Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 4

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Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
समूह के मुख्य प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
समूह का वर्गीकरण विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने भिन्न-भिन्न प्रकार से किया है। सभी मनोवैज्ञानिकों के विभाजन के आधार अलग-अलग है। समूह के कुछ मुख्य प्रकार निम्नलिखित है-
1. प्राथमिक और द्वितीयक समूह (Primary and Secondary group)-कूले (Cooley) ने सदस्यों के पारस्परिक सम्बन्धों के आधार पर समूह को दो भागों में विभाजित किया है।

A. प्राथमिक समूह (Primary group)-प्राथमिक समूह में सदस्यों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। जैसे-परिवार कार्य समूह आदि प्राथमिक समूह के उदाहरण हैं। इसमें व्यक्ति के साथ आमनेसामने का सम्बन्ध होता है। लिण्डग्रेन ने कहा है, “प्राथमिक समूह का तात्पर्य ऐसे समूह से है, जिसमें पारस्परिक सम्बन्ध और बारम्बारता एक साथ घटित होते हैं।”

प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच ‘हम’ की भावना अधिक रहती है। इसमें मतैक्य की दृढ़ता होती है। इस प्रकार के समूह के सदस्यों के मनोवैज्ञानिक पहलुओं, जैसे-मनोवृतियों, आदतों, कार्य-व्यवहारों आदि में दृढ़ता पाई जाती है। इसका आकार छोटा होता है। ये एक-दूसरे के सुख-दुःख से प्रभावित होते हैं। ऐसा समूह स्थायी होती है।

B. द्वितीयक समूह (Secondary group)-द्वितीयक समूह के सदस्यों के बीच औपचारिक सम्बन्ध अधिक होगा। इसमें आपसी सम्बन्ध के आधार, धार्मिक-निष्ठा, राजनैतिक दल की सदस्यता, वर्गनिष्ठा आदि होते हैं। इनके सदस्य एक जगह एकत्रित नहीं होते, बल्कि किसी माध्यम से आपस में जुड़े होते हैं। जैसे-सामाजिक संगठन, राजनैतिक दल, शैक्षिक संस्थान आदि इसके उदाहरण हैं। इस संबंध में लिण्डर्ग्रन ने लिखा है, “द्वितीयक समूह अधिक अवैयक्तिक होते हैं तथा सदस्यों के बीच औपचारिक तथा संवेदात्मक सम्बन्ध होते हैं।”

2. स्थायी और अस्थायी समूह (Permanent and temporary group)-कुछ मनोवैज्ञानिकों ने स्थायित्व के आधार पर स्थायी तथा अस्थायी दो प्रकार के समूहों की चर्चा की है। स्थायी समूह ऐसे समूह को कहते हैं, जिसका अस्तित्व हमेशा बना रहता है। उसके सदस्य एक लक्ष्य की पूर्ति के बाद दूसरे लक्ष्य की पूर्ति के लिए पुनः प्रयत्नशील हो जाते हैं। जैसे-कर्मचारी संघ, शिक्षक संघ आदि। परन्तु, दूसरी ओर कुछ ऐसे समूह होते है जो क्षणिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बनते हैं और आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है। जैसे-दंगा पीड़ितों की सहायता के लिए जो समूह बनाया जाता है वह उद्देश्य की पूर्ति के साथ ही समाप्त हो जाता है। ऐसे समूह को अस्थायी समूह कहा जाता है।

3. स्व-समूह तथा पर समूह (In group and out group)-समान अभिरुचि तथा समान उद्देश्य के लोग जो समूह बनाते हैं, उसे स्व-समूह ‘हम’ समूह कहा जाता है। इसके सदस्यगण आपस में मिलकर शांतिपूर्वक रहते हैं तथा समूह के आदर्शों का पालन करते हैं। ऐसे समूह में सहयोग की भावना अधिक पायी जाती है। लेकिन पर-समूह इसके ठीक विपरीत होता है। इसमें सदस्यों के बीच अभियोजन का अभाव होता है। इसमें जाति, भाषा तथा अभिरूचि का बन्धन नहीं होता है। जैसे-उत्तर भारत के लोगों के व्यवहार को देखकर दक्षिण भारत के लोग आश्चर्य करते हैं। इनकी भाषा, लिपि, खान-पान सभी विचित्र मालूम पड़ते हैं।

4. खुला तथा बन्द समूह (Open and closed group)-एडवर्ड्स ने खुला एवं बन्द, दो प्रकार के समूह की चर्चा की है। उनके अनुसार खुला समूह उस समूह को कहते हैं, जिनमें आसानी से कोई भी यक्ति सदस्यता ग्रहण कर सकता है। जैसे-कोई राजनैतिक दल। इस प्रकार के समूह में सदस्यों की संख्या बहुत अधिक होती है। परन्तु, बाद समूह ऐसा समूह है जिसका सदस्य सभी व्यक्ति नहीं हो सकते हैं। उनमें तरह-तरह की छानबीन कर लेने के बाद ही किसी व्यक्ति को उसका सदस्य बनाया जाता है। जैसे-किसी प्रतिष्ठित क्लब का सदस्य बनना बहुत कठिन होता है। ऐसे समूह को बन्द समूह को संज्ञा देते हैं।

5. संगठित एवं असंगठित समूह (Organised and Unorganised group)-संगठन के आधार पर भी समूह को दो भागों में बांटा जा सकता है। इस प्रकार के समूह को संगठित तथा असंगठित समूह में विभाजित कर सकते हैं। किसी नियम, आदर्श, सहयोग तथा परस्पर एकता के आधार पर जो समूह निर्भर होता है उसे संगठित समूह कहते हैं। इसके सदस्य समूह के आदर्शों से बंधे होते हैं। इस प्रकार के सदस्यों का मनोबल बहुत ऊंचा होता है। वे लोग आपस में एक-दूसरे को बहुत अधिक सहयोग देते हैं। इसके सदस्यों में ‘हम’ की भावना पायी जाती है। इसके ठीक विपरीत असंगठित समूह के सदस्यों में आपस में सहयोग की भावना कम होती है। वे एक-दूसरे पर विश्वास नहीं करते हैं। सदस्यों का मनोबल बहुत अधिक गिरा हुआ होता है।

6. लम्बीय तथा समतल समूह (Vertical and horizontal group)-इस प्रकार का विभाजन हरबर्ट मीलर (Herbert Millar) ने प्रस्तुत किया है। लम्बीय समूह के सदस्यों के बीच सामाजिक दूरी अधिक होती है जबकि समतल समूह में सदस्य आपस में मिल-जुलकर बराबर रूप से रहते हैं। इसके अन्तर्गत कवि, संगीतकार आदि का समूह आता है। एक ही व्यक्ति कवि और संगीतकार दोनों हो सकता है। इस प्रकार एक ही व्यक्ति कई समूहों का सदस्य हो सकता है। लेकिन कुछ समूह ऐसे होते हैं जिसमें एक ही व्यक्ति कई समूह के सदस्य नहीं हो सकते हैं। जैसे एक ही व्यक्ति स्त्रियों और पुरुषों के समूह का सदस्य नहीं हो सकता, धनी और निर्धन समूह सदस्य एक ही व्यक्ति नहीं हो सकता है। इसमें सामाजिक दूरी अधिक होती है।

7. आकस्मिक तथा प्रयोजनात्मक समूह (Accidental and purposive group)-प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकडुगल (McDougal) ने समूह की उत्पत्ति के आधार पर आकस्मिक तथा प्रयोजनात्मक दो प्रकार के समूहों की चर्चा की है। आकस्मिक समूह एकाएक किसी स्थान पर बन जाता है। जैसे-रेल यात्रियों का समूह एकाएक बनता है, इसे आकस्मिक समूह कहेंगे। परन्तु दूसरी ओर, कुछ ऐसे समूह होते हैं जो सोच-समझकर खास उद्देश्य की प्राप्ति के लिए बनाये जाते हैं। जैसे-राजनैतिक पार्टी आदि।

8. उदार तथा कठोर समूह (Liberal and hostile group)-कुछ समूह समाज कल्याण एवं जनता की भलाई के लिए बनाये जाते हैं जैसे-राजनीतिक पार्टी, धार्मिक संस्था आदि। परन्तु इसके ठीक विपरीत कुछ ऐसे समूह होते हैं जो समाज को हानि पहुँचाते हैं। जैसे आतंकवादियों का समूह। इसका काम है देश या जनता को तबाह करना।

9. राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय समूह (National and International group)-राष्ट्रीय समूह उसे कहेंगे जो सिर्फ एक राष्ट्र तक सीमित रहते हैं, जैसे-कांग्रेस पार्टी। लेकिन कुछ ऐसे भी समूह हैं जो कई देश मिलकर बनाते हैं। जैसे सार्क, U.N.OI

10. भ्रमणकारी एवं स्थिर समूह (Mobile and immobile group)-कुछ समूह ऐसे होते हैं जो एक जगह पर स्थिर नहीं रहते, बल्कि भ्रमण करते हैं, जैसे-खानाबदोश का समूह। इसके विपरीत अधिकांश समूह ऐसे होते हैं जो स्थिर होते हैं। वे एक जगह रहकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं। जैसे-पुस्तक व्यावसायियों का समूह।

11. समूह का आधुनिक वर्गीकरण (Recent classification of group)-समूह का विभाजन आधुनिक मनोवैज्ञानिक द्वारा भी किया गया है। जो इस प्रकार A घनिष्ठ समूह B, प्राथमिक समूह C. मध्य समूह D, सहकारी समूह।. घनिष्ठ समूह में ऐसे लोग आते हैं जो आपस में घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं। जैसे-परिवार। प्राथमिक समूह के अन्तर्गत छोटे समूह को रखा जा सकता है जैसे-खिलाड़ियों का समूह। इसी प्रकार मध्य समूह तथा सहकारी समूह के अन्तर्गत राजनैतिक पार्टियाँ आदि बनते हैं।

प्रश्न 2.
चिंता विकृति के लक्षण कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
चिन्ता मनः स्नायुविकृति एक ऐसा मानसिक रोग है, जिसमें रोगी हमेशा अज्ञात कारणों से चिन्तित रहा करता है। सामान्य चिन्ता एक सामान्य, स्वाभाविक और सर्वसाधारण मानसिक अवस्था है। जीवन में जटिल परिस्थितियों में यह अनिवार्य रूप से होता है। वर्तमान भयावह परिस्थिति से डरना या चिन्तित होना सामान्य अनुभव है। इसके लिए व्यक्ति डर की प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। जैसे-बाघ को सामने आता देखकर व्यक्ति सामान्य चिंता के फलस्वरूप भयभीत होने या भागने की क्रिया करता है। व्यक्ति में ऐसी भयावह परिस्थिति की अवगति रहती है। उसी के संतुलन के लिए वह किसी प्रकार की प्रतिक्रिया करता है। सामान्य चिन्ता का संबंध वर्तमान भयावह परिस्थितियों से रहता है। लेकिन सामान्य चिन्ता से असामान्य चिन्ता पूर्णतः भिन्न है।

इसमें व्यक्ति चिन्तित या भयभीत रहता है, लेकिन सामान्य चिन्ता के समाने उसकी चिन्ता का विषय नहीं रहता। उसकी अपनी चिन्ता का कारण ज्ञात नहीं रहता। उसकी चिन्ता पदार्थहीन होती है। अत: अपने विभिन्न शारीरिक उपद्रवों को व्यक्त करता है। वस्तुतः उसे अपने मानसिक उपद्रव का ज्ञान नहीं रहता। इसके अतिरिक्त उसकी चिन्ता का संबंध हमेशा भविष्य से रहता है, वर्तमान से नहीं। इसलिए उसमें निराकरणात्मक सामान्य चिन्ता की तरह प्रतिक्रिया देखने में नहीं आती है, अतः हम कह सकते हैं कि सामान्य चिन्ता भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है। सामान्य चिन्ता के संबंध में असामान्य चिन्ता आन्तरिक भयावह परिस्थितियों की प्रतिक्रिया है।

सामान्य चिन्ता के संबंध में फिशर (Fisher) ने कहा-“सामान्य चिन्ता उन उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है जिसका परित्याग करने में व्यक्ति अयोग्य रहता है।”(Normal anxiety is a reaction to an unapprochable difficults which the individual is unable to avoid.) जबकि असामान्य चिन्ता के संबंध में उनका विचार है कि ‘असामान्य चिन्ता उन आन्तरिक या व्यक्तिगत उलझी हुई कठिनाइयों की प्रतिक्रिया है, जिसका ज्ञान व्यक्ति को नहीं रहता।” (Neurotic anxiety is a reaction to an unapproachable inner or subjective difficult of which the individual has no idea.)

चिन्ता मनःस्नायु विकृति (Symptoms of anxiety neurosis)-चिन्ता मन:स्नायु विकृति में शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के लक्षण देखे जाते हैं। मानसिक लक्षण में भय और आशंका की प्रधानता रहती है, जबकि शारीरिक लक्षण में हृदय गति, रक्तचाप, श्वास गति, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन देखे जाते हैं। उनका वर्णन निम्नलिखित हैं-

1. मानसिक लक्षण (Mental symptoms)-मानसिक लक्षणों में अतिरंजित भय और शंका की प्रधानता रहती है। यह अनिश्चित और विस्तृत होता है। इसका रोगी तर्कयुक्त प्रमाण नहीं कर सकता, किन्तु पूरे विश्वास के साथ जानता है कि उसका सोचना सही है। उसकी शंका किसी दुर्घटना से संबंध होती है। घर में आग लगने, महामारी फैलने, गाड़ी उलटने, दंगा होने या इसी प्रकार की अन्य घटनाओं के प्रति वह चिंतित रहता है। वह हमेशा अनभव करता है कि बहत जल्द ही कछ होनेवाला है। इस संबंध में अनेक काल्पनिक विचार उसके मन में आते रहते हैं। वह दिन-रात इसी विचार से परेशान रहता है उसमें उत्साह की कमी हो जाती है और मानसिक अंतर्द्वन्द्व बहुत अधिक हो जाता है। चिन्ता से या तो वह अनिद्रा का शिकार हो जाता है या नींद लगने पर तुरन्त जाग जाता है। ऐसे रोगियों में मृत्यु, अपमान आदि भयावह स्वप्नों की प्रधानता रहती है, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है। इसका रोगी कभी-कभी आत्महत्या का भी प्रयास करता है।

2. शारारिक लक्षण (Physical symptoms)-चिन्ता मनःस्नायु विकृति के रोगियों में शारीरिक लक्षण भी बड़ी उग्र होते हैं। रोगी के हृदय की गति, रक्तचाप, पाचन-क्रिया आदि में परिवर्तन हो जाते हैं। पूरे शरीर में दर्द का अनुभव करता है। कभी-कभी चक्कर भी आता है। रोगी के शरीर से बहुत अधिक पसीना निकलता है। वह बोलने में हलकाता है तथा बार-बार पेशाब करता है, उसे शारीरिक वजन घटना हुआ मालूम पड़ता है। यौन भाव की कमी हो जाती है। इसके रोगी तरह-तरह की आवाजें सुनते हैं। कुछ लोगों को शिश्न छोआ होने का भय बना रहता है।

इस प्रकार के रोगियों में दो प्रकार की चिन्ता देखी जाती है-तात्कालिक चिन्ता तथा दीर्घकालिक चिन्ता। तात्कालिक चिन्ता रोगी में बहुत तीव्र तथा उग्र होती है। यह चिन्ता तुरन्त को होती है। इसमें रोगी चिल्लाता है तथा पछाड़ खाकर गिरता है। दीर्घकालिक चिन्ता पुरानी होती है। रोगी अज्ञात भावी दुर्घटनाओं के प्रति चिन्तित रहता है। वह निरंतर इस चिन्ता से बेचैन रहता है और त्रस्त रहता है। इस रोग का लक्षण के आधार पर ही विद्वानों ने दा भागों में विभाजित किया है-मुक्तिचारी चिन्ता तथा निश्चित चिन्ता। चिन्ता के कारण का अभाव नहीं रहने पर भी जब रोगी बराबर बेचैन रहता है तो उसे free floating anxiety कहते हैं, लेकिन जब रोगी किसी परिस्थिति विशेष से अपनी चिन्ता का संबंध . स्थापित कर लेता है तो उसे bound anxiety कहा गया है प्रारंभ में रोगी में मुक्तिचारी चिन्ता ही रहता है, लेकिन क्रमशः स्थायी रूप धारण कर लेने पर उसे निश्चित चिन्ता बन जाती है।

चिन्ता मनःस्नायु विकृति के कारण (Etiology)-अन्य मानसिक रोगों की तरह चिन्ता मन:स्नायु विकृति के कारणों को लेकर भी मनोवैज्ञानिकों में एकमत का अभाव है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा जो कारण बताये गये हैं, उनमें कुछ मुख्य निम्न हैं-
1.लगिक वासना का दमन (Repressionafsexualdesire)-सप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने लैंगिक इच्छाओं के दमन को इस मानसिक रोग का क ग माना है। व्यक्ति में लैंगिक आवेग उत्पन्न दोता है और यदि वह आवेग की पूर्ति में असफल हो जाता ७, उसमें चिन्ता उत्पन्न होती है। यही इस रोग के लक्षणों को विकसित करती है। अत:सावित लैंगिक शक्ति को इस रोग का करण माना जा सकता है। किसी पति की यौन सामर्थता या स्त्री में यौन उत्तेजना होने पर चलनात्मक स्राव नहीं होने से वह इस रोग से पीड़ित हो जाता है। इसी प्रकार पुरुष अपनी असमर्थता या स्त्री दोषी होने के कारण इस रोग से पीड़ित हो सकता है।

फ्रायड के उपर्युक्त मत से मनोवैज्ञानिक सहमत नहीं है। इस संबंध में गार्डेन का विचार है कि कामेच्छा का दमन और उसका प्रतिबंध ही इस [ग का कारण नहीं, बल्कि दो संवेगों के संघर्ष के फलस्वरूपू इस रोग के लक्षण विकसित होते हैं। इस बात का मैकडूवल ने भी समर्थन किया है।

2. हान भावना (Inferioritvcomplex)-इस संबंध के फ्रायड के शिष्य एडलर ने भी अपना विचार व्यक्त किया है। उनका कहना है कि मनुष्य में आत्म प्रतिष्ठा का भावना प्रबल होती है, किन्तु बचपन में आश्वासन की शिथिलता के कारण जब व्यक्ति के Ego का समुचित रूप से विकास नहीं हो पाता है, तो वह हीनता की भावना से पीड़ित रहने लगता है। उसमें आत्म प्रतिष्ठा की भावना का दमन हा जाता है और व्यक्ति चिन्ता मनःस्नाय विकृति से पीड़ित हो जाता है।

3. मानसिक संघर्ष एव निराशा (Mental conflict and frustration) का का ऐसा मानना है कि इस रोग का कारण मानसिक संघर्ष एवं कुंठा है। इस संबंध में और भी मनोवैज्ञानिकों ने अपना अध्ययन किया है और ओकेली के मत का समर्थन किया है।
इस तरह हम देखते हैं कि चिन्ता मन:स्नायु विकृति के कारणों को लेकर सभी मनोवैज्ञानिक एक मत नहीं है। इस रोग के कारण के रूप में मुख्य रूप से लैंगिक वासना का दमन, हीनभावना तथा – मानसिक संघर्ष एवं निराशा को माना जा सकता है।

प्रश्न 3.
असामान्य मनोविज्ञान की परिभाषा दें तथा उसकी विषय-वस्तु का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोविज्ञान की कई शाखाएँ हैं, उनमें असामान्य मनोविज्ञान भी एक है। असामान्य मनोविज्ञान में व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, अथात् व्यक्ति का वेसा व्यवहार जो सामान्य से अलग होता ह, उन व्यवहारों का अध्ययन असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत किया जाता है। असामान्य मनोविज्ञान अंग्रेजी शब्द Abnormal Psychology का हिन्दी रूपान्तर है। Abnormal शब्द की उत्पत्ति Anomelols से हुई है, जो दो शब्दों Ano ओर Moles का मल से बना है। Ano का अर्थ है ‘नहीं’ और Moies का अर्थ नियमित हाना है। इस अर्थ में अनियमित व्यवहारों (irregular benaviour) का अध्ययन करने वाला मनोविज्ञान असामान्य मनोविज्ञान है।

कुछ मनोवैज्ञानिकों ने Abnormal की व्याख्या कुछ दूसरे ढंग से की है। उन लोगों की राय में Abnormal Ab और Normal दा शब्दां के मेल से बना है। Ab का अर्थ है away, इस अर्थ में Abnormal का अर्थ, Away from normal, अर्थात् सामान्य से दूर मानते हैं। . वास्तव में देखा जाये तो दोनों विचारों से असामान्य भनोविज्ञान की विषय वस्तु स्पष्ट नहीं होतो है। मिला-जुलाकर ऊपरी दोनों परिभाषाएँ लगभग समान हैं। कोई आधुनिक मनोवैज्ञानिक ने असामान्य मनोविज्ञान का परिभाषित करने का प्रयास किया है। किस्कर (Kisker) ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है “मानव के वे व्यवहार और अनुभूतियाँ जो साधारण: अनोखी, असाधारण या पृथक हैं, असामान्य : समझी जाती हैं।”

जेम्स ड्रेवर के अनुसार “असामान्य मनोविज्ञान की वह शाखा है, जिससे व्यवहार या मानसिक घटना की विषमता का अध्ययन किया जाता है।”

कोलमैन (Coleman) की परिभाषा से असामान्य मनोविज्ञान का स्वरूप बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा है, “असामान्य मनोविज्ञान, मनोविज्ञान का वह क्षेत्र है, जिसमें विशेष रूप से मनोविज्ञान के नियमों के समन्वय और विकास का अध्ययन असामान्य व्यवहार को समझने के लिए किया जाता है। · उपर्युक्त परिभाषा पर गौर किया जाए तो निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं-

  1. असामान्य मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की एक शाखा है।
  2. असामान्य मनोविज्ञान से व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों को समझने का प्रयास किया जाता है।
  3. व्यक्ति के असामान्य व्यवहार को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक नियमों या सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है।
  4. व्यक्ति के असामान्य व्यवहार के लक्षणों को दूर करने के लिए मनोवैज्ञानिक चिकित्सा-विधियों का सहारा लिया जाता है।

असामान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र-असामान्य मनोविज्ञान की परिभाषा में कहा गया है कि इसमें व्यक्ति की असामान्य अनुभूतियों और व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है, लेकिन इतना कह देने से इसका क्षेत्र स्पष्ट नहीं होता। असामान्य मनोविज्ञान में असामान्य से संबंधित जिन विषयों का अध्ययन किया जाता है, उनका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित प्रकार है-

1. असामान्य अनुभूति और व्यवहारों का अध्ययन-व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए असामान्य मनोविज्ञान का सहारा लिया जाता है। जो व्यक्ति असामान्य होगा उसका व्यवहार भी आवश्यक रूप से असामान्य होगा, अतः ऐसे व्यक्ति के लक्षण, कारण तथा उपचार का अध्ययन असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत किया जाता है।

2. अचेतन का अध्ययन-आधुनिक मनोवैज्ञानिक अनुसंधानों के माध्यम से यह बात साबित हो चुकी है कि व्यक्ति के समस्त असामान्य व्यवहारों को उसका अचेतन गम्भीर रूप से प्रभावित करता है। बहुत-से असामान्य व्यवहारों के कारणों को ज्ञात करने तथा उनका उपचार करने के लिए अचेतन का विश्लेषण करना आवश्यक होता है, इसलिए असामान्य मनोविज्ञान में अचेतन का अध्ययन अति आवश्यक है। फ्रायड ने असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए अचेतन के अध्ययन पर बहुत अधिक बल दिया है।

3. मानसिक विकृतियों का अध्ययन- असामान्य मनोविज्ञान में मानसिक विकृतियों का अध्ययन किया जाता है, क्योंकि असामान्य व्यवहारों का मूल कारण मानसिक विकृतियाँ ही हैं। मानसिक विकृतियों को उसकी जटिलता के आधार पर दो भागों में बाँटा गया है, मनःस्नायु विकृति तथा मनोविकृति। इन विकृतियों के कारण लक्षण एवं इन्हें दूर करने के उपयों का अध्ययन करना असामान्य मनोविज्ञान का क्षेत्र है।

4. स्वप्न का अध्ययन- स्वप्न सभी व्यक्ति देखते हैं, लेकिन उसका अर्थ नहीं समझते। वास्तव में स्वप्न अचेतन इच्छाओं की अभिव्यक्ति है। इसके माध्यम से अचेतन को जाना जा.सकता है जो सभी असामान्य व्यवहारों का मूल है। इसके अन्तर्गत सभी प्रकार के स्वप्नों की व्याख्या एवं स्वप्न सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है।

5. प्रेरणा एवं अभियोजन का अध्ययन- किसी भी व्यक्ति के जीवन में प्रेरणा का विशेष महत्व है। समुचित प्रेरणा में भी व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है, जिससे वातावरण में अभियोजन की क्षमता समाप्त हो जाती है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए असामान्य मनोविज्ञान में प्रेरणा के स्वरूप, भूमिका एवं प्रभाव आदि के साथ-साथ अभियोजन की प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।

6. मनोरचनाओं का अध्ययन- मनोरचना एक ऐसी मानसिक प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति को संवेगात्मक तनावों से छुटकारा मिलता है। मनोरचनाओं के कारण व्यक्ति में असामान्य व्यवहार के लक्षण विकसित होते हैं। अतः असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत मनोरचनाओं का भी अध्ययन किया जाता है। इन मनोरचनाओं में प्रतिगमन युक्ताभास, प्रक्षेपण, आत्मीकरण प्रतिक्रिया निर्माण, रूपान्तरण आदि प्रमुख हैं।

7. असामान्य व्यवहार के कारणों का अध्ययन- असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति के . असामान्य व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। अत: यह ज्ञात करना आवश्यक है कि व्यक्ति के
असामान्य व्यवहारों के क्या कारण हैं। बिना कारण जाने असामान्य व्यवहारों को दूर नहीं किया जा सकता है, इसीलिए असामान्य का क्षेत्र असामान्य के कारणों का अध्ययन करना भी है।

8. मनोलैंगिक विकास का अध्ययन- मनोलैंगिक विकास के तथ्य को सर्वप्रथम फ्रायड ने बतलाया है। उन्होंने कहा कि व्यक्तित्व के निर्माण में मनोलैंगिक विकास की प्रमुख भूमिका होती है। इस तथ्य को अधिकांश मनोवैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। अतः, स्पष्ट है कि व्यक्ति के असामान्य व्यवहारों के पीछे मनोवैज्ञानिक विकास की अहम भूमिका होती है। इसे ध्यान में रखते हुए असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन किया जाता है।

9. मनःस्नायु विकृति एवं मनोविकृति का अध्ययन- मनःस्नायु विकृति एवं मनोविकृति मानसिक रोग है। इस मानसिक रोगों के कारण व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है, अत: उन असामान्य व्यवहारों को समझने के लिए मनःस्नायु विकृति एवं मनोविकृति जैसी मानसिक बीमारियों का अध्ययन किया जाता है। उसके बाद उन मानसिक बीमारियों के लक्षणों एवं कारणों को जानकर उसकी चिकित्सा करते हैं। मनःस्नायु विकृति के अन्तर्गत हिस्टीरिया, झक-बाध्यता, मन:स्नायु, विकृति, चिन्ता, मन:स्नायु विकृति आदि सामान्य मानसिक रोग आते हैं, जबकि मनोविकृति के अन्तर्गत मनोविदलता, उत्साह-विषाद मनोविकृति, परानोइया आदि आते हैं। इन रोगों के लक्षण, कारण एवं उपचार इसके क्षेत्र में आते हैं।

10. यौन विकृतियों का अध्ययन- कुछ व्यक्तियों में यौन विकृतियाँ देखी जाती हैं, अर्थात् वे गलत ढंग से यौन इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। ऐसे व्यक्तियों के व्यवहारों को भी असामान्य कहा जाता है। जैसे-हस्तमैथुन, गुदामैथुन आदि। व्यक्ति के इन असामान्य व्यवहारों का अध्ययन करना भी असामान्य मनोविज्ञान के क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं।

11. मानसिक दुर्बलता-जो व्यक्ति मानसिक रूप से दुर्बल होते हैं, उनका व्यवहार भी असामान्य हो जाता है। अत: मानसिक दुर्बलता के कारण एवं लक्षण तथा निदान का अध्ययन भी असामान्य मनोविज्ञान के अन्तर्गत ही होता है।

12. मनोचिकित्सा का अध्ययन- असामान्य मनोविज्ञान एक व्यावहारिक विज्ञान है, अतः इसमें विभिन्न बीमारियों के कारणों का अध्ययन करने के पश्चात् उसकी चिकित्सा का उपाय करना भी है, अतः इसके अन्तर्गत कई मनोचिकित्सा प्रविधियों का अध्ययन किया जाता है। जैसे-समूह चिकित्सा, व्यवहार चिकित्सा, सम्मोहन आदि।

13. अपराध एवं बाल अपराध का अध्ययन-इस मनोविज्ञान के अन्तर्गत व्यक्ति के अपराध एवं बाल अपराध का अध्ययन भी किया जाता है। व्यक्ति के वैसे व्यवहार जो समाजविरोधी होते हैं, उन व्यवहारों, का अध्ययन एवं उसे दूर करने के उपाय का अध्ययन भी असामान्य ही करता है।

प्रश्न 4.
What is Psychoanalysis Therapy? Discuss the main stages of Psychoanalysis therapy and its disadvantages.
(मनोविश्लेषण चिकित्सा विधि क्या है? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करते हुए मनोविश्लेषण विधि के दोषों का वर्णन करें।)
उत्तर:
मनोचिकित्सा के क्षेत्र में मनोविश्लेषण विधि का अपना अलग महत्त्व है। इस विधि के माध्यम से मानसिक रोगियों खासकर मन:स्नायु विकृति से पीड़ित रोगियों की चिकित्सा में बहुत सहयोग मिलता है । इस प्रविधि का प्रारंभ सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषक फ्रायड ने किया था। उन्होंने एक महिला रोगी की चिकित्सा के सिलसिले में इस सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इस विधि के माध्यम से रोगी के अचेतन में दबी हुई भावनाओं को जानने और उसे चेतन में लाने का प्रयास किया जाता है।

मानसिक विकृतियों के सम्बन्ध में फ्रायड (Freud) का विचार है कि परिस्थिति की संगीनियों से जब व्यक्ति का अभियोजन नहीं हो पाता है, तो उसमें मानसिक संघर्ष होता है। अन्तर्द्वन्द्व के क्रम में वे सारी अनैतिक एवं असामाजिक इच्छाएँ अचेतन में दब जाती हैं। धीरे-धीरे वह वास्तविकता से दूर होता जाता है। उसके चेतन पर अचेतन हाबी हो जाता है। इस प्रकार व्यक्ति असामान्यता का शिकार हो जाता है। इस अवस्था में यदि उसे सहयोग दिया जाय, तो अचेतन के विचारों को वह समझ सकता है। उसे वास्तविकता का अभास हो सकता है और तब उसकी असामान्यता में भी कमी आ सकती है।

मनोविश्लेषण में रोगी से पूछकर उसके अचेतन तत्वों को पता लगाते हैं। शान्त, स् सज्जित कमरे में चिकित्सक और रोगी बैठते हैं और रोगी अपने अभिव्यक्ति का अवसर देते हैं। उन अपनी बात कहने के लिए उत्तेजित करते हैं। रोगी अपने ढंग से बेतरतीब बोल सकता है। वह अन्यमनस्क और निष्क्रिय हो सकता है। चिकित्सक हर प्रकार से अपनी तकनीकी विधाओं के सहारे उसके अचेतन को उभारने का प्रयास करता है। अचेतन को उभारने पर रोगी अपनी भावनाओं को व्यक्त करने लगता है। चिकित्सक उसकी भावनाओं को नोट करता जाता है। इससे रोगी का पूरा इतिहास तैयार हो जाता है।

मनोविश्लेषण की अवस्थाएँ (Stages of Psychoanalysis)
(i) आरंभिक अवस्था- आरंभिक अवस्था में सबसे पहले चिकित्सक रोगी का चयन करता है और यह देखता है कि इस विधि का लाभ उसे मिल सकता है या नहीं। इसके लिए उसका Interview लिया जाता है। साक्षात्कार में इस बात की भी जानकारी प्राप्त करते हैं कि रोगी अपनी चिकित्सक को सहयोग कर सकता है या नहीं।

इस विधि से चिकित्सा करने के लिए रोगी को सुसज्जित कमरे में कुर्सी पर बैठाया जात है तथा सिरहाने में मनोचिकित्सक स्वयं बैठ जाता है तथा उसे बिना संकोच के कुछ कहने का निर्देश दिया जाता है। रोगी से इन बातों को रगलवाने के लिए उसके साथ आत्मीयता स्थापित करना आवश्यक है। इस प्रकार चिकित्सक उसकी गतिविधियों का निरीक्षण करता रहता है।

(ii) अवरोध की अवस्था-इस अवस्था में चिकित्सव को बहुत परेशानी का सामना करना पड़ता है। क्योंकि एक ऐसी अवस्था आती है जब रोगी चुप हो जाता है या अनाप-शनाप बकने लगता है। यहाँ चिकित्सक धैर्यपूर्वक तरह-तरह का पलोभन देकर उसके साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित कर पुनः इस अवस्था में लाता है कि वह रन बातों को भी नि:संकोर बताए जो वर नहीं बोल ॥रा है।

(iii) स्थानान्तरण-यह मनोविश्लेषण का एक महन्तपूर्ण एवं नाजुक अवस्था है। स्थानान्तरण में दो बातें देखी जाती हैं। पहली बात तो यह कि रोगी चिकित्सक से कुछ बातों को छिपाना चाहता है और चिकित्सक उन बातों को उससे उगलवाना चाहता है। इस स्थिति में रोगी चिकित्सक पर शक करने लगता है, यहाँ चिकित्सक को काफी धैर्य की आवश्यकता होती है। हो सकता है कि रोगी चिकित्सक के पास आना छोड़ द या फिर झगड़े की नौबत आ जाय। यहाँ चिकित्सक घबड़ाता नहीं है, बल्कि उसके साथ स्नेहपूर्वक व्यवहार करके उसका विश्वासपात्र बनने का प्रयास करता है।

यही प्रतिरोध की अवस्था है। इस प्रतिरोध का नकारात्मक पक्ष कहा जाता है। रोगी का विश्वास जब चिकित्सक पर जम जाता है तो वहाँ से प्रतिरोध का भावात्मक पक्ष प्रारम्भ हो जाता है। ऐसी अवस्था में रोगी जो कुछ भी चिकित्सक को बतलाता है उसका सीधा सम्बन्ध रोग से होता है। इन बातों को वह नोट करता जाता है तथा विश्लेषण करके उसके गंग के कारणों को समझने का प्रयास करता है। इस प्रकार चिकित्सक रोगी को वास्तविकता का ज्ञान कराता है और धीरे-धीरे रोग के लक्षणों को समाप्त करने में सहयोग प्रदान करता है। इस प्रकार रोगी के लक्षण धीरे-धीरे लुप्त हो जाते हैं।

(iv) सम्बन्ध विच्छेद-यह अवस्था भी बहुत नाजुक है, क्योंकि चिकित्सक के साथ रोगी ‘ का जिस प्रकार का सम्बन्ध स्थापित हो जाता है, उसे एकाएक तोड़ने पर पुनः दूसरे लक्षण प्रकट होने की संभावना रहती है। इसलिए रोगी को अपने से अलग करने में कभी-कभी काफी समय लग जाता है। इस अवस्था में रोगी के व्यक्तित्व का पुनर्निमाण होता है और रोगी पूरी तरह से सामान्य हो जाता है।

मनोचिकित्सा विधि के दोष-मनोविश्लेषण चिकित्सा विधि मानसिक रोगियों को रोगों से छुटकारा दिलाने की एक अच्छी विधि है, परन्तु अन्य विधियों की तरह इस विधि में भी कई दोष हैं, जिससे रोगियों और चिकित्सकों को परेशानी उठानी पड़ती है और रोगी चंगा भी नहीं हो पाता है, मनोचिकित्सा विधि के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं-
1. सीमित कार्यक्षेत्र-मनोविश्लेषण-चिकित्सा प्रविधि का क्षेत्र बहुत ही सीमित है। इसके माध्यम से मनोविकृति, जैसे-मनोविदलता आदि रोगों की चिकित्सा संभव नहीं है। हाँ, इस विधि से मनःस्नायु विकृति जैसे-हिस्टीरिया आदि रोगों की चिकित्सा संभव है।

2. महँगी विधि-मनोविश्लेषण से मानसिक रोगियों को कुछ लाभ तो होता है, परन्तु इसके माध्यम से चिकित्सा करवाने में बहुत अधिक खर्च एवं समय लगता है। इसके माध्यम से चिकित्सा करने के लिए पूर्ण प्रशिक्षित चिकित्सक की आवश्यकता होती है तथा एक वर्ष में दो-चार रोगियों को ही अच्छा किया जा सकता है, अत: बहुत अधिक खर्च पड़ता है, जो केवल बहुत धनी लोगों के लिए संभव रहता है।

3. अधिक समय लगना-इस प्रविधि के माध्यम से बहुत अधिक समय लगता है। प्रत्येक माको एक घंटा रोज समय देना होता है तथा यह समय अठारह माह से ऊपर लगता है। इस फार लम्बी अवधि के कारण बहुत कम रोगियों की चिकित्सा हो पाती है।

4. मन्दबुद्धि के रोगी की चिकित्सा संभव नहीं-इस विधि से केवल मानसिक रोगियों की चिकित्सा संभव है, क्योंकि इसके रोगी में नैतिकता को बढ़ाया नहीं जा सकता है।

5. हानिकारक विधि-कुछ ऐसे भी मानसिक रोग हैं, जिसकी इस विधि से चिकित्सा करने पर लाभ की जगह हानि उठानी पड़ सकती है। खासकर स्थानान्तरण की अवधि में रोगी में कुछ अन्य विकृतियों के बढ़ने की संभावना रहती है। इसीलिए शेफर एवं लेजारस ने कहा है कि . ऐसी मानसिक चिकित्सा में मनोविश्लेषक को चाहिए कि स्थानान्तरण की अवधि बहुत कम रखे।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि यह प्रविधि बहुत अधिक दोषपूर्ण है, परन्तु अन्य विधियों को यदि पूरक के रूप में रखकर चिकित्सा को जाय तो, इससे रोगी को विशेष लाभ मिल , सकता है।

प्रश्न 5.
What is hypnosis therapy? Discuss the advantages and disadvantages of hypnosis therapy.
(सम्मोहन चिकित्सा से आप क्या समझते हैं ? सम्मोहन चिकित्सा के गुण एवं दोषों का वर्णन करें।)
उत्तर:
मनोचिकित्सा के क्षेत्र में सम्मोहन का एक आकर्षक इतिहास है। सर्वप्रथम सम्मोहन (hypnosis) का प्रयोग 1833 ई. में Braid ने किया था। Braid ने Suggestion द्वारा उत्पन्न एक Senseless अवस्था के लिए किया था। Braid ने इसे Neurohypnotims कहना पसंद किया था। बाद में अन्य विचारकों ने इसके लिए Hypnosis शब्द का प्रयोग किया। 1877 ई. मेंशाकों (Charcot) ने बतलाया कि सम्मोहन हिस्टीरिया के समान ही एक पैथोलॉजिकल अवस्था (Pathological Stage) है। फिर 1884 ई. में बर्नहिम (Bernhim) ने सम्मोहन की व्याख्या सुझाव (Suggestion) के सिलसिले में की। सच पूछा जाय, तो सम्मोहन का अर्थ कृत्रिम निद्रा है। यह निद्रा एक व्यक्ति में कृत्रिम ढंग से उत्पन्न करके दूसरे व्यक्ति को अचेतन अवस्था में ला देता है। अचेतन अवस्था में आने पर व्यक्ति सम्मोहित करने वाले व्यक्ति के सुझाव के अनुसार सभी क्रियाओं को करता है।

सम्मोहन की क्रिया सम्मोहन के Rapport पर निर्भर करती है। इस विधि के द्वारा मानसिक रोगियों को सम्मोहित करके अपने अचेतन मन में दमित इच्छाओं, अनुभवों आदि को अभिव्यक्त करने का Suggestion दिया जाता है। फलस्वरूप मानसिक रोगियों का उपचार आसान हो जाता है।

सम्मोहन उत्पन्न करने की अनेक विधियाँ हैं। सभी विधियों में Relaxation पर विशेष बल दिया जाता है। कुछ परिस्थितियों में चिकित्सक Relaxation में मदद पहुँचाने के लिए औषधि का सहारा लेता है। सम्मोहन में चिकित्सक Relaxation में मदद पहुँचाने के लिए औषधि का सहारा लेता है। सम्मोहन में रोगी को एक कुर्सी पर आराम से लिटाकर पास की किसी वस्तु पर ध्यान केन्द्रित करने का निर्देश दिया जाता है। रोगी को नींद लाने के लिए कई बार दवा भी दी जाती है।

जब रोगी आराम से सो जाता है तो उसे कई प्रकार के सुझाव दिये जाते हैं। जैसे-“Relax, let yourself go listen only my voice-Relax and go to sleep-your eyes are feeling heavyRelax and go to sleep-Close your cyes and go to sleep-you are drawsy and tried-go to sleep-go to sleep-निद्रा की अवस्था में आने पर परीक्षणों द्वारा यह जांच की जाती है कि रोगी सम्मोहित हुआ या नहीं। सम्मोहक उसे यह सुझाव देता है कि वह आँखें खोले, पर साथ-ही-साथ यह भी कहा जाता है कि वह अपनी आँखों को खोल नहीं सकेगा। इसी प्रकार रोगी को यह कहा जा सकता है कि वह किसी तकलीफ का अनुभव होता है या नहीं, इस प्रकार रोगी का निर्देश दिये जाते हैं और यदि रोगी उसके अनुसार काम करता है तो यह समझ जाते हैं कि व्यक्ति पूरी तरह से सम्मोहित हो चुका है। सम्मोहित की अवस्था में रोगी को सामान्य अवस्था में लाने के लिए सिर्फ संकेत मात्र देता है और व्यक्ति तरोताजा होकर अलग जाग उठता है।

सम्मोहित अवस्था की एक विशेषता यह भी है कि यदि व्यक्ति को इस अवस्था में निर्देश दिया जाता है, तो वह सामान्य अवस्था में आने पर उसके निर्देश के अनुसार कार्य सम्पन्न करता है। मनोविश्लेषण के क्षेत्र में इस क्रिया को Posthypnosis कहा जाता है।

मूल्यांकन (Values of hypnosis)-मनोचिकित्सा के रूप में Hysteria के रोगी को, विशेषकर Amnesia से पीड़ित रोगियों को सम्मोहन से काफी लाभ पहुंचाता है। सम्मोहन की अवस्था में रोगी अपने अचेतन मन में दमित इच्छाओं, अनुभवों और भावों को याद कर लेता है जिसे वह चेतन अवस्था में आने पर भी नहीं भूलता। साक्षात सुझाव के आधार पर Hypnosis के लक्षणों को दूर किया जा सकता है। Insomania के इलाज में नींद नहीं आती है। Insomania की चिकित्सा में Tension को कम करने में Neurotic habit से और भय से मुक्ति पाने में Hypnosis की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है।

सम्मोहन की सीमाएँ (Limitations of hypnosis)-यद्यपि चिकित्सा विधि के रूप में सम्मोहन से काफी लाभ पहुँचता है, फिर भी यह विधि सीमाओं से रहित नहीं है। निम्नलिखित आधार पर इस विधि की आलोचनाएँ की जा सकती हैं-

  • सम्मोहन के द्वारा कुछ ही प्रकार के रोगियों की चिकित्सा की जाती है। प्रत्येक व्यक्ति को सम्मोहित करना संभव नहीं है। प्रयोगों के आधार पर यह भी देखा गया है कि किसी को इच्छा के विरुद्ध सम्मोहित नहीं किया जा सकता है। सम्मोहन के लिए रोगी का सहयोग लेना । आवश्यक है।
  • सम्मोहन के विरुद्ध यह आलोचना की जाती है कि यह Superficial form of therapy है। कहने का तात्पर्य यह है कि इस विधि के द्वारा रोग के सिर्फ बाहरी लक्षणों को दूर किया जा सकता है। स्थायी चिकित्सा सम्मोहन द्वारा संभव नहीं है।
  • सम्मोहन का प्रभाव अस्थायी होता है। इसके द्वारा रोगी को जो Suggestion दिया जाता है वह काफी दिनों तक लाभदायक सिद्ध नहीं होता। रोग के लक्षण थोड़े दिनों के लिए ही दूर हो पाता है। पुनः कुछ दिनों के बाद रोग के लक्षण विकसित हो जाते हैं। अत: इसका प्रभाव अस्थायी होता है।
  • सम्मोहन का प्रयोग काफी कठिन है। सभी मनोचिकित्सक इसका उपयोग नहीं कर सकते। इसके लिए विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है, अतः यह विधि कुछ खास मनोचिकित्सकों तक ही सीमित है।

प्रश्न 6.
मानव व्यवहार पर पड़ने वाले से संचार साधनों का वर्णन करें।
उत्तर:
इसमें कोई संदेह नहीं है कि आज विश्व जगत में नयी हलचल हुई है। इस नयी हलचल का वैश्विक परिदृश्य स्वतः ही उभरकर आया है जिसे हमारे और आपके सामने मीडिया अर्थात अखबार, पत्र-पत्रिकाओं, रेडियो, टी.वी. चैनल आदि ने परोसा है। आज जिस प्रकार पूरे विश्व में अनेक सामाजिक मुद्दों को उठाया जा रहा है वे न केवल मानव मूल्यों पर कुठाराघात कर रहे हैं वरन मानव की क्षमता, कुशलता एवं विवेक का समूल नाश कर रहे हैं। उन सब का दोष मिडिया को दिया जाए तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। बच्चों को टी. वी. के माध्यम से हत्या, बलात्कार, आतंकवाद, चोरी आदि जैसी तथ्यों की जानकारी स्वतः ही मिल जाती है जिससे उसके मनोवृति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

टी. वी. के अश्लील चित्रों को देखकर उनके मन में सेक्स के प्रति रूझान बढ़ता है जो उनके मनोदशा को प्रभावित करता है। आज टी.वी. के माध्यम से पाश्चात्य संस्कृति को परोसा जा रहा है जिससे मानव मूल्यों में ह्रास की प्रवृति दृष्टिगोचर हुई है। बच्चे टी. वी. देखने में अधिक समय व्यतीत करते हैं। उसके कारण पढ़ने-लिखने की आदत तथा घर के बाहर की गतिविधियों जैसे खेलने, घूमने-फिरने में कमी आती है।

टेलीविजन देखने से बच्चों का ध्यान अपने लक्ष्य से हट सकता है। उनके समझने की शक्ति तथा उनकी सामाजिक अन्तक्रियाएँ भी प्रभावित हो सकती है। किंतु इसके विपरीत कुछ श्रेष्ठ कार्यक्रमों के द्वारा सकारात्मक अभिवृत्तियों तथा उपयोगी तथ्यात्मक सूचनाएँ मीडिया से प्राप्त होती है। जो बच्चों को अभिकल्पित तथा निर्मित करने में सहायता करती हैं। वयस्कों और बच्चों के संबंध में यह कहा जाता है कि उनमें एक उपभोक्तावादी प्रवृत्ति विकसित हो रही है। क्योंकि मीडिया के माध्यम से बहुत से उत्पादों के विज्ञापन प्रचारित किए जाते हैं तथा किसी व्यक्ति के लिए उनके प्रभाव में आ जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। इन परिणामों से यही निष्कर्ष निकलता है कि संचार के साधनों के माध्यम से मानव व्यवहार पर एक ओर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है तो दूसरी ओर नकारात्मक प्रभाव भी पड़ता है।

प्रश्न 7.
व्यक्तित्व की परिभाषा दें। व्यक्तित्व के प्रमुख गुणों की विवेचना करें।
उत्तर:
व्यक्तित्व एक सामान्य शब्द है जिसका प्रयोग अक्सर लोग शारीरिक बनावट एवं बाह्य वेशभूषा के संबंध में करते हैं। परन्तु, वास्तव में यह व्यक्तित्व नहीं है। व्यक्तित्व अंग्रेजी शब्द Personality का हिन्दी रूपांतर है। Personality का संबंध लैटिन भाषा के Personality शब्द से है जिसका अर्थ होता, नकली चेहरा। कुछ मनोवैज्ञानिकों ने इसकी परिभाषाएँ दी हैं, परंतु अधिकांश लोगों द्वारा दी गई परिभाषाएँ अधूरी तथा एकांगी हैं।

वाटसन (Watson) ने इसकी परिभाषा देते हुए कहा है, “व्यक्तित्व उन क्रियाओं का योगफल है जिसे लम्बे समय तक निरीक्षण में विश्वसनीय सूचनाएँ प्राप्त की जाती है।” (Personality is the sum total of activities that can be observed a long period of time to give reliable information) शरमैन ने इस संबंध में कहा है, “व्यक्ति का विशिष्ट व्यवहार की व्यक्तित्व है।” (Personality is the characteristic behaviour of an individual.)

उपर्युक्त परिभाषा से स्पष्ट होता है कि कुछ मनोवैज्ञानिकों ने बाह्य रूप या स्थायी गुणों के आधार पर व्यक्तित्व को समझने का प्रयास किया है। वास्तव में इन मनोवैज्ञानिकों ने व्यक्तित्व को समझने में भूल की है। सभी मनोवैज्ञानिकों ने इसे अपने ढंग से परिभाषित किया है।

आल्पोर्ट (G.W.Allport) ने इस प्रकार की पच्चीस परिभाषाओं की एक सूची बनायी और इसके पर्याप्त अध्ययन के पश्चात् एक उपयुक्त परिभाषा दिया है। उनके अनुसार, “व्यक्तित्व व्यक्ति के अन्तर्गत उन मनोदैहिक गुणों का गत्यात्मक संगठन है जिन पर उसके वातावरण के प्रति होनेवाले विशिष्ट अभियोजन को निर्धारित करता है।” (Personality is the dynamic organization within the individual of those psychophysical system that determine his unique adjustment to his environment.)

इस प्रकार आल्र्पोट ने व्यक्तित्व को मनोवैज्ञानिक एवं शारीरिक गुणों का ऐसा संगठन माना है जो व्यक्ति को अपने वातावरण के साथ-साथ सामंजस्य को निर्धारित करता है। अपने परिभाषा में उन्होंने व्यक्तित्व को समय के अनुसार परिवर्तनशील माना है। अर्थात्, व्यक्तित्व रूका हुआ नहीं रहता, बल्कि परिवर्तित होता रहता है।

किम्बल यंग ने व्यक्तित्व की परिभाषा अलग ढंग से दी है। उनके अनुसार “हम व्यक्तित्व को एक व्यक्ति के अधिक या कम आदतों, गुणों, मनोवृत्तियों और विचारों के प्रमाणित संग्रह के रूप में परिभाषित कर सकते हैं, जो एक प्रकार से बाह्य रूप से कार्य एवं स्थितियों में संगठित रहते हैं तथा आंतरिक रूप से प्रेरणाओं, उद्देश्यों, और आत्मगत के तथ्यों से संबंधित रहते हैं। इस प्रकार व्यक्तित्व के दो कार्य एवं स्थितियाँ हैं जिनका तात्पर्य दूसरों को प्रभावित करने के लिए आचरण करने और जीवन संगठन या आत्मा, आन्तरिक प्रेरणाओं, उद्देश्यों से संबंधित स्वयं तथा अन्य के व्यवहार पर दृष्टिपात करने से है। संक्षेप में, यह प्रकट क्रियाओं एवं अर्थो से संबंधित है।” किम्बल युंग की परिभाषा से स्पष्ट होता है कि उन्होंने व्यक्तित्व को बाह्य एवं आंतरिक दो प्रकार के तत्वों का संगठन माना है।

एन० एल० मन ने इस संबंध में कहा है, “व्यक्तित्व की परिभाषा एवं व्यक्ति का संरचना, व्यवहार के प्रतिमान, रुचियों, मनोवृत्तियों, क्षमताओं, योग्यताओं और अभिरुचियों के अत्यधिक विशिष्ट संगठन के रूप में की जाती है।”

व्यक्तित्व के निम्नलिखित प्रमुख शीलगुण हैं-
(i) सामाजिक Sociability)-जिन व्यक्तियों में सामाजिक के शीलगुण होते हैं उनमें सामाजिक कार्यों में सक्रियता देखी जाती है। ऐसा व्यक्ति हमेशा दूसरों की भलाई के लिए कार्य करता है। वह अधिक-से-अधिक व्यक्तियों से मिलना पसन्द करता है। वे स्वभाव से हँसमुख एवं मिलनसार होते हैं। ऐसे शीलगुण वाले व्यक्ति समाज में सफल नेता होते हैं। इस संबंध में गिलफोर्ड एवं जिमरमैन ने अध्ययन किया है और इस शीलगुण को काफी महत्वपूर्ण बताया है तथा इसे अपने परीक्षण गिरफोर्ड- जिसरमैन टेम्परामेंट सर्वे में शामिल किया है। जिन व्यक्तियों में ये गुण नहीं होते वे अनुयायी होते हैं।

(ii) प्रभत्व (Ascendence)-कुछ व्यक्तियों में प्रभुत्व का गुण पाया जाता है। ऐसा व्यक्ति हमेशा दूसरों पर अपना आधिपत्य तथा प्रभाव जमाने की कोशिश करता है। वह किसी कार्य में दूसरों को निर्देश देता है। इस प्रकार के शीलगुण वाले व्यक्ति अधिक क्रियाशील एवं झगड़ालू होते हैं। ऐसा व्यक्ति खेल का कप्तान, कॉलेज का प्रिंसिपल या सत्तावादी नेता होता है। इसके विपरीत जिन व्यक्तियों में इस गुण का अभाव होता है, वे निष्क्रिय एवं दूसरे के निर्देशों पर चलना अधिक पसंद करते हैं। वं हमेशा चाहते हैं कि कोई उनका मार्गदर्शन करा सके। ऐसे व्यक्तियों में अधीनता का गुण पाया जाता है।

(iii) आक्रमणशीलता-जिस व्यक्ति में आक्रमणशीलता का गुण पाया जाता है, वह आक्रमणकारी व्यवहार करता है। ऐसे व्यक्ति समाज में आतंक फैलाते हैं। इनमें सहनशीलता की कमी होती है। ये बात-बात में उग्र धारण कर लेते हैं। दंगा आदि फैलाने में इनका बहुत बड़ा हाथ होता है। ऐसे व्यक्तियों , में आधिपत्य भाव देखा जाता है।

(iv) ईमानदारी(Honesty)-जिन व्यक्तियों में ईमानदारी का गुण होता है वे सदैव ईमानदार होते हैं। ऐसे व्यक्ति न्याय करने में दूध का दूध पानी का पानी कर देते हैं।

(v) विनम्रता(Kindness)-ऐसे व्यक्तित्व वाला व्यक्ति विनम्र होते हैं। यह शीलगुण आधिपत्य के ठीक विपरीत होता है। इस प्रकार के व्यक्ति आज्ञाकारी होते हैं। ये किसी व्यक्ति को दुःख-तकलीफ · नहीं दे सकते हैं तथा समाज में सौहाद्र बनाए रखते हैं।

(vi) लज्जा(Shyness)-कुछ व्यक्ति बहुत ज्यादा लजालू होते हैं, वे लोगों के सामने आने पर लजाते हैं। ऐसे व्यक्ति सामाजिक नहीं होते, ये एकांत में रहना पसंद करते हैं तथा अपने विचारों में खोए रहते हैं। ये जितना अधिक लज्जा को छिपाने का प्रयास करते हैं उतना ही अधिक लजाते हैं।
हठ(Persistence)-ऐसे व्यक्ति जिनमें हठ का गुण होता है वे कठिन परिस्थितियों में भी अपने हठ पर अडिग रहते हैं, लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लगातार प्रयास करते रहते हैं।

(viii) प्रतियोगिता(Competition)-प्रतियोगिता का शीलगुण अधिकांश व्यक्तियों में पाया जाता है, परन्तु किसी व्यक्ति में यह गुण ज्यादा होता है। इस प्रकार का गुणवाला व्यक्ति हमेशा दूसरों से आगे बढ़ने का प्रयास करता रहता है। आगे बढ़ने के लिए दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाता, बल्कि कठिन परिश्रम करता है।

(xi) संवेगात्मक अस्थिरता(Emotional instability)-जिन व्यक्ति में संवेगात्मक अस्थिरता का गुण होता है, उसकी मनोदशा में प्राय: उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। ऐसे व्यक्ति बिना कारण ही खुशी की मनोदशा से दुःख की मनोदशा में आ जाते हैं। ऐसे व्यक्ति अपने संवेग की अभिव्यक्ति बिना हिचकिचाहट के करते हैं तथा.काफी जल्दी उत्तेजित हो जाते हैं। ये दिवास्वप्न अधिक देखते है तथा भविष्य में संभावित बुरे विचारों के बारे में सोच-सोच कर घबराते हैं। इसके विपरीत कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जिनमें संवेगात्मक स्थिरता का गुण होता है।

(x) डाह-इस प्रकार के गुणवाला व्यक्ति दूसरों को नुकसान पहुँचाकर अपना लाभ चाहता है। ऐसे व्यक्ति लगभग सभी समाज में कुछ-न-कुछ होते हैं। ऐसा व्यक्ति दूसरे को नीचा दिखाने की ताक में रहता है। ये स्वभाव से बहुत खतरनाक होते हैं।

(xi) तंत्रिका ताप (Neuroticism)-आइजेंक ने तंत्रिका ताप को व्यक्तित्व का एक प्रमुख शीलगुण माना है। तंत्रिका ताप एक प्रकार की साधारण मानसिक विकृति है।

प्रश्न 8.
बुद्धि के बहु-बुद्धि सिद्धान्त का वर्णन करें।
उत्तर:
बहुबुद्धि सिद्धान्त प्रतिपादन होवार्ड गार्डनर (Howard Gardner, 1993, 1999) द्वारा किया गया। सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि कोई एकाकी क्षमता नहीं होती है बल्कि इसमें विभिन्न प्रकार की सामान्य क्षमताएँ सम्मिलित होती हैं। इन क्षमताओं को गार्डनर ने अलग-अलग बुद्धि प्रकार कहा है। ऐसे प्रकार के बुद्धि की चर्चा उन्होंने अपने सिद्धान्त में किया है और कहा है कि ये सभी प्रकार एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं। परंतु ये बुद्धि के सभी प्रकार आपस में अंतर्किया (interaction) करते हैं और किस समस्या के समाधान में एक साथ मिलकर कार्य करते हैं। उन सभी नौ प्रकार के बुद्धि का वर्णन इस प्रकार है:

(i) भाषाई बुद्धि(Linguistic intelligence)-इससे तात्पर्य भाषा के उत्तम उपयोग एवं उत्पादन की क्षमता से होता है। इस क्षमता के पर्याप्त होने पर व्यक्ति भाषा का उपयोग प्रवाही (fluently) एवं लचील (flexible) ढंग से कर पाता है। जिन व्यक्तियों में यह बुद्धि अधिक होती है, वे शब्दों में विभिन्न एवं उसका उपयोग के पति काफी संवेदनशील होते हैं और अपने मन में एक उत्तम भाषाई प्रति (linguistic image) उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं।

(ii) तार्किक-गणितीय बुद्धि (Logical-Mathematical intelligence)-इससे तात्पर्य समस्या समाधान (Problem solving) एवं वैज्ञानिक चिंतन करने की क्षमता से होता है। जिन व्यक्तियों में ऐसी बुद्धि अधिकता होती है, वे किसी समस्या पर तार्किक रूप से तथा आलोचनात्मक ढंग से चिंतन करने में सक्षम होते हैं। ऐसे लोगों में अमूर्त चिन्तन करने की क्षमता अधिक होती है तथा गणितीय समस्याओं समाधान में उत्तम ढंग से विभिन्न तरह के गणितीय संकेतों एवं चिन्हों (Signs) का उपयोग करते है।

(iii) संगीतिय बुद्धि (Mosical intelligence)-इससे तात्पर्य संगीतिय-लय (Rhythms) तथा पैटर्न (Patterns) के बोध एवं उसके प्रति संवेदनशीलता से होती है। इस तरह की बुद्धि पर व्यक्ति उत्तम ढंग से संगीतिय पैटर्न को निर्मित कर पाता है। वैसे लोग जिनमें इस तरह की बुद्धि की अधिकता होती है ते आवाजों के पैटर्न, कंपन उतार-चढ़ात आदि के प्रति काफी संवेदनशील होते हैं और नए-नए उत्पन्न करने में भी सक्षम होते हैं।

(iv) स्थानिक बुद्धि (Spatial intelligence)-इससे तात्पर्य विशेष दृष्टि प्रतिमा तथा पैटर्न को सार्थक ढंग से निर्माण करने की क्षमता से होता है। इसमें व्यक्ति को अपनी मानसिक प्रतिमाओं को उत्तम से उपयोग करने तथा परिस्थितियों की मांग के अनुरूप उपयोग करने की पर्याप्त क्षमता होती है। जिन व्यक्तियों में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है, वे आसानी से अपने मन में स्थानिक वातावरण उपस्थित कर सकने में सक्षम हो पाते हैं। सर्जन, पेंटर, हवाईजहाज चालक, आंतरिक सजावट कर्ता (interior decorator) आदि में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।

