो अक्खड़पन, निर्भीकता और दो टूकपन है वह भी इसी भक्ति के कारण।

वे पूर्व साधनाओं की पारिभाषिक शब्दावली को अपनाकर भी उसमें नया अर्थ भरते हैं। . कबीर अपने अनुभव को प्रमाण मानते हैं, शास्त्र को नहीं। इस दृष्टि से वे यथार्थबोध के रचनाकार हैं। उनके यहाँ जो व्यंग्य की तीव्रता और धार है वह भी कथनी-करनी के अंतर को देख पाने की क्षमता के कारण। वे परंपरा द्वारा दिए गए समाधान को अस्वीकार करके नए प्रश्न पूछते हैं-‘चलन चलन सब लोग कहते हैं, न जानों बैकुंठ कहाँ है? या न जाने तेरा साहब कैसा है?”

परंपरा पर संदेह, यथार्थ-बोध, व्यंग्य, काला-बोध की तीव्रता और गहरी मानवीय करुणा के कारण कबीर आधुनिक भाव-बोध के बहुत निकट लगते हैं। किन्तु कबीर में रहस्य भावना भी है और राम में अनन्य भक्ति तो उनकी मूल भाव-भूमि ही है।

नाद, बिन्दु, कुंडलिनी, षड्चक्रभेदन आदि का बारंबार वर्णन कबीर के काव्य का रहस्यवादी पक्ष है। कबीर में स्वाभाविक रहस्य भावना बहुत मार्मिक रूप से व्यक्त हुई है। ऐसे अवसरों पर वे प्रायः जिज्ञासु होते हैं-

कहो भइया अंबर कासौ लागा।

कबीर तथा अन्य निर्गुण संतों की उलटबांसियाँ प्रसिद्ध हैं। उलटवासियों का पूर्व रूप हमें सिद्धों गंधा भाषा में मिलता है। उलटबाँसियाँ अनुभूतियों को असामान्य प्रतीकों में प्रकट करती है। व्यस्था को मानने वाले संस्कारों को धक्का देती हैं। इन प्रतीकों का अर्थ खुलने पर ही उलट का समझ में आती हैं।

♣ तुलसीदास

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तुलसीदास मध्यकालीन के उन श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं जिनकी लोकप्रियता आज भी बनी हुई है। तुलसी का बचपन घोर दरिद्रता एवं असहायावस्था में बीता था। उन्होंने लिखा है कि माता-पिता ने दुनिया में पैदा करके मुझे त्याग दिया। विधाता ने भी मेरे भाग्य में कोई भलाई नहीं लिखी-

मातु पिता जग जाई तथ्यो, विधि ह न लिखी कछु भाल भलाई।

जैसे कुटिल कीट को पैदा करके छोड़ देते हैं वैसे ही मेरे माँ-बाप ने मुझे त्याग दिया-

तनु जन्यों कुटिल कीट ज्यों तज्यों माता पिता हूँ।

उनके जन्म स्थान के विषय में काफी विवादे हैं। किन्तु अधिकतर विद्वान राजापुर को ही उनका जन्म स्थान मानते हैं।

गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित 12 ग्रंथ प्रामाणिक माने जाते हैं-दोहावली, कवित रामायण (कवितावली); गीतावली, रामचरितमानस, रामाज्ञाप्रश्न, विनयपत्रिका रामललानहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण, वैराग्य संदीपिनी, श्रीकृष्णगीतावली। रामचरितमानस तुलसी की प्रसिद्धि का सबसे बड़ा आधार है। इसकी रचना गोस्वामी जी ने 1754 ई. में प्रारंभ की जैसा कि उनकी इस अर्धाली से प्रकट है-

संवत सोरह सौ इकतीसा। करऊ कथा हरिपद धरि सीसा।।

गोस्वामी तुलसीदास हिन्दी के अत्यंत लोकप्रिय कवि हैं। उन्हें हिन्दी का जातीय कवि कहा जाता है। उन्होंने मध्य काल में प्रचलित दोनों काव्य. भाषाओं-ब्रजभाषा और अवधी में समान अधिकार से रचना की है। एक अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि उनहोंने मध्य काल में व्यवहत प्रायः सभी काव्यरूपों का उपयोग किया है। केवल तुलसीदास की ही रचनाओं को देखकर समझा जा सकता है कि मध्य कालीन हिन्दी साहित्य में किन काव्यरूपों में रचनाएं होती थीं।

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उन्होंने वीरगाता काव्य की छप्पय-पद्धति, विद्यापति और सूरदास की गीत-पद्धति, गंगा आदि कवियों की कवित्त-सवैया पद्धति, रहीम के समान दोहे और बरवै, जायसी की तरह चौपाई-दोहे के क्रम से प्रबंध काव्य रचे। रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में “हिन्दी काव्य की सब प्रकार की रचनाशैली के ऊपर गोस्वामी जी ने अपना ऊँचा आसन प्रतिष्ठित किया है। यह उच्चता और किसी को प्राप्त नहीं।”

तुलसीदास ने अपनी रचनाओं में काव्य के लोकमंगलकारी पक्ष पर अधिक बल दिया है। इसी दृष्टि से उन्होंने तत्कालीन सामंतों की लोलुपता पर प्रहार किया है। प्रजा-द्रोही शासक तुलसी की रचनाओं में प्रायः उनके कोपभाजन बनते हैं। उन्होंने अकाल, महामारी के साथ-साथ प्रजा से अधिक कर वसूलने की भी निंदा की। अपने समय की विभिन्न धार्मिक साधनाओं के पाखंड का उद्घाटन किया।

तुलसी की दृष्टि में जो बुरा है, वह कलिकाल का प्रभाव है। यहाँ तक कि यदि लोग वर्णश्रम धर्म का पालन नहीं कर रहे हैं तो वह भी कलिकाल का प्रभाव है। वे दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से रहित सर्वसुखद रामराज्य का स्वप्न बुनता है। रामराज्य तुलसी की आदर्श व्यवस्था है। इसके नायक एवं व्यवस्था तुलसी के राम हैं।

प्रबंधकार कवि के लिए कथा के उचित अवयवों में अनुपात की जो आवश्यकता पड़ती है, वह तुलसी में प्रचुर मात्रा में थी। कथा में कौन-सा प्रसंग कितनी दूर तक चलना चाहिए, इसकी उन्हें सच्ची पहचान थी। इसके साथ उन्हें कथा के मार्मिक स्थलों की भी पहचान थी। रामचरितमानस या अन्य काव्यों में उन्होंने अधिक विस्तार उन्हीं अंशों को दिया है जो मार्मिक हैं, अर्थात् जिनमें मनुष्य का मन देर तक रम सकता है, जैसे-पुष्पवाटिका प्रसंग, राम-वन-गमन, दशरथ-मरण, भरत की ग्लानि वन-मार्ग, लक्ष्मण शक्ति।

किस स्थिति में पड़ा हुआ पात्र कैसी चेष्टा करेगा-इसे जानने और चित्रित करने में तुलसी अद्वितीय हैं। वे मानव मन के परम कुशल चितेरे हैं। चित्रकूट में राम और भरत मिलन के अपतर पर जो सभा जुड़ती है उसमें राम, भरत, जनक, विश्वामित्र आदि के वक्तव्य मध्य कालीन शालीनता एवं वाक्-विदग्धता का आदर्श प्रस्तुत करते हैं।

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तुलसीदास जिस प्रकार ब्रजभाषा और अवधी दोनों भाषाओं पर समान अधिकार रखते हैं उसी प्रकार प्रबंध और मुक्तक दोनों की रचना में भी कुशल हैं। वस्तुतः तुलसी ने गीतावली, कवितावली आदि में मुक्तकों में कथा कही है। यह विरोधाभाषा इसलिए संभव हुआ, क्योंकि इन मुक्तकों को एक साथ पढ़िए तो प्रबंध का और अलग-अलग पढ़िए तो वे स्वतंत्र मुक्तकों का आनंद देते हैं। इनमें विनयपत्रिका की स्थिति विशिष्ट हैं।

तुलसी की रचनाओं से जहाँ एक ओर रामभक्ति शाखा की अभूतपूर्व वृद्धि, हुई, वहीं दूसरी ओर यह भी हुआ है कि रामभक्ति शाखा के साहित्य में होने वाले परवर्ती कवि उनके आगे धूमिल पड़ गए। इस प्रकार तुलसी परवर्ती सगुण रामभक्त कवियों का ऐतिहासिक महत्व अधिक, साहित्यिक महत्व अपेक्षाकृत कम।

♣ सूरदास

हिन्दी साहित्य में श्रेष्ठ कृष्णभक्त कवि सूरदास के बारे में भक्तमाल और चौरासी वैष्णवों की वार्ता से थोड़ा-बहुत जानकारी मिल जाती है। आईने अकबरी और मुंशियात अबुलफजल में भी किसी संत सूरदास का उल्लेख है, किन्तु वे बनारस के कोई और सूरदास प्रतीत होते हैं। जनश्रुति यह अवश्य है कि अकबर बादशाह सूरदास का यश सुनकर उनसे मिलने आए थे। भक्तमाल में इनकी भक्ति, कविता एवं गुणों की प्रशंसा है तथा उनकी अंधता का उल्लेख है। चौरासी वैष्णवों की वार्ता के अनुसार वे आगरा और मथुरा के बीच साधु या स्वामी के रूप में रहते थे। वे वल्लभाचार्य के दर्शन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरित विषयक पदों की रचना करने लगे। कालांतर में श्रीनाथ जी के मंदिर का निर्माण होने पर महाप्रभु वल्लभाचार्य ने उन्हें वहाँ भजन-कीर्तन का कार्य सौंपा।

सूरदास के विषय में कहा जाता है कि वे जन्मांध थे। उन्होंने अपने को जन्म से आँधर कहा भी है कि किन्तु इसके शब्दार्थ पर अधिक नहीं जाना चाहिए। सूर के काव्य में प्रकृति और जीवन का जो सूक्ष्म सौंदर्य चित्रित है उससे यह नहीं लगता कि वे जन्मांध थे।

सूरदास वात्सल्य और श्रृंगार के कवि हैं भारतीय साहित्य क्या संभवतः विश्व साहित्य में कोई कवि वात्सल्य के क्षेत्र में उनके समकक्ष नहीं है। यह उनकी ऐसी विशेषता है कि इसी के आधार पर वे साहित्य क्षेत्र में अत्यंत उच्च स्थान के अधिकारी माने जा सकते हैं। बाल जीवन का ऐसा अनुपम चित्रण महान सहृदय और मानव-प्रेमी व्यक्ति ही कर सकता है। सूरदास ने वात्सल्य और श्रृंगार का वर्णन लोक सामान्य की भावभूमि पर किया है। सूर ने अपनी रचना में प्रकृति और जीवन के कर्म के क्षेत्रों को अचूक कौशल से उतार लिया है। लोक साहित्य की सहज जीवंतता जितनी सूर के साहित्य में मिलती हैं, हिन्दी के किसी कवि में नहीं।

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♣ बिहारी

कवि बिहारी का जन्म 1595 ई. में (संवत् 1625 वि.) ग्वालियर में हुआ था। उनके पिता का नाम केशवराय था। उनको एक भाई और एक बहन थी। उनका विवाह मथुरा के किसी माथुर ब्राह्मण की कन्या से हुआ था। बिहारी को कोई संतान न थी, इसलिए अपने भतीजे निरंजन को गोद ले लिया। वे घरबारी चौबे थे। कहा जाता है कि उनके जन्म के 7-8 वर्ष बाद उनके पिता केशवराय ग्वालियर छोड़कर ओरछा चले गए। वहीं बिहारीलाल को सुप्रसिद्ध आचार्य शवदास से कवि-शिक्षा प्राप्त हुई। ओरछा में ही उन्होंने संस्कृत-प्राकृत का अध्ययन किया।

उसके बाद वे आगरा आ गए जहाँ उन्होंने उर्दू-फारसी का ज्ञान प्राप्त किया। यहाँ उन्होंने खानखाना अब्दुर्रहीम की प्रशंसा में कुछ दोहे लिखे जिनपर वे पुरस्कृत हुए। वे शाहजहाँ के तो कृपा र थे ही, जोधपुर और राज्यों के भी आश्रय में रहे थे। जयपुर के राजा जयसिंह और उनकी पत्नी अनंतदेवी के ही प्रिय कवि थे। बिहारी रसिक जीव थे, किन्तु उनकी रसिकता गरिक, जीवन की रसिकानावे विनोदी और व्यंग्यप्रिय जीव थे। 1663 ई. (संवत् 1720 वि.) के आसपास उनका परलोक गमन हुआ।

उनकी कविताओं का एक ही कालजयी संग्रह ‘बिहारी सतसई’ है जिसमें 713 मुक्तक दोहे और सोरठ हैं। दोहों के अनुपात में सोरठे नगण्य हैं। उनके तीन कवित्त भी मिलते हैं। यद्यपि। हारी की इतनी ही रचनाएँ मिलती हैं, किन्तु उनके मार्ग पर चलनेवालों, उनका भावापहरण बालों, उनकी सतसई के एक विशाल समुदाय के लोकप्रियता का पता चलहास कराना है।

करनेवालों, उनकी सतसई के अनेक प्रकार के टीका-ग्रंथकारों, आलोचकों, तुलनात्मक आलोचकों और छिटपुट निबंध-लेखकों का एक विशाल समुदाय है जिससे बिहारी की प्रतिभा, परविर्ती हिन्दी साहित्य पर उनके अप्रतिम प्रभाव एवं उनकी अतुल लोकप्रियता का पता चलता है। ‘बिहारी सतसई’ के सम्यक् अध्ययन के बिना साहित्यकों की जमात में बैठना अपना उपहास कराना है। ‘रामचतिमानस’ के बाद हिन्दी भाषा-भाषियों पर किसी का भी कोई वैसा ही और सम्मोहक प्रभाव पड़ा तो ‘बिहारी सतसई’ का ही। ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि अपनी कल्पना की समाहार-शक्ति एवं भाषा की अप्रतिम समास-शक्ति के कारण उन्होंने अपने मुक्तकों को उनके उच्चतम शिखर पर पहुंचा दिया है।

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कभी परंपरा के पार्श्व में चलकर तो कभी उसमें गोते लगाकर बिहारी ने श्रृंगारपरक रचनाएँ की हैं जिनकी लंबी परंपरा उनके काल तक संस्कृत और प्राकृत के गाथा एवं शतक-ग्रंथों के रूप में बन चुकी थी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ‘बिहारी सतसई’ किसी रीति-परंपरा की उपज नहीं है। यह एक विशाल परंपरा के लगभग अतिम छोर पर पड़ती है और अपनी परंपरा को संभवतः अंतिम बिन्दु तक ले जाती है। इतनी दीर्घ परंपरा के अनुयायी कवि में पुरानापन रह ही जाता है। फिर, बिहारी सूक्ति-संग्राहक कवि थे। उन्होंने पुरानी बातों को पॉलिश करके, खराद के, संवार के नया रूप दिया है। इसी कला का चलता नाम ‘मजमून छीन लेना’ हैं। बिहारी सजग कलाकार थे।

शृंगार-रस की अभिव्यंजना में नायक-नायिका के रूप-वर्णन के क्रम में उनकी शोभा, दीप्ति, कांति और माधुर्य का भी चित्र उन्होंने उन नायक-नायिकाओं की अंगिक एवं वाचिक चेष्टाओं के साथ खींचा है। इसी दिशा में काव्य-लक्ष्मी की जैसी भव्यता और कलापटुता बिहारी में दिखाई पड़ती है, जैसी अन्य कवियों के काव्यों में नहीं। यों तो उन्होंने नख-शिख-वर्णन किया है किन्तु नेत्रों का 41 बड़ी रुचि के साथ किया है। श्रृंगार के सीमित क्षेत्र में, वह भी विशेषतः संयोग श्रृंगार के, इतनी दूर तक धावा मारनेवाला और कोई कवि नहीं हुआ।

श्रृंगार के अतिरिक्त उन्होंने भक्ति और नीतिपरक भी कुछ दोहे लिखे हैं जो अपने क्षेत्र में प्रतिमान हैं। कुछ दोहों से उनके ज्योतिष ज्ञान का गांभाय भी प्रकट होता है। उनकी भाषा ब्राजी है जिसपर बुंदेलखंडी और पूर्वी का भी प्रभाव है। पूर्वी शब्दों का पश्चिमी अर्थों में ही प्रयोग उन्होंने किया है। उन्होंने कोई लक्षण ग्रंथ नहीं लिखा, किन्तु उनकी मानसिकता में उसके तत्त्व विद्यमान थे। अतः, वे लक्षण ग्रंथ न लिखकर भी रीतिकाल के आचार्य और सर्वश्रेष्ठ कवि हैं। बिहारी ने गागर में सागर भर दिया है। उनके अलंकार प्रायः आवेग-साकर हैं, अत: वे उनके काव्य को ऊर्जास्वल तेज से भर देते हैं। ऊहात्मकाता कहीं-कहीं उनके दोहों को हस्यास्पद भी बना देती है।

♣ रैदास

रैदास रामानंद के शिष्य कहे जाते हैं। उन्होंने अपने पदों में कबीर और सेन का उल्लेख किया है। अनुमानतः 15वीं शदी उनका समय रहा होगा। धन्ना और मीराबाई ने रैदास का उल्लेख आदरपूर्वक किया है। यह भी कहा जाता है कि मीराबाई रैदास की शिष्या थीं। रैदास ने अपने को एकाधिक स्थलों पर चमार जाति का कहा है-‘कह रैदास खलास चमारा’ या ‘ऐसी मेरी जाति विख्यात चमारा’।

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रैदास कोशी के थे। रैदास के पद गुरुग्रंथ साहब में संकलित हैं। कुछ फुटकल पद सतबानी में है। रैदास की भक्ति का ढाँचा निर्गुणवादियों का ही है, किन्तु उनका स्वर कबीर जैसा आक्रामक नहीं। रैदास की कविता की विशेषता उनकी निरीहता है। वे अनन्यता पर बल देते हैं। रैदास में निरीहता के साथ-साथ कुंठाहीनता का भाव द्रष्टव्य है। भक्ति भावना ने उनमें वह बल भर दिया था जिसके आधार पर वे डंके की चोट पर घोषित कर सके-

जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत
फिरहिं अजहुँ बानारसी आस-पासा।
आचार सहित बिप्र करहिं डंड उति
तिन तनै रविदास दासानुदासा।

रैदास की भाषा सरल, प्रवाहमयी और गेय है।

♣ गुरु नानक

गुरु नानक का जन्म तलवंडी ग्राम, जिला लाहौर में हुआ था। इनके पिता का नाम कालूचंद खत्री और माँ का नाम तृप्ता था। इनकी पत्नी का नाम सुलक्षणी था। कहते हैं कि इनके पिता ने इन्हें व्यवसाय में लगाने का बहुत प्रयास किया, किन्तु इनका मन भक्ति की ओर अधिकाधिक झुकता गया। इन्होंने हिन्दू-मुसलमान दोनों की समान धार्मिक उपासना पर बल दिया। वर्णाश्रम व्यवस्था और कर्मकांड का विरोध करके निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का प्रचार किया। गुरु नानक ने व्यापक देशाटन किया और मक्का-मदीना तक की यात्रा की।

कहते हैं कि मुगल-सम्राट बाबर से भी इनकी भेंट हुई थी। यात्रा के दौरान इनके साथी और शिष्य रागी नामक मुस्लिम थे जो इनके द्वारा रचित पदों को गाते थे। गुरु नानक ने पंजाबी के साथ हिन्दी में भी कविताएँ की। इनकी हिन्दी में ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों का मेल है। भक्ति और विनय के पद बहुत मार्मिक हैं। उदारता और सहनशीलता इनके व्यक्तित्व और रचना की विशेषता है। इनके दोहों में जीवन के अनुभव उसी प्रकार गुंथे हैं जैसे कबीर की रचनाओं में। आदि गुरुग्रंथ साहब के अंतर्गत ‘पहला’ नामक प्रकरण में इनकी वाणी संकलित है।

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उसमें सब्द, सलोल मिलते हैं। गुरु नानक की रचनाएँ हैं- जपुजी, आसादीवार, रहिरास और सोहिला। गुरु नानक की परंपरा में उनके उत्तराधिकारी गुरु कवि हुए। इनमें गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुन, गुरु तेगबहादुर और दसवें गुरु गोविंद सिंह के नाम उल्लेखनीय हैं।

♣ दादूदयाल

कबीर की तरह दादू के ही जन्म और उनकी जाति के विषय में विवाद और अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। कुछ लोग उन्हें गुजराती ब्राह्मण मानते हैं, कुछ लोग मोची या धुनिया। चंद्रिका प्रसाद त्रिपाठी और क्षितिमोहन सेन के अनुसार दादू मुसलमान थे और उनका नाम दाऊद था। रामचंद्र शुक्ल का विचार है कि उनकी बानी में कबीर का नाम बहुत जगह आया है और इसमें कोई संदेह नहीं कि वे उन्हीं के मतानुयायी थे। वे आमेर, मारवाड़, बीकानेर आदि स्थानों में घूमते हुए जयपुर आए। वहीं से नराने नामक स्थान पर उन्होंने शरीर छोड़ा। वह स्थान दादू पंथियों का केन्द्र है। दादू की रचनाओं का संग्रह उनके दो शिष्यों संतदास और जगनदास ने हरडेवानी नाम से किया था। कालांतर में रज्जब ने इसका संकलन अंगवधू नाम से किया।

दादू की कविता जन सामान्य को ध्यान में रखकर लिखी गई है, अतएव सरल एवं सहजन है। दादू भी कबीर के समान अनुभव को ही प्रमाण मानते थे। दादू की रचनाओं में भगवान के प्रति प्रेम और व्याकुलता का भाव है। कबीर की भांति उन्होंने भी निर्गुण निराकार भगवान को वैयक्तिक भावनाओं का विषय बनाया है। उनकी रचनाओं में इस्लामी साधना के शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ। उनकी भाषा पश्चिमी राजस्थानी से प्रभावित हिन्दी है। उसमें अरबी-फारसी के काफी शब्द आए हैं, फिर भी वह सहज और सुगम है।

♣ सुंदरदास

सुंदरदास 6 वर्ष की आयु में दादू के शिष्य हो गए थे। उनका जन्म जयपुर के निकट द्यौसा नामक स्थान पर हुआ था। दादू की मृत्यु के बाद एक संत जगजीवन के साथ वे 10 वर्ष की आयु में काशी चले आए। वहाँ 30 वर्ष की आयु तक उन्होंने गहन अध्ययन किया। काशी से लौटकर वे राजस्थान में शेखावटी के निकट फतेहपुर नामक स्थान पर गए। वे फारसी भी बहुत अच्छा जानते थे। उनका देहांत सांगानेर में हुआ। – निर्गुण संत कवियों में सुंदरदास सर्वाधिक शास्त्रज्ञ एवं सुशिक्षित थे। कहते हैं कि वे अपने नाम के अनुरूप अत्यंत सुंदर थे।

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सुशिक्षित होने के कारण उनकी कविता में कलात्मकता है और भाषा परिमार्जित निर्गुण संतों ने प्राय: गेयपद ओर दोहे ही लिखे हैं। सुंदरदास ने कवित्त और सवैये भी रचे हैं। उनकी काव्यभाषा में अलंकारों का प्रयोग खूब है। उनका सर्वाधिक प्रसिद्ध ग्रंथ सुंदरविलास है। काव्य-कला में शिक्षित होने के कारण उनकी रचनाएँ निर्गुण साहित्य में विशिष्ट स्थान रखती हैं। निर्गुण साधना और भक्ति के अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक व्यवहार, लोकनीति और भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के आचार-व्यवहार पर भी उक्तियाँ कही हैं। लोक धर्म और लोक मर्यादा की उन्होंने अपने काव्य में उपेक्षा नहीं की है।

♣ रज्जब

रज्जब भी दादू के ही शिष्य थे। ये भी राजस्थान के थे। इनकी कविताएँ साफ और सहज हैं। भाषा पर राजस्थानी प्रभाव अधिक है और इस्लामी साधना के शब्द भी हैं।

निर्गुण संतों की ज्ञानाश्रयी शाखा के अन्य प्रसिद्ध संत कवि मलूकदास, अक्षर अनन्य, जंभनाथ, सिंगा जी और हरिदास निरंजनी हैं। दयाबाई और सहजोबाई जैसे संत कवियित्रियाँ तथा कबीर के विषय धर्मदास की गणना इसी परंपरा में होती है। इनमें धर्मदास की रचनाओं का संतों में बहुत आदर है। इनकी कविताएँ सरल और प्रेम प्रधान है।

♣ कुतुबुन

कुतुबुन ने मिरगावत रचना 1503-04 ई. में की थी। सोहरावर्दी पंथ के ज्ञात होते हैं। रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार ये जौनपुर के बादशाह हुसैन शाह के आश्रित थे। इसमें नायक मृगी रूपी नायिका पर मोहित हो जाता है और उसकी खोज में निकल पड़ता है। अंत में शिकार खेलते समय सिंह द्वारा मारा जाता है। यह रचना अनेक कथानक-रुढ़ियों से युक्त है। भाषा प्रवाहमयी है।

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♣ मालिक मुहम्मद जायसी

हिन्दी में सूफी काव्य-परंपरा के श्रेष्ठ कवि मलिक मुहम्मद जायसी है। ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हें जायसी कहा जाता है। जायसी अपने समय के सिद्ध फकीरों में गिने जाते थे। अमेठी के राजघराने में इनका बहुत सम्मान था। इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं-अखरावट, आखिरी कलाम और पद्मावत। कहते हैं कि एक नवोपलब्ध काव्य कन्हावत भी इनकी रचना है, किन्तु कन्हावत का पाठ प्रामाणिक नहीं लगता। अखरावट में देवनागरी वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर रचना की गई है। आखिरी कलाम में कयामत का वर्णन है। कवि के यश का आधार है पद्मावत। इसकी रचना कवि ने 1520 ई. के आस-पास की थी।

पद्मावत प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला विशद प्रबंध काव्य है। यह दोहा-चौपाई में। निबंध मसनवी शैली में लिखा गया है। पद्मावत की काव्य-भूमिका विशद एवं उदात्त है। कवि ने प्रारंभ में ही प्रकट कर दिया है कि जीवन और जगत को देखने वाली उसकी दृष्टि व्यापक और परस्पर विरोध को आँकने वाली है। कवि अल्लाह को इस विविधतामय सृष्टि का कर्ता कहता है-

कीन्हेसि नाग मुखहि विष बसा। कीन्हेसि मंत्र हरह जेहिं डसा।
कीन्हेसि अमिट जिअन जेहि पाएँ। कीन्हेसि विष जो मीचु तेहि खाएँ।
कीन्हेसि अखि मीठि रस भरी। कन्हिएसि करइ बेलि बहु फरी।

उपर्युक्त पंक्तियों में जायसी वस्तुओं का परस्पर-विरोध देख-दिखा रहे हैं। उनकी दी सामाजिक विषमता की ओर भी जाती है-

कीन्हेसि कोई भखारि कोई धनी। कीन्हेसि संपति बिपति पुन धनी।
काहू भोग भुगुति सुख सारा। कहा काहू भूख भवन दुख भारा॥

जायसी इन सबको अल्लाह का ही किया हुआ मानते थे।

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पद्मावत की कथा चित्तौड़ के शासक रतनसेन और सिंहल देश की राजकन्या पद्मिन’ की प्रेम कहानी पर आधारित है। इसमें कवि ने कौशलपूर्वक कल्पना एवं ऐतिहासिकता का श्रण कर दिया है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौड़ पर आक्रमण और विजय ऐतिहासिक टना है। रतनसेन अपनी विवाहित पत्नी नागमती को छोड़कर पद्मिनी की खोज में योगी होकर . पड़ता है। पद्मिनी से उसका विवाह होता है। राघवचेतन नामक पंडित पद्मिनी के रूप की प्रशंसा अलाउद्दीन से करता है। अलाउद्दीन छल से रतनसेन को पकड़कर दिल्ली से जाता है। गोरा-बादल वीरतापूर्वक रतनसेन को छुड़ा लेते हैं। बाद में तरनसेन एक अन्य राजा देवपाल से लड़ाई में मारा जाता है। पद्मिनी और नागमती राजा के शव को लेकर सती हो जाती है। अलाउद्दीन जब चित्तौड़ पहुँचता है उसे उसकी राख मिलती है।

जायसी ने इस प्रेम कथा को आधिकारिक एवं आनुषंगिक कथाओं के ताने-बाने में बहुत जतन से बाँधा है। पद्मावत आद्यंत ‘मानुष-प्रेम’ अर्थात् मानवीय प्रेम की महिमा व्यजित करता है। हीरामन शुक शुरू में कहता है-

मानुस प्रेम भउँ बैकुठी। नाहिं त काह छार भरि मूठी।

रचना के अंत में छार भरि मूठि आती है। अलाउद्दीन पद्मिनी के सती होने के बाद चित्तौड़ पहुँचता है तो यहाँ राख ही मिलती है-

छार उठाइ लीन्हि एक मूठी। दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झूठी।

कवि ने कौशल से यह मार्मिक व्यंजना की है कि जो पद्मिनी रतनसेन के लिए ‘पारस रूप’ है वही अलाउद्दीन जैसे के लिए मुट्ठी भर धूल। मध्यकालीन रोमांचक आख्यानों का कथानक प्रायः बिखर जाता है, किन्तु पद्मावत का कथानक सुगठित है।

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पद्मावत विशुद्ध अवधी में रचित काव्य है। इनमें रामचरितमानस की भांति अनेक क्षेत्रों की भाषाओं का मेल नहीं है। इसलिए विशुद्ध अवधी का जो सहज और चलना रूप पद्मावत में मिलता है, मानस में नहीं। इसमें तत्सम शब्दों का प्रयोग भी बहुत कम या नहीं के बराबर है। जायसी का प्रिय अलंकार हेतूत्प्रेक्षा है जैसे

पिउ सो कहहु संदेसड़ा, हे भौंरा हे काग।
सो धनि बिरहे जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग॥

♣ मंझन

मंझन ने 1545 ई. में मधुमालती की रचना की। मधुमालती में नायक को अप्सराएँ उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में भेज देती हैं और वही नायक नायिका को देखता है। इसमें मनोहर और मधुमालती की प्रेम कथा के समानांतर प्रेमा और ताराचंद की प्रेम कथा चलती है। इसमें प्रेम का बहुत ऊँचा आदर्श सामने रखा गया है। सूफी काव्यों में नायक की प्रायः दो पलियाँ होती हैं, किन्तु इसमें मनोहर प्रेमा से बहन का संबंध स्थापित करता है।

इनके अतिरिक्त सूफी काव्य परंपरा के अन्य उल्लेखनीय कवि और काव्य इस प्रकार हैं-उसमान ने 1613 ई. में चित्रावली की रचना की। शेख नबी ने 1619 ई. में ज्ञानद्वीवीय नामक काव्य लिखा। कासिम शाह ने 1731 ई. में हंस जवाहिर रचा। नूरमुहम्मद ने 1744 ई. में इंद्रावती और 1764 ई. में अनुराग बाँसुरी लिखी। अनुराग बाँसुरी में शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को लेकर रूपक बाँधा गया है। इन्होंने चौपाइयों के बीच में दोहे न रखकर बरवै रखे हैं।

♣ नाभादास

रामानंद के शिष्यों में से एक अनंतानंद थे। उनके शिष्य कृष्णदास पयहारी थे। ये 1575 ६. के. आस-पास वर्तमान थे। उनकी चार रचनाओं का पता चलता है। उन्हें कृष्णदास पयहारी के शिष्य प्रसिद्ध भक्त नाभादास थे। नाभादास की रचना भक्तमाल का हिन्दी साहित्य में ऐतिहासिक महत्व है। इसकी रचना नाभादास ने 1585 ई. के आस-पास की। इसकी टीका प्रियादास ने 1712 ई. में लिखी। इसमें 200 भक्तों के चरित 316 छप्पयों में वर्णित हैं। इसका उद्देश्य तो जनता में भक्ति का प्रचार था, किन्तु आधुनिक इतिहासकारों के लिए यह हिन्दी साहित्य के इतिहास का महत्वपूर्ण आधार-ग्रंथ सिद्ध हुआ है।

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इस ग्रंथ से रामानंद, कबीर, तुलसी, सूर, गोरा आदि के विषय में अनेक तथ्यों का भी पता चल जाता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इससे पता तो अचूक तौर पर लग ही जाता है कि वर्णित भक्तों एवं भक्त-कवियों की कवि जन सामान्य में कैसी थी और जिस समाज में भक्तों कवियों, महापुरुषों के जीवन वृत्त के विषय में इतना कम ज्ञात हो, उसमें इतना पता लग जाना भी बहुत काम की बात है।

रामभक्ति शाखा के कुछ अन्य उल्लेखनीय कवि प्राणनंद चौहान (17वीं शती) एवं हृदय .. राम (17वीं शती) हैं। प्राणनंद चौहान ने सन् 1610 ई. में रामायण महानाटक लिखा। हृदय ने 1613 ई. में भाषा अनुगान्नाटक लिखा।

रामचंद्रिका को ध्यान में रखें तो केशवदास रामभक्ति शाखा के कवि ठहरते हैं, यद्यपि साहित्य के इतिहास की दृष्टि से केशवदास का अधिक महत्व उनके आचार्यत्व में है। रामचंद्रिका के संवाद बहुत नाटकीय हैं और उसमें विविध छंदों का प्रयोग किया गया है। केशवदास ने रामचंद्रिका की रचना 1601 ई. में की थी।

♣ नंददास

नंददास 16वीं शती के अंतिम चरण में विद्यमान थे। इनके विषय में भक्तमाल में लिखा है-‘चंद्रहास-अग्रज सुहृदय परम प्रेम-पथ में पगे।’ इनके काव्य के विषय में यह उक्ति प्रसिद्ध है-‘और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया।’ इससे प्रकट होता है कि इनके काव्य का कला पक्ष महत्वपूर्ण है। इनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं-रामपंचाध्यायी, सिद्धांत पंचाध्यायी, भागवत दशम स्कंध, रुक्मिणीमंगल, रूपमंजरी, रसमंजरी, दानलीला, मानलीला आदि। इनके यश का आधार रासपंचाध्यायी है। रासपंचाध्यायी भागवत के रासपंचाध्यायी के अंश पर आधारित है। यह रोला छंद में रचित है। कृष्ण की रास लीला का वर्णन इस काव्य में कोमल एवं सानुप्रास पदावली में किया गया है, जो संगीतात्मकता से युक्त है, जैसे-

ताही छन उडुराज उदित रस-रास-सहायक,
कुंकुम-मंडित-बदल प्रिया जनु नागरि नायक।
कोमल किरन अरुन मानो बन व्यापि रही यों,
मनसिज खेल्यो फागु घुमड़ि घुरि रह्यो गुलाल ज्यों।

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अष्टछाप के शेष कवियों ने भी लीला गान के पद कहे हैं जो प्रधानतः शृंगारी हैं। राधा और कृष्ण के रूप में एवं शृंगार के साथ-साथ उनके चरित्र का गुणगान इन कवियों का विषय रहा है।

कृष्णदास (16वीं शती) वल्लभाचार्य के कृपा-पात्र थे और मंदिर के प्रधान हो गए थे। इनका रचना हुआ जुगमान चरित्र नामक ग्रंथ मिलता है। परमानंद दास (16वीं शती) के 835 पद परमानंद सागर में संकलित है। इनकी कविताएँ सरसता के कारण प्रसिद्ध हैं। कुंभनदास परमानंददास के समकालीन थे। ये अत्यंत स्वाभिमानी भक्त थे। इन्होंने फतेहपुर सीकरी के राजसम्मान से खिन्न होकर कहा था-

संतन को कहा सीकरी सो काम।

कुंभनदास का कोई ग्रंथ नहीं मिलता, फुटकल पद ही मिलते हैं। चतुर्भुजदास. कुंभनदास के पुत्र थे। इनकी तीन कृतियाँ मिलती हैं-द्वादश यश, भक्तिप्रताप, हितजू को मंगल। छीतस्वामी 16वीं शती के उत्तरार्द्ध में वर्तमान थे। इनका कोई ग्रंथ नहीं मिलता. फुटंकल पद ही मिलते हैं। गोविंद स्वामी के रचनाकाल 1543 ई. ओर 1568 ई. के बीच रहा होगा। कहा जाता है कि इनका गाना सुनने के लिए कभी-कभी तानसेन भी आते थे। इनका भी कोई ग्रंथ नहीं मिलता।

♣ मीराबाई

मीराबाई के बारे में अनेक किंवदंतियाँ गढ़ ली गई हैं। ये महाराणा सांगा की पुत्र-वधू और महाराणा कुमार भोजराज की पत्नी थीं। कहा जाता है कि विवाह के कुछ वर्षों के बाद जब इनके पति का देहांत हो गया तो ये साधु-संतों के बीच भजन-कीर्तन करने लगीं। इस पर इनके परिवार के लोग, विशेषकर, देवर राणा विक्रमादित्य बहुत रूष्ट हुए। उन्होंने इन्हें नाना प्रकार की यातनाएँ दीं। इन्हें विष तक दिया गया। खिन्न होकर इन्होंने राजकुल छोड़ दिया। इनकी मृत्यु द्वारिका में हुई।

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मीरा का सामान्य लोगों के बीच उठना-बैठना उस सामाजिक व्यवस्था को असाह्य था जिसमें नारी पति के मरने पर या तो सती हो सकती थी या घर की चहारदीवारी के भीतर वैधव्य झेलने के लिए अभिशप्त थी। मीरा को भक्त होने के लिए लोक-लाज छोड़नी पड़ी। लोक-लाज तजन की बात मीरा की कविताओं में बार-बार आती है। मीरा ने अपने इष्टदेव गिरधर नागर को जो रूप चित्रित किया है, वह अत्यंत मोहक हैं। मीरा के यहाँ विरह वेदना उनका यथार्थ है तो कृष्ण मिलन उनका स्वप्न। मीरा के जीवन के यथार्थ की प्रतिनिधि पंक्ति हैं-‘अंसुवन जल सींचि-सींचि, प्रेम-बेलि बोई।’ और उनके स्वप्न की प्रतिनिधि पंक्ति है-“सावन माँ उमग्यो म्हारो हियरा भणक सुण्या हरि आवण री।” मीरा के काव्य में मध्य कालीन नारी का जीवन बिंबित है।

मीरा भक्त कवयित्री है। उनकी व्याकुलता एवं वेदना उनकी कविता में निश्छल अभिव्यक्ति पाती है। मीरा की कविता के रूप, रस और ध्वनि के प्रभावशाली बिम्ब हैं। वे अपनी कविता में वेदना को श्रोताओं और पाठकों के अनुभव को माध्यम से संप्रेषित करती हैं ‘घायल की गति घायल जाणै और न जाणै कोय’ का यही अभिप्राय है।

मीरा के काव्य पर निर्गुण-सदुण दोनों साधनाओं का प्रभाव है। नाथ मत का भी प्रभाव दिखाई पड़ता है। उन्होंने रामकथा से संबंधित कुछ गेयपद भी लिखें हैं।

♣ रसखान

इनका वृत्तांत दो सौ बाबन वैष्णवों की वार्ता में मिलता है और उससे प्रकट होता है कि ये लौकिक प्रेम से कृष्ण-प्रेम की ओर उन्मुख हुए। इनकी प्रसिद्ध कृति प्रेम वाटिका रचनाकाल 1641 ई. है। कहते हैं कि ये गोसाईं विट्ठलनाथ के शिष्य थे।

रसखान ने कृष्ण का लीलागान सवैयो में किया है। रसखान को सवैया छंद सिद्ध था। जितने सरस, प्रवाहमय सवैये रसखान के हैं, उतने शायद ही किसी अन्य हिन्दी कवि के हों। ब्रजभाषा का ऐसा सहज प्रवाह अन्यत्र बहुत कम मिलता है।

मोर पखा सिर ऊपर राखिहौं, गुंज की माल गरे पहिरौंगी।
ओढ़ि पितांबर लै लकुटी बन गोधन ग्वारनि संग फिरौंगी।
भावतों सोई मेरो रसखानि सो तेरे कहे सब स्वाँग करौंगी।
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरा न धरौंगी।

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कृष्णभक्त कवियों की सुदीर्घ परंपरा है। स्वामी हरिदास, हरीराम व्यास, सुखदास, लालदास, नरोत्तमदास आदि अन्य कृष्णभक्त कवि हैं। इनमें नरोत्तमदास का सुदामाचरित अपनी मार्मिकता और सहज प्रवाह के कारण बहुत लोकप्रिय है।

♣ रहीम

सम्राट अकबर के प्रसिद्ध मनापति बैरम खाँ के पुत्र रहीम (अब्दुरहीम खान खाना) थे। इनकी गणना कृष्णभक्त कवियों में की जाती है। रहीम ने बरवै नायिका भेद भी लिखा है, जो निश्चित रूप से रीतिकाव्य की कोटि में रखा जाएगा, किन्तु रहीम को भक्त हृदय मिला था। उनके भक्तिपरक दोहे उनके व्यक्ति और रचनाकार का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके मित्र तुलसी ने बरवै रामायण की रचना रहीम के बरवै काव्य से उत्साहित होकर की।

रहीम अरबा, फारसी, संस्कृत आदि कोई भाषाओं के जानकार थे। वे बहुत उदार, दानी और करुणावान थे। अंत में उनकी मुगल दरबार से नहीं पटी और जनश्रुति के अनुसार उनके अंतिम दिन तंगी में गुजरे। रहीम की अन्य रचनाएँ हैं-रहीम दोहावली या सतसई, श्रृंगार सोरठा, मदनाष्टकं, रासपंचाध्यायी। उन्होंने खेल कौतुकम् नामक ज्योतिष का ग्रंथ भी रचा है, जिसकी भाषा संस्कृति-फारसी मिश्रित है। रहीम ने तुलसी के समान अवधि और ब्रज दोनों में अधिकारपूर्वक काव्य-रचना की है।

रहीम के भक्ति और नीति के दोहे आज भी लोगों की जबान पर हैं।

♣ केशवदास

केशव ओरछा महाराजा रामसिंह के भाई इंद्रजीत सिंह के सभा-कवि थे। यहाँ इनका बहुत सम्मान था। केशवदास द्वारा रचित सात ग्रंथ मिलते हैं-कविप्रिया, रसिकप्रिया, वीरसिंह देवचरित, विज्ञान गीता, रतन बावनी और जहाँगीर-जस चंद्रिका। कविप्रिया और रसिकप्रिया काव्यशास्त्रीय पुस्तकें हैं।

केशवदास का उल्लेख रामभक्ति शाखा के प्रसंग में हो चुका है। उन्होंने ‘रामकथा’ का वर्णन रामचंद्रिका में किया है। केशव का महत्व इस बात में है कि उन्होंने पहली बार काव्यांगों।

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सम्म पर हिन्दी में विचार किया। इसके पूर्व कृपाराम, मोहनलाल मिश्र, करनेस आदि के रस, शृंगार और अलंकार पर अलग-अलग पुस्तकें लिखी थी, पर एक साथ सभी काव्यांगों का परिचय नहीं दिया था। केशव ने यही किया और इसीलिए वे हिन्दी के प्रथम आचार्य माने जाते हैं। वे काव्य में अलंकार को अधिक महत्व देते थे।

केशव हिन्दी के प्रथम आचार्य हैं किन्तु रीतियों की परंपरा चिंतामणि (जन्म 1609 ई.) से चली। इनका प्रसिद्ध ग्रंथ कविकुल कल्पतरू है। इस काल के अन्य प्रसिद्ध आचार्य कवि हैं भिखारीदास (18वीं शती, ग्रंथ काव्य निर्णय), तोष (1634 ई. ग्रंथ सुधानिधि), कुलपति (1670 ई. ग्रंथ रस रहस्य) सुखदेव मिश्र (1673 ई. ग्रंथ रसार्णव) आदि हैं। इनके उपजीव्य संस्कृति ग्रंथ काव्य प्रकाश, साहित्यदर्पण, रसमंजरी, चंद्रालोक और कुवलयानंद हैं।

♣ देव

देव अनेक आश्रयदाताओं के यहाँ रहे और उनकी रुचि के अनुकूल रचनाएँ की। इनके रचे ग्रंथों की संख्या काफी है, उनमें कुछ इस प्रकार हैं : भावविलास, भवानीविलास, रसविलास, सुखसागर तरंग, अष्टयाम, प्रेमचंद्रिका, काव्यरसायन।

देव रीति काल के श्रेष्ठ कवियों में से एक हैं। इनकी तुलना बिहारी से की गई है। देव ने भी लक्षण-ग्रंथ लिखे हैं। अतः इन्हें भी रीति काल के आचार्य कवियों की कोटि में रखी जा सकती है। किन्तु देव मूलत: आचार्य नहीं, कवि ही थे।

देव में मौलिक रचनाकार की प्रतिभा और सहृदयता प्रचुर मात्रा में थी। लोकप्रियता की दृष्टि से वे बिहारी से बहुत पीछे नहीं हैं। देव की काव्य-भूमि बिहारी से कहीं अधिक व्यापक है। इन्होंने प्रकृति के क्रियाकलाप को देखकर अनेक उत्तम रूप बाँधे हैं

डार दुम पालना बिछौना नव पल्लव के,
सुमन झिंगूला सोहै तन छवि भारी दे।
पवन झुलावै, केकी-कीर बहराबैं देव,
कोकिल हलावै-हुलसावै कर तारी दै।
पूरित पराग सों उतारो करे राई लोन,
कंज कली नायिका लतानि सिर सारी दै।
मदन महीप जू को बालक वसंत ताहि,
प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी है।
देव में उत्कृष्ट बिंब विधान पाया जाता है।
जैसे बड़े-बड़े नैनन सों आँसू-भरि-भरि ढरि
गोरो गोरो मुख आज ओरो सो बिलानो जात।

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देव काव्य कला के कुशल कवि हैं, किन्तु चमत्कार या काव्य रूढ़ियों के आधार पर रचना करने की प्रवृत्ति उनमें बिहारी की अपेक्षा कम है। इसीलिए उनमें चमत्कृत करने की अपेक्षा रमाने की प्रवृत्ति अधिक है।

♣ भूषण

भूषण रीति काल के दो प्रसिद्ध कवियों-चिंतामणि और मतिराम के सगे भाई थे। चित्रगुट के सोलंकी राजा रूद्र ने इन्हें ‘कवि भूषण’ कहा। फिर ये इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। वास्तविक नाम कुछ और रहा होगा। ये वीर रस के कवि थे। इन्होंने रीति काल की परंपरा में एक अलंकार ग्रंथ शिवराज भूषण भी लिखा है। इनके जो ग्रंथ मिलते हैं, वे इस प्रकार हैं-शिवराज भूषण, शिवा बावनी, छत्रसाल दसक।

रीति कालीन कविता का प्रधान स्वर श्रृंगार का है। भूषण का स्वर वीरता का है। इसलिए ये रीति काल के विशिष्ट कवि हैं, लेकिन भूषण के महत्व पर विचार करते समय कुछ और बातों की ओर ध्यान जाता है। रीति काल में कुछ अन्य कवियों ने भी वीरता की कविताएँ लिखी हैं, किन्तु उनको भूषण जैसी प्रसिद्धि नहीं मिली। इसका प्रमुख कारण यह है कि काव्योत्कर्ष की दृष्टि से वे इस क्षेत्र में भूषण जैसे कवि नहीं हैं।

भूषण ने अपनी काव्य पंक्तियों में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का उल्लेख किया है, जैसे-अफजल खाँ का शिवाजी द्वारा मारा जाना, दारा की औरंगजेब द्वारा हत्या, सूरत पर शिवाजी का अधिकार, खजुवा का युद्ध, शिवाजी का औरंगजेब के दरबार में जाना आदि। उनका एक प्रसिद्ध कवित्त इस प्रकार हैं-

इंद्र जिमि जंभ पर, बाडव सुअंभ पर,
रावण सदंभ पर रघुकुलराज हैं।
पौन बारिवाह पर, संभु रतनिआह पर,
ज्यों सहस्त्रबाहु पर राम द्विजराज है।
दावा द्रुम दंड पर, चीता मृग झुंड पर,
भूषण वितुंड पर जैसे मृगराज हैं।
तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,
त्यों म्लेच्छ वंस पर सेर सिवराज हैं।

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♣ मतिराम

मतिराम रीति काल के प्रसिद्ध आचार्य कवि हैं। उनके ग्रंथों के नाम हैं-छंदसार, रसराज, साहित्य सार, श्रृंगार और ललित ललाम। रासराज और ललित ललाम उनके यश के आधार ग्रंथ हैं।

मतिराम रीति काल में भाषा की प्रवाहमयता और भाव की सहजता के प्रतिमान हैं। उनकी शैली इतनी सहज है कि उनकी कविता अन्य रीति कालीन कवियों से अलग लगती है। वे रीति काल में व्याप्त चमत्कारिकता से लगभग अछूते रचनाकार हैं उनकी भाव योजना बिलकुल सीधी होती है। वे बात को घुमाकर कहने में विश्वास नहीं करते। वे काव्य रूढ़ियों का कम-से-कम प्रयोग करते हैं। लक्षण ग्रंथों के रचयिता होने के बावजूद उनके काव्य में अलंकृत पद्योजना बहुत कम मिलती है। उनकी काव्यगत सहजता का एक उदाहरण है

क्यों इन आँखिन सो निहसंक है मोहन को तन पानिप पीजै।
नेकु निहारे कलंक लगै, यही गाँव बसे कहु कैसे के जीजै॥
होत रहे मन यों, मतिराम कहू बन जाय बड़ो तप कीजै।
है वनमाल हिए लगिए अरू द्वै मुरली अधरा-रस पीजै।

♣ पद्माकर

पद्माकर का जन्म बाँदा में हुआ था। ये रीति काल के अत्यंत प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय कवि थे। ये अनेक गुणग्राहकों के द्वारा सम्मानित किए गए। सुगरा, सतारा, जयपुर, ग्वालियर के दरबारों में इनका आदर हुआ। बाँदा और अवध के नवाबों के सेना अधिकारी हिम्मत बहादुर के नाम पर इन्होंने हिम्मत बहादुर बिरूदावली लिखी। इनके द्वारा रचित कुछ अन्य ग्रंथ इस प्रकार हैं-जगविनोद, पद्माभरण, प्रबोध पचासा, राम रसायन, गंगा लहरी। जगविनोद लक्षण ग्रंथ है।

पद्माकर भी मतिराम के समान भाषा और भाव की प्रवाहमयी सहजता के कारण लोकप्रिय हैं, किन्तु पद्माकर की कविता शृंगार भक्ति और वीरता तीनों भूमियों पर समान अधिकार के साथ रस का संचार करती है। विभिन्न भावों के अनुरूप भाषा को सहज तौर पर ढाल लेने में ये सिद्ध थे। शुक्ल जी के शब्दों में, “इनकी भाषा में वह अनेकरूपता है जो एक बड़े कवि में होनी चाहिए।

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भाषा की ऐसी अनेकरूपता गोस्वामी तुलसीदास में दिखाई पड़ती है। पद्माकर के काव्य में कहीं-कहीं विदग्धता भी मिली है लेकिन वह कविता के केन्द्रीय भाव में ढल जाती है। पद्माकर में बिहारी की तरह समुचित बाह्य चेष्टाओं की योजना द्वारा आंतरिक भाव को व्यजित करने की प्रतिभा थी। इनमें चमत्कार प्रियता नहीं कि बराबर मिलती है।”

पद्माकर की वीर रस की कविताओं में भूषण की तरह ही वीरोचित ओज तो है, किन्तु भाषा व्यवस्थित बनी रहती है। पद्माकर की गंगा लहरी में एक शांति चाहने वाले मन की और गंगा के महात्म्य पर अटूट श्रद्धा दिखलाई पड़ती है। पद्माकर के काव्य में बुंदेलखंड की प्रकृति का सजीव चित्रण हुआ है। पद्माकर के काव्य की विशेषता भावों को व्यजित करने में समर्थ सजीव चित्र खींच देने में है। नीचे दिए हुए सवैए से इस कथन की पुष्टि हो जाएगी-

