Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

Bihar Board Class 11 Home Science व्यवस्थापन Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रोटीन उत्तर श्रेणी का होता है –
(क) चावल
(ख) गेहूँ
(ग) दाल
(घ) खिचड़ी
उत्तर:
(घ) खिचड़ी

प्रश्न 2.
आर्द्र ताप द्वारा भोजन पकाने की मुख्य विधियाँ हैं –
(क) 2
(ख) 4
(ग) 6
(घ) 8
उत्तर:
(ख) 4

प्रश्न 3.
भाप द्वारा भोजन पकाने की विधियाँ हैं –
(क) दो
(ख) तीन
(ग) चार
(घ) पाँच
उत्तर:
(ख) तीन

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

प्रश्न 4.
नमक में मिलाया जाता है –
(क) सोडियम
(ख) आयोडीन
(ग) खनिज लवण
(घ) विटामिन्स
उत्तर:
(ख) आयोडीन

प्रश्न 5.
पोषण मान में वृद्धि के लिए विधियाँ अपनायी जाती हैं –
(क) एक
(ख) दो
(ग) तीन
(घ) चार
उत्तर:
(घ) चार

प्रश्न 6.
आयोडीन की कमी से होता है –
(क) अन्धापन
(ख) एनेमिया
(ग) स्कर्वी
(घ) घेघा
उत्तर:
(घ) घेघा

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
व्यवस्था (Management) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
उपलब्ध साधनों का सदुपयोग करते हुए कार्यों को सर्वोत्तम ढंग से करना ताकि अधिकतम लक्ष्यों की पूर्ति हो सके, व्यवस्था कहलाती है।

प्रश्न 2.
व्यवस्था करना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
हमारी आवश्यकताएँ असीमित होती हैं और उन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साधन सीमित होते हैं। अत: अधिकाधिक लक्ष्यों और आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सीमित साधनों को समुचित रूप से प्रयोग में लाना आवश्यक है। इसलिए व्यवस्थापन आवश्यक है ताकि अधिकाधिक सन्तुष्टि प्राप्त की जा सके।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

प्रश्न 3.
व्यवस्था (Process of Management) की प्रक्रिया के विभिन्न सोपानों या चरणों के नाम लिखें।
उत्तर:
व्यवस्था की प्रक्रिया एक शृंखला है जिसके विभिन्न चरण निम्नलिखित हैं –

  • आयोजन (Planning)।
  • संयोजन अर्थात् संगठन (Organising)
  • क्रियान्वयन एवं नियंत्रण (Implementary and controlling)
  • मूल्यांकन (Evaluation)।

प्रश्न 4.
मूल्यांकन (Evaluation) की कोई दो विधियाँ लिखें।
उत्तर:
1. निरपेक्ष मूल्यांकन (Absolute Evaluation): जब योजना का मूल्यांकन लक्ष्य को ध्यान में रखकर ही किया जाता है, उसे निरपेक्ष मूल्यांकन कहते हैं।
2. सापेक्ष मूल्यांकन (Relative Evaluation): जब योजना का मूल्यांकन पहले के अनुभवों या किसी अन्य व्यक्ति की उपलब्धियों की तुलना के आधार पर किया जाता है तो उसे सापेक्ष मूल्यांकन कहते हैं। अधिकतर सापेक्ष मूल्यांकन का ही प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 5.
व्यवस्था की प्रक्रिया की श्रृंखला लिखें।
उत्तर:
व्यवस्था की प्रक्रिया की श्रृंखला (Series of process of management)
Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

प्रश्न 6.
आयोजन (Planning) के चरण लिखें।
उत्तर:
आयोजन के निम्नलिखित चरण हैं :

  •  सबसे पहले दीर्घकालिक व अल्पकालिक लक्ष्यों को निर्धारित कर परिभाषित कर लें।
  • उन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु उपलब्ध साधनों पर सोच-विचार कर सूची बना लें।
  • सभी उपलब्ध साधनों का प्रयोग कब व किसके द्वारा किया जाएगा, इस पर विचार-विनिमय कर लें।

प्रश्न 7.
मूल्यांकन (Evaluation) से क्या लाभ हैं ?
उत्तर:
मूल्यांकन से अनेक लाभ हैं –

  • इससे निर्धारित लक्ष्यों की पूर्ति या आपूर्ति का ज्ञान होता है।
  • लक्ष्यों की प्राप्ति की असफलता के कारणों का ज्ञान होता है।
  • भविष्य में बनाई जाने वाली योजनाओं हेतु सहायता मिलती है।
  • उचित मूल्यांकन द्वारा लक्ष्यों की पूर्ति या आपूर्ति से क्रमशः प्राप्त सन्तुष्टि या असन्तुष्टि का अंकन होता है जो नयी सूझ-बूझ एवं कल्पनाओं का आधार ही है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

प्रश्न 8.
व्यवस्था की प्रक्रिया (Process of Management) के मुख्य सोपान आपस में किस प्रकार सम्बन्धित हैं ?
उत्तर:
व्यवस्था की प्रक्रिया के मुख्य सोपान आयोजन, संगठन, क्रियान्वयन एवं नियंत्रण और मूल्यांकन का पारस्परिक सम्बन्ध होता है। यह चारों सोपान एक-दूसरे पर आश्रित हैं। कोई भी एक सोपान दूसरे के बिना अर्थहीन है। व्यवस्थापन की प्रक्रिया एक श्रृंखला के समान है। अतः जब आयोजन प्रारम्भ होता है तो उसके साथ ही व्यवस्थापन भी आरम्भ होता है तथा जब क्रियान्वन भी हो रहा हो तो साथ-साथ मूल्यांकन भी होता रहता है। इन्हीं सोपानों की सहायता से लक्ष्य की प्राप्ति की जा सकती है।

प्रश्न 9.
व्यवस्था की प्रक्रिया से आप क्या समझती हैं ?
उत्तर:
गृह व्यवस्था पारिवारिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के उद्देश्य से किया गया पारिवारिक साधनों का आयोजन, नियन्त्रण एवं मूल्यांकन है। उपलब्ध साधनों से निर्धारित लक्ष्यों को किस सीमा तक प्राप्त किया जा सकता है, यह अधिकांशतः पति-पत्नी की प्रबन्ध करने की योग्यता, रुचि तथा नेतृत्व करने की क्षमता पर निर्भर करता है। न्यूमैन व समर ने प्रक्रिया शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया है, “क्रियाओं की ऐसी श्रृंखला जो उद्देश्य की ओर अग्रसरित करती है।” इस परिभाषा से स्पष्ट है कि एक प्रक्रिया में दो प्रमुख तत्त्व होते हैं-कुछ लक्ष्यों की उपस्थिति एवं उनका क्रियान्वयन ।।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रबंध की क्या आवश्यकता है ?
उत्तर:
प्रबंध की आवश्यकता (Need for Management)-प्रबंध आज की मुख्य आवश्यकता बन गई है। सही प्रबंध की अनुपस्थिति में यह असंभव है कि उपलब्ध साधनों का प्रयोग करते हुए हम वांछित लक्ष्य तक पहुँच जाएँ। जैसे-जैसे देश विकास करता है, वैसे-वैसे प्रबंध की आवश्यकता भी बढ़ती चली जाती है। उदाहरण के लिए, औद्योगीकरण के परिणाम से महिलाओं के लिए अधिक व लाभप्रद नौकरियाँ, चुनौतीपूर्ण बाजार, घर के उपकरण, परिवार की अधिक गतिशीलता आदि ने महिलाओं के सामने नए विकल्प खोल दिए हैं।

वे सदा अपने आपको बदलाव व चुनौतीपूर्ण वातावरण में पाती हैं। नए वातावरण के अनुसार, समस्या हल करने के लिए उन्हें कई निर्णय करने पड़ते हैं। केवल प्रबंध के द्वारा ही अच्छा परिवर्तन या विकास लाया जा सकता है। बच्चों को ऊँची शिक्षा दिलाने के लिए माता-पिता को भी प्रबंध करना पड़ता है। लोगों को सामाजिक कारणों के लिए भी प्रबंध की आवश्यकता होती है। कुशल प्रबंध व्यक्ति, परिवार और समाज के कल्याण, प्रसन्नता और ऊँचे स्तर पर आधारित होता है।

प्रश्न 2.
प्रबंध की क्या प्रक्रिया है ?
उत्तर:
प्रबंध की प्रक्रिया (The process of management):
घरेलू प्रबंध निम्नलिखित प्रबंध प्रक्रिया से प्राप्त किया जा सकता है –
यह प्रक्रिया, कई कार्यों के द्वारा सफलता की ओर ले जाने वाली है। ये कार्य भिन्न-भिन्न निर्णयों पर, प्रक्रिया की समझ पर तथा कार्य के प्रकार पर आधारित होते हैं। विभिन्न परिवारों का लक्ष्य भी भिन्न होता है। परिवार को वांछित लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए गृहिणी को प्रबंध की वह प्रक्रिया अपनानी पड़ती है जिसमें परिवार के सदस्यों के विभिन्न कार्यों को इकट्ठा कर एक मंजिल की ओर ले जाना पड़ता है।

प्रबंध प्रक्रिया में निम्नलिखित पांच चरण हैं जो एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं –

  • आयोजन
  • संयोजन
  • क्रियान्वयन
  • नियंत्रण
  • मूल्यांकन।

प्रश्न 3.
क्रियान्वयन (Implementation) किसे कहते हैं ?
उत्तर:
क्रियान्वयन-क्रियान्वयन का अर्थ है योजना को क्रियाशील बनाना। यह प्रबंध प्रक्रिया का क्रियाक्षेत्र है। जब किसी भी योजना को बना लिया गया है तथा साधन जुटाने का काम आयोजित हो चुका है तो अब इसके क्रियाशील होने का समय है। ऊपर लिखित उदाहरण को लेते हुए विद्यार्थी को समय और पढ़ाई की प्रणाली पूरी करनी होगी। यह भी समीक्षा करनी होगी कि लक्ष्य को पाने के लिए आवश्यक तैयारी हो गई या नहीं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

प्रश्न 4.
संयोजन का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
संयोजन (Organisation): संयोजन प्रबंध का एक कठिन चरण है। योजना की सफलता या असफलता अधिकतर इसी तथ्य पर आधारित होती है कि संयोजन किस प्रकार है ? साधारण शब्दों में संयोजन का अर्थ कहा जा सकता है, वस्तुओं को ठीक ढंग से व्यवस्थित करना। घर मैं अथवा जहाँ कई योजनाएँ बनाई जाती हैं तथा कई कार्य किए जाते हैं, कार्य को कुशलता से करने के लिए किसी प्रकार की व्यवस्था आवश्यक है।

संयोजन की प्रक्रिया अर्थात् संयोजित करने का अर्थ है परिवार के सभी सदस्यों के कार्य को आवश्यक साधनों के साथ मिलाकर कार्य सम्पन्न करना। उपलब्ध साधनों को मिलाकर लक्ष्य तक पहुंचाना ही संयोजन का कार्य है। ऊपर लिखित उदाहरण में संयोजन का अर्थ होगा आर्किटेक्चरल पद्धति के लिए सम्पूर्ण सूचना व पाठ्यक्रम को एकत्रित करना। आपं अपने परिवार से या अध्यापक से सारी सूचनाएँ ले सकते हैं ताकि प्रवेश निश्चित हो जाए। सारांश में कुशल संयोजन ही बहुत-सी समस्याओं का हल है तथा इसका कोई भी दूसरा विकल्प नहीं है।

प्रश्न 5.
व्यवस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
व्यवस्था का अर्थ एवं विशेषताएँ (Meaning and Characteristics of Man agement): व्यवस्था की प्रक्रिया को गृह में, लगभग प्रत्येक देश में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग किया जाता है जिसके अंतर्गत मानवीय तथा भौतिक साधनों का प्रयोग करके इच्छित लक्ष्यों तक पहुँचा जाता है। व्यवस्था की प्रक्रिया आयोजन, व्यवस्थापन, क्रियान्वयन तथा मूल्यांकन का मिश्रण है तथा व्यवस्थापक को इन सभी चरणों से परिचित होना आवश्यक है। गृह व्यवस्था जीवन का प्रशासनिक पक्ष होने के कारण न केवल उपर्युक्त चरणों को बल्कि कार्य को प्रेरित करने वाली, निर्णय करने की प्रक्रिया को भी सम्मिलित करता है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

प्रश्न 6.
वैकल्पिक समाधानों की खोज का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
वैकल्पिक समाधानों की खोज-व्यवस्थापक को अपने ज्ञान, जानकारियों, अनुभवों तथा सलाहों द्वारा विकल्पों को ढूंढना पड़ता है। जब व्यक्ति विकल्पों की खोज करता है तो सिद्धांततः उसे समस्त संभावनाओं से विज्ञ होना चाहिए, परन्तु अनुभव, समय आदि के सीमित होने के कारण ऐसा बहुत कम होता है। स्थायी व मूल्यवान वस्तुओं को खरीदते समय ही लोग निर्णय करने के इस सोपान की ओर ध्यान देते हैं। चरण (1) में दिए गए छात्रा के उदाहरण को यदि हम आगे बढाएं तो निम्नलिखित कुछ वैकल्पिक हल हो सकते हैं:

  • छात्रा के अभिभावकों को उसकी समस्या से परिचित कराया जाए तथा उसके इलाज के लिए प्रेरित किया जाए।
  • मानवता के नाम पर उसके सहपाठियों से या विद्यालय के विभिन्न छात्र-छात्राओं से चंदा जमा कराया जाए तथा इलाज कराया जाए।
  • छात्रा के निर्धन होने की दशा में प्रधानाध्यापिका द्वारा विद्यालय के छात्रनिधि में से कुछ धन निकलवाकर उसकी सहायता की जाए।
  • इलाज के लिए अध्यापिकाओं द्वारा चंदा एकत्र कर लिया जाए।
  • नजदीक के अस्पताल से स्वयं ही उसका इलाज कराया जाए।

प्रश्न 7.
निर्णय (Decision) क्या है ?
उत्तर:
मनुष्य के जीवन में अनेक समस्याएँ आती हैं। इनका समाधान करना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी हो जाता है। ऐसी स्थिति में निर्णय लेना आवश्यक हो जाता है। निकलवडोसी के अनुसार, “निर्णय लेने का अर्थ किसी समस्या के समाधान के लिए या किसी स्थिति से निपटने के लिए कई विकल्पों में से किसी एक का चयन है।” गौसवकँडल के अनुसार “निर्णय लेना कई कार्यविधियों में से किसी एक का चयन है अथवा किसी को भी अंगीकार न करना है।”

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
गृह-व्यवस्था की प्रक्रिया के कौन-से मुख्य तत्त्व हैं ?
उत्तर:
अधिकांश लोग यह समझते हैं कि गृह-प्रबन्ध परिवार की सभी समस्याओं का पका-पकाया हल तैयार कर देता है। यह धारणा गलत है। वस्तुतः वह केवल उस ढाँचे का निर्माण कर देता है जिससे समस्याएँ स्वाभाविक रूप से हल होती चली जाएँ। निकिल तथा जरसी के अनुसार “गृह-प्रबन्ध के अन्तर्गत परिवार के साधनों का नियोजन, नियन्त्रण तथा मूल्यांकन आता है, जिसके द्वारा पारिवारिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।”
गृह-प्रबन्ध के तीन मुख्यं अंग होते हैं –
1. नियोजन
2. नियन्त्रण
3. मूल्यांकन।
ये तीनों प्रक्रियाएँ परस्पर सम्बद्ध होती हैं और इनका उपयोग परिवार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए होता है। ये तीनों मानसिक प्रक्रियाएँ हैं।
Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

uifraifich gut an unfa (Achievement of family goals) :
(क) नियोजन (Planning): व्यवस्था प्रक्रिया का प्रथम चरण नियोजन है। आज नियोजन से कोई क्षेत्र नहीं बचा है। नियोजन व्यक्तिगत स्तर से लेकर अन्तर्राष्ट्रीय स्तर तक पाया जाता है। घर में गृहिणी सुबह उठते ही दिन भर के कार्यक्रमों की योजना का ध्यान रखती है। वास्तव में “नियोजन किसी भावी कार्य का पर्वानमान है” “किसी भी कार्य को पूरा करने के लिए क्या विधि हो, आयोजन इसका निश्चय करता है।”

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

कून्ज व ओडोनेल के अनुसार “आयोजन किसी व्यक्ति को क्या करना है, उस कार्य को कैसे करना है, उसे कब करना है व उसे कौन करेगा इसका पूर्व निर्धारण है।” नियोजन वर्तमान व भविष्य के बीच की कड़ी है। नियोजन कार्य आरम्भ होने से पहले ही कर लिया जाता है। भविष्य में किए जाने वाले कार्य का यह पूर्वाभ्यास (Mental Rehearsal) है। इससे भावी कार्य की रूपरेखा तैयार हो जाती है।

आयोजन का लक्ष्यों से सीधा सम्बन्ध है। यदि लक्ष्य स्पष्ट हैं तो आयोजन आसान हो जाएगा परन्तु यदि लक्ष्यों को प्राप्त करने के मार्ग में अनेक कठिनाइयाँ एवं अवरोध होते हैं तो आयोजन करने में अधिक कठिनाई होती है। आयोजन निर्माण करने का ही कार्य है। इसमें योजना बनाने वाले को विचारण, स्मरण, निरीक्षण, तर्कता तथा कल्पना आदि मानसिक शक्तियों का प्रयोग करना पड़ता है।

नियोजन में स्मरण-शक्ति के माध्यम से अतीत के अनुभवों का उपयोग किया जाता है, तर्कता के माध्यम से तथ्यों के मध्य सम्बन्धों को देखा जाता है तथा कल्पना के माध्यम से तथ्यों को नवीन सम्बन्धों के संदर्भ में व्यवस्थित किया जाता है। ये मानसिक शक्तियाँ जितनी अधिक विकसित होती हैं, अयोजन उतना ही अधिक यथार्थ एवं सरल होता जाता है।

आयोजन की विधि (Techniques of Planning):
1. पूर्वानुमान (Forecasting): यह भविष्य में सम्भावित परिस्थितियों पर दृष्टिपात है। इसमें पहले अधिकतम जानकारी एकत्रित की जाती है। यह निश्चित करने का प्रयास किया जाता है कि भविष्य में कैसी स्थितियाँ रहने की अधिकतम सम्भावना है।

2. लक्ष्य बनाना (Developing objective): पहले लक्ष्य स्पष्ट रूप से निर्धारित कर लिया जाता है। लक्ष्य स्पष्ट होने पर ही अग्रसर हुआ जा सकता है।

3. कार्यक्रम (Programme): लक्ष्य तक क्रमिक अवस्थाओं में कैसे पहुँचा जाए यह निश्चित किया जाता है। कार्यक्रम का अर्थ है कार्यों का वह क्रम जिससे लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है। इसमें यह स्पष्ट किया जाता है कि कार्य को करने में समय, शक्ति, धन व अन्य साधनों का कितना उपयोग करना होगा।

4. समय-तालिका (Scheduling): यह कार्यक्रम में निर्धारित क्रियाओं को करने का समय-क्रम है। कार्यक्रम में परिस्थितियों के अनुसार संशोधन किया जा सकता है।

5. बजट बनाना (Budgeting): यह नियोजन का आर्थिक पक्ष है। गृह प्रबन्ध के संदर्भ में यह चरण सभी गतिविधियों में आवश्यक नहीं है परन्तु धन से सम्बन्धित सभी लक्ष्यों के आयोजन का यह महत्त्वपूर्ण अंग है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

6. कार्यविधि (Developing procedures): कार्यविधि यह निर्धारित करती है कि किसी कार्य को सफलता से सम्पन्न करने के लिए कौन-सी विधि उचित रहेगी। यह कार्य को सबसे कुशलतापूर्वक करने की विधि की खोज है।

7. नीतियों का विकास (Developing policies): नीति किसी कार्य को एक विशिष् प्रकार से करने का निर्देश है । लक्ष्यों का निर्धारण करने के उपरान्त ही नीतियों का निर्धारण सम्भट है. चूँकि नीति उस लक्ष्य तक पहुँचने का माध्यम है। संक्षेप में नियोजन के विभिन्न चरणों को निम्नलिखित तालिका द्वारा स्पष्ट किया उ सकता है

आयोजन की क्रिया – निश्चित करती है –

  • पूर्वानुमान – सम्भावित स्थितियों का अनुभव
  • लक्ष्य बनाना – प्राप्त किए जाने वाले परिणाम
  • कार्यक्रम बनाना – किए जाने वाले कार्यों का क्रम
  • समय तालिका बनाना – कार्यों का समय क्रम
  • बजट बनाना – आवश्यक आर्थिक साधन
  • कार्यविधि विकसित – करना कार्य सरलीकरण आदि
  • नीतियों का विकास – इस सम्बन्ध में लिए गए निर्णय

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

1. लम्बी अवधि की योजनाएँ (Long term Planning): ये स्वभाविक रूप से दीर्घकालिक व अधिक महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए रहती हैं। एक परिवार द्वारा बनाई गई एक दस वर्षीय बचत योजना इसका उदाहरण है। ऐसी योजनाओं में लचीलापन भी होना चाहिए ताकि उनमें आवश्यकतानुसार संशोधन किया जा सके।

2. अल्प अवधि की योजनाएँ (Short term planning): यह अपेक्षाकृत कम महत्त्व व कम अवधि तक चलने वाली क्रियाओं का आयोजन है। इसमें कार्यों की दैनिक, साप्ताहिक अथवा मासिक सूची बनाना सम्मिलित है। ये लघु योजनाएँ दीर्घकालिक योजनाओं के ही अंग हैं। उन्हें क्रमिक रूप से प्राप्त करने का साधन हैं परन्तु सभी लघु योजनाएँ प्रत्यक्ष रूप से लम्बी अवधि की योजनाओं से सम्बन्धित नहीं होती।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

(ख) नियन्त्रण (Controlling): किसी कार्य के सम्बन्ध में योजना बनाना ही पर्याप्त नहीं है बल्कि जब योजना कार्यान्वित की जाए तो यह देखना भी अनिवार्य है कि पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार कार्य हो रहा है अथवा नहीं। यदि नहों, तो इस प्रकार के निर्देश अथवा सुझाव दिए जाएँ कि कार्य योजनानुकूल हो सके।

नियन्त्रण की प्रमुख तीन अवस्थाएँ हैं :

(अ) बल देना (Energizing): कार्य को प्रारम्भ करके उसे बनाए रखना व्यवस्थापन की एक महत्त्वपूर्ण अवस्था है। व्यक्तियों में योजना को प्रारम्भ करके कार्य करने की योग्यता व प्रेरणा में भिन्नता पायी जाती है। यदि लक्ष्य अपेक्षाकृत अल्प अवधि के हैं तो उन्हें प्राप्त करने की इच्छा अधिक तीव्र रहती है। इसके अतिरिक्त यदि कोई व्यक्ति स्वस्थ व प्रसन्नचित्त है तो वह किसी योजना के क्रियान्वयन में अधिक रुचि लेगा। पारिवारिक योजनाओं में परिवार के सदस्यों को प्रेरित करना भी इस चरण का एक भाग है। उत्प्रेरण वह क्रिया है जिसके द्वारा व्यवस्थापक दूसरे सदस्यों को आवश्यक कार्य में सहयोग करने हेतु प्रेरित एवं प्रोत्साहित करता है।

(ब) निरीक्षण (Checking): समय-समय पर क्रियान्वित योजना का निरीक्षण करते रहने से योजना पर नियन्त्रण-सा बना रहता है। यदि कार्य की प्रगति सन्तोषजनक नहीं है तो कार्य विधि में कुछ परिवर्तन करने पड़ेंगे। नियन्त्रण में लचीला दृष्टिकोण लेकर चलना होता है। इसके अतिरिक्त कार्य के प्रति जागरूकता व अनुशासन के साथ ही लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। कार्य क्रियान्वयन करते समय नेतृत्व देने वाला व्यक्ति नियोजन तथा नियन्त्रण करता है परन्तु हमे परिवार के अन्य सदस्यों के सहयोग से।

निरीक्षण करते समय ध्यान को आकर्षित करने के लिए प्रविधियों (Devices) का होना आवश्यक है। उदाहरण-घड़ी ऐसे व्यक्ति के लिए बिल्कुल ही अनावश्यक सिद्ध होगी जिसे यह ज्ञात नहीं है कि आलू को पकाने के लिए सामान्यतः कितना समय चाहिए।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

(स) समायोजन (Adjusting): यदि आवश्यक हो तो योजना का समायोजन करना पड़ता है। उदाहरण-समय न मिलने पर उबले आलुओं की सब्जी न बनाकर परांठे बना दिए। परिस्थिति बदल जाने पर नवीन निर्णय लेने पड़ते हैं। कभी-कभी स्थितियाँ यथावत् रहती हैं, परन्तु योजना में भी दोष हो सकता है। तब योजना में सुधार कर अपने निर्णयों में परिवर्तन करता पड़ता है।

योजना को व्यावहारिक बनाने में निर्देशन व मार्गदर्शन की भी आवश्यकता होती है। कुशल निर्देशन द्वारा स्वयं व दूसरों से अपेक्षाओं के अनुरूप काम लिया जाता है। कार्य की प्रकृति को समझना होता है। उसे पूर्ण करने की विधियाँ भी ज्ञात होनी चाहिए। परिवार के सदस्यों में नई स्फूर्ति भी जागृत करनी होती है ताकि कार्य ठीक से हो सके। परिवार के छोटे सदस्यों के लिए मार्ग-दर्शन भी आवश्यक हो जाता है।

नियन्त्रण की सफलता कई बातों पर निर्भर करती है:
1. उपयुक्त निरीक्षण-निरीक्षण दो प्रकार से किया जा सकता है :
(अ) निर्देशन द्वारा (By Direction): सभी प्रकार के आवश्यक निर्देश दिए जाना आवश्यक है ताकि वांछित परिणाम प्राप्त हो सके।
(ब) मार्गदर्शन द्वारा (By Guidance): मार्गदर्शन में कार्य के परिणाम की अपेक्षा व्यक्ति के व्यक्तिगत गुणों के विकास का प्रमुख उद्देश्य होता है।
कुछ स्थितियों में यात्रिक उपकरणों द्वार माप सम्भव है। यदि रसोई में वैज्ञानिक तुला अथवा साधारण तराजू है तो भोज्य विधि में पदार्थ सही मात्रा में लिये जा सकते हैं।
2. निरीक्षण में शीघ्रता।
3. नए निर्णय-निरीक्षण करने पर यदि दोष दिखाई देते हैं तो शीघ्र निर्णय लेकर उन्हें दूर किया जाना चाहिए।
4. नियन्त्रण में लचीलापन-योजना के लक्ष्यों में तथा नियन्त्रण की विधियों में वांछनीय परिवर्तन करने की सम्भावना बनी रहनी चाहिए।
5. अनुशासन।
6. उचित नेतृत्व।

(ग) मूल्यांकन (Evaluation): मूल्यांकन में सम्पूर्ण योजना व उसके कार्यान्वयन का पुनरीक्षण है। यहाँ यह देखा जाता है कि योजना में अपेक्षित सफलता मिली है या नहीं। यदि नहीं मिली है तो उसके कारणों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

  1. आगामी समस्या हेतु-निर्णय
  2. सफलता का मूल्यांकन-लक्ष्य
  3. योजना के क्रियान्वयन का नियन्त्रण-क्रिया
  4. समस्या-आयोजन

लेविन के अनुसार मूल्यांकन के चार प्रयोजन होते हैं –

  1. यह देखना कि कितनी उपलब्धि हो चुकी है।
  2. आगामी योजना हेतु आधार का कार्य करना।
  3. पूरी योजना को संशोधित करने हेतु आधार का कार्य करना।
  4. नवीन सूत्र प्राप्त करना।

मूल्यांकन किसका-मूल्यांकन के दो प्रमुख तत्त्व हैं –

  1. स्वयं का मूल्यांकन (Self evaluation)।
  2. व्यवस्था प्रक्रिया का मूल्यांकन (Evaluation of the process of management)।

1. स्वयं का मूल्यांकन-शिक्षा उद्योग अथवा व्यवसाय में मूल्यांकन अपेक्षाकृत सरल है। यहाँ चूंकि एक समूह रहता है, अत: उपलब्धि के आधार पर तुलनात्मक विवेचना सम्भव है। परिवार में स्थिति भिन्न है। परिवार छोटा समूह है और उसमें भी गहकार्य करने वाली ज्यादा अकेली गृहिणी होती है। गृहिणी को स्वयं ही मूल्यांकन करना होगा। परिवार के सदस्य भी एक-दूसरे की उपलब्धियों का निष्पक्ष विवेचन कर सकते हैं। दूसरी गृहिणियों की कार्यावधि तथा उपलब्धियों का निरीक्षण कर अथवा उनकी चर्चा कर गृहिणी तुलनात्मक मापदण्ड बना सकती है जिसके आधार पर मूल्यांकन सम्भव है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

2. स्व मूल्यांकन-यहाँ गृहिणी स्वयं से एक प्रश्न पूछ सकती है “यदि मुझे यही कार्य पुनः करना पड़ा तो मैं अधिक सफलता प्राप्त करने के लिए क्या परिवर्तन करूँगा?”

3. एक डायरी रखना-इसमें गृहिणी प्रतिदिन की उपलब्धियों का विवरण लिख सकती है। उसे अपनी उपलब्धियाँ देखकर सन्तोष होगा। साथ ही यह भी ज्ञात होगा कि यहाँ कार्य क्षमता के अनुरूप नहीं हो पाए हैं।

(अ) सापेक्ष मूल्यांकन (Relative Evaluation): सापेक्ष मूल्यांकन में पूरी हो चुकी योजना के प्राप्त लक्ष्यों की तुलना किसी आधार से की जाती है अर्थात् योजना की समाप्ति पर लक्ष्यों की प्राप्ति किस अंश तक हुई है इसकी तुलनात्मक विवेचना की जाती है, जैसे-अन्य परिवारों द्वारा प्राप्त लक्ष्य, पिछली योजनाओं में प्राप्त लक्ष्य आदि।
Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन
(ब) निरपेक्ष मूल्यांकन (Absolute Evaluation): इससे प्राप्त लक्ष्यों की तुलना नहीं. की जाती बिना तुलना के ही यह पता लगाया जाता है कि योजना किस सीमा तक सफल रही परन्तु वास्तव में निरपेक्ष मूल्यांकन असम्भव-सा ही है। जब भी गृह-प्रबन्धकर्ता किसी कार्य को अच्छा अथवा बुरा बताता है तो उसके मस्तिष्क में उस कार्य के परिणाम का चित्र अवश्य होता है। यदि कार्य उस विचार से कम हो तो प्रगति को मन्द तथा यदि कार्य सोचे हुए परिणाम से ज्यादा हो तो उसे लक्ष्य प्राप्ति में सफलता समझा जाता है।

प्रश्न 2.
निर्णय-प्रक्रिया को विस्तार से लिखें।
उत्तर:
निर्णय-प्रक्रिया के निम्नलिखित पाँच प्रमुख सोपान हैं :
1. समस्या की व्याख्या (Definition of Problem):
इसमें किसी समस्या के रूप व उसके महत्त्व को स्पष्टतः समझ लेना चाहिए। कई बार स्थिति को ठीक से समझे बिना ही निर्णय ले लिये जाते हैं। ऐसे निर्णय बाद में हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं। इस समस्या के मूल में निहित तत्त्वों को पहचान लेना सदा आसान नहीं होता है। कई बार ऐसी समस्या पर विचार करना होता है जिसके विषय में उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं होता।

परिणामतः इसमें अस्पष्टता रह जाती है। जिस समस्या को हल करने के लिये निर्णय लिए जाते हैं वह समस्या परिवार के सभी सदस्यों के मस्तिष्क में स्पष्ट होनी चाहिए। समस्या की जड़ तक जाए बिना उसे ठीक से समझा नहीं जा सकता, न ही उचित समाधान खोजा जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

2. विभिन्न सम्भावित हलों की खोज (Search for Altermate Solutions): विभिन्न विकल्प तथा उनके परिणामों का ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। विकल्प को ढूँढ़ने की सभी सम्भावनाओं पर विचार करना चाहिए।
उदाहरण-यदि गृहिणी बीमार पड़ जाती है तो घर की देखभाल –

  • या तो पति करेगा।
  • नौकर ढूँढना।
  • महिला सम्बन्धी को कुछ दिन के लिए बुलाना।

इनमें से कौन-सा विकल्प सही है, यह परिस्थिति के अनुसार परिवार को निश्चित करना होगा। अनेक विकल्प होने के कारण निर्णय लेने में गड़बड़ी की सम्भावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त व्यक्ति के पास समय और अनुभव सीमित होते हैं।

3. विभिन्न सम्भावित हलों पर चिन्तन (Thinking about alternate solution): इस विषय पर गहराई से विचार करना चाहिए। प्रत्येक विकल्प के अच्छे-बुरे परिणाम क्या हो सकते हैं, इनको सूचीबद्ध भी किया जा सकता है। अच्छा विकल्प वह है जिससे परिवार के अल्पकालीन लक्ष्य पूरे करने में सहायता मिले व दीर्घकालीन लक्ष्यों पर भी विपरीत प्रभाव न पड़े। ‘प्रत्येक विकल्प के परिणाम अनिश्चित भविष्य के गर्त में निहित होते हैं।

भविष्य आंशिक रूप से इसलिए अनिश्चित होता है क्योंकि उसे बाहरी परिवर्तन प्रभावित करते हैं। उनके सम्बन्ध में पूर्वानुमान लगाना प्रायः असम्भव है। इसके अतिरिक्त वह इसलिए भी अनिश्चित होता है क्योंकि भविष्य में विकल्प के प्रति व्यक्ति की भावना में परिवर्तन आ सकता है। इस सोपान को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए कल्पना-शक्ति महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

4. उपयुक्त हल का चयन (Selection of possible solution)-अपने सम्भावित विकल्पों में से एक को चुन लेना चाहिए जिससे सबसे अधिक वांछित परिणामों की आशा हो। इसके अतिरिक्त अपनी आवश्यकताओं, लक्ष्यों एवं उपलब्ध साधनों के आधार पर सर्वोत्तम विकल्प का चयन किया जाता है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 15 व्यवस्थापन

5. निर्णय के परिणामों का स्वीकारण (Acceptance of results of decisions)-जो निर्णय लिये जाते हैं वे सदा आकर्षक नहीं दिखते । कभी-कभी यह होता है कि न चुने हुए विकल्पों में कुछ तत्त्व बड़े आकर्षक लगते हैं। ऐसी स्थिति में निर्णय लेने वाले व्यक्ति को परेशानी अनुभव हो सकती है परन्तु सभी स्थितियों में निर्णयों के परिणाम जो भी हों, उनका स्वीकारण आवश्यक है।

प्रश्न 3.
टोस्टर खरीदने के लिए निर्णय प्रक्रिया के सोपान विस्तार से लिखें।
उत्तर:
टोस्टर खरीदने के लिए निर्णय प्रक्रिया के सोपान –
1. सूचना एकत्रित करना (Obtain Information):
(क) ब्रांड्स का मिलना (Brands available)
(ख) गारंटी (Guarantee)
(ग) मानकीकरण चिह्न (Standardization mark)
(घ) कीमत (Cost)
(ङ) वोल्टेज (Voltage)
2. धनात्मक व ऋणात्मक प्रभाव-प्रत्येक विकल्प का मूल्यांकन करना तथा विभिन्न सम्भावित हलों की खोज।
3. विभिन्न सम्भावित हलों पर चिन्तन।
4. उपयुक्त हल का चयन।
5. सबसे अच्छी ब्रांड का चयन और खरीदना।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

Bihar Board Class 11 Home Science साधन Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
खमीर में पाए जाने वाले सूक्ष्म जीवाणु होते हैं।
(क) एककोशीय
(ख) बहुकोशीय
(ग) द्विकोशीय
(घ) तृ-कोशीय
उत्तर:
(क) एककोशीय

प्रश्न 2.
फफूंदी के जीवाणु तापमान में पनपते हैं।
(क) 20°C – 25°C
(ख) 25°C – 30°C
(ग) 30°C – 35°C
(घ) 35°C – 40°C
उत्तर:
(ख) 25°C – 30°C

प्रश्न 3.
एककोशीय सूक्ष्म जीवाणु के लिए उचित तापमान की आवश्यकता होती है।
(क) 25°C-30°C
(ख) 30°C – 35°C
(ग) 35°C-40°C
(घ) 40°C – 45°C
उत्तर:
(क) 25°C-30°C

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

प्रश्न 4.
एकलोटॉक्सिन Aflofoxin कहलाता है।
(क) विषैला पदार्थ
(ख) स्टार्चयुक्त पदार्थ
(ग) क्षारीय पदार्थ
(घ) अम्लीय पदार्थ
उत्तर:
(क) विषैला पदार्थ

प्रश्न 5.
बैक्टीरिया एक प्रकार का जीवाणु है
(क) एककोशीय
(ख) बहुकोशीय
(ग) द्वि-कोशीय
(घ) ती-कोशीय
उत्तर:
(क) एककोशीय

प्रश्न 6.
मानवीय साधन के अंतर्गत आते हैं। [IB.M.2009A]
(क) ज्ञान
(ख) धन
(ग) संपत्ति
(घ) आभूषण
उत्तर:
(क) ज्ञान

प्रश्न 7.
साधनों की व्याख्या करने से -[B.M.2009AL ]
(क) उपलब्ध साधनों को प्रयोग कर लक्ष्य प्राप्त हो सकता हैं
(ख) खर्च कम होता है
(ग) आवश्यकताओं की पूर्ति होती है
(घ) शक्ति का दूर उपयोग नहीं होता
उत्तर:
(क) उपलब्ध साधनों को प्रयोग कर लक्ष्य प्राप्त हो सकता हैं

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
साधन (Resources) शब्द की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
जो वस्तुएँ और क्षमताएँ हमारी आवश्यकता की पूर्ति में सहायता करती हैं व हमारे · लक्ष्यों तक पहुँचाने में सहायक हैं, उन्हें साधन या संसाधन कहते हैं।

प्रश्न 2.
साधन और संतोष (Resources & Satisfaction) में अन्तःसंबंध बताइए।
उत्तर:
साधन और संतोष में गहरा सम्बन्ध है। यदि एक कार्य को करने के लिए कई साधन चाहिए और यदि वे सन्तुलित मात्रा में उपलब्ध हों तो सन्तोष शीघ्र और अवश्य प्राप्त होता है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

प्रश्न 3.
मानवीय साधन (Human Resources) क्या हैं, उदाहरण दें।
उत्तर:
जो क्षमताएँ व साधन मानव द्वारा प्राप्त होते हैं उन्हें मानवीय साधन कहते हैं।
ये चार हैं-

  • ज्ञान
  • योग्यताएँ एवं कुशलताएँ,
  • शक्ति
  • अभिवृत्तियाँ व अभिरुचियाँ।

प्रश्न 4.
संसाधन कितने प्रकार के होते हैं ? नाम लिखें।
उत्तर:
संसाधन दो प्रकार के होते हैं-
(i) मानवीय संसाधन
(ii) भौतिक संसाधन

प्रश्न 5.
सभी संसाधनों की कोई दो विशेषताएँ (Characteristics) बताएँ।
उत्तर:
सभी संसाधनों की दो विशेषताएँ निम्न हैं-
1. सभी साधन उपयोगी होते हैं।
2. सभी साधन सीमित होते हैं।

प्रश्न 6.
भौतिक साधन (Non Human Resources) किन्हें कहते हैं ? उदाहरण दें।
उत्तर:
जो साधन भौतिक रूप में प्राप्त होते हैं, उन्हें भौतिक साधन या अमानवीय साधन कहा जाता है।
ये निम्न हैं-
1. धन,
2. वस्तुएँ,
3. सम्पत्ति,
समय व सामुदायिक सुविधाएँ।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

प्रश्न 7.
“निर्णय लेना’ (Decision making) से क्या तापलं है?
उत्तर:
अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न विकल्पों में से सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव ही निर्णय है।

प्रश्न 8.
सार्वजनिक या जन सुविधाएँ क्या हैं ?
उत्तर:
जो सुविधाएं सार्वजनिक उपयोग के लिए होती हैं और सब इसका प्रयोग करते हैं, उन्हें सार्वजनिक या जन सुविधाएँ (Public Conveniences)
कहते हैं।
ये निम्न हैं-

  1. पार्क
  2. सार्वजनिक परिवहन
  3. पुस्तकालय
  4. अस्पताल व डिस्पेन्सरी
  5. स्कूल तथा कॉलेज
  6. सार्वजनिक शौचालय
  7. सार्वजनिक नल
  8. सड़कें तथा गलियाँ
  9. सार्बजनिक इमारतें
  10. बिजली पानी
  11. पेड़ आदि

प्रश्न 9.
“साधन सीमित हैं” (Resources are limited) स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सभी साधन चाहे वे मानवीय हों या अमानवीय एक निश्चित सीमा तक ही प्रयोग में लाये जा सकते हैं। एक परिवार के पास निश्चित आय होती जिसमें उसे अपनी आवश्यकताओं को पूरा करना पड़ता है। एक विद्यार्थी के पास एक निश्चित कार्य करने के लिए सीमित ही समय होता है जिसमें उसे पढ़ाई सम्बन्धी कार्य करने होते हैं। अतः सभी साधन सीमित होते हैं।

प्रश्न 10.
साधनों को व्यवस्थित (Organisation of Resources) करने से क्या लाभ हैं? अथवा, लक्ष्य प्राप्ति के लिए साधनों को व्यवस्थित करना आवश्यक है या नहीं? यदि हाँ, तो क्यों?
उत्तर:
साधनों को व्यवस्थित करने से यह लाभ है कि हम सीमित साधनों से अधिकाधिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकते हैं। अधिकतम लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल हो सकते हैं। यदि हम इनका व्यवस्थित प्रयोग नहीं करेंगे तो ये साधन बेकार जा सकते हैं। व्यवस्थित करने से हम अपने समस्त साधनों से अवगत हो सकते हैं, और अपने दृष्टिकोण एवं अभिवृत्तियों में परिवर्तन लाकर अपने उपलब्ध साधनों में वृद्धि भी कर सकते हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

प्रश्न 11.
साधनों का प्रबन्ध करना (Arrangement of Resources) क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
सभी साधन सीमित होते हैं और उनकी उपलब्धि भी सीमित होती है। हमारी आवश्यकताएँ व लक्ष्य असीमित होते हैं। इन्हीं सीमित साधनों द्वारा हमें असीमित आवश्यकताओं और लक्ष्यों की प्राप्ति करनी होती है। यह तभी सम्भव है जब हम नियोजित ढंग से सोच-विचार कर इनका उपयोग करें ताकि अधिकाधिक आवश्यकताएं पूरी हो सकें व अधिकाधिक लक्ष्यों की प्राप्ति हो सके। इसीलिए साधनों का प्रबंध अति आवश्यक है।

प्रश्न 12.
निर्णय की प्रक्रिया के विभिन्न चरण (Process of decision making) कौन-कौन-से हैं ?
उत्तर:
अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए विभिन्न विकल्पों में से सर्वोत्तम विकल्प का चुनाव ही निर्णय लेना कहलाता है। निर्णय लेने की प्रक्रिया के पाँच मुख्य सोपान हैं जो निम्नलिखित हैं समस्या को परिभाषित करना। समस्या के समाधान के लिए विभिन्न विकल्पों की खोज करना। विभिन्न विकल्पों पर विचार-विनिमय। सर्वोत्तम विकल्प का चयन करना । अन्तिम निर्णय लेना या निर्णय की स्वीकृति।

प्रश्न 13.
यदि निर्णय प्रक्रिया में एक चरण रह गया है, तो क्या होगा?
उत्तर:
यदि निर्णय प्रक्रिया में एक चरण रह गया है तो सही निर्णय लेने में हम गलत साबित होंगे।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
साधन किसे कहते हैं ? किन दो वर्गों में इन्हें वर्गीकृत किया जाता है ?
उत्तर:
उत्तम गृह व्यवस्था के लिए पारिवारिक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु तथा उच्च जीवन स्तर बनाने हेतु साधनों की आवश्यकता होती है। इन्हीं साधनों को गृह व्यवस्था का आधार माना जाता है। पारिवारिक साधनों को मुख्यत: दो वर्गों में वर्गीकृत किया जाता है –
(क) मानवीय साधन (Human Resources)
(ख) भौतिक साधन (Material Resources)
Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

प्रश्न 2.
सामुदायिक सुविधाएँ किन्हें कहते हैं ?
उत्तर:
सामुदायिक सुविधाएं (Community Resources): सड़क, पार्क, शैक्षणिक संस्थाएँ, पानी, बिजली की सुविधाएँ, ईंधन, पुलिस संरक्षण, अग्नि शमन सहायता, पुस्तकालय, बाजार, यातायात सेवाएँ आदि सामुदायिक सुविधाएँ हैं जिनकी व्यवस्था सामाजिक समूह के लिए की जाती है। अलग-अलग लक्ष्यों के लिए इनमें से अलग-अलग साधन की आवश्यकता होती है।

प्रश्न 3.
“मूल्यांकन (Evaluation) भविष्य की योजनाओं का आधार है” इस कथन की विवेचना करें।
उत्तर:
मूल्यांकन व्यवस्था की प्रक्रिया का अन्तिम चरण है जो भविष्य की योजनाओं के लिए अति महत्त्वपूर्ण है। मूल्यांकन अर्थात् प्राप्त मूल्यों का अंकन करना, यह आंकना कि निर्धारित उद्देश्य कितनी सीमा तक पूरे हुए। लक्ष्य प्राप्ति की सफलता को आंकने के लिए मूल्यांकन अति आवश्यक है। यह आवश्यक नहीं कि मूल्यांकन केवल लक्ष्य प्राप्ति के बाद ही किया जाए।

यह व्यवस्थापन के प्रत्येक चरण पर निर्णय लेने के लिए किया जाता है। इसमें हमें लक्ष्यों की पूर्ति अथवा आपूर्ति के उत्तरदायी कारणों का ज्ञान होता है जिससे भविष्य में बनाई जाने वाली योजनाओं में सहायता मिलती है। पिछली योजनाओं की त्रुटियों में आवश्यक सुधार लाकर सूझ-बूझ से नई योजनाएं बनाई जा सकती हैं। अतः स्पष्ट है कि मूल्यांकन भविष्य की योजनाओं का आधार है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

प्रश्न 4.
सामुदायिक सुविधाओं का दुरुपयोग क्यों नहीं करना चाहिए?
उत्तर:
सामुदायिक सुविधाओं का दुरुपयोग (Misuse of Community Resources)सामुदायिक सुविधाएँ सीमित हैं और इसीलिए उन पर अंकुश लगाना आवश्यक है। उनका दुरुपयोग नहीं करना चाहिए । चूँकि हम सब उनको मिलकर बाँटकर प्रयोग करते हैं यह हम सबका कर्तव्य हो जाता है कि उनके संरक्षण के लिए उचित उपाय करें। हमें केवल अपने अधिकारों का ही ज्ञान नहीं होना चाहिए अपितु अपने दायित्वों के प्रति भी सजग होना चाहिए।

उदाहरण के लिए, सरकारी जमादार सफाई करने के लिए होता है, परन्तु यह हम सबका कर्त्तव्य है कि किसी को भी सड़कों पर गंदगी फैलाते देखें तो उसे रोकें। सामान्यतः विद्यार्थियों को जेब खर्च के रूप में सीमित धन मिलता है। अगर अपने पैसे को योजनाबद्ध तरीके से खर्च नहीं करेंगे तो क्या होगा? आपके राशन कार्ड पर मिट्टी के तेल की सीमित मात्रा मिलती है।

अगर आप ईंधन को सावधानी से प्रयोग नहीं करेंगे तो आपका खाना नहीं पकेगा। उपजाऊ धरती कम है और उगने वाला चारा भी सीमित है। एक किसान को चारे का प्रबंध सावधानी से करना होगा ताकि उसके पशु स्वस्थ रहें। आपको साधनों का प्रबंध करना आवश्यक है ताकि अपने लक्ष्य तक पहुँचने की खुशी प्राप्त हो।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
साधन क्या हैं ? साधनों को किस प्रकार वर्गीकृत किया जाता है ? विस्तार से समझाइए। [B.M.2009A]
उत्तर:
प्रत्येक परिवार के समक्ष कुछ लक्ष्य रहते हैं। इन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु साधनों का उपयोग करना होता है। ग्रीन व कैंडल के अनुसार “अच्छे गृह-प्रबन्ध का उद्देश्य परिवार को अधिकतम संतुष्टि के लिए पारिवारिक साधनों का उपयोग करना है।”आयरिन ओपनहाइन के मत से “पारिवारिक साधनों का प्रबन्ध गृह-व्यवस्था के सबसे चुनौतीपूर्ण कार्यों में से एक है।” गृह-व्यवस्था में पारिवारिक साधनों का प्रयोग ऐसी सफलता के साथ किया जाता है ताकि निर्धारित मूल्यों एवं लक्ष्यों की प्राप्ति हो। पारिवारिक साधनों को कई प्रकार से वर्गीकृत किया गया है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

गृह विज्ञान की एक परिचर्चा में साधनों को इस प्रकार वर्गीकृत किया गया था –

  1. तकनीकी साधन (Technological resources): इसके अन्तर्गत परिवार के लिए उपयोगी वस्तुएँ व उपकरण आते हैं। ये साधन प्राकृतिक भी हो सकते हैं व मानव निर्मित भी।
  2. सामाजिक साधन (Social resources): इसमें विभिन्न सामाजिक संस्थाएँ आती हैं जो परिवार के लिए उपयोगी हैं, जैसे-क्लब, बैंक, पुस्तकालय आदि।
  3. मानवीय साधन (Human resources): जैसे भावनाएँ, विचार, अभिरुचि आदि।

आयरिन ओपनहाइन के अनुसार साधनों के निम्नलिखित तीन प्रकार हैं –

  • मानवीय साधन (Human resources)
  • आर्थिक साधन (Economic resources)
  • पर्यावरण सम्बन्धी साधन (Environmental resources)

ग्रीन व कैंडल ने साधनों को दो प्रमुख भागों में वर्गीकृत किया है –
(क) मानवीय साधन (Human resources)
(ख) भौतिक साधन (Material or Non-human resources)।
यदि हम तालिका बनाएँ तो इन साधनों का उपविभाजन इस प्रकार से कर सकते हैं-

(क) मानवीय साधन-

  • समय
  • शक्ति
  • अभिरुचियाँ
  • क्षमताएँ व दक्षता
  • ज्ञान
  • अभिवृत्तियाँ

(ख) भौतिक साधन:

  • भौतिक वस्तुएँ
  • धन
  • सामुदायिक सुविधाएँ

(क) मानवीय साधन (Human Resources):
1. समय-समय एक महत्त्वपूर्ण साधन है। इसके अन्तर्गत मिनट, घण्टे, दिन आदि आते . हैं। समय का सही उपयोग निश्चित ही वांछित लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायक होता है। घरेलू कार्यों के करने में व्यय होने वाली समयावधि इसके अन्तर्गत आती है, जैसे एक घंटा, एक दिन, एक सप्ताह, अल्प समयावधि, दीर्घ समयावधि आदि। समय का उचित व्यवस्थापन बहुत जरूरी है। यह तो परिवार के सदस्यों पर निर्भर करता है कि वह समय का किस प्रकार सदुपयोग करें।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

2. शक्ति-किसी भी कार्य को सम्पन्न करने में शक्ति का उपयोग करना होता है जैसे वस्त्र धोने, बर्तन व घर की सफाई आदि । काम करने की क्षमता प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग होती है। यदि परिवार के सदस्यों में शक्ति अधिक होगी तो वह उसका उचित व्यवस्थापन करके अन्य साधनों को प्राप्त करने में सहायता करेगी।

3. अभिरुचियाँ-कार्य प्रायः थकान वाला होता है परन्तु अभिरुचि उस कार्य को रोचक बना देती है तथा उसे शीघ्र पूरा करने में सहायक होती है।

4. क्षमताएँ-इसके अन्तर्गत प्रकृति प्रदत्त तथा अर्जित दोनों ही प्रकार की योग्यताएँ सम्मिलित होती हैं। कुशलता से अभिप्राय गृह-सम्बन्धी विभिन्न कार्य करने की कुशलता, जैसे-सीने, काढ़ने, बुनने आदि की कुशलता है। परिवार के सदस्यों के कार्य निपुण होने पर पारिवारिक लक्ष्यों की प्राप्ति और भी सहज हो जाती है। यदि गृहिणी या परिवार का कोई अन्य सदस्य कपड़े सिलने में निपुण हो तो परिवार को दर्जी की सिलाई पर व्यय नहीं करना पड़ता है।

5. ज्ञान-समुचित ज्ञान परिवार के कुशल संचालन में सहायक होता है। उदाहरणार्थ संतुलित आहार का ज्ञान पारिवारिक स्वास्थ्य बनाए रखने में सहायक होगा। बाजार का ज्ञान होने पर गृहिण उत्तम वस्तुएँ सस्ते मूल्य पर क्रय कर सकेगी। बाल विकास का ज्ञान बच्चों के उचित लालन-पालन में सहायक हो सकता है।

6. अभिवृत्तियाँ-वे इच्छाएँ तथा भावनाएँ अभिवृत्ति कहलाती हैं जो किसी कार्य को करने के लिए व्यक्ति को उत्प्रेरित अथवा निरुत्साहित करती हैं। परिवार का दृष्टिकोण सकारात्मक . (Positive) अथवा नकारात्मक (Negative) हो सकता है। सकारात्मक अथवा आशावादी दृष्टिकोण उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक होता है। यह विषम परिस्थितियों से जूझने में भी सहायक होता है।

(ख) भौतिक साधन (Material or Non-human Resources):

1. भौतिक वस्तुएँ-परिवार के लिए उपयोगी सभी वस्तुएँ इस श्रेणी में आती हैं, जैसे-खाद्य पदार्थ, वस्त्र, मकान, पुस्तकें, फर्नीचर आदि । ये वस्तुएँ स्थाई (Permanent) अथवा अस्थाई (Perishable) हो सकती हैं। विभिन्न कार्यों के सम्पादन में ये वस्तुएँ सहायक होती हैं, जैसे-आवास के लिए मकान आवश्यक है। यह साधन मानवीय साधनों की भाँति काफी महत्त्वपूर्ण है। इनका प्रयोग अन्य साधनों के क्रय के लिए किया जा सकता है, किन्तु इन साधनों की सहायता से केवल भौतिक वस्तुओं का ही क्रय किया जा सकता है तथा इनके द्वारा मानवीय साधनों को पाना कठिन होता है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

2. धन-यह साधन भी मानवीय साधनों की भाँति काफी महत्त्वपूर्ण है । धन के बदले वस्तुएँ, सेवाएँ हैं, जिनसे यांत्रिक शक्ति प्राप्त होती है। बचत, विभिन्न प्रकार के विनियोजित आय धन के अन्तर्गत आते हैं। धन के अभाव में परिवार का संचालन असम्भव है।

3. सामुदायिक सुविधाएँ-पुलिस संरक्षण, शैक्षिक सुविधाएँ, सड़क, पार्क, पुस्तकालय, बाजार, यातायात सेवाएँ जिनकी व्यवस्था सामाजिक समूह द्वारा की जाती है, वे इस वर्ग के साधन हैं। समाज द्वारा व्यक्ति अथवा परिवार के लिए प्राप्त सुविधाएँ इस वर्ग में आती हैं।

प्रश्न 2.
साधनों के सामान्य गुणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
साधनों में निम्नलिखित विशेषताएँ समान रूप से पायी जाती हैं।
1.सभी साधन सीमित हैं (Resources are limited)-साधन सदा सीमित रहते हैं अन्यथा उनके व्यवस्थापन की आवश्यकता ही नहीं रहती। साधन जितने सीमित होते हैं, उसी अनुपात में उनका महत्त्व बढ़ जाता है। गृहिणी को उनके उपयोग करने में उतनी ही दक्षता की आवश्यकता होती है। साधनों की दो प्रकार की सीमाएँ होती हैं-
(अ) संख्यात्मक सीमाएँ
(ब) गुणात्मक सीमाएँ

(अ) संख्यात्मक सीमाएँ (Quantitative): विभिन्न साधनों की सीमा भिन्न-भिन्न होती हैं। समय सर्वाधिक सीमित साधन है। एक दिन में चौबीस घण्टे से अधिक समय नहीं हो सकता। व्यक्ति भी एक सीमित साधन है। हालांकि इसकी सीमाएँ भिन्न व्यक्तियों में भिन्न हो सकती. हैं। प्रत्येक व्यक्ति को दिन में कछ घण्टे आराम की भी आवश्यकता होती है। यदि वह आराम न करे तो उसमें अगले दिन कार्य करने की शक्ति नहीं रहती है। धन भी सीमित है।

इस साधन की मात्रा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के पास भिन्न-भिन्न होती है तथा एक ही व्यक्ति के पास जीवन के विभिन्न अवसरों पर भिन्न-भिन्न होती है परन्तु धन दूसरे साधनों से इस रूप में भिन्न है कि उसे बचाकर भविष्य के लिए रखा जा सकता है। आवश्यकता पड़ने पर धन उधार भी ले सकते हैं। परिवार के सदस्यों की क्षमताएँ भी सीमित हैं। भिन्न व्यक्तियों में जन्मजात क्षमताएँ भिन्न होती हैं। शिक्षा व वातावरण भी सीमाएँ निर्धारित करते हैं। उचित शिक्षा व स्वस्थ वातावरण की क्षमताएँ और भी सीमित हो जाती हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

(ब) गुणात्मक सीमाएँ (Qualitative): गुणात्मक सीमाएँ भी निश्चित हैं। दो परिवारों को एक जैसे आर्थिक साधन उपलब्ध हैं परन्तु यह सम्भव है कि एक की गृह-सज्जा उच्च स्तर की हो, दूसरे की निम्न स्तर की। कार्य निपुणता, ज्ञान आदि कुछ ऐसे मानवीय साधन हैं जिनकी . गुणात्मक सीमाएँ होती हैं। गुणात्मक स्तर हर साधन के उपयोग में देखा जा सकता है।

2. साधनों में घनिष्ठ सम्बन्ध (Resources have close relation): प्रायः एक कार्य को करने में एक से अधिक साधन की आवश्यकता होती है। अध्ययन के लिए समय व शक्ति दोनों ही चाहिए। अधिकांश गृह कार्यों को करने के लिए इन दोनों साधनों की आवश्यकता होती है। एक साधन के अभाव में कई बार वाछित सफलता नहीं मिल पाती।

3. साधन एक बार में एक ही स्थान पर प्रयुक्त होते हैं-एक साधन यदि हम एक स्थान पर प्रयुक्त कर लेते हैं तो अन्यत्र उसका उपयोग सम्भव नहीं ना | गृहिणी यदि एक धनराशि का उपयोग बच्चों की सालाना फीस देने के लिए कर लेती है उसी से उनके लिए वस्त्र नहीं खरीद सकती।

4. सभी साधन उपयोगी होते हैं-उचित गृह-व्यवस्था के लिए सभी साधन उपयोगी होते हैं। यदि साधनों का उचित उपयोग नहीं किया जाएगा तो वे निरर्थक हो जाते हैं क्योंकि किसी चीज की उपयोगिता ज्ञात होने के पश्चात् ही उसे साधन में सम्मिलित किया जाता है। टेलीविजन, शिक्षा व मनोरंजन दोनों के लिए उपयोगी है।

5. कुछ साधन एक-दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त हो सकते हैं-साधनों को एक-दूसरे के स्थान पर प्रयुक्त किया जा सकता है। उदाहरण-घर में रहने वाली गृहिणी समय का उपयोग बच्चों के कपड़े घर पर सिलने में कर सकती है, परन्तु यदि वही गृहिणी बाहर काम करने लगे तो समयाभाव में वही कपड़े धन देकर सिलवा लेती है।।

6. सभी साधनों के प्रयोग से लक्ष्य की प्राप्ति-सभी साधनों का प्रयोग लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है। यदि साधन लक्ष्यों की प्राप्ति न करें तो वह अर्थहीन एवं निरर्थक हो जाते हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

प्रश्न 3.
साधनों में क्या समानताएँ (Similarities) पायी जाती हैं ?
उत्तर:
समस्त साधनों में प्रायः निम्नलिखित समानताएँ पाई जाती हैं-
1. समस्त साधन लाभप्रद हैं।
2. सभी साधन सीमित हैं।
3. व्यवस्थापन सम्बन्धी प्रक्रिया समस्त साधनों पर लागू होती है।
4. साधनों का प्रयोग करने के परिणामस्वरूप जीवन का जो गु णात्मक स्तर प्राप्त होता है, वह व्यक्ति के इन साधनों के प्रयोग करने के ढंग पर निर्भर करता है।
Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

प्रश्न 4.
सामुदायिक सुविधाओं का संरक्षण और प्रबन्ध क्यों आवश्यक है? अथवा, चार सामुदायिक सुविधाओं के नाम लिखें तथा विस्तार से बताएं कि इनका प्रबन्ध क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
सामुदायिक सुविधाओं का संरक्षण और प्रबन्ध: सभी साधनों की विशेषताएँ जानने के बाद यह ज्ञात होता है कि साधन सीमित हैं, अत: उनके प्रबंध की आवश्यकता है। साधनों के सर्वोत्तम उपयोग के लिए उनकी व्यवस्था अत्यंत आवश्यक है।

कुछ साधन निम्नलिखित हैं –
1. ईंधन (Fuel): कोई भी वस्तु जिसमें गर्मी अर्थात् शक्ति पैदा करने की सामर्थ्य है, ईंधन कहलाती है। ईंधन कई प्रकार के होते हैं।

कुछ सामान्य प्रयोग में आने वाले ईंधन निम्नलिखित हैं –
Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

भोजन पकाने के लिए ईंधन का संरक्षण निम्नलिखित रूप से किया जा सकता है :

  • सारे संघटक एकत्रित करने के बाद ही आग जलाएँ।
  • प्रयोग के तुरत बाद आग बुझा दें।
  • उबलने के बाद आग की लपट धीमी कर दें।
  • कम गहरे व चौड़े बर्तनों से ईंधन की बचत होती है।
  • खाद्य पदार्थों को उबालने के लिए कम से कम पानी का प्रयोग करें।
  • पकाने से पहले खाद्यान्न व दालों को भिंगोकर रखें। इससे पकाने का समय कम हो जाता है।
  • प्रेशर कूकर के प्रयोग से समय और ईंधन की बचत होती है।
  • अच्छी तरह बंद होने वाले ढक्कनों से ताप नष्ट नहीं होता और इस प्रकार पकाते हुए समय तथा ईंधन की बचत होती है।
  • यह सुनिश्चित करें कि आग की लौ तेज और नीली हो। पीले रंग की लौ का अर्थ है कि ईंधन व्यर्थ जा रहा है तथा लौ ठीक तरह नहीं जल रही है।
  • भोजन को बार-बार गर्म न करें। सारे परिवार को एक ही बार गर्म खाना परोसें न कि हर एक को अलग-अलग भोजन दें।
  • फ्रिज में रखे खाने को पकाने से पहले कमरे के ताप पर ले आएँ। इस प्रकार ईंधन की बचत होती है।
  • गंदे बर्तन व बर्नर अधिक ईंधन खर्च करते हैं।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

2. विद्युत (Electricity): यह एक महँगा ईंधन है। यह खाना पकाने, पानी गर्म करने, रोशनी करने, कमरे का ताप बढ़ाने और बिजली के उपकरण चलाने में प्रयोग की जाती है। आपको इस महँगे और सीमित साधन को बहुत सावधानी से प्रयोग करना चाहिए। यह निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है :

  • कमरा छोड़ने पर सारी बत्तियाँ बुझा दें।
  • जब आवश्यकता न हो तो टी.वी., रेडियो बंद कर दें।
  • बिजली के उपकरणों को आपस में मिल-जुल कर प्रयोग करें तथा बिजली की बचत करें।
  • बल्ब के स्थान पर टयब लाइट का प्रयोग करें जिससे रोशनी भी अधिक होती है तथा बिजली भी कम प्रयोग होती है।
  • काम करते समय प्राकृतिक रोशनी का अधिक से अधिक प्रयोग करें। दिन की रोशनी में पढ़ने से बिजली की काफी बचत होती है।
  • जब धीमी रोशनी चाहिए तो छोटे बल्ब प्रयोग करें।
  • बिजली के उचित उपकरणों के प्रयोग से बिजली की बचत होती है।

3. पानी (Water): क्या आप पानीरहित जीवन का विचार कर सकती हैं ? नहीं। पानी मनुष्य की एक मूल आवश्यकता है जो धीरे-धीरे कम हो रहा है।
दिल्ली में 1960 से अब तक पानी का स्तर (मीटर में) कम होता जा रहा है-
Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

निम्नलिखित सिद्धांतों के पालन से पानी का संरक्षण सुनिश्चित हो सकता है:

  •  पानी का नल अथवा कोई स्रोत प्रयोग के बाद बंद कर दें।
  • पानी को व्यर्थ बहने से रोकें।
  • आवश्यकता के अनुसार पानी का उपयोग करें। अगर आपको आधा गिलास पानी चाहिए तो उसे पूरा मत भरिए।
  • प्रत्येक व्यक्ति के कपड़े अलग धौने की बजाय परिवार के सभी कपड़े एक साथ धोने से पानी की मात्रा में बचत हो सकती है।
  • पृथ्वी की सतह के नीचे अर्थात् भूमिगत पानी का संरक्षण भी आवश्यक है। जहाँ पानी का स्तर ऊँचा हो वहाँ जमीन के नीचे वाला पाखाना नहीं बनाना चाहिए।
  • अगर जल का कोई सामुदायिक स्रोत हो तो उसका प्रबन्ध सुनिश्चित करना चाहिए। पानी लेने के लिए पंक्ति में लगना चाहिए।
  • रसोईघर के व्यर्थ पानी को नाली द्वारा पिछवाड़े की बागवानी में प्रयोग करें। पानी को एक स्थान पर एकत्रित न होने दें।
  • वर्षा के जल को छत पर संग्रह करने का प्रबंध करना चाहिए।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

1. वर्षा के जल का संग्रह (Storage of Rain Water): वर्षा का जो जल छत पर गिरता है उसे छोटे व्यास की पाइपों द्वारा ट्यूबवेल, गड्ढों, पुराने या नए अनुपयोगी कुओं की तरफ मोड़कर सतह के नीचे के जल के संग्रह की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है ताकि यह बाद में आवश्यकतानुसार प्रयोग में लाया जा सके। यह प्रक्रिया एकजिली तथा कई मंजिली इमारतों में उत्तम परिणामों के साथ प्रयोग की जा रही है।

2. दिल्ली के लिए सर्वोत्तम: 100 वर्ग मी. की छत पर लगभग 65000 लीटर बारिश का पानी पाइपों द्वारा एकत्र किया जा सकता है, जिससे चार व्यक्तियों के परिवार की 160 दिन तक पानी की आपूर्ति की जा सकती है।

3. विशेष सहायता: दिल्ली जल बोर्ड ने इस संदर्भ में सहायता शिविर का गठन किया है जो इस मितव्ययी तथा पर्यावरण सुरक्षित तथ्य को कार्यान्वत करने में सहायता करता है। संकर्प करें-वरिष्ठ अभियंता (योजना जल), कमरा नं. 207, वरुणालय, दूरभाष-3675434, 3678380-82

4. राज्य परिवहन (Public Transport): बसें, गाड़ियाँ, ट्राम और हवाई जहाज परिवहन के कुछ साधन हैं। ये एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने में सहायक होते हैं। परिवहन व्यवस्था एक महँगा साधन है। उचित सेवा न होने पर कई बार विद्यार्थी बसों को तोड़-फोड़ देते हैं। परिणामतः पुनः व्यवस्था बनाने के लिए अधिक व्यय करना पड़ता है जिसके कारण किराये में वृद्धि व करों में वृद्धि होती है। आप सोचें कि क्या यह उचित हैं ? असामाजिक तत्त्व कभी-कभी बसों को बमों से उड़ा देते हैं, जिससे सामाजिक सम्पत्ति को नुकसान पहुँचता है। मनुष्य भी मर जाते हैं। इन असामाजिक कार्यों का परिणाम, समाज पर आर्थिक दबाव पड़ता है।

5. चारा (Fodder): ग्रामीण क्षेत्रों में किसानों को चारे की गंभीर समस्या का सामना करना पड़ता है। यह जानवरों को खिलाने के काम आता है। बचा हुआ या फालतू चारा फेंक दिया जाता है जिससे सफाई की समस्या बढ़ जाती है। अधिक चारे को अमूल्य साधनों की तरह प्रयोग में लाया जा सकता है। इससे खाद व गोबर गैस निर्मित की जा सकती है। परिवार की दूसरी आवश्यकताएँ जैसे चटाइयाँ, छप्पर आदि भी चारे से बनाई जा सकती हैं। जब ये टूट जाएँ तो इन्हें गोबर के साथ मिलाकर अच्छे उपले व खाद बनाई जा सकती है। इस प्रकार ग्रामीण क्षेत्र में किसान चारे का उपयुक्त प्रयोग कर सकते हैं।

6. पार्क (Parks): शालिनी जिस क्षेत्र में रहती है वहाँ पाँच पार्क हैं। पहले ये पार्क बंजर भूमि लगते थे। इन पार्कों में कोई गतिविधि न थी। पिछले दिनों वहाँ के लोगों ने एक सभा बनाकर चार लोगों को पार्कों के प्रबंध का उत्तरदायित्व सौंप दिया। उन्होंने माली लगाकर सारे पार्क ठीक करवा दिये। अब चहुँ ओर हरियाली है तथा फूल भी खिले हैं। इससे क्षेत्र में रौनकता बढ़ गई है।

Bihar Board Class 11 Home Science Solutions Chapter 14 साधन

बड़े बच्चे पार्क में पानी देने का काम करते हैं। सभी पार्क एक प्रयोगशाला का काम करते हैं जहाँ बच्चे फूल, पत्तों व पौधे के बारे में ज्ञान प्राप्त करते हैं। आस-पड़ोस के लोग सुबह-शाम वहाँ व्यायाम करने भी जाते हैं। इस सुविधा से क्षेत्र में नया जीवन आ गया है। आप भी कुछ ऐसा कर सकती हैं तथा कुछ अन्य सुझाव भी दे सकती हैं।

7.विद्यालय और चिकित्सालय (Schools and Hospitals): विद्यालय और चिकित्सालय वे सामुदायिक सुविधाए हैं जिनके द्वारा बच्चों को शिक्षा दी जाती है और आपके स्वास्थ्य के बारे में ध्यान रखा जाता है। इन दोनों स्थानों पर सफाई का बहुत ध्यान रखना चाहिए। सावधानी रखनी चाहिए कि इन दोनों सुविधाओं को किसी प्रकार की हानि न पहुंचाई जाए। आप सबको विद्यालय के बारे में पता है। उदंडी विद्यार्थियों द्वारा विद्यालय की सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया जाता है। आप ऐसी हानियों की एक सूची बनाएँ । चिकित्सालय में उचित और बढ़िया ढंग से काम होना चाहिए ताकि सबको अच्छी सुविधाएँ मिलें तथा रोगियों को उनके दुखों से मुक्ति मिले।

8. सड़कें (Roads): घर से विभिन्न स्थानों तक आपकों व आपके परिवार को कौन जोड़ता है। ये सड़कें हैं । यह आपका उत्तरदायित्व है कि आप इस साधन का उचित रूप से प्रयोग करें। सड़कें संचार के माध्यम हैं, यह एक सामुदायिक सुविधा है। आप निजी समारोह के लिए इसे प्रयोग न करें। इससे समाज के दूसरे सदस्यों को परेशानी होती है। सड़कों को साफ तथा सुरक्षित रखें।

प्रश्न 5.
सभी साधनों की व्यवस्था करना क्यों आवश्यक है ?
उत्तर:
सभी साधनों की व्यवस्था करना (Need to manage the resources): सभी साधनों की चाहे वह भौतिक हों अथवा मानवीय, की व्यवस्था की जा सकती है। इनकी उचित व्यवस्था करके ही हम उत्तम गृह व्यवस्था की कल्पना कर सकते हैं। इन साधनों के प्रयोग के लिए सर्वप्रथम इन्हें आयोजित करने की आवश्यकता होती है, जैसे कौन-सा साधन किस आवश्यकता पूर्ति के लिए प्रयोग किया जाए।

मौद्रिक आय की व्यवस्था करके हम ज्ञात कर सकते हैं कि कोई परिवार भोजन पर, कपड़ों पर तथा अन्य आवश्यकताओं पर कितना व्यय करे। आयोजन के पश्चात् साधनों का प्रयोग करते समय नियन्त्रण रखना भी अति आवश्यक है जिससे साधनों का दुरुपयोग न हो। सभी साधनों के प्रयोग के पश्चात् हमें मूल्यांकन करना चाहिए जिससे हमें ज्ञान हो जाए कि साधनों के प्रयोग से हमारी आवश्यकता की पूर्ति हुई है या नहीं।

जैसे धन की व्यवस्था करके जब हम आहार पर व्यय करते हैं और इस व्यय को नियन्त्रित भी रखते हैं तो अन्त में हमें देखना होगा कि मुद्रा के उपयोग से हमारी संतुलित आहार पाने की आवश्यकता पूर्ण हुई है अथवा नहीं। यदि हमारी आवश्यकता पूर्ण नहीं हुई है तो उसका क्या कारण है जिससे आगामी मास की व्यवस्था करते समय उन कारणों को दूर किया जा सके।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

Bihar Board Class 11 Psychology मानव स्मृति Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
कूट संकेतन, भंडारण और पुनरुद्धार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
स्मृति एक संज्ञानात्मक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से हम सीखे हुए ज्ञान तथा प्राप्त अनुभवों को संचित करके भविष्य के लिए रखते हैं। स्मृति नामक प्रक्रिया में तीन स्वतंत्र किन्तु अन्तः संबंधित अवस्थाएँ होती हैं –
(क) कूट संकेतन
(ख) भंडारण तथा
(ग) पुनरुद्धार

हमारे द्वार ग्रहण की जाने वाली सूचनाएं जो स्मृति बनकर भविष्य में प्रयोग की जाने योग्य अवस्था में आ जाती हैं, उन सभी सूचनाओं को इन तीन प्रमुख अवस्थाओं (चरणों) से होकर अवश्य गुजरना होता है।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति img 1

1. कूट संकेतन:
स्मृति का प्रारम्भ इसी पहली अवस्था के रूप में होता है। वांछित सूचनाएँ कूट संकेतन के द्वारा स्मृति तंत्र तक पहुँचता है। तंत्रिका आवेग की उत्पति ज्ञानेन्द्रियों पर बाह्य उद्दीपक के प्रभाव के कारण होती है। उत्पन्न आवेग मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों में पुनः प्रक्रमण के लिए ग्रहण कर लिए जाते हैं।

कूट संकेतन के रूप में आनेवाली सूचनाएँ तंत्रिका तंत्र में ली जाती हैं संचित संकेतनों से अभीष्ट अर्थ पाने का प्रयास किया जाता है तथा उसे भविष्य में पुनः प्रक्रमण के लिए सुरक्षित रखा जाता है। अर्थात् कूट संकेतन एक ऐसी विशिष्ट प्रक्रिया है जिसकी सहायता से सूचनाओं को एक ऐसे आकार या रूप में बदल लिया जाता है ताकि वे स्मृति में स्थान पाकर सार्थक रूप में संचित रहे। इस अवस्था को पंजीकरण भी कहा जा सकता है। यह स्मृति की पहली अवस्था है।

2. भंडारण:
सार्थक एवं उपयोगी सूचनाओं को कूट संकेतन के माध्यम से प्राप्त करने के बाद जिस विशेष प्रक्रिया के द्वारा कुछ समय सीमा तक धारण किये रहने की व्यवस्था की जाती है, उस प्रक्रिया को भंडारण कहते हैं। यह स्मृति की द्वितीय अवस्था है। भंडारित सूचना का उपयोग आवश्यकतानुसार आने वाले समय में किया जाता है। इसे ‘याद रखना’ भी कहा जाता है।

3. पुनरुद्धार:
पुनरुद्धार स्मृति की अंतिम एवं तीसरी अवस्था है। इसे ‘याद आना’ भी माना जा सकता है। समस्या समाधान अथवा किसी आवश्यक प्रपत्र को खोजने में हम अपनी चेतना को जगाकर जानना चाहते हैं कि अमुक व्यक्ति का कागज कहाँ मिलेगा और किस तरह इसका अधिक-से-अधिक उपयोग किया जा सकता है। अतः कूट संकेतन से मिली सूचना का भंडारण करने के पश्चात् संचित सूचना को चेतना में लाने (याद करने) की प्रक्रिया को पुनरुद्धार कहा जाता है। इस प्रक्रिया को स्मरण जैसा नाम भी दिया जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 2.
संवेदी, अल्पकालिक तथा दीर्घकालिक स्मृति तंत्र से सूचना का प्रक्रमण किस प्रकार होता है?
उत्तर:
मानव स्मृति को कम्प्यूटर की तरह संवेदनशील बनाने के लिए सूचना का पंजीकरण, भंडारण तथा उसमें आवश्यकतानुसार फेर-बदल करने की क्षमता को आधार बनाकर स्मृति को क्रियाशील स्थिति में लाया जाता है। एटकिंशन तथा शिफ्रिन ने सन् 1968 में स्मृति से संबंधित। एक मॉडल तैयार किया जिसे ‘अवस्था मॉडल’ के रूप में जाना जाता है। ‘अवस्था मॉडल’ के आधार परी स्मृति तंत्र को तीन भागों में बाँट कर अध्ययन किया जाने लगा –
(क) संवेदी स्मृति
(ख) अल्पकालिक स्मृति तथा
(ग) दीर्घकालिक स्मृति
तीनों भागें में से प्रत्येक की अपनी-अपनी विशेषताएँ होती हैं तथा इनके द्वारा संवेदी सूचनाओं के संबंध में भिन्न प्रकार्य निष्पादित किए जाते हैं।

1. संवेदी स्मृति:
देखकर या सुनकर जो भी सूचनाएँ प्राप्त होती हैं उसे सर्वप्रथम संवेदी स्मृति को दिया जाता है। संवेदी स्मृति की संचयी क्षमता तो बहुत अधिक होती है लेकिन धारण अवधि एक सेकेण्ड से भी कम होती है। परिशुद्धता इसकी पहली पसंद होती है। संवेदी स्मृति में संचित सूचनाएँ उद्दीपक की प्रतिकृति की तरह जमा रहती है। उसे चित्रात्मक तथा प्रतिध्वन्यात्मक संवेदी तंत्रिका के रूप में भी अनुभव किया जाता है क्योंकि दृश्य-उत्तर-बिम्ब और ध्वनि-प्रतिध्वनि का अभ्यास कारण स्वयं तंत्रिका ही होती है।

2. अल्पकालिक स्मृति:
प्राप्त सूचनाओं में से कुछ सूचनाओं पर हमारा ध्यान केन्द्रित हो पाता है। ध्यान दी गई सूचनाओं को अल्पकालिक स्मृति के अन्तर्गत स्थान मिलता है। इस श्रेणी की सूचना सामान्यतः 30 सेकेण्ड से भी कम समय के लिए स्मृति तंत्र में बनी रहती है। एटकिंशन एंव शिफ्रिन के मतानुसार अल्पकालिक स्मृति सूचना का कूट संकेतन मुख्यतः ध्वन्यात्मक होता है।

इसे बनाये रखने के लिए निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है। अर्थात् अल्पकालिक स्मृति में व्यक्ति किसी अनुभूति को 30 सेकेण्ड तक ही रख सकता है। इसे प्राथमिक स्मृति भी कहा जाता है। जैसे, किसी अपरिचित व्यक्ति की दूरभाष संख्या को सुनकर उसे भूल जाना लघुकालिक स्मृति के कारण ही होता है।

3. दीर्घकालिक स्मृति:
कुछ अति आवश्यक सूचनाएँ स्थायी तौर पर अनन्त समय तक संचित रह जाती है। ऐसी सूचनाएँ अल्पकालिक स्मृति की क्षमताएँ धारण अवधि की सीमा को पार कर जाती है, वही दीर्घकालिक स्मृति में प्रवेश कर पाती है। इस श्रेणी की स्मृति के लिए धारण क्षमता व्यापक मानी जाती है दीर्घकालिक स्मृति में जगह पाने वाली सूचनाएँ भूलने से बची रहती है। कभी-कभी पुनरुद्धार विफलता के कारण कुछ सूचनाएँ स्मृति की सीमा से बाहर हो जाते हैं अतः हम उसे भूल जाते हैं। चेतना ग्रन्थि की सहायता से कुछ क्षण तक प्रयास करने पर भूली गई सूचनाएँ स्मृति में आ जाती हैं।

दीर्घकालिक स्मृति को गौण स्मृति भी कहा जाता है। अपना नाम, पता, दूरभाष संख्या, शत्रु-मित्रों के नाम आदि दीर्घकालिक स्मृति में होने के कारण सदा याद रहते हैं। इन तीनों भागों का संक्षिप्त अध्ययन के लिए निम्नांकित तालिका की मदद ली जा सकती है –
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति img 2

प्रश्न 3.
अनुरक्षण एवं विस्तृत पूर्वाभ्यास में क्या अंतर है?
उत्तर:
अनुरक्षण एवं विस्तृत पूर्वाभ्यास दोनों स्मृति-तंत्र से सम्बन्धित है। दोनों की विशेषताओं को अलग-अलग अनुच्छेदों के द्वारा सूचित करके उनमें अंतर बताने का प्रयास किया गया है –

(क) अनुरक्षण पूर्वाभ्यास:
अनुरक्षण पूर्वाभ्यास की महत्ता अल्पकालिक स्मृति के लिए नियंत्रक का कार्य करता है। अनुरक्षण पूर्वाभ्यास के द्वारा सूचना को वांछित समय तक धारित बनाने का प्रयास किया जाता है। अनुरक्षण पूर्वाभ्यास सूचना को अनुरक्षित रहने के लिए सूचना को दुहराने का अभ्यास निरंतर करने की सलाह देता है। अनुरक्षण पूर्वाभ्यास जब रुक जाता है तब सूचना की स्मृति मिटने लग जाती है।

(ख) विस्तृत पूर्वाभ्यास:
विस्तृत पूर्वाभ्यास के प्रयोग से कोई सूचना, अल्पकालिक स्मृति से दीर्घकालिक स्मृति में प्रवेश करती है। अनुरक्षण पूर्वाभ्यास पूर्वाभ्यास के विपरीत, जिसमें मूक या वाचिक रूप से दुहराया जाता है। विस्तृत पूर्वाभ्यास के द्वारा दीर्घकालिक स्मृति में पूर्व निहित सूचना के साथ धारिता के लिए अभीष्ट सूचना को जोड़ने का प्रयास किया जाता है। विस्तृत पूर्वाभ्यास के द्वारा किसी सूचना को उससे उद्वेलित विभिन्न साहचयो के आधार पर कोई व्यक्ति विश्लेषित कर पाता है।

सूचनाओं को संगठित करने, तार्किक ढाँचे में विस्तृत करना तथा समान स्मृतियों के साथ मिलाने, उपयुक्त मानसिक प्रतिमा बनाने जैसी क्रियाओं में विस्तारपरक पूर्वाभ्यास का सक्रिय योगदान होता है। अर्थात् दोनों पूर्वाभ्यास में स्पष्ट अंतर के रूप में कहा जा सकता है कि अनुरक्षण पूर्वाभ्यास जहाँ अल्पकालिक स्मृति के नियंत्रक के रूप में जाना जाता है वहीं दीर्घकालिक स्मृति के विश्लेषण में विस्तारपरक पूर्वाभ्यास का योगदान होता है।

अनुरक्षण पूर्वाभ्यास अल्पकालिक स्मृति की धारिता को विकसित करने का काम करता है वहीं विस्तारपरक पूर्वाभ्यास दीर्घकालिक स्मृति के स्तर को विकसित करता है। अनुरक्षण विधि का विकल्प खंडीयन विधि के रूप में उपलब्ध हो चुका है जबकि विस्तारपरक पूर्वाभ्यास के लिए कोई विकल्प नहीं मिल सका है। सूचना के अवस्था परिवर्तन की व्याख्या करने में अनुरक्षण पूर्वाभ्यास का कोई योगदान नहीं होता है जबकि विस्तारपरक पूर्वाभ्यास अवस्था परिवर्तन की कला को समझता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 4.
घोषणात्मक एवं प्रक्रिया मूलक स्मृतियों में क्या अंतर है?
उत्तर:
दीर्घकालिक स्मृति में अनेक प्रकार की सूचनाएं संचित रहती हैं। समुचित अध्ययन के लिए दीर्घकालिक स्मृति का वर्गीकरण किया गया है। पहला वर्गीकर में दो वर्गों को प्राथमिकता दी गई है –
(क) घोषणात्मक तथा
(ख) प्रक्रियामूलक (या अघोषणात्मक)।

इन दोनों वर्गों में मुख्य अंतर निम्न वर्णित हैं –

1. आधार:
घोषणात्मक स्मृति में वैसी सूचनाओं का रखा जाता है जो तथ्य, नाम आदि से संबंधित होते हैं जबकि प्रक्रिया झलक स्मृति में किसी क्रिया के सम्पादन के लिए वांछनीय कौशल से जुड़ी सूचनाएं ली जाती हैं।

2. वर्णन:
घोषणात्मक स्मृति से जुड़ी सूचनाओं का वर्णन मौखिक अथवा लिखित रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है जबकि प्रक्रिया मूलक स्मृति के अन्तर्गत जो सूचनाएँ होती हैं उन्हें शब्दों में सहजता से वर्णित नहीं किया जा सकता है।

3. उदाहरण:
घोषणात्मक स्मृति के उदाहरण हैं – आपका नाम क्या है? भारत की राजधानी दिल्ली है। मेढ़क उभयचर प्राणी है। समुद्र में जल भरा रहता है। चिड़िया घोंसला बनाकर रहती है। जबकि प्रक्रिया मूलक के उदाहरण हैं-साइकिल चलाना, चाय बनाना, नीम की पत्तियों तथा मिरचाई के तीखापन में अंतर व्यक्त करना इत्यादि।

प्रश्न 5.
दीर्घकालिक स्मृति में श्रेणीबद्ध संगठन क्या है?
उत्तर:
दीर्घकालिक स्मृति में बड़े पैमाने पर सूचनाओं का संग्रह होता है जिनका उपयोग कुशलतापूर्वक किया जाता है। सूचनाओं के संबंध में भेद और लक्षण जानने के लिए उन्हें संगठित करना आवश्यक होता है। दीर्घकालिक स्मृति के संबंध में निम्नलिखित प्रश्नों के सही उत्तर के आधार पर सूचनाओं को संगठित किया जाता है –

  1. सूचना किसके संबंध में हैं?
  2. सूचना में प्रयुक्त मुख्य पद किस श्रेणी या जाति का है।
  3. किस तरह के प्रश्नों के उत्तर हाँ या नहीं में दिये जा सकते हैं।
  4. सूचना सामाजिक, मानसिक, आर्थिक किस प्रकार के कारकों पर आधारित है।
  5. स्मृति पर आधारित प्रश्नों के उत्तर देने में कितना समय लिया जाता है।

दीर्घकालिक स्मृति में ज्ञान-प्रतिनिधान की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई संप्रत्यय है जहाँ संप्रत्यय समान लक्षण वाले वस्तुओं अथवा घटनाओं के मानसिक संवर्ग होते हैं। सूचना प्रात्यधिक रूप में प्रतिमाओं के रूप में संकेतित की जा सकती है। सन् 1969 में एलन कोलिन्स तथा रॉस क्युिलियन ने शोध-पत्र के माध्यम से बताया कि दीर्घकालिक स्मृति में सूचना श्रेणीबद्ध रूप से संगठित होती हैं तथा उसकी एक जालीदार संरचना होती है।Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति img 3

संगठन में सूचनाओं को उनके गुणधर्मों के आधार पर संगठित किया जाता है उन्हें श्रेणी सदस्यता के रूप में व्यक्त करते हैं। उदाहरण के रूप में वाक्य संरचना की व्याख्या करके पता लगाया गया कि जैसे-जैसे विधेय किसी वाक्य में कर्ता से पदानुक्रम में दूर होता गया, लोगों ने सूचना सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देने में अधिक समय लिया।

अतः सूचनाओं को निम्न स्तर और उच्च स्तर के आधार पर संगठित कर लिया जाता है। अर्थात् दीर्घकालिक स्मृति में सामग्री संप्रत्यय, श्रेणियों एवं प्रतिमाओं के रूप में प्रस्तुत होती है तथा श्रेणीबद्ध रूप से संगठित होती है। श्रेणीबद्ध संगठन का सामान्य अर्थ है कि सूचनाओं को गुण अथवा संरचना अथवा प्रकृति या प्रतिमा के आधार पर निम्न स्तरीय सूचना से उच्च स्तरीय सूचनाओं का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 6.
विस्मरण क्यों होता है?
उत्तर:
विस्मरण या भूलना एक मानसिक क्रिया है जिससे स्मृति तंत्र में संचित स्मृति चिह्न मिट जाते हैं तथा हम ज्ञात साधनों या घटनाओं के संबंध में कोई भी सूचना देने में असमर्थ हो . जाते हैं। विस्मरण के कारण परिचितों को पहचानना या गणितीय सूत्र या नियमों को शुद्ध रूप में बतलाना संभव नहीं रह जाता है।

विस्मरण नामक मानसिक विकृति उत्पन्न होने के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं –

1. चिह्न-हास के कारण विस्मरण:
केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र में स्मृति के द्वारा किये जाने वाले संशोधनों के फलस्वरूप शारीरिक परिवर्तन देखे जाते हैं। शारीरिक विकृति के कारण सूचनाओं को उपयोग से बाहर रहने से स्मृति चिह्न मिट जाते हैं।

2. अवरोध के कारण विस्मरण:
स्मृति भंडार में संचित विभिन्न सामग्री के बीच अवरोध के कारण विस्मरण होता है।

विस्मरण में दो प्रकार के अवरोध उत्पन्न होते हैं –

(क) अग्रलक्षी:
पहले सीखी गई क्रिया विधि आने वाली नई क्रिया विधि के सम्पादन में अवरोध प्रकट करता है।

(ख) पूर्वलक्षी अवरोध:
पूर्वलक्षी अवरोध में पश्चात् अधिगम, पूर्व अधिगम सामग्री के प्रत्यावान में अवरोध पहुंचाता है।

3. पुनरुद्धार असफलता के कारण विस्मरण:
प्रत्याहान के समय पुनरुद्धार के संकेतों के अनुपस्थित रहने या अनुपयुक्त होने के कारण विस्मरण होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 7.
अवरोध के कारण विस्मरण, पुनरुद्धार से संबंधित विस्मरण से किस प्रकार भिन्न है?
उत्तर:
(क) अवरोध के कारण विस्मरण का आधार संचित साहचर्यों के बीच उत्पन्न प्रतिद्वंद्विता होती है जबकि पुनरुद्धार से संबंधित विस्मरण प्रत्याहान के समय पुनरुद्धार के संकेतों के अनुपस्थित रहने या अनुपयुक्त होने के कारण होता है।
(ख) अवरोध के कारण विस्मरण में दो प्रकार के अवरोध उत्पन्न होते हैं –

1. अग्रलक्षी:
पहले सीखी गई क्रिया बाद में सीखी जाने वाली क्रिया को याद करने में अवरोध उत्पन्न करती है।

2. पूर्वलक्षी:
पश्चात् अधिगम, पूर्व अधिगम सामग्री के प्रत्याहान में अवरोध पहुँचाता है। पुनरुद्धार से संबंधित विस्मरण को वर्गीकृत नहीं किया जाता है।

(ग)

  • अंग्रेजी सीखने के क्रम में पूर्व में सीखी गई भाषा का ज्ञान अवरोध का काम करता है।
  • इसके साथ यह भी ज्ञात है कि कई लक्षणों वाले शब्दों को निश्चित क्रम में प्रस्तुत करने पर उसे कुछ समय बाद यथावत बतलाना संभव नहीं होता है क्योंकि पुनरुद्धार के संकेत समय बीतने पर लुप्त हो चुके थे।

प्रश्न 8.
‘स्मृति एक रचनात्मक प्रक्रिया है’ से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
स्मृति एक रचनात्मक प्रक्रिया है जहाँ सूचनाएँ व्यक्ति के पूर्व ज्ञान, समझ एवं प्रत्याशों के अनुसार संकेतित एवं संचित की जाती है। मनोवैज्ञानिक बार्टलेट ने क्रमिक पुनरुत्पादन विधि पर आधारित प्रयोग किया जिसमें प्रतिभागी याद की हुई सामग्री को भिन्न-भिन्न समयांतरालों पर प्रत्याहान करते थे। प्रयोग में पाई जाने वाली को बार्टलेट ने स्मृति की रचनात्मक प्रक्रिया को समझने के लिए उपयोगी माना। उन्होंने गलतियों को वांछनीय संशोधनों तथा समयानुकूल अर्थ प्रकट करने का प्रयास मानकर खुशी व्यक्त की।

बार्टलेट ने बताया कि कोई विशिष्ट स्मृति व्यक्ति के ज्ञान, लक्ष्यों, अभिप्रेरणा; वरीयता तथा अन्य कई मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं से प्रभावित होते हैं। स्मृति के कारण ही हम भूतपूर्व अनुभवों और ज्ञान के आधार पर नयी सूचना के विश्लेषण, भंडारण तथा पुनरुद्धार में सहयोग करने की क्षमता प्राप्त करते हैं। इस आधार पर स्पष्ट हो जाता है कि स्मृति के कारण विकास के लिए कई उपयोगी प्रक्रियाओं को सफलतापूर्ण पूरा करने में सहयोग मिलता है अर्थात् स्मृति एक रचनात्मक प्रक्रिया है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 9.
स्मृति-सहायक संकेत क्या है? अपनी स्मृति सुधार के लिए एक योजना के बारे में सुझाव दीजिए।
उत्तर:
स्मृति को स्थायी, उपयोगी और ऐच्छिक पुनरुद्धार के योग्य बनाने हेतु स्मृति-सुधार संबंधी प्रक्रियाओं का एक संगठन सरल युक्ति पर आधारित होती है। स्मृति सुधार की बहुत सारी युक्तियाँ हैं, जिन्हें स्मृति-सहायक संकेत कहा जाता है। संगठित विधियों की रूप-रेखा पर आधारित ढाँचा बहुत ही उपयोगी होता है। स्मृति सुधार के लिए कई विधियाँ बतलाई गई हैं। जैसे –

1. मुख्य शब्द विधि:
मिलते-जुलते शब्दों का युग्म बनाकर नये शब्दों को अपनी स्मृति में स्थान दिया जा सकता है।

2. स्थान विधि:
स्मृति में रखी जानेवाली सूचनाओं को उनके लिए उपयुक्त स्थानों के साथ याद रखने का प्रयास उपयोगी होता है। जैसे-विद्यालय, अस्पताल, किचेन, बगीचा, दुकान आदि में उपलब्ध सामग्रियों का वर्गीकरण करके नयी सूचना को याद रखना सरल हो जाता है। जैसे, किचन के साथ अंडा, तेल, कड़ाही, ब्रेड, चम्मच आदि नाम सरलता से याद आ जाते हैं।

3. खंडीयन विधि:
यदि सूचना को कई अर्थपूर्ण खण्डों में बाँटकर याद करने का प्रयास किया जाता है तो स्मृति सुगम बन जाती है। जैसे-किसी का दूरभाषा संख्या 186919472004 है तो इसे 1869-1947 तथा 2004 में खंडित करके याद रखना आसान हो जाता है क्योंकि 1869 से गाँधी, 1947 से आजादी तथा 2004 में सुनामी का संबंध है।

4. प्रथम अक्षर तकनीक:
किसी शब्द समूह को याद रखने के लिए प्रत्येक शब्द के पहले अक्षर को लेकर एक नया शब्द बनाकर याद रखना सरल माना जाता है। प्रथम अक्षर तकनीक में शब्द के द्वारा कई शब्दों को स्मृति में रखने की सुविधा मिल जाती है।

जैसे – VIBGYOR से इन्द्रधनुष के सातों रंगों के नाम याद रहते हैं। BISCOMAN से किसी संख्या के सभी लक्षण याद रह जाते हैं। ऊपर वर्णित चार विधियों को स्मृति सहायक-संकेतों पर आधारित माना जाता है जिसे सरल लेकिन जटिल विधियँ मानकर ध्यान से लगभग हटा दिया गया है। स्मृति सुधार के लिए अपेक्षाकृत अधिक बोधगम्य विधियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया है जिसमें स्मृति प्रक्रियाओं में ज्ञान पर बल दिया गया है। नये तकनीकी विधियों से सम्बन्धित सुझाव निम्न वर्णित हैं –

(a) गहन स्तर का प्रक्रमण कीजिए:
मनोवैज्ञानिक कैक एवं लॉकहार्ट के मतानुसार किसी सूचना के सतही गुणों पर ध्यान देने के बजाय उसके अर्थ के रूप में प्रक्रमण किया जाए तो अच्छी स्मृति होती है। सूचना को प्रश्नोत्तर विधि से स्पष्ट करने का प्रयास उपयोगी सिद्ध होता है।

(b) अवरोध घटाइए:
आराम और अभ्यास के बल पर विस्मरण की नौबत आने के पहले ही अवरोध उत्पन्न करने वाले कारकों को निष्क्रिय कर दीजिए।

(c) पर्याप्त पुनरुद्धार संकेत रखिए:
थॉमस और रॉबिन्सन से स्मृति को सुदृढ़ बनाने के लिए PQRST विधि को अपनाने की सलाह दी है। विधि के नाम का प्रत्येक अक्षर एक अर्थपूर्ण संदेश देता है। तो P-Preview-पूर्वअवलोकन, Q-Question-प्रश्न करना, RRead-पढ़ना, S Self-recitation-स्वतः जोर से पढ़ना और T Test-परीक्षण करना।

अर्थात् सम्बन्धित विषय के सम्बन्ध में सभी अर्जित ज्ञान का पूर्वअवलोकन करके विषय से सम्बन्धित सभी संभव प्रश्नों का उत्तर जानिए। प्रश्नोत्तर की खोज के बाद स्वयं ध्वनि के साथ जोर-जोर से पढ़िए तथा उन्हें लिखिए। लिखे गये प्रश्नोत्तरों के आधार पर स्वयं परीक्षण कीजिए कि आप विषय के सम्बन्ध में कितना सही जानकारी रखते हैं। स्मृति सुधार के लिए योजना के बारे में सुझाव प्रस्तुत किया जा सकता है। सुझाव के अनुसार –

  • मात्र विधियों अथवा नियमों की जानकारी रखने से स्मति का विकास नहीं होता है।
  • स्वास्थ्य, रुचि, अभिप्रेरणा, शैक्षणिक प्रसाधनों से परिचय आदि पर पर्याप्त समझ रखकर ही स्मृति को मजबूती प्रदान की जा सकती है।
  • स्मृति सुधार सम्बन्धी युक्तियों के लिए वांछित सामाग्रियों की प्रकृति के अनुसार उनका उपयोग करने की कला का ज्ञान भी अति आवश्यक है।
  • शैक्षणिक योजना बनाते समय ध्यान रखना चाहिए ताकि योजना अवरोध मुक्त रहे, स्मृति के अनुकूल वातावरण मिले तथा पर्याप्त सहयोग की गुंजाइश हो।
  • जहाँ तक युक्तियों के चुनाव का प्रश्न है तो पर्याप्त पुनरुद्धार संकेत रखने वाली युक्ति (PQRST) सर्वोत्तम है।

Bihar Board Class 11 Psychology मानव स्मृति Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
दीर्घकालिक स्मृति किने प्रकार की होती है?
उत्तर:
पहला वर्गीकरण –

  1. घोषणात्मक और
  2. प्रक्रिया मूलक

दूसरा वर्गीकरण –

  1. घटनापरक और
  2. आर्थी स्मृति

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 2.
वे कौन-सी स्मृतियाँ हैं जो मानव स्मृति की जटिल एवं गयात्मक प्रकृति को प्रदर्शित करती हैं?
उत्तर:

  1. क्षणदीय स्मृतियाँ
  2. जीवनचरित स्मृति और
  3. निहित स्मृतियाँ ऐसी स्मृतियाँ हैं जो जटिल एवं गत्यात्मक प्रकृति को बतलाती है।

प्रश्न 3.
आर्थी स्मृति का परिचय क्या हैं?
उत्तर:
आर्थी स्मृति सामान्य ज्ञान एवं जागरुकता की स्मृति है। सभी प्रकार के संप्रत्यय, विचार तथा तर्कसंगत नियम आर्थी स्मृति में संचित होते हैं।

प्रश्न 4.
स्मृति मापन की प्रमुख विधियाँ क्या हैं?
उत्तर:
स्मृति मापन की प्रमुख विधियाँ निम्नलिखित हैं –

  1. मुक्त प्रत्याह्वान (पुनःस्मरण एवं प्रतिभिज्ञान) विधि-इस विधि का उपयोग तथ्य तथा घटना से संबंधित स्मृति के मापन में होता है।
  2. वाक्य सत्यापन कार्य विधि-इस विधि से आर्थी स्मृति का मापन होता है।
  3. प्राथमिक लेप विधि-इसका उपयोग उन सूचनाओं का मापन करने के लिए होता है जिन्हें शाब्दिक रूप में नहीं बताय जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 5.
स्मृतियों का संगठन क्यों आवश्यक है?
उत्तर:
दीर्घकालीन स्मृति में वृहद मात्रा में सूचनाएं होती हैं। सही समय पर सही सूचना की जानकारी पाने के लिए उन्हें संगठित करना उपयोगी होता है।

प्रश्न 6.
स्कीमा शब्द का प्रयोग किस अर्थ में होता है?
उत्तर:
स्कीमा भूतपूर्व अनुभवों और ज्ञान का एक संगठन है जो आनेवाली नयी सूचना के विश्लेषण, भंडारण तथा पुनरुद्धार को प्रभावित करता है। स्कीमा को एक ऐसी मानसिक ढाँचा के रूप में पहचानते हैं जो इस वस्तु जगत के बारे में अर्जित ज्ञान एवं अभिग्रह का प्रतिनिधिान करता है।

प्रश्न 7.
संज्ञानात्मक लाघव का क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
संज्ञानात्मक लाघव का तात्पर्य यह है कि दीर्घकालिक स्मृति की क्षमता का अधिकाधिक एवं कुशलतापूर्वक तथा कम-से-कम व्यतिरिक्तता में उपयोग किया जा सकता है।

प्रश्न 8.
बार्टलेट ने स्मृति के सम्बन्ध में क्या बतलाया है?
उत्तर:
बार्टनेट ने स्मृति को रचनात्मक क्रिया माना है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 9.
बार्टलेट ने स्मृति समझने के लिए किन अर्थपूर्ण सामग्री का उपयोग किया था?
उत्तर:
बार्टलेट ने अर्थपूर्ण सामग्री के रूप में कहानियाँ, गद्य दंत कथाएँ इत्यादि का उपयोग किया था।

प्रश्न 10.
बार्टलेट ने अपने प्रयोगों से प्राप्त परिणामों की व्याख्या हेतु किस शब्द का उपयोग किया था?
उत्तर:
परिणामों की व्याख्या हेतु बार्टलेट ने स्कीमा शब्द का उपयोग किया था।

प्रश्न 11.
धारण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जब व्यक्ति किसी विषय को सीखता है तो उसके मस्तिष्क में स्मृति-चिह्नों का निर्माण होता है। अर्थात स्मृति-चिह्नों के रूप में धारण करता है।

प्रश्न 12.
स्मृति क्या है?
उत्तर:
स्मृति एक सामान्य पद है जिसका अर्थ पूर्व अनुभूतियों को दिमाग में इकट्ठा करके रखने की क्षमता होती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 13.
स्मृति की समुचित परिभाषा क्या है?
उत्तर:
स्मरण वह मानसिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा भूतकाल में सीखी गई बातें या पूर्व अनुभूतियाँ मस्तिष्क में स्मृति-चिह्नों के रूप में धारणा की जाती हैं और वर्तमान या भविष्य में उसका प्रत्याह्वान या प्रतिभिज्ञान हो जाती है।

प्रश्न 14.
स्मृति-चिह्न क्या है?
उत्तर:
व्यक्ति जब किसी विषय को सीखता है तो उसे स्मृति-चिह्नों के रूप में मस्तिष्क में धारण करता है। इबिंगहॉस ने कहा है कि सीखे गए विषय को मस्तिष्क में स्मृति-चिह्न के रूप में सुरक्षित करते हैं।

प्रश्न 15.
अल्पकालीन स्मृति किसे कहते हैं?
उत्तर:
अल्पकालीन स्मृति से तात्पर्य वैसी स्मृति से होता है जिसमें व्यक्ति किसी अनुभूति को अधिक से अधिक तीस सेकेण्ड तक याद रखता है।

प्रश्न 16.
दीर्घकालीन स्मृति किसे कहते हैं?
उत्तर:
दीर्घकालीन स्मृति के अन्तर्गत वैसी स्मृतियाँ आती हैं जो अधिक समय तक मस्तिष्क में वर्तमान रहती हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 17.
अल्पकालीन और दीर्घकालीन स्मृति में मुख्य अंतर क्या है?
उत्तर:
अल्पकालीन स्मृति की अधिकतम सीमा तीस सेकेण्ड होती है जबकि दीर्घकालीन स्मृति की कोई अधिकतम समय सीमा नहीं होती है।

प्रश्न 18.
स्मृति के तीन तत्वों का नाम बताएँ।
उत्तर:
स्मृति के तीन तत्वों के नाम इस प्रकार हैं –

  1. कूट संकेतन
  2. संचयन
  3. पुनः प्राप्ति

प्रश्न 19.
कूट संकेतन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
कूट संकेतन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके सहारे सूचनाओं को एक ऐसे आकार या। रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है कि वे स्मृति में प्रवेश पा सके।

प्रश्न 20.
लघुकालीन स्मृति क्या है?
उत्तर:
लंघुकालीन स्मृति का अर्थ वैसी स्मृति संरचना से होता है जिसमें व्यक्ति किसी विषय या पाठ को अधिक से अधिक 30 सेकेण्ड तक ही धारण करके रखता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 21.
दीर्घकालीन स्मृति क्या है?
उत्तर:
दीर्घकालीन स्मृति का अर्थ वैसे स्मृति संचयन से होता है जिसमें स्मृति चिह्नों को कम से कम 30 सेकेण्ड तक अवश्य धारण किया जाता है, लेकिन इसकी कोई अधिकतम समय सीमा नहीं होती है।

प्रश्न 22.
स्मृति के कार्यकारी आधार क्या है?
उत्तर:
किसी सूचना को एक समय तक धारित करना तथा उसका प्रत्याह्वान करना स्मृति का मुख्य कार्यकारी आधार है जो संज्ञानात्मक कार्य की प्रकृति पर निर्भर होता है।

प्रश्न 23.
स्मृति नामक प्रक्रिया में कौन-सी तीन स्वतंत्र किन्तु अंतः संबंधित अवस्थाएँ होती हैं?
उत्तर:

  1. कूट संकेतन
  2. भंडारण तथा
  3. पुनरुद्धार

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 24.
अवस्था मॉडल कब और किसने प्रस्तुत किया?
उत्तर:
एटकिंसन एवं शिफ्रिन ने 1968 में अवस्था मॉडल प्रस्तुत किया था?

