Bihar Board Class 11th Hindi साहित्य शास्त्र

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions

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शब्द-शक्ति

प्रश्न 1.
‘शब्द-शक्ति’ का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए उसके स्वरूप का विवेचना कीजिए।
उत्तर-
‘शब्द-शक्ति’ का तात्पर्य-साहित्य मूलतः शब्द के माध्यम से साकार होता है। भारतीय दर्शनशास्त्र में ‘शब्द’ को ‘ब्रह्म’ कहा गया है। जिस प्रकार ब्रह्म इस जगत का स्रष्टा है, उसी की माया का विविध रूपों में प्रसार विश्व की गतिशीलता और क्रियाशीलता का आधार है। यही ‘माया’ ब्रह्म की ‘शक्ति’ भी कहलाती है। उसी प्रकार शब्द की माया अर्थात् शक्ति समस्त भाव जगत या विचार सृष्टि की विधात्री है। गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचतिमानस’ महाकाव्य के आरंभ में कहा है-‘जिस प्रकार जल और उसकी लहर कहने को भले ही अलग हैं पर वास्तव में वे दोनों हैं एक ही, उसी प्रकार ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ नाम अलग होते हुए भी, दोनों एक दूसरे से अभिन्न हैं।’

शब्द अरथ जल बीचि, सम, कहियत भिन्न-न-भिन्न
-रामचरितमानस, (बालकांड)

जैसे वस्त्र से उनका रंग, फूल से उसकी गंध और आग से उसकी तपन अलग नहीं, उसी प्रकार शब्द से उसका अर्थ अलग नहीं। शब्द और अर्थ की इसी ‘अभिन्नता’ का नाम ‘शब्दशक्ति’ है।

‘शब्द-शक्ति’ का स्वरूप-‘शब्द’ की ‘शक्ति’ क्या है-‘अर्थ’। अर्थ के माध्यम से ही किसी शब्द की क्षमता, महत्ता, सुष्टुता और प्रभविष्णुता का पता चल पाता है।

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इस आधार पर ‘शब्द-शक्ति’ की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है। ‘शब्द में अर्थ को सूचित करने की जो क्षमता होती है उस ‘शद्र किन, कहते हैं। इस परिभाषा को अन्य विद्वानों ने कुछ मग्ल-रूप में इस प्रकार प्रस्तुत किया है ‘शब्द का वह व्यापार, जिसके द्वारा किसी अर्थ का बोध होता है, ‘शब्द-शक्ति’। कहलाता है।’ एक उदाहरण द्वारा ‘शब्द-शक्ति’ के स्वरूप को समझना होगा। गष्ट्रकवि सोहनलाल द्विवेदी का गीत है-

यह मेरी नन्ही तकली,
है नाचती जैसे मछली,
मैं सूत बनाता इसमें,
मैं गाना गाता इसमें,
मैं दिल बहलाता इसमें,
मैं खेल मचाता इसमें,
यह फिरती उछली-उछली,
यह मेरी नन्ही तकली।

इस गीत में जिन शब्दों का प्रयोग किया गया है वे सभी ‘वाचक’ हैं अर्थात् वे अपना अर्थ स्वयं ही बता रहे हैं। यदि किसी शब्द का अर्थ पहले से पता न भी हो तो ‘कोश’ से देखकर या किसी अन्य जानकार से पूछकर मालूम कर सकते हैं। नन्हीं, तकली, मछली, सूत, गाना, दिल, . खेल, आदि के अर्थ प्रसिद्ध और सर्वज्ञात हैं। इस प्रकार के प्रसिद्ध अर्थ अर्थात् मुख्य अर्थ या वाच्य अर्थ कहलाते हैं। अर्थात् ये अर्थ प्रसिद्ध हैं और पहले से पुस्तकों में (कोश, व्याकरण आदि में) में बताए जा चुके हैं। ऐसे वाच्य अर्थ’ या ‘मुख्य अर्थ’ का बोध जिन शब्दों से होता है।

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वे ‘वाचक’ शब्द कहलाते हैं। – अब इसी गीत में आए हुए ‘दिल बहलाता’, ‘खेल मचाता’ और ‘फिरती उछली-उछली’ पर ध्यान दें। ‘बहलाया’ बच्चों को जाता है। दिल बच्चा नहीं। उसे ‘बहलाना’ कैसे संभव है? इस प्रकार ‘बहलाना’ शब्द का मुख्य अर्थ ‘खुश करना’ बाधित (ठीक न लगने वाला) प्रतीत होता है। तब हम बहलाने के लक्षण से यह अर्थ मालूम करेंगे कि जैसे उदास बच्चे को किसी खेल-खिलौने से खुश किया जाता है, उसी प्रकार ‘मेरा उदास मन तकली चलाने से खुश रहता है’ (तकली चलाने में मस्त होकर मन ही उदासी दूर हो जाती है।)

इस तरह हमने एक अन्य अर्थ लक्षित कर लिया। इस अर्थ को ‘लक्ष्यार्थ’ (लक्ष्य अर्थ लक्षण से जाना गया अर्थ, कहते हैं और इस प्रकार का अर्थ देने वाला शब्द ‘लक्षक’ शब्द कहलाता है। इसी प्रकार, ‘खेल मचाना’ या ‘तकली का उछलमा प्रयोगों में भी लक्षक शब्द और लक्ष्यार्थ हैं। उछलते बच्चे (मनुष्य या जीवित प्राणी) है। तकली तो बेजान है, वह कैसे उछली-उछली फिर सकती है। इस तरह ‘उछली’ शब्द के प्रसिद्ध अर्थ ‘कूदना, ऊपर-नीचे होकर मटकना या मस्ती से ‘चलना’ बाधक (रोक) प्रतीक होती है।

अर्थात् यहाँ यह अर्थ (तकली मस्ती में झूमकर उछल रही संगत प्रतीत नहीं होता। तब हम ‘उछलना’ के लक्षण (मस्ती से झूमना) द्वारा यह लक्ष्यार्थ ग्रहण करते हैं कि जैसे बच्चे (या प्राणी) मस्ती में उछलते हैं उसी प्रकार सूत कातते समय तकली का ऊपर-नीचे होना, इधर-उधर हिलना ऐसा लगता है मानों वह मस्ती में उछल-नाच रही है।

अब, इस सारे गीत को एक-बार फिर पढ़ने पर जब हम यह जानते हैं कि तकली चलानेवाले का मन बड़ा खुश है। वह अपनी छोटी-सी तकली चलाते समय खेल-कूद जैसा आनंद अनुभव करता है। तब इसमें छिपा हुआ यह मूढ़ भाव स्पष्ट हो जाता है कि गाँधीजी ने देशवासियों को जो चरखा-तकली चलाकर अपने हाथ से सूत कातकर ‘स्वदेशी’ का संदेश दिया वह बड़ा सुखकर और आनंददायक है। यह ‘छिपा हुआ गूढ अर्थ “व्यंग्यार्थ,(व्यंग्य अर्थ अर्थात् शब्दों के माध्यम से व्यजित (प्रकट होने वाला. नया-सूक्ष्म अर्थ) कहलाता है और इस प्रकार के ‘व्यंग्यार्थ’ (गूढ़ अर्थ) वाले. शब्द (व्यंजक) कहलाते हैं।

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उपर्युक्त पद्यबद्ध उदाहरण के अर्थ-सौंदर्य के विवेचन के आधार पर शब्दशक्ति का स्वरूप भलीभाँति स्पष्ट हो जाता है।

प्रश्न 2.
‘शब्द-शक्ति’ के प्रमुख भेद लक्षण-उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
अथवा,
‘शब्द-शक्ति’ कितने प्रकार की है? उसके विभिनन प्रकार (भेद या रूप) लक्षण-उदाहरण सहित स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
जब हम साहित्य के किसी भी वंश (पद्य या गद्य) के अर्थ-सौंदर्य पर विचार करते हैं तो पहले यह तथ्य सामने आता है कि उस गद्यांश में प्रयुक्त शब्दों में प्राप्त होने वाले अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया क्या हो सकती है। उदाहरणतया फूल शब्द का अर्थ ग्रहण करने की तीन प्रक्रियाएँ संभव है। एक-उसका शब्दकोश और लोक-व्यवहार में प्रचलित मुख्य अर्थ-किसी पौधे पर उगने वाला वह आकर्षक, रंगीन, सुंदर पदार्थ जिसमें गंध भी होती है। जैसे-गुलाब, गेंदा, चमेली, आदि। दूसरी-‘मेरे जीवन में ‘फूल’ कभी खिले ही नहीं’ इस वाक्य में फूल के अर्थ-ग्रहण की प्रक्रिया बदल जाएगी।

जीवन कोई पेड़-पौधा नहीं जिस पर फूल खिला करते हों। इस प्रकार मुख्य, प्रचलित या वाच्य अर्थ असंगत लगता है। उसकी प्रतीत (अर्थ की प्राप्ति) में बोध (व्यवधान) है। तब नई प्रक्रिया शुरू होती है-‘फूल के गुण लक्षण के आधार पर। फूल आनंददायक होता है। इस लक्षण की सहायता से हम यह अर्थग्रहण करेंगे-मेरे जीवन में कभी सुख-आनंददायक का अवसर आया ही नहीं। तीसरी प्रक्रिया तनिक और भी भिन्न होगी। उसमें इसी ‘फूल’ शब्द का न तो वाच्यार्थ पूर्णतः संगत होगा, न ही लक्ष्यार्थ (सुख-आनंद) उचित प्रतीत होगा। ‘कली फूल बनने से पहले ही मुरझा गई।’

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हो सकता है, इस वाक्य का वाच्यार्य भी अभीष्ट हो कि (आँधी, तूफान या बाढ़ के कारण) कई कलियाँ विकसित होने से पहले ही नष्ट हो गईं। परंतु इसका व्यजित अर्थ बड़ा मार्मिक है-बच्चा यौवन आने से पहले ही काल का ग्रास बन गया अथवा बालिका (भीषण विपत्तियों के कारण) पूर्ण यौवन के सौंदर्य के आगमन से पहले ही उदास, लाचार और मरी-मरी सी हो गई है। या बालक अभी जवान ही नहीं हुआ था कि (पिता आदि के न रहने से) जिम्मेदारी के बोझ से दबकर दुबला-पतला हो गया है” आदि।

इस प्रकार हमने देखा कि किसी शब्द के अर्थ को बोध करने वाला शक्ति अर्थात् शब्द-शक्ति भिन्न-भिन्न रूपों (प्रक्रियाओं) में काम करती है। ऊपर दिए गए ‘फूल’ वाले उदाहरण से स्पष्ट है कि शब्द शक्ति से संदर्भ में शब्द मुख्यतः तीन स्तरों में विभाजित हो सकते हैं-

  • ‘वाच्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘वाचक’।
  • ‘लक्ष्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘लक्षक’।
  • ‘व्यंग्यार्थ’ का बोध कराने वाले शब्द ‘व्यंजक’।

पहले स्तर का अर्थ-व्यापार ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति का है, दूसरे स्तर का व्यापार ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति का तथा तीसरे स्तर का व्यापार ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति का है। इसी आधार पर ‘शब्द-शक्ति के तीन भेद माने जाते हैं-

  • अभिधा,
  • लक्षणा,
  • व्यंजना।

अभिधा शब्द-शक्ति-‘शब्द के जिस व्यापार या सामर्थ्य से उसके स्वाभाविक (प्रसिद्ध, मुख्य या प्रचलित) अर्थ का बोध होता है, उसे ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

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‘अभिधा’ शब्द-शक्ति से प्राप्त अर्थ ‘वाच्यार्थ’ या ‘मुख्यार्थ’ तथा ऐसे अर्थ का बोध कराने वाला शब्द ‘वाचक’ शब्द कहलाता है। जैसे-

पंचवटी की छाया में है सुंदर पर्ण-कुटीर बना,
उसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर धीर वीर निर्भीक मना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर जबकि भुवन पर सोता है। (मैथिलीशरण गुप्त, पंचवटी)

इन पंक्तियों के सभी शब्द ‘वाचक’ हैं और उनसे मुख्यार्थ या वाच्यार्थ (स्वाभाविक, प्रसिद्ध या प्रचलित अर्थ) का बोध होता है। अतः यहाँ ‘अभिधा’ शब्द-शक्ति है।

लक्षणा शब्द-शक्ति-‘शब्द’ के जिस व्यापार (सामर्थ्य) से, ज्ञात मुख्यार्थ में बोध होने पर, लक्षण के आधार पर किसी अन्य अर्थ का बोध होता है उसे ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति से ज्ञात अर्थ ‘लक्ष्यार्थ’ तथा उसका बोध कराने वाला शब्द ‘लक्षक’ कहलाता है।जैसे-

सपने में तुम नित आते हो, मैं हूँ अति सुख पाती।
मिलने को उठती हूँ, सौतन आँख प्रथम उठ जाती। (रामनरेश त्रिपाठी)

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‘आँख’ जो स्त्री नहीं, सो वह सौत हो सकती है। प्राणी सोता या जागता (उठता) है, आँख नहीं। इस प्रकार, यहाँ आँख उठ जाती के वाच्यार्थ में बोध है। तब हम ‘सौत’ के लक्षण द्वारा यह लक्ष्यार्थ मालूम करते हैं कि जिस प्रकार किसी स्त्री की सौत (पति की दूसरी पत्नी) उसे पति से मिलने में बाधक बनती है, उसी प्रकार इस कविता में दुखी नायिका को स्वप्न में भी प्रिय-मिलन का सुख अनुभव करने में उसकी आँख बाधक बन जाती है, क्योंकि स्वप्न के समय आँखें बंद होती हैं। नायिका स्वपन में प्रिय को देखकर ज्यों ही उससे मिलने के लिए उठती है तभी आँखें खुल जाती हैं। नायिका का सुख दुःख में बदल जाता है। इस प्रकार, यहाँ ‘लक्षण’ शब्द ‘सौतन’ तथा ‘आँख उठ जाती’ द्वारा लक्ष्यार्थ की प्रतीति हुई है, अतः, “लक्षणा’ शब्द-शक्ति है।

इस विवेचन से स्पष्ट है कि ‘लक्षणा’ शब्द-शक्ति के व्यापार में क्रमशः दो बातें आवश्यक हैं-

  • मुख्यार्थ में बाधा होना, अर्थात् प्रसिद्ध अर्थ का असंगत प्रतीत होना।।
  • लक्षक शब्द के मुख्यार्थ और लक्ष्यार्थ में लक्षण (गुण-स्वभाव आदि की विशेषता) का साम्य होना।

ऊपर के उदाहरण में ‘आँख उठ जाना’ के मुख्यार्थ में बाधक स्पष्ट है-आँख उठती-बैठती जागती-सोती नहीं। यह तो प्राणी के स्वभाव या लक्षण है। फिर सौत के स्वभाव (नायिका के पति-मिलन के सुख में रुकावट डालकर उसे और सताने) तथा ‘आँख के उठ जाने’ के परिणाम में साम्य है। इसी प्रकार एक अन्य उदाहरण है-

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तलवारों का प्यास बुझाता, केवल तलवारों का पानी।  – (सोहनलाल द्विवेदी, भैरवी)

तलवार कोई ऐसी प्राणी नहीं जिसे प्यास लगे। न तलवार में पानी (जल) होता है जो किसी की प्यास बुझाता है। तलवार का लक्षण (स्वभाव, पहचान) है-वैरी पर वार कर लहू बहाना। यह कार्य तलवार स्वयं नहीं करती, उसे थामने या चलाने वाला वीर योद्धा करता है। उसका जवाब भी कोई वीर-योद्धा ही देकर विरोधी की युद्ध संबंधी इच्छा (प्यास) पूरी करता है। इस तरह यहाँ ‘तलवार प्यास और पानी-लक्षण’ शब्द हैं जिनसे उपर्युक्त लक्ष्यार्थ की प्राप्ति हुई है।

व्यंजना शब्द-शक्ति-‘शब्द के जिस व्यापार का सामर्थ्य से, उसके मुख्यार्थ (वाच्य या प्रसिद्ध अर्थ) अथवा लक्ष्यार्थ से भिन्न किसी अन्य, विशेष, गूढ़ या प्रतीयमान अर्थ का बोध होता है उसे ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति कहते हैं।

व्यंजना शब्द-शक्ति वहाँ होती है जहाँ अभिप्रेत अर्थ स्पष्ट ज्ञात न होकर, प्रकारांतर से सांकेतिक या व्यजित होता है। अत: व्यंजना से प्रतीत होने वाला अर्थ ‘व्यंग्यार्थ’ तथा. व्यंजना-शब्द-शक्ति से युक्त शब्द ‘व्यंजक’ कहलाता है।

उदाहरण-
चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोय।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।।

यहाँ मुख्य (वाक्य) अर्थ यह है कि ‘संत कबीर चलती हुई चक्की को देखकर अत्यंत दुखी हैं, क्योंकि चक्की के दोनों पाटों के बीच में आने वाला कोई भी (दाना) बिना पिसे नहीं रह सकता। यह मुख्यार्थ साधारण है। कवि का अभिप्राय चक्की में पाटों द्वारा अनाज के दानों के पीसे जाने की प्रक्रिया बताना नहीं है-इसे तो सभी जानते हैं। कवि का अभीष्ट अथवा प्रतीयमान अर्थ यह है कि ‘संसार चक्की के समान है।

दिन और रात, या जन्म और मृत्यु इसके दो पाट हैं। इनके बीच फंस जाने के बाद कोई भी जीवन सुरक्षित नहीं रह पाता। व्यंग्यार्थ यह है कि ‘संसार नश्वर है जन्म और मृत्यु के चक्र से कोई भी बच नहीं सकता। ‘चक्की’ और ‘पाट’ ‘व्यंजक’ शब्द है।

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इसी प्रकार-

अबला जीवन हाय ! तुम्हारा यही कहानी।
आँचल में है दूध और आँखों में पानी।  –(मैथिलीशरण गुप्त)

इन पंक्तियों का मुख्य या वाच्य (ज्ञात) अर्थ है-‘हे नारी ! तेरी कहानी बस इतनी-सी है कि तुम्हारे अंचल (वक्ष या स्तनों) में दूध और आँखों पानी है।’ कवि का अभिप्रेत अर्थ इतना ही नहीं। छुपा हुआ (व्यंग्य) अर्थात् प्रतीयमान अथवा अभीष्ट (व्यंजित) अर्थ यह है कि ‘समाज -: में नारी महा-महिमामयी होते हुए भी सदा असहाय, उपेक्षित और अशक्त ही रहती है।

उसके अंत:करण में परिवार-समाज के लिए ममत्व, स्नेह, समर्पण, सौहार्द का ही स्रोत बहता है। वह जीवन भर ममता का अमृत प्रदान करती है। किन्तु बदले में उसे मिलता क्या है-उपेक्षा, तिरस्कार, शोषण, अन्याय और स्वार्थ के रूप में जीवन भर तड़पते हुए रोते रहना, आहें भरकर तिल-तिल जलते रहना।’ इस मार्मिक अर्थ की व्यंजना (प्रतीति) कराने वाले ‘व्यंजक’ शब्द हैं-

  • ‘अंचल पें है दूध’
  • ‘आँखों में पानी’।

क्रमशः इनका व्यंग्यार्थ यातना, आहे और सिसकियाँ।

प्रश्न 3.
‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति में क्या अंतर है? उदाहरण देकर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
लक्षण और व्यंजना दोनों शब्द-शक्तियाँ साधारण रूप से जाने-पहचाने, मुख्य अथवा वाच्य अर्थ से कुछ अलग, भिन्न अर्थ का बोध कराती है, इसलिए इन दोनों की अलग-अलग पहचान में कई बार भ्रांति या कठिनाई की संभावना रहती है। दोनों के स्वरूप को पृथक रूप से स्पष्ट करने के लिए, दोनों की निम्नलिखित भिन्नताओं को ध्यान में रखना आवश्यक है

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(1) लक्षण’ शब्द-शक्ति का अस्तित्व वही मानना चाहिए जहाँ मुख्य (वाक्य या प्रसिद्ध) अर्थ में बाधा (असंगति) हो। ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति के अंतर्गत मुख्यार्थ या वाच्यार्थ में बाधा (असंगति) नहीं होती, अर्थात् मुख्य या वाच्य अर्थ असंगत, असंभव, या असंबद्ध प्रतीत नहीं होता। जैसे-

अँखियाँ हरि दरसन की प्यासी।  –(सूरदास, भ्रमरगीत)

आँखों का भूखा होना संभव नहीं है, वे आहार नहीं करतीं। इस प्रकार ‘भूखी’ शब्द लक्षक है जिसका मुख्य अर्थ ‘खाने को व्याकुल होना’ बाधित अर्थात् असंभव, ‘असंगत या असंबद्ध है। इस असंगति को देखकर ही हम ‘भूख’ के लक्षण ‘व्याकुलता’, ‘उत्सुकता’, ‘तड़प’, ‘तीव्र लालसा’ के आधार पर यह लक्ष्यार्थ प्राप्त करते हैं कि ‘आँखें कृष्ण को देखने के लिए व्याकुल हैं।’

दूसरे ओर व्यंजना के अंतर्गत मुख्य (वाच्य) अर्थ का बाधिक (असंगत) होना वांछनीय नहीं जैसे-

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंक्षी को छाया नहीं फल लागै अति दूर॥ –(कबीर)

मुख्यार्थ स्पष्ट है-‘खजूर के पेड़ की तरह लंबा होने का क्या महत्त्व है? न तो वह पथिक को छाया दे सकता है और न ही आसानी से उसके फल को प्राप्त कर स्वाद लिया जा सकता है।’ यह अर्थ के रहते हुए भी एक अन्य छिपे हुए, गूढ (व्यंग्य) या प्रतीयमान अर्थ की प्रतीति संभव है-‘केवल ऊँचा खानदान होने से ही कोई महान नहीं बन सकता, जब तक कि कोई दूसरों को सुख-सहानुभूति और उपकार-सहायता न दे।’

(2) इसी उदाहरण के आधार पर ‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्तियों में एक अन्य अंतर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ‘लक्षण’ शब्द-शक्ति के अंतर्गत तो मुख्य (वाच्य या प्रसिद्ध, ज्ञात) अर्थ तभी लक्ष्य (लक्षित) अर्थ में गुण, स्वभाव या लक्षण संबंधी कोई-न-कोई पारस्परिक संबंध होता है जबकि ‘व्यंजना में ‘मुख्यार्थ’ और ‘व्यंग्यार्थ’ में परस्पर संबंध होना आवश्यक नहीं। जैसे

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फूल काँटों में खिला था, से पर मुरझा गया। -(रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल)

यहाँ व्यंग्यार्थ अर्थात् प्रतीयमान अर्थ यह है कि ‘जीवन संघर्षों और कष्टों से गुजर कर ही . सार्थक और सुखी होता है। ऐश-आराम में मस्त हो जाने पर जीवन की सार्थकता समाप्त हो जाती है। आलस्य, प्रमाद और निष्क्रियता से वह निरर्थक-सा हो जाता है।’ फूल, कांटा, खिलना, मुराना आदि के मुख्य अर्थ से इस प्रतीयमान अर्थ का कोई स्वभाव, लक्षण या गुण संबंधी साम्य नहीं।

(3) लक्षण’ और ‘व्यंजना’ के अंतर को स्पष्ट करने वाला एक अन्य मुख्य तथ्य यह है . कि ‘लक्षण’ द्वारा केवल किसी एक लक्ष्यार्थ का बोध होता है, जबकि व्यंजना शब्द-शक्ति द्वारा एक ही कथन या शब्द के अनेक अर्थों की प्रतीति की जा सकती है। हर सहृदय पाठक का श्रोता अपनी मन:स्थिति, रुचि या प्रवृत्ति के अनुसार प्रतीयमान (अभिप्रेत) अर्थ को प्रतीति कर सकता है।

जैसे-
खून खौलने लगा वीर का, देख-देखकर न संहार।
नाच रही सर्वत्र मौत थी, गूंज रहा था हाहकार॥

खौलनां पानी या दूध का स्वभाव है, नाचना प्राणी का लक्षण है, गूंजना संगीत का। यहाँ मुख्यार्थ में बाँधता (असंगति) स्पष्ट है। लक्ष्यार्थ है-वीर को क्रोध की अनुभूति, असंख्य लोगों की पल-पल मौत और रुदन-चीत्कार की आवाजों का शोर। लक्षण द्वारा प्राप्त यह अर्थ ही ग्राह्य है, अन्य कोई अर्थ संभव नहीं। परंतु नीचे दिए गए उदाहरण में ‘श्याम घटाएँ देखकर मन के उल्लसित होने’ के अनेक प्रतीयमान अर्थ (व्यंग्यार्थ) संभव हैं-

श्यामा घटा अवलोक नाचता।
मन-मयूर था उसका॥

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राधा का किसी गोपी अथवा अन्य किसी कृष्णभक्त के लिए श्याम घटा श्रीकृष्ण की मोहिनी साँवली सूरत की अनुभूति का आभास दे सकती है। यदि कृषक का मन उल्लास से भर रहा है तो श्याम घटाएँ उसे अपनी अब तक की सूखी धरती में धन-धान्य की हरियाली की आशा बँधा रही हैं। तपती दुपहरी में, पसीने से सरोबार थका मुसाफिर श्याम घटाओं में सुखद राहत की अनुभूति कर सकता है।

इस प्रकार, ‘लक्षण’ और ‘व्यंजना’ शब्द-शक्ति के अस्तित्व की पहचान वास्तव में कथन के संदर्भ के आधार पर की जा सकती है। किसी ‘एक शब्द’ का लक्ष्यार्थ या व्यंग्यार्थ कथन में प्रस्तुत भाषिक संरचना के स्वरूप के अनुसार ग्रहण किया जा सकता है।

रस-ध्वनि

प्रश्न 1.
रस का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, काव्य में उसका स्थान और महत्त्व निर्धारित कीजिए।
अथवा,
रस की परिभाषा देकर स्पष्ट कीजिए कि काव्य में रस की क्या स्थिति है?
अथवा,
रस का तात्पर्य क्या है? काव्य के अंतर्गत रस-व्यंजन का प्रयोजन स्पष्ट करते हुए उसके स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
‘रस’ शब्द का सामान्य प्रचलित अर्थ है-आनंद, स्वाद, सुख या मजा। यह अर्थ लौकिक जीवन में मानव-शरीर को अनुभव होने वाली सुविधाओं से मिलने वाली खुशी से संबंधित है। जैसे-‘कोई दृश्य देखकर हमें बड़ा ‘मजा’ आया।’ ‘अमुक गीत सुनकर कानों में मानों’ ‘रस’ घुल गया’ आदि। परंतु काव्य के अंतर्गत ‘रस’ का अभिप्राय’ एक विशेष प्रकार का अलौकिक आनंद’ है।