फागु की भीर अभरिन में गहि गोबिंदै लै गई भीतर गोरी,
भाई करी मन की पद्माकर ऊपर नाई अबीर की झोरी।
छीनि पितंबर कम्मर तें सु विदा दई मीडि कपोलन रोगी,
नैन नचाय कही मुसुकाय ‘लला फिरि आइयो खेलन होरी’।

♣ गुरु गोविंद सिंह

गुरु गोविंद सिंह का व्यक्तित्व बहुआयामी था। वे मध्यकालीन सांस्कृतिक एवं सामाजिक चेतना के प्रतीक थे। वे योद्धा, संत, राजनीतिक, कवि, प्रशासक सब कुछ थे। गुरु गोविंद सिंह द्वारा रचित अनेक ग्रंथ बताए जाते हैं। इनकी रचनाओं के संग्रह का नाम दशम ग्रंथ है। इसमें 16 रचनाएँ संकलित हैं। इन्होंने पंजाबी, फारसी और हिन्दी (ब्रजभाषा) में काव्य रचना की है। इनका संप्रदाय देखते हुए इन्हें निर्गुण कवि होना चाहिए, किन्तु इन्होंने देवी-देवताओं ओर सगुण रूप से संबंधित रचनाएँ भी की हैं। चंडीचरित्र इनकी विशिष्ट साहित्यिक रचना है।

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इसकी शैली ओजस्विनी है। गुरु जी की रचनाओं में वीर रस प्रधान है, यद्यपि इनकी मुख्य भूमि भक्ति है। चौबीस अवतार नामक रचना में श्रृंगार का भी पर्याप्त रंग दिखलाई पड़ता है। गुरु जी काव्यरीति के मर्मज्ञ थे। रीति काल में इनका व्यक्तित्व और कृतित्व अनुपम है। हिन्दी में भक्तजनों का भक्ति काव्य तो प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है, किन्तु वीरजनों द्वारा रचित वीर काव्य नहीं मिलता। इस दृष्टि से गुरु गोविंद सिंह के काव्य का विशिष्ट महत्त्व है-

बीरबली सरदार दयैत सु क्रोध के म्यान तै खड्ग निकारौ।
एक दयो तन चंडि प्रचंड कै दूसर के हरि के सिर झारौ।
चंडि सम्हारि तबै बलु धारि लयौ गहि नारि धरा पर मारी।
ज्यों धुबिया सरिता-तट जाइक लै पट को पट साथ पछारौ।

♣ मुंशी सदासुख लाल ‘नियाज’

मुंशी सदासुख लाल ‘नियाज’ दिल्ली के रहने वाले थे और उर्दू-फारसी के प्रसिद्ध लेखक थे। इन्होंने सुखसागर लिखा था और एक ज्ञानोपदेश वाली पुस्तक जिसका उल्लेख हो चुका है। इनकी भाषा सहज एवं प्रवाहमयी है। कथा वाचकों, पंडितों और साधु-संतों में प्रचलित शैली का प्रभाव इनकी खड़ी बोली के गद्य पर है, किन्तु इससे भाषा की सहजता पर आँच नहीं आयी है।

♣ इंशाअल्ला खाँ

इंशाअल्ला खाँ उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे। इन्होंने उदयभान चरित या रानी केतकी की कहानी खड़ी बोली गद्य में लिखी। इनकी भाषा काफी अलंकृत, चुटीली और मुहावरेदार है। बात यह है कि उन दिनों कहानी कहने या किस्सागोई की कला काफी प्रचलित थी। इंशाअल्ला खाँ के गद्य पर इस किस्सागोई की शैली का प्रभाव है। गद्य के बीच-बीच में पद्य जैसी तुकबंदी उन दिनों के उर्दू गद्य लेखन में मिलती है। वह लल्लूलाल के यहाँ भी है और इंशाअल्ला खाँ के यहाँ भी। उदाहरण के लिए यह पंक्ति-यह कैसी चाहत जिसमें लहू बरसने लगा और अच्छी बातों को जी तरसने लगा।

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♣ सदलमिश्र

सदलमिश्र लल्लूलाल जी की तरह फोर्ट विलियम कॉलेज के लिए खड़ी बोली गद्य की पुस्तक तैयार की। इनकी पुस्तक का नाम है नासिकेतोपाख्यान। इनकी भाषा में पूरबीपन है। ये आरा (बिहार) के रहने वाले थे। इनकी भाषा व्यवहारोपयोगी है।

खड़ी बोली गद्य के इन चारों प्रारंभिक लेखकों में मुंशी सदासुखलाल ‘नियाज’ का गद्य अधिक व्यवस्थित और व्यवहारोपयोगी है। रामप्रसाद निरंजनी के भाषा योग वशिष्ठ की ही परंपरा में उनका गद्य है।

गद्य का विकास करने में ईसाई मिशनरियों का भी बहुत बड़ा हाथ है। गद्य के विकास में छापाखानों (प्रेस) की बहुत बड़ी भूमिका है ! छापाखानों के बिना इतनी अधिक संख्या में पुस्तकें मुद्रित नहीं हो सकती थी।

अंग्रेजी की शिक्षा के प्रसार के साथ-साथ हिन्दी, उर्दू की भी पढ़ाई की व्यवस्था सरकार ने की। इसके लिए पुसतकों के प्रकाशन की भी व्यवस्था हुई। 1833 ई. के आसपास आगरा में स्कूल बुक सोसाइटी की स्थापना हुई, जिसने कथासार नामक पुस्तक प्रकाशित कराई। 1840 ई. में भूगोलसार और 1847 ई. में रसायन प्रकाश छपा। इस तरह हिन्दी गद्य में पाठ्यपुस्तकों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ।

♣ भारतेन्दु हरिश्चंद्र

जीवन के अल्प काल में ही भारतेन्दु ने साहित्य की बहुत बड़ी सेवा की। उनकी रचनाओं की संख्या काफी है। उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं को समृद्ध किया और अनेक विधाओं का प्रवर्तन किया। वे हिन्दी साहित्य में आधुनिक युग के प्रवर्तक हैं। 18 वर्ष की आयु में ही उन्होंने बंगाल से विद्यासुंदर नाटक का हिन्दी में अनुवाद किया। 1868 ई. उन्होंने कविवचन सुधा नाम पत्रिका निकाली। इसमें साहित्यिक रचनाएँ तो होती थी, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विचार और टिप्पणियाँ भी होती थीं।

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इसी पत्रिका में उन्होंने विलायती कपड़ों के बहिष्कार की अपील और ग्राम-गीतों के संकलन की योजना प्रकाशित की थी। 1873 ई. में उन्होंने हरिश्चन्द्र मैगजीन नामक मासिक पत्रिका निकाली। इस पत्रिका का प्रकाशन कितना महत्वपूर्ण है– यह इसी से समझा जा सकता है कि स्वयं भारतेन्दु के अनुसार- हिन्दी नई चाल में ढली’ (1873 ई.)। बाद में इस पत्रिका का नाम उन्होंने हरिश्चन्द्र चंद्रिका कर दिया। 1874 ई. में उन्होंने स्त्री-शिक्षा के लिए बालाबोधिनी नामक पत्रिका निकाली। भारतेन्दु ने सबसे अधिक संख्या में नाटक लिखे और अनुवाद किया। उनके मौलिक नाटक इस प्रकार हैं-वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, चंद्रावली, विषस्य विषमौषधम्, भारत दुर्दशा, नील देवी, अंधेर नगरी, प्रेम जोगनी और सती प्रताप।

अनूदित नाटक-विद्यासुंदर, पाखंड-बिडंबन, धनंजय-विजय, कर्पूरमंजरी, मुद्राराक्षस, सत्य हरिश्चन्द्र और भारत-जननी।

बादशाह दर्पण, कश्मीर कुसुम उनके इतिहासिक ग्रंथ है। कुछ आप-बीती कुछ जग-बीती कहानी है। कविताएँ भारतेन्दु ने ब्रजभाषा में लिखी, जिनका उल्लेख यथास्थान किया गया है। भारतेन्दु ने यात्रा-वर्णन भी लिखा है। उन्होंने सुदूर देहाती क्षेत्रों की यात्रा बैलगाड़ी से की। कहते हैं कि 1865 ई. में उन्होंने जगन्नाथ पुरी की जो यात्रा की उसका उनके जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और उनका परिचय बंगाल के नए साहित्यिक आंदोलन से हुआ।

♣ प्रताप नारायण मिश्र

प्रताप नारायण मिश्र अत्यंत विनोदी कवि थे। वे ब्राह्मण नामक पत्रिका निकालते थे। उनका मनमौजीपन उनकी रचनाओं, विशेषतः निबंधों में दिखाई पड़ता है। उन्होंने कुछ गंभीर निबंध भी लिखे हैं। उन्होंने कलिकौतुक रूपक, संगीत शाकुंतल, भारत दुर्दशा, हठी हम्मीर, गोसंकट, कलिप्रभाव, जुआरी-खुआरी नाटक लिखें। उन्होंने दैनिक जीवन की घटनाओं पर और नए फैशन पर अनेक कविताएँ लिखीं। उनकी कविताओं का महत्वपूर्ण अंश वह है, जिसमें उन्होंने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक समस्याओं का नए बोध के साथ चित्रण किया है। कविताओं के लिए आल्हा, लावनी जैसी लोक प्रचलित काव्य शैलियों का उपयोग भी किया है।

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♣ बालकृष्ण भट्ट

बालकृष्ण भट्ट जी हिन्दी प्रदीप नामक पत्र निकालते थे। वे निबंधकार, समीक्षक और नाटककार थे। उन्होंने कलिराज की सभा, रेल का विकेट खेल, बाल विवाह, चंद्रसेन आदि नाटकों की रचना की। भट्ट जी ने कुछ बंगला नाटकों का हिन्दी में अनुवाद भी किया।

♣ उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’

उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ काव्य और जीवन दोनों क्षेत्रों में भारतेन्दु को अपना आदर्श मानते थे। वे कलात्मक एवं अलंकृत गद्य लिखते थे। आनंद कादंबिनी नाम की पत्रिका गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट।

निकालते थे। बाद में नागरी नीरद नामक पत्र भी निकाला। प्रेमधन जी निबंधकार, नाटककार, कवि एवं समीक्षक एक साथ थे। भारत सौभाग्य, प्रयाग रामगमन उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। प्रेमधन ने जीर्ण जनपद नामक एक काव्य लिखा है जिसमें ग्रामीण जीवन का यथार्थवादी चित्रण है।

♣ मैथिलीशरण गुप्त

मैथिलीशरण गुप्त का जन्म चिरगाँव जिला झाँसी (उत्तर प्रदेश) में 3 अगस्त 1886 को हुआ था। उनके पिता रामचरणजी वैष्णव थे। वे कविता के बड़े प्रेमी थे। ‘कनकलता’ नाम से वह स्वयं भी कविताएँ लिखा करते थे। इस तरह कविता का संस्कार मैथिलीशरण गुप्तजी विरासत में अपने पिता से ही प्राप्त हो गया था। उस समय हिन्दी साहित्य में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का वर्चस्व बना हुआ था। गुप्तजी की प्रतिभा को देखकर द्विवेदीजी ने उन्हें प्रोत्साहित किया। गुप्तजी ने द्विवेदीयुगीन भावगत एवं शिल्पगत प्रवृत्तियों को आत्मसात् कर अपने काव्य को उन्हीं साँचों में ढाला। किन्तु, उनकी काव्ययात्रा स्थिर नहीं, बल्कि पर्याप्त गतिशील एवं वेगवती रही। उनमें अभियोजन की अद्भुत क्षमता थी।

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यही कारण है कि द्विवेदी-युग से छायावाद और छायावादोत्तर काल तक वे हिन्दी कविता के क्षेत्र में प्रभावशाली रूप में क्रियाशील रहे। उनका भावक्षेत्र अत्यंत व्यापक रहा है। उनमें संकीर्णता कभी नहीं दिखाई पड़ी। उनकी प्रमुख प्रबंध -काव्य-रचनाएँ हैं-साकेत, जय भारत, रंग में भंग, जयद्रथ-वध, शकुंतला, किसान, पंचवटी, सैरंध्री, हिडिंबा, युद्ध, यशोधरा, सिद्धराज, नहुष, अर्जुन और विर्सजन, काबा और कर्बला, गुरु तेगबहादुर, अजित और विष्णुप्रिया। विषय की दृष्टि से इनमें कुछ पौराणिक हैं तो कुछ ऐतिहासिक और सामाजिक।

‘स्वस्ति और संकेत’ उनकी फुटकर कविताओं का नवीनतम संग्रह है जो उनके मरणोपरांत प्रकाशित हुआ है। गुप्तजी सच्चे अर्थ में भारतीय संस्कृति के कवि अर्थात् राष्ट्रकवि हैं। राम के अनन्य भक्त होते हुए भी मैथिलीशरण गुप्त धर्म के क्षेत्र में बड़े उदार रहे हैं। उनकी जिस लेखनी से ‘पंचवटी’ और ‘साकेत’ की रचना हुई, उसी से अनघ, यशोधरा और कुणालगीत की भी, उनकी जिस लेखनी ने सिक्खों की शक्ति का हमें परिचय देने के लिए गुरुकुल की गाथा गाई, उसी ने इस्लाम धर्म में चरित्र की महानता और सहनशीलता के महत्त्व को हमें समझाने के लिए ‘कर्बला’ की कहानी भी सुनाई।

इस तरह उनकी राष्ट्रीयता क्रमशः उदार होती हुई विश्व मानवतावादी होती गई है। राजनीति में गुप्तजी गाँधीजी से प्रभावित रहे हैं। करुणा के चित्रण में गुप्तजी अद्वितीय हैं। उनका काव्य कहीं भी अश्लील नहीं होने पाया है। खड़ी बोली हिन्दी के परिमार्जन और उसे काव्योपयुक्त बनाने में गुप्तजी की साधना अप्रतिम है। उन्होंने अनेक छंदों और अलंकारों का प्रयोग अपनी कविताओं में किया है। इस तरह हम देखते हैं कि हिन्दी काव्य के निर्माता और प्रयोक्ता-दोनों ही रूपों में गुप्तजी का महत्वपूर्ण स्थान है।

♣ जयशंकर प्रसाद

जयशंकर प्रसाद का जन्म 1889 ई. में वाराणसी में हुआ। उनका परिवार शैव था किन्तु उनके यहाँ सुरती बनाने का काम चलता था। इसलिए आज तक उस परिवार को ‘सुंघनी साहु का परिवार’ कहा जाता है। दुर्भाग्यवश प्रसादजी की बाल्यावस्था में ही उनके माता-पिता स्वर्गवासी हो गए। परिवार का भारत प्रसादजी पर आ जाने के कारण आठवें वर्ग तक की ही शिक्षा उन्हें मिल सकी। किन्तु उनके पुस्तकालय और उनकी रचनाओं से उनके अध्ययन की व्यापकता और गहनता का पता चलता है। उन्होंने गद्य-पद्य-दोनों में समान दक्षता के साथ रचनाएँ की हैं।

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क्या कविता और क्या नाटक, क्या कथा और क्या निबंध-सभी विधाओं में हमें उनकी अप्रतिम प्रतिभा दिखाई पड़ती है। उनकी काव्य-रचनाएँ हैं-‘चित्राधार’, ‘काननकुसुम’, ‘प्रेमपथिक’, ‘करुणालय’, ‘झरना’, ‘आँसु’, ‘लहर’ और ‘कामायनी’। कामायनी उनकी कालजयी काव्यकृति . है। वे मूलतः प्रेम और सौंदर्य के कवि थे। जीवन के प्रेमविलासमय मधुर पक्ष की ओर उनकी विशेष प्रवृत्ति है जिसका प्रसार प्रियतम के संयोग-वियोगवली रहस्यभावना तक दिखाई पड़ता है।

शारीरिक प्रेम-व्यापारों और चेष्टाओं, रंगरेलियों और अठखेलियों, उनकी वेदनाजन्य कसक और टीस आदि की ओर उनकी विशेष दृष्टि रहती थी। आचार्य शुक्ल ने इस संदर्भ में लिखा है, “इसी मधुमयी प्रवृत्ति के अनुरूप प्रकृति के अनंत क्षेत्र में भी बल्लरियों के दान, कलिकाओं की मंद मुस्कान, सुमनों के मधुपात्र, मँडराते मिलिंदों के गुंजार, सौरभहर समीर की लपक-झपक, पराग-मकरंद की लूट, उषा के कपोलों पर लज्जा और लाली, आकाश और पृथ्वी के अनुरागमय परिरंभ, रजनी के आँसू से भीगे अंबरी, चंद्रमुख पर शरद्घन के सरकते अवगुंठन, मधुमास की मधुवर्षा और झूमती मादकता पर उनकी दृष्टि विशेष रूप से जमती दिखाई पड़ती है।

“प्रसादजी की प्रारंभिक कुछ कविताओं में परम्परा की छाप है। उनकी भाषा भी ब्रजभाषा है। किन्तु, अपनी काव्ययात्रा में उन्होंने तत्सम प्रधान खड़ी बोली को ही अपनी कोमल अनुभूतियों के अनुरूप सँवार लिया। उनका देहावसान राजयक्ष्मा के कारण 1937 ई. में हो गया।

♣ सूर्यकान्त त्रिपाठी “निराला’

सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म 1896 ई. में मेदिनीपुर (पश्चिम बंगाल) जिले के महिषादल में हुआ था। उनके बचपन का नाम सूचकुमार था। अपनी पत्नी मनोहरा देवी की प्रेरणा से वे हिन्दी की ओर प्रवृत्त हुए। उनकी स्कूली शिक्षा नौवें वर्ग तक ही हुई, किन्तु स्वाध्याय के बल पर उन्होंने हिन्दी, बँगला, संस्कृत और अंग्रेजी साहित्य का गहन अनुशीलन किया था। उनमें अप्रितिम काव्य-प्रतिभा थी। इसी प्रतिभा के बल पर उनकी गणना छायावाद के चार महान उन्नायकों (प्रसाद, पंत, निराला और महादेवी) में होती है।

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फिर भी, वे सदा से विद्रोही और स्वच्छंद प्रवृत्ति के कवि थे। उन्होंने कविता, उपन्यास, कहानी, रेखाचित्र और आलोचनात्मक निबंध की विधाओं में महत्त्वपूर्ण रचनाएँ की हैं। उनकी पुस्तकाकार काव्य कृतियाँ हैं-परिमल, गीतिका, अनामिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, अणिमा, नए पत्ते, बेला, अर्चना, आराधना और गीतगुंज। इन कविता-पुस्तकों की कई कविताएँ इनके ‘राग-विराग’ में संकलित हैं। निराला ने जहाँ एक ओर शृंगारिक और भक्तिपूर्ण रचनाएँ की हैं तो दूसरी ओर पौरुष और राष्ट्रप्रेम से परिपूर्ण कविताएँ भी।

कबीर के समान ही उनमें अखंड आत्म-विश्वास, रूढ़ियों के प्रति आक्रामक भाव, क्रांतिदर्शिता, अक्खड़पन और फक्कड़पन पाया जाता है। इसलिए, उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से सामाजिक विषमताओं, विसंगतियों और विद्रूपताओं पर करारा व्यंग्य किया है। वस्तुतः निराला ओज और पौरुष के कवि हैं। उन्हें हिन्दी में मुक्त छंद का प्रथम प्रयोक्ता कवि कहा जाता है। यह सच है क्योंकि हिन्दी कविता में उनका पदार्पण मुक्त कविता के साथ ही हुआ था। भारतीय वेदांतदर्शन, रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद तथा रवीन्द्रनाथ ठाकुर का प्रभाव उनकी कविताओं में स्पष्टतः परिलक्षित होता है। एक ओर वे “तुम्हीं गाती हो अपना गान, व्यर्थ मैं पाता हूँ सम्मान” जैसी आध्यात्मिक भावभरी पंक्तियाँ लिखते हैं तो दूसरी ओर-

“विजय-वन-वल्लरी पर
सोती थी सोहाग भरी स्नेह-स्वप्न-मग्न
अमल कोमल तनु-तरुणी-जुही की कली
दृग बंद किए शिथिल पत्रांक में वासंती निशा”

जैसी शृंगारिक पंक्तियाँ भी जिनमें यौवन का उद्दाम प्रवाह तथा ऊष्मा मुखरित है। किन्तु, वस्तुतः निराला ओज और पौरुष के कवि हैं। ‘राम की शक्ति पूजा’ की निम्नलिखित ओजगुण-संपन्न और समस्त पद-शैय्या (शब्द-विन्यास) देखिए-

वारित सौमित्र भल्लपति-अगणित-मल्ल-रोध,
गर्जित-प्रलयाब्लि-क्षुब्ध-हनुमत्-केवल-प्रबोध,
उद्गीरित-वाहि-भीम-पर्वत-कपि चतुः प्रहर,
जानकी-भीरु-उर-आशाभर-रावण-संवर।
लौटे युगदल। राक्षस-पदतल पृथ्वी टलमल,
बिध महोल्लास से बार-बार आकाश विकल।

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संक्षेप में, उत्कृष्ट मानवतावादी दृष्टिकोण, उत्कट राष्ट्रीय चेतना, मनोमुग्धकारिणी भंगारप्रियता तथा उच्च कोटि का बौद्धिकतायुक्त दार्शनिक चिंतन निराला के काव्य की प्रमुख विशेषताएँ हैं। कहीं-कहीं भाषा क्लिष्ट किन्तु स्निग्ध एवं मंगलमयी है। निरालाजी का स्वर्गवास 1961 ई. में हुआ।

♣ सुमित्रानंदन पंत

छायावाद के चार स्तंभों में से एक कवि सुमित्रानंदन पंत का जन्म अल्मोड़ा जिले के कोसानी नामक ग्राम में सन् 1900 ई. में हुआ था। जन्म के तुरन्त बाद माता का स्वर्गवास हो जाने के कारण बचपन मातृस्नेह से वंचित हो गया। पिता का दिया हुआ नाम था-गोसाईदत्त पंत, परन्तु बाद में पंतजी ने स्वयं अपना नाम बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख दिया और इसी नाम से कवि रूप में असीम प्रसिद्धि पायी।

पंतजी का जन्म तो अल्मोड़ा और कोसानी की प्राकृतिक सुषुमा की गोद में हुआ ही था, उनमें प्रकृति और सौन्दर्य के प्रति गहरी संवेदनशीलता जन्मजात थी। सातवें वर्ग से ही उनका काव्यात्मक रुझान स्पष्ट होने लगा था। वैसे पंतजी का काव्यारंभ आमतौर पर सन् 1918 ई. के बाद से ही माना जाता है, परन्तु स्वयं पंतजी ने 1907 से 1918 ई. तक के काल को अपने कवि-जीवन का आरंभिक काल माना है।

घर के धार्मिक वातावरण, बाहरी प्राकृतिक घटनाओं, और सरस्वती, अल्मोड़ा अखबार, बैंकटेश्वर सामाचार आदि पत्र-पत्रिकाओं ने पंतजी में ऐसी काव्यात्मक रूचि पैदा कर दी कि एक दिन उन्होंने हिन्दी कविता की दिशा ही बदल दी।

सन् 1918 ई. में पंतजी अपने मंझले भाई के साथ बनारस आ गए थे। बनारस के जयनारायण हाई स्कूल में पढ़ते हुए उन्होंने स्वाध्याय और लेखन दोनों को ऊँचाई ओर विस्तृति दी। सन् 1919 ई. में पंतजी ने बनारस से मैट्रिक पास कर म्योर कॉलेज प्रयाग में नामांकन कराया। लेकिन सन् 1912 के सत्याग्रह आंदोलन में बड़े भाई के कहने पर उन्होंने कॉलेज छोड़ दिया।

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पंतजी स्वभाव से ही कवि हृदय जीव थे। कॉलेज छोड़ने के बावजूद अपनी स्वाभाविक सुकुमारता के चलते वे सक्रिय राजनीति में भाग तो नहीं ले सके, किन्तु इसका लाभ स्वाध्याय और काव्य-सृजन में अवश्य उठाया। उनके हिन्दी काव्यगत में प्रवेश के साथ ही छायावाद का आरंभ होता है। उसके चार प्रमुख स्तंभों में एक प्रमुख स्तंभ उन्हें भी माना जाता है।

पंतजी के कवि-जीवन में अनेक मोड़ आते रहे हैं, पर उनके वास्तविक जीवन में विशेष जटिल तथा निर्णायक मोड़ प्रायः नहीं आए हैं। स्वभाव से सुकुमार पंतजी शारीरिक स्तर पर अत्यंत कोमल गात वाले व्यक्ति थे। वे आजन्म कुँवारे रहे। ऐसा कहा जाता है कि कवि सम्मेलनों में जब वे अपनी कविताओं का पाठ करते थे तो स्रोताओं में मुग्धता की स्थिति बन जाती थी।

पंतजी सन् 1950 ई. में ऑल इंडिया रेडियो के परामर्शदाता बने थे, जहाँ लगभग सात वर्षों तक रहे। लेकिन मूलरूप से वे एक मुक्त मन कवि थे। लगभग सन् 1920 ई. से ही काव्य रचना आरंभ कर सन् 1964 ई. (लोकायतन) तक हिन्दी कविता के भंडार को अपनी रचनाओं से भरते रहे। उनके ‘कला और बूढा चाँद’ तथा ‘चिदंबरा’ नाम कविता-संग्रहों पर क्रमशः साहित्य अकादमी और भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिले थे।

♣ महादेवी वर्मा

छायावाद के चार महान कवि हैं-प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी जिनमें महादेवी का जन्म 1907 ई. में हुआ था। इनमें संबंध में शंभुनाथ सिंह ने लिखा है-“महादेवी छायावाद के कवियों में औरों से भिन्न अपना एक विशिष्ट और निराला स्थान रखती हैं। इस विशिष्टता के दो कारण हैं। एक तो उनका कोमल-हृदय नारी होना, दूसरा अंग्रेजी और बंगला के रोमांटिक और रहस्यवादी काव्य से प्रभावित होना।

इन दोनों कारणों से इन्हें एक ओर तो अपने आध्यात्मिक प्रियतम को पुरुष मानकर स्वाभाविक रूप में अपनी स्त्रीजनोचित प्रणयानुभूतियों को निवेदित करने की सुविधा मिली, दूसरी ओर प्राचीन भारतीय साहित्य और दर्शन तथा संत-युग के रहस्यवादी काव्य के अध्ययन और दर्शन तथा अपने पूर्ववर्ती तथा समकालीन छायावादी कवियों के काव्य से निकट परिचय होने के फलस्वरूप उनकी काव्याभिव्यंजना और बौद्धिक चेतना शत-प्रतिशत भारतीय परंपरा के अनुरूप बनी रही।

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“इसीलिए, अव्यक्त प्रियतम की उनकी रहस्यमयी अनुभूतियाँ निर्गुणियों की अनुभूति के समीप दिखाई पड़ती हैं। अलौकिक प्रियतम के प्रति गूढ और तीव्र विरहानुभूति के कारण वे ‘आधुनिक मीरा’ कही जाती हैं। उन्होंने बौद्ध दर्शन का गहन अध्ययन किया था और उसके दुःखवाद से वे बहुत प्रभावित थीं। इसीलिए, उन्होंने लिखा है-“मुझे दुःख के दोनों रूप प्रिय हैं, एक वह जो मनुष्य के संवेदनशील हृदय को सारे संसार के एक अविच्छन्न बंधनों में बाँध देता है और दूसरा वह जो काल और सीमा के बंधन में पड़े हुए असीम चेतन का क्रंदन है।

“सच्चाई यह है कि उनके काव्य में दूसरे प्रकार का दुःख ही अधिक मुखरित सुनाई पड़ता है। चाहे जो हो, वेदनामयी अनुभूतियों गीतात्मक अभिव्यक्ति की दृष्टि से हिन्दी की आधुनिक कविता में महादेवी सचमुच अप्रतिम हैं। इसीलिए, इस संदर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है-“गीत लिखने में जैसी सफलता महादेवीजी को हुई वैसी और किसी को नहीं। न तो भाषा का ऐसा स्निग्ध प्रांजल प्रवाह और कहीं मिलता है, न हृदय की ऐसी भावभंगी। जगह-जगह ऐसी ढली हुई और अनूठी व्यंजना से भरी हुई पदावली मिलती है कि हृदय खिल उठता है।” महादेवी का निधन 1987 ई. में हुआ।

♣ रामधारी सिंह ‘दिनकर’

हिन्दी के स्वनामधन्य कवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म मुंगेर (वर्तमान बेगूसराय) (बिहार) के सिमरिया गाँव में 1908 ई. में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा अपने गाँव में पाने के बाद उन्होंने 1928 ई. में रेलवे उच्च विद्यालय, मोकामा से मैट्रिक की परीक्षा पास की। अपनी उच्चतर शिक्षा के लिए वे पटना आए और 1932 ई. में पटना कॉलेज से बी. ए. ऑनर्स (इतिहास) किया। उनकी प्रमुख उपलब्धियाँ इस प्रकार हैं-

जनसंपर्क विभाग में सब-रजिस्ट्रार (1934-43 ई.), उपनिवेशक (1947-50 ई.) लंगट सिंह कॉलेज मुजफ्फरपुर (बिहार) में स्नातकोत्तर हिन्दी-विभागाध्यक्ष (1952-58 ई.), राष्ट्रभाषा आयोग, संगीत नाटक अकादमी और आकाशवाणी की परामर्शदात्री समिति के सदस्य, पद्मभूषण (1959 ई.) भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति (1964 ई.) इत्यादि। उनका निधन मद्रास के एक अस्पताल में 1974 ई. में हो गया।

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दिनकरजी की प्रकाशित काव्यकृतियाँ हैं-प्राणभंग, रेणुका, हुंकार, रसवंती, कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी, नीलकुसुम, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कोयला और कवित्व, द्वंद्व गीत, सामधेनी, बापू, इतिहास के आँसू, दिल्ली, नीम के पत्ते, सीपी. और शंख, नए सुभाषित, मृत्तितिलक और आत्मा की आँखें।

दिनकर की काव्यगत विशेषताओं को रेखांकित करते हुए डॉ. विश्वंभर मानव ने लिखा है कि दिनकर के काव्य की पहली विशेषता है-ओज। यह ओज राष्ट्रीय चेतना और मानवता के उद्धार की भावना से युक्त होकर स्पृहणीय बन गया है। इनकी प्रारंभिक कृतियाँ ‘रेणुका’ और ‘हुंकार’ हैं जिनमें समय की पुकार है। इन दो कृतियों ने वस्तुतः राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों मे पांचजन्य फूंकने का काम किया। वस्तुतः दिनकर जनकवि हैं। उनके ओज का स्वाभाविक पर्यवसान गाँधी-दर्शन में हुआ जिसका सुपरिणाम ‘बापू’ रचना है।

परशुराम की प्रतीक्षा’ की वीररसात्मक कविताएँ भारत पर चीनी आक्रमण के समय लिखी गई थीं। देशभक्ति से भरी इन कविताओं ने पाठकों में ओज और उत्साह भर दिया था। दिनकर के काव्य की दूसरी विशेषता कोमलता है। जिसका एक छोर ‘रसवंती’ में और दूसरा ‘उर्वशी’ में दिखाई पड़ता है। रसवंती में यौवन, सौंदर्य और विरह-व्यथापूर्ण सुंदर-सुंदर गीत हैं। वस्तुतः दिनकर की अक्षय काव्यकीर्ति का आधार उनकी दो कृतियाँ हैं-कुरुक्षेत्र और उर्वशी। ‘कुरुक्षेत्र’ में युद्ध की भयंकर समस्या का विवेचन-विश्लेषण है। दिनकर ने अपने इस चिंतन के लिए महाभारत के एक प्रसंग को चुना है।

‘कुरुक्षेत्र’ का वास्तविक महत्त्व सीमित कथानक के भीतर देशकालातीत विस्तृत समस्या पर चिंतन और उसका समाधान है। उर्वशी गाँच अंकोंवाला एक लंबा काव्य-रूपक है। इसका केन्द्रीय भाव प्रेम है। शृंगार की ऐसी पूर्ण और रसमयी अभिव्यक्ति अन्यत्र दुर्लभ है। यह समर्थ प्राणियों का प्रेम है। पुरुरवा और उर्वशी का प्रणय-व्यापार प्रकृति के रम्य वातावरण में चलता है। इस प्रेम की विशेषता यह है कि यह केवल शरीर तक सीमित न रहकर मन और आत्मा के उत्तुंग शिखरों का भी स्पर्श करता चलता है। सचमुच नर और नारी के संयोग के ये क्षण अपनी पवित्रता, चित्रमयता और रसात्मकता में अनुपम हैं।

 Bihar Board Class 11th Hindi प्रमुख रचनाकर एवं रचनाएँ

समग्रतः दिनकर की कविता हृदय के तारों को झंकृत करती है। उसमें भारतीय संस्कृति और ‘ सभ्यता का स्वर है। अतीत को देखकर उसे वर्तमान में उतार देना कवि-प्रतिभा का प्रमाण है। अंतर्वेदना के अंकन में दिनकर सचमुच अप्रतिम हैं। उनका देहावसान 1974 ई. में हुआ।

♣ नागार्जुन

कविवर बाबा नागार्जुन का जन्म सन् 1911 ई. में हुआ था। ये दरभंगा जिला के तरौनी ग्राम में साहित्य साधना में कार्यरत रहे हैं। छायावादी काल से साहित्यिक प्रवृत्तियों की एक विशिष्ट भंगिमा लेकर मंच पर उदित हुए जिस कवि को पाठकों ने देर से पहचाना, आज हम उसे ही ‘नागार्जुन’ नाम से पुकारते हैं। इन्होंने हिन्दी, संस्कृत, पाली और मैथिली साहित्यिक मंच से साहित्य-सृजन का कार्य किया।

आधुनिक हिन्दी साहित्यों में नागार्जुन महत्तर क्रांतिदर्शी कवि के रूप में सर्वाधिक विख्यात है। उनके द्वारा अनेक भाषाओं को मौलिक साहित्य प्राप्त हो चुका है। हिन्दी काव्यधारा में मौलिक ग्रंथों की सूची युगधारा, शपथ, प्रेत का बयान, खून और शोले, चनाजोर गरम आदि हैं। मैथिली में चित्रा और विशाखा से सभी परिचित हैं। पारो, बलचनमा, नवतुरिया जहाँ इनके मैथिली उपन्यास हैं, वहाँ हिन्दी में भी रतिनाथ की चाची, नई पौधा, बाबा बटसेरनाथ, बरुण के बेटे, दुशमोचन, कुभीपाक आदि सामने आ चुके हैं।

‘धर्मालोक शतकम्’ सिंहली लिपी में संस्कृत का एक काव्य-ग्रंथ है। देश दशकम्’, ‘कृषक-दशकम्’, ‘श्रमिक दशकम्’, आदि में इनकी संस्कृत कविताएँ प्रकाशित हैं। अपने साहित्य के माध्यम से उन्होंने नारी की मार्मिक कहानी, समाज की अन्धता, स्याह सफेद चेहरों के रंग के प्रति तीखे व्यंग्य की झड़ी और ‘कुंभीपाक’ बदलते चरण के साथ इन्होंने अपना स्वर मिलाया, साथ ही सत्य के वाचन के साथ इनकलाब के नारों को संगति दी है। यही वे साधक हैं जिसके व्यक्तित्व और साहित्य में कोई भेद नहीं लक्षित होता और उनके कवि-व्यक्तित्व की सबसे बड़ी विशेषता है।

 Bihar Board Class 11th Hindi प्रमुख रचनाकर एवं रचनाएँ

बाबा नागार्जुन अत्याधुनिक युग के क्रांतिदर्शी महाकवि हैं। संस्कृत, हिन्दी, पाली और मैथिली साहित्य में गम्भीर स्वाध्याय से उन्होंने मौलिकता की मुहर लगायी है। मौलिकता की मुहर लगा देने को पाठक-संसार अमरत्व के विशेषण से विभूषित कर देता है।

नागार्जुन गद्य और पद्य दोनों में समान गति से लिखने वाले साहित्यकार हैं। वे जितने प्रसिद्ध कवि हैं उतने ही विख्यात आंचलिक उपन्यासकार भी हैं। ‘नई पौधा’, बाबा बटेसर नाथ’, ‘रतिनाथ की चाची’, ‘हरिक जयंती’ और ‘जमुनिया’ उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं जिनमें मिथिला का जीवन कदम-कदम पर साकार हो उठा है।

उनके कविता संग्रह में ‘युगधारा’, ‘प्यासी पथराई आँखें, ‘हजार-हजार बाँहों वाली’, ‘तालाब की मछलियाँ’, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने’, ‘रत्नगर्भ’, ‘ऐसे भी हम क्या ऐसे भी तुम क्या’, ‘सतरंगे पंखों वाली’, ‘तुमने कहा था’, ‘पुराने जूतियों का कोस’, ‘हरिजन गाथा’, और ‘भस्मांकुर’ .(खण्डकाव्य) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

नागार्जुन क्रांतिकारी विचारधारा के कवि हैं। इनकी साहित्य तथा राजनीति में समान रुचि तथा गति है। वे भारत की जनता और माटी से जुड़े कवि हैं। उनकी संवेदनशीलता में कबीर की-सी सहजता है। उनकी कविता में कबीर तथा भारतेन्दु की-सी व्यंग्य-भंगिमा है। बाबा नागार्जुन का निधन सन् 1989 में हुआ।

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प्रश्न 1.
प्रबंधकाव्य और मुक्तक काव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, दोनों का अंतर भी रेखांकित कीजिए।
उत्तर-
प्रबंधकाव्य-जिस काव्य में शृंखलाबद्ध रूप से पूर्व और पश्चात् के संदर्मों से जुड़ी हुई कोई कथा प्रस्तुत की गई हो उसे ‘प्रबंधकाव्य’ कहते हैं।

‘प्रबंध’ का अभिप्राय-व्यवस्था। प्रबंधकाव्य में विभिन्न घटनाएँ एक व्यवस्थित रूप से परस्पर जुड़ी होती हैं। विविध पात्रों के चरित्र भी किसी-न-किसी रूप में एक-दूसरे से सुग्रथित तथा प्रभावित प्रतीत होते हैं। आरंभ से अंत तक कोई एक ही विचार या उद्देश्य सिद्ध होता है। प्रकृति, समाज, देश, नगर, आदि का वर्णन का मूल कथा अथवा चरित्र से संबंद्ध होता है।

मुक्तककाव्य-‘मुक्त’ का अभिप्राय है-पहले या बाद के सभी संदर्भो से मुक्ति। जिस कविता, छंद या पद्य का अर्थ बोध अपने-आप में इतना पूर्ण हो कि कोई एक भाव या विचार स्वतः स्पष्ट हो जाए। उसकी स्पष्टता के लिए अन्य संदों को जानने की आवश्यकता न हो। इसमें किसी प्रकार की कथात्मकता, पात्र या चरित्र की विकास-प्रक्रिया का अभाव होता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि “एक ऐसा पद्य या कुछ पद्यों का समूह ‘मुक्तक’ कहलाता है जो अपने-आप में पूर्ण अर्थ, भाव या विचार का बोध करा दे।”

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प्रबंधकाव्य और मुक्तककाव्य में अंतर-ये दोनों विधाएँ ‘पद्य’-बद्ध होती हैं। दोनों में। भाषा-सौष्ठव, नाद-सौंदर्य, अलंकार-विधान, बिंबात्मक चित्रण तथा प्रतीकात्मक प्रयोग हो सकते हैं।

फिर भी दोनों में कई दृष्टियों से अंतर स्पष्ट है-

  1. प्रबंधकाव्य’ में कथा-तत्त्व अनिवार्य है। ‘मुक्तककाव्य’ में कथा-तत्त्व का सर्वथा अभाव होता है।
  2. प्रबंधकाव्य’ में विभिन्न पात्रों के व्यक्तित्व और विचार प्रतिबिंबित होते हैं। ‘मुक्तककाव्य’ में केवल रचनाकार (कवि) निजी अनुभूतियों या विचारों की अभिव्यंजना।
  3. प्रबंधकाव्य’ का आकार-प्रकार व्यापक होता है। उसमें अलग-अलग शीर्षकों से, या शीर्षक-रहित भी अनेक खंड, अध्याय, सर्ग, परिच्छेद आदि हो सकते हैं। ‘मुक्तककाव्य’ का आकार सीमित रहता है। कई बार केवल एक ही पद्य (छंद) किसी एक भाव को व्यजित कर देता है। वर्तमान युग में ‘गीत’ के रूप में ‘मुक्तक’ काव्य की रचना हो रही है। साथ ही, केवल, चार, तीन, अथवा दो पंक्तियों के मुक्तक भी रचे जाते हैं।
  4. ‘प्रबंधकाव्य’ में विभिन्न भाव या विचारों की अभिव्यक्ति को सशक्त बनाने के लिए प्रकृति, समाज, युग आदि का परिवेश पर्याप्त सहायक होता है। ‘मुक्तककाव्य’ में केवल एक ‘भाव’ या ‘विचार’ प्रमुख होता है। उसकी व्यंजना के लिए संकेत रूप में मानव-जीवन या प्रकृति का कोई दृष्टांत, बिंब या प्रतीक आदि अवश्य सहायक होता है।

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प्रश्न 2.
महाकाव्य तथा खंडकाव्य का स्वरूप स्पष्ट करते हुए दोनों के अंतर को दर्शाने वाली अलग-अलग विशेषताओं पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
महाकाव्य-‘महाकाव्य’ प्रबंध काव्य का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और बहुप्रचलित रूप है। अंग्रेजी में इसे ‘एपिक’ कहा जाता है। संसार का सभी भाषाओं में अत्यंत प्रसिद्ध, गरिमायुक्त और कालजयी महाकाव्यों की परंपरा रही है। संस्कृत और हिन्दी में भी विश्वप्रसिद्ध महाकाव्यों की रचना हुई है। वर्तमान युग में गीता, प्रगीत, नवगीत, आदि मुक्त काव्य-रचना का प्रचलन अधिक होने के कारण महाकाव्य-रचना की प्रवृत्ति कुछ कम हो गई है। “महाकाव्य उस प्रबंधकाव्य को कहते हैं जिसमें किसी महान व्यक्ति को प्रायः समग्र जीवन विकासात्मक चित्रण किसी महान उद्देश्य की दृष्टि से किया गया हो।”

प्राचीन तथा आधुनिक साहित्यशास्त्रियों ने मुख्य रूप से महाकाव्य के निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया है

  1. महाकाव्य का आकार विशाल होता है। वह प्रायः आठ या अधिक सर्गों अर्थात् अध्यायों, खंडों या परिच्छेदों में विभक्त होना चाहिए।
  2. महाकाव्य की कथा प्रसिद्ध अर्थात् प्राचीन ग्रंथों या इतिहास आदि पर भी आधारित हो सकता है और पूर्णतया कल्पित भी। कभी-कभी महाकाव्य में इतिहास या पुराण आदि ग्रंथों से कोई कथा ग्रहण करके, उसमें कुछ कल्पित प्रसंग भी जोड़ दिए जाते हैं।
  3. महाकाव्य में मुख्यतया किसी एक महान व्यक्ति के जीवन और व्यक्ति का प्रस्तुतीकरण होता है। कई बार एक-से अधिक महान व्यक्तियों के जीवन को भी प्रस्तुत किया जाता है किन्तु केन्द्रीय पात्र (नायक) कोई एक ही होता है अन्य महत्त्वपूर्ण पात्र प्रतिनायक, सहनायक, खलनायक आदि के रूप में हो सकते हैं। वैसे गौण पात्र तो अनेक होते हैं।  Bihar Board Class 11th Hindi काव्य रूप
  4. महाकाव्य में जीवन, जगत, प्रकृति आदि के विविध पहलुओं का विशद वर्णन अपेक्षित है। मानव-जीवन का विकास जिस परिवेश, वातावरण और प्राकृतिक या सामाजिक परिप्रेक्ष्य में होता है उसकी विहंगम झलक महाकाव्य में होनी आवश्यक है।
  5. महाकाव्य की रचना किसी महान उद्देश्य से की जाती है। सहृदय पाठकों को उसके अध्ययन से कोई महान प्रेरणा, संदेश या आदर्श संप्रेषित हो। उसका मूल मंतव्य लोक-मंगल की साधना में ही निहित रहता है।
  6. महाकाव्य प्रायः विषयप्रधान होता है, विषयिप्रधान नहीं। हाँ, उसमें कथात्मक पद्य के साथ-साथ भावात्मक पद्य भी हो सकते हैं। छंदों का रूप बीच-बीच में बदलता रहे तो रोचकता
    और विविधता बनी रहती है।
  7. महाकाव्य का प्राण-तत्त्व है-हर प्रकार का वैविध्य। मानव-जीवन और जगत के विविध पहलू-सुख, दु:ख, राग-वैराग, युद्ध शांति, द्वंद्व-प्रेम, आशा-निराशा आदि के विरोधाभासी चित्र से उत्साह, कर्मठता आदि का संचार महाकाव्य में हो, क्योंकि जीवन का वास्तविक विकास प्रकृति की गोद में ही होता है।  Bihar Board Class 11th Hindi काव्य रूप
  8. प्राचीन साहित्य शास्त्री महाकाव्य में श्रृंगार, वीर या शांत रस की प्रधानता एवं अन्य रसों की भी सहस्थिति आवश्यक मानते हैं। परंतु आजकल ‘रस’ की अपेक्षा उदात्त भाव, आदर्श विचार और महान उद्दश्य पर बल दिया जाता है।

“खंडकाव्य-‘खंड’ का अभिप्राय है-भाग, अंश, हिस्सा। भारतीय साहित्यशास्त्र में ‘खंडकाव्य’ को ‘एकदेशानुसरी’ कहा गया है। इसमें मूलतः जीवन के किसी एक प्रमुख पहलू या प्रसंग, एक ही विशेष उद्देश्य, एक ही परिवेश, एक ही भाव या विचार का वर्णन या चित्रण होता है।

‘खंडकाव्य’ का भी प्रायः वही विशेषताएँ हैं जो महाकाव्य से जुड़ी हैं। जैसे-प्रसिद्ध या प्रेरक, कथा, उद्दात्त, चरित्र, प्रकृति-चित्रण, विविधता आदि। परंतु इसका क्षेत्र सीमित तथा कथा-विस्तार आशिक रहता है।

महाकाव्य और खंडकाव्य में अन्तर-ये दोनों विधाएँ प्रबंधकाव्य के अंतर्गत आती हैं। दोनों में किसी महान व्यक्ति के उदत्त चरित्र के माध्यम से किसी महान उद्देश्य की सिद्धि रचनाकार की दृष्टि में रहती है। फिर भी दोनों का अंतर स्पष्ट करने वाली प्रमुख बातें इस प्रकार हैं-

  1. ‘महाकाव्य’ का फलल पर्याप्त विस्तृत और व्यापक होता है। ‘खंडकाव्य’ सीमित और संक्षिप्त रूप लिए रहता है।
  2. महाकाव्य’ में कथा-विकास की समग्रता और पूर्णता होती है। ‘खंडकाव्य’ सीमित और संक्षिप्त रूप लिए रहता है।
  3. ‘महाकाव्य’ में जीवन, जगत और प्रकृति की विविधता समन्वित रहती है। ‘खंडकाव्य’ में जीवन, जगत या समाज के किसी एक विशेष पहलू को केन्द्र में रखकर संबद्ध युग-परिवेश का चित्रण किया जाता है।
  4. ‘महाकाव्य’ में एक केन्द्रिय पात्र (नायक) होते हुए भी अन्य अनेक पात्र भी किसी-न-किसी रूप में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ‘खंडकाव्य’ में रचनाकार की दृष्टि किसी एक व्यक्ति के चरित्रोंद्धाटन तक सीमित रहती है।
  5. ‘महाकाव्य’ मुख्यतया ‘विषय-प्रधान’ होता है। खंडकाव्य में विषयगत पक्ष प्रबल होता

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प्रश्न 3.
मुक्त काव्य के विविध प्रचलित रूपों की चर्चा करते हुए उन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।।
उत्तर-
मुक्तक काव्य के मुख्य रूप से प्रचलित रूप हैं-
(क) पाठ्य मुक्तक
(ख) गेय-मुक्तक।

(क) पाठ्य-मुक्तक-ऐसी कथा-मुक्त पद्य रचना जिसे पढ़कर या सुनकर ही रसास्वादन होता है। इसे गाया नहीं जा सकता। अत: यह ‘अंगेय’ मुक्तक भी कहलाता है। प्राचीन और मध्यकालीन कवियों द्वारा रचित दोहे, सवैये, कवित्त आदि प्रायः इसी के अन्तर्गत आते हैं।

(ख) गेय मुक्तक-‘गेय’ का अभिप्राय है-गाए जाने योग्य। जो कथा-रहित कविता लय-ताल-सुर आदि के माध्यम से गाई जा सके वह ‘गेय मुक्तक’ कहलाता है। कबीर, तुलसी, मीराबाई, सूरदास, आदि प्राचीन भक्त-कवियों के पद ‘गेय’ कहलाते हैं। इनकी रचना प्रायः विभिन्न राग-रागिनियों के आधार पर हुई है। इसके अतिरिक्त आधुनिक युग में ‘गेय’ मुक्तक के मुख्य रूप से प्रचलित रूप हैं-गीत, प्रगीत, चतुष्पदी, गजल।

गीत-गाई जाने वाली पद्य-रचना ‘गीत’ कहलाती है। इसमें प्रथम एक संक्षिप्त पक्ति ‘स्वामी’ के रूप में होती है। अन्य छह, आठ, या अधिक पंक्तियाँ उससे कुछ बड़ी किन्तु उसी जैसे अत्यानुप्रास (तुक-विन्यास) से युक्त होती है। अनेक समीक्षक प्राचीन कवियों के पदों को भी ‘गीत’ ही मानते हैं। परंतु उनकी रचना विभिन्न राग-रागनियों के आधार पर होने के कारण उन्हें ‘पद’ या ‘शब्द’ (शब्द या सबद) कहा जाता है। इनका मुख्य विषय भक्ति, प्रभु-प्रेम अथवा विषय-भावना है।

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आधुनिक युग में ‘गीत’ विषयवस्तु की दृष्टि से विविधता से युक्त है। इसमें सौंदर्य, प्रेम, . प्रकृति-चित्रण, सुख-दु:ख आदि रागात्मक अनुभृतियों के अतिरिक्त राष्ट्रीयता, सामाजिक भावना, मानवीय स्थितियों का यथार्थ चित्र आदि कुछ भी हो सकता है।

कुछ उदाहरण से ‘गीत’ का स्वरूप स्पष्ट समझा जा सकता है-

(क) हरि अपने आँगन कछु गावत।
तनक-तनक चरननि सौ नाचक, मनहीं मनहिं रिझावत।
……………………………………………………….
सुर स्याम के बाल-चरित, नित-नित ही देखत भावत। (सूरदास)

(ख) आए महंत वसंत।
मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला,
बैठे किंशुक छत्र लगा बाँध पाग पीला,
चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत।
आए महंत वसंत।

(ग) जो तुम आ जाते एक बार।
कितनी करुणा कितने संदेश
पथ में बिछ जाते बन पराग।
गाता प्राणों का तार-तार
आँसू लेते वे पद प्रखार।
जो तुम आ जाते एक बार। (महादेवी वर्मा)

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प्रगीत-‘गीतकाव्य’ के ही एक अन्य नाम ‘प्रगीत’ है। इसमें तुक-प्रयोग कहीं निकट, कहीं दूर हो सकता है। अत: गीत की भांति इसको गाया जाना आवश्यक नहीं। अंग्रेजी में इसे ‘लिरिक’ कहते हैं। मुक्त छंद में रचित होने पर भी प्रगीत में एक आंतरिक भाव-लय अवश्य होती है। जैसे-

वे तोड़ती पत्थर
देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर
……………………………………………………….
बढ़ रही थी धूप
गर्मियों के दिन
दिवा का तमतमाता रूप (निराला)

