Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 6 झंकार

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 6 झंकार (मैथिलीशरण गुप्त)

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 6 झंकार (मैथिलीशरण गुप्त)

झंकार पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
कवि ने शरीर की सकल शिराओं को किस तंत्री के तार के रूप में देखना चाहा है?
उत्तर-
मैथिली शरणगुप्त जैसे राष्ट्रभक्त कवि ने अपने शरीर की सकल शिराओं को मातृभूमि की सर्वतोमुखी विकास रूपी तंत्री के तार रूप में देखना चाहा है। कवि सम्पूर्ण संचित ऊर्जा क्षमता को मातृभूमि के कायाकल्प प्रक्रिया में लगा देना चाहा है।

प्रश्न 2.
कवि को आघातों की चिन्ता क्यों नहीं है?
उत्तर-
कवि राष्ट्र-प्रेम की भावना लोकचित में जागृत करना चाहता है। स्वाधीनता की व्याकुलता में वह स्वाधीनता आन्दोलन को सम्पूर्ण राष्ट्र में अंतर्व्याप्त करना चाहता है। गुलामी से बढ़कर कोई दूसरी पीड़ा नहीं है। स्वाधीनता की उत्कट आकांक्षा कुछ विलक्षण ही होती है। स्वाधीनता की आकांक्षा ने कवि को आघातों की चिन्ता से विमुक्त कर दिया है।

प्रश्न 3.
कवि ने समूचे देश में किस गुंजार के गमक उठने की बात कही है?
उत्तर-
आधुनिक भारत के प्रथम राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त में गुलामी की जंजीर में जकड़ी भारत माता को स्वाधीन करने की गहरी व्याकुलता है। कवि गुलाम भारत में आजादी प्राप्ति हेतु शौर्य, पौरुष तथा पराक्रम का संचार करना चाहता है, जिसके बल पर सम्पूर्ण भारत में स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए संघर्ष का स्वर गुंजारित हो सके। कवि स्वाधीनता आंदोलन में देशवासियों की सक्रिया सहभागिता चाहता है। वह स्वतंत्रता प्राप्ति के गुंजार का गमक सम्पूर्ण देश में गुंजारित करना चाहता है।

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प्रश्न 4.
“कर प्रहार, हाँ कर प्रहार तू,
भार नहीं, यह तो है प्यार।
यहाँ किससे प्रहार करने के लिए कहा गया है। यहाँ भार को प्यार कहा गया है। इसका क्या अर्थ है?
उत्तर-
प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ हमारे पाठ्य पुस्तक दिगंत भाग-1 में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त रचित झंकार शीर्षक कविता से ली गयी हैं।

सांगीतिक वातावरण में जब संगत करते कलाकार विभिन्न प्रकार के रागों स्वरो, लयों का, अपनी कलाकारिता का इस भाव से प्रदर्शन करे कि सामने वाला कलाकार निरुतर हो जाए। किन्तु समर्थ कलाकार उसकी तोड़ प्रस्तुत करता चलता है जिससे स्वस्थ प्रतियोगी वातावरण बनता है तब परमआनंद की अनुभूति होती है। यहाँ प्रहार का यही अर्थ है, यहाँ एक कलाकार कलावत अपने समकक्ष कलाकर को, ताल, राग के माध्यम से प्रहार करने और स्वयं को उसका प्रतिकार करने के लिए प्रस्तुत होने की बात करता है।

“विपरीत और विरोधी के बीच ही विकास है” के सूत्र को पकड़े हुए कवि इस प्रहार को प्यार की संज्ञा देता है। जब तक चुनौती नहीं हो निखार नहीं आता। जब तक धधकती आग नहीं गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट हो सोने में कांति नहीं आती है। कवि चुनौतियों, जबावदेहियों, दायित्वों को भार स्वरूप नहीं प्यार स्वरूप स्वीकार करता है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित पंक्तियां की सप्रसंग व्याख्या कीजिए :
(क) “मेरे तार तार से तेरी
तान-तान का हो विस्तार
अपनी अंगुली के धक्के से
खोल अखिल श्रुतियों के द्वार।”
सप्रसंग व्याख्या-
प्रस्तुत सारगर्भित पंक्तियाँ हमारे पाठ्य पुस्तक दिगंत भाग-1 में संकलित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘झंकार’ शीर्षक कविता से उद्धत हैं। वीणा से राग स्वर तभी निःसृत होता है तब उसके ऊपर तार अपनी जीवनाहूति देते हैं, अपने को तनवाने (तन्य) के लिए प्रस्तुत होते। स्वर संधान के पूर्व तारों को साधित किया जाता है।

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कवि स्वर संधान की पूर्व पीठिका बनने को प्रस्तुत है। अपनी शरीर की शिराओं को तार बनाने का सन्नद्ध है और वाँछा करता है, स्वर लहरी दूर-दूर तक गूंजे। प्रवीण अंगुलियों का तारों पर आघात इतना पुरजोर हो कि अखिल सृष्टि में यह कल निनाद सुना जा सके। कवि ठोस आधार पर मसृण कलाकृति का आकाक्षी है।

कवि शारीरिक भूख के ऊपर उठकर मानसिक हार्दिक क्षुधा की तृप्ति हेतु आहन करता है।

स्पष्ट है गुप्त जी का झुकाव छायावादी विचारधारा की ओर हो चुका है। तार-तार और तान-तान में वीप्सा अलंकार तथा अपनी अंगुली ……………….. अखिल में ‘अ’ वर्ण की आवृति से अनुप्रास अलंकार उपस्थित है।

(ख) ताल-ताल पर भाल झुकाकर
माकहत हों सब बारम्बार
लघ बँध जाए और क्रम-क्रम से
सभ में समा जाए संसार।
सप्रसंग व्याख्या-
प्रस्तुत सारगर्भित पंक्तियाँ हमारे पाठ्य पुस्तक दिगंत भाग-1 में संकलित मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘झंकार शीर्षक कविता से उद्धृत हैं। इन पंक्तियों में कवि ने संगीत की चरम स्थिति की प्राप्ति और उसके प्रभाव की चर्चा की है। संगीत वह भाषा है जिसे अनपढ़ भी समझ लेते हैं। संगीत का जब समां बन्ध जाता है तो हर ताल पर, हर थाप पर प्रत्येक आरोह-अवरोह के साथ श्रोता अपने निजत्व को त्याग कर संगीत के सम्मोहन में बन्धे सिर झुकाते रहते हैं। आनन्द के सागर में डूबे रहते हैं। उन्हें मधुमती भूमिका प्राप्त होती है।

परिपक्व संगीत ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ आनंद की प्राप्ति करता है। संगीत गायन वादन के क्रम में वह चरम क्षण भी आता है जिस सम कहा जाता है जहाँ एक अलौकिक शांतिमय संसार का सृजन हो जाता है।

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कविक अभीष्ट है कि हम कला को इस ऊँचाई तक ले जाएँ कि आलोचना का अवकाश न रहे बल्कि हमारी कला विश्व समुदाय को मोहित, आकर्षित करने, उन्हें मधुमती भूमिका में पहुँचाने, ब्रह्मानंद का क्षणिक ही सही साक्षात्कार कराने में सफल हो।

कवि भारत के सांस्कृतिक उत्थान का आकांक्षी है। लालित्य वर्द्धन का आकांक्षी है।

प्रस्तुत पंक्तियां में वीप्स और अनुप्रास अलंकार का वर्णन हुआ है।

प्रश्न 6.
कविता का केन्द्रीय भाव क्या है? अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर-
आधुनिक काल के द्वितीय उत्थान-द्विवेदी युग के प्रमुख कवि हैं मैथिलीशरण गुप्त। वे आधुनिक भारत के प्रथम राष्ट्रकवि तथा नए भारत में हिन्दी जनता के प्रतिनिधि कवि के रूप में सम्मानित हैं।

प्रस्तुत कविता में कवि कहता है कि स्वतंत्रता का स्वर इतना ऊचाँ हो कि सम्पूर्ण राष्ट्र एकीभूत होकर देश की आजादी का स्वर गुंजारित करे। प्रकृति आनन्दमय हो जाए, मनुष्य का भाग्य इठलाये। मुक्तिकामना की गमक देश और काल की सीमा का उल्लंघन कर जन-जन के मानस पटल पर गुजारित हो जाए। मुक्तिकामना की तान से स्वतंत्रता की ऐसी उत्कट कामना भारतवासियों में पैदा हो कि वे सदियों से गुलामी की दासता में छटपटा रही भारतमाता गुलामी के बन्धन से मुक्त हो जाए। सम्पूर्ण हिन्दीवासी अपनी अस्मिता की खोज की व्याकुलता राष्ट्रप्रेम का या राष्ट्र-मुक्ति के संग्राम में समाहित होकर गुलामी की बेड़ियां से आजाद हो जाए।

‘झंकार’ कविता में स्वाधीनता आन्दोलन की अंतर्व्याप्त राष्ट्र के कोने-कोने में हो चुकी है और स्वाधीनता तथा मुक्ति की प्यास एवं सम्पूर्ण राष्ट्र को हिन्दोलित होने की सच्चाई सहज ही दृष्टिगोचर होती है। कविता में सम्पूर्ण राष्ट्र की एकीभूत मुक्तिकामना की उत्कट और अपूर्व अभित्यक्ति हुई है। राष्ट्र के प्रति प्रणों से बढ़कर राष्ट्र प्रेम तथा कृतज्ञता की आत्मिक अनुभूति इस गीति-गमक रचना में स्वरित होती है। कवि की राष्ट्रीयता, देशप्रेम, यथार्थबोध, आजादी की कामना का उद्देश्य एवं चेतना कविता का मूल स्वर है।

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प्रश्न 7.
कविता में सुरों की चर्चा करें। इनके सजीव-साकार होने का क्या अर्थ है?
उत्तर-
भारत राष्ट्र के गौरव गायक मैथिलीशरण गुप्त की झंकार शीर्षक कविता संगीत की पृष्ठभूमि में रचित है। संगीत के घटक सुर स्वर हैं। स्वरों का आरोह-अवरोह जब पक्के गायक के गले से नि:सृत होता है तो एक जीवन्त अवलोक का सृजन होता है। ऐसा लगता है कि स्वर केवल कान के माध्यम से ही नहीं सुन रहे बल्कि आँखों के सामने साकार रूप में उपस्थित हैं। स्वरों की सर्वोत्तम प्रेषणीयता ही सजीव-साकार का अर्थ ग्रहण करती है।

प्रश्न 8.
इस कविता का स्वाधीनता आन्दोलन से कोई सांकेतिक सम्बन्ध दिखायी पड़ता है। यदि हाँ! तो कैसा?
उत्तर-
राष्ट्रकवि मैथिलीशरधा गुप्त की प्रस्तुत कविता ‘झंकार’ में भारतीय स्वतंत्रता-संघर्ष का स्वर नि-संदेह गुंजारित है। इस कविता में कवि की देशभक्ति स्वतंत्रता प्राप्ति की उत्कृष्ट आकांक्षा तथा भारतीय स्वाधीनता आंदोलन की उत्प्रेरणा का स्वर अनुगुजित है। दिव्यभूमि की आजादी के लिए व्याकुल कवि का हृदय मुक्ति की युक्ति निकालने को तैयार है तथा सम्पूर्ण हिन्द को इस स्वाधीनता आन्दोलन में कूद पड़ने का आह्वान करता है जो उसके उत्कृष्ट देशभक्ति रेखांकित एवं विश्लेषित करता है।

कविता में गुलामी की बेड़ियों को काटकर भारतमाता को स्वाधीन बनाने की संवेदना-कल्पना का संस्पर्श का एकांत साक्ष्य पेश होता है। कविता में स्वाधीनता आन्दोलन की अंतर्व्याप्ति तथा मुक्ति की प्यास निःसंदेह निर्णायक स्थान प्राप्त कर चुका है। सम्पूर्ण राष्ट्र स्वाधीनता के लिए आन्दोलित होकर सदियों की गुलामी से मुक्ति पाने के लिए कृतसंकल्पित है। इस कविता में सम्पूर्ण राष्ट्र की एकीभूत मुक्तिकामना की गीति-गमक गुंजारित और झंकृत है।

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प्रश्न 9.
वर्णनात्मक कविता लिखने के लिए “द्विवेदी युग” के कवि प्रसिद्ध थे। किन्तु इस कविता में छायावादी कवियों जैसी शब्द-योजना, भावाभिव्यक्ति एवं चेतना दिखलायी पड़ती है। कैसे? इस पर विचार करें।
उत्तर-
आदर्शवाद की प्रधानता के कारण “द्विवेदी युग’ के कवियों ने वर्णन प्रधान इतिवृत्तात्मक शैली को ग्रहण किया। यह शैली नैतिकता के प्रचार और आदर्शों की प्रतिष्ठा के लिए अत्यन्त उपयुक्त थी। विभिन्न पौराणिक एवं ऐतिहासिक आख्यानों को काव्यबद्ध करने के लिए इस युग में वर्णनात्मक काव्य को प्रधानता मिली। वर्णन-प्रधान शैली होने के कारण इस काव्य में नीरसता और शुष्कता आ गई तथा अनुभूति की गहराई का समावेश हो सका ! वर्णनात्मक काव्य में कोमलकांत पदावली और रसात्मकता का अभाव है।

‘द्विवेदी युग’ के कवि का ध्यान प्रकृति के यथातथ्य वर्णन तथा मानव प्रकृति का चित्रण इस समय की कविता का प्रधान विषय बन गई। इस काल के कवियों ने जहाँ प्रकृति के बड़े संवेदनात्मक एवं चित्रात्मक चित्र प्रस्तुत किये हैं, वहाँ प्रकृति वर्णन के द्वारा नैतिक उपदेश देने की चेष्टा भी की है।

द्विवेदी युग में खड़ी बोली परिमार्जित और परिष्कृत होकर भाषा में स्वच्छता और सजीवता का समावेश करने में समर्थ हुई। भाषा का अधिक सरस, माधुर्यपूर्ण तथा प्रौढ़ स्वरूप इस युग में परिलक्षित होता है। ‘द्विवेदी युग’ के काव्य विविधमुखी है। काव्य में विविध छन्दों को अपनाने की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की प्रस्तुत कविता ‘झंकार’ में छायावादी कवियों जैसी शब्द योजना, भावभिव्यक्ति एवं चेतना दिखलाई पड़ती है। गुप्त जी की कविता में न संस्कृत के तत्सम शब्दों की भरमार तथा अरबी-फारसी के शब्दों का बाहुल्य और देशज शब्दों की प्रचुरता है। उन्होंने खड़ी बोली की प्रकृति और संरचना की रक्षा करते हुए, उसे काव्य भाषा के रूप में विकसित करने का सफल प्रयास किया है।

राष्ट्रकवि गुप्तजी ने खड़ी बोली हिन्दी के स्वरूप निर्धारण और विकास के साथ-साथ उसे काव्योपयुक्त रूप प्रदान करने वाले अन्यतम कवियों में अग्रणी भूमिका निभाई। निश्चय ही आज की काव्य भाषा के निर्माण में उनकी आधारभूत भूमिका परिलक्षित होती है। प्राचीन के प्रति पूज्यभावना और नवीन के प्रति उत्साहपूर्ण भाव की विशेषता, कालानुसरण की अद्भुत क्षमता एवं उत्तरोत्तर बदलती भावनाओं और काव्य प्रणालियों को ग्रहण कर चलने की शक्ति, काव्य में परम्परा और आधुनिकता का द्वंद्व तनाव और समन्वय का यथार्थ समायोजन करने की अद्भुत क्षमता की गीति-गमक ने उन्हें छायावादी कवियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है।

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झंकार भाषा की बात

प्रश्न 1.
गुप्तजी की कविता में तुकों का सफल विधान है। इस कविता में प्रयुक्त तुकों को छाँट कर लिखें।
उत्तर-
मैथिलीशरण गुप्तजी तुकान्त कविता रचने के लिए जितने विख्यात हैं उतने ही आलोचना के पात्र भी हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि तुक के कारण ही कविता दीर्घजीवी हो पाती है। झंकार में निम्नलिखित तुकान्त शब्द आये हैं- तार-झंकार; साकार-गुजार; प्यार-तैयार; विस्तार-द्वार और बारंबर-संसार।

प्रश्न 2.
पूरी कविता में अनुप्रास अलंकार है। अनुप्रास अलंकार क्या है? कविता से इसके उदहरणों को चुनकर लिखें।
उत्तर-
अनु (बार-बार) + प्रास (रख्ना) = अनुप्रास अर्थात् जहाँ अक्षरों में समानता होती है, भी ही उनके स्वर मिले या न मिले वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है। इसके चार भेद हैं-छेकनुप्रास (एक या अधिक वर्षों का केवल दो बार प्रयोग); वृत्यनुप्रास (एक या अधिक वर्णों का दो से अधिक बार प्रयोग); श्रुत्यानुप्रास (मुख के किसी एक ही उच्चारण स्थल से उच्चारित होने वाले वर्गों की आवृत्ति) और अन्त्यानुप्रास (चरण या पद के अन्त में एक से स्वर-व्यंजन के आगम से)।

प्रस्तुत झंकार कविता में निम्न पंक्तियों में अनुप्रास है-

  • प्रथम पंक्ति-स, श, र, क, की आवृत्ति
  • द्वितीय पंक्ति-‘त’ की तीन आवृत्ति
  • तृतीय पंक्ति-‘क’ की एक आवृत्ति
  • चतुर्थ पंक्ति-उ, ऊ की आवृत्ति
  • पंचम पंक्ति-न, स की आवृत्ति
  • षष्ठ पंक्ति-स, र की आवृत्ति
  • सप्तम पंक्ति-द, स, क, ल, म की आवृत्ति
  • अष्टम पंक्ति -क, र, प, ह की आवृत्ति
  • नवम पंक्ति -र, ट की आवृत्ति
  • दशम पंक्ति-त, ह की आवृत्ति
  • एकादश पंक्ति-त, ह की आवृत्ति
  • द्वादश पंक्ति-त, र आवृत्ति।
  • त्रयोदश पंक्ति-त, न की आवृत्ति
  • चतुर्दश पंक्ति-अ की आवृत्ति
  • पंचदश पंक्ति-ल की आवृत्ति
  • षोडस पंक्ति-त, ल, क, र की आवृत्ति
  • सप्तदश पंक्ति- ह, ब, र की आवृत्ति
  • अष्टादश पंक्ति-क, र, म की आवृत्ति
  • उनविंश पंक्ति-स, म की आवृत्ति

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों का वाक्य प्रयोग द्वारा लिंग निर्णय करें। शरीर, शिरा, झंकार, प्रकृति, नियति, गमक, तान, अंगुली, भाल, संसार।
उत्तर-
शरीर (पुं.) – राम का शरीर गंदा है।
शिरा (स्त्री.) – आपकी शिरा में झंकार है।
झंकार (स्त्री.) – पायल की झंकार मन मोहक होता है।
प्रकृति (स्त्री.) – प्रकृति बहुरंगी है।
नियति (स्त्री.) – आपकी नियति पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
गमक (पुं.) – जर्दा का गमक अच्छा है।
तान (स्त्री.) – मुरली की तान मधुर होती है।
अंगुली (स्त्री.) – मेरी अंगुली कट गई।
भाल ([.) – तुम्हारा भाल चमक रहा है।
संसार (पुं.) – यह संसार सनातन है।

प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्दों से विशेषण बनाएँ शरीर, प्रकृति, संसार, नियति, काल,
उत्तर-

  • शरीर – शारीरिक
  • प्रकृति – प्राकृतिक
  • संसार – सांसारिक
  • नियति – नैतिक
  • काल – कालिक

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

झंकार लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
‘झंकार’ कविता का अभिप्राय क्या है?
उत्तर-
‘झंकार’ कविता ईश्वर और मानव के बीच संबंध को सूचित करती है। इसमें कवि बताना चाहता है कि ईश्वर कर्ता है और मनुष्य निमित्त। मनुष्य ईश्वर का वाद्य यन्त्र है। इसके द्वारा वह अपने सत्ता को झंकृत करना चाहता है। यह झंकार विश्वव्यापी लय के रूप में संसार के कण-कण में समायी हुई है। मानव अपने कर्म के द्वारा ईश्वर की सत्ता को व्यक्तर करे यही इस गीत का भाव है।

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प्रश्न 2.
‘झंकार’ कविता का केन्द्रीय भाव बतायें।
उत्तर-
‘झंकार’ कविता आत्म-परमात्मा के बीच निहित सम्बन्ध की व्याख्या करती है। इसमें कवि यह कहना चाहता है कि उसे ईश्वर अपना वाद्य यन्त्र बनने का गौरव दें। वह सभी प्रकार के आघात सहकर भी ईश्वर के संगीत को विश्व संगीत के रूप में व्यक्त करने का माध्यम बनना चाहता है। उसकी इच्छा है कि उसके माध्यम से व्यक्त होने वाली ईश्वरीय सत्ता की झंकार गहरी और व्यापक हो तथा सारा संसार ईश्वरीय संगीत की लय पर सम्मोहित होकर उससे तदाकर या एकरूप हो जाय।

झंकार अति लघु उत्तरीय प्रश्न।

प्रश्न 1.
‘झंकार’ कविता में कवि ने अपने को किस रूप में प्रस्तुत किया है?
उत्तर-
‘झंकार’ कविता में कवि ने अपने को वाद्य यन्त्र के रूप में प्रस्तुत किया है और कहा है कि मेरे शरीर के स्नायु तंत्र की सभी नसें ही इस शरीर रूपी वाद्य यन्त्र या तंत्री के तार

प्रश्न 2.
कवि कैसी गुंजार की इच्छा व्यक्त करता है?
उत्तर-
कवि चाहता है कि वह गुंजर ऐसी हो कि सभी स्थानों तथा सभी समयों में उसकी सत्ता बनी रहे।

प्रश्न 3.
श्रुतियों के द्वार खोलने का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
‘श्रुति’ शब्द के दो अर्थ हैं। पहला कान और दूसरा सुनकर प्राप्त होने वाला ज्ञान। जब ‘श्रुति’ शब्द का दूसरे अर्थ में लाक्षणिक प्रयोग होता है तो वह वेद-ज्ञान का अर्थ देता है। अतः श्रुतियों के द्वार खोलने का अर्थ है परमात्मा की कृपा से समस्त ज्ञान-विज्ञान का बोध प्राप्त हो जाने की क्षमता प्राप्त होना।

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प्रश्न 4.
परमात्मा के संगीत की झंकार से उत्पन्न प्रभाव का कवि ने किस रूप में वर्णन किया है?
उत्तर-
कवि के अनुसार परमात्मा के संगीत की झंकृत का प्रभाव गहरा हो। वह सकल श्रुतियों के द्वार खोल दें। उसके ताल-ताल पर संसार मोहित होकर तथा सिर नवाकर उसके प्रभाव का व्यक्त करें तथा सारा संसार उस संगीत के लय से तदाकार हो जाय।

प्रश्न 5.
झंकार शीर्षक कविता का केंद्रीय भाव क्या है?
उत्तर-
झंकार शीर्षक कविता का केन्द्रीय भाव देशवासियों को उनकी अस्मिता का बोध कराना है।

प्रश्न 6.
कवि मैथिलीशरण गुप्त के दृष्टिकोण में स्वाधीनता आन्दोलन में देश का उद्धार कैसे हुआ था?
उत्तर-
कवि मैथिलीशरण गुप्त के दृष्टिकाण से स्वाधीनता आन्दोलन में देश का उद्धार सुरों के तालमेल से हुआ था।

प्रश्न 7.
वीण की तान से कवि मैथिलीशरण गुप्त क्या कहना चाहते हैं?
उत्तर-
वीणा की तान से कवि मैथिलीशरणगुप्त तान का विस्तार करना चाहते हैं तथा जागरण का संदेश देना चाहते है।

झंकार वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ

प्रश्न 1.
‘झंकार’ कविता के कवि हैं
(क) जयशंकर प्रसाद
(ख) मैथिलीशरण गुप्त
(ग) दिनकर
(घ) त्रिलोचन
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 2.
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म हुआ था?
(क) 1886
(ख) 1876
(ग) 1883
(घ) 1884
उत्तर-
(क)

प्रश्न 3.
मैथिलीशरण गुप्त का जन्म सथान था
(ख) मध्य प्रदेश
(ग) हिमाचल प्रदेश
(घ) उत्तराखंड

प्रश्न 4.
मैथिलीशरण गुप्त प्रमुख हुई थी
(क) पंडित द्वारा
(ख) माता द्वारा
(ग) पिता द्वारा
(घ) स्वाध्याय द्वारा
उत्तर-
(घ)

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प्रश्न 5.
मैथिलीशरण गुप्त प्रमुख कवि हैं?
(क) द्विवेदी युग
(ख) छायावादी युग
(ग) आदि युग
(घ) इनमें से सभी
उत्तर-
(क)

प्रश्न 6.
मैथिलीशरण गुप्त रचनाएँ है?
(क) साकेत
(ख) यशोधरा
(ग) पंचवटी
(घ) झंकार
उत्तर-
(सभी)

प्रश्न 7.
मैथिलीशरण गुप्त ने अनुवाद किया था?
(क) पलासी युद्ध का
(ख) मेघनाद वध
(ग) वृत्रसंसार
(घ) सभी
उत्तर-
(घ)

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II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न 1.
आधुनिक काल के द्विवेदी युग में प्रमुख …………… है।
उत्तर-
मैथिलीशरण गुप्त।

प्रश्न 2.
झंकार शीर्षक कविता …………. द्वारा लिखित है।
उत्तर-
मैथिलीशरण गुप्त।

प्रश्न 3.
गुलामी की जंजीर में जकड़ी भारतमाता को गुलामी की दासता से मुक्त कराने का भार . …………….. पर है।
उत्तर-
देशवासियों।

प्रश्न 4.
आदर्शवाद की प्रधानता के कारण द्विवेदी युग के कवियों ने वर्णन प्रधान ….. शैली को ग्रहण किया।
उत्तर-
इति वृत्तात्मक।

प्रश्न 5.
भारत-भारती कृति द्वारा जो भावना भर दी थी तभी से वे ………………. के रूप में प्रसिद्ध
उत्तर-
राष्ट्रकवि।

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प्रश्न 6.
राष्ट्रीय आंदोलन में मैथिलीशरण गुप्त के काव्य का …………….. रहा है।
उत्तर-
गहरा संबंध।

प्रश्न 7.
गुप्त जी ने प्रबंध काव्य की लुप्त होती परंपरा को ……………… दिया
उत्तर-
समर्थ संरक्षण।

प्रश्न 8.
वेश वैष्णव ………………. थे।
उत्तर-
रामभक्त।

प्रश्न 9.
साकेत जिसका अर्थ आयोध्या है उनका है।
उत्तर-
उत्कृष्ट महाकाव्य।

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झंकार कवि परिचय – मैथिलीशरण गुप्त (1886-1964)

मैथिलीशरण गुन्त द्विवेदी युग के एक प्रमुख कवि थे। इनका जन्म 3 अगस्त, 1886 को मध्यप्रदेश के (झाँसी उत्तर प्रदेश) चिरगाँव में हुआ था। ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से इनकी कविता परवान चढ़ी। फिर ‘भारत-भारती ‘ का स्वर तो ऐसा गूंजा कि स्वाधीनता-सेनानियों के ओठों पर इस काव्य की पंक्तियाँ सदा ‘सर्वदा विराजमान रहने लगीं। बासी पूरियों का नाश्ता पसन्द करने वाले गुप्तजी की जीवन-लीला 1964 ई. में समाप्त हुई। कविवर ‘सदा जीवन उच्च विचार’ के मूर्तिमन्त प्रतीक थे।

इनकी श्रेष्ठ काव्य-साधना में अनेक पुरस्कृत-अभिनंदित हुई तथा राष्ट्रभाषा-सालाहकार परिषद के अध्यक्ष भी बने। जब ये दिल्ली में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य थे, तब इनके निवास पर गुणियों तथा ज्ञानियों की शानदार महफिलें सजा करती थीं। लेकिन इस अमर यशस्वी महाकवि को एक पर एक तीन-तीन शादियों के बावजूद बारम्बार संतानमृत्यु का दंश झेलना पड़ा कोई दर्जन पर सन्तानों में अन्ततः एक ही का सुख इन्हें नसीब हो सका। गुप्तजी संस्कारी रामभक्त परिवार के परम रामभक्त कवि थे। वे अपनी काव्य कुशलता को भी श्रीराम का ही प्रसाद मानते रहे

“राम ! तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है,
कोई कवि बन जाय-सहज संभाव्य है।”

‘साकेत’ राष्ट्रकवि का श्रेष्ठतम महाकाव्य है। जीवन का अनन्त विविधता एवं बहुगिता उनकी कृतियों में मिलती है। इनके कुछ प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित प्रमुख हैं-साकेत, भारत-भारती, यशोधरा, रंग में भंग, किसान, जयद्रथ-वथ, पत्रावली, प्रदक्षिणा, कुणाल-गीत, सिद्धराज, पंचवटी, द्वापर, विष्णुप्रिय, त्रिपथगा, सैरिन्ध्री, जय भारत, चन्द्रहास, गुरुकुल, हिन्द आदि।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 6 झंकार (मैथिलीशरण गुप्त)

गुप्तजी आदर्शवादी और राष्ट्रवादी थे। उनकी उदार धार्मिकता, स्वदेशभक्ति तथा सांस्कृतिक गौरव-गान के साथ शक्ति-पूजा, जयघोष तथा ग्रामीण सरलता की संगति खूब बैठी है। मानना होगा कि गुप्तजी खड़ी बोली काव्य-चटसार के सीधे-सादे प्राइमरी गुरु हैं। हिन्दी के अनगिनत आधुनिक कवियों ने निस्संदेह कविताई का ककहरा उन्हीं से सीखा। हिन्दी के संभवतः सरल कवि के रूप में भी शान से पढ़ा जा सकता है।

भारत की साधारण जनता की लालसाएँ, आदर्श, साधना, रुचियाँ तथा आवश्यकताएँ, कर्म एवं भावना गद्य में प्रेमचन्द ढाल रहे थे और पद्य में गुप्तजी। राष्ट्रीय जीवन में व्याप्त रुदन के स्वरों को हास्य की फुलझड़ियों में बदलने का पूरा-पूरा श्रेय गुप्त जी को ही है। कोई भी साहित्यिक धारा इनकी छुअन से नहीं बच पायी। एक ओर वे सांस्कृतिक उत्थान के पुरोधा हैं तो दूसरे ओर समन्वय के प्रहरी।

वास्तव में प्राचीन के प्रति पूज्यभावना औ: नवीन के प्रति उत्साहपूर्ण स्वागत भाव गुप्त जी की विशेषता है। उनमें कालानुसरण की अदुभुत क्षमता थी। उत्तरोत्तर बदलती भावनाओं और काव्य प्रणालियों को ग्रहण करते चलने की शक्ति ने उनके सुदीध रचना समय में बराबर उनका महत्त्व बनाए रखा।

झंकार पाठ का सारांश

स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानंद, महात्मा गाँधी और महर्षि अरविन्द के चिन्तन से प्रभावित स्वतंत्र भारम के प्रथम अघोषित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त रचित झंकार शीर्षक गीत राष्ट्रीय भावना का प्रक्षेपक है। . एक राष्ट्र का समस्त विकास तभी संभव है जब जन-जन में उसके लिए उत्सर्ग का भाव हो। प्रत्येक नागरकि चाहे वह जिस व्यवास से जुड़ा हो यदि वह राष्ट्र उन्नयन के भाव को अपने हृदय में धारण करते हुए कार्यरत है तो देश का कल्याण अवश्मम्भावी है।

कवि एक सत्यनिष्ठ, देशभक्त के रूप में घोषणा करता है मातृभूमि रूपी वीणा के तार बनने की अगर आवश्यकता है। तनाव सहन करने जरूरत है तो मै अपने शरीर की सम्पूर्ण शिराओं को तंत्री का तार बनाने के लिए दधीचि की तरह प्रस्तुत हूँ। मुझे आघातों, वारों, चोटों की चिन्ता किंचित भी नहीं है। मेरा एकमात्र लक्ष्य है कि विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़े ! उसकी झंकार विश्व के कोने-कोने तक सुनाई पड़े। मेरी महती कामना है कि मातृभूमि के उत्कर्ष में नियति नियामक न बनकर घटक बने, प्रकृति सहयोगिनी बने ताकि उन्नति, विकास के जितने भी सुर स्वर है वे साकार हो उठे। यह सुर-संधान देशकाल की सीमा के परे जा पहुंचे। ऐसी गुंजार, का मै आकांक्षी हूँ।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 6 झंकार (मैथिलीशरण गुप्त)

मै सहर्ष हर प्रकार के प्रहार हेतु प्रस्तुत हूँ। मेरे शत्रुओं, तुम्हें जिस तरह से प्रहार करना हो, मुझे मार्ग से हटाने की इच्छा हो वह करों, मै इसे प्यार समझकर स्वीकार करूँगा। और क्या कहूँ। मै प्राणपण हूँ। तन-मन-धन से तुम्हारे प्रहार सहने के लिए प्रस्तुत हूँ।

कवि पुनः मातृभूमि को सम्बोधित करते हुए कहता है-मेरी शिराओं से बने हर तार से राष्ट्र का विकास रूपी तान विस्तारित हो। जो अब तक बेखबर हैं, जिनके कान उन्नति, कला संस्कृति की गमक धमक गुंजार से वचित हैं, या बन्द हैं। उन कानों के द्वारा खुल जाएँ। वे भी राष्ट्र यज्ञ में आहुति देने हेतु स्वयं को प्रस्तुत कर सकें। देश का स्वरूप इस तरह से बने कि सम्पूर्ण विश्व उस पर मोहित हो जाए। जैसे मधुर मोहक ताल सुनने का बार-बार मन करता है। मन, हृदय सभी मुक्त होते हैं। अवगुंठन के लिए अवकाश नहीं हो, स्थान नहीं हो। ऐसी समत्व भावभूमि तैयार हो कि वसुधैव कुटुम्बकम् की आर्ष कल्पना साकार हो उठे।

वस्तुत: प्रस्तुत गीत में गुप्तजी ने राष्ट्र प्रेमी का चोला बिना उतारे छायावादी रचना संसार में प्रवेश किया है। एक राष्ट्रभक्त विश्व मानव के रूप में कायान्तरित कैसे हो सकता है। एक उत्सर्ग प्रेमी, कला, संस्कृति के विकास के लिए स्वयं को बदली परिस्थिति में कैसे ढाल सकता. है। इन सब तथ्यों पर भी ध्यान जाता है। शत्रु के लिए प्यारे सम्बोधन हृदय की विस्तृत स्थिति का द्योतक कराता है। श्रुतियों के द्वार, साधारण जन के अचेतावस्था के साथ वैदिक ज्ञान के प्रति पुनः लगाव झुकाव को भी दर्शाता है। विकास, विस्तार केवल मेरा ही हो, कवि का यह अभीष्ट नहीं है, बल्कि वह औरों का भी विस्तार देखना चाहता है।

प्रस्तुत कविता ” तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित, चाहता हूँ देश की ध – रती तुझे कुछ और भी हूँ।” के सम्मिलन की भूमि में रची गयी गुप्तजी की एक उत्कृष्ट रचना है। अनुप्रास वीप्सा आदि अलंकारों की छटा विकीर्ण है।

झंकार कठिन शब्दों का अर्थ

शिरा-नस नाड़ी, धमनी। झंकार-संगीतमय ध्वनि। तंगी-वीणा, तार से बने हुए वाद्य ! आघात-चोट। नियति-भाग्य ! गमक-संगीत का पारिभाषिक शब्द जो कंपनपूर्ण रमणीक ध्वनि गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट के अर्थ के हैं। गुंजार-गूंज। तार-तार-रेशा-रेशा। अखिल-संपूर्ण। श्रुतियों-ध्वनियों। भाल-माथा। सम-संगीत का शान्तिमय परम क्षण। सकल-सम्पूर्ण।

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झंकार काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. इस शरीर की सकल …………… ऊँची झंकार।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिलशरण गुप्त रचित ‘झंकार’ कविता से ली गयी हैं। झंकार में कवि का स्वर आध्यात्मिक है, यहाँ छायावादी रहस्य-चेतना मुखर है। इन पंक्तियों में कवि कहता है कि जिस तरह वीणा के तारों पर आघात करने से संगीत की सृष्टि होती है उसी तरह का मानव शरीर भी वीणा की तरह तारों वाल वाद्य यन्त्र है। इस शरीर में निहित शिराएँ अर्थात् नर्से ही तार है।

हे परमात्मा ! इस शरीर की सभी शिराएँ तुम्हारी तंत्री अर्थात् वाद्य यन्त्र के तार बनें। हमें आधात की चिन्ता नहीं है कि कितनी चोट लगती है या कितनी झंकार उठती है। बस केवल इसमें से झंकार निकलनी चाहिए। अर्थात् इस शरीर से कोई ऐसा महत्वपूर्ण काम संभव हो जो जगत के लिए सुखद और मेरे लिए यशवर्द्धक हो। यहाँ कवि ने अपने को परमात्मा का तंत्र भी कहा है। वही इसे बजाता है अर्थात् जैसा लक्ष्य निर्धारित करता है वैसा हम कार्य करते है।

2. नाचे नियति, प्रकृति सुर साधे ……………. गहरी गुंजार।
व्याख्या-
‘झंकार’ की गीत की इन पंक्तियों में इनके रचयिता कवि प्रस्तुत श्रेष्ठ मैथिलीशरण गुप्त परमात्मा से यह कहना चाहते हैं कि तुम इस तन रूपी तंत्री के सभी सुरों को सजीव-साकार करों। वे सुर इतने प्रभावशाली हों, प्रेरक हो कि नियति अर्थात् भाग्य जो सब को नचाता है वह स्वयं नाचने लगे और प्रकृति जो लय के माध्यम से साकार होती है वह स्यवयं सुर साधने लगे।

उस झंकार का प्रभाव देश देश में अर्थात् सभी स्थानों में व्याप्त हो जाय और वह इतनी स्थायी हो कि भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों में व्याप्त रहकर कालातीत झंकार बन जाय। उस झंकार की गमक ऐसी हो कि उसका गहरा प्रभाव पड़े। यहाँ कवि ने तन के भीतर उठने वाली आत्मा की झंकार के विश्वव्यापी स्वरूप और गहरे प्रभाव की ओर संकेत किया है।

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3. कर प्रहार, हों, कर प्रहार …………….. मैं, हूँ तैयार
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ मैथिलीशरण गुप्त जी की छायावादी-रहस्यवादी काव्यकृति ‘झंकार’ . से गृहीत हैं। इन पंक्तियों में कवि अपने नियन्ता परमात्मा से अनुरोध करना चाहता है तुम मुझको बजाने की कृपा अवश्य करो, यह मेरा सौभाग्य होगा कि तुमने मुझे उपयोग के लायक समझा। बजाने में चाहे जितने जोर से तुम आघात करो मुझे आपत्ति नहीं क्योंकि मै जानता हूँ कि वह प्रहार नहीं तुम्हारा प्यार होगा। हे प्यारों, मै तुमसे अधिक क्या कहूँ, मै हर तरफ से तुम्हारे द्वारा बजाये जाने के लिए तैयार हूँ। ये पंक्तियाँ प्रसन्नतापूर्वक दु:ख उठाने वाली मध्ययुगीन भक्ति-भावना तथा सम्पूर्ण समर्पण की प्रवृत्ति को सूचित करती हैं।

4. मेरे तार तार से ………………. श्रुतियों के द्वार।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘झंकार’ कविता से ली गयी हैं। इसमें कवि यह भाव व्यक्त करता है कि परमात्मा के द्वारा यदि वह उसके संगीत का माध्यम बनाया जाता है तो यह उसका सौभाग्य होगा। अतः वह चाहता है कि उसके शरीर की सभी शिराओं से परमात्मा के संगीत का प्रकाशन हो, वह उनके विश्वव्यापी संगीत के प्रसार का निमित्त ‘बने। उसकी हार्दिक इच्छा है कि परमात्मा के अस्तित्व-बोध का भौतिक माध्यम बनकर जगत को उसकी सत्ता की सांगीतिक अनुभूति करा सकेगा।

5. ताल-ताल पर भाल ………………… समा जाय संसार :
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ मैथिलीशरण गुप्त रचित ‘झंकार’ कविता से ली गयी हैं। हम जानते है कि संगीत में ताल का महत्त्व होता है। हर गीत अलग-अलग ताल में निबद्ध होता है। कवि चाहता है कि उसके माध्यम से परमात्मा का जो संगीत व्यक्त हो उसके प्रत्येक ताल पर संसार बार-बार मोहित होकर अपना सिर झुकाकर परमात्मा की महत्ता को नमन करे। भीतर से निकली झंकार में ऐसी अन्विति हो, ऐसी क्रम-व्यवस्था हो कि लय बँध जाय और उस लय के व्यापक प्रभाव में क्रम-क्रम से सम अर्थात् उद्वेग और तनाव से रहित ऐसी स्निग्ध और आन्नदपूर्ण शान्ति का विधान हो कि सारा संसार उसी में समाहित हो जाय। अर्थात् परमात्मा की सत्ता से तन्मय-तदाकार होकर अखंड आनन्द की प्राप्ति करे। इन पंक्तियों में ताल, लय तथा सम ये तीनों शब्द संगीतशास्त्र के पारिभाषिक शब्द हैं।

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 5 भारत-दुर्दशा

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 5 भारत-दुर्दशा (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र)

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 5 भारत-दुर्दशा (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र)

भारत-दुर्दशा पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
कवि सभी भारतीयों को किसलिए आमंत्रित करता है और क्यों?
उत्तर-
राष्ट्र-प्रेम का शंखनाद करने वाले, हिन्दी साहित्य में नवजागरण के अग्रयूत. भातेन्दु हरिश्चन्द्र का परतंत्र भारत की दारुण-दशा से व्यथित है। भारत पौराणिक काल से ही सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र रहा है जहाँ शाक्य, हरिश्चन्द्र, नहुष, येयाति, राम, युधिष्ठिर, वासुदेव और सारी जैसे युग-पुरुष मनीषि पैदा हुए थे, उसी भारत के निवासी अज्ञानता और अन्तर्कलह का शिकार होकर पतन के गर्त में समा गए हैं। भारत की ऐसी दारुण-दशा से कवि का हृदय हाहाकार मचा रहा है। गुलामी की उत्कट वेदना में भारतवासियों पर व्यंग-वाण चलाते हुए कहता है कि आओ सभी साथ मिलकर भारत की दुर्दशा पर रोते हैं।

प्रश्न 2.
कवि के अनुसार भारत कई क्षेत्रों में आगे था पर आज पिछड़ चुका है। पिछड़ने के किन कारणों पर कविता के संकेत किया गया है?
उत्तर-
भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के अनुसार भारत जो अनेक क्षेत्रों का अधिपति था, अब पिछलग्गू बन गया है। कवि ने अपनी भाषा और साहित्य के द्वारा पौराणिक भारतीय सभ्यता और संस्कृति का गहरा आत्मबोध कराया है। मूढ़ता, अन्तर्कलह और वैमनस्य, आलस्य और कुमति ने भारतीयों को पतन के गर्त में धकेल दिया है। कवि ने इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए समाज में गहरे आत्ममंथन और बदलाव की आधारशिला रखकर पराधीनता के खिालाफ शंखनाद करने की उद्देश्य-चेतना के लिए प्रेरित किया है।

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प्रश्न 3.
अब जहँ देखहु तह दुःखहिं दुःख दिखाई। [Board Model 2009(A)]
हा हा ! भारत-दुर्दशा न देखि जाई॥
-इन पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक हिन्दी साहित्य के सृजनकर्ता, युग प्रवर्तक महान साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा विरचित ‘भारत-दुर्दशा’ से उद्धत है। बहुमुखी प्रतिभा के कालजयी साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने उत्कृष्ट अंतर्दृष्टि एवं सहज बोध के के द्वारा देश के निवासियों में राष्ट्रीयता का भाव जगाया है।

कवि के अनुसार जगतगुरु भारत, परतंत्रता की बेडियों में जकड़कर मूढता, कहल और अज्ञानता की काली रजनी के गोद में समा गया है। अपनी ऐतिहासिक गरिमा को विस्मृत कर भारतीय, सामाजिक कुप्रथाओं और कुरीतियों के अंधकूप में डूबकर राष्ट्रीयता और देशोन्नति के आत्मगौरव से विमुख हो गए हैं। भारतीय समाज को चारों आरे से दुर्दिन के काले बादल ने घेर लिया है।

ऐतिहासिक आत्मबोध को आत्मसात नहीं करने के कारण भारतवासी चहुँ ओर से दुःखों के दलदल में फंस गये हैं। भारत की इस अन्तर्व्यथा के लिए जिम्मेवार भारतीयों से इसकी दुर्दशा पर रोने के लिए कवि कहता है।

प्रश्न 4.
भारतीय स्वयं अपनी इस दुर्दशा के कारण हैं। कविता के आधार पर उत्तर दीजिए। [Board Model 2009(A)]
उत्तर-
युगांतकारी व्यक्तित्व लेकर साहित्याकाश में उदित ध्रुवतारा भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भारत की दुर्दशा के लिए भारतीयों को ही जिम्मेदार माना है। भारतीय अपने ऐतिहासिक यथार्थ को विस्मृत कर अशिक्षा, अज्ञानता, अंधविश्वास, दरिद्रता, कुरीति, कलह और वैमनस्य के गर्त में समा गए हैं। अपने स्वर्णिम अतीत का आत्मगौरव विस्मृत कर पराधीनता के बेड़ी में जकड़ गए हैं जिसके कारण भारतीय अतीव दारूण-दशा से व्यथित हैं।

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प्रश्न 5.
‘लरि वैदिक जैन डूबाई पुस्तक सारी।
करि कलह बुलाई जवनसैन पुनि भारी॥
उत्तर-
प्रस्तुत व्याख्येय पंक्तियाँ हिन्दी साहित्य के युगप्रवर्तक साहित्यकार भारन्तेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा विरचित ‘भारत-दुर्दशा’ शीर्षक कविता से उद्धत है। धर्म-सम्प्रदाय-भाषा-जाति की संवाद रहित विविधताओं में डूबा तथा सामाजिक कुप्रथाओं और कुरीतियों में जकड़ा हुआ अशिक्षित भारतीय समाज ऐतिहासिक आत्मबोध को विस्मृत कर आपसी अन्तर्कलह का शिकार हो गया है।

स्वाधीनता के संकल्पकर्ता कविवर भारतेन्दु ने अपने अन्तर्दृष्टि और सहज बोधात्मक दृष्टि से भारतीयों को आपसी अनर्तद्वन्द्व और अन्तर्कलह को परख लिया है। कवि ने ‘अहिंसा परमों धर्मः की गोद में बैठे जैन धर्मावलम्बियों पर तीखा शब्द-वाण चलाया है। भारतेन्दु ने क्रान्तिकारी शाब्दिक हथौड़े से जैन और वैदिक धर्मावलम्बियों पर तल्ख प्रहार किया है। जैन और वैदिक धर्मावलम्बियों के आपसी अन्तर्कलह ने भारत को पराधीन बनाने के लिए यवनों की सेना को भारत पर कब्जा करने का मार्ग प्रशस्त किया। अन्तर्कलह में जकड़ा हुआ अशिक्षित भारतीय समाज भला स्वाधीनता के लिए कैसे संघर्ष कर सकता है। अन्तर्कलह का शिकार भारतीय गुलामी के दंश को झेलने के लिए अभिशप्त है जो इनके दुर्दशा का केन्द्र-बिन्दु है।

प्रश्न 6.
‘सबके ऊपर टिक्कस की आफत’-जो कवि ने क्या कहना चाहा है?
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्ति राष्ट्रीय चेतना के पुरोधा, धरती और नभ के धूमकेतू कविवर भारतेन्दु रचित ‘भारत-दुर्दशा’ से उद्धत है। कवि ने गुलाम भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था का अतीव दारुण और व्यथित चित्र अंकित किया है। अंग्रेजी आक्रान्ताओं के शासन में भारत का धन विदेश चला जाता है, यह कवि के लिए असह्य और कष्टकारी है। महँगाई रूपी रोग काल के गाल समान निगलने को तैयार खड़ा है जो गरीब और बेसहारा लोगों पर हथौड़ा-सा प्रहार कर रहा है। गुलामी के दंश से आहत भारतीय दरिद्रता और दैयनीयता के शिकार हैं। ऊपर से उनपर ‘टिक्कस का आफत आर्थिक ‘कर’ का बोझ ने उसके मस्तक को दीनता के भार से दबा दिया है। भारतीय कष्ट और दुखों से दब-से गये हैं।

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प्रश्न 7.
अंग्रेजी शासन सारी सुविधाओं से युक्त है, फिर भी यह कष्टकर है, क्यों?
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ कालजयी साहित्यकार, आधुनिक हिन्दी साहित्य में नवचेतना के अग्रदूत और हिन्दी साहित्य के दुर्लभ पुरुष भारतेन्दु हरिश्चन्द्र द्वारा विरचित ‘भारत-दुर्दशा’ से ली गई है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने पराधीन भारत के दारुण-दशा को अपनी अंतर्दृष्टि एवम् सहज बोध से गहराई तक समझा। भारतीय ऐतिहासिक मूल्यों को आत्मसात कर उन्होंने स्वाधीनता संकल्प के लिए भारतवासियों को यथार्थबोध, परिवर्तन-कामना के साथ ही उद्देश्य चेतना जगाकर नवजीवन के संचार का प्रयास किया है।

कविवर भारतेन्दु अंग्रेजों के दमन और लूट-खसोट की नीति पर गहरी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अंग्रेजों के राज्य में सुख और साज तो बढ़ गये हैं परन्तु भारत का धन विदेश चला जाता है, यह उनके लिए ही नहीं सारे भारतवासियों को कष्ट प्रदान करने वाला कृत्य है। कवि ने भारतीयों के अतमन में झंझावत पैदा करने के लिए क्रान्तिकारी हथौड़े से काम नहीं लिया उन्होंने मृदु संशोधक, निपुण वैद्य की भाँति रोगी की नाजुक स्थिति की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त कर उसकी रूचि के अनुसार पथ्य की व्यवस्था की, जिसका वर्णन मुर्तिमान प्राणधारा का उच्छल वेग के समान ‘भारत-दुर्दशा’ में वर्णित इन पंक्तियों में परिलक्षित होता है।

प्रश्न 8.
कविता का सरलार्थ अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर-
देखें कविता का सारांश।

प्रश्न 9.
निम्नलिखित उद्धरणों की सप्रसंग व्याख्या करें
(क) रोबहु सब मिलि के आबहु भारत भाई।
हा हा ! भारत दुर्दशा न देखी जाई।

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(ख) अंगरेज राज सुख साज सजे सब भारी।
पै धन विदेश चलि जात इहै अति खारी॥
उत्तर-
(क) प्रस्तुत पंक्तियाँ आधुनिक हिन्दी साहित्य के जन्मदाता और हिन्दी साहित्य के नवोत्थान के प्रतीक कवि शिरोमणि हरिश्चन्द्र द्वारा विरचित बहुचर्चित और सुविख्यात कविता ‘भारत-दुर्दशा से उद्धत है। इस कविता में कवि की राष्ट्रीयता, देशोन्नति व जातीय उत्थान के लिए अन्तर्व्यथा ऐतिहासिक यथार्थ के बिडंबनापूर्ण बोध के भीतर से जन्म लेती दिखाई पड़ती है।

कवि के अनुसार भारतीय अपनी स्वर्णिम अतीत का आत्मगौरव को विस्मृत कर दिया है। अशिक्षा, अज्ञनता, अंधविश्वास, कुरीति, कलह और वैभवनस्य में डूबे भारतीयों पर उन्होनें तीखा व्यंग-वाण चलाया है। उनकी अकर्मण्यता और आलस्य से भारत पतन के गर्त में डूब गया है। भारत की इस दारुण-दशा को देखकर कवि के हृदय में हाहाकार मचा हुआ है। भारत में इस दुर्दशा से आहत कवि सभी भारतीयों को जिम्मेवार मानते हुए एक साथ मिलकर रोने के लिए आमंत्रित करता है। कवि ने भारतीयों को अतीत और वर्तमान, स्वाधीनता और पराधीनता के वैषम्य की एक दशमय अनुभूति जगाने का सार्थक और यर्थाथ प्रयास किया है।

(ख) प्रस्तुत पंक्तियाँ कालजयी साहित्यकार, आधुनिक हिन्दी साहित्य में नवचेतना के अग्रदूत और हिन्दी साहित्य रूपी वाटिका के दुर्लभ पुष्प भारतेन्दु हरिशचन्द्र द्वारा विरचित ‘भारत-दुर्दशा’ से ली गई है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने पराधीन भारत के दारुण-दशा को अपनी अंतर्दृष्टि एवम् सहजबोध से गहराई तक समझा। भारतीय ऐतिहासिक मूल्यों को आत्मसात कर उन्होंने स्वाधीनता संकल्प के लिए भारतवासियों को यथार्थबोध, परिवर्तन-कामना के साथ ही उद्देश्य चेतना जगाकर नवजीवन के संचार का प्रयास किया है।

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कविवर भारतेन्दु का हृदय अंग्रेजों के दमन और लूट-खसोट की नीति पर गहरी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि अंग्रेजों के राज्य में सुख और साज तो बढ़ गये हैं परन्तु भारत का धन विदेश चला जाता है, यह उनके लिए नहीं सारे भारतवासियों को कष्ट प्रदान करने वाला कृत्य है। कवि ने भारतीयों के अर्न्तमन में झंझावत पैदा करने के लिए क्रान्तिकारी हथौड़े से काम नहीं लिया बल्कि उन्होंने मृदु संशोधक, निपुण वैद्य कि भाँति रोगी की नाजुक स्थिति की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त कर उसकी रुचि के अनुसार पथ्य की व्यवस्था की जिसका वर्णन मूर्तिमान प्राणधारा का उच्छल वेग के समान ‘भारत-दुर्दशा’ में वर्णित इन पंक्तियों से परिलक्षित होता है।

प्रश्न 10.
स्वाधीनता आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में इस कविता की सार्थकता पर विचार कीजिए।
उत्तर-
आधुनिक हिन्दी साहित्य के प्रवर्तक महान साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पराधीन भारत के दारुण-दशा को मूर्तिमान करने का एक बानगी है-भारत-दुर्दशा। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने पराधीन भारत का अकल्पनीय दारुण-दशा को गहराई से देखा।

पराधीन भारतवासियों में स्वतंत्रता संकल्प के लिए ‘भारत-दुर्दशा कविता के माध्यम से उनके भीतर जातीय अस्मिता, यथार्थबोध, परिवर्तन-कामना के साथ ही उद्देश्य-चेतना का संचार कर दिया। ‘भारत-दुर्दशा’ की यथार्थता और व्यंगता ने अशिक्षा, अज्ञानता, अंधविश्वास, दरिद्रता, कुरीति, कलह और वैमनस्य में डूबे भारतीय समाज को गहराई से समझने की अंतर्दृष्टि दी। इस कविता का सजीव और यथार्थ चित्रण ने धर्म-सम्प्रदाय, भाषा-जाति की संवाद रहित विविधताओं में डूबा तथा सामाजिक कुप्रथाओं और कुरीतियों में जकड़ा हुआ अशिक्षित समाज को ऐतिहासिक आत्मबोध को जगाकर स्वाधीनता के लिए संघर्ष करने को प्रेरित किया है।

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अतीत और वर्तमान, स्वाधीनता और पराधीनता के वैषम्य एक दंशमय अनुभूति जागृत करने वाली इस कविता ने भारतीय समाज को आन्दोलित कर स्वतंत्रता को पुण्य-पथ पर निरंतर अग्रसित हाने की प्रेरणा दी है। भारतेन्दु की कविता ‘भारत-दुर्दशा’ में कवि ने भारतीयों के स्वर्णिम ऐतिहासिक अतीत का आत्मगौरव से परिचय कराते हुए लिखा है

“जहँ भए शाक्य हरिचंदरू ययाती।
जहँ राम युधिष्ठर वासुदेव संती।।
जहँ भीम करण अर्जुन की छटा दिखाती।
तहँ रही मूढता कलह अविद्या राती।।