(v)शारीरिक गतिबोधक बुद्धि (Bodily dinesthetic intelligence)-इस तरह की बुद्धि में व्यक्ति अपने पूरे शरीर या किसी अंग विशेष में आवश्यकतानुसार सर्जनात्मक (Greative) एवं लचीले (Flexible) ढंग से उपयोग कर पाता है। नर्तकी, अभिनेता, खिलाड़ी, सर्जन तथा व्यायामी (gymnast) आदि में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।

(vi) अंतर्वैयक्तिक बुद्धि (Interpersonal intelligence)-इस तरह की बुद्धि होने पर दूसरों के व्यवहार एवं अभिप्रेरक के सूक्ष्म पहलुओं को समझने की क्षमता व्यक्ति में अधिक होती है। ऐसे व्यक्ति दूसरों के व्यवहारों, अभिप्रेरणाओं एवं भावों को उत्तम ढंग से समझकर उनके साथ एक घनिष्ट संबंध बनाने में सक्षम हो पाते हैं। ऐसे बुद्धि मनोवैज्ञानिकों, सामाजिक कार्यकर्ताओं एवं धार्मिक नेताओं में अधिक होती है।

(vii) अंतवैयक्तिक बुद्धि (Intrapersonal intelligence)-इस तरह की बुद्धि में व्यक्ति अपने भावों, अभिप्रेरकों तथा इच्छाओं को समझता है। इसमें व्यक्ति अपनी आंतरिक शक्तियों एवं सीमाओं का उचित मूल्यांकन की क्षमता विकसित कर लेता है और इसका उपयोग वह अन्य लोगों के साथ उत्तम संबंध बनाने में सफलतापूर्वक उपयोग करता है। दार्शनिकों (Philosophers) तथा धार्मिक साधु-संतों में इस तरह की बुद्धि अधिक होती है।’

(viii) स्वाभाविक बुद्धि (Naturalistic intelligence)-इससे तात्पर्य स्वाभाविक या प्राकृतिक वातावरण की विशेषताओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाने की क्षमता से होती है। इस तरह की बुद्धि की अधिकता होने पर व्यक्ति प्रकृति के विभिन्न प्राणियों, वनस्पतियों एवं अन्य संबद्ध चीजों के बीच सूक्ष्म विभेदन कर पाता है तथा उनकी विशेषताओं की प्रशंसा कर पाता है। इस तरह की बुद्धि किसानों, भिखारियों, पर्यटकों (tourist) तथा वनस्पतियों (botanists) में अधिक पायी जाती है।

(ix) अस्तित्ववादी बुद्धि (Naturalist intelligence)-इससे तात्पर्य मानव अस्तित्व, जिंदगी, मौत आदि से संबंधित वास्तविक तथ्यों की खोज की क्षमता से होता है। इस तरह की बुद्धि दार्शनिक चिंतकों (Philosopher thinkers) में काफी होता है। स्पष्ट हुआ है कि गार्डनर के बहुबुद्धि सिद्धान्त में कुल नौ तरह के बुद्धि की व्याख्या की गयी है, जिसपर मनोवैज्ञानिक का शोध अभी जारी है।

प्रश्न 9.
बुद्धि परीक्षण के प्रकार का वर्णन करें।
उत्तर:
बुद्धि की मात्रा सभी व्यक्तियों में एक समान नहीं होती है। किसी व्यक्ति की बुद्धि अधिक होती है तो किसी व्यक्ति की कम। बुद्धि मापन के लिए बनाये गये परीक्षणों के माध्यम से किसी व्यक्ति के वास्तविक बुद्धि का पता लगाया जा सकता है।

बुद्धिः मापन की दिशा में सर्वप्रथम सफल प्रयास बिने ने किया है। उन्होंने फ्रांस में साइमन की सहायता से तीन से पन्द्रह वर्ष के बच्चों की बुद्धि मापने के लिए एक परीक्षण का निर्माण किया, जिसे बिने-साइमन टेस्ट के नाम से जानते हैं। उनके टेस्ट में तीस समस्याएं थीं जो क्रमिक रूप से कठिनाई स्तर के अनुसार रखी गयी थीं। बिने-साइमन के टेस्ट में कुछ कमी महसूस की गयी थी, अत: बाद में चलकर कई बार संशोधन किया गया है। उसके बाद अन्य कई मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि-परीक्षण के लिए तरह-तरह के टेस्ट का निर्माण किया। अब तक जितने बुद्धि परीक्षणों का निर्माण किया जा चुका है उसे निम्नलिखित चार भागों में रखा गया है-

1. वाचिक या शाब्दिक बुद्धि परीक्षण : वाचिक बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहा जाता है जिसमें भाषा की आवश्यकता होती है। इसके लिए प्रयोज्य को भाषा का ज्ञान आवश्यक है। इसमें कुछ प्रश्न लिखे होते हैं जिनका उत्तर प्रयोज्य को देना होता है। इन्हीं उत्तरों के आधार पर प्रयोज्य की बुद्धि का मापन होता है। इसके अंतर्गत बिने-साइमन टेस्ट, स्टर्नफोर्ड-बिने स्केल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। वाचिक परीक्षण के अधिकांश परीक्षण सामूहिक होते हैं अर्थात् इनके माध्यम से अनेक व्यक्तियों के बुद्धि का मापन एक साथ किया जा सकता है। जैसे-नौसेना, सामान्य वर्गीकरण परीक्षण, थलसेना सामान्य वर्गीकरण आदि। बिहार में भी इस प्रकार का परीक्षण डॉ. मोहसिन ने किया है।

शाब्दिक बुद्धि परीक्षण में कुछ ऐसे गुण हैं जिससे बुद्धि के मापन में इसका सर्वाधिक प्रयोग होता है। इसका सबसे पहला गुण है कि इससे वैयक्तिक परीक्षण द्वारा किसी व्यक्ति की बुद्धि का सही तौर पर मापन संभव होता है। इसका प्रमुख गुण है कि इस प्रकार के परीक्षण से कम-से-कम समय में अधिक व्यक्तियों की बुद्धि मापी जाती है। शाब्दिक परीक्षण की एक बहुत बड़ी विशेषता यह है कि इसके माध्यम से अमूर्त बुद्धि का मापन भी होता है। वाचिक बुद्धि परीक्षण में जहाँ एक ओर गुण हैं वहीं दूसरी ओर दोष भी हैं। इस परीक्षण के माध्यम से अनपढ़ व्यक्तियों की बुद्धि का मापन संभव नहीं है तथा इसके माध्यम से व्यक्ति की मूर्तबुद्धि का भी मापन नहीं हो सकता है।

2. क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण : क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहते हैं जिसमें भाषा की आवश्यकता नहीं होती है, सिर्फ कुछ वस्तुओं को इधर-उधर घुमाकर समस्याओं का समाधान करना होता है। इसके माध्यम से अनपढ़ व्यक्तियों की भी बुद्धि मापी जा सकती है। वाचिक परीक्षण की तरह इसमें भी कठिनाई स्तर क्रमशः बढ़ता जाता है। पहली समस्या सरल होती है। दूसरी उससे कठिन, तीसरी दूसरी से कठिन, इसी प्रकार समस्या की कठिनाई बढ़ती जाती है। प्रयोज्य जितनी समस्याओं को हल करता है उसी के आधार पर बुद्धिलब्धि निकाला जाता है। क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण को अशाब्दिक परीक्षण भी कहा जाता है। इसके अंतर्गत ब्लॉक डिजाइन टेस्ट, पास-एलांग टेस्ट, क्यूब कंस्ट्रक्शन टेस्ट आदि प्रमुख हैं।

ब्लॉक डिजाइन का निर्माण कोह ने किया था इसमें दस डिजाइन होते हैं जिसे लकड़ी के ब्लॉक के माध्यम से बनाया जाता है। जो व्यक्ति जितने कम समय में समस्याओं का समाधान करता है उसे उतना ही अधिक अंक प्रदान किया जाता है। उसी प्राप्तांक के आधार पर बुद्धिलब्धि निकालते हैं।

धन रचना परीक्षण का निर्माण गांव से किया था। इसमें तीन उप-परीक्षण होते हैं। तीन काष्ठ के मॉडल होते हैं, जिन्हें देखकर गोटियों की सहायता से मॉडल बनाना होता है। मॉडल को बनाने में लगने वाले समय एवं अशुद्धियों के आधार पर प्राप्तांक दिये जाते हैं तथा बुद्धिलब्धि निकालते हैं।

पास-एलांग टेस्ट का निर्माण अलेक्जेंडर ने किया था। इसमें नौ पत्रक होते हैं, जिस पर अलग-अलग डिजाइन बने होते हैं। इस टेस्ट में चार ट्रे होता है, जिसका एक किनारा लाल तथा दूसरा नीला होता है। इसमें गोटियों को बिना ट्रेसे उठाये लाल किनारे की तरफ से नीले किनारे की तरफ करना होता है। उसी में लगे समय के आधार पर अंक देते हैं तथा बुद्धिलब्धि निकालते हैं।

क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण में कुछ दोष भी हैं। इसके माध्यम से अमूर्त बुद्धि का समुचित मापन संभव नहीं है। इस प्रकार के परीक्षण से एक समय में एक ही व्यक्ति की बुद्धि का मापन होता है, अतः इसमें समय एवं श्रम अधिक लगता है।

3. वैयक्तिक बुद्धि-परीक्षण : वैयक्तिक बुद्धि-परीक्षण उसे कहते हैं जिसका प्रयोग एक समय में केवल एक ही व्यक्ति पर किया जा सकता है। इस प्रकार के परीक्षण का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसके माध्यम से बुद्धि की सही-सही जांच हो पाती है। परन्तु, इसमें समय एवं श्रम अधिक लगता
है। इसके अंतर्गत वाचिक एवं क्रियात्मक बुद्धि-परीक्षण आते हैं। जैसे बिने-साइमन टेस्ट, वेश्लर-वैलव्य _स्केल, पास-एलांग टेस्ट, क्यूब कंस्ट्रक्शन टेस्ट, ब्लॉक-डिजाइन टेस्ट आदि वैयक्तिक बुद्धि-परीक्षण के अंतर्गत आते हैं।

4. सामूहिक बुद्धि-परीक्षण : सामूहिक बुद्धि-परीक्षण के माध्यम से एक समय में अनेक व्यक्तियों की बुद्धि मापी जा सकती है। इसके अंतर्गत आर्मी अल्फा, टेस्ट, आर्मी बीटा टेस्ट, मोहसिन सामान्य बुद्धि-परीक्षण, जलोटा सामूहिक बुद्धि-परीक्षण आदि आते हैं। सामूहिक बुद्धि-परीक्षण का सबसे बड़ा गुण यह है कि इसके माध्यम से एक साथ कई प्रयोज्य की बुद्धि मापी जा सकती है। अतः इससे समय एवं श्रम की बचत होती है। इसका उपयोग व्यावसायिक चयन, शैक्षिक निर्देशन आदि में सफलतापूर्वक किया जाता है।

सामूहिक बुद्धि-परीक्षण में गुण के साथ-साथ दोष भी हैं। जब कई व्यक्तियों की बुद्धि को एक साथ मापा जाता है तो परीक्षक एक साथ सभी पर ध्यान नहीं दे पाता है, जिससे बुद्धि की सही जानकारी प्राप्त नहीं होती। छोटे बच्चों की बुद्धि का मापन इसके माध्यम से संभव नहीं है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि अभी तक जितनी भी परीक्षणों का निर्माण हुआ है उनमें एक ओर गुण है तो दूसरी ओर दोष भी है। अत: किसी एक परीक्षण के माध्यम से बुद्धि की सही जानकारी प्राप्त नहीं होती है। इसलिए एक साथ कई परीक्षणों का प्रयोग कर बुद्धि की जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

प्रश्न 10.
फ्रायड द्वारा प्रतिपादित व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्व का वर्णन करें।
उत्तर:
व्यक्तित्व के संरचना की दिशा में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपना सिद्धांत प्रस्तुत किया है। परन्तु फ्रायड की अवधारणा उन मनोवैज्ञानिकों से अलग हटकर है। सुप्रसिद्ध मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक सिंगमण्ड फ्रायड ने व्यक्तित्व संरचना के संबंध में एक अलग दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। उन्होंने व्यक्तित्व की संरचना का वर्णन दो मॉडलों के आधार पर किया है। जिसे आकारात्मक मॉडल तथा गत्यात्मक मॉडल कहते हैं। दोनों मॉडलों का वर्णन निम्नलिखित है।

आकारात्मक मॉडल-आकारात्मक मॉडल में फ्रॉयड ने मन के तीन स्तरों की चर्चा की है। चेतन, अर्द्धचेतन तथा अचेतन। चेतन स्तर के अन्तर्गत वे चिंतन भावनाएँ और क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोग जागरूक रहते हैं! अर्द्धचेतन क अन्तर्गत वैसी मानसिक क्रियाएं आती हैं जिसके प्रति लोक उस समय जागरूक होते हैं जब व उस पर सावधानीपूर्वक ध्यान केन्द्रित करते हैं। तोसरा स्तर जिसे अचेतन कहते हैं उसमें ऐसी मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोग जागरूक नहीं होते हैं।

अचेतन के संबंध में फ्रायड कहते हैं कि यह मूल प्रवत्ति या पाश्विक अंतर्नोद का भंडार होता है। इसके अंतर्गत ऐसी घटनाएँ या विचार संग्रहित रहते हैं जो चेतन रूप स जागरूक स्थिति से छिपे होने हैं और मनोवैज्ञानिक द्वन्द्वों को उत्पन्न करते हैं। अचेतन में दलित इच्छाएँ कामुक स्वरूप ही होता है जिसे प्रकट रूप में अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता ह इसीलिए उसका दमन हो जाता है। व्यक्ति अपने अचेतन में दमित इच्छाओं को सामाजिक रूप से स्वीकार्य तरीकों से अभिव्यक्त करने के लिए निरंतर संघर्ष करते रहता है। यदि द्वन्द्वों के निर्माण में असफल हो जाता है।

तो उसमं असामान्यता के लक्षण विकसित हो जाते हैं और उसका व्यवहार कुसमायोजित हो जाता है। व्यक्ति के अचेतन को स्वप्न विश्लेषण, दैनिक जीवन की भूलें, विस्मरण आदि के आधार पर जाना जा सकता है। फ्रायड ने एक चिकित्सा पद्धति को विकसित किया जिसे मनोविश्लेषण के नाम से जाना जाता है। मनोविश्लेषण चिकित्सा पद्धति के माध्यम से अचेतन में दमित विचारों को चेतन स्तर पर लाया जाता है और रोगी को आत्मा जागरुक बनाकर समाज में अभियोजन के लायक बनाया जाता है।

व्यक्ति की संरचना के संबंध में फ्रायड ने मन के गत्यात्मक पहलू की चर्चा की है उन्होंने बताया है कि यह अचेतन की ऊर्जा के रूप में होते हैं। इसके तीन तत्व-इड, इगो तथा सुपर इगो के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होता है। ये तीन तत्व सम्प्रत्यय है न कि वास्तविक भौतिक संरचना। तीनों नत्वों का विवरण निम्नलिखित है-
इड-व्यक्ति के मूल प्रवृत्ति कर्जा का सोत ड्ड होता है जो इसकी आदिम इच्छाआ, कामेच्छाओं और आकामक आवेगों की तात्कालिक संतुष्टि चाहता है। यह सुख के सिद्धान्त से संचालित होता है। फ्रायड ने बताया है कि व्यक्ति की अधिकांश मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का मूल स्वाभाविक होती है और कुछ ऊर्जा आक्रामक होती है।
इड को नैतिक-अनैतिक को परवाह नहीं होता है।

इगा-यह मन के गत्यात्मक पहलू का दूसरा भाग है। इसका विकास इड से होता है और यह मूल पवृत्तिक आवश्यकताओं को संतुष्टि वास्तविकता के घटात्मक पर करता है। यह वास्तविक सिद्धांत से मंचालित होता है। यह व्यवहार के रपयक्त तरीकों की तलाश करता है और इच्छाओं की संतुष्टि में सहयोग करता है। इस प्रकार यह व्यक्ति को व्यवहार कुशल बनाता है।

सुपर इगो-यह मन के गत्यात्मक पहलू का सबसे अन्तिम भाग है जिसका संबंध नैतिकता से होता है। सुपर इगो को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। सुपर इगो इड और इगा को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं: – इस प्रकार स्पष्ट है कि फ़ायड ने व्यक्तित्व विकास के क्षेत्र में एक नया आयाम दिया है जो गरी तरह से सन पर आधारित है। इसके क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

प्रश्न 11.
What is intelligence test? Explain its utility. (बुद्धि परीक्षण क्या है ? इसकी उपयोगिता का वर्णन करें।)
उत्तर:
पत्येक बालक में कुछ जन्म ज्ञात योग्यताएँ होती हैं। यह सभी बालकों में एक समान नहीं वरन् भिन्न-भिन्न होती है। बालक को इन जन्मजात योग्यताओं को पता लगाने की विधि को बुद्धि परीक्षण कहते हैं। इसके द्वारा व्यक्ति के मानसिक विकास के स्तर का अनुमान लगाया जा सकता है अथवा मापा जा सकता है।

आधुनिक काल में बुद्धि-परीक्षा परम उपयोगी सिद्ध हुई है। यह देखा गया है कि जीवन में सफलता और असफलता तथा नई परिस्थितियों के समायोजन एवं नई समस्याओं के हल करने में बुद्धि का बहुत बड़ा हाथ रहता है। यही नहीं मानव-जीवन के प्रत्येक कार्य-क्षेत्र में बुद्धि की बहुत अधिक महत्ता और उपयोगिता है। चूंकि बुद्धि परीक्षा द्वारा ही बुद्धि मापी जाती है, इसलिए उसकी भी बहुत उपयोगिता है। हम इसके कुछ उपयोगों का वर्णन नीचे करेंगे-

1.मंद बद्धि के बालकों का पता लगाना (Diagnosing Feeble-minded Children)-बुद्धि परीक्षा के द्वारा अध्यापक सरलतापूर्वक एक ही कक्षा में पढ़ने वालो में से मन्द बुद्धि और प्रखर बुद्धि के बालकों को छाँट सकता है। उनकी बुद्धि लब्धि के आधार पर वर्गीकरण कर उनके समान बुद्धि-लब्धि वाले बालकों के साथ उन्हें शिक्षा देकर उनका समुचित विकास कर सकता है। बुद्धि परीक्षा से मन्द बुद्धि, सामान्य और प्रतिभाशाली सभी प्रकार के बालकों की जानकारी आसानी से की जा सकती है। उनमें आपस में अन्तर किया जा सकता है। एक बालक जिसकी बुद्धिलब्धि 70 है वह मन्द-बुद्धि माना जाता है, जिसे विशेष प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। उसे प्रखर मेधावी छात्रों के साथ जिनकी बुद्धि-लब्धि 129 से ऊपर होती है, नहीं पढ़ाया जा सकता है।

2..बाल अपराधियों से व्यवहार (Dealing with Delinquency)–प्राय: यह देखा गया है कि अधिकतर बाल-अपराधी निम्न बौद्धिक धरातल के होते हैं। उच्च मानसिक स्तर के बालअपराधी बहुत कम मिलते हैं। बुद्धि परीक्षण हमें इन बाल-अपराधियों के उपयुक्त व्यवहार करने में सहायता पहुँचाती है क्योंकि बुद्धि परीक्षण द्वारा बाल-अपराधी की बुद्धि-लब्धि निकाली जाती है, फिर उन बहुत से कारणों को समझा जाता है जिनसे बालक अपराधी बन जाता है या विद्रोही। अतः इस प्रकार बुद्धि-परीक्षण बाल-अपराधियों के कारणों को खोजने में, उनके समुचित व्यवहार करने में सहायता पहुँचाती है।

3. शिक्षा में उपयोगी (Use in Educational System)-बुद्धि परीक्षण का सबसे अधिक उपयोग विद्यालयों में होता है। बुद्धि-परीक्षण के आधार पर बालकों का वर्गीकरण सामान्य मन्द और प्रतिभाशाली अथवा मेधावी के रूप में किया जाता है। शैक्षिक कार्यक्रमों की सफलता के लिए आवश्यक है कि मन्द बुद्धि और मेधावी बालकों में अन्तर किया जाय। उन्हें भिन्न प्रकार की शिक्षा दो जाये, अत: निम्नलिखित कारणों से बुद्धि परीक्षण परमोपयोगी सिद्ध हुई है।

  • बुद्धि-परीक्षण हम यह बताती है कि पाठशाला में बालक की उन्नति में कमी का कारण उसकी मानसिक योग्यता का कमी है अथवा अन्य कोई कारण।
  • बुद्धि-परीक्षण कम बुद्धि वाले बालकों को तुरन्त बता देती है।
  • बुद्धि-परीक्षण उत्कृष्ट बालक को छाँटकर बता देती है। उसकी उपयुक्त शिक्षा दीक्षा के लिए तथा उसके सम्यक विकास के लिए उचित अवसर प्रदान करने पर बल देती है।
  • अध्यापक के आगे आने वाली समस्याओं के हल में सहायता पहुँचाती है तथा विद्यालय में बाल-अपराधियों को पहचानने में मदद देती है।
  • बुद्धि-परीक्षण बालकों को मानसिक योग्यता का सम्यक आकलन कर उन्हें उचित मार्ग प्रदर्शन करती है।
  • वह बुद्धि लब्धि के आधार पर किसी बालक के लिए स्पष्ट संकेत करती है कि वह कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय के उच्च अध्ययन के योग्य है अथवा नहीं।
  • बुद्धि-परीक्षा अध्यापकों और विशेषज्ञों को बालक के लिए व्यावहारिक चुनाव में बहुत मदद देती है और उचित मार्ग प्रदर्शन करती है।

4. विशिष्ट वर्गों के अध्ययन के लिए उपयोगी (Usc of Special Group)-बुद्धि-परीक्षण व्यक्तियों के विशिष्ट वर्गों के लिए परमोपयोगी है। यह विशिष्ट वगा, जैसे-गूंगे, बहरे और जातीय समुदायों का सर्वेक्षण करती है।

5. उद्योगों में उपयोगिता (Use in the industires)-उद्योगों में अधिकारियों, कर्मचारियों और विशेषज्ञों के चुनाव में बुद्धि-परीक्षा बहुत सहायता देती है। चुनाव को अन्य विधियो जैसे साक्षात एवं उम्मीदवार के आवेदन पत्र जिसमें उसके पूर्व अनुभवों, शैक्षिक और सामाजिक, एवं विशिष्ट योग्यताओं का लेखा-जोखा होता है के साथ बुद्धि परीक्षा भी परम उपयोगी सिद्ध होती है।

प्रश्न 12.
Write short note on mental age and I. Q: (मानसिक उम्र तथा बुद्धिलब्धि पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।)
उत्तर:
मानसिक उम्र (Mental age)-विभिन्न बुद्धि परीक्षणों के माध्यम से बुद्धिलब्धि (I.Q.) निकालने के लिए मानसिक उम्र की जानकारी प्राप्त करना आवश्यक है। अब प्रश्न उठता है कि मानसिक उम्र क्या है ? इस संबंध में मानसिक उम्र की एक समुचित परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है-“मानसिक उम्र किसी व्यक्ति के द्वारा विकास की वह अभिव्यक्ति है जो उसके कार्यों द्वारा जानी जाती है तथा किसी आयुविशेष में उसकी अपेक्षा की जाती है।” (The mental age is an expression of the extent of development achieved by the individual stated in terms of the performance expected at any given age.)

परिभाषा से स्पष्ट होता है कि विभिन्न उम्र स्तर में व्यक्ति विभिन्न प्रकार की अभिव्यक्तियाँ करता है। इससे तात्पर्य यह है कि जिस बालक की मानसिक आयु दस वर्ष बतायी जाती है, वह परीक्षा के अनुसार अपनी दस वर्ष की उम्र में ही सामान्य बालकों के समान व्यवहार करने में सफल हो जाता है।

बुद्धि-परीक्षक किसी बालक की बुद्धि-परीक्षण के लिए वस्तुओं का संकलन करता है जिसे वह परीक्षण में शामिल करना चाहता है तथा उनको एक विशिष्ट क्रम में सजाता है। फिर, विभिन्न उम्र स्तर के बच्चों को समस्या हल करने के लिए देता है। यह सब प्रकार से आयोजित किया जाता है जिससे बच्चों के विभिन्न उम्र की सामान्य उपलब्धियों का ठीक-ठीक पता लग सके। परीक्षण में विभिन्न उम्र के प्रतिनिधि बच्चों ने कार्यों में किस सीमा पर सफलता प्राप्त की तथा एक की उम्र के अधिकांश बच्चों ने जिस कार्य को सफलतापूर्वक किया वही उस विशिष्ट उम्र की मानसिक उम्र निश्चित कर ली जाती है।

उदाहरण के लिए, आठ वर्ष की उम्र के सामान्य बच्चों की औसत उपलब्धि ही उसकी आठ वर्ष की मानसिक उम्र का प्रतीक होगा। कोई भी आठ वर्ष ? का बच्चा ऐसे कार्यों को कर लेता है जो नौ वर्ष का सामान्य बच्चा कर सकेगा तो उसकी मानसिक आयु नौ वर्ष कहलायेगी। परन्तु, आठ वर्ष का बच्चा ऐसे कार्यों को करने में सक्षम होता है जो सात वर्ष का सामान्य बच्चा कर सकता है तो उस बच्चे की मानसिक आयु सात वर्ष ही मानी जायगी जबकि उसकी वास्तविक आयु आठ वर्ष की होगी।

इस प्रकार अपने से अधिक उम्र वाले कार्यों को करने वाले बच्चों को श्रेष्ठ तथा अपने से कम उम्र के कार्यों तक ही करनेवाले बच्चों को हीन मानते हैं।

मानसिक आयु किसी-किसी विशिष्ट उम्र में बालक की मानसिक परिपक्वता को बताती है कि बालक उस वास्तविक आयु पर मानसिक दृष्टि से कितना प्रौढ़ हुआ है। यही प्रौढ़ता एवं परिपक्वता की मात्रा मानसिक आयु है। बच्चे की उम्र में वृद्धि के साथ-साथ उसकी मानसिक परिपक्वता बढ़ती जाती है। बिने टेस्ट बच्चे की सामान्य योग्यता को मापती है, जिसका विकास थोड़े बहुत अंतर से प्रौढ़ता तक एक रूप से होता है।

बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient)-बुद्धिलब्धि (I.Q.) से तात्पर्य व्यक्ति के बुद्धि की मात्रा से है। किसी भी व्यक्ति को जो प्रतिभा प्राप्त होती है उसकी मात्रा को बताने वाली संख्या को I.Q. कहते हैं। दूसरे शब्दों में, व्यक्ति के पास बुद्धि की कितनी मात्रा है इसकी माप अथवा उसके द्वारा उपलब्ध बुद्धि ही बुद्धिलब्धि है।

बुद्धिलब्धि के विचार को सर्वप्रथम टरमैन (Terman) ने प्रस्तुत किया। इससे संबंधित विचार पहले स्टर्न (Sterm) ने भी बताया था। स्टर्न ने मानसिक लब्धि (M.Q.) प्रस्तुत किया। इसके लिए मानसिक उम्र को वास्तविक उम्र से विभाजित किया। पहले बुद्धि की मात्रा का सही .ही ज्ञान प्राप्त करना कठिन था। केवल इस बात की जानकारी होती थी कि कौन अधिक बुद्धि का है तथा कौन कम बुद्धि का। परन्तु I.Q. से बुद्धि का मात्रात्मक मापन होने लगा। इसके आध. पर इस बात की जानकारी की जाती है कि किस बच्चे को कितनी बुद्धि है तथा एक बच्चा कितना अधिक या कम बुद्धि वाला है। I.Q. निकालने के लिए एक सूत्र का प्रतिपादन किया जो इस प्रकार है-
Bihar Board 12th Psychology Important Questions Short Answer Type Part 4 1

टरमैन द्वारा दिया गया सूत्र आज भी बहुत उपयोगी है। इस सूत्र के अनुसार यदि मानसिक उम्र और वास्तविक उम्र दोनों बराबर होगा तो I.Q. एक सौ (100) होगा जो सामान्य कहलायगा। यदि मानसिक उम्र अधिक और वास्तविक उम्र अधिक होगा तो वह तीव्र बुद्धि का माना जायगा। इसी प्रकार यदि मानसिक उम्र कम और वास्तविक उम्र अधिक होगा तो वह मंद बुद्धि का माना जायेगा। नब्बे (90) से एक सौ दस (110) तक I.Q. वाले व्यक्ति को सामान्य बुद्धि माना जाता है। मानसिक उम्र को वास्तविक उम्र से विभाजित करने के बाद 100 से गुणा करने का तात्पर्य है स्कोर को फैलना एवं दशमलव को समाप्त करना। इसे एक उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-मान लिया कि किसी बच्चे की वास्तविक उम्र दस वर्ष और ब्लॉक डिजाइन टेस्ट (Block design test) के आधार पर उसकी मानसिक उम्र बारह वर्ष प्राप्त होती है तो उसकी बुद्धिलब्धि इस प्रकार प्राप्त होगी-
I.Q = \(\begin{array}{l}
\text { M.A. } \\
\text { C.A. }
\end{array}\) × 100 = \(\frac{12}{10}\) × 100 = 120 (औसत बुद्धि)
एटकिंसन एण्ड एटकिंसन तथा हिलगार्ड (Atkinson and Atkinson and Hilgard) ने अपने अध्ययनों के आधार पर एक तालिका प्रस्तुत की है, जिसमें बुद्धिलब्धि और प्रतिभा की मात्रा का संबंध दर्शाया गया है-

I.Q. वर्गीकरण प्रतिशत
140 एवं अधिक अति प्रखर 1
120 से 139 प्रखर 11
110 से 119 उच्च औसत 18
90 से 109 औसत 46
80 से 89 निम्न औसत 15
70 से 79 सीमा रेखा 6
70 से नीचे मानसिक दुर्बल 3

प्रश्न 13.
What do you understand by aptitude test? Discuss the different type of aptitude test. .. (अभिक्षमता परीक्षण से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।)
उत्तर:
अभिक्षमता परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति के कौशल या प्रवीणता ग्रहण करने की क्षमता का मापन किया जाता है। यह मनोविज्ञान का एक प्रमुख परीक्षण है। प्रत्येक व्यक्ति में कुछ ऐसी क्षमताएँ होती है, जो विशिष्ट होती है। उस क्षेत्र में यदि उसे आगे बढ़ने का अवसर दिया जाय तो वह बहुत अधिक ऊँचाई को हासिल कर सकता है। इसी विशिष्ट क्षमता को मापने के लिए विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने परीक्षण का निर्माण किया है। इस दिशा में काफी पहले से ही मनोवैज्ञानिकों द्वारा प्रयास जारी है। इन्हीं परीक्षणों को अभिक्षमता परीक्षण के नाम से जाना जाता है। इसके अंतर्गत कई प्रकार की विशिष्ट क्षमताएँ जैसे यात्रिक क्षमता, गणितीय क्षमता, लिपिक क्षमता, संगीत क्षमता आदि का मापन किया जाता है। विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने अभिक्षमता के स्वरूप को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। फ्रीमैन के अनुसार, “अभिक्षमता परीक्षण से तात्पर्य उस परीक्षण से है, जिसके माध्यम से किसी विशिष्ट क्षेत्र में विशिष्ट कार्य को पूरा करने में व्यक्ति में अन्तर्निहित क्षमता का मापन किया जाता है।”

अभिक्षमता परीक्षण के प्रकार (Type of aptitude test) :
विभिन्न मनोवैज्ञानिकों द्वारा अभिक्षमता परीक्षण के क्षेत्र में बहुत अधिक शोध किये गए हैं और परीक्षणों का निर्माण किया गया है। इन परीक्षणों के मोटे तौर पर दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-एक कारक अभिक्षमता परीक्षण तथा बहुकारक अभिक्षमता परीक्षण।

1. एक कारक अभिक्षमता परीक्षण (Unifactor aptitude test)-एक कारक अभिक्षमता परीक्षण वैसे परीक्षण को कहते हैं, जिससे व्यक्ति के किसी एक प्रकार की अभिक्षमता का मापन होता है। इस प्रकार के परीक्षण की खास विशेषता यह होती है कि इसके माध्यम से व्यक्ति में निहित एक ही क्षमता का सही ढंग से और सूक्ष्म मापन से होता है। अतः इस प्रकार के परीक्षण को विश्वसनीयता एवं वैधता की मात्रा बहुत अधिक होती है। इस प्रकार के परीक्षणों में मेनिसोटा यांत्रिक अभिक्षमता परीक्षण, संगीत अभिक्षमता परीक्षण, सामान्य लिपिक अभिक्षमता परीक्षण आदि आते हैं। इस दिशा में बिहार में भी कुछ महत्त्वपूर्ण कार्य किए गए हैं, जिसमें ए० के. पी. सिन्हा तथा एल. एल. के. सिन्हा द्वारा निर्मित वैज्ञानिक अभिक्षमता प्रमुख है। यह परीक्षण कॉलेज के छात्रों में निहित वैज्ञानिक क्षमता का मापन के क्षेत्र में बहुत अधिक लोकप्रिय हुआ है।

2. बहकारक अभिक्षमता परीक्षण (Multifactor aptitude test)-इसके अंतर्गत ऐसे परीक्षण आते हैं, जिसके माध्यम से व्यक्ति में निहित अनेक प्रकार की क्षमताओं का मापन एक ही जाँच के माध्यम से करते हैं। ज्यादातर अभिक्षमता परीक्षण बहुकारक के अंतर्गत आते हैं। इस प्रकार के परीक्षणों में Different aptitude test, General aptitude battery, teaching aptitude test battery, scientific aptitude battery आदि आते हैं।

उपरोक्त परीक्षणों में Differential aptitude test (DAT) सर्वाधिक लोकप्रिय परीक्षण है, जिसका निर्माण सबसे पहले 1947 में अमेरिकन मनोवैज्ञानिक कारपोरेशन द्वारा किया गया है।

DAT का उपयोग आठवें वर्ग से लेकर बारहवें वर्ग के छात्रों के लिए किया जाता है। दूसरा संशोधन 1952 तथा 1963 ई. में किया गया। इस परीक्षण से निम्नलिखित आठ प्रकार की क्षमताओं का मापन किया जाता है।

1. शाब्दिक चिंतन परीक्षण(Verbal Reasoning test)-इसके माध्यम से शब्दों में निहित संप्रत्ययों को समझने की क्षमता का मापन किया जाता है। इससे रचनात्मक क्षमता का भी मापन किया जाता है।

2. संख्यात्मक अभिक्षमता परीक्षण (Numerical ability test)-इस जाँच के माध्यम से विद्यार्थियों में निहित संख्या या संख्याओं के आपसी संबंधों को समझने, संख्याओं की गणना एवं उसके बारे में चिंतन की क्षमता का मापन होता है। . .3. अमूर्त चिंतन परीक्षण (Abstract Reasoning test)-कुछ व्यक्तियों में अमूर्त चिंतन की योग्यता अधिक होती है। इन क्षमताओं का मापन अमूर्त चिंतन परीक्षण से किया जाता है।

4. दैशिक संबंध परीक्षण (Space Relation test)- दैशिक संबंध परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति में निहित उस क्षमता का मापन होता है जिसके द्वारा वह यह बता सकता है कि किसी दिए हुए डायग्राम से किस प्रकार का चित्र बनेगा या कोई एक ही वस्तु को विभिन्न दिशाओं में घुमाया जाय तो किस प्रकार का दिखायी देगा। इस क्षमता की आवश्यकता ड्रेस डिजायनर तथा डेकोरेटर आदि में विशेष रूप से होती है।

5. यांत्रिक चिंतन परीक्षण (Mechanical Reasoning test)-यांत्रिक चिंतन परीक्षण के माध्यम से व्यक्ति में निहित यांत्रिक क्षमताओं का पता चलता है, जिसकी आवश्यकता उद्योगों में सर्वाधिक है। इस प्रकार की क्षमता वाले लोग सफल इंजीनियर या कुशल उद्योगपति हो सकते हैं।

6. लिपिक गति और परिशुद्धता परीक्षण (Clerical speed and accuracy test)-यह . एक ऐसी जाँच है जिसके माध्यम से व्यक्ति किसी शब्द था चित्र का प्रत्यक्षीकरण करने के पश्चात् होनेवाली सही अनुक्रिया का मापन करता है। इस प्रकार के क्षमता की आवश्यकता लिपिक कार्य या स्टेनोग्राफी आदि में सर्वाधिक होती है।

7. हिज्जे परीक्षण (Spelling test)–भाषा उपयोग परीक्षण के दो उप-परीक्षण है जिसमें हिज्जे परीक्षण पहला उप-भाग है, जिसके माध्यम से व्यक्ति में निहित शब्दों का सही-सही हिज्जे की क्षमता की माप की जाती है।

8. भाषा-वाक्य परीक्षण (Language-sentence test)–इस परीक्षण के माध्यम से भाषा का सही-सही उपयोग तथा वाक्यों का सही वैयाकरणिक अनुप्रयोग आदि की क्षमता का मापन किया जाता है। उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि DAT के माध्यम से आठ विभिन्न प्रकार की अभिक्षमता का मापन किया जाता है, जिसके क्रियान्वयन से कुल मिलाकर तीन घण्टे छः मिनट का समय लगता है। इसका उपयोग सामूहिक एवं वैयक्तिक परीक्षण के रूप में किया जा सकता है।

प्रश्न 14.
पर्यावरण के प्रति जागरूकता तथा अनुकूल व्यवहार को बढ़ाने की प्रविधियों का वर्णन करें।
उत्तर:
पर्यावरण के प्रति जागरूकता तथा अनुकूल व्यवहार को बढ़ाने के लिए केवल भविष्यवाणी पर्याप्त नहीं है। बल्कि इसके विद्वेशक परिणामों के सम्बन्ध में जानकारी देकर विपरीत प्रभाव को नियंत्रण करने का प्रयास किया जा सकता है जो निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा की जा सकती है।-

(a) चेतावनी- समयानुरूप आने वाले विषम परिस्थितियों की जानकारी देकर लोगों को चेतना वृद्धि किया जा सकता है जिससे लोग अवगत होकर उसके समाधान के प्रति तत्पर हो सके। यह कार्य विज्ञापन के द्वारा लोगों तक पहुँचाया जाता है। प्राकृतिक विपदाओं से सम्बन्धित घटनाओं को तूफान एवं भविष्य में आने वाले समुद्री ज्वार तथा भूकम्प से बचने तथा निर्धारित क्षेत्र में न जाने की सुझाव दी जाती है।

(b) सुरक्षा उपाय-प्राकृतिक विपदाओं में कुछ ऐसे भी हैं जिनका संकेत दिये जाने पर इतना शीघ्रतापूर्वक आगमन होता है कि उनका नियंत्रण कर पाना संभव नहीं होता इसलिए इसके लिए चेतावनी देकर उन्हें मानसिक रूप से तैयार करने का कार्य किया जाता है इससे संबंधित सुझाव द्वारा समयानुरूप समायोजन में सहायता प्राप्त हो जाता है।

(c) मनोवैज्ञानिक विकारों का उपचार-मनावैज्ञानिक विकारों के उपचार में स्वावलंबन उपचार तथा व्यावसायिक उपचार दोनों उपस्थित होते हैं। लोगों में मुख्यतः भौतिक सहयोग जैसे-शरण आश्रय, भोजन, एवं वस्त्र वितीय सहायता प्राप्त करना अनिवार्य होता है जिसके लिए अनुभव एवं प्रोत्साहन होना आवश्यक होता है। प्रभाव स्वरूप इससे उसके सांवेगिक अवस्था का निवारण हो पाता है।

(d) आत्म सक्षमता- इसमें प्राणी को आत्मा विश्वास दृढ़ होता है वे स्वयं को बाहरी परिवेश में समर्थ मानते हैं परन्तु इन दशाओं की पूर्ति न हो सकने से तीव्र दबाव परिलक्षित हो जाता है और उन्हें मनोरोग उपचार की आवश्यकता पड़ती है प्रभाव स्वरूप लाभ अर्जन से सामुदायिक जीवन में समायोजन के गण विकसित होता है।

प्रश्न 15.
एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक के लिए सामान्य कौशलों का वर्णन करें।
उत्तर:
भनोविज्ञान का अध्ययन करने वाले कुछ छात्रों का उद्देश्य होता है एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनकर समाज एवं देश को सेवा प्रदान करना। कुशल मनोवैज्ञानिक बनने के लिए जो क्षेत्र आते हैं जिसकी शिक्षा और प्रशिक्षण करने के बाद व्यवसाय में आने के पहले जानना आवश्यक है। वे शिक्षकों, अभ्यास करने वाले या शोध करने वाले सभी के लिए जरूरी है जो छात्रों से, व्यापार से, उद्योगों से और बृहत्तर समुदायों के साथ परामर्श की भूमिकाओं में होते हैं। यह माना जाता है कि मनोविज्ञान में
सक्षमताओं को विकसित करना, उनको अमल में लाना और उनका मापन करना कठिन है, क्योंकि विशिष्ट पहचान और मूल्यांकन की कसौटियों पर आम सहमति नहीं बन पाई है।

मनोवैज्ञानिकों द्वारा पहचानी गयी आधारभूत कौशल या सक्षमता जो एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनने के लिए आवश्यक है उसे तीन श्रेणियों में बाँटा गया है-

  1. सामान्य कौशल
  2. प्रेक्षण कौशल तथा
  3. विशिष्ट कौशल।

सामान्य कौशल मूलतः सामान्य स्वरूप के होते हैं। जिसकी आवश्यकता सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिकों को होती है चाहे वे किसी भी क्षेत्र के विशेष क्यों नहीं। खासकर सभी प्रकार के व्यवसायी मनोवैज्ञानिक जैसे-नैदानिक, स्वास्थ्य मनोविज्ञान, औद्योगिक, सामाजिक, पर्यावरणीय सलाहकार की भूमिका में रहने वालों के लिए यह कौशल आवश्यक है।

प्रेक्षण कौशल से तात्पर्य सूचनाओं को देखकर समझने से है। कोई मनोवैज्ञानिक चाहे वह शोध कर रहा हो या क्षेत्र में व्यवसाय कर रहा हो वह ज्यादातर समय सावधानीपूर्वक सुनने, ध्यान देने और प्रेक्षण करने का कार्य करता है। वह अपनी समस्त संवेदनाओं का उपयोग देखने, सुनने स्वाद लेने, स्पर्श करने या सूंघने में करता है।

विशिष्ट कौशल मनोविज्ञान के किसी क्षेत्र में विशेषता से है जैसे-नैदानिक स्थितियों में कार्य करने वाले मनोवैज्ञानिकों के लिए यह आवश्यक है कि वह चिकित्सापरक तकनीकों, मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन एवं परामर्श में प्रशिक्षण प्राप्त करें। इस प्रकार स्पष्ट है कि एक प्रभावी मनोवैज्ञानिक बनने के लिए उपरोक्त तीनों कौशल में प्रवीण होना आवश्यक है। तभी वे सेवार्थी को अधिक-से-अधिक लाभ दे सकता हैं।

Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
माँग की कीमत लोच से आप क्या समझते हैं ? माँग की कीमत लोच की विभिन्न श्रेणियाँ क्या हैं ?
अथवा, माँग की कीमत लोच के प्रकारों की व्याख्या करें।
उत्तर:
माँग की लोच की धारणा यह बताती है कि कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप किसी वस्तु की माँग में किस गति या दर से परिवर्तन होता है। यह वस्तु की कीमत में परिवर्तन के प्रति माँग की प्रतिकिया या संवेदनशीलता को दर्शाती है।

माँग की कीमत लोच कीमत में होने वाले आनुपातिक परिवर्तन तथा माँग में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन का अनुपात है।
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माँग की कीमत लोच को निम्न श्रेणियों में बांटा जा सकता है-
1. पूर्णतया बेलोचदार माँग (Pesteetly inelastic Demand)- जब कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप माँग में कोई परिवर्तन नहीं होता तो इसे पूर्णतया बेलोचदार माँग कहते हैं। ऐसा माँग वक्र X-अक्ष पर लम्बवत् होता है। अर्थात् ed = 0
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2. इकाई से कम लोचदार माँग (Less than unitary Elastic Demand)- माँग की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कीमत में होने वाले एक निश्चित प्रतिशत परिवर्तन के कारण माँग में अपेक्षाकृत कम प्रतिशत परिवर्तन होता है। अर्थात् ed < 1
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3. इकाई से अधिक लोचदार माँग (Greater than unitary Elastic Demand)- माँग की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कीमत में होने वाले एक निश्चित प्रतिशत परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँग में अपेक्षाकृत अधिक प्रतिशत परिवर्तन होता है। अर्थात् ed > 1
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4. इकाई लोचदार माँग (Unitary Elastic Demand)- माँग की उस स्थिति को कहते हैं जिसमें कीमत में होने वाले प्रतिशत परिवर्तन के बराबर माँग में प्रतिशत परिवर्तन होता है। जब माँग वक्र Rectangular Hyperbola होता है तब माँग वक्र के सभी बिन्दुओं पर माँग की लोच इकाई के बराबर होती है। अर्थात् ed = 1
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5. पूर्णतया लोचदार माँग (Perfectly Elastic Demand)- पूर्णतया लोचदार माँग उसे कहते हैं जिसमें कीमत में थोड़ा-सा परिवर्तन होने पर माँग में अनन्त परिवर्तन हो जाता है। ऐसा माँग वक्र X-अक्ष के समानान्तर होता है। अर्थात् ed = a
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प्रश्न 2.
माँग के नियम का कथन उद्धृत कीजिए। माँग वक्र का ढलान क्यों नीचे की ओर होता है ?
अथवा, माँग का नियम क्या है ? माँग वक्र का ढलान क्यों नीचे की ओर होता है ?
उत्तर:
माँग का नियम यह बताता है कि अन्य बातें समान रहने पर वस्तु की कीमत एवं वस्तु की मात्रा में विपरीत संबंध पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, अन्य बातें समान रहने की दशा में किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि के कारण उसकी माँग में कमी हो जाती है तथा इसके विपरीत कीमत में कमी होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है।

जब माँग-तालिका को एक रेखाचित्र द्वारा व्यक्त किया जाता है तो इसे माँग वक्र कहते हैं। माँग वक्र का ढाल ऋणात्मक होता है, अर्थात् यह वक्र बायें से दायें नीचे गिरता है। इसका अर्थ है कि कीमत कम होने पर अधिक वस्तुएँ खरीदी जाती है और कीमत अधिक होने पर कम वस्तुएँ खरीदी जाती है। माँग वक्र की ढलान ऋणात्मक होने के निम्नलिखित कारण हैं-

  1. घटती सीमान्त उपयोगिता का नियम- उपभोक्ता वस्तु की सीमान्त उपयोगिता को दिये गये मूल्य के बराबर करने के लिए कम कीमत होने पर अधिक क्रय करता है। P = Mu
  2. प्रतिस्थापन्न प्रभाव- मूल्य कम होने पर उपभोक्ता अपेक्षाकृत महँगी वस्तु के स्थान पर सस्ती वस्तु का प्रतिस्थापन्न करता है।
  3. आय प्रभाव- मूल्य में कमी के फलस्वरूप उपभोक्ता आय वृद्धि की स्थिति को महसूस करता है और क्रय बढ़ा देता है।
  4. नये उपभोक्ताओं का उदय।

प्रश्न 3.
केन्द्रीय बैंक और व्यावसायिक बैंक में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
केन्द्रीय बैंक तथा व्यावसायिक बैंक में निम्नलिखित अंतर है-
केन्द्रीय बैंक:

  1. देश में इसकी संख्या एक होती है।
  2. इसका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता है।
  3. यह नोट निर्गमन करता है।
  4. इस पर सरकार का स्वामित्व होता है।
  5. व्यापारिक बैंकों से इसकी कोई प्रतियोगिता नहीं होती है।
  6. यह अंतिम ऋणदाता है।
  7. यह सरकार के बैंकर के रूप में सरकार की ओर से लेन-देन करता है।
  8. यह जनता के साथ व्यवसाय नहीं करता है।
  9. यह देश का सर्वोच्च बैंक है।

व्यावसायिक बैंक:

  1. देश में इसकी संख्या कई होती है।
  2. इसका उद्देश्य लाभ कमाना होता है।
  3. इसे यह अधिकार नहीं है।
  4. इसका स्वामित्व सरकारी और गैर-सरकारी हो सकता है।
  5. इनमें आपस में प्रतियोगिता होती है।
  6. यह केन्द्रीय बैंक के ग्राहक होता है।
  7. यह जनता का बैंकर है।
  8. यह जनता से व्यवसाय करता है।
  9. यह केन्द्रीय बैंक के नियंत्रण में कार्य करता है।

प्रश्न 4.
स्फीतिक अंतराल क्या है ? अतिरेक माँग के कारणों को बताइए।
उत्तर:
वह स्थिति जिसमें अर्थव्यवस्था में उत्पादन में वृद्धि नहीं होती, केवल कीमतों में वृद्धि होती है तो उसे स्फीति अंतराल कहा जाता है स्फीतिक अंतराल अतिरेक माँग की माप है। स्फीतिक दबाव तथा अत्यधिक माँग में आनुपातिक संबंध पाया जाता है। अत्यधिक माँग जितनी अधिक होती है, स्फीतिक दबाव भी उतना ही अधिक होता है।

निम्नलिखित कारणों के कारण किसी देश में अतिरेक माँग की स्थिति उत्पन्न होती है-

  • सार्वजनिक व्यय में बढ़ोतरी के वजह से सरकार द्वारा की जाने वाली वस्तुओं तथा सेवाओं की माँग में वृद्धि।
  • कर में कमी के कारण व्यय योग्य आय एवं उपभोग माँग में वृद्धि।
  • विनियोग माँग में वृद्धि।
  • निर्यात हेतु वस्तुओं की माँग में वृद्धि।
  • घाटा प्रबंधन के कारण मुद्रा पूर्ति में वृद्धि।
  • साख विस्तार से माँग में वृद्धि।

प्रश्न 5.
विदेशी विनिमय दर को परिभाषित करें। स्थिर और लोचपूर्ण विनिमय दर में अंतर करें।
उत्तर:
वह दर जिस पर एक देश की एक मुद्रा इकाई का दूसरे देश की मुद्रा में विनिमय किया जाता है, विदेशी विनिमय दर कहलाता है। इस प्रकार विनिमय दर घरेलू मुद्रा के रूप में दी जाने वाली वह कीमत है जो विदेशी मुद्रा की एक इकाई के बदले दी जाती है।

स्थिर एवं लोचपूर्ण विनिमय दरों में निम्नलिखित अंतर पाया जाता है-
स्थिर विनिमय दर:

  1. यह सरकार द्वारा घोषित की जाती है और इसे स्थिर रखा जाता है।
  2. इसके अंतर्गत विदेशी केन्द्रीय बैंक अपनी मुद्राओं को एक निश्चित कीमत पर खरीदने और बेचने के लिए तत्पर रहता है।
  3. इसमें परिवर्तन नहीं आते हैं।

लोचपूर्ण विनिमय दर:

  1. माँग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्धारित होती है।
  2. इसमें केन्द्रीय बैंक का हस्तक्षेप नहीं होता है।
  3. इसमें हमेशा परिवर्तन आते रहते हैं।

प्रश्न 6.
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की व्याख्या करें। इस नियम के लागू होने की आवश्यक शर्ते कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम इस तथ्य की विवेचना करता है कि जैसे-जैसे उपभोक्ता किसी वस्तु की अगली इकाई का उपभोग करता है अन्य बातें समान रहने पर उससे प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। एक बिन्दु पर पहुँचने पर यह शून्य हो जाती है। यदि उपभोक्ता इसके पश्चात् भी वस्तु का सेवन जारी रखता है तो यह ऋणात्मक हो जाती है। निम्न उदाहरण से भी यह इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है-

वस्तु की मात्रा प्राप्त सीमान्त उपयोगिता
1 10
2 8
3 6
4 4
5 0
6 -4

इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा एक से बढ़कर 6 तक पहुँच जाती है वैसे-वैसे उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता भी 10 से घटते-घटते शून्य और ऋणात्मक यानी-4 तक हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि वस्तु की मात्रा में वृद्धि होते रहने से उससे मिलने वाली सीमांत उपयोगिता घटती जाती है।

सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की निम्नलिखित शर्ते या मान्यताएँ हैं-

  1. उपभोग की वस्तुएँ समरूप होने चाहिए।
  2. उपभोग की क्रिया लगातार होनी चाहिए।
  3. उपभोक्ता की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  4. उपभोग निश्चित इकाई में किया जाना चाहिए।
  5. आय, आदत, रुचि, फैशन आदि में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 7.
सामूहिक माँग की अवधारणा को उचित चित्र द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामूहिक माँग (Aggregate Demand)- एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की सम्पूर्ण माँग को ही सामूहिक माँग कहा जाता है और यह अर्थव्यवस्था के कुल व्यय के रूप में व्यक्त की जाती है। इस प्रकार, एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं पर किये गये कुल व्यय के संदर्भ में सामूहिक माँग की माप की जाती है।

दूसरे शब्दों में, सामूहिक माँग, उस कुल व्यय को बताती है जिसे एक देश के निवासी, आय के दिए हुए स्तर पर, वस्तुओं तथा सेवाओं को खरीदने के लिए खर्च करने को तैयार हैं।
सामूहिक मॉग = उपभोग व्यय + निवेश व्यय
AD = C + I
उपभोग अनुसूची एवं निवेश अनुसूची का योग करके सामूहिक माँग अनुसूची का निर्माण किया जाता है।
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उपर्युक्त तालिका बताती है कि

‘शून्य आय स्तर पर भी उपभोग माँग शून्य न होकर एक न्यूनतम स्तर पर बनी रहती है’ क्योंकि व्यक्ति को जीवित रहने के लिए अनिवार्य वस्तुओं (भोजन आदि) के लिए उपभोग करना आवश्यक होता है-यह व्यय व्यक्ति या तो अपनी पूर्व बचतों से करता है या फिर दूसरों से उधार लेता है।

उपर्युक्त तालिका के आधार पर प्राप्त होने वाला सामूहिक माँग वक्र चित्र में प्रदर्शित किया गया है।

प्रश्न 8.
परिवर्तनशील अनुपात के नियम की व्याख्या करें।
उत्तर:
घटते-बढ़ते अनुपात के नियम के अनुसार जब एक या एक से अधिक साधनों को स्थिर रखा जाता है तो उत्पादक के परिवर्तनशील साधनों के अनुपात में वृद्धि करने से उत्पादन पहले बढ़ते हुए अनुपात में बढ़ता है, फिर समान अनुपात में तथा इसके बाद घटते हुए अनुपात में बढ़ता है। श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार, “उत्पत्ति ह्रास नियम यह बताता है कि यदि किसी एक उत्पत्ति के साधन की मात्रा को स्थिर रखा जाय तथा अन्य साधनों की मात्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि की जाय तो एक निश्चित बिन्दु के बाद उत्पादन में घटती दर से वृद्धि होती है।”

इस नियम के अनुसार उत्पादन की तीन अवस्थाएँ हैं-
पहली अवस्था- सीमान्त उत्पादन अधिकतम होने के बाद घटना आरम्भ हो जाता है। औसत उणदन अधिकतम हो जाता है तथा कुल उत्पादन बढ़ता है।

दूसरी अवस्था- औसत उत्पादन घटने लगता है और कुल उत्पादन घटती दर से बढ़ता है तथा अधिकतम बिन्दु पर पहुँचता है तब सीमान्त उत्पादन शून्य हो जाता है।

तीसरी अवस्था- औसत उत्पादन घटना जारी रहता है तथा कुल उत्पादन कम होने लगता है तब सीमान्त उत्पादन ऋणात्मक हो जाता है।

प्रश्न 9.
कृषि के संदर्भ में उत्पत्ति ह्रास नियम की व्याख्या करें।
उत्तर:
उत्पत्ति ह्रास नियम हमारे साधारण जीवन के अनुभवों पर आधारित है। सर्वप्रथम इस प्रवृत्ति का अनुभव स्कॉटलैण्ड के एक किसान ने किया था, किन्तु वैज्ञानिक रूप में इसके प्रतिपादन का श्रेय टरगोट को है। यह नियम मुख्यतः कृषि में ही क्रियाशील होता है। कृषि के क्षेत्र में इस नियम की व्याख्या इस प्रकार से की जा सकती है-

जब उपज बढ़ाने के लिए भूमि के एक निश्चित टुकड़े पर कोई किसान पूँजी एवं श्रम की मात्रा को बढ़ाता है तो प्रायः यह देखा जाता है कि उपज में उससे कम ही अनुपात में वृद्धि होती है। अर्थशास्त्र में इसी प्रवृत्ति को क्रमागत उत्पत्ति ह्रास नियम कहते हैं। प्रत्येक किसान अनुभव के आधार पर इस बात को जानता है कि एक सीमा के बाद भूमि की एक निश्चित मात्रा पर अधिक श्रम एवं पूँजी लगाने से उपज घटते हुए अनुपात में बढ़ती है। यदि ऐसा नहीं होता तो आज विश्व में खाद्यान्न के अभाव की समस्या ही उपस्थित नहीं होती तथा एक हेक्टर भूमि में खेती करके ही सम्पूर्ण विश्व को सुगमतापूर्वक खिलाया जा सकता था। किन्तु बात ऐसी नहीं है। इस प्रकार प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री उत्पत्ति ह्रास नियम को कृषि से संबंधित करते थे। इन लोगों के अनुसार भूमि की पूर्ति सीमित है। अतः जनसंख्या में वृद्धि के कारण एक सीमित भूमि पर अधिक लोगों के काम करने से उपज में घटती हुई दर से वृद्धि होगी।

मार्शल ने कृषि के संबंध में इस नियम की व्याख्या इस प्रकार से की है, “यदि कृषि कला में साथ-ही-साथ कोई उत्पत्ति नहीं हो, तो भूमि पर उपयोग की जाने वाली पूँजी एवं श्रम की मात्रा में वृद्धि से कुल उपज में साधारणतया अनुपात से कम ही वृद्धि होती है।” इस प्रकार मार्शल के अनुसार एक निश्चित भूमि के टुकड़े पर ज्यों-ज्यों श्रम एवं पूँजी की इकाइयों में वृद्धि की जाती है, त्यों-त्यों उपज घटते हुए अनुपात में बढ़ती है, यानी सीमान्त उपज में क्रमशः ह्रास होते जाता है। इसे निम्न तालिका द्वारा भी दर्शाया जा सकता है-
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इस तालिका से स्पष्ट होता है कि श्रम एवं पूँजी की पहली इकाई लगाने से उस भूमि पर 20 क्विंटल उपज होती है, दूसरी इकाई के प्रयोग से कुल उपज 35 क्विंटल होती है लेकिन सीमान्त उपज 15 क्विंटल होती है। तीसरी इकाई के प्रयोग से कुल उपज 45 क्विंटल होती है तथा सीमान्त उपज 10 क्विंटल होती है। चौथी इकाई के प्रयोग से कुल उपज 50 क्विंटल तथा सीमान्त उपज 5 क्विंटल होती है। अतः स्पष्ट है कि किसान ज्यों-ज्यों एक निश्चित भूमि के टुकड़े पर श्रम एवं पूँजी की इकाइयों को बढ़ाता है, त्यों-त्यों कुल उपज में वृद्धि अवश्य होती है, किन्तु उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात में श्रम एवं पूँजी में वृद्धि की जाती है। दूसरे शब्दों में, श्रम एवं पूँजी की अतिरिक्त इकाइयों के प्रयोग के परिणामस्वरूप उपज में घटते हुए अनुपात में वृद्धि होती है।

प्रश्न 10.
केन्द्रीय बैंक के मुख्य कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
रिजर्व बैंक के कार्य (Functions of R.B.I.)- रिजर्व बैंक के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
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(i) नोट निर्गमन का एकाधिकार- भारत में एक रुपये के नोट और सिक्कों के अलावा सभी करेन्सी नोटों को छापने का एकाधिकार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को है। नोटों की डिजाइन केन्द्रीय सरकार द्वारा तय तथा स्वीकृत की जाती है। 115 करोड़ रुपये का सोना और 85 करोड़ रुपये की विदेशी प्रतिभूतियाँ रखकर रिजर्व बैंक आवश्यकतानुसार नोटों का निर्गमन कर सकता है।

(ii) सरकार का बैंकर- रिजर्व बैंक जम्मू तथा कश्मीर को छोड़कर शेष सभी राज्यों और केन्द्रीय सरकार के बैंकर के रूप में कार्य करता है। यह सार्वजनिक ऋणों का प्रबंध करता है तथा नये ऋणों को जारी करता है। सरकार के ट्रेजरी बिलों की बिक्री करता है। सरकार को आर्थिक मामलों में सलाह देने का कार्य करता है।

(iii) बैंकों का बैंक- रिजर्व बैंक को व्यापार, उद्योग, वाणिज्य और कृषि की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त बैंकिंग प्रणाली का विकास करना पड़ता है। रिजर्व बैंक को वाणिज्य बैंकों और सरकारी बैंकों के निरीक्षण की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संकट के समय रिजर्व बैंक व्यापारिक बैंकों को सहायता करता है।

(iv) विदेशी विनिमय कोषों का रक्षक- रिजर्व बैंक का एक महत्त्वपूर्ण कार्य रुपये के बाहरी मूल्य को कायम रखना है। देश में आर्थिक स्थिरता को बनाये रखने के लिए उचित मौद्रिक नीति को अपनाता है।

(v) साख का नियंत्रण-रिजर्व बैंक साख- नियंत्रण के परिमाणात्मक और चयनात्मक उपाय अपनाकर देश में साख की पूर्ति को नियंत्रित करता है, जिससे वाणिज्य, कृषि, उद्योग और व्यापार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

(vi) विकासात्मक कार्य- रिजर्व बैंक ने भारत में बैंकिंग व्यवस्था का विकास करने, बचत और निवेश को प्रोत्साहित करने और औद्योगिक विकास के लिए विभिन्न संस्थाओं की स्थापना करने का कार्य किया है। पूँजी बाजार को विकसित करने तथा सरकारी आन्दोलन को मजबूत बनाने का कार्य रिजर्व बैंक द्वारा ही किया गया है।

प्रश्न 11.
व्यावसायिक बैंक की परिभाषा दीजिए और इसके प्रमुख कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
व्यापारिक बैंक वे बैंक है, जो लाभ कमाने के उद्देश्य से बैंकिंग का कार्य करते हैं। कलर्वस्टन के अनुसार व्यापारिक बैंक वे संस्थाएँ हैं जो व्यापार को अल्पकाल के लिए ऋण देती हैं तथा इस प्रक्रिया में मुद्रा का निर्माण करती हैं।

व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य निम्नांकित हैं जिन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-

  • मुख्य कार्य
  • गौण कार्य
  • विकासात्मक कार्य।

मुख्य कार्य- बैंक के तीन प्रमुख कार्य हैं-

  • जमा स्वीकार करना- एक व्यापारिक बैंक जनता के धन को जमा करता है।
  • ऋण देना- बैंक के अपने पास जो रुपया जमा के रूप में आता है उसमें से एक निश्चित राशि नगद कोष में रखकर बाकी रुपया बैंक द्वारा उधार दे दिया जाता है।
  • विनिमय पत्रों की कटौती करना- इसके अंतर्गत बैंक अपने ग्राहकों को उनके विनिमय पत्रों के आधार पर रुपया उधार देता है। भुगतान के बांकी समय की ब्याज की कटौती करके बैंक तत्काल भुगतान कर देता है।

गौण कार्य- बैंक अपने ग्राहकों के लिए विभिन्न तरीकों के एजेंट का कार्य करता है।

  • चेक, ड्राफ्ट आदि का एकत्रीकरण और भुगतान।
  • प्रतिभूतियों की खरीद तथा बिक्री।
  • बैंक अपने ग्राहकों के आदेश पर उनकी सम्पत्ति के ट्रस्टी तथा प्रबंधक का कार्य भी करते हैं। साथ ही बैंक लॉकर की सुविधा यात्री चेक तथा साख प्रमाण पत्र, मर्चेन्ट बैंकिंग और वस्तुओं के वहन में सहायक प्रदान करता है।

विकासात्मक कार्य- आर्थिक विकास तथा सामाजिक कल्याण के लिए निम्नांकित कार्य करते हैं-
लोगों की निष्क्रीय बचतों को इकट्ठा करके उन्हें उत्पादकीय कार्यों में निवेश करके पूँजी निर्माण को बढ़ाने में सहायक होते हैं। बैंक उद्यमियों को साख प्रदान करके जब प्रवर्तक को प्रोत्साहित करता है, साथ ही केन्द्रीय बैंक की मौद्रिक नीति को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करने में सहायक करते हैं।

प्रश्न 12.
भुगतान शेष में असंतुलन के कारण कौन-कौन हैं ?
उत्तर:
भुगतान शेष में असंतुलन उत्पन्न होने के कारण निम्नलिखित हैं-

  • प्राकृतिक प्रकोप- प्राकृतिक प्रकोप (अंकाल, बाढ़, भूकम्प आदि) के कारण भुगतान शेष में असंतुलन उत्पन्न होता है, क्योंकि इन दश’ में अर्थव्यवस्था आयतों पर आश्रित हो जाती है।
  • विकास व्यय- विकास व्यय अधिक होने से भुगतान संतुलन में घाटा उत्पन्न हो जाता है।
  • व्यापार चक्र- व्यावसायिक क्रियाओं में होने वाले उतार-चढ़ाव का प्रतिकूल प्रभाव निर्यात पर पड़ता है। फलतः भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • बढ़ती कीमतें- कीमतों में वृद्धि के कारण भी भुगतान संतुलन में घाटा उत्पन्न होता है।
  • आयात प्रतिस्थापन्न- इसके चलते आयातों में कमी होती है। अतः भुगतान संतुलन में घाटा कम हो जाता है।
  • अधिक सुरक्षा व्यय- देश की सुरक्षा का व्यय अधिक होने पर भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • राजनीतिक अस्थिरता- देश में जब राजनीतिक अस्थिरता रहती है तो इसका भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध- देश का अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध कैसा है इस पर भुगतान संतुलन निर्भर करता है। यदि अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तनावपूर्ण होता है या युद्धमय होता है तो भुगतान संतुलन असंतुलित रहता है।
  • दूतावासों का विस्तार- दूतावासों के विस्तार और उसके रख-रखाव पर जब अधिक खर्च होता है तो भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • रुचि, फैशन तथा स्वभाव में परिवर्तन- जब व्यक्तियों की रुचि फैशन तथा स्वभाव परिवर्तित होता है तो यह भुगतान संतुलन को असंतुलित करता है।

प्रश्न 13.
व्यावसायिक बैंक से आप क्या समझते हैं ? इसके साख निर्माण की सीमाएँ क्या हैं ?
उत्तर:
व्यावसायिक बैंक से अभिप्राय उस बैंक से है जो लाभ कमाने के उद्देश्य से बैंकिंग कार्य करता है, व्यापारिक जमाएँ स्वीकार करता है तथा जनता को उधार देकर साख का सृजन करता है।

सीमाएँ- व्यावसायिक बैंक द्वारा किये जाने वाले साख निर्माण की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

  • देश में मुद्रा की मात्रा- देश में नकद मुद्रा की मात्रा जितनी अधिक होगी, बैंकों के पास नकद जमाएँ उतनी ही अधिक होगी और बैंक उतनी ही अधिक मात्रा में साख निर्माण कर सकेगा।
  • मुद्रा की तरलता पसंदगी- व्यक्ति जब अपने पास अधिक नकदी रखता है तो बैंक में जमाएँ घटती हैं और साख निर्माण का आकार घट जाता है।
  • बैंकिंग आदतें- व्यक्ति में बैंकिंग आदत जितनी अधिक होती है, बैंकों की साख निर्माण शक्ति उतनी ही अधिक होती है। इसके विपरीत स्थिति में साख का निर्माण कम होगा।
  • जमाओं पर नकद कोष अनुपात- यदि नकद कोष अनुपात अधिक है तो कम साख का निर्माण होगा और यदि नकद कोष अनुपात कम है तो अधिक साख का निर्माण होगा।
  • ब्याज दर- ब्याज दर ऊँची रहने पर साख की मात्रा कम हो जाती है और कम ब्याज दर साख की माँग को प्रोत्साहित करती है।
  • रक्षित कोष- यदि रक्षित कोष अधिक होता है तो बैंक के नकद साधन कम हो जाते हैं और वह कम साख निर्माण करता है। इसके विपरीत रक्षित कोष कम होने पर उसकी साख निर्माण की शक्ति बढ़ जाती है।
  • केन्द्रीय बैंक की साख सम्बन्धी नीति- केन्द्रीय बैंक की साख नीति पर भी साख निर्माण की मात्रा निर्भर करती है। कारण यह है कि केन्द्रीय बैंक के पास देश में मुद्रा की मात्रा को प्रभावित करने की शक्ति होती है और वह बैंकों की साख के संकुचन और विस्तार की शक्ति को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित कर सकता है।

प्रश्न 14.
केन्द्रीय बैंक के मौद्रिक उपाय से आप क्या समझते हैं ? न्यून माँग को ठीक करने के लिए मौद्रिक उपायों का वर्णन करें।
उत्तर:
रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया भारत का केन्द्रीय बैंक है। देश की आर्थिक व्यवस्था को सुचारू रूप से संचालित करने के लिए तथा उस पर नियंत्रण करने के लिए इसे निम्नलिखित अधिकार प्राप्त है-

1. मुद्रा निर्गमन का अधिकार- केवल रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया को ही भारत में मुद्रा जारी करने का अधिकार है। एक रुपये का नोट सिर्फ भारत सरकार जारी करती है। शेष सभी प्रकार के नोटों को जारी करने तथा सिक्कों की ढलाई का काम रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया का है।

2. सरकार का बैंकर- यह केन्द्र एवं सभी राज्य सरकारों का बैंकर है। सभी सरकारी चालू खाते का नकद कोष इसी के पास जमा होता है।

3. बैंकों का बैंक तथा पर्यवेक्षक- यह बैंकों का बैंक है। सभी बैंकों के नकद कोषों के एक अंश को अपने पास सुरक्षित रखता है। साथ ही यह सभी बैंकों का पर्यवेक्षक भी है।

4. मुद्रा की आपूर्ति तथा साख का नियंत्रण- यह देश में मुद्रा की आपूर्ति और साख की आपूर्ति को नियंत्रित करता है। इसके लिए यह मौद्रिक नीति की रचना करता है।

न्यून माँग को ठीक करने के लिए रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया निम्नलिखित मौद्रिक उपायों का सहारा लेता है-

  • बैंक दर नीति- बैंक को उधार देने के लिए ब्याज पर नियंत्रण करना। इसके द्वारा न्यून माँग को संतुलित करने का प्रयास करता है। इसके लिए समुचित मौद्रिक उपायों को लागू करता है।
  • खुले बाजार की क्रियाएँ – सरकारी प्रतिभूतियों को व्यापारिक बैंक के साथ क्रय-विक्रय करने का कार्य संपादित करता है। इस प्रकार यह व्यापार असंतुलन को नियंत्रित करता है।
  • सुरक्षित कोष अनुपात में परिवर्तन- सुरक्षित कोष अनुपात दो प्रकार के होते हैं-नकद जमा अनुपात तथा संवैधानिक तरलता अनुपात। रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया न्यून माँग को ठीक करने के लिए नकद जमा अनुपात तथा संवैधानिक तरलता अनुपात पर निरंतर निगरानी रखता है और तदनुसार नियमित रूप से समुचित परिवर्तन करता रहता है।

प्रश्न 15.
पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण कैसे होता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु का मूल्य निर्धारण माँग द्वारा होता है या पूर्ति द्वारा, इस प्रश्न को लेकर प्राचीन अर्थशास्त्रियों में विवाद था। इस विवाद का समाधान प्रो० मार्शल ने किया। प्रो. मार्शल के अनुसार, “वस्तु का मूल्य माँग एवं पूर्ति दोनों के द्वारा निर्धारित होता है।” अपने विचार के समर्थन में मार्शल ने कैंची का उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, जिस प्रकार कैंची के दोनों फलक कागज को काटने के लिए आवश्यक हैं उसी प्रकार वस्तु की कीमत निर्धारित करने के लिए माँग पक्ष एवं पूर्ति पक्ष दोनों आवश्यक है। इस प्रकार संतुलित की मत वहाँ निर्धारित होती है जहाँ माँग = पूर्ति।

निम्न उदाहरण से भी यह ज्ञात हो जाता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 11

उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जब मूल्य 15 रु० प्रति इकाई है तो माँग एवं पूर्ति दोनों 30 के बराबर है। अतः यहीं पर मूल्य का निर्धारण होगा और मूल्य 15 रु० प्रति इकाई होगा। बगल के रेखाचित्र से भी यह ज्ञात हो जाता है।

इस रेखाचित्र में P बिन्दु पर माँग एवं पूर्ति की रेखा एक-दूसरे को काटती है। अत: यही बिन्दु साम्य बिन्दु तथा OM कीमत साम्य कीमत कहा जायेगा। साथ ही, इस OM कीमत पर OR मात्रा वस्तुओं का उत्पादन। इस तरह पूर्ण प्रतियोगिता माँग एवं पूर्ति की मात्रा में माँग एवं पूर्ति द्वारा मूल्य निर्धारण होता है।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 12

प्रश्न 16.
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम इस तथ्य की विवेचना करता है कि जैसे-जैसे उपभोक्ता किसी वस्तु की अगली इकाई का उपभोग करता है अन्य बातें समान रहने पर उसे प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। एक बिन्दु पर पहुँचने पर यह शून्य हो जाती है। यदि उपभोक्ता इसके पश्चात भी वस्तु का सेवन जारी रखता है तो यह ऋणात्मक हो जाती है। निम्न उदाहरण से भी इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है-

वस्तु की मात्रा प्राप्त सीमान्त उपयोगिता
1 10
2 8
3 6
4 4
5 0
6 -4

इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा एक से बढ़कर 6 तक पहुँच जाती है। वैसे-वैसे उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता भी 10 से घटते-घटते शून्य और ऋणात्मक यानी-4 तक हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि वस्तु की मात्रा में वृद्धि होते रहने से उससे मिलने वाली सीमान्त उपयोगिता घटती जाती है।

आलोचकों के इस नियम के अपवादों का भी उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं-

  • मादक एवं नशीली वस्तुओं के सेवन में यह नियम लागू नहीं होता है, क्योंकि इसका लोग अधिकाधिक मात्रा में सेवन करने लगते हैं।
  • अर्थलिप्या एवं प्रदर्शन प्रियता की इच्छा भी बढ़ती जाती है जहाँ यह नियम लागू नहीं होता है।
  • अच्छी कविता या संगीत के साथ यह नियम लागू नहीं होता है, क्योंकि इनके सुनने की इच्छा बढ़ती जाती है।
  • पूरक वस्तुएँ भी इसके अपवाद हैं, क्योंकि एक वस्तु की उपयोगिता पूरक वस्तुओं के चलते बढ़ जाती है।
  • विचित्र एवं दुर्लभ वस्तुओं के संग्रह के साथ भी यह लागू नहीं होता है, क्योंकि लोग अधिकाधिक मात्रा में इनका संग्रह करने लग जाते हैं।

प्रश्न 17.
सरकारी बजट क्या है ? इसके उद्देश्यों की चर्चा करें।
उत्तर:
आगामी आर्थिक वर्ष के लिए सरकार के सभी प्रत्याशित राजस्व और व्यय का अनुमानित वार्षिक विवरण बजट कहलाता है। सरकार कई प्रकार की नीतियाँ बनाती है। इन नीतियों को लागू करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। सरकार आय और व्यय के बारे में पहले से ही अनुमान लगाती है। अतः बजट आय और व्यय का अनुमान है। सरकारी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

बजट के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

  • सरकार को अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए वित्तीय व्यवस्था करनी पड़ती है।
  • सरकार सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक सहायता, सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर व्यय करके अर्थव्यवस्था में धन और आय के पुनर्वितरण की व्यवस्था करती है।
  • बजट के माध्यम से सरकार कीमतों में उतार-चढ़ाव को रोकने का प्रयास करती है। रोजगार के अधिक अवसर उत्पन्न करने और कीमत स्थिरता के लिए प्रयत्न करने में बजट महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • सरकार महत्त्वपूर्णउद्यमों का संचालन सार्वजनिक क्षेत्र में करती है। विद्युत उत्पादन, रेलवे आदि ऐसे ही उद्यम है। यदि इन्हें अनियंत्रित रखा जाय तो ये एकाधिकारी उद्यम में परिवर्तित हो सकते हैं। अधिकतम लाभ की आशा में उत्पादन में कमी कर सकते हैं, इससे सामाजिक कल्याण में कमी आ सकती है।
  • बजट अर्थव्यवस्था में राजकोषीय अनुशासन उत्पन्न करता है। व्यय के ऊपर पर्याप्त नियंत्रण करता है। संसाधनों को सामाजिक प्राथमिकताओं के अनुसार उपयोग में लाने में सहायता मिलती है। साथ ही सेवाओं की उपलब्धता प्रभावपूर्ण और कुशल तरीके से उपलब्ध कराने में बजट महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रश्न 18.
सरकारी बजट किसे कहते हैं ? इसकी क्या-क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर:
आगामी आर्थिक वर्ष के लिए सरकार के सभी प्रत्याशित राजस्व और व्यय का अनुमानित वार्षिक विवरण बजट कहलाता है। सरकार कई प्रकार की नीतियाँ बनाती है। इन नीतियों को लागू करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। सरकार आय और व्यय के बारे में पहले से ही अनुमान लगाती है। अतः बजट आय और व्यय का अनुमान है। सरकारी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

बजट की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  • एक नियोजित अर्थव्यवस्था में बजट राष्ट्रीय नियोजन के वृहत उद्देश्यों पर आधारित होता है।
  • नियोजन के आरंभिक काल में देश के आर्थिक विकास को ध्यान में रखकर प्रायः घाटे का बजट बनाया जाता है तथा बाद में बजट को धीरे-धीरे संतुलित करने का प्रयास किया जाता है।
  • नियोजित अर्थव्यवस्था में बजट का निर्माण इस तरह किया जाता है कि बजट का प्रभाव अधिकाधिक न्यायपूर्ण हो। इसके लिए प्रगतिशील की नीति अपनायी जाती है।
  • देश के आर्थिक क्रियाओं के निष्पादन में बजट की भूमिका सकारात्मक होती है।

Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1

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प्रश्न 1.
राष्ट्रीय आय की गणना करने के लिए आय एवं व्यय प्रणाली की व्याख्या करें।
अथवा, राष्ट्रीय आय की गणना की कौन-सी विधियाँ हैं ? वर्णन करें।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय को मापने या गणना करने की निम्नांकित तीन विधियाँ हैं-

1. उत्पाद अथवा मूल्य वर्धित विधि- उत्पाद विधि में हम उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के वार्षिक मूल्य को गणना कर राष्ट्रीय आय की जानकारी प्राप्त करते हैं। लेकिन वस्तुओं और सेवाओं के रूप में राष्ट्रीय आय को माप करने में प्राय: दोहरी गणना की संभावना रहती है। उदाहरण के लिए, चीनी के मूल्य में गन्ने का मूल्य भी शामिल हैं। यदि हम इन दोनों के मूल्य को राष्ट्रीय आय में जोड़ देते हैं तो एक ही वस्तु को दुबारा गणना हो जाएगी। अतएव, यदि हम उत्पादन की दृष्टि से राष्ट्रीय आय की माप करते हैं, तो हमें देश में सरकार सहित सभी उद्यमियों द्वारा शुद्ध मूल्य वृद्धि के योग की जानकारी प्राप्त करनी होगी। राष्ट्रीय आय के मापने की इस विधि को मूल्य वर्धित विधि (Value added method) कहते हैं। यह विधि उत्पादन के प्रत्येक स्तर पर उत्पादकों द्वारा उत्पादन में उनके योगदान अर्थात् किसी वस्तु के मूल्य वृद्धि की माप करता है तथा इनके योग को राष्ट्रीय आय की संज्ञा दी जाती है।

2. आय विधि- इस विधि के अनुसार देश के सभी नागरिकों और व्यावसायिक संस्थाओं के आय की गणना की जाती है तथा उनके शुद्ध आय के योगफल को राष्ट्रीय आय कहा जाता है।

3. व्यय विधि- यह विधि एक वर्ष के अंतर्गत वस्तुओं और सेवाओं पर किए गए अंतिम व्यय की माप द्वारा राष्ट्रीय आय की जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय आय की विभिन्न धारणाओं को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय की निम्नलिखित धारणाएँ हैं-

  1. कुल राष्ट्रीय उत्पाद- किसी देश के अंतर्गत एक वर्ष में जितनी वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन होता है, उनके मौद्रिक मूल्य को कुल राष्ट्रीय उत्पाद कहा जाता है।
  2. शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद- कुल राष्ट्रीय उत्पाद में घिसावट का व्यय घटा देने पर जो शेष बचता है वही शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद कहलाता है।
  3. साधन लागत पर राष्ट्रीय आय- साधन लागत पर राष्ट्रीय आय का तात्पर्य उन सभी आयों के योग से है जो साधनों प्रदायक भूमि, पूँजी, श्रम और उद्यमी योग्यता के रूप में किए गए अपने अंशदान के लिए प्राप्त करते हैं।
  4. वैयक्तिक आय- वैयक्तिक आय कुल प्राप्त आय होती है। यह उन सभी आयों का योग होती है, जो किसी दिए हुए वर्ष के अंदर व्यक्तियों और परिवारों को वास्तविक रूप में प्राप्त होती है।
  5. व्यय योग्य आय- वैयक्तिक आय में से वैयक्तिक प्रत्यक्ष करों की राशि घटाने पर जो शेष बचता है वही व्यय योग्य आय कहलाता है।

प्रश्न 3.
उदासीनता वक्र की विशेषताएँ क्या है ? अथवा, तटस्थता वक्र की विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
तटस्थता वक्र या उदासीनता वक्र की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  1. इसका ढाल ऋणात्मक होता है।
  2. यह मूल बिंदु के प्रति उन्नतोदर होता है।
  3. यह एक-दूसरे को कभी नहीं काटता है।
  4. इसका एक-दूसरे के समानांतर होना आवश्यक नहीं है।
  5. यह अपने पूर्ववर्ती तटस्थता वक्र संतुष्टि के ऊँचे स्तर का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 4.
निवेश गुणक क्या है ? उदाहरण के साथ वर्णन करें।
अथवा, निवेश गुणक क्या है ? निवेश गुणक की गणना का सूत्र दें।
उत्तर:
केन्स के अनुसार, “निवेश गुणक से ज्ञात होता है कि जब कुल निवेश में वृद्धि की जाएगी तो आय में जो वृद्धि होगी, बह निवेश में होने वाली वृद्धि से K गुणा अधिक होगी।”

डिल्लर्ड के अनुसार, “निवेश में की गई वृद्धि के परिणामस्वरूप आय में होने वाली वृद्धि अनुपात को निवेश गुणक कहा जाता है।”

निवेश गुणक का सूत्र- गुणक को निम्नलिखित सूत्र द्वारा व्यक्त किया जा सकता है-
K = \(\frac{\Delta \mathrm{Y}}{\Delta \mathrm{I}}\)
यहाँ K = गुणक
ΔI = निवेश में परिवर्तन
ΔY = आय में परिवर्तन

प्रश्न 5.
सम सीमांत उपयोगिता नियम क्या है ?
अथवा, सम सीमांत उपयोगिता नियम की सचित्र व्याख्या करें।
उत्तर:
सम सीमांत उपयोगिता नियम यह बतलाता है कि उपभोग के क्रम में उपभोक्ता को अधिकतम संतोष की प्राप्ति तभी संभव होती है जबकि वह अपनी सीमित आय को विभिन्न वस्तुओं पर इस प्रकार खर्च करे ताकि विभिन्न वस्तुओं से मिलने वाली सीमांत उपयोगिता बराबर हो जाय। इस प्रकार जिस बिंदु पर विभिन्न वस्तुओं से मिलने वाली सीमांत उपयोगिता बराबर हो जाती है वही बिंदु उपभोक्ता के संतुलन का बिंदु या अधिकतम संतोष का बिंदु कहा जाता है। मार्शल का कहना है “यदि किसी व्यक्ति के पास कोई ऐसी वस्तु हो जो विभिन्न प्रयोगों में लायी जा सके तो वह उस वस्तु को विभिन्न प्रयोगों में इस प्रकार बाँटेगा जिसमें उसकी सीमांत उपयोगिता सभी प्रयोगों में समान रहे।” यह नीचे के रेखाचित्र से ज्ञात हो जाता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 1
इस रेखाचित्र में XX’ रेखा X वस्तु को एवं YY’ रेखा Y वस्तु को बतलाती है। ये दोनों रेखाएँ एक-दूसरे को M बिंदु पर काटती है। यही बिंदु उपभोक्ता के संतुलन का बिंदु कहा जायेगा, क्योंकि यहीं पर दोनों वस्तुओं से प्राप्त सीमांत उपयोगिता एक-दूसरे के बराबर हो जाती है।

प्रश्न 6.
मौद्रिक नीति क्या है ? इसके उद्देश्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
पॉल एंजिग ने मौद्रिक नीति को परिभाषित करते हुए कहा है कि “मौद्रिक नीति के अंतर्गत वे सभी मौद्रिक नियम एवं उपाय आते हैं, जिनका उद्देश्य मौद्रिक व्यवस्था को प्रभावित करना है।”

मौद्रिक नीति के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

  • इस नीति के अनुसार मौद्रिक अधिकारियों को मुद्रा की मात्रा को तटस्थ यानि स्थिर रखना चाहिए।
  • इसका दूसरा उद्देश्य मूल्य तल को स्थायी बनाना है।
  • तीसरा उद्देश्य विनिमय दर को स्थिरता प्रदान करना है।
  • देश के साधनों का अधिकतम उपयोग करना है।
  • इसका प्रयोग इस प्रकार होना चाहिए जिससे देश के आर्थिक साधनों को पूर्ण रोजगार प्रदान किया जा सके।

प्रश्न 7.
चित्र की सहायता से कुल लागत, कुल स्थिर लागत तथा कुल परिवर्तनशील लागत में सम्बन्ध बतायें।
उत्तर:
किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के लिए उत्पादक को जितने कुल व्यय करने पड़ते हैं, उनके जोड़ को कुल लागत कहते हैं।

कुल स्थिर लागत उत्पादन के आकार से अप्रभावित रहती है। उत्पादन स्तर शून्य होने पर भी उत्पादक को स्थिर लागतों का भुगतान वहन करना पड़ता है यही कारण है कि अल्पकाल में कुल स्थिर लागत रेखा (total fixed cost line)X-अक्ष के समानान्तर एक पड़ी रेखा के रूप में होती है।

परिवर्तनशील लागत का आकार उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करता है। जैसे-जैसे उत्पादन के आकार में वृद्धि होती जाती है वैसे-वैसे परिवर्तनशील लागतों में भी वृद्धि होती जाती है। शून्य उत्पादन पर परिवर्तनशील लागत शून्य होती है यही कारण है कि TVC रेखा का आरम्भिक बिन्दु मूल बिन्दु होता है।

अल्पकाल में,
कुल लागत (TC) = कुल स्थिर लागत (TFC) + कुल परिवर्तनशील लागत (TVC)
Tq = Total cost. Rq = Total variable cost
Kq = TR = total fixed cost
Tq = Rq+ TR
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 2
इस चित्र में TFC एवं TVC रेखाओं को जोड़कर कुल लागत रेखा प्राप्त की गई है। कुल लागत की रेखा का आरम्भिक बिन्दु Y-अक्ष का वह बिन्दु है (चित्र में S) जहाँ से TFC रेखा आरंभ होती है क्योंकि शून्य उत्पादन स्तर पर TVC शून्य होने के कारण TC सदैव TFC के बराबर ही होगी। TC और TVC रेखायें परस्पर समानान्तर रूप से आगे बढ़ती हैं क्योंकि TC और TVC का अन्तर TFC को बताता है और TFC सदैव स्थिर होती है।

प्रश्न 8.
मौद्रिक नीति के उपकरणों का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारतीय रिजर्व बैंक की मौद्रिक नीति के निम्नलिखित उपकरण हैं-
1. खुले बाजार की क्रियाएँ- रिजर्व बैंक आधार मुद्रा के स्टॉक को बढ़ाने तथा घटाने के लिए सरकारी प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय करता है जिसे खुले बाजार की क्रियाएँ कहते हैं।

2. बैंक दर- वह वह जिस पर केंद्रीय बैंक व्यावसायिक बैंक को अग्रिम प्रदान करता है या ऋण प्रदान करता है, उसे बैंक दर कहा जाता है।

3. परिवर्तित आरक्षित आवश्यकताएँ- न्यूनतम आरक्षित जमा अनुपात (CCR) अथवा संवैधानिक तरलता अनुपात (SLR) की ऊँची या नीची दर से केंद्रीय बैंक की आधार मुद्रा प्रभावित है। इनकी दर घटाने से व्यापारिक बैंकों की साख सृजन क्षमता बढ़ जाती है। सामान्यतः भारतीय रिजर्व बैंक मुद्रा सृजन के उपकरणों का प्रयोग अर्थव्यवस्था में मुद्रा भंडार को स्थिर करने के लिए करता है। इनके माध्यम से केंद्रीय बैंक अर्थव्यवस्था विदेशी प्रतिकूल प्रभावों से बचाकर स्थायित्व प्रदान करने का प्रयास करता है।

प्रश्न 9.
स्थिर लागत क्या है ? स्थिर लागत तथा परिवर्तनशील लागत में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
स्थिर लागत वह लागत है जो उत्पादन के स्थिर साधनों पर व्यय की जाती है। इसमें कभी भी परिवर्तन नहीं आता। स्थिर लागत को अनपरक लागत भी कहा जाता है।

स्थिर लागत तथा परिवर्तनशील लागत में निम्नलिखित अन्तर पाया जाता है-

स्थिर लागत:

  1. यह परिवर्तनशील साधनों पर व्यय की जाती है।
  2. इसकी राशि स्थिर रहती है। यह उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन से प्रभावित नहीं होती है।
  3. यह केवल अल्पकाल तक सीमित होती है।
  4. शून्य स्तर पर कुल लागत कुल स्थिर लागत होती है।
  5. भवन का किराया, मशीनों में लगी पूँजी का ब्याज स्थिर लागत का उदाहरण है।
  6. कुल स्थिर लागत वक्र x अक्ष के समानान्तर होता है।

परिवर्तनशील लागत:

  1. यह स्थिर साधनों पर व्यय की जाती है।
  2. इसका उत्पादन की मात्रा से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।
  3. दीर्घकाल में सभी लागतें परिवर्तनशील होती है।
  4. शून्य उत्पादन स्तर पर यह शून्य होता है।
  5. कच्चे माल पर व्यय, ईंधन लागत आदि परिवर्तनशील लागत के उदाहरण है।
  6. कुल परिवर्तनशील लागत वक्र नीचे से ऊपर की ओर दाईं ओर बढ़ता है।

प्रश्न 10.
माँग के नियम की व्याख्या करें। उसकी मान्यताओं को लिखें।
उत्तर:
माँग का नियम यह बतलाता है कि मूल्य में वृद्धि से माँग में कमी तथा मूल्य में कमी से माँग में वृद्धि होती है। इस प्रकार माँग का नियम मूल्य तथा माँग के बीच विपरीतार्थक सम्बन्ध को बतलाता है। निम्न उदाहरण से यह ज्ञात हो जाता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 3

इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि मूल्य में वृद्धि होती गई, जिसके कारण माँग घटते-घटते 10 हो गई। लेकिन यदि हम नीचे से ऊपर की ओर देखें तो पाते हैं कि मूल्य में कमी होती गई, जिसके कारण माँग बढ़ते-बढ़ते 50 हो गई। इस उदाहरण से माँग का नियम स्पष्ट हो जाता है।

माँग के नियम निम्न मान्यताओं पर आधारित है-

  • उपभोक्ता की आय में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  • उसकी आदत, रुचि तथा फैशन नहीं बदलना चाहिए।
  • किसी नई स्थानापन्न वस्तु का निर्माण नहीं होना चाहिए।
  • धन के वितरण में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  • मौसम में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  • स्थानापन्न वस्तुओं की कीमत नहीं बदलना चाहिए।
  • जनसंख्या में परिवर्तन नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 11.
विदेशी विनिमय दर से आप क्या समझते हैं ? यह कैसे निर्धारित होता है ?
उत्तर:
विदेशी विनिमय दर वह दर है जिस पर एक देश की एक मुद्रा इकाई का दूसरे देश की मुद्रा में विनिमय किया जाता है। दूसरे शब्दों में, विदेशी विनिमय दर यह बताती है कि किसी देश की मुद्रा की एक इकाई के बदले में दूसरे देश की मुद्रा की कितनी इकाइयाँ मिल सकती हैं। इस प्रकार विनिमय दर घरेलू मुद्रा के रूप में दी जाने वाली वह कीमत है जो विदेशी मुद्रा की एक इकाई के बदले दी जाती है।

विदेशी विनिमय दर का निर्धारण विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति के साम्य बिन्दु पर होता है। विदेशी मुद्रा की माँग और पूर्ति का साम्य बिन्दु वह होता है जहाँ मुद्रा माँग वक्र और पूर्ति वक्र एक-दूसरे को काटते हैं। साम्य बिन्दु पर विनिमय दर को साम्य विनिमय दर और पूर्ति की मात्रा को साम्य मात्रा कहते हैं। इसे निम्न चित्र में दिखाया गया है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 4

प्रश्न 12.
माँग की लोच क्या है ? माँग की लोच को प्रभावित करने वाले पाँच तत्वों का उल्लेख करें।
उत्तर:
जिस धारणा के द्वारा मूल्य एवं माँग के बीच आनुपातिक सम्बन्ध या गणितीय सम्बन्ध का वर्णन किया जाता है, उसे ही माँग की लोच कहते हैं। प्रो० बेन्हम का कहना है कि “माँग की लोच की धारणा माँग की मात्रा पर पड़ने वाले मूल्य के मामूली परिवर्तन के प्रभाव से सम्बन्धित होती है।

माँग की लोच को प्रभावित करने वाले तत्व निम्नलिखित हैं-

  1. वस्तु की प्रकृति- अनिवार्य वस्तु की माँग की लोच बेलोचदार, आराम सम्बन्धी वस्तुओं की माँग की लोच लोचदार और विलासिता सम्बन्धी वस्तुओं की माँग की लोच अधिक लोचदार होती है।
  2. वस्तुओं के विविध प्रयोग- जिन वस्तुओं का विविध प्रयोग होता है उसकी माँग की लोच लोचदार होती है।
  3. पूरक वस्तुओं- पूरक वस्तुओं की माँग की लोच प्रायः बेलोचदार होती है।
  4. स्थानापन्न वस्तुएँ- स्थानापन्न वस्तुओं की माँग की लोच लोचदार होती है।
  5. वस्तुओं का मूल्य स्तर- वैसी वस्तुएँ जिसका मूल्य अधिक होता है, की माँग बेलोचदार और कम मूल्य की वस्तुओं की माँग लोचदार होती है।

प्रश्न 13.
(i) यदि गुणक (K) का मूल्य 4 है तब MPC तथा MPS का मूल्य क्या होगा?
(ii) जब सीमांत बचत प्रवृत्ति MPS = 0.2 है तब सीमांत उपभोग प्रवृत्ति MPC क्या होगा?
(iii) यदि MPS = 0.5 है तब 200 रु० की आय बढ़ाने के लिए निवेश में कितनी वृद्धि की आवश्यकता होगी।
उत्तर:
(i) K = \(\frac{1}{\mathrm{MPS}}\)
मूल्यों का प्रतिस्थापन करने से,
4 = \(\frac{1}{\mathrm{MPS}}\); MPS = \(\frac{1}{4}\) = 0.25
MPC = 1 – MPS = 1 – 0.25 = 0.75
(ii) MPC = 1 – MPS = 1 – 0.2
MPC = 0.8
(iii) K × Δq = Δy

मूल्यों का प्रतिस्थापन करने से K = \(\frac{1}{0.5}\) = 2
इसलिए, 2 × ΔI = 2,000 करोड़ रु०
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 5

प्रश्न 14.
माँग की लोच को मापने की कुल व्यय विधि को समझाइए।
उत्तर:
इस विधि के अंतर्गत एक उपभोक्ता द्वारा वस्तु पर किए गए कुल व्यय की सहायता से माँग की लोच को मापा जाता है। इस विधि में केवल तीन प्रकार की माँग की लोच का अनुमान लगाया जा सकता है-

(i) इकाई से कम लोचदार (Inelastic Demand) कीमत में कमी से परिवार द्वारा वस्तु पर कुल खर्च कम हो जाता है या कीमत में वृद्धि कुल व्यय को बढ़ा देती है तो माँग इकाई से कम लोचदार होगी।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 6

(ii) इकाई के बराबर लोचदार (Unitary Elastic)- जब कीमत में कमी या वृद्धि के कारण कुल व्यय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो माँग इकाई के बराबर लोचदार होगी।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 7

(iii) इकाई से अधिक लोचदार (Elastic Demand)- जब कीमत में कमी से कुल व्यय बढ़ता है या कीमत में वृद्धि से कुल व्यय घटता है तो माँग इकाई से अधिक लोचदार होगी।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 8

नीचे तालिका में माँग की कीमत लोच की तीनों स्थितियाँ दिखाई गई हैं-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 9

माँग की कीमत लोच की उपर्युक्त तीन प्रमुख श्रेणियों को निम्न चित्र की सहायता से दर्शाया गया है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 10

प्रश्न 15.
माँग की लोच को मापने की प्रतिशत विधि क्या है ?
उत्तर:
माँग की लोच मापने की प्रतिशत या आनुपातिक विधि का प्रतिपादन फ्लक्स ने किया। इस विधि के अनुसार माँग की लोच का अनुमान लगाने के लिए माँग में होने वाले आनुपातिक या प्रतिशत परिवर्तन को कीमत में होने वाले आनुपातिक या प्रतिशत परिवर्तन से भाग दिया जाता है। माँग की लोच को निम्न सूत्र द्वारा निकाला जाता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 11

प्रश्न 16.
केन्द्रीय बैंक के किन्हीं तीन गुणात्मक साख-नियंत्रण तकनीक का वर्णन करें।
उत्तर:
केन्द्रीय बैंक वह बैंक है जिसके पास नोट जारी करने का एकाधिकार प्राप्त है तथा जो मौद्रिक एवं बैंकिंग गतिविधियों तथा मुद्रा की पूर्ति तथा साख की मात्रा को नियंत्रित और निर्देशित करता है।

वर्तमान में केन्द्रीय बैंक का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य साख की मात्रा पर नियंत्रण रखकर देश के सामान्य मूल्य स्तर में स्थायित्व कायम करना है। केन्द्रीय बैंक के पास साख नियंत्रण के कई उपाय हैं, जिन्हें परिमाणात्मक तथा गुणात्मक उपाय कहा जाता है। गुणात्मक उपाय का प्रयोग अधिकाधिक विकासशील देशों में किया जा रहा है। इसे ही चयनात्मक साख नियंत्रण भी कहते हैं। गुणात्मक साख नियंत्रण तक कार्य निम्नलिखित तकनीक द्वारा किया जाता है-

1. प्रतिभूति ऋणों पर उधार प्रतिभूति अंतर लागू करना- उधार प्रतिभूति अंतर ऋण की राशि और ऋणकर्ता द्वारा प्रस्तुत प्रतिभूतियों के बाजार मूल्य का अंतर होता है। इस तकनीक से सट्टेबाजी पर अंकुश लगता है, जिससे बाजार में प्रतिभूतियों की कीमतों के अनावश्यक उतार-चढ़ाव . कम हो जाते हैं।

2. नैतिक प्रबोधन- नैतिक प्रबोधन विचार- विमर्श, पत्रों, अभिभाषणों तथा बैंकों के संकेतात्मक संदेशों के माध्यम से दिया जाता है। इसके द्वारा केन्द्रीय बैंक अन्य बैंकों को अपनी नीतियों का अनुसरण करने का उपदेश देता है तथा दबाव भी डालता है।

3. चयनात्मक साख नियंत्रण- इसके माध्यम से वरीयता वाले क्षेत्रों को अधिक साख सुविधा उपलब्ध करायी जाती है तथा दूसरे और जरूरी कार्यों के लिए साख देने पर रोक भी लगायी जाती है।

प्रश्न 17.
अर्थव्यवस्था के प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र से आप क्या समझते हैं ?
अथवा, उत्पादन इकाइयों के प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में वर्गीकरण के आधार की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राथमिक क्षेत्र (Primary Sector)- यह वह क्षेत्र है जो प्राकृतिक साधनों, जैसे-भूमि जल, वन, खनन आदि साधनों का शोषण करके उत्पादन पैदा करता है, इसमें सभी कृषि तथा सम्बन्धित क्रियाएँ, जैसे-मछली पालन, वन तथा खनन का उत्पादन शामिल होता है।

गौण अथवा द्वितीयक क्षेत्र (Secondary Sector)- इस क्षेत्र को निर्माण क्षेत्र भी कहते हैं। यह एक प्रकार की वस्तु को मनुष्य, मशीन तथा पदार्थों द्वारा वस्तु में बदलता है। उदाहरण के तौर कपास से कपड़ा तथा गन्ने से चीनी आदि।

तृतीयक क्षेत्र (Tertiary Sector)- इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र भी कहते हैं जो प्राथमिक तथा गौण क्षेत्र को सेवाएँ प्रदान करता है। इसमें बैंक, बीमा, यातायात, संचार, व्यापार तथा वाणिज्य आदि शामिल होते हैं।

प्रश्न 18.
उत्पादन संभावना वक्र क्या है ? यह मूल बिन्दु की ओर नतोदर क्यों होता है ?
उत्तर:
किसी अर्थव्यवस्था में उपलब्ध साधनों के अंतर्गत दो भिन्न वस्तुओं के उत्पादन की संभावनाओं को प्रदर्शित करने वाले वक्र को उत्पादन संभावना वक्र के नाम से जाना जाता है।

उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु की ओर नतोदर होता है, जिसका कारण बढ़ती हुई सीमांत अवसर लागत है। बढ़ती Y हुई सीमान्त अवसर लागत PP वक्र का आकार निर्धारित करती है। सीमांत अवसर लागत के बढ़ने का कारण उत्पादन में ह्रासमान प्रतिफल नियम का लागू होना और संसाधनों का अधिक उपजाऊ उपयोगों से हटकर कम उपजाऊ उपयोगों में स्थानांतरण किया जाता है। इसके कारणों को इस प्रकार देखा जा सकता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 12
(i) ह्रास प्रतिमान नियम पर PP वक्र आधारित है। इसके । अनुसार जब किसी वस्तु का उत्पादन बढ़ाया जाता है तो इसे उत्पादित करने वाले साधनों की सीमान्त उत्पादकता कम होती जाती है। इस कारण वस्तु का उत्पादन बढ़ाने के लिए साधन की अधिक इकाइयाँ जुटानी पड़ती है। अत: यह कहा जा सकता है कि एक वस्तु का उत्पादन बढ़ाने के लिए दूसरे वस्तु की अधिक इकाइयों का त्याग करना पड़ता है।

(ii) जब एक विशेष वस्तु के उत्पादन में लगे निपुण साधनों को हटाकर दूसरी वस्तु के उत्पादन में स्थानांतरित किया जाता है जहाँ के लिए वे इतने योग्य नहीं होते तब भी सीमान्त अवसर लागत बढ़ जाती है।

इन दोनों कारणों के चलते PP वक्र का आकार सीमान्त अवसर लागत की स्थिति में उन्नतोदर होता है, जबकि स्थिर सीमान्त अवसर लागत की दशा में PP वक्र का आकार दाहिनी ओर ढालू होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि साधनों की उपलब्ध सीमा में एक वस्तु के उत्पादन में वृद्धि होने से दूसरी वस्तु के उत्पादन में कमी होती है।

Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 3

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प्रश्न 1.
सांवेगिक बुद्धि को परिभाषित करें। इसके प्रमुख तत्वों का वर्णन करें। अथवा, संवेगात्मक बुद्धि से आप क्या समझते हैं ? इसके विभिन्न तत्त्वों का उल्लेख करें। .
उत्तर:
बुद्धि के क्षेत्र में अनेक मनोवैज्ञानिकों ने अपना महत्त्वपूर्ण अध्ययन किया और सिद्धान्तों की स्थापना की है। इस कड़ी में गोलमैन द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त संवेगात्मक बुद्धि भी है। यह एक वैज्ञानिक सिद्धान्त है जिसकी रचना गोलमैन ने 1995 में की है। संवेगात्मक बुद्धि (Emotional Quotient) बुद्धि-लब्धि (Intelligence Quotient) दोनों में काफी भिन्नता है। संवेगात्पक बुद्धि को संवेगात्मक क्षेत्र में समायोजन कहा जा सकता है, जो जीवन में सफलता पाने में बहुत अधिक सहायक होता है। संवेगात्मक बुद्धि का संबंध वास्तव में व्यक्ति के कुछ ऐसे शीलगुणों से होता है जो संवेग की अवस्था में अभियोजन में सहायक होते हैं। इसके माध्यम से उसे अपने संवेगों की पहचान होती है तथा दूसरों के संवेगों को सही ढंग से समझते हुए सही ढंग से अभियोजन का प्रयास करता है। इसके माध्यम से वह लोगों के साथ अपने संबंधों को प्रगाढ़ करता है।

संवेगात्मक बुद्धि (E. Q.) शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग सैलोवी तथा मायर (Salovey and Mayer) ने 1990 में किया था। उन्होंने इसके पाँच प्रमुख तत्त्वों की चर्चा की है, जिसका विवरण निम्नलिखित है-

  1. अपने संवेगों को पहचानना
  2. अपने संवेगों को प्रबंधन करना
  3. अपने आप को अभिप्रेरित करना
  4. दूसरों के संवेगों की पहचान करना
  5. अन्तर्वैयक्तिक संबंधों को संतुलित करना।

व्यक्ति को सामाजिक अभियोजन हेतु अपने संवेगों पर नियंत्रण की आवश्यकता होती है। संवेगों का प्रबंध जितना अधिक संतुलित होगा सामाजिक अभियोजन भी उतना ही सफल होगा। वास्तव में जीवन में सफलता पाने हेतु संवेगों का प्रबंधन आवश्यक होता है। व्यक्ति के अंतर्गत कई प्रकार के शीलगुण निहित होते हैं। इन्हीं शीलगुणों का उपयोग करके संवेगात्मक परिस्थितियों में अभियोजन करता है। सैलोवी तथा मायर ने संवेगात्मक बुद्धि के जिन पाँच तत्त्वों की चर्चा की है उसी के आधार पर किसी की संवेगात्मक बुद्धि की पहचान होती है। हालांकि बाद में आशावादिता को भी संवेगात्मक बुद्धि का एक तत्त्व माना गया है।

संवेगात्मक बुद्धि के मापन की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण शोध हुए हैं और उसके आधार पर कई प्रकार के जाँच को प्रकाश में लाया है। इस दिशा में बार-आन के कनाडा के ट्रेन्ट विश्वविद्यालय में एक आविष्कारिका का निर्माण किया जिसे बार-आन संवेगात्मक लब्धि आविष्कारिका (Bar-on emotional quotient inventory) के नाम से जाना जाता है। यह आविष्कारिका बहुत अधिक लोकप्रिय हो चुकी है। संवेगात्मक बुद्धि मापन की दिशा में भारत में भी शोध कार्य जारी है। दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. ए. के. चड्ढा ने भी एक टेस्ट का निर्माण किया है, जिसे सांवेगिक बुद्धि परीक्षण के नाम से जानते हैं। भारतीय संदर्भ में उनका यह जाँच काफी लोकप्रिय है।

चूँकि यह एक नया सिद्धान्त है, इस दिशा में शोध कार्य जारी है फिर भी इतना तो अवश्य कहा जा सकता है कि व्यक्ति को सिर्फ बुद्धि-लब्धि (I.Q.) के आधार पर ही सफलता नहीं मिलती बल्कि इसके लिए संवेगात्मक बुद्धि भी आवश्यक है।

प्रश्न 2.
बुद्धि में आनुवंशिकता बनाम पर्यावरण विवाद का वर्णन करें।
उत्तर:
आनुवंशिक एवं पर्यावरणीय दोनों ही प्रकार के प्रभाव होते हैं। अतः इस अध्ययन के अंतर्गत बुद्धि एवं संस्कृति के संदर्भ में चर्चा करेंगे। बुद्धि का अर्थ एवं अवधारणा समझ लेने के पश्चात् यह समझना उचित होगा कि बुद्धि का संस्कृति से क्या तारतम्य है एवं बुद्धि व सांस्कृतिक पर्यावरण में दोनों की क्या भूमिकाएँ हैं ?

विकास की ओर अग्रसर होता है एवं आस-पास के पर्यावरण से संयोजन करता है। बुद्धि की एक प्रमुख विशेषता यह भी है कि वह पर्यावरण के अनुकूलन में सहायक होती है अर्थात् व्यक्ति जिस पर्यावरण में निवास करता है अथवा उससे भिन्न जिस पर्यावरण की ओर उन्मुख होता है तब बुद्धि ही उसको भिन्न पर्यावरण के अनुकूल बनाती है या यूँ कह सकते है कि व्यक्ति का सांस्कृतिक पर्यावरण बुद्धि के विकसित होने में एक संदर्भ प्रदान करता है।

उदाहरण के लिए वे समाज जिनमें तकनीकी विकास को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है, उनमें तर्कना एवं निर्णयन के आधार पर निजी उपलब्धियों का परिमार्जन होता है अर्थात् उसे बुद्धि समझा जाता है जबकि वे समाज जिनमें सामाजिक अन्तर्वैयक्तिक संबंधों का निर्माण करने वाले तत्वों का संयोजन होता है उनमें सामाजिक एवं सांवेगिक (Social and emotional) कौशलों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि संस्कृति के अनुरूप ही बुद्धि का अनुकूलन हो जाता है।

प्रश्न 3.
सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना किस तरह से की है? अथवा, फ्रायड ने व्यक्तित्व की संरचना की व्याख्या कैसे की है?
उत्तर:
फ्रायड के सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम् या इड, अहं और पराहम्। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है। इड, अहं और परामहम् संप्रत्यय है न कि वास्तविक भौतिक संरचनाएँ।
Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 3 1

इड- यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सासिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।

अहं-इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं को संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्राय: इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दंड का भागी हो सकता है वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग आवस्तविक और सुखेप्सा-सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम्-पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम्, इड और अहं बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जाओं से निर्मित हुआ है। कुछ लोगों में इड पराहम् से अधिक प्रबल होता है तो कुछ अन्य लोगों में पराहम् इड से अधिक प्रबल होता है। इड, अहं और पराहम् की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को स्थिरता का निर्धारण करती है। फ्रायड के अनुसार इड की दो प्रकार की मूलप्रवृत्तिक शक्तियों से ऊर्जा प्राप्त होती है जिन्हें जीवन-प्रवृत्ति एवं मुमूर्षा या मृत्यु-प्रवृत्ति के नाम से जाना जाता है। उन्होंने मृत्यु-प्रवृत्ति (अथवा काम) को केंद्र में रखते हुए अधिक महत्त्व दिया है। मूलप्रवृत्तिक जीवन-शक्ति जो इड को ऊर्जा प्रदान करती है कामशक्ति लिबिडो कहलाती है। लिबिडो सुखेप्सा-सिद्धांत के आधार पर कार्य करता है और तात्कालिक संतुष्टि चाहता है।

प्रश्न 4:
स्वास्थ्य को परिभाषित करें। व्यक्ति की शारीरिक तंदुरुस्ती को प्रभावित करने वाले कारकों का वर्णन करें।
उत्तर:
“स्वास्थ्य एक ऐसी तंदुरूस्ती या कुशल क्षेत्र की अवस्था होती है जिसमें दैहिक, सांस्कृतिक, मनोसामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक गुण होते हैं न कि सिर्फ रोग की अनुपस्थिति सांस्कृतिक, मनोसामाजिक, आर्थिक तथा आध्यात्मिक गुण होते हैं न कि सिर्फ रोग की अनुपस्थिति पाई जाती है।” स्वास्थ्य में कई तरह के कारकों का एक समन्वय पाया जाता है तथा इसमें रोग की अनुपस्थिति होती है। जब व्यक्ति इस सभी कारकों से प्रभावित होते हुए अपने आपको एक संतुलित अवस्था में बनाए रखने में सक्षम होता है, तो उसका स्वास्थ्य उत्तम कहलाता है।

व्यक्ति की शारीरिक तंदरूस्ती को प्रभावित करने वाला प्रमख कारक निम्नलिखित हैं-
(i) संज्ञान संबंधित कारक (Factors related to cognition)-व्यक्ति किस तरह से अपने विभिन्न शारीरिक लक्षणों जैसे सर्दी लगना, डायरिया होना, उल्टी होना, चेचक आदि के प्रति सोचता है या किस तरह का विश्वास रखता है, से उसकी शारीरिक तंदुरुस्ती काफी प्रभावित होता है। यदि व्यक्ति यह सोचता है कि वह ज्यादा दही खा लिया है, इसलिए उसे इन्फ्लुएंजा हो गया है, तो वह डॉक्टर के पास नहीं जायेगा। परंतु यदि वह यह सोचता है कि उस इन्फ्लुएंजा का कारण उसका फेफड़ा में संक्रमण का होना है, तो वह डॉक्टर की मदद लेने के लिये तैयार हो जायेगा। इस तरह से रोग के बारे में उसे क्या जानकारी है तथा यह विश्वास कि यह किस तरह से उत्पन्न होता है, से बहुत हद तक व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है।

(ii) व्यवहार से संबंधित कारक (Factors related to behaviour)-मनोवैज्ञानिकों द्वारा यह स्थापित किया जा चुका है कि व्यक्ति जिस तरह का व्यवहार करता है तथा जिस तरह की जीवनशैली को वह अपनाता है, उससे उसका स्वास्थ्य काफी हद तक प्रभावित होता है। जैसे-कुछ लोग दिन भर में 10 कप चाय पीना आवश्यक समझते हैं, कुछ लोग 8-10 सिगरेट पीना अति आवश्यक समझते हैं, कुछ लोग स्वच्छंद होकर लैंगिक सहवास करते हैं, कुछ लोग विशेष तरह का भोजन एवं प्रतिदिन दैनिक व्यायाम करते हैं, कुछ लोग प्रतिदिन मांसाहारी भोजन करना अधिक पसंद करते हैं, आदि-आदि। ऐसे व्यवहारों का कुछ खास-खास शारीरिक रोगों जैसे चक्रीय हृदय रोग, कैंसर, एच० आई० वी० (HIV) / एड्स (AIDS) आदि से सीधा संबंध होता है। जैसे-नियमित व्यायाम करने वाले व्यक्ति को चक्रीय हृदय रोग होने की संभावना कम होती है। मनोविज्ञान की एक नई शाखा जिसमें व्यवहारों में परिवर्तन लाकर रोगों से होने वाले दबावों को कम करने का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है, का विकास हुआ है। इस शाखा को व्यवहारपरक औषधि की संज्ञा दी गई है।

(iii) सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक (Sovial and cultural factors)-कुछ सामाजिक एवं सांस्कृतिक कारक भी होते हैं जिनसे व्यक्ति की दैहिक अनुक्रियाएँ प्रभावित होती हैं और फिर उनसे शारीरिक तंदुरुस्ती प्रभावित होती है। जैसे-भारतीय सांस्कृतिक में चेचक को किसी विशेष देवी माता का प्रकोप समझकर उस देवी माता की पूजा-अर्चना करके इस रोग का उपचार करने की कोशिश की जाती है। ऐसा सामाजिक एवं सांस्कृतिक विश्वास पश्चिमी देशों में नहीं पाया जाता है। फलतः इस रोग के प्रति इस ढंग की प्रतिक्रिया नहीं की जाती है। इन दोनों तरह की अनुक्रियाओं या प्रतिक्रियाओं से व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है। देवी माता का प्रकोप मानकर उपचार करने में व्यक्ति के स्वास्थ्य को कुप्रभावित होने की संभावना अधिक होती है। उसी तरह से भारतीय समाज में महिलाओं को दिया गया मेडिकल राय या अन्य महिलाओं द्वारा दिया गया मेडिकल सुझाव पर कार्य देर से प्रारम्भ किया जाता है जिसके पीछे यह विश्वास होता है कि वे लोग या तो इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं या फिर उनकी प्रकृति दु:ख दर्द सहने की ही होती है। स्पष्ट हुआ कि कई ऐसे कारक है जिनके व्यक्ति की शारीरिक तंदुरूस्ती प्रभावित होती है।

प्रश्न 5.
पूर्वाग्रह को नियंत्रित करने के लिए एक योजना का निर्माण करें।
उत्तर:
पूर्वाग्रह नियंत्रण की युक्तियाँ तब अधिक प्रभावी होगी जब उनका प्रयास होगा-
(a) पूर्वाग्रहों के अधिगम के अवसरों को कम करना।
(b) ऐसी अभिवृत्तियों को परिवर्तित करना।
(c) अंत:समूह पर आधारित संकुचित सामाजिक अनन्यता के महत्त्व को कम करना।
(d) पूर्वाग्रह के शिकार लोगों में स्वतः अधिक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को हतोत्साहित करना।

इन लक्ष्यों को निम्न प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है-
(i) शिक्षा एवं सूचना के प्रसार के द्वारा विशिष्ट लक्ष्य समूह से संबद्ध रूढ़ धारणाओं को संशोधित करना एवं प्रबल अंत:समूह अभिनति की समस्या से निपटना।

(ii) अंत:समूह संपर्क को बढ़ाना प्रत्यक्ष संप्रेषण, समूहों के मध्य अविश्वास को दूर करने तथा बाह्य समूह के सकारात्मक गुणों को खोज करने का अवसर प्रदान करना है। हालांकि ये युक्तियाँ तभी सफल होती हैं, जब दो समूह प्रतियोगी संदर्भ के स्थान पर एक सहयोग संदर्भ में मिलते हैं।
समूहों के मध्य घनिष्ठ अंतःक्रिया एक-दूसरे को समझने या जानने में सहायता करती है। दोनों समूह शक्ति या प्रतिष्ठा में भिन्न नहीं होते हैं।

(iii) समूह अनन्यता की जगह व्यक्तिगत अनन्यता को विशिष्ट प्रदान करना अर्थात् दूसरे व्यक्ति के मूल्यांकन के आधार के रूप में समूह (अंतः एवं बाह्य दोनों ही समूह) के महत्त्व को बलहीन करना।

प्रश्न 6.
कार्ल रोजर्स की विचारधारा का वर्णन करें।
उत्तर:
काल रोजर्स की विचारधारा-
(i) मानव व्यवहार लक्ष्य निर्देशित (Goal directed) एवं लाभप्रद (Worthwhile) होता है।

(ii) मानव जो जन्मजात ही नेक प्रकृति के होते हैं, हमेशा ही आत्म-सिद्ध (Seif actualized) तथा अनुकूली (Adaptive) व्यवहार करते हैं।कार्ल रोजर्स के अनुसार, व्यक्तित्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू आत्म (Self) का विकास होता है जिसमें व्यक्ति को अपनी अनुभूतियों एवं अन्य मानसिक प्रक्रियाओं का ज्ञान होता है। आत्म-सम्मान का विकास शैशवावस्था में होता है जब शिशु की अनुभूतियों का एक अंश अधिक मूर्त (abstract) रूप प्राप्त करने लगता है और ‘मैं’ या ‘मुझको’ के रूप में धीरे-धीरे विशिष्ट होने लगता है। इसका परिणाम यह होता है कि शिशु धीरे-धीरे अपनी अस्मिता या पहचान से अवगत होने लगता है। फलतः उसमें अच्छे-बुरे का ज्ञान होने लगता है।

आत्म-संप्रत्यय से तात्पर्य व्यक्ति के उन सभी पहलुओं एवं अनुभूतियों से होता है कि जिनसे व्यक्ति अवगत होता है। आत्म-संप्रत्यय का निर्माण एक बार हो जाने से उसमें परिवर्तन नहीं होता है। आत्म-संप्रत्यय से संगत अनुभूतियों को व्यक्ति स्वीकार करता है और असंगत अनुभूतियों को वह अस्वीकार करता है।

रोजर्स का यह भी मत है कि प्रत्येक व्यक्ति का एक आदर्श आत्म भी होता है। आदर्श आत्म से तात्पर्य अपने बारे में विकसित की गई एक ऐसी छवि से होता है जिसे वह आदर्श मानता है। एक सामान्य व्यक्ति में वास्तविक आत्म तथा आदर्श आत्म में संगति होता है। इससे व्यक्ति में खुशी उत्पन्न होती है। परंतु जब व्यक्ति का वास्तविक आत्म तथा आदर्श आत्म में अंतर हो जाता है तो इससे असंतुष्टि तथा दुःख व्यक्ति में उत्पन्न होता है।

रोजर्स का यह मत है कि व्यक्ति आत्म-सिद्धि के माध्यम से अपने आत्म को अधिक-से-अधिक विकसित करने की कोशिश करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति का आत्म विकसित होने के साथ-ही-साथ सामाजिक भी हो जाता है।

रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व विकास एक सतत् प्रक्रिया होता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति द्वारा अपना किया गया आत्म-मूल्यांकन तथा आत्म-सिद्धि की प्रक्रिया में प्रवीणता विकसित करना सम्मिलित होता है। इन्होंने आत्म-संप्रत्यय के विकास में सामाजिक प्रभावों की भूमिका को भी स्वीकार किया है। उनका मत है कि जब सामाजिक हालात धनात्मक या अनुकूल होते हैं, तो व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान उच्च होता है। दूसरे तरफ, जब सामाजिक हालात प्रतिकूल होते हैं, व्यक्ति का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान दोनों ही कम हो जाते हैं। जिन व्यक्तियों का आत्म-संप्रत्यय तथा आत्म-सम्मान उच्च होता है, वे प्रायः खुले विचार के होते हैं जिनसे वे आत्म-सिद्धि की ओर तेजी से बढ़ते हैं।

रोजर्स के अनुसार व्यक्तित्व दो तरह की आवश्यकताओं द्वारा मूलतः प्रभावित होता है-स्वीकारात्मक श्रद्धा तथा आत्म-श्रद्धा। स्वीकारात्मक श्रद्धा से तात्पर्य दूसरों द्वारा स्वीकार किये जाने, दूसरों का स्नेह पाने एवं उनके द्वारा पसंद किये जाने की इच्छा से होती है। स्वीकारात्मक श्रद्धा की आवश्यकता दो तरह की होती है-शर्तपूर्ण स्वीकारात्मक श्रद्धा तथा शर्तरहित स्वीकारात्मक श्रद्धा। शर्तपूर्ण स्वीकारात्मक श्रद्धा में दूसरों का स्नेह, प्यार एवं अनुराग प्राप्त करने के लिए उनके द्वारा निश्चित किये गए मानदंडों के अनुरूप व्यक्ति को व्यवहार करना पड़ता है। रोजर्स ने इस तरह की श्रद्धा को व्यक्तित्व विकास के लिये उपयुक्त नहीं माना है। शर्तहीन स्वीकारात्मक श्रद्धा में दूसरों का स्नेह, प्यार एवं मान-सम्मान पाने के लिये कोई शर्त नहीं रखा जाता है। माता-पिता द्वारा बच्चों को दिया गया स्नेह एवं मान-सम्मान इसी श्रेणी का श्रद्धा होता है। ऐसे व्यक्ति अपनी क्षमताओं एवं प्रतिभाओं को सर्वोत्कृष्ट तरीके से अभिव्यक्त करने का पूरा-पूरा प्रयास करते हैं।

प्रश्न 7.
आक्रामकता क्या है? आक्रामकता के कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
आक्रामकता आधुनिक समाज की प्रमुख समस्या है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार आक्रामकता एक ऐसा व्यवहार होता है जो दूसरों को शारीरिक रूप से या शाब्दिक रूप से हानि पहुँचाने के आशय से किया जाता है। ऐसी अभिव्यक्ति व्यक्ति अपने वास्तविक व्यवहार के माध्यम से अथवा फिर कटु वचनों या आलोचनाओं के माध्यम से करता है। इसकी अभिव्यक्ति दूसरों के प्रति शत्रुतापूर्ण भावनाओं द्वारा भी की जाती है।

आक्रामकता के निम्नलिखित कारण हैं-
(i) सहज प्रवृत्ति-आक्रामकता मानव में (जैसा कि यह पशुओं में होता है) सहज (अंतर्जात) होती है। जैविक रूप से यह सहज प्रवृत्ति आत्मरक्षा हेतु हो सकती है।

(ii) शरीर क्रियात्मक तंत्र-शरीर-क्रियात्मक तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामकता जनिक कर सकते हैं, विशेष रूप से मस्तिष्क के कुछ ऐसे भागों को सक्रिय करके जिनकी संवेगात्मक अनुभव में भूमिका होती हैं, शरीर-क्रियात्मक भाव प्रबोधन की एक सामान्य स्थिति या सक्रियण की भावना प्रायः आक्रमण के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। भाव प्रबोधन के कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भीड़ के कारण भी आक्रमण हो सकता है, विशेष रूप से गर्म तथा आर्द्र मौसम में।

(iii) बाल-पोषण-किसी बच्चे का पालन किस तरह से किया जाता है वह प्रायः उसी आक्रामकता को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, वे बच्चे जिनके माता-पिता शारीरिक दंड का उपयोग करते हैं, उन बच्चों की अपेक्षा जिनके माता-पिता अन्य अनुशासनिक, तकनीकों का उपयोग करते हैं, अधिक आक्रामक बन जाते हैं। ऐसा संभवतः इसलिए होता है कि माता-पिता ने आक्रामक व्यवहार का एक आदर्श उपस्थित किया है, जिसका बच्चा अनुकरण करता है। यह इसलिए भी हो सकता है कि शारीरिक दंड बच्चे को क्रोधित तथा अप्रसन्न बना दे और फिर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वह इस क्रोध को आक्रामक व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

(iv) कंठा-आक्रामण कुंठा की अभिव्यक्ति तथा परिणाम हो सकते हैं, अर्थात् वह संवेगात्मक स्थिति जो तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को किसी लक्ष्य तक पहुँचने में बाधित किया जाता है अथवा किसी ऐसी वस्तु जिसे वह पाना चाहता है, उसको प्राप्त करने से उसे रोका जाता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य के बहुत निकट होते हुए भी उसे प्राप्त करने से वंचित रह सकता है। यह पाया गया है कि कुंठित स्थितियों में जो व्यक्ति होते हैं, वे आक्रामक व्यवहार उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रदर्शित करते हैं जो कुंठित नहीं होते। कुंठा के प्रभाव की जाँच करने के लिए किए गए एक प्रयोग में बच्चों को कुछ आकर्षक खिलौनों, जिन्हें वे पारदर्शी पर्दे (स्क्रीन) के पीछे से देख सकते थे, को लेने से रोका गया। इसके परिणामस्वरूप ये बच्चे, उन बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें खिलौने उपलब्ध थे, खेल में अधिक विध्वंसक या विनाशकारी पाए गए।

प्रश्न 8.
प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रतिभाशाली बालकों की विशेषताएँ (Characteristics of Gifted Children)-प्रतिभाशाली बालकों की कुछ ऐसी विशेषताएँ होते हैं, जिससे कि उसे सामान्य बच्चों से अलग किया जा सकता है–

  • मानसिक गुण- मानसिक गुण प्रतिभाशाली बालकों की सबसे प्रमुख विशेषता है। इनमें सामान्य बालकों की उपेक्षा अधिक मानसिक योग्यता होती है। अनेक अध्ययनों के आधार पर देखा गया है कि प्रतिभाशाली बालकों का 1.Q. 140 या इससे अधिक होता है।
  • चिन्तन- प्रतिभाशाली बालक सामान्य बच्चों की अपेक्षा अधिक अमूर्त चिन्तन करते हैं। ये बच्चे सूक्ष्ममातिसूक्ष्म विषयों पर विचार कर सकते हैं तथा कठिन समस्याओं को समझने तथा उनका हल करने में अधिक कुशाग्र होते हैं।
  • शारीरिक गण-सामान्य बालकों की तुलना में प्रतिभाशाली बच्चे अधिक लम्बे तथा भारी बदन के होते हैं। ये जन्म के समय सामान्य बच्चों की अपेक्षा एक पौण्ड भारी तथा डेढ़ इंच लम्बे होते हैं।
  • सीखने की योग्यता- प्रतिभाशाली बालकों में सीखने की योग्यता सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होती है। अन्य बच्चों की अपेक्षा इनका भाषा विकास तीन माह पहले हो जाता है। फलतः इनका शब्दभण्डार बड़ा होता है। स्कूल जाने के पहले ही ये कुछ शब्दों को पढ़ना-लिखना सीख लेते हैं। ये कम समय में ही पाठ्य-पुस्तक विषयों को याद कर लेते हैं।
  • रूचि- प्रतिभाशाली बालकों की रूचि किसी एक ओर अधिक समय तक नहीं रहती है। वातावरण की सभी वस्तुओं का ज्ञान ये प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए उनका ध्यान बराबर विचलित होते रहते हैं।
  • सामाजिक गण- जो बालक प्रतिभाशाली होते हैं वे सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक सामाजिक होते हैं। ऐसे बालक खेलों में भी ज्यादा अभिरूचि लेते हैं। ऐसे बच्चों में नेतृत्व का गुण अधिक होता है।
  • उच्च वंश-परम्परा-प्रायः प्रतिभाशाली बालक उच्च वंश के होते हैं। इनके माता-पिता अधिक बुद्धिमान एवं शिक्षित होते हैं। या तो वे अच्छे पद पर होते हैं या बड़े व्यवसाय से सम्बन्धित होते हैं। परन्तु यह बात पूरी तरह से सही नहीं है, क्योंकि अनेक ऐसे उदाहरण मिलते हैं जो गरीब परिवार के होते हुए भी प्रतिभाशाली हुए हैं।
  • समझने की क्षमता-प्रतिभाशाली बालक निर्देशन कम होने पर भी अधिक समझ लेते हैं और अपनी समझ-बूझ एवं पूर्व अनुभवों का लाभ उठाते हैं। अध्यापक को विषय समझाने में विशेष कठिनाई नहीं होती है।
  • ध्यान-प्रतिभाशाली बालकों का ध्यान विस्तार सामान्य बच्चों की तुलना में अधिक होता है। ऐसे बच्चे किसी विषय में अपने ध्यान को अधिक समय तक केन्द्रित करने में समर्थ होते हैं। इनका ध्यान कम भंग होता है।
  • अन्य शीलगुण-प्रतिभाशाली बालक प्रायः ईमानदार, दयालु एवं परोपकारी होते हैं। परन्तु, इसके लिए उन्हें उचित निर्देशन मिलना आवश्यक है।

प्रश्न 9.
आक्रमण एवं हिंसा के कारण या निर्धारकों का वर्णन करें।
उत्तर:
असामान्य मनोविज्ञान के अंतर्गत मनष्य के असामान्य व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इसमें आक्रमण एवं हिंसा की अवधारणा पर भी विचार किया जाता है। जब किसी लक्ष्य या वस्तु को प्राप्त करने के लिए हिंसा को अपनाया जाता है तो उसे आक्रमण कहा जताा है। आक्रमण के निम्नलिखित कारण हैं-

(i) सहज प्रवृत्ति-आक्रामकता मानव में (जैसा कि यह पशुओं में होता है) सहज (अंतर्जात) होती है। जैविक रूप से यह सहज प्रवृत्ति आत्मरक्षा हेतु हो सकती है।

(ii) शरीर क्रियात्मक तंत्र-शरीर-क्रियात्मक तंत्र अप्रत्यक्ष रूप से आक्रामकता जनिक कर सकते हैं, विशेष रूप से मस्तिष्क के कुछ ऐसे भागों को सक्रिय करके जिनकी संवेगात्मक अनुभव में भूमिका होती हैं, शरीर-क्रियात्मक भाव प्रबोधन की एक सामान्य स्थिति या सक्रियण की भावना प्रायः आक्रमण के रूप में अभिव्यक्त हो सकती है। भाव प्रबोधन के कई कारण हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, भीड़ के कारण भी आक्रमण हो सकता है, विशेष रूप से गर्म तथा आर्द्र मौसम में। ..

(iii) बाल-पोषण-किसी बच्चे का पालन किस तरह से किया जाता है वह प्रायः उसी आक्रामकता को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए, वे बच्चे जिनके माता-पिता शारीरिक दंड का उपयोग करते हैं, उन बच्चों की अपेक्षा जिनके माता-पिता अन्य अनुशासनिक, तकनीकों का उपयोग करते हैं, अधिक आक्रामक बन जाते हैं। ऐसा संभवतः इसलिए होता है कि माता-पिता ने आक्रामक व्यवहार का एक आदर्श उपस्थित किया है, जिसका बच्चा अनुकरण करता है। यह इसलिए भी हो सकता है कि शारीरिक दंड बच्चे को क्रोधित तथा अप्रसन्न बना दे और फिर बच्चा जैसे-जैसे बड़ा होता है वह इस क्रोध को आक्रामक व्यवहार के द्वारा अभिव्यक्त करता है।

(iv) कुंठा-आक्रामण कुंठा की अभिव्यक्ति तथा परिणाम हो सकते हैं, अर्थात् वह संवेगात्मक स्थिति जो तब उत्पन्न होती है जब व्यक्ति को किसी लक्ष्य तक पहुँचने में बाधित किया जाता है अथवा किसी ऐसी वस्तु जिसे वह पाना चाहता है, उसको प्राप्त करने से उसे रोका जाता है। व्यक्ति किसी लक्ष्य के बहुत निकट होते हुए भी उसे प्राप्त करने से वंचित रह सकता है। यह पाया गया है कि कुठित स्थितियों में जो व्यक्ति होते हैं, वे आक्रामक व्यवहार उन लोगों की अपेक्षा अधिक प्रदर्शित करते हैं जो कुठित नहीं होते। कुंठा के प्रभाव की जाँच करने के लिए किए गए एक प्रयोग में बच्चों को कुछ आकर्षक खिलौनों, जिन्हें वे पारदर्शी पर्दे (स्क्रीन) के पीछे से देख सकते थे, को लेने से रोका गया। इसके परिणामस्वरूप ये बच्चे, उन बच्चों की अपेक्षा, जिन्हें खिलौने उपलब्ध थे, खेल में अधिक विध्वंसक या विनाशकारी पाए गए।

प्रश्न 10.
मन के गत्यात्मक पक्षों की विवेचना करें। अथवा, फ्रायड के अनुसार मन के गत्यात्मक पहलू का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोविश्लेषण के जन्मदाता फ्रायड ने मन के गत्यात्मक पक्षों का विस्तारपूर्वक अध्ययन किया है और बताया है कि उस पहलू के द्वारा ही मूल प्रवृत्तियों में उत्पन्न मानसिक संघर्ष दूर होते हैं। इस संबंध में ब्राउन ने अपना मत व्यक्त करते हुए कहा है कि “व्यक्तित्व के गत्यात्मक पहलू का अर्थ यह है जिसके द्वारा मूल प्रवृत्तियों में उत्पन्न संघर्षों का समाधान होता है।”

फ्रायड ने मन के गत्यात्मक के तीन पक्षों की चर्चा की है-
(i) इड (Id)-यह हमारे मन के गत्यात्मक पहलू का प्रथम भाग है। प्रारंभ में प्रत्येक बच्चा इड से ही प्रभावित होता है। जैसे-जैसे उम्र में वृद्धि होती है, वैसे-वैसे इगो तथा सुपर इगो का विकास क्रमशः होने लगता है। इड को न तो समय का ज्ञान रहता है और न वास्तविकता का। यही कारण है कि बच्चे अपनी उन इच्छाओं को भी पूरा करना चाहते हैं, जिन्हें पूरा नहीं किया जा सकता है। फ्रायड और उनके समर्थकों ने इड को मूल प्रवृत्तियों का भंडार माना है।

(ii) इगो (Ego)-इगो मन के गत्यात्मक पहलू का वह भाग है, जिसका संबंध वास्तविकता से होता है। फ्रायड ने इसे Self conscious intelligence कहा है। चूँकि इसे वास्तविकता का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है, अत: इड और सुपर इगो के बीच संतुलन स्थापित करने का काम करता है। इगो तार्किक दोषों से वंचित रहता है। यह चेतन और अचेतन दोनों होता है। जीवन और वास्तविकता के बीच अभियोजन करने का काम इगो ही करता है। इसी के संतुलन पर हमारा व्यक्तित्व निर्भर करता है। इगो प्रत्येक काम के परिणाम को गंभीरतापूर्वक सोचता है और अनुकूल अवसर आने पर इड की इच्छाओं को संतुष्ट होने देता है। जो विचार इगो को मान्य नहीं होता वह अचेतन मन में दमित हो जाता है।

(iii) सुपर इगो (Super Ego)-सुपर इगो मन के गत्यात्मक का तीसरा और अंतिम भाग है। इसे आदर्शों की जननी कहा गया है। नाइस (Nice) के शब्दों में, “सुपर इगो व्यक्तित्व का वह भाग है, जिसे विवेक कहा जाता है। यह हमें सभ्य मानव की तरह व्यवहार करना सिखाता है। इस तरह यह इड की असंगत इच्छाओं की पूर्ति में बाधा डालता है।” सुपर इगो के कारण ही व्यक्ति में नैतिकता का जन्म होता है। हर हालत में इसका विकास सामाजिक परिवेश में होता है। यह मुख्यतः चेतन होता है। फलस्वरूप इसे वास्तविकता का पूरा-पूरा ज्ञान रहता है। अपने सभी नैतिक कार्यों को करने से व्यक्ति घबराता है और यदि किसी कारणवश इन कार्यों को कर डालता है तो उसे बाद में पश्चाताप करना पड़ता है।

प्रश्न 11.
युंग के व्यक्तित्व प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
युंग ने मानसिक और सामाजिक गुणों के आधार पर व्यक्तित्व का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है-
(i) अन्तःमुखी व्यक्तित्व (Introvert Personality)-युंग ने अन्त:मुखी के अंतर्गत ऐसे व्यक्तित्व वाले लोगों को रखा है जो कल्पना और चिंतन में ज्यादा समय बर्बाद करते हैं। ये लोग एकांत जीवन जीना पसंद करते हैं। अन्त:मुखी व्यक्ति बहुत अधिक भावुक होते हैं तथा उनमें आलोचनाओं को सहने की शक्ति कम होती है। इनका जीवन बहुत ही नियमित होता है। किसी काम को काफी सोच समझ कर करते हैं। अन्तःमुखी व्यक्तित्व वाले जोखिम नहीं उठा सकते। संवेगों पर इनका नियंत्रण होता है। इन लोगों को नैतिकता का विशेष ख्याल होता है। अतः ऐसे व्यक्तित्व विश्वसनीय होते हैं। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले व्यक्ति दार्शनिक, चिंतक, कलाकार या कवि हो सकते हैं।

(ii) बर्हिमुखी व्यक्तित्व (Extrovert Personality)-इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले लोग व्यवहार कुशल होते हैं। ये अधिक लोगों के बीच घिरे रहना पसंद करते हैं। इनमें साहस और कुशलता अधिक देखी जाती है। बहिर्मुखी व्यक्ति कम भावुक होते हैं। ये हास्यप्रिय, हाजिर जवाब तथा अनिश्चित प्रकृति के होते हैं। एकांत में रहना ऐसे व्यक्तियों के लिए दुभर होता है। इनके दोस्ती की संख्या अधिक होती है। ये अधिक जोखिम भरे कार्य कर सकते हैं। ऐसे व्यक्तित्व के लोगों में संवेगात्मक अस्थिरता भी देखी जाती है। बात-बात पर इन्हें क्रोधित होते देखा जाता है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले अधिकांश नेता या समाज सुधारक होते हैं। युग के व्यक्तित्व विभाजन के अनुसार कुछ ही ऐसे व्यक्ति होते हैं जो पूर्णतः अन्तर्मुखी या बहिर्मुखी होते हैं। अधिकांश व्यक्तियों में अन्तर्मुखी तथा बहिर्मुखी दोनों प्रकार के गुण पाए जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को उभयमुखी कहा जाता है।

प्रश्न 12.
असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
यदि व्यक्ति का मनोवैज्ञानिक विकास दोषपूर्ण होगा, तो उसके व्यवहार में असामान्यता की संभावना बहुत अधिक रहती है। ऐसी अवस्था में व्यक्ति का व्यवहार

कुसमायोजित हो जाता है उसके व्यवहार दोषपूर्ण हो जाते हैं। असामान्य व्यवहार के मनोवैज्ञानिक कारण निम्नलिखित हैं-
(i) मातृवंचन (Maternal deprivation)-मातृवंचन असामान्य व्यवहार का एक बहुत बड़ा कारण है। ऐसा देखा जाता है कि जहाँ माताएँ शिशुओं को छोड़कर नौकरी या व्यवसाय करने के लिए चली जाती है, उन्हें उचित मात्रा में माता-पिता का स्नेह नहीं मिल पाता है। ऐसी अवस्था में शिशुओं का मनोवैज्ञानिक विकास अवरुद्ध हो जाता है, जो असामान्य व्यवहार को विकसित होने में सहायक होते हैं।

(ii) पारिवारिक प्रतिमान की विकृति (Pathogenic family pattern)-विकृत पारिवारिक दशाओं के कारण भी व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो जाता है। इसके अंतर्गत निम्नलिखित दशाएँ आती हैं
(a) तिरस्कार,
(b) अति संरक्षण
(c) इच्छाओं की पूर्ति की अधिक छूट,
(d) दोषपूर्ण अनुशासन,
(e) अयथार्थ चाह। .

(iii) दोषपूर्ण पारिवारिक संरचना (Faulty family structure)-यदि पारिवारिक संरचना दोषपूर्ण होगी तो बच्चों में अनेक प्रकार के असामान्य व्यवहार के विकसित होने की संभावना बनी रहेगी। ऐसे परिवार में बच्चों की आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति उचित ढंग से नहीं हो पाती है और उनमें विकृतियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। अस्त-व्यस्त पारिवारिक वातावरण में बच्चों में तनाव उत्पन्न होता है।

(iv) प्रारंभिक जीवन के मानसिक आघात (Early psychic trauma)-यह भी असामान्य व्यवहारों को उत्पन्न करने में सहायक होता है। यदि बच्चों के प्रारंभिक जीवन में कोई तीव्र मानसिक आघात लगता है, तो उसका प्रभाव व्यक्ति के पूरे जीवन पर पड़ता है और व्यक्ति असामान्य हो जाता है। . (v) विकृत अन्तःवैयक्तिक संबंध (Faulty interpersonal relation)-असामान्य व्यवहारों के विकसित होने में एक मनोवैज्ञानिक कारक विकृत अन्त:वैयक्तिक संबंध भी है। यदि किसी कारणवश परस्पर संबंधित व्यक्तियों से आपसी संबंध विकृत हो जाते हैं या तीव्र मतभेद हो जाते हैं तो उन व्यक्तियों में अत्यधिक तनाव, असंतोष, चिंता आदि विकसित हो जाते हैं, जिससे व्यक्ति का व्यवहार कुसमायोजित हो जाता है।

प्रश्न 13.
मनोगत्यात्मक चिकित्सा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोगत्यात्मक चिकित्सा का प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया। मनोगत्यात्मक चिकित्सा की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन निम्नलिखित है-
1. मनोगत्यात्मक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है।

2. यह उपागम अत: मनोद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है। अतः, उपचार में पहला चरण उसी अन्तःद्वन्द्व को बाहर निकालना है।

3. मनोविश्लेषण ने अंत:द्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य विधि तथा स्वप्न व्याख्या विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुख्य रूप से संबद्ध करने के प्रोत्साहित किया जाता है और उस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम तथा सतर्क अहं को प्रसप्तावस्था में रखा जाता है। चूँकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए जाते रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं।

प्रश्न 14.
व्यवहार चिकित्सा क्या है? संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
व्यवहार चिकित्सा मनश्चिकित्सा का एक प्रकार है। व्यवहार चिकित्साओं का यह मापन है कि मनावैज्ञानिक कष्ट दोषपूर्ण व्यवहार प्रतिरूपों या विचार प्रतिरूपों के कारण उत्पन्न होते हैं। अतः इनका केन्द्रबिन्दु सेवार्थी में विद्यमान व्यवहार और विचार होते हैं। उसका अतीत केवल उसके दोषपूर्ण व्यवहार तथा विचार प्रतिरूपों की उत्पत्ति को समझने के संदर्भ में महत्वपूर्ण होता है। अतीत को फिर से सक्रिय नहीं किया जाता। वर्तमान में केवल दोषपूर्ण प्रतिरूपों में सुधार किया जाता है।

अधिगम के सिद्धांतों का नैदानिक अनुप्रयोग ही व्यवहार चिकित्सा को गठित करता है व्यवहार चिकित्सा में विशिष्ट तरीकों एवं सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों का एक विशाल समुच्चय होता है। यह कोई एकीकृत सिद्धांत नहीं है जिसे क्लिनिकल निदान या विद्यमान लक्षणों को ध्यान में रखे बिना अनुप्रयुक्त किया जा सके। अनुप्रयुक्त किए जाने वाली विशिष्ट तकनीकों या सुधारोन्मुख हस्तक्षेपों के चयन में सेवार्थी के लक्षण तथा क्लिनिकल निदान मार्गदर्शक कारक होते हैं। दुर्भीति या अत्यधिक और अपंगकारी भय के उपचार के लिए तकनीकों के एक समुच्चय को प्रयुक्त करने की आवश्यकता होगी जबकि क्रोध-प्रस्फोटन के उपचार के लिए दूसरी। अवसादग्रस्त सेवार्थी की चिकित्सा दुश्चितित सेवार्थी से भिन्न होगी। व्यवहार चिकित्सा का आधार दोषपूर्ण या अप्रक्रियात्मक व्यवहार को निरूपित करना, इन व्यवहारों के प्रबलित तथा संपोषित करने वाले कारकों तथा उन विधियों को खोजना है जिनसे उन्हें परिवर्तित किया जा सके।

प्रश्न 15.
व्यवहार चिकित्सा का मूल्यांकन करें। इसके विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
व्यवहार चिकित्सा का इतिहास बहुत अधिक पुराना नहीं है। इसका प्रारंभ लगभग पच्चीस-तीस वर्ष पहले किया गया था। यह पद्धति मानसिक रोगियों की चिकित्सा के लिए बहुत अधिक कारगर साबित हुई है। यह विधि पैवल के संबंध प्रत्यावर्तन सिद्धान्त पर आधारित है। इस चिकित्सा के माध्यम से मानसिक रोगियों से छुटकारा दिलाया जा सकता है, जिससे वे समाज में अपना अभियोजन ठीक ढंग से कर सके। व्यवहार चिकित्सा के संबंध में आइजेक (Eysenck) का कहना है कि “मानव व्यवहार एवं संवेगों को सीखने के नियमों के आधार पर लाभदायक तरीकों से परिवर्तन करने का प्रयास व्यवहार चिकित्सा है।” क्लीनमुंज (Keleinmuntz) ने भी लगभग इससे मिलती-जुलती परिभाषा दी है।उन्होंने कहा है कि,”व्यवहार चिकित्सा उपचार का एक प्रकार है, जिसमें लक्षणों को दूर करने के लिए शिक्षण के सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है।

व्यवहार चिकित्सा का स्वरूप कोलमैन (Coleman) की परिभाषा से और भी स्पष्ट हो जाता है। उन्होंने कहा है कि, “व्यवहार चिकित्सा संबंध प्रत्यावर्तन प्रतिक्रियाओं और व्यवहारवाद की अन्य धारणाओं पर आधारित एवं मनोचिकित्सा विधि है जो मूल रूप से स्वभाव परिवर्तन की ओर निर्देशित होती है। (Behaviour therapy is a phychotherapy based upon conditioned responses and other concepts of behaviour, primarily directed towards, habit change.) उपर्युक्त पारिभाषाओं से व्यवहार चिकित्सा का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। इसमें रोगी के गलत व्यवहारों को संबंध प्रत्यावर्तन के माध्यम से दूर किया जाता है। व्यवहार चिकित्सा के निम्नलिखित प्रकारों की मुख्य रूप से चर्चा की जा सकती है।

1. क्रमबद्ध विहर्षण- इस विधि का सर्वप्रथम प्रयोग Wolpe ने किया था। शिक्षण के क्षेत्र में Watson and Rayner ने इस विधि को प्रयोग में लाया। Wolpeने अनेक मानसिक रोगियों की चिकित्सा इस विधि के माध्यम से की, जिसका परिणाम अच्छा निकला। कोलमैन ने इस विधि के संबंध में कहा है कि विहर्षण एक चिकित्सा प्रक्रिया है, जिसके द्वारा आघातजन्य अनुभवों की तीव्रता को उनके वास्तविक रूप या हवाई कल्पना को मृदुल ढंग से व्यक्ति को बार-बार दिखलाकर कम किया जाता है।
कोलमैन के विचार से स्पष्ट होता है कि विहर्षण एक मनोचिकित्सा पद्धति है, जो शिक्षण-सिद्धान्तों पर आधारित है। इसमें रोगी को मांसपेशियों को तनावहीन बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता है, उसके बाद चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों को कल्पना श्रृंखलाबद्ध की जाती है। यह कल्पना रोगी को उस समय तक करने के लिए कहा जाता है, जबतक चिन्ता उत्पन्न करने वाली परिस्थितियों से भयभीत न हो।

किसी रोग पर इस चिकित्सा पद्धति के प्रयोग में लाने से पहले उसके गत जीवन की जानकारी प्राप्त कर ली जाती है, जिससे कि उसे रोग से संबंधित परिस्थितियों को आवश्यकतानुसार रोगी के समक्ष प्रस्तुत किया जा सके। उसके बाद चिकित्सक सबसे कम भयावह परिस्थितियों से लेकर अधिक भयावह परिस्थितियों को सूचिबद्ध करता है। इन सूचियों को अलग-अलग कागज पर लिखकर रोगी को क्रमबद्ध रूप से लिखने को कहा जाता है। इसी समय चिकित्सक रोगी का साक्षात्कार भी करता है। अधिकांश रोग तनावों के कारण उत्पन्न होते हैं। इसलिए रोगी को तनाव की स्थिति में लाकर तनावहीन स्थिति में लाने के लिए तैकॉविशन द्वारा बतलायी गयी विधि का सहारा लिया जाता है। इसमें रोगी को एक गद्दे पर लिटा कर उसके शरीर के विभिन्न स्नायुयों को व्यवस्थित रूप में फैलाने तथा सिकोड़ने के लिए कहा जाता है। उसे यह प्रक्रिया अकसर करने को कहा जाता है जिससे रोगी तनावहीन हो जाता है।

उसके बाद विहर्षण की प्रक्रिया प्रारंभ की जाती है। रोगी को यह निर्देश दिया जाता है कि पहले सिखायी गयी प्रक्रिया में तनाव या कष्ट का अनुभव हो, तो अंगुली उठाकर इसकी सूचना दे। उसके बाद तटस्थ रूप से दृश्यों की कल्पना करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। इसी बीच उसे कम कष्टदायक तथा भयावह परिस्थितियों की कल्पना करने की सलाह देता है। चिकित्सक उसे बड़ी सावधानी से नोट करता है और अंत में रोगी के सामने सबसे अधिक चिन्ता करने वाली परिस्थितियों को.तब तक उपस्थित किया जाता है जब तक कि रोगी की चिन्ता या भय के लक्षण दूर नहीं हो जाते हैं।

विहर्षण विधि का उपयोग नपुंसकता तथा उत्साहशून्यता के उपचार में सफलतापूर्वक किया जाता है। नपुंसकता को दूर करने के लिए इस विधि का प्रयोग, कूपर, लेजारस तथा वोल्पे ने सफलतापूर्वक किया। कुछ रोगी कम ही समय में इस चिकित्सा से चंगा हो जाते हैं, परन्तु कुछ अधिक समय ले लेते हैं।

2. दृढ़ग्राही प्रशिक्षण-व्यवहार चिकित्सा की इस पद्धति के द्वारा ऐसे मानसिक रोगियों की चिकित्सा की जाती है जिनमें पारस्परिक संबंधों या अन्य व्यवहारों में चिन्ता के कारण अवरोध पैदा हो जाता है। इसमें चिकित्सक यह प्रयास करता है कि रोगी का अवरोध कैसे दूर हो तथा उसकी चिन्ता में कैसे कमी हो। चिकित्सक यह भी बतलाता है कि रोगी का व्यवहार कैसे maladjusted हो गया है। वोल्पे तथा लेजारस ने बतलाया कि इस तरह के रोगी की चिकित्सा में तर्क-वितर्क तथा दृढ़ग्राही प्रतिक्रियाओं का वास्तविक जीवन में व्यक्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। वोल्पे ने कहा है कि चिन्ता का असंबद्धता प्रायः व्यववहार पूर्वाभ्यास में ही हो जाती है। फ्रीडमैन का कहना है कि इस विधि की कला चिन्ता अवरोध की वास्तविक जीवन की परिस्थितियों में सामान्यीकरण स्थापित करती है। इस संबंध में कोटेला ने अपना अध्ययन एक युवती पर किया जो माता-पिता के सामने डटकर बातचीत करने में हिम्मत नहीं रखती थी। कोटेला ने इस पद्धति के माध्यम से उसमें डटकर बात करने की योग्यता को विकसित किया।

3. विरुचि संबंध प्रत्यावर्तन- इस प्रकार की चिकित्सा के माध्यम से रोगी की गलत आदतों को संबंध प्रत्यावर्तन के माध्यम से दूर करने का प्रयास किया जाता है। इस प्रकार की चिकित्सा के संबंध में कहा जा सकता है कि, “सबल उत्तेजक का प्रयोग अवांछित व्यवहार के उपस्थित होने पर उसे दूर करने के उद्देश्य से किया जाता है, तो इसे विरुचित संबंध प्रत्यावर्तन कहा जाता है।” इसका सफल Feldman तथा Meuch ने समजाति लैंगिकता और वस्तु लैंगिकता के उपचार में किया। इससे जैसे ही रोगी अपने यौन के व्यक्ति या वस्तु की ओर देखना प्रारंभ करता था वैसे ही उसके विद्युत आघात पहुँचाया जाता है।

इसके माध्यम से नशे की आदत से आसानी से छुटकारा दिलाया जा सकता है। इस विधि द्वारा अवांछित व्यवहारों को दूर करने के लिए सबल उत्तेजक, जैसे-विद्युत आघात, वमन करने वाली दवाएँ आदि का सहारा लिया जाता है। जैसे-एक शराब पीने वाले का उपचार करने के लिए पहले उसे तैयार किया जाता है। उसके बाद रोगी को एक ग्लास गरम खारे घोल में ह्विस्की के साथ कुछ वमन करने वाली दवाइयाँ दी जाती है। के होने के कुछ देर बाद उसे ह्विस्की पीने को दिया जाता है। यदि पहले पैग में वमन नहीं होता है, तो दूसरे पैग में दिया जाता है, जिससे कि रोगी को वमन होने लगे। धीरे-धीरे रोगी शराब की गंध से वमन करना प्रारंभ कर देता है। यहाँ असम्बद्ध उत्तेजक दवा है जो कै करवाती है और उसे संबद्ध उत्तेजक शराब की गन्ध एवं स्वाद है।

जेम्स ने एक चालीस वर्षीय समजाति लैंगिक का उपचार इस विधि द्वारा किया। परिणामस्वरूप वह व्यक्ति समजाति लैंगिक से विषम जाति लैंगिक बन गया। उसका ध्यान मर्दो से हटकर औरतों की ओर हो गया। इस पद्धति के आधार पर गरीब रोगियों की चिकित्सा कम-से-कम समय तथा कम-से-कम खर्च में की जाती है।

Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 5

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Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 5

प्रश्न 1.
पूर्ण प्रतियोगिता से क्या समझते हैं ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति होती है जिसमें एक समान वस्तु के बहुत अधिक क्रेता एवं विक्रेता होते हैं। एक क्रेता तथा विक्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाते और यही कारण है कि पूर्ण प्रतियोगिता में बाजार में वस्तु की एक ही कीमत प्रचलित रहती है।

प्रश्न 2.
व्यावसायिक बैंक के तीन प्रमुख कार्यों को बतायें।
उत्तर:
व्यावसायिक बैंक के तीन प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  • जमाएँ स्वीकार करना
  • ऋण देना
  • साख निर्माण।

प्रश्न 3.
उच्च शक्तिशाली मदा क्या है ?
उत्तर:
एक देश की मौद्रिक सत्ता के कुल दायित्व को मौद्रिक आधार अथवा ‘हाई-पावर्ड मनी’ कहते हैं। भारत में RBI मौद्रिक आधार है। इसमें जनता के पास प्रवाह में करेन्सी नोट्स एवं सिक्के एवं व्यापारिक बैंक के पास नकद कोष तथा सरकार एवं व्यापारिक द्वारा RBI के पास जमा करायी गई राशि।

प्रश्न 4.
भुगतान संतुलन क्या है ?
उत्तर:
भुगतान संतुलन का संबंध किसी देश के शेष विश्व के साथ सभी आर्थिक लेन-देन के लेखांकन के रिकार्ड हैं। प्रत्येक देश विश्व के अन्य देशों के साथ आर्थिक लेन-देन करता है।

इस लेन-देन के फलस्वरूप उसे अन्य देशों से प्राप्तियाँ होती है तथा उसे अन्य देशों को भुगतान करना पड़ता है। भुगतान संतुलन इन्हीं प्राप्तियों एवं भुगतानों का विवरण हैं।

प्रश्न 5.
संतुलित और असंतुलित बजट में भेद करें।
उत्तर:
संतुलित बजट : संतुलित बजट वह बजट है जिसमें सरकार की आय एवं व्यय दोनों बराबर होते हैं।

असंतुलित बजट : वह बजट जिसमें सरकार की आय एवं सरकार की व्यय बराबर नहीं होते। असंतुलित बजट दो प्रकार का हो सकता है-

  • वजन का बजट या अतिरेक बजट जिसमें आय व्यय की तुलना में अधिक हो।
  • घाटे का बजट जिसमें व्यय आय की तुलना में अधिक हो।

प्रश्न 6.
भुगतान शेष के चालू खाता एवं पूँजी खाता में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
चालू खाता : चालू खाते के अन्तर्गत उन सभी लेन देनों को शामिल किया जाता है जो वर्तमान वस्तुओं और सेवाओं के आयात निर्यात के लिए किए जाते हैं। चालू खाते के अन्तर्गत वास्तविक व्यवहार लिखे जाते हैं।

पूँजी खाता : पूँजी खाता पूँजी सौदों निजी एवं सरकारी पूँजी, अन्तरणों और बैंकिंग पूँजी प्रवाह का एक रिकार्ड है पूँजी खाता ऋणों और दावों के बारे में बताता है। उसके अन्तर्गत सरकारी सौदे विदेशी प्रत्यक्ष विनियोग पार्टफोलियो विनियोग को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 7.
बाजार की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
बाजार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • एक क्षेत्र
  • क्रेताओं और विक्रेताओं की अनुपस्थिति
  • एक वस्तु
  • वस्तु का एक मूल्य

प्रश्न 8.
रोजगार का परंपरावादी सिद्धान्त समझाइए।
उत्तर:
रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त का प्रतिपादन परंपरावादी अर्थशास्त्रियों ने किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति को प्रचलित मजदूरी पर उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार आसानी से काम मिल जाता है। दूसरे शब्दों में प्रचलित मजदूरी दर पर अर्थव्यवस्था में सदैव पूर्ण रोजगार की स्थिति होती है। काम करने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए दी गई मजदूरी दर पर बेरोजगारी की कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती है। रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त को बनाने में डेविड रिकार्डो, पीगू, मार्शल आदि व्यष्टि अर्थशास्त्रियों ने योगदान दिया है। रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त में जे० बी० से का रोजगार सिद्धान्त बहुत प्रसिद्ध है।

प्रश्न 9.
संक्षेप में अनैच्छिक बेरोजगार को समझाइए।
उत्तर:
यदि दी गई मजदूरी दर या प्रचलित मजदूरी दर पर काम करने के लिए इच्छुक व्यक्ति को आसानी से कार्य नहीं मिल पाता है तो इस समस्या को अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं।

एक अर्थव्यवस्था में अनैच्छिक बेरोजगारी के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  • अर्थव्यवस्था में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति हो सकती है।
  • प्राकृतिक संसाधनों की कमी।
  • पिछड़ी हुई उत्पादन तकनीक।
  • आधारित संरचना की कमी आदि।

प्रश्न 10.
समष्टि अर्थशास्त्र में संरचना की भ्रान्ति को स्पष्ट करें।
उत्तर:
समष्टि अर्थशास्त्र में समूहों का अध्ययन किया जाता है। इस अध्ययन में समूह को इकाइयों में बहुत अधिक विषमता पायी जाती है। समूह की इकाइयों की विषमता को पूरी तरह से अनदेखा किया जाता है। इस विषमता के कारण कई भ्रान्तियाँ पैदा हो जाती है। जैसे पूँजी वस्तुओं की कीमत गिरने से सामान्य कीमत स्तर गिर जाता है। लेकिन दूसरी ओर खाद्यान्नों की बढ़ती हुई कीमतें उपभोक्ताओं की कमर तोड़ती रहती हैं। लेकिन सरकार आँकड़ों की मदद से कीमत स्तर को घटाने का श्रेय बटोरती है।

प्रश्न 11.
राष्ट्रीय आय लेखांकन के उपयोग क्या हैं ?
उत्तर:
राष्ट्रीय आय लेखांकन के प्रमुख उपयोग निम्नलिखित हैं-

  • राष्ट्रीय आय का विभिन्न उत्पादन संसाधनों के बीच विभाजन समझाया जा सकता है अर्थात् राष्ट्रीय आय में किस संसाधन का कितना योगदान है-इसे जाना जा सकता है।
  • अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों प्राथमिक, द्वितीयक एवं तृतीयक क्षेत्र का राष्ट्रीय आय में योगदान, इन क्षेत्रों की सापेक्ष एवं निरपेक्ष संवृद्धि की जानकारी राष्ट्रीय आय लेखांकन से प्राप्त होती है।

प्रश्न 12.
समष्टि स्तर पर लेखांकन का महत्व बताएँ।
उत्तर:
लेखांकन सभी स्तरों पर महत्वपूर्ण होता है परन्तु समष्टि स्तर पर भी ज्यादा महत्वपूर्ण होता है। इसके कई कारण हैं-लेखांकन के आधार पर अर्थव्यवस्था में पूरे वित्तीय वर्ष की गतिविधियों की समीक्षा की जाती है। आर्थिक विश्लेषण के बाद सरकार जन कल्याण की भावना से उपयुक्त आर्थिक व सामाजिक नीतियाँ बनाती है। इसी के आधार पर अर्थव्यवस्था में राष्ट्रीय उत्पादन, राष्ट्रीय व्यय, घरेलू पूँजी निर्माण, प्रति व्यक्ति आय आदि समाहारों की जानकारी प्राप्त होती है। लेखांकन के आधार पर अर्थव्यवस्था की विभिन्न वर्षों की उपलब्धियों का तुलनात्मक अध्ययन संभव होता है।

प्रश्न 13.
वस्तु एवं सेवा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वस्तु एवं सेवा में निम्नलिखित अन्तर हैं-
वस्तु:

  1. वस्तु भौतिक होती है अर्थात् वस्तु का आकार होता है। उसे छू सकते हैं।
  2. वस्तु के उत्पादन काल एवं उपभोग काल में अन्तर पाया जाता है।
  3. वस्तु का भविष्य के लिए भण्डारण कर सकते हैं।
  4. उदाहरण-मेज, किताब, वस्त्र आदि।

सेवा:

  1. सेवा अभौतिक होती है। वस्तु सेवा का कोई आकार नहीं होता है। उसे छू नहीं सकते हैं।
  2. सेवा का उत्पादन एवं उपभोग काल एक ही होता है।
  3. सेवा का भविष्य के लिए भण्डारण नहीं कर सकते हैं।
  4. उदाहरण-डॉक्टर की सेवा, अध्यापक की सेवा।

प्रश्न 14.
मुद्रा की विनिमय के माध्यम के रूप में भूमिका पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
व्यापार में विभिन्न पक्षों के बीच मुद्रा विनिमय या भुगतान के माध्यम का काम करती है। भुगतान का काम लोग किसी भी वस्तु से कर सकते हैं परन्तु उस वस्तु में सामान्य स्वीकृति का गुण होना चाहिए। कोई भी वस्तु अलग-अलग समय काल एवं परिस्थितियों में अलग हो सकती है। जैसे पुराने समय में लोग विनिमय के लिए कौड़ियों, मवेशियों, धातुओं अन्य लोगों के ऋणों का प्रयोग करते थे। इस प्रकार के विनिमय में समय एवं श्रम की लागत बहुत ऊँची होती थी। विनिमय के लिए मुद्रा को माध्यम बनाए जाने में समय एवं श्रम की लागत की बचत होती है। आदर्श संयोग तलाशने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मुद्रा के माध्यम से व्यापार करने से व्यापार प्रक्रिया बहुत सरल हो जाती है।

प्रश्न 15.
मूल्य के भण्डार के रूप में मुद्रा की भूमिका बताइए।
उत्तर:
मूल्य की इकाई एवं भुगतान का माध्यम लेने के बाद मुद्रा मूल्य के भण्डार का कार्य भी सहजता से कर सकती है। मुद्रा का धारक इस बात से आश्वस्त होता है कि वस्तुओं एवं सेवाओं के मालिक उनके बदले मुद्रा को स्वीकार कर लेते हैं। अर्थात् मुद्रा में सामान्य स्वीकृति का गुण होने के कारण मुद्रा का धारक उसके बदले कोई भी वांछित चीज खरीद सकता है। इस प्रकार मुद्रा मूल्य भण्डार के रूप में कार्य करती है।

मुद्रा के अतिरिक्त स्थायी परिसंपत्तियों जैसे भूमि, भवन एवं वित्तीय परिसंपत्तियों जैसे बचत, ऋण पत्र आदि में भी मूल्य संचय का गुण होता है और इनसे कुछ आय भी प्राप्त होती है। परन्तु इनके स्वामी को इनकी देखभाल एवं रखरखाव की जरूरत होती है, इसमें मुद्रा की तुलना में कम तरलता पायी जाती है और भविष्य में इनका मूल्य कम हो सकता है। अतः मुद्रा मूल्य भण्डार के रूप में अन्य चीजों से बेहतर है।

प्रश्न 16.
नकद साख पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
ग्राहक की साख सुपात्रता के आधार पर व्यापारिक बैंक द्वारा ग्राहक के लिए उधार लेने की सीमा के निर्धारण को नकद साख कहते हैं। बैंक का ग्राहक तय सीमा तक की राशि का प्रयोग कर सकता है। इस राशि का प्रयोग ग्राहक को आहरण क्षमता से तय किया जाता है। आहरण क्षमता का निर्धारण ग्राहक की वर्तमान परिसंपत्तियों के मूल्य, कच्चे माल के भण्डार, अर्द्धनिर्मित एवं निर्मित वस्तुओं के भण्डारन एवं हुन्डियों के आधार पर किया जाता है। ग्राहक अपने व्यवसाय एवं उत्पादक गतिविधियों के प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए अपनी परिसंपत्तियों पर अपना कब्जा करने की कार्यवाही शुरू कर सकता है। ब्याज केवल प्रयुक्त ब्याज सीमा पर चुकाया जाता है। नकद साख व्यापार एवं व्यवसाय संचालन में चिकनाई का काम करती है।

प्रश्न 17.
मुद्रा की आपूर्ति क्या होती है ?
उत्तर:
मुद्रा रक्षा में सभी प्रकार की मुद्राओं के योग को मुद्रा की आपूर्ति कहते हैं। मुद्रा. की आपूर्ति में दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

  • मुद्रा की आपूर्ति एक स्टॉक है। यह किसी समय बिन्दु के उपलब्ध मुद्रा की सारी मात्रा को दर्शाता है।
  • मुद्रा के स्टॉक से अभिप्राय जनता द्वारा धारित स्टॉक से है। जनता द्वारा धारित स्टॉक समस्त स्टॉक से कम होता है।

भारतीय रिजर्व बैंक देश में मुद्रा की आपूर्ति के चार वैकल्पिक मानों के आँकड़े प्रकाशित करता है। ये मान क्रमशः (M1, M2, M3, M4) है।

जहाँ M1 = जनता के पास करेन्सी+जनता की बैंकों में माँग जमाएँ
M2 = M + डाकघरों के बचत बैंकों में बचत जमाएँ
M3 = M2 + बैंकों की निबल समयावधि योजनाएँ।
M4 = M3 + डाकघर बचत संगठन की सभी जमाएँ।

प्रश्न 18.
वस्तु विनिमय की कठिनाइयाँ लिखिए।
उत्तर:
वस्तु विनिमय की निम्नलिखित कठिनाइयाँ हैं-

  • इस प्रणाली में वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य मापने की कोई सर्वमान्य इकाई नहीं होती है। अतः वस्तु विनिमय लेखांकन की उपयुक्त व्यवस्था के विकास में एक बाधा है।
  • आवश्यकताओं का दोहरा संयोग विनिमय का आधार होता है। व्यवहार में दो पक्षों में हमेशा एवं सब जगह परस्पर वांछित संयोग का तालमेल होना बहुत मुश्किल होता है।
  • स्थगित भुगतानों को निपटाने में कठिनाई होती है। दो पक्षों के बीच सभी लेन-देनों का निपटारा साथ-ही-साथ होना मुश्किल होता है अत: वस्तु विनिमय प्रणाली में स्थगित भुगतानों के संबंध में वस्तु की किस्म, गुणवत्ता, मात्रा आदि के संबंध में असहमति हो सकती है।

प्रश्न 19.
मुद्रा के अंकित मूल्य व वस्तु मूल्य का अर्थ लिखिए।
उत्तर:
अंकित मूल्य- किसी पत्र व धातु मुद्रा पर जो मूल्य लिखा होता है, उसे मुद्रा का अंकित मूल्य कहते हैं। जैसे 500 रुपये के नोट का अंकित मूल्य 500 रुपये होता है।

वस्त मल्य- उस पदार्थ के मूल्य को वस्तु मूल्य कहते हैं जिससे मुद्रा बनायी जाती है। जैसे-चाँदी के सिक्के का धातु-मूल्य उस सिक्के के निर्माण में प्रयुक्त धातु के मूल्य के समान होता है।

प्रश्न 20.
भारत में नोट जारी करने की क्या व्यवस्था है ?
उत्तर:
भारत में नोट जारी करने की व्यवस्था को न्यूनतम सुरक्षित व्यवस्था कहा जाता है। जारी की गई मुद्रा के लिए न्यूनतम सोना व विदेशी मुद्रा सुरक्षित निधि में रखी जाती है।

प्रश्न 21.
भारत में मुद्रा की पूर्ति कौन करता है ?
उत्तर:
भारत में मुद्रा की पूर्ति करते हैं-

  • भारत सरकार
  • केन्द्रीय बैंक
  • व्यापारिक बैंक।

प्रश्न 22.
वाणिज्य बैंक कोषों का अन्तरण किस प्रकार करते हैं ?
उत्तर:
वाणिज्य बैंक एक स्थान से दूसरे स्थान पर धन राशि को भेजने में सहायक होते हैं। यह राशि साख पत्रों, जैसे-चेक, ड्राफ्ट, विनिमय, बिल आदि की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजी जाती है।

प्रश्न 23.
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
2 अक्टूबर 1975 को 5 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित किए गए। इनका कार्यक्षेत्र एक राज्य के या दो जिले तक सीमित रखा गया। ये छोटे और सीमित किसानों, खेतिहर मजदूरों, ग्रामीण दस्तकारों, लघु उद्यमियों, छोटे व्यापार में लगे व्यवसायियों को ऋण प्रदान करते हैं। इन बैंकों का उद्देश्य ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास करना है। ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि, लघु-उद्योगों, वाणिज्य, व्यापार तथा अन्य क्रियाओं के विकास में सहयोग करते हैं।

प्रश्न 24.
श्रम विभाजन व विनिमय पर आधारित अर्थव्यवस्था में किस प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है ?
उत्तर:
श्रम विभाजन एवं विनिमय पर आधारित अर्थव्यवस्था में लोग अभीष्ट वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि उन वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन करते हैं जिनके . उत्पादन में उन्हें कुशलता या विशिष्टता प्राप्त होती है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में लोग आवश्यकता से अधिक मात्रा में उत्पादन करते हैं और दूसरे लोगों के अतिरेक से विनिमय कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में स्व-उपभोग के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि विनिमय के लिए उत्पादन करते हैं।

प्रश्न 25.
कीमत नम्यता वस्तु बाजार में सन्तुलन कैसे बनाए रखती है ?
उत्तर:
कीमत नम्यता (लोचनशीलता) के कारण वस्तु व सेवा बाजार में सन्तुलन बना रहता है। यदि वस्तु की माँग, आपूर्ति से ज्यादा हो जाती है अर्थात् अतिरेक माँग की स्थिति पैदा हो जाती है तो वस्तु बाजार में कीमत का स्तर अधिक होने लगता है। कीमत के ऊँचे स्तर पर वस्तु की माँग घट जाती है तथा उत्पादक वस्तु आपूर्ति अधिक मात्रा में करते हैं। वस्तु की कीमत में वृद्धि उस समय तक जारी रहती है जब तक माँग व आपूर्ति सन्तुलन में नहीं आ जाती है। नीची कीमत पर उपभोक्ता अपेक्षाकृत वस्तु की माँग बढ़ाते हैं तथा उत्पादक आपूर्ति कम करते हैं। माँग व पूर्ति में परिवर्तन वस्तु की माँग बढ़ाते हैं तथा उत्पादक आपूर्ति सन्तुलन में नहीं आ पाती है।

प्रश्न 26.
वास्तविक मजदूरी का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
श्रमिक अपनी शारीरिक एवं मानसिक सेवाओं के प्रतिफल के रूप में कुल जितनी उपयोगिता प्राप्त कर सकते हैं उसे वास्तविक मजदूरी कहते हैं। दूसरे शब्दों में श्रमिक की अपनी आमदनी से वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने की क्षमता को वास्तविक मजदूरी कहते हैं। वास्तविक मजदूरी का निर्धारण श्रमिक की मौद्रिक मजदूरी एवं कीमत स्तर से होता है। वास्तविक मजदूरी एवं मौद्रिक मजदूरी में सीधा संबंध होता है अर्थात् ऊँची मौद्रिक मजदूरी दर पर वास्तविक मजदूरी अधिक होने की संभावना होती है। वास्तविक मजदूरी व कीमत स्तर में विपरीत संबंध होता है। कीमत स्तर अधिक होने पर मुद्रा की क्रय शक्ति कम हो जाती है अर्थात् वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने की क्षमता कम हो जाती है।

प्रश्न 27.
मजदूरी-कीमत नम्यता की अवधारणा समझाइए।
उत्तर:
मजदूरी-कीमत नम्यता का आशय है कि मजदूरी व कीमत में लचीलापन। वस्तु-श्रम की माँग व पूर्ति की शक्तियों में परिवर्तन होने पर मजदूरी दर व कीमत में स्वतंत्र रूप से परिवर्तन को मजदूरी-कीमत नम्यता कहा जाता है। श्रम बाजार में श्रम की माँग बढ़ने से मजदूरी दर बढ़ जाती है तथा श्रम की माँग कम होने से श्रम की मजदूरी दर कम हो जाती है। इसी प्रकार वस्तु बाजार में वस्तु की माँग बढ़ने पर वस्तु की कीमत बढ़ जाती है तथा इसके विपरीत माँग कम होने से कीमत घट जाती है। मजदूरी-कीमत नम्यता के कारण श्रम एवं वस्तु बाजार में सदैव सन्तुलन बना रहता है।

प्रश्न 28.
व्यष्टि स्तर एवं समष्टि स्तर उपयोग को प्रभावित करने वाले कारक बताइए।
उत्तर:
व्यष्टि स्तर पर उपभोग उन वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य के बराबर होता है जिन्हें विशिष्ट समय एवं विशिष्ट कीमत पर परिवार खरीदते हैं। व्यष्टि स्तर पर उपभोग वस्तु की कीमत, आय एवं संपत्ति, संभावित आय एवं परिवारों की रूचि अभिरूचियों पर निर्भर करता है।

समष्टि स्तर पर केन्ज ने मौलिक एवं मनोवैज्ञानिक नियम की रचना की है। केन्ज के अनुसार अर्थव्यवस्था में जैसे-जैसे राष्ट्रीय आय का स्तर बढ़ता है लोग अपना उपभोग बढ़ाते हैं परन्तु उपभोग में वृद्धि की दर राष्ट्रीय आय में वृद्धि की दर से कम होती है। आय के शून्य स्तर पर स्वायत्त उपभोग किया जाता है। स्वायत्त उपभोग से ऊपर प्रेरित निवेश उपभोग प्रवृति एवं राष्ट्रीय आय के स्तर से प्रभावित होता है।
C = \(\overline{\mathrm{C}}\)+ by
जहाँ C उपभोग, \(\overline{\mathrm{C}}\) स्वायत्त निवेश, b सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति, y राष्ट्रीय आय।

प्रश्न 29.
वितरण फलन को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
प्रत्येक सरकार की एक राजकोषीय नीति होती है। राजकोषीय नीति के माध्यम से प्रत्येक सरकार समाज में आय के वितरण में समानता या न्याय करने की कोशिश करती है। सरकार उच्च आय वर्ग या अधिक संपत्ति के स्वामियों पर उच्च कर लगाती है तथा कमजोर वर्ग को हस्तांतरण भुगतान प्रदान करती है। कर एवं हस्तांतरण भुगतान दोनों प्रयोज्य आय को प्रभावित करते हैं। इस प्रकार आय व संपति के वितरण को वितरण फलन कहते हैं।

प्रश्न 30.
निजी व सार्वजनिक वस्तुओं में भेद स्पष्ट करें।
उत्तर:
निजी एवं सार्वजनिक वस्तुओं में दो मुख्य अन्तर होते हैं जैसे-

  • निजी वस्तुओं का उपयोग व्यक्तिगत उपभोक्ता तक सीमित होता है लेकिन सार्वजनिक वस्तुओं का लाभ किसी विशिष्ट उपभोक्ता तक सीमित नहीं होता है, ये वस्तुएँ सभी उपभोक्ताओं को उपलब्ध होती है।
  • कोई भी उपभोक्ता जो भुगतान देना नहीं चाहता या भुगतान करने की शक्ति नहीं रखता निजी वस्तु के उपभोग से वंचित किया जा सकता है। लेकिन सार्वजनिक वस्तुओं के उपभोग से किसी को वंचित रखने का कोई तरीका नहीं होता है।

प्रश्न 31.
सार्वजनिक उत्पादन एवं सार्वजनिक बन्दोबस्त में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सार्वजनिक बन्दोबस्त (व्यवस्था) से अभिप्राय उन व्यवस्थाओं से है जिनका वित्तीयन सरकार बजट के माध्यम से करती है। ये सभी उपभोक्ताओं को बिना प्रत्यक्ष भुगतान किए मुफ्त में प्रयोग के लिए उपलब्ध होते हैं। सार्वजनिक व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन सरकार प्रत्यक्ष रूप से भी कर सकती है अथवा निजी क्षेत्र से खरीदकर भी इनकी व्यवस्था की जा सकती है।

सार्वजनिक उत्पादन से अभिप्राय उन वस्तुओं एवं सेवाओं से है जिनका उत्पादन स कार द्वारा संचालित एवं प्रतिबंधित होता है। इसमें निजी या विदेशी क्षेत्र की वस्तुओं को शामिल नहीं किया जाता है। इस प्रकार सार्वजनिक व्यवस्था की अवधारणा सार्वजनिक उत्पादन से भिन्न है।

प्रश्न 32.
राजकोषीय नीति के प्रयोग बताएँ।
उत्तर:
General Theory of Income, Employment, Interest and Money में जे० एम० कीन्स ने राजकोषीय नीति के निम्नलिखित प्रयोग बताएँ हैं-

  • इस नीति का प्रयोग उत्पादन- रोजगार स्थायित्व के लिए किया जा सकता है। व्यय एवं कर नीति में परिवर्तन के द्वारा सरकार उत्पादन एवं रोजगार में स्थायित्व पैदा कर सकती है।
  • बजट के माध्यम से सरकार आर्थिक उच्चावचनों को ठीक कर सकती है।

प्रश्न 33.
राजस्व बजट और पूँजी बजट का अन्तर क्या है ?
उत्तर:
राजस्व बजट : सरकार की राजस्व प्राप्तियों एवं राजस्व के विवरण को राजस्व बजट कहते हैं।

राजस्व प्राप्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-

  • कर राजस्व एवं
  • गैर कर राजस्व।

राजस्व व्यय सरकार की सामाजिक, आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के संचालन पर किए गए खर्चों का विवरण है।
राजस्व बजट में वे मदें आती हैं जो आवृत्ति किस्म की होती हैं और इन्हें चुकाना नहीं पड़ता है।
राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ

पूँजी बजट : सरकार की पूँजी प्राप्तियों एवं पूँजी व्यय के विवरण को पूँजी बजट कहते हैं। पूँजी प्राप्तियाँ दो प्रकार की होती है : (i) ऋण प्राप्तियाँ एवं (ii) गैर ऋण प्राप्तियाँ।
पूँजी व्यय सरकार की सामाजिक, आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के लिए पूँजी निर्माण पर किये गये व्यय को दर्शाता है।
पूँजी घाटा = पूँजीगत व्यय – पूँजीगत प्राप्तियाँ
पूँजीगत राजस्व सरकार के दायित्वों को बढ़ाता व पूँजीगत व्यय से परिसंपत्तियों का अर्जन होता है।

प्रश्न 34.
सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण करें।
उत्तर:
सार्वजनिक व्यय को तीन वर्गों में बाँटते हैं-
(i) राजस्व व्यय एवं पूँजीगत व्यय-राजस्व व्यय सरकार की सामाजिक आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के संचालन पर किया गया व्यय होता है। इस व्यय से परिसंपत्तियों का निर्माण नहीं होता है। पूँजीगत व्यय भूमि, यंत्र-संयत्र आदि पर किया गया निवेश होता है। इस व्यय से परिसंपत्तियों का निर्माण होता है।

(ii) योजना व्यय एवं गैर योजना व्यय-योजना व्यय में तात्कालिक विकास और निवेश मदें शामिल होती हैं। ये मदें योजना प्रस्तावों के द्वारा तय की जाती है। बाकी सभी खर्च गैर योजना व्यय होते हैं।

(iii) विकास व्यय तथा गैर विकास व्यय-विकास व्यय में रेलवे, डाक एवं दूरसंचार तथा गैर विभागीय उद्यमों के गैर बजटीय स्रोतों से योजना व्यय, सरकार द्वारा गैर विभागीय उद्यमों एवं स्थानीय निकायों को प्रदत ऋण भी शामिल किए जाते हैं।

गैर विकास व्यय में प्रतिरक्षा, आर्थिक अनुदान आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं।

प्रश्न 35.
खुली अर्थव्यवस्था के दो बुरे प्रभाव बताइए।
उत्तर:
खुली अर्थव्यवस्था के दो बुरे प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • अर्थव्यवस्था में जितना अधिक खुलापन होता है गुणक का मान उतना कम होता है।
  • अर्थव्यवस्था जितनी ज्यादा खुली होती है व्यापार शेष उतना ज्यादा घाटे वाला होता है।

खुली अर्थव्यवस्था में सरकारी व्यय में वृद्धि व्यापार शेष घाटे को जन्म देती है। खुली अर्थव्यवस्था में व्यय गुणक का प्रभाव उत्पाद व आय पर कम होता है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था का अधिक खुलापन अर्थव्यवस्था के लिए कम लाभप्रद या कम आकर्षक होता है।

प्रश्न 36.
विनिमय काल तथा दीर्घकाल में संबंध लिखें।
उत्तर:
समयावधि जितनी अधिक होती है उतने ही व्यापार प्रतिबन्ध जैसे प्रशुल्क, कोट, विनिमय दर आदि समयोजित हो जाती हैं। विभिन्न मुद्राओं में मापी जाने वाले उत्पाद की कीमत समान होनी चाहिए लेकिन लेन-देन का स्तर भिन्न-भिन्न हो सकता है। इसलिए लम्बी समयावधि में दो देशों के बीच विनिमय दर दो देशों में कीमत स्तरों के आधार पर समायोजित होती हैं। इस प्रकार देशों में विनिमय की दर दो देशों में कीमतों में अन्तर के आधार पर निर्धारित होती है।

प्रश्न 37.
विदेशी मुद्रा की पूर्ति को समझाइए।
उत्तर:
एक लेखा वर्ष की अवधि में एक देश को समस्त लेनदारियों के बदले जितनी मुद्रा प्राप्त होती है उसे विदेशी मुद्रा की पूर्ति कहते हैं।

विदेशी विनिमय की पूर्ति को निम्नलिखित बातें प्रभावित करती हैं-

  • निर्यात दृश्य व अदृश्य सभी मदें शामिल की जाती हैं।
  • विदेशों द्वारा उस देश में निवेश।
  • विदेशों से प्राप्त हस्तांतरण भुगतान।

विदेशी विनिमय की दर तथा आपूर्ति में सीधा संबंध होता है। ऊँची विनिमय दर पर विदेशी मुद्रा की अधिक आपूर्ति होती है।

प्रश्न 38.
चालू खाते व पूँजीगत खाते में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चालू खाते व पूँजीगत खाते में निम्नलिखित अंतर है-
चालू खाता:

  1. भुगतान शेष के चालू खाते में वस्तुओं व सेवाओं के निर्यात व आयात शामिल करते हैं।
  2. भुगातन शेष के चालू खाते के शेष का एक देश की आय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि किसी देश का चालू खाते का शेष उस देश के पक्ष में होता है तो उस देश की राष्ट्रीय आय बढ़ती है।

पूँजी खाता:

  1. भुगतान शेष के पूँजी खातों में विदेशी ऋणों का लेन-देन, ऋणों का भुगतान व प्राप्तियाँ, बैकिंग पूँजी प्रवाह आदि को दर्शाती है।
  2. भुगतान शेष का देश की राष्ट्रीय आय का प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता है ये केवल परिसम्पतियों की मात्रा को दर्शाते हैं।

प्रश्न 39.
भुगतान शेष की संरचना के पूँजी खाते को समझाएँ।
उत्तर:
पूँजी खातों में दीर्घकालीन पूँजी के लेन-देन को दर्शाया जाता है। इस खाते में निजी व सरकारी पूँजी लेन-देन, बैंकिंग पूँजी प्रवाह में अन्य वित्तीय विनिमय दर्शाए जाते हैं।

पूँजी खाते की मदें : इस खाते की प्रमुख मदें निम्नलिखित हैं-
(i) सरकारी पूँजी का विनिमय : इससे सरकार द्वारा विदेशों से लिए गए ऋण तथा विदेशों को दिए गए ऋणों के लेन-देन, ऋणों के भुगतान तथा ऋणों की स्थितियों के अलावा विदेशी मुद्रा भण्डार, केन्द्रीय बैंक के स्वर्ण भंडार विश्व मुद्रा कोष के लेन-देन आदि को दर्शाया जाता है।

(ii) बैंकिंग पूँजी : बैंकिंग पूँजी प्रवाह में वाणिज्य बैंकों तथा सहकारी बैंकों की विदेशी लेनदारियों एवं देनदारियों को दर्शाया जाता है। इसमें केन्द्रीय बैंक के पूँजी प्रवाह को शामिल नहीं करते हैं।

(iii) निजी ऋण : इसमें दीर्घकालीन निजी पूँजी में विदेशी निवेश ऋण, विदेशी जमा आदि को शामिल करते हैं। प्रत्यक्ष पूँजीगत वस्तुओं का आयात व निर्यात प्रत्यक्ष रूप से विदेशी निवेश में शामिल किया जाता है।

प्रश्न 40.
केन्द्रीय बैंक का अर्थ लिखिए।
उत्तर:
एक अर्थव्यवस्था में मौद्रिक प्रणाली की सर्वोच्च संस्था को केन्द्रीय बैंक कहते हैं। केन्द्रीय बैंक अर्थव्यवस्था के लिए मौद्रिक नीति बनाता है और उसका क्रियान्वयन करवाता है। यह ऋणदाताओं का अन्तिम आश्रयदाता होता है।

प्रश्न 41.
व्यापारिक बैंक का अर्थ लिखें।
उत्तर:
व्यापारिक बैंक से अभिप्राय उस बैंक से है जो लाभ कमाने के उद्देश्य से बैंकिंग कार्य करता है। व्यापारिक जमाएँ स्वीकार करते हैं तथा जनता को उधार देकर साख का सृजन करते हैं।

प्रश्न 42.
वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसकी क्या कमियाँ हैं ?
उत्तर:
वस्तु विनिमय वह प्रणाली होती है जिसमें वस्तुओं व सेवाओं का विनिमय एक-दूसरे के लिए किया जाता है उसे वस्तु विनिमय कहते हैं।

वस्तु विनिमय की निम्नलिखित कमियाँ हैं-

  • वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य मापन करने के लिए एक सामान्य इकाई का अभाव। इससे वस्तु विनिमय प्रणाली में लेखे की कोई सामान्य इकाई नहीं होती है।
  • दोहरे संयोग का अभाव- यह बड़ा ही विरला अवसर होगा जब एक वस्तु या सेवा के मालिक को दूसरी वस्तु या सेवा का ऐसा मालिक मिलेगा कि पहला मालिक जो देना चाहता है और बदले में लेना चाहता है दूसरा मालिक वही लेना व देना चाहता है।
  • स्थगित भुगतानों को निपटाने में कठिनाई- वस्तु विनिमय में भविष्य के निर्धारित सौदों का निपटारा करने में कठिनाई होती है। इसका मतलब है वस्तु के संबंध में, इसकी गुणवत्ता व मात्रा आदि के बारे में दोनों पक्षों में असहमति हो सकती है।
  • मूल्य में संग्रहण की कठिनाई- क्रय शक्ति के भण्डारण का कोई ठोस उपाय वस्तु विनिमय प्रणाली में नहीं होता है क्योंकि सभी वस्तुओं में समय के साथ घिसावट होती है तथा उनमें तरलता व हस्तांतरणीयता का गुण निम्न स्तर का होता है।

प्रश्न 43.
मुद्रा की सट्टा माँग और ब्याज की दर में विलोम संबंध क्यों होता है ?
उत्तर:
एक व्यक्ति भूमि, बाँड्स, मुद्रा आदि के रूप में धन को धारण कर सकता है। अर्थव्यवस्था में लेन-देन एवं सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग के योग मुद्रा की कुल माँग कहते हैं। सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग का ब्याज की दर के साथ उल्टा संबंध होता है। जब ब्याज की दर ऊँची होती है तब सटटा उद्देश्य के लिए मद्रा की माँग कम होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऊँची ब्याज पर सुरक्षित आय बढ़ने की आशा हो जाती है। परिणामस्वरूप लोग सट्टा उद्देश्य के लिए जमा की गई मुद्रा की निकासी करके उसे बाँड्स में परिवर्तित करने की इच्छा करने लगता है। इसके विपरीत जब ब्याज दर घटकर न्यूनतम स्तर पर पहुँच जाती है तो लोग सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग असीमित रूप से बढ़ा देते हैं।

प्रश्न 44.
तरलता पाश क्या है ?
उत्तर:
तरलता पाश वह स्थिति होती है जहाँ सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग पूर्णतया लोचदार हो जाती है। तरलता पाश की स्थिति में ब्याज दर बिना बढ़ाये या घटाये अतिरिक्त अन्तःक्षेपित मुद्रा का प्रयोग कर लिया जाता है।

Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें।
उत्तर:
व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल के प्रतिपादक सिगमंड फ्रायड हैं। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम् या इड (id), अहं (ego) और पराहम (super ego)। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए. व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है।

इड-यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सा-सिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इंड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।

अहं-इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्रायः इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता है कि दुकानदार से पूछे बिना यदि आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दण्ड का भागी हो सकता है।

वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग अवास्तविक और सुखेप्सा सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम्-पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम् इड और अहं को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है। उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन मन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जा से निर्मित हुआ है। इड, अहं और पराहम की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की स्थिरता का निर्धारण करती है।

प्रश्न 2.
टाइप-ए तथा टाइप-बी प्रकार के व्यक्तित्व में अंतर करें।
उत्तर:
हाल के वर्षों में फ्रीडमैन एवं रोजेनमैन ने टाइप ‘ए’ तथा टाइप ‘बी’ इन दो प्रकार के व्यक्तित्वों में लोगों का वर्गीकरण किया है। इन दोनों शोधकर्ताओं ने मनोसामाजिक जोखिम वाले कारकों का अध्ययन करते हुए उन प्रारूप की खोज की। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग में उच्च स्तरीय अभिप्रेरणा, धैर्य की कमी, समय की कमी का अनुभव, उतावलापन और कार्य के बोझ से हमेशा लदे रहने का अनुभव करना पाया जाता है। ऐसे लोग निश्चिंत होकर मंद गति से कार्य करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व वाले लोग अतिरिक्त दान और कॉरेनरी हृदय रोग के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं। इस प्रकार के लोगों में कभी-कभी सी. एच. डी. विकसित होने का खतरा, उच्च रक्त दाब, उच्च कोलेस्ट्रॉल स्तर और धूम्रपान से उत्पन्न होनेवाले खतरों की अपेक्षा अधिक होती है। उसके विपरीत टाइप ‘बी’ व्यक्तित्व को टाइप ‘ए’ व्यक्तित्व की विशेषताओं के अभाव के रूप में जाना जाता है।

प्रश्न 3.
निर्धनता को दूर करने के उपायों का सुझाव दें। अथवा, गरीबी के उन्मूलन के लिए एक योजना बनाइए।
उत्तर:
निर्धनता को दूर करने के उपाय निम्नलिखित हैं-
1. कृषि तथा उद्योग में अधिक-से-अधिक रोजगार उत्पन्न करना- यदि देश के उद्योगधन्धे तथा कृषि पर अधिक बल दिया जाता है तो अधिक रोजगार के साधन उपलब्ध होने से बेरोजगारी समाप्त होगी, व्यक्तियों की आय बढ़ेगी और निर्धनता पर नियंत्रण होगा। इसके लिए सरकार को सकारात्मक उपाय करने चाहिए।

2. जनसंख्या नियंत्रण-निर्धनता कम करने के लिए जनसंख्या पर नियंत्रण करना आवश्यक है। जनसंख्या वृद्धि से विकास का परिणाम लुप्त हो जाता है तथा निर्धनता बढ़ती है। अतः जनसंख्या को नियंत्रित करने से विकासात्मक उपायों से आय बढ़ेगी।

3. काले धन को समाप्त करना- काला धन चोरी करके छुपाई गई आय है जिस पर कर अदा नहीं किया जाता है। यह धन भ्रष्ट कार्यों में लगाया जाता है। इससे आर्थिक शोषण बढ़ता है तथा निर्धनता बढ़ती है। अतः निर्धनता को कम करने के लिए काले धन को बाहर निकाला जाना चाहिए।

4. वितरणात्मक न्याय-विकास को प्राप्त होने वाले लाभ का यथोचित वितरण होना चाहिए। विकास के लाभ निर्धनों तक पहुँचना चाहिए। धनी व्यक्तियों पर कर (tax) का भार डालकर निर्धनों पर खर्च किया जाना चाहिए।

5. योजना का विकेन्द्रीकरण तथा कार्यान्वन-सरकार द्वारा गरीबों की भलाई के लिए चलाई गई योजनाओं का विकेन्द्रीकरण नहीं होगा तब तक ग्राम पंचायतों द्वारा निर्धन व्यक्ति की पहचान नहीं हो सकेगी तथा इन योजनाओं का लाभ गरीबों तक नहीं पहुँचेगा।

6. मनुष्य भूमि स्वामित्व-भू-स्वामी अपनी जमीन को जोतने के लिए गरीबों को देकर उपज का पर्याप्त भाग अपने पास रख लेते हैं। अतः जो जमीन को जोते स्वामित्व उसी का होने से यह शोषण नहीं हो पाएगा।

7. विभिन्न उपाय-ऋणदायी संस्थाओं में कम दरों पर ऋण देना, पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करना, युवकों को रोजगार करने योग्य बनाना, आदि उपाय भी सहायक हैं।

प्रश्न 4.
मनोगत्यात्मक चिकित्सा क्या है? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोगत्यात्मक चिकित्सा का प्रतिपादन सिगमंड फ्रायड द्वारा किया गया। मनोगत्यात्मक चिकित्सा ने मानस की संरचना, मानस के विभिन्न घटकों के मध्य गतिकी और मनोवैज्ञानिक कष्ट के स्रोतों का संप्रत्ययीकरण किया है। यह उपागम अत: मनोद्वंद्व का मनोवैज्ञानिक विकारों का मुख्य कारण समझता है। अतः, उपचार में पहला चरण उसी अन्त:द्वन्द्व को बाहर निकालना है। मनोविश्लेषण ने अंत:द्वंद्व को बाहर निकालने के लिए दो महत्त्वपूर्ण विधियों मुक्त साहचर्य विधि तथा स्वप्न व्याख्या विधि का आविष्कार किया। मुक्त साहचर्य विधि सेवार्थी की समस्याओं को समझने की प्रमुख विधि है। सेवार्थी को एक विचार को दूसरे विचार से मुक्त रूप से संबद्ध करने के प्रोत्साहित किया जाता है और उस विधि को मुक्त साहचर्य विधि कहते हैं। जब सेवार्थी एक आरामदायक और विश्वसनीय वातावरण में मन में जो कुछ भी आए बोलता है तब नियंत्रक पराहम तथा सतर्क अहं को प्रसप्तावस्था में रखा जाता है। चूँकि चिकित्सक बीच में हस्तक्षेप नहीं करता इसलिए विचारों का मुक्त प्रवाह, अचेतन मन की इच्छाएँ और द्वंद्व जो अहं द्वारा दमित किए जाते रहे हों वे सचेतन मन में प्रकट होने लगते हैं।

उपचार की प्रावस्था :
अन्यारोपण (transference) तथा व्याख्या या निर्वचन (interpretation) रोगी का उपचार करने के उपाय हैं। जैसे ही अचेतन शक्तियाँ उपरोक्त मुक्त साहचर्य एवं स्वप्न व्याख्या विधियों द्वारा सचेतन जगत में लाई जाती है, सेवार्थी चिकित्सा की अपने अतीत सामान्यतः बाल्यावस्था के आप्त व्यक्तियों के रूप में पहचान करने लगता है। चिकित्सक एक अनिर्णयात्मक तथापि अनुज्ञापक अभिवृत्ति बनाए रखता है और सेवार्थी को सांवेगिक पहचान स्थापित करने की उस प्रक्रिया को जारी रखने का अनुमति देता है।

यही अन्यारोपण की प्रक्रिया है। चिकित्सक उस प्रक्रिया को प्रोत्साहन देता है क्योंकि उससे उसे सेवार्थी के अचेतन द्वंद्वों को समझने में मदद मिलती है सेवार्थी अपनी कुंठा, क्रोध, भय और अवसाद जो उसने अपने अतीत में उस व्यक्ति के प्रति अपने मन में रखी थी लेकिन उस समय उनकी अभिव्यक्ति नहीं कर पाया था को चिकित्सक के प्रति व्यक्त करने लगता है उस अवस्था को अन्यारोपण कहते हैं। सकारात्मक अन्यारोपण में सेवार्थी चिकित्सक की पजा करने लगता है या उससे प्रेम करने लगना है कि चिकित्सक का अनुमोदन चाहता है। नकारात्मक अन्यारोपण तब प्रदर्शित होता है जब सेवार्थी में चिकित्सक के प्रति शत्रुता, क्रोध अप्रसन्ता की भावना होती है। अन्यारोपण प्रक्रिया में प्रतिरोध भी होता है।

निर्वचन मूल युक्ति है जिसमें परिवर्तन को प्रभावित किया जाता है। प्रतिरोध एवं स्पष्टीकरण निर्वचन की दो विश्लेषणात्मक तकनीक है। प्रतिरोध में चिकित्सक सेवार्थी के किसी एक मानसिक पथ की ओर संकेत करता है जिसका सामना सेवार्थी को अवश्य करना चाहिए। स्पष्टीकरण एक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से चिकित्सक किसी अस्पष्ट या भ्रामक घटना को केन्द्र बिन्दु में लाता है। यह घटना के महत्त्वपूर्ण विस्तृत वर्णन को महत्त्वहीन वर्णन से अलग करके तथा विशिष्टता प्रदान करके किया जाता है। निर्वचन एक अधिक सूक्ष्म प्रक्रिया है। प्रतिरोध, स्पष्टीकरण तथा निर्वचन को प्रयुक्त करने की पुनरावृत्ति प्रक्रिया को समाकलन कार्य कहा जाता है। समाकलन कार्य रोगी को अपने आपको और अपनी समस्याओं के स्रोत को समझने में तथा बाहर आई सामग्री को अपने अहं में समाकलित करने में सहायता करता है।

प्रश्न 4.
पूर्वधारणा को दूर करने की किन्हीं तीन विधियों का वर्णन करें।
उत्तर:
पूर्व धारणा को दूर करने की तीन विधियाँ निम्नलिखित हैं
1. शिक्षा एवं सूचना के प्रसार के द्वारा विशिष्ट लक्षण समूह से संबद्ध रूढ़ धारणाओं को संशोधित करना एवं प्रबल अंतःसमूह अभिन्न की समस्या से निपटना।
2. अंत:समूह संपर्क को बढ़ाना प्रत्यय सम्प्रेषण समूहों के मध्य अविश्वास को दूर करने तथा बाह्य समूह के सकारात्मक गुणों की खोज करने का अवसर प्रदान करता है। ये युक्ति तभी सफल होती है जब

  • दो समूह प्रतियोगी संदर्भ के स्थान पर एक सहयोगी संदर्भ में मिलते हैं। .
  • समूह के मध्य घनिष्ठ अन्तःक्रिया एक दूसरे को समझने या जानने में सहायता करती है।
  • दोनों समूह शक्ति या प्रतिष्ठा में भिन्न नहीं होते हैं।

3. समूह अनन्यता की जगह व्यक्तिगत अनन्यता को विशिष्टता प्रदान करना अर्थात् दूसरे व्यक्ति के मूल्यांकन के आधार के रूप में समूह के महत्त्व को बलहीन करना।
अतः पूर्वाग्रह नियंत्रण की युक्तियाँ तब अधिक प्रभावी होंगी जब उनका प्रयास होगा-

  • पूर्वाग्रहों के अधिगमन के अवसरों को कम करना।
  • ऐसी अभिवृत्तियों को परिवर्तित करना।
  • अन्त:समूह पर आधारित संकुचित सामाजिक अनन्यता के महत्त्व को कम करना तथा
  • पूर्वाग्रह वे शिकार लोगों में स्वतः साधक भविष्योक्ति की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना।

प्रश्न 5.
साक्षात्कार कौशल क्या है ? इसके चरणों का वर्णन करें।
अथवा, साक्षात्कार कार्य कौशल क्या है? साक्षात्कार प्रारूप के विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
साक्षात्कार में साक्षात्कारकर्ता को विभिन्न चरणों से होकर गुजरना पड़ता है, जिसका विवरण निम्नलिखित है
(i) प्रारंभिक अवस्था-यह साक्षात्कार की सबसे पहली अवस्था है। वास्तव में साक्षात्कार की सफलता उसकी प्रारंभिक तैयारी पर ही निर्भर होती है। यदि इस अवस्था में गलतियाँ होगी तो साक्षात्कार का सफल होना संभव नहीं है।

(ii) प्रश्नोत्तर की अवस्था-साक्षात्कार की यह सबसे लंबी अवस्था है। इस अवस्था में साक्षाकारकर्ता साक्षात्कारदाता से प्रश्न पूछता है और साक्षात्कारदाता उसके प्रश्नों को सावधानीपूर्वक सुनता है और कुछ रूककर उसे समझता है, उसके बाद उत्तर देता है। उसके उत्तर देते समय साक्षात्कारकर्ता उसके हाव-भाव, मुखाकृति का भी अध्ययन करता है।

(iii) समापन की अवस्था- साक्षात्कार का यह सबसे अंतिम चरण है। जब साक्षात्कारकर्ता को सारे प्रश्नों का उत्तर मिल जाय और ऐसा अनुभव हो कि उसे महत्त्वपूर्ण बातों की जानकारी प्राप्त हो चुकी है तो साक्षात्कार का समापन किया जाता है। इस अवस्था में साक्षात्कारदाता के मन में बननेवाली प्रतिकूल अवधारणा का निराकरण करना चाहिए। साक्षात्कारदाता भी जब यह कहता है कि और कुछ पूछना है तो उसे प्रसन्नतापूर्वक समापन की सूचना देनी चाहिए तथा सफल साक्षात्कार के लिए उसे धन्यवाद भी देना चाहिए।

प्रश्न 6.
मानव व्यवहार पर पर्यावरणीय प्रभावों का वर्णन करें।
अथवा, “मानव पर्यावरण को प्रभावित करते हैं तथा उससे प्रभावित होते हैं।” इस कथन की व्याख्या उदाहरणों की सहायता से कीजिए।
उत्तर:
पर्यावरण पर मानव प्रभाव-मनुष्य भी अपनी शारीरिरक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। निर्मित पर्यावरण के सारे उदाहरण पर्यावरण के ऊपर मानव प्रभाव को अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये, मानव ने जिसे हम ‘घर’ कहते हैं, उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जिससे कि उन्हें एक आश्रय मिल सके। मनुष्यों के इस प्रकार के कुछ कार्य पर्यावरण को क्षति भी पहुँचा सकते हैं और अंततः स्वयं उन्हें भी अनेकानेक प्रकार से क्षति पहुँचा सकते हैं।

उदाहरण के लिए, मनुष्य उपकरणों का उपयोग करते हैं, जैसे-रेफ्रीरजेटर तथा वातानुकूलन यंत्र जो रासायनिक द्रव्य (जैसे-सी.एफ.सी. या क्लोरो-फ्लोरो कार्बन) उत्पादित करते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा अंततः ऐसे शारीरिक रोगों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं, जैसे कैंसर के कुछ प्रकार। धूम्रपान के द्वारा हमारे आस-पास की वायु प्रदूषित होती है तथा प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है।

वृक्षों के कटान या निर्वनीकरण के द्वारा कार्बन चक्र एवं जल चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है। इससे अंततः उस क्षेत्र विशेष में वर्षा के स्वरूप पर प्रभाव पड़ सकता है और भू-क्षरण तथा मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो सकती है। वे उद्योग जो निस्सारी का बहिर्वाह करते हैं तथा इस असंसाधित गंदे पानी को नदियों में प्रवाहित करते हैं, इस प्रदूषण के भयावह भौतिक (शारीरिक) तथा मनोवैज्ञानिक परिणामों से तनिक चिंतित प्रतीत नहीं होते हैं।

मानव व्यवहार पर पर्यावरणी प्रभाव :
(i) प्रत्यक्षण पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण के कुछ पक्ष मानव प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, अफ्रीका की एक जनजाति समाज गोल कुटियों (झोपड़ियों) में रहती है अर्थात् ऐसे घरों में जिनमें कोणीय दीवारें नहीं हैं। वे ज्यामितिक भ्रम (मूलर-लायर भ्रम) में कम त्रुटि प्रदर्शित करते हैं, उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो नगरों में रहते हैं और जिनके मकानों में कोणीय दीवारें होती हैं।

(ii) संवेगों पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण का प्रभाव हमारी सांवेगिक प्रतिक्रियाओं पर भी पड़ता है। प्रकृति के प्रत्येक रूप का दर्शन चाहे वह शांत नदी का प्रवाह हो, एक मुस्कुसता हुआ फूल । हो, या एक शांत पर्वत की चोटी हो, मन को एक ऐसी प्रसन्नता से भर देता है जिसकी तुलना किसी अन्य अनुभव से नहीं की जा सकती। प्राकृतिक विपदाएँ, जैसे-बाढ़, या सूखा, भू-स्खलन, भूकंप चाहे पृथ्वी के ऊपर हो या समुद्र के नीचे हो, वह व्यक्ति के संवेगों पर इस सीमा तक प्रभाव डाल सकता है कि वे गहन अवसाद और दुःख तथा पूर्ण असहायता की भावना और अपने जीवन पर नियंत्रण के अभाव का अनुभव करते हैं। मानव संवेगों पर ऐसा प्रभाव एक अभिघातज अनुभव है जो व्यक्तियों के जीवन को सदा के लिये परिवर्तित कर देता है तथा घटना के बीत जाने के बहुत समय बाद तक भी अभिघातज उत्तर दबाव विकार (Post-traumatic stress disorder-PTdS) के रूप में बना रहता है। .

(iii) व्यवसाय, जीवन-शैली तथा अभिवृतियों पर पारिस्थितिक का प्रभाव-किसी क्षेत्र का प्राकृतिक पर्यावरण या निर्धारित करता है कि उस क्षेत्र के निवासी कृषि पर (जैसे-मैदानों में) या अन्य व्यवसायों, जैसे-शिकार तथा संग्रहण पर (जैसे-वनों, पहाड़ों या रेगिस्तानी क्षेत्रों में) या उद्योगों पर (जैसे-उन क्षेत्रों में जो कृषि के लिए उपजाऊ नहीं हैं) निर्भर रहते हैं परन्तु किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के व्यवसाय भी उनकी जीवन-शैली और अभिवृत्तियों का निर्धारण करते हैं।

प्रश्न 7.
मनोविदलता के लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोविदलता (Schizopherenia) को पहले dementia praecox के नाम से जाता था। Dementia praecox शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग क्रेपलिन ने किया था, जिसका तात्पर्य मनोविचछन्नता होता है। Schizophrenia शब्द का सर्वप्रथम ब्ल्यू मर (Bleumer) ने 1911 ई. में किया था। उन्होंने कहा है कि इस रोग में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विभाजन हो जाता है। बाद में इस अर्थ को भी छोड़ दिया गया। आधुनिक युग में इस संबंध में अनेक अनुसंधान किए जा रहे हैं तथा इसकी परिभाषा देते हुए जे. सी. कोलमैन (J.C. Coleman) ने कहा है, “मनोविद्गलता वह विवरणात्मक पद है जिसमें मनोविकृति से संबंधित कई विकारों का बोध होता है। इसमें बड़े पैमाने पर वास्तविकता तोड़-मरोड़कर दिखायी देती है। रोगी सामाजिक अन्तः क्रियाओं से पलायन करता है। व्यक्ति का प्रत्यक्षीकरण, विचार और संवेग, अपूर्ण और विघटित रूप में होते हैं।”

लक्षण (Symptoms)-मनोविदलता के रोगियों में बहुत प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक लक्षण देखे जाते हैं, जिनमें कुछ मुख्य लक्षण निम्नलिखित हैं-
1. संवगात्मक उदासीनता-मनोविदलता की रोगी संवेगात्मक रूप से उदासीन रहता है, अर्थात् रोगी emotional apathy में पाया जाता है। फिशर (Fisher) ने emotional apathy को मनोविदलता का Most Common Symptom स्वीकार किया है। रोगी बाह्य वातावरण के प्रति कोई प्रतिक्रिया नहीं करता है। यहाँ तक कि यदि उसके परिवार में किसी व्यक्ति की मौत हो जाय, तो भी उसे किसी प्रकार का दुःख की अनुभूति नहीं होती। प्रश्न पूछे जाने पर वह संक्षिप्त उत्तर देता है। कभी-कभी दो विरोधी संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ एक साथ देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए उसमें रोने और हँसने की क्रिया एक साथ देखी जा सकती है। रोगी अपने शारीरिक . अवस्थाओं के प्रति काफी उदासीन होता है। उसे खाने-पीने की कोई परवाह नहीं रहती। मैकडूगला ने भी emotional apathy को इस मानसिक रोग का एक प्रमुख लक्षण माना है।

2. मानसिक हास-मनोविदलता के सभी रोगियों में मानसिक ह्रास के लक्षण देखे जाते हैं। कहने का तापत्पर्य यह है कि उसकी मानसिक क्रियाएँ विभिन्न दोषों से युक्त रहती हैं। उसका चिन्तनपूर्ण रूप से अव्यवस्थित रहता है। इसकी स्मृति बहुत कमजोर होती है। अपनी परिस्थितियों को सुलझाने में असमर्थ रहते हैं और यहाँ तक कि अपना नाम, पता आदि को भी नहीं बदल पाते। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि इसके रोगी का I. Q. सामान्य से बहुत कम होता है।

3. विभ्रम-मनोविदलता के रोगी का प्रधान लक्षण विभ्रम है। इससे ग्रस्त रोगियों में अनेक प्रकार के विभ्रम देखे जाते हैं, फिर उनमें संरक्षण की प्रधानता रहती है। मनोविदलता का रोगी ऐसा अनुभव करता है कि उसे भगवान या किसी काल्पनिक व्यक्ति की आवाज सुनाई पड़ रही है। कभी-कभी वह भगवान की आवाज को सुनता है और चिल्लाता है। रोगी वह भी समझता है कि सभी लोग उसके दुश्मन हैं और जहर देकर मारना चाहते हैं। खाने में उसे कोई स्वाद नहीं मिलता और वह आस-पास की दुर्गन्ध से सशक्ति रहता है। इस प्रकार के रोगी विभिन्न प्रकार के विभ्रमों का शिकार बन जाता है। .

4. व्यामोह-मनोविदलता के रोगियों में व्यामोह (dilusions) के लक्षण भी देखे जाते हैं। रोगी यह अनुभव करता है कि लोग उसे जान से मारने का षड्यंत्र कर रहे हैं। चिकित्सक को भी वह दुश्मन समझता है। दवा को जहर समझकर पीने से इनकार करता है। डॉ पेज ने मनोविदलता के रोगियों के व्यामोह की तुलना सामान्य व्यक्ति के स्वप्न से की है। जिस प्रकार स्वप्न की स्थिति में दृश्य को हम देखते हैं, वे शून्य प्रतीत होते हैं, ठीक उसी प्रकार इस रोग से पीड़ित रोगी अपने dilusions को शून्य स्वीकार कर लेता है।

5. भाषा-दोष-रोगी में बोलने की गड़बड़ी के लक्षण भी देखे जाते हैं। उनके वाक्य निरर्थक एवं लम्बे होते हैं। कभी-कभी कोई शब्दों को मिलाकर एक नए वाक्य का निर्माण कर लेते हैं। कभी रोगी इतनी तेज रफ्तार से बोलता है, जिसे दूसरे लोग सुन नहीं पाते हैं। इसी प्रकार रोगी में विचित्र लेखन के लक्षण देखे जाते हैं। उसकी लेखशैली दोषपूर्ण होती है। लिखने के सिलसिले में वे symbols, lines, drawing and words को एक ही साथ मिला देते हैं। व्याकरण के नियमों का वे कभी पालन नहीं करते हैं।

6. शारीरिक क्षमता का हास-मनोविदलता के रोगी शारीरिक रूप से कमजोर होते हैं। शरीर में मेहनत करने की क्षमता नहीं होती। वह हमेशा नींद की कमी महसूस करता है। इस प्रकार schizophrernia के रोगी में अनेक प्रकार के मानसिक और शारीरिक दोष पाये जाते हैं।

प्रश्न 8.
व्यक्तित्व विकास की अवस्थाओं का वर्णन करें। अथवा, फ्रायड ने किस तरह से व्यक्तित्व विकास की व्याख्या की है?
अथवा, फ्रायड द्वारा प्रस्तावित व्यक्तित्व-विकास की पंच अवस्था सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
फ्रायड ने व्यक्तित्व-विकास का एक पंच अवस्था सिद्धांत प्रस्तावित किया जिसे मनोलैंगिक विकास के नाम से भी जाना जाता है। विकास की उन पाँच अवस्थाओं में से किसी भी अवस्था पर समस्याओं के आने से विकास बाधित हो जाता है और जिसका मनुष्य

के जीवन पर दीर्घकालिक प्रभाव हो सकता है। फ्रायड द्वारा प्रस्तावित पंच अवस्था सिद्धांत निम्नलिखित है-
(i) मौखिक अवस्था-एक नवजात शिशु की मूल प्रवृत्तियाँ मुख पर केंद्रित होती हैं। यह शिशु का प्राथमिक सुख प्राप्ति का केंद्र होता है। यह मुख ही होता है जिसके माध्यम से शिशु भोजन ग्रहण करता है और अपनी भूख को शांत करता है। शिशु मौखिक संतुष्टि भोजन ग्रहण, अँगूठा चूसने, काटने और बलबलाने के माध्यम से प्राप्त करता है। जन्म के बाद आरंभिक कुछ महीनों की अवधि में शिशुओं में अपने चतुर्दिक जगत के बारे में आधारभूत अनुभव और भावनाएँ विकसित हो जाती हैं। फ्रायड के अनुसार एक वयस्क जिसके लिए यह संसार कटु अनुभवों से परिपूर्ण हैं, संभवत: मौखिक अवस्था का उसका विकास कठिनाई से हुआ करता है।

(ii) गुदीय अवस्था-ऐसा पाया गया है कि दो-तीन वर्ष की आयु में बच्चा समाज की कुछ मांगों के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है। इनमें से एक प्रमुख माँग माता-पिता की यह होती है कि बालक मूत्रत्याग एवं मलत्याग जैसे शारीरिक प्रकार्यों को सीखे। अधिकांश बच्चे एक आयु में इन क्रियाओं को करने में आनंद का अनुभव करते हैं। शरीर का गुदीय क्षेत्र कुछ सुखदायक भावनाओं का केंद्र हो जाता है। इस अवस्था में इड और अहं के बीच द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। साथ ही शैशवावस्था की सुख की इच्छा एवं वयस्क रूप में नियंत्रित व्यवहार की मांग के बीच भी द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है।

(iii) लैंगिक अवस्था-यह अवस्था जननांगों पर बल देती है। चार-पाँच वर्ष की आय में बच्चे पुरुषों एवं महिलाओं के बीच का भेद अनुभव करने लगते हैं। बच्चे कामुकता के प्रति एवं अपने माता-पिता के बीच काम संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इसी अवस्था में बालक इडिपस मनोग्रंथि का अनुभव करता है जिसमें अपनी माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति आक्रामकता सन्निहित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप पिता द्वारा दंडित या शिश्नलोप किए जाने का भय भी बालक में कार्य करता है। इस अवस्था की एक प्रमुख विकासात्मक उपलब्धि यह है कि बालक अपनी इस मनोग्रंथि का समाधान कर लेता है। वह ऐसा अपनी माता के प्रति पिता के संबंधों को स्वीकार करके उसी तरह का व्यवहार करता है।

बलिकाओं में यह इडिपस ग्रंथि थोड़े भिन्न रूप में घटित होती है। बालिकाओं में इसे इलेक्ट्रा मनोग्रंथि कहते हैं। इसे मनोग्रंथि में बालिका अपने पिता को प्रेम करती है और प्रतीकात्मक रूप से उससे विवाह करना चाहती है। जब उसको यह अनुभव होता है कि संभव नहीं है तो वह अपनी माता का अनुकरण कर उसके व्यवहारों को अपनाती है। ऐसा वह अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिए करती है। उपर्युक्त दोनों मनोग्रंथियों के समाधान में क्रांतिक घटक समान लिंग के माता-पिता के साथ तदात्मीकरण स्थापित करना है। दूसरे शब्दों में, बालक अपनी माता के प्रतिद्वंद्वी की बजाय भूमिका-प्रतिरूप मानने लगते हैं। बालिकाएँ अपने पिता के प्रति लैंगिक इच्छाओं का त्याग कर देती हैं और अपनी माता से तादात्मय स्थापित करती है।

(iv) कामप्रसुप्ति अवस्था-यह अवस्था सात वर्ष की आयु से आरंभ होकर यौवनारंभ तक बनी रहती है। इस अवधि में बालक का विकास शारीरिक दृष्टि से होता रहता है। किन्तु उसकी कामेच्छाएँ सापेक्ष रूप से निष्क्रिय होती हैं। बालक की अधिकांश ऊर्जा सामाजिक अथवा उपलब्धि- संबंधी क्रियाओं में व्यय होती है।

(v) जननांगीय अवस्था-इस अवस्था में व्यक्ति मनोलैंगिक विकास में परिपक्वता प्राप्त करता है। पूर्व की अवस्थाओं की कामेच्छाएँ, भय और दमित भावनाएँ पुनः अभिव्यक्त होने लगती हैं। लोग इस अवस्था में विपरीत लिंग के सदस्यों से परिपक्व तरीके से सामाजिक और काम संबंधी आचरण करना सीख लेते हैं। यदि इस अवस्था की विकास यात्रा में व्यक्ति को अत्यधिक दबाव अथवा अत्यासक्ति का अनुभव होता है तो इसके कारण विकास की किसी आरंभिक अवस्था पर उसका स्थिरण हो सकता है।

प्रश्न 9.
अभिवृत्ति से आप क्या समझते हैं? अभिवृत्ति परीक्षण के प्रमुख प्रकारों का वर्णन करें। अथवा, अभिवृत्ति की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
अभिवृत्ति मन की एक अवस्था है। किसी विषय के संबंध में विचारों का एक पुंज है जिसमें एक मूल्यांकनपरक विशेषता पाई जाती है अभिवृत्ति कहलाती है।
अभिवृत्ति की चार प्रमुख विशेषताएँ हैं-कर्षण शक्ति, चरम सीमा, सरलता या जटिलता तथा केन्द्रिकता।
(i) कर्षण शक्ति (सकारात्मक या नकारात्मक)-अभिवृत्ति की कर्षण शक्ति हमें यह बताती है कि अभिवृत्ति विषय के प्रति कोई अभिवृत्ति सकारात्मक है अथवा नकारात्मक। उदाहरण के लिए यदि किसी अभिवृत्ति (जैसे-नाभिकीय शोध के प्रति अभिवृत्ति) को 5 बिन्दु मापनी व्यक्त करता है जिसका प्रसार 1. बहुत खराब, 2. खराब 3. तटस्थ न खराब न अच्छा 4. अच्छा से 5. बहुत अच्छा तक है। यदि कोई व्यक्ति नाभिकीय शोध के प्रति अपने दृष्टिकोण या मत का आकलन इस मापनी या 4 या 5 करता है तो स्पष्ट रूप से यह एक सकारात्मक अभिवृत्ति है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति नाभिकीय शोध के विचार को पसंद करता है तथा सोचता है कि यह कोई अच्छी चीज है। दूसरी ओर यदि आकलित मूल्य 1 या 2 है तो अभिवृत्ति नकारात्मक है। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति नाभिकीय शोध के विचार को नापसंद करता है एवं सोचता है कि यह कोई खराब चीज है। हम तटस्थ अभिवृत्तियों को भी स्थान देते हैं। यदि इस उदाहरण में नाभिकीय शोध के प्रति तटस्थ अभिवृत्ति इस मापनी पर अंक 3 के द्वारा प्रदर्शित की जाएगी तब एक तटस्थ अभिवृत्ति में कर्षण शक्ति न तो सकारात्मक होगी न ही नकारात्मक।

(ii) चरम सीमा-एक अभिवृत्ति को चरम-सीमा यह इंगित करती है कि अभिवृत्ति किस सीमा तक सकारात्मक या नकारात्मक है। नाभिकीय शोध के उपयुक्त उदाहरण में मापनी मूल्य ‘1’ उसी चरम सीमा का है जितना ‘5’। बस अंतर इतना है कि दोनों ही विपरीत दिशा में है। तटस्थ अभिवृत्ति नि:संदेह न्यूनतप तीव्रता की है।

(ii) सरलता या जटिलता (बहविधता)- इस विशेषता से तात्पर्य है कि एक व्यापक अभिवृत्ति के अंतर्गत कितनी अभिवृत्तियाँ होती हैं। उस अभिवृत्ति को एक परिवार के रूप में समझना चाहिए जिसमें अनेक ‘सदस्य’ अभिवृत्तियाँ हैं। बहुत-से विषयों (जैसे स्वास्थ्य एवं विश्व शांति) के संबंध में लोग एक अभिवृत्ति के स्थान या अनेक अभिवृत्तियाँ रखते हैं। जब अभिवृत्ति तंत्र में एक या बहुत थोड़ी-सी अभिवृत्तियाँ हों तो उसे ‘सरल’ कहा जाता है और जब वह अनेक अभिवृत्तियों के पाए जाने की संभावना है, जैसे व्यक्ति की शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य का संप्रत्यय, प्रसन्नता एवं कुशल-क्षेम के प्रति उसका दृष्टिकोण एवं व्यक्ति स्वास्थ्य एवं प्रसन्नता कैसे प्राप्त कर सकता है, इस संबंध में उसका विश्वास एवं मान्यताएँ आवश्यक हैं।

इसके विपरीत, किसी व्यक्ति विशेष के प्रति अभिवृत्ति में मुख्य रूप में एक अभिवृत्ति के पाये जाने की संभावना है। एक अभिवृत्ति तंत्र के घटकों के रूप में नहीं देखना चाहिए। एक अभिवृत्ति तंत्र के प्रत्येक सदस्य अभिवृत्ति में भी संभाव्य या ए. बी. सी. घटक होता है।

(iv) केन्द्रीकता-यह अभिवृत्ति तंत्र में किसी विशिष्ट अभिवृत्ति की भूमिका को बताता है। गैर-केन्द्रीय या परिधीय अभिवृत्तियों की तुलना में अधिक केन्द्रीकता वाली कोई अभिवृत्ति, अभिवृत्ति तंत्र की अन्य अभिवृत्तियों को अधिक प्रभावित करेगी। उदाहरण के लिए विश्वशांति के प्रति अभिवृत्ति में सैनिक व्यय के प्रति एक नकारात्मक अभिवृत्ति, एक प्रधान या केन्द्रीय अभिवृत्ति के रूप में ही हो सकती है तो बहु-अभिवृत्ति तंत्र की अन्य अभिवृत्तियों को प्रभावित कर सकती है।

प्रश्न 10.
विभिन्न प्रकार के मनोचिकित्सा का वर्णन करें।
उत्तर:
चिकित्सा या मनोचिकित्सा का अर्थ मनोवैज्ञानिक प्रविधियों द्वारा मानसिक विकृतियों, . द्वन्द्वों तथा व्याधियों का उपचार करना है। सरासन (Sarason, 2005) ने भी इसी अर्थ में मनोचिकित्सा को परिभाषित किया है।

मनोचिकित्सा के कई प्रकार होते हैं, जिनमें निम्नलिखित मुख्य हैं-
(i) मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा (Psychoanalytic therapy)-इस विधि को फ्रॉयड ने विकसित किया। इसकी कई अवस्थाएँ होती हैं। इन्हीं अवस्थाओं को साक्षात्कार की अवस्था, स्वतंत्र साहचर्य की अवस्था, दैनिक जीवन की भूलों की अवस्था, स्वप्न विश्लेषण की अवस्था, अंतरण की अवस्था, पुर्नशिक्षण की अवस्था तथा समापन की अवस्था कहते हैं। यह मनोचिकित्सा विधि मानसिक रोगियों के उपचार में केवल आंशिक रूप से सफल है।\

(ii) व्यवहार चिकित्सा (Behaviour therapy)-इस चिकित्सा विधि को स्किनर ने विकसित किया तथा उल्पे ने इसमें योगदान किया। इस विधि के कई परिमार्जित प्रकार या रूप हैं। इनमें विमुखता चिकित्सा (aversive therapy), संकेत व्यवस्था (token economy), मुकाबला (flooding), व्यवहार प्रतिरूपण (behaviour modeling) आदि प्रमुख हैं। आवश्यकता के अनुकूल इन चिकित्सा प्रविधियों का उपयोग करके रोगी का उपचार किया जाता है। यह चिकित्सा विधि भी आशिक रूप में ही सक्षम है।

(iii) संज्ञानात्मक व्यवहार चिकित्सा (Cognitive behaviour therapy)-संज्ञानात्मक चिकित्सा को बेक नामक मनोवैज्ञानिक ने विकसित किया। वास्तव में यह चिकित्सा विधि व्यवहार चिकित्सा का ही विकसित एवं परिमार्जित रूप है। इसमें व्यवहार परिमार्जन के साथ-साथ रोगी के संज्ञान परिवर्तन पर भी बल दिया गया है। इसलिए यह चिकित्सा विधि वास्तव में अधिक प्रभावी एवं उपयोगी है।
इसके अलावे भी चिकित्सा या मनोचिकित्सा के कई प्रकार हैं, जैसे-समूह चिकित्सा, खेल चिकित्सा, अनादेश चिकित्सा आदि।

(iv) योगा चिकित्सा (Yoga therapy)-योगा चिकित्सा वास्तव में भारतीय चिंतकों में योगदानों का परिणाम है। इस चिकित्सा में योगा के माध्यम से रोगी को रोगमुक्त किया जाता है। योगा के कुछ निश्चित नियम हैं, जिनके अनुसार रोगी को व्यवहार करना पड़ता है। इसके परिणामस्वरूप वह क्रमशः रोगमुक्त बन जाता है। इसका गुण यह है कि इसका कोई हानिप्रद प्रभाव नहीं होता है। दूसरी बात यह है कि रोगी सदा के लिए रोगमुक्त हो जाता है।

प्रश्न 11.
मनोचिकित्सा को वर्गीकृत करने के विभिन्न प्राचल का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोचिकित्सा विविध प्रकार के मानवीय रोगों एवं विक्षोभों, विशेषतया जो मनोजात कारणों से होते हैं, का निराकरण करने के लिए मनोवैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धांतों का योजनाबद्ध एवं व्यवस्थित ढंग से उपयोगी है।

चिकित्सात्मक संबंधों की प्रकृति को निम्नवत् रूप से स्पष्ट किया जा सकता है-
(i) प्रतिरोध (Resistance)-सामान्यतः रोगी की समस्याएँ उसके अचेतन मन से संबंध रखती है जो असामाजिक और लैंगिक होती है। रोगी उनको बताने के बाद एकदम से रुक जाता है। जब ऐसी स्थिति आए तो चिकित्सक का कर्तव्य बनता है कि वह रोगी की प्रतिरोधात्मक बातों का कोई निवारण करें। ऐसी स्थिति सामान्यतः तब उत्पन्न होती है जब रोगी तथा चिकित्सक के बीच आत्मीय संबंध स्थापित हों, ऐसी स्थिति में रोगी अपनी समस्या को प्रकट करने में प्रतिरोध करता है।

(ii) संक्रमण (Transference)-मनोचिकित्सा में रोगी और चिकित्सक के बीच एक संबंध स्थापित हो जाता है जिसके कारण चिकित्सक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। क्योंकि कहीं न कहीं रोगी अपनी घृणा या प्रेम का वास्तविक पात्र उस चिकित्सक को मान लेता है जिसके परिणामस्वरूप अगर चिकित्सक सावधानियाँ न अपनाए तो उसे परेशानियाँ अर्थात् रोग घेर लेते हैं जिसके फलस्वरूप संक्रमण की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

(ii) आत्मीयता संबंध की स्थापना (Establishment of report formation)-आत्मीयता संबंध की स्थापना का मुख्य उद्देश्य यह है कि किसी भी तरह से रोगी के मस्तिष्क के उन रोगों को दूर करना जिसकी वजह से व्यक्ति असामान्य हो जाता है या असामान्य व्यवहार करने लगता है। आत्मीयता संबंध की स्थापना करने से ही मनोचिकित्सा का आरंभ होता है। इसमें चिकित्सा काल में व्यक्ति में आत्मविश्वास उत्पन्न किया जाता है और उसके व्यक्तित्व को संगठित किया जाता है जिससे वह अपने आसपास के लोगों तथा पर्यावरण के मध्य एक उचित संबंध स्थापित कर सके। एक चिकित्सक हमेशा यही चाहता है कि वह जिस भी रोगी का इलाज कर रहा है वह उसे पूर्ण रूप से ठीक कर सके। परंतु यह तभी संभव है जब रोगी और चिकित्सक के मध्य आत्मीयता के विचार जागृत हों या सौहार्द्रपूर्ण संबंध स्थापित हों।

(iv) अन्तर्दृष्टि (Insight)-अगर किसी रोगी की चिकित्सा उचित ढंग से हो रहा हो तो वह अपनी दमित भावनाओं, परेशानियों आदि के विषय में चिकित्सक को बताने लगता है। इसका सीधा संबंध अहम् और असामाजिकता को छोड़ने से होता है। इसलिए यह जरूरी है कि ये इच्छाएँ जिस रूप में दमित हुई थीं ठीक उसी प्रकार से बाहर आयें या रोगी उसी प्रकार से उन्हें व्यक्त कर सके। जिस प्रकार से इच्छाएँ दमित हुई ठीक उसी प्रकार से व्यक्त न कर पाने के कारण व्यक्ति अपनी समस्याओं और परेशानियों में उलझ जाता है और निषेधात्मक रूप से अपनी बातों को प्रकट करता है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि चिकित्सक अपने आपको इस बात के लिए तैयार करें कि वह रोगी की उन निषेधात्मक बातों को भी समझ सके। इससे रोगी में अन्तर्दृष्टि आ जाती है।

(v) संवेगात्मक पुनर्शिक्षा तथा सामान्य समायोजन (Techniques of psychotherapy)जब रोगी को इस बात का आभास होता है कि उसकी अन्तर्दृष्टि ठीक प्रकार से काम कर रही है तो वह सामान्य व्यक्तियों की तरह कार्य करने लगता है और वह स्वयं भी अपनी परेशानियों को दूर करने की कोशिश करता है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि रोगी को यदि उचित प्रकार की मनोचिकित्सा मिलती है तो इस रोगी को आराम अवश्य मिलता है।

प्रश्न 12.
समूह को परिभाषित करें। समूह का निर्माण किस तरह होता है ? अथवा, समूह संरचना के मुख्य घटकों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जब दो या दो से अधिक व्यक्ति एक स्थान पर एकत्रित होते हैं तो उसे समूह कहते हैं। रन्तु, सामाजिक समूह के लिए दो आवश्यक शर्ते हैं। दो या दो से अधिक व्यक्तियों का एक स्थान पर एकत्रित होना तथा उनके बीच कार्यात्मक संबंध का होना । यदि दो व्यक्ति बाजार में साथ-साथ टहल रहे हो तो उसे समूह नहीं कहा जा सकता है। क्योंकि, दोनों के बीच कार्यात्मक सम्बन्ध नहीं है। परन्तु, दोनों के बीच कार्यात्मक संगठन हो जाए तो उसे समूह की संज्ञा देंगे। लिण्डग्रेन (Lindgren) ने इसी अर्थ में समूह को परिभाषित करते हुए कहा है, “दो या दो से अधिक व्यक्तियों के किसी कार्यात्मक सम्बन्ध में व्यस्त होने पर समूह का निर्माण होता है।” । समूह का निर्माण (Formation of Group)-समूह संरचना के मुख्य घटक निम्नलिखित है

(i) भूमिकाएँ (Roles)-सामाजिक रूप से परिभाषित अपेक्षाएँ होती हैं जिन्हें दी हुई स्थितियों में पूर्ण करने की अपेक्षा व्यक्तियों से की जाती है। भूमिकाएँ वैसे विशिष्ट व्यवहार को इंगित करती हैं जो व्यक्ति को एक दिये गये सामाजिक संदर्भ में चित्रित करती हैं। किसी विशिष्ट भूमिका में किसी व्यक्ति से अपेक्षित व्यवहार इन भूमिका प्रत्याशाओं में निहित होता है। एक पुत्री या पुत्री के रूप में आप से अपेक्षा या आशा की जाती है कि आप बड़ों का आदर करें, उनकी बातों को सुनें और अपने अध्ययन के प्रति जिम्मेदार रहें।

(ii) प्रतिमान या मानक (Norms) -समूह के सदस्यों द्वारा स्थापित, समर्थित एवं प्रवर्तित व्यवहार एवं विश्वास के अपेक्षित मानदंड होते हैं। इन्हें समूह के ‘अकथनीय नियम’ के रूप में माना जा सकता है। परिवार के भी मानक होते हैं जो परिवार के सदस्यों के व्यवहार का मार्गदर्शन करते हैं। इस मानकों का सांसारिक दृष्टिकोण के रूप में समझने या सहप्रतिनिधित्व के रूप में देखा जा सकता है।

(i) हैसियत या प्रतिष्ठा (Status)-समूह के सदस्यों को अन्य सदस्यों द्वारा दी जाने वाली सापेक्ष स्थिति को बताती है। यह सापेक्ष स्थिति या प्रतिष्ठा या तो प्रदत्त या आरोपित (संभव है कि यह एक व्यक्ति की वरिष्ठता के कारण दिया जा सकता है) या फिर साधित या उपार्जित (व्यक्ति ने विशेषज्ञता या कठिन परिश्रम के कारण हैसियत या प्रतिष्ठा को अर्जित किया है) होती है। समूह के सदस्यता होने से हम इस समूह से जुड़ी हुई प्रतिष्ठा का लाभ प्राप्त करते हैं।

इसलिए हम सभी ऐसे समूहों के सदस्य बनना चाहते हैं जो प्रतिष्ठा में उच्च स्थान रखते हों अथवा दूसरों द्वारा अनुकूल दृष्टि से देखे जाते हों। यहाँ तक कि किसी समूह के अंदर भी विभिन्न सदस्य भिन्न-भिन्न सम्मान एवं प्रतिष्ठा रखते हैं। उदाहरण के लिए, एक क्रिकेट टीम का कप्तान अन्य सदस्यों की अपेक्षा उच्च हैसियत या प्रतिष्ठा रखता है, जबकि सभी सदस्य टीम की सफलता के लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं।

(iv) संसक्तता (cohesiveness)-समूह सदस्यों के बीच एकता, बद्धता एवं परस्पर आकर्षण को इंगित करती है। जैसे-जैसे समूह अधिक संसक्त होता है, समूह के सदस्य एक सामाजिक इकाई के रूप में विचार, अनुभव एवं कार्य करना प्रारंभ करते हैं और पृथक्कृत व्यक्तियों के समान कम। उच्च संसक्त समूह के सदस्यों में निम्न संसक्त सदस्यों की तुलना में समूह में बने रहने की तीव्र इच्छा होती है। संसक्तता दल-निष्ठा अथवा ‘वयं भावना’ अथवा समूह के प्रति आत्मीयता की भावना को प्रदर्शित करती है। एक संसक्त समूह को छोड़ना अथवा एक उच्च संसक्त समूह की सदस्यता प्राप्त करना कठिन होता है।

प्रश्न 13.
समूह संघर्ष क्या है ? समूह संघर्ष के प्रमुख प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
समूह संघर्ष के अन्तर्गत एक व्यक्ति या समूह या प्रत्यक्षण करते हैं कि अन्य व्यक्ति उनके विरोधी हितों को रखते हैं तथा दोनों पक्ष एक दूसरे का खण्डन करने का प्रयत्न करते रहते हैं। समूह संघर्ष लोग समूह मानकों का अनुसरण करते हैं जबकि ऐसा न करने पर वे एकमात्र दण्ड का सामना कर सकते हैं वह है समूह की अप्रसन्नता या समूह संघर्ष से भिन्न देखा जाना। लोग अनुरूपता को क्यों दर्शाते हैं जबतक वे यह भी जानते हैं कि मानक स्वयं में वांछनीय नहीं है।

अनुरूपता के घटक (Component of Confirmity)-
(i) समूह का आकार (Size of group)-जब समूह बड़े से तुलनात्मक छोटा होता है। अनुरूपता तब अधिक पाई जाती है। ऐसा क्यों होता है ? छोटे समूह में विसामान्य सदस्य (वह जो अनुरूपता को दर्शाता नहीं है) को पहचानना सरल होता है। किन्तु एक बड़े समूह में यदि ज्यादातर सदस्यों के मध्य प्रबल सहमति होती है तो यह बहुसंख्यक समूह को सशक्त बनाता है तथा इसलिए मानक भी मजबूत होते हैं। ऐसी स्थिति में अल्पसंख्यक सदस्यों के अनुरूप प्रदर्शन की संभावना अधिक होती है क्योंकि समूह का दबाव प्रबल होगा।

(ii) अल्पसंख्यक समूह का आकार (Size of minor group)-मान लीजिए कि रेखाओं के विषय में निर्णय के कुछ प्रयत्नों के पश्चात् प्रयोज्य यह देखता है कि एक दूसरा सहभागी प्रयोज्य की अनुक्रिया से सहमति का प्रदर्शन करना आरम्भ कर देता है। क्या अब प्रयोज्य के अनुरूपता प्रदर्शन की संभावना अधिक है या ऐसा करने की संभावना कम है ? जब अल्पसंख्यकों में वृद्धि होती है तो अनुरूपता की संभावना कम होती है। इस संदर्भ में यह कहा जा सकता है कि वास्तव में यह समूह में भिन्न मतधारियों या अनुपथियों की संख्या में वृद्धि कर सकता है। इसे ऐश के प्रयोग द्वारा समझाया गया है।

(iii) कार्य की प्रकृति (Nature of work)-ऐश के प्रयोग में प्रयुक्त कार्य में इस प्रकार के उत्तर की अपेक्षा की जाती है जिसका सत्यापन किया जा सकता है वह गलत भी हो सकता है तथा सही भी हो सकता है। माना कि प्रायोगिक कार्य में किसी विषय के बारे में विचार प्रकट करना है। इस स्थिति में कोई उत्तर सही या गलत नहीं होता है। किस स्थिति में अनुरूपता के पाये जाने की संभावना प्रबल है, प्रथम स्थिति जिसमें गलत अथवा सही उत्तर की तरह कोई चीज हो या दूसरी स्थिति जिसमें बिना किसी सही या गलत उत्तर के व्यापक रूप से उत्तर में परिवर्तन किया जा सके ? हो सकता है कि आपका अनुमान सही हो, दूसरी स्थिति में अनुरूपता के पाए जाने की संभावना कम है।

प्रश्न 14.
प्राकृतिक महाविपदा के प्रभावों का वर्णन करें। उनके विध्वंसकारी प्रभावों को कम करने के तरीकों का वर्णन करें।
उत्तर:
मानव भी अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी पर्यावरण पर अपना प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, जिस घर में हम रहते हैं उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जाता है जिससे कि उस घर में मानव शरण ले सकें। मनुष्यों द्वारा कुछ कार्य पर्यावरण को नुकसान भी पहुँचा सकते हैं। उदाहरण के लिए, मनुष्यों ने अपनी सुविधा के लिए कुछ उपकरणों का आविष्कार किया है जैसे-रेफ्रिजरेटर तथा वातानुकूलन यंत्र।

किन्तु ये उपकरण एक प्रकार की रासायनिक गैस छोड़ते हैं जो वायु को प्रदूषित करती है जिस कारण मानव अन्य रोगों से ग्रसित हो सकते हैं। धूम्रपान के द्वारा एक विशेष व्यक्ति तो रोग से ग्रसित होता ही है साथ-साथ धूम्रपान के द्वारा आस-पास की वायु भी प्रदूषित होती है। प्लास्टिक एवं धातु से बनी वस्तुओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है। वृक्षों के काटने से जल चक्र में व्यावधान उत्पन्न हो सकता है।

अनेक उदाहरणों का यह संदेश है कि मनुष्य ने उन्हें प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर दर्शाने के लिए ही जनित किया है। मानव जीवन अपनी सुविधाओं के लिए टेक्नोलॉजी का उपयोग कर प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित कर रहा है जबकि वास्तविकता तो यह है कि वे संभवतः जीवन की गुणवत्ता को और खराब बना रहे हैं।

शोर (Noise), प्रदूषण (Pollution), भीड़ (Crowding) तथा प्राकृतिक विपदाएँ (Natural disasters) ये सब पर्यावरणीय दबाव-कारकों के उदाहरण हैं। अपितु, इन विभिन्न दबाव-कारकों के प्रति मानव की प्रतिक्रियाएँ भिन्न हो सकती हैं।

प्रश्न 15.
मनोदशा मनोविकृति से आप क्या समझते हैं ? मनोदशा मनोविकृति के प्रकारों के मुख्य लक्षणों का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोदशा मनोविकृति- इस विकार में व्यक्ति का संवेगात्मक अवस्था में रुकावट उत्पन्न हो जाती है। व्यक्ति में सबसे ज्यादा भावदशा विकार होता है। इसमें व्यक्ति के अंदर नकारात्मक भावनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कभी-कभी व्यक्ति पर अवसाद (Depression) इस कदर हावी हो जाता है कि वह मृत्यु तक करने की सोच लेता है। यह एक प्रकार का विकार है जिसका सीधा प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार पर पड़ता है।
सामान्य तौर पर व्यक्ति इस अवसाद से तब ही ग्रस्त होता है जब उसके दिल पर कोई गहरी चोट लगी हो।

मुख्य भावदशा विकार में तीन प्रकार के विकार होते हैं-
(i) अवसादी विकार (Depressive disorder)-इस प्रकार के रोगियों में उदास होने, चिन्ता में डूबे रहने, शारीरिक तथा मानसिक क्रियाओं की कमी, अकर्मण्यता, अपराधी प्रवृत्ति आदि के लक्षण पाये जाते हैं।

(ii) उन्मादी विकार (Mania disorder)-उन्मादी विकार में रोगी हर समय खुश दिखाई देता है। वह हर समय संतुष्ट तथा चुस्त दिखाई पड़ता है। वह प्रायः नाचना, गाना, दौड़ना, बातचीत करना, बड़बड़ाना, चिल्लाना आदि हरकतें करना ज्यादा पसंद करता है।

(iii) द्विध्रुवीय भावात्मक विकार (Bipolor Affective Disorder)-मनोदशा विकारों को इस मनोव्याधिकीय श्रेणी में रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसमें उत्साह और अवसाद दोनों के आक्षेप हों। एक बार उत्साह के आक्षेप के साथ-साथ अवसादी आक्षेप होता है। कुछ रोगियों में उत्साही (उन्मादी) आक्षेप एकदम से प्रकट हो जाते हैं तथा दो सप्ताह से छः माह तक रहते हैं। इसके मध्य भी व्यक्ति पूर्ण रूप से ठीक रहता है। अवसाद आक्षेप या तो इसके तुरंत बाद ही हो जाते हैं या कभी-कभी हो सकते हैं। अवसादी आक्षेपों में रोग के लक्षणों की गंभीरता कम या ज्यादा होती रहती है।

Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 1

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Bihar Board 12th Psychology Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
बुद्धि के द्वितत्वक सिद्धान्त का वर्णन करें। अथवा, बुद्धि के द्वि-कारक सिद्धान्त का वर्णन करें।
उत्तर:
बुद्धि के द्वि-कारक सिद्धान्त का प्रतिपादन ब्रिटिश मनोवैज्ञानिक चार्ल्स स्पीयरमैन ने किया। इन्होंने बुद्धि संरचना में दो प्रकार के कारकों का उल्लेख किया है, जिन्हें सामान्य बुद्धि (जी० कारक) तथा विशिष्ट बुद्धि (एस० कारक) कहते हैं। इनके अनुसार बुद्धि में सामान्य बुद्धि का बड़ा अंश है जो व्यक्ति के संज्ञानात्मक कार्यों के लिए उत्तरदायी है। इस कारक पर किसी तरह के शिक्षण, प्रशिक्षण, पूर्व अनु आदि का प्रभाव नहीं पड़ता है। इस कारण यह कारक जन्मजात कारक माना जाता है। दूसरी स्पीयरमैन में विशिष्ट बुद्धि का अति लघुरूप (5%) माना है।

विशिष्ट बुद्धि की प्रमुख विशेषता यह है कि यह एक ही व्यक्ति में भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पाया जाता है। शिक्षण-प्रशिक्षण से प्रभावित होता है। ऐसे कारकों की आवश्यकता विशेष योग्यता वाले कार्यों में पड़ती है। जैसे एक व्यक्ति प्रसिद्ध लेखक है परन्तु आवश्यक नहीं है कि वह उतना ही निपुण पेण्टर भी साबित हो। अर्थात् लेखन में विशिष्ट बुद्धि अधिक हो सकती है तथा पेंटिंग व गायन विशिष्ट बुद्धि की मात्रा कम हो सकती है। इस प्रकार यह बुद्धि का प्रथम व्यवस्थित सिद्धान्त है। आगे चलकर इस सिद्धान्त की आलोचना इस आधार पर की गयी कि बुद्धि में केवल दो ही तत्त्व वल्कि अनेक तत्त्व होते हैं।

प्रश्न 2.
फ्रायड के मनोलैंगिक विकास की पाँच अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
फ्रायड ने मनोलैंगिक विकास को पाँच अवस्थाओं में बाँटा है-
(i) मौखिक अवस्था- एक नवजात शिशु की मूल प्रवृत्तियाँ मुख पर केंद्रित होती हैं। यह शिशु का प्राथमिक सुख प्राप्ति का केंद्र होता है। यह मुख ही होता है जिसके माध्यम से शिशु भोजन ग्रहण करता है और अपनी भूख को शांत करता है। शिशु मौखिक संतुष्टि भोजन ग्रहण, अँगूठा चूसने, काटने और बलबलाने के माध्यम से प्राप्त करता है। जन्म के बाद आरंभिक कुछ महीनों की अवधि में शिशुओं में अपने चतुर्दिक जगत के बारे में आधारभूत अनुभव और भावनाएँ विकसित हो जाती हैं। फ्रायड के अनुसार एक वयस्क जिसके लिए यह संसार कटु अनुभवों से परिपूर्ण हैं, संभवतः मौखिक अवस्था का उसका विकास कठिनाई से हुआ करता है।

(ii) गुदीय अवस्था- ऐसा पाया गया है कि दो-तीन वर्ष की आयु में बच्चा समाज की कुछ मांगों के प्रति अनुक्रिया करना सीखता है! इनमें से एक प्रमुख माँग माता-पिता की यह होती है कि बालक मूत्रत्याग एवं मलत्याग जैसे शारीरिक प्रकार्यों को सीखे। अधिकांश बच्चे एक आयु में इन क्रियाओं को करने में आनद का अनुभव करते हैं। शरीर का गुदीय क्षेत्र कुछ सुखदायक भावनाओं का केंद्र हो जाता है। इस अवस्था में इड और अहं के बीच द्वंद्व का आधार स्थापित हो जाता है। साथ ही शैशवावस्था की सुख की इच्छा एवं वयस्क रूप में नियंत्रित व्यवहार की मांग के बीच भी दंद्र का आधार स्थापित हो जाता है।

(iii) लैंगिक अवस्था- यह अवस्था जननांगों पर बल देती है। चार-पाँच वर्ष की आयु में बच्चे पुरुषों एवं महिलाओं के बीच का भेद अनुभव करने लगते हैं। बच्चे कामुकता के प्रति एवं अपने माता-पिता के बीच काम संबंधों के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इसी अवस्था में बालक इडिपस मनोग्रंथि का अनुभव करता है जिसमें अपनी माता के प्रति प्रेम और पिता के प्रति आक्रामकता सन्निहित होती है तथा इसके परिणामस्वरूप पिता द्वारा दंडित या शिश्नलोप किए जाने का भय भी बालक में कार्य करता है। इस अवस्था की एक प्रमुख विकासात्मक उपलब्धि यह है कि बालक अपनी इस मनोग्रंथि का समाधान कर लेता है। वह ऐसा अपनी माता के प्रति पिता के संबंधों को स्वीकार करके उसी तरह का व्यवहार करता है।

बलिकाओं में यह इडिपस ग्रंथि थोड़े भिन्न रूप में घटित होती है। बालिकाओं में इसे इलेक्ट्रा मनोग्रंथि कहते हैं। इसे मनोग्रंथि में बालिका अपने पिता को प्रेम करती है और प्रतीकात्मक रूप से उससे विवाह करना चाहती है। जब उसको यह अनुभव होता है कि संभव नहीं है तो वह अपनी माता का अनुकरण कर उसके व्यवहारों को अपनाती है। ऐसा वह अपने पिता का स्नेह प्राप्त करने के लिए करती है। उपर्युक्त दोनों मनोग्रंथियों के समाधान में क्रांतिक घटक समान लिंग के माता-पिता के साथ तदात्मीकरण स्थापित करना है। दूसरे शब्दों में, बालक अपनी माता के प्रतिद्वंद्वी की बजाय भूमिका-प्रतिरूप मानने लगते हैं। बालिकाएँ अपने पिता के प्रति लौ ८ इच्छाओं का त्याग कर देती हैं और अपनी माता से तादात्मय स्थापित करती है।

(iv) कामप्रसप्ति अवस्था-यह अवस्था सात वर्ष की आयु से आरंभ होकर यौवनारंभ तक बनी रहती है। इस अवधि में बालक का विकास शारीरिक दृष्टि से होता रहता है। किन्तु उसकी कामेच्छाएँ सापेक्ष रूप से निष्क्रिय होती हैं। बालक की अधिकांश ऊर्जा सामाजिक अथवा उपलब्धि संबंधी क्रियाओं में व्यय होती है।

(v) जननांगीय अवस्था- इस अवस्था में व्यक्ति मनोलैंगिक विकास में परिपक्वता प्राप्त करता है। पूर्व की अवस्थाओं की कामेच्छाएँ, भय और दमित भावनाएँ पुनः अभिव्यक्त होने लगती हैं। लोग इस अवस्था में विपरीत लिंग के सदस्यों से परिपक्व तरीके से सामाजिक और काम संबंधी आचरण करना सीख लेते हैं। यदि इस अवस्था की विकास यात्रा में व्यक्ति को अत्यधिक दबाव अथवा अत्यासक्ति का अनुभव होता है तो इसके कारण विकास की किसी आरंभिक अवस्था पर उसका स्थिरण हो सकता है।

प्रश्न 3.
निर्धनता के मुख्य कारणों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
निर्धनता के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं
(i)निर्धन स्वयं अपनी निर्धनता के लिए उत्तरदायी होते हैं। इस मत के अनुसार, निर्धन व्यक्तियों में योग्यता तथा अभिप्रेरणा दोनों की कमी होती है जिसके कारण वे प्रयास करके उपलब्ध अवसरों का लाभ नहीं उठा पाते। सामान्यतः निर्धन व्यक्तियों के विषय में यह मत निषेधात्मक है तथा उनकी स्थिति को उत्तम बनाने में तनिक भी सहायता नहीं करता है।

(ii) निर्धनता का कारण कोई व्यक्ति नहीं अपितु एक विश्वास व्यवस्था, जीवन-शैली तथा वे मूल्य हैं जिनके साथ वह पलकर बड़ा हुआ है। यह विश्वास व्यवस्था, जिसे ‘निर्धनता की संस्कृति’ (culture of poverty) कहा जाता है, व्यक्ति को यह मनवा या स्वीकार करवा देती है कि वह तो निर्धन ही रहेगा/रहेगी तथा यह विश्वास एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होता रहता है।

(iii)आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक कारक मिलकर निर्धनता का कारण बनते हैं। भेदभाव के कारण समाज के कुछ वर्गों को जीविका की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करने के अवसर भी दिए जाते। आर्थिक व्यवस्था को सामाजिक तथा राजनीतिक शोषण के द्वारा वैषम्यपूर्ण (असंगत) तरह से विकसित किया जाता है जिससे कि निर्धन इस दौड़ से बाहर हो जाते हैं। ये सारे कारक सामाजिक . असुविधा के संप्रत्यय में समाहित किए जा सकते हैं जिसके कारण निधन सामाजिक अन्याय, वंचन, भेदभाव तथा अपवर्जन का अनुभव करते हैं।

(iv) वह भौगोलिक क्षेत्र, व्यक्ति जिसके निवासी हों, उसे निर्धनता का एक महत्त्वपूर्ण कारण माना जाता है। उदाहरण के लिए, वे व्यक्ति जो ऐसे क्षेत्रों में रहते हैं जिनमें प्राकृतिक संसाधनों का अभाव होता है (जैसे-मरुस्थल) तथा जहाँ की जलवायु भीषण होती है (जैसे-अत्यधिक सर्दी या गर्मी) प्रायः निर्धनता के शिकार हो जाते हैं। यह कारक मानव द्वारा नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। फिर भी उन इन क्षेत्रों के निवासियों की सहायता के लिए प्रयास अवश्य किए जा सकते हैं ताकि वे जीविका के
वैकल्पिक उपाय खोज सकें तथा उन्हें उनकी शिक्षा एवं रोजगार हेतु विशेष सुविधाएँ उपलब्ध कराई जा सकें।

(v) निर्धनता चक्र (Poverty cycle) भी निर्धनता का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण है जो यह व्याख्या करता है कि निर्धनता उन्हीं वर्गों में ही क्यों निरंतर बनी रहती है। निर्धनता ही निर्धनता की जननी भी है। निम्न आय और संसाधनों के अभाव से प्रारंभ कर निर्धन व्यक्ति निम्न स्तर के पोषण तथा स्वास्थ्य, शिक्षा के अभाव तथा कौशलों के अभाव से पीड़ित होते हैं। इनके कारण उनके रोजगार पाने के अवसर भी कम हो जाते हैं जो पुनः उनकी निम्न आय स्थिति तथा निम्न स्तर के स्वास्थ्य एवं पोषण स्थिति को सतत् रूप से बनाए रखते हैं। इनके परिणामस्वरूप निम्न अभिप्रेरणा स्तर स्थिति को और भी खराब कर देता है, यह चक्र पुनः प्रारंभ होता है और चलता रहता है। इस प्रकार निर्धनता चक्र में उपर्युक्त विभिन्न कारकों की अंत:क्रियाएँ सन्निहित होती हैं तथा इसके परिणास्वरूप वैयक्तिक अभिप्रेरणा, आशा तथा नियंत्रण-भावना में न्यूनता आती है।

प्रश्न 4.
सामान्य अनुकूलन संलक्षण क्या है? इसकी विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन करें।
उत्तर:
मनुष्य अपनी शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए और अन्य उद्देश्यों से भी प्राकृतिक पर्यावरण के ऊपर अपना प्रभाव डालते हैं। निर्मित पर्यावरण के सारे उदाहरण पर्यावरण के ऊपर मानव प्रभाव को अभिव्यक्त करते हैं। उदाहरण के लिये, मानव ने जिसे हम ‘घर’ कहते हैं उसका निर्माण प्राकृतिक पर्यावरण को परिवर्तित करके ही किया जिससे कि उन्हें एक आश्रय मिल सके। मनुष्यों के इस प्रकार के कुछ कार्य पर्यावरण को क्षति भी पहुंचा सकते हैं और अंततः स्वयं उन्हें करते हैं, जैसे-रेफ्रीजरेटर तथा वातानुकूलन यंत्र जो रासायनिक द्रव्य (जैसे-CFC या क्लोरो फ्लोरो कार्बन) उत्पादित करते हैं, जो वायु को प्रदूषित करते हैं तथा अंतत: ऐसे शारीरिक रोगों के लिए उत्तरदायी हो सकते हैं, जैसे-कैंसर के कुछ प्रकार।

धूम्रपान के द्वारा हमारे आस-पास की वायु प्रदूषित होती है तथा प्लास्टिक एवं धात से बनी वस्तओं को जलाने से पर्यावरण पर घोर विपदाकारी प्रदूषण फैलाने वाला प्रभाव होता है। वृक्षों के कटान या निर्वनीकरण के द्वारा कार्बन चक्र एवं जल चक्र में व्यवधान उत्पन्न हो सकता है। इससे अंततः उस क्षेत्र विशेष में वर्षा के स्वरूप पर प्रभाव पड़ सकता है और भू-क्षरण तथा मरुस्थलीकरण में वृद्धि हो सकती है। वे उद्योग जो निस्सारी का बहिर्वाह करते हैं तथा इस असंसाधि त गंदे पानी को नदियों में प्रवाहित करते हैं, इस प्रदूषण के भयावह भौतिक (शारीरिक) तथा मनोवैज्ञानिक परिणामों से, संबंधित व्यक्ति तनिक भी चिंतित प्रतीत नहीं होते हैं।

मानव व्यवहार पर पर्यावरणीय प्रभाव :
(i) प्रत्यक्षण पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण के कुछ पक्ष मानव प्रत्यक्षण को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, अफ्रीका की एक जनजाति समाज गोल कुटियों (झोपड़ियों) में रहती है अर्थात् ऐसे घरों में जिनमें कोणीय दीवारें नहीं हैं, वे ज्यामितिक भ्रम (मूलर-लायर भ्रम) में कब त्रुटि प्रदर्शित करते हैं, उन व्यक्तियों की अपेक्षा जो नगरों में रहते हैं और जिनके मकानों में कोणीय दीवारें होती हैं।

(ii) संवेगों पर पर्यावरणी प्रभाव-पर्यावरण का प्रभाव हमारी सांवेगिक प्रतिक्रियाओं पर भी पड़ता है। प्रकृति के प्रत्येक रूप का दर्शन चाहे वह शांत नदी का प्रवाह हो, एक मुस्कुराता हुआ फूल हो, या एक शांत पर्वत की चोटी हो, मन को एक ऐसी प्रसन्नता से भर देता है जिसकी तुलना किसी अन्य अनुभव से नहीं की जा सकती। प्राकृतिक विपदाएँ; जैसे-बाढ़, सूखा, भू-स्खलन, भूकंप चाहे पृथ्वी के ऊपर हो या समुद्र के नीचे हो, वह व्यक्ति के संवेगों पर इस सीमा तक प्रभाव डाल सकते हैं कि वे गहन अवसाद और दुःख तथा पूर्ण असहायता की भावना और अपने जीवन पर नियंत्रण के अभाव का अनुभव करते हैं। मानव संवेगों पर ऐसा प्रभाव एक अभिघातज अनुभव है जो व्यक्तियों के जीवन को सदा के लिये परिवर्तित कर देता है तथा घटना के बीत जाने के बहुत समय बाद तक भी अभिघातज उत्तर दबाव विकार (Post traumatic stress disorder-PTSD) के रूप में बना रहता है।

(iii) व्यवसाय, जीवन शैली तथा अभिवृत्तियों पर पारिस्थितिकी का प्रभाव-किसी क्षेत्र का प्राकृतिक पर्यावरण यह निर्धारित करता है कि उस क्षेत्र के निवासी कृषि पर (जैसेमैदानों में) या अन्य व्यवसायों, जैसे-शिकार तथा संग्रहण पर (जैसे-वनों, पहाड़ों या रेगिस्तानी क्षेत्रों में) या उद्योगों पर (जैसे उन क्षेत्रों में जो कृषि के लिए उपजाऊ नहीं हैं) निर्भर रहते हैं परन्तु किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र के निवासियों के व्यवसाय भी उनकी जीवन शैली और अभिवृत्तियों का निर्धारण करते हैं।

प्रश्न 5.
प्रेक्षण कौशल क्या है? इसके गुण-दोषों का वर्णन करें।
उत्तर:
किसी व्यवहार या घटना को देखना किसी घटना को देखकर क्रमबद्ध रूप से उसका वर्णन प्रेक्षण कहलाता है। मनोवैज्ञानिक चाहे किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हों वह अधिक-से-अधिक समय ध्यान से सुनने तथा प्रेक्षण कार्य में लगा देते हैं। मनोवैज्ञानिक अपने संवेदनाओं का प्रयोग देखने, सुनने, स्वाद लेने या स्पर्श करने में लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि मनोवैज्ञानिक एक उपकरण है, जो अपने परिवेश के अन्तर्गत आने वाली समस्त सूचनाओं का अवशोषण कर लेता है।

मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश के उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत शक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है। मनोवैज्ञानिक व्यक्ति के भौतिक परिवेश में उन हिस्सों के प्रेक्षण के उपरांत व्यक्ति तथा उसके व्यवहार का भी प्रेक्षण करता है, जिसके अंतर्गत व्यक्ति की आय, लिंग, कद, उसका दूसरे से व्यवहार करने का तरीका आदि सम्मिलित होते हैं।

प्रेक्षण के दो प्रमुख उपागम हैं-

  • (i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण तथा
  • (ii) सहभागी प्रेक्षण। गुण-
    • (i) यह विधि वस्तुनिष्ठ तथा अवैयक्तिक होता है।
    • (ii) इसका प्रयोग बच्चे, बूढ़े, पशु-पक्षी सभी पर किया जा सकता है।
  • (iii) इस विधि द्वारा संख्यात्मक परिणाम प्राप्त होता है।
  • (iv) इसमें एक साथ कई व्यक्तियों का अध्ययन संभव है।
  • (v) इस विधि में पुनरावृत्ति की विशेषता है। दोष-
    • (i) इस विधि में श्रम एवं समय का त्गय होता है।
    • (ii) प्रेक्षक के पूर्वाग्रह के कारण गलती का ८ रहता है।
    • (iii) प्रयोगशाला की नियंत्रित परिस्थिति नहीं होने कारण निष्कर्ष प्रभावित होता है।

प्रश्न 6.
दुश्चिंता विकार के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रत्येक व्यक्ति को व्याकुलता और भय होते हैं। सामान्यतः भय और आशंका की विस्तृत, अस्पष्ट और अप्रीतिकर भावना को ही दुश्चिंता कहते हैं। दुश्चिंता विकार व्यक्ति में कई लक्षणों के रूप में दिखाई पड़ता है। इन लक्षणों के आधार पर इसे मुख्यतः दो भागों में विभाजित किया गया है :
(i) सामान्यीकृत दुश्चिंता विकार- इसके लंबे समय तक चलनवाले अस्पष्ट, अवर्णनीय तथा तीव्र भय होते हैं जो किसी भी विशिष्ट वस्तु के प्रति जुड़े हुए नहीं होते हैं। इसके लक्षणों में भविष्य के प्रति अकिलता एवं आंशिका अत्यधिक सतर्कता, यहाँ तक कि पर्यावरण में किसी भी प्रकार के खतरे की छान-बीन शामिल होती है। इसमें पेशीय तनाव भी होता है। जिससे आराम नहीं कर पता है बेचैन रहता है तथा स्पष्ट रूप से कमजोर और तनावग्रस्त दिखाई देता है।

(ii) आतंक विकार– इसमें दुश्चिंता के दौर लगातार पड़ते हैं और व्यक्ति तीव्र दहशत का अनुभव करता है। आतंक विकार में कभी विशेष उद्दीपन से सम्बन्धित विचार उत्पन्न होती है तो अचानक तीव्र दुश्चिंता अपनी उच्चतम सीमा पर पहुँच जाती है। इस तरह के विचार अचानक से उत्पन्न होते हैं। इसके नैदानिक लक्षणों में साँस की कमी, चक्कर आन, कपकपी, दिल तेजी से धड़कना, दम घुटन , जी मिचलना, छाती में दर्द या बेचैनी, सनकी होने का भय, नियंत्रण खोना या मरने का एहसास सम्मिलित होते हैं।

प्रश्न 7.
आत्म किसे कहते हैं? आत्म-सम्मान की विवेचना करें।
उत्तर:
आत्म शब्द अंग्रेजी के शब्द Self का हिन्दी रूपान्तर है, जिसका अर्थ है “What one is” अर्थात् जो कुछ कोई होता है। आत्म शब्द का प्रयोग सामान्यतः दो अर्थों में किया जाता हैएक अर्थ में आत्म व्यक्ति के स्वयं के मनोभावों या मनोवृत्तियों का दर्पण होता है। अर्थात् व्यक्ति अपने बारे में जो सोचता है वही आत्म है। अत: आत्म एक वस्तु के रूप में है। दूसरे अर्थ में आत्मा का अभिप्राय कार्य पद्धति से है अर्थात् आत्म को एक प्रक्रिया माना जाता है। इसमें मानसिक प्रक्रियाएँ आती हैं जिसके द्वारा व्यक्ति किसी कार्य का प्रबंधन, समायोजन, चिंतन, स्मरण, योजना का निर्माण आदि करता है। इस प्रकार थोड़े शब्दों में हम कह सकते हैं कि व्यक्ति अपने अस्तित्व की विशेषताओं का अनुभव जिस रूप में करता है तथा जिस रूप में वह व्यक्ति होता है, उसे ही आत्म कहते हैं।

आत्म-सम्मान या आत्म-गौरव या आत्म-आदर, आत्म सम्प्रत्यक्ष से जुड़ा एक महत्वपूर्ण है। व्यक्ति हर क्षण अपने मूल्य तथा अपनी योग्यता के बारे में आकलन करते रहता है। व्यक्ति का अपने बारे में यही मूल्य अथवा महत्त्व की अवधारणा को आत्म सम्मान कहा जाता है। लिण्डग्रेन के अनुसार, “स्वयं को जो हम मूल्य प्रदान करते हैं, वही आत्म-सम्मान है।” इस प्रकार आत्म-सम्मान से तात्पर्य व्यक्ति को अपने प्रति आदर, मूल्य अथवा सम्मान को बताता है जो कि गर्व तथा आत्मप्रेम के रूप में संबंधित होता है।

आत्म-सम्मान का स्तर अलग-अलग व्यक्तियों में अलग-अलग पाया जाता है। किसी व्यक्ति में इसका स्तर उच्च होता है तो किसी व्यक्ति में इसका स्तर निम्न होता है। जब व्यक्ति का स्वयं के प्रति सम्मान निम्न होता है तो वह आत्म-अनादर ढंग से व्यवहार करता है। अतः व्यक्ति का आत्म-सम्मान उसके व्यवहार से भक्त होता है। व्यक्ति अपने आपको जितना महत्त्व देता है उसी अनुपात में उसका आत्म-सम्मान होता है।

प्रश्न 8.
बुद्धि लब्धि तथा संवेगात्मक बुद्धि में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
बुद्धि लब्धि (I.Q.) तथा संवेगात्मक बुद्धि (E. Q.) में अंतर निम्नलिखित है-

बुद्धि लब्धि संवेगात्मक बुद्ध
1. बुद्धि लब्धि यह बताती है कि शिशु की मानसिक योग्यता का किस गति से विकास हो रहा है। 1. संवेगात्मक बुद्धि यह बताती है कि अपने तथा दूसरे व्यक्ति के संवेगों का परिवीक्षण करने, उनमें विभेदन करने की योग्यता तथा प्राप्त सूचना के अनुसार अपने चिंतन तथा व्यवहारों को निर्देशित करने की योग्यता हीसांवेगिक बुद्धि है।
2. बुद्धि लब्धि घट-बढ़ सकती है तथा परिवर्तन भी होता है। 2. संवेगात्मक बुद्धि घट-बढ़ नहीं सकती है।
3. बुद्धि लब्धि को प्रभावित करने का एक स्रोत सकता है। 3. उसे वातावरण द्वारा प्रभावित नहीं किया जा वातावरण भी है।
4. बुद्धि लब्धि सामान्यतया योग्यता की ओर संकेत करती है। 4. संवेगात्मक बुद्धि सामान्यतया योग्यता की ओर संकेत नहीं करती है।
5. बुद्धि लब्धि का उपयोग किसी व्यक्ति की सांवेगिक बुद्धि की मात्रा बताने में नहीं किया जाता है। 5. सांवेगिक बुद्धि का उपयोग किसी व्यक्ति की सांवेगिक बुद्धि की मात्रा बताने में किया जाता है।

प्रश्न 9.
प्राथमिक समूह तथा द्वितीयक समूह के बीच अन्तरों की विवेचना करें।
उत्तर:
प्राथमिक तथा द्वितीयक समूह के मध्य एक अंतर यह है कि प्राथमिक समूह पूर्व-विद्यमान होते हैं जो प्रायः व्यक्ति को प्रदत्त किया जाता है जबकि द्वितीयक समूह वे होते हैं जिसमें व्यक्ति अपने पसंद से जुड़ता है। अतः परिवार, जाति एवं धर्म प्राथमिक समूह है जबकि राजनीतिक दल की सदस्यता द्वितीयक समूह का उदाहरण है। प्राथमिक समूह में मुखोन्मुख अतःक्रिया होती है, सदस्यों में घनिष्ठ शारीरिक समीप्य होता है और उनमें एक उत्साहपूर्वक सांवेगिक बंधन पाया जाता है।

प्राथमिक समूह व्यक्ति के प्रकार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण होते हैं और विकास की आरंभिक अवस्थाओं में व्यक्ति के मूल्य एवं आदर्श के विकास में इनकी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके विपरीत, द्वितीयक समूह वे होते हैं जहाँ सदस्यों में संबंध अधिक निर्वेयक्तिक, अप्रत्यक्ष एवं कम आवृत्ति वाले होते हैं। प्राथमिकता समूह में सीमाएँ कम पारगम्य होती हैं, अर्थात् सदस्यों के पास इसकी सदस्यता वरण या चरण करने का विकल्प नहीं रहता है, विशेष रूप से द्वितीयक समूह की तुलना में जहाँ इसकी सदस्यता को छोड़ना और दूसरे समूह से जुड़ना आसाना होता है।

प्रश्न 10.
मानव व्यवहार पर प्रदूषण के प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर:
पर्यावरणीय प्रदूषण वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण के रूप में हो सकता है। इन सभी प्रदूषणों का वर्णन क्रमशः निम्नलिखित हैं-

(i) मानव व्यवहार पर वायु प्रदूषण का प्रभाव- वायुमंडल में 78.98% नाइट्रोजन, 20.94% ऑक्सीजन तथा 0.03% कार्बन डाइऑक्साइड होता है। यह शुद्ध वायु कहलाती है। लेकिन उद्योगों का धुआँ, धूल के कण, मोटर आदि वाहनों की विषाक्त गैसें, रेडियोधर्मी पदार्थ आदि वायु प्रदूषण के मुख्य कारण हैं, जिसका प्रभाव मानव के स्वास्थ्य तथा व्यवहार पर पर्याप्त पड़ता है। मानव श्वसन क्रिया में ऑक्सीजन लेता है तथा कार्बनडाइऑक्साइड छोड़ता है जो वायुमंडल में मिलती रहती है।

आधुनिक युग में वायु को औद्योगिक प्रदूषण ने सर्वाधिक प्रभावित किया है। प्रदूषित वायुमंडल में अवांछित कार्बनडाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, अधजले हाइड्रोकार्बन के कण आदि मिले रहते हैं। ऐसे वायुमंडल में श्वास लेने से मनुष्य के शरीर में कई प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं। राय एवं कपर के शोध परिणामों से यह ज्ञात होता है कि निम्न प्रदूषित क्षेत्रों के मानवों की अपेक्षा उच्च प्रदूषित क्षेत्रों के मानवों में अत्यधिक उदासीनता, अत्यधिक आक्रामकता एवं पारिवारिक अन्तर्द्वन्द्र विशेष देखा गया है।

(ii) मानव व्यवहार पर जल प्रदूषण का प्रभाव- जल प्रदूषण से तात्पर्य जल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में ऐसा परिवर्तन से है कि उसके रूप, गंध और स्वाद से मानव के स्वास्थ्य और कृषि, उद्योग एवं वाणिज्य को हानि पहुँचे, जल प्रदूषण कहलाता है। जल जीवन के लिए एक बुनियादी जरूरत है। प्रदूषित जल पीने से विभिन्न प्रकार के मानवीय रोग उत्पन्न हो जाते हैं, जिसमें आँत रोग, पीलिया, हैजा, टायफाइड, अतिसार तथा पेचिस प्रमुख हैं। औद्योगिक इकाइयाँ द्वारा जल स्रोतों में फेंके गए पारे, ताँबे, जिंक और अन्य धातुएँ तथा उनके ऑक्साइड अनेक शारीरिक विकृतियों को जन्म देते हैं। इस प्रकार प्रदूषित जल का मानव जीवन पर बुरा असर पड़ता है।
इस प्रकार वायु प्रदूषण, जल प्रदूषण तथा इन दोनों के प्रभाव से भूमि प्रदूषण का प्रभाव मानव व्यवहार पर पड़ता है।

प्रश्न 11.
सामान्य और असामान्य व्यवहारों में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सामान्य तथा असामान्य व्यक्ति के व्यवहारों में अलग-अलग विशेषताएँ पायी जाती है। इनके बीच कुछ प्रमुख अन्तर निम्नलिखित हैं-

सामान्य व्यक्ति असामान्य व्यक्त
1. सामान्य व्यक्ति का संपर्क वास्तविक से रहता है। वह अपने भौतिक, सामाजिक तथा आन्तरिक पर्यावरण के साथ संबंध बनाये रखता है। वास्तविकता को वह पहचान खोया रहता है। कर उसके प्रति तटस्थ मनोवृत्ति रखता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति का संबध वास्तविक से विच्छेदित रहता है। वह वास्तविक से दूर अपनी भिन्न दुनिया में रखता है।

 

2. सामान्य व्यक्ति में सुरक्षा की भावना निहित रहती है। वह सामाजिक, पारिवारिक, व्याव- सायिक तथा अन्य परिस्थितियों में अपने असुरक्षित महसूस करता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति अपने बेवजह आपको सुरक्षित महसूस करता है।
3. सामान्य व्यक्ति अपना आत्म-प्रबंध में सफल रहता है। वह खुद अपनी देखभाल तथा सुरक्षा करता रहता है। दूसरी ओर व्यक्ति अपना आत्मप्रबंध करने में विफल रहता है। वह अपनी देखभाल तथा सुरक्षा हेतु दूसरों पर निर्भर रहता है।
4. सामान्य व्यक्ति के कार्यों में सहजता तथा स्वभाविकता होती है। वह समानुसार व्यवहार करने की योग्यता रखता है। साथ-ही-साथ ऐसे व्यक्तियों में संवेगात्मक परिपक्वता रहता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति विचित्र तथा अस्वाभाविक हरकतें करता है। उसमें परिस्थिति के अनरूप व्यवहार करने की क्षमता का अभाव रहती है।
5. सामान्य व्यक्ति के व्यक्तित्व में सम्पूर्णता रहती है जिससे वह आंतरिक संतुलन बनाये रखता है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्तियों में इन गुणों का अभाव पाया जाता है। जिस कारण उनके व्यक्तित्व का विघटन होने लगता है।
6. सामान्य व्यक्ति अपना आत्म मूल्यांकन कर अपनी योग्यता एवं क्षमता को ध्यान में रख-कर अपने जीवन लक्ष्य का निर्धारण करता है, जिससे उन्हें वास्तविक जीवन में सफलता मिलती है। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति वास्तविक आत्म मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं और अपनी खूबियों को चढ़ा-चढ़ा कर देखते हैं जिससे उन्हें वास्तविक जीवन में सफलता मिलती है।
7. सामान्य व्यक्तियों में कर्त्तव्य बोध होता है। वे किसी कार्य को जिम्मेदारीपूर्वक स्वीकार कर उसे अपनाते हैं। वे गलत तथा सही दोनों के लिए जिम्मेवार होते हैं। दूसरी ओर असामान्य व्यक्तियों में यह उत्तर दायित्व-भाव नहीं रहता है। ये सही अथवा गलत किसी के लिए भी जिम्मेवारी नहीं स्वीकारते है।
8. सामान्य व्यक्ति का सामाजिक अभियोजन कुशल होता है। ये सामाजिक मूल्य एवं मर्यादा के अनुकूल व्यवहार दिखलाते हैं। अत: वे समाज में लोकप्रिय भी रहते हैं। दूसरी ओर असामान्य व्यक्ति का सामाजिक अभियोजन कुशल नहीं होता है। ये समाज से कटे तथा विपरीत व्यवहार प्रदर्शित करने वाले होते हैं। अतः ये समाज में उपहास के पात्र होते हैं।

प्रश्न 12.
मनोवृत्ति क्या है ? इसके संघटकों का वर्णन करें।
उत्तर:
समाज मनोविज्ञान में मनोवृत्ति की अनेक परिभाषाएँ दी गई हैं। सचमुच में मनोवृत्ति भावात्मक तत्त्व का एक तंत्र या संगठन होता है। इस तरह से मनोवृत्ति ए० बी० सी० तत्त्वों का एक संगठन होता है। इन तत्त्वों को निम्न रूप से देख सकते हैं-

  • संज्ञानात्मक तत्त्व-संज्ञानात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति वस्तु के प्रति विश्वास से होता है।
  • भावात्मक तत्त्व-भावात्मक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में वस्तु के प्रति सुखद या दुखद भाव से होता है।
  • व्यवहारपरक तत्त्व-व्यवहारपरक तत्त्व से तात्पर्य व्यक्ति में मनोवृत्ति के पक्ष में तथा विपक्ष में क्रिया या व्यवहार करने से होता है।

मनोवृत्ति की इन तत्त्वों की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(i) कर्षणशक्ति- मनोवृत्ति तीनों तत्त्वों में कर्षणशक्ति होता है। कर्षणशक्ति से तालिका मनोवृत्ति को अनुकूलता तथा प्रतिकूलता की मात्रा से होता है।

(ii) बहुविधता- बहुविधता की विशेषता यह बताती है कि मनोवृत्ति के किसी तत्त्व में कितने कारक होते हैं। किसी तत्त्व में जितने कारक होंगे उसमें जटिलता भी इतनी ही अधिक होगी। जैसे सह-शिक्षा के प्रति व्यक्ति की मनोवृत्ति को संज्ञा कारक, सम्मिलित हो सकते हैं-सह-शिक्षा किस स्तर से आरंभ होना चाहिए। सह-शिक्षा के क्या लाभ हैं, सह-शिक्षा नगर में अधिक लाभप्रद होता है या शहर में आदि। बहुविधता को जटिलता भी कहा जाता है।

(iii) आत्यन्तिकता-आत्यन्तिकता से तात्पर्य इस बात से होता है कि व्यक्ति को मनोवृत्ति के तत्त्व कितने अधिक मात्रा में अनुकूल या प्रतिकूल है।

(iv) केन्द्रिता- इसमें तात्पर्य मनोवृत्ति की किसी खास तत्त्व के विशेष भूमिका से होता है। मनोवृत्ति के तीन तत्त्वों में कोई एक या दो तत्त्व अधिक प्रबल हो सकता है और तब वह अन्य दो तत्त्वों को भी अपनी ओर मोड़कर एक विशेष स्थिति उत्पन्न कर सकता है जैसे यदि किसी व्यक्ति को सह-शिक्षा की गुणवत्ता में बहुत अधिक विश्वास है अर्थात् उसका संरचनात्मक तत्त्व प्रबल है तो अन्य दो तत्त्व भी इस प्रबलता के प्रभाव में आकर एक अनुकूल मनोवृत्ति के विकास में मदद करने लगेगा।

स्पष्ट है कि मनोवृत्ति के तत्त्वों की कुछ विशेषताएँ होती हैं। इन तत्त्वों की विशेषताओं मनोवृत्ति की अनुकूल या प्रतिकूल होना प्रत्यक्ष रूप से आधारित है।

प्रश्न 13.
समूह निर्माण को समझने में टकमैन का मॉडल किस प्रकार से सहायक है ? व्याख्या करें।
उत्तर:
टकमैन का मॉडल-टकमैन (Tuckman) ने बताया है कि समूह पाँच विकासात्मक अनुक्रमों से गुजरता है। ये पाँच अनुक्रम हैं-निर्माण या आकृतिकरण, विप्लवन या झंझावात, प्रतिमान या मानक निर्माण, निष्पादन एवं समापन।
(i) निर्माण की अवस्था-जब समूह के सदस्य पहली बार मिलते हैं तो समूह, लक्ष्य एवं लक्ष्य को प्राप्त करने के संबंध में अत्यधिक अनिश्चितता होती है। लोग एक-दूसरे को जानने का प्रयत्न करते हैं और वह मूल्यांकन करते हैं कि क्या वे समूह के लिए उपयुक्त रहेंगे। यहाँ उत्तेजना के साथ ही साथ भय भी होता है। इस अवस्था को निर्माण या आकृतिकरण की अवस्था (forming stage) कहा जाता है।

(ii) विप्लवन की अवस्था-प्रायः इससे अवस्था के बाद अंतर-समूह द्वंद्व की अवस्था होती है जिसे विप्लवन या झंझावात (Storming) की अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में समूह के सदस्यों के बीच इस बात को लेकर द्वंद्व चलता रहता है कि समूह के लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है, कौन समूह एवं उसके संसाधनों को नियंत्रित करने वाला है और कौन क्या कार्य निष्पादित करने वाला है। इस अवस्था के संपन्न होने के बाद समूह में नेतृत्व करने के लक्ष्य को कैसे प्राप्त करना है इसके लिए क्या स्पष्ट दृष्टिकोण होता है।

(iii) प्रतिमान अवस्था-विप्लवन या झंझावत की अवस्था के बाद एक दूसरी अवस्था आत. जिसे प्रतिमान या मानक निर्माण (Forming) की अवस्था के नाम से जाना जाता है। इस अवधि में यूह के सदस्य समूह व्यवहार से संबंधित मानक विकसित करते हैं। यह एक सकारात्मक समूह अनन्यता के विकास का मार्ग प्रशस्त करता है।

(iv) निष्पादन (Performing)-चतुर्थ अवस्था निष्पादन की होती है। इस अवस्था तक समूह की संरचना विकसित हो चुकी होती है और समूह के सदस्य इसे स्वीकृत कर लेते हैं समूह लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में समूह अग्रसर होता है। कुछ समूहों के लिए समूह विकास की अंतिम व्यवस्था हो सकती है।

(v) समापन की अवस्था- तथापि कुछ समूहों के लिए जैसे-विद्यालय समारोह सदस्यता के लिए आयोजन समिति के संदर्भ में एक अन्य अवस्था हो सकती है जिसे समापन की अवस्था (Adjourning stige) के नाम से जाना जाता है। इस अवस्था में जब समूह का कार्य पूरा हो जाता है तब समूह भंग किया जा सकता है।

प्रश्न 14.
प्रतिबल क्या है? इसके कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रतिबल एक ऐसी शारीरिक मानसिक दबाव की अवस्था है जिसकी उत्पत्ति आवश्यकता की पूर्ति में बाधा उत्पन्न हो जाने से होती है और इसका बुरा प्रभाव व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक जगत् पर पड़ता है जिसके कारण व्यक्ति इससे किसी भी प्रकार छुटकारा पाना चाहता है। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि प्रतिबल एक दबाव की अवस्था है। यह दबाव शारीरिक या मानसिक किसी भी रूप में हो सकता है। इसकी उत्पत्ति आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा होने के कारण होती है। इसका बुरा प्रभाव शारीरिक और मानसिक जगत् पर पड़ता है, और व्यक्ति इससे छुटकारा पाना चाहता है।

साधारण प्रतिबल व्यक्ति के जीवन में गति प्रदान करनेवाली शक्ति है, जबकि अधिक तीव्र प्रतिबल अधिक घातक होते हैं। प्रतिबल की तीव्रता आवश्यकता की तीव्रता पर निर्भर करता है। व्यक्ति के प्रतिबल के प्रति सहनशीलता अलग-अलग मात्रा में पायी जाती है। प्रतिबल को निर्धारित करने वाले कई कारक हैं। इन कारकों में निराशा, संघर्ष, दबाव आदि प्रमुख हैं। व्यक्ति में मनोवैज्ञानिक, सामाजिक या शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति में बाधा उपस्थिति होती है तो ऐसी स्थिति में व्यक्ति निराशा का शिकार हो जाता है। यह प्रतिबल का प्रमुख निर्धारक है। कौलमैन ने संघर्ष को प्रतिबल का एक महत्त्वपूर्ण निर्धारक माना है। जब व्यक्ति किसी कारण वश मानसिक संघर्ष का सामना करता है तो उसमें प्रतिबल की संभावना बहुत अधिक होती है। इसके अलावा दबाव से दबाव का अनुभव करता है। यह भी प्रतिबल को निर्धारण करता है।

प्रश्न 15.
व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल से आप क्या समझते हैं? व्याख्या करें।
उत्तर:
व्यक्तित्व के आकारात्मक मॉडल के प्रतिपादक सिगमंड फ्रायड हैं। इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्तित्व के प्राथमिक संरचनात्मक तत्त्व तीन हैं-इदम् या इड (id), अहं (ego) और पराहम (super ego)। ये तत्त्व अचेतन में ऊर्जा के रूप में होते हैं और इनके बारे में लोगों द्वारा किए गए. व्यवहार के तरीकों से अनुमान लगाया जा सकता है।

इड-यह व्यक्ति की मूल प्रवृत्तिक ऊर्जा का स्रोत होता है। इसका संबंध व्यक्ति की आदिम आवश्यकताओं, कामेच्छाओं और आक्रामक आवेगों की तात्कालिक तुष्टि से होता है। यह सुखेप्सा-सिद्धांत पर कार्य करता है जिसका यह अभिग्रह होता है कि लोग सुख की तलाश करते हैं और कष्ट का परिहार करते हैं। फ्रायड के अनुसार मनुष्य की अधिकांश मूलप्रवृतिक ऊर्जा कामुक होती है और शेष ऊर्जा आक्रामक होती है। इंड को नैतिक मूल्यों, समाज और दूसरे लोगों की कोई परवाह नहीं होती है।

अहं-इसका विकास इड से होता है और यह व्यक्ति की मूलप्रवृत्तिक आवश्यकताओं की संतुष्टि वास्तविकता के धरातल पर करता है। व्यक्तित्व की यह संरचना वास्तविकता सिद्धांत संचारित होती है और प्रायः इड को व्यवहार करने के उपयुक्त तरीकों की तरफ निर्दिष्ट करता है। उदाहरण के लिए एक बालक का इड जो आइसक्रीम खाना चाहता है उससे कहता है कि आइसक्रीम झटक कर खा ले। उसका अहं उससे कहता है कि दुकानदार से पूछे बिना यदि

आइसक्रीम लेकर वह खा लेता है तो वह दण्ड का भागी हो सकता है। वास्तविकता सिद्धांत पर कार्य करते हुए बालक जानता है कि अनुमति लेने के बाद ही आइसक्रीम खाने की इच्छा को संतुष्ट करना सर्वाधिक उपयुक्त होगा। इस प्रकार इड की माँग अवास्तविक और सुखेप्सा सिद्धांत से संचालित होती है, अहं धैर्यवान, तर्कसंगत तथा वास्तविकता सिद्धांत से संचालित होता है।

पराहम्-पराहम् को समझने का और इसकी विशेषता बताने का सबसे अच्छा तरीका यह है कि इसको मानसिक प्रकार्यों की नैतिक शाखा के रूप में जाना जाए। पराहम् इड और अहं को बताता है कि किसी विशिष्ट अवसर पर इच्छा विशेष की संतुष्टि नैतिक है अथवा नहीं। समाजीकरण की प्रक्रिया में पैतृक प्राधिकार के आंतरिकीकरण द्वारा पराहम् इड को नियंत्रित करने में सहायता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बालक आइसक्रीम देखकर उसे खाना चाहता है, तो वह इसके लिए अपनी माँ से पूछता है।

उसका पराहम् संकेत देता है कि उसका यह व्यवहार नैतिक दृष्टि से सही है। इस तरह के व्यवहार के माध्यम से आइसक्रीम को प्राप्त करने पर बालक में कोई अपराध-बोध, भय अथवा दुश्चिता नहीं होगी।

इस प्रकार व्यक्ति के प्रकार्यों के रूप में फ्रायड का विचार था कि मनुष्य का अचेतन मन तीन प्रतिस्पर्धा शक्तियों अथवा ऊर्जा से निर्मित हुआ है। इड, अहं और पराहम की सापेक्ष शक्ति प्रत्येक व्यक्ति की स्थिरता का निर्धारण करती है।

Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4

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Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
उदासीन वक्र के निर्माण की विधि लिखें।
उत्तर:
उदासीन वक्र का निर्माण (Construction of Indifference Curve)- उदासीन वक्र के निर्माण के लिए तटस्थता तालिका की आवश्यकता होती है। तटस्थता तालिका ऐसी तालिका को कहते हैं जिसमें दो वस्तुओं के ऐसे दो वैकल्पिक संयोगों को प्रदर्शित किया जाता है जिसमें उपभोक्ता को समान संतुष्टि प्राप्त होती है। जब तालिका के विभिन्न संयोगों को एक वक्र में प्रस्तुत किया जाता है तो उसे तटस्थता वक्र ऋणात्मक ढलान वाला होता है क्योंकि उपभोक्ता दोनों वस्तुओं का उपभोग करना चाहता और कम वस्तुओं की तुलना में अधिक वस्तुओं को प्राथमिकता देता है।

प्रश्न 2.
एक देश में भूकंप से बहुत से लोग मारे गये उनके कारखाने ध्वस्त हो गए। इसका अर्थव्यवस्था के उत्पादन संभावना वक्र पर क्या प्रभाव पड़ेगा।
उत्तर:
बहुत से लोगों के मरने तथा कारखानों के ध्वस्त होने से संसाधनों में कमी होगी। संसाधनों की कमी होने पर संभावना वक्र बाईं ओर खिसक जाता है। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 1

प्रश्न 3.
अर्थशास्त्र में संतुलन से क्या अभिप्राय है ? समझायें।
उत्तर:
संतुलन (Equilibrium)- भौतिक विज्ञान में संतुलन का अर्थ स्थिर अवस्था से लिया जाता है। संतुलन की अवस्था में परिवर्तन की सम्भावना नहीं होती या किसी प्रकार की गति नहीं होती किन्तु अर्थशास्त्र में संतुलन का अर्थ स्थिर अथवा अर्थव्यवस्था में गतिहीनता से नहीं लिया जाता। अर्थशास्त्र में संतुलन की अवस्था उस स्थिति को कहते हैं जिसमें गति तो होती है परन्तु गति की दर में परिवर्तन नहीं होता। यह वह अवस्था है जिसमें अर्थव्यवस्था की कोई एक इकाई या भाग या सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था अपने इष्ट बिन्दु पर होती है और उनमें उस बिन्दु से हटने की कोई प्रवृत्ति नहीं होती।

प्रश्न 4.
उपयोगिता से आप क्या समझते हैं ? इसकी विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
उपयोगिता (Utility)- उपयोगिता पदार्थ का वह गुण है जिसमें किसी आवश्यकता की संतुष्टि होती है। प्रो. एडवर्ड के शब्दों में “अर्थशास्त्र में उपयोगिता के अर्थ उस संतुष्टि आनन्द या लाभ से है जो कसी व्यक्ति को धन या सम्पत्ति के उपभोग से प्राप्त होती है।” उपयोगिता का सम्बन्ध प्रयोग मूल्य (value use) से होता है। जिन वस्तुओं में प्रयोग मूल्य होता है, उसमें उपयोगिता विद्यमान होती है। उपयोगिता आवश्यकता की तीव्रता का फलन है।

उपयोगिता की विशेषताएँ (Characteristics of utility)-

  • उपयोगिता भावगत (subjective) है। यह व्यक्ति के स्वभाव, आदत व रुचि पर निर्भर करती है।
  • वस्तुओं की उपयोगिता समय तथा स्थान के साथ बदलती रहती है।
  • उपयोगिता का लाभदायकता से कोई निश्चित सम्बन्ध नहीं होता।
  • उपयोगिता कारण है तथा संतुष्टि परिणाम है।
  • उपयोगिता का किसी वस्तु को स्वादिष्टता से कोई सम्बन्ध नहीं होता।

प्रश्न 5.
प्रारम्भिक उपयोगिता, सीमान्त उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता से आपका क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
(i) प्रारंभिक उपयोगिता (Initial Utility)- किसी वस्तु की प्रथम इकाई के उपभोग करने से जो उपयोगिता प्राप्त होती है, उसे प्रारम्भिक उपयोगिता कहते हैं। मान लो एक संतरा खाने में 10 इकाइयों (यूनिटों) की उपयोगिता प्राप्त होती है तो यह उपयोगिता प्रारम्भिक उपयोगिता कहलाएगी।

(ii) सीमान्त उपयोगिता (Marginal Utility)- किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के उपभोग करने से कुल उपयोगिता में जो वृद्धि होती है, उसे सीमान्त उपयोगिता कहते हैं। मान लो एक आम खाने से कुल उपयोगिता 10 यूनिट है और दो आम खाने से कुल उपयोगिता 18 यूनिट है। ऐसी अवस्था में दूसरे आम से प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता 8 (18-10) होगी। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि किसी वस्तु की अन्तिम इकाई से प्राप्त होने वाली उपयोगिता सीमान्त उपयोगिता कहलाती है।

(iii) कल उपयोगिता (Total Utility)- किसी निश्चित समय में कुल इकाइयों के उपभोग से प्राप्त उपयोगिता कुल उपयोगिता होती है। कुल उपयोगिता की गणना करने के लिए सीमान्त उपयोगिताओं को जोड़ा जाता है।

प्रश्न 6.
व्यक्तिगत माँग वक्र की सहायता से बाजार माँग वक्र का निर्माण किस प्रकार किया जाता है ?
उत्तर:
व्यक्तिगत माँग वक्र (Individual demand curve)- व्यक्तिगत माँग वक्र वस्तु की उन मात्राओं को प्रकट करता है जिन्हें एक उपभोक्ता किसी विशेष समय पर विभिन्न कीमतों पर खरीदता है।

बाजार माँग वक्र (Market demand curve)- यह वह वक्र है जो किसी वस्तु को विभिन्न कीमतों पर उपभोक्ताओं द्वारा माँगी गई मात्राओं के जोड़ को प्रकट करता है। यह व्यक्तिगत माँग वक्रों को जोड़कर बनाया जाता है। जैसा कि नीचे चित्र में दिखाया गया है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 2

प्रश्न 7.
सीमान्त उपयोगिता तथा उपयोगिता में क्या संबंध है ?
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता में सम्बन्ध (Relationship between Marginal Utility and Total Utility)-

  • कुल उपयोगिता आरम्भ में लगातार बढ़ती है और एक निश्चित बिन्दु के पश्चात् यह घटनी शुरू हो जाती है, परन्तु सीमान्त उपयोगिता आरम्भ से ही घटना शुरू कर देती है।
  • जब कुल उपयोगिता बढ़ती है तो सीमान्त उपयोगिता धनात्मक होती है।
  • जब कुल उपयोगिता अधिकतम होती है तब सीमान्त उपयोगिता शून्य होती है।
  • जब कुल उपयोगिता घटती है तब सीमान्त उपयोगिता ऋणात्मक होती है।

प्रश्न 8.
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम समझाएँ।
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम (Law of diminishing marginal utility)- सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम इस तथ्य की विवेचना करता है कि जैसे-जैसे उपभोक्ता किसी वस्तु की अगली इकाई का उपभोग करता है अन्य बातें समान रहने पर उसे प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। एक बिन्दु पर पहुँचने पर यह शून्य हो जाती है और यदि उपभोक्ता इसके पश्चात् भी वस्तु की सेवन जारी रखता है तो यह ऋणात्मक हो जाती है।

इस नियम के लागू होने के दो मुख्य कारण हैं-

  • वस्तुएँ एक दूसरे की पूर्ण स्थानापन्न नहीं होती तथा
  • एक विशेष समय पर एक विशेष आवश्यकता की पूर्ति की जा सकती है।

प्रश्न 9.
माँग में वृद्धि तथा माँग में कमी में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
माँग में वृद्धि तथा माँग में कमी (Increase in demand and decrease in demand)-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 3

प्रश्न 10.
माँग की लोच मापने की कुल व्यय विधि समझाएँ।
उत्तर:
माँग की लोच को मापने की कुल व्यय विधि (Total outlay method to measure the elasticity of demand)- इस विधि के अन्तर्गत कीमत परिवर्तन के फलस्वरूप वस्तु एवं होने वाले कुल व्यय पर प्रभाव का अध्ययन किया जाता हैं इस विधि से केवल यह ज्ञात किया जा सकता है कि माँग की कीमत लोच इकाई के बराबर है, इकाई से अधिक है अथवा इकाई से कम। इस प्रकार इस विधि के अनुसार माँग की लोच तीन प्रकार की होती है- (i) इकाई से अधिक लोचदार, (ii) इकाई के बराबर लोच तथा (iii) इकाई से कम लोचदार माँग।

  • इकाई से अधिक लोचदार माँग (Greater than unit)- जब कीमत के कम होने पर कुल व्यय बढ़ता है और उसके बढ़ने पर कुल व्यय घटता है तब माँग की लोच इकाई से अधिक होती है।
  • इकाई के बराबर लोच (Unitary elastic)- जब कीमत में परिवर्तन होने पर कुल व्यय स्थिर रहता है, तब माँग की लोच इकाई के बराबर होती है।
  • इकाई से कम लोचदार माँग (Less than unit)- जब कीमत बढ़ने से कुल व्यय बढ़ता है और कीमत के कम होने पर कुल व्यय घटता है तो उस समय माँग की लोच इकाई से कम होती है।

प्रश्न 11.
प्रतिस्थापन प्रभाव और कीमत प्रभाव से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
प्रतिस्थापन प्रभाव (Substitution Effect)- किसी वस्तु (चाय) की कीमत बढ़ने पर जब उपभोक्ता उसकी माँग पर कम और उसकी प्रतिस्थापन वस्तु (कॉफी) की माँग अधि क करते हैं तो इसे प्रतिस्थापन प्रभाव कहते हैं।

कीमत प्रभाव (Price Effect)- आय प्रभाव और प्रतिस्थापन प्रभाव के योग को कीमत प्रभाव कहते हैं।

प्रश्न 12.
माँग के नियम की विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
माँग के नियम की विशेषताएँ (Characteristics of law of demand)-

  • माँग के नियम के अनुसार किसी वस्तु की कीमत और माँग की गई मात्रा में विपरीत संबंध होता है।
  • यह नियम माँग में परिवर्तन की दिशा का बोध कराता है, न कि उसकी मात्रा में परिवर्तन का।
  • इस नियम के अनुसार कीमत और माँग में आनुपातिक संबंध नहीं है।
  • यह नियम वस्तु की कीमत में परिवर्तन का उसकी माँगी गई मात्रा पर प्रभाव बताता है, न कि माँग में परिवर्तन का वस्तु की कीमत पर।

प्रश्न 13.
माँग के नियम के मुख्य अपवाद लिखें।
उत्तर:
माँग के नियम के मुख्य अपवाद (Exceptions to the law of demand)-माँग के नियम के मुख्य अपवाद निम्नलिखित हैं-

  • घटिया वस्तुएँ (Inferior Goods)- प्रायः घटिया वस्तुओं पर माँग का नियम लागू नहीं होतः। घटिया वस्तुओं की माँग उनकी कीमत गिरने से कम हो जाती है।
  • दिखावे की वस्तुएँ (Prestigious Goods)- माँग का नियम प्रतिष्ठामूलक वस्तुओं जैसे-हीरे-जवाहरात तथा अन्य वस्तुएँ जैसे कीमती वस्त्र, ए० सी०, कार आदि पर लागू नहीं होता।
  • अनिवार्य वस्तुएँ (Essential Goods)- अनिवार्य वस्तुएँ जैसे अनाज, नमक, दवाई आदि पर माँग का नियम लागू नहीं होता।
  • फैशन (Fashion)-फैशन में आ’ वाली वस्तुओं पर भी माँग का नियम लागू नहीं होता।

प्रश्न 14.
माँग की कीमत लोच का एकाधिकारी, वित्तमंत्री तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार से क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
(i) एकाधिकारी के लिए महत्त्व (Importance for Monopolist)- एकाधिकारी वस्तु की कीमत का निर्धारण वस्तु की माँग की लोच के आधार पर करता है। यदि वस्तु की माँग लोचदार है तो वह नीची कीमत निर्धारित करेगा। इसके विपरीत यदि माँग बेलोचदार है तो एकाधिकारी ऊँची कीमत निर्धारित करेगा।

(ii) वित्त मंत्री या सरकार के लिए महत्व (Importance for Finance Minister or Government)- सरकार अधिकतर उन वस्तुओं पर कर लगाती है जिनकी माँग बेलोचदार होती है ताकि अधिक से अधिक आगम प्राप्त हो सके। इसके विपरीत लोचदार वस्तुओं पर कर लगाने से उनकी माँग कम हो जाती है जिससे सरकार को करों के रूप में कम आगम प्राप्त हो सकती है।

(iii) अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में महत्त्व (Importance in International Trade)- जिन वस्तुओं की माँग बेलोचदार है उनके लिए एक देश अन्य देशों से अधिक कीमत ले सकता है।

प्रश्न 15.
व्यक्तिगत माँग वक्र तथा बाजार माँग वक्र में क्या अन्तर बताएँ।
उत्तर:
व्यक्तिगत माँग वक्र तथा बाजार माँग वक्र में अन्तर (Difference between individual demand curve and market demand curve)- व्यक्तिगत माँग वक्र वह वक्र है जो किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर एक उपभोक्ता द्वारा उस वस्तु की माँगी गई मात्राओं को प्रकट करता है। इसके विपरीत बाजार माँग वह वक्र है जो किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर बाजार के सभी उपभोक्ताओं द्वारा माँगी गई मात्राओं को प्रकट करता है। बाजार माँग वक्र को व्यक्तिगत वक्रों के समस्त जोड़ के द्वारा खींचा जाता है।

प्रश्न 16.
माँग की आय लोच समझाइयें।
उत्तर:
माँग की आय लोच से अभिप्राय इस बात की माप करने से है कि उपभोक्ता की आय में परिवर्तन के परिणामस्वरूप उसकी माँगी गई मात्रा में कितना परिवर्तन होता है। माँग की आय लोच को मापने के लिए निम्नलिखित सूत्र का प्रयोग किया जाता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 4
यहाँ ∠Q = माँगी गई मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन
ΔY = माँगी गई मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन
Y = प्रारम्भिक परिवर्तन
Q = प्रारम्भिक माँग

माँग की आय लोच की तीन श्रेणियाँ हैं-

  • ऋणात्मक,
  • धनात्मक तथा
  • शून्य।

प्रश्न 17.
उत्पादन फलन की विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
उत्पादन फलन की विशेषतायें-

  • उत्पादन के साधन एक दूसरे के स्थानापन्न हैं अर्थात् एक या कुछ साधनों में परिवर्तन होने पर कुल उत्पादन में परिवर्तन हो जाता है।
  • उत्पादन के साधन एक दूसरे के पूरक हैं अर्थात् चारों साधनों के संयोग से ही उत्पादन होता है।
  • कुछ साधन विशेष वस्तु के उत्पादन के लिये विशिष्ट होते हैं।

प्रश्न 18.
अल्पकाल तथा दीर्घकाल में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
अल्पकाल यह समयावधि है जिसमें उत्पादन के कुछ साधन परिवर्ती होते हैं और कुछ स्थिर। अल्पकाल में केवल परिवर्ती साधनों में परिवर्तन किया जा सकता है। इसके विपरीत दीर्घकाल एक लम्बी समयावधि है। इसमें उत्पादन के सभी साधन परिवर्ती होते हैं।

प्रश्न 19.
औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में क्या संबंध है ?
उत्तर:
औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में सम्बन्ध (Relationship between AP and MP)-

  • औसत उत्पाद तब तक बढ़ता है जब तक सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से अधिक होता है।
  • औसत उत्पाद उस समय अधिकतम होता है जब सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद के बराबर होता है।
  • औसत उत्पाद तब गिरता है जब सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से कम होता है।

प्रश्न 20.
औसत उत्पाद तथा कुल उत्पाद में सम्बन्ध बतायें।
उत्तर:
औसत उत्पाद एवं कुल उत्पाद में सम्बन्ध (Relationship between AP and TP)-

  • जब कुल उत्पाद बढ़ती दर से बढ़ता है तो औसत उत्पाद भी बढ़ता है।
  • जब कुल उत्पाद घटती दर से बढ़ता है तो औसत उत्पाद घटता है।
  • कुल उत्पाद तथा औसत उत्पाद हमेशा धनात्मक रहते हैं।

प्रश्न 21.
कुल उत्पाद, औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर:
कुल उत्पाद, औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में सम्बन्ध (Relation between TP, AP)-

  • आरम्भ में कुल उत्पाद, सीमान्त उत्पाद तथा औसत उत्पाद सभी बढ़ते हैं। इस स्थिति में सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से अधिक होता है।
  • जब औसत उत्पाद अधिकतम व स्थिर होता है तो सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद के बराबर होता है।
  • इसके बाद औसत उत्पाद और सीमान्त उत्पाद कम होता है, सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से कम होता है, शून्य होता है और ऋणात्मक होता है परन्तु औसत उत्पाद तथा कुल उत्पाद हमेशा धनात्मक होते हैं।
  • जब सीमान्त उत्पाद शून्य होता है तब कुल उत्पाद अधिकतम होता है।

प्रश्न 22.
अल्पकाल तथा अति अल्पकाल में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
अल्पकाल तथा अति अल्पकाल में अन्तर (Difference between short period and very short period)- अति अल्पकाल से अभिप्राय उस समय-अवधि से है जब बाजार में पूर्ति बेलोचदार होती है जैसे-सब्जियाँ, दूध आदि की पूर्ति। ऐसी अवधि में कीमत के घटने-बढ़ने से पूर्ति को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता। पूर्ति अपरिवर्तनशील रहती है।

प्रश्न 23.
प्रतिफल के नियम से क्या अभिप्राय है ? ये कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर:
प्रतिफल के नियम (Laws of Returns)- साधन आगतों में परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से सम्बन्धित नियम को प्रतिफल के नियम कहते हैं। दूसरे शब्दों में प्रतिफल के नियम साधन आगतों और उत्पादन के बीच व्यवहार विधि को बताते हैं। प्रतिफल के नियम इस बात का अध्ययन करते हैं कि साधनों की मात्रा में परिवर्तन करने पर उत्पादन की मात्रा में कितना परिवर्तन होता है।

प्रतिफल के नियम के प्रकार (Types of Law of returns)- प्रतिफल के नियम दो प्रकार के होते हैं- (i) साधन के प्रतिफल के नियम। पैमाने के प्रतिफल के नियम साधन के प्रतिफल के नियम अल्पकाल से संबंधित हैं जबकि पैमाने के प्रतिफल के नियम दीर्घकाल से संबंध रखते हैं।

प्रश्न 24.
साधन के प्रतिफल किसे कहते हैं ? ये कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर:
साधन के प्रतिफल (Returns to Factor)- जब उत्पादक अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखते हुए उत्पादन के एक ही साधन में परिवर्तन करके उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन करना चाहता है तो उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन के संबंध को साधन के प्रतिफल कहते हैं। साधन के प्रतिफल का सम्बन्ध परिवर्तनशील साधनों में परिवर्तन होने के कारण उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से है, जबकि स्थिर साधनों में परिवर्तन नहीं होता, परन्तु परिवर्तनशील तथा स्थिर साधनों के अनुपात में परिवर्तन हो जाता है। इसे परिवर्ती अनुपात का नियम भी कहते हैं।

साधन के प्रतिफल के प्रकार (Types of Returns to Factor) इसे बढ़ते (वर्धमान) सीमान्त प्रतिफल भी कहते हैं। साधन के बढ़ते प्रतिफल वह स्थिति है जब स्थिर साधन की निश्चित इकाई के साथ परिवर्तनशील साधन अधिक इकाइयों का प्रयोग किया जाता है। इस स्थिति में परिवर्तनशील साधनों का सीमान्त उत्पादन बढ़ता जाता है और उत्पादन की सीमान्त लागत कम होती जाती है इसलिए इसे ह्रासमान लागत का नियम भी कहते हैं। साधन के बढ़ते प्रतिफल को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया गया है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 5

प्रश्न 25.
साधन के समान प्रतिफल के तीन कारण लिखें।
उत्तर:
साधन के समान प्रतिफल के तीन कारण (Causes of constant returns of factor)- साधन के समान प्रतिफल के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

(i) स्थिर साधनों का अनुकुलतम प्रयोग (Optimum Utilisation of Fixed Factors)- नियम स्थिर साधनों का अनुकूलतम उपयोग होने के कारण क्रियाशील होता है। जैसे-जैसे परिवर्ती साधन की अधिक इकाइयाँ प्रयोग में लायी जाती हैं, एक ऐसी अवस्था आ जाती है जब स्थिर साधनों का अनुकूलतम उपयोग होता है। इससे आगे परिवर्ती साधन की और अधिक इकाइयों के उपयोग से उत्पादन की मात्रा में समान दर में वृद्धि होगी।

(ii) परिवर्तित साधनों का अनुकूलतम प्रयोग (Most Efficient Utilisation of Variable Factors)- जब स्थिर साधन के साथ परिवर्तनशील साधन की बढ़ती हुई इकाइयों का प्रयोग किया जाता है तो एक ऐसी स्थिति आती है जिसमें सबसे अधिक उपर्युक्त श्रम विभाजन सम्भव होता है। इसके फलस्वरूप परिवर्तनशील साधन जैसे श्रम का सबसे अधिक उपयुक्त प्रयोग संभव होता है तथा सीमान्त उत्पादन अधिकतम मात्रा पर स्थिर हो जाता है।

(iii) आदर्श साधन अनुपात (Ideal Factor Ratio)- जब स्थिर तथा परिवर्तनशील साधन का आदर्श अनुपात में प्रयोग किया जाता है तो समान प्रतिफल की स्थिति होती है। इस स्थिति में साधन का सीमान्त उत्पादन अधिकतम मूल्य पर स्थिर हो जाता है।

प्रश्न 26.
पैमाने के बढ़ते प्रतिफल को समझायें।
उत्तर:
पैमाने के बढ़ते प्रतिफल (Increasing returns to scale)- पैमाने के बढ़ते प्रतिफल उस स्थिति को प्रकट करते हैं जब उत्पादन के सभी साधनों को एक निश्चित अनुपात में बढ़ाये
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 6
साधनों की मात्रा (प्रतिशत में) जाने पर उत्पादन में वृद्धि अनुपात से अधिक होती है। दूसरे शब्दों में उत्पादन के साधनों में 10 प्रतिशत की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है। ऊपर चित्र में पैमाने के बढ़ते प्रतिफल को दर्शाया गया है।

चित्र से पता चलता है कि उत्पादन के साधनों में 10 प्रतिशत की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है। वह पैमाने के बढ़ते प्रतिफल की स्थिति है।

प्रश्न 27.
आन्तरिक तथा बाह्य बचतों में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
आन्तरिक तथा बाह्य बचतों में निम्नलिखित अन्तर हैं-
आन्तरिक बचतें:

  1. ये वे लाभ हैं जो किसी फर्म को अपने निजी प्रयत्नों के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं।
  2. आन्तरिक बचतों से प्राप्त होने वाले लाभ एक व्यक्तिगत फर्म तक ही सीमित होते हैं।
  3. आन्तरिक बचतें केवल बड़े पैमाने की फर्मों को प्राप्त होती हैं।
  4. आन्तरिक बचतों के उदाहरण हैं- तकनीकी बचतें, प्रबन्धकीय बचतें, विपणन बचतें आदि।

बाह्य बचतें:

  1. ये वे लाभ हैं जो समस्त उद्योग के विकसित होने पर सभी फर्मों को प्राप्त होते हैं।
  2. बाह्य बचतों से प्राप्त होने वाले लाभ उद्योगों की फर्मों को प्राप्त होते हैं।
  3. बाह्य बचतें छोटे प्रकार पैमाने की फर्मों को प्राप्त होती हैं।
  4. बाह्य बचतों के उदाहरण हैं-उत्तम परिवहन एवं संचार सुविधाओं की उपलब्धि, सहायक उद्योगों की स्थापना, कच्चे माल का सुगमता से प्राप्त होना आदि।

प्रश्न 28.
किसी साधन के सीमान्त भौतिक उत्पाद में परिवर्तन होने पर कुल भौतिक उत्पाद में परिवर्तन किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
कुल भौतिक उत्पाद और सीमान्त भौतिक उत्पाद परस्पर संबंधित हैं। अन्य आगतों को स्थिर रखकर जब परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई का प्रयोग किया जाता है तो कुल भौतिक उत्पाद में जो परिवर्तन हाता है, उसे सीमान्त भौतिक उत्पाद कहते हैं। कुल भौतिक उत्पाद सीमान्त भौतिक उत्पाद का जोड़ होता है। जब सीमान्त भौतिक उत्पाद धनात्मक होता है तो कुल भौतिक उत्पाद में वृद्धि होती है। जब सीमान्त भौतिक उत्पाद ऋणात्मक होता है तो उत्पाद कम होने लगता है। सीमान्त भौतिक उत्पाद में परिवर्तन उत्पादन की तीन अवस्थाओं को प्रकट करता है। उत्पादन की प्रथम अवस्था में सीमान्त भौतिक उत्पाद में वृद्धि होती है। उत्पादन की दूसरी अवस्था में यह धनात्मक तो रहता है, लेकिन कुल उत्पाद में वृद्धि घटती हुई दर से होती है। उत्पादन की तीसरी अवस्था में सीमान्त भौतिक उत्पाद ऋणात्मक हो जाता है और कुल उत्पाद में गिरावट आती है।

प्रश्न 29.
निजी लागत और सामाजिक लागत में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
निजी लागत (Private Cost)- निजी लागत वह लागत है जो किसी फर्म को एक वस्तु के उत्पादन में खर्च करनी पड़ती है। वस्तु के उत्पादक में उत्पादन द्वारा आगतों के खरीदने और किराए पर लेने के लिए किया गया खर्चे निजी लागत कहलाती है। जैसे-ब्याज, मजदूरी, किराया आदि।

सामाजिक लागत(Social Cost)- सामाजिक लागत वह लागत है जो सारे समाज को वस्तु के उत्पादन के लिए चुकानी पड़ती है। सामाजिक लागत पर्यावरण प्रदूषण के रूप में होती है। जैसे-कारखाने द्वारा गंदे पानी को नदी में बहाना। इससे नदी की मछलियाँ मर जाती हैं और पानी को पीने योग्य बनाने के लिए नगर निगम को अधिक खर्च करना पड़ता है।

इसी प्रकार शहर में स्थिर फैक्टरी के धुएँ से पर्यावरण के दूषित होने पर शहरी नागरिकों के डॉक्टरी खर्च और लांडरी खर्च में वृद्धि सामाजिक लागत है।

फर्म के उत्पादन की लागत से हमारा आशय निजी लागत से है, न कि सामाजिक लागत से।

प्रश्न 30.
सीमान्त तथा औसत लागत में संबंध बतायें।
उत्तर:
सीमान्त लागत (MC) तथा औसत लागत (AC) में संबंध (Relationship between AC and MC)-

  1. जब औसत लागत कम होती है, तब सीमान्त लागत औसत लागत से कम होती है।
  2. जब औसत लागत बढ़ती है सीमान्त लागत औसत लागत से अधिक होती है।
  3. सीमान्त लागत वक्र सीमान्त लागत वक्र को न्यूनतम बिन्दु पर काटता है।

प्रश्न 31.
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा की क्या प्रकृति होती है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा की प्रकृति (Nature of price line under perfect competition)- पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा क्षैतिज (Horizontal) अर्थात् X-अक्ष के समान्तर होती है। पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग कीमत का निर्धारण करता हैं फर्म उस कीमत को स्वीकार करती है। दी हुई कीमत पर एक फर्म एक वस्तु की जितनी भी मात्रा बेचना चाहती है, बेच सकती है। पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा न केवल OX-अक्ष के समान्तर होती है, अपितु औसत आगम तथा सीमान्त आगम वक्र को भी ढकती है। कीमत रेखा को पूर्ण प्रतियोगिता फर्म का माँग वक्र भी कहा जाता है।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 7

प्रश्न 32.
औसत स्थिर लागत वक्र किस प्रकार का दिखाई देता है ? यह ऐसा क्यों दिखाई देता है ?
उत्तर:
औसत स्थिर लागत (AFC) उतनी ही कम होती जाती है जितनी अधिक इकाइयों का उत्पादन किया जाता है। अतः औसत स्थिर लागत वक्र हमेशा बायें से दायें को नीचे की ओर झुकता हुआ होता है परन्तु यह कभी X अक्ष को स्पर्श नहीं करता क्योंकि औसत स्थिर लागत कभी भी शून्य नहीं हो सकती और उत्पादन का स्तर शून्य होने पर स्थिर लागत बनी रहती है।

प्रश्न 33.
एकाधिकारी प्रतियोगिता में सीमान्त आगम तथा औसत आगम में सम्बन्ध बताएँ।
उत्तर:
एकाधिकारी प्रतियोगिता में सीमान्त आगम तथा औसत आगम में सम्बन्ध (Relationship between MR and AR under Monopolistic Competition)- एकाधिकारी प्रतियोगिता में फर्म अपनी कीमत कम करके अधिक माल बेच सकती है। अत: माँग वक्र (औसत आगम वक्र) ऊपर से नीचे की ओर ढाल होता है। जब AR वक्र नीचे की ओर होता है तो MR वक्र इसके नीचे होता है। इस बात का स्पष्टीकरण नीचे तालिका तथा रेखाचित्र से किया गया है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 8
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 9

प्रश्न 34.
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा तथा कुल आगम में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा तथा कुल आगम में सम्बन्ध (Relation between price line and perfect competition under perfect competition)- पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत तथा कुल आगम में महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध है। कीमत रेखा के नीचे का क्षेत्र कुल आगम के बराबर होता है। पूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्म कीमत को स्वीकार करती है। उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत को इसे स्वीकार करना पड़ता है वह दी हुई कीमत पर अपने उत्पाद की जितनी चाहे इकाइयाँ बेच सकती है। अतः कुल आगम कीमत तथा बेची गई इकाइयों का गुणनफल होगा। रेखाचित्र में वस्तु की कीमत OP है। PA कीमत रेखा है। फर्म की विक्रय की मात्रा OQ है। अतः कुल
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 10
आगम OP × OQ होगा। यह OQRP आयत के क्षेत्रफल को प्रदर्शित करता है। अतः हम कह सकते हैं कि पूर्ण प्रतियोगिता में कुल आगम कीमत रेखा के नीचे का क्षेत्रफल के बराबर है।

प्रश्न 35.
पूर्ति के नियम के अपवाद बताइये।
उत्तर:
अपवाद (Exceptions)-

  • कीमत में और परिवर्तन की आशा।
  • कृषि वस्तुओं की स्थिति में-चूँकि कृषि मुख्य रूप से प्रकृति पर निर्भर करती हैं जो अनिश्चित होती है।
  • उन पिछड़े देशों में जिनमें उत्पादन के लिए पर्याप्त साधन नहीं पाये जाते।
  • उच्च स्तर की कलात्मक वस्तुएँ।।

प्रश्न 36.
पूर्ति के नियम की व्यवस्था कीजिए।
उत्तर:
पूर्ति का नियम (Law of supply)- अन्त बातें पूर्ववत् रहने पर वस्तु की कीमत बढ़ने पर उनकी पूर्ति बढ़ जाती है और कीमत घटने पर उसकी पूर्ति घट जाती है। वस्तु की कीमत और वस्तु की पूर्ति में सीधा सम्बन्ध होता है। वस्तु की कीमत बढ़ने पर उत्पादक के लाभ बढ़ने लगते हैं। इसलिए उत्पादक वस्तु की अधिक पूर्ति करते हैं। इसके विपरीत, कीमत कम होने पर लाभ कम होने लगते हैं, जिससे उत्पादक वस्तु की पूर्ति को कम कर देता है।

पूर्ति के नियम को निम्नलिखित सारणी और चित्र द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 11

प्रश्न 37.
बाजार पूर्ति से क्या अभिप्राय है ? इसे कैसे प्राप्त किया जाता है ?
उत्तर:
बाजार पुर्ति (Market Supply) – बाजार पूर्ति से अभिप्राय विभिन्न कीमतों पर बाजार के सभी विक्रेताओं की एक सामूहिक पूर्ति से है। व्यक्तिगत पूर्ति के जोड़ने से बाजार पूर्ति प्राप्त होती है। मान लो एक बाजार में गेहूँ के तीन विक्रेता (A, B तथा C) हैं। इनकी पूर्ति को जोड़ने से हमें बाजार पूर्ति प्राप्त होगी। बाजार पूर्ति को नीचे तालिका की सहायता से समझाया गया है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 12

प्रश्न 38.
क्या होगा यदि बाजार में प्रचलित कीमत-
(i) संतुलन कीमत से अधिक है, (ii) संतुलन कीमत से कम है ?
उत्तर:
(i) बाजार में प्रचलित कीमत के संतुलन कीमत से अधिक होने पर यह सोचते हुए कि दूसरे स्थानों से यहाँ पर अधिक लाभ कमा सकते हैं, फर्मे बाजार में प्रवेश करेंगी। परिणामस्वरूप प्रचलित कीमत पर बाजार में आधिक्य पूर्ति होगी। यह आधिक्य पूर्ति बाजार मूल्य में कमी लाएगी और बाजार कीमत कम होकर संतुलन कीमत के बराबर हो जाएगी।

(ii) इस स्थिति में बहुत सी फर्मे जिन्हें हानि हो रही होगी वे फर्मे इस उद्योग से बाहार निकल आएँगी। परिणामस्वरूप प्रचलित बाजार मूल्य पर आधिक्य माँग की स्थिति उत्पन्न होगी। आधिक्य माँग बाजार मूल्य में वृद्धि लाएगी और बाजार मूल्य संतुलन कीमत कम हो जाएगी।

प्रश्न 39.
एक पूर्ण प्रतियोगी फर्म में श्रम के श्रेष्ठ चयन की शर्त क्या है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी फर्म में श्रम में श्रेष्ठ चयन की शर्त (Condition for optimal choice of labour in perfectly competitive firm)- श्रम बाजार मे श्रम की माँग फर्मों द्वारा की जाती है। श्रम से अभिप्राय श्रमिकों के कार्य के घंटों से है न कि श्रमिकों की संख्या से। प्रत्येक फर्म का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है। फर्म को अधिकतम लाभ तभी प्राप्त होता है जबकि नीचे दी गई शर्त पूरी होती है-
W = MRPL  MRPL = MR × MPL

पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में सीमान्त आगम कीमत के बराबर होता है और कीमत सीमान्त उत्पाद के मूल्य के बराबर होती है। अतः श्रम के आदर्श (श्रेष्ठ) चयन की शर्त मजदूरी दर तथा सीमान्त उत्पाद के मूल्य में समानता है।

प्रश्न 40.
निजी आय तथा वैयक्तिक आय में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
निजी आय तथा वैयक्तिक आय में निम्नलिखित अंतर है-
निजी आय:

  1. निजी उद्यमों तथा कर्मियों द्वारा समस्त स्रोत से प्राप्त आय।
  2. यह विस्तृत अवधारणा है।
  3. इसमें निगम कर, अवितरित लाभ इत्यादि शामिल हैं।
  4. निजी आय = NI – सार्वजनिक क्षेत्र को घरेलू उत्पाद से प्राप्त आय + समस्त चालू अंतरण

वैयक्तिक आय:

  1. व्यक्तियों तथा परिवारों को प्राप्त होने वाली आय
  2. यह संकुचित अवधारणा है।
  3. इसमें ये सब शामिल नहीं हैं।
  4. वैयक्तिक आय = निजी आय – निगम कर – अवितरित लाभ

प्रश्न 41.
स्थानापन्न वस्तुओं से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
स्थानापन्न वस्तुएँ वे सम्बन्धित वस्तुएँ हैं जो एक-दूसरे के बदले एक ही उद्देश्य के लिए प्रयोग की जा सकती है। उदाहरण के लिए चाय और कॉफी। स्थानापन्न वस्तुओं में से एक वस्तु की माँग तथा दूसरी वस्तु की कीमत में धनात्मक सम्बन्ध होता है। अर्थात् एक वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी स्थानापन्न वस्तु की माँग बढ़ती है तथा कीमत कम होने पर माँग कम होती है।

प्रश्न 42.
चालू जमा खाता क्या है ?
उत्तर:
चालू खाते की जमाएँ चालू जमाएँ कहलाती हैं। चालू खाता वह खाता है जिसमें जमा की गई रकम जब चाहे निकाली जा सकती है। चूंकि इस खाते में आवश्यकतानुसार कई बार रुपया निकालने की सुविधा रहती है, इसलिए बैंक इस खाते का धन प्रयोग करने में स्वतंत्र नहीं होता। यही कारण है कि बैंक ऐसे खातों पर ब्याज बिल्कुल नहीं देता। कभी-कभी कुछ शुल्क ग्राहक से वसूल करता है।

Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3

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Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
कीमत विभेद से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
कीमत विभेद से अभिप्राय है किसी एक वस्तु को विभिन्न उपभोक्ताओं को विभिन्न कीमतों पर बेचना। एकाधिकारी की स्थिति में कीमत विभेद की संभावना हो सकती है। एकाधिकारी एक वस्तु को विभिन्न क्रेताओं को अलग-अलग कीमतों पर बेच सकता है।

प्रश्न 2.
आय के चक्रीय प्रवाह के दो आधारभूत सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:
आय का चक्रीय प्रवाह निम्नलिखित दो सिद्धान्तों पर आधारित है-

  • किसी भी विनिमय प्रक्रिया में विक्रेता अथवा उत्पादक उतनी ही मुद्रा की मात्रा प्राप्त करता है जितनी क्रेता या उपभोक्ता व्यय करता है अर्थात् क्रेताओं द्वारा खर्च की गई राशि विक्रेताओं द्वारा प्राप्त की गई राशि के बराबर होती है।
  • वस्तुएँ एवं सेवाएँ विक्रेताओं से क्रेताओं की ओर एक दिशा में प्रवाहित होती है, जबकि इन वस्तुओं और सेवाओं के लिए मौद्रिक भुगतान विपरीत दिशा में अर्थात् क्रेता से विक्रेता की ओर प्रवाहित होता है।

प्रश्न 3.
बाजार कीमत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद की परिभाषा दें।
उत्तर:
बाजार कीमतों पर शुद्ध घरेलू उत्पाद (NDPMP) का अभिप्राय एक वर्ष में एक देश की घरेलू सीमाओं में निवासियों द्वारा उत्पादित अन्तिम वस्तुओं एवं सेवाओं के मौद्रिक मूल्य से है जिसमें से स्थिर पूँजी के उपभोग को घटा दिया जाता है। इस प्रकार

बाजार कीमत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद एक देश की घरेलू सीमा में सामान्य निवासियों तथा गैर-निवासियों द्वारा एक लेखा वर्ष में उत्पादित अन्तिम वस्तुओं तथा सेवाओं के बाजार मूल्य के बराबर है। इसमें से घिसावट मूल्य घटा दिया जाता है।

बाजार कीमत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद = बाजार कीमत पर सफल घरेलू उत्पाद – पूँजी का उपभोग या घिसावट व्यय
NDPMP = GDPMP – Depreciation

प्रश्न 4.
औसत बचत प्रकृति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
औसत बचत प्रवृत्ति एक अर्थव्यवस्था के आय तथा रोजगार के एक दिए हुए स्तर पर कुल बचत और कुल आय का अनुपात है। फ्रीजर के अनुसार, “औसत बचत प्रवृत्ति, बचत और आय का अनुपात है।”
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 1

प्रश्न 5.
एक अर्थव्यवस्था की किन्हीं तीन केंद्रीय समस्याओं का नाम बतायें।
उत्तर:
एक अर्थव्यवस्था की तीन केन्द्रीय समस्याएँ निम्नलिखित हैं :

  • क्या उत्पादन किया जाता तथा कितनी मात्रा में उत्पादन किया जाए।
  • उत्पादन कैसे किया जाए ?
  • उत्पादन किसके लिए किया जाए ?

प्रश्न 6.
निम्नलिखित तालिका से माँग की लोच ज्ञात करें।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 2
उत्तर:
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 3

प्रश्न 7.
उपयोगिता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
वस्तु विशेष में किसी उपभोक्ता की आवश्यकता विशेष की संतुष्टि की निहित क्षमता अथवा शक्ति का नाम उपयोगिता है। उपयोगिता इच्छा की तीव्रता का फलन होती हैं। उपयोगिता एक मनोवैज्ञानिक धारणा है जो उपभोक्ता के मानसिक दशा पर निर्भर करता है।

प्रश्न 8.
माँग का नियम क्या है ?
उत्तर:
माँग का नियम वस्तु की कीमत और उस कीमत पर माँगी जाने वाली मात्रा के गुणात्मक संबंध को बताता है। उपभोक्ता अपनी मनोवैज्ञानिक पद्धति के अनुसार अपने व्यावहारिक जीवन में ऊँची कीमत पर वस्तु की कम मात्रा खरीदता है और कम कीमत पर वस्तु की अधिक मात्रा। उपभोक्ता की इसी मनोवैज्ञानिक उपभोग प्रवृत्ति पर माँग का नियम आधारित है। माँग का नियम यह बताता है कि अन्य बातें समान रहने पर वस्तु की कीमत एवं वस्तु की मात्रा में विपरीत संबंध पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, अन्य बातें समान रहने की दशा में किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी माँग में कमी हो जाती है तथा इसके विपरीत कीमत में कमी होने पर वस्तु के माँग में वृद्धि हो जाती है।

प्रश्न 9.
किन्हीं तीन वस्तुओं का नाम बतायें जिनकी माँग लोचदार हो।
उत्तर:
तीन लोचदार वस्तुयें निम्नलिखित हैं-

  • रेडियो
  • टेलीविजन
  • स्कूटर।

प्रश्न 10.
माँग में विस्तार एवं वृद्धि में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
माँग में विस्तार एवं वृद्धि में निम्नलिखित अन्तर हैं-
माँग का विस्तार (Extension in Demand):

  1. यह एक ऐसी दशा है, जिसमें अन्य बातों के समान रहने पर केवल कीमत में कमी के कारण वस्तु की माँग बढ़ जाती है।
  2. इसका अर्थ है वस्तु की कम कीमत पर वस्तु की अधिक माँग।
  3. माँग वक्र पर ऊपर से नीचे की ओर संचलन होता है।
  4. माँग वक्र नहीं बदलता।

माँग में वृद्धि (Increase in Demand):

  1. यह एक ऐसी दशा है, जिसमें कीमत के अलावा अन्य घटकों के कारण वस्तु की माँग में वृद्धि होती है।
  2. इसका अर्थ है वस्तु की उसी कीमत पर अधिक माँग अथवा ऊँची कीमत पर वस्तु की उतनी ही माँग।
  3. माँग वक्र दायें या ऊपर की ओर स्थानान्तरित हो जाता है।
  4. माँग वक्र बदला जाता है।

प्रश्न 11.
स्थिर लागत से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
स्थिर लागतें उस कुल खर्च का जोड़ है जो उत्पादक को उत्पादन के स्थिर साधनों की सेवाओं को खरीदने या भाड़े पर लेने के लिए खर्च करनी पड़ती है। उत्पादन स्तर के शून्य स्तर पर भी कुल स्थिर लागत अपरिवर्तित रहती है।

प्रश्न 12.
उपभोग फलन की व्याख्या करें।
उत्तर:
कीन्स के अनुसार किसी अर्थव्यवस्था का कुल उपभोग व्यय मुख्य रूप से आय पर निर्भर करता है अथवा यह कहा जा सकता है कि उपभोग आय का फलन है। अर्थात् C = f (y)

अर्थात् उपभोग (c) आय (y) का फलन है। इस प्रकार उपभोग एवं आय का संबंध उपभोग फलन कहलाता है। उपभोग फलन बताता है कि आय के स्तर में वृद्धि होने पर उपभोग में प्रत्यक्ष वृद्धि होती है। लेकिन आय के अंशतः बढ़ने पर उपभोग व्यय की वृद्धि आय की वृद्धि से कम होती है।

प्रश्न 13.
संबंधित वस्तु की कीमत में परिवर्तन का वस्तु की माँग पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
वस्तुएँ तब संबंधित होती है जब (i) एक वस्तु x की कीमत दूसरी वस्तु (y) की माँग को प्रभावित करती है अथवा (ii) एक वस्तु की माँग दूसरी वस्तु की माँग में वृद्धि या कमी लाती है संबंधित वस्तुओं की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी माँग में कमी आती है जबकि कीमत में कमी आने पर माँग में वृद्धि होती है।

स्थानापन्न वस्तुओं में से एक वस्तु की माँग तथा दूसरी वस्तु की कीमत में धनात्मक संबंध होता है अर्थात् एक वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी स्थानापन्न वस्तुओं की माँग बढ़ती है तथा कीमत कम होने पर माँग कम होती है।

पूरक वस्तुओं के संदर्भ में एक वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी पूरक वस्तु की माँग कम हो जाएगी तथा कीमत कम हो जाने पर पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाएगी।

प्रश्न 14.
पूर्ण रोजगार संतुलन और अपूर्ण रोजगार संतुलन में भेद करें।
उत्तर:

  • पूर्ण रोजगार संतुलन की अवस्था में संसाधनों का अपनी अन्तिम सीमा तक प्रयोग होता है जबकि अपूर्ण रोजगार में संसाधनों का अंतिम सीमा तक प्रयोग नहीं होता है।
  • पूर्ण रोजगार संतुलन समग्र आपूर्ति की प्रतिष्ठित संकल्पना पर आधारित है। अपूर्ण रोजगार सन्तुलन समग्र आपूर्ति के केंजियन सकल्पना पर आधारित है।
  • पूर्ण रोजगार संतुलन के दो आधार हैं- ‘से’ का बाजार नियम तथा मजदूरी कीमत नम्यता हैं जबकि अपूर्ण रोजगार संतुलन के दो आधार हैं- मजदूरी कीमत अनम्यता तथा श्रम की स्थिर सीमांत उत्पादिता।
  • चित्र के माध्यम से भी दोनों अवस्थाओं को दर्शाया जा सकता है।

Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 4

प्रश्न 15.
राजस्व घाटा क्या होता है ? इस घाटे में क्या समस्याएँ हैं ?
उत्तर:
राजस्व व्यय और राजस्व आय के अन्तर को राजस्व घाटा कहते हैं। राजस्व प्राप्तियों में कर राजस्व और गैर-कर राजस्व दोनों को ही सम्मिलित किया जाता है। इसी प्रकार राजस्व व्यय में राजस्व खाते पर योजना व्यय और गैर-योजना व्यय दोनों को ही सम्मिलित किया जाता है। राजस्व घाटे में पूंजीगत प्राप्तियों एवं पूंजीगत व्यय की मदें सम्मिलित नहीं होती।
राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ
= (योजना + गैर योजना व्यय) – (कर राजस्व + गैर कर राजस्व)

राजस्व घाटा इस बात को स्पष्ट करता है कि राजस्व प्राप्तियाँ राजस्व व्यय से कम हैं जिसकी पूर्ति सरकार को उधार लेकर अथवा परिसम्पत्तियों को बेचकर पूरी करनी पड़ेगी। इस प्रकार राजस्व घाटे के परिणामस्वरूप या तो सरकार के दायित्वों में वृद्धि हो जाती है अथवा इसकी परिसम्पत्तियों में कमी आ जाती है।

प्रश्न 16.
माँग वक्र क्या है ?
उत्तर:
जब माँग-तालिका को एक रेखाचित्र द्वारा व्यक्त किया जाता है तो इसे माँग वक्र कहते हैं। माँग वक्र यह दर्शाता है कि विभिन्न कीमतों पर किसी वस्तु की कितनी मात्राएँ खरीदी जाएंगी। माँग वक्र का झुकाव ऊपर से नीचे दाहिनी ओर होता है।

प्रश्न 17.
उत्पादन की लागतों से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
एक उत्पादक उत्पादन की प्रक्रिया में जिन आगतों का उपयोग करता है, वे उत्पादन के साधन या कारक कहलाते हैं। इन आगतों को प्राप्त करने के लिए उत्पादक अथवा फर्म को इनकी कीमत चुकानी पड़ती है। इसे उत्पादन की लागत कहते हैं।

प्रश्न 18.
शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद क्या हैं ?
उत्तर:
कुल राष्ट्रीय उत्पाद किसी एक वर्ष में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य के बराबर होता है। इस कुल राष्ट्रीय उत्पाद में से घिसावट आदि व्यय के विभिन्न मदों को घटाने के बाद जो शेष बचता है वह शद्ध राष्टीय उत्पाद है।

प्रश्न 19.
उत्पादन के चार कारक कौन-कौन से हैं और इनमें से प्रत्येक के पारिश्रमिक को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
भूमि, श्रम, पूँजी और उद्यम उत्पादन के चार कारक हैं। इन कारकों या साधनों के सहयोग से ही वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। इनमें भूमि के पारिश्रमिक को लगान, श्रम के पारिश्रमिक को मजदूरी, पूँजी के पारिश्रमिक को ब्याज तथा उद्यम के पारिश्रमिक को ब्याज कहते हैं।

प्रश्न 20.
‘प्रभावी माँग’ क्या है ?
उत्तर:
प्रभावी अथवा प्रभावपूर्ण माँग किसी अर्थव्यवस्था की संपूर्ण माँग होती है। संपूर्ण अथवा प्रभावी माँग में दो तत्त्व शामिल होते हैं- उपभोग की माँग तथा विनियोग की माँग। केन्स के अनुसार रोजगार को निर्धारित करनेवाला सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व प्रभावपूर्ण माँग है।

प्रश्न 21.
एक अर्थव्यवस्था की तीन आधारभूत आर्थिक क्रियाएं बताइये।
उत्तर:
एक अर्थव्यवस्था को तीन आधारभूत आर्थिक क्रियाएँ निम्नलिखित हैं-

  • उत्पादन- उत्पादन वह आर्थिक क्रिया है जिसके फलस्वरूप मूल्य का निर्माण होता है अथवा वर्तमान वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती हैं।
  • उपभोग- उपभोग वह आर्थिक क्रिया है जिसमें व्यक्तिगत एवं सामूहिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं का उपयोग किया जाता है।
  • निवेश- एक लेखा वर्ष की समयावधि में अर्थव्यवस्था की भौतिक पूँजी के स्टाक में वृद्धि को पूँजी निर्माण या निवेश कहते हैं।

प्रश्न 22.
उत्पादन में वृद्धि के साथ औसत स्थिर लगात क्यों घटती है ?
उत्तर:
उत्पादन प्रक्रिया में होनेवाली स्थिर लागत (TFC) को कुल उत्पादित होने वाली इकाइायों द्वारा भाग देने पर औसत स्थिर लागत (AFC) की प्राप्ति होती है।
AFC = \(\frac{\mathrm{TFC}}{\mathrm{q}}\)
जहाँ q= उत्पादन की मात्रा

उत्पादन में वृद्धि के साथ औसत स्थिर लागत घटती है क्योंकि कुल स्थिर लागत (TFC) स्थिर रहती है एवं उत्पादन की मात्रा (q) के बढ़ने पर AFC घटती है।

प्रश्न 23.
चित्र द्वारा दर्शाइए :
(अ) इकाई लोच
(ब) अनन्त लोच
(स) शून्य लोच
उत्तर:
(अ) इकाई लोच
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 5

(ब) अनन्त लोच
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 6

(स) शून्य लोच
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 7

प्रश्न 24.
सीमान्त उत्पाद (MP) एवं कुल उत्पादन (TP) में संबंध बतलाइए।
उत्तर:
सीमान्त उत्पाद एवं कुल उत्पाद में संबंध :

  • जब कुल उत्पाद तेजी से बढ़ता है, सीमान्त उत्पाद भी बढ़ता है।
  • जब कुल उत्पाद अधिकतम होता है, तब सीमान्त उत्पाद शून्य हो जाता है।
  • जब कुल उत्पाद घटता है, सीमान्त उत्पाद ऋणात्मक हो जाता है।
  • जब कुल उत्पाद घटती दर से बढ़ता है, सीमान्त उत्पाद कम होता है।

प्रश्न 25.
सकल घरेलू उत्पाद की विशेषताएँ बतलाइए।
उत्तर:
एक देश की घरेलू सीमा में उत्पादित समस्त अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के बाजार मूल्य को सकल घरेलू उत्पाद (GDPMP) कहते हैं। ये एक लेखा वर्ष के लिए आकलित किया जाता है। इसमें मूल्य ह्रास या स्थिर पूँजी पदार्थों के उपभोग का मूल्य भी शामिल किया जाता है। इसका मापन प्रचलित कीमतों पर किया जाता है।

प्रश्न 26.
उपभोग फलन की व्याख्या करें।
उत्तर:
उपभोग फलन कुल आय एवं कुल उपभोग व्यय में निहित संबंध को व्यक्त करता है। उपभोग (e), आय (y) का फलन हैं। इसे निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त किया जा सकता है-
c – f (y)
जहाँ c = उपभोग व्यय, f= फलन, y = आय का स्तर

उपभोग फलन बताता है कि आय के स्तर में वृद्धि होने पर उपभोग में प्रत्यक्ष वृद्धि होती है लेकिन आय के उत्तरोत्तर बढ़ने पर उपभोग व्यय की वृद्धि आय की वृद्धि से कम हो जाती हैं।

प्रश्न 27.
बैंक दर एवं ब्याज दर में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
बैंक दर वह दर है जिस पर केन्द्रीय बैंक सदस्य बैंकों के प्रथम श्रेणी के व्यापारिक बिलों की पुर्नकटौती करता है और उन्हें ऋण देता है।

ब्याज दर वह दर है जिस पर देश के व्यापारिक बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थाएँ ऋण देने को तैयार होती हैं।

प्रश्न 28.
प्रत्यक्ष कर के तीन विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
प्रत्यक्ष कर की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • ये कर जिस व्यक्ति पर लगाये जाते हैं, वही इन करों का भुगतान करता है। ये किसी अन्य व्यक्ति पर टाला नहीं जा सकता।
  • ये कर प्रगतिशील होते हैं।
  • ये कर अनिवार्य होते हैं।

प्रश्न 29.
एक ऐसा उत्पादन संभावना वक्र खींचिये जिसमें निम्नलिखित स्थितियों को दिखाया जा सक :
(i) संसाधनों का पूर्ण उपयोग
(ii) संसाधनों का अल्प उपयोग
(iii) संसाधनों का विकास
उत्तर:
यदि किसी अर्थव्यवस्था का उत्पादन संभावना वक्र PP है तो उस पर स्थित सभी बिन्दु B, L, M पूर्ण रोजगार की स्थिति को दर्शाते हैं। जबकि A और R जो PP वक्र के बायीं ओर है- संसाधनों के अल्प प्रयोग अर्थात् संसाधन अल्परोजगार की अवस्था में हैं। संसाधनों के विकास के कारण उत्पादन संभावना वक्र P1, P1 हो जाता है और C उसी बिन्दु इस ओर संकेत करता है।
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प्रश्न 30.
सीमांत उपयोगिता और कुल उपयोगिता की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए इनके बीच अंतर को स्पष्ट करें।
उत्तर:
एक वस्तु की विभिन्न इकाइयों के उपभोग से प्राप्त होने वाली सीमांत उपयोगिता के जोड़ को कुल उपयोगिता कहा जाता है।
TU = MU1 + MU2 …………. EMU
किसी वस्तु की अतिरिक्त इकाई का उपभोग करने से कुल उपयोगिता में होने वाली वृद्धि को सीमान्त उपयोगिता कहते हैं।
MU = TUn – TUn – 1

MU और TU में अंतर :

  • MU घटती है तो TU घटती दर पर बढ़ती है।
  • MU शून्य तो TU अधिकतम।
  • MU ऋणात्मक तो TU घटती है।

प्रश्न 31.
एक वस्तु की 4 रु० प्रति इकाई कीमत पर बाजार माँग 100 इकाइयों की है। वस्तु की कीमत बढ़ती है और माँग घट कर 75 इकाइयाँ रह जाती हैं। नई कीमत ज्ञात करें यदि वस्तु की कीमत लोच (-) है तो।
उत्तर:
P= Rs. 4, P = ? Ed = (-)
Q = 100, Q1 = 75, ΔQ = Q1 – Q = 75 – 100 = -25
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 9
नई कीमत 4 + 1 = 5 रु०

प्रश्न 32.
पूर्ण प्रतियोगिता में AR वक्र की प्रकृति की व्याख्या करें।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में एक फर्म अपने उत्पादन को उद्योग द्वारा निर्धारित मूल्य पर बेचती है जो सभी फर्मों के लिए दी गई होती है। क्योंकि फर्म कीमत स्वीकारक होती है। पूर्ण प्रतियोगिता के अन्तर्गत एक फर्म दिए हुए मूल्य पर उत्पादन की जितनी मात्रा चाहे बेच सकती है। उपरोक्त चित्र में PP मूल्य रेखा के या AR रेखा है और OP कीमत पर फर्म उत्पादन की किसी भी मात्रा को बेच सकती है। AR रेखा X अक्ष के समानान्तर होती है।
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प्रश्न 33.
किसी वस्तु की माँग के तीन प्रमुख निर्धारक तत्त्वों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
वस्तु की माँग के तीन निर्धारक तत्त्व हैं-

  • वस्तु की कीमत (Px): जब X वस्तु की कीमत बढ़ती है तब माँग की मात्रा घटती है और इसमें विपरीत भी होती है।
  • उपभोक्ता की आय : उपभोक्ता के आय के बढ़ने या घटने से सामान्य वस्तु की माँग बढ़ती या घटती है।
  • सम्भावित कीमत : वस्तु की सम्भावित कीमत के बढ़ने/घटने से उसकी वर्तमान माँग में वृद्धि या कमी हो जाएगी।

प्रश्न 34.
निम्नलिखित आंकड़ों से आय विधि द्वारा राष्ट्रीय आय का गणना करें :
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 11
उत्तर:
आय विधि द्वारा राष्ट्रीय आय = कर्मचारियों का पारिश्रमिक + स्व नियोजितों की मिश्रित आय + विदेशों से शुद्ध कारक आय + लाभ + लगान + ब्याज।
= 500 करोड़ रु० + 400 करोड़ रु० + (-) 10 करोड़ रु० + 220 करोड़ रु० + 90 करोड़ रु० + 100 करोड. रु०
= 1,300 करोड़ रु०।

प्रश्न 35.
राजकोषीय नीति क्या है ? किसी अर्थव्यवस्था में अत्यधिक माँग को सुधारने के लिए राजकोषीय उपाय क्या हैं ?
उत्तर:
राजकोषीय नीति वह नीति है जिसके द्वारा देश की सरकार निश्चित उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सरकार की आय, व्यय तथा ऋण सम्बन्धी नीति में परिवर्तन करती है।

अत्यधिक माँग को सही करने के लिए निम्नलिखित राजकोषीय नीति अपनाये जा सकते हैं-

  • सार्वजनिक निर्माण, सार्वजनिक कल्याण, सुरक्षा आदि पर सरकारी व्यय घटाना चाहिए।
  • हस्तान्तरण भुगतान तथा आर्थिक सहायता पर सार्वजनिक व्यय घटाना चाहिए।
  • करों में वृद्धि करनी चाहिए।
  • घाटे की वित्त व्यवस्था कम करनी चाहिए।
  • सार्वजनिक ऋण में वृद्धि की जाये ताकि क्रय शक्ति को कम किया जा सके। सरकार द्वारा लोगों से प्राप्त ऋणों को खर्च करने पर रोक लगानी चाहिए।

प्रश्न 36.
निम्नांकित आँकड़ों से बाजार कीमत पर (i) आय विधि तथा (ii) व्यय विधि द्वारा सकल राष्ट्रीय उत्पाद की गणना करें-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 12
उत्तर:
आय विधि द्वारा बाजार कीमत पर सकल राष्ट्रीय उत्पाद = कर्मचारियों की क्षति पूर्ति + विदेशों से शुद्ध साधन आय + शुद्ध अप्रत्यक्ष कर + लगान + ब्याज + लाभ
=800 + (-20) + 100 + 40 + 60 + 120
= 1120 – 20 = 1100 करोड़ रुपये

व्यय विधि द्वारा राष्ट्रीय उत्पाद = नियोजित का अंतिम व्यय + कर्मचारियों की क्षतिपूर्ति + विदेशों से शुद्ध आय + शुद्ध निर्यात + सरकार द्वारा अंतरिम व्यय
= 800 + 800 + 40 + (-20) + 20 + 200
= 1860 – 20 = 1840 करोड़ रुपये।

प्रश्न 37.
क्या आप जानते हैं कि अर्थव्यवस्था में व्यावसायिक बैंक ही मुद्रा का निर्माण करते हैं ?
उत्तर:
गुणित जमा विस्तार एवं सोख सृजन का अभिप्राय संपूर्ण बैंकिंग प्रणाली से है। सभी बैंक सामूहिक आधार पर माँग जमाएँ सृजित करते हैं और आरंभिक जमा से कई गुना साख सृजन करते हैं।

मुद्रा सृजन की प्रक्रिया को नीचे समझाया गया है।

मुद्रा की वह मात्रा जिसे बैंक सुरक्षित रूप से उधार दे सकता है अधिशेष आरक्षित कोष कहलाती है। माना एक व्यक्ति 1000 रुपये मूल्य का एक चेक बैंक A में जमा करवाता है। बैंक A की माँग जमा 1000 रु. है। न्यूनतम आरक्षित कोष (CRR) अनुपात 10% की स्थिति में यह बैंक 1000 का 10% अर्थात् 100 रु. CRR के रूप में अपने पास नकद कोष रखेगा तथा शेष 900 रु. ऋण देने में प्रयोग कर सकता है। वह बैंक ऋणी के नाम से अपनी शाखा में बचत खाता खोलेगा। इस प्रकार बैंक के माँग जमा खाते में अधिक राशि जमा हो जायेगी। अर्थात् ऋण देकर बैंक माँग जमाओं का सृजन करता है। माँग जमाओं के द्वारा मुद्रा सृजन में वृद्धि होती है।
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प्रश्न 38.
पूर्ण प्रतियोगी बाजार को क्या विशेतायें होती हैं ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी बाजार की निम्नांकित विशेषतायें होती हैं-

  • फर्मों का उद्योग में स्वतंत्र प्रवेश तथा निकास
  • क्रेताओं तथा विक्रेताओं की बहुत अधिक संख्या
  • वस्तु की समरूप इकाइयाँ
  • बाजार दशाओं का पूर्ण ज्ञान
  • साधनों की पूर्ण गतिशीलता
  • शून्य यातायात व्यय
  • पूर्ण रोजगार
  • क्षैतिज AR वक्र

प्रश्न 39.
“क्या उत्पादन किया जाए” की समस्या समझाइए।
उत्तर:
“क्या उत्पादन किया जाए” की समस्या (Problem of What to Produce)- प्रत्येक अर्थव्यवस्था की सबसे पहली समस्या यह है कि सीमित साधनों से किन वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन किया जाए जिससे हम अपनी अधिकतम आवश्यकताओं की संतुष्टि कर सकें। इन समस्या के उत्पन्न होने का मुख्य कारण यह है कि हमारी आवश्यकतायें अधिक हैं और उनकी पूर्ति करने के लिये साधन सीमित हैं तथा उनके वैकल्पिक प्रयोग हैं। इस समस्या के अंततः दो बातों का निर्णय करना पड़ता है।

पहला निर्णय लेना पड़ता है कि हम किस प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन करें-उपभोक्ता वस्तुओं (जैसे चीनी, घी आदि) का या पूँजीगत वस्तुएँ (मशीनों, टैक्टर, आदि या दोनों प्रकार की वस्तुओं) का। दूसरा निर्णय यह लेना पड़ता है कि उपभोक्ता वस्तुओं का कितना उत्पादन किया जाए और पूँजीगत वस्तुओं का कितना।

प्रश्न 40.
एक आर्थिक समस्या क्यों उत्पन्न होती है ? “कैसे उत्पादन किया जाए” की समस्या को समझाइए।
उत्तर:
आर्थिक समस्या असीमित आवश्यकताओं तथा सीमित साधनों (जिनके वैकल्पिक प्रयोग भी हैं) के कारण उत्पन्न होती है।

कैसे उत्पादन किया जाए ? (How to Produce)- यह अर्थव्यवस्था की दूसरी मुख्य केन्द्रीय समस्या है। इस समस्या का संबंध उत्पादन की तकनीक का चुनाव करने से है। इसके लिए श्रम-प्रधान तकनीक (Labour-intensive technique) काम में ली जाए या पूँजी-प्रधान तकनीक (Capital intensive technique) प्रयोग में लाई जाए। एक अर्थव्यवस्था को यह चुनाव करना पड़ता है कि वह कौन-सी तकनीक का प्रयोग किस उद्योग में करे। सबसे कुशल तकनीक वह है जिसके प्रयोग से समान मात्रा का उत्पादन करने के लिए सीमित साधनों की सबसे कम आवश्यकता होती है। उत्पादन न्यूनतम लागत पर करना संभव होता है। उत्पादन कुशलतापूर्वक किया जा सकता है। एक अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों की उपलब्धता और उनके मूल्यों पर उत्पादन की तकनीक का प्रयोग किया जाना चाहिए।

प्रश्न 41.
एक अर्थव्यवस्था सदैव उत्पादन संभावना वक्र पर ही उत्पादन करती है, उसके अंदर नहीं। इस कथन के पक्ष-विपक्ष में तर्क दें।
उत्तर:
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 14
यह कहना गलत है कि एक साधनों का अल्प तथा अर्थव्यवस्था सदैव उत्पादन संभावना वक्र पर ही उत्पादन करती है। यह तभी हो सकता है जब अर्थव्यवस्था में साधनों का पूर्णतः तथा कुशलता से प्रयोग किया जा रहा हो। यदि साधनों का अल्प प्रयोग, अकुशलता से किया जा रहा है तो उत्पादन संभावना वक्र के अंदर ही होगा न कि उत्पादन संभावना वक्र पर।

प्रश्न 42.
एक काल्पनिक उत्पादन संभावना अनुसूची बनायें ताकि उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु के उत्तल (Convex) हो।
उत्तर:
उत्पादन संभावना वक्र मूल बिन्दु के उन्नतोदर या उत्तल होगा यदि सीमान्त अवसर लागत कम हो रही है। अतः उत्पादन संभावना अनुसूची बनाने के लिये हम कम होती हुई सीमान्त अवसर लागत लेंगे।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 3, 15

Bihar Board 12th Psychology Important Questions Short Answer Type Part 4

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Bihar Board 12th Psychology Important Questions Short Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
अभिक्षमता के स्वरूप का वर्णन करें।
उत्तर:
किसी विशेष क्षेत्र की विशेष योग्यता को अभिक्षमता कहते हैं। अभिक्षमता विशेषताओं का एक ऐसा समायोजन है जो व्यक्ति द्वारा प्रशिक्षण के उपरांत किसी विशेष क्षेत्र का ज्ञान अथवा कौशल के अधीन की क्षमता को प्रदर्शित करता है जैसे यदि हमें गणित की किसी समस्या का समाधान ढूँढना होता है तो हम किसी गणित के जानकार व्यक्ति से सहायता लेते हैं लेकिन यदि किसी कविता (हिन्दी) में कोई कठिनाई होती है तो इसके लिए हम हिन्दी के जानकार व्यक्ति से सहायता लेते हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की ये विशिष्ट योग्यता तथा कौशल ही अभिक्षमताएँ कहलाती हैं।

प्रश्न 2.
बुद्धि क्या है? इसके स्वरूप का वर्णन करें।
उत्तर:
बुद्धि व्यक्तियों के मानसिक शक्तियों या क्षमताओं का वह समुच्चय है जिससे वह उद्देश्यपूर्ण क्रिया, विवेकशील चिंतन तथा प्रभावकारी ढंग से समायोजन करता है। इससे स्पष्ट है कि बुद्धि में कोई एक तरह की क्षमता नहीं बल्कि कई तरह की क्षमताओं का समावेश होता है। इन क्षमताओं में तीन तरह की क्षमता अर्थात उद्देश्यपूर्ण क्रिया करने की क्षमता, विवेकशील चिंता करने की क्षमता तथा प्रभावकारी ढंग से समायोजित करने की क्षमता सम्मिलित होती है।

प्रश्न 3.
निरीक्षण विधि के प्रमुख अवस्थाओं को लिखें।
उत्तर:
निरीक्षण विधि के दो प्रमुख अवस्थाएँ हैं
(i) प्रकृतिवादी प्रेक्षण–यह प्राथमिक तरीका है जिससे हम देखते हैं कि लोग भिन्न स्थितियों में कैसे व्यवहार करते हैं।

(ii) सहभागी प्रेक्षण-इसमें प्रेक्षक की प्रक्रिया में सक्रिय सदस्य के रूप में संलग्न होता है। इसके लिए वह उस स्थिति में स्वयं भी सम्मिलित हो सकता है जहाँ प्रेक्षण करना है। इस तकनीक का मानवशास्त्री बहुतायत से उपयोग करते हैं जिनका उद्देश्य होता है कि उस सामाजिक व्यवस्था का प्रथमतया दृष्टि से एक प्ररिप्रेक्ष्य विकसित कर सके जो एक बाहरी व्यक्ति को सामान्यता उपलब्ध नहीं होता है।

प्रश्न 4.
कुले के समूह विभाजन का वर्णन करें।
उत्तर:
कूले द्वारा किया गया समूह विभाजन अधिक संतोषप्रद है। इन दोनों समूहों में निम्नलिखित अंतर पाया जाता है।

  • प्राथमिक समूह का आकार छोटा होता है जैसे परिवार, जबकि गौण समूह का आकार बड़ा होता है जैसे राजनीतिक दल।
  • प्राथमिक समूह को सदस्यों में औपचारिकता नहीं होती है। जबकि गौण समूह के सदस्यों में औपचारिकता अधिक होती है।
  • प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच घनिष्ठ पारस्परिक संबंध होता है जबकि गौण समूह के सदस्यों के बीच घनिष्ठ पारस्परिक संबंध नहीं होता है।

प्रश्न 5.
मानव व्यवहार पर पड़ने वाले प्रदूषण के प्रभाव लिखें।
उत्तर:
पर्यावरणीय प्रदूषण वायु, जल तथा भूमि प्रदूषण के रूप में हो सकता है जो मानव व्यवहार को प्रभावित करता है।
(i) मानव व्यवहार पर प्रदूषण का प्रभाव-वायुमण्डल में 78% नाइट्रोजन, 21% ऑक्सीजन, तथा 0.03% कार्बन डाइऑक्साइड तथा अन्य वायु प्रदूषण के मुख्य कारण हैं। जिसका प्रभाव-मानव के स्वास्थ्य व व्यवहार पर पड़ता है।

(ii) मानव व्यवहार पर जल प्रदूषण का प्रभाव-जल प्रदूषण से तात्पर्य जल के भौतिक, रासायनिक और जैविक गुणों में ऐसा परिवर्तन से है कि उसके रूप, गंध, स्वाद से मानव के स्वास्थ्य और कृषि, उद्योग एवं वाणिज्य को हानि पहुँचे जल प्रदूषण कहलाता है। जल जीवन के लिए एक बुनियादी जरूरत है। जल प्रदूषण से विभिन्न प्रकार के मानवीय रोग जैसे पीलिया, हैजा, टायफाइड आदि फैलते हैं।

प्रश्न 6.
अंतर समूह द्वंद्व के क्या कारण हैं?
उत्तर:
अंतर समूह द्वंद्व के निम्नलिखित कारण हैं-

  • किसी छोटे से छोटे विवाद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत करना।
  • दोनों पक्षों में संप्रेक्षण का अभाव एवं दोषपूर्ण संप्रेक्षण।
  • पूर्व में किए गए किसी नुकसान का बदला लेने की भावना।
  • पूर्वाग्रही प्रत्यक्षा
  • प्रत्यक्षित असमता आदि।

प्रश्न 7.
सेवार्थी केन्द्रित चिकित्सा को संक्षेप में बताएँ।
उत्तर:
कार्ल रोजर्स द्वारा प्रतिपादित इस चिकित्सा में स्व के सम्प्रत्यय की अहम भूमिका है। सेवार्थी के अनुभवों के समक्ष, उसके प्रति सहृदय होना उनमें सुरक्षा की भावना उत्पन्न करना आदि महत्त्वपूर्ण बातें हैं ताकि समाकलित होने में सहायक सिद्ध होती है। समायोजन बुद्धि के साथ ही व्यक्तिगत संबंधों में सुधार आता है। जो कि सेवार्थी को अपनी वास्तविकता का ‘स्व’ होने में सहायता प्रदान करती है जिसमें चिकित्सक की भूमिका एक सुगमकर्ता के रूप में जानी जाती है।

प्रश्न 8.
समाजोपकारी व्यवहार की विशेषता को उदाहरण द्वारा स्पष्ट करें।
उत्तर:
समाजोपकारी व्यवहार से तात्पर्य है कि किसी हित के भाव से दूसरों के लिए कुछ करना या उनके कल्याण के बारे में सोचना।
समाजोपकारी व्यवहार की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • इसमें व्यक्तियों को लाभ पहुँचाने या उनका भला करने का लक्ष्य होना चाहिए।
  • इस व्यवहार को नि:स्वार्थ करना चाहिए।
  • व्यक्ति अपनी स्वेच्छा से करे न कि किसी प्रकार के दबाव के कारण।
  • इसमें व्यक्ति को सहायता करने के लिए कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है।
    उदाहरणार्थ यदि कोई धनी व्यक्ति अवैध तरीके से प्राप्त किया हुआ बहुत सारा धन इस आशय से दान करता है। कि उसका चित्र एवं नाम समाचारपत्रों में छप जाएगा तो उसे समाजोपयोगी व्यवहार नहीं कहा जा सकता है।

प्रश्न 9.
वैयक्तिक तथा समूह बुद्धि परीक्षण में क्या अन्तर हैं?
उत्तर:
वैयक्तिक तथा समूह बुद्धि परीक्षण में निम्नलिखित अंतर है-

वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण समूह बुद्धि परीक्षण
1. इस परीक्षण के आयोजन में श्रम एवं साथ किया जाता है। 1. समूह परीक्षण में पूरे समूह का परीक्षण एक समय अधिक लगता है।
2. इस परीक्षण का परिणाम विश्वसनीय होने के साथ-साथ शुद्ध भी होता है। 2. इस परीक्षण का परिणाम कम विश्वसनीय होता है।

 

3. ये परीक्षण कम आयु के बच्चे के लिए सर्वश्रेष्ठ है | 3. ये परीक्षण कम आयु के बच्चे के लिए जटिल होते हैं।
4. इस पद्धति में परीक्षक का प्रशिक्षित होना अत्यधिक आवश्यक है। 4. इस परीक्षण में परीक्षक का प्रशिक्षण होना अनिवार्य नहीं है।
5. इनमें प्रयोगकर्ता तथा छात्र का सीधा संबंध होने के कारण उनमें घनिष्ठता अत्यधिक होती है। 5. इस परीक्षण में प्रयोगकर्ता तथा छात्र का संबंध न होकर पूरे समूह के साथ होने के कारण घनिष्ठता नहीं होती है।

प्रश्न 10.
प्रेक्षण के लाभ एवं हानि का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
प्रेक्षण के निम्नलिखित लाभ एवं हानि है-

  • प्रेक्षण के माध्यम से प्राकृतिक या स्वाभाविक स्थिति में व्यवहार को देखने तथा उसका अध्ययन करने का अवसर प्राप्त होता है।
  • अन्य लोगों को प्रेक्षण के लिए प्रशिक्षण दिया जा सकता है अथवा किसी स्थिति में निवास करनेवाले लोगों के लिए भी इस प्रयोग का प्रेक्षण उपयोगी है।
  • प्रेक्षण से संबंधित दैनिक क्रियाएँ नित्यकर्म की भाँति होती है जो प्रायः प्रेक्षणकर्ता की दृष्टि से चूक जाती है।
  • प्रेक्षणकर्ता अनेक बार भावनाओं के अधीन होकर पूर्वाग्रह की भावना का भी समायोजन कर लेता है जिसके कारण परिणाम उचित प्राप्त नहीं होते हैं।
  • वास्तविक अनुक्रियाएँ एवं व्यवहार प्रेक्षणकर्ता की अनुपस्थिति में प्रभावित हो सकता है जो कि प्रेक्षण की दृष्टि से अनुपयोगी सिद्ध होता है।

प्रश्न 11.
साक्षात्कार कौशल का संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
मनोविज्ञान के क्षेत्र में साक्षात्कार की उपयोगिता में प्रतिदिन वृद्धि होती जा रही है। साक्षात्कार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच एक उद्देश्यपूर्ण वार्तालाप है। साक्षात्कार को अन्य प्रकार के वार्तालाप की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण संज्ञा दी जा सकती है। क्योंकि उसका एक पूर्व निर्धारित उद्देश्य होता है तथा उसकी संरचना केन्द्रित होती है। साक्षात्कार अनेक प्रकार के होते हैं जैसे-परामर्शी साक्षात्कार, रेडियो साक्षत्कार, कारक परीक्षक साक्षात्कार, उपचार साक्षात्कार, अनुसंधान साक्षात्कार आदि।

प्रश्न 12.
व्यक्ति समूह में क्यों शामिल होता है बताएँ?
उत्तर:
व्यक्ति निम्न कारणों से समूह में शामिल होते हैं

  • प्रतिष्ठा या हैसियत की दृष्टि से।
  • सुरक्षा की दृष्टि से।
  • व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक और सामाजिक आवश्यकताओं की संतुष्टि।
  • लक्ष्य की प्राप्ति।
  • ज्ञान और जानकारी या सूचना प्रदान करना।
  • आत्म सम्मान।

प्रश्न 13.
दबाव के प्रकार का वर्णन करें।
उत्तर:
दबाव के प्रकार निम्नलिखित हैं-

  • भौतिक एवं पर्यावरणीय दबाव- भौतिक दबाव वे कहलाते हैं जिनके कारण हमारी शारीरिक अवस्था में परिवर्तन पैदा होता है। पर्यावरणीय दबाव हमारे परिवेश की ऐसी अवस्थाएँ होती है जो मूलतः अपरिहार्य होती है। उदाहरणार्थ, शीतकाल की सर्दी, ग्रीष्मकाल की गर्मी आदि।
  • मनोवैज्ञानिक दबाव- मनोवैज्ञानिक दबाव वे कहलाते हैं जो हमारे मन में उत्पन्न होते हैं।
  • सामाजिक दबाव- इस प्रकार के दबाव बाह्य होते हैं और अन्य लोगों के साथ हमारी अन्तक्रियाओं के कारण पैदा होते हैं। उदाहरणार्थ, तनावपूर्ण संबंध, लड़ाई-झगड़ा आदि सामाजिक दबाव के उदाहरण हैं।

प्रश्न 14.
पर्यावरणीय चेतना को बढ़ाने की किन्हीं दो विधियों की विवेचना करें।
उत्तर:
पर्यावरणीय चेतना को बढ़ाने की दो विधियाँ निम्नलिखित हैं
(i) पर्यावरण संबंधी परिवर्तन के लिए राजी करना- प्रतिष्ठित व्यक्ति द्वारा भाषण एवं सभा के माध्यम से लोगों के आज के पर्यावरण के दुष्परिणाम को बताना और कैसे इसमें लाभदायक परिवर्तन किया जाए इसके लिए लोगों को न केवल जानकारी दें बल्कि राजी भी करें। यह काम जनसंपर्क के माध्यम जैसे समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन से किया जा सकता है।

(ii) पारितोषिक देना- पर्यावरण में समुचित परिवर्तन लाने के लिए लोगों को प्रेरित करना जरूरी है। पर्यावरण परिवर्तन संबंधी अच्छे कार्यों के लिए उन्हें पारितोषिक देना जरूरी है यह इस तरह का हो सकता है। आर्थिक लाभ (नकद पुरस्कार) उपयोगी सामान देना, प्रशंसा एवं प्रशस्ति पत्र देकर उनको पर्यावरण संबंधी आवश्यक लाभदायक परिवर्तन के लिए प्रेरित किया जा सकता है।

प्रश्न 15.
मानसिक रूप से बीमार व्यक्तियों के पुनर्वास की प्रविधियों का वर्णन करें।
उत्तर:
मनोवैज्ञानिक विकारों के उपचार के दो घटक होते हैं। पहला लक्षण में कमी आना तथा दूसरा जीवन की गुणवत्ता में सुधार आना। कम तीव्र विकारों जैसे सामान्यीकृत दुश्चिता प्रतिक्रियात्मक दुर्भीति के लक्षणों में कोई कमी आना जीवन की गुणवत्ता में सुधार से संबंधित होता है। जबकि मनोविद्लता जैसे गंभीर तथा खतरनाक मानसिक विकारों के लक्षणों में कमी आना रोगी के जीवन की गुणवत्ता में सुधार से संबंधित नहीं हो सकता। क्योंकि कई रोगी नकारात्मकता के लक्षणों से ग्रसित होते हैं। इस प्रकार के रोगियों में आराम निर्भरता लाने के लिए पुनःस्थापना की आवश्यकता होती है।

पुनःस्थापना में मुख्यतः रोगियों को व्यावसायिक चिकित्सा, सामाजिक कौशल प्रशिक्षण दिया जाता है। पुनःस्थापना का उद्देश्य रोगी को सशक्त तथा समाज का एक उत्पादक सदस्य बनाना होता है। व्यावसायिक चिकित्सा में रोगियों को कागज की थैली बनाना, मोमबत्ती आदि बनाना सिखाया जाता है जिसे वे कार्य अनुशासन आसानी से बना सकें। सामाजिक प्रशिक्षण रोगियों को भूमिका निर्वाह, अनुकरण तथा अनुदेश के लिए दिया जाता है। जिसके आधार पर वह अंतर्वैयक्तिक कौशल विकसित कर सके।

प्रश्न 16.
भारत में मुख्य सामाजिक समस्याओं का वर्णन करें।
उत्तर:
वंचना, असुविधा या अहित और भेदभाव हमारे जीवन की महत्वपूर्ण समस्याएँ हैं जो व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन एवं सामाजिक जीवन को अधिक प्रभावित करते हैं।
भारत में मुख्य सामाजिक समस्याओं में निर्धनता, अशिक्षा, असमानता, बेरोजागारी बढ़ती हुए महंगाई, स्वास्थ्य, पेयजल आदि प्रमुख हैं।

प्रश्न 17.
समूह संघर्ष क्या है? इसके कारणों का वर्णन करें।
उत्तर:
समूह संघर्ष के अन्तर्गत एक व्यक्ति या समूह या प्रत्यक्षण करते हैं कि अन्य व्यक्ति उनके विरोधी हितों को रखते हैं तथा दोनों पक्ष एक दूसरे का खण्डन करने का प्रयत्न करते रहते हैं।
समूह संघर्ष के निम्नलिखित कारण है-

  • जब एक समूह के सदस्य स्वयं की अपेक्षा दूसरे समूहों के सदस्यों से करते हैं और यह महसूस करते हैं कि वे जो भी चाहते हैं वह उसके पास नहीं है। किंतु वह दूसरे समूह के पास है।
  • संघर्ष का दूसरा कारण किसी एक के पक्ष का यह विश्वास होता है कि एक पक्ष दूसरे से श्रेष्ठ हैं और वे जो कर रहे हैं उसे होना चाहिए। जब ऐसा नहीं होता है तो दोनों पक्ष एक-दूसरे पर दोष लगाते हैं।
  • दोनों ही पक्षों में संप्रेक्षण का अभाव एवं दोषपूर्ण सम्प्रेषण संघर्ष का एक मुख्य कारण है।
  • पूर्वाग्रही प्रत्यक्षण अधिकतर संघर्ष के कारण होते हैं।

प्रश्न 18.
संचार की बाधाओं को दूर करने के उपायों का वर्णन करें।
उत्तर:
संचार में प्रथम कठिनाई भाषा की जटिलता होती है। पारस्परिक समझ के लिए शब्दों का भेद एक बड़ी बाधा है। संचार की बाधाओं को दूर करने में निम्न तत्व सहायक होते हैं। संचार स्पष्ट, प्राप्तकर्ता के प्रत्याश के अनुरूप, समुचित, समयानुसार, एकसमान, लोचदार तथा स्वीकार्य होना चाहिए। अफसरशाही व लाल फीताशाही से संचार माध्यमों का पूर्णत: मुक्त होना चाहिए।

प्रश्न 19.
अभिक्षण क्या है?
उत्तर:
किसी विशेष क्षेत्र की विशेष योग्यता को अभिक्षमता कहते हैं। अभिक्षमता विशेषताओं का एक समायोजन है जो व्यक्ति द्वारा प्रशिक्षण के उपरांत किसी विशेष क्षेत्र के ज्ञान अथावा कौशल की क्षमता को प्रदर्शित करता है। जैसे-यदि हमें गणित की किसी समस्या का समाधान ढूँढना हो तो हम किसी गणित के जानकार व्यक्ति से सहायता लेते हैं लेकिन यदि किसी हिन्दी कविता कठिनाई होती है तो इसके लिए हम हिन्दी जानकार व्यक्ति से सहायता लेते हैं। इसी में कोई समस्या होती है तो स्कूटर मेकेनिक के पास जाते हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों की ये विशिष्ट तथा कौशल ही अभिक्षमताएँ कहलाती हैं।

रक्षा करने का प्रयास करता है। जैसे-कोई प्रबल कामेच्छा से ग्रस्त व्यक्ति यदि अपनी ऊर्जा को धार्मिक क्रियाकलापों में लगाता है तो ऐसा व्यवहार प्रतिक्रिया निर्माण का उदाहरण है।

प्रश्न 20.
चेतना के तीन स्तरों के बारे में लिखें।
उत्तर:
फ्रायड के व्यक्तित्व के सिद्धान्त में सांवेगिक द्वन्द्वों के स्रोतों एवं परिणामों पर तथा इनके द्वारा की जानेवाली प्रतिक्रिया पर विचार किया गया है। ऐसा विचार करते हुए चेतना के तीन स्तरों के रूप में देता है।

  1. चेतन- इसके अर्न्तगत वे चिंतन, भावनाएँ और क्रियाएँ आती हैं जिनके प्रति लोग जागरूक रहते हैं।
  2. अवचेतन- इसके अन्तर्गत वे मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोग तभी जागरूक जब वे उनपर सावधानीपूर्वक ध्यान केन्द्रित करते हैं।
  3. अचेतन- यह चेतना का तीसरा स्तर है। इसके अन्तर्गत ऐसी मानसिक क्रियाएँ आती हैं जिसके प्रति लोग जागरूक नहीं होते हैं।

प्रश्न 21.
मन:चिकित्सा के प्रमुख प्रकारों के नाम लिखें।
उत्तर:
यद्यपि सभी मन: चिकित्साओं का उद्देश्य मानव कष्टों का निराकरण करना होता है तथापि वे संप्रत्ययों, विधियों और तकनीक में एक-दूसरे से बहुत भिन्न होते हैं। इस तरह मनः चिकित्सा को तीन व्यापक समूहों में वर्गीकृत किया जा सकता है

  1. मनोगतिक चिकित्सा
  2. व्यवहार चिकित्सा
  3. अस्तित्वपरक चिकित्सा।

इन तीनों चिकित्साओं के अनुसार मनोवैज्ञानिक समस्या के अलग-अलग कारण होते हैं। जैसे-मनोगतिक चिकित्सा व्यक्ति के मानस में विद्यमान द्वन्द्व को मनोवैज्ञानिक समस्याओं का स्रोत मानता है तो व्यवहार चिकित्सा, व्यवहार एवं संज्ञान के दोषपूर्ण अधिगम को इसकी उत्पति का कारण मानता है। इसी तरह अस्तित्वपरक चिकित्सा की अभिधारणा है कि अपने जीवन और अस्तित्व के अर्थ से सम्बन्धित प्रश्न ही मनोवैज्ञानिक समस्याओं का कारण होते हैं।

जिस तरह से ये तीनों विधियाँ मनोवैज्ञानिक समस्याओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक-दूसरे से भिन्न हैं उसी तरह मनोवैज्ञानिक समस्याओं का निराकरण भी ये अलग-अलग तरीकों से करती हैं।

प्रश्न 22.
वायु प्रदूषण क्या हैं? इसे कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?
उत्तर:
आधुनिकीकरण तथा औद्योगीकरण के कारण हमारे पर्यावरण को हवा की गुणवत्ता अत्यधिक प्रभावित हुई है। हवा हमारे तथा सभी जीव-जंतुओं के जीवन के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। वाहनों तथा उद्योगों से निकलनेवाला धुआँ, धूम्रपान आदि से हवा में खतरनाक जहर घुल जाते हैं। इसे हम वायु-प्रदूषण के नाम से जानते हैं।

हम इस समस्या के प्रति अपनी सजगता बढ़ाकर इस पर नियंत्रण कर सकते हैं-वाहनों को अच्छी हालत में रखने से या ईंधन रहित वाहन का उपयोग कर तथा धूम्रपान की आदत छोड़कर हम वायु-प्रदूषण को कम कर सकते हैं।

प्रश्न 23.
किन्हीं तीन प्रकार के रक्षायुक्तियों का वर्णन करें।
उत्तर:
फ्रायड ने विभिन्न प्रकार की रक्षायुक्तियों का वर्णन किया है। जिनमें तीन की चर्चा नीचे की जा रही है-
(a) दमन (Repression)-दमन रक्षा युक्तियों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें दुश्चिंता उत्पन्न करने वाले व्यवहार एवं विचार पूरी तरह चेतना के स्तर से विलुप्त कर दिए जाते हैं। जब लोग किसी भावना या इच्छा का दमन करते हैं तो वे उस भावना या इच्छा के प्रति बिल्कुल जागरूक नहीं होते हैं।

(b) को प्रक्षेपण (Projection)-प्रक्षेपण में व्यक्ति अपने विशेषकों को दूसरों पर आरोपित कर देता है। जैसे-किसी व्यक्ति में अगर प्रबल आक्रामक प्रवृत्तियाँ हैं तो वह दूसरे लोगों में अत्यधिक रूप से अपने प्रति होनेवाले व्यवहारों को आक्रामक देखता है।

(c) प्रतिक्रिया निर्माण (Reaction Formation)-प्रतिक्रिया निर्माण में व्यक्ति अपनी वास्तविक भावनाओं और इच्छाओं के ठीक विपरीत प्रकार का व्यवहार अपनाकर अपनी दुश्चिता से रक्षा करने का प्रयास करता है। जैसे-कोई प्रबल कामेच्छा से ग्रस्त व्यक्ति यदि अपनी ऊर्जा को धार्मिक क्रियाकलापों में लगाता है तो ऐसा व्यवहार प्रतिक्रिया निर्माण का उदाहरण है।

प्रश्न 24.
प्राथमिक समूह तथा गौण समूह में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
कूले द्वारा किया गया समूह विभाजन अधिक संतोषप्रद है। इन दोनों समूहों में निम्नांकित अंतर पाया जाता है-
प्राथमिक समूह का आकार छोटा होता है। जैसे-परिवार; जबकि गौण समूह का आकार बड़ा होता है। जैसे-राजनीतिक दल।
प्राथमिक समूह के सदस्यों में औपचारिकता नहीं होती है या कम होती है; जबकि गौण समूह के सदस्यों में औपचारिकता अधिक होती है।

प्राथमिक समूह के सदस्यों के बीच घनिष्ठ पारस्परिक सम्बन्ध होता है; जबकि गौण समूह सदस्यों के बीच घनिष्ठ पारस्परिक सम्बन्ध नहीं होता है।
प्राथमिक समूह छोटा होता है, अत: इसके सदस्यों में आमने-सामने का सम्बन्ध होता है; जबकि गौण समूह का बड़ा होता है, अतः इसके सदस्यों में आमने-सामने का सम्बन्ध नहीं होता है।

प्रश्न 25.
परामर्श का अर्थ लिखें।
उत्तर:
परामर्श एक प्राचीन शब्द है फलतः इसके अनेक अर्थ बताए गए हैं। वेबस्टर शब्दकोष के अनुसार, “परामर्श का अर्थ पूछताछ पारस्परिक तर्क-वितर्क या विचारों का पारस्परिक विनिमय है।” रॉबिन्सन ने परामर्श की अत्यन्त स्पष्ट परिभाषा देते हुए कहा है कि परामर्श में वे सभी परिस्थितियाँ सम्मिलित कर ली जाती हैं, जिससे परामर्शप्रार्थी अपने आपको पर्यावरण के अनुसार समायोजित करने में सहायता प्राप्त कर सकें। परामर्श दो व्यक्तियों से सम्बन्ध रखता है। परामर्शदाता तथा परामर्शप्रार्थी। परामर्शप्रार्थी की कुछ समस्याएँ तथा आवश्यकताएँ होती हैं जिनको वह अकेला बिना किसी की राय या सुझाव के पूरा नहीं कर सकता है। इन समस्याओं के समाधान तथा आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उसे वैज्ञानिक राय की आवश्यकता होती है और यह वैज्ञानिक राय या सुझाव कही परामर्श कहलाता है।

प्रश्न 26.
व्यक्तित्वशील गुण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
व्यक्तित्व का निर्माण अनेक प्रकार शीलगुणों से होता है। शीलगुण आपस में संयुक्त रूप से कार्य करते हैं, जिनसे व्यक्ति के जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में समायोजन को उचित दिशा एवं गति प्राप्त होती है। इसी कारण इसे सामान्य भाषा में व्यक्तित्व की विशेषताएँ भी कहा जाता है। अब प्रश्न है कि शीलगुण से क्या अभिप्राय है ? मनोवैज्ञानिकों ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि व्यक्तित्व की स्थायी विशेषताएँ जिनके कारण उनके व्यवहार में स्थिरता दिखाई पड़ती है, शीलगुण के नाम से जानी जाती है।

प्रश्न 27.
स्थापना संक्रिया का एक उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
यदि एक बच्चा रात का भोजन करने में परेशान करता है तो स्थापन संक्रिया यह होगी कि चायकाल के समय खाने की मात्रा को घटा दिया जाए। उससे रात के भोजन के समय भूख बढ़ जाएगी तथा इस प्रकार रात के भोजन के समय खाने का प्रबलन मूल्य बढ़ जाएगा।

प्रश्न 28.
बुद्धि-लब्धि क्या है? किस प्रकार मनोवैज्ञानिक बुद्धि-लब्धि प्राप्तांकों के आधार पर लोगों को वर्गीकृत करते हैं?
उत्तर:
बुद्धि-लब्धि- किसी व्यक्ति की मानसिक आयु को उसकी कालानुक्रमिक आयु से भाग देने के बाद उसको 100 से गुणा करने से उसकी बुद्धि-लब्धि प्राप्त हो जाती है।
Bihar Board 12th Psychology Important Questions Short Answer Type Part 4 1
कालानुक्रमिक आयु मनोवैज्ञानिक बुद्धि-लब्धि प्राप्तांकों के आधार पर लोगों को वर्गीकृत करते हैं। इसे निम्नलिखित तालिका द्वारा समझा जा सकता है-
बुद्धि-लब्धि के आधार पर व्यक्तियों का वर्गीकरण

बुद्धि-लब्धि वर्णनात्मक वर्गनाम जनसंख्या प्रतिशत
130 से अधिक अतिश्रेष्ठ 2.2
120 – 130  श्रेष्ठ 6.7
110 – 119 उच्च औसत 16.1
90 – 109 औसत 50.0
80 – 89 निम्न औसत 16.1
70 – 79 सीमावर्ती 6.7
70 से कम मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त/मंदित 2.2

उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि जनसंख्या के लगभग 2 प्रतिशत व्यक्तियों की बुद्धि-लब्धि 130 से अधिक होती है और उतने ही प्रतिशत व्यक्तियों की बुद्धि-लब्धि 70 से कम होती है। पहले वर्ग के लोगों को बौद्धिक रूप से प्रतिभाशाली कहा जाता है जबकि दूसरे वर्ग के लोगों को मानसिक रूप से चुनौतीग्रस्त या मानसिक रूप से मंदित कहा जाता है। ये दोनों वर्ग अपनी संज्ञानात्मक, संवेगात्मक तथा अभिप्रेरणात्मक विशेषताओं में सामान्य लोगों की अपेक्षा पर्याप्त भिन्न होते हैं।

प्रश्न 29.
सामान्य कौशल क्या है? समझाएँ।
उत्तर:
ये कौशल मूलतः सामान्य स्वरूप के हैं और इनकी आवश्यकता सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिक को होती है चाहे उनकी विशेषता का क्षेत्र कोई भी हो। ये कौशल सभी व्यावसायिक मनोवैज्ञानिक के लिए आवश्यक है चाहे वे नैदानिक एवं स्वास्थ्य मनोविज्ञान के क्षेत्र के हों, औद्योग़िक/संगठनात्मक, सामाजिक तथा बौद्धिक कौशल दोनों शामिल होते हैं। यह उपेक्षा की जाती है कि किसी भी प्रकार का व्यावसायिक प्रशिक्षण उन विद्यार्थियों को नहीं दिया जाना चाहिए जिनमें इन कौशलों का अभाव हो। एक बार इन कौशलों का प्रशिक्षण प्राप्त कर लेने के बाद ही किसी विशिष्ट प्रशिक्षण देकर उन कौशलों का अग्रिम विकास किया जा सकता है?

प्रश्न 30.
साक्षात्कार और प्रेक्षण में भेद स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
साक्षात्कार की विधि में परीक्षणकर्ता व्यक्ति से वार्तालाप करके सूचनाएँ एकत्र करता है। इसे प्रयुक्त होते हुए देखा जा सकता है जब कोई परामर्शदाता किसी सेवार्थी से अंत:क्रिया करता है, एक विक्रेता घर-घर जाकर किसी विशिष्ट उत्पाद की उपयोगिता के संबंध में सर्वेक्षण करता है, कोई नियोक्ता अपने संगठन के लिए कर्मचारियों का चयन करता है अथवा कोई पत्रकार राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों पर महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों का साक्षात्कार करता है।

प्रेक्षण में व्यक्ति को नैसर्गिक या स्वाभाविक दशा में घटित होने वाली तात्क्षणिक व्यवहारपरक घटनाओं का व्यवस्थित, संगठित तथा वस्तुनिष्ठ ढंग से अभिलेख तैयार किया जाता है। कुछ गोचर, जैसे-‘मातृ-शिशु अंत:क्रिया’ का अध्ययन प्रेक्षण-प्रणाली द्वारा सरलता से किया जा सकता है। प्रेक्षण-प्रणाली की एक बड़ी समस्या यह है कि इसमें स्थिति पर प्रेक्षक का बहुत कम नियंत्रण होता है और प्रेक्षण से प्राप्त विवरण की प्रेक्षण द्वारा व्यक्तिनिष्ठ व्याख्या की जा सकती है।

प्रश्न 31.
मनोमितिक उपागम और सूचना प्रक्रमण उपागम में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
मनोमितिक उपागम में वृद्धि को अनेक प्रकार की योग्यताओं का एक समुच्चय माना जाता है। यह व्यक्ति द्वारा किए जाने वाले निष्पादन को उसकी संज्ञानात्मक योग्यताओं के एक सूचकांक के रूप में व्यक्त करता है। दूसरी ओर, सूचना प्रक्रमण उपागम में बौद्धिक तर्कना तथा समस्या समाधान में व्यक्तियों द्वारा उपयोग की जाने वाली प्रक्रियाओं का वर्णन किया जाता है। इस उपागम का प्रमुख केंद्रबिंदु एक बुद्धिमान व्यक्ति द्वारा की जाने वाली विभिन्न क्रियाओं पर होता है। बुद्धि की संरचना तथा
उसमें अंतर्निहित विभिन्न विमाओं पर अधिक ध्यान न देकर सूचना प्रक्रमण उपागम बुद्धिमत्तापूर्ण व्यवहारों में अंतर्निहित संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं के अध्ययन पर अधिक बल देता है।

प्रश्न 32.
बुद्धि संरचना मॉडल की संक्षेप में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जे० पी० गिलफोर्ड ने बुद्धि संरचना मॉडल (Structure of intellect model) प्रस्तुत किया जिसमें बौद्धिक विशेषताओं को तीन विमाओं में वर्गीकृत किया गया है-संक्रियाएँ, विष्यवस्तु तथा उत्पाद। संक्रियाओं को तीन तात्पर्य बुद्धि द्वारा की जाने वाली क्रियाओं से है। इसमें संज्ञान, स्मृति अभिलेखन, स्मृति प्रतिधारण, अपसारी उत्पादन, अभिसारी उत्पादन तथा मूल्यांकन की क्रियाएँ होती हैं। विषयवस्तु का संबंध उस सामग्री या सूचना के स्वरूप से होता है जिस पर व्यक्ति को बौद्धिक क्रियाएँ करनी होती हैं।

इसमें चाक्षुष श्रवणात्मक, प्रतीकात्मक (जैसे-अक्षर तथा संख्याएँ), अर्थविषयक (जैसे-शब्द) तथा व्यवहारात्मक (व्यक्तियों के व्यवहार, अभिवृत्तियों,, आवश्यकताओं आदि से संबंधित सूचनाएँ) रहती हैं। उत्पादन का अर्थ उस स्वरूप से होता है जिसमें व्यक्ति सूचनाओं का प्रक्रम करता है। उत्पादों को इकाई, वर्ग संबंध, व्यवस्था, रूपांतरण तथा निहितार्थ में वर्गीकृत किया जाता है। चूँकि इस वर्गीकरण में 6 × 5 × 6 वर्ग बनते हैं इसलिए इस मॉडल में 180 प्रकोष्ठ होते हैं। प्रत्येक प्रकोष्ठों में एक से अधिक कारक भी हो सकते हैं। प्रत्येक कारक का वर्णन तीनों विमाओं के द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 33.
वैयक्तिक तथा समूह बुद्धि परीक्षण में भेद स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण वह परीक्षण होता है जिसके द्वारा एक समय में एक ही व्यक्ति का बुद्धि परीक्षण किया जा सकता है। समूह बुद्धि परीक्षण को एक साथ बहुत-से व्यक्तियों को समूह में दिया जा सकता है। वैयक्तिक परीक्षण में आवश्यक होता है कि परीक्षणकर्ता परीक्षार्थी से सौहार्द्र स्थापित करे और परीक्षण सत्र के समय उसकी भावनाओं, भावदशाओं और अभिव्यक्तियों के प्रति संवेदनशील रहे।

समूह परीक्षण में परीक्षणकर्ता को परीक्षार्थियों की निजी भावनाओं से परिचित होने का अवसर नहीं मिलता। वैयक्तिक परीक्षणों में परीक्षार्थी पूछे गए प्रश्नों का मौखिक अथवा लिखित रूप में भी उत्तर दे सकता है अथवा परीक्षणकर्ता के आदेशानुसार वस्तुओं का प्रहस्तन भी कर सकता है। समूह परीक्षण में परीक्षार्थी सामान्यतः लिखित उत्तर देता है और प्रश्न भी प्रायः बहुविकल्पी स्वरूप के होते हैं।

प्रश्न 34.
व्यक्तित्व को आप किस प्रकार परिभाषित करते हैं? व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागम कौन-से हैं?
उत्तर:
व्यक्तित्व का तात्पर्य सामान्यतया व्यक्ति के शारीरिक एवं बाह्य रूप से होता है। मनोवैज्ञानिक शब्दों में व्यक्तित्व से तात्पर्य उन विशिष्ट तरीकों से है जिनके द्वारा व्यक्तियों और स्थितियों के प्रति अनुक्रिया की जाती है। लोग सरलता से इस बात का वर्णन कर सकते हैं कि वे किस तरीके के विभिन्न स्थितियों के प्रति अनुक्रिया करते हैं। कुछ सूचक शब्दों (जैसे-शर्मीला, संवेदनशील, शांत, गंभीर, स्फूर्त आदि) का उपयोग प्राय: व्यक्तित्व का वर्णन करने के लिए किया जाता है। ये शब्द व्यक्तित्व के विभिन्न घटकों को इंगित करते हैं। इस अर्थ में व्यक्तित्व से तात्पर्य उन अनन्य एवं सापेक्ष रूप से स्थिर गुणों से है जो एक समयावधि में विभिन्न स्थितियों में व्यक्ति के व्यवहार की विशिष्टता प्रदान करते हैं। व्यक्तित्व व्यक्तियों की उन विशेषताओं को भी कहते हैं जो अधिकांश परिस्थितियों में प्रकट होती हैं।
व्यक्तित्व के अध्ययन के प्रमुख उपागम निम्नलिखित हैं

  1. प्रारूप उपागम
  2. विशेषक उपागम
  3. अंतःक्रियात्मक उपागम।

Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 2

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प्रश्न 1.
इच्छा और माँग में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
इच्छाएँ अनन्त और असीमित होती हैं, परंतु इन असीमित इच्छाओं की पूर्ति के साधन सीमित होते हैं। इसका संबंध मनुष्य की कल्पनाओं से होता है।

एक निश्चित कीमत पर एक उपभोक्ता किसी वस्तु की जितनी मात्रा खरीदने को इच्छुक तथा योग्य होता है, उसे माँगी गई मात्रा कहा जाता है। इस प्रकार माँगी गई वह मात्रा जो एक निश्चित कीमत पर खरीदी जाती है माँग कहलाती है।

प्रश्न 2.
बाजार कीमत और सामान्य कीमत में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
बाजार कीमत और सामान्य कीमत में निम्नलिखित अंतर है-
बाजार कीमत:

  1. यह अल्पकालीन साम्य द्वारा निर्धारित होता है।
  2. यह अस्थायी संतुलन का परिचायक कहा जाता है।
  3. इस पर माँग पक्ष का ही प्रभाव पड़ता है, पूर्ति पक्ष निष्क्रिय रहती है।
  4. यह औसत लागत व्यय के ऊपर या नीचे होता है।
  5. यह सभी प्रकार की वस्तुओं का हो सकता है।

सामान्य कीमत:

  1. यह दीर्घकालीन साम्य द्वारा निर्धारित होता है।
  2. यह अस्थायी संतुलन की ओर संकेत करता है।
  3. इस पर पूर्ति पक्ष का अधिक प्रभाव पड़ता है।
  4. यह औसत लागत व्यय के समान या उससे अधिक होने की प्रवृत्ति रखता है।
  5. यह केवल पुनरुत्पादनीय वस्तुओं का ही हो सकता है।

प्रश्न 3.
उत्पादन संभावना वक्र से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
वस्तु के पूर्व निर्धारित स्तरों पर उत्पादन होने की दशा में दूसरी वस्तु के अधिकतम संभव उत्पादन को दर्शाने वाली रेखा ही उत्पादन संभावना वक्र है। सामान्यतः यह वक्र दाहिनी ओर ढालू होता है।

प्रश्न 4.
गिफिन विरोधाभास क्या है ? समझाएँ।
उत्तर:
जब उपभोग की दो वस्तुओं में एक वस्तु घटिया वस्तु हो तथा दूसरी श्रेष्ठ वस्तु हो तब गिफिन का विरोधाभास उत्पन्न होता है घटिया वस्तुएँ वे होती हैं जिसका उपभोग अपनी सीमित आय से तथा श्रेष्ठ वस्तु की ऊँची कीमत के कारण करता है ऐसी दशा में घटिया वस्तु की कीमत में जब कमी होती है तब उपभोक्ता कीमत के घटने के कारण सृजित अतिरिक्त क्रयशक्ति से अच्छी वस्तु का उपभोग बढ़ा देता है तथा घटिया वस्तु का उपभोग घटा देता है। इस प्रकार घटिया वस्तु की कीमत में कमी होने पर उसकी माँग में कमी होती है। माँग के उस विरोधाभास को गिफिन विरोधाभास के नाम से जाना जाता है।

प्रश्न 5.
सामान्य वस्तुओं और घटिया वस्तुओं में क्या अंतर है ?
उत्तर:
सामान्य वस्तुओं में आय माँग वक्र धनात्मक ढाल वाला होता है, अर्थात् बायें से दायें ऊपर चढ़ता हुआ होता है। श्रेष्ठ वस्तुओं का धनात्मक ढाल वाला आय माँग वक्र यह बतलाता है कि उपभोक्ता की आय में प्रत्येक वृद्धि उसकी माँग में भी वृद्धि करती है तथा इसके विपरीत आय की प्रत्येक कमी सामान्य दशाओं में माँग में भी कमी उत्पन्न करती है।

वे वस्तुएँ जिन्हें उपभोक्ता हेय दृष्टि से देखता है और पर्याप्त आय न होने पर उपभोग करता है, घटिया वस्तुएँ कहलाती हैं। जैसे-मोटा अनाज, मोटा कपड़ा आदि। ऐसी स्थिति में जैसे-जैसे उपभोक्ता की आय बढ़ती है वह घटिया वस्तुओं का उपभोग घटाकर श्रेष्ठ वस्तुओं का उपभोग बढ़ाता जाता है, अर्थात् घटिया वस्तुओं के लिए आय माँग वक्र ऋणात्मक ढाल वाला बायें से दायें नीचे गिरता हुआ होता है।

प्रश्न 6.
साधन के घटते प्रतिफल के नियम को समझाइए।
उत्तर:
जिस पैमाने में उत्पादन के साधन बढ़ाने पर उससे कम अनुपात में उत्पादन बढ़े तो उस पैमाने को घटते हुए प्रतिफल की संज्ञा दी जाती है। जैसे-यदि साधनों को 10 प्रतिशत बढ़ाया जाता है तथा उत्पादन 7 प्रतिशत बढ़ता है तो इस दशा को पैमाने के घटते प्रतिफल की संज्ञा दी जाती है।

प्रश्न 7.
एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता बाजार का वर्णन कीजिए।
अथवा, एकाधिकार की विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
विशेषताएँ (Features)- एकाधिकार की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • एक विक्रेता तथा अधिक क्रेता।
  • एकाधिकारी फर्म और उद्योग में अन्तर नहीं होता।
  • एकाधिकारी बाजार में नई फर्मों के प्रवेश में बाधाएँ होती हैं।
  • वस्तु की कोई निकट प्रतिस्थापन वस्तु नहीं होती।
  • कीमत नियंत्रण एकाधिकारी द्वारा किया जाता है।
  • एकाधिकार में औसत संप्राप्ति और सीमान्त वक्र अलग-अलग होते हैं।
  • एकाधिकारी विभिन्न क्रेताओं से अलग-अलग कीमत वसूल कर सकता है, जिसे कीमत विभेद नीति कहते हैं।

प्रश्न 8.
पूरक वस्तु को उदाहरण के साथ परिभाषित करें।
उत्तर:
वे वस्तुएँ, जिनका एक के बिना दूसरे का प्रयोग संभव नहीं है, पूरक वस्तुएँ कहलाती हैं। जैसे-कलम और स्याही, पेट्रोल और कार, मोबाइल और सिम, सूई और धागा पूरक वस्तुएँ हैं। इनमें एक के अभाव में दूसरे का प्रयोग संभव नहीं है। कार है और पेट्रोल नहीं है तो कार नहीं चल सकता। इसे चलाने के लिए पेट्रोल का होना आवश्यक है। इसी तरह बिना सिम के मोबाइल कार्य नहीं कर सकता। मोबाइल को चलाने के लिए सिम का होना आवश्यक है। इस तरह कार और पेट्रोल तथा मोबाइल और सिम पूरक वस्तुएँ हैं।

प्रश्न 9.
एक तीन क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में आय एवं उत्पादन के चक्रीय प्रवाह को समझाइए।
अथवा, उत्पादन, आय और व्यय के चक्रीय प्रवाह से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
प्रत्येक अर्थव्यवस्था में होने वाली आर्थिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप उत्पादन, आय एवं व्यय का चक्रीय प्रवाह निरंतर चलता रहता है। इसका न आदि है और न अंत। उत्पादन आय को जन्म देता है और प्राप्त आय से वस्तुओं और सेवाओं की माँग की जाती है और माँग को पूरा करने के लिए व्यय किया जाता है। अर्थात् आय व्यय को जन्म देता है। व्यय से उत्पादकों को आय होती है और वह फिर उत्पादन को जन्म देता है।
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 2, 1

प्रश्न 10.
‘केन्द्रीय बैंक अन्तिम ऋणदाता है।’ कथन को स्पष्ट करें।
उत्तर:
जब व्यावसायिक बैंकों या मुद्रा बाजार की अन्य संस्थाओं को ऋण प्राप्त करने का कोई दूसरा साधन नहीं रहता है तो ऐसी स्थिति में अंतिम ऋणदाता के रूप में केन्द्रीय बैंक उसकी सहायता करता है। इस संबंध में हाटे ने ठीक ही कहा है, “केन्द्रीय बैंक अंतिम समय का ऋणदाता है।”

प्रश्न 11.
विदेशी मुद्रा की माँग एवं पूर्ति के तीन-तीन स्रोत बताइए।
उत्तर:
विदेशी मुद्रा की माँग निम्नलिखित कार्यों के लिए होती है-

  • आयात का भुगतान करने के लिए।
  • विदेशी अल्पकालीन ऋणों के भुगतान के लिए।
  • विदेशी दीर्घकालीन ऋणों के भुगतान के लिए।

एक लेखा वर्ष की अवधि में एक देश को समस्त लेनदारियों के बदले जितनी मुद्रा प्राप्त होती है, उसे विदेशी मुद्रा की पूर्ति कहा जाता है। इसके स्रोत हैं-

  • निर्यात,
  • विदेशों द्वारा देश में निवेश तथा
  • विदेशों से प्राप्त भुगतान।

प्रश्न 12.
कुल राष्ट्रीय उत्पाद तथा शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
किसी देश के अंतर्गत एक वर्ष में जितनी वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है, उनके मौद्रिक मूल्य को कुल राष्ट्रीय उत्पाद कहा जाता है। इसे इस रूप में व्यक्त किया जाता है-

कुल राष्ट्रीय उत्पाद (GNP) = कुल घरेलू उत्पाद (GDP) + देशवासियों द्वारा विदेशों में अर्जित आय – विदेशियों द्वारा देश में अर्जित आय।

लेकिन कुल राष्ट्रीय उत्पाद में से घिसावट का व्यय घटा देने पर जो शेष बचता है उसे शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद कहा जाता है। इस प्रकार कुल राष्ट्रीय उत्पाद की धारणा एक विस्तृत धारणा है, जिसके अंतर्गत शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद आ जाता है।

प्रश्न 13.
कुल घरेलू उत्पाद तथा शुद्ध घरेलू उत्पाद में क्या अंतर है ? बताएँ।
उत्तर:
किसी देश की सीमा में उत्पादित सभी अंतिम वस्तुओं और सेवाओं के सकल मूल्य को कुल घरेलू उत्पाद कहा जाता है। इसमें घिसावट भी शामिल होता है।

इसके विपरीत कुल घरेलू उत्पाद में से घिसावट निकालने पर जो शेष बचता है उसे शुद्ध घरेलू उत्पाद कहा जाता है। यह देश की सीमा में उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का शुद्ध मूल्य होता है।

प्रश्न 14.
सरकार के बजट से आप क्या समझते हैं ?
अथवा, सरकारी बजट का अभिप्राय क्या है ?
उत्तर:
आगामी आर्थिक वर्ष के लिए सरकार के सभी प्रत्याशित राजस्व और व्यय का अनुमानित वार्षिक विवरण बजट कहलाता है। सरकार कई प्रकार की नीतियाँ बनाती है। इन नीतियों को लागू करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। सरकार आय और व्यय के बारे में पहले से ही अनुमान लगाती है। अतः बजट आय और व्यय का अनुमान है। सरकारी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए यह एक महत्वपूर्ण उपकरण है।

प्रश्न 15.
खाद्यान्न उपलब्धता गिरावट सिद्धांत से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
1998 के नोबेल पुरस्कार विजेता भारतीय अर्थशास्त्री प्रो. अमर्त्य सेन ने एक नये सिद्धांत का प्रतिपादन किया है, जिसे खाद्यान्न उपलब्धता गिरावट सिद्धांत के नाम से जाना जाता है। इस सिद्धांत के अनुसार बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण खाद्यान्न के उत्पादन में कमी आती है। फलतः खाद्यान्न की पर्ति माँग की तलना में कम हो जाती है। पर्ति के सापेक्ष खाद्यान्न की आंतरिक माँग खाद्यान्न की कीमतों को बढ़ाती है जिसके परिणामस्वरूप निर्धन व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता से वंचित हो जाते हैं और क्षेत्र में भूखमरी की समस्या उत्पन्न होती है।

प्रश्न 16.
एक द्वि-क्षेत्र अर्थव्यवस्था से आय के चक्रीय प्रवाह को दर्शायें।
उत्तर:
परिवार मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए फर्मों को साधन-सेवाएँ प्रदान करते हैं। इन सेवाओं का प्रयोग कर फर्मे वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करते हैं और उत्पादित वस्तुओं को परिवार को उनकी सेवाओं के बदले देती हैं। इस प्रकार परिवार और फर्मों के मध्य साधन सेवाओं और वस्तुओं का आदान-प्रदान या प्रवाह चक्रीय रूप से चलता रहता है। इसे वास्तविक प्रवाह कहा जाता है। वास्तविक प्रवाह का तात्पर्य परिवार और फर्मों के मध्य साधन सेवाओं और वस्तुओं के प्रवाह से है। साधन-सेवाओं और वस्तुओं का भुगतान मुद्रा के रूप में होता है। साधन सेवाओं के बदले फर्मे परिवारों को सेवा भुगतान देती है तथा वस्तु पूर्ति के बदले परिवार फर्मों को वस्तुओं का भुगतान देते हैं। इस प्रकार सेवा भुगतान के रूप में फर्मों से परिवार को तथा . वस्तु भुगतान के रूप में परिवार से फर्मों को निरंतर आय का मुद्रा के रूप में प्रवाह होता है। इसे आय का प्रवाह या मुद्रा प्रवाह कहा जाता है। चित्र के माध्यम से भी इसे दर्शाया जा सकता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 2, 2

प्रश्न 17.
उपभोक्ता संतुलन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
अर्थशास्त्र में उपभोक्ता संतुलन से अभिप्राय उस स्थिति से है जब एक उपभोक्ता दी हुई आय से एक या दो वस्तुओं को इस प्रकार खरीदता है कि उसे अधिकतम संतुष्टि होती है और उसमें परिवर्तन लाने की कोई प्रवृत्ति जुड़ी होती है।

प्रश्न 18.
प्रत्यक्ष कर तथा अप्रत्यक्ष कर में अंतर करें।
उत्तर:
प्रत्यक्ष कर तथा अप्रत्यक्ष कर में निम्नलिखित अंतर है-
प्रत्यक्ष कर:

  1. इस कर को टाला नहीं जा सकता है।
  2. यह कर प्रगतिशील होता है। आय में वृद्धि के साथ इसमें वृद्धि होती है।
  3. आय कर, सम्पत्ति कर, निगम कर इसके उदाहरण हैं।

अप्रत्यक्ष कर:

  1. जिसे व्यक्ति को यह कर चुकाना पड़ता है वह इसे दूसरे व्यक्ति पर टाल सकता है।
  2. यह प्रगतिशील नहीं होता है।
  3. बिक्री कर, उत्पाद शुल्क और सीमा शुल्क अप्रत्यक्ष कर के उदाहरण हैं।

प्रश्न 19.
दोहरी गणना की समस्या से क्या तात्पर्य है ? इससे कैसे बचा जाता है ?
उत्तर:
दोहरी गणना का तात्पर्य है किसी वस्तु के मूल्य की गणना एक बार से अधिक करना। इसके फलस्वरूप उत्पादित वस्तु और सेवाओं के मूल्य में अनावश्यक रूप से वृद्धि हो जाती है। उदाहरणार्थ, एक किसान एक टन गेहूँ 1400 रु० में आटा मिल को बेचता है। आटा मिल उसका आटा बनाकर 1600 रु० में डबल रोटी बनाने वाले को बेच देता है। डबल रोटी वाला उसका डबल रोटी बनाकर 1800 रु० में दुकानदार को बेचता है और दुकानदार उसे अंतिम ग्राहक को 1900 रु० में बेच देता है। अतः उत्पाद का मूल्य = 1400 रु० + 1600 रु० + 1800 रु० + 1900 रु० = 6700 रु०। इस प्रकार दोहरी गणना के कारण उत्पादन मूल्य 6700 रु० हो जाता है, जबकि वास्तव में केवल 1400 + 200 रु० + 200 रु० + 100 रु० = 1900 रु० के बराबर मूल्य वृद्धि होती है।

दोहरी गणना की समस्या से बचने की दो विधियाँ हैं, जो इस प्रकार हैं-

  • अंतिम उत्पाद विधि- इस विधि के द्वारा उत्पादन के मूल्य में से मध्यवर्ती के मूल्य को घटा दिया जाता है।
  • मूल्य वृद्धि विधि- इस विधि द्वारा उत्पादन के प्रत्येक चरण में होने वाली मूल्य वृद्धि को जोड़ा जाता है।

प्रश्न 20.
अल्पाधिकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
अल्पाधिकार अपूर्ण प्रतियोगिता का एक रूप है। अल्पाधिकार बाजार की ऐसी अवस्था को कहा जाता है जिसमें वस्तु के बहुत कम विक्रेता होते हैं और प्रत्येक विक्रेता पूर्ति एवं मूल्य पर समुचित प्रभाव रखता है। प्रो० मेयर्स के अनुसार, “अल्पाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें विक्रेताओं की संख्या इतनी कम होती है कि प्रत्येक विक्रेता की पूर्ति का बाजार कीमत पर समुचित प्रभाव पड़ता है और प्रत्येक विक्रेता इस बात से परिचित होता है।”

प्रश्न 21.
भुगतान शेष से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
भुगतान शेष एक देश के विदेशी सौदों से संबंधित सभी भुगतानों का लेखा-जोखा है। किंडल बर्गर ने भुगतान शेष की परिभाषा इन शब्दों में दी है, “भुगतान शेष से अभिप्राय एक दिये गये समय में संबंधित देश के निवासियों तथा विदेश के निवासियों द्वारा सभी प्रकार के आर्थिक लेन-देन का क्रमवार रखा गया व्यौरा है।” तकनीकी दृष्टि से भुगतान शेष सदैव संतुलित होता है। इसमें दृश्य तथा अदृश्य दोनों मदों को शामिल किया जाता है। दोहरी लेखा पद्धति में इसे प्रस्तुत किया जाता है।

प्रश्न 22.
भुगतान शेष तथा व्यापार शेष में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
भुगतान शेष और व्यापार शेष में निम्नलिखित अंतर है-
भुगतान शेष:

  1. भुगतान शेष में दृश्य और अदृश्य दोनों मदें शामिल हैं।
  2. यह एक व्यापक अवधारणा है।
  3. यह सदैव संतुलित रहता है।
  4. विदेशी व्यापार का आशय समझने में यह कम अर्थवान तथा महत्त्वपूर्ण है।

व्यापार शेष:

  1. इसमें केवल दृश्य मदें होती है।
  2. यह एक संकीर्ण अवधारणा है।
  3. इसमें घाटा हो सकता है।
  4. यह विदेशी व्यापार का आशय समझने में अधिक अर्थवान तथा महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 23.
माँग को प्रभावित करने वाले किन्हीं पाँच कारकों का उल्लेख करें।
अथवा, माँग के निर्धारकों की व्याख्या करें।
उत्तर:
वे तत्व जो किसी वस्तु की मांगी गई मात्रा को प्रभावित करते हैं माँग को निर्धारित करने वाले तत्त्व कहलाते हैं। ये मुख्य तत्त्व निम्नलिखित हैं-
(i) संबंधित वस्तुओं की कीमतें (Prices of related goods)- प्रतिस्थापन वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर दी गई वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है। जैसे-चाय की कीमत में वृद्धि होने पर सकी प्रतिस्थापन वस्तु कॉफी की माँग में वृद्धि हो जाती है। एक पूरक वस्तु की कीमत में व द्ध होने पर दी गई वस्तु की माँग में कमी हो जाती है। पेट्रोल की कीमत में वृद्धि होने पर टिर गाड़ी की माँग में कमी हो जाती है।

(ii) आय (Income)- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है यह वस्तु पर निर्भर करता है कि वस्तु सामान्य वस्तु है अथवा घटिया वस्तु है।

(iii) रुचि, स्वभाव आदत (Taste, Preference and Habit)- यदि रुचि, स्वभाव और आदत में परिवर्तन अनुकूल हो तो वस्तु की माँग में वृद्धि होती है।

(iv) जनसंख्या- जनसंख्या बढ़ने पर माँग बढ़ती है और इसमें कमी होने पर माँग में कमी आती है।

(v) संभावित कीमत- वस्तु की संभावित कीमत बढ़ने या घटने पर उसकी वर्तमान माँग में वृद्धि या कमी आयेगी।

प्रश्न 24.
राजकोषीय घाटे से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
राजकोषीय घाटे कुल व्ययों और कुल प्राप्तियों (उधार के अतिरिक्त) के अंतर के समान होता है। सांकेतिक रूप में,
राजकोषीय घाटा = कुल बजटीय व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ + पूँजी प्राप्तियाँ जिसमें ऋण शामिल नहीं है।

यहाँ कुल बजट व्यय = राजस्व व्यय + पूँजी व्यय
राजस्व प्राप्तियाँ = कर राजस्व + गैर कर राजस्व
पूँजी प्राप्तियाँ = पूँजी प्राप्तियाँ ऋण प्राप्तियों के अतिरिक्त
= ऋणों की अदायगी + अन्य प्राप्तियाँ (विनिवेश से प्राप्त)
अतः संक्षेप में राजकोषीय घाटा उधार के बराबर होता है।

प्रश्न 25.
मौद्रिक प्रवाह तथा वास्तविक प्रवाह में अंतर करें।
उत्तर:
मौद्रिक प्रवाह में मुद्रा फर्मों से परिवारों को साधन भुगतान के रूप में तथा परिवारों से फर्मों को उपयोग व्यय के रूप में प्रवाहित होती है, जबकि वास्तविक प्रवाह में वस्तुओं का प्रवाह अर्थव्यवस्था के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जाता है।

प्रश्न 26.
‘अर्थशास्त्र चयन का तर्कशास्त्र है।’ इसकी विवेचना करें।
अथवा, अर्थशास्त्र में सीमितता का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
दुर्लभता पर जोर देते हुए रॉबिन्स ने कहा कि मानवीय आवश्यकताएँ अनन्त हैं तथा उसकी पूर्ति के साधन सीमित होते हैं। साथ ही, सीमित साधनों के वैकल्पिक प्रयोग भी संभव होते हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य के सामने चुनाव की समस्या उत्पन्न होती है कि सीमित साधनों के द्वारा किन-किन आवश्यकताओं की पूर्ति करे तथा किन्हें छोड़ दे। फलतः व्यक्ति आवश्यकता की तीव्रता पर ध्यान देते हुए पहले सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति करता है। उसके बाद कम महत्त्वपूर्ण आवश्यकता की पूर्ति करता ताकि अधिकतम संतोष की प्राप्ति हो सके। इसी कारण रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र को चयन का तर्कशास्त्र कहा है।

प्रश्न 27.
मौद्रिक प्रवाह को परिभाषित करें। अथवा, मुद्रा प्रवाह की परिभाषा दें।
उत्तर:
मौद्रिक प्रवाह का अभिप्राय उस प्रवाह से है जिसमें फर्मों द्वारा उत्पादन के कारकों को उनकी सेवाओं के बदले में ब्याज, लाभ, मजदूरी तथा लगान के रूप में दी गई मुद्रा का प्रवाह फर्मों से परिवार क्षेत्र की ओर होता है। इसके विपरीत उपभोग व्यय के रूप में मुद्रा का प्रवाह परिवार क्षेत्र से फर्मों की ओर होता है।

प्रश्न 28.
बाजार के विस्तार से संबंधित तत्त्व कौन-कौन हैं ?
उत्तर:
बाजार का विस्तार वस्तु के गुण पर निर्भर करता है, जिसके अंतर्गत निम्न बातों का उल्लेख किया जाता है-

  • व्यापक माँग
  • व्यापक पूर्ति
  • टिकाऊपन
  • वहनीयता तथा
  • मूल्य में स्थिरता।

बाजार के विस्तार पर देश की आंतरिक स्थिति का भी प्रभाव पड़ता है, जिसके अंतर्गत निम्न बातों का उल्लेख किया जाता है-

  • शांति एवं सुरक्षा
  • यातायात. एवं संवादवाहन के साधन
  • सरकारी नीति
  • मौद्रिक एवं बैंकिंग नीति
  • व्यापार का तरीका
  • उत्पादन का तरीका।

प्रश्न 29.
बाजार के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करें।
उत्तर:
प्रतियोगिता के आधार पर बाजार के तीन प्रकार होते हैं-

  • पूर्ण प्रतियोगिता का बाजार- वह बाजार जिसमें क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या अधिक होती है, साथ ही इन दोनों के बीच स्वस्थ प्रतियोगिता भी पायी जाती है, पूर्ण प्रतियोगिता का बाजार कहलाता है।
  • एकाधिकारी बाजार- वह बाजार जहाँ वस्तु की पूर्ति पर व्यक्ति या उद्योग विशेष का पूर्ण नियंत्रण होता है तथा उनके निकट स्थानापन्न वस्तुएँ भी बाजार में उपलब्ध नहीं होती है, एकाधिकारी बाजार कहलाता है।
  • अपूर्ण प्रतियोगिता का बाजार- यह पूर्ण प्रतियोगिता के बाजार तथा एकाधिकार के बाजार का सम्मिश्रण होता है।

प्रश्न 30.
साख निर्माण से क्या अभिप्राय है ?
अथवा, साख सृजन की परिभाषा दें।
उत्तर:
अपने नकद कोषों के आधार पर व्यावसायिक बैंकों द्वारा माँग जमाओं का निर्माण करना ही साख निर्माण कहलाता है। प्रायः नकद कोषों से कई गुणा अधिक जमाओं का निर्माण कर दिया जाता है। नकद कोषों तथा जमाओं के बीच अनुपात नकद-कोष अनुपात कहलाता है। बैंकों को अनुभव के आधार पर यह ज्ञात है कि कुल जमा का सिर्फ 10% ही नकदी के रूप में निकाला जाता है। जैसे यदि 100 रु० के नकद कोष के बदले में 1000 रु० की माँग जमाओं का निर्माण किया जाता है तो इसे 10 गुणा अधिक साख निर्माण कहा जायेगा।

प्रश्न 31.
बचत एवं निवेश हमेशा बराबर होते हैं। व्याख्या करें।
उत्तर:
कीन्स के अनुसार आय रोजगार संतुलन निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ बचत एवं निवेश आपस में बराबर होते हैं अर्थात् बचत = निवेश (S = I)

एक अर्थव्यवस्था में विनियोग दो प्रकार के होते हैं-नियोजित विनियोग तथा गैर-नियोजित विनियोग। वस्तुतः नियोजित और गैर नियोजित विनियोग का जोड़ ही वास्तविक विनियोग या कुल विनियोग कहलाता है। संक्षेप में,
IR = Ip + Iu
जहाँ IR = वास्तविक विनियोग
Ip = नियोजित विनियोग तथा
Iu = गैर नियोजित विनियोग

उपर्युक्त समीकरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वास्तविक विनियोग केवल उसी स्थिति में ही नियोजित विनियोग के बराबर हो सकता है जबकि गैर नियोजित विनियोग शून्य हो। इसका तात्पर्य यह है कि यह आवश्यक सदैव नियोजित विनियोग के बराबर हो।

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कह सकते हैं कि
y = C + I
तो हमारा वास्तव में अभिप्राय यह होता है कि
y = C + IR
तथा y = C + S
दोनों समीकरणों को एक साथ प्रस्तुत करने पर
C + S = C + IR
या S = IR
अतः बचतें सदैव वास्तविक निवेश के समान होती है।

प्रश्न 32.
रेखाचित्र की सहायता से एक अर्थव्यवस्था में संसाधनों के कुशल तथा अकुशल उपयोग की अवस्था की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
एक अर्थव्यवस्था में संसाधनों के कुशल तथा अकुशल उपयोग की अवस्था को रेखाचित्र की सहायता से निम्न रूप में देखा जा सकता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 2, 3
PP = उत्पादन संभावना वक्र
Point A = संसाधनों के कुशल उपयोग को दर्शाता है।
Point B = संसाधनों के अकुशल उपयोग को दर्शाता है।

प्रश्न 33.
सीमान्त उपयोगिता तथा कुल उपयोगिता में अंतर कीजिए।
उत्तर:
किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के उपयोग से जो अतिरिक्त उपयोगिता मिलती है उसे सीमान्त उपयोगिता कहते हैं।
जबकि उपभोग की सभी इकाइयों के उपभोग से उपभोक्ता को जो उपयोगिता प्राप्त होती है उसे कुल उपयोगिता कहते हैं।

प्रश्न 34.
साधन के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में अंतर बताइए।
उत्तर:
साधन के प्रतिफल- एक फर्म जब अल्पकाल में उत्पत्ति के कुछ साधनों को स्थिर रखकर अन्य साधनों की मात्रा में परिवर्तन करती है तब उत्पादन की मात्रा में जो परिवर्तन होते हैं। उन्हें साधन के प्रतिफल के नाम से जाना जाता है। इसकी तीन अवस्थाएँ होती हैं। पहली साधन के बढ़ते प्रतिफल या उत्पत्ति वृद्धि अवस्था, दूसरी साधन के स्थिर प्रतिफल या उत्पत्ति समता तथा तीसरी साधन के घटते प्रतिफल या उत्पत्ति ह्रास अवस्था।

पैमाने के प्रतिफल- पैमाने के प्रतिफल का संबंध सभी कारकों में समान अनुपात में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप कुल उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से है। यह एक दीर्घकालीन अवधारणा है।

प्रश्न 35.
चालू कीमत और स्थिर कीमत पर राष्ट्रीय आय में भेद करें।
उत्तर:
अगर राष्ट्रीय आय को वर्तमान कीमत से गुणा करके प्राप्त किया जाता है तो उसे चालू कीमत पर राष्ट्रीय आय कहा जाता है।
NNPMP = GNPMP – Depreciation
साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद को राष्ट्रीय आय कहा जाता है।
NNP at factor cost = NNP at market price अप्रत्यक्ष कर + अनुदान

चालू कीमत पर शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद = एक वर्ष की अवधि में उत्पादित अंतिम वस्तुओं और सेवाओं का बाजार मूल्य + विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय – घिसावट

परन्तु अगर राष्ट्रीय आय को किसी समय विशेष की कीमत से गुणा करके जाना जाता है तो उसे स्थिर कीमत पर राष्ट्रीय आय कहा जाता है। जैसे- 2011-12 की कीमत पर राष्ट्रीय आय को गुणा कर उस वर्ष की राष्ट्रीय आय की गणना की जाती है।

प्रश्न 36.
चयनात्मक साख नियंत्रण क्या है ?
उत्तर:
वे उपाय जिनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था के कुछ विशेष कार्यों के लिए दी जाने वाली साख के प्रवाह को नियंत्रित करना है, चयनात्मक साख नियंत्रण कहलाते हैं। इसके अंतर्गत निम्नलिखित उपाय किये जाते हैं-

  • ऋणों की सीमान्त आवश्यकता में परिवर्तन
  • साख की राशनिंग
  • प्रत्यक्ष कार्यवाही
  • नैतिक प्रभाव।

प्रश्न 37.
पूर्ण प्रतियोगिता एवं एकाधिकारी प्रतियोगिता में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता एवं एकाधिकारी प्रतियोगिता में निम्नलिखित अंतर है-
पूर्ण प्रतियोगिता:

  1. इसमें बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है।
  2. इसमें कीमत समान होती है।
  3. कीमत सीमान्त लागत के बराबर होती है।
  4. समरूप वस्तुएँ।
  5. साधनों की पूर्ण गतिशीलता
  6. कोई विक्रय लागत नहीं होती है।

एकाधिकारी प्रतियोगिता:

  1. इसमें बाजार का अपूर्ण ज्ञान होता है।
  2. इसमें कीमत विभेद होता है।
  3. कीमत सीमान्त लागत से अधिक होती है।
  4. निकट स्थानापन्न तथा मिलती-जुलती वस्तुओं का उत्पादन।
  5. साधनों की गतिशीलता अपूर्ण होती है।
  6. विक्रय लागत आवश्यक होती है।

प्रश्न 38.
आर्थिक समस्या को चयन की समस्या क्यों माना जाता है ?
अथवा चनाव की समस्या क्यों उत्पन्न होती है ?
उत्तर:
आवश्यकताएँ असीमित और साधन सीमित होते हैं। सीमित साधनों के वैकल्पिक प्रयोग होने के कारण इन साधनों एवं असीमित आवश्यकताओं के बीच एक संतुलन बनाने का प्रयास किया जाता है और इसी प्रयास से चुनाव की समस्या उत्पन्न होती है। इस प्रकार आर्थिक समस्या मूलतः चुनाव की समस्या है।

प्रश्न 39.
एक वस्तु की कीमत 15% गिर जाने से उसकी माँग 1,000 इकाइयों से बढ़कर 1,200 इकाइयाँ हो जाती है। माँग की लोच प्रतिशत विधि द्वारा ज्ञात करें।
उत्तर:
कीमत में प्रतिशत परिवर्तन = – 15%
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 2, 4
माँग की लोच = 1.33 (अर्थात् एक से अधिक)

प्रश्न 40.
एक रेखाचित्र की सहायता से अर्थव्यवस्था में न्यून माँग की स्थिति की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
यदि अर्थव्यवस्था में आय का संतुलन स्तर पूर्ण रोजगार के स्तर से पहले निर्धारित हो जाता है तब उसे न्यून माँग की दशा कहते हैं।
AD <AS
बगल के रेखाचित्र की सहायता से इसे देखा जा सकता है-
Bihar Board 12th Economics Important Questions Short Answer Type Part 2, 5
चित्र में AS सामूहिक पूर्ति वक्र है तथा AD न्यूनमाँग स्तर पर सामूहिक माँग और AD1 पूर्ण रोजगार स्तर पर सामूहिक माँग को प्रदर्शित कर रहे हैं। AD पूर्ण रोजगार स्तर पर आवश्यक वांछनीय सामूहिक माँग AN है जबकि उपस्थित सामूहिक माँग CN है।
अतः न्यून माँग = AN – CN = AC

प्रश्न 41.
किसी वस्तु की पूर्ति तथा स्टॉक में क्या अंतर है ?
उत्तर:
किसी वस्तु की उपलब्धता उसकी पूर्ति है, जबकि वस्तु का संग्रहण स्टॉक है। माँग पर पूर्ति निर्भर है, किन्तु स्टॉक पर पूर्ति निर्भर नहीं करती है।

प्रश्न 42.
मौद्रिक लागत क्या है ?
उत्तर:
उत्पत्ति के समस्त साधनों के मूल्य को यदि मुद्रा में व्यक्त कर दिया जाये तो उत्पादक इन उत्पत्ति के साधन की सेवाओं को प्राप्त करने में जितना कुल व्यय करता है, मौद्रिक लागत कहलाती है। जे० एल० हैन्सन के शब्दों में, “किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के साधनों को जो समस्त मौद्रिक भुगतान करना पड़ता है उसे मौद्रिक उत्पादन लागत कहते हैं।