चतुष्पदी-‘चतुष्पदी’ का अभिप्राय है-चार पैरों (चरणों अर्थात् पंक्तियों) वाली छोटी-सी पद्य-रचना। अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ की चतुष्पदियाँ प्रसिद्ध है जिन्हें उन्होंने ‘चौपादे’ कहा है।

जब कलेजा ही तुम्हारे है नहीं,
तब सकोगे किस तरह तुम प्यार करा।
सिर जले ! वह सुख तुम्हें जो मिल सका,
वार अपने को छुरे की वार पर।

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गजल-फारसी और उर्दू कविता में ‘गजल’ का विशेष प्रचलन रहा है। इसे ‘गीत’ से इसलिए अलग माना जा सकता है क्योंकि इसमें पहली दो पंक्तियों के ही अत्यानुप्रास को आगे चौथी, छठी, आठवी आदि पंक्ति में दोहराया जाता है। इसमें भाव-तारतम्य आवश्यक नहीं। हर दो पंक्तियों में कोई अलग अनुभूति, भावना, जीवन-अनुभव की कोई विशेष बात हो सकती है। हिन्दी में दुष्यंत कुमार, शमशेर सिंह, आदि की तरह आजकल अनेक कवि ‘गजल’ के माध्यम से भाव-व्यंजना कर रहे हैं। जैसे-

आखिरी यह गीत बस हम गा रहे हैं।
मत बुलाना मौत ! अब हम जा रहे हैं।
अब न कोई चाह हमको जिंदगी की,
एक धड़कन है, उसे दोहरा रहे हैं।

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प्रश्न 1.
कहानी का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके प्रमुख तत्त्वों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
कहानी का स्वरूप-मनुष्य स्वभाव से कथा-कहानी कहने-सुनने में रुचि रखता है। इसी प्रवृत्ति का साहित्यिक रूप आजकल ‘कहानी’ के नाम से प्रचलित है। पहले इसे ‘गल्प’ अथवा ‘आख्यायिका’ भी कहा जाता था परंतु अब साहित्यशास्त्र में इसे ‘कहानी’ ही कहा जाता है।

‘कहानी’ का स्वरूप इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है। जिस संक्षिप्त रचना में कोई कया – कही गई हो वह ‘कहानी’ कहलाती है। कथा तो उपन्यास में भी होता है, परंतु वहाँ उसका स्वरूप विस्तृत एवं अनके उपकथाओं तथा सहकथाओं से युक्त होता है। हिन्दी के अमर कथाशिल्पी मुंशी प्रेमचंद ने कहानी का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है-

“कहानी एक ऐसी रचना है जिसमें जीवन एक अंग या किसी एक मनोभाव को प्रदर्शित करना ही लेखक का उद्देश्य रहता है। उसके चरित्र उसकी शैली तथा उसका कथा-विन्यास सब उसी एक भाव को पुष्ट करते हैं।”

डॉ० श्रीकृष्ण लाल ने कहानी के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए कहा है-

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“आधुनिक कहानी साहित्य का एक विकसित कलात्मक स्वरूप है। इसमें लेखक अपनी कल्पना-शक्ति के सहारे कम-से-कम पात्रों अथवा चरित्रों के द्वारा कम-से-कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से मनोवांछित कथानक, चरित्र, वातावरण, दृश्य अथवा प्रभाव की सृष्टि करता है।”

“आधुनिक कहानी साहित्य का एक विकसित कलात्मक स्वरूप है। इसमें लेखक अपनी कल्पना-शक्ति के सहारे कम-से-कम पात्रों अथवा चरित्रों के द्वारा कम-से-कम घटनाओं और प्रसंगों की सहायता से मनोवांछित कथानक, चरित्र, वातावरण, दृश्य अथवा प्रभाव की सृष्टि करता है।”

स्पष्ट है कि कहानी की मुख्य पहचान है-एकान्विति। अर्थात् घटना या घटनाएँ, पात्र या चरित्र, वातावरण का विचार-सभी किसी एक केन्द्रिय बिन्दु से गुंथे हों। उनमें विविधता, विस्तार या फैलाव न हो। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि “कहानी एक ऐसी लघु कथात्मक गद्य रचना है जिसमें जीवन की किसी एक रिणति का सरस-सजीव चित्रण होगा।”

कहानी के तत्त्व-प्रत्येक कहानी ‘ जो एक ‘घटना’ या ‘स्थिति’ को लेकर लिखी जाती है। लेखक किसी एक प्रसंग को चुनव उसके चारों ओर कथात्मक ताना-बाना सा बुन देता है। इस बुनावट के लिए वह किसी एक पात्र या कुछ पात्रों की सृष्टि करता है। पात्रों की पहचान अधिकतर उनके द्वारा उच्चारित न्यनोपकथनों (संवादों) से होती है।

पात्रों के कथनोपकथन अथवा लेखक द्वारा किया गया स्थिति चित्रण भाषा के माध्यम से संभव है। भाषा-प्रयोग की कोई विशेष विधि या पद्धति शैली कहलाती है। यह सब मिलकर कहानी में एक विशेष वातावरण का निर्माण करते हैं। अंतत: कहानी समग्र रूप से पाठकों के हृदय पर जो प्रभाव अंकित करती है, वही कहानी का उद्देश्य होता है। इस प्रकार कहानी के छह तत्त्व स्वतः स्पष्ट हैं-

(क) कथानक,
(ख) पात्र और चरित्र-चित्रण,
(ग) संवाद,
(घ) भाषा-शैली,
(ङ) वातावरण,
(च) उद्देश्य।

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आवश्यक नहीं कि किसी कहानी में ये सभी तत्त्व समानुपात में ही विद्यमान हों। किसी कहानी में किसी एक तत्त्व या एकाधिक तत्वों की प्रमुखता या न्येनता हो सकती है। कुछ कहानियाँ कथा-विहीन-सी होती हैं तो कुछ कहानियों में किसी चरित्र की प्रधानता न होकर वातावरण ही प्रमुख होता है। भाषा-शैली के बिना तो कहानी का अस्तित्व ही संभव नहीं। हाँ, उद्देश्य का स्पष्ट घोषित होना आवश्यक नहीं। उसका झीना-सा आभास देना ही कहानीकार का काम है।

कहानी के उपर्युक्त तत्वों का संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है-

(क) कथानक-कथानक कहानी का ढाँचा अथवा शरीर है। इसके बिना कहानी की कल्पना ही नहीं की जा सकती। कथानक जितना सीमित, सुगठित, स्वाभाविक और कुतुहलवर्धक होगा, कहानी उतनी ही प्रभावशाली सिद्ध होगी।

(ख) पात्र और चरित्र-चित्रण-कथानक का विकास पात्रों के माध्यम से होता है। विभिन्न घटनाओं अथवा क्रिया-व्यापारों का माध्यम पात्र ही होते हैं। यही क्रिया-व्यापार पात्रों के चरित्र का उद्घाटन करते हैं। कहानी क्योंकि एक संक्षिप्त गद्य-रचना है, अतः इसमें पात्र-संख्या कम-से-कम होनी चाहिए। चरित्र के भी विविध पक्षों की बजाय कोई एक संवेदनीय पहलू विशेष रूप से उजागर होना चाहिए।

(ग) संवाद-कहानी का नाटकीय प्रभाव उसके संवादों में निहित है। लेखक तो कहानी . में केवल वस्तुस्थिति या वातावरण का संकेत भर देता है। कथा-विकास, चरित्र-विन्यास अथवा विचार-संप्रेषण का कार्य अधिकतर पात्रों के संवाद ही करते हैं। ये संवाद संक्षिप्त, सुगठित, चुस्त शशक्त और. हृदयस्पर्शी होने चाहिए।

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(घ) भाषा-शैली-कहानी की भाषा मूलतः रचनाकार की अपनी रुचि एवं कहानी में चित्रित केवल वस्तुस्थिति या वातावरण का संकेत भर देता है। कथा-विकास, चरित्र-विन्यास अथवा विचार-संप्रेषण का कार्य अधिकतर पात्रों के संवाद ही करते हैं। ये संवाद संक्षिप्त, सुगठित, चुस्त, सशक्त और हृदयस्पर्शी होने चाहिए।

भाषा-शैली में कहानी की भाषा मूलतः हिन्दी रचनाकार की अपनी रुचि एवं कहानी में चित्रित पात्रों तथा परिवेश का दर्पण होती है। इस संबंध में हिन्दी के अमर कहानीकार मुंशी प्रेमचंद का यह कथन महत्त्वपूर्ण है-“कहानी की भाषा बहुत सरल और सुबोध होनी चाहिए….(क्योंकि) आख्यायिका (कहानी) साधारण जनता के लिए लिखी जाती है।”

कहानीकार द्वारा कथा-वर्णन या चरित्र-चित्रण के लिए जो विशेष विधि या पद्धति अपनाई जाती है वही ‘शैली कहलाती है। लेखक अपनी रुचि तथा कहानी की प्रकृति के अनुसार वर्णनात्मक, संवादात्मक, आत्मकथात्मक, पत्रात्मक अथवा डायरीशैली. में से किसी एक को अथवा कुछ शैलियों के समन्वित रूप को ग्रहण कर सकता है। शैली को प्रभावशाली बनाने के लिए मुहावरा प्रयोग, अलंकार आदि भी सहायक हो सकते हैं। इसी प्रकार व्यंग्यात्मक, चित्रात्मक या प्रतीकात्मक शैली का भी यथोचित उपयोग संभव है।

(ङ) वातावरण-नाटक या एकांकी की सफलता के लिए जो महत्त्व मंच-विन्यास का है वही महत्त्व कहानी में वातावरण का है। वास्तव में वातावरण’ कहानी का सबसे सशक्त तत्त्व है। सफल कहानीकार सजीव वातावरण की सृष्टि करके पाठकों के मन-मस्तिष्क पर कहानी का ऐसा प्रभाव अंकित करता है कि वे उसी में तल्लीन हो जाते हैं।

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(च) उद्देश्य-जैसे मानव-शरीर का संचालन बुद्धि और मस्तिष्क द्वारा होता है उसी प्रकार कहानी के सभी सूत्र मूलत: एक प्रेरणा-बिंदु से जुड़े रहते हैं। वही मूल-प्रेरणा-बिन्दु ही कहानी का साध्य, लक्ष्य, कथ्यं, प्रतिपाद्य या ‘उद्देश्य’ होता है। अन्य तत्त्व उसी साध्य के साधन होते हैं। इस संबंध में हिन्दी के कहानी-सम्राट मुंशी प्रेमचंद का निम्नलिखित कथन विशेष महत्त्वपूर्ण है

“जिस कहानी में जीवन के किसी पहलू पर प्रकाश न पड़ता हो, जो सामाजिक रूढ़ियों की तीव्र आलोचना न करती हो, जो मनुष्यों के सद्भावों को दृढ़ न करे या जो मनुष्य में कूतूहल का भाव न जागृत करे, वह कहानी नहीं है।”

प्रश्न 2.
नई कहानी की विशेषताओं का परिचय दीजिए।
उत्तर-
नई कहानी-1930 ई० के आसपास हिन्दी कहानियों में भी असामाजिकता, अनास्था, काम-कुंठाएं, घुटन, संत्रास, अकेलापन, बेसहरापन, अस्तित्ववादी विचार विशेषतः क्षणवाद, जीवन के प्रति वितृष्णा आदि की भावनाएं स्पष्टतः परिलक्षित होने लगीं। उसकी निम्नलिखित विशेषताएँ खुलकर सामने आईं। इन्हीं विशेषताओं के कारण ऐसी कहानियों को ‘नई कहानी’ कहते हैं

  1. ऐसी कहानी (नई कहानी) में प्रायः क्लाइमेक्स या चरमबिन्दु का आग्रह नहीं होता क्योंकि ऐसी कहानियों में विशेष मन:स्थिति के निरूपण पर बल होता है।
  2. नई कहानी की विशेषता चारित्रिक असंगति है।
  3. ऐसी कहानियों में ‘सस्पेन्स’ का अभाव रहता है।
  4. इनमें अंतर्द्वद्वों का सायास चित्रण नहीं होता।
  5. सांकेतिकता, बिम्ब-विधान तथा प्रतीकात्मकता इनमें होती हैं।
  6. इनमें कथातत्त्व नगण्य-सा होता है।
  7. इनमें मुख्यतः मध्यवर्गीय शहरी जीवन के कलुषित, अस्वस्थ एवं कुंठाग्रस्त रूप का उद्घाटन मिलता है।
  8. इनमें आंचलिकता का भी आग्रह दिखाई पड़ता है।

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हिन्दी के नए कहानीकारों में मोहन राकेश, राजेन्द्र यादव, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा, कमलेश्वर, अमरकांत, मार्कण्डेय, फणीश्वरनाथ रेणु, मन्नू भंडार, राजकमल चौधरी, अमृत राय, रघुवीर सहाय, अजित कुमार, श्रीकांत वर्मा, मधुकर सिंह, मिथिलेश्वर आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 3.
नाटक के तत्वों का उल्लेख कीजिए। अथवा, नाटक के तत्त्वों और प्रकारों का परिचय दीजिए।
उत्तर-
प्राचीन भारतीय आचार्यों के अनुसार नाटक के केवल तीन तत्त्व हैं-वस्तु, नायक और रस। किन्तु, भारतीय और पाश्चात्य समन्वित मतानुसार नाटक के तत्त्व हैं
(क) वस्तु अथवा कथावस्तु
(ख) पात्र और चरित्र-चित्रण
(ग) संवाद अथवा कथोपकथन
(घ) देशकाल अथवा वातावरण
(ङ) भाषा-शैली
(च) उद्देश्य।

(क) वस्तु अथवा कथावस्तु-इसे ही नाटक का ‘प्लॉट’ भी कहा जाता है। नाट्यशास्त्र के अनुसार वह उत्तम नाटकीय कथा है जिसमें सर्वभाव, सर्वकर्म और सर्वरस की प्रवृत्तियाँ और अवस्थाएँ होती हैं। इसमें औदात्य और औचित्य का पद-पद पर ध्यान रखा जाता है। नाटक की विषयवस्तु, प्रसार और अभिनय आदि की दृष्टि से नाटकीय कथावस्तु के भेद किए जाते हैं। विषयवस्तु की दृष्टि से नाटकीय कथाएँ तीन प्रकार की होती हैं-प्रख्यात, उत्पाद्य और मिश्र।

इतिहास-पुराण या लोक-प्रसिद्ध घटना पर आधारित नाटकीय कथावस्तु को ‘प्रख्यात’ कथावस्तु कहते हैं। नितांत काल्पनिक कथा को ‘उत्पाद्य’ कहते हैं। जिस कथा में इतिहास और कल्पना का योग हो उसे ‘मिश्र’ कहते हैं। अभिनय की दृष्टि से नाटकीय कथावस्तु के दो भेद होते हैं-दृश्य तथा सूच्य और संवाद की दृष्टि से इसके तीन भेद हैं-सर्वश्राव्य, नियतश्राव्य और अश्राव्यं।

प्रसार की दृष्टि से दो प्रकार की कथा होती है-आधिकारिक और प्रासंगिक। प्रासंगिक कथा के भी दो उपभेद होते हैं-पताका और प्रकरी। ऊपर के भेदों के भी अनेक उपभेद होते हैं। किन्तु, मुख्य बात यह है कि चूकि नाटक दृश्यकाव्य है, इसलिए इसकी कथावस्तु का उतना ही विस्तार होना चाहिए जितना एक बैठक में देखा जा सके।

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नाटकीय कथावस्तु अनिवार्यतः रोचक होनी चाहिए। उसका समन्वित प्रभाव ऐसा होना चाहिए कि दर्शक लोकमंगल की ओर उन्मुख होते हुए देर तक आनंदमग्न बने रह सकें।

(ख) पात्र और चरित्र-चित्रण-यह बात ध्यान देने योग्य है कि किसी एक नाटक की . सफलता उसकी सजीव और स्वाभाविक पात्र-योजना पर निर्भर करती है। यही कारण है कि संस्कृत आचार्यों ने नेता को नाटक को स्वतंत्र तत्वं मानकर उसके आवश्यक गुणों और भेदों पर विस्तार से विचार किया है। इस दृष्टि से नायक के धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशांत और धीरोद्धत रूप होते हैं।

इसी तरह नायिकाएँ भी अनेक प्रकार की होती हैं; यथा-दिव्या, कुलस्त्री तथा गणिका आदि। नायक के साथ संबंध और अवस्था के आधार पर भी उनके अनेक भेदोपभेद मिलते हैं। . नायक के विरोधी पुरुष पात्र को प्रतिनायक या खलनायक और नायिका के विरोधी स्त्री. पात्र को प्रतिनायिका या खलनायिका कहते हैं। संक्षेप में, नायक को संघर्षशील, चरित्रवान और लोकमंगलोन्मुख होना चाहिए। अत्याधुनिक नाटकों के मूल्यांकन की कसौटी नायक-नायिका नहीं बल्कि उनका समग्र प्रभाव है।

(ग) संवाद अथवा कथोपकथन-संवाद या कथोपकथन नाटक के प्राण होते हैं क्योंकि अव्यकाव्यों में तो लेखकीय वक्तव्य की गुंजाइश रहती है किन्तु दृश्यकाव्य (नाटक और उनके विभिन्न रूपों) में रंग-संकेत को छोड़कर यह नितांत वर्जित है। इसलिए, कथा-विकास और पात्रों के चरित्र-चित्रण का एकमात्र साधन यह संवाद अथवा कथोपकथन तत्त्व ही रह जाता है। इसके सर्वश्राव्य, नियतश्राव्य, अश्राव्य, आकाशभाषित आदि अनेक भेदोपभेद होते हैं। नाटकीय संवाद को संक्षिप्त, सरस, सरल, सुबोध, मर्मस्पर्शी, प्रवाहमय, प्रभावपूर्ण, पात्रोचित और प्रसंगानुकूल होना चाहिए।

(घ) देशकाल अथवा वातावरण-यह नाटक का बहुत ही महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इससे दर्शकों में नाटकीय सफलता के प्रति विश्वास जगता है। किन्तु, नाटक में उपन्यास की तरह इसके विस्तृत वर्णन की गुंजाइश नहीं होती। रंग-संकेत अथवा मंच-सज्जा अथवा पात्रों की वेश-भूषा और संवाद से देशकाल अथवा वातावरण का निर्माण किया जाता है। किन्तु, इसे वर्णित नहीं, व्यजित होना चाहिए।

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(ङ) भाषा-शैली-यह नाटक की भाषा सरल, चित्तकर्षक, प्रवाहमय, पात्रानुकूल, प्रसंगानुकूल। और प्रभावपूर्ण होनी चाहिए। नाटक के लिए व्यास-शैली और मिश्र वाक्य-विन्यास वर्जित हैं। नाटक की भाषा मर्मस्पर्शी और उत्सुकता बनाए रखने में सक्षम होनी चाहिए।

(च) उद्देश्य-यह तत्त्व नाटक का मेरुदंड है। यद्यपि नाटक का मूल उद्देश्य रसोद्बोध है तथापि यह तब तक नहीं हो सकता जब तक नाटक का उद्देश्य जनजीवन को सँवारना और सुन्दर बनाना न हो। पूरे ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में यथार्थ का चित्रण इसका उद्देश्य हो सकता है, किन्तु उस उद्देश्य के गर्भ से आदर्श जीवन के प्रारूप को भी झाँकते रहना चाहिए। संक्षेप में, जन-मन-रंजन और लोक-मंगल को हम नाटक का स्थायी उद्देश्य कह सकते हैं।

विषय और उद्देश्य-भेद से नाटक के कई प्रकार होते हैं; यथा-ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक, राजनीतिक, समस्यामूलक आदि।

प्रश्न 4.
नाटक और एकांकी के स्वरूप का विवेचन करते हुए दोनों का अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
नाटक-नाटक ‘दृश्यकाल’ की सर्वप्रमुख विद्या नाटक है। ‘नाटक’ शब्द ‘नट’ से बना है। ‘नट’ का अभिप्राय है-अभिनेता। स्पष्ट है कि जिस साहित्यिक रचना को ‘अभिनय’ के माध्यम से प्रस्तुत किया जा सके उसे ‘नाटक’ कहते हैं।
प्राचीन साहित्यशास्त्र में ‘दृश्य काव्य’ के दो प्रमुख भेद बताए गए हैं-

  • रूपक,
  • उपरूपक।

रूपक’ के दस भेदों में से एक ‘नाटक’ की गणना भी की गई है। परंतु आजकल मंच पर प्रस्तुत की जा सकने वाली प्रत्येक दृश्य रचना ‘नाटक’ कहलाती है।

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उल्लेखनीय है कि वर्तमान युग में प्रत्येक साहित्यिक रचना छपने की सुविधा हो जाने के कारण, ‘पढ़ी’ और ‘सुनी’ भी जा सकती है। फिर नाटक में अन्य साहित्यिक विधाओं की भांति कथा-वर्णन या भाव-संप्रेक्षण नहीं होता। उसकी प्रस्तुत विभिन्न पात्रों के कथनोपकथनों के माध्यम से होती है। उसकी सफलता और सार्थकता इस बात पर निर्भर है कि अभिनेता विभिन्न पात्रों के कथनोपकथनों के विषयवस्तु, प्रसंग, संदर्भ, चरित्र एवं भाव या विचार विशेष के अनुकूल भाव-भंगिमा, मुख-मुद्रा, लहजे तथा चेष्टा आदि के माध्यम से उच्चारित करें। इसलिए ‘नाटक’ अन्य श्रव्य साहित्य की अपेक्षा एक विशिष्ट ‘दृश्य’ साहित्यिक विधा है।

नाटक के तत्त्व-प्रत्येक साहित्यिक रचना कुछ विशेष तत्त्वों के ताने-बाने से गूंथी होती है। उदाहरणतया नाटक के मूलतः कोई-न-कोई कथासूत्र (थीम) होता है। उसी से संबंद्ध घटनाएँ प्रतिघटनाएँ कथानक को विकसित करती हुई लक्ष्य की ओर ले चलती है। यह कथा-विकास पात्रों के कथनोपकथनों के माध्यम से ज्ञात और विकसित होता है। कथनोपकथन नाटक के पात्रों की स्थिति, अवस्था, रुचि आदि के अनुकूल भाषा-शैली में प्रस्तुत किए जाते हैं।

पात्रों के आकार-प्रकार, वार्तालाप और भाषा-प्रयोग के माध्यम से हम जान पाते हैं कि नाटक के कथानक का संबंध किस देश-काल वातावरण अर्थात् युग-परिवेश से है। अंततः इन सभी माध्यमों से स्पष्ट होता है कि नाटक-रचना का मूल उद्देश्य, कथ्य या संदेश क्या है। उसमें नाटककार क्या विचार या दृष्टिकोण व्यक्त करना चाहता है। (उपर्युक्त विवेचना के आधार पर नाटक के सात प्रमुख तत्व माने गए हैं-
(क) कथानक,
(ख) पात्र एवं चरित्र-चित्रण,
(ग) संवाद (कथनोपकथन),
(घ) भाषा-शैली,
(ङ) देश-काल-वातावरण अथवा युग-परिवेश,
(च) उद्देश्य (कथ्य या संदेश),
(छ) रंगमंचीयता अथवा अभिोयता।

(क) कथानक-कथानक को एक प्रकार से नाटक का शरीर (ढाँचा) कहा जा सकता है। विभिन्न घटनाएँ, पात्रों की बातचीत और चेष्टाएँ मूलतः किसी कथात्मक विवरण से ही जुड़ी होती है। अन्य सभी तत्त्व उसी केन्द्रिय कथा-तत्त्व के विकास में सहायक होते हैं।

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नाटक का कथानक स्वाभाविक, सुगठित और रोचक होना चाहिए। तभी पाठकों का, दर्शकों का उससे तादात्म्य हो जाता है।

(ख) पात्र एवं चरित्र-चित्रण-कथानक यदि नाटक का शरीर है तो पात्र उस कथानक रूपी शरीर के अंग हैं। कथात्मक घटनाएँ अपने-आप में शून्य में घटित नहीं होती। उनका पता विभिन्न पात्रों के कथनोपकथन, उनकी चेष्टाओं से पता चलता है। नाटक का थीम और उद्देश्य पात्रों के चरित्र के माध्यम से ही स्पष्ट हो जाता है।

नाटक में पात्रों की संख्या जितनी कम हो, उतना वह अधिक प्रभावशाली बन पाता है। पात्रों के चरित्र की रूपरेखा उनके अपने कथनों और उनकी चेष्टाओं के माध्यम से स्पष्ट होनी चाहिए। कई बार किसी एक पात्र के माध्यम से भी अन्य पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं का आभास मिल जाता है।

(ग) संवाद (कथनोपकथन)-संवाद नाटक का प्राण-तत्त्व है जैसे प्राण के बिना शरीर का अस्तित्व ही निरर्थक होता है उसी प्रकार संवाद के बिना नाटक का ढाँचागत स्वरूप ही साकार नहीं हो सकता।

विविध प्रकार के कथनोकथन ही कथा-विकास, चरित्र-चित्रण तथा उद्देश्य-सिद्धि का आधार होते हैं।

नाटक के संवाद छोटे, सरल वाक्यों में सुगठित, सार्थक, प्रभावशाली और सशक्त होने चाहिए। लंबे और उबाऊ संवाद पाठकों के मन में नाटक के प्रति अरुचि तथा उकताहट पैदा कर सकते हैं।

(घ) भाषा-शैली-नाटक की भाषा-शैली का सीधा संबंध उसके पात्रों और उनके द्वारा उच्चारित कथनोपकथनों से है। भाषा का स्वरूप नाटक में चित्रित देश-काल अर्थात् युग-परिवेश का अनुकूल होना चाहिए। पात्रों की सामाजिक स्थिति, शिक्षा-दीक्षा, रुचि-अभिरुचि भी भाषा के स्वरूप का निर्माण करती है। सर्वप्रमुख बात यह है कि नाटक की भाषा पाठकों (या दर्शकों) के लिए सहज-सुबोध होनी चाहिए।

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शैली का संबंध पात्रों द्वारा किसी कथन के उच्चारण के ढंग, लहजे तथा उसके संशक्त और प्रभावशाली बनाने के लिए अपनाई गई युक्तियों या विधियों से है। जैसे आलंकारिक, चित्रात्मक, प्रतीकात्मक या व्यंग्यात्मक शैली आदि।

(ङ) देश-काल-वातावरण अथवा युग-परिवेश-नाटक के पढ़ते या देखते समय हम यह जान जाते हैं कि उसमें किस युग (जमाने) की किस समयावधि की कथा, स्थितियाँ-परिस्थितियाँ या सामाजिक-राजनैतिक-धार्मिक अवस्था का चित्रण हुआ है। यही तत्त्व युग-परिवेश अथवा नाटक का देश-काल-वातावरण कहलाता है।

(च) उद्देश्य (क्ष्य या संदेश)-कोई भी साहित्यिक रचना बिना किसी विशेष मंतव्य या उद्देश्य के नहीं लिखी जाती। फिर, नाटक तो जन-सामान्य के जीवन और समाज का प्रत्यक्ष प्रतिबिंब होता है। अतः नाटककार उसमें किसी विशेष दृष्टिकोण, विचारधारा अथवा युगीन . समस्याओं तथा उनके समाधान के संकेत विविध पात्रों के माध्यम से करा देता है। वही नाटक का उद्देश्य या संदेश माना जाता है।

(छ) रंगमंचीयता या अभिनेयता-नाटक मूलत: ‘दृश्य’ साहित्य का एक महत्वपूर्ण रूप है इसका रसास्वादन प्रायः मंच (फिल्म के बड़े परदे या दूरदर्शन के छोटे परदे) पर प्रस्तुति के माध्यम से होता है। इसीलिए नाटक में प्रस्तुत किए गए दृश्य असंभव या अकल्पनीय नहीं होने चाहिए। उसकी कथावस्तु में निरंतर जिज्ञासा तथा कौतूहल को बनाए रखने वाली रोचकता हो।

पात्रों के संवाद और अंग-विन्यास आदि सशक्त, प्रभावशाली और भावोतेजक अथवा विचार-प्रेरक हो। यह सब कुछ मंच पर अभिनय द्वारा साकार होता है। अतः नाटक के इस तत्त्व को ‘रंगमंचयिता’ या ‘अभिनेता’ कहा जाता है।

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‘नाटक’ के समान ‘एकांकी’ भी ‘दृश्य’ साहित्य का एक प्रमुख रूप या प्रकार है। नाटक में कई अंक होते हैं। पुनः हर अंक के अंतर्गत कई दृश्यों का समावेश होता है। जैसे श्री चिरंजीत द्वारा लिखित नाटक ‘आधी रात का सूरज’ में दो अंक हैं तथा हर अंक में पुन: दो-दो दृश्य हैं। परंतु ‘एकांकी’ (एक + अंक + ई) का अभिप्राय ही यही है-एक वाला दृश्य साहित्य अथवा नाटक। अंग्रेजी में इसे ‘वन एक्ट प्ले’ भी इसीलिए कहा जाता है। स्पष्ट है कि ‘एकांकी’ में नाटक के समान विविधता नहीं होती। इसी आधार पर ‘एकांकी’ की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है

“जिस अभिनय रचना में एक ही अंक हो, सीमित पात्रों के माध्यम से एक ही प्रभाव घटना नाटकीय शैली में प्रस्तुत की गई हो, उसमें कोई एक ही समस्या विचार-दृष्टि प्रतिपादित हुई हो उसे ‘एकांकी’ कहते हैं।

एकांकी के तत्त्व-नाटक के तत्त्वों से अलग नहीं है। ऊपर बताए गए सातों तत्त्वों (कथानक, पात्र और चरित्र-चित्रण, संवाद, भाषा-शैली, देश-काल-वातावरण, उद्देश्य, रंगमंचीयता) का निर्वाह इसमें भी अपेक्षित है।

नाटक एवं एकांकी में अन्तर।
ये दोनों विधाएँ ‘दृश्य’ साहित्य के अंतर्गत आती हैं। दोनों का संबंध मंच अथवा अभिनय से है। दोनों के आधार-भूत तत्त्व भी समान हैं। फिर भी दोनों में वहीं अंतर है जो ‘महाकाव्य’ और ‘खंडकाव्य’ में या ‘उपन्यास’ और ‘कहानी’ में होता है। संक्षेप में, ‘नाटक’ और ‘एकांकी’ का अंतर इस प्रकार है ___(क) नाटक के कई अंक हो सकते हैं, परंतु एकांकी में केवल एक ही अंक होता है।

(ख) ‘नाटक’ में एक कथासूत्र (मुख्य कथानक) के साथ अनेक उपकथाएँ अथवा सहायक कथाएँ या घटनाएँ जुड़ी हो सकती हैं। ‘एकांकी’ के आरंभ से अंत तक केवल एक ही कथा का निर्वाह किया जाता है।

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(ग) ‘नाटक’ में पात्रं की संख्या पर्याप्त हो सकती है। ‘एकांकी’ में कम-से-कम . (कभी-कभी तो दो-तीन ही) पात्र होते हैं।

(घ) ‘नाटक’ में पात्रों के चरित्र का विकास क्रमशः धीरे-धीरे होता है। कई बार तो किसी पात्र के चरित्र की वास्तविकता बहुत बाद में जाकर स्पष्ट हो पाती है। जैसे-‘आधी रात का सूरज’ नाटक में ‘जगमोहन’ के चरित्र की असलियत का पता तीसरे-चौथे दृश्य में चल पाता है। ‘सुनीता’ के चरित्र की विशेषताएँ तो अंत तक एक-एक करके उद्घाटित होती हैं। परंतु ‘एकांकी’ के एक-दो दृश्यों में ही पात्रों का चरित्र स्पष्टतया प्रतिबिंबित हो जाता है।

प्रश्न 5.
निबंध के तत्त्वों का उल्लेख कीजिए। अथवा, निबंध के रूप का परिचय दीजिए।
उत्तर-
निबंध का स्वरूप इतना वैविध्यपूर्ण है कि इसके सामान्य तत्त्वों के निर्धारण में प्रायः परस्पर विरोध हो जाता है। दूसरी कठिनाई यह है कि निबंध के आधारभूत सामान्य तत्वों के ओर आज तक सुव्यवस्थित विचार नहीं हुआ है। निबंध के तत्त्वों के संदर्भ में प्रायः लोग निबंध के गुणों की चर्चा करने लगते हैं। इन कठिनाइयों से हम आसानी से बच सकते हैं अगर निबंध को-वस्तुनिष्ठ और आत्मनिष्ठ अथवा ललित-दो भागों में बाँटकर हम इस बात को समझने का प्रयत्न करें। पहले हम वस्तुनिष्ठ निबंध के तत्त्वों पर विचार करेंगे। इसके निम्नलिखित तत्त्व होते हैं-

(क) विषय-वस्तु
(ख) संयोजन अथवा विन्यास
(ग) युक्ति
(घ) तटस्थता
(ङ) भाषा-शैली
(च) उद्देश्य

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(क) विषय-वस्तु-विषय-वस्तु से तात्पर्य उस मूल सामग्री से है जो निबंधकार का प्रतिपाद्य होता है। यह खोजपूर्ण, ज्ञानप्रद और जितना ही मौलिक होगा, निबंध उतना ही मानक और उच्चस्तरीय होगा।

(ख) संयोजन अथवा विन्यास-संयोजन अथवा विन्यास का तापर्य वह कौशल है जिसके आधार पर प्रतिपाद्य से संबंधित सकल सामग्री को निबंधकार व्यवस्थित, संक्षिप्त, प्रभावशाली और विश्वास्य बनाता है। कुछ लोग संक्षिप्तता पर बल देते हैं। किन्तु, संक्षिप्तता को दुर्बोधता का साधन नहीं होना चाहिए। संयोजन अथवा विन्यास निबंध का वह तत्त्व है जिसके द्वारा प्रतिपाद्य सामग्री को आदि, मध्य और अंत अथवा उपसंहार में बाँटा जाता है।

(ग) युक्ति-युक्ति वस्तुनिष्ठ निबंधों का वह सामान्य तत्त्वं है जिसके निबंधकार अपने प्रतिपादन को अधिकाधिक आकर्षक, वेगमय, मान्य और प्रभावशाली बनाता है। यह वह तत्व है जो निबंधकार को उसके प्रतिपाद्य की संभावित आलोचनाओं के प्रति सजग रखता है। इसी तत्त्व के द्वारा प्रतिपाद्य से संबंधित सभी अनुमानित शंकाओं का निरन निबंधकार यथास्थान स्वयं करता चलता है।

(घ) तटस्थता-तटस्थता निबंध का वह गुण है जिसके कारण निबंधकार अपनी लेखकीय भूलों और उनके प्रति भविष्य में होने वाले आरोपों से बचता लाता है। किन्तु, इसकी सीमा के निर्धारण की कोई कसौटी नहीं बनाई जा सकती। निबंध का यह तत्त्व निबंध के प्रति पाठकीय प्रतीति (विश्वास) को जगाए रखता है।

(ङ) भाषा-शैली-निबंध की भाषा विषयानुकूल और यथासंभव सुबोध होनी चाहिए। इसके वाक्यों का विन्यास सार्थक और निर्दोष होना चाहिए। पांडित्य प्रदर्शन और व्यास-शैली निबंध के लिए घातक हैं। फिर भी, विचारात्मक निबंधों के लिए व्यास-शैली को संयमपूर्वक अपनाया जा सकता है। निबंध के लिए पद्य का माध्यम भी कभी अपनाया गया था, किन्तु अब इसका प्रचलन उठ गया है।

(च) उद्देश्य-उद्देश्य निबंध का वह तत्व है जिसके माध्यम से अपने प्रतिपाद्य-विषयक सकल सामग्री की खोज निबंधकार करता और अपने उस विषय के ज्ञान का प्रसार अपने पाठकों .. के बीच करता है। ऐसे निबंधों का यही उद्देश्य भी होता है।

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व्यक्तिनिष्ठ (आत्मनिष्ठ अथवा ललित) निबंध के निम्नलिखित तत्त्व हैं

  • उपेक्षित विषय
  • बिखरे संदर्भ
  • हास्य और व्यंग्य
  • लेखकीय व्यक्तित्व का उद्घाटन और
  • बिखराव के बीच भी एक कलात्मक संयोजन।

प्रश्न 6.
निबंध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके विभिन्न रूपों (भेदों या प्रकारों) पर संक्षेप में प्रकाश डालें।
उत्तर-
निबंध का स्वरूप-‘निबंध’ का एक प्रमुख गद्य-विद्या है। संस्कृत में कहा गया है कि साहित्यकार की लेखन-कुशलता की वास्तविक परख ‘गद्य’ रचना द्वारा होती है-‘गद्य कवींनां निकर्ष वदति।’ आधुनिक युग के महान निबंधकार एवं आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन है कि-“यदि गद्य कवियों (साहित्यकारों) की कसौटी है, तो निबंध गद्य की कसौटी है।”

“निबंध’ शब्द का अभिप्राय है-‘भली भाँति बाँधना’। ‘निबंध’ नामक रचना में किसी विशेष . विषय में संबंधित विचारों, भावों, शब्दों का एक सूत्रता अर्थात् तारतम्य में समायोजित किया जाता है। अंग्रेजी विश्वकोष (इनसाइक्लोपीडिया) में निबंध की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-“निबंध किसी भी विषय पर अथवा किसी विषय के एक अंग पर लिखित मर्यादित आकार की रचना है।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने निबंध का स्वरूप स्पष्ट करते हुए विस्तार से इसकी व्याख्या की है-“संसार की हर एक बात और बातों से संबंद्ध है। अपने-अपने मानसिक संघटन के अनुसार किसी का मन किसी संबंध-सूत्र पर दौड़ता है, किसी का किसी पर। ये संबंध-सूत्र एक-दूसरे से नथे हुए, पत्तों के भीतर की नसों के समान चारों ओर एक जाल के रूप में फैले रहते हैं। तत्त्वचिंतक या दार्शनिक केवल अपने व्यापक सिद्धांतों के प्रतिपादन के लिए उपयोगी कुछ संबंध-सूत्रों को पकड़कर किस ओर सीधा चलता है और बीच के ब्योरे में कहीं नहीं फंसता।

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पर निबंध-लेखक अपने मन की प्रवृत्ति के अनुसार स्वच्छंद गति से इधर-उधर फूटी हुई सूत्र-शाखाओं पर विचारता रहता है, यही उसकी अर्थ-संबंधी व्यक्तिगत विशेषता है।” संक्षेप में निबंध की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है “निबंध वह रचना है जिसमें किसी विशिष्ट विषय से संबंधित तर्कसंगत विचार गुंथे हुए हों।” के प्रकार शैली।

निबंध के प्रकार-निबंध के स्वरूप पर ध्यान देने से उसे दो आयाम महत्त्वपूर्ण प्रतीत होते हैं-
(क) विषयवस्तु,
(ख) शैली।

विषयवस्तु के आधार पर निबंध के दो वर्ग हैं-
(क) विषयनिष्ठ निबंध,
(ख) विषयनिष्ठ निबंध।

(क) विषयनिष्ठ निबंध-जिस निबंध में रचनाकार अपने निजी व्यक्तित्व से अलग, किसी अन्य वस्तु, व्यक्ति, खोज, समस्या, प्रकृति, आदि के संबंध में विचार संयोजित और प्रस्तुत करता है, वह ‘विषयनिष्ठ निबंध’ कहलाता है।

कुछ निबंधों में ये दोनों तत्त्व समन्वित रूप में विद्यमान रहते हैं। लेखक किसी अन्य विषय पर विचार करते हुए उसमें अपने निजी रागात्मक अनुभवों को भी संस्पर्श प्रदान करते हैं।

शैली की दृष्टि से निबंध के कई रूप संभव है। उनमें से ये छह प्रकार प्रमुख हैं

(क) वर्णनात्मक निबंध,
(ख) विवरणात्मक निबंध,
(ग) विवेचनात्मक या विश्लेषणात्मक निबंध
(घ) भावात्मक निबंध,
(ङ) संस्मरणात्मक निबंध,
(च) ललित निबंध।

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(क) वर्णनात्मक निबंध-किसी वस्तु या स्थान आदि का परिचयात्मक वर्णन प्रस्तुत करने वाले निबंध ‘वर्णनात्मक निबंध’ कहलाते हैं। जैसे-दक्षिण गंगा, गोदावारी, हमारी लोकतंत्र का प्रतीक तिरंगा।

(ख) विवरणात्मक निबंध (विवेचनात्मक या विश्लेषणात्मक)-जिन संबंधों में किसी वैज्ञानिक खोज नये आविष्कार, सामाजिक समस्या, दार्शनिक सिद्धांत, साहित्य-समीक्षा, विचार/संजोकर, विविध पहलुओं का विवेचन या विश्लेषण करते हुए विशद विवरण प्रस्तुत किया गया हो उन्हें विवरणात्मक निबंध कहते हैं। जैसे-पर्यटन का महत्त्व, पर्यावरण प्रदूषण-एक अभिशाप, मानव का नया मित्र कंप्यूटर, साहित्य में प्रतीक, राजनीति और विद्यार्थी, दसवीं पंचवर्षीय योजना आदि।

(ग) विवेचनात्मक निबंध-बौद्धिक चिंतन, तर्क-वितर्क और विचार-विमर्श पर आधारित निबंध “विचारात्मक निबंध’ कहलाते हैं। ऐसे निबंधों में प्रायः किसी अमूर्त विषय के विभिन्न … पहलुओं को स्पष्ट किया जाता है। जैसे विश्वशांति, धर्म और विज्ञान, अंतरिक्ष में भारत आदि।

(घ) भावात्मक निबंध-मानव मन की रागात्मक संवेदनाओं, अनुभूतियों, रुचियों-अभिरूचियों आदि से संबंधित निबंध ‘भावात्मक निबंध’ कहलाते हैं। जैसे-सुख-दुःख-एक सिक्के के दो पहलू, भय बिनु होइ न प्रीति, श्रद्धा-भक्ति, जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान इत्यादि।

(ङ) संस्मरणात्मक निबंध-जिन निबंधों में लेखक अपने व्यक्तिगत संपर्क में आने वाले व्यक्तियों यात्रा आदि के अनुभवों, घटना-प्रसंगों आदि से संबंधित निजी-स्मृतियाँ साहित्यिक सौष्ठव के साथ प्रस्तुत करता है वे ‘संस्मरणात्मक निबंध’ कहलाते हैं। जैसे-महादेवी-कृत निबंध रामा, अमृतराय द्वारा लिखित प्रेमचंद आदि।

(च) ललित निबंध-जिस निबंध में किसी भी विषयवस्तु, व्यक्ति, घटना, प्रकृति-सौंदर्य, त्यौहार-पर्व, रोचक अनुभव अथवा सामाजिक-राजनीतिक व्यंग्य आदि के संबंध में एक विशेष आकर्षक, हृदयस्पर्शी और आत्मीय शैली में भाव-प्रवाह संयोजित हो, उसे ‘ललित निबंध’ कहते हैं। जैसे-पीपल के बहाने (विद्या निवास मिश्र), बउरैया कोदो (अमरनाथ), तालाब बाँधता धरम सुभाव (अनुपम मिश्र), रेल-यात्रा (शरद जोशी) आदि।

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प्रश्न 7.
‘निबंध की परिभाषा स्पष्ट करते हुए उसकी प्रमुख विशेषताओं और शैलियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
निबंध की परिभाषा-“निबंध एक ऐसी गद्य-रचना है जिसमें एक सीमित आकार के भीतर किसी विषय का यथासंभव स्वत: संपूर्ण मौलिक प्रतिपादन सुगठित वाक्य-विन्यास एवं सुष्ठता-युक्त शैली के माध्यम से किया गया हो।”

निबंध की विशेषताएँ निबंध के परिभाषा और उसके स्वरूप पर विचार करने से कई बातें स्पष्ट हो जाती हैं। जैसे-‘निबंध एक गद्य-रचना’ है। इसमें किसी एक निश्चित, निर्धारित या चुने गए विषय का विवेचन किया जाता है। निर्धारित विषय और उसका विवेचन प्रायः मौलिक होता है अर्थात् उसमें एक नयापन होता है, केवल पहले लिखी या कही जा चुकी बातों का दोहराव नहीं होता।

यह तभी संभव है जब निबंध के लेखक के अपने निजी व्यक्तित्व, चिंतन, सोच-विचार और दृष्टिकोण की उसमें स्पष्ट छाप हो। साथ ही निबंध को प्रभावशाली बनाने के लिए उसकी सुरूचिपूर्ण (रोचक) प्रस्तुति आवश्यक है। इसके अतिरिक्त निबंध चाहे किसी भी विषय से संबंधित हो, उसमें निर्धारित विषय का समग्र संपूर्ण स्पष्टीकरण हो जाना चाहिए। संबद्ध विषय का कोई भी पहलू अस्पष्ट न रहे।

उपर्युक्त बातों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाता है कि निबंध में कुछ विशेषताएँ अपेक्षित हैं जिन्हें साहित्याशास्त्र के संदर्भ में निबंध के गुण या तत्व भी कह सकते हैं। ये विशेषताएँ हैं-
(क) उपर्युक्त विषय का चयन,
(ख) मौलिकता,
(ग) लेखक के व्यक्तित्व की छाप
(घ) रोचकता,
(ङ) स्वतः संपूर्णतया।

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(क) उपयुक्त विषय का चयन-निबंध के लिए राई से लेकर पहाड़ तक कोई भी विषय चुना जा सकता है। व्यक्ति, प्राणी, प्राकृतिक, रूप, विचार समस्यात्मक प्रश्न, समाज, साहित्य, इतिहास, विज्ञान-संपूर्ण ब्रह्माण्ड, यहाँ तक कि आत्मा या परमात्मा को भी निबंध का विषय बनाया जा सकता है परंतु निबंध का विषय निर्धारित करते समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि क्या उसके संबंध में विचार-विर्मश आवश्यक है?