प्रश्न 25.
किस अवस्था की स्मृति स्थायी होती है?
उत्तर:
दीर्घकालीन स्मृति स्थायी होती है।

प्रश्न 26.
प्रक्रमण स्तर दृष्टिकोण को कब और किसने प्रतिपादित किया?
उत्तर:
प्रक्रमण स्तर दृष्टिकोण ऊक एवं लॉकहर्ट द्वारा सन् 1972 में प्रतिपादित किया गया था।

प्रश्न 27.
बार्टलेट ने स्मरण को किस प्रकार की मानसिक प्रक्रिया माना है?
उत्तर:
बार्टलेट ने स्मरण को पुनः रचनात्मक मानसिक प्रक्रिया माना है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 28.
इबिंगहाँस के अनुसार स्मरण का स्वरूप कैसा होता है?
उत्तर:
इबिंगहॉस के अनुसार स्मरण का स्वरूप रचनात्मक होता है।

प्रश्न 29.
स्मरण में कौन-कौन प्रक्रिया शामिल होती है?
उत्तर:
स्मरण में मुख्य रूप से चार उपक्रियाएँ शामिल होती हैं-सीखना, धारण करना, प्रत्याह्नान करना तथा प्रतिभिज्ञान करना।

प्रश्न 30.
विस्मरण किसे कहते हैं?
उत्तर:
विस्मरण (भूलना) एक ऐसी मानसिक क्रिया है जिसमें मस्तिष्क में बने स्मृति चिह्न मिट जाते हैं जिसके कारण प्रत्याह्वन तथा पहचानना शून्य स्तर पर पहुँच जाता है।

प्रश्न 31.
विस्मरण में कितने तरह के अवरोध उत्पन्न होते हैं?
उत्तर:
विस्मरण में दो प्रकार के अवरोध उत्पन्न होते हैं –

  1. अग्रलक्षी तथा
  2. पूर्वलक्षी

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 32.
विस्मरण के सम्बन्ध में अवरोध सिद्धांत क्या कहता है?
उत्तर:
विस्मरण, प्रत्याह्वान के समय स्वतंत्र रूप से संचित साहचर्यों के बीच प्रतिद्वंद्विता के कारण होता है।

प्रश्न 33.
इबिंगहॉस के अनुसार विस्मरण किस प्रकार की मानसिक प्रक्रिया है?
उत्तर:
इबिंगहॉस के अनुसार विस्मरण एक निष्क्रिय मानसिक प्रक्रिया है।

प्रश्न 34.
इबिंगहॉस के प्रयोग में प्रयोज्य कौन था?
उत्तर:
इबिंगहॉस ने अपना प्रयोग अपने आप पर किया है?

प्रश्न 35.
फ्रायड ने विस्मरण का प्रमुख कारण क्या माना है?
उत्तर:
फ्रायड ने विस्मरण का प्रमुख कारण दमन को माना है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 36.
स्मृति सहायक संकेत पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है। क्यों?
उत्तर:
स्मृति सहायक संकेतों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जा रहा है क्योंकि ये बहुत सरल हैं तथा शायद स्मृति कार्यों की जटिलताओं और याद करने में होनेवाली कठिनाइयों का न्यूनानुमान करते हैं। साथ ही साथ अब तकनीकी स्तर पर बोधगम्य उपागम भी उपलब्ध हो चुके हैं।

प्रश्न 37.
थॉमस और रॉबिन्सन के द्वारा बताई गई युक्ति में PQRST का अर्थ क्या है?
उत्तर:
P = Preview (पूर्व अवलोकन), Q = Question (प्रश्न), R = Read (पढ़ना), S = Self recitation (स्वतः जोर से पढ़ना) तथा T = Test (परीक्षण)।

प्रश्न 38.
धारण की जाँच किस आधर पर होती है?
उत्तर:
धारण की जाँच प्रत्याह्वान एवं प्रतिभिज्ञान के आधार पर होती है।

प्रश्न 39.
प्रत्याह्वान क्या है?
उत्तर:
प्रत्याह्वान में व्यक्ति पूर्व में सीखे गए विषयों या पाठों को उसकी अनुपस्थिति में वर्तमान चेतना में लाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 40.
प्रतिभिज्ञान से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्रतिभिज्ञान एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति पूर्व में सीखे गए विषय को किसी नए विषय सधे अपनी यादाश्त के आधार पर अलग करता है।

प्रश्न 41.
प्रत्याह्वान एवं प्रतिभिज्ञान में क्या अंतर है?
उत्तर:
प्रत्याहान में पूर्व में सीखे गए विषय को उसकी अनुपस्थिति में वर्तमान चेतना में लाते हैं, जबकि प्रतिभिज्ञान में पूर्व में सीखे गए विषय नए विषयों के साथ उपस्थित होता है जिसे अपनी यादाश्त से अलग करना होता है।

प्रश्न 42.
संचयन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
संचयन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें संकेतन द्वारा प्राप्त सूचनाओं एवं उत्तेजनाओं को: कुछ समय के लिए सचित करके रखा जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 43.
पुनः प्राप्ति का क्या अर्थ है?
उत्तर:
पुनः प्राप्ति एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें आवश्यकता के अनुसार व्यक्ति संचयन में मौजूद सूचनाओं से विशिष्ट सूचना की खोज करता है और उन तक पहुँचने की कोशिश करता है।

प्रश्न 44.
क्रमिक पुनरुत्पादन विधि क्या है?
उत्तर:
क्रमिक पुनरुत्पादन विधि में बार्टलेट ने एक कहानी के प्रयोज्य को सुनाई, प्रयोज्य ने कही कहानी दूसरे को, दूसरे ने तीसरे को क्रम में कहानी सुनाई। इस प्रकार कई प्रयोज्यों के बाद कहानी का रूप बदल गया था।

प्रश्न 45.
उत्तरोत्तर पुनरुत्पादन विधि क्या है?
उत्तर:
इस विधि में एक प्रयोज्य को कहानी सुनाई जाती है और उसका प्रत्याह्वान करवाया जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 46.
एकाकी पुनरुत्पादन विधि क्या है?
उत्तर:
एकाकी पुनरुत्पादन विधि में कई प्रयोज्यों को एक साथ एक ही कहानी सुनाई जाती है, फिर सभी प्रयोज्यों को बारी-बारी से प्रत्याह्वान करवाया जाता है।

प्रश्न 47.
बार्टलेट ने अपने स्मरण से संबंधित अध्ययन किस विधि से किया?
उत्तर:
बार्टलेट ने अपना अध्ययन तीन विधियों से किया-क्रमिक पुनरुत्पादन विधि, उत्तरोत्तर पुनरुपादन विधि तथा एकाकी पुनरुत्पादन विधि।

प्रश्न 48.
केनेरी क्या है?
उत्तर:
केनेरी एक पक्षी है।

प्रश्न 49.
निस्पंद बिन्दु तथा नामपत्रित सम्बन्ध क्या है?
उत्तर:
जालीदार संरचना के तत्वों को निस्पंद बिन्दु कहते हैं। निस्पंद बिन्दु संप्रत्यय होते है किन्तु उनके बीच के सम्बन्ध को नाम पत्रित संबंध कहा जाता है जो संप्रत्ययों के गुणधर्म या श्रेणी सदस्यता दर्शाते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 50.
बार्टलेट की अध्ययन-सामग्री क्या थी?
उत्तर:
बार्टलेट ने अपने अध्ययन सामग्री के रूप में कहानियों, चित्रों आदि को रखा।

प्रश्न 51.
इबिंगहॉस की अध्ययन-सामग्री क्या थी?
उत्तर:
इबिंगहॉस की अध्ययन-सामग्री निरर्थक पद थी।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अल्पकालीन स्मृति की विशेषता का वर्णन करें।
उत्तर:
अल्पकालीन स्मृति की निम्नलिखित विशेषता है, जो इस प्रकार है –

  1. अल्पकालीन स्मृति में स्मृति चिह्नों को अधिकतम 30 सेकेण्ड तक ही संचित करके रखा जाता है।
  2. इस प्रकार की स्मृति में व्यक्ति विषय या पाठ को मात्र एकाध प्रयास में ही सीख लेता है।
  3. इस प्रकार की स्मृति में स्मृति चिह्नों का नाश बहुत तीव्र गति से होता है, क्योंकि वे कमजोर होते हैं।
  4. इस प्रकार की स्मृति का विस्तार सामान्यतः उसे उद्दीपकों से अधिक का नहीं होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 2.
लघुकालीन स्मृति की प्रकृति का वर्णन करें।
उत्तर:
लघुकालीन स्मृति जिसे प्राथमिक स्मृति भी कहा जाता है, से तात्पर्य वैसी स्मृति-संरचना से होता है जिसमें व्यक्ति किसी विषय या पाठ को अधिक-से-अधिक 30 सेकेंड तक ही धारण करके रखता है। इस तरह की स्मृति की विशेषता यह है कि इसमें जो स्मृति चिह्न बनते हैं, उन पर यदि व्यक्ति ध्यान नहीं देता है या मानसिक रूप से उसका रिहर्सल नहीं करता है तो वह उसे तुरंत भूल जाता है।

सामान्यतः इसमें उन विषयों या पाठों से बनने वाले स्मृति चिह्न संचित हो पाते हैं जिन्हें व्यक्ति एकाध प्रयास में सीख लिया होता है। किसी अपरिचित व्यक्ति की दूरभाषा संख्या को एक बार सुनकर 4-5 सेकेण्ड के बाद प्रत्याह्वान करने की कोशिश पर सफल न होना, यह बताया है कि उस दूरभाषा संख्या को 4-5 सेकेण्ड से कम समय तक व्यक्ति धारण करके रख सका। इस तरह की स्मृति संचालन लघुकालीन स्मृति का उदाहरण है।

प्रश्न 3.
दीर्घकालीन स्मृति से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
दीर्घकालीन स्मृति, जिसे गौण स्मृति (secondeary memory) भी कहा जाता है, से तात्पर्य वैसे स्मृति संचयन (Memory storage) से होता है जिसमें स्मृति चिह्नों को कम-से-कम 30 सेकण्ड तक तो अवश्य धारण किया जाता है। इसकी कोई अधिकतम समय-सीमा नहीं होती है। शायद यही कारण है कि एक वृद्ध व्यक्ति भी अपने बचपन की अनुभूतियों का प्रत्याह्वान (recall) कर लेता है।

दीर्घकालीन स्मृति की विशेषता यह है कि इससे स्मृति चिह्नों का नाश धीरे-धीरे होता है तथा इसमें उन अनुभूतियों का संचयन होता है जो पर्याप्त अभ्यास (practice) के फलस्वरूप मस्तिष्क में बनते हैं। अपनी दूरभाषा संख्या तथा घनिष्ठ संबंधियों की दूरभाषा, संख्या प्रायः दीर्घकालीन स्मृति में ही संचित होती हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 4.
संचयन क्या है?
उत्तर:
संचयन (Storgae):
स्मृति की दूसरी अवस्था संचयन (storgae) की अवस्था होती है। संचयन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें संकेतन द्वारा प्राप्त सूचनाओं एवं उत्तेजनाओं को कुछ समय के लिए संचित कर रखा जाता है। दूसरे शब्दों में, संचयन की अवस्था में स्मृति में प्रवेश पाचकी सूचनाओं एवं उत्तेजनाओं को कुछ समय के लिए धारित (retained) करके रखा जाता अवस्था को धारण (rentention) भी कहा जाता है।

प्रश्न 5.
प्रक्रमण स्तर का सामान्य परिचय संबंधित मनोवैज्ञानिकों के नाम के साथ लिखें।
उत्तर:
सन् 1972 में कैक और लौकहर्ट नामक दो मनोवैज्ञानिकों ने प्रक्रमण स्तर दृष्टिकोण को प्रतिपादित किया था। इस दृष्टिकोण के अनुसार किसी भी नयी सूचना का प्रक्रमण उसके प्रत्यक्षण और विश्लेषण की विधि पर आधारित है। प्रक्रमण का स्तर यह बतलाता है कि सूचना किस सीमा तक धारित की जाएगी। कैक एवं लॉकहर्ट ने बताया कि सूचना का कई स्तरों (भौतिक या संरचनात्मक) पर विश्लेषण संभव है। प्रक्रमण स्तर पर आधारित प्रयोगों से पता चला कि किसी सूचना के अर्थ को समझना तथा उसे दूसरे संप्रत्ययों, तथ्यों एवं अपने जीवन के अनुभवों से जोड़ना दीर्घकालिक धारण का सुनिश्चित उपाय है।

प्रश्न 6.
आर्थी स्मृति का प्रमुख लक्षण बतावें।
उत्तर:
टालबिन ने घोषणात्मक स्मृति के रूप में आर्थी स्मृति को पहचाना। आर्थी स्मृति का सीधा संबंध उन सूचनाओं की ओर होता है जो सामान्य ज्ञान से संबंध रखते हैं। हमारी जागरुकता से जुड़ी सूचनाएँ आर्थी स्मृति के रूप में संचित रहती हैं। सभी प्रकार के संप्रत्यय, विचार तथा तर्कसंगत नियम आर्थी स्मृति की पूँजी बन जाती है। जैसे, अर्थगत स्मृति के कारण हम अहिंसा का अर्थ स्थायी तौर पर याद रखते हैं। सामान्य ज्ञान के अन्तर्गत हम भारत की राजधानी दिल्ली है, चार और दो मिलकर छः होते हैं, पटना का S.T.D. कोड 0612 है तथा किताब लिखने में ई का प्रयोग गलत है आदि सूचनाओं को हम देर तक नहीं भूलते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 7.
विस्मरण में अवरोध के जभाव को स्पष्ट करें।
उत्तर:
स्मृति भंडार में संचित तरह-तरह की सूचनाओं के लुप्त हो जाने का प्रमुख कारण अवरोध ही होता है। सीखने और याद करने में विभिन्न पदों के बीच साहचर्य स्थापित हो जाता है। भारी संख्या में जमा हो चुके साहचर्यों में आपसी द्वन्द्व के रूप में प्रतिस्पर्धा होती है जो अवरोधक की तरह कार्य करते हैं। पुनरुद्धार के क्रम में प्रतिस्पर्धा बाधक बनकर स्मृति को क्षति पहुँचाते हैं।

विस्मरण का यह प्रधान कारण है। विस्मरण का यह प्रधान कारण है। अग्रलक्षी अवरोध-पूर्व में प्राप्त की गई सूचना आनेवाली नई सूचना के लिए अवरोधक बन जाता है। अर्थात् पूर्व अधिगम, पश्चात् अधिगम के प्रत्याह्वान में अवरोध पहुंचाता है। इन्हीं अवरोधों के कारण एक भाषा के जानकार को दूसरी भाषा को सीखने में कठिनाई होती है।

प्रश्न 8.
स्मृति वृद्धि के लिए अवरोध को किस प्रकार हटाया जा सकता है?
उत्तर:
अवरोध विस्मरण का प्रमुख कारण है। स्मृति वृद्धि के लिए अवरोधों से मुक्त होना लाभकारी होता है। अवरोध से बचने के लिए अध्ययन के विषयों को इस प्रकार व्यवस्थित की जाती है कि एक विषय के तुरंत बाद लगभग समान लक्षण वाले विषय की बारी न आ जाए। भाषा के बाद गणित के बाद सामाजिक विज्ञान जैसी व्यवस्था करना उपयोगी होता है। असुविधा होने पर अधिगम-अभ्यासों का वितरण करना अच्छा होता है। अर्थात् विषय के बदलने के रूप कुछ देर तक मनोरंजन, खेल या बातचीत में समय व्यतीत कर लेने से पूर्व की स्मृति मजबूत हो जाती है तथा इसका प्रभाव अगले विषय पर नगण्य हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 9.
स्मृति क्या है?
उत्तर:
स्मृति (memory) एक सामान्य पद है जिससे तात्पर्य पूर्व अनुभूतियों (past experiences) को मस्तिष्क में इकट्ठा करके रखने की क्षमता होती है। संज्ञानात्मक मनोवैज्ञानिक जैसे-लेहमैन, लेहमैन एवं बटरफील्ड (Laechman, Laehman & Buterfield) ने स्मृति को परिभाषित करते हुए कहा है कि विशेष समयावधि के लिए सूचनाओं को संपोषित करके रखना ही स्मृति है। समयावधि एक सेकेंड से कम या सम्पूर्ण जीवन काल की भी हो सकती है। मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति के धनात्मक पक्ष से तात्पर्य पूर्व अनुभूतियों को याद करके रखने से माना है। अतः कहा जा सकता है कि स्मृति का धनात्मक पक्ष स्मरण (remembering) है तथा ऋणात्मक पक्ष (negative aspect) विस्मरण (forgetting) है।

प्रश्न 10.
कूट संकेतन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
कूट संकेतन (Encoding):
कूट संकेतन में किसी सूचना या बाह्य उत्तेजना (external stimulation) का प्रत्यक्ष करण व्यक्ति उसे एक निश्चित रूप (form) या कूटसंकेत (code) के रूप में तंत्रिका तंत्र (nerous system) में ग्रहण करता है। दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि कूट संकेत एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके सहारे सूचनाओं को एक ऐसे आकार या रूप form में परिवर्तित कर दिया जाता है कि वे स्मृति में प्रवेश पा सकें। साधारण बोलचाल की भाषा में स्मृति-चिह्नों (memory traces) का निर्माण होना ही संकेतन कहलाता है। स्मृति की पहली अवस्था कूट संकेतन (encoding) की होती है। इस अवस्था को पंजीकरण (registration) भी कहा जाता है।

प्रश्न 11.
लघुकालीन स्मृति किसे कहा जाता है?
उत्तर:
लघुकालीन स्मृति (short-term momory), जिसे प्राथमिक स्मृति (primary memory) भी कहा जाता है, से तात्पर्य वैसी स्मृति संरचना (memory storage) से होता है जिसमें व्यक्ति किसी विषय या पाठ को अधिक-से-अधिक 30 सेकण्ड तक ही धारण करके रखता है। इस तरह की स्मृति की विशेषता यह है कि इसमें जो स्मृति चिह्न बनते है, उन पर यदि व्यक्ति ध्यान नहीं देता है या मानसिक रूप से उसका रिहर्सल नहीं करता है तो वह उसे तुरंत भूल जाता है।

सामान्यतः इसमें उन विषयों या पाठों से बननेवाले स्मृति चिह्न संचित हो पाते हैं जिन्हें व्यक्ति एकाध प्रयोग में सीख लिया होता है। किसी अपरिचित व्यक्ति की दूरभाष संख्या को एक बार सुनकर 4-5 सेकंड के बाद प्रत्याह्वान करने की कोशिश पर सफल न हो, यह बताय है कि 4-5 सेकण्ड से भी कम समय तक व्यक्ति धारण करके रख सका। इस तरह का स्मृति संचयन (memory storage) लघुकालीन स्मृति का उदाहरण है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
स्मृति से आप क्या समझते हैं? स्मृति के विभिन्न तत्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्मृति का अर्थ एवं परिभाषायें (Introduction and Definition of Memory):
मानव जीवन में मुख्यत: व्यवहार का आधार स्मृति ही होती है। स्मृति के आधार पर ही सामाजिक सम्बन्धों की स्थापना होती है तथा अनेक अनुसंधानात्मक कार्य भी स्मृति पर ही आधारित होते हैं। अतः मानव-व्यवहार का अध्ययन करने के लिये स्मृति का अध्ययन करना आवश्यक है। स्मृति शुद्ध मानसिक प्रक्रिया है। जब व्यक्ति कोई व्यवहार करता है तब उसका अनुभव मानव मस्तिष्क में संचित हो जाता है। अनुभवों के अर्द्धचेतन मस्तिष्क में संचित होने के कारण जब उसी व्यवहार से सम्बन्धित कोई व्यवहार सम्मुख आता है तब वह पूर्व अनुभव जागृत हो जाता है।

अर्द्धचेतन में संचित अनुभवों का पुनः जागृत हो जाना ही स्मृति कहलाता है। यह प्रक्रिया अत्यन्त जटिल मानसिक प्रक्रिया होती है जिसमें अनेक क्रियाओं का समावेश रहता है यथा-सीखना, धारणा, प्रत्यास्मरण तथा प्रत्याभिज्ञा। इन चारों क्रियाओं के सम्मिलित सहयोग को ही स्मृति कहते हैं, इसलिये ये स्मृति के मुख्य तत्व भी कहलाते हैं।

इस प्रकार स्मृति का सामान्य परिचय यह है कि व्यक्ति के अर्द्धचेतन मस्तिष्क में पूर्व अभवों के संचित रूप के पुनः जागृत होने की क्रिया स्मृति कहलाती है किन्तु मनोवैज्ञानिक अध्ययन के लिए यह परिभाषा पर्याप्त नहीं है। मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति के स्वरूप को विभिन्न परिभाषाओं द्वारा स्पष्ट किया है जिनका अवलोकन करके स्मृति के मनोवैज्ञानिक स्वरूप को समझने में सरलता. होगी। मनोवैज्ञानिकों द्वारा दी गई स्मृति की कुछ मुख्य परिभाषायें निम्नलिखित हैं –

1. स्टाउट महोदय की परिभाषा:
स्टाउट महोदय के अनुसार, “स्मृति वह प्रक्रिया है, जिसके माध्यम से पुराने फिर जागृत हो जाते हैं।”

2. स्पीयरमैन की परिभाषा:
स्पीयरमैन ने स्मृति की परिभाषा इस प्रकार दी है कि, “समझ में आनेवाली घटनाओं द्वारा जो स्थायी प्रभाव मस्तिष्क में छोड़ा जाता है, उसके पुनः जागृत होने की स्मृति कहते हैं।” इन दोनों परिभाषाओं में एक अनुभव का मस्तिष्क पर स्थायी प्रभाव तथा उनका पुनः स्मरण जागृत होने की स्मृति कहा गया है।

3. मैक्टूगल के अनुसार:
“घटनाओं की उसी रूप में कल्पना करना जिस रूप में उन्हें पूर्वकाल में अनुभव किया गया तथा उन्हें अपने उसी अनुभव के रूप में पहचानना ही स्मृति है।” इस परिभाषा के अनुसार किसी घटना के पूर्व संचित अनुभव को पुनः उसी रूप में पहचानना स्मृति है।

4. वुडवर्थ की परिभाषा:
वुडवर्थ ने स्मृति की अति सरल परिभाषा करते हुए कहा कि “पूर्व समय में सीखी गई बातों का याद करना स्मृति है।”

उपरोक्त परिभाषाओं द्वारा स्पष्ट है कि स्मृति वह मानसिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपने पूर्व अनुभवों को पुनः अपनी चेतना स्तर पर अनुभव या याद करता है। इस अनुभव अथवा याद करने की प्रक्रिया में व्यक्तियों से स्तर भेद तो हो सकता है किन्तु स्मृति की क्रिया के क्रियान्वयन में कोई भेद नहीं होता। स्मृति के आधार पर ही कल्पना शक्ति की उपज होती है।

यदि स्मरण शक्ति का अभाव हो जाये तो मानव जीवन निष्क्रिय हो जाता है। पागलों में असामान्य व्यवहार का आधर स्मृति का अभाव होना ही होता है। व्यक्तियों के स्तर भेद के अतिरिक्त आयु की दृष्टि से भी स्मृति के स्तर में उतार-चढ़ाव आते हैं। अतः हम कह सकते हैं कि, “स्मृति वस्तुतः चेतन मन का अंग है और इसी से जीवन व्यापार सम्भव होता है तथा मस्तिष्क चेतन एवं अर्द्धचेतन शक्तियों के माध्यम से इस क्रिया को अपनाता है।”

स्मृति के तत्व (Factors of Memory) जैसा कि स्मृति की परिभाषा से स्पष्ट है कि स्मृति एक जटिल मानसिक प्रक्रिया है। यह क्रिया अनेक क्रियाओं का सम्मिलित रूप होती है। अतः इसके स्वरूप को समझने के लिये इसके विभिन्न अंगों को समझना भी आवश्यक है। उक्त परिभाषाओं के अनुसार स्मृति की क्रिया के चार मुख्य अंग हैं – सीखना, धारणा, पुनःस्मरण तथा पहचानना। इनका विस्तृत वर्णन निम्न प्रकार है –

1. सीखना (Learning):
जैसा कि वुडवर्थ की स्मृति की परिभाषा मे स्पष्ट होता है कि, “पूर्व में सीखे गये कार्य को पुनः याद करना ही स्मृति है।” अत: सीखना स्मृति का प्रथम प्रमुख अंग है। सीखने के अभाव में अनुभव का संचय सम्भव नहीं और अनुभव के संचय के बिना स्मृति की क्रिया सम्भव नहीं, इस कारण स्मृति की क्रिया के लिये ‘सीखना’ क्रिया अत्यावश्यक है।

2. धारणा (Retention):
धारणा एक मानसिक क्षमता पर आधरित क्रिया है। कुछ बालक किसी बात को जल्दी याद कर लेते हैं, कुछ बहुत देर से याद कर पाते हैं। धारण कर भेद का कारण अनेक तत्व हैं। इन तत्वों के द्वारा ही धारण की क्रिया होती है, जिनका संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार है –

धारणा शक्ति तत्व या आधार (Factors of Retention):
धारणा शक्ति के छः मुख्य तत्व हैं, जिनके द्वारा धारणा शक्ति का स्तर प्रभावित होता है। इनका विवरण निम्न प्रकार है –

(i) मस्तिष्क:
धारणा शक्ति का मस्तिष्क से सीधा सम्बन्ध होता है। जो अनुभव प्राप्त किये जाते हैं उनमें अधिकांश को मस्तिष्क ग्रहण करता है। वे अनुभव अर्द्धचेतन भाग में रहते हैं। मस्तिष्क सीखे हुए अनुभव को क्रमबद्ध करता है। यदि मस्तिष्क प्रबल होता है तब उसमें धारणा शक्ति प्रबल होगी तथा वह प्राप्त अनुभव को अधिक समय तक सुरक्षित रख सकती है। जिनका मस्तिष्क दुर्बल होगा उनकी धारणा शक्ति भी दुर्बल होती है तथा प्राप्त अनुभव को अधिक समय तक संचित नहीं रख सकती। इस प्रकार व्यक्ति की स्मरण शक्ति का स्तर धारणा शक्ति पर ही आधारित होता है तथा धारणा शक्ति का स्तर मस्तिष्क के ऊपर निर्भर है।

(ii) स्वास्थ्य:
स्वस्थ व्यक्ति के नाड़ी तन्तु गतिशील होते हैं और अपना काम उचित रूप से कर सकते हैं। इस प्रकार यदि शरीर स्वस्थ होता है तब उसकी धारणा शक्ति भी प्रबल होती है, इसके विपरीत अस्वस्थता की दशा में व्यक्ति की धारणा शक्ति भी दुर्बल हो जाती है। उदाहरणार्थ, लम्बी बीमारी के कारण व्यक्ति के दुर्बल स्वास्थ्य की स्थिति में उसकी धारणा शक्ति भी दुर्बल भी हो जाती है।

(iii) रुचि और चिन्तन:
धारणा शक्ति का सर्वाधिक सम्बन्ध रुचि और चिन्तन से होता है। रुचिपूर्ण अनुभव को व्यक्ति शीघ्र धारण कर लेता है जबकि अरुचिपूर्ण कार्यों को प्रयत्न के बाद भी धारण नहीं कर पाता और यदि धारण कर भी कर लेता है तो यह धारण करना स्थायी नहीं बन पाता।

(iv) विषय का स्वरूप:
धारण शक्ति सम्बन्धित विषय के स्वरूप पर भी निर्भर करती है। विषय के स्वरूप से अभिप्राय उसकी उद्देश्य पूर्णता एवं सार्थकता से है। विषय जितना उद्देश्यपूर्ण सार्थक होता है उसकी धारणा उतनी ही प्रबल होती है। इसके विपरीत विषय के निरर्थक या उद्देश्यहीन होने पर उसकी धारणा शक्ति भी कमजोर होती है।

(v) सीखने की विधि:
धारणा की प्रबलता सीखने की विधि से भी प्रभावित होती है। यदि किसी कार्य के सीखने की विधि उत्तम है तब उसकी धारणा प्रबल होगी। विषय के स्वरूप के आधार पर सीखने की विधि का निर्धारण करने से सीखे गये कार्य का अनुभव अधिक दिन तक संचित रह सकता है। इसे विपरीत अव्यव-स्थिति पद्धति द्वारा सीखे गये कार्य की धारणा अधिक समय नहीं रह पाती।

(vi) अनुभव:
जिस क्रिया का जितना अधिक अनुभव होता है उसकी धारणा भी उतनी ही प्रबल होती है। अतः अनुभव भी धारणा का महत्त्वपूर्ण अंग है।

3. पुनमरण (Recall):
जब अतीत के अनुभव चेतना में आते हैं, तब उन्हें पुनर्मरण की संज्ञा होती है। पुनः स्मरण की मुख्य विशेषता यह होती है कि इसमें अतीत के अनुभव जैसे वे होते हैं वैसे ही चेतना में नहीं आते। उनमें से अनेक तत्व छूट जाते हैं तथा केवल मुख्य-मुख्य अंश की स्मृति में आते हैं।

कुहलमन ने पुनस्मरण की क्रिया के विषय में कहा कि, “पुनमरण मूल अनुभव की बिल्कुल वैसी की वैसी ही नकल नहीं होती। वस्तुतः वह पुनर्रचना नहीं बल्कि एक रचना मात्र है जो एक ऐसे कल की रचना है, जो मूल वस्तु के पूर्व अनुभव के आधार पर स्वीकृत कर ली जाती है तथा पूर्व प्रत्यक्षीकरण की रचना से बहुत भिन्न होती है।” इस प्रकार पुनमरण पूर्व अनुभवों को याद करने की क्रिया है।

पुनर्मरण के आधार (Factors of Recall):
पुनः स्मरण मुख्य आधार निम्नलिखित हैं –

(i) विचारों का साहचर्य (Association of ideas):
कभी-कभी विचारों के साथ उनसे सम्बद्ध अन्य बातों का भी स्मरण आ जाता है। उदाहरणार्थ ताजमहल के साथ शाहजहाँ का लंका के साथ रावण का तथा महाभारत के साथ श्रीकृष्ण का स्मरण हो जाता है। विचारों के साहचर्य के तीन मुख्य कारण होते हैं –

(अ) समानता:
दो वस्तुओं की पारस्परिक समानता से एक को देखते ही दूसरे का स्मरण हो आता है। जैसे अहिंसा का नाम लेते हैं तो इस सिद्धांत के प्रतिपादक महात्मा गाँधी तथा महावीर जैन का नाम स्मरण आ जाता है।

(ब) विपरीतता:
एक-दूसरे के विपरीत किन्तु परस्पर सम्बन्धित अनुभव भी कुछ स्मरण कराते हैं। जैसे किसी बदमाश को देखकर सज्जन की याद आती है।

(स) सहचारिता:
जब दो विषयों का अनुभव एक साथ हो जाता है तो उसमें से एक का स्मरण होने पर दूसरा भी याद आ जाता है। इसे सहचारिता कहते हैं।

(ii) मानसिक तत्परता:
मानसिक तत्परता से अभिप्राय विचारपूर्वक स्मरण करने से है। जिस अनुभव को पुनः स्मरण करने के लिये व्यक्ति मानसिक रूप से तत्पर होता है वह क्रिया या अनुभव तुरंत पुनः स्मृति में आ जाता है। अतः पुनमरण के लिये मानसिक तत्परता भी प्रभावशाली तत्व है।

(iii) संवेग:
संवेग भी पुनमरण को प्रभावित करते हैं। यदि संवेग अनुकूल होता है तब उसका पुनमरण आसानी से हो जाता है। उदाहरणार्थ, परिवार में किसी की मृत्यु हो जाने पर परिवार के अन्य दिवंगत व्यक्ति का पुनमरण हो जाता है। वह पुनमरण शोक के संवेग के परिणामस्वरूप ही होता है। इसमें विशेष बात यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि संवेग की अनुकूल अनुभूतियों का ही इस अवस्था में पुनः स्मरण होता है, विपरीत का नहीं। जैसे, विवाहादि के समय किसी की मृत्यु का स्मरण नहीं होता है और मृत्यु के समय किसी उत्सव का स्मरण नहीं होता अर्थात् रोमांच के संवेग द्वारा रोमांचक पुनः स्मरण और शोक के संवेग द्वारा शोकायुक्त।

4. पहचानना (Recognition):
स्मृति की प्रक्रिया का समापन पहचान से होता है। स्मृति में याद, धारणा और पुनमरण द्वारा यह स्पष्ट नहीं हो पाता कि विषय क्या है, जब यह निश्चित हो जाता है कि चेतना में आने वाला विषय यह है तब उसे पहचान कहा जाता है। इस प्रकार स्मृति विभिन्न प्रक्रियाओं से होकर गुजरती हुई पहचान पर अपना वृत्त पूर्ण करती है।

स्मृति की प्रक्रिया द्वारा ‘प्रतिमा’ हमारे मस्तिष्क में बन जाता है। किन्तु जब प्रक्रिया का वृत्त पूर्ण हो जाता है तो प्रतिमा स्पष्ट हो जाती है। उदाहरणार्थ-जब कोई व्यक्ति हमारे सम्मुख आता है तब व्यक्ति की आकृति हमारे मस्तिष्क में बन जाती है, हम सोचने लगते हैं कि इस व्यक्ति को कहीं देखा है या इससे कहीं भेंट हुई है।

हम विभिन्न प्रकार से उसके विषय में घटनाओं का स्मरण करके उस पर विचार करते हैं तब उनका पुनरर्मरण करके अन्त में निश्चित हो जाता है कि उसे कहाँ देखा है या उसकी कहीं भेंट हुई है। व्यवहार के अंदर भी हम देखते हैं कि जब कोई व्यक्ति काफी समय बाद हमें मिलता है और हम उसकी ओर अनजान से बने देखते हैं तब वह व्यक्ति अनायास ही कह उठता है कि क्या आपने मुझे ‘पहचाना’ नहीं? यह कहने का उसका अभिप्राय उसकी प्रतिमा के स्पष्ट न होने से ही होता है, तब यकायक हम भी कह उठते हैं कि अरे पहचान लिया कि आप अमुक व्यक्ति हैं, यह उनकी स्मृति के लिए पूर्णता का सूचक होता है।

(i) निश्चित पहचान:
जब हम किसी व्यक्ति को निश्चित रूप से पहचान लेते हैं तथा उससे सम्बन्धित. घटनाओं का भी हमें स्पष्ट स्मरण हो आता है तब इसको निश्चित पहचान कहते हैं।

(ii) अनिश्चित पहचान:
जब हमारे सम्मुख कोई व्यक्ति या वस्तु आती है और हम उसके लिये स्पष्ट पहचान नहीं बना पाते अर्थात् यह तो पहचान लेते हैं कि वह व्यक्ति अपना परिचित है किन्तु उसके सम्बन्धित स्मरण हमें स्पष्ट नहीं हो पाता तब यह अनिश्चित पहचान होती है।

(iii) असत्य पहचान:
जब हम किसी व्यक्ति को पहचानने में असत्य निर्णय ले लेते हैं तब वह असत्य पहचान होती है। उदाहरणार्थ, जब कोई व्यक्ति हमारे सामने आता है और हम किसी अन्य व्यक्ति के साथ उसकी स्मृति को जोड़कर उसे वही समझ लेते हैं तब यह असत्य पहचान होती है।

मनोविज्ञान के अध्ययन क्षेत्र में स्मृति के अंग के रूप में होने वाली पहचान निश्चित पहचान होती है, शेष दोनों भ्रम के क्षेत्र में आती हैं। अतः निश्चित पहचान की पहचानना क्रिया का मनोवैज्ञानिक रूप है।

स्मृति को उत्तम बनाने के साधन:
स्मृति के पूर्ण स्वरूप को समझाने के लिए इसके अर्थ, परिभाषा तथा अंगों को जानने के अलावा इसको उत्तम बनाने के विषय में जानना भी महत्त्वपूर्ण होगा। अच्छी स्मृति बनाने के मुख्य साधन निम्न प्रकार हैं –

(i) उत्तम विधि द्वारा सीखना:
स्मृति का प्रथम मुख्य अंग ‘सीखना’ है। यदि उचित पद्धति द्वारा किसी बात को सीखा जाये तो उसकी स्मृति अच्छी प्रकार होती है। उदाहरणार्थ, यदि हम किसी विषय को उसके अध्ययन के नियमों के अनुसार व्यवस्थित ढंग से पढ़ते हैं तो उसकी स्मृति शीघ्र हो जाती है। इसके विपरीत सीखने की पद्धतियों का उपयोग न करके अव्यवस्थित ढंग से सीखा गया कार्य स्मृति में कठिनता से आता है। अतः उत्तम विधि द्वारा सीखना उत्तम स्मृति का एक अच्छा साधन है।

(ii) प्रबल धारणा:
स्मृति का दूसरा महत्त्व अंग धारण शक्ति है। यदि व्यक्ति की धारणा शक्ति उत्तम होती है तो सीखी गई क्रिया अधिक स्थायी रह सकती है। अन्यथा दुर्बल धारण शक्ति में उत्तम सीखने की विधि भी अधिक सार्थक सिद्ध नहीं होती है। अत: उत्तम स्मृति के लिये प्रबल धारणा का होना भी आवश्यक है।

(iii) निरर्थक तत्वों का विस्मरण:
निरर्थक तत्वों के विस्मरण से अभिप्रेरक विषय से सम्बन्धित गौण बातों को भूल जाने से है। केवल विषय से सम्बन्धित मुख्य बातों को ही हमेशा स्मरण रखना चाहिये। उदाहरणार्थ, कक्षा में पढ़ते समय जो विषय पढ़ाया जा रहा है वही मुख्य होता है शेष अध्यापक के हावभाव, विद्यार्थियों की शरारतें या अन्य अनेक सम्बन्धी घटक गौण होते हैं। अतः विद्यार्थी यदि विषय के अतिरिक्त अन्य घटनाओं को भी धारण कर लेता है जो निरर्थक होती है तो वह विषय की अच्छी स्मृति नहीं कर सकता। विषय के निरर्थक तत्वों का विस्मरण ही अच्छी स्मृति में सहायक होता है।

(iv) उपयोगिता:
उपयोगिता-वही विषय सार्थक होता है जो उपयोगी होता है। अतः उपयोगी बातों का धारणा करना अच्छी स्मृति के लिये आवश्यक है क्योंकि उपयोगी बातों की आवश्यकता पड़ने पर चेतना के स्तर पर आ जाना अच्छी स्मृति का एक लक्षण है।

(v) सत्य पुनस्र्मरण:
अच्छी स्मृति वही कहलाती है जिसमें पूर्व अनुभव वैसे के वैसे ही चेतना के स्तर पर आ जाते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि स्मृति को अच्छा बनाने के साधनों का उपयोग किया जाये क्योंकि पुनमरण ‘सीखने की विधि’ और धारणा शक्ति पर निर्भर करता है। इन दोनों को सही प्रकार से क्रियान्वित करने पर ही पुनमरण यथार्थ होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 2.
स्मृति से क्या तात्पर्य है? स्मृति को उन्नत बनाने के उपाय का वर्णन करें।
उत्तर:
स्मृति वह मानसिक प्रक्रिया है जिसके द्वारा हम अपने गत अनुभव को संग्रहित कर उसे वर्तमान चेतना में लाते हैं।

उन्नत बनाने के उपाय:
स्मृति सुथर की बहुत सारी युक्तियाँ हैं जिन्हें स्मृति सहायक संकेत कहा जाता है जो निम्न है –

प्रतिभा के उपयोग से स्मृति सहायक संकेत:
इस प्रकार की स्मृति सुधार विधि में याद की जानेवाली सामग्री तथा उसके इर्द-गिर्द सुस्पष्ट प्रतिभा की रचना की जाती हैं इसमें 2 प्रमुख विधि है –

1. मुख्य शब्द विधि:
इस विधि में से प्रतिभा विकसित करने में परिचित शब्द से सीखे जाने शब्द का संबंध जोड़ना होता है जैसे MAT शब्द परिचित होने से बच्चा CAT शब्द आसानी से सीख लेता है।

2. स्थान-विधि:
किसी वस्तु को याद करने में उसे संबंधित स्थान से जोड़कर उसकी प्रतिभा मन में लाने से विषय याद रहता है।

संगठन के उपयोग से स्मृति सायक संकेत:
संगठन के अर्थ हैं याद की जानेवाली सामग्री में एक क्रम सुनिश्चित करना है संगठित विषय की स्मृति तेज होती है।

1. खंडीयन विधि:
यदि किसी विषय को याद करना है तो उसे खंड में बाँटकर यादकर उसे क्रम में सजाकर स्मृति को उन्नत बनाया जा सकता है।

2. प्रथम अक्षर तकनीक:
इसमें अक्षर तकनीक को प्रयुक्त करने के लिए याद किए जाने वाले प्रत्येक शब्द के अक्षर को लेकर उससे एक वाक्य या शब्द बनाया जाता है। इसके अलावा स्मृति को उन्नत बनाने के अन्य उपाय हैं –

(a) गहन-स्तर पर प्रक्रमण कीजिए:
किसी सूचना को अच्छी तरह से याद करने के लिए गहन-स्तर पर प्रक्रमण करना चाहिए।

(b) अवरोध घटाएँ:
स्मृति उन्नत बनाने के लिए एक विषय को सीखने के बाद दूसरा ऐसा विषय सीखना चाहिए जिसमें विषय साम्य न हो। इसके अलावा अवरोध को कम करने के लिए अध्ययन के दौरान बीच में आराम करना चाहिए।

(c) पर्याप्त पुनरुद्धार संकेत रखिए:
किसी विषय को याद करते समय उस सामग्री में निहित कुछ पुनरुद्धार संकेतों को पहचान से और अपने याद करने की सामग्री के अंशों को इनसे जोड़ने से स्मृति उन्नत होती है। इस प्रकार कई प्रविधि और उपाय जिसकी सहायता से स्मृति को उन्नत बनाया जा सकता है। गत अनुभव का स्मरण न होना विस्मृति कहलाता है। अर्थात् विस्मृति (या धारण की किसी जाँच) की असमर्थता है।

कारण:

1. चिह्न हास के कारण विस्मरण:
जब हम किसी विषय को याद करते हैं तो उसके चिह्न मस्तिष्क में बन जाते हैं जिसे स्मृति-चिह्न कहते हैं। जैसे-जैसे समय बीतता है स्मृति-चिह्न कमजोर होते जाते हैं। अतः हम विषय को पूरी तरह से भूल जाते हैं इसे अनुप्रयोग सिद्धांत कहा गया है।

2. अवरोध के कारण विस्मरण:
इसे अवरोध सिद्धांत भी कहते हैं इसके अनुसार स्मृति भंडार में संचित विभिन्न सामग्री के बीच अवरोध के कारण विस्मरण होता है सीखने और याद करने में विभिन्न पदों के बीच साहचर्य स्थापित होता है जिससे विषय स्मृति में अक्षत रहता है पुनरुद्धार के समय इसमें अवरोध उत्पन्न होता है जो 2 प्रकार का होता है।

3. अग्रलक्षी अवरोध:
पहले सीखा गया विषय बाद में सीखी गयी क्रिया को याद करने में अवरोध उत्पन्न करता तो अग्रलक्षी अवरोध कहते हैं।

4. पुर्वलक्षी अवरोध:
इसमें बाद में सीखा गया विषय पहले विषय को याद करने में बाधा डालता है।

5. पुनरुद्धार सफलता के कारण विस्मरण:
विस्मरण का एक कारण प्रत्याह के समय पुनरुद्धार के सति का अनुपस्थित रहना भी है पुनरुद्धार के संकेत वे साधन हैं जो हमें स्मृति में संचित सूचना की पुनः प्राप्त करने में मदद करते हैं टलविंग ने अपने सिद्धांत में इसकी विस्मृत: व्याख्या की है। इसके अलावा विस्मरण के कई कारण हैं जैसे विषय का स्वरूप, सीखने की मात्रा, विषय का भावात्मक मूल्य विषय की लंबाई, सीखने की विधि, विषय में रुचि, मस्तिष्क, अद्यात तथा शारीरिक कष्ट, मानसिक, धक्का एवं चिंता, मानसिक पर्यवेक्षण का अभाव।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 3.
लघुकालीन स्मृति तथा दीर्घकालीन स्मृति के अर्थ एवं विशेषताओं को बतलाएँ। इन दोनों के अंतर पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
लघुकालीन स्मृति का अर्थ (Meaning of short-term memory of STM):
लघुकालीन स्मृति को विलियम जेम्स (WilliamJames) ने प्राथमिक स्मृति (Primary memory or PM) भी कहा है। लघुकालीन स्मृति वैसी स्मृति को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति किसी अनुभूतियों को मात्र एकाध प्रयास में ही सीख लेता है। शायद यही कारण है कि ऐसी अनुभूतियाँ कमजोर होती हैं। जब व्यक्ति इन अनुभूतियों पर ध्यान देता है या उनका मानसिक रिहर्सल करता है तब उनका विस्मरण नहीं हो पाता है। परंतु, इन तत्वों के अभाव में लघुकालीन स्मृति-चिह्नों का तुरंत लोप हो जाता है जिसके फलस्वरूप विस्मरण विस्मरण होता है।

इस तरह के विस्मरण को चिह्न-आधुत विस्मरण (trace dependent forgetting) कहा जाता है लघुकालीन स्मृति को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझ सकते हैं-मान लिया जाए कि कोई व्यक्ति किसी अपरिचित व्यक्ति से किसी कारणवश दूरभाष पर बातचचीत करने के लिए उसकी दूरभाष-संख्या दूरभाष निर्देशिका से प्राप्त करता है। व्यस्त सिगनल मिलने पर वह 15 सेकण्ड के लिए रुककर पुनः उसे डाइल करने की कोशिश करता है।

संभव है इस बार वह दूरभाष-संख्या भूल जाए या संख्या का सही क्रम भूल जाए। यह लघुकालीन स्मृति का उदाहरण होगा, क्योंकि यहाँ व्यक्ति दूरभाष संख्या को अधिकतम समय-सीमा (20-30 सेकंड) से कम ही समय तक संचित रख पाया। लघुकालीन स्मृति को अन्य नामों जैसे सक्रिय स्मृति (active memory) तात्कालिक स्मृति (immediate memory), चयन स्मृति (working memory) एवं लघुकालीन संचयन (short term storage) आदि से भी जाना जाता है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए शोधों एवं प्रयोगों से STM की कुछ खास विशेषताओं का पता चला है जिनसे इसका अर्थ और अधिक स्पष्ट हो जाता है। अतः इन विशेषताओं का वर्णन यहाँ अपेक्षित है जो इस प्रकार है –

  1. लघुकालीन स्मृति कमजोर (fragile) होती है, परिणामस्वरूप इससे विस्मरण तेजी से होता है।
  2. लघुकालीन स्मृति-उद्दीपनों (stimuli) को हू-ब-हू संचित न करके उन्हें उनकी आवाज (sound) के आधार पर कूटसंकेतीकृत (coding) कर संचित किया जाता है।
  3. मिलर (Miler) के अनुसार STM की संचयनशक्ति (storage capacity) एक समय में 72 अर्थात् अधिकतम 9 तथा न्यूनतम 5 उद्दीपनों की होती है। इसे मनोवैज्ञानिकों ने जादुई संख्या (magic number) कहा है।
  4. लघुकालीन स्मृति की अवधि अधिक-से-अधिक 25-30 सेकण्ड की होती है। पेटरसन एवं पेटरसन (Peterson & Peterson) तथा ब्राउन (Brown) के अध्ययन से इस तथ्य की संतुष्टि होती है। पेटरसन एवं पेटरसन के अध्ययन में तो STM की अधिकतम अवधि 18-20 सेकण्ड की ही पाई गई थी।

दीर्घकालीन स्मृति का अर्थ (Meaning of long term memory or LTM):
दीर्घकालीन स्मृति को विलियम जैम्स (William James) ने गौण स्मृति (secondary memory of SM) भी कहा है। दीर्घकालीन स्मृति से तात्पर्य वैसे स्मृति-संचयन (memory storage) से होता है जिसमें सूचनाओं को व्यक्ति काफी लम्बी अवधि के लिए संचित करता है। इस लम्बी अवधि की न्यूनतम सीमा 20-30 सेकेण्ड तथा अधिकतम सीमा कुछ निश्चित नहीं होती है। संभव है, व्यक्ति किसी सूचना को मात्र 2 घंटे के लिए LTM में संचित रखे या फिर उसे पूरे जीवनकाल के लिए भी संचित रखे। दीर्घकालीन स्मृति की संचय क्षमता (storage capacity) काफी बड़ी होती है और कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसकी क्षमता को असीमित बतलाया है।

इसमें वैसे सूचनाएँ संचित होती हैं जिन्हें व्यक्ति महत्त्वपूर्ण समझता है या जिन्हें वह अभ्यास करके प्राप्त करता है। व्यक्ति की अपनी दूरभाष-संख्या तथा अपने नजदीकी रिश्तेदारों की दूरभाष-संख्या LTM में मुख्य रूप से दो तरह की सूचनाएँ संचित होती हैं। पहली तरह की सूचनाओं का संबंध वैसी सूचनाओं से होता है जो सामयिक घटनाओं (temporal events) के क्रमों (sequences) से संबंधित होते हैं तथा दूसरी तरह की सूचनाओं का स्वरूप कुछ वैसा होता है जो तरह-तरह के संकेतों (symbols) एवं शब्दों के अर्थ आदि से संबंधित होता है। पहली तरह की सूचनाओं को प्रासंगिक स्मृति (episodic memory) तथा दूसरी तरह की सूचनाओं की स्मृति को अर्थगत स्मृति (semantic memory) कहा जाता है। LTM को निष्क्रिय स्मृति (inactive memory) भी कहा जाता है।

LTM के क्षेत्र में किए गए अध्ययनों से इसकी कुछ विशेषताओं (characteristics) का पता चला है जिनसे उसके अर्थ को ठीक ढंग से जाना जा सकता है। ऐसी विशेषताओं में निम्नांकित प्रमुख हैं –

  1. LTM में संचित सूचनाएँ सापेक्ष रूप से (relatively) स्थायी होती हैं जिसके कारण इसे विस्मरण देरी से होता है।
  2. STM में संचित सूचनाएँ मौलिक उद्दीपन से प्राप्त सूचनाओं की कार्बन कॉपी नहीं होती, बल्कि उन्हें अर्थ के आधार पर कूटसंकेतीकृत करके संचित किया जाता है।
  3. LTM में सूचनाएँ संगठित एवं साहचर्यात्मक ढंग से संचित की जाती हैं। इसका मतलब यह हुआ कि जो सूचनाएँ या एकांश आपस में अर्थपूर्ण ढंग से संबंधित होती हैं उन्हें व्यक्ति एक साथ संचित करता है।
  4. LTM में संचित वैसी सूचनाएँ कम सक्रिय होती हैं जो किसी घटना या कार्य के पूरा होने के बाद प्राप्त होती हैं। परंतु वैसी सूचनाएँ जो किसी घटना या कार्य के अधूरा ही रह जाने के फलस्वरूप प्राप्त होती हैं, अधिक सक्रिय होती हैं।

लघुकालीन स्मृति तथा दीर्घकालीन स्मृति में अंतर (Distinction between short term memory and long-term memory):
STM तथा LTM में प्रमुख अंतर निम्नांकित प्रकार के हैं –

1. STM में सूचनाएँ अधिक-से-अधिक:
20-30 सेकण्ड के लिए संचित करके रखी जाता हैं, परंतु LTM में सूचनाओं के संचयन की अधिकतम अवधि अनश्चित होती है। यह एक बेटे की भी हो सकती है, एक दिन की भी या फिर पूरे जीवन-अवधि के लिए।

2. STM में सक्रिय एवं सतत रिहर्सल (rehearsal) की प्रक्रिया चलती रहती है। म प्रक्रिया के बंद होते ही सूचनाओं का विस्मरण प्रारम्भ हो जाता है। LTM के साथ ऐसी बात नहीं है। LIM में ऐसी सक्रियता की जरूरत नहीं पड़ती है, हालांकि यह बात जरूर है कि प्रारम्भ में LTM में सूचनाओं को संचित करने में व्यक्ति को अधिक प्रयास करना आवश्यक हो जाते है, परंतु बाद में यह एक निष्क्रिय प्रक्रिया हो जाती है।

3. STM की संचयन:
क्षमता (storge capacity) सीमित होती है और मिलर की जादुई संख्या (magic number) के अनुसार यह क्षमता 7 ± 2अर्थात् 5 से 9 तक की (किसी एक समय में) होती है। LTM के साथ ऐसी बात नहीं है। LTM की संचयन-क्षमता असीमित (unlimited) होती है। इसकी न तो कोई न्यूनतम और न ही कोई अधिकतम संख्या निश्चित होती है।

4. STM से हुए विस्मरण का आधार स्मृति:
चिह्नों का नाश या ह्रास होना होता है जबकि LTM में हुए विस्मरण का आधार सामान्यतः पुनः प्राप्ति संकेतों (retrieval clues) का अनुपलब्ध होना है। पहली तरह के विस्मरण को चिह्न-आधृत विस्मरण (trace-dependent forgetting) तथा दूसरी तरह के विस्मरण को संकेत-आधृत विस्मरण (clue-dependent forgetting) कहा जाता है।

5. STM में संचित सूचनाओं का प्रत्याह्वान (recall) काफी आसान होता है। व्यक्ति थोड़ा-सा साधारण प्रयास से ही संचित सूचनाओं का प्रत्याह्वान कर लेता है। परंतु LTM से सूचनाओं का सही प्रत्याह्वान (recall) या प्रत्याभिज्ञान (recognition) कर पाता है।

6. STM ध्वनि-संकेतीकरण (phonological or accustic coding) से अधिक प्रभावित होता है जबकि LTM अर्थगत संकेतीकरण (semantic coding) से अधिक प्रभावित होता है। ध्वनि-संकेतीकरण में व्यक्ति शब्दों को उनकी ध्वनि में समानता (जैसे-CAT, MAT, SAT, BAT आदि) के आधर पर मस्तिष्क से संचित करता है तथा अर्थगत समानता में व्यक्ति शब्दों को उनके अर्थ अर्थात् (LARGE, TALL, BIG आदि) के आधार पर मस्तिष्कम में संचित करता है।

7. STM में नवीनता:
प्रभाव (recency effect) अधिक देखने को मिलता है जबकि LTM पर प्राथमिकी प्रभाव (primacy effect) अधिक देखने को मिलता है। शब्दों या एकांशों की सूची अतिम भागों में किया गया प्रत्याह्वान नवीनता-प्रभाव तथा प्रथम भागों से किया गया प्रत्याह्वान प्राथमिकी प्रभाव कहलाता है।

8. STM तथा LTM को न्यूरोदैहिक सबूतों (neurophysiological evidences) के आधार पर एक-दूसरे से भिन्न किया गया है। मिलनर (Milner) के अनुसार कुछ ऐसे नैदानिक सबूत (clinical evidences) मिले हैं जिनमें देखा गया है कि व्यक्ति का LTM गंभीर रूप से प्रभावित था, परंतु STM ठीक था। उसी तरह एक अन्य नैदानिक ने इसमें यह देखा कि व्यक्ति का STM बुरी तरह प्रभावित था परंतु LTM बिल्कुल ठीक था। इन सबूतों के आधार पर मनोवैज्ञानिकों ने यह बतलाया है कि STM तथा LTM दो स्मृति तंत्र हैं जो अलग-अलग नियमों एवं सिद्धांतों से निर्देशित होते हैं।

स्पष्ट हुआ कि STM तथा LTM एक-दूसरे से भिन्न हैं। इन अंतरों के बावजूद कुछ मनोवैज्ञानिकों जैसे लॉकहार्ट एवं क्रैक (Lockhart & Craick) ने यह दावा किया है कि इन दोनों का दो अलग-अलग तंत्र (system) न मानकर एक ही स्मृति तंत्र के दो संबंधित पहलू मानकर चलना अधिक उचित होगा। परंतु उनके विचारों को अधिक समर्थन प्राप्त नहीं है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि फिलहाल इन दोनों को एक-दूसरे से भिन्न समझना ही उपयुक्त है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 4.
लघुकालीन स्मृति से आप क्या समझते हैं? लघुकालीन स्मृति तथा दीर्घकालीन स्मृति में अंतर बतावें।
उत्तर:
जब किसी पाठ या विषय को व्यक्ति सीखता है तब उससे उत्पन्न स्मृति चिह्न को मस्तिष्क में धारण करके रखता है। स्मृति चिह्न जितना ही अधिक समय के लिए मस्तिष्क में बना रहता है, धारण भी उतने ही अधिक समय के लिए बना रहता है। स्मृति चिह्नों को धारण करके रखने की अवधि को कसौटी मानकर स्मृति के दो प्रकार बताए गए हैं-(क) लघुकालीन स्मृति (short term memory) (ख) दीर्घकालीन स्मृति (long term memory)।

इन दोनों का वर्णन इस प्रकार है –

(क) लघुकालीन स्मृति (Short term memory):
लघुकालीन स्मृति वैसी स्मृति को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति किसी अनुभूति को अधिकतम 20 से 30 सेकण्ड के लिए संचित करके रख पाता है तथा अनुभूतियों को वह मात्र एकाध प्रयासों में ही सीख लिया जाता है। कोई भी अनुभूति पहले व्यक्ति की लघुकालीन स्मृति में ही प्रवेश करती है। जब व्यक्ति उस अनुभूति पर ध्यान देता है या उसका मानसिक रिहर्सल करता है तब तो उसका विस्मरण नहीं हो पाता है। परंतु, इन दोनों तत्वों के अभाव में लघुकालीन स्मृति से स्मृति चिह्नों का नाश तेजी से होता है। फलस्वरूप, इसे विस्मरण भी काफी तेजी से होता है।

लघुकालीन स्मृति को एक उदारहण द्वारा इस प्रकार समझाया जा सकता है-मान लिया जाए कि किसी अपरिचित से दूरभाष पर बातचीत करने के लिए हम उसकी दूरभाष संख्या दूरभाष निर्देशिका से प्राप्त करते हैं। ‘व्यस्त सिंगनल’ (busy signal) मिलने पर 20 सेकण्ड रुककर पुनः उसे डायल करते हैं। संभव है कि हम उसकी दूरभाष संख्या भूल जाएँ या संख्या का सही क्रम भूल जाएँ। यह लघुकालीन स्मृति का उदाहरण होगा क्योंकि इससे दूरभाष संख्या को 20 सेकण्ड से कम ही समय के लिए स्मृति संचयन (memory store) में रखा गया था। विलियम जेम्स (William James) ने इसे प्राथमिक स्मृति (Primary memory) कहा है।

(ख) दीर्घकालीन स्मृति (Long term memory):
दीर्घकालीन स्मृति वैसी स्मृति को कहा जाता है जिसमें व्यक्ति किसी अनुभूति को. कम-से-कम 30 सेकण्ड से अधिक समय के लिए निश्चित रूप से संचित करके रखता है। इस तरह की स्मृति में अधिकतम कितने समय तक किसी स्मृति चिह्न को सचित रख जाता है, इसकी कोई समय-सीमा नहीं होती है। शायद यही कारण है कि एक वृद्ध व्यक्ति भी अपने बचपन की अनुभूतियों का आसानी से प्रत्याह्वान कर लेता है।

दीर्घकालीन स्मृति में वैसी अनुभूतियाँ संचित होती हैं जिन्हें व्यक्ति एकाध प्रयास में नहीं बल्कि कई प्रयासों में हासिल करता है। व्यक्ति की अपनी दूरभाष संख्या तथा अपने नजदीकी संबंधियों की दूरभाष संख्या दीर्घकालीन स्मृति में संचित होती है। विलियम जेम्स ने इसे गौण स्मृति (secondary memory) भी कहा है। ऐसी स्मृति में स्मृति चिह्नों का नाश धीरे-धीरे होता है।

लघुकालीन स्मृति तथा दीर्घकालीन स्मृति में अंतर (Distinction between short term memory and long term memory):
इन दोनों तरह की स्मृतियों में मुख्य अंतर निम्नांकित हैं –

  • लघुकालीन स्मृति की संचय अवधि (storage duration) अधिकतम 20 से 30 सेकण्ड की होती है जबकि दीर्घकालीन स्मृति में ऐसी कोई अधिकतम समय-सीमा नहीं होती है।
  • लघुकालीन स्मृति में वैसी अनुभूतियाँ होती हैं जो एकाध बार के प्रयास से उत्पन्न हो जाती हैं। परंतु, दीर्घकालीन स्मृति में केवल वैसी ही अनुभूतियाँ होती हैं जिन्हें व्यक्ति कई प्रयासों में काफी अभिरुचि दिखाकर प्राप्त किए हुए होता है।
  • दीर्घकालीन स्मृति से स्मृति चिह्नों का नाश तेजी से होता है जबकि लघुकालीन स्मृति से स्मृति चिह्नों का नाश धीरे-धीरे होता है। यही कारण है कि दीर्घकालीन स्मृति से विस्मरण की दर काफी धीमी होती है जबकि लघुकालीन स्मृति से विस्मरण की दर काफी तेज होती है।
  • कोई भी अनुभूति पहले लघुकालीन स्मृति में प्रवेश करती है और जब व्यक्ति उसपर ध्यान देता है या उसका मानसिक रिहर्सल करता है तब उसका स्थानांतरण दीर्घकालीन स्मृति में होता है।
  • लघुकालीन स्मृति की संचयन क्षमता (storgae capacity) काफी सीमित होती है जबकि दीर्घकालीन स्मृति की संचयन क्षमता असीमित होती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 5.
क्षणदीय स्मृतियाँ, जीवन चरित स्मृति तथा निहित स्मृतियों का सामान्य परिचय दें।
उत्तर:
मानव स्मृति की जटिल एवं गत्यात्मक प्रकृति के अध्ययन के आधार पर दीर्घकालिक स्मृति को तीन प्रमुख दशाओं से जोड़ा जाता है –

1. क्षणदीप स्मृतियाँ:
आश्चर्यजनक अथवा विस्मयकारी घटनाओं के कारण उत्पन्न उदीप्त करनेवाली सूचनाओं पर आधारित स्मृतियाँ होती हैं। क्षणदीप स्मृतियाँ किसी विशेष स्थान, तिथि एवं समय से जुड़े ऐसे चित्र होते हैं जिसकी स्मृति लगभग स्थिर होती है। क्षणदीप स्मृतियों को बनाने हेतु लगातार प्रयासरत रहते हैं।

2. जीवन-चरित स्मृति:
यह किसी व्यक्ति के जीवन से जुड़ी स्मृतियाँ होती हैं। प्रथम 4 – 5 वर्षों तक की स्मृतियाँ बताना लगभग कठिन होता है जिसे बाल्यावस्था स्मृतिलेस कहा जाता है। 20 के दशक की स्मृतियों की संख्या बहुत अधिक होती है। वृद्धावस्था की स्मृतियों ताजी और प्रेरणादायक होती हैं।

3. निहित स्मृतियाँ:
ये स्मृतियों जिनके प्रति कोई व्यक्ति अनभिज्ञ होता है तथा जो स्वचालित रूप से पुनरुद्धत होती है। अंधकार में कम्प्यूटर के कीबोर्ड पर उंगलियों को दौड़ाना निहित स्मृति कहला सकती है क्योंकि यह अनुभव और अभ्यास से प्राप्त ऐसा गुण है जो कब और क्यों उत्पन्न हुआ कोई नहीं बतला सकता है। यह भी पता चला है कि सामान्य स्मृति वाले साधारण लोगों में भी कुछ निहित स्मृतियाँ होती है।

प्रश्न 6.
दमित स्मृतियाँ क्या होती हैं?
उत्तर:
सिगमंड फ्रायड ने बताया है कि लोगों में कुछ अभिधातज अनुभव होते हैं जो संवेगात्मक रूप से दुखदायी होते हैं। धमकी, चोरी, अकाल मृत्यु, धोखा जैसी घटनाओं की याद – भी कष्टदायक होती है। कोई भी व्यक्ति खतरनाक या दुखदायी स्मृति को बनाये रखना नहीं चाहता है। दुखदायी स्मृतियों को लोग अचेतन मन में दमित सामान्य जिन्दगी जीना चाहते हैं।

किसी व्यक्ति के द्वारा कुछ विशेष प्रकार की स्मृति को दबाकर भूल जाने की स्थिति बना लेता है। इस कृत्रिम विस्मरण को दमित स्मृति कहा जा सकता है। दमित स्मृति का कारक भय, आतंक, चिंता, दुख यानी कोई भी भयावह सूचना होती है। यह स्मृति लोप से अलग अवस्था होती है। यह मानसिक विकार भी उत्पन्न कर सकता है। दमित स्मृति की दशा में कोई व्यक्ति जीवन के कठिन यथार्थ के प्रति अपनी आँखें, कान और मन बंद करके, कठिन स्मृति से मानसिक रूप से पालयन कर जाते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 7.
कार्यकारी स्मृति को वेर्डले के दृष्टिकोण के आधार पर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सन् 1986 में मनोवैज्ञानिक बेर्डले ने अल्पकालिक स्मृति का बहुघटकीय दृष्टिकोण का प्रस्ताव रखा था। बेर्डले के अनुसार अल्पकालिक स्मृति निष्क्रिय नहीं होती बल्कि यह एक कार्य-मेज है जिस पर स्मृति अपने विभिन्न रूपों वाली सामग्री को साथ लिए सजी रहती है। जब कभी लोग किसी संज्ञानात्मक कार्यों के लिए आवश्यक मानते हैं तब यह भंडार अपनी स्मृति भंडार से उचित सूचना प्रदान करती है। इस कार्य-मेज का दूसरा नाम कार्यकारी स्मृति है।

कार्यकारी स्मृति के कई घटक होते हैं –

1. स्वनिमिक घेरा:
इसमें ध्वनियों की सीमित संख्या होती है जो अभ्यास के अभाव में दो सेकण्ड के बाद मिटना प्रारम्भ कर देता है।

2. दृष्टि:
स्थानिक स्केच पेड-इसमें चाक्षुष और स्थानिक सूचनाएँ जमा रहती हैं।

3. बेर्डले केन्द्रीय प्रबंधक:
यह सूचनाओं को स्वनिमिक घेरे से, दृष्टि-स्थानिक स्केच पैड से तथा दीर्घकालिक स्मृति संग्रहित करता है। एक सच्चे प्रबंधक के रूप में यह अवधानिक साधनों का निमतन, सूचनाओं का सही वितरण तथा व्यवहार का परिवीक्षण, नियोजन और नियंत्रण करने में अपनी कुशलता का परिचय देता है। अर्थात् कार्यकारी स्मृति के सभी तीनों घटक अपने-अपने कार्यों के द्वारा बेर्डले के दृष्टिकोण का समर्थन करता है।

प्रश्न 8.
विस्मरण या भूलने के स्वरूप एवं कारणों का वर्णन करें। अथवा, भूलना क्या है? भूलने के क्या-क्या कारण हैं?
उत्तर:
भूलना एक ऐसी मानसिक क्रिया है जिसमें मस्तिष्क में बने हुए मृत्यु-चिह्न मिट जाते हैं, जिसके कारण पूर्व सीखे हुए विषय का न प्रत्याह्वान किया जा सकता है और न पहचाना जा सकता है। मनुष्य आजीवन सीखता या भूलता रहता है। वह किसी विषय को चाहे कितनी गहराई से क्यों न सीखे उसे एक दिन अवश्य भूल जाता है। इस प्रकार भूलना मानव जीवन का एक तथ्य माना जाता है।

जब भूलना मानव जीवन का तथ्य है तो उसका स्वरूप क्या है? इसे जानना परमावश्यक है। जब हम किसी विषय को सीखते हैं, तो उसके स्मृति-चिह्न मस्तिष्क में बन जाते हैं। इन्हीं स्मृति-चिह्न के सहारे हम सीखे हुए विषय को याद करते हैं। लेकिन समय के व्यवधान के कारण या मानसिक आघात के कारण ये स्मृति-चिह्न कमजोर होते जाते हैं और मिट जाते हैं। इन्हें मिटने पर सीखे हुए विषय को याद नहीं कर पाते हैं, यानी उसे भूल जाते हैं।

विस्मरण के कारण-विस्मरण के निम्नलिखित प्रधान कारण हैं –

1. पाठ्य-विषय का स्वरूप:
भूलना बहुत अंशों में सीखे गए विषय पर निर्भर करता है। जो विषय अधिक रोचक होता है, उसे व्यक्ति अधिक दिनों तक याद रखता है; क्योंकि उसके स्मृति-चिह्न बहुत दिनों तक बने रहते हैं।

दूसरी ओर, जो विषय निरर्थक या अरोचक होते हैं, उनके स्मृति-चिह्न मस्तिष्क पर दुर्बल बनते हैं और उनका साहचर्य पूर्व अनुभूतियों से मजबूती के साथ स्थापित नहीं हो पाता है। इसका फल यह होता है कि समय-व्यवधान के साथ उन विषयों के स्मृति-चिह्न मस्तिष्क से मिटने लगते हैं और अंत में हम उन्हें भूल जाते हैं। अत: विषय के स्वरूप के कारण सार्थक तथा रोचक विषय की अपेक्षा निरर्थक विषयों को हम जल्दी भूल जाती हैं।

2. शिक्षण की मात्रा:
जिस विषय को पूर्णरूप से नहीं सीखा जाता है, उसे हम शीघ्र भूल जाते हैं। अल्परूप से सीखने के कारण मस्तिष्क में स्मृति-चिह्न अच्छी तरह नहीं बन पाते हैं और शीघ्र ही पुनर्संरचना को (reconstruction) कहा है। चाहे विकृति को या संरचना या पुनसंरचना, इन तीनों प्रतिक्रियाओं से स्मृति में त्रुटि उत्पन्न होती है। मनोवैज्ञानिकों ने इस प्रश्न पर काफी गंभीरता पूर्वक विचार किया है कि स्मृति में इस तरह की त्रुटि के क्या कारण हो सकते हैं। इनके द्वारा इस विषय पर किये गये शोधों के आलोक में निम्नांकित चार कारकों को महत्त्वपूर्ण बतलाया गया है –

  • सरल अनुमान (simple inference)
  • रूढ़ियुक्ति (stereotypes)
  • स्कीमा (Schema)
  • विविध कारक (Miscellaneous factors)

इनका वर्णन इस प्रकार है –

1. सरल अनुमान (Simple inference):
व्यक्ति जब किसी एकांश (items) या घटना को पहली बार देखता है या उसके बारे में सुनता है, तो वह उसके आधार पर कुछ अनुमान (inferences) निकालता है और बाद में जब वह उस मौलिक एकांश या घटना का प्रत्याह्वान करता है, तो उसके स्मृति में उस अनुमान के कारण कुछ त्रुटियाँ अर्थात् संरचनात्मक (construtive) या पुरसँरचनात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न हो जाती है जिसके कारण उस एकांश या घटना या प्रत्याह्वान किया गया अंश पहले से भिन्न हो जाता है।

2. रूढ़ियुक्ति (Stereotypes):
सामाजिक रूढ़ियुक्ति के कारण भी व्यक्ति अपनी स्मृति को नये ढंग से संरचित करता है तथा उसमें विकृति उत्पन्न करता है। रूढ़ियुक्ति से तात्पर्य व्यक्तियों के किसी पूरे समूह या वर्ग के शारीरिक गुणों या शीलगुणों के बारे में लगाये गये अनुमानों से होता हालांकि ऐसा लगाय गया अनुमान शायद ही कभी उस वर्ग के अधिकतर व्यक्तियों के लिए सही होता हो। समाज मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गए प्रयोगों से यह स्पष्ट हुआ कि रूढ़ियुक्ति का प्रभाव सामाजिक अंत:क्रिया पर तो काफी पड़ती है।

3. स्कीमा (Schema):
स्कीमा से तात्पर्य बाह्य वातावरण की वस्तुओं, उद्दीपकों, घटनाओं आदि के बारे में व्यक्ति के ज्ञान तथा उसके पूर्वकल्पनाओं (assumptions) से होता है। अतः स्कीमा का विकास अनुभव (experience) के आधार पर होता है और यह एक तरह का मानसिक ढाँचे के समान होता है जिसके माध्यम से व्यक्ति नयी सूचनाओं को संशोधित कर उसे वर्तमान सूचनाओं से संबंधित करता है एक बार स्कीमा का निर्णय हो जाने पर वे स्मृति में सूचनाओं के कूटसंकेतन (encoding) संचयन (storage) तथा पुनः प्राप्ति (retrieval) को काफी प्रभावित करते हैं और स्मृति में विकृति (distortion) उत्पन्न करते हैं।

4. विविध कारक (Miscellaneous factors):
कुछ मनोवैज्ञानिकों ने स्मृति में उत्पन्न विकृति का कारण उपर्युक्त कारकों के अलावा कुछ अन्य कारकों को मानते हैं। जैसे, कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि कूटसंकेतन (econding) के समय मौजूद प्रक्रिया स्मृति में विकृति उत्पन्न करता है। जब व्यक्ति पहली बार किसी विषय या तथ्य को गहण करता है, तो संभव है कि वह उसके विस्तृत संदर्भ पर न ध्यान देकर और मात्र एक सूचना (अर्थात् कब और कैसे यह सूचना प्राप्त हुई) के रूप में ग्रहण करें।

इसी तरह से कभी-कभी व्यक्ति में बाह्य दुनिया (external world) के बारे में एक स्पष्ट प्रत्यक्षण एवं बोध (understanding) की तीव्र इच्छा होती है। इसका परिणाम यह है कि व्यक्ति किसी वस्तु या घटना के प्रत्यक्षण की विस्तृत (details) को इस तरह से भर देता है या पूरा करता है कि समग्र पैटर्न काफी अर्थपूर्ण एवं व्याख्या योग्य लगता है।

इसका स्पष्ट परिणाम यह होता है कि व्यक्ति के स्मृति में विकृति उत्पन्न हो जाती है अर्थात् वह कई महत्त्वपूर्ण चीजों को अपनी ओर से मौलिक घटना में जोड़ देता है। स्पष्ट हुआ कि स्मृति में संरचनात्मक तथा पुनर्संरचनात्मक प्रक्रियाएँ (reconstructive processes) होते रहती हैं जिससे उसमें विकृति उत्पन्न हो जाती है। स्मृति में उत्पन्न इस तरह के विकृति का आशय (implication) कानूनी प्रक्रिया खासकर प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य (eyewitness testimony) के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 9.
स्मरण की मुख्य विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
स्मरण करने के लिए यदि मनमानी पद्धति अपनाई जाये तो उसके परिणामस्वरूप किया गया स्मरण अधिक नहीं रह पाता। मनोवैज्ञानिकों के समक्ष भी स्मृति के सम्बन्ध में यही समस्या उत्पन्न हुई। इस समस्या के समाधान के लिये मनोवैज्ञानिकों ने अपने प्रयोग किये तथा उनके आधार पर स्मरण के लिये विभिन्न प्रद्धतियों का प्रतिपादन किया। इस समस्त विधियों की अपनी-अपनी विशेषतायें हैं। अतः स्मरण के लिये निम्नलिखित पद्धतियों को अपनाना चाहिये –

1. पुनरावृत्ति स्मरण विधि:
पुनरावृति से अभिप्राय किसी विषय को बार-बार दोहराने से है। अतः इस विधि में एक विषय को बार-बार दोहराकर याद करना पुनरावृति स्मरण विधि कहलाती है। इस प्रद्धति में स्मरण करने केलिये एक विषय को बार-बार दोहराकर याद किया जाता है। उदाहरणार्थ, बच्चे जब किसी कविता को याद करते हैं तो उसे बार-बार दोहराते हैं तथा उस कविता को याद कर लेते हैं।

इस विधि की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें दिये गये विषय को एक दो बार पढ़कर दोहराया जाता है तथा इसके बाद उसे मन में दोराहते हैं। ऐसा करने से विषय का चित्र मस्तिष्क में अंकित हो जाता है। जितनी बार विषय को दोहराया जाता है। उनका चित्र उतना ही स्पष्ट हो जाता है। इस प्रकार वह स्थायी रूप धारण कर लेता है। सार्थक विषयों को स्मरण करने में यह विधि अति उत्तम है। इसके द्वारा दैनिक जीवन के कार्यों को भी बार-बार दोहराकर स्मरण किया जाता है।

2. पूर्ण स्मरण स्मृति:
इस विधि में किसी विषय को एक साथ पूर्ण रूप से याद किया जाता है इसलिये इसको पूर्ण विधि (Whole Method) कहा जाता है। उदाहरणार्थ-यदि किसी बालक को कोई कविता याद करनी होती है तो वह पूरी की पूरी कविता एक साथ पढ़ता है तथा इसी प्रकार अनेक बार उसको पूर्ण रूप से दोहराता है। ऐसा करने से पूरी कविता एक साथ याद हो जाती है।

इस विधि पर मनोवैज्ञानिक श्री लोट्री स्टीफेंस (Lotti Steffens) ने एक प्रयोग किया। उसने एक कविता को पहले पूर्णरूप से अनेक बार पढ़वाया। हर बार पढ़ने पर कविता के स्मरण करने में होने वाली गलतियों को लिखा जाता रहा। इस प्रयोग के परिणामस्वरूप उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि पूर्ण विधि द्वारा स्मरण जल्दी होता है। आशिक विधि द्वारा स्मरण करने से इस विधि द्वारा कम समय लगा।

3. स्मरण की आंशिक विधि:
इस विधि द्वारा स्मरण करने के लिये विषय को विभिन्न भागों में विभक्त कर लिया जाता है तथा एक बार में एक भाग को याद करके बारी-बारी से सभी भागों को कंठस्थ कर लिया जाता है, इस प्रकार यह विधि पूर्ण विधि से एकदम विपरीत है। पेकस्टाइम (Pechstein) नामक मनोवैज्ञानिक ने आशिक विधि और पूर्ण-विधि का एक प्रयोग द्वारा तुलनात्मक परीक्षण किया।

उन्होंने कुछ निरर्थक विषयों को बारह व्यक्तियों को कंठस्थ करने के लिये दिया उनमें से छ: व्यक्तियों को आंशिक पद्धति से तथा छः को पूर्ण विधि से उस सामग्री को कंठस्थ करने के लिये कहा गया। इस प्रयोग के परिणामस्वरूप उसने देखा कि आंशिक विधि से याद करने में पूर्णविधि द्वारा स्मरण की अपेक्षा कम समय लगा। अत: उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि आंशिक विधि द्वारा स्मरण करने में कम समय लगता है।

इस प्रकार कुछ विद्वानों ने आशिक विधि को उत्तम बताया तथा कुछ ने पूर्ण विधि को। किन्तु इन दोनों विधियों को समझने के पश्चात् यह स्पष्ट है कि कुछ विषय सामग्री के लिए आंशिक पद्धति स्मरण के लिए उत्तम है तथा कुछ विषयों के लिए पूर्ण विधि उत्तम है। जैसे निरर्थक तथा अव्यवस्थित सामग्री को स्मरण करने के लिये आशिक पद्धति उत्तम है और व्यवस्थित तथा सार्थक विषय सामग्री पूर्ण विधि द्वारा जल्दी कंठस्थ हो जाती है। इसके अतिरिक्त अधिक लम्बी विषय-सामग्री अंशों में अच्छी याद होती है और छोटी सामग्री पूर्ण विधि से इन दोनों विधियों की उत्तमता व्यक्तिगत भिन्नता से भी प्रभावित होती है। अतः उपरोक्त दोनों ही स्मरण विधियाँ अपने-अपने विषय क्षेत्र के स्मरण के लिए उत्तम हैं।

4. मिश्रित विधि:
मिश्रित विधि आशिक तथा पूर्ण विधि की मिश्रित पद्धति है। इस विधि में दोनों विधियों को अपनाया जाता है। अधिक लम्बे विषयों को कंठस्थ करने के लिये ही इस विधि का प्रयोग किया जाता है। इस विध में एक विषय को पहले पूर्ण विधि द्वारा कंठसी करने का प्रयास किया जाता है तथा बाद में उसे अंशों में विभाजित करके दोहराया जाता है। इस प्रकार अनेक विषयों में यह विधि उत्तम सिद्ध हुई। इस विधि के विषय में मनोवैज्ञानिक काल्पिन ने कहा है, “ये दोनों विधियाँ (आशिक और पूर्ण) एक साथ चलाकर विषय सुगमता से कंठस्थ किया जा सकता है।”

5. क्रमिक तथा समय विभाजन विधि:
इस पद्धति के अनुसार किसी वस्तु को लगातार एक क्रम में याद करने का प्रावधान है। इसमें मानसिक थकान के कारण विश्राम के लिये समय का विभाजन किया जाता है। ऐसा करने से मस्तिष्क की शक्ति शिथिल नहीं होती। प्रयोगों द्वारा यह देखा गया है कि वस्तु याद करते समय यदि विश्राम किया जाये और उस विश्राम के समय में अन्य कोई काम कर लिया जाये तो भी मस्तिष्क की शक्ति नहीं घटती। इस विधि की मुख्य विशेषता यह है कि इसमें मस्तिष्क तो शिथिल होने से बचा ही रहता है। साथ ही मस्किष्क में याद किये विषय के स्मृति चिह्न स्थायी बन जाते हैं। आजकल इस विधि का अधिक उपयोग किया जाता है।

6. निरंतर स्मरण विधि:
यह विधि क्रमिक विधि के एकदम विपरीत है। इस विधि द्वारा स्मरण करने में पूरे के पूरे समय को लगातार एक ही समय में याद किया जाता है। इसमें बीच-बीच में विश्राम नहीं किया जाता। इस प्रकार यह निरंतर चलने वाली विधि है। जब तक पूरा विषय याद नहीं हो जाता इसमें कोई व्यवधन नहीं डाला जाता। यह विधि सामान्य रूप से छोटी विषय सामग्री को याद करने में अधिक उपयोगी सिद्ध होती है।

7. सक्रिय विधि:
इस विधि में स्मरण के समय शारीरिक सक्रियता पर अधिक बल दिया जाता है। बहुधा इस विधि द्वारा जोर-जोर से बोलकर विषय को याद किया जाता है। इस विधि के विषय में एविंग हाउस और उसके अनुयायिों का मत है कि यह विधि स्मरण की उत्तम विधि है। इसमें याद करते समय एक रोचकता बनी रहती है जिसके कारण विषय जल्दी याद हो जाता है। अधिक रोचक बनाने के लिये कभी-कभी इस विधि को लयात्मक भी बनाया जाता है।

8. मनन विधि:
यह विधि सक्रिय-विधि के एकदम विपरीत है। इसमें याद करते समय विषय को मन ही मन में दोहराया जाता है। इसके साथ शरीर और वाणी दोनों इस विधि में शिथिल होते हैं। यदि विधि एक जटिल विधि है और सामान्य रूप से प्रत्येक व्यक्ति इसका उपयोग नहीं कर सकता, किन्तु फिर भी कुछ विशेष विषयों के स्मरण में यह विधि अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होती है। अधिकांश गम्भीर विषयों को समझने में यह विधि प्रयोग में लाई जाती है।

9. बौद्धिक विश्लेषण विधि:
जैसा कि इस विधि के नाम से ही स्पष्ट है कि इसमें विषय को प्रयास करके बौद्धिक विश्लेषण के द्वारा याद किया जाता है। इस विधि द्वारा यह याद किया गया विषय अधिक स्थायी रूप से चेतना स्तर पर अंकित हो जाता है। अतः यह विधि स्मरण की उत्तम विधि मानी जाती है।

10. यांत्रिक विधि:
इस विधि द्वारा याद करने वाले विषय को बिना बौद्धिक विश्लेषण किये सीधे रूप में याद किया जाता है। इस प्रकार यह विधि बौद्धिक विश्लेषण विधि के एकदम विपरीत है, इसमें विषय को बिना विचार के बार-बार दोहराकर याद किया जाता है। यह विधि स्मरण विधियों में अच्छी विधि नहीं मानी जाती क्योंकि इस विधि द्वारा याद किये गये विषय के स्मृति चिह्न अधिक समय तक मस्तिष्क में नहीं टिक पाते। इस विधि को बोध रहित विधि भी कहा जाता है। इसे यांत्रिक विधि इसलिये कहते हैं क्योंकि इसमें व्यक्ति एक यंत्र की भांति काम करता है।

इस प्रकार हमने स्मृति को विभिन्न विधियों का विश्लेषणात्मक अध्ययन करके यह पाया कि स्मरण की कौन-सी विधि सर्वोत्तम है और कौन-सी न्यूनतम है यह निर्णय नहीं किया जा सकता क्योंकि स्मरण की समस्त विधियों की अपनी-अपनी विशेषतायें हैं जिसके आधार पर सभी विधियाँ उत्तम हैं किन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि प्रत्येक विधि का विषय की प्रकृति के आधार पर ही समस्त विधियाँ उत्तम हैं। उदाहरणार्थ-लम्बे विषय के लिये आंशिक विधि तथा छोटे विषय को स्मरण करने के लिए आंशिक और व्यवस्थित, सार्थक एवं लघु विषय-वस्तु के लिये पूर्ण विधि महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार स्मरण विधि की उत्तमता विषय-वस्तु की प्रकृति पर निर्भर करती है। अत: स्मरण स्मृति की विधियाँ उत्तम हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 10.
विस्मरण के व्यवहारवादी या बाधक सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
बाधक सिद्धांत या जिसे हस्तक्षेप सिद्धांत भी कहा जाता है, विस्मरण का एक प्रमुख सिद्धांत है। इस सिद्धांत में विस्मरण की व्याख्या व्यवहारवादियों के नियमों के अनुकूल की गई है। इसलिए इसे विस्मरण का व्यवहारवादी सिद्धांत (behaviourstic theory) भी कहा जाता है। बाधक सिद्धांत का दावा है कि जब किसी पूर्व सीखी गई अनुक्रिया या विषय अर्थात् मौलिक विषय या पाठ का व्यक्ति प्रत्याह्वान (recall) करता है तो उस समय उन सभी अनुक्रियाओं या विषयों, जिन्हें वह मौलिक विषय के पहले तथा बाद में सीख चुका होता है, से उत्पन्न स्मृति-चिह्न आपस में अन्तःक्रिया (interaction) करते हैं।