भारतेन्दु ने पराधीन भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था पर व्यंग्य-बाण चलाकर भारत के निवासियों में स्वतंत्रता संकल्प का ऐतिहासिक आत्मबोध जागृत कराया। इस कविता के ऐतिहासिक आत्मबोध कटाक्ष-व्यंग्य ताजगी तथा मौलिकता के गुणों ने अपनी सार्थकता का परिचय देते हुए स्वतंत्रता का बिगुल फूंकने के भारतीय समाज को उत्साहित तथा जागृत किया है। सदियों तक पराधीन भारतीय समाज ने स्वतंत्रता-संघर्ष के लिए अपने उत्तरदायित्वहीनता के प्रमाद से मुक्त होकर स्वतंत्रता के लिए जागृत हो गए। स्वतंत्रता संग्रान के लिए प्रेरित करनेवाली इस कविता और इसके युगपुरुष और कालजयी साहित्यकार का यशोगान भारतीय समाज जबतक प्रकृति का अस्तित्व कायम है, गाता रहेगा।

भारत-दुर्दशा भाषा की बात।

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखें ईश्वर, रोग, दिन, राज, कलह, अविधा, कुमति, छटा
उत्तर-

  • ईश्वर – भगवान
  • रोग – व्याधि
  • दिन – दिवस
  • दीन – गरीब
  • राज – साम्राज्य
  • कलह – झगड़ा
  • अविद्या – कुविद्या
  • कुमति – दुर्गति
  • छटा – शोभा।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों का वाक्य प्रयोग द्वारा निर्णय करें दुर्दशा, विद्या, दुःख, पुस्तक,धन सुख, बल, मूढ़ता, विद्याफल, महँगी, आलस।
उत्तर-
दुर्दशा (स्त्री.) – तुम्हारी यह दुर्दशा किसने की है? हमें अच्छी विद्या सीखनी चाहिए।
दुःख (पु.) – तुम्हारी दशा देखकर मुझे दुख होता है।
पुस्तक (स्त्री) – यह मेरी पुस्तक है।
धन (पुं.) – आपका धन परोपकारर्थ ही तो है।
सुख (पुं.) – यहाँ तो सुख-ही-सुख है।
बल ((.) – उसका बल अतुलनीय है।
मूढ़ता (स्त्री.) – मेरी मूढ़ता ही तो है जो तुम पर विश्वास किया।
विद्याफय (पुं.) – विद्याफल मीठा होता है।
महँगी (स्त्री.) – चाँदी महँगी है।
आलस (पु.) – आलस करना बुरा है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के विपरीतार्थक शब्द लिखें दुर्दशा, रूप, विद्या, कलह, कुमति, विदेश।
उत्तर-

  • दुर्दशा – सुदशा
  • रूप – कुरूप
  • विद्या – अविद्या
  • कलह – मेल
  • कुमति – सुमति।
  • विदेश – स्वदेश।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 5 भारत-दुर्दशा (भारतेन्दु हरिश्चन्द्र)

प्रश्न 4.
संज्ञा के विविध भेदों के उदाहरण कविता से चुनें।
उत्तर-
किसी भी वस्तु, स्थान व्यक्ति अथवा भाव के नाम को संज्ञा कहते हैं। इसके निम्नलिखित भेद हैं-
(क) व्यक्तिवाचक,
(ख) जातिवाचक,
(ग) समूहवाचक,
(घ) द्रव्यवाचक तथा
(ङ) भाववाचक।।

भारत दुर्दशा कविता में आगत संज्ञाएँ और उनकी कोटि निम्नोद्धन हैं-
व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द-भारत, ईश्वर, विधाता, शाक्य, हरिश्चन्द्र, नहुष, ययाति, राम, युधिष्ठिर, वासुदेव, सर्याति, भीम, करन, अर्जुन, वैदिक, जैन, जवनसैन।
जातिवाचक संज्ञा शब्द-भाई सब जेहि, रोग।
समूहवाचक सज्ञा शब्द-सैन, सब, जिन।
द्रव्यवाचक संज्ञा शब्द-धन, टिक्कस।
भाववाचक संज्ञा शब्द-बल, सभ्य, रूप, रंग, रस, विद्याफल, छटा, मूढ़ता, कलह, अविद्या, राती, आफत, सुख, भारी, ख्वारी, महंगी, रोग, दुर्दशा, कुमति, अन्ध, पंगु, बुद्धि।

प्रश्न 5.
इन शब्दों को सन्धि विच्छेद करें युधिष्ठिर, हरिश्चन्द्र, यद्यपि, युगोद्देश्य, प्रोत्साहन।
उत्तर-

  • युधिष्ठिर = युधिः + ठिर
  • हरिश्चन्द्र = हरिः + चन्द्र
  • यद्यपि = यदि + अपि
  • युगोद्देश्य = युग + उद्देश्य
  • प्रोत्साहन = प्र + उत्साहन

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अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

भारत-दुर्दशा लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतेन्दु के अनुसार भारत का अतीत कैसा था? स्पष्ट करें।
उत्तर-
भारतेन्दु के अनुसार हमारा अतीत गौरवशाली था। ईश्वर की कृपा से हम सबसे पहले सभ्यं हुए। सबसे पहले कला-कौशल का विकास किया। सबसे पहले ज्ञान-विज्ञान की गोल्डेन सीरिज पासपोर्ट अनेक अपलब्धियाँ प्राप्त की। अतीत में हमारे यहाँ रामकृष्ण, हरिश्चन्द्र, बुद्ध, भीम, अर्जुन आदि महान पुरुष पैदा हुए जिनको याद कर हम गौरवान्वित होते हैं।

प्रश्न 2.
भारतेन्दु के अनुसार भारत की वर्तमान स्थिति कैसी है? बतायें।
उत्तर-
भारतेन्दु के अनुसार वर्तमान काल से हमारी स्थिति बहुत बुरी थी। उनके समय देश पराधीन था, अंग्रेजों का शासन था। हमारा समाज अशिक्षित मूर्ख और कलहप्रिय था। आपसी कलह के कारण हमने यवनों को बुलाया था उन्होंने हमें पराजित कर हमें लूटा, हमारे ग्रंथ नष्ट कर दिये और हमे पंगु तथा आलसी बना दिया।

प्रश्न 3.
अंग्रेजी राज के प्रति भारतेन्दु के दृष्टिकोण पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
अंग्रेजी राज के विषय में भारतेन्दु का दृष्टिकोण विरोधी है। वे देशभक्त थे। अत: गुलामी के विरोधी थे। वे मानते थे कि अंग्रेजी देश में सुख के जो सामान रेल-तार-डाक आदि ले आये है वे अपने लाभ के लिए यो उसका लाभ हमें भी मिल रहा है। इसके विपरीत वे हमारे देश के श्रम और कच्चे माल का उपयोग कर जो सामान बनाते हैं वह हमी को बेचकर उसके मुनाफे से अपने को सम्पन्न बना रहे हैं। हम निरन्तर गरीब होते जा रहे हैं। ऊपर से वे रोज नये टैक्स लगा रहे हैं। रोज महँगाई बढ़ रही है, अकाल पड़ा है। यदि हम स्वाधीन रहते तो हमारा धन यहीं रहता और हम इस तरह निरन्तर दीन-हीन नहीं होते।

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प्रश्न 4.
भारतेन्द्र के अनुसार भारत दुर्दशा के कारणों को संक्षेप में बतायें।
उत्तर-
भारतेन्दु के अनुसार भारत की दुर्दशा का प्रधान कारण है-गुलामी। यह गुलामी चाहे यवनों की हो या अंग्रेजी की हमारे लिए अहितकारी रही। इन लोगों ने हमें विद्या, बल तथा धन तीनों से वंचित रखा ताकि हम दुर्बल बने रहें।

दूसरा कारण उनकी दृष्टि में स्वयं भारतीय लोगों का आचरण है। उनके आचरण में स्वार्थ तथा कलहप्रियता की प्रधानता है। इसके अतिरिक्त ये आलसी स्वभाव के हैं। थोड़े में संतुष्ट होकर प्रयत्न नहीं करते, अपनी बुरी दशा से विद्रोह नहीं करते तथा बेहतर जीवन के लिए संघर्ष नहीं करते। इन्हीं कारणों से ये बार-बार पदाक्रान्त हुए, पराजित हुए और गुलाम बने।

भारत-दुर्दशा अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारतेन्दु किस कोटि के कवि हैं?
उत्तर-
भारतन्दु प्राचीन और नवीन की संधि-भूमि पर स्थित देशभक्त कवि हैं।

प्रश्न 2.
अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी का क्या अर्थ है?
उत्तर-
अंग्रेजों के शासन काल में भारत विज्ञान से प्राप्त सुविधाओं का वंचित हुआ।

प्रश्न 3.
विश्व में सबसे पहले सभरता का विकास कहाँ हुआ?
उत्तर-
भारतेन्दु के अनुसार विश्व में सबसे पहले सभयता का विकास भारत में हुआ।

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प्रश्न 4.
भारत के समय भारत में किन चीजों के कारण अंधेरा छाया था?
उत्तर-
भारतेन्दु के समय आलस्य, कुमति और कलह का अंधेरा छाया था।

प्रश्न 5.
भारत भाई से भारतेन्दु का तात्पर्य क्या है?
उत्तर-
भारत भाई से तात्पर्य भारत के लोगों से है। भारतेनदु ने उन्हें भाई कहकर संबोधित किया है।

प्रश्न 6.
भारत-दुर्दशा शीर्षक कविता भारतेंदु हरिश्चन्द्र के किस नाटक के अंतर्गत है?
उत्तर-
भारत-दुर्दशा शीर्षक कविता भारतेंदु हरिश्चंद्र के भारत-दुर्दशा नामक नाटक के अन्तर्गत है।

प्रश्न 7.
भारत-दुर्दशा शीर्षक कविता में किस भावना की अभिव्यक्ति हुयी है?
उत्तर-
भारत-दुर्दशा शीर्षक कविता में देश-प्रेम की भावना की अभिव्यक्ति हुयी है।

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प्रश्न 8.
भारत-दुर्दशा नामक कविता में किस बात की व्यंजना हुयी है?
उत्तर-
भारत-दुर्दशा नामक कविता में अतीत गौरव और देश प्रेम की व्यंजना हुयी है।

भारत-दुर्दशा वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें।

प्रश्न 1.
हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के प्रवर्तक साहित्यकार के रूप में किस माना जाता है?
(क) भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
(ख) महावीर प्रसाद द्विवेदी
(ग) हजारी प्रसाद द्विवेदी
(घ) रामचन्द्र शुक्ल
उत्तर-
(क)

प्रश्न 2.
‘भारत दुर्दशा’ साहित्य की किस विधा में है?
(क) एकांकी
(ख) नाटक
(ग) गद्य-काव्य
(घ) पद्य-काव्य
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 3.
हिन्दी भाषा और साहित्य में नवजागरण के अग्रदूत किसे माना जाता है?
(क) प्रेमचन्द्र
(ख) जयशंकर प्रसाद
(ग) भारतेन्दु हरिशचन्द्र
(घ) महावीर प्रसाद द्विवेदी
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 4.
भारत की धार्मिक मर्यादा को किसने नष्ट किया है?
(क) जैन धर्मावलम्वी ने
(ख) वैदिक धर्मावलम्बी ने
(ग) बौद्ध धर्मावलम्बी ने
(घ) वैदिक एवं जैन धर्मावलम्बियों ने
उत्तर-
(घ)

प्रश्न 5.
भारतेन्दु हरिशचन्द्र के पद किस भावे जुड़े पद हैं?
(क) राष्ट्रीय भाव
(ख) प्रेम भाव
(ग) करुण भाव
(घ) भक्ति भाव
उत्तर-
(क)

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II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न:
1. हिन्दी साहित्य में आधुनिक युग के संस्थापक
2. ‘भारत-दुर्दशा’ पाठ के रचयिता ………………. हैं।
3. रोबड सब मिलिकै आवहु ……………… भाई।।
4. सबके ऊपर ………………. की आफत आई।
उत्तर-
1. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
3. भारत
4. टिक्कस।

भारत-दुर्दशा कवि परिचय भारतेन्दु हरिश्चन्द्र (1850-1885)

आधुनिकता नवोत्थान के प्रतीक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र 18-19वीं सदी के जगत-सेठों के एक प्रसिद्ध परिवार के वंशज थे। उनके पूर्वज सेठ अमीचन्द का उत्कर्ष भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना के समय हुआ था। नवाब सिराजुद्दौला के दरबार में उनका बड़ा मान था। निष्ठावान अमीचन्द के साथ अंग्रेजी ने अत्यन्त नीचतापूर्ण व्यवहार किया था। उन्हीं के प्रपौत्र गोलापचन्द्र, उपनाम गिरिधरदास के ज्येष्ठ पुत्र थे भारतेन्दु। भारतेन्दु का जन्म 1850 में उनके ननिहाल में हुआ था 5 वर्ष की अवस्था में ही माता पार्वती देवी का तथा 10 वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो गया।

विमाता मोहिनी देवी का उनके प्रति कोई खास स्नेह-भाव नहीं था। फलतः उनके लालन-पालन का भार काली कदमा दाई तथा तिलकधारी नौकर पर रहा। पिता की असामयिक मृत्यु से शिक्षा-दीक्षा की समूचित व्यवस्था नहीं हो पायी। बचपन से ही चपल स्वभाव के भारतेन्दु की बुद्धि कुशाग्र तथा स्मरणशक्ति तीव्र थी। उस जमाने के रइसों में राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ का नाम बड़ा ऊँचा था। भारतेन्दु शिक्षा हेतु उन्हीं के पास जाया करते थे। स्वाध्याय के बल पर उन्होंने अनके भाषाएँ सीखीं तथा स्वाभाविक संस्कारवश काव्य-सृजन करने लगे।

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तेरह वर्ष की आयु में ही इनका विवाह हो गया। इनकी जीवन-संगिनी बनी काशी के रईस लाला गुलाब राय की सुपुत्री मन्ना देवी। घर की स्त्रियों के आग्रह पर पन्द्रह वर्ष की अवस्था में उन्हें कुटुम्बसहित जगन्नाथ-यात्रा करनी पड़ी। देशाटन का उन्हें खूब लाभ मिला। वे हर जगह मातृभूमि तथा मातृभाषा एवं राष्ट्र की स्वाधीनता पर भाषण देते। 1884 की उनकी बलिया-यात्रा उनकी अंतिम यात्रा प्रमाणित हुई। उनके जर्जर शरीर ने उनकी तेजस्वी आत्मा को बाँधे रखने में असमर्थता जतायी और मात्र 34 वर्ष 6 माह की अल्पवय में वे 6 जनवरी, 1885 को इस संसार से चल बसे।

किन्तु इस छोटे जीवन-काल में भी उन्होंने हिन्दी, समाज तथा भारत राष्ट्र की जो अविस्मरणीय सेवा की उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाय, कम होगी। उनकी संताने थीं-एक पुत्री, दो पुत्र। पुत्र असमय ही चल बसे। पुत्री विद्यापति सुविख्यात विदुषी बनी। धर्मपरायण मन्ना देवी ने 42 वर्षों तक वैधव्य भोगने के बाद 1926 ई. में प्राण विसर्जित किये। वे परम गुणवन्ती थी तथा आजीवन जन-जन की प्रशंसा पाती रही।

निस्देह भारतेन्दु के आविर्भाव के पूर्व हम राष्ट्रीयता को ठीक-ठीक समझने में असमर्थ थे। भारतेन्दु ने राष्ट्रभक्ति का ज्वार उमड़ाकर अंग्रेजों की दमनात्मक नीतियों तथा भारत की दुर्दशा के कारणों का पर्दाफाश किया। वे युगान्तकारी कलाकार थे। परिवर्तन का काल था वह जब भारतेन्दु को ब्रजभाषा की गद्य-क्षमता तथा खड़ी बोली की पद्य-क्षमता पर अविश्वास रहा।

लेकिन उन्होंने अपने समकालीन को एक सूत्र में पिरोकर जिस तरह काव्य-साधना तथा साहित्य-सेवा में लगाया, वह अतुलनीय बन गया। उनकी उपलब्धियाँ तथा ख्याति अद्वितीय रही। काव्य के क्षेत्र में उन्होंने ब्रजभाषा का कंटकहीन पथ अपनाया। उनकी काव्याभिव्यक्ति की शैली कृष्ण-काव्य परंपरा वाली है। ब्रजभाषा के वे अंतिम गीतकार थे। . वस्तुतः भारतेन्दु ने अपनी साहित्यिक रचनाओं द्वारा स्वाधीनता संग्राम को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

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भारत-दुर्दशा कविता का सारांश

आधुनिक हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक महान साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ‘भारत-दुर्दशा’ शीर्षक कविता के माध्यम से देश के निवासियों में राष्ट्रीयता का भाव जगाया है। अशिक्षा, अज्ञानता, अंधविश्वास, दरिद्रता, कुरीति, कलह और वैमनस्य की जंजीरों में जकड़े भारतीय समाज को अतीत और वर्तमान, स्वाधीनता और पराधीनता तथा वैषम्य की दंशमय गहराई को समझने की अन्तर्दृष्टि दी है।

भारत की दुर्दशा देखकर कवि की आत्मा चीत्कार उठी है। भारत की दुर्दशा से व्यथित कवि भारत के निवासियों को इसकी दुर्दशा पर मिलकर रोने के लिए आमंत्रित करता है।

भारत की राजनीति, सामाजिक, आर्थिक व्यवस्था पर अपना व्यंग्य-वाण चलाते हुए भारतेन्दु कहते है कि जिस भारत देश को ईश्वर ने सबसे पहले धन और बल देकर सभ्य बनाया। सबसे पहले विद्वता के भूषण से विभूषित कर रूप, रंग और रस के सागर में गोता लगवाया, वही भारत वर्ष अब सभी देशों से पीछे पड़ रहा है। कवि को भारत की दुर्दशा देखकर हृदय में हाहाकार मच रहा है।

भारत में त्याग, और बलिदान के प्रतीक शाक्य, हरिश्चन्द्र, नऊष और ययाति ने जन्म लिया। यहीं राम, युष्ठिर, वासुदेव और सर्याति जैसे सत्यनिष्ठ और धर्मनिष्ठ अवतरित हुए थे। भारत में ‘ ही भीम, करण और अर्जुन जैसे वीर, दानवीर तथा धनुर्धर पैदा हुए परन्त आज उसी भारत के निवासी अशिक्षा, अज्ञानता, कलह और वैमनस्य के जंजीरों में जकड़कर दुख के सागर में डूब चुके हैं। भारत की ऐसी दारूण-दशा के लिए कवि का हृदय आन्दोलित है।

राष्ट्र चिंतन से दूर ‘अहिंसा परमो धर्मः, के आलम्बन के केन्द्र में बैठा जैन धर्मावलम्बियों ने वैदिक धर्म का विरोध कर यवनों (इस्लाम आदि) की सेना की भारत पर कब्जा करने का मार्ग प्रशस्त किया। मूढ़ता के कारण आपसी कलह ने बुद्धि, बल, विद्या और धन को नाशकर आलस्य, कुमति और कलह की काली छटा से भारतीय जन-जीवन घिर गया। भारतीय अन्धे, लँगड़े और दीन-हीन होकर जीने के लिए अभिशप्त हो गये हैं, भारत की दुर्दशा अवर्णनीय हो गई है।

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अंग्रेजो के राज्य अर्थात पराधीन भारत में वैभव और सुख बढ़ गये हैं परन्तु भारतीय धन विदेश चला जाता है। यह स्थिति अतीव कष्टकारी है। उसपर महँगाई सुरसा की भाँति मुँह फैलाये जा रही है। दिनों-दिन दुखों की तीव्रता बढ़ रही है और ऊपर से ‘कर’ का बोझ तो ‘कोढ़ में खाज’ सा कष्टकारक है। भारत की ऐसी दुर्दशा कवि के लिए असह्य हो गया। उसके हृदय में हाहाकार मचा हुआ है।

भारत-दुर्दशा कठिन शब्दों का अर्थ

आवहु-आओ। मीनो-सिक्त, भीगा हुआ। लखाई-दिखाई। मूढ़ता-मूर्खता। अविद्या-अज्ञान। राती-अंधकार। जवनसैन-यवनों की सेवा। पुनि-फिर। नासी-नष्ट। विखलाई-बिलखना, विलाप करना। ख्यारी-कष्टकारी। टिक्कस-टैक्स, कर। पंगु-लंगड़ा। आफत-आपदा, विपदा।

भारत-दुर्दशा काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. रोबहु सब ……………………. भारत दुर्दशां न देखी जाई।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ भारतेन्दु रचित ‘भारत-दुर्दशा’ कविता से ली गयी हैं। यहाँ भारतेन्दु ने देश की दुर्दशा का कारुणिक चित्रण करते हुए लोगों के मन में सुप्त देश-प्रेम को जागने का प्रयास किया है। कवि कहता है कि हे भारत के भाइयों ! आओ, सब मिलकर रोओ ! अब अपने प्यारे देश की दुर्दशा नहीं देखी जाती।

इस देश को ईश्वर ने दुनिया के सभी देशों से पहले बलवान-धनवान बनाया और सबसे पहले सभ्यता का वरदान दिया। यही देश सबसे पहले रूप-रस-रंग में भींगा अर्थात् कला-सम्पन्न विधाओं को प्राप्त कर अपने को ज्ञान-सम्पन्न बनाया लेकिन दुख है कि वही देश आज इतना पिछड़ गया कि पिछलग्गू बनकर भी चलने लायक नहीं है।

सब मिलाकर भारतेन्दु, प्रस्तुत पंक्तियों में कहना चाहते है कि जो देश सभ्यता, कला-कौशल तथा वैभव में अग्रणी और सम्पन्न रहा वही आज गुलामी के कारण पिछड़कर दीन-हीन बन गया है। आज इसकी दुर्दशा नहीं देखी जाती। देखते ही मन पीड़ा और ग्लानि से भर जाता है।

2. जहँ राम युधिष्ठिर ……………. भारत-दुर्दशा न देखी जाई।।
व्याख्या-
‘भारत दुर्दशा’ कविता से ली गयी प्रस्तुत पंक्तियों में भारतेन्दु देश के लोगों को गौरवशाली अतीत की याद दिलाकर प्रेरणा भरना चाहते हैं। वे कहते है कि इस इस देश में राम, युधिष्ठिर, वासुदेवं कृष्ण, सर्याति, शाक्य, बुद्ध, दानी हरिश्चन्द्र, नहुष तथा ययाति जैसे प्रसिद्ध सम्राट हुए। यहाँ, भीम, कर्ण, अर्जुन जैसे पराक्रमी योद्ध हुए। इन लोगों के कारण देश में सुशासन, सुख और वैभव का प्रकाश फैला रहा। उसी देश में (पराधीनता के कारण) आज सर्वत्र दुःख ही दुःख छाया है। . उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से भारतेन्दु यह बताना चाहते है कि अतीत में हम सुख और समृद्धि के शिखर पर विराजमान थे, जबकि आज हम दुःख और पतन के गर्त में गिरकर निस्तेज हो गये है। इस पतन का कारण गुलामी ही समझना चाहिए।

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3. लरि बैदिक जैन डुबाई ……………. भारत दुर्दशा न देखी जाई।
व्याख्या-
भारत दुर्दशा की इन पंक्तियों में भारतेन्दु जी ने यह बनाना चाहा है कि प्राचीन काल में भारत के लोगों ने धर्म के नाम पर लड़ाई की और द्वेषवश विदेशियों को आमंत्रण देकर बुलाया उसी के परिणामस्वरूप हम अन्ततः गुलाम हा गये।

कवि का मत है कि वैदिक मत को माननेवालों और जैनमत को मानने वालों ने आपस में लड़कर सारे ग्रंथों को नष्ट किया। फिर आपसी कलह के कारण यवनों की सेना को बुला लिया। उन यवनों ने इस देश को सब तरह से तहस नहस कर दिया। मारकाट और ग्रंथों को जलाने के कारण सारी विद्या नष्ट हो गयी तथा धन लूट लिया। इस तरह आपसी कलह के कारण यवनों द्वारा पदाक्रान्त होने से बुद्धि, विद्या, धन, बल आदि सब नष्ट हो गये। आज उसी का कुपरिणाम हम आलस्य, कुमति और कलह के अंधेरे के रूप में पा रहे हैं। कवि इस दशा से विचलित होकर कहता है-हा ! हा ! भारत दुर्दशा, न देखी जाई।”

4. अंगरेजराज सुख साज ………………. दुर्दशा न देखी जाई।
व्याख्या-
भारत दुर्दशा की प्रस्तुत पंक्तियों में भारतेन्दु जी ने अंग्रेजी राज की प्रशसा करने वालों को मुँहतोड़ उत्तर दिया है। उनके समय में देश गुलाम था और अनेक लोग गोजी पढ़-लिखकर तथा अंग्रेजियत को अपनाकर अपने देश को हेय दृष्टि से देख रहे थे। भय अथवा गुलाम स्वभाव अथवा “निज से द्रोह अपर से नाता” की मनोवृत्ति के कारण लोग अंग्रेजों के खुशामदी हो गये थे। अंग्रेजों ने देश का शासन की पकड़ मजबूत रखने और अपने तथा शासन-व्यापार की सुविधा के लिए रेल, डाक आदि की व्यवस्था की।

दोयम दरजे के नागरिक के रूप में इन सुविधाओं का लाभ भारतीयों को ही मिल रहा था। अत: वे अंगेजी राज के प्रशंसक थे। भारतेन्दु सच्चाई उजागर करते हुए कहते है कि यह सच है कि अंग्रेजी राज में सुख-सामानों में भारी वृद्धि हुई है। लेकिन इससे क्या, अंग्रेज हमारा शोषण कर धन एकत्र करते हैं और अपने घर इंगलैंड भेज देते हैं। इस तरह वे मुनाफा से अपना घर भर रहे हैं और हम शोषित हैं। ऊपर से महँगाई रोज बढ़ रही है। नित नए टैक्स लगाये जा रहे हैं जिसके फलस्वरूप हमारा दुख दिन-प्रतिदिन दूना होता जा रहा है। अतः यह शासन के नाम पर हमारा शोषण कर रहा है और हमारी स्थिति खराब होती जा रही है।

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 4 सहजोबाई के पद

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 4 सहजोबाई के पद

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 4 सहजोबाई के पद

सहजोबाई के पद पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर।

कविता के साथ

प्रश्न 1.
सहजोबाई के मन में उनके आराध्य की कैसी छवि बसी हुई है।
उत्तर-
हिन्दी के ज्ञानश्रयी की शाखा की संत कवियित्री सहजोबाई के प्रस्तुत काव्य में श्रीकृष्ण उनके आराध्य प्रतीत होते हैं। सहजोबाई के मन में कृष्ण की शैशवावस्था का अलौकिक सौन्दर्य प्रतिबिम्बित है। लीलाधारी श्रीकृष्ण के माथे पर मुकुट, कान में मोतियों के कुण्डल, बिखड़े हुए बाल, होठ का मटकाना, भौंह चलाते हुए ठुमक ठुमुक कर धरती पर चलते हुए उनका सौन्दर्य अनुपम और अद्वितीय है।

श्रीकृष्ण के घुघरूं की कर्णप्रिय ध्वनि मन के तारों को सहज ही झंकृत करती है। सहजोबाई ने अपने आराध्य नटवर नागर, लीलाधर कृष्ण का सगुण स्वरूप की छवि अपने मन में बसायी हुई है जो दिव्यातिदिव्य और अनुपमेय है। उनकी इस सुन्दरता की बराबर करोड़ो कामदेव की सम्मिलित शोभा भी नहीं कर सकती।

प्रश्न 2.
सहजोबाई ने किससे सदा सहायक बने रहने की प्रार्थना की है?
उत्तर-
ज्ञानाश्रयी संत कवयित्री सहजोबाई ने बाल श्रीकृष्ण से सदा सहायक बने रहने की प्रार्थना की है।

प्रश्न 3.
“झुनक-झुनक नूपूर झनकारत, तता थेई रीझ रिझाई।
चरणदास हिजो हिय अन्तर, भवन कारी जित रहौ सदाई।
इन पंक्तियों को सौन्दर्य स्पष्ट करें।
उत्तर-
निर्गुण ब्रह्म उपासिका कवयित्री सहजोबाई की सगुण भक्ति शिरमौर श्रीकृष्ण के प्रति भाव-विहलता, भाव-प्रवणता इन पंक्तियों में उपस्थित है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 4 सहजोबाई के पद

बालक कृष्ण अपने पैरों को बलात् इस तरह पटक रहे हैं कि उनके पैरों में बंधी पायल के र (घुघरू) एक लय विशेष में झंकृत हो रहे हैं और यह लय है तो ता थैया जिसके इंगित १: कृष्ण न सिर्फ रीझ गये हैं बल्कि अपने चतुर्दिक उपस्थित लोगों को भी मंत्रमुग्ध किये हुए है। कृष्ण की यह विश्वमोहिनी छवि के स्वामी को सहजोबाई अपने हृदय में भवन बनाकर सदा के लिए रखना चाहती हैं। कबीरात्मा भी अपने राम को कुछ इसी तरह अपनी आँखों में बसाना

“नैनन की करि कोठरी पुतरी पलंग बिछाय,
पलकनि कै चिक डारि कै पिय को लिया रिझाय।”

सम्ममा भक्त अपने भगवान से शाश्वत सायुज्यता का आकांक्षी होता है। उसे वह अपने व्यक्तित्व के कोमलतम, पवित्रतम स्थान में रखना चाहता है। भक्त भगवान पर एकाधिकार चाहता है। यही सौन्दर्य यहाँ जित है।

प्रश्न 4.
सहजोबाई ने हरि से उच्च स्थान गुरु को दिया है। इसके लिए वे क्या-क्या तर्क देती हैं?
उत्तर-
कवयित्री सहजोबाई ने अपने गुरु चरणदास के प्रति सहज और पावन भक्तिभावना का परिचय दिया है। कवियित्री ने सच्ची गुरु भक्ति के रूप में अपने गुरु की महिमा की अद्वितीयता का विवेचन एवं विश्लेषण किया है। गुरु के प्रति पूर्णरूप से समर्पित कवयित्री के निश्छल हृदय के पवित्र उद्गार मिलते हैं। सहजोबाई ने गुरु के दिव्यातिव्य मार्गदर्शन के प्रति समर्पिता का भाव सहज ही दृष्टिगोचार होता है। गुरु ने अपने दिव्य ज्ञान से अज्ञानता के तिमिर को हटाकर ज्ञान से प्रकाशित किया, जिससे सांसरिक आवागमन (जन्म-मृत्यु) के बन्धन से मुक्त कराया।

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ईश्वर ने पाँच चोर मद, लोभ, मोह, काम और क्रोध को शरीर रूपी मन्दिर में बिठाया, गुरु ने उससे छुटकारा पाने की युक्ति सिखाई। ईश्वर ने सांसारिक राग-रंग, अपना-पराया का भ्रम में उलझाया, गुरु ने ज्ञान रूपी दीपक के प्रकाश से अलोकित कर तमाम बन्धनों से मुक्ति दिलाने के लिए आत्म ज्ञान से साक्षात्कार कराया है। गुरु ने सांसारिक भवसागर से निकलने का मार्ग प्रशस्त कराया। सहजोबाई की गुरुभक्ति उत्कट और अपूर्व है। गुरु के प्रति परमात्मा से भी बढ़कर प्रेम भक्ति तथा कृतज्ञता का उत्कट और अपूर्व भाव प्रदर्शित कवयित्री ने किया है। गुरु ही ज्ञान का सागर तथा सच्चा पथ-प्रदर्शक है। गुरु का स्थान हरि से भी ऊँचा है।

प्रश्न 5.
“हरि ने पाँच चोर दिये साथा,
गुरु ने लई छुटाय अनाथा।”
यहाँ किन पाँच चोरों की ओर संकेत है? गुरु उससे कैसे बचाते हैं।
उत्तर-
संत साहित्य में अवगुणों को चोर से संज्ञायित किया गया है। पाँच चोर निम्नलिखित हैं-काम, क्रोध, मोह, मद और लोभ। शरीर तक सीमित होना, इन्द्रित सुख की पूर्ति की इच्छा काम है। अपनी इच्छा के विरुद्ध कुछ होते देख गुस्सा होना क्रोध है। अनाधिकृत वस्तु के प्रति आसक्ति मोह अथवा लोभ है।

किसी भी प्रकार की प्रभुता प्राप्त कर लेने का भाव मद से प्रदर्शित होता है। दूसरे को किसी भी रूप में सम्पन्न देखकर ईर्ष्या का भाव डाह का भाव मत्सर है।

सद्गुरु संसार की नश्वरता, असारता, क्षणभंगुरता का निदर्शन करारकर अपने शिष्य को प्रबोध देता है। ध्यान, समाधि जीवमात्र की निष्काम सेवा आदि के द्वारा गुरु इन पाँच चोरों से शिष्य को बचाते हैं।

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प्रश्न 6.
“हरि ने कर्म भर्म भरमायौ। गुरु ने आतम रूप लखायौ ॥
हरि ने मोरूँ आप छिपायौ। गुरु दीपक दै ताहि दिखायो॥”
इन पंक्तियों की व्याख्या करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पद्यांश ज्ञानाश्रयी कवयित्री सहजोबाई द्वारा विरचित है। कवियित्री ने गुरु महिमा और गरिमा की श्रेष्ठता का बेबाक चित्रण किया है। वह कहती है कि हरि ने उन्हें सांसारिक . कर्म के भर्म में उलझा कर रख दिया है और गुरु ने आत्मज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित कर उसके ‘स्व’ के अस्तित्व का ज्ञान कराया है : गुरु ने ‘स्वयं’ से साक्षात्कार कराकर सांसारिक अज्ञानता से छुट्टी दिलाई है, गुरु अपने ज्ञान के दीपक से प्रकाशित करते हैं।

प्रश्न 7.
पठित पद में सहजोबाई ने गुरु पर स्वयं को न्योछावर किया है। वह पंक्ति लिखें।
उत्तर-
प्रस्तुत पद में सहजोबाई गुरु की महानता और महिमा के आगे सर्वोत्तम समर्पण किया है जो उसकी उत्कृष्ठ गुरु भक्ति की पराकाष्ट है। वह कहती है

“चरणदास पर तन मन वारूँ। गुरु न तनँ हरि  तजि डारूँ।।”

प्रश्न 8.
पठित पद के आधार पर सहजोबाई की गुरुभक्ति का मूल्यांकन करें।
उत्तर-
संत कवयित्री सहजोबाई का पाठ्यपुस्तक में संकलित पद ‘गुरु भक्ति’ का उत्कृष्ट और दुर्लभ उदारिण है। सहजो द्वारा गुरु भक्ति की उत्कट और अपूर्व अभिव्यक्ति हुई है। गुरु के प्रति परमात्मा से भी बढ़कर प्रेम-भक्ति तथा कृतज्ञता की आत्मिक अनुभूति इस पद में विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है।

सहजोबाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया। ज्ञान आधारित गुरु भक्ति सहजो में अविचल संकल्प और समर्पण की स्पृहणीय शक्ति बनकर प्रकट होती है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 4 सहजोबाई के पद

वह हरि को त्याज्य समझती है परन्तु गुरु को त्यागने की वह कल्पना भी नहीं करना चाहती है

“राम तर्जे पर गुरु न बिसारूँ।
गुरु के सम हरि न निहारूँ॥

सहजोबाई ने गुरु की महिमा और ज्ञान के अस्तित्व को स्वीकारते हुए उसे उच्छल आनंदानुभूति होती है। वह गुरु को ही सांसरिक आवागमन, मर्म तथा आत्म ज्ञानसे साक्षात्कार कराने के लिए अपनी सारी सत्ता को हृदय, प्राण, बुद्धि कल्पना, संकल्प इत्यादि सारी वृत्तियों को समाहित और घनीभूत करके बड़े वेग के साथ स्वयं को गुरुभक्ति में समाहित कर दिया है। अपनी केवल व्यक्तिगत सत्ता की भावना को पूर्ण विसर्जन कर केवल गुरु को ही ध्येय स्वरूप आत्मसात करती है। गुरु के प्रति परमात्मा से भी बढ़कर प्रेम-भक्ति तथा कृतज्ञता को प्रकट करते हुए कहती है

“चरणदास पर तन मन वारूँ।
गुरु न तनूं हरिः जि डारूँ॥

कवयित्री सहजोबाई एक सच्ची गुरुभक्त के रूप में गुरू की प्रार्थना करती हैं ताकि उसे मोह-माया के बन्धन से मुक्त होकर अपने आराध्य की पूर्ण चरणगति और शरणगति प्राप्ति हो। गुरु के वरदहस्त की छाया में दिव्य ज्ञान प्राप्त कर सकल संताप को दूर करने की क्षमता सम्पन्न होती है।

सहजोबाई के पद भाषा की बात

प्रश्न 1.
पठित पदों में अनुप्रास अलंकार है। ऐस उदाहरण को छांट कर लिखें।
उत्तर-
सहजोबाई रचित पदों की निम्नांकित पंक्तियां में अनुप्रास अलंकार हैं-
“मुकुट लटक अटकी मन माहीं ‘म’ वर्ण की आवृति
नृत तन नटवर मदन मनोहर ‘न’ और ‘म’ वर्ण की आवृति
ठुमक ठुमुक पग धरत धरनि पर ‘प’ और ‘ध’ वर्ण की आवृति
झुनुक झुनक नुपुर झनकारत
तथा थेई थेई रीझा रिझाई में ‘झ’ त, थ और ‘र’ वर्ण आवृति
हरि ने जन्म दियो जग माहीं ‘ज’ वर्ण की आवृति
हरि ने कर्म भर्म भरमायौ में ‘भ’ वर्ण की आवृति।

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प्रश्न 2.
“भौंह चलाना” का क्या अर्थ है?
उत्तर-
आँखों के ऊपर की रोमावली भौंह कहलाती है। व्यक्ति जब कुछ देने से कतराना चाहता है, उसके भीतर चुहल करने की इच्छा होती है, तब भौंहों को ऊपर नीचे करता है। आनन्ददायी आश्र्चचकित करने वाली घटना से साक्षात्कार करने के समय तथ्यों गोपन में भौंह चलाया जाता है। बिहारी ने तो कृष्ण की मुरली चोरी प्रसंग में गोपियों को “भौहनि हँसौ” की स्थिति में प्रस्तुत किया

“बतरस लालच ताल की मुरली धरि लुकाय”
सौं करै भौहनि हंसे दैन कहै नटि जाय।
भौंक चलना का अर्थ सौहार्द्रपूर्ण कुटिलता का अवाक् ज्ञापन करना है।

प्रश्न 3.
चतुराई, रिझाइ जैसे शब्दों में ‘आई’ प्रत्यय लगा है। पठित पदों से अलग ‘आई’ प्रत्यय से पाँच शब्द बनाएँ।।
उत्तर-
लखाई, बिलगाई, मचिलाई, बिलखाई और मुस्काई।

प्रश्न 4.
कर्म-भर्म रोग-भोग मं कौन-सा सम्बन्ध है?
उत्तर-
कर्म-धर्म तथा रोग-भाग दोनों ही द्वन्द्व समास है।

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प्रश्न 5.
इनका शुद्ध रूप लिखें नृत, गुर, हरिपू, बेरी, मर्म, आतम
उत्तर-

  • अशुद्ध – शुद्ध
  • नृत्य – नृत
  • गुरु – गुरु
  • हरिकूं – हरि को
  • बेरी – बेड़ी
  • भ्रम – भर्म
  • आतम – आत्म, आत्मा

प्रश्न 6.
पठित पदों से क्रिया पद चुनएि।
उत्तर-
सहजोबाई रचित पदां में निम्नलिखत क्रियापद आये हैं
अटकी, बिथुराई, हलत, मटक, चलाई, धरत, करत, झनकारत रहौ, बिसारू, तनँ बिसारू, निहारूँ दियो छुटाहीं, दिये, छटाय, गेरी, काटी, उरझायी, भरमायौ, लखायौ, छिपायो, लाये, मिटायै, वारूँ और डारूँ।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

सहजोबाई के पद लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सहजोबाई द्वारा वर्णित सगुण रूप या कृष्ण के रूप पर प्रकाश डालें
उत्तर-
सहजोबाई ने ‘नटवर’ शब्द का प्रयोग किया है जिससे स्पष्ट होता है कि सगुण ईश्वर से उनका तात्पर्य कृष्ण से है। द्वितीय, ठुमक ठुमुक चलने और पैरों में झुमुक झुमुक कर नृपुर बजने से स्पष्ट है कि कृष्ण के बाल रूप का वर्णन है। कवयित्री ने सुन्दर मुकुट, नृत्यशील शरीर, कान के कुंडल तथा बिखर केश का वर्णन किया है। क्रिया सौन्दर्य के अन्तर्गत ठुमुक ठुमुक चलने नूपूर झनकारने, होठ फड़काने, भौहे चलाने, नाचने और भुजाएँ उठाकर भाव-मुद्रा प्रदर्शित करने का वर्णन है।

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प्रश्न 2.
सहजोबाई की गुरु-भक्ति भावना का वर्णन संक्षेप में करें।
उत्तर-
सहजोबाई की गुरु-भक्ति अनन्य है। वह गुरु को सदैव हृदय में बसाये रखना चाहती हैं। उसके गुरु संत चरणदास जी आत्मज्ञानी है, उनके पास ज्ञान का दीपक है। ईश्वर ने मानव-तन देकर अपनी प्राप्ति में जितनी बाधाएँ खड़ी की हैं उन सबका निदान गुरु ने किया है, इसलिए सहजोबाई अपने गुरु को गोविन्द से श्रेष्ठ मानती है। उसका दृढ़ विश्वास है कि गुरु की कृपा से ईश्वर मिल सकता है मगर ईश्वर की कृपा से गुरु नहीं। अत: वह अपने गुरु के प्रति समर्पण पूर्ण भक्ति-भावना व्यक्त करती है।

सहजोबाई के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सहजोबाई गुरु को हरि से श्रेष्ठ क्यों मानती हैं?
उत्तर-
उनकी दृष्टि से ईश्वर ने अपने को छिपाने के लिए प्रपंचों का सृजन किया है जबकि गुरु उन प्रपंचों को ज्ञान के प्रकाश से काटकर भक्त को ईश्वर से मिला देता है, अत: गुरु ईश्वर से श्रेष्ठ है।

प्रश्न 2.
ईश्वर ने जीव को अपने से अलग रखने और छिपाने के लिए क्या-क्या किया है?
उत्तर-
ईश्वर ने पंचेन्द्रिय रूपी पाँच चोर साथ लगा दिया है रोग और भोग में उलझाया है, कुटुम्ब्यिों के रूप में ममता का जाल देकर उलझाया है तथा कर्म-फल का भ्रम पैदा किया है।

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प्रश्न 3.
गुरु ने क्या किया है?
उत्तर-
गुरु ने जन्म-मरण के आवागमन से मुक्ति दिलाई है। ममता का बन्धन काटा है। योग और आत्मज्ञान दिया है तथा ज्ञान-रूपी दीपक के प्रकाश में ईश्वर के दर्शन कराये हैं।

प्रश्न 4.
पाँच चोर से कवयित्री का क्या तात्पर्य है?
उत्तर-
पाँच चोर से तात्पर्य पंच ज्ञानेन्द्रियों-आँख, कान, नाक, मुँह और मन से है जो व्यक्ति को संसार के प्रति आसक्त बनाते हैं। इन इन्द्रियों के कारण मनुष्य संसार के प्रति लगाव रखता है।

प्रश्न 5.
सहजोबाई किस प्रकार की कवयित्री है?
उत्तर-
सहजोबाई निर्गुण और सन्त विचार की दोनों विचारधारा की कवयित्री है।

प्रश्न 6.
सहजोबाई के प्रथम पद में किसकी व्यंजना की गयी है?
उत्तर-
सहजोबाई ने अपने प्रथम पद में कृष्ण की सगुण लीलानुभूति की व्यंजना की है।

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प्रश्न 7.
सहजोबाई ने द्वितीय पद में किस पर प्रकाश डाला है?
उत्तर-
सहजोबाई ने अपने द्वितीय पद में गुरु की महत्ता और उसके व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है।

सहजोबाई के पद वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग, या घ) लिखें।

प्रश्न 1.
सहजोबाई का जन्म कहाँ हुआ था?
(क) मध्यप्रदेश
(ख) राजस्थान
(ग) पंजाब
(घ) हरियाणा
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 2.
सहजोबाई के गुरु कौन थे।
(क) चरनदास
(ख) हरिप्रसाद भार्गव
(ग) तुकाराम
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

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प्रश्न 3.
सहजोबाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन किसको समर्मित किया है?
(क) गुरु चरणदास को
(ख) ईश्वर को
(ग) गुरु और उनके माध्यम से ईश्वर को
(घ) किसी को नहीं
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 4.
सहजोबाई किसको नहीं छोड़ सकती है।
(क) भगवान को
(ख) गुरु चरनदास को
(ग) अपने पिता को
(घ) अपनी माता को।
उत्तर-
(ख)

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II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न:
1. सहजोबाई निर्गुण …………….. भक्ति के अन्तर्गत आती है।
2. राम तर्जे पै …………. न बिसारूँ।
3. गुरु ने काटा …………….. बेरी।
4. मुकुट लटक ……………. मन माहीं।
उत्तर-
1. ज्ञानाश्रयी
2. गुरु
3. माया
4. अटकी।

सहजोबाई पद कवि परिचय – (1725)

कवि परिचय-साहित्य में कोई भी प्रवृत्ति किसी भी काल में किसी न किसी अंश में जीवित रहती है। जैसे रीति काल के घोर विकास-वैभवपूर्ण वातावरण में भी भूषण वीरस के पुनः प्रस्तोता कवि हुए उसी तरह सहजोबाई भी निर्गुण संतमत की अलग जगाती दीखती हैं।

“हरिप्रसाद की सुता नाम है सहजोबाई।
दूसर कुल में सदा गुरु चरन सहाई।”

की एक मात्र स्वीकारोक्ति के अनसार इनके पिता का नाम हरिप्रसाद भार्गव था। प्रसिद्ध संत कवि चरणदास की ये शिष्या बन आजीवन ब्रह्मचारिणी बन इन्हीं की सेवा में रहीं।

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इनके चिन्तन में कुछ चीजें ऐसी हैं जो अन्य संत कवियों से इन्हें अलग करती हैं। निर्गुण ज्ञानाश्रयी भक्तिधारा की होकर भी कृष्ण के प्रति जो इनका रागानुरक्ति है वह इन्हें मीरा की तरह प्रस्तुत करती है और गुरु के प्रति जो इनका उद्गार है वह इन्हें कबीर की कोटि में पहुंचा देता प्रस्तुत करती है और ना होकर भी कृष्ण के प्रति जात कवियों से इन्हें अलग सहजों के व्यक्तित्व और काव्य में अटूट गुरुभक्ति सहज ध्यानाकृष्ट करती है। वे ईश्वर से कहीं अधिक महत्त्व अपने गुरु को देती हुई कहती हैं-

राम तजूं पै गुरु न बिसारूं। गुरु के सम हर कूँ न निहारूँ।।
चरणदास पर तन मन वारूं। गुरु न तजूं हरिः तजि डारूँ।।

सहजोबाई ने अपना सम्पूर्ण जीवन गुरुचरण दास और उनसे प्राप्त ईश्वरी अनुराग को समर्पित कर दिया। जैसा कि आचार्य शुक्ल का कथन है- ब्रह्म के स्वरूप में भावुक भक्त ध्यान या भाव-मग्नता के समय अपनी सारी सत्ता को हृदय प्राण, बुद्धि, कल्पना, संकल्प इत्यादि सारी वुत्तियों को समाहित और घनीभूत करके बड़े वेग के साथ लीन कर देता है। भावुक भक्त की एकांत अनुभूति प्रत्यक्ष दर्शन के ही तुल्य होती है। सहजोबाई ने कृष्ण के स्वरूप को निर्गुण ज्ञानमार्गी का चोल उतार कर जिस सहज और प्रकृत रूप में प्रस्तुत किया है, उसे विस्मृत करना कठिन है

“मुकुट लटक अटकी मन माहीं।
नृत तन नटवर मदन मनोहर कुडल झलक अलक बिथुराई।”

सहजोबाई की रचनाओं में इनकी प्रगाढ़ गृरुभक्ति, संसार की ओर से पूर्ण विरक्ति तथा साधु, मानव-जीवन, प्रेम, निर्गुण सगुण भेद, नाम स्मरण जैसे परंपरित विषय ही हैं। विषय पुराने हैं उद्भावनाएं ये बहुत मार्मिक नहीं हैं कहीं-कहीं, भाव विह्वलता के निदर्शन अवश्य हो जाते हैं

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“बबा काया नगर बसावौ।
ज्ञान दृष्टि से सैं घट में देखौं, सूरति निरति लौ लौवौ।
पाँच मारि मन बस करि अपने तीनों ताप नसावौ।
सत संतोष गहौ दृढ़ सेती दुर्जन मारि भजावौ।
सील, छिमा धीरज धारौ, अनहद बंब बजावौ।
पाप बनिया रहन न दीजै, धरम बजार लगावौ।।
सुबस बास होवै तब नगरी, बैरी रहै न कोई।
चम्न दास गह अमल बतायो, सहजो संभान्न सोई।।

सहजोबाई ने अपनी रचनाओं में सांसारिकता से विराग, नामजप तथा निर्गुण-सगुण ब्रह्म अभेद भाव की अभिव्यंजना की है। सहजोबाई में जो भक्ति है वह ज्ञान आधारित है लेकिन उसका प्रकटीकरण अविचल संकल्प और समर्पण की स्पृहणीय शक्ति के रूप में हुआ है।

मीरा के बाद सहजोबाई ही हमारे सामने आती हैं जो नारी होकर भी अपने अस्तित्व और सतीत्व दोनों बिन्दुओं पर मुखर हैं। उस जमाने में कुँवारी और ब्रह्मचारिणी बनकर गुरु की सेवा में समर्पित हो जाना एक कठोर कार्य था!

इन्होंने दोहे, चौपाई और कुंडलियाँ छंद में अपनी रचनाएँ की हैं। इनकी एकमात्र उपलब्ध रचना “सहज प्रकाश” है।

पदों का भावार्थ।

सहजोबाई के प्रथम पद

रीतिकाल के घोर शृंगारिक वातावरण में निर्गुण ज्ञानमार्गी भक्ति की अलख जगानेवाली सहजोबाई, कृष्ण के स्वरूप पर इस तरह से मुग्ध हुई कि निर्गुण का पद-पाठ भूल कर कृष्ण सौन्दर्य का वर्णन कर बैठी। इनके अनुसार शिशु कृष्ण के माथे पर जो मुकुट है उसमें झालर हैं, फुदने के उनके हिलने-डुलने से गजब का सौन्दर्य वर्द्धन होता है। सहजो का मन चित्त उसी लटकन में अटक कर रह गया है। छोटे कृष्ण अपने छोटे पैरों के बल नाचने में व्यस्त हैं और इस क्रम में उनके कानों के कुण्डल श्यामल धुंघराले बालों को तितर-बितर करते हुए बार-बार झलक मारते हैं और श्रीकृष्ण के सौन्दर्य को और वर्धित करते हैं।

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उनकी नाक में मुक्ता जड़ित बुलाक है जो होठों के हिलने पर हिलता है। कृष्ण की भौंहे भी कमान सी हैं जिनके गतिशील होने से इनका स्वरूप और प्रभविष्णु हो उठता है। धरती पर तो थाह-थाह कर ठुमक-ठुमक कर चलते हैं किन्तु अपनी बांहें उठाकर पलक झपकते कोई-न-कोई बाल सुलभ चपलता कर बैठते हैं। इनकी चतुराई भी बड़ी मोहक है। जब इन्हें ताता-थैया की लय पर नाचने के लिए कहा जाता है तो इनके पैरों में बंधी पायल के नुपूर झंकृत हो उठते हैं। पहले ये दुलार, मनुहार पर रीझते हैं और फिर आनन्द में डूबकर हम सबको रिझाते हैं।

सहजोबाई अपने गुरु चरणदास की कृपा से यह लीला देखने में सफल हुई है। कृष्ण का यह स्वरूप हृदय को भवन बनाकर सदा सर्वदा के लिए बसाने योग्य है। वह कृष्ण से प्रार्थना करती है कि इसी विश्व मोहन स्वरूप में वे उसके हृदयरूपी भवन में सदा के लिए बस जाएँ।

प्रस्तुत घद में वात्सल्य रस का वर्णन हुआ है। अनुप्रास, वीप्सा, उपमा आदि अलंकारों का सुन्दर विनियोग प्राप्त होता है।

इस पद के वर्णन से सहजोबाई के भीतर सगुण-निर्गुण भक्ति का जो अन्तर्विरोध है उसका एक तरह से निरसन हुआ है। यह उनकी निर्गुण भक्ति की उच्छल आनन्दानुभूति का ही प्रकट रूप है।

सहजोबाई के द्वितीय पद

ज्ञानी, संत, निर्गुणपंथी सहजोबाई अपने गुरु (श्रीचरणदास) और परमब्रह्म राम के बीच प्राथमिकता के प्रश्न पर गुरु के साथ हैं। उनके मत से ब्रह्म राम की उपलब्धि हो जाने के बाद भी गुरु का महत्त्व अक्षुण्ण है। यदि कोई अब उनसे गुरु को छोड़ने, विस्मृत करने को कहेगा तो मै उपलब्ध राम (ब्रह्म) को ही तजना, त्यागना श्रेयष्कर समझूगी। गुरु यदि मेरे सामने हैं तो उनके रहते मैं राम को देखन भी नहीं चाहूँगी।

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यह सही है कि हरि की कृपा से मेरा संसार में जन्म हुआ है। लेकिन ईश्वर तो चौरासी। लाख योनियों में असंख्या जीवों को प्रतिदिन जन्म देते हैं और मृत्यु के द्वारा उसे अपने पास बुला लेते हैं। लेकिन यह कृपा गुरु की ही है जिससे आवागमन से, जेन्म-मरण के चक्र से मुझे (जीव को) मुक्ति मिल गयी है। ईश्वर ने न सिर्फ हमें पैदा किया बल्कि चलते समय पाँचा चोर भी मेरे साथ लगा दिये। ये हैं-काम, क्रोध, मोह, मद और मत्सर।

जो कुछ भी कमायी होती, पुण्यार्जन होता, ये चोर चुरा लेते थे। मै इनके रहते अनाथ थी। गुरु ने इन चोरों (दुर्गुणों) से मुक्त कराया। हरि ने पैदा होने के लिए एक परिवार रूपी कारा में भेज दिया। जहाँ माया-ममता की बहुस्तरीय बेड़ियों ने मुझे जकड़ लिया। गुरु ने इन बेड़ियों को काटकर मुझे मुक्त किया। यही नहीं, ईश्वर ने जन्म देकर रोग और भोग में, सुख और दुःख में उलझा दिया। सांसारिक आकर्षण भोग के लिए प्रवृत्त करते और भोगोपरान्त अनेक रोग झेलने पड़ते थे। योगी गुरु ने योग के द्वारा रोग और भोग दोनों से मुक्त कराया। ईश्वर ने अनेक तरह के कर्म के मकड़जाल में उलझा दिया।

मै वास्तव में क्या हूँ, इसका स्मरण ही भूल गया। गुरु ने मुझे आत्म रूप का दर्शन कराया। ईश्वर ने मेरे साथ धोखा किया। मेरा निजत्व उसने मुझसे ही छिपा लिया, जिसे गुरु ने अपने ज्ञान के दीपक की लौ में मुझे दिख दिया। ईश्वर ने मुझे फिर भरमाने की चेष्टा की कि बंधन में ही, पारिवारिक दायित्वों के निर्वहन में ही जीव की मुक्ति है। किन्तु मेरे गुरु ने ईश्वर के इस तिलस्म को भी मिटा डाला। अत: जिन गुरु चरणदास ने मेरा कायाकल्प किया उन पर मै स्वयं को तन-मन से न्योछावर करती हूँ। गुरु को किसी भी परिस्स्थिति में नहीं तज सकती भले ही हरि को तजना पड़ जाए तो उसे छोड़ने के लिए मै सर्वदा तैयार हूँ। मेरी गति राम में ही, गुरु में लीन होने में ही है।

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प्रस्तुत पद में सहजोबाई ने परमपिता जगत् नियामक के अवगुणों का वर्णन किया है। ऐसा दुः साहस आज तक शायद ही किसी कवि ने किया हो। ईश्वर ने जन्म देकर भटकने के लिए बाध्य कर दिया, अपने इंगित पर नाचने के लिए बाध्य कर दिया किन्तु गुरु ने ईश्वर के विधान को ही मेरे लिए उलट-पुलट कर रख दिया।

स्वाभाविक रूप से अनुप्रास अलंकार यत्र-तत्र उपलब्ध है। शांत रस का यह पद अपूर्व प्रभाव क्षमता से सम्पन्न है।

सहजोबाई के पद कठिन शब्दों का अर्थ

नृत-नृत्य। भवनकारी-हृदय की भवन बनाकर रहने वाले। नटवर-लीलाधारी कृष्ण। सदाई-सदा ही, सर्वदा, हमेशा। अलक-केश, लट। बिसाऊँ-भूलूँ। बिथुराई-बिखरा हुआ। माही-में। बुलाक-नाक का आभूषण जाल में डोरी-जाल में डालना। हलत-हिलना। बेरी-बेड़ी, जंजीर। मुक्ताहल-मोती। लखादौ-दिखाया। नूपूर-धुंघरू। आप छिपायौ-आत्मरूप। छिया-दिया। रीझ-मोहित। तजि डारूँ-छोड़ दूं। धनरि (धरणी)-धरती। मोरूँ-मुझसे। हिय-हृदय।

सहजोबाई के पद काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. मुकुट लटक अटकी …………..बिथुराई।
व्याख्या-
सहजोबाई ने प्रस्तुत पंक्तियों में सगुण रूप ईश्वर श्री कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन किया है। उनके अनुसार कृष्ण के माथे का शोभाशाली मुकुट और उसमें लगे लटकन मेरे मन में अटक गये हैं। अर्थात् मेरा मन कृष्ण के सौंदर्य पर रीझ गया है। उनका शरीर नृत्य कर रहा है। चंचल स्वभाव के कारण हर समय गतिशील लगता है जो अपनी लयात्मकता के कारण नृत्य करता हुआ प्रतीत होता है। ऐसे नटवर श्री कृष्ण का मर्दन अर्थात् कामदेव के समान मनोहर रूप मन को मुग्ध कर लेता है। उनके कानों में पड़ा कुंडल डोलने पर कौधता है और छितरायी, हुई केश-राशि की शोभा मन को मुग्ध कर देती है।

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2. नाक बुलाक हलत ………… करत चतुराई।।
व्याख्या-
सहजोबाई ने प्रस्तुत पंक्तियों में नटवर श्री कृष्ण की आंगिक शोभा का वर्णन किया है। इसमें नाक में धारण किये गये बुलाक का वर्णन है जिसमें मुक्ताहल अर्थात् मोती जड़े हुए हैं। उनके मनोरम ओठ विशिष्ट सुन्दर ढंग से मटकते हैं और भौंहो की भौगमा सौन्दर्य की छवि बिखेरती है। वे ठुमुक-ठुमक कर धरती पर पैर रखते है अर्थात् चलते हैं और हाथों को उठा-उठाकर विभिन्न मुद्राओं के द्वारा भाव-चातुर्य व्यक्त करते हैं। अर्थात् उनके हस्त-परिचालन के माध्यम से विविध भावों की भी अभिव्यक्ति होती है वह कोरा हस्तपरिचालन नहीं होता है। यहाँ कवयित्री ने कृष्ण के आभूषण तथा उनके औठ, भौंह, पग, हाथ आदि की गति मुद्रा का सजीव चित्र खींचा है।

3. झुनुक झुनुक नूपूर झनकारत ……………. रहौ सदाई।
व्याख्या-
श्री कृष्ण चलते हैं तो पैरों के नूपुर बजते हैं। इससे उनके बाल-मन को आनन्द आता है, अतः वे जान-बूझकर नूपूर को झनकारते चलते हैं। इससे वातावरण में लयबद्ध झनकार उत्पन्न होती है। यह सुनने वालों का मन मोह लेता है। इतना ही नहीं कृष्ण ताता थेई की मुद्रा में नाचते भी हैं और उनका नृत्य मन को मोह लेता है। इतना ही नहीं कृष्ण ताता थेई की मुद्रा में नाचते भी है और उनका नृत्य मन को मोह लेता है। सहजोबाई कहती हैं कि मै तुम्हारे चरणों की दासी हूँ, तुम मेरे हृदय में निवास करो और सदा मुझ पर कृपा रखो। इन पंक्तियों में ‘चरणदास’ शब्द का दो अर्थो में प्रयोग हुआ है। प्रथम चरणों का दास और द्वितीय सहजोबाई के गुरु चरणदास। अतः यहाँ श्लेष अलंकार है।

4. राम तनँ पै गुरु न बिसारूँ ……………… आवागमन छुटाहीं।
व्याख्या-
सहजोबाई ने प्रस्तुत पंक्तियों में अपनी यह प्रतिज्ञा व्यक्त की है कि वह राम को छोड़ सकती हैं मगर गुरु को नहीं। इसका कारण बतलाती हुई कहती है कि हरि ने जन्म देकर संसार में भेज दिया। मै यहाँ जीवन-धारण करने की सारी व्यथा, सारा प्रपंच और सारा विकार झेल रही हूँ। मगर गुरु ने ज्ञान देकर इस आवागमन अर्थात् जन्म लेने और मरने के क्रम से छुटकारा दिला दिया है। इसीलिए मैं गुरु के समान हरि को नहीं मानती हूँ। अर्थात् गुरु हरि से श्रेष्ठ हैं। हाँ ‘राम’ शब्द का प्रयोग ईश्वर के लिए हुआ है दशरथसुत के अर्थ में नहीं।

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5. हरि ने पाँच चोर दिये साथा …………….. काटी ममता बेरी।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में सहजोबाई कहती है कि हरि ने हमारे साथ कोई उपकारा नहीं किया है। उलटे कई समस्याएँ साथ लगा दी हैं। इन पंक्तियों के अनुसार गुरु ने पाँच चोरो से मुक्ति दिलाने का कार्य किया है। अर्थात् उनके उपेदश में इन्द्रियों के प्रति आसक्ति घटाने में सहायता मिली है। इसी तरह हरि ने ‘सूत-वि:-नारी भवन परिवारा’ के कुटुम्ब-जाल में फंसा दिया है, उलझा दिया है ताकि ईश्वर की ओर उन्मुख होने का अवसर ही न मिले। यहाँ गुरु ने ममता की डोर काटकर इस कुटुम्ब जाल से मुक्त होने में मदद की है। अत: ईश्वर सांसारिकता और आसवित में फैलाकर अपने से दूर करता है जबकि गुरु मोहपाश काटकर ईश्वर के समीप पहुँचाता है। अतः गुरु ईश्वर से श्रेष्ठ है।

6. ‘हरि ने रोग भोग उरझायौ ……………. आंतम रूप लखायौ।’
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में सहजोबाई हरि और गुरु का अन्तर स्पष्ट करती हुई कहती है कि हरि ने जीवन तो दिया लेकिन रोग और भोग में उलझा दिया। इससे जीवन कठिन और जटिल हो गया। इसके विपरीत गुरु ने योग की शिक्षा देकर मुक्ति दिलाई। योग के विषय में कहा गया है कि कर्म-कौशल और चित्तवृत्ति के निरोध के उपाय नाम योग है। इन दोनों अर्थात् कौशल और चित्त निरोध से जीवन संयमशील बनता है और तब स्वभावतः रोगमुक्त हो जाता है। इसी तरह हरि ने कर्म मार्ग पर डालकर कर्मफल की अनिवार्यता बतलाई जिससे कर्म का दुनिया में भटक गया। गुरु ने आत्मरूप का ज्ञान देकर बताया है कि अपने भीतर देखने पर आत्मज्ञान पाने से ही कर्म फल और कर्म-बन्धन से मुक्ति मिलती है। इस गुरु योग और आत्मज्ञान देता है जबकि ईश्वर कर्म भोग और रोग। अत: गुरु ही श्रेष्ठ हैं।

7. हरि ने मोसं आप छिपायौ …………….. हरि . तजि डारूँ।
व्याख्या-
चौपाई छन्द में रचित प्रस्तुत पंक्तियों में सहजोबाई कहती हैं कि पंच ज्ञानेन्द्रिया, भोग, रोग, कर्म परिवार, धन आदि सांसारिक आकर्षण के अनेक प्रपंचो के द्वारा ईश्वर ने एक परदा जैसा हमारे और अपने बीच डाल दिया और अपने को छिपया, ताकि हम उसे प्राप्त नहीं कर सकें। सहजो की दृष्टि में उपयुक्त तत्त्व अंधकार के परदे की तरह थे जिसके कारण हम ईश्वर को देखने में असमर्थ रहे। तब गुरु ने ज्ञान का दीपक जलाकर इस अन्धकार को दुर कर दिया और ईश्वर के दर्शन करा दिया फिर हरि से जोड़कर हमारे लिए मुक्ति रूपी गति ले आये।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 4 सहजोबाई के पद

इस प्रकार गुरु ने ईश्वर द्वारा फैलाए सारे प्रपचों को मिटा दिया जिससे हमारा अज्ञानजनित भ्रम दूर हो गया। मै अपने गुरु. चरणदास पर तन-मन न्योछावर करती हूँ। मै ऐसा ज्ञान देने वाले गुरु को नहीं तनँगी, अकर ईश्वर और गुरु में से किसी एक को छोड़ना होगा तो ईश्वर को ही छोडूंगी। सहजोबाई के इस कथन का अभिप्राय यह है कि गुरु की कृपा से ईश्वर मिल जाता है लेकिन ईश्वर की कृपा से गुरु नहीं। यदि ईश्वर को छोड़ भी दूंगी तो उनकी कृपा से पुनः प्राप्त कर लूँगी, कवयित्री ने चरण की दासी और गुरु चरणदास-इन दो अर्थो में ‘चरणदास’ शब्द का प्रयोग किया है अतः इसमें श्लेष अलंकार है।

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 3 मीराबाई के पद

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 3 मीराबाई के पद

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 3 मीराबाई के पद

मीराबाई के पद पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
मीरा अपने सच्चे प्रीतम के साथ किस तरह रहने को तैयार हैं?
उत्तर-
मीरा अपने सच्चे प्रीतम के साथ हर परिस्थिति में रहने के लिए तैयार हैं। उसके प्रीतम कृष्ण उसे जो पहनने के लिए देंगे वही पहनने के लिए तैयार है। जो खाने के लिए उसके प्रीतम के द्वारा दिया जाएगा उसी से मीरा अपनी क्षुधा की तृप्ति करेगी, जो स्थान रहने के लिए कृष्ण देंगे वह वहीं निवास करेगी और यदि वे बेच भी दें तब भी वह कृष्ण प्रदत्त नयी स्थिति में रह लेगी।

प्रश्न 2.
“मेरी उण की प्रीत पुराणी, उण बिन पल न रहाऊँ।”-का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पद सगुण भक्ति धारा की कृष्णोपासक कवयित्री मीराबाई द्वारा रचित है। कृष्ण के प्रति मीरा का एकनिष्ठ अटूट सर्मपण उत्तरोत्तर अतीव वेग से उमड़ते भावों से परिपूर्ण है। मधुर भाव की उत्कट प्रेमानुभूति से वशीभूत मीरा श्रीकृष्ण मीरा श्रीकृष्ण के प्रति सर्वात्म समर्पण करती है। वह श्रीकृष्ण पर लुट चुकी, मिट चुकी है। श्रीकृष्ण के रंग में रंग में रंगी मीरा उनसे पुरानी प्रीति को स्वीकार करते हुए एक पल भी अकेले नहीं रहना चाहती है। मीरा का अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रति सर्वात्म समर्पित प्रेम व्यजित है। मीरा के प्रेम में उमड़ते हुए ऐसे प्रेम-वेग सहज ही दृष्टिगोचर होता है।

प्रश्न 3.
कृष्ण के प्रति तोड़ने पर भी मीरा प्रीत तोड़ने को तैयार नहीं है। क्यों?
उत्तर-
मीराबाई रूढ़ियों से ग्रसित मध्यकालीन समाज की सामाजिक बंधनों को तोड़कर नटवर नागर (श्रीकृष्ण) की प्रेम दीवानी बनकर उन्हें सच्चा प्रियतम के रूप में अपनाया है। वह तो श्रीकृष्ण के जादुई पाश में इस तरह बँधी है कि उसका अपना अस्तित्व ही उनमें विलीन हो गया है। विधवा मीरा तत्कालीन सामाजिक नियमों के अनुसार सती न होकर श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति की उन्मत घोषणा करती है। उन्होंने श्रीकृष्ण को ही अपना वास्तविक पति और प्रियतम स्वीकार करती है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 3 मीराबाई के पद

पति को वह कैसे छोड़ सकती है जिसके प्रेम में वह अस्तित्वविहीन हो गई है। कृष्ण के द्वारा प्रीत तोड़ देने पर भी वह उनसे प्रीत जोड़ने को मजबूर है। वह श्रीकृष्ण के संग तरुवर और पक्षी, सरवर और मछली, गिरिवर और चारा, चंदा और चकोरा, मोती और धागा तथा सोना और सुहागा के समान रहना चाहती है। वस्तुतः मीरा का किसी भी परिस्थिति में प्रीत नहीं तोड़ने की जादुई पाश में बंध चुकी है।

प्रश्न 4.
मीरा ने कृष्ण के लिए कौन-कौन-सी उपमाएँ दी हैं? वे कृष्ण की तुलना में स्वयं को किस रूप में प्रस्तुत करती हैं?
उत्तर-
मीरा ने कृष्ण के लिए निम्नलिखित उपमानों का प्रयोग किया है-तरुवर (पेड़), सरवर (सरोवर), गिरिवर (हिमालय पर्वत), चन्दा (चन्द्रमा), मोती और सोना।

मीरा ने कृष्ण की तुलना में स्वयं को क्रमशः पंखिया (पारवी, पक्षी), मछिया (मछली), चारा (घास), चकोरा (चकोर, चक्रवाक पक्षी), धागा और सोहागा के रूप में प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 5.
“तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी” में ठाकुर का क्या अर्थ है?
उत्तर-
उपर्युक्त पक्ति में आगत ठाकुर शब्द का अर्थ स्वामी, मालिक, सर्वस्व, सर्वेश, भर्तार आदि है।

प्रश्न 6.
पठित पद के आधार पर मीरा की भक्ति-भावना का परिचय अपने शब्दों में
उत्तर-
कृष्ण भक्त कवियों में मीराबाई का नाम स्वर्णाक्षरों में भक्ति-शिखर पर अकित है। मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की कृष्ण भक्ति है। इस भक्ति में विनय भावना, समर्पण भावना, वैष्णवी प्रीत, अवधा भक्ति के सभी रंग शामिल हैं। कृष्ण प्रेम में अस्तित्व-विहीन मीरा तरुवर पर पक्षी, सरोवर में मछली, गिरिवर पर चारा, चंदा के साथ चकोर, मोती के साथ धागा और सोना के लिए सोहागा के रूप में रहना चाहती है। तमाम तरह की लोक-मर्यादा को छोड़कर श्रीकृष्ण को पति मानकर कहती है-“तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी दासी”

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मीरा ने आँसुओं के जल से जो प्रेम-बेल बोई थी, अब वह फैल गई है और उसमें आनन्द-फल लग गए हैं। वह सौन्दर्य और प्रेम के जादुई पाश में पूर्णतः बंध चुकी है। वह हर . पल अब श्रीकृष्ण को येन-केन प्रकारेण रिझाना चाहती है। वह कहती है

रेणु दिन वा के संग खेलूँ
ज्यूँ-त्यूँ ताही रिझाऊँ।

मीरा के पदों की कड़ियाँ समर्पण भाव से ओत-प्रोत है। इस समर्पण में प्रेमोन्माद के रूप में वह प्रकट होती है। उनका उन्माद और तल्लीनता, आत्मसमर्पण की स्थिति में पहुँच गया है

‘मीरा के प्रभु गिरधर नागर
बार-बार बलि जाऊँ।’.

मीरा की भक्ति में उद्दामता है, पर अंधता नहीं। उनकी भक्ति के पद आंतरिक गूढ़ भावों के स्पष्ट चित्र हैं। मीरा के पदों में श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दोनों पक्ष पाए जाते हैं, पर उनमें विप्रलंभ शृंगार की प्रधानता है। उन्होंने ‘शांत रस’ के पद भी रचे हैं।

मीरा की भक्ति के सरस-सागर की कोई थाह नहीं है, जहाँ जब चाहो, गोते लगाओ। इसमें रहस्य साधना भी समाई हुई है। संतों के सहज योग को मीरा ने अपनी भक्ति का सहयोगी बना लिया था।

प्रश्न 7.
“गिरिधर म्हारो साँचो प्रीतम” यहाँ साँचो विशेषण का प्रयोग मीरा ने क्यों किया है?
उत्तर-
कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई उनकी उपासना प्रियतम (पति) के रूप में करती है। यह रूप अत्यन्त मनोहारी है। उन्होंने श्रीकृष्ण को ही अपना वास्तविक पति और सच्चा प्रियतम बताया-‘गिरिधर म्हारो साँचो प्रीतम’। युवावस्था में विधवा मीरा ने वैधव्यता को, जो उनकी नजर में सांसारिक और झूठा था, को धता बताकर स्वयं को अजर-अमर स्वामी श्रीकृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। अर्थात् ‘साँचो’ विशेषण मीरा की कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ अटूट समर्पण की पराकाष्ठा है।

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प्रश्न 8.
मीरा की भक्ति लौकिक प्रेम का ही विकसित रूप प्रतीत होती है। कैसे? यह दोनों पदों के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रेम के दो स्वरूप हैं-
(i) जगतिक या सांसारिक प्रेम और (2) ईश्वरीय या आध्यात्मिक प्रेम। किसी शायर ने कहा है-“हकीकी इश्क से पहले मिजाजी इश्क होता है।” अर्थात् ईश्वर से प्रेम करने या होने के पूर्व सांसारिक प्रेम होता है। जो अपने रक्त सम्बन्धियों से, अपने परिवेश से प्रेम नहीं कर पाएगा वह ईश्वर से क्या खाक प्रेम करेगा।

मीरा कृष्ण को ‘पिया’ संबोधन देती है। पिया अर्थात् पति। भारतीय समाज में पति-पत्नी ‘के सम्बन्ध को अत्यन्त आदरणीय, सम्मानित स्थान प्राप्त है। विशेषकर हिन्दू समाज में जहाँ हर विषम परिस्थिति में यह दाम्पत्य बंधन अटूट बना रहता है। पति-पत्नी एक-दूसरे के व्यक्तित्व के परिपूरक होते हैं। एक-दूसरे पर आश्रित होते हैं। मीरा का कृष्ण के प्रति प्रेम निवेदन एक पत्नी के प्रणय निवेदन की तरह ही है। अन्तर सिर्फ इतना भर है कि कृष्ण यहाँ अलौकिक, परमपुरुष ब्रह्म स्वरूप हैं। जैसे एक पतिव्रता हर परिस्थिति में, सुख-दुख में पति के प्रति एकनिष्ठ बनी रहती हैं संतुष्ट होती हैं। मीरा भी कृष्ण के प्रति ऐसी ही भावना व्यक्त करती हैं। अत: यह – कहना ठीक ही है कि मीरा की भक्ति लौकिक प्रेम का विकसित रूप है।

मीराबाई के पद भाषा की बात।

प्रश्न 1.
मैं, म्हारो, उण आदि सर्वनाम हैं। दिये गये पदों से सर्वनामों को चुनकर लिखें।
उत्तर-
मीराबाई राजस्थान की थी। उनकी रचनाओं में राजस्थानी बोली के शब्द आये हैं। सर्वनाम भी राजस्थानी बोली के ही प्रयोग में लाये गये हैं।

  • म्हारो – मेरा
  • उण – वह, उसका, उसके
  • तोसों – तुमसे तितही – वहीं
  • वा – उसके
  • ताही – उसको
  • सोई – वहीं।

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प्रश्न 2.
प्रथम पद में मीरा ने कृष्ण और अपने लिए कुछ उपमान या अप्रस्तुत दिये हैं। उन्हें अलग-अलग लिखें।
उत्तर-
कृष्ण के लिए प्रयुक्त उपमान मीरा के लिए प्रयुक्त उपमान

  • तरुवर – पंखिया
  • सरवर – मछिया
  • गिरिवर – चारा
  • चंदा – चकोरा
  • सोना – सोहागा
  • ठाकर – दासी

प्रश्न 3.
मीरा के इन पदों में भक्ति रस है। भक्ति रस का स्थायी भाव ईश्वर विषयक रति है। अन्य रसों की सूची उनके स्थायी भावों के साथ बनाएँ।
उत्तर-
रसो वै सः अर्थात् रस ब्रह्म ही है। रसो की संख्या भिन्न आचार्यों ने आत नौ और ग्यारह निर्धारित की है। स्थायी भावों से साथ इन रसों की सूची निम्नवत है–

प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची शब्द लिखें रात, दिन, प्रभु, तरु, तालाब, चन्द्रमा, सोना।
उत्तर-

  • रात – निशा, रजनी, रात्रि।
  • दिन – दिवा, दिवस।
  • प्रभु – स्वामी, ठाकुर
  • तरु – वृक्ष, पेड़, तड़ाग
  • तालाब – सर, सरोवर, तडाग।
  • चन्द्रमा – चन्द्र निशापति, रजनीपति, निशाकर, चाँद।
  • सोन – कनक, स्वर्ण, सुवर्ण, हेम, हिरण्य।।

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प्रश्न 5.
मीरा की भाषा ब्रज मिश्रित राजस्थानी है। ये दोनों हिन्दी क्षेत्र की उपभाषाएँ हैं। बिहार प्रदेश में कितनी उपभाषाएँ बोली जाती हैं? उनकी सूची क्षेत्रवार बनाएँ।
उत्तर-
बिहार प्रांत में निम्नलिखित उपभाषाएँ बोली जाती हैं जिनके नाम के आगे उनका क्षेत्र उल्लिखित हैं

  • भोजपुरी-छपरा, सीवान, गोपालगंज, पश्चिमी चम्पारण, आरा, भोजपुर, रोहतास, कैमूर।
  • मैथिली-पूर्वी चम्पारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, मधुबनी, पूर्णिया, अररिया, कटिहार, सहरसा, मधेपुरा सुपौल।
  • मगही-पटना, गया, चतरा, औरंगाबाद।
  • अंगिका-भागलपुर, पूर्णिया का कुछ भाग नौगछिया।
  • वञ्जिका-वैशाली और पूर्वी चम्पारण का कुछ भाग।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

मीराबाई के पद लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मीरा के कृष्ण के प्रति समर्पण भाव का विवेचन करें।
उत्तर-
मारा कृष्ण के प्रति अनन्य भाव से समर्पित है। वह दिन-रात कृष्ण के चरणों में पड़ी रहकर उनकी रूप माधुरी निहारना चाहती है। यह हर तरह से कृष्ण को रिझाना चाहती है। वह ऐसी समर्पिता है कि कृष्ण जो पहचानें, जो खिलावें अर्थात् जैसे रखना चाहें उन्हीं की दासी बनकर रहना चाहती है। यह समर्पण-भाव अपने उत्कर्ष पर वहाँ पहुँच जाता है जहाँ वह कृष्ण द्वारा बेचे जाने पर बिक जाने के लिए तैयार हो जाती है। सारांशत: वह एक पूर्ण समर्पिता और दासी भाव की प्रेमिका है।

प्रश्न 2.
मीरा की दृष्टि में कृष्ण का क्या स्थान है?
उत्तर-
मीरा ने कृष्ण के लिए कुछ विशेष शब्दों का प्रयोग अपने प्रसंग में किये हैं। इन शब्दों से कृष्ण के विषय में मीरा की दृष्टि ज्ञात होती है। प्रथमतः मीरा की दृष्टि से गिरिधर रूप है वह जिसमें उन्होंने पर्वत धारण कर जन-समूह की घोर वृष्टि से रक्षा की। अतः मीरा की दृष्टि में कृष्ण सबके रक्षक हैं। तृतीय, मीरा के कृष्ण नागर हैं। सागर वह व्यक्ति होता है .. जो सभ्य, शिष्ट, संस्कारवान और मृदु वचन एवं आचरण का धनी होता है। अंतः मीरा के कृष्ण श्रेष्ठ पुरुष हैं।

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प्रश्न 3.
कृष्ण के प्रति मीरा किस भाव से समर्पिता है?
उत्तर-
मीरा ने कृष्ण को अपना प्रेमी और पति माना है। स्वभावत: उसने अपने को प्रेमिका के रूप में रखा है। लेकिन उसके प्रेमिका रूप में पत्नी जैसा समर्पण और दासी जैसा सेवा-भाव मिला हुआ है। एक वाक्य में वह पूर्णतः समर्पिता और सेविका प्रेमिका है जो कृष्ण को खुले शब्दों में पति मानती है।

मीराबाई के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मीरा कृष्ण से प्रीति क्यों तोड़ना नहीं चाहती है?
उत्तर-
मीरा की दृष्टि में कृष्ण के समान सर्व रूप-गुण सम्पन्न कोई दूसरा पुरुष है ही नहीं लिससे वह प्रीति कर सके। इसलिए कृष्ण उसके लिए विकल्पहीन पुरुष हैं।

प्रश्न 2.
मीरा ने किन उपमानों के सहारे अपने और कृष्ण के सम्बन्ध को व्यक्त किया है?
उत्तर-
मीरा ने सरोवर और मछली, पेड़ और पक्षी, पर्वत और घास, चन्द्रमा और चकोर, मोती और धागा तथा सोना और सुहागा जैसे उपमानों द्वारा अपने और कृष्ण के सम्बन्ध को व्यक्त किया है?

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प्रश्न 3.
मीरा के कृष्ण कैसे व्यक्ति हैं?
उत्तर-
मीरा के कृष्ण नागर हैं, रक्षक हैं और सच्चे प्रियतम हैं। यही कारण है कि मारा की भक्ति कृष्ण में लीन है।

प्रश्न 4.
मीराबाई किस प्रकार की कवयित्री हैं?
उत्तर-
मीराबाई कृष्णभक्ति वाली कवयित्री है।

प्रश्न 5.
मीराबाई के प्रथम पद में किसकी व्यंजना हुई है?
उत्तर-
मीराबाई के प्रथम पद में एकांतिक प्रेम और समपर्ण भाव दोनों की व्यंजना हुई है।

प्रश्न 6.
श्रीकृष्ण के प्रति मीरा की समर्पण-भावना उनके किस पद में दिखाई देती है?
उत्तर-
श्रीकृष्ण के प्रति मीराबाई की समर्पण-भावना द्वितीय पद में दिखाई देती है।

मीराबाई के पद वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें।

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प्रश्न 1.
मीरावाई किस काल के कवयित्री हैं?
(क) रीतिकाल
(ख) भक्तिकाल
(ग) वीरगाथाकाल
(घ) आधुनिक काल
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 2.
मीरवाई के उपास्य थे
(क) कृष्ण
(ख) राम
(ग) शिव
(घ) ब्रह्मा
उत्तर-
(क)

प्रश्न 3.
मीरा के पद का संकलन किस ग्रंथ में है?
(क) प्रेमाश्रु
(ख) प्रेमवाणी
(ग) प्रेम सुधा
(घ) इनमें कोई नहीं
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 4.
मीरा के प्रथम पद मे किसका वर्णन है?
(क) एकान्तिक प्रेम का
(ख) आत्म समर्पण का
(ग) अनन्य भक्ति का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

प्रश्न 5.
दूसरे पद में मीरा के किस रूप की व्यंजन हुई है?
(क) एकान्तिक प्रेम की
(ख) कृष्ण के प्रति समर्पण की
(ग) एकांगिक प्रेम की
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख)

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न 1.
मीरा…………..भक्तिधारा की प्रतिनिधि कवयित्री के रूप में जानी जाती है।
उत्तर-
सगुण

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प्रश्न 2.
मीरा की तुलना भारतीय साहित्य में तमिल की वैष्णव भक्त कवयित्री………………से की जाती
उत्तर-
गोदा (अंडाल)

प्रश्न 3.
पहले पद में मीरा का प्रियतम श्रीकृष्ण के प्रति वेपरवाह…………व्यंजित हैं।
उत्तर-
ऐकान्तिक प्रेम

प्रश्न 4.
तुम भये…………मैं तेरी मछिया।
उत्तर-
सरवर

प्रश्न 5.
तुम मेरे ठाकुर मैं तेरी…………..।
उत्तर-
दासी।

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मीराबाई पद कवि परिचय (1504-1563)

हिन्दी साहित्य की भक्ति रस शाखा में सबसे महत्त्वपूर्ण के रूप में प्रेम दीवानी “दरद दिवाणी” मीराबाई का नाम आदर के साथ लिया जाता है। इनके जीवन-वृत्त में अनेक किम्वदतियाँ समाहित हैं, जिससे इनकी जीवनी अलौकिक घटनाओं से युक्त हो जाती है। कुछ घटनाएँ सत्य भी है जिनका वर्णन मीरा की कई रचनाओं में हुआ है। अनेक रचनाओं का उल्लेख होते हुए भी मीराबाई की पदावली ही सबसे प्रमाणिक मानी गयी है। तत्कालीन वातावरण की दृष्टि से संतों की ये शिष्या दिखती हैं किन्तु धार्मिक दृष्टि से सगुण भक्ति के समीप पड़ती है।

यही कारण है कि मीरा के भाव संतों के भाव जैसे ही अनुभूतिमय है और उनकी शैली में अधिक कोमल, तरल और प्रांजलं है। मीरा का आलंबन अलौकिक है और भक्तिभाव की दृष्टि से मीरा का प्रेम व्यापार रहस्यवाद के अन्तर्गत आता है। मीरा के आराध्य सगुण कृष्ण हैं जबकि रहस्यवाद निर्गुण ब्रह्म और जीव के मधुर रागात्मक सम्बन्ध पर आधारित है। यही कारण है कि मीरा न तो पूर्णतः संतों की श्रेणी में आती है और न भक्तों की श्रेणी में। मीरा की भक्ति माधुर्य भाव की है। सगुण ईश्वर के साथ भक्त कवि अपना भावपूर्ण व्यापार चलाते हैं। मीरा अपने आराध्य देव को प्रेमी ही नहीं पति भी मानती हैं–

“मेरो तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।”
“मैं तो गिरिधर के घर जाऊँ
गिरिधर म्हारों सांचों प्रीतम देखत रूप लुभाऊँ।”

कृष्ण के बिना मीरा का जीवन कठिन हो गया है-

“पिया बिन रहयो न जाई।”
“पिया बिन मेरी सेज अलूनी, जागत रैन बहावे।”

फागुन आया हुआ है और कृष्ण पास नहीं हैं-
“होरी पिया बिन खारी”

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मीरा के समक्ष को लेकर कोई औपचारिक बंधन नहीं है। उनका स्पष्ट कथन है-
“मेरी उनकी प्रीत पुराणी उण बिन पल न रहाऊँ
पूरब जनम की प्रीत पुराणी, सो कस छोड़ी जाय।”

मीरा के काव्य में रूपासक्तिजन्य माधुर्य भाव का वर्णन हुआ है जो कृष्ण के सौन्दर्याकर्षण पर आधारित है-
“मोहन के मैं रूप लुभाणी
सुन्दर वदन कमल दल लोचन
बाँकी चितवन मद मुस्कानी”
आली रे मेरे नैना वान पड़ी

चित चढ़ी मोरे माधुरी मूरत, उरबीच आन पड़ी।”

मीरा तो कृष्ण के हाथों पहले ही दर्शन में बिक गयी और उनके साथ हो गयी-

“मैं ठाढ़ी गृह आपणो री, मोहन निकसे आई
वदन चन्द्र प्रकाशत हिली मंद-मंद मुस्काई
लोग कुटुम्बी गरजे ही बरजे ही, बतिया कहत बनायी
चंचन निपट अकट नहीं मानत, परहित गये बिकाई।”

मीरा की माधुर्य भक्ति में प्रगाढ़ता के साथ अनुभूति की गंभीरता भी है-
“रमईया बिन नींद न आवे
नींद न आवै विरह सतावै प्रेम की आँच डुवाब
होरी पिया बिन लागै खारी
सूनो गाँव देस सब सूना सूनी सेज अटारी।”

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कला पक्ष की दृष्टि से भी मीराबाई का काव्य अत्यन्त समृद्ध है। इनके काव्य में संयोग और वियोग श्रृंगार के साथ शांत रस का सुन्दर परिपाक हुआ है। संयोग शृंगार का वर्णन देखें
“आवत मोरी गलियन में गिरधारी
मैं तो छुनि गई लाज की मारी।”

वियोग शृंगार का एक उदाहरण
‘हे री ! मैं तो दरद दीवाणी म्हारा दरद न जाणै कोई
प्रीतम बिन तम जाइ न सजनी दीपक भवन न भावै हो
फूलन सेल सूल हुई लागी जागत रैनि बिहावै हों।”

शांत रस का वर्णन देखें-
“स्याम बिन दुःख पावा सजनी
कुण महाँ धीर वंधावा
राम नाम बिनु मुकति न पावा फिर चौरासी जावां
साध संगत मा भूलणां जावा मूरख जनम गमावां
मीरा के प्रभु थारी सरणे जोत धरत पद पावां।”

मीरा ने काव्य में प्रकृति चित्रण अपने प्रकृत रूप में उपस्थित है-
“मतवारे बादल आये रे, हरि को सनेसो कबहु न लाये
गाजै पवन मधुरिमा मेहा अति झड़ लाये रे
कारो नाग विरह अति जारी मीरा मन हरि भायो रे।”

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मीरा की भाषा में गुजरती, राजस्थानी और ब्रजभाष में तीनों की त्रिधारा दीखती है। वस्तुतः इन तीनों भाषा-क्षेत्रों से इनका सम्बन्ध रहा है।

मीरा की शैली पद है जिसके साथ ‘सरसी’, विष्णुपद, दोहा, सवैया, शोभन, तांटक और .. कुण्डल छन्दों का भी प्रयोग किया है।

मीरा के काव्य में सादृश्यमूलक अलंकार जैसे उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अत्युक्ति, उदाहरण, . विभावना, समासोक्ति अर्थान्तर न्यास, श्लेष, वीप्सा और अनुप्रास की प्रधानता है। कहा जा सकता है कि मीरा के काव्य का भाव और कला दोनों पक्ष समृद्ध हैं। किन्तु सबके बावजूद मीरा में कवि कर्म प्रधान नहीं है। कृष्ण के लिए उनकी दिवानगी ही प्रधान और प्रसिद्ध है।

मीराबाई के पद कविता का भावार्थ

मीराबाई के प्रथम पद
प्रस्तुत पद में कृष्ण को समर्पित भक्त कवयित्री मीराबाई कृष्ण को ही सम्बोधित करते हुए कहती है हमारे बीच एक रागात्मक सम्बन्ध बना है। यदि इस सम्बन्ध को तुम अपनी तरफ से तोड़ भी देते तो तब भी मेरा एकनिष्ठ प्रेम जारी रहेगा। मैं यह सम्बन्ध कभी नहीं तोडूंगी। इसका एक कारण है कि तुम्हारे जैसा गुण सम्पन्न इस संसार में और कोई नहीं जिससे तुमसे बिछुड़ने के बाद सम्बन्ध बना सकूँ, जोड़ सकूँ।

वैसे हमारा सम्बन्ध अस्तित्व-सा अन्योन्याश्रित हैं। प्रभु मेरे यदि तुम तरुवर हो तो मैं उस पर निवास करने वाली पक्षी हूँ, चिड़िया हूँ। तुम्ही इस “पाखी” के सहायक हो। यदि तुम सरोवर हो तो उसमें जीवन धारण करने वाली मैं मछली हूँ। जल ही जिसका जीवन है। यदि तुम पर्वत राज हो तो मैं उसकी गोद में वाली हरियाली हूँ। यदि तुम चन्द्रमा हो तो मैं तुमको एक टक निहारने वाला चकोर हूँ। यदि तुम मोती हो तो मैं क्षुद्र धागा हूँ जिसमें गूंथ कर माला तैयार होती है। यदि तुम स्वर्ण, कंचन हो तो मैं सोहागा (एक रासायनिक पदार्थ) हूँ। यदि तुम ब्रज के स्वामी ठाकुर हो तो मैं तेरी सेविका हूँ, चरणों की दासी हूँ।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 3 मीराबाई के पद

मीरा रचित इस पद में केवल यही नहीं कथित है कि जीव हर रूप और स्थिति में ईश्वर पर निर्भर है बल्कि यह भी व्यजित तथ्य है कि जीव से ही ईश्वर को सार्थक्य प्राप्त होता है। जिस पेड़ पर पक्षी निवास नहीं करते वह मनहूस माना जाता है। वह सरोवर ही क्या जहाँ जीवन का अस्तित्व ही नहीं हो। मोती कीमती और चमकदार होकर भी किसी की ग्रीवा तक पहुंचने के लिए तुच्छ धागे पर ही निर्भर है। सोने को अपनी स्वाभाविक आभा पाने के लिए सोहागा की संगती चाहिए ही। वह स्वामी क्या जिसके सेवक अनुचर नहीं हो।

मीरा प्रकारान्तर से यह तथ्य कृष्ण को समझा देना चाहती है कि तुम चाहकर भी सम्बन्ध-विच्छेद कर सकते। जीव और ब्रह्म का सम्बन्ध, भक्त और भगवान का सम्बन्ध शाश्वत होता है, काल निरपेक्ष होता है।

प्रस्तुत पद में मीरा ने कृष्ण के लिए पिया, प्रभु, ठाकुर जैसी सम्बोधन संज्ञाओं का और अपने लिए ठाकुर की दासी का प्रयोग कर रागात्मक सम्बन्ध को एक महनीयता प्रदान की है। . रूपक, उदाहरण जैसे अलंकार से सज्जित यह पद, अद्वितीय मारक क्षमता से भी युक्त है।

मीराबाई के द्वतीय पद

कृष्ण की कर्षण शक्ति से प्रभावित मध्यकालीन भक्तिधारा की मधुराभक्ति की साधिका राधिका के समतुल्य दीवानी मीरा रचित इस पद में उनका हृदयोद्गार व्यक्त है। मीरा श्रीकृष्ण के सौन्दर्य और प्रेम के जादुई पाश में इस तरह बंधी हुई है कि उनके निजत्व का निरसन हो चुका है। उनका कहना है कि मेरा गन्तव्य कृष्ण हैं। मैं उसी के घर जाऊंगी। वे ही मेरे सच्चे प्रियतम हैं। जिसके रूप से देखकर लुब्ध हो चुकी हूँ। मैं कृष्ण के साथ अभिसार करने हेतु सन्नद्ध हूँ। जैसे ही रात हागी मैं कृष्ण के पास जाऊँगी और रात पर रास में सहभागी बन सुबह होने के साथ ही इस पर घर को वापस आ जाऊंगी।

कृष्ण भी मुझ पर रीझ जाएँ, मोहित हो जाएँ, इसके लिए सत-दिन उनके रंग संग तरह-तरह के खेलती रहूँगी। अब यह सब इच्छा पर होगा कि मुझे खाने-पीने और पहनने के लिए क्या देते हैं। मेरी ऐसी जातर्तिक कोई इच्छा शेष नहीं है। मेरा और कृष्ण का प्रेम बहुत पुराना और गहरा है। उनके बिना अब एक पल का जीना भी असंभव है। वे अपने आश्रय में जहाँ स्थान देंगे वही मेरा निवास होगा और यदि वे मुझे दूसरे के हाथों बेचना भी चाहें तो मुझे कोई मलाल नहीं होगा। क्योंकि मेरा “मैं’ अब बाकी बचा ही नहीं है। मीरा कहती है कि मेरे स्वामी तो गिरधर नगर है। जिन पर मैं बार-बार बलि जाती हूँ कृष्ण पर अपने को न्योछावर करती हूँ।”

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 3 मीराबाई के पद

प्रस्तुत पद में सम्पर्ण के भावना की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति हुई है। जैसे कबीर ने सवयं को राम का कुत्ता घोषित किया। शांत रस की इस रचना में अनुप्रास की छटा देखते बनती है। एकनिष्ठ प्रेम और आत्मोत्सर्ग की यह सर्वोत्तम प्रस्तुति है।

मीराबाई के पद कठिन शब्दों का अर्थ

गिरधर-गोवर्धन गिरि को धारण करने वाले, कृष्ण। तोसों-तुमसे। तरुवर-श्रेष्ठ वृक्ष। पॅखिया-पक्षी। सरवर-तालाब। मछिया-मछली। गिरिवर-पर्वतराज। सोहागा-सोना का शुद्ध करने के लिए प्रयुक्त क्षार। ठाकुर-स्वामी। म्हारो-मेरा। साँचो-सच्चा। रैण-रातः। दिना-दिन। रिझाऊँ-प्रसन्न करूँ। तितही-वहीं। नागर-विदग्ध, चतुर, रसिक। बलि जाऊ-छिवर हो जाऊँ। वा-उसको। ताही-उसको। सोई-वही।

मीराबाई के पद काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. जो तुम तोड़ो, पिया……………कौन संग जोड़ें।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ राजस्थान कोकिला मीरा द्वारा रचित हैं। इन पंक्तियों में मीरा कहती हैं कि हे कृष्ण, तुम मेरे प्रियतम हो, मैं तुमसे प्रेम करती हूँ। तुम पर मेरा अधिकार नहीं है अत: तुम चाहो तो मुझसे अपनी प्रीति तोड़ ले सकते हो। लेकिन मैं तुमसे प्रीत नहीं तोडूंगी। अगर तुमसे प्रीत तोड़ लूँ तो जोडूंगी किससे? अर्थात् तुम्हारे सिवा मेरा कोई नहीं है। अतः तुम करो या न करो मगर मैं तो तुमसे ही प्रीति करूँगी, क्योंकि तुम्हारे सिवा दूसरा कोई ऐसा नहीं है जिससे मैं प्रेम कर सकूँ। मीरा ने अलग भी कहा है-मेरे तो गिरिधर गोपाल दूसरो न कोई। अतः ये पंक्तियाँ कृष्ण के प्रति मीरा के अनन्य प्रेम को व्यक्त करती हैं।।

2. तुम भये तरुवर………..हम भये सोहागा।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में मीरा कृष्ण से अपनी अनन्य प्रीति का निवेदन करती कहती हैं कि कृष्ण तुम तरुवर हो और मैं उस पर आश्रय पाने वाली चिड़िया। तुम सरोवर हो तो मैं उसमें रहने वाली मछली जो तुमसे अलग होते ही तड़प-तड़प कर मर जायेगी। तुम पर्वत हो तो मैं उस पर उगने वाली घास। तुम चन्द्रमा हो तो मैं चकोर। तुम मोती तो मैं धागा। तुम सोना हो तो मैं सोहागा।

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अभिप्राय यह है कि उक्त अनेक उदाहरणों के सहारे मीरा ने कृष्ण के साथ अपनी उस भक्ति का परिचय दिया है जो निर्भरा भक्ति कहलाती है। इसमें भक्त भगवान को अपना आधार मानता है जिसके बिना उसका अस्तित्व ही नहीं होता।

3. मीरा कहे प्रभु……………मेरी दासी:
व्याख्या-
इन पंक्तियों में मीरा कहती है कि हे व्रज में निवास करने वाले मेरै प्रभु ! तुम मेरे . ठाकुर हो और मैं तुम्हारी दासी अर्थात् मुझमें-तुममें स्वामी-सेविका वाला प्रेम है। इन पंक्तियों
मे मीरा का अभिप्राय सामान्य दासी कहने से नहीं है वह बताना चाहती है कि वह कृष्ण की ऐसी प्रिय पत्नी है जो दासी की तरह पूर्ण समर्पण भाव से अपने स्वामी की सेवा करती है और उसी. में सुख मानती है।

4. मैं गिरिधर के घर जाऊँ………….लुभाऊँ।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ मीरा द्वारा रचित पद से ली गयी हैं। यहाँ मीरा द्वारा अपने प्रियतम कृष्ण के पास जाने का उल्लेख किया गया है। मीरा कहती हैं कि कृष्ण मेरे सच्चे प्रियतम हैं। वे अत्यन्त सुन्दर हैं। उनकी रूप माधुरी मोहक है। अत: मैं देखते ही उन पर लुब्ध हो जाती हूँ। जिस तरह भ्रमर फूल पर सतत् मँडराता रहता है। उसी तरह मैं उनकी रूप माधुरी के सम्मोहन में सतत् उन्हीं के समीप रहना और उनकी रूप माधुरी निहारते रहना चाहती हूँ।

5. रैण पडै तब ही उठ जाऊँ…………….ताही रिझाऊँ।
व्याख्या-
मीरा द्वारा रचित “मैं गिरिधर के घर जाऊँ” पद से गृहीत इन पंक्तियों में यह बताने की चेष्टा की गई है कि वह कृष्ण के सौन्दर्य और प्रेम की दीवानी है। अतः एक पल भी अलग रहना उसे स्वीकार नहीं। यही कारण है कि जैसे ही रात होती है उनकी सेवा में चली जाती और भोर होने पर ही उनसे अलग होती है। दिन में भी उनके साथ खेलती रहती हूँ। इस तरह चाहे दिन हो या रात मैं आठों पहर उन्हीं के साथ खेलती या सेवा में रहती हूँ। वे जैसे रीझते है उसी तरह उन्हें रिझाती हूँ। उन्हें जो पसंद है वही आचरण करती हूँ और इस तरह एक आज्ञाकारिणी प्रेमिका या पत्नी के रूप में मैं सेविका धर्म का तन्मयता से पालन करते हुए उनकी प्रसन्नता पाने के लिए प्रयल करती रहती हूँ।

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6. जो पहिरावै सोई पहिरूँ…………….पल न रहाऊँ।
व्याख्या-
मीरा ने अपने पद की प्रस्तुत पंक्तियों में अपने पूर्ण समर्पण भाव को व्यक्त किया है। वह पूरी तरह अनुगता और सेवापरायण दासी है। वह पति रूप श्री कृष्ण से कोई अपेक्षा नहीं करती। उसमें पाने की नहीं देने की लालसा है। अत: आदर्श सेविका की तरह वह कहती है कि वे जो पहनाते हैं वही पहनती हूँ जो देते हैं वही खाती हूँ। मेरी उनसे प्रीत पुरानी है। मैं उनसे अलग एक पल भी नहीं रह सकती हूँ। मीरा के इस कथन से यह बात स्पष्ट है कि मीरा ने भक्त होने के बाद अपने समस्त राजकीय संस्कारों का त्याग कर दिया था। खाने-पहनने की रुचि भूल कर जो मिलता था वही प्रभु प्रसाद समझकर खा लेती थी और जो भी वस्त्र मिल जाता था उससे तन ढंक लेती थी।

7. जहाँ बैठावें तितही बैढूँ………………बार-बार बलि जाऊँ।
व्याख्या-
अपने पद की प्रस्तुत पंक्तियों में मीरा ने कृष्ण के प्रति अपना समर्पण भाव व्यक्त किया है। वह कृष्ण के प्रेम में दीवानी है। अत: जीवन के सारे क्रियाकलाप, सुख-दुःख को कृष्ण इच्छा का प्रसाद मानकर सादर स्वीकार करती है। वह कृष्ण को अपना नियामक और प्रेरक मानती है और कहती है कि वे जहाँ बैठाते हैं वहीं बैठी रहती हूँ। यदि वे मुझे बेच दें तो उनकी खुशी के लिए मैं सहर्ष बिक जाऊंगी। मेरे प्रभु गिरिधर हैं अर्थात् पर्वत भी उठाकर संकट से रक्षा करने में समर्थ हैं। वे नागर हैं अर्थात् शिष्ट, सभ्य, संस्कारवान और चतुर हैं। अतः मैं बार-बार उन पर अपने को न्योछावर करती हूँ।

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 2 कबीर के पद

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 2 कबीर के पद

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 2 कबीर के पद

कबीर के पद पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
कबीर ने संसार को बौराया क्यों कहा है?
उत्तर-
कबीर ने संसार को ‘बौराया हुआ’ इसलिए कहा है क्योंकि संसार के लोग सच सहन नहीं कर पाते और न उसपर विश्वास करते हैं। उन्हें झूठ पर विश्वास हो जाता है। कबीर संसार के लोगों को ईश्वर और धर्म के बारे में सत्य बातें बताता है, ये सब बातें परम्परागत ढंग से भिन्न है, अत: लोगों को अच्छी नहीं लगती। इसलिए कबीर ने ऐसा कहा है कि यह संसार बौरा गया है, अर्थात पागल-सा हो गया है।

प्रश्न 2.
“साँच कहाँ तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना” कबीर ने यहाँ किस सच और झूठ की बात कही है?
उत्तर-
कबीर ने बाह्याडंबरों से दूर रहकर स्वयं को पहचानने की सलाह दी है। आत्मा का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। कबीर संसार के लोगों को ईश्वर और धर्म के बारे में सत्य बातें बताता है, ये सब परंपरागत ढंग से भिन्न है, अत: लोगों को यह पसंद नहीं है। संसार के लोग सच को सहन न करके झूठ पर विश्वास करते हैं। इस प्रकार कबीर ने हिन्दू और मुसलमान दोनों के बाह्यडंबरों पर तीखा कटाक्ष किया है।

प्रश्न 3.
कबीर के अनुसार कैसे गुरु-शिष्य अन्तकाल में पछताते हैं? ऐसा क्यों होता है?
उत्तर-
कबीर के अनुसार इस संसार में दो तरह के गुरु और शिष्य मिलते हैं। एक कोटि है सदगुरु और सद् शिष्य की जिन्हें तत्त्व ज्ञान होता है, जो विवेकी होते हैं, जिन्हें जीव-ब्रह्म के सम्बन्ध का ज्ञान होता है, ऐसे सदगुरु और शिष्यों में सद् आचार भरते हैं। इनका अन्तर-बाह्य एक समान होता है। ये अहंकार शून्य होते हैं। गुरु-शिष्य की दूसरी कोटि है असद गुरु-और असद शिष्य की। इस सम्बन्ध में कबीर ने एक साखी में कहा है-

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जाके गुरु अंधरा, चेला खरा निरंध,
अंधा-अधे ठेलिय, दोनों कूप पड़प।

असद् अविवेकी बनावटी गुरु सद्ग्रन्थों का केवल उच्चारण करते हैं, वाचन करते-कराते हैं, ग्रन्थों में विहित, निहित तथ्यों को अपने आचरण में उतारते और उतरवाते नहीं हैं। अपरिपक्व ज्ञान और उससे उत्पन्न अभिमान को अपनी आजीविका बना लेते हैं। समय रहते ये चेत नहीं पाते और अन्त में जब आत्मोद्धार के लिए समय नहीं बच पाता, तब ये बेचैन हो जाते हैं। किन्तु अब इनके पास पछतावे के अलावा कुछ बचता ही नहीं है।

प्रश्न 4.
“हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कहै रहिमाना
आपस में दोउ लरि-लरि मुए, मर्म न काहू जाना।
इन पंक्तियों का भावार्थ लिखें।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ अपने समय के और अपनी तरह के अनूठे समाज-सुधारक चिंतक कबीर रचित पद से उद्धृत है। इन पंक्तियों में परम सत्ता के एक रूप का कथन हुआ है। यही मर्म है, यही अन्तिम सत्य है कि परम ब्रह्म, अल्लाह, गॉड सभी एक ही हैं। किन्तु अज्ञानतावश अलग-अलग धर्म सम्प्रदायों में बता मानव समाज अपने-अपने भगवान से प्यार करता है, दूसरे के भगवान को हेय समझता है। अपने भगवान के लिए अन्ध-भक्ति दर्शाता है। उनकी यह कट्टरता, बद्धमूलता, इतनी प्यारी होती है कि जरा-जरा सी बात पर धार्मिक भावनाएं आहत होने लगती हैं।

दो सम्प्रदायों के बीच का सौहार्द्र वैमनस्य में बदल जाता है। हिन्दू-मुसलमान एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं और लड़कर कट मर जाते हैं। यदि उन्हें परम तत्त्व का, परम सत्य का, मूल-मर्म का ज्ञान होता तो पूरब-पश्चिम, मंदिर-मस्जिद, पूजा-रोजा, राम-रहीम में भेद नहीं करते। एक-दूसरे के लिए प्राणोत्सर्ग करते न कि एक-दूसरे के खून के प्यासे होते।

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प्रश्न 5.
‘बहुत दिनन के बिछुरै माधौ, मन नहिं बांधै धीर’ यहाँ माधौ किसके लिए प्रयुक्त हुआ है?
उत्तर-
कबीर निर्गुण-भक्ति के अनन्य उपासक थे। उन्होंने परमात्मा को कण-कण में देखा है, ज्योति रूप में स्वीकारा है तथा उसकी व्याप्ति चराचर संसार में दिखाई है। इसी व्याप्ति को अद्वैत सत्ता में देखते हुए उसकी रचनात्मक अभिव्यक्ति दी है। कबीर ने ईश्वर को “माधौ” कहकर पुकारा है।

प्रश्न 6.
कबीर ने शरीर में प्राण रहते ही मिलने की बात क्यों कही है?
उत्तर-
प्रेम में यों तो सम्पूर्ण शरीर मन, प्राण सभी सहभागी होते हैं किन्तु आँखों की भूमिका अधिक होती है। विरह की दशा में आँखें लगातार प्रेमास्पद की राह देखती रहती हैं। विरही प्रेमी की आंकुलता-व्याकुलता का अतृप्ति का ज्ञापन आँखों से ही होता है फिर इसका क्या भरोसा कि मृत्यु के बाद यही शरीर पुनः प्राप्त हो। प्रेम यदि इसी जन्म और मनुष्य योनि में हुआ है, विरह की ज्वाला में यदि यही शरीर, मन, प्राण दग्ध हो रहे हैं तो फिर प्रेम को सार्थक्य भी तभी प्राप्त होगा जब शरीर में प्राण रहते इसी जन्म में प्रभु से मिलन हो जाए। विरह मिलन में बदल जाए। यही कारण है कि कबीर ने शरीर में प्राण रहते ही मिलते ही बात कही है।

प्रश्न 7.
कबीर ईश्वर की मिलने के लिए बहुत आतुर हैं। क्यों?
उत्तर-
हिन्दी साहित्य के स्वर्ण युग भक्तिकाल के निर्गुण भक्ति की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रतिनिधि कवि कबीरदास ने ‘काचै भांडै नीर’ स्वयं को तथा ‘धीरज’ अर्थात् धैर्य की प्रतिमूर्ति ईश्वर को कहा है। अपनी व्याकुलता तथा प्रियतम से मिलकर एकाकार होने की उनकी उत्कंट लालसा उन्हें आतुर बना देती है। तादात्म्य की उस दशा में कवि अपने जीवन को कच्ची मिट्टी का घड़ा में भरा पानी माना है। यह शरीर नश्वर है। मृत्यु शाश्वत सत्य है कवि इन लौकिक दुखों (जीवन-मृत्यु) से छुटकारा पाकर ईश्वर की असीम सत्ता में विलीन होना चाहता है। अतः कबीर की ईश्वर से मिलने की आतुरता अतीव तीव्र हो गई है।

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प्रश्न 8.
दूसरे पद के आधार पर कबीर की भक्ति-भावना का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर-
हमारे पाठ्य पुस्तक दिगंत भाग-1 में संकलित कबीर रचित द्वितीय पद कबीर की भक्ति भावना का प्रक्षेपक है। वस्तुत: कबीर की भक्ति- भावना को एक विशिष्ट नाम दिया है-“रहस्यवाद”। यह रहस्यवाद साहित्य की एक स्पष्ट भाव धारा है, जिसका किसी रहस्य से कोई लेना-देना नहीं है। आत्मा-परमात्मा को प्रणय-व्यापार, मिलन-विरह आदि रहस्यवाद का उपजीव्य है।

इस रहस्यवाद में कवि स्वयं को स्त्री या पुरुष मानकर ईश्वर, आराध्य या परम ब्रह्म के साथ अपने विभिन्न क्रिया व्यापारों, क्षणों और उपलब्धियों का अत्यंत प्रांजल, भाव प्रवण वर्णन करती है।

सूफी संत की जहाँ आत्मा पुरुष और परमात्मा को नारी रूप में चित्रित करते हैं, वहाँ कबीर आदि संत कवियों ने स्वयं को नारी, प्रिया, प्रेयसी आदि के रूप में प्रस्तुत करते हुए परमब्रह्म, ईश्वर, . साईं, सद्गुरु, कर्त्तार आदि के साथ अपने रभस प्रसंग का स्नेहिल, क्षणों का निष्कलुष और प्रांजल वर्णन किया है।

कबीर की भक्ति भाव रहस्यवाद, प्रगल्भ इन्द्रिक बिम्बों प्रतीकों से पूर्ण है किन्तु शृंगारिक रचनाओं की तरह कामोद्दीपक नहीं है, जुगुप्सक नहीं है। “मेरी चुनरी में लग गये दाग” लिखकर भी कबीर का रहस्यवाद पुरइन के पत्र पर पानी की बून्द की तरह निर्लिप्त है, शीलगुण सम्पन्न है।

प्रश्न 9.
बलिया का प्रयोग सम्बोधन में हुआ है। इसका अर्थ क्या है?
उत्तर-
कबीर रचित पद में बलिया सम्बोधन शब्द आया है जिसका कोशगत अर्थ ‘बलवान’ है। किन्तु हमें स्मरण रखना चाहिए कि कबीर भाषा के डिक्टेटर हैं। “बाल्हा” शब्द ‘बलिया’ का विकृत रूप है जिसका प्रयोग कबीर ने एक अन्य पद में किया है बाल्हा आओ हमारे गेह रे। कबीर के मत से बलिया का अर्थ सर्वशक्ति सम्पन्न परमपुरुष, भर्तार और पति ही है।

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प्रश्न 10.
प्रथम पद में कबीर ने बाह्याचार के किन रूपों का जिक्र किया है? उन्हें अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर-
परम्परा-भंजक; रूढ़ि-भंजक, समाज-सुधारक कबीर रचित प्रथम पद में हिन्दू-मुस्लिम दोनों ही सम्प्रदायों में व्याप्त आडम्बर पूर्ण बाह्याचारों का उल्लेख हुआ है।

तथाकथित नेमी द्वारा (नियमों का कठोरता से अनुपालन करने वाले) प्रात:काल प्रत्येक ऋतु और अवस्था में स्नान करना, पाहन (पत्थर) की पूजा करना, आसन मारकर बैठना और समाधि लगाना पितरों (पितृ) की पूजा, तीर्थाटन करना, विशेष प्रकार की टोपी, पगड़ी को धारण करना, तरह-तरह के पदार्थों की माला (तुलसी, चन्दन, रुद्राक्ष और पत्थरों की मालाएँ) माथे पर विभिन्न रंगों और रूपों में, गले में कानों के आस-पास बाहुओं पर तिलक-छापा लगाना ये सभी बाह्याडम्बर है। इनका विरोध मुखर स्वर में कबीर ने किया है।

प्रश्न 11.
कबीर धर्म उपासना के आडंबर का विरोध करते हुए किसके ध्यान पर जोर देते हैं?
उत्तर-
संत कबीर ने हिन्दू और मुसलमानों के ढोंग-आडंबरों पर करारी चोट की है। उन्होंने धर्म के बाहरी विधि विधानों, कर्मकांडों-जप, माला, मूर्तिपूजा, रोजा, नमाज आदि का विरोध किया है। उन्होंने कहा है कि हिन्दू और मुसलमान आत्म-तत्त्व और ईश्वर के वास्तविक रहस्य से अपरिचित हैं, क्योंकि मानवता के विरुद्ध धार्मिक कट्टर और आडम्बरपूर्ण कोई भी व्यक्ति अथवा : .. धर्म ईश्वर की परमसत्ता का अनुभव नहीं कर सकता।

कबीर ने स्वयं (आत्मा) को पहचानने पर बल देते हुए कहा है कि यही ईश्वर का स्वरूप है। आत्मा का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है।

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प्रश्न 12.
आपस में लड़ते-मरते हिन्दू और तर्क को किस मर्म पर ध्यान देने की सलाह कवि देता है?
उत्तर-
मुगल बादशाह बाबर के जमाने से हिन्दू-मुसलमान अपने पूर्वाग्रहों और दुराग्रहों के कारण लड़ते-मरते चले आ रहे हैं। साम्प्रदायिक सौहार्द्र की जगह साम्प्रदायिकता का जहर पूरे समाज में घुला हुआ है। दोनों ही सम्प्रदायों का तथाकथित पढ़ा-लिखा और अनपढ़ तबका ‘ईश्वर’ की सत्ता, अवस्थिति की वस्तु स्थिति से अनवगत है। मूल चेतना, मर्म का ज्ञान किसी को नहीं है।

वेद-पुराण, कुरान, हदीश लगभग सभी धार्मिक ग्रंथों पर ईश्वर के स्वरूप, उसके प्रभाव और सर्वव्यापी सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान होने की बात कही गयी है। जीव और ब्रह्म में द्वैत नहीं अद्वैत का सम्बन्ध है यह भी कथित है। किन्तु द्विधा और द्वैत भाव की प्रबलता के कारण हम हिन्दू-मुसलमान लड़ते आ रहे हैं। कबीर ने स्पष्ट कहा “एकै चाम एकै मल मूदा-काको कहिए ब्राह्मण शूद्रा।”

हमें इस मर्म पर ध्यान देना है कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं। हमारी उत्पत्ति समान रूप से हुई है। पालन समान हवा, पानी, अन्नादि से होता है और मृत्यु की प्रक्रिया भी परम सत्ता द्वारा नियत और नियंत्रित है। परोपकार करके हम ईश्वर के सन्निकट होते हैं। पाप करके बाह्योपचार के पचड़े में पड़कर हम ईश्वर से दूर होकर अपना इहलोक के साथ परलोक भी कष्टमय कर लेते हैं। सदाचरण निष्काम सेवा ही ईश्वरोपासना का मूल मर्म है। मानवता की निष्काम सेवा से बढ़कर इस अनित्य संसार में कुछ भी नहीं है।

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प्रश्न 13.
“सहजै सहज समाना” में सहज शब्द का दो बार प्रयोग हुआ है। इस प्रयोग की सार्थकता स्पष्ट करें।
उत्तर-
मध्यकालीन भारत में भक्ति की क्रांतिकारी भाव धारा को जन-जन तक पहुँचाने वाले भक्त कबीर ने ईश्वर प्राप्ति के मार्ग को ‘सहजै सहज समाना’ शब्द का दो बार प्रयोग किया है। प्रस्तुत शब्द में कबीर द्वारा बाह्याडंबरों की अपेक्षा स्वयं (आत्मा) को पहचानने की बात कही गई है। अपने शब्दों में कबीर ने ये बाह्याडंबर बताए हैं-पत्थर पूजा, कुरान पढ़ाना, शिष्य बनाना, तीर्थ-व्रत, टोपी-माला पहनना, छापा-तिल, लगाना, पीर औलिया की बातें मानना आदि।

कबीर कहते हैं ईश्वर का निवास न तो मंदिर में है, न मस्जिद में, न किसी क्रिया-कर्म में है और न योग-साधना में। उन्होंने कहा है कि बाह्याडंबरों से दूर रहकर स्वयं (आत्मा) को पहचानना चाहिए। यही ईश्वर है। आत्म-तत्व के ज्ञानी व्यक्ति ईश्वर को सहज से भी सहज रूप में प्राप्त कर सकता है। कबीर का तात्पर्य है कि ईश्वर हर साँस में समाया हुआ है। उन्हें पल भर की तालाश में ही पाया जा सकता है।

प्रश्न 14.
कबीर ने भर्म किसे कहा है?
उत्तर-
कबीर के अनुसार अज्ञानी गुरुओं की शरण में जाने पर शिष्य अज्ञानता के अंधकार में डूब जाते हैं। इनके गुरु भी अज्ञानी होते हैं; वे घर-घर जाकर मंत्र देते फिरते हैं। मिथ्याभिमान के परिणामस्वरूप लोग विषय-वासनाओं की आग से झुलस रहे हैं। कवि का कहना है कि धार्मिक आडम्बरों में हिन्दू और मुसलमान दोनों ही ईश्वर की परम सत्ता से अपरिचित हैं। इनमें कोई भी प्रभु के प्रेम का सच्चा दीवाना नहीं है।

कबीर ने इन बाह्याडम्बरों के ‘भर्म’ को भुलाकर स्वयं (आत्मा) को पहचानने की सलाह देते हुए कहा है कि आत्मा का ज्ञान की सच्चा ज्ञान है। ईश्वर हर साँस में समाया हुआ है अर्थात् सच्ची अनुभूति और आत्म-साक्षात्कार के बल पर ईश्वर को पल भर की तलाश में ही पाया जा सकता है।

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कबीर के पद भाषा की बात

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों का रूप लिखें
आतम, परवान, तीरथ, पियारा, सिख्य, असनान, डिंभ, पाथर, मंतर, नर्म, अहनिस, तुमकूँ।
उत्तर-

  • आतम-आत्मा
  • परवान-पत्थर
  • तीरथ-तीर्थ
  • पियारा-प्यारा
  • सिख्य-शिष्य
  • असनान-स्नान
  • डिभ-दंभ
  • पाथर-पत्थर
  • मंतर-मंत्र
  • मर्म-भ्रम
  • अहनिश-अहर्निश
  • तुमकूँ-तुमको

प्रश्न 2.
दोनों पदों में जो विदेशज शब्द आये हैं उनकी सूची बनाएँ एवं उनका अर्थ लिखें।
उत्तर-
कबीर रचित पद द्वय में निम्नलिखित विदेशज (विदेशी) शब्द आये हैं, जिनका अर्थ अग्रोद्धत है

पीर-धर्मगुरु; औलिया-संत; कितेब-किताब, पुस्तक; कुरान-इस्लाम धर्म का पवित्र ग्रंथ; मुरीद-शिष्य, चेला, अनुयायी; तदबीर-उपाय, उद्योग, कर्मवीरता; खवरि-सूचना, ज्ञान; तुर्क-इस्लाम धर्म के अनुयायी, तुर्की देश के निवासी; रहिमाना-रहमान-रहम दया करने वाला अल्ला।

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प्रश्न 3.
पठित पदों से उन शब्दों को चुनें निम्नलिखित शब्दों के लिए आये हैं
उत्तर-
आँख-नैन; पागल-वौराना (बौराया); धार्मिक-धरमी; बर्तन-भांडे, वियोग-विरह, आग-अगिनि, रात-निस।

प्रश्न 4.
नीचे प्रथम पद से एक पंक्ति दी जा रही है, आप अपनी कल्पना से तुक मिलते हुए अन्य पंक्तियाँ जोड़ें- “साँच कहो तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।”
उत्तर-
साँच कहो तो मारन धावै झूठे जग पतियाना,
मर्म समझ कर चेत ले जल्दी घूटे आना-जाना,
जीवन क्या इतना भर ही है रोना हँसना खाना,
हिय को साफ तू कर ले पहले, बसे वहीं रहिमान।
छोड़ सके तो गर्व छोड़ दे राम बड़ा सुलिताना,
भाया मोह की नगरी से जाने कब पड़ जाय जाना”
चेत चेत से मूरख प्राणी पाछे क्या पछि ताना।

प्रश्न 5.
कबीर की भाषा को पंचमेल भाषा कहा गया है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उन्हें वाणी का डिक्टेटर कहा है। कबीर की भाषा पर अपने शिक्षक से चर्चा करें अथवा कबीर की भाषा-शैली पर एक सार्थक टिप्पणी दें।
उत्तर-
“लिखा-लिखि की है नहीं देखा देखी बात’ “की उद्घोषणा करने वाले भाषा के डिक्टेटर और वाणी के नटराज कबीर की भाषा-शैली कबीर की ही प्रतिमूर्ति है। कबीर बहु-श्रुत और परिव्राजक संत कवि थे। हिमालय से हिन्द महासागर और गुजरात से मेघालय तक फैले उनके अनुयायियों द्वारा किये गये कबीर की रचनाओं के संग्रह में प्रक्षिप्त क्षेत्रियता का निदर्शन इस बात का सबल प्रमाण है कि कबीर “जैसा देश वैसी वाणी, शैली’ के प्रयोक्ता थे।

हालांकि उन्होंने स्पष्ट कहा है “मेरी बोली पूरबी” लेकिन भोजपुरी राजस्थानी, पंजाबी, अवधी, ब्रजभाषा आदिनेक तत्कालीन प्रचलित बोलियों और भाषाओं के शब्द ही नहीं नवागत इस्लाम की भाषा अरबी, उर्दू, फारसी के शब्दों की शैलियों का उपयोग किया है। रहस्यवादी संध्याभाषा उलटबाँसी, योग की पारिभाषिक शब्दावली के साथ ही सरल वोधगम्य शब्दों के कुशल प्रयोक्ता हैं।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions पद्य Chapter 2 कबीर के पद

“जल में रहत कुमुदनी चन्दा बसै आकास, जो जाहि को भावता सो ताहि के पास” कहने वाले कबीर “आँषि डिया झाँई पड्या जीभड्या छाल्या पाड्या” भी कहते हैं। ये आँखियाँ अलसानि पिया हो सेज चलो “कहने वाले कबीर” कुत्ते को ले गयी बिलाई ठाढ़ा सिंह चरावै गाई”। भी कहते हैं। कबीर के सामने भाषा सचमुच निरीह हो जाती है।

प्रश्न 6.
प्रथम पद में अनुप्रास अलंकार के पाँच उदाहरण चुनें।
उत्तर-
नेमि देखा धरमी देखा-पंक्त में ‘मि’ वर्ण और देखा शब्द की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार। जै पखानहि पूजै में प वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार पीर पढ़े कितेब कुराना में क्रमशः प और क वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार। उनमें उहै में उ वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार। पीतर पाथर पूजन में प वर्ण की आवृत्ति से अनुप्रास अलंकार उपस्थित है।

प्रश्न 7.
दूसरे पद में ‘विरह अगिनि’ में रूपक अलंकार है। रूपक अलंकार के चार अन्य उदाहरण दें।
उत्तर-
रूपक अलंकार के चार अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं ताराघाट, रघुवर-बाल-पतंग, चन्द्रमुखी, चन्द्रबदनी, मृगलोचनी।

प्रश्न 8.
कारक रूप स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
झठे-झूठ को-द्वितीय तत्पुरुष, पखानहि-पत्थर को द्वितीया तत्पुरुष; सब्दहि-शब्द को-द्वितीय-तत्पुरुष, खबरि-सूचना ही में-सम्प्रदान तत्पुरुष; कारनि-कारण से-अपादान, तत्पुरुष, भांडै-भांड में-अधिकरण तत्पुरुष।

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प्रश्न 9.
पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीर रचित पद “संतौ देखो जग बौराना’ का भावार्थ लिखें।
उत्तर-
प्रथम पद का भावार्थ देखें। प्रश्न 10. पाठ्य-पुस्तक में संकलित कबीर रचित द्वितीय पद का भावार्थ प्रस्तुत करें। उत्तर-द्वितीय पद का भावार्थ देखें।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर।

कबीर के पद लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर की विरह-भावना पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
कबीर परमात्मा से प्रेम करने वाले भक्त हैं। उनकी प्रीति पति-पत्नी भाव की है। परमात्मा रूपी पति से मिलन नहीं होने के कारण वे विरहिणी स्त्री की भाँति विरहाकुल रहते हैं। ये प्रियतम के दर्शन हेतु दिन-रात आतुर रहते हैं। उनके नेत्र उन्हें देखने के लिए सदैव आकुल रहते हैं। वे विरह की आग में सदैव जलते रहते हैं। एक वाक्य में उनकी दशा यही है कि “तलफै बिनु बालम मोर जिया। दिन नहिं चैन, रात नहिं, निंदिया तरप तरप कर भोर किया।”

कबीर के पद अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कबीर विरह की दशा में क्या अनुभव करते हैं?
उत्तर-
कबीर को विरह की अग्नि जलाती है, आतुरता और उद्वेग पैदा करती है तथा मन धैर्य से रहित हो जाता है।

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प्रश्न 2.
कबीर परमात्मा से क्या चाहते हैं?
उत्तर-
कबीर परमात्मा का दर्शन चाहते हैं, विरह-दशा की समाप्ति और मिलन का सुख चाहते हैं।

प्रश्न 3.
कबीर के अनुसार हिन्दू-मुस्लिम किस मुद्दे पर लड़ते हैं? उत्तर-हिन्दू-मुसलमान नाम की भिन्नता और उपासना की भिन्नता को लेकर लड़ते हैं। प्रश्न 4. कबीर की दृष्टि में नकली उपासक क्या करते हैं?
उत्तर-
नकली उपासक नियम-धरम का विधिवत पालन करते हैं, माला-टोपी धारण करते हैं, आसन लगाकर उपासना करते हैं, पीपल-पत्थर पूजते हैं, तीर्थव्रत करते हैं तथा भजन-कीर्तन गाते हैं।

प्रश्न 5.
कबीर की दृष्टि में नकली गुरु लोग क्या करते हैं?
उत्तर-
नकली गुरु लोग किताबों में पढ़ें मन्त्र देकर लोगों को शिष्य बनाते हैं और ठगते हैं।

इन्हें अपने ज्ञान, महिमा तथा गुरुत्व का अभिमान रहता है लेकिन वास्तव में ये आत्मज्ञान से रहित मूर्ख, ठग और अभिमानी होते हैं।

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प्रश्न 6.
कबीर के अनुसार ईश्वर-प्राप्ति का असली मार्ग क्या है?
उत्तर-
ईश्वर-प्राप्ति का असली मार्ग है आत्मज्ञान अर्थात् अपने को पहचानता और अपनी सत्ता को ईश्वर से अभिन्न मानना तथा ईश्वर से सच्चा प्रेम करना।

प्रश्न 7.
कबीरदास ने प्रथम पद में किसकी व्यर्थता सिद्ध की है?
उत्तर-
कबीरदास ने अपने प्रथम पद में पत्थर पूजा, तीर्थाटन और छाप तिलक को व्यर्थ बताया है।

प्रश्न 8.
कबीर ने दूसरे पद में बलिध का प्रयोग किसके लिए किया है?
उत्तर-
कबीरदास ने अपने दूसरे पद में बलिध का प्रयोग परमात्मा और सर्वशक्तिमान के लिए किया है।

प्रश्न 9.
कबीर के दृष्टिकोण में सारणी या सबद गाने वाले को किसकी खबर नहीं है?
उत्तर-
कबीरदास ने दृष्टिकोण में सारणी या सबद गाने वाले को स्वयं अपनी खबर नहीं है।

कबीर के पद वस्तनिष्ठ प्रश्नोत्तर

सही उत्तर सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें।

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प्रश्न 1.
कबीरदास किस काल के कवि हैं?
(क) आदिकाल
(ख) भक्तिकाल
(ग) रीतिकाल
(घ) वीरगाथा काल
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 2.
कबीर किसके उपासक थे?
(क) निर्गुण ब्रह्म के
(ख) सगुण ब्रह्म के
(ग) निराकार ब्रह्म के
(घ) साकार ब्रह्म के
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 3.
कबीर ने इस संसार को क्या कहा है?
(क) बौराया हुआ
(ख) साश्वत
(ग) क्षणभंगुर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

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प्रश्न 4.
लोग किस पर विश्वास करते हैं?
(क) सत्य पर
(ख) झूठ पर
(ग) बाह्याडम्बर पर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 5.
कबीर ने मर्म किसे कहा है?
(क) घाव को
(ख) वेदना को
(ग) रहस्य को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ग)

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न 1.
कबीर ने ‘साखी’, संबंद और……………की रचना की।
उत्तर-
रमैनी

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प्रश्न 2.
कबीर, कागद की लेखी’ की जगह………..को तरजीह देते थे।
उत्तर-
आँखन-देखी

प्रश्न 3.
साँच कहाँ तो मारन धावै,………….जग पतियाना।
उत्तर-
झूठे

प्रश्न 4.
साखी सब्दहि गावत भूले…………खबरि, नहि जाना।
उत्तर-
आतम।

कबीर के पद कवि परिचय – (1399-1518)

कबीर का जन्मकाल भी निश्चित प्रमाण के अभाव में विवादास्पद रहा है। फिर भी, बहुत से विद्वानों द्वारा सन् 1399 ई० को उनका जन्म और सन् 1518 ई० को उनका शरीर त्याग मा लिया गया है। इस तरह कुल एक सौ बीस वर्षों की लम्बी आयु तक जीवित रहने का सौभाग्य संत कवि कबीर को मिला था। जीवन रूपी लम्बी चादर को इन्होंने इतने लम्बे काल तक ओढा, जीया और अंत में गर्व के साथ कहा भी कि “सो चादर सुन नर मुनि ओढ़ी-ओढ़ी के मैली कीन्हीं चदरिया।

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दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यों धरि दीनि चदरिया।” हिन्दी साहित्य के स्वर्णयुग भक्तिकाल के पहले भक्त कवि कबीरदास थे। भक्ति को जन-जन तक काव्य रूप में पहुँचा कर उससे सामाजिक चेतना को जोड़ने का काम भक्तिकालीन भक्त कवियों ने किया। ऐसा भक्त कवियों में पहला ही नहीं सबसे महत्वपूर्ण नाम भी कबीर का ही माना जाता है।

कहा जाता है कि एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्म लेने के बाद लोक-लाज के भय से माता द्वारा परित्यक्त नवजात शिशु कबीर बनारस के लहरतारा तालाब के किनारे नीरू और नीमा नामक जुलाहा दम्पति द्वारा पाये और पुत्रवत पाले गये।

कबीर रामानन्दाचार्य के ही शिष्य माने जाते हैं पर गुरु मंत्र के रूप में प्राप्त राम नाम को उन्होंने सर्वथा निर्गुण रूप में स्वीकार और अंगीकार किया। अनजाने सिद्ध और नाथ-साहित्य से भी गहरे तक प्रभावित रहे। विशेष पंथ या मठ-मंदिर के आजन्म विरोधी रहे। कहा जाता है कि उनको कमाल नामक पुत्र और कमाली नामक एक पुत्री भी थी।

सिकंदर लोदी जैसे कट्टर मुसलमान शासक के काल में भी ऐसी धर्म निरपेक्ष ही नहीं कट्टरता-विरोधी उक्तियाँ कबीर से ही संभव थीं। शायद उसके अत्याचार का वे शिकार हुए भी थे। मृत्युकाल में उन्होंने मगहर की यात्रा की थी।

कबीर के पद कविता का भावार्थ

प्रथम पद महान् निर्गुण संत, परम्परा, भंजक, एकेश्वरवादी चिंतक कवि, कबीर संतों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे संतो ! देखो यह संसार बौरा गया है, पागल हो गया है। इसकी विवेक . बुद्धि नष्ट हो गयी है। जब भी मैं इन सांसारिक जीवों को सत्य के बारे में बताना चाहता हूँ।

ये मुझे उल्टा-सीधा कहते हैं, मुझे मारने दौड़ते हैं और जो कुछ इनके इर्द-गिर्द माया प्रपंच है उसे ये सत्य मान बैठे हैं।

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मुझे ऐसे अनेक नियम-धर्म के कठोर पालक दिखे जो हर मौसम में शरीर को कष्ट देकर स्नान करते हैं, आत्म ज्ञान से शून्य होकर पत्थर के देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। अनेक पीर (धर्म गुरु) और औलिया (संत) मिले जो कुरान जैसे ग्रंथ की गलत तथ्यहीन व्याख्या अपने शिष्यों को समझा कर उनको भटका चुके हैं। उन्हें अपने पीर औलिया होने का घमंड हो गया है।

पितृ (मरे हुए पूर्वज) की सेवा पत्थरों की मूर्ति पूजा और तीर्थटन करने वाले धार्मिक अहंकारी हो चले हैं। स्वयं को संत, महात्मा धार्मिक दर्शन के लिए टोपी, माला, तिलक-छाप धारण किये हुए हैं और अपनी स्वाभाविक स्थिति भूल चुके हैं। सचमुच के महान् वीतरागी संतों द्वारा रचित साखी सबद आदि गाते घुमते चलते हैं। इस संसार के प्राणी अपने को हिन्दू-मुस्लिम में बाँट चुके हैं।

एक को राम प्यारा है तो दूसरे को रहमान प्यारे हैं। छोटी-छोटी बातों पर ये एक-दूसरे के रक्त के प्यासे हो लड़-मर पड़ते हैं? लेकिन अभिमान अहंकार के वशीभूत हो ये घर-घर बाह्याचरण का आडम्बर युक्त पूजा, कर्मकाण्ड का मंत्र देते चलते हैं। मुझे तो लगता है कि ये तथाकथित गुरु अपने शिष्यों सहित माया के सागर में डूब चुके हैं। अन्त में इन्हें पछताना ही पड़ेगा।

ये हिन्दू-मुसलमान, पीर औलिया सभी ईश्वर-धर्म के मूल तत्त्व और मर्म को भूल चुके हैं। कई बार इनकी मैंने समझाकर कहा कि ईश्वर को कर्मकाण्ड बाह्यचार से नहीं बल्कि सहज जीवन-यापन की पद्धति से ही प्राप्त किया जा सकता है। क्योंकि परमब्रह्म ईश्वर अल्ला अत्यंत सहज और सरल हैं।

प्रस्तुत पद में कबीर ने अपने समय के साम्प्रदायिक तनावग्रस्त माहौल का भी वर्णन किया है। पद में अनायास रूप से अनुप्रास, वीप्सा. आदि अलंकार आये हैं। पद शांत रस का अनूठा उदाहरण है।

द्वितीय पद साधना के क्षेत्र के सहज सिद्ध हठयोगी, भावना के क्षेत्र में आकर कितना कोमल प्राण, भावुक, भाव विह्वल, विदग्ध हृदय हो सकता है, यह विरोधाभास कबीर में उपलब्ध हो सकता है।

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चिर विरहिणी कबीर आत्मा विरह विदग्ध अवस्था की चरम स्थिति में चीत्कार करती हुई कहती है कि हे बलिया (बाल्हा) प्रियतम तुझे कब देवूगी तेरा प्रेम मेरे भीतर इस तरह से व्याप्त हो गया है कि दिन-रात तुम्हारे दर्शन की आतूरता आकुलता बनी रहती है। मेरी आँखें केवल तुमको देखना चाहती हैं, ये लगातार खुली रहती हैं कि तुम्हारे दीदार से वंचित न हो जाएँ।

हे मेरे भर्तार (स्वामी) तुम भी इतना सोच विचार लो कि तुम्हारे बिना शरीर में जो विरहाग्नि उत्पन्न हुई है वह शरीर को कैसे जलाती होगी। मेरी गुहार सुनो, बहरा मत बन जाओ मैं जानती हूँ कि तुम धीरता की प्रतिमूर्ति हो, शाश्वत हो लेकिन मेरी शरीर कच्चा कुम्भ है और उसने प्राण रूपी नीर है। घड़ा कभी भी फूट सकता है, मृत्यु कभी भी हो सकती है। तुमसे बिछड़े हुए भी बहुत दिन हो गये, अब मन को किसी भी प्रकार से धीरता प्राप्त नहीं हो पाती।

जब तक यह शरीर है, मेरे दु:ख का नाश करने वाले तुम एक बार मुझे अपना “दरस-परस” करा दो। मैं अतृप्ति को साथ लिये मरना नहीं चाहती। तुमसे मैंने प्रेम किया है, विरह भी भोंग रही हूँ किन्तु यदि हमारा मिलन नहीं हुआ, प्रेम का सुखान्त नहीं हुआ तो यह तुम्हारे जैसे सर्वशक्तिमान आर्तिनाशक के विरुद्ध के विरुद्ध बात होगी।

प्रस्तुत पद में कबीर ने भारतीय रहस्यवाद का सुन्दर वर्णन किया है। जहाँ जीवात्मा और परमात्मा का सम्बन्ध प्रेमी और प्रेमास्पद के रूप में चित्रित है।

रूपक और अनुप्रास अलंकार के उदाहरण यत्र-तत्र उपलब्ध है। सम्पूर्ण पद में शांत रस का पूर्ण परिपाक हुआ है।

कबीर के पद कठिन शब्दों का अर्थ

पतियाना-विश्वास करना। धावै-दौड़ना। व्यापै-अनुभव। रती-तनिक (रत्ती, रती)। नेमी-नियम का पालन करने वाला। बधीर-बहरा, जो कम सुने या न सुने। आतम-आत्मा। अगिनी-अग्नि। पखानहि-पत्थर को। दादि-विनती, स्तुति। पीर-धर्म गुरु। गुसांई-गोस्वामी, मालिक। औलिया-सन्त। जिन-मत, नहीं (निषेध सूचक)। कितेब-किताब, पुस्तक। भांडै-बर्तन। मुरीद-शिष्य, चेला, अनुयायी। छता-अक्षत, रहते हुए। तदवीर-उपाय। आरतिवंत-दुःखी। डिंभ-दंभ। रहिमाना-दयालु। पीतर-पीतल, पितर, पुरखा। महिमा-महत्त्व। मूए-मरे। बलिया-प्रियतम। अहनिस-दिन-रात।

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कबीर के पद काव्यांशों की सप्रसंग व्याख्या

1. संतो देखत जग बौराना…………नमें कछु नहिं ज्ञाना।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी ने धार्मिक क्षेत्र में उलटी रीति और संसार के लोगों के बावलेपन का उल्लेख किया है। वे संतों अर्थात् सज्जन तथा ज्ञान-सम्पन्न लोगों को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि संतो! देखो, यह संसार बावला या पागल हो गया है? इसने उल्टी राह पकड़ ली है। जो सच्ची बात कहता है उसे लोग मारने दौड़ते हैं। इसके विपरीत जो लोग गलत और झूठी बातें बताते हैं उन पर वे विश्वास करते हैं। मैंने धार्मिक नियमों और विधि-विधानों का पालन करने वाले अनेक लोगों को देखा है। वे प्रातः उठकर स्नान करते हैं, तथा मंदिरों में जाकर पत्थर की मूर्ति को पूजते हैं। मगर उनके पास तनिक भी ज्ञान नहीं है। वे अपनी आत्मा को नहीं जानते हैं और उसकी आवाज को मारते हैं, अर्थात् अनसुनी करते हैं, अर्थात् अनसुनी करते हैं, सारांशतः कबीर कहना चाहते हैं कि ऐसे लोग केवल बाहरी धर्म-कर्म और नियम-आचार जानते हैं जबकि अन्त: ज्ञान से पूर्णतः शून्य हैं।

2. बहुतक देखा पीर औलिया…………..उनमें उहै जो ज्ञाना।
व्याख्या-
कबीरदास जी ने अपने पद की प्रस्तुत पंक्तियों में मुसलमानों के तथाकथित पीर और औलिया के आचरणों का परिहास किया है। वे कहते हैं कि मैंने अनेक पीर-औलिये को देखा है जो नित्य कुरान पढ़ते रहते हैं। उनके पास न तो सही ज्ञान होता है और न कोई सिद्धि होती है फिर भी वे लोगों को अपना मुरीद यानी अनुगामी या शिष्य बनाते और उन्हें उनकी समस्याओं के निदान के उपाय बताते चलते हैं। यही उनके ज्ञान की सीमा है। निष्कर्षतः कबीर कहना चाहते हैं कि ये पीर-औलिया स्वतः अयोग्य होते हैं लेकिन दूसरों को ज्ञान सिखाते फिरते हैं। इस तरह ये लोग ठगी करते हैं।

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3. आसन मारि डिंभ धरि…………….आतम खबरि न जाना।
व्याख्या-
कबीरदास जी का स्पष्ट मत है कि जिस तरह मुसलमानों के पीर औलिया ठग हैं उसी तरह हिन्दुओं के पंडित ज्ञान-शूल। वे कहते हैं कि ये नकली साधक मन में बहुत अभिमान रखते हैं और कहते हैं कि मैं ज्ञानी हूँ लेकिन होते हैं ज्ञान-शूल। ये पीपल पूजा के रूप में वृक्ष पूजते हैं, मूर्ति पूजा के रूप में पत्थर पूजते हैं। तीर्थ कर आते हैं तो गर्व से भरकर अपनी वास्तविकता भूल जाते हैं। ये अपनी अलग पहचान बताने के लिए माला, टोपी, तिलक, पहचान चिह्न आदि धारण करते हैं और कीर्तन-भजन के रूप में साखी, पद आदि गाते-गाते भावावेश में बेसुध हो जाते हैं। इन आडम्बरों से लोग इन्हें महाज्ञानी और भक्त समझते हैं। लेकिन विडम्बना यह है कि इन्हें अपनी आत्मा की कोई खबर नहीं होती है। कबीर के अनुसार वस्तुतः ये ज्ञानशून्य और ढोंगी महात्मा हैं।

4. हिन्दु कहै मोहि राम पियारा………….मरम न काहू जाना।
व्याख्या-
कबीर कहते हैं कि हिन्दू कहते हैं कि हमें राम प्यारा है। मुसलमान कहते हैं कि हमें रहमान प्यारा है। दोनों इन दोनों को अलग-अलग अपना ईश्वर मानते हैं और आपस में लड़ते तथा मार काट करते हैं। मगर, कबीर के अनुसार दोनों गलत हैं। राम और रहमान दोनों एक सत्ता के दो नाम हैं। इस तात्त्विक एकता को भूलकर नाम-भेद के कारण दोनों को भिन्न मानकर आपस में लड़ना मूर्खता है। अत: दोनों ही मूर्ख हैं जो राम-रहीम की एकता से अनभिज्ञ हैं।

5. घर घर मंत्र देत…………….सहजै सहज समाना।
व्याख्या-
कबीरदास जी इन पंक्तियों में कहते हैं कि कुछ लोग गुरु बन जाते हैं मगर मूलतः वे अज्ञानी होते हैं। गुरु बनकर वे अपने को महिमावान समझने लगते हैं। महिमा के इस अभिमान से युक्त होकर वे घर-घर घूम-घूम कर लोगों को गुरुमंत्र देकर शिष्य बनाते चलते हैं। कबीर के मतानुसार ऐसे सारे शिष्य गुरु बूड़ जाते हैं; अर्थात् पतन को प्राप्त करते हैं और अन्त समय में पछताते हैं। इसलिए कबीर संतों को सम्बोधित करने के बहाने लोगों को समझाते हैं कि ये सभी लोग भ्रमित हैं, गलत रास्ते अपनाये हुए हैं।

मैंने कितनी बार लोगों को कहा है कि आत्मज्ञान ही सही ज्ञान है लेकिन ये लोग नहीं मानते हैं। ये अपने आप में समाये हुए हैं, अर्थात् स्वयं को सही तथा दूसरों को गलत माननेवाले मूर्ख हैं। यदि आप ही आप समाज का अर्थ यह करें कि कबीर ने लोगों को कहा कि अपने आप में प्रवेश करना ही सही ज्ञान है। तब यहाँ ‘आपहि आप समान’ का अर्थ होगा-‘आत्मज्ञान प्राप्त करना’ जो कबीर का प्रतिपाद्य है।

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6. हो बलिया कब देखेंगी…………..न मानें हारि।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी ने ईश्वर के दर्शन पाने की अकुलाहट भरी इच्छा व्यक्त की है। वे कहते हैं कि प्रभु मैं तुम्हें कब देखूगा? अर्थात् तुम्हें देखने की मेरी इच्छा कब पूरी होगी, तुम कब दर्शन दोगे? मैं दिन-रात तुम्हारे दर्शन के लिए आतुर रहता हूँ। यह इच्छा मुझे इस तरह व्याप्त किये हुई है कि एक पल के लिए भी इस इच्छा से मुक्त नहीं हो पाता हूँ।

मेरे नेत्र तुम्हें चाहते हैं और दिन-रात प्रतीक्षा में ताकते रहते हैं। नेत्रों की चाह इतनी प्रबल है कि ये न थकते हैं और न हार मानते हैं। अर्थात् ये नेत्र जिद्दी हैं और तुम्हारे दर्शन किये बिना हार मानकर बैठने वाले नहीं हैं। अभिप्राय यह कि जब ये नेत्र इतने जिद्दी हैं, और मन दिन-रात आतुर होते हैं तो तुम द्रवित होकर दर्शन दो और इनकी जिद पूरी कर दो।

7. “बिरह अगिनि तन……………..जिन करहू बधीर।”
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियों में कबीरदास जी अपनी दशा का वर्णन करते हुए कहते हैं कि हे स्वामी ! तुम्हारे वियोग की अग्नि में यह शरीर जल रहा है, तुम्हें पाने की लालसा आग की तरह मुझे दग्ध कर रही है। ऐसा मानकर तुम विचार कर लो कि मैं दर्शन पाने का पात्र हूँ या उपेक्षा का?

कबीरदास जी अपनी विरह-दशा को बतला कर चुप नहीं रह जाते हैं? वे एक वादी अर्थात् फरियादी करने वाले व्यक्ति के रूप में अपना वाद या पक्ष या पीड़ा निवेदित करते हैं और प्रार्थना. करते हैं कि तुम मेरी पुकार सुनो, बहरे की तरह अनसुनी मत करो। पंक्तियों की कथन-भगिमा की गहराई में जाने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि कबीर याचक की तरह दयनीय मुद्रा में विरह-निवेदन नहीं कर रहे हैं। उनके स्वर में विश्वास का बल है और प्रेम की वह शक्ति है जो प्रेमी पर अधिकार-बोध व्यक्त करती है।

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8. तुम्हे धीरज मैं आतुर…………….आरतिवंत कबीर।
व्याख्या-
अपने आध्यात्मिक विरह-सम्बन्धी पद की प्रस्तुत पंक्तियों में कबीर अपनी तुलना आतुरता और ईश्वर की तुलना धैर्य से करते हुए कहते हैं कि हे स्वामी ! तुम धैर्य हो और मैं आतुर। मेरी स्थिति कच्चे घड़े की तरह है। कच्चे घड़े में रखा जल शीघ्र घड़े को गला कर बाहर निकलने लगता है। उसी तरह मेरे भीतर का धैर्य शीघ्र समाप्त हो रहा है अर्थात् मेरा मन अधीर हो रहा है। आप से बहुत दिनों से बिछुड़ चुका हूँ।

मन अधीर हो रहा है तथा शरीर क्षीण हो रहा है। अपने भक्त कबीर पर कृपाकर अपने दर्शन दीजिए। आपके दर्शन से ही मेरा जीवन सफल हो सकता है। कबीरदास का मन ईश्वर से मिलने के लिए व्याकुल है। उनकी अन्तरात्मा ईश्वर के लिए आतुर है। वास्तव में, ईश्वर के दर्शन से ही कबीर का जीवन सफल हो सकता है।

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 12 गाँव के बच्चों की शिक्षा

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 12 गाँव के बच्चों की शिक्षा (कृष्ण कुमार)

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 12 गाँव के बच्चों की शिक्षा (कृष्ण कुमार)

गाँव के बच्चों की शिक्षा पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
“कमारा ल्ये” का देश किस देश का उपनिवेश था? अपनी आत्मकथा के अन्तिम अध्याय में उन्होंने किस प्रसंग का चित्रण किया है? संक्षेप में लिखें।
उत्तर-
कमारा ल्ये’ का देश (पश्चिमी अफ्रीका) फ्रांस का उपनिवेश था। कमारा ल्ये ने अपनी आत्मकथा के अन्तिम अध्याय में उस घटना का विवरण प्रस्तुत किया है। उच्चतर माध्यमिक शिक्षा समाप्त करने के पश्चात एक प्रतियोगिता के लिए उनका चयन हुआ। सौभाग्यवश मेधावी छात्र ‘कमारा’ उक्त प्रतियोगिता में सफल हुए। उत्तीण होने पर उन्हें उच्च-शिक्षा के लिए फ्रांस भेजने का प्रस्ताव हुआ। उन्हें तत्कालीन सरकार द्वारा फ्रांस भेजने एवं अध्ययन (शिक्षण) की व्यवस्था की गई। उस समय एक गुलाम देश में, विदेश जाकर उच्च शिक्षा ग्रहण करना एक विशिष्ट उपलब्धि तथा आश्चर्यजनक बात थी।

कमारा को अपने माता-पिता, रिश्तेदारों तथा घर के तमाम लोगों से मिलकर विदा लेने के लिए अपने गाँव आना पड़ा। गाँव के सभी लोग अत्यन्त गद्गद् थे। कमारा को उसके चाचा-चाचियों, मामा-मामियों तथा अन्य सम्बन्धियों ने सहर्ष विदाई दी। किन्तु खटकने वाली एक बात यह थी कि उसकी माँ वहाँ पर दिखायी नहीं दी। चिन्तित कमारा माँ से आर्शीवाद लेने की आशा पाले, अपनी झोपड़ी में गए। माँ वहाँ पर सिसकियाँ भर रही थीं। माँ को रोते देख कमारा उद्विग्न हो गए। उन्होंने माँ से इसका कारण पूछा।

अनेक प्रयासों के पश्चात माँ ने कहा कि जिस दिन कमारा का प्राथमिक पाठशाला में नामांकन हुआ था, उसी दिन उसकी माँ ने समझ लिया था कि वह (कमारा) उस गाँव में नहीं टिक पाएगा। मैंने पिता एवं चाचा को कमारा की पढ़ाई कराने के लिए मना किया था, किन्तु वे लोग नहीं माने। उनलोगों ने उसको (उसकी माँ को) धोखा दिया। अब पढ़ने के लिए विदेश जाने के बाद कमारा देश में भी नहीं रहेगा। उसकी माँ ने यह भी कहा कि वह कमारा तो उससे बहुत पहले ही, शिक्षा प्राप्त करने के साथ विदाई ले चुका है। केवल उसी से नहीं वरन् पूरे गाँव से उसे छीन लिया गया है। इन पंक्तियों में एक माँ की अन्तर्वेदना स्पष्ट परिलक्षित होती है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 12 गाँव के बच्चों की शिक्षा (कृष्ण कुमार)

प्रश्न 2.
‘कमारा ल्ये’ की आत्मकथा किसे समर्पित है?
उत्तर-
‘कमारा ल्ये’ ने अपनी आत्मकथा अपने देश की इन असंख्य अशिक्षित माताओं को समर्पित किया है, जो अफ्रीका के खेतों में काम करती हैं। विदेश में विद्याध्ययन के लिए जाते समय अपनी माँ से विदाई लेते समय उसके द्वारा प्रकट किए गए उद्गार से कमारा अत्यन्त प्रभावित हुआ। माँ के अन्तः वेदना तथा नैराश्य की भावना ने इसकी संवेदना को झकझोर कर रख दिया, जिसकी परिणति उसकी आत्मकथा के समर्पण में स्पष्ट प्रतिबिम्बित होती है।

प्रश्न 3.
“कमारा ल्ये” की माँ उन्हें क्यों नहीं पढ़ाना चाहती थीं? .
उत्तर-
“कमारा ल्ये’ की माँ को आशंका थी कि यदि वह शिक्षा ग्रहण करने विद्यालय जाएगा तो कालांतर में गाँव छोड़कर अन्यत्र चला जाएगा। गाँव छोड़ना उसकी परिस्थितिजन्य विवशता होगी। जब वह अपना देश छोड़कर उच्च शिक्षा ग्रहण करने हेतु फ्रांस जाने लगा तो उसकी माँ को पूर्ण विश्वास हो गया कि अब वह अपने देश अफ्रीका में नहीं रह पाएगा, विदेश चला जाएगा। माँ की ममता उसे ऐसा सोचने पर विवश कर रही थी।

प्रश्न 4.
“शिक्षा अपने आप में कोई गुणकारी दवाई नहीं है जिसके सेवन से समाज एकदम रोगमुक्त हो जाएगा या वह कोई एक उपहार हो जो सरकार हमें देने वाली हो या पिछले पचास साल से देती चली आ रही हो।” आखिरकार शिक्षा क्या है? लेखक के इस कथन का अभिप्राय क्या है? स्पष्ट करें।
उत्तर-
लेखक कृष्ण कुमार के मतानुसार हम लोग शिक्षा और साक्षरता के विषय में गलत एवं त्रुटिपूर्ण धारणा से ग्रसित हैं। हम समझते हैं कि शिक्षा का कोई सामाजिक चरित्र नहीं है। हमलोगों की यह मानसिकता है कि शिक्षा स्वयं ऐसी गुणकारी दवाई है जिसके सेवन से समाज एकदम, रोगमुक्त हो जाएगा। हम यह भी मान बैठे हैं कि यह एक उपहार है जो सरकार द्वारा प्रदान किया गया है अथवा पिछले पचास साल से सरकार द्वारा हमें प्राप्त होता रहा है।

कृष्ण कुमार ने व्यंग्यात्मक शैली में इसे रेखांकित किया है। लेखक हमारी इस भावना से सहमत नहीं है। उसके अनुसार पिछले पचास सालों से सरकार ऐसे आश्वासन देती आ रही है। इसके बावजूद अभी तक शिक्षा प्रत्येक बच्चे तक नहीं पहुँची है। लेखक के अनुसार वर्तमान समय में शिक्षा का नितान्त प्रतिकूल सामाजिक चरित्र उभरकर सामने आया है। शिक्षा बच्चों को समाज के सबसे व्यापक सरकारों से काटनेवाला एक प्रमुख अस्त्र बनकर उभरी है। प्राथमिक पाठशाला में प्रवेश करने वाले दिने से ही इस प्रक्रिया का सूत्रपात हो जाता है।

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अतः लेखक कृष्ण कुमार का विचार है कि प्राथमिक शिक्षा के दायरा का विस्तार लड़कियों तथा समाज के उत्पीडित तबकों तक किया जाए। साथ ही बच्चों को शिक्षा के माध्यम से रखना है, उन्हें इस दिशा में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए। शिक्षा सार्थक होना चाहिए। इस दिशा में एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने के आवश्यकता है।

प्रश्न 5.
लेखक के अनुसार शिक्षा बच्चों को समाज के सबसे व्यापक सरोकारों से काटने वाला एक प्रमुख अस्त्र बन गई है? लेखक ने ऐसा क्यों कहा है? क्या आप इससे सहमत हैं? आप अपना विचार दें।
उत्तर-
लेखक कृष्ण कुमार की धारणा है कि बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा का वर्तमान स्वरूप बच्चों को समाज के सबसे व्यापक सरोकारों से काटने वाला एक प्रमुख अस्त्र बनकर उभरा है कि विद्वान लेखक ऐसा अनुभव करते हैं कि बच्चे समझते हैं कि शिक्षा का कोई सामाजिक महत्त्व नहीं है। बल्कि वास्तविकता यह भी है कि बच्चों को इस प्रकार की शिक्षा परोसी जा रही है जिसके द्वारा शिक्षा का सामाजिक चरित्र अछूता रह जाता है, उपेक्षित रहता है। अपने सामाजिक दायित्व का बोध बच्चों को नहीं हो पाता है।

वर्तमान शिक्षा पद्धति को देखकर लेखक की ऐसी प्रतिक्रिया है। लेखक इस स्थिति से क्षुब्ध दिख पड़ते हैं। वह यह देखते आ रहे हैं कि पिछले पचास वर्षों से शिक्षा की ऐसी ही दयनीय स्थिति चली आ रही है।

निश्चित रूप से लेखक महोदय के विचार पूर्णरूपेण तथ्य पर आधारित हैं। निःसंदेह वर्तमान शिक्षा-पद्धति इसी प्रकार के दुर्भाग्यपूर्ण दौर से गुजर रही है। बच्चे अपने सामाजिक दायित्वों को नहीं समझते। वे शिक्षा के सामाजिक-चरित्र की उपेक्षा करते हैं। इसकी दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य केवल पुस्तकों के ज्ञान तक ही सीमित है।

अतः लेखक का कथन सर्वथा उपयुक्त एवं सार्थक है।

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प्रश्न 6.
आर्थिक उदारीकरण से आप क्या समझते हैं? इसके क्या दुष्परिणाम हुए हैं?
उत्तर-
आर्थिक उदारीकरण को आमतौर पर आर्थिक सुधार के रूप में जाना जाता है। इसे राष्ट्र की आर्थिक स्थिति के उन्नयन हेतु एक सुदृढ़ औजार के तौर पर समझा जाने लगा है। इसके परिणामस्वरूप पूँजीवाद देश के कोने-कोने में पहुंच रहा है। राष्ट्र के सर्वांगीण विकास की अवधारणा का भ्रामक विचार सरकार के मानस-पटल पर पल्लवित हो रहा है।

किन्तु वास्तविकता यह है कि यह उदारीकरण राष्ट्र को जर्जर बना रहा है। इस प्रक्रिया द्वारा जमीन, जंगल, पानी, खनिजों तथा अन्य मानव-संसाधनों का दोहन हो रहा है। आम आदमी से छीनकर इन्हें कुछ पूँजीपति घरानों तथा विदेशी कंपनियों के हवाले किया जा रहा है। यह प्रक्रिया निरंतर जारी है। देश के कोने-कोने से आम आदमी अपनी जीवन से विस्थापित हो रहे हैं, अपने बच्चों से दूर जाकर अन्यत्र रोजी-रोटी कमाने के लिए विवश हैं। अभागे लोग इस तथ्य से भली-भांति परिचित हैं कि आर्थिक उदारीकरण देश को किस ओर ले जा रहे हैं। इस स्थिति द्वारा इससे (उदारीकरण से) उपजे दुष्परिणाम का सहज अनुमान लगाया जा सकता है।

प्रश्न 7.
लेखक ने प्रस्तुत पाठ में देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था पर आक्षेप किये हैं। उनके विचार से देश की राजनीतिक व्यवस्था में कौन-सी समस्याएँ प्रवेश कर चुकी हैं?
उत्तर-
लेखक कृष्ण कुमार देश की वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था से क्षुब्ध है। सर्वत्र हिंसा एवं अपराध का बोलबाला हो गया। यूँ कहा जाए कि अपराध का राजनीतिकरण तथा राजनीति का अपराधीकरण हो गया है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वर्तमान में अपराध राजनीति का हिस्सा बन चुका है। हम इसकी गहराई में जितना जाएँगे हमें क्रमशः इसके विस्तार की जानकारी प्राप्त होगी। हिंसा एवं अपराध राजनीति का धार्मिक अंग हो गया है जो राष्ट्र के विभिन्न क्षेत्रों में अबाध गति से प्रवाहित हो रहा है। राजनीति में ही नहीं, सामाजिक संबंधों तक भी इसने अपने पाँव पसार लिये हैं।

इस हिंसा का शिकार महिलाएं, कामगार, आदिवासी, छोटे किसान तथा मजदूर यह सभी समान रूप से हो रहे हैं। हिंसा एवं अपराध का यह भयंकर तांडव पूँजी के शासन तथा एकदम भ्रष्ट एवं प्रांसगिक हो गई राजनीति के साथ-साथ राजनीति की मुख्य धारा में भी प्रविष्ट हो गया है। लेखक ने इन दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों से असंतुष्ट, अपनी वेदना प्रकट की है।

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प्रश्न 8.
“पंचायती राज में एक तरफ चिंगारी और रोशनी झाँकती है, वहीं ढेरों आशंकाओं का अँधेरा भी दिखाई देता है।” यहाँ किन रोशनी और आशंकाओं की ओर संकेत है?
उत्तर-
‘गाँव के बच्चों की शिक्षा’ शीर्षक कहानी के लेखक कृष्ण कुमार के अनुसार देश के सर्वांगीण विकास के लिए पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना एक सार्थक कदम है। लेखक पंचायती राज व्यवस्था को राष्ट्र के उत्थान का एक सशक्त माध्यम मानता है। उसे इस व्यवस्था में आशा की एक किरण दिख पड़ती है, राष्ट्र एवं समाज में परिवर्तन की एक छोटी, किन्तु ऊर्जावान चिंगारी दृष्टिगोचर हो रही है। किन्तु वह पूर्ण आश्वस्त नहीं है। वह यह देखकर निराश है कि पंचायती राज व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं किए जा रहे हैं, वरन् केवल औपचारिकता मात्र है।

उन्हें समुचित प्रशासनिक अधिकारों से वंचित रखा गया है। अनेक प्रदेशों में पंचायतों के चुनाव नहीं हुए हैं। ग्राम सभाएँ केवल नाममात्र की उपस्थिति दर्शाती हैं। वे किसी भी मुद्दे पर चर्चा भर कर सकती हैं, फैसले नहीं ले सकतीं, पंचायतों के महत्त्वपूर्ण अधिकारों से वंचित रहने के कारण पीड़ित, शोषित एवं बुनियादी सुविधाओं से रहित जनता की स्थिति में सुधार नहीं हो पा रहा है। महिलाओं की स्थिति भी वैसी ही दयनीय है।

लेखक पंचायती राज व्यवस्था को राष्ट्र एवं समाज के सर्वांगपूर्ण विकास की सशक्त कड़ी मानता है, साथ ही लेखक को यह देखकर निराशा होती है कि पंचायतों का चुनाव एवं गठन होने के बावजूद व्यावहारिक रूप से उसे नाममात्र के अधिकार दिए गए हैं। स्थानीय स्तर पर मची खलबली एवं अराजकता को नियंत्रित करने की स्थिति में हमारी पंचायतें नहीं हैं। यह कैसी विडम्बना है। लेखक यह देखकर हतप्रभ है।

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प्रश्न 9.
प्राथमिक शिक्षा को अधिक कारगर बनाने के लिए लेखक ने कौन-से दो क्षेत्र सुझाए हैं?
उत्तर-
वर्तमान राष्ट्रीय परिदृश्य में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति संतोषप्रद नहीं है। इसके अनेक कारण हैं। एक प्रमुख कारण यह है कि प्राथमिक पाठशाला का शिक्षक उपेक्षित एवं प्रताड़ित है। एक ओर बालकों तथा बालिकाओं का पाठशाला में नामंकन के पश्चात ऐसी परिस्थितियाँ सृजित की जाती हैं कि वे बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। बच्चों को उपेक्षा तथा अपमान का चूंट पीना पड़ता है। प्रारम्भिक कक्षाओं में उन्हें प्रताड़ना का शिकार होना पड़ता है। एक और बड़ी कठिनाई यह भी है कि शिक्षकों को समुचित प्रशिक्षण नहीं दिया जाता है। शिक्षा का तीव्र गति से अवमूल्यन हो रहा है।

लेखक कृष्ण कुमार के कथनानुसार कुछ प्रदेशों में शिक्षकों को 500 रुपए वेतन पर नियुक्त किया जा रहा है। अल्प वेतन भोगी शिक्षक कभी भी सही ढंग से अध्यापन कार्य नहीं कर सकते।

प्राथमिक शिक्षा को कारगर बनाने के लिए शिक्षकों के प्रति उपेक्षा-भाव का परित्याग करना होगा। उन्हें समुचित वेतनमान दिया जाना चाहिए। साथ ही उनके प्रशिक्षण की यथेष्ट योजना कार्यान्वित करने की आवश्यकता है। पाठशालाओं में ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा ताकि बच्चे स्कूल जोन के लिए प्रोत्साहित हो। उनके लिए कुछ आकर्षक कार्यक्रम तैयार करना श्रेयस्कर है। विद्यालयों को पर्याप्त वित्तीय सहायता भी इस दिशा में महत्त्वपूर्ण है।

शिक्षा में सुधार एवं उन्नयन के लिए बड़ी-बड़ी गोष्ठियाँ, सेमिनार आदि आयोजित करना, शिक्षाविदों की कमिटी गठित कर कंसलटेंसी फीस का भारी-भरकम भुगतान इस दिशा में एक अनुपयुक्त प्रयास है। इससे प्राथमिक शिक्षा पर खर्च की जाने वाली राशि का अधिक हिस्सा उन्हीं अनावश्यक मदों में व्यय हो जाता है। प्राथमिकशालाओं के विकास तथा शिक्षकों के बेहतर वेतनमान में उस कोष का निवेश होना चाहिए।

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इस प्रकार लेखक ने प्राथमिक शिक्षा के प्रसार के लिए उपर्युक्त कई उपाय बताये हैं।

प्रश्न 10.
नौकरशाही ने प्राथमिक शिक्षा को किस प्रकार नुकसान पहुँचाया है?
उत्तर-
शिक्षा पर नौकरशाही के प्रभुत्व के प्राथमिक शिक्षा को पर्याप्त नुकसान पहुँचाया है। नौकरशाही इसके विकास के सामने एक दीवार बनकर खड़ी है। वह प्रायः हर अच्छे कार्यक्रम का विरोध करती है। इस दिशा में गहराई तक जाने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। पंचायतें इसकी मूक गवाह हैं। बड़ी-बड़ी कमिटियों और कमीशनों द्वारा सुझाए गए शैक्षिक सुधार नौकरशाही द्वारा ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते हैं, अच्छे से अच्छे सुझाव और संभावनाएँ कुचल दी जाती हैं। इसके मूल में अफसरों की मानसिकता अपने प्रभुत्व को बनाए रखने की होती है। वह अपनी ताकत कम होते देखना नहीं चाहता। विडम्बना यह है कि शिक्षा की विफलताओं का सारा दोष प्राथमिकशाला के निरीह शिक्षकों पर थोप दिया जाता है, जबकि वे हमारे साथी हैं, शत्रु नहीं।

इससे यह निर्विवाद स्पष्ट हो जाता है कि नौकरशाही प्राथमिक शिक्षा को अत्यधिक नुकसान पहुँचाया है।

प्रश्न 11.
प्राथमिक शिक्षा की असफलता का दोष किन्हें दिया जाता है?
उत्तर-
प्राथमिक शिक्षा की असफलता का दोषारोपण प्राथमिकशाला के शिक्षकों पर किया जाता है। पिछलो कई पीढ़ियों से इस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त की जा रही है। परंतु अभी तक इसमें कोई सुधार नहीं हुआ है।

प्रश्न 12.
प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी धन के आगमन की अन्तिम परिणति महिलाओं पर हिंसा के रूप में होनी है? कैसे?
उत्तर-
देश में आज प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी धन के आगमन से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हुई हैं, जिसकी अन्तिम परिणति महिलाओं पर हिंसा के रूप में प्रकट हुई है। आर्थिक उदारीकरण की विवशताओं के फलस्वरूप प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में विदेशी धन आ रहा है। विधायक, मंत्री और अफसर दिन-रात इसके बंदरबाँट में लगे हैं तथा इसकी सत्तर प्रतिशत से अधिक की राशि उनके पेट में चली जाती है। स्पष्ट है कि यह पैसा बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार को जन्म दे रहा है। यह निर्विवाद तथ्य है कि भ्रष्टाचार हिंसा की जननी है, हिंसा का प्रणेता है और जहाँ हिंसा होगी उसकी शिकार विशेषकर महिलाएँ होगी।

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अत: यह पूर्णतया सत्य है कि प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में विदेशी धन की अन्तिम परिणति नारी-उत्पीड़न है जो हिंसा का रूप भी अक्सर धारण कर लेता है।

प्रश्न 13.
लेखक के प्राथमिकशाला के शिक्षकों से संबंधित विचार संक्षेप में लिखें।
उत्तर-
प्राथमिक शिक्षा को अधिक बनाने की दिशा में लेखक कृष्ण कुमार ने सारगर्भित सुझाव व्यक्त किए हैं। लेखक के मतानुसार प्राथमिक-शिक्षा कोई अजूबा या दूर की कौड़ी नहीं है, बल्कि उसी संदर्भ में जन्म लेती है जो हमारे ईद-गिर्द रचा जा रहा है। प्राथमिकशाला के शिक्षकों के साथ चलकर शिक्षा की समस्याओं तथा उसकी लाचारी को समझा जा सकता है। शिक्षकों की व्यक्तिगत विवशताओं का समाधान आवश्यक है। अल्प वेतन भोगी प्राथमिक शिक्षक निष्ठापूर्वक अध्यापन कार्य नहीं कर सकते। उनकी लाचारी, मजबूरी एवं विपन्नता का समाधान आवश्यक है। इसके अतिरिक्त उनको स्वाभिमान एवं स्वतंत्र रूप में निर्णय लेने का अधिकार देना होगा।

इस प्रकार लेखक ने वर्तमान में प्राथमिकशालाओं के अध्यापकों की दुरावस्था एवं निराकरण का सुझाव प्रस्तुत किया है।

प्रश्न 14.
साधना बहन के हरित-क्रांति के सम्बन्ध में क्या विचार हैं?
उत्तर-
साधना बहन ने हरित क्रांति के नाम पर तथाकथित खेती में क्रांतिकारी परिवर्तन के प्रति अपनी निराशा तथा असंतोष प्रकट किया है। उसके द्वारा सोयाबीन की खेती से होने वाले दुष्प्रभाव तथा खेती पर होने वाली विपरीत स्थितियों का अत्यन्त सजीव चित्रण किया गया है। उनके अनुसार साठ के दशक में प्रारम्भ की गई हरित क्रांति गरीबी तथा विषमता में वृद्धि का कारण बनी है। इधर गाँवों में विषमता एवं गरीबी में उत्तरोत्तर वृद्धि एवं दूसरी ओर धनी लोग पहले से अधिक अमीर तथा समृद्ध हुए हैं। इस तथाकथित हरित क्रांति का दुष्परिगाम यह हुआ है कि हमारे गाँवों की कृषि योग्य भूमि नष्ट हुई है।

नई-नई फसलों, जिनका हमारी जलवायु से कोई संबंध नहीं है, यहाँ की परिस्थितियों में अनुपयुक्त हैं, नकदी फसलों का प्रलोभन देकर, खेती करने को प्रोत्साहित किया गया। रासायानिक खाद और कीटनाशकों के अंधाधुंप प्रयोग से पानी और मिट्टी के विषाक्त होने का खतरा उपस्थित हो गया है। गाँवों की कृषि को सबसे अधिक नुकसान पहुँचाया है सोयाबीन की खेती ने, जिसके परिणामस्वरूप देश की मिट्टी अनेक स्थानों पर अनुर्वर होने के कगार पर पहुंच गई है। इससे हमारी खेती की व्यापक क्षति हुई है।

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पर्यावरण, प्रकृति संरक्षण और समाज में समता के मूल्यों को स्थापित करके ही हम राष्ट्र के विकास की आशा कर सकते हैं। अन्यथा विनाश की ओर तेजी से बड़ते कदम हमारी कृषि के लिए अत्यन्त अहितकर होगा।

अतः हमें सतर्क रहने की आवश्यकता है अन्यथा वर्तमान शिक्षा इस दिशा में अधिक विध्वंसकारी परिणाम लाएगी।

साधना बहन ने उपर्युक्त तथ्यों को रेखांकित करते हुए अपना आन्तरिक क्षोभ प्रकट किया है। साथ ही उन्होनें हमें उक्त प्रयासों से बचने का परामर्श दिया है।

प्रश्न 15.
“यदि हम पर्यावरण, प्रकृति-सरंक्षण और समाज में समता के मूल्यों को स्थापित करने की बात नहीं करेंगे तो शिक्षा इस विनाश को और भी तेजी से फैलाएगी।” लेखक के इस कथन का अभिप्राय स्पष्ट करें। आखिरकार शिक्षा इस विनाश को कैसे तेजी से फैलाएगी?
उत्तर-
‘गाँव के बच्चों की शिक्षा’ के लेखक कृष्ण कुमार का यह कटु अनुभव है कि हम केवल बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाते हैं, उपलब्धियों की चर्चा करते हैं, किन्तु राष्ट्र के विकास के प्रमुख कारक (कार्य), यथा पर्यावरण की सुरक्षा, प्रकृति-संरक्षण तथा समाज में समता के मूल्यों की स्थापना के प्रति सचेष्ट नहीं हैं। हम इनकी नितान्त उपेक्षा कर रहे हैं। वर्तमान शिक्षा इसमें सार्थक योगदान नहीं कर रही है। इसकी परिणति व्यापक विनाश को आमंत्रित करेगी।

वास्तविकता यह है कि उच्च स्तर पर मंत्रियों की चाटुकारिता तथा विभागीय अफसरों द्वारा खुशामद में तलवे चाटने की प्रवृत्ति इन बुराइयों का मूल कारण है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप शिक्षा दर्शन ही समाप्त हो जाता है। समुचित मार्गदर्शन के अभाव में हम लक्ष्य से भटक गए हैं।

शिक्षक वर्तमान दयनीय स्थिति तथा वर्तमान शिक्षा प्रणाली से अत्यन्त क्षुब्ध तथा हतोत्साहित है। इसकी आन्तरित इच्छा है कि वर्तमान व्यवस्था में परिवर्तन लाये बिना हम समाज में समता एवं विकास के लक्ष्य तक नहीं पहुंच सकते।

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प्रश्न 16.
गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा की रूपरेखा क्या थी?
उत्तर-
गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा की रूपरेखा शिक्षा को ग्रामीण जीवन तथा गाँव के पारम्परिक उद्योगों से जोड़ना था। गाँधीजी आज की शिक्षा विशेष तौर से प्राथमिक शिक्षा में नवजीवन का संचार करना चाहते थे। वस्तुत: वे ऐसा करने में पूर्ण सक्षम थे। बुनियादी तालीम की गांधीजी की कल्पना, उनके ग्राम-स्वराज्य के सपनों की आधारशिला थी। इसके माध्यम से ग्रामों की स्वायत्तता तथा ग्रामीणों को सम्मानपूर्वक जीने का हौसला देना, उनका लक्ष्य था। इस प्रक्रिया में बुनियादी तालीस की उनकी रूपरेखा आज भी प्रेरणादायक है तथा इस संदर्भ में कार्य करने को दिशा दे सकने में समर्थ है। शिक्षा के सामाजिक चरित्र पर सीधे प्रहार बिना शिक्षा और विनाशकारी विकास के बंधन को हम तोड़ नहीं सकते।

गांधी की बुनियादी शिक्षा की रूपरेखा उपर्युक्त तथ्यों को रेखांकित करती है। इसके द्वारा हम आसानी से समझ सकते हैं। आज की शिक्षा ग्रामीण समाज की पुनर्रचना करने में पूर्णतया अक्षम है। हमें बुनियादी शिक्षा के माध्यम से प्राथमिक शिक्षा को एक ऐसे मुकाम पर पहुंचाना होगा जहाँ गाँवों को स्वायत्तता, ग्रामीणों को सम्मानपूर्वक जीने का अधिकार तथा गांवों के पारंपरिक उद्योगों को संरक्षण प्राप्त हो सके।

गाँव के बच्चों की शिक्षा भाषा की बात

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के विपरीतार्थक शब्द लिखें प्रतिकूल, सहज, प्राथमिक, सुलझाना, ग्रामीण, प्रश्न, जमीन, स्वायत्तता, विदेशी
उत्तर-

  • शब्छ – विपरीतार्थक शब्द
  • प्रतिकूल – अनुकूल
  • सहज – दुर्लभ
  • प्राथमिक – अतिम
  • सुलझाना – उलझाना
  • ग्रामीण – शहरी, नगरीय
  • प्रश्न – उत्तर
  • जमीन – आसमान
  • स्वायत्तता – पराधीनता,
  • परनिर्भरता – स्वदेशी

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के वचन परिवर्तित करें-
माँ, सिसकी, रिश्तेदार, लड़का, लड़की, किसान, मजदूर, विधायक, मंत्री, अफसर, विवशता, पस्तक, प्रक्रिया
उत्तर-

  • शब्द – परिवर्तित वचन
  • माँ – माएँ, माताएँ
  • सिसकी – सिसकियाँ
  • रिश्तेदार – रिश्तेदारों
  • लड़का – लड़के
  • लड़की – लड़कियाँ
  • किसान – किसानों
  • मजदूर – मजदूरों
  • विधायक – विधायकगण
  • अफसर – अफसरों
  • विवशता – विवशताएँ
  • पुस्तक – पुस्तकं
  • प्रक्रिया – प्रक्रियाएँ

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के समानार्थी लिखें
प्राथमिकशाला, अनपढ़, बुनियादी, गुंजाइश, महिला शिक्षक, गिरवी, इस्तेमाल, ताकतवर, आजादी, हैसियत, लचर, दाखिला, अरमान
उत्तर-

  • शब्द – समानार्थी शब्द
  • प्राथमिक शाला – प्रारंभिक शाला
  • अनपढ़ – मूर्ख
  • बुनियादी – बेसिक
  • गुंजाइश – जोगाड़
  • महिला शिक्षक – अध्यापिका
  • गिरवी – बंधक
  • इस्तेमाल – व्यवहार
  • ताकतवर – शक्तिशाली
  • आजादी – स्वतंत्रता
  • हैसियत – औकात, सामर्थ्य
  • लचर – पंगु, कमजोर
  • दाखिल – भर्ती
  • अरमान – अभिलाषा।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित शब्दों का वाक्य प्रयोग द्वारा लिंग निर्णय करें
गाँव, सुविधा, भाषा, पढ़ाई, सुधार, जाल, नीति, परिदृश्य
उत्तर-

  • गाँव (पुलिंग)-यह मेरा गाँव है।
  • सुविधा (स्त्रीलिंग)-आप अपनी सुविधा के अनुकूल कार्य करें।
  • भाषा (स्त्रीलिंग)-मेरी भाषा अच्छी नहीं है।
  • पढ़ाई (स्त्रीलिंग)-आपकी पढ़ाई कैसी है?
  • सुधार (पुलिंग)-गाँवों का सुधार होना अपेक्षित है।
  • जाल (पुलिंग)-आपका जाल फैलना उचित नहीं।
  • नीति (स्त्रीलिंग)-सरकार की वर्तमान नीति जनहित में है।
  • परिदृश्य (पुलिंग)-यह परिदृश्य उपेक्षित नहीं है।

प्रश्न 5.
अर्थ की दृष्टि से नीचे दिए गए वाक्यों की प्रकृति बताएँ
उत्तर-
(क) प्राथमिक शिक्षा के लिए विदेशी धन क्यों आया है? प्रश्नवाचक वाक्य
(3) आज शिक्षा का बहुत ही प्रतिकूल सामाजिक चरित्र उभर आया है। – विधिवाचक वाक्य
(ग) मुझे मालूम था कि तुम इस देश में नहीं रूक पाआगे और हमारे लिए कुछ नहीं कर पाओगे। – नकारात्मक वाक्य
(घ) तुम्हें जहाँ जाना है जाओ।
(ङ) संभव है इस सभा में कहीं टिमरनी से आई साधना बहन बैठी हैं। – संदेहवाचक वाक्य
(च) क्या वजह है कि आज हमारे कई गाँवों में पानी उपलब्ध नहीं है, लेकिन शराब उपलब्ध -विस्मयादिबोधक वाक्य

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अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

गाँव के बच्चों की शिक्षा लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
हरित क्रांति के प्रभाव को लिखें। ,
उत्तर-
भारत एक कृषि प्रधान देश है। स्वतंत्रता के समय भारतीय कृषि पिछड़ी हुयी थी। इसीलिए कृषि की पिछड़ेपन को दूर करने और उसे उन्नतशील बनाने के लिए खेती में एक नयी क्रांति को लागू किया गया, जिसे हरित क्रांति कहा गया। हरित क्रांति के माध्यम से भारतीय कृषि को हरी-भरी बनाने का लक्ष्य रखा गया। इस क्रांति से देश में कृषि की उत्पादकता में वृद्धि हुयी और हमारा देश खाद्यान्न फसलों के दृष्टिकोण से आत्म-निर्भर बन चुका है। प्रस्तुत निबंध में भी साधना बहन ने हरित क्रांति का भारतीय कृषि पर अनुकूल प्रभाव पड़ा है।

प्रश्न 2.
बुनियादी शिक्षा के महत्व को बतलाएँ।
उत्तर-
भारत में बुनियादी शिक्षा का महत्व बहुत अधिक है। इसीलिए राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने भी बुनियादी शिक्षा का समर्थन किया था। उन्होंने यह कहा था कि बुनियादी शिक्षा की रूपरेखा शिक्षा को ग्रामीण जीवन तथा गाँव के पारम्परिक उद्योगों से जोड़ना था। वे प्राथमिक शिक्षा को देश के अनुकूल बनाना चाहते थे। जिससे कि ग्रामीण स्वराज्य के सपनों को साकार किया जा सके। वे कृषि के साथ-साथ कुटीर उद्योगों का समर्थन करते थे। इसीलिए उन्होंने चरखा उद्योग का समर्थन किया।

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गाँव के बच्चों की शिक्षा अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
गाँव के बच्चों की शिक्षा नामक निबंध के लेखक कौन हैं?
उत्तर-
गाँव के बच्चों की शिक्षा नामक निबंध के लेखक कृष्ण कुमार हैं।

प्रश्न 2.
गाँव के बच्चों की शिक्षा नामक पाठ किस प्रकार की रचना है?
उत्तर-
गाँव के बच्चों की शिक्षा नामक पाठ एक विचारोत्रेजक रचना है।

प्रश्न 3.
गाँव के बच्चों की शिक्षा नामक पाठ में लेखक की चर्चा हुयी है?
उत्तर-
गाँव के बच्चों की शिक्षा नामक पाठ में कमारा ल्ये नामक लेखक की चर्चा हुयी है।

प्रश्न 4.
गाँव के बच्चों की शिक्षा में किनकी बुनियादी शिक्षा की अवधारणा पर वि किया गया है?
उत्तर-
गाँव के बच्चों की शिक्षा नामक पाठ में गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा पर विचार किया गया है।

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प्रश्न 5.
प्राथमिक शिक्षा भारत में असफल रहा है?
उत्तर-
भारत में प्राथमिक शिक्षा धन के लूट-खसोट के कारण असफल रहा है। इसमें भ्रष्टाचार अधिक है। इसलिए अपेक्षा के अनुसार यह अधिक सफल नहीं हो सका है।

गाँव के बच्चों की शिक्षा वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें।

प्रश्न 1.
‘गांव के बच्चों की शिक्षा’ व्याख्यान कहाँ से लिया गया है?
(क) शिक्षा और ज्ञान
(ख) त्रिकाल दर्शन
(ग) आज नहीं पढ़ेगा
(घ) स्कूल की हिन्दी
उत्तर-
(क)

प्रश्न 2.
‘नीली आंखों वाले बगुले’ किसकी रचना है?
(क) मोहन राकेश
(ख) कृष्ण कुमार
(ग) मेहरुन्निसा परवेज
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 3.
शिक्षाशास्त्रियों में किस विषय पर प्राय: वाद-विवाद होते रहते हैं?
(क) शिक्षा का माध्यम
(ख) वयस्क शिक्षा
(ग) गाँव नगरों का शिक्षा
(घ) साहित्यिक विधाएँ
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 4.
कुमारल्ये का देश किस देश का उपनिवेश था?
(क) इंगलैंड
(ख) फ्रांस
(ग) अमेरिका
(म) जर्मनी
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 5.
कुमारल्ये की आत्मकथा किसे समर्पित है?
(क) अपनी माँ को
(ख) अपनी पुत्र को
(ग) अफ्रीका के असंख्य अशिक्षित माताओं को
(घ) अफ्रीकी बुद्धिजीवियों को
उत्तर-
(ग)

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II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न 1.
आज शिक्षा का बहुत ही…….सामाजिक चरित्र उभर आया है।
उत्तर-
प्रतिकूल

प्रश्न 2.
पंचायती राज का पुनरुदय एक…………..प्रक्रिया है।
उत्तर-
ऐतिहासिक

प्रश्न 3.
देश में आज प्राथमिक शिक्षा क्षेत्र में काफी……..आया हुआ है।
उत्तर-
विदेशी

प्रश्न 4.
हरित क्रांति की वजह से हमारे गाँव की जमीनें……………………हुई हैं।
उत्तर-
बर्बाद।

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गाँव के बच्चों की शिक्षा लेखक परिचय – कृष्ण कुमार (1951)

आधुनिक हिन्दी गद्य-साहित्य में कृष्ण कुमार मूलतः प्रखर विचारक के रूप में प्रख्यात हैं। एक विचारक के रूप में अपने लेखन के माध्यम से नारी-मुक्ति व नारी की आजादी आदि कई मानवीय चिन्ताओं के प्रति अपनी सजगता का परिचय देते हुए विचार जगत में उद्वेलन पैदा करने की दिशा में उनके प्रयास, उनकी चेतना और संवेदना को एक नया आयाम प्रदान करते हैं।

कृष्ण कुमार का जन्म सन् 1951 ई० में हुआ था। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वे अध्यापन-कार्य से जुड़ गये। सम्प्रति दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा शास्त्र विभाग (सी.आई.ई.) में प्रोफेसर एवं पूर्व संकायाध्यक्ष हैं।

शिक्षा शास्त्री के रूप में सत्तर के दशक में प्रकाशित शैक्षिक प्रश्नों पर केन्द्रित ‘राज, समाज और शिक्षा’ प्रो. कुमार की एक महत्त्वपूर्ण कृति है। यह कृति आज पूर्व के परिवर्तनों के आलोक में शिक्षा की दशा और दिशा के संदर्भ में अपेक्षित जानकारी देने में सहायक है।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के अन्तर्गत कृष्ण कुमार को लेखक और विचारक के रूप में विशिष्ट पहचान प्राप्त है। भारतीय शिक्षा और उसके अनुपयुक्त रूपों में अवस्थाओं के गहन पर्यालोचन में उनका चिंतन अपने वैशिष्ट्रय के साथ प्रकट हुआ है। राष्ट्रीय नवजागरण से लेकर समसामयिक मुद्दों, यथा-भूमंडलीकरण, बाजारवाद, उपभोक्तावाद, दलित एवं नारी विमर्श आदि विभिन्न वैचारिक संदर्भो में समसामयिक भारतीय शिक्षा पर उनकी सोच पूर्णतया उजागर हुई है।

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उनका जन्म सन् 1951 में मध्य प्रदेश राज्य के टीकमगढ़ में हुआ था। ऊँची शिक्षा उन्हें मध्यप्रदेश के सागर विश्वविद्यालय और टोरंटो विश्वविद्यालय, कनाडा से प्राप्त हुई। सम्प्रति वे एन.सी.ई.आर.टी., नई दिल्ली के निदेशक है।

हिन्दी साहित्य उनकी कहानियों, यात्रा वृत्तांत और निबंधों से जहाँ समृद्धि हुआ है वहीं उनका शिक्षा दर्शन भी उनके शिक्षा सम्बंधी आलेखों में पूरी तरह से उजागर हुआ है।

उनकी कृतियों में नीली आँखों वाले बगुले, त्रिकालदर्शन, अब्दुल मजीद का छुरा, विचार का.. डर, स्कूल की हिन्दी, राज, समाज और शिक्षा आदि प्रमुख हैं।

भारतीय लोकतंत्र के मूल्यों, प्रतिमानों, रूपों आदि के संदर्भ में उनके शिक्षा-चिंतन विशेष महत्त्व रखते हैं। अपने शिक्षा चिंतन के अन्तर्गत उन्होंने शिक्षा के स्वरूप, प्रक्रिया और प्रविधि में स्थानीय जरूरतों और संसाधनों की अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व दिया है।

उनके अब तक के चिंतन में भारतीय लोकतांत्रिक शिक्षा का एक आधुनिक रूप उभरता दिखलायी पड़ता है।

गाँव के बच्चों की शिक्षा पाठ का सारांश।

प्रस्तुत पाठ “गाँव के बच्चों की शिक्षा” कृष्ण कुमार द्वारा लिखित एक सशक्त हिंदी निबंध है।

कृष्ण कुमार लिखित “गाँव के बच्चों की शिक्षा” एक ही देश और समाज में सामान्य शिक्षा के चल रहे अनेक रूपों को प्रस्तुत करते हुए गाँव के बच्चों की शिक्षा की व्यापक समीक्षा एवं तदनुरूप उसकी विसंगतियों के निराकरण की दिशा में विद्वान लेखक ‘कृष्ण कुमार’ का एक सार्थक प्रयास है। शिक्षा के स्वरूप, प्रक्रिया और प्रविधि में स्थानीय जरूरतों, संसाधनों आदि पर प्रस्तुत निबंध में विशेष जोर दिया गया है। गाँधीजी की बुनियादी शिक्षा की अवधारणा तथा शिक्षा के अपेक्षतया सर्वांगीण रूप के युक्तियुक्त विवेचन की सफल प्रस्तुति इस लेख में की गई है।

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विद्वान लेखक अपने उद्देश्य की पूर्ति हेतु पाठकों को फ्रांस द्वारा शासित पश्चिमी अफ्रीका के एक छोटे-से प्रदेश में ले जाते हैं। वहाँ कमारा-ल्ये नामक एक लेखक हुए हैं। लेखक ने कमारा-ल्ये की आत्मकथा के कुछ अंशों के माध्यम से उनके जीवन के संघर्षों का सजीव चित्रण किया है, ग्रामीण परिवेश में प्रारंभिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक का क्रमिक उल्लेख उनकी आत्मकथा में वर्णित है। औपनिवेशिक वातावरण में उनका शिक्षण वस्तुतः प्रशंसनीय था। ग्रामवासी उनकी अप्रत्याशित सफलता से प्रसन्न एवं गौरवान्वित थे, किन्तु उनकी माँ पुत्र के उनसे दूर चले जाने की संभावना से दुःखी थीं।

लेखक ने कमारा ल्ये का दृष्टान्त अपने यहाँ व्याप्त शैक्षणिक वातावरण के संदर्भ में दिया है। लेखक को ऐसा लगता है कि वर्तमान शिक्षा का मानो कोई सामाजिक चरित्र नहीं है। एक प्रतिकूल सामाजिक चरित्र उभर कर सामने आया है। – लेखक की दृष्टि में पंचायती राज का पुनरुदय एक ऐतिहासिक घटना है। उसे इस बात का दु:ख भी है कि पूँजीवाद का प्रसार देश के कोने-कोने में हो रहा है। जमीन, जंगल, पानी, खनिज एवं अन्य मानव संसाधनों पर पूँजीपतियों एवं विदेशी कंपनियों का कब्जा हो गया है।

राजनीति पर हिंसा तथा अपराध हावी है, जिसका शिकार महिलाएँ, मजदूर, कामगार, आदिवासी और छोटे किसान हो रहे हैं। पंचायती राज इस शोषण के निराकरण की दिशा में सार्थक भूमिका निभा सकते हैं।

प्राथमिक शिक्षा को अधिक कारगर बनाकर ही पूर्ण साक्षरता के लक्ष्य की प्राप्ति एवं राष्ट्र का विकास संभव है। भ्रष्ट नौकरशाही, राजनीतिक नेताओं एवं मंत्रियों के काले कारनामों से देश आक्रांत है। आर्थिक उदारीकरण के नाम पर देश में आर्थिक विषमता तथा विपन्नता विकराल रूप धारण कर रही है।

प्राथमिक शिक्षा में गुणात्मक परिवर्तन, कार्यरत शिक्षकों के स्तर में सुधार, उन्हें समुचित अधिकार और सम्मान देकर ही किया जा सकता है। अल्प वेतनभोगी शिक्षकों से सार्थक अध्यापन की आशा करना व्यर्थ है। पाठ्यक्रम में ताकतवर वर्गों की विचारधारा का प्रचार अनुपयुक्त है। ग्रामीण समाज की छवि प्रस्तुत न कर समाज में शासक वर्गों के जीवन की प्रस्तुति निन्दनीय है। प्रस्तुत पाठ के अनुसार इन विसंगतियों का मूल कारण, पिछले कई दशक से चली आ रही यह प्रक्रिया एवं तथाकथित मनोवृत्ति है।।

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लेखक ने महिला पंचों के एक सम्मेलन में अप्रैल, 1997 में इस व्याख्यान द्वारा उक्त विचार प्रकट किए जिन्हें “शिक्षा और ज्ञान” निबंधमाला में संग्रहीत किया गया है। उन्होंने महिलाओं से शिक्षा, कृषि और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर चर्चा की। कृषि में कीटनाशकों एवं रासायनिक खाद, पर्यावरण, प्रकृति संरक्षण, समाज में समानता, प्राथमिक शिक्षा तथा महात्मा गाँधी की बुनियादी शिक्षा मुख्य विचार बिन्दु थे।

यह पाठ रचनात्मक समझ जगाने के साथ-साथ एक विचारोत्तेजक बहस की प्रस्तावना भी करता है।

गाँव के बच्चों की शिक्षा कठिन शब्दों का अर्थ

होशियार-चतुर, मेधावी। कुव्वत-क्षमता। प्रतिकूल-विपरीत। सरोकार-लगाव, संबंध। बेमानी-व्यर्थ, बेकार। दायरा-क्षेत्र। उत्पीड़ित-शोषित जिसका उत्पीड़न हुआ हो। तबका-वर्ग। पुनरुदय-पुन:उदय। गुंजाइश-संभावना। अभ्युदय-उत्थान। खलबली-बेचैनी। कामगार-काम करनेवाले। अप्रासंगिक-अनुपयुक्त। आलंकारिक रूप से-सजावटी तौर पर। कारगर-सफल, उपयोगी। नौकरशाही-अफसरशाही। तालीम-शिक्षा। मुखातिब-आमने-सामने। शिकंजा-घेरा। विवशता-मजबूती, कुछ न कर पाने की स्थिति। शरीक-शामिल। तादाद-संख्या। कंसलटेंसी फीस-सलाह देने के लिए लिया गया शुल्क। तिरस्कार-अपमान, उपेक्षा। परिधि-घेरा, वृत्त। अंतर्विरोध-भीतरी विषमता। सब्सिडी-छूट। प्रवंचना-ठगी। परनाला-नाला। स्वायत्त-आत्मनिर्भर। समग्र-सम्पूर्ण। दोयम दर्जा-दूसरा स्तर।

गाँव के बच्चों की शिक्षा महत्त्वपूर्ण पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या

1. गाँधीजी के ग्राम स्वराज के सपने का अर्थ है गाँवों को स्वायत्तता देना तथा ग्रामीणों को सम्मानपूर्वक जीने का हौसला देना। इस प्रक्रिया में बुनियादी तालीम की उनकी रूपरेखा आज भी हमें प्रेरणा और काम करने की एक परिधि दे सकती है।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ कृष्ण कुमार द्वारा लिखित गाँव के बच्चों की शिक्षा नामक पाठ से ली गयी है। इन पंक्तियों में लेखक का यह कहना है कि गाँव को स्वायत्तता देना और ग्रामीणों को सम्मानपूर्वक जीने का वातावरण उत्पन्न करके उन्हें हौसला देना गाँधीजी के ग्रामीण स्वराज का सपना साकार हो सकता है। देश में ग्रामीण स्वराज हासिल करने के लिए बुनियादी शिक्षा के साथ-साथ गाँव में लोगों को कुटीर उद्योग का विकास करना चाहिए। बुनियादी शिक्षा ग्रामीण स्वराज के अनुकूल होना चाहिए तभी भारत का समुचित विकास हो सकता है। इस सिलसिले में आजकल पंचायती राज महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

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2. देश में आज प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में काफी विदेशी धन आया हुआ है। इस विदेशी धन को खर्च करने में, हमारे विधायक मंत्री और अफसर दिन-रात व्यस्त हैं।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ कृष्ण कुमार द्वारा लिखित गाँव के बच्चों के शिक्षा नामक पाठ से ली गयी है। इन पंक्तियों का अध्ययन करने से इस बात का पता चलता है कि आज हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा के विकास के लिए बहुत विदेशी धन आया है। इस विदेशी धन की बहुत लूट-खसोट हो रही है। इसमें भ्रष्टाचार बहुत है। इस भ्रष्टाचार में मंत्री, विधायक के साथ-साथ अधिकारी भी शामिल हैं। इस विदेशी धन का बंदरबाँट हो रहा है जिससे प्राथमिक शिक्षा का देश में समुचित विकास नहीं हो पा रहा है। परिणामस्वरूप हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा बहुत सफल नहीं है। हालाँकि सर्व-शिक्षा कार्यक्रम चल रहा है जिसका अनुकूल प्रभाव देश की शिक्षा पर पड़ रहा है। फिर भी प्राथमिक शिक्षा को सफल बनाने के लिए भ्रष्टाचार और धन के लूट-खसोट पर नियंत्रण लगाना चाहिए।

Bihar Board 12th Biology Objective Answers Chapter 12 जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग

Bihar Board 12th Biology Objective Questions and Answers

Bihar Board 12th Biology Objective Answers Chapter 12 जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग

प्रश्न 1.
निम्न में से कौन-से कथन GM फसलों से होने वाली हानियों के संबंध में गलत हैं?
(a) GM फसलें मानव स्वास्थ्य को एलर्जिक क्रिया द्वारा प्रभावित करती हैं।
(b) व्यावसायिक फसलों में पारजीन देशी जातियों को संकटग्रस्त कर सकते हैं, उदाहरण-Bt जीव विष जीन पराग में अभिव्यक्त होकर पॉलोनेटर्स, जैसे-मधुमक्खियों के लिए संकट उत्पन्न कर सकता
(c) GM फसलों का उत्पादन प्राकृतिक वातावरण को हानि पहुंचाता है और यह हमेशा महंगा होता है।
(d) उपरोक्त सभी।
उत्तर:
(d) उपरोक्त सभी।

प्रश्न 2.
ट्रान्सजीन विधि द्वारा विकसित ‘स्वर्ण चावल’ निग्न से परिपूर्ण होता है
(a) लाइसीन को उच्च मात्रा से
(b) मेथियोनीन को उच्च मात्रा से
(c) ग्लूटेनिन को उच्च मात्रा से
(d) विटामिन A की उच्च मात्रा से ।
उत्तर:
(d) विटामिन A की उच्च मात्रा से ।

Bihar Board 12th Biology Objective Answers Chapter 12 जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग

प्रश्न 3.
जैव प्रौद्योगिकी के निम्न सभी उपयोग भोज्य उत्पादन को बढ़ाने के
लिये हैं, केवल इसे छोड़कर
(a) एपीकल्चर
(b) कृषि रसायन पर आधारित कृषि ।
(c) कार्बनिक खेती
(d) अनुवांशिकता : अभियांत्रिकीय फसलों पर आधारित कृषि ।
उत्तर:
(a) एपीकल्चर

प्रश्न 4.
कृषि रसायन पर आधारित कृषि में शामिल हैं
(a) उर्वरक और कीटनाशक
(b) अनुवांशिकत: रूपान्तरित फसलें
(c) RNA अंतरक्षेप
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(a) उर्वरक और कीटनाशक

प्रश्न 5.
स्वर्ण धान इसकी उपस्थिति के कारण पीले रंग का होता है
(a) राइबोफ्लेविन
(b) B – कैरोटीन
(c) विटामिन BI
(d) जटिल अनुवांशिक पदार्थ
उत्तर:
(b) B – कैरोटीन

प्रश्न 6.
अनुवांशिकतः रूपान्तरित फसलों से संबंधित निम्न में से कौन-सा कथन सही नहीं है?
(a) इससे फसलों की अजैविक प्रतिबलों (Stress) को सहने की शक्ति बढ़ती है।
(b) इससे पौधों द्वारा खनिजों के उपयोग की दक्षता कम होती है।
(c) यह फसल कटने के बाद होने वाले नुकसान को कम करने में मदद करता है।
(d) वह भोज्य पदार्थों के पोषण मान को बढ़ाता है।
उत्तर:
(b) इससे पौधों द्वारा खनिजों के उपयोग की दक्षता कम होती है।

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प्रश्न 7.
RNA अंतरक्षेप प्रक्रिया का उपयोग तम्बाकू के पौधों को निम्न के लिए प्रतिरोधक बनाने हेतु होता है
(a) बेसिलस थूरीनजिएसिस
(b) मेलोइडोगाइन इनकॉग्नीटा
(c) मक्खियों और मच्छर
(d) (a) और (b) दोनों।
उत्तर:
(d) (a) और (b) दोनों।

प्रश्न 8.
एक कीट के शरीर में Bt जीव विष के अक्रियाशील रूप अर्थात् प्राक्-जीव विष को निम्न में से क्या क्रियाशील रूप में परिवर्तित करता है?
(a) आहारनाल का ताप
(b) लार में उपस्थित एन्जाइम्स
(c) आहारनाल का क्षारीय pH
(d) कोई विशेष कारण नहीं है।
उत्तर:
(c) आहारनाल का क्षारीय pH

प्रश्न 9.
Bt – मक्का को मक्का छेदक रोग से निम्न जीन के प्रवेश द्वारा प्रतिरोधी बनाया जाता है
(a) क्राई I Ab
(b) क्राई II Ab
(c) ampR
(d) Trp
उत्तर:
(a) क्राई I Ab

प्रश्न 10.
Bt – जीव विष कीटों को निम्न द्वारा मारता है
(a) प्रोटीन संश्लेषण को बाधित करके
(b) अधिक मात्रा में ताप उत्पन्न करके
(c) मध्य आहारनाल की एपीथिलियल कोशिकाओं को छिद्रित करके, कोशाओं को फूलाकर नष्ट करता है।
(d) जैव संश्लेषिक मार्ग को बाधित करके।
उत्तर:
(c) मध्य आहारनाल की एपीथिलियल कोशिकाओं को छिद्रित करके, कोशाओं को फूलाकर नष्ट करता है।

प्रश्न 11.
नाइट्रोजन स्थिरीकरण हेतु ‘निफ (Nif)’ जीन को अनाज वाले पौधों जैसे गेहूँ, ज्वार आदि में किसकी क्लोनिंग द्वारा प्रवेश कराया जाता है?
(a) राइजोबियम मैलीलोटी
(b) बेसिलस थूरोनजिसिस
(c) राइजोपस स्टोलोनीफर
(d) एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमोफेशिएन्स
उत्तर:
(a) राइजोबियम मैलीलोटी

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प्रश्न 12.
ट्रान्सजेनिक पौधा ‘फ्लेवर सेवर’, किस हेतु एक कृत्रिम जीन को निहित रखता है?
(a) फल परिवहन में विलम्ब हेतु
(b) लंबे जीवन काल के लिए
(c) स्वाद को बढ़ाने के लिए
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(b) लंबे जीवन काल के लिए

प्रश्न 13.
RNA अंतरक्षेप में होता है
(a) रिवर्स ट्रान्सक्रिप्टेंस के उपयोग द्वारा CDNA S RNA का संश्लेषण
(b) सम्पूरक RNA द्वारा विशिष्ट mRNA की साइलेन्सिंग
(c) DNA संश्लेषण में RNA का अंतरक्षेप
(d) DNA से mRNA का संश्लेषण ।
उत्तर:
(b) सम्पूरक RNA द्वारा विशिष्ट mRNA की साइलेन्सिंग

प्रश्न 14.
हिरूडिन है
(a) होरडेयम वल्गेयर द्वारा उत्पादित एक प्रोटीन जो लाइसौन से भरपूर होती है।
(b) गाँसीपियम हिरसूटम से पृथक किया गया एक विषाक्त अणु जो मनुष्य की उर्वरता को कम करता है।
(c) ट्रान्सजेनिक बेसिका नेपस से उत्पादित एक ऐसी प्रोटीन जो रक्त का थक्का नहीं जमने देती है।
(d) अभियांत्रिकी द्वारा प्राप्त पारजीनी इश्चेरिचिया कोलाई बैक्टीरियम से उत्पन्न एक प्रतिजैविक ।
उत्तर:
(c) ट्रान्सजेनिक बेसिका नेपस से उत्पादित एक ऐसी प्रोटीन जो रक्त का थक्का नहीं जमने देती है।

प्रश्न 15.
एक ट्रान्सजेनिक फसल जो विकसित देशों में रतौंधी की समस्या का समाधान करने में मदद कर सकती है
(a) B कपास
(b) बासमती चावल
(c) फ्ले वर सेवर
(d) B मक्का
उत्तर:
(b) बासमती चावल

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प्रश्न 16.
क्राई II Ab और क्राई IAb ऐसे जीव विष उत्पन्न करते हैं जो नियंत्रित करते हैं
(a) क्रमशः कपास के गोलक शलभ कृमि और मक्का छेदक को
(b) क्रमशः मक्का छेदक और कपास गोलक शलभ कृमि को
(c) तम्बाकू कलिका कृमि और सूत्रकृमि को।
(d) क्रमशः सूत्रकृमि और तम्बाकू कलिका कृमि को।
उत्तर:
(a) क्रमशः कपास के गोलक शलभ कृमि और मक्का छेदक को

प्रश्न 17.
भारत में प्रथम अनुवांशिकत: रूपान्तरित पौधा जो व्यावसायिक रूप से प्रस्तुत किया गया
(a) बासमती चाल
(b) फ्लेवर सेवर
(c) Bt बैंगन
(d) Bt कपास
उत्तर:
(d) Bt कपास

प्रश्न 18.
Bt कपास के कुछ लक्षण हैं
(a) लम्बे तंतु और एफिड्स के प्रति प्रतिरोधी
(b) मध्यम उत्पादन, लम्बे रेशे और भंग-पीड़कों (Beetle pests) के प्रति प्रतिरोधी
(c) अधिक उत्पादन तथा जीव विष प्रोटीन के रवों का उत्पादन जो डिप्टॉन पीड़कों को भारतें है।
(d) अधिक उत्पादन और गोलक शलभ कृमि के प्रति प्रतिरोधी ।
उत्तर:
(d) अधिक उत्पादन और गोलक शलभ कृमि के प्रति प्रतिरोधी ।

प्रश्न 19.
DNA अंगुलिछापी संबंधित है
(a) DNA प्रतिदर्शी की प्रोफाइल का आण्विक विश्लेषण
(b) इम्प्रिटिंग डिवाइस का उपयोग कर DNA प्रतिदशी का विश्लेषण
(c) DNA के विभिन्न प्रतिदर्शों के रासायनिक विश्लेषण के लिए प्रयुक्त तकनीक
(d) लोगों के अंगुलिछापों की पहचान में प्रयुक्त तकनीक ।
उत्तर:
(a) DNA प्रतिदर्शी की प्रोफाइल का आण्विक विश्लेषण

प्रश्न 20.
एक रोग का आरंभिक अवस्था में निम्न द्वारा पता लगाया जा सकता है
(a) PCR
(b) जीन चिकित्सा
(c) पुनर्योग्ज DNA तकनीक और ELISA
(d) (a) व (c) दोनों
उत्तर:
(d) (a) व (c) दोनों

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प्रश्न 21.
निम्न में से किस विधि द्वारा एडीनोसीन डीएमीनेस न्यूनता को स्थाई रूप से उपचारित किया जा सकता है?
(a) अस्थि मजा प्रत्यारोपण
(b) एन्जाइम प्रतिस्थापन चिकित्सा
(c) आरंभिक धणीय अवस्थाओं में जीन चिकित्सा
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(c) आरंभिक धणीय अवस्थाओं में जीन चिकित्सा

प्रश्न 22.
एक क्लोन में DNA का पता लगाने की तकनीक है
(a) पॉलीमरेस शृंखला अभिक्रिया
(b) जेल इलेक्ट्रोफोरेसिस
(c) क्रोमेटोग्राफी
(d) ऑटोरेडियोग्राफी।
उत्तर:
(d) ऑटोरेडियोग्राफी।

प्रश्न 23.
एक एकल सूत्रीय DNA या RNA को एक विकिरण सक्रिय अणु से नामांकित करते हैं और इसका उपयोग निम्न उत्परिवर्तित जीन का पता लगाने में होता है
(a) RNAi
(b) प्रोब
(c) प्लाज्मिंड
(d) प्राइमर
उत्तर:
(b) प्रोब

प्रश्न 24.
निम्न में से किस कंपनी ने सन् 1983 में ह्यूमुलिन का विक्रय आरंभ कर दिया था?
(a) एली लिली
(b) जेनटेक
(c) GEAC
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) एली लिली

प्रश्न 25.
जीनोम द्वारा कृटित सभी प्रोटीन्स के अध्ययन को कहते हैं
(a) प्रोटियोमिक्स
(b) जीनोमिक्स
(c) जीन लाईब्रेरी
(d) प्रांटियोलॉजी
उत्तर:
(a) प्रोटियोमिक्स

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प्रश्न 26.
जीन चिकित्सा का एक उदाहरण है
(a) सुई से प्रवेश कराने योग्य हिपेटाइटिस B – टीके का उत्पादन
(b) आलू जैसी खाद्य फसलों में टीके का उत्पादन जिनें खाया जा सके।
(c) एडीनोसीन डीएमोनेस के लिये जीन का उन रोगियों में प्रविष्टीकरण जो SCID से पीड़ित हैं।
(d) कृत्रिम इनसेमोशेन व निषेचित अण्डाणुओं के अध्यारोपण द्वारा टेस्ट-ट्यूब बेबीज का उत्पादन ।
उत्तर:
(c) एडीनोसीन डीएमोनेस के लिये जीन का उन रोगियों में प्रविष्टीकरण जो SCID से पीड़ित हैं।

प्रश्न 27.
मानव इन्सुलिन का व्यावसायिक उत्पादन किसकी पारजीनी जाति से किया जा रहा है?
(a) माइकोबैक्टीरियम
(b) राइजोबियम
(c) सैकरोमाइसौज
(d) इश्चेरिचिया
उत्तर:
(d) इश्चेरिचिया

प्रश्न 28.
द्वितीय पीढ़ी की वैक्सीन पुनर्योगज DNA तकनीक द्वारा बनायी जाती हैं। निम्न में से कौन ऐसी वैक्सीन का उदाहरण है?
(a) हिपेटाइटिस B वायरस वैक्सीन
(b) हपीस वाइरस वैक्सीन
(c) साल्क का पोलियो वैक्सीन
(d) (a) और (b) दोनों।
उत्तर:
(d) (a) और (b) दोनों।

प्रश्न 29.
वे जन्तु जिनके DNA मेनीपुलेटेड होते हैं और जो बाहरी जीन की अभिव्यक्ति करते हैं, वे कहलाते हैं
(a) पारजीनी जन्तु
(b) काधिक संकरित
(c) सोमाक्लोन्स
(d) उत्कृष्ट (Super) जन्तु ।
उत्तर:
(a) पारजीनी जन्तु

प्रश्न 30.
वह मानव प्रोटीन जो ट्रांसजेनिक जन्तुओं से प्राप्त होती है और जिसका उपयोग एम्फीसीमा के उपचार में होता है
(a) अल्फा-लैक्टेल्बुमिन
(b) थाइरोक्सीन
(c) α – 1 – एन्टीट्रिप्सिन
(d) इन्सुलिन
उत्तर:
(c) α – 1 – एन्टीट्रिप्सिन

Bihar Board 12th Biology Objective Answers Chapter 12 जैव प्रौद्योगिकी एवं उसके उपयोग

प्रश्न 31.
निम्न में से कौन-सा ट्रांसजेनिक जन्तुओं का लाभ नहीं है ?
(a) बीमारियों के लिये नए उपचार का परीक्षण
(b) बीमारी की आरंभिक अवस्था में पहचान
(c) टीकों की सुरक्षा का परीक्षण
(d) उपयोगी जैविक उत्पादों का उत्पादन
उत्तर:
(b) बीमारी की आरंभिक अवस्था में पहचान

प्रश्न 32.
डॉली भेड़ अनुवांशिक रूप से समान थी
(a) उस माता के जिससे केन्द्रकहीन अण्ड कोशिका को लिया गया था।
(b) उस माता से जिससे केन्द्रक युक्त (Nucleated) धन (Udder) कोशिका को लिया गया था।
(c) सेरोगेट माता के।
(d) सेरोगेट माता और डोनर माता दोनों के।
उत्तर:
(b) उस माता से जिससे केन्द्रक युक्त (Nucleated) धन (Udder) कोशिका को लिया गया था।

प्रश्न 33.
वह संगठन जो GM शोध की वैधानिकता तथा जन सेवाओं के लिये GM जीवों के प्रयोग के बारे में सुरक्षा से संबंधित निर्णय लेता
(a) जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी
(b) जीनोम एन्वायरमेन्ट एक्शन कमेटी
(c) जेनेटिक एन्वायरमेन्ट अप्रूवल कमेटी
(d) जेनेटिक्स एण्ड एथिकल इश्यू एक्शन कमेटी।
उत्तर:
(a) जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी

प्रश्न 34.
जैविक संसार में हमारी क्रियाओं को नियमित करने के लिए बनाये गये नियम कहलाते हैं
(a) बायोएथिक्स
(b) जैवयुद्ध
(c) जैव एकस्व
(d) बायोपाइरेसी।
उत्तर:
(a) बायोएथिक्स

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प्रश्न 35.
कौन-सा भारतीय पौधा पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा व्यावसायिक उपयोग के लिये पेटेन्ट किया गया था उसका पेटेन्ट करने की कोशिश की गई।
(a) बासमती चावल
(b) हल्दी
(c) नीम
(d) उपरोक्त सभी को लक्ष्य बनाया गया
उत्तर:
(d) उपरोक्त सभी को लक्ष्य बनाया गया

प्रश्न 36.
बायोपाइरेसी का अर्थ है
(a) बायोपेटेन्ट का उपयोग
(b) पौधों और जन्तुओं की चोरी
(c) जैव संसाधनों की चोरी
(d) आज्ञा के बिना जैव संसाधनों का दुरूपयोग
उत्तर:
(d) आज्ञा के बिना जैव संसाधनों का दुरूपयोग

प्रश्न 37.
निम्न में से किसे बृहद एकस्व श्रेणी के अन्तर्गत रखा गया है?
(a) ट्रिटीकम
(b) ओराइजा
(c) पाइसम सेटाइवम
(d) बेसिका
उत्तर:
(a) ट्रिटीकम

प्रश्न 38.
यू.एस, कम्पनी द्वारा चावल की किस किस्म का पेटेन्ट कराया गया, यद्यपि इसकी भारत में अनेक किस्में पाई जाती हैं?
(a) शरबती सोनोरा
(b) Co – 667
(c) वासमती
(d) लरमा रोजो
उत्तर:
(c) वासमती

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प्रश्न 39.
निम्न में से किस चरण को भारत सरकार ने पेटेन्ट की शर्तों की आवश्यकता और दूसरे आपातकालीन प्रावधानों के लिए शामिल किया है?
(a) बायोपायरेसी एक्ट
(b) इण्डियन पेटेन्ट बिल
(c) ETI एक्ट
(d) निगोशिएबल इन्स्टूमेन्ट्स एक्ट
उत्तर:
(b) इण्डियन पेटेन्ट बिल

प्रश्न 40.
Bt कपास नहीं है
(a) एक GM पौधा
(b) कौट प्रतिरोधी
(c) एक बैक्टीरियल जीन अभिव्यक्ति तंत्र
(d) सभी पीड़कनाशियों के लिये प्रतिरोधी ।
उत्तर:
(d) सभी पीड़कनाशियों के लिये प्रतिरोधी ।

प्रश्न 41.
GEAC का पूर्ण रूप है
(a) जीनोम इन्जीनियरिंग एक्शन कमेटी
(b) ग्राउन्ड एन्वायरमेन्ट एक्शन कमेटी
(c) जेनेटिक इन्जीनियरिंग अप्रवल कमेटी
(d) जेनेटिक एण्ड एन्वायरमेन्ट अप्रूवल कमेटी
उत्तर:
(c) जेनेटिक इन्जीनियरिंग अप्रवल कमेटी

प्रश्न 42.
α – 1 एन्टीट्रिप्सिन है
(a) एक एटीएसिड
(b) एक एन्जाइम
(c) अर्थराइटिस के उपचार में प्रयोग होता है
(d) एम्फोसीमा के उपचार में प्रयोग होता है।
उत्तर:
(d) एम्फोसीमा के उपचार में प्रयोग होता है।

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प्रश्न 43.
प्रोब एक अणु होता है जिसका उपयोग DNA या RNA अणु के मिश्रण में विशिष्ट अनुक्रम की स्थिति का पता लगाने में होता है, वह हो सकता है
(a) एकल रज्जुक RNA
(b) एकल रज्जुक DNA
(c) RNA UT DNA
(d) ssDNA तो हो सकता है परंतु SSRNA नहीं।
उत्तर:
(a) एकल रज्जुक RNA
(b) एकल रज्जुक DNA

प्रश्न 44.
रिट्रोवाइरस से संबंधित सही विकल्प चुनें
(a) संक्रमण के दौरान DNA का संश्लेषण करने वाला RNA वाइरस
(b) संक्रमण के दौरान RNA का संश्लेषण करने वाला DNA वाइरस
(c) एक SSDNA वाइरस
(d) एक dsDNA वाइरस ।
उत्तर:
(a) संक्रमण के दौरान DNA का संश्लेषण करने वाला RNA वाइरस

प्रश्न 45.
शरीर में ADA के उत्पादन का स्थल है
(a) इरिथ्रोसाइट्स
(b) लिम्फोसाइट्स
(c) रक्त प्लाज्मा
(d) ओस्टियोसाइट्स ।
उत्तर:
(b) लिम्फोसाइट्स

प्रश्न 46.
पैथोफिजियोलाजी है
(a) रोगजनक की फिजियोलॉजी का अध्ययन
(b) होस्ट की साधारण फिजियोलॉजी का अध्ययन
(c) होस्ट की परिवर्तित फिजियोलॉजी का अध्ययन
(d) उपरोक्त में से कोई नहीं।
उत्तर:
(c) होस्ट की परिवर्तित फिजियोलॉजी का अध्ययन

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प्रश्न 47.
बेसिलस थूरिनजिएन्सिस के जीव विष की क्रियाशीलता का प्ररेक है
(a) आमाशय का अम्लीय pH
(b) उच्च ताप
(c) आहार नाल का क्षारीय pH
(d) कीट के आहार नाल की क्रियाविधि ।
उत्तर:
(c) आहार नाल का क्षारीय pH

प्रश्न 48.
RNAI में, निम्न का उपयोग कर जीन साइलेन्सिंग होती हैं
(a) ssDNA
(b) dsDNA
(c) dsRNA
(d) ssRNA
उत्तर:
(c) dsRNA

प्रश्न 49.
ADA एक एन्जाइम है जिसकी कमी से एक अनुवांशिक विकार SCID होता है | ADA का पूरा नाम है
(a) एडीनोसिन डिऑक्सी एमीनेस
(b) एडीनोसिन डीएमीनेस
(c) एस्पारटेट डौएमीनेंस
(d) आरजिनीन डीएमीनेस
उत्तर:
(b) एडीनोसिन डीएमीनेस

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 8 उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 8 उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति (फणीश्वरनाथ रेणु)

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 8 उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति (फणीश्वरनाथ रेणु)

उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति कठिन शब्दों का अर्थ

पुण्य सलिला-जिसकी जल पवित्र हो। छिन्नमस्ता-तांत्रिकों का एक देवी जिसका सिर कटा हुआ हो। भीमा-भयानक (स्त्री)। भयानका-भयानक (स्त्री)। प्रभावती-प्रकाशमयी, है। वह निराशा के घोर लक्षण गुण हैं जो अन्य जावा सूर्य की पत्नी। विधाता-ब्रह्मा, निर्माण या रचना करने वाला। अंचल-क्षेत्र। अप्रतिम-अद्वितीय। बालूचर-रेतीली-भूमि का विस्तार, बालू ही बालू। उन्मूलन-जड़ों से समाप्त करना। बंध्या-बाँझ, बंजर।

बेल-लता। सिल्ट-बाढ़ में जमने वाला। गाद-मिट्टी। मर्माहत-दुःखी, व्यथित। कंदाराओं-गुफाओं। धूसर-धूल के रंग का, खाकी। हमजोली-साथी, सहचर। काल-कवलित-समय द्वारा निगला हुआ, (कवलकौर, निवाला)। शस्य श्यामला-फसलों से हरी-भरी। आसन्न प्रसवा-वह जिसके प्रसव का समय नजदीक हो (आसन्न निकट)। अन्नपूर्णा-अन्न की आपूर्ति करने वाली, देवी। पुलकित-हर्षित, रोमांचित।

महत्त्वपूर्ण पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या

1. कोसी या उसके किसी अंचल के सम्बन्ध में………….कोसी मैया।
व्याख्या-
‘उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति’ शीर्षक रिपोर्ताज की इन पंक्तियों में रेणु जी यह बताना चाहते हैं कि वे कोशी अथवा उसके किसी अंचल के विषय में कुछ लिखना चाहते हैं तो बात व्यक्तिंगत हो जाती है। कुछ कहने या लिखने’ से उनका तात्पर्य है कहानी, उपन्यास, रिपोर्ताज या कविता अर्थात् साहित्य की किसी भी विधा में लेखन।

व्यक्तिगत से उनका तात्पर्य है कि साहित्य जगत या पाठक जगत उस लेखन को रेणु की अपनी बात या अपनी समस्या मान लेता है। इसके दो कारण हैं प्रथम यह कि रेणु उसी अंचल के निवासी हैं। उन्हें अपने क्षेत्र के लोगों से जिन्दगी से प्यार है। अतः जब वे लिखते हैं तो उसे क्षेत्र न मानकर अपना मानकर अर्थात् वे तटस्थ नहीं रह पाते हैं।

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द्वितीय कारण वे स्वयं बताते हैं कि कोशी उनके लिए मात्र नदी नहीं है। वह है, ऐसी माँ जो पुण्य सलिला भी है और प्रलयकारणी भी है। जिस तरह गंगा नदी के क्षेत्र के लिए गंगा को गंगा मैया कहते हैं उसी तरह कोशी अंचल के लोग उसे ‘कोसी मैया’ कहते हैं। इसी अपनत्व और भूमि प्रेम के चलते रेणु क्षेत्र की समस्या पर लिखते हैं तो उसमें अपनापन का पुट आ जाता है।

2. इस परती के उदास और मनहूस…………..धूसर और वीरान।
व्याख्या-
‘उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति’ शीर्षक रिपोर्ताज के इन पंक्तियों में रेणु ने कोशी क्षेत्र की वीरान धरती का वर्णन किया है। लेखक बचपन से ही उसे देखता आया है। वह परती जमीन है, उसका रंग बादामी का है। उसे देखकर उदास और मनहूसियत का प्रभाव मन पर छा जाता है। लेखक के शब्दों में वह भूमि नहीं साकार उदासी है।

इस उदास मनहूस भूमि पर केवल बालू ही बालू है। बरसात के मौसम में कुछ निरर्थक किस्म के पौधे उगते हैं और हरियाली छा जाती है। कुछ दिन के बाद वह हरियाली नष्ट हो जाती है और यह धरती पुनः धूसर वर्ण की हो जाती और वातावरण में वीरानी छा जाती है। यहाँ कुछ नहीं उपजता। अत: यह बंध्या धरती है।

3. और इस भरी हुई मिट्टी पर बसे हुए……………सपने कैसे पल सकते हैं?
व्याख्या-
इन पंक्तियों में रेणु जी ने कोशी क्षेत्र की उस भरी हुई धरती के उदास वीरान परिवेश में जीने वाले इंसानों का वर्णन किया है। जिस समय का यह वर्णन है उस समय कोशी डैम नहीं बना था। अतः वहाँ गड्ढों-नालों में कोशी नदी का पानी ठहर जाता था जिसके चलते वहाँ मलेरिया और कालाजार का साम्राज्य था। इन रोगों से जर्जर लोगों का शरीर रक्त-माँसहीन चलते-फिरते नर कंकालों जैसा लगता था।

इन दोनों रोगों के कारण कब मौत किसको दबोच लेती यह कहना कठिन था अतः लोग मृत्यु के आंतक के बीच जीने को विवश थे। वे रोग से कराहने और किसी सज्जन के मरने पर रोने के सिवा उनके जीवन में कुछ नहीं था। उनका जीवन रस-उल्लास से रहित था अतः उनके जीवन में सपने भी नहीं थे। रेणु जी ठीक कहते हैं जिनके चेहरों पर सदा रोग और मौत के आतंक की छाया हो, उनकी आँखों में सुनहले सपने कैसे पल सकते हैं?

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4. किन्तु विधाता की सृष्टि में…………….अंधकार से लड़ता रहा है।
व्याख्या-
फणीश्वर नाथ रेणु ने कोशी अंचल में कोशी डैम बन जाने के उपरान्त उस क्षेत्र में हुए परिवर्तन का उल्लेख अपने रिपोर्ताज ‘उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति’ में किया है। उसी रिपोर्ताज से ये पंक्तियाँ ली गयी हैं। इन पंक्तियों में रेणु जी ने यह बताया है मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ सृष्टि है। उसके पास पुरुषार्थ है, पुरुषार्थ को पूरा करने वाला संकल्प है और है विषम से विषम परिस्थितियों से जूझते रहने की असीम शक्ति। इसलिए वह हारना नहीं जानता। निराशा के घोर अन्धकार में भी वह आशा का नन्हा दीप जलाए आगे बढता रहा है, अन्धकार से लड़ता रहा है और अन्ततः अन्धकार पर विजयी होता है। इस रिपोर्ताज का निष्कर्ष भी इसी तत्त्व को सम्पुष्ट करता है।

5. भाई साहब ! कागज पर रंग की लहरें………..हरियाली ही हरियाली सूझती है।
व्याख्या-
फणीश्वर नाथ रेणु रचित “उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति” रिपोर्ताज टिप्पणी के रूप में है। बात मित्रों की है भाषा रेणु की। कोशी योजना के विषय में जाँच-पड़ताल होने के साथ ही रेणु जी ने उत्साहित होकर अपना दूसरा उपन्यास परती परिकथा लिख कर पूजा कर लिया वह छप भी गया। उसमें कोशी योजना में काम कर रहे लोगों की बातचीत और योजना से उत्साहित रेणु जी ने विश्वास किया कि कोशी अंचल वह धरती का रूप डैम बन जाने के बाद निश्चय ही बदल जायेगा और वह बंजर वीरान उदास धरती शस्य-श्यामला हो जायेगी।

मगर परिणाम के प्रति शंकालु लोगों को उनका आशावाद पच नहीं रहा था अतः उन लोगों ने व्यंग्यपूर्ण लहजे में कहा कि भाई साहब, कागज पर रंग लहराना अर्थात् कहानी उपन्यास में अच्छी चीजों का वर्णन करना आसान है, अमृत के समान मधुर प्रसन्नता की बात करना सहज है। लेकिन उसको धरती पर फलित करना आसान नहीं। अभी कोशी योजना पर काम शुरू भी नहीं हुआ और आप लगे हरे-भरे खेतों का सपना देखने। उन लोगों ने सावन के अंधों को हरियाली ही हरियाली सूझती है कहकर लेखक को सावन का अंधा तक कह दिया। यहाँ लेखक यह बताना चाहता है कि नकारात्मक सोच वाले केवल आलोचना कर सकते हैं।

उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश: 1.
लेखक ने कोसी अंचल का परिचय किस तरह दिया है?
उत्तर-
लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने संस्मरण एवं रिपोर्ताज “उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति” में कोसी अंचल का परिचय प्रस्तुत किया है। लेखक के अनुसार कोसी अंचल कोसी नदी का क्षेत्र है। कोसी नदी “बिहार का शोक” कही जाती रही है।

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लेखक के अनुसार, कोसी नदी जिधर से गुजरती थी, धरती बाँझ हो जाती थी। सोना उपजाने वाली मिट्टी सफेद बालू के मैदान में बदल जाती थी। लाखों एकड़ बंजर भूमि उत्तर नेपाल की तराई से शुरू होकर दक्षिण गंगा के किनारे तक फैली दिखाई देती है।

लेखक उस वीरान एवं बंजर भूमि को बचपन से ही देखते आये हैं। दूर-दूर तक कहीं हरियाली का नामोनिशान भी नहीं था। लोगों के मुख पर उदासी एवं निर.शा की लकीर स्पष्ट दिखाई देती थी। यह वीरान. दृश्य दिन-रात, सुबह-शाम सबके मुख पर परिलक्षित होता था।

लेखक ने कोशी अंचल की भूमि को मरी हुई मिट्टी की संज्ञा दी है। लेखक ने कोसी क्षेत्र में बसने वाले लोगों को भी सजीव चित्र उपस्थित किया है। कोसी क्षेत्र के लोग बीमार, दुर्बल एवं जर्जर शरीर लिए क्षेत्र की दशा को दर्शाते हैं। लोगों के दिल में कोसी का आतंक और चेहरे ‘ पर उदासी हमेशा देखने को मिलती है।

लेखक स्वयं उसे क्षेत्र के निवासी हैं। उन्हें अपना बचपन याद आता है। हर साल उनके दर्जनों साथी कोसी के प्रकोप से काल के गाल में समा जाते थे। जो लोग दिखाई भी देते थे, तो लगता था; अगले वर्ष वे दिखाई देगे या नहीं।

प्रश्न 2.
जब लेखक कोसी या उसके किसी अंचल के संबंध में कुछ कहने या लिखने बैठता है तो बात बहुत हद तक व्यक्तिगत हो जाती है। ऐसा क्यों?
उत्तर-
उतरी स्वप्न परी : हरित क्रांति में लेखक ने स्पष्ट स्वीकार किया है कि वह जब कोसी या उसके किसी अंचल के संबंध में कुछ भी कहने या लिखने बैठता है तो वह वर्णन तटस्थ नहीं रह पाता, उसमें लेखक की वैयक्तिकता का सन्निवेश हो ही जाता है। ऐसा संभवतः इसीलिए होता है कि कोसी के साथ लेखक का भावात्मक एवं रागात्मक संबंध है। उसके स्वभाव-संस्कार में कोसी पूरी तरह रची-बसी है। अत: उसके वर्णन-चित्रण में उनकी वैयक्तिकता घुल-मिल जाती है।

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प्रश्न 3.
पाठ में लेखक ने कोसी को ‘माई’ भी कहा है और “डायन कोसी’ शीर्षेक से रिपोर्ताज लिखने की चर्चा भी की है। लेखक का कोसी से कौन रिश्ता है?
उत्तर-
लेखक फणीश्वरनाथ रेणु का कोसी से अटूट रिश्ता था। कोसी को उन्होंने माता (माई) कहकर भी पुकारा है। उनकी दृष्टि में कोसी माई भी है। उनकी नजर में कोसी का जल पवित्र है। इसलिए उन्होंने कोसी को पुण्यसलिला भी कहा है। कोसी को उन्होंने तांत्रिकों की देवी भी माना है। इसलिए वे उसे छिन्नमाता कहकर पुकारते हैं। कोसी के भयानकता एवं भयावहता को देखकर वे उसे ‘भीमा’ और ‘भयानक’ भी कहते हैं। “कोसी की परियोजना” से क्षेत्र के लोगों को बहुत लाभ मिला। लोगों की भी खुशहाली आयी। इसलिए उसे वे प्रभावती भी कहते हैं।

साथ ही कोसी की भयानक छवि से भयभीत होकर लेखक ने बीस-बाईस वर्ष पूर्व ‘डायन कोसी’ शीर्षक से एक रिपोर्ताज भी ‘जनता’ पत्रिका में प्रकाशित किया था। रिपोर्ताज गद्य लेखक की आधुनिक विधा है। आँखों देखी या कानों सुनी जीवन की किसी सच्ची घटना पर आधारित जानकारी ही रिपोर्ताज है। इसमें कल्पना का कोई स्थान नहीं होता। यह तथ्यों पर आधारित रिपोर्ट होती है।

कोसी नदी ने क्षेत्र के वासियों को तबाह किया था। सम्पूर्ण उपजाऊ भूमि वीरान हो गई थी। दूर-दूर तक कहीं हरियाली नहीं दिखाई पड़ती थी। लेखक भी कोसी की निर्दयता से त्रस्त थे। इसीलिए उन्होंने कोसी को डायन कहकर पुकारा। इतना ही नहीं, उन्होंने ‘डायन कोसी’ नामक एक रिपोर्ताज भी जनता पत्रिका में प्रकाशित किया था।

अत: लेखक ने ‘कोसी एक वरदान’ एवं ‘कोसी एक अभिशाप’-दोनों रूप में कोसी से अपना रिश्ता जोड़ा है।

प्रश्न 4.
‘मानव ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है।’ पाठ के संदर्भ में स्पष्ट करें।
उत्तर-
लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने संस्मरण एवं रिपोर्ताज “स्वप्न परी : हरी क्रांति” में मानव जीवन के मार्मिम पहलू को स्पर्श किया है। यह एक सर्वविदित्त और सर्वज्ञात तथ्य है कि विधाता की इस सृष्टि में मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, उससे ऊपर, अच्छा या उत्तम अन्य कोई प्राणी नहीं। इसी बात को बंगला के सुप्रसिद्ध कवि चंडीदास ने इस प्रकार व्यक्त किया है-‘सुन रे मानसि भाय। सबारि ऊपर मानुस सत्य तार ऊपर किछु नाय।” कवि सुमित्रानंदन पंत की भी पक्ति है-

“सुन्दर है बिहरा सुमन सुंदर मानव तुम सबसे सुंदरतर”।

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विवेच्य पाठ में रेणुजी ने भी इसी तथ्य की संपुष्टि की है। उन्होंने बताया है कि यह मनुष्य ही है, जो घोर निराशा . में आशा की लौ जलाए चलता है और अपने उद्योग से प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता है। कोसी नदी जो उत्तर बिहार की अभिशाप मानी जाती है, जिसके कारण हजारों-हजार जिंदगियाँ , पल भर में काल कवलित हो जाती हैं, वहाँ भी आजादी के बाद हरी क्रांति के फलस्वरूप खुशहाली आ गई है।

कृषि संभव हो गई है और अमन-चैन कायम है। इस प्रकार प्रस्तुत पाठ में यह पूरी तरह सत्यापित और प्रमाणित हो जाता है कि मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, वह चाहे तो कुछ भी संभव हो सकता है।

प्रश्न 5.
सुदामाजी की किस कथा का उल्लेख ने पाठ में किया है?
उत्तर-
लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने पाठ ‘उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति’ में सुदामाजी की कथा का उल्लेख किया है। कोसी परियोजना की सफलता के बाद कोसी अंचल की धरती हरी-भरी हो गई। मक्का, धान, गेहूं की फसलें बंजर भूमि में उगने लगीं।

कोसी के प्रकोप के कारण उस क्षेत्र के बहुत लोग घर-द्वार छोड़कर कहीं बाहर जाकर बस गये थे। उन्हीं लोगों में एक हैं सुदामाजी।

तीस साल पहले की बात है। लेखक को अपने गाँव जाने पर नई एवं रोचक कहानी मिली। लेखक के गाँव का एक व्यक्ति गाँव छोड़कर बंगाल चला गया था। कभी-कभार वह गाँव आ जाता था। एक बार वह आठ वर्षों तक गाँव नहीं आया। बंगाल में ही बस गया था। गाँव में एक-डेढ़ बीघा जमीन थी। उसी को बेचने के लिए वह गाँव आया था।

स्टेशन से उतरकर उसने अपने गाँव की पगडंडी पकड़ी। कुछ दूर जाने के बाद उसने अपने गाँव की ओर निगाह दौड़ाई। लेकिन उसे अपना वीरान गाँव नजर नहीं आया। उसकी परती जमीन नजर नहीं आई। उसे लगा वह रास्ता भूलकर दूसरी जगह आ गया है। जहाँ तक उसकी नजर जाती, लहलहाते धान के खेत नजर आते। चारों ओर हरियाली थी। नहर-आहर, पैन-पुलिया और बाँध दिखाई दे रहे थे।

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वह व्यक्ति समझ बैठा कि वह नींद में किसी दूसरे स्टेशन पर उतर गया। वह स्टेशन लौट आया। चिंतित होकर पूछने लगा कि क्या यह वही स्टेशन है? तो उसका गाँव कहाँ चला गया? बाद में पता चला कि वह वही स्टेशन है और वह वही गाँव है जहाँ वह रहता था। गाँव के लड़कों ने उस आदमी का नया नाम दिया-सुदामाजी। जिस प्रकार सुदामाजी जब कृष्ण के दरबार से लौटकर अपने घर आये थे और विशाल महल देखकर आश्चर्यचकित हो गये थे। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि वह महल उनका ही घर है।

लेखक के गाँव के सुदामाजी भी अपना गाँव और अपनी जमीन देखकर घबड़ा गये थे। जब वास्तविकता का पता चला तो वे गाँव में फिर से बस गये। अपना परिवार उठाकर फिर गाँव आए। अब वे अपने डेढ़ बीघा जमीन में तीन-तीन फसलें उगाने लगे। लोग उन्हें सुदामाजी कहकर पुकारने लगे।

प्रश्न 6.
लेखक अपने दूसरे उपन्यास में दूने उत्साह से क्यों लग गया? पहले उपन्यास से इसका क्या संबंध है?
उत्तर-
लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने अपने पहले उपन्यास में कोसी क्षेत्र के लिए एक सुनहरे दिन की कल्पना की थी। उन्होंने कल्पना की थी कि हिमालय की कंदराओं में एक विशाल ‘डैम’ बनाया जा रहा है। पर्वत तोड़े जा रहे हैं। हजारों लोग इस कार्य में लगे हैं। लाखों एकड़ जमीन जो बंजर है, वहाँ की मिट्टी शस्य-श्यामला हो उठेगी। जमीन फसलों से हरी-भरी हो जाएगी। मकई के खेत में बालायें हँसती हुई नजर आयेंगी।

लेखक के इस उपन्यास पर उनके मित्र फिर व्यंग्य करना शुरू किये। लेकिन लेखक की कल्पना साकार होने लगी। सरकार द्वारा ‘कोसी योजना’ का आयोजन होने लगा। इंजीनियर कोसी अंचल में घूमने लगे। लेखक ने यह सब देखकर दूने उत्साह से अपना दूसरा उपन्यास “परती : परिकथा” में हाथ लगा दिया। . पहले उपन्यास में लेखक ने कल्पना की थी कि लोगों का दिन लौटेगा।

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लोगों में खुशी आएगी। दूसरे उपन्यास में लेखक का सपना साकार होता नजर आया। उपन्यास लिखने के दौरान लेखक पहाड़ों की कंदराओं में जाकर ‘देवगणों’ को तपस्या करते देख आते। बराह क्षेत्र उनका नया तीर्थस्थल बन गया। वहाँ आदमी चट्टानों से लड़ रहे थे। लेखक बड़े-बड़े टनेल में पहाड़ काटने वाले पहाड़ी जवानों से बातें करके धन्य हो जाते थे। अरुण, तिमुर और सुणकोसी के संगम पर बैठकर पानी मापने वाले, सिल्ट की परीक्षा करने वाले विशेषज्ञ को श्रद्धा तथा भक्ति से प्रणाम करके लौट आते। हर बार नई आशा की रंगीन किरण लेकर लौट आते।

लेखक के नये उपन्यास से एक नयी बहस का दौर शुरू हुआ। लेखक का उपन्यास पूरा हुआ। फिर प्रकाशित हुआ। उस समय कोसी प्रोजेक्ट ‘परीक्षा-निरीक्षा’ के दौर से गुजर रहा था। लेखक के कृपालु मित्रों को इस बार मज़ाक का ही नहीं, बहस का भी विषय मिला।

प्रश्न 7.
‘जिन्हें विश्वास न हो, वे स्वयं आकर देख जाएँ-प्राणों में घुले हुए रंग धरती पर किस तरह फैल रहे हैं-फैलते ही जा रहे हैं।”-इस उद्धरण की सप्रसंग व्याख्या करें।
उत्तर-
सप्रसंग व्याख्या-प्रस्तुत सारगर्भित पंक्तियाँ हमारे पाठ्य पुस्तक ‘दिगंत, भाग-I’ में संकलित ‘उतरी स्वप्न परी हरी क्रांति’ शीर्षक संस्मरणात्मक रिपोर्ताज से उद्धृत है। इसके लेखक फणीश्वरनाथ रेणु हैं। पाठ के अंत में कोसी क्षेत्र में आये सुंदर बदलावों के मद्देनजर यह लेखक के प्रसन्न मन का सहजा उद्गार है।

प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कोसी क्षेत्र, जो कभी धूसर, वीरान और बंजर क्षेत्र रहा करता था कि खुशहाली पर प्रसन्नता व्यक्त की गई है। कोसी जहाँ जिंदगियाँ उदास रहती थीं, कब किसकी मौत हो जाए-इसका ठिकाना नहीं रहता था, के दिन बदल गये हैं। कोसी योजना के फलस्वरूप आयी हरी क्रांति ने वहाँ के लोगों के जीवन में खुशहाली जा दी है। लेखक पहले जैसा सोचा करते थे और उस आशा भरी सोच के कारण दूसरों की नजर में उपहास के पात्र होते थे, अब वहाँ वैसी ही सुंदर स्थितियाँ उत्पन्न हो गई हैं।

अतः लेखक ने वैसे लोगों को लक्ष्य कर, जो कभी उसकी बातों पर विश्वास नहीं करते थे, स्पष्टत: कहा है कि जिन्हें कोसी-क्षेत्र जाये इन विषमयकारी बदलावों पर विश्वास न हो, वे अपनी आँखों से इसें देख जाएँ। तब उन्हें पता चल जाएगा कि मेरे सपने आज कैसे सच साबित हो रहे हैं, वहाँ के जीवन में हरियाली आ गई है, सुख-समृद्धि बरस रहा है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 8 उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति (फणीश्वरनाथ रेणु)

प्रस्तुत गद्यांश में हरी क्रांति के फलस्वरूप कोसी-क्षेत्र की आबाद जिंदगी को यथार्थतः उजागर करती है।

प्रश्न 8.
रेणु के इस रिपोर्ताज की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं? अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर-
“उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति” शीर्षक रिपोर्ताज रेणुजी की एक अनुपम रचना है किसी घटना का ज्यों का त्यों वर्णन करना रिपोर्ताज कहलाता है। ‘रितोर्ताज’ एक विदेशी शब्द है, जिसे फ्रेंच भाषा से हिन्दी में लिया गया है। किसी घटना को अपनी मानसिक छवि में ढालते हुए उसे प्रस्तुत कर देना या मूर्त रूप देना ही रितोर्ताज की प्रमुख विशेषता है। इस प्रकार किसी रिपोर्ट का कलात्मक और साहित्यिक रूप ही रिपोर्ताज है। अचानक घटित होने वाली घटनाओं के साथ अर्थात् यूरोप के युद्ध क्षेत्र में इसका जन्म हुआ। हिन्दी में रितोर्ताज-लेखक की शुरूआत 1940 ई० के आस-पास से हुई। इसकी प्रमुख विशेषताएँ हैं-कथात्मक प्रस्तुति, ऐतिहासिक, चित्रात्मकता, विश्वसनीयता, भावावेश प्रधान शैली इत्यादि।

हिन्दी में यूँ तो रेणु के पहले भी रिपोर्ताज लिखने वाले मौजूद थे, तथापि इनमें कोई शक नहीं कि शक ही इस विधा को सर्वाधिक समृद्ध किया। ‘उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति’ उन्हीं का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं सारगर्भित रिपोर्ताज है। इसमें कोसी क्षेत्र की सुदीर्ध नीरसता, भयावहता के बीच हरी क्रांति के कारण आयी तब्दीली और खुशहाली का बड़ा सुंदर वर्णन-चित्रण हुआ है। रिपोर्ताज के रूप में इस पाठ की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार हैं-विवेच्य रिपोर्ताज में कोसी का इतिहास, वर्तमान और भूगोल सब कथात्मक रूप में प्रस्तुत है। लेखक ने वहाँ से जुड़ी सभी बातों को एक कथा सूत्र से जोड़ दिया है।

विवेच्य रिपोर्ताज का परिवेश पूर्णरूपेण ऐतिहासिक है, जिसमें लेखक की हार्दिकता का रंग भी भरा-पूरा है। चित्रात्मकता रिपोर्ताज विधा की एक उल्लेखनीय विशेषता है। यह रिपोर्ताज इस गुण से संवलित है। रेणुजी ने कोसी-क्षेत्र के जीवन को चित्रात्मक रूप से उपस्थित कर सजीव एवं साकार कर दिया है। पुनः प्रस्तुत रिपोर्ताज में वर्णित-चित्रित सारे तथ्य अतिशय विश्वसनीय एवं प्रमाणिक हैं।

लेखक ने सिर्फ कपोल कल्पना नहीं, वरन् वास्तविकता के ठोस धरातल पर वहाँ की जीवनगत हलचल का अंकन किया है। अतः इसकी विश्वसनीयता पर कोई आँच नहीं आ सकती है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 8 उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति (फणीश्वरनाथ रेणु)

रिपोर्ताज-लेखक की शैली बहुधा भावावेश-प्रधान होती है। कहना न होगा कि इस दृष्टि से भी यह रिपोर्ताज खरा उतरता है। लेखक का वस्तु-वर्णन में प्रायः सर्वत्र भावावेश उमड़ा पड़ा है। निष्कर्षक: ‘उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति’ निस्संदेह न केवल रेणु का एक उत्तम रिपोर्ताज। है, बल्कि यह संपूर्ण हिन्दी रिपोर्ताज के मध्य विशिष्ट एवं विलक्षण है।

उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति भाषा की बात

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के प्रत्यय निर्दिष्ट करें- स्वाभाविक, क्षणिक, प्रकाशित, पुलकित, कवलित
उत्तर-

  • शब्द – प्रत्यय
  • स्वाभाविक – इक
  • क्षणिक – इक
  • प्रकाशित – इक
  • पुलकित – इक
  • कवलित – इत

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के समास निर्धारित करें होली-दिवाली, आसन्नप्रसवा, धीरे-धीरे, हरे-भरे, रोम-रोम, बाल-भरे
उत्तर-

  • होली-दिवाली – द्वंद्व समास
  • आसन्नप्रसवा – कर्मधारय समास
  • धीरे-धीरे – अव्ययीभाव समास
  • हरे-भरे – द्वन्द्व समास
  • रोम-रोम – अव्ययी भाव समास
  • बालू-भरे – करण तत्पुरुष समास

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची लिखें हमजोली, धरती, इंसान, विधाता, पहाड़
उत्तर-

  • हमजोली – मित्र, सहचर
  • धरती – पृथ्वी, धरा
  • इंसान – मनुष्य, सज्जन
  • विधाता – ब्रह्मा, प्रजाति,
  • पहाड़ – पर्वत, गिरि।

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प्रश्न 4.
‘महिला’ शब्द ‘महा’ से बना हुआ है। इसी तरह के शब्द निम्नांकित रूपों से बनाएँ
लघु, अरुण, गुरू, हरित, लाल, मधुर, श्वेत
उत्तर-

  • लघु – लघिमा
  • अरुण – अरुणिमा
  • गुरु – गरिमा
  • हरित – हरीतिमा
  • लाल – लालिमा
  • मधुर – मधुरिया
  • श्वेत – श्वेतिमा

प्रश्न 5.
निम्नलिखित शब्दों का संधि विच्छेद करें उन्मूलन, हिमालय, मर्माहत, आयोजन, उन्नत
उत्तर-

  • उन्मूलन – उत् + मूलन
  • हिमालय – हिम + आलय
  • मर्माहत – मर्म + आहत
  • आयोजन – आ + योजन
  • उन्नत – उत् + नत

प्रश्न 6.

पाठ से तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशज शब्दों के कम-से-कम पाँच-पाँच उदाहरण चुनें।
उत्तर-

  • तत्सम-स्वप्न, सर्वविदित, दक्षिण, बंध्या, आशा इत्यादि।
  • तद्भव-हरी, धरती, सोना, बरसात, आग इत्यादि
  • देशज-पगड़ी, खिचड़ी, तेंदुआ, खिड़की, लोटा इत्यादि
  • विदेशज-नक्शा, उदास, मनहूस, सिवा, मसाला इत्यादि।

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प्रश्न 7.
निम्नलिखित वाक्यों से संज्ञा पदबंध, विशेषण पदबंध, सर्वनाम पदबंध, क्रिया पदबंध और क्रिया विशेषण छाँटें

(क) इस ‘परती’ के उदास और मनहूस बादामी रंग को बचपन से ही देखता आया हूँ
उत्तर-
इस परती के-संज्ञा पदबंध
उदास और मनहूस बादामी रंग को-संज्ञा पदबंध
बचपन से ही-क्रिया विशेषण पदबंध
देखता आया हूँ-क्रिया पदबंध

(ख) मकई के खेतों में घास गढ़ती औरतें सचमुच बेवजह हँस पड़ती हैं।
उत्तर-
घास गढ़ती औरतें – संज्ञा पदबंध
मकई के खेतों में – क्रिया विशेषण पदबंध
हँस पड़ती हैं – क्रिया पदबंध

(ग) सारी धरती मानो इंद्रधनुषी हो गई है।
उत्तर-
सारी धरती – संज्ञा परबंध
हो गई है – क्रिया पदबंध

(घ) उसको विश्वास हो गया है कि वह नींद में ऊँघता हुआ किसी दूसरे स्टेशन पर उतर आया है।
उत्तर-
नींद में ऊँघता हुआ – विशेषण पदबंध
उतर आया है – क्रिया पदबंध
किसी दूसरे स्टेशन पर – क्रिया विशेषण पदबंध

(ङ) कफन जैसे सफेद बालू-भरे मैदान में धानी रंग की जिंदगी के बेल लग गए हैं।
उत्तर-
कफन जैसे सफेद – विशेषण पदबंध
बालू-भरे मैदान में – क्रिया विशेषण पदबंध
धानी रंग की जिंदगी – क्रिया पदबंध

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अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
कोशी अंचल की धरती का संक्षेप में विवेचन करें।
उत्तर-
कोशी अंचल कोशी नदी के अभिशाप से ग्रस्त है। कोशी जिधर से गुजरती है उधार की धरती को बाँध बना देती है। सोना उगलने वाली भूमि बालू की रेत में बदल जाती है। अतः कोशी अंचल की लाखों एकड़ धरती मनहूस बादामी रंग की है। यह धरती धूसर वीरान और उदासी का साकार रूप है। इसमें बरसात में कुछ पौधे उगकर हरियाली ला देते हैं लेकिन बरसात समाप्त होते बंध्यापन छा जाता है।

प्रश्न 2.
कोशी अंचल का जीवन कैसा है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
कोशी अंचल के लोगों का जीवन मलेरिया और कालाजार के कारण मृत्यु के आतंक के बीच बीतता था। रोग से जर्जर शरीर रक्त और माँस से हीन नरकंकालों के समूह की तरह लगते थे। उनकी जिन्दगी में न रस था, न रंग, न हँसी, न खुशी। मृत्यु कब किसको लील लेगी . कहना कठिन था। ऐसे लोगों की आँखों में रंगीन और सुनहले सपने नहीं होते।

प्रश्न 3.
रेणु का आशावाद पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
रेणु ने डायन कोशी शीर्षक अपने रिपोर्ताज से लेकर परती परिकथा तक सदैव एक स्वप्न देखा। उस स्वप्न के अनुसार एक दिन ऐसा आयेगा जब कोशी नदी पर एक सही स्थान पर डैम बनेगा। यह डैम इस धरती का कायाकल्प कर देगा। वीरदान, उदास, बंध्या धरती शस्य श्यामला हो उठेगी। बालू वाली जमीन सोना उगलेगी, धानी रंग की जिन्दगी के बल लग जायेंगे, प्राणों में घुले हुए रंग धरती पर फैल जायेंगे। धरती पर अमृत हास्य अंकित हो उठेगा।

उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
उतरी स्वप्न परी का तात्पर्य क्या है?
उत्तर-
रेणु ने कोशी अंचल की दुर्दशा से मुक्ति का सपना देखा और अपनी रचनाओं में अंकित किया। कोशी-योजना के पूरा होने पर यह स्वप्न यथार्थ में बदल गया। अतः बाँह्य धरती को शस्य-श्यामला देखने का जो लेखक का स्वप्न था वह साकार हुआ। यही स्वप्न परी के उतरने का तात्पर्य है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 8 उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति (फणीश्वरनाथ रेणु)

प्रश्न 2.
डैम बनने के पूर्व कोणी अंचल की धरती कैसी थी?
उत्तर-
डैम बनने के पूर्व कोशी अंच की लाखों एकड़ धरती धूसर, वीरान, उदास और बालू से भरी थी। रेणु की दृष्टि में बंध्या धरती थी। .

प्रश्न 3.
डैम बनने के पहले कोशी अंचल के लोगों की क्या दशा थी?
उत्तर-
डैम बनने के पहले कोशी अंचल में कालाजार और मलेरिया के रूप में मृत्यु का तांडव चल रहा था। लोगों का शरीर रोग जर्जर नर कंकाल जैसा था। वे दिन-रात मृत्यु की छाया में जीते थे। जीवन में न रस था न रंग।।

प्रश्न 4.
मनुष्य विधाता की सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी क्यों है?
उत्तर-
मनुष्य के पास संकल्प शक्ति और पुरुषार्थ है। विषमपरिस्थितियों से लगातार संघर्ष कर उस पर विजय प्राप्त करता है। वह निराशा के अंधकार से आशा के बल पर लड़ता है और जीतने के लिए लड़ता है। अतः सर्वश्रेष्ठ प्राणी है।

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प्रश्न 5.
रेणु के आशावाद का लोग क्यों मजाक उड़ाते थे?
उत्तर-
रेणु की बातों को लोग लेखकीय कल्पना मानते थे जिनके यथार्थ में परिणत होने की संभावना नहीं थी।

प्रश्न 6.
किन कारणों से रेणु का आशावाद सफल हुआ?
उत्तर-
केन्द्र सरकार ने आजादी के बाद विशेषज्ञों से सर्वेक्षण कराया तो लगा कि सही जगह पर डैम बना देने और कोशी को तटबंधों के सहारे बाँध देने पर उसका प्रलयकारी रूप समाप्त हो जायेगा। ऐसा ही किया गया और उसका एकदम अनुकूल परिणाम निकला बंध्या धरती शस्य श्यामला हो गयी।

प्रश्न 7.
रेणु का नया वराह क्षेत्र तीर्थ कहाँ है?
उत्तर-
रेणु ने उस क्षेत्र को नया वराह तीर्थ क्षेत्र कहा है जहाँ विशेषज्ञों ने मापकर, पहाड़ काटकर डैम बनाने का कार्य किया था। वह स्थान जहाँ बंध्या धरती को शस्य-श्यामला बनाने का यज्ञ पूरा हुआ रेणु की दृष्टि में नया तीर्थ है।

प्रश्न 8.
उतरी स्वप्न परी : हरि क्रांति नामक पाठ किसके द्वारा लिखी गयी है?
उत्तर-
उतरी स्वप्न परी : हरि क्रांति नामक पाठ फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखी गयी है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 8 उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति (फणीश्वरनाथ रेणु)

प्रश्न 9.
उतरी स्वप्न परी : हरि क्रांति में लेखक ने किस क्रांति का वर्णन किया है?
उत्तर-
उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति में लेखक ने देश में खेती के संदर्भ में हरित क्रांति का वर्णन किया है। उन्होंने यह बतलाया है कि हरित क्रांति होने से भारत खाद्यान्न के मामले में लगभग आत्म-निर्भर बन चुका है।

प्रश्न 10.
उतरी स्वज परी : हरि क्रांति किस प्रकार की रचना है?
उत्तर-
फणीश्वर नाथ रेणु द्वारा लिखित उतरी स्वप्न परी : हरि क्रांति नामक पाठ रिपोर्ताज है।

प्रश्न 11.
फणीश्वर नाथ रेणु कस प्रकार के कहानीकार हैं?
उत्तर-
फणीश्वरनाथ रेणु एक आंचलिक कहानीकार हैं।

प्रश्न 12.
किन कहानियों में फणीश्वरनाथ रेणु की फिल्में बनी?
उत्तर-
मैला आँचल और तीसरी कसम पर फिल्में बनी जो बहुत लोकप्रिय हुयीं।

उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग या घ) लिखें।

प्रश्न 1.
‘उतरी स्वज परी : हरी क्रांति’ के लेखक कौन हैं?
(क) रामचन्द्र शुक्ल
(ख) प्रेमचन्द
(ग) फणीश्वरनाथ रेणु
(घ) कृष्ण सोबती
उत्तर-
(ग)

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प्रश्न 2.
‘उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति’ किस पुस्तक से संकलित है?
(क) कितने चौराहे
(ख) मैला आँचल
(ग) श्रुत-अश्रुत
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 3.
‘मैला आँचल’ उपन्यास है-
(क) आंचलिक
(ख) जासूसी
(ग) ऐतिहासिक
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

प्रश्न 4.
उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति क्या है?
(क) संस्मरण
(ख) रिपोर्ताज
(ग) कहानी
(घ) निबंध
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 5.
लेखक ने शोक का पर्याय किसे कहा है?
(क) कोशी नदी को
(ख) कमला नदी को
(ग) गंगा नदी को
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

प्रश्न 6.
लेखक ने किसे ‘माई’ भी कहा है ‘डायन’ भी
(क) कोशी
(ख) कमला
(ग) बलान
(घ) बागमती
उत्तर-
(क)

रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न 1.
विधाता की सृष्टि में ही…………..है।
उत्तर-
सर्वश्रेष्ठ

प्रश्न 2.
वहाँ धान और गेहूँ की…………..झूम रही हैं।
उत्तर-
बालियाँ।

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उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति लेखक परिचय फणीश्वरनाथ रेणु (1921-1977)

फणीश्वरनाथ रेणु हिन्दी के अप्रतिम कथाशिल्पी तथा लेखक थे। वे आंचलिक कहानी और आंचलिक उपन्यास के जनक माने जाते हैं। इनकी कहानियों और उपन्यासों में क्षेत्र-विशेष की सोंधी मिट्टी की महक है। समय के सच को बड़ी तल्लीनता के साथ उन्होंने अपने साहित्य में स्थान दिया है।

‘रेणुजी’ का जन्म 4 मार्च, 1921 ई० को बिहार के पूर्णिया वर्तमान अररिया जिले के औराही हिंगना गाँव में हुआ था और देहावसान 11 अप्रैल, 1977 ई० में। शोषण और दमन के विरुद्ध संघर्षरत रेणु ने 1942 ई० के स्वतंत्रता-संग्राम में अग्रणी भूमिका का निर्वाह किया तो 1950 ई० में राणाशाही के दमन और अत्याचार से नेपाल की जनता को मुक्ति दिलाने के लिए वहाँ की सशक्त क्रांति में भाग लिया।

जीवन की संध्या बेला में फिर से ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ के रूप में सक्रिय हुए और सत्ता के दमनचक्र के विरोध में ‘पद्यश्री’ की उपाधि लौटा दी तथा जेल गए। उन्होंने इस सत्य को चरित्रार्थ किया कि सच्चा लेखक जो लिखता है, उसे जीवन में साकार करने के लिए संघर्ष भी करता है।

‘रेणुजी’ की सबसे पहली कहानी थी-‘बटबाबा’। यह कहानी 1954 ई० में विश्वामित्र में प्रकाशित हुई थी। कोशी डायन’, ‘जै गंगा’, ‘नया सबेरा’, ‘हड्डियों का फल’ इनकी प्रारंभिक रचनाएँ हैं। ‘ठुमरी’ नाम से इनकी कहानियों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ है। ‘तीसरी कसम’ और ‘रसप्रिया’ इनकी सुप्रसिद्ध कहानियाँ हैं। ‘तीसरी कसम’ पर फिल्म भी बन चुकी है।

‘रेणुजी’ ने ‘मैला आँचल’ उपन्यास लिखकर पूरे हिन्दी-जगत में एक तूफान खड़ा कर दिया। यहा उनका आँचलिक उपन्यास है। ‘परती परिकथा’, ‘जूलूस’ और ‘कितने चौराहे’ इनके सुप्रसिद्ध उपन्यास हैं। इन्होंने अंचल विशेष के जीवन को उसके समय भूमिगत स्वरूपा के अंकित किया है। ऐसे में लोग जीवन के सभी तत्त्व अभिव्यक्ति के उपकरण बन जाते हैं। अपनी स्वाभाविकता के कारण इन्होंने आरंभ से ही पाठकों को आकर्षित किया।

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रेणु एक ग्राम विशेष के साथ बँधकर तथ्य-विस्तार को कलात्मक चित्रों की रेखाओं के रूप में ग्रहण करते हैं। उस ग्राम के माध्यम स्वातंत्रोत्तर भारत की समस्या का मूर्तिमान कर देना ही रेणु की उपलब्धि है। इन उपन्यासों में ‘मैला आँचल’ और ‘परती परिकथा’ का जीवन दर्शन स्पष्ट तथा अनुपम है। रेणु आंचलिकता की सीमा में बँध कर नहीं रह गये हैं। बल्कि उनका दृष्टिकोण जीवन के यथार्थ को पूरी तन्मयता के साथ जीवन्त बनाने का है। ‘तीसरी कसम’ कहानी में उन्होंने संवेदना के जिस अंग का स्पर्श किया है, उसे किसी अंचल या क्षेत्र विशेष में कैद नहीं किया जा सकता है।

रेणुजी के कृतित्व और व्यक्तित्व पर विचार करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि इन्होंने जीवन में केवल संघर्ष के रास्ते को चुना है और साहित्य में नये आयामों को जन्म देकर उसे पाल-पोसकर बड़ा किया है। उनका जीवन एक सतत् क्रांतिकारी का जीवन रहा है। इनकी कहानियों में राजनीतिक पक्ष उस ढंग से उजागर नहीं हुए हैं जबकि उपन्यासों में अपने आपको व्यावहारिक जीवन की राजनीतिक चेतना से बचा नहीं सके हैं। इनकी कहानियाँ संवेदना के स्तर से शुरू होती है और संवेदना के तल पर समाप्त हो जाती हैं।

वास्तव में रेणु अपने समय के दुर्लभ कथाकारों में हैं। जिनके कथा गद्य में संगीत के अंताप्त गुण हैं।

उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति पाठ का सारांश

“उतरी स्वप्न परी : हरी क्रांति” फणीश्वर नाथ रेणु लिखित एक रिपोर्ताज है। फणीश्वरनाथ रेणु एक राष्ट्रीय एवं अंततराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त आंचलिक कथाकार हैं। उन्होंने पूर्णिया के अपने ग्रामीण अंचल तथा वहाँ के जीते-जागते चरित्रों को अपने पाठकों के मानस पर अमिट छाप छोड़ा है। रेणु जी अपने समय के दुर्लभ कथाकारों में से एक हैं। कथा साहित्य के अतिरिक्त संस्मरण और रिपोर्ताज विधाओं में भी रेणुजी अनुपम दिखलाई पड़ते हैं।

प्रस्तुत पाठ उनकी पुस्तक “श्रुत-अश्रुत पूर्व” से संकलित है। कोसी को बिहार का शोक कहा जाता है। कोसी का तांडव भयानक है। कोसी अपने क्षेत्र में भयानक तबाही मचाती है। ‘कोसी परियोजना’ के द्वारा कैसे कोसी के शोक विषय को उल्लास एवं खुशियों में बदल दिया गया तथा मनुष्य के प्रयत्न और पुरुषार्थ के द्वारा यह चकित कर देने वाला परिवर्तन हो सका, यही इस रचना का मुख्य विषय है।

फणीश्वरनाथ रेणु ने इस संस्करण में कोसी अंचल का सजीव चित्र प्रस्तुत किया है। कोसी अंचल का वर्णन उनका व्यक्तिगत विषय भी है क्योंकि उनका जन्म स्थान भी कोसी अंचल ही है। यही कारण है कि कोसी अंचल का यथार्थ चित्रण उन्होंने इस रिपोर्ताज (संस्मरण) में किया है।

कोसी अंचल में कोसी का तांडव कैसा होता आ रहा है, इसका सजीव एवं व्यावहारिक चित्र लेखक ने इस पाठ में प्रस्तुत किया है।

कोसी अंचल में रहने वाले कोसी के तांडव से हमेशा भयभीत रहते हैं। लाखों एकड़ जमीन बंजर हो गई है। मलेरिया एवं कालाजार से प्रतिवर्ष हजारों व्यक्ति मरते हैं। अंचल में गरीबी का साम्राज्य है। कोसी के इस आतंक से लेखक भी प्रभावित हैं। इसीलिए जब भी वे इस आतंक के बारे में कुछ लिखते हैं तो यह अंचल उनका व्यक्तिगत हो जाता है। यह स्वाभाविक भी है।

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लेखक आशावादी हैं। वे अपने लेखों द्वारा कल्पना करते रहते हैं कि एक दिन समय लौटेगा। कोसी अंचल के लोग खुशहाल होंगे। परती जमीन के दिन भी फिरेंगे, प्राणों में घुल हुए रंग धरती पर फैल जाएंगे। चारों ओर हरियाली छा जाएगी।

लेखक की कल्पना साकार भी होती है ‘कोसी परियोजना’ शुरू होती है। बड़े-बड़े बाँधे जाते हैं। नहरें निकाली जाती हैं। खेतों में हरियाली आ जाती है। धान, गेहूँ, मक्का की फसलें होन लगी। लोगों के चेहरे पर खुशियाँ लौट आयीं। तो लोग कोसी अंचल छोड़कर दूसरे प्रान्तों में जाकर बस गये थे, वे भी घर लौटने लगे। एक का उदाहरण लेखक ने दिया भी है। बच्चे उन्हें ‘सुदामाजी’ कहते थे।

कोसी अंचल के दिन लौटने पर लेखक मनुष्य के धैर्य, पराक्रम एवं क्षमता की प्रशंसा करते हैं। वे कहते भी हैं कि विधाता की सृष्टि में मानव ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। मनुष्य चिंतनशील प्राणी है। वह निराशा के घोर अंधकार में आशा के दीप लेकर आगे बढ़ता है। उसमें धैर्य, त्याग, तपस्या, लगन जैसे अनेक विलक्षण गुण हैं जो अन्य जीवों में नहीं पाये जाते। मनुष्य के पराक्रम पर लेखक को इतना भरोसा है कि वे लोगों से कहते भी हैं कि जिन्हें नहीं हो, वे कोसी अंचल में आकर देख लें। लोगों में प्राणों का संचार होने लगा है। खुशियाँ ने धरती पर अपनी छटा बिखरे दी हैं। लोगों की खुशियाँ दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 8 उत्तरी स्वप्न परी : हरी क्रांति (फणीश्वरनाथ रेणु)

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 6 मेरी वियतनाम यात्रा

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 6 मेरी वियतनाम यात्रा (भोला पासवान शास्त्री)

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 6 मेरी वियतनाम यात्रा (भोला पासवान शास्त्री)

मेरी वियतनाम यात्रा पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
हो-ची-मीन्ह की तस्वीर अंतःसलिला फल्गू नदी की तरह लेखक के हृदय को . सींचती रही। लेखक हो-ची-मीन्ह से इतना प्रभावित क्यों है?
उत्तर-
लेखक श्री भोला पासवान शास्त्री ने जब हिन्दी के मासिक पत्रिका में पेंसिल स्केच से बनी हो-ची-मीन्ह की तस्वीर देखी, तो देखते ही रह गये। दुबली-पतली काया सादगी का नमूना प्रदर्शित कर रही थी। व्यक्तित्व बड़ा ही प्रेरक, ओजस्वी, तेजस्वी एवं जादुई प्रभाव से युक्त। चेहरे पर लहसुननुमा दाढ़ी बड़ी फब रही थी। बाह्य आकृति से आंतरिक प्रतिकृति परिलक्षित हो रही थी। उसे देखकर लेखक अभिभूत ही नहीं वशीभूत भी हो गये।

बहुत देर तक उस तस्वीर को देखते रह गये। उस तस्वीर का जादुई प्रभाव लेखक के मानस-पटल पर हमेशा अंकित रहा और उनके हृदय-प्रदेश को अंत:सलिला फल्गू नदी की भाँति सींचती रही। अभिप्राय यह कि लेखक के मन को उस महामानव की तस्वीर हमेशा प्रेरित-अनुप्राणित करती रहती है।

प्रश्न 2.
‘अंतर्राष्ट्रीयता पनप नहीं सकती, जब तक राष्ट्रीयता का पूर्ण विकास न हो।’ इस कथन पर विचार करें और अपना मत दें।
उत्तर-
हमारी पाठ्य-पुस्तक दिगंत भाग-I में संकलित ‘मेरी वियतनाम यात्रा’ शीर्षक पाठ में लेखक भोला पासवान शास्त्री ने वियतनाम के महान नेता हो-ची-मीन्ह के प्रति बड़े सम्मान और श्रद्धा का भाव प्रदर्शित किया है। उन्होंने उनके महान व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए उन्हें न केवल एक अप्रतिम देशभक्त कहा है, अपितु विश्वद्रष्टा भी बताया है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 6 मेरी वियतनाम यात्रा (भोला पासवान शास्त्री)

इस संदर्भ में ही लेखक ने अपना यह सारगर्भित और सत्यपूर्ण विचार व्यक्त किया है कि जब तक राष्ट्रीयता का पूर्ण विकास न हो, तब तक अंतर्राष्ट्रीयता भी नहीं पनप सकती। लेखक का यह अभिमत अनुभव सिद्ध व्यावहारिक एवं युक्ति-युक्त है। अंतर्राष्ट्रीयता यह भी वस्तुतः राष्ट्रीयता की भावना का ही परिधि-विस्तार है। अतः जब तक हमारे अंदर राष्ट्रीयता की भावना बलवती न होगी, हम अंतर्राष्ट्रीयता की भावना को भी आत्मसात न कर सकेंगे।

यद्यपि कुछ लोगों के अनुसार राष्ट्रीयता अंतर्राष्ट्रीयता की बाधिका है, पर हमें ऐसा एकदम नहीं लगता। वास्तव में जो व्यक्ति अपने राष्ट्र को अपना नहीं समझ सकता, वह व्यापक विश्व समाज को अपना कदापि नहीं समझ सकता। अतः हम लेखक की उपर्युक्त कथन से पूरी तरह सहमत हैं।

प्रश्न 3.
हो-ची-मीन्ह केवल वितयनाम के नेता बनकर नहीं रहे। वे विश्वद्रष्टा और विश्वविश्रुत हुए। पाठ के आधार पर उनके व्यक्तित्व की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-
हो-ची-मीन्ह को यदि वितयनाम का गाँधी कहा जाए तो यह अतिशयोक्ति न होगी। हो-ची-मीन्ह एक महान् वियतनामी नेता थे। उन्होंने विदेशी साम्राज्यवाद के शिकंजे में जकड़े वितयनाम को मुक्त कराने में अमूल्य योगदान किया, वितयनाम की जनता को गुलामी से छुटकारा दिला कर निरंतर उन्नति की दिशा में अग्रसर होने के लिए मार्गदर्शन किया। उन्होंने एक प्रकाश से संपूर्ण विश्व को क्रांति, त्याग और बलिदान का पाठ पढ़ाया। फलतः उनकी लोकप्रियता वियतनाम तक ही सीमित न रहकर विश्व भर में फैली और वे विश्वविख्यात हुए।

वस्तुतः हो-ची-मीन्ह एक महापुरुष थे, महामानव। उनके व्यक्तित्व में अनेक उच्च मानवीय गुणों का वास था। उनका व्यक्तित्व बड़ा ही प्रभावशाली था। वे ‘सादा जीवन उच्च विचार’ की साक्षात् प्रतिमूर्ति थे तथा ‘अपना काम स्वयं करो’ की नीति पर चलते थे। अपने कठिन एवं अनथक संघर्षों के परिणामस्वरूप जब वे स्वतंत्र वियतनाम के राष्ट्रपति बने, तब भी शाही महल को छोड़ एक साधारण मकान में जीवन-स्तर किये। वे अपनी जरूरत के चीजें स्वयं टाइप कर लेते थे तथा कम-से-कम साधनों से अपना जीवन-निर्वाह करते थे। व्यक्तित्व के ये सभी गुण सचमुच सबके लिए आदर्श और अनुकरणीय हैं।

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प्रश्न 4.
‘जिन्दगी का हर कदम मंजिल है। इस मंजिल तक पहुँचने से पहले साँस रुक सकती है।’ इस कथन का क्या अभिप्राय है?
उत्तर-
हमारी पाठ्य-पुस्तक के दिगंत भाग-1 में संकलित ‘मेरी वियतनाम यात्रा’ शीर्षक यात्रावृत्तांत के लेखक भोला पासवान शास्त्री ने वियतनाम यात्रा के आरंभ की अपनी मन:स्थिति के संदर्भ में विवेच्य कथन कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि जिन्दगी का हर कदम अपने-आप में एक मंजिल के समान है। मंजिल पर पहुँचने के पश्चात् व्यक्ति क्षण भर विश्राम करता है। परंतु किस कदम पर व्यक्ति के जीवन में विराम लग जाए, नहीं कहा जा सकता। अर्थात् जीवन कब, कहां और कैसे रुक जाएगा-यह सर्वथा अज्ञात रहता है। अतः लेखक को व्यक्ति का हर कदम एक मंजिल जैसा प्रतीत होता है।।

प्रश्न 5.
वियतनामी भाषा में ‘हांग खोंग’ और ‘हुअ सेन’ का क्या आदर्श है?
उत्तर-
वियतनामी भाषा हांग खोंग में ‘हांग’ का अर्थ मार्ग और ‘खोंग’ का अर्थ हवा होता है। इस प्रकार हांग खोंग का अर्थ हुआ-हवाई मार्ग।

हुआ सेन-वितयनामाी भाषा में ‘हुअ सेन’ का अर्थ है-कमल का फूल।

प्रश्न 6.
लेखक को ऐसा क्यों लगता है कि मैकांग नदी के साथ उसका पहरा भावनात्मक संबंध है?
उत्तर-
हमारी पाठ्य-पुस्तक के विंगत भाग-1 में संकलित ‘मेरी वियतनाम यात्रा’ के लेखक भोला पासवान शास्त्री जब बैंकाक, अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से वितयनाम की राजधानी हानोई विमान द्वारा जा रहे थे, तो रास्ते में उन्हें अचानक एक बड़ी नदी दिखाई पड़ी। तत्पश्चात् पार्थ सारथी से उन्हें यह मालूम हुआ कि मैकांग नदी है। यह सुनकर लेखक उस नदी के प्रति भाव-विभोर हो गये। उन्हें लगने लगा कि उसके साथ उनका बहुत पुराना नाता-रिश्ता है। ऐसा इसलिए अनुभूल हुआ, क्योंकि लेखक उस नदी का नाम पहले से सुन चुके थे।

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अमेरिका बनाम वियतनाम के युद्ध में उस नदी का जिक्र दुनिया भर के समाचार पत्रों में हो चुका था। इस प्रकार, उसका साक्षात् दर्शन कर लेखक उसके साथ गहरे भावनात्मक स्तर पर जुड़ जाते हैं। इसके अतिरिक्त एक यह भी विचित्र संयोग है कि उस नदी को वहाँ के लोग ‘महागंगा’ के नाम से जानते-पहचानते हैं। गंगा अपने देश की पवित्रतम नदी है। इन्हीं सब बातों के कारण लेखक मैकांग नदी के साथ अपना प्रगाढ़ भावनात्मक संबंध महसूस करता है।

प्रश्न 7.
हानोई साइकिलों का शहर है। हम इस बात से क्या सीख सकते हैं?
उत्तर-
हानोई वियतनाम जैसे देश की राजधानी है। उसकी अन्य अनेक विशेषताओं में एक प्रमुख विशेषता है साइकिल की सवारी। वहाँ के सभी लोग साइकिलों पर ही सवार होकर यत्र-तत्र-सर्वत्र आते-जाते, घूमते-फिरते हैं। वहाँ ट्रक, बस और मोटरगाड़ियों का राष्ट्रीयकरण हो चुका है, अतएव कोई इन चीजों को निजी संपत्ति के तौर पर नहीं रख सकता। इस प्रकार हानोई साइकिलों का शहर है। इससे हमें यह सीख लेनी चाहिए कि हमें भी अपनी सवारी के लिए प्रदूषण फैलाने वाली मोटरगाड़ियों को छोड़कर साइकिल का ही अधिक-से-अधिक प्रयोग करना चाहिए।

इससे हमारा स्वास्थ्य भी बनेगा, बचत भी होगी और प्रदूषण भी नहीं होगा।

प्रश्न 8.
लेखक ने हो-ची-मीन्ह के घर का वर्णन किस प्रकार किया है? इससे हमें क्या प्रेरणा मिलती है?
उत्तर-
लेखक भोला पासवान शास्त्री ने विश्वद्रष्टा एवं विश्वविश्रुत नेता हो-ची-मीन्ह के घर का वर्णन बड़ी अंतरंगता के साथ किया है। उन्होंने आत्मीयतापूर्वक वर्णन-क्रम में बताया है कि वह साधारण-सा छोटा मकान है। उसमें कुल दो कमरे हैं और चारों ओर बरामदें हैं। एक कमरे में उनकी खाट रखी है, जिस पर वे सोते थे। खाट पर बिछावन और ओढ़ने के कपड़े भी समेट कर रखे हुए हैं। एक तकिया और एक छड़ी भी है। ऐसी ही छोटी-मोटी कुछ और चीजें भी रखी हैं। दूसरे कमरे में उन्हीं द्वारा रचित कुछ पुस्तकें हैं। बरामदे में लकड़ी की बनी बेंच रखी हुई थी, जिस पर मुलाकाती लोग आकर बैठते थे।

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इस प्रकार, उस महान् नेता का मकान सब तरह से साधारण था। इससे यह प्रेरणा मिलती है कि हमें भी अपना जीवन सादगीपूर्ण ढंग से बिताना चाहिए। हमें कम-से-कम साधनों से अपना काम चलाना चाहिए तथा व्यर्थ के ताम-झाम या तड़क-भड़क में नहीं पड़ना चाहिए। इसी में हमारी भलाई और महत्ता निहित होती है।

मेरी वियतनाम यात्रा भाषा की बात।

प्रश्न 1.
लेखक ने हो-ची-मीन्ह के लिए किन-किन विशेषणों का प्रयोग किया है? पाठ से उन विशेषणों को चुनें।
उत्तर-
‘मेरी वियतनाम यात्रा’ शीर्षक पाठ में लेखक ने हो-ची-मीन्ह के लिए निम्नलिखित विशेषणों का प्रयोग किया है-महामानव, मसीहा, प्रेरणाप्रद, चमत्कारी, तेजस्वी, सव्यसाची, महापुरुष, विश्वद्रष्टा, विश्वविश्रुत, सर्वप्रिय नेता इत्यादि।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों का वाक्य-प्रयोग द्वारा लिंग-निर्णय करें:
उत्तर-

  • नीधि (पुलिंग)-यह मेरी एकमात्र निधि है।
  • स्केच (पुलिंग)-उग्रवादियों का स्केच जारी किया गया।
  • प्रण (स्त्रीलिंग)-उसके प्राण निकल गये।
  • सुधि (पुलिंग)-उसने मेरी सुधि न ली।
  • तस्वीर (स्त्रीलिंग)–यह तस्वीर पुरानी है।
  • विभूति (स्त्रीलिंग)-यह दुर्लभ विभूति कहाँ थी?
  • संपत्ति (स्त्रीलिंग)-यह किसकी संपत्ति है?
  • संरक्षण (स्त्रीलिंग)-हमें राष्ट्रीय धरोहरों का संरक्षण करना चाहिए।
  • दाढ़ी (स्त्रीलिंग)-उनकी दाढ़ी पक गई।

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प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के प्रत्यय निर्दिष्ट करें:
उत्तर-
Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 6 मेरी वियतनाम यात्रा 1

प्रश्न 4.
इन शब्दों के उपसर्ग निर्दिष्ट करें:
उत्तर-
Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 6 मेरी वियतनाम यात्रा 2

प्रश्न 5.
अर्थ की दृष्टि से निम्नलिखित वाक्यों की प्रकृति बताएँ:
उत्तर-
(क) दिन बीतते गए। – विधानवाचक वाक्य।।
(ख) हो सकता है दो-चार वर्ष और पहले ही हो। – संदेहवाचक वाक्य।
(ग) इसमें संदेह नहीं कि उनका जीवन कभी नहीं सूखने वाले प्ररेणा-स्रोत के समान बना रहेगा। – विधानवाचक वाक्य।
(घ) वे कौन हैं, कहाँ के हैं और क्या हैं, जानने की सुधि भी नहीं रही। – उद्गारवाचक वाक्य।

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प्रश्न 6.
पाठक से प्रत्येक कारक के कुछ उदाहरण चुनकर लिखें।
उत्तर-
[ज्ञातव्य-संज्ञा या सर्वनाम के जिस रूप से वाक्य के अन्य शब्दों के साथ उनका संबंध सूचित होता है, उसके कारक कहते हैं। हिंदी में कारक के आठ भेद माने जाते हैं- कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान, संबंध, अधिकरण और संबोधन कारक।]

प्रस्तुत पाठ में प्रयुक्त कारकों के उदाहरण निम्नवत हैं :

  • कर्ता कारक-मित्रों ने ‘यात्रा शुभ हो’ कहकर विदा किया।
  • कर्मकारक-बिछावन पर आज का ‘बैंकाक पोस्ट’ रखा था।
  • करण कारक-हमलोग एयर इंडिया के विमान से वियतनाम के लिए रवाना हुए।
  • संप्रदान कारक-अधिकांश यात्री पहले ही एयरपोर्ट से शहर के लिए प्रस्थान कर चुके थे।
  • अपादान कारक-जब बिहार से दिल्ली आया तो सबसे पहले मुझे मॉरीशस जाने का मौका मिला।
  • संबंध कारक-हमलोगों की घड़ी में डेढ़ बज रहे थे।
  • अधिकरण कारक-हम एयर इंडिया के बोइंग विमान 707 में आ गए।
  • संबोधन कारक-यात्रा शुभ हो, भारत और वियतनाम की मित्रता दृढ़ हो।

अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

मेरी वियतनाम यात्रा लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
होचीमीन्ह कौन थे? वियतनाम में उनके योगदान का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर-
होचीमीन्ह वियतनाम के महान नेता और राजनीतिज्ञ थे। वियतनाम की राजनीति में उनका महत्वपूर्ण योगदान था। आज से लगभग 90 वर्ष पहले जब वियतनाम विदेशी साम्राज्यवाद के शिकंजे में जकड़ा हुआ था तं. इस महान राजनेता ने उनसे वियतनाम के लोगों को स्वतंत्र कराया। उन्होंने वियतनाम की जनता को गुलामी से मुक्ति दिलाकर देश की उन्नति कराने में मार्ग-दर्शन किया। वियतनाम की आजादी और उसकी प्रगति में होचीमीन्ह ने प्रमुख भूमिका निभाया। इसीलिए वियतनाम में लोग इन्हें आदर की दृष्टि से देखते हैं।

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प्रश्न 2.
लेखक भोला पासवान शास्त्री का बिहार में कैसा स्थान है?
उत्तर-
भोला पासवान शास्त्री का बिहार की राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान माना जाता है। ये बिहार के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, प्रबुद्ध पत्रकार और राजनेता थे। वे सिद्धांतों और मूल्यों की राजनीति करने वाले राजनेता थे। बिहार के प्रबुद्ध नागरिकों, राजनीतिकर्मियों और बुजुर्ग पत्रकारों के बीच अपनी सादगी, लोकनिष्ठा, देशभक्ति, पारदर्शी ईमानदारी और विचारशीलता के लिए वे बहुत महान राजनेता माने जाते हैं। बिहार की राजनीति में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

मेरी वियतनाम यात्रा अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मेरी वियतनाम यात्रा नामक पाठ की रचना किस लेखक ने की है:
उत्तर-
मेरी वियतनाम यात्रा नामक पाठ की रचना भोला पासवान शास्त्री ने की है। .

प्रश्न 2.
भोला पासवान शास्त्री कौन थे?
उत्तर-
भोला पासवान शास्त्री बिहार के एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, प्रबुद्ध पत्रकार एवं राजनेता थे।

प्रश्न 3.
मेरी वियतनाम यात्रा किस प्रकार की रचना है?
उत्तर-
मेरो वियतनाम यात्रा एक संस्मरण है।

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प्रश्न 4.
भोला पासवान शास्त्री कितनी बार बिहार के मुख्यमंत्री बने?
उत्तर-
भोला पासवान शास्त्री मार्च 1968 से जनवरी 1972 तक की अवधि में तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री बने।

प्रश्न 5.
होचीमीन्ह कौन थे?
उत्तर-
होचीमीन्ह वियतनाम के एक प्रमुख राजनेता थे।

प्रश्न 6.
होचीमीन्ह का क्या योगदान था?
उत्तर-
होचीमीन्ह ने वियतनाम को विदेशी साम्राज्यवाद के शिकंजे से मुक्ति दिलायी। उन्होंने वियतनाम की जनता को गुलामी से मुक्ति दिला कर विकास की दिशा के आगे बढ़ने के लिए मार्ग-दर्शन किया।

मेरी वियतनाम यात्रा वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. सही उत्तर का सांकेतिक चिह्न (क, ख, ग, या घ) लिखें।

प्रश्न 1.
‘मेरी वियतनाम यात्रा’ के लेखक कौन हैं?
(क) राम विलास पासवान
(ख) भोला पासवान शास्त्री
(ग) हरिशंकर परसाई
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 2.
‘मेरी वियतनाम यात्रा’ क्या है?
(क) संस्मरण
(ख) निबंध
(ग) यात्रावृत्तांत
(घ) रेखा चित्र
उत्तर-
(ग)

प्रश्न 3.
हो-ची-मीन्ह कहाँ के नेता थे?
(क) वियतनाम
(ख) चीन
(ग) जापान
(घ) मलेशिया
उत्तर-
(क)

प्रश्न 4.
हुअ-सेन का क्या अर्थ है?
(क) नदी
(ख) कमल का फूल
(ग) झरना
(घ) समुद्र
उत्तर-
(ख)

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प्रश्न 5.
‘मेरी वियतनाम यात्रा’ का प्रकाशन कब हुआ?
(क) 1973 ई० में
(ख) 1983 ई० में.
(ग) 1993 ई० में
(घ) 1995 ई० में
उत्तर-
(ख)

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें।

प्रश्न 1.
अन्तर्राष्ट्रीय पनप नहीं सकती जब तक…………..का पूर्ण विकास न हो।
उत्तर-
राष्ट्रीयता

प्रश्न 2.
मित्रों ने……………….कहकर विदा किया।
उत्तर-
‘यात्र शुभ हो’

प्रश्न 3.
वियतनामी भाषा में ‘हाँग का अर्थ……..और खोंग का अर्थ……..होता है।
उत्तर-
मार्ग, हवा

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प्रश्न 4.
अब भी वह एक युग का……………करता दीखता है।
उत्तर-
प्रतिनिधित्व

प्रश्न 5.
श्री हो-ची-मीन्ह…………..के सर्वप्रिय नेता रहे।
उत्तर-
वियतनाम

मेरी वियतनाम यात्रा भोला पासवान शास्त्री (1914-1984)

एक प्रमुख स्वतंत्रता सेनानी, प्रबुद्ध पत्रकार एवं लोकप्रिय राजनेता भोला पासवान शास्त्री का जन्म सन् 1914 ई० में बिहार राज्य के पूर्णिया जिलान्तर्गत ‘बैरगाछी’ नामक गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम श्री धूसर पासवान था। भोला पासवान शास्त्री की शिक्षा बिहार विद्यापीठ, पटना एवं तदनंतर काशी विद्यापीठ, वाराणसी से हुई। बिहार के एक पिछड़े हुए सुदूर अंचल के वंचित वर्ग का होते हुए भी शास्त्रीजी अपने नैतिक योग्यता, बौद्धिक क्षमता और व्यक्तिगत गुणों के बल पर देश के राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन में काफी आगे बढ़े और अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया।

शास्त्रीजी में बचपन से ही देशभक्ति, समाज-सेवा, ईमानदारी, सच्चरित्रता, विचारशीलता जैसी उदान्त भावनाएँ कूट-कूट कर भरी हुई थीं। वे छात्र-जीवन से ही स्वाधीनता आंदोलन और राजनीति में सक्रिय रहे। 1942 ई० के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण उन्हें 21 माह का कठोर कारावास का दंड मिला। अपनी कर्मठता एवं जन-सेवा के बल पर वे 1946 ई० में बिहार प्रदेश कांग्रेस कमिटी के सदस्य बने।

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जनता में पर्याप्त प्रसिद्ध शास्त्रीजी 1952 ई० के पहले आम चुनाव में धमदाहा-कोढ़ा विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से विधायक चुने गये और डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के मंत्रिमंडल में शामिल हुए। इसी प्रकार, 1957, 1962 एवं 1967 के आम चुनावों में वे विधायक चुने जाते रहे और मार्च, 1968 से जनवरी, 1972 तक की अवधि में तीन बार बिहार क मुख्यमंत्री चुने गये और फरवरी, 1973 के केन्द्र सरकार के मंत्री बने और 1982 ई० तक संसद सदस्य के रूप में राष्ट्र एवं समाज की सेवा करते रहे। उनका निधन 10 सितंबर, 1984 ई० को हुआ।

शास्त्रीजी सच्चे अर्थों में बिहार के एक श्रेष्ठ राजनेता एवं समाजसेवी थे। वे ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के कायल थे। राजनीतिक हलकों में उन्हें आज भी बड़े आदर और सम्मान के साथ याद किया जाता है। वे सिद्धांतों और मूल्यों की राजनीतिक करने वाले तपे-तपाए नेता थे, स्वार्थसिद्धि हेतु गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले अवसरवादी नेता नहीं। उनकी सादगी, लोकनिष्ठा, देशभक्ति, सेवापरायणता आदि की आज भी दाद दी जाती है। कोई भी प्रलोभन उन्हें कर्तव्यपथ से विचलित नहीं कर सकता था।

उनकी दृष्टि से सभी देशवासी समान थे। उनके लिए जाति अथवा वर्ग-विशेष प्रधान न था, बल्कि वे संपूर्ण समाज एवं उनकी मुख्य धारा को साथ ले चलने वाले थे। भारतीय परंपरा के प्रति उनके मन में गहरा अनुराग था तथा वे अंतर्राष्ट्रीय राजनीति की भी गहरी समझ रखते थे। उनका आदर्श सामाजिक समानता और सद्भाव के स्वप्न को साकार करना था। इसके लिए जीवन भर सजग एवं सचेष्ट रहे। विशेषकर आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए किया गया उनका संघर्ष सदैव स्मरणीय रहेगा।

शास्त्रीजी अपने जीवन में न केवल राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय रहे, अपितु रचनात्मक सृजन में भी संलग्न रहें। उन्होंने पूर्णिया से प्रकाशित हिंदी साप्ताहिक पत्रिका ‘राष्ट्र-संदेश’ का संपादन किया था तथा पटना के दैनिक ‘राष्ट्रवाणी’ एवं कोलकाता के दैनिक पत्र ‘लोकमान्य’ के संपादक-मंडल में भी सदस्य के रूप में रहे। उनकी प्रमुख कृति ‘वियतनाम की यात्रा’ 1983 ई० में वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। उनके अन्य लेख, टिप्पणियाँ अब तक अप्रकाशित रूप में यत्र-तत्र बिखरे हैं, जिन्हें प्रकाशित किया जाना चाहिए।

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मेरी वियतनाम यात्रा पाठ का सारांश

हमारी पाठ्य-पुस्तक में संकलित ‘मेरी वियतनाम यात्रा’ शीर्षक यात्रावृत्त के लेखक बिहार के एक प्रमुख राजनेता स्व० भोला पासवान शास्त्री हैं। यह पाठ उनकी पुस्तक ‘वियतनाम की यात्रा’ का एक अंश है, जिसमें यात्रा-लेखक के रूप में शास्त्रीजी ने अपनी वियतनाम यात्रा का अत्यंत रोचक एवं प्रभावकारी अंकन किया है।

पाठारंभ बड़ा ही रोचक, कुतूहलजनक एवं जिज्ञासावर्द्धक है। लेखक बताता है कि लगभग 40-42 वर्ष पहले एक दिन जब वह हिंदी की किसी मासिक पत्रिका के पन्ने उलट-पुलट रहा था कि अचानक पेंसिल स्केच की एक अनोखी तस्वीर देख ठिठक गया। वह तस्वीर वियतनाम के विश्वद्रष्टा एवं विश्वविश्रुत व्यक्ति हो-ची-मीन्ह की थी। लेखक उनके व्यक्तित्व से अभिभूत हो उठता है।

वह व्यक्तित्व अपनी सादगी और सरलता में अत्यंत तेजस्वी और प्रभावशाली था। आज भी वर्षों पूर्व देखी गई वह तस्वीर अक्षुण्ण है तथा अंतः सलिला फल्गू नदी की भाँति उनके. हृदय-प्रदेश को सींचती रहती है। तत्पश्चात् हो-ची-मीन्ह के प्रेरणादायी व्यक्तित्व एवं कृतित्व की संक्षिप्त चर्चा कर वर्णन को आगे बढ़ा देता है।

लेखक ने बताया है कि जब वे बिहार से दिल्ली आये तो सबसे पहले उन्हें मॉरीशस जाने का मौका मिला और मौका पाते ही वहाँ चले जाते हैं। वियतनाम यात्रा के साथ भी यही बात है। उनकी जीवनयात्रा के करीब दस दिन वियतनाम में व्यतीत हुए हैं। लेखक एयर इंडिया के बोइंग विमान-707 में वियतनाम की यात्रा के लिए सवार हुए। विमान तेज गति से बैंकाक की ओर चल पड़ा। बैंकाक तक की उनकी विमान यात्रा सुखद रही।

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वहाँ होटल ओरिएंट में उन्हें ठाहराया गया। होटल में रात्रि विश्राम के पश्चात् वे लोग बैंकाक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा पहुँचे। वहीं से उन लोगों को वियतनाम की राजधानी हानोई पहुंचना था। बैंकाक से हानोई के लंबे सफर में मैकांग नदी (जो वहाँ महागंगा के नाम से मशहूर है) को देख लेखक बड़ी आत्मीयता महसूस करते हैं, क्योंकि वे उसका नाम सुन चुके थे। देखते-देखते विमान वेंचियन हवाई अड्डा पहुंचा।

वहाँ सभी यात्री विमान से उतरकर कैंटिन में चावल की बनी पावरोटी और चाय लेते हैं और पुनः विमान में अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं। कुल डेढ़ घंटे में विमान जियालाम हवाई अड्डा जा पहुंचा। यही हवाई अड्डा हानोई से नजदीक है। वहाँ इन लोगों के स्वागत की अच्छी-खासी तैयारी थी। वितयनामी ‘कमिटी ऑफ सोलिडिरेटी एंड फ्रेंडशिप विद दी पीपुल्स ऑफ ऑल कंट्रीज’ के पदाधिकारियों और उनके सहयोगियों ने बड़े प्रसन्न भाव से गुलदस्ता भेंट कर इनका स्वागत-सत्कार किया।

जियालाम अंतर्देशीय हवाई अड्डे से निकलकर लेखक शास्त्रीजी वहाँ की सरकार द्वारा भेजी गई मोटरगाड़ी पर सवार होकर हानोई के लिए रवाना होते हैं। उनके साथ उक्त कमिटी के एक वरीय सदस्य और दुभाषिए के रहने का भी प्रबंध था। सड़क-मार्ग से गुजरते हुए रास्ते के अनेक स्थलों को निहारते हुए वे अतिथिशाला के पास आये। यह अतिथिशाला औपनिवेशक काल में ही बनी थी। वहाँ इनके स्वागत में भव्य तैयारी थी।

सड़क के दोनों ओर रंग-बिरंग वेश में बालक-बालिकाएँ जवान और वृद्ध हाथों में गुलदस्ता लिखे खड़े थे और अपनी मातृभाषा में गाना गाकर स्वागत करते हुए ‘भारत और वियतनाम की मित्रता दृढ़ हो’ के नारे भी लगा रहे थे। शास्त्रीजी वहाँ बड़े प्रेम-भाव से सबसे मिले और थोड़ी देर बाद फिर जुलूस के रूप में नयी बनी राजकीय अतिथिशाला में पहुंचे। वहीं उनलोगों के रहने की व्यवस्था थी। वहाँ उन्हें बिना दूध की चाय दी गई, जो अच्छी न लगी। भोजनोपरांत थोड़ी देर के विश्राम के बाद शाम को ठीक पाँच बजे वे लोग शहर की ओर निकले।

वहाँ उनके साथ वियतनाम पीपुल्स पार्टी के एक वरीय सदस्य और दुभाषिया बराबर रहते थे। वे लोग शहर के सामान्य दृश्यों को देखते हुए वेस्ट लेक पहुँचे। वहाँ के सन्दर्भ में दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं-पहली, चूँकि हानोई शहर में चार-पाँच झीलें हैं, इसलिए वह झीलों का नगर कहलाता है तथा दूसरे, वहाँ की निजी सवारी है साइकिल। अत: वह साइकिलों का शहर लंगता है।।

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दूसरे दिन शास्त्रीजी खूब तड़के जगे और साढ़े छह बजे घूमने के लिए पूरी तरह तैयार हो गये। इस दिन का उनका कार्यक्रम अतिशय प्रेरक और महत्त्वपूर्ण रहा। इसी दिन उन्होंने हो-ची-मीन्ह मसालियम जाकर उस महान नेता के पार्थिक शरीर के दर्शन कर उन्हें श्रद्धांजलि दी। उस समय लेखक की मनःस्थिति अवर्णनीय थी। वहाँ से वे लोग उस शाही महल को देखने गये, जिसमें, फ्रांसीसी गवर्नर जनरल रहते थे।

तत्पश्चात् वे लोग राष्ट्रपति हो-ची-मीन्ह जहाँ रहते थे, उस साधारण मकान को देखने गये। वहाँ पर उन्हें जो-जो चीजें देखने को मिलीं, उनसे राष्ट्रपति हो-ची-मीन्ह के महान व्यक्तित्व की झांकी सहज ही मिलती है। इसके बाद उन लोगों ने उस महान को भी देखा, जिसमें हो-ची-मीन्ह राष्ट्रपति बनने से पूर्व रहा करते थे। फिलहाल वहाँ कोई नहीं रहता है और उसे राष्ट्र का संरक्षण प्राप्त है। वह स्थान लेखक के अंतर्मन को छू जाता है। वहा वियतनाम की जनता की धरोहर और प्रेरणास्रोत है। वहाँ जाकर सुप्त आत्मा भी जाग्रत हो जाता है। वास्तव में हो-ची-मीन्ह वियतनाम के सर्वप्रिय नेता थे।

उनका महत्त्व वहाँ जाने पर ही जाना जा सकता है और इन्हीं हार्दिक उद्गारों के साथ पइित यात्रा-वृत्तान्त समाप्त हो जाता है। इस प्रकार, लेखक ने इस यात्रा-वृत्त में अपनी वियतनाम यात्रा के सारे अनुभवों, व्यक्तियों, वस्तुओं, घटनाओं एवं स्थानों का वर्णन बड़ी अंतरंगता से प्रस्तुत किया है।

मेरी वियतनाम यात्रा कठिन शब्दों का अर्थ

स्मृति-याद। अन्यमनस्क भाव-अनमने भाव से। सव्यसाची-बायाँ-दायाँ दोनों हाथ से निशाना साधने वाला, अर्जुन के लिए रूढ़। फबना-शोभित होना। परिलक्षित-प्रकट दिखाई पड़ना। निधि-खजाना। गुलदस्ता-पुष्पगुच्छ, फूलों का गुच्छा। औपनिवेशिक काल-जब वियतनाम पर दूसरे देश का शासन था। तेजस्वी-तेजपूर्ण। मैजेस्टिक-जादुई। सद्यःस्नात-तुरंत स्नान किया हुआ। सुधि-स्मृति, ध्यान। हरफों-अक्षरों। अंत:सलिला-अन्दर-ही अन्दर प्रवाहित होने वाली नदी। विभूति-ऐश्वर्यमय व्यक्ति। विश्व-विश्रुत-विश्वविख्यात। पार्थिव-लौकिक। दुभाषिया-ऐसा व्यक्ति जो दो भिन्न भाषा-भाषियों के बीच बातचीत करता है। शिकंजा-कैद, पकड़। पैगाम-संदेश।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 6 मेरी वियतनाम यात्रा (भोला पासवान शास्त्री)

महत्त्वपूर्ण पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या

1. अन्तर्राष्ट्रीयता पनप नहीं सकती, जब तक राष्ट्रीयता का पूर्ण विकास न हो। इसके लिए उन्होंने क्रांति, बलिदान और त्याग का पैगाम किया। इसीलिए वे विश्वद्रष्टा कहलाए और विश्व-विश्रुत हुए।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ भोला पासवान शास्त्री द्वारा लिखित मेरी वियतनाम यात्रा नामक संस्मरण से ली गयी है। इन पंक्तियों में लेखक ने वियतनाम के महान नेता होचीमीन्ह के व्यक्तित्व के बारे में वर्णन किया है। होचीमीन्ह एक महान क्रांतिकारी नेता थे और उन्होंने विदेशी साम्राज्यवाद से वियतनाम को स्वतंत्र कराया। उन्होंने अपने जीवन-काल में क्रांति, बलिदान और त्याग का पैगाम दिया। इसीलिए लेखक के अनुसार होचीमीन्ह विश्वद्रष्टा और विश्व प्रसिद्ध हुए। जब वियतनाम स्वतंत्र हुआ तो वे यहाँ के राष्ट्रपति बने। वास्तव में, वे वियतनाम के निर्माता थे।

2. होचीमीन्ह मसोलियम राष्ट्र को समर्पित है, उसे राष्ट्र का संरक्षण प्राप्त है, वह वियतनाम की जनता की धरोहर है, प्रेरणा-स्त्रोत है।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ भोला पासवान शास्त्री द्वारा लिखित मेरी वियतनाम यात्रा नामक संस्मरण से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में लेखक ने होचीमीन्ह मसोलियम को आधार बनाकर होचीमीन्ह के व्यक्तित्व को उजागर किया है। इस महान राजनेता ने वियतनाम की जनता को गुलामी से मुक्ति दिलाकर प्रगति की दिशा में अग्रसर करने के लिए मार्ग-दर्शन किया। वे वियतनाम के निर्माता और राष्ट्रपति बने। उनके मसोलियम को देखकर होचीमीन्ह की स्मृति हो आती है। यह मसोलियम राष्ट्र को समर्पित है, जिसे राष्ट्र का संरक्षण भी प्राप्त है। वास्तव में, वह वियतनाम की जनता की धरोहर और प्रेरणा स्त्रोत है। इस मसोलियम से होचीमीन्ह के महान योगदान का ज्ञान होता है।

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 6 मेरी वियतनाम यात्रा (भोला पासवान शास्त्री)

Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 11 भोगे हुए दिन

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 11 भोगे हुए दिन (मेहरुन्निसा परवेज)

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 11 भोगे हुए दिन (मेहरुन्निसा परवेज)

भोगे हुए दिन पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर।

प्रश्न 1.
जावेद और सोफिया इस कहानी के प्रमुख पात्र हैं, इनका परिचय आप अपने शब्दों में दें। .
उत्तर-
जावेद और सोफिया शांदा साहब की विधवा बेटी की संतान है। शांदा साहब अपने समय के एक लोकप्रिय शायर थे। अब अपनी वृद्धावस्था में अपेक्षा का दंश झेल रहे हैं। अपर्याप्त आय से गृहस्थी का खर्च कठिनाई से चलता है। बेटी एक उर्दू प्राइमरी विद्यालय में अध्यापन कार्य करती है। शांदा साहब का सौ रुपए सकरार से पेंशन मिलती है। घर के सामने की जमीन पर एक पेड़ के नीचे जलावन की लकड़ी की एक दूकान है। इस सीमित आय से ही वे अपनी पारिवारिक समस्याओं का समाधान कर रहे हैं। अर्थाभाव से बच्चों की पढ़ाई की समुचित व्यवस्था नहीं है। जावेद (नाती) एक स्कूल में तीसरे वर्ग में पढ़ रहा है, वह बहुत सुशील एवं अनुशासित. लड़का है। पढ़ाई के अतिरिक्त गृहकार्यों में सहयोग करता है।

पिता के प्यार से वंचित वह अपनी नाना-नानी के संरक्षण में अपने भविष्य का निर्माण करने में व्यस्त है। सोफिया सात साल की उसकी बहन है। अर्थाभाव से उसका नामांकन विद्यालय में नहीं हुआ है। घर पर ही कुछ पढ़ लेती है। जलावन की लकड़ी की दुकान में बैठकर लकड़ी भी बेचती है। घर के अन्य कार्य भी करती है। भोली-भाली वह लड़की अपनी वर्तमान स्थिति से ही सन्तुष्ट है। दोनों ही बच्चे इस दयनीय स्थिति में भी विचलित नहीं हैं। पारिवारिक कार्यों को, दोनों बच्चे अपनी सामर्थ्य के अनुसार कर रहे हैं।

शांदा साहब से मिलने आए शमीम इन बच्चों की कर्तव्यनिष्ठा एवं लगन से प्रभावित हैं। वे इस बात से चकित भी हैं कि इस परिवार का हर व्यक्ति अपने समय का सदुपयोग कर रहा है, जिसे उन्होंने यह कहते हुए व्यक्त किया है-“इस घर का हरेक प्राणी एक-एक क्षण को जीना जानता है।”

वस्तुत: जावेद तथा सोफिया, दोनों ही प्रशंसा एवं सहानुभूति के पात्र हैं। “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी के वस्तुतः यह दोनों ही प्रमुख पात्र हैं, क्योंकि कहानी इनके इर्द गिर्द ही घूमती रहती है।

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प्रश्न 2.
पुरानी बातें शांदा साहब को क्यों पीड़ा दे रही थी?
उत्तर-
शांदा साहब का अतीत स्वर्णिम रहा है। वे अपने समय के एक प्रसिद्ध शायर रहे हैं जिन्हें सुनने के लिए अपार जनसमूह एकत्र होता था। कवि सम्मेलनों में उन्हें समम्मान आमंत्रित किया जाता था तथा श्रोतागण मंत्र मुग्ध हो उनकी शायरी का आनन्द लेते थे। महाकवि इकबाल उनके घनिष्ठ मित्रों में थे तथा अनेक मुशायरों (कवि सम्मेलनों) में दोनों एक साथ कार्यक्रम में उपस्थित हुए थे। दोनों में बराबर पत्राचार भी होता रहता था। शांदा साहब को उस दौर में, देखने तथा उनकी शायरी का आनन्द लेने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं। एक ही शेर (कविता) को अनेकों बार पढ़वाया जाता था, ऐसी दीवानगी थी श्रोताओं में। समय बदला, अब ढलती हुई उम्र में वे अप्रासंगिक हो गए हैं, महत्वहीन हो गए हैं।

ठीक ही कहा गया है कि उगते हुए सूरज की सभी पूजा करते हैं, अस्ताचल में जाते सूर्य की नहीं। यही शांदा साहब की पीड़ा का मुख्य कारण है। उनकी विषादपूर्ण प्रतिक्रिया-उनके द्वारा यह कहा जाना-,”बेटा, मैंने अपनी इन आँखों से दो दौरे देखे हैं, एक वह वक्त जब मेरे नाम से दूर-दूर से लोग आते हैं, एक-एक शेर को हजारों बार पढ़वाया जाता था। दूसरा वक्त अब देख रहा हूँ, वही लोग जो मेरे दीवाने थे, अब मुझे भूल गए हैं।

“कितनी मार्मिक है उनकी यह उक्ति। उनकी मान्यता है,-“शायर को उस वक्त मर जाना चाहिए, जब लोग उसे पसंद करते हों, दीवाने हों।” शांदा साहब लोगों की इस मनोवृत्ति से अत्यन्त विक्षुब्ध थे। अत: उनका कहना था कि व्यक्ति को तभी तक जीवित रहना चाहिए जब तक उसकी उपयोगिता है। मेहरुन्निसा परवेज लिखित “भोगे दिन” शीर्षक कहानी में शांदा साहब द्वारा इस वास्तविकता से उपजी पीड़ा का सफल चित्रण किया गया है।

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प्रश्न 3.
कहपानी में शमीम की भूमिका का वर्णन अपने शब्दों में करें।
उत्तर-
मेहरुन्निसा परवेज द्वारा लिखित “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी के शमीम एक पात्र है जो अपने गृह नगर से एक वयोद्धद शायर (कवि) शांदा साहब से मिलने के लिए काफी फासला तय करके आए है। शांदा साहब एक जमाने के अद्वितीय शायर थे। उनको सुनने के लिए सुदूर क्षेत्रों से श्रोतागण कवि सम्मेलनों में उपस्थित होते थे। शमीम उनके प्रशंसकों में थे। अत: उनसे मिलने की तीव्र उत्कंठा लिए शमीश उनके यहाँ पहुँचते हैं। शांदा साहब के महन व्यक्तित्व के ही अनुरूप उनके घर का वातावरण होगा, ऐसी शमीम की धारण थी। किन्तु वहाँ अनुमान के विपरीत सब कुछ था। एक जीर्ण-शीर्ण मकान, उसके अन्दर के फर्नीचर तथा अन्य सामान शांदा साहब की आर्थिक स्थिति का सजीव चित्र प्रस्तुत कर रहे थे। परिवार में उनकी पत्नी, विधवा लड़की, एक नाती तथा एक नातिनी। वहाँ रहने के क्रम में शमीम को वहाँ की स्थिति का पर्याप्त ज्ञान हो गया।

उनलोगों से उसे सहज सहानुभूति हो गई और एक गहरा लगाव सा अनुभव हुआ। मात्र दो दिन में ही उसका मन उस घर में लग गया है वहाँ से जाने का मन नहीं कर रहा है। शमीम एक संवेदनशील, भावुक व्यक्ति है। वह शांदा साहब को अत्यन्त आदर की दृष्टि से देखता है। जावेद और सोफिया इन दोनों बच्चों के प्रति उसके हृदय में प्रगाढ़ स्नेह एवं सहानुभूति उत्पन्न हो गई है। परिवार के सभी सदस्यों को निरंतर अपनी दिनचर्या में लगे देखकर उसे आश्चर्यचकित प्रसन्नता होती है। उसे यह बात अजीब लग रही थी कि ‘उस घर का हरेक प्राणी एक-एक क्षण को जीना जानता है।” उक्त तथ्य वस्तुतः सराहनीय एवं अनुकरणीय प्रतीत हुआ।

इस प्रकार शमीम की समस्त संवेदनाएँ उस परिवार की विपन्नावस्था से जुड़ गई हैं।

प्रश्न 4.
‘शायर को उस वक्त मर जाना चाहिए, जब लोग उसे पसंद करते हों, दीवान हों।’ इस कथन के मर्म को अपने शब्दों में उद्घाटित करें।
उत्तर-
मेहरुन्निसा परवेज द्वारा लिखित “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी से उधृत उपरोक्त वाक्य कटु सत्य पर आधारित है। प्रसंग है-शांदा साहब एक लब्धप्रतिष्ठ शायर हैं। एक समय था जब उनके लाखों प्रशंसक थे। श्रोतागण मंत्र मुग्ध होकर उनकी कविता पाठ को सुनते थे। एक-एक कविता को पुनः सुनाने के लिए आग्रः किया जाता था। श्रोताओं की तालियों से पूरा सम्मेलन स्थल गूंज उठता था। महाकवि इकबाल उनके समकालीन थे तथा शांदा साहब के घनिष्ठ मित्र थे। अनेकों कवि-सम्मेलनों एवं अन्य आयोजनों में दोनों व्यक्ति एक साथ सम्मिलित हुए थे।

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अनेकों प्रशस्ति पत्र एवं कवि इकबाल के साथ पत्राचार की एक लम्बी श्रृंखला थी तथा उन पत्रों से उनका बक्सा भरा हुआ था। उक्त पत्रों को बक्सा से निकाल कर वह शमीम को पढ़ने को देते हैं। कितने गौरवशाली रहे होंगे वे दिन। अब स्थिति यह है कि समय के थपेड़ों ने उन्हें अशक्त बना दिया है। वृद्धावस्था में अब वह ऊर्जा एवं सामर्थ्य नहीं है। योग्यता है, किन्तु ओजपूर्ण भाषा में सशक्त अभिव्यक्ति की क्षमता का ह्रास हो गया है। अतः अब न वह श्रोताओं और प्रशंसकों की भीड़ है और नहीं उक्त सम्मेलनों के लिए निमंत्रण।

इसी संदर्भ में शांदा साहब को लगता है कि शायर को अपने उत्कर्ष काल में ही मर जाना चाहिए। यदि वह दीर्घ काल तक जीवित रहता है, शारीरिक तथा मानसिक रूप से अशक्त हो जाता है तो गुमनामी के गहन अंधकार में लुप्त हो जायेगा। जीवित रहते भी वह मृतवत् हो जाता है। उसका मर जाना ही श्रेयस्कर है। अतः अपनी शोहरत के स्वर्णिम काल में ही उसे इस संसार से विदा ले लेनी चाहिए।

प्रश्न 5.
“हमलोग तो और नंगे हो गए हैं। बेटा मैंने अपनी इन आँखों से दो दौर देखे हैं।” इस कथन का आशय स्पष्ट करते हुए बताएं कि यहाँ किन दो दौरों की चर्चा है।
उत्तर-
मेहरुन्निसा परवेज लिखित “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी एक शायर के जीवन का सजीव चित्रण है।

शायद जब तक सफलता के सोपान पर निरंतर चढ़ता हुआ प्रसिद्धि के शिखर पर अग्रसर होता जाता है तब तक वह अपने प्रशंसकों तथा श्रोताओं का चहेता बना रहता है। उस समय वह स्वप्न में भी नहीं सोचता कि कभी ऐसे भी दिन देखने पड़ेंगे जब वह ढेला के समान उस गौरवशाली स्थान से पृष्ठभूमि में जा पहुँचेगा। उपेक्षा तथा अनादर का दंश उसे झेलना पड़ेगा।

उपरोक्त परिस्थितियों को याद कर प्रतिक्रिया स्वरूप शायर शांदा साहब उद्विग्न होकर शमीम से अपने विगत जीवन के अनुभव का वर्णन कर रहे हैं। उनके जीवन में दो दौर आए हैं, दोनों में काफी विरोधाभास है। वस्तुतः दोनों में छत्तीस का सम्बन्ध है। एक दौर था उत्कर्ष का जब उन्हें बड़े-बड़े कवि सम्मेलनों में सादर आमंत्रित किया जाता था। उनके श्रोताओं और प्रशंसकों की संख्या लाखों में थी। उनकी शेरों (कविताओं) को सुनने के लिए लोग लालायित रहते थे। उस स्वर्णिम काल में शायर ने कभी स्वप्न में भी यह आशा नहीं की थी कि दुर्दिन की वह घड़ी उसका इन्तजार कर रही है जब वह अप्रासंगिक हो जाएगा तथा लोग उसे दूध की मक्खी की तरह निकाल कर गुमनामी के अंधकारपूर्ण धरातल पर ला देंगे।

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यही वह दूसरा दौर है जो बेहद दु:खद तथ दुर्भाग्यपूर्ण है। शोहरत की बुलंदियों पर सवार महान शायद शांदा साहब आज एक निरीह एवं निर्बल इंसान हो गए हैं, अब वह महफिलें नहीं सजर्ती, कवि सम्मेलन आयोजित होते हैं किन्तु शांदा उसमें शायरी पेश करने के लिए आमंत्रित नहीं किए जाते क्योंकि वह अब महत्त्वहीन हो चुके हैं। वे इन दोनों दौरों के प्रत्यक्ष गवाह बन गए हैं। .. अतः कवि की अन्तर्वेदना मुखरित हो जाती है तथा शांदा साहब जैसे महान कलाकार (शायर) को यह करने पर विवश करती है, ‘हमलोग तो और नंगे हो गए हैं। बेटा मैंने अपनी इन आँखों से दो दौर देखे हैं।” इस कटु-अनुभव के भुक्तभोगी केवल शांदा साहब की नहीं, वरन् उनके जैसी असंख्य प्रतिभाएँ और साधक हैं।।

प्रश्न 6.
“और मैं सोच रहा था-अगर आज इकबाल होते तो।” इस कथन का क्या अभिप्राय है? अगर आज इकबाल होते तो क्या होता? अपनी कल्पना से उत्तर दें।
उत्तर-
मेहरुन्निसा परवेज लिखित “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी के एक पात्र शमीम अपने शहर से चलकर वयोवृद्ध, लब्ध प्रतिष्ठ शायर शांदा साहब से मिलने उनके शहर जाते हैं। शादा साहब के प्रति उनके मन में अगाध श्रद्धा है। वह शांदा साहब के मुशायरों में शरीक होता रहा है तथा स्वयं भी अपने शहर में उनके कार्यक्रम का उसने आयोजन किया है। इसलिए उनसे मिलने की तीव्र उत्कण्ठा लिए जब उनके घर पर पहुँचता है तो शांदा साहब काफी प्रसन्न होते हैं। शांदा साहब की प्रसिद्धि के प्रतिकूल उनके घर की दयनीय स्थिति देखकर वह चकित हो जाता है।

शायर साहब की धर्मपत्नी एक विधवा बेटी, एक नाती जावेद तथा नातिन सोफिया, यही उनका छोटा-सा परिवार है। अपने दो दिन वहाँ ठहरने के क्रम में शमीम को उनकी कष्टपूर्ण स्थिति का पूरा परिचय मिल गया। शांदा साहब के आय के श्रोत अपर्याप्त हैं। सौ रुपए सरकारी पेंशन, बेटी का उर्दू प्रामइरी स्कूल में अध्यापन द्वारा वेतन तथा घर के सामने की जमीन पर एक वृक्ष के नीचे जलावन की लकड़ी की छोटी-सी दूकान, जिसका तराजू पेड़ के नीचे टंगा है।

शांदा साहब वृद्ध एवं दुर्बल हो गए हैं। अब उनको कवि सम्मेलन में नहीं बुलाया जाता। वह गुमनामी के दौर से गुजर रहे हैं। जर्जर मकान, में किसी प्रकार गुजर-बसर कर रहे हैं। महाकवि इकबाल उनके विभिन्न मित्र थे। अक्सर साथ-साथ कवि गोष्ठियों में जाया करते थे। उनके बीच पत्राकार भी होता रहता था।

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अर्थाभाव से बच्चों की शिक्षा-दीक्षा समुचित ढंग से नहीं हो पा रही थी। जावेद एक विद्यालय में तीसरे वर्ग में पढ़ रहा है। सात वर्ष की सोफिया घर पर लकड़ी बेचती तथा घर के काम करती है। जावेद भी उसकी सहायता करता है। परिवार का प्रत्येक सदस्य गृहस्थी के काम में दिन-रात लगा हुआ है। कोई व्यक्ति एक क्षण भी नहीं बर्बाद करना चाहता।

शमीम साहब वहाँ दो दिन ठहरने के बाद, जब ताँगा पर सवार होकर वापिस लौट रहे थे तो उन्हें लकड़ी तथा तराजू के पास सोफिया बैठी दीख पड़ी। उस समय उनके हृदय में यह विचार आया कि अगर आज इकबाल होते तो……। शमीम इसी उधेड़बुन में थे कि यदि महाकवि इकबाल होते तथा इस पर घर की ऐसी परिस्थिति से अवगत होते तो उनपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होती तथा वे क्या कदम उठाते।

मैं समझता हूँ कि यदि इकबाल जीवित होते तो शांदा की इस दयनीय स्थिति से निश्चित रूप से द्रवित हो जाते। वे शांदा के लिए सरकार तथा अन्य साहित्यिक संस्थाओं से आर्थिक सहायता के लिए प्रयत्न करते। साथ ही स्वयं भी उन्हें अपने स्तर पर समुचित सहयोग करते। जिससे बच्चों के पठन-पाठन सहित घर की अन्य समस्याओं का काफी हद तक समाधान हो सके।

एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि शमीम के मस्तिष्क में यह विचार तब उठा वह तांगा पर सवार स्टेशन की ओर जा रहा था। सोफिया को लकड़ी एवं तराजू के पास बैठे देखकर ही उनकी उक्त प्रतिक्रिया थी। इससे यह भी विचार बनता है कि जावेद तथा सोफिया के भविष्य निर्माण तथा उत्तम शिक्षा का प्रबंध महाकवि इकबाल द्वारा किया जाता। वे उनलोगों के भविष्य से खिलवाड़ होते देखना संभवतः पसंद नहीं करते।

प्रश्न 7.
कहानी के शीर्षक “भोगे हुए दिन” की सार्थकता पर विचार करें। [Board Model 2009(A)]
उत्तर-
किसी भी रचना का शीर्षक उसका द्वार है जिसे देखकर ही अन्दर जाने की इच्छा-अनिच्छा होती है। अगर द्वार आकर्षक है तो अन्दर झाँकने या अन्दर की बात जानने का लोभ स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है। अतः रचना का शीर्षक आकर्षक होना अत्यावयक है। दूसरी बात है, उसकी संक्षिप्ततां और रचना के मूल भाव का संवहन करना।

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इस दृष्टि से हम पाते हैं कि कहानी का “भोगे हुए दिन” शीर्षक अत्यन्त उपयुक्त है। कहानी की कथावस्तु अपने उद्देश्य को परस्पर एक दूसरे में पिरोने में पूर्णतया सफल हुई। “भोगे हुए दिन” का आखिर तात्पर्य क्या है? कौन लोग हैं, जिनसे यह सम्बंधित है तथा उन लोगों का जीवन किन ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों से होकर गुजरा, यह उत्सुकता अन्तस्तल में बनी रहती है। कहानी एक वयोवृद्ध शायर के अपने स्वर्णित अतीत एवं वर्तमान के अभाव और प्रतिकूल परिस्थितियों से संघर्ष एवं पराभव की गाथा। शायर की विधवा बेटी के जीवन के विभिन्न पहलुओं पर भी दृष्टिपात करती है-यह कहानी।

अपने वैभवपूर्ण अतीत को भुलाकर वह अपने समक्ष उपस्थित विकराल समस्याओं का सामना धैर्य एवं साहस के साथ कर रही है। एक उर्दू प्राइमरी विद्यालय में वह अध्यापिका के पद पर है तथा परिवार की समस्याओं के समाधान में सक्रिय योगदान कर रही है। उसके दोनों बच्चे-जावेद एवं सोफिया भी प्रतिकूल परिस्थितियों में परिवार की समस्याओं के समाधान, अतीव सहनशीलता एवं लगन से कर रहे हैं।

इस प्रकार कहानी एक लब्धप्रतिष्ठा शायर के जीवन की गहराइयों में जाकर उनके जीवन के दोनों पहलुओं को उजागर करती है। अतः यह शीर्षक सभी दृष्टिकोणों से सार्थक तथा उपयुक्त है।

प्रश्न 8.
जावेद विद्यालय जाता है। पर सोफिया नहीं क्यों? क्या यह सही है? कहानी के संदर्भ में अपना पक्ष रखें।
उत्तर-
मेहरुन्निसा परवेज लिखित कहानी “भोगे हुए दिन” में कहानीकार ने सफल ढंग से एक मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवार एवं परिवार के मुखिया एक शायर के जीवन का चित्रण किया कभी शान-शौकत और शोहरत की जिन्दगी जी रहे शायर शांदा साहब के जीवन में एक समय ऐसा भी आता है। जब वे अभाव का जीवन जीने को अभिशप्त (विवश) हैं। बच्चों की पढ़ाई भी प्रभावित होना स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में शांदा साहब के नाती जावेद तथा नतिनी सोफिया की समुचित शिक्षा नहीं हो पा रही है।

जावेद पढ़ने के लिए विद्यालय जाता है, किन्तु सोफिया नहीं जाती है। इसका मूल कारण घर की दयनीय आर्थिक स्थिति है।

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जावेद तथा सोफिया इन दोनों के साथ भेदभाव के एकाधिक कारण हो सकते हैं। पहला कारण यह है कि जावेद लड़का है और सोफिया लड़की। पुरुष प्रधान समाज में लड़कों को लड़कियों से अधिक महत्व दिया जाता है, विशेषकर मुस्लिम समाज में।

दूसरा कारण परिवार भी आर्थिक स्थिति भी हो सकती है। दोनों की शिक्षा पर व्यय करने ‘ की अक्षमता, विवशता का कारण प्रतीत होती है। तीसरा कारण जलावन लकड़ी की एक दूकान, जिसको चलाने के लिए अधिकांश समय तक सोफिया ही रहती है जिससे उनका जीवकोपार्जन होता है। साथ ही घर के अन्य कार्यों-बर्तन की सफाई आदि का गृहकार्य भी उस सात वर्षीय बालिका को करना पड़ता है।

उपरोक्त कारणों से ही संभवत: जावेद विद्यालय जाता है, किन्तु सोफिया नहीं जाती है।

प्रश्न 9.
‘भोगे हुए दिन’ कहानी का सारांश अपने शब्दों में लिखें।
उत्तर-
संकेत-कहानी का सारांश के लिए पाठ का सारांश देखें।

प्रश्न 10.
“सात साल की लड़की को भी समय ने कितना निपुण बना दिया था।” इस पंक्ति की प्रसंगत व्याख्या करें।
सप्रसंग व्याख्या-
प्रस्तुत सारगर्भित पंक्ति हमारे पाठ्य-पुस्तक “दिगन्त’ भाग-1 में संकलित ‘भोगे हुए दिन’ शीर्षक कहानी से उद्धृत हैं। विदुषी लेखिका मेहरुन्निसा परवेज द्वारा लिखित उपर्युक्त गद्यांश में एक सात वर्षीय बालिका सोफिया की लगन तथा गृह कार्यों में तन्मतया का वर्णन है।

सोफिया शायर शादा साहब की नतिनी (बेटी की बेटी) है। शांदा साहब पहले एक प्रतिष्ठित शायर थे, लेकिन अब उनकी आर्थिक स्थिति संतोषप्रद नहीं है। गृहस्थी के लिए अपर्याप्त आय के कारण घर के समस्त कार्य परिवार के सदस्यों को ही निपटाना होता है, सोफिया को विद्यालय पढ़ने के लिए नहीं भेजा जाता है। वह घर के सारे कार्य करती है। इतना ही नहीं, घर के आगे एक पेड़ के नीचे जलावन की लकड़ी की एक दुकान, आय के साधन के रूप में, शांदा साहब ने खोला है। सोफिया उस दुकान को भी चलती है।

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इस प्रकार सात वर्षीय वह लड़की इतनी निपुण हो गई, जितना एक वयस्क व्यक्ति हो सकता है। उसकी यह निपुणता वस्तुतः प्रशंसनीय तो है ही, विस्मित करने वाला भी है। इस प्रकार कहानीकार ने प्रस्तुत पंक्ति द्वारा यह बताने का प्रयास किया है कि समय के थपेड़े तथा सतत् अभ्यास, अल्पवयस्क को भी प्रवीण बना देता है।

प्रश्न 11.
“इस घर का हरेक प्राणी एक-एक क्षण को जीना जानता है।” इस कथन का क्या अर्थ है, स्पष्ट करें।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्ति मेहरुन्निसा परवेज द्वारा लिखित कहानी “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी में एक प्रतिष्ठित शायर शांदा साहब के पारिवारिक जीवन का वर्णन है।

लब्ध-प्रतिष्ठित वयोवृद्ध शायर शांदा साहब की आर्थिक स्थिति संतोषप्रद नहीं है। गृहस्थी की व्यवस्था “येन-केन-प्रकारेण’ चल रही है। परिवार का हर सदस्य अपना उत्तरदायित्व बखूबी निभा रहा है।

शायर साहब से मिलने के लिए एक यहाँ नावागंतुक शमीम आए हैं। वे शायर साहब के बहुत बड़े प्रशंसक रहे हैं। वे शायर की शोहरत एवं लोकप्रियता से काफी प्रभावित थे। वे समझते थे कि प्रसिद्धि के अनुकूल शांदा साहब की हैसियत भी होगी, लेकिन यहाँ आने पर उनकी विपन्नता देखकर उन्हें काफी आश्चर्य एवं निराशा हुई। उन्होंने यह भी पाया कि परिवार का हर सदस्य एक-एक क्षण का सदुपयोग कर रहा है, समय नष्ट नहीं करना चाहता।

शायर की पत्नी दिनभर गृहस्थी के काम में व्यस्त रहती है। उनकी विधवा पुत्री एक उर्दू प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका है तथा प्राइवेट ट्यूशन भी कर लेती है। उसका लड़का जावेद विद्यालय में तीसरा वर्ग का छात्र है, सात वर्षीय पुत्री सोफिया घर के सामने की खुली जगह पर पेड़ के नीचे जलावन की लकड़ी रखकर बेचती है। दोनों बच्चे इसके अतिरिक्त घर के अन्य-कार्यों में भी सहयोग करते हैं।

यह देखकर शमीम को आश्चर्य तथा प्रसन्नता दोनों प्रकार के भाव आते हैं तथा वे सोचने लगते हैं कि इस परिवार का हरेक सदस्य अपने कार्य में व्यस्त है और एक क्षण भी खोना नहीं चाहता है।

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प्रश्न 12.
“तराजू के एक पल्ले पर धूप थी, दूसरे में आम की परछाई पड़ी थी। आम की परछाई वाला पल्ला नीचे था, मानो धूप और परछाई दोनों से तौला जा रहा हो।” यह एक बिंब है। इसका अर्थ शिक्षक की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
प्रस्तुत पंक्तियाँ मेहरुन्निसा परवेज लिखित “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी से उद्धत इन पक्तियों में विद्वान कहानीकार मेहरुन्निसा परवेज ने सफलतापूर्वक जीवन के दोनों पहलुओं-सम्पन्नता एवं विपन्नता सुख-दुख को बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से चित्रित किया है। जीवन में सुख और दुःख, धूप-छाँव की भाँति आते-जाते हैं।

उपर्युक्त पंक्तियों के द्वारा कहानीकार यह कहना चाहते हैं कि सुप्रसिद्ध शायर शांदा साहब के जीवन में सुख और दुख दोनों प्रकार के दिन आए हैं, अपनी युवावस्था उन्होंने प्रसिद्धि एवं समृद्धि के सुख में व्यतीत किए हैं। वर्तमान में वृद्ध एवं दुर्बल शायर-आर्थिक विपन्नता एवं अभाव के दौर से गुजर रहे हैं। इस प्रकार प्रतीकात्मक ढंग से कहानीकार ने कहानी में अपने भाव व्यक्त किए हैं। शमीम शायर साहब ने मिलने आता है। दरवाजे के सामने के पेड़ पर तराजू टंगा है, उसका एक पलड़ा धूप में है और ऊपर की ओर उठा हुआ है। दूसरा पलड़ा छाँव में झुका हुआ है छाँव में झुका हुआ पलड़ा शायर साहब के समृद्धिशाली दिनों का प्रतिनिधित्व करता है तथा धूप मे ऊपर की ओर उठा हुआ पलड़ा उनके अभावों के वर्तमान दौर को प्रतिबिम्बित करता है।

इस प्रकार यह एक बिम्ब है जिसका प्रयोग कहानीकार ने बड़े ढंग से किया है।

भोगे हुए दिन भाषा की बात प्रश्न

प्रश्न 1.
निम्नलिखित वाक्यों में मिश्र वाक्य और संयुक्त वाक्य चुनें तथा उन्हें सरल वाक्य में बदलें
(क) जावेद मेरे सामने से निकला और लड़की के पास गया।
(ख) मैंने देखा, पीछे की दालान सूनी है।
(ग) मेरा एक शागिर्द है, जम्मू में, बेचारा वही भेजता रहता है।
(घ) जावेद अंदर चला गया, लौटा तो गेहूँ का पीपा उठाए आया।
उत्तर-
(क) जावेद मेरे सामने से निकला और लड़की के पास गया। संयुक्त वाक्य सरल वाक्य-जावेद मेरे सामने से निकलकर लड़की के पास गया।
(ख) मैंने देखा, पीछे की दालान सूनी है।-मिश्र वाक्य सरल वाक्य-मैंने पीछे की सूनी दालान को देखा।
(ग) मेरा एक शागिर्द है, जम्मू में, बेचारा वही भेजता रहता है।-मिश्र वाक्य सरल वाक्य-जम्मू में रहने वाला मेरा एक शागिर्द भेजता रहता है।
(घ) जावेद अंदर चला गया, लौटा तो गेहूँ का पीपा उठाए आया।-मिश्र वाक्य सरल वाक्य-जावेद अंदर से गेहूँ का पीपा उठाए लौट आया।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित मुहावरों का वाक्य-प्रयोग द्वारा अर्थ स्पष्ट करें गहरी साँस लेना, नंगा होना, गला भर आना, करवटें बदलना।
उत्तर-
नंगा होना (बेआबरू होना)-आज सबके सामने कर्ज के पैसे मांग कर तूने मुझे नंगा कर दिया।

गला भर आना (भाव विहल होना)-बेटे के दूर जाने के समय माँ का गला भर आया। करवटें बदलना (बैचेनी होना)-भय और चिन्ता के मारे वे सारी रात करवटें बदलते रहे।

आँखें मूंदना (ध्यान न देना, मर जाना)-उसे सिगरेट पीता देख मैंने आँखें मूंद ली। बचपन में ही उसके पिता ने आँखें मूंद ली थीं।

हाथ मिलाना (दोस्ती करना)-आज-कल मोहन और सोहन ने हाथ मिला लिया है।

प्रश्न 3.
इस पाठ से मुहावरों का सावधानी से चयन करें और उनका स्वतंत्र वाक्यों में प्रयोग करें।
उत्तर-
प्रश्न संख्या 2 के उत्तर देखें।

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प्रश्न 4.
पाठ से अव्यय शब्दों का चुनाव करें और उनका स्वतंत्र वाक्यों में प्रयोग करें।
उत्तर-
‘भोगे हुए दिन’ पाठ में प्रस्तुत कुछ अव्यय शब्दों के उदाहरण और उनका वाक्यगत प्रयोग निम्नलिखित हैं अब-शांदा साहब का समय अब ठीक नहीं रहा। नीचे-चौकी के नीचे बिल्ली बैठी है।

और-राम और श्याम पढ़ने गये। अरे-अरे ! यह क्या हो गया। पास-मेरे पास कुछ नहीं है।

अक्सर-अक्सर राम और श्याम में झगड़ा होता रहता है। ऊपर-रहीम छत के ऊपर गया है। कि-उसने देखा कि वहाँ कोई नहीं है। फिर-मोहन के जाने के बाद फिर क्या हुआ? बाहर-वह घर से बाहर निकला। अंदर-इस मकान के अंदर चोर घुसा है। सामने-सिपाही के सामने चोर को बोलने की हिम्मत नहीं हुई। लेकिन-वह चाहता तो बोलता, लेकिन उसे मौका ही न मिला। वहीं-वहीं पर लाठी पड़ा था।

अन्य महत्त्वपर्ण प्रश्नोत्तर

भोगे हुए दिन लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
“भोगे हुए दिन” का वातावरण प्रस्तुत कीजिए।
उत्तर-
“भोगे हुए दिन” वातावरण प्रधान कहानी है। इसमें शांदा साहब के विपन्न परिवेश का मार्मिक चित्रण है। मरम्मत के बिना शांदा साहब की ही भाँति बूढ़ा और निस्तेज होता बड़ा सा घर आय के लिए नाती और नतनी सहित शांदा साहब द्वारा लकड़ी बेचना, विधवा पुत्री द्वारा स्कूल में पढ़ाने के बाद बचे समय में देर रात तक ट्यूशन पढ़ाकर कुछ अधिक आय करना, बच्चों के मैले कपड़े, साधारण रसोई घर तथा गुसलखाना ये सब पुकार-पुकार कर घर के आर्थिक अभाव की कहानी कह रहे हैं। स्वयं शांदा साहब की बातों से उनकी गरीबी और बुढ़ापा से उत्पन्न उदासी भरी जिन्दगी का बोध होता है।

प्रश्न 2.
शांदा साहब के दुःख पर प्रकाश डालें।
उत्तर-
शांदा साहब के तीन दुःखों का वर्णन लेखिका ने किया है। प्रथम यह कि वे बूढ़े हो गये हैं। उनको सहारा देने वाला कोई युवा हाथ नहीं है। मात्र एक विधवा पुत्री है। वह भी मास्टरी और ट्यूशन के सहारे अपने दो बच्चों को लेकर संघर्ष कर रही है। दूसरा दुःख है कि गरीबी से लड़ने का पुख्ता प्रबंध उनके पास नहीं है जिसके बल पर वे बेसहारा बुढ़ापे मुकाबला करते। इन दोनों से बड़ा तीसरा दुःख है न पूछे जाने का। एक जमाने में अपनी शायरी का जलवा दिखाने वाले, अच्छे-अच्छे शायरों की गलतियाँ ठीक करने वाले और और इकबाल जैसे बड़े शायर के घनिष्ठ शांदा साहब आज जीते जी इतने अप्रासंगिक हो गये हैं कि नयी पीढ़ी के शायर उनका नाम तक नहीं जानते। तभी तो वे कामना करते हैं कि शायर को तभी मर जाना चाहिए जब लोग उसे पसंद करते हों, दीवाने हों।

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भोगे हुए दिन अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
शांदा साहब से शमीम का क्या रिश्ता है?
उत्तर-
एक मुशायरे में शांदा साहब को शमीम ने अपने यहाँ टिकाया बुजुर्ग समझकर। इसी अवसर के कारण परिचय हुआ जो आत्मीयता पूर्ण सम्बन्ध में बदल गया।

प्रश्न 2.
शांदा साहब के मकान की दशा कैसी है?
उत्तर-
शांदा साहब का मकान पुराना है, बेमरम्मत है। उसे देखने पर लगता है कि अजीव तरह की उदासी ने उसे घेरे रखा है।

प्रश्न 3.
शमीम कौन है?
उत्तर-
शमीम जंगदलपुर का रहने वाला है। वह भी संभवत, शायर है, युवा शायर। वह शांदा साहब से परिचित है और आदर करता है।

प्रश्न 4.
शांदा साहब कैसे शायर हैं?
उत्तर-
शांदा साहब हिन्दुस्तान के पुराने शायरों में से हैं। मुशायरे में उनके नाम से लोग जमा हो जाते थे। वे और इकबाल एक-दूसरे के घनिष्ठ थे। वे उच्च कोटि के शायर हैं।

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प्रश्न 5.
फातिमा कौन है?
उत्तर-
फातमा शांदा साहब की विधवा पुत्री है जो पति के मरने के बाद अपने बच्चों के साथ पिता के पास रहती है, वह एक स्कूल शिक्षिका है।

प्रश्न 6.
शांदा साहब सन्दूक में से क्या निकाल कर शमीम को दिखाते हैं।
उत्तर-
उसमें इकबाल साहब द्वारा शांदा साहब को लिखे गये पत्र थे जो दोनों की घनिष्ठता और आत्मीयता को व्यक्त करते हैं।

प्रश्न 7.
शांदा साहब क्यों मर जाना चाहते हैं?
उत्तर-
शांदा साहब जीवित हैं मगर उनकी पूछ समाप्त हो गयी है, नयी पीढ़ी उनका नाम। तक नहीं जानती। अपने शहर नागपुर के मुशायरे में भी लोग उन्हें नहीं बुलाते हैं। इसलिए वे मर जाना चाहते हैं। वस्तुत शांदा साहब अपने जीवन से बहुत निराश हैं।

प्रश्न 8.
भोगे हुए दिन नामक कहानी की लेखिका कौन हैं?।
उत्तर-
भोगे हुए दिन नामक कहानी की लेखिका मेहरून्निसा परवेज हैं।

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प्रश्न 9.
जावेद और सोफिया कौन हैं?
उत्तर-
जावेद और सोफिया शांदा साहब की विधवा पुत्री फातिमा के पुत्र और पुत्री हैं।

प्रश्न 10.
सोफिया स्कूल क्यों नहीं जाती है?
उत्तर-
सोफिया एक मुस्लिम परिवार की लड़की है। इसमें परदा-प्रथा लागू है। साथ ही उसके परिवार की आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं जिससे कि पढ़ाई का खर्च पूरा हो सके। इसीलिए सोफिया स्कूल नहीं जाती है।

प्रश्न 11.
फातिमा कौन थी?
उत्तर-
फातिमा शांदा साहब की विधवा पुत्री थी, जो एक शिक्षिका भी थी।

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प्रश्न 12.
2005 ई. में भारत के राष्ट्रपति द्वारा लेखिका मेहरून्निसा परवेज को कौन-सा पुरस्कार दिया गया था?
उत्तर-
2005 ई. में भारत के राष्ट्रपति द्वारा लेखिका मेहरून्निसा परवेज को पद्मश्री का पुरस्कार दिया गया था।

भोगे हुए दिन वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ

प्रश्न 1.
‘भोगे हुए दिन’ के लेखिका हैं
(क) मेहरुन्निसा परवेज
(ख) कृष्णा सोवती
(ग) महादेवी वर्मा
(घ) सुभद्रा कुमारी ‘चौहान’
उत्तर-
(क)

प्रश्न 2.
मेहरुन्निसा परवेज का जन्म हुआ था।
(क) 10 सितम्बर, 1944
(ख) 9 अगस्त, 1942
(ग) 15 जुलाई, 1931
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

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प्रश्न 3.
मेहरुन्निसा जन्मस्थान था
(क) उत्तर प्रदेश
(ख) बिहार
(ग) झारखंड
(घ) मध्यप्रदेश
उत्तर-
(घ)

प्रश्न 4.
चरारे शरीफ में हिंसा के समय मिशन की सांप्रदायिक सद्भाव यात्रा में कहाँ गईं?
(क) पूर्वी पाकिस्तान
(ख) कश्मीर
(ग) नोआ खाली
(घ) लाहौर
उत्तर-
(ख)

प्रश्न 5.
2005 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा कौन सम्मान प्राप्त हुआ?
(क) पद्मश्री
(ख) साहित्य सम्मान
(ग) विशिष्ट सम्मान
(घ) इनमें से सभी
उत्तर-
(क)

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प्रश्न 6.
मेहरुन्निसा कौन-सी त्रैमासिक पत्रिका का संपादन किया?
(क) समर लोक
(ख) कारेजा
(ग) सोने का बेसर
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

प्रश्न 1.
इनके पिता का नाम…………था।’
उत्तर-
ए० एच० खान।

प्रश्न 2.
कोरजा उपन्यास पर उ०प्र० हिन्दी संस्थान का……….सम्मान प्राप्त हुआ?
उत्तर-
साहित्य भूषण।

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प्रश्न 3.
उनकी दृष्टि…………और मानवीय होती है।
उत्तर-
समाजशास्त्रीय।

प्रश्न 4.
प्रस्तुत कहानी………..से ली गई है।
उत्तर-
मेरी बस्तर की कहानियाँ।

प्रश्न 5.
मेहरुन्निसा परवेज लिखित ‘भोगे हुए दिन’ शीर्षक कहानी में एक शायर के जीवन का………….चित्रण है।
उत्तर-
मार्मिक।

प्रश्न 6.
वस्तुतः जावेद तथा सोफिया, दोनों ही…………..के पात्र हैं।
उत्तर-
प्रशंसा एवं सहानुभूति।

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प्रश्न 7.
भोगे हुए दिन कहानी में शांदा. साहब द्वारा……………का सफल चित्रण किया गया है।
उत्तर-
वास्तविकता से उपजी पीड़ा।

प्रश्न 8.
शमीम की समस्त संवेदनाएँ उस परिवार की………..से जुड़ गई है।
उत्तर-
विपन्नावस्था।

प्रश्न 9.
समय के थपेड़े तथा सतत अभ्यास, अल्प वयस्क को भी…………..बना देता है।
उत्तर-
प्रवीण।

प्रश्न 10.
जीवन में सुख और दुःख…………की भाँति आते हैं।
उत्तर-
धूप और छाँव।

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प्रश्न 11.
सोफिया का स्कूल नहीं जाना उसकी…………का परिचायक है।
उत्तर-
आर्थिक दशा।

भोगे हुए दिन लेखक परिचय – मेहरुन्निसा परवेज (1944)

हिन्दी की आधुनिक लेखिकाओं में मेहरुन्निसा परवेज एक महत्त्वपूर्ण नाम है। इसका जन्म मध्यप्रदेश के बालाघाट जिले के ‘बहला’ में 10 दिसम्बर, 1944 ई. को हुआ था। इनके पिता का नाम ए. एच. खान है। मेहरुन्निसा परवेज को हिन्दी-उर्दू के अतिरिक्त मध्यप्रदेश की विवध बोलियों-हलबी, बुंदेलखंडी, छत्तीसगढ़ी, मालवी आदि की भी अच्छी-खासी जानाकरी है। सामाजिक कार्यों के प्रति इनकी आरम्भ हो ही अभिरुचि रही है और इन्होंने बस्तर के आदिवासियों और शोषित दलित जातियों-समुदायों की तेहतरी के लिए लेखन तथा अन्य गतिविधियों में विशेष सक्रियता दिखायी है। ये 1995 ई. में चरारे शरीफ में हिंसा के समय गाँधी शांति मिशन की सांप्रदायिक सद्भावना यात्रा में कश्मीर गईं। लंदन, फ्रांस, रूस आदि की साहित्यिक-सामाजिक यात्राओं और सम्मेलनों में भी इनकी उल्लेखनीय एवं सराहनीय सहभागिता रही है।

समसामयकि महिला कथाकारों के बीच मेहरुन्निसा की विशिष्ट पहचान है। वे सामाजिक-साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ लेखन में भी निरंतर ……….. रहती हैं। उनके कथा साहित्य में यूँ तो मुस्लिम मध्यवर्ग के जीवन के विश्वसनीय अंतरंग चित्र मिलते ही हैं, परन्तु जैसे-जैसे उनके अनुभवों का दायरा बढ़ता गया और पर्यवेक्षण का विस्तार होता गया है, वैसे-वैसे उसमें मध्यवर्ग और नारी समस्या के अतिरिक्त अन्य विषयों से जुड़ी विविधाएँ भी आती गईं हैं। वे अपने विषय पात्र और परिवंश पर खोजी निगाह रखती हैं। उनकी रचनाओं में यद्यपि उच्छल भावुकता नहीं होती. पर भावना की ताकत यथार्थबोधे से उपजी समझ के कठोर संयम के कारण रचना के दायरे में ही रूपांतरित होकर एक ऐसी ऊर्जा में बदल जाती है कि पाठक को गहरी तृप्ति अथवा अतृप्ति की अनुभूति होने लगती है और इसी अर्थ में उनका साहित्य समय के निहायत जरूरी संवाद और संप्रेषण का साहित्य हो जाता है।

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मेहरुन्निसा अब भी निरन्तर लिख रही हैं और अभी उनसे हिन्दी संसार को एक से बढ़कर एक उत्कृष्ट रचनाओं की आशा और अपेक्षा है। उनकी अब तक की प्रकाशित कृतियों में प्रमुख हैं-आँखों की दहलीज, उसका धार, कोरजा, अकेला पलाश, समरांगण, पासंग (उपन्यास), आदम और हव्वा, टहनियों पर धूप, गलत पुरुष, फाल्गुनी, अंतिम चढ़ाई, सोने का बेसर, अयोध्या से वापसी, ढहता कुतुबमीनार, रिश्ते, कोई नहीं, समर, लाल गुलाब, मेरी बस्तर की कहानियाँ (कहानी-संग्रह) आदि। मेहरुन्निसा ने लेखन के अतिरिक्त ‘समरलोक’ त्रैमासिक पत्रिका का संपादन भी किया है तथा ‘लाजो बिटिया’ जैसी टेलीफोन एवं ‘वीरांगना रानी अवंतीबाई’ नामक धारावाहिक का निर्माण एवं निर्देशन भी किया है। अपनी उल्लेखनीय साहित्यिक उपलब्धियों के लिए वे 1995 ई. में लंदन में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में विशिष्ट सम्मान, 2003 ई. में ‘भारत भाषा भूषण’ सम्मान तथा 2005 ई. में भारत के राष्ट्रपति द्वारा ‘पदमश्री’ अलंकरण से . सम्मानित-पुरस्कृत हो चुकी हैं।

भोगे हुए दिन पाठ का सारांश

मेहरुन्निसा परवेज लिखित “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी में एक शावर के जीवन का ‘मार्मिक चित्रण है। उसमें मानव-जीवन के अनेक पहलुओं को अत्यन्त कुशल ढंग से प्रस्तुत किया गया है। जीवन के उतार चढ़ाव को इस कहानी में सफलतर पूर्वक उकेरा गया है। लेखिका ने ‘समाज की विसंगतियों एवं लोगों की मानसिकता का सशक्त एवं सजीव मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है। इस कहानी द्वारा लेखिका की विद्धता तथा समाज के अनछुए पहलुओं को उद्घाटित करने की क्षमता का अपूर्व परिचय मिलता है।

कहानी शांदा साहब नामक एक जाने जाने (प्रसिद्ध वयोवृद्ध शायर के मकान से प्रारम्भ होती है। शायर साहब समय की मार के साक्षी हैं। कभी वह महाकवि इकबाल के मित्रों में थे तथा उनके साथ बड़े-बड़े मुशायरों में सादर आमंत्रित किए जाते थे। किन्तु अब वे पूर्णतः उपेक्षित जीवन बिता रहे हैं। उनकी धर्म पत्नी, एक विधवा बेटी तथा एक नाती एवं एक नतनी का छोटा परिवार है। जीर्णशीर्ण मकान में एकान्तवास का जीवन, जीविकोपार्जन के लिए अपर्याप्त आमदनी तथा दयनीय स्थिति उनकी नियति बन गई है।

शांदा साहब के प्रशंसक शमीम जब दूसरे शहर से उनसे मिलने आते हैं तो उनकी प्रसिद्धि के विपरीत घर की स्थिति देखकर स्तब्ध रह जाते हैं। उनके घर के सामने एक पेड़ के नीचे उनकी जलावन की लकड़ी की दुकान है, उनकी बेटी एक उर्दू प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका है, उन्हें सरकार की ओर से सौ रुपये पेंशन मिलती है। इन्हीं पैसों से घर का खर्च चलता है। वर्तमान समाज की स्वार्थपरता तथा अपनी उपेक्षा का विषाद उनके उद्गारों में स्पष्ट प्रतिबिम्बित होता है। उनकी व्यथा की झलक निम्नोक्त पंक्तियों में मिलती है, “हमलोग तो और नंगे हो गए हैं, बेटा मैंने अपनी आँखों से दो दौर देखे हैं।” अपने स्वर्णिम अतीत को याद कर वे उद्धिग्न हो जाते हैं क्योंकि अब वे अप्रासंगिक हो गए हैं।

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शमीम साहब की उनकी नतिनी सोफिया के प्रति असीम सहानुभूति है। उन्हें इस बात का दुःख है कि सात बरस की वह लड़की विद्यालय पढ़ने नहीं जाती, लकड़ी की दुकान पर बैठती है तथा घर का काम करती है।

इस प्रकार शांदा साहब की पीड़ा शमीम को उद्विग्न कर देती है जो उसके वहाँ से लौटते समय स्पष्ट झलकती है।

इस कहानी द्वारा विदुषी कहानीकार ने मनुष्य की स्वार्थपरता का भी सफल चित्रण किया है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण शांदा साहब स्वयं हैं। किसी व्यक्ति का मान सम्मान एवं यशः गान, आज के युग में उसकी उपयोगिता के आधार पर ही दिया जाता है। कहानीकार अपने इस प्रयास में पूर्ण सफल हुई है।

भोगे हुए दिन कठिन शब्दों का अर्थ

बासी-जो ताजा न हो। बरखुरदार-खुशनसीब, बेटा। दालान-बरामदा। ‘ बावर्चीखाना-रसोईघर। जाफरी-बाँस या लकड़ी से बनी हुई टट्टी। मुशायरा-कवि सम्मेलन। तखत-चौकी। खाला-मौसी। गुसलखाना-स्नान घर। निपुण-दक्ष। उस्ताद-गुरु। शागिर्द-शिष्य, चेला। पेबंद-वह टुकड़ा जिससे कपड़े के छेद को ढंका जाए। अफसोस-दुःख। स्तब्ध-भौंचक्का। सूराख-छेद। चट्टी-सस्ती चप्पल। वजीफा-पेंशन। गुलदान-वह पात्र जिसमें तरह-तरह के फूल सजाए जाते हैं।

भोगे हुए दिन महत्त्वपूर्ण पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या

1. “सात साल की लड़की को भी समय ने निपुण बना दिया था” इस पंक्ति की संप्रसंग व्याख्या करें।
उत्तर-
व्याख्या-प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्य पुस्तक ‘दिगन्त’ के ‘भोगें हुए दिन’ शीर्षक कहानी से उद्धृत हैं। विदुषी लेखिका (कहानीकार) मेहरुन्निसा परवेज द्वारा लिखित उपरोक्त गद्यांश में एक सात वर्ष की बालिका सोफिया की लगन तथा गृहकार्यों में तन्मयता का वर्णन है।

सोफिया शायर शांदा साहब की नतिनी है। शांदा साहब एक प्रतिष्ठित शायर हैं, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति संतोषप्रद नहीं है। गृहस्थी के लिए अपर्याप्त आय के कारण घर के समस्त कार्य परिवार के सदस्यों को ही निपटाना होता है, सोफिया को स्कूल पढ़ने के लिए नहीं भेजा जाता है। वह घर के सारे कार्य करती है। इतना ही नहीं घर के आगे एक पेड़ के नीचे जलावन-लकड़ी की एक दूकान, आय के साधन के रूप में; शांदा साहब ने खोला है। सोफिया उस दूकान को भी चलाती है।

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इस प्रकार सात वर्षीय वह लड़की इतनी निपुण हो गई है, जितना एक व्यस्क व्यक्ति हो सकता है। उसकी यह निपुणता वस्तुतः प्रशंसनीय तो है ही, विस्मित करने वाला भी है। इस प्रकार कहानीकार ने उक्त पक्ति द्वारा यह बताने का प्रयास किया है। समय के थपेड़े तथा सतत् अभ्यास, अल्पवयस्क को भी प्रवीण बना देता है।

2. “इस घर का हरेक प्राणी एक-एक क्षण को जीना जानता है, “इस कथन का क्या अर्थ है, स्पष्ट करें।
उत्तर-
मेहरुन्निसा परवेज लिखित कहानी “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी में एक प्रतिष्ठित शायर शांदा साहब के पारिवारिक जीवन का वर्णन है।

वयोवृद्ध शायर की आर्थिक स्थिति संतोषप्रद नहीं है। गृहस्थी की व्यवस्था “येन केन-प्रकारेण” चल रही है। परिवार का हर सदस्य अपना उत्तरदायित्व बखूबी निभा रहा है। . शायर के यहाँ नवागंतुक शमीम उनसे मिलने आए हैं। वे शायर के प्रशांसक रहे हैं। वे शायर की शोहरत एवं लोकप्रियता से काफी प्रभावित थे। वे समझते थे कि पर उनकी विपन्नता देखकर उन्हें काफी आश्चर्य एवं निराशा हुई। उन्होंने यह भी पाया कि परिवार का हर सदस्य एक-एक क्षण का सदुपयोग कर रहा है, समय नष्ट नहीं करना चाहता। शायर की पत्नी दिनभर गृहस्थी के काम में व्यस्त रहती हैं। उनकी विधवा पुत्री एक उर्दू प्राइमरी स्कूल में अध्यापिका हैं तथा प्राइवेट ट्यूशन भी कर लेती हैं। उसका लड़का जावेद विद्यालय में तीसरा वर्ग का छात्र है, सात वर्षीय पुत्री सोफिया घर के सामने की खुली जगह पेड़ के नीचे जलावन की लकड़ी रखकर बेंचती है। दोनों बच्चे इसके अतिरिक्त घर के अन्य-कार्यों में भी सहयोग करते हैं।

यह देखकर शमीम को आश्चर्य तथा प्रसन्नता दोनों प्रकार के भाव आते हैं तथा वे सोचने लगते हैं कि उस परिवार का हरेक सदस्य अपने कार्य में व्यस्त है और एक क्षण भी खोना नहीं चाहता है।

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3. “तराजू के एक पल्ले पर धूप थी, दूसरे में आम की परछाई पड़ी थी। आम की परछाई वाला पल्ला नीचे था, मानो धूप और परछाई दोनों से तौला जा रहा हो।” वह एक बिंब है। इसका अर्थ शिक्षक की सहायता से स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
मेहरुन्निसा परवेज लिखित “भोगे हुए दिन” शीर्षक कहानी से उद्धृत इन पंक्तियों में कहानीकार ने सफलतापूर्वक जीवन के दोनों पहलुओं-सम्पन्नता एवं विपन्नता को बड़े मनोवैज्ञानिक ढंग से चित्रित किया है। जीवन में सुख और दु:ख धूप और छाँव की भाँति आते हैं।

उपरोक्त पंक्तियों में कहानीकार का आशय यह है कि सुप्रसिद्ध शायर शांदा साहब के जीवन में दोनों प्रकार के दिन आए हैं, अपनी युवावस्था उन्होंने प्रसिद्धि एवं समृद्धि के सुखद दिनों में व्यतीत किए हैं। वर्तमान में वृद्ध एवं दुर्बल शायर-आर्थिक विपन्नता एवं अभाव के दौर से गुजर रहे हैं। इस प्रकार प्रतीकात्मक ढंग से कहानीकार ने कहानी में अपने भाव व्यक्त किए हैं। शमीम शायर साहब से मिलने आता है। दरवाजे के सामने के पेड़ पर तराजू टंगा है, उसका एक पलड़ा पर आम के पेड़ की छाया पड़ रही है तथा वह नीचे की ओर झुका हुआ है जबकि दूसरा पलड़ा धूप में है और ऊपर की ओर उठा हुआ है। छाँव में झुका हुआ पलड़ा शायर के समृद्धिशाली दिनों का प्रतिनिधित्व करता है तथा धूप में ऊपर की ओर उठा हुआ पलड़ा उनके अभावों के वर्तमान दौर को प्रतिबिम्बित करता है।

इस प्रकार यह एक बिम्ब है जिसका प्रयोग कहानीकार ने बड़े कुशल ढंग से किया है।

4. जावेद पढ़ने के लिए स्कूल जाता है, किन्तु सोफिया नहीं जाती है। इसके लिए लेखक ने किन-किन कारणों का उल्लेख किया है स्पष्ट करें। [B.M. 2009(A)]
उत्तर-
लेखक ने पहला कारण शांदा साहब की आर्थिक स्थिति को माना है और जावेद लड़का है और सोफिया लड़की। पुरुष प्रधान समाज में लड़कों को लड़कियों से अधिक महत्व दिया जाता है, विशेषकर मुस्लिम समाज में। दूसरा कारण परिवार की आर्थिक स्थिति है दोनों की शिक्षा पर व्यय करने की अक्षमता, विवशता का कारण प्रतीत होती है।

तीसरा कारण जलावन लकड़ी की दूकान, जिसको चलाने के लिए अधिकांश समय तक सोफिया ही रहती है जिससे उनका जीविकोपार्जन होता है। साथ ही घर के अन्य कार्यों-बर्तन की सफाई आदि का गृह कार्य भी उस सात वर्षीय बालिका को करना पड़ता है।

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 10 सूर्य

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Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 10 सूर्य (ओदोलेन स्मेकल)

 Bihar Board Class 11th Hindi Book Solutions गद्य Chapter 10 सूर्य (ओदोलेन स्मेकल)

सूर्य पाठ्य पुस्तक के प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
वेदों में सूर्य के सम्बंध में क्या कहा गया है?
उत्तर-
वेदों में सूर्य को एक पहिए वाले रथ, जो सात शक्तिशाली घोड़ों से युक्त है; पर सवार देवता कहा गया है। पलक झपकते ही 364 लीग की द्रुत गति से प्रकाशमंडल में वह घूमता रहता है। ऋग्वेद में सूर्य को ईश्वर का सबसे सुन्दर दुनिया कहा गया है। साथ ही दैविक सूर्य” की संप्रभुता का आदर करने की सलाह दी गई है। वेदों में सूर्य को ऊर्जा तथा प्रकाश का अक्षय भंडार माना गया है। उसे धरती का संचालक भी बताया गया है।

इस प्रकार सूर्य समस्त संसार का संचालन करने वाले सर्वशक्तिमान देवता हैं जो ऊर्जा तथा प्रकाश का अपरिमित भंडार ब्रह्माण्ड को प्रदान कर रहे हैं।

प्रश्न 2.
भारतीय पौराणिक गाथाओं के अनुसार सूर्य के माता-पिता कौन थे? पाठ में सूर्य के जन्म के संबंध में दो कथाओं का उल्लेख हैं, उन्हें संक्षेप में लिखें।
उत्तर-
भारतीय पौराणिक गाथाओं में वर्णित है कि सूर्य के माता-पिता अदिति और कश्यप थे। अदिति को आठ सन्ताने थीं। उनकी आठवीं संतान अंडे की आकृति की थी। अतः उसका नाम मार्तंड रखा गया। मार्तंड का अर्थ मृत अंडे का पुत्र होता है। उसका परित्याग कर दिया गया। वह आसमान में चला गया। उसने अपने को वहाँ महिमामंडित कर लिया।

दूसरी कथा के अनुसार अदिति ने एक अवसर पर अपने पहले सात पुत्रों से कहा कि वे बह्माण्ड की सृष्टि करें। माता का आदेश कोई सन्तान पूरी नहीं कर सका। इसका कारण यह था कि उन्हें केवल जन्म के विषय में जानकारी थी। वे मृत्यु से पूर्णतया अनभिज्ञ थे। जीवनचक्र की स्थापना हेतु अमरत्व की आवश्यकता नहीं थी। इस कारण वे लोग माँ की इच्छा का पालन नहीं कर सके। निराश होकर अन्त में अदिति ने मंर्तंड से यह प्रस्ताव रखा। उन्होंने तत्काल दिन और रात का सृजन कर दिया जो दिन जीवन एवं मृत्यु के प्रतीक थे। उक्त दोनों कथाएँ हमारे पौराणिक ग्रंथों में उल्लेखित हैं। यह घटनाएँ प्रतीकात्मक हैं।

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प्रश्न 3.
दिन और रात किसके प्रतीक हैं?
उत्तर-
दिन तथा रात हमारे दैनिक जीवन की गतिविधियों से संबंधित हैं। दिन में हम अपने समस्त कार्यों का निष्पादन करते हैं, जबकि रात्रि में पूर्ण विश्राम करते हैं। – हमारे ‘जीवन चक्र’ के दो अंग हैं-‘दिन और रात’ यह दोनों जीवन और मृत्यु के प्रतीक हैं। दिन हम जागृत अवस्था में अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं, किन्तु रात्रि में हम शयन कक्ष में बिस्तर पर निन्द्रा में निमग्न होकर निष्क्रिय तथा निश्चेष्ट हो जाते हैं। यह एक प्रकार से जीवन और मृत्यु का प्रतीक है।

प्रश्न 4.
संज्ञा कौन थी? छाया से उसका क्या संबंध है? दोनों की संतानों का नाम लिखें।
उत्तर-
‘संज्ञा’ विश्वकर्मा की पुत्री थी। संज्ञा को सरन्यु के नाम से भी पुकारा जाता था। संज्ञा की तीन सन्तानें थीं, मनु वैवश्यत (सूर्यवंश के संस्थापक), यम (मृत्यु का देवता), और यमुना (नदी)। संज्ञा सूर्य के प्रचंड तेज को सहन नहीं कर पाई। अतः उसने अपनी छाया को सूर्य के निकट छोड़ दिया तथा स्वयं अश्विनी अर्थात् घोड़ी का रूप धारण कर तप करने के लिए प्रस्थान किया। दीर्घकाल तक छाया ने संज्ञा के छद्म रूप का अभिनय किया, किन्तु अन्ततः यह रहस्य खुल गया। सूर्य से छाया को तीन पुत्र उत्पन्न हुए-शनि, सावर्षि मनु और तपत्ति।

संज्ञा के प्रेम में दीवाना सूर्य ने उसे सारे ब्रह्मांड में दूढ़ना प्रारंभ किया। अश्व का रूप धारण कर वे संज्ञा के पास पहुंच गए। संज्ञा को सूर्य से दो संतानें हुई। जो अश्विनी कुमार कहलाते हैं, इनमें एक का नाम वासत्य तथा दूसरे का दक्ष है।

प्रश्न 5.
विश्वकर्मा ने सूर्य की आभा के अंश को काटकर किन वस्तुओं का निर्माण किया?
उत्तर-
पौराणिक कथाओं में वर्णित है कि विश्वकर्मा ने सूर्य की आभा के अंश को काट डाला। उसे उन्होंने विभाजित कर दिया। उससे उनके द्वारा विष्णु का सुदर्शनचक्र, शिव का त्रिशूल, यम का दण्ड, स्कंद की माला तथा कुबेर की गदा का निर्माण किया गया।

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प्रश्न 6.
वर्ष के बारहों महीनों के आधार पर सूर्य के अलग-अलग नाम हैं। महीनों के नाम के साथ उस नामों को लिखें। साथ ही बारहों महीनों के तद्भव-देसी नाम भी लिखें।
उत्तर-
वर्ष के बारहों महीनों में सूर्य के अलग-अलग नाम हैं। उन नामों का विवरण इस प्रकार है
तत्सम्/तद्भव/देसी – सूर्य के नाम

  • चैत्र/चैत – धावा
  • वैशाख-बैसाख – अर्थमा
  • ज्येष्ठ-जेठ – मित्र
  • आषाढ़-आसाढ़ – वरुण
  • श्रावण-सावन – इन्द्र
  • भाद्रपद-भादो – विवस्वान
  • आश्विन-आसिन/क्वाँर – पूष
  • कार्तिक-कातिक – व्रतू
  • मार्गशीर्ष-अगहन – अशु
  • पौष-पूस – भग
  • माध-माघ – त्वष्टा
  • फाल्गुन-फागुन – विष्णु

प्रश्न 7.
पाठ में सूर्य के कई कार्यों की जानकारी दी गई है। उन कार्यों के आधार पर सूर्य के अलग-अलग नाम हैं, इनकी सूची बनाएँ।
उत्तर-
सूर्य सम्पूर्ण ब्रह्मांड का संचालन करता है। संसार का अस्तित्व ही उसकी उपस्थिति पर निर्भर है। रात एवं दिन का निर्माण भी सूर्य के कारण ही होता है। इस प्रकार सूर्य संसार को अपनी ऊर्जा से शक्ति एवं सामर्थ्य प्रदान करता है एवं प्रकाश से प्रकाशित करता है।

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सूर्य के कई काम हैं तथा प्रत्येक काम के लिए वे सविता कहलाते हैं। विश्व का कल्याण करने के लिए, उनके अलग नाम हैं। उनका एक काम हर वस्तु को उत्प्रेरित करना है, इस कार्य के लिए उन्हें पूषण नाम से संबोधित करते हैं। उगते सूरज को वैवस्वत कहा जाता है। उनका एक दुष्ट रूप भग है।

इस प्रकार सूर्य के विभिन्न कार्यों के लिए अलग-अलग नाम हैं।

सूर्य के विभिन्न कार्यों हेतु ‘अलग-अलग नामों की सूची इस प्रकार है सूर्य के कार्य कार्य के आधार पर सूर्य के नाम

  • (i) हर वस्तु को उत्प्रेरित करने का काम – (i) सविता
  • (ii) विश्व-कल्याण का कार्य – (ii) पूषण
  • (iii) संसार को प्रकाश एवं ऊर्जा प्रदान करना – (iii) वैवस्तव
  • (iv) उसका दुष्ट रूप प्रदान करते, उगता सूरज – (iv) भग

प्रश्न 8.
विभिन्न देशों और समाजों में सूर्य के अलग-अलग नाम प्रचलित हैं नीचे एक सूची दी जा रही है, उसमें रिक्त स्थानों की पूति करें।
उत्तर-
विभिन्न देशों और समाजों में सूर्य को अलग-अलग नाम से संबोधित किया जाता है। उस की विस्तृत तालिका निम्नांकित है

  • देश/समाज – सूर्य के नाम
  • प्राचीन मिस्र – हमीकुस या होरूस
  • फारस – मिथरा
  • आसीरिया – मीरोदाक
  • फिनिशिया – अपोलो

प्रश्न 9.
रोम सम्राट् ऑरीलिया ने सूर्य मन्दिर को क्यों नष्ट नहीं किया?
उत्तर-
रोम सम्राट ऑरीलिया ने पूर्व की विद्रोही रानी जीनोविया के विद्रोह का दमन करने के लिए सेना द्वारा हमला किया। उसे परास्त कर बंदी बना लिया गया। उसकी दर्शनीय राजधानी पामीरा को ध्वस्त कर दिया गया। किन्तु सम्राट ने वहाँ भव्य मंदिर बनवा दिया। इसका कारण सूर्यदेव का अजेय होना था। सम्पूर्ण ब्रह्मांड में उनकी उपासना की जाती है तथा वे संसार को ऊर्जा एवं प्रकाश से समृद्ध किए हुए हैं।

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प्रश्न 10.
मिथराइयों के अनुसार सूर्य का जन्म दिवस कब है?
उत्तर-
मिथराइयों के अनुसार सूर्य का जन्मदिन 25 दिसम्बर माना जाता था। उस दिन को वे धूमधाम से मनाया करते थे।

प्रश्न 11.
प्राचीन मिस्र के चित्रों मे शरद के सूर्य के सिर पर सिर्फ एक केश दिखाया जाता है, क्यों?
उत्तर-
मिस्र के प्राचीन काल के चित्रों में शरद ऋतु के सूर्य के सिर पर केवल एक केश दिखाया जाता है। इसका कारण उनकी यह मान्यता रही है कि इस ऋतु में सूर्य कमजोर पड़ जाते हैं।

प्रश्न 12.
सूर्य मन्दिर के अवशेष भारत पाकिस्तान में कहाँ-कहाँ मिले हैं?
उत्तर-
सूर्य मंदिर के भग्नावशेष भारत के श्रीनगर के निकट मार्तंड नामक स्थान पर मिले हैं। पाकिस्तान के मुलतान में सूर्य मंदिर के अवशेष हैं।

प्रश्न 13.
मैक्समूलर ने सूर्य के संबंध में क्या लिखा है?
उत्तर-
मैक्समूलर ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि वैदिक ऋचाओं में सूर्य का धीरे-धीरे प्रकाशवान तारा से बदल जाने के क्रमिक विकास को देखा जा सकता है। सूर्य द्वारा सब कुछ देखा और जाना जाता है। इसलिए उससे इस बात का आग्रह किया जाता है कि उसके द्वारा जो देखा या जाना जाता है, उसे वह क्षमा करके भूल जाए. इन्द्र, वरुण, सावित्री या द्यौ में जो भी है।

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प्रश्न 14.
राम ने शक्ति प्राप्त करने के लिए किस स्रोत का पाठ किया था?
उत्तर-
अगस्त्य मुनि द्वारा कहने पर राम ने शक्ति प्राप्त करने के लिए “आदित्य हृदय” स्त्रोत का पाठ किया था।

प्रश्न 15.
अद्वय और सदावृध शब्दों के क्या अर्थ हैं?
उत्तर-
ऋग्वेद में अदिति के लिए अद्वय हुआ तथा सदावृध शब्दों का प्रयोग किया गया है। अद्वय का अर्थ होता है,-“जो दो न हो” और सदावृध का अर्थ है,-“जो सदा बढ़ता रहे।”

प्रश्न 16.
मयूर कवि कौन थे? उनकी रचना का क्या नाम है?
उत्तर-
‘मयूर’ कवि सम्राट हर्षवर्द्धन के दरबारी कवि थे। वे सूर्यापासक थे। सूर्य की प्रशंसा में उन्होंने ‘सूर्य-शतकम्’ की रचना की है।

सूर्य भाषा की बात।

प्रश्न 1.
निम्नलिखित शब्दों के पर्यायवाची लिखें सूर्य, घोड़ा, धरती, रात, तालाब
उत्तर-

  • सूर्य – सोम, दिनकर, रवि, भास्कर, सविता. पतंग।
  • घोड़ा – अश्व, घोटक, बाजि, सैन्धव।
  • धरती – पृथ्वी, अवनि, घरित्री, घटा, रावरी।
  • तालाब – सर, सरोवर, तड़ाग, पुष्कर, जन्नाशय।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों के प्रत्यय निर्दिष्ट करें प्रतिनिधित्व, पौराणिक, प्रसन्नता, वैज्ञानिक, स्वस्तिक, दैविक।
उत्तर-

  • शब्द – प्रत्यय
  • प्रतिनिधित्व – त्व
  • पौराणिक – इक
  • प्रसन्नता – ता
  • वैज्ञानिक – इक
  • दैनिक – इक

प्रश्न 3.
निम्नलिखित शब्दों के समास विग्रह करें। महिमामण्डित, जीवन-चक्र, त्रिदेव, सूर्यपूजा, सूर्यवंश।
उत्तर-

  • महिमामण्डित – महिमा से मंडित।
  • जीवन – चक्र – जीवन का चक्र।
  • त्रिदेव – तीन देवताओं का समूह।
  • सूर्यपूजा – सूर्य की पूजा।
  • सूर्यवंश – सूर्य का वंश।

प्रश्न 4.
इस पाठ में बहुत सारे संज्ञा पद हैं। संज्ञा के विभिन्न भेदों को ध्यान में रखकर प्रत्येक भेद के तीन-तीन उदाहरण चुनकर लिखें।
उत्तर-
ज्ञातव्य है कि संज्ञा के पाँच प्रमुख भेद होते हैं-जातिवाचक संज्ञा, व्यक्तिवाचक संज्ञा, भाववाचक संज्ञा, द्रव्यवाचक संज्ञा और समूहवाचक संज्ञा।
प्रस्तुत पाठ में प्रयुक्त संज्ञा के विभिन्न भेदों के तीन-तीन उदाहरण निम्नलिखित हैं-

  • जातिवाचक संज्ञा – घोड़ा, बच्चा, मनुष्य
  • व्यक्तिवाचक संज्ञा – सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु
  • भाववाचक संज्ञा – अमरत्व, आभा, पुजा
  • द्रव्यवाचक संज्ञा – अंडा, पानी, मिट्टी
  • समूहवाचक संज्ञा – सभा, गुच्छा, मेला।

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अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

सूर्य लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
लेखक ओदोलेन स्मेकल का संक्षेप में जीवनी लिखें।
उत्तर-
ओदोलेन स्मेकल का जन्म 18 अगस्त, 1928 में चेकोस्लोवाकिया में हुआ था। उन्होंने चेकोस्लोवाक्रिया की राजधानी प्राहा के चार्ल्स के विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. तथा पी-एच. डी. किया। इसके बाद वे इसी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक बन गए। आगे चलकर इन्होंने हिन्दी में रचनाएँ की। इन्हें भारत सरकार द्वारा विश्व हिन्दी पुरस्कार 1979 में सम्मानित किया गया। ये भारत में चेकोस्लोवाकिया के राजदूत भी रहे। प्रथम तथा द्वितीय हिन्दी सम्मेलनों में इन्होंने सक्रिय सहयोग किया।

प्रश्न 2.
सूर्य के नामों को लिखों।
उत्तर-
सूर्य के बारह नाम हैं जो बारह महीने पर आधारित है। ये नाम इस प्रकार हैं-

  • धावा
  • अर्थमा
  • मित्र
  • वरुण
  • इन्द्र
  • विवस्वान
  • पूष
  • ऋतु
  • अंशु
  • भग
  • त्वष्टा
  • विष्णु।

सूर्य अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
सूर्य नामक निबंध किसकी रचना है?
उत्तर-
सूर्य नामक पाठ ओदोलेन स्मेकल द्वारा लिखी गयी है।

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प्रश्न 2.
‘प्रेमचंद का गोदान’ नामक निबंध किसके द्वारा लिखी गयी है?
उत्तर-
‘प्रेमचंद का गोदान’ ओदोलेन स्मेकल द्वारा लिखी गयी है।

प्रश्न 3.
विश्वकर्मा की पुत्री कौन थी?
उत्तर-
विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा थी।

प्रश्न 4.
हमारे जीवन चक्र के दो अंग कौन हैं?
उत्तर-
हमारे जीवन चक्र के दो अंग दिन और रात हैं। लेखक के अनुसार ये दोनों जीवन के प्रतीक हैं।

प्रश्न 5.
सूर्य किसका संचालन करता है?
उत्तर-
सूर्य सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन करता है। संसार का अस्तित्व सूर्य पर निर्भर है।

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प्रश्न 6.
कार्य के आधार पर सूर्य के नाम लिखें।
उत्तर-
कार्य के आधार पर सूर्य के नाम इस प्रकार हैं-

  • सविता
  • पूषण
  • वैवस्वत
  • भग।

प्रश्न 7.
भारत में सूर्य की पूजा क्यों की जाती है?
उत्तर-
भारत में हिन्दू धर्म के लोग सूर्य की पूजा करते हैं, क्योंकि यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को संचालित करता है। साथ ही, पूजा करने से सूर्य देवता प्रसन्न होते हैं।

सूर्य वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

I. निम्नलिखित प्रश्नों के बहुवैकल्पिक उत्तरों में से सही उत्तर बताएँ

प्रश्न 1.
‘सूर्य के रचनाकार हैं
(क) ओदोलेन स्मेकल
(ख) हरिशंकर परसाई
(ग) कृष्णा सोवती
(घ) कुमार गंधर्व
उत्तर-
(क)

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प्रश्न 2.
ओदोलेन स्मेकल की रचना है?
(क) सूर्य
(ख) पृथ्वी
(ग) स्त्री
(घ) महिमा
उत्तर-
(क)

प्रश्न 3.
ओदोलेन स्मेकल का जन्म हुआ था?
(क) 14 अगस्त, 1928
(ख) 15 अगस्त, 1926
(ग) 14 सितम्बर, 1926
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क)

प्रश्न 4.
‘ओदोलेन स्मेकान’ भारत द्वारा किस वर्ष विश्व हिन्दी पुरस्कार से सम्मानित हुए?
(क) 1924
(ख) 1935
(ग) 1979
(घ) 1975
उत्तर-
(ग)

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प्रश्न 5.
‘ओदोलेन स्मेकान’ किस विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम.ए. तथा पी.एच.डी. किए?
(क) पटना विश्वविद्यालय से
(ख) कोलकाता विश्वविद्यालय से
(ग) काशी विश्वविद्यालय से
(घ) ग्राहा के चार्ल्स विश्वविद्यालय
उत्तर-
(घ)

प्रश्न 6.
‘ओदोलेन स्मेकान’ अभिरुचि किस विषय में थी?
(क) अमेरीकी स्वतंत्रता
(ख) रूस का साम्यवाद
(ग) आधुनिक भारत
(घ) चीन का साम्यवाद
उत्तर-
(ग)

II. रिक्त स्थानों की पूर्ति करें

प्रश्न 1.
ओदोलेन स्मेकल भारत विद्याविद् यूरोपीय विद्वानों की परंपरा की एक………..थे।
उत्तर-
आधुनिक कड़ी।

प्रश्न 2.
हिन्दी भाषा और साहित्य से वे………..धरातल पर जुड़े हुए थे?
उत्तर-
शैक्षणिक तथा रुचिगत।

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प्रश्न 3.
संज्ञा…………की पुत्री थी।
उत्तर-
विश्वकर्मा।

प्रश्न 4.
संज्ञा को………….के नाम से भी पुकारा जाता है।
उत्तर-
सरन्यु।

प्रश्न 5.
ऋग्वेद में सूर्य को ईश्वर का सबसे…………कहा गया है।
उत्तर-
सुन्दर दुनिया।

प्रश्न 6.
अदिति को………..सन्तानें थीं।
उत्तर-
आठ।

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प्रश्न 7.
उनकी आठवीं संतान………….की थी।
उत्तर-
अंडे की आकृति।

प्रश्न 8.
मार्तण्ड का अर्थ…………..का पुत्र होता है।
उत्तर-
मृत अंडे।

प्रश्न 9.
अदिति के सभी पुत्री………….पूर्णतया अनभिज्ञ थे।
उत्तर-
मृत्यु से।

प्रश्न 10.
सूर्य से छाया को तीन पुत्र……………उत्पन्न हुए।
उत्तर-
शनि, सावर्षि, मनु और तपत्ति।

प्रश्न 11.
संज्ञा को सूर्य से दो…………संतानें हुईं।
उत्तर-
वासत्य औश्र दक्ष।

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प्रश्न 12.
विश्वकर्म ने सूर्य की आभा से अंश को काटकर…………..निर्माण किया।
उत्तर-
विष्णु का सुदर्शन चक्र शिव का त्रिशूल तथा कुवेर की गदा का।

सूर्य लेखक परिचय – ओदोलेन स्मेकल (1928)

भारतीय विद्याविद् यूरोपीय विद्वान ओदोलेन स्मेकन का जन्म 18 अगस्त, 1928 ई० में यूरोप के चेकोस्लोवाकिया देश के ओलोमोउत्स नगर से सटे गाँव ‘लोशोव’ में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा चेकोस्लोवाकिया की राजधानी में हुई। तदनंतर प्राहा के चार्ल्स विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. तथा पी. एच. डी. की। पुनः वहीं से उन्होंने लोक साहित्य, ग्राम उपन्यास तथा अनुकरणात्मक शब्दों पर शोध कार्य भी संपन्न किया।

स्मेकल कई वर्षों तक प्राहा विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्राध्यापक रहे तथा दस से अधिक वर्षों तक भारत विद्या विभागाध्यक्ष के पद पर भी सुशोभित रहे। उन्होंने संसार के अनेक देशों एवं भारत की कई बार सांस्कृतिक यात्राएँ की, जिससे भारत के अनेक विशिष्ट व्यक्तियों, हिन्दी लेखकों, कवियों तथा राजनेताओं से उनका प्रत्यक्ष संपर्क हुआ। उन्होंने प्रथम तथा द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलनों में सक्रिय सहयोग किया था।

बहुभाषाविद् स्मेकल की विशेष अभिरुचि का विषय आधुनिक भारत था। चूंकि आधुनिक भारत प्राचीन भारत का ही विकसित रूप है, अतः इसे समझने के लिए इसके स्वर्णिम अतीत की जानकारी अपेक्षित है। विद्वान् स्मेकल इस बात को समझते थे। हिन्दी भाषा से और वे शैक्षणिक तथा रुचिगत धरातल पर संबंध थे। उनके लिए हिन्दी ही भारत को जानने-समझने का प्रधान माध्यम थी, फिर भी वे इस बहुभाषी और बहुजातीय राष्ट्र की दूसरी भाषाओं तथा क्षेत्रीय सांस्कृतिक विविधताओं की ओर से भी उदासीन नहीं रहे।

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वस्तुत: उनके अंदर इस देश को गहराई से और समग्रता से जानने-समझने की उत्कट इच्छा थी। इसकी पुष्टि उनकी कविताओं और निबंधों से होती है। इसी प्रक्रिया में उन्होंने भारतीय धर्म-संस्कृति से संबंधित प्रमुख प्रतीकों का अध्ययन किया था। उनका यह अध्ययन सूचनात्मक और सतही मात्र नहीं, प्रत्युत् उसमें ज्ञेय तत्त्वों को अनुभव प्रत्यक्ष करने की अभिलाषा थी। इस प्रकार वास्तव में ओदोलेन स्मेकल भारत विद्याविद् यूरोपीय विद्वानों की परंपरा की एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक कड़ी थे।

उनकी प्रमुख रचनाओं में प्रेमचन्द का गोदान, आधुनिक हिन्दी कविता का संकलन, भारतीय लोककथाएँ, भारत के नवरूप, ये देवता कहाँ से आए (निबंध), तेरे दान किए गीत, नमो नमो भारतमाता (कविता-संकलन) आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने चेक से हिन्दी एवं हिन्दी से चेक भाषाओं में अनेक अनुवाद भी किये। ये सारे कृतित्व भारत और हिन्दी के . ति उनके गहरे अनुराग को पुष्ट-प्रमाणित करते हैं। आखिर तभी तो वे भारत सरकार द्वारा विश्व हिन्दी पुरस्कार (1979 ई०) से सम्मानित-पुरस्कृत किये गये थे।

सूर्य पाठ का सारांश

ओदोलेन स्केवेल लिखित ‘सूर्य’ शीर्षक निबंध में सूर्य की महत्ता का वर्णन है। चेकोस्लोवाकिया यूरोप) के गाँव लोशोव में जन्मे स्कवेल ने भारत के गौरवशाली इतिहास का गहन अध्ययन किया। हिन्दी के प्रकाण्ड विद्वान भी स्मेकल द्वारा हमारे पौराणिक ग्रंथों का गहन अध्ययन किया गया तथ उससे संबंधित अनेक ग्रंथ उनके द्वारा लिखे गए। भारतीय धर्म-संस्कृति एवं सांस्कृतिक विविधताओं सहित क्षेत्रीय भाषाओं को जानने-समझने की उनकी उत्कृष्ट लालसा थी। उनके द्वारा लिखी पुस्तक “कहाँ से आए देवता” में सूर्य के विषय में विश्व के विभिन्न देशों में प्रचलित मिथकों तथा भारत के पौराणिक ग्रंथों में वर्णित महत्वपूर्ण तथ्यों का विवरण है।

‘ओदोनेल स्मेकल’ लिखित ‘सूर्य’ शीर्षक निबंध में ‘सूर्य’ से संबंधित महत्वपूर्ण तथ्यों का विवेचन है। निःसन्देह सूर्य सम्पूर्ण ब्राह्माण्ड की गतिविधियों को संचालित करता है। सूर्य की न केवल भारत में ही पूजा-उपासना की जाती रही है, वरन् विश्व के अन्य प्राचीन धर्मों तथा समाजिक-संस्कृतियों में भी सूर्य पूजित होते रहे हैं। भारतीय पूजा-उपासना की प्राचीन-परम्परा तथा सार्वभौमिकता पर भी सम्यक् प्रकाश डाला गया है।

वेदों में एक पहिए सात शक्तिशाली घोड़ों के रथ पर सवार सूर्य का वर्णन है। रथ पर. सवार होकर घूमते हुए वह समस्त संसार की गतिविधियों पर नजर रखता है। वह वेदों की साकार आत्मा और “त्रिदेव” का प्रतिनिधि है। अदिति एवं कश्यप की संतान सूर्य आकाशमंडल में विराजकर संसार में नवजीवन का संचार कर रहा है। सूर्य के विषय में हमारे पौराणिक ग्रंथों में अनेक गाथाएँ हैं। सूर्य की पूजा बारहों महीने होती है। उनकी आराधना की अनेक पद्धतियां हैं।

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आसीरीयाई, आकेदी, फिनिशियाई, ग्रीक, रोमन आदि सभ्यता एवं संस्कृति के भी मुख्य देवता सूर्य ही थे। विभिन्न देशों के धर्मग्रंथों में सूर्य के भिन्न नाम हैं। बेंद-अवस्ता में सूर्य को ‘हवर’ तथा ग्रीक भाषा में ‘हीलीऔस” कहा जाता है। ईसाईयों ने इन धार्मिक अवधारणाओं में से कुछ को अंगीकृत किया तथा उस आधार पर 25 दिसम्बर को ‘क्रिसमस डे’ मानने ले, जबकि इसके पूर्व वे 6 जनवरी को मनाते थे। निथराइयों की धार्मिक मान्यताओं के अनुसार सूर्य का जन्म 25 दिसम्बर को हुआ था। वैसे हर मिथक में सूर्य को योद्धाओं का देवता माना गया है।

प्राचीन भारत में सूर्य मंदिरों को आदित्य गृह कहा जाता था। श्रीनगर के पास मार्तड तथा पाकिस्तान के मुलतान में सूर्य के भग्नावशेष हैं। सूर्य की विधिवत् पूजा अब केवल बिहार में ही बड़े पैमाने पर होती है जो दीपावली के छठे दिन ‘षष्ठी’ व्रत के रूप में मनायी जाती है।

वैसे अफगानिस्तान में आर्य नामक जाति के नाम से अभी भी कुछ लोग रहते हैं, जो सूर्य, अग्नि, इन्द्र आदि देवताओं की उपासना वैदिक रीति से करते हैं।

सूर्य कठिन शब्दों का अर्थ।

लीग-स्थल पर तीन मील और समुद्र पर लगभग साढ़े तीन मील का नाम। परित्याग-छोड़ देना। बखूबी-विशेषताओं के साथ। सृजन-निर्माण। सारथि-रथ हाँकने वाला। अंश-हिस्सा। स्कंद-कंद। उत्प्रेरित-बढ़ावा देना। स्वस्तिक-एक प्रकार का प्रतीक। सम्प्रदाय-किसी मत के अनुयायिों की मण्डली। पुष्करिणी-छोटा तालाब। अर्ध्य-समर्पण। अक्षुण्ण-सुरक्षित। जेंद अवेस्ता-प्राचीन फारसी धर्म ग्रंथ जिसकी भाषा वेदों से मिलती-जुलती है।

सूर्य महत्त्वपूर्ण पंक्तियों की सप्रसंग व्याख्या

1. रोम सम्राट ऑरीलिया ने पूर्व की विद्रोही रानी जीनोंबिओ को परास्त करके बंदी बना लिया तो उसकी खूबसूरत राजधानी पामीरा को ध्वस्त कर दिया गया लेकिन वहाँ के सूर्य मंदिर को आलीशान बनवा दिया। क्योंकि सूर्यादेव अजेय हैं।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ सांदोलेन स्मेकल द्वारा लिखित सूर्य नामक पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में लेखक ने सूर्य की महत्ता का विवेचन किया है और एक दृष्टांत प्रस्तुत किया है। उन्होंने यह कहा है कि जब रोमन सम्राट ऑरीलिया ने पूर्व की विद्रोही रानी जीनोंबिया को परासा कर दिया तो उन्हें बंदी बना लिया और उनकी राजधानी पानी को भी नष्ट कर दिया गया।

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इसके बावजूद वहाँ के सूर्य मंदिर को भव्य बनाया गया। क्योंकि वे यह मानते थे कि सूर्यदेव अजेय हैं जिनपर मनुष्य विजय नहीं प्राप्त कर सकता।

2. वेदों में सूर्य को ऊर्जा और प्रकाश का अक्षय भण्डार और धरती पर जीवन का संचालक बताया गाय है। रामायण में भी सूर्य की उपासन करने का विधान है।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ ओदोलेन स्मेकल द्वारा लिखित सूर्य नामक पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में वेदों में सूर्य की महत्ता का जो वर्णन हुआ है उसको उजागर किया गया है और यह बतलाया गया है कि वेदों में सूर्य को ऊर्जा और प्रकाश का अक्षय भण्डार तथा धरती पर जीवन का संचालक माना गया है। वेदों के अनुसार सूर्य की सम्प्रभुता का आदर करना चाहिए। इसी प्रकार का विचार रामायण में भी व्यक्त किया गया है। रामायण में अगस्तमुनि ने राम से यह कहा था कि उन्हें आदित्य हृदय स्त्रोत के द्वारा सूर्य की उपासना करना चाहिए। वास्तव में, वेद और रामायण दोनों में ही सूर्य की सम्प्रभुता और उसकी महत्ता को स्वीकार किया गया है।