क्या उस संबंध में कोई नई मौलिक अवधारणा स्पष्ट होना जरूरी है। क्या उससे पाठक वर्ग के अधिकतम समुदाय की संतुष्टि संभव है? साथ ही विषय चाहे सीमित हो या व्यापक, निबंध के अंतर्गत उसका संक्षिप्त सुसंबंद्ध, अपने-आप में पूर्ण, रोचक वर्णन-विवेचन होना चाहिए।

(ख) मौलिकता-हम देखते हैं कि किसी एक ही विषय पर, अनेक लेखकों द्वारा, अनेक … निबंध लिखे जाते हैं। परीक्षाओं में प्रायः हजारों या लाखों विद्यार्थी या प्रतियोगी किसी एक ही विषय पर निबंध लिखते हैं। परंतु विभिन्न रचनाकारों द्वारा एक ही विषय पर लिखित निबंध अपने स्वरूप-आकार, प्रतिपादन-शैली एवं विचार-विवेचन में सर्वथा भिन्न हो सकता है। इसका कारण है-निबंध की मौलिकता।

पहले कही या लिखी जा चुकी बातों के भी कई पहलू पुन: नए ढंग से स्पष्ट या व्याख्यायित करने की आवश्यकता हो सकती है। इसके अतिरिक्त हर लेखक की चिंतन-दृष्टि एवं उसकी प्रस्तुति में अपने स्तर और ढंग का कुछ-न-कुछ नयापन होता है जो : निबंध-लेखन की प्रमुख कसौटी है। यही विशेषता. ‘मौलिकता’ कहलाती है।

(ग) लेखक के व्यक्तित्व की छाप-हर लेखक की भाषा अपनी एक विशिष्ट भंगिमा और शैली लिए रहती है। कुछ लेखक संस्कृतिनिष्ठ, तत्सम-प्रधान शब्दावली का प्रयोग अधिक करते हैं, कुछ सहज-सुबोध, व्यावहारिक भाषा का प्रयोग करते हैं। किसी भी विषय को पाठकों के लिए सहज-संवेद्य तथा पठनीय बनाने के लिए लेखक अपनी रूचि-अभिरुचि के अनुकूल विधियाँ अपनाता है। कोई लेखक उदाहरण-दृष्टांत, उद्धरण आदि देकर विषय स्पष्ट करता है, कोई तर्क-वितर्क का सहारा लेता है। हर निबंध के अंतर्गत उसके लेखक के व्यक्तित्व की छाप महसूस कर सकते हैं।

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(घ) रोचकता-निबंध-रचना का उद्देश्य तभी सिद्ध हो सकता है जब पाठक-वर्ग उसे पढ़ने में रुचि ले। अथवा-जो निबंध पाठकों के मन में निर्धारित विषय के संबंध में रुचि जागृत करके उन्हें सम्यक् संतोष प्रदान कर सके वही निबंध सफल और सार्थक माना जा सकता है। यह ठीक है कि निबंध को प्रायः गंभीर, गूढ़ सूक्ष्म विषय को भी भाषाप्रवाह, मुहावरे प्रयोग, इतिहास और समाज से संबंद्ध दृष्टांत-उदाहरण शैली अपनाकर पर्याप्त रोचक बना देता है। इस रोचकता नामक तत्त्व के सहारे ही निबंध पठनीय एवं प्रभावशाली बन पाते हैं।

(ङ) स्वत: संपूर्णता-निबंध पढ़ने के बाद यदि पाठक को निर्धारित विषय के संबंध में हर प्रकार की पूरी जानकारी मिल जाय तो समझना चाहिए कि इस निबंध में स्वत: संपूर्णता का गुण विद्यमान है। किसी विषय पर लिखित निबंध के बाद यदि पाठकों को पूरी संतुष्टि न हो, उसके निबंध स्वतः संपूर्ण नहीं है। वास्तव में निबंधकार से यह आशा की जाती है कि वह निर्धारित विषय के संबंध में यथासंभव पूर्ण जानकारी प्रस्तुत करने का प्रयास करे। निर्धारित विषय के प्रत्येक पहलू एवं पक्ष-विपक्ष के संबंध में दिए जा सकने वाले तर्क-वितर्क पर आधारित विमर्श के उपरांत निर्णयात्मक निष्कर्ष से युक्त निबंध ही स्वतः संपूर्ण माना जा सकता है।

प्रश्न 8.
‘निबंध शैली’ का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए, प्रचलित प्रमुख निबंध-शैलियों का संक्षिप्त वर्णन दीजिए।
उत्तर-
निबंध-शैली का अभिप्राय-निबंध के अंतर्गत निर्धारित विषय को स्पष्ट एवं निर्णयक रूप से प्रतिपादित करने के लिए लेखक जिस विशेष विधि और भाषा संबंधी विशेषताओं को अपनाता है उसे “निबंध की शैली’ कहा जाता है।

कोई निबंधकार अपेक्षित विषय को संक्षेप में ही स्पष्ट कर देने में कुशल होता है। किसी लेखक को प्रत्येक विषय को विस्तार से समझने में ही संतोष प्राप्त होता है। कुछ लेखक छोटे-छोटे वाक्यों में भाव-श्रृंखला जोड़कर काव्यमयी शैली में निर्धारित विषय को स्पष्ट करते चले जाते हैं। इसके विपरीत अनेक लेखक अपने गहन दार्शनिक चिंतन के कारण किसी भी विषय को अनेक विधियों से स्पष्ट करते हैं जिसमें सामान्य पाठक निर्धारित विषय पर मन केन्द्रित नहीं रख पाता।

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निबंध-रचना की प्रमुख शैलियाँ-उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि निबंध-रचना की अनेक शैलियाँ संभव है। उनमें से प्रमुख हैं-
(क) समास शैली,
(ख) व्यास शैली,
(ग) धाराप्रवाह शैली,
(घ) विक्षेप अथवा तरंग शैली।

(क) समास शैली-‘समाज’ का अभिप्राय है-संक्षेप। किसी विषय के विशेष पहलू को कम-से-कम शब्दों में स्पष्ट कर देना इस शैली की प्रमुख विशेषता है। लेखक सूत्र-रूप में अपनी . बात कहकर, विषय-वस्तु का स्वरूप स्पष्ट करता चला जाता है। इसमें प्रायः समस्त शब्दावली (दो या दो से अधिक शब्दों को एक ही शब्द में पिरोकर शब्द-संख्या कम करने की प्रवृत्ति) अपनाई जाती है। वाक्य भी छोटे-छोटे सुगठित होते हैं। बालमुकुंद गुप्त निबंध ‘हँसी-खुशी’ समास शैली का अच्छा उदाहरण है।

(ख) व्यास शैली-‘व्यास’ का अभिप्राय है-विस्तार या फैलाव। यह शैली ‘समास’ शैली के बिल्कुल उलटा है। इसमें लेखक हर विषय को विस्तारपूर्वक समझाने के लिए, इसे हर पहलू की व्याख्या करता है। एक ही विचार-बिन्दु को स्पष्ट करने के लिए वह कई तर्क, उदाहरण आदि प्रस्तुत करता है। सर्वसामान्य पाठकों के लिए एक ऐसी शैली में लिखित निबंध अधिक ग्राह्य और सुबोध होते हैं। श्री अमृतराय द्वारा रचित ‘प्रेमचन्द’ शीर्षक इसी शैली का नमूना है।

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(ग) धाराप्रवाह शैली-ललित निबंधों के लिए यह शैली बहुत उपयुक्त रहती है। इस शैली की पहचान या प्रमुख विशेषता यह है कि इसकी भाषा प्रवाहमयी, अनुप्रास-युक्त, नाद-सौंदर्य से विभूषित एवं सरस-कोमल शब्दावली पर आधारित होती है। पाठक ऐसे निबंध को बड़ी रुचि के साथ पढ़ता हुआ आंतरिक तृप्ति महसूस करता है। रामविलास शर्मा द्वारा रचित निबंध ‘धूल’ और डॉ० विद्यानिवास मिश्र का निबंध ‘पीपल के बहाने’ इस शैली के उत्तम उदाहरण हैं।

(घ) विक्षेप अथवा तरंग शैली-जिन संबंधों में किसी मूर्त, ठोस, प्राकृतिक, सामाजिक, राजनीतिक, वैज्ञानिक विषय का प्रतिपादन न होकर, केवल सूक्ष्म, अमूर्त रागात्मक अनुभूतियों की अभिव्यंजना अधिक होती है, उनकी शैली में कोई सिलसिलेवार तारतम्य या विचार-प्रवाह प्रतीत नहीं होती, ऐसी अव्यवस्थित सी प्रतीत होने वाली शैली ‘विक्षेप’ या ‘तरंग’ शैली कहलाती है। ‘विक्षेप’ का अभिप्राय है-व्यवधान, बीच-बीच में रुकावट, बाधा या मोड़ आ जाना। जब लेखक एक विचार-बिन्दु को भावावेश के साथ प्रस्तुत कर रहा होता है, तभी कोई और भाव-बिंदु उस विषय की दिशा ही बदलता-सा प्रतीत होता है। बहुत गूढ़ दार्शनिक विषय या भक्ति-वैराग्य, उद्दात्त जीवन-मूल्यों आदि से संबंधित निबंधों में इस प्रकार की शैली देखी जा सकती है। अध्यापक पूर्णसिंह के ‘आचरण की सभ्यता’, ‘प्रेम और मजदूरी’ आदि निबंधों में यही शैली अपनाई गई है।

अन्य उल्लेखनीय निबंध-शैलियाँ-निबंध-रचना की विविध विशेषताओं में एक ‘व्यक्तित्व की छाप’ भी है। हर लेखक की निजी व्यक्तिगत रुचि-अभिरूचि, भाषा-प्रयोग की पद्धति, वाक्य-रचना की विधि अपनी कुछ अलग पहचान लिए रहती है। इसलिए प्रत्येक निबंध में कोई एक सवमाय शैली नहीं अपनाई जा सकती। रचनाकार को अपनी अलग लेखन-विधि के अनुसार किसी निबंध में एक विशेष शैली प्रमुख हो जाती है, पर अन्य शैलियों की झलक भी गौण रूप से उसमें समाविष्ट रहती है। ऐसी विभिनन शैलियों में से चार के नाम उल्लेखनीय हैं-
(क) व्यंग्यात्मक शैली,
(ख) चित्रात्मक शैली,
(ग) आलंकारिक शैली,
(घ) सूक्ति-शैली।

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(क) व्यंग्यात्मक शैली-‘व्यंग्य’ का अभिप्राय है-हास्य-विनोद, उपहास या उपालंभ के रूप में ऐसी महत्त्वपूर्ण बात यह देना जो चेहरे पर मुस्कान बिखेरने के साथ ही मन-मस्तिष्क का ध्यान विषय की गंभीरता की ओर आकृष्ट कर सके। बहुत गंभीर विषय को भी कई लेखक चुटीली के माध्यम से ऐसा सरस, रोचक और प्ररणादायक बना देते हैं कि पाठकों के हृदय पर उसकी अमिट एवं अविस्मरणीय छाप अंकित हो जाती है। इस प्रकार शैली ‘व्यंग्यात्मक’ कहलाती है। अमरकाल का निबंध ‘बउरैया कोदो’ तथा शरद जोशी द्वारा रचित ‘रेल यात्रा’ शीर्षक इसी शैली में रचित है।

(ख) चित्रात्मक शैली-किसी भी विषय का स्पष्ट करते समय, उससे संबंधित पहलुओं उदाहरणों, दृष्टातों आदि की ऐसी सजीव प्रस्तुति करना, कि पाठकों के सम्मुख वह विषयवस्तु, स्थिति, दृश्य चित्रवत प्रत्यक्ष-सा हो जाए-‘चित्रात्मक शैली की विशेषता है। इस शैली का उपयोग पूर्णत: स्वतंत्र रूप से नहीं किया जाता। लेखक किसी भी विषय को हृदयस्पर्शी और प्रभावशाली बनाने के लिए बीच-बीच में स्फूट रूप में सचित्रात्मक भाषा और बिंब-योजना आदि का उपयोग करता है। अत: इस शैली की छटा किसी-भी प्रकार के, किसी भी विषय पर आधारित निबंध में देखी जा सकती है। शरद जोशी द्वारा रचित निबंध ‘रेल-यात्रा’ इसका अच्छा उदाहरण है। सुधीर विद्यार्थी द्वारा रचित ‘क्रांति की प्रतमूर्तिः दुर्गा भाभी’ नामक निबंध में भी इस शैली की झलक दिखाई देती है।

(ग) आलंकारिक शैली-वैसे तो अलंकारयुक्त भाषा का प्रयोग प्रायः काव्य-रचना में ही दिखाई देता है, परंतु गद्यकार भी किसी विचार-बिंदु, वस्तुस्थिति अथवा निर्धारित विषय को भली-भाँति स्पष्ट करने के लिए कभी-कभी अलंकारों का सहारा ले लेते हैं। कहीं लेखक सहज प्रवाह के रूप में ऐसे शब्दों का प्रयोग करता है जिनमें किसी विशेष वर्ग की आवृति से ‘अनुप्रास’ और ‘नाद-सौंदर्य’ की सृष्टि अनायास हो जाती है। किसी एक पक्ष को स्पष्ट करने के लिए उसकी समता किसी अन्य विषय से दिखाई जाती है, तब उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों की झलक दिखाई देती है। पुनरुक्ति प्रकाश, विप्सा आदि अलंकारों का सौष्ठत तो प्रायः निबंधों में समान शब्दों की आवृत्ति के कारण समाविष्ट होता ही है। यह शैली निबंध को रोचक एवं प्रभावशाली बनाने में बहुत सहायक होती है।

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(घ) सूक्ति-शैली-भाषा को प्रवाहमयी, प्रभावशाली, सहज-स्मरण और हृदय स्पर्शी बनाने के लिए, जब निबंधकार मुहावरों, लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का सहारा लेता है तो वह शैली समग्र-रूप से ‘सूक्ति-शैली’ कहलाती है। साहित्यिक और सामाजिक विषयों से संबंधित निबंधों में इस शैली का प्रचुर प्रयोग दिखाई देता है। विचारशील एवं अनुभवी लेखक किसी तथ्य को स्पष्ट करते समय सूत्ररूप में अनायास ही ऐसे संक्षिप्त प्रस्तुत करता है जो जीवन के किसी भी क्षेत्र में उपयोगी एवं ग्रहणीय प्रतीत होते हैं। यही कथन सूक्तियों के रूप में चिरस्मरणीय एवं प्रेरणादायक बन जाते हैं। यह शैली भी पूर्णतः स्वतंत्र रूप में नहीं अपनाई जा सकती। इसका उपयोग एक सहायक या गौण रचना-विधि के रूप में ही होता है। जैसे-“हँसी भीतरी आनंद का बाहरी चिह्न है।” (हँसी-खुशी बालमुकुंद गुप्त), आत्म-शुद्धि अपने अधिकारी के संघर्ष का अविभाज्य अंग है। (प्रेमचंद : अमृतराय) अथवा-‘धर्म को पकड़े रहो, धर्मों को छोड़ दो।” (कबीर साहब की भेंट : दिनकर)।

प्रश्न 9.
‘उपन्यास’ का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके प्रमुख तत्त्वों का विवेचन कीजिए।
उत्तर-
उपन्यास का स्वरूप-‘उपन्यास गद्य-साहित्य की सबसे रोचक एवं लोकप्रिय विधा है। शुष्क विचार-प्रधान गद्य-रचना की अपेक्षा सरस कथा-साहित्य की ओर सर्वमान्य पात्रों की विशेष रुचि होती है। उपन्यास कथा-साहित्य में सर्वप्रमुख है।

साहित्य में ‘उपन्यास’ शब्द अंग्रेजी के ‘नॉवल’ शब्द के पर्याय के रूप में प्रचलित है। ‘नॉवल’ के अभिप्राय है-‘नया’। उपन्यास में प्रचलित सामाजिक घटनाओं, कथाओं या चरित्रों को कल्पना का रंग देकर नए रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसीलिए बंगला शब्दकोश में ‘उपन्यास’ का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया गया है “श्रोताओं और पाठकों के मनोरंजन के निमित्त लिखा गया कल्पित वृत्तांत ‘उपन्यास’ है।”

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‘उपन्यास’ शब्द का अभिप्राय है-भलीभाँति निकट रखना। उपन्यासकार जीवन का यथार्थ को पाठक-समुदाय के लिए एकदम समीप से प्रस्तुत कर देता है। इस दृष्टि से बेकर नामक विद्वान ने ‘उपन्यास’ की पर्याप्त संगत परिभाषा दी है-“उपन्यास वह रचना है जिसमें किसी कल्पित गद्य-कथा के द्वारा मानव-जीवन की व्याख्या की गई हों।”

इस तथ्य को हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक बाबू श्यामसुंदर दास ने बहुत संक्षेप में इस प्रकार स्पष्ट कर दिया है-“उपन्यास मनुष्य के वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा है।”

हिन्दी के उपन्यास-सम्राट मुंशी प्रेमचंद उपन्यास में कथा से अधिक चरित्र को महत्व देते हैं। क्योंकि कथा (घटनाएँ) तो वास्तविक में मानवीय स्वभाव और चरित्र के स्पष्टीकरण में सहायक होती है। उनका कथन है कि “मैं उपन्यास को मानव-चरित्र का चित्र मान सकता हूँ। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।”

उपन्यास की उपर्युक्त परिभाषाओं को ध्यान में रखकर, उसके स्वरूप को सरलता से समझा जा सकता है। इस दृष्टि से बाबू गुलाबराय द्वारा उपन्यास के स्वरूप को इन शब्दों में स्पष्ट किया गया है . “उपर्युक्त कार्य-कारण श्रृंखला में बँधा हुआ वह गद्य-कथानक है जिसमें अपेक्षाकृत अधिक विस्तार तथा पेंचीदगी के साथ वास्तविक जीवन का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्तियों से संबंधित वास्तविक या काल्पनिक घटनाओं द्वारा मानव-जीवन के साथ रसात्मक रूप से उदघाटन किया जाता है।”

उपन्यास के तत्त्व
उपन्यास हमारे जीवन का ही वास्तविक प्रतिरूप होता है। जीवन में अनेक प्रकार की विविधता होने के कारण उपन्यास में भी वैविध्य होना स्वाभाविक है। किसी भी उपन्यास में यद्यपि घटनाओं-प्रतिघटनाओं का ताना-बाना उसके कथा-विन्यास का ढाँचा बनाता है, परंतु वे घटनाएँ किन्हीं पात्रों के माध्यम से साकार होती हैं। इन घटनाओं, पात्रों तथा उपन्यास में विचारों आदि की प्रस्तुति के लिए उपन्यासकार तदनुसार भाषा एवं अभिव्यंजना-विधियों का सहारा लेता है। साथ ही, उपन्यास की कथा, पात्र-योजना या भाषा किसी स्थान, समय और युग-विशेष का प्रतिनिधित्व करती है। इस प्रकार उपन्यास-रचना में अनेक पक्ष सहायक होते हैं। इन्हीं को ‘उपन्यास के तत्त्व’ कहते हैं।

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उपर्युक्त विवरण के आधार पर मुख्य रूप से उपन्यास के ये सात तत्व साहित्य-समीक्षकों ने बताएँ हैं-
(क) कथानक,
(ख) पात्र एवं चरित्र-चित्रण,
(ग) संवाद (कथनोपकथन),
(घ) भाषा-शिल्प,
(ङ) देश-काल वातावरण,
(च) उद्देश्य,
(छ) नामकरण।

(क) कथानक-विभिन्न घटनाओं-प्रतिघटनाओं और पात्रों के क्रिया-व्यापार आदि के संयोग से उपन्यास की जो ‘कहानी’ बनती है उसे ‘कथानक’ (या ‘कथावस्तु’) कहा जाता है। यही कथानक उपन्यास रचना का मूल आधार होता है। इसीलिए अंग्रेजी में इसे ‘प्लॉट’ कहते हैं।

कथानक में स्वाभाविकता (विश्वसनीयता या संभाव्यता) आवश्यक है। जीवन में जो कुछ जैसा वास्तव में, स्वाभाविक रूप से होता है, या हो सकता है-वैसा ही कथानक उपन्यास को पठनीय और विश्वसनीय बनाता है। इसके अतिरिक्त कथानक की दूसरी कसौटी है-रोचकता। कथा-विकास में पाठकों का कैतूहल निरंतर बना रहे, इसका ध्यान उपन्यासकार अवश्य रखता है।

इसके लिए घटनाओं का नाटकीय मोड़, जिज्ञासा-मूलक तत्व और मार्मिक प्रसंगों का समावेश उसकी रोचकता बनाए रखने में सहायक होता है। कथानक की सर्वप्रमुख कसौटी है उसकी सुगठितता। उपन्यास की हर घटना परस्पर इस प्रकार गुंथी हुई होनी चाहिए कि कथा-विन्यास में सूत्रबद्धता बनी रहे।

(ख) पात्र एवं चरित्र-चित्रण-पात्र उपन्यास के कथानक रूपी शरीर को गति प्रदान करने वाले अवयव (अंग) है। पात्रों के क्रिया-कलाप ही कथानक का स्वरूप तैयार करते हैं। पात्रों की सजीवता और सक्रियता उपन्यास को रोचक एवं प्रभावशाली बनाए रखती है। आवश्यक है कि उपन्यास के पात्र हमारे जाने-पहचाने, आस-पास के सामाजिक व्यक्तियों जैसे होने चाहिए साथ-ही, उपन्यास में पात्रों की सार्थकता उनके चरित्र पर निर्भर होती है।

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पात्रों के रागात्मक मनोवेगों के आधार पर निर्मित उनके स्वभाव, आचरण और व्यवहार के माध्यम से उनकी चारित्रिक विशेषताओं की रूपरेखा प्रत्यक्ष होती है। मानव-स्वभाव इन्हीं विविध पहलुओं का यथार्थ चित्रण ही ‘चरित्र-चित्रण’ कहलाता है।

(ग) संवाद (कथनोपकथन)-लेखक उपन्यास के कथानक का एक ढाँचा-सा बनाकर, उसके पूर्णता प्रदान करने के लिए पात्रों के आपसी कथनोपकथनों का संयोजन इस प्रकार करता है जिससे पाठक कथानक तथा पात्रों के चरित्र से भलीभाँति परिचित होते रहते हैं। पात्रों का सही अलाप-संलाप ‘संवाद’ कहलाता है। उपन्यास में वही संवाद सार्थक हो पाते हैं जिनसे या तो कथानक के विकास और विन्यास में सहायक मिले अथवा जिनके माध्यम से किसी पात्र के चरित्र का कोई पहलू उजागर हो सके। उपन्यास में समाविष्ट संवाद, संक्षिप्त, सशक्त और हृदयस्पर्शी होना चाहिए।

(घ) भाषा-शिल्प-उपन्यास की ‘भाषा’ की विफलता इस बात पर निर्भर है कि वह उपन्यास के अंतर्गत समाविष्ट पात्रों के स्तर, स्वभाव आदि के अनुकूल हो। ‘शैली’ का संबंध उपन्यासकार की व्यंजना-पद्धति से है। कोई उपन्यास वर्णनात्मक शैली में रचा जाता है। किसी उपन्यास को लेखक किसी विशिष्ट पात्र की ‘आत्मकथा’ के रूप में प्रस्तुत करता है। इसके अतिरिक्त कुछ उपन्यासकार को पठनीय और प्रभावशाली बनाने के लिए आलंकारिक, चित्रात्मक प्रतीकात्मक आदि विभिन्न शैलियों का प्रयोग करते हैं।

(ङ) देश-काल वातावरण (युग-परिवेश)-उपन्यास का कथानक जिस परिवेश (पृष्ठभूमि, वातावरण, परिस्थितियों) में घटित होता है उसका संबंध किसी-न-किसी स्थान और समय-विशेष से होता है। कथानक की प्रस्तुति उसी स्थान और समय के अनुरूप होनी चाहिए। कथानक से संबद्ध पात्रों और उनके चरित्र-स्वभाव, भाषा-प्रयोग, दृष्टिकोण आदि भी संबद्ध स्थान और समय अर्थात् युग-परिवेश को समझने में सहायक होते हैं।

(च) उद्देश्य-उपन्यास का कथानक जिन घटनाओं-प्रतिघटनाओं के ताने-बाने से निर्मित होता है उसकी अन्विति अंततः किसी-न-किसी परिणाम के रूप में होती है। वह परिणाम जिस विचार, दृष्टिकोण अथवा चिंतन का परिचायक होता है वही उस उपन्यास का ‘उद्देश्य’ कहलाता है। साथ ही, उपन्यास के पात्र जो कुछ कहते, करते या सोचते हैं, उसके पीछे उनका कोई-न-कोई मंतव्य रहता है। यही मंतव्य समग्र रूप से उपन्यास के उद्देश्य की ओर संकेत करता है।

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उल्लेखनीय है कि उपन्यासकार जिस उद्देश्य या संदेश को पाठक-समुदाय तथा संप्रेषित करने के लिए कोई उपन्यास लिखता है, उसे वह स्वयं उपन्यास में उपदेश के रूप में अपनी ओर से प्रस्तुत नहीं करता। वह जो कुछ भी अपने पास देखता है, अनुभव करता है, उससे जो निष्कर्ष निकलता है, उससे उसके दृष्टिकोण को एक निश्चित दिशा मिलती है। वह चाहता है कि उसकी धारणा, अन्य लोगों तक भी पहुँचे। इसी उद्देश्य की सिद्धि के लिए वह कुछ घटनाओं और पात्रों का चयन कर, उन्हें अपनी सोच के अनुसार ढालकर, उनके माध्यम से विचार-अभिव्यक्त करता है।

(छ) नामकरण-उपन्यास की शशक्तता, लोकप्रियता और पठनीयता से उसके नाम-विशेष (शीर्षक) का भी विशेष योगदान होता है। प्रेमचन्द के ‘गबन’ या ‘गोदान’ उपन्यास के नाम से ही उसमें चित्रित मूल विचार-सूत्र (थीम) अथवा समस्या का संकेत मिल जाता है। वृंदावनलाल वर्मा का उपन्यास ‘झाँसी की रानी’ भारत का इतिहास की एक वीरांगना का बिंब अनायास ही मन-मस्तिष्क में उभार देता है।

उपन्यास का नामकरण व्यक्ति-विशेष, स्थान-विशेष, घटना-विशेष या विचार-विशेष किसी भी आधार पर हो सकता है। आवश्यक है कि वह नामकरण उपन्यास के कथानक, चरित्र-विन्यास, युग-परिवेश तथा उद्देश्य के अनुरूप पूर्णतया सार्थक हो।

प्रश्न 10.
उपन्यास के प्रमुख प्रकार (भेद या रूप) कौन-कौन से हैं? उनका संक्षेप में परिचय दीजिए।
उत्तर-
प्रत्येक उपन्यास में यद्यपि कथानक, पात्र, चरित्र, युग-परिवेश एवं उद्देश्य आदि तत्व समान रूप से विद्यमान रहते हैं तथापि इसमें से कोई एक तत्त्व प्रमुख होता है तथा अन्य तत्त्व गौण रूप से उसी एक प्रधान तत्त्व के सहायक होते हैं। किसी तत्त्व की इसी प्रमुखता के कारण उपन्यासों के विविध रूप या प्रकार निर्धारित होते हैं।

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कथानक की दृष्टि से तीन प्रकार के उपन्यास होते हैं-

  • चरित्रप्रधान
  • मनोवैज्ञानिक
  • आँचलिक।

उद्देश्य की दृष्टि से उपन्यास मुख्यतः तीन प्रकार के हो सकते हैं-
(क) ऐतिहासिक,
(ख) सामाजिक,
(ग) राजनैतिक।

पात्र एवं चरित्र की दृष्टि से प्रायः दो प्रकार के उपन्यास हैं-
(क) समस्या प्रधान
(ख) वैज्ञानिक।

उपर्युक्त विविध उपन्यास रूपों का संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है।

(क) ऐतिहासिक उपन्यास-जिस उपन्यास की मुख्य कथा का स्रोत या आधार कोई ऐतिहासिक प्रसंग या पात्र हो, वह ‘ऐतिहासिक उपन्यास’ कहलाता है। जैसे-वृदावन लाल वर्मा द्वारा रचित गढ़कुंदार, विराट् की पद्मिनी, मृगनयनी। उल्लेखनीय है कि ऐतिहासिक उपन्यास कोरा इतिहास नहीं होता, उसमें लेखक कल्पना एवं मौलिक उद्भावना की भी समुचित प्रयोग नहीं करता है जिससे उपन्यास में इतिहास का कोई विशेष पक्ष एवं रोचक कथानक के माध्यम से विशेष उजागर हो जाता है।

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(ख) सामाजिक उपन्यास-उपन्यास के पात्र-रूप में चित्रित व्यक्ति-मूलतः समाज के ही घटक या अवयव होते हैं जब उनके माध्यम से उपन्यासकार कतिपय सामाजिक पहलुओं, पारिवारिक अंत: संबंधों, विभिन्न प्रीति-रिवाजों अथवा परंपराओं, को उपन्यास के कथा-विन्यास या चरित्र-चित्रण का केन्द्र बनाता है तो वह ‘सामाजिक उपन्यास’ पृष्टभूमि पर आधारित नहीं होते। इनका कथानक, पात्र-विन्यास आदि पूर्णतः काल्पनिक होता है।

(ग) राजनैतिक उपन्यास-आधुनिक युग में राजनैतिक कारणों से जीवन और समाज में अनेक बदलाव आए हैं। लोकतंत्र और चुनाव-पद्धति का राजनीति से सीधा संबंध है। जब राजनीति के कारण कथानक की दिशा बदल जाती है, चरित्र का स्वरूप निर्धारित होता है अथवा किसी विशेष राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित विचार जब परे उपन्यास में व्याप्त रहते हैं तब वह उपन्यास ‘राजनैतिक’ वर्ग की कोटि में आ जाता है।

(घ) चरित्र-प्रधान-उपन्यास-जिस उपन्यास में घटनाओं की बहुलता होकर, कुछ विशेष पात्रों की चारित्रिक विशेषताओं को ही उजागर किया गया हो वह ‘चरित्र-प्रधान-उपन्यास’ कहलाता है। इस प्रकार के उपन्यासों का नामकरण भी प्रायः किसी विशेष पात्र के नाम के आधार पर किया जाता है। जैसे-चारु चंद्रलेख, अनामदास का पौधा आदि। चरित्र प्रधान उपन्यास कथानक की दृष्टि से ऐतिहासिक, सामाजिक या राजनैतिक किसी भी प्रकार का हो सकता है।

(ङ) मनोवैज्ञानिक उपन्यास-यह एक प्रकार से चरित्र प्रधान उपन्यासों का ही एक रूप है। इसमें रचनाकार पात्रों के मानसिक द्वंद्व को उभारने का विशेष प्रयत्न करता है। घटनाए गौण होती है। उनका विन्यास पात्रों को किसी मानसिक प्रवृत्ति, विकृत या अंतर्दशा के चित्रण-हेतु सहायक रूप में किया जाता है। जैनेन्द्र-रचित ‘सुनिता’, इलाचन्द्र जोशी का ‘संन्यासी’ तथा अज्ञेय-रचित ‘शेखरः एक जीवनी’ आदि मनोवैज्ञानिक उपन्यास के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।।

(च) आँचलिक उपन्यास-‘अंचल’ का अभिप्राय है-किसी विशेष क्षेत्र के विशेष वर्ग का पूर्णतया स्थानीय परिवेश। जिस उपन्यास में किसी ऐसे अंचल के पात्रों की गतिविधियों, मानसिक स्थितियों आदि की उन्हीं की स्थानीय भाषा-शैली में चित्रण किया गया हो, वह ‘आँचलिक उपन्यास’ कहलाता है। फणीश्वर नाथ रेणु का ‘मैला आँचल’ उपन्यास इसका उत्कृष्ट उदाहरण है।

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(छ) समस्या-प्रधान-उपन्यास-वैसे तो प्रत्येक उपन्यास में किसी न किसी सामाजिक राजनैतिक या धार्मिक समस्या की झलक अवश्य मिल जाती है, परंतु जिस उपन्यास का मूल उद्देश्य ही किसी बहुचर्चित समस्या का वास्तविक उजागर करके, उसके विभिन्न पहलुओं, कारणों, परिणामों एवं तत्संबंधी समाधान के उपायों आदि की चर्चा-परिचर्चा कथा-विन्यास अथवा पात्रों के माध्यम से की गई हो, वह ‘समस्या-प्रधान’ उपन्यास कहलाता है। प्रेमचन्द्र द्वारा रचित उपन्यास ‘गबन’ एक ऐसा ही उपन्यास है।

(ज) वैज्ञानिक उपन्यास-कुछ लेखक अब विज्ञान के विभिन्न आविष्कारों को केन्द्र बनाकर ऐसे उपन्यासों की रचना करने लगे हैं जो चमत्कारी घटनाओं के माध्यम से विशेष शक्तिशाली या ऊर्जावान पात्रों की झलक प्रस्तुत करते हैं। हिन्दी में ऐसे मौलिक उपन्यास लिखने की प्रवृत्ति बहुत कम है। कुछ बाल-उपन्यास अवश्य वैज्ञानिक परिवेश की पृष्ठभूमि पर लिखे जा रहे हैं। अधिकतर वैज्ञानिक उपन्यास अंग्रेजी में प्रस्तुत किए गए है। हाँ, भारत के विज्ञान-पुरुष श्री ए.पी.जे. अब्दुल कलाम यद्यपि मूलतः कोई उपन्यासकार नहीं हैं, परंतु उनके द्वारा लिखित ‘अग्नि की उड़ान’ नामक प्रसिद्ध पुस्तक एक वैज्ञानिक उपन्यास जैसी विशेषताएँ लिए हुए है।

यह भी मूलत: अंग्रेजी में लिखी गई पुस्तक का हिन्दी-अनुवाद है।

प्रश्न 11.
उपन्यास और कहानी में अनार संक्षेप में स्पष्ट करें।
उत्तर-
उपन्यास और कहानी से अंतर-दोनों गद्य-साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय कथात्मक विधाएँ है। दोनों में कथानक, पात्र, संवाद, भाषा-शिल्प, वातावरण और उद्देश्य नामक तत्त्व समान रूप से विद्यमान होते हैं, परंतु स्वरूप, आकार, प्रभावान्विति तथा संवेदता की दृष्टि से इन विधाओं में पर्याप्त अंतर है।

कुछ लोग केवल सुविधा के लिए ‘उपन्यास’ को कहानी का विस्तृत रूप’ अथवा ‘कहानी’ को ‘उपन्यास का लघु रूप’ कह देते हैं जो उचित नहीं। इस संबंध में हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री बाबू गुलाबराय ने लिखा है “कहानी को छोटा उपन्यास और उपन्यास को बड़ी कहानी कहना ऐसा ही अंसगत है जैसा चौपाया होने की समानता के आधार पर मेढ़क को छोटा बैल और बैल को बड़ा मेढ़क कहना। दोनों के शारीरिक संस्कार और संगठन में अंतर है। बैल चारों पैरों पर समान बल देकर चलता है, तो मेढ़क उछल-उछलकर रास्ता तय करता है। उसी प्रकार कहानीकार बहुत-सी जमीन छोड़ता हुआ छलांग मारकर चलता है। दोनों के गतिक्रम में भेद हैं।”

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उपर्युक्त कथन के आधार पर उपन्यास एवं कहानी के अंतर को निम्नलिखित रूप से समझा जा सकता है

(क) उपन्यास का क्षेत्र और आयाम विस्तृत होता है। कहानी का संबंध बहुत ही सीमित क्षेत्र से होता है। कहानी किसी एक स्थल, गाँव, खेत, नदी-तट, कुटिया तक सीमित हो सकती है। उसमें केवल कोई एक आयाम अथवा उस आयाम का भी कोई एक कोण (पहलू) ध्यान का केन्द्र बनता है।

(ख) उपन्यास के कथानक में मुख्य कथा-सूत्र के साथ-साथ अनेक उपकथाएँ और सहकथाएँ जुड़कर उसके फलक को व्यापक बना देती है। उसमें मानव-समुदाय के विभिन्न वर्ग, व्यक्ति और रूप हो सकते हैं। कहानी में कथा का केवल एक सूक्ष्म-सा बिन्दु होता है। वास्तव में, कहानी के अंतर्गत कथा-विकास या कथा-विन्यास जैसी तो कोई बात ही नहीं होती। केवल कोई एक घटना स्थिति अथवा मनोदशा का ही चित्रण कथा या कथांश का अभास देता है।

(ग) उपन्यास में पात्रों की विविधता तथा चरित्रों की अनेकरूपता आवश्यक है। तभी वह मानव-जीवन की बिहंगम झाँकी प्रस्तुत कर पाता है। कहानी में प्रायः किसी एक पात्र तथा उसके
चरित्र के भी किसी एक पहलू की झलक मात्र होती है।

(घ) उपन्यास में कथा-पटल की विराटता तथा पात्रों एवं चरित्रों की विविधता के कारण बहुत से विचार-बिन्दु बिखरे रहते हैं। उन्हीं बिन्दुओं के परस्पर समीकरण अथवा समन्वय-संयोजन के माध्यम से उपन्यास का बहुआयामी उद्देश्य स्पष्ट हो पाता है। कहानी में उद्देश्य की अपेक्षा किसी मानवीय संवेदना को उभारने का प्रयास रहता है।

(ङ) उपन्यास में देशकाल, और युग-परिवेश का दयरा बहुत विस्तृत होता है। प्रकृति के विविध रूप, सृष्टि के अनेक दृश्य, देश, नगर, गाँव, पर्वत, सागर, वन-उपवन आदि बहुत कुछ उपन्यास की परिधि में समाहित हो सकता है। जबकि कहानी में इतनी गुंजाइश नहीं होती। किसी स्थल का कोई एक छोर या अंचल ही उसमें आधार पटल बन पाता है।

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(च) उपन्यास में भाषा के विविध रूप और विविध प्रयोग संभव हैं। पात्रों के वर्ग एवं व्यक्तिगत स्तर के अनुसार भाषा की विभिन्न भंगिमाएँ उपन्यास में प्रदर्शित होना स्वाभाविक है। घटना-वैविध्य तथा परिवेश की व्यापकता के कारण उपन्यास में एक-से अधिक शैलियाँ समन्वित रूप से प्रयुक्त होती दिखाई देती हैं। कहानी में प्रयोगात्मक का कोई अवसर ही नहीं होता। मुख्य संवेदना-बिन्दु के अनुकूल भाषा का सहज-सुबोध रूप ही वस्तुस्थिति के चित्रण का आधार बनता है।

प्रश्न 12.
निम्नलिखित गद्य-विधाओं के संबंध में संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए-जीवनी, आत्मकथा, संस्मरण, रेखाचित्र, साक्षात्कार (भेंटवार्ता), फीचर, रिपोर्ताज, पत्र-साहित्य, यात्रा-वृत्त, डायरी।
उत्तर
जीवनी
जिस गद्य-रचना में किसी विशेष व्यक्ति का संपूर्ण जीवन-वृत्तांत प्रस्तुत किया गया हो उसे ‘जीवनी’ कहते हैं। इस विधा का साहित्य की दृष्टि से अपना एक विशेष महत्त्व है। गद्य की. अन्य विधाएँ प्रायः मनोरंजन एवं थोड़े-बहुत संदेश के लिए रची जाती है। जबकि ‘जीवनी’ पाठकों के मन में नई-चेतना और स्फूर्ति पैदा करती है। बड़े-बड़े कर्मयोगी महापुरुषों, स्वतंत्रता सेनानियों, क्रांतिकारियों, वैज्ञानिकों, श्रेष्ठ कलाकारों तथा साहित्य-साधकों, आदियुग-पुरुषों की ‘जीवनी’ हर पाठक को एक नया मार्ग, उत्साह और उद्बोधन प्रदान करती है।

‘जीवनी’ के स्वरूप को संक्षेप में इस प्रकार समझा जा सकता है-

“जीवन एक ऐसी साहित्यिक विधा है जिसमें किसी विशिष्ट व्यक्ति के संपूर्ण जीवन अथवा उसके किसी महत्त्वपूर्ण अंग का वृत्तंतत ऐतिहासिक एवं प्रेरक शैली में प्रस्तुत किया गया हो।”

उल्लेखनीय है कि ‘जीवनी’ में किसी विशिष्ट व्यक्ति का केवल सामान्य जीवन-परिचय नहीं होता, उसमें उसका ‘चरित्र’ भी स्वाभाविक रूप से उद्घाटित हो जाता है। वास्तव में ‘जीवनी’ में ‘जीवन’ कम और ‘चरित्र’ अधिक होता है।

जीवनी की प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
(क) जीवनी मानव-केन्द्रित होती है। क्योंकि जीवनी वास्तव में ‘मानव’ के लिए किया गया मानव का अध्ययन है।

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(ख) ‘जीवनी’ एक स्वतः संपूर्ण गद्य रचना होनी चाहिए। जिस व्यक्ति की जीवनी लिखी जाए, उसके संबंध में पहले लेखक को हर प्रकार की पूरी जानकारी गहराई के साथ प्राप्त कर लेनी चाहिए।
अपूर्ण या अनुमानित विवरण ‘जीवनी’ के महत्त्व को समाप्त कर देता है।

(ग) संतुलित विवरण ‘जीवनी’ की एक अन्य विशेषता है। लेखक की जीवनी के नायक के जीवन के वही प्रसंग चुनने चाहिए जो सर्वसामान्य पाठकों के लिए आदर्श, प्रेरक अथवा किसी जीवन-सत्य को उद्घाटित करते हों।

(घ) ‘जीवनी’ का विवरण पूर्णतः ‘क्रमबद्ध’ होना चाहिए। जैसे-जैसे नायक के जीवन का क्रमिक विकास हुआ, उसमें क्रमानुसार जो उल्लेखनीय अनुभव और तथ्य जुड़ते गए, उसी क्रम से ‘जीवनी’ में उनका विवेचन किया जाना उचित है।

(ङ) ‘जीवनी’ की सर्वप्रमुख विशेषता है-‘निपक्षता’ उसमें न तो नायक की अति प्रशंसा के पुल बाँधे गए हों, न ही केवल दोष खोज-खोज कर प्रस्तुत किए गए हों। मानव-जीवन गुण-दोषों का समुच्चय है। मनुष्य भूलों से सीखता है, गुणों के सहारे उत्कर्ष प्राप्त करता है।

‘जीवनी’ में इस प्रकार के उतार-चढ़ाव निष्पक्ष रूप से यथासंभव पूरी सच्चाई के साथ प्रस्तुत किए जाने चाहिए।”

हाल ही में प्रकाशित ‘विकसित भारत के स्वप्नद्रष्टा डॉ. अबुल कलाम “जीवनी” विधा का उत्तम उदाहरण है। युगपुरुष नेहरु, युगचारण ‘दिनकर’, किसान से राष्ट्रपति (राजेन्द्र प्रसाद), कलम का सिपाही (प्रेमचंद) आदि हिन्दी के बहुचर्चित जीवनी-ग्रंथ हैं।

आत्मकथा
‘आत्मकथा’ जीवनी का ही एक अपरूप है। जीवनी में नायक जीवन-वृत्त कोई अन्य तटस्थ लेखक प्रस्तुत करता है, जबकि ‘आत्मकथा’ में लेखक स्वयं अपना जीवन-वृत्तांत, अपने अनुभव और निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए पाठकों को अपना सहचिंतक बनाने का प्रयास करता है।

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‘जीवनी’ की अपेक्षा ‘आत्मकथा’ का साहित्यिक और सामाजिक महत्त्व कहीं अधिक है।

आत्मकथा-लेखक अपने संबंध में जितना कुछ जान सकता है कि दूसरों को बता सकता है उतना अन्य लेखक न जान सकता है और न बता सकता है। ‘आत्मकथा’ में लेखक का पाठकों से सीधा संवाद एवं साक्षात्कार संभव है। इसमें आत्मीयता का पुट होने के कारण आद्योपान्त कुतूहल और रोचकता का संस्पर्श बना रहता है।

दूसरी ओर ‘जीवनी’ की अपेक्षा ‘आत्मकथा’ की रचना-प्रक्रिया बड़ी साधनापूर्ण है। स्वयं अपने बारे में लिखना ‘तलवार की धार’ पर चलने के समान है। अपने गुण-ही-गुण बताना जितना अनुचित है उतना ही असंगत केवल अपने दोषों की चर्चा करते रहना है। पं० जवाहरलाल नेहरू द्वारा लिखित ‘मेरी कहानी’ नामक आत्मकथा में इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है-“किसी आदमी का अपने बारे में कुछ लिखना कठिन भी है और रोचक भी। क्योंकि प्रशंसा या निंदा लिखना खुद हमें बुरा लगता है।”

तात्पर्य है कि ‘आत्मकथा’ की श्रेष्ठता की सबसे बड़ी कसौटी है-“संतुलित प्रस्तुति” हिन्दी में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की आत्मकथा, हरिवंशराय बच्चन द्वारा लिखित ‘नीड़ का निर्माण फिर-फिर’ तथा राहुल सांकृत्यायन-कृत ‘मेरी जीवन-यात्रा’ नामक आत्मकथा-ग्रंथ प्रसिद्ध हैं।

‘जीवनी’ और ‘आत्मकथा’ में अंतर निम्नलिखित है-
(क) ‘जीवन’ में किसी विशेष व्यक्ति का जीवन-वृत्त कोई अन्य लेखक प्रस्तुत करता है। आत्मकथा में नयाक द्वारा स्वयं अपने जीवन के प्रमुख प्रसंग, अनुभव एवं निष्कर्ष प्रस्तुत किए जाते हैं।
(ख) ‘जीवनी’ एक प्रकार से ‘विषयगत’ (ऑब्जेक्टिव) रचना होती है, जबकि ‘आत्मकथा’ को ‘विषयिगत’ (सब्जेक्टिव) रचना माना जा सकता है।।
(ग) ‘जीवनी’ में अधिकतर वर्णनात्मक शैली होने के कारण, अन्य शैलियों का समावेश अधिक नहीं हो सकता। दूसरी ओर ‘आत्मकथा’ में ‘संस्मतरणात्मक’ शैली, ‘चित्रात्मक’ शैली, . ‘पूर्वदीप्ति’ शैली, ‘चेतना-प्रवाह’ शैली आदि का समावेश भी संभव है।

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संस्मरण
“स्मृति के आधार पर किसी विषय, व्यक्ति, स्थिति आदि के संबंध में लिखित सरस-गद्य रचना ‘संस्मरण’ कहलाती है।”

‘संस्मरण’ में ‘आत्मकथात्मकता’ का थोड़ा-बहुत संस्पर्श भी रहता है, क्योंकि रचनाकार अपने निजी संपर्क और अनुभव में आए प्रसंग ही प्रस्तुत करता है। परंतु यह तो पूरी आत्मकथा या आत्मचरित न होकर उसके किसी एक अंश मात्र की झलक प्रस्तुत करता है। वैसे तो कई अन्य गद्य-विधाओं में भी ‘संस्मरण’ का उपयोग एक शैली के रूप में हो सकता है। जैसे ‘संस्मरणात्मकं निबंध’ आदि। ‘रेखाचित्र’ और ‘यात्रा-वृत्त’ में भी रचनाकार संस्मरण का सहारा लेता है। परंतु अब ‘संस्मरण’ को एक अलग स्वतः संपूर्ण विधा माना जाता है। श्रीमती महादेवी वर्मा द्वारा रचित ‘पथ के साथी’ संस्मरण-विधा का उत्तम उदाहरण है। रामवृक्ष बेनीपुरी ने गाँधीजी के सान्निध्य में रहकर प्राप्त अनुभवों को विभिन्न मार्मिक एवं प्रेरक संस्मरणों के रूप में प्रस्तुत किया है।

रेखाचित्र
‘रेखाचित्र’ एक ऐसी गद्य-विधा है जिसमें रचनाकार किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान अथवा दृश्य के बहिरंग स्वरूप का एक खाका-सा गिने चुने शब्दों में प्रस्तुत कर देता है। ‘हिन्दी-साहित्य कोश’ में ‘रेखाचित्र’ का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया गया है-“रेखाचित्र किसी व्यक्ति, वस्तु, घटना या भाषा का कम-से-कम शब्दों में मर्मस्पशी, भावपूर्ण और सजीव अंकन है।”

‘रेखाचित्र’ की कसौटी के रूप में मुख्य रूप से ये गुण या विशेषताएँ उल्लेखनीय हैं

(क) एकात्मक विषय-रेखाचित्र में विविधता नहीं होती। केवल किसी एक ही व्यक्ति, एक ही दृश्य, एक ही स्थान, वस्तु आदि का बहिरंग स्वरूप इस प्रकार चित्रित कर दिया जाता है जिससे पाठक उससे आत्मीयता अनुभव करने लगते हैं।

(ख) संवेदनशीलता-रेखाचित्र विधान-प्रधान न होकर प्रायः भावना-प्रधान होता है। उसमें किसी भी विषयवस्तु का चित्रण इस प्रकार किया जाता है जो पाठकों की रागात्मक संवेदनाओं को स्पर्श एवं जागृत करता है।

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(ग) संक्षिप्तता-‘रेखाचित्र’ की सर्वप्रमुख कसौटी है। इसका आकार यथासंभव छोटा होना चाहिए तभी प्रतिपाद्य विषय का स्वरूप उसमें सजीवता से आभासित हो सकेगा।

संस्मरण’ और रेखाचित्र’ में अंतर-
(क) ‘संस्मरण’ प्रायः ‘विषयिगत’ (सब्जेक्टिव) होता है। इसमें लेखक के निजी, व्यक्तिगत, अंतरंग अनुभव स्मृतियों के माध्यम से प्रस्तुत किए जाते हैं। दूसरी ओर ‘रेखाचित्र’ में रचनाकार अपने से भिन्न किसी अन्य व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि की झलक प्रस्तुत करता है। अत: उसे ‘विषयगत’ (ऑग्जेक्टिव) रचना माना जा सकता है।

(ख) ‘संस्मरण’ में रचनाकार प्रायः किसी विख्यातः लोकप्रिय एवं महान व्यक्ति-संबंधी स्मृतियाँ प्रस्तुत करता है। रेखाचित्र किसी सामान्य व्यक्ति, घटना अथवा स्थिति के संबंध में भी हो सकता है।

(ग) ‘संस्मरण’ में वर्णनात्मक, व्यंग्यात्मक, आलंकारिक अथवा प्रतीकात्मक शैली में से किसी एक का या एकाधिक का समन्वित उपयोग हो सकता है। परंतु ‘रेखाचित्र’ में प्रायः ‘चित्रात्मक’ शैली ही सर्वप्रमुख रहती है।

साक्षात्कार (भेंटवार्ता)
अंग्रेजी पत्रकारिता में प्रचलित ‘इंटरव्यू’ नामक विधा के अनुसरण पर हिन्दी में भी ‘साक्षात्कार’ अथवा ‘भेंटवार्ता’ नामक विधा की परम्परा शुरू हुई। परंतु ‘साक्षात्कार’ केवल ‘भेंटवार्ता’ का अभिप्राय स्पष्ट करता है, जबकि ‘इंटरव्यू’ में ‘व्यू’ (विचार) तत्त्व का भी समावेश है। इसलिए इस विधा के लिए ‘भेंटवार्ता’ शब्द अधिक उपयुक्त है।

इसमें किसी विशिष्ट व्यक्ति से भेंट करके किसी विशेष विषय, विचारधारा, समस्या, चर्चित मुद्दे आदि पर बातचीत की जाती है। इस प्रकार उस विशेष व्यक्ति के तत्संबंधी विचार एवं दृष्टिकोण से पाठकों को अवगत कराना ही इस विधा का लक्ष्य होता है। हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री और समीक्षक डॉ. नागेंद्र ने ‘भेंटवार्ता’ (या ‘साक्षात्कार’) का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है

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“साक्षात्कार (भेंटवार्ता) से अभिप्राय उस रचना से है, जिसमें लेखक किसी व्यक्ति-विशेष के साथ भेंट करने के बाद, प्रायः किसी निश्चित प्रश्नमाला के आधार पर उसके व्यक्तित्त्व, विचार और दृष्टिकोण आदि के संबंध में प्रामाणिक जानकारी प्राप्त करता है और फिर गृहीत-प्रभाव या निष्कर्ष को लेखबद्ध रूप दे देता है।”

स्पष्ट है कि इस विद्या के अंतर्गत मुख्यतया चार आयाम (अवयव) समाविष्ट रहता हैं-

(क) वार्ताकार-जो किसी विषय पर, किसी विशेष (प्रख्यात या चर्चित) व्यक्ति से भेंट और बातचीत करता है। वह प्राय: कोई पत्रकार (किसी पत्र या पत्रिका का संपादक, उपसंपादक, संवाददाता या स्तंभ-लेखक) होता है। अब कुछ स्वतंत्र लेखक भी इस विधा के माध्यम से लेखन-कार्य करने लगे हैं।

(ख) भेंटवार्ता को केन्द्र : विशिष्ट व्यक्ति-भेंटवार्ता का नायक सर्वसामान्य नहीं होता। समाज, राजनीति, विज्ञान, प्रशासन, शिक्षा धर्म, कला आदि किसी क्षेत्र में प्रतिष्ठित या चर्चित अथवा किसी विषय के विशेषज्ञ व्यक्ति को ही प्राय: भेंटवार्ता के लिए चुना जाता है। वर्तमान लोकतंत्र में, अब इस धारण में कुछ परिवर्तन आ गया है।

अब भेंटवार्ताकार किसी क्षेत्र के सामान्य लोगों से भी भेंट करके ‘लोक-मत’ की व्यंजना करना उचित मानते हैं। परंतु ऐसी. (सामान्य व्यक्तियों की) भेंटवार्ता का महत्त्व केवल एक समय तक सीमित रहता है-जब तक भेंट के विषय-महँगाई, बिजली-पानी की समस्या, बजट आदि की चर्चा ताजा रहती है। परंतु विशिष्ट व्यक्तियों या विशेषज्ञों से की गई भेंटवार्ताएं स्थायी महत्त्व और दूरगामी प्रभाव वाली होती है।

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(ग) वार्ता का विषय या मुद्दा-भेंटवार्ता का आयोजन उतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना महत्त्वपूर्ण है-भेंटवार्ता से प्राप्त प्रभावों या निष्कर्षों को कम-से-कम शब्दों में, संतुलित रूप से प्रस्तुत करना। भेंटवार्ता संबंधी विवरण में वार्ताकार को अपनी निजी पसंद-नापसंद की अपेक्षा उस व्यक्ति के अभिमत को रेखांकित किया जाना चाहिए जिसके विचार करने के लिए भेंटवार्ता आयोजित हो। उसमें अतिशयोक्ति नहीं होनी चाहिए और न ही कोई अदल-बदल। यथातथ्यता का निर्वाह बहुत आवश्यक है। साथ ही प्रस्तुति रोचक एवं सरस हो तो भेंटवार्ता स्थायी साहित्यिक महत्त्व से युक्त हो जाएगी।

फीचर
‘फीचर’ एक अभिनव गद्य-विधा है। यह विधा भी भेंटवार्ता’ की भाँति पत्रकारिता से शुरू हुई और अब एक प्रचलित एवं महत्त्वपूर्ण साहित्य-विधा के रूप में मान्य है। “किसी सत्य घटना अथवा समसामयिक ज्वलंत विषय के संबंध में विचार-प्रधान परंतु रोचक एवं प्रभावशाली वर्णन-विवेचन ‘फीचर’ कहलाता है।”

‘फीचर’ में निबंध और रेखाचित्र आदि विधाओं की भी कुछ झलक हो सकती है। परंतु यह अधिकतर समसामयिक घटनाओं या विषयों पर एक जानकारी पूर्ण, विचारोत्तेजक गद्य-रचना होती है।

इसमें प्रमुख रूप से ये विशेषताएं होती हैं-

(क) तथ्यात्मकता-फीचर में लेखक विभिन्न तथ्यों, वास्तविक वस्तुस्थितियों और आँकड़ों आदि के आधार पर विवेचन एवं निष्कर्ष प्रस्तुत करता है।
(ख) अनुभव-आधारित विवेचन-फीचर-लेखक को प्रतिपाद्य विषय के संबंध में निजी अनुभवों के ही आधार बनाना चाहिए। अन्य लोगों के मत-विमत आदि की तुलनात्मक समीक्षा अथवा उनके पक्ष-विपक्ष में संभावित तर्क-वितर्क-युक्त विवेचना करते हुए लेखक अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करता है।
(ग) रोचकता-फीचर की सर्वप्रमुख विशेषता है रोचकता। फीचर न तो निबंध की भांति शुष्क अथवा नीरस हो, न ही उसमें हल्के हास्य-विनोद, व्यंग्य अथवा उपहास का पुट हो। उसके प्रस्तुति सुरुचिपूर्ण, अर्थप्रवण भाषा एवं प्रभावशाली शैली में होनी चाहिए। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में विविध विषयक फीचर नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते हैं।

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रिपोर्ताज
यह भी पत्रकारिता के माध्यम से प्रतिष्ठित होने वाली एक आधुनिक गद्य-विधा है। अंग्रेजी शब्द ‘रिपोर्ट’ ही साहित्यशास्त्र में ‘रिपोर्ताज’ के रूप में प्रचलित है। समाचारपत्रों में विभिन्न घटनाओं, आयोजनों, सभा-समितियों आदि की रिपोर्ट’ छपती रहती है। वहाँ ‘रिपोर्ट’ का अभिप्राय है-‘किसी विषय (घटना, प्रसंग आदि) का यथातथ्य. (ज्यों-का-त्यों) विवरण। ‘परंतु उसी रिपोर्ट को जब भावात्मकता और रोचकता का साहित्यिक संस्पर्श प्राप्त हो जाता है तो उसे ‘रिपोर्ताज’ कहते हैं। इस दृष्टि से “किसी सत्य घटना का यथातथ्य वर्णन करते हुए भी उसमें कथात्मक सरसता और रोचकता का समावेश कर देना ‘रिपोर्ताज’ कहलाता है।”