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काव्य का आनंद व्यक्ति, स्थान या समय की सीमा में नहीं बंधा रहता। वह शाश्वत, सार्वभौम, सार्वकालिक तथा सार्वजनीत होता है। कालिदास के नाटक, बाल्मीकि के श्लोक, कबीर के पद, तुलसी के दोहे या प्रसाद, पंत आदि के गीत किसी भी युग के, किसी भी वर्ग के पाठक या श्रोता के अंत:करण को समान तृप्ति प्रदान करते हैं। एक प्राचीन ग्रंथ में कहा गया है-“जिस प्रकार एक ब्रह्मयोगी साधक को, साधना के चरम बिन्दु पर पहुँचने के बाद मिलने वाली आत्मानंद की अनुभूति अनिर्वचनीय और अलौकिक होती है उसी प्रकार काव्य द्वारा मिलने वाला आंतरिक आनंद (काव्यास्वाद अर्थात् काव्य का आसवादन) भी अलौकिक होता है।”

संस्कृत के प्राचीन आचार्य भरत ने उचित ही कहा है कि ‘रस के बिना अर्थ-अनुभूति का प्रवर्तन संभव नहीं।’

स्वरूप-संक्षेप में कहें, तो ‘काव्य-अध्ययन’ से अनुभूति होने वाला अलौकिक आंतरिक आस्वाद ही रस है। ‘इस संबंध में ध्यान देने की बात यह है कि काव्य द्वारा उद्भूत अलौकिक आनंदानुभूति का कोई-न-कोई आधारभूत ‘कारण’ होना आवश्यक है। उस ‘कारण’ के साथ कुछ सहायक ‘परिस्थितियाँ’, मिलकर उसे विशेष प्रभावशाली बना देती है। इन दोनों के माध्यम से अंत:करण में अनेक भाव-तरंगों की ‘हलचल’ शुरू हो जाती है।

यह ‘हलचल’ काव्य के पाठक या श्रोता (दर्शक) के हृदय में एक ऐसी विशिष्ट ‘रागात्मक संवेदना’ को जागृत कर देती है जो अंतत: एक ‘अलौकिक आनंद’ का रूप ले लेती है। – इस प्रकार काव्य में निहित अलौकिक आस्वाद (रस) की अभिव्यंजना मुख्य रूप से इन चार घटकों पर आधारित है-कारण, उसमें सहायक परिस्थितियाँ, उनके प्रभाव से होने वाली हलचल सम्म तथा उसके परिणामस्वरूप किसी विशिष्ट रागात्मक संवेदना का आस्वाद।

इन्हीं को प्राचीन आचार्यों ने साहित्यशास्त्र की शब्दावली में क्रमशः विभाव, अनुभव, संचारी भाव तथा स्थायी भाव कहा है। इसी आधार पर भारत के सर्वप्रथम साहित्यशास्त्रीय आचार्य भरत ने अपने नाट्य-शास्त्र’ नामक ग्रंथ में ‘रस’ की यह परिभाषा प्रस्तुत की है

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“विभावानुभावसंचारी संयोगात् रसनिष्पत्तिः” अर्थात् विभाव, अनुभाव और संचारी (भाव) के संयोग से रस की निष्पत्ति (अर्थात् व्यंजना) होती है।

इस परिभाषा में यद्यपि ‘स्थायी भाव’ का उल्लेख नहीं है, तथापि भरत ने बाद में, उक्त परिभाषा को स्पष्ट करते हुए, स्थायी भाव का भी अलग से विवेचन कर दिया है।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर रस के स्वरूप को इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है … “विभाव अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध (जागृत या अभिव्यक्त) होने वाले स्थायी भाव के आस्वाद को ‘रस’ कहते हैं।

एक उदाहरण के माध्यम से ‘रस’ के उपर्युक्त स्वरूप को सरलतापूर्वक स्पष्ट किया जा सकता है-

खेलत हरि निकसब्रज-खोरी।
कटि कछनी पीताम्बर बाँधे, हाथ लिए भौरा चक डोरी।
गए स्याम रवि-तनया के तट, अंग लसत चंदन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन-नैन मिलि परी डगोरी॥  –(सूरदास, साहित्य-मंजूषा, भाग-1)

यहाँ कृष्ण और राधा “विभाव’ अर्थात् भाव के कारण है। कृष्ण का फिरकी, लटू आदि घुमाना ‘अभुभाव’ है। उनके हृदय में राधा को देखकर उठने वाले आकर्षण, औत्सुक्य, हर्ष आदि ‘संचारी भाव’ हैं। दोनों का परस्पर प्रेम (आकर्षण) अथवा ‘रति’ स्थायीभाव है जिससे ‘शृंगार’ रस की अभिव्यंजना हुई है।

रस की काव्य में स्थिति अथवा महता

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‘अग्नि पुराण’ में कहा गया है कि “काव्य में भाषा का चाहे जितना भी चमत्कार हो, परंतु उसका जीवन तो रस ही है।” आचार्य वामन कहते हैं कि ‘काव्य की वास्तविक दीप्ति, चमत्कृति या क्रांति उसके रसत्व में ही निहित हैं।” एक अन्य प्रसिद्ध साहित्याशास्त्रीय आचार्य विश्वनाथ ने ‘काव्य का स्वरूप’ ही ‘रसात्मक’ बताते हुए कहा है कि-‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ अर्थात् रसात्मक रचना ही काव्य है।

स्पष्टतया ‘रस’ काव्य की आत्मा है। काव्य को पढ़ते, सुनते अथवा दृश्य काव्य (नाटक आदि) के रूप में देखते समय हमारा हृदय जो एक विशेष का आंतरिक ‘अलौकिक संतोष, तृप्ति भाव या आस्वाद अनुभव करता है, वही एक विशिष्ट साँचे में ढलकर, साहित्य-शास्त्र की शब्दावली में ‘रस’ कहलाता है।

काव्य में चित्रित अनुभूतियों से जब हमारे अंत:करण की अनुभूतियाँ एकरूप होकर, परस्पर एकरस होकर, हमारे मन-मस्तिष्क को एक आंतरिक तृप्ति का अनुभव या अस्वाद कराती है तब हम ‘व्यक्ति’ मात्र न रहकर रचनाकार, रचना और उसमें विद्यमान पात्रों तथा उस रचना के असंख्य पाठकों, श्रोताओं या दर्शकों जैसा ही सामान्य सहृदय मानव-रूप हो जाते हैं। तब हम आयु, वर्ग, जाति, देश और काल की सीमाओं में बंधे नहीं रहते। हम मानव-मात्र के रूप में प्रेम, करुणा, उत्साह आदि भावों के आस्वाद में निमग्न, तनमय और आत्मविभोर हो जाते हैं।

यही निमग्नता, तन्मयता, आत्मविभोरता काव्य के आस्वाद अथवा ‘रस’ के रूप में अभिव्यक्त होती है। स्पष्ट है कि ‘रस”काव्य का प्राण-तत्त्व है। काव्य-सौष्ठव के अन्य विविध आयाम, उपकरण अथवा माध्यम इसी के द्वारा संचालित अथवा संचालित होते हैं। उदाहरणतया किसी प्राण-हीन शरीर का रंग-रूप, अलंकरण सौष्ठव आदि निरर्थक है। यह निर्जीव है। उसी प्रकार रंस-व्यंजना के अभाव में काव्य-शोभा के अन्य प्रतिमान निरर्थक हैं।

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प्रश्न 2.
‘रस के अंग’ से क्या अभिप्राय है? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
जिस प्रकार मानव-शरीर का संचालन उसके विभिन्न अंगों के माध्यम से संभव है उसी प्रकार रस की परिपूर्णता अर्थात् अभिव्यंजना उसके विभिन्न अंगों के संयोग-सामंजस्य पर आधारित है। ‘रस’ यदि काव्य की आत्मा है, तो ‘भाव’ रस का आधारभूत तत्त्व है। वहीं (भाव) अनेक रूपों, स्थितियों आदि के सोपान करता हुआ, अंततोगत्वा ‘रस-निष्पत्ति’ (रस की अभिव्यंजना) अथवा रसास्वाद की अवस्था तक पहुंचता है। आचार्य भरत ने ‘नाट्यशास्त्र’ में इस प्रक्रिया को एक दृष्टांत के माध्यप से समझाते हुए कहा है-

“जिस प्रकार बीज से वृक्ष, वृक्ष से पत्र-पुष्प, फल का उद्भव होता है उसी प्रकार भाव से रस और रस से अन्य भाव व्यवस्थित होते हैं?”

‘भाव’ से मुख्य रूप से चार स्थितियों या रूपों के माध्यम से ‘रस’ की अवस्था प्राप्त करता है। इन्हीं को साहित्य शास्त्रीय आचार्यों ने ‘रस के चार अंग’ कहा है-

  • विभाव,
  • अनुभाव,
  • संचारी भाव,
  • स्थायी भाव।

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(रस की परिभाषा भी इन्हीं चार अंगों के आधार पर की गई है-“विभाव, अनुभाव और संचारी’ भाव के संयोग से अभिव्यक्त होने वाले स्थायी भाव को ‘रस’ कहते हैं।

(1) विभाव-‘विभाव’ का अभिप्राय है-‘कारण’ अथवा ‘निमित्त’। इस आधार पर कहा जा सकता है कि “विभाव के कारण या निमित्त हैं जो काव्य, नाटक आदि में अंतःकरण की रागात्मक’ संवेदनाओं को तरंगित (उद्बुद्ध, जागृत) करते हैं।”

काव्य-रूप भाव अर्थात् ‘विभाव’ के दो पक्ष स्पष्ट हैं-एक वह जो प्रवृत्त करता है अर्थात् ‘प्रवृति का कारण’ है। दूसरा वह जो प्रवृत्ति होता है अर्थात् ‘प्रवृति से प्रेरित’ है। इन्हीं दोनों पक्षों को साहित्यशास्त्र की शब्दावली में
(1) आलंबन विभाव और
(2) आश्रय विभाव कहा जाता है।

(1) आलंबन विभाव-जो भाव की प्रवृत्ति का मूल कारण हो उसे ‘आलंबन विभाव’ कहते हैं।
(2) आश्रम विभाव-जो आलंबन की ओर प्रवृत्त होने वाला कारण है उसे ‘आश्रय विभाव’ कहते हैं।

‘विभाव’ के उपर्युक्त दोनों पक्षों के अतिरिक्त एक अन्य सहायक पक्ष भी है-‘उद्दीपन विभाव’। उद्दीपन का अभिप्राय है-उद्दीप्त अर्थात् प्रोत्साहित करने अर्थात् प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक होने वाला।
इस प्रकार ‘विभाव’ के अंतर्गत क्रमशः आलंबन, आश्रय और उद्दीपन-इन तीनों की स्थिति रहती है।

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एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी-

खेलत हरि निकसे ब्रज-खोरी।।
कटि कछनी पीतांबर बाँधे, हाथ लिए भौंरा, चक, डोरी॥
मोर-मुकुट, कुंडल सवननि बर, दसन-दमक दामिनी-छवि छोरी॥
गए स्याम रवि-तनया के तट, अंग लसंति चंदन की खोरी॥
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन बिसाल भाल दिए रोरी॥
नील बसन फरिया कट पहिरे, बेनी पीठि रुलति झकझोरी॥
संग लरिकिनी चलि इत आवति, दिन-थोरि, अति छबि तन-गोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझै, नैन-नैन मिलि परी ठगोरी॥  – (सूरदास, साहित्य-मंजूषा, भाग-1)

यह शृंगार-रस का उदाहरण है। इसमें राधा आलंबन विभाव है। वह हरि (कृष्ण या श्याम) की आकर्षण (प्रेम)-प्रवृत्ति का कारण है। हरि आश्रय विभाव है। यह राधा के आकर्षण भाव से प्रेरित या प्रभावित है। यमुना का तट, राधा की बड़ी आँखें, मस्तक की रोली, नीली लहंगा, झूलती हुई आदि उद्दीपन विभाव हैं। ये आकर्षण (प्रेम)-भाव को उद्दीप्त करने वाले तत्त्व हैं।

(2) अनुभाव-‘अनुभाव’ का अभिप्राय है-‘पीछे (अर्थात् विभाव के पश्चात्) आने वाला भाव’ (अनु + भाव)। आश्रय जब आलंबन के प्रति प्रवृत्त होता है तब उसके द्वारा अनायास या सायाम (अपने-आप ही अथवा प्रयत्न करने पर) कुछ ऐसे हाव-भाव, चेष्टाएँ आदि होती हैं जो आकर्षण (प्रेम) की सांकेतिका या परिचायक होती है। यही ‘आश्रय की चेष्टाएँ (हाव-भाव आदि) ‘अनुभाव’ कहलाती है। साहित्यशास्त्र की शब्दावली में

“भावों का प्रत्यक्ष बोध कराने वाली आश्रय की चेष्टाएँ ‘अनुभाव’ कहलाती है।” उदाहरणतया जनक-वाटिका में सीता श्रीराम की छवि देखते ही मुग्ध हो जाते हैं। राम आलंबन और सीता आश्रय है। सीता राम की छवि बार-बार निहारना चाहती है। वह उपवन में विद्यमान पशु-पक्षियों अथवा पेड़-पौधों को देखने के बहाने बार-बार अपनी दृष्टि पीछे की ओर घुमाती है-

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नख-सिख देखि राम कै सोभा
परबस सिखिन्ह लखी जब सीता
देखन मिस मृग बिहग तरु, फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि-निरखि रघुवीर छवि बाढ़ई प्रीति न थोरि।

यहाँ सीता (आश्रय) का पीछे मुड़ना, नजरें घुमा-घुमाकर देखना आदि चेष्टाएँ ‘अनुभाव’ कहलाएंगी।)

(3) संचारी भाव-‘संचारी’ शब्द का अर्थ है-‘संचरण करने वाले’ अर्थात् ‘चलते रहने वाले’ (बार-बार प्रकट-अप्रकट होते रहने वाले), अस्थिर या चंचल। ये भाव किसी-न-किसी रूप में प्रत्येक रस में संचरण करते हैं, जैसे ‘हर्ष’ नामक भाव ‘अद्भुत’ रस (विस्मय स्थायी भाव) में भी रहता है, ‘शृंगार’ रस में भी और ‘हास्य’ रस में भी। अत: ‘हर्ष’ की गणना संचारी भाव में की जाती है।

इसी प्रकार वैराग्य, ग्लानि, आलस्य, चिंता, मोह, स्मृति, लज्जा, गर्व, उत्सुकता, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। इनका संचरण समय और स्थिति के अनुसार किसी भी रस में हो सकता है। इसी आधार पर “अंत:करण की अस्थिर (चंचल) प्रवृत्तियों या समय और स्थिति के अनुसार सभी रसों में संचरण करते रहने वाले भावों को संचारी भाव कहते हैं।”

मानव-मन की अस्थिर प्रवृत्तियाँ असंख्य हो सकती हैं। फिर भी काव्य-मर्मज्ञ साहित्यशास्त्रीय आचार्यों ने मुख्यतः तैंतीस (33) संचारी भावों का नामोल्लेख किया है। निम्नलिखित उदाहरण से ‘संचारी भाव’ का स्वरूप स्पष्ट हो जाएगा।

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हरि अपनौ आँगन कछू गावत।
तनक-तनक चरननि सौ नाचत, मनही मनहिं रिझावत।
बाँह उठाए काजरी-धौरी, गैयनि टेरि बुलावत।
कबहुँक बाबा नंद पुकारत, कबहुँक घर में आवत।
माखन तनक आवनै कर लै, तनक बदन में नावत।
कबहुँक चितै प्रतिबिंब खंभ में लोनी लिए खवावत।
दूरि देखति जसुमति यह लीला हरष आनंद बढ़ावत।
सूर स्याम के बाल-चरित, नित नितही देखत भावत॥ – सूरदास साहित्य-मंजूषा भाग-1

यहाँ हरि (शिशु-कृष्ण) आलंबन है। यशोदा (जसुमति) आश्रय है। हर्ष, गर्व, मोह, उत्सुकता, धैर्य आदि संचारी भाव है।

(4) स्थायी भाव-‘स्थायी’ का अभिप्राय है-सदा स्थिर रहने वाले। साहित्यशास्त्र की शब्दावली में कहा जा सकता है कि “जो आंतरीय भाव रस के आस्वाद तक स्थिर रहकर, स्वयं ही रस-रूप में उबुद्ध (अभिव्यक्त) होते हैं उन्हें ‘स्थायी भाव’ कहते हैं।”

ऊपर सूरदास का जो पद दिया गया है उसमें ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव है जो कि ‘वात्सल्य’ रस की अभिव्यंजना के रूप में साकार हुआ है।

स्थायी भावों की संख्या अथवा उनके भेदों के संबंध में सर्वप्रथम आचार्य भरत ने अपने नाट्शास्त्र में चर्चा की है। उनके अनुसार स्थायी भाव आठ हैं-रति (स्त्री-पुरुष का प्रेम), हास, शोक, क्रोध, उत्साह, विस्मय, भय, जुगप्सा।

बाद के साहित्यशास्त्रीय आचार्यों ने ‘शम’ नामक नौवें भाव को जोड़कर इस संख्या में एक ही वृद्धि कर दी है। इसके उपरांत श्रीमद्भागवत के प्रभाव से जब काव्य में श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं के हृदयस्पर्शी, सरस चित्रण की परंपरा चली तब ‘वात्सल्य’ का दसवाँ स्थायी भाव स्वीकार कर लिया गया।

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प्रश्न 3.
‘रस’ के विभिनन भेदों का परिचय देते हुए, लक्षण, उदाहरण सहित उनका विवेचना कीजिए।
अथवा,
‘रस’ कितने प्रकार के होते हैं? उनके स्वरूप का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन कीजिए।
उत्तर-
‘रस’ मूलतः किसी ‘स्थायी भाव’ की अभिव्यंजना के माध्यम से अनुभव किया जाने वाला आस्वाद अथवा अलौकिक आनंद है। अतः ‘रस’ के उतने ही प्रकार या भेद संभव हैं जितने स्थायी भाव हैं। इस दृष्टि से मानव-मन की विविध भाव-तरंगें-जो ‘संचारी भाव’ कहलाती हैं-जब किसी एक मुख्य या ‘विशिष्ट भाव’ में ही समाहित हो जाती है तो वह ‘विशिष्ट या मुख्य भाव’ ही स्थायी भाव होकर रस-व्यंजना का आधार बनता है। . भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा में सर्वप्रथम उल्लेखनीय नाम आचार्य भरत तथा उनके ग्रंथ ‘नाट्यशास्त्र’ का है।

उन्होंने स्थायी भावों की संख्या आठ बताते हुए, आठ ही रसों का उल्लेख किया है- शृंगार, हास्य, करुणा, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत। भरत ने रसों के ये (आठ) भेद मूलतः दृश्यकाव्य (नाटक आदि) के संदर्भ में ही प्रस्तुत किए। बाद में श्रव्यकाव्य के अन्य रूपों (प्रबंधकाव्य, कथा काव्य आदि) के संदर्भ में ‘शांत’ रस को भी मान्यता मिली। तदुपरांत, भक्ति आंदोलन के परिणामस्वरूप, श्रीमद्भागवत के आधार पर श्रीकृष्ण की बाल-लीलाओं को हृदयस्पर्शी, सरस-चित्रण काव्य का एक प्रमुख विषय बन गया। तब ‘वात्सल्य’ नामक दसवें रस की भी गणना होने लगी।

‘रस की परिभाषा’ एवं उसके ‘स्वरूप’ के अंतर्गत स्पष्ट हो चुका है-स्थायी भाव ही रस के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। तदनुसार दस स्थायी भावों तथा उनसे उबुद्ध होने वाले रसों की क्रम-तालिका इस प्रकार है-

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हम यदि ‘रस’ की मूल परिभाषा पर ध्यान दें तो उपर्युक्त सभी (दस) रसों की परिभाषा निर्धारित करना अत्यंत सरल प्रतीत होगा।

रस की परिभाषा इस प्रकार है-

“विभव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त होने वाले स्थायी भाव को ‘रस’ कहते हैं।”

इस परिभाषा में हम जिस स्थायी भाव का उल्लेख करेंगे, उसी से अभिव्यक्त होने वाले संबंधित रस का नाम भी जोड़ देंगे।

जैसे-“विभाव, अनुभव और संचारी भाव के संयोग से अभिव्यक्त (उबुद्ध) होने वाले . ‘रति’ स्थायी भाव से ‘ श्रृंगार’ रस की व्यंजना होती है।” अथवा ………………………

“उत्साह” स्थायी भाव से ‘वीर’ रस की व्यंजना होती है।”

इसी प्रकार परस्पर संबद्ध अन्य सभी स्थायी भावों तथा ‘रसों’ का नामोल्लेख करते हुए अभीष्ट रस की परिभाषा प्रस्तुत की जा सकती है।

यहाँ उपर्युक्त दस रसों का लक्षण-उदाहरण-सहित स्वरूप-विवेचन किया जा रहा है।

श्रृंगार-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘रति’ नामक स्थायी भाव से ‘शृंगार’ रस की अभिव्यंजना होती है।”

‘रति’ अर्थात् प्रेमासक्ति की दो स्थितियाँ संभव हैं-

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  • मिलन,
  • विरह।

इसी आधार पर शृंगार रस के दो भेद माने गए हैं-

  • संयोग शृंगार,
  • वियोग शृंगार।

संयोग श्रृंगार-विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से नायक-नायिका के मिलन के रूप में उबुद्ध स्थायी भाव से ‘संयोग शृंगार’ की अभिव्यक्ति होती है। जैसे-

दुलह श्री रघुवीर बने, दुलही सिय सुंदर मंदिर माहीं।
गावत गीत सबै मिलि सुंदरि, वेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं॥
राम को रूप निहारित जानकी, कंचन के नग की परछाहीं।
या ते सबै सुधि भूलि गईं, कर देखि रही, पल टारत नाहीं। – (तुलसीदास, कवितावली)

यहाँ श्रीराम और सीमा ‘विभाव’ है। राम ‘आलंबन’ है। सजा हुआ मंडप, सुंदरियों के गीत, वेदमंत्रों का पाठ आदि ‘उद्दीपन’ विभाव है। सीता ‘आश्रय’ विभाव है। सीता का नग में राम का झलक देखना, देखते रह जाना, सुध-बुध भूल जाना, हाथ न छोड़ना आदि अनुभाव हैं। हर्ष, विस्मय, क्रीड़ा, अपस्मार, आवेग, मोह आदि संचारी भाव हैं और ‘रति’ स्थायी भाव है जो मिलन-आनंद के संयोग से ‘संयोग शृंगार’ के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।”

वियोग श्रृंगार की स्थिति वहाँ होती है जहाँ ‘रति’ भाव नायक-नायिका के परस्पर अलग (बिछुड़े हुए) होने के रूप में विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से रंस-रूप में अभिव्यक्त होता है।” जैसे-

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रो रो चिंता सहित दिन को राधिका थीं बिताती।
आँखों को थी सजल रखतीं, उन्मना थीं दिखातीं॥
शोभा वाले जलद-वपु को हो रही चातकी थीं।
उत्कंठा थी पर न प्रबला वेदना वद्धिता थी।  – (अयोध्या प्रसाद हरिऔध, प्रियप्रवास)

यहाँ राधा आश्रय विभाव और श्रीकृष्ण आलंबन विभाव हैं (जो गोकुल-वृंदावन छोड़कर मथुरा जा बसे हैं)। राधा का रोना, आँखें सजल रखना, बादलों की ओर (उनमें कृष्ण के साँवले शरीर की झलक पाकर) टकटकी बाँधे रखना आदि अनुभाव हैं.। शंका, दैन्य, चिन्ता, स्मृति, जड़ता, विषाद, व्याधि, उन्माद आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से ‘रति’ स्थायी भाव प्रिय विरह की वेदना के कारण ‘वियोग शृंगार’ के रूप में अभिव्यक्त हुआ है।

हास्य-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘हास’ स्थायी भाव से ‘हास्य’ रस की अभिव्यक्ति होती है।” जैसे-

जब सुख का नींद कढ़ा तकिया, इस सिर के नीचे आता है।
तो सच कहता हूँ-इस सिर में, इंजन जैसे लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ बुद्धि भी फक-फक करती है।।
सपनों से स्टेशन लाँघ-लाँघ, मस्ती का मंजिल दिखती है।

यहाँ कवि का कथन ही आलंबन और पाठक-श्रोता आश्रय है। कवि कविता पढ़ते समय तकिए पर सिर टिकाने, आँखें बंद करके झूमने आदि का जो अभिनय करेगा वह ‘उद्दीपन’ विभाव होगा। कविता पढ़ या सुन कर हमारा मुस्काना, ‘वाह वाह !’ करना, झूमना आदि अनुभाव हैं। चपलता, हर्ष, आवेग, औत्सुक्य आदि संचारी भाव है। इनके संयोग से ‘हास’ स्थायी भाव की ‘हास्य’ रस के रूप में निष्पत्ति हुई है।

रौद्र-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध होने वाले ‘क्रोध’ स्थायी भाव से ‘रौद्र’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।’

जैसे-
फिर दुष्ट दुःशासन समर में शीघ्रग सम्मुख हो गया !
अभिमन्यु उसको देखते ही क्रोध से जलने लगा!
निःश्वास बारंबार उसका उष्णत चलने लगा!
रे रे नराधम नारकी ! तू था बता अब तक कहाँ?
मैं खोजता फिरता तुझे सब ओर कब से हूँ यहाँ !
मेरे करों से अब तुझे कोई बचा सकता नहीं !
पर देखना, रण-भूमि से तू भाग जाना मत कहीं ! – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

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यहाँ अभिमन्यु आश्रय विभाव तथा दुःशासन आलंबन-विभाव है। युद्ध का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। अभिमन्यु का जलना, बार-बार गरम श्वास छोड़ना और कठोर वचन कहना आदि अनुभव है। असूया, अमर्ष, श्रम, धृति, चपलता, गर्व, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से उबुद्ध ‘क्रोध’ स्थायी भाव से ‘रौद्र’ रस की निष्पत्ति (व्यंजना) हुई है।

करुण-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘शोक’ स्थायी भाव से ‘करुण’ रस की अभिव्यक्ति होती है।” जैसे-

प्रिय मृत्यु का अप्रिय महासंवाद पाकर विष भरा।
चित्रस्थ-सी निर्जीव मानों रह गई हत उत्तरा।
संज्ञा-रहित तत्काल ही फिर वह धरा पर गिर पड़ी।
उस काल मुर्छा भी अहो! हिकतर हुई उसको बड़ी।  – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

यहाँ उतरा आश्रय विभाव तथा उसका मृतक प्रियतम अभिमन्यु आलंबन विभाव है। दैन्य, चिंता, स्मृति, जड़ता, विषाद, व्याधि, उन्माद, मूर्छा आदि संचारी भाव हैं। इनके संयोग से उबुद्ध ‘शोक’ स्थायी भाव से ‘करुण’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

बीभत्स-“विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘जुगुप्सा’ स्थायी भाव से ‘बीभत्स’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

यज्ञ समाप्त हो चुका, तो भी धधक रही थी ज्वाला।
दारुण दृश्य ! रुधिर के छींटे, अस्थिखंड की माला।
वेदी की निर्मम प्रसन्नता, पशु की कतार वाणी।
मिलकर वातावरण बना था, कोई कुत्सित प्राणी  – (जयशंकर प्रसाद, कामायनी)

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(मनु द्वारा यज्ञ में पशु की बलि चढ़ाए जाने के इस दृश्य में) श्रद्धा आश्रय विभाव तथा यज्ञ की वेदी अलंबन विभाव है। धधकती ज्वाला, लहू के छींटे, हड्डियों की माला, बलि चढ़ाए जाते पशु की घबराई चीख आदि वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। आँखें मूंदना, नाक-भौंह सिकोड़ना, मुँह फेर लेना, कानों पर हाथ रखना या नासिक के छिद्र बंद कराना आदि अनुभाव होंगे। ग्लानि, चिंता, आवेग, विषाद, त्रास आदि संचारी भाव हैं। इन सब के संयोग से उबद्ध ‘जुगुप्सा’ स्थायी भाव से ‘वीभत्स’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

भयानक-
“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘भय’ स्थायी भाव से ‘भयानक’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

उस सुनसान डगर पर था सन्नाटा चारों ओर,
गहन अँधेरी रात घिरी थी, अभी दूर थी भोर।
सहसा सुनी दहाड़ पथिक ने सिंह-गर्जना भारी,
होश उड़े, सिर गया घूम, हुई शिथिल इंद्रियाँ सारी।

यहाँ पथिक आश्रय विभाग तथा दहाड़ आलंबन विभाव है। सुनसान डगर, सन्नाटा, अंधेरी रात आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं, होश उड़ जाना, सिर घूमना, इंद्रियाँ शिथिल होना आदि अनुभाव हैं। शंका, दैन्य, चिंता, मोह, जड़ता, विषाद, त्रास आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘भय’ स्थायी भाव ‘भयानक’ रस के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है।

वीर-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘उत्साह’ स्थायी भाव से अभिव्यक्त होने वाला रस ‘वीर’ रस कहलाता है। जैसे-

जिस वीरता से शत्रुओं का सामना उसने किया।
असमर्थ हो उसके कथन में मौन वाणी ने लिया॥
सब ओर त्यों ही छोड़कर निज प्रखतर शर जाल को।
करने लगा वह वीर व्याकुल शत्रु-सैन्य विशाल हो। – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

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यहाँ अभिमन्यु आश्रय तथा शत्रु (कौरव-दल के सैनिक) आलंबन विभाव हैं। युद्ध का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। अभिमन्यु का इधर-उधर घुमकर बाण छोड़ना आदि अनुभाव है, असूया, श्रम, चपलता, आवेग, अमर्ष, उग्रता आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘उत्साह’ स्थायी भाव से ‘वीर’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

अद्भुत-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘विस्मय’ स्थायी भाव। से अभिव्यक्ति होने वाला रस ‘अद्भुत’ कहलाता है।” जैसे-

अस जिय जानि जानकी देखी।
प्रभु पलके लखि प्रीति बिसेखी।
गुरुहिं प्रनाम मनहिं मन किन्हा।
अति लाधवं उठाइ धनु लीन्हा।
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ।
पुनि नभ धुनमंडल सम भयऊ।
लेत चढ़ावत बैंचत गाढ़े।
काहू न लखा देख सबु ठाढ़े।
तेहि छन राम मध्य धन तोरा।
भेर भुवन धुनि घोरा कठोरा।  – (तुलसीदास, रामचरितमानस, बालकांड)

यहाँ श्रीराम आलंबन विभाव तथा राजसभा में विद्यमान अन्य सभी आश्रय विभाव हैं। भारी। शिव-धनुष, सीता की व्याकुलता, स्वयंवर-सभा का वातावरण ‘उद्दीपन’ विभाव है। श्रीराम का सीता की ओर निहारना, सहज भाव से धनुष उठाना, फुरती से चिल्ला चढ़ाना, धनुष तोड़ना आदि हर पालन , जोइ कबहुँ अबतावे। अनुभाव हैं। श्रम, धृति, चलता, हर्ष, आवेग, औत्सुक्य मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘विस्मय’ स्थायी भाव की ‘अद्भुत’ रस के रूप में अभिव्यक्ति हुई है।

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शांत-“विभाव, अनुभाव और संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘शम’ (निर्वेद) स्थायी भाव से अभिव्यक्त होने वाले रस को शांत कहते हैं।” जैसे-

ओ क्षणभंगुर भव राम राम।
भाग रहा हूँ भार देख, तू मेरी ओर निहार देख !
मैं त्याग चला निस्सार देख, अटकेगा मेरा कोन काम !
ओ क्षणभंगुर भव राम राम ! – (मैथिलीशरण गुप्त, यशोधरा)

यहाँ नश्वर संसार आलंबन विभाव है और ‘राम-राम’ करने वाले सिद्धार्थ आश्रय विभाव हैं। संसार की परिवर्तनशीलता, क्षणभंगुरता, रोग-बुढ़ापा आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। सिद्धार्थ का उदासीन (विरक्त) होना अनुभाव है। निर्वेद, ग्लानि, चिंता, धृति, मति आदि संचारी भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘शम’ स्थायी भाव को ‘शांत’ रस के रूप में अभिव्यक्ति हुई है।

वत्सल-“विभाव, अनुभाव, संचारी भाव के संयोग से उबुद्ध ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव से ‘वत्सल’ रस की निष्पत्ति (अभिव्यक्ति) होती है।” जैसे-

जशोदा हरि पालने झुलावै।
हलरावै दलाइ मल्हावै, जोइ सोइ कछु गावै॥
कबहुँ पलक हरि-मुंद लेत हैं, कबहुँ अधर फरकावै॥
सोवत जानि मौन है रहि करि-करि सैन बतावै।
इति अंतर अकुलाइ उठे हरि जसुमति मधुरे गावै।
जो सुख सूर अमर मुनि दुर्लभ, सो नँद भामिनि पावै॥  – (सूरदास, सूरसागर)

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यहाँ कृष्ण आलंबन विभाव और यशोदा आश्रय विभाव है। झूला, कृष्ण का पलकें मूंदना, होंठ फड़काना, इशारे करना आदि ‘उद्दीपन’ विभाव हैं। यशोदा का झूले को झुलाना, कृष्ण को दुलारना-पुचकारना, मधुर गीत गाना आदि अनुभाव हैं। मोह, चपलता, हर्ष, औत्सुक्य आदि संचारी .. भाव हैं। इन सबके संयोग से उबुद्ध ‘वात्सल्य’ भाव से ‘वत्सल’ रस की अभिव्यक्ति हुई है।

(अनेक पुस्तकों में इसको ‘वात्सल्य’ कहा गया जो ठीक नहीं। ‘वात्सल्य’ स्थायी भाव है। रस का नाम ‘वत्सल’ है जैसा कि आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्यदर्पण’ में कहा है-‘वत्सलं च रसं विदुः।’

प्रश्न 4.
नीचे दिए गए विषयों पर संक्षिप्त टिप्पणियाँ प्रस्तुत कीजिए
(क) विभाव और अनुभाव में अंतर,
(ख) संचारी भाव और स्थायी भाव में अंतर
(ग) वीर रस और रौद्र रस में अंतर
उत्तर-
(क) विभाव और अनुभाव में अंतर-‘विभाव’ मूलतः भाव नहीं, भाव के कारण-मात्र हैं। ‘अनुभाव’ भी वास्तव में स्वयं भाव नहीं, भावों के परिचायक विकार (परिवर्तन या चेष्टाएँ) है। ‘विभाव का संबंध तीन पक्षों से है-आलंबन, उद्दीपन और आश्रय, परंतु ‘अनुभाव’ का संबंध केवल. ‘आश्रय’ से है। ‘विभाव’ कोई व्यक्ति, प्रसंग, पदार्थ या विषय हो सकता है, जबकि अनुभाव किसी एक व्यक्ति (आश्रय) के शरीर को अनायास (अपने-आप) होने वाली या जानबूझकर की जा सकने वाली चेष्टाएँ ही होती हैं।

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(ख) संचारी भाव और स्थायी भाव में अंतर-‘संचारी भाव’ और ‘स्थायी भाव’ दोनों ही आंतरिक भाव हैं। दोनों की स्थिति ‘विभाव’ पर आधारित है। परंतु दोनों में पर्याप्त अंतर भी है-

  1. संचारी भाव अस्थिर होते हैं, जबकि स्थायी भाव स्थिर रहते हैं।
  2. संचारी भाव अनेक रसों में संचारित हो सकते हैं। एक ही रस में कई संचारी भाव तथा एक संचारी भाव अनेक रसों में संभव हैं परंतु कोई एक स्थायी भाव किसी एक ही रस से संबंधित होता है।
  3. संचारी भाव प्रकट होकर विलीन हो जाते हैं। वे आते-जाते, प्रकट-विलीन, होते रहते हैं स्थायी भाव अंत-पर्यंत स्थिर बने रहते हैं और वही रस के रूप में परिणत (उबुद्ध या अभिव्यक्त) होते हैं।
  4. संचारी भाव नदी की लहरों के समान चंचल, गतिशील या संचरणशील है जबकि स्थायी भाव नदी की मूल (अंतर्निहित) जलधारा के समान एकरूप बने रहते हैं।
  5. संचारी भाव अपने वर्ग के अन्य भावों में घुल-मिल सकते हैं या विरोधी भावों से दब सकते या क्षीण हो सकते हैं, परंतु स्थायी भाव न तो अपने वर्ग से और न ही विरोधी वर्ग के भावों से दबते. या क्षीण होते हैं।

(ग) वीर रस और रौद्र रस में अंतर-वीर और रौद्र रस में विभाव तथा संचारी भाव प्रायः एक-से होते हैं। दोनों में ‘शत्रु’ या ‘विरोधी पक्ष’ आलंबन विभाव होता है। दोनों में आश्रय को अनिष्ट की आशंका होती है। असूया, आमर्ष, आवेग, श्रम आदि संचार भाव भी प्रायः दोनों में होते हैं। फिर भी दोनों में पर्याप्त अंतर है। यह तो स्पष्ट ही है कि वीर में ‘उत्साह’ तथा रौद्र में ‘क्रोध’ स्थायी भाव होता है।

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वीर रस में शस्त्र-संचालन, आगे बढ़ना, आक्रमण करना, अपना बचाव करना आदि अनुभाव होंगे, जबकि रौद्र रस में आवेशपूर्ण शब्द, ललकार, आँखें तरेरना, मुट्ठियाँ भींचना, दाँत पीसना आदि अनुभाव होंगे। साथ ही, वीर रस में आश्रय का विवेक बना रहता है, जबकि रौद्र रस में विवेक की मर्यादा नहीं रहती। वास्तव में रौद्र रस वीर रस की पृष्ठभूमि तैयार करता है। जहाँ रौद्र रस की सीमा समाप्त होती है वहीं से वीर रस की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है।

छंद

1. छंद किसे कहते हैं? निम्नलिखित छंदों के लक्षण-उदाहरण दीजिए सोरठा, दोहा, रोला, चौपाई, बरवै, गीतिका, हरिगीतिका, कवित्त, सवैया।
उत्तर-
जिस रचना में मात्राओं और वर्णों की विशेष व्यवस्था और गणना होती है, साथ ही संगीत सम्बंधी लय और गति की योजना रहती है उसे छंद कहते हैं। दूसरे शब्दों में निश्चित वर्णों या मात्राओं की गति, यति, आति से बंधी हुई शब्द योजना को छंद कहते हैं।

सोरठा :
लक्षण-यह भी अर्द्धसममात्रिक छंद है। इसके प्रथम और तीसरे चरणों में ग्यारह-ग्यारह एवं दूसरे और चौथे चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। दोहा की चरण-व्यवस्था को बदल देने से सोरठा हो जाता है। दोहा से अन्तर यह है कि सोरठा के विषम चरणों में अंत्यानुप्रास पाया जाता है।
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दोहा
लक्षण- यह अर्द्धसममात्रिक छंद है। इसके प्रथम और तीसरे चरणों में तेरह-तेरह तथा . द्वितीय और चतुर्थ चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं। [विषम चरणों के अन्त में प्रायः (15) क्रम रहता है। चरणांत में ही यति होती है।
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रोला:
लक्षण-यह सममात्रिक छंद है। इसमें चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में चौबीस-चौबीस मात्राएँ होती हैं। ग्यारह और तेरह मात्राओं पर यति का विधान था जो अब उठ रहा है।
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चौपाई :
लक्षण-यह चार चरणोंवाला सममात्रिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में सोलह मात्राएँ होती हैं। चरणांत में यति होती है। चरणांत में ये दो कम वर्जित हैं-15। और ऽ ऽ। (अर्थात् जगण और तगण)।
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बरवै :
लक्षण-यह एक अर्द्धसममात्रिक छंद है। इस छंद में कुल चार चरण होते हैं। विषम (प्रथम तथा तृतीय) चरणों में प्रत्येक में बारह और सम (द्वितीय तथा चतुर्थ) चरणों में प्रत्येक में सात मात्राएँ होती हैं। बारह और सात मात्राओं पर विराम और अंत में लघु मात्र होती है।
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गीतिका:
लक्षण-यह एक सममात्रिक छंद है। इसमें कुल चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण की चौदहवीं और बारहवीं मात्रा के बाद विराम (यति) होता है। चरणांत (पादांत) में लघु-गुरु (5) क्रम से मात्राएँ रहती हैं।
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हरिगीतिका:
लक्षण-यह एक सममात्रिक छंद है। इसमें कुल चार चरण होते हैं। प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं। प्रत्येक सोलहवीं और बारहवीं मात्राओं के बाद विराम (यति) होता है। प्रत्येक चरण के अंत में गुरु (5) मात्रा होती है।
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कवित्त :
लक्षण-यह वर्णिक छंद है। इसे ‘मनहरण’ या ‘घनाक्षरी’ भी कहते हैं। इसके प्रमुख भेद हैं-मनहरण, रूपघ्नाक्षरी, जनहरण, जलहरण और देवघनाक्षरी। मुख्यतः इस छंद के प्रत्येक चरण में 31 से 33 वर्ण तक पाए जाते हैं। (16)
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सवैया :
लक्षण-यह वर्णिक छंद है। इसके प्रत्येक चरण में 22 से लेकर 26 तक वर्ण होते हैं, मदिरा, मत्तगयंद (मालती), चकोर, दुर्मिल, सुंदरी सुख, उपजाति और किरीट नामक इसके प्रकार हैं।

उदाहरण-
सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाति निरंतर गावै।।
जाहि अनादि अनंत अखंड अछेद अभेद सुबेद बतावै।
जाहि हियै लखि आनंद है जड़ मूढ़ हिये रसखानि कहावै।
ताहि अहीर की छोहरियाँ छछिया भरि छाँछ पर नाच नचावै।

अलंकार

प्रश्न 1.
‘अलंकार’ का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए काव्य में उसके स्थान एवं महत्व पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
काव्य में ‘अलंकार’ से क्या अभिप्राय है? काव्य और अलंकार का अंतः संबंध बताते हुए उदाहरण सहित विवेचन कीजिए।
उत्तर-
‘अलंकार का तात्पर्य अथवा अभिप्राय-‘अलंकार’ शब्द ‘अलंकरण’ से बना है जिसका अभिप्राय है-सजावट। इस दृष्टि से ‘अलंकार’ का तात्पर्य हुआ-सजावट का माध्यम। संस्कृत का प्रसिद्ध उक्ति है-‘अलं करोति इति अलंकारः’ अर्थात् जो अलंकृत करे-सजाए, सुशोभित करे, शोभा बढ़ाए वह अलंकार है इस आधार पर, काव्य के संदर्भ में ‘अलंकार का तात्पर्य है जो भाषा का सौष्ठव बढ़ाए, उसमें चमत्कार पैदा करके उसे प्रभावशाली बना दे।’ अलंकार वाणी के भूषण हैं’-यह उक्ति बहुत प्राचीन है। हम जो भी कहते या लिखते हैं-दूसरों तक अपनी बात प्रभावशाली ढंग से पहुंचाने के लिए। कथन को प्रभावशाली बनाने के लिए जिन अनेक उपकरणों, साधनों या माध्यमों का उपयोग किया जा सकता है उनमें ‘अलंकार’ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है।

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विशेष प्रतिभाशाली, कल्पनाशील और कला-निपुण वक्ता का रचनाकार अपने कथन को चमत्कारपूर ढंग से प्रस्तुत कर, श्रोताओं या पाठकों के हृदय को छूकर, उन्हें प्रभावित कर सकता है। यह क्षमता प्रदान करने वाला तत्त्व ही ‘अलंकार’ कहलाता है।

काव्य में ‘अलंकार’

जिस प्रकार कोई भूषण (गहना) किसी सामान्य व्यक्ति के आकर्षण, सौंदर्य और प्रभाव को बढ़ाने में सहायक होता है वैसे ही अलंकार वाणी अर्थात् कविता या रचना को सुंदर, आकर्षक और प्रभावशाली बनाते हैं। संस्कृत के प्राचीन आचार्य दंडी ने कहा है-“काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्त्व को अलंकार कहते हैं।” प्रसिद्ध काव्यशास्त्रीय ग्रंथ ‘चंद्रलोक के रचयिता जयदेव न ‘काव्य में अलंकार का महत्त्व’ स्पष्ट करने के लिए बड़ा रोचक उदाहरण दिया है।

वे कहते हैं-‘जिस प्रकार ताप से रहित अग्नि की कल्पना असंभव है, उसी प्रकार अलंकार के बिना काव्य के अस्तित्व की कल्पना नहीं की जा सकती।’ ताप अग्नि का गुण है, उसकी पहचान है। इसी प्रकार काव्य में साधारण कथन वाला प्रमुख तत्त्व अलंकार है। अलंकार काव्य में काव्यत्व लाने वाला उपकरण है, उसकी प्रमुख पहचान है।

रीतिकाल के प्रसिद्ध आचार्य केशवदास ने, काव्य में अलंकार का महत्त्व स्पष्ट करते हुए कहा है-

“आभूषणों के बिना नारी और अलंकारों के बिना कविता की शोभा संभव नहीं।’
भूषन बिनु न बिराजई बनिता मित्त। – (केशवदास, कविप्रिया)

(अर्थात् हे मित्र ! कविता और विनता (स्त्री) भूषण के बिना शोभा नहीं पातीं)।

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इसमें कोई संदेह नहीं कि अलंकार के प्रयाग से सामान्य-सी उक्ति भी अत्यंत प्रभावी, चमत्कारिक और मर्मस्पर्शी बन जाती है। कविवर पंत ने ‘गंगा में चल रही नाव’ के एक साधारण दृश्य को ‘अनुप्रास’ और ‘रूपक’ अलंकार के प्रयोग से कैसे संजीव बिंब-सा मनोहारी, प्रभावी और आकर्षक बना दिया है-

मृदु मंद-मंद, मंथर, मंथर
लघु तरणी हंसिनी-सी सुंदर,
तिर रही खोल पालों के पर।
(सुमित्रानंदन पंत, नौका विहार)

यहाँ पहली पंक्ति में ‘अनुप्रास अलंकार’ (म और अनुस्वार की आवृति) के कारण संगीतात्मक लय-प्रवाह का संचार हो गया है। दूसरी पंक्ति में ‘उपमा’ (हंसिनी-सी), तीसरी पंक्ति में ‘रूपक (पालों के पर) के कारण, गंगा में तैरती का बिंब सजीव चलचित्र की भाँति साकार हो गया है।

स्पष्ट है कि काव्य के वास्तविक सौंदर्य का रहस्य अलंकारों पर निर्भर है। परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं कि काव्य में अलंकार ही सब कुछ है। अलंकार काव्य की शोभा के बाहरी साधन मात्र हैं साध्य नहीं है। काव्य तो स्वयं ही रमणी, चारु तथा सुंदर है। जो स्वभाव से ही मोहक, आकर्षक या सुंदर है, उसे शोभा या चमत्कार के साधनों की क्या आवश्यकता है? किसी अत्यंत दुर्बल, अरूण और रुग्ण व्यक्ति को चाहे कितने बढ़िया आभूषणों से लाद दिया जाए-वह सुंदर या मोहक नहीं बन सकता।

इसी प्रकार, जिस काव्य में भाव और अर्थ की चारुता या मोहकता नहीं उसे केवल वर्णों या शब्दों की आवृत्ति अथवा उपमानों-रूपकों की भरमार से प्रभावशाली नहीं बनाया जा सकता। काव्य में अलंकार का महत्त्व उतना ही समझना चाहिए जितना स्वाभाविक रूप से एक स्वस्थ, सुंदर, सुरूप और सुडौल शरीर को सजाने में आकर्षक आभूषणों का। तात्पर्य यह है कि काव्य में अलंकारों का संतुलित, सुचारु तथा सुसंगत प्रयोग ही उपयुक्त है।

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तात्पर्य यह है कि ‘अलंकार’ कोरे चमत्कार के लिए नहीं। उनकी महत्ता काव्य की स्वाभाविक चारुता और सुष्टुता में वृद्धि करने में है। अलंकार ‘काव्य के लिए है काव्य ‘अलंकार’ के लिए नहीं है।

प्रश्न 2.
अलंकार का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, उसके प्रमुख भेदों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर-
काव्य का स्वरूप-‘अलंकार’ शब्द सामान्य रूप से सजावट, शोभा और चमत्कार बढ़ाने वाले उपकरण के लिए प्रयुक्त होता है। भूषण, आभूषण, आवरण आदि इसी के अन्य पर्याय हैं। अलंकार शब्द के इसी अर्थ को ध्यान में रखकर आचार्य दंडी ने कहा है-‘काव्य के शोभा कारक तत्त्व अलंकार कहलाते हैं।” (काव्यादर्श) आचार्य वामन का मत इससे कुछ भिन्न है। उनके कथनानुसार, ‘काव्य के शोभाकारक’ तत्त्व तो गुण हैं, उन गुणों में अतिशयता (वृद्धि का उत्कर्ष) लाने वाले साधन अलंकार हैं। अपने इस मत को वामन ने केवल एक शब्द में समेटते हुए, निष्कर्ष के रूप में आगे यह भी कहा है कि काव्य के अंतर्गत ‘सौंदर्य मात्र अलंकार है-सौंदर्यमलंकारः।

प्रश्न यह है कि अलंकार स्वयं सौंदर्य है अथवा सौंदर्य का हेतु (कारण का साधन) है? अधिकतर विद्वान दूसरे पक्ष के समर्थक हैं। भारतीय काव्यशास्त्र में ‘ध्वनि’ संप्रदाय के प्रवर्तक आनंदवर्धन ने स्पष्टं कहा है कि काव्य में चारुत्व (सुन्दरता, सरसता, रोचकता, चमत्कारता) लाने वाले उपकरण (कारण, साधन या माध्यम) अलंकार है। (ध्वन्यालोक) काव्य में अलंकारों को सर्वप्रथम महत्त्व प्रदान करने वाले आचार्यों में भामह का नाम विशेष उल्लेखनीय है। उनका कथन है कि ‘शब्द और अर्थ को एक विशेष प्रकार (वक्र रूप) से प्रस्तुत करने की युक्ति (शैली) अलंकार है।

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(काव्यालांकार) भामह द्वारा प्रस्तुत किया गया अलंकार का यह लक्षण पर्याप्त सुसंगत है। इसो की व्याख्या करते हुए मध्ययुग के आचार्य मम्मट और विश्वनाथ ने कहा है-‘शरीर में हार, कंगन आदि के समान, काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तथा रस-भाव आदि के उपकारक (अर्थात् रस-भाव को उत्कर्ष प्रदान करने वाले) शब्दार्थ के अस्थिर धर्म (तत्त्व) अलंकार कहलाते हैं।”

उपर्युक्त लक्षण में अलंकारों को ‘शब्दार्थ के अस्थिर धर्म’ कहा गया है तो सर्वथा उचित है। अलंकार काव्य के स्थायी, अभिन्न या अनिवार्य तत्त्व नहीं है। इनका उपयोग आवश्यकता होने पर, या स्वाभाविक रूप से कहीं-कहीं यथोचित रूप से किया जाता या हो जाता है। इस दृष्टि से हिन्दी के विख्यात आलोचक और काव्य-मीमासंक आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत बहुत महत्त्वपूर्ण है _ ‘भावों के उत्कर्ष और वस्तुओं के रूप, गुण और क्रिया का अधिक तीव्र अनुभव कराने में कभी-कभी सहायक होने वाली युक्ति ही अलंकार है।’

संक्षेप में कहा जा सकता है कि साहित्य-रचना में किसी भी स्तर पर किसी भी प्रकार के सौंदर्य का उन्मेष होता है, तब वह अपनी समग्रता में अलंकार पर्याप्त हो जाता है।

अलंकारों के प्रमुख भेद

‘अलंकार’ वास्तव में कथन के विशेष प्रकार का नाम है। विशेष प्रकार के वाग्वैदग्ध्य को ही आचार्यों ने ‘अलंकार’ की संज्ञा दी है। यह वाग्वैदग्ध्य या कथन के प्रकार-विशेष के अनेक रूप संभव है। ‘अलंकार’ क्योंकि मुख्य रूप से काव्य में चारुत्व, चमत्कार और प्रभविष्णुता का संचार करते हैं और काव्य-संरचना ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ के सुसंगत संयोग पर निर्भर है (शब्दार्थों सहितौ काव्यम्) अतः अलंकार के दो प्रमुख भेद तो स्पष्ट ही हैं-

  • शब्दालंकार,
  • अर्थालंकार।

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काव्यगत सौंदर्य अथवा चमत्कार का आधार जहाँ केवल शब्द हो वहाँ ‘शब्दालंकार’ होगा और जहाँ काव्यगत सौन्दर्य अथवा चमत्कार अर्थकेंद्रित होगा, वहाँ ‘अर्थालंकार’ माना जाएगा। कई आचार्य एक ही कथन में ‘शब्द’ और ‘अर्थ’ दोनों का संयुक्त चमत्कार होने की स्थिति में अलंकारों का एक तीसरा भेद भी स्वीकार करते हैं जिसे ‘उभयालंकार’ की संज्ञा दी है। ‘उभय’ का अर्थ है दोनों-अर्थात् शब्द भी और अर्थ भी। इस भेद को ‘शब्दार्थालंकार’ भी कहा जाता है।

अलंकार के उपर्युक्त तीनों भेदों का स्पष्टीकरण नीचे दिए गए उदाहरणों से हो सकता है

शब्दालंकार
“तरिन-तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।” यहाँ ‘त’ वर्ण की आवृत्ति के कारण चमत्कार उत्पन्न हुआ है। ‘तरनि’ की जगह ‘सूर्य’ ‘तनुजा’ की जगह ‘पुत्री’ अथवा ‘तरुवर’ की जगह ‘वृक्ष’ शब्द प्रयुक्त होने पर यह चमत्कार नहीं रहता। स्पष्ट है कि यह चमत्कार ‘शब्द’ पर आधारित है, अतः यहाँ शब्दालंकार’ है। इसका नाम ‘अनुप्रास’ है।’

अर्थालंकार
“महँगाई बढ़ रही निरंतर, द्रपुद-सुता के चीर सी,
बेकारी बढ़ रही चीरती, अंतर्मन को तीर-सी।”

यहाँ ‘महँगाई’ (उपमेय, प्रस्तुत) की समता ‘द्रोपदी के चीर’ (उपमान, अप्रस्तुत) से की गई है। ‘बेकारी’ की समता ‘तीर’ से की गई है। दोनों में ‘चीरना’ लक्षण एक-सा है। शब्द बदल देने पर भी चमत्कार कम नहीं होगा, क्योंकि उसका आधार ‘अर्थ’ है। अत: यह ‘अर्थालंकार’ है। इसे “उपमा’ कहते हैं।

शब्दार्थालंकार
“अंतद्वीप समुज्जवल रहता सदा स्नेह स्निग्ध होकर।”

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यहाँ ‘स’ वर्ण की आवृत्ति से ‘अनप्रास’ (शब्दालंकार) है। ‘सदा’ की जगह ‘हमेशा’ या स्नेह की जगह ‘प्रेम’ कर देने से चमत्कार नहीं रहेगा। साथ ही यहाँ ‘स्नेह’ के दो अर्थ हैं-‘प्रेम’ और ‘दीप’। ‘अंतर’ (मन) प्रेम से उज्जवल रहता है, ‘दीप’ तेल से। यह भी शब्दालंकार (श्लेष) है। इसके अतिरिक्त ‘अंत:करण’ (उपमेय) को ‘दीप’ उपमान के रूप में प्रस्तुत किया गया है। शब्द बदलकर ‘हृदय’ रूपी ‘दीपक’ भी कह सकते हैं। अर्थ-चमत्कार बना रहेगा। इस प्रकार इस उदाहरण में शब्द के अर्थ-दोनों का चमत्कार होने के कारण ‘शब्दार्थालंकार’ या ‘उभयालंकार’ है।

प्रश्न 3.
प्रमुख शब्दालंकार कौन-से हैं? लक्षण उदाहरण सहित उसका विवेचन कीजिए।
उत्तर-
प्रमुख शब्दालंकार चार हैं-अनुप्रास, यमक, श्लेष, पुनरुक्ततदाभास। इन चारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन आगे किया जा रहा है :
(i) अनुप्रास- अनुप्रास’ शब्द का अर्थ है-साथ-साथ रखना (अनु+प्र+आस, क्रमबद्ध रूप से सँजाना)। जब वर्गों को एक विशेष क्रम से इस प्रकार साथ-साथ रखा जाता है (उनकी आवृत्ति की जाती है), तब संरचना में एक लयात्मक नाद के सौंदर्य का समावेश होता है। इस दृष्टि से ‘अनुप्रास’ का यह लक्षण ध्यान देने योग्य है

“जहाँ स्वरों की भिन्नता होने पर भी व्यंजनों से रस के अनुकूल समानता (व्यंजन वर्णों की आवृत्ति) हो वहाँ ‘अनुप्रास’ अलंकार माना जाता है।” जैसे-

मानते मनुष्य यदि अपने को आप हैं,
तो क्षमा कर वैरियों को वीरता दिखाइए।

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यहाँ पहले ‘म’ वर्ण की आवृत्ति एक विशेष क्रम से है। फिर ‘व’ वर्ण की समानता द्वारा भी सौंदर्य की सृष्टि हुई है। अतः ‘अनुप्रास’ अलंकार है।
(ii) यमक-‘यमक’ का अभिप्राय है-‘युग्म’ अर्थात् जोड़ा। काव्य में शब्द-युग्म (एक ही शब्द के दो या अधिक बार) के प्रयोग से तब विशेष चमत्कार आ जाता है जब उनके अर्थ अलग-अलग हों। इस आधार पर हम कह सकते हैं

“जहाँ एक शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग हो परंतु हर बार उसका अर्थ भिन्न हो वही ‘यमक’ अलंकार होता है। जैसे-

माला फेरत जुग गया, मिटा न मनका फेर।
कर का मनका डारि कै, मन का मनका फेर। (कबीर)

यहाँ ‘मनका’ शब्द का एक से अधिक बार प्रयोग हुआ है, किन्तु अर्थ अलग-अलग है। पहली पंक्ति में ‘मनका’ का अभिप्राय है-मन का, अर्थात् हृदय का। दूसरी पंक्ति में ‘मनका’ का . अभिप्राय है-माला का दाना। इसी पंक्ति के अंत में पुन:-‘मन का मनका’ फेर अर्थात् हृदय को बदलने (माया से हटकर सत्यकर्मों में लगाने) को कहा गया है। इस प्रकार यहाँ एक ही शब्द ‘मनका’ का अनेक बार प्रयोग होने पर भी, अर्थ भिन्न-भिन्न है, अत: यमक अलंकार है।।

(iii) श्लेष-‘श्लेष’ शब्द का अर्थ है-संयोग। कई शब्द में एक साथ कई अर्थों का संयोग होता है जिनके कारण कथन में विशेष चमत्कार आ जाता है। ‘श्लेष’ शब्द की रचना ‘श्लिष’ धातु से हुई है जिसका अभिप्राय है-‘चिपकना’। जैसे चपड़ा लाख की लकड़ी से ऐसी चिपकी रहती है कि अलग नहीं होती। एक ओर वह लाख प्रतीत होती है, दूसरी ओर से लकड़ी। इसी प्रकार किसी एक शब्द में एक से अधिक अर्थ चिपके होने पर भी कभी एक अर्थ प्रभावित करता है, कभी दूसरा।

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‘श्लेष’ का लक्षण इस प्रकार है-
‘जहाँ एक शब्द से अनेक अर्थों का बोध अभिधा द्वारा हो वहाँ ‘श्लेष’ अलंकार होता है। जैसे-

मेरो भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोई।
जा तन की झाई परै, स्याम हरित दुति होई॥ (बिहार)

यहाँ ‘स्याम’ और ‘हरित’ शब्द में श्लेष है। ‘स्याम’ का अर्थ ‘कृष्ण’ भी है और ‘साँवला’ अर्थात् ‘नील’ भी; हरित का अर्थ ‘मंद’ (हर ली गई) भी है तथा ‘हरि’ भी। राधा के तन की झलक पड़ते ही कृष्ण की दीप्ति भी मंद पड़ जाती है अथवा ‘कृष्ण का साँवला रंग’ (राधा के गोरे रंग की झलक से) हरा प्रतीत होने लगता है। ये दोनों अर्थ संभव हैं जो चमत्कार के आधार हैं। अतः यहाँ ‘श्लेष’ अलंकार है।

(iv) पुनरुक्ततदाभास-‘पुनरुक्ततदाभास’ में चार शब्दों का मेल है-पुनः + उक्त + वत् + आभास। इस आधार पर अर्थ हुआ-पुनः (दोबार) उक्त (कहा गया) वत् (वेसा) आभास (प्रतीत होना)।

जब ऐसा लगे कि एक ही पंक्ति में कोई बात (अनावश्यक रूप से) दोहरा दी गई है, पर वास्तव में ऐसा है कि नहीं-यही चमत्कार का आधार होता है।

“जहाँ अलग-अलग शब्द का जैसा अर्थ देते प्रतीत हो वहाँ ‘पुनरुक्तारापास’ अलंकार होता है।” जैसे-

समय जा रहा और काल है आ रहा।
सचमुच उलटा भाव भुवन में छा रहा। (मैथिलीशरण गुप्त)

यहाँ ‘समय’ और ‘काल’ दोनों का अर्थ ‘वक्त’ (टाइम) प्रतीत होता है। ‘समय’ का अर्थ ‘वक्त’ तो ठीक है परंतु ‘काल’ का अर्थ यहाँ ‘मृत्यु’ है। प्रथम बार समान अर्थ प्रतीत कराने वाले शब्दों के कारण यहाँ चमत्कार है। अतः यहाँ ‘पुनरुक्ततदाभास’ अलंकार है।

प्रश्न 4.
प्रमुख अर्थालंकार कौन-कौन हैं? उन्हें कितना वर्गों में बाँटा जा सकता है? उनका लक्षण उदाहरण सहित विवेचना कीजिए।
उत्तर-
प्रमुख अर्थालंकारों के नाम इस प्रकार हैं-उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, संदेह, भ्रांतिमान, अन्योक्ति, विरोधाभास, मानवीकरण, विशेषण-विपर्यय।

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अर्थालंकारों के प्रमुख वर्ग
साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों में ‘अर्थालंकारों के वर्ग को ही अधिक महत्व दिया गया है। इनके अंतर्गत कवि-गण अनेक प्रकार से काव्य-सौंदर्य की सृष्टि करते हैं, अतः अर्थालंकारों के अपने उपवर्ग भी संभावित हैं। इनमें से प्रमुख ये हैं-

  1. सादृश्यमूलक अलंकार-जिन अलंकारों में उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) के साम्य (सादृश्य) द्वारा चमत्कार अथवा सौंदर्य की सृष्टि होती है। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृश्यमूलक अलंकार हैं।
  2. विरोधमूलक अलंकार-जिन अर्थालंकारों का सौंदर्य या चमत्कार विरोध की स्थिति पर निर्भर करता है वे “विरोधमूलक’ अलंकार कहलाते हैं। जैसे-विरोध (विरोधाभास), विभावना, विशेषोक्ति आदि।
  3. श्रृंखलामूलक अलंकार-यहाँ चमत्कार उत्पन्न करने वाले कथन एवं श्रृंखला (कड़ी) के रूप में (विशेष क्रम से) परस्पर गूंथे हों, वहाँ ‘शृंखलामूलक’ अलंकार की स्थिति मानी जाती है। कारणमाला, सार, एकावली आदि ऐसे ही अलंकार हैं।
  4. न्यायमूलक अलंकार-जिन अर्थालंकारों के अंतर्गत लोकन्याय अथवा तर्क के आधार पर काव्य-सौंदर्य या चमत्कार की सृष्टि की जाती है वे ‘न्यायमूलक’ अलंकार कहलाते हैं।

उपर्युक्त वर्गों में से दो वर्ग विशेष रूप से चर्चित और प्रचलित हैं-

  • सादृश्यमूलक अलंकार
  • विरोधमूलक अलंकार।।

सादृश्यमूलक अलंकारों के चार घटक या अवयव प्रमुख होते हैं

  • उपमेय-जिस व्यक्ति, वस्तु या भाव की किसी अन्य से समानता की जाती है। इसे ‘प्रस्तुत’ भी कहते हैं।
  • उपमान-जिस व्यक्ति, वस्तु या भाव के साथ ‘उपमेय’ या ‘प्रस्तुत’ की समानता बतलाई . जाती है।
  • साधारण धर्म-‘उपमेय’ और ‘उपमान’ में जिस गुण, लक्षण या विशेषता आदि के कारण समानता होती है।
  • वाचक शब्द-जिस शब्द (सा, जैसा, सम, समान, सदृश आदि) के द्वारा उपमेय और उपमान की समानता व्यक्त की जाती है। एक उदाहरण से उपर्युक्त चारों अवयव स्पष्ट हो जाएंगे।

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“लघु तरिण हंसिनी सी सुंदर” (नौका बिहार, पंत)

यहाँ ‘रिण’ (नौका) उपमेय है। ‘हसिनी’ उपमान है। ‘सौंदर्य साधारण धर्म हैं ‘सी’ दायक शब्द है। (यहाँ उपमा सादृश्यमूलक अलंकार) के चारों अंग विद्यमान हैं।)

प्रमुख अर्थालंकारों का लक्षण-उदाहरण सहित विवेचन आगे किया जा रहा है।।

उपमा-अर्थालंकारों में ‘उपमा’ सर्वप्रमुख है। आचार्य दंडी ने सभी अलंकारों को-‘उपमा’ का मुही प्रपंच (विस्तार) बताया है। आचार्य वामन उपमा को सभी अलंकारों का ‘मूल’ मानते हैं। राजशेखर ने उपमा को सर्वशिरोमणि तथा कवियों की माता कहा है, (अलंकार शेखर) तथा अप्पय दीक्षित का कथन है कि उपमा वह नटी है जो रूप बदल-बदल कर काव्य-रूपी रंगमंच पर कौतुक दिखाकर सब काव्यप्रेमियों के चित्त को मुग्ध करती रहती है।” (चित्रमीमांसा) संस्कृत के अमर कवि कालिदास के विश्व विख्यात होने का आधार यही ‘उपमा’ है-

‘उपमा कालिदासस्य’-‘उपमा’ शब्द का अभिप्राय है-निकट रखकर परखना-मापना अर्थात् दो वस्तुओं को निकट रखकर, उनकी समानता (साम्य, सादृश्य) के आधार पर उनकी विशेषता को परखना ‘उपमा’ की प्रमुख पहचान है। निकट ‘समीप’ रखी जाने वाली दोनों वस्तुओं (पदार्थों, व्यक्तियों, विषयों, भावों आदि) में एक ‘प्रस्तुत’ होती है जिसे ‘उपमेय’ कहते हैं-जिसकी (किसी अन्य वस्तु से) समता की जाती है।

(उपमा दी जाती है।) दूसरी वस्तु ‘अप्रस्तुत’ होती है जिसे ‘उपमान’ कहते हैं-जिससे किसी की समता की जाती है। इन दोनों (प्रस्तुत-अप्रस्तुत या उपमेय-उपमान) में जिस गुण, लक्षण, स्वभाव या विशेषता के आधार पर समानता बतलाई जाती है उसे समान धर्म’ कहा जाता है तथा दो भिन्न वस्तुओं (उपमेय-उपमान) में समानता का बोध कराने वाला (सूचक) शब्द (सा, सम, ‘तुल्य’ समान आदि) वाचक शब्द कहलाता है।

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इस प्रकार ‘उपमा’ अलंकार के चार ‘अंग’ हैं-

  • उपमेय,
  • उपमान,
  • समान धर्म,
  • वाचक शब्द।

‘उपमा’ के लक्षण और उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाएगी।

लक्षण-‘जहाँ एक ही वाक्य में, दो भिनन वस्तुओं की गुण-स्वभाव, रूप-रंग या किसी अन्य विशेषता संबंधी समानता उपमेय (प्रस्तुत) और उपमान (अप्रस्तुत) के रूप में बताई गई हो वहाँ ‘उपमा’ अलंकार होता है।”

उदाहरण-
महँगाई बढ़ रही निरंतर द्रुपद-सुता के चीर-सी।
बेकारी बढ़ रही चीरती अंतर्मन को तीर-सी।  – (सोहनलाल द्विवेदी, मुक्तिगंधा)

यहाँ ‘महँगाई’ (उपमेय या प्रस्तुत) की समता द्रुपदसुता के चीर (उपमान या अप्रस्तुत) और बेकारी (उपमेय) की समानता तीर (उपमान) से की गई है, अतः ‘उपमा’ अलंकार है।

इस उदाहरण में ‘उपमा’ के चारों अंग हैं-

उपमेय-महँगाई, बेकारी
उपमान-चीर, तीर समान
धर्म-निरंतर बढ़ना,
चीरना वाचक शब्द-सी

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रूपक-‘रूपक’ शब्द का अभिप्राय है-‘रूप धारण करने वाला’। उपमेय की महिला बताने के कई ढंग हैं जिनमें से एक यह भी है कि उसे उपमान का रूप दे दिया जाए अर्थात् उपमेय और उपमान एक साथ हो जाएँ। ‘उपमेय’ में ‘उपमान’ का इस प्रकार, ‘आरोप’ के कारण ही इस अलंकार का नाम ‘रूपक’ अलंकार है।

लक्षण-“जहाँ उपमेय में उपमान का अभेद आरोप किया गया हो अर्थात् उपमेय-उपमान एक रूप बताए जाएं वहाँ ‘रूपक’ अलंकार होता है।” जैसे-

स्नेह का सागर जहाँ लहरा रहा गंभीर।।
घृणा का पर्वत वहीं पर खड़ा लिए शरीर॥  – (सोहनलाल द्विवेदी, कुणाल)

यहाँ स्नेह (उपमेय) में सागर (उपमान) और घृणा (उपमेय) में पर्वत (उपमान) का आरोप हुआ है, अत: रूपक अलंकार है।

‘रूपक’ का एक प्रसिद्ध उदाहरण है-चरण कमल बंद हरिराई।

अर्थात्-मैं हरि के चरण कमलों (चरण रूपी कमलों) की वंदना करता हूँ।

यहाँ चरण (उपमेय) और कमल (उपमान) अभिन्न (एक रूप) बताए गए हैं। चरण में कमल का आरोप है, अर्थात् चरणों में कमलों का रूप दिया गया है, अत: ‘रूपक’ अलंकार है-

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उत्प्रेक्षा-‘उत्प्रेक्षा’ शब्द का अभिप्राय है-‘संभावना’ या ‘कल्पना’। जिस वस्तु (पदार्थ, व्यक्ति, विषय, स्थिति, भाव, आदि) का वर्णन किया जाता है, वह होती तो वही (प्रस्तुत या उपमेय) है, पर उसमें किसी अन्य (श्रेष्ठ) (उपमान) की कल्पना या संभावना करके उसक विशेषता को उजागर करने की एक प्रभावशाली विधि ‘उत्प्रेक्षा’ मानी जाती है। जैसे, किसी बुद्धि वाले विद्यार्थी की स्मरण-शक्ति की गणना-कौशल देखकर हम कहते हैं-“इसका। मानों कम्प्यूटर है। ‘इस प्रकार, हम दिमाग (उपमेय) में, ‘कम्प्यूटर’ (उपमान) की संभावना का लेते हैं। ‘मानो’ शब्द के प्रयोग से स्पष्ट है कि ‘हम मानते (संभावना) करते हैं।’

लक्षण-“जहाँ प्रस्तुत (उपमेय) में अप्रस्तुत (उपमान) की संभावना ‘मानो’, ‘जानो’, ‘मनु’, “जनु’, आदि शब्दों द्वारा की गई हो वहाँ ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार होता है।” जैसे-

उस काल मारे क्रोध के तन काँपने उनका लगा।
मानो हवा के जोर से सोता हुआ सागर जगा॥  – (मैथिलीशरण गुप्त, जयद्रथ-वध)

यहाँ कांपते तन (उपमेय) में लहराते सागर (उपमान) की संभावना ‘मानो’ शब्द के माध्यम से की गई है। अत: ‘उत्प्रेक्षा’ अलंकार है।

संदेह-जब कोई दूर से किसी ऐसे पदार्थ को देख ले जो कभी तो उसे डरावना जंतु-सा लगे; कभी ढूँठ पेड़ के तने-सा, तो उसके मन में दुविधा होना स्वाभाविक है। यह दुविधा दोनों . संभावित वस्तुओं (उपमेय और उपमान) के सादृश्य के कारण हो सकती हैं। ऐसी मन:स्थिति. का वर्णन काव्य में अनायास चमत्कार ले आता है।

लक्षण-“जहाँ सादृश्य के कारण उममेय और उपमान निश्चित न हो सके कि यह है या वह है-वहाँ ‘संदेह’ अलंकार होता है।”

नयन है या बिजलियाँ ये,
केश है या काले. नाग!

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यहाँ चमकते आँखों (उपमेय) और बिजलियाँ (उपमान) तथा केश (उपमेय) और काले नाम (उपमान) में अनिश्चय की स्थिति बतलाई गई है, अत: ‘संदेह’ अलंकार है।

भांतिमान-रस्सी को साँप समझकर, डर से चीखना कितना विचित्र होगा। यही स्थिति ‘प्रातिमान’ अलंकार में होती है। सादृश्य के कारण उपमेय को उपमान समझ लेना चमत्कार की सृष्टि करता है-उपमेय में उपमान का भ्रम हो जाता है, प्रांति हो जाती है इसलिए इसे भ्रम’ अलंकार या प्रतिमान अलंकार कहा गया है। जैसे-

दुग्ध समझकर रजत-पात्र को लगे चटने तभी बिडोल।

यहाँ बिडाल (विलाव) द्वारा चाँदी) (रजत) के पात्र (बरतन) को दूध समझकर चाटने का चमत्कारपूर्ण वर्णन है, अतः ‘भ्रांतिमान’ अलंकार है।।

अन्योक्ति (अप्रस्तुत प्रशंसा)-‘अन्योक्ति’ (अन्य का कथन) शब्द का अभिप्राय है किसी ‘अन्य’ के माध्यम से अभीष्ट (प्रस्तुत) बात कहना। यहाँ ‘अन्य’ का तात्पर्य ‘अप्रस्तुत’ अर्थात् ‘उपमान’ है। कई बार हमारा कोई प्रियजन जब बहुत दिनों बाद आता है तो हम कहते हैं-‘आज यह सूरज कहाँ से निकला !’ या ‘यह ईद का चाँद कहाँ से आ गया!’ हमारा अभीष्ट वस्तु ‘सूरज’ या ‘चाँद’ नहीं होता ! सूर्य या चाँद तो अप्रस्तुत (उपमान) है।

उनके माध्यम से हम ‘प्रस्तुत’ ‘उपमेय (मित्र) की बातें करते हैं। इस प्रकार के चमत्कार कर सौंदर्य को काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में अप्रस्तुत प्रशंसा’ अलंकार भी कहा गया है, क्योंकि इसमें ‘अप्रस्तुत’ के माध्यम से प्रस्तुत की प्रशंसा, अर्थात् ‘उपमान’ के कथन द्वारा वास्तव में ‘उपमेय’ का वर्णन होता है। आजकल यह अलंकार ‘अन्योक्ति’ के नाम से ही प्रचलित है। जिसका लक्षण इस प्रकार है-

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लक्षण-“जहाँ अप्रस्तुत (उपमान) के वर्णन से प्रस्तुत (उपमेय) का बोध हो वहाँ। ” “प्रस्तुत प्रशंसा’ या ‘अन्योक्ति अलंकार होता है।”

जैसे-
फूल काँटों में खिला था, सेज पर मुरझा गया।  – (रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’)

यहाँ फूल, काँटे, सेज आदि ‘अप्रस्तुत (उपमान) हैं। इनके माध्यम से कवि ने जीवन (प्रस्तुत या टपमेय) का वर्णन किया है जो संघर्ष (काँटों) में विकास पाता है पर ऐश-आराम, आलस्य-मस्ती (सेज) में क्षीण हो जाता है।

इर प्रकार बिहारी के अनेक दोहे, ‘अनयोक्ति’ के उत्तम उदाहरण हैं। जैसे-

मरत पयास पिंजरा परयो, सुवा समै के फेर।
आद दै दै बोलियत, बायस बलि का बेर॥ (बिहार)

(श्राद्ध के दिनों में, समय के फेर से, तोते जैसा सुंदर, समझदार और मधुरभाषी पक्षी तो पिंजरे में पड़ा प्यासा तड़पता रहता है और हलवा-पूरी का भोजन करने के लिए कौओं को आदर-सहित बुलाया जाता है।)

यहाँ ‘तोता’ और ‘कौआ’ अप्रस्तुत है जिनके माध्यम से इस प्रस्तुत अर्थ की प्रतीति कराई गई है-‘कैसा जमाना (बुरा समय) आ गया है ! सज्जन, विद्वान और सच्चे कलाकार तो भूखे मर रहे हैं और गला फाड़-फाड़ कर खुशामद करने वाले धूर्त राजकीय पद, सम्मान और पुरस्कार प्राप्त रहे हैं।

मानवीकरण-‘मानवीकरण’ का अर्थ है-प्रकृति, जड़ या अमूर्त भाव (जो मानव नहीं है) में मानवीय भावनाओं, चेष्टाओं, गुणों आदि की स्थिति बताना। .. “जहाँ प्रकृति आदि या जड़ पदार्थों का मनुष्य के गुण, कार्य, भाव, विचार आदि से युक्त वर्णन किया जाए वहाँ मानवीकरण अलंकार होता है।” जैसे-

“निशा को धो देता राकेश,
चांदनी में जब अलके खोल।”

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यहाँ निशा (रात) और राकेश (चंद्रमा) का मनुष्य की भांति (बाल खोकर धोना आदि) वर्णन है। अतः ‘मानवीकरण’ अलंकार है।

विरोधाभास-‘विरोधाभास’ के शब्द का अभिप्राय है-‘विरोध का आभास अर्थात् प्रतीति (वास्तविकता नहीं)।’ कोई बात इस प्रकार कहना कि जिसमें विरोध प्रतीत हो, पर वास्तव में हो नहीं, चमत्कारपूर्ण होता ही है। यद्यपि ऐसे चमत्कारपूर्ण कथन का सूक्ष्म विवेचन करने से विरोध नहीं रहता, तथापि उससे उत्पन्न चमत्कार का प्रभाव बना ही रहता है।

लक्षण-“जहाँ दो वस्तुओं (कथनों, भावों, आदि) में वास्तविक विरोध न होने पर भी विरोध की प्रतीति कराई जाए वहाँ ‘विरोधाभास’ अलंकार होता है।” जैसे-

या अनुरागी चित्त की गति समुझे नहिं कोय।
ज्यों-ज्यों बड़े स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जल होय॥ (बिहारी सतसई)

यहाँ ‘स्याम (काले-नीले) रंग में डूबकर भी ‘उजला होना’ परस्पर विरोधी बातें प्रतीत होती हैं, किन्तु वास्तव में विरोध नहीं है क्योंकि स्याम का अर्थ ‘श्रीकृष्ण’ है-‘यह प्रेम-ठगा हृदय श्रीकृष्ण में जितना अधिक लीन रहता है उतना ही उजला (आनंदित) होता है। इस प्रकार यहाँ ‘विरोधाभास’ अलंकार है।

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Bihar Board Class 11th Hindi साहित्य का इतिहास

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प्रश्न 1.
‘साहित्यिक का स्वरूप स्पष्ट करते हुए, साहित्य-रचना के उद्देश्य पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
‘साहित्य’ की परिभाषा प्रस्तुत करके उसकी उपादेयता पर प्रकाश डालिए।
अथवा,
साहित्य के प्रयोजन का विशद विवेचन कीजिए।
उत्तर-
साहित्य की परिभाषा एवं उसका स्वरूप-‘साहित्य’ शब्द मूलतः ‘सहित’ शब्द से रचित है। संस्कृत में कहा गया है-‘सहितस्य भावः साहित्यम्’-अर्थात् जिस रचना के साथ (रहने या होने) का भाव विद्यमान हो वह साहित्य है। साथ किसका? या किसके सहित ? इस प्रश्न का उत्तर कई तरह से दिया जा सकता है-
(क) शब्द और अर्थ का साथ होना। अर्थात् ‘सार्थक शब्दों के रचना-कौशल’ को साहित्य कहते हैं।
(ख) सहित, अर्थात् मानव जीवन के हित’ (मंगल, कल्याण, उद्धार, विकास) में सहायक होने वाली शब्दार्थमयी रचना को साहित्य कहा जा सकता है।

संक्षेप में साहित्य की परिभाषा है-“शब्द और अर्थ के ऐसे उचित संयोग को साहित्य कहते हैं जो मानव-जीवन के लिए हितकारी हो।”

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इसी आधार पर, साहित्य के स्वरूप की विशद व्याख्या की जा सकती है। वही रचना साहित्य कहलाने की अधिकारिणी हो सकती है जिसमें प्रयुक्त शब्दावली, अभीष्ट अभिप्राय, मंतव्य या तात्पर्य को अभिव्यजित करने में पूर्णत: सक्षम हो। उन शब्दों में सहज-सुबोधता, अर्थ की रमणीयता और हृदयस्पर्शी रोचकता आदि तत्वों का समाहार होना आवश्यक है।

सहज-सुबोधता का अभिप्राय यह नहीं है कि आम घरेलू या बाजारू व्यवहार में प्रयुक्त सभी प्रकार की शब्दावली ‘साहित्य’ होगी। उस शब्दावली में माव-मन और जीवन को प्रभावित करने वाली ऐसी बातें हों जो शिष्टशालीन स्तर का निर्वाह हुए पढ़ने और सुनने वालों की अभिरूचि के भी अनुकूल हों।

‘सहित’ अर्थात् ‘साहचर्य’ की भावना का अभिप्राय व्यक्ति और समाज, अतीत, वर्तमान और भविष्य सुख और दुःख आदि की समन्वित भी है। साहित्य में यथार्थ के साथ आदर्श का समन्वय होने के साथ सत्य, शिव और सुंदर तत्त्वों का भी समुचित सामंजस्य होना चाहिए।

उदाहरण के लिए हम कबीर, तुलसी आदि कवियों की कविता, भारतेंदु, प्रसाद, आदि के नाटक, चन्द के उपन्यास या जैनेन्द्र और अज्ञेय की कहानियाँ, हजारीप्रसाद द्विवेदी या विद्यानिवास मिश्र के निबंध, राहुल के यात्रा-वृत्तांत अथवा महात्मा गाँधी या पं० नेहरू की आत्मकथा, महादेवी वर्मा के संस्मरण और रेखाचित्र-किसी भी रचना की लें-उनमें शब्द और अर्थ, व्यक्ति और समाज के यथार्थ और आदर्श, सत्य-शिव-सुंदर के साथ-साथ रोचकता और लोक-मंगल भावना का भी समुचित समावेश है। इसी कारण इस प्रकार की सभी रचनाएँ ‘साहित्य’ के अंतर्गत भानी जाती है।

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सहित्य का उद्देश्य अथवा प्रयोजन-सृष्टि की कोई भी वस्तु उद्देश्य रहित नहीं। फिर किसी कवि, कथाकार या निबंधकार की कोई भी रचना बिना किसी प्रयोजन के कैसे मानी जा सकती है साहित्य के स्वरूप के अंतर्गत ‘सहित’ (स + हित अर्थात् हित से युक्त, हितकारी, मंगलकारी) भाव का उल्लेख ही ‘साहित्य के उद्देश्य’ का भी स्पष्ट संकेत कर देता है। इसके अनुसार साहित्य का उद्देश्य है-मानव-मात्र का ही नहीं, प्राणी-मात्र का हित करना।

भारतीय साहित्यशास्त्र के प्राचीन आचार्यों ने साहित्य (या काव्य) के उद्देश्य की चर्चा बड़े विस्तार से की है। इस संबंध में उन्होंने दो पहलुओं से विचार किया है-
(क) साहित्य के रचनाकार (कवि या लेखक) की दृष्टि से,
(ख) पाठक, श्रोता या (नाटक के) दर्शक की दृष्टि से।

प्रथम दृष्टि से साहित्य का उद्देश्य है-यश कीर्ति की प्राप्ति, धन-उपार्जन। आज कालिदास, कबीर, तुलसी, भारतेन्दु प्रसाद, प्रेमचंद आदि की जो ख्याति है उसका आधार उनका साहित्य ही है। मध्ययुग के केशव, बिहारी, देव आदि कवियों को उनकी रचनाओं के कारण पुरस्कार, सम्मान आदि के रूप में धन-प्राप्ति हुई। वर्तमान युग में भी लोकप्रिय साहित्यकारों को रचनाओं के माध्यम से ही उन्हें पर्याप्त आर्थिक आय होने के उदाहरण प्रत्यक्ष देखे जा सकते हैं।

परंतु रचयिता की दृष्टि से साहित्य का यह उद्देश्य पाठक-वर्ग अर्थात् साहित्य के अध्येता की दृष्टि से विचारणीय है। पाठक या श्रोता (समाज) की दृष्टि से साहित्य का उद्देश्य बहुआयामी (अनेक प्रकार) का है। जैसे-ज्ञान प्राप्ति, जानकारी वृद्धि, अमंगलकारी (हानिकारक) प्रवृत्तियों से मुक्ति, अलौकिक आनंद की प्राप्ति तथा मनोरंजन के साथ-साथ हितकारी उपदेशों का संचार आदि।

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संस्कृत के प्राचीन आचार्य भरत ने कहा है कि “साहित्य का उद्देश्य मनुष्य को दु:ख, श्रम .. और शोक से मुक्ति दिलाना है।”

भारतीय परंपराओं में जीवन के चार उद्देश्य माने गए हैं, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। आचार्य भामह साहित्य के माध्यम से इन्हीं चार उद्देश्यों की सिद्धी मानते हैं। इसके साथ उन्होंने कीर्ति और आनंद की प्राप्ति को भी साहित्य का उद्देश्य प्रयोजन बताया है। आचार्य दंडी का कथन है कि साहित्य ज्ञान और यश प्रदान करता है।”

गोस्वामी तुलसीदास ने अत्यंत संक्षेप में साहित्य (किसी रचना के रूप में प्रस्तुत वाणी) का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है-

करीति भनिति भूमि धलि सोई।
सुरसरि सम सब कह हित होई॥

(अर्थात्-वही कीर्ति, वाणी (साहित्य रचना) और धन-वैभव श्रेष्ठ है जो गंगा के समान (बिना किसी भेदभाव के) सबका एक-सा हित करे।

स्पष्ट है कि साहित्य का मुख्य प्रयोजन या उद्देश्य है-‘सभी का एक-समान हित करना।’ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है-

केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए।
उसमें तनिक उपदेश का भी धर्म होना चाहिए।

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संक्षेप में “अलौकिक आनंद तथा लोकमंगल ही साहित्य का चरम उद्देश्य है।”

प्रश्न 2.
साहित्य के इतिहास के काल-विभाजन और नामकरण के विभिन्न आधारों का उल्लेख कीजिए और बताइए कि उनमें सबसे अच्छा कौन है ?
उत्तर-
साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण कृति, कर्ता, पद्धति और विषय की प्रधानता के आधार पर किया जाता है। साहित्य इतिहास को प्रायः लोग प्रमुख तीन भागों-आदि (प्राचीन), मध्य और आधुनिक-में बाँटकर उसका नामकरण कर देते हैं, जैसे-आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।

यह भी सच है कि कभी-कभी साहित्य में अनेक धाराएँ और प्रवृत्तियाँ एक साथ समान वेग से उदित और विकसित होती दिखाई पड़ती हैं। ऐसी स्थिति में साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन साहित्यिक विधाओं के आधार पर कर दिया जाता है। इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल ने किसी कालखंडविशेष में एक ही ढंग की रचनाओं की प्रचुरता अथवा रचनाविशेष की आपेक्षिक प्रसिद्धि को अपने काल-विभाजन का आधार बनाया है।

उनका कहना है कि किसी कालविशेष में किसी रचनाविशेष की प्रसिद्धि से भी उस काल की लोकप्रवृत्ति झंकृत होती है। संक्षेप में, साहित्यिक इतिहास ग्रंथों के काल-विभाजन और नामकरण के लिए प्रायः निम्नलिखित आधार अपनाए जाते हैं-

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  • मानव-मनोविज्ञान के द्वारा सामान्यतः स्वीकृत ऐतिहासिक कालक्रम, जैसे-आदिकाल, पूर्व-मध्यकाल, उत्तर-मध्यकाल और आधुनिक काल।
  • शासन और शासनकाल, जैसे-एलिजाबेथ-युग, विक्टोरिया-युग।
  • लोकनायक, जैसे-गाँधी-युग।।
  • प्रसिद्ध साहित्यकार, जैसे-भारतेन्दु-युग, द्विवेदी-युग।
  • महत्त्वपूर्ण घटना, जैसे-पुनर्जागरण-काल, स्वातंत्र्योत्तर-काल।
  • भावगत अथवा शिल्पगत प्रवृत्तियों की प्रधानता, जैसे-भक्तिकाल, श्रृंगारकाल, रीतिकाल, छायावाद काल (युग)।

आचार्य शुक्ल ने लिखा है कि जनता की चित्तवृत्तियों के साथ साहित्य परंपरा का सामंजस्य दिखाना ही साहित्येतिहास और उसके लेखक का काम है। इसलिए, किसी कालखंड में जनता की प्रधान चित्तवृत्ति को ही वे काल-विभाजन और उसके नामकरण का सर्वोत्तम आधार मानते हैं। जहाँ कहीं कोई ऐसी प्रधान चित्तवृत्ति नहीं दिखाई पड़ती वहाँ वे अन्य साधनों का भी उपयोग करते हैं।

हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण शुक्लजी के अतिरिक्त गारसा-द-तासी से हजारी प्रसाद द्विवेदी तक विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूपों में किया है। किन्तु, अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल-विभाजन और नामकरण निम्नलिखित रूप में किया है-

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(क) आदिकाल अथवा वीरगाथाकाल (1050-1375 ई०)
(ख) पूर्व-मध्यकाल अथवा भक्तिकाल (1375-1700 ई०)
(ग) उत्तर-मध्यकाल अथवा रीतिकाल (1700-1900 ई०)
(घ) आधुनिक काल (1900 ई० से अब तक)

अनेक दुर्बल बिन्दुओं के बावजूद आचार्य शुक्ल-कृत ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ का काल-विभाजन और नामकरण ही आज तक व्यावहारिक और सर्वमान्य बना हुआ है।

प्रश्न 3.
आदिकाल के नामकरण के औचित्य पर विचार कीजिए।
उत्तर-
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में हिन्दी साहित्य के। इतिहास का जो काल-विभाजन किया है वह इस प्रकार है-
आदिकाल (वीरगाथाकाल, संवत् 1050-1375)
पूर्व-मध्यकाल (भक्तिकाल, संवत् 1375-1700)
उत्तर-मध्यकाल (रीतिकाल, संवत् 1700-1900)
आधुनिक काल (गद्यकाल, संवत् 1900-1984)

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इस काल-विभाजन में दोष होने पर भी व्यवहारिक सुविधा के लिए बहुसंख्यक लोग इसी काल-विभाजन को आधार मानते रहे हैं। जहाँ तक आदिकाल नाम का प्रश्न है उससे जनता की किसी चित्तवृत्तिविशेष का पता नहीं चलता जबकि आचार्य शुक्ल ने स्वयं लिखा है कि हिन्दी साहित्य का विवेचन करने में यह बात ध्यान में रखनी होगी कि किसी विशेष समय में लोगों में रुचि-विशेष का संचार और पोषण किधर से किस प्रकार हुआ।

आदिकाल का नामकरण करते समय भी आचार्य शुक्ल अपने इस सिद्धांत के प्रति जागरूक थे। आदिकाल के प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के संदर्भ में उन्होंने लिखा है-“आदिकाल की इस दीर्घपरंपरा के बीच प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर हो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है-धर्म, शृंगार, वीर सब प्रकार . की रचनाएँ दोहों में मिलती हैं।” इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के बाद वीर-गाथाओं का समय आता है।

फिर भी, आचार्य शुक्ल ने इस पूरी अवधि को आदिकाल (वीरगाथाकाल) कहा है। शुक्लोत्तर इतिहासकारों और आलोचकों में ऐसे बहुत हैं जो शुक्लजी के ‘आदिकाल’ नाम को अनुचित बताते हैं। उनका तर्क है कि ‘आदि’ से किसी विशेष चित्तवृत्ति का पता नहीं चलता ! शुक्लोत्तर इतिहासकारों में डॉ० रामकुमार वर्मा ने इस काल को चारणकाल कहा है। किन्तु, रचयिताओं की जाति के आधार पर नामकरण के सिद्धांत को बहुत अच्छा नहीं माना जा सकता। राहुल सांस्कृतत्यायन ने इस कात को सिद्धसामंतकाल कहा है।

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प्रश्न है कि अगर राहुलजी के इस नाम को स्वीकार कर लें तो आगे के कालों का नामकरण इस आधार पर कैसे होगा? वैसे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को इस काल का नाम ‘अपभ्रंशकाल’ रखने में कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु तब आगे के कालों को सधुक्कड़ीकाल, ब्रजभाषा का काल, अवधीकाल, खड़ी बोली काल कहना होगा। इसी झमेले से बचने के लिए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इस काल को सर्वत्र आदिकाल ही कहा है।

यह नाम बाबू श्याम सुन्दर दास द्वारा भी प्रस्तावित है। यद्यपि इस नाम की सीमा से आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी परिचित हैं-“वस्तुतः, हिन्दी का ‘आदिकाल’ शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारण की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम मनोभावापन्न, परंपराविनिर्मुक्त, काव्य-रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है” तथापि वे आगे लिखते हैं कि “यह ठीक नहीं है।

यह काल बहुत अधिक परंपराप्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सजग-सचेत कवियों का काल है।” इस तरह, हम देखते हैं कि किसी प्रवृत्ति-विशेष का आधार न होते हुए भी इस काल को लोग ‘आदिकाल’ ही कहते आए हैं। प्रवृत्ति का आधार तो सर्वोत्तम है किन्तु किसी निर्दिष्ट चित्तवृत्ति या प्रवृत्ति के अभाव में परंपरा और लोक-स्वीकृति का भी ध्यान रखना चाहिए। इन बिन्दुओं के आलोक में हिन्दी साहित्य के इतिहास की इस अवधि (संवत् 1050-1375) के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उचित जान पड़ता है।

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प्रश्न 4.
सिद्ध और नाथ साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
अथवा,
सिद्ध और नाथ साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों का परिचय दीजिए।
उत्तर-
सिद्ध-साहित्य की निम्नलिखित सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं
(क) वेदसम्मत ज्ञान की अवहेलना तथा काया-साधना का महत्त्व-प्रतिपादन-सिद्ध-साहित्य में वेदसम्मत ज्ञान को निष्फल बताया गया है और वैदिक पंडितों का उपहास किया गया है। सरहपाद ने लिखा है कि वैदिक पंडित संपूर्ण सत्य का व्याख्यान करते चलते हैं, किन्तु आवागमन की समस्या का आज तक वे समाधान नहीं कर पाए। तब भी, वे निर्लज्ज दावा करते हैं कि हम पंडित हैं। वे मूर्ख यह भी नहीं जानते कि काया के भीतर ही परमतत्त्व का निवास है-

पंडित सअल सत्त बक्खाण्ड, देहहि बुद्ध बसंत ण जाण्इ।
अवणागवण ण तेण बिखंडिट, तोवि णिलज्ज अँडउँ हउँ पंडिट॥

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(ख) पंचमकार की साधना-सिद्ध-साहित्य में सर्वत्र पंचमकार की साधना पर बल दिया गया है। किन्तु मद्य, मदिरा, मांस, मैथुन और मुद्रा की वहाँ रहस्यात्मक धारणा है। इन्हें लौकिक अर्थों में नहीं लेना चाहिए।
(ग) शून्य-साधना-सिद्धों ने काया-साधना को तो महत्त्व दिया ही है, योग और नागार्जुन द्वारा प्रतिपादित शून्य-साधना पर भी बल दिया है। शून्यता के साथ करुणा का योग उनका साध्य है।
(घ) सहज-साधना-सिद्धों ने सहज-समाधि पर भी बल दिया है। सहज-समाधि के अंतर्गत वे प्रज्ञा और उपाय के योग की साधना करते हैं।
(ङ) उलटी साधना-उलटी साधना या परावृत्ति पर भी उस साहित्य में बल दिया गया है।
(च) धार्मिक-सामाजिक बुराइयों पर प्रहार-साहित्य में सामाजिक कुरीतियों और बुराइयों, जाति-पाँति और पुस्तकीय ज्ञान पर सर्वत्र प्रहा, किया गया है।
(छ) रहस्यात्मक साधना-उसमें रहस्यात्मक साधना से सिद्धिप्राप्ति का उल्लेख तथा तंत्रों को चमत्कारिक शक्ति का प्रतिपादन है।
(ज) सामान्य शैली-सिद्ध-साहित्य में दोहा-चौपाई तथा कुछ अन्य छंदों को भी समान रूप से अपनाया गया है। उलटबाँसी उनकी सामान्य शैलीगत प्रवृत्ति है।

नाथ-साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं-
(क) शून्य-साधना-सिद्धों की शून्य-साधना की परंपरा नाथों में भी चलती रही। सिद्धों की तरह नाथों ने भी सहज-समाधि अथवा शून्य-समाधि पर बल दिया है। अतः, शून्य-साधना या सहज-साधना नाथ-साहित्य की भी सामान्य प्रवृत्ति है।
(ख) उलटी साधना-सिद्धों की तरह नाथों ने भी उलटी साधना पर बल दिया है। वे भी पवन को उलटकर ब्रह्मरंध्र में समाविष्ट करने की बात बार-बार करते हैं।
(ग) शैली-नाथ-साहित्य की उपमा-पद्धति, छंद आदि सिद्धों के साहित्य की तरह हैं। भाषा की दृष्टि से उन्होंने संधाभाषा का प्रयोग किया है।

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प्रश्न 5.
वीरगाथाकाल (आदिकाल) की सामान्य प्रवृत्तियों (विश्ताओं) का उल्लेख कीजिए।
अथवा,
वीरगाथाकाल की सामान्य (प्रमुख) प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
उत्तर-
वीरगाथाकाल (1050-1375 ई०) लड़ाई-भिड़ाई का युग था। भारत के उत्तरी और पश्चिमी भाग से प्रायः निरंतर विदेशी आक्रमण होते रहते थे। इस युग में एक ओर सिद्ध, नाथ और जैन अपने आध्यात्मिक साहित्य का निर्माण कर रहे थे तो दूसरी ओर खंडराज्यों में बँटे उत्तरी भारत के राजाओं के दरबारी कवि अपने-अपने आश्रदाताओं की अत्युक्तिपूर्ण प्रशंसापरक काव्य रचना करने में संलग्न थे।

इस काल के कवि केवल कविता ही नहीं लिखते थे, आवश्यकता पड़ने पर लड़ने के लिए भी निकल पड़ते थे। पृथ्वीराज के दरबारी कवि और पृथ्वीराजरासो के प्रणेता चंदबरदाई को भी ऐसा ही करना पड़ा था-“पुस्तक जल्हण हल्थ दै चलि गज्जन नृप काज”। संक्षेप में वीरगाथाकाल की निम्नलिखित सामान्य प्रवृत्तियाँ हैं-

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(क) आश्रयदाता राजा की अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा और एक समग्न राष्ट्रीय भावना का नितांत अभाव-उक्त काल में उत्तर भारत कई खंडराज्यों में बँट चुका था। राजाओं में ईर्ष्या-द्वेष व्याप्त था। वे बात-बात में परस्पर लड़ पड़ते थे। वे अहंकारी और विलासी थे। इसलिए अपने दरबारी अथवा आश्रित कवियों से वे अपनी अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशंसा सुनने के आदी। हो गए थे। उनके दरबारी कवि भी उनकी प्रशंसा में तिल का ताड़ और प्रतिपक्षियों के अवमूल्यन में ताड़ का तिल किया करते थे। एक समग्र राष्ट्रीय भावना का उस काल के साहित्य में नितांत अभाव मिलता है।

(ख) इतिहास के साथ तोड़-मरोड़-चूंकि उस काल के बहुसंख्यक कवि राजाश्रित थे। अतः, अपने आश्रयदाता राजाओं की इच्छा अथवा स्वेच्छा से भी वे सच्चाई के साथ खिलवाड़ किया करते थे। उनके द्वारा रचित काव्य-साहित्य में बहुत सी बातें कल्पित अथवा ऐतिहासिक सत्य के विरुद्ध हुई हैं।

(ग) युद्धों का सजीव वर्णन-उस काल के राजाश्रित कवि बहुत प्रतिभाशाली थे। उनमें सजीव और रंगारंग वर्णन करने की अप्रतिम क्षमता थी। इसलिए, उनके द्वारा वर्णित संग्रामों में सर्वत्र सजीवता दिखाई पड़ती है। उनके साहित्य का वीररसात्मक वर्णन विश्व-साहित्य की बहुमूल्य निधि है।

(घ) वीर और श्रृंगार रसों की प्रधानता-उक्त काल के काव्य-साहित्य में वीर और शृंगार रसों का प्राधान्य है। वीर और शृंगार परस्पर उपकार भी हैं। इसलिए, ऐसे काव्यों के किसी नायक के साथ उसकी नायिका को अनिवार्यतः रखा गया है।

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(ङ) वर्णन की प्रधानता एवं सच्चे भावोन्मेष का अभाव-उक्त काल के कवियों में वर्णन की अकल्पनीय शक्ति थी। इसलिए सच्चे भावोन्मेष के अभाव में भी केवल वर्णन-शक्ति के आधार पर काव्य-रचना अथक रूप में किए जाते थे।

(च) प्रकृति-चित्रण में प्रति रुझान-चूँकि उक्त काल के कवि श्रृंगाररसपूर्ण साहित्य का भी सृजन करते थे, इसलिए उनके काव्य में उद्दीपनात्मक और अलंकृत कोटियों के प्रकृति-चित्रणों की बहुलता है। प्रबंधात्मक अनिवार्यता के कारण वे प्रकृति का आलंबनात्मक वर्णन भी करने के लिए विवश थे।

(छ) रासो नामधारी ग्रंथों की रचना-उक्त काल की अन्य सामान्य प्रवृत्तियों में रासो नामधारी ग्रंथों का निर्माण और जनजीवन के यथार्थ वर्णन की उपेक्षा के भाव को रेखांकित किया जा सकता है।

शैली-सबने दोहा, सोरठा, तोमर, गाथा, गाहा, आर्या, पद्धरिया, सट्टक, रोला, उल्लाला, कुंडलिया-आदि छंदों का विपुलता के साथ प्रयोग किया है।।

प्रबंध के साथ-साथ मुक्तकों की भी रचना उस काल की सामान्य शिल्पगत प्रवृत्ति है।

उक्त काल के कवियों ने डिंगल और पिंगल दोनों भाषाओं का प्रयोग समान रूप से किया है। अतः, इस बात को हम उनकी सामान्य भाषागत प्रवृत्ति कह सकते हैं।

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प्रश्न 6.
भक्तिकालीन साहित्य की सामान्य प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
अथवा,
मध्यकालीन संतों के सामान्य विश्वासों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
निर्गुण धारा के संत हों अथवा सगुण मत के-सबमें विश्वास की समानता पाई जाती है। उनके सामान्य विश्वास निम्नलिखित हैं
(क) भगवान के साथ भक्तों का व्यक्तिगत संबंध-मध्यकालीन भक्तों के उपास्य तत्त्वतः परम सत्ता होते हुए भी एक व्यक्ति की तरह वर्णित हैं, ऐसे व्यक्ति की तरह जो कृपा कर सकता है, प्रेम कर सकता है, उद्धार कर सकता है और अवतार भी ले सकता है। निर्गुण कवि-शिरोमणि कबीर कहते हैं-हरि मेरे पति हैं, और मैं उनकी बहुरिया। वे मेरी माँ हैं, और मैं उनका बालक।

(ख) प्रभु के प्रति प्रेम में विश्वास-प्रभु का स्वरूप प्रेममय है। प्रेम ही साधन और प्रेम ही साध्य है। इसीलिए, सर्ववांछारिहत होकर मध्यकालीन भक्त, केवल प्रभु के प्रेम की कामना करते हैं। उनकी दृष्टि में प्रेम ही परम पुरुषार्थ है।

(ग) प्रभु की लीलाओं में सहभागिता की इच्छा-मध्यकालीन संत, चाहे सगुण हों अथवा निर्गुण, सभी, प्रभु की लीला में अपनी सहभागिता चाहते हैं। कबीरदास जैसे निर्गुणिया कहते हैं-

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वे दिन कब आवैगे माई।
जा कारन हम देह धरी है मिलिबौ अंगि लगाइ। हौं
जानें जो हिलिमिलि खेलूँ तनमन प्रान समाइ।
या कामना करो परिपूरन समरथ ही रामराइ।

इसलिए, भक्तिकालीन संतों की इस प्रवृत्ति को आचार्य द्विवेदी ने ‘तीसरी समानधर्मिता’ के रूप में रेखांकित किया है।
इस संदर्भ में उन्होंने लिखा है-“कबीरदास, दादूदयाल आदि निर्गुण मतवादियों की नित्य लीला और सूरदास, नंददास आदि सगुण मतवादियों की नित्य लीला एक ही जाति की हैं।”

(घ) भक्त और भगवान में अभेद भावना-मध्यकालीन भक्ति साहित्य के अवलोकन से पता चलता है कि सभी प्रकार के भक्त भावना के साथ अपने अभेद में विश्वास करते हैं। प्रेम-दर्शन ही उनके इस विश्वास का आधार है। ‘राम से अधिक रामका दासा’ के पीछे भक्त और भगवान के बीच यही अभेद भाव है।

(ङ) गुरु का महत्व-क्या सगुण और क्या निर्गुण-संपूर्ण भक्ति साहित्य में गुरु की महिमा का निरंतर गाना किया गया है। उन्हें भगवान का रूप कहा गया है। भक्तमाल में लिखा है-

भगति भगत भगवंत गुरु, नामरूप बपु एक।
इनके पद बंदन किए, नासैं बिधन अनेक।।

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(च) नाम-महिमा में विश्वास-सगुण और निर्गुण दोनों प्रकार के भक्तों में नाम की महिमा का भरपूर गान किया है। सगुणवादी कवि-शिरोमणि तुलसीदास जिस तरह कहते हैं

“ब्रह्म राम में नाम बड़े वरदायक वरदानि”

उसी तरह निर्गुण धारा के भक्त-शिरोमणि कबीरदास भी कहते हैं-

कबीर कहै मैं कथि गया ब्रह्म महेस।
राम नाम ततसार है सब काहू उपदेस।।

(छ) प्रेमोदय के एक जैसे क्रम में विश्वास-भगवान के प्रति भक्तों में सहसा प्रेम नहीं उमड़ता। उसका एक निश्चित क्रम होता है। प्रेमोदय के इस क्रम में सभी भक्तों का एक समान विश्वास है। इस तरह, यह विशेषता भक्तिकालीन कवियों की सामान्य प्रवृत्ति है।

प्रश्न 7.
रीतिकालीन काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
रीतिकाल (1700-1900 ई०) में तीन प्रकार की काव्य-रचनाएँ पाई जाती हैं-
(क) रीतिबद्ध
(ख) रीतिसिद्ध एवं
(ग) रीतिमुक्त।

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रीतिबद्ध कवियों की पहली सामान्य प्रवृत्ति यह है कि ऐसे सभी कवि कवि-शिक्षा देना अपना सर्वोपरि कर्त्तव्य मानते हैं। इसलिए, लक्षण-उदाहरण की परिपाटी पर वे काव्य-रचना करते हैं। उनकी दूसरी प्रवृत्ति संस्कृत काव्यशास्त्रीय मान्यताओं को ब्रजभाषा में स्पष्ट करना था। वे लक्षणों से अधिक उदाहरणों से महत्त्व देते थे। इस प्रकार के सभी कवियों में आचार्यत्व और कवित्व का अद्भुत योग दिखाई पड़ता है।

किन्तु, रीति-सिद्ध कवियों की सामान्य विशेषता यह है कि लक्षण ग्रंथ न लिखने पर भी उनका समस्त काव्यात्मक प्रयत्न भीतर-भीतर से काव्य के विभिन्न लक्षणों द्वारा ही अनुशासित रहता था। वे विशुद्धत: ‘काव्य-कवि’ थे। चमत्कारपूर्ण उक्ति-कथन ऐसे कवियों की सामान्य प्रवृत्ति है। इसीलिए, उनके काव्य में मौलिक उद्भावनाओं की प्रचुरता है। वे अपेक्षाकृत स्वच्छंद प्रकृति के कवि थे। रीतिमुक्त धारा के सभी कवि प्रेम की स्वस्थ भूमि पर सृदढ़ रूप में खड़े थे।

प्रेम के पकिल गढ़े में लेवाड़ मारनेवाले कवि वे नहीं थे। लियोग-श्रृंगार के प्रति इस धारा के कवियों में विशेष रुझान देखी जाती है। उनपर फारसी कवियों के ऐकांतिक प्रेम का प्रभाव है। कृष्ण-लीला के प्रति उनमें समान प्रवृत्ति देखी जाती है। सबकी रचनाएँ मुक्तक में हैं। सबकी प्रवृत्ति आलंकारिक है। सबने ब्रजभाषा को अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति का माध्यम चुना है। दोहा, सवैया और कवित्त उनके प्रिय छंद हैं। रीतिकाल को ‘श्रृंगारकाल’ भी कहते हैं। इस दृष्टि से श्रृंगारकालीन काव्य की निम्नलिखित प्रवृत्तियाँ हैं-

(क) श्रृंगारिकता-इस काल के सभी कवियों की प्रवृत्ति शृंगारिक है। इनके काव्य में श्रृंगार के संयोग और वियोग-दोनों रूप अपनी समस्त सूक्ष्मताओं और चेष्टाओं के साथ देखने में आते हैं। इस काल के कवियों ने एक साथ मिलकर शृंगार की ऐसी उच्चकोटिक कविताएँ की कि पाठकों को श्रृंगार के रसराजत्व में पक्का विश्वास हो गया।

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(ख) अलंकारप्रियता-इस काल के कवियों की एक और सामान्य प्रवृत्ति अलंकारप्रियता है। उक्ति-चमत्कार और एक-एक दोहे को अधिकाधिक अलंकारमय बनाने में इस काल के कवियों ने काफी पसीना बहाया। इस काल के कवियों की कविता में आलंकारिक महत्त्व-विषयक सामान्य धारणा को केशव के इस दोहे से समझा जा सकता है-

जदपि सुजाति सुलच्छनी सुबरन सरस कवित्त।
भूषण बिनु न बिराजई कविता बनिता मित्त॥

(ग) भक्ति और नीति की ओर प्रवृत्ति-घोर शृंगारिक कविताओं की रचना के बावजूद इस काल के कवि सामान्यतः भक्ति और नीति की ओर झुके हुए थे, भले ही उनकी भक्ति के पीछे खुलकर खेलने की प्रवृत्ति क्यों न रही हो।

(घ) मुक्तक शैली-इस काल के कवियों की कविता की सामान्य शैली मुक्तकों की थी। इस काल के प्रायः सब-के-सब प्रधान कवि दराबरी थे। दरबार के लिए मृक्तकों की शैली ही अपेक्षाकृत अधिक उपयुक्त होती है।

(3) कवित्व के साथ आचार्यत्व-उस युग में श्रेष्ठ कवि उसी को माना जाता था जो कवि-शिक्षा का आचार्य हो। इसलिए, तत्कालीन सहृदयों के सम्मान को अर्जित करने के लिए प्रत्येक कवि-कवि और आचार्य दोनों का-दुहरा भार ढोता था।

(च) प्रकृति की उद्दीपनात्मक उपयोग-इस काल के कवियों की यह सामान्य प्रवृत्ति है कि सबने प्रकृति के उद्दीपनात्मक रूप का चित्रण किया है, आलंबनात्मक रूप का नहीं।

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(छ) ब्रजभाषा काव्य का माध्यम-इस काल के कवियों ने सामान्यतः ब्रजभाषा का प्रयोग किया है।

इस काल के कवियों की काव्य-भाषा-विषयक सामान्य प्रवृत्ति के संदर्भ में डॉ. नगेन्द्र ने लिखा है कि भाषा के प्रयोग में इस काल के कवियों ने एक खास तरह की नाजुकमिजाजी, मधुरता और मसृणता दिखाई है।

प्रश्न 8.
आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए। अथवा, आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्तियों (विशेषताओं) का परिचय दीजिए।
उत्तर-
आधुनिक काल (1900 ई० से अब तक) के साहित्य की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं जो उसके पूर्ववर्ती रीतिकालीन साहित्य से उसे अलग कर देती हैं। वे विशेषताएँ आधुनिक काल की प्रायः सभी प्रतिनिधि रचनाओं में सामान्यतः पाई जाती हैं। अतः, निम्नलिखित विशेषताओं को हम आधुनिक काल की सामान्य प्रवृत्तियों के रूप में देख सकते हैं-

(क) पद्य के साथ-साथ गद्य का अपेक्षाकृत विपुल प्रयोग-पद्य के साथ गद्य के अपेक्षाकृत व्यापक प्रयोग को हम आधुनिक काल की प्रमुख प्रवृत्ति कह सकते हैं। रीतिकाल तक प्रेस का उदय नहीं हुआ था। फलतः, उस काल में गद्य का वैसा प्रसार न हो सका जैसा प्रेस की स्थापना के बाद आधुनिक काल में हुआ। इस काल में गद्य की विविध विधाओं में लेखन और उसका उत्तरोत्तर विकास होता जा रहा है।

(ख) ब्रजभाषा से मुक्ति-आधुनिक काल में साहित्य के सर्वमान्य माध्यम के रूप में खड़ी बोली हिन्दी को अपनाया गया। इसका प्रयोग अपेक्षाकृत सर्वाधिक व्यापक रूप में शुरू हुआ।

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(ग) राष्ट्रीय भावना का उत्थान-आधुनिक काल में एक समग्र राष्ट्रीय भावना का जो रूप दिखाई पड़ा वह इस काल के पूर्व के किसी काल के साहित्य में नहीं दिखाई पड़ा था। हमारे स्वातंत्र्य संघर्ष की अवधि में खड़ी बोली हिन्दी ही राष्ट्रीस स्तर पर विचार-विनिमय का माध्यम बनी।

(घ) युग-बोध-आधुनिक काल की एक सामान्य विशेषता युग-बोध की है। धीरे-धीरे आदर्श और कल्पना के लोक को छोड़कर आधुनिक साहित्य यथार्थ की भूमि पर खड़ा होने लगा। इसलिए, युग-बोध और यथार्थ-बोध इसकी सामान्य प्रवृत्ति है।

(ङ) श्रृंगार-भावना में परिवर्तन-इस काल में प्रेमकाव्य तो लिखे गए, किन्तु नारी को विलासिता का साधन नहीं, बल्कि श्रद्धास्वरूपपिणी माना गया अर्थात् उसकी हैसियत ऊँची हुई।

(च) पाश्चात्य प्रभाव और वादों का प्राधान्य-विज्ञान के प्रभाव में आकर दुनिया सिमट गई। इसलिए, पाश्चात्य विचारों से हमारा साहित्य भी आन्दोलित होने लगा और उसमें विचार और शैली के विविध प्रकार या वाद दिखाई पड़ने लगे। पाश्चात्य साहित्य से प्रभाव-ग्रहण उसकी सामान्य प्रवृत्ति हो गई।

(छ) लोक-साहित्य की ओर उन्मुखता-आधुनिक साहित्य में सामान्य रूप से यह प्रवृत्ति दिखाई पड़ने लगी कि इस काल के कवियों ने लोक-छंदों को यथावत् और उनके परिष्कृत रूपों को अपनी काव्य-साधना में स्थान देना प्रारंभ किया।

(ज) प्रकृति-चित्रण-आधुनिक काल में प्रकृति का केवल उद्दीपनात्मक रूप ही नहीं बल्कि उसके व्यापक रूप को चित्रित किया गया। देशभक्ति-विषयक साहित्य की उच्चस्तरीयता का निर्धारक प्रकृति का चित्रण का हो गया।

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण समास

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण समास

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1. समास की परिभाषा देकर उसको सोदाहरण समझाएँ।
‘समास’ का धातुगत अर्थ है – संक्षेप में होना। दो या दो से अधिक सार्थक शब्दों का परस्पर संबंध बतानेवाले शब्दांशों अथवा प्रत्ययों का लोप हो जाने पर उन दो या दो से अधिक शब्दों के मिल जाने से जो एक स्वतंत्र शब्द बनता है उस शब्द को ‘सामासिक’ शब्द कहते हैं और इस रूप में होने की क्रिया को ‘समास’ कहते हैं।

उदाहरण के लिए एक शब्द – समूह लें – ‘विद्या के लिए आलय’ इनमें दो पद आए हैं – ‘विद्या’ और ‘आलय’। इन दोनों के बीच का संबंध बतानेवाला शब्द या प्रत्यय है – के लिए। इसका लोप हो जाने पर दोनों के मेल से एक शब्द बन जाता है – विद्यालय। यह समस्त पद हुआ और ऐसा होने की क्रिया ही ‘समास’ है।

2. ‘संधि’ और ‘समास’ के बीच क्या अंतर है? सोदाहरण समझाएँ।

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संधि और समास दोनों किसी भाषा में शब्द – रचना से ही संबंध रखते हैं, पर दोनों में निम्नांकित अंतर हैं।

  1. संधि में दो वर्णों का योग होता है जबकि समास में दो शब्दों का।
  2. समास में पदों के बीच उनके परस्पर संबंध बतानेवाले प्रत्ययों का लोप हो जाता है जबकि संधि में अत्यंत समीप आ गए दो वर्गों के बीच मेल, लोप या कोई नया विकार उत्पन्न होता है।
  3. संधि में तोड़कर दिखाए जानेवाले वर्ण – विकार को ‘विच्छेद’ कहते हैं, जबकि समास में तोड़कर दिखाए जानेवाले प्रत्यय – युक्त शब्दों को ‘विग्रह’ कहते हैं। उदाहरण के लिए ‘पीताम्बर’ शब्द को लें। ‘संधि’ और ‘समास’ को इस प्रकार दिखाया जाएगा – संधि – पीताम्बर = पीत + अंबर। समास – पीताम्बर = पीत (वर्ण) है जिसका अंबर, वह (विष्णु या श्रीकृष्ण)।
  4. ‘संधि’ केवल तत्सम (संस्कृत के मूल) शब्दों में ही होती है जबकि ‘समास’ संस्कृत तत्सम, हिन्दी, उर्दू, सभी प्रकार के पदों में।

3.समास के भेदों का सोदाहरण परिचय दें।
संस्कृत भाषा में समास की बड़ी महिमा है। इसलिए इसके भेदोपभेद भी संस्कृत में ही विस्तार से मिलते हैं, जो हिन्दी भाषा की प्रकृति के न तो अनुकूल हैं और न अपेक्षित ही। व्यावहारिक दृष्टि से हिन्दी में समास के निम्नांकित भेद प्रचलित एवं मान्य हैं।

  • अव्ययीभाव समास – यथाशक्ति, प्रतिदिन
  • तत्पुरुष समास – आशातीत, आचरकुशल
  • बहुव्रीहि समास – पीताम्बर, पंकज
  • कर्मधारय समास – कमलनयन, घनश्याम
  • द्विगु समास – त्रिलोकी, नवरत्न
  • द्वन्द्व समास – माता – पिता, लोटा – डोरी
  • नञ् समास – अनपढ़, अनादि
  • मध्यमपदलोपी समास – दहीबड़ा, सिंहासन

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4. ‘समास’ में “पूर्वपद’ और ‘उत्तरपद’ से क्या तात्पर्य है?
प्रायः दो शब्दों (कभी – कभी दो से अधिक भी) के मिलकर एक शब्द होने को ‘समास’ कहते हैं और नए बने शब्द को समस्त पद। एक समस्त पद में आनेवाले पहले (पूर्व) शब्द को ‘पूर्वपद’ कहते हैं और बाद (उत्तर) आनेवाले शब्द को ‘उत्तरपद’। उदाहरण के लिए, एक शब्द लें – ‘विद्यालय’ जो विद्या + आलय से बना है; इसमें ‘विद्या’ पूर्वपद है और ‘आलय’ उत्तरपद।

5. ‘अव्ययीभाव समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
अव्ययीभाव समास – इसमें पूर्वपद की प्रधानता होती है और वह निश्चित रूप से अव्यय होता है। उदाहरण – यथाशक्ति = यथा + शक्ति। इसमें पूर्वपद ‘यथा’ प्रधान है और यह निश्चित रूप से अव्यय है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

6. ‘तत्पुरुष’ समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएं।
तत्पुरुष समास – इसमें उत्तरपद की प्रधानता होती है और इसमें सामान्यतया पूर्वपद विशेषण और उत्तरपद विशेष्य होता है। उदाहरण – राजकुमार = राजा का कुमार। इसमें उत्तरपद ‘कुमार” प्रधान है और ‘राजा’ इसकी विशेषता बताता है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

7. ‘बहुव्रीहि समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
बहुव्रीहि समास – इसमें आनेवाला पूर्वपद एवं उत्तरपद दोनों की अप्रधान (गौण) होते हैं और इन दोनों पदों के अर्थों के मेल से सामने आनेवाला कोई तीसरा ही अर्थ प्रधान होता है।

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उदाहरण–

  • पीताम्बर = पीत + अंबर।

पूर्वपद ‘पीत’ का अर्थ है ‘पीला’ और उत्तरपद ‘अंबर’ का अर्थ है ‘कपड़ा’, पर ये दोनों अर्थ गौण हैं और इन दोनों के मिलने से सामने आनेवाला एक तीसरा ही अर्थ, ‘पीले वस्त्र धारण करनेवाले विष्णु या श्रीकृष्ण’, प्रधान हो जाता है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

8. ‘कर्मधारय समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
कर्मधारय समास – इसमें पूर्वपद एवं उत्तरपद के बीच विशेष्य – विशेषण संबंध होता है। इसमें दोनों पद कर्ता कारक में होते हैं और इनके लिंग – वचन समान होते हैं। उदाहरण – कमलनयन = कमल (पूर्वपद विशेषण) के समान नयन (उत्तरपद)। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

9. ‘द्विगु समास से क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।।।
द्विगु समास – इसमें पूर्वपद निश्चित रूप से संख्यावाचक होता है। उदाहरण – नवरत्न = नव (नौ) रत्नों का समूह। इनमें पूर्वपद ‘नव’ (नौ) संख्यावाचक है। इसी तरह अन्य उदाहरण भी होंगे।

10. ‘द्वन्द्व’ समास से आप क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
द्वन्द्व समास – इसमें पूर्वपद और उत्तरपद दोनों समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं। उदाहरण – माता – पिता। इस ‘माता – पिता’ समस्पद में ‘माता’ पूर्वपद है और ‘पिता’ उत्तरपद। ये दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। इसी तरह अन्य उदाहरण होंगे।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण समास

11. ‘न’ समास से आप क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
न समास – इसमें पूर्वपद अनिवार्य रूप से ‘न’ या ‘नहीं’ का अर्थ रखनेवाला (निषेधवाचक) होता है और उत्तरपद अर्थ की प्रधानता रखनेवाला होता है। उदाहरण – अनपढ़। इस ‘अनपढ़ शब्द में दो पद हैं – अन (निषेधवाचक पूर्वपद) + पढ़ (पढ़ा हुआ) = नहीं पढ़ा – लिखा। इसी प्रकार अन्य उदाहरण होंगे।

12. ‘मध्यमपदलोपी’ समास से आप क्या समझते हैं? सोदाहरण बताएँ।
मध्यमपदलोपी समास – यह समास स्वतंत्र भेद – जैसा होकर भी तत्पुरुष समास का एक प्रकार है। इसमें पूर्वपद और उत्तरपद के बीच आए पूरक शब्दों का लोप हो जाता है। उदाहरण – दहीबड़ा = दही (में फूला हुआ) बड़ा। यहाँ में फूला हुआ’ शब्दों का लोप हो जाना स्पष्ट दिखाई पड़ रहा है।

स्मरणीय : प्रमुख समास – पदों की सविग्रह तालिका

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

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1. ‘संधि’ की परिभाषा देते हुए उसके भेदों का सोदाहरण परिचय दीजिए।

दो अक्षरों की अत्यंत समीपता के कारण उनके मेल से जो विकार उत्पन्न होता है उसे संधि कहते हैं। जैसे – देव+अर्चन = देवार्चन में ‘अ’ [‘व’ का अ] और ‘अ’ [अर्चन का आदि अक्षर] मिलकर ‘आ’ हो गए हैं और यह ‘संधि’ का एक रूप है।

संधि के तीन भेद माने जाते हैं – स्वर – संधि, व्यञ्जन – संधि और विसर्ग – संधि। स्वर – संधि में दो स्वर – वर्गों के बीच संधि होती है। जैसे-

  • देव + आलय = देवालय
  • मत + ऐक्य = मतैक्य
  • सत्य + आग्रह = सत्याग्रह
  • महा + औषधि = महौषधि

व्यञ्जन – संधि में एक व्यञ्जन + एक स्वर अथवा एक व्यञ्जन + एक व्यञ्जन वर्ण के बीच संधि होती है। जैसे

  • दिक् + अंबर = दिगंबर
  • सत् + जन = सज्जन
  • वाक् + ईश = वागीश
  • उत् + डयन = उड्डयन

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

विसर्ग – संधि में विसर्ग तथा स्वर वर्ण अथवा व्यञ्जन वर्ण के बीच संधि होती है। जैसे

  • निः + चय = निश्चय
  • निः + फल = निष्फल
  • निः + छल = निश्छल
  • प्रातः + काल = प्रात:काल
  • दुः + कर्म = दुष्कर्म
  • अंतः + करण = अंत:करण

संधि के सामान्य नियम

2. स्वर – संधि के नियमों का सोदाहरण परिचय दीजिए।
‘स्वर – संधि’ में दो स्वर – वर्गों के बीच संधि होती है। इसके प्रमुख नियम सोदाहरण नीचे दिए जा रहे हैं।

[i] दो सवर्ण स्वर मिलकर दीर्घ हो जाते हैं। यदि ‘अ’, ‘आ’, ‘इ’, ‘ई’, ‘उ’, ‘ऊ’ और ‘ऋ’ के बाद क्रमशः वे ही ह्रस्व या दीर्घ स्वर आएँ तो दोनो मिलकर क्रमशः ‘आ’, ‘ई’, ‘ऊ’ और ‘ऋ’ हो जाते हैं। जैसे-

  • अ + अ = आ
  • अन्न + अभाव = अन्नाभाव
  • आ + अ = आ
  • तथा + अपि तथापि
  • गिरि + इन्द्र = गिरीन्द्र
  • गिरि + ईश = गिरीश
  • उ + उ = ऊ
  • पृथ्वी + ईश = पृथ्वीश
  • उ + उ = ऊ
  • भानु + उदय = भानूदय
  • ऋ + ऋ =ऋ
  • पितृ + ऋण = पितृण

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

[ii] यदि ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘इ’ या ‘ई’, ‘उ’ या ‘ऊ’ और ‘ऋ’ आए तो दोनों मिलकर क्रमशः ‘ए’, ‘ओ’ ओर ‘अर्’ हो जाते हैं। जैसे-

  • अ + इ = ए
  • देव + इन्द्र = देवेन्द्र
  • आ + इ =ए
  • यथा + इष्ट = यथेष्ट

[ii] यदि ‘अ’ या ‘आ’ के बाद ‘ए’ या ‘ऐ’ आए तो दोनों स्थान में ‘ऐ’ तथा ‘ओ’ या ‘औ’ आए तो दोनों के स्थान में ‘औ’ हो जाता है। जैसे-

  • अ + ए = ऐ
  • एक + एक = एकैक
  • सदा + एव = सदैव
  • परम + ओजस्वी = परमौजस्वी
  • अ + औ
  • परम + औषधि = परमौषधि

[iv] यदि ‘इ’, ‘ई’, ‘ऊ’ और ‘ऋ’ के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो ‘इ – ई’ का ‘य’, ‘उ – ऊ’ का ‘व्’ और ‘ऋ’ का ‘र’ हो जाता है। जैसे-

  • इ + अ
  • यदि + अपि = यद्यपि
  • उ + अ
  • अनु + अय = अन्बय
  • ऋ + आ
  • पितृ + आदेश = पित्रादेश

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

[v] यदि ‘ए’, ‘ऐ’, ‘ओ’, ‘औ’ के बाद कोई भिन्न स्वर आए तो [क] ‘ए’ का ‘अय्’ [ख] ‘ऐ’ का ‘आय’ [ग] ‘ओ’ का ‘अ’ और [घ] ‘औ’ का ‘आ’ हो जाता है। जैसे-
[क] ने + अन = नयन
[ग] पो + अन = पवन
[ख] नै + अक = नायक
[घ] पौ + अन = पावन

3. ‘व्यञ्जन – संधि’ के नियमों का सोदाहरण परिचय दीजिए।
व्यञ्जन – संधि में एक व्यञ्जन + एक स्वर अथवा एक व्यञ्जन + एक व्यञ्जन के बीच संधि होती है। इसके प्रमुख नियम सोदाहरण नीचे दिए जाते हैं।
[vi] यदि ‘क’, ‘च’, ‘त’, ‘ट्’ के बाद किसी वर्ग का तृतीय या चतुर्थ वर्ण आए या य, र, ल, व या कोई स्वर आए तो ‘क्’, ‘च’, ‘ट्’, ‘त्’, ‘प्’ के स्थान में अपने ही वर्ग का तीसरा वर्ण हो जाता है। जैसे-

  • दिक् + गज = दिग्गज
  • अच् + अंत = अजंत
  • सत् + वाणी = सवाणी
  • षट् + दर्शन = षड्दर्शन

[ii] यदि ‘क’, ‘च’, ‘ट्’, ‘त्’, ‘प’ के बाद ‘न’ या ‘म’ आए तो ‘क्’, ‘च’, ‘ट् , ‘प्’ अपने ही वर्ग का पंचम वर्ण हो जाता है। जैसे –

  • वाक् + मय = वाङ्मय
  • षट् + मास = षण्मास
  • अप् + मय = अम्मय
  • उत् + नति = उन्नति

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

[iii] यदि ‘म्’ के बाद कोई स्पर्श व्यञ्जन – वर्ण आए तो ‘म्’ का अनुस्वार या बादवाले वर्ण के वर्ग का पंचम वर्ण हो जाता है। जैसे-

  • अहम् + कार = अहंकार, अहङ्कार
  • सम् + गम = संगम, सङ्गम
  • किम् + चित् = किंचित्, किञ्चित्
  • पम् + चम = पंचम, पञ्चम

[iv] यदि त – द् के बाद ‘ल’ वर्ण रहे तो त् – ‘ल’ में बदल जाते हैं और ‘न्’ के बाद ‘ल’ रहे तो ‘न’ का अनुनासिक के साथ ‘ल’ हो जाता है। जैसे-

  • त् + ल
  • उत् + लास उल्लास
  • न् + छ।
  • महान् + लाभ = महाँल्लाभ

[v] सकार और तवर्ग का श्याकार और चवर्ग तथा षकार और टवर्ग के योग में षकार और टवर्ग हो जाता है। जैसे-

  • प् + त
  • द्रष् + ता = द्रष्टा।
  • महत् + छत्र = महच्छत्र

[vi] यदि वर्गों के अंतिम वर्गों को छोड़ शेष वर्णों के बाद ‘ह’ आए तो ‘ह’ पूर्व वर्ण के वर्ग का चतुर्थ वर्ण हो जाता है ओर ‘ह’ के पूर्ववाला वर्ण अपने वर्ग का तृतीय वर्ण। जैसे-

  • उत् + हत = उद्धत
  • उत् + हार = उद्धार
  • वाक् + हरि = वाग्घरि
  • उत् + हरण = उद्धरण

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

[vii] ह्रस्व स्वर के बाद ‘छ’ हो तो ‘छ’ के पहले ‘च’ वर्ण जुड़ जाता है। दीर्घ स्वर के बाद ‘छ’ होने पर ऐसा विकल्प से होता है। जैसे-

  • परि + छेद = परिच्छेद
  • शाला + छादन = शालाच्छादन

4. ‘विसर्ग – संधि’ के नियमों का सोदाहरण परिचय दीजिए।
विसर्ग – संधि में विसर्ग तथा स्वर – वर्ण अथवा विसर्ग तथा व्यञ्जन – वर्ण के बीच संधि होती है। इस विसर्ग – संधि के नियमों का सोदाहरण परिचय नीचे दिया जा रहा है
[i] यदि विसर्ग के बाद ‘च – छ’ हो तो विसर्ग का ‘श’, ‘ट – ठ’ हो तो तो ‘ए’ और ‘त – थ’ हो तो ‘स’ हो जाता है। जैसे-

  • : + च
  • निः + चय = निश्चय

[ii] यदि विसर्ग के पहले इकार या उकार आए और विसर्ग के बाद का वर्ण क, ख, प, फ हो तो विसर्ग का ‘ए’ हो जाता है। जैसे-

  • निः + कपट = निष्कपट
  • निः + फल = निष्फल
  • निः + कारण = निष्कारण
  • निः + पाप = निष्पाप

[iii] यदि विसर्ग के पहले ‘अ’ हो और परे क, ख, प, फ में कोई वर्ण हो तो विसर्ग ज्यों – का – त्यों रहता है। जैसे-

  • प्रातः + काल = प्रात:काल
  • पयः + पान = पयःपान

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

[iv] यदि ‘इ’ – ‘उ’ के बाद विसर्ग हो और इसके बाद ‘र’ आए तो ‘इ’ – ‘उ’ का ‘ई’ – ऊ’ हो जाता है और विसर्ग लुप्त हो जाता है। जैसे-

  • निः + रव = नीरव
  • निः + रस = नीरस
  • निः + रोग = नीरोग
  • दुः + राज = दूराज

[v] यदि विसर्ग के पहले ‘अ’ और ‘आ’ को छोड़कर कोई दूसरा स्वर आए और विसर्ग के बाद कोई दूसरा स्वर हो या किसी वर्ग का तृतीय, चतुर्थ या पंचम वर्ण हो अथवा य, र, ल, व, ह में से कोई वर्ण हो तो विसर्ग के स्थान में ‘र’ हो जाता है। जैसे-

  • निः + उपाय = निरुपाय
  • निः + झर = निर्झर
  • निः + जल =निर्जल
  • निः + धन =निर्धन

[vi] यदि विसर्ग के पहले ‘अ’ स्वर आए और उसके बाद वर्ग का तृतीय, चतर्थ या पंचम वर्ण आए अथवा य, र, ल, व, ह रहे तो विसर्ग का ‘उ’ हो जाता है और यह ‘उ’
अपने पूर्ववर्ती ‘अ’ से मिलकर गुणसंधि द्वारा ‘ओ’ हो जाता है। जैसे-

  • तेजः + मय = तेजोमय
  • पयः + धर = पयोधर
  • पयः + द = पयोद
  • पुरः + हित = पुरोहित
  • मनः + रथ = मनोरथ
  • मनः + भाव = मनोभाव

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[vii] यदि विसर्ग के आगे – पीछे ‘अ’ स्वर हो तो पहला. ‘अ’ और विसर्ग मिलकर छठे नियम की तरह ‘ओकार’ हो जाता है ओर बादवाले ‘अ’ का लोप होकर उसके स्थान में
लुप्ताकार [ऽ] का चिह्न लग जाता है। जैसे-
प्रथमः + अध्यायः = प्रथमोऽध्यायः

लेकिन, विसर्ग के बाद ‘अ’ के सिवा दूसरा स्वर आए तो यह नियम लागू नहीं होगा, बल्कि विसर्ग का लोप हो जाएगा। जैसे-
अत: + एव = अतएव

स्मरणीय : प्रमुख शब्दों की संधि – तालिका

अन्वय = अनु + अय
अंत:पुर = अंतः + पुर
अत्यधिक = अति + अधिक
अधीश्वर = अधि + ईश्वर
अन्योन्याश्रय = अन्यः + आश्रय
अभीष्ट = अभि + इष्ट
अत्याचार अति + आचार
अन्यान्य = अन्य + अन्य
अतएव = अतः + एव

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संधि

अधोगति अधः + गति
आशीर्वाद आशी: + वाद
आकृष्ट = आकृष् + त
आशीर्वचन = आशी: + वचन।
अभ्युदय = अभि + उदय
आविष्कार = आविः + कार
आच्छादन = आ + छादन
आद्यन्त = आदि + अंत
आद्यारम्भ = आदि + आरंभ
अरुणोदय = अरुण + उदय
इत्यादि = इति + आदि
उच्छृखल = उत् + श्रृंखल
उन्माद = उत् + माद
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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

1. ‘विपरीतार्थक’ शब्द से क्या तात्पर्य है? इसको सोदाहरण समझाएं।

किसी शब्द का जो अर्थ होता है, उसके ठीक विपरीत अर्थ देनेवाले शब्द को ‘विपरीतार्थक’ शब्द कहते हैं। जैसे–रात–दिन। यहाँ ‘रात’ शब्द का जो अर्थ है, ‘दिन’ शब्द उसका ठीक विपरीत अर्थ देता है।
उदाहरण–

  • शब्द – विपरीतार्थक शब्द
  • अनुराग – विराग
  • आदि – अंत

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

कुछ प्रमुख विपरीतार्थक शब्द–

शब्द – विपरीतार्थक शब्द
अंधकार – प्रकाश
अग्रज – अनुज
अमीर – गरीब
अनुरक्त – विरक्त
आदान – प्रदान
अमावस्य – पूर्णिमा
अभिज्ञ – अनभिज्ञ
अल्पायु – दीर्घायु
आकर्षण – विकर्षण
अमर – मर्त्य
आयात – निर्यात
अपना – पराया
अंत – आदि, अनंत
अवस्या – अनवस्था
अपेक्षा – उपेक्षा
आहार – अनाहार
अकाल – सकाल

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

आमिष – निरामिष
अनाथ – सनाथ
आयात – निर्यात
आशा – निराशा
ऊँचा – नीचा
आलसी – परिश्रमी
उन्नति – अवनति
आर्द्र – शुष्क
उदय – अस्त
आसक्त – अनासक्त
आय – व्यय
आस्था – अनास्था
अपमान – सम्मान
अन्तरंग – बहिरंग
अमृत – विष
अंतर्द्वन्द्व – बहिर्द्वन्द्व
अधम – उत्तम
आर्य – अनार्य
अमरत्व – नश्वर
आकाश – पाताल
आदि – अंत
अल्पज्ञ – बहुज्ञ
आस्तिक – नास्तिक
आदर – अनादर

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

अज्ञान – ज्ञान
अर्जन – विसर्जन
आधार – निराधार
इहलाक – परलोक
इष्ट – अनिष्ट
Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 1

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 2

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 3

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 4

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 5
Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 6

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 7
Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 8

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द 9

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विपरीतार्थक (विलोम) शब्द

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

1. “पर्यायवाची शब्द से क्या तात्पर्य है? कुछ उदाहरण दें।

सामान्यतया एक ही वस्तु या व्यक्ति का ज्ञान करानेवाले विभिन्न शब्दों को पर्यायवाची शब्द कहते हैं। वैसे, सूक्ष्म स्तर पर इनके अर्थ अपने–आपमें पूर्ण एवं एक–दूसरे से पृथक् होते हैं। नीचे कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।

  • अनुपम – अतुलनीय, अद्वितीय, अतुल
  • अमृत – सुधा, पीयूष, अगरल, अमिय
  • असुर – राक्षस, दानव, दैत्य, निशिचर, निशाचर, रजनीचर

कुछ स्मरणीय पर्यायवाची शब्द

आकाश – गगन, नभ, अंबर, आसमान
आग – अग्नि, अनल, पावक, दहन
आनंद – सुख, प्रसन्नता, आहाद, उल्लास, हर्ष
आम – आम्र, रसाल, सहकार
इच्छा – चाह, कामना, अभिलाषा, आकांक्षा, मनोकामना
इन्द्र – सुरेन्द्र, सुरपति, देवराज
इन्द्राणी – इन्द्रवधू, शची, पुलोमजा

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

कपड़ा – वस्त्र, वसन, पट, परिधान
कमल – पंकज, जलज, अरविन्द, सरसिज, शतदल
किताब – पुस्तक, पोथी, ग्रंथ किरणरश्मि, मयूख, अंशु
गंगा – भागीरथी, मंदाकिनी, देवनदी, देवापगा, सुरापंगा
गणेश लम्बोदर, गजानन, गजवदन, गणपति, विनायक
घर – गृह, सदन, गेह, भवन, आलय, निलय, निकेतन
घोड़ा – अश्व, हय, घोटक, तुरंग, बाजि
चाँद – चन्द्र, चन्द्रमा, इन्दु, हिमांशु, शशि
जंगल – वन, कानन, विपिन, अरण्य, वनानी
‘जल – पानी, नीर, वारि, अम्बु, सलिल, पय
जमुना – यमुना, कालिंदी, तरणिजा, रविसुता
तालाब – सरोवर, तड़ाग, सर, जलाशय, सरणि, पुष्कर
दुःख – पीड़ा, कष्ट, क्लेश, वेदना, संताप, संकट, शोक
दुर्गा – काली, चंडी, गौरी, कल्याणी, चंद्रिका, अभया
देवता – देव, सुर, अमर, निर्जर, त्रिदिश

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

धन – दौलत, संपत्ति, ऐश्वर्य, संपत्, संपदा, द्रव्य
नदी – सरिता, प्रवाहिनी, तरंगिणी, तटिनी, आपगा, निम्नगा
नरक – रौरव, यमपुरी, यमालय, यमलोक, कुंभीपाक, जहन्नुम
नयन – अक्षि, आँख, नेत्र, चक्षु, लोचन
पंछी – पक्षी, पखेरू, परिन्दा, विहग, खग, द्विज पत्थर – पाहन, पाषाण, अश्म, प्रस्तर
पवन – हवा, वायु, समीर, अनिल, वात
पत्नी – भार्या, गृहिणी, अर्धांगिनी, प्राणप्रिया, सहधर्मिणी
पहाड़ – पर्वत, शैल, अचल, गिरी, नग, महीधर, भूभृत्
पार्वती – उमा, गौरी, गिरजा, सती, रुद्राणी
प्रकाश रोशनी, ज्योति, प्रभा, चमक
पृथ्वी – धरा, वसुंधरा, धरती, मेदिनी, भू
पुत्र – बेटा, लड़का पूत, सुत, आत्मज
पुत्री – बेटी, लड़की, बच्ची, सुता, आत्मजा, नंदिनी
पुर – फूल, सुमन, कुसुम, प्रसून
जाण – तीर, शर, विशिख, आशुग, इषु, शिलीमुख, नाराच

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

ब्रह्मा – विधाता, पितामह, प्रजापति, कमलासन, चतुरानन
जिजली – चपला, चंचला, विद्युत्, दामिनी, तड़ित्
भौंरा – प्रमर, मूंग, मधुप, अलि
मछली—मीन, झष, मत्स्य
महादेव शिव, शंकर, शंभु, भूतनाथ, भोलेनाथ, पशुपति, महेश, कैलाशपति
मेघ – बादल, जलधर, वारिद, नीरद, पयोद, पयोधर, अंबुद
राजा नरपति, नरेश, महीप, नृप, भूप, भूपति, अधिपति
रात – रात्रि, निशा, रजनी, यामिनी, त्रियामा, विभावरी
वायु – हवा, बयार, समीर, वात, मारुत, अनिल
वृक्ष – पेड़, तरु, विटप, अगम, द्रुम
विष्णु – जनार्दन, चक्रपाणि, विश्वम्भर, नारायण, केशव, माधव
स्त्री – नारी, महिला, वनिता, कांता, रमणी, अंगना
स्वर्ग – सुरलोक, अमरलोक, देवलोक, दिव, द्यौ, त्रिदिव।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण पर्यायवाची शब्द

सागर – जलधि, पारावार, रत्नाकर, पयोनिधि, सिन्धु, समुद्र
समूह – समुदाय, संघ, दल, मंडल, वृंद, गण, निकर
सरस्वती – शारदा, वीणापाणि, वाणीश्वरी, भारती, वाणी
साँप – भुजंग, सर्प, विषधर,, व्याल, फणी, नाग
सिंह शेर, मृगेन्द्र, मृगराज, केशरी.
सूर्य—सूरज, रवि, दिनकर, अंशुमाली, मार्तण्ड, भास्कर
हँसी – मुसकान, स्मित, हास्य हाथ – कर, हस्त, पाणि
हाथी – गज, कुंजर, द्विरद, द्विप, मतंग, हस्ती

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

  1. संक्षेपण का स्वरूप।
  2. संक्षेपण के नियम
  3. संक्षेपण : कुछ आवश्यक निर्देश।
  4. अनेक शब्दों (पदों) के लिए एक शब्द (पद)।
  5. संक्षेपण के कुछ उदाहरण

1. संक्षेपण का स्वरूप
संक्षेपण की परिभाषा – किसी विस्तृत विवरण, सविस्तार व्याख्या,वक्तव्य, पत्रव्यवहार या लेख के तथ्यों और निर्देशों के ऐसे संयोजन को ‘संक्षेपण कहते हैं, जिसमें अप्रासंगिक, असम्बद्ध, पुनरावृत्त, अनावश्यक बातों का त्याग और सभी अनिवार्य, उपयोगी तथा मूल तथ्यों का प्रवाहपूर्ण संक्षिप्त संकलन हो।

इस परिभाषा के अनुसार, संक्षेपण एक स्वतःपूर्ण रचना है। उसे पढ़ लेने के बाद मूल सन्दर्भ को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। सामान्यत: संक्षेपण मे लम्बे – चौड़े विवरण, पत्राचार आदि की सारी बातों को अत्यन्त संक्षिप्त और क्रमबद्ध रूप में रखा जाता है। इसमें हम कम – से – कम शब्दों में अधिक – से – अधिक विचारों, भावों और तथ्यों को प्रस्तुत करते हैं।

वस्तुतः संक्षेपण ‘किसी बड़े ग्रन्थ का संक्षिप्त संस्करण, बड़ी मूर्ति का लघु अंकन और बड़े चित्र का छोटा चित्रण’ है। इसमें मूल की कोई भी आवश्यक बात छूटने नहीं पाती। अनावश्यक बातें छाँटकर निकाल दी जाती हैं और मूल बातें रख ली जाती हैं। यह काम सरल नहीं। इसके लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यक है।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

संक्षेपण उदाहरण 1

ऋतुराज वसन्त के आगमन से ही शीत का भयंकर प्रकोप भाग गया। पतझड़ में पश्चिम – पवन ने जीर्ण – जीर्ण पत्रों को गिराकर लताकुंजों, पेड़ – पौधों को स्वच्छ और निर्मल बना दिया। वृक्षों और लताओं के अंग में नूतन पत्तियों के प्रस्फुटन से यौवन की मादकता छा गयी। कनेर, करवीर, मदार, पाटल इत्यादि पुष्पों की सुगन्धि दिग्दिगन्त में अपनी मादकता का संचार करने लगी। न शीत की कठोरता, न ग्रीष्म का ताप।

समशीतोष्ण वातावरण में प्रत्येक प्राणी की नस – नस में उतफुल्लता और उमंग की लहरें उठ रही हैं। गेहूँ के सुनहले बालों से पवनस्पर्श के कारण रुनझुन का संगीत फूट रहा है। पत्तों के अधरों पर सोया हुआ संगीत मुखर हो गया है। पलाश – वन अपनी अरुणिमा में फूला नहीं समाता है। ऋतुराज वसन्त के सुशासन और सुव्यवस्था की छटा हर ओर दिखायी पड़ती है। कलियों के यौवन की अंगड़ाई भ्रमरों को आमन्त्रण दे रही है। अशोक के अग्निवर्ण कोमल एवं नवीन पत्ते वायु के स्पर्श से तरंगित हो रहे हैं। शीतकाल के ठिठुरे अंगों में नयी स्फूर्ति उमड़ रही है।

वसन्त के आगमन के साथ ही जैसे जीर्णता और पुरातन का प्रभाव तिरोहित हो गया है। प्रकृति के कण – कण में नये जीवन का संचार हो गया है। आम्रमंजरियों की भीनी गन्ध और कोयल का पंचम आलाप, भ्रमरों का गुंजन और कलियों की चटक, वनों और उद्यानों के अंगों में शोभा का संचार – सब ऐसा लगता है जैसे जीवन में सुख ही सत्य है, आनन्द के एक क्षण का मूल्य पूरे जीवन को अर्पित करके भी नहीं चुकाया जा सकता है। प्रकृति ने वसन्त के आगमन पर अपने रूप को इतना सँवारा है, अंग – अंग को सजाया और रचा है कि उसकी शोभा का वर्णन असम्भव है, उसकी उपमा नहीं दी जा सकती।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

(शब्द : लगभग 300)

संक्षेपण : वसन्तऋतु की शोभा वसन्तऋतु के आते ही शीत की कठोरता जाती रही। पश्चिम के पवन ने वृक्षों के जीर्ण – शीर्ण पत्ते गिरा दिये। वृक्षों और लताओं में नये पत्ते और रंग – बिरंगे फूल निकल आये। उनकी. सुगन्धि से दिशाएँ गमक उठी। सुनहले बालों से युक्त गेहूँ के पौधे खेतों मे हवा से झूमने लगे। प्राणियों की नस – नस में उमंग की नयी चेतना छा गयी। आम की मंजरियों से सुगन्ध आने लगी; कोयल कूकने लगी; फूलों और भौरे मँडराने लगे और कलियाँ खिलने लगीं। प्रकृति में सर्वत्र नवजीवन का संचार हो उठा।

(शब्द : 96)

संक्षेपण उदाहरण 2

अनन्त रूपों में प्रकृति हमारे सामने आती है – कहीं मधुर, सुसज्जित या सुन्दर यप में; कहीं रूखे, बेडौल या कर्कश रूप में कहीं भव्य, विशाल या विचित्र रूप में; और कहीं उग्र, कराल या भयंकर रूप में। सच्चे कवि का हृदय उसके उन सब रूपों में लीन होता है, क्योंकि उसके अनुराग का कारण अपना खास सुखभोग नहीं, बल्कि चिरसाहचर्य द्वारा प्रतिष्ठित वासना है।

जो केवल प्रफुल्ल प्रसूनप्रसाद के सौरभ – संचार, मकरन्दलोलुप मधकर के गंजार, कोकिलकजित निकंज और शीतल सखस्पर्श समीर की ही चर्चा किया करते हैं, वे विषयी या भोगलिप्सु हैं। इसी प्रकार जो केवल मुक्ताभासहिम – विन्दुमण्डित मरकताभ शाद्वलजाल, अत्यन्त विशाल गिरिशिखर से गिरते जलप्रपात की गम्भीर गति से उठी हुई सीकरनीहारिका के बीच विविधवर्ण स्फरण की विशालता, भव्यता और विचित्रता में ही अपने हृदय के लिए कुछ पाते हैं वे तमाशबीन हैं, सच्चे भावुक या सहृदय नहीं।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

प्रकृति के साधारण, असाधारण सब प्रकार के रूपों को रखनेवाले वर्णन हैं वाल्मिीकि, कालिदास, भवभूति इत्यादि संस्कृति के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। पिछले खेवे के कवियों ने मुक्तक – रचना में तो अधिकतर प्राकृतिक वस्तुओं का अलग – अलग उल्लेख केवल उद्दीपन की दृष्टि से किया है। प्रबन्धरचना में थोड़ा – बहुतसंश्लिष्ट चित्रण किया है, वह प्रकृति की विशेष रूपविभूति को लेकर ही। (शब्द : 119)

संक्षेपण : कवि और प्रकृति प्रकृति के दो रूप हैं; एक सुन्दर, दूसरा बेडौल। सच्चे कवि का हृदय दोनों में रमता है। किन्तु, जो प्रकृति के बाहरी सौन्दर्य का चयन अथवा उसकी रहस्यमयता का उद्घाटन करता रह गया, वह कवि नहीं है। प्रकृति के सच्चे रूपों का चित्रण संस्कृत के प्राचीन कवियों में मिलते हैं। प्रबन्धकाव्यों में उसका संश्लिष्ट वर्णन हुआ है। (शब्द : 58)

संक्षेपण उदाहरण 3

एक दिन मेम – डाक्टर बेला से रूखे – से स्वर में पूछ बैठी – “तू कहाँ जायेगी? जाती क्यों नहीं? दूध और केले पर कहाँ तक पड़ी रहेगी?”

“कहाँ जाऊँ”?”
“मैं क्या जानूँ, कहाँ जायेगी !”
“मेरा तो इस दुनिया में कोई अपना नहीं है !”
“तो इसके लिए मैं जिम्मेवार हूँ? अस्पताल तो कोई यतीमखाना या आश्रम नहीं है। अगर तू खुद यहाँ से निकलेगी, तो मैं आज शाम को धक्के देकर निकलवा दंगी।”
“क्यों, मैंने क्या कसूर. . . . . . . . ”

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

“कसूर का सवाल नहीं है। मुझे इस ‘बेड’ पर दूसरे मरीज को जगह देनी है। आज ही वह आती होगी। तू तो अब बिलकुल चंगी हो गयी।”
“तो आप अपने यहाँ मुझे अपनी नौकरानी बनाकर रख लें। मैं झाडू – बुहारू करूँगी, बरतन साफ करूँगी। मेरे लिए एक जून सूखी रोटी काफी होगी।”
“माफ करे, मैं बाज आयी !” – मेम साहिबा ने जरा मुस्कराकर कहा – “तुझे अपने घर पर ले जाकर रखू और मेरी चौखट पर रँगीलों का फैन्सी मेला हो ! ना, मुझे कबूल नहीं !”

“तब और किसी शरीफ के घर में . . . . . . . .”
“क्या टें – टें करती है? “मैं दवा देती हूँ, रोजी नहीं देती।”
“अस्पताल में दाई का काम नहीं मिल सकता?”
“बिना तनख्वाह के?”
“जो कुछ आप दें !”

“तू तो सिर हो रही !” – मेम साहिबा झल्ला उठीं – “यहाँ जगह नहीं है। तेरे लिए तो बाजार खला है ! वहाँ तो खासी आमदनी होगी।”

राजा राधिकारमण : ‘राम – रहीम’ (शब्द : 218)

संक्षेपण : मेम ने बेला को निकाल देने की धमकी दी
बेला जब भली – चंगी हुई, तब एक दिन मेम साहिबा ने उसे अस्पताल से चले जाने को कहा। लेकिन, उसका तो दुनिया में अपना कोई न था। मेम ने जब शाम को धक्के देकर निकलवा देने की धमकी दी, तो बेला ने नौकरानी बनने या अस्पताल में दाई का काम करने की इच्छा प्रकट की। इसपर मेम ने झल्लाकर कहा कि उसके लिए बाजार छोड़ दूसरी जगह नहीं हो सकती।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

(शब्द : 71)

संक्षेपण उदाहरण 4

सेवा में,
श्री सम्पादक, आर्यावर्त,

पटना,
18 – 10 – 59

पटना – 1

प्रिय महोदय,
यह पत्र प्रकाशनार्थ भेज रहा हूँ। आशा है, आप इसे अपने पत्र में स्थान देंगे और इसपर स्वयं भी विचार करेंगे।

हर साल की तरह इस वर्ष भी विजयादशमी का पावन पर्व देश के कोने – कोने में बड़ी धूमधाम से मनाया गया है। पत्रकारों, नेताओं और लेखकों ने पत्रों, मंचों और रेडियो के माध्यम से इसके उच्चतम आदेशों और अमर सन्देशों का परिचय सर्वसाधारण को दिया। जहाँ – तहाँ संगीत, नृत्य और नाट्य के बड़े – बड़े आयोजन हुए। बूढ़े, बच्चे और जवान, सबने रंग – बिरंगे परिधानों में दिल खोलकर इस राष्ट्रीय त्योहार का स्वागत किया।

वस्तुतः, यह हमारे लिए गौरव की बात है। लेकिन, खेद तब होता है, जब कुछ गैरजिम्मेवार लोग विजयोत्सव के नाम पर कुछ भद्दे प्रदर्शन करते हैं, जिनसे देश की राष्ट्रीय एकता और सांस्कृतिक एकता को धक्का लगता है।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

देश के भिन्न – भिन्न प्रदेशों में दशहरे का त्योहार विभिन्न रूपों में मनाया जाता है। हिन्दी प्रदेशों में रावण पर राम की विजय का प्रतीक मानकर विजयोत्सव मनाया जाता है, बंगाल में माँ दुर्गा की पूजा होती है और दक्षिण में माँ सरस्वती की अर्चना। इन सबमें मानव – मन की उदात्त भावनाओं को जगाने और आसुरी वृत्तियों को त्यागने की सामान्य प्रवृत्ति मुख्यरूप से लक्षित है।

दक्षिणवालों ने माँ सरस्वती की पूजा में देवासुर संग्राम की कल्पना नहीं की। फिर भी, दशहरा हमारे लिए आसुरी वृत्तियों पर देवत्व की विजय का सन्देशवाहक है। इस सन्देश की अभिव्यक्ति के लिए हम प्रतिवर्ष रामायण के आधार पर रामलीलाएँ करते हैं। यहाँ तक तो ठीक है लेकिन, आपत्ति की बात तब होती है, जब हम सार्वजनिक स्थानों पर रावण कुम्भकर्ण और मेघनाद के विशाल पुतले जलाने का खुलेआम आयोजन करते हैं। मैं समझता हूँ कि देश की सांस्कृतिक और राष्ट्रीय एकता के हित में ऐसे भद्दे नाट्यप्रदर्शन अनुचित और निरर्थक हैं। इन्हें रोका जाए।

(शब्द : 307)

आपका,
घनश्यामदास

संक्षेपण : पुतले जलाने की प्रथा रोकी जाए 18 अक्टूबर, 1959 को गया के श्री घनश्यामदास ने ‘आर्यावर्त’ के सम्पादक के नाम इस आशय का एक पत्र लिखा कि विजयादशमी का राष्ट्रीय त्योहार सारे देश में धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें छोटे – बड़े सभी दिल खोलकर भाग लेते हैं। विजयोत्सव के नाम पर कुछ गैरजिम्मेवार लोग रावण, मेघनाद और कुम्भकर्ण के पुतले खुलेआम जलाते हैं। देश की एकता के हित में यह अनुचित है। यद्यपि देश के विभिन्न प्रदेशों में विजयोत्सव के भिन्न – भिन्न रूप हैं, तथापि ये सभी हृदय की उन्नत भावनाओं को जगाते हैं, संघर्ष को नहीं। इसलिए पुतले जलाने की प्रथा रोकी जाए।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

(शब्द : 101)

संक्षेपण उदाहरण 5

मनुष्य उत्सवप्रिय होते हैं। उत्सवों का एकमात्र उद्देश्य आनन्द – प्राप्ति है। यह तो सभी जानते हैं कि मनुष्य अपनी आवश्यकता की पूर्ति के लिए आजीवन प्रयत्न करता रहता है। आवश्यकता की पूर्ति होने पर सभी को सुख होता है। पर, उस सुख और उत्सव के इस आनन्द मे बड़ा अन्तर है। आवश्यकता अभाव सूचित करती है। उससे यह प्रकट होता है कि हममें किसी बात की कमी है। मनुष्य – जीवन ही ऐसा है कि वह किसी भी वसस्था में यह अनुभव नहीं कर सकता कि अब उसके लिए कोई आवश्यकता नहीं रह गई है।

एक के बाद दूसरी वस्तु की चिन्ता उसे सताती ही रहती है। इसलिए किसी एक आवश्यकता की पूर्ति से उसे जो सुख होता है, वह अत्यन्त क्षणिक होता है; क्योंकि तुरन्त ही दूसरी आवश्कता उपस्थित हो जाती है। उत्सव में हम किसी बात की आवश्कता का अनुभव नहीं करते। यही नहीं, उस दिन हम अपने काम – काज छोड़कर विशुद्ध आनन्द की प्राप्ति करते हैं। यह आनन्द जीवन का आनन्द है, काम का नहीं। उस दिन हम अपनी सारी आवश्यकताओं को भूलकर केवल मनुष्यत्व का खयाल करते हैं।

उस दिन हम अपनी स्वार्थ – चिन्ता दोड़ देते हैं, कर्तव्य – भार की उपेक्षा कर देते हैं तथा गौरव और सम्मान को भूल जाते हैं। उस दिन हममें उच्छंखलता आ जाती है, स्वच्छन्दता आ जाती है। उस रोज हमारी दिनचर्या बिलकुल नष्ट हो जाती है। व्यर्थ घूमकर, व्यर्थ काम कर, व्यर्थ खा – पीकर हमलोग अपने मन में यह अनुभव करते हैं कि हमलोग सच्चा आनन्द पा रहे हैं।।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

संक्षेपण : उत्सव का आनन्द मनुष्य को उत्सव प्रिय है। क्योंकि वह आनन्दप्रद है आवश्कता की पूर्ति से भी एक प्रकार का आनन्द होता है, पर वह क्षणिक होता है; क्योंकि एक आवश्यकता की पूर्ति होते ही दूसरी आवश्यकता महसूस होने लगती है। उत्सव में किसी अभाव का अनुभव नहीं होता बल्कि विशुद्ध आनन्द की प्राप्ति होती है। उस दिन लोग अपने कर्तव्य और मर्यादा को भूल जाते हैं। वे निश्चित, स्वच्छन्द और निरुद्देश्य होकर जीवन का रस लूटते हैं।

संक्षेपण उदाहरण 6

जब भक्त कवि भगवान को शिशु रूप देते हैं तो वे सर्वथा शिशु हो उठते हैं। जैसे सूर के बाल श्री कृष्ण और संसार के किसी दूसरे व्यक्ति के बच्चे की चेष्ठाओं में कोई अन्तर नहीं। जब सूर भगवान का प्रणयी रूप में चित्रण करते तब वे (कृष्ण) हमारे सामने हाड़ – मांस के प्राणी बन उठते हैं। उनमें कोई अपार्थिकता नहीं रह जाती।

यही कारण है कि गोस्वामी तुलसीदास को बार – बार रामचरितमानस में याद दिलानी पड़ी कि राम दशरथ के पुत्र होते हुए भी परब्रह्म ही हैं, क्योंकि उन्हें आशंका थी कि राम की पार्थिव लीलाओं के वर्णन में उनका सच्चिादानन्द रूप और ब्रह्मत्व तिरोहित न हो जाय। अतः वास्तविकता यह है कि भक्ति – भाव भगवान को मनुष्य के निकट नहीं लाता, भगवान को मनुष्य बनाबर उनकी सृष्टि कर देता है।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण संक्षेपण

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 130)

शीर्षक : भक्ति – काव्य

भक्त कवियों ने मानवीय रूप देकर कृष्ण और राम के लौकिक रूप का वर्णन किया है जिसमें अलौकिकता का भ्रम नहीं होता। यही कारण है कि तुलसीदास को राम के ब्रह्मत्व की याद दिलानी पड़ती है। अतः भक्ति काव्य भगवान को मनुष्य बनाकर सृष्टि करता है।

(संक्षेपित शब्द – संख्यासम्राट – 44)

संक्षेपण उदाहरण 7

राष्ट्रीय जागृति तभी ताकत पाती है, तभी कारगर होती है, तब उसके पीछे संस्कृति की जागृति हो और यह तो आप जानते ही हैं कि किसी भी संस्कृति की जान उसके साहित्य में, यानि उसकी भाषा में है। इस बात को हम यों कह सकते हैं कि बिना संस्कृत के राष्ट्र नहीं और बिना भाषा के संस्कृति नहीं। कुछ लोग ऐसा समझ सकते हैं कि महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा के लिए नियम ही ज्यादा बनाए, उसे बाँधा था, उसमें जान नहीं फूंकी, इसलिए बड़ी बात नहीं की।

लेकिन ऐसे लोगों को समझना चाहिए कि बिगुल बजाकर सिपाही को जगाने और जोश दिखाने वाले का नाम जितना महत्व का है, कम – से – कम उतना ही महत्व उस आदमी का भी है जो सिपाही को ठीक ढंग से वर्दी पहनाकर और कदम मिलाकर चलने की तमीज सिखाता है। संस्कृति की चेतना को जगाने के काम में तो रवीन्द्रनाथ ठाकुर की क्या कोई बराबरी करेगा, लेकिन उसे संगठित करने के काम में महावीर प्रसाद द्विवेदी का स्थान किसी से दूसरा नहीं है।

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(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 168)

शीर्षक : संस्कृति और भाषा राष्ट्रीय जागृति संस्कृति पर निर्भर करती है और संस्कृति भाषा और साहित्य के विकास पर। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भाषा में अनुशासन लाकर साहित्य में नयी जान फूंक दी। जिस प्रकार रवीन्द्रनाथ ठाकुर संस्कृति की चेतना को जगाने में अकेले थे, उसी प्रकार संस्कृति को संगठित करने में द्विवेदी जी का स्थान किसी में कम नहीं है।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 56)

संक्षेपण उदाहरण 8

धरती का कायाकल्प, यही देहात की सबसे बड़ी समस्या है। आज धरती रूठ गई है। किसान धरती में मरता है पर धरती से उपज नहीं होती। बीज के दाने तक कहीं – कहीं धरती पचा जाती है। धरती से अन्न की इच्छा रखते हुए गाँव के किसानों ने परती – जंगल जोत डाले, बंजर तोड़ते – तोड़ते किसानों के दल थक गये पर धरती न पसीजी और किसानों की दरिद्रता बढ़ती चली गई।

‘अधिक अन्न उपजाओं’ का सूग्गा – पाठ किसान सुनता है। वह समझता है अधिक धरती जोत में लानी चाहिए। उसने बाग – बगीचे के पेड़ काट डाले, खेतों को बढ़ाया पर धरती ने अधिक अन्न नहीं उपजाया। अधिक धरती के लिए अधिक पानी चाहिए, अधिक खाद चाहिए। धरती रूठी है, उसे मनाना होगा, किसी रीति से उसे भरना होगा।

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(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 128)

शीर्षक : धरती की समस्या धरती का कायाकल्प देहात की बड़ी समस्या है। अधिक अन्न उपजाओं के लिए किसानों के दल बंजर – परती और बाग – बगीचे जोतते – जोतते थक गये, लेकिन अधिक अन्न नहीं उपजा। इसके लिए अधिक पानी और खाद चाहिए। इसी से रूठी धरती मान सकेगी।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 42)

संक्षेपण उदाहरण 9

किसी देश की संस्कृति जानने के लिए वहाँ के साहित्य का पूरा अध्ययन नितांत आवश्यक है। साहित्य किसी देश तथा जाति के विकास का चिह्न है। साहित्य से उस जाति के धार्मिक विचारों, सामाजिक संगठन, ऐतिहासिक घटनाचक्र तथा राजनीतिक परिस्थितियों का प्रतिबिम्ब मिल जाता है।

भारतीय संस्कृति के मूल आधार हमारे साहित्य के अमूल्य ग्रन्थ – रत्न हैं, जिनके विचारों से भारत की आंतरिक एकता का ज्ञान हो जाता है। हमारे देश की बाहरी विविधता भारतीय वाङ्गमय के रूप में बहनेवाली विचार और संस्कृति की एकता को ढंक लेती है। वाङ्गमय की आत्मा एक है, पर अनेक भाषाओं, रूपों तथा परिस्थितियों में हमारे सामने आती है।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 104)

शीर्षक : साहित्य से संस्कृति का ज्ञान देश या जाति की संस्कृति, धर्म, समाज, इतिहास और राजनीति के प्रतिबिम्ब स्वरूप साहित्य में होती है। भारतीय संस्कृति का मूलाधार विविधता में एकता है जो अनेक भाषाओं, रूपों तथा परिस्थितियों में भी एकात्म है।

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संक्षेपण उदाहरण 10

राजनीतिक दाव – पेंच के इस युग से चुनाव को व्यवसाय बना दिया गया है। चुनाव में मतदाताओं को ठगने एवं उनको मायाजाल में फंसाने के लिए रंग – बिरंगे वायदे किए जाते हैं। गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने, सड़क बनवाने, स्कूल खुलवाने, नौकरी दिलवाने आदि अनेक प्रकार के वायदे चुनाव के समय किए जाते हैं।

गरीबी और बेरोजगारी को हटाने के लिए उद्योगों की स्थापना करनी होगी, नयी परियोजनाओं का संचालन करना होगा। शिक्षा को रोजगार से जोड़ना होगा, न कि केवल चुनावी वायदों का वाग्जाल फैलाकर मतदाता को फंसाकर रखने से गरीबी और बेरोजगारी हटेगी। चुनावी वायदों की रंगीन परिकल्पनाओं से मतदाता की आस्था धीरे – धीरे सामप्त होने लगेगी।

(मूल अवतरण की शब्द – संख्या – 108)

शीर्षक : चुनावी वायदों के कोरे वाग्जाल आजकल चुनावी व्यवसाय में उम्मीदवार मतदाताओं को गरीबी हटाने, बेरोजगारी मिटाने, स्कूल खुलवाने जैसे – अनेक रंगीन वादों से ठगते हैं। परन्तु बेरोजगारी और गरीबी उद्योगों की स्थापना से मिटेगी, न कि नकली वाग्जाल से 1 अन्यथा इससे हमारी आस्था समाप्त हो जाएगी।

(संक्षेपित शब्द – संख्या – 38)

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय

1. उपसर्ग और प्रत्यय में क्या अन्तर है? सोदाहरण लिखें।
उपसर्ग – जो शब्द या शब्दांश किसी शब्द के पूर्व लगकर उसके रूप अर्थ में परिवर्तन लाये, उसे उपसर्ग कहते हैं। जैसे – अभि + राम = अभिराम।

प्रत्यय – जो शब्द या शब्दांश किसी शब्द के अन्त में लगकर उसके रूप और अर्थ में परिवर्तन लाये, उसे प्रत्यय कहते हैं। जैसे – बूढ़ा + पा = बूढ़ापा। .

उपसर्ग और प्रत्यय में यही अन्तर है कि उपसर्ग शब्द के पूर्व में लगता है और प्रत्यय शब्द के अन्त में।

2. निम्नलिखित उपसर्गों से दो – दो शब्द बनायें। अन, अ, अधि, अध, अनु, अए, अव, आ, उप, निर, परि, प्र, प्रति, सु, हर।

  • अन – अनमोल, अनर्थ
  • अ – अगम, अनाथ
  • अघि – अधिकार, अधिनियम
  • अध – अघमरा, अधखिला
  • अमु – अनुसरण, अनुगामी
  • अप – अपयश, अपमान
  • अव – अवगत, अवगुण
  • आ – आगम, आकाश
  • उप – उपन्यास, उपदेश
  • नि – निकम्मा, निदान
  • निर – निर्बल, निर्दोष
  • परि – परिमल; परिजन
  • प्र – प्रकट, प्रकार
  • प्रति – प्रतिदिन, प्रतिकूल
  • सु – सुकर्म, सुलभ
  • हर – हर दिन, हर माह

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण उपसर्ग एवं प्रत्यय

3. निम्नलिखित प्रत्ययों से दो – दो शब्द बनायें। आई, हार, इया, वट, हट, ता, पा, मान्, इय, इक, इमा, त्व, पन, यश, वाला, वर।

  • आई – चढ़ाई, पढ़ाई
  • हार – होनहार, मनिहार
  • इया – मुखिया, छलिया।
  • अट – लिखावट, बनावट
  • हट – घबराहट, चिल्लाहट
  • ता – मूर्खता, जड़ता
  • पा – बढ़ापा, मोटापा
  • मान् – श्रीमान्, शक्तिमान्
  • इय – क्षेत्रीय, राष्ट्रीय
  • इक – मासिक, दैनिक
  • इमा – लालिमा, गरिमा
  • त्व – मनुष्यत्व, पशुत्व
  • पन – लड़कपन, बड़प्पन
  • यश – अपयश, सुयश
  • वाला – घरवाला, रखवाला
  • वर – मान्यवर, पूज्यवर

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विशेषण

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विशेषण

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण विशेषण

विशेषण
1. “विशेषण’ से क्या तात्पर्य है? इसकी परिभाषा देते हुए इसके भेदों को लिखें।
जो शब्द किसी संज्ञा-पद अथवा सर्वनाम-पद की किसी प्रकार की विशेषता सूचित करता है उसे विशेषण-पद कहते हैं।

विशेषण के भेद-विशेषण के मुख्य चार भेद हैं-
(क) सर्वनामिक विशेषण-यह, कोई
(ख) गुणवाचक विशेषण-लंबा, भला
(ग) संख्यावाचक विशेषण-दो, तीन
(घ) परिणामबोधक विशेषण-थोड़ा, ज्यादा

2. ‘विशेष्य’ और ‘विशेषण’ का अंतर सोदाहरण बताएँ।
जिस व्यक्ति, वस्तु या भाव की कुछ विशेषता बताई जाती है वह ‘विशेष्य’ कहा जाता है। एवं जिस पद के द्वारा वह विशेषता बताई जाती है उसे ‘विशेषण’ कहा जाता है। उदाहरण के लिए-राम अच्छा लड़का है।

इस वाक्य में ‘लड़का’ विशेष्य है, कारण इसकी कुछ ‘विशेषता’ बताई गई है; ‘अच्छा’ विशेषण-पद है, कारण इसी के द्वारा ‘लड़का’ की विशेषता बताई गई है।

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3. ‘सार्वनामिक विशेषण’ से क्या तात्पर्य है? सोदाहरण समझाएँ।
सार्वनामिक विशेषण से तात्पर्य उन सार्वनामिक पदों से है जो संज्ञा-पदों के साथ आकर उनकी कुछ विशेषता बताते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं-

निश्चयवाचक-यह पुस्तक अच्छी है।
अनिश्चयवाचक-कोई लड़का आया था।
प्रश्नवाचक-कौन व्यक्ति था?
संबंधवाचक-जो बालक आया था, वह चला गया।

4. ‘गुणवाचक विशेषण’ से क्या तात्पर्य है? सोदाहरण समझाएँ।
गुणवाचक विशेषण से तात्पर्य उन पदों से है जो संज्ञा-पदों के काल, स्थान, आकार, रंग, दशा, गुण आदि से संबंधित विशेषताएँ अथवा न्यूनताएँ बताते हैं।

उदाहरण के लिए-

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  • यह पुरानी परंपरा है। (काल)
  • यह सफेद कपड़ा है। (रंग)
  • यह लंबा पेड़ है। (आकार)
  • ऊपर घने बादल छाए थे। (दशा)
  • उसका आकार गोल है। (आकार)
  • उसने भला काम किया। (गुण)

5. ‘संख्यावाचक विश्लेषण’ से क्या तात्पर्य है? सोदाहरण समझाएँ।
संख्यावाचक विशेषण से तात्पर्य उन पदों से है जो संख्या-संबंधी विशेषताएँ बताते हैं। संख्यावाचक विशेषणों के दो मुख्य उपभेद कहे जा सकते हैं-‘निश्चित संख्यावाचक’ एवं ‘अनिश्चित संख्यावाचक’। पहले प्रकार के विशेषणों से वस्तु की निश्चित संख्या का बोध होता – है एवं दूसरे प्रकार के विशेषणों से वस्तु की अनिश्चित संख्या का बोध होता है।

निश्चित संख्यावाचक में, प्रयोग के अनुसार, निम्नांकित प्रकार के शब्द आते हैं।

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  • गुणवाचक-दो लड़के आए।
  • क्रमवाचक-दूसरा लड़का तेज है।।
  • आवृत्तिवाचक-उसका उत्साह दूना हो गया।
  • समुदायवाचक-चारों ओर अँधेरा छाया था।
  • प्रत्येकतावाचक-प्रत्येक आदमी सुख चाहता है।
  • अनिश्चित संख्यावाचक विशेषणों के उदाहरण निम्नांकित हैं-
  • कुछ समाचार तो अवश्य मिलेगा।
  • सब ऐसा ही समझते हैं।

6. ‘परिमाणबोधक विशेषण’ से क्या तात्पर्य है? सोदाहरण बताएँ।
परिमाणबोधक विशेषण से तात्पर्य उन पदों या सार्थक शब्दों से है जो संज्ञा-रूप में आई किसी वस्तु की माप या तौल संबंधी विशेषता बताते हैं। जैसे-

  • उसे थोड़ा दूध चाहिए।
  • बहुत देर हो चुकी।
  • क्या इतने रुपए कम हैं?
  • ज्यादा बोलना ठीक नहीं।

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण अव्यय

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Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण अव्यय

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(क्रियाविशेषण, संबंधबोधक, समुच्चयबोधक और विस्मयादिबोधक पद)

1. “क्रियाविशेषण’ से क्या तात्पर्य है? इसके भेदों का सोदाहरण परिचय दें। जो शब्द क्रिया-पद की कुछ विशेषता बताते है। उन्हें ‘क्रियाविशेषण’ कहते हैं। भेद-‘रूप’ या ‘रचना’ के अनुसार क्रियाविशेषण के पाँच भेद हैं-
(क) कालवाचक-अब, तब, जब, कल, आज, परसों आदि
(ख) स्थानवाचक-जहाँ, तहाँ, इधर, उधर आदि
(ग) रीतिवाचक-धीरे-धीरे, अचानक, ध्यानपूर्वक आदि
(घ) परिणामवाचक-इतना, बहुत, अधिक, कम, ज्यादा आदि
(3) प्रश्नवाचक-कब, कहाँ, कैसे, क्यों, किस तरह, किधर आदि

2. ‘संबंधबोधक’ पद से क्या तात्पर्य है? इसके भेदों का सोदाहरण परिचय दें।

जो शब्द संज्ञा-पद या सर्वनाम-पद के बाद आकर उसका संबंध किसी दूसरे शब्द के साथ बताते हैं वे संबंधबोधक कहे जाते हैं।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण अव्यय

‘अर्थ’ की दृष्टि से संबंधबोधक के कई भेद होते हैं। यथा-

(क) कालवाचक-अनंतर, उपरांत, बाद, पूर्व आदि
(ख) दिशावाचक-आगे, आसपास, आरपार, प्रति आदि
(ग) साधनवाचक-द्वारा, जरिए, मारफत, सहारे आदि
(घ) कार्यकारणवाचक-लिए, वास्ते, निमित्त, कारण आदि
(ङ) विषयवाचक-बाबत, लेखे, मद्दे, जिम्मे आदि
(च) भिन्नतावाचक-सिवा, अलावा, बिना, रहित आदि
(छ) विनिमयवाचक-पलटे, बदले, जगह आदि
(ज) सादृश्यवाचक-समान, सरीखा, सा, भांति आदि
(झ) विरोधवाचक-विरुद्ध, विपरीत, खिलाफ आदि
(ज) सहकारवाचक-साथ, संग, सहित, अधीन आदि
(ट) संग्रहवाचक-भर, तक, पर्यंत, समेत आदि
(ठ) तुलनावाचक-अपेक्षा, बनिस्बत, आगे आदि
(ड) स्थानवाचक-तले, बीच, परे, सामने आदि

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3. ‘समुच्चयबोधक’ से क्या तात्पर्य है? इसके भेदों का सोदाहरण परिचय दें।
जो शब्द दो शब्दों या उपवाक्यों को जोड़ने का काम करते हैं वे समुच्चयबोधक कहे जाते हैं। संबंधसूचक और समुच्चयबोधक में यही अंतर है कि संबंधसूचक पद संज्ञा-पद या ‘सर्वनाम-पद का संबंध ‘क्रिया’ के साथ मिलाता है, पर समुच्चयबोधक तो शब्दों या उपवाक्यों को केबल जोड़ता है। यथा-

  • पिता पुत्र समेत आया। – (संबंधसूचक)
  • पिता और पुत्र आए। – (समुच्चयबोधक)

भेद-समुच्चयबोधक पद दो प्रकार के होते हैं-

  1. समानाधिकरण,
  2. व्यधिकरण।

(1) समानाधिकरण-वे समुच्चयबोधक शब्द, जो समान स्थितिवाले दो या दो से अधिक उपवाक्यों को जोड़ते हैं, समानाधिकरण समुच्चयबोधक कहलाते हैं। इसके चार रूप होते हैं-

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण अव्यय

(क) संयोजक-राम आएगा और मोहन जाएगा।
(ख) विभाजक-लड़का आएगा या लड़की आएगी।
(ग) विरोधदर्शक-मोहन देर से आया तो भी वह बुला लिया गया।
(घ) परिमाणदर्शक-यदि तुम मेरे साथ चलो तो आनन्द रहे। यद्यपि मैं गरीब हूँ पर बेईमान नहीं।

(2) व्यधिकरण-जो समुच्चयबोधक अवलंबित या आश्रित उपवाक्य को मुख्य उपवाक्य से जोड़ता है वह व्यधिकरण समुच्चयबोधक कहलाता है। इसके चार रूप होते हैं-

(क) स्वरूपवाचक-राम ने कहा कि मैं अपराधी को दंड दूंगा। आपने ठीक किया जो यह बात उनसे नहीं कही।
(ख) कारणवाचक-लड़की आज नहीं आई क्योंकि उसकी माँ बीमार है। मैंने आपको इसलिए टोका कि कहीं कहना न भूल जाएँ।
(ग) उद्देश्यवाचक-विद्यार्थी परिश्रम करते हैं ताकि वे अच्छी तरह पास करें। नौकर खटता है इसलिए कि पैसा ज्यादा मिले।
(घ) संकेतवाचक-यदि मुझे पैसे होते तो मैं अवश्य आपकी मदद करता। बड़ों की बात तुम तो मानो तो भला होगा।

4. “विस्मयादिबोधक’ की परिभाषा देते हुए उसके भेदों का सोदाहरण परिचय दें। जो शब्द मन की दशा, हर्ष, शोक, चिन्ता आदि भावों से संबद्ध आदेश को सूचित करते हैं। वे विस्मयादिबोधक कहे जाते हैं।

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उदाहरण-

  • हर्ष-अहा !, आहा !, शाबाश !, खूब !
  • शाक-हाय !, हाय हाय !, आह !, च्च-च्च !
  • क्रोध-चुप !, हट !, क्यों !, अबे !
  • स्वीकार-हाँ !, जी !, अच्छा !, ठीक!
  • संबोधन-अजी !, अहो !, ऐ !, अरे !

5. ‘अव्यय’ से क्या समझते हैं? उसके भेदों का सोदाहरण परिचय दें।
वे शब्द अव्यय कहे जाते हैं जिनमें ‘लिंग’, ‘वचन’, ‘पुरुष’ और ‘काल’ के कारण कोई विकार (रूप-परिवर्तन) उत्पन्न नहीं होता हो।

भेद-अव्यय के चार प्रकार होते हैं-

  • क्रियाविशेषण-धीरे-धीरे चलो।
  • संबंधबोधक-मौत के आगे किसका वश है ! उसके पास कुछ जमीन है।
  • समुच्चयबोधक-मोहन देर से आया तो भी वह बुला लिया गया।
  • विस्मयादिबोध-अहा ! हवा बड़ी शीतल है।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण अव्यय

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण क्रिया-पद

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions

Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण क्रिया-पद

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क्रिया-पद
1. क्रिया-पद से क्या तात्पर्य है? इसके दो. भेदों (अकर्मक क्रिया और सकर्मक क्रिया) पर सोदाहरण प्रकाश डालें।
परिभाषा-जिस पद से किसी काम का करना या होना जाना जाए उसे ‘क्रिया’ कहते हैं। क्रिया-भेद-क्रियाओं के मुख्य दो भेद माने जाते हैं

(क) सकर्मक क्रिया-वे क्रियाएँ जिनके कार्य का फल कर्ता निकलकर किसी दूसरी वस्तु पर पड़ता है, सकर्मक क्रिया कहलाती हैं।

  • यथा लड़का गेंद फेंकता है।
  • नौकर चिट्ठी लाएगा।

(ख) अकर्मक क्रिया-ऐसी क्रियाएँ जिनके कार्य का फल केवल कर्ता पर पड़ता है, अकर्मक क्रियाएँ कहलाती हैं। यथा-

  • लड़का दौड़ता है।
  • कुत्ता भौंकता है।
  • सोहन सोता है।

2. ‘द्विकर्मक’ क्रिया एवं ‘प्रेरणार्थक’ क्रिया से क्या तात्पर्य है? सोदाहरण बताएँ।

(क) द्विकर्मक क्रिया-जिस क्रिया के साथ दो कर्म आते हैं उसे द्विकर्मक क्रिया कहते हैं। यथा-

  • मोहन ने भाई को फल दिया।
  • नौकर गाय को पानी पिलाता है।

 Bihar Board Class 11th Hindi व्याकरण क्रिया-पद

इनमें वह कर्म जो क्रिया का अर्थ पूरा करने के लिए अत्यंत आवश्यक होता है, ‘मुख्य कर्म’ कहा जाता है। जैसे-उपर्युक्त उदाहरण में ‘फल’ और ‘पानी’। वह कर्म जो क्रिया के अर्थ को और पूर्ण बनाने के लिए आता है, ‘गौण कर्म’ कहा जाता है। जैसे-उपर्युक्त उदाहरणों में ‘गाय’ और ‘भाई’। मुख्य कर्म अक्सर पदार्थ का बोध करता है एवं गौण कर्म के साथ प्रायः ‘को’ जुटा होता है।

(ख) प्रेरणार्थक क्रिया-ऐसी क्रियाएँ, जिनके. कर्ता-पदों पर दूसरे कर्ता-पदों की प्रेरणा समझी जाती है, प्रेरणार्थक क्रियाएँ कहलाती हैं। इनमे जो कर्ता दूसरे को प्रेरणा देता है वह प्रेरक कर्ता होता है और जिसको प्रेरणा दी जाती है वह प्रेरित कर्ता कहलाता है। प्रेरणार्थक क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं

  • प्रथम प्रेरणार्थक
  • द्वितीयक प्रेरणार्थक

उदाहरण-

  • मूल क्रिया – प्रथम प्रेरणार्थक – द्वितीय प्रेरणार्थक
  • गिरना – गिराना – गिरवाना
  • चलना – चलाना – चलवाना
  • धोना – धुलाना – धुलवाना

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(3) ‘नामधातु’ और ‘संयुक्त क्रिया’ से क्या तात्पर्य है? सोदाहरण बताएँ।

(क) नामधातु-जो धातु संज्ञा-पद या विशेषण-पद से बने होते हैं उन्हें नामधातु कहते हैं। यथा-

  • संज्ञा – नामधातु
  • हाथ – हथियाना
  • बात – बतिया

(ख) संयुक्त क्रिया-कुछ विशेषण-कृदंतों के आगे विशेषण-अर्थ में कुछ सहायक क्रियाएँ जोड़ने से जो क्रियाएँ बनती हैं उन्हें संयुक्त क्रियाएँ कहते हैं। यथा-

  • भला किया, बिका चलता है।

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