इस तरह की अंत:क्रिया के दो परिणाम होते हैं-सरलीकरण (facilitation) तथा बाधा (interference)। विस्मरण इसी बाधक परिणाम की अभिव्यक्ति करता है। इस तरह का बाधक प्रभाव जितना अधिक होता है, विस्मरण की मात्रा भी उतनी ही अधिक होती है। बाधक सिद्धांत की इस व्याख्या से यह स्पष्ट है कि इसमें विस्मरण का कारण मौलिक विषय के बाद सीखे गए विषय या पाठ (अग्रलक्षी अवरोध) दोनों को बतलाया गया है। फलतः बाधक सिद्धांत के दो मुख्य पहलू हैं जो इस प्रकार हैं –

  1. बाधक सिद्धांत-पूर्वलक्षी या पृष्ठोन्मुख अवरोध (Interference theory retroac tive inhibition) और
  2. बाधक सिद्धांत-अग्रलक्षी अंवरोध (Interference theory:proactive inhibition) इन दोनों पहलुओं का वर्णन निम्नांकित है –

बाधक सिद्धांत-पूर्वलक्षी या पृष्ठोन्मुख अवरोध (Interference theory: retro active inhibition):
पृष्ठोन्मुख अवरोध की व्याख्या बाधक सिद्धांत के अनुसार सबसे पहले मैकग्यूश (McGeoch) द्वारा की गई। इन्होंने इसकी व्याख्या करने के लिए एक विशेष प्राक्कल्पना (hyothesis) बनाई जिसे स्वतंत्र प्राक्कल्पना (independence hypothesis) कहा गया। इस प्राक्कल्पना के अनुसार मौलिक विषय के सीखने से उत्पन्न स्मृति-चिह्न तथा अवरोधक विषय से उत्पन्न स्मृति-चिह्न दोनों ही एक साथ स्वतंत्र रूप से बिना एक-दूसरे को प्रभावित किए संचित रहते हैं।

जब व्यक्ति मौलिक पाठ का प्रत्याह्वान करता है तो मौलिक पाठ के स्मृति-चिह्नों एवं अवरोधक पाठ के स्मृति-चिह्नों के बीच एक तरह की प्रतियोगिता उत्पन्न होती है जिसका परिणाम यह होता है कि मौलिक विषय का प्रत्याह्वान कम हो जाता है, यानी उसकी विस्मरण हो जाता है। मैकग्यूश ने यह भी बतलाया है कि जब मौलिक विषय तथा अवरोधक विषय के बीच समानता होती है तो प्रत्याह्वान के समय दोनों विषयों के स्मृति-चिह्नों में प्रतियोगिता अधिक होती है जिससे व्यक्ति मौलिक विषयों या पाठों का प्रत्याह्वान कम कर पाता है और उसका विस्मरण हो जाता है।

चूंकि मैकग्यूश के इस सिद्धांत में विस्मरण की व्याख्या मौलिक पाठ तथा अवरोधक पाठ के स्मृति-चिह्नों के बीच उत्पन्न प्रतियोगिता के आधार पर होती है, इसलिए इसे अनुक्रिया की प्रतियोगिता सिद्धांत (competition of response theory) भी कहा जाता है । इसे स्थानांतरण सिद्धांत (transfer theory) भी कहा जाता है। क्योंकि मैकग्यूश ने यह भी बतलाया है कि इस प्रतियोगिता के कारण एक तरह का नकारात्मक अंतरण (negative transfer) हो जाता है जिससे मौलिक विषय के प्रत्याह्वान में कमी आ जाती है।

मैकग्यूश ने अपने सिद्धांत में यह भी स्पष्ट किया कि मौलिक विषय या पाठ के प्रत्याहह्वान के समय स्मृति-चिह्नों के बीच हुई प्रतियोगिता की अभिव्यक्ति तीन तरह के सूचक (indices) द्वारा होती है-प्रकट अंत:सूची बलप्रवेश (over interlist iotrusion) जिसमें मौलिक पाठ का प्रत्याह्वान करते समय अवरोधक पाठ (interfering task), स्मृति-चिह्न एक तरह से बलप्रवेश (intrusion) कहते हैं तथा प्रकट अंतरासूची बलप्रवेश (over intraclist intrusion) जिसमें मौलिक पाठ या सूची का प्रत्याह्वान करते समय जिस पद का या एकांश का प्रत्याह्वान करना चाहिए था, उसका प्रत्याहह्वान न करके उसकी जगह व्यक्ति एक-दूसरे पद का प्रत्याह्वान करता है।

अप्रकट बलप्रवेश (covert intrusion) में मौलिक विषय या पाठ का प्रत्याह्वान करते समय अवरोधक पाठ का पद या एकांश व्यक्ति के मन में अपने-आप आ जाता है, फिर उसे गलत समझकर वह प्रत्याह्वान न करके चुप रह जाता है। इन तीनों तरह के बलप्रवेश में प्रथम दो तरह के बलप्रदेश से विस्मरण अधिक होता है।

मनोवैज्ञानिकों द्वारा मैकम्यूश के इस सिद्धांत की कुछ आलोचनाएं निम्नांकित बिन्दुओं पर की गई हैं –

1. मैकग्यूश की इस अनुक्रिया की प्रतियोगिता सिद्धांत की आलोचना मेल्टन एवं इर्विन (Melton & Irvin) द्वारा की गई है। इन लोगों ने अपने प्रयोगात्मक अध्ययनों के आधार पर यह बतलाया है कि विस्मरण का कारण मात्र प्रतियोगिता कारक (competition factor) नहीं होता है, बल्कि अन-अधिगम कारक (unlearning factor) भी होता है जिसकी चर्चा तक इस सिद्धांत में नहीं की गई है।

2. मैकग्यूश के इस सिद्धांत के अनुसार अगर मौलिक विषय या पाठ की लम्बाई अधिक है तो छोटा विषय या पाठ की तुलना में उसका विस्मरण अधिक होगा, क्योंकि बड़ा पाठ या सूची होने पर प्रतियोगी पदों या एकांशों की संख्या अधिक हो जाती है जिससे प्रतियोगिता बढ़ जाती है और उसके प्रत्याह्वान में कमी आ जाती है।

3. बाधक सिद्धांत-अग्रलक्षी प्रावरोध या अवरोध (Interference theory : proac tive inhibition):
बाधक सिद्धांत का दूसरा महत्त्वपूर्ण पहलू अग्रलक्षी अवरोध की वख्या करना है। जब मौलिक विषय या सूची के प्रत्याहवान में कमी वैसे विषय या सूची के सीखने से उत्पन्न स्मृति-चिह्नों द्वारा की गई प्रतियोगिता के कारण होती है जिसे व्यक्ति मौलिक विषय या पाठ के पहले सीख चुका होता है तो इसे अग्रलक्षी अवरोध कहा जाता है। ग्रीनवर्ग तथा अंडरवुड (Greenberg & Underwood) ने एक प्रयोग किया 10-10 विषय की चार सूचियाँ तैयार करके प्रयोज्य को एक-एक करके सीखने के लिए दी और एक-एक करके 48-48 घंटे के बाद उसका प्रत्याह्वान 69% किया जबकि अंतिम सूची का प्रत्याह्वान मात्र 25% किया।

इसका मतलब यह हुआ कि पहली सूची का विस्मरण 31% हुआ जबकि दूसरी सूची का विस्मरण 75% हुआ। प्रयोगकर्ताओं के अनुसार चौथी सूची का विस्मरण इसलिए अधिक हुआ, क्योंकि इसके पहले प्रयोज्य तीन और सूचियों को सीख चुका था। अंडरवुड तथा पोस्टमैन (Underwood & Postmen), स्टार्क तथा फ्रेजर ने भी अपने-अपने प्रयोगों के आधार पर बाधक सिद्धांत द्वारा अग्रलक्षी अवरोध की उक्त व्याख्या का समर्थन किया है।

कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बाधक सिद्धांत द्वारा अग्रलक्षी अवरोध (Proactive inhibition) की प्रदत्त व्याख्या द्वारा एक महत्त्वपूर्ण तथ्य की व्याख्या नहीं होती है। सामान्यतः अवरोधक पाठ विराम अभ्यास (distributed practice) से सीखने पर अविराम अभ्यास (massed practice) से सीखने की अपेक्षा अधिक मजबूत होता है। फलत: ऐसी हालत में अग्रलक्ष्मी अवरोध की मात्रा विराम अभ्यास में अविराम अभ्यास की अपेक्षा अधिक होनी चाहिए। अंडरवुड एवं एक्ट्रैण्ड (Underwood & Ekstrand) ने अपने प्रयोग में इसके विरुद्ध तथ्य पाया है।

दूसरे शब्दों में, इन्होंने प्रयोगात्मक अध्ययन में पाया कि जब अवरोधक सूची को विराम अभ्यास देकर सीखा गया था तो अग्रलक्षी अवरोध की मात्रा कम थी, परंतु जब उसे अविराम अभ्यास देकर सीखा गया तो अग्रलक्षी अवरोध की मात्रा अधिक थी। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि बाधक सिद्धांत में विस्मरण के दोनों पहलुओं अर्थात् पृष्ठोन्मुख अवरोध तथा अग्रलक्षी अवरोध की जो व्याख्या की गई है वह अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण व्याख्या है। यद्यपि कुछ मनोवैज्ञानिक इस सिद्धांत से कुछ बिन्दुओं पर असंतुष्ट अवश्य रहे हैं, फिर भी उसी इस सिद्धांत का कोई सर्वमान्य एवं संगत विकल्प नहीं है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 11.
विस्मरण के अनुप्रयोग सिद्धांत या ह्रास नियम या एबिंगहॉस नियम की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
विस्मरण का यह सिद्धांत सबसे पहला है। जिसका प्रतिपादन जर्मन मनोवैज्ञानिक एबिंगहाँस (Ebbinghaus) द्वारा 1885 में किया गया। इस सिद्धांत का दावा है कि जब व्यक्ति किसी पाठ या विषय को सीखता है तो उससे उसके मस्तिष्क में कुछ दैहिक परिवर्तन (physiological changes) होते हैं जिन्हें ‘स्मृति चिह्न’ (memory traces) कहा जाता है। सीखने के बाद जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, तो इन स्मृति-चिह्नों का मूल कारण बीते हुए समय में मौलिक पाठ या याद किए गए पाठ (विषय) का अनुप्रयोग (disuse) है अर्थात् उसका नहीं दोहराना है। अनुप्रयोग के कारण स्वभावतः स्मृति-चिह्न क्षीण हो जाते हैं जिसके कारण सीखे गए पाठ का विस्मरण हो जाता है।

एबिंगहॉस के इस सिद्धांत की उक्त व्याख्या से यह स्पष्ट है कि इसमें विस्मरण के मुख्य तीन कारण बतलाए गए हैं –

  1. सीखने के बाद समय का बीतने जाना। समय-अंतराल जितना ही अधिक होगा विस्मरण की मात्रा उतनी ही अधिक होगी।
  2. बीते हुए समय में मौलिक पाठ या विषय को नहीं दोहराना अर्थात् उसका अनुप्रयोग (disuse) करना।
  3. समय बीतने और उसमें विषय या पाठ का अनुप्रयोग होने से स्मृति-चिह्नों का ह्रास होना।

यद्यपि यह सिद्धांत अपने समय का एक काफी महत्त्वपूर्ण रहा है, किन्तु आज इसकी मान्यता समाप्त हो गई है। इसकी व्याख्या को पौराणिक व्याख्या माना जाता है। इस सिद्धांत की आलोचना भी काफी हो गई है। इसकी व्याख्या को पौराणिक व्याख्या माना जाता है। इस सिद्धांत की आलोचना भी काफी हो गई है। इसकी प्रमुख आलोचनाओं में निम्नांकित प्रमुख हैं –

1. कई प्रयोगों से यह स्पष्ट हो गया है कि विस्मरण का कारण मात्र समय का बीतना नहीं होता है बल्कि जब व्यक्ति उस समय-अंतराल में नई-नई अनुभूतियों को सीखता है तो इससे पहले सीखे गए पाठ या विषय के प्रत्याह्वान (recall) में बाधा पहुँचती है जिससे भी विस्मरण होता है। मुलर एवं पिल्जेकर (Muller & Pilzecker) ने तथा जेनकिन्स एवं डैलेनबैक (Jankins & Dallenback) ने भी अपने-अपने प्रयोगों से इस तथ्य की संतुष्टि की है कि विस्मरण का कारण समय का बीतना नहीं होता है बल्कि उस समय अंतराल में कुछ नई अनुभूतियों को प्राप्त करना होता है। दूसरे शब्दों में, विस्मरण का कारण पृष्ठोन्मुख अवरोध (retroactive inhibition) होता है।

2. विलोपन (extinction) से मिले तथ्य भी हास या अनुप्रयोग सिद्धांत के प्रतिकूल माने जाते हैं। विलोपन की प्रक्रिया में व्यक्ति के सामने उद्दीपन (stimulus) दिया जाता है और व्यक्ति उस उद्दीपन के प्रति सही अनुक्रिया भी करता है, परंतु अनुक्रिया देने के बाद मात्र पुनर्बलन (reinforcement) नहीं दिया जाता है। इस तरह से इस अध्ययन में उद्दीपन-अनुक्रिया मजबूत होने के बजाय कमजोर होती चली जाती है।

3. स्वतः पुनर्लाभ (spontaneous recovery) तथा संस्मरण (reminiscence) की घटना से भी अनुप्रयोग सिद्धांत की आलोचना होती है। ये दोनों मनोवैज्ञानिक घटनाएँ कुछ ऐसी हैं जिनमें समय बीतने के साथ ही मौलिक विषय या पाठ में हास होने के बदले वृद्धि होती है, हालांकि इस समय-अंतराल में व्यक्ति उस सीखे गए विषय को कभी दोहराता नहीं है।

ऐसी परिस्थिति में सिद्धांत की व्याख्या के अनुसार सीखे गए विषय या पाठ का विस्मरण होना चाहिए था कि उसकी धारणा में वृद्धि होनी चाहिए थी। उपर्युक्त आलोचनाओं को ध्यान में रखते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि विस्मरण का कारण समय का बीतना नहीं होता। अत: अनुप्रयोग सिद्धांत को विस्मरण का एक वैज्ञानिक सिद्धांत न मानकर एक अनुपयुक्त सिद्धांत कहना अधिक उचित होगा।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 7 मानव स्मृति

प्रश्न 12.
याद करने से संबंधित विधियों तथा नियमों के महत्त्व के अतिरिक्त कर्ता में क्या-क्या अतिरिक्त विशेषताएँ होनी चाहिए?
उत्तर:
स्मृति सहायक संकेत तथा आधुनिक बोधगम्य उपागम के परामर्शों का शत-प्रतिशत पालन करने पर भी कुछ घात अच्छे अंक नहीं प्राप्त कर पाते हैं। सच तो यह है कि ऐसी कोई भी विधि या नियम या शैली या पद्धति नहीं है जो याद करने से संबंधित सारी समस्याओं का समाधान बनकर रातोंरात स्मृति में सुधार ला दे। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि अपनायी जाने वाली विधियाँ निरर्थक एवं बेकार हैं। अच्छी स्मृति के लिए सभी प्रचलित विधियों के अलावे निम्नांकित कारकों पर भी ध्यान देना आवश्यक है –

  1. शारीरिक स्वास्थ्य
  2. सीखने के प्रति रुचि एवं ललक
  3. सीखने के लिए प्रेरक दृष्टांत
  4. कलम, कागज, पुस्तक, प्रकाश, मेज परिवेश आदि का अनुकूल प्रबंधन

अतः स्मृति के विकास के लिए, सिद्धांत साधन के अलावा सुधार सम्बन्धी युक्तियों को समझने तथा साधनों के संचालन का ज्ञान भी आवश्यक है। आज तकनीकी ज्ञान तो सभी के लिए अनिवार्य बनता जा रहा है।

प्रश्न 13.
विस्मरण वक्र पर नोट लिखें।
उत्तर:
विस्मरण के संबंध में किये गये प्रयोग से यह अनुमान लगाया गया कि शिक्षण के ‘बाद पहले 20 मिनट की अवधि में ही 47% सीखे गए निरर्थक नदों का विस्मरण हो गया, 24 घंटों, अर्थात् 1 दिन के अंतर पर 66%, 2 दिनों में 72%,3 दिनों में 79% विस्मरण हुआ। इससे स्पष्ट होता है कि सीखने के बाद धारण-मध्यांतर काल के प्रारम्भ में विस्मरण बड़ी तेजी के साथ हुआ और धीरे-धीरे जैसे-जैसे समय अंतराल की अवधि बढ़ती गई, विस्मरण की गति भी धीमी होती गई। ऊपर के आँकड़ों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सीखने के तीसरे और 31 वें दिन के बीच भूलने की मात्रा 79% – 72% = केवल 7% हुई, जबकि पहले 2 दिनों के अंदर ही वे सीखे गए पदों में 72% पद भूल गए। एबिंगहॉस द्वारा निर्मित उपर्युक्त वक्र की निम्नलिखित कुछ प्रमुख विशेषताएँ हैं –

1. उपर्युक्त विस्मरण:
वक्र को देखने से यह स्पष्ट पता चलता है कि विस्मरण की गति या दर सदा एक-सी नहीं होती। अर्थात् भूलने की गति एक नियमित या स्थिर गत से नहीं बढ़ती। सीखने की क्रिया के तत्काल बाद भूलने की क्रिया बहुत अधिक तीव्र या तेज होती है और जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, सीखे गए विषय के शेष अंश अधिक-से-अधिक दृढ़ या स्थायी (fixed) होते जाते हैं। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति सीखे हुए विषय में से अधिकांश बातों को सीखने के तुरंत बाद ही भूलता है तथा बाद में इसकी (भूलने की) गति धीमी पड़ जाती है, जिससे भूलने की मात्रा अपेक्षाकृत कम होती है।

2. विस्मरण वक्र (forfetting curve) से यह भी स्पष्ट होता है कि भूलने का एक प्रधान कारण समय व्यवधान या अन्तराल की अवधि है। एबिंगहॉस के अनुसार जो अनुभव जितना पुराना होता है, उसकी स्मृति भी उतनी ही क्षीण होती जाती है। इसका अर्थ यह है कि सीखने की क्रिया समाप्त होने के तुरंत बाद उनका अधिकांश विस्मृत हो जाता है।

फलस्वरूप, जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, तत्काल भूले हुए अंश उपयोग में नहीं रहते, क्योंकि व्यक्ति न तो उन अंशों को बाद में दुहरा पाता है और न उन्हें मानसिक रूप से पुनर्जीवित ही कर पाता है। फलतः उन अनुभवों का उपयोग नहीं होता। अतः सीखे गए अनुभवों का अनुप्रयोग ही भूलने का कारण है। इस दृष्टिकोण से भूलना एक निश्चेष्ट या निष्क्रिय प्रक्रिया है। अस्तु, सीखना जितना भी पुराना होता जाता है, उसकी स्मृति भी उतनी ही कमजोर पड़ती जाती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
विस्मरण के स्वरूप को समझने का सर्वप्रथम क्रमिक प्रयास किसने किया:
(a) एबिंगहास
(b) गिब्सन
(c) बार्टलेट
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) एबिंगहास

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

Bihar Board Class 11 Psychology अधिगम Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
अधिगम क्या है? इसकी प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
परिचय एवं परिभाषा-अभ्यास और अनुभव के कारण व्यवहार में या व्यवहार की क्षमता में होने वाला अपेक्षाकृत स्थायी परिवर्तन को अधिगम कहा जाता है। कभी-कभी मानवीय व्यवहारों में अस्थायी अथवा क्षणिक परिवर्तन देखे जाते हैं। इस श्रेणी का परिवर्तन अधिगम नहीं कहलाता है जैसे, संगीत के प्रति उत्पन्न रुझान को अधिगम मान सकते हैं।

यदि यह परिवर्तन स्थायी हो जाए और प्रभावित व्यक्ति संगीत के सभी कार्यक्रमों में भाग लेने की तत्परता दिखाने लगे, लेकिन बेटे की गलती के कारण माँ का रौद्र रूप अधिगम नहीं माना जाएगा क्योंकि पीटने वाली माँ कुछ ही देर बाद बच्चे को सहलाने लगती है। अर्थात् उत्पन्न गुस्सा से माँ के व्यवहार में आने वाला परिवर्तन बिल्कुल अस्थायी होने के कारण अधिगम नहीं कहला सका।

अधिगम की विशेषताएं-अधिगम की प्रक्रिया से संबंधित कुछ विशिष्ट विशेषताएँ होती हैं जो निम्नलिखित हैं –

1. अधिगम में सदैव किसी-न-किसी तरह का अनुभव सम्मिलित रहता है:
उदाहरण के रूप में, एक ऐसे व्यक्ति के व्यवहार पर विचार करते हैं जो चाय पीने वाले को देखकर हँसी उड़ाता था और आज वह चाय पीने का लत का स्वयं शिकार बनकर रोज सात बजे सुबह चाय की दुकान पर पहुंचकर बोलता है कि चाय नहीं पीने से सर दर्द होने लगता है। उस व्यक्ति में चाय की लत स्थायी रूप ले चुकी है।

इसी तरह भींगे हाथ से बिजली का स्विच दबाते ही झटका महसूस करने वाला लड़का स्विच को छूने से डरने लगा है। स्विच के प्रति लड़का के आचरण या व्यवहार में आने वाला अन्तर भी अधिगम माना जाएगा। किन्तु, क्रिकेट में भारत की हार का समाचार सुनते ही मूर्च्छित होकर गिर जाने वाले लड़का के व्यवहार में आने वाला अस्थायी अन्तर अधिगम नहीं माना जाएगा क्योंकि सभी दुखद समाचार के प्रभाव से वह मूर्च्छित नहीं हो पाता है।

2. अधिगम के कारण व्यवहार में होने वाले परिवर्तन अपेक्षाकृत स्थायी होते हैं:
थकान, औषधि, आदत के कारण व्यवहार में होनेवाले परिवर्तन अस्थायी होने के कारण अधि गम नहीं कहलाते हैं लेकिन नहीं खाने पर कमजोरी महसूस करने वाला परिवर्तन स्थायी होने के कारण अधिगम कहलाने का अधिकार रखते हैं।

3. अधिगम में मनोवैज्ञानिक घटनाओं का एक क्रम होता है:
बच्चे को अंग्रेजी सिखलाने वाला सर्वप्रथम यह जानना चाहता है कि बच्चा कितने बड़े शब्द भंडार या व्याकरण के नियमों की जानकारी रखता है। इसके बाद वह यह जानने का प्रयास करता है कि बच्चा के पास किस प्रकार के शैक्षणिक साधन (किताब, कॉपी, पेन्सिल) उपलब्ध है। तीसरे क्रम में वह पता लगाता है कि बच्चा अंग्रेजी सीखने की ललक रखता है या नहीं।

अंत में वह सभी तरह से संतुष्ट होकर अंग्रेजी पढ़ाने लगता है। कुछ ही दिनों के बाद बच्चा अंग्रेजी में बातचीत करने में गौरव महसूस करने लगता है। अंग्रेजी के प्रति बच्चे के व्यवहार में आनेवाला परिवर्तन मनोवैज्ञानिक घटनाओं का एक निश्चित क्रम का स्थायी परिणाम है। अतः इसे अधिगम की श्रेणी में रखा जा सकता है।

4. अधिगम एक अनुमानित प्रक्रिया है और निष्पादन से भिन्न है:
निष्पादन किसी व्यक्ति का प्रेक्षित व्यवहार या अनुक्रिया है। एक व्यक्ति कार चलाने की कला (ड्राइवरी) सीखने के लिए अपनी माँ से पैसा लेता है। वह कभी प्रशिक्षण में शामिल होता कभी नहीं लेकिन माँ को अच्छी जानकारी का झांसा दिया करता है। समय समाप्त होने पर माँ उसे कार चलाने को कहती है।

वह व्यक्ति कार को शहर के भीड़वाले रास्ते से होकर माँ को मन्दिर तक पहुँचा देता है। कार चला लेना ही प्रशिक्षण का अंतिम पड़ाव था जिसमें वह व्यक्ति सफल रहा। उस व्यक्ति के व्यवहार से माँ प्रयास का सफल निष्पादन मानते हुए लड़के को सफल चालक के रूप में स्वीकार कर लिया। माँ का यह अनुमान कि लड़का कार चलाना सीख चुका है, अधिगम का एक उदाहरण कहलाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 2.
प्राचीन अनुबंधन किस प्रकार साहचर्य द्वारा अधिगम को प्रदर्शित करता है?
उत्तर:
प्राचीन अनुबंधन में अधिगम की स्थिति में दो उद्दीपकों के बीच साहचर्य स्थापित होता है और एक उद्दीपक दूसरे उद्दीपक के आने की सूचना देने वाला बन जाता है। यहाँ एक उद्दीपक दूसरे उद्दीपक के घटित होने की सम्भावना प्रकट होती है।

भरपेट भोजन करने के उपरान्त मनपसन्द मिठाई से भरी थाली को देखते ही एक व्यक्ति के मुँह में लार का उत्पन्न होना एक अनुबंधित अनुक्रिया का उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्राचीन अनुबंधन कहलाने वाले अधिगम का अध्ययन सर्वप्रथम ईशान पी पावलव ने किया था। उन्होंने कुत्ता को माध्यम बनाकर उद्दीपकों तथा अनुक्रियाओं के पारस्परिक संबंध को पूर्णतः समझना चाहा।

प्रयोग की शुरूआत में उन्होंने एक कुत्ता को एक बॉक्स में बंद कर दिया बॉक्स के अन्दर कुत्ते के लिए भोजन (मांसचूर्ण) वहुँचाया गया। कई दिनों तक भूखा रखने के बाद जब उसे भोजन पाने का अवसर मिला तो कुत्ते के मुँह में लार जमा होने लगा। पाइप और मापक बेलन की सहायता से उत्पन्न लार की माप रखी जाने लगी। कई दिनों तक कुत्ते को भोजन देने के पूर्व घंटी बजाई जाती। एक दिन घंटी के ध्वनि सुनते ही कुत्ते के मुँह में लार जमा होने लगा। घंटी का आवाज भोजन पाने की आशा के बीच साहचर्य संबंध स्थापित हो चुका था।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम img 1

सारांशतः प्रयोग से पता चला कि प्रारम्भ में दिया गया भोजन अनुबंधित उद्दीपक (US) जैसा बर्ताव किया और परिणामतः लार का निकलना अननुबंधित अनुक्रिया (UR) का काम किया। प्रयोग के अंत में जब घंटी बजाकर भोजन नहीं दिया गया तो ध्वनि की उपस्थिति में लार निकलने लगता है। इस स्थिति में घंटी को अनुबंधित उद्दीपक (CS) तथा लार स्राव को अनुबंधित अनुक्रिया (CR) जैसा बर्ताव करता हुआ पाया गया। यहाँ एक प्राणी दो उद्दीपकों के मध्य साहचर्य को सीखता है। एक तटस्थ उद्दीपक (अनुबंधित उद्दीपक, एक अननुबंधित उद्दीपक (CS) के आने का संकेत देता है। अनुबंधित उद्दीपक के परिवर्तन होते ही वह अननुबंधित उद्दीपक के आने की प्रत्याशा में अनुबंधित अनुक्रिया (CR) करने लगता है।

एक छोटा बच्चा एक फूले हुए गुब्बारे पर ज्योंहि हाथ लगाता है त्योंहि वह तेज ध्वनि के साथ फट जाता है। बच्चा डर जाता है और अब बच्चा किसी दूसरे गुब्बारे को छूने से डरने लगता है। इस स्थिति में अनुबंधित उद्दीपक (CS) के रूप में गुब्बारे तथा अनुबंधित उद्दीपक के (CS) के रूप में तीव्र ध्वनि की पहचान होती है। इस प्रकार प्रयोग एवं प्रक्षेणों से स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन अनुबंधन साहचर्य द्वारा अधिगम को प्रदर्शित करता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 3.
क्रिया प्रसूत अनुबंधन की परिभाषा दीजिए। क्रिया प्रसूत अनुबंधन को प्रभावित करनेवाले कारकों पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
क्रिया प्रसूत अनुबंध की परिभाषा-“मानवों अथवा जानवरों द्वारा ऐच्छिक रूप से प्रकट किये जाने वाले व्यवहार या अनुक्रियाओं को जो उनके नियंत्रण में रहती है, क्रिया-प्रसूत माने जाते हैं।” या क्रिया प्रसूत नामक व्यवहार का अनुबंधन ‘क्रिया प्रसूत’ अनुबंधन कहा जाता है। इसमें प्राणी पर्यावरण में सक्रिय रहता है। क्रिया प्रसूत अनुबंधन का अन्वेषण सर्वप्रथम बी. एफ. स्किनर के द्वारा किया गया था जो पर्यावरण में सक्रियता प्राणियों की ऐच्छिक अनुक्रियाओं पर आधारित प्रयोगों द्वारा पूरा किया गया था। क्रिया प्रसूत अनुबंधन को प्रभावित करनेवाले कारक-क्रिया प्रसूत अनुबंधन अधिगम का एक प्रमुख भेद (प्रकार) है जिसमें अनुक्रिया को प्रबलन द्वारा मजबूत बनाया जाता है।

कोई भी घटना या उद्दीपक एक प्रबलक हो सकती है जो किसी वांछित अनुक्रिया को घटित होने की संभावना को बढ़ाता है अर्थात् पूर्वगामी अनुक्रिया को बढ़ाती है। क्रिया प्रसूत अनुबंधन की हर प्रबलन के प्रकार (धनात्मक या ऋणात्मक) प्रबलित प्रयासों की संख्या, गुणवत्ता (उच्च या निम्न) प्रबलन अनुसूची (सतत अथवा आशिक) और प्रबलन में विलम्ब से प्रभावित होती है। अनुबंधित की जाने वाली अनुक्रिया अथवा व्यवहार का स्वरूप’ को भी एक कारक का स्थान दिया जा सकता है। इसके अतिरिक्त अनुक्रिया के घटित होने और प्रबलन के बीच का अंतराल भी क्रिया प्रसूत अधिगम को प्रभावित करनेवाला कारक माना जाता है।

प्रबलन के प्रकार:
प्रबलक वे उद्दीपक होते हैं जो पूर्व में घटित होने वाली अनुक्रियाओं की दर या संभावना को बढ़ा देते हैं। प्रबलन का विभाजन दो तरह से किया गया है –

(क) धनात्मक प्रबलक और ऋणात्मक प्रबलक तथा
(ख) प्राथमिक प्रबलक और द्वितीयक प्रबलक

प्रत्येक प्रबलन अनुसूची (व्यवस्था) अनुबंधन की दिशा को अपने – अपने ढंग से बदलती है। अर्जन प्रयास के दिये जाने के क्रम के आधार पर पता चला है कि आंशिक प्रबलन, सतत प्रबलन की अपेक्षा में विलोप के प्रति अधिक विरोध प्रदर्शित करता है। विलंबित प्रबलन-किसी भी प्रबलन की प्रबलनकारी क्षमता विलम्ब के साथ-साथ घटती जाती है। अर्थात् प्रबलन प्रदान करने में बिलम्ब से निष्पादन का स्तर निकृष्ट हो जाता है । जैसे, विलम्ब से मिलने वाले बड़े पुरस्कार की तुलना में शीघ्रता से कार्य कारक के तुरंत बाद मिलने वाला छोटा पुरस्कार अधिक पसन्द किया जाता है।

व्यवहार का स्वरूप:
अधिगम के द्वारा मिलने वाले परिणाम को अच्छा या बुरा, हितकारी या हानिकारक ध्वनि में व्यवहार का स्परूप प्रभावी होता है। अच्छा व्यवहार सुन्दर परिणाम का कारण बन जाता है। प्रबलन का बीच का अंतराल-क्रिया प्रसूत अधिगम को सफलतापूर्वक समाप्त किये जाने में प्रयास के रूप प्रबलन आरोपित करने के क्रम तथा दो प्रबलन के बीच की अवधि में विस्तार प्रबलन के प्रभाव को घटा-बढ़ा सकता है। धनात्मक प्रबलक सुखद परिणाम वाले होते हैं क्योंकि ये भोजन, पानी, धन, प्रतिष्ठा, सूचना-संग्रह आदि के माध्यम से विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने में समर्थ होते हैं। फलतः एक धनात्मक प्रबलन के मिलने के पहले जो अनुक्रिया घटित होती है, उसकी दर बढ़ जाती है।

ऋणात्मक प्रबलन, परिहार अनुक्रिया अथवा पलायन अनुक्रिया सिखाते हैं, जैसे जाड़े से बचने के लिए स्वेटर पहनना, आग के डर से भाग जाना। अतः खतरनांक उद्दीपकों से दूर भागने की प्रवृत्ति को जगाना क्योंकि यह ऋणात्मक प्रबलन से जुड़ा होता है। अर्थात् ऋणात्मक प्रबलक अपने हटने या समापन से पहले घटित होनेवाली अनुक्रिया की दर को बढ़ा देता है। प्राथमिक प्रबलक जैविक रूप से महत्वपूर्ण होता है क्योंकि यह प्राणी के जीवन का निर्धारक होता है।

द्वितीयक प्रबलक पर्यावरण और प्राणी के बीच संबंध बनाकर प्रबलक की विशेषताओं को स्पष्ट कर देता है। इसके अन्तर्गत धन, प्रशंसा और श्रेणियों का उपयोग जैसी स्वाभाविक वृत्ति को बढ़ावा मिलता है। प्रबलन की संख्या अथवा आवृत्ति-प्रबलन की संख्या अथवा आवृत्ति से उन प्रयासों का बोध होता है जो उद्दीपन की अनुक्रियता को प्रभावित करता है। उचित परिणाम में भोजन-पानी की उपलब्धता की उपस्थिति में बार-बार का प्रयास एक परिणामी निष्कर्ष को पान में समर्थ हो सकता है। अतः क्रिया-प्रसूत की गति आवृत्ति के बढ़ने से समानुपाती तौर पर बढ़ जाती है।

प्रबलन की गुणवत्ता:
आवृत्ति के बढ़ने से समानुपाती तौर पर बढ़ जाती है। क्रिया-प्रसूत अथवा नैमेत्तिक अनुबंधन की गति सामान्यत: जिस अनुपात में उसकी गुणवत्ता बढ़ती है।

प्रबलन अनुसूचियों:
अनुबंधन से सम्बन्धित प्रयासों के क्रम में प्रबलन उपलब्ध कराने की व्यवस्था के रूप में अनुबंधन की दिशा प्रभावित होती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 4.
एक विकसित होते हुए शिशु के लिए एक अच्छा भूमिका-प्रतिरूप अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता है। अधिगम के उस प्रकार पर विचार-विमर्श कीजिए जो इसका समर्थन करता है।
उत्तर:
बच्चे स्वभाव से नकलची होते है। उनकी सम्पूर्ण क्रिया-विधि पर परिवेशीय क्रियाकलापों की गहरी छाप देखने को मिलती है। बच्चे किसी भी क्रिया के सम्पादन विधि को बड़ी ध्यान से देखते हैं और तुरंत बाद स्वयं उस क्रिया को दुहराने के फिराक में रहते हैं। अर्थात् शिशु अपने घर-परिवार अथवा सामाजिक उत्सवों एवं समारोहों में उत्साहपूर्वक भाग लेते हैं जहाँ उन्हें मनपसन्द दृश्य और प्रेरणादायक क्रिया-विधि देखने को मिलता है। शिशु प्रौढ़ व्यक्तियों के अनेक प्रकार के व्यवहारों को ध्यान से प्रेक्षण करके सब कुछ सीखने का प्रयास करते हैं।

समारोह एवं उत्सव के अवसर समाप्त हो जाने के बाद वे देखे गये क्रियाकलापों को अपने खेल में शामिल कर लेते हैं। विवाह पद्धति, जन्मदिन समारोह, चोर-सिपाही, घर में होनेवाले साफ सफाई का जीवंत वित्रण करने के लिए तरह-तरह के स्वांग रचते हैं। यहाँ तक कि माता-पिता को विवाह करते देखकर वे भी काल्पनिक रूप से माता-पिता का अभिनय करके उन्हीं सब बातों को दुहराते हैं जो वे अपने घर में सुन रखा था। अत: बच्चे अधिकांश सामाजिक व्यवहार प्रौढ़ों को प्रेक्षण तथा उनकी नकल करके सीखते है। वे कपड़ा पहनना, शिक्षक बनकर छात्रों को डाँटना, फोन करना, टी.वी. चलाना, अतिथियों का आदर-सत्कार करना जैसे सभी कार्यों को बड़ों की नकल करके ही सीख लेते हैं।

सच तो यह है कि बढ़ते हुए शिशु में व्यक्तित्व का विकास, आचरण की अच्छाई, व्यवहार में कुशलता, चाय-पानी पीने का तरीका, मनपसन्द भोजन का चयन आदि प्रेक्षणात्मक अधिगम के द्वारा ही संभव होता है। दयालुता, परोपकार, आदर, श्रम-साधना, आलस्य का परित्याग के साथ-साथ तम्बाकू खाना, बीड़ी-सिगरेट पीना, आक्रामक व्यवहार को अपनाना जैसी अच्छी-बुरी आदतों या जानकारियों का मुख्य आधार प्रेरणात्मक अधिगम अथवा भूमिका प्रतिरूप ही होता है। अतः एक विकसित होते हुए शिशु के लिए एक अच्छा भूमिका-प्रतिरूप अत्यंत महत्वपूर्ण होता है।

अधिगम के सभी प्रकारों में सीखने-जानने की विधि भिन्न-भिन्न रूपों में उपलब्ध होती है लेकिन उनमें से प्रेरणात्मक अधिगम शिशुओं के स्वभाव और आवश्यकता के अनुकूल होता है। शिशुओं के द्वारा अनुकरण करने की क्षमता को प्रोत्साहित करने के लिए प्रौढ़ों को अच्छे। भूमिका-प्रतिरूप के प्रदर्शन में संकोच नहीं करना चाहिए। प्रेरणात्मक अधिगम का शिशुओं पर इतना अच्छा प्रभाव पाया गया कि इसे सामाजिक अधिगम भी कहा जाने लगा। शिशु दूसरे व्यक्तियों के व्यवहारों का प्रेक्षण करते हैं और यथासंभव प्रौढ़ों की तरह व्यवहार करने लगते हैं। व्यवसाय क्षेत्र में महत्वपूर्ण व्यक्तियों को उपभोक्ता बनाकर पेश करके अपने उत्पादन की खपत को बढ़ाने का प्रयास करते हैं।

मनोवैज्ञानिक बंदूरा और उनके सहयोगियों ने भी अध्ययन एवं प्रयोग के आधार पर प्रेरणात्मक अधिगम को शिशुओं के विकास के लिए अनुकूल बताया है। बंदूरा ने प्रेक्षण का महत्व समझने के लिए शिशुओं पर आधारित एक प्रयोग किया। प्रयोग में शिशुओं की तीन अलग टोलियों को चंद मिनट का फिल्म दिखाया। एक फिल्म में आक्रामक व्यवहार करनेवाले को इनाम एवं प्रशंसा पाते हुए दिखाया गया। दूसरे फिल्म में गलती करने वाले को दण्ड पाते दिखाया गया। तीसरे फिल्म में दिखाया गया कि आक्रामक रुख की कोई खास प्रतिक्रिया नहीं होती है। इसे स्वाभाविक वृत्ति मानकर लोग उस ओर ध्यान नहीं देते है।

प्रयोग के अंत में तीनों टोलियों को एक साथ मिलाकर आक्रामक व्यवहार करने वाले प्रतिरूप (खिलौना) को उनके बीच छोड़ दिया गया। प्रेक्षक छिपकर प्रतिक्रिया का अवलोकन करता रहा। प्रेक्षण के अवलोकन के आधार पर निर्णय किया गया कि जो बच्चा आक्रामक को इनाम पाते देखा था वह शांत रहा और जिसने दंड पाते देखा था वह क्रोध की मुद्रा बनाकर खिलौने को फेंककर उसे आहत करने का प्रयास किया। अतः अनुकरण के पक्ष में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि प्रेक्षण द्वारा अधिगम की प्रक्रिया में प्रेक्षक मॉडल (प्रतिरूप) के व्यवहार का प्रेक्षण करके जानकारी हासिल करता है परन्तु आचरण की दिशा देखे गये दृश्य पर निर्भर करता है।

इसी प्रकार, यदि कागज की नाव बनाने की कला का प्रदर्शन बच्चों के समक्ष किया जाए तो अधिकांश बच्चे कागज उपलब्ध होते ही उसे नाव बनाने में समाप्त कर देंगे। यह भी पाया जाता है कि बच्चे मोबाइल लेकर माता-पिता की भाषा में बात-चीत करने लग जाते हैं। रीमोट का प्रयोग कर माता-पिता के पसन्द का कार्यक्रम देखने का प्रयास करते है। इस प्रकार तय होता है कि विकास करते शिशुओं का भला चाहने वाले सदा प्रेरक कहानियों, सुन्दर आचरण, आधुनिक तकनीकों के प्रयोग आदि से सम्बन्धित अच्छी भूमिका प्रस्तुत करें जिसे शिशुओं का भविष्य उज्जवल हो।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 5.
वाचिक अधिगम के अध्ययन में प्रयुक्त विधियों की व्याख्या कीजिए। या, वाचिक अधिगम के अध्ययन में प्रयुक्त विधि का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
मनुष्य अपनी भावना तथा आवश्यकताओं को प्रकट करने में दूसरे के अर्जित झान को अपनाने में तथा संभावित घटनाओं को बतलाने में शब्द को माध्यम बनाता है। मानव बोलकर, सुनकर, लिखकर या पढ़कर शब्दों की महत्ता को बतलाया है। वाचिक अधिगम को अनुबंधन से भिन्न मानते हुए मात्र मनुष्यों तक ही सीमित माना है।

मनोवैज्ञानिक वाचिक अधिगम की प्रक्रिया को समझने तथा प्रयोग में लाने के लिए कई तरह की सामग्रियों का उपयोग करते हैं। जैसे निरर्थक शब्दांश, परिचित शब्द, अपरिचित शब्द, वाक्य तथा अनुच्छेद। इस अधिगम को उपयोग में लाने के लिए कई विधियों का विकास किया गया है जिनमें से निम्नलिखित तीन विधियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं –

(क) युग्मित सहचर अधिगम:
परिचय-प्रस्तुत विधि उद्दीपक-उद्दीपक अनुबंधन और उद्दीपक अनुक्रिया अधिगम के समान होती है।

प्रयोग का उद्देश्य:
अपनी मातृभाषा के शब्दों के पर्याय सीखने में इस विधि का उपयोग किया जाता है।

प्रयोग-क्रम:

  • सर्वप्रथम युग्मित सहचरों की एक सूची बनाई जाती है जिसमें युग्मों का पहला शब्द उद्दीपक तथा दूसरा. शब्द अनुक्रिया के रूप में अपनाया जाता है।
  • उद्दीपक शब्द व्यंजन-स्वर-व्यंजन के रूप में निरर्थक शब्दांश होता है तथा दूसरा शब्द वांछित भाषा के संज्ञा-पद होते हैं।
  • अधिगमकर्ता को उद्दीपक और अनुक्रिया शब्द को एक साथ दिखाया जाता है।
  • दोनों (उद्दीपक और अनुक्रिया) प्रकृति वाले शब्दों को पुनःस्मरण करने का परामर्श दिया जाता है।
  • एक-एक करके उद्दीपक शब्द दिखाकर प्रतिभागी को सही अनुक्रिया शब्द बताने को कहा जाता है।
  • प्रयास में असफल होने की स्थिति में वांछित अनुक्रिया शब्द दिखा दिया जाता है।
  • पहले प्रयास के सभी उद्दीपक पदों को दिखा दिया जाता है।
  • प्रयास का यह क्रम तब तक जारी रखा जाता है जब तक बिना गलती किये सभी अनुक्रिया पद बता दिये जाते हैं।
  • मानक मापदण्ड को पाने के लिए प्रयासों की कुल संख्या को युग्मित सहचर अधिगम मान लिया जाता है।

(ख) क्रमिक अधिगम:
परिचय-उद्दीपक और अनुक्रिया को नियत क्रम में प्रस्तुत करने की यह प्रचलित विधि है।

उद्देश्य:
प्रतिभागी के द्वारा सीखने की प्रक्रिया को जानना इस विधि का उद्देश्य होता है। अर्थात् प्रतिभागी किसी शाब्दिक एकांश की सूची किस तरह सीखता है और सीखने में कौन-कौन सी प्रक्रियाएँ अपनायी जाती हैं, जैसे प्रश्नों का सही उत्तर का पता लगाना इस विधि का उपयोग है।

प्रयोग-क्रम:

  • प्रयोग का प्रारम्भ शब्दों की एक सूची को तैयार कर लेने से किया गया जिसमें निरर्थक शब्दांश, अधिक परिचित शब्द, कम परिचित शब्द, परस्पर संबंधित शब्द आदि को जगह दी गई।
  • प्रतिभागी को सूची का पूरा अंश देकर निर्देश दिया गया कि सूची के क्रम को बिना बदले एकांशों को बतलाना है।
  • सूची का मात्र पहला अंश दिखाकर प्रतिभागी से दूसरा एकांश बतलाने को कहा जाता है।
  • प्रतिभागी के असफल हो जाने पर दूसरा एकांश दिखाया जाता है जिससे दूसरा एकांश उद्दीपक बन जाता है।
  • प्रतिभागी तीसरा एकांश (अनुक्रिया शब्द) को ठीक-ठीक बताने का प्रयास करता है।
  • इस बार भी असफल होने की स्थिति में उसे सही एकांश बतला कर उसे चौथा एकांश के लिए उद्दीपक मान लिया जाता है।
  • उद्दीपक-अनुक्रिया के क्रमिक पूर्वाभास विधि क्रम जारी रखा जाता है।
  • अधिगम के प्रयास को तब तक जारी रखा जाता है जब तक प्रतिभागी सभी एकांशों का सही-सही पूर्वाभाव नहीं कर लेता है।

(ग) मुक्त पुनः स्मरण:
परिचय-कुछ निर्धारित शब्दों को स्मरण के द्वारा एक विशिष्ट क्रम में सजाकर बतलाने का प्रयास मुक्त पुनः स्मरण विधि कहलाता है।

उद्देश्य:
प्रतिभागी शब्दों को किस तरह से संगठित करके उन्हें अपनी स्मृति में संचित करते हैं। स्मृति संबंधी इसी उत्सुकता को मिटाने में पुनः स्मरण विधि का उपयोग किया जाता है।

प्रयोग-क्रम:

  • सर्वप्रथम दस से अधिक शब्दों की एक सूची प्रतिभागियों को पढ़ने एवं बोलने के लिए दिया जाता है।
  • निश्चित समय तक प्रतिभागी के पास छोड़ा जाता है।
  • प्रतिभागी को किसी भी क्रम में शब्दों को बतलाने का अवसर दिया जाता है।
  • प्रतिभागी द्वारा बतलाये गये शब्दों के क्रम में एक प्रयास से दूसरे प्रयास में भिन्न पाये जाते हैं।
  • शब्दों को स्मृति में संचित करके उनके संगठन करने की प्रक्रिया अथवा विधि का पता लगाया जाता है।
  • प्रेक्षण के निष्कर्ष के रूप में पाया जाता है कि सूची के आरम्भ और अंत में स्थित शब्दों का पुनः स्मरण सूची के बीच में स्थित शब्दों की तुलना में अधिक सरल होता है।
  • स्मरण और शब्दों के संगठन सम्बन्धी तरह-तरह की जानकारियाँ जमा की जाती हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 6.
कौशल से आप क्या समझते हैं? किसी कौशल के अधिगम के कौन-कौन से चरण होते हैं?
उत्तर:
कौशल का परिचय:
सामान्य अथवा अटिल, साधारण अथवा तकनीकी किसी भी तरह के कार्य को सरलता से दक्षतापूर्ण विधि के द्वारा त्रुटिहीन परिणाम के साथ पूरा करने की कला या क्षमता को कौशल कहा जाता है। जैसे, हवाई जहाज चलाना, आशुलिपि में लिखना, कार चलाना आदि कौशल के उदाहरण हैं। किसी कौशल में अनुभव और अभ्यास के द्वारा प्रात्यक्षिपेशीय अनुक्रियाओं की एक श्रृंखला अथवा उद्दीपक-अनुक्रिया साहचर्यों की एक श्रेणी प्राप्त की जाती है। अभ्यास एवं प्रयास के द्वारा समय, त्रुटि, अवरोध आदि से बचा जाता है। कौशल प्राप्त हो जाने पर कम समय में उच्चस्तरीय परिणाम मिल जाता है।

कौशल के अधिगम के प्रमुख चरण:
महान मनोवैज्ञानिक फिट्स के अनुसार कौशल अधिगम की प्रक्रिया तीन चरणों में होती हैं –

  1. संज्ञानात्मक
  2. साहचर्यात्मक तथा
  3. स्वायत्त

कौशल अधिगम के विभिन्न चरणों में अलग-अलग तरह की मानसिक क्रियाएँ की जाती हैं लेकिन यह भी माना जाता है कि अभ्यास मनुष्य को पूर्ण बनाता है।

1. संज्ञानात्मक चरण:
अभिकर्ता को प्राप्त होने वाले निर्देशों का पालन करते हुए परिवेश से मिलने वाले सभी संकेतों एवं निर्देशों का माँग तथा अपनी अनुक्रियाओं के परिणामों को सदा अपनी चेतना में रखना होता है। कार्य निष्पादन की एक उत्तम विधि का उपयोग करके यथासंभव अच्छे परिणाम पाने के लिए अपनी समझ का प्रयोग करना होता है।

2. साहचर्यात्मक चरण:
कौशल अधिगम के प्रस्तुत चरण में विभिन्न प्रकार की सांवेगिक सूचनाओं अथवा उद्दीपकों को उपयुक्त अनुक्रियाओं से जोड़ना होता है। अभ्यास, त्रुटियाँ, लागत समय, कार्य निष्पादन के साथ उच्चस्तरीय परिणाम की प्राप्ति के प्रति सदा सतर्क रहना होता है। प्रस्तुत चरण से प्राप्त परिणामों के आधार पर ज्ञात होता है कि अभ्यास की मात्रा बढ़ाने से संभावित त्रुटियों में कमी आती है और निष्पादन की गुणवत्ता बढ़ती है। अभ्यास के द्वारा किसी अनुक्रिया को करने में लागत समय को घटाया जा सकता है। प्रेक्षण कार्य करने में एकाग्रता रखना वांछनीय हो जाता है।

3. स्वायत्त चरण:
स्वायत्त चरण में निष्पादन संबंधी दो परिवर्तन अधिक प्रमुख माने जाते हैं –
(क) पहला साहचर्यात्मक चरण की अवधानिक माँगें कम हो जाती हैं और
(ख) वाह्य कारकों द्वारा उत्पन्न की गई बाधाएँ घट जाती हैं।
अतः इस चरण में सचेतन प्रयत्न की अल्प माँगों के साथ कौशलपूर्ण निष्पादन स्वचालिता प्राप्त करना प्रमुख उद्देश्य बन जाता है।

निष्कर्ष:

  1. कौशल अधिगम का एक मात्र साधन अभ्यास है।
  2. अधिगम के लिए निरंतर अभ्यास और प्रयोग करते रहने की आवश्यकता होती है।
  3. एकाग्रता, सतर्कता और जिज्ञासा सुन्दर परिणाम के लिए वांछनीय होता है।
  4. त्रुटिहीन निष्पादन की स्वचालित, कौशल का प्रमाणक मानी जाती है।
  5. अभ्यास ही मनुष्य की पूर्ण बनाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 7.
सामान्यीकरण तथा विभेदन के बीच आप किस तरह अंतर करेंगे?
उत्तर:
सामान्यीकरण और विभेदन की प्रक्रियाएँ प्रायः सभी प्रकार के अधिगम का मुख्य लक्षण होता है। समान उद्दीपकों (घंटी का बजना, आकस्मिक प्रकाश का उत्पन्न होना, टेलीफोन की घंटी का बजना) के प्रति समान अनुक्रिया (लार स्राव, भागना, चौंकना) के गोचर को सामान्यीकरण माना जाता है। माँ के द्वारा छिपाई गई मिठाई को बार-बार खोजने की क्रिया समान अनुक्रिया का बोध कराता है। अत: जब तक सीखी हुई अनुक्रिया की एक नए उद्दीपक से प्राप्ति होती है तो उसे सामान्यीकरण कहते हैं।

विभेदन को समान्यीकरण का पूरक माना जाता है। समान्यीकरण समानता पर आधारित होती है जबकि विभेदन भिन्नता के प्रति अनुक्रिया मानी जाती है। जैसे यदि कोई बच्चा एक बार मूंछ-दाढ़ी वाले व्यक्ति से डर जाता है तो वह नेक आदमी से भी डरने लगता है यदि वह मूंछ-दाढ़ी वाला हो। दूसरी ओर एक खतरनाक प्रकृतिवाला व्यक्ति भी मूंछ-दाढ़ी साफ कराके सफेद धोती में चश्मा लगाकर प्रकट होता है तो बच्चा उसके चश्मा से खेलने लगता है। यहाँ भय का कारण मूंछ-दाढ़ी को माना जाता है। बच्चे का डरना और नहीं डरना विभेदन का एक उदाहरण बन जाता है। सामान्यीकरण होने का अर्थ विभेदन की विफलता होती है। विभेदन की अनुक्रिया किसी भी प्राणी को विभेदक क्षमता या विभेदन के अधिगम का महत्त्व समझा देता है।

प्रश्न 8.
अधिगम अंतरण कैसे घटित होता है?
उत्तर:
अधिगम अंतरण को प्रशिक्षण अंतरण भी माना जाता है। इसके अंतर्गत नए अधिगम पर पूर्व अधिनियम के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है। अधिगम अंतरण पर आधारित एक रोचक प्रयोग दो भाषाओं (माना अंग्रेजी और फ्रांसीसी) के सीखने के लिए दो समूहों का चयन किया जाता है। प्रतिभागियों के एक समूह को प्रायोगिक दशा के लिए तथा दूसरे समूह को नियंत्रित दशा के लिए निर्धारित कर लिया जाता है। प्रायोगिक दशा वाले प्रतिभागियों को एक वर्ष का समय अंग्रेजी सीखने के लिए दिया जा रहा है जबकि दूसरे नियंत्रक समूह वाले प्रतिभागियों को फ्रांसीसी भाषा सीखने का अवसर दिया जाता है।

एक वर्ष की समाप्ति पर दोनों समूहों के द्वारा अर्जित भाषा-ज्ञान की जाँच की जाती है। एक वर्ष के बाद दूसरे वर्ष में प्रायोगिक समूह को फ्रांसीसी तथा नियंत्रक समूह को अंग्रेजी भाषा सीखने को कहा जाता है। दो वर्ष बीत जाने पर दोनों समूहों को दोनों विषयों के लिए समान समय उपलब्ध होने की बात मानी जाती है। दोनों समूहों को पुनः लब्धांक प्राप्त करना होता है। लब्धांक के आधार पर तया किया जाता है कि किस भाषा को सीखना सरल या कठिन है। अतः उद्दीपकों और अनुक्रियाओं में परस्पर अन्तर लाकर अधिगम की विशिष्टता को पहचानना अधिगम अंतरण के घटित होने का आधार होता है। इसमें समय, स्थिति, विषयों के क्रम, अनुभव एवं सुविधा में अन्तर लाकर सीखने या प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर जुटाता है।

प्रश्न 9.
अधिगम के लिए अभिप्रेरणा का होना क्यों अनिवार्य है?
उत्तर:
अधिगम के लिए अभिप्रेरणा उसे सुगम बनाने वाले कारकों में से एक है। अभिप्रेरणा का सामान्य अर्थ है व्यक्ति को किसी काम के प्रति रुचि जगाना तथा आवश्यक ऊर्जा का संचार करना। प्राणी की एक ऐसी मानसिक एवं शारीरिक अवस्था अभिप्रेरणा के अन्तर्गत आता है जो वांछनीय लक्ष्य या आवश्यकता की पूर्ति करने के लिए व्यक्ति विशेष को प्रबलता से काम करने की ओर धकेलता है। अधिगम के लिए अभिप्रेरणा का होना निम्न कारणों से अनिवार्य होता है –

  1. अभिप्रेरणा व्यक्ति के अन्दर क्रियाशीलता को बढ़ाता है।
  2. अभिप्रेरणा हमारे व्यवहार का चयन करने में मदद करता है।
  3. अभिप्रेरणा किसी व्यक्ति के व्यवहार में सुधार लाता है।
  4. अभिप्रेरणा लक्ष्य की प्राप्ति की ओर व्यक्ति की रुचि जगाता है।
  5. अभिप्रेरणा किसी व्यक्ति को प्रबलन की महत्ता को सीखाता है।
  6. अभिप्रेरणा से व्यक्ति में श्रम करने की योग्यता तथा कुछ खोजने की प्रवृत्ति जगाता है।

अर्थात् किसी भी व्यक्ति की दक्षता को बढ़ाने के लिए सुरक्षा की समझ देने, लक्ष्य, प्रयास, परिणाम की वास्तविकता को समझना अभिप्रेरणा से संभव है। इसी कारण अभिप्रेरणा एक अनिवार्य कारक के रूप में सर्वप्रिय है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 10.
अधिगम के लिए तत्परता के विचार का क्या अर्थ है?
उत्तर:
तत्परता का साधारण अर्थ इच्छाशक्ति अथवा किसी काम के प्रति अनुराग का प्रदर्शन है। यदि कोई व्यक्ति किसी काम को पूरा कर लेने पर संतोष व्यक्त करता है अथवा अवसर पाकर काम को पूरा करने हेतु तैयार हो जाता है ता माना जाता है कि उस व्यक्ति के द्वारा तत्परता दिखाई जा रही है। प्राणियों की विभिन्न प्रजातियों में अपनी संवेदना क्षमताओं तथा अनुक्रिया करने के लिए परम लक्ष्य होता है वही दूसरों के लिए निरर्थक माना जाता है। प्राणियों के लिए उद्दीपक-उद्दीपक (S-S) अथवा उद्दीपक-अनुक्रिया (S-R) का मान साहचर्य को स्थापित करने की दृष्टि से अलग-अलग होती है।

रुचि, क्षमता, लगन, दक्षता, कुशलता आदि में से प्रत्येक मामले में सभी प्राणियों की दशा अलग-अलग होती है। सीखने की दृष्टि से यदि तत्परता पर ध्यान देने की बात चले तो स्पष्ट होगा कि सीखे जानेवाले वैसे कार्य या विषय तथा अवश्यकता या रुचि के प्रतिकूल कार्य या विषय के बीच व्यवहार में भारी अन्तर प्रकट होता है। इच्छा शक्ति और लक्ष्य के अनुकूल कार्य सरलता से अच्छे परिणाम के साथ पूरे किये जाते हैं जबकि लक्ष्यहीन कार्य कठिनाई से एवं अनियमित ढंग से किसी तरह पूर्णता तक पहुँचा दिये जाते हैं।

ईंट ढोने को यदि उदाहरण माना जाय तो यदि तत्परता के साथ ईंट लाया जाएगा तो वह पूर्व आकार में रहेंगे तथा सजाकर रखे जाएँगे लेकिन यदि तत्परता का अभाव होगा तो टूटी-फूटी ईंटों का एक बेडौल ढेर देखने को मिलेगा। दोनों हालतों में पूर्व स्थान से ईंट को हटाने का कार्य पूरा कर लिया गया प्रतीत होता है। अतः तत्परता किसी व्यक्ति की कार्यकुशलता को बढ़ाती भी है तथा अच्छे परिणाम को पाने के लिए प्रेरित भी करती है। तत्परता के साथ किसी विषय को सीखना भी सरल हो जाता है तथा तत्परता के साथ सीखा गया विषय स्थायी भी होता है।

प्रश्न 11.
संज्ञानात्मक अधिगम के विभिन्न रूपों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
संज्ञानात्मक अधिगम को मनोवैज्ञानिक अधिगम का मूल माना जाता है। इसमें कार्यकलापों की जगह ज्ञान में परिवर्तन लाने का प्रयास शामिल है। संज्ञानात्मक अधिगम को दो विभिन्न रूपों में बाँटकर अध्ययन किया जाता है –
(क) अंतर्दृष्टि अधिगम और
(ख) अव्यक्त अधिगम।

(क) अंतर्दृष्टि अधिगम:
अंतर्दृष्टि से ऐसी प्रक्रिया का बोध होता है जिसके द्वारा किसी समस्या का समाधान एकाएक प्रकट हो जाता है। अंतर्दृष्टि अधिगम की व्याख्या अनुबंधन के आधार पर सरलता से नहीं की जा सकती है किन्तु इसका सामान्योकरण अन्य मिलती हुई समस्याओं की परिस्थितियों में हो सकता है। अंतर्दृष्टि अधिगम में अचानक समाधान प्राप्त होना अनिवार्य है। इसे सत्य प्रमाणित करने के लिए कोहलर ने चिम्पैंजी को माध्यम बनाकर प्रयोग को पूरा किया।

उन्होंने एक भूखे चिम्पैंजी को एक बड़े बंद खेल क्षेत्र में डाल दिया। वह भूखा था लेकिन भोज्य पदार्थ उसकी पहुँच से बाहर रख दी गई थी। बन्द क्षेत्र में बक्सा तथा छड़ी रख दिया गया। भूखा होने के कारण चिम्पैंजी भोज्य पदार्थ प्राप्त करने के लिए प्रयास करने लगा। शीघ्र ही चिम्पैंजी ने बक्सा तथा छड़ी अपने अधीन कर लिया।

वह बक्सा पर चढ़कर छड़ी की सहायता से बार-बार रोटी गिराने का प्रयास करने लगा। चिम्पैंजी अब बक्सा पर चढ़कर छड़ी से रोटी गिराना सीख चुका था। चिम्पैंजी, अब बन्द किये जाने पर तुरंत रोटी को गिरा कर खा लेता था। किसी प्रयोग से परिणाम की प्राप्ति नहीं होने पर अचानक निष्कर्ष को पाकर प्रयोगकर्ता काफी खुश होता है। सिंचाई के लिए परेशान किसान हठात् की वर्षा पाकर खुश हो जाता है। संज्ञानात्मक अधिगम में साधन और साध्य के बीच एक संबंध का होना प्रतीत होता है।

(ख) अव्यक्त अधिगम:
अव्यक्त अधिगम की प्रमुख विशेषता के रूप में माना जाता है कि इसमें एक नया व्यवहार सीख लिया जाता है, किन्तु व्यवहार दर्शाया नहीं जाता है। अपवर्त्य अधिगम से संबंधित एक प्रयोग टॉलमैन के द्वारा किया गया। टॉलमैन ने चूहों के दो समूहों को भूल-भुलैया नामक कक्ष में छोड़ दिया। चूहों के एक समूह को भोज्य पदार्थ की स्थिति ज्ञात थी लेकिन वहाँ तक पहुँचने का रास्ता अज्ञात था। भोजन की लालच में चूहा बहुत भटका। कई अंधपथों में आगे बढ़कर लौट आया।

लेकिन अंत में वह भोज्य पदार्थ तक पहुँच ही गया। बार-बार किये गये प्रयास का फल उसे प्राप्त हो गया। अब वह आसानी से कम समय में द्वार से भोजन तक का रास्ता बिना भटके दौड़कर पूरा कर लेता है। दूसरा चूहा कुछ नहीं जानता था फिर भी वह पहले चूहा की तरह रास्ता तय करने लगा। प्रस्तुत प्रयोग के माध्यम से टॉलमैन अपनी खोज का एक निष्कर्ष निकाला जिसके अनुसार चूहों ने अपने अव्यक्त अधिगम के सहारे भोज्य पदार्थ तक पहुँचने का मार्ग चुन लिया। वह किस प्रकार रास्ता का सही अंदाज लगाया यह अव्यक्त ही रहा। अर्थात् अपने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए उन्हें, जिन दिशाओं और स्थानिक अवस्थितियों की आवश्यकता भी उनका मानस चित्रण किया।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 12.
अधिगम अशक्तता वाले छात्रों की पहचान हम कैसे करते हैं?
उत्तर:
अधिगम अशक्तता वाले छात्रों की पहचान हम निम्नलिखित लक्षणों के आधार पर करते हैं –

  1. अधिगम अशक्तता वाले छात्रों को अक्षरों, शब्दों तथा वाक्यांशों को लिखने-पढ़ने में कठिनाई होती है।
  2. इस श्रेणी के बच्चे सीखने के लिए कोई मनपसन्द योजना अथवा तरीका खोजने में लगभग अक्षम होते हैं।
  3. ये किसी एक विषय पर देर तक ध्यान केन्द्रित नहीं रख पाते हैं।
  4. ये विभिन्न आवश्यक सामानों को अनवरत रूप से इधर-उधर हटाते रहते हैं।
  5. इन्हें पेशीय समन्वय तथा हस्तनिपुणता प्रकट करने में कठिनाई होती है।
  6. ये बच्चे काम करने के मौखिक अनुदेशों को समझने और अनुसरण करने में असफल होते हैं।
  7. सामाजिक संबंधों का मूल्यांकन करने में इनसे भूल हो जाया करती है।
  8. भाषा सीखने एवं समझने में भी ये अक्षम होते हैं।
  9. इनमें प्रात्यक्षिक विकार (दृष्टि, श्रवण, स्पर्श, ध्वनि, गति) भी पाए जाते हैं।
  10. इनमें पठन वैकल्प के लक्षण पाए जाते हैं। अर्थात् ये शब्दों को वाक्यों के रूप में संगठित करने में अपेक्षाकृत अक्षम होते हैं।

अतः अस्वाभाविक स्वभाव तथा शारीरिक गठन की तुलना में मानसिक दुर्बलता का पाया जाना, अधिगम, अशक्तता वाले छात्रों की पहचान है।

Bihar Board Class 11 Psychology अधिगम Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्राचीन अनुबंधन का सबसे प्रमुख लक्षण क्या है?
उत्तर:
प्राचीन अनुबंधन में अधिगम की स्थिति में दो उद्दीपकों के बीच साहचर्य स्थापित होता है।

प्रश्न 2.
सहकालिक अनुबंधन किसे कहते हैं?
उत्तर:
जब अनुबंधन तथा अननुबंधित उद्दीपक साथ-साथ प्रस्तुत किए जाते हैं तो इसे सहकालिक अनुबंधन कहा जाता है।

प्रश्न 3.
दो परिवर्तनों का उदाहरण दीजिए जो अधिगम नहीं माने जाते हैं।
उत्तर:

  1. अत्यधिक शराब पीकर लड़खड़ाते हुए चलना।
  2. आँख में धूलकण के चले जाने से कुछ भी देख पाने में असमर्थता व्यक्त करना।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 4.
अधिगम की तीन विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:

  1. अधिगम में सदैव किसी-न-किसी तरह का अनुभव सम्मिलित रहता है।
  2. अधिगम के कारण व्यवहार में होनेवाले परिवर्तन अपेक्षाकृत स्थायी होते हैं।
  3. अधिगम एक अनुमानित प्रक्रिया है और निष्पादन से भिन्न है।

प्रश्न 5.
युग्मित सहचर अधिगम का उपयोग बतावें।
उत्तर:
युग्मित सहचर अधिगम (वाचिक अधिगम) विधि का उपयोग मातृभाषा (हिन्दी) के शब्दों के किसी विदेशी भाषा (अंग्रेजी) के पर्याय सीखने में किया जाता है।

प्रश्न 6.
क्रमिक अधिगम का संबंध किस प्रकार की जिज्ञासा से है?
उत्तर:
क्रमिक अधिगम (वाचिक अधिगम) का उपयोग यह जानने के लिए किया जाता है कि प्रतिभागी किसी शाब्दिक एकांशों की सूची को किस तरह सीखता है और सीखने में कौन-कौन-सी प्रक्रियाएँ अपनायी जाती हैं।

प्रश्न 7.
वर्ग गुच्छन किसे कहा जाता है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक वॉसफील्ड ने पुनः स्मरण विधि को समझने के लिए साठ शब्दों से चार समूहों में रखा। नाम, पशु, पेशा तथा सब्जी से जुड़े शब्दों को अलग-अलग वर्गों में रखा गया। प्रतिभागियों के द्वारा पुनः स्मरण विधि के क्रम में बतलाये गये शब्द समूहों को वॉसफील्ड ने ‘वर्ग गुच्छन’ कहा।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 8.
संप्रत्यय क्या है?
उत्तर:
संप्रत्यय एक श्रेणी है, जिसका उपयोग अनेक वस्तुओं अथवा घटनाओं (पशु, फल, भवन, भीड़) के लिए किया जाता है। संप्रत्यय के उदाहरण वे वस्तुएँ, व्यवहार या घटनाएँ होती हैं जिनमें समान विशेषताएँ हों।

प्रश्न 9.
कौशल का सामान्य परिचय क्या है?
उत्तर:
किसी जटिल कार्य को आसानी से और दक्षता से करने की योग्यता कर्ता का कौशल कहलाता है। अभ्यास और अनुभव के आधार पर कौशल की मर्यादा रखी जाती है, जैसे, जहाज, कार चलना, रेडियो बजाना, मोबाइल से संदेश भेजना आदि।

प्रश्न 10.
कौशल अर्जन के प्रमुख चरण क्ग हैं?
उत्तर:
फिट्स के अनुसार संज्ञानात्मक, साहचर्यात्मक तथा स्वायन से सम्बोधिर चरणों में मानसिक क्रिया द्वारा कौशल ग्रहण किया जाता है।

प्रश्न 11.
अधिगम अंतरण का दूसरा नाम क्या हो सकता है?
उत्तर:
अधिगम अंतरण को प्रायः प्रशिक्षण अंतरण या अंतरण प्रभाव कहा जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 12.
अधिगम को सुगम बनाने वाले प्रमुख कारक क्या हैं?
उत्तर:
अधिगम को सुगम बनानेवाले कारकों में अभिप्रेरणा तथा प्राणी की तत्परता प्रमुख है।

प्रश्न 13.
अधिगम शैलियाँ किस प्रकार व्युत्पन्न होती हैं?
उत्तर:
अधिगम शैलियाँ मुख्यतः प्रात्यक्षिक प्रकारता, सूचना प्रक्रमण तथा व्यक्तित्व प्रतिरूप से व्युत्पन्न होता है।

प्रश्न 14.
संबंधनात्मक शैली और विश्लेषणात्मक शैली में कार्यान्मुख क्षेत्र की दृष्टि से अन्तर बतावें।
उत्तर:
संबंधात्मक शैली अशैक्षणिक क्षेत्रों में अधिक कार्योन्मुख होते हैं जबकि विश्लेषणात्मक शैली शैक्षणिक संदर्भ में अधिक कार्यान्मुख होते हैं।

प्रश्न 15.
अधिगम अशक्तता वाले बच्चों का उपचार संभव है या नहीं?
उत्तर:
उपचारी अध्ययन विधि के उपयोग से बहुत लाभ होता है। शिक्षा मनोवैज्ञानिकों के शिक्षण विधियों से अधिकांश लक्षणों को हटाया जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 16.
स्किनर ने अपना प्रयोगात्मक अध्ययन किस पर किया था?
उत्तर:
स्किनर ने अपना प्रयोगात्मक अध्ययन कबूतर और चूहा पर किया था।

प्रश्न 17.
स्किनर के साधनात्मक अनुकूलन में सीखने का आधार क्या है?
उत्तर:
स्किनर के साधनात्मक अनुकूलन में सीखने का आधार प्रवर्तन व्यवहार (Operant behaviour) है।

प्रश्न 18.
अननुबंधित उद्दीपकों के दो प्रकारों के नाम लिखें।
उत्तर:

  1. प्रवृत्यात्मक तथा
  2. विमुखी।

प्रश्न 19.
नैमित्तिक अनुबंधन के दो उदाहरण दीजिए।
उत्तर:

  1. माँ के द्वारा छिपाकर रखे गये मिठाई के डिब्बे को खोज लेना।
  2. रेडियो, टी.वी. आदि को चलाना।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 20.
धनात्मक एवं ऋणात्मक प्रबलन के उपयोगों को बतावें।
उत्तर:
धनात्मक प्रबलन का परिणाम सुखद होता है क्योंकि धनात्मक प्रबलक आवश्यकताओं (भोजन, पानी, प्रशंसा, प्रतिष्ठा) की पूर्ति करता है। ऋणात्मक प्रबलक अप्रिय एवं पीड़ादायक उद्दीपक होते हैं। ऋणात्मक प्रबलक के प्रभाव के रूप में सर्दी, चिन्ता, रोग, दुर्घटना, दण्ड आदि मिलते हैं।

प्रश्न 21.
आंशिक प्रबलन की एक विशेषता बतावें।
उत्तर:
आंशिक प्रबलन. सतत प्रबलन की अपेक्षा में विलोप के प्रति ज्यादा विरोध पैदा करता है।

प्रश्न 22.
निष्पादन पर विलम्ब का केसा प्रभाव पड़ता है?
उत्तर:
विलम्ब स निष्पादन का स्तर निकृष्ट हो जाता है।

प्रश्न 23.
प्रबलक का परिचय दें।
उत्तर:
प्रबलक वे उद्दीपक होते हैं जो अपने पहले घटित होने वाली अनुक्रियाओं की दर या संभावना को बढ़ा देते हैं।

प्रश्न 24.
प्रबलकों के नियमित उपयोग से क्या लाभ मिलता है?
उत्तर:
प्रबलकों के नियमित उपयोग से वांछित अनुक्रिया प्राप्त हो सकती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 25.
अधिगम और विलोप का पारस्परिक आचरण क्या है?
उत्तर:
अधिगम की प्रक्रिया विलोप का प्रतिरोध प्रदर्शित करता है।

प्रश्न 26.
सामान्यीकरण किसे कहते हैं?
उत्तर:
जब एक सीखी हुई अनुक्रिया की एक नए उद्दीपक से प्राप्ति होती है तो उसे सामान्यीकरण कहते हैं। सामान्यीकरण होने का तात्पर्य विभेदन की विफलता है।

प्रश्न 27.
प्रेरणात्मक अधिगम को सामाजिक अधिगम कहलाने का कारण क्या है?
उत्तर:
प्रेरणात्मक अधिगम में व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों को सीखता है इसी कारण इसे सामाजिक अधिगम भी कहा जाता है।

प्रश्न 28.
स्वतः पुनः प्राप्ति की स्थिति कब आती है?
उत्तर:
स्वतः पुनः प्राप्ति किसी अधिगत अनुक्रिया के विलोप होने के बाद होती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 29.
संज्ञानात्मक अधिगम की प्रमुख विशेषता क्या है?
उत्तर:
संज्ञानात्मक अधिगम में सीखने वाले व्यक्ति के कार्य-कलापों की बजाय उसके ज्ञान में परिवर्तन आता है।

प्रश्न 30.
अंतर्दृष्टि अधिगम किसे कहते हैं?
उत्तर:
अंतर्दृष्टि ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी समस्या का समाधान एकाएक (हठात्) स्पष्ट हो जाता है।

प्रश्न 31.
अव्यक्त अधिगम से संबंधित एक मनोवैज्ञानिक का नाम बतावें जो भूल-भुलैया और चूहा को प्रयोग का आधार बनाया था?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक टॉलमैन ने अव्यक्त अधिगम के संप्रत्यय को अपना प्रारम्भिक योगदान दिया।

प्रश्न 32.
वाचिक अधिगम की प्रक्रिया के अध्ययन में मनोवैज्ञानिक किस प्रकार की सामग्रियों का उपयोग कर रहे हैं?
उत्तर:
निरर्थक शब्दांश, परिचित शब्द, वाक्य, अनुच्छेद आदि।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 33.
सामाजिक शिक्षण क्या है?
उत्तर:
समाज में रहकर सामाजिक नियमों के अनुसार व्यावहारिक जीवन के नियमों को सीखना ही सामाजिक शिक्षण कहलाता है।

प्रश्न 34.
अनुबंधन का क्या अर्थ है?
उत्तर:
अनुबंधन का अर्थ साहचर्य द्वारा सीखना होता है।

प्रश्न 35.
अधिगम के सिद्धान्तों का अनुप्रयोग बतावें।
उत्तर:
अधिगम के सिद्धान्तों का अनुप्रयोग संगठन, कुसमायोजित प्रतिक्रियाओं के उपचार, बच्चों का पालन-पोषण तथा विद्यालय अधिगम के लिए किया जाता है।

प्रश्न 36.
मनोविश्लेषण का अर्थ स्पष्ट करें।
उत्तर:
मनोचिकित्मा की एक विधि जिससे मनोचिकित्सक दमित अचेतन सामग्री को सचेतन स्तर पर लान का प्रयास करता हैं मनोविश्लेषण कहलाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 37.
पॉवलव ने अपना प्रयोग किस पर किया था?
उत्तर:
पॉवलव ने अपना प्रयोग भूखे कुत्ते पर किया था।

प्रश्न 38.
पॉवलव ने शिक्षण के संबंध में क्या कहा है?
उत्तर:
पॉवलव ने शिक्षण के संबंध में कहा है कि “सीखना और कुछ नहीं बल्कि संबंध प्रत्यावर्तन की एक लम्बी शंखला मात्र है।”

प्रश्न 39.
पॉवलव ने सीखने का आधार क्या बताया?
उत्तर:
पॉवलव ने सीखने का आधार संबंध प्रत्यावर्तन को बताया जिसमें प्राणी अनुबंधित अनुक्रिया करना सीखता है।

प्रश्न 40.
पॉवलव के प्रयोग में स्वाभाविक उद्दीपक क्या था?
उत्तर:
पॉवलव के प्रयोग में स्वाभाविक उद्दीपक मांस था।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 41.
पॉवलव के सिद्धान्त एवं स्किनर के सिद्धान्त में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर:
पॉवलव ने प्रत्यार्थी व्यवहार (Respondent behaviour) को सीखने का आधार माना जबकि स्किनर ने प्रवर्तक व्यवहार (Operant behaviour) को सीखने का आधार माना है।

प्रश्न 42.
संबंध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त का प्रतिपादन किस मनोवैज्ञानिक ने किया?
उत्तर:
संबंध प्रत्यावर्तन सिद्धांत का प्रतिपादन रूस के एक महान मनोवैज्ञानिक पॉवलव ने किया।

प्रश्न 43.
अनुबंध या संबंध के सिद्धांत कौन-कौन हैं?
उत्तर:
अनुबंध या संबंध के दो प्रमुख सिद्धांत हैं, जो इस प्रकार हैं –

  1. प्राचीन अनुबंध या संबंध का सिद्धान्त
  2. साधनात्मक अनुबंध या संबंध का सिद्धान्त

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रेक्षणात्मक अधिगम का स्वरूप एवं उपयोग बतायें।
उत्तर:
प्रेक्षणात्मक अधिगम दूसरों के द्वारा किये जाने वाले कार्यों के लिए अपनायी जाने वाली विधियों का प्रेक्षण का व्यावहारिक परिणाम हैं। इसके अन्तर्गत अनुकरण, सामाजिक अधिगम तथा मॉडलिंग की प्राथमिकता मिली हुई है।

1. अनुकरण:
दूसरों की क्रिया-विधियों की नकल करना, अनुकरण माना जाता है। जैसे, आँख बन्द करके चलना एक अंधे का अनुकरण करने का प्रयास है।

2. सामाजिक अधिगम:
प्रेक्षणात्मक अधिगम में व्यक्ति सामाजिक व्यवहारों (अतिथि सत्कार, पूजा-विधि, विवाह पद्धति) को सरलता से सीखता है। इसी कारण इस अधिगम को सामाजिक अधिगम भी कहा जाता है।

3. मॉडलिंग:
मॉडलिंग को स्वांग भरना भी कह सकते हैं। बुढ़िया की तरह खाँसना झुककर चलना, बन्दरवाला बनकर डमरू बजाना, टैम्पूवाला बनकर एक सवारी एक सवारी चिल्लाना आदि मॉडलिंग के विभिन्न रूप हैं जो किसी अन्य की तरह व्यवहार करने के रूप में प्रकट होता है।

प्रेक्षणात्मक अधिगम की उपयोगिता:

1. सीखना:
समाज में रहनेवाले तरह-तरह के व्यक्तियों की कार्य-विधियों को देखकर हम भी वैसा कार्य करना सीख लेते हैं। जैसे-रीमोट चलाना, रेडियो बजाना, कुएँ से पानी खींचना अदि।

2. व्यवसाय की प्रगति:
विज्ञापन के माध्यम से प्रभावकारी हस्तियों के द्वारा उत्पादन का व्यवहार करते हुए दिखाकर उत्पादन की खपत बढ़ाने का प्रयास किया जाता है।

3. अच्छी आदतों से परिचय:
बड़ों को टहलते, व्यायाम करते, व्यायाम करते, चबा-चबाकर खाते, देखकर बच्चे भी टहलने, व्यायाम करने, भोजन ग्रहण करने तथा समय पर सोने-जगने की आदत अपनाने लगते हैं।

4. पर्व-त्योहारों का सम्मान:
दीपावली में दीपों को सजाने, होली में रंग-अबीर का प्रयोग करने, आरती करने तथा शिक्षक दिवस पर शिक्षकों का आदर-सम्मान देने संबंधी आचरण का ज्ञान प्रेक्षणात्मक अधिगम से सरल हो जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 2.
प्राचीन अनुबंधन के प्रमुख कारकों का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
प्राचीन अनुबंधों के अन्तर्गत समय और कार्य-स्तर की दृष्टि से कई कारकों के द्वारा महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाये जाते हैं। कुछ प्रमुख कारक निम्न वर्णित हैं –

1. उद्दीपकों के बीच समय-संबंध:
अनुबंधित उद्दीपक और अननुबंधित उद्दीपकों की शुरूआत के बीच समय संबंध पर प्राचीन अनुबंधन प्रक्रियाएँ आधारित होती हैं। प्राचीन अनुबंधन प्रक्रियाएँ मुख्यत: चार प्रकार की होती हैं जिनमें से प्रथम तीन प्रक्रियाएँ अग्रवर्ती अनुबंधन की है तथा चौथी प्रक्रिया पश्चगामी अनुबंधन की है।

(क) सहकालिक अनुबंधक:
जब अननुबंधित तथा अनुबंधित उद्दीपक के साथ-साथ प्रस्तुत किए जाते हैं।

(ख) विलंबित अनुबंधन:
जब अनुबंधित उद्दीपक का प्रारम्भ और अन्त दोनों अननुबंधिक उद्दीपक के पहले होता है।

(ग) अवशेष अनुबंधन:
इस प्रक्रिया में भी अनुबंधित का प्रारम्भ और अंत अननुबंधित उद्दीपक से पहले होता है। किन्तु दोनों के बीच कुछ समय अंतराल होता है।

(घ) पश्चगामी अनुबंधन:
इस प्रक्रिया में अननुबंधित उद्दीपक का प्रारम्भ अनुबंधित उद्दीपक के पहले होता है। इन चारों प्रक्रियाओं में से पश्चगामी अनुबंधन प्रक्रिया प्राप्त होने की सम्भावना बहुत ही कम होती है।

2. अननुबंधित उद्दीपकों के प्रकार:
अननुबंधित उद्दीपक दो प्रकार के होते हैं –

(क) प्रवृत्यात्मक:
यह स्वतः सुगम्य अनुक्रियाएँ उत्पन्न करती है।

(ख) विमुखी अनुबंधित उद्दीपक:
ये परिहार तथा पापन की अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं जो दुखदायी और क्षतिकारक होते हैं।

3. अनुबंधित उद्दीपकों की तीव्रत:
अनुबंधित उद्दीपक जितना अधिक तीव्र होगा उतने ही कम प्रयासों की आवश्यकता अनुबंधन की प्राप्ति के लिए करना होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 3.
प्रमुख अधिगम प्रक्रियाओं का सामान्य परिचय दें।
उत्तर:
प्रमुख अधिगम प्रक्रियाएँ निम्न वर्णित हैं –

1. प्रबलन:
किसी प्रयोगकर्ता के द्वारा प्रबलक देने की प्रक्रिया को प्रबलन कहते हैं जहाँ प्रबलक के उद्दीपक अपने पहले घटित होने वाली अनुक्रियाओं की दर को बढ़ा देते हैं। एक धनात्मक प्रबलक प्राणी के जीवन का निर्धारक होता है। जबकि ऋणात्मक प्रबलक स्वयं को हटाकर अनुक्रियाओं की दर को बढ़ा देते हैं। एक प्राथमिक प्रबल प्राणी के जीवन का निर्धारक होता है। जबकि द्वितीयक प्रबलक पर्यावरण और प्राणी के बीच के सम्बन्ध को बतलाती है। प्रबलकों के नियमित उपयोग से वांछित अनुक्रिया प्राप्त हो सकती है।

2. विलोम:
प्रबलन को हटा लेने के परिणामस्वरूप अधिगत अनुक्रिया के लुप्त होने को विलोप कहते हैं। इसमें सीखे हुए व्यवहार को भी लुप्त होना देखा जा सकता है। अधिगम की प्रक्रिया विलोप का प्रतिरोध प्रदर्शित करती है। सीखते समय प्रबलित प्रयासों की संख्या बढ़ने के साथ विलोप का प्रतिरोध बढ़ता है।

3. सामान्यीकरण:
समान उद्दीपकों के प्रति समान अनुक्रिया करते सम्बन्धी गोचर को सामान्यीकरण कहते हैं। अतः जब एक सीखी हुई अनुक्रिया की एक नए उद्दीपक से प्राप्ति होती है तो उसे सामान्यीकरण माना जाता है। सामान्यीकरण होने का तात्पर्य विभेदन की विफलता है।

4. विभेदन:
सामान्यीकरण के पूरक के रूप में विभेदन भिन्नता के प्रति अनुक्रिया होती है। विभेदन की अनुक्रिया प्राणी की विभेदन क्षमता यदि भेदन के अधिगम पर निर्भर करता है।

5. स्वतः पुनः प्राप्ति-स्वतः पुनः
प्राप्ति किसी अधिगत के विलोप होने के बाद होती है। उदाहरण एवं प्रयोग के माध्यम से यह पाया गया है कि काफी समय बीत जाने के बाद सीखी हुई अनुबंधित अनुक्रिया का पुनरुद्धार हो जाता है और वह अनुबंधित उद्दीपक के प्रति घटित होती है। स्वतः पुनः प्राप्ति की मात्रा विलोप के बाद बीती हुई समयावधि पर निर्भर करती है। यह अवधि जितनी ही अधिक होती है, अधिगत अनुक्रिया की पुनः प्राप्ति उतनी ही अधिक होती है। इस प्रकार की पुनः प्राप्ति स्वाभाविक रूप से होती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 4.
कृत्रिम संप्रत्यय की विशेषताओं पर आधारित उदाहरणों को व्यक्त करें।
उत्तर:
कृत्रिम संप्रत्यय वे होती हैं जो सुपरिभाषित होते हैं और विशेषताओं को जोड़ने वाले नियम परिशुद्ध और कठोर होते हैं। संप्रत्ययों में जैविक वस्तुएँ, वास्तविक जीवन के उत्पाद तथा मनुष्यों द्वारा बनाई गई विभिन्न कलाकृतियों, जैसे, औजार, कपड़े, मकान आदि सम्मिलित हैं।

प्रश्न 5.
संज्ञानात्मक अधिगम के प्रभावों की चर्चा करें।
उत्तर:
संज्ञानात्मक अधिगम में सीखने वाले व्यक्ति के कार्यकलापों की बजाय उसके ज्ञान में परिवर्तन होता है। किसी समस्या का एकाएक समाधान पाना तथा नित्य नया व्यवहार सीखना, कार्य पूरा कर लेने का संकल्प लेना, अनवरत प्रयास के महत्व को समझना आदि संज्ञानात्मक अधिगम के प्रभावों से ही संभव हो पाता है। अंतर्दृष्टि अधिगम एवं अव्यक्त अधिगम के द्वारा इसके विस्तृत प्रभावों को समझा जा सकता है। कोहलर के द्वारा चिम्पैंजी पर किये जाने वाले प्रयोग तथा टॉलमैन के द्वारा चूहे और भूल-भुलैया वाले प्रयोग से संज्ञानात्मक अधिगम के प्रभावों का प्रायोगिक अध्ययन किया जा सकता है।

प्रश्न 6.
वाचिक अधिगम के अध्ययन में प्रयुक्त विधियों के नाम और परिणाम बतावें।
उत्तर:

  1. युग्मित सहचर अधिगम-मातृभाषा के शब्दों के लिए विदेशी शब्द को पर्याय के रूप में सीखना।
  2. क्रमिक अधिगम-किसी समस्या के समाधान के लिए किए जाने वाले प्रयासों को परिणामी प्रक्रम में सजाकर व्यवहार में लाना।
  3. मुक्त पुनः स्मरण-शब्दों को स्थायी रूप से स्मृति में रखने के लिए उनके क्रम को एक संगठन का रूप देना।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 7.
अनुबंधित अनुक्रिया तथा स्वाभाविक अनुक्रिया में अंतर करें।
उत्तर:
स्वाभाविक अनुक्रिया वैसी अनुक्रिया को कहा जाता है जो स्वाभाविक उद्दीपन funconditioned stimulus) द्वारा उत्पन्न होता है जैसे भोजन देखकर लारस्राव करन में लारस्राव करना एक स्वाभाविक अनुक्रिया है, जो स्वाभाविक रद्दीपन (भोजन) के प्रति किया जा रहा है। अनुबंधित अनुक्रिया वैसी अनुक्रिया को कहा जाता है जो स्वाभाविक उद्दीपन तथा अनुबंधित उद्दीपन में साहचर्य स्थापित होने के बाद प्राणी अनुबंधित उद्दीपन (conditioned stimulus) के प्रति करता है।

जैसे-पॉवलव के प्रयोग में जब कुत्ता मात्र घंटी की आवाज पर घंटी तथा भोजन में साहचर्य स्थापित करने के बाद लारस्राव करने लगता है तब लारस्राव की यह अनुक्रिया अनुबंधित अनुक्रिया का एक उदाहरण है। परंतु यही लारस्ताव प्रारंभ में जब भोजन को देखकर किया जाता था तब उसे स्वाभाविक अनुक्रिया (unconditioned response) कहा जाता है।

प्रश्न 8.
पुनर्बलन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्राणी के आवश्यकता की पूर्ति जिन वस्तुओं से होती है उसे पुनर्बलन (Reinforce ment) कहा जाता है। पॉवलव के प्रयोग में भोजन एक पुनर्बलन का उदाहरण है क्योंकि भोजन से ही भूख मिट सकती है। पुनर्बलन प्राप्त करने के उद्देश्य से ही प्राणी उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया करने के लिए प्रेरित रहता है। वास्तव में अनुबंधन द्वारा किसी अनुक्रिया को सीखने के लिए पुनर्बलन एक आवश्यक शर्त है जिसका पॉवलव ने अपने प्रयोग में स्पष्टीकरण किया है।

प्रश्न 9.
अविशिष्ट अंतरण से क्या स्पष्ट होता है?
उत्तर:
एक कार्य का सीखना अधिगमकर्ता को अगला कार्य ज्यादा सुविधा से सीखने के लिए स्फूर्ति प्रदान करता है। क्रिकेट खिलाड़ी के खड़े होने की स्थिति तथा परीक्षार्थियों को लिखने के लिए बैठने की विधि के आधार पर लिखने की गति में आने वाले अन्तर को स्फूर्ति परिणाम का कारक मानना अविशिष्ट अंतरण का उदाहरण माना जा सकता है। अर्थात् कोई व्यक्ति एक साथ दो या अधिक कार्यों को सीख सकता है।

प्रश्न 10.
अनुबंधन का अर्थ सोदाहरण बतावें।
उत्तर:
अनुबंधन का अर्थ होता है साहचर्य द्वारा सीखना। जब प्राणी के सामने कोई उद्दीपन, जैसे-भोजन तथा उसके ठीक कुछ पहले एक दूसरा उद्दीपन (stimulus), जैसे-रोशीन (light) दी जाती है और यह प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती है तब प्राणी रोशनी जलते ही यह समझ जाएगा कि भोजन आनेवाला है। इस प्रत्याशा (expectation) में वह ठीक वैसी ही अनुक्रिया करना प्रारंभ कर देता है जो भोजन की वास्तविक उपस्थिति में वह आमतौर पर करता है। इस तरह के सीखना को अनुबंधन कहा जाता है जिसके लिए स्पष्टतः अन्य बातों के अलावा अभ्यास, उद्दीपन आदि का होना अनिवार्य है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 11.
अनुबंधित उद्दीपन तथा स्वाभाविक उद्दीपन में अंतर बतावें।
उत्तर:
स्वाभाविक उद्दीपक वैसे उद्दीपन को कहा जाता है जो बिना किसी पूर्व प्रशिक्षण के ही प्राणी में एक स्वाभाविक अनुक्रिया उत्पन्न करता है। जैसे-भोजन देखकर भूखे व्यक्ति के मुँह में लार आने की अनुक्रिया में भोजन एक स्वाभाविक उद्दीपन के साथ बार-बार उपस्थित किए जाने पर कुछ प्रयासों के बाद वह अकेले ही वैसी अनुक्रिया उत्पन्न कर लता है जो स्वाभाविक उद्दीपन द्वारा उत्पन्न किया जाता है।

जैसे-भोजन देने के पहले घंटी बजा दी जाए और यह प्रक्रिया कई प्रयासों में दोहराई जाए तो कुछ देर के बाद मात्र घंटी बजते ही प्राणि लारस्राव की अनुक्रिया करने लगेगा। इस तरह के तटस्थ उद्दीपन (neutral stimulus) को अनुबंधित उद्दीपन (conditioned stimulus) कहा जाता है। अत: इन दोनों में मुख्य अंतर यह है कि स्वाभाविक उद्दीपन बिना प्रशिक्षण के ही अनुक्रिया उत्पन्न करता है, परंतु अनुबंधित उद्दीपन प्रशिक्षण के बाद स्वाभाविक उद्धेपन के समान अनुक्रिया करता है।

प्रश्न 12.
सीखना से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सीखने से तात्पर्य व्यवहार में परिवर्तन से होता है, परंतु व्यवहार में हुए सभी तरह के परिवर्तनों को सीखना नहीं कहा जाता है। जैसे-व्यक्ति के व्यवहार में परिपक्वता (maturation) के कारण परिवर्तन हो जाता है, औषधि खा लेने से परिवर्तन आ जाता है, थकान होने से परिवर्तन होता है, आदि-आदि। ऐसे सभी परिवर्तनों को सीखने की श्रेणी में नहीं रखा जाता है। व्यवहार में केवल उन्हीं परिवर्तनों को सीखना कहा जाता है जो अभ्यास (practice) या अनुभूति (experience) के फलस्वरूप उत्पन्न होते हैं। व्यवहार में ऐसे परिवर्तन अपेक्षाकृत स्थायी (relatively permanent) होते हैं।

प्रश्न 13.
शिक्षण वक्र से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
शिक्षण वक्र एक ऐसा वक्र है जिसके माध्यम से विभिन्न प्रयासों (trials) या अभ्यासों में हुए सीखने की प्रगति या दर को दिखाया जाता है, सामान्यतः सीखने की दर को तीन कसौटियों के रूप में दिखाया जाता है-सीखने की यथार्थता पर परिशुद्धता (accuracy in learning), त्रुटि में कमी (reduction in error) तथा सीखने में लिया गया समय। इससे तीन तरह के शिक्षण वक्रों का निर्माण होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 14.
शिक्षक वक्र में पठार का क्या अर्थ होता है?
उत्तर:
किसी पाठ या विषय को सीखने की अवधि के बीच में कभी-कभी ऐसा होता है कि अभ्यास जारी रहने के बावजूद सीखने में कोई प्रगति नहीं होती है। फलस्वरूप, ऐसी परिस्थिति में बननेवाला वक्र आधार के समानांतर हो जाता है। शिक्षण वक्र की इस स्थिति को पठार कहा जाता है।

प्रश्न 15.
शाब्दिक सीखना किसे कहा जाता है?
उत्तर:
शाब्दिक सीखना का तात्पर्य शब्दों, अंकों, आकृतियों के. अर्थ को समझकर उसके प्रति विशेष अनुक्रिया करने से होता है। जैसे-यदि कोई व्यक्ति ‘हाथी’ शब्द लिखता-पढ़ता है, तथा उसका अर्थ समझता है तथा उस शब्द का सही उपयोग भी करता है तो यह शाब्दिक सीखना का एक उदाहरण होगा। इस तरह के सीखना में ज्ञानेन्द्रियों (sense organs) की भूमिका शरीर के पेशीय अंगों (motor organs) की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। कविता याद करना शाब्दिक सीखना का एक उदाहरण है।

प्रश्न 16.
संवेदी-पेशीय सीखना का अर्थ बतावें।
उत्तर:
संवेदी:
पेशीय सीखना से तात्पर्य वैसे सीखना से होता है जिसमें शरीर की ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों (motor organs) का संयुक्त योगदान होता है, परंतु कर्मेन्द्रियों या पेशीय अंगों का तुलनात्मक रूप से अधिक सक्रिय योगदान होता है। जैसे-कार चलाना सीखना, टाइप करना सीखना, तैरना सीखना आदि संवेदी-पेशीय सीखना के कुछ उदाहरण हैं। इस तरह के सीखना में कर्मेन्द्रियों अर्थात् हाथ, पैर आदि का योगदान आँख, कान आदि ज्ञानेन्द्रियों से स्पष्टत: अधिक होता है।

प्रश्न 17.
प्रवर्तन अनुकूलन से आप. क्या समझते हैं?
उत्तर:
स्किनर (Skineer 1938) ने समस्या बॉक्स जैसे जटिल साधनात्मक अधिगम को इतना सरल रूप दिया कि उसे अनुकूल कोटि में रखा जा सकता है। बक्से में एक लीवर लगा था जिसके दबने से भोजन की एक गोली बाहर आती थी। चूहे को बक्से में रखा गया। इधर-उधर घूमने के क्रम में वह लीवर पर चढ़ा। लीवर दबा और भोजन की एक गोली बाहर आयी। इस परिस्थिति से यह स्पष्ट नहीं है कि अनुकूलन उत्तेजक क्या था, लीवर का दृश्य या भोजन को गंध। लीवर दबाना अनुकूलन उत्तेजक थी, भोजन की गोली अनुकूलन और खाना अनुकूलन उत्तेजक थी। स्किनर ने इसी साधनात्मक अधिगम को प्रवर्तन (operant) अनुकूलन कहा है। साधनात्मक एवं प्रवर्तन अनुकूलन में भी भेद है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 18.
अभ्यास नियम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अभ्यास नियम का प्रतिपादन थार्नडाइक द्वारा अपने सीखने के सिद्धांत में किया गया। इस नियम के अनुसार सीखने का आधार अभ्यास (exercise) होता है। इस नियम के दो उपनियम हैं-उपयोग नियम (law of use) तथा अनुपयोग नियम (law of disuse)। उपयोग नियम के अनुसार जब किसी अनुक्रिया को प्राणी बार-बार दोहराता है तब उसे वह करना सीख लेता है। अनुपयोग नियम के अनुसार जब प्राणी किसी अनुक्रिया को बार-बार नहीं दोहराता है तब वह उसे सीख नहीं पाता है। जैसे-यदि कोई व्यक्ति मात्र एक या दो बार टाइप करने का प्रयास करता है, तो वह टाइप करना नहीं सीख पाएगा।

प्रश्न 19.
प्रभाव नियम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रभाव नियम का प्रतिपादन थार्नडाइक द्वारा अपने सीखने के सिद्धान्त में किया गया। इस नियमं द्वारा यह पता चलता है कि प्राणी किसी अनुक्रिया को उस अनुक्रिया से उत्पन्न प्रभाव के आधार पर सीखता है। अनुक्रिया करने के बाद यदि उसे संतुष्टि (satisfaction) होती है तो वह उस अनुक्रिया को बार-बार दोहराता है और उसे सीख लेता है। परंतु, यदि उसे अनुक्रिया करने के बाद खीझ (annoyance) होती है तो वे उसे दोहराता नहीं है और उसे नहीं सीख पाता है। थार्नडाइक के प्रयोग में भूखी बिल्ली दरवाजा खोलने की अपक्रिया को इसलिए सीख जाती है, क्योंकि दरवाजा खोलने के बाद उसे भोजन मिलता था जिसे खाकर वह संतुष्ट हो जाती थी।

प्रश्न 20.
अधिगम (सीखने) की परिभाषा दें।
उत्तर:
“सीखना” बहुत व्यापक शब्द है, इस मानसिक प्रक्रिया की अभिव्यक्ति व्यवहार के सहारे होती है। सीखने से प्राणी के व्यवहार में परिवर्तन या परिमार्जन होता है। सीखने में व्यवहार में जो परिवर्तन होता है, वह अनुभव या अभ्यास पर आधारित होता है और उससे समायोजन में सहायता मिलती है। मॉर्गन और गिलीलैंड ने सीखने की परिभाषा इस प्रकार दी है-“सीखना अनुभव के परिणाम स्वरूप जीव के व्यवहार में कुछ परिमार्जन है जो कम-से-कम कुछ समय के लिए भी जीव द्वारा धारण किया जाता है।” उपरोक्त परिभाषा में निहित तथ्य इस प्रकार है –

  1. सीखने से व्यवहार में परिवर्तन होता है।
  2. सीखा हुआ व्यवहार कुछ समय तक व्यक्ति के व्यवहार में स्थायी रूप से बना रहता है।
  3. सीखा हुआ व्यवहार अचानक नहीं होता है। यह अनुभव अथवा अभ्यास पर आधारित होता है।
  4. सीखने के पीछे अभिप्रेरण कार्य करता है।
  5. सीखा हुआ व्यवहार का मापन संभव है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सीखने में अनुप्रेरणा (motivation) के प्रभाव का वर्णन करें। अथवा, सीखने में अभिप्रेरणा (motivation) की भूमिका स्पष्ट करें।
उत्तर:
सीखने की क्रिया में तीन तत्व संयुक्त होते हैं, जिन्हें हम इस प्रकार कह सकते हैं –

  1. मनोवैज्ञानिक तत्व
  2. शारीरिक तत्व तथा
  3. वातावरण-सम्बन्धी तत्व। मनोवैज्ञानिक तत्व को हम सीखने में ‘अनुप्रेरणा’ (Motivation) कहते हैं।

सीखना प्राणी की वह क्रिया होती है, जिसके द्वारा वह अपने पर्यावरण से प्रतिक्रिया करता है। सीखने वाले के अन्दर क्रिया को हम प्रेरणा के द्वारा ही उत्पन्न करते हैं। उत्तेजना, रुचि, उद्देश्य इत्यादि अनुप्रेरण के विभिन्न रूपों पर बल देते हैं। ‘प्रेरणा’ ही सीखने की क्रिया का मूल तत्व है। अनुप्रेरणा ही बालक को क्रियाशील बनाती है, प्रतिक्रिया, रुचि, प्रयत्न आदि के परिणाम हैं। जिन्हें शिक्षक पसन्द करता है और यह विद्यार्थियों के लिए भी लाभदायक होते हैं। ये सब अनुप्रेरण से ही जन्म लेते हैं।

शिक्षा में अनुप्रेरणा वह कला है जो बालक के अन्दर रुचि उत्पन्न करती है। जब भी बालक किसी कार्य या वस्तु में रुचि अनुभव नहीं करता, अनुप्रेरणा द्वारा रुचि को उसमें जाग्रत किया जा सकता है। स्वीकृत व्यवहार को जाग्रत करना, बनाये रखना तथा निर्देशन देना विद्यमान की शिक्षा में प्रेरणा का ही कार्य है। व्यक्ति की प्रत्येक क्रिया जो किसी लक्ष्य को प्राप्त करना चाहती है, अनुप्रेरणात्मक होती है। चूँकि सभी प्रकार सीखना एक विशेष लक्ष्य रखता है, इसलिए सभी प्रकार का सीखना एक अनुप्रेरित क्रिया होती है।

उत्तेजना की तीव्रता, लक्ष्यों को देखने, विविधता आदि सीखने की क्रिया के प्रभावोत्पादन में अन्तर उत्पन्न करते हैं। अध्यापक का कर्तव्य है कि वह बालकों को अनुप्रेरणा द्वारा सीखने को प्रोत्साहित करें। सीखने की क्रिया के अन्तर्गत अनुप्रेरकों और लक्ष्यों का बुद्धिसंगत योग होता है जो अनुकूल और आनुपातिक वातावरण का निर्माण करता है, संवेगात्मक रुचि उत्पन्न करता है और बालकों के अन्दर संतोष की भावना करता है।

सीखने की क्रिया में अनुप्रेरकों के तीन कार्य (Three functions of Motives in Learming process):
मेटल के मतानुसार, अनुप्रेरक सीखने की क्रिया में तीन कार्य करते हैं। वे इस प्रकार हैं –

1. अनुप्रेरक हमारे व्यवहार को शक्तिशाली बनाते हैं (Motives Energise Behaviour):
अनुप्रेरक शक्ति का वर्द्धन करते हैं, जिससे हमारे अन्दर क्रियाशीलता उत्पन्न होती है। इस प्रकार भूख तथा प्यास भी हमारे अन्दर मांसपेशिक तथा ग्रन्थिक (Musculars and Glandular) प्रतिक्रिया होती है। प्रशंसा, आरोप, पुरस्कार, दण्ड आदि शक्तिशाली उत्तेजक हैं, जो हमारे बहुत-से कार्य को प्रभावित करते हैं। ये हमें किसी विशेष दिशा की ओर कार्य करने को बाध्य करते हैं और सीखने की क्रिया में सहायक होते हैं।

2. अनुप्रेरक हमारे व्यवहार को चुनने वाले होते हैं (Motives are selector of behaviour):
प्रेरक व्यक्ति की किसी उत्तेजना-विशेष के प्रति प्रतिक्रिया करने के लिए उत्तेजित करते हैं.और दूसरी वस्तुओं के प्रति अवहेलना। वे यह भी बताते हैं कि किसी अवस्था-विशेष में व्यक्ति किस प्रकार या करेगा। यदि एक समाचार पत्र विभिन्न व्यक्ति को दिया जाय तो हर व्यवि उसी खण्ड को गढ़ेगा जिसके लिए उसे अनुप्रेरणा प्राप्त है। उदाहरण के लिए, बेरोजगा व्यक्ति आवश्यकता पप्बन्धी खण्ड को ध्यान से देखेगा और बहुत-सी आवश्यकताओं को याद कर लेगाः सके विपरीत एक खिलाड़ी खेल के समाचार की ओर अधिक आकृष्ट होगा।

3. अनुप्रेरक हमारे व्यवहार का संचालन करते हैं (Motive Direct Our Behaviour):
अनुप्रेरक केवल व्यवहार को सुनते ही नहीं वरन् उनका संचालन भी करते हैं। वह व्यवहार का संचालन इस प्रकार करते हैं कि हमारे अन्दर संतुष्टि की भावना जाग्रत हो जाती है। इसलिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति अपने सीखने में उन्नति करने के लिए कार्यशीलता को अपनाये, अपनी संपूर्ण शक्ति को आदर्श ग्रहणीय लक्ष्यों की ओर प्रवाहित करे और उन्हीं में अपनी शक्ति का प्रयोग करे।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 2.
प्राचीन तथा नैमित्तिक अनुबन्धन में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
प्राचीन तथा नैमित्तिक अनुबन्धन में प्रमुख अन्तर निम्न प्रकार से है –

1. प्राचीन अनुबन्धन में कुत्ते को लार का स्राव उचित समय पर भोजन देकर कराया जा सकता है। इससे प्रयोगकर्ता प्रयोज्य को उपयुक्त समय पर उत्तेजना प्रस्तुत करता है तभी अनुक्रिया नियंत्रित होती है। नैमित्तिक अनुबन्धन में प्रयोगकर्ता के हाथ में ऐसी उत्तेजना नहीं होती जिससे वह अपने प्रयोज्य से छड़ दबाने जैसी प्रतिक्रियाएं करा सके।

2. प्राचीन अनुबन्धन में पुनर्बलनं (US) अनुक्रिया पर निर्भर नहीं करता। जबकि नैमित्तिक अनुबन्धन में पुनर्बलन अनुक्रिया पर निर्भर करता है। डी-अमेटो के अनुसार नैमित्तिक अनुबन्धन में पुनर्बलन प्रयोज्य को मिलेगा या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्रयोज्य उपयुक्त अनुक्रिया करता है अथवा नहीं।

3. अनेक अध्ययनों के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि केवल प्राचीन अनुबन्धन प्रक्रियाओं द्वारा स्वतः चालित अनुक्रियाओं का अध्ययन हो सकता है। स्वतः चालित क्रियाएं जैसे लार स्रावित होना, पलक मारना आदि हैं। स्पेन्स और रॉस के कथनानुसार पलक गिरने की क्रिया स्वतः है तथा पलक मारने की क्रिया ऐच्छिक है। दोनों प्रकार की क्रियाओं की प्रकृति तथा अनुक्रिया काल अलग-अलग है। इन मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि पलक गिरने की क्रिया प्राचीन अनुबन्धन का उदाहरण है तथा पलक मारने की क्रिया नैमित्तिक अनुबन्धन के फलस्वरूप होती है।

4. माउरर के अनुसार सैद्धान्तिक दृष्टि से भी प्राचीन तथा नैमित्तिक अनुबन्धन में अन्तर है। माउरर के अनुसार प्राचीन अनुबन्धन में अधिगम समीपता के आधार पर होता है। यह देखा गया कि CS तथा Vs की उपस्थिति में जितना की कम अन्तर होगा, CS तथा US में साहचर्य उतनी ही जल्दी स्थापित हो जायेगा। इस प्रकार के अधिगम प्रक्रम में पुनर्बलन आवश्यक नहीं है। दूसरी ओर नैमित्तिक अनुबन्धन में CD तथा US के मध्य पुनर्बलन के आधार पर साहचर्य स्थापित होता है। एक अनुबन्धन में साहचर्य स्थापित होने का आधार समीपता है तो दूसरी जगह पुनर्बलन। इस आधार पर कहा जा सकता है कि दोनों अनुबन्धनों में सैद्धान्तिक दृष्टि से अन्तर है।

5. श्लासवर्ग के अनुसार नैमित्तिक अनुबन्धन में साहचर्य उत्तेजना-अनुक्रिया के मध्य स्थापित होता है। प्राचीन अनुबन्धन में उत्तेजना-उत्तेजना के मध्य साहचर्य स्थापित होता है। प्राचीन अनुबन्धन एक प्रकार से Stimulus Substitution होता है।

6. स्किनर के अनुसार प्राचीन अनुबन्धन स्वत: है जबकि नैमित्तिक अनुबन्धन एक प्रतिक्रिया है। प्राचीन अनुबन्धन प्राचीन अनुबन्धन में पुनर्बलन का सम्बन्ध उत्तेजना के साथ होता है जबकि नैमित्तिक अनुबन्धन में यह स्थिति नहीं होती है। दूसरे प्राचीन अनुबन्धन की कुछ निन्दा करते हुए उसने यह कहा है कि शुद्ध प्राचीन अनुबन्धन में प्रायोगिक प्रमाणों का अभाव है।

नैमित्तिक अनुबन्धन में अनुक्रिया और पुनर्बलन के बीच धनात्मक सम्बन्ध होता है। इसमें पुनर्बलन की प्राप्ति इस बात पर निर्भर करती है कि प्रयोज्य किस प्रकार की अनुक्रिया करता है। स्किनर ने यह भी कहा है कि उद्दीपक प्रकार के अनुबन्धन की सीमा सहज क्रियाओं तक तथा नैमित्तिक अनुबन्धन की सीमा ऐच्छिक पेशीय क्रियाओं तक है।

7. मेडिनिक के अनुसार प्राचीन अनुबन्धन से सम्बन्धित व्यवहार प्रतिक्रियात्मक (Respondant behaviour) अथवा प्रतिकृत (Elicited) प्रकार का व्यवहार है। इस प्रकार का व्यवहार सहज क्रियात्मक तथा उत्तेजना के नियंत्रण से होता है। दूसरी ओर नैमित्तिक अनुबन्धन से सम्बन्धित व्यवहार प्रवर्तन (operant) व्यवहार कहलाता है। इस प्रकार का व्यवहार ऐच्छिक होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 3.
साधनात्मक अनुकूलन या नैमित्तिक अनुबंधन का वर्णन करें।
उत्तर:
डी अमेटो (D’Amato, 1970) के अनुसार:
“नैमित्तिक अनुबंधन (Instrumental Conditioning) ऐसा कोई भी सीखना होता है जिसमें अनुक्रिया अवलम्बित पुनर्बलन.पर आधारित हो तथा जिसमें प्रयोगात्मक रूप से परिभाषित विकल्पों का चयन सम्मिलित न हो।” (Instrumental Conditioning is any learning based on response contingent reinforcement that does not involve choice among experimentally defined alternatives)

नैमित्तिक अनुबंधन की मुख्य विशेषता परिभाषा की पहली लाइन में ही दी हुई है जिसका अर्थ है कि प्रयोज्य के लिए पुनर्बलन या पुरस्कार (Reinforcement) की उपलब्धि प्रयोज्य की अनुक्रियाओं पर आश्रित होती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रयोज्य की अनुक्रियाएँ पुनर्बलन (Reinforcement) का Instrument (निमित्त) बन जाती है। नैमित्तिक अनुबंधन उत्तेजना-अनुक्रिया के बीच साहचर्य स्थापित करने की दूसरी विधि है, प्रथम विधि प्राचीन अनुबंधन है।

पुनर्बलन की प्रकृति धनात्मक अथवा निषेधात्मक किसी भी प्रकार की हो सकती है। धनात्मक पुनर्बलन (Positive Reinforcement) वह उत्तेजना है जिसे प्रयोज्य प्राप्त करने के लिए चेष्टा और कार्य करता है। निषेधात्मक पुनर्बलन (Negative Reinforcement) वह प्रयोज्य है जिसे प्रयोज्य उपेक्षित करने के लिए कार्य करता है अथवा इस उत्तेजना से बचने के लिए कार्य करता है। इस प्रकार के (Reinforcer प्राय: Aversive or Noxious Stmulus) कहे जाते हैं।

ऐसा नैमित्तिक अनुबंधन जिसमें धनात्मक पुनर्बलन का प्रयोग होता है, प्रवृत्यात्मक अनुबंधन (Appetitive Conditioning) तथा निषेधात्मक पुनर्बलन का प्रयोग होता है, उन्हें विमुखी अथवा हानिकारक अनुबंधन (Aversive or Noxiopus Conditioning) कहा जाता है। नैमित्तिक अनुबंधन का वर्गीकरण पुनर्बलन का धनात्मकता (Positiveness) अथवा निषेधात्मक (Negativeness) पर आधारित होने के साथ-साथ अधिगम प्रक्रम की उग्र-गमनता (Forward movement) तथा पृष्ठ-गमनता (Backward-movement) पर भी आधारित है।

कोनोस्र्की (1948) ने साधनात्मक नैमित्तिक अनुबंधन के निम्न तीन प्रकार बतलाए हैं –

1. परिहरण-अनुकूलन (Avoidance conditioning):
यदि घंटी बजे, फिर पाँव में विद्युत-आघात लगे और उसपर.कुत्ता पाँव उठा ले तो कुछ यत्नों के बाद घंटी बजते ही कुत्ता अपना पाँव उठाना सीख लेगा। अधोनुकूलन में पाँव उठा लेने पर भी विद्युत आघात लगेगा। यदि पाँव उठा लेने से वह आघात से बच जाए तो वही साधनात्मक स्वरूप का परिहरण-अनुकूलन कहलाता है।

2. पलायन-अनुकूलन (Escape conditioning):
साधनात्मक अनुकूलन के इस रूप में प्राणी धीरे-धीरे किसी कष्टकर परिस्थिति से बचना सीखता है। मौवरर ने एक प्रयोग में चूहे को पिंजड़े में बन्द किया और उसके फर्श को विद्युत-आवेशित कर दिया फिर धीरे-धीरे विद्युत तीव्रता बढ़ती गई। चूहा विविध प्रकार की क्रियाएँ करने लगा, यहाँ तक कि वह एक लीवर पर चढ़ गया जिससे लीवर दबा और विद्युत-आवेश समाप्त हो गया। यही परिस्थिति फिर दुहरायी गयी। इस बार अपेक्षाकृत शीघ्र ही वह लीवर पर चढ़ गया। एक ऐसी अवस्था भी आ गयी कि जब बिजली का आभास होता था तो चूहा लीवर दबा कर आघात से बचने लगा। यही पलायन-अनुकूलन है।

3. प्रवर्तन अनुकूलन (Operant conditioning):
स्किनर (Skinner 1938) ने समस्या बॉक्स जैसे जटिल साधनात्मक अधिगम को इतना सरल रूप दिया कि उसे अनुकूलन कोटि में रखा जा सकता है। बक्स में एक लीवर लगा था जिसके दबने से भोजन की एक गोली बाहर आती थी। चूहे को बक्स में रखा गया। इधर-उधर घूमने के क्रम में वह लीवर पर चढ़ा, लीवर दबा और भोजन की एक गोली बाहर आयी।

इस परिस्थिति से यह स्पष्ट नहीं है कि अनुकूलन उत्तेजक क्या था, लीवर का दृश्य या भोजन की गंध। लीवर दबाना अनुकूलन उत्तेजक थी, भोजन की गोली अनुकूलन उत्तेजक और खाना अनुकूलन उत्तेजक थी। स्किनर ने इसी साधनात्मक अधिगम को प्रवर्तन (operant) अनुकूलन कहा है। साधनात्मक एवं प्रवर्तन अनुकूलन में भेद भी है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 4.
पॉवलव के शिक्षण सिद्धान्त की विवेचना करें।
उत्तर:
सीखने के अनुबंधित-अनुक्रिया सिद्धांत का प्रतिपादन रूसी शरीर क्रिया-विज्ञानी पॉवलव (Pavlov) द्वारा किया गया। पॉवलव के इस सिद्धान्त का आधार अनुबंधन (conditioning) है जिससे तात्पर्य साहचर्य द्वारा सीखना (learning by association) होता है। जैसे-जब किसी अस्वाभाविक उद्दीपन (conditioned stimulus) के प्रति साहचर्य के आधार पर प्राणी स्वाभाविक अनुक्रिया (unconditioned response) करना सीख लेता है तब इस तरह के सीखना को अनुबंध द्वारा सीखना (conditioning learning) कहा जाता है।

इस पूरी प्रक्रिया को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार समझाया जा सकता है-मानलिया जाए कि एक भूखा व्यक्ति भोजन को देखता है, तो उसके मुँह में लार आने लगता है। यहाँ भोजन एक स्वभाविक उद्दीपन (unconditioned stimulus) है जो व्यक्ति में स्वाभाविक अनुक्रिया (लारस्राव) उत्पन्न कर रहा है। अब थोड़ी देर के लिए मान लिया जाए कि एक घंटी बजाकर उसके सामने भोजन दिया जाता है और यह प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती है।

ऐसी परिस्थिति में संभव है कि व्यक्ति घंटी की आवाज को भोजन आने का सूचक मानकर घंटी की आवाज सुनते ही लारस्राव करने लगे। यदि ऐसा होता है तो यह कहा जाएगा कि व्यक्ति घंटी की आवाज (अस्वाभाविक उद्दीपन) के प्रति एक स्वाभाविक अनुक्रिया (लारस्राव) करना सीख लिया है। इस तरह के सीखना को अनुबंध न द्वारा सीखना (learning by conditioning) कहा जाता है। पॉवलव ने इस सिद्धांत की जाँच करने के लिए एक कुत्ते पर प्रयोग किया है तथा वाटसन एवं रेनर (Watson & Raynor) ने एक छोटे शिशु, जिसका नाम अलबर्ट (Albert) था, उसपर एक प्रयोग किया है। इन दोनों प्रयोगों का वर्णन यहाँ अपेक्षित है।

कुत्ते पर पॉवलव द्वारा किया गया प्रयोग (Pavlov’s experiment on dog):
अनुबंधन अनुक्रिया सिद्धांत के तथ्य के समर्थन में पॉवलन ने एक प्रयोग एक भूखे कुत्ता पर किया। कुत्ता को एक ऐसे कमरे में विशेष उपकरण के सहारे खड़ा किया गया जिसमें बाहर से किसी तरह की आवाज नहीं आने पाए।

कुत्ते द्वारा टपकाई गई लार की मात्रा को मापने के लिए उसके गलफड़े में एक खास किस्म का यंत्र लगा दिया गया जिसे चित्र में दिखाया गया है। कुछ प्रयास तक कुत्ते के सामने भोजन दिया और भोजन देखते ही कुत्ते के मुँह में लार आने लगी। कुछ प्रयास के बाद कुत्ते के सामने भोजन उपस्थित करने के चंद सेकंड पहले तक घंटी बजाई जाने लगी। इस प्रक्रिया को कुछ प्रयासों तक दोहराने के बाद घंटी की आवाज सुनते ही बिना भोजन देखे
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम img 2
चित्र: पॉवलव द्वारा कुत्ते पर किया गया प्रयोग

ही कुत्ते के मुंह में लार आने लगी। इस तरह कुत्ता ने घंटी की आवाज पर लारस्राव करने की अनुक्रिया को सीख लिया। पॉवलव के अनुसार यहाँ कुत्ता घंटी की आवाज तथा लारस्राव में संबंध स्थापित करना सीख लिया जिसे अनुबंधन (conditioned stimulus या CS), भोजन एक स्वाभाविक उद्दीपन (unconditioned stimulus या UCS) तथा लार का स्राव (अनुबंधन के बाद) एक अस्वाभाविक अनुक्रिया (conditioned response या CR) का उदाहरण है। भोजन के प्रति की गई अनुक्रिया (अनुबंधन के पहले) एक स्वाभाविक अनुक्रिया (unconditioned response या UCR) का उदाहरण है।

वाटसन तथा रेनर द्वारा किया गया प्रयोग (Experiment done by Waston & Raynor):
वाटसन (Watson) ने अपनी पत्नी रेनर (Raynor) के साथ मिलकर अलबर्ट नामक एक बच्चे पर प्रयोग किया। प्रयोग इस प्रकार है-अलबर्ट एक उजले चूहे के साथ खेल रहा था। तभी जोरों की तीव्र आवाज उत्पन्न कर दी गई।

आवाज से बच्चा डर जाता था। कुछ दिनों तक यह प्रक्रिया दोहराने के बाद यह देखा गया कि बच्चा उजले चूहे को देखते ही डरकर रोने लगता था। आगे चलकर अलबर्ट में और तीव्र अनुबंधन होता पाया जिसें अलबर्ट केवल उजले चूहे बल्कि उसे मिलती-जुलती अन्य चीजों, जैसे उजला रोएँदार कोट, उजला खरगोश आदि से भी डरने लगा। इस प्रयोग में स्वाभाविक उद्दीपन (unconditioned stimulus) जोरों की आवाज तथा अस्वाभाविक या अनुबंधित उद्दीपन (conditioned stimulus) चूहा है और अनुबंधित अनुक्रिया डर है जो मात्र चूहा देखकर ही उत्पन्न होता था।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट है कि अनुबंधन एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें स्वाभाविक उद्दीपन तथा अस्वाभाविक या अनुबंधित उद्दीपन में एक विशेष संबंध स्थापित हो जाता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति अस्वाभाविक उद्दीपन के प्रति ठीक वैसी ही अनुक्रिया करता है जैसी स्वाभाविक उद्दीपन के प्रति।

अनुबंधन के लिए कुछ प्रमुख बातें –
अनुबंधन द्वारा किसी प्रक्रिया को सीखने के लिए निम्नलिखित बातों का होना अनिवार्य है –

1. आवश्यकता (Need):
सीखनेवाले प्राणी में आवश्यकता का होना अनिवार्य है। पॉवलव के प्रयोग में कुत्ता भूखा था। अतः उसमें भोजन की अवश्यकता (need) थी। ऐसी आवश्यकता नहीं होती तो वह घंटी की आवाज के प्रयोग में भोजन एक पुनर्बलन का उदाहरण है जिससे कुत्ते की भूख की आवश्यकता की पूर्ति होती थी।

2. पुनर्बलन (Reinforcement):
प्राणी की आवश्यकता की पूर्ति जिस चीज से होती है, उसे पुनर्बलन की संज्ञा दी जाती है। पॉवलव के प्रयोग में भोजन एक पुनर्बलन का उदाहरण है जिससे कुत्ते की भूख की आवश्यकता की पूर्ति होती थी।

3. अनुबंधित उद्दीपन तथा स्वाभाविक उद्दीपन के बीच का समय-अंतराल (Time interval between conditioned stimulus and unconditioned stimulus):
fortit अनुक्रिया का संबंध अनुबंधित उद्दीपन के स्थापित हो, इसके लिए यह भी आवश्यक है कि अनुबंधित उद्दीपन के तुरंत बाद स्वाभाविक उद्दीपन दिया जाए। शायद यही कारण है कि पॉवलव के प्रयोग में घंटी बजने के तुरंत बाद कुत्ते के सामने भोजन दिया जाता था।

4. व्याघातक उद्दीपनों की अनुपस्थित (Absence of disturbing stimulus):
अनुबंधन द्वारा सीखने के लिए यह आवश्यक है कि प्रयोग करते समय अनुबंधित उद्दीपन (conditioned stimulus) तथा स्वाभाविक उद्दीपन (unconditioned stimulus) से मिलते-जुलते दूसरे व्याघातक उद्दीपन वहाँ नहीं हों अन्यथा प्राणी अनुबंधित उद्दीपन के साथ स्वाभाविक अनुक्रिया का साहचर्य स्थापित नहीं कर पाएगा।

आलोचनाएं (Criticis):
इस सिद्धान्त की प्रमुख आलोचनाएँ निम्नांकित हैं –

(a) इस सिद्धांत के अनुसार सीखने के लिए पुनर्बलन (reinforcement) आवश्यक है। परन्तु, टॉलमैन (Tolman) तथा ब्लोजेट (Blodgett) आदि द्वारा किए गए अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि पुनर्बलन की अनुपस्थिति में भी प्राणी किसी अनुक्रिया को सीखता है। पुनर्बलन की आवश्यकता सीखी गई अनुक्रिया की अभिव्यक्ति के लिए होती है।

(b) इस सिद्धांत के अनुसार सीखने के लिए अभ्यास या पुनरावृत्ति को महत्त्वपूर्ण कारक माना गया है। परन्तु, बहुत अनुक्रियाएं ऐसी होती है जिसे व्यक्ति मात्र एक बार के अनुभव में ही सीख लेता है।

(c) कुंछ आलोचकों का मत है कि अनुबंधन द्वारा प्रतिपादित सीखना स्थायी तथा आशिक रूप से ही प्राणी के व्यवहार में परिवर्तन लाता है। कुत्ता घंटी की आवाज पर तभी तक लार का स्त्राव करता था जबकि घंटी की आवाज के बाद उसे. भोजन दिया जाता था।

(d) कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि अनुबंधन द्वारा सीखी गई अनुक्रिया अस्वाभाविक होती है जिसके आधार पर स्वाभाविक ढंग से सीखने की प्रक्रियाओं की व्याख्या नहीं की जा सकती है। इन अलोचनाओं के बावजूद पॉवलव का सिद्धान्त एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 5.
अधिगम अन्तरण का क्या स्वरूप है? कुछ प्रायोगिक उदाहरण द्वारा किसी भूत अधिगम के आगामी अधिगम पर प्रभाव की व्याख्या कीजिए। अथवा, अन्तरण के प्रभावों को निर्धारित करने में समानता एक मुख्य परिवर्तनीय है। (अण्डरवुड) अपने उत्तर की पुष्टि में प्रयोगात्मक प्रभाव दीजिए। अथवा, सीखने के स्थानान्तरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
शिक्षक बालक को कक्षाओं में ज्ञान देता है। ज्ञान देने की क्रिया के पीछे अध्यापक की यह भावना अवश्य रहती है कि बालक इस ज्ञान अथवा सीखी हुई क्रिया का उपयोग अन्य परिस्थितियों में करेगा। अत: एक क्रिया का दूसरी परिस्थति में उपयोग किया जाना ही सीखने का स्थानान्तरण कहलाता है। उदाहरणार्थ, एक बालक गणित के सभी प्रश्नों को.बिना किसी की सहायता से स्वयं ही हल कर लेता है। गणित के ज्ञान द्वारा वह विज्ञान के विषयों में भी लाभ उठा सकता है।

इस क्रिया को सीखने का स्थानान्तरण कहते हैं। यहाँ तक बात ध्यान देने योग्य है कि यदि समाज में ज्ञान का स्थानान्तरण न होता तो मनुष्य को हर क्रिया को सीखने के लिए नये सिरे से प्रयत्न करना पड़ता। इसलिए क्रो ने स्थानान्तरण की परिभाषा इस प्रकार दी है – “सीखने के स्थानान्तरण से यह अभिप्राय है, जब सीखने में प्राप्त विचार, अनुभव या कार्य, ज्ञान अथवा कौशल का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में उपयोग किया जाय।”

शिक्षा-विश्व-कोष में स्थानान्तरण की व्याख्या इस प्रकार दी गई है-“जब कोई विशेष अनुभव व्यक्ति की योग्यता को दूसरी परिस्थिति में प्रतिक्रिया करने के हेतु प्रभावित करता है और प्राप्त अनुभवों के आधार पर वह नई समस्या को हल करने में उत्तेजना प्रदान करता है।” कॉलसानिक ने भी स्थानान्तरण की परिभाषा इस प्रकार दी है-“स्थानान्तरण पहली स्थिति में अर्जित ज्ञान, कौशल, स्वभाव, मनोवृत्ति अथवा प्रतिक्रयाओं का अन्य परिस्थितियों में प्रयोग करता है।” इन परिभाषाओं से यह ज्ञात होता है कि अर्जित अनुभव का लाभ उठाना ही स्थानान्तरण है। इस प्रकार के विचार सोरेन्स ने भी व्यक्त किये हैं – “स्थानान्तरण के द्वारा व्यक्ति उस सीमा तक सीखता है जहाँ से वह अर्जित योग्याताओं की सहायता दूसरी परिस्थितियों में करता है।

इन परिभाषाओं से प्राप्त निष्कार्षों को एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है। एक व्यक्ति ने ट्रैक्टर चलाना सीख लिया है। वह उसके संचालन की हर विधि को अच्छी तरह जान गया है। यदि उसे कार या ट्रक चलाने को कहा जाय तो उसे कार या ट्रक का संचालन करने में परेशानी होगी। ट्रैक्टर चलाने की क्रिया का उपयोग कार या ट्रक चलाने में किया गया, इसलिए यह ट्रैक्टर चलाने की क्रिया स्थानान्तरण है।

स्थानान्तरण के प्रकार (Types of Transfer) यदि पूर्व सीखने का अनुभव दूसरे सीखने पर प्रभाव डालता है तो दूसरे सीखने में कम समय तथा कम शक्ति का प्रयोग हो सकता है। यदि दूसरे कार्य के अधिगम में सुगमता हो जाय या कार्य दुरूह हो जाय अथवा प्रभाव शून्य हो जाय तो उन्हें क्रमश: भावात्मक या विधेयात्मक (Positive), नकारात्मक (Negative) तथा शुन्यात्मक (Zero) स्थानान्तरण के नाम से पुकारेंगे। इस प्रकार स्थानान्तरण के तीन प्रकार बताये गये।

1. भावात्मक या विधेयात्मक (Positive) स्थानान्तरण:
इस अधिगम स्थानान्तरण का तात्पर्य है कि जब एक क्रिया का सीखना दूसरी क्रिया के सीखने में सहायक होता है तो उसे भावात्मक या विधेयात्मक स्थानान्तरण कहते हैं। मार्गन (1956) के अनुसार भावात्मक या विधेयात्मक अन्तरण उस अवस्था में उत्पन्न होता है जब पूर्वानुभव अधिगम में सहायक होता है।

उदाहरणार्थ-दाएँ हाथ से लिखना सीख लेने पर बाएँ हाथ से भी लिखने का कार्य थोड़ा बहुत किया जा सकता है। प्रयोगशालाओं में दर्पण चित्रांकन (Mirror drawing) पर प्रायः धनात्मक या विधेयात्मक अन्तरण पाया जाता है। विधेयात्मक अन्तरण का जीवन में अत्यधिक महत्व है। नवीन परिस्थिति में ऐसा अन्तरण अधिक सहायक होता है। बेबर, फेकनर, डक्कन, ग्रिग एवं किम्मेल, हिलगार्ड आदि ने इस प्रकार विशेष कार्य किया है।

2. निषेधात्मक या नकारात्मक (Negative) स्थानान्तरण:
जब एक क्रिया का सीखना दूसरी क्रिया के सीखने में अवरोध या बाधा उत्पन्न करता है तो उसे नकारात्मक या निषेधात्मक स्थानान्तरण कहते हैं। आसगुड (Osgood) के अनुसार अवरोधक अन्तरण की निषेधात्मक या नकारात्मक अधिगम अन्तरण है। बोरिंग तथा अन्य के अनुसार यदि पूर्व अनुभव नवीन कार्य पर बाधक प्रभाव डालता है तो अन्तरण निषेधात्मक कहलाता है।

यह कई कारणों से हो सकता है। इसमें अनुक्रिया स्पर्धा या विपरीत अनुक्रिया इत्यादि प्रमुख कारण हैं। उदाहरणार्थ-जब हम किसी कार्य को दायें हाथ से करने में अभ्यस्त हो जाते हैं और इसी क्रिया को जब बायें हाथ से करते हैं तो कार्य में व्यवधान उत्पन्न हो जाता है तथा दुरूहता आ जाती है। यही नकारात्मक या निषेधात्मक अधिगम स्थानान्तरण है।

3. शून्य स्थानान्तरण (Zero Transfer):
कुछ ऐसी परिस्थितियां भी आती हैं जब एक क्रिया का सीखना किसी अन्य क्रिया में न भावात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है और न नकारात्मक, अर्थात् शून्य स्थानान्तरण की अवस्था में न तो पूर्वानुभाव सहायक होता है न बाधक। ऐसी स्थिति में अन्तरण प्रभावशून्य होगा।

अधिगम स्थानान्तरण के सिद्धान्त (Theories of Transfer of Learning):
अधिगम स्थानान्तरण के संदर्भ में निम्नलिखित सिद्धान्तों का उल्लेख मिलता है –

1. औपचारिक अनुशान का सिद्धान्त (Theory of FormalDiscipline):
शिक्षा-शास्त्रियों की विचारधारा काफी वर्षों तक यह थी मनुष्य का मस्तिष्क विभिन्न संकायों (Faculties) का स्वरूप है। इसमें स्मृति, विश्लेषण, निर्णय, इच्छा, कल्पना तथा तर्क आदि माने जाते हैं। इस विचारधारा को मानने वालों का मत था कि जिस प्रकार व्यायाम से शरीर की मांसपेशियाँ पुष्ट होती हैं उसी प्रकार प्रशिक्षण से मानसिक शक्तियाँ भी विकसित हो जाती हैं। उदाहरणार्थ, गणित के ज्ञान से व्यवसाय में तथा कविता के ज्ञान से वाक्य के विभिन्न रूपों के समझने में सहायता मिलती है। स्वयं तर्क करने की शक्ति से समस्या समाधान में सहायता मिलती है। बुडवर्थ तथा विलियम जेम्स ने इसकी आलोचना की।

2. समान अंशों का सिद्धान्त (Theory of Identical Elements):
इसके प्रतिपादक थार्नडाइक (Thorndike) महोदय ने बताया कि एक विषय के संस्कार उसी अनुपात में दूसरे विषय में स्थानान्तरित होते हैं जिस अनुपात में दोनों विषयों में समानता पायी जाती है। विद्यार्थियों को ऐसे विषयों का ज्ञान कराया जाना चाहिए जिसके ज्ञान से जीवन के समान क्षेत्रों में स्थानान्तरण हो सके।

स्पीयरमैन (Spearman) ने भी द्वि-तत्व सिद्धान्त का प्रतिपादन करके यह बताया कि सामान्य बुद्धि हर मनुष्य में एक-सी होती है जिसका उपयोग सामान्य क्रियाओं में होता है। सामान्य बुद्धि ही स्थानान्तरण का आधार है। विशिष्ट बुद्धि को जो मनुष्य में भिन्न होती है उसका उपयोग हर मनुष्य अपने ढंग से करता है। सामान्य विषयों जैसे भूगोल, इतिहास, गणित तथा साहित्य आदि में भी किसी का स्थानान्तरण करने में उसकी मात्रा कम या अधिक होगी।

3. सामान्य अनुभव का सिद्धान्त (Theory of Generalization of Experience):
चार्ल्स जुड (Charles Judd) इस सिद्धान्त के जन्मदाता हैं। इसे “सिद्धान्त द्वारा स्थानान्तरण” कहा जाता है। जिन सिद्धान्तों को व्यक्ति अपने अनुभवों द्वारा सीख लेता है उनका जीवन परिस्थितियों में स्थानान्तरण होता है। जिन सिद्धान्तों काके राइट ब्रदर्स (Wright Brothers) ने पतंग उड़ाने में सीखा था उन्हीं के आधार पर जहाज बनाने में सहायता प्राप्त की।

सीखने में स्थानान्तरण का महत्त्व

  1. स्थानान्तरण के महत्त्व को देखते हुए विद्यालयों में बालकों का पाठ्यक्रम ऐसा बनाया जाना चाहिए कि उनके भविष्य के जीवन से सम्बन्धित हो। पाठ्यक्रम में सामाजिक, शारीरिक सुरक्षा एवं स्वास्थ्य, चरित्र-निर्माण आदि जैसे विषयों का समावेश हो सके तो अच्छे परिणाम मिल सकते हैं।
  2. स्थानान्तरण से एक विषय के बाद दूसरा विषय सरलता से सीख लिया जाता है जिससे अधिक श्रम एवं समय की भविष्य में बचत होती है।
  3. स्थानान्तरण के महत्व को स्वीकार करके विद्यालय के पाठ्यक्रम से ऐसे विषयों को निकाला जा सकता है जिनका विद्यार्थी के जीवन में नकारात्मक स्थानान्तरण होता है।
  4. वातावरण प्रतिकूल है या अनुकूल इसका ध्यान प्रशिक्षण के दौरान महत्त्वपूर्ण होता है। प्रतिकूल वातावरण में स्थानान्तरण नहीं हो पाता है।
  5. शिक्षकों को स्थानान्तरण के महत्त्व को स्वीकार करके पाठ्यक्रम को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करना चाहिए जिससे कि विद्यार्थी की रुचि अध्ययन में लग सके।

विशिष्ट विषय में स्थानान्तरण:
आज की शिक्षा प्रणाली पर एक मुख्य आरोप यह लगाया जाता है कि वह जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं करती है। गणित, बीजगणित, रेखागणित या विज्ञान हो, जो हम कक्षा में पढ़ते हैं, वह छात्रों के व्यावहारिक जीवन में अनुपयोगी होती है। थॉर्नडाइक ने विभिन्न विषयों के स्थानान्तरण पर प्रयोग किया। उसने हाईस्कूल के पाठ्यविषयों के आधार पर दसवीं, ग्यारहवीं तथा बारहवीं कक्षा के 13,500 छात्रों पर तर्क (Logic) के परीक्षणों का प्रयोग किया। उसने यह निष्कर्ष निकाला –

  1. विभिन्न विषयों के तुलनात्मक स्थानान्तरण की प्रतिशत में अन्तर कम होता है।
  2. विषय का स्थानान्तरण शिक्षण विधि पर निर्भर करता है।
  3. स्थानान्तरण इस बात पर निर्भर करता है कि प्राप्त ज्ञान का उपयोग किस सीमा तक हुआ है।

थार्नडाइक के इन विषयों से हम निम्नलिखित सुझावों को कार्यरूप में परिणत करके विशिष्ट विषयों में स्थानान्तरण की प्रक्रिया को लागू कर सकते हैं।

  1. बालकों को किसी विषय या समस्या के प्रत्येक अंग की जानकारी देनी चाहिए।
  2. बालकों को समय पर चिंतन तथा तर्क करने का पर्याप्त अवसर देना चाहिए।
  3. बालकों को समस्या के विश्लेषण का अवसर देना चाहिए और पश्चात् सामान्य सिद्धान्तों के मध्य से स्थानान्तरण का अवसर देना चाहिए।
  4. गणित जैसे विषय को पर्याप्त सहायक सामग्री (Helping Material) के द्वारा पढ़ाया जाना चाहिए।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 6.
अधिगम सिद्धांत के अनुप्रयोग का वर्णन करें।
उत्तर:
1. बच्चों के पालन-पोषण में अनुप्रयोग:
सीखने के सिद्धांत का उपयोग बच्चों के पालन-पोषण में होता है, शास्त्रीय अनुबंधन सिद्धांत का उपयोग कर बच्चों को सिखाया जा सकता है कि कौन-सी वस्तु खतरनाक है तथा उससे कैसे बचना चाहिए। नैमित्तिक अनुबंधन का उपयोग कर बच्चों के अनुचित व्यवहार को सुधारा जा सकता है।

2. विद्यालय में अनुप्रयोग:
विद्यालय में बच्चों के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू का विकास किया जाता है इस संबंध में शाब्दिक सीखना, प्रेक्षणात्मक सीखना, कौशल सीखना के नियम बहुत उपयोगी हैं शिक्षक को एक आदर्श परामर्शदाता के रूप आचरण करना पड़ता है जिससे वे विद्यार्थी के आदर्श बन सके। वांछित व्यवहार विकसित करने के लिए पुरस्कार का प्रयोग करना चाहिए। इससे छात्रों में विषय संबंधी पढ़ाई में तेजी आती है तथा उनका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी उन्नत होती है।

3. संगठन में अनुप्रयोग:
संगठन का अर्थ कार्यालय, उद्योग, संघ से है सीखने के सिद्धांत का प्रयोग कर कर्मचारी के संतोष, मनोबल पारस्परिक संबंध को उन्नत बनाया जाता है, जिससे अनुशासनहीनता घटती है तथा उत्पादन में वृद्धि होती है इसके लिए समय-समय पर प्रबंधन द्वारा आकर्षक पुरस्कार की व्यवस्था की जाती है। सीखने के सिद्धांत विशेषकर प्रोत्साहन एवं प्रवलन का प्रयोग सभी प्रकार के संगठन में स्वस्थ वातावरण एवं उत्पादन को बढ़ावा दिया जा सकता है।

4. चिकित्सात्मक उपचार में अनुप्रयोग:
सीखने के सिद्धांत का उपयोग मानसिक चिकित्सा के क्षेत्र में किया गया। मनोवैज्ञानिक समायोजन संबंधी समस्या अनावश्यक भय और गलत आदत, सुधारने में व्यवहार सुधार तकनीक का विकास किया।

भय दूर करने के लिए विलोप का, बच्चों और प्रौढ़ों के भय को दूर करने के लिए आदतावन, अत्यधिक भय से पीड़ित व्यक्ति के लिए क्रमिक-विकास, संवेदनीकरण, अवांछित आदत छुड़ाने के लिए विरूचि चिकित्सा, मानसिक रूप से घबराहट और अशांति अनुभव करने वाले के जैव प्रतिपादित दी जाती है। संक्षेप में मनोचिकित्सा की विभिन्न तकनीकों एवं विधियों में सीखने का सिद्धांत के लाभकारी अनुप्रयोग किए जाते हैं। स्पष्ट है कि सीखने के सिद्धांत एवं नियमों का प्रयोग जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में किया जा रहा है और इसके उत्पादवर्द्धक परिणाम प्राप्त हो रहे हैं।

प्रश्न 7.
विभेदन के अर्थ एवं स्वरूप को बताएँ। विभेदन सीखने की विभिन्न विधियों का वर्णन करें।
उत्तर:
अर्थ एवं स्वरूप (Meaning and Nature):
विभेदन (discrimination) सामान्यीकरण (generalization) का विपरीत होता है। अनुबन्धन के क्षेत्र के प्रयोगकर्ताओं ने अपने अध्ययनों में यह देखा है कि प्रशिक्षण की आरंभिक अवस्था में प्राणी CS तथा उससे मिलते-जुलते उद्दीपकों में अन्तर नहीं कर पाता है। फलतः वह CS के समान ही इन सभी उद्दीपकों के प्रति अनुक्रिया करता है जिसे सामान्यीकरण (generalization) कहा जाता है। जैसे-जैसे प्रशिक्षण आगे बढ़ता है, प्राणी में CS को अन्य समान उद्दीपकों से भिन्न करने की क्षमता विकसित हो. जाती है और वह अब सिर्फ CS के प्रति अनुक्रिया करता है अन्य समान उद्दीपकों के प्रति नहीं। इसे ही मनोवैज्ञानिकों ने विभेदन (discrimination) की संज्ञा दी है।

जैसे, मान लिया जाए कि पॉवलोवियन अनुबन्धन में 1000 Hz के आवाज को CS के रूप में उपयोग करके कुत्ता को उस पर लार स्राव करने की अनुक्रिया करना सिखलाया जाता है। इस प्रशिक्षण के प्रारंभिक अवस्था में कुत्ता 800 Hz तथा 1200 Hz पर भी वैसी ही अनुक्रिया करेगा। परंतु प्रशिक्षण की अंतिम अवस्था में वह सिर्फ 1000 Hz के आवाज पर ही लार स्राव की अनुक्रिया करेगा, अन्य उद्दीपकों जैसे 800 Hz एवं 1200 Hz पर नहीं करेगा क्योंकि कुत्ता इस अवस्था में CS तथा उन उद्दीपकों के बीच विभेदन करना सीख लेता है। स्पष्ट है कि विभेदन के स्वरूप के बारे में हमें निम्नांकित तथ्य मुख्य रूप से मिलता है –

  1. विभेदन की प्रक्रिया सामान्यीकरण की प्रक्रिया के विपरीत होती है।
  2. विभेदन में प्राणी CS के प्रति ही अनुक्रिया करता है अन्य किसी भी समान उद्दीपक के प्रति के प्रति नहीं।
  3. विभेदन की अवस्था में CS की विशिष्टता की पहचान स्पष्ट हो जाती है।

विभेदन सीखने की विधियाँ (Methods of Discrimination learning):
विभेदन सीखने का क्रमबद्ध प्रयोगशाला (systematic laboratory) अध्ययन करीब 1900 से प्रारम्भ हुआ है। तब से आज तक किये गये प्रयोगों एवं शोधों को ध्यान में रखते हुए कहा जा सकता है कि विभेदन सीखना अध्ययन करने के लिए निम्नांकित तीन तरह की विधियों का प्रतिपादन किया गया हैं –

  1. पृथक प्रयास विधियाँ (discrete trial methods)
  2. स्वचालित विधियाँ (automated methods)
  3. स्वतंत्र-क्रियाप्रसूत विधियाँ (free operant methods)

1. पृथक प्रयास विधियाँ (Discrete trial methods):
जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है, इस विधि में प्राणी दिये हुए उद्दीपकों के बीच विभेदन करना प्रत्येक प्रयास में किये गए पृथक अनुक्रियाओं के आधार पर सीखता है।

2. स्वचालित विधियाँ (Automated methods):
स्वचालित विधियों द्वारा भी विभेदन सीखने का अध्ययन किया गया है। इन विधियों की आवश्यकता इसलिए पड़ी, क्योंकि पृथक प्रयास विधि (discrete trial method) द्वारा विभेदन सीखना में काफी समय लगता था और साथ ही इनसे एक प्रयास से दूसरे प्रयास में अनुक्रिया परिवर्तनशीलता (response variability) होने लगती है जिसके कभी-कभी गंभीर परिणाम होते हैं।

स्वचालित विधि में ऐसी कठिनाइयाँ दूर हो जाती हैं। स्वचालित विधि में स्वचालित स्विचिंग उपकरण (automatic switching equipment) होते हैं और पशुओं को पूर्णतः एक पृथक परिस्थिति (isolated condition) में रखा जाता है। जैसे, चूहा को दो खिड़की या दो रास्तों के बीच चुनने के बजाय उसे दो लीवर या दो बटन में से किसी एक लीवर या बटन को दबाकर अनुक्रिया करना होता है।

3. स्वतंत्र-क्रियाप्रसूत विधियाँ (Free operant methods):
इस विधि में प्राणी के सामने उद्दीपकों, जिनके बीच विभेदन करना सीखना होता है, बारी-बारी से (successively) या कभी-कभी एक ही साथ (simultaneously) उपस्थित किया जाता है। प्राणी को उन उद्दीपनों को इधर-उधर करने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 8.
स्किनर के प्रवर्तन अनुकूलन या साधनात्मक अनुकूलन सिद्धान्त की आलोचना की व्याख्या करें।
उत्तर:
स्किनर ने सीखने के क्षेत्र में एक नए सिद्धान्त का प्रतिपादन किया जो पॉवलव के सम्बन्ध प्रत्यावर्तन एवं थॉर्नडाइक के सम्बन्ध पर आधारित था। इस सिद्धान्त को प्रबन्धन अनुकूलन या साधनात्मक अनुकूलन के नाम से जानते हैं। उन्होंने अपने सिद्धान्त में अनुकूलन के बहुत-से ऐसे प्रत्ययों का व्यवहार किया, जो पॉवलव के सिद्धान्त से लिया गया था तथा थॉर्नडाइक के प्रभाव के नियम को अपने सिद्धान्त का आधार माना।

स्किनर ने पॉवलव तथा थॉर्नडाइक के सिद्धान्तं से कुछ कच्चे माल प्राप्त कर एक नए चीज का आविष्कार किया जो एक सफल सिद्धान्त साबित हुआ। उन्होंने क्लासिकल अनुबन्धन का विरोध किया और प्राणी और प्राणी की प्रतिक्रिया के प्रभाव को प्रधानता दी। उन्होंने व्यवहार की संज्ञानात्मक व्याख्या को अस्वीकार किया और व्यवहारवादी व्याख्या पर बल दिया।

स्किनर ने प्रत्यार्थी-व्यवहार और प्रवर्तन-व्यवहार में अन्तर बताया और कहा कि सीखने की परिस्थिति में प्राणी अपनी समस्याओं का समाधान प्रवर्तन व्यवहार के द्वारा सीखता है, प्रत्यार्थी व्यवहार के द्वारा नहीं। उन्होंने बताया कि प्रत्यार्थी-व्यवहार वह है जो उत्तेजना के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। जैसे-पॉवलव के प्रयोग में भोजन या घंटी की आवाज के बाद कुत्ते के मुँह से लार निकलता था। परन्तु प्रवर्तन-व्यवहार उसे कहते हैं, जिसे उत्पन्न किया जाता है, वहाँ उत्तेजना की प्रधानता होती है। परन्तु यहाँ उत्तेजना के साथ-साथ प्राणी की भी प्रधानता होती है। स्किनर ने कहा कि प्रवर्तन-व्यवहार साधनात्मक होता है। प्रभाव को उत्पन्न करने में प्राणी साधन का काम करता है।

स्किनर ने अपने सिद्धान्त की पुष्टि के लिए कई प्रयोगात्मक अध्ययन किया। उनका प्रयोग मुख्य रूप से चूहों और कबूतरों पर किया गया। इसके लिए उन्होंने एक विशेष प्रकार के बक्से का निर्माण किया, जिससे स्किनर बॉक्स के नाम से जानते हैं। स्किनर बॉक्स में एक छोटी-सी पीतल की कुंजी होती है, जिसकों दबाने से खाने की गोली निकल आती है। कुंजी का सम्बन्ध एक यंत्र से होता है, जिससे भूखे चूहे द्वारा किये गये प्रयासों का पता चलता है। स्किनर ने एक भूखे चूहे को स्किनर बॉक्स में बन्द किया।

उन्होंने देखा कि प्रारंभ में चूहा इधर-उधर घूमने लगा। इसी बीच उसका पंजा पीतल की कुंजी पर पड़ गया। कुंजी के दबते ही भोजन की गोली बाहर निकल गयी, जिसे चूहा खाकर संतुष्ट हुआ। इस प्रकार जब भी वह कुंजी को दबाता था, उसे भोजन की गोली मिल जाती थी। कई प्रयासों के बाद चूहे ने कुंजी को. दबाकर भोजन प्राप्त करना सीख लिया। स्किनर ने एक दूसरा प्रयोग कबूतरों पर किया। उसे भी एक बक्से में बन्द किया। बक्से की बनावट पहले वाले बक्से से भिन्न थी।

इसमें पीतल की कुंजी की जगह रौशन प्लास्टिक की कुंजी थी। उस रौशन प्लास्टिक की कुंजी पर कबूतर द्वारा चोंच मारने से खाने का दाना निकलता था। प्रारंभ में कबूतर ने इधर-उधर चोंच मारी, परन्तु उसे भोजन नहीं मिला। लेकिन प्लास्टिक की कुंजी पर चोंच मारते ही भोजन का दाना निकल आया। इस तरह कई प्रयासों के बाद कबूतर ने उस रौशन प्लास्टिक की कुंजी पर चोंच मारकर दाना प्राप्त करना सीख लिया।

स्किनर के उपर्युक्त प्रयोगों से स्पष्ट होता है कि प्राणी प्रवर्तन अनुकूलन के आधार पर ही सीखता है। उन्होंने प्रवर्तन अनुकूलन की कुछ विशेषताओं की चर्चा की है, जो निम्नलिखित हैं –

1. प्रवर्तन व्यवहार:
स्किनर ने दावा किया है कि सीखने की परिस्थिति में प्राणी का व्यवहार-प्रवर्तन होता है। इस बात की पुष्टि उन्होंने चूहे और कबूतरों के प्रयोग से सिद्ध कर दिया। प्रवर्तन से उस पर प्रभाव पड़ता है और प्राणी इस क्रिया को सीख लेता है।

2. साधनात्मक व्यवहार:
स्किनर ने शिक्षण में साधनात्मक व्यवहार पर भी बल दिया है और कहा है कि प्राणी का व्यवहार प्रबलन प्राप्त करने के लिए साधना का काम करता है। गलत व्यवहार करने पर प्रबलन नहीं मिलता है तथा सही व्यवहार करने पर प्रबलन प्राप्त होता है।

3. प्रबलन:
अन्य मनोवैज्ञानिकों की तरह स्किनर ने भी शिक्षण के लिए प्रबलन को आवश्यक माना है। उन्होंने दो प्रकार के प्रबलन की चर्चा की है, जिसे सकारात्मक प्रबलन तथा नकारात्मक प्रबलन के नाम से जानते हैं। सकारात्मक प्रबलन उसे कहते हैं, जिससे प्राणी की संतुष्टि मिलती है तथा उसे प्राप्त करने का प्रयास करता है जबकि नकारात्मक प्रबलन से असंतुष्टि मिलती है। प्राणी उससे बचने का प्रयास करता है।

4. व्यवहार-सुसंगठन:
प्रबलन से प्राणी के व्यवहार को सुसंगठित किया जाता है। इस आधार पर पशुओं को जटिल कार्य सिखलाया जाता है। जैसे-स्किनर ने कबूतर को पहले बक्से से परिचय कराया और फिर प्लास्टिक कुंजी पर चोंच मारकर दाना प्राप्त करना सिखाया और अन्त में उस व्यवहार को सुगठित किया। इसलिए कबूतर को बाद में जब भी स्किनर बॉक्स में बन्द किया जाता था, वह तुरंत ही प्लास्टिक कुंजी दबाकर भोजन प्राप्त कर लेता था।

उन्होंने व्यवहार-सुगठन के पक्ष में और भी प्रयोग किये हैं। व्यवहार सुगठन केवल पशुओं के लिए ही उपयोगी नहीं, बल्कि मनुष्यों के लिए भी प्रभावशाली सिद्ध हुआ। ग्रीन स्पून ने मनुष्यों पर प्रयोग करके इसे प्रमाणित करने का प्रयास किया। इसी तरह वरप्लांक ने भी मनुष्य के व्यवहार के सुगठन को मौखिक अनुकूलन द्वारा प्रमाणित किया है।

5. उत्तेजना सामान्यीकरण:
जब कोई तटस्थ उत्तेजना किसी अनुक्रिया को उत्पन्न करने के लिए अनुकूलित हो जाती है, तो वह अनुक्रिया उस उत्तेजना से मिलती-जुलती उत्तेजनाओं के प्रति भी होने लगती है, जिसे उत्तेजना सामान्यीकरण कहते हैं। स्किनर ने अपने अध्ययनों में देखा कि जब चूहा कुंजी दबाकर भोजन प्राप्त करना सीख लिया, तो उससे कुछ भिन्न दूसरे बक्से में छोड़ा गया। यहाँ भी चूहे ने अपनी उसी प्रतिक्रिया को दुहरायी। ग्राइस एवं राल्ज ने भूल-भुलैया के आधार पर उत्तेजना सामान्यीकरण को सिद्ध किया।

6. उत्तेजना-विभेद:
उत्तेजना-विभेद का अर्थ हुआ कि जब प्राणी एक परिस्थिति में कोई व्यवहार सीख लेता है, तो उस परिस्थिति से भिन्न परिस्थितियों में उसे नहीं दुहराता है। स्किनर ने कबूतर को स्किनर-बॉक्स में दाना प्राप्त करना सिखाया। उसके बाद उस बक्से से भिन्न दूसरे बक्से में कबूतर को रखा तो वहाँ उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। ग्राइस एवं राल्ज के अध्ययन से भी यह बात प्रमाणित हो जाती है।

7. विलोप:
पॉवलव के क्लासिकल अनुबन्धन की तरह इसमें भी विलोप की विशेषता पायी जाती है। विलोप से तात्पर्य यह है कि प्राणी उत्तेजना के प्रति व्यवहार करना सीख ले और उसे प्रबलन नहीं मिले, तो धीरे-धीरे व्यवहार समाप्त हो जाता है। स्किनर ने देखा कि चूहों को कुंजी दबाने के बाद भी कई बार भोजन नहीं मिला, तो उसने कुंजी को दबाना छोड़ दिया, इसे ही विलोप कहते हैं।

8. स्वतः पुनाप्ति:
अनुबन्धन होने के बाद यदि उसे प्रबलन नहीं दिया जाता है, तो धीरे-धीरे अनुबंधित अनुक्रिया को प्राणी भूल जाता है। स्किनर ने देखा कि भोजन के अभाव में चूहे ने कुंजी दबाना छोड़ दिया, लेकिन कुछ समय बाद उसने स्वतः कुंजी को दबाया। इस तरह स्किनर का शिक्षण-सिद्धान्त एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है।

उन्होंने वाटसन तथा गथरी की तरह शिक्षण से सम्बन्धित अमूर्त विषयों के व्यवहारिक पक्ष पर बल दिया है। उन्होंने शिक्षण में प्रवर्तन व्यवहार को आवश्यक माना तथा अन्य मनोवैज्ञानिकों की तरह प्रबलन को भी आवश्यक माना है। बच्चों के समाजीकरण की व्याख्या करने में भी यह सिद्धान्त सफल है। व्यवहार परिमार्जन की दिशा में इस सिद्धान्त का कोई मुकाबला नहीं है। परन्तु इन गुणों के बावजूद स्किनर का सिद्धान्त दोषों से मुक्त नहीं है। इस सिद्धान्त के निम्नलिखित प्रमुख दोष हैं –

दोष (Demerits):

1. स्किनर ने सीखने के लिए प्रबलन को आवश्यक माना है, परन्तु टॉलमैन ने प्रबलन को आवश्यक नहीं माना। उन्होंने अपने प्रयोगात्मक अध्ययनों के आधार पर सिद्ध कर दिया है कि बिना प्रबलन के भी प्राणी सीख सकता है। इस संदर्भ में उन्होंने एक सिद्धान्त का प्रतिपादन किया, जिसे ‘लेटेंट शिक्षण’ कहते हैं।

2. स्किनर ने प्रवर्तन तथा प्रत्यार्थी:
व्यवहारों के बीच अन्तर माना है, परन्तु मिलर और टेरिस उनके विचारों से सहमत नहीं हैं। उन्होंने कहा कि प्रवर्तन-व्यवहार और प्रत्यार्थी-व्यवहार के बीच सीमा-रेखा खींचना मुश्किल हैं।

3. इस सिद्धान्त पर एक आरोप यह लगाया जाता है कि इसमें परिधीय यंत्रों पर बल दिया गया है तथा केन्द्रीय यंत्रों को छोड़ दिया गया है, जबकि केन्द्रीय यन्त्रों की शिक्षण में प्रधानता होती है।

4. स्किनर ने सीखने तथा सम्पादन के अन्तर की और ध्यान नहीं दिया है। उन्होंने उत्तेजना प्रतिक्रिया सम्बन्धन को प्रबलन का परिणाम माना, जबकि बन्धुश ने कहा कि सम्भव है कि एक बालक अपने विषय को अच्छी तरह जानता हो, परन्तु प्रबलन के अभाव में उसे सम्पादन के रूप में व्यक्त न कर सके। प्रबलन से सम्पादन प्रभावित होता है, शिक्षण नहीं।

5. कौसकी ने इस सिद्धान्त की समीक्षा करते हुए तीन बातों का उल्लेख किया है और कहा कि स्किनर ने प्राणी की आन्तरिक अवस्था की ओर ध्यान नहीं दिया है, जबकि उत्तेजना प्रतिक्रिया सम्बन्ध में इसका बहुत बड़ा हाथ होता है।

दूसरी बात उन्होंने कहा कि प्रत्ययों का मूल्य सर्जनात्मक निर्देशन पर निर्भर करता है तथा तीसरी की स्किनर ने अपने चूहे को स्किनर बॉक्स के भीतर प्राप्त प्रत्ययों का बहिर्षण करके मानव के मानसिक जीवन की समस्याओं की व्याख्या करने का असफल प्रयास किया है। स्किनर द्वारा प्रस्तुत बहिर्षण या तो गलत है या लाक्षणिक दोषों से पीड़ित है। इस तरह, हम देखते हैं कि स्किनर के सिद्धान्त में बहुत सारे दोष हैं। परन्तु इसके बावजूद इसका व्यावहारिक महत्व कम नहीं हुआ। शिक्षण के क्षेत्र में आज भी इस सिद्धान्त की अलग मान्यता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 9.
सीखना या शिक्षण के प्रयत्न एवं भूल सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रयत्न एवं भूल सिद्धांत सीखने का एक प्रमुख सिद्धांत है जिसका प्रतिपादन ई. एल. थार्नडाइक (E. L. Thorndike) द्वारा किया गया। बिल्लियों, चूहों, मुर्गियों आदि पर प्रयोग करके थार्नडाइक ने इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। इस सिद्धांत का सारतत्त्व यह है कि जब प्राणी किसी कार्य या कौशल को सीखना चाहता है तब वह प्रयत्न करता है और इस क्रम में उससे भूलें (erors) होती हैं।

जैसे-जैसे प्रयत्नों या प्रयासों की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे भूलों या त्रुटियों में कमी आती जाती है। एक ऐसा समय आता है जब बिना कोई त्रुटि या भूल किए ही प्राणी उस कौशल या अनुक्रिया को करना सीख लेता है। थार्नडाइक का यह सिद्धांत उनके द्वारा किए गए कुछ प्रयोगों पर आधृत है। इन प्रयोगों में निम्नांकित दो तरह के प्रयोग विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

1. पहेली बक्स की समस्या-संबंधी प्रयोग (Experiment relating to puzzle-box problem):
यह प्रयोग एक भूखी बिल्ली पर किया गया जिससे पहले बक्से (puzzle box) में रख दिया जाता है। पहेली बक्से के सामने बाहर में एक मछली का टुकड़ा रख दिया गया जिसे बिल्ली देख रही थी।

बिल्ली के सामने यह समस्या थी कि वह किस तरह पहेली बक्से से निकलकर मछली खाकर अपनी भूख मिटा ले। बक्से के अन्दर बंद होते ही बिल्ली बाहर निकलने के लिए प्रयत्न अर्थात् उछल-कूद करने लगी। वह भूख से प्रेरित थी जिसके फलस्वरूप वह पहेली बक्से को दाँत से काटती, कभी अपने पंजे से नोचती-खसोटती थी।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम img 3
चित्र: थार्नडाइक का पहेली बॉक्स

इन व्यर्थ प्रयासों के दौरान उसका पंजा बक्से के एक बटन या सिटकिनी पर पड़ जाता है जिससे बक्से का दरवाजा खुल गया और बिल्ली बाहर निकलकर मछली खा गई। फिर बाद में उसी बिल्ली को उसे बक्से में रखा गया तो देखा गया कि इस बारी में भी बिल्ली द्वारा कुछ उछल-कूद की व्यर्थ क्रियाएँ हुईं, परंतु पहले की अपेक्षा कम हुई।

बिल्ली थोड़ी देर तक छल-कूद करने के बाद ही दरवाजा खोल सकने में समर्थ हो गई । इस प्रक्रिया को जब कई दिनों तक दोहराया गया तब देखा गया कि प्रयास बढ़ने के साथ-ही-साथ त्रुटियों में काफी कमी आई और अंत में एक समय ऐसा भी आया कि बिल्ली को जैसे ही बक्से में रखा गया, वह सीधे सिटकिनी या बटन दबाकर दरवाजा खोल लेती थी और बाहर आकर मछली खा लेती थी। इस तरह, बिना कोई त्रुटि किए कम-से-कम समय में बिल्ली दरवाजा खोलना सीख गयी।

2. भूल-भूलैया सीखने की समस्या-संबंधी प्रयोग (Experiment relating to mazeleaming problem):
इस प्रयोग में थार्नडाइक ने एक भूखे चूहे को भूल-भूलैया में रखा। भूल-भूलैया (maze) एक ऐसा उपकरण होता है जिसमें लक्ष्य तक पहुँचने का एक ही रास्ता होता है। परंतु अंधपथ (blind ways) कई होते हैं। भुल-भुलैया के लक्ष्य स्थान पर भोजन रख दिया गया। भूखे चूहे को भूल-भूलैया के प्रवेश द्वार पर छोड़ दिया जाता था।

यह देखा गया कि जब पहली बार भूखे चूहे को भूल-भुलैया में छोड़ा गया तब वह बहुत देर तक अंधपथों में भटकता रहा और काफी देर के बाद संयोग से सही रास्ता अपनाकर लक्ष्य स्थान पर पहुँच गया, लेकिन, जब कई बार उस चूहे को भूलभुलैया में छोड़ा गया तब देखा गया कि अंधपथ में जाने की व्यर्थ क्रियाओं में काफी कमी आती गई और वह धीरे-धीरे अंधपथ का त्याग करके सही मार्ग में जाना सीख लिया।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम img 4
चित्र: भूल-भुलैया का प्रयोग चित्र

उपर्युक्त दोनों प्रयोगों से स्पष्ट है कि प्राणी किसी कार्य को सीखने के लिए बार-बार प्रयल करता है, उसमें उससे अनेक भूलें (errors) होती हैं। अभ्यास जारी रहने से भूलने की संख्या में धीरे-धीरे कमी आती है और अंत में वह कार्य को बिना किसी तरह की त्रुटि किए ही करना सीख जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार सीखने की पूरी प्रक्रिया में निम्नांकित छह अवस्थाएँ होती हैं –

(a) प्रणोद (Drive):
सीखने के लिए प्रणोद (drive) आवश्यक है, क्योंकि यह प्राणी को क्रियाशील या प्रयत्नशील बनाता है। उपर्युक्त प्रयोगों में बिल्ली तथा चूहा में भूख प्रणोद का एक उदाहरण है।

(b) प्रणोद की तुष्टि में बाधा (Interference in satisfaction of drive):
प्रणोद की तुष्टि में जब बाधा पहुँचती है तब इससे प्राणी में क्रियाशीलता बढ़ती है और वह समस्या को सुलझाने का प्रयत्न करता है।

(c) यादृच्छिक क्रियाएँ (Random activities):
समस्या को सुलझाने के पहले प्राणी कई तरह की यादृचिछक क्रियाएँ या व्यर्थ क्रियाएँ करता है। बिल्ली द्वारा उछलना, कूदना, नोचना, खसोटना ऐसी ही क्रियाओं के उदाहरण है।

(d) आकस्मिक सफलता (Accidental success):
व्यर्थ की क्रियाएँ या यादृच्छिक क्रियाएँ करते समय मात्र संयोग से ही प्राणी सही अनुक्रिया कर देता है जिसे आकस्मिक सफलता कहा जाता है। बिल्ली द्वारा उछल-कूद करते समय संयोगवश सिटकनी दब जाना एक आकस्मिक सफलता का उदाहरण है।

(e) सही अनुक्रिया की पुनरावृत्ति (Repetition of correct response):
प्रथम बार सफलता प्राप्त कर लेने के बाद प्राणी धीरे-धीरे यादृच्छिक क्रियाओं का परित्याग करता चला जाता है तथा सही अनुक्रिया को दोहराता जाता है।

(f) सही अनुक्रिया स्थायीकरण (Fixation of correct response):
अंतिम अवस्था में प्राणी में सही अनुक्रिया का स्थायीकरण होता है जिसका परिणाम यह होता है कि प्राणी बिना कोई त्रुटि किए ही सही अनुक्रिया कर पाता है।

आलोचनायें (Criticisms):
इस सिद्धांत की कुछ प्रमुख आलोचनाएँ निम्नांकित हैं –

(a) थार्नडाइक ने सीखने की प्रक्रिया को एक यांत्रिक प्रक्रिया (mechanical process) माना है जिसका मतलब यह हुआ कि प्राणी यदि किसी अनुक्रिया को सीखना प्रारंभ करता है तब शुरू में यह यादृच्छिक क्रियाएँ या व्यर्थ क्रियाएँ करता है। धीरे-धीरे अभ्यास से ऐसी त्रुटियाँ समाप्त हो जाती हैं और वह सही अनुक्रिया को करना सीख लेता है। आलोचकों ने यह स्पष्ट किया है कि प्रत्येक अनुक्रिया को सीखने में इस तरह की निश्चित एवं यांत्रिक क्रियाएँ नहीं होती हैं।

(b) कुछ मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि प्रयत्न तथा भूल के सिद्धान्त के आधार पर सभी प्रकार के सीखना की व्याख्या नहीं की जा सकती। जहाँ तक सरल क्रियाओं जैसे टाइप सीखन, साइकिल चलाना सीखना आदि का प्रश्न है, वह तो अभ्यास एवं प्रभाव के नियमों के सहारे सीखा जा सकता है, लेकिन जटिल क्रियाओं को मात्र अभ्यास द्वारा सीखना संभव नहीं है। इसके लिए सूझ (insight) की आवश्यकता पड़ती है जिसकी चर्चा तक थार्नडाइक ने नहीं की।

(c) यह सिद्धांत मूलतः पशुओं, जैसे-बिल्ली तथा चूहों पर किए गए प्रयोगों पर आधारित है। अत: इसकी बहुत-सी बातें मानव सीखना के लिए उपयुक्त नहीं हैं। बिल्ली भले की पहले बक्से के भीतर से कैसे निकला जाए, नहीं जानती पर मनुष्य तो किसी भी परिस्थिति को अच्छी तरह समझकर की कोई अनुक्रिया करता है। जो भी हो, इन आलोचनाओं के बावजूद थार्नडाइक का यह सिद्धांत अपना एक अलग स्थान रखता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 10.
शिक्षण वक्र क्या है? इसके प्रकार और उसकी विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
शिक्षण वक्र एक प्रकार का ग्राफ है जो सीखने में हुए विकास को दर्शाता है। इसे एक झलक देखने पर ही सीखने से व्यवहार में हुए परिवर्तनों की झांकी मिलती है। थार्नडाइक ने अपने प्रयोगों के आधार पर यह बतलाया कि सीखने में जैसे-जैसे प्रयास या अभ्यास की संख्या बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे अशुद्धियों की संख्या कम होती जाती है। इसमें लगे समय में कमी आती जाती है। अन्त में व्यक्ति कम-से-कम समय में बिना कोई गलती किए सही प्रक्रिया सीख जाता है। जहाँ तक शिक्षण वक्र के विभिन्न प्रकारों का प्रश्न है, इसके निम्नलिखित प्रकारों की व्याख्या की जा सकती है –

(क) भूल वक्र (Error-graph):
किसी भी सीखना-वक्र में दो रेखायें होती हैं-उदग्र रेखा तथा आधार रेखा।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम img 5

रेखा पर स्वतंत्र चर लिखा जाता है। स्वतंत्र चर का अर्थ यहाँ अभ्यास या प्रयत्न है। उदग्र रेखा पर आश्रित चर लिखा जाता है। यहाँ आश्रित चर का तात्पर्य भूल, समय या सीखने की मात्रा से है। जब आधार-रेखा पर प्रयत्न तथा उदग्र रेखा पर भूल अंकित करके वक्र बनाया जाता है तो इस वक्र को भूल-वक्र कहा जाता है। यह वक्र उदग्र रेखा के सिरे से शुरू होकर कभी दाहिने तरफ जाता है और कभी आधार रेखा से मिल भी जाता है। ऐसा तब होता है जबकि अंतिम प्रयत्न में भूल शून्य प्रयत्न हो जाता है।

(ख) समय वक्र (Time-graph):
जब आधार रेखा पर अभ्यास यानी प्रयत्न और उदग्र रेखा पर अभ्यास यानी प्रयत्न और उदग्र रेखा पर समय अंकित करने वक्र बनाया जाता है तो इसे समय-वक्र कहा जाता है। यह वक्र भी भूल-वक्र की तरह उदग्र रेखा के सिरे से आरम्भ होकर दाहिने ओर आधार की तरफ जाती है। परन्तु, यह आधार-रेखा से कभी भी नहीं मिलता है। कारण, अभ्यास से समय चाहे जितना भी कम हो जाए, किन्तु शून्य नहीं होता।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम img 6

(ग) उत्पादन वक्र:
जब किसी क्रिया को अभ्यास के द्वारा सीखने का प्रयास किया जाता है तो प्रारंभ में काम की मात्रा या उत्पादन कम होता है। जैसे-जैसे अभ्यास की संख्या बढ़ती जाएगी, उत्पादन की गति भी बढ़ती जाएगी। उत्पादन की इस बढ़ती हुई मात्रा को ग्राफ द्वारा दर्शाया जाए तो इससे उत्पादन वक्र प्राप्त होता है। इस प्रकार का वक्र नीचे से दाहिने ऊपर उठता जाता है। यह उठना एक सीमा तक होता है।

इस तरह शिक्षण वक्र के उपर्युक्त प्रकारों का उल्लेख किया जा सकता है। इसी प्रकार इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ भी होती हैं, जो इस प्रकार हैं –

1. प्रारंभिक चढ़ाव:
सीखना प्रारंभ करने के बाद व्यक्ति विषया या क्रिया से पूर्ण परिचित हो जाता है जब उसमें सीखने की प्रेरणा जागृत होती है और वह पूरी लगन, उत्साह, अभिरुचि तथा उत्सुकता के साथ विषय को सीखने लगता है। इससे शिक्षण वक्र में चढ़ाव देखा जाता है। इसे ही प्रारंभिक चढ़ाव कहा जाता है। शिक्षण वक्र की यह पहली विशेषता है।

2. मध्यवर्ती चढ़ाव:
जब प्रारंभिक चढ़ाव के बाद व्यक्ति की अभिरुचि, लगन, उत्साह और उत्सुकता में कमी आने लगती है तब शिक्षण वक्र में उतार आने लगता है। लेकिन व्यक्ति अपना प्रयास जारी रखता है और जब फिर उसमें उत्साह, लगन, उत्सुकता आने लगती है तब शिक्षण वक्र में चढ़ाव आने लगता है इस प्रकार, शिक्षण-वक्र में चढ़ाव ऊपर देखा जाता है। इसे मध्यवर्ती चढ़ाव कहा जाता है। यह शिक्षण-वक्र की दूसरी विशेषता हुई।

3. अंतिम चढ़ाव:
जब सीखने वाले व्यक्ति को यह पता चल जाता है कि अब विषय समाप्त होने वाला है तो वह अपनी सम्पूर्ण शक्ति और लगन के साथ विषय या क्रिया को समाप्त करने की कोशिश करता है जिससे शिक्षण-वक्र में चढ़ाव. आ जाता है। इसे ही अंतिम चढ़ाव कहा जाता है। यह शिक्षण-वक्र की तीसरी विशेषता हुई।

4. पठार:
सीखने की अवधि के बीच कभी-कभी शिक्षण वक्र की यह स्थिति हो जाती है कि व्यक्ति को ऐसा प्रतीत होने लगता है कि सीखने में अब आगे प्रगति नहीं हो पाएगी। शिक्षण-वक्र आधार के समानान्तर हो जाता है यानी उत्पादन वृद्धि रुक जाती है। लेकिन विशेष प्रयास के बाद उसके कार्य में प्रगति देखी जाती है। शिक्षण-वक्र की इस स्थिति को सीखने में पठार कहा जाता है। यह शिक्षण-वक्र की चौथी विशेषता है।

5. दैहिक सीमा:
सीखने की अवधि में एक ऐसी भी अवस्था आती है जब वक्र का चढ़ाव बिल्कुल रुक जाता है। लाख कोशिश करने के बाद भी वक्र का चढ़ाव आगे नहीं बढ़ता है, तो इसे दैहिक सीमा कहा जाता है। जैसे- भूल-वक्र में जब अशुद्धियाँ एकदम नहीं होती हैं तब भूल-वक्र में कोई परिवर्तन की गुंजाइश नहीं रह पाती है।

ठीक इसी प्रकार समय-वक्र में जब व्यक्ति ऐसी सीमा पर पहुँच जाता है, जहाँ से आगे तीव्र गति से क्रिया करना संभव नहीं रह जाता है, तो समय-वक्र में भी कोई परिवर्तन नहीं हो पाता है। इसे दैहिक सीमा कहा जाता है। फिर उत्पादन-वक्र में जब व्यक्ति कुशलता की सीमा पर पहुँच जाता है तो वक्र के ऊपर उठने का प्रश्न ही नहीं उठता है। यह दैहिक सीमा का परिचायक है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 11.
अधिगम अशक्तता किसे कहते हैं। इसके प्रमुख लक्षणों का उल्लेख करें। क्या अधिगम अशक्तता वाले बच्चों का इलाज संभव है? यदि हाँ, तो कैसे?
उत्तर:
परिचय:
केन्द्रीय तंत्रिका में उत्पन्न विसंगतियों के कारण किसी व्यक्ति (खासकर बच्चे) में अक्षमता प्रकट करने से संबंधित विकार अधिगम अशक्तता माने जाते हैं जिसके कारण व्यक्ति को पढ़ने, लिखने, गणित के प्रश्नों को हल करने में बहुत ही कठिनाई होती है। बच्चों में पाई जानेवाली अधिगम अशक्तता के कारण बच्चे श्रेष्ठ बुद्धि वाले बच्चों की तुलना में सीखने की प्रवृत्ति, आत्म सम्मान, पेशा, सामाजिक परिवेश के बारे में समुचित निर्णय क्षमता प्रकट नहीं कर सकते हैं। ऐसे बच्चों के संवेदी प्रेरक तंत्र दोषी माने जाते हैं।

अधिगम अशक्तता के लक्षण-बच्चों में बुद्धि, अभिप्रेरण तथा अधिगम के लिए किया जाने वाला परिश्रम निरर्थक की श्रेणी में आता है। इस तरह के बच्चों में निम्नलिखित लक्षण पाये जाते हैं –

  1. अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में अक्षरों या शब्दों का सही ज्ञान नहीं होता है। वे अपनी भावना को लिखकर नहीं बता पाते हैं। वे पढ़कर कुछ बतलाने की स्थिति में भी नहीं होते।
  2. अशक्तता के शिकार बच्चे सीखने के लिए भोजन बनाने या सामान्य व्यवहार करनेवाले बच्चे के रूप में कार्य करने की विधि खोजने में असमर्थ होते हैं।
  3. अधिगम अशक्तता से पीड़ित बच्चे किसी निर्धारित विषय पर देर तक ध्यान केन्द्रित करके चिंतन की अवस्था में नहीं रह पाते हैं।
  4. घरेलू सामग्रियों के स्थान को अनियमित ढंग से बदल देना इन बच्चों का विशिष्ट लक्षण है।
  5. इनमें स्थान और समय की समझदारी का अभाव होता है ये अच्छे अवसर पाकर भी उसका सदुपयोग नहीं कर पाते हैं।
  6. इस श्रेणी के बच्चों का पेशीय समन्वय तथा हस्त निपुणता अपेक्षाकृत निम्न श्रेणी का होता है। ये शारीरिक संतुलन का अभाव, दरवाजे को खोलने की कला से अनभिज्ञ, साइकिल चलाने में अक्षम जैसी जानकारियों से दूर होते हैं।
  7. ये अभिभावकों के मौखिक अनुदेशों को समझने और अनुसरण करने में असफल होते हैं।
  8. इन्हें सामाजिक संबंधों का मूल्याकंन करके उचित व्यवहार करने में कठिनाई होती है।
  9. अधिगम अशक्तता वाले बच्चों में प्रात्यहित विकार पाए जाते हैं जिसके कारण ये सुनने, पढ़ने, छूने तथा गति से संबंधित संकेतों के अर्थ नहीं समझ पाते हैं।
  10. अक्षरों को मिलाकर सार्थक शब्द की रचना करने में ये लाचार होते हैं।
  11. इन्हें अक्षरों को पहचानने में भी कठिनाई होती है क्योंकि ये समान रचना वाले अक्षरों (ट-ठ, प-फ) में अन्तर समझने में लाचार बना देते हैं।

उपचार:
अधिगम अशक्तता वाले बच्चों का उपचार संभव है। उपचारी अध्यापन विधि तथा मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रणाली के प्रयोग से उनमें पहले जाने अधिकांश लक्षणों को दूर किए जा सकते हैं। इनके साक्ष सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार तथा क्षमता को प्रोत्साहन देते हुए भरपूर प्यार की स्थिति प्रकट करना हितकर परिणाम देते हैं। इस श्रेणी के बच्चे प्यार और प्रोत्साहन के भूखे होते हैं। इन्हें प्रेरक बल के द्वारा ऊँचाई पर पहुँचाया जा सकता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अधिक लंबे विषय के अधिगम के लिए कौन विधि अधिक उपयुक्त है?
(a) पावलव
(b) थॉर्नडाइक
(c) कोहलर
(d) स्कीनर
उत्तर:
(a) पावलव

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 2.
अधिगम पर कोहलर ने अपना प्रयोग किस पशु पर किया:
(a) चूहा
(b) खरगोश
(c) चिम्पैंजी
(d) कुत्ता
उत्तर:
(c) चिम्पैंजी

प्रश्न 3.
पावलव महोदय ने अधिगम से सम्बन्धित प्रयोग किस जानवर पर किया था?
(a) बिल्ली
(b) कुत्ता
(c) चूहा
(d) वनमानुष
उत्तर:
(b) कुत्ता

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 6 अधिगम

प्रश्न 4.
अधिगम का अध्ययन सर्वप्रथम किसने आरंभ किया?
(a) पावलव
(b) थॉर्नडाईक
(c) कोहलर
(d) स्कीनर
उत्तर:
(a) पावलव

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम्

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Amrita Bhag 1 Chapter 9 खेलक्षेत्रम् Text Book Questions and Answers, Summary.

BSEB Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम्

Bihar Board Class 6 Sanskrit खेलक्षेत्रम् Text Book Questions and Answers

अभ्यासः

मौखिकः

प्रश्न 1.
कोष्ठगत शब्दों को सही रूपों में बदलकर रिक्त स्थानों की पूर्ति करें –
जैसे-अहं विद्यालयं गच्छामि। (विद्यालय)

  1. सः …………… खादति। (ओदन)
  2. इदानी ……….. वर्तते। (संध्याकालः)
  3. युवाम् कुत्र ………………. (गम् = गच्छ)
  4. तदा नवीना क्रीडा ……………..। (भू – भव)
  5. त्वं संध्याकाले प्रतिदिनं …………..। (प)

उत्तर-

  1. सः ओदनं खादति।
  2. इदानीं संध्याकालः वर्तते।
  3. युवाम् कुत्र गच्छथः।
  4. तदा नवीना क्रीडा भवति ।
  5. त्वं संध्याकाले प्रतिदिनं पठसि ।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित शब्दों से एक-एक वाक्य बनायें –

(इदानीम्, खेलक्षेत्रम्, बालकाः, कन्दुकम्, विशालः)
उत्तर-

  1. इदानीम् – इदानीं सन्ध्याकालः वर्तते।
  2. खेलक्षेत्रम् – खेल क्षेत्रम् सुन्दरम् अस्ति।
  3. बालकाः – बालकाः तत्र खेलन्ति।
  4. कन्दुकम् – कन्दुकं त्वं आनय।
  5. विशालः – विशाल: वृक्षः अस्ति।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम्

प्रश्न 3.
निम्नांकित रिक्तियों को भरकर वाक्य-निर्माण करें –
जैसे –
बालकः – पुस्तक – पठति

  1. अश्वः – धासम् – ________
  2. अजा – फलम् – ________
  3. गजः – भारम् – ________
  4. ________ – फलम् – ________
  5. ________ – शनैः शनैः – ________

उत्तर-

  1. अश्वः – घासम् – चरति ।
  2. अजा – फलम् – खादति ।
  3. गजः – भारम् – वहति ।
  4. बालकः – फलम् – क्रीणति ।
  5. विडालः – शनैः शनैः – धावति ।

लिखित

प्रश्न 4.
उदाहरण के अनुसार रिक्त स्थान भरें –
Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम् 1
उत्तर-
Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम् 2

प्रश्न 5.
निम्नलिखित शब्दों को सुमेलित करें

  1. खेलक्षेत्रम् – (क) मिलति
  2. शीला – (ख) कोलाहल:
  3. महान् – (ग) विस्तृतम्
  4. नवीना – (घ) संध्याकाल:
  5. इदानीम् – (ङ) क्रीडा

उत्तर-

  1. खेल क्षेत्रम् । – (ग) विस्तृतम्
  2. शीला – (क) मिलति
  3. महान् – (ख) कोलाहलः
  4. नवीना – (ङ) क्रीडा
  5. इदानीम् – (घ) संध्याकालः

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम्

प्रश्न 6.
निम्नलिखित वाक्यों का संस्कृत में अनुवाद करें –

  1. इस समय सबेरा (प्रात:काल) है।
  2. चलो , घर चलें।
  3. यहाँ कई (अनेक) लड़के और लड़कियाँ खेलते हैं।
  4. यह मैदान विशाल (बड़ा) है।
  5. यहाँ अनेक खेल होते हैं।

उत्तर-

  1. इदानीं प्रात:कालः अस्ति।
  2. चल, गृहं गच्छाव (चलाव)।
  3. अत्र अनेकाः बालकाः बालिकाश्च खेलन्ति ।
  4. इदं क्षेत्रम् विशालं अस्ति ।
  5. अत्र नाना क्रीड़ाः भवन्ति ।

प्रश्न 7.
निम्नलिखित शब्दों का शद्ध रूप लिखें –

  1. खेलक्षेत्र:
  2. व्यामस्य :
  3. भर्मणाय
  4. कनदुकम्
  5. क्रिडा।

उत्तर-

  1. खेलक्षेत्रम्
  2. व्यायामस्य
  3. भ्रमणाय
  4. कन्दुकम्
  5. क्रीडा।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम्

प्रश्न 8.
उत्तराणि लिखत

  1. खेलक्षेत्रं किमर्थं भवति ?
  2. आवां कुत्र गच्छावः ?
  3. सर्वे कुत्र प्रविशन्ति ?
  4. कदा महान् कोलाहलो भवति ?
  5. वयं संध्याकाले कुत्र गच्छामः ?

उत्तर-

  1. खेलक्षेत्रं मनोरंजनार्थ व्यायामार्थं च भवति ।
  2. आवां क्रीडाक्षेत्रं गच्छावः ।
  3. सर्वे खेल क्षेत्रे प्रविशन्ति ।
  4. यदा कन्दुकं लक्ष्यं प्रविशति तदा महान् कोलाहलो भवति ।
  5. वयं संध्याकाले खेलक्षेत्रं गच्छामः ।

Bihar Board Class 6 Sanskrit खेलक्षेत्रम् Summary

पाठ – रमेश – मित्र रहीम! इदानीं सन्ध्याकालः वर्तते। चल, खेलक्षेत्रे गच्छावः।

(अर्थ) रहीम – मित्र रहीम! इस समय सायंकाल है। चलो, हमदोनों खेल के मैदान में जाते हैं।

पाठ – रमेश – खेलक्षेत्रम् अस्माकं मनोरञ्जनस्य व्यायामस्य च स्थलं भवति। अवश्यं गमिष्यामि। (मार्गे शीला मिलति)

(अर्थ) रहीम – खेल का मैदान हमारा मनोरंजन और व्यायाम का जगह होता है। जरूर मैं जाऊँगा। (मार्ग .. में शीला मिलती है)

पाठ – शीला – युवां कुत्र गच्छथ?

पाठ – रमेश – तुम दोनों कहाँ जा रहे हो?

पाठ – रमेश – आवां खेलक्षेत्रं गच्छावः। किं तवापि इच्छा, खेलक्षेत्रस्य भ्रमणाय अस्ति? यदि वर्तते तदा त्वमपि चल। (सर्वे खेलक्षेत्रं प्रविशन्ति)

पाठ – रमेश – हम दोनों खेल के मैदान जा रहे हैं। क्या तुम्हारी भी इच्छा खेल के मैदान घूमने के लिए हो रहा है? यदि है तो तुम भी चलो।

पाठ – रमेश – अत्र अनेके बालकाः बालिकाश्च सन्ति। केचित् कन्दुकेन खेलन्ति। अपरे कन्दुकक्रीडां पश्यन्ति।

पाठ – रमेश – यहाँ अनेक लड़के और लड़कियाँ हैं। कुछ गेन्द से खेलते हैं। बच्चे गेन्द के खेल को देखते हैं।

शीला – आम् आम्! कन्दुकं लक्ष्यं प्रविशति तदा महान् कोलाहलो भवति। पुनः केन्द्रस्थाने कन्दुकं नयन्ति बालकाः। तदा नवीना क्रीडा भवति।

(अर्थ) रहीम – हा! गेन्द गोल में प्रवेश करता है उस समय : जोरों का हल्ला होता है। फिर बीच में गेन्द को । लड़के लाते हैं। तब नये ढंग से खेल होता है।

पाठ – सीमा – शीले ! त्वमत्र कन्दुक क्रीडां पश्यसि। चल, तत्र बालिका: बैडमिन्टन खेलं खेलन्ति। अन्याः तं खेलं पश्यन्ति।

(अर्थ) सीमा – हे शीला! तुम यहाँ गेन्द का खेल देखते हो। चलो, वहाँ लड़कियाँ बैडमिन्टन का खेल-खेल रहे हैं। अन्य लड़कियाँ उस खेल को देख रहे हैं।

पाठ – शीला – चल, आवां खेलदर्शनाय तत्र गच्छाव। इदं खेलक्षेत्रं विशालम्। अनेकाः क्रीडा अत्र भवन्ति। खेलक्षेत्रस्य दर्शनेन महान् उत्साहः आनन्दश्च ‘ भवति। अत: वयं खेलक्षेत्रं सन्ध्याकाले प्रतिदिनं गच्छामः। (खेलक्षेत्रस्य दर्शनात् परं सर्वे स्वंस्वं गृहं गच्छन्ति।)

(अर्थ) शीला – चलो, हमदोनों खेल देखने के लिए वहाँ चलें। यह खेल का मैदान विशाल है। अनेक खेल। यहाँ होते हैं। खेल के मैदान के देखने से बहुतउत्साह और आनन्द होता है। इसलिए हमसब खेल के मैदान संध्या समय प्रतिदिन जाते हैं। (खेल के मैदान देखने के बाद सभी अपने-अपने घर जाते हैं।)

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम्

शब्दार्थाः – इदानीम् – इस समय, अभी। सन्ध्याकालः – शाम का समय। वर्तते – है। खेलक्षेत्रे – खेल के मैदान में। गच्छाव – (हम दोनों) चलें। अस्माकं- हम लोगों का मनोरंजनस्य – मनोरंजन का। स्थलम् – जगह। भवति – होता है /होती है। मार्गे – रास्ते में । युवाम् – तुम दोनों। तवापि(तव अपि) – तुम्हारा भी/तुम्हारी भी। भ्रमणाय – घूमने के लिए। केचित् – कोई। पश्यन्ति – देखते हैं। कोलाहलः – शोरगुल/हल्ला। केन्द्रस्थाने- बीच में, मध्य में। नवीना – नया। नयन्ति – लाते हैं.ले जाते हैं। त्वमत्र (त्वम् + अत्र) – तुम यहाँ। अन्याः – दूसरे लोग। दर्शनाय – देखने के लिए। दर्शनेन – देखने से/देखकर। अब: – इसलिए। दर्शनात् – देखने के बाद। स्व-स्वं – अपने-अपन। गच्छन्ति – ‘जाते हैं।

व्याकरणम्

1. अनुस्वार और म् का प्रयोग –

संस्कृत भाषा में शब्दरूप और धातुरूपों में ‘म’ का ही प्रयोग होता है। जैसेअहम्, आवाम्, वयम् त्वम्,युवाम्, यूयम आदि। लेकिन संधि में तथा वाक्य में म् का अनुस्वार हो जाता है।

जैसे – सम्य म् – संयम, परम् + सुखम् -परंसुखम, अस्माकं गृहम् – अस्माक गृहमा स्वर वर्ण के पूर्व आने वाला म् नहीं बदलता है। बल्कि म् में स्वर जुट जाता है।

जैसे – अहम् आनयामि अहमानयामि। त्वम् +एव -त्वमेव। व्यंजन वर्ष के पूर्व आने वाला म् का अनुस्वार हो जाता है।

जैसे – अहम् हसामिअहं सामि। त्वम् + पठसि – त्वं पठसि। कोड-दोनों प्रकार से वाक्य में लिखा जा सकता है। म् या अनुस्वार का प्रयोग करना हमारी इच्छा पर हैं।

जैसे – अहम् हसामि या अहं हसामि। त्वम् पठसि या त्वं पठसि। वाक्य के अन्त में आने वाला म् नहीं बदलता है।

जैसे – सः गच्छति गृहम्। लेकिन वाक्य के बीच में म् अनुस्वार में बदल सकते हैं। जैसे – मा गृहम् गच्छति – सः गृहं गच्छति। हम दोनों प्रकार से लिख सकते

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 9 खेलक्षेत्रम्

2. स्थाववाचक अव्यय –

संस्कृत में प्रल् (त्र) प्रत्यय लगाकर स्थानवाचक अव्यय बनते हैं। जैसेइदम् + प्रल अत्र (यहाँ, इस स्थान पर) किम् + त्रल् – कुत्र (कहाँ, किस स्थान पर) तद् + त्रल् – तत्र (वहाँ, उस स्थान पर) सर्व + त्रल – सर्वत्र (सभी स्थानों पर) पर + ल् – परत्र (दूसरे स्थान पर)

विशेषण – विशेष्य-सम्बन्ध –

(विशेष्य यादृशं वाक्ये तादृशं स्याद् विशेषणम्) किसी वाक्य में जिस लिंग और वचन का विशेष्य होता है उसी लिंग और वचन का प्रयोग विशेषण में भी होता है। इतना ही नहीं, विशेषण में विभक्ति भी विशेष्य के अनुसार ही होती है। ”

निम्नलिखित उदाहरणों को देखेंसुन्दरम् पुष्पम् (सुन्दर फूल) पक्यानि फलानि (पके हुए फल)। निपुणाः छात्राः (तेज लड़के, तेज लड़कियाँ)। अल्पानि चित्राणि (कम चित्र) । मूर्खस्य सेवकस्य (मूर्ख सेवक का)। शोभने सरोवरे (सुन्दर तालाब में)।

  • निकटात् ग्रामात् (समीप के गाँव से)।
  • निर्धनाय छात्राय (गरीब छात्र के लिए)।
  • पीतेन वस्त्रेण (पीले कपड़े से)
  • उष्णं जलम् (गर्म पानी)।
  • शुष्कः काष्ठः (सूखी लकड़ी)।
  • गम्भीरः शिक्षकः (गम्भीर शिक्षक)।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

Bihar Board Class 11 Philosophy अवलोकन एवं प्रयोग Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
आगमन का वास्तविक आधार है –
(क) प्रयोग
(ख) निरीक्षण
(ग) दोनों
(घ) कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 2.
निरीक्षण तथा प्रयोग को आगमन के वास्तविक आधार के रूप में किसने स्वीकार किया है?
(क) मिल ने
(ख) बेन ने
(ग) कार्बेथ रीड ने
(घ) जेवन्स ने
उत्तर:
(ख) बेन ने

प्रश्न 3.
निरीक्षण है –
(क) किसी प्रकार देखना
(ख) प्राकृतिक घटनाओं का उद्देश्यपूर्ण पर्यवेक्षण
(ग) तथ्यों का पर्यवेक्षण
(घ) उपर्युक्त में कोई नहीं
उत्तर:
(ख) प्राकृतिक घटनाओं का उद्देश्यपूर्ण पर्यवेक्षण

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 4.
प्रयोग है –
(क) प्राकृतिक घटनाओं का निरीक्षण
(ख) मनुष्य द्वारा निर्मित कृत्रिम घटनाओं का निरीक्षण
(ग) (क) तथा (ख) दोनों
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(ख) मनुष्य द्वारा निर्मित कृत्रिम घटनाओं का निरीक्षण

प्रश्न 5.
प्रयोग से प्राप्त निष्कर्ष होते हैं –
(क) संभाव्य
(ख) अनिश्चित
(ग) निश्चित
(घ) संदिग्ध
उत्तर:
(ग) निश्चित

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 6.
“निरीक्षण में हम तथ्य को पाते हैं तथा प्रयोग में उसको बनाते हैं।” यह कथन है –
(क) बेन का
(ख) बेकन का
(ग) मिल का
(घ) फाउलर का
उत्तर:
(क) बेन का

प्रश्न 7.
निरीक्षण की शर्त नहीं है –
(क) मानसिक
(ख) शारीरिक
(ग) नैतिक
(घ) आध्यात्मिक
उत्तर:
(घ) आध्यात्मिक

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 8.
निरीक्षण की भूलें (Fallacies) होती है –
(क) अनिरीक्षण की
(ख) मिथ्या निरीक्षण की
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

प्रश्न 9.
प्रयोग निरीक्षण से –
(क) अधिक महत्त्वपूर्ण है
(ख) कम महत्त्वपूर्ण है
(ग) दोनों बराबर महत्त्वपूर्ण है
(घ) अनुपयोगी
उत्तर:
(क) अधिक महत्त्वपूर्ण है

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 10.
निरीक्षण है आगमन का –
(क) आकारिका आधार (Formal ground)
(ख) वास्तविक आधार (Material ground)
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ख) वास्तविक आधार (Material ground)

प्रश्न 11.
किसने कहा था कि आगमन में कल्पना का स्थान प्रमुख नहीं बल्कि गौण है?
(क) जे. एस. मिल
(ख) हेवेल
(ग) पियर्सन
(घ) डेकार्ड
उत्तर:
(क) जे. एस. मिल

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 12.
निरीक्षण में पाया जाता है –
(क) कारण से कार्य की ओर
(ख) कार्य से कारण की ओर
(ग) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों

प्रश्न 13.
इन्द्रियाँ निरीक्षण का एक –
(क) साधन है
(ख) असाधन है
(ग) शारीरिक शर्त है
(घ) (क) एवं (ग) दोनों
उत्तर:
(ग) शारीरिक शर्त है

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 14.
निरीक्षण के दोष (Fallacy of observation) है –
(क) गलत निरीक्षण (Mal observation) की भूल
(ख) नहीं निरीक्षण (Non-observation) की भूल
(ग) (क) एवं (ख) दोनों का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) (क) एवं (ख) दोनों का

प्रश्न 15.
सही कथन को चुनें –
(क) गलत निरीक्षण की भूल भावनात्मक दोष है
(ख) नहीं-निरीक्षण की भूल निषेधात्मक है
(ग) गलत निरीक्षण इन्द्रीय दोष का कारण है, जबकि नहीं निरीक्षण पक्षपातपूर्ण होने का कारण है
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी

Bihar Board Class 11 Philosophy अवलोकन एवं प्रयोग Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
निरीक्षण के दोष (Fallacy of observation) कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
निरीक्षण के दोष दो प्रकार के होते हैं। वे हैं-गलत निरीक्षण की भूल एवं नहीं निरीक्षण की भूल।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 2.
निरीक्षण की मानसिक शर्त से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
निरीक्षण के लिए मानसिक या बौद्धिक लक्ष्य का होना नितांत आवश्यक है। किसी वस्तु या घटना को जानने की इच्छा से ही वह उसका निरीक्षण करना चाहता है। जानने की इच्छा से मानसिक शर्त का निर्माण होता है।

प्रश्न 3.
प्रयोग (Experiment) क्या है? अथवा, प्रयोग की परिभाषा दें।
उत्तर:
मानव-निर्मित परिस्थितियों में कृत्रिम घटनाओं का निरीक्षण है। फाउलर के अनुसार प्रयोग में हम घटना पर निर्भर नहीं करते हैं। बल्कि घटना हम पर निर्भर करती है तथा हम उसका निर्माण करते हैं। जिस प्रकार की हम घटना चाहें, उपस्थित कर सकते हैं।

प्रश्न 4.
नहीं-निरीक्षण (Non-Observation) की भूल से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
नहीं-निरीक्षण की भूल में जिस वस्तु को देखना चाहिए उसे नहीं देखते हैं। जिसे देखना चाहिए उसे नहीं देखना ही नहीं-निरीक्षण की भूल है। यह दोषकर्ता की असावधानी या पक्षपातपूर्ण होने से होता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 5.
गलत निरीक्षण की भूल एवं नहीं-निरीक्षण की भूल में मुख्य अन्तर क्या है?
उत्तर:
गलत-निरीक्षण की भूल में भावात्मक दोष है जबकि नहीं निरीक्षण की भूल में निषेधात्मक दोष है। गलत-निरीक्षण इंद्रिय-दोष के कारण होता है जबकि नहीं-निरीक्षण पक्षपात पूर्ण होने के कारण होता है।

प्रश्न 6.
निरीक्षण की शारीरिक शर्त से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
निरीक्षण की शारीरिक शर्त का अभिप्राय है कि इंद्रियाँ निरीक्षण के साधन हैं। अतः निरीक्षण के लिए स्वस्थ शरीर का होना अनिवार्य है क्योंकि शरीर के अस्वस्थ रहने पर निरीक्षण दोषपूर्ण हो जाएगा।

प्रश्न 7.
गलत निरीक्षण (Mal-Observation) की भूल क्या है?
उत्तर:
निरीक्षण में जो वस्तु दी गयी होती है उसे उसके यथार्थ तथा वास्तविक रूप में न देखकर किसी अन्य रूप में देखना ही गलत निरीक्षण की भूल कहलाती है। जैसे-मृगतृष्णा गलत निरीक्षण की भूल है।

प्रश्न 8.
निरीक्षण की परिभाषा दें। अथवा, निरीक्षण क्या है?
उत्तर:
प्राकृतिक परिस्थितियों के बीच प्राकृतिक घटनाओं के उद्देश्यपूर्ण प्रत्यक्षीकरण को ही निरीक्षण कहते हैं। प्रो. बी. एन. राय के अनुसार निरीक्षण नियमित प्रत्यक्षीकरण है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 9.
निरीक्षण एवं प्रयोग में मुख्य अंतर क्या है?
उत्तर:
निरीक्षण प्राकृतिक है जबकि प्रयोग कृत्रिम है। निरीक्षण को निष्क्रिय कहा गया है जबकि प्रयोग को सक्रिय कहा गया है। निरीक्षण में परिस्थितियों पर हमारा नियंत्रण नहीं होता है जबकि यहाँ परिस्थितियों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण होता है।

प्रश्न 10.
प्रयोग आगमन का कौन-सा आधार है?
उत्तर:
निरीक्षण की तरह ही प्रयोग आगमन का वास्तविक आधार (Material ground of Induction) है।

प्रश्न 11.
आगमन के वास्तविक आधार किसे कहते हैं?
उत्तर:
निरीक्षण एवं प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या प्रयोग में यंत्रों का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर:
किसी भी तरह के प्रयोग में प्रयोगकर्ता यंत्रों का प्रयोग करता ही है। इसमें इच्छानुसार हेर-फेर करता है। मनचाहे परिवर्तन भी करता है। इन सभी परिवर्तनों के बाद वह घटना का निरीक्षण करता है। परन्तु, निरीक्षण में प्रयोगकर्ता यंत्र का प्रयोग तो करता ही है, किन्तु उसमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं करता है। परिवर्तन तो मात्र प्रयोग ही में संभव है। चूंकि प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का ही होता है। प्रयोगकर्ता उस घटना को स्वयं बनाकर उसकी जाँच करता है। अतः, निष्कर्ष है कि प्रयोग में यंत्रों का प्रयोग प्रयोगकर्ता करता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 2.
स्थायी कारण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
कारण मुख्यतः दो प्रकार के हैं –

(क) स्थायी कारण और
(ख) अस्थायी कारण

इसमें स्थायी कारण वे हैं जो सृष्टि के समय से ही चले आ रहे हैं। जैसे-सूरज, चाँद, सितारे, पृथ्वी संबंधी। इस तरह बहुत-सी विभिन्न परिस्थितियों में उन स्थायी कारणों से कई तरह के कार्य उत्पन्न होते चले आ रहे हैं। इसका अंत कहाँ और कब होगा, यह मानव के ज्ञानसीमा के बाहर है। मिल साहब ने स्थायी कारण के सत्ता को स्वीकार किया है। उनका कहना है कि यह कोई आवश्यक नहीं है कि स्थायी कारण कोई वस्तु या ठोस पदार्थ ही हो। वह इससे भिन्न भी रह सकता है। पृथ्वी अपनी धूरी पर घुमती है। उसका धूरी पर घुमना एक स्थायी कारण है। इसी तरह सूर्यग्रहण या चन्द्रग्रहण के स्थायी कारण हैं जो घुमते-घुमते अमावस्या या पूर्णिमा को ही लगेगा।

प्रश्न 3.
अस्थायी कार्य क्या है?
उत्तर:
अस्थायी कार्य कुछ ही क्षणों के लिए रहता है। यह भी कारण से ही उत्पन्न होता है। कुछ क्षणों के बाद इस प्रकार से कार्य समाप्त हो जाते हैं। जैसे-बादलों के संघर्ष से बिजली उत्पन्न होती है या बिजली चमकती है। जो अस्थायी कार्य है। विज्ञान में अस्थायी कार्य को उचित मान्यता नहीं दी गई है। बिजली चमकना और गायब हो जाना क्षणभंगुरता होती है। लेकिन ऐसा सोचना शंकारहित भी नहीं है। बिजली जो एक शक्ति है, वह लुप्त नहीं होती है बल्कि उसका रूप बदल जाता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 4.
प्रगतिशील कार्य क्या है?
उत्तर:
प्रगतिशील कार्य की परिभाषा तार्किक ने दी है। “उस मिश्रित कार्य को प्रगतिशील कार्य कहते हैं जो किसी स्थायी कारण से संचित प्रभाव से उत्पन्न होता है।” किसी वस्तु को एक अवस्था में छोड़ दें। उस पर प्रकाश, हवा, धूप, जल आदि का प्रभाव पड़ता रहता है और वह वस्तु दिन प्रतिदिन क्षीण होती है। कई वर्षों के बाद वह वस्तु टूटकर मिट्टी में मिल जाती है। इस तरह भिन्न-भिन्न कारणांशों के प्रभाव से वस्तु विलीन हो जाती है। यही कार्य प्रगतिशील कार्य कहलाता है। क्योंकि कार्य अपने रूप को धीरे-धीरे प्राप्त करता है। इस प्रकार से प्रगतिशील कार्य आगमन तर्कशास्त्र में कारण-कार्य नियम के अंतर्गत ही आता है।

प्रश्न 5.
निरीक्षण और प्रयोग में अंतर बताएँ।
उत्तर:
आगमन में निरीक्षण और प्रयोग दोनों वास्तविक आधार माने गए हैं। दोनों से वास्तविक सत्य की प्राप्ति होती है। फिर भी दोनों में कुछ अंतर हैं –
1. निरीक्षण प्राकृतिक घटनाओं का होता है। प्रकृति जिस घटना को हमारे सामने प्रस्तुत करती है उसी का निरीक्षण हम करते हैं, जैसे-सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, का निरीक्षण करना, किन्तु प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का प्रयोगशालाएँ होता है। प्रयोग में प्रयोगकर्ता स्वयं घटना को रचकर बनाकर उसका निरीक्षण करता रहता है।

2. निरीक्षण की घटनाएँ जो होती हैं उसकी सभी परिस्थितयाँ प्रकृति के हाथ में रहती है परन्तु, प्रयोग में घटना की सभी स्थितियाँ या परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में रहती हैं।

3. निरीक्षण में यंत्र का व्यवहार कभी-कभी होता है। परन्तु, उसमें परिवर्तन नहीं होता है जबकि प्रयोग में यंत्र का व्यवहार हमेशा होता है तथा उसमें हेर-फेर या परिवर्तन भी होता रहता है। इस तरह निरीक्षण एवं प्रयोग में अंतर अधिक है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 6.
क्या निरीक्षण चयनात्मक है?
उत्तर:
निरीक्षण प्रायः प्राकृतिक घटनाओं का ही होता है। प्रकृति जिस घटना को हमारे सामने जिस रूप में प्रस्तुत करती है, उसी का पर्यवेक्षण हम करते हैं। प्रकृति बहुत विशाल एवं जटिल है। इसमें नित्य प्रतिदिन कई प्रकार की घटनाएँ घटती रहती हैं। सभी घटनाओं का निरीक्षण हम नहीं कर पाते हैं। अतः, इसके लिए हमें किसी एक घटना का चयन करना पड़ता है। यदि हम चयन नहीं करें तो निरीक्षण संभव नहीं है। जैसे-रात्रि में हम प्रतिदिन आकाश की ओर तारों को देखते हैं, किन्तु जब किसी तारे को चयन कर देखते हैं, जैसे-ध्रुवतारा तो इसे निरीक्षण कहेंगे। अतः, निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि निरीक्षण चयनात्मक होता है।

प्रश्न 7.
क्या निरीक्षण प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित है?
उत्तर:
निरीक्षण मूलतः प्रकृति घटनाओं पर आधारित है, किन्तु कभी-कभी कृत्रिम घटनाओं का भी निरीक्षण होता है। यहाँ पर निरीक्षण का अर्थ या निरीक्षण का विषय अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाओं का ही होता है। जैसे-भूकंप, सूर्य ग्रहण, चन्द्र ग्रहण, बाढ़, महामारी आदि का निरीक्षण करते समय प्राकृतिक घटनाओं पर हमारा कुछ अपना दाब नहीं रहता है। बल्कि प्रकृति में घटनाएँ जिस प्रकार से घटती हैं उसका निरीक्षण हम उसी तरह से करेंगे, उसमें परिवर्तन करना हमारे अधिकार में नहीं है। इसलिए निरीक्षण करते समय हम निष्क्रिय और प्रकृति के गुलाम बने रहते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि निरीक्षण अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित होता है।

प्रश्न 8.
क्या प्रयोग कृत्रिम होता है?
उत्तर:
ऐसा कहा जाता है कि प्रयोग कृत्रिम होता है क्योंकि प्रयोगकर्ता स्वयं किसी घटना को प्रयोगशाला में बनाता है और इच्छानुसार उसका निरीक्षण करता है। प्रयोग प्राकृतिक घटनाओं का संभव नहीं है क्योंकि प्राकृतिक घटनाएँ प्रकृति के हाथ में है। जैसे-आकाश में इन्द्र धनुष को हम नहीं बना सकते हैं। यह प्रयोगशाला में भी संभव नहीं है। इसी तरह चन्द्रग्रहण, भूकंप, सूर्यग्रहण, बाढ़ आदि का निर्माण प्रयोगशाला में नहीं किया जा सकता है। अतः, प्राकृतिक घटनाओं पर ही संभव है। क्योंकि प्रयोग में घटना की सारी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में ही रहती है। अतः, निष्कर्ष निकलता है कि प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का ही होता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 9.
कारण और कार्य की पारस्परिकता का वर्णन करें।
उत्तर:
तार्किकों के अनुसार कारण और कार्य की पारस्परिकता का संबंध कारण-कार्य नियम के अंतर्गत ही पाया गया है। कारण और कार्य के बीच एक प्रकार का संबंध पाया जाता है। यदि कारण है तो कार्य भी होगा। दोनों एक-दूसरे के ऊपर निर्भर करते हैं। जैसे-वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने पर ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस भी उत्पन्न होता है। फिर उसी पानी से ऑक्सीजन और हाइड्रोजन गैस भी उत्पन्न किया जाता है। इस तरह की संभावना को ही हम कारण और कार्य की पारस्परिकता कहते हैं।

प्रश्न 10.
कारण के प्रचलित यंत्रों की व्याख्या करें।
उत्तर:
कारण के प्रचलित यंत्र को जनसाधारण यंत्र भी कहते हैं। कारण वही है जो घटना के पहले आवे। यहाँ कारण का केवल अनुमान किया जाता है। उसका वैज्ञानिक निरूपण नहीं करते हैं। खाली घड़ा देखने पर गाड़ी छूट जाना, तेली को देखने से यात्रा खराब होना, बिल्ली को मार्ग काटने से किसी अशुभ घटना का कारण समझना आदि अंधविश्वास। इसी तरह के प्रचलित कारण के रूप भी हैं। कभी-कभी दैवी प्रकोप भी कारण बनता है, जैसे-हैजा, प्लेग आदि का होना भगवती या काली माँ का प्रकोप कहा जाता है। लेकिन आज वैज्ञानिक युग में ऐसे कारणों का तर्कशास्त्र में उचित स्थान नहीं दिया गया है। क्योंकि ये सब आकस्मिक घटनाएँ हैं। जो कभी होती है कभी नहीं भी होती है।

प्रश्न 11.
क्या प्रयोग में यंत्रों का प्रयोग किया जाता है?
उत्तर:
किसी भी तरह के प्रयोग में प्रयोगकर्ता यंत्रों का प्रयोग करता ही है। इसमें इच्छानुसार हेर-फेर भी करता ही है। मनचाहे परिवर्तन भी करता हैं इन सभी परिवर्तनों के बाद वह घटना का निरीक्षण करता है। परन्तु, निरीक्षण में प्रयोगकर्ता यंत्र का प्रयोग तो करता ही है, किन्तु उसमें किसी तरह का परिवर्तन नहीं करता है। परिवर्तन तो मात्र प्रयोग ही में संभव है। चूँकि प्रयोग कृत्रिम.घटनाओं का ही होता है। प्रयोगकर्ता उस घटना को स्वयं बनाकर उसकी जाँच करता है। अतः, निष्कर्ष है कि प्रयोग में यंत्रों का प्रयोग प्रयोगकर्ता करता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 12.
आगमन का आकारिक आधार क्या है?
उत्तर:
आगमन तर्कशास्त्र में पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना हेतु आधार की जरूरत होती है। यह आधार दो प्रकार की है-आकारिक आधार और वास्तविक आधार। आकारिक आधार के अंतर्गत प्राकृतिक समरूपता नियम तथा कार्य-कारण नियम दो प्रकार के आधार हैं। प्रकृति में एक प्रकार की समरूपता है, जिसके आधार समान परिस्थितियों में समान घटनाएँ भविष्य में घटती रहती हैं। इसी तरह कारण-कार्य नियम के अनुसार कारण उपस्थित होने पर कार्य भी अवश्य उपस्थित हो जाएगा। जैसे – यदि बादल आता है तो वर्षा होगी। तीसी, सरसों से तेल अवश्य उत्पन्न होगा। इस तरह प्राकृतिक-समरूपता नियम तथा कारण-कार्य दो आगमन के आकारिक आधार हैं।

प्रश्न 13.
गलत देखने की भूल क्या है?
उत्तर:
तार्किकों ने निरीक्षण में दो तरह की भूलों का वर्णन किया है, जिसमें एक को गलत देखने की भूल कहा जाता है और दूसरे को नहीं देखने का भूल कहा जाता है। निरीक्षण में ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा कार्य किया जाता है। कर्म करने में कभी ज्ञानेन्द्रियाँ धोखा खा जाती हैं क्योंकि हम किसी वस्तु को गलत देख लेते हैं। इसका अर्थ यही हुआ कि वस्तु का जो वास्तविक रूप है उसे नहीं देखकर गलत रूप को देखते हैं। अतः, इसे ही Fallacy of mal observation अर्थात् गलत देखने की भूल कहा जाता है। जैसे अंधेरे में रस्सी को साँप समझ लेना, ठूठ पेड़ को भूत या चोर समझ लेना आदि गलत देखने की भूल कहा जाता है।

प्रश्न 14.
क्या निरीक्षण प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित हैं?
उत्तर:
निरीक्षण मूलतः प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित है, किन्तु कभी-कभी कृत्रिम घटनाओं का भी निरीक्षण होता है। यहाँ पर निरीक्षण का अर्थ या निरीक्षण का विषय अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाओं का ही होता है। जैसे-भूकंप, सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, बाढ़, महामारी आदि का निरीक्षण करते समय प्राकृतिक घटनाओं पर हमारा कुछ अपना दबाव नहीं रहता है। बल्कि प्रकृति में घटनाएँ जिस प्रकार से घटती हैं उसका निरीक्षण हम उसी तरह से करेंगे उसमें परिवर्तन करना हमारे अधिकार में नहीं है। इसलिए निरीक्षण करते समय हम निष्क्रिय और प्रकृति के गुलाम बने रहते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि निरीक्षण अधिकांशतः प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित होता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 15.
आगमन का वास्तविक आधार क्या है?
उत्तर:
तर्कशास्त्र में सत्य दो तरह के होते हैं-आकारिक सत्य तथा वास्तविक सत्य। आगमन में वास्तविक सत्य की प्राप्ति के लिए निरीक्षण और प्रयोग दो विधियों की स्थापना की गई है। जबकि आकारिक सत्यता की प्राप्ति के लिए प्राकृतिक समरूपता नियम तथा कारण-कार्य नियम दो बताए गए हैं। निरीक्षण और प्रयोग के आधार पर निष्कर्ष निकाला जाता है जिसके आधार पर प्राप्त ज्ञान को सत्य समझा जाता है। जो सत्य के साथ ही साथ वास्तविक भी होता है। इस प्राप्त ज्ञान में शंका की गुंजाइश किसी तरह की नहीं होती है। अतः, आगमन का वास्तविक आधार निरीक्षण और प्रयोग दोनों हैं।

प्रश्न 16.
क्या प्रयोग कृत्रिम होता है?
उत्तर:
ऐसा कहा जाता है कि प्रयोग कृत्रिम होता है क्योंकि प्रयोगकर्ता स्वयं किसी घटना को प्रयोगशाला में बनाता है और इच्छानुसार उसका निरीक्षण करता है। प्रयोग प्राकृतिक घटनाओं का संभव नहीं है क्योंकि प्राकृतिक घटनाएँ प्रकृति के हाथ में है। जैसे-आकाश में इन्द्रधनुष को हम नहीं बना सकते हैं। प्रयोगशाला में कभी संभव नहीं है। इसी तरह चन्द्रग्रहण, भूकंप, सूर्यग्रहण, बाढ़ आदि का निर्माण प्रयोगशाला में नहीं किया जा सकता है। अतः, प्राकृतिक घटनाओं पर प्रयोग कृत्रिम रूप से नहीं हो सकता है। यह कृत्रिम घटनाओं पर ही संभव है। क्योंकि प्रयोग में घटना की सारी स्थितियाँ और परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में ही रहती है। अतः निष्कर्ष निकलता है कि प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का ही होता है।

प्रश्न 17.
क्या निरीक्षण चयनात्मक है?
उत्तर:
निरीक्षण प्रायः प्राकृतिक घटनाओं का ही होता है। प्रकृति जिस घटना को हमारे सामने जिस रूप में प्रस्तुत करतो है, उसी का पर्यवेक्षण हम करते हैं। प्रकृति बहुत विशाल एवं जटिल है। इसमें नित्य-प्रतिदिन कई प्रकार की घटनाएँ घटती रहती हैं। सभी घटनाओं का निरीक्षण हम नहीं कर पाते हैं। अतः, इसके लिए हमें किसी एक घटना का चयन करना पड़ता है। यदि हम चयन नहीं करें तो निरीक्षण संभव नहीं है। जैसे रात्रि में हम प्रतिदिन आकाश की ओर तारों को देखते हैं, किन्तु जब किसी तारे को चयन कर देखते हैं, जैसे-ध्रुवतारा तो इसे निरीक्षण कहेंगे। अतः, निष्कर्ष के रूप में कह सकते हैं कि निरीक्षण चयनात्मक होता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 18.
निरीक्षण और प्रयोग में अंतर बताएँ।
उत्तर:
आगमन में निरीक्षण और प्रयोग दोनों वास्तविक आधार माने गए हैं। दोनों से वास्तविक सत्य की प्राप्ति होती है। फिर भी दोनों में कुछ अंतर हैं –

1. निरीक्षण प्राकृतिक घटनाओं का होता है। प्रकृति जिस घटना को हमारे सामने प्रस्तुत करती है उसी का निरीक्षण हम करते हैं, जैसे सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण का निरीक्षण करना, किन्तु प्रयोग कृत्रिम घटनाओं का प्रयोगशाला में होता है। प्रयोग में प्रयोगकर्ता स्वयं घटना को रचकर, बनाकर उसका निरीक्षण करता रहता है।

2. निरीक्षण की घटनाएँ जो होती हैं उसकी सभी परिस्थितियाँ प्रकृति के हाथ में रहती हैं परंतु, प्रयोग में घटना की सभी स्थितियाँ या परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में रहती हैं।

3. निरीक्षण में यंत्र का व्यवहार कभी-कभी होता है। परंतु, उसमें परिवर्तन नहीं होता है जबकि प्रयोग में यंत्र का व्यवहार हमेशा होता है तथा उसमें हेर-फेर या परिवर्तन भी होता रहता है। इस तरह निरीक्षण एवं प्रयोग में मात्रा का भेद अधिक है।

प्रश्न 19.
नहीं देखने की भूल क्या है?
उत्तर:
तार्किकों के अनुसार यह भी एक प्रकार से निरीक्षण के दोष के अंतर्गत ही आता है। यह भूल प्रायः तब होती है जब हम उस वस्तु या स्थिति को ठीक से नहीं देखते हैं जिसे हमें देखना चाहिए था। हड़बड़ी, ध्यान का अभाव या पक्षपात के कारण हम बहुत-सी चीजों या परिस्थितियों को नहीं देख पाते हैं जिनके कारण नहीं देखने की भूल होती है। यह दो प्रकार की है –

(क) उदाहरण को नहीं देखने की भूल तथा

(ख) आवश्यक स्थिति या परिस्थिति को नहीं देखने की भूल। कुछ गाढ़े लाल रंग के फूलों को गंधहीन पाकर हम कहते हैं कि सभी गाढ़े लाल रंग के फूल गंधहीन हैं। यहाँ उदाहरण को नहीं देखने की भूल है। इसी तरह कोई गुंडा किसी लड़की के साथ बलात्कार करना चाहता है, किन्तु कोई छात्र उसे बचाने के क्रम में गुंडा उससे चोट खाकर मर जाता है। इस परिस्थिति में यदि उसे सजा मिलती है तो यहाँ आवश्यक परिस्थिति को नहीं देखने की भूल कहा जाएगा।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 20.
प्रकृति-समरूपता नियम का संक्षिप्त व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम आगमन का आकारिक आधार है। तार्किकों ने इसकी परिभाषा देकर इसकी व्याख्या किए हैं क्योंकि इसकी परिभाषा देना संभव नहीं है। मूल सिद्धान्त या नियम की परिभाषा नहीं दी जाती है बल्कि उसका वर्णन किया जाता है। प्रकृति में जो भी घटना-घटती है वह समरूपता घटती है। इसमें प्रकार की विभिन्नता नहीं रहती है। अतः प्रकृति एकरूप है। अर्थात् प्राकृतिक घटनाएँ एक समान घटती हैं। भविष्य अतीत की तरह होता है। प्रकृति में घटनाएँ पुनः-पुनः उसी रूप में होती रहती है। भविष्य में घटनेवाली घटना की गारंटी प्राकृतिक समरूपता नियम के कारण ही हैं समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती रहती है। प्रकृति में कहीं पक्षपात नहीं है। प्रकृति एकरस है।

प्रश्न 21.
कारण-कार्य नियम की व्याख्या करें।
उत्तर:
कारण-कार्य नियम आगमन का एक प्रबल स्तंभ के रूप में आधार है। इसकी भी परिभाषा तार्किक ने न देकर इसकी व्याख्या किए हैं। कारण-कार्य नियम के अनुसार इस विश्व में कोई घटना या कार्य बिना कारण के नहीं हो सकती है। सभी घटनाओं के पीछे कुछ-न-कुछ कारण अवश्य छिपा रहता है। कारण संबंधी विचार अरस्तू के विचारणीय हैं। अरस्तू के अनुसार चार तरह के कारण हैं –

  1. द्रव्य कारण (Material Cause)
  2. आकारिक कारण (Formal Cause)
  3. निमित कारण (Efficient Cause)
  4. अंतिम कारण (Final Cause)

यही चार कारण मिलकर किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। जैसे-मकान के लिए ईंट, बालू, सीमेंट, द्रव्य कारण हैं। मकान का एक नक्शा बनाना आकारिक कारण है। राजमिस्त्री और मजदूर ईंट, बालू, सीमेंट को तैयार कर उसे एक पर एक खड़ा कर तैयार करते हैं। इसमें एक शक्ति आती है जिसे Efficient Cause या निमित कारण कहते हैं। इसी तरह मकान बनाने का उद्देश्य रहता है-अपना रहना या किराया पर लगाना। जिसे अंतिम कारण (Final Cause) कहते हैं। प्रचलित कारण को स्वीकार नहीं किया गया है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 22.
कारण के गुणात्मक लक्षण क्या है?
उत्तर:
कारण के गुणात्मक लक्षण मुख्यतः चार प्रकार के बताए गए हैं –
(क) कारण पूर्ववर्ती होता है
(ख) कारण नियत पूर्ववर्ती होता है
(ग) कारण उपाधिरहित पूर्ववर्ती होता है तथा
(घ) कारण तात्कालिक पूर्ववर्ती होता है।

इन्हीं चारों को आगमन में स्वीकार किया गया है। कारण कार्य की व्याख्या में कहा गया है कि यह एक के उपस्थित में होने पर दूसरा भी उपस्थित होता है। कारण-कार्य के पहले आता है इसलिए इसे पूर्ववर्ती कहा जाता है। कार्य बाद में आता है। इसलिए इसे अनुवर्ती कहा जाता है। कारण नियत पूर्ववर्ती है। क्योंकि हर हालत में बिना कारण के कार्य नहीं होता है। इसके साथ-ही-साथ तार्किकों ने कहा कि कारण उपाधिरहित एवं तात्कालिक पूर्ववर्ती भी होता है।

प्रश्न 23.
कारण के परिमाणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
परिमाण के अनुसार कारण और कार्य के बीच मुख्यतः तीन प्रकार के विचार बताए गए हैं –

(क) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में अधिक हो सकता है
(ख) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कम हो सकता है
(ग) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कभी अधिक और कभी कम हो सकता है।

अतः इन तीनों को असत्य साबित किया गया है। यदि कारण अपने कार्य से कभी अधिक और कभी कम होता है तो इसका यही अर्थ है कि प्रकृति में कोई बात स्थिर नहीं है। किन्तु, प्रकृति में स्थिरता एवं समरूपता है, अतः यह संभावना भी समाप्त हो जाता है। इसी तरह पहली और दूसरी संभावना भी समाप्त हो जाती है। ये तीनों संभावनाएँ निराधार हैं। अतः निष्कर्ष यही निकलता है कि कारण-कार्य मात्रा में बराबर होते हैं और यही सत्य भी है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 24.
कारण और उपाधि की तुलना करें।
उत्तर:
आगमन में कारण का एक हिस्सा स्थित बतायी गई है। जिस तरह से हाथ, पैर आँख, कान, नाकं आदि शरीर के अंग हैं और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं। उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और उपाधि में तीन तरह के अंतर हैं –
(क) कारण एक है और उपाधि कई हैं
(ख) कारण अंश रूप में रहता है और उपाधि संपूर्ण रूप में आता है
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं। इस तरह कारण और उपाधि में अंतर है।

प्रश्न 25.
भावात्मक कारणांश या उपाधि क्या है?
उत्तर:
भावात्मक कारणांश उपाधि का एक भेद है। उपाधि प्रायः दो तरह के हैं-भावात्मक तथा अभावात्मक। ये दोनों मिलकर ही किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। यह कारण का वह भाग या हिस्सा है जो प्रत्यक्ष रूप में पाया जाता है। इसके रहने से कार्य को पैदा होने में सहायता मिलती है। जैसे-नाव का डूबना एक घटना है, इसमें भावात्मक उपाधि इस प्रकार है – एकाएक आँधी का आना, पानी का अधिक होना, नाव का पुराना होना तथा छेद रहना, वजन अधिक हो जाना आदि ये सभी भावात्मक उपाधि के रूप है जिसके कारण नाव पानी में डूब गई।

प्रश्न 26.
अभावात्मक कारण या उपाधि क्या है?
उत्तर:
कारणांश या उपाधि के मुख्यतः दो भेद हैं –

(क) भावात्मक कारणांश एवं
(ख) अभावात्मक कारणांश।

इसमें घटना के घटने में जो कारण अनुपस्थित रहते हैं उसे अभावात्मक उपाधि कहते हैं जैसे – नाव डूबना एक घटना है। इसमें भावात्मक तथा अभावात्मक उपाधि मिलकर घटना को घटने में सहायता प्रदान करते हैं। इसमें अभावात्मक उपाधि इस प्रकार है जो अनुपस्थित है – मल्लाह का होशियार नहीं होना, किनारे का नजदीक नहीं होना, नाव का बड़ा नहीं होना। इस प्रकार की अनुपस्थिति उपाधि हैं जिससे नाव को डूबने में अप्रत्यक्ष रूप से सहायता मिलती।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 27.
कार्यों के सम्मिश्रण का विवेचन करें?
उत्तर:
जब किसी कमरे में बहुत से दीपक या मोमबत्ती जलाते हैं तो उससे अधिक प्रकाश होता है। यहाँ सभी दीपक और मोमबत्ती मिलकर उस प्रकाश को कार्यरूप में पैदा करते हैं। अतः प्रकाश कार्य-सम्मिश्रण के रूप में आता है। ये कार्य-सम्मिश्रण दो प्रकार के होते हैं –

(क) सजातीय कार्य-सम्मिश्रण तथा।
(ख) विविध जातीय कार्य-सम्मिश्रण।

सजातीय कार्य-सम्मिश्रण में हम देखते हैं कि विभिन्न कारणों के मेल से जो कार्य पैदा होता है उसमें समीकरण एक ही तरह या एक ही जाति के होते हैं, जैसे-घर में एक सौ दीपक के जलाने से अधिक प्रकाश होता है। यहाँ सभी दीपक एक ही जाति के हैं, किन्तु जो कार्य विभिन्न कारणों के मेल से बनता है उसे विविध जातीय कार्य सम्मिश्रण कहा जाता है, जैसे-भात, दाल, दूध, दही, घी, सब्जी आदि से खून का बनाना।

प्रश्न 28.
कारणों का संयोग की व्याख्या करें।
उत्तर:
जब बहुत से कारण मिलकर संयुक्त रूप से कार्य पैदा करते हैं तो वहाँ पर कारणों से मेल को कारण-संयोग कहा जाता है। यह भी कारण-कार्य नियम के अंतर्गत पाया जाता है जैसे-भात-दाल, सब्जी, दूध, दही, घी, फल आदि खाने के बाद हमारे शरीर में खून बनता है। इसलिए खून यहाँ बहुत से कारणों के मेल से बनने के कारण कार्य-सम्मिश्रण हुआ तथा दाल, भात आदि कारणों का मेल कारण-संयोग कहा जाता है। अतः कारणों के संयोग और कार्यों के सम्मिश्रण में अंतर पाया जाता है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आपके विचार से तूफान और भूकंप प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुकूल है? क्या यह कहना सत्य है कि प्रकृति में एक समरूपता नहीं बल्कि अनेक समरूपताए है।
उत्तर:
कुछ तार्किकों का कथन है कि प्रकृति समरूपता नियम के अनुकूल तूफान और भूकंप नहीं है। प्रकृति समरूपता नियम का अर्थ होता है कि प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता का होना। प्रकृति में जो घटना आज घटती है हमारा विश्वास है कि भविष्य में भी वही घटना घटेगी। भूकंप, तूफान, आँधी एकाएक आ जाती है। प्रकृति के व्यवहार को एक माना गया तो ऐसी घटनाएँ अचानक नहीं होना चाहिए। 1 जनवरी, 1934 ई. में बिहार में भूकंप हुआ था तो जनवरी 1935-36 के महीने में भूकंप होना चाहिए था, किन्तु नहीं हुआ। अतः, प्रकृति में समरूपता नहीं है।

ऐसा विचार प्रकृति समरूपता नियम का गलत अर्थ लगाने के कारण यह सही लगता है। प्रकृति समरूपता नियम का यह अर्थ नहीं है कि जो घटना आज घटती है वह प्रतिदिन घटनी चाहिए। ऐसा सोचना गलत है कि भूकंप, आँधी रोज आना चाहिए। प्रकृति समरूपता का अर्थ है कि समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता रहती है। भूकंप होने का कारण प्रत्येक . दिन नहीं हो सकता है। इसलिए भूकंप प्रत्येक दिन नहीं होता है। यदि कारण हो और कार्य न हो तो ऐसा कहा जा सकता है कि प्रकृति में समरूपता नहीं है। समान परिस्थिति में प्रकृति के कार्य में समरूपता रहती है न कि प्रत्येक परिस्थिति में।

एकाएक तूफान या भूकंप का होना प्रकृति समरूपता का खंडन नहीं करता है एकाएक हमारी अज्ञानता का द्योतक है न कि प्रकृति समरूपता की असत्यता का। हम आँधी, तूफान के कारण को नहीं जानते हैं इसलिए कह देते हैं कि एकाएक ये घटनाएँ घटती हैं। भूकंप और तूफान, आँधी, भूकंप, बाढ़ इत्यादि का होना प्रकृति समरूपता नियम के विरुद्ध नहीं जाता है बल्कि ये प्रकृति समरूपता नियम के अनुकूल हैं। एक समरूपता या अनेक समरूपताएँ-बेन साहब (Bain) का कहना है कि संसार में एक समरूपता नहीं बल्कि अनेक समरूपताएँ हैं।

बेन तथा अन्य तार्किकों के अनुसार, प्रकृति के अनेक विभाग हैं। प्रत्येक विभाग के अलग-अलग नियम हैं। अतः, प्रकृति में समरूपता नहीं बल्कि अनेक समरूपताएँ हैं। यहाँ विवाद एकवचन और बहुवचन का है प्रकृति में बहुत से विभागों के होते हुए भी उसमें इकाई का रूप पाया जाता है। प्रकृति में अनेकता में भी एकता है। There is unity and wholeness in Nature. हम अपनी सुविधा के लिए प्रकृति को अनेक विभागों में बाँटते हैं और प्रकृति उन विभागों की एक व्यवस्थित समष्टि है। “अनेक समरूपताओं के बीच एक समरूप है”। सभी समरूपताएँ एक समरूपता में आकर मिल जाती है जिस तरह अनेक नदियाँ एक समुद्र में मिल जाती है। अतः, निष्कर्ष यही है कि एक समरूपता है जिसे प्राकृतिक समरूपता नियम कहते हैं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 2.
आगमन के आकारिक एवं वास्तविक आधार क्या हैं? उन्हें आकारिक एवं वास्तविक आधार क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
आगमन में हम अंशव्यापी से पूर्णव्यापी की ओर जाते हैं इसमें कुछ उदाहरणों के निरीक्षण के आधार पर सामान्य नियम की स्थापना करते हैं। प्रश्न है कि किस आधार पर हम ‘कुछ’ से ‘सब’ की ओर जाते हैं? किस आधार पर वर्तमान से भविष्य की ओर जाते हैं? इसका उत्तर है कि हम प्राकृतिक समरूपता नियम के आधार पर कुछ से सब की ओर जाते हैं। हमारा विश्वास प्राकृतिक समरूपता नियम में है। समान परिस्थिति में समान कारण की उत्पत्ति हमेशा होती है। भविष्य की गारंटी इस नियम से मिलती है कि अगर मनुष्य मरणशील है तो भविष्य में भी मरणशील रहेगा। अटूट एवं अनिवार्य संबंध किस आधार पर स्थापित करते हैं? इसका उत्तर है कि कार्य-कारण नियम के आधार पर। कार्य-कारण नियम का अर्थ है कि प्रत्येक घटना का एक कारण होता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य उपस्थित होगा।

अतः, प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य कारण नियम आगमन के आकारिक आधार हैं क्योंकि इन नियमों का संबंध आगमन के आकार से है। ये आगमन के स्वरूप को निर्धारित करते हैं। आगमन की आकारिक सत्यता से इन दोनों का संबंध होने के कारण इन्हें आगमन का आकारिक आधार कहते हैं। इसी तरह निरीक्षण और प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार हैं। अनुमान का विषय वास्तविक रूप से सत्य होता है। विषय कल्पित नहीं रहता है। विषय अनुभव पर आश्रित है।

हम अनुभव में पाते हैं कि आग में ताप है। इसी अनुभव के आधार पर सामान्य नियम बनाते हैं कि “सभी आग में ताप है।” अनुभव के भी दो स्रोत हैं – निरीक्षण और प्रयोग (Observation and experiment) व्यवस्थित एवं नियंत्रित निरीक्षण ही प्रयोग है। निरीक्षण एवं प्रयोग के द्वारा आगमन के विषय की प्राप्ति होती है। इसलिए आगमन निरीक्षण और प्रयोग विषयगत आधार कहलाते हैं। पुनः आगमन के निष्कर्ष की सत्यता की जाँच निरीक्षण और प्रयोग से होती है, इसलिए भी निरीक्षण और प्रयोग को आगमन का वास्तविक आधार कहते हैं। अतः निष्कर्ष निकलता है कि प्राकृतिक समरूपता नियम और कार्य-कारण नियम आगमन के आकारिक आधार हैं तथा निरीक्षण और प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार हैं। आकारिक आधार का संबंध आगमन के आकस्मिक सत्यता से है और निरीक्षण एवं प्रयोग का संबंध आगमन की वास्तविक सत्यता से है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 3.
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण नियम के बीच संबंध की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण नियम दोनों आगमन के आकारिक आधार हैं। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार, समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता पायी जाती है। समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहेगा। दोनों नियमों के संबंध को लेकर तीन मत हैं जो निम्नलिखित हैं –

1. मिल तथा बेन साहब के अनुसार प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक है तथा कारणता के नियम प्राकृतिक समरूपंता नियम का एकरूप है। बेन के अनुसार समरूपता तीन प्रकार की है। उनमें एक अनुक्रमिक समरूपता है (Uniformities of succession) इसके अनुसार एक घटना के बाद दूसरी घटना समरूप ढंग से आती है। कार्य-कारण नियम अनुक्रमिक समरूपता है। कार्य-कारण नियम के अनुसार भी एक घटना के बाद दूसरी घटना अवश्य आती है। अतः, कार्य-कारण नियम स्वतंत्र नियम न होकर समरूपता का एक भेद है। जैसे-पानी और प्यास बुझाना, आग और गर्मी का होना इत्यादि घटनाओं में हम इसी तरह की समरूपता पाते हैं।

2. जोसेफ एवं मेलोन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम मौलिक है प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक नहीं है स्वतंत्र नहीं है। बल्कि प्राकृतिक समरूपता नियम इसी में समाविष्ट है। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण सदा कार्य को उत्पन्न करता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहता है। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार भी समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। अतः कार्य-कारण नियम से जो अर्थ निकलता है। वही प्राकृतिक समरूपता नियम से भी। अतः, कार्य-कारण नियम ही मौलिक है और प्राकृतिक समरूपता नियम उसमें अतभूत (implied) है।

3. वेल्टन, सिगवर्ट तथा बोसांकेट के अनुसार दोनों नियम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं दोनों मौलिक हैं। दोनों का अर्थ भिन्न हैं। दोनों दो लक्ष्य की पूर्ति करता है। कार्य-कारण नियम से पता चलता है कि प्रकृति में समानता है। अतः, ये दोनों नियम मिलकर ही आगमन के आकारिक आधार बनते हैं। आगमन की क्रिया में दोनों की मदद ली जाती है। जैसे – कुछ मनुष्य को मरणशील देखकर सामान्यीकरण कहते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील है। कुछ से सब की ओर जाने में प्राकृतिक समरूपता नियम का मदद लेते हैं। प्रकृति के व्यवहार में समरूपता है।

इसी विश्वास के साथ कहते हैं कि मनुष्य भविष्य में भी मरेगा। सामान्यीकरण में निश्चितता आने के लिए कार्य-कारण नियम की मदद लेते हैं। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण के उपस्थित रहने पर अवश्य ही कार्य उपस्थित रहता है। मनुष्यता और मरणशीलता में कार्य-कारण संबंध है। इसी नियम में विश्वास के आधार पर कहते हैं कि जो कोई भी मनुष्य होगा वह अवश्य ही मरणशील होगा। अतः दोनों स्वतंत्र होते हुए भी आगमन के लिए पूरक हैं। दोनों के संयोग से आगमन संभव है। अतः दोनों में घनिष्ठ संबंध है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 4.
कारण के गुणात्मक लक्षणों की सोदाहरण व्याख्या करें। अथवा, “कारण तात्कालिक अनौपाधिक और नियत पूर्ववर्ती घटना है।” इस – परिभाषा को ध्यान में रखते हुए कारण के विभिन्न लक्षणों का सोदाहरण वर्णन करें।
उत्तर:
गुण के अनुसार हम कारण गुण का वर्णन करने में कार्य-कारण के गुणात्मक स्वरूप का वर्णन करते हैं। इसमें कार्वेथ रीड तथा मिल की परिभाषाओं पर विचार करते हैं। मिल ने कारण में पूर्ववर्ती एवं अनौपाधिक लक्षणों पर बल दिया तो कार्वेथ रीड ने पूर्ववर्तिता, नियतता, अनौपाधिता एवं तात्कालिकता चार लक्षणों पर बल दिया है।

इसमें कार्वेथ रीड के अनुसार – “The cause of an event is qualitatively” the immediate, unconditional invariable anticedent of an effect.” अर्थात् गुणात्मक दृष्टि से किसी भी घटना का कारण “कार्य का तात्कालिक, अनौपाधिक नियतपूर्ववर्ती है तथा मिल साहब के अनुसार – The cause of a phenomenon to be “the anticedent or the concurrence of anticedents on which it is invariably and unconditionally consequent.” अर्थात् किसी घटना का कारण “वह पूर्ववर्ती या पूर्ववर्तियों का समूह है जिसके या जिनके होने के बाद कारण के निम्नलिखित लक्षण पाते हैं –

1. पूर्ववर्ती होना (Anticedent):
कारण और कार्य सापेक्ष पद है। एक के बाद दूसरा एक क्रम में पाया जाता है जिसका आदि और अंत हमें नहीं पता चलता हैं अतः, किसे कारण समझा जाए? इस समस्या को समझने के लिए मिल साहब का कहना है कि किसी घटना के पहले घटनेवाली घटना को कारण समझ लेना ठीक होगा। जैसे-शान्त तालाब में पत्थर फेंकने पर पानी में जो कंपन होता है उसका कारण पत्थर फेंकना ही कहा जाएगा।

यह भी सही है कि कारण और कार्य दोनों अलग-अलग नहीं पाए जाते हैं। इसलिए मेलोन साहब (Mellone) का विचार है कि कारण और कार्य के बीच एक गणित की रेखा है जिसमें चौड़ाई नहीं होती है, “अर्थात् कारण और कार्य एक-दूसरे से अलग नहीं बल्कि एक तथ्य के दो छोर हैं। जो हमें पूर्ववर्ती के रूप में पहले दिखाई पड़ता है उसे कारण कहते हैं और बाद में जो अनुवर्ती के रूप में दिखाई पड़ता है उसे कार्य का रूप देते हैं। अतः, इसके अनुसार कारण-कार्य के पहले आता है।”

2. नियत अनियत होना (Invariable):
पहले घटनेवाली घटना को कारण तो कहा जाता है लेकिन सभी पहले घटने वाली घटना कारण नहीं हो सकता है। ऐसा कहने से अंधविश्वास का जन्म हो सकता है। पहले घटनेवाली घटनाएँ दो तरह की है –

(क) अनियत पूर्ववर्ती (Invariable anticedent)
(ख) नियत पूर्ववर्ती (Variable anticedent)।

(क) अनियत पूर्ववर्ती (Invariable anticedent):
वे घटनाएँ हैं जो कार्य के पहले नियमित रूप से नहीं पायी जाती है। कभी होता है कभी नहीं भी। जैसे-वर्षा के पहले घटनेवाली घटनाओं के रूप में हम फुटबॉल मैच, राम की शादी, कॉलेज में सभा इत्यादि को पा सकते हैं लेकिन नियमित रूप से वर्षा के पहले हमेशा नहीं आते हैं इसलिए ये कारण भी हो सकते हैं। अनियत घटनाएँ कारण कभी नहीं भी हो सकते हैं। अतः, अनियत घटनाएँ कारण कभी नहीं हो सकती है।

(ख) नियत पूर्ववर्ती (Invariable anticedent):
वे घटनाएँ हैं जो किसी कार्य के पहले देखा या निश्चित रूप से पायी जाती है, जैसे-वर्षा के पहले बादल का घिर जाना। जब कभी भी वर्षा होगी आकाश में बादल का रहना जरूरी है। अतः बादल का होना नियत पूर्ववर्ती घटना है। ऐसा विचार ह्यूम (Hume) का है। घटना के पहले जो भी आवे जो कुछ भी घटे सबों को बिना विचारे कारण मान लेना एक दोष पैदा कर सकता है। जिसे हम पूर्ववर्ती घटनाओं के रूप में पाते हैं, परन्तु वे सभी आकस्मिक या परिवर्तनशील हैं। इसलिए अनियत पूर्ववर्ती घटना के कारण बनने का योग कभी भी प्राप्त नहीं होगा। इसलिए ह्यूम साहब ने हमेशा की नियम पूर्ववर्ती घटना को कारण मानना उचित बताया है।

3. अनौपाधिक होना (Unconditional):
कभी-कभी ह्यूम के विचारों को मानने से एक समस्या आ जाती है जिसे Carveth Read ने हमारे सामने दिन और रात का उदाहरण रखा। है। दिन के पहले रात और रात के पहले दिन नियम पूर्ववर्ती घटना के रूप में पाए जाते हैं। यदि हम ह्यूम की बात को न माने तो दिन का कारण रात और रात का कारण दिन का होना ही होगा।

ऐसा कहना हास्यास्पद होगा। क्योंकि दिन और रात का होना एक शर्त पर निर्भर करता है-वह है पृथ्वी का चौबीस घंटे में अपनी कील पर सूरज के चारों तरफ एक बार घूम जाना। वास्तव में यही दिन और रात का अलग-अलग कारण हो सकता है। इस समस्या को दूर करने के लिए मिल साहब कहते हैं कि इसी प्रकार की घटना को नियमपूर्ववर्ती घटना का कारण माना जा सकता है जो किसी शर्त पर निर्भर नहीं करे अर्थात् वह अनौपाधिक (Unconditional) हो।

4. तात्कालिक होना (Immediate):
तात्कालिक कारण का अंतिम गुणात्मक लक्षण तात्कालिकता है। कारण को कार्य तात्कालिक पूर्ववर्ती होना चाहिए। अतः, कारण से तुरन्त पहले आनेवाली पूर्ववर्ती में खोजना चाहिए। दूरस्थपूर्ववर्ती को कारण नहीं मानना चाहिए। जैसे-कॉलेज में सुबह पढ़ना, शाम को टहलना, रात को ओस में सोना इत्यादि घटनाओं के बाद हमें खूब जोर से सर दर्द होता है। यहाँ सर दर्द के पहले ओस में सोना तात्कालिक घटना है और अन्य घटनाएँ दूर की है। इस तरह पूर्ववर्ती नियम अनौपाधिक एवं तात्कालिक मिश्रण है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 5.
कारण सभी उपाधियों-भावात्मक एवं अभावात्मक का दर्शन है। इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
मिल साहब के अनुसार हमें कारण और स्थिति (Cause and condition) को ठीक से समझना होगा।

स्थिति उपाधि (Condition):
कारण का एक हिस्सा स्थिति या उपाधि होता है। जिस तरह हाथ, पैर, आँख, नाक, कान इत्यादि मिलकर शरीर का निर्माण करते हैं उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती है। अतः, दोनों में पूर्ण और हिस्से (Whole and part) का संबंध है। स्थिति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में किसी कारण को कार्य के रूप में परिणत होने के लिए सहायक होता है, जैसे यदि बीज (Seed) कारण है और वृक्ष कार्य है तो बीज में धूप हवा, पानी, खाद्य इत्यादि से सहायता मिलती है, जिन्हें हम स्थितियों के रूप में ही पाते हैं।

इसलिए कार्वेथ रीड ने कहा है – “स्थिति कारण का कोई आवश्यकीय भाग है” (Conditions is any necessary factor of the cause) Conditions के दो रूप बताए गए हैं-भावात्मक और अभावात्मक (Positive and Negative)। भावात्मक स्थिति-यह कारण का वह हिस्सा है जो प्रत्यक्ष रूप में पाया जा सकता है। उसके रहने से कार्य को पैदा होने में सहायता मिलती है। जैसे-बीज से वृक्ष होने में खाद्य, पानी, हवा, धूप आदि भावात्मक स्थितियाँ है। नाव से पानी में झांकना और ऐसा करने से पानी में डूबकर मरना भावात्मक स्थिति है। इस तरह भावात्मक स्थिति स्पष्ट रहती है।

अभावात्मक स्थिति (Negative Condition):
यह कारण का वह हिस्सा है जिसकी अनुपस्थिति में कोई कार्य होता है। इसलिए मिल साहब के अनुसार, “बाधा उत्पन्न करनेवाली परिस्थिति का अभाव ही अभावात्मक स्थिति है। जैसे – बीज के वृक्ष होने में हवा, पानी, तूफान का नहीं आना, कड़ी धूप का नहीं होना, जानवरों का नहीं खाना आदि बातें भी अप्रत्यक्ष रूप से कार्य करती रहती है।

इसलिए वे बीज के लिए अभावात्मक स्थितियाँ हैं। इनका अभाव ही कारण के लिए सहायक होता है। इसी तरह नाव से नदी की धारा में गिरना भावात्मक स्थिति है तो उस आदमी को तैरने नहीं आना, और घबड़ा जाना अभावात्मक स्थिति है। अगर वह तैरना जानता तो डूबता नहीं। इसलिए डूबने का कारण उसका तैरना नहीं आना भी होगा। इसे अभावात्मक स्थिति कहते हैं। वैज्ञानिक दृष्टि से देखने पर भावात्मक और अभावात्मक स्थिति की समान जरूरत है। इसलिए मिल साहब ने कहा कि भावात्मक और अभावात्मक स्थितियों का योगफल ही कारण कहलाता है।

आलोचना –

  1. अभावात्मक स्थितियों को कारण का एक अंश मानना एक उलझन पैदा कर सकता है। क्योंकि जो कारण अनुपस्थित है वह किसी भी कार्य के कारण का एक अंग कैसे बन सकता है?
  2. सभी अभावात्मक स्थितियों का वर्णन करना एक अत्यंत कठिन कार्य है। यह कभी भी पूरा नहीं हो सकता है। सभी अभावात्मक स्थितियों की गणना संभव नहीं है।
  3. भावात्मक उपाधियों में भी एक दिक्कत है सभी गणना संभव नहीं है।

कारण एवं उपाधि में संबंध-उपाधि की परिभाषा से ही संबंध स्पष्ट होता है। उपाधि कारण का अंश है। अनेक उपाधियों के योग से कारण बनता है। अतः, दोनों में वही संबंध है जो संबंध शरीर और अंगों के बीच है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न अंगों के जोड़ से पूर्ण शरीर बनता है उसी प्रकार उपाधियों में है। अंगों के निकाल देने पर शरीर का अंत हो जाता है। उसी प्रकार उपाधियों को हटा देने से कारण नाम की कोई वस्तु नहीं बचती है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 6.
कारण और कार्य दोनों बराबर है। इसकी व्याख्या करें। अथवा, कार्य-कारण से अन्तर्निहित है और कारण कार्य में अभिव्यक्त रहता है इस कथन की व्याख्या करें। अथवा, कार्य-कारण नियम के परिमाणगत लक्षणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
कारण और कार्य दोनों परिणाम के अनुसार बिल्कुल बराबर होते हैं (A cause is equal to effect quantity) इसका अर्थ यही हुआ कि कारण और कार्य, द्रव की मात्रा हमेशा ही एक समान रहती है। वह कभी घटती-बढ़ती नहीं है बल्कि उसका रूप परिवर्तन होते रहता है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दो गैस है जिनके मिलाने से पानी बनता है। यहाँ पर भी पानी दोनों गैसों की मात्रा के बराबर रहता है। इसी तरह शक्ति की अविनाशिता का नियम (Law of conservation of Energy) यह कहता है कि दुनिया में शक्ति का विनाश कभी नहीं होता है। वह हमेशा एक ही समान रहती है। केवल उसके रूप में परिवर्तन होता रहता है। शक्ति दो तरह की होती है –

(क) गति संबंधी (Kinetic)
(ख) संभावित शक्ति (Potential Energy)

एक में गति रहती है दूसरे में नहीं। एक किसी वस्तु को गतिशील बनाता है दूसरी स्थिर। इन्हीं दोनों में शक्ति का रूप परिवर्तन होता रहता है। उसका नाश कभी नहीं होता है। दोनों मात्रा में भी बराबर पा सकते हैं।
थोड़ी देर के लिए यदि हम मान लें कि कारण और कार्य बराबर नहीं है तो इसके बाद तीन संभावनाएँ हो सकती है।

(क) कारण-कार्य से मात्रा में बड़ा होता है।
(ख) कारण-कार्य से मात्रा में छोटा होता है।
(ग) कभी कारण बड़ा होता है और कभी छोटा।

इसमें यदि हम पहले को सही मान लें तो बहुत-सी असंभव घटनाएँ हमारे सामने आ जाएँगी। इसी तरह दूसरी संभावना भी गलत है कि जिसमें कारण-कार्य से छोटा कहा गया है। इसी तरह तीसरी संभावना भी नहीं मानी जा सकती है। क्योंकि उसे मान लेने से प्राकृतिक समरूपता नियम का उल्लंघन होता है। प्रकृति की घटनाओं में एकरूपता हो। अतः तीनों को देखने के बाद सही मानना पड़ता है कि कारण और कार्य परिणाम के अनुसार बिल्कुल बराबर होते हैं।

इसे मान लेने के बाद हमें यह भी कहने का अवसर मिलता है कि कारण में कार्य छिपा रहता है और कार्य में कारण का छिपा हुआ रूप रहता है। (Cause is nothing but effect can cealed and effect is nothing but cause evealed) कारण और कार्य परिणामों के अनुसार बराबर होते हैं। कार्य कारण में पहले से ही निवास करता है जैसे-बीज में वृक्ष, सरसों में तेल। वृक्ष बीज का खुला हुआ रूप है और तेल सरसों का। वृक्ष और तेल कोई नया चीज नहीं है। अतः परिणाम के अनुसार कारण और कार्य बिल्कुल बराबर होते हैं केवल उनके रूप में परिवर्तन होता हैं अतः दोनों बराबर है।

कार्य-कारण नियम और प्राकृतिक समरूपता नियम के बीच संबंध (Relation between in law of causation and this Law of uniformity of Nature):
दोनों नियम आगमन की आकस्मिक आधार हैं। इन दोनों की सहायता से ही आगमन में अत्यधिक सत्यता की स्थापना की जाती है। इन दोनों के बीच के संबंध को लेकर विद्वानों में दो मत हैं।

(क) मिल, बेन और वेन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम को प्राकृतिक समरूपता नियम का ही हिस्सा माना गया है। इन लोगों का कहना है कि प्राकृतिक समरूपता नियम एक मूल नियम है जो प्रकृति के सभी क्षेत्रों में पाया जाता है। अतः, कार्य-कारण का नियम भी उसी का एक अंग है।

(ख) Sigwart, Bossanquet, Welton आदि विद्वानों के अनुसार कार्य:
कारण का नियम और प्राकृतिक समरूपता नियम दो अलग-अलग नियम हैं इसमें कोई एक-दूसरे का अंग या अंश नहीं है। ये दोनों नियम अलग-अलग रूप में आगमन की आकारिक सत्यता को पाने में मदद करते हैं। इन दोनों मतों को देखने से पता चलता है कि प्राकृतिक समरूपता नियम सभी प्रकार से आगमन का आधार है और कार्य-कारण नियम वैज्ञानिक आगमन का आधार है। वास्तव में दोनों नियम एक-दूसरे के सहायक एवं पूरक के रूप में हैं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 7.
बहुकारणवाद की व्याख्या एवं परीक्षण करते हुए उसकी कठिनाइयों का उल्लेख करें। या एक ही घटना विभिन्न कारणों से विभिन्न समय में उत्पन्न होती है। विवेचना करें।
उत्तर:
बहुकारणवाद के अनुसार एक ही घटना अलग-अलग समय में विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती है। एक कार्य को अनेक कारणों का बहुकारणवाद कहते हैं। जैसे-मृत्यु एक कार्य है जिसकी उत्पत्ति अनेक कारणों से होती है। मृत्यु कभी बीमारी से, कभी विष खाने से, कभी गोली लगने से, कभी दुर्घटना होने से और कभी गिरने से होती है। अतः विभिन्न समय के मृत्यु के विभिन्न कारण हैं। रोशनी, सूर्य, चन्द्र, लालटेन, दीपक, बिजली-मोमबत्ती, अनेक कारणों से उत्पन्न होती है। इस पर कार्वेथ रीड ने कहा है The same event may be due at different times to different antecedents, that in fact there may be various cause अर्थात् एक ही घटना भिन्न-भिन्न समय में अलग-अलग पूर्ववर्ती अवस्थाओं से घटती है।

अतः उसके भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं। मिल साहब ने भी बहुकारणवाद का समर्थन किया है। इनके शब्दों में “Many causes may produce mechanical mot on, many causes may produce. Produce same kind of sensation, many causes may produce death” अर्थात् अनेक कारण यांत्रिक गति उत्पन्न कर सकते हैं, कई कारण समान संवेदना उत्पन्न कर सकते हैं, कई कारणों से मृत्यु हो सकती है। स्पष्ट है कि एक ही घटना विभिन्न समय में विभिन्न कारणों से उत्पन्न होती है। जैसे मृत्यु एक घटना है इसके कई कारण हो सकते हैं नदी में डूबना, टी.बी., हैजा, प्लेग, जहर खाना, ट्रेन से कट जाना आदि इसके अनेक कारण बताए जा सकते हैं।

बहुकारणवाद सिद्धांत की कठिनाइयों की आलोचना-() बहुकारणवाद कारण की नियतता के विरूद्ध है। कारण नियम पूर्ववर्ती है। नियम पूर्ववर्ती का अर्थ है कि वही पूर्ववर्ती कारण है जो अपरिवर्तनशील है, जो किसी घटना के पहले सर्वदा उपस्थित है। इसका अर्थ है कि एक कार्य का संबंध सर्वदा एक कारण से रहता है, परन्तु बहुकारणवाद के अनुसार एक कार्य का संबंध अनेक कारण से रहता है। इस सिद्धांत को मान लेने पर Valiable अनियत हो जाता है। अतः यह सिद्धांत कारण की नियतता के विरुद्ध जाता है।

1. यह सिद्धांत विज्ञान के विरुद्ध जाता हैं। विज्ञान के अनुसार एक घटना का एक कारण होता है तथा एक कारण का एक कार्य होता है। बहुकारणवाद के अनुसार एक कार्य में अनेक कारण होते हैं। अतः, सिद्धांत विज्ञान की मान्यता के विरुद्ध जाता है।

2. यह सिद्धांत प्राकृतिक समरूपता नियम के विरुद्ध भी जाता है। समान परिस्थिति में समान कारण से सफल कार्य की उत्पत्ति होती हैं इसका अर्थ होता है कि एक कार्य का एक कारण होता है। लेकिन बहुकारणवाद के अनुसार एक कार्य के अनेक कारण होते हैं। अतः, यह सिद्धांत प्राकृतिक समरूपता नियम के विरुद्ध जाता है जो कठिनाइयों को दूर कर सकते हैं? बहुकारणवाद में जो सत्यता दिखाई पड़ती है वह वास्तविक सत्यता नहीं है। यह तो हमारी असावधानी और अज्ञानता पर आधारित है। वस्तुतः प्रकृति में एक घटना का एक ही कारण है। बहुकारणवाद की असत्यता को दो तरह से दूर किया जा सकता है।

  • कार्यों का विशेषीकरण (specialisation of effects) तथा
  • कारणों के सामान्यीकरण द्वारा (Generalisation of causes) द्वारा।

(i) कार्यों का विशेषीकरण:
हमलोग प्रायः कारण में भेद करते हैं, किन्तु कार्य में भेद नहीं करते हैं। अलग-अलग कारणों से उत्पन्न कार्य जिसे हम एक समझते हैं वास्तव में एक नहीं बल्कि अनेक प्रकार का है। सूर्य, चन्द्र, लालटेन, बिजली, मोमबत्ती, दीपक से उत्पन्न प्रकाश को एक समझते हैं। परन्तु ध्यान से देखने पर भिन्नता दिखाई पड़ती है। बिजली का प्रकाश दीपक से प्रकाश से भिन्न है। दीपक की रोशनी, लालटेन की रोशनी से भिन्न है जब भिन्नता है तो फिर उसे एक नाम से नहीं परखना चाहिए। हमें सूर्य का प्रकाश, बिजली का प्रकाश, लालटेन की रोशनी, दीपक का प्रकाश अलग-अलग कहना चाहिए। जब ऐसा करते हैं तो एक कार्य का एक कारण होगा न कि अनेक।
Bihar Board Class 11 Philosiphy chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

इस तरह एक कार्य का एक ही कारण सिद्ध होता है न कि अनेक। विभिन्न कार्यों की विशेषता बतलाना कार्यों का विशेषीकरण कहलाता है। अतः, कार्य का साफ-साफ व्यक्त करना ही कार्य का विशेषीकरण कहलाता है।

(ii) कार्यों का सामान्यीकरण:
इसका अर्थ है विभिन्न कारणों में निहित सामान्य (Common) तत्त्व का पता लगाना। यदि कारणों में सामान्य तत्त्व का पता लगता है तब एक कार्य का एक कारण होगा। विभिन्न कार्यों की भिन्नता पर ध्यान न देकर उसे एक नाम से पुकारते हैं। यहाँ न्याय का अंतर है कि विभिन्न कारणों की भिन्नता पर ध्यान न देकर उनके सामान्य तत्त्व का पता लगाकर उन्हें एक नाम से जान सकते हैं। जैसे मृत्यु का अनेक कारण कहते हैं-हैजा, प्लेग, विषपान, गोली लगना, नदी में डूबकर आदि, किन्तु ध्यानपूर्वक देखने से पता चलता है कि उन कारणों में एक सामान्य बात है “हृदय की गति का रुकना या प्राण शक्ति समाप्त होना” यहाँ मृत्यु का एक ही कारण है-प्राण शक्ति का समाप्त हो जाना।

इस तरह कारणों के सामान्यीकरण तथा कार्यों के विशेषीकरण के द्वारा बहुकारणवाद की असत्यता को प्रमाणित किया जा सकता है। बेन ने कहा है “Plurality of causes is more an ancident of our imperfect knowledge than a fact in the nature of things” अर्थात् कारणों की अनेकता वस्तुओं के विषय में कोई सत्यता नहीं हैं बल्कि अधूरे ज्ञान का परिणाम है। इसी तरह जाजेफ के शब्दों में “Plurality is more apparent than real.” अर्थात् अनेक कारण केवल दिखावटी हैं, यथार्थ नहीं। इसी तरह कार्वेथ रीड ने भी कहा है कि “यदि हम तथ्यों को पर्याप्त सूक्ष्मता से समझेंगे तो हम देखेंगे कि प्रत्येक कार्य का एक ही कारण होता है।” अतः, बहुकारणवाद सही सिद्धान्त नहीं है, कार्यों कि यह विज्ञान के विरुद्ध है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 8.
कारण-संयोग एवं कार्य सम्मिश्रण की सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर:
जब बहुत से कारण मिलकर संयुक्त रूप में कार्य पैदा करे तो वहाँ पर कारणों से मेल को कारण-संयोग (conjunction of causes) कहते हैं और उनसे उत्पन्न कार्य को कार्य-सम्मिश्रण (Intermixture of effects) कहते हैं। अतः, अनेक कारणों को मिलकर कार्य करना, कारणों का संयोग कहलाता है। B.N. Roy ने कहा है “The acting together of serveral of causes producing a joint effect is called conjunction of causes.” जैसे दाल, भात, दूध, घी, दही, तरकारी खाने के बाद हमारे शरीर में खून बनता है। इसलिए यहाँ पर ‘खून’ बहुत कारणों के मेल से बनने का कारण कार्य-सम्मिश्रण हुआ भात, दाल, दूध, दही, घी, तरकारी आदि कारणों का मेल कारण-संयोग कहलाया।

इसी तरह यदि हम अपने रूम में एक सौ दीपक जला दें तो उससे एक अच्छा प्रकाश होगा। यहाँ सभी दीपक मिलकर उन प्रकाश को कार्य रूप में पैदा करते हैं। इसलिए वे प्रकाश-सम्मिश्रण कार्य और सभी दीपक कारण संयोग के रूप में होगा। कार्य-सम्मिश्रण (Intermixture of Effects) दो तरह के हैं –

  1. सजातीय
  2. विजातीय।

1. सजातीय कार्य सम्मिश्रण (Homogeneous):
इसमें विभिन्न कारणों के मेल से जों कार्य पैदा होता है उसमें समीकरण एक ही तरह या जाति के होते हैं। जैसे-यदि हम अपने कमरे में एक सौ दीपक जला दें तो उससे खूब प्रकाश होगा। यहाँ प्रकाश कार्य है और इसके कारण सभी एक ही तरह के दीपक हैं इसे सजातीय कार्य सम्मिश्रण कहा जाता है।

2. विजातीय कार्य सम्मिश्रण (Heterogeneous):
इसमें कार्य विभिन्न कारणों के मेल से बनता है। वे सभी कारण भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। जैसे ‘खून’ का कार्य-सम्मिश्रण लेने पर पता चलता है कि इसके कारण भात, दाल, दूध, घी, पानी, तरकारी आदि हैं ये सभी भिन्न-भिन्न जाति के हैं फिर भी इन सबों के मेल से ही ‘खून’ बनता है इसलिए यह विविध जाति जातीय कार्य सम्मिश्रण कहलाएगा।

कारण संयोग एवं बहुकारणवाद में अंतर (Difference between conjunction of causes and plurality):
दोनों में निम्नलिखित अंतर हैं –

(i) बहुकारणवाद में बहुत से कारण मिलते हैं, जैसे – मृत्यु के लिए नदी में डूबना, हैजा, प्लेग, ट्रेन से कटना आदि। किन्तु, एक समय में एक ही कारण काम करते हैं। दूसरी तरफ कारण संयोग में जो अनेक कारण मिलते हैं वे सभी एक-दूसरे से मिलकर ही उस कार्य को पैदा करते हैं अकेले नहीं।

(ii) बहुकारणवाद में जो कारण हमें मिलते हैं उनमें एक कारण अकेला ही उस तरह के कार्य को पैदा करने की ताकत रखता हैं जैसे नदी में डूबना या हैजा या प्लेग आदि में कोई एक अकेले वह कार्य पैदा कर सकता है, परन्तु ऐसी व्यक्ति संयोग में एक कारण के पास नहीं मिलती है। अकेले भात या दाल उस तरह का खून नहीं पैदा कर सकता है अकेलें ऑक्सीजन या हाइड्रोजन पानी पैदा नहीं कर सकता है।

(iii) बहुकारणवाद के कार्य में सरलता रहती है, क्योंकि एक समय में सूर्य के लिए एक ही कारण काम करता है दूसरी तरह कारण-संयोग में सभी कारण मिलकर कार्य करता है इसलिए उससे जो कार्य पैदा होता है वह जटिल या मिश्रित होता है।

(iv) बहुकारणवाद की आलोचना करते हुए इसे गलत और अवैज्ञानिक बताया गया है। परन्तु कारण-संयोग सही और वैज्ञानिक होने का दावा कर सकती है।

अतः, बहुकारणवाद में अनेक कारण Separately and independently कार्य को उत्पन्न करते हैं, किन्तु कारण-संयोग में अनेक कारण Jointly कार्य को उत्पन्न करते हैं। जैसे –
कारण संयोग – A + B + C Produce ‘X’
बहुकारणवाद – A or B or C Produces ‘X’

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 9.
कारण और कारणांश क्या है? दोनों में भेद बतावें।
उत्तर:
कारण और कार्य एक सापेक्ष पद है। एक के आने के बाद दूसरा आता है। कारण उपस्थित होने पर कार्य की उपस्थिति होती है। कारण एक घटना है। दो घटनाओं का संबंध इस तरह है कि जो पहले आता है, वह कारण कहा जाता है और जो बाद में आता है उसे कार्य कहा जाता है। बादल और वर्षा दोनों एक प्रकार के घटना हैं। बादल पहले आता है इसलिए बादल कारण है, वर्षा बाद में होती है, इसलिए वर्षा कार्य है। कारण एक हिस्सा है जो एक अर्थ के रूप में रहता है कारणांश एक प्रकार की स्थिति है यह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में किसी कारण को कार्य के रूप में परिणत होने के लिए सहायक होता है जैसे यदि बीज कारण है तो वृक्ष कार्य है। कारणांश के दो भेद हैं –

  1. भावात्मक कारणांश
  2. अभावात्मक कारणांश।

1. भावात्मक कारणांश:
यह कारण का वह भाग है जो प्रत्यक्ष रूप से किसी भी कार्य को होने में सहायक होती है। जैसे बीज से वृक्ष होने में हवा, पानी, धूप, खाद्य आदि भावात्मक स्थितियाँ हैं।

2. अभावात्मक कारणांश:
यह कारण का वह हिस्सा है जो किसी भी कार्य में अनुपस्थित होकर कार्य को करने में सहायता प्रदान करती है। बीज से वृक्ष होने में भावात्मक स्थिति के साथ-साथ अभावात्मक स्थिति का भी होना जरूरी है, जैसे-बीज से वृक्ष होने में धूप, हवा, पानी इत्यादि के साथ-ही-साथ आँधी, तूफान का नहीं आना कड़ी धूप का नहीं होना, जानवरों द्वारा नहीं खाया जाना इत्यादि बातों का भी ध्यान रखना पड़ता है। अतः, कारणांश में भावात्मक और अभावात्मक दोनों के हाथ हैं। कारण और कारणांश दोनों में निम्नलिखित अंतर भी हैं –

  • कारण एक होता है, किन्तु कारणांश में कई कारण मिलकर किसी कार्य को करते हैं।
  • कारण अंश के रूप में रहता है, किन्तु कारणांश संपूर्ण के रूप में रहता है।
  • अरस्तू ने चार प्रकार के कारण बताए हैं-द्रव्य कारण, आकारिक कारण, विभिन्न निमित कारण और अन्तिम कारण। ये चारों प्रकार के कारण एक साथ मिलकर किसी भी कार्य को करते हैं। लेकिन कारणांश दो प्रकार के हैं भावात्मक और अभावात्मक कारणांश।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 10.
समरूपता के मूल भेद क्या हैं? वर्णन करें।
उत्तर:
आगमन में प्राकृतिक समरूपता नियम तथा कार्य-कारण नियम आकारिक आधार के दो प्रमुख भेद बताएँ गए हैं। आगमन के दो मुख्य आधार भी हैं-आकारिक आधार तथा वास्तविक आधार। आकारिक आधार के अंतर्गत हम लोग प्राकृतिक समरूपता नियम में विश्वास करते हैं क्योंकि प्रकृति हमेशा एक समान व्यवहार करती है। इसमें कभी किसी तरह का हेर-फेर नहीं होता है। इस नियम की परिभाषा नहीं, किन्तु व्याख्या की गई है। प्रकृति एकरूप है। प्रकृति की घटनाएँ समान रूप से घटती है, जो अनुपस्थित है, वह उपस्थित के बराबर है। प्रकृति अपने आप में निष्पक्ष एवं ईमानदार है।

समानकारण से समान कार्य पैदा होता है इसका अर्थ यही हुआ कि जिस कारण से जो घटना आज घटती है यदि वही कारण कल भी उपस्थित हो जाए तो वही घटना घटेगी, जैसे यदि आज सरसों से तेल निकलता है तो कल भी निकलेगा। प्रकृति में जिस कारण से जो घटनाएँ घटती है वही कारण उपस्थित होने पर वही कार्य अवश्य होगा। इस तरह प्रकृति में किसी तरह की भिन्नता नहीं की गई है। यदि आज पानी में प्यास बुझाने की क्षमता है तो कल भी पानी में प्यास बुझाने की क्षमता रहेगी। इसी तरह आज आग में जलाने की शक्ति है तो भविष्य में भी आग में जलन शक्ति रहेगी। – अतः, संक्षेप में हम कह सकते हैं कि जिन कारणों से जो घटना, आज घटती है कल भी वही कारण से वही घटना अवश्य घटेगी। इसकी गारंटी हम प्राकृतिक समरूपता से प्राप्त करते हैं। यहाँ समरूपता के मुख्यतः तीन मूल भेदों का वर्णन किया गया है।

  1. अनुक्रमिक समरूपताएँ
  2. समसत्ता की समरूपताएँ
  3. समान घटनाओं की समरूपताएँ।

1. अनुक्रमिक समयरूताएँ (Uniformities of succession):
इसे कारणता कहते हैं। इस प्रकार की समरूपता में जहाँ पहली घटना घटेगी वहाँ दूसरी घटना अवश्य घटेगी। जैसे – पानी और व्यास का बुझाना। आग का होना और गर्मी का होना। ये सब अनुक्रमिक समरूपताएँ हैं। इसमें प्राकृतिक समरूपता है।

2. समसत्ता की समरूपताएँ (Uniformities of co-existence):
प्रकृति में कुछ घटनाएँ इस प्रकार की घटती हैं जिन्हें साथ-साथ पायी जाती है या धातु के साथ पारदर्शिता सर्वदा रहती है। इसी तरह कुछ उदाहरण है जिनमें दो बातों की समसत्ता देखकर यह कहते हैं कि उनमें समसत्ता की एकरूपता पायी जाती है।

3. समान घटनाओं की समरूपताएँ (Uniformities of Equality):
इसके अंतर्गत देखा गया है कि अगर समान वस्तुओं के बराबर जितनी वस्तुएँ हैं ये सभी आपस में बराबर हैं। जैसे-गणित, विज्ञान जो अंकों के संबंध पर आधारित है, वह उसी प्रकार के उदाहरण से मिलता-जुलता नजर आता है। रेखा गणित में भी इस प्रकार के उदाहरण मिलते हैं। जैसे किसी चतुर्भुज के आमने-सामने वाले कोण यदि बराबर हों तो आमने-सामने वाली भुजाएँ भी समांतर और बराबर होंगी।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 11.
प्रयोग के ऊपर निरीक्षण के लाभ की व्याख्या करें।
उत्तर:
निरीक्षण और प्रयोग में केवल मात्रा का भेद है फिर भी एक का फायदा दूसरे पर दिखलाया जा सकता है। प्रयोग की अपेक्षा निरीक्षण की विशेष सुविधाएँ या प्रयोग के ऊपर निरीक्षण के निम्नलिखित लाभ हैं।

1. निरीक्षण का क्षेत्र प्रयोग से बड़ा और व्यापक है। निरीक्षण सभी घटनाओं का किया जा सकता है, किन्तु सभी घटनाओं पर प्रयोग नहीं किया जा सकता है। जैसे-सामाजिक, राजनीतिक एवं ग्रह-नक्षत्र-संबंधी घटनाओं पर प्रयोग संभव नहीं है। चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण को कृत्रिम ढंग से उत्पन्न नहीं किया जा सकता है। इसी तरह अपराध, पाप, आत्महत्या, मानसिक रोग आदि को प्रयोग द्वारा उत्पन्न नहीं कर सकते हैं। इन घटनाओं का केवल निरीक्षण ही संभव है।

2. निरीक्षण में कारण से कार्य तथा कार्य से कारण दोनों की ओर जाते हैं, परन्तु प्रयोग में केवल कारण से कार्य की ओर जाते हैं। जैसे किसी पशु को विष की सूई देकर हम देखते हैं कि इसका क्या प्रभाव पड़ता है। किन्तु, मरे हुए पशु पर प्रयोग कर यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि उसकी मृत्यु किस कारण से हुई। लेकिन निरीक्षण में शव को देखकर उसकी मृत्यु के कारण का अनुमान निरीक्षण के आधार पर कर सकते हैं। यहाँ कार्य से कारण की ओर जाते।

3. आगमन में पूर्णव्यापी वास्तविक वाक्य की स्थापना निरीक्षण के आधार पर की जाती है, जैसे-राम, श्याम, मोहन, यदु को मरते देखकर सभी मनुष्य मरणशील हैं, ऐसा निरीक्षण पर ही हम करते हैं। यहाँ प्रयोग से काम नहीं लेते हैं। प्रयोग तो निरीक्षण का संशोधित एवं नियंत्रित।

4. निरीक्षण का दावा है कि वह प्रयोग से पहले (Prior) आता है। प्रयोग करते समय भी हम निरीक्षण करते हैं। अतः, निरीक्षण प्रयोग के पहले आने का सही अधिकार रखता है। प्रयोग करने के पहले यंत्रों तथा उपादानों का निरीक्षण करने के बाद ही प्रयोग किया जाता है। ज्ञान का. प्रारंभ निरीक्षण से होता है। बाद में बुद्धि विकसित होने पर प्रयोग से काम लेते हैं।

5. निरीक्षण सबों के लिए सुलभ है इसके लिए विशेष योग्यता और कुशलता की जरूरत नहीं है। जबकि प्रयोग के लिए विशेष योग्यता एवं कुशलता की जरूरत रहती है। अतः, प्रयोग सबों के लिए सुलभ नहीं है।

6. निरीक्षण में घटनाओं को स्वाभाविक तथा शुद्ध रूप में देखते हैं। उनमें कृत्रिमता नहीं रहती है। जैसे-सूर्योदय, सूर्यास्त, वर्षा के मौसम में रिमझिम वर्षा का निरीक्षण आनन्ददायक होता है। किन्तु, प्रयोग में घटना को कृत्रिम ढंग से बनाते हैं। इसलिए उसमें स्वाभाविकता नहीं रहता है।

7. निरीक्षण से एक विशेष सुविधा मिलती है जो प्रयोग में नहीं मिलती है। प्रयोग की अपेक्षा निरीक्षण में कम मेहनत करनी पड़ती है। प्रयोग में अधिक परिश्रम करना पड़ता है।

परिस्थितियों एवं प्रयोगशालाओं का प्रबंध करना पड़ता है। इसमें यंत्रों की सहायता ली जाती है। अतः, यंत्रों का प्रबंध भी जरूरी है। इसमें बहुत झंझट एवं परेशानी है जबकि निरीक्षण का कार्य सुविधाजनक एवं आसान है। इस तरह निरीक्षण से विशेष लाभ प्रयोग की अपेक्षा है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 12.
निरीक्षण संबंधी दोषों की सोदाहरण व्याख्या करें।
उत्तर:
निरीक्षण में घटनाओं को निष्पक्ष होकर देखा जाता है, किन्तु साधारण लोगों के द्वारा निरीक्षण की क्रिया गलत रूप से भी हो जाती है। इसे निरीक्षण का दोष कहते हैं। निरीक्षण में प्रायः दो तरह के दोष होते हैं। गलत निरीक्षण की भूल और नहीं निरीक्षण की भूल।

1. गलत निरीक्षण की भूल या दोष (Fallacy of mal observation):
निरीक्षण में हमारी ज्ञानेन्द्रियों को बहुत ही काम करना पड़ता है जिसमें कभी-कभी धोखा भी हो जाती है जिससे किसी वस्तु या घटना का गलत ज्ञान हो जाता है जिससे निरीक्षण दोषपूर्ण हो जाता है।

जैसे-चाँदनी रात में शांत वातावरण में बालू के सूखी रेत को पानी, या पानी को ही बालू समझना। अंधेरी रात में रस्सी को साँप या साँप को रस्सी समझना ये सब गलत निरीक्षण का नमूना है। साधारण लोग कहते हैं कि सूर्य पूरब उदय होकर धीरे-धीरे चलकर पश्चिमी में डूब जाता है। ऐसा समझना निरीक्षण का दोष है।

(ii) नहीं निरीक्षण की भूल (Fallacy of non observation):
निरीक्षण के समय हम कभी-कभी बहुत असावधान रहते हैं। इसमें उसके पूरे तथ्य को न देखकर उसमें कुछ ही अंश को देखते हैं। इसमें सत्य के एक पहलू को देखा जाता है तथा दूसरे का निरीक्षण बिल्कुल नहीं करते हैं। यह दोष दो तरह के हैं।

(क) उदाहरणों को नहीं देखना (Non-observation of instances):
सही और वैज्ञानिक निरीक्षण के लिए हमें पक्षपात से दूर रहना पड़ता है। किसी व्यक्ति को ठीक से बताने के लिए उसके भावात्मक तथा अभावात्मक गुणों का वर्णन होना चाहिए। उसके अच्छे-बुरे गुणों का वर्णन होना जरूरी है। यदि उसके बुरे गुणों का वर्णन नहीं करते हैं तो वहाँ निरीक्षण का दोष हो जाता है। अभावात्मक उदाहरणों को छोड़ देना वैज्ञानिक निरीक्षण नहीं है।

जैसे-जब कोई शादी हेतु लड़की वाला लड़का वाला के यहाँ जाता है तो लड़के का गुण बताता है कि लड़का एम. ए. पास है, खिलाड़ी है, समाज सेवक है, सुशील है, गायक है, तेज है। ये सभी उसके गुण हैं। किन्तु, वह शराबी है, झगड़ालू है, बीमार अधिक रहता है, गाली देने का स्वभाव एवं मारपीट करने में आगे रहता है। इन सब उदाहरणों को नहीं देखना केवल एक ही पक्ष देखने से निरीक्षण दोष पूर्ण है, जिसे – Non-observation of fallacy कहते हैं।

(ख) आवश्यक वस्तुओं को नहीं देखना (Non observation of the essential circumstances):
किसी घटना के होने में परिस्थिति का बहुत बड़ा हाथ रहता है। यदि परिस्थिति को तुच्छ और बेकार समझकर ध्यान में नहीं लाते हैं तो वहाँ निरीक्षण का दोष हो जाता है। जैसे-एक छात्र शाम को हॉकी खेलकर हाथ में डंडा लेकर सुनसान बगीचे से गुजर रहा है। एक बदमाश आदमी रुपये के लालच में एक लड़की की हत्या करके उसके आभूषणों को लूटना चाहता है। दोनों में भिड़त हो जाती है। छात्र के डंडे से वह गुंडा चोट खाकर मर जाता है।

इस हालत में परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए उस छात्र को निर्दोष पाया जाएगा। उसे खून की सजा नहीं मिलेगी। यदि जज उस परिस्थिति को ध्यान में न रखकर सजा दे देता है तो वहाँ निरीक्षण का दोष हो जाता है, जिसे हम आवश्यक अवस्थाओं के नहीं, निरीक्षण का दोष कहेंगे। इस तरह अनेक परिस्थितियाँ चोरी, डकैती, हत्या की वृद्धि के लिए जिम्मेवार है।

गरीबी का बढ़ना, बेरोजगारी का बढ़ना, महँगाई, सरकार की कमजोरी, बेकारी की समस्या। इसमें केवल एक परिस्थिति सरकार की कमजोरी पर ध्यान देते हैं तथा अन्य परिस्थितियों का निरीक्षण नहीं करते हैं। अतः निरीक्षण के दोष के कारण जो सामान्यीकरण किया जाता है वह वैज्ञानिक नहीं है। सामाजिक एवं राजनैतिक क्षेत्रों में जो सिद्धान्त स्थापित किये जाते हैं उसमें निश्चितता नहीं रहती है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 13.
निरीक्षण के ऊपर प्रयोग के लाभ की व्याख्या करें?
उत्तर:
1. प्रयोग में जितनी बार चाहें उतनी बार घटनाओं को बार-बार दुहरा सकते हैं इसमें घटना हमारे हाथ में रहती है। किन्तु, निरीक्षण हमारे हाथ में नहीं रहता है। ऐसा मौका मिलता भी नहीं है। परिस्थितियाँ प्रयोगकर्ता के हाथ में रहती हैं।

2. प्रयोग में जाँच की जानेवाली घटना का अध्ययन दूसरी घटनाओं या परिस्थितियों से अलग करके कर सकते हैं। प्रकृति जटिल है। एक घटना दूसरी घटना से मिली रहती है। निरीक्षण में यह संभव नहीं है कि एक तत्त्व को दूसरे तत्त्व से अलग कर अध्ययन करें। प्रयोग में परिस्थितियाँ अलग की जा सकती हैं। किन्तु, निरीक्षण में ऐसा संभव नहीं है। हवा में ऑक्सीजन, नाइट्रोजन, कार्बनडाऑक्साइड इत्यादि मिले रहते हैं। एक बरतन में नाइट्रोजन रखते हैं और दूसरे बरतन में ऑक्सीजन। एक जलती मोमबत्ती नाइट्रोजन के बरतन के नजदीक जाने पर बुझ जाती है, किन्तु ऑक्सीजन के बरतन के नजदीक जाने पर तेज होकर जलने लगती है।

3. निरीक्षण की तुलना में प्रयोग से लाभ यह है कि घटना की जाँच परिस्थितियों से बदल-बदल कर करते हैं। परिस्थिति के परिवर्तन से बतलाता है कि किस परिस्थितियों का संबंध जाँच की जानेवाली घटना से है। जैसे-वैज्ञानिकों ने परिस्थिति को बदल करके पता लगाया कि नाइट्रिक एसिड, पीतल, लोहा, ताँबा, चाँदी को गला सकता है, परन्तु सोना को नहीं। निरीक्षण में परिस्थिति को बदली जा सकती है।

4. निरीक्षण की तुलना में प्रयोग से लाभ है कि प्रयोग में घटना की जाँच प्रयोगकर्ता धैर्य, सावधानी, सतर्कता एवं स्थिरता से करता है। इसमें जल्दीबाजी नहीं रहती है। किन्तु, निरीक्षण में यह सुविधा नहीं है।

5. प्रयोग से जो निष्कर्ष निकलते हैं वे निश्चित एवं संदेह रहित होते हैं। प्रयोग पर आधारित जाँच विश्वसनीय होता है। किन्तु, निरीक्षण से जो निष्कर्ष प्राप्त होता है वह संभाव्य होता है। वह सत्य भी हो सकता है और असत्य भी।

6. विज्ञान का जो कुछ विकास हुआ है उसमें प्रयोग का बहुत बड़ा हाथ है। निरीक्षण से उतना लाभ विद्वानों को नहीं पहुँच पाता है। इसलिए प्रयोग की वैज्ञानिक महत्ता निरीक्षण से अधिक है। भौतिकी एवं रसायन विज्ञान प्रयोग पर आधारित है इसलिए इसकी उन्नति अधिक हुई है। किन्तु मनोविज्ञान के सभी क्षेत्रों में प्रयोग संभव नहीं है इसलिए इसका विकास कुछ कम हुआ अतः निष्कर्ष निकलता है कि प्रयोग निरीक्षण की अपेक्षा अधिक लाभदायक है। जहाँ प्रयोग संभव है वहाँ प्रयोग की मदद लेनी चाहिए।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 14.
निरीक्षण की परिभाषा दें। निरीक्षण की मुख्य विशेषताओं की विवेचना करें। अथवा, निरीक्षण क्या है? निरीक्षण के लक्षणों पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
निरीक्षण का अर्थ प्रायः देखना या प्रत्यक्षीकरण होता है। ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा जो प्रत्यक्षीकरण होता है, उसे निरीक्षण कहते हैं। ये देखना या प्रत्यक्षीकरण दो तरह से होता है। “Observation is the equalited perception of natural events under conditions arrange by natures with an end in view.” अर्थात् प्राकृतिक, स्थितियों के बीच प्राकृतिक घटनाओं के उद्देश्यपूर्ण पर्यवेक्षण को निरीक्षण कहते हैं।” इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ हैं।

1. निरीक्षण उद्देश्यपूर्ण-निरुद्देश्यपूर्ण देखना निरीक्षण नहीं है। जैसे-बाजार में अनेक दुकानों को प्रत्येक दिन देखता हूँ, परन्तु यह देखना साधारण देखना है। यह देखना निरीक्षण नहीं कहला सकता है। यदि किसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु किसी दुकान को देखता हूँ। जैसे कपड़ा खरीदने के लिए तो वह निरीक्षण कहलाएगा। अतः, निरीक्षण उद्देश्यपूर्ण होता है।

2. निरीक्षण नियमित एवं व्यवस्थित होता है-लक्ष्य की पूर्ति निरीक्षण को नियमित और व्यवस्थित करती है। जैसे-कोई ज्योतिषी सूर्य, चन्द्रमा, तारे, पृथ्वी एवं नक्षत्रों को ध्यान से नियमित रूप से उनकी गतिविधि को अध्ययन के विचार से उनका प्रत्यक्षीकरण करता है तो यह निरीक्षण कहलाता है। लेकिन लोग रात में चाँद और तारे को प्रतिदिन अनियमित रूप से देखते हैं, जिसे निरीक्षण नहीं कहा जाएगा। अतः निरीक्षण नियमित प्रत्यक्षीकरण (Regulated perception) है।

3. निरीक्षण चयनात्मक क्रिया (Selective process):
प्रकृति में अनेक घटनाएँ घटती हैं। प्रकृति में अनेक वस्तुएँ हैं। निरीक्षण में हम सभी वस्तुओं पर ध्यान न देकर केवल उन्हीं वस्तुओं या घटनाओं पर ध्यान देते हैं जिससे लक्ष्य की पूर्ति होती है। अतः, प्रकृति में से घटनाओं का चयन करते हैं और उन्हें ध्यानपूर्वक निरीक्षण भी करते हैं, अतः निरीक्षण एक चयनात्मक क्रिया है।

4. स्वाभाविक स्थिति:
निरीक्षण में जिन वस्तुओं या घटनाओं को देखते हैं उन्हें स्वाभाविक स्थिति में देखते हैं। उसे बिना परिवर्तन के देखते हैं। प्रकृति में घटनाएँ जिस रूप में पस्थित होती हैं उन्हें उसी रूप में देखते हैं। सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण, सूर्योदय, सूर्यास्त, बाढ़, वर्षा आदि को हम स्वाभाविक स्थिति में ही देखते हैं। अतः, निरीक्षण में प्राकृतिक घटनाओं को प्राकृतिक अवस्था में देखते हैं।

5. निरीक्षणकर्ता की निष्पक्षता:
वैज्ञानिक तटस्थ होकर घटनाओं का निरीक्षण करता है। अपने भाव, संवेग एवं पूर्वाग्रह से अलग होकर वह घटनाओं का अध्ययन करता है। निष्पक्ष हुए बिना निरीक्षण संभव नहीं हो सकता है।

6. ज्ञानेन्द्रियों द्वारा निरीक्षण:
निरीक्षण ज्ञानेन्द्रियों द्वारा किया जाता है और ज्ञानेन्द्रियों की शक्ति सीमित होती है। अतः निरीक्षण का स्पष्ट एवं प्रभावशाली बनाने के लिए वैज्ञानिक विभिन्न यंत्रों की सहायता भी लेते हैं। जैसे-दूरबीन का व्यवहार, थर्मामीटर, स्टेथेस्कोप का व्यवहार आदि।

7. निरीक्षण बाह्य घटनाओं तक ही सीमित नहीं है:
हम आंतरिक मनोदशा का भी निरीक्षण करते हैं। जैसे-सुख, दुःख, भय, क्रोध, प्रेम, इच्छा, घृणा आदि। मनोविज्ञान में इसे अंतर्निरीक्षण कहते हैं। इस तरह हमें उन तथ्यों को, जिनका हम निरीक्षण करते हैं, उन तथ्यों से भिन्न समझना चाहिए जिनका हम निरीक्षित तथ्यों (Observed facts) से अनुमान करते हैं। Jevons का कथन है कि जबतक हम केवल उन्हीं तथ्यों का वर्णन करते हैं, जिन्हें हमने अपनी ज्ञानेन्द्रियों से निरीक्षित किया है, तो हम त्रुटि नहीं करते हैं, परन्तु जैसे ही हम अन्दाज लगाते हैं या कल्पना करने लगते हैं, वैसे ही गलती कर बैठते हैं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 15.
प्रयोग की परिभाषा दें। प्रयोग की विशेषताओं को लिखें।
उत्तर:
प्रयोग भी आगमन का वास्तविक आधार है। यह भी एक प्रकार का निरीक्षण ही है। इसमें भी एक लक्ष्य रहता है, यह भी निरीक्षण की तरह लक्ष्यपूर्ण होती है। यहाँ पर नियंत्रित परिस्थिति में घटना को, कृत्रिम ढंग से उत्पन्न कर अध्ययन किया जाता है। प्रयोग की परिभाषा इस प्रकार दी गई है (Experiment is the observation of this artificial production of events under conditions prearranged by man”) अर्थात् मनुष्यों द्वारा निर्मित स्थितियों में कृत्रिम स्थितियों में कृत्रिम घटनाओं के निरीक्षण को प्रयोग कहते हैं।” इस परिभाषा के विश्लेषण करने पर निम्नलिखित लक्षण पाते हैं।

  1. प्रयोग भी एक तरह का निरीक्षण ही है। इसमें भी किसी लक्ष्य की पूर्ति हेतु ध्यानपूर्वक किसी घटना या वस्तु को नियंत्रित पर्यवेक्षण (Regulated Perception) कहते हैं।
  2. प्रयोग में घटना को कृत्रिम ढंग से उत्पन्न किया जाता है। जैसे निश्चित मात्रा में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन को मिलाकर पानी बनाया जाता है। यह पानी कृत्रिम होता है। बिजली, बादल को प्रयोग में उत्पन्न करना प्रयोग है, अतः निरीक्षण में घटना पाते हैं, किन्तु प्रयोग में घटना को बनाते हैं।
  3. घटना की उत्पत्ति हेतु जिन परिस्थितियों एवं स्थान की जरूरत पड़ती है उसका प्रबंध एवं चयन प्रयोगकर्ता स्वयं पहले से करता हैं जैसे-पानी या बिजली उत्पन्न करने के लिए प्रयोगकर्ता उनका प्रबंधन पहले करता है, अतः प्रयोग में वातावरण एवं परिस्थिति पर प्रयोगकर्ता का नियंत्रण रहता है। प्रयोगकर्ता अपनी इच्छानुसार परिवर्तन कर घटना का निरीक्षण कर सकता है।
  4. प्रयोग में घटना की उत्पत्ति के बाद उसका निरीक्षण किया जाता है। घटना का अध्ययन एवं विश्लेषण किया जाता है। प्रयोग के बाद निष्कर्ष निकाला जाता है।
  5. प्रयोग के लिए वैज्ञानिक औजारों तथा विज्ञानशाला का रहना जरूरी है। घास पर बैठकर कोई प्रयोग खाली हाथ नहीं कर सकते हैं।

इस तरह निरीक्षण और प्रयोग को आगमन का वास्तविक आधार कहा जाता है। निरीक्षण और प्रयोग आगमन को विषय प्रदान करते हैं। आगमन में विशिष्ट उदाहरणों के निरीक्षण में आधार पर सामान्य नियम बनाते हैं। निरीक्षण और प्रयोग ही विशिष्ट उदाहरण प्रदान करते हैं जिनके आधार पर सामान्य नियम बनाते हैं।

जैसे-कुछ मनुष्यों को मरते देखकर ही सामान्य नियम बनाते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील हैं। कुछ उदाहरणों के प्रयोग के आधार पर ही विज्ञान में सामान्य नियम बनाते हैं। इसलिए निरीक्षण और प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार कहलाते हैं। पुनः आगमन के निष्कर्ष की वास्तविक सत्यता की जाँच निरीक्षण और प्रयोग से होती है। इसलिए भी निरीक्षण और प्रयोग को आगमन का वास्तविक आधार कहते हैं। आगमन की वास्तविक सत्यता निरीक्षण और प्रयोग पर निर्भर करती है, इसलिए ये आगमन के वास्तविक आधार कहलाते हैं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 16.
निरीक्षण और प्रयोग में प्रकार का भेद नहीं बल्कि मात्रा का है, विवेचन करें। अथवा, निरीक्षण और प्रयोग में अन्तर बताएँ। अथवा, निरीक्षण की तुलना प्रयोग से करें।
उत्तर:
निरीक्षण और प्रयोग आगमन के वास्तविक आधार हैं। दोनों के द्वारा आगमन की वास्तविक सत्य निर्धारित होती है। निरीक्षण की विशेषतापूर्ण अवस्था ही प्रयोग है। दोनों मिलकर आगमन के तथ्य की पूर्ति करते हैं फिर भी दोनों में कुछ मुख्य अंतर हैं।

1. निरीक्षण प्राकृतिक है जबकि प्रयोग कृत्रिम है। जो घटना जिस रूप में प्रकृति में घटती है उसे उसी रूप में देखते हैं। घटनाओं में हेर-फेर नहीं करते हैं। जैसे – प्रयोगशाला में बिजली, बादल, पानी कृत्रिम ढंग से बनाते हैं। आकाश में बादल, नक्षत्र, चाँद-सितारों का देखना निरीक्षण है, अतः निरीक्षण प्राकृतिक है, जबकि प्रयोग कृत्रिम है।

2. निरीक्षण में हम प्रकृति के दास रहते हैं, परन्तु प्रयोग में ऐसी बात नहीं है। निरीक्षण में हमें प्रकृति पर निर्भर करना पड़ता है। जब प्रकृति में घटना घटेगी तब हम निरीक्षण कर सकते हैं। प्रकृति में जब चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, भूकम्प होगा तब ही हम उन घटनाओं का निरीक्षण कर सकते हैं। अतः यहाँ हम प्रकृति के दास बने रहते हैं। लेकिन प्रयोग में घटना को उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ हमारे नियंत्रण में रहती हैं। इसलिए इच्छानुसार घटना को उत्पन्न करते हैं। हम प्रकृति पर निर्भर नहीं रहकर प्रकृति को ही प्रयोग के अधीन रखते हैं।

3. निरीक्षण में हम परिस्थितियों को उत्पन्न नहीं करते हैं। परिस्थितियाँ प्रकृति के द्वारा प्रदान की जाती हैं। जिस वातावरण में घटना घटती है, उसी वातावरण और परिस्थिति में घटना का निरीक्षण करना पड़ता है, किन्तु प्रयोग में परिस्थितियों और वातावरण को कृत्रिम ढंग से उत्पन्न किया जाता है। अतः निरीक्षण और प्रयोग में अंतर परिस्थितियों को उत्पन्न करने के विषय में है। निरीक्षण में परिस्थिति प्राकृतिक है, परन्तु प्रयोग में परिस्थिति कृत्रिम है।

4. निरीक्षण में हम घटना को पाते हैं, परन्तु प्रयोग में घटना को बनाते हैं (Observa tion is finding fact an experiment is making one)

5. निरीक्षण में प्रासंगिक परिस्थिति को अप्रासंगिक परिस्थिति से अलग नहीं कर सकते हैं। प्रयोग में परिस्थिति को अप्रासंगिक परिस्थिति से अलग कर घटना का अध्ययन करते हैं।

6. बेकन का कथन है कि प्रयोग में हम प्रकृति से प्रश्न पूछते हैं।

7. स्टॉक साहब का कथन है कि निरीक्षण निष्क्रिय है और प्रयोग सक्रिय है। निष्क्रिय इसलिए कहा जाता है कि निरीक्षणकर्ता प्रकृति की घटनाओं को घटते हुए मात्र देखता है। उसे घटना को उत्पन्न करने के लिए कुछ करना नहीं पड़ता है। प्रयोग में सक्रिय इसलिए रहना पड़ता है कि घटना को उत्पन्न करना पड़ता है। उत्पन्न करने में स्वाभाविक है कि प्रयोगकर्ता को सक्रिय रहना पड़ता है।

8. निरीक्षण और प्रयोग में अंतर है कि निरीक्षण प्रयोग से पहले आता है। निरीक्षण के द्वारा जिस सत्य का पता लगता है उसे ही प्रयोग के द्वारा परीक्षण करते हैं, अर्थात् सत्यापन करते हैं। फिर भी इतना अन्तर होते हुए भी तार्किकों ने कहा कि दोनों में प्रकार का नहीं, मात्रा का भेद है। दोनों में जो अन्तर दिखाये गए हैं वे सही नहीं हैं। निरीक्षण को प्राकृतिक और प्रयोग को कृत्रिम कहना ठीक नहीं है। दोनों पूर्णतः प्राकृतिक और कृत्रिम नहीं हैं।

निरीक्षण में भी कृत्रिमता की कुछ मात्रा है और प्रयोग में भी प्राकृतिक की कुछ मात्रा है। जब निरीक्षण में यंत्रों-दूरबीन, स्टेथेस्कोप, थर्मामीटर, माइक्रोस्कोप आदि का व्यवहार करते हैं तब निरीक्षण भी कृत्रिम हो जाता है। प्रयोगकर्ता स्वयं कृत्रिम नहीं है। बल्कि प्राकृतिक जीता-जागता बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति है। जिसे हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि प्रकृति प्रदत्त हैं।

अतः प्रयोग शुद्ध रूप से कृत्रिम नहीं है इसमें भी प्राकृतिक व्यक्तियों की सहायता की जाती है। निरीक्षण भी शुद्ध रूप से प्राकृतिक नहीं है। अतः निरीक्षण अधिक प्राकृतिक है और कृत्रिम कम है जबकि प्रयोग अधिक कृत्रिम है और कम प्राकृतिक है। अतः, दोनों में प्रकार का भेद नहीं है, बल्कि मात्रा का भेद है।

स्टाक महोदय का विचार है कि निरीक्षण निष्क्रिय और प्रयोग सक्रिय है। ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। निरीक्षण को निष्क्रिय इसलिए कहा गया है कि इसमें हम कुछ करते नहीं हैं, घटना को मात्र घटते हुए देखते हैं। परन्तु, यह कहना ठीक नहीं है। निरीक्षण में मानसिक रूप से सक्रिय रहना पड़ता है। क्योंकि इसमें चुनाव की क्रिया होती है। पुनः निरीक्षण नियमित और व्यवस्थित क्रिया है। इसके लिए सक्रिय होना जरूरी है। निरीक्षण में ध्यान की क्रिया भी सम्मिलित है। ध्यान स्वयं सक्रिय क्रिया है। इसी तरह कुछ वस्तुओं या घटनाओं के लिए हमें शारीरिक रूप से सक्रिय रहना पड़ता है। जैसे, चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण के लिए सचेत रहना पड़ता है।

अतः, निरीक्षण पूर्ण रूप से निष्क्रिय नहीं है और प्रयोग पूर्ण रूप से सक्रिय भी नहीं है। प्रयोग में भी प्रयोगकर्ता चुपचाप बैठकर घटना को घटते हुए देखता है। अतः, प्रयोग अधिक सक्रिय है और कम निष्क्रिय। अतः, दोनों में प्रकार का अन्तर नहीं है, बल्कि मात्रा का है। दोनों में विरोध नहीं है दोनों एक ही जाति की दो उपजातियाँ हैं। निरीक्षण जाति है, Genus है। साधारणतः निरीक्षण तथा प्रयोगात्मक निरीक्षण इसका दो उपजातियाँ हैं जिसे हम प्रयोग कहते हैं। यह वास्तव में विशिष्ट निरीक्षण हैं। निरीक्षण को नियमित कर देते हैं तो वह प्रयोग हो जाता है।

प्रयोग में घटना को इच्छानुसार देखना है “Experiment is nothing but observation of facts under condition produced by the observer at will.” पुनः निरीक्षण प्रयोग में बदल जाता है। जब इच्छानुसार परिस्थितियों में लाते हैं, “Observation passes into experiment when we can manipulates the facts as we like.” अतः, निरीक्षण और प्रयोग में प्रकार का भेद नहीं बल्कि मात्रा का है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 2 अवलोकन एवं प्रयोग

प्रश्न 17.
प्राकृतिक समरूपता नियम की व्याख्या करें। इसे आगमन का आकस्मिक आधार क्यों कहा जाता है? इसकी महत्ता का वर्णन करें।
उत्तर:
आगमन का लक्ष्य एक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करना है जिसमें वास्तविक सत्यता पायी जाए। आगमन में आजीवन सत्यता का अर्थ है उन व्यापक नियमों का पाना जिनके द्वारा हम पूर्णव्यापी वास्तविक वाक्य की स्थापना करते हैं। उन नियमों के रूप में प्राकृतिक समरूपता नियम (Law of use formality of Nature) की सहायता लेते हैं। यह एक मूल सिद्धान्त है इसकी परिभाषा नहीं दी जा सकती है। बल्कि व्याख्या की जा सकती है। इस व्याख्या में प्राकृतिक समरूपता नियम के निम्नलिखित रूप पाते हैं।

(क) प्रकृति एकरूप है (Nature is uniform) अर्थात् प्रकृति की घटनाएँ एक समान घटती हैं।

(ख) प्रकृति में समान घटनाएँ घटती है (Same events happen in the Nature) आज जिस तरह की घटना घटती है उसी तरह की घटना भविष्य में भी घटेगी।

(ग) भविष्य अतीत के समान होगा (The future will reseneble the past) भूतकाल में जो घटनाएँ घटती हैं, वे भविष्य में भी घटेगी। भूत, वर्तमान और भविष्य में एक मेल पाया जाता है।

(घ) प्रकृति अपनी पुनरावृत्ति करती है (Nature repeats it self) एक तरह की घटना बार-बार घटती हुई दिखाई पड़ती है।

(ङ) अज्ञात ज्ञात के बाद होता है (The unknown is like the known) प्राकृतिक घटनाएँ जो घट चुका है वे तो ज्ञात हैं; किन्तु उसके आधार पर अज्ञात को जान सकते हैं।

(च) ब्रह्माण्ड नियमों द्वारा संचालित हैं (The universe is governed by laws) सारा ब्रह्माण्ड नियमों से संचालित होता है सूर्य, चाँद, ग्रह, ऋतु, तारे, पृथ्वी सभी नियमों में बँधे हुए

(छ) समानकारण से समान कार्य पैदा होता है (The same cause will produce the same effect) इसका अर्थ है कि जिस कारण से जो घटना घटती है घटती रहेगी। प्रकृति में जो घटनाएँ घटेगी वह नियमबद्ध मनमाने ढंग से अंधी घटनाएँ नहीं घट सकती हैं। विभिन्नता इस रूप में नहीं हो तो यही प्राकृतिक समरूपता नियम है।

(ज) जो अनुपस्थित है वह उपस्थित के बराबर है। (The absent is like the present) अर्थात् जो घटना या वस्तु आज अनुपस्थित है, वह समान परिस्थिति में उपस्थिति अवश्य होती है। इस तरह का विश्वास जिस आधार पर चलता है, उसे ही प्राकृतिक नियम कहते हैं।

इन सभी विभिन्न व्याख्याओं का एक ही निचोड़ है कि प्रकृति समान परिस्थिति में समान रूप से व्यवहार का कार्य करती है। (Nature behaves in the same way under similar circumstances) इस तरह प्राकृतिक समरूपता नियम की व्याख्या भिन्न-भिन्न रूपों में की गईं हैं जिसका अर्थ स्पष्ट है कि समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। (Same cause will produce same effect) जैसे आग में गर्मी, वर्षा में ठंढक, पानी से प्यास बुझाना, जाड़े के दिनों में जाड़ा, गर्मी के मौसम में गर्मी आदि प्राकृतिक घटनाएँ बिल्कुल नियमित रूप से पायी जाती हैं।

इसलिए तार्किकों ने कह डाला कि “प्रकृति में कोई सनक नहीं है। (There is no such thing as whim or caprice in Nature) इसका समर्थन कुमारी स्टेविंग भी करती हैं। “प्रकृति में जो कुछ भी होता है वह नियमानुकूल होता है और ये नियम इस तरह के होते हैं कि इनका पता लगाया जा सकता है। (What happens, happens in accordance with laws and there laws all such that we can discover them”) प्राकृतिक समरूपता नियम की सत्यता पर कुछ लोग संदेह करते हैं जिसमें पहली आपत्ति है-जब प्रकृति की घटनाएँ एक समान घटती हैं तो कभी कड़ी धूप, कभी भूकंप, कभी गर्मी, कभी खूब वर्षा, कभी कम वर्षा, कभी अकाल, कभी सुखाड़, तो कभी बाढ़ और कभी वे एक दम नहीं पाए जाते हैं।

1934 ई. में बिहार में भूकंप हुआ फिर नहीं हुआ ऐसा क्यों? अतः, प्रकृति में समरूपता नहीं है। Mill साहब कहते हैं कि कोई भी मनुष्य इस बात पर विश्वास नहीं करता है कि इस वर्ष जैसी अच्छी वर्षा और ऋतु हुई आगामी वर्षों में भी ऐसी ही बात पायी जाएगी…कोई भी यह आधार नहीं रखता है कि प्रत्येक रात में मनुष्य एक ही तरह का स्वप्न देखता रहेगा…वस्तुतः प्रकृति की गति केवल एक रूप नहीं बल्कि भिन्न भी है। इसी तरह Carveth Read भी कहते हैं कि-“विभिन्न प्रकार से प्रकृति एक रूप नहीं प्रतीत होती है। वस्तुओं के गुण, आकार, रंग आदि में विभिन्नता पायी जाती है। जलवायु तो अनिश्चित होती है-यहाँ तक कि व्यवसाय और राजनीतिक की घटनाएँ भी एक समान नहीं होती हैं। अतः, प्रकृति में समरूपता पाया जाना असंभव है।

इसका उचित उत्तर है कि ये आपत्तियाँ बेकार हैं। प्रकृति इतना विशाल है कि इसमें विभिन्नताओं का होना जरूरी है। प्रकृति समान परिस्थिति में एक समान व्यवहार करती है (Nature acts or behaves in the same way under similar circumstances”)। भूकंप जिस कारण से 1934 में आया था वही कारण यदि पैदा हो गया तो भूकंप होगा। इसका अर्थ है प्राकृतिक समरूपता अर्थात् कार्य-कारण की समरूपता। प्रकृति के कारण जटिलता ज्ञात नहीं होते हैं। सभी घटनाएँ नियमित और कारणवश ही होती हैं।

दूसरी आपत्ति है कि प्रकृति में कोई एक समरूपता नहीं बल्कि बहुत-सी समरूपताएँ हैं। ऐसा Bain साहब कहते हैं कि The course of the world is not a uniformity but uniformities. प्रकृति में भिन्न-भिन्न नियम हैं नदी, जंगल, पहाड़, कीड़े और मनुष्य में अनेक अलग-अलग नियम हैं और इस तरह नियमों की संख्या भी असंख्य हैं। हमारे सामने आपत्ति के रूप में प्रश्न है कि नियम एक नहीं अनेक हैं। यह झगड़ा एक वचन और बहुवचन का है। दर्पण में तो अनेकताओं में एकता पाना साधारण-सी बात है (One in many) प्राकृतिक का क्षेत्र बहुत ही विशाल और जटिल है। हम उसे संपूर्णता में नहीं जान सकते हैं। उससे कई विभागों में बाँटकर ही उसे उसका ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। इसलिए एक नियम के अंतर्गत ही अनेक नियम उपनियम बना लेते हैं। प्रकृति में समरूपताएँ बाह्रा हैं वास्तव में समरूपता ही है जिसे Ram of uniformity of Nature कहते।

बेल्टन के अनुसार भी प्रकृति, समरूपता में विविधता एवं अनेकता के लिए स्थान है। महत्त्व-प्रकृति समरूपता को आगमन का आधार माना गया है। इसका महत्त्व इतना अधिक है कि इसे बिना माने आगमन की क्रिया संभव ही नहीं है। आगमन में ‘कुछ’ से ‘सब’ की ओर गणना, भविष्य की गारंटी कहाँ से मिलती हैं? प्राकृतिक समरूपता नियम में विश्वास के आधार पर ही सामान्यीकरण करते हैं। विश्वास पर ही निरीक्षित से अनिरीक्षित की ओर जाते हैं। मिल ने भी इसकी महत्ता स्वीकारा है। विज्ञान भी प्राकृतिक समरूपता नियम पर ही आधारित है। इसी पर आगमन और विज्ञान की क्रियाएँ संभव है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

Bihar Board Class 11 Philosophy प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
जिस वाक्य में उद्देश्य विधेय पद की गुणवाचकता को व्यक्त न कर उद्देश्य के सम्बन्ध में नया ज्ञान देता है, कहलाता है –
(क) यथार्थ वाक्य
(ख) शाब्दिक वाक्य
(ग) (क) एवं (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) यथार्थ वाक्य

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 2.
जिस वाक्य में विधेय उद्देश्य पद की गुणवाचकता (Connotation) को व्यक्त करता है, उसे कैसा वाक्य कहते हैं?
(क) शाब्दिक वाक्य
(ख) यथार्थ वाक्य
(ग) (क) एवं (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) शाब्दिक वाक्य

प्रश्न 3.
आगमन का सार (Essence of induction) है –
(क) आगमनात्मक कूद
(ख) सामान्य वाक्य की स्थापना
(ग) (क) एवं (ख) दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) आगमनात्मक कूद

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 4.
यथार्थ वाक्य क्या है?
(क) उद्देश्य के सम्बन्ध में नया ज्ञान देनेवाला
(ख) विधेय में उद्देश्य पद की गुणवाचकता को व्यक्त करनेवाला
(ग) विधेय में उद्देश्य पद की गुणवाचकता को व्यक्त नहीं करनेवाला
(घ) (क) एवं (ख) दोनों
उत्तर:
(घ) (क) एवं (ख) दोनों

प्रश्न 5.
वैज्ञानिक आगमन (Scientific Induction) के मुख्य लक्ष्य क्या हैं?
(क) यथार्थ व्यापक वाक्य की स्थापना
(ख) वैज्ञानिक पद्धति का अवलोकन
(ग) यथार्थ व्यापक वाक्य को परिभाषित करना
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) यथार्थ व्यापक वाक्य की स्थापना

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 6.
“विद्वान का सम्बन्ध वैज्ञानिक पद्धति से है न कि अध्ययन विषय से” यह कथन किसका है?
(क) कार्ल पियर्सन
(ख) डिल्थे
(ग) गुडे एवं हाट
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) कार्ल पियर्सन

प्रश्न 7.
प्राकृतिक एवं सामाजिक विज्ञान का लक्ष्य है –
(क) एक
(ख) अनेक (भिन्न)
(ग) एक-दूसरे का विरोध
(घ) एक-दूसरे का पूरक
उत्तर:
(क) एक

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 8.
कुछ विशेष उदाहरणों के आधार पर पूर्णव्यापी नियम का यथार्थ अनुमान ही आगमन (Induction) है। यह कथन किसका है?
(क) ज्वाइस (Joyce)
(ख) फाउलर (Fowler)
(ग) मिल (Mill)
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) ज्वाइस (Joyce)

प्रश्न 9.
वैज्ञानिक आगमन की विशेषताएँ हैं –
(क) किसी वाक्य की स्थापना करता है
(ख) विशेष उदाहरणों का निरीक्षण करता है
(ग) इसमें आगमनात्मक छलाँग (Inductive leap) होता है
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(घ) उपर्युक्त सभी

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 10.
सरल गणनामूलक आगमन (Induction per simple Enumeration) में अभाव होता है –
(क) कारण-कार्य नियम का
(ख) प्रकृति समरूपता सिद्धान्त का
(ग) दोनों का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) कारण-कार्य नियम का

प्रश्न 11.
आगमन एवं सरल गणनामूलक आगमन के आधार में अंतर है –
(क) सिर्फ कारण कार्य नियम का
(ख) प्रकृति समरूपता सिद्धान्त का
(ग) दोनों का
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) सिर्फ कारण कार्य नियम का

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 12.
“तर्कशास्त्र” (Logic) तर्क करने की कला एवं विज्ञान दोनों हैं, यह किसने कहा था?
(क) हेटली (Whately) ने
(ख) हैमिल्टन (Hamilton) ने
(ग) थॉमसन (Thomson) ने
(घ) मिल (Mill) ने
उत्तर:
(क) हेटली (Whately) ने

प्रश्न 13.
निगमन एवं आगमन का लक्ष्य –
(क) समान है
(ख) भिन्न है
(ग) एक-दूसरे का विरोधी है
(घ) एक-दूसरे का पूरक है
उत्तर:
(घ) एक-दूसरे का पूरक है

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 14.
“तर्कशास्त्र विचार के आकार सम्बन्धी विषयों का विज्ञान है।” तर्कशास्त्र की यह परिभाषा किसने दी?
(क) ए. सी. मित्रा
(ख) जे. एस. मिल
(ग) थॉमसन
(घ) हैमिल्टन
उत्तर:
(घ) हैमिल्टन

प्रश्न 15.
“तर्कशास्त्र तर्क करने की कला है।” यह परिभाषा किसने दी है?
(क) हेटली ने
(ख) यूबरबेग
(ग) जे. एस. मिल ने
(घ) एल्ड्रीच ने
उत्तर:
(घ) एल्ड्रीच ने

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 16.
तर्कशास्त्र के अध्ययन का विषय है:
(क) साक्षात् ज्ञान
(ख) परोक्ष ज्ञान
(ग) आध्यात्मिक ज्ञान
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(घ) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 17.
तर्कशास्त्र का सम्बन्ध –
(क) वास्तविक सत्यता से है
(ख) आकारिक सत्यता से
(ग) दोनों से है
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(ग) दोनों से है

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 18.
वास्तविक (Material Truth) का अर्थ है?
(क) विचारों का बाह्य पदार्थ से संगति
(ख) विचारों की संगति
(ग) उपर्युक्त दोनों
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(क) विचारों का बाह्य पदार्थ से संगति

Bihar Board Class 11 Philosophy प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
विज्ञान का अंग्रेजी रूपान्तर ‘Science’ की उत्पत्ति किस मूल शब्द से हुई है?
उत्तर:
विज्ञान का अंग्रेजी रूपान्तर Science का मूल शब्द लैटिन भाषा का ‘Scientia’ है, जिसका अर्थ होता है ज्ञान या Knowledge।

प्रश्न 2.
आगमनात्मक कूद क्या है? अथवा, आगमनात्मक छलांग (Inductive leap) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आगमनात्मक कूद (Inductive leap) आगमन का सार (essernce of induction) है। ‘कुछ’ को देखकर जब हम ‘सभी’ के बारे में कहते हैं तो यही आगमनात्मक छलांग है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 3.
वैज्ञानिक आगमन (Scientific Induction) का मुख्य लक्ष्य क्या है?
उत्तर:
यथार्थ व्यापक वाक्य की स्थापना करना वैज्ञानिक आगमन का प्रमुख लक्ष्य है।

प्रश्न 4.
शाब्दिक वाक्य (Verbal proposition) किसे कहते हैं?
उत्तर:
जिस वाक्य में विधेय पद की गुणवाचकता (Connotation) को व्यक्त करता है उसे शाब्दिक (Verbal) वाक्य कहते हैं। इस वाक्य से कोई नया ज्ञान प्राप्त नहीं होता है। जैसे-सभी मनुष्य मरणशील होते हैं।

प्रश्न 5.
यथार्थ (real) वाक्य किसे कहते हैं?
उत्तर:
जिस वाक्य में विधेय उद्देश्य पद की गुणवाचकता को नहीं व्यक्त करता है बल्कि उद्देश्य के सम्बन्ध में कोई नया ज्ञान देता है उसे यथार्थ (real) वाक्य कहते हैं। जैसे – ‘सभी मनुष्य मरणशील होते है’ – यह एक वास्तविक वाक्य है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 6.
वैज्ञानिक पद्धति (Scientific method) का क्या उद्देश्य है?
उत्तर:
घटनाओं को समझाना, उनसे संबद्ध सामान्य सिद्धान्तों का निरूपण करना वैज्ञानिक पद्धति के उद्देश्य हैं, इसके साथ ही भविष्यवाणी एवं नियंत्रण भी वैज्ञानिक पद्धति के उद्देश्य हैं।

प्रश्न 7.
विज्ञान क्या है? अथवा, विज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर:
वैज्ञानिक पद्धति द्वारा क्रमबद्ध रूप से ज्ञान का संग्रह ही विज्ञान है।

प्रश्न 8.
वैज्ञानिक आगमन की परिभाषा दें।
उत्तर:
विशेष उदाहरणों के निरीक्षण के पश्चात् कारण-कार्य नियम एवं प्रकृति-समरूपता के वल पर आगमनात्मक कूद लेकर यथार्थ (सामान्य) वाक्य की स्थापना को वैज्ञानिक आगमन कहते हैं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 9.
अवैज्ञानिक आगमन (Unscientific Induction) किसे कहते हैं? अथवा, सरल गणनात्मक आगमन (Induction per simple Enumeration) की परिभाषा दें।
उत्तर:
विशेष उदाहरण के निरीक्षण के पश्चात् अखंडित अनुभव तथा प्रकृति-समरूपता नियम के आधार पर बिना कारण-कार्य सम्बन्ध को जानते हुए जब यथार्थ सामान्य वाक्य की स्थापना की जाती है तो उसे अवैज्ञानिक या सरल गणनात्मक आगमन कहते हैं।

प्रश्न 10.
किसने कहा कि “विज्ञान का संबंध वैज्ञानिक पद्धति से है न कि अध्ययन विषय से”?
उत्तर:
यह कथन कार्ल पियर्सन (Karl Pearson) का है।

लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
निगमन एवं आगमन में कौन अधिक मौलिक है? वस्तुवादी तर्कशास्त्रियों के मत की विवेचना करें।
उत्तर:
मिल, बेन आदि वस्तुवादी तर्कशास्त्रियों के मत में निगमनात्मक अनुमान के लिए, कम-से-कम एक सामान्य (universal) वाक्य की आवश्यकता पड़ती है और इस सामान्य वाक्य की स्थापना आगमन को आधार प्रदान करता है। आगमन के द्वारा ही सामान्य नियम की स्थापना होती है और निगमन केवल इसी नियम को व्यक्तिविशेषों पर लागू करता है। जब आगमन के द्वारा यह सामान्य वाक्य स्थापित हो जाता है कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं, तो निगमन इसे राम, मोहन आदि व्यक्तियों पर प्रयुक्त करके कहता है कि राम भी मनुष्य होने के नाते मरणशील है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आगमन ही अधिक मौलिक (fundamental) है और निगमन गौण (secondary)।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 2.
“निगमन आगमन का पूर्ववर्ती है।” विवेचना करें।
उत्तर:
जेवन्स (Jevons) के अनुसार निगमन आगमन के पहले आता है। इसकी पुष्टि के लिए इन्होंने अपना तर्क इस प्रकार दिया है-आगमन में सामान्य नियम स्थापित किया जाता है। इसके लिए प्राक्कल्पना का सहारा लेकर सामान्यीकरण कर दिया जाता है। किन्तु, बिना जाँच या परीक्षा के कोई सामान्य नियम नहीं बन जाता। प्राक्कल्पना को सत्य मानकर उससे संभावित निष्कर्ष निकालते हैं और इन निष्कर्षों की जाँच वास्तविक घटनाओं से करते हैं। यदि ये निष्कर्ष इन यथार्थ घटनाओं के अनुकूल होते हैं तो हम अपनी प्राक्कल्पना को सही मान लेते हैं। यदि ये अनुकूल या संगत नहीं होते, तो प्राक्कल्पना असत्य सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार, निगमन द्वारा ही प्राक्कल्पना की परीक्षा करके आगमन में सामान्य नियम की स्थापना की जाती है। इसीलिए, निगमन को आगमन का पूर्ववर्ती कहा जाता है।

प्रश्न 3.
“निगमन अवरोही क्रिया है और आगमन आरोही क्रिया।” बेकन के इस मत की व्याख्या करें।
उत्तर:
बेकन ने निगमन को ‘उतरनेवाली क्रिया’ (descending process) और आगमन को ‘चढ़नेवाली क्रिया’ (ascending process) कहा है। निगमन में सामान्य से विशेष निष्कर्ष निकालते हैं। इसमें हम अधिक व्यापकता से कम व्यापकता की ओर आते हैं। जैसे, सभी मनुष्यों को मरणशील पाकर राम को मनुष्य होने के नाते मरणशील बताते हैं। इसीलिए निगमन को उतरने की क्रिया कहा जाता है। आगमन में विशेष उदाहरणों के निरीक्षण के द्वारा सामान्य नियम की स्थापना की जाती है।

इसमें कम सामान्य से अधिक सामान्य की ओर (from less general to more general) जाते हैं। जिस प्रकार किसी पर्वत पर चढ़कर वहाँ से हमें नीचे का सामान्य रूप दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार आगमन के निष्कर्ष पर पहुँचते ही हमें एक सामान्य नियम दृष्टिगोचर होता है। ज्यों-ज्यों पर्वत से नीचे उतरने लगते हैं, त्यों-त्यों विशेष पर नजर पड़ने लगती है। इसलिए निगमन को उतरनेवाली क्रिया और आगमन को चढ़नेवाली क्रिया कहा गया है।

प्रश्न 4.
“आगमन और निगमन एक-दूसरे में समाविष्ट हैं।” विवेचना करें।
उत्तर:
जेवन्स के अनुसार आगमन विधि का अंत सत्यापन या जाँच में होता है। इसीलिए, ये निगमन को आगमन का पूर्ववर्ती मानते हैं। इसके विपरीत, मिल के अनुसार आगमनिक खोज में सामान्यीकरण अंतिम सोपान है और इसके लिए परीक्षा या जाँच की कोई आवश्यकता नहीं है। इसी कारण इन्होंने आगमन को निगमन का पूर्ववर्ती कहा है। निगमन और आगमन में वस्तुतः न तो कोई पूर्ववर्ती है और न कोई अनुवर्ती। दोनों में परस्पर विरोध का संबंध नहीं है। दोनों परस्पर पूरक हैं। इनके बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। दोनों में परस्पर सहयोग अपेक्षित है। इसलिए, यह कहा गया है कि “दोनों एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं।” (Both run into each other)

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 5.
निगमन और आगमन का भेद सिद्धान्त का नहीं बल्कि आरंभ बिन्दु का है। इस कथन की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
किसी भी विषय का अध्ययन दो तरीके से किया जा सकता है – विश्लेषणात्मक एवं संश्लेषणात्मक तरीके से। निगमन में हम विश्लेषणात्मक विधि को अपनाते हैं और आगमन में संश्लेषणात्मक विधि का सहारा लेते हैं। आगमन में विशेष उदाहरणों के निरीक्षण के आधार पर सामान्य वाक्य की स्थापना करते हैं, जो सत्यापित होने के बाद सामान्य नियम बन जाते हैं। निगमन में सामान्य नियम का विश्लेषण कर उसे विशेष उदाहरणों पर लागू किया जाता है। दोनों विधियों के संयोग एवं सहयोग से ही पूर्ण तत्व का ज्ञान होता है इसलिए यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि आगमन और निगमन दोनों का लक्ष्य एक है, परंतु दोनों के आरंभ बिन्दु में भिन्नता है।

प्रश्न 6.
फाउलर किस प्रकार आगमन और निगमन में भेद करते हैं?
उत्तर:
फाउलर ने आगमन और निगमन में भेद इस आधार पर किया है कि आगमन में हम कार्य से कारण की ओर जाते हैं और निगमन में कारण से कार्य की ओर। आगमन में घटनाविशेष का निरीक्षण करके इसका कारण बताते हैं। इसीलिए आगमन में कार्य से कारण की ओर जाने की बात कही गई है। निगमन में सामान्य नियम यानी कारण से विशेष (कार्य) निष्कर्ष प्राप्त करते हैं। इसलिए निगमन में कारण से कार्य की ओर जाने की बात कही गई है। फाउलर के मत की आलोचना-फाउलर का कहना सही नहीं है। आगमन में केवल कार्य से कारण का पता नहीं लगाया जाता। आगमन में हम दोनों तरफ बढ़ सकते हैं। कार्य ज्ञात रहने पर उसके कारण का पता लगाया जा सकता है और कारण ज्ञात रहने पर आगमन के द्वारा कार्य का भी पता लगाया जा सकता है। अतः, यह कहना भूल है कि आगमन द्वारा केवल कार्य से कारण का पता लगाया जाता है।

प्रश्न 7.
आगमन और निगमन के संबंध में बक्ल के मत की विवेचना करें।
उत्तर:
बक्ल के अनुसार हम आगमन में विशेष तथ्यों से नियमों पर (from facts to laws) जाते हैं और निगमन में नियमों से विशेष तथ्यों पर (from laws to facts) जाते हैं। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है आगमन में वस्तुविशेष (facts) से विचार (ideas) की ओर जाते हैं और निगमन में विचार से वस्तुविशेष का अनुमान लगाया जाता हैं आगमन द्वारा स्थापित नियम सैद्धान्तिक होते हैं और इनका प्रत्यक्ष घटनाविशेषों के द्वारा होता है। किन्तु, हमें इससे यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि आगमन के निष्कर्ष केवल सैद्धांतिक या मानसिक होते हैं, यथार्थ नहीं। आगमन के निष्कर्ष यथार्थ होते हैं, क्योंकि इनमें वास्तविक सत्यता (material truth) पाई जाती है। निगमन में भी सैद्धांतिक या मानसिक तत्त्व पाए जाते हैं, जिस प्रकार आगमन में यथार्थता के तत्त्व रहते हैं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 8.
आगमन तर्कशास्त्र में ‘आगमनात्मक छलांग’ का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
आगमन तर्कशास्त्र में आगमनात्मक छलांग का बहुत अधिक महत्व है। आगमनात्मक छलांग (inductive leap) में हम ज्ञात से अज्ञात की ओर अथवा कुछ से सब की ओर पहुँचते हैं और यथार्थ वाक्यों की स्थापना करते हैं। आगमनात्मक छलांग के द्वारा ही हम कुछ ही मनुष्यों को मरते देखकर यह निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील हैं। यदि आगमनात्मक छलांग नहीं लगाई जाए तो यथार्थ व्यापक वाक्यों की स्थापना नहीं हो पाएगी।

‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ में मनुष्य जाति के कुछ ही उदाहरणों के आधार पर संपूर्ण मनुष्य जाति के संबंध में जो निष्कर्ष निकाला गया है वह आगमनात्मक छलांग द्वारा ही संभव है। यद्यपि इस छलांग में जोखिम की संभावना रहती है तथापि तर्कशास्त्रियों ने इसे आगमन का प्राण (Essence of Induction) कहा है। जब आगमनात्मक छलांग का निष्कर्ष प्रकृति-समरूपता नियम तथा कारण-कार्य नियम द्वारा सत्यापित हो जाता है तो कोई भी खतरा नहीं रह जाता। आगमन तर्कशास्त्र में आगमनात्मक छलांग का महत्व मुख्य और सार रूप से इसलिए है कि इसके कारण कुछ निरीक्षित उदाहरणों के आधार पर अनिरीक्षित उदाहरणों के संबंध में सभी सामान्य निष्कर्ष निकल जाता है जो वर्तमान के लिए ही नहीं बल्कि भूत और भविष्य के लिए भी सत्य होता है।

प्रश्न 9.
आगमन का मुख्य उद्देश्य क्या है?
उत्तर:
आगमन का मुख्य उद्देश्य है नए सत्य की खोज करना अर्थात् ज्ञात के आधार पर अज्ञात के संबंध में अथवा ‘कुछ’ के आधार पर ‘सब’ के संबंध में नया ज्ञान प्राप्त करना। संसार में तरह-तरह की वस्तुएँ हैं-ये सभी वस्तुएँ एक-दूसरे से असंबंधित प्रतीत होती हैं, परन्तु वस्तुतः बात ऐसी नहीं है। सभी वस्तुएँ नियमित हैं। इन वस्तुओं के अपने-अपने नियम हैं। मनुष्य जगत्, वनस्पति जगत्, पशुजगत्, सभी के अपने-अपने निश्चित नियम हैं जिनके द्वारा ये संचालित होते हैं। आगमन का उद्देश्य है वैसे निष्कर्ष-वाक्य को सत्यापित करना जो प्रकृति-समरूपता नियम के पहल कुलतः ज्ञान एवं इसमें सतत् वान इसके अंतर्गत साथ-साथ कारण-कार्य नियम पर भी आधारित होता हो अथवा जिनका सामान्यीकरण इन दोनों नियमों के आधार होता हो।

संसार में प्रत्येक वस्तु की जाति या वर्ग में एक सामंजस्य है, एक निश्चित व्यवस्था है – आगमन का मुख्य उद्देश्य है इसी सामंजस्य और निश्चित व्यवस्था के नियमों की खोज करना तथा उनके आधार पर निष्कर्ष वाक्यों को प्रमाणित करना। आगमन अपने इसी मुख्य उद्देश्य के द्वारा एक तरफ सभी हंसों के (भविष्य में) उजाले होने का संभाव्य बताता है वहीं दूसरी तरफ सभी मनुष्यों के (भविष्य में) मरणशील होने को सत्यापित करता है। आगमन का उद्देश्य है तरह-तरह के यथार्थ सामान्य वाक्यों की स्थापना करना और अंततः कारण-कार्य के आधार पर उनकी त्रैकालिक सत्यता को प्रमाणित करना।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 10.
विज्ञान क्या है? अथवा, विज्ञान (Science) से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
हिन्दी के ‘विज्ञान’ शब्द का अंग्रेजी रूपान्तर ‘Science’ मूल शब्द लैटिन भाषा का ‘Scientia’ है जिसका अर्थ ज्ञान यानि Knowledge होता है। इस प्रकार, विज्ञान ज्ञान से संवद्ध है। इसलिए पद्धतिशास्त्री गुडे एवं हाट ने विज्ञान को एक ‘व्यवस्थित ज्ञान’ के रूप में परिभाषित किया है। विज्ञान के अर्थ के संबंध में दो प्रकार की वैचारिक धारणाएँ हैं। वे हैं स्थिर विचार एवं गत्यात्मक विचार। स्थिर विचार के अनुसार विज्ञान एक ऐसी क्रिया है जिससे विश्व की क्रमबद्ध सूचना प्राप्त होती है।

इस दृष्टि से विज्ञान एक व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध ज्ञान है। गत्यात्मक विचार (Dynamic View) के अनुसार, विज्ञान एक क्रिया है, एक पद्धति है, जो वैज्ञानिकों द्वारा संपादित की जाती है। इसके अंतर्गत न केवल ज्ञान की वर्तमान स्थिति पर बल दिया गया है, बल्कि इसमें सतत् वृद्धि एवं निरंतरता पर जोर दिया गया है। मूलतः ज्ञान एवं वैज्ञानिक गतिविधि, जिसके आधार पर ज्ञान का संचय होता है, विज्ञान के पहलू हैं। विज्ञान ज्ञान का संचय भी है और एक निश्चित विधि या पद्धति भी है। ये दोनों पक्ष अंतः सम्बन्धित हैं। विज्ञान का संबंध ऐसे ज्ञान से है, जिसका संचय व्यवस्थित, नियंत्रित एवं आनुभविक ढंग से किया जाता है। वस्तुनिष्ठता, विश्वसनीयता एवं आनुभाविकता विज्ञान की प्रमुख विशेषताएँ हैं।

प्रश्न 11.
यथार्थ वाक्य से आपका क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
जिस व्यापक अथवा सामान्य वाक्य (general proposition) में विधेय (Predi cate) उद्देश्य (Subject) पद की गुणवाचकता (connotation) को प्रकट नहीं करता है बल्कि उद्देश्य के संबंध में नया ज्ञान देता है, उसे यथार्थ वाक्य कहते हैं। जैसे-‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ एक यथार्थ वाक्य है, क्योंकि इसमें विधेय’ (मरणशीलता) अपने ‘उद्देश्य’ (मनुष्य) के संबंध में नया ज्ञान देता है। दूसरी तरफ यदि हम यह कहें कि ‘सभी मनुष्य विवेकशील होते हैं तो यह यथार्थ वाक्य नहीं है, क्योंकि इसमें विवेकशीलता’ ‘मनुष्य’ पद के संबंध में कोई नया ज्ञान नहीं देता है।

‘विवेकशीलता’ तो ‘मनुष्य पद में ही निहित है, क्योंकि ‘मनुष्य’ पद का सार गुण ‘विवेकशीलता’ है, जिसे मनुष्य पद की गुणवाचकता (connotation) कहते हैं। चूँकि उपर्युक्त वाक्य (सभी मनुष्य मरणशील हैं) में ‘मरणशीलता’ ‘मनुष्य’ पद की गुणवाचकता को व्यक्त न कर इसके संबंध में नया ज्ञान देता है, इसलिए यह यथार्थ वाक्य है।

‘सभी मनुष्य विवेकशील होते हैं। एक शाब्दिक वाक्य है, क्योंकि ‘विवेकशीलता’ मनुष्य के संबंध में कोई नया ज्ञान नहीं है। शाब्दिक वाक्य की स्थापना आगमन नहीं करता बल्कि यह ऐसे वाक्य की स्थापना करता है जिसमें विधेय अपने उद्देश्य के संबंध में नया ज्ञान देता है और जिसे यथार्थ वाक्य कहते हैं। जिस अनुमान से ज्ञान की वृद्धि होती है उसे आगमनात्मक अनुमान कहते हैं और इसीलिए यथार्थ वाक्य की स्थापना आगमनात्मक अनुमान द्वारा होती है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 12.
कारण-कार्य-नियम किस प्रकार वैज्ञानिक आगमन का मुख्य आधार है?
उत्तर:
कारण-कार्य-नियम वैज्ञानिक आगमन का मुख्य आधार इसलिए है क्योंकि आगमन का निष्कर्ष मुख्य रूप से कारण-कार्य-नियम द्वारा ही सत्यापित होता है। सभी आगमनों में वैज्ञानिक आगमन को सबसे अधिक सत्य इसलिए माना गया है क्योंकि इसका सामान्य वाक्य कारण-कार्य-नियम पर आधारित होता है। मनुष्य और मरणशीलता में कारण-कार्य का संबंध है; क्योंकि ‘मनुष्य’ होना ही ‘मरणशीलता’ का कारण है।

यदि मनुष्य होना मरणशीलता का कारण है तो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि यदि भविष्य में भी मनुष्य रहेगा तो वह मरणशील होगा। वैज्ञानिक आगमन का सामान्य वाक्य ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ जब प्रकृति-समरूपता नियम के द्वारा सत्यापित होता है, तब भी यह अवैज्ञानिक ही रह जाता है क्योंकि तबतक निष्कर्ष की सत्यता संभाव्य रहती है।’ परंतु, जब इसका सामान्य वाक्य कारण-कार्य नियम द्वारा सत्यापित हो जाता है, कि मनुष्य होना ही मरणशीलता का कारण है तो यह पूर्ण वैज्ञानिक हो जाता है। इस प्रकार कारण-कार्य-नियम वैज्ञानिक आगमन की मुख्य आधार है।

प्रश्न 13.
अव्याघातक अनुभव क्या है?
उत्तर:
आज तक जो बात सत्य होती आयी है और उसका कोई भी विरोधी उदाहरण नहीं मिला है तो विरोधी उदाहरण का नहीं मिलन अव्याघातक अनुभव (uncontradicted experi ence) कहलाता है जिसके सहारे अनुमान कर लिया जाता है कि यह बात भविष्य में भी सत्य रहेगी। सरल परिगणनात्मक आगमन अथवा अवैज्ञानिक आगमन का निष्कर्ष अव्याघातक अनुभव ही आधारित होता है। अव्याघातक अनुभव पर आधारित वाक्य प्रकृति-समरूपता नियम द्वारा तो सत्य सिद्ध होते हैं, परंतु कारण-कार्य नियम के अभाव में कारण संभाव्य साबित होते हैं अर्थात् निष्कर्ष के संबंध में निश्चितता नहीं रहती कि यह भविष्य में भी सत्य रहेगा या नहीं।

जैसे – सभी काग काले होते हैं अव्याघातक अनुभव पर आधारित निष्कर्ष है। प्रकृति-समरूपता नियम के अनुसार यह संभावना रहती है कि भविष्य में सभी काग काले ही होंगे, परंतु इस निष्कर्ष के साथ कारण-कार्य नियम लागू नहीं होने के कारण यह सत्यापित नहीं हो पाता कि भविष्य में काग अवश्य ही काले ही दिखाई पड़ेंगे अथवा होंगे। अतः, अव्याघातक अनुभव पर आधारित यथार्थ सामान्य वाक्य का निष्कर्ष भविष्य में सत्य भी हो सकता है और असत्य भी। अव्याधातक अनुभव पर आधारित निष्कर्ष की सत्य में निश्चितता नहीं रहने के कारण ही इसे अवैज्ञानिक माना गया है। क्योंकि वैज्ञानिक निष्कर्ष की सत्यता में निश्चितता रहती है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 14.
मिल के अनुसार आगमन निगमन के पहले आता है। स्पष्ट करें।
उत्तर:
मिल की यह सुदृढ़ मान्यता है कि आगमन निगमन के पहले आता है। मिल साहब का मत जेवन्स के मत से भिन्न है। इनके अनुसार आगमनिक खोज में सामान्यीकरण का महत्त्व बहुत अधिक है। इसी कारण ये आगमन को निगमन के पहले रखते हैं। न्याय (syllogism) निगमन का मुख्य रूप है और इसके लिए आधार के रूप में कम-से-कम एक पूर्णव्यापी (universal) वाक्य की आवश्यकता होती है और इस वाक्य की स्थापना आगमन द्वारा ही होती है। इस प्रकार आगमन ही निगमन को आधार प्रदान करता है। इसलिए यह कहना उचित है कि आगमन निगमन के पहले आता है (Induction is prior to Deduction)।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
“तर्कशास्त्र सभी विज्ञानों का विज्ञान है।” इस कथन की व्याख्या करें।
उत्तर:
डन्स स्कॉटस (Dunsscotus) ने तर्कशास्त्र को सभी विज्ञानों का विज्ञान कहा है (Logic is the science of all sciences) यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं है। इसका कारण है कि सभी विज्ञानों की आधारभूत मौलिक मान्यताओं का अध्ययन तर्कशास्त्र में किया जाता है। तर्कशास्त्र की विषय-वस्तु की सहायता से ही विज्ञान को पद्धति को और अधिक सुसंगत बनाया जाता है। इसीलिए विज्ञान को विज्ञान कहा जाता है। अतः प्रत्येक विज्ञान किसी-न-किसी रूप में तर्कशास्त्र पर निर्भर करता है। अतः तर्कशास्त्र विज्ञानों का विज्ञान है। तर्कशास्त्र को सभी विज्ञानों की सामग्री के रूप में भी स्वीकार किया गया है। प्रत्येक विज्ञान को चाहे वह भौतिक हो या प्राकृतिक तर्कशास्त्र की विषय वस्तु की आवश्यकता होती है। इसी विषय वस्तु को आधार मान कर विज्ञान अपना निष्कर्ष निष्पादित करता है।

विज्ञान दो प्रकार के होते हैं। वे है-यथार्थपरक तथा आदर्शपरक। जब किसी पदार्थ को देखकर उसके सम्बन्ध में हू-ब-हू चित्रण प्रस्तुत किया जाता है तब वह यथार्थपरक कहलाता है। इसका सम्बन्ध वस्तु जिस रूप में होती है, उसी से है। यहाँ पर वास्तविक वर्णन होता है, इसलिए यथार्थपरक विज्ञान को है “है (is) विज्ञान” भी कहा जाता है। जैसे-‘कमल’ लाल है’ यानि कमल को हमने जिस रूप में देखा उसे उसी रूप में चित्रित और वर्णित किया। यथार्थपरक विज्ञान में घटनाओं का अध्ययन उसी रूप में किया जाता है जिस रूप में वे घटती हैं। इसे वस्तुपरक विज्ञान भावात्मक विज्ञान या वर्णनात्मक विज्ञान भी कहा जाता है।

दूसरी ओर आदर्शपरक विज्ञान का सम्बन्ध चाहिए से होता है, क्योंकि यह विज्ञान वस्तुओं का स्वरूप “कैसा होना चाहिए” का अध्ययन करता है। यह विज्ञान उस आदर्श को बताता है जिसके अनुरूप वस्तुओं को होना चाहिए। चूँकि इस विज्ञान का संबंध चाहिए (Cought) से है, इसीलिए इसे ‘चाहिए विज्ञान’ भी कहा जाता है। जैसे-‘हमें सत्य बोलना चाहिए’। यह आदर्श का निरूपन करता है। यह विज्ञान हमें बताता है कि क्या होना चाहिए।

तर्कशास्त्र भी वस्तुतः आदर्शपरक विज्ञान है। यह बताता है कि अनुमान किस प्रकार का होना चाहिए जिससे कि वह सत्य, वास्तविक और यथार्थ हो। वस्तुतः तर्कशास्त्र विज्ञान तथा कला दोनों ही है। विज्ञान और कला में किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है। विज्ञान का संबंध जानने तथा कला का सम्बन्ध करने से है। विज्ञान पदार्थों की वास्तविकता से तथा उसके सुव्यवस्थित ज्ञान से संबंधित है तथा कला इस ज्ञान के द्वारा किसी उद्देश्य की प्राप्ति करती है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 2.
सरल परिगणनात्मक आगमन क्यों ‘अपूर्ण आगमन’ कहलाता है? इसे वैज्ञानिक आगमन क्यों नहीं समझा जाता है?
उत्तर:
पूर्ण आगमन के विरोधी अथवा विपरीत अर्थ के रूप में सरल परिगणनात्मक आगमन अपूर्ण आगमन भी कहलाता हैं यह अपूर्ण आगमन इसलिए कहलाता है, क्योंकि इसमें कारण-कार्य सम्बन्ध का अभाव होता है। कारण-कार्य नियम के संबंध नहीं रहने के कारण सरल परिगणनात्मक आगमन का निष्कर्ष निश्चित नहीं होता। ‘सभी काग काले होते हैं’ में यह प्रमाणित होता है कि अबतक जितने भी कौए दिखाई पड़े हैं, सभी काले ही दिखाई पड़े हैं।

प्रकृति-समरूपता नियम के अनुसार भविष्य में भी सभी कौए काले ही दृष्टिगोचर होने चाहिए, परन्तु सरल परिगणनात्मक आगमन चूँकि कारण-कार्य नियम पर आधारित नहीं होता, इसलिए भविष्य में सभी कौओं के काले होने की केवल संभावना ही होती है, निश्चितता नहीं। अपूर्ण आगमन वह आगमनात्मक आगमन होता है। जिसमें कुछ ही विशेष उदाहरणों की जाँच के बाद पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना कर दी जाती है। इस तरह के निष्कर्ष अपूर्ण इसलिए कहलाते हैं क्योंकि ये कारण-कार्य सम्बन्ध के ज्ञान पर आधारित नहीं होते। सरल परिगणनात्मक आगमन का तर्क अथवा निष्कर्ष इसी प्रकार का होता हैं।

इसी प्रकार हम कह सकते हैं कि सरल परिगणनात्मक आगमन अपूर्ण आगमन इसलिए होता है कि इसका सामान्यीकरण कारण-कार्य सम्बन्ध पर आधारित न होकर अपूर्ण उदाहरणों की गणना पर निर्भर करता है। इसमें पूर्ण आगमन की तरह सभी उदाहरणों की गणना से सामान्यीकरण नहीं किया जाता। चूंकि इसमें कुछ ही उदाहरणों की गणना पर सामान्य यथार्थ वाक्य की स्थापना कर दी जाती है, इसलिए इसे अपूर्ण आगमन कहा जाता है।

अत: सरल परिगणनात्मक आगमन का निष्कर्ष ‘सभी हंस सफेद होते हैं’ अपूर्ण आगमन है, क्योंकि वस्तुतः इसमें संसार के सभी हंसों की गणना नहीं की गई है बल्कि कुछ ही हंसों को सफेद देखकर यह निष्कर्ष निकाल लिया गया है कि ‘सभी हंस सफेद होते हैं’ पूर्ण आगमन में पूर्ण उदाहरणों की गणना की जाती है, जैसे-‘सभी विद्यार्थी उपस्थित हैं’ इस सामान्य वाक्य में सभी विद्यार्थियों की गणना की गयी है। अतः सरल परिगणनात्मक आगमन को अपूर्ण आगमन इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इसमें पूर्ण आगमन की भाँति सामान्य वाक्य स्थापित करने में सभी उदाहरणों की गणना नहीं की जाती। सरल परिगणनात्मक आगमन को हम वैज्ञानिक आगमन इसलिए नहीं समझते, क्योंकि –

1. यह कारण-कार्य संबंध पर आधारित नहीं है (It is not based on a casual connection):
वैज्ञानिक आगमन कारण-कार्य सम्बन्ध पर आधारित होता है-यह कारण-कार्य नियम के आधार पर किसी घटना की व्याख्या करता है कि यदि कार्य (effect) है तो उसका कोई-न-कोई कारण अवश्य होगा। जैसे – ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ वैज्ञानिक आगमन का सामान्य यथार्थ वाक्य है-इसका विरोधी उदाहरण नहीं मिल सकता क्योंकि मनुष्यता ही मरणशीलता का कारण है अर्थात् मनुष्य जन्म लेगा तो मरेगा अवश्य ही। परन्तु, सरल परिगणनात्मक आगमन कारण-कार्य नियम पर आधारित नहीं होता।

केवल कारण-कार्य नियम के लागू नहीं होने के कारण ही इसका निष्कर्ष वैज्ञानिक नहीं होता। जैसे-“इसके निष्कर्ष ‘सभी काग काले होते हैं’ में ‘काग’ और ‘कालापन’ के बीच कारण-कार्य का सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि ‘काग’ का होना ‘कालेपन’ का कारण नहीं है। वैज्ञानिक आगमन में कारण-कार्य का नियम लागू होने के कारण हम निश्चिततापूर्वक कह सकते हैं कि मनुष्य मरता है इसलिए क्योंकि वह जन्म लेता है अर्थात् ‘मृत्यु’ इसलिए है क्योंकि ‘मनुष्य’ है और भविष्य में भी यदि ‘मनुष्य’ रहेंगे तो ‘मृत्यु’ अवश्य ही रहेगी।”

लेकिन सरल परिगणनात्मक आगमन में कारण-कार्य का नियम लागू नहीं होने के कारण हम यह नहीं कह सकते कि काग का होना ही कालेपन का कारण है (अर्थात् काला इसलिए है कि क्योंकि काग है)। यह अवैज्ञानिक आगमन इसलिए है कि क्योंकि इसमें निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता है कि भविष्य में यदि कागों का निरीक्षण किया जाएगा तो वे अवश्य ही काले पाये जाएँगे। अतः कारण-कार्य सम्बन्ध पर आधारित नहीं रहने के कारण सरल परिगणनात्मक आगमन का सामान्य यथार्थ वाक्य वैज्ञानिक सत्यापित नहीं हो पाता, यह अवैज्ञानिक ही रह जाता है।

2. यह वैज्ञानिक आगमन की निश्चितता तक भी नहीं पहुंच सकता (It can never reach the certainty of Scientific Induction):
सरल परिगणनात्मक आगमन को वैज्ञानिक आगमन इसलिए नहीं समझा जाता, क्योंकि इसका निष्कर्ष निश्चित न होकर संभाव्य (prob able) होता है। कारण-कार्य नियम लागू नहीं होने के कारण इसके निष्कर्ष की निश्चितता नहीं रहती और न अनिश्चितता ही अर्थात् निष्कर्ष सत्य भी प्रमाणित हो सकता है और असत्य भी। क्योंकि सरल परिगणनात्मक आगमन में हम मात्र विश्वास कर लेते हैं कि अनिरीक्षित उदाहरण निरीक्षित उदाहरणों के समान ही होंगे।

यदि भविष्य में कोई हंस काला, लाल या पीला दिखाई पड़ जाए तो सरल परिगणनात्मक आगमन का निष्कर्ष असत्य प्रमाणित हो जाएगा कि ‘सभी हंस सफेद होते हैं’। परन्तु, भविष्य में यदि हंस का रंग केवल सफेद ही रहे तो यह निष्कर्ष सत्य ही रहेगा। सरल परिगणनात्मक आगमन वैज्ञानिक आगमन की निश्चितता तक इसलिए भी नहीं पहुँच सकता, क्योंकि इसके निष्कर्ष की सत्यता उदाहरणों की गणना पर निर्भर करती है। अतः यह किसी भी हालत में वैज्ञानिक आगमन की निश्चितता तक नहीं पहुंच सकता।

सरल परिगणनात्मक आगमन में हम इस विश्वास पर ‘सभी काग काले होते हैं’, ‘सभी हंस सफेद होते हैं’ आदि सामान्य यथार्थ वाक्यों की स्थापना कर लेते हैं कि काग और कालेपन तथा हंस और उजलेपन में अवश्य ही कोई महत्त्वपूर्ण संबंध है। लेकिन यह संबंध भविष्य में भी रहेगा, इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यही कारण है कि सरल परिगणनात्मक आगमन वैज्ञानिक आगमन नहीं कहलाता। यदि इसमें कभी कारण-कार्य संबंध का पता चल जाए तो इसका निष्कर्ष सत्यापित हो जाएगा और तब यह वैज्ञानिक आगमन का रूप ले लेगा। सरल परिगणनात्मक आगमन को अपूर्ण आगमन माना जाता है। जब हम निश्चित रूप से जान जाते हैं कि इसमें कारण-कार्य का संबंध नहीं है तो इसके अनुमान का उचित कारण नहीं बताया जा सकता।

सरल परिगणनात्मक आगमन में हम सन्देह में घिरे रहते हैं क्योंकि हम विश्वास के आधार पर ही निष्कर्ष निकाल लेते हैं ज्ञान के आधार पर नहीं। सरल परिगणनात्मक आगमन का निष्कर्ष निश्चितता और अनिश्चितता के दोराहे पर स्थित रहता है। यदि इसमें पूर्णता आ जाए अर्थात् विश्वास ज्ञान में बदल जाए तो यह वैज्ञानिक आगमन बन जाएगा नहीं तो इसकी सामान्यता और यथार्थता समाप्त हो जाएगी। पुनश्चः, सरल परिगणनात्मक आगमन चूँकि वैज्ञानिक आगमन की तरह निश्चित और सत्य निष्कर्षों की स्थापना न कर केवल स्वीकारात्मक (assertory) निष्कर्षों की ही स्थापना करता है, इसलिए इसे वैज्ञानिक आगमन नहीं कहा जा सकता।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 3.
सरल परिगणनात्मक आगमन और वैज्ञानिक आगमन के बीच के भेद और समानता का वर्णन करें। सरल परिगणनात्मक आगमन का क्या महत्त्व (मूल्य) है?
उत्तर:
निम्नलिखित वर्णन के द्वारा सरल परिगणनात्मक आगमन और वैज्ञानिक आगमन के भेद को स्पष्ट किया जा सकता है –
वैज्ञानिक आगमन प्रकृति-समरूपता नियम तथा कारण-कार्य नियम पर आधारित होता है, परन्तु सरल परिगणनात्मक आगमन केवल प्रकृति-समरूपता नियम पर आधारित होता है, उसमें कारण-कार्य नियम लागू नहीं होता। जब हम वैज्ञानिक आगमन में यह निष्कर्ष स्थापित करते हैं कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ तो इस सामान्य वाक्य में ‘मनुष्य’ और ‘मरणशीलता’ में कारण-कार्य संबंध होने का ज्ञान रहता है। लेकिन जब हम परिगणनात्मक आगमन में यह निष्कर्ष निकालते हैं कि ‘सभी हंस उजले होते हैं तो इस सामान्य वाक्य में ‘हंस’ और ‘उजलेपन’ में कारण-कार्य का संबंध है या नहीं, इसका हमें निश्चित ज्ञान नहीं रहता। वैज्ञानिक आगमन में सामान्य वाक्यों की स्थापना कारण-कार्य के ज्ञान के आधार पर होती है, परन्तु सरल परिगणनात्मक आगमन के सामान्य वाक्यों में इस ज्ञान को आधार नहीं बनाया जाता।

जब हम कहते हैं कि ‘सभी काग काले होते हैं तो इस सरल परिगणनात्मक आगमन में हमें यह पता नहीं रहता कि ‘काग’ कालेपन का कारण है या नहीं। ‘काग’ और ‘कालेपन’ के बीच में कारण-कार्य संबंध होने की निश्चितता नहीं रहती। यदि हमें इस बात की जानकारी हो जाए कि सरल गणनात्मक आगमन के सामान्य वाक्य में कारण-कार्य का संबंध है तो यह वैज्ञानिक आगमन कहलाएगा। सरल गणनात्मक आगमन के सामान्य वाक्य का सामान्यीकरण प्रकृति-समरूपता नियम की जानकारी के आधार पर होता है, परन्तु वैज्ञानिक आगमन में सामान्यीकरण कारण-कार्य नियम के आधार पर होता है। वैज्ञानिक आगमन के सामान्य वाक्यों पर प्रकृति-समरूपता नियम और कारण-कार्य नियम दोनों ही लागू होते हैं, परन्तु सरल परिगणनात्मक आगमन के सामान्य वाक्यों पर केवल प्रकृति-समरूपता नियम ही लागू होता है।

सरल गणनात्मक आगमन जब पूर्णता प्राप्त करता है तब वैज्ञानिक आगमन बन जाता है। इसीलिए इसे वैज्ञानिक आगमन का आरम्भ बिन्दु कहा गया है। कारण-कार्य संबंध पर आधारित न होने के कारण सरल गणनात्मक आगमन का निष्कर्ष संभाव्य होता है, परन्तु कारण-कार्य संबंध पर आधारित रहने के कारण वैज्ञानिक आगमन का निष्कर्ष निश्चित होता है। वैज्ञानिक आगमन का निष्कर्ष सदा सत्य होता है, परन्तु सरल परिगणनात्मक आगमन के निष्कर्ष के सत्य होने की सम्भावना रहती है, क्योंकि निरीक्षण का क्षेत्र जितना ही अधिक विस्तृत होता है, निष्कर्ष के सत्य होने की सम्भावना उतनी ही बढ़ जाती है। सरल परिगणनात्मक आगमन और वैज्ञानिक आगमन के बीच उपर्युक्त भेद तो हैं ही, इसके अतिरिक्त इनके बीच कुछ समानताएँ भी हैं जो निम्नलिखित हैं –

1. सरल परिणगनात्मक आगमन और वैज्ञानिक आगमन दोनों में ही सामान्य यथार्थ वाक्य (general proposition) की स्थापना की जाती है। जैसे-‘सभी काग काले होते हैं’ और ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ – दोनों ही सामान्य यथार्थ वाक्य हैं।

2. दोनों वास्तविक घटनाओं के निरीक्षण पर आधारित होते हैं। जैसे अब तक जितने भी काग दिखाई पड़े हैं, सभी काले ही दिखाई पड़े हैं इसलिए ‘सभी काग काले होते हैं’ वास्तविक घटना के निरीक्षण के आधार पर स्थापित हुआ है। आजतक जितने भी मनुष्य हुए हैं सभी मृत्यु को प्राप्त हुए हैं इसलिए ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ वास्तविक घटना पर आधारित सामान्य यथार्थ वाक्य है।

3. सरल परिगणनात्मक आगमन और वैज्ञानिक आगमन दोनों में ही ‘विशेष’ से ‘सामान्य’ की ओर अथवा ‘कुछ’ से ‘सव’ की ओर आगमनात्मक छलांग (Inductive leap) लगाई जाती है। जैसे-कुछ ही कागों को काला देखकर निष्कर्ष दे दिया जाता है कि ‘सभी काग काले होते हैं’ तथा कुछ ही मनुष्यों को मरते देखकर सामान्य निष्कर्ष निकाल लिया जाता है कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ – दोनों में आगमनात्मक छलांग द्वारा निष्कर्ष निकाला जाता है।

4. सरल परिगणनात्मक आगमन और वैज्ञानिक आगमन दोनों में प्रकृति-समरूपता नियम लागू होता है। प्रकृति-समरूपता नियम लागू होने के कारण ही भविष्य में सभी कागों के काला होने तथा सभी मनुष्यों के मरणशील होने की सत्यता पर विश्वास कर लिया जाता है।

सरल परिगणनात्मक आगमन का महत्त्व (मूल्य) (Importance (value) of Induc tion per Simple Enumeration):
यद्यपि सरल परिगणनात्मक आगमन का निष्कर्ष सदा सत्य नहीं होता (अर्थात् भविष्य में निष्कर्ष के सत्य होने की केवल संभावना रहती है), तथापि आगमन तर्कशास्त्र में इसका बहुत ही महत्त्व है। व्यावहारिक जीवन में इसका प्रयोग बहुत आसानी से कर लिया जाता है और इसे सत्य मान लिया जाता है, यद्यपि तार्किक दृष्टिकोण से यह सत्य भी हो सकता है और नहीं भी। आगमन तर्कशास्त्र में कई उप-नियमों की स्थापना करने के लिए इसका सहारा लेना पड़ा है। तर्कशास्त्रियों ने सरल परिगणनात्मक आगमन को ‘वैज्ञानिक आगमन तक पहुँचने की आरोहण-शिला’ कहा है।

सरल परिगणनात्मक आगमन को कुछ विद्वानों ने स्वीकारात्मक निष्कर्ष (Assertory Conclusion) कहा है। किसी समूह के सभी उदाहरणों का निरीक्षण करना संभव नहीं है, इसलिए हम दैनिक जीवन में सरल परिगणनात्मक आगमन द्वारा कुछ ही उदाहरणों के निरीक्षण के आधार पर सामान्य निष्कर्ष निकाल लेते हैं। इस तरह निष्कर्ष निकालने में समय की बचत होती है। चूँकि सरल परिगणनात्मक आगमन व्यावहारिक जीवन में उपयोगी साबित होता है, इसलिए तर्कशास्त्रियों ने इसे व्यावहारिक आगमन (Popular Induc tion) भी कहा है। नवीन परिस्थितियों के संबंध में निष्कर्ष निकालने में सरल गणनात्मक आगमन का प्रयोग निष्कर्ष की सत्यता के लिए बहुत ही उपयुक्त होता है।

सरल परिगणनात्मक आगमन का महत्त्व इसलिए भी है कि यह वैज्ञानिक आगमन का आरम्भ बिन्दु है। जैसे ही इसका निष्कर्ष कारण-कार्य नियम पर आधारित हो जाता है वैसे ही इसका निष्कर्ष निश्चित हो जाता है और यह वैज्ञानिक आगमन का रूप ले लेता है। सरल परिगणनात्मक आगमन यद्यपि कारण-कार्य संबंध पर आधारित नहीं होता तथापि यह कारण-कार्य संबंध की ओर संकेत करता है। इसका मुख्य महत्त्व कारण-कार्य संबंध की तरफ संकेत करने में ही है। इस संबंध में Grumley (ग्रमली) का निम्नलिखित कथन उल्लेखनीय है –

“The chief value of the enumerative method lies in its power to suggest casual relation. The condition that two phenomenon (subject and predicate)
are always or very frequently connected seems sufficient ground for enter taining the hypothesis that they are casually related.” “इस गणनात्मक विधि का मुख्य महत्त्व कारण-कार्य संबंध को प्रस्तावित करने की सामर्थ्य में है। दो वस्तुओं (उद्देश्य और विधेय) के हमेशा अथवा प्रायः संबंधित रहने की स्थिति इस अनुमान को स्थापित करने के पर्याप्त आधार जान पड़ते हैं कि वे कारण-कार्य द्वारा संबंधित हैं।”

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 4.
सरल परिगणनात्मक आगमन का क्या तात्पर्य है? इसके मुख्य लक्षणों का वर्णन करें। अथवा, अवैज्ञानिक आगमन को परिभाषित करते हुए इसकी विशिष्टताओं की विवेचना करें।
उत्तर:
सरल परिगणनात्मक आगमन हमारे अव्याघातक अनुभव पर आधारित होता है। अव्याघातक अनुभव (uncontradicted experience) वह अनुभव है जिसमें यह निरीक्षण किया जाता है कि कुछ वस्तुएँ अथवा घटनाएँ ऐसी हैं जिनका विरोधी उदाहरण नहीं मिलता है। सरल परिगणनात्मक आगमन में प्रकृति-समरूपता नियम (The Law of the uniformity of Nature) के आधार पर व्यापक यथार्थ वाक्य की स्थापना की जाती है। सरल गणनात्मक आगमन को ‘मिल’ (Mill) ने इस प्रकार परिभाषित किया है –

“इसका संबंध उन सभी वाक्यों की व्यापक सच्चाइयों की प्रकृति का आरोपण करने में है जो उस प्रत्येक उदाहरण के लिए सत्य होती है, जिनके बारे में हम जान पाते हैं।” (“It consists in ascribing the character of general truths to all proposi tions which are true in every instance that we happen to know of”) बी. एन. राय के अनुसार-“सरल परिगणनात्मक आगमन वह है जिसमें विना कारण-कार्य संबंध की व्याख्या का प्रयास किए ही मात्र एक समान अथवा अव्याघातक अनुभव के आधार पर व्यापक यथार्थ वाक्य की स्थापना की जाती है।” (“Induction per simple Enumeration is the establishment of a general read proposition on the ground of mere uni form or uncontradicted experience without any attempt at explaining a casual connection”)

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सरल गणनात्मक आगमन में निरीक्षित घटनाओं को एक ही तरह का पाकर तथा उसका विरोधी कभी कुछ नहीं पाकर व्यापक यथार्थ वाक्य की स्थापना की जाती है। सरल गणनात्मक आगमन में विपरीत अथवा विरोध का अनुभव नहीं होता। जब हम हंस को देखते हैं तो उसे सफेद पाते हैं तथा इसके विपरीत अथवा विरोधी रंग का कोई हंस दिखाई नहीं पड़ता। इस प्रकार, हम आजतक निरीक्षित हंसों के आधार पर सामान्य निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि ‘सभी हंस उजले होते हैं। काग को बराबर काला देखकर तथा उसे इसके विरोधी रंग का कभी न देखकर ही सरल गणनात्मक आगमन में व्यापक यथार्थ वाक्य की स्थापना कर दी जाती है कि सभी काग काले होते हैं।

परन्तु, जब हम सरल गणनात्मक आगमन के निष्कर्ष की सत्यता को सत्यापित करना चाहते हैं तो यह प्रकृति-समरूपता नियम के आधार पर प्रमाणित हो जाता है लेकिन कारण-कार्य सिद्धान्त द्वारा प्रमाणित नहीं होता। प्रकृति-समरूपता नियम के अनुसार यह प्रमाणित होता है कि भूतकाल में सभी हंस सफेद तथा सभी काग काले रहे थे, वर्तमान में हैं तथा भविष्य में रहेंगे। लेकिन कारण-कार्य सिद्धान्त के अनुसार इस निष्कर्ष की त्रैकालिक सत्यता सत्यापित नहीं होती।

चूँकि सरल परिगणनात्मक आगमन के निष्कर्ष पर कारण-कार्य नियम लागू नहीं होता अर्थात् ‘उजलापन’ और ‘हंस’ अथवा ‘कालापन’ और ‘काग’ के बीच कारण-कार्य संबंध स्थापित नहीं होता, इसलिए यह निश्चित रूप से सत्य नहीं माना जा सकता कि भविष्य में सभी हंस उजले ही होंगे अथवा सभी काग काले ही रहेंगे या लाखों वर्ष पहले सभी हंस उजले ही होंगे अथवा सभी काग काले ही रहेंगे या लाखों वर्ष पहले सभी हंस उजले अथवा सभी काग काले ही थे। आगमनात्मक निष्कर्ष तभी त्रैकालिक सत्य माना जाता है, जब वह प्रकृति-समरूपता नियम तथा कारण-कार्य नियम लागू नहीं होने के कारण सरल परिगणनात्मक आगमन का निष्कर्ष भविष्य में सत्य रहेगा या नहीं इसके संबंध में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है अर्थात् कारण-कार्य नियम लागू नहीं होने के कारण सरल गणनात्मक आगमन का निष्कर्ष संभाव्य रह जाता है, निश्चित नहीं रहता।

वैज्ञानिक आगमन की तरह इसमें, निष्कर्ष की निश्चितत नहीं रहने के कारण ही इसे अवैज्ञानिक आगमन कहा गया है। इसे सरल परिगणनात्मक आगमन इसलिए कहा जाता है क्योंकि इसकी विधि उदाहरणों की गणना पर आधारित होती है। ऐसे आगमन के. निष्कर्ष की सत्यता उदाहरणों की संख्या पर निर्भर करती है। जैसे-जितनी ही अधिक संख्या में हंसों को सफेद या कागों को काला देखेंगे उतना ही अधिक उपर्युक्त निष्कर्षों की सम्भाव्यता बढ़ जाएगी। सरल परिगणनात्मक आगमन में अनुमान करने की निम्नलिखित विधि अपनायी जाती है –

अमुक सदा सत्य पाया गया है
इसका एक भी विरोधी उदाहरण नहीं मिला है
∴ अमुक सदा सत्य है
∴ [Such and such has always been found true,
No instance to the contrary has been met with
∴ Such and such is always true]

सरल परिगणनात्मक आगमन अथवा अवैज्ञानिक आगमन के मुख्य लक्षण (Chief characteristics of Induction per simple Enumeration or Unscientific Induction):

सरल परिगणनात्मक़ आगमन की उपर्युक्त विवेचना के आधार पर इसके निम्नलिखित लक्षण परिलक्षित होते हैं –

1. यह सामान्य वाक्य की स्थापना करता है (It establishes a general proposition):
वैज्ञानिक आगमन की तरह सरल परिगणनात्मक आगमन भी सामान्य वाक्य की स्थापना करता है। कुछ कागों को काला देखकर हम सामान्य वाक्य की स्थापना कर देते हैं कि ‘सभी काग काले होते हैं’। ‘सभी काग काले होते हैं’ एक सामान्य वाक्य (general proposition) इसलिए है, क्योंकि इसमें उद्देश्य पद को संपूर्ण वस्तुवाचकता में काला होने का अनुमान किया गया है। इसमें उद्देश्य पद ‘काग’ है और संपूर्ण वस्तुवाचकता सभी ‘काग’ हैं।

2. यह यथार्थ वाक्य की स्थापना करता है (Itestablishes a real proposition):
सरल परिगणनात्मक आगमन वैज्ञानिक आगमन की तरह की यथार्थ वाक्य की स्थापना करता है। ‘सभी काग काले होते हैं’ एक यथार्थ वाक्य भी है। यह यथार्थ वाक्य इसलिए है, क्योंकि इसमें विधेय ‘काला होना’ उद्देश्य पद ‘काग’ की गुणवाचकता को प्रकट नहीं करता। सरल परिगणनात्मक आगमन अव्याघाती अनुभव पर आधारित होता है, इसलिए इसमें जिस सामान्य वाक्य की स्थापना होती है वह यथार्थ या वास्तविक होता है। इस प्रकार यह वास्तविक वस्तुओं का निरीक्षण करता है, और यथार्थ वाक्य (real proposition) की स्थापना करता है। ‘सभी काग काले होते हैं’ एक यथार्थ वाक्य है, क्योंकि वास्तविक रूप से सभी काग काले होते हैं।

3. इसमें आगमनात्मक छलांग होती है (In it, there is an inductive leap):
वैज्ञानिक आगमन की तरह सरल गणनात्मक आगमन में भी ज्ञात से अज्ञात की ओर छलांग लगाई जाती है। जैसे-हमें कुछ कागों का काला होना ही ज्ञात होता है और इसी आधार पर हम अज्ञात की ओर छलांग लगाकर निष्कर्ष स्थापित कर देते हैं कि ‘सभी काग काले होते हैं।

4. यह उदाहरणों की गणना पर आधारित होता है। (It is based on the enumeration of instrances):
सरल परिगणनात्मक आगमन में वस्तुओं के गुणधर्म की जाँच नहीं की जाती बल्कि इसमें उदाहरणों की गणना की जाती है। निरीक्षित उदाहरणों की संख्या जितनी ही अधिक होगी सरल परिगणनात्मक आगमन का सामान्य यथार्थ वाक्य उतना ही सत्य के निकट होगा। हम जितनी ही अधिक संख्या में कागों को काला पाएँगे उतना ही निश्चिय के साथ कह सकेंगे कि सभी काग काले होते हैं।

5. यह प्रकृति-समरूपता सिद्धान्त पर आधारित है (It is based on the principles of the uniformity of Nature):
प्रकृति-समरूपता सिद्धान्त यह है कि ‘सामान्य स्थितियों में समान कारण समान कार्य उत्पन्न करता है’ (Under similar conditions the same cause produces the same effect’)। सरल परिगणनात्मक आगमन का निष्कर्ष प्रकृति-समरूपता सिद्धान्त पर आधारित होता है। इसमें हम ‘सभी काग काले होते हैं’ की सत्यता की जाँच प्रकृति-समरूपता सिद्धान्त के द्वारा करते हैं तो इसकी सत्यता प्रमाणित हो जाती है कि यदि आजतक काग काले पाये गये हैं तो भविष्य में भी काग काले ही पाये जाएँगे, क्योंकि प्रकृति-समरूपता सिद्धान्त के अनुसार प्रकृति का नियम सभी कालों में एक समान रहता है अर्थात् समान स्थितियों में समान कारण समान कार्य उत्पन्न करता है।

6. यह अव्याघातक अनुभव पर आधारित होता है (It is based on uncontra dicted experience):
आजतक जो बात सत्य होती आयी है तथा उसका कोई भी विरोधी उदाहरण नहीं मिला है, तो वह अव्याघातक अनुभव (uncontradicted experience) कहलाता है। सरल परिगणनात्मक अव्याघातक आगमन अनुभव पर आधारित होता है और इसी अनुभव के आधार पर सामान्य यथार्थ की स्थापना करता है। जैसे-सरल परिगणनात्मक निष्कर्ष (Induction per simple Enumerative conclustion) ‘सभी काग काले होते हैं।

इस अव्याघातक अथवा एक समान (Uniform experience) पर आधारित है कि आजतक जितने भी काग मिले हैं सभी काले रंग के पाए गए हैं और इसके विपरीत या व्याघाती रंग (उजला, पीला आदि) के नहीं पाये गये हैं। सरल परिगणनात्मक आगमन में एक ही तरह का अनुभव होने से अथवा इसके विरोधी अनुभव के अभाव के आधार पर सामान्यीकरण (generalisation) कर सामान्य यथार्थ वाक्य की स्थापना कर दी जाती है। बराबर सफेद हंस को पाकर तथा किसी दूसरे रंग के हंस को नहीं पाकर सामान्यीकरण कर दिया जाता है कि ‘सभी हंस उजले होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सरल परिगणनात्मक आगमन अव्याघातक अनुभव पर आधारित होता है।

7. यह कारण-कार्य से संबंध नहीं रखता (It does not ascribe in the Law of Causation):
सरल परिगणनात्मक आगमन कारण-कार्य संबंध पर आधारित नहीं होता। सरल परिगणनात्मक आगमन का निष्कर्ष यद्यपि सामान्य यथार्थ वाक्य होता है तथापि उसमें विधेय और उद्देश्य पद के बीच कारण-कार्य संबंध स्थापित नहीं होता। उदाहरण के लिए काग काले होते हैं, सामान्य वास्तविक वाक्य में ‘काग’ और ‘काला’ के वीच कारण-कार्य का संबंध नहीं है। सरल परिगणनात्मक आगमन के सामान्य यथार्थ (वास्तविक) वाक्य उदाहरणों की गणना और अव्याघातक अनुभव पर आधारित होते हैं। कारण-कार्य नियम पर सरल परिगणनात्मक आगमन के आधारित नहीं रहने के कारण हम ऐसा नहीं कह सकते कि भविष्य में सभी काग काले ही मिलेंगे।

8. यह संभाव्य निष्कर्ष की स्थापना करता है (It establishes probable conclustion):
सरल परिगणनात्मक आगमन संभाव्य निष्कर्ष की स्थापना करता है अर्थात् इसका निष्कर्ष अनिश्चित होता है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि सरल परिगणनात्मक आगमन के निष्कर्ष के सत्य होने की केवल संभावना भर रहती है। कारण-कार्य नियम पर आधारित नहीं रहने के कारण ही इसे अवैज्ञानिक आगमन कहा गया है। अवैज्ञानिक आगमन के निष्कर्ष ‘सभी हंस उजले होते हैं’ में भविष्य में सभी हंसों के उजले होने की केवल संभावना व्यक्त होती है निश्चितता नहीं।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 5.
वैज्ञानिक विधि (Scientific method) से आप क्या समझते हैं? वैज्ञानिक विधि की प्रकृति को स्पष्ट करें। अथवा, वैज्ञानिक पद्धति क्या है? वैज्ञानिक पद्धति के लक्ष्यों (aims) को स्पष्ट करें। अथवा, वैज्ञानिक पद्धति के क्या कार्य (functions) हैं?
उत्तर:
वैज्ञानिक पद्धति ही किसी विषय-वस्तु को विज्ञान के रूप में स्थापित करने का प्रमुख आधार है। यह पद्धति प्रत्येक विज्ञान में समान है। केवल तथ्य ही विज्ञान नहीं है बल्कि उन तथ्यों का व्यवस्थित संकलन, वर्गीकरण एवं विश्लेषण उन्हें विज्ञान की श्रेणी में रखता है। वस्तुतः वैज्ञानिक पद्धति विज्ञान की समस्त शाखाओं में एक होती है। चाहे वह प्राकृतिक विज्ञान हो अथवा सामाजिक विज्ञान। कार्ल पियर्सन (Karl Pearson) के अनुसार, The scientific method is one and the same in all branches.

वैज्ञानिक पद्धति एक व्यवस्थित प्रक्रिया है, जिसके अंतर्गत तथ्यों का संकलन, सत्यापन, वर्गीकरण एवं विश्लेषण किया जाता है। वैज्ञानिक पद्धति का उद्देश्य सामान्य नियमों की खोज या विवरण प्रस्तुत करना है, जिससे विषय-वस्तु को समझा जा सके। नियंत्रित रूप से पूर्वानुमान के लिए प्रयुक्त किया जा सके। स्पष्टतः वैज्ञानिक पद्धति द्वारा संकलित ज्ञान ही विज्ञान है। वैज्ञानिक पद्धति की प्रकृति या लक्ष्य (Nature or aims of Scientific methods) उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर हम वैज्ञानिक पद्धति के निम्नलिखित प्रकृति या उद्देश्य की चर्चा कर सकते हैं।

1. विवरण एवं समझ:
वैज्ञानिक पद्धति द्वारा किसी भी विषय-वस्तु की व्यापक जानकारी हेतु विवरण (description) एवं समझ (understanding) देने की कोशिश की जाती है। दूसरे शब्दों में विषय-वस्तु को समझने एवं वर्गीकृत करने का प्रयत्न किया जाता है। तथ्यों के संकलन के आधार पर घटनाओं के विभिन्न पक्षों को वर्णित करना, उनके स्वरूपों एवं विविधताओं को स्पष्ट करना प्रत्येक वैज्ञानिक पद्धति का मुख्य कार्य है। किसी भी विषय के विविध स्वरूपों को वर्गीकरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है।

2. व्याख्या यानि विश्लेषण (Explanation):
तथ्यों के आधार पर विषय-वस्तु के पारस्परिक सम्बन्धों की अर्थपूर्ण व्याख्या वैज्ञानिक पद्धति का दूसरा महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है। विज्ञान केवल अनेक तथ्यों का संकलन नहीं है बल्कि उन तथ्यों के अर्थपूर्ण सम्बन्धों की खोज भी है, जिससे सामान्य नियमों एवं तथ्यों की खोज की जा सके। वैज्ञानिक पद्धति चरों (variables) के पारस्परिक संबंधों को अर्थपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है।

3. भविष्यवाणी एवं नियंत्रण:
वैज्ञानिक पद्धति की महत्त्वपूर्ण प्रकृति भविष्यवाणी एवं नियंत्रण (prediction and control) भी होती है। जब हम विषय-वस्तु की प्रकृति, स्वरूप एवं विविधताओं को समझकर, स्पष्टकर साथ ही उनके अर्थपूर्ण विश्लेषण एवं सिद्धान्तों के विकास के आधार पर अपनी विषय-वस्तु के बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हैं तो उनके सम्बन्ध में भविष्यवाणी कर सकते हैं।

भविष्यवाणी की क्षमता का संबंध वैज्ञानिक ज्ञान के व्यावहारिक उपयोग से है। विषय-वस्तु से संबंधित विश्लेषण एवं भविष्यवाणी के आधार पर घटनाक्रम पर नियंत्रण भी कर सकते हैं। इसका प्रयोग हम इच्छित उद्देश्य (desired aim) मानव कल्याण की दृष्टि से भी कर सकते हैं। संक्षेप में हम कह सकते कि वैज्ञानिक पद्धति का उद्देश्य घटनाओं की समझ एवं वर्णन, व्याख्या, भविष्यवाणी एवं नियंत्रण है। कहने का अभिप्राय विषय-वस्तु को समझना, संबद्ध सिद्धान्तों का निरूपण, भविष्यवाणी तथा नियंत्रण वैज्ञानिक पद्धति का अंतिम लक्ष्य है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 6.
अध्ययन पद्धति की दृष्टि से प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) एवं समाज विज्ञान (Social Science) में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
प्राकृतिक विज्ञान (Natural Science) एवं सामाजिक विज्ञान (Social Science) के बीच अन्तर का मुख्य आधार यह है कि प्राकृतिक घटनाएँ एवं सामाजिक घटनाएँ एक जैसी नहीं हैं। प्राकृतिक यानि भौतिक विषय-वस्तु का अध्ययन काफी विशिष्टता से किया जाता है। इस वजह से जब भी हम विज्ञान की बात करते हैं तो लोगों का ध्यान भौतिक, रसायन आदि प्राकृतिक विज्ञानों की ओर चला जाता है। यहीं यह सवाल उठता है कि समाज विज्ञान जिसे हम व्यवहार विज्ञान (Behavioural Science) भी कह सकते हैं, का प्राकृतिक विज्ञानों की तरह अध्ययन संभव है कि नहीं। समाज विज्ञान की प्रकृति की भिन्नता के आधार वैज्ञानिक पद्धति के प्रयोग के संबंध में काफी आपत्तियाँ उठाई जाती हैं।

पश्चिमी दार्शनिक डिल्थे (Dilthey) के सामने भी यह प्रश्न था कि सामाजिक घटनाओं का अध्ययन प्राकृतिक विज्ञान की पद्धति से नहीं किया जा सकता है। क्योंकि दोनों की विषय-वस्तु की प्रकृति एवं दृष्टिकोण भिन्न हैं। प्राकृतिक विज्ञान तथ्यों का अध्ययन करते हैं जबकि सामाजिक विज्ञान का संबंध अर्थपूर्ण व्यवहार से है, जिसकी समझकर ही व्याख्या की जा सकती है। डिल्थे के समकालीन रिकर्ट (Rickert) के विचार उनसे भिन्न थे। उनके अनुसार घटना या विषय-वस्तु अलग हो सकते हैं लेकिन उनकी अध्ययन-पद्धति में समानता संभव है। उनकी दृष्टि में प्राकृतिक घटनाओं की तरह सामाजिक घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन संभव है।

प्राकृतिक विज्ञान एवं समाज विज्ञान में अंतर हम निम्नलिखित ढंग से कर सकते हैं –

1. प्राकृतिक विज्ञान की विषय:
वस्तु मूर्त (concrete) एवं वस्तुनिष्ट होती है। जबकि समाज विज्ञान की प्रकृति अमूर्त (Abstract) एवं जटिल होती है। समाजविज्ञान की अमूर्तता एवं व्यक्तिनिष्ठता के कारण सामाजिक घटना का प्रत्यक्ष अवलोकन एवं निश्चित माप थोड़ा कठिन कार्य है।

2. प्राकृतिक विज्ञान की विषय:
वस्तु की जटिलता एवं परिवर्तनशीलता, समाजविज्ञान की तुलना में कम है। लेकिन गहराई से देखें तो किसी भी विषय की जटिलता सापेक्ष होती है, जैसे-जैसे उनका अध्ययन किया जाता है, वे सरल होती जाती हैं। भौतिक विज्ञान में भी तो ऐसे विषय हैं जो जटिल हैं। उदाहरण के लिए अणुकेन्द्र के चारों ओर घूमने वाले परमाणु की गति के बारे में वैज्ञानिक अभी तक निश्चित अनुक्रम ढूँढ नहीं पाए हैं।

3. वैज्ञानिक शुद्धता के लिए आवश्यक है कि विषय:
वस्तु की गणना एवं माप की जाए। भौतिक विज्ञान की वस्तुएँ गणनात्मक (Quantitative) रूप से विश्लेषित की जा सकती हैं, जबकि सामाजिक विज्ञान की प्रकृति गुणात्मक है। उसके गुणात्मक अध्ययन में परेशानी होती है।

4. प्राकृतिक विज्ञान में कार्य:
कारण सम्बन्ध को प्रदर्शित यानि खोजने हेतु प्रयोगशाला है जहाँ नियंत्रित अवस्था में अध्ययन किया जा सकता है। दूसरी ओर, समाज विज्ञान में मानव-व्यवहार के साथ प्रयोग करना कई सांस्कृतिक एवं नैतिक समस्या उत्पन्न कर सकता है।

5. प्राकृतिक विज्ञान में पूर्वानुमान (Prediction) की पूरी क्षमता होती है, दूसरी ओर, समाज विज्ञान में भौतिक विज्ञान की अपेक्षा मानव व्यवहार के संबंध में पूर्वानुमान लगाना अधिक कठिन होता है। इसका मुख्य कारण यह है कि सामाजिक घटनाओं की जटिलता, परिवर्तनशीलता, अमूर्तता आदि गुणों के कारण उनके संबंध में यथार्थ पूर्वानुमान कठिन है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 7.
आगमन क्या है? वैज्ञानिक आगमन की परिभाषा दें तथा इसकी मुख्य विशेषताओं (लक्षणों) का वर्णन करें।
उत्तर:
आगमन सामान्य वाक्यों की स्थापना करता है। एक ओर जहाँ निगमन अपने सर्वव्यापी आधार वाक्य की वास्तविक सत्यता की कल्पना करता है, वहीं दूसरी ओर आगमन उसकी वास्तविक सत्यता को प्रमाणित करता है। सामान्य वाक्यों (general proposition) की वास्तविक सत्यता (Material Truth) को प्रमाणित करने के लिए आगमन विशेष उदाहरणों को खोजता है। कुछ निरीक्षित घटनाओं के अनुभव के आधार पर जिस सर्वव्यापी अथवा पूर्णव्यापी वाक्य (Universal Proposition) की स्थापना की जाती है, उसे सामान्यीकरण (generalisation) कहते हैं। सामान्यीकरण द्वारा स्थापित पूर्णव्यापी वाक्य सामान्य अथवा व्यापक यथार्थ वाक्य (general proposition) होता है।

आगमन में हम अंशव्यापी वाक्य से पूर्णव्यापी वाक्य (Universal Proposition) की ओर बढ़ते हैं। इसमें हम कुछ उदाहरणों का निरीक्षण कर सबों के बारे में निष्कर्ष निकालते हैं। ज्वाइस ने आगमन को परिभाषित करते हुए कहा है, “Induction is the legitimate derivation of universal laws from individual cases.” (कुछ विशेष उदाहरणों के आधार पर पूर्णव्यापी नियम का यथार्थ अनुमान ही आगमन है।) फाउलर ने आगमन की परिभाषा इस प्रकार दी “Induction is the legitimate inference of the general from the particular or of the more general from the less general.” (विशेष के आधार पर सामान्य अथवा कम व्यापक के आधार पर अधिक व्यापक का यथार्थ अनुमान ही आगमन है)

श्याम, गोपाल, राम आदि मनुष्यों को मरते देखकर हम आगमन में यह निष्कर्ष निकालते हैं कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’। यह एक पूर्णव्यापी वाक्य है और वास्तविक भी। सामान्य अथवा व्यापक वाक्य (general proposition) की वास्तविकता आगमनात्मक अनुमान द्वारा प्रमाणित की जाती है। आगमन का मुख्य लक्ष्य है आगमनात्मक अनुमान (Inductive Inference) द्वारा वास्तविक सामान्य वाक्य (Real general proposition) की स्थापना करना। ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ एक वास्तविक सामान्य वाक्य है, जो पूर्णव्यापी (Universal) है। आगमन प्रकृति-समरूपता नियम तथा कारण-कार्य नियम के सहारे पूर्णव्यापी वाक्यों की सत्यता को प्रमाणित करता है और उसका निष्कर्ष (Conclusion) वास्तविक पूर्णव्यापी अथवा सामान्य वाक्य (real general proposition) होता है।

वैज्ञानिक आगमन (Scientific Induction):
सामान्य (व्यापक) वाक्यों की स्थापना के कई तरीके हैं जिनमें एक ही तरीका ऐसा है जो वैज्ञानिक (Scientific) है, जिसे वैज्ञानिक आगमन (Scientific induction) कहा जाता है। मिल ने वैज्ञानिक आगमन को परिभाषित करते हुए कहा है – “Scientific Induction is the establishment of a general real proposition, based on the observation of particular instances, in reliance on the Law of Uniformity of Nature and the law of Causation.” (प्रकृति-समरूपता नियम तथा कारण-कार्य के नियमानुसार विशेष उदाहरणों के निरीक्षण पर आधारित सामान्य वाक्य की स्थापना ही आगमन है।) वैज्ञानिक आगमन का उदाहरण है –

श्याम मर गया
करीम मर गया
जौन मर गया
∴ सभी मनुष्य मरणशील हैं

उपर्युक्त उदाहरण में श्याम, करीम, जौन को मरते हुए देखकर सभी मनुष्यों के मरणशील होने का जो अनुमान किया गया है वह वैज्ञानिक आगमनात्मक अनुमान है। इसमें हम कुछ मनुष्यों को मरते देखकर एक सामान्य निष्कर्ष निकालते हैं कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’। यह एक सामान्य अथवा व्यापक वाक्य (general proposition) है। यह वाक्य केवल श्याम, करीम और जौन के लिए ही सत्य नहीं है बल्कि संसार के सभी मनुष्यों के लिए सत्य है।

सभी मनुष्यों की मरणशीलता का ज्ञान प्रत्यक्ष से संभव नहीं है क्योंकि सभी मनुष्यों को मरते हुए देखा नहीं जा सकता। आगमनात्मक अनुमान में प्रत्यक्ष के आधार पर अप्रत्यक्ष का ज्ञान प्राप्त किया जाता हैं आगमनात्मक अनुमान का निष्कर्ष आधार से अधिक व्यापक होता है। ‘श्याम मर गया’ (आधार वाक्य) से अधिक व्यापक है ‘सभी मनुष्य मरणशील है’ जो निष्कर्ष वाक्य है। ‘सभी मनुष्य मरणशील है’ निष्कर्ष वाक्य एक सामान्य वाक्य है जो वर्तमान, भूत और भविष्यत् सभी कालों के लिए सत्य है। ‘कुछ’ के आधार पर ‘सभी’ के संबंध में सामान्य अथवा व्यापक वाक्य (general proposition) की स्थापना करने की क्रिया ही आगमन कहलाती है।

परन्तु आगमनात्मक अनुमान में ज्ञात के आधार पर अज्ञात की ओर अथवा विशेष के आधार पर सामान्य की ओर छलांग लगाने में गलती की संभावना रहती है, जिसे आगमनात्मक खतरा (inductive Risk) कहा जाता है। हम कुछ ही घटनाओं के आधार पर किस प्रकार सबों के संबंध में निष्कर्ष निकाल सकते हैं? प्रत्यक्ष के आधार अप्रत्यक्ष के संबंध में निष्कर्ष निकालने में गलती हो सकती है। ज्ञात के आधार पर अज्ञात के संबंध में निष्कर्ष निकालने के लिए आगमन के ठोस वैज्ञानिक आधार हैं। ये हैं-प्रकृति-समरूपता नियम (Law of the Uniformity of Nature) तथा कारण-कार्य नियम (Law of Causation)।

इन दोनों नियमों के आधार पर जिस सामान्य वाक्य की स्थापना की जाती है वह सभी स्थान और काल के लिए सत्य होता है। यथार्थ उदाहरणों के निरीक्षण के आधार पर सामान्य वाक्य की स्थापना होती है, इसलिए सामान्य वाक्यों में वास्तविक सत्यता भी होती है। इसलिए इन नियमों पर आधारित सामान्य अथवा व्यापक वाक्य यथार्थ सामान्य वाक्य अथवा वास्तविक व्यापक वाक्य (real general proposition) कहलाते हैं। वैज्ञानिक आगमन में जो बात विशेष उदाहरण के लिए सत्य होती है वह उस तरह के सभी उदाहरणों के लिए सत्य होती है। आगमनात्मक अनुमान के अनुसार यदि ‘मरणशीलता’ कुछ मनुष्यों के लिए सत्य है तो यह मनुष्य जाति के सभी व्यक्तियों के लिए सत्य होगी।

वैज्ञानिक आगमन की विशेषताएँ (Characteristics of Scientific Induction):
वैज्ञानिक आगमन के संबंध में मिल (Mill) ने जो परिभाषा दी है उसके आधार पर इसकी निम्नलिखित विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं –

1. वैज्ञानिक आगमन किसी वाक्य की स्थापना करता है (Scientific Induction establishes a proposition):
आगमनात्मक निष्कर्ष कोई वाक्य होता है। दो प्रत्ययों (ideas) का योग कोई वाक्य होता है। जैसे-‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ में ‘मनुष्य’ और ‘मरणशीलता’ दो प्रत्यय हैं, जिसमें ‘मनुष्य’ उद्देश्य के स्थान पर है तथा ‘मरणशीलता’ विधेय के स्थान पर। इन दोनों प्रत्ययों के बीच आगमनात्मक अनुमान द्वारा संबंध स्थापित करने पर एक वाक्य की स्थापना होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमन सर्वप्रथम किसी वाक्य की स्थापना करता है।

2. वैज्ञानिक आगमन सामान्य वाक्य की स्थापना करता है (Scientific Induction establishes a general proposition):
वाक्य दो प्रकार के होते हैं अंशव्यापी (Particu lar) तथा पूर्णव्यापी (Universal)। जैसे-‘कुछ मनुष्य मरणशील हैं’ एक अंशव्यापी वाक्य है, क्योंकि इसमें ‘मरणशील’ कुछ ही व्यक्तियों को कहा गया है। इस वाक्य में विधेय सम्पूर्ण उद्देश्य के संबंध में ज्ञान नहीं देता है। ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं।’ एक पूर्णव्यापी वाक्य है, क्योंकि इस वाक्य में विधेय सम्पूर्ण उद्देश्य के संबंध में ज्ञान देता है। इस वाक्य में ‘मरणशील’ सभी व्यक्तियों को कहा गया है। पूर्णव्यापी वाक्य का ज्ञान अनुभव द्वारा नहीं होता, क्योंकि हम कुछ ही व्यक्तियों को मरते हुए (अनुभव द्वारा) देख सकते हैं सबों को नहीं।

‘सबों’ के संबंध का ज्ञान आगमनात्मक अनुमान द्वारा होता है जिसका निष्कर्ष सर्वव्यापी अथवा पूर्णव्यापी वाक्य होता है। जैसे – ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ एक पूर्णव्यापी वाक्य है और यही आगमन का निष्कर्ष है। आगमन का निष्कर्ष सामान्य वाक्य अथवा व्यापक वाक्य (general proposition) कहलाता है। अतः यह स्पष्ट होता है कि आगमन का संबंध अंशव्यापी वाक्यों से न होकर पूर्णव्यापी वाक्यों से होता है। इस तरह आगमन सामान्य अथवा व्यापक वाक्य की स्थापना करता है। सामान्य वाक्य की पूर्णव्यापी वाक्य अथवा व्यापक वाक्य कहलाता है।

3. वैज्ञानिक आगमन वास्तविक वाक्य की स्थापना करता है (Scientific Induc tion establishes a real proposition):
सामान्य वाक्य अथवा व्यापक वाक्य दो प्रकार के होते हैं-शाब्दिक वाक्य (Verbal proposition) तथा वास्तविक वाक्य (real proposition)। शाब्दिक वाक्य उसे कहा जाता है जिसमें विधेय अपने उद्देश्य के संबंध में कोई नई जानकारी नहीं देता।

शाब्दिक वाक्य में विधेय (predicate) अपने उद्देश्य पद (Subject) की केवल गुणवाचकता को व्यक्त करता है। जैसे – ‘सभी मनुष्य विवेकशील हैं’ एक शाब्दिक वाक्य (Verbal proposition) है, क्योंकि इसमें विधेय अपने उद्देश्य पद के संबंध में कोई नया ज्ञान नहीं देता बल्कि उसकी गुणवाचकता (Connotation) को प्रकट करता है (विवेकशीलता मनुष्य ही गुणवाचकता होती है)। वैज्ञानिक आगमन इस तरह के वाक्यों की स्थापना नहीं करता। वैज्ञानिक आगमन शाब्दिक वाक्यों की स्थापना न कर वास्तविक वाक्यों (real proposition) की स्थापना करता है।

वास्तविक वाक्य (Real proposition) उसे कहते हैं, जिसमें विधेय (predicate) अपने उद्देश्य (Subject) के संबंध में नई जानकारी देता है। जैसे-‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ एक वास्तविक या यथार्थ वाक्य (real proposition) हैं, क्योंकि ‘मरणशीलता’ ‘सभी मनुष्यों’ के संबंध में एक नवीन ज्ञान है। ‘मरणशीलता’ ‘मनुष्य’ पद की गुणवाचकता नहीं है, मनुष्य पद की गुणवाचकता तो ‘विवेकशीलता’ और पशुता’ है। वास्तविक वाक्य (real proposition) में विधेय अपने उद्देश्य पद की गुणवाचकता को प्रकट न कर उसके संबंध में कोई नया ज्ञान देता है। उपर्युक्त वाक्य में ‘मरणशीलता’ उद्देश्य पद (सभी मनुष्यों) के संबंध में एक नया ज्ञान है। इस तरह वैज्ञानिक आगमन वास्तविक अथवा यथार्थ वाक्य की स्थापना करता है।

4. वैज्ञानिक आगमन विशेष उदाहरणों का निरीक्षण करता है (Scientific Induc tion observes particular instances):
आगमन सामान्य और वास्तविक वाक्य की स्थापना विशेष उदाहरणों के निरीक्षण के आधार पर करता है। किसी सम्पूर्ण जाति या वर्ग के प्रत्येक उदाहरण का निरीक्षण करना संभव नहीं है। इसलिए आगमन कुछ ही या विशेष उदाहरणों का निरीक्षण करता है जिनके आधार पर सामान्य वास्तविक वाक्य अथवा व्यापक यथार्थ वाक्य (general real proposition) की स्थापना होती है।

5. वैज्ञानिक आगमन में आगमनात्मक छलांग होती है (In Induction there is an Inductive leap):
वैज्ञानिक आगमन में ज्ञात से अज्ञात की ओर छलांग लगाई जाती है, जिसे आगमनात्मक छलांग कहा जाता है। आगमन में किसी जाति या वर्ग के सभी उदाहरणों का निरीक्षण नहीं होता है, फिर भी उस जाति के अनिरीक्षित उदाहरणों के लिए सत्य मान ली जाती है। कुछ ही मनुष्यों को मरते देखना निरीक्षित उदाहरण होते हैं, सभी मनुष्यों को मरते नहीं देखना अनिरीक्षित उदाहरण हैं – हम निरीक्षित उदाहरणों के आधार पर ही अनिरीक्षित उदाहरणों को आगमनात्मक अनुमान में सत्य मान लेते हैं अर्थात् ज्ञात से अज्ञात की ओर छलांग लेते हैं अथवा कुछ के आधार पर सब की ओर छलांग लगाते हैं।

‘सभी मनुष्य मरणशील है’ एक व्यापक वाक्य है, परन्तु यह मनुष्य जाति के सभी उदाहरणों के निरीक्षण पर आधारित नहीं है। इस तरह कुछ ही मनुष्यों को मरते देखकर सभी मनुष्यों की मरणशीलता का व्यापक अथवा सामान्य निष्कर्ष निकालने (ज्ञात से अज्ञात) की ओर छलांग लगाने में गलती होने की संभावना रहती है, जिसे आगमनात्मक जोखिम (Inductive Hazard) कहा जाता है। परन्तु, आगमनात्मक जोखिम को मिल (Mill) ने ‘आगमन का प्राण’ (Essence of Induction) कहा है, क्योंकि इसी के आधार पर अंततः व्यापक वास्तविक वाक्यों की स्थापना होती है।

6. वैज्ञानिक आगमन कारण:
कार्य नियम तथा प्रकृति-समरूपता सिद्धांत पर आधारित होता है (Scientific Induction is based on the Law of Causation and the Principle of the Uniformity of Nature):
विशेष उदाहरणों के आधार पर किसी सामान्य वाक्य की स्थापना करने के लिए आगमन कारण-कार्य नियम तथा प्रकृति-समरूपता नियम को सत्य मानता है। कारण-कार्य नियम के अनुसार प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। जैसे – ‘मनुष्यता’ और ‘मरणशीलता’ में कारण-कार्य का संबंध है और ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ सामान्य वाक्य (general proposition) के रूप में इसी नियम के बल पर प्रतिस्थापित होता है।

आगमन प्रकृति-समरूपता नियम पर भी आधारित होता है। इस सिद्धान्त के अनुसार समान परिस्थितियों में समान कारण समान कार्य उत्पन्न करता है। जब हम यह देखते हैं कि ‘मनुष्यता’ और ‘मरणशीलता’ में कारण-कार्य का संबंध है तब हम यह मान लेते हैं कि कारण-कार्य का यह संबंध समान परिस्थितियों में सभी घटनाओं के लिए सत्य होगा। “सभी मनुष्य मरणशील हैं’, सामान्य वाक्य में मनुष्य होना ही मरणशीलता का कारण है। प्रकृति-समरूपता नियम के अनुसार जो कारण आज तक जो कार्य उत्पन्न करता रहा है, उसे वह भविष्य में भी उत्पन्न करेगा। इस नियम के आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि आज तक मनुष्य मरणशील रहा है तो वह भविष्य में भी मरणशील रहेगा। इन दोनों नियमों के आधार पर प्रत्यक्ष के द्वारा अप्रत्यक्ष के संबंध में सामान्य निष्कर्ष निकालने में कोई आगमनात्मक जोखिम (inductive hazard) नहीं होता है।

7. वैज्ञानिक आगमन नए तथ्यों की स्थापना करता है (Scientific Induction establishes new facts):
वैज्ञानिक आगमन में ज्ञात के आधार पर अज्ञात का अथवा कुछ के आधार पर सब का जो ज्ञान प्राप्त किया जाता है वे नए तथ्य होते हैं। तर्कशास्त्रीय दृष्टिकोण से ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ एक सामान्य वाक्य है जिसमें ‘मरणशीलता’ मनुष्य पद की गुणवाचकता (connotation) नहीं है और जब विधेय उद्देश्य पद की गुणवाचकता को प्रकट नहीं करता तो वह उसके संबंध में किसी नए तथ्य की जानकारी देता है ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ सामान्य वाक्य है जिसमें ‘मरणशीलता’ मनुष्य पद की गुणवाचकता connotation नहीं है और जब विधेय उद्देश्य पद की गुणवाचकता को प्रकट नहीं करता तो वह उसके संबंध में किसी नए तथ्य की जानकारी देता है ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ सामान्य वाक्य है जो आगमनात्मक अनुमान द्वारा स्थापित किया गया है और इसमें ‘मरणशीलता’ मनुष्य के संबंध में एक नया तथ्य है। इस तरह देखा जाता है कि वैज्ञानिक आगमन अपने सामान्य वास्तविक वाक्य के द्वारा नए तथ्यों की स्थापना करता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 8.
आगमन का परिचय दें तथा इसके प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
परिचय (Introduction):
आगमन वह अनुमान है जिसमें हम कुछ (some) के आधार पर सब (all) के संबंध में अर्थात् विशेष (Particular) के आधार पर सामान्य (universal) संबंध में ज्ञान प्राप्ति करते हैं। आगमन पूर्णव्यापी वाक्य की वास्तविक सत्यता (material truth) की स्थापना करता है। हम जानते हैं कि पूर्णव्यापी वाक्य हमारे अनुभव पर आधारित होते हैं और हमें अनुभव विशेष घटनाओं का ही होता है सबों का नहीं। न्यूटन ने कुछ . ही फलों को वृक्ष से धरती की ओर गिरते देखा था। हम कुछ ही व्यक्तियों को मरते हुए देख सकते हैं, एक ही साथ सबों को नहीं। इस तरह निगमन में एक ही विशेष घटना के निरीक्षण के आधार पर पूर्णव्यापी वाक्य (universal proposition) की स्थापना कर दी जाती है। उदाहरण के लिए,

रमेश मरणशील है।
सुरेश मरणशील है।
महेश मरणशील है।
∴ सभी मनुष्य मरणशील हैं।

उपर्युक्त उदाहरण में ‘कुछ’ मनुष्यों को मरते देख कर ‘सभी’ मनुष्यों की मरणशीलता के संबंध में अनुमान किया गया है अर्थात् विशेष (Particular) के आधार पर सामान्य (universal) का अनुमान किया गया है। इस तरह के अनुमान को आगमन का अनुमान कहा जाता है। आगमनात्मक अनुमान द्वारा वास्तविक सत्यता की स्थापना होती है। इसमें आकारिक और वास्तविक सत्यता दोनों होती है। निगमनात्मक अनुमान में केवल आकारिक सत्यता होती है तथा इसमें व्यापक वाक्य के आधार पर निष्कर्ष निकालने की विधि बतायी जाती है। परन्तु, आगमनात्मक अनुमान का आकार तथा विषयवस्तु दोनों ही शुद्ध होते हैं। आगमन में ‘विषय’ के दृष्टिकोण से शुद्ध निष्कर्ष निकालने की विधि बतायी जाती है। आगमनात्मक अनुमान वास्तविक सत्यता से संबद्ध होता है और वास्तविक सत्यता विचार की दुनिया तथा वास्तविक जगत् दोनों में सत्य होती है।

उदाहरण के लिए, ‘सोने की अंगूठी’ विचार जगत तथा वास्तविक जगत दोनों में सत्य है। परन्तु ‘सोने का पहाड़’ विचार जगत में सत्य हो सकता है लेकिन वास्तविक जगत में नहीं। इस प्रकार ‘सोने का पहाड़’ निगमनात्मक अनुमान है क्योंकि इसमें – आकारिक सत्यता वास्तविक सत्यता नहीं। परन्तु, ‘सोने की अंगूठी’ ‘पत्थर का पहाड़’ आदि आगमनात्मक अनुमान है, क्योंकि इसमें आकारिक और वास्तविक सत्यता दोनों है। निगमनात्मक अनुमान में विचार और वास्तविक में अनुकूलता नहीं रहती, परन्तु आगमनात्मक अनुमान में विचार और वास्तविकता में अनुकूलता रहती है।

‘दुनिया की सभी वस्तुएँ नाशवान हैं’ – इस परम व्यापक वाक्य को निगमनात्मक अनुमान द्वारा प्रमाणित नहीं किया जा सकता अर्थात् वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना निगमन विधि से नहीं हो सकती; आगमन विधि द्वारा ही पूर्णव्यापी वाक्य की वास्तविक सत्यता की स्थापना हो सकती है। व्यावहारिक जीवन में हम ऐसा अनुमान करना चाहते हैं जो आकार और विषय दोनों दृष्टिकोण से सही हो। अनुमान के द्वारा सत्यता की प्राप्ति तब होती है जब अनुमान करने का तरीका और अनुमान का विषय वास्तविक होता है। जैसे –

सभी मनुष्य मरणशील हैं।
मोहन मनुष्य है।
∴ मोहन मरणशील है।

उपर्युक्त उदाहरण में अनुमान के दोनों आधार वाक्य (premises) वास्तविक हैं, इसलिए निष्कर्ष ‘मोहन मरणशील है’ भी सत्य है। अनुमान के निष्कर्ष को सत्य होने के लिए यह आवश्यक है कि उसके आधार वाक्य भी वास्तविक हों। उपर्युक्त उदाहरण न्याय (syllogism) का उदाहरणं है। इसके दोनों आधार वाक्य (‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ ‘मोहन मनुष्य है’) वास्तविक हैं, इसलिए निष्कर्ष भी वास्तविक है। न्याय के आधार वाक्यों में से कम-से-कम एक आधार वाक्य अवश्य ही व्यापक होता है।

व्यापक वाक्य की वास्तविकता को अनुभव से नहीं जाना जा सकता बल्कि इसके लिए आगमनात्मक अनुमान का सहारा लेना पड़ता है, क्योंकि इसके द्वारा वास्तविक व्यापक वाक्य की स्थापना की जाती है। उपर्युक्त उदाहरण में ‘सभी मनुष्य मरणशील है’ एक व्यापक वाक्य (general proposition) है, जिसके द्वारा वास्तविक व्यापक वाक्य-:मोहन मरणशील हैं’ की स्थापना की गयी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आगमनात्मक अनुमान के द्वारा व्यापक वाक्यों की वास्तविकता को प्रमाणित किया जाता है।

मिल (Mill) ने आगमन के दो प्रकार बतालए हैं उचितार्थक आगमन (induction proper) तथा अनुचितार्थक आगमन (induction improper)। उचितार्थक आगमन वह आगमन होता है, जिसमें ‘कुछ से सब की ओर’ (from ‘some’ to ‘all’) छलांग लगायी जाती है। इसे आगमनात्मक छलाँग (inductive leap) कहा जाता है, जो ज्ञात से अज्ञात की ओर होता है। उचितार्थक आगमन में ज्ञात के आधार पर अज्ञात का अनुमान किया जाता है। अनुचितार्थक आगमन वह है जिसमें उचितार्थक आगमन जैसी छलांग (leap) नहीं पायी जाती; क्योंकि इसके अनुमान वस्तुओं के निरीक्षण पर आधारित नहीं होते। उचितार्थक आगमन (induction proper) के चार भेद किए गए हैं।

ये हैं-वैज्ञानिक आगमन (Scientific Induction), अवैज्ञानिक आगमन (Unscientific Induction), सादृश्यानुमान (Argument from Anal ogy) तथा सम्भावना सिद्धान्त (Argument from probability)। अनुचितार्थक आगमन (Induction improper) के भी तीन भेद किए गए हैं – पूर्ण आगमन (Perfect Induction), तर्कसाम्यमूलक आगमन (Induction by parity of Reasoning) तथा अंश-संकलन आगमन (Induction improper) के भी तीन भेद किए गए हैं – पूर्ण आगमन (Perfect Induction), तर्कसाम्यमूलक आगमन (Induction by parity of Reasoning) तथा अंश-संकलन आगमन (Induction by colligavission of facts)।

उचितार्थक आगमन कार्य-करण सम्बन्ध पर आधारित होता है परन्तु अनुचितार्थक आगमन कार्य-कारण संबंध पर आधारित नहीं होता। आगमन का सही रूप उचितार्थक आगमन (induction proper) आगमन (induction) जैसा लगता है, तथापि इसमें आगमन के मुख्य लक्षणों का सर्वदा अभाव पाया जाता है। वैज्ञानिक आगमन, जो उचितार्थक आगमन का प्रमुख प्रकार होता है, ही आगमन का सर्वोत्तम रूप होला है। वैज्ञानिक आगमन (Scientific Induction) की विधि से जिस सामान्य वाक्य (universal proposition की स्थापना होती है वह आगमन (Induction) का सही निष्कर्ष (valid conclusion) होता है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 9.
निगमन और आगमन के बीच क्या संबंध है? दोनों में कौन अधिक मौलिक है? अथवा, निगमन और आगमन की तुलना करें। इनमें पहले कौन आता है?
उत्तर:
निगमन और आगमन में संबंध (Relation between Deduction and Induction):
इन दोनों के बीच संबंध की विवेचना यहाँ की जा रही है। यहाँ मुख्य रूप से दो प्रश्न उठते हैं –

(a) दोनों में अधिक मौलिक कौन है (Which of the two is more fundamental)?
(b) दोनों में प्राथमिक या पूर्ववर्ती कौन है (Which of the two is prior)?

पहले और दूसरे प्रश्नों को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद पाया जाता है तार्किकों के दो दल हैं-एक दल अनुमान में केवल आकारिक सत्यता (formal truth) ढूँढता है और दूसरा दल वास्तविक सत्यता (material truth) पर जोर देता है। इन दोनों दलों के मत प्रस्तुत प्रश्नों पर भिन्न-भिन्न हैं।

दोनों में अधिक मौलिक कौन है (Which of the two is more fundamental):

1. आकारवादी तार्किकों (Formal logicians) का मत:
इस मत के अनुसार निगमन (Deduction) अधिक मौलिक है और आगमन (Induction) कम मौलिक या गौण है। इस मत के माननेवाले हेटले (Whateley), हेमिल्टन (Hamilton), मैनसेल (Mansel) इत्यादि, आकारवादी तार्किक हैं। इन लोगों के अनुसार, आगमन तीसरे आकार का ही एक योग है; आगमन कोई स्वतंत्र अनुमान नहीं कहा जा सकता। यह निगमन का ही एक रूप है। इसके अतिरिक्त, आगमन में प्रकृति-समरूपता नियम और कार्य-कारण नियम को आधार मानकर हम ‘कुछ’ से ‘सब’ का जो निष्कर्ष निकालते हैं उसे निगमनात्मक ढंग से निकाला जा सकता है।

‘मनुष्यत्व’ और ‘मरणशीलता’ में कार्य-करण संबंध (causal relation) देखकर और इस नियम को प्रकृति में हमेशा समान होने का विश्वास करके ही हम आगमन में ‘कुछ’ (some) से “सब’ (all) की संभावना का अनुमान करते हैं और कहते हैं, ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’। इसीलिए यह कहा जाता है कि आगमन मूल रूप में निगमनात्मक होता है। (Induction in essence is Deduction in nature)

2. वस्तुवादी तार्किकों (Material logicians) का मत:
इस मत के अनुसार आगमन (Induction) ही अधिक मौलिक है और निगमन इसी का एक रूप है। इसके समर्थक मिल (Mill), बेन (Bain) आदि वस्तुवादी तार्किक हैं। निगमनात्मक अनुमान के लिए कम-से-कम एक सामान्य (universal) वाक्य की आवश्यकता पड़ती है और इस सामान्य वाक्य की स्थापना आगमन द्वारा होती है। इस प्रकार, निगमन के आधार के रूप में पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करके आगमन निगमन को आधार प्रदान करता है। आगमन के द्वारा ही सामान्य नियम की स्थापना होती है, और निगमन केवल इसी नियम को व्यक्ति विशेषों पर लागू करता है।

जब आगमन के द्वारा यह सामान्य वाक्य सत्यापित हो जाता है कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं, तो निगमन इसे राम, मोहन आदि व्यक्तियों पर प्रयुक्त करके कहता है कि राम भी मनुष्य होने के नाते मरणशील है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आगमन ही अधिक मौलिक है और निगमन गौण (secondary)। वास्तव में, निगमन और आगमन के विषय में दिए गए उपर्युक्त दोनों मत एकांगी (one sided) हैं।

इन दोनों में किसी एक को अधिक मौलिक और दूसरे को कम मौलिक या गौण बताना उचित नहीं है। दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। ये एक-दूसरे के पूरक हैं और इनमें अन्योन्याश्रय संबंध है। इनमें किसी एक को दूसरे में परिवर्तित करने से इन दोनों की ही मौलिकता नष्ट हो जाती है। अतः, इनके विषय में अधिक या कम मौलिकता का प्रश्न उठाना व्यर्थ है। दोनों में पूर्ववर्ती कौन है (which of the two is prior)। इस प्रश्न पर तर्कवेत्ताओं में – मतभेद है। यहाँ जेवन्स (Jevons) एवं मिल (Mill) के मतों की विवेचना अपेक्षित है।

जेवन्स (Jevons) का मत:
इनके अनुसार निगमन आगमन के पहले आता है। (Deduc tion is prior to Induction)। इनका तर्क इस प्रकार है-आगमन में सामान्य नियम की स्थापना की जाती है। इसके लिए प्राक्कल्पना (Hypothesis) का सहारा लेकर हम सामान्यीकरण (generalisation) कर देते हैं। किन्तु, बिना परीक्षा या जाँच (verification) के कोई सामान्य नियम नहीं बन जाता। प्राक्कल्पना की जाँच निगमनात्मक विधि द्वारा की जाती है।

निर्मित प्राक्कल्पना को सत्य मानकर उससे संभावित निष्कर्ष निकालते हैं और इन निष्कर्षों की जाँच वास्तविक घटनाओं में करते हैं। यदि ये निष्कर्ष इन घटनाओं से मेल खाते हैं, तो हम अपनी प्राक्कल्पना को सही मान लेते हैं और संगति या मेल नहीं बैठने पर प्राक्कल्पना असत्य सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार, निगमन विधि के द्वारा ही प्राक्कल्पना की परीक्षा करके आगमन में सामान्य नियम की स्थापना की जाती है। इसलिए निगमन का स्थान आगमन से पहले आता है।

मिल का मत:
मिल साहब का मत जेवन्स के मत के भिन्न है। इनके अनुसार, आगमनिक खोज में सामान्यीकरण का महत्त्व बहुत अधिक है। इसी कारण, ये आगमन को निगमन के पहले रखते हैं। न्याय (syllogism) निगमन का मुख्य रूप है और इसके लिए आधार के रूप में कम-से-कम एक पूर्णव्यापी (universal) वाक्य की आवश्यकता होती है और इस वाक्य की स्थापना आगमन द्वारा ही होती है। इस प्रकार आगमन ही निगमन को आधार प्रदान करता है।

इसलिए यह कहना उचित है कि “आगमन निगमन के पहले आता है।” (Induction is prior: to dedaction) वास्तव में, जेवन्स और मिल के कथन में आंशिक सत्यता (partial truth) है, न कि पूर्ण सत्यता। जेवन्स साहब के अनुसार, आगमन विधि का अंत सत्यापन या जाँच (verification) में होता है। इसी कारण वे निगमन को आगमन के पहले मानते हैं। किन्तु, मिल साहब के अनुसार आगमनिक खोज में सामान्यीकरण ही अंतिम सोपान है और इसके लिए परीक्षण या जाँच की कोई आवश्यकता निगमन और आगमन में किसी एक को पूर्ववर्ती बताना उचित नहीं जान पड़ता। निगमन और आगमन एक-दूसरे के विरोधी नहीं, बल्कि परस्पर पूरक हैं।

निगमन और आगमन के संबंध में कुछ अन्य मत –

1. तार्किकों का कहना है कि निगमन तर्कशास्त्र में विश्लेषणात्मक विधि (analytical method) अपनाई जाती है और आगमन में संश्लेषणात्मक विधि (synthetic method) अपनाई जाती है। आगमन में विशेष उदाहरणों का निरीक्षण करके सामान्य नियम बनाए जाते हैं और निगमन में सामान्य नियम का विश्लेषण करके विशेष निष्कर्ष प्राप्त किए जाते हैं। पूर्ण सत्य की प्राप्ति के लिए विश्लेषणात्मक और संश्लेषणात्मक दोनों विधियों का उपयोग आवश्यक है। अतः, निगमन और आगमन परस्पर पूरक हैं।

2. जेवन्स का मत:
जेवन्स महोदय के अनुसार निगमन आगमन के पहले आता है और आगमन निगमन का ही उत्क्रमिक (inverse) रूप है। सीधी क्रिया (direct process) और उत्क्रमिक क्रिया (inverse process) गणित से ली गई है। सीधी क्रिया वह है जिसमें निश्चित संख्या (data) दी हुई है और उससे निष्कर्ष निकालना रहता है। जैसे, 2 और 4 दिए हुए हैं जिनका गुणनफल 8 होता है उत्क्रमिक क्रिया में फल या परिणाम (result) पहले से दिया रहता है और उन संख्याओं को निकालना पड़ता है, जिनका वह फल या परिणाम है। जैसे, 8 दिया हुआ है और इसके अवयवों (constituents) को ज्ञात करना है। इसके अवयव हो सकते हैं –

4 × 2. 1 × 8 इत्यादि। सीधी क्रिया द्वारा प्राप्त निष्कर्ष निश्चित होता है, किन्तु, उत्क्रमिक क्रियाओं के अर्थ में आगमन को निगमन की उत्क्रमिक (inverse) रूप कहा जाता है। आगमन को निगमन का उत्क्रमिक रूप मानने का यह भी एक आधार है कि निगमन में हम कारण से कार्य की ओर जाते हैं, किन्तु, आगमन में कार्य से कारण की ओर जाते हैं। कारण (cause) का पता रहने पर इसके निश्चित फल (effect) का पता लगाना अत्यंत कठिन काम है और इसमें दोष होने की संभावना बनी रहती है, क्योंकि एक ही कार्य के कई कारण हो सकते हैं।

जेवन्स के मत की आलोचना:
निगमन को आगमन का पूर्ववर्ती कहना उचित नहीं है। आगमन को निगमन का उत्क्रमिक रूप (inverse process) भी कहना ठीक नहीं है। निगमन और आगमन एक-दूसरे के पूरक हैं। इसलिए इनमें पूर्ववर्ती (antecedent) और (conse quent) का प्रश्न उठाना ही व्यर्थ है। जेवन्स का यह कहना भी ठीक नहीं है कि कार्य (effect ज्ञात रहने पर उससे निश्चित कारण (cause) ज्ञात नहीं हो सकता, क्योंकि एक कार्य के कई कारण हो सकते हैं।

यह कहना ही दोषपूर्ण है कि एक कार्य के कई कारण होते हैं। वास्तव में, निगमन और आगमन में विरोध लाकर आगमन को निगमन की उत्क्रमिक क्रिया (inverse process) बताना किसी भी हालत में उचित नहीं कहा जा सकता। आगमनिक खोज (inductive enquiry) में निगमन और आगमन दोनों का समान महत्त्व है। ये दोनों परस्पर पूरक हैं। इन्हें विरोधी कहना इनके सही अर्थ को ठुकराना है। बेकन का मत-बेकन ने निगमन को ‘उतरनेवाली क्रिया’ (descending process) और आगमन को ‘चढ़नेवाली क्रिया’ (ascending process) कहा है। निगमन में सामान्य से विशेष निष्कर्ष निकलते हैं। इसमें हम अधिक व्यापकता से कम व्यापकता की ओर आते हैं।

जैसे, सभी मनुष्यों को मरणशील पाकर राम को मनुष्य होने के नाते मरणशील बताते हैं। इसलिए निगमन को उतरने की क्रिया कहा जाता है। आगमन में विशेष उदाहरणों के निरीक्षण के द्वारा सामान्य नियम की स्थापना की जाती है। इसमें कम सामान्य से अधिक सामान्य की ओर (form less general to more general) जाते हैं। जिस प्रकार किसी पर्वत पर चढ़कर वहाँ से हमें नीचे का सामान्य रूप दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार, आगमन के निष्कर्ष पर पहुँचते ही हमें एक सामान्य नियम दृष्टिगोचर होता है। ज्यों-ज्यों पर्वत से नीचे उतरने लगते हैं, त्यों-त्यों विशेष वस्तुओं पर नजर पड़ने लगती है। इसलिए निगमन को उतरनेवाली क्रिया और आगमन को चढ़नेवाली क्रिया कहा गया है।

बेकन के मत की आलोचना-बेकन का मत सही नहीं कहा जा सकता। पर्वत पर चढ़ने और उतरने का मार्ग एक ही रह सकता है। इसलिए चढ़ने और उतरने की क्रियाएँ परस्पर विरोधी नहीं कही जा सकती। इसी प्रकार, आगमन और निगमन में भी विरोध नहीं कहा जा सकता। यह सत्य है कि हम आगमन में उदाहरणविशेष से सामान्य नियम पर पहुँचते हैं और निगमन में सामान्य नियम से व्यक्तिविशेष पर पहुंचते हैं। पर, इसका अर्थ यह नहीं होता कि आगमन और निगमन परस्पर विरोधी हैं। इनमें अन्योन्याश्रय संबंध है।

ये एक-दूसरे के सहयोगी एवं पूरक फाउलर (Fowler) का मत-फाउलर ने आगमन और निगमन में भेद इस आधार पर किया है कि आगमन में हम कार्य से कारण की ओर जाते हैं और निगमन में कारण से कार्य की ओर। आगमन में घटनाविशेष का निरीक्षण करके इसका कारण बताते हैं। इसीलिए आगमन ‘में कार्य से कारण की ओर जाने की बात कही गई है।

निगमन में सामान्य नियम यानी कारण से कार्य की ओर जाने की बात कही गई है। फाउलर के मत की आलोचना-फाउलर (Fowler) का कहना सही नहीं है। आगमन में केवल कार्य से कारण का पता नहीं लगाया जाता। आगमन में हम दोनों तरफ बढ़ सकते हैं। कार्य ज्ञात रहने पर उसके कारण का पता लगाया जा सकता है और कारण ज्ञात रहने पर आगमन के द्वारा कार्य का भी पता लगाया जा सकता है। अतः यह कहना भूल है कि आगमन द्वारा केवल कार्य से कारण का पता लगाया जाता है।

बक्कल (Buckle) का मत-इनके अनुसार हम आगमन में विशेष तथ्यों से नियमों पर (from facts to laws) जाते हैं और निगमन में नियमों से विशेष तथ्यों पर (from laws to facts) जाते हैं। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया जा सकता है-आगमन में वस्तुविशेष (facts) से विचार (ideas) की ओर जाते हैं और निगमन में विचार से वस्तुविशेष का अनुमान लगाया जाता है। आगमन द्वारा स्थापित नियम सैद्धांतिक होते हैं और इनका प्रत्यक्ष घटनाविशेषों के द्वारा होता है।

किन्तु, हमें इससे यह समझने की भूल नहीं करनी चाहिए कि आगमन के निष्कर्ष केवल सैद्धान्तिक या मानसिक होते हैं, यथार्थ नहीं। आगमन के निष्कर्ष यथार्थ होते हैं, क्योंकि इनमें वास्तविक सत्यता (material truth) पाई जाती है। निगमन में भी सैद्धान्तिक या मानसिक तत्त्व पाए जाते हैं, जिस प्रकार आगमन में यथार्थता के तत्त्व रहते हैं। उपर्युक्त मतों की विवेचना करने के बाद हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि आगमन और निगमन में विरोध का संबंध दिखाना भ्रामक है। इन दोनों में पूर्ण सहयोग अपेक्षित है। ये एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं (both run into each other)। इनके बीच कोई कृत्रिम रेखा खींचकर इनको एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 10.
निगमन से आगमन किन-किन बातों में भिन्न है? अथवा, निगमन के बाद आगमन की क्या आवश्यकता है? व्याख्या करें।
उत्तर:
तर्कशास्त्र का लक्ष्य सत्यता की प्राप्ति है। इसकी पूर्ति के लिए अनुमान का सहारा लिया जाता है। सत्यता दो प्रकार की होती है –

  1. आकारिक सत्यता (formal truth) और
  2. वास्तविक सत्यता (material truth)।

निगमन तर्कशास्त्र मुख्यतः आकारिक सत्यता से संबद्ध रहता है। सत्यता का आंशिक अध्ययन ही यहाँ हो पाता है। आगमन तर्कशास्त्र में वास्तविक सत्यता प्राप्त करना हमारा लक्ष्य रहता है। इस प्रकार निगमन और आगमन के संयुक्त प्रयास से ही तर्कशास्त्र का लक्ष्य पूरा हो सकता है। अतः, निगमन और आगमन में अत्यधिक घनिष्ठ संबंध है। फिर भी, दोनों में कई अंतर दीख पड़ते हैं।

निगमन और आगमन में अंतर (Distinction between Deduction and Induction):
दोनों में निम्नलिखित अंतर उल्लेखनीय हैं –

1. निगमन के आधार:
वाक्य मान लिए जाते हैं, किन्तु आगमन के आधार-वाक्य निरीक्षण (observation) तथा प्रयोग (experiment) पर आधृत रहते हैं। निगमन के आधार-वाक्यों को सत्य मानकर उनसे निष्कर्ष निकाला जाता है। यहाँ आधार-वाक्यों को बिना निरीक्षण-परीक्षण के ही आँख मूंदकर सत्य मान लेते हैं और इनसे निष्कर्ष निकालते हैं। जैसे –

सभी मनुष्य मरणशील हैं।
राम एक मनुष्य है
∴ राम मरणशील है।

यह निगमनात्मक अनुमान का उदाहरण है। यहाँ ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ और ‘राम एक मनुष्य है’ आधार-वाक्य (premises) हैं, जिन्हें पहले ही सत्य मान लिया गया है और उनसे यह निष्कर्ष निकाला गया है कि ‘राम मरणशील है’। किन्तु, आगमन के आधार-वाक्य अनुभव द्वारा प्राप्त होते हैं। बिना निरीक्षण-परीक्षण के आधार-वाक्यों को सत्य नहीं माना जा सकता है। जैसे –

राम मरणशील है
यदु मरणशील है
श्याम मरणशील है
केदार मरणशील है
……………………..
∴ सभी मनुष्य मरणशील हैं।

यहाँ सभी आधार-वाक्य अनुभव, अर्थात् निरीक्षण और प्रयोग पर आधृत हैं। हम इन व्यक्तियों को मरते हुए देखकर ही यह निष्कर्ष निकालते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील हैं।

2. निगमन में हम सामान्य (universal) से विशेष (particular) या अधिक व्यापक से कम व्यापक की ओर जाते हैं, किन्तु आगमन में कम से सामान्य या विशेष से सामान्य की ओर जाते हैं। निगमन में हम अधिक व्यापकता से कम व्यापकता की ओर जाते हैं, किन्तु आगमन में कम व्यापकता से अधिक व्यापकता की ओर प्रस्थान करते हैं।

उपर्युक्त उदाहरण से यह अंतर स्पष्ट हो जाता है। निगमनात्मक अनुमान में हम सभी मनुष्यों को मरणशील मानकर राम को मरणशील सिद्ध करते हैं। राम की व्यापकता अवश्य ही सभी मनुष्यों की व्यापकता से कम है। इसीलिए निगमन में अधिक से कम की ओर जाने की बात कही गई है। आगमन के उदाहरण से हम देखते हैं कि राम, यदु, श्याम, केदार इत्यादि व्यक्तिविशेषों को मरणशील पाकर सभी मनुष्यों के मरणशील होने का अनुमान किया गया है। अतः, यहाँ विशेष से सामान्य की ओर प्रस्थान किया गया है।

3. निगमन में आधार-वाक्यों की संख्या निश्चित रहती है, किन्तु आगमन में आधार-वाक्यों की संख्या अनिश्चित रहती है। निगमनात्मक अनुमान के मुख्यतः दो प्रकार होते हैं साक्षात अनुमान (immediate inference) और असाक्षात अनुमान (mediate inference)। साक्षात अनुमान में एक आधार-वाक्य रहता है और असाक्षात अनुमान में दो आधार-वाक्य होते हैं। किन्तु, आगमन में आधार-वाक्यों की संख्या कोई निश्चित नहीं है। कभी-कभी कार्य-कारण संबंध का पता चलाने के लिए दो, तीन, चार या इनसे अधिक उदाहरणों को देखने की आवश्यकता पड़ती है।

4. निगमन का संबंध आकारिक सत्यता (formal truth) से है; किन्तु आगमन का संबंध वास्तविक सत्यता (material truth) से रहता है-निगमन में इस बात का ध्यान रखा जाता है कि दिए हुए आधार-वाक्य से निष्कर्ष नियमानुकूल निकाला गया है कि नहीं। यदि निष्कर्ष निकालने में नियमों का पूर्ण पालन किया गया हो तो उस अनुमान का निष्कर्ष सही माना जाता है। इस निष्कर्ष में वास्तविक सत्यता का रहना कोई आवश्यक नहीं है। जैसे –

सभी विद्यार्थी बंदर है,
मोहन एक विद्यार्थी है,
∴ मोहन एक बंदर है।

इस अनुमान में अनुमान के नियमों का पालन किया गया है। इसलिए इसका निष्कर्ष आकारिक दृष्टिकोण से बिल्कुल सही है। इस निष्कर्ष में वास्तविक सत्यता का पूर्ण अभार है; क्योंकि इसके आधार अनुभवसिद्ध नहीं हैं। आगमन का लक्ष्य वास्तविक सत्यता को प्राप्त करना है। इसके आधार-वाक्य निरीक्षण और प्रयोग पर आधृत होने के कारण ऐसे निष्कर्ष देते हैं जो वास्तविक दृष्टिकोण से सही होते हैं। आगमन में आकारिक सत्यता को भी ठुकराया नहीं जाता। आकारिक और वास्तविक दोनों सत्यता की प्राप्ति आगमन में होती है।

5. निगमन के निष्कर्ष आधार-वाक्यों से कम व्यापक (universal) होते हैं, किन्तु आगमन के निष्कर्ष अपने आधार-वाक्यों से सदा अधिक व्यापक होते हैं। इसका कारण यह है कि निगमन के आधार-वाक्यों में ही इसका निष्कर्ष निहित रहता है, किन्तु आगमन के निष्कर्ष में ही इसके आधार-वाक्य चले जाते हैं।

6. निगमन और आगमन के आधारों में भी भिन्नता रहती है-विचार के नियमों (laws of thought) पर निगमन आधृत है। विचार के नियम ये हैं-व्याघातक नियम (law of contradiction), तादात्म्य नियम (law of identity) और मध्यदशा-निषेध नियम (law of excluded middle)। आगमन के आधारस्वरूप के दो नियम हैं-प्रकृति-समरूपता नियम (law of uniformity of nature) और कार्य-कारण नियम (law of causation)।

उपर्युक्त अंतरों को ध्यानपूर्वक देखने से यह संकेत मिल जाता है कि निगमन के बार आगमन की क्या आवश्यकता है। निगमन अनुमान के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। परन्तु. अकेले निगमन द्वारा सत्य की प्राप्ति संभव नहीं है। इसमें कुछ कमियाँ रह जाती हैं, जिनकी पूर्ति आगमन द्वारा की जाती है। आगमन की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं, जिनका निगमन में अभाव रहता है। निगमन के बाद आगमन की आवश्यकता इसीलिए और अधिक बढ़ जाती है।

निगमन तथा आगमन दोनों का लक्ष्य सत्य की स्थापना करना है। इस प्रयास में दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। निगमनात्मक अनुमान सत्य की स्थापना के लिए आगमनात्मक अनुमान पर आश्रित रहता है। यह बात निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट हो जाती है –

(a) निगमन तर्कशास्त्र साधारणतः
आकारिक सत्यता से संबद्ध है। यदि निष्कर्ष निगमन तर्कशास्त्र के नियमों के अनुकूल है, तो इसमें आकारिक सत्यता रहती है। परन्तु, अनुमान में केवल आकारिक सत्यता (formal truth) से काम नहीं चल सकता। इसमें वास्तविक सत्यता (material truth) का होना भी आवश्यक है। इसके निष्कर्ष को यथार्थ घटनाओं से मेल खाना चाहिए। आगमन तर्कशास्त्र में वास्तविक सत्यता की प्राप्ति हमारा प्रमुख लक्ष्य रहता है। इसमें आकारिक सत्यता की उपेक्षा नहीं की जाती। यहाँ वास्तविक सत्यता के साथ-साथ आकारिक सत्यता की प्राप्ति के प्रयत्न किए जाते हैं। इस प्रकार, निगमन के साथ-साथ आगमन का उपयोग करने से संपूर्ण सत्यता की प्राप्ति संभव है।

(b) निगमन के आधार:
वाक्य आँख मूंदकर बिना किसी छानबीन के सत्य मान लिए जाते हैं और उनसे निष्कर्ष निकाले जाते हैं। ऐसे आधार-वाक्यों से विश्वसनीय निष्कर्ष नहीं प्राप्त हो सकते। आगमन तर्कशास्त्र में आधार-वाक्य निरीक्षण एवं प्रयोग द्वारा प्राप्त होते हैं। इन्हें यों ही सत्य नहीं मानलिया जाता।

(c) निगमन में निष्कर्ष इसके आधार:
वाक्यों में ही पहले से छिपा रहता है। ऐसा होने से अनुमान में नयापन की मात्रा कम हो जाती है। आगमन इस कमी को दूर करता है। इसके आधार-वाक्यों में निष्कर्ष निहित नहीं रहता। अनुभव द्वारा प्राप्त आधार-वाक्यों से प्राप्त निष्कर्ष में नयापन रहता है।

(d) निगमन द्वारा किसी सामान्य वाक्य या नियम की स्थापना नहीं होती। यह सामान्य वाक्य को पहले ही सत्य मानकर आगे बढ़ता है। यहाँ सामान्य से विशेष की ओर अथवा अधिक व्यापक से कम व्यापक की ओर जाते हैं। आगमन विशेष तथ्यों का अवलोकन करके सामान्य वाक्य या नियम की स्थापना करता है। इससे अनुमान या तर्क का महत्त्व अधिक हो जाता है।

(e) निगमन तर्कशास्त्र का कोई आधार नहीं दीख पड़ता। बिना आधार के इसका महत्त्व उतना अधिक नहीं रहता। आगमन के दो प्रकार के आधार (grounds) हैं – आकारिक आधार (formal grounds) और वास्तविक दोनों प्रकार की सत्यता पाई जाती है।

(f) निगमन में वैज्ञानिक नियमों का सहारा नहीं लिया जाता। इसीलिए इसके निष्कर्षों में वास्तविक सत्यता एवं प्रामाणिकता का अभाव रहता है। आगमन तर्कशास्त्र इस कमी को महसूस करते हुए प्रकृति-समरूपता नियम एवं कार्य-कारण नियम का सहारा लेता है। इसलिए इसके निष्कर्षों में विश्वसनीयता एवं प्रामाणिकता की मात्रा अधिक रहती है। किसी भी न्याय (syllogism) में निष्कर्ष की सत्यता उसके आधार-वाक्यों की सत्यता पर आधृत है। प्रश्न उठता है कि यह कैसे जाना जा सकता है कि आधार-वाक्य सत्य है। यदि निगमन के आधार पर आधार-वाक्य की सत्यता स्थापित की जाए तो हमारे चिंतन आकारिक मात्र रहता है और उसमें वास्तविक सत्यता का अभाव रहता है।

आगमन के आधार पर हमें वास्तविक सत्यता की प्राप्ति होती है। आगमन हमारे अनुभव पर निर्भर है। निगमन आगमन के बिना संभव प्रतीत नहीं होता। यहीं पर निगमन से आगमन में प्रवेश की आवश्यकता होती है। फ्रांसिस बेंकन आगमनात्मक विधि के प्रणेता माने जाते हैं। उनसे पूर्व अरस्तू ने निगमन को प्रतिपादित किया था। बेकन ने निगमन के आगमन में प्रवेश पर बल दिया, क्योंकि निगमन के सामान्य वाक्य आगमन से ही प्राप्त होते हैं। आगमन में वास्तविक सत्यता पर पहुँचने के लिए विशेष घटनाओं की जाँच की जाती है। उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि निगमन के बाद आगमन की आवश्यकता रह ही जाती है।

Bihar Board Class 11 Philosophy Solutions Chapter 1 प्राकृतिक एवं समाजविज्ञान की पद्धतियाँ

प्रश्न 11.
क्या स्वयंसिद्ध वाक्यों तथा निगमन के द्वारा वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना हो सकती है? वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना में आगमन की क्या भूमिका है?
उत्तर:
वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना स्वयंसिद्ध वाक्यों तथा निगमन के द्वारा नहीं हो सकती –

स्वयंसिद्ध (Axioms):
कुछ ही वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य स्वयंसिद्ध होते हैं। जैसे-‘कोई वस्तु एक ही समय और स्थान में दो विरोधात्मक गुणों को नहीं रख सकती है। यह वाक्य स्वयंसिद्ध है। ऐसे वाक्य के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। अधिकांश वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य (real universal proposition) स्वयं सिद्ध नहीं होते। जैसे-‘पृथ्वी में आकर्षण शक्ति’, ‘पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा करती है’ आदि। जो वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य स्वयं सिद्ध नहीं होते, उनकी स्थापना नहीं होती है। चूंकि अधिकांश वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य स्वयं सिद्ध नहीं होते, इसलिए उनकी स्थापना स्वयंसिद्ध वाक्यों द्वारा नहीं हो सकती।

निगमन (Deduction):
एक निगमनात्मक अनुमान का आधार-वाक्य दूसरे निगमनात्मक अनुमान का निष्कर्ष होता है। उदाहरणस्वरूप यदि हमें यह प्रमाणित करना है कि ‘सभी कवि मरणशील हैं तो निगमनात्मक अनुमान के द्वारा हम इसे इस तरह प्रमाणित कर सकते हैं –

सभी मनुष्य मरणशील हैं,
सभी कवि मनुष्य हैं,
∴ सभी कवि मरणशील हैं।

लेकिन अब प्रश्न उठता है कि ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ कैसे प्रमाणित होगा ? इसे हम दूसरे निगमनात्मक अनुमान द्वारा निम्नलिखित ढंग से प्रमाणित कर सकते हैं –

सभी जानवर मरणशील हैं,
सभी मनुष्य जानवर हैं,
∴ सभी मनुष्य मरणशील हैं।

फिर प्रश्न उठता है कि ‘सभी जानवर मरणशील हैं’ कैसे प्रमाणित होगा ? निगमनात्मक अनुमान के द्वारा यह इस तरह प्रमाणित होगा –

सभी जीव मरणशील हैं,
सभी जानवर जीव हैं,
∴ सभी जानवर मरणशील हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि निगमन में एक व्यापक वाक्य की स्थापना करने के लिए दूसरे अधिक व्यापक वाक्य का सहारा लेना पड़ता है और फिर दूसरे व्यापक वाक्य को स्थापित करने के लिए तीसरे अधिक व्यापक वाक्य का सहारा लेना पड़ता है। उपर्युक्त उदाहरणों में हम देखते हैं कि ‘सभी कवि मरणशील हैं’ को प्रमाणित करने के लिए इससे अधिक व्यापक वाक्य ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ की सहायता ली गई है। फिर ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ को प्रमाणित करने के लिए इससे अधिक व्यापक वाक्य ‘सभी जीव मरणशील हैं’ का सहारा लिया गया है।

इसी तरह यदि. ‘सभी जीव मरणशील हैं’ व्यापक वाक्य को प्रमाणित करना हो, तो हम परम व्यापक वाक्य ‘संसार की सभी वस्तुएँ नाशवान हैं’ का सहारा लेते हैं। फिर यदि यह प्रश्न उठे कि इस परम व्यापक वाक्य का क्या प्रमाण है, तो इसका उत्तर निगमनात्मक अनुमान द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। इस प्रकार हम पाते हैं कि सभी वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना निगमन के द्वारा नहीं हो सकती है।

आगमन की भूमिका (The role of Induction):
वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना स्वयंसिद्धि वाक्यों तथा निगमनात्मक अनुमान द्वारा नहीं हो सकती; आगमनात्मक अनुमान के द्वारा ही वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्यों की स्थापना हो सकती। आगमन में प्रकृति-समरूपता नियम तथा कारण कार्य नियम के आधार पर वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्यों की स्थापना होती है। प्रकृति-समरूपता नियम के अनुसार प्रकृति का व्यवहार समान परिस्थिति में सदा समान होता है तथा कारण-कार्य नियम के अनुसार संसार में जो भी घटना घटित होती है उसका कुछ-न-कुछ कारण अवश्य होता है।

ये दोनों नियम आगमनात्मक अनुमान में प्रयुक्त होते हैं जिनके द्वारा आगमन विशेष घटनाओं के आधार पर वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करता है। कारण-कार्य नियम के अनुसार यदि ‘मृत्यु’ है तो उसका वास्तविक सर्वव्यापी कारण अवश्य होगा। प्रकृति-समरूपता नियम के अनुसार प्रकृति का व्यवहार सदा समान रहता है यदि जीव है तो वह मरेगा अवश्य ही। आगमन में इन दोनों नियमों के आधार पर वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना की जाती है जिसकी सत्यता में कोई सन्देह नहीं रह जाता।

मानलिया कि हमें परम व्यापक वाक्य ‘संसार की सभी वस्तुएँ नाशवान हैं’ को प्रमाणित करना है। संसार की सभी वस्तुएँ समाप्त हो जाती हैं’ – यदि यह कार्य है तो इसका कारण अवश्य ही होना चाहिए। आगमनात्मक अनुमान के द्वारा कारण निर्धारित करने का जो तरीका है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि संसार में वस्तुओं का होना ही उनके समाप्त होने का कारण है। मनुष्य या किसी जीव का होना ही मर जाने का कारण है।

‘वस्तु’ और ‘नाशवान’ में कारण-कार्य का संबंध है-अर्थात् वस्तु है तो वह नाशवान होगी ही। ‘मनुष्य’ और ‘मरणशीलता’ में कारण-कार्य का संबंध है और यह संबंध भविष्य में भी रहेगा, क्योंकि प्रकृति समरूप है। चूंकि प्रकृति का व्यवहार समान परिस्थिति में समान होता है, यदि आज मनुष्य होना मर जाने का कारण है तो भविष्य में भी मनुष्य होना मर जाने का कारण होगा। इस तरह इन दोनों नियमों के आधार पर आगमनात्मक अनुमान के द्वारा वास्तविक पूर्णव्यापी वाक्यों की स्थापना की जाती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

Bihar Board Class 11 Psychology अभिप्रेरणा एवं संवेग Text Book Questions and Answers

प्रश्न 1.
अभिप्रेरणा के संप्रत्यय की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
अभिप्रेरणा का संप्रत्यय इस बात पर प्रकाश डालता है कि किसी व्यक्ति के व्यवहार में गति कैसे आती है? किसी विशेष लक्ष्य की ओर निर्दिष्ट सतत व्यवहार की प्रक्रिया, जो किन्हीं अंतर्नाद शक्तियों का नतीजा होती है, उसे अभिप्रेरणा कहते हैं। अभिप्रेरणा के लिए प्रयुक्त अभिप्रेरक वे सामान्य स्थितियाँ होती हैं जिनके आधार पर विभिन्न प्रकार के व्यवहारों के लिये पूर्वानुमान लगा सकते हैं। इसी कारण अभिप्रेरणा को व्यवहारों का निर्धारक माना जाता है। मूल प्रवृत्तियाँ, अंतर्नाद, आवश्यकताएँ, लक्ष्य एवं उत्प्रेरक अभिप्रेरणा के विस्तृत दायरे में आते हैं।

किसी आवश्यक वस्तु का अभाव (भूख, प्यास, तृष्णा) या न्यूनता ही आवश्यकता कहलाते हैं। आवश्यकता अन्तर्नाद (आन्तरिक बल) को जन्म देती है। किसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किए गए प्रयासों अथवा उत्पन्न तनाव या उद्वेलन को अन्तर्नाद रूपी बल की तरह प्रयोग करके लक्ष्य की प्राप्ति की जाती है। लक्ष्य मिलने के बाद आवश्यकता की तीव्रता शून्य हो जाती है, प्रयास घट जाता है। अर्थात् व्यक्ति सामान्य स्थिति में पहुँच जाता है।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग img 1
चित्र: अभिप्रेरणात्मक चक्र

जैसे-एक छात्र बरसात में कीचड़ भरे रास्ते से होकर पैदल विद्यालय चला जाता है। विद्यालय जाने की इच्छा जताने का कारण किसी प्रकार के लक्ष्य की पूर्ति करना है। ज्ञान प्राप्ति, मित्र से मिलना, घर के कामों से मुक्त होना, माता-पिता को खुश करना आदि में से किसी लक्ष्य की प्राप्ति इच्छा से एक आंतरिक बल का आभास होता है जिसके प्रभाव में छात्र विद्यालय जाने को तत्पर हो जाता है। जहाँ क्रियाशील आंतरिक बल को ही अभिप्रेरणा मान सकते हैं।

अर्थात् अभिप्रेग्णा एक आन्तरिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति के व्यवहार को अभीष्ट दिशा या गति के साथ बदलने के लिए शक्ति प्रदान करता है तथा किसी विशिष्ट लक्ष्य की प्राप्ति की ओर व्यक्ति के व्यवहार को मोड़ने का कार्य करता है। भूखे के द्वारा भोजन खोजने के लिए, प्यासे को पानी नीचे के लिए जो आन्तरिक बल उकसाता है, प्रोत्साहित करता है, उसे अभिप्रेरणा मान सकते हैं। जीवन में अधिकांश व्यवहारों की व्याख्या अभिप्रेरणा या अभिप्रेरकों के आधार पर की जाती है। अभिप्रेरक व्यवहारों का पूर्वानुमान करने में भी सहायता करते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 2.
भूख और प्यास की आवश्यकताओं के जैविक आधार क्या हैं?
उत्तर:
किसी भी प्राणी की आवश्यकताएँ अंतर्नाद उत्पन्न करती है। व्यक्ति की मूल प्रवृत्ति कुछ कार्य करने के अंत:प्रेरण को प्रदर्शित करता है। मूल प्रवृत्ति का एक बल यह आवेग होता है जो प्राणी को कुछ ऐसी क्रिया करने के लिए चालित करता है जो उस बल या आवेग को कम कर सके। भूख और प्यास दो प्रमुख जैविक आवश्यकताएँ हैं।

भूख:
जीवधारियों के शरीर में किसी चीज की कमी को आवश्यकता कहा जाता है। जीवन रक्षा तथा शक्ति संचार के लिए भोजन की आवश्यकता होती है। भोजन की आवश्यकता को भूख का कारण माना जा सकता है। भूख लगने पर व्यक्ति को भोजन प्राप्त करने तथा उसे खाने के लिए अभिप्रेरणा करती है। भूख के उद्दीपकों में अमाशय का संकुचन, ग्लुकोज की सान्द्रता में कमी, वस्त्र के स्तर में गिरावट, ईंधन की कमी के प्रति यकृत की प्रतिक्रिया अहम भूमिका अदा करते हैं। यकृत के उपाचचयी क्रियाओं में होने वाला परिवर्तन को भूख की अनुभूति कराने वाला माना जाता है। भोज्य पदार्थों की उपलब्धता, रंग, स्वाद, उपयोग आदि भूख की तीव्रता बढ़ाने वाले कारक माने जाते हैं। हमारी भूख अधश्चेतक में स्थित पोषण तृप्ति की जटिल व्यवस्था, यकृत और शरीर के कुछ अन्य अंगों तथा परिवेशीय कारकों के द्वारा नियंत्रित होती है।

पाश्विक अधश्चेतक भूख संदीपन को समझता है जबकि मध्य अधश्चेतक भूख के अंतर्नाद को विरुद्ध बनाकर भूख को नियंत्रित रखता है। अतः सारांशतः यह माना जा सकता है कि भूख को शान्त करके हम जीवन की सुरक्षा के साथ संतुलित शरीर के लिए आवश्यक तत्त्वों को ग्रहण करके भूख के कारण होनेवाले कष्ट को मिटा पाने में समर्थ होते हैं। प्यास-शरीर को जब पानी की आवश्यकता महसूस होती है तो हम प्यास का अनुभव करते हैं। प्यास को जन्मजात प्रेरक माना जा सकता है।

प्यास लगने पर हमारा मुँह और गला सूखने लगता है और शरीर के उत्तकों में निर्जलीकरण की अवस्था आ जाती है। इन कठिनाइयों से मुक्ति पाने के लिए प्यास बुझाने के लिए पानी पीना आवश्यक हो जाता है। पानी नहीं पीने से कोशिकाओं से.पानी का क्षय होना जारी हो जाता है तथा रक्त में पानी का अनुमान लगाकर घटने लगता है। पानी पी लेने के परिणामस्वरूप आमाशय में उत्पन्न उद्दीपन रुक जाता है, परसारग्राही के द्वारा निर्जलीकरण नियंत्रित हो जाता है। प्यास की अवस्था में कोई भी व्यक्ति अधिक कार्यशील बन जाता है। लार का अभाव उसे बेचैन कर देते हैं। अर्थात् प्यास की जैविक आवश्यकता के रूप में संतोषप्रद जीवन जीने के साथ-साथ निर्जलीकरण से मुक्ति के लिए उपाय ढूँढ़ना है। शरीर के उत्तकों को स्वाभाविक कार्य करते रहने के योग्य बनाया जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 3.
किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि, संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताएँ कैसे प्रभावित करती हैं? उदाहरणों के साथ समझाइये।
उत्तर:
बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के मध्य का संक्रमण काल (11 से 21 वर्ष तक की उम्र) किशोरावस्था कहलाता है। इसे जैविक तथा मानसिक दोनों ही रूप से तीव्र परिवर्तन की अवधि माना जाता है। इस अवस्था की एक मुख्य विशेषता मौन परिपक्वता है। यह भी माना जाता है कि किशोर के विचार अधिक अमूर्त, तर्कपूर्ण एवं आदर्शवादी होते हैं। प्रयत्न-त्रुटि उपागम के विपरीत समस्या समाधन करने में किशोरों का चिंतन अधिक व्यवस्थित होता है। किशोर वैकल्पिक नैतिक संहिता को भी जानते हैं। किशोरों के व्यवहारों में लचीलापन, प्रदर्शन, प्रतियोगिता जैसी भावनाओं का प्रभाव देखने को मिलता है। किशोरों के व्यवहारों को उपलब्धि, संबंधन तथा शक्ति की आवश्यकताओं को महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

1. उपलब्धि अभिप्रेरक:
उत्कृष्टता के मापदंड को प्राप्त कर लेने की आवश्यकता उपलब्धि अभिप्रेरक कहलाते हैं। किशोर अपने माता-पिता, मित्र, पड़ोसी, शुभचिंतक जैसे व्यवहार-निपुण लोग से प्रेरित होकर सामाजिक-सांस्कृतिक प्रभाव का उपयोग करके व्यवहारों का अर्जन तथा निर्देशन की युक्ति सोखते हैं। उपलब्धि को पाने के लिए किशोर चुनौती भरे कठिन कार्यों को भी पूरा कर लेना चाहते हैं। जैसे-वर्ग में प्रथम स्थान प्राप्त करने के लिए किशोर अध्ययन के विकास के लिए तरह-तरह के प्रस्तावों का अध्ययन करते हैं, साथियों से सहयोग माँगते हैं।

माता-पिता से उचित परामर्श तथा आर्थिक सहयोग चाहते हैं। कई समस्याओं से घिरे होने पर भी किशोर अपने संकल्प की दृढ़ता का प्रदर्शन करने से नहीं चूकते हैं। अंत में वे वर्ग में प्रथम स्थान पाकर स्वयं तो खुश होते ही हैं और वे प्रशंसा के शब्द भी सुनते हैं। अर्थात् किशोर अपने व्यवहारों में किसी भी तरह का परिवर्तन स्वीकारते हैं जिससे उनका लक्ष्य उपलब्धि के रूप में उन्हें अवश्य मिल जाए।

2. संबंधी:
समूहों का निर्माण मानव व्यवहार की एक विशेषता होती है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किशोर का प्रयास किस प्रकार से संबंध बनाना होता है। किशोर कभी भी अकेला रहना पसंद नहीं करता है। सच तो यह है कि दूसरों को चाहना तथा भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से उनके निकट आने की चाह को संबंधन माना जाता है। संबंधन में सामाजिक सम्पर्क की अभिप्रेरणा अंतनिर्हित होती है। संबंधन की आवश्यकता उस समय उद्दीपन कहलाती है जब कोई किशोर अपने को खतरे में अथवा असहाय अवस्था में पाता है। कभी-कभी अपनी खुशी को प्रकट करने केलिए भी संबंधन की आवश्यकता महसूस करते हैं।

किशोरों को ऐसे अवसर आते हैं जब वे मित्रातापूर्ण संबंधन के महत्त्व मानते हैं। जैसे, मोटरसायकिल से गिरने के बाद उसे मानव सहायता की आवश्यकता होती है। नौकरी पाने के लिए सही स्थान या मार्गदर्शन बतलाने वाले मित्रों की आवश्यकता होती है। सफलता के कारण मिलने वाले पदक को दिखलाने या अपनी कविता को सुनाने हेतु मित्रों की याद आती है। किसी भी कठिन परस्थितियों (चोर, आतंकवादी, चेकिंग) में किशोर संबंधन का उपयोग करना चाहता है।

3. शक्ति अभिप्रेरक:
शक्ति की आवश्यकता व्यक्ति की वह योग्यता है जिसके कारण वह दूसरों के संवर्गों तथा व्यवहारों पर अभिप्रेत प्रभाव डालता है। डेविड मैकक्लीलैंड ने शक्ति अभिप्रेरक की अभिव्यक्ति के चार सामान्य बताए हैं –

(क) शक्ति पर बाहरी स्रोतों का प्रभाव
(ख) शक्ति पर व्यक्ति को आंतरिक क्षमता का प्रभाव
(ग) शक्ति के प्रयोग में प्रदर्शन की झलक
(घ) संगठन के द्वारा शकित प्रदर्शन का प्रभाव अर्थात् किशोर अपनी शक्ति को समझने के लिए बाहरी साधनों का उपयोग करता है।

जैसे, पत्र-पत्रिकाओं में छपे स्तंभों के पढ़कर किसी लोकप्रिय व्यक्ति के सम्बन्ध में सब कुछ जान लेना चाहता है। कभी-कभी किशोर शारीरिक गठन करके अपनी क्षमता का प्रदर्शन करना चाहता है। इसमें किशोरों को भावना या संवेग पर नियंत्रण रखना के समीप होता है। प्रतियोगिता, खेल, परीक्षा, इन्टरव्यू, राजनीतिक दल जैसी विभिन्न स्थितियों में किशोर अपनी योग्यता, समझ अथवा निर्णय को सर्वश्रेष्ठ बनाना चाहता है ताकि लोग उससे प्रभावित हो जाएँ। अर्थात् किशोरों के व्यवहार में नया मोड़ लाने के लिए उपलब्धि (जैसे-एम. ए. की डिग्री), संबंधन (मित्र या शुभचिंतक) और शक्ति, (प्रभाव और प्रदर्शन) की आवश्यकता वांछनीय प्रतीत होती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 4.
मैस्लो के आवश्यकता पदानुक्रम के पीछे प्राथमिक विचार क्या हैं? उपयुक्त उदाहरणों की सहायता से व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
‘भूखे भजन न होय गोपाला’ अर्थात् भोजन की तुलना में भजन निरर्थक है चाहे वह कितना भी गरिमामयी क्यों न हो। मैस्लो ने भी आवश्यकताओं को महत्त्व के आधार पर श्रेणीबद्ध करके बतलाना चाहा है कि जीवन निर्वाह के लिए मूल शरीर क्रियात्मक मूल आवश्यकता है। मैस्लो का पिरामिड संप्रतययित रूप है एक लोकप्रिय मॉडल का जिसमें पदानुक्रम के तल में मूल जैविक आवश्यकताओं को जगह मिली है।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग img 1
चित्र: अभिप्रेरणात्मक चक्र

मैक्लो (1968, 1970) ने मानव व्यवहार को चित्रित करने के लिए आवश्यकताओं को एक पदानुक्रम में व्यवस्थित किया है। आवश्यकताओं की व्यवस्था से पता चलता है कि मानव अपने स्वभाव से महत्त्वाकांक्षी होता है। भूख समाप्त होते ही वह सुरक्षा की चिन्ता करने लगता है। सुरक्षा की उचित व्यवस्था पाकर वह शुभचिंतकों का समूह पाना चाहता है। इसके बाद सम्मान और आत्मसिद्धि की इच्छा जागती है। मैस्लो के पदानुक्रम के पीछे प्राथमिक विचार बहुत ही स्वाभाविक है। पदानुक्रम में व्यवस्थित निम्न स्तर की आवश्यकता जब नहीं हो जाती तब तक कोई व्यक्ति उच्चस्तरीय आवश्यकता की ओर सोचता तक नहीं है। किसी आवश्यकता की पूर्ति से ज्योंहि व्यक्ति संतुष्ट हो जाता है, क्योंकि उच्चस्तरीय आवश्यकता उसकी चिंता का कारण बन जाती है।

जैसे, भूखे व्यक्ति को रडियो नहीं चाहिए, क्योंकि वह तो रोटी की खोज में व्यस्त है। खा-पीकर जब आदमी संतुष्ट हो जाता है तो उसे मनोरंजन, नाच-गाना सभी कुछ अच्छा लगने लगता है। एक व्यक्ति टमटम चलाता है। सबसे पहले उसे यात्री मिलने की चिन्ता रहती है। ज्योहि उसे एक साथ पाँच यात्री मिल जाते हैं तो वह घर से मिलने के बारे में सोचने लगना है। घर के बच्चे के लिए मिठाई का चयन उसे परेशान कर देते हैं। जब मिठाई लेकर घर पहुँचता है तो किवाड़ नहीं बंद हो सकने की चिन्ता हो जाती है। अत: उसकी चिन्ता बदलती रहती है लेकिन वह पूर्णतः समाप्त नहीं हो पाती है।

प्रश्न 5.
क्या शरीर क्रियात्मक उद्वेलन सांवेगिक अनुभव के पूर्व या पश्चात घटित होता है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
आधुनिक एवं परिष्कृत उपकरणों की सहायता से शरीर क्रियात्मक परिवर्तनों (क्रोध से शरीर का काँपना, पसीना निकलना, हृदय गति का तेज होना) का यथार्थ मापन किया जा सकता है जो संवेग की शरीर क्रियात्मक सक्रियकरण की श्रृंखला पर निर्भर करता है, जिसमें चेतक, अधश्चेतक, उपवल्कुटीय व्यवस्था का प्रमस्तिष्कीय वल्कुट महत्त्वपूर्ण रूप से अंतर्निहित हो जाते हैं। जब कोई व्यक्ति किसी विचार या घटना के बारे में सोचते ही उत्तेजित या क्रुद्ध होते हैं तो उसकी हृदय गति बढ़ जाती है। मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों में चयनात्मक सक्रियकरण, भिन्न-भिन्न संवेगों का उद्वेलन प्रदर्शित करता है।

जेम्स लांजे सिद्धांत के अनुसार पर्यावरणी उद्दीपक हृदय या फेफड़े जैसे आंतरिक अंग में शरीर क्रियात्मक अनुक्रियाएँ उत्पन्न करते हैं जो पेशीय गति से सम्बद्ध होते हैं। जैसे अचानक तीव्र शोर या उच्च तीव्रता वाली ध्वनि सुनने के साथ ही अंत- संगी तथा पेशीय अंगों में सक्रियकरण उत्पन्न हो जाता है जिसका अनुसरण संवेगात्मक उद्वेलन करता है। जेम्स लांजे का तर्कना कि शारीरिक परिवर्तनों का व्यक्ति द्वारा किया गया प्रत्यक्षण (साँस का तेज होना, अंगों का हिलना) संवेगात्मक उद्वेलन उत्पन्न करता है। अर्थात् विशिष्ट घटनाएँ या उद्दीपक विशिष्ट शरीर क्रियात्मक परिवर्तनों के उत्तेजित करती है जो प्रत्यक्षण और संवेगों की अनुभूति से ताल-मेल करता है।

कैननबार्ड सिद्धांत के अनुसार संवेगों की सारी प्रक्रिया की मध्यस्थता चेतक के द्वारा की जाती है जो कि संवेग उद्दीपक करने वाले उद्दीपकों के प्रत्यक्षण के पश्चात् यह सूचना सहकालिक रूप से प्रमस्तिष्कीय वल्कुट, कंकाल पेशियों तथा अनुरूपी तंत्रिका तंत्र को देता है। इसके बाद प्रत्यक्षित अनुभव की प्रकृति का पता लगाया जाता है। स्वायत्त तंत्रिका के द्वारा शरीर की क्रियात्मक उद्वेलन उत्प्रेरित होता है। आजकल जेम्स-लांजे सिद्धांत की अपेक्षा कैननबार्ड सिद्धांत पर ज्यादा विश्वास किया जाता है। कैननबार्ड सिद्धांत के अनुसार अत: अनुकंपी एवं परानुकंपी तंत्र यद्यपि परस्पर विरोधी तरीके से कार्य करते हैं, किन्तु वे संवेगों के अनुभव और अभिव्यक्ति की प्रक्रिया को पूरा करने में परस्पर पूरक हैं।
Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग img 1
चित्र: कैनन-बार्ड का संवेग सिद्धांत

अर्थात् अन्ततः यही सच है कि संवेगात्मक अनुभूति और संवेगात्मक व्यवहार साथ-साथ होता है। कैननबार्ड ने भी माना है कि सबसे पहले संवेगात्मक उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण, उसके बाद संवेगात्मक अनुभूति और संवेगात्मक व्यवहार दोनों साथ-साथ होता है। स्टैनली शैक्टर तथा जेरोम सिंगार ने संवेगों के द्विकारक सिद्धांत के माध्यम से माना है कि हमारे संवेगों में शरीर क्रियात्मक समानता होती है, क्योंकि हृदय तभी धड़कता है जब हम भयभीत होते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 6.
क्या संवेगों की चेतन रूप से व्याख्या तथा नामकरण करना उनको समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है? उपयुक्त उदाहरण देते हुए चर्चा कीजिए।
उत्तर:
हमारे संज्ञान अर्थात् हमारे प्रत्यक्षण, स्मृतियाँ एवं व्याख्याएँ हमारे संवेग के आवश्यक हैं। संवेग और उसके कारण और प्रभाव का पता बताने के लिए संवेगात्मक क्रिया-कौशल की व्याख्या संवेगों को स्पष्टतः समझने में सहायक होता है। स्टैनली शैक्टर तथा जेरोम सिंगर ने शारीरिक और संज्ञानात्मक संवेगों का अध्ययन कर बताया कि संवेगों की अनुभूति हमारे तात्कालिक उद्वेलन के प्रति जागरुकता के द्वारा उत्पन्न होती है। उन दोनों का मत है कि किसी संवेगात्मक अनुभव के लिए उद्वेलन की चेतना व्याख्या की आवश्यकता होती है।

माना कोई व्यक्ति किसी कविता की रचना करके श्रोता को संगीत-स्वर में सुनाता है। वह अपनी करनी से बहुत खुश और गौरवान्वित है। इसी क्रम में कोई श्रोता उसके प्रयास को फूहर प्रदर्शन कह डाला। व्यक्ति, श्रोता और आलोचना के बीच संवेगात्मक दशा में अंतर आना स्वाभाविक है। हमें इसके कारण, प्रभाव और परिणाम की स्पष्ट जानकारी के लिए सम्पूर्ण घटना की विस्तृत व्याख्या करनी चाहिए।

इसी आवश्यकता अथवा प्रयास के सम्बन्ध में शैक्टर तथा सिंगर (1962) ने प्रतिभागियों को उच्च स्तर का उद्वेलन उत्पन्न करने वाली दवा ‘एपाइनफ्राइन’ की सूई देकर उसे दूसरे से व्यवहारों का प्रेक्षण करने को कहा गया। प्रेक्षण के क्रम में उल्लासोन्माद को व्यक्त करने वाला रद्दी को टोकरी पर कागज फेंक कर अपनी खुशी को व्यक्त किया तथा दूसरा क्रोध का प्रदर्शन करते हुए पैर पटकते हुए कमरे से बाहर निकल गया। इस तरह का व्यवहार संवेगों की चेतना व्याख्या का अवसर जुटा दिया।

संवेगों का नामकरण-कुछ मूल संवेग (भूख, प्यास) सभी लोगों में समान रूप से अभिव्यक्ति का अवसर देता है। चाहे व्यक्ति किसी उम्र, जाति या श्रेणी का हो किन्तु कुछ संवेग विशिष्ट होते हैं। विशिष्ट संवेगों के लक्षणों पर पर्यावरण, स्थान, समझ तथा संस्कार का प्रभाव मिलता है। जैसे-सुख, दुख, प्रसन्नता, क्रोध, घृणा आदि को मूल संवेग और आश्चर्य, अवमानना, शर्म तथा अपराध को विशिष्ट संवेग के रूप में जाना जाता है। क्योंकि भारत में जिस क्रिया के लिए शर्म या आश्चर्य प्रकट किया जाता है, अमेरिका में उसे आधुनिकता मान-लिया जाता है।

संवेगों के स्वरूप की सही पहचान के लिए उनका नामकरण वांछनीय है। जैसे–पत्र-पत्रिकाओं से लगभग दो सौ चित्रों को काटकर उन्हें कूट पर चिपका कर चित्रकार्ड का रूप दे दिया गया। अब उन्हें अलग-अलग संवेगों पर आधारित चित्रों का समुच्चय बना लिया गया। माना हँसता हुआ 20 कार्ड, रोता हुआ 50 कार्ड, क्रोध का मुद्रा वाला 80 चित्र तथा अन्यान्य मुद्रा वाले शेष चित्रों का समूह बनाकर संचित कर लिया गया। अब हमें किस समूह की आवश्यकता है उसे बिना नामकरण का कैसे व्यक्त करना संभव है। अर्थात् संवेगों की चेतन रूप से व्याख्या तथा नामकरण करना उन्हें समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 7.
संस्कृति संवेगों की अभिव्यक्ति को कैसे प्रभावित करती है?
उत्तर:
संवेगों की अभिव्यक्ति में पूरी शक्ति से प्रभाव डालती है। चूंकि संवेग एक आन्तरिक अनुभूति होती है, अतः संवेगों का अनुमान वाचिक तथा अवाचिक अभिव्यक्तियों के द्वारा ही होती है। वाचिक तथा अवाचित अभिव्यक्तियाँ संचार माध्यम का कार्य करती हैं। संचार के वाचिक माध्यम में स्वरमान और बोली का ऊँचापन, दोनों सन्निहित होते हैं।

अवाचिक माध्यकों में चेहरे का हाव-भाव, मुद्रा, भंगिमा तथा शरीर की गति तथा समीपस्थ व्यवहार शामिल रहते हैं। चेहरे के हाव-भावों से होने वाली अभिव्यक्ति सांवेगिक संचार का सबसे अधिक प्रचलित माध्यम है। व्यक्ति के संवेगों का सुखद या दुखद होना, क्रोधित होना, काफी खुश रहना, गौरव महसूस करना, आदि चेहरे को देखकर समझा जा सकता है। भूख द्वारा अभिव्यक्तियों में हर्ष, भय, क्रोध, विरुचि, दुख तथा आश्चर्य आदि जन्मजात तथा सार्वभौम होती है।

शारीरिक गति अर्थात् हाथ:
पैर हिलाना, संवेगों के संचार को अधिक सरल बना देती है। भारतीय शास्त्रीय नृत्य शरीर की गति के माध्यम से अपनी भावनाओं को सरलता से पेश करने में समर्थ होता है। संवेगों में अन्तर्निहित प्रक्रियाएँ संस्कृति द्वारा काफी प्रभावित होती हैं। स्मृति शोध, मुख की अभिव्यक्ति, जटिलता से मुक्त प्रदर्शन आदि संवेगों का स्वाभाविक चित्र दिखाते हैं। संवेग के आत्मनिष्ठ अनुभव तथा प्रकट अभिव्यक्ति के बीच मुख का प्रदर्शन एक कड़ी का काम करता है।

संवेगों की अभिव्यक्ति में अन्य अवाचिक माध्यमों का प्रभावों भी असरदार होती है। जैसे-टकटकी लगाकर देखने, तरह-तरह की चेष्टा (शारीरिक भाव) का प्रदर्शन, पराभाषा तथा समीपस्थ व्यवहार इत्यादि के माध्यम से भी संवेगों की अभिव्यक्त की जा सकती है। चीन में ताली बजाना आकुलता या निराशा का सूचक है तथा क्रोध को विचित्र हँसी के द्वारा व्यक्त किया जाता है। भारत में मौन रहकर गहरे संवेग को अभिव्यक्ति किया जाता है। संवेगात्मक आदान-प्रदान के दौरान, शारीरिक दूरी (सान्निध्य) विभिन्न प्रकार के संवेगात्मक अर्थों को व्यक्त करती है।

जैसे- भारत के लोग खुशी जाहिर करने के लिए गले मिलते हैं। स्पर्श से संवेगात्मक उष्णता का बोध होता है। कभी विमुखता महसूस करने वाला व्यक्ति दूर से ही अंतःक्रिया करना चाहता है। सारांशतः माना जा सकता है कि संवेगों की अभिव्यक्ति में संस्कृति का प्रबल योगदान है। यह सच है कि संस्कृति की भिन्नता के कारण स्थान बदलने से उनके अर्थ एवं विधियाँ बदल जाते हैं। संवेगों की अभिव्यक्ति मुख, संकेत, हाव-भाव तथा शारीरिक क्रिया के माध्यम से सरलता से संभव होता है। जैसे-कृपया कहने वाला, गाली देने वाले से अलग-संवेग का प्रदर्शन करता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 8.
निषेधात्मक संवेगों का प्रबंधन क्यों महत्त्वपूर्ण है? निषेधात्मक संवेगों के प्रबंधन हेतु उपाय सुझाएँ।
उत्तर:
संवेग हमारे दैनिक जीवन तथा अस्तित्व के अंश हैं एवं संवेग एक सांतात्मक के प्रमुख हिस्सा बनकर हमें तरह-तरह के अनुभवों से परिचित कराता है। दैनिक जीवन में कई द्वन्द्वात्मक दशाओं तथा कठिन और दबावमय परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। भय, दुश्चिता, विरुचि जैसी प्रवृत्ति उत्पन्न होकर निषेधात्मक संवेग के घनत्व को बढ़ा देती है।

यदि निषेधात्मक संवेगों को लम्बी अवधि तक किनारों के अनवरत चलते रहने दिया जाए, तो सम्बन्धित व्यक्ति के शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक स्वास्थ्य पर काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। हीनता की भावना, द्वेष, क्रोध, चिड़चिड़ापन, रक्तचाप, भोजन से अरुचि जैसी विषय तथा कष्टदायक स्थिति उत्पन्न होने लगती है। संवेगों के उत्तम प्रबंधन के द्वारा निषेधात्मक संवेगों में कमी तथा विध्यात्मक संवेगों (भरोसा, आशा, खुशी, सर्जनात्मकता, साहस, उमंग, उल्लास) में वृद्धि लाने का प्रयास करना प्रमुख लक्ष्य माना जाता है।

क्रोध, भय, दुश्चिता, असमर्थता, हीनता की भावना जैसे निषेधात्मक संवेगों से मौन मुक्ति तथा क्रियाकलापों को आशा, उत्साह, खुशी, उमंग आदि से जोड़कर पूरा कर लेने की प्रवृत्ति का सराहनीय विकास निषेधात्मक संवेगों से उत्पन्न होने वाले शारीरिक एवं मानसिक विकारों से यथासंभव मुक्ति मिल सकती है। आजकल सफल संवेग प्रबंधन को प्रभावी सामाजिक प्रबंधन का मुख्य आधार माना जा रहा है ताकि समाज में मनोविकार वाले व्यक्तियों की संख्या में होने वाली वृद्धि को रोका जा सके।

निषेधात्मक संवेगों के प्रबंधन हेतु उपाय-निषेधात्मक संवेगों में कमी तथा विध्यात्मक संवेगों में वृद्धि करके वांछित प्रबंधन को सुपरिणामी और सार्थक स्वरूप प्रदान किया जा सकता है जिसके लिए निम्नलिखित युक्तियाँ सफल हो सकती हैं –

1. आत्म-जागरुकता में वृद्धि:
किसी भी परिस्थिति को समझकर उससे संबंधित धनात्मक या ऋणात्मक प्रभावों को जानने तथा उसके प्रति अनुकूलता प्रदर्शित करने के लिए सदा जागरुक रहना खतरा से मुक्ति दिलाने में तथा संभावित लाभप्रद परिणामों के सदुयोग में सरल मार्ग मिल जाता है।

2. परिस्थिति की सम्पूर्ण पहचान:
कोई परिस्थिति क्यों उत्पन्न हुई, इसका क्या-क्या प्रभाव पड़ सकता है, इसका उपयोग किस स्थिति में लाभप्रद या हानिकारक होगा जैसे जिज्ञासु प्रश्नों के. सही उत्तर जानकर उत्पन्न परिस्थिति का डटकर मुकाबला करने की प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहिए।

3. आत्म-परीक्षण:
व्यक्ति को अपनी दक्षता, कौशल या योग्यता का सही अनुमान होना चाहिए। अपने विचारों तथा कला-कौशल को पहचानकर उसके सही प्रयोग की ओर उचित ध्यान देने से ऋणात्मक प्रभाव से मुक्ति मिल सकती है।

4. ऋणात्मक प्रवृत्तियों से मुक्ति:
अपने आपको आत्मग्लानि, भय, चिंता, अवसाद जैसी भावनाओं से मुक्त रखकर सृजनात्मक कार्यों में जुट जाइए। अपनी रुचि या शौक के अनुसार किसी अच्छे कार्य का चयन करके उसे पूरा करने में व्यस्त रहिए।

5. शुभचिंतकों की संख्या में वृद्धि:
अपनी भाषा एवं व्यवहार से लोगों को प्रभावित करके उन्हें शुभचिंतकों की श्रेणी में लाकर लाभ उठाने का प्रयास कीजिए।

6. उत्तम आदत:
पूजा, व्यायाम, निद्रा, सफाई, भोजन आदि से संबंधित अच्छी आदतों को अपनाकर शेष व्यक्तियों के लिए आदर्श बन जाइए। लोगों की प्रशंसा, खुशामद, श्रद्धा के कारण आपका मनोबल बढ़ेगा और आपकी सोच सर्जनात्मक हो जाएगी।

निषेधात्मक संवेगों के कुप्रभाव से बचाने के लिए सबसे सरल उपाय है कि किसी भी प्रभाव को आप स्वाभाविक क्रिया मानकर स्वीकार कीजिए। यह मानकर चलिए कि बहुत से लोग हैं जो हारते हैं, बहुतों के घर में चोरी हुई है। आत्म-सम्मान की रक्षा करते हुए सहयोग, परोपकार, दया, कर्मठता, चिंतन आदि को अपने जीवन में जगह देकर आप अपनी जिन्दगी को गति दे सकते हैं। जमाना बदल रहा है, आप भी बदलिये। किसी को दोषी मानने के पहले, अपनी गलतियों को पहचानिये। अभ्यास और चिंतन समस्याओं से निबटने का महामार्ग है।

Bihar Board Class 11 Psychology अभिप्रेरणा एवं संवेग Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
प्रेरणा से उत्पन्न व्यवहार कब तक जारी रहता है?
उत्तर:
प्रेरणा से उत्पन्न व्यवहार प्रोत्साहन की प्राप्ति तक जारी रहता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 2.
प्रेरणा प्राणी की किस प्रकार की अवस्था है?
उत्तर:
प्रेरणा प्राणी की आन्तरिक अवस्था है जो व्यक्ति को व्यवहार करने के लिए शक्ति प्रदान करती है।

प्रश्न 3.
प्रेरणा से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
प्रेरणा एक आन्तरिक प्रक्रिया है जो व्यक्ति को व्यवहार करने के लिए शक्ति प्रदान करती है तथा किसी विशेष उद्देश्य की ओर व्यवहार को ले जाती है।

प्रश्न 4.
प्रेरण-चक्र क्या है?
उत्तर:
आवश्यकता-प्रणोदन और प्रोत्साहन-सूत्र को प्रेरण-चक्र कहते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 5.
प्रेरणा की उत्पत्ति किस प्रकार होती है?
उत्तर:
प्रेरणा की उत्पत्ति आवश्यकता से होती है।

प्रश्न 6.
संवेग की उत्पत्ति किस ढंग से होती है?
उत्तर:
संवेग की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक ढंग से होती है।

प्रश्न 7.
संवेग में क्या सन्निहित होता है?
उत्तर:
संवेग में चेतन अनुभव व्यवहार और अन्तरावयव संबंधी कार्य सन्निहित होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 8.
संवेग की क्या विशेषता होती है?
उत्तर:
संवेग सतत होता है, संवेग सम्पूर्ण रूप से होता है, संवेग संचयी होता है तथा संवेग का स्वरूप प्रेरणात्मक होता है।

प्रश्न 9.
संवेग का कौन सिद्धांत है जिसमें हाइपोथैलेमस को संवेग का केन्द्र माना गया है?
उत्तर:
कैनन-बार्ड ने अपने सिद्धांत में हाइपोथैलेमस को संवेग का केन्द्र माना है।

प्रश्न 10.
वाटसन ने किस संवेग को मौलिक माना है?
उत्तर:
वाटसन ने क्रोध, भय और प्रेम को मौलिक संवेग माना है।

प्रश्न 11.
विलियन जेम्स और कार्ल कहाँ के निवासी थे?
उत्तर:
विलियन जेम्स अमेरिका तथा कार्ल लाँजे डेनमार्क के निवासी थे।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 12.
संवेग के जेम्स-लांजे सिद्धांत के विरोध में किस सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ है?
उत्तर:
संवेग के जेम्स-लांजे सिद्धांत के हाइपोथैलेमिक सिद्धांत का प्रतिपादन कैनन-बार्ड ने किया है।

प्रश्न 13.
जेम्स-लाँजे के अनुसार संवेग का क्रम क्या है?
उत्तर:
जेम्स-लाँजे के अनुसार सबसे पहले संवेगात्मक उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण, उसके बाद शारीरिक परिवर्तन और अन्य में संवेगात्मक अनुभूति होती है।

प्रश्न 14.
कैनन-बार्ड के अनुसार संवेग का क्रम क्या है?
उत्तर:
कैनन-बार्ड के अनुसार सबसे पहले संवेगात्मक उद्दीपन का प्रत्यक्षीकरण, उसके बाद संवेगात्मक अनुभूति और संवेगात्मक व्यवहार दोनों साथ-साथ होता है।

प्रश्न 15.
प्रो. मैस्लो द्वारा आवश्यकता के सम्बन्ध में दिये गये विचार को बतायें।
उत्तर:
प्रो. मैसलो ने आवश्यकता पर अधिक बल दिया। उसने आवश्यकता की तीव्रता को आधार बनाया है। उनके अनुसार कुछ आवश्यकताएँ ऐसी होती हैं जिन्हें तुरंत पूरा करना होता है। कुछ आवश्यकताएँ ऐसी होती हैं जो फुर्सत से पूरी की जा सकती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 16.
प्रो. मैस्लो ने अभिप्रेरकों को कितने भागों में बाँटा है?
उत्तर:
प्रो. मैस्लो ने अभिप्रेरकों को दो भागों में बाँटा है-जन्मजात अभिप्रेरक और अर्जित अभिप्रेरक।

प्रश्न 17.
प्रेरकों का द्वन्द्व क्या है?
उत्तर:
प्रेरकों का द्वन्द्व का अर्थ उस अवस्था से है जिसमें दो से अधिक बेमेल व्यवहार प्रकट होते हैं जो एक समय में पूर्ण रूप से संतुष्टि नहीं पा सकते।

प्रश्न 18.
प्रेरणा की विफलता क्या है?
उत्तर:
मनुष्य को कभी-कभी विलम्ब से लक्ष्य की प्राप्ति होती है। कभी-कभी अपने बहुत प्रयासों के बाद भी व्यक्ति अपने लक्ष्य की पूर्ति नहीं कर पाता है। इसे ही प्रेरणा की विफलता कहते हैं।

प्रश्न 19.
सम्प्रत्यय क्या है?
उत्तर:
सम्प्रत्यय व्यक्ति के मानसिक संगठन में एक प्रकार का चयनात्मक तंत्र है जो पूर्व अनुभूतियों तथा वर्तमान उत्तेजना में एक संबंध स्थापित करता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 20.
संचार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
भाषा, संकेत एवं चिह्नों आदि के माध्यम से अपने चिंतन एवं विचार को दूसरों तक पहुँचाने एवं दूसरों के चिंतन एवं विचार से अवगत होना ही संचार है।

प्रश्न 21.
अन्तर्नाद या प्रणोदन क्या हैं?
उत्तर:
अन्तर्नोद या प्रणोदन एक ऐसी अवस्था है, जिससे प्राणी में क्रियाशीलता आती है और उसका व्यवहार एक निश्चित दिशा की ओर क्रियाशील हो जाता है।

प्रश्न 22.
प्रेरणा में प्रोत्साहन क्या है?
उत्तर:
प्रोत्साहन एक बाह्य लक्ष्य या वस्तु है, जिससे ऐसी उत्तेजना प्राप्त होती है जो प्राणी को लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रेरित करती है और जिससे आवश्यकताओं की संतुष्टि होती है।

प्रश्न 23.
प्रेरणा कितने प्रकार की होती है?
उत्तर:
अभिप्रेरकों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-जन्मजात अभिप्रेरक तथा अर्जित अभिप्रेरक।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 24.
जैविक अभिप्रेरक किसे कहते हैं?
उत्तर:
जैविक या जन्मजात अभिप्रेरक वैसे अभिप्रेरक को कहा जाता है जो प्राणी में जन्म के समय से ही वर्तमान रहता है।

प्रश्न 25.
सामाजिक या अर्जित अभिप्रेरक किसे कहते हैं?
उत्तर:
सामाजिक या अर्जित अभिप्रेरक से तात्पर्य उन प्रेरकों से है, जिसे व्यक्ति अपने जीवन काल में अर्जित करता है; क्योंकि इसके अभाव में उसका सामाजिक जीवन अर्थहीन हो जाता है।

प्रश्न 26.
जैविक अभिप्रेरक कौन-कौन हैं?
उत्तर:
जैविक अभिप्रेरक के अन्तर्गत भूख, प्यास, यौन, मातृक प्रणोदन आदि आते हैं।

प्रश्न 27.
अर्जित प्रेरक के अन्तर्गत कौन-कौन प्रेरक आते हैं?
उत्तर:
अर्जित प्रेरक के अन्तर्गत सामुदायिक, अर्जनात्मकता, कलह, आत्म स्थापना आदि आते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 28.
उपलब्धि अभिप्रेरक किसे कहते हैं?
उत्तर:
उपलब्धि अभिप्रेरक से तात्पर्य श्रेष्ठता का एक खास स्तर प्राप्त करने की इच्छा से है।

प्रश्न 29.
कोई व्यक्ति किस प्रकार के अभिप्रेरक के कारण विभिन्न परिस्थितियों में कठोर श्रम करेगा?
उत्तर:
कोई व्यक्ति तीव्र उपलब्धि अभिप्रेरक के कारण विद्यालय में, खेल में, संगीत में तथा अन्य कई भिन्न परिस्थितियों में कठोर श्रम करेगा।

प्रश्न 30.
आवश्यकता की उत्पत्ति कब होती है?
उत्तर:
मानव जीवन के लिए किसी वांछनीय वस्तु का अभाव या न्यूनता आवश्यकता की उत्पत्ति का कारण होता है।

प्रश्न 31.
यादृच्छिक क्रिया-कलाप को किसके कारण ऊर्जा उपलब्ध होती है?
उत्तर:
आवश्यकता के कारण उत्पन्न तनाव या उद्वेलन के रूप में जो अंतर्नाद जन्म लेता है, उसी के कारण यादृक्षिक क्रिया-कलाप को ऊर्जा मिलती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 32.
अभिप्रेरक के दो प्रकार क्या हैं?
उत्तर:

  1. जैविक तथा
  2. मनोसामाजिक अभिप्रेरक।

प्रश्न 33.
सामान्य मानवीय मूल प्रवृत्ति के चार उदाहरण दें।
उत्तर:

  1. जिज्ञासा
  2. पलायन
  3. प्रतिकर्षण और
  4. प्रजनन।

प्रश्न 34.
भूख की अनुभूति को तीव्र बनाने में किन बाह्य कारकों का हाथ होता है?
उत्तर:
भोजन का स्वाद, रंग, सुगंध तथा दूसरे को भोजन करते हुए देखना आदि खाने की इच्छा को बढ़ाने वाले कारक हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 35.
जैविक प्रेरकों का मापन किस विधि से होता है?
उत्तर:
जैविक प्रेरक को मापने की कई विधियाँ हैं जिनमें पसंद विधि, अवरोधन विधि, शिक्षण विधि, क्रिया पिंजड़ा विधि आदि मुख्य हैं।

प्रश्न 36.
संवेग की समुचित परिभाषा क्या है?
उत्तर:
संवेग व्यक्ति में एक तीव्र उपद्रव की अवस्था है, जिसका प्रभाव उस पर संपूर्ण रूप से पड़ता है । इसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक ढंग से होती है और जिसमें चेतन अनुभव, व्यवहार और अन्तरावयव संबंधी कार्य सम्मिलित होते हैं।

प्रश्न 37.
प्रभावशाली संचार की बाधाओं से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
वैसे कारक जो संचार को प्रभावशाली बनने में बाधा उत्पन्न करती है उसे संचार की बाधाएँ कहा जाता है।

प्रश्न 38.
प्रभावशाली संचार की बाधाएँ क्या हैं?
उत्तर:
सूचना में अस्पष्टता, ग्रहणकर्ता के क्षमता की सीमाएँ, भौतिक बाधाएँ, माध्यम में गुणवत्ता का अभाव, वैयक्तिक बाधाएँ आदि प्रभावशाली संचार की बाधाएँ हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 39.
संचार स्रोत की क्या विशेषताएँ होती हैं?
उत्तर:
संचार स्रोत की विशेषताओं में विश्वसनीयता, आकर्षण तथा समानता आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 40.
संचार की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
सूचना भेजने वाले तथा सूचना प्राप्त करने वाले के बीच विचारों के आदान-प्रदान के माध्यम को संचार कहा जाता है।

प्रश्न 41.
प्रभावशाली संचार से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
जिस संचार से लक्ष्य की प्राप्ति हो उसे प्रभावशाली संचार कहा जाता है।

प्रश्न 42.
संचार के माध्यम क्या हैं?
उत्तर:
संचार के माध्यम का मतलब यह होता है कि सूचना किस तरह से स्रोत द्वारा व्यक्ति या सूचना प्राप्तकर्ता को दिया जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 43.
द्विवैयक्तिक संचार किसे कहते हैं?
उत्तर:
जब दो व्यक्तियों के बीच विचारों का आदान-प्रदान होता है तो उसे द्विवैयक्तिक संचार कहते हैं।

प्रश्न 44.
संचार को कितने भागों में बांटा गया है?
उत्तर:
संचार को दो मुख्य भागों में बाँटा गया है-शाब्दिक संचार एवं अशाब्दिक संचार।

प्रश्न 45.
अशाब्दिक संचार से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अशाब्दिक संचार का मतलब वैसे संचार से है जिसमें व्यक्ति अशाब्दिक संकेतों का उपयोग कर अपने विचारों एवं भावों को अभिव्यक्त करता है।

प्रश्न 46.
शाब्दिक संचार किसे कहते हैं?
उत्तर:
शाब्दिक संचार उस संचार को कहते हैं जिसमें विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति लिखित या मौखिक रूप से शब्दों या वाक्यों को बोलकर किया जाता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 47.
आनन अभिव्यक्ति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
चेहरे में परिवर्तन के आधार पर अपने भावों को अभिव्यक्त करना आनन अभिव्यक्ति है।

प्रश्न 48.
संचार की प्रभावशीलता को कौन-कौन कारक प्रभावित करते हैं?
उत्तर:
सूचना को विषय-वस्तु स्रोत की विशेषता, संचार का माध्यम, ग्रहणकर्ता की विशेषताएँ संचार की प्रभावशीलता. को प्रभावित करते हैं।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
आवश्यकता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
किसी भी अभिप्रेरणात्मक व्यवहार की उत्पत्ति आवश्यकता (need) से होती है। प्राणी के शरीर में किसी चीज की कमी या अति की अवस्था को आवश्यकता (need) कहा जाता है। जब व्यक्ति के शरीर में पानी की कमी हो जाती है तब उसमें प्यास की आवश्यकता (need) का अनुभव होता है। उसी तरह जब शरीर में अनावश्यक चीजों जैसे मल-मूत्र का जमाव अधिक हो जाता है तब मल-मुत्र त्यागने की आवश्यकता उत्पन्न होती है।

ये सभी जैविक आवश्यकता (biological need) के उदाहरण हैं। इन जैविक आवश्यकताओं के अलावा कुछ मनोवैज्ञानिक आवश्यकता (Psychological need) भी होते हैं। जैसे, धन कमाने की आवश्यकता, सामाजिक प्रतिष्ठा पाने की आवश्यकता, स्नेह पाने की आवश्यकता मनोवैज्ञानिक आवश्यकता के उदाहरण हैं जिनसे भी व्यक्ति का व्यवहार अभिप्रेरित होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 2.
अभिप्रेरणा का अर्थ बतायें।
उत्तर:
अभिप्रेरणा एक ऐसा आंतरिक बल (intermal force) होता है जो व्यक्ति को किसी उद्देश्य (goal) की ओर व्यवहार करने के लिए प्रेरित करता है। जैसे, एक भूखे व्यक्ति का उदाहरण लें। भूखे व्यक्ति को होटल या किसी ऐसी जगह जहाँ उसे भोजन मिल सकता है, की ओर ले जाता है। जबतक उसे भोजन नहीं मिल जाता है, उसका व्यवहार भोजन खोजने में लगा रहता है।

इस उदाहरण में भूख आवश्यकता (need) है। इससे व्यक्ति में जो तनाव (tension) की अवस्था उत्पन्न होती है जिसके कारण वह भोजन ढूँढने का व्यवहार करता है, प्रणोद (drive) कहलाता है। भोजन एक प्रोत्साहन (incentive) है जिसके पाने से प्रणोद में कमी तथा आवश्यकता की तुष्टि हो जाती है। इस तरह, प्रत्येक अभिप्रेरण में आवश्यकता-प्रणोद-प्रोत्साहन (need-drive-incentive) का एक क्रम पाया जाता है।

प्रश्न 3.
जन्मजात अभिप्रेरक का अर्थ उदाहरण सहित बताएँ।
उत्तर:
जन्मजात अभिप्रेरक से तात्पर्य वैसे अभिप्रेरक से है जो व्यक्ति में जन्म से ही पाए जाते हैं तथा इनके अभाव में व्यक्ति का अस्तित्व संभव नहीं है। भूख, प्यास, काम जन्मजात अभिप्रेरक के उदाहरण हैं। इन तीनों के अभाव में व्यक्ति का अस्तित्व संभव नहीं है। कोई भी व्यक्ति भूख, प्यास तथा काम की आवश्यकता को संतुष्टि किये बिना जिन्दा नहीं रह सकता है।

प्रश्न 4.
प्रणोद से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
प्रणोद (drive) एक ऐसी मानसिक तनाव की अवस्था है जो आवश्यकता के कारण उत्पन्न होती है तथा जो व्यक्ति को क्रियाशील बना देती है। जैसे, भूख की आवश्यकता में व्यक्ति भोजन खोजने के लिए क्रियाशील हो उठता है तथा उसमें एक मानसिक तनाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। प्रणोद का स्वरूप जैविक तथा मनोवैज्ञानिक कुछ भी हो सकता है। जब जैविक आवश्यकता अर्थात् भूख, प्यास, काम आदि द्वारा प्रणोद उत्पन्न होता है तो उसका स्वरूप जैविक होता है, परंतु यदि अर्जित आवश्यकता जैसे संबंधन (affiliation) की आवश्यकता, उपलब्धि की आवश्यकता आदि द्वारा प्रणोद उत्पन्न होता है जब उसका स्वरूप मनोवैज्ञानिक या सामाजिक होता है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 5.
आवश्यकता-प्रणोदन-प्रोत्साहन सूत्र का वर्णन करें।
उत्तर:
किसी भी अभिप्रेरित व्यवहार में तीन महत्त्वपूर्ण संप्रत्यय होता है-आवश्यकता, प्रणोदन तथा प्रोत्साहन। आवश्यकता से तात्पर्य कमी या अति की शारीरिक अवस्था से होता है। जैसे, प्यास की आवश्यकता उत्पन्न होने पर व्यक्ति के शरीर की कोशिकाओं में पानी की कमी पायी जाती है। प्रणोदन जो आवश्यकता से उत्पन्न होता है, एक ऐसी मानसिक तनाव की अवस्था होती है जिसमें व्यक्ति अपनी प्यास बुझाने के लिए जल की तलाश में तरह-तरह का व्यवहार करता है। जैसे, एक प्यासा व्यक्ति अपनी प्यास बुझाने के लिए जल की तलाश में इधर-उधर भटकता है। प्रोत्साहन से तात्पर्य उस लक्ष्य से होता है जिसकी प्राप्ति से प्राणी की आवश्यकता की पूर्ति होती है। जैसे प्यासे व्यक्ति के लिए जल एक प्रोत्साहन है, जिससे प्रणोदन में कमी होती है तथा आवश्यकता की संतुष्टि होती है।

प्रश्न 6.
जन्मजात अभिप्रेरक तथा अर्जित अभिप्रेरक में अंतर बतायें।
उत्तर:
जन्मजात अभिप्रेरक वैसे अभिप्रेरक को कहा जाता है जो प्राणी में जन्म से ही मौजूद होते हैं। ऐसे अभिप्रेरकों का मुख्य कार्य प्राणी के दैहिक अस्तित्व (physiological existence) को कायम रखना है। भूख, प्यास, काम (sex) तथा मल-मूत्र त्यागना आदि जन्मजात अभिप्रेरक के उदाहरण हैं। अर्जित अभिप्रेरकरक इनसे भिन्न होते हैं। अर्जित अभिप्रेरक वैसे अभिप्रेरक को कहा जाता है जो व्यक्ति में जन्म से तो मौजूद नहीं रहते हैं, परंतु उन्हें व्यक्ति जन्म के बाद अन्य लोगों से सामाजिक अंत:क्रिया (interactions) करने पर विकसित कर लेते हैं। उपलब्धि की आवश्यकता सत्ता तथा सम्मान की आवश्यकता, संबंधन या सामुदायिकता की आवश्यकता अर्जित आवश्यकता के कुछ उदाहरण हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 7.
प्यास की अभिप्रेरक में होने वाले शारीरिक परिवर्तनों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्यास एक ऐसा अभिप्रेरक है जिसमें स्पष्टतः कुछ शारीरिक परिवर्तन (bodily changes) होते हैं। कुछ शारीरिक परिवर्तन बाह्य (external) होते हैं तथा कुछ शारीरिक परिवर्तन आन्तरिक (internal) होते हैं। बाह्य शारीरिक परिवर्तनों में जीभ चटपटाना, कंठ सूखना तथा पानी के लिए दौड़-धूप करना प्रमुख हैं। आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन में लार-ग्रन्थियों से कम लार स्राव होना, प्राणी के शरीर की कोशिकाओं में पानी की कमी होना, रक्त की मात्रा (volume) में कमी आना प्रधान है। सामान्यतः तीव्र प्यास की स्थिति में रक्तचाप (blood pressure) में भी कमी आ जाती है।

प्रश्न 8.
अर्जित अभिप्रेरक का अर्थ उदाहरण सहित बतलाएँ।
उत्तर:
अर्जित अभिप्रेरक से तात्पर्य वैसे अभिप्रेरक से होता है जो व्यक्ति में जन्मजात नहीं होते हैं, परंतु जिसे व्यक्ति जीवनकाल में अर्जित करता है। वह सामाजिक मूल्यों के अनुरूप तरह-तरह के व्यवहार करने की प्रेरणा विकसित कर लेता है, इसे ही अर्जित अभिप्रेरक कहते हैं। आक्रमणशीलता, सामुदायिकता, संग्रहशीलता, उपलब्धि अभिप्रेरक, आदत, आकांक्षास्तर, मनोवृत्ति, अभिरुचि आदि अर्जित अभिप्रेरक के उत्तम उदाहरण हैं। इन अभिप्रेरकों से व्यक्ति का सामाजिक जीवन अधिक प्रभावशाली हो पाता है।

प्रश्न 9.
संवेग का अर्थ बतलाएँ।
उत्तर:
संवेग एक भावात्मक मानसिक प्रक्रिया है। साधारण अर्थ में संवेग व्यक्ति की उत्तेजित अवस्था का दूसरा नाम है। लेकिन मनोवैज्ञानिकों ने संवेग का अर्थ इससे भिन्न बतलाया है। इस विशिष्ट अर्थ में संवेग व्यक्ति में समग्र रूप से तीव्र उपद्रव की अवस्था है जिसकी उत्पत्ति मनोवैज्ञानिकों कारकों से होती है तथा जिसमें व्यवहार, चेतनानुभूति तथा अन्तरावयवी कार्य होते हैं। इस परिभाषा से संवेग के कई पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है, जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं –

  1. संवेग में तीव्र उपद्रव की अवस्था होती है।
  2. संवेग में समग्र रूप से शारीरिक उपद्रव होता है।
  3. संवेग की उत्पत्ति मनोवैज्ञानिक कारणों से होती है।
  4. संवेग में चेतना, अनुभव, व्यवहार तथा अन्तरांगों के कार्यों में परिवर्तन होता है। भय, क्रोध, प्रेम आदि संवेग के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 10.
उपलब्धि अभिप्रेरक से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
उपलब्धि अभिप्रेरक से तात्पर्य श्रेष्ठता का विशेष स्तर प्राप्त करने से होता है। जिस व्यक्ति में यह अभिप्रेरक अधिक होता है, वह जिन्दगी में अधिक-से-अधिक सफलता प्राप्त करने में सक्षम होता है। सभी व्यक्तियों में उपलब्धि अभिप्रेरक एक समान नहीं होता है। कुछ में कम होता है तो कुछ में अधिक होता है। जिन व्यक्तियों को बचपन में स्वतंत्र प्रशिक्षण (independent training) अधिक मिली होती है, वयस्कावस्था में आने पर उनमें उपलब्धि अभिप्रेरक (achievement motive) अधिक होता है।

प्रश्न 11.
संवेग में होनेवाले शारीरिक मुद्रा में परिवर्तन की व्याख्या करें।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिकों ने यह स्पष्टतः दिखलाया है कि प्रत्येक संवेग में एक खास प्रकार की शारीरिक मुद्रा (bodily posture) होती है। विभिन्न संवेगों में विभिन्न तरह की शारीरिक मुद्राएँ पायी जाती हैं। इन शारीस्कि मुद्राओं को देखकर संबंधित संवेग का अनुमान लगाया जाता है। जैसे, दु:ख के संवेग में व्यक्ति का शरीर कुछ झुका हुआ तथा क्रोध में उसका शरीर कुछ अकड़ा एवं तना हुआ दिखाई पड़ता है। भय के संवेग में व्यक्ति भागने की मुद्रा बना लेता है। स्पष्ट हुआ कि संवेग में कई तरह के शारीरिक परिवर्तन व्यक्ति में होते पाये जाते हैं।

प्रश्न 12.
संवेग में होने वाले आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों का अर्थ. उदाहरणसहित बतलाएँ।
उत्तर:
संवेग में कुछ शारीरिक परिवर्तन ऐसे होते हैं जिसे व्यक्ति बाहर से नहीं देख सकता है। इसका प्रेक्षण करने के लिए विशेष यंत्र या उपकरण की जरूरत होती है, क्योंकि ऐसे परिवर्तन शरीर के भीतर में होते हैं। ऐसे परिवर्तनों को आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन कहा जाता है। जैसे, क्रोध के संवेग में यह अन्य संवेगों, जैसे-डर, प्रेम आदि में व्यक्ति के रक्तचाप का स्तर सामान्य से भिन्न हो जाता है। उसी तरह से हृदय की गति, नाड़ी की गति, श्वसन गति आदि में परिवर्तन हो जाते हैं, जिसका सही-सही प्रेक्षण विशेष उपकरण से किया जाता है। ये सभी आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन के उदाहरण हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 13.
कैनन-बार्ड सिद्धांत का स्वरूप बतलाएँ।
उत्तर:
कैनन-बार्ड सिद्धांत के अनुसार संवेग का केन्द्र हाइपोथैलेमस (hypothalamus) होता है। जब व्यक्ति किसी ऐसे उद्दीपन (stimulus) को देखता है, जिससे संवेग उत्पन्न हो सकता है, तो उससे उसका हाइपोथैलेमस उत्तेजित हो उठता है। हाइपोथैलेमस से एक ही साथ कुछ स्नायु प्रवाह (nerve impulse), प्रमस्तिष्क (cerebrum) में पहुंचते हैं तथा कुछ स्नायु-प्रवाह अन्तरावयव (visceral organs) तथा मांसपेशियों में एक साथ पहुंचते हैं। प्रमस्तिष्क में स्नायु-प्रवाह के पहुँचने से संवेगात्मक व्यवहार होते हैं। अतः इस सिद्धांत के अनुसार संवेगात्मक अनुभूति तथा संवेगात्मक व्यवहार एक-दूसरे पर निर्भर नहीं होते हैं बल्कि दोनों ही एक साथ उत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 14.
जेम्स-लांजे सिद्धांत का स्वरूप बतलाएँ।
उत्तर:
संवेग के जेम्स-लांजे सिद्धांत के अनुसार जब व्यक्ति किसी ऐसे उद्दीपन को देखता है जिससे संवेग उत्पन्न होता है, तो उस उद्दीपन को देखने से उसमें संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) पहले होता है तथा संवेगात्मक व्यवहार बाद में होता है। इसका मतलब यह हुआ कि संवेगात्मक व्यवहार का होना संवेगात्मक अनुभूति के होने पर निर्भर करता है। जैसे, व्यक्ति भालू देखता है, डर जाता है इसलिए भाग जाता है। स्पष्टतः इस सिद्धांत की यह व्याख्या संवेग के सामान्य व्याख्या के विपरीत है।

प्रश्न 15.
अभिप्रेरक के प्रकार बतलाइये।
उत्तर:
अभिप्रेरकों का वर्गीकरण कई प्रकार से किया जाता है। थामसन के अनुसार अभिप्रेरकों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है। ये निम्न प्रकार हैं –

  1. प्राकृतिक, एवं
  2. कृत्रिम।

थामसन ने अभिप्रेरकों को चार भागों में बाँटा है –

  1. सुरक्षा
  2. प्रतिक्रिया
  3. प्रतिष्ठा और
  4. नई अनुभूतियाँ

शेफर महोदय ने अभिप्रेरकों को निम्न चार भागों में बाँटा है –

  1. पुष्टिकरण
  2. विशिष्टता
  3. आदत और
  4. संवेग

विभिन्न प्रकार का वर्गीकरण दो वर्गों में इस प्रकार दिया जा सकता है –

1. जैविक अभिप्रेरक:
वह हैं जो जैविक आवश्यकताओं के कारण उत्पन्न होते हैं। वे हैं-भूख, प्यास, काम, विश्राम, मलमूत्र त्यागने की इच्छा, तापक्रम इत्यादि। इन अभिप्रेरकों का आधार शारीरिक होता है।

2. सामाजिक अभिप्रेरक:
यह सामाजिक अभिप्रेरणा के कारण उत्पन्न होते हैं। ये हैं-प्रतिष्ठा, सुरक्षा, संग्रहता, विशिष्टता, सामाजिकता, पुष्टिकरण, सामाजिक मूल्य, समुदाय के साथ एकीकरण इत्यादि।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 16.
संवेग में हाइपोथैलेमस की क्रियाओं के महत्त्व को बताएँ।
उत्तर:
संवेग की अवस्था में हाइपोथैलेमस की क्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कैनन (Cannon), बार्ड (Bard) इत्यादि ने भी प्रयोगात्मक आधारों पर इस भाग के महत्व पर बल दिया है। देखा गया है कि जिन जानवरों के मस्तिष्क में से हाइपोथैलेमस भाग निकाल दिया गया वे संवेगात्मक प्रकार्य करने में असमर्थ रहे। यह भी देखा गया कि जब मस्तिष्क के दूसरे भाग हटाए गए तो यह असमर्थता रही नहीं।

यह पाया गया कि जब मस्तिष्क के दूसरे भाग को हटाया गया तो हटाने से इस प्रकार की असमर्थता नहीं रही। इस प्रकार संवेगात्मक प्रकाशन में यह भाग अत्यन्त महत्त्व का सिद्ध हुआ। परंतु यहाँ यह याद रखना चाहिए कि संवेग की अवस्था में केवल यही भाग महत्त्वपूर्ण नहीं है। बल्कि वृहत मस्तिष्कीय ब्लॉक तथा स्वतः चालित नाड़ीमण्डल भी संवेगात्मक अनुभूति के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 17.
प्रेरणा की परिभाषा दें तथा उसके प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रेरणा का शाब्दिक अर्थ, जो प्रेरित करें वह प्रेरक है, परंतु यह प्रेरणा का पूर्ण अर्थ स्पष्ट नहीं करता अतः प्रेरणा की परिभाषा तक जारी रखती है। उपरोक्त परिभाषा से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं –

  1. प्रेरणा एक आंतरिक अवस्था है।
  2. प्रेरणा से क्रिया की उत्पत्ति होती है।
  3. प्रेरणा की क्रिया खास दिशा में होती है।
  4. प्रेरणा का संबंध किसी उद्देश्य से रहता है।
  5. प्रेरणा उद्देश्य प्राप्ति तक जारी रहती है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अभिप्रेरणा क्या है? अभिप्रेरणा की परिभाषा दीजिये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा के दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांत हैं –

1. अभिप्रेरणा व्यक्ति की आन्तरिक प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया ज्ञान हमें निरीक्षित व्यवहार की व्याख्या भी देता है और व्यक्ति के भविष्य सम्बन्धी व्यवहार के सम्बन्ध में जानकारी देता है।

2. हम अभिप्रेरणा की प्रकृति निरीक्षित व्यवहार से अनुमान लगाकर. निर्धारित करते हैं। इस अनुमान की सत्यता हमारे निरीक्षणों की विश्वसनीयता पर निर्भर है। यह सत्यता उस समय स्थापित हो जाती है, जब हम दूसरे व्यवहार की व्याख्या करने में उसका प्रयोग कर सकते हैं।

अभिप्रेरणा की परिभाषा (Definition of Motivation):
अभिप्रेरणा की अनेक परिभाषायें विद्वानों ने दी है, जो निम्न प्रकार हैं –

1. बर्नार्ड:
“अभिप्रेरणा द्वारा उन विधियों का विकास कियण जाता है जो व्यवहार के पहलुओं को प्रभावित करती हैं”

2. जानसन:
“अभिप्रेरणा सामान्य क्रिया-कलापों का प्रभाव है जो मानव के व्यवहार को उचित मार्ग पर ले जाती हैं।”

3. मैगोच:
“अभिप्रेरणा शरीर की वह दशा है जो कि दिय गये कार्य के अभ्यास की ओर संकेत करती है और उसके संतोषजनक समापन को परिभाषित करती है।”

4. वुडवर्थ:
“अभिप्रेरणा व्यक्तियों की दशा का वह भग है जो किसी निश्चित उद्देश्य की शर्त के लिये निश्चित व्यवहार को स्पष्ट करती है।’

5. शेफर तथा अन्य:
“अभिप्रेरणा क्रिया की एक ऐसी प्रकृति है जो कि प्रणोदन द्वारा उत्पन्न होती है एवं समायोजन द्वारा समाप्त होती है।”

6. मेग्डूगाल:
“अभिप्रेरणा वे शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक दशाएँ हैं जो किसी कार्य को करने के लिये प्रेरित करती हैं।”

7. थामसन:
“अभिप्रेरणा आरम्भ से लेकर अन्त तक मानव व्यवहार के प्रत्येक प्रतिकारक को प्रभावित करती है, जैसे अभिवृत्ति, आधार, इच्छा, रुचि, प्रणोदन, तीव्र इच्छा आदि जो उद्देश्यों से सम्बन्धित होती है।”

8. गिलफोर्ड:
“अभिप्रेरणा कोई भी एक विशेष आन्तरिक कारक अथवा दशा है जो क्रिया को आरम्भ करने अथवा बनाये रखने के लिए प्रेरित होती है।”

यदि हम इन परिभाषाओं का विश्लेषण करें तो निम्नलिखित आधार प्रकट होंगे –

  • अभिप्रेरणा साध्य नहीं साधन है। वह साध्य तक पहुंचने का मार्ग प्रस्तुत करती है।
  • अभिप्रेरणा अधिगम का मुख्य नहीं सहायक अंग है।
  • अभिप्रेरणा व्यक्ति के व्यवहार को स्पष्ट करती है।
  • अभिप्रेरणा से क्रियाशीलता प्रकट होती है।
  • अभिप्रेरणा पर शारीरिक तथा मानसिक, बाह्य एवं आन्तरिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है।
  • अभिप्रेरणा व्यक्ति के अंदर शक्ति परिवर्तन से प्रारम्भ होती है।
  • अभिप्रेरणा अभिप्रेरणों भावात्मक जागृति द्वारा वर्णित होती है।
  • अभिप्रेरणा पूर्वानुमान द्वारा वर्णित होती है।

अभिप्रेरणा प्रणाली को संगठित उद्देश्य तक पहुँचाने के लिए व्यवहार करने के लिये प्रेरित करती है। अभिप्रेरणा के तीन पक्ष हैं –

  1. प्राणी में निहित प्रेरक अवस्था गति में होती है, शारीरिक आवश्यकता वातवरणीय उद्दीपक, घटनाएँ तथा शृंखला अभिप्रेरणा के लिये उत्तरदायी हैं।
  2. इस अवस्था में व्यवहार उत्पन्न होता है और वांछित दिशा में उसका अग्रेषण होता है।
  3. वांछित उद्देश्य प्राप्ति हेतु व्यवहार उत्पन्न होता है।

अभिप्रेरित व्यक्ति कुछ क्रियाएँ करता है जो उसको अपने उद्देश्य की ओर ले जाती हैं। इन प्रतिक्रियाओं द्वारा व्यक्ति में वह तनाव कम हो जाता है जो शक्ति परिवर्तन से उत्पन्न होता है।

  1. “अभिप्रेरण एक शब्दावली है जो व्यक्ति को शक्ति प्रदान करने में उसके कार्यों को निर्देशित करने को वर्णित करती है।”
  2. “अभिप्रेरण की तुलना कभी-कभी एक इंजन तथा स्वचालित यंत्र के चलाने वाले पहिये से की जाती है।”
  3. “शक्ति एवं निर्देशन अभिप्रेरणा के केन्द्र हैं।”

अभिप्रेरणा:
विभिन्न मत (Motivation : Different Views):
अभिप्रेरणा के विषय में अनेक मत तथा धारणाएँ समाज में प्रचलित रही हैं। उनमें से कुछ निम्न प्रकार हैं –

1. भग्यवादी मत:
मनुष्य किसी भी कार्य को इसलिये करता है कि वह उसके भाग्य में है। यह मत दैवी शक्तियों और उसके प्रभाव पर आधारित इस बात पर बल देता है कि “मानव दैवी शक्तियों के हाथ की कठपुतली है और अभिप्रेरणा व्यक्ति की बाह्यशक्ति है।” यह मत भाग्य लेखे पर बल देता है।

2. मानव विवेकशील है:
मानव में समय के विकास के साथ-साथ वह विचार भी विकसित हुआ कि वह अपने भाग्य का स्वयं निर्माता है। इस मत का आधार मानव मस्तिष्क है।

3. मानव एक यंत्र है:
वैज्ञानिकों ने मनुष्य को एक यंत्र माना है। इस यंत्र का संचालन उद्दीपनों द्वारा होता है। मनुष्य, वातावरण के विभिन्न उद्दीपनों से क्रियाशील होता है।

4. मानव पशु:
इस मत का प्रतिपादन डार्पिन ने किया था। उसके अनुसार पशुओं और मनुष्य की क्रियाओं में भेद नहीं है। मानव का विकास पशुओं से हुआ है। डार्विन “शक्तिशाली की विजय” पर विश्वास करता है। डार्विन के अनुसार तीन बातें प्रमुख हैं –

  • शारीरिक प्रणोदन (Biological) प्रेरक जो व्यक्ति को क्रियाशील बनाते हैं-भूख, प्यास, भय आदि इसी प्रेरक से दूर होते हैं।
  • अर्जित प्रेरक (Acquired Drives) जो शारीरिक प्रेरक से ही उत्पन्न होते हैं।
  • पशु और मनुष्य की मूल प्रवृत्तियाँ एक-सी हैं।
  • मानव सामाजिक प्राणी है-मनुष्य का जन्म समाज में होता है और समाज में ही उसकी मान्यताओं के अनुसार वह अपना विकास करता है। मनुष्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सामाजिक प्रभावों के कार्य करने के लिए अभिप्रेरित होता है।
  • अचेतन का मत-फ्रायड ने इस मत का प्रतिपादन किया था। मानव की क्रियाशीलता का एक मात्र कारण उसकी अचेतन अभिप्रेरणा है। उसके व्यवहार को अचेतन शक्तियाँ नियंत्रित करती हैं। इस मत के अनुसार अभिप्रेरणा का स्रोत व्यक्ति स्वयं ही है।

अभिप्रेरणा: सम्बन्धित शब्द (Motivation : Glossary):
अभिप्रेरण की विवेचना में कई शब्छ बार-बार आते हैं। इन शब्दों की व्याख्या एवं जानकारी आवश्यक है। ये शब्द इस प्रकार हैं –

1. मानसिक स्थिति (Mental Set):
इस शब्द का अर्थ है व्यक्ति का मानसिक रूप से स्वस्थ होना। मनुष्य जब तक मानसिक रूप से स्वस्थ नहीं होगा तब तक किसी भी कार्य को करने के लिए अभिप्रेरित नहीं होगा।

2. प्रेरक (Drives):
प्रेरक अभिप्रेरकों को विकसित करने में बहुत सहयोग देते हैं। प्रेरक का सम्बन्ध कार्य या वस्तुओं से होता है। प्रेरक का सम्बन्ध बाह्य परिस्थितियों से होता है। प्रेरकों को प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा जा सकता।

3. प्रणोद (Incentive):
प्राणी की आवश्यकताओं से प्रणोदन का उत्पत्ति होती है। पानी की आवश्यकता से प्यास की और भोजन की आवश्यकता से भूख की उत्पत्ति होती है। इसीलिये प्रणोदन के बारे में विद्वानों ने कहा है –

(अ) गिबनर एवं सेहोन-“प्रणोदन वह शक्तिशाली उद्दीपन है जो माँग एवं उसकी अनुक्रिया उपस्थित करता है।”
(ब) लैगफील्ड एवं वील्ड-“प्रणोदन आन्तरिक, शारीरिक क्रिया या दशा है जो उद्दीपन के द्वारा विशेष प्रकार का व्यवहार उत्पन्न करती है।”
(स) डैशिल-“मानव जीवन में प्रणोदन शक्ति का मूल स्रोत है जो कि जीव को किसी क्रिया के करने के लिये प्रेरित करता है।”

मनोवैज्ञानिकों ने प्रणोद का वर्गीकरण इस प्रकार किया है –

1. साइमॉड द्वारा किया गया वर्गीकरण –

  • सामूहिकता
  • अवधान केन्द्रितता
  • सुरक्षा
  • प्रेम तथा
  • उत्सुकता

2. कैसल द्वारा किया गया वर्गीकरण:

  • संवेगात्मक सुरक्षा
  • ज्ञान प्राप्ति
  • समाज में स्थान प्राप्त करना
  • शारीरिक संतोष

3. थोर्प द्वारा किया गया वर्गीकरण:

  • शारीरिक क्रियायें
  • जीवन का उद्देश्य एवं कार्य तथा
  • कार्य में स्वतंत्रता

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 2.
जेम्स-लॉर्ज सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर:
संवेग का यह एक लोकप्रिय सिद्धांत है जिसका प्रतिपादन विलियम जेम्स (William James) तथा कार्ल-लांजे (Kari Lange) द्वारा स्वतंत्र रूप से अलग-अलग किया गया था। चूँकि संवेग के बारे में इन दोनों मनोवैज्ञानिकों के विचार लगभग एक समान थे, अतः इस सिद्धांत का नाम जेम्स-लॉजे रखा गया।

इस सिद्धांत द्वारा संवेग की व्याख्या संवेग के सामान्य व्याख्या के विपरीत है। सामान्यतः हम यही समझते हैं कि व्यक्ति जब कभी भी संवेदन उत्पन्न करने वाला उद्दीपन (Stimulus) को देखता है, तो पहले उसमें संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) होता है तब संवेगात्मक व्यवहार होता है। जैसे, व्यक्ति भालू या बाघ (संवेगात्मक व्यवहार) है।

जेम्स-लॉजे सिद्धांत की व्याख्या ठीक इसके विपरीत है। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति बाघ या भूल को देखता है, भाग जाता है इसलिए डर जाता है। इससे स्पष्ट है कि इस सिद्धांत के अनुसार किसी संवेगात्मक उद्दीपन को देखने के बाद व्यक्ति में पहले संवेगात्मक अनुभूति होती है और तब संवेगात्मक व्यवहार होता है। संक्षेप में, इस सिद्धांत द्वारा संवेग की व्यख्या का विस्तृत इस प्रकार है –

  1. संवेग की उत्पत्ति के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति संवेग उत्पन्न करने वाले उद्दीपन (stimuls) का प्रत्यक्षण करें। इसके फलस्वरूप ज्ञानेन्द्रियों में स्नायु-प्रवाह (nerve impulse) पैदा होती है।
  2. जब स्नायु-प्रवाह मस्तिष्क में पहुँचता है, तो यहाँ से वह फ़िर शरीर के अन्तरावयवों (visceral organs) तथा मांसपेशियों (muscles) में पहुँचता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति संवेगात्मक व्यवहार (emotional behaviour) करता है।
  3. संवेगात्मक व्यवहार उत्पन्न होने के बाद उसकी सूचना स्नायु-प्रवाह द्वारा मस्तिष्क में पहुँचता है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति को संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) होती है।

जेम्स-लाँजे सिद्धांत की कुछ आलोचनाएँ हैं जिनमें निम्नांकित प्रमुख हैं –

1. इस सिद्धांत के अनुसार संवेग की अनुभूति अर्थात् संवेगात्मक अनुभूति संवेग के व्यवहार अर्थात् संवेगात्मक व्यवहार पर निर्भर करता है। परंतु वास्तविकता ऐसी नहीं है। प्रायः यह देखा जाता है कि कई तरह के संवेगों में व्यक्ति में लगभग एक ही समान का व्यवहार पाया जाता है। यदि संवेग का अनुभव शारीरिक व्यवहार पर निर्भर करता तो एक तरह के शारीरिक व्यवहार से एक ही तरह के संवेग का अनुभव होना चाहिए था। परंतु एक ही तरह के शारीरिक व्यवहार से भिन्न-भिन्न प्रकार की संवेगात्मक अनुभूति का होना इस बात का द्योतक है कि संवेगात्मक व्यवहार या संवेगात्मक परिवर्तन पर निर्भर नहीं करता है।

2. इस सिद्धांत के अनुसार संवेगात्मक अनुभूति शारीरिक परिवर्तनों पर आधारित होता है। अगर यह बात सच्ची होती तो जब-जब व्यक्ति में किसी कारण से शारीरिक परिवर्तन होता, उसमें संबंधित संवेग की अनुभूति होती। ब्रेडी (Brady, 1958) द्वारा किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि प्राणी में जब-जब शारीरिक परिवर्तन होता है, तब-तब उसमें संवेग की अनुभूति नहीं होती है। इसका मतलब यह हुआ कि इस सिद्धांत का दावा गलत है।

3. मनोवैज्ञानिकों द्वारा किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ है कि व्यक्ति को संवेगात्मक अनुभव शरीर के भीतरी अंगों में परिवर्तन होने के कुछ पहले ही हो जाता है। इसका स्पष्ट मतलब यह हुआ कि संवेगात्मक अनुभव पहले हो जाते हैं तथा संवेगात्मक परिवर्तन बाद में होते हैं। ऐसी हालत में इस सिद्धांत का यह दावा कि संवेगात्मक अनुभूति संवेगात्मक परिवर्तन द्वारा उत्पन्न होता है, ठीक एवं अर्थपूर्ण नहीं लगता है।

4. इस सिद्धांत के अनुसार, यदि शारीरिक परिवर्तन न हो या उसकी सूचना मस्तिष्क को किसी कारण से नहीं मिलता है, तो संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) नहीं होती है अर्थात् व्यक्ति में किसी प्रकार संवेग नहीं होता है। परंतु कुछ लोगों, जैसे शेरिंगटन (Sherriangton) द्वारा कुत्ते पर किये गए प्रयोगों से यह स्पष्ट हो चुका है कि सिद्धांत का यह दावा गलत है।

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि यद्यपि जेम्स-लाँजे सिद्धांत की आलोचना की गयी है, फिर भी यह सिद्धांत संवेग का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 3.
अभिप्रेरणा का वर्गीकरण क्या है?
उत्तर:
मनोवैज्ञानिकों ने अपने-अपने ढंग से अभिप्रेरणा का वर्गीकरण किया है। आगे कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा प्रतिपादित वर्गीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं –

1. थामसन द्वारा किया गया वर्गीकरण (Classication by Thomson):
थामसन ने अभिप्रेरकों को दो भागों में विभाजित किया है –

(i) प्राकृतिक अभिप्रेरक (Natural Motives):
वे अभिप्रेरक हैं जो जन्म से ही व्यक्ति में पाये जाते हैं। भूख, प्यास, सुरक्षा आदि अभिप्रेरकों से मानव जीवन का विकास होता है।

(ii) कृत्रिम अभिप्रेरक (Artificial Motives):
वे अभिप्रेरक होते हैं, जो वातावरण में विकसित होते हैं। इनका आधार तो प्राकृतिक अभिप्रेरणा होते हैं, परंतु सामाजिकता के आवरण में इनकी अभिव्यक्ति का रूप बदल जाता है। जैसे समाज में मान-प्रतिष्ठा प्राप्त करना, सामाजिक सम्बन्ध बनाना आदि।

2. मैस्लो द्वारा किया गया वर्गीकरण (Classification by Maslow):
मैस्लो ने आवश्यकताओं पर अधिक बल दिया है। उसने आवश्यकताओं की तीव्रता को आधार बनाया है। कुछ आवश्यकताओं ऐसी होती हैं जिन्हें तुरंत पूरा करना पड़ता है। कुछ आवश्यकतायें ऐसी होती हैं जो फुसत से पूरी की जा सकती है। उदाहरणार्थ-भूखा व्यक्ति पहले अपने भोजन की व्यवस्था करता है। भूख मिट जाने के पश्चात् वह सुरक्षा या अन्य किसी आवश्यकता की पूर्ति करता है।

मैस्लो ने अभिप्रेरकों को दो भागों में बाँटा है –

(i) जन्मजात अभिप्रेरक (Inborm Moties):
इसके अन्तर्गत भूख, प्यास, सुरक्षा यौन आदि आ जाते हैं।

(ii) अर्जित अभिप्रेरक (Acquired Motives):
इसके अन्तर्गत वातावरण से प्राप्त अभिप्रेरक आते हैं इनको भी उसने सामाजिक तथा व्यक्तिगत (Social and individual) भागों में बाँटा है। सामाजिक अभिप्रेरकों के अन्तर्गत सामाजिकता, ययुत्सा और आत्मस्थापना एवं व्यक्तिगत अभिप्रेरकों में आदत, रुचि, अभिवृत्ति तथा अचेतन अभिप्रेरक आते हैं।

3. क्रेच एवं क्रचफील्ड द्वारा किया गया वर्गीकरण (Classification by Krech and Crutchfied):
इस प्रकार का वर्गीकरण अभिप्रेरकों की न्यूनता तथा अधिकता पर आधारित है –

(i) न्यूनता (Deficiency) अभिप्रेरक:
अभिप्रेरक मानव के अभाव तथा कमियों को दूर करने में सहायक होते हैं। क्रेच एवं क्रचफील्ड के अनुसार, “न्यूनता का अभिप्रेरक आवश्यकताओं से सम्बन्धित है जिनके द्वारा चिन्ता, डर, धमकी या और कोई मानसिक द्वन्द्व दूर हो जाता है।”

इसका ध्येय मानव का संसार में रहना एवं सुरक्षा प्राप्त करना है। इस प्रकार इन अभिप्रेरकों को चार प्रमुख रूपों में बाँटा गया है –

  • शरीर से सम्बन्धित
  • वातावरण से सम्बन्धित
  • समय से सम्बन्धित और
  • स्वयं से सम्बन्धित

(ii) अधिकता (Abundancy) अभिप्रेरक:
इन अभिप्रेरकों का ध्येय संतोष एवं उत्साह है। क्रेच एवं क्रचफील्ड के अनुसार-“अधिकता के अभिप्रेरक का उद्देश्य संतोष प्राप्ति, सीखना, अवबोध, अन्वेषण तथा अनुसंधान रचना एवं प्राप्ति है।”

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 4.
अभिप्रेरणा की अवधारणाएँ तथा प्रकार बताइये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा की अवधारणायें (Concepts of Motivation)-अभिप्रेरणा की एक विस्तृत अवधारणा है जो शक्ति एवं व्यवहार के निर्देशन के कारकों से जोड़ दी जाती है। जैसे-अभिरुचि, आवश्यकता, मूल्य, प्रवृत्ति, आकांक्षायें, लक्ष्य आदि।

अभिप्रेरणा का व्यवहार प्रभाव –

  1. अभिप्रेरणा व्यवहार को शक्तिशाली बनाती है।
  2. अभिप्रेरणा व्यवहार को उद्देश्य के प्रति निर्देशित करती है।
  3. अभिप्रेरणा व्यवहार के विभिन्न कार्यों की पूर्ति के लिये समय की मात्रा को निर्धारित करती है।

अभिप्रेरणा के प्रकार –

  1. एक-मात्र अभिप्रेरक अवधारणा-फ्रायड के अनुसार मानव के अंदर काम वासना शक्ति का होना है। दूसरे मनोवैज्ञानिकों द्वारा कहा गया है कि मानव व्यवहार चाहे भूख, प्यास, प्रेम आदि से प्रेरित हो इनमें कोई अंतर नहीं आता। तीसरे वह अवधारणा जी सब अभिप्रेरकों को मिलाकर एक सामान्य चिन्ता में बदल देती है।
  2. द्वि-अभिप्रेरक अवधारणा-दो मुख्य विरोधी शक्तियों के रूप में बताया गया है, जैसे-जन्म-मृत्यु, पुरुषत्व-स्त्रीत्व आदि।
  3. बहु-अभिप्रेरक अवधारणा-मेडसन, मेर आदि अनेक विद्वानों ने आवश्यकताओं को मनोवैज्ञानिक प्रकार से सम्मिलित करके उदाहरण प्रस्तुत किया।

प्रश्न 5.
अभिप्रेरणा के व्यवहार के लक्षण बतलाइये।
उत्तर:
अभिप्रेरणा: व्यवहार के लक्षण (Motivation : Behaviour Patterns) अभिप्रेरणा देने के पश्चात् कैसे ज्ञात करेंगे कि उत्प्रेरित व्यक्ति किसी कार्य के लिये तैयार हो गया अथवा नहीं। यह ज्ञात करने के साधन अथवा लक्षण इस प्रकार हैं –

1. उत्सकता (Eagermess):
जब बालक क्रिया को करने के लिये अभिप्रेरित किये जाते हैं तो क्रिया के प्रति उत्सुकता दिखाई देती है। जब उत्सुकता दिखाई दे तो समझे कि बालक क्रियाशील हो गया।

2. शक्ति संचालन (Energy mobilisation):
अभिप्रेरणा प्राप्त होत ही व्यक्ति में अतिरिक्त शक्ति उत्पन्न होती है। अभिप्रेरणा प्राप्त होते ही व्यक्ति घंटों तक बिना थकान के काम करते हैं। शक्ति संचालन में व्यक्ति में बड़े-बड़े कार्य करने की क्षमता पैदा हो जाती है। अभिप्रेरणा प्राप्त करके व्यक्ति श्रेष्ठतम कार्य कर सकते हैं।

3. निरन्तरता (Consistency):
जब तक व्यक्ति को अभिप्रेरणा प्राप्त होती है, तब तक वे कार्य में निरंतर लगे रहते हैं।

4. लक्ष्य प्राप्ति से बैचेनी दूर होना (Reduction of Tension by Achievement of Goal):
अभिप्रेरणा से जो व्यवहार प्रकट होते हैं वे लक्ष्य प्राप्ति के बाद संतोष अनुभव करते हैं। समस्या होते ही बेचैनी दूर हो जाती है।

5. केन्द्रित ध्यान (Concentrated Attention):
अभिप्रेरणा प्राप्त करते ही व्यक्ति क्रिया में ध्यानरत हो जाता है। अभिप्रेरित व्यवहार में व्यक्ति कई प्रकार से उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है।

अभिप्रेरणात्मक व्यवहार (Motivated Behaviour):
इस प्रकार के. व्यवहार की विशेषतायें निम्न प्रकार हैं –

  • अभिप्रेरकों का निर्माण किया जाता है। इससे शक्ति के विकास तथा वृद्धि में गति मिलती है।
  • अभिप्रेरित व्यवहार में आन्तरिक परिवर्तन होता है। भूख के अभिप्रेरक से शरीर में रासायनिक क्रिया होती है और मुख मुद्रा तथा शरीर के अवयवों में परिवर्तन प्रतीत होता है।
  • भूख के प्रेरक के समान ही यौन अथवा सेक्स का अभिप्रेरक होता है। यौन के प्रति आकर्षण से शरीर में उत्तेजना उत्पन्न होती है। व्यक्ति किसी भी प्रकार से उसे शान्त करने का प्रयास करता है। अभिप्रेरित व्यवहार में व्यक्ति-व्यक्ति तथा संस्कृति-संस्कृति की भिन्नता पाई जाती है।
  • मनोवैज्ञानिकों अभिप्रेरकों में समस्या की कठिनाई, वर्गीकरण तथा विश्लेषण निहित होता है।
  • मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरक व्यवहार में व्यवहार की दशा का निर्धारण करते हैं।
  • संग्रह करने की प्रवृत्ति विकसित होती है।
  • व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा तथा ऐश्वर्य प्राप्त के लिये प्रयत्न करता है।
  • अभिप्रेरित व्यवहार में प्राथमिकता पाई जाती है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 6.
अभिप्रेरकों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
अभिप्रेरकों से तात्पर्य (Meaning of Motives) अभिप्रेरक वह शक्ति है जो एक व्यक्ति को कार्य करने के लिये उत्तेजित करती है। वे व्यक्ति के व्यवहार की दिशाओं को निर्धारित करते हैं और उनकी क्रियाओं की गति का संचालन करते हैं। जब किसी व्यक्ति को अभिप्रेरक मिलते हैं तो वह एक तनाव एवं असंतुलन अनुभव करता है। व्यक्ति की लगभग सभी क्रियाएँ अभिप्रेरकों से ही होती हैं। अभिप्रेरक तीन प्रकार से कार्य करते हैं –

  1. यह कार्य का प्रारम्भ करते हैं।
  2. क्रियाओं को गतिशीलता देते हैं और
  3. जब तक उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती, क्रियाओं को एक निश्चित दिशा की ओर प्रेरित किये रहते हैं।

इस प्रकार हम एक अभिप्रेरक की परिभाषा इस तरह दे सकते हैं-“यह क्रिया करने की वह प्रवृत्ति है जो एक उद्दीपन द्वारा प्रारम्भ होती है तथा अनुकूलन द्वारा समाप्त होती है।” आवश्यकता, अन्तर्नोद, प्रोत्साहन तथा अभिप्रेरकों में अंतर-वास्तव में अभिप्रेरक के सम्बन्ध में बहुत से शब्द प्रयोग किये जाते हैं-क्षुधा, आवश्यकतायें, अन्तर्नाद एवं अभिप्रेरक।

अन्तर्नोद शब्द उस समय प्रयोग किया जाता है जब हमें शरीर की आवश्यकताओं से उत्पन्न मानसिक तनाव की अनुभूति हो, जैसे-भूख, प्यास आदि। वातावरण का वह तत्त्व जो एक अन्तर्नाद को सन्तुष्टि करता है, प्रोत्साहन कहलाता है। “भूख” के अन्तर्नोद के लिये भोजन “प्रोत्साहन” है। अभिप्रेरक में “आवश्यकता” और “अन्तर्नाद” के साथ-साथ लक्ष्य की प्राप्ति की भावना का समावेश हो जाता है। इस अवस्था को “अभिप्रेरक” की संज्ञा देते हैं।

अभिप्रेरक के आवश्यक अंग निम्नलिखित हैं –

  1. आवश्यकता एवं अन्तर्नाद जो व्यक्ति में सक्रियता उत्पन्न करती है।
  2. उद्देश्य-प्राप्ति के ओर व्यवहारों की दिशा का नियंत्रण।
  3. उद्देश्य प्राप्त कर लेने के पश्चात् क्रियाओं का अन्त।

प्रश्न 7.
जेम्स-लॉजे सिद्धांत की सीमाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
जेम्स-लॉजे सिद्धांत की कड़ी आलोचना की गई है और इसके अनेकों दोषों का उल्लेख किया गया है –

  1. इस सिद्धांत की आलोचना Cannon तथा Bard ने कड़े शब्दों में की है उन्होंने कहा है कि संवेग का आधार सहानुभूतिक मंडल नहीं है बल्कि Hypothalamus है। बिल्ली पर प्रयोग करते हुए इन्होंने जेम्स लौपे के सिद्धांत को खंडित किया।
  2. इस सिद्धांत की आलोचना Cannon ने करते हुए कहा है कि संवेगात्मक अनुभूति तथा । संवेगात्मक व्यवहार एक ही साथ होते हैं। अतः जेम्स-लॉजे का यह विचार गलत है कि संवेगात्मक व्यवहार पर संवेगात्मक अनुभूति आधारित है।
  3. इस सिद्धांत की आलोचनात्मक रोरिंगटन ने भी की है। उन्होंने अपने प्रयोगों के आधार पर प्रमाणित किया कि सहानुभूतिक मंडल वास्तव में संवेग का केन्द्र का केन्द्र ही है।
  4. शारीरिक परिवर्तनों की चेतना के अभाव में संवेगात्मक अनुभूति संभव नहीं है।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 8.
अभिप्रेरणा के प्रभावक प्रतिकारक कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
अभिप्रेरणा: प्रभावक प्रतिकारक (Motivation : Influencing Factors):
अभिप्रेरणा किस प्रकार प्रभावशाली कार्य करती है, इसका निणर्य अनेक प्रभावक प्रतिकारक करते हैं। अभिप्रेरणा पर कई बातें प्रभाव डालती हैं। प्रमुख प्रभावक तत्त्व निम्न प्रकार हैं –

1. आवश्यकतायें (Needs):
आवश्यकता आविष्कार की जननी है। बालकों तथा बड़ों की भी यही प्रवृत्ति होती है कि वे आवश्यकता के वशीभूत होकर कार्य करते हैं। कार्य से पूर्व आवश्यकता महसूस कराई जाये।

2. अभिवृत्ति (Attitudes):
अभिप्रेरणा व्यक्ति में अभिवृत्ति का विकास करने में सहायक करती है। अभिवृत्ति का विकास होने से वे कार्य को अच्छी तरह करते हैं।

3. रुचि (Interest):
व्यक्ति की जिस काम में रुचि होती है उसे वह तुरंत सीख लेते हैं। प्रस्तुतीकरण से पूर्व व्यक्ति में रुचि पैदा करना आवश्यक है।

4. आदतें (Habits):
आदतें नये ज्ञान को प्रदत्त करने में सहायक होती हैं। नया ज्ञान पूर्व ज्ञान पर आधारित होना चाहिये।

5. संवेगात्मक (Emotional):
स्थिति-संवेगात्मक स्थिति का ध्यान रखना आवश्यक है। सीखे जाने वाले ज्ञान का संवेगात्मक सम्बन्ध स्थापित करने के पश्चात् अभिप्रेरण प्राप्त करने में सफलता प्राप्त करेगा।

6. पुरस्कार एवं दण्ड (Reward and Punishment):
पुरस्कार एवं दण्ड का अभिप्रेरणा में अधिक महत्त्व है। ये भावी व्यवहार पर असर डालते हैं। कार्य में अभिवृत्ति उत्पन्न होने से पुरस्कार के प्रति लालच पैदा नहीं होता। पुरस्कार से लाभ इस प्रकार है –

  • पुरस्कार से आनन्द प्राप्त होता है।
  • पुरस्कार व्यक्ति को कार्य की अभिप्रेरणा देते हैं।
  • पुरस्कार रुचिवर्द्धक एवं उत्साहवर्द्धक होते हैं।
  • पुरस्कार मनोबल उत्पन्न करते हैं एवं व्यक्ति के अहंकार को सन्तुष्ट करते हैं।

पुरस्कार से हानियाँ इस प्रकार हैं –

  • पुरस्कारों से कार्य में अभिरुचि पैदा नहीं होती है।
  • पुरस्कार प्राप्ति के लिये धोखा भी दिया जा सकता है।
  • बिना त्याग प्राप्ति के भावना को प्रोत्साहन मिलता है।
  • केवल पुरस्कार प्राप्ति के लिये कार्य किया जाता है।

विद्यार्थियों में दण्ड के लाभ कुछ इस प्रकार हैं –

  • दण्ड अवांछित कार्य करते से रोकते हैं।
  • अनुशासन का स्वरूप होते हैं।
  • बच्चों को अवांछनीयता. का विश्वास दिलाते हैं।

दण्ड की हानियाँ भी इस प्रकार हैं –

  • दण्ड का आधर भय होता है।
  • दण्ड ग्रहण करने को तैयार व्यक्ति के लिये दण्ड का महत्त्व समाप्त हो जाता है।
  • इससे अप्रिय एवं दुखद अनुभूति पैदा होती है।
  • दण्ड के परिणाम स्थायी नहीं होते।
  • दण्ड से दुर्भावना पैदा होती है।
  • दण्ड की कठोरता की कोई माप नहीं है।

वास्तव में पुरस्कार एवं दण्ड, दोनों का उद्देश्य एक ही है, यानी भावी व्यवहार पर अनुकूल प्रभाव डालना। पुरस्कार व्यवहार पर वांछित प्रभाव डालने के लिये तथा दण्ड एक अवांछित कार्य को रोकने के लिये उसके साथ एक अप्रिय अनुभूति को जोड़ता है।

7. प्रतियोगिता (Competition):
प्रतियोगितायें ज्ञान प्राप्ति की अभिप्रेरणा दे सकती है। प्रतियोगितयों दो प्रकार की होती हैं –

  • व्यक्तिगत प्रतियोगिता एवं
  • सामूहिक प्रतियोगिता

8. प्रगति का ज्ञान (Knowledge of Progress):
व्यक्ति को अपने ज्ञानार्जन की प्रगति को बताये रहना चाहिये। ऐसा करने से क्रियाशीलता आती है।

9. असफलता का भय (Threat of Fear):
व्यक्ति को कभी उसकी असफलताओं का भय भी दिखाते रहना चाहिये।

10. आकांक्षा का स्तर (Level of Aspiration):
व्यक्ति को यह अभिप्रेरित करना चाहिये कि उसकी आकांक्षाओं का आधार उसकी शारीरिक, मानसिक परिपक्वता के अनुकूल होना चाहिये। स्तर से ऊपर होने से कार्य में अरुचि एवं अनिच्छा विकसित हो जाती है।

11. परिचर्चायें तथा सम्मेलन (Seminars and Conferences):
सामूहिक कार्य करने के लिये सीखने पर अधिक बल दिया जाता है। समूह में अधिक ज्ञान प्राप्त किया जाता है। परिचर्चायें एवं सम्मेलन ज्ञानवर्धन के लिये अतिआवश्यक हैं।

12. वातावरण (Environment):
वातावरण इतना आकर्षण हो कि सीखने वाले को स्वयं अभिप्रेरणा प्राप्त हो। व्यक्ति तथा समूह ही वातावरण का निर्माण करते हैं।

Bihar Board Class 11 Psychology Solutions Chapter 9 अभिप्रेरणा एवं संवेग

प्रश्न 9.
संवेग के कैनन-बार्ड सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर:
संवेग के इस सिद्धांत की व्यख्या कैनन (Canon) तथा बॉर्ड (Bard) द्वारा किया गया है। इस सिद्धांत द्वारा प्रदत्त व्याख्या जेम्स-लांजे सिद्धांत की व्याख्या के विपरीत है। इस सिद्धांत के अनुसार हाइपोथैलेमस (hypothalamus) ही संवेग का केन्द्र (centre) होता है। संवेग में हाइपोथैलेमस के इस महत्त्व के कारण ही इसे हाइपोथैलेमिक सिद्धांत (hyphothamic theory) भी कहा जाता है। इस सिद्धांत द्वारा संवैग की व्याख्या निम्नांकित चरणों में की गयी है –

  • संवेग उत्पन्न करने वाला उद्दीपन (stimulus) को व्यक्ति प्रत्यक्षण करता है जिसके परिणामस्वरूप तंत्रिका आवेग (nerve impuse) व्यक्ति में उत्पन्न होता है।
  • तंत्रिका आवेग हाइपोथैलेमस (hypothalamus) होते हुए मस्तिष्क वल्क (cerebral cortex) में पहुँचता है। इससे हाइपोथैलेमस में हल्का-फुल्का उत्तेजना उत्पन्न हाता है।
  • प्रमस्तिष्क वल्क से विशेष तंत्रिका आवेग पुनः हाइपोथैलेमस (hypothalamus) में पहुँचता है। इस तंत्रिका आवेग के पहुँचते ही पहले से क्रियाशील हाइपोथैलेमस पर से प्रमिस्तिष्क वल्क का नियंत्रण पूर्णतः हट जाता है जिसके परिणामस्वरूप हाइपोथैलेमस पूर्णतः क्रियाशील या उत्तेजित हो उठता है।
  • हाइपोथैलेमस के क्रियाशील होने से वहाँ से एक समय तंत्रिका आवेग दो दिशाओं में जाता है-ऊपरी दिशा तथा निचली दिशा।
  • ऊपरी दिशा में जाने वाला तंत्रिका का आवेग प्रमस्तिष्क (cerebrum) में पहुँचता है तथा निचली दिशा में जाने वाला तंत्रिका आवेग अन्तरावयव (visceral organs) तथा मांसपेशियों में पहुंचता है।
  • प्रमस्तिष्क में तंत्रिका आवेग को पहुँचने के परिणामस्वरूप व्यक्ति को संवेगात्मक अनुभूति (emotional experience) होता है तथा अन्तरावयव एवं मांसपेशियों में पहुंचने वाले तंत्रिका आवेग से व्यक्ति में संवेगात्मक व्यवहार दोनों ही एक साथ उत्पन्न होते हैं न कि इसमें से संवेगात्मक अनुभूति का होना संवेगात्मक व्यवहार पर निर्भर करता है, जैसा कि जेम्स-लाँजे सिद्धांत की मान्यता है।

इस सिद्धांत के समर्थन में कैनन तथा बार्ड द्वारा स्वतंत्र रूप से कुत्ता पर प्रयोग किया गया। प्रयोग काफी सरल था। प्रयोग में कुत्ते के मस्तिष्क से हाइपोथैलेमस को काटकर निकाल दिया गया या कुछ कुत्ते के हाइपोथैलेमस में घाव (wound) उत्पन्न कर दिया गया। इसके बाद इन कुत्तों के सामने बिल्ली (cat) लायी गयी। परिणाम में देखा गया कि कुत्ता शांतभाव से बिना क्रोध दिखलाये चुपचाप बैठा रहा। इन प्रयोगों के परिणाम के आधार पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि संवेग का केन्द्र हाइपोथैलेमस होता है।

इस सिद्धांत की कुछ आलोचनाएँ हैं जिसमें निम्नांकित प्रमुख हैं –

1. मासरमैन (Masserman) द्वारा किये गये प्रयोगों से यह स्पष्ट हुआ है कि हाइपोथैलेमस को संवेग का केन्द्र मानना अधिक वैज्ञानिक नहीं है। उन्होंने बिल्ली पर प्रयोग करके यह दिखला दिया है कि सिर्फ हाइपोथैलेमस को उत्तेजित करने से जो संवेग उत्पन्न होता है, वह अस्पष्ट, विकीर्ण, यांत्रिक तथा लगभग अर्थहीन होता है।

इनके प्रयोग में देखा गया कि बिल्ली के हाइपोथैलेमस को बिजली से उत्तेजित करने से उसके शरीर के बाल खड़े हो गए मानो वह क्रोधित हो गयी है। परंतु सचमुच में क्रोध या अन्य कोई संवेग के उत्पन्न होने का कोई निश्चित लक्षण उसमें नहीं था जिसका सबूत यह था कि बिल्ली लगभग सामान्य अवस्था में समान भोजन कर रही थी।

2. कुछ मनोवैज्ञानिकों जैसे किंग तथा मेयर (King & Mayer) द्वारा किये गए प्रयोगों से यह स्पष्ट हुआ है कि हाइपोथैलेमस को संवेग का केन्द्र मानना उचित नहीं है, क्योंकि मस्तिष्क के अन्य भाग जैसे लिम्बिक तंत्र, ऐमिगडाला आदि को उत्तेजित करने से भी प्राणी में संवेग उत्पन्न होता है। इन आलोचनाओं के बावजूद कैनन-बार्ड सिद्धांत संवेग का एक प्रमुख सिद्धांत है तथा अनेक मनोवैज्ञानिकों द्वारा इस सिद्धांत की मान्यता स्वीकार की गयी है।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन

Bihar Board Class 9 Social Science Solutions Geography भूगोल : भारत : भूमि एवं लोग Chapter 8 मानचित्र अध्ययन Text Book Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Social Science Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन

Bihar Board Class 9 Geography मानचित्र अध्ययन Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
कौन सी विधि सर्वाधिक मान्य है ?
(क) प्राकथन
(ख) निरूपक भिन्न
(ग) आरेख
(घ) कोई नहीं
उत्तर-
(ख) निरूपक भिन्न

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन

प्रश्न 2.
मानचित्र की दूरी को मापनी में कैसे जाना जाता है ?
(क) अंश
(ख) हर
(ग) मापनी का प्रकथन
(घ) कोई नहीं
उत्तर-
(क) अंश

प्रश्न 3.
मापन में हर व्यक्त करता है
(क) धरातल की दूरी
(ख) मानचित्र पर दूरी
(ग) दोनों दूरियाँ
(घ) उनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(क) धरातल की दूरी

प्रश्न 4.
निम्नलिखित में से कौन-सा मापक भिन्न है ?
(क) मीटर
(ख) सेंटीमीटर
(ग) दोनों दूरियाँ
(घ) इनमें से कोई नहीं
उत्तर-
(ख) सेंटीमीटर

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन

प्रश्न 5.
निम्न में किस मापनी के द्वारा किलोमीटर और मील दोनों की दूरियों को दर्शाया जा सकता है ?
(क) रेखीय मापनी
(ख) आरेखीय मापनी
(ग) प्रतिनिधि भिन्न
(घ) तुलनात्मक मापनी
उत्तर-
(घ) तुलनात्मक मापनी

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मापक क्या है ? मापक का क्या महत्व है ? स्पष्ट करें।
उत्तर-
मानचित्र पर प्रदर्शित किए गए. किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच की दूरी और धरातल पर उन्हीं दो बिन्दुओं के बीच की वास्तविक दूरी के अनुपात को मापने की विधि को मापक कहते हैं।
मापक का महत्त्व-मानचित्र बनाने में मापक का उपयोग आवश्यक है। इसके बिना कोई भी मानचित्र बनाना संभव नहीं। जमीन की वास्तविक दूरी के बराबर कागज का प्रयोग करना संभव नहीं है अतः मापनी का विकास किया गया।

मापक धरातल के क्षेत्र को मानचित्र पर सही नहीं प्रदर्शित करने की विधि है । मापक के माध्यम से विस्तृत भू-खण्डों को मानचित्र पर लघु रूप में प्रदर्शित कर सकते हैं। मापक किसी क्षेत्र के क्षेत्रफल की जानकारी देता है । मापक की सहायता से किसी भी धरातल को बड़े या छोटे आकार में प्रदर्शित किया जा सकता है । मापक भू-सर्वेक्षण के लिए भी अनिवार्य होता है।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन

प्रश्न 2.
मापक को प्रदर्शित करने की विधियाँ बताएँ।
उत्तर-
मापक को प्रदर्शित करने की तीन विधियाँ हैं-(i) कथन विधि (ii) प्रदर्शक विधि (ii) रैखिक मापक विधि।

प्रश्न 3.
प्रतिनिधि अथवा प्रदर्शक भिन्न क्या है ?
उत्तर-
प्रतिनिधि भिन्न (Representative Fraction) एक ऐसे भिन्न द्वारा प्रकट किया जाता है जिसका अंश सदैव 1 होता है जो मानचित्र की दूरी को प्रदर्शित करता है तथा ‘हर’ उसी के इकाई में होता है जो धरातल की दूरी को प्रदर्शित करता है । इसे प्रदर्शक भिन्न भी कहा जाता है। जैसे-1 : 250,000,000 का तात्पर्य है मानचित्र का ।” धरातल के 250,000,000 के बराबर है।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन

प्रश्न 4.
मापक कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर-
मापक के दो प्रकार होते हैं- (i) लघुमापक और (ii) दीर्घ मापक ।

प्रश्न 5.
मापक की दो विभिन्न प्रणालियाँ कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर-
मापक की प्रणालियों में-(i) कथन विधि प्रणाली (ii) प्रदर्शक भिन्न प्रणाली।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन

प्रश्न 6.
प्रदर्शक भिन्न विधि को सर्वमान्य विधि क्यों कहा जाता है ?
उत्तर-
प्रदर्शक भिन्न विधि द्वारा प्रत्येक देश का नागरिक आसानी से
मानचित्र का अध्ययन कर सकता है । जैसे-50000000 का तात्पर्य मानचित्र का 1 ईंच, धरातल के 250,000,000 ईंच के बराबर है। इसी तरह मानचित्र का 1 से०मी० धरातल \(\frac{1}{1,250,000,000}\) से०मी० का प्रदर्शित कर रहा है। प्रदर्शक भिन्न को विश्व के किसी भी देश की मापन प्रणाली के अनुसार बदल कर समझा जा सकता है। इसलिए इसे अन्तर्राष्ट्रीय मापक भी कहते हैं।

प्रश्न 7.
आलेखी विधि के मुख्य उपयोग क्या हैं ?
उत्तर-
आलेखी विधि का मुख्य उपयोग है दो बिन्दुओं के बीच की दूरी और धरातल पर उन्हीं दो बिन्दुओं के बीच की वास्तविक दूरी को ज्ञात करना।

प्रश्न 8.
तुलनात्मक मापक की क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर-
तुलनात्मक मापक में एक या एक से अधिक माप प्रणालियों में दूरियाँ प्रदर्शित की जाती हैं। इस मापक की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसके द्वितीयक और प्राथमिक मापक की शुरुआत एक हो संदर्भ रेखा अर्थात् शून्य मान से होता है।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
मापक क्या है ? मानचित्र के लिए इसका क्या महत्व है ? मापक को प्रदर्शित करने के लिए विभिन्न विधियों का विस्तृत वर्णन करें।
उत्तर-
मापक मानचित्र पर किन्हीं दो बिन्दुओं के बीच की दूरी तथा पृथ्वी पर उन्हीं दो बिन्दुओं के बीच की वास्तविक दूरी के अनुपात को कहते हैं। .. मानचित्र के लिए इसका महत्त्व-भूगोल को मानचित्र का विज्ञान भी कहते हैं। अत: मानचित्र बनाने के लिए मापक का उपयोग अनिवार्य है। भू-सर्वेक्षण के लिए भी मापक अनिवार्य होता है। मापक से किसी क्षेत्र के क्षेत्रफल की जानकारी प्राप्त होती है।
मापक को प्रदर्शित करने की विभिन्न विधियाँ-

    • कथन विधि-इस विधि में मापक को एक कथन द्वारा व्यक्त किया जाता है । जैसे-1 सेमी =5 किलोमीटर या 1 ईंच = 18 मील आदि । 1 सेमी० = 5 किमी० का अर्थ यह है कि मानचित्र पर 1 सेमी की दूरी धरातल पर 5 किमी० की दूरी को प्रदर्शित करता है। यह एक सरलतम विधि है।
    • प्रतिनिधि भिन्न-इसे एक भिन्न द्वारा दिखाया जाता है। इसका ‘अंश’ हमेशा (एक रहता है और ‘हर’ इसके इकाई में होता है जैसे-1 सेंटीमीटर = 5 सेंटीमीटर RF (प्रतिनिधि भिन्न) Or, 1:500000.
    • रैखिक मापक-इस विधि को सरल विधि भी कहते है । जब हम मानचित्र पर सरल रेखा का सुविधानुसार विभागों में बाँट देते हैं । मुख्य या मूल भाग पर बड़ी इकाई जैसे-मील अथवा किलोमीटर तथा गौण या उपविभाग पर छोटी इकाई जैसे फलांग या मीटर दर्शाया जाता है।
      Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन - 1

प्रश्न 2.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए
(i) प्रदर्शक भिन्न, (ii) कर्णवत मापक, (iii) कथात्मक मापका
उत्तर-
(i) प्रदर्शक भिन्न : यह मापक बताने का गणितीय ढंग है। जैसे-या 1: 200 जिसका तात्पर्य है मानचित्र पर 1 सेमी धरती के 200 सेमी० का प्रतिनिधित्व करता है।
(ii) कर्णवत मापक : इसमें एक रेखा खींच कर उसके उपविभाग द्वारा माप के अंक लिखा जाता है। जैसे100Fमाम
Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 8 मानचित्र अध्ययन - 2
(iii) कथात्मक मापक : मानचित्र की दूरी और जमीन की दूरी का संबंध शब्दों में विवरण के रूप में बताना । जैसे-1 सेंटीमीटर = 5 सेंटीमीटर या 1 सेंटीमीटर = 1 किलोमीटर आदि ।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 7 शश-सिंह कथा

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Amrita Bhag 1 Chapter 7 शश-सिंह कथा Text Book Questions and Answers, Summary.

BSEB Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 7 शश-सिंह कथा

Bihar Board Class 6 Sanskrit शश-सिंह कथा Text Book Questions and Answers

अभ्यासः

मौखिक –

प्रश्न 1.
निम्न शब्दों के अर्थ बताएँ –

(भयंकरः, भोजनाय, पशवः, भीताः, तदा, विलम्बेन, आगतः, सर्वान्, अरक्षत्, बलम्)
उत्तर-

  1. भयंकरः – भयानका
  2. भोजनाय – भोजन के लिए।
  3. पशवः – सभी पशु
  4. भीताः – डरा हुआ।
  5. तदा – उस समय।
  6. विलम्बेन – विलम्ब से।
  7. आगतः – आया।
  8. सर्वान् – सबों को।
  9. अरक्षत् – रक्षा किया।
  10. बलम् – बल।

प्रश्न 2.
इच्छानुसारेण’ के समान इन शब्दों को जोड़कर बताएँ –

  1. नियम + अनुसारेण
  2. कर्म + अनुसारेण
  3. विद्या + आलयः
  4. समय + अनुसारेण
  5. धर्म + अनुसारेण।

उत्तर-

  1. नियमानुसारेण
  2. कर्मानुसारेण
  3. विद्यालयः
  4. समयानुसारेण
  5. ध नुसारेण ।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 7 शश-सिंह कथा

प्रश्न 3.
इन शब्दों का पंचमी एकवचन में रूप बताएँ –

  1. सिंह
  2. शश
  3. शरीर
  4. कूप
  5. बल

उत्तर-

  1. सिंहात्श
  2. शात्श
  3. रीरात
  4. कूपात
  5. बलात्

प्रश्न 4.
‘तत्र’ शब्द से युक्त पाँच वाक्य बोलें ।
उत्तर-

  1. तत्र विद्यालयः अस्ति
  2. तत्र मम् गहं अस्ति
  3. तत्र रमेशः अपि पठति
  4. तत्र गणेशपूजनं अस्ति
  5. तत्र पुष्पाणि सन्ति।

लिखितः

प्रश्न 5.
इन वाक्यों में रिक्त स्थानों को सही शब्दों से भरें

  1. एकस्मिन् ………… एक: भयंकरः सिंहः वसति स्म ।
  2. सर्वे पशवः …………… अभवन् ।
  3. तदा सिंहः ……………. इति अवदत् ।
  4. सः विलम्बेन सिंहसमोपम् ………….. ।
  5. …………. बलं तस्य ।

उत्तर-

  1. एकस्मिन् वने एक: भयंकरः सिंहः वसति स्म ।।
  2. सर्वे पशवः भीताः अभवन् ।
  3. तदा सिंहः आम इति अवदत् ।
  4. सः विलम्बेन सिंहसमीपम् अगच्छत् ।
  5. बुद्धिर्यस्य बलं तस्य ।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 7 शश-सिंह कथा

प्रश्न 6.
संस्कृत में अनुवाद करें

  1. जंगल में एक सिंह था। (आसीत्)
  2. वह इच्छानुसार भोजन करता है। (भोजनं करोति)
  3. गुस्सा मत करो। (कुरू)
  4. वह गुफा में रहता है। (तिष्ठति)
  5. जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है।

उत्तर-

  1. वने एकः सिंहः आसीत्।
  2. सः इच्छानुसारेण भोजनं करोति।
  3. क्रोधं मा कुरू।
  4. सः गुहायाम् तिष्ठति ।
  5. यस्य बुद्धिः तस्य बलम् ।

प्रश्न 7.
इन शब्दों से वाक्य बनाएँ –

  1. भयंकरः
  2. सिंहः
  3. तदा
  4. वने
  5. बुद्धिमान
  6. कुत्र।

उत्तर-

  1. भयंकर – भयंकरः सिंहः वने वसति।
  2. सिंह – सिंहः भयंकरः आसीत् ।
  3. तदा – तदा सः वनं अगच्छत् ।
  4. वने – वने पशवः वसन्ति ।
  5. बुद्धिमान् – बुद्धिमानः विजयी भवति ।
  6. कुत्र – कुत्र त्वम् गच्छसि?

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 7 शश-सिंह कथा

प्रश्न 8.
इस कहानी से क्या शिक्षा मिलती है ? पाँच वाक्यों में लिखें।
उत्तर-
खरगोश और सिंह की कहानी से शिक्षा मिलती है कि

  1. जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है।
  2. जहाँ बल से काम नहीं हो वहाँ बुद्धि का प्रयोम करना चाहिए।
  3. छोटे शरीर वाले भी यदि बुद्धिमान हों तो बलशाली पर विजय प्राप्त कर सकता है।
  4. बल का घमण्ड नहीं करना चाहिए।
  5. गुस्सा करने से बुद्धि मारी जाती है।

प्रश्न 9.
इस कहानी के आधार पर कोई कहानी लिखें।
उत्तर-
किसी पेड़ पर कौवा-कौवी की जोड़ी रहता था। उसी पेड़ के खोखड़ में एक भयंकर काला सौंप भी रहता था। वह साँप कौवा-कौवी के अण्डे को खा जाता था। .. एक रोज कौवी ने कौवा से बोली- नाथ! हमदोनों इस पेड़ को छोड़कर अन्यत्र चलें। क्योंकि यहाँ हमदोनों के बच्चे का जीवन सुरक्षित नहीं है। काला साँप हमारे बच्चे को खा जाता है। कौवा बोला – डरो मत। मैंने उसके अपराध को बहुत सह लिया है। अब नहीं सहूँगा। कौवी बाली – उतने बलवान के साथ कैसे झगड़ा करोगे ।

कौवा बोला- चिन्ता मत करो, यहाँ के तालाब में राजकुमार स्नान करते समय अपना वस्त्र और सोने का सिकरी पत्थर पर रख देता है। जब वह पानी में स्नान के लिए प्रवेश करेगा. तब उसके सोने की सिकरी को चोंच से उठाकर खोखड़ में डाल दूँगा। सिपाही मेरे पीछे दौड़ते हुए खोखड़ के पास आयेंगे । वहाँ साँप को मारकर मिकरी ले जायेंगे । दूसरे दिन कौवा ने वैसा ही किया। साँप मारा गया। कौवी-कौवा निर्भय होकर पेड़ पर रहने लगे। अत: सही कहा गया है – बुद्धि से जो काम होता है वह बल से नहीं हो सकता है।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 7 शश-सिंह कथा

प्रश्न 10.
निम्नलिखित शब्दों का वर्ण-विच्छेद करें –
जैसे- वने – व + अ + न + अ + ए ।

प्रश्न (क)
वसति …….. ।
उत्तर-
व् + अ + स + अ + त+इ।

प्रश्न (ख)
गच्छतु …….. ।
उत्तर-
ग् + अ + च् + छ + अ + त् + उ ।

प्रश्न (ग)
क्रमश: ……… ।
उत्तर-
क् + र् + अ + म् + अ +श् +अ ।

प्रश्न (घ)
एकस्मिन् …….. ।
उत्तर-
ए + क् + अ + स् + म् ।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 7 शश-सिंह कथा

प्रश्न (ङ)
राजन् ……….. ।
उत्तर-
र् + आ + ज् + अ + न् ।

प्रश्न 11.
इनका सुमेल करें –

  1. सिंहः – (क) भीताः
  2. शशः – (ख) गर्जति
  3. पशवः – (ग) लघुः पशुः
  4. पशूनां संख्या – (घ) बलम्
  5. बुद्धिः – (ङ) क्षीणा

उत्तर

  1. सिंहः – (ख) गर्जति
  2. शशः – (ग) लघुः पशुः
  3. पशवः – (क) भीताः
  4. पशूनां संख्या – (ङ) क्षीणा
  5. बुद्धिः – (घ) बलम्

Bihar Board Class 6 Sanskrit शश-सिंह कथा Summary

(खरगोश और शेर की कहानी)

पाठ – एकस्मिन् वने एक: भयंकरः सिंहः वसति स्म । स वने इच्छानुसारेण पशून भोजनाय मारयति स्म। अतः सर्वे पशवः
भीताः अभवन् । ते मिलित्वा विचारम् अकुर्वन् –

अर्थ – एक वन में एक भयंकर सिंह रहता था। वह जंगल में इच्छा अनुकूल पशुओं को भोजन के लिए मारता था। अत: सभी पशु भयभीत हो गये । उन सबों ने मिलकर विचार किया

पाठ – प्रतिदिनम् एकैकः पशुः सिंहस्य भोजनाय स्वयं गच्छतु । स्वविचारं ते सिंहस्य समीपं अस्थापयत् । तदा सिंहः “आम्” इति अवदत् ।

अर्थ – प्रतिदिन एक-एक पशु सिंह के भोजन के लिए स्वयं जाय। अपना विचार वे सभी सिंह के समीप रखा। तब सिंह ने “हाँ” कह दिया।

पाठ – एवम् एकैकः पशुः सिंहस्य भोजनकाले प्रतिदिनम् अगच्छत्।वने पशव: निश्चिन्ताः अभवन् । किन्तु एव पशूनी संख्या क्रमशः क्षीणा अभवत् ।

अर्थ – इस प्रकार एक-एक पशु सिंह के भोजन के समय प्रतिदिन जाते थे। वन में सभी पशु निश्चिन्त हो गये। किन्तु इससे पशुओं की संख्या दिन-प्रतिदिन घटती गई।

Bihar Board Class 6 Sanskrit Solutions Chapter 7 शश-सिंह कथा

पाठ – एकस्मिन् दिवसे एकस्य शशस्य वारः आसीत्। सः विलम्बेन सिंहसमीपम् अगच्छत् । तस्य अल्पशरीरेण, विलम्बेन आगमने च सिंहः कुपितः अभवत् । सः अवदत्रे दुष्ट ! कथं त्वम् एकाकी विलम्बेन च आगतः ? बुद्धिमान् शशः अवदत्- राजन् ! कोपं न कुरू । एक: अन्यः सिंहः मार्गे मिलितः। स गुहायां तिष्ठति ।

अर्थ – एक दिन एक खरगोश की बारी थी। वह विलम्ब से सिंह के समीप गया। उसके छोटे शरीर देखकर और देर से आने के कारण सिंह गुस्सा में आ गया। वह बोला -रे दुष्ट! क्यों तुम अकेले और विलम्ब से आया है? बुद्धिमान खरगोश कहा- हे राजन! गुस्सा नहीं करें। एक अन्य शेर रास्ते में मिला। वह गुफा में रहता है।

पाठ – सिंहः अवदत्-कुत्र सः ? नय मां तत्र । हनिष्यामि तं – दुष्टम् । शशः सिंह कूपसमीपम् अनयत् । तत्र कूपे स्वच्छायाम् सिंह अपश्यत् । अन्यं सिंह मत्वा कोपेन सः कूपे अकूर्दत् । तत्र स कालेन मृतः एवं शशस्य बुद्धिः सर्वान् पशून् अरक्षत् । अतः कथयन्ति-बुद्धिर्यस्य बलं तस्य।

अर्थ – शेर बोला- कहाँ है वह ? मझे वहाँ ले चलो। मैं उस दृष्ट को मार दूंगा। खरगोश सिंह को कुआँ के समीप ले गया। वहाँ कुआँ में अपनी छाया सिंह ने देखा। दूसरा शेर मानकर गुस्सा से वह कुआँ में कूद गया। उसी समय वह मर गया। इस प्रकार खरगोश की बुद्धि ने सभी पशुओं की रक्षा की । इसलिए कहा गया है- जिसके पास बुद्धि है उसी के पास बल है।

शब्दार्थाः– एकस्मिन् – एक (वस्तु) में। वसति स्म – निवास करता था। पशुन् – पशुओं को। भीता अभवन – डर गये थे। मिलित्वा – मिलकर। भोजनाय – भोजन के लिए। गच्छतु – जाय। क्षीणा – कम(नष्ट)। वारः – बारी, पारी। एकाकी – अकेला। विलम्बेन – विलम्ब से। कुपितः – क्रोध से भरा हुआ। अभवत् – हो गया (हुआ)। अवदत् – बोला। कथम् क्यों/कैसे। कुरु – करो। मार्गे – रास्ते में। हनिष्यामि – मार दूंगा । तं दुष्टम् – उस दृष्ट को। कूप-समीपम् – कुएँ के पास । अनयत् – ले गया। स्वच्छायाम् – अपनी परिछाई को । अपश्यत् – देखा । मत्वा – समझकर, कोपेन – गुस्सा से, अकूर्दत् -कूद गया । सर्वान् – सभी को। कथयन्ति – कहते/कहती हैं। बुद्धिर्यस्य (बुद्धिः + यस्य)- जिसके पास बुद्धि है। बलंतस्य – उसी के पास बल

व्याकरणम्

एकस्मिन् – एक (सप्तमी एकवचन (पुं./नपुं.) ।
इच्छानुसारेण – इच्छा + अनुसोरण(तृतीय एकवचन)

  1. एकैक: – एक + एक:।
  2. निश्चिन्ताः – निः + चिन्ताः ।
  3. बुद्धिर्यस्य – बुद्धिः + यस्य ।
  4. आसीत् – अस् + लड्. लकार ।
  5. हनिष्यामि – हन् + लृट् लकार ।
  6. अकूर्दत् – कुर्द + लड् लकार ।
  7. अगच्छत् गम् + लड् लकार ।
  8. अपश्यत् – दृश + लड्लकार।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

Bihar Board Class 9 Social Science Solutions Geography भूगोल : भारत : भूमि एवं लोग Chapter 6 जनसंख्या Text Book Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 9 Social Science Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

Bihar Board Class 9 Geography जनसंख्या Text Book Questions and Answers

वस्तुनिष्ठ प्रश्न

बहुविकल्पीय प्रश्न :

प्रश्न 1.
भारत में सर्वाधिक साक्षरता दर किस राज्य की है ?
(क) पश्चिम बंगाल
(ख) महाराष्ट्र
(ग) बिहार
(घ) केरल
उत्तर-
(घ) केरल

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

प्रश्न 2.
भारत की औसत आयु संरचना क्या है ?
(क) 64.6 वर्ष
(ख) 64.9 वर्ष
(ग) 81.6 वर्ष
(घ) 70.2 वर्ष
उत्तर-
(क) 64.6 वर्ष

प्रश्न 3.
2001 ई० की जनगणना में प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं के अनुपात की क्या स्थिति है ?
(क) 927 महिलाएँ
(ख) 990 महिलाएँ
(ग) 933 महिलाएँ
(घ) 1010 महिलाएँ
उत्तर-
(ख) 990 महिलाएँ

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

प्रश्न 4.
भारत औसत जनसंख्या घनत्व प्रतिवर्ग कि० मी० क्या है ?
(क) 318 व्यक्ति
(ख) 325 व्यक्ति
(ग) 302 व्यक्ति
(घ) 288 व्यक्ति
उत्तर-
(ग) 302 व्यक्ति

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
1951 ई0 में भारत की जनसंख्या कितनी थी ?
उत्तर-
1951 ई० में भारत की जनसंख्या 3.610 लाख थी।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

प्रश्न 2.
भारत में 2001 ई० में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत था ?
उत्तर-
भारत में 2001 ई० में नगरीय जनसंख्या 27.78% हो गई।

प्रश्न 3.
केरल में प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या क्या है ?
उत्तर-
केरल में प्रति 1000 पुरुष पर महिलाओं की संख्या 1058 है।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

प्रश्न 4.
भारत की साक्षरता दर का वर्णन करें।
उत्तर-
भारत की साक्षरता के स्तर में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है । 2001 ई० की जनगणना के अनुसार देश की साक्षरता दर 64.84 प्रतिशत पुरुषों का 73 प्रतिशत एवं महिलाओं की 53.67 प्रतिशत है।

प्रश्न 5.
भारत में लिंग अनुपात की विशेषताओं को बताएँ।
उत्तर-
प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या को लिंग अनुपात कहा जाता है। भारत में लिंग अनुपात महिलाओं के पक्ष में नहीं हैं । सन् 1951 से 2001 के बीच लिंग अनुपात की सारणी इस प्रकार है-
Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या - 1

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

प्रश्न 6.
जनगणना से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
एक निश्चित समयांतराल को आधिकारिक गणना को जनगणना कहते हैं। भारत में सबसे पहले 1872 ई० में जनगणना की गई थी। सन् 1881 ई० में पहली बार सम्पूर्ण जनगणना की गयी थी। उसी समय से प्रत्येक 10 वर्ष पर जनगणना होती है।
भारतीय जनगणना जनसंख्यिकी, समसामयिक तथ्यों तथा आर्थिक आँकड़ों का सबसे बृहद स्रोत है।।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1.
भारत की जनसंख्या वृद्धि की विशेषताओं को बताएँ।
उत्तर-
जनसंख्या में वृद्धि की विशेषताएँ मुख्यतः चार हैं-(i) जन्मदर (ii) मृत्युदर (iii) प्रवास तथा (iv) व्यावसायिक संरचना।
(i) जन्मदर-एक वर्ष में प्रति हजार व्यक्तियों में जितने बच्चों का जन्म होता है, उसे ‘जन्मदर’ कहते हैं। यह वृद्धि का एक प्रमुख घटक है क्योंकि भारत में हमेशा जन्मदर मृत्युदर से अधिक रहा है। भारत की

आबादी 1951 में 3.60 लाख से बढ़कर 2001 में 10.280 लाख हो गई। वार्षिक वृद्धि 1.93% के हिसाब से बढ़ी।

(ii) मृत्युदर-एक वर्ष में प्रति हजार व्यक्तियों के मरने की संख्या को मृत्युदर कहा जाता है । मृत्युदर में तेजी से गिरावट भारत की जनसंख्या में वृद्धि की दर का प्रमुख कारण है। 1980 तक उच्च जन्मदर में धीमी गति से एवं मृत्युदर में तीव्र गति से गिरावट के कारण जन्मदर और मृत्युदर में काफी बड़ा अन्तर आ गया है । इसके कारण जनसंख्या में विस्फोट हो गया।

(iii) प्रवास-लोगों का एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में चले जाने को प्रवास कहते हैं। प्रवास केवल जनसंख्या के आकार को ही प्रभावित नहीं करता, बल्कि उम्र एवं लिंग के वृद्धि में ग्रामीण-नगरीय प्रवास के कारण शहरों तथा नगरों की जनसंख्या में नियमित वृद्धि हुई है। 1951 में कुल जनसंख्या की 17.29% नगरीय जनसंख्या थी, जो 2001 में बढ़ कर 27.78% हो गई । एक दशक (1991 से 2001) के भीतर 10 लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगरों की संख्या 23 से 35 हो गयी है।

(iv) व्यावसायिक संरचना-आर्थिक रूप से क्रियाशील जनसंख्या का प्रतिशत विकास का एक महत्त्वपूर्ण सूचक है। विभिन्न प्रकार के व्यवसायों के अनुसार किए गए जनसंख्या के आर्थिक वितरण को व्यावसायिक संरचना कहते हैं । भारत एक कृषि प्रधान देश है अत: 64% जनसंख्या गाँवों में कृषि कार्य पर आधारित है । शहरों में जीविका-निर्वाह के साधनों के बढ़ने से सुरक्षा के ख्याल से भी नगरों की संख्या बढ़ रही

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

प्रश्न 2.
भारत के विषम जनसंख्या घनत्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर-
जनसंख्या घनत्व का तात्पर्य भूमि के प्रति इकाई पर अधि वासित होनेवाली जनसंख्या है। भारतीय जनगणना विभाग द्वारा स्तरीय मापक के रूप में प्रतिवर्ग कि०मी० को एक इकाई माना गया है । इस दृष्टि से, भारत की जनगणना 2001 के अनुसार, भारत का औसत जनसंख्या घनत्व 325 व्यक्ति प्रति वर्ग कि०मी० है लेकिन इसमें भारत में विषमता है।

मैदानी राज्यों में सर्वाधिक घनत्व है, तरायी राज्यों में भी काफी घनत्व है लेकिन पर्वतीय राज्यों में, अधिवासी आर्थिक संरचनात्मक सुविधा की कमी के कारण घनत्व पाये जाते हैं। पठारी राज्यों में सामान्य घनत्व की स्थिति है। भारतीय राज्यों में सर्वाधिक घनत्व पश्चिम बंगाल का है। यहाँ
औसतन प्रतिवर्ग कि०मी० 904 व्यक्ति रहते हैं। इसके बाद क्रमशः बिहार (881), केरल (819) का स्थान है। सबसे कम घनत्व अरुणाचल प्रदेश अर्थात् पर्वतीय राज्य का है जहाँ औसत घनत्व मात्र 13 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी० है।

केन्द्र शासित प्रदेशों को शामिल कर देखा जाय तो सर्वाधिक घनत्व दिल्ली का है । यह 9340 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी० है । अंडमान निकोवार द्वीप समूह का घनत्व मात्र 34 व्यक्ति प्रतिवर्ग किमी० है ।

Bihar Board Class 9 Geography Solutions Chapter 6 जनसंख्या

जनसंख्या वृद्धि दर तीव्र होने के कारण भारत के औसत घनत्व में भी तेजी से वृद्धि हुई है। यह 1901 ई० में मात्र 37 व्यक्ति वर्ग कि०मी० था जो 2001 में बढ़कर 325 व्यक्ति प्रतिवर्ग कि०मी० हो चुका है।