एक सफल ‘रिपोर्ताज’ में दो तत्वों का होना आवश्यक है-
(क) तथ्यात्मकता,
(ख) रोचकता।

रांगेय राघव द्वारा रचित ‘तूफानों के बीच’, ‘भदंत आनंद कौसल्यायन-कृत ‘देश की मिट्टी बोलती है’, धर्मवीर भारती-कृत ‘ब्रह्मपुत्र के मोरचे से’ और कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर-रचित ‘क्षण बोले क्षण मुस्काएँ’ शीर्षक रिपोर्ताज-रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। आजकल तो विभिन्न राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं पर आधारित नियमित रूप से पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं। इन्हीं में से कुछ स्थायी महत्त्व की कालजयी रचनाएँ अलग-पुस्तक के रूप में संकलित होकर साहित्य की अमूल्य निधि बन जाती है।

पत्र-साहित्य
पत्र लिखना एक सामान्य सी बात है। मानव-समाज के अधिकांश कार्य-कलाप पत्र के माध्यम से संपन्न होते हैं। परंतु साहित्य के क्षेत्र में ‘पत्र’ से अभिप्राय केवल उन्हीं चिट्ठियों से है जो किसी विशेष व्यक्ति द्वारा विशेष उद्देश्य, विचार या मानवीय जीवन-मूल्य के संदर्भ में लिखी गई हों। ऐसे पत्रों में कई बार पत्र-लेखकों द्वारा जीवन और जगत के ऐसे शाश्वत सत्यों का उद्घाटन-विवेचन होता है जो पत्र में संबोधित व्यक्ति के साथ-साथ अन्य सहृदय पाठकों के लिए भी ग्रहणीय और चिरस्मरणीय होते हैं।

ऐसे पत्रों को संकलित करके जब किसी विशेष शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया जाता है तो वह रचना ‘पत्र-साहित्य’ का एक महत्वपूर्ण अंग बन जाती है। महात्मा गाँधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचंद, प्रसाद अथवा निराला आदि युग-पुरुषों द्वारा समय-समय पर विभिन्न व्यक्तियों को लिखे गए पत्रों के अनेक संकलन हिन्दी संकलन हिन्दी गद्य की अमूल्य निधि बन चुके हैं। हिन्दी में साहित्यिक स्तर पर इस विधा को प्रतिष्ठित करने वाले बालमुकुंद गुप्त द्वारा लिखित ‘शिव शंभु का चिट्ठा’ और ‘शाइस्ता खाँ का पत्र प्रसिद्ध है।

विद्यानिवास मिश्र-लिखित ‘भ्रमरानंद के पत्र’ भी उल्लेखनीय हैं। इसी संदर्भ में महावीर प्रसाद द्विवेदी की ‘पत्रावली’ का नाम उल्लेखनीय है। केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा के एक-दूसरे को लिखे गए साहित्यिक पत्र ‘मित्र-संवाद’ पं. जवाहर लाल नेहरू लिखित ‘पिता का पत्र पुत्री के नाम’ तथा नेमिचंद्र जैन और मुक्तिबोध का पत्र-व्यवहार ‘पाया पत्र तुम्हारा’ के नाम से बहुचर्चित है।

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यात्रावृत्त
‘यात्रावृत्त’ वास्तव में ‘आत्मकथा’ का ही एक अपरूप है। ‘आत्मकथा’ में रचनाकार अपनी प्रायः पूरी जीवन-गाथा के विविध प्रकार के प्रसंग प्रस्तुत करता है, परंतु ‘यात्रावृत्त’ में केवल विभिन्न स्थलों, तीर्थों, देशों आदि की यात्रा का रोचक, प्रेरक और प्रभावी विवरण प्रस्तुत किया जाता है।

वर्तमान युग में पर्यटन के प्रति विशेष रुचि होने के कारण ‘यात्रावृत्त’ नामक गद्य-विधा अत्यंत उपयोगी एवं लोकप्रिय होती जा रही है। देश-विदेश के महत्त्वपूर्ण, दर्शनीय स्थलों के अतिरिक्त मानव-समुदाय एवं प्रकृति के विराट रूप का साक्षात्कार ये रचनाएँ करा देती हैं। इस संबंध में राहुल सांकृत्यायन लिखित (घुमक्कड़ शास्त्र, मेरी तिब्बत यात्रा) और अज्ञेय लिखित (अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली) के यात्रावृत्तांत बहुत प्रसिद्ध हैं। सीतेश आलोक-कृत ‘लिबर्टी के देश में’ और अमृतलाल बेगड़-कृत ‘सौंदर्य की नदी नर्मदा’ का नाम भी उल्लेखनीय है। इधर, पिछले कुछ वर्षों से मानसरोवर-यात्रा से संबंधित अनेक प्रभावशाली यात्रावृत्त प्रकाशित हुए हैं।

डायरी
‘डायरी’ नाम गद्य-विधा आत्मकथा से मिलती-जुलती प्रतीत होती है। परंतु यह वास्तव में आत्मकथा न होकर लेखक को प्रतिदिन होने वाले कुछ ऐसे अनुभवों का संक्षिप्त सांकेतिक विवरण होता है जो उसके लिए स्मरणी बन जाते हैं। इसमें लेखक तिथि-क्रमानुसार, किसी एक दिन में अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों, प्रसंगों, अनुभवों आदि के उस विशेष प्रभाव को अंकित करता है, जो लेखक के अतिरिक्त अन्य पाठकों के लिए भी स्मरणीय और महत्त्वपूर्ण जीवन-सत्य के रूप में ग्राह्य बन जाता है।

उदाहरण के लिए, महादेव भाई द्वारा संपादित महात्मा गाँधी की डायरी उल्लेखनीय है। इसी प्रकार मोहन राकेश, शमशेर बहादुर सिंह, त्रिलोचन एवं जयप्रकाश नारायण की डायरी-परक रचनाएँ हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं।

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प्रश्न 13.
‘आलोचना’ का स्वरूप करते हुए उसके प्रमुख भेदों का विवेचन कीजिए।
अथवा,
‘समीक्षा’ का स्वरूप बता कर, हिन्दी में प्रचलित विविध समीक्षा-पद्धतियों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
‘आलोचना’ अथवा ‘समीक्षा’ का स्वरूप-साहित्यशास्त्र में ‘आलोचना का अभिप्राय है-“किसी साहित्यिक कृति के गुण-दोषों को विभिन्न दृष्टियों से परख कर उसका सम्यक् विवेचन करना।”

इसे ‘समालोचना’ अथवा ‘समीक्षा’ भी कहा जाता है। आजकल ‘आलोचना’ की बजाय ‘समीक्षा’ शब्द अधिक प्रचलित है।

हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यशास्त्री और समीक्षक डॉ. श्यामसुंदर दास ने आलोचना (समीक्षा) का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है

“साहित्यिक क्षेत्र में ग्रंथों को पढ़कर, उनके गुणों एवं दोषों का विवेचन करना और उनके संबंध में अपना मत प्रकट करना ‘आलोचना’ कहलाता है।”

एक अन्य विदेशी समीक्षक ड्राइव ने आलोचना का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है-“आलोचना वह कसौटी है जिसकी सहायता से किसी रचना का मूल्यांकन किया जाता है।”

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आलोचना के प्रमुख प्रकार (समीक्षा की विविध पद्धतियाँ या शैलियाँ)-समय-समय पर साहित्यिक रचनाओं की आलोचना अथवा समीक्षा करने के लिए आलोचकगण भिन्न-भिन्न शैलियाँ अपनाते रहे हैं। संस्कृत में ‘टीका’ पद्धति प्रचलित रही। साथ ही साहित्यशास्त्र के विभिन्न सिद्धांतों को आधार बनाकर संस्कृत और हिन्दी में आलोचना की परंपरा चलती रही है। कभी-कभी संक्षेप में ही किसी रचनाकार का साहित्य में स्थान निर्धारित करने के लिए किसी निर्णयात्मक सूक्ति का प्रयोग कर लिया जाता था।

जैसे-‘सूर-सूर तुलसी ससी” अथवा और कवि गढ़िया, नंददास जड़िया’ इत्यादि। आधुनिक युग में पाश्चात्य समीक्षा-पद्धतियों का हिन्दी आलोचना पर विशेष प्रभाव पड़ा। उसके परिणामस्वरूप आलोचना के अनेक रूप या प्रकार प्रचलित हैं। हिन्दी-आलोचना में वस्तुतः प्राचीन भारतीय एवं आधुनिक पाश्चात्य-शैलियों का अद्भुत समन्वय दिखाई देता है। इस आधार पर, आजकल प्रमुख रूप से आलोचना के ये प्रकार (समीक्षा की पद्धतियाँ या शैलियाँ) प्रचलित हैं

(क) सैद्धांतिक आलोचना,
(ख) व्याख्यात्मक आलोचना,
(ग) निर्णयात्मक आलोचना,
(घ) ऐतिहासिक आलोचना,
(ङ) तुलनात्मक आलोचना,
(च) मनोवैज्ञानिक आलोचना,
(छ) सौष्ठववादी आलोचना,
(ज) प्रगतिवादी (मार्क्सवादी) आलोचना,
(झ) रूपवादी (संरचनावादी) आलोचना या नई समीक्षा।

(क) सैद्धांतिक आलोचना-इस आलोचना-पद्धति के अंतर्गत कुछ आधारभूत शास्त्रीय सिद्धांत अथवा नियम सामने रखकर किसी कृति की समीक्षा की जाती है। उदाहरण के लिए रस, अलंकार, रीति, ध्वनि आदि के शास्त्रीय नियमों के निर्वाह का आकलन करना। इस प्रकार की आलोचना पालोचना का वाल्यांकन कि आलोचना में आलोचक पहले पूर्व-रचित कृतियों के आधार पर कुछ सिद्धांत सामने रख लेता है, . फिर उनकी कसौटी पर किसी रचना की परीक्षा करता है।

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(ख) व्याख्यात्मक आलोचना-इसके अंतर्गत उपस्थित रचना की सम्यक् व्याख्या अथवा विवेचना करके, उसमें विद्यमान साहित्यिक सौंदर्य और मूल भाव का उद्घाटन तथा विवेचन किया जाता है। इसमें आलोचक प्रायः रचना की मूल भावना, उसके प्रतिपाद्य विषय और अभिव्यंजना-कौशल पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है। इसे पाठक के सम्मुख आलोच्य कृति का एक समग्र भाव-चित्र स्पष्ट हो जाता है।

(ग) निर्णयात्मक आलोचना-किसी साहित्यिक रचना के अध्ययन के उपरांत उसके संबंध में सत-असत, सुंदर-असुंदर, पूर्ण-अपूर्ण, उपयोगी-अनुपयोगी आदि का स्पष्ट निर्णय दे देने की . प्रवृत्ति ‘निर्णयात्मक आलोचना’ कहलाती है। आवश्यक यह है कि आलोचना निर्णयात्मकता की प्रवृत्ति में संतुलन बनाए रखें। उसमें किसी प्रकार के पूर्वाग्रह, कटुता अथवा केवल प्रशंसा या – केवल निन्दा की प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए।

(घ) ऐतिहासिक आलोचना-इस आलोचराद्धति के अंतर्गत, आलोचक लेखक के युग की परिस्थितियों का विश्लेषण करते हुए, उन्हीं के संदर्भ में रचना एवं रचनाकार का साहित्यिक मूल्यांकन करता है। हर रचनाकार जिस युग में जन्म लेता है, उसकी प्रवृत्तियों, परिस्थितियों, रुचियों, समस्याओं आदि से अवश्य प्रभावित होता है। युगीन धर्म, समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि से संबंधित परिप्रेक्ष्य किसी रचना में कितना और किस प्रकार अभिव्यजित हो पाया है-ऐतिहासिक आलोचना इसका मूल्यांकन करती है।

(ङ) तुलनात्मक आलोचना-इस आलोचना-पद्धति के अंतर्गत दो या अधिक रचनाकारों के द्वारा रचित साहित्य की परस्पर तुलना करके उनका वैशिष्ट्य रेखांकित किया जाता है। मध्ययुग के कवि सूर और तुलसी अथवा देव और बिहार के काव्य की तुलना करते हुए उनके काव्य-कौशल एवं साहित्यिक योगदान के मूल्यांकन की एक लंबी परंपरा चलती रही है। इस प्रकार की आलोचना में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि या तो दोनों कवि एक ही युग के अर्थात् लगभग समकालीन हों, या फिर उनकी रचना का प्रतिपाद्य एक-सा हो।

तुलसी (भक्त) और बिहारी (रीति या शृंगारी कवि) की तुलना असंगत होगी। कई बार एक ही विषय से संबंधित, आगे-पीछे (समय के अंतराल में) रचित कृतियों की समीक्षा की तुलनात्मक दृष्टि से की जाती है। जैसे-संस्कृत और हिन्दी रामकाव्य का, मध्यकालीन और आधुनिक रामकाव्य का, द्विवेदी युग और स्वातंत्र्योत्तर युग के ऐतिहासिक (यां मनोवैज्ञानिक) उपन्यासों के तुलनात्मक अध्ययन आदि।

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(च) मनोवैज्ञानिक आलोचना-किसो साहित्यिक रचना में अंतर्मन के उद्घाटन द्वारा व्यक्ति, परिवार या समाज के जीवन-व्यापार के संगतियों-विसंगतियों, कुंठाओं-वर्जनाओं, द्वंद्वों, विरोधों आदि के मूल में निहित प्रवृत्तियों के विश्लेषण की प्रक्रिया ‘मनोवैज्ञानिक’ आलोचना कहलाती है। आधुनिक युग के मनोविज्ञान-शास्त्री फ्रॉयड के सिद्धांत इस प्रकार की आलोचना-पद्धति का मूल आधार है।

(छ) सौष्ठववादी आलोचना-इस आलोचना-पद्धति में मानवीय सौंदर्य-बोध की कसौटी पर किसी कृति की समीक्षा की जाती है। इसमें सौंदर्यानुभूति के साथ-साथ आत्माभिव्यक्ति को भी एक मानदंड माना जाता है। अधिकांश छायावादी कवियों तथा उनकी कृतियों की समीक्षा इसी पद्धति के आधार पर की गई। इसमें भाषा-लालित्य, कोमल रागात्मक संवेदनाओं के चित्रण तथा बिम्ब, प्रतीक आदि के निर्वाह पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

(ज) प्रगतिवादी आलोचना-इसका मूल आधार मार्क्सवादी सिद्धांत है। इसलिए इसे कभी-कभी ‘मार्क्सवादी आलोचना भी कह दिया जाता है। इस समीक्षा-पद्धति के अंतर्गत समाज की आर्थिक परिस्थितियों तथा वर्ग-संघर्ष के परिपेक्ष्य में किसी साहित्यिक-रचना का मूल्यांकन किया जाता है।

(झ) रूपवादी (संरचनावादी) आलोचना (नई समीक्षा)-यह एक अभिनव समीक्षा-पद्धति है। इसमें साहित्य के परंपरागत प्रतिमानों की बजाय नए प्रतिमानों की कसौटी पर रचना का मूल्यांकन करने की प्रवृत्ति रहती है। यह साहित्य जगत में ‘नई समीक्षा’ के नाम से अधिक प्रचलित है। इस आलोचना-पद्धति के अंतर्गत पद्य अथवा गद्य कृतियों के रूप-विधान पर विशेष ध्यान दिया जाता है। ‘रूपवादी’ अथवा ‘संरचनावादी’ समीक्षा के अनुसार कोई भी साहित्यिक सृजन एक ‘वस्तु’ है। विचार या भाव तो हम उसके साथ जोड़ देते हैं।

रूपवादी आलोचक रचना के मूल रूप-विधान तथा उसके विभिन्न अंगों के अंत:संबंधों की विवेचना करते हुए उसकी रूपगत जटिल संरचना का उद्घाटन एवं आकलन करता है। रचनाकार ने ‘क्या कहा?’-यह जानने के लिए रूपवादी आलोचक यह तलाश करता है कि उसने ‘कैसे कहा है?’ अर्थात् अभिव्यक्ति-प्रक्रिया के विश्लेषण के माध्यम से काव्य का उद्घाटन ‘नई समीक्षा’ का प्रमुख वैशिष्टय है। इसके अनुसार कोई भी साहित्यिक ‘रचना’ नहीं, ‘संरचना’ है जिसके अवयव हैं-भाषागत विविध प्रयोग। शब्द-संरचना, बिम्ब-विधान प्रतीक-योजना आदि इसके प्रमुख प्रतिमाण हैं।

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शब्द-शक्ति

प्रश्न 1.
‘शब्द-शक्ति’ का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए उसके स्वरूप का विवेचना कीजिए।
उत्तर-
‘शब्द-शक्ति’ का तात्पर्य-साहित्य मूलतः शब्द के माध्यम से साकार होता है। भारतीय दर्शनशास्त्र में ‘शब्द’ को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। जिस प्रकार ब्रह्म इस जगत का स्रष्टा है, उसी की माया का विविध रूपों में प्रसार विश्व की गतिशीलता और क्रियाशीलता का आधार है। यही ‘माया’ ब्रह्म की ‘शक्ति’ भी कहलाती है। उसी प्रकार शब्द की माया अर्थात् शक्ति समस्त भाव जगत या विचार सृष्टि की विधात्री है। गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचतिमानस’ महाकाव्य के आरंभ में कहा है-‘जिस प्रकार जल और उसकी लहर कहने को भले ही अलग हैं पर वास्तव में वे दोनों हैं एक ही, उसी प्रकार ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ नाम अलग होते हुए भी, दोनों एक दूसरे से अभिन्न हैं।’

शब्द अरथ जल बीचि, सम, कहियत भिन्न-न-भिन्न
-रामचरितमानस, (बालकांड)

जैसे वस्त्र से उनका रंग, फूल से उसकी गंध और आग से उसकी तपन अलग नहीं, उसी प्रकार शब्द से उसका अर्थ अलग नहीं। शब्द और अर्थ की इसी ‘अभिन्नता’ का नाम ‘शब्दशक्ति’ है।

‘शब्द-शक्ति’ का स्वरूप-‘शब्द’ की ‘शक्ति’ क्या है-‘अर्थ’। अर्थ के माध्यम से ही किसी शब्द की क्षमता, महत्ता, सुष्टुता और प्रभविष्णुता का पता चल पाता है।

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इस आधार पर ‘शब्द-शक्ति’ की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है। ‘शब्द में अर्थ को सूचित करने की जो क्षमता होती है उस ‘शद्र किन, कहते हैं। इस परिभाषा को अन्य विद्वानों ने कुछ मग्ल-रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है ‘शब्द का वह व्यापार, जिसके द्वारा किसी अर्थ का बोध होता है, ‘शब्द-शक्ति’। कहलाता है।’ एक उदाहरण द्वारा ‘शब्द-शक्ति’ के स्वरूप को समझना होगा। गष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी का गीत है-

यह मेरी नन्ही तकली,
है नाचती जैसे मछली,
मैं सूत बनाता इसमें,
मैं गाना गाता इसमें,
मैं दिल बहलाता इसमें,
मैं खेल मचाता इसमें,
यह फिरती उछली-उछली,
यह मेरी नन्ही तकली।

इस गीत में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है वे सभी ‘वाचक’ हैं अर्थात् वे अपना अर्थ स्वयं ही बता रहे हैं। यदि किसी शब्द का अर्थ पहले से पता न भी हो तो ‘कोश’ से देखकर या किसी अन्य जानकार से पूछकर मालूम कर सकते हैं। नन्हीं, तकली, मछली, सूत, गाना, दिल, . खेल, आदि के अर्थ प्रसिद्ध और सर्वज्ञात हैं। इस प्रकार के प्रसिद्ध अर्थ अर्थात् मुख्य अर्थ या वाच्य अर्थ कहलाते हैं। अर्थात् ये अर्थ प्रसिद्ध हैं और पहले से पुस्तकों में (कोश, व्याकरण आदि में) में बताए जा चुके हैं। ऐसे वाच्य अर्थ’ या ‘मुख्य अर्थ’ का बोध जिन शब्दों से होता है।

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वे ‘वाचक’ शब्द कहलाते हैं। – अब इसी गीत में आए हुए ‘दिल बहलाता’, ‘खेल मचाता’ और ‘फिरती उछली-उछली’ पर ध्यान दें। ‘बहलाया’ बच्चों को जाता है। दिल बच्चा नहीं। उसे ‘बहलाना’ कैसे संभव है? इस प्रकार ‘बहलाना’ शब्द का मुख्य अर्थ ‘खुश करना’ बाधित (ठीक न लगने वाला) प्रतीत होता है। तब हम बहलाने के लक्षण से यह अर्थ मालूम करेंगे कि जैसे उदास बच्चे को किसी खेल-खिलौने से खुश किया जाता है, उसी प्रकार ‘मेरा उदास मन तकली चलाने से खुश रहता है’ (तकली चलाने में मस्त होकर मन ही उदासी दूर हो जाती है।)

इस तरह हमने एक अन्य अर्थ लक्षित कर लिया। इस अर्थ को ‘लक्ष्यार्थ’ (लक्ष्य अर्थ लक्षण से जाना गया अर्थ, कहते हैं और इस प्रकार का अर्थ देने वाला शब्द ‘लक्षक’ शब्द कहलाता है। इसी प्रकार, ‘खेल मचाना’ या ‘तकली का उछलमा प्रयोगों में भी लक्षक शब्द और लक्ष्यार्थ हैं। उछलते बच्चे (मनुष्य या जीवित प्राणी) है। तकली तो बेजान है, वह कैसे उछली-उछली फिर सकती है। इस तरह ‘उछली’ शब्द के प्रसिद्ध अर्थ ‘कूदना, ऊपर-नीचे होकर मटकना या मस्ती से ‘चलना’ बाधक (रोक) प्रतीक होती है।

अर्थात् यहाँ यह अर्थ (तकली मस्ती में झूमकर उछल रही संगत प्रतीत नहीं होता। तब हम ‘उछलना’ के लक्षण (मस्ती से झूमना) द्वारा यह लक्ष्यार्थ ग्रहण करते हैं कि जैसे बच्चे (या प्राणी) मस्ती में उछलते हैं उसी प्रकार सूत कातते समय तकली का ऊपर-नीचे होना, इधर-उधर हिलना ऐसा लगता है मानों वह मस्ती में उछल-नाच रही है।

अब, इस सारे गीत को एक-बार फिर पढ़ने पर जब हम यह जानते हैं कि तकली चलानेवाले का मन बड़ा खुश है। वह अपनी छोटी-सी तकली चलाते समय खेल-कूद जैसा आनंद अनुभव करता है। तब इसमें छिपा हुआ यह मूढ़ भाव स्पष्ट हो जाता है कि गाँधीजी ने देशवासियों को जो चरखा-तकली चलाकर अपने हाथ से सूत कातकर ‘स्वदेशी’ का संदेश दिया वह बड़ा सुखकर और आनंददायक है। यह ‘छिपा हुआ गूढ अर्थ “व्यंग्यार्थ,(व्यंग्य अर्थ अर्थात् शब्दों के माध्यम से व्यजित (प्रकट होने वाला. नया-सूक्ष्म अर्थ) कहलाता है और इस प्रकार के ‘व्यंग्यार्थ’ (गूढ़ अर्थ) वाले. शब्द (व्यंजक) कहलाते हैं।

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उपर्युक्त पद्यबद्ध उदाहरण के अर्थ-सौंदर्य के विवेचन के आधार पर शब्दशक्ति का स्वरूप भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है।

प्रश्न 2.
‘शब्द-शक्ति’ के प्रमुख भेद लक्षण-उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
अथवा,
‘शब्द-शक्ति’ कितने प्रकार की है? उसके विभिनन प्रकार (भेद या रूप) लक्षण-उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
जब हम साहित्य के किसी भी वंश (पद्य या गद्य) के अर्थ-सौंदर्य पर विचार करते हैं तो पहले यह तथ्य सामने आता है कि उस गद्यांश में प्रयुक्त शब्दों में प्राप्त होने वाले अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया क्या हो सकती है। उदाहरणतया फूल शब्द का अर्थ ग्रहण करने की तीन प्रक्रियाएँ संभव है। एक-उसका शब्दकोश और लोक-व्यवहार में प्रचलित मुख्य अर्थ-किसी पौधे पर उगने वाला वह आकर्षक, रंगीन, सुंदर पदार्थ जिसमें गंध भी होती है। जैसे-गुलाब, गेंदा, चमेली, आदि। दूसरी-‘मेरे जीवन में ‘फूल’ कभी खिले ही नहीं’ इस वाक्य में फूल के अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया बदल जाएगी।

जीवन कोई पेड़-पौधा नहीं जिस पर फूल खिला करते हों। इस प्रकार मुख्य, प्रचलित या वाच्य अर्थ असंगत लगता है। उसकी प्रतीत (अर्थ की प्राप्ति) में बोध (व्यवधान) है। तब नई प्रक्रिया शुरू होती है-‘फूल के गुण लक्षण के आधार पर। फूल आनंददायक होता है। इस लक्षण की सहायता से हम यह अर्थग्रहण करेंगे-मेरे जीवन में कभी सुख-आनंददायक का अवसर आया ही नहीं। तीसरी प्रक्रिया तनिक और भी भिन्न होगी। उसमें इसी ‘फूल’ शब्द का न तो वाच्यार्थ पूर्णतः संगत होगा, न ही लक्ष्यार्थ (सुख-आनंद) उचित प्रतीत होगा। ‘कली फूल बनने से पहले ही मुरझा गई।’

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हो सकता है, इस वाक्य का वाच्यार्य भी अभीष्ट हो कि (आँधी, तूफान या बाढ़ के कारण) कई कलियाँ विकसित होने से पहले ही नष्ट हो गईं। परंतु इसका व्यजित अर्थ बड़ा मार्मिक है-बच्चा यौवन आने से पहले ही काल का ग्रास बन गया अथवा बालिका (भीषण विपत्तियों के कारण) पूर्ण यौवन के सौंदर्य के आगमन से पहले ही उदास, लाचार और मरी-मरी सी हो गई है। या बालक अभी जवान ही नहीं हुआ था कि (पिता आदि के न रहने से) जिम्मेदारी के बोझ से दबकर दुबला-पतला हो गया है” आदि।

इस प्रकार हमने देखा कि किसी शब्द के अर्थ को बोध करने वाला शक्ति अर्थात् शब्द-शक्ति भिन्न-भिन्न रूपों (प्रक्रियाओं) में काम करती है। ऊपर दिए गए ‘फूल’ वाले उदाहरण से स्पष्ट है कि शब्द शक्ति से संदर्भ में शब्द मुख्यतः तीन स्तरों में विभाजित हो सकते हैं-

  • ‘वाच्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘वाचक’।
  • ‘लक्ष्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘लक्षक’।
  • ‘व्यंग्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘व्यंजक’।

पहले स्तर का अर्थ-व्यापार ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति का है, दूसरे स्तर का व्यापार ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति का तथा तीसरे स्तर का व्यापार ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति का है। इसी आधार पर ‘शब्द-शक्ति के तीन भेद माने जाते हैं-

  • अभिधा,
  • लक्षणा,
  • व्यंजना।

अभिधा शब्द-शक्ति-‘शब्द के जिस व्यापार या सामर्थ्य से उसके स्वाभाविक (प्रसिद्ध, मुख्य या प्रचलित) अर्थ का बोध होता है, उसे ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

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‘अभिधा’ शब्द-शक्ति से प्राप्त अर्थ ‘वाच्यार्थ’ या ‘मुख्यार्थ’ तथा ऐसे अर्थ का बोध कराने वाला शब्द ‘वाचक’ शब्द कहलाता है। जैसे-

पंचवटी की छाया में है सुंदर पर्ण-कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर धीर वीर निर्भीक मना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर जबकि भुवन पर सोता है। (मैथिलीशरण गुप्त, पंचवटी)

इन पंक्तियों के सभी शब्द ‘वाचक’ हैं और उनसे मुख्यार्थ या वाच्यार्थ (स्वाभाविक, प्रसिद्ध या प्रचलित अर्थ) का बोध होता है। अतः यहाँ ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति है।

लक्षणा शब्द-शक्ति-‘शब्द’ के जिस व्यापार (सामर्थ्य) से, ज्ञात मुख्यार्थ में बोध होने पर, लक्षण के आधार पर किसी अन्य अर्थ का बोध होता है उसे ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति से ज्ञात अर्थ ‘लक्ष्यार्थ’ तथा उसका बोध कराने वाला शब्द ‘लक्षक’ कहलाता है।जैसे-

सपने में तुम नित आते हो, मैं हूँ अति सुख पाती।
मिलने को उठती हूँ, सौतन आँख प्रथम उठ जाती। (रामनरेश त्रिपाठी)

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‘आँख’ जो स्त्री नहीं, सो वह सौत हो सकती है। प्राणी सोता या जागता (उठता) है, आँख नहीं। इस प्रकार, यहाँ आँख उठ जाती के वाच्यार्थ में बोध है। तब हम ‘सौत’ के लक्षण द्वारा यह लक्ष्यार्थ मालूम करते हैं कि जिस प्रकार किसी स्त्री की सौत (पति की दूसरी पत्नी) उसे पति से मिलने में बाधक बनती है, उसी प्रकार इस कविता में दुखी नायिका को स्वप्न में भी प्रिय-मिलन का सुख अनुभव करने में उसकी आँख बाधक बन जाती है, क्योंकि स्वप्न के समय आँखें बंद होती हैं। नायिका स्वपन में प्रिय को देखकर ज्यों ही उससे मिलने के लिए उठती है तभी आँखें खुल जाती हैं। नायिका का सुख दुःख में बदल जाता है। इस प्रकार, यहाँ ‘लक्षण’ शब्द ‘सौतन’ तथा ‘आँख उठ जाती’ द्वारा लक्ष्यार्थ की प्रतीति हुई है, अतः, “लक्षणा’ शब्द-शक्ति है।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति के व्यापार में क्रमशः दो बातें आवश्यक हैं-

  • मुख्यार्थ में बाधा होना, अर्थात् प्रसिद्ध अर्थ का असंगत प्रतीत होना।।
  • लक्षक शब्द के मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ में लक्षण (गुण-स्वभाव आदि की विशेषता) का साम्य होना।

ऊपर के उदाहरण में ‘आँख उठ जाना’ के मुख्यार्थ में बाधक स्पष्ट है-आँख उठती-बैठती जागती-सोती नहीं। यह तो प्राणी के स्वभाव या लक्षण है। फिर सौत के स्वभाव (नायिका के पति-मिलन के सुख में रुकावट डालकर उसे और सताने) तथा ‘आँख के उठ जाने’ के परिणाम में साम्य है। इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण है-

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तलवारों का प्यास बुझाता, केवल तलवारों का पानी।  – (सोहनलाल द्विवेदी, भैरवी)

तलवार कोई ऐसी प्राणी नहीं जिसे प्यास लगे। न तलवार में पानी (जल) होता है जो किसी की प्यास बुझाता है। तलवार का लक्षण (स्वभाव, पहचान) है-वैरी पर वार कर लहू बहाना। यह कार्य तलवार स्वयं नहीं करती, उसे थामने या चलाने वाला वीर योद्धा करता है। उसका जवाब भी कोई वीर-योद्धा ही देकर विरोधी की युद्ध संबंधी इच्छा (प्यास) पूरी करता है। इस तरह यहाँ ‘तलवार प्यास और पानी-लक्षण’ शब्द हैं जिनसे उपर्युक्त लक्ष्यार्थ की प्राप्ति हुई है।

व्यंजना शब्द-शक्ति-‘शब्द के जिस व्यापार का सामर्थ्य से, उसके मुख्यार्थ (वाच्य या प्रसिद्ध अर्थ) अथवा लक्ष्यार्थ से भिन्न किसी अन्य, विशेष, गूढ़ या प्रतीयमान अर्थ का बोध होता है उसे ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

व्यंजना शब्द-शक्ति वहाँ होती है जहाँ अभिप्रेत अर्थ स्पष्ट ज्ञात न होकर, प्रकारांतर से सांकेतिक या व्यजित होता है। अत: व्यंजना से प्रतीत होने वाला अर्थ ‘व्यंग्यार्थ’ तथा. व्यंजना-शब्द-शक्ति से युक्त शब्द ‘व्यंजक’ कहलाता है।

उदाहरण-
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।

यहाँ मुख्य (वाक्य) अर्थ यह है कि ‘संत कबीर चलती हुई चक्की को देखकर अत्यंत दुखी हैं, क्योंकि चक्की के दोनों पाटों के बीच में आने वाला कोई भी (दाना) बिना पिसे नहीं रह सकता। यह मुख्यार्थ साधारण है। कवि का अभिप्राय चक्की में पाटों द्वारा अनाज के दानों के पीसे जाने की प्रक्रिया बताना नहीं है-इसे तो सभी जानते हैं। कवि का अभीष्ट अथवा प्रतीयमान अर्थ यह है कि ‘संसार चक्की के समान है।

दिन और रात, या जन्म और मृत्यु इसके दो पाट हैं। इनके बीच फंस जाने के बाद कोई भी जीवन सुरक्षित नहीं रह पाता। व्यंग्यार्थ यह है कि ‘संसार नश्वर है जन्म और मृत्यु के चक्र से कोई भी बच नहीं सकता। ‘चक्की’ और ‘पाट’ ‘व्यंजक’ शब्द है।

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इसी प्रकार-

अबला जीवन हाय ! तुम्हारा यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।  –(मैथिलीशरण गुप्त)

इन पंक्तियों का मुख्य या वाच्य (ज्ञात) अर्थ है-‘हे नारी ! तेरी कहानी बस इतनी-सी है कि तुम्हारे अंचल (वक्ष या स्तनों) में दूध और आँखों पानी है।’ कवि का अभिप्रेत अर्थ इतना ही नहीं। छुपा हुआ (व्यंग्य) अर्थात् प्रतीयमान अथवा अभीष्ट (व्यंजित) अर्थ यह है कि ‘समाज -: में नारी महा-महिमामयी होते हुए भी सदा असहाय, उपेक्षित और अशक्त ही रहती है।

उसके अंत:करण में परिवार-समाज के लिए ममत्व, स्नेह, समर्पण, सौहार्द का ही स्रोत बहता है। वह जीवन भर ममता का अमृत प्रदान करती है। किन्तु बदले में उसे मिलता क्या है-उपेक्षा, तिरस्कार, शोषण, अन्याय और स्वार्थ के रूप में जीवन भर तड़पते हुए रोते रहना, आहें भरकर तिल-तिल जलते रहना।’ इस मार्मिक अर्थ की व्यंजना (प्रतीति) कराने वाले ‘व्यंजक’ शब्द हैं-

  • ‘अंचल पें है दूध’
  • ‘आँखों में पानी’।

क्रमशः इनका व्यंग्यार्थ यातना, आहे और सिसकियाँ।

प्रश्न 3.
‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति में क्या अंतर है? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
लक्षण और व्यंजना दोनों शब्द-शक्तियाँ साधारण रूप से जाने-पहचाने, मुख्य अथवा वाच्य अर्थ से कुछ अलग, भिन्न अर्थ का बोध कराती है, इसलिए इन दोनों की अलग-अलग पहचान में कई बार भ्रांति या कठिनाई की संभावना रहती है। दोनों के स्वरूप को पृथक रूप से स्पष्ट करने के लिए, दोनों की निम्नलिखित भिन्नताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है

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(1) लक्षण’ शब्द-शक्ति का अस्तित्व वही मानना चाहिए जहाँ मुख्य (वाक्य या प्रसिद्ध) अर्थ में बाधा (असंगति) हो। ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति के अंतर्गत मुख्यार्थ या वाच्यार्थ में बाधा (असंगति) नहीं होती, अर्थात् मुख्य या वाच्य अर्थ असंगत, असंभव, या असंबद्ध प्रतीत नहीं होता। जैसे-

अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी।  –(सूरदास, भ्रमरगीत)

आँखों का भूखा होना संभव नहीं है, वे आहार नहीं करतीं। इस प्रकार ‘भूखी’ शब्द लक्षक है जिसका मुख्य अर्थ ‘खाने को व्याकुल होना’ बाधित अर्थात् असंभव, ‘असंगत या असंबद्ध है। इस असंगति को देखकर ही हम ‘भूख’ के लक्षण ‘व्याकुलता’, ‘उत्सुकता’, ‘तड़प’, ‘तीव्र लालसा’ के आधार पर यह लक्ष्यार्थ प्राप्त करते हैं कि ‘आँखें कृष्ण को देखने के लिए व्याकुल हैं।’

दूसरे ओर व्यंजना के अंतर्गत मुख्य (वाच्य) अर्थ का बाधिक (असंगत) होना वांछनीय नहीं जैसे-

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंक्षी को छाया नहीं फल लागै अति दूर॥ –(कबीर)

मुख्यार्थ स्पष्ट है-‘खजूर के पेड़ की तरह लंबा होने का क्या महत्त्व है? न तो वह पथिक को छाया दे सकता है और न ही आसानी से उसके फल को प्राप्त कर स्वाद लिया जा सकता है।’ यह अर्थ के रहते हुए भी एक अन्य छिपे हुए, गूढ (व्यंग्य) या प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति संभव है-‘केवल ऊँचा खानदान होने से ही कोई महान नहीं बन सकता, जब तक कि कोई दूसरों को सुख-सहानुभूति और उपकार-सहायता न दे।’

(2) इसी उदाहरण के आधार पर ‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्तियों में एक अन्य अंतर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ‘लक्षण’ शब्द-शक्ति के अंतर्गत तो मुख्य (वाच्य या प्रसिद्ध, ज्ञात) अर्थ तभी लक्ष्य (लक्षित) अर्थ में गुण, स्वभाव या लक्षण संबंधी कोई-न-कोई पारस्परिक संबंध होता है जबकि ‘व्यंजना में ‘मुख्यार्थ’ और ‘व्यंग्यार्थ’ में परस्पर संबंध होना आवश्यक नहीं। जैसे

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फूल काँटों में खिला था, से पर मुरझा गया। -(रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल)

यहाँ व्यंग्यार्थ अर्थात् प्रतीयमान अर्थ यह है कि ‘जीवन संघर्षों और कष्टों से गुजर कर ही . सार्थक और सुखी होता है। ऐश-आराम में मस्त हो जाने पर जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती है। आलस्य, प्रमाद और निष्क्रियता से वह निरर्थक-सा हो जाता है।’ फूल, कांटा, खिलना, मुराना आदि के मुख्य अर्थ से इस प्रतीयमान अर्थ का कोई स्वभाव, लक्षण या गुण संबंधी साम्य नहीं।

(3) लक्षण’ और ‘व्यंजना’ के अंतर को स्पष्ट करने वाला एक अन्य मुख्य तथ्य यह है . कि ‘लक्षण’ द्वारा केवल किसी एक लक्ष्यार्थ का बोध होता है, जबकि व्यंजना शब्द-शक्ति द्वारा एक ही कथन या शब्द के अनेक अर्थों की प्रतीति की जा सकती है। हर सहृदय पाठक का श्रोता अपनी मन:स्थिति, रुचि या प्रवृत्ति के अनुसार प्रतीयमान (अभिप्रेत) अर्थ को प्रतीति कर सकता है।

जैसे-
खून खौलने लगा वीर का, देख-देखकर न संहार।
नाच रही सर्वत्र मौत थी, गूंज रहा था हाहकार॥

खौलनां पानी या दूध का स्वभाव है, नाचना प्राणी का लक्षण है, गूंजना संगीत का। यहाँ मुख्यार्थ में बाँधता (असंगति) स्पष्ट है। लक्ष्यार्थ है-वीर को क्रोध की अनुभूति, असंख्य लोगों की पल-पल मौत और रुदन-चीत्कार की आवाजों का शोर। लक्षण द्वारा प्राप्त यह अर्थ ही ग्राह्य है, अन्य कोई अर्थ संभव नहीं। परंतु नीचे दिए गए उदाहरण में ‘श्याम घटाएँ देखकर मन के उल्लसित होने’ के अनेक प्रतीयमान अर्थ (व्यंग्यार्थ) संभव हैं-

श्यामा घटा अवलोक नाचता।
मन-मयूर था उसका॥

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राधा का किसी गोपी अथवा अन्य किसी कृष्णभक्त के लिए श्याम घटा श्रीकृष्ण की मोहिनी साँवली सूरत की अनुभूति का आभास दे सकती है। यदि कृषक का मन उल्लास से भर रहा है तो श्याम घटाएँ उसे अपनी अब तक की सूखी धरती में धन-धान्य की हरियाली की आशा बँधा रही हैं। तपती दुपहरी में, पसीने से सरोबार थका मुसाफिर श्याम घटाओं में सुखद राहत की अनुभूति कर सकता है।

इस प्रकार, ‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति के अस्तित्व की पहचान वास्तव में कथन के संदर्भ के आधार पर की जा सकती है। किसी ‘एक शब्द’ का लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ कथन में प्रस्तुत भाषिक संरचना के स्वरूप के अनुसार ग्रहण किया जा सकता है।

रस-ध्वनि

प्रश्न 1.
रस का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, काव्य में उसका स्थान और महत्त्व निर्धारित कीजिए।
अथवा,
रस की परिभाषा देकर स्पष्ट कीजिए कि काव्य में रस की क्या स्थिति है?
अथवा,
रस का तात्पर्य क्या है? काव्य के अंतर्गत रस-व्यंजन का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
‘रस’ शब्द का सामान्य प्रचलित अर्थ है-आनंद, स्वाद, सुख या मजा। यह अर्थ लौकिक जीवन में मानव-शरीर को अनुभव होने वाली सुविधाओं से मिलने वाली खुशी से संबंधित है। जैसे-‘कोई दृश्य देखकर हमें बड़ा ‘मजा’ आया।’ ‘अमुक गीत सुनकर कानों में मानों’ ‘रस’ घुल गया’ आदि। परंतु काव्य के अंतर्गत ‘रस’ का अभिप्राय’ एक विशेष प्रकार का अलौकिक आनंद’ है।

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काव्य का आनंद व्यक्ति, स्थान या समय की सीमा में नहीं बंधा रहता। वह शाश्वत, सार्वभौम, सार्वकालिक तथा सार्वजनीत होता है। कालिदास के नाटक, बाल्मीकि के श्लोक, कबीर के पद, तुलसी के दोहे या प्रसाद, पंत आदि के गीत किसी भी युग के, किसी भी वर्ग के पाठक या श्रोता के अंत:करण को समान तृप्ति प्रदान करते हैं। एक प्राचीन ग्रंथ में कहा गया है-“जिस प्रकार एक ब्रह्मयोगी साधक को, साधना के चरम बिन्दु पर पहुँचने के बाद मिलने वाली आत्मानंद की अनुभूति अनिर्वचनीय और अलौकिक होती है उसी प्रकार काव्य द्वारा मिलने वाला आंतरिक आनंद (काव्यास्वाद अर्थात् काव्य का आसवादन) भी अलौकिक होता है।”

संस्कृत के प्राचीन आचार्य भरत ने उचित ही कहा है कि ‘रस के बिना अर्थ-अनुभूति का प्रवर्तन संभव नहीं।’

स्वरूप-संक्षेप में कहें, तो ‘काव्य-अध्ययन’ से अनुभूति होने वाला अलौकिक आंतरिक आस्वाद ही रस है। ‘इस संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि काव्य द्वारा उद्भूत अलौकिक आनंदानुभूति का कोई-न-कोई आधारभूत ‘कारण’ होना आवश्यक है। उस ‘कारण’ के साथ कुछ सहायक ‘परिस्थितियाँ’, मिलकर उसे विशेष प्रभावशाली बना देती है। इन दोनों के माध्यम से अंत:करण में अनेक भाव-तरंगों की ‘हलचल’ शुरू हो जाती है।

यह ‘हलचल’ काव्य के पाठक या श्रोता (दर्शक) के हृदय में एक ऐसी विशिष्ट ‘रागात्मक संवेदना’ को जागृत कर देती है जो अंतत: एक ‘अलौकिक आनंद’ का रूप ले लेती है। – इस प्रकार काव्य में निहित अलौकिक आस्वाद (रस) की अभिव्यंजना मुख्य रूप से इन चार घटकों पर आधारित है-कारण, उसमें सहायक परिस्थितियाँ, उनके प्रभाव से होने वाली हलचल सम्म तथा उसके परिणामस्वरूप किसी विशिष्ट रागात्मक संवेदना का आस्वाद।

इन्हीं को प्राचीन आचार्यों ने साहित्यशास्त्र की शब्दावली में क्रमशः विभाव, अनुभव, संचारी भाव तथा स्थायी भाव कहा है। इसी आधार पर भारत के सर्वप्रथम साहित्यशास्त्रीय आचार्य भरत ने अपने नाट्य-शास्त्र’ नामक ग्रंथ में ‘रस’ की यह परिभाषा प्रस्तुत की है

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“विभावानुभावसंचारी संयोगात् रसनिष्पत्तिः” अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी (भाव) के संयोग से रस की निष्पत्ति (अर्थात् व्यंजना) होती है।

इस परिभाषा में यद्यपि ‘स्थायी भाव’ का उल्लेख नहीं है, तथापि भरत ने बाद में, उक्त परिभाषा को स्पष्ट करते हुए, स्थायी भाव का भी अलग से विवेचन कर दिया है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर रस के स्वरूप को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है … “विभाव अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध (जागृत या अभिव्यक्त) होने वाले स्थायी भाव के आस्वाद को ‘रस’ कहते हैं।

एक उदाहरण के माध्यम से ‘रस’ के उपर्युक्त स्वरूप को सरलतापूर्वक स्पष्ट किया जा सकता है-

खेलत हरि निकसब्रज-खोरी।
कटि कछनी पीताम्बर बाँधे, हाथ लिए भौरा चक डोरी।
गए स्याम रवि-तनया के तट, अंग लसत चंदन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिलि परी डगोरी॥  –(सूरदास, साहित्य-मंजूषा, भाग-1)

यहाँ कृष्ण और राधा “विभाव’ अर्थात् भाव के कारण है। कृष्ण का फिरकी, लटू आदि घुमाना ‘अभुभाव’ है। उनके हृदय में राधा को देखकर उठने वाले आकर्षण, औत्सुक्य, हर्ष आदि ‘संचारी भाव’ हैं। दोनों का परस्पर प्रेम (आकर्षण) अथवा ‘रति’ स्थायीभाव है जिससे ‘शृंगार’ रस की अभिव्यंजना हुई है।

रस की काव्य में स्थिति अथवा महता

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‘अग्नि पुराण’ में कहा गया है कि “काव्य में भाषा का चाहे जितना भी चमत्कार हो, परंतु उसका जीवन तो रस ही है।” आचार्य वामन कहते हैं कि ‘काव्य की वास्तविक दीप्ति, चमत्कृति या क्रांति उसके रसत्व में ही निहित हैं।” एक अन्य प्रसिद्ध साहित्याशास्त्रीय आचार्य विश्वनाथ ने ‘काव्य का स्वरूप’ ही ‘रसात्मक’ बताते हुए कहा है कि-‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ अर्थात् रसात्मक रचना ही काव्य है।

स्पष्टतया ‘रस’ काव्य की आत्मा है। काव्य को पढ़ते, सुनते अथवा दृश्य काव्य (नाटक आदि) के रूप में देखते समय हमारा हृदय जो एक विशेष का आंतरिक ‘अलौकिक संतोष, तृप्ति भाव या आस्वाद अनुभव करता है, वही एक विशिष्ट साँचे में ढलकर, साहित्य-शास्त्र की शब्दावली में ‘रस’ कहलाता है।

काव्य में चित्रित अनुभूतियों से जब हमारे अंत:करण की अनुभूतियाँ एकरूप होकर, परस्पर एकरस होकर, हमारे मन-मस्तिष्क को एक आंतरिक तृप्ति का अनुभव या अस्वाद कराती है तब हम ‘व्यक्ति’ मात्र न रहकर रचनाकार, रचना और उसमें विद्यमान पात्रों तथा उस रचना के असंख्य पाठकों, श्रोताओं या दर्शकों जैसा ही सामान्य सहृदय मानव-रूप हो जाते हैं। तब हम आयु, वर्ग, जाति, देश और काल की सीमाओं में बंधे नहीं रहते। हम मानव-मात्र के रूप में प्रेम, करुणा, उत्साह आदि भावों के आस्वाद में निमग्न, तनमय और आत्मविभोर हो जाते हैं।

यही निमग्नता, तन्मयता, आत्मविभोरता काव्य के आस्वाद अथवा ‘रस’ के रूप में अभिव्यक्त होती है। स्पष्ट है कि ‘रस”काव्य का प्राण-तत्त्व है। काव्य-सौष्ठव के अन्य विविध आयाम, उपकरण अथवा माध्यम इसी के द्वारा संचालित अथवा संचालित होते हैं। उदाहरणतया किसी प्राण-हीन शरीर का रंग-रूप, अलंकरण सौष्ठव आदि निरर्थक है। यह निर्जीव है। उसी प्रकार रंस-व्यंजना के अभाव में काव्य-शोभा के अन्य प्रतिमान निरर्थक हैं।

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प्रश्न 2.
‘रस के अंग’ से क्या अभिप्राय है? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
जिस प्रकार मानव-शरीर का संचालन उसके विभिन्न अंगों के माध्यम से संभव है उसी प्रकार रस की परिपूर्णता अर्थात् अभिव्यंजना उसके विभिन्न अंगों के संयोग-सामंजस्य पर आधारित है। ‘रस’ यदि काव्य की आत्मा है, तो ‘भाव’ रस का आधारभूत तत्त्व है। वहीं (भाव) अनेक रूपों, स्थितियों आदि के सोपान करता हुआ, अंततोगत्वा ‘रस-निष्पत्ति’ (रस की अभिव्यंजना) अथवा रसास्वाद की अवस्था तक पहुंचता है। आचार्य भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में इस प्रक्रिया को एक दृष्टांत के माध्यप से समझाते हुए कहा है-

“जिस प्रकार बीज से वृक्ष, वृक्ष से पत्र-पुष्प, फल का उद्भव होता है उसी प्रकार भाव से रस और रस से अन्य भाव व्यवस्थित होते हैं?”

‘भाव’ से मुख्य रूप से चार स्थितियों या रूपों के माध्यम से ‘रस’ की अवस्था प्राप्त करता है। इन्हीं को साहित्य शास्त्रीय आचार्यों ने ‘रस के चार अंग’ कहा है-

  • विभाव,
  • अनुभाव,
  • संचारी भाव,
  • स्थायी भाव।

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(रस की परिभाषा भी इन्हीं चार अंगों के आधार पर की गई है-“विभाव, अनुभाव और संचारी’ भाव के संयोग से अभिव्यक्त होने वाले स्थायी भाव को ‘रस’ कहते हैं।

(1) विभाव-‘विभाव’ का अभिप्राय है-‘कारण’ अथवा ‘निमित्त’। इस आधार पर कहा जा सकता है कि “विभाव के कारण या निमित्त हैं जो काव्य, नाटक आदि में अंतःकरण की रागात्मक’ संवेदनाओं को तरंगित (उद्बुद्ध, जागृत) करते हैं।”

काव्य-रूप भाव अर्थात् ‘विभाव’ के दो पक्ष स्पष्ट हैं-एक वह जो प्रवृत्त करता है अर्थात् ‘प्रवृति का कारण’ है। दूसरा वह जो प्रवृत्ति होता है अर्थात् ‘प्रवृति से प्रेरित’ है। इन्हीं दोनों पक्षों को साहित्यशास्त्र की शब्दावली में
(1) आलंबन विभाव और
(2) आश्रय विभाव कहा जाता है।

(1) आलंबन विभाव-जो भाव की प्रवृत्ति का मूल कारण हो उसे ‘आलंबन विभाव’ कहते हैं।
(2) आश्रम विभाव-जो आलंबन की ओर प्रवृत्त होने वाला कारण है उसे ‘आश्रय विभाव’ कहते हैं।

‘विभाव’ के उपर्युक्त दोनों पक्षों के अतिरिक्त एक अन्य सहायक पक्ष भी है-‘उद्दीपन विभाव’। उद्दीपन का अभिप्राय है-उद्दीप्त अर्थात् प्रोत्साहित करने अर्थात् प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक होने वाला।
इस प्रकार ‘विभाव’ के अंतर्गत क्रमशः आलंबन, आश्रय और उद्दीपन-इन तीनों की स्थिति रहती है।

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एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी-

खेलत हरि निकसे ब्रज-खोरी।।
कटि कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ लिए भौंरा, चक, डोरी॥
मोर-मुकुट, कुंडल सवननि बर, दसन-दमक दामिनी-छवि छोरी॥
गए स्याम रवि-तनया के तट, अंग लसंति चंदन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी॥
नील बसन फरिया कट पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी॥
संग लरिकिनी चलि इत आवति, दिन-थोरि, अति छबि तन-गोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी॥  – (सूरदास, साहित्य-मंजूषा, भाग-1)

यह शृंगार-रस का उदाहरण है। इसमें राधा आलंबन विभाव है। वह हरि (कृष्ण या श्याम) की आकर्षण (प्रेम)-प्रवृत्ति का कारण है। हरि आश्रय विभाव है। यह राधा के आकर्षण भाव से प्रेरित या प्रभावित है। यमुना का तट, राधा की बड़ी आँखें, मस्तक की रोली, नीली लहंगा, झूलती हुई आदि उद्दीपन विभाव हैं। ये आकर्षण (प्रेम)-भाव को उद्दीप्त करने वाले तत्त्व हैं।

(2) अनुभाव-‘अनुभाव’ का अभिप्राय है-‘पीछे (अर्थात् विभाव के पश्चात्) आने वाला भाव’ (अनु + भाव)। आश्रय जब आलंबन के प्रति प्रवृत्त होता है तब उसके द्वारा अनायास या सायाम (अपने-आप ही अथवा प्रयत्न करने पर) कुछ ऐसे हाव-भाव, चेष्टाएँ आदि होती हैं जो आकर्षण (प्रेम) की सांकेतिका या परिचायक होती है। यही ‘आश्रय की चेष्टाएँ (हाव-भाव आदि) ‘अनुभाव’ कहलाती है। साहित्यशास्त्र की शब्दावली में

“भावों का प्रत्यक्ष बोध कराने वाली आश्रय की चेष्टाएँ ‘अनुभाव’ कहलाती है।” उदाहरणतया जनक-वाटिका में सीता श्रीराम की छवि देखते ही मुग्ध हो जाते हैं। राम आलंबन और सीता आश्रय है। सीता राम की छवि बार-बार निहारना चाहती है। वह उपवन में विद्यमान पशु-पक्षियों अथवा पेड़-पौधों को देखने के बहाने बार-बार अपनी दृष्टि पीछे की ओर घुमाती है-

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नख-सिख देखि राम कै सोभा
परबस सिखिन्ह लखी जब सीता
देखन मिस मृग बिहग तरु, फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि-निरखि रघुवीर छवि बाढ़ई प्रीति न थोरि।

यहाँ सीता (आश्रय) का पीछे मुड़ना, नजरें घुमा-घुमाकर देखना आदि चेष्टाएँ ‘अनुभाव’ कहलाएंगी।)

(3) संचारी भाव-‘संचारी’ शब्द का अर्थ है-‘संचरण करने वाले’ अर्थात् ‘चलते रहने वाले’ (बार-बार प्रकट-अप्रकट होते रहने वाले), अस्थिर या चंचल। ये भाव किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक रस में संचरण करते हैं, जैसे ‘हर्ष’ नामक भाव ‘अद्भुत’ रस (विस्मय स्थायी भाव) में भी रहता है, ‘शृंगार’ रस में भी और ‘हास्य’ रस में भी। अत: ‘हर्ष’ की गणना संचारी भाव में की जाती है।

इसी प्रकार वैराग्य, ग्लानि, आलस्य, चिंता, मोह, स्मृति, लज्जा, गर्व, उत्सुकता, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। इनका संचरण समय और स्थिति के अनुसार किसी भी रस में हो सकता है। इसी आधार पर “अंत:करण की अस्थिर (चंचल) प्रवृत्तियों या समय और स्थिति के अनुसार सभी रसों में संचरण करते रहने वाले भावों को संचारी भाव कहते हैं।”

मानव-मन की अस्थिर प्रवृत्तियाँ असंख्य हो सकती हैं। फिर भी काव्य-मर्मज्ञ साहित्यशास्त्रीय आचार्यों ने मुख्यतः तैंतीस (33) संचारी भावों का नामोल्लेख किया है। निम्नलिखित उदाहरण से ‘संचारी भाव’ का स्वरूप स्पष्ट हो जाएगा।

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हरि अपनौ आँगन कछू गावत।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनही मनहिं रिझावत।
बाँह उठाए काजरी-धौरी, गैयनि टेरि बुलावत।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर में आवत।
माखन तनक आवनै कर लै, तनक बदन में नावत।
कबहुँक चितै प्रतिबिंब खंभ में लोनी लिए खवावत।
दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित नितही देखत भावत॥ – सूरदास साहित्य-मंजूषा भाग-1

यहाँ हरि (शिशु-कृष्ण) आलंबन है। यशोदा (जसुमति) आश्रय है। हर्ष, गर्व, मोह, उत्सुकता, धैर्य आदि संचारी भाव है।

(4) स्थायी भाव-‘स्थायी’ का अभिप्राय है-सदा स्थिर रहने वाले। साहित्यशास्त्र की शब्दावली में कहा जा सकता है कि “जो आंतरीय भाव रस के आस्वाद तक स्थिर रहकर, स्वयं ही रस-रूप में उबुद्ध (अभिव्यक्त) होते हैं उन्हें ‘स्थायी भाव’ कहते हैं।”

ऊपर सूरदास का जो पद दिया गया है उसमें ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव है जो कि ‘वात्सल्य’ रस की अभिव्यंजना के रूप में साकार हुआ है।

स्थायी भावों की संख्या अथवा उनके भेदों के संबंध में सर्वप्रथम आचार्य भरत ने अपने नाट्शास्त्र में चर्चा की है। उनके अनुसार स्थायी भाव आठ हैं-रति (स्त्री-पुरुष का प्रेम), हास, शोक, क्रोध, उत्साह, विस्मय, भय, जुगप्सा।

बाद के साहित्यशास्त्रीय आचार्यों ने ‘शम’ नामक नौवें भाव को जोड़कर इस संख्या में एक ही वृद्धि कर दी है। इसके उपरांत श्रीमद्भागवत के प्रभाव से जब काव्य में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं के हृदयस्पर्शी, सरस चित्रण की परंपरा चली तब ‘वात्सल्य’ का दसवाँ स्थायी भाव स्वीकार कर लिया गया।

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प्रश्न 3.
‘रस’ के विभिनन भेदों का परिचय देते हुए, लक्षण, उदाहरण सहित उनका विवेचना कीजिए।
अथवा,
‘रस’ कितने प्रकार के होते हैं? उनके स्वरूप का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन कीजिए।
उत्तर-
‘रस’ मूलतः किसी ‘स्थायी भाव’ की अभिव्यंजना के माध्यम से अनुभव किया जाने वाला आस्वाद अथवा अलौकिक आनंद है। अतः ‘रस’ के उतने ही प्रकार या भेद संभव हैं जितने स्थायी भाव हैं। इस दृष्टि से मानव-मन की विविध भाव-तरंगें-जो ‘संचारी भाव’ कहलाती हैं-जब किसी एक मुख्य या ‘विशिष्ट भाव’ में ही समाहित हो जाती है तो वह ‘विशिष्ट या मुख्य भाव’ ही स्थायी भाव होकर रस-व्यंजना का आधार बनता है। . भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में सर्वप्रथम उल्लेखनीय नाम आचार्य भरत तथा उनके ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ का है।

उन्होंने स्थायी भावों की संख्या आठ बताते हुए, आठ ही रसों का उल्लेख किया है- शृंगार, हास्य, करुणा, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत। भरत ने रसों के ये (आठ) भेद मूलतः दृश्यकाव्य (नाटक आदि) के संदर्भ में ही प्रस्तुत किए। बाद में श्रव्यकाव्य के अन्य रूपों (प्रबंधकाव्य, कथा काव्य आदि) के संदर्भ में ‘शांत’ रस को भी मान्यता मिली। तदुपरांत, भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप, श्रीमद्भागवत के आधार पर श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को हृदयस्पर्शी, सरस-चित्रण काव्य का एक प्रमुख विषय बन गया। तब ‘वात्सल्य’ नामक दसवें रस की भी गणना होने लगी।

‘रस की परिभाषा’ एवं उसके ‘स्वरूप’ के अंतर्गत स्पष्ट हो चुका है-स्थायी भाव ही रस के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। तदनुसार दस स्थायी भावों तथा उनसे उबुद्ध होने वाले रसों की क्रम-तालिका इस प्रकार है-

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हम यदि ‘रस’ की मूल परिभाषा पर ध्यान दें तो उपर्युक्त सभी (दस) रसों की परिभाषा निर्धारित करना अत्यंत सरल प्रतीत होगा।

रस की परिभाषा इस प्रकार है-

“विभव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त होने वाले स्थायी भाव को ‘रस’ कहते हैं।”

इस परिभाषा में हम जिस स्थायी भाव का उल्लेख करेंगे, उसी से अभिव्यक्त होने वाले संबंधित रस का नाम भी जोड़ देंगे।

जैसे-“विभाव, अनुभव और संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त (उबुद्ध) होने वाले . ‘रति’ स्थायी भाव से ‘ श्रृंगार’ रस की व्यंजना होती है।” अथवा ………………………

“उत्साह” स्थायी भाव से ‘वीर’ रस की व्यंजना होती है।”

इसी प्रकार परस्पर संबद्ध अन्य सभी स्थायी भावों तथा ‘रसों’ का नामोल्लेख करते हुए अभीष्ट रस की परिभाषा प्रस्तुत की जा सकती है।

यहाँ उपर्युक्त दस रसों का लक्षण-उदाहरण-सहित स्वरूप-विवेचन किया जा रहा है।

श्रृंगार-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘रति’ नामक स्थायी भाव से ‘शृंगार’ रस की अभिव्यंजना होती है।”

‘रति’ अर्थात् प्रेमासक्ति की दो स्थितियाँ संभव हैं-

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  • मिलन,
  • विरह।

इसी आधार पर शृंगार रस के दो भेद माने गए हैं-

  • संयोग शृंगार,
  • वियोग शृंगार।

संयोग श्रृंगार-विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से नायक-नायिका के मिलन के रूप में उबुद्ध स्थायी भाव से ‘संयोग शृंगार’ की अभिव्यक्ति होती है। जैसे-

दुलह श्री रघुवीर बने, दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावत गीत सबै मिलि सुंदरि, वेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारित जानकी, कंचन के नग की परछाहीं।
या ते सबै सुधि भूलि गईं, कर देखि रही, पल टारत नाहीं। – (तुलसीदास, कवितावली)

यहाँ श्रीराम और सीमा ‘विभाव’ है। राम ‘आलंबन’ है। सजा हुआ मंडप, सुंदरियों के गीत, वेदमंत्रों का पाठ आदि ‘उद्दीपन’ विभाव है। सीता ‘आश्रय’ विभाव है। सीता का नग में राम का झलक देखना, देखते रह जाना, सुध-बुध भूल जाना, हाथ न छोड़ना आदि अनुभाव हैं। हर्ष, विस्मय, क्रीड़ा, अपस्मार, आवेग, मोह आदि संचारी भाव हैं और ‘रति’ स्थायी भाव है जो मिलन-आनंद के संयोग से ‘संयोग शृंगार’ के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।”

वियोग श्रृंगार की स्थिति वहाँ होती है जहाँ ‘रति’ भाव नायक-नायिका के परस्पर अलग (बिछुड़े हुए) होने के रूप में विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रंस-रूप में अभिव्यक्त होता है।” जैसे-

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रो रो चिंता सहित दिन को राधिका थीं बिताती।
आँखों को थी सजल रखतीं, उन्मना थीं दिखातीं॥
शोभा वाले जलद-वपु को हो रही चातकी थीं।
उत्कंठा थी पर न प्रबला वेदना वद्धिता थी।  – (अयोध्या प्रसाद हरिऔध, प्रियप्रवास)

यहाँ राधा आश्रय विभाव और श्रीकृष्ण आलंबन विभाव हैं (जो गोकुल-वृंदावन छोड़कर मथुरा जा बसे हैं)। राधा का रोना, आँखें सजल रखना, बादलों की ओर (उनमें कृष्ण के साँवले शरीर की झलक पाकर) टकटकी बाँधे रखना आदि अनुभाव हैं.। शंका, दैन्य, चिन्ता, स्मृति, जड़ता, विषाद, व्याधि, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से ‘रति’ स्थायी भाव प्रिय विरह की वेदना के कारण ‘वियोग शृंगार’ के रूप में अभिव्यक्त हुआ है।

हास्य-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘हास’ स्थायी भाव से ‘हास्य’ रस की अभिव्यक्ति होती है।” जैसे-

जब सुख का नींद कढ़ा तकिया, इस सिर के नीचे आता है।
तो सच कहता हूँ-इस सिर में, इंजन जैसे लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ बुद्धि भी फक-फक करती है।।
सपनों से स्टेशन लाँघ-लाँघ, मस्ती का मंजिल दिखती है।

यहाँ कवि का कथन ही आलंबन और पाठक-श्रोता आश्रय है। कवि कविता पढ़ते समय तकिए पर सिर टिकाने, आँखें बंद करके झूमने आदि का जो अभिनय करेगा वह ‘उद्दीपन’ विभाव होगा। कविता पढ़ या सुन कर हमारा मुस्काना, ‘वाह वाह !’ करना, झूमना आदि अनुभाव हैं। चपलता, हर्ष, आवेग, औत्सुक्य आदि संचारी भाव है। इनके संयोग से ‘हास’ स्थायी भाव की ‘हास्य’ रस के रूप में निष्पत्ति हुई है।

रौद्र-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘क्रोध’ स्थायी भाव से ‘रौद्र’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।’

जैसे-
फिर दुष्ट दुःशासन समर में शीघ्रग सम्मुख हो गया !
अभिमन्यु उसको देखते ही क्रोध से जलने लगा!
निःश्वास बारंबार उसका उष्णत चलने लगा!
रे रे नराधम नारकी ! तू था बता अब तक कहाँ?
मैं खोजता फिरता तुझे सब ओर कब से हूँ यहाँ !
मेरे करों से अब तुझे कोई बचा सकता नहीं !
पर देखना, रण-भूमि से तू भाग जाना मत कहीं ! – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

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यहाँ अभिमन्यु आश्रय विभाव तथा दुःशासन आलंबन-विभाव है। युद्ध का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। अभिमन्यु का जलना, बार-बार गरम श्वास छोड़ना और कठोर वचन कहना आदि अनुभव है। असूया, अमर्ष, श्रम, धृति, चपलता, गर्व, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से उबुद्ध ‘क्रोध’ स्थायी भाव से ‘रौद्र’ रस की निष्पत्ति (व्यंजना) हुई है।

करुण-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘शोक’ स्थायी भाव से ‘करुण’ रस की अभिव्यक्ति होती है।” जैसे-

प्रिय मृत्यु का अप्रिय महासंवाद पाकर विष भरा।
चित्रस्थ-सी निर्जीव मानों रह गई हत उत्तरा।
संज्ञा-रहित तत्काल ही फिर वह धरा पर गिर पड़ी।
उस काल मुर्छा भी अहो! हिकतर हुई उसको बड़ी।  – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

यहाँ उतरा आश्रय विभाव तथा उसका मृतक प्रियतम अभिमन्यु आलंबन विभाव है। दैन्य, चिंता, स्मृति, जड़ता, विषाद, व्याधि, उन्माद, मूर्छा आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से उबुद्ध ‘शोक’ स्थायी भाव से ‘करुण’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

बीभत्स-“विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘जुगुप्सा’ स्थायी भाव से ‘बीभत्स’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

यज्ञ समाप्त हो चुका, तो भी धधक रही थी ज्वाला।
दारुण दृश्य ! रुधिर के छींटे, अस्थिखंड की माला।
वेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कतार वाणी।
मिलकर वातावरण बना था, कोई कुत्सित प्राणी  – (जयशंकर प्रसाद, कामायनी)

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(मनु द्वारा यज्ञ में पशु की बलि चढ़ाए जाने के इस दृश्य में) श्रद्धा आश्रय विभाव तथा यज्ञ की वेदी अलंबन विभाव है। धधकती ज्वाला, लहू के छींटे, हड्डियों की माला, बलि चढ़ाए जाते पशु की घबराई चीख आदि वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। आँखें मूंदना, नाक-भौंह सिकोड़ना, मुँह फेर लेना, कानों पर हाथ रखना या नासिक के छिद्र बंद कराना आदि अनुभाव होंगे। ग्लानि, चिंता, आवेग, विषाद, त्रास आदि संचारी भाव हैं। इन सब के संयोग से उबद्ध ‘जुगुप्सा’ स्थायी भाव से ‘वीभत्स’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

भयानक-
“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘भय’ स्थायी भाव से ‘भयानक’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

उस सुनसान डगर पर था सन्नाटा चारों ओर,
गहन अँधेरी रात घिरी थी, अभी दूर थी भोर।
सहसा सुनी दहाड़ पथिक ने सिंह-गर्जना भारी,
होश उड़े, सिर गया घूम, हुई शिथिल इंद्रियाँ सारी।

यहाँ पथिक आश्रय विभाग तथा दहाड़ आलंबन विभाव है। सुनसान डगर, सन्नाटा, अंधेरी रात आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं, होश उड़ जाना, सिर घूमना, इंद्रियाँ शिथिल होना आदि अनुभाव हैं। शंका, दैन्य, चिंता, मोह, जड़ता, विषाद, त्रास आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘भय’ स्थायी भाव ‘भयानक’ रस के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।

वीर-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘उत्साह’ स्थायी भाव से अभिव्यक्त होने वाला रस ‘वीर’ रस कहलाता है। जैसे-

जिस वीरता से शत्रुओं का सामना उसने किया।
असमर्थ हो उसके कथन में मौन वाणी ने लिया॥
सब ओर त्यों ही छोड़कर निज प्रखतर शर जाल को।
करने लगा वह वीर व्याकुल शत्रु-सैन्य विशाल हो। – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

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यहाँ अभिमन्यु आश्रय तथा शत्रु (कौरव-दल के सैनिक) आलंबन विभाव हैं। युद्ध का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। अभिमन्यु का इधर-उधर घुमकर बाण छोड़ना आदि अनुभाव है, असूया, श्रम, चपलता, आवेग, अमर्ष, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘उत्साह’ स्थायी भाव से ‘वीर’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

अद्भुत-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘विस्मय’ स्थायी भाव। से अभिव्यक्ति होने वाला रस ‘अद्भुत’ कहलाता है।” जैसे-

अस जिय जानि जानकी देखी।
प्रभु पलके लखि प्रीति बिसेखी।
गुरुहिं प्रनाम मनहिं मन किन्हा।
अति लाधवं उठाइ धनु लीन्हा।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।
पुनि नभ धुनमंडल सम भयऊ।
लेत चढ़ावत बैंचत गाढ़े।
काहू न लखा देख सबु ठाढ़े।
तेहि छन राम मध्य धन तोरा।
भेर भुवन धुनि घोरा कठोरा।  – (तुलसीदास, रामचरितमानस, बालकांड)

यहाँ श्रीराम आलंबन विभाव तथा राजसभा में विद्यमान अन्य सभी आश्रय विभाव हैं। भारी। शिव-धनुष, सीता की व्याकुलता, स्वयंवर-सभा का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। श्रीराम का सीता की ओर निहारना, सहज भाव से धनुष उठाना, फुरती से चिल्ला चढ़ाना, धनुष तोड़ना आदि हर पालन , जोइ कबहुँ अबतावे। अनुभाव हैं। श्रम, धृति, चलता, हर्ष, आवेग, औत्सुक्य मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘विस्मय’ स्थायी भाव की ‘अद्भुत’ रस के रूप में अभिव्यक्ति हुई है।

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शांत-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘शम’ (निर्वेद) स्थायी भाव से अभिव्यक्त होने वाले रस को शांत कहते हैं।” जैसे-

ओ क्षणभंगुर भव राम राम।
भाग रहा हूँ भार देख, तू मेरी ओर निहार देख !
मैं त्याग चला निस्सार देख, अटकेगा मेरा कोन काम !
ओ क्षणभंगुर भव राम राम ! – (मैथिलीशरण गुप्त, यशोधरा)

यहाँ नश्वर संसार आलंबन विभाव है और ‘राम-राम’ करने वाले सिद्धार्थ आश्रय विभाव हैं। संसार की परिवर्तनशीलता, क्षणभंगुरता, रोग-बुढ़ापा आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। सिद्धार्थ का उदासीन (विरक्त) होना अनुभाव है। निर्वेद, ग्लानि, चिंता, धृति, मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘शम’ स्थायी भाव को ‘शांत’ रस के रूप में अभिव्यक्ति हुई है।

वत्सल-“विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव से ‘वत्सल’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

जशोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दलाइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै॥
कबहुँ पलक हरि-मुंद लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै॥
सोवत जानि मौन है रहि करि-करि सैन बतावै।
इति अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ, सो नँद भामिनि पावै॥  – (सूरदास, सूरसागर)

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यहाँ कृष्ण आलंबन विभाव और यशोदा आश्रय विभाव है। झूला, कृष्ण का पलकें मूंदना, होंठ फड़काना, इशारे करना आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। यशोदा का झूले को झुलाना, कृष्ण को दुलारना-पुचकारना, मधुर गीत गाना आदि अनुभाव हैं। मोह, चपलता, हर्ष, औत्सुक्य आदि संचारी .. भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘वात्सल्य’ भाव से ‘वत्सल’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

(अनेक पुस्तकों में इसको ‘वात्सल्य’ कहा गया जो ठीक नहीं। ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव है। रस का नाम ‘वत्सल’ है जैसा कि आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण’ में कहा है-‘वत्सलं च रसं विदुः।’

प्रश्न 4.
नीचे दिए गए विषयों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीजिए
(क) विभाव और अनुभाव में अंतर,
(ख) संचारी भाव और स्थायी भाव में अंतर
(ग) वीर रस और रौद्र रस में अंतर
उत्तर-
(क) विभाव और अनुभाव में अंतर-‘विभाव’ मूलतः भाव नहीं, भाव के कारण-मात्र हैं। ‘अनुभाव’ भी वास्तव में स्वयं भाव नहीं, भावों के परिचायक विकार (परिवर्तन या चेष्टाएँ) है। ‘विभाव का संबंध तीन पक्षों से है-आलंबन, उद्दीपन और आश्रय, परंतु ‘अनुभाव’ का संबंध केवल. ‘आश्रय’ से है। ‘विभाव’ कोई व्यक्ति, प्रसंग, पदार्थ या विषय हो सकता है, जबकि अनुभाव किसी एक व्यक्ति (आश्रय) के शरीर को अनायास (अपने-आप) होने वाली या जानबूझकर की जा सकने वाली चेष्टाएँ ही होती हैं।

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(ख) संचारी भाव और स्थायी भाव में अंतर-‘संचारी भाव’ और ‘स्थायी भाव’ दोनों ही आंतरिक भाव हैं। दोनों की स्थिति ‘विभाव’ पर आधारित है। परंतु दोनों में पर्याप्त अंतर भी है-

  1. संचारी भाव अस्थिर होते हैं, जबकि स्थायी भाव स्थिर रहते हैं।
  2. संचारी भाव अनेक रसों में संचारित हो सकते हैं। एक ही रस में कई संचारी भाव तथा एक संचारी भाव अनेक रसों में संभव हैं परंतु कोई एक स्थायी भाव किसी एक ही रस से संबंधित होता है।
  3. संचारी भाव प्रकट होकर विलीन हो जाते हैं। वे आते-जाते, प्रकट-विलीन, होते रहते हैं स्थायी भाव अंत-पर्यंत स्थिर बने रहते हैं और वही रस के रूप में परिणत (उबुद्ध या अभिव्यक्त) होते हैं।
  4. संचारी भाव नदी की लहरों के समान चंचल, गतिशील या संचरणशील है जबकि स्थायी भाव नदी की मूल (अंतर्निहित) जलधारा के समान एकरूप बने रहते हैं।
  5. संचारी भाव अपने वर्ग के अन्य भावों में घुल-मिल सकते हैं या विरोधी भावों से दब सकते या क्षीण हो सकते हैं, परंतु स्थायी भाव न तो अपने वर्ग से और न ही विरोधी वर्ग के भावों से दबते. या क्षीण होते हैं।

(ग) वीर रस और रौद्र रस में अंतर-वीर और रौद्र रस में विभाव तथा संचारी भाव प्रायः एक-से होते हैं। दोनों में ‘शत्रु’ या ‘विरोधी पक्ष’ आलंबन विभाव होता है। दोनों में आश्रय को अनिष्ट की आशंका होती है। असूया, आमर्ष, आवेग, श्रम आदि संचार भाव भी प्रायः दोनों में होते हैं। फिर भी दोनों में पर्याप्त अंतर है। यह तो स्पष्ट ही है कि वीर में ‘उत्साह’ तथा रौद्र में ‘क्रोध’ स्थायी भाव होता है।

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वीर रस में शस्त्र-संचालन, आगे बढ़ना, आक्रमण करना, अपना बचाव करना आदि अनुभाव होंगे, जबकि रौद्र रस में आवेशपूर्ण शब्द, ललकार, आँखें तरेरना, मुट्ठियाँ भींचना, दाँत पीसना आदि अनुभाव होंगे। साथ ही, वीर रस में आश्रय का विवेक बना रहता है, जबकि रौद्र रस में विवेक की मर्यादा नहीं रहती। वास्तव में रौद्र रस वीर रस की पृष्ठभूमि तैयार करता है। जहाँ रौद्र रस की सीमा समाप्त होती है वहीं से वीर रस की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।

छंद

1. छंद किसे कहते हैं? निम्नलिखित छंदों के लक्षण-उदाहरण दीजिए सोरठा, दोहा, रोला, चौपाई, बरवै, गीतिका, हरिगीतिका, कवित्त, सवैया।
उत्तर-
जिस रचना में मात्राओं और वर्णों की विशेष व्यवस्था और गणना होती है, साथ ही संगीत सम्बंधी लय और गति की योजना रहती है उसे छंद कहते हैं। दूसरे शब्दों में निश्चित वर्णों या मात्राओं की गति, यति, आति से बंधी हुई शब्द योजना को छंद कहते हैं।

सोरठा :
लक्षण-यह भी अर्द्धसममात्रिक छंद है। इसके प्रथम और तीसरे चरणों में ग्यारह-ग्यारह एवं दूसरे और चौथे चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। दोहा की चरण-व्यवस्था को बदल देने से सोरठा हो जाता है। दोहा से अन्तर यह है कि सोरठा के विषम चरणों में अंत्यानुप्रास पाया जाता है।
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दोहा
लक्षण- यह अर्द्धसममात्रिक छंद है। इसके प्रथम और तीसरे चरणों में तेरह-तेरह तथा . द्वितीय और चतुर्थ चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। [विषम चरणों के अन्त में प्रायः (15) क्रम रहता है। चरणांत में ही यति होती है।
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रोला:
लक्षण-यह सममात्रिक छंद है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में चौबीस-चौबीस मात्राएँ होती हैं। ग्यारह और तेरह मात्राओं पर यति का विधान था जो अब उठ रहा है।
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चौपाई :
लक्षण-यह चार चरणोंवाला सममात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं। चरणांत में यति होती है। चरणांत में ये दो कम वर्जित हैं-15। और ऽ ऽ। (अर्थात् जगण और तगण)।
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बरवै :
लक्षण-यह एक अर्द्धसममात्रिक छंद है। इस छंद में कुल चार चरण होते हैं। विषम (प्रथम तथा तृतीय) चरणों में प्रत्येक में बारह और सम (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरणों में प्रत्येक में सात मात्राएँ होती हैं। बारह और सात मात्राओं पर विराम और अंत में लघु मात्र होती है।
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गीतिका:
लक्षण-यह एक सममात्रिक छंद है। इसमें कुल चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण की चौदहवीं और बारहवीं मात्रा के बाद विराम (यति) होता है। चरणांत (पादांत) में लघु-गुरु (5) क्रम से मात्राएँ रहती हैं।
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हरिगीतिका:
लक्षण-यह एक सममात्रिक छंद है। इसमें कुल चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक सोलहवीं और बारहवीं मात्राओं के बाद विराम (यति) होता है। प्रत्येक चरण के अंत में गुरु (5) मात्रा होती है।
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कवित्त :
लक्षण-यह वर्णिक छंद है। इसे ‘मनहरण’ या ‘घनाक्षरी’ भी कहते हैं। इसके प्रमुख भेद हैं-मनहरण, रूपघ्नाक्षरी, जनहरण, जलहरण और देवघनाक्षरी। मुख्यतः इस छंद के प्रत्येक चरण में 31 से 33 वर्ण तक पाए जाते हैं। (16)
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सवैया :
लक्षण-यह वर्णिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 से लेकर 26 तक वर्ण होते हैं, मदिरा, मत्तगयंद (मालती), चकोर, दुर्मिल, सुंदरी सुख, उपजाति और किरीट नामक इसके प्रकार हैं।

उदाहरण-
सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाति निरंतर गावै।।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावै।
जाहि हियै लखि आनंद है जड़ मूढ़ हिये रसखानि कहावै।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाँछ पर नाच नचावै।

अलंकार

प्रश्न 1.
‘अलंकार’ का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए काव्य में उसके स्थान एवं महत्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
काव्य में ‘अलंकार’ से क्या अभिप्राय है? काव्य और अलंकार का अंतः संबंध बताते हुए उदाहरण सहित विवेचन कीजिए।
उत्तर-
‘अलंकार का तात्पर्य अथवा अभिप्राय-‘अलंकार’ शब्द ‘अलंकरण’ से बना है जिसका अभिप्राय है-सजावट। इस दृष्टि से ‘अलंकार’ का तात्पर्य हुआ-सजावट का माध्यम। संस्कृत का प्रसिद्ध उक्ति है-‘अलं करोति इति अलंकारः’ अर्थात् जो अलंकृत करे-सजाए, सुशोभित करे, शोभा बढ़ाए वह अलंकार है इस आधार पर, काव्य के संदर्भ में ‘अलंकार का तात्पर्य है जो भाषा का सौष्ठव बढ़ाए, उसमें चमत्कार पैदा करके उसे प्रभावशाली बना दे।’ अलंकार वाणी के भूषण हैं’-यह उक्ति बहुत प्राचीन है। हम जो भी कहते या लिखते हैं-दूसरों तक अपनी बात प्रभावशाली ढंग से पहुंचाने के लिए। कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए जिन अनेक उपकरणों, साधनों या माध्यमों का उपयोग किया जा सकता है उनमें ‘अलंकार’ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।

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विशेष प्रतिभाशाली, कल्पनाशील और कला-निपुण वक्ता का रचनाकार अपने कथन को चमत्कारपूर ढंग से प्रस्तुत कर, श्रोताओं या पाठकों के हृदय को छूकर, उन्हें प्रभावित कर सकता है। यह क्षमता प्रदान करने वाला तत्त्व ही ‘अलंकार’ कहलाता है।

काव्य में ‘अलंकार’

जिस प्रकार कोई भूषण (गहना) किसी सामान्य व्यक्ति के आकर्षण, सौंदर्य और प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होता है वैसे ही अलंकार वाणी अर्थात् कविता या रचना को सुंदर, आकर्षक और प्रभावशाली बनाते हैं। संस्कृत के प्राचीन आचार्य दंडी ने कहा है-“काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्व को अलंकार कहते हैं।” प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय ग्रंथ ‘चंद्रलोक के रचयिता जयदेव न ‘काव्य में अलंकार का महत्त्व’ स्पष्ट करने के लिए बड़ा रोचक उदाहरण दिया है।

वे कहते हैं-‘जिस प्रकार ताप से रहित अग्नि की कल्पना असंभव है, उसी प्रकार अलंकार के बिना काव्य के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती।’ ताप अग्नि का गुण है, उसकी पहचान है। इसी प्रकार काव्य में साधारण कथन वाला प्रमुख तत्त्व अलंकार है। अलंकार काव्य में काव्यत्व लाने वाला उपकरण है, उसकी प्रमुख पहचान है।

रीतिकाल के प्रसिद्ध आचार्य केशवदास ने, काव्य में अलंकार का महत्त्व स्पष्ट करते हुए कहा है-

“आभूषणों के बिना नारी और अलंकारों के बिना कविता की शोभा संभव नहीं।’
भूषन बिनु न बिराजई बनिता मित्त। – (केशवदास, कविप्रिया)

(अर्थात् हे मित्र ! कविता और विनता (स्त्री) भूषण के बिना शोभा नहीं पातीं)।

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इसमें कोई संदेह नहीं कि अलंकार के प्रयाग से सामान्य-सी उक्ति भी अत्यंत प्रभावी, चमत्कारिक और मर्मस्पर्शी बन जाती है। कविवर पंत ने ‘गंगा में चल रही नाव’ के एक साधारण दृश्य को ‘अनुप्रास’ और ‘रूपक’ अलंकार के प्रयोग से कैसे संजीव बिंब-सा मनोहारी, प्रभावी और आकर्षक बना दिया है-

मृदु मंद-मंद, मंथर, मंथर
लघु तरणी हंसिनी-सी सुंदर,
तिर रही खोल पालों के पर।
(सुमित्रानंदन पंत, नौका विहार)

यहाँ पहली पंक्ति में ‘अनुप्रास अलंकार’ (म और अनुस्वार की आवृति) के कारण संगीतात्मक लय-प्रवाह का संचार हो गया है। दूसरी पंक्ति में ‘उपमा’ (हंसिनी-सी), तीसरी पंक्ति में ‘रूपक (पालों के पर) के कारण, गंगा में तैरती का बिंब सजीव चलचित्र की भाँति साकार हो गया है।

स्पष्ट है कि काव्य के वास्तविक सौंदर्य का रहस्य अलंकारों पर निर्भर है। परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं कि काव्य में अलंकार ही सब कुछ है। अलंकार काव्य की शोभा के बाहरी साधन मात्र हैं साध्य नहीं है। काव्य तो स्वयं ही रमणी, चारु तथा सुंदर है। जो स्वभाव से ही मोहक, आकर्षक या सुंदर है, उसे शोभा या चमत्कार के साधनों की क्या आवश्यकता है? किसी अत्यंत दुर्बल, अरूण और रुग्ण व्यक्ति को चाहे कितने बढ़िया आभूषणों से लाद दिया जाए-वह सुंदर या मोहक नहीं बन सकता।

इसी प्रकार, जिस काव्य में भाव और अर्थ की चारुता या मोहकता नहीं उसे केवल वर्णों या शब्दों की आवृत्ति अथवा उपमानों-रूपकों की भरमार से प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। काव्य में अलंकार का महत्त्व उतना ही समझना चाहिए जितना स्वाभाविक रूप से एक स्वस्थ, सुंदर, सुरूप और सुडौल शरीर को सजाने में आकर्षक आभूषणों का। तात्पर्य यह है कि काव्य में अलंकारों का संतुलित, सुचारु तथा सुसंगत प्रयोग ही उपयुक्त है।

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तात्पर्य यह है कि ‘अलंकार’ कोरे चमत्कार के लिए नहीं। उनकी महत्ता काव्य की स्वाभाविक चारुता और सुष्टुता में वृद्धि करने में है। अलंकार ‘काव्य के लिए है काव्य ‘अलंकार’ के लिए नहीं है।

प्रश्न 2.
अलंकार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके प्रमुख भेदों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
काव्य का स्वरूप-‘अलंकार’ शब्द सामान्य रूप से सजावट, शोभा और चमत्कार बढ़ाने वाले उपकरण के लिए प्रयुक्त होता है। भूषण, आभूषण, आवरण आदि इसी के अन्य पर्याय हैं। अलंकार शब्द के इसी अर्थ को ध्यान में रखकर आचार्य दंडी ने कहा है-‘काव्य के शोभा कारक तत्त्व अलंकार कहलाते हैं।” (काव्यादर्श) आचार्य वामन का मत इससे कुछ भिन्न है। उनके कथनानुसार, ‘काव्य के शोभाकारक’ तत्त्व तो गुण हैं, उन गुणों में अतिशयता (वृद्धि का उत्कर्ष) लाने वाले साधन अलंकार हैं। अपने इस मत को वामन ने केवल एक शब्द में समेटते हुए, निष्कर्ष के रूप में आगे यह भी कहा है कि काव्य के अंतर्गत ‘सौंदर्य मात्र अलंकार है-सौंदर्यमलंकारः।

प्रश्न यह है कि अलंकार स्वयं सौंदर्य है अथवा सौंदर्य का हेतु (कारण का साधन) है? अधिकतर विद्वान दूसरे पक्ष के समर्थक हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में ‘ध्वनि’ संप्रदाय के प्रवर्तक आनंदवर्धन ने स्पष्टं कहा है कि काव्य में चारुत्व (सुन्दरता, सरसता, रोचकता, चमत्कारता) लाने वाले उपकरण (कारण, साधन या माध्यम) अलंकार है। (ध्वन्यालोक) काव्य में अलंकारों को सर्वप्रथम महत्त्व प्रदान करने वाले आचार्यों में भामह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उनका कथन है कि ‘शब्द और अर्थ को एक विशेष प्रकार (वक्र रूप) से प्रस्तुत करने की युक्ति (शैली) अलंकार है।

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(काव्यालांकार) भामह द्वारा प्रस्तुत किया गया अलंकार का यह लक्षण पर्याप्त सुसंगत है। इसो की व्याख्या करते हुए मध्ययुग के आचार्य मम्मट और विश्वनाथ ने कहा है-‘शरीर में हार, कंगन आदि के समान, काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तथा रस-भाव आदि के उपकारक (अर्थात् रस-भाव को उत्कर्ष प्रदान करने वाले) शब्दार्थ के अस्थिर धर्म (तत्त्व) अलंकार कहलाते हैं।”

उपर्युक्त लक्षण में अलंकारों को ‘शब्दार्थ के अस्थिर धर्म’ कहा गया है तो सर्वथा उचित है। अलंकार काव्य के स्थायी, अभिन्न या अनिवार्य तत्त्व नहीं है। इनका उपयोग आवश्यकता होने पर, या स्वाभाविक रूप से कहीं-कहीं यथोचित रूप से किया जाता या हो जाता है। इस दृष्टि से हिन्दी के विख्यात आलोचक और काव्य-मीमासंक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत बहुत महत्त्वपूर्ण है _ ‘भावों के उत्कर्ष और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति ही अलंकार है।’

संक्षेप में कहा जा सकता है कि साहित्य-रचना में किसी भी स्तर पर किसी भी प्रकार के सौंदर्य का उन्मेष होता है, तब वह अपनी समग्रता में अलंकार पर्याप्त हो जाता है।

अलंकारों के प्रमुख भेद

‘अलंकार’ वास्तव में कथन के विशेष प्रकार का नाम है। विशेष प्रकार के वाग्वैदग्ध्य को ही आचार्यों ने ‘अलंकार’ की संज्ञा दी है। यह वाग्वैदग्ध्य या कथन के प्रकार-विशेष के अनेक रूप संभव है। ‘अलंकार’ क्योंकि मुख्य रूप से काव्य में चारुत्व, चमत्कार और प्रभविष्णुता का संचार करते हैं और काव्य-संरचना ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ के सुसंगत संयोग पर निर्भर है (शब्दार्थों सहितौ काव्यम्) अतः अलंकार के दो प्रमुख भेद तो स्पष्ट ही हैं-

  • शब्दालंकार,
  • अर्थालंकार।

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काव्यगत सौंदर्य अथवा चमत्कार का आधार जहाँ केवल शब्द हो वहाँ ‘शब्दालंकार’ होगा और जहाँ काव्यगत सौन्दर्य अथवा चमत्कार अर्थकेंद्रित होगा, वहाँ ‘अर्थालंकार’ माना जाएगा। कई आचार्य एक ही कथन में ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ दोनों का संयुक्त चमत्कार होने की स्थिति में अलंकारों का एक तीसरा भेद भी स्वीकार करते हैं जिसे ‘उभयालंकार’ की संज्ञा दी है। ‘उभय’ का अर्थ है दोनों-अर्थात् शब्द भी और अर्थ भी। इस भेद को ‘शब्दार्थालंकार’ भी कहा जाता है।

अलंकार के उपर्युक्त तीनों भेदों का स्पष्टीकरण नीचे दिए गए उदाहरणों से हो सकता है

शब्दालंकार
“तरिन-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।” यहाँ ‘त’ वर्ण की आवृत्ति के कारण चमत्कार उत्पन्न हुआ है। ‘तरनि’ की जगह ‘सूर्य’ ‘तनुजा’ की जगह ‘पुत्री’ अथवा ‘तरुवर’ की जगह ‘वृक्ष’ शब्द प्रयुक्त होने पर यह चमत्कार नहीं रहता। स्पष्ट है कि यह चमत्कार ‘शब्द’ पर आधारित है, अतः यहाँ शब्दालंकार’ है। इसका नाम ‘अनुप्रास’ है।’

अर्थालंकार
“महँगाई बढ़ रही निरंतर, द्रपुद-सुता के चीर सी,
बेकारी बढ़ रही चीरती, अंतर्मन को तीर-सी।”

यहाँ ‘महँगाई’ (उपमेय, प्रस्तुत) की समता ‘द्रोपदी के चीर’ (उपमान, अप्रस्तुत) से की गई है। ‘बेकारी’ की समता ‘तीर’ से की गई है। दोनों में ‘चीरना’ लक्षण एक-सा है। शब्द बदल देने पर भी चमत्कार कम नहीं होगा, क्योंकि उसका आधार ‘अर्थ’ है। अत: यह ‘अर्थालंकार’ है। इसे “उपमा’ कहते हैं।

शब्दार्थालंकार
“अंतद्वीप समुज्जवल रहता सदा स्नेह स्निग्ध होकर।”

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यहाँ ‘स’ वर्ण की आवृत्ति से ‘अनप्रास’ (शब्दालंकार) है। ‘सदा’ की जगह ‘हमेशा’ या स्नेह की जगह ‘प्रेम’ कर देने से चमत्कार नहीं रहेगा। साथ ही यहाँ ‘स्नेह’ के दो अर्थ हैं-‘प्रेम’ और ‘दीप’। ‘अंतर’ (मन) प्रेम से उज्जवल रहता है, ‘दीप’ तेल से। यह भी शब्दालंकार (श्लेष) है। इसके अतिरिक्त ‘अंत:करण’ (उपमेय) को ‘दीप’ उपमान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शब्द बदलकर ‘हृदय’ रूपी ‘दीपक’ भी कह सकते हैं। अर्थ-चमत्कार बना रहेगा। इस प्रकार इस उदाहरण में शब्द के अर्थ-दोनों का चमत्कार होने के कारण ‘शब्दार्थालंकार’ या ‘उभयालंकार’ है।

प्रश्न 3.
प्रमुख शब्दालंकार कौन-से हैं? लक्षण उदाहरण सहित उसका विवेचन कीजिए।
उत्तर-
प्रमुख शब्दालंकार चार हैं-अनुप्रास, यमक, श्लेष, पुनरुक्ततदाभास। इन चारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन आगे किया जा रहा है :
(i) अनुप्रास- अनुप्रास’ शब्द का अर्थ है-साथ-साथ रखना (अनु+प्र+आस, क्रमबद्ध रूप से सँजाना)। जब वर्गों को एक विशेष क्रम से इस प्रकार साथ-साथ रखा जाता है (उनकी आवृत्ति की जाती है), तब संरचना में एक लयात्मक नाद के सौंदर्य का समावेश होता है। इस दृष्टि से ‘अनुप्रास’ का यह लक्षण ध्यान देने योग्य है

“जहाँ स्वरों की भिन्नता होने पर भी व्यंजनों से रस के अनुकूल समानता (व्यंजन वर्णों की आवृत्ति) हो वहाँ ‘अनुप्रास’ अलंकार माना जाता है।” जैसे-

मानते मनुष्य यदि अपने को आप हैं,
तो क्षमा कर वैरियों को वीरता दिखाइए।

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यहाँ पहले ‘म’ वर्ण की आवृत्ति एक विशेष क्रम से है। फिर ‘व’ वर्ण की समानता द्वारा भी सौंदर्य की सृष्टि हुई है। अतः ‘अनुप्रास’ अलंकार है।
(ii) यमक-‘यमक’ का अभिप्राय है-‘युग्म’ अर्थात् जोड़ा। काव्य में शब्द-युग्म (एक ही शब्द के दो या अधिक बार) के प्रयोग से तब विशेष चमत्कार आ जाता है जब उनके अर्थ अलग-अलग हों। इस आधार पर हम कह सकते हैं

“जहाँ एक शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग हो परंतु हर बार उसका अर्थ भिन्न हो वही ‘यमक’ अलंकार होता है। जैसे-

माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर।
कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर। (कबीर)

यहाँ ‘मनका’ शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग हुआ है, किन्तु अर्थ अलग-अलग है। पहली पंक्ति में ‘मनका’ का अभिप्राय है-मन का, अर्थात् हृदय का। दूसरी पंक्ति में ‘मनका’ का . अभिप्राय है-माला का दाना। इसी पंक्ति के अंत में पुन:-‘मन का मनका’ फेर अर्थात् हृदय को बदलने (माया से हटकर सत्यकर्मों में लगाने) को कहा गया है। इस प्रकार यहाँ एक ही शब्द ‘मनका’ का अनेक बार प्रयोग होने पर भी, अर्थ भिन्न-भिन्न है, अत: यमक अलंकार है।।

(iii) श्लेष-‘श्लेष’ शब्द का अर्थ है-संयोग। कई शब्द में एक साथ कई अर्थों का संयोग होता है जिनके कारण कथन में विशेष चमत्कार आ जाता है। ‘श्लेष’ शब्द की रचना ‘श्लिष’ धातु से हुई है जिसका अभिप्राय है-‘चिपकना’। जैसे चपड़ा लाख की लकड़ी से ऐसी चिपकी रहती है कि अलग नहीं होती। एक ओर वह लाख प्रतीत होती है, दूसरी ओर से लकड़ी। इसी प्रकार किसी एक शब्द में एक से अधिक अर्थ चिपके होने पर भी कभी एक अर्थ प्रभावित करता है, कभी दूसरा।

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‘श्लेष’ का लक्षण इस प्रकार है-
‘जहाँ एक शब्द से अनेक अर्थों का बोध अभिधा द्वारा हो वहाँ ‘श्लेष’ अलंकार होता है। जैसे-

मेरो भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा तन की झाई परै, स्याम हरित दुति होई॥ (बिहार)

यहाँ ‘स्याम’ और ‘हरित’ शब्द में श्लेष है। ‘स्याम’ का अर्थ ‘कृष्ण’ भी है और ‘साँवला’ अर्थात् ‘नील’ भी; हरित का अर्थ ‘मंद’ (हर ली गई) भी है तथा ‘हरि’ भी। राधा के तन की झलक पड़ते ही कृष्ण की दीप्ति भी मंद पड़ जाती है अथवा ‘कृष्ण का साँवला रंग’ (राधा के गोरे रंग की झलक से) हरा प्रतीत होने लगता है। ये दोनों अर्थ संभव हैं जो चमत्कार के आधार हैं। अतः यहाँ ‘श्लेष’ अलंकार है।

(iv) पुनरुक्ततदाभास-‘पुनरुक्ततदाभास’ में चार शब्दों का मेल है-पुनः + उक्त + वत् + आभास। इस आधार पर अर्थ हुआ-पुनः (दोबार) उक्त (कहा गया) वत् (वेसा) आभास (प्रतीत होना)।

जब ऐसा लगे कि एक ही पंक्ति में कोई बात (अनावश्यक रूप से) दोहरा दी गई है, पर वास्तव में ऐसा है कि नहीं-यही चमत्कार का आधार होता है।

“जहाँ अलग-अलग शब्द का जैसा अर्थ देते प्रतीत हो वहाँ ‘पुनरुक्तारापास’ अलंकार होता है।” जैसे-

समय जा रहा और काल है आ रहा।
सचमुच उलटा भाव भुवन में छा रहा। (मैथिलीशरण गुप्त)

यहाँ ‘समय’ और ‘काल’ दोनों का अर्थ ‘वक्त’ (टाइम) प्रतीत होता है। ‘समय’ का अर्थ ‘वक्त’ तो ठीक है परंतु ‘काल’ का अर्थ यहाँ ‘मृत्यु’ है। प्रथम बार समान अर्थ प्रतीत कराने वाले शब्दों के कारण यहाँ चमत्कार है। अतः यहाँ ‘पुनरुक्ततदाभास’ अलंकार है।

प्रश्न 4.
प्रमुख अर्थालंकार कौन-कौन हैं? उन्हें कितना वर्गों में बाँटा जा सकता है? उनका लक्षण उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।
उत्तर-
प्रमुख अर्थालंकारों के नाम इस प्रकार हैं-उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रांतिमान, अन्योक्ति, विरोधाभास, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय।

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अर्थालंकारों के प्रमुख वर्ग
साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों में ‘अर्थालंकारों के वर्ग को ही अधिक महत्व दिया गया है। इनके अंतर्गत कवि-गण अनेक प्रकार से काव्य-सौंदर्य की सृष्टि करते हैं, अतः अर्थालंकारों के अपने उपवर्ग भी संभावित हैं। इनमें से प्रमुख ये हैं-

  1. सादृश्यमूलक अलंकार-जिन अलंकारों में उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) के साम्य (सादृश्य) द्वारा चमत्कार अथवा सौंदर्य की सृष्टि होती है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृश्यमूलक अलंकार हैं।
  2. विरोधमूलक अलंकार-जिन अर्थालंकारों का सौंदर्य या चमत्कार विरोध की स्थिति पर निर्भर करता है वे “विरोधमूलक’ अलंकार कहलाते हैं। जैसे-विरोध (विरोधाभास), विभावना, विशेषोक्ति आदि।
  3. श्रृंखलामूलक अलंकार-यहाँ चमत्कार उत्पन्न करने वाले कथन एवं श्रृंखला (कड़ी) के रूप में (विशेष क्रम से) परस्पर गूंथे हों, वहाँ ‘शृंखलामूलक’ अलंकार की स्थिति मानी जाती है। कारणमाला, सार, एकावली आदि ऐसे ही अलंकार हैं।
  4. न्यायमूलक अलंकार-जिन अर्थालंकारों के अंतर्गत लोकन्याय अथवा तर्क के आधार पर काव्य-सौंदर्य या चमत्कार की सृष्टि की जाती है वे ‘न्यायमूलक’ अलंकार कहलाते हैं।

उपर्युक्त वर्गों में से दो वर्ग विशेष रूप से चर्चित और प्रचलित हैं-

  • सादृश्यमूलक अलंकार
  • विरोधमूलक अलंकार।।

सादृश्यमूलक अलंकारों के चार घटक या अवयव प्रमुख होते हैं

  • उपमेय-जिस व्यक्ति, वस्तु या भाव की किसी अन्य से समानता की जाती है। इसे ‘प्रस्तुत’ भी कहते हैं।
  • उपमान-जिस व्यक्ति, वस्तु या भाव के साथ ‘उपमेय’ या ‘प्रस्तुत’ की समानता बतलाई . जाती है।
  • साधारण धर्म-‘उपमेय’ और ‘उपमान’ में जिस गुण, लक्षण या विशेषता आदि के कारण समानता होती है।
  • वाचक शब्द-जिस शब्द (सा, जैसा, सम, समान, सदृश आदि) के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है। एक उदाहरण से उपर्युक्त चारों अवयव स्पष्ट हो जाएंगे।

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“लघु तरिण हंसिनी सी सुंदर” (नौका बिहार, पंत)

यहाँ ‘रिण’ (नौका) उपमेय है। ‘हसिनी’ उपमान है। ‘सौंदर्य साधारण धर्म हैं ‘सी’ दायक शब्द है। (यहाँ उपमा सादृश्यमूलक अलंकार) के चारों अंग विद्यमान हैं।)

प्रमुख अर्थालंकारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन आगे किया जा रहा है।।

उपमा-अर्थालंकारों में ‘उपमा’ सर्वप्रमुख है। आचार्य दंडी ने सभी अलंकारों को-‘उपमा’ का मुही प्रपंच (विस्तार) बताया है। आचार्य वामन उपमा को सभी अलंकारों का ‘मूल’ मानते हैं। राजशेखर ने उपमा को सर्वशिरोमणि तथा कवियों की माता कहा है, (अलंकार शेखर) तथा अप्पय दीक्षित का कथन है कि उपमा वह नटी है जो रूप बदल-बदल कर काव्य-रूपी रंगमंच पर कौतुक दिखाकर सब काव्यप्रेमियों के चित्त को मुग्ध करती रहती है।” (चित्रमीमांसा) संस्कृत के अमर कवि कालिदास के विश्व विख्यात होने का आधार यही ‘उपमा’ है-

‘उपमा कालिदासस्य’-‘उपमा’ शब्द का अभिप्राय है-निकट रखकर परखना-मापना अर्थात् दो वस्तुओं को निकट रखकर, उनकी समानता (साम्य, सादृश्य) के आधार पर उनकी विशेषता को परखना ‘उपमा’ की प्रमुख पहचान है। निकट ‘समीप’ रखी जाने वाली दोनों वस्तुओं (पदार्थों, व्यक्तियों, विषयों, भावों आदि) में एक ‘प्रस्तुत’ होती है जिसे ‘उपमेय’ कहते हैं-जिसकी (किसी अन्य वस्तु से) समता की जाती है।

(उपमा दी जाती है।) दूसरी वस्तु ‘अप्रस्तुत’ होती है जिसे ‘उपमान’ कहते हैं-जिससे किसी की समता की जाती है। इन दोनों (प्रस्तुत-अप्रस्तुत या उपमेय-उपमान) में जिस गुण, लक्षण, स्वभाव या विशेषता के आधार पर समानता बतलाई जाती है उसे समान धर्म’ कहा जाता है तथा दो भिन्न वस्तुओं (उपमेय-उपमान) में समानता का बोध कराने वाला (सूचक) शब्द (सा, सम, ‘तुल्य’ समान आदि) वाचक शब्द कहलाता है।

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इस प्रकार ‘उपमा’ अलंकार के चार ‘अंग’ हैं-

  • उपमेय,
  • उपमान,
  • समान धर्म,
  • वाचक शब्द।

‘उपमा’ के लक्षण और उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी।

लक्षण-‘जहाँ एक ही वाक्य में, दो भिनन वस्तुओं की गुण-स्वभाव, रूप-रंग या किसी अन्य विशेषता संबंधी समानता उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) के रूप में बताई गई हो वहाँ ‘उपमा’ अलंकार होता है।”

उदाहरण-
महँगाई बढ़ रही निरंतर द्रुपद-सुता के चीर-सी।
बेकारी बढ़ रही चीरती अंतर्मन को तीर-सी।  – (सोहनलाल द्विवेदी, मुक्तिगंधा)

यहाँ ‘महँगाई’ (उपमेय या प्रस्तुत) की समता द्रुपदसुता के चीर (उपमान या अप्रस्तुत) और बेकारी (उपमेय) की समानता तीर (उपमान) से की गई है, अतः ‘उपमा’ अलंकार है।

इस उदाहरण में ‘उपमा’ के चारों अंग हैं-

उपमेय-महँगाई, बेकारी
उपमान-चीर, तीर समान
धर्म-निरंतर बढ़ना,
चीरना वाचक शब्द-सी

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रूपक-‘रूपक’ शब्द का अभिप्राय है-‘रूप धारण करने वाला’। उपमेय की महिला बताने के कई ढंग हैं जिनमें से एक यह भी है कि उसे उपमान का रूप दे दिया जाए अर्थात् उपमेय और उपमान एक साथ हो जाएँ। ‘उपमेय’ में ‘उपमान’ का इस प्रकार, ‘आरोप’ के कारण ही इस अलंकार का नाम ‘रूपक’ अलंकार है।

लक्षण-“जहाँ उपमेय में उपमान का अभेद आरोप किया गया हो अर्थात् उपमेय-उपमान एक रूप बताए जाएं वहाँ ‘रूपक’ अलंकार होता है।” जैसे-

स्नेह का सागर जहाँ लहरा रहा गंभीर।।
घृणा का पर्वत वहीं पर खड़ा लिए शरीर॥  – (सोहनलाल द्विवेदी, कुणाल)

यहाँ स्नेह (उपमेय) में सागर (उपमान) और घृणा (उपमेय) में पर्वत (उपमान) का आरोप हुआ है, अत: रूपक अलंकार है।

‘रूपक’ का एक प्रसिद्ध उदाहरण है-चरण कमल बंद हरिराई।

अर्थात्-मैं हरि के चरण कमलों (चरण रूपी कमलों) की वंदना करता हूँ।

यहाँ चरण (उपमेय) और कमल (उपमान) अभिन्न (एक रूप) बताए गए हैं। चरण में कमल का आरोप है, अर्थात् चरणों में कमलों का रूप दिया गया है, अत: ‘रूपक’ अलंकार है-

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उत्प्रेक्षा-‘उत्प्रेक्षा’ शब्द का अभिप्राय है-‘संभावना’ या ‘कल्पना’। जिस वस्तु (पदार्थ, व्यक्ति, विषय, स्थिति, भाव, आदि) का वर्णन किया जाता है, वह होती तो वही (प्रस्तुत या उपमेय) है, पर उसमें किसी अन्य (श्रेष्ठ) (उपमान) की कल्पना या संभावना करके उसक विशेषता को उजागर करने की एक प्रभावशाली विधि ‘उत्प्रेक्षा’ मानी जाती है। जैसे, किसी बुद्धि वाले विद्यार्थी की स्मरण-शक्ति की गणना-कौशल देखकर हम कहते हैं-“इसका। मानों कम्प्यूटर है। ‘इस प्रकार, हम दिमाग (उपमेय) में, ‘कम्प्यूटर’ (उपमान) की संभावना का लेते हैं। ‘मानो’ शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि ‘हम मानते (संभावना) करते हैं।’

लक्षण-“जहाँ प्रस्तुत (उपमेय) में अप्रस्तुत (उपमान) की संभावना ‘मानो’, ‘जानो’, ‘मनु’, “जनु’, आदि शब्दों द्वारा की गई हो वहाँ ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार होता है।” जैसे-

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥  – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

यहाँ कांपते तन (उपमेय) में लहराते सागर (उपमान) की संभावना ‘मानो’ शब्द के माध्यम से की गई है। अत: ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार है।

संदेह-जब कोई दूर से किसी ऐसे पदार्थ को देख ले जो कभी तो उसे डरावना जंतु-सा लगे; कभी ढूँठ पेड़ के तने-सा, तो उसके मन में दुविधा होना स्वाभाविक है। यह दुविधा दोनों . संभावित वस्तुओं (उपमेय और उपमान) के सादृश्य के कारण हो सकती हैं। ऐसी मन:स्थिति. का वर्णन काव्य में अनायास चमत्कार ले आता है।

लक्षण-“जहाँ सादृश्य के कारण उममेय और उपमान निश्चित न हो सके कि यह है या वह है-वहाँ ‘संदेह’ अलंकार होता है।”

नयन है या बिजलियाँ ये,
केश है या काले. नाग!

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यहाँ चमकते आँखों (उपमेय) और बिजलियाँ (उपमान) तथा केश (उपमेय) और काले नाम (उपमान) में अनिश्चय की स्थिति बतलाई गई है, अत: ‘संदेह’ अलंकार है।

भांतिमान-रस्सी को साँप समझकर, डर से चीखना कितना विचित्र होगा। यही स्थिति ‘प्रातिमान’ अलंकार में होती है। सादृश्य के कारण उपमेय को उपमान समझ लेना चमत्कार की सृष्टि करता है-उपमेय में उपमान का भ्रम हो जाता है, प्रांति हो जाती है इसलिए इसे भ्रम’ अलंकार या प्रतिमान अलंकार कहा गया है। जैसे-

दुग्ध समझकर रजत-पात्र को लगे चटने तभी बिडोल।

यहाँ बिडाल (विलाव) द्वारा चाँदी) (रजत) के पात्र (बरतन) को दूध समझकर चाटने का चमत्कारपूर्ण वर्णन है, अतः ‘भ्रांतिमान’ अलंकार है।।

अन्योक्ति (अप्रस्तुत प्रशंसा)-‘अन्योक्ति’ (अन्य का कथन) शब्द का अभिप्राय है किसी ‘अन्य’ के माध्यम से अभीष्ट (प्रस्तुत) बात कहना। यहाँ ‘अन्य’ का तात्पर्य ‘अप्रस्तुत’ अर्थात् ‘उपमान’ है। कई बार हमारा कोई प्रियजन जब बहुत दिनों बाद आता है तो हम कहते हैं-‘आज यह सूरज कहाँ से निकला !’ या ‘यह ईद का चाँद कहाँ से आ गया!’ हमारा अभीष्ट वस्तु ‘सूरज’ या ‘चाँद’ नहीं होता ! सूर्य या चाँद तो अप्रस्तुत (उपमान) है।

उनके माध्यम से हम ‘प्रस्तुत’ ‘उपमेय (मित्र) की बातें करते हैं। इस प्रकार के चमत्कार कर सौंदर्य को काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में अप्रस्तुत प्रशंसा’ अलंकार भी कहा गया है, क्योंकि इसमें ‘अप्रस्तुत’ के माध्यम से प्रस्तुत की प्रशंसा, अर्थात् ‘उपमान’ के कथन द्वारा वास्तव में ‘उपमेय’ का वर्णन होता है। आजकल यह अलंकार ‘अन्योक्ति’ के नाम से ही प्रचलित है। जिसका लक्षण इस प्रकार है-

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लक्षण-“जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) के वर्णन से प्रस्तुत (उपमेय) का बोध हो वहाँ। ” “प्रस्तुत प्रशंसा’ या ‘अन्योक्ति अलंकार होता है।”

जैसे-
फूल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।  – (रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’)

यहाँ फूल, काँटे, सेज आदि ‘अप्रस्तुत (उपमान) हैं। इनके माध्यम से कवि ने जीवन (प्रस्तुत या टपमेय) का वर्णन किया है जो संघर्ष (काँटों) में विकास पाता है पर ऐश-आराम, आलस्य-मस्ती (सेज) में क्षीण हो जाता है।

इर प्रकार बिहारी के अनेक दोहे, ‘अनयोक्ति’ के उत्तम उदाहरण हैं। जैसे-

मरत पयास पिंजरा परयो, सुवा समै के फेर।
आद दै दै बोलियत, बायस बलि का बेर॥ (बिहार)

(श्राद्ध के दिनों में, समय के फेर से, तोते जैसा सुंदर, समझदार और मधुरभाषी पक्षी तो पिंजरे में पड़ा प्यासा तड़पता रहता है और हलवा-पूरी का भोजन करने के लिए कौओं को आदर-सहित बुलाया जाता है।)

यहाँ ‘तोता’ और ‘कौआ’ अप्रस्तुत है जिनके माध्यम से इस प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति कराई गई है-‘कैसा जमाना (बुरा समय) आ गया है ! सज्जन, विद्वान और सच्चे कलाकार तो भूखे मर रहे हैं और गला फाड़-फाड़ कर खुशामद करने वाले धूर्त राजकीय पद, सम्मान और पुरस्कार प्राप्त रहे हैं।

मानवीकरण-‘मानवीकरण’ का अर्थ है-प्रकृति, जड़ या अमूर्त भाव (जो मानव नहीं है) में मानवीय भावनाओं, चेष्टाओं, गुणों आदि की स्थिति बताना। .. “जहाँ प्रकृति आदि या जड़ पदार्थों का मनुष्य के गुण, कार्य, भाव, विचार आदि से युक्त वर्णन किया जाए वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।” जैसे-

“निशा को धो देता राकेश,
चांदनी में जब अलके खोल।”

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यहाँ निशा (रात) और राकेश (चंद्रमा) का मनुष्य की भांति (बाल खोकर धोना आदि) वर्णन है। अतः ‘मानवीकरण’ अलंकार है।

विरोधाभास-‘विरोधाभास’ के शब्द का अभिप्राय है-‘विरोध का आभास अर्थात् प्रतीति (वास्तविकता नहीं)।’ कोई बात इस प्रकार कहना कि जिसमें विरोध प्रतीत हो, पर वास्तव में हो नहीं, चमत्कारपूर्ण होता ही है। यद्यपि ऐसे चमत्कारपूर्ण कथन का सूक्ष्म विवेचन करने से विरोध नहीं रहता, तथापि उससे उत्पन्न चमत्कार का प्रभाव बना ही रहता है।

लक्षण-“जहाँ दो वस्तुओं (कथनों, भावों, आदि) में वास्तविक विरोध न होने पर भी विरोध की प्रतीति कराई जाए वहाँ ‘विरोधाभास’ अलंकार होता है।” जैसे-

या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहिं कोय।
ज्यों-ज्यों बड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जल होय॥ (बिहारी सतसई)

यहाँ ‘स्याम (काले-नीले) रंग में डूबकर भी ‘उजला होना’ परस्पर विरोधी बातें प्रतीत होती हैं, किन्तु वास्तव में विरोध नहीं है क्योंकि स्याम का अर्थ ‘श्रीकृष्ण’ है-‘यह प्रेम-ठगा हृदय श्रीकृष्ण में जितना अधिक लीन रहता है उतना ही उजला (आनंदित) होता है। इस प्रकार यहाँ ‘विरोधाभास’ अलंकार है।

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Bihar Board Class 11th Hindi साहित्य का इतिहास

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Bihar Board Class 11th Hindi हिन्दी साहित्य का इतिहास

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प्रश्न 1.
‘साहित्यिक का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, साहित्य-रचना के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
‘साहित्य’ की परिभाषा प्रस्तुत करके उसकी उपादेयता पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
साहित्य के प्रयोजन का विशद विवेचन कीजिए।
उत्तर-
साहित्य की परिभाषा एवं उसका स्वरूप-‘साहित्य’ शब्द मूलतः ‘सहित’ शब्द से रचित है। संस्कृत में कहा गया है-‘सहितस्य भावः साहित्यम्’-अर्थात् जिस रचना के साथ (रहने या होने) का भाव विद्यमान हो वह साहित्य है। साथ किसका? या किसके सहित ? इस प्रश्न का उत्तर कई तरह से दिया जा सकता है-
(क) शब्द और अर्थ का साथ होना। अर्थात् ‘सार्थक शब्दों के रचना-कौशल’ को साहित्य कहते हैं।
(ख) सहित, अर्थात् मानव जीवन के हित’ (मंगल, कल्याण, उद्धार, विकास) में सहायक होने वाली शब्दार्थमयी रचना को साहित्य कहा जा सकता है।

संक्षेप में साहित्य की परिभाषा है-“शब्द और अर्थ के ऐसे उचित संयोग को साहित्य कहते हैं जो मानव-जीवन के लिए हितकारी हो।”

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इसी आधार पर, साहित्य के स्वरूप की विशद व्याख्या की जा सकती है। वही रचना साहित्य कहलाने की अधिकारिणी हो सकती है जिसमें प्रयुक्त शब्दावली, अभीष्ट अभिप्राय, मंतव्य या तात्पर्य को अभिव्यजित करने में पूर्णत: सक्षम हो। उन शब्दों में सहज-सुबोधता, अर्थ की रमणीयता और हृदयस्पर्शी रोचकता आदि तत्वों का समाहार होना आवश्यक है।

सहज-सुबोधता का अभिप्राय यह नहीं है कि आम घरेलू या बाजारू व्यवहार में प्रयुक्त सभी प्रकार की शब्दावली ‘साहित्य’ होगी। उस शब्दावली में माव-मन और जीवन को प्रभावित करने वाली ऐसी बातें हों जो शिष्टशालीन स्तर का निर्वाह हुए पढ़ने और सुनने वालों की अभिरूचि के भी अनुकूल हों।

‘सहित’ अर्थात् ‘साहचर्य’ की भावना का अभिप्राय व्यक्ति और समाज, अतीत, वर्तमान और भविष्य सुख और दुःख आदि की समन्वित भी है। साहित्य में यथार्थ के साथ आदर्श का समन्वय होने के साथ सत्य, शिव और सुंदर तत्त्वों का भी समुचित सामंजस्य होना चाहिए।

उदाहरण के लिए हम कबीर, तुलसी आदि कवियों की कविता, भारतेंदु, प्रसाद, आदि के नाटक, चन्द के उपन्यास या जैनेन्द्र और अज्ञेय की कहानियाँ, हजारीप्रसाद द्विवेदी या विद्यानिवास मिश्र के निबंध, राहुल के यात्रा-वृत्तांत अथवा महात्मा गाँधी या पं० नेहरू की आत्मकथा, महादेवी वर्मा के संस्मरण और रेखाचित्र-किसी भी रचना की लें-उनमें शब्द और अर्थ, व्यक्ति और समाज के यथार्थ और आदर्श, सत्य-शिव-सुंदर के साथ-साथ रोचकता और लोक-मंगल भावना का भी समुचित समावेश है। इसी कारण इस प्रकार की सभी रचनाएँ ‘साहित्य’ के अंतर्गत भानी जाती है।

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सहित्य का उद्देश्य अथवा प्रयोजन-सृष्टि की कोई भी वस्तु उद्देश्य रहित नहीं। फिर किसी कवि, कथाकार या निबंधकार की कोई भी रचना बिना किसी प्रयोजन के कैसे मानी जा सकती है साहित्य के स्वरूप के अंतर्गत ‘सहित’ (स + हित अर्थात् हित से युक्त, हितकारी, मंगलकारी) भाव का उल्लेख ही ‘साहित्य के उद्देश्य’ का भी स्पष्ट संकेत कर देता है। इसके अनुसार साहित्य का उद्देश्य है-मानव-मात्र का ही नहीं, प्राणी-मात्र का हित करना।

भारतीय साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों ने साहित्य (या काव्य) के उद्देश्य की चर्चा बड़े विस्तार से की है। इस संबंध में उन्होंने दो पहलुओं से विचार किया है-
(क) साहित्य के रचनाकार (कवि या लेखक) की दृष्टि से,
(ख) पाठक, श्रोता या (नाटक के) दर्शक की दृष्टि से।

प्रथम दृष्टि से साहित्य का उद्देश्य है-यश कीर्ति की प्राप्ति, धन-उपार्जन। आज कालिदास, कबीर, तुलसी, भारतेन्दु प्रसाद, प्रेमचंद आदि की जो ख्याति है उसका आधार उनका साहित्य ही है। मध्ययुग के केशव, बिहारी, देव आदि कवियों को उनकी रचनाओं के कारण पुरस्कार, सम्मान आदि के रूप में धन-प्राप्ति हुई। वर्तमान युग में भी लोकप्रिय साहित्यकारों को रचनाओं के माध्यम से ही उन्हें पर्याप्त आर्थिक आय होने के उदाहरण प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं।

परंतु रचयिता की दृष्टि से साहित्य का यह उद्देश्य पाठक-वर्ग अर्थात् साहित्य के अध्येता की दृष्टि से विचारणीय है। पाठक या श्रोता (समाज) की दृष्टि से साहित्य का उद्देश्य बहुआयामी (अनेक प्रकार) का है। जैसे-ज्ञान प्राप्ति, जानकारी वृद्धि, अमंगलकारी (हानिकारक) प्रवृत्तियों से मुक्ति, अलौकिक आनंद की प्राप्ति तथा मनोरंजन के साथ-साथ हितकारी उपदेशों का संचार आदि।

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संस्कृत के प्राचीन आचार्य भरत ने कहा है कि “साहित्य का उद्देश्य मनुष्य को दु:ख, श्रम .. और शोक से मुक्ति दिलाना है।”

भारतीय परंपराओं में जीवन के चार उद्देश्य माने गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। आचार्य भामह साहित्य के माध्यम से इन्हीं चार उद्देश्यों की सिद्धी मानते हैं। इसके साथ उन्होंने कीर्ति और आनंद की प्राप्ति को भी साहित्य का उद्देश्य प्रयोजन बताया है। आचार्य दंडी का कथन है कि साहित्य ज्ञान और यश प्रदान करता है।”

गोस्वामी तुलसीदास ने अत्यंत संक्षेप में साहित्य (किसी रचना के रूप में प्रस्तुत वाणी) का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है-

करीति भनिति भूमि धलि सोई।
सुरसरि सम सब कह हित होई॥

(अर्थात्-वही कीर्ति, वाणी (साहित्य रचना) और धन-वैभव श्रेष्ठ है जो गंगा के समान (बिना किसी भेदभाव के) सबका एक-सा हित करे।

स्पष्ट है कि साहित्य का मुख्य प्रयोजन या उद्देश्य है-‘सभी का एक-समान हित करना।’ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें तनिक उपदेश का भी धर्म होना चाहिए।

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संक्षेप में “अलौकिक आनंद तथा लोकमंगल ही साहित्य का चरम उद्देश्य है।”

प्रश्न 2.
साहित्य के इतिहास के काल-विभाजन और नामकरण के विभिन्न आधारों का उल्लेख कीजिए और बताइए कि उनमें सबसे अच्छा कौन है ?
उत्तर-
साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण कृति, कर्ता, पद्धति और विषय की प्रधानता के आधार पर किया जाता है। साहित्य इतिहास को प्रायः लोग प्रमुख तीन भागों-आदि (प्राचीन), मध्य और आधुनिक-में बाँटकर उसका नामकरण कर देते हैं, जैसे-आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।

यह भी सच है कि कभी-कभी साहित्य में अनेक धाराएँ और प्रवृत्तियाँ एक साथ समान वेग से उदित और विकसित होती दिखाई पड़ती हैं। ऐसी स्थिति में साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन साहित्यिक विधाओं के आधार पर कर दिया जाता है। इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल ने किसी कालखंडविशेष में एक ही ढंग की रचनाओं की प्रचुरता अथवा रचनाविशेष की आपेक्षिक प्रसिद्धि को अपने काल-विभाजन का आधार बनाया है।

उनका कहना है कि किसी कालविशेष में किसी रचनाविशेष की प्रसिद्धि से भी उस काल की लोकप्रवृत्ति झंकृत होती है। संक्षेप में, साहित्यिक इतिहास ग्रंथों के काल-विभाजन और नामकरण के लिए प्रायः निम्नलिखित आधार अपनाए जाते हैं-

 Bihar Board Class 11th Hindi हिन्दी साहित्य का इतिहास

  • मानव-मनोविज्ञान के द्वारा सामान्यतः स्वीकृत ऐतिहासिक कालक्रम, जैसे-आदिकाल, पूर्व-मध्यकाल, उत्तर-मध्यकाल और आधुनिक काल।
  • शासन और शासनकाल, जैसे-एलिजाबेथ-युग, विक्टोरिया-युग।
  • लोकनायक, जैसे-गाँधी-युग।।
  • प्रसिद्ध साहित्यकार, जैसे-भारतेन्दु-युग, द्विवेदी-युग।
  • महत्त्वपूर्ण घटना, जैसे-पुनर्जागरण-काल, स्वातंत्र्योत्तर-काल।
  • भावगत अथवा शिल्पगत प्रवृत्तियों की प्रधानता, जैसे-भक्तिकाल, श्रृंगारकाल, रीतिकाल, छायावाद काल (युग)।

आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि जनता की चित्तवृत्तियों के साथ साहित्य परंपरा का सामंजस्य दिखाना ही साहित्येतिहास और उसके लेखक का काम है। इसलिए, किसी कालखंड में जनता की प्रधान चित्तवृत्ति को ही वे काल-विभाजन और उसके नामकरण का सर्वोत्तम आधार मानते हैं। जहाँ कहीं कोई ऐसी प्रधान चित्तवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती वहाँ वे अन्य साधनों का भी उपयोग करते हैं।

हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण शुक्लजी के अतिरिक्त गारसा-द-तासी से हजारी प्रसाद द्विवेदी तक विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूपों में किया है। किन्तु, अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण निम्नलिखित रूप में किया है-

 Bihar Board Class 11th Hindi हिन्दी साहित्य का इतिहास

(क) आदिकाल अथवा वीरगाथाकाल (1050-1375 ई०)
(ख) पूर्व-मध्यकाल अथवा भक्तिकाल (1375-1700 ई०)
(ग) उत्तर-मध्यकाल अथवा रीतिकाल (1700-1900 ई०)
(घ) आधुनिक काल (1900 ई० से अब तक)

अनेक दुर्बल बिन्दुओं के बावजूद आचार्य शुक्ल-कृत ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ का काल-विभाजन और नामकरण ही आज तक व्यावहारिक और सर्वमान्य बना हुआ है।

प्रश्न 3.
आदिकाल के नामकरण के औचित्य पर विचार कीजिए।
उत्तर-
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में हिन्दी साहित्य के। इतिहास का जो काल-विभाजन किया है वह इस प्रकार है-
आदिकाल (वीरगाथाकाल, संवत् 1050-1375)
पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल, संवत् 1375-1700)
उत्तर-मध्यकाल (रीतिकाल, संवत् 1700-1900)
आधुनिक काल (गद्यकाल, संवत् 1900-1984)

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इस काल-विभाजन में दोष होने पर भी व्यवहारिक सुविधा के लिए बहुसंख्यक लोग इसी काल-विभाजन को आधार मानते रहे हैं। जहाँ तक आदिकाल नाम का प्रश्न है उससे जनता की किसी चित्तवृत्तिविशेष का पता नहीं चलता जबकि आचार्य शुक्ल ने स्वयं लिखा है कि हिन्दी साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रुचि-विशेष का संचार और पोषण किधर से किस प्रकार हुआ।

आदिकाल का नामकरण करते समय भी आचार्य शुक्ल अपने इस सिद्धांत के प्रति जागरूक थे। आदिकाल के प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के संदर्भ में उन्होंने लिखा है-“आदिकाल की इस दीर्घपरंपरा के बीच प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर हो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है-धर्म, शृंगार, वीर सब प्रकार . की रचनाएँ दोहों में मिलती हैं।” इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के बाद वीर-गाथाओं का समय आता है।

फिर भी, आचार्य शुक्ल ने इस पूरी अवधि को आदिकाल (वीरगाथाकाल) कहा है। शुक्लोत्तर इतिहासकारों और आलोचकों में ऐसे बहुत हैं जो शुक्लजी के ‘आदिकाल’ नाम को अनुचित बताते हैं। उनका तर्क है कि ‘आदि’ से किसी विशेष चित्तवृत्ति का पता नहीं चलता ! शुक्लोत्तर इतिहासकारों में डॉ० रामकुमार वर्मा ने इस काल को चारणकाल कहा है। किन्तु, रचयिताओं की जाति के आधार पर नामकरण के सिद्धांत को बहुत अच्छा नहीं माना जा सकता। राहुल सांस्कृतत्यायन ने इस कात को सिद्धसामंतकाल कहा है।

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प्रश्न है कि अगर राहुलजी के इस नाम को स्वीकार कर लें तो आगे के कालों का नामकरण इस आधार पर कैसे होगा? वैसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को इस काल का नाम ‘अपभ्रंशकाल’ रखने में कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु तब आगे के कालों को सधुक्कड़ीकाल, ब्रजभाषा का काल, अवधीकाल, खड़ी बोली काल कहना होगा। इसी झमेले से बचने के लिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल को सर्वत्र आदिकाल ही कहा है।

यह नाम बाबू श्याम सुन्दर दास द्वारा भी प्रस्तावित है। यद्यपि इस नाम की सीमा से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी परिचित हैं-“वस्तुतः, हिन्दी का ‘आदिकाल’ शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारण की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य-रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है” तथापि वे आगे लिखते हैं कि “यह ठीक नहीं है।

यह काल बहुत अधिक परंपराप्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सजग-सचेत कवियों का काल है।” इस तरह, हम देखते हैं कि किसी प्रवृत्ति-विशेष का आधार न होते हुए भी इस काल को लोग ‘आदिकाल’ ही कहते आए हैं। प्रवृत्ति का आधार तो सर्वोत्तम है किन्तु किसी निर्दिष्ट चित्तवृत्ति या प्रवृत्ति के अभाव में परंपरा और लोक-स्वीकृति का भी ध्यान रखना चाहिए। इन बिन्दुओं के आलोक में हिन्दी साहित्य के इतिहास की इस अवधि (संवत् 1050-1375) के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उचित जान पड़ता है।

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प्रश्न 4.
सिद्ध और नाथ साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा,
सिद्ध और नाथ साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का परिचय दीजिए।
उत्तर-
सिद्ध-साहित्य की निम्नलिखित सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं
(क) वेदसम्मत ज्ञान की अवहेलना तथा काया-साधना का महत्त्व-प्रतिपादन-सिद्ध-साहित्य में वेदसम्मत ज्ञान को निष्फल बताया गया है और वैदिक पंडितों का उपहास किया गया है। सरहपाद ने लिखा है कि वैदिक पंडित संपूर्ण सत्य का व्याख्यान करते चलते हैं, किन्तु आवागमन की समस्या का आज तक वे समाधान नहीं कर पाए। तब भी, वे निर्लज्ज दावा करते हैं कि हम पंडित हैं। वे मूर्ख यह भी नहीं जानते कि काया के भीतर ही परमतत्त्व का निवास है-

पंडित सअल सत्त बक्खाण्ड, देहहि बुद्ध बसंत ण जाण्इ।
अवणागवण ण तेण बिखंडिट, तोवि णिलज्ज अँडउँ हउँ पंडिट॥

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(ख) पंचमकार की साधना-सिद्ध-साहित्य में सर्वत्र पंचमकार की साधना पर बल दिया गया है। किन्तु मद्य, मदिरा, मांस, मैथुन और मुद्रा की वहाँ रहस्यात्मक धारणा है। इन्हें लौकिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए।
(ग) शून्य-साधना-सिद्धों ने काया-साधना को तो महत्त्व दिया ही है, योग और नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित शून्य-साधना पर भी बल दिया है। शून्यता के साथ करुणा का योग उनका साध्य है।
(घ) सहज-साधना-सिद्धों ने सहज-समाधि पर भी बल दिया है। सहज-समाधि के अंतर्गत वे प्रज्ञा और उपाय के योग की साधना करते हैं।
(ङ) उलटी साधना-उलटी साधना या परावृत्ति पर भी उस साहित्य में बल दिया गया है।
(च) धार्मिक-सामाजिक बुराइयों पर प्रहार-साहित्य में सामाजिक कुरीतियों और बुराइयों, जाति-पाँति और पुस्तकीय ज्ञान पर सर्वत्र प्रहा, किया गया है।
(छ) रहस्यात्मक साधना-उसमें रहस्यात्मक साधना से सिद्धिप्राप्ति का उल्लेख तथा तंत्रों को चमत्कारिक शक्ति का प्रतिपादन है।
(ज) सामान्य शैली-सिद्ध-साहित्य में दोहा-चौपाई तथा कुछ अन्य छंदों को भी समान रूप से अपनाया गया है। उलटबाँसी उनकी सामान्य शैलीगत प्रवृत्ति है।

नाथ-साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-
(क) शून्य-साधना-सिद्धों की शून्य-साधना की परंपरा नाथों में भी चलती रही। सिद्धों की तरह नाथों ने भी सहज-समाधि अथवा शून्य-समाधि पर बल दिया है। अतः, शून्य-साधना या सहज-साधना नाथ-साहित्य की भी सामान्य प्रवृत्ति है।
(ख) उलटी साधना-सिद्धों की तरह नाथों ने भी उलटी साधना पर बल दिया है। वे भी पवन को उलटकर ब्रह्मरंध्र में समाविष्ट करने की बात बार-बार करते हैं।
(ग) शैली-नाथ-साहित्य की उपमा-पद्धति, छंद आदि सिद्धों के साहित्य की तरह हैं। भाषा की दृष्टि से उन्होंने संधाभाषा का प्रयोग किया है।

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प्रश्न 5.
वीरगाथाकाल (आदिकाल) की सामान्य प्रवृत्तियों (विश्ताओं) का उल्लेख कीजिए।
अथवा,
वीरगाथाकाल की सामान्य (प्रमुख) प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
उत्तर-
वीरगाथाकाल (1050-1375 ई०) लड़ाई-भिड़ाई का युग था। भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग से प्रायः निरंतर विदेशी आक्रमण होते रहते थे। इस युग में एक ओर सिद्ध, नाथ और जैन अपने आध्यात्मिक साहित्य का निर्माण कर रहे थे तो दूसरी ओर खंडराज्यों में बँटे उत्तरी भारत के राजाओं के दरबारी कवि अपने-अपने आश्रदाताओं की अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसापरक काव्य रचना करने में संलग्न थे।

इस काल के कवि केवल कविता ही नहीं लिखते थे, आवश्यकता पड़ने पर लड़ने के लिए भी निकल पड़ते थे। पृथ्वीराज के दरबारी कवि और पृथ्वीराजरासो के प्रणेता चंदबरदाई को भी ऐसा ही करना पड़ा था-“पुस्तक जल्हण हल्थ दै चलि गज्जन नृप काज”। संक्षेप में वीरगाथाकाल की निम्नलिखित सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं-

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(क) आश्रयदाता राजा की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा और एक समग्न राष्ट्रीय भावना का नितांत अभाव-उक्त काल में उत्तर भारत कई खंडराज्यों में बँट चुका था। राजाओं में ईर्ष्या-द्वेष व्याप्त था। वे बात-बात में परस्पर लड़ पड़ते थे। वे अहंकारी और विलासी थे। इसलिए अपने दरबारी अथवा आश्रित कवियों से वे अपनी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा सुनने के आदी। हो गए थे। उनके दरबारी कवि भी उनकी प्रशंसा में तिल का ताड़ और प्रतिपक्षियों के अवमूल्यन में ताड़ का तिल किया करते थे। एक समग्र राष्ट्रीय भावना का उस काल के साहित्य में नितांत अभाव मिलता है।

(ख) इतिहास के साथ तोड़-मरोड़-चूंकि उस काल के बहुसंख्यक कवि राजाश्रित थे। अतः, अपने आश्रयदाता राजाओं की इच्छा अथवा स्वेच्छा से भी वे सच्चाई के साथ खिलवाड़ किया करते थे। उनके द्वारा रचित काव्य-साहित्य में बहुत सी बातें कल्पित अथवा ऐतिहासिक सत्य के विरुद्ध हुई हैं।

(ग) युद्धों का सजीव वर्णन-उस काल के राजाश्रित कवि बहुत प्रतिभाशाली थे। उनमें सजीव और रंगारंग वर्णन करने की अप्रतिम क्षमता थी। इसलिए, उनके द्वारा वर्णित संग्रामों में सर्वत्र सजीवता दिखाई पड़ती है। उनके साहित्य का वीररसात्मक वर्णन विश्व-साहित्य की बहुमूल्य निधि है।

(घ) वीर और श्रृंगार रसों की प्रधानता-उक्त काल के काव्य-साहित्य में वीर और शृंगार रसों का प्राधान्य है। वीर और शृंगार परस्पर उपकार भी हैं। इसलिए, ऐसे काव्यों के किसी नायक के साथ उसकी नायिका को अनिवार्यतः रखा गया है।

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(ङ) वर्णन की प्रधानता एवं सच्चे भावोन्मेष का अभाव-उक्त काल के कवियों में वर्णन की अकल्पनीय शक्ति थी। इसलिए सच्चे भावोन्मेष के अभाव में भी केवल वर्णन-शक्ति के आधार पर काव्य-रचना अथक रूप में किए जाते थे।

(च) प्रकृति-चित्रण में प्रति रुझान-चूँकि उक्त काल के कवि श्रृंगाररसपूर्ण साहित्य का भी सृजन करते थे, इसलिए उनके काव्य में उद्दीपनात्मक और अलंकृत कोटियों के प्रकृति-चित्रणों की बहुलता है। प्रबंधात्मक अनिवार्यता के कारण वे प्रकृति का आलंबनात्मक वर्णन भी करने के लिए विवश थे।

(छ) रासो नामधारी ग्रंथों की रचना-उक्त काल की अन्य सामान्य प्रवृत्तियों में रासो नामधारी ग्रंथों का निर्माण और जनजीवन के यथार्थ वर्णन की उपेक्षा के भाव को रेखांकित किया जा सकता है।

शैली-सबने दोहा, सोरठा, तोमर, गाथा, गाहा, आर्या, पद्धरिया, सट्टक, रोला, उल्लाला, कुंडलिया-आदि छंदों का विपुलता के साथ प्रयोग किया है।।

प्रबंध के साथ-साथ मुक्तकों की भी रचना उस काल की सामान्य शिल्पगत प्रवृत्ति है।

उक्त काल के कवियों ने डिंगल और पिंगल दोनों भाषाओं का प्रयोग समान रूप से किया है। अतः, इस बात को हम उनकी सामान्य भाषागत प्रवृत्ति कह सकते हैं।

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प्रश्न 6.
भक्तिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
अथवा,
मध्यकालीन संतों के सामान्य विश्वासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
निर्गुण धारा के संत हों अथवा सगुण मत के-सबमें विश्वास की समानता पाई जाती है। उनके सामान्य विश्वास निम्नलिखित हैं
(क) भगवान के साथ भक्तों का व्यक्तिगत संबंध-मध्यकालीन भक्तों के उपास्य तत्त्वतः परम सत्ता होते हुए भी एक व्यक्ति की तरह वर्णित हैं, ऐसे व्यक्ति की तरह जो कृपा कर सकता है, प्रेम कर सकता है, उद्धार कर सकता है और अवतार भी ले सकता है। निर्गुण कवि-शिरोमणि कबीर कहते हैं-हरि मेरे पति हैं, और मैं उनकी बहुरिया। वे मेरी माँ हैं, और मैं उनका बालक।

(ख) प्रभु के प्रति प्रेम में विश्वास-प्रभु का स्वरूप प्रेममय है। प्रेम ही साधन और प्रेम ही साध्य है। इसीलिए, सर्ववांछारिहत होकर मध्यकालीन भक्त, केवल प्रभु के प्रेम की कामना करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रेम ही परम पुरुषार्थ है।

(ग) प्रभु की लीलाओं में सहभागिता की इच्छा-मध्यकालीन संत, चाहे सगुण हों अथवा निर्गुण, सभी, प्रभु की लीला में अपनी सहभागिता चाहते हैं। कबीरदास जैसे निर्गुणिया कहते हैं-

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वे दिन कब आवैगे माई।
जा कारन हम देह धरी है मिलिबौ अंगि लगाइ। हौं
जानें जो हिलिमिलि खेलूँ तनमन प्रान समाइ।
या कामना करो परिपूरन समरथ ही रामराइ।

इसलिए, भक्तिकालीन संतों की इस प्रवृत्ति को आचार्य द्विवेदी ने ‘तीसरी समानधर्मिता’ के रूप में रेखांकित किया है।
इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है-“कबीरदास, दादूदयाल आदि निर्गुण मतवादियों की नित्य लीला और सूरदास, नंददास आदि सगुण मतवादियों की नित्य लीला एक ही जाति की हैं।”

(घ) भक्त और भगवान में अभेद भावना-मध्यकालीन भक्ति साहित्य के अवलोकन से पता चलता है कि सभी प्रकार के भक्त भावना के साथ अपने अभेद में विश्वास करते हैं। प्रेम-दर्शन ही उनके इस विश्वास का आधार है। ‘राम से अधिक रामका दासा’ के पीछे भक्त और भगवान के बीच यही अभेद भाव है।

(ङ) गुरु का महत्व-क्या सगुण और क्या निर्गुण-संपूर्ण भक्ति साहित्य में गुरु की महिमा का निरंतर गाना किया गया है। उन्हें भगवान का रूप कहा गया है। भक्तमाल में लिखा है-

भगति भगत भगवंत गुरु, नामरूप बपु एक।
इनके पद बंदन किए, नासैं बिधन अनेक।।

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(च) नाम-महिमा में विश्वास-सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के भक्तों में नाम की महिमा का भरपूर गान किया है। सगुणवादी कवि-शिरोमणि तुलसीदास जिस तरह कहते हैं

“ब्रह्म राम में नाम बड़े वरदायक वरदानि”

उसी तरह निर्गुण धारा के भक्त-शिरोमणि कबीरदास भी कहते हैं-

कबीर कहै मैं कथि गया ब्रह्म महेस।
राम नाम ततसार है सब काहू उपदेस।।

(छ) प्रेमोदय के एक जैसे क्रम में विश्वास-भगवान के प्रति भक्तों में सहसा प्रेम नहीं उमड़ता। उसका एक निश्चित क्रम होता है। प्रेमोदय के इस क्रम में सभी भक्तों का एक समान विश्वास है। इस तरह, यह विशेषता भक्तिकालीन कवियों की सामान्य प्रवृत्ति है।

प्रश्न 7.
रीतिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
रीतिकाल (1700-1900 ई०) में तीन प्रकार की काव्य-रचनाएँ पाई जाती हैं-
(क) रीतिबद्ध
(ख) रीतिसिद्ध एवं
(ग) रीतिमुक्त।

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रीतिबद्ध कवियों की पहली सामान्य प्रवृत्ति यह है कि ऐसे सभी कवि कवि-शिक्षा देना अपना सर्वोपरि कर्त्तव्य मानते हैं। इसलिए, लक्षण-उदाहरण की परिपाटी पर वे काव्य-रचना करते हैं। उनकी दूसरी प्रवृत्ति संस्कृत काव्यशास्त्रीय मान्यताओं को ब्रजभाषा में स्पष्ट करना था। वे लक्षणों से अधिक उदाहरणों से महत्त्व देते थे। इस प्रकार के सभी कवियों में आचार्यत्व और कवित्व का अद्भुत योग दिखाई पड़ता है।

किन्तु, रीति-सिद्ध कवियों की सामान्य विशेषता यह है कि लक्षण ग्रंथ न लिखने पर भी उनका समस्त काव्यात्मक प्रयत्न भीतर-भीतर से काव्य के विभिन्न लक्षणों द्वारा ही अनुशासित रहता था। वे विशुद्धत: ‘काव्य-कवि’ थे। चमत्कारपूर्ण उक्ति-कथन ऐसे कवियों की सामान्य प्रवृत्ति है। इसीलिए, उनके काव्य में मौलिक उद्भावनाओं की प्रचुरता है। वे अपेक्षाकृत स्वच्छंद प्रकृति के कवि थे। रीतिमुक्त धारा के सभी कवि प्रेम की स्वस्थ भूमि पर सृदढ़ रूप में खड़े थे।

प्रेम के पकिल गढ़े में लेवाड़ मारनेवाले कवि वे नहीं थे। लियोग-श्रृंगार के प्रति इस धारा के कवियों में विशेष रुझान देखी जाती है। उनपर फारसी कवियों के ऐकांतिक प्रेम का प्रभाव है। कृष्ण-लीला के प्रति उनमें समान प्रवृत्ति देखी जाती है। सबकी रचनाएँ मुक्तक में हैं। सबकी प्रवृत्ति आलंकारिक है। सबने ब्रजभाषा को अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम चुना है। दोहा, सवैया और कवित्त उनके प्रिय छंद हैं। रीतिकाल को ‘श्रृंगारकाल’ भी कहते हैं। इस दृष्टि से श्रृंगारकालीन काव्य की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ हैं-

(क) श्रृंगारिकता-इस काल के सभी कवियों की प्रवृत्ति शृंगारिक है। इनके काव्य में श्रृंगार के संयोग और वियोग-दोनों रूप अपनी समस्त सूक्ष्मताओं और चेष्टाओं के साथ देखने में आते हैं। इस काल के कवियों ने एक साथ मिलकर शृंगार की ऐसी उच्चकोटिक कविताएँ की कि पाठकों को श्रृंगार के रसराजत्व में पक्का विश्वास हो गया।

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(ख) अलंकारप्रियता-इस काल के कवियों की एक और सामान्य प्रवृत्ति अलंकारप्रियता है। उक्ति-चमत्कार और एक-एक दोहे को अधिकाधिक अलंकारमय बनाने में इस काल के कवियों ने काफी पसीना बहाया। इस काल के कवियों की कविता में आलंकारिक महत्त्व-विषयक सामान्य धारणा को केशव के इस दोहे से समझा जा सकता है-

जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस कवित्त।
भूषण बिनु न बिराजई कविता बनिता मित्त॥

(ग) भक्ति और नीति की ओर प्रवृत्ति-घोर शृंगारिक कविताओं की रचना के बावजूद इस काल के कवि सामान्यतः भक्ति और नीति की ओर झुके हुए थे, भले ही उनकी भक्ति के पीछे खुलकर खेलने की प्रवृत्ति क्यों न रही हो।

(घ) मुक्तक शैली-इस काल के कवियों की कविता की सामान्य शैली मुक्तकों की थी। इस काल के प्रायः सब-के-सब प्रधान कवि दराबरी थे। दरबार के लिए मृक्तकों की शैली ही अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त होती है।

(3) कवित्व के साथ आचार्यत्व-उस युग में श्रेष्ठ कवि उसी को माना जाता था जो कवि-शिक्षा का आचार्य हो। इसलिए, तत्कालीन सहृदयों के सम्मान को अर्जित करने के लिए प्रत्येक कवि-कवि और आचार्य दोनों का-दुहरा भार ढोता था।

(च) प्रकृति की उद्दीपनात्मक उपयोग-इस काल के कवियों की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि सबने प्रकृति के उद्दीपनात्मक रूप का चित्रण किया है, आलंबनात्मक रूप का नहीं।

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(छ) ब्रजभाषा काव्य का माध्यम-इस काल के कवियों ने सामान्यतः ब्रजभाषा का प्रयोग किया है।

इस काल के कवियों की काव्य-भाषा-विषयक सामान्य प्रवृत्ति के संदर्भ में डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है कि भाषा के प्रयोग में इस काल के कवियों ने एक खास तरह की नाजुकमिजाजी, मधुरता और मसृणता दिखाई है।

प्रश्न 8.
आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। अथवा, आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
उत्तर-
आधुनिक काल (1900 ई० से अब तक) के साहित्य की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं जो उसके पूर्ववर्ती रीतिकालीन साहित्य से उसे अलग कर देती हैं। वे विशेषताएँ आधुनिक काल की प्रायः सभी प्रतिनिधि रचनाओं में सामान्यतः पाई जाती हैं। अतः, निम्नलिखित विशेषताओं को हम आधुनिक काल की सामान्य प्रवृत्तियों के रूप में देख सकते हैं-

(क) पद्य के साथ-साथ गद्य का अपेक्षाकृत विपुल प्रयोग-पद्य के साथ गद्य के अपेक्षाकृत व्यापक प्रयोग को हम आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्ति कह सकते हैं। रीतिकाल तक प्रेस का उदय नहीं हुआ था। फलतः, उस काल में गद्य का वैसा प्रसार न हो सका जैसा प्रेस की स्थापना के बाद आधुनिक काल में हुआ। इस काल में गद्य की विविध विधाओं में लेखन और उसका उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है।

(ख) ब्रजभाषा से मुक्ति-आधुनिक काल में साहित्य के सर्वमान्य माध्यम के रूप में खड़ी बोली हिन्दी को अपनाया गया। इसका प्रयोग अपेक्षाकृत सर्वाधिक व्यापक रूप में शुरू हुआ।

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(ग) राष्ट्रीय भावना का उत्थान-आधुनिक काल में एक समग्र राष्ट्रीय भावना का जो रूप दिखाई पड़ा वह इस काल के पूर्व के किसी काल के साहित्य में नहीं दिखाई पड़ा था। हमारे स्वातंत्र्य संघर्ष की अवधि में खड़ी बोली हिन्दी ही राष्ट्रीस स्तर पर विचार-विनिमय का माध्यम बनी।

(घ) युग-बोध-आधुनिक काल की एक सामान्य विशेषता युग-बोध की है। धीरे-धीरे आदर्श और कल्पना के लोक को छोड़कर आधुनिक साहित्य यथार्थ की भूमि पर खड़ा होने लगा। इसलिए, युग-बोध और यथार्थ-बोध इसकी सामान्य प्रवृत्ति है।

(ङ) श्रृंगार-भावना में परिवर्तन-इस काल में प्रेमकाव्य तो लिखे गए, किन्तु नारी को विलासिता का साधन नहीं, बल्कि श्रद्धास्वरूपपिणी माना गया अर्थात् उसकी हैसियत ऊँची हुई।

(च) पाश्चात्य प्रभाव और वादों का प्राधान्य-विज्ञान के प्रभाव में आकर दुनिया सिमट गई। इसलिए, पाश्चात्य विचारों से हमारा साहित्य भी आन्दोलित होने लगा और उसमें विचार और शैली के विविध प्रकार या वाद दिखाई पड़ने लगे। पाश्चात्य साहित्य से प्रभाव-ग्रहण उसकी सामान्य प्रवृत्ति हो गई।

(छ) लोक-साहित्य की ओर उन्मुखता-आधुनिक साहित्य में सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति दिखाई पड़ने लगी कि इस काल के कवियों ने लोक-छंदों को यथावत् और उनके परिष्कृत रूपों को अपनी काव्य-साधना में स्थान देना प्रारंभ किया।

(ज) प्रकृति-चित्रण-आधुनिक काल में प्रकृति का केवल उद्दीपनात्मक रूप ही नहीं बल्कि उसके व्यापक रूप को चित्रित किया गया। देशभक्ति-विषयक साहित्य की उच्चस्तरीयता का निर्धारक प्रकृति का चित्रण का हो गया।

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण समास

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण समास

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1. समास की परिभाषा देकर उसको सोदाहरण समझाएँ।
‘समास’ का धातुगत अर्थ है – संक्षेप में होना। दो या दो से अधिक सार्थक शब्दों का परस्पर संबंध बतानेवाले शब्दांशों अथवा प्रत्ययों का लोप हो जाने पर उन दो या दो से अधिक शब्दों के मिल जाने से जो एक स्वतंत्र शब्द बनता है उस शब्द को ‘सामासिक’ शब्द कहते हैं और इस रूप में होने की क्रिया को ‘समास’ कहते हैं।

उदाहरण के लिए एक शब्द – समूह लें – ‘विद्या के लिए आलय’ इनमें दो पद आए हैं – ‘विद्या’ और ‘आलय’। इन दोनों के बीच का संबंध बतानेवाला शब्द या प्रत्यय है – के लिए। इसका लोप हो जाने पर दोनों के मेल से एक शब्द बन जाता है – विद्यालय। यह समस्त पद हुआ और ऐसा होने की क्रिया ही ‘समास’ है।

2. ‘संधि’ और ‘समास’ के बीच क्या अंतर है? सोदाहरण समझाएँ।

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संधि और समास दोनों किसी भाषा में शब्द – रचना से ही संबंध रखते हैं, पर दोनों में निम्नांकित अंतर हैं।

  1. संधि में दो वर्णों का योग होता है जबकि समास में दो शब्दों का।
  2. समास में पदों के बीच उनके परस्पर संबंध बतानेवाले प्रत्ययों का लोप हो जाता है जबकि संधि में अत्यंत समीप आ गए दो वर्गों के बीच मेल, लोप या कोई नया विकार उत्पन्न होता है।
  3. संधि में तोड़कर दिखाए जानेवाले वर्ण – विकार को ‘विच्छेद’ कहते हैं, जबकि समास में तोड़कर दिखाए जानेवाले प्रत्यय – युक्त शब्दों को ‘विग्रह’ कहते हैं। उदाहरण के लिए ‘पीताम्बर’ शब्द को लें। ‘संधि’ और ‘समास’ को इस प्रकार दिखाया जाएगा – संधि – पीताम्बर = पीत + अंबर। समास – पीताम्बर = पीत (वर्ण) है जिसका अंबर, वह (विष्णु या श्रीकृष्ण)।
  4. ‘संधि’ केवल तत्सम (संस्कृत के मूल) शब्दों में ही होती है जबकि ‘समास’ संस्कृत तत्सम, हिन्दी, उर्दू, सभी प्रकार के पदों में।

3.समास के भेदों का सोदाहरण परिचय दें।
संस्कृत भाषा में समास की बड़ी महिमा है। इसलिए इसके भेदोपभेद भी संस्कृत में ही विस्तार से मिलते हैं, जो हिन्दी भाषा की प्रकृति के न तो अनुकूल हैं और न अपेक्षित ही। व्यावहारिक दृष्टि से हिन्दी में समास के निम्नांकित भेद प्रचलित एवं मान्य हैं।

  • अव्ययीभाव समास – यथाशक्ति, प्रतिदिन
  • तत्पुरुष समास – आशातीत, आचरकुशल
  • बहुव्रीहि समास – पीताम्बर, पंकज
  • कर्मधारय समास – कमलनयन, घनश्याम
  • द्विगु समास – त्रिलोकी, नवरत्न
  • द्वन्द्व समास – माता – पिता, लोटा – डोरी
  • नञ् समास – अनपढ़, अनादि
  • मध्यमपदलोपी समास – दहीबड़ा, सिंहासन

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4. ‘समास’ में “पूर्वपद’ और ‘उत्तरपद’ से क्या तात्पर्य है?
प्रायः दो शब्दों (कभी – कभी दो से अधिक भी) के मिलकर एक शब्द होने को ‘समास’ कहते हैं और नए बने शब्द को समस्त पद। एक समस्त पद में आनेवाले पहले (पूर्व) शब्द को ‘पूर्वपद’ कहते हैं और बाद (उत्तर) आनेवाले शब्द को ‘उत्तरपद’। उदाहरण के लिए, एक शब्द लें – ‘विद्यालय’ जो विद्या + आलय से बना है; इसमें ‘विद्या’ पूर्वपद है और ‘आलय’ उत्तरपद।

5. ‘अव्ययीभाव समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
अव्ययीभाव समास – इसमें पूर्वपद की प्रधानता होती है और वह निश्चित रूप से अव्यय होता है। उदाहरण – यथाशक्ति = यथा + शक्ति। इसमें पूर्वपद ‘यथा’ प्रधान है और यह निश्चित रूप से अव्यय है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

6. ‘तत्पुरुष’ समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएं।
तत्पुरुष समास – इसमें उत्तरपद की प्रधानता होती है और इसमें सामान्यतया पूर्वपद विशेषण और उत्तरपद विशेष्य होता है। उदाहरण – राजकुमार = राजा का कुमार। इसमें उत्तरपद ‘कुमार” प्रधान है और ‘राजा’ इसकी विशेषता बताता है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

7. ‘बहुव्रीहि समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
बहुव्रीहि समास – इसमें आनेवाला पूर्वपद एवं उत्तरपद दोनों की अप्रधान (गौण) होते हैं और इन दोनों पदों के अर्थों के मेल से सामने आनेवाला कोई तीसरा ही अर्थ प्रधान होता है।

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उदाहरण–

  • पीताम्बर = पीत + अंबर।

पूर्वपद ‘पीत’ का अर्थ है ‘पीला’ और उत्तरपद ‘अंबर’ का अर्थ है ‘कपड़ा’, पर ये दोनों अर्थ गौण हैं और इन दोनों के मिलने से सामने आनेवाला एक तीसरा ही अर्थ, ‘पीले वस्त्र धारण करनेवाले विष्णु या श्रीकृष्ण’, प्रधान हो जाता है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

8. ‘कर्मधारय समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
कर्मधारय समास – इसमें पूर्वपद एवं उत्तरपद के बीच विशेष्य – विशेषण संबंध होता है। इसमें दोनों पद कर्ता कारक में होते हैं और इनके लिंग – वचन समान होते हैं। उदाहरण – कमलनयन = कमल (पूर्वपद विशेषण) के समान नयन (उत्तरपद)। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

9. ‘द्विगु समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।।।
द्विगु समास – इसमें पूर्वपद निश्चित रूप से संख्यावाचक होता है। उदाहरण – नवरत्न = नव (नौ) रत्नों का समूह। इनमें पूर्वपद ‘नव’ (नौ) संख्यावाचक है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

10. ‘द्वन्द्व’ समास से आप क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
द्वन्द्व समास – इसमें पूर्वपद और उत्तरपद दोनों समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण – माता – पिता। इस ‘माता – पिता’ समस्पद में ‘माता’ पूर्वपद है और ‘पिता’ उत्तरपद। ये दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। इसी तरह अन्य उदाहरण होंगे।

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11. ‘न’ समास से आप क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
न समास – इसमें पूर्वपद अनिवार्य रूप से ‘न’ या ‘नहीं’ का अर्थ रखनेवाला (निषेधवाचक) होता है और उत्तरपद अर्थ की प्रधानता रखनेवाला होता है। उदाहरण – अनपढ़। इस ‘अनपढ़ शब्द में दो पद हैं – अन (निषेधवाचक पूर्वपद) + पढ़ (पढ़ा हुआ) = नहीं पढ़ा – लिखा। इसी प्रकार अन्य उदाहरण होंगे।

12. ‘मध्यमपदलोपी’ समास से आप क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
मध्यमपदलोपी समास – यह समास स्वतंत्र भेद – जैसा होकर भी तत्पुरुष समास का एक प्रकार है। इसमें पूर्वपद और उत्तरपद के बीच आए पूरक शब्दों का लोप हो जाता है। उदाहरण – दहीबड़ा = दही (में फूला हुआ) बड़ा। यहाँ में फूला हुआ’ शब्दों का लोप हो जाना स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है।

स्मरणीय : प्रमुख समास – पदों की सविग्रह तालिका

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1. ‘संधि’ की परिभाषा देते हुए उसके भेदों का सोदाहरण परिचय दीजिए।

दो अक्षरों की अत्यंत समीपता के कारण उनके मेल से जो विकार उत्पन्न होता है उसे संधि कहते हैं। जैसे – देव+अर्चन = देवार्चन में ‘अ’ [‘व’ का अ] और ‘अ’ [अर्चन का आदि अक्षर] मिलकर ‘आ’ हो गए हैं और यह ‘संधि’ का एक रूप है।

संधि के तीन भेद माने जाते हैं – स्वर – संधि, व्यञ्जन – संधि और विसर्ग – संधि। स्वर – संधि में दो स्वर – वर्गों के बीच संधि होती है। जैसे-

  • देव + आलय = देवालय
  • मत + ऐक्य = मतैक्य
  • सत्य + आग्रह = सत्याग्रह
  • महा + औषधि = महौषधि

व्यञ्जन – संधि में एक व्यञ्जन + एक स्वर अथवा एक व्यञ्जन + एक व्यञ्जन वर्ण के बीच संधि होती है। जैसे

  • दिक् + अंबर = दिगंबर
  • सत् + जन = सज्जन
  • वाक् + ईश = वागीश
  • उत् + डयन = उड्डयन

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विसर्ग – संधि में विसर्ग तथा स्वर वर्ण अथवा व्यञ्जन वर्ण के बीच संधि होती है। जैसे

  • निः + चय = निश्चय
  • निः + फल = निष्फल
  • निः + छल = निश्छल
  • प्रातः + काल = प्रात:काल
  • दुः + कर्म = दुष्कर्म
  • अंतः + करण = अंत:करण

संधि के सामान्य नियम

2. स्वर – संधि के नियमों का सोदाहरण परिचय दीजिए।
‘स्वर – संधि’ में दो स्वर – वर्गों के बीच संधि होती है। इसके प्रमुख नियम सोदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं।

[i] दो सवर्ण स्वर मिलकर दीर्घ हो जाते हैं। यदि ‘अ’, ‘आ’, ‘इ’, ‘ई’, ‘उ’, ‘ऊ’ और ‘ऋ’ के बाद क्रमशः वे ही ह्रस्व या दीर्घ स्वर आएँ तो दोनो मिलकर क्रमशः ‘आ’, ‘ई’, ‘ऊ’ और ‘ऋ’ हो जाते हैं। जैसे-

  • अ + अ = आ
  • अन्न + अभाव = अन्नाभाव
  • आ + अ = आ
  • तथा + अपि तथापि
  • गिरि + इन्द्र = गिरीन्द्र
  • गिरि + ईश = गिरीश
  • उ + उ = ऊ
  • पृथ्वी + ईश = पृथ्वीश
  • उ + उ = ऊ
  • भानु + उदय = भानूदय
  • ऋ + ऋ =ऋ
  • पितृ + ऋण = पितृण

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[ii] यदि ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘इ’ या ‘ई’, ‘उ’ या ‘ऊ’ और ‘ऋ’ आए तो दोनों मिलकर क्रमशः ‘ए’, ‘ओ’ ओर ‘अर्’ हो जाते हैं। जैसे-

  • अ + इ = ए
  • देव + इन्द्र = देवेन्द्र
  • आ + इ =ए
  • यथा + इष्ट = यथेष्ट

[ii] यदि ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘ए’ या ‘ऐ’ आए तो दोनों स्थान में ‘ऐ’ तथा ‘ओ’ या ‘औ’ आए तो दोनों के स्थान में ‘औ’ हो जाता है। जैसे-

  • अ + ए = ऐ
  • एक + एक = एकैक
  • सदा + एव = सदैव
  • परम + ओजस्वी = परमौजस्वी
  • अ + औ
  • परम + औषधि = परमौषधि

[iv] यदि ‘इ’, ‘ई’, ‘ऊ’ और ‘ऋ’ के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो ‘इ – ई’ का ‘य’, ‘उ – ऊ’ का ‘व्’ और ‘ऋ’ का ‘र’ हो जाता है। जैसे-

  • इ + अ
  • यदि + अपि = यद्यपि
  • उ + अ
  • अनु + अय = अन्बय
  • ऋ + आ
  • पितृ + आदेश = पित्रादेश

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[v] यदि ‘ए’, ‘ऐ’, ‘ओ’, ‘औ’ के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो [क] ‘ए’ का ‘अय्’ [ख] ‘ऐ’ का ‘आय’ [ग] ‘ओ’ का ‘अ’ और [घ] ‘औ’ का ‘आ’ हो जाता है। जैसे-
[क] ने + अन = नयन
[ग] पो + अन = पवन
[ख] नै + अक = नायक
[घ] पौ + अन = पावन

3. ‘व्यञ्जन – संधि’ के नियमों का सोदाहरण परिचय दीजिए।
व्यञ्जन – संधि में एक व्यञ्जन + एक स्वर अथवा एक व्यञ्जन + एक व्यञ्जन के बीच संधि होती है। इसके प्रमुख नियम सोदाहरण नीचे दिए जाते हैं।
[vi] यदि ‘क’, ‘च’, ‘त’, ‘ट्’ के बाद किसी वर्ग का तृतीय या चतुर्थ वर्ण आए या य, र, ल, व या कोई स्वर आए तो ‘क्’, ‘च’, ‘ट्’, ‘त्’, ‘प्’ के स्थान में अपने ही वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है। जैसे-

  • दिक् + गज = दिग्गज
  • अच् + अंत = अजंत
  • सत् + वाणी = सवाणी
  • षट् + दर्शन = षड्दर्शन

[ii] यदि ‘क’, ‘च’, ‘ट्’, ‘त्’, ‘प’ के बाद ‘न’ या ‘म’ आए तो ‘क्’, ‘च’, ‘ट् , ‘प्’ अपने ही वर्ग का पंचम वर्ण हो जाता है। जैसे –

  • वाक् + मय = वाङ्मय
  • षट् + मास = षण्मास
  • अप् + मय = अम्मय
  • उत् + नति = उन्नति

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[iii] यदि ‘म्’ के बाद कोई स्पर्श व्यञ्जन – वर्ण आए तो ‘म्’ का अनुस्वार या बादवाले वर्ण के वर्ग का पंचम वर्ण हो जाता है। जैसे-

  • अहम् + कार = अहंकार, अहङ्कार
  • सम् + गम = संगम, सङ्गम
  • किम् + चित् = किंचित्, किञ्चित्
  • पम् + चम = पंचम, पञ्चम

[iv] यदि त – द् के बाद ‘ल’ वर्ण रहे तो त् – ‘ल’ में बदल जाते हैं और ‘न्’ के बाद ‘ल’ रहे तो ‘न’ का अनुनासिक के साथ ‘ल’ हो जाता है। जैसे-

  • त् + ल
  • उत् + लास उल्लास
  • न् + छ।
  • महान् + लाभ = महाँल्लाभ

[v] सकार और तवर्ग का श्याकार और चवर्ग तथा षकार और टवर्ग के योग में षकार और टवर्ग हो जाता है। जैसे-

  • प् + त
  • द्रष् + ता = द्रष्टा।
  • महत् + छत्र = महच्छत्र

[vi] यदि वर्गों के अंतिम वर्गों को छोड़ शेष वर्णों के बाद ‘ह’ आए तो ‘ह’ पूर्व वर्ण के वर्ग का चतुर्थ वर्ण हो जाता है ओर ‘ह’ के पूर्ववाला वर्ण अपने वर्ग का तृतीय वर्ण। जैसे-

  • उत् + हत = उद्धत
  • उत् + हार = उद्धार
  • वाक् + हरि = वाग्घरि
  • उत् + हरण = उद्धरण

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[vii] ह्रस्व स्वर के बाद ‘छ’ हो तो ‘छ’ के पहले ‘च’ वर्ण जुड़ जाता है। दीर्घ स्वर के बाद ‘छ’ होने पर ऐसा विकल्प से होता है। जैसे-

  • परि + छेद = परिच्छेद
  • शाला + छादन = शालाच्छादन

4. ‘विसर्ग – संधि’ के नियमों का सोदाहरण परिचय दीजिए।
विसर्ग – संधि में विसर्ग तथा स्वर – वर्ण अथवा विसर्ग तथा व्यञ्जन – वर्ण के बीच संधि होती है। इस विसर्ग – संधि के नियमों का सोदाहरण परिचय नीचे दिया जा रहा है
[i] यदि विसर्ग के बाद ‘च – छ’ हो तो विसर्ग का ‘श’, ‘ट – ठ’ हो तो तो ‘ए’ और ‘त – थ’ हो तो ‘स’ हो जाता है। जैसे-

  • : + च
  • निः + चय = निश्चय

[ii] यदि विसर्ग के पहले इकार या उकार आए और विसर्ग के बाद का वर्ण क, ख, प, फ हो तो विसर्ग का ‘ए’ हो जाता है। जैसे-

  • निः + कपट = निष्कपट
  • निः + फल = निष्फल
  • निः + कारण = निष्कारण
  • निः + पाप = निष्पाप

[iii] यदि विसर्ग के पहले ‘अ’ हो और परे क, ख, प, फ में कोई वर्ण हो तो विसर्ग ज्यों – का – त्यों रहता है। जैसे-

  • प्रातः + काल = प्रात:काल
  • पयः + पान = पयःपान

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[iv] यदि ‘इ’ – ‘उ’ के बाद विसर्ग हो और इसके बाद ‘र’ आए तो ‘इ’ – ‘उ’ का ‘ई’ – ऊ’ हो जाता है और विसर्ग लुप्त हो जाता है। जैसे-

  • निः + रव = नीरव
  • निः + रस = नीरस
  • निः + रोग = नीरोग
  • दुः + राज = दूराज

[v] यदि विसर्ग के पहले ‘अ’ और ‘आ’ को छोड़कर कोई दूसरा स्वर आए और विसर्ग के बाद कोई दूसरा स्वर हो या किसी वर्ग का तृतीय, चतुर्थ या पंचम वर्ण हो अथवा य, र, ल, व, ह में से कोई वर्ण हो तो विसर्ग के स्थान में ‘र’ हो जाता है। जैसे-

  • निः + उपाय = निरुपाय
  • निः + झर = निर्झर
  • निः + जल =निर्जल
  • निः + धन =निर्धन

[vi] यदि विसर्ग के पहले ‘अ’ स्वर आए और उसके बाद वर्ग का तृतीय, चतर्थ या पंचम वर्ण आए अथवा य, र, ल, व, ह रहे तो विसर्ग का ‘उ’ हो जाता है और यह ‘उ’
अपने पूर्ववर्ती ‘अ’ से मिलकर गुणसंधि द्वारा ‘ओ’ हो जाता है। जैसे-

  • तेजः + मय = तेजोमय
  • पयः + धर = पयोधर
  • पयः + द = पयोद
  • पुरः + हित = पुरोहित
  • मनः + रथ = मनोरथ
  • मनः + भाव = मनोभाव

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[vii] यदि विसर्ग के आगे – पीछे ‘अ’ स्वर हो तो पहला. ‘अ’ और विसर्ग मिलकर छठे नियम की तरह ‘ओकार’ हो जाता है ओर बादवाले ‘अ’ का लोप होकर उसके स्थान में
लुप्ताकार [ऽ] का चिह्न लग जाता है। जैसे-
प्रथमः + अध्यायः = प्रथमोऽध्यायः

लेकिन, विसर्ग के बाद ‘अ’ के सिवा दूसरा स्वर आए तो यह नियम लागू नहीं होगा, बल्कि विसर्ग का लोप हो जाएगा। जैसे-
अत: + एव = अतएव

स्मरणीय : प्रमुख शब्दों की संधि – तालिका

अन्वय = अनु + अय
अंत:पुर = अंतः + पुर
अत्यधिक = अति + अधिक
अधीश्वर = अधि + ईश्वर
अन्योन्याश्रय = अन्यः + आश्रय
अभीष्ट = अभि + इष्ट
अत्याचार अति + आचार
अन्यान्य = अन्य + अन्य
अतएव = अतः + एव

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अधोगति अधः + गति
आशीर्वाद आशी: + वाद
आकृष्ट = आकृष् + त
आशीर्वचन = आशी: + वचन।
अभ्युदय = अभि + उदय
आविष्कार = आविः + कार
आच्छादन = आ + छादन
आद्यन्त = आदि + अंत
आद्यारम्भ = आदि + आरंभ
अरुणोदय = अरुण + उदय
इत्यादि = इति + आदि
उच्छृखल = उत् + श्रृंखल
उन्माद = उत् + माद
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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

1. ‘विपरीतार्थक’ शब्द से क्या तात्पर्य है? इसको सोदाहरण समझाएं।

किसी शब्द का जो अर्थ होता है, उसके ठीक विपरीत अर्थ देनेवाले शब्द को ‘विपरीतार्थक’ शब्द कहते हैं। जैसे–रात–दिन। यहाँ ‘रात’ शब्द का जो अर्थ है, ‘दिन’ शब्द उसका ठीक विपरीत अर्थ देता है।
उदाहरण–

  • शब्द – विपरीतार्थक शब्द
  • अनुराग – विराग
  • आदि – अंत

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कुछ प्रमुख विपरीतार्थक शब्द–

शब्द – विपरीतार्थक शब्द
अंधकार – प्रकाश
अग्रज – अनुज
अमीर – गरीब
अनुरक्त – विरक्त
आदान – प्रदान
अमावस्य – पूर्णिमा
अभिज्ञ – अनभिज्ञ
अल्पायु – दीर्घायु
आकर्षण – विकर्षण
अमर – मर्त्य
आयात – निर्यात
अपना – पराया
अंत – आदि, अनंत
अवस्या – अनवस्था
अपेक्षा – उपेक्षा
आहार – अनाहार
अकाल – सकाल

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

आमिष – निरामिष
अनाथ – सनाथ
आयात – निर्यात
आशा – निराशा
ऊँचा – नीचा
आलसी – परिश्रमी
उन्नति – अवनति
आर्द्र – शुष्क
उदय – अस्त
आसक्त – अनासक्त
आय – व्यय
आस्था – अनास्था
अपमान – सम्मान
अन्तरंग – बहिरंग
अमृत – विष
अंतर्द्वन्द्व – बहिर्द्वन्द्व
अधम – उत्तम
आर्य – अनार्य
अमरत्व – नश्वर
आकाश – पाताल
आदि – अंत
अल्पज्ञ – बहुज्ञ
आस्तिक – नास्तिक
आदर – अनादर

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

अज्ञान – ज्ञान
अर्जन – विसर्जन
आधार – निराधार
इहलाक – परलोक
इष्ट – अनिष्ट
Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 1

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 3

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 4

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 5
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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 8

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 9

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

1. “पर्यायवाची शब्द से क्या तात्पर्य है? कुछ उदाहरण दें।

सामान्यतया एक ही वस्तु या व्यक्ति का ज्ञान करानेवाले विभिन्न शब्दों को पर्यायवाची शब्द कहते हैं। वैसे, सूक्ष्म स्तर पर इनके अर्थ अपने–आपमें पूर्ण एवं एक–दूसरे से पृथक् होते हैं। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।

  • अनुपम – अतुलनीय, अद्वितीय, अतुल
  • अमृत – सुधा, पीयूष, अगरल, अमिय
  • असुर – राक्षस, दानव, दैत्य, निशिचर, निशाचर, रजनीचर

कुछ स्मरणीय पर्यायवाची शब्द

आकाश – गगन, नभ, अंबर, आसमान
आग – अग्नि, अनल, पावक, दहन
आनंद – सुख, प्रसन्नता, आहाद, उल्लास, हर्ष
आम – आम्र, रसाल, सहकार
इच्छा – चाह, कामना, अभिलाषा, आकांक्षा, मनोकामना
इन्द्र – सुरेन्द्र, सुरपति, देवराज
इन्द्राणी – इन्द्रवधू, शची, पुलोमजा

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

कपड़ा – वस्त्र, वसन, पट, परिधान
कमल – पंकज, जलज, अरविन्द, सरसिज, शतदल
किताब – पुस्तक, पोथी, ग्रंथ किरणरश्मि, मयूख, अंशु
गंगा – भागीरथी, मंदाकिनी, देवनदी, देवापगा, सुरापंगा
गणेश लम्बोदर, गजानन, गजवदन, गणपति, विनायक
घर – गृह, सदन, गेह, भवन, आलय, निलय, निकेतन
घोड़ा – अश्व, हय, घोटक, तुरंग, बाजि
चाँद – चन्द्र, चन्द्रमा, इन्दु, हिमांशु, शशि
जंगल – वन, कानन, विपिन, अरण्य, वनानी
‘जल – पानी, नीर, वारि, अम्बु, सलिल, पय
जमुना – यमुना, कालिंदी, तरणिजा, रविसुता
तालाब – सरोवर, तड़ाग, सर, जलाशय, सरणि, पुष्कर
दुःख – पीड़ा, कष्ट, क्लेश, वेदना, संताप, संकट, शोक
दुर्गा – काली, चंडी, गौरी, कल्याणी, चंद्रिका, अभया
देवता – देव, सुर, अमर, निर्जर, त्रिदिश

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

धन – दौलत, संपत्ति, ऐश्वर्य, संपत्, संपदा, द्रव्य
नदी – सरिता, प्रवाहिनी, तरंगिणी, तटिनी, आपगा, निम्नगा
नरक – रौरव, यमपुरी, यमालय, यमलोक, कुंभीपाक, जहन्नुम
नयन – अक्षि, आँख, नेत्र, चक्षु, लोचन
पंछी – पक्षी, पखेरू, परिन्दा, विहग, खग, द्विज पत्थर – पाहन, पाषाण, अश्म, प्रस्तर
पवन – हवा, वायु, समीर, अनिल, वात
पत्नी – भार्या, गृहिणी, अर्धांगिनी, प्राणप्रिया, सहधर्मिणी
पहाड़ – पर्वत, शैल, अचल, गिरी, नग, महीधर, भूभृत्
पार्वती – उमा, गौरी, गिरजा, सती, रुद्राणी
प्रकाश रोशनी, ज्योति, प्रभा, चमक
पृथ्वी – धरा, वसुंधरा, धरती, मेदिनी, भू
पुत्र – बेटा, लड़का पूत, सुत, आत्मज
पुत्री – बेटी, लड़की, बच्ची, सुता, आत्मजा, नंदिनी
पुर – फूल, सुमन, कुसुम, प्रसून
जाण – तीर, शर, विशिख, आशुग, इषु, शिलीमुख, नाराच

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

ब्रह्मा – विधाता, पितामह, प्रजापति, कमलासन, चतुरानन
जिजली – चपला, चंचला, विद्युत्, दामिनी, तड़ित्
भौंरा – प्रमर, मूंग, मधुप, अलि
मछली—मीन, झष, मत्स्य
महादेव शिव, शंकर, शंभु, भूतनाथ, भोलेनाथ, पशुपति, महेश, कैलाशपति
मेघ – बादल, जलधर, वारिद, नीरद, पयोद, पयोधर, अंबुद
राजा नरपति, नरेश, महीप, नृप, भूप, भूपति, अधिपति
रात – रात्रि, निशा, रजनी, यामिनी, त्रियामा, विभावरी
वायु – हवा, बयार, समीर, वात, मारुत, अनिल
वृक्ष – पेड़, तरु, विटप, अगम, द्रुम
विष्णु – जनार्दन, चक्रपाणि, विश्वम्भर, नारायण, केशव, माधव
स्त्री – नारी, महिला, वनिता, कांता, रमणी, अंगना
स्वर्ग – सुरलोक, अमरलोक, देवलोक, दिव, द्यौ, त्रिदिव।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

सागर – जलधि, पारावार, रत्नाकर, पयोनिधि, सिन्धु, समुद्र
समूह – समुदाय, संघ, दल, मंडल, वृंद, गण, निकर
सरस्वती – शारदा, वीणापाणि, वाणीश्वरी, भारती, वाणी
साँप – भुजंग, सर्प, विषधर,, व्याल, फणी, नाग
सिंह शेर, मृगेन्द्र, मृगराज, केशरी.
सूर्य—सूरज, रवि, दिनकर, अंशुमाली, मार्तण्ड, भास्कर
हँसी – मुसकान, स्मित, हास्य हाथ – कर, हस्त, पाणि
हाथी – गज, कुंजर, द्विरद, द्विप, मतंग, हस्ती

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

  1. संक्षेपण का स्वरूप।
  2. संक्षेपण के नियम
  3. संक्षेपण : कुछ आवश्यक निर्देश।
  4. अनेक शब्दों (पदों) के लिए एक शब्द (पद)।
  5. संक्षेपण के कुछ उदाहरण

1. संक्षेपण का स्वरूप
संक्षेपण की परिभाषा – किसी विस्तृत विवरण, सविस्तार व्याख्या,वक्तव्य, पत्रव्यवहार या लेख के तथ्यों और निर्देशों के ऐसे संयोजन को ‘संक्षेपण कहते हैं, जिसमें अप्रासंगिक, असम्बद्ध, पुनरावृत्त, अनावश्यक बातों का त्याग और सभी अनिवार्य, उपयोगी तथा मूल तथ्यों का प्रवाहपूर्ण संक्षिप्त संकलन हो।

इस परिभाषा के अनुसार, संक्षेपण एक स्वतःपूर्ण रचना है। उसे पढ़ लेने के बाद मूल सन्दर्भ को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सामान्यत: संक्षेपण मे लम्बे – चौड़े विवरण, पत्राचार आदि की सारी बातों को अत्यन्त संक्षिप्त और क्रमबद्ध रूप में रखा जाता है। इसमें हम कम – से – कम शब्दों में अधिक – से – अधिक विचारों, भावों और तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं।

वस्तुतः संक्षेपण ‘किसी बड़े ग्रन्थ का संक्षिप्त संस्करण, बड़ी मूर्ति का लघु अंकन और बड़े चित्र का छोटा चित्रण’ है। इसमें मूल की कोई भी आवश्यक बात छूटने नहीं पाती। अनावश्यक बातें छाँटकर निकाल दी जाती हैं और मूल बातें रख ली जाती हैं। यह काम सरल नहीं। इसके लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यक है।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

संक्षेपण उदाहरण 1

ऋतुराज वसन्त के आगमन से ही शीत का भयंकर प्रकोप भाग गया। पतझड़ में पश्चिम – पवन ने जीर्ण – जीर्ण पत्रों को गिराकर लताकुंजों, पेड़ – पौधों को स्वच्छ और निर्मल बना दिया। वृक्षों और लताओं के अंग में नूतन पत्तियों के प्रस्फुटन से यौवन की मादकता छा गयी। कनेर, करवीर, मदार, पाटल इत्यादि पुष्पों की सुगन्धि दिग्दिगन्त में अपनी मादकता का संचार करने लगी। न शीत की कठोरता, न ग्रीष्म का ताप।

समशीतोष्ण वातावरण में प्रत्येक प्राणी की नस – नस में उतफुल्लता और उमंग की लहरें उठ रही हैं। गेहूँ के सुनहले बालों से पवनस्पर्श के कारण रुनझुन का संगीत फूट रहा है। पत्तों के अधरों पर सोया हुआ संगीत मुखर हो गया है। पलाश – वन अपनी अरुणिमा में फूला नहीं समाता है। ऋतुराज वसन्त के सुशासन और सुव्यवस्था की छटा हर ओर दिखायी पड़ती है। कलियों के यौवन की अंगड़ाई भ्रमरों को आमन्त्रण दे रही है। अशोक के अग्निवर्ण कोमल एवं नवीन पत्ते वायु के स्पर्श से तरंगित हो रहे हैं। शीतकाल के ठिठुरे अंगों में नयी स्फूर्ति उमड़ रही है।

वसन्त के आगमन के साथ ही जैसे जीर्णता और पुरातन का प्रभाव तिरोहित हो गया है। प्रकृति के कण – कण में नये जीवन का संचार हो गया है। आम्रमंजरियों की भीनी गन्ध और कोयल का पंचम आलाप, भ्रमरों का गुंजन और कलियों की चटक, वनों और उद्यानों के अंगों में शोभा का संचार – सब ऐसा लगता है जैसे जीवन में सुख ही सत्य है, आनन्द के एक क्षण का मूल्य पूरे जीवन को अर्पित करके भी नहीं चुकाया जा सकता है। प्रकृति ने वसन्त के आगमन पर अपने रूप को इतना सँवारा है, अंग – अंग को सजाया और रचा है कि उसकी शोभा का वर्णन असम्भव है, उसकी उपमा नहीं दी जा सकती।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

(शब्द : लगभग 300)

संक्षेपण : वसन्तऋतु की शोभा वसन्तऋतु के आते ही शीत की कठोरता जाती रही। पश्चिम के पवन ने वृक्षों के जीर्ण – शीर्ण पत्ते गिरा दिये। वृक्षों और लताओं में नये पत्ते और रंग – बिरंगे फूल निकल आये। उनकी. सुगन्धि से दिशाएँ गमक उठी। सुनहले बालों से युक्त गेहूँ के पौधे खेतों मे हवा से झूमने लगे। प्राणियों की नस – नस में उमंग की नयी चेतना छा गयी। आम की मंजरियों से सुगन्ध आने लगी; कोयल कूकने लगी; फूलों और भौरे मँडराने लगे और कलियाँ खिलने लगीं। प्रकृति में सर्वत्र नवजीवन का संचार हो उठा।

(शब्द : 96)

संक्षेपण उदाहरण 2

अनन्त रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है – कहीं मधुर, सुसज्जित या सुन्दर यप में; कहीं रूखे, बेडौल या कर्कश रूप में कहीं भव्य, विशाल या विचित्र रूप में; और कहीं उग्र, कराल या भयंकर रूप में। सच्चे कवि का हृदय उसके उन सब रूपों में लीन होता है, क्योंकि उसके अनुराग का कारण अपना खास सुखभोग नहीं, बल्कि चिरसाहचर्य द्वारा प्रतिष्ठित वासना है।

जो केवल प्रफुल्ल प्रसूनप्रसाद के सौरभ – संचार, मकरन्दलोलुप मधकर के गंजार, कोकिलकजित निकंज और शीतल सखस्पर्श समीर की ही चर्चा किया करते हैं, वे विषयी या भोगलिप्सु हैं। इसी प्रकार जो केवल मुक्ताभासहिम – विन्दुमण्डित मरकताभ शाद्वलजाल, अत्यन्त विशाल गिरिशिखर से गिरते जलप्रपात की गम्भीर गति से उठी हुई सीकरनीहारिका के बीच विविधवर्ण स्फरण की विशालता, भव्यता और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिए कुछ पाते हैं वे तमाशबीन हैं, सच्चे भावुक या सहृदय नहीं।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

प्रकृति के साधारण, असाधारण सब प्रकार के रूपों को रखनेवाले वर्णन हैं वाल्मिीकि, कालिदास, भवभूति इत्यादि संस्कृति के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। पिछले खेवे के कवियों ने मुक्तक – रचना में तो अधिकतर प्राकृतिक वस्तुओं का अलग – अलग उल्लेख केवल उद्दीपन की दृष्टि से किया है। प्रबन्धरचना में थोड़ा – बहुतसंश्लिष्ट चित्रण किया है, वह प्रकृति की विशेष रूपविभूति को लेकर ही। (शब्द : 119)

संक्षेपण : कवि और प्रकृति प्रकृति के दो रूप हैं; एक सुन्दर, दूसरा बेडौल। सच्चे कवि का हृदय दोनों में रमता है। किन्तु, जो प्रकृति के बाहरी सौन्दर्य का चयन अथवा उसकी रहस्यमयता का उद्घाटन करता रह गया, वह कवि नहीं है। प्रकृति के सच्चे रूपों का चित्रण संस्कृत के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। प्रबन्धकाव्यों में उसका संश्लिष्ट वर्णन हुआ है। (शब्द : 58)

संक्षेपण उदाहरण 3

एक दिन मेम – डाक्टर बेला से रूखे – से स्वर में पूछ बैठी – “तू कहाँ जायेगी? जाती क्यों नहीं? दूध और केले पर कहाँ तक पड़ी रहेगी?”

“कहाँ जाऊँ”?”
“मैं क्या जानूँ, कहाँ जायेगी !”
“मेरा तो इस दुनिया में कोई अपना नहीं है !”
“तो इसके लिए मैं जिम्मेवार हूँ? अस्पताल तो कोई यतीमखाना या आश्रम नहीं है। अगर तू खुद यहाँ से निकलेगी, तो मैं आज शाम को धक्के देकर निकलवा दंगी।”
“क्यों, मैंने क्या कसूर. . . . . . . . ”

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“कसूर का सवाल नहीं है। मुझे इस ‘बेड’ पर दूसरे मरीज को जगह देनी है। आज ही वह आती होगी। तू तो अब बिलकुल चंगी हो गयी।”
“तो आप अपने यहाँ मुझे अपनी नौकरानी बनाकर रख लें। मैं झाडू – बुहारू करूँगी, बरतन साफ करूँगी। मेरे लिए एक जून सूखी रोटी काफी होगी।”
“माफ करे, मैं बाज आयी !” – मेम साहिबा ने जरा मुस्कराकर कहा – “तुझे अपने घर पर ले जाकर रखू और मेरी चौखट पर रँगीलों का फैन्सी मेला हो ! ना, मुझे कबूल नहीं !”

“तब और किसी शरीफ के घर में . . . . . . . .”
“क्या टें – टें करती है? “मैं दवा देती हूँ, रोजी नहीं देती।”
“अस्पताल में दाई का काम नहीं मिल सकता?”
“बिना तनख्वाह के?”
“जो कुछ आप दें !”

“तू तो सिर हो रही !” – मेम साहिबा झल्ला उठीं – “यहाँ जगह नहीं है। तेरे लिए तो बाजार खला है ! वहाँ तो खासी आमदनी होगी।”

राजा राधिकारमण : ‘राम – रहीम’ (शब्द : 218)

संक्षेपण : मेम ने बेला को निकाल देने की धमकी दी
बेला जब भली – चंगी हुई, तब एक दिन मेम साहिबा ने उसे अस्पताल से चले जाने को कहा। लेकिन, उसका तो दुनिया में अपना कोई न था। मेम ने जब शाम को धक्के देकर निकलवा देने की धमकी दी, तो बेला ने नौकरानी बनने या अस्पताल में दाई का काम करने की इच्छा प्रकट की। इसपर मेम ने झल्लाकर कहा कि उसके लिए बाजार छोड़ दूसरी जगह नहीं हो सकती।

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(शब्द : 71)

संक्षेपण उदाहरण 4

सेवा में,
श्री सम्पादक, आर्यावर्त,

पटना,
18 – 10 – 59

पटना – 1

प्रिय महोदय,
यह पत्र प्रकाशनार्थ भेज रहा हूँ। आशा है, आप इसे अपने पत्र में स्थान देंगे और इसपर स्वयं भी विचार करेंगे।

हर साल की तरह इस वर्ष भी विजयादशमी का पावन पर्व देश के कोने – कोने में बड़ी धूमधाम से मनाया गया है। पत्रकारों, नेताओं और लेखकों ने पत्रों, मंचों और रेडियो के माध्यम से इसके उच्चतम आदेशों और अमर सन्देशों का परिचय सर्वसाधारण को दिया। जहाँ – तहाँ संगीत, नृत्य और नाट्य के बड़े – बड़े आयोजन हुए। बूढ़े, बच्चे और जवान, सबने रंग – बिरंगे परिधानों में दिल खोलकर इस राष्ट्रीय त्योहार का स्वागत किया।

वस्तुतः, यह हमारे लिए गौरव की बात है। लेकिन, खेद तब होता है, जब कुछ गैरजिम्मेवार लोग विजयोत्सव के नाम पर कुछ भद्दे प्रदर्शन करते हैं, जिनसे देश की राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक एकता को धक्का लगता है।

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देश के भिन्न – भिन्न प्रदेशों में दशहरे का त्योहार विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। हिन्दी प्रदेशों में रावण पर राम की विजय का प्रतीक मानकर विजयोत्सव मनाया जाता है, बंगाल में माँ दुर्गा की पूजा होती है और दक्षिण में माँ सरस्वती की अर्चना। इन सबमें मानव – मन की उदात्त भावनाओं को जगाने और आसुरी वृत्तियों को त्यागने की सामान्य प्रवृत्ति मुख्यरूप से लक्षित है।

दक्षिणवालों ने माँ सरस्वती की पूजा में देवासुर संग्राम की कल्पना नहीं की। फिर भी, दशहरा हमारे लिए आसुरी वृत्तियों पर देवत्व की विजय का सन्देशवाहक है। इस सन्देश की अभिव्यक्ति के लिए हम प्रतिवर्ष रामायण के आधार पर रामलीलाएँ करते हैं। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन, आपत्ति की बात तब होती है, जब हम सार्वजनिक स्थानों पर रावण कुम्भकर्ण और मेघनाद के विशाल पुतले जलाने का खुलेआम आयोजन करते हैं। मैं समझता हूँ कि देश की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता के हित में ऐसे भद्दे नाट्यप्रदर्शन अनुचित और निरर्थक हैं। इन्हें रोका जाए।

(शब्द : 307)

आपका,
घनश्यामदास

संक्षेपण : पुतले जलाने की प्रथा रोकी जाए 18 अक्टूबर, 1959 को गया के श्री घनश्यामदास ने ‘आर्यावर्त’ के सम्पादक के नाम इस आशय का एक पत्र लिखा कि विजयादशमी का राष्ट्रीय त्योहार सारे देश में धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें छोटे – बड़े सभी दिल खोलकर भाग लेते हैं। विजयोत्सव के नाम पर कुछ गैरजिम्मेवार लोग रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले खुलेआम जलाते हैं। देश की एकता के हित में यह अनुचित है। यद्यपि देश के विभिन्न प्रदेशों में विजयोत्सव के भिन्न – भिन्न रूप हैं, तथापि ये सभी हृदय की उन्नत भावनाओं को जगाते हैं, संघर्ष को नहीं। इसलिए पुतले जलाने की प्रथा रोकी जाए।

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(शब्द : 101)

संक्षेपण उदाहरण 5

मनुष्य उत्सवप्रिय होते हैं। उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य आनन्द – प्राप्ति है। यह तो सभी जानते हैं कि मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आजीवन प्रयत्न करता रहता है। आवश्यकता की पूर्ति होने पर सभी को सुख होता है। पर, उस सुख और उत्सव के इस आनन्द मे बड़ा अन्तर है। आवश्यकता अभाव सूचित करती है। उससे यह प्रकट होता है कि हममें किसी बात की कमी है। मनुष्य – जीवन ही ऐसा है कि वह किसी भी वसस्था में यह अनुभव नहीं कर सकता कि अब उसके लिए कोई आवश्यकता नहीं रह गई है।

एक के बाद दूसरी वस्तु की चिन्ता उसे सताती ही रहती है। इसलिए किसी एक आवश्यकता की पूर्ति से उसे जो सुख होता है, वह अत्यन्त क्षणिक होता है; क्योंकि तुरन्त ही दूसरी आवश्कता उपस्थित हो जाती है। उत्सव में हम किसी बात की आवश्कता का अनुभव नहीं करते। यही नहीं, उस दिन हम अपने काम – काज छोड़कर विशुद्ध आनन्द की प्राप्ति करते हैं। यह आनन्द जीवन का आनन्द है, काम का नहीं। उस दिन हम अपनी सारी आवश्यकताओं को भूलकर केवल मनुष्यत्व का खयाल करते हैं।

उस दिन हम अपनी स्वार्थ – चिन्ता दोड़ देते हैं, कर्तव्य – भार की उपेक्षा कर देते हैं तथा गौरव और सम्मान को भूल जाते हैं। उस दिन हममें उच्छंखलता आ जाती है, स्वच्छन्दता आ जाती है। उस रोज हमारी दिनचर्या बिलकुल नष्ट हो जाती है। व्यर्थ घूमकर, व्यर्थ काम कर, व्यर्थ खा – पीकर हमलोग अपने मन में यह अनुभव करते हैं कि हमलोग सच्चा आनन्द पा रहे हैं।।

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संक्षेपण : उत्सव का आनन्द मनुष्य को उत्सव प्रिय है। क्योंकि वह आनन्दप्रद है आवश्कता की पूर्ति से भी एक प्रकार का आनन्द होता है, पर वह क्षणिक होता है; क्योंकि एक आवश्यकता की पूर्ति होते ही दूसरी आवश्यकता महसूस होने लगती है। उत्सव में किसी अभाव का अनुभव नहीं होता बल्कि विशुद्ध आनन्द की प्राप्ति होती है। उस दिन लोग अपने कर्तव्य और मर्यादा को भूल जाते हैं। वे निश्चित, स्वच्छन्द और निरुद्देश्य होकर जीवन का रस लूटते हैं।

संक्षेपण उदाहरण 6

जब भक्त कवि भगवान को शिशु रूप देते हैं तो वे सर्वथा शिशु हो उठते हैं। जैसे सूर के बाल श्री कृष्ण और संसार के किसी दूसरे व्यक्ति के बच्चे की चेष्ठाओं में कोई अन्तर नहीं। जब सूर भगवान का प्रणयी रूप में चित्रण करते तब वे (कृष्ण) हमारे सामने हाड़ – मांस के प्राणी बन उठते हैं। उनमें कोई अपार्थिकता नहीं रह जाती।

यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास को बार – बार रामचरितमानस में याद दिलानी पड़ी कि राम दशरथ के पुत्र होते हुए भी परब्रह्म ही हैं, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि राम की पार्थिव लीलाओं के वर्णन में उनका सच्चिादानन्द रूप और ब्रह्मत्व तिरोहित न हो जाय। अतः वास्तविकता यह है कि भक्ति – भाव भगवान को मनुष्य के निकट नहीं लाता, भगवान को मनुष्य बनाबर उनकी सृष्टि कर देता है।

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(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 130)

शीर्षक : भक्ति – काव्य

भक्त कवियों ने मानवीय रूप देकर कृष्ण और राम के लौकिक रूप का वर्णन किया है जिसमें अलौकिकता का भ्रम नहीं होता। यही कारण है कि तुलसीदास को राम के ब्रह्मत्व की याद दिलानी पड़ती है। अतः भक्ति काव्य भगवान को मनुष्य बनाकर सृष्टि करता है।

(संक्षेपित शब्द – संख्यासम्राट – 44)

संक्षेपण उदाहरण 7

राष्ट्रीय जागृति तभी ताकत पाती है, तभी कारगर होती है, तब उसके पीछे संस्कृति की जागृति हो और यह तो आप जानते ही हैं कि किसी भी संस्कृति की जान उसके साहित्य में, यानि उसकी भाषा में है। इस बात को हम यों कह सकते हैं कि बिना संस्कृत के राष्ट्र नहीं और बिना भाषा के संस्कृति नहीं। कुछ लोग ऐसा समझ सकते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा के लिए नियम ही ज्यादा बनाए, उसे बाँधा था, उसमें जान नहीं फूंकी, इसलिए बड़ी बात नहीं की।

लेकिन ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि बिगुल बजाकर सिपाही को जगाने और जोश दिखाने वाले का नाम जितना महत्व का है, कम – से – कम उतना ही महत्व उस आदमी का भी है जो सिपाही को ठीक ढंग से वर्दी पहनाकर और कदम मिलाकर चलने की तमीज सिखाता है। संस्कृति की चेतना को जगाने के काम में तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की क्या कोई बराबरी करेगा, लेकिन उसे संगठित करने के काम में महावीर प्रसाद द्विवेदी का स्थान किसी से दूसरा नहीं है।

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(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 168)

शीर्षक : संस्कृति और भाषा राष्ट्रीय जागृति संस्कृति पर निर्भर करती है और संस्कृति भाषा और साहित्य के विकास पर। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा में अनुशासन लाकर साहित्य में नयी जान फूंक दी। जिस प्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर संस्कृति की चेतना को जगाने में अकेले थे, उसी प्रकार संस्कृति को संगठित करने में द्विवेदी जी का स्थान किसी में कम नहीं है।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 56)

संक्षेपण उदाहरण 8

धरती का कायाकल्प, यही देहात की सबसे बड़ी समस्या है। आज धरती रूठ गई है। किसान धरती में मरता है पर धरती से उपज नहीं होती। बीज के दाने तक कहीं – कहीं धरती पचा जाती है। धरती से अन्न की इच्छा रखते हुए गाँव के किसानों ने परती – जंगल जोत डाले, बंजर तोड़ते – तोड़ते किसानों के दल थक गये पर धरती न पसीजी और किसानों की दरिद्रता बढ़ती चली गई।

‘अधिक अन्न उपजाओं’ का सूग्गा – पाठ किसान सुनता है। वह समझता है अधिक धरती जोत में लानी चाहिए। उसने बाग – बगीचे के पेड़ काट डाले, खेतों को बढ़ाया पर धरती ने अधिक अन्न नहीं उपजाया। अधिक धरती के लिए अधिक पानी चाहिए, अधिक खाद चाहिए। धरती रूठी है, उसे मनाना होगा, किसी रीति से उसे भरना होगा।

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(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 128)

शीर्षक : धरती की समस्या धरती का कायाकल्प देहात की बड़ी समस्या है। अधिक अन्न उपजाओं के लिए किसानों के दल बंजर – परती और बाग – बगीचे जोतते – जोतते थक गये, लेकिन अधिक अन्न नहीं उपजा। इसके लिए अधिक पानी और खाद चाहिए। इसी से रूठी धरती मान सकेगी।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 42)

संक्षेपण उदाहरण 9

किसी देश की संस्कृति जानने के लिए वहाँ के साहित्य का पूरा अध्ययन नितांत आवश्यक है। साहित्य किसी देश तथा जाति के विकास का चिह्न है। साहित्य से उस जाति के धार्मिक विचारों, सामाजिक संगठन, ऐतिहासिक घटनाचक्र तथा राजनीतिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब मिल जाता है।

भारतीय संस्कृति के मूल आधार हमारे साहित्य के अमूल्य ग्रन्थ – रत्न हैं, जिनके विचारों से भारत की आंतरिक एकता का ज्ञान हो जाता है। हमारे देश की बाहरी विविधता भारतीय वाङ्गमय के रूप में बहनेवाली विचार और संस्कृति की एकता को ढंक लेती है। वाङ्गमय की आत्मा एक है, पर अनेक भाषाओं, रूपों तथा परिस्थितियों में हमारे सामने आती है।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 104)

शीर्षक : साहित्य से संस्कृति का ज्ञान देश या जाति की संस्कृति, धर्म, समाज, इतिहास और राजनीति के प्रतिबिम्ब स्वरूप साहित्य में होती है। भारतीय संस्कृति का मूलाधार विविधता में एकता है जो अनेक भाषाओं, रूपों तथा परिस्थितियों में भी एकात्म है।

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संक्षेपण उदाहरण 10

राजनीतिक दाव – पेंच के इस युग से चुनाव को व्यवसाय बना दिया गया है। चुनाव में मतदाताओं को ठगने एवं उनको मायाजाल में फंसाने के लिए रंग – बिरंगे वायदे किए जाते हैं। गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने, सड़क बनवाने, स्कूल खुलवाने, नौकरी दिलवाने आदि अनेक प्रकार के वायदे चुनाव के समय किए जाते हैं।

गरीबी और बेरोजगारी को हटाने के लिए उद्योगों की स्थापना करनी होगी, नयी परियोजनाओं का संचालन करना होगा। शिक्षा को रोजगार से जोड़ना होगा, न कि केवल चुनावी वायदों का वाग्जाल फैलाकर मतदाता को फंसाकर रखने से गरीबी और बेरोजगारी हटेगी। चुनावी वायदों की रंगीन परिकल्पनाओं से मतदाता की आस्था धीरे – धीरे सामप्त होने लगेगी।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 108)

शीर्षक : चुनावी वायदों के कोरे वाग्जाल आजकल चुनावी व्यवसाय में उम्मीदवार मतदाताओं को गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने, स्कूल खुलवाने जैसे – अनेक रंगीन वादों से ठगते हैं। परन्तु बेरोजगारी और गरीबी उद्योगों की स्थापना से मिटेगी, न कि नकली वाग्जाल से 1 अन्यथा इससे हमारी आस्था समाप्त हो जाएगी।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 38)

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय

1. उपसर्ग और प्रत्यय में क्या अन्तर है? सोदाहरण लिखें।
उपसर्ग – जो शब्द या शब्दांश किसी शब्द के पूर्व लगकर उसके रूप अर्थ में परिवर्तन लाये, उसे उपसर्ग कहते हैं। जैसे – अभि + राम = अभिराम।

प्रत्यय – जो शब्द या शब्दांश किसी शब्द के अन्त में लगकर उसके रूप और अर्थ में परिवर्तन लाये, उसे प्रत्यय कहते हैं। जैसे – बूढ़ा + पा = बूढ़ापा। .

उपसर्ग और प्रत्यय में यही अन्तर है कि उपसर्ग शब्द के पूर्व में लगता है और प्रत्यय शब्द के अन्त में।

2. निम्नलिखित उपसर्गों से दो – दो शब्द बनायें। अन, अ, अधि, अध, अनु, अए, अव, आ, उप, निर, परि, प्र, प्रति, सु, हर।

  • अन – अनमोल, अनर्थ
  • अ – अगम, अनाथ
  • अघि – अधिकार, अधिनियम
  • अध – अघमरा, अधखिला
  • अमु – अनुसरण, अनुगामी
  • अप – अपयश, अपमान
  • अव – अवगत, अवगुण
  • आ – आगम, आकाश
  • उप – उपन्यास, उपदेश
  • नि – निकम्मा, निदान
  • निर – निर्बल, निर्दोष
  • परि – परिमल; परिजन
  • प्र – प्रकट, प्रकार
  • प्रति – प्रतिदिन, प्रतिकूल
  • सु – सुकर्म, सुलभ
  • हर – हर दिन, हर माह

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय

3. निम्नलिखित प्रत्ययों से दो – दो शब्द बनायें। आई, हार, इया, वट, हट, ता, पा, मान्, इय, इक, इमा, त्व, पन, यश, वाला, वर।

  • आई – चढ़ाई, पढ़ाई
  • हार – होनहार, मनिहार
  • इया – मुखिया, छलिया।
  • अट – लिखावट, बनावट
  • हट – घबराहट, चिल्लाहट
  • ता – मूर्खता, जड़ता
  • पा – बढ़ापा, मोटापा
  • मान् – श्रीमान्, शक्तिमान्
  • इय – क्षेत्रीय, राष्ट्रीय
  • इक – मासिक, दैनिक
  • इमा – लालिमा, गरिमा
  • त्व – मनुष्यत्व, पशुत्व
  • पन – लड़कपन, बड़प्पन
  • यश – अपयश, सुयश
  • वाला – घरवाला, रखवाला
  • वर – मान्यवर, पूज्यवर

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय