Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4 in Hindi

BSEB Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4 in Hindi

प्रश्न 1.
विनिमय दर से आप क्या समझते हैं ? विनिमय को निर्धारित करनेवाले मुख्य कारकों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
एक मुद्रा का दूसरी मुद्रा में मूल्य विनिमय दर कहलाती है। दूसरे शब्दों में दूसरी मुद्रा के रूप में एक मुद्रा की कीमत को विनिमय दर कहते हैं। वास्तव में विदेशी मुद्रा की एक इकाई मुद्रा का क्रय करने के लिए घरेलू मुद्रा की जितनी इकाइयों की जरूरत पड़ती है उसे विनिमय दर कहते हैं।

विनिमय दर का निर्धारण- जहाँ विदेशी मुद्रा की माँग को पूर्ति समान हो जाती है, विनिमय दर वहाँ निर्धारित होती है। विदेशी मुद्रा की माँग व पूर्ति का साम्य बिन्दु वह होता है जब मुद्रा का माँग वक्र तथा पूर्ति एक-दूसरे को काटते हैं। साम्य बिन्दु पर विनिमय दर को साम्य विनिमय दर तथा माँग व पूर्ति की मात्रा को साम्य मात्रा कहते हैं।

विनिमय दर को निर्धारित करने वाले कारक-
1. स्थिर विनिमय दर- इस विनिमय दर से अभिप्राय सरकार द्वारा निर्धारित स्थिर विनिमय दर से है। स्थिर विनिमय दर की उप-पद्धतियाँ इस प्रकार है-

(a) विनिमय दर की स्वर्णमान पद्धति- 1920 में पूरे विश्व में इस पद्धति को व्यापक स्तर पर प्रयोग किया गया। इस व्यवस्था में प्रत्येक भागीदार देश को अपनी मुद्रा की कीमत सोने के रूप में घोषित करनी पड़ती थी। मुद्राओं का विनिमय स्वर्ण के रूप में तय की गयी कीमत सोने की स्थिर कीमत पर होता है।

(b) बेनवड पद्धति- विनिमय दर की इस प्रणाली में भी विनिमय दर स्थिर रहती है। इस प्रणाली में सरकार अथवा मौद्रिक अधिकारी तय की गयी विनिमय दर में एक निश्चित सीमा तक परिवर्तन की अनुमति प्रदान कर सकते हैं। सभी वस्तुओं का मूल्य इस प्रणाली में अमेरिकन डॉलर में घोषित करना पड़ता था। अमेरिकन डॉलर की सोने में कीमत घोषित की जाती थी लेकिन दो देश मुद्राओं का समता मूल्य अंत में केवल स्वर्ण पर ही निर्भर होता था। प्रत्येक देश की मुद्रा के. समता मूल्य में समायोजन विश्व मुद्रा कोष का विषय था।

2. लोचशील विनिमय दर- यह वह विनिमय दर होती है जिसका निर्धारण अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में विदेशी मुद्रा की माँग व पूर्ति की शक्तियों के द्वारा होता है। जिस विनिमय दर पर विदेशी मुद्रा की माँग व पूर्ति समान हो जाती है वही दर साम्य विनिमय दर कहलाती है। आजकल समूचे विश्व में विभिन्न देशों के मध्य आर्थिक लेन-देन का निपटारा लोचशील विनिमय दर के आधार पर होता है।

प्रश्न 2.
एकाधिकार क्या है ? इसकी प्रमुख विशेषताओं में से किसी एक का वर्णन करें।
उत्तर:
एकाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु का एक ही उत्पादक अथवा एक ही विक्रेता होता है तथा उसकी वस्तु का कोई निकट का स्थानापन्न नहीं होती है।

एकाधिकार बाजार की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएँ होती हैं-

  • अकेला उत्पादक
  • स्वतंत्र कीमत नीति
  • प्रवेश पर प्रतिबंध
  • निकट की स्थापन्न वस्तु का नहीं होता
  • कीमत विभेद संभव हैं कीमत विभेद का अर्थ है उत्पादक द्वारा अपनी वस्तु को अलग-अलग व्यक्तियों को अथवा अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग कीमतों पर बेच सकता है। यह कीमत विभेद तभी संभव है जब दो बाजारों के बीच पर्याप्त दूरी हो ताकि एक बाजार के क्रेता दूसरे बाजार में नहीं पहुँच सकें।

प्रश्न 3.
राजस्व घाटा किसे कहते हैं ? इसे कम करने के दो उपाय बतायें।
उत्तर:
राजस्व घाटा सरकार के राजस्व व्यय की राजस्व प्राप्तियाँ पर अधिकता को दर्शाता है। राजस्व घटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ राजस्व घाटा यह बताता है कि सरकार अबचत कर रही है। अर्थात् सरकार की परिसंपत्तियों में कमी हो जाती है। इसे कम करने के दो उपाय निम्नांकित हैं-

  • करों की दरों में वृद्धि करके सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है जिससे प्राप्तियों तथा व्यय का अंतर कम किया जा सकता है।
  • करों के आधार को विस्तृत करके भी सरकार अपनी राजस्व प्राप्तियों में वृद्धि करती है तथा प्राप्तियों एवं व्यय के अंतर को कम करने का प्रयास करती है।
  • सार्वजनिक व्यय में कटौती करके।

प्रश्न 4.
अत्यधिक मांग क्या है ? इसे किस प्रकार नियंत्रित किया जा सकता है ?
उत्तर:
जब एक बार पूर्ण रोजगार स्तर निर्धारित हो जाता है तो माँग में वृद्धि का उत्पाद तथा रोजगार पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। माँग में वृद्धि से उत्पाद तथा रोजगार में वृद्धि हुए बिना केवल मौद्रिक व्यय में वृद्धि होती है। ऐसी अवस्था को अतिरेक माँग अथवा अत्याधिक मांग की अवस्था कहते हैं। अतिरेक माँग कुल माँग का वह स्तर है जो पूर्ण रोजगार के लिए आवश्यक कुल पूर्ति के स्तर से अधिक है। यदि आय. का संतुलन स्तर पूर्ण रोजगार बिन्दु के बाद निर्धारित होता है तो यह अत्यधिक माँग की स्थिति है। यह स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब पूर्ण रोजगार के स्तर पर सामूहिक मांग, सामूहिक पूर्ति से अधिक होती है।

ऐसी स्थिति में सामूहिक माँग उस स्तर से अधिक होगी जितनी की पूर्ण रोजगार के स्तर के उत्पादन के लिए आवश्यक है। दूसरे शब्दों में माँग का स्तर, अधिक है और उसके लिए साधनों के पूर्ण प्रयोग द्वारा संभव उत्पादन पर्याप्त नहीं है। पूर्ण रोजगार के स्तर पर सामूहिक माँग जितनी अधिक है, सामूहिक पूर्ति से यह अत्याधिक माँग का विस्तार (Extent) है। अत्यधिक माँग का विस्तार स्फीतिक अंतराल (Inflationary gap) भी कहलाता है। पूर्ण रोजगार के स्तर के बाद सामूहिक माँग में वृद्धि से उत्पादन और रोजगार नहीं बढ़ते, फलतः कीमतें बढ़ती हैं। अतः इस स्थिति में मौद्रिक आय बढ़ती है, वास्तविक आय नहीं बढ़ती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 1
उपरोक्त चित्र में AS कुल पूर्ति वक्र तथा AD कुल माँग वक्र है। प्रारम्भिक स्थिति में माना संतुलन पूर्ण रोजगार आय के स्तर अर्थात् OZ पर होता है। माना अर्थव्यवस्था की कुल माँग AD से बढ़कर AD1 हो जाता है और नया संतुलन बिन्दु G के स्थान पर E हो जाता है। अर्थव्यवस्था में OZ आय स्तर पर पूर्ण रोजगार की स्थिति विद्यमान है। अतः अब रोजगार का स्तर नहीं बढ़ सकता। मौद्रिक आय बढ़ने से कीमत स्तर में वृद्धि हो जाती है। FG अर्थव्यवस्था में अत्यधिक माँग का स्तर है। इसे हम स्फीतिक अंतराल भी कहते हैं।

सरकार तीन प्रकार की नीतियों द्वारा अतिरिक्त माँग पर नियंत्रण रख पाने में सफल हो सकती है-
1.मौद्रिक नीति (Monetary Policy)- मौद्रिक नीति में केन्द्रीय बैंक द्वारा संपन्न किए जाने वाले कार्य आते हैं जिनके माध्यम से मौद्रिक अधिक मुद्रा तथा साख नियंत्रण रखने में सफल होता है।

(a) बैंक मदा पर नियंत्रण- केन्द्रीय बैंक व्यापारिक बैंकों द्वारा किए जाने वाले साख निर्माण पर नियंत्रण रखने के लिए अपनी बैंक दर नीति (bank rate policy), खुली बाजार प्रक्रियाएँ (Open market operations), साख की राशनिंग (Rationing of credit), न्यूनतम नकद कोष में परिवर्तन (Variation in reserve requirements) आदि रीतियों का प्रयोग कर सकता है। जब मुद्रा अधिकारी केवल कुछ बैंकों अथवा विशेष प्रकार के लेन-देन पर ही नियंत्रण लगाना पर्याप्त समझता है तो साख नियंत्रण की गुणात्मक रीतियाँ (Qualitative methods of credit control) का प्रयोग किया जाता है।

अतिरेक माँग को अर्थात् उपभोग को हतोत्साहित कर बचत प्रोत्साहित करनी चाहिए। बचत को प्रोत्साहन देने के लिए ब्याज की दर में वृद्धि करनी चाहिये। इससे आवश्यक निवेश स्वयं ही हतोत्साहित हो जाता है।

2. राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)- इस श्रेणी में सरकार के वे सभी वित्त संबंधी कार्य आते हैं जो प्रचलन में मुद्रा की मात्रा कम करने में सहायक होते हैं। मुद्रा स्फीति पर नियंत्रण लगाने के लिए करों में वृद्धि करनी चाहिये जिससे उपभोग व्यय में कमी हो। सरकारी व्यय में कमी करनी चाहिए। इससे सरकार को घाटे के स्थान पर बेशी (Surplus) का बजट होना चाहिए। सरकार को अधिकाधिक मात्रा में जनता से ऋण लेकर उन्हें उत्पादक कार्यों पर व्यय करना चाहिए। सरकार को अपनी राजकोषीय नीति के द्वारा उपभोग को हतोत्साहित और बचत को प्रोत्साहित करना चाहिये।

3. अन्य उपाय (Other Measures)- मुद्रा स्फीति को रोकने के अन्य उपायों में विशेष रूप से दो अधिक महत्वपूर्ण हैं-प्रथम उत्पादन में वृद्धि तथा द्वितीय व्यापार कीमतों पर नियंत्रण रखना।

  • उत्पादन बढ़ाने की दिशा में सरकार को हर संभव प्रयास करना चाहिये।
  • घरेलू संसाधनों की माँग का सही अनुमान लगाने के लिए कुल माँग में से आयात माँग को घटाना पड़ता है।
  • अतिरेक माँग को कम करने का एक अन्य प्रत्यक्ष उपाय यह है कि मजदूरी की दरों पर नियंत्रण रखा जाए।

प्रश्न 5.
किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारकों को समझाइये।
उत्तर:
किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारक (Factors determining the demand for a commodity)- किसी वस्तु की माँग को निर्धारित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-

(i) वस्तु की कीमत (Price of a commodity)- सामान्यतः किसी वस्तु की माँग की मात्रा उस वस्तु की कीमत पर आश्रित होती है। अन्य बातें पूर्ववत् रहने पर कीमत कम होने पर वस्तु की मांग बढ़ती है और कीमत के बढ़ने पर माँग घटती है। किसी वस्तु की कीमत और उसकी माँग में विपरीत सम्बन्ध होता है।

(ii) संबंधित वस्तुओं की कीमतें (Prices of related goods)- संबंधित वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं-
पूरक वस्तुएँ तथा स्थानापन्न वस्तुएँ- पूरक वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो किसी आवश्यकता को संयुक्त रूप से पूरा करती हैं और स्थानापन्न वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग की जा सकती हैं। पूरक वस्तुओं में यदि एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो उसकी पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि स्थानापन्न वस्तुओं में किसी एक की कीमत कम हो जाती है तो दूसरी वस्तु की माँग भी कम हो जाती है।

(iii) उपभोक्ता की आय (Income of Consumer)- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर सामान्यतया उसके द्वारा वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है।

आय में वृद्धि के साथ अनिवार्य वस्तुओं की माँग एक सीमा तक बढ़ती है तथा उसके बाद स्थिर हो जाती है। कुछ परिस्थितियों में आय में वृद्धि का वस्तु की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसा खाने-पीने की सस्ती वस्तुओं में होता है। जैसे नमक आदि।

विलासितापूर्ण वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ लगातार बढ़ती रहती है।
घटिया (निम्नस्तरीय) वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि साथ-साथ कम हो जाती है लेकिन सामान्य वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ बढ़ती है और आय में कमी से कम हो जाती है।

(iv) उपभोक्ता की रुचि तथा फैशन (Interest of Consumer and Fashion)- परिवार या उपभोक्ता की रुचि भी किसी वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार या स्कूटर की माँग बढ़ सकती है।

(v) विज्ञापन तथ प्रदर्शनकारी प्रभाव (Advertisement and Demonstration Effect)- विज्ञापन भी उपभोक्ता को किसी विशेष वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार या स्कूटर की माँग बढ़ सकती है।

(vi) जनसंख्या की मात्रा और बनावट (Quantity and Composition of population) अधिक जनसंख्या का अर्थ है परिवारों की अधिक संख्या और वस्तुओं की अधिक माँग। इसी प्रकार जनसंख्या की बनावट से भी विभिन्न वस्तुओं की माँग निर्धारित होती है।

(vii) आय का वितरण (Distribution of Income)- जिन अर्थव्यवस्था में आय का वितरण सामान है वहाँ वस्तुओं की माँग अधिक होगी तथा इसके विपरीत जिन अर्थव्यवस्था में आय का वितरण असमान है, वहाँ वस्तुओं की माँग कम होगी।

(viii) जलवायु तथा रीति-रिवाज (Climate and Customs)- मौसम, त्योहार तथा विभिन्न परंपराएँ भी वस्तु की माँग को प्रभावित करती हैं। जैसे-गर्मी के मौसम में कूलर, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक आदि की माँग बढ़ जाती है।

प्रश्न 6.
माँग की लोच को निर्धारित करने वाले कारक समझाएँ।
उत्तर:
माँग की लोच को निर्धारित करने वाले कारक (Factors determining the elasticity of demand)- माँग की लोच को निर्धारित करने वाले तत्त्व निम्नलिखित हैं-
(i) प्रतिस्थापन वस्तुओं की उपलब्धता (Availability of substitute goods)- यदि किसी वस्तु की बहुत सी प्रतिस्थापन वस्तुएँ बाजार में उपलब्ध हैं तो उसकी माँग लोचदार होगी। इसके विपरीत उत्तम प्रतिस्थापन वस्तुओं के अभाव में माँग बेलोचदार होगी। जैसे-नमक की माँग इसलिए अधिक बेलोचदार है, क्योंकि उसकी अच्छी प्रतिस्थापन्न वस्तु नहीं है।

(ii) वस्तु की प्रकृति (Nature of goods)- अनिवार्य वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है जबकि विलासितापूर्ण या आरामदायक वस्तुओं की माँग लोचदार होती है।

(iii) वस्तु के विविध उपयोग (Different Uses of Goods)- यदि किसी वस्तु का प्रयोग एक से अधिक कार्यों में किया जाता है तो उसकी माँग लोचदार होगी क्योंकि कीमत बढ़ने पर उपभोक्ता उस वस्तु का प्रयोग केवल आवश्यकता पड़ने पर ही करेगा। जैसे-बिजली, ऐलुमिनियम।

(iv) उपभोग का स्थगन (Postponement of the use)- जिन वस्तुओं के उपभोग को भविष्य के लिए स्थगित किया जा सकता है, उनकी माँग बेलोचदार (inelastic) होती है, इसके विपरीत जिन वस्तुओं की माँग को भविष्य के लिए स्थगित नहीं किया जा सकता, उनकी माँग बेलोचदार होती है।

(v) उपभोक्ता की आय (Income of the Consumer)- जिन लोगों की आय बहुत अधिक या कम होती है उनके द्वारा माँगी जाने वाली वस्तुओं की माँग साधारणतया बेलोचदार होती है। इसके विपरीत, मध्यम वर्ग के लोगों द्वारा खरीदी जाने वाली वस्तुओं की माँग लोचदार होती है।

(vi) उपभोक्ता की आदत (Habit of the Consumer)- लोगों को जिन वस्तुओं की आदत पड़ जाती है जैसे-पान, सिगरेट, चाय आदि इनकी माँग बेलोचदार होती है। इन वस्तुओं की कीमत बढ़ने पर भी एक उपभोक्ता इसकी माँग को कम नहीं कर पाता।

(vii) किसी वस्तु पर खर्च की जाने वाली आय का अनुपात (Proportion of incomes spent on the purchase of commodity)- एक उपभोक्ता जिन वस्तुओं पर अपनी आय का बहुत थोड़ा भाग खर्च करता है जैसे-अखबार, टूथपेस्ट, सुइयाँ आदि इनकी माँग बेलोचदार (inelastic) होती है इसके विपरीत एक उपभोक्ता जिन वस्तुओं पर अपनी आय का अधिक भाग व्यय करता है, उसकी माँग लोचदार (elastic) होती है।

प्रश्न 7.
माँग की लोच का महत्त्व लिखें।
उत्तर:
माँग की लोच का महत्त्व (Importance of elasticity of demand)- माँग की लोच का महत्व निम्नलिखित कारणों में है-
(i) एकाधिकारी के लिए उपयोगी (Useful for monopolist)- अपने उत्पादन के मूल्य निर्धारण में एकाधिकारी माँग की लोच का ध्यान रखता है। एकाधिकारी का मख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना होता है। वह उस वस्तु का मूल्य उस वर्ग के लिए कम रखेगा जिसकी माँग अधिक लोचदार है और उस वर्ग के लिए अधिक रखेगा जिस वर्ग के लिए वस्तु की माँग बेलोचदार है।

(ii) वित्त मंत्री के लिए उपयोगी- माँग की लोच वित्त मंत्री के लिए भी उपयोगी है। वित्त मंत्री कर लगाते समय माँग की लोच को ध्यान में रखेगा। जिस वस्तु की माँग अधिक लोचदार होती है उस पर कम दर से कम कर लगाकर अधिक धनराशि प्राप्त करता है। इसके विपरीत वह उन वस्तुओं पर अधिक कर लगाएगा जिन वस्तुओं की माँग की लोच कम है।”

(iii) साधन कीमत के निर्धारण में सहायक (Helpful in determining the price of factors)- उत्पादक प्रक्रिया में साधनों को मिलने वाले प्रतिफल की स्थिति इसके द्वारा स्पष्ट होती है वे साधन जिनकी माँग बेलोचदार होती है, लोचदार माँग वाले साधनों की तुलना में अधिक कीमत प्राप्त करते हैं।

(iv) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में उपयोगी (Useful in international trade)- माँग की लोच की जानकारी अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बहुत ही सहायक है। अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में निर्यात की जाने .वाली जिन वस्तुओं की माँग विदेशों में बेलोचदार है उनकी कीमत अधिक रखी जाएगी और जिन वस्तुओं की माँग विदेशों में बेलोचदार है उनकी कीमत अधिक रखी जाएगी।

(v) निर्धनता का विरोधाभास (Paradox of Poverty)- कई वस्तुओं की फसल बहुत अच्छी होने पर भी उनसे प्राप्त होने वाली आय बहुत कम होती है। इसका अर्थ यह है कि किसी वस्तु के उत्पादन में वृद्धि होने से आय बढ़ने के स्थान पर कम हो गई। इस अस्वाभाविक अवस्था को ही निर्धनता का विरोधाभास कहते हैं। इसका कारण यह है कि अधिकतर कृषि पदार्थों की माँग बेलोचदार होती है। इन वस्तुओं की पूर्ति के बढ़ने पर कीमत में काफी कमी आती है तो भी इनकी माँग में विशेष वृद्धि नहीं हो पाती। इसलिए इनकी बिक्री से प्राप्त कुल आय पहले की तुलना में कम हो जाती है।

(vi) राष्ट्रीयकरण की नीति के लिये महत्त्वपूर्ण (Important for the policy of nationalisation)- राष्ट्रीयकरण की नीति से अभिप्राय है कि सरकार का निजी क्षेत्र के उद्योगों का स्वामित्व, नियन्त्रण तथा प्रबंध स्वयं अपने हाथों में लेना। जिन उद्योगों में उत्पादित वस्तुओं की माँग बेलोचदार होती है, उनकी कीमत में बहुत अधिक वृद्धि किये जाने पर भी उनकी माँग में विशेष कमी नहीं आती। यदि ऐसे उद्योग निजी क्षेत्र में रहते हैं तो उन उद्योगों के स्वामी अपनी उत्पादित वस्तुओं की अधिक कीमत लेकर जनता का शोषण कर सकते हैं। जनता को उनके शोषण से बचाने के लिए सरकार उद्योगों का राष्ट्रीयकरण कर सकती है।

(vii) कर लगाने में सहायक (Helpful in imposing taxes)- कर लगाते समय सरकार वस्तु की माँग लोच को ध्यान में रखती है।

प्रश्न 8.
पूर्ण प्रतियोगी श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण कैसे किया जाता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण (Determination of wage in Perfectly Competitive Labour Market)- श्रम बाजार में परिवार श्रम की पूर्ति करते हैं और श्रम की माँग फर्मों द्वारा की जाती है। श्रम से अभिप्राय श्रमिकों द्वारा किए गए काम के घंटों से है न कि श्रमिकों की संख्या से। श्रम बाजार में मजदूरी का निर्धारण उस बिन्दु पर होता है जहाँ पर माँग वक्र तथा पूर्ति वक्र आपस में काटते हैं।

मजदूरी निर्धारण में हम यह मान लेते हैं कि श्रम ही केवल परिवर्तनशील उत्पादन का साधन है तथा मजदूर बाजार में पूर्ण प्रतियोगिता है अर्थात् प्रत्येक फर्म के लिए मजदूरी दी गई है। प्रत्येक फर्म का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है। हम यह भी मानकर चलते हैं कि फर्म की उत्पादन तकनीक दी गई है और उत्पाद का ह्रासमान नियम लागू है।

जैसा कि प्रत्येक फर्म का उद्देश्य अधिकतम लाभ कमाना है, अत: फर्म उस बिन्दु तक श्रमिकों की नियुक्ति करती रहेगी जब तक अन्तिम श्रम पर होने वाला अतिरिक्त (Extra) व्यय उस श्रम से प्राप्त अतिरिक्त लाभ के समान नहीं होता। एक अतिरिक्त श्रम के लगाने की अनि मजदूरी पर (W) कहलाती है और एक अतिरिक्त मजदूर के लगाने से प्राप्त आय उस श्रम की सीमान्त उत्पादकता (MPL) कहलाती है। उत्पाद की प्रत्येक अतिरिक्त इकाई के बचने से प्राप्त होने वाली आय सीमान्त आय (आगम) कहलाती है। फर्म उस बिन्दु तक श्रम को लगाती है,

जहाँ
W = MRPL
यहाँ MRPL = MR x MPL

प्रश्न 9.
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में निम्नलिखित अन्तर है-
परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल:

  1. उत्पादन के चारों साधनों के एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अध्ययन पैमाने के प्रतिफल के अन्तर्गत किया जाता है।
  2. यह नियम दीर्घकाल में लागू होता है।
  3. इसमें उत्पत्ति के चारों साधन परिवर्तन शील हैं।
  4. चारों साधनों में अनुपात स्थिर रहता है।
  5. उत्पादन का पैमाना बदल जाता है।
  6. पैमाने के वर्द्धमान प्रतिफल-चारों साधनों में एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन उस अनुपात से अधिक बढ़ता है।
  7. पैमाने के ह्रासमान प्रतिफलः चारों साधनों में एक निश्चित अनुपात में वृद्धि करने से कुल उत्पादन उस अनुपात से कम बढ़ता है।

पैमाने के प्रतिफल:

  1. अन्य साधनों को स्थिर रखकर किसी एक परिवर्तनशील साधन की इकाई में वृद्धि करने से कुल उत्पादन का क्या प्रभाव पड़ता है, इसका अध्ययन परिवर्तनशील साधन के प्रतिफल के अन्तर्गत किया जाता है।
  2. यह नियम अल्पकाल में लागू होता है।
  3. इसमें एक साधन परिवर्तनशील है जबकि अन्य साधन स्थिर हैं।
  4. परिवर्तनशील तथा स्थिर साधनों में अनुपात बदला जाता है।
  5. उत्पादन के पैमाने में कोई परिवर्तन नहीं होती।
  6. उत्पत्ति वृद्धि नियमः अन्य साधनों को स्थिर रखकर श्रम की इकाइयों में वृद्धि करने पर कुल उत्पादन बढ़ती हुई दर से बढ़ता है तथा औसत और सीमान्त उत्पादन बढ़ते हैं।
  7. उत्पत्ति वृद्धि नियमः अन्य साधनों को स्थिर रखकर श्रम की इकाइयों में वृद्धि करने पर कुल उत्पादन घटती हुई दर से बढ़ता है तथा औसत और सीमान्त उत्पादन घटता है।

प्रश्न 10.
तीन विभिन्न विधियों की सूची बनाइए जिसमें अल्पाधिकारी फर्म व्यवहार कर सकता है।
उत्तर:
तीन विभिन्न विधियाँ (Three different ways)- नीचे तीन विभिन्न विधियाँ दी गई हैं जिनमें अल्पाधिकार फर्म व्यवहार कर सकती हैं-

1. द्वि-अधिकारी फर्म आपस में सांठ-गांठ करके यह निर्णय ले सकती हैं कि वे एक दूसरे से स्पर्धा नहीं करेंगे और एक साथ दोनों फर्मों के लाभ को अधिकतम स्तर तक ले जाने का प्रयत्न करेंगे। इस स्थिति में दोनों फर्मे एकल एकाधिकारी की तरह व्यवहार करेंगी जिनके पास दो अलग-अलग वस्तु उत्पादन करने वाले कारखाने होंगे।

2. दो फर्मों में प्रत्येक यह निर्णय ले सकती है कि अपने लाभ को अधिकतम करने के लिये वह वस्तु की कितनी मात्रा का उत्पादन करेंगी। यहाँ यह मान लिया जाता है कि उनकी वस्तु की मात्रा की पूर्ति को कोई अन्य फर्म प्रभावित नहीं करेंगी।

3. कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है अल्पाधिकार बाजार संरचना में वस्तु की अनन्य पहुँचेगा, क्योंकि इस स्तर पर सीमांत संप्राप्ति और सीमांत लागत समान होंगे और निर्गत में वृद्धि के लाभ से किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होगी।

दूसरी ओर यदि फर्म प्रतिशत से अधिक मात्रा में निर्गत का उत्पादन करती है तो सीमांत लागत सीमांत संप्राप्ति से अधिक होती है। अभिप्राय यह है कि निर्गत की एक इकाई कम करने से कुल लागत में जो कमी होती है, वह इसी कमी के कारण कुल संप्राप्ति में हुई हानि से अधिक होती है। अतः फर्म के लिए यह उपयुक्त है कि वह निर्गत में कमी लाए। यह तर्क तब तक समीचीन होगा जब तक सीमांत लागत वक्र सीमांत संप्राप्ति वक्र के ऊपर अवस्थित और फर्म अपने निर्गत संप्राप्ति के मूल्य समान हो जाएँगे और फर्म अपने निर्गत में कमी को रोक देगी।

फर्म अनिवार्य रूप से प्रतिशत निर्गत स्तर पर पहुँचती है। अतः इस स्तर को निर्गत स्तर का संतुलन स्तर कहते हैं। निर्गत का यह संतुलन स्तर उस बिन्दु के संगत होता है जहाँ सीमांत संप्राप्ति सीमांत लागत के बराबर होती है। इस समानता को एकाधिकारी फर्म द्वारा उत्पादित निर्गत के लिये संतुलन की शर्त कहते हैं।

प्रश्न 11.
एक फर्म की कुल स्थिर लागत, कुल परिवर्तनशील. लागत तथा कुल लागत क्या हैं ? ये आपस में किस प्रकार संबंधित हैं ?
उत्तर:
(i) कुल स्थिर लागत (Total Fixed Cost)- बेन्हम के अनुसार एक फर्म की स्थिर लागतें वे लागतें होती हैं, जो उत्पादन के आकार के साथ परिवर्तित नहीं होती। ये लागतें सदैव स्थिर रहती हैं। इनका संबंध उत्पादन की मात्रा के साथ नहीं होता अर्थात् उत्पादन की मात्रा के घटने या बढ़ने का इन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्थिर लागतों में भूमि अथवा फैक्टरी, इमारत का किराया, बीमा व्यय, लाइसेंस, फीस, सम्पत्ति कर आदि लागतें शामिल होती हैं। स्थिर लागतों को अप्रत्यक्ष कर भी कहा जाता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 2
बगल के चित्र द्वारा स्थिर लागत को दर्शाया गया है।

(ii) कुल परिवती लागत (Total Variable Cost)- कुल परिवर्ती (अथवा परिवर्तनशील) लागतें वे लागतें हैं जो उत्पाद के आकार के साथ घटती बढ़ती रहती हैं। ये लागतें उत्पादन की मात्रा के साथ बढ़ती हैं और उत्पादन के घटने पर घटती हैं। कच्चा माल, बिजली, ईंधन, परिवहन आदि पर होने वाले व्यय परिवर्ती लागतें कहलाती हैं। बेन्हम के अनुसार, “एक फर्म की परिवर्ती लागतों में वे लागतें शामिल की जाती हैं जो उसके उत्पादन के आकार के साथ परिवर्तित होती हैं।” कुल परिवर्ती लागतों के सम्बन्ध में ध्यान देने योग्य बात यह है कि आरम्भ में ये लागतें घटती दर से बढ़ती हैं, परन्तु एक सीमा के बाद वे बढ़ती हुई दर से बढ़ती हैं। कुल परिवर्ती लागतों को ऊपर के चित्र द्वारा दर्शाया गया है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 3

(iii) कुल लागत (Total Cost)- कुल लागत कुल स्थिर लागत तथा कुल परिवर्ती लागत का योग होती है। कुल लागत से अभिप्राय किसी वस्तु के उत्पादन पर होने वाले कुल व्यय से है। उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन होने पर उत्पादन की कुल लागत में भी परिवर्तन हो जाता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 4
कुल परिवर्ती लागत, कुल स्थिर लागत तथा कुल लागत का पारस्परिक सम्बन्ध (Interrelationship between Total Variable Costs. Total Fixed Costs and Total Costs) कुल परिवर्ती लागतों, कुल स्थिर लागतों तथा कुल लागतों के आपसी सम्बन्धों को ऊपर चित्र द्वारा दर्शाया गया है।

चित्र से पता चलता है कि कुल लागत, कुल स्थिर लागत तथा कुल परिवर्ती लागत के योग हैं। उत्पादन के शून्य स्तर पर कुल लागत तथा स्थिर लागत बराबर होती है। परिवर्तनशील लागतों के बढ़ने से कुल लागतें बढ़ती हैं।

प्रश्न 12.
आर्थिक क्रियाओं के विभिन्न प्रकारों को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
आर्थिक क्रियाएँ वैसी क्रियाएँ हैं जिनसे आय के रूप में धन की प्राप्ति होती है। इसके विभिन्न प्रकार होते हैं, जो निम्नलिखित हैं-
(i) व्यवसाय- व्यवसाय के अंतर्गत उन सभी मानवीय आर्थिक क्रियाओं को शामिल किया जाता है जो वस्तुओं एवं सेवाओं के उत्पादन एवं वितरण के लिए की जाती है और जिनका उद्देश्य लाभ कमाना होता है तथा जो निजी अथवा सार्वजनिक संस्थाओं के माध्यम से स्वतंत्रतापूर्वक एवं नियमित रूप से की जाती है।।

(ii) पेशा- पेशा वह धन्धा है जिसमें एक व्यक्ति अपने विशिष्ट ज्ञान और प्रशिक्षण के आधार पर अन्य व्यक्तियों की व्यक्तिगत सेवा करता है। जैसे-एक डॉक्टर अपनी योग्यता एवं अनुभव के आधार पर रोग का पता करता है और उसका उपचार करता है। .

(iii) रोजगार या नौकरी- वे व्यक्ति रोजगार या नौकरी में आते हैं जो एक विशिष्ट समझौते के अधीन मासिक, साप्ताहिक अथवा दैनिक वेतन पाते हैं तथा किसी व्यक्ति अथवा संस्था के अधीन व उनके निर्देशन में काम करते हैं। यह नौकरी अथवा सेवा सरकारी भी हो सकती है अथवा निजी भी। पेशेवर व्यक्ति भी नौकरी कर सकते हैं और गैर-पेशेवर भी।

प्रश्न 13.
वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसकी कठिनाइयाँ बताइए।
उत्तर:
वस्तु विनिमय प्रणाली को अदला-बदली भी कहते हैं। वस्तुओं की वस्तुओं के साथ प्रत्यक्ष अदल-बदल की प्रणाली को वस्तु विनिमय या अदल-बदल कहते हैं। मुद्रा के माध्यम के बिना एक वस्तु अथवा सेवा का दूसरी वस्तु अथवा सेवा के साथ-साथ सीधा विनिमय ही अदल-बदल अथवा वस्तु-विनिमय कहलाता है।

दूसरे शब्दों में वस्तु विनिमय प्रणाली वह प्रणाली है जिनमें वस्तु का वस्तु द्वारा ही लेनदेन होता है और विनिमय का कोई सर्वमान्य माध्यम नहीं होता।

प्रो० आर० पी० केन्ट के शब्दों में वस्तु विनिमय मुद्रा का विनिमय माध्यम के रूप में प्रयोग किए. बिना वस्तुओं के लिए प्रयत्न विनिमय है।

इसके प्रमुख दोष निम्न हैं-

  • दोहरे संयोग का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत विनिमय केवल उसी समय संभव हो सकता है जबकि व्यक्तियों के पास एक-दूसरे की आवश्यकता की वस्तु हो और साथ ही वे आपस में एक-दूसरे से बदलने को तैयार हो परन्तु ऐसा संयोग सदैव संभव नहीं है।
  • संचय में कठिनाई- वस्तु विनिमय प्रणाली में एक प्रमुख कठिनाई यह है कि भविष्य के लिए विनिमय शक्ति संचय नहीं किया जा सकता क्योंकि अधिकांश वस्तुएँ क्षयशील प्रकृति की होती है।
  • सर्वमान्य मूल्य मापक का अभाव- वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत मूल्य का कोई मानक न होने के कारण विनिमय की जानेवाली वस्तु का मूल्य निश्चित करना एक कठिन काम है।
  • वस्तु विभाजन में कठिनाई- विनिमय होनेवाली वस्तुओं में कुछ वस्तुएँ ऐसी होती है जिनका विभाजन नहीं किया जा सकता।
  • मूल्य हस्तान्तरण का अभाव- वस्तु विनिमय में मूल्य या क्रयशक्ति के स्थानान्तरण में बहुत कठिनाई होती है।
  • भावी भुगतान का अभाव- बहुत सी वस्तुओं का क्रय-विक्रय ऐसे होता है जिनका भुगतान तुरन्त न होकर भविष्य में किया जाता है परन्तु वस्तु-विनिमय प्रणाली में ऐसा संभव नहीं था क्योंकि वस्तु-विनिमय प्रणाली में सभी वस्तुओं के मूल्य में स्थिरता का अभाव था इसलिए एक वस्तु के बदले दूसरी वस्तु का विनिमय के समय ही लेना अथवा देना आवश्यक होता था।

प्रश्न 14.
दोहरी गणना की समस्या से क्या अभिप्राय है ? इस समस्या से कैसे बचा जा सकता है ? उदाहरण स्पष्ट करें।
उत्तर:
राष्ट्रीय आय की गणना के लिए जब किसी वस्तु या सेवा के मूल्य की गणना एक से अधिक बार होती है, तो उसे दोहरी गणना कहते हैं। दोहरी गणना के फलस्वरूप राष्ट्रीय आय बहुत अधिक हो जाती है। दोहरी गणना की समस्या को निम्न उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है-

मान लीजिए एक किसान 500 रुपये के गेहूँ का उत्पादन करता है और उसे आटा मिल को बेच देता है। आटा मिल द्वारा गेहूँ की खरीद मध्यवर्ती उपभोग व्यव है। आटा मिल गेहूँ से आटे का उत्पादन करने के बाद उस आटे को बेकरी को 700 रुपये में बेच देती है। बेकरी के लिए आटे पर व्यव मध्यवर्ती उपभोग पर व्यव है। बेकरी वाला आटे से बिस्कुट का निर्माण करके 900 रुपये के बिस्कुट उपभोक्ताओं को बेच देता है।

जहाँ तक किसान आटा मिल और बेकरी वाले का संबध है। उत्पादन को मूल्य 500 + 700 + 900 = 2100 रुपये हैं, क्योंकि प्रत्येक उत्पादन जब वस्तु बेचता है। उसे अन्तिम मानता है। लेकिन आटे के मूल्य में गेहूँ का मूल्य शामिल है और बिस्कुट के मूल्य में गेहूँ का मुल्य तथा आटे मिल की सेवाओं का मूल्य शामिल है। इस प्रकार गेहूँ के मूल्य की तीन बार और आटा मिल की सेवाओं की दो बार गणना होती है। अतः एक वस्तु या सेवा के मूल्य की गणना जब एक से अधिक बार होती है तो इसे दोहरी गणना कहते हैं।

मूल्य वृद्धि विधि द्वारा दोहरी गणना की समस्या से बचा जा सकता है। या दोहरी गणना से बचने के लिए हमें अंतिम वस्तुएँ के मूल्य को ही राष्ट्रीय आय में शामिल करना चाहिए।

प्रश्न 15.
निवेश गुणक की परिभाषा दें। निवेश गुणक तथा उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति में क्या सम्बन्ध हैं ?
उत्तर:
निवेश में वृद्धि के फलस्वरूप राष्ट्रीय आय वृद्धि के अनुपात को निवेश गुणक कहते हैं।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 4, 5
संक्षेप में निवेश गुणक से आशय निवेश में परिवर्तन और आय में परिवर्तन के अनुपात से है।

  • वेंज- के अनुसार, “निवेश गुणक से ज्ञात होता है कि जब कुल निवेश में वृद्धि की जाती है तो आय में जो वृद्धि होगी वह निवेश में होने वाली वृद्धि से K गुणा अधिक होगी।”
  • डिल्लर्ड- के अनुसार, “निवेश में की गयी वृद्धि के फलस्वरूप आय में होने वाली वृद्धि के अनुपात को निवेश गुणक कहा जाता है।”
  • निवेश गुणक तथा उपभोग की सीमांत प्रवृति में संबंध- निवेश गुणक का सीमांत उपयोग प्रवृति (MPC) से प्रत्यक्ष संबंध है। MPC के बढ़ने से निवेश गुणक बढ़ता है तथा कम होने से कम होता है।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3

BSEB Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
ईश्वर के अस्तित्व की सिद्धि के लिए विश्वमूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर:
जगत् सम्बन्धी तर्क द्वारा ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने से तात्पर्य उस तर्क से है जिसके अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को जगत् के अस्तित्व के आधार पर सिद्ध किया जाता है। विश्व विषयकं तर्क द्वारा ईश्वर के अस्तित्व के विषय में देकार्त ने यह कहा है कि विश्व की समस्त वस्तुओं और जीवों के शरीर का स्रष्टा कोई-न-कोई अवश्य है। इस दिशा में यदि मनुष्य को इनका स्रष्टा माना जाए तो उसे पूर्ण मानना पड़ेगा जो कि वह नहीं है। इसके अतिरिक्त यदि मनुष्य सृष्टि कर सकता तब वह अपनी भी सृष्टि करता अर्थात् स्वयं अपने शरीर का भी स्रष्टा होता और यदि अपने शरीर को वह स्वयं बनाता तब उसे पूर्ण बनाता और स्वयं अपने आप को जन्म दे लेता क्योंकि उसका स्रष्टा के रूप में जन्म से पूर्व भी अस्तित्व रहता किन्तु ऐसा मानना और फिर जन्म मानना दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं।

इसलिए ऐसा होना सम्भव नहीं, अतः मनुष्य को तो स्वयं अपना ही स्रष्टा नहीं माना जा सकता तब जगत् की अन्य वस्तुओं का स्रष्टा कैसे माना जा सकता है ? इसके अतिरिक्त यदि मनुष्य का स्रष्टा उसके माता-पिता को माना जाए तब यह प्रश्न पुनःउपस्थित होगा कि यदि मेरे माता-पिता मेरे स्रष्टा इस कारण से हैं कि उन्होंने मुझे जन्म दिया है तब मेरे संरक्षण की पूर्ण सामर्थ्य भी उनमें होनी चाहिए। इसके साथ वे अपूर्ण हैं इसलिए वे भी मेरे शरीर अर्थात् मानव शरीर के स्रष्टा नहीं हैं। इस खिला में यदि विचार करना आरम्भ किया जाए तब यह पता चलता है मैं अपूर्ण हूँ इसलिए मेरे स्रष्टा न मैं हूँ औन न मेरे माता-पिता क्योंकि वे भी अपूर्ण हैं। अतः अन्त में ऐसे स्थान पर आकर रुकना पड़ता है जो पूर्ण है और जगत् तथा समस्त जीवों के शरीरों का स्रष्टा है। वही ईश्वर है। इस प्रकार जगत् का अस्तित्व ही ईश्वर के अस्तित्व का सबसे प्रबल प्रमाण है।

विश्व/जगत् प्रमाण की आलोचना-ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए विश्व विषयक तर्क के विरुद्ध निम्नलिखित आक्षेप किये जाते हैं-

(i) असिद्ध आधार से आधेय की सिद्धि-जगत् विषयक तर्क में जगत् अस्तित्व को सत्य मानकर इसके आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है किन्तु इस सम्बन्ध में अनेक दार्शनिक तो जगत् के अस्तित्व पर ही शंका करते हैं तब उनकी शंका का निवारण किये बिना और जगत् के अस्तित्व को सिद्ध किये बिना ईश्वर को सिद्ध करना तो रेत के कणों से दीवार बनाने के समान है।

(ii) आत्माश्रय दोष-ईश्वर के अस्तित्व हेतु दिये गये जगत् विषयक तर्क में आत्माश्रय दोष हैं क्योंकि इसमें यह कहा गया है कि जगत् का अस्तित्व है और इसके स्रष्टा के रूप में ईश्वर का अस्तित्व है। इस तर्क के विषय में सामान्यतया जब जगत् के अस्तित्व के विषय में संशय किया जाता है तब यही उत्तर मिलता है कि जगत् का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि ईश्वर इसका सृष्टा है और ईश्वर धोखेबाज नहीं है अर्थात् वह जिस संसार में हमारा सृजन करता है वह धोखा नहीं हो सकता। देकार्त ने इसी प्रकार के तर्क द्वारा जगत् का अस्तित्व सिद्ध किया। यद्यपि इस तर्क में आत्माश्रय दोष है क्योंकि जिस ईश्वर को सिद्ध करना है उसके अस्तित्व को जगत् के अस्तित्व के रूप में पूर्व ही मान लिया गया है।

(iii) ईश्वर को कारण मानने सम्बन्धी कठिनाई-जगत् विषयक तर्क में ईश्वर को जगत् । और जीवों का सृष्टा उसी रूप में माना है जिस रूप में कुम्हार घड़े का सृष्टा है अर्थात् ईश्वर को जगत् का निमित्त कारण माना गया है, अतः जो कठिनाई निमित्तेश्वरवाद के सम्बन्ध में है वही इस तर्क के सम्बन्ध में भी है।

(iv) ईश्वर को सृष्टा मानना मात्र एक कल्पना-जगत् विषयक तर्क में ईश्वर को जगत् का सष्टा माना है। यह तर्क कोरी कल्पना मात्र है क्योंकि समस्त सीमित वस्तुओं का सष्टा भी सीमित ही होता है, यथा घड़े का सृष्टा कुम्हार भी सीमित ही होता है और यह कहना कि अपूर्ण का सृष्टा, अपूर्ण नहीं हो सकता यह भी यथार्थ नहीं है क्योंकि जगत् की अनेक अपूर्ण वस्तुएँ अपूर्ण द्वारा ही बनायी जाती है। इसी प्रकार न ही तो सीमित वस्तुओं का सृष्टा असीम को माना जा सकता है और न ही अपूर्ण का सृष्टा पूर्ण को माना जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर तो यह प्रश्न स्वभावतः उत्पन्न होता है, कि जब वह पूर्ण है तब उसने अपूर्ण को क्यों बनाया?

(v) पूर्ण अपूर्ण का सृष्टा नहीं हो सकता-हम अपने दैनिक अनुभव में देखते हैं कि कोई चित्रकार जिस चित्र को बनाता है उसमें अपनी सम्पूर्ण योग्यता को उड़ेल देता है। दूसरे शब्दों में चित्र चित्रकार की पूर्ण योग्यता की अभिव्यक्ति होती है और इसलिए चित्र को देखते ही दर्शक चित्रकार की योग्यता का मूल्यांकन कर देता है। इस रूप में संसार को यदि ईश्वरीय योग्यता की अभिव्यक्ति माने तब विश्व में फैली अपूर्णता को भी ईश्वर की क्षमता और योग्यता में सम्मिलित करना चाहिए अथवा नहीं।

इस तर्क में इस प्रश्न का समाधान नहीं किया गया है क्योंकि यदि इसको ईश्वर की योग्यता माना जाए तब ईश्वर भी अपूर्ण सिद्ध होता है और जब ईश्वर भी अपूर्ण है और तब भी वह जगत् का सृजन कर सकता है, तब मनुष्य क्यों नहीं कर सकता और यदि इसको सम्मिलित न करें तब इसका उदय कहाँ से और कैसे हुआ इस प्रश्न का कोई समाधान नहीं होता। अत: जगत् विषयक तर्क ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए उपयुक्त नहीं है।

(vi) असीम सीमित जगत का सजन कैसे किया ?- जगत् के अस्तित्व को ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करते समय यह तो कहा कि जगत् के सृष्टा के रूप में ईश्वर का अस्तित्व है किन्तु सृजनों के लिए अनेक साधनों की आवश्यकता होती है, यथा चित्र बनाने के लिए हाथों की ब्रश और अन्य सम्बन्धित समान की। तब ईश्वर किन साधनों से जगत् का सृजन करता है। वे साधन भौतिक होते हैं अथवा अभौतिक ? ईश्वर और उन साधनों में क्या सम्बन्ध है ? आदि अनेक ऐसे प्रश्न हैं जिनका इस तर्क में कोई उत्तर नहीं दिया गया है। अतः जगत् विषयक तर्क द्वारा ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता।

प्रश्न 2.
वैशेषिक के अनुसार पदार्थ का वर्णन करें।
उत्तर:
द्रव्य या पदार्थ वह सत्ता है जो परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होता। वैशेषिक दर्शन में द्रव्य (substance) को एक विशेष अर्थ में लिखा गया है। द्रव्य वह है जो गुण और कर्म को धारण करता है। गुण और बिना किसी वस्तु या आधार के नहीं रह सकते। इसका आधार ही द्रव्य कहलाता है। गुण और कर्म द्रव्य में रहते हुए भी द्रव्य से भिन्न है। द्रव्य गुण युक्त है किन्तु गुण और कर्म गुणरहित है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार द्रव्य या पदार्थ नौ प्रकार के हैं-

  1. आत्मा
  2. अग्नि या तेज
  3. वायु
  4. आकाश
  5. जल
  6. पृथ्वी
  7. दिक्
  8. काल और
  9. मन।

उपर्युक्त नौ द्रव्यों में पाँच द्रव्य पंचमहाभूत (Five Physical Elements) कहे जाते हैं-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश। वैशेषिक दर्शन नहीं पंचमहाभूतों से विश्व का निर्माण मानता है। सभी भौतिक पदार्थ भूत ही हैं। कणाद द्रव्यों का वर्गीकरण ज्ञानात्मक आधार पर करते हैं। हमें पाँच ‘इन्द्रियाँ हैं जिनके द्वारा बाह्य जगत का ज्ञान होता है। प्रत्येक इन्द्रिय से वस्तु के किसी खास गुण का ज्ञान होता है। ये गुण किसी द्रव्य में ही रह सकते हैं अतः पाँच विभिन्न गुणों के आधार रूप में पाँच द्रव्यों को यहाँ स्वीकारा गया है।

आँख से बाह्य जगत् के रंग का ज्ञान होता है। रंग गुण को धारण करने वाला द्रव्य तेज कहा जाता है। कान से ‘ध्वनि’ गुण का ज्ञान होता है। इस गुण को धारण करने वाला द्रव्य आकाश है। आकाश सर्वव्यापी और नित्य है। आकाश के टुकड़े या परमाणु नहीं होते। त्वचा से स्पर्श का काम लिया जाता है। इन गुणों का आधार स्वरूप द्रव्य वायु है। नाक से गन्ध का पता चलता हैं। गन्ध को धारण करने वाला द्रव्य पृथ्वी है। जिह्वा से स्वाद का बोध होता है। स्वाद को धारण करने वाला द्रव्य जल है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पंचमहाभूतों में आकाश के अलावे अन्य चारों द्रव्यों के परमाणु होते हैं। वैशेषिक द्रव्यों को नश्वर मानता है किन्तु इनके परमाणु अनश्वर हैं। इन्हीं परमाणुओं से विश्व के सभी पदार्थ बनते हैं। इन परमाणुओं का प्रत्यक्ष नहीं होता। इनका ज्ञान अनुमान से होता है।

भौतिक द्रव्यों या परमाणुओं की व्यवस्था के लिए दिक् और काल को मानना आवश्यक है। विश्व के सभी भौतिक पदार्थ स्थान घेरते हैं। वे किसी खास काल में रहते हैं अतः वैशेषिक दर्शन में दिक् और काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार किया गया है।

दिक् कारण ही विश्व की विभिन्न वस्तुएँ अलग-अलग पायी जाती हैं। दिक् अगोचर है। अनुमान के आधार पर इसका ज्ञान होता है। यह नित्य सर्वव्यापी, अभौतिक (Non-material) एवं एक है। यह अविभाज्य है किन्तु व्यावहारिक जीवन सुविधा हेतु इसका कृत्रिम विभाजन ऊपर-नीचे, पूरब-पश्चिम, मील-गज आदि में करते हैं।

काल एक सर्वव्यापक, नित्य एवं अभौतिक है। यह भी अविभाज्य है किन्तु सुविधा के लिए भाव, नव, रात, दिन, घंटा, मिनट, वर्तमान, भविष्य आदि में विभाजन कर देते हैं।

मन एक आन्तरिक इन्द्रिय है। यह अणुरूप है। यह निरधपब है। जिस प्रकार वाक्य पदार्थों की जानकारी के लिए बाह्य इन्द्रियों की आवश्यकता पड़ती है। उसी प्रकार आन्तरिक अनुभूतियों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आन्तरिक इन्द्रिय अर्थात् मन की आवश्यकता है। मन का प्रत्यक्ष नहीं होता इसका ज्ञान अनुमान द्वारा होता है। इसके द्वारा सुख, दुःख, हर्ष, विषाद आदि आन्तरिक अनुभूतियों का ज्ञान होता है। मन अविभाज्य है।

वैशेषिक दर्शन में चेतना आत्मा का आकस्मिक गुण है न कि आवश्यक गुण। आत्मा आकस्मिक गुण है न कि आवश्यक गुण। आत्मा जब शरीर धारण करती है तो उसमें चेतना का उदय होता है। शरीर धारण करने के पूर्व यह अचेतन रहती है। वैशेषिक दर्शन में आत्मा दो प्रकार के माने गए हैं-जीवात्मा और परमात्मा।

जीवात्मा वह है जो शरीर धारण करे और शरीर धारण करने के बाद उसमें चेतना का उदय हो। इस प्रकार यहाँ चेतना का जीवात्मा का आकस्मिक गुण माना गया है न कि आवश्यक गुण। जीवात्मा या जीव शरीर में प्रवेश करते ही उसका मालिक बन जाता है। शरीर के संचालन के लिए चेतना की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रकार चेतना जीवात्मा से अलग नहीं की जा सकती है।

जीवात्मा अमर एवं नित्य है। यह दिक् और काल से परे है। यह सूक्ष्म और अनन्त है। इसमें ज्ञान इच्छा एवं संकल्प उपस्थित रहने के कारण ही इसे बन्धनग्रस्त होना पड़ता है। फलतः मोक्ष की समस्या उठती है। जीवात्मा के अस्तित्व का प्रत्यक्ष या साक्षात् ज्ञान होता है। प्रायः व्यक्ति कहता है “मैं दु:खी हूँ” इत्यादि। यहाँ मैं का साक्षात् ज्ञान होता है। यह मैं ही जीवात्मा है। वैशेषिकों का कहना है कि इन्द्रियाँ तो ज्ञान के साधन मात्र हैं। ज्ञान जीवात्मा को मिलता है। चेतना : का आधार जीवात्मा को कहा गया है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार जितने शरीर हैं उतने जीवात्मा हैं।

परमात्मा या ईश्वर भी एक प्रकार आत्मा ही है। इसका प्रधान गुण चेतना है अतः चेतना इसका आवश्यक गुण है। परमात्मा को शरीर धारण नहीं करना पड़ता। वह तो सदैव चेतन है। उसमें भी इच्छा संकल्प आदि रहते हैं किन्तु असीम पूर्ण रूप में जीवात्मा के विषय में सुख, दुःख, या पुण्य के प्रश्न उठते हैं न कि परमात्मा के विषय में। परमात्मा नित्य एवं पूर्ण है। वह संसार का रचयिता, पालनकर्ता एवं संहारकर्ता भी है। वह शक्तिशाली, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी शुभ आदि कहा गया है।

प्रश्न 3.
क्या ह्यूम संदेहवादी है? व्याख्या करें।
उत्तर:
‘हाँ’ ह्यूम संदेहवादी है। ह्यूम के दर्शन का अंत संदेहवाद में होता है, क्योंकि संदेहवाद अनुभववाद की तार्किक परिणाम है। ह्यूम एक संगत अनुभववादी होने के कारण उन्होंने उन सभी चीजों पर संदेह किया है जो अनुभव के विषय नहीं है। यही कारण है कि इन्होंने आत्मा, ईश्वर कारणता आदि प्रत्ययों पर संदेह किया।

ह्यूम दार्शनिकों के कार्य-कारण की धारणा का खण्डन करता है। दार्शनिक के अनुसार कार्य और कारण में निश्चित और अनिवार्य संबंध होता है क्योंकि विशिष्ट कारण में विशिष्ट कार्य उत्पन्न करने की गुप्त शक्ति होती है। कार्य और कारण परस्पर अनिवार्य संबंध के सत्र में बँधे होते हैं। अरस्तु केवल विचार और तर्क के आधार पर ही एक को देखकर दूसरे के बारे में भविष्यवाणी की जा सकती है। दूसरे शब्दों में कारण का ज्ञान अनिवार्य रूप से कार्य का ज्ञान प्रदान करना है।

कार्य-कारण का उपरोक्त दार्शनिक धारणा से ह्यूम यह प्रश्न उठता है कि हमें शक्ति तथा अनिवार्य संबंध जैसे प्रत्ययों को प्रयोग करने का क्या अधिकार है ? दार्शनिक धारणा की विवेचना के लिए ह्यूम कार्य-कारण संबंध में यथाकथित अनिवार्य संबंध का विश्लेषण करता है।

प्रश्न 4.
जैन दर्शन के अनुसार मोक्ष की अवधारणा की व्याख्या करें।
उत्तर:
पंच महाव्रत अपनाकर ही मनुष्य मोक्ष (मुक्ति) प्राप्त कर सकता है। ऐसा करने से कर्मों का आश्रय जीव में बन्द हो जाता है तथा पुराने कर्मों का क्षय हो जाता है। फलस्वरूप जीव, अपनी स्वाभाविक अवस्था जिनमें अनन्त शक्ति, अनन्त दर्शन और अनन्त आनन्द मौजूद है को प्राप्त कर लेता है। अतः मोक्ष सिर्फ दुःखों का विनाश ही नहीं, अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति भी है।

स्पष्टतः जैन-दर्शन मोक्ष के दोनों पहलुओं (भावात्मक एवं निषेधात्मक) में विश्वास रखना है। निषेधात्मक रूप से मोक्ष दुःख रहित अवस्था है और भावात्मक रूप से यह अनन्तचतुष्टय की प्राप्ति की भावस्था है।
पंच महाव्रत-

(i) अहिंसा-जैन-धर्म के अनुसार अहिंसा का अर्थ किसी जीव को किसी प्रकार का कष्ट नहीं पहुँचना है। जैन-दर्शन सभी जीवों की एकता का समर्थक है। इसलिए इसने किसी जीव को कष्ट न पहुँचाने का आदेश दिया है। कष्टप्रद मजाक भी त्याज्या कहा गया है।

(ii) सत्य-असत्य भाषण का त्याग एवं सत्य भाषण अपनाना भी आवश्यक है। मोह, राग, द्वेष, के कारण ही असत्य होना है। मोक्ष प्राप्ति के लिए सत्य का पालन आवश्यक है। जैनों के अनुसार सत्य सदैव मधुर होना चाहिए। अंधे को अंधा कहना कटुसत्य है। ऐसा सत्य अंवाछनीय माना गया है।

(iii) अस्तेय-किसी की सम्पत्ति का अपहरण नहीं करना ही अस्तेय है। जैनों के अनुसार धन व्यक्ति का वाह्य जीवन है। अतः किसी का धन लेना उसकी जान लेना है। बिना मर्जी के किसी का धन लेना या आवश्यकता से अधिक धन संग्रह करना चोरी माना गया है। महात्मा गाँधी का भी इसी प्रकार का विचार था।

(iv) ब्रह्मचर्य- केवल काम वासना से दूर रहना ही ब्रह्मचर्य नहीं है। इन्द्रियों पर पूर्ण नियंत्रण ही ब्रह्मचर्य है।

(v) अपरिग्रह- सांसारिक विषय भोगों से दूर रहना ही अपरिग्रह है। व्यक्ति रोग, द्वेष, माया, मोह, इन्द्रियों की तृप्ति आदि में अनासक्त रहता है। फलतः बन्धन ग्रस्त होता है। इन सांसारिक विषय-वासनाओं के प्रति अनासक्त रहना मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक माना गया है।

उपर्युक्त पंचमहाव्रतों में घनिष्ठ सम्बन्ध है । इनमें किसी की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती। पंचमहाव्रत मोक्ष प्राप्ति के लिए आवश्यक शर्त के रूप में स्वीकार किए गए हैं।

प्रश्न 5.
शंकर के माया सम्बंधी सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर के अनुसार माया और भ्रम या अविद्या और अभ्यास के बीच कोई अंतर नहीं है। माया ब्रह्मा की शक्ति है परंतु उसका वास्तविक स्वरूप नहीं है। ब्रह्म, माया से अलग रह सकता है परंतु माया, ब्रह्म से अलग नहीं रह सकती।

अब प्रश्न उठता है, कि जब माया ब्रह्म का स्वरूप नहीं है तो ब्रह्म कैसे जगत के रूप में उत्पन्न होता है। इस समस्या का समाधान शंकर ने एक उपमा के द्वारा करने का प्रयास किया है। जिस प्रकार कोई जादूगर अपनी जादू की प्रवीणता से एक सिक्के का अनेक सिक्का दिखलाता है बीज से वृक्ष उत्पन्न करता है। किसी की गर्दन काट देता है और दर्शक जो जादू से अनभिज्ञ है मुग्ध हो जाता है उसी प्रकार ब्रह्म माया के द्वारा विश्व की रचना करते हैं। अज्ञानी इस जगत को सत्य मान बैठते हैं। जिस प्रकार जादूगर अपनी जादू से प्रभावित नहीं होते हैं, उसी प्रकार ब्रह्म पर माया का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

अब प्रश्न उठता है कि क्या जगत केवल भ्रम मात्र ही है या इनकी कुछ वास्तविकता भी है ? शंकर इस प्रश्न का भावनात्मक उत्तर देते हैं। सर्वप्रथम शंकर के अनुसार प्रत्येक विषय के पीछे एक शुद्ध सत्ता होती है।

यहाँ हम शंकर में Bradley की अनुगुंज पाते हैं। Bradley प्रत्येक मौजूदगी के पीछे वास्तविकता को मानते हैं।

शंकर ने सत्ता को तीन कोटि में विभाजित किया है-

  1. प्रतिभासिक सत्ता
  2. व्यावहारिक सत्ता और
  3. पारमार्थिक सत्ता।

प्रतिभासिक सत्ता वह है जिसकी अनुभूति क्षणमात्र के लिए होती है। परंतु चैतन्य अनुभूति से वह बाधित हो जाता है। इसके विपरीत व्यावहारिक सत्ता की अनुभूति अज्ञानतावश जाग्रतावस्था में सत्य प्रतीत होती है परंतु यथार्थ ज्ञान होने पर असिद्ध साबित होती है। जैसे बचपन में खिलौना हमें अनमोल प्रतीत होता है परंतु बड़ा होने पर वह महत्वहीन सिद्ध होता है। इन दोनों से अलग पारमार्थिक सत्ता है जो सभी देश और काल में समान प्रतीत होता है। जैसे-सोते-जागते अवस्था में हमें अपनी आत्मा की अनुभूति होती है। हम कहते हैं कि मैं खूब सोया। अतः ऐसे आत्मा से समान सत्ता पारमार्थिक सत्ता है। अब यदि ध्यान से देखा जाये तो जगत स्वप्न के सामान असत्य नहीं है क्योंकि हमें वास्तविकता प्रतीत होती है।

प्रश्न 6.
ईश्वर के अस्तित्व को तात्त्विक युक्ति से प्रमाणित करें।
उत्तर:
मध्यकालीन दार्शनिक संत असलेम ने सर्वप्रथम ईश्वर के विषय में तत्त्व विषयक प्रमाण प्रस्तुत किया जिसको बाद में देकार्त ने विकसित किया। इस तर्क के अनुसार हम ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में मानते हैं तथा उसे पूर्ण भी मानते हैं। इस प्रकार जब हम ईश्वर को पूर्ण मानते हैं तब उसका अस्तित्व भी अवश्य होना चाहिए क्योंकि अस्तित्व के अभाव में उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता। इससे स्पष्ट है कि तत्त्व विषयक तर्क के अनुसार ईश्वर की पूर्णता ही उसके अस्तित्व का प्रमाण है। इसके साथ ही यह भी यथार्थ है कि अस्तित्व के अभाव में ईश्वर को सर्वोच्च भी नहीं माना जा सकता।

देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्त्व विषयक तर्क कुछ भिन्न प्रकार से दिया है। उनका कहना है कि हमारे मन में जो असीम सर्वज्ञ और शाश्वत सत्ता का प्रत्यय है वह असीम, सर्वज्ञ और शाश्वत शक्ति के अस्तित्व को सिद्ध करता है क्योंकि यदि यह विचार किया जाए कि ईश्वर को प्रत्यय नहीं माना जा सकता क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है इसलिए वह पूर्ण के प्रत्यय का कारण नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि यह कहा जाए कि असीम प्रत्यय सकारात्मक न होकर नकारात्मक है तब देकार्त का यह कहना है कि असीम का बोध असीम से पूर्व और अधिक स्पष्ट तथा यथार्थ होता है क्योंकि ससीमता असीमता के अपेक्षा रखती है तथा अपूर्ण पूर्ण की अपेक्षा से होता है।

इस प्रकार असीम के प्रत्यय का कारण न तो मनुष्य है और न ही यह नाकरात्मक प्रत्यय है बल्कि इस प्रत्यय का स्वयं ईश्वर ही कारण है। इस विषय में यदि कहा जाए कि मनुष्य ससीम एवं अपूर्ण है तब उसके मन में असीम और पूर्ण का प्रत्यय कैसे बन सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए देकार्त ने कहा है कि यह तो मान्य है कि मनुष्य सीमित है इसलिए वह असीम की धारणा को ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु इस विषय में यह भी स्पष्ट ही है कि मनुष्य यह तो जान सकता है कि उसके मन में जो असीम की धारणा है वह स्वयं से सम्बन्धित नहीं वरन् उसका सम्बन्ध किसी पूर्ण ईश्वर से ही हो सकता है। इस प्रकार स्पष्ट ईश्वर का प्रत्यय या असीम का प्रत्यय ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है।

प्रश्न 7.
कारण के गुणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
मिल ने कारण में पूर्ववर्ती एवं अनौपाधित लक्षणों पर बल दिया तो कारवेथ रीड ने पूर्ववर्तिता, नियतता, अनौपाधिता एवं तात्कालिकता चार लक्षणों पर बल दिया है। इसमें कारवेथ रीड के अनुसार, गुणात्मक दृष्टि से किसी भी घटना का कारण कार्य का तात्कालिक, अनौपाधिक, नियतपूर्ववर्ती है तथा मिल साहब के अनुसार, किसी घटना का कारण “वह पूर्ववर्ती या पूर्ववर्त्तियों का समूह है जिसके या जिनके होने के बाद वह घटना नियत रूप से तथा अनौपाधिक रूप से होती है। दोनों परिभाषाओं को देखने के बाद कारण के निम्नलिखित लक्षण पाते हैं-

(i) पर्ववर्ती होना (Anticedent)- कारण और कार्य सापेक्षवाद है। एक के बाद दूसरा एक क्रम में पाया जाता है जिसका आदि और अंत हमें नहीं पता चलता है। अतः, किसे कारण समझा जाए? इस समस्या को समझने के लिए मिल साहब का कहना है कि किसी घटना के पहले घटने वाली घटना के कारण समझ लेना ठीक होगा। मेलोन साहब का विचार है कि कारण और कार्य के बीच एक गणित की रेखा है. जिसमें चौड़ाई नहीं होती है, अर्थात् कारण और कार्य एक-दूसरे से अलग नहीं बल्कि एक तथ्य के दो छोर हैं। जो हमें पूर्ववर्ती के रूप में पहले दिखाई पड़ता है उसे कारण कहते हैं और बाद में जो अनुवर्ती के रूप में दिखाई पड़ता है उसे कार्य का रूप देता है। अत: इसके अनुसार कारण कार्य के पहले आता है।

(ii) नियत अनियत होना (Invariable)-पहले घटने वाली घटना को कारण तो कहा जाता है लेकिन सभी पहले घटने वाली घटना कारण नहीं हो सकता है। ऐसा कहने से अंधविश्वास का जन्म हो सकता है। पहले घटने वाली घटनाएँ दो तरह की हैं-
(a) नियत तथा
(b) अनियत।

(a) अनियत पूर्ववती (Variable anticedent)-अनियत पूर्ववर्ती घटनाएँ वे हैं जो कार्य के पहले नियमित रूप से नहीं पायी जाती है। कभी होता है और कभी नहीं भी। जैसे-वर्षा के पहले घटने वाली घटनाओं के रूप में हम फुटबॉल मैच, राम की शादी, कॉलेज में सभा इत्यादि को पा सकते हैं लेकिन नियमित रूप से वर्षा के पहले हमेशा नहीं आते हैं इसलिए ये कारण भी हो सकते हैं। अतः अनियत घटनाएँ कारण कभी नहीं हो सकती है।

(b) नियत पूर्ववती (Invariable anticedent)-ये वे घटनाएँ हैं जो किसी कार्य के पहले देय था ही नियत रूप से पायी जाती है, जैसे-वर्षा के पहले बादल का घिर जाना। जब कभी भी वर्षा होगी आकाश में बादल का रहना जरूरी है। अतः बादल का होना नियत पूर्ववर्ती घटना है। ऐसा विचार ह्यूम का है। घटना के पहले जो भी आवे, जो कुछ भी घटे उन सबों को बिना विचारे कारण मान लेना एक दोष पैदा कर सकता है। जिसे हम पूर्ववर्ती घटनाओं के रूप में पाते हैं, परन्तु वे सभी आकस्मिक या परिवर्तनशील हैं। इसलिए अनियत पूर्ववर्ती घटना के कारण बनने का योग कभी भी प्राप्त नहीं होगा। इसलिए ह्यूम साहब ने हमेशा ही नियत पूर्ववर्ती घटना को कारण मानना उचित बताया है।

(iii) अनौपाधिक होना (Unconditional)-कभी-कभी ह्यूम के विचारों का मानने से एक समस्या आ जाती है जिसे कारवेथ रीड ने हमारे सामने दिन और रात का उदाहरण रखा है। दिन के पहले रात और रात के पहले दिन नियत पूर्ववर्ती घटना के रूप में पाए जाते हैं। यदि हम ह्यूम की बात न माने तो दिन का कारण रात और रात का कारण दिन होना ही होगा। ऐसा कहना हास्यास्पद होगा, क्योंकि दिन और रात का होना एक शर्त पर निर्भर करता है, वह है पृथ्वी का चौबीस घंटे में अपनी कील पर चारों तरफ एक बार घूम जाना। वास्तव में यही दिन और रात का अलग-अलग कारण हो सकता है। इस समस्या को दूर करने के लिए मिल साहब कहते हैं कि इसी प्रकार की घटना को नियतपूर्ववर्ती घटना का कारण माना जा सकता है जो किसी शर्त पर निर्भर नहीं करे अर्थात् वह अनौपाधिक हो।

(iv) तात्कालिक होना (Immediate)-कारण का अंतिम गुणात्मक लक्षण तात्कालिकता है। कारण जो कार्य का तात्कालिक पूर्ववर्ती होना चाहिए। अतः कारण से तुरंत पहले आने वाली पूर्ववर्ती में खोजना चाहिए। दूरस्थ पूर्ववर्ती को कारण नहीं मानना चाहिए। जैसे-कॉलेज में सुबह पढ़ना, शाम को टहलना, रात को ओस में सोना इत्यादि घटनाओं के बाद हमें खूब जोर से सर दर्द होता है। यहाँ सर दर्द के पहले ओस में सोना तात्कालिक घटना है और अन्य घटनाएँ दूर की हैं। इस तरह पूर्ववर्ती नियुत अनौपाधिक एवं तात्कालिक मिश्रण है।

प्रश्न 8.
पुरुषार्थ के रूप में अर्थ और काम की व्याख्या करें।
उत्तर:
पुरुषार्थ शब्द दो शब्दों के योग से बना है-पुरुष + अर्थ। पुरुष शब्द आत्मा का पर्यायवाची माना जाता है और इस अर्थ से हमारा तात्पर्य उद्देश्य होता है। इस प्रकार पुरुषार्थ शब्द End या good का पर्यायवाची शब्द माना जा सकता है। भारतीय आचार दर्शन में जीवन के भिन्न-भिन्न पक्ष को ध्यान में रखकर पुरुषार्थों की संख्या चार माना गया है जिन्हें हम क्रमश: अर्थ (Wealth), काम (Enjoyment), धर्म (Virtues), मोक्ष (Salvation or Liberation). कहते हैं।

इन चारों पुरुषार्थों को दो वर्गों में रखा जा सकता है। प्रथम तीन पुरुषार्थ साधन के रूप में पुरुषार्थ माने जाते हैं, किन्तु चौथा पुरुषार्थ परमपुरुषार्थ माना जाता है। जिसके लिए अंग्रेजी शब्द Summan bonum या Supreme good का प्रयोग किया जाता है। इन चारों पुरुषार्थ की व्याख्या अपेक्षित है। सबसे पहला पुरुषार्थ है-अर्थ या Wealth।

अर्थ (Wealth)-अर्थ शब्द का प्रयोग भी भिन्न-भिन्न अर्थों में किया जाता है। किन्तु भारतीय आचार दर्शन के क्षेत्र में अर्थ से हमारा तात्पर्य उन भौतिक साधनों से है जिसके आधार पर हम जीवन-यापन कर पाते हैं। क्या हम असीम रूप से भौतिक साधनों का अर्जन कर सकते हैं ? या इनके अर्जन के सम्बन्ध में कुछ सीमा है, कुछ वैसे प्रश्न हैं जिनका सम्बन्ध मूलतः अर्थ की नैतिकता (Morality of wealth) से है। यह सर्वविदित है कि जहाँ पूँजीवाद के समर्थक यह मानते हैं कि व्यक्ति को असीमित धन अर्जन का अधिकार है वहीं दूसरी ओर साम्यवाद के समर्थक अर्थ के ऊपर व्यक्तिगत नियंत्रण को बिल्कुल अनैतिक मानते हैं।

भारतीय नैतिक व्यवस्था में अर्थ के महत्त्व को आँका गया है, किन्तु यहाँ न तो पूँजीवादी व्यवस्था की तरह असीम धन अर्जन को नैतिक माना गया है और न ही हम यह मानते हैं कि व्यक्ति बिल्कुल ही भौतिक साधनों का परित्याग कर दें। वस्तुतः अर्थ तो मनुष्य का बाह्य जीवन माना गया है किन्तु इसका औचित्य केवल उसी हद तक है जिस हद तक इसे जीवन-यापन के साधन के रूप में किया जाना है या अतिथि-सत्कार के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। यही कारण है कि हम ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि हमें वह उतना ही (धन) दे जिससे हम जीवन-यापन कर सकें। यह इस कथा से भी स्पष्ट हो जाता है-

“साईं इतना दीजिए, जामे कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।।

इसी प्रकार, महात्मा गाँधी का भी विचार था कि हम उसी हद तक भौतिक साधनों का अर्जन करें, जिस हद तक वह उस दिन जीवन-यापन के लिए अनिवार्य हो। इस प्रकार अर्थ का अर्जन इसी हद तक नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जाता है जिसे हद तक इसे हम जीवन-यापन के साधन के रूप में प्रयोग में लाते हैं। अगर इसके आधार पर हम अन्य व्यक्तियों का शोषण प्रारम्भ कर देते हैं तो इसका कोई भी नैतिक औचित्य नहीं रह जाता।

काम (Enjoyment)-भारतीय आचार दर्शन का आचार मानव जीवन का मनोवैज्ञानिक.पक्ष भी माना जाता है जिसके अन्तर्गत काम की नैतिकता (Morality of enjoyment) को स्थान देते हैं। काम शब्द का प्रयोग दो अर्थों में किया जाता है। संकुचित अर्थ में इसका तात्पर्य Sexual Activities से लगाया जाता है। किन्तु वृहत् अर्थ में किसी भी इन्द्रियों के उपयोग के आधार पर प्राप्त आनन्द को काम के अन्तर्गत रखा जाता है। काम के सम्बन्ध में दो नैतिक सिद्धांत हैं- एक ओर सुखवाद के समर्थक इसे जीवन का परम आदर्श या परम शुभ मानते हैं तो दूसरी ओर Scepticism के समर्थक यह मानते हैं कि नैतिक जीवन में काम का कुछ भी महत्त्व नहीं है। जहाँ एक ओर पहले सिद्धांत के अनुसार Morality consists in titillation of the senses. दूसरे सिद्धांत के अनुसार Morality consists in denoucing the life of sensibility.

इन दोनों के बीच मध्यम वर्ग के रूप में भारतीय नैतिक दर्शन में काम के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। किन्तु यहाँ इसे हम Restrained enjoyment के रूप में स्वीकार करते हैं। , चार्वाक भले ही इसे परम शुभ के रूप में स्वीकार करते हैं।

प्रश्न 9.
वैशेषिक के समवाय पदार्थ की विवेचना करें।
उत्तर:
‘समवाय’ वह सम्बन्ध है जिसके कारण दो पदार्थ एक-दूसरे में समवेत रहते हैं। यह एक आन्तरिक सम्बन्ध है जो दो अविच्छेद्य (Inseparable) वस्तुओं को सम्बन्धित करता है। उदाहरणस्वरूप,, द्रव्य और गुण या कर्म का सम्बन्ध ‘समवाय’ है। इस सम्बन्ध से जुटी वस्तुएँ एक-दूसरे से अलग नही की जा सकती। प्रभाकर मीमांसा में समवाय अनेक माने गये हैं प्रभाकर के मतानुसार, नित्य वस्तुओं का समवाय नित्य और अनित्य वस्तुओं का समवाय अनित्य होते हैं। परन्तु न्याय वैशेषिक में एक ही नित्य समवाय माना गया है।

समवाय अदृश्य होता है इसलिए ज्ञान अनुमान द्वारा प्राप्त किया जाता है।
समवाय का अच्छी तरह समझने के लिए वैशेषिक द्वारा प्रमाणित दूसरे ‘सम्बन्ध संयोग’ (Conjunction) को समझ लेना आवश्यक है। संयोग और समवाय वैशेषिक के मतानुसार दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। संयोग एक अनित्य सम्बन्ध है। संयोग की परिभाषा देते हुए कहा गया है-‘पृथक-पृथक वस्तुओं का कुछ काल के लिए परस्पर मिलने से जो सम्बन्ध होता है, उसे संयोग (conjunction) कहा जाता है।’ उदाहरणस्वरूप-पक्षी वृक्ष की डाल पर आकर बैठता है। उसके बैठने से वृक्ष की डाल और पक्षी के बीच जो सम्बन्ध होता है उसे ‘संयोग’ कहा जाता है। यह सम्बन्ध अनायास हो जाता है। कुछ काल के बाद यह सम्बन्ध टूट भी सकता है। इसलिए इसे अनित्य सम्बन्ध कहा गया है। यद्यपि समवाय और संयोग दोनों सम्बद्ध हैं फिर भी दोनों के बीच अनेक विभिन्नताएँ दृष्टिगत होती है।

(i) संयोग एक बाह्य सम्बन्ध (External relation) हैं, किन्तु समवाय एक आन्तरिक सम्बन्ध (Internal relation) है।

(ii) संयोग द्वारा सम्बन्धित वस्तुएँ एक-दूसरे के पृथक् की जा सकती है। परन्तु समवाय द्वारा सम्बन्धित वस्तुओं को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। उदाहरणस्वरूप-पुस्तक और टेबुल को एक-दूसरे से पृथक् किया जा सकता है, किन्तु द्रव्य और गुण को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। चीनी में मिठास समवेत है। मिठास को चीनी से पृथक् नहीं किया जा सकता।

(iii) संयोग अस्थायी (Temporary) है, किन्तु समवाय स्थायी (Permanent) होता है।

(iv) संयोग एक प्रकार का आकस्मिक सम्बन्ध (Accidental relation) है, किन्तु समवाय आवश्यक सम्बन्ध (Essential relation) है। संयोग द्वारा सम्बन्धित टेबुल और पुस्तक पहले अलग-अलग थे, किन्तु अकस्मात् इनमें संयोग स्थापित हो गया। किन्तु चीनी और मिठास तथा नमक और खारापन में समवाय है जो आवश्यक सम्बन्ध है।

(v) ‘संयोग’ अपने सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित नहीं करता किन्तु ‘समवाय’ सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित करता है। उदाहरणस्वरूप, टेबुल और पुस्तक संयोग के पहले अलग-अलग थे और ‘संयोग के नष्ट हो जाने पर पुनः अलग-अलग हो जाते हैं।’

संयोग के अभाव या भाव से इनके अस्तित्व और स्वरूप पर कोई असर नहीं पड़ता। इसके विपरीत, “समवाय’ से जुटे पदार्थ अलग होकर अपना अस्तित्व एवं स्वरूप कायम नहीं रख सकते। उदाहरणस्वरूप शरीर और इसके अवयवों में समवाय सम्बन्ध रहता है। शरीर से पृथक अवयवों का अस्तित्व नहीं रह सकता और इसका कार्य भी समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार शरीर भी अवयवों से पृथक् होकर नहीं रह सकता।

(vi) संयोग के लिए दोनों या कम-से-कम एक वस्तु में गति या कर्म का होना अनिवार्य है। किन्तु समवाय किसी कर्म या गति पर आश्रित नहीं है।

(vii) न्याय-वैशेषिक संयोग को स्वतंत्र पदार्थ नहीं मानते, किन्तु समवाय को स्वतंत्र पदार्थ मानते हैं।

वैशेषिक- दर्शन पर विचार करने से स्पष्ट है कि इसमें पदार्थों की मीमांसा हुई है। पदार्थ शब्द ‘पद’ और ‘अर्थ’ शब्द के मेल से बना है। पदार्थ का मतलब है जिसका नामकरण हो सके। जिस पद का कुछ अर्थ होता है उसे पदार्थ की संज्ञा दी जाती है। पदार्थ के अधीन वैशेषिक दर्शन में विश्व की वास्तविक वस्तुओं की चर्चा हुई है।

वैशेषिक दर्शन में पदार्थ के दो प्रकार बताए गए हैं। वे हैं-भाव पदार्थ तथा अभाव पदार्थ। भाव पदार्थ की संख्या छः है। वे हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष तथा समवाय। अभाव पदार्थ के अन्दर अभाव (Non-existence) को रखा जाता है। अभाव पदार्थ की चर्चा वैशेषिक सूत्र में नहीं की गयी है। अत: कुछ दार्शनिकों का मानना है कि अभाव पदार्थ का संकल कणाद के बाद हुआ है।

प्रश्न 10.
ज्ञान-विषयक सिद्धान्त के रूप में अनुभववाद पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
अनुभववाद वह ज्ञानशास्त्रीय दार्शनिक सिद्धान्त है, जो समस्त ज्ञान का स्रोत बाह्य इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव को मानता है। यह बुद्धिवाद का पूर्णतः विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववाद के अनुसार अनुभव ही एक मात्र ज्ञान का साधन है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य का प्रत्येक ज्ञान अर्जित है, जन्म के समय मनुष्य के मस्तिष्क में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए अनुभववाद का कहना है कि जन्म के समय हमारा मस्तिष्क कोरे कागज के तरह रहता है तथा बाद में अनुभव के आधार पर ज्ञान अंकित होते हैं।

ज्ञान के मनुष्य तत्त्व प्रत्यय है। इन प्रत्ययों की उत्पत्ति अनुभव से होता है। बुद्धि प्रत्यय को मात्र ग्रहण करता है, उत्पन्न नहीं करता। बुद्धि के प्रत्ययों को निष्क्रिय ढंग से ग्रहण करती है। इसलिए प्रत्यय का एक मात्र जननी अनुभव है। अनुभववाद के समर्थक प्रमुख तीन दार्शनिक है लॉक, बर्कले और ह्यूम है। इन तीनों दार्शनिक ग्रेट ब्रिटेन के तीन प्रदेशों, लंदन, आयरलैण्ड और स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे-

(a) जॉन लॉक का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान प्रत्ययों से बनता है। लेकिन हमारे सामने एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रत्यय क्या हैं ? इसके उत्तर में लॉक का कहना है कि प्रत्यय किसी बाह्य वस्तु के प्रतिनिधि होते हैं। जैसे-टेबुल, कुर्सी, पुस्तक आदि बाह्य पदार्थ है। जब इसे देखते हैं तो हमारे मन में एक प्रतिबिम्ब द्वारा वस्तु का बनता है। तब आँख बंद कर लेते हैं तो उस वस्तु का प्रतिमा बनी रहती हैं। यही प्रतिमा लॉक के अनुसार प्रत्यय है। अतः समस्त ज्ञान इन्हीं प्रत्ययों से बनता है जो अनुभव के द्वारा प्राप्त होता है।

लॉक अनुभव का कहना है कि जन्म के समय हमारा मन एक स्वच्छ कोरे कागज के समान रहता है। इस मन में कुछ भी पूर्व से अंकित नहीं रहती है बल्कि समस्त ज्ञान प्रत्ययों से प्राप्त होते हैं। “Blac tabula, table rase, white paper empty calamity”.

लॉक को दो भागों में विभक्त किया है-सरल प्रत्यय से मिश्र प्रत्यय का निर्माण होता है और हमारा समस्त ज्ञान बनता है। जितने भी बुद्धिवादी दार्शनिक हैं वे सहज प्रत्यय कों जन्मजात मानते हैं। बुद्धिवादियों का कहना है कि ईश्वर, आत्मा धार्मिक और नैतिक मूल्य आदि प्रत्यय हमारे मन में जन्म से ही बैठा दी जाती है। वे प्रत्यय पर और अनिवार्य होते हैं। इसके विरुद्ध में लॉक का कहना है कि सहज प्रत्यय नाम का कोई भी चित्र अनुभव से पूर्व मन में स्थित नहीं होती। इसका खण्डन करते हुए, लॉक का कहना है कि-

(i) यदि कोई प्रत्यय जन्मजात होता तो सभी व्यक्तियों का इसका एक समान ज्ञान होना चाहिए था। लॉक महोदय का कहना है कि कुछ नास्तिकों को छोड़कर विश्व में कुछ ऐसे जातियाँ हैं जो ईश्वर से अपरिचित हैं इससे स्पष्ट होता है कि ईश्वर का प्रत्यय है, लेकिन इसमें अनिवार्य और सार्वलौकिकता नहीं है।

यही बात सभी प्रत्यय पर लागू होती है। यह प्रत्यय अगर अनिवार्य और सार्वलौकिक होते तो बच्चों, पागल और मुर्ख व्यक्ति भी इसका ज्ञान अवश्य रखते। लेकिन व्यवहारिक जगत में ऐसा देखने को नहीं मिलता तो इसके विरोध में बुद्धिवादियों का कहना है कि इस सहज प्रत्यय बच्चों एवं पागलों में भी होते हैं लेकिन उसे इसका ज्ञान नहीं हो पाता है। लॉक का कहना है कि यह विशेष बात है कि एक ओर बुद्धिवाद इस सहज प्रत्यय को बुद्धि में निहित मानते हैं और दूसरी ओर कहता है कि व्यक्ति को ज्ञान नहीं है, तो ज्ञान बुद्धि का अनिवार्य तत्त्व है।

(ii) नैतिक सिद्धान्तों को लेकर संहज प्रत्यय को यदि समर्थन किया जाए तो नैतिक प्रत्यय कर्तव्य, अकर्त्तव्य के नियम अच्छे बुरे का विचार, सभी व्यक्तियों में सहज रूप से वर्तमान रहती हैलिांक का कहना है कि इसे भी सार्वभौमिकता कहना भूल होगी। लॉक का कहना है कि एक भी नैतिक ज्ञान ऐसा नहीं है जो सार्वभौमिकता हो। कुछ लोग जो पाप समझते हैं उसे ही दूसरे लोग पुण्य समझते हैं। जैसे कुछ लोग हत्या किसी भी जीव का क्यों नहीं हो, पाप समझते हैं, जब किसी अनेक लोग देवता के सामने बलि देना पुण्य समझते हैं। अतः नैतिकता का प्रत्यय भी सार्वलौकिक प्रत्यय नहीं है जो सभी में जन्मजात है।

(iii) लॉक का कहना है कि हम किसे सहज प्रत्यय कहेंगे यह बुद्धि बल्कि यह स्पष्ट नहीं कहते हैं। यदि अनिवार्यता और सार्वभौमिकता की सहज प्रत्यय की कसौटी हैं तो सूरज और उसका ताप चन्द्रमा और उसका शीतलता भी सार्वभौमिकता प्रत्यय है। इन्हें हम जन्म-जात नहीं कहेंगे। हम इन्हें ल अनभव के द्वारा जान सकते हैं। अत: लॉक जन्मजात प्रत्यय का खंडन करता है। लॉक का कहना है कि ज्ञान निर्माण के तीन तत्त्व हैं-

  1. (i) Subject
  2. (ii) Object
  3. (iii) Ideas

ज्ञान वस्तुओं का होता है। ज्ञान प्राप्त करने वाला अनुभवकर्ता है तथा ज्ञान का माध्यम प्रत्यय है। अतः लॉक अनुभव को ही स्वीकारात्मक है।

(b) अनुभववाद के दूसरा प्रबल समर्थक बर्कले का कहना है कि ज्ञान केवल अनुभव के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ये एक रोचक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक बार मुझे जिज्ञासा हुई कि फाँसी लगाते समय कैसा अनुभव होता है यह जाना जाए। इसलिए अनुभववादी बर्कले ने स्वयं फाँसी के फंदे गले में लगा लिया। जब उसके मित्र फाँसी के फंदे खोले तो बर्कले बेहोश थे। इतना कट्टर अनुभववादी होते हुए भी भौतिकवादी न होकर अध्यात्मवादी हैं।

बर्कले अपने अनुभववादी विचार को लॉक के विचारों से ताल मेल कराते हुए आगे बढ़ाई है। बर्कले लॉक के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को मानकर कहते हैं कि हमारा समस्त ज्ञान संवेदनाओं और इन संवेदनाओं के द्वारा होता है। इन्द्रिय बौधी समस्त ज्ञान को उत्पन्न करते हैं किन्तु इन्द्रिय बोध जो बर्कले प्रत्यय कहते हैं, वह मन में ही रहते हैं लॉक ने इसके स्रोत के रूप में स्थित पदार्थ की कल्पना की थी, पर बर्कले का मत है कि ऐसा किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता। हम केवल मन्स के प्रत्यय का अनुभव करते हैं, जो प्रत्यय इन्द्रियों का देन है, भौतिक पदार्थों का नहीं।

जैसे हमें आँख से रंग या प्रकाश का ज्ञान होता है, जीभ से स्वाद, कान से शब्द इत्यादि का बोध होता है। ये प्रत्यय एकत्र होकर वस्तु की संज्ञा देते हैं और ये संवेदना के द्वारा मिलते हैं। इन प्रत्ययों का संहार रूप वस्तुओं से हमारे मन में सुख-दुःख, प्रेम, घृणा, आशा-निराशा इत्यादि भावों का ज्ञान होता है। इनका ज्ञान एवं संवेदना से होता है जिसे बर्कले हमारे मन में कल्पना प्रस्तुत और स्मृति जन-प्रत्यय भी है। इसी को बर्कले में प्रत्ययवादी कहते हैं। इस प्रकार बर्कले के लिए अनुभव ज्ञान का साधन है किन्तु वह भौतिक पदार्थों का नहीं बल्कि ईश्वरीय प्रत्ययों का अनुभव है।

(c) अनुभववाद के तीसरा प्रबल समर्थक ह्यूम ने लॉक और बर्कले के तरह यह मानते हैं कि सभी ज्ञान अनुभवजन्य होते हैं। ह्यूम का कहना है कि अनुभव प्रत्ययों का होता है वस्तु का नहीं। ह्यूम का अनुभववादी विचार लॉक और बर्कले के अनुभववादी विचार के अस्वीकार करते हुए जड़, जगत, ईश्वर और आत्मा के सत्ता को इंकार करते हैं और कहते हैं कि अनुभव केवल प्रत्ययों का ही होता है, जो लगातार आते-जाते रहता है। हम भ्रमवश एक स्थायी आत्मा की कल्पना कर बैठते हैं, जबकि आत्मा नाम की चीज मनुष्य के पास नहीं है।

ह्यूम कार्य कारण नियम का खंडन करता है, जिसे उसके पूर्व लॉक और बर्कले स्वीकार करते हैं। इनका कहना है कि कार्य कारण नियम कोई वृद्धिजन्य और सार्वभौम नियम नहीं है। बल्कि हम अपने अनुभव के आधार पर कार्य कारण के संबंध का ज्ञान प्राप्त करते हैं। हम केवल संवेदना और स्व-संवेदना का अनुभव करते हैं। किसी जड़ पदार्थ का नहीं। इसी तरह आत्मा के बारे में ह्यूम का कहना है कि कभी भी आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। आत्मा कुछ नहीं है। केवल भिन्न-भिन्न संवेदनाओं का प्रवाह मात्र है। इसी प्रकार ईश्वर का भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। इसलिए इसकी पत्ता को भी राम इंकार करते हैं।

ज्ञान निर्माण के संबंध में ह्यूम का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान अनुभव से है। वे मनुष्य के अनुभव के विश्लेषण करते हुए कहते है कि हमारे अनुभव के मूल में दो वस्तुएँ रहती हैं-

  1. प्रत्यक्ष
  2. संस्कार।

संस्कार वे प्रधान भाव है जो प्रत्यक्षीकरण के साथ ही बड़ी तीव्रता से मन में आता है जो विचार या चिन्तन से बनते हैं वे प्रत्यय हैं। संस्कार के दो प्रकार होते हैं- (i) बाह्य, (ii) आन्तरिक। बाह्य संस्कार में हमारे इन्द्रिय बोध जैसे-देखना, छुना, स्पर्श करना आदि। आन्तरिक संस्कार में हमारे मनोवेग, प्यार, घृणा, क्रोध आदि आते हैं। इस प्रकार प्रत्यय का भी दो रूप हो जाते हैं-

  • सरल प्रत्यय,
  • मिश्र प्रत्यय। सरल प्रत्यय का निर्माण हमेशा संस्कारों के समरूप होता है, जबकि मिश्र प्रत्यय के लिए यह अप्रत्यय नहीं है। इन्हीं प्रत्ययों और संस्कारों से स्मृति और कल्पना शक्ति मिलकर ज्ञान का निर्माण करती है।

ज्ञान निर्माण के संबंध में घूम का कहना है कि बुद्धि बिलकुल निष्क्रिय रहती है। प्रत्ययों का राम के तीन प्रकार के पारस्परिक संबंध स्थापित करते हैं-

  • सदस्य का संबंध- दो वस्तु के समानता होने पर एक को देखने से दूसरे का भी स्मरण हो जाना।
  • विरोध का संबंध- दो वस्तुओं के आन्तरिक विरोध होने पर एक को देखने से दूसरा का स्मरण हो जाना।
  • परिमाण या संख्या का संबंध- इसके अलावे ह्युम तदात्म का संबंध देश काल देशकाल की असंगत का संबंध, जिसे ह्यूम अपने अनुभववाद में स्वीकार किया है।

आलाचना- अनुभववाद एक सुदृढ़ सिद्धान्त होते हुए भी स्वयं अपने आप को, अनेको दोषों से ग्रस्त होते हुए दिखाई देता है। जिसके कारण इसका अनेक आलोचना किया गया है-

  • अनुभववाद ज्ञान के निर्माण में बुद्धि को स्वीकार नहीं करता है इसका अर्थ यह है कि . बुद्धि ही केवल समस्त ज्ञान का निर्माण कर सकती किन्तु यह भी सच है कि केवल अनुभव पर समस्त ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
  • अनुभववाद बुद्धि को निष्क्रिय मानते हैं किन्तु मनोविज्ञान इस विचार को गलत सिद्ध कर दिया है। मनोविज्ञान के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति में हमारा मन सदैव गतिशील रहता है।
  • अनुभववादी लॉक का कहना है कि बुद्धि के पास कोई ऐसा भी नहीं है जो इन्द्रिय के पास नहीं थी। इसमें संशोधन करते हुए बुद्धिवादी दार्शनिक लाइबनित्स का कहना है कि बुद्धि के पास कोई ऐसा चीज नहीं है जो इन्द्रिय के पास नहीं था।J. T. Baxor का कहना है, “A theory can not be sensed and therefore on sensistic premises can not be known.”
  • अनुभववादी स्वयं मानते हैं कि अनुभव के द्वारा हमें सर्वमान्य एवं अवश्यभावी ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति में अनुभव को सम्य ज्ञान मानना उचित नहीं होगा।
  • ज्ञान का अनुभववादी विचार का प्रमाण ह्यूम का संदेहवाद जहाँ जाकर दर्शन एक अंधेरे गर्त में गिर गया है। यहाँ न नगर की सत्ता है, न ईश्वर की आत्मा की।
  • अनुभववादी संवेदनाओं का मानना है किन्तु वे संवेदनाएँ वहाँ तक अर्थहीन है, जब तक कि बुद्धि के द्वारा इनका कोई अर्थ नहीं लगाया जाए। अंग बुद्धि हमारे ज्ञान के निर्माण में आवश्यक है।

अतः अनुभववाद के उपर्युक्त ह्यूम द्वारा जगत, आत्मा तथा ईश्वर जैसे भयानक परिणाम प्रस्तुत करने के बाबजूद समकालीन दर्शन में बुद्धिवाद से अधिक अनुभववाद का ही समर्थन मिला है। यह मान्य है कि ज्ञान प्राप्ति का साधन मात्र अनुभव ही नहीं कहा जा सकता है बल्कि बुद्धि भी है। अनुभववाद में केवल दोष ही नहीं है इसमें विशेषता भी है बुद्धिवादियों ने ज्ञान को बिल्कुल अमूर्त बना दिया है लेकिन अनुभववादियों ने ज्ञान को संवेदनजन्य कहकर दर्शन के क्षेत्र में एक क्रान्ति ला दिया है। सच पूछा जाए तो अनुभववाद का चरम विकास ही Kant के दर्शन का जन्म देता है। Kant ने दोनों मतों की समीक्षा की और कहा कि दोनों में प्रारंभिक संयत्र है। इसलिए उन्होंने कहा कि, “बुद्धिजीवियों के अनुभव प्रधान है और अनुभव के बिना बुद्धि है।”

प्रश्न 11.
परम तत्व के सिद्धान्त के रूप में भौतिकवाद की समीक्षा करें।
उत्तर:
श्री भगवान को जान लेना या इनका ज्ञान प्राप्त करना ही परम ज्ञान और परम तत्व कहा जता है। इनसे बढ़कर पूरे सृष्टि में अन्य कोई नहीं, इन्हीं की आज्ञा, ब्रह्मा जी, शिव जी, वायु, यमराज, अग्नि, इन्द्र, वसु, ग्रह, नक्षत्र इत्यादि मानने को बाध्य हैं। परम तत्व यानि परम पुरुष का ज्ञान और उनके तत्व की वो कैसे इस सृष्टि को संचालन इत्यादि करते हैं और वो कैसे और कहाँ रहते हैं। कैसे उन्होंने सृष्टि बनायी तथा कैसे इस सृष्टि का प्रलय करते हैं। इसे परम तत्व या परम पुरुष का ज्ञान भी कहते हैं।

भगवान का ज्ञान को ज्ञान कहा जाता है और पूरी सृष्टि में इन्हें ही ज्ञान कहा गया है और यही परम पवित्र और सत है। और बाकी भगवान को छोड़कर सभी असत और अज्ञान है।

भौतिकवाद दार्शनिक एकत्ववाद का एक प्रकार हैं जिसका यह मत है कि प्रकृति में पदार्थ ही मूल द्रव्य है और साथ ही सभी दृग्विषय, जिस में मानसिक दृग्विषय और चेतना भी शामिल है भौतिक परस्पर संक्रिया के परिणाम है। भौतिकवाद का भौतिकवाद से गहरा सम्बन्ध है जिसका यह मत है कि जो कुछ भी अस्तित्व में है वह अंततः भौतिक है।

प्रश्न 12.
आत्मा-विषयक अद्वैत वृष्टि का संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर:
शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा. कहा है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। शेष सभी वस्तुएँ व्यावहारिक सत्यता का ही दावा कर सकती है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि “मै नहीं हूँ”, तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है। फिर भी ‘मै’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हैं कि आत्मा का वासतविक स्वरूप निश्चित करने के लिए तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी मैं शब्द का प्रयोग होता है। जैसे–मैं मोटा हूँ। कभी-कभी ‘मैं’ का प्रयोग इन्द्रियों के लिए होता है। जैसे-मैं अन्धा हूँ। अब प्रश्न उठता है कि इसमें किसको आत्मा कहा जाए। शंकर के अनुसार, जो अवस्थाओं में सामान्य होने के कारण मौलिक है। अतः चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप है। इसे दूसरे ढंग से भी प्रमाणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन में हम तीन प्रकार की अनुभूतियाँ पाते हैं-

  1. जाग्रत अवस्था (Waking experience)
  2. स्वप्न अवस्था (Dreaming experience)
  3. सुषुप्ति अवस्था (Dreamless sleep experience)

जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को बाह्य जगत् की चेतना रहती है। स्वप्नावस्था में आभ्यान्तर विषयों की स्वप्न रूप में चेतना रहती है। सुषुप्तावस्था में यद्यपि बाह्य और आभ्यान्तर विषयों की चेतना नहीं रहती है, फिर भी किसी न किसी रूप में चेतना अवश्य रहती है। इसी आधार पर तो हम कहते हैं-“मैं खूब आराम से सोया”। इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चैतन्य सामान्य है। चैतन्य ही स्थायी तत्त्व है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। चैतन्य का अर्थ किसी विषयक चैतन्य नहीं बल्कि शुद्ध चैतन्य है। चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। सत्ता (Existence) चैतन्य में सर्वथा वर्तमान रहती है।

चैतन्य के साथ-ही-साथ आत्मा में आनन्द भी है। साधारण वस्तु में जो आनन्द को सत् + चित् + आनन्द् = सच्चिदानन्द कहा है। शंकर के अनुसार “ब्रह्म” सच्चिदानंद है। चूँकि आत्मा वस्तुत: ब्रह्म ही है इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण संगत प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन के आत्मा सम्बन्धी सभी विचारों में शंकर का विचार अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिक ने आत्मा का स्वरूप सत् माना है। न्याय की आत्मा स्वभावतः अचेतन है। संख्या ने आत्मा को सत् + चित् (Existence Consciousness) माना है। शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द मानकर आत्म सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।

शंकर ने आत्मा को नित्य शुद्ध और निराकार माना है। आत्मा एक है। आत्मा यथार्थताः भोक्ता और कर्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्ता दिखाई पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है, तथा विभिन्न विषयों को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों से स्वतंत्र है। वह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करता है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि आत्मा को साध्य जाना जाए तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगी। इस तरह आत्मा की नित्यता खण्डित हो जायेगी। आत्मा देश, काल और कारण नियम की सीमा से परे है। आत्मा सभी विषयों का आधार स्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य है। आत्मा त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है।

शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। आत्मा ही वस्तुतः ब्रह्म है। शंकर ने आत्मा = ब्रह्म कहकर दोनों की तादात्म्यता को प्रमाणित किया है। एक ही तत्त्व आत्मनिष्ठ दृष्टि से आत्मा है तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म है। शंकर आत्मा और ब्रह्म ने ऐक्य को तत्त्व मसि (that thou art) से पुष्ट करता है। उपनिषद् के वाक्य “अहं ब्रह्मास्सि” (I am Brahman) से भी “आत्मा” और ब्रह्म के भेद का ज्ञान होता है।

प्रश्न 13.
व्यावसायिक नीतिशास्त्र के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता होती है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ, किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है।

व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहती है और समाज में वे अपने कार्यों को आम लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है। परन्तु एक व्यावसायिक का मुख्य उद्देश्य सिर्फ धन का अर्जन नहीं होना चाहिए बल्कि सेवा की भावना भी होनी चाहिए। व्यवसाय में, सेवा भाव का स्थान धन अर्जन के उद्देश्य से अधिक ऊँचा होना चाहिए। उदाहरणस्वरूप-शिक्षक, अभियंता, बैंकर्स, कृषक, चिकित्सक, पेशागत व्यक्ति तथा विभिन्न प्रकार के ऐसे व्यवसाय हैं, जिसमें नैतिकता के अभाव में, उस व्यवसाय में सफलता की. बात नहीं की जा सकती है।

प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है। अतः उसके अलग-अलग उद्देश्य एवं अलग-अलग कार्यशैली का होना भी आवश्यक है। चूँकि सभी व्यक्तियों का व्यवसाय अलग-अलग है, अतः उनकी नैतिकता भी पेशा के अनुकूल ही होनी चाहिए। वर्तमान संदर्भ में व्यावसायिक नैतिकता का होना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है, अतः उनके अलग-अलग उद्देश्य और अलग-अलग कार्यशैली भी है। विभिन्न कार्यशैलियों तथा उद्देश्यों का निर्धारण व्यावसायिक नैतिकता के द्वारा ही संभव है। अतः प्रत्येक व्यवसाय की अपनी आचार-संहित का होना न केवल आवश्क है बल्कि सामाजिक व्यवस्था व प्रगति के लिए भी उपयोगी है।

हमारी भारतीय परम्परा में व्यावसायिक नैतिकता का स्पष्ट रूप वर्णश्रम धर्म में देखने को मिलता है। हमारे भारतीय नीतिशास्त्र में समाज के समुचित विकास के लिए सभी व्यक्तियों को उसके गुण और कर्म के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है। यहाँ चार प्रकार के वर्ण माने गये हैं-ब्रह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शुद्र। इनका विभाजन का आधार श्रम एवं कार्य. विशिष्टीकरण है। इन सभी वर्गों की अपनी व्यावसायिक नैतिकता थी।

प्रश्न 14.
नीतिशास्त्र के क्षेत्र पर संक्षिप्त विवेचन प्रस्तुत करें।
उत्तर:
नीतिशास्त्र के क्षेत्र का अर्थ है उसकी विषय-वस्तु की व्यापकता। आदर्शपरक विज्ञान होने के कारण नीतिशास्त्र नैतिक आदर्श की परिभाषा देने का प्रयास करता है।

(क) नैतिक गुण- नीतिशास्त्र का संबंध मुख्य रूप से उचित-अनुचित शुभ-अशुभ पाप-पुण्य इत्यादि नैतिक गुणों से है जिनके आधार पर मानव आचरण का मूल्यांकन किया जाता है।

(ख) नैतिक निर्णय- नीतिशास्त्र व्यक्ति के कर्मों का नैतिक निर्णय प्रस्तुत करता है तथा कमों को उचित या अनुचित शुभ या अशुभ के रूप में निर्मित करता है।

(ग) नैतिक मापदण्ड- नैतिक मापदण्ड के आधार पर ही कर्मो का मूल्यांकन कर नैतिक निर्णय दिया जाता है। नीतिशास्त्र इसी संदर्भ में, नैतिक मापदण्डों को अध्ययन कर उसे निर्धारित करने का प्रयास करता है जिनके आधार पर कर्मों के संबंध में नैतिक निर्णय दिया जा सके।

(घ) नैतिक पद्धति- नैतिक निर्णय के लिए किसी-न-किसी पद्धति को अपनाना आवश्यक है। इसी को ध्यान में रखकर नीतिशास्त्र विभिन्न पद्धतियों का अध्ययन करता है।

(३) कर्तव्य अधिकार एवं नैतिक बाध्यता- नैतिक गुणों के साथ-साथ कर्तव्य में नैतिक बाध्यता की चेतना सन्निहित होती है जो उचित है उसे करना तथा जो अनुचित है उसे नहीं करना व्यक्ति का कर्तव्य है। जब किसी कर्म को सम्पादित करने की बाध्यता समझते हैं तो उसे नैतिक बाध्यता कहते हैं जो एक व्यक्ति का कर्तव्य होता है वह अन्य का अधिकार होता है।

(च) पाप, पुण्य एवं उत्तरदायित्व- जब व्यक्ति उचित कर्मों का संपादन करता है तब उसे पुण्य की प्राप्ति होती है तथा अनुचित कर्मों के सम्पादन से पाप की प्राप्ति होती है।

(छ) पुरस्कार एवं दण्ड- उचित कर्म करने वाले को समाज एवं राज्य की ओर से पुरस्कृत किया जाता है तथा विहित कर्मों के विपरीत आचरण से दण्ड की प्राप्ति होती है।

(ज) नैतिक भावना- उचित कर्म करने से कर्ता को आनंद एवं संतोष की अनुभूति होती है तथा अनुचित कर्म करने से पश्चाताप की भावना उत्पन्न होती है।

(झ) समाजिक राजनीतिक, दार्शनिक एवं अन्य समस्याएं- सर्वोच्च शुभ के अध्ययन के क्रम में नीतिशास्त्र सामाजिक राजनीतिक, दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं तत्संबंधी अन्य समस्याओं का भी अध्ययन करता है।

प्रश्न 15.
कारण के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण दोनों आगमन के आकारिक आधार हैं। . प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार, समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता पायी जाती है। समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहेगा। दोनों नियमों के संबंध को लेकर तीन मत हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) मिल साहब तथा बेन साहब के अनुसार प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक है तथा कारणता के नियम प्राकृतिक समरूपता नियम का एक रूप है। ब्रेन के अनुसार समरूपता तीन प्रकार की हैं। उनमें एक अनुक्रमिक समरूपता है (Uniformities of succession), इसके अनुसार एक घटना के बाद दूसरी घटना समरूप ढंग से आती है। कार्य-कारण नियम अनुक्रमिक समरूपता है। कार्य-कारण नियम के अनुसार भी एक घटना के बाद दूसरी घटना अवश्य आती है। अतः, कार्य-कारण नियम स्वतंत्र नियम न होकर समरूपता का एक भेद है। जैसे-पानी और प्यास बुझाना, आग और गर्मी का होना इत्यादि घटनाओं में हम इसी तरह की समरूपता पाते हैं।

(ii) जोसेफ एवंमेलोन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम मौलिक है प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक नहीं है स्वतंत्र नहीं है। बल्कि प्राकृतिक समरूपता नियम इसी में समाविष्ट है। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण सदा कार्य को उत्पन्न करता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहता है। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार भी समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। अतः कार्य-कारण नियम ही मौलिक है और प्राकृतिक समरूपता नियम. उसमें अतभूर्त (implied) है।

(iii) वेल्टन, सिगवर्ट तथा बोसांकेट के अनुसार दोनों नियम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, दोनों मौलिक हैं, दोनों का अर्थ भिन्न है, दोनों दो लक्ष्य की पूर्ति करते हैं। कार्य-कारण नियम से पता चलता है कि प्रत्येक घटना का एक कारण होता है और प्रकृति में समानता है।

अतः, ये दोनों नियम मिलकर ही आगमन के आकारिक आधार बनते हैं। आगमन की क्रिया में दोनों की मदद ली जाती है। जैसे-कुछ मनुष्यों को मरणशील देखकर सामान्यीकरण कहते हैं कि सभी मनुष्य.मरणशील हैं। कुछ से सबकी ओर जाने में प्राकृतिक समरूपता नियम की मदद लेते हैं। प्रकृति के व्यवहार में समरूपता है।

इसी विश्वास के साथ कहते हैं कि मनुष्य भविष्य में भी मरेगा। सामान्यीकरण में निश्चिंतता आने के लिए कार्य-कारण नियम की मदद लेते हैं। कार्य-कारण नियम के अनसार कारण के उपस्थित रहने पर अवश्य ही कार्य उपस्थित रहता है। मनुष्यता और मरणशीलता में कार्य कारण संबंध है। इसी नियम में विश्वास के आधार पर कहते हैं कि जो कोई भी मनुष्यं होगा वह अवश्य ही मरणशील होगा। अतः दोनों स्वतंत्र होते हुए भी आगमन के लिए पूरक हैं। दोनों के सहयोग से आगमन संभव है। अतः दोनों में घनिष्ठ संबंध है।

प्रश्न 16.
Explain the Orthodox and Heterbox School of Indian Philosophy.
(भारतीय दर्शन के आस्तिक तथा नास्तिक सम्प्रदायों की व्याख्या कीजिए।)
उत्तर:
भारतीय दर्शन ज्ञान का अथाह सागर है। वाद-प्रतिवाद की परम्परा से विकसित होने के फलस्वरूप इस चिंतन यात्रा में कई विचार देखने को मिलते हैं जिनको मोटा-मोटी दो वर्गों में रखा गया है-आस्तिक और नास्तिक सम्प्रदाय।

भारतीय दर्शन में आस्तिक और नास्तिक के तीन अर्थ बतलाए गए हैं-

  • आस्तिक वह है जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास करता है। इसके ठीक विपरीत नास्तिक वह है जो ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता है। यह आस्तिक और नास्तिक पद का साधारण अर्थ हुआ।
  • प्रसिद्ध वैयाकरण पाणिनि एवं जयादित्यकृत “काशिका” में आस्तिक और नास्तिक की परिभाषा इस प्रकार से दी गई है कि आस्तिक वह है जो परलोक में विश्वास करता है। नास्तिक वह है जो परलोक में विश्वास नहीं करता है।
  • तीसरा विचार वेदों में आस्था रखने वाले सम्प्रदाय को आस्तिक और वेदों की निन्दा करने वाले को नास्तिक कहता है।

भारतीय दर्शन उपर्युक्त वर्णित तीसरे अर्थ को स्वीकार कर आस्तिक और नास्तिक सम्प्रदायों का निर्धारण करता है। भारतीय दर्शन में आस्तिकता की कसौटी वेदों की चरम प्रमाणिकता की स्वीकृति मान ली गई है। इस क्रम में भारतीय दर्शन के छः सम्प्रदायं-सांख्य योग, न्याय वैशेषिक मीमांसा और वेदान्त आस्तिक कहा गया है। ये ‘षड्दर्शन’ के रूप में भी जाने जाते हैं। इनमें से मीमांसा और वेदान्त वेद की सत्ता में पूर्णतः विश्वास करता है। जहाँ मीमांसा वेद के कर्म काण्ड को प्रश्रय देता है वहीं वेदान्त ज्ञानकाण्ड को स्वीकार करता है। शेष चार सम्प्रदाय वेदभक्त विशेष अर्थ में कहे जाते हैं। नास्तिक सम्प्रदायों के अन्तर्गत चार्वाक, बुद्ध और जैन आते हैं। इसमें चार्वाक हर दृष्टिकोण से नास्तिक माना जा सकता है। यह वेदनिन्दक परलोक में अनास्थावान एवं अनीश्वरवादी है। अतः वह नास्तिक शिरोमणि कहलाता है।

संक्षेप में, भारतीय दर्शन में किए गये आस्तिक और नास्तिक विभाजन को इस प्रकार से दर्शाया जा सकता है-
Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 3 1
वेदों की प्रमाणिकता को आस्तिकता की कसौटी मानने से भारतीय दर्शन में वेदों की महत्ता स्पष्ट परिलक्षित होती है। इस मापदण्ड के निर्धारण के पीछे वेदों के प्रति पूर्वाग्रह दीख पड़ता है। बौद्धों और जैनों के भी अपने धार्मिक ग्रन्थ थे और उनकी दृष्टि में षड्दर्शन ही नास्तिक कहे जा सकते थे। इसलिए वेदों की प्रमाणिकता के आधार पर किसी सम्प्रदाय को आस्तिक कहने का कोई युक्ति संगत आधार नहीं दीख पड़ता है। फिर भी भारतीय दर्शन का मूलस्रोत वेदों को मानने के कारण वेद ही आस्तिकता के मापदण्ड के रूप में मान लिए गए हैं।

भारतीय दर्शन के अन्तर्गत जिन षड्दर्शन को स्वीकार किया गया है उसे हिन्दू दर्शन भी कहा जाता है इसके कुछ कारण हैं; जैसे-पहला कारण तो यह है कि इन छः सम्प्रदायों के संस्थापक हिन्दू महर्षि रहे हैं, जैसे-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त के संस्थापक क्रमशः गौतम, कणाद, कपील, पतंजलि, जैमिनी और वादरायण हैं। ये सभी संस्थापक हिन्दू ही थे।

तीसरा कारण यह है कि हिन्दू शब्द का व्यापक अर्थ सिर्फ हिन्दू सम्प्रदाय ही न होकर समस्त भारतीय या हिन्दुस्तानी से हो जाता है। यह एक विशेष धर्म या विशेष दर्शन का बल नहीं है। यह समस्त भारतीयों का दर्शन है। यही कारण है कि जैन, बौद्ध और चार्वाक को भी हिन्दू दर्शन के अन्तर्गत रखा जाता है। यह हिन्दू शब्द का असाधारण प्रयोग है। संकीर्ण अर्थ में भारतीय ‘ दर्शन को हिन्दू दर्शन नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके अन्तर्गत चार्वाक, बौद्ध और जैन अहिन्दू दर्शन विद्यमान है।

प्रश्न 17.
Discuss important schools of Indian philosophy. (भारतीय दर्शन के महत्त्वपूर्ण सम्प्रदायों का व्याख्या करें।)
उत्तर:
भारतीय दर्शन को मूलतः दो वर्गों में विभाजित किया गया है-आस्तिक (Orthodox) और नास्तिक (Heterodox)। आस्तिक दर्शन का अर्थ ईश्वरवादी दर्शन नहीं है। मीमांसा, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक आस्तिक दर्शन की कोटि में आते हैं। इन दर्शनों में सभी ईश्वर को नहीं मानते हैं। उन्हें आस्तिक इसलिए कहा जाता है कि ये सभी वेद को मानते हैं। नास्तिक दर्शन की कोटि में चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा गया है। इनके नास्तिक कहलाने का मूल कारण यह है कि ये वेद की निन्दा करते हैं, जैसा कि कहा भी गया है-नास्तिको वेद निन्दकः। अर्थात् भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद में विश्वास नहीं करता है।

व्यावहारिक जीवन में आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग एक-दूसरे अर्थ में भी होता है। आस्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर में आस्था रखता है और नास्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर का निषेध करता है। इस प्रकार ‘आस्तिक’ और ‘नास्तिक’ से तात्पर्य क्रमशः ‘ईश्वरवादी’ और ‘अनीश्वरवादी’ है।

यदि भारतीय दर्शन में आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग क्रमशः ईश्वरवादी और अनीश्वरवादी के अर्थ में होता है तो सांख्य और मीमांसा दर्शन को भी नास्तिक दर्शनों की कोटि में रखा जाता। क्योंकि सांख्य और मीमांसा दोनों ही ईश्वर को नहीं मानने के कारण
अनीश्वरवादी दर्शन हैं। लेकिन ये दोनों वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करते हैं इसलिए आस्तिक – कहे जाते हैं।

आस्तिक और नास्तिक शब्द का प्रयोग एक और अर्थ में होता है। आस्तिक से तात्पर्य है जो परलोक में विश्वास करता है, अर्थात् स्वर्ग और नरक की सत्ता में आस्था रखता है। नास्तिक उसे कहा जाता है जो स्वर्ग और नरक में विश्वास नहीं करता। यदि भारतीय दर्शन में आस्तिक
और नास्तिक का प्रयोग इस दृष्टिकोण से किया जाय तो जैन और बौद्ध दर्शन भी आस्तिक दर्शन की कोटि में आ जायेंगे क्योंकि वे भी परलोक को मानते हैं। इस दृष्टिकोण से सिर्फ चार्वाक को ही. नास्तिक दर्शन कहा जा सकता है।

भारतीय दर्शन की रूप-रेखा से यह प्रमाणित होता है कि वेद ही एक कसौटी है जिसके आधार पर भारतीय दर्शन के सम्प्रदायों का विभाजन हुआ। इस वर्गीकरण से भारतीय विचारधारा में वेद का महत्त्व स्पष्टतः दृष्टिगत होता है। न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदांत दर्शनों को दोनों अर्थों में आस्तिक कहा जाता है क्योंकि वे वेद की प्रमाणिकता में विश्वास करते हैं साथ ही साथ परलोक की भी सत्ता में विश्वास करते हैं।

चार्वाक, जैन और बौद्ध दर्शन को दो अर्थों में नास्तिक कहा जा सकता है। पहला वेद को नहीं मानने के कारण तथा दूसरा ईश्वर के विचार का खण्डन करने अर्थात् अनीश्वरवाद को अपनाने के कारण, नास्तिक कहा जाता है।

भारतीय दर्शन में चार्वा ही एकमात्र दर्शन है जो तीनों ही अर्थों में नास्तिक की कोटि में रखा जाता है। पहले अर्थ में वेद को अप्रमाण मानने के कारण तथा दूसरे अर्थ में परलोक को नहीं मानने के कारण नास्तिक है। चार्वाक दर्शन में वेद का उपहास पूर्ण रूप से किया गया है। ईश्वर को भी प्रत्यक्ष की सीमा से बाहर होने के कारण, चार्वाक नहीं मानता है। क्योंकि प्रत्यक्ष ही उनके अनुसार एकमात्र प्रमाण है। इसी तरह चार्वाक परलोक में भी विश्वास नहीं करता। उसके अनुसार यह संसार ही एकमात्र संसार है। मृत्यु का अर्थ जीवन का अन्त है। अत: परलोक में विश्वास करना चार्वाक के अनुसार मूर्खता है। इस प्रकार हम पाते हैं कि जिस दृष्टिकोण से भी देखा जाए चार्वाक पक्का नास्तिक प्रतीत होता है। इसलिए चार्वाक को ‘नास्तिक शिरोमणि’ की उपाधि से विभूषित किया गया है।

जब हम आस्तिक दर्शनों के आपसी सम्बन्ध पर विहंगम दृष्टिपात करते हैं तो पाते हैं कि न्याय और वैशेषिक, सांख्य और योग, मीमांसा और वेदांत संयुक्त सम्प्रदाय प्रतीत होते हैं। न्याय और वैशेषिक दोनों में यों तो न्यूनाधिक सैद्धांतिक भेद है, फिर भी दोनों विश्वात्मा और परमात्मा (ईश्वर) के सम्बन्ध में एक ही विचार रखते हैं। दोनों का संयुक्त सम्प्रदाय ‘न्याय-वैशेषिक’ कहा जाता है। सांख्य और योग भी पुरुष और प्रकृति के समान सिद्धान्त को मानता है। इसलिए दोनों का संकलन ‘सांख्य-योग’ के रूप में हुआ है। न्याय-वैशेषिक और सांख्य-योग स्वतंत्र रूप से विकसित हुए हैं। क्योंकि वेद का प्रभाव इन दर्शनों पर परोक्ष रूप में पड़ा है।

इसके विपरीत मीमांसा और वेदांत वैदिक संस्कृति की ही देन कहे जा सकते हैं। वेद में दो विचारधारायें थीं एक का सम्बन्ध कर्म से था तथा दूसरे का ज्ञान से। ये क्रमशः वैदिक कर्म-काण्ड तथा वैदिक ज्ञानकाण्ड के नाम से विदित हैं। मीमांसा वैदिक कर्म-काण्ड पर आधारित हैं और • वेदान्त ज्ञानकाण्ड पर। चूँकि मीमांसा और वेदान्त में वैदिक विचारों की मीमांसा हुई है इसलिए दोनों ही को कभी-कभी मीमांसा कहते हैं। भेद के दृष्टिकोण को पूर्व-मीमांसा या कर्म-मीमांसा तथा वेदान्त को उत्तर मीमांसा या ज्ञान-मीमांसा कहते हैं। ज्ञान मीमांसा में ज्ञान का और कर्म-मीमांसा में कर्म का विचार किया जाता है।

प्रश्न 18.
Explain briefly the Philosophy of the Bhagvad Gita. (भगवद् गीता के दर्शन की संक्षेप में व्याख्या करें।)
Or,
What is the central message of Bhagvad Gita. अथवा, (गीता के मुख्य उपदेश क्या हैं ? वर्णन करें।)
उत्तर:
गीता, हिन्दुओं का अत्यन्त ही पवित्र और लोकप्रिय रचना है। गीता न केवल धार्मिक विचारों से ही भरा है, बल्कि दार्शनिक विचारों से ओत-प्रोत है। यही कारण है कि गीता की प्रशंसा भारतीय और पाश्चात्य विद्वानों ने भी मुक्त कंठ से की है। गीता समस्त भारतीय दर्शन का निचोड़ प्रतीत होता है। लोकमान्य तिलक ने इसकी प्रशंसा करते हुए कहा है-It is most luminous and priceless gem which gives peace to afficted souls and makes us masters of spiritual wisdom. महात्मा गाँधी ने गीता की सराहना करते हुए कहा है-जिस प्रकार हमारी पत्नी विश्व में सबसे सुन्दर स्त्री हमारे लिए है उसी प्रकार गीता के उपदेश सभी उपदेशों से श्रेष्ठ है। गाँधीजी ने गीता को प्रेरणा का स्रोत कहा है।

गीता के मुख्य उपदेश की चर्चा बहुत ही सुन्दर ढंग से Annine Besant ने किया है। Annine Besant के अनुसार-It is meant to lift the aspirant from the lower levels of renuciation where objects are renounced, to the loftier heights where desires are dead, and where the yogi dwells in calm and ceaseless contemplation while his body and mind are actively employed in discharging the duties that fall to his lot in life.

गीता का मुख्य उपदेश लोक-कल्याण है। आज के युग में जब मानव स्वार्थ की भावना से प्रभावित रहकर निजी लाभ के संबंध में सोचता है। गीता मानव की परार्थ-भावना का विकास करने में सफल हो सकती है। सम्पूर्ण गीता कर्तव्य करने के लिए मानव को प्रेरित करती है। परन्तु कर्म फल की प्राप्ति की भावना का त्याग करके करना ही परमावश्यक है। प्रो० हिरियाना के शब्दों में “गीता कर्मों के त्याग के बदले कर्म में त्याग का उपदेश देती है।”

भारतीय विचारकों ने जीवन में परमलक्ष्य की प्राप्ति के तीन मार्ग बतलाये हैं। वे हैं-निवृत्ति मार्ग, प्रवृत्ति मार्ग तथा निष्काम कर्मयोग। निवृत्ति मार्ग के अनुसार मुक्ति को प्राप्त करने का केवल एक ही उपाय है और वह क्षुद्र जीवन का त्याग। अर्थात् सांसारिकता से विमुख होकर मोक्ष की प्राप्ति करना। जीवन का दूसरा मार्ग प्रवृत्ति मार्ग है जिसके अनुसार इहलोक तथा परलोक में सुख की प्राप्ति के लिए वेद निहित कर्मों का करना ही श्रेयस्कर है। अत: जीवन का यह मार्ग सश्रम कर्म की प्रेरणा देता है। इन दोनों से भिन्न गीता के निष्काम कर्म का मार्ग है जो परम्परागत निवृत्ति और प्रवृत्ति दो विरोधी मार्गों का समन्वय प्रस्तुत करता है।

निवृत्ति मार्ग के समर्थक सांसारिक विषयों के त्याग करने में ही मानव-मात्र का कल्याण समझते हैं जबकि प्रवृत्तिमार्गी विचारक अपने विरोधी विचार को जीवन से पलायन समझकर, संसार में रहना ही. श्रेयस्कर मानते हैं। गीता का निष्काम कर्म उनकी अतल गहराईयों में पहुँचकर निरन्तर निष्काम भाव से कर्म करने की प्रेरणा देता है। यही गीता का मुख्य उद्देश्य है जिसमें ज्ञान कर्म और मुक्ति का समन्वंय है। अतः हम कह सकते हैं कि गीता का निष्काम कर्म वह केन्द्र-विन्दु है जिसके चारों ओर ज्ञान, कर्म, भक्ति आदि तारामंडल के रूप में सजे हुए हैं। इसे स्पष्ट करते हुए C.C. Sharma ने कहा है-The Gita tries to build up a Philosophy of Karma based on Jnana and supported by Bhakti to in a beautiful manner.

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3 in Hindi

BSEB Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3 in Hindi

प्रश्न 1.
संतुलित बजट, बचत बजट और घाटे के बजट में भेद कीजिए।
उत्तर:
बजट के मुख्यतः तीन प्रकार हैं।

  1. संतुलित बजट,
  2. बचत बजट,
  3. घाटे का बजट

1. संतुलित बजट (Balanced Budget)- संतुलित बजट वह बजट है जिसमें सरकार की आय तथा व्यय दोनों बराबर होते हैं।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 1
संतुलित बजट का आर्थिक क्रियाओं के स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसके कारण न तो संकुचनकारी शक्तियाँ और न ही विस्तारवादी शक्तियाँ काम कर पाती हैं। प्रो. केज के अनुसार विकसित देशों में महामन्दी तथा बेरोजारी के समाधान हेतु और अर्द्धविकसित देशों के विकास के लिए संतुलित बजट उपयुक्त नहीं है क्योंकि संतुलित बजट द्वारा इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता।

2. बचत बजट (Surplus Budget)- यह वह बजट है जिसमें सरकार की अनुमानित आय सरकार के अनुमानित व्यय से अधिक होती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 2

स्फीतिक दशाओं में बचत का बजट वांछनीय होता है क्योंकि बचत का बजट अर्थव्यवस्था में सामूहिकं मांग के स्तर को घटाकर स्फीतिक अन्तराल को कम करने में सहायक होता है। बचत के बजट में सरकारी व्यय के सरकारी आय से कम हो जाने के कारण यह मंदी की दशाओं में वांछनीय नहीं है।

3. घाटे का बजट (Deficit Budget)- घाटे का बजट वह बजट है जिसमें सरकार की अनुमानित आय सरकार के अनुमानित व्यय से कम होती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 3
घाटे के बजट का तात्पर्य यह है कि सरकार जितनी मात्रा में मुद्रा अर्थव्यवस्था में खप सकती है, उससे अधिक मात्रा में मुद्रा अर्थव्यवस्था में प्रवाहित कर दी जाती है। फलतः अर्थव्यवस्था में विस्तारवादी शक्तियाँ बलवती हो उठती हैं।

प्रश्न 2.
मुद्रा-पदार्थ के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर:
मुद्रा वास्तव में किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है। किसी देश की आर्थिक प्रगति मुद्रा पर निर्भर करती है इसलिए ट्रेस्काट ने कहा है कि “यदि मुद्रा हमारी अर्थव्यवस्था का हृदय नहीं तो रक्त प्रवाह अवश्य है।”

मुद्रा के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  • मुद्रा आधुनिक अर्थव्यवस्था का आधार है।
  • मुद्रा से उपभोक्ता को लाभ पहुँचता है।
  • मुद्रा से विनिमय व्यवस्था का आधार है।
  • मुद्रा से विनिमय के क्षेत्र में लाभ होता है।
  • ऋणों के लेनदेन तथा अग्रिम भुगतान में सुविधा।
  • पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन।
  • मुद्रा की गतिशीलता प्रदान करती है।
  • मुद्रा साख का आधार है।

प्रश्न 3.
पूर्णतया लोचदार माँग और पूर्णतया बेलोचदार माँग में अंतर कीजिए।
उत्तर:
जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन नहीं होने पर भी अथवा बहुत सूक्ष्म परिवर्तन होने पर माँग में बहुत अधिक परिवर्तन हो जाता है तब उस वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार कही जाती है। पूर्ण लोचदार माँग को अनंत लोचदार मांग भी कहते हैं। इस स्थिति में एक दी हुई कीमत पर वस्तु की माँग असीम या अनंत होती है तथा कीमत में नाममात्र की वृद्धि होने पर शून्य हो जाती है। माँग पूर्ण लोचदार होने पर माँग वक्र x अक्ष के समानांतर होता है जिसे नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 4
जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने पर भी उसको माँग में कोई परिवर्तन नहीं होता है तो इसे पूर्णतया बेलोचदार माँग कहते हैं। इस स्थिति में मांग की लोच शून्य होती है जिसके फलस्वरूप माँग वक्र Y-अक्ष के समानांतर होता है। नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 5

प्रश्न 4.
उत्पादन फलन से आप क्या समझते हैं ? इसकी मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
उत्पादन का अभिप्राय आगतों अथवा आदानों को निर्गत में बदलने की प्रक्रिया से है। भूमि, श्रम, पूँजी तथा उद्यम उत्पादन के साधन या कारक हैं। उत्पादन या निर्गत इन साधनों के संयुक्त प्रयोग का परिणाम होता है। उत्पादन के साधनों को आगत तथा उत्पादन की मात्रा को निर्गत की संज्ञा दी जाती है। उत्पादन फलन एक दी हुई तकनीक के अंतर्गत आगतों एवं निर्गतों के संबंध की व्याख्या करता है। निर्गत को आगतों का फल या परिणाम कहा जा सकता है। इस प्रकार उत्पादन फलन इस तथ्य को व्यक्त करता है कि एक दी हुई प्रौद्योगिकी में आगतों के विभिन्न संयोग से निर्गत को कितनी अधिकतम मात्रा का उत्पादन संभव है।

मान लें कि हम उत्पादन के दो साधनों भूमि और श्रम का प्रयोग करते हैं। इस स्थिति में हम उत्पादन फलन को निम्नांकित रूप में व्यक्त कर सकते हैं। q = f(x1, x2)

इससे यह पता चलता है कि हम आगत x1 और x2 का प्रयोग कर वस्तु की अधिकतम मात्रा q का उत्पादन कर सकते हैं।

माँग फलन की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

  • उत्पादन फलन विभिन्न आगतों के अनुकूलतम प्रयोग से निर्गत के अधिकतम स्तर को दर्शाता है।
  • यह एक निश्चित अवधि के अंतर्गत आगत और निर्गत के संबंध की व्याख्या करता है।
  • उत्पादन फलन वर्तमान तकनीकी ज्ञान से निर्धारित होता है।

प्रश्न 5.
पूर्ति की कीमत लोच का क्या अर्थ है ? प्रतिशत प्रणाली द्वारा पूर्ति की लोच को कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
पूर्ति की लोच अथवा पूर्ति की कीमत लोच, वस्तु की कीमत में परिवर्तनों के कारण उसकी पूर्ति की प्रतिक्रियाशीलता को प्रदर्शित करता है। पूर्ति की कीमत लोच की धारणा हमें यह बताती है कि कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप किसी वस्तु की पूर्ति में किस दर या अनुपात में परिवर्तन होता है। सरल शब्दों में, पूर्ति की लोच वस्तु की कीमत में हुए प्रतिशत परिवर्तन के फलस्वरूप पूर्ति में होनेवाले प्रतिशत परिवर्तन को व्यक्त करता है।

पूर्ति की कीमत लोच को मापने की दो मुख्य विधियाँ हैं- प्रतिशत प्रणाली और ज्यामितिक प्रणाली। प्रतिशत अथवा आनुपातिक प्रणाली में पूर्ति की लोच को मापने का सूत्र इस प्रकार है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 6
इस सूत्र को बीजगणितीय रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 7
जहाँ, Δq पूर्ति की मात्रा में परिवर्तन, q प्रारंभिक पूर्ति, D कीमत में परिवर्तन तथा p प्रारंभिक कीमत को प्रदर्शित करता है। यदि सूत्र es = \(\frac{\Delta q}{\Delta p} \times \frac{p}{q}\) का परिणाम 1 अर्थात इकाई हो तो किसी वस्तु की पूर्ति समलोचदार है, यदि परिणाम इकाई से अधिक है तो पूर्ति अधिक लोचदार है और यदि परिणाम इकाई से कम है तो पूर्ति कम लोचदार है।

प्रश्न 6.
कुल लागत से आप क्या समझते हैं ? कुल स्थिर लागत वक्र का आकार क्या होता है ?
उत्तर:
किसी वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त समस्त आगतों पर होने वाला व्यय कुल लागत कहलाता है। यह कुल स्थिर आगतों (जैसे-भूमि, मशीन, उपकरण आदि) पर व्यय तथा कुल परिवर्ती आगतों (जैसे-कच्चा माल, श्रम, बिजली आदि) पर किए जाने वाले व्यय का योगफल होता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 8

कुल स्थिर लागतें स्थायी साधन-आगतों का प्रयोग करने के लिए वहन की जाती हैं। उत्पादन अर्थात् निर्यात की मात्रा में परिवर्तन होने पर भी इन लागतों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। उदाहरण के लिए, एक चीनी मिल प्रायः वर्ष में 3-4 महीने बंद रहती है। फिर भी इसके स्वामी को कारखाने का किराया, ऋणों का ब्याज तथा स्थायी कर्मचारियों के वेतन आदि का भुगतान करना होता है। स्पष्ट है कि फर्म को इस प्रकार की लागतें प्रत्येक अवस्था में वहन करनी होती हैं। इसे नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है।

उपरोक्त रेखाचित्र से यह स्पष्ट है कि कुल स्थिर लागत (TFC) वक्र X-अक्ष के समानांतर होती है। इसका अभिप्राय यह है कि निर्गत के प्रत्येक स्तर पर कुल स्थिर लागतें एक समान रहती हैं।

प्रश्न 7.
उपभोग की औसत तथा सीमांत प्रवृत्ति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
उपभोग की प्रवृत्ति आय एवं उपभोग के कार्यात्मक संबंध को व्यक्त करता है। उपभोग प्रवृत्ति की व्याख्या करने के लिए केन्स ने उपभोग की औसत तथा सीमांत प्रवृत्ति की धारणाओं का प्रयोग किया है। उपभोग की औसत प्रवृत्ति (APC) कुल उपभोग तथा कुल आय का अनुपात है। यह एक विशेष समय पर कुल आय एवं कुल उपभोग के पारस्परिक संबंध को व्यक्त करता है। उपभोग की औसत प्रवृत्ति कुल उपभोग में कुल आय से भाग देकर निकाली जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति का कुल वास्तविक आय 1,000 रुपये है जिसमें से वह 800 रुपये उपभोग पर खर्च करता है तब उपभोग की औसत प्रवृत्ति (APC) 800/1,000 अथवा 0.80 होगी। यदि हम कुल आय को Y तथा कुल उपभोग को C से व्यक्त करें तो उपभोग की औसत प्रवृत्ति का सूत्र इस प्रकार होगा-

APC = \(\frac{\mathrm{c}}{\mathrm{y}}\)

उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति (MPC) आय में होनेवाले परिवर्तनों के फलस्वरूप उपभोग में होनेवाले परिवर्तन के अनुपात को बताता है। दूसरे शब्दों में, उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति कुल आय में इकाई परिवर्तन के फलस्वरूप उपभोग में हुए परिवर्तन का अनुपात है। इससे इस बात का भी पता चलता है कि आय में होनेवाली अतिरिक्त वृद्धि को उपभोग एवं बचत के बीच किस प्रकार विभक्त किया जाता है। उदाहरण के लिए, मान लें कि जब कुल आय 1,000 रुपये से बढ़कर 1,010 रुपये हो जाती है तब उपभोग की मात्रा 800 रुपये से बढ़कर 806 रुपये हो जाती है। इस अवस्था में आय में अतिरिक्त वृद्धि 10 रुपये तथा उपभोग में 6 रुपये है। अतः उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति (MPC) 6/10 अर्थात 0.60 होगी। यदि हम परिवर्तन को Δ (डेल्टा) चिन्ह से व्यक्त करें तो उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति का निम्नांकित सूत्र होगा-
MPC = \(\frac{\Delta \mathrm{c}}{\Delta \mathrm{y}}\)

प्रश्न 8.
व्यापार संतुलन एवं भुगतान संतुलन में अंतर कीजिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में प्रत्येक देश विदेशों से कुछ वस्तुओं और सेवाओं का आयात तथा निर्यात करता है। व्यापार एवं भुगतान-संतुलन का संबंध दो देशों के बीच इनके लेन-देन से है। परंतु; व्यापार एवं भुगतान-संतुलन एक ही नहीं हैं, वरन् इन दोनों में थोड़ा अंतर है। व्यापार-संतुलन से हमारा अभिप्राय आयात और निर्यात के बीच अंतर से है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रत्येक देश कुछ वस्तुओं का आयात तथा कुछ का निर्यात करता है। आयात तथा निर्यात की यह मात्रा हमेशा बराबर नहीं होती। आयात तथा निर्यात के इस अंतर को ही ‘व्यापार-संतुलन’ कहते हैं।

व्यापार- संतुलन की अपेक्षा भुगतान-संतुलन की धारणा अधिक विस्तृत एवं व्यापक है। इन दोनों के अंतर को समझने के लिए दृश्य एवं अदृश्य व्यापार के अंतर को स्पष्ट करना आवश्यक है। जब देश से निधि ‘सहित वस्तुएँ किसी अन्य देश को निर्यात की जाती हैं अथवा बाहरी देशों से उनका आयात होता है, तो बंदरगाहों पर इनका लेखा कर लिया जाता है। इस प्रकार की मदों को विदेशी व्यापार की दृश्य मदें कहते हैं। परंतु, विभिन्न देशों के बीच आयात-निर्यात की ऐसी मदें, जिनका लेखा बंदरगाहों पर नहीं होता, विदेशी व्यापार की अदृश्य मदें कहलाती हैं। भुगतान-संतुलन में विदेशी व्यापार की दृश्य तथा अदृश्य दोनों प्रकार की मदें आती हैं, जबकि व्यापार-संतुलन में केवल विदेशी व्यापार की दृश्य मदों को शामिल किया जाता है। इस प्रकार, भुगतान-संतुलन का क्षेत्र व्यापार-संतुलन से अधिक विस्तृत होता है।

प्रश्न 9.
पूर्ति के कीमत लोच को परिभाषित कीजिए। इसके निर्धारक तत्व कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
पूर्ति की कीमत लोच किसी वस्तु की कीमत में होनेवाले परिवर्तन के परिणामस्परूप उसके पूर्ति में होनेवाले परिवर्तन की साथ है।

मार्शल के अनुसार “पूर्ति की लोच से अभिप्राय कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप पूर्ति की मात्रा में होनेवाले परिवर्तन से है।”

पूर्ति के लोच के निर्धारक तत्व निम्नलिखित हैं-
(क) वस्तु की प्रकृति- टिकाऊ वस्तु की पूर्ति लोच अपेक्षाकृत लोचदार होती है एवं शीघ्र नांशवान वस्तुओं की पूर्ति अपेक्षाकृत बेलोचदार होती है।
(ख) उत्पादन लागत- यदि उत्पादन बढ़ने पर औसत लागत में तेजी से वृद्धि होती है तो पूर्ति की लोच कम होगी। यदि उत्पादन बढ़ने पर औसत लागत धीमी गति से बढ़ती है तो पूर्ति की लोच अधिक होगी।
(ग) भावी कीमतों में परिवर्तन- भविष्य में कीमत बढ़ने की आशा रहने पर उत्पादक वर्तमान पूर्ति कम करेंगे एवं पूर्ति बेलोचदार हो जाएगी। इसके विपरीत भविष्य में कीमत कम होने की आशा रहने पर पूर्ति अधिक होगी।
(घ) प्राकृतिक कारण- प्राकृतिक कारणों से कई वस्तुओं की पूर्ति नहीं बढ़ाई जा सकती। जैसे-लकड़ी।
(ङ) उत्पादन की तकनीक- उत्पादन तकनीक जटिल होने पर पूर्ति बेलोचदार होगी एवं उत्पादन तकनीक सरल होने पर पूर्ति लोचदार होगी।
(च) समय तत्व- समय तत्व को तीन भागों में बाँटा जाता है-

  • अति अल्पकाल में पूर्ति पूर्णतया-बेलोचदार होती है क्योंकि अल्पकाल में पूर्ति में परिवर्तन नहीं हो सकता।
  • अल्पकाल में संयंत्र स्थिर रहता है इसलिए पूर्ति कम लोचदार होती है।
  • दीर्घकाल में वस्तु की पूर्ति को आसानी से घटाया-बढ़ाया जा सकता है जिससे पूर्ति लोचदार होती है।

प्रश्न 10.
राष्ट्रीय आय के गणना करने की उत्पाद अथवा मूल्य वृद्धि विधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उत्पाद विधि या मूल्य वृद्धि वह विधि है जो एक लेखा वर्ष में देश की घरेलू सीमा के अंदर प्रत्येक उत्पादक उद्यम द्वारा उत्पादन में किये गये योगदान की गणना करके राष्ट्रीय आय को मापती हैं।
(i) उत्पादक उद्यमों की पहचान एवं वर्गीकरण -इसके अंतर्गत निम्न क्षेत्र के अनुसार उत्पादकीय इकाइयों का वर्गीकरण किया जाता है-

  • प्राथमिक क्षेत्र – कृषि एवं संबंधित क्रियाएँ जैसे मछली पालन, वन एवं खनन।
  • द्वितीय क्षेत्र -निर्माण क्षेत्र जिसमें एक प्रकार की वस्तु की मशीन द्वारा दूसरी वस्तु में बदला जाता है।
  • तृतीयक क्षेत्र- सेवा क्षेत्र जैसे बीमा, यातायात, बैंक, संचार, व्यापार एवं वाणिज्य।

(ii) शुद्ध उत्पाद मूल्य की गणना- प्रथम कदम में चिह्नित प्रत्येक उद्यम द्वारा शुद्ध मूल्य वृद्धि की गणना करने के लिए निम्न अनुमान लगाए जाते हैं।

  • उत्पादन का मूल्य,
  • मध्यवर्ती उपभोग का मूल्य,
  • स्थायी पूँजी का उपभोग

शुद्ध मूल्य वृद्धि की गणना के लिए निम्न को उत्पादन मूल्य से घटाना होगा। शुद्ध मूल्य = उत्पादन का मूल्य – मध्यवर्ती उपभोग – स्थायी पूँजी का उपभोग – तृतीयक क्षेत्र द्वारा की गई मूल्य वृद्धि।

(iii) विदेशों से शुद्ध साधन आय की गणना- इस अवस्था में विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय का आकलन कर दूसरे अवस्था से प्राप्त शुद्ध घरेलू उत्पाद (NDP) से जोड़ा जाता है। संक्षेप में, राष्ट्रीय आय = साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद NDPFC  NNPFC + विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय (NFIA)।

प्रश्न 11.
राष्ट्रीय आय तथा घरेलू आय में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
समस्त स्रोतों से प्राप्त आय जो माँग एवं पूर्ति के संतुलन के बाद प्राप्त होती है उसे राष्ट्रीय आय कहते हैं जबकि घरेलू आय वैसी आय होती है जो घर की सीमा में रहने वाले लोगों के द्वारा अपने-अपने कार्य करने से आर्थिक लाभ के रूप में आय की प्राप्ति होती है।

दूसरे शब्दों में घरेलू सीमा के अंदर स्त्री लोग जो काम करती है और उसे जो आमदनी होती है उनके कुल योग को घरेलू आय कहते हैं। इसमें व्यक्तिगत आय निजी आय इत्यादि शामिल रहते हैं।

इसी तरह किसी देश की राजनीतिक सीमा जिसमें पानी के जहाज, हवाई जहाज देश के निवासियों के मछली पकड़ने के जहाज, इम्बैसी और कन्सुलेट शामिल हो घरेलू सीमा कहलाती है।

प्रश्न 12.
मुद्रा के विभिन्न कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
मुद्रा के कार्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. अनिवार्य कर,
  2. सहायक कार्य

1. अनिवार्य कार्य- मुद्रा के अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)- मुद्रा ने विनिमय के कार्य को सरल और सुविधापूर्ण बना दिया है। वर्तमान युग में सभी वस्तुएँ और सेवाएँ मुद्रा के माध्यम से ही खरीदी तथा बेची जाती हैं।
  • मूल्य मापक (Measure of Value)- मुद्रा का कार्य सभी वस्तुओं और सेवाओं का मूल्यांकन करना है। वर्तमान युग में सभी वस्तुओं और सेवाओं को मुद्रा के द्वारा मापा जाता है।
  • स्थगित भुगतान का आधार (Payments)- वर्तमान युग में बहुत से भुगतान तत्काल न करके भविष्य के लिए स्थगित कर दिये जाते हैं। मुद्रा ऐसे सौदों के लिए आधार प्रस्तुत करती है। मुद्रा के मूल्य में अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अधिक स्थायित्व पाया जाता है। मुद्रा में सामान्य स्वीकृति गुण पाया जाता है।
  • मूल्य का संचय (Store of value)- मनुष्य अपनी आय का कुछ भाग भविष्य के लिए अवश्य बचाता है। मुद्रा के प्रयोग द्वारा मूल्य संचय का कार्य सरल और सुविधापूर्ण हो गया है।
  • मूल्य का हस्तान्तरण (Transfer of value)- मुद्रा-क्रय शक्ति के हस्तांतरण का सर्वोत्तम साधन है। इसका कारण मुद्रा का सर्वग्राह्य और व्यापक होना है। मुद्रा के द्वारा चल व अचल सम्पत्ति का हस्तांतरण सरलता से हो सकता है।

2. सहायक कार्य- मुद्रा के सहायक कार्य निम्नलिखित हैं-

  • आय का वितरण (Distribution of Income)- आधुनिक युग में उत्पादन की प्रक्रिया बहुत जटिल हो गई है, जिसके लिए उत्पादन के विभिन्न साधनों का सहयोग प्राप्त किया जाता है। मुद्रा के द्वारा उत्पादन के विभिन्न साधनों को पुरस्कार दिया जाता है।
  • साख का आधार (Basis of Credit)- व्यापारिक बैंक साख का निर्माण नकद कोष के आधार पर करते हैं। मुद्रा साख का आधार है।
  • अधिकतम संतुष्टि का आधार (Basis of Maximum Satisfaction)- मुद्रा के द्वारा उपभोक्ता संतुष्टि प्राप्त करना चाहता है जो उसे सम सीमान्त उपयोगिता के नियम का पालन करके ही प्राप्त हो सकती है। इस नियम का पालन मुद्रा द्वारा ही संभव हुआ है।
  • पूँजी को सामान्य रूप प्रदान करना (General Form of the Capital)- मुद्रा सभी प्रकार की सम्पत्ति, धन, आय व पूँजी को सामान्य मूल्य प्रदान करती है, जिससे पूँजी का तरलता, गतिशीलता और उत्पादकता में वृद्धि हुई है।

प्रश्न 13.
पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार की अवधारणा को स्पष्ट करें एवं इनके अंतर को स्पष्ट करें।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार का ऐसा रूप है जिसमें बड़ी संख्या में क्रेता और विक्रेता पा जाते हैं जो समरूप वस्तु एक समान कीमत पर बेचते है।।

एकाधिकार बाजार का वह रूप है जिसमें वस्तु का केवल एक विक्रेता और अनेक क्रेता होते हैं।
पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकार के बीच निम्नांकित अंतर हैं-

  • क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या- पूर्ण प्रतियोगिता में समरूप वस्तु के अनेक क्रेता तथा विक्रेता होते हैं। जबकि एकाधिकार में वस्तु का केवल एक ही विक्रेता होता है।
  • प्रवेश पर प्रतिबंध- पूर्ण प्रतियोगिता में नई फर्मों के उद्योग में प्रवेश पाने तथा पुरानी फर्मों द्वारा, उसे छोड़कर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। इसमें विपरीत, एकाधिकार में नई फर्मों के प्रवेश पर प्रतिबंध होता है।
  • माँग वक्र का आकार- पूर्ण प्रतियोगिता में माँग अथवा AR वक्र OX अक्ष के समानान्तर होता है, साथ ही औसत आगम और सीमांत आगम बराबर होते हैं।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 9

एकाधिकार में, माँग अथवा AR वक्र बाएँ से दाएँ नीचे की ओर झुके होते है। एवं सीमांत आगम वक्र औसत आगम के नीचे होता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 10

प्रश्न 14.
दोहरी आय गणना का क्या अर्थ है ? इस समस्या से बचने के दो तरीके संक्षेप में बताइये।
उत्तर:
दोहरी गणना से अभिप्राय है किसी वस्तु के मूल्य की गणना एक बार से अधिक करना। इसके फलस्वरूप उत्पादित वस्तु और सेवाओं के मूल्य में अनावश्यक रूप से वृद्धि हो जाती है। घरेलू उत्पाद के मूल्य में अनावश्यक रूप से रोकने में ही दोहरी गणना का महत्व निहित है। उदाहरण के लिए यदि किसान एक टन गेहूँ का उत्पादन करता है और उसे 400 रु० में आटा मिल को बेच देता है। आटा मिल उसका आटा बनाकर उसे 600 रु० में डबलरोटी बनाने वाले को बेच देता है। डबल रोटी उसकी डबलरोटी बनाकर 800 रु० में दुकानदार को बेच देता है। और दुकानदार उसे अंतिम ग्राहक या उपभोक्ता को 900 रु० में बेच देता है। अर्थात् उत्पादन का मूल्य = 400+ 600 + 800 + 900 = 2700 रु० दोहरी गणना के कारण उत्पादन का मूल्य 2700 रु० हो जाता है जबकि वास्तविक उत्पादन या मूल्य वृद्धि केवल 900 रु० की हुई। क्योंकि गेहूँ का मूल्य, आटा बनानेवाले तथा डबल रोटी बनाने वाली की सेवाओं के मूल्य को एक से अधिक बार दोहरी गणना की गलती से दो विधियों द्वारा बचा जा सकता है-

(i) अंतिम उत्पादन विधि- इस विधि के अंतर्गत उत्पादन के मूल्य में से मध्यवर्ती के मूल्य को घटा दिया जाता है अर्थात् अंतिम वस्तुओं के मूल्य को ही जोड़ा जाता है। उदाहरण के लिए उपभोक्ता उदाहरण में सिर्फ 900 रु० का ही मूल्यवृद्धि हुई और इसे ही राष्ट्रीय आय के आकलन में शामिल किया जाना चाहिए।

(ii) मूल्य वृद्धि विधि-इस विधि द्वारा उत्पादन के प्रत्येक चरण में होनेवाली मूल्य वृद्धि को जोड़ा जाता है। उपरोक्त उदाहरण में उत्पादन की विभिन्न अवस्थाओं में 400 रु० + 200 रु० + 200 रु० + 100 रु० = 900 रु० की मूल्य वृद्धि हुई है।

प्रश्न 15.
सरकारी क्षेत्र के समावेश के अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
सरकारी क्षेत्र में अर्थव्यवस्था में समावेश से अर्थव्यवस्था पर निम्नांकित प्रभाव पड़ते हैं-

  • सरकार गृहस्थों पर कर लगाती है। जिसकी उनकी प्रयोज्य आय कम होती है। फलस्वरूप कुल माँग घट जाती है।
  • सरकार घरेलू क्षेत्र को कई प्रकार से हस्तान्तरण भुगतान करती है जिसके फलस्वरूप उनका प्रयोज्य आय में वृद्धि होती है।
  • कानून तथा व्यवस्था व सुरक्षा आदि सेवाएँ प्रदान करके सरकार आय प्रजनन की प्रक्रिया में अंशदान करती है।
  • सरकार निगम कर लगाती है जिससे अर्थव्यस्था में वैयक्तिक आय घटती है।
  • वस्तुओं तथा सेवाओं पर कर घरेलू पदार्थ के बाजार मूल्य में वृद्धि लाता है।
  • उत्पादकों को सरकार द्वारा दी गई आर्थिक सहायता घरेलू पदार्थ के बाजार मूल्य को घटाती है।

प्रश्न 16.
माँग का नियम समझाइए। इस नियम की क्या मान्यताएँ है ?
उत्तर:
माँग का नियम यह बताता है कि अन्य बातें समान रहने पर वस्तु की कीमत एवं वस्तु की मात्रा में विपरीत संबंध पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, अन्य बातें समान रहने की दशा में किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि के कारण उसकी माँग में कमी हो जाती है तथा इसके विपरीत कीमत में कमी होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है। मार्शल के अनुसार-“मूल्य में कमी होने पर माँग की मात्रा बढ़ती है और मूल्य में वृद्धि होने पर माँग की मात्रा कम होती है-यही माँग का नियम है।

माँग के नियम की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं-

  • माँग और मूल्य में विपरीत संबंध है। यही कारण है कि जब बाजार में किसी वस्तु का मूल्य बढ़ता है तो उसकी माँग घट जाती है। दूसरी ओर बाजार में किसी वस्तु का मूल्य घटता है तो उसकी माँरा बढ़ जाती है।
  • उपभोक्ता की आय के घटने या बढ़ने पर भी माँग का नियम लागू होता है। यही कारण है कि जब उपभोक्ता की आय बढ़ती है तो वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है और जब उपभोक्ता ‘की आय घटती है तो उसकी माँग भी घट जाती है।
  • पूरक वस्तुओं में यदि एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो उसकी पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि स्थानापन्न वस्तुओं में किसी एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो दूसरी वस्तु की मांग भी कम हो जाती है।
  • वस्तु का मूल्य घटने या बढ़ने पर ही माँग का नियम लागू होता है। यदि अन्य बातें सामान्य रहती हैं तो वस्तु का मूल्य बढ़ने पर माँग कम हो जाती है और मूल्य घटने पर माँग बढ़ जाती है।
  • उपभोक्ता की रुचि और फैशन में परिवर्तन होने पर भी मांग का नियम लागू होता है।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 2

BSEB Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 2 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या करें। अथवा, बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रतीत्य समुत्पाद का वर्णन करें।
उत्तर:
महात्मा बुद्ध ने दुख के कारण का विश्लेषण दूसरे आर्य-सत्य में एक सिद्धान्त के द्वारा किया है, जिसे संस्कृत में प्रतीत्य समुत्पाद तथा पाली में परिच्चसमुत्पाद कहते हैं। ‘प्रतीप्य समुत्पाद’ दो शब्दों के मेल से बना है। वे हैं-‘प्रतीत्य’ और ‘समुत्पाद’। प्रतीत्य का अर्थ है किसी वस्तु के उपस्थित होने पर (depending), समुत्पाद का अर्थ है किसी अन्य-बस्तु की उत्पत्ति (Origination)। अतः प्रतीप्य समुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है एक वस्तु के उपस्थित होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति। कहने का अभिप्राय एक के आगमन से दूसरे की उत्पत्ति। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार, ‘अ’ के रहने पर ‘ब’ का आगमन होगा तथा ‘ब’ के रहने पर ‘स’ का आगमन होता है।

इस प्रकार प्रतीप्यसमुत्पाद के अनुसार विषय का कोई-न-कोई कारण होता है। कोई भी घटना अकारण उपस्थित नहीं हो सकती है। वस्तुतः प्रतीप्यसमुत्पाद का सिद्धान्त कार्यकारण सिद्धान्त पर आधारित है। उदाहरण के लिए, दुख एक घटना है। बौद्ध-दर्शन में दुख को ‘जरामरण’ कहा गया है। ‘जरा’ का अर्थ वृद्धावस्था तथा मरण का अर्थ ‘मृत्यु’ होता है। हालांकि जरामरण का शाब्दिक अर्थ वृद्धावस्था और मृत्यु होता है, फिर भी जरामरण संसार के समस्त दुख-यथा रोग, निराशा, शोक, उदासी इत्यादि का प्रतीक है। ‘जरामरण’ का कारण बुद्ध जाति (rebirth) को मानते हैं।

प्रश्न 2.
ईश्वर के अस्तित्व के लिए सत्तामीमांसीय युक्ति का वर्णन करें।
उत्तर:
मध्यकालीन दार्शनिक संत असलेम ने सर्वप्रथम ईश्वर के विषय में तत्त्व विषयक प्रमाण प्रस्तुत किया जिसको बाद में देकार्त ने विकसित किया। इस तर्क के अनुसार हम ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में मानते हैं तथा उसे पूर्ण भी मानते हैं। इस प्रकार जब हम ईश्वर को पूर्ण मानते हैं तब उसका अस्तित्व भी अवश्य होना चाहिए क्योंकि अस्तित्व के अभाव में उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता। इससे स्पष्ट है कि तत्त्व विषयक तर्क के अनुसार ईश्वर की पूर्णता ही उसके अस्तित्व का प्रमाण है। इसके साथ ही यह भी यथार्थ है कि अस्तित्व के अभाव में ईश्वर को सर्वोच्च भी नहीं माना जा सकता।

देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्त्व विषयक तर्क कुछ भिन्न प्रकार से दिया है। उनका कहना है कि हमारे मन में जो असीम सर्वज्ञ और शाश्वत सत्ता का प्रत्यय है वह असीम, सर्वज्ञ और शाश्वत शक्ति के अस्तित्व को सिद्ध करता है क्योंकि यदि यह विचार किया जाए कि ईश्वर का प्रत्यय का विचार कहाँ से उत्पन्न हुआ तब इस विषय में मनुष्य को स्वयं इस धारणा का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है इसलिए वह पूर्ण के प्रत्यय का कारण नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि यह कहा जाय कि असीम प्रत्यय सकारात्मक न होकर नकारात्मक है तब देकार्त का यह कहना है कि असीम का बोध असीम से पूर्व और अधिक स्पष्ट तथा यथार्थ होता है क्योंकि ससीमता असीमता से अपेक्षा रखती है तथा अपूर्ण पूर्ण की अपेक्षा से होता है।

इस प्रकार असीम के प्रत्यय का कारण न तो मनुष्य है और न ही यह नकारात्मक प्रत्यय है बल्कि इस प्रत्यय का स्वयं ईश्वर ही कारण है। इस विषय में यदि कहा जाए कि मनुष्य ससीम एवं अपूर्ण है तब उसके मन में असीम और पूर्ण का प्रत्यय कैसे बन सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए देकार्त ने कहा है कि यह तो मान्य है कि मनुष्य सीमित है इसलिए वह असीम की धारणा को ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु इस विषय में यह भी स्पष्ट ही है कि मनुष्य यह तो जान सकता है कि उसके मन में जो असीम की धारणा है वह स्वयं से संबंधित नहीं वरन् उसका सम्बन्ध किसी पूर्ण ईश्वर से ही हो सकता है। इस प्रकार स्पष्ट ईश्वर का प्रत्यय या असीम का प्रत्यय ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है।

सत्तावादी सिद्धान्त की आलोचना-ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्व विषयक तर्क के विरोध में निम्नलिखित आपत्तियाँ उठाई जाती हैं-

1. ईश्वर का अस्तित्व उसकी धारणा से सिद्ध नहीं होता-प्रसिद्ध दार्शनिक काण्ट ने तत्त्व विषयक ईश्वर संबंधी तर्क के विषय में यह आपत्ति उपस्थित की है कि ईश्वर के अस्तित्व में उसकी धारणा के आधार पर सिद्ध करना अनुचित है क्योंकि धारण से तथ्य सिद्ध नहीं होता वरन् धारणा ही सिद्ध होती है, यथा यदि हमारे मन में वह धारणा है कि हमारी जेब में सौ रुपये हैं तो इस तरह से तो सौ रुपयों की धारणा ही सिद्ध होती है वास्तविक रुपये नहीं। ठीक इसी प्रकार पूर्ण के प्रत्यय में ईश्वर के अस्तित्व की धारणा तो सिद्ध होती है किन्तु इससे ईश्वर के अस्तित्व का तथ्य अथवा वास्तविक होना सिद्ध नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि इस तर्क में, पूर्ण धारणा में, अस्तित्व की धारणा सम्मिलित है किन्तु यह सिद्ध करने में कि पूर्ण की धारणा से, पूर्ण ईश्वर का अस्तित्व वास्तविक है, यह तर्क असमर्थ है।

2. आत्माश्रय दोष-आत्माश्रय दोष उसको कहा जाता है कि जिसमें जिसको सिद्ध करना होता है उसे पहले ही मान लिया जाता है। काण्ट ने ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध में तत्त्व विषयक तर्क में आत्माश्रय दोष बताया है। इनका कहना है कि तर्क में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना है और उसको ही पूर्ण में पहले ही उपस्थित मान लिया गया है तब इसमें आत्माश्रय दोष हो जाने से इससे ईश्वर का अस्तित्व कहीं सिद्ध नहीं होता।

प्रश्न 3.
शंकर के अनुसार ब्रह्म के स्वरूप की विवेचना करें।
उत्तर:
शंकर का दर्शन भारतीय दर्शन का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है। वाद्रायण के ब्रह्म सूत्र का भाष्य शंकर ने कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया कि भारतीय दर्शन को एक अत्यन्त ही सुदृढ़ तार्किक आधार मिला। शंकर के अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है। ब्रह्म को छोड़कर शेष सभी वस्तुएँ जैसे-जगत्, ईश्वर आदि की सत्यता शंकर स्वीकार नहीं करते।

शंकर ने सत्ता को तीन कोटियों में विभाजित किया है-

  1. परमार्थिक सत्ता,
  2. व्यावहारिक सत्ता तथा
  3. प्रतिमासिक सत्ता।

ब्रह्म परमार्थिक दृष्टिकोण से सत्य कहा जा सकता है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान है प्रकाश की तरह ज्योतिर्मय होने के कारण ब्रह्म को स्वयं प्रकाश कहा गया है। ब्रह्म का ज्ञान उसके स्वरूप का अंग है।

ब्रह्म द्रव्य नहीं होने के बावजूद भी सब विषयों का आधार हैं यह दिक् और काल की सीमा से परे हैं तथा कार्य-कारण नियम से भी यह प्रभावित नहीं होता।

शंकर के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है। उपनिषदों में ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दो प्रकार माना गया है। यद्यपि ब्रह्म निर्गुण है, फिर भी ब्रह्म को शून्य नहीं कहा जा सकता। उपनिषद् ने भी निर्गुण को गुणमुक्त माना है।

शंकर ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानता है तथा ब्रह्म के साक्षात्कार को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। ब्रह्म से सांसारिक ज्ञान का, जो कि मूलतः अज्ञान है अंत हो जाता है। जगत् ब्रह्म का विवृतभाव है परिणाम नहीं। इस विवृत से ब्रह्म प्रभावित नहीं होता है। ठीक, इसी प्रकार जिस प्रकार एक जादूगर अपने ही जादू से ठगा नहीं जाता है। अविद्या के कारण ब्रह्म-नाना रूपात्मक जगत् के रूप में दृष्टिगत होता है।

ब्रह्म सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वेदान्ती तीन प्रकार के भेद मानते है-

  1. विजातीय भेद-जैसे-गाय और भैंस में।
  2. सजातीय भेद-जैसे-एक गाय और दूसरी गाय में।
  3. स्वगत भेद-जैसे-गाय के सींग और पुच्छ में।

ब्रह्म में न सजातीय भेद, न विजातीय भेद है और न स्वगत भेद है। यहाँ शंकर का ब्रह्म रामानुज के ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है। रामानज ने ब्रह्म को स्वागत भेद से युक्त माना है, क्योंकि इसमें चित्त तथा अचित्त दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं।

ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए शंकर कोई प्रमाण की आवश्यकता नहीं महसूस करते, क्योंकि वह (ब्रह्म) स्वयं-सिद्ध है।

सत्य होने के कारण शंकर का ब्रह्म सभी प्रकार के विरोधों से परे है। शंकर दो प्रकार के विरोध को मानते हैं-
(i) प्रत्यक्ष विरोध और

(ii) सम्भावित विरोध। जब वास्तविक प्रतीति दूसरी वास्तविक प्रतीति से खण्डित हो जाती है तब उसे प्रत्यक्ष विरोध कहा जाता है। साँप के रूप में जिसकी प्रतीति हो रही है उसी का रस्सी के रूप में होना इसका उदाहरण है। संभावित विरोध उसे कहा जाता है जो युक्ति के द्वारा बाधित होता है। शंकर का ब्रह्म प्रत्यक्ष विरोध और संभावित विरोध दोनों से शून्य है। ब्रह्म त्रिकाल-बाधित सत्ता है।

ब्रह्म व्यक्तिगत से शून्य है। व्यक्तिगत में आत्मा और अनात्मा का भेद रहता है। ब्रह्म सभी भेदों से शून्य है। यही कारण है कि ब्रह्म को निर्व्यक्तिक (impersonal) कहा गया है। Bradley के अनुसार भी ब्रह्म व्यक्तित्व से शून्य है। शंकर के इस विचार के विपरीत रामानुज मानते हैं कि ब्रह्म व्यक्तिगत है। शंकर ने ब्रह्म को अनन्त, असीम और सर्वव्यापक माना है। वह सबका कारण होने के कारण सबका आधार है। पूर्ण और अनन्त होने के कारण आनन्द ब्रह्म का स्वरूप है।

शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए निम्नलिखित प्रमाण दिये हैं-

  • शंकर का दर्शन मुख्य रूप से उपनिषद् गीता तथा ब्रह्म पर आधारित है। इन ग्रंथों में ब्रह्म का अस्तित्व वर्णित है इसलिए ब्रह्म है। इस प्रमाण का प्रमाण कहा गया है।
  • शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा कहा है। प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है।

प्रश्न 4.
काण्ट किस तरह बुद्धिवाद और अनुभववाद में समन्वय स्थापित करता है?
उत्तर:
काण्ट का कहना है कि बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों एकांगी (One-sided), अपूर्ण (Incomplete) एवं हठधर्मी (Dogmatic) हैं। दोनों के कथनों में आंशिक दोष है और आंशिक सत्यता भी है। काण्ट ने इनके दोषों का बहिष्कार करके गुणों को ग्रहण किया है। उन्होंने दोनों परस्पर विरोधी सिद्धांतों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है।

काण्ट का कहना है कि ज्ञानप्राप्ति में बुद्धि और अनुभव दोनों की आवश्यकता है। दोनों में किसी का भी महत्त्व कम नहीं कहा जा सकता। बुद्धिवाद का यह कहना सत्य है कि ज्ञान में सार्वभौमता और अनिवार्यता का रहना आवश्यक है। अनुभववाद का यह कहना भी सही है कि ज्ञान में नवीनता का गुण रहना चाहिए। कांट दोनों में समन्वय स्थापित करते हुए कहते हैं कि यथार्थ ज्ञान में सार्वभौमता, अनिवार्यता एवं नवीनता तीनों गुण विद्यमान रहने चाहिए। बुद्धिवाद का यह कथन सत्य है कि बुद्धि जन्मजात प्रत्ययों के विश्लेषण से ज्ञान का निर्माण करती है, किंतु इसका दोष यह है कि यहाँ अनुभव द्वारा प्राप्त प्रत्ययों को महत्वहीन बताया गया है। यदि बुद्धि केवल जन्मजात प्रत्ययों के विश्लेषण से ज्ञान का निर्माण करती है, तो यह ज्ञान ब्राह्य जगत के न तो अनुरूप होगा और न इसमें नवीनता का गुण रहेगा। अनुभववाद का यह कहना सत्य है कि अनुभव द्वारा प्राप्त संवेदन (Sensations) ज्ञान की प्रारंभिक इकाइयाँ हैं।

किंतु, दोष तब होता है, जब यह बुद्धि और जन्मजात प्रत्ययों का महत्त्व स्वीकार नहीं करता। कांट का कहना है कि कुछ प्रत्यय जन्मजात हैं, तो कुछ अर्जित हैं। इसलिए ज्ञान का कुछ अंश जन्मजात है, तो कुछ अंश अनुभवजन्य भी हैं। ज्ञानप्राप्ति में जन्मजात प्रत्ययों का विश्लेषण जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है अनुभव द्वारा प्रत्ययों का संश्लेषण (Synthesis)। ज्ञान-प्रक्रिया में मन कुछ अंश तक निष्क्रिय रहता है, तो कुछ अंश तक सक्रिय भी। ज्ञान प्राप्ति में आगमनात्मक विधि और निगमनात्मक विधि दोनों का प्रयोग आवश्यक है। इनमें किसी एक विधि से काम नहीं चल सकता। धारणात्मक विज्ञान तथा वस्तुनिष्ठ विज्ञान दोनों ही ज्ञान के आदर्श कहे जा सकते हैं। ज्ञान के लिए सार्वभौम (Universal) होना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक इसे वस्तुसंवादी अर्थात् यथार्थ होना है।

इस प्रकार, कांट ने अपने समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद जैसे परस्पर विरोधी सिद्धांतों में समन्वय लाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। इस दिशा में उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली है। फिर भी, ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अनुभव की अपेक्षा बुद्धि पर विशेष जोर देकर बुद्धिवाद का पक्ष लिया है। यह आक्षेप संबल नहीं है। कांट बुद्धिवादी विचारक होते हुए भी ज्ञान-निर्माण में अनुभव को यथोचित स्थान एवं महत्त्व देने में जरा भी संकोच नहीं करते। वह वस्तुतः एक सामान्यवादी विचारक कहे जा सकते हैं।

प्रश्न 5.
एसे इस्ट परसीपी सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर:
स्पिनोजा के दर्शन में ईश्वर को छोड़कर सभी मिथ्या हो जाता है। चूंकि स्पिनोजा के अनुसार, सभी वस्तुओं में केवल एक ईश्वर की ही सत्ता सत्य है, इसलिए उन्हें सर्वेश्वरवादी कहा गया है। सर्वेश्वरवादी को ‘दर्शन तथा ईश्वर’ मीमांसा के दो दृष्टिकोणों से देखा जाता हैं। जब यह कहा जाता है कि विश्व और मानव की सभी अनुभूतियों का एक मूल तत्त्व है, जिसे ईश्वर के नाम से पुकारा जाता है तो इस सर्वेश्वरवाद को अद्वैतवाद कहा जाता है और फिर जब ईश्वर को मानव-पूजा का एकमात्र लक्ष्य समझा जाता है तो यह धार्मिक सिद्धान्त हो जाता है। स्पिनोजा की आलोचना करते हुए हेगेल कहते हैं कि स्पिनीजीय ईश्वर सिंह की वह माँ है जिसमें सभी वस्तुएँ तिरोहित हो जाती हैं तथा उससे कोई भी वस्तु यथार्थरूप में होकर निकलती नजर नहीं आती है।

प्रश्न 6.
क्या भारतीय दर्शन निराशावादी है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
दर्शन के इतिहास में निराशावादी (Possimism) और आशावादी (Optimism) दो परस्पर विरोधी सिद्धान्त है। निराशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के बुरे पहलू पर ही प्रकाश डालता है। इसके अनुसार जीवन दु:खमय है। इसमें सुख या आनंद के लिए कोई स्थान नहीं है। यह जीवन में कोई आकर्षण नहीं मानता। इसके अनसार जीवन द:खमय असह्य एवं अवांछनीय है। ठीक इसके विपरीत, आशावाद (Optimism) मन की वह प्रवृत्ति है, जो जीवन के शुभ पक्ष को ही देखती है। इसके अनुसार जीवन सुखमय है। विश्व में दुःखों एवं बुराइयों का साम्राज्य नहीं है।

यदि कही दु:ख एवं अशुभ (Evils) है तो ये शुभ (Good) की प्राप्ति में सहायक नहीं है। निराशावादी व्यक्ति जीवन में साधारण असफलता में भी तिलमिला जाता है और नैराश्य के सागर में गोता लगाने लगता है। ठीक इसके विपरीत आशावादी व्यक्ति असफलता से निराश नहीं होता और असफलताओं के मध्य सफलताओं की किरण पाने की सदैव आशा करता रहता है। इस प्रश्नोत्तर में हमें केवल निराशावादी पर विचार करना है।

निराशावाद के उदाहरण पश्चात् और भारतीय दोनों दर्शनों में उपलब्ध है। पश्चात् दर्शन में शॉपेनहावर, हार्टमैन आदि विचारक निराशवादी कहे जाते हैं। इनके अनुसार जीवन दु:खमय है और इसमें सुख की आशा रखना सरासर मूर्खता का काम है। शॉपेनहावर, (Schopenhauer) का पश्चात् जगत् में निराशावाद का जनक माना जाता है। अपने दर्शन में इन्होंने इसकी विशद व्याख्या की है। इनके ही शब्दों में, यह विश्व सभी संभव विश्वास में सबसे बुरा है। ये इतने कट्टर निराशावादी थे कि इन्होंने यहाँ तक कह डाला, “सबसे उत्तम वस्तु है जन्म न लेना और दूसरी उत्तम वस्तु है जन्म लेकर तुरंत मर जाना।”

भारतीय दर्शन में दु:खों की विस्तृत व्याख्या की गयी है। प्रत्येक भारतीय विचारक (चार्वाक को छोड़कर) दु:खों की व्यापकता देखकर दूर करने के लिए ही दार्शनिक चिन्तन आरम्भ करता है। इसी आधार पर कुछ आलोचकों ने भारतीय दर्शन पर निराशावादी (Possimistic) होने का आक्षेप लगाया है किन्तु यह आक्षेप निराधार एवं अलौकिक है। इस आक्षेप की निस्सारता निम्नलिखित तर्कों से प्रमाणित हो जाती है-

यह सत्य है कि भारतीय दर्शन की उत्पत्ति मानसिक बेचैनी एवं आध्यात्मिक असंतोष के कारण होती है। भारतीय विचारक जीवन और जगत् में दुःखों की अधिकता देखकर एक प्रकार की मानसिक बेचैनी आध्यात्मिक असंतोष अनुभूत करते हैं और फलस्वरूप उनका दार्शनिक चिन्तन प्रस्फटित होता है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शन द:खों के विवरण से भरा पड़ा है। यहाँ प्रत्येक विचारक दुःखों को दूर करना ही अपना सर्वप्रथम कर्त्तव्य मानता है। महात्मा बुद्ध ने तो दु:खों के आधार पर अपने चार आर्य सत्यों (The Four Noble Truths) की स्थापना की। जीवन में दुःख के अस्तित्व को कोई स्वीकार नहीं कर सकता । इसी आधार पर भारतीय दर्शन को निराशावादी कहा जाता है।

भारतीय दर्शन का आरंभ निराशावाद से अवश्य होता है, किन्तु इसका अन्त आशावाद में होता है। वह दुःखों के दूर करने का मार्ग बताता है। भारतीय विचारक दुःखों के समक्ष नतमस्तक नहीं हो जाते वरन् उन्हें दूर करने का उपाय बताते हैं। बौद्ध-दर्शन में दुःखों के कारण को दूर करने का मार्ग बताया है। अन्य भारतीय संप्रदायों ने बौद्ध-दर्शन की तरह मोक्ष प्राप्त करने की विधियाँ बतायी है। भारतीय दर्शन दुःखों के अस्तित्व को स्वीकार करने के साथ-ही-साथ इनके विनाश की संभावना में भी विश्वास रखता है। मोक्ष दु:ख रहित अवस्था का नाम है। दु:ख एवं बन्ध क्षणिक एवं नश्वर हैं। इन्हें नश्वर बताकर भारतीय दर्शन आशा का संचार करता है अतः इसे निराशावादी नहीं कहा जा सकता।

कभी-कभी निराशावाद का अर्थ पलायनवाद भी होता है। कर्मों से भागना ही पलायनवाद है। इस अर्थ में भी भारतीय दर्शन को निराशावादी कहा गया है। आलोचक यहाँ तक कहते हैं कि भारतीय दर्शन जीवन और जगत की वास्तविकता से आँखें मूंद कर एकान्तवास का पाठ पढ़ाता है इसलिए इसपर निराशावादी होने का आक्षेप किया जाता है।

भारतीय दर्शन में निराशावाद साधन के रूप में अपनाया जाता है न कि साध्य के रूप में। भारतीय दर्शन का लक्ष्य निराशावाद नहीं है। निराशावाद तो स्वयं एक उच्चतर साध्य का साधन मात्र है। आशावाद ही वह मंजिल है जहाँ पहुँचने के लिए निराशावाद से प्रस्थान करना पड़ता है। राधाकृष्णन के शब्दों में, “भारतीय दार्शनिक वहाँ तक निराशावादी हैं जहाँ तक वे विश्व व्यवस्था को अशुभ और मिथ्या मानते हैं। परन्तु जहाँ तक इन विषयों से छुटकारा पाने का सम्बन्ध है वह निराशावादी है।” इस प्रकार भारतीय दर्शन की उत्पत्ति दु:खों की उपस्थिति के कारण होती है; किन्तु दुःखों के विनाश में किसी व्यक्ति को संदेह नहीं है। निराशावाद भारतीय दर्शन का आधारवाक्य कहा जा सकता है निष्कर्ष नहीं।

हम कह सकते हैं कि निराशावाद स्वयं अपने-आप में निरर्थक नहीं कहा जा सकता। निराशावाद के अभाव में आशावाद का न तो उदय हो सकता है और न इसका मूल्यांकन किया जा सकता है। निराशावाद आशावाद का विरोधी नहीं बल्कि पूरक है। Bosanqet (वोसांक्वेट) के शब्दों में “मैं आशावाद में विश्वास करता हूँ किन्तु साथ ही मानता हूँ कि कोई भी आशावाद तब तक सार्थक नहीं हो सकता जब तक उनमें आशावाद का पुट न हो।” निराशावाद आशावाद रूपी मंजिल तक पहुँचने का एक आवश्यक सोपान है। कुछ विचारक तो निराशावाद को आशावाद से अधिक श्रेष्ठ मानते हैं।

निराशावाद के बीच से ही आशा की किरणें निकलती है। अंधकार के अभाव में प्रकाश का कोई अर्थ नहीं। ऐसा विचार विलियम जेम्स ने भी प्रकट किया है। उनके शब्दों में, “आशावाद निराशावाद से हेय प्रतीत होता है, निराशावाद हमें विपत्तियों से सचेत कर देता है; किन्तु आशावाद झूठी निश्चितता को प्रश्रय देता है।” इस प्रकार यदि भारतीय दर्शन आशावाद की स्थापना के लिए निराशावाद को साधन के रूप में अपनाता है तो यह कोई अनुचित कार्य नहीं है। भारतीय दर्शन का आरंभ बिन्दु निराशावाद हैं किन्तु इसका लक्ष्य आशावाद है।

प्रश्न 7.
व्यापार नीतिशास्त्र के मुख्य सिद्धान्तों की विवेचना करें।
उत्तर:
नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता होती है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ, किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है।

व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहती है और समाज में वे अपने कार्यों को आम लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है। परन्तु एक व्यावसायिक का मुख्य उद्देश्य सिर्फ धन का अर्जन नहीं होना चाहिए बल्कि सेवा की भावना भी होनी चाहिए। व्यवसाय में, सेवा भाव का स्थान धन अर्जन के उद्देश्य से अधिक ऊँचा होना चाहिए। उदाहरणस्वरूप-शिक्षक, अभियंता, बैंकर्स, कृषक, चिकित्सक, पेशागत व्यक्ति तथा विभिन्न प्रकार के ऐसे व्यवसाय हैं, जिसमें नैतिकता के अभाव में, उस व्यवसाय में सफलता की बात नहीं की जा सकती है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है।

अत: उसके अलग-अलग उद्देश्य एवं अलग-अलग कार्यशैली का होना भी आवश्यक है। चूंकि सभी व्यक्तियों का व्यवसाय अलग-अलग है, अतः उनकी नैतिकता भी पेशा के अनुकूल ही होनी चाहिए। वर्तमान संदर्भ में व्यावसायिक नैतिकता का होना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है, अतः उनके अलग-अलग उद्देश्य और अलग-अलग कार्यशैली भी है। विभिन्न कार्यशैलियों तथा उद्देश्यों का निर्धारण व्यावसायिक नैतिकता के द्वारा ही संभव है। अतः प्रत्येक व्यवसाय की अपनी आचार-संहिता का होना न केवल आवश्यक है बल्कि सामाजिक व्यवस्था व प्रगति के लिए भी उपयोगी है।

हमारी भारतीय परम्परा में व्यावसायिक नैतिकता का स्पष्ट रूप वर्णाश्रम धर्म में देखने को मिलता है। हमारे भारतीय नीतिशास्त्र में समाज के समुचित विकास के लिए सभी व्यक्तियों को उसके गुण और कर्म के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है। यहाँ चार प्रकार के वर्ण माने गये हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र। इनका विभाजन का आधार श्रम एवं कार्य विशिष्टीकरण है। इन सभी वर्गों की अपनी व्यावसायिक नैतिकता थी।

प्रश्न 8.
वस्तुवाद की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए। अथवा, वस्तुवाद की विवेचना करें। अथवा, वस्तुवाद के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
वस्तुवाद (Realism)-वस्तुओं के अस्तित्व को ज्ञाता से स्वतंत्र मानता है। यह सिद्धान्त ज्ञानशास्त्रीय प्रत्ययवाद का विरोधी माना जाता है, क्योंकि ज्ञानशास्त्रीय प्रत्ययवाद मानता है कि ‘ज्ञाता (Knowledge of subject) और ज्ञेय (Object of knowledge) में ऐसा सम्बन्ध है कि ज्ञाता से स्वतंत्र होने पर ज्ञेय का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता। वस्तुवाद की दूसरी मान्यता है कि ज्ञान से ज्ञात पदार्थों में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् जो पदार्थ जिस रूप में रहता है वैसा ही ज्ञात होता है। उदाहरणस्वरूप-जंगल का फूल किसी के द्वारा देखे जाने पर भी फूल ही रहता है और जब उसे कोई देखनेवाला न भी हो तो भी फूल ही है।

वस्तुवाद विचारधारा के ऊपर दृष्टिपात करने के फलस्वरूप कई रूप दृष्टिगत होते हैं। लेकिन उसके मूलतः दो व्यापक रूप उल्लेखनीय हैं-
(i) लोकप्रिय वस्तुवाद (Popular realism)
(ii) दार्शनिक वस्तुवाद (Philosophical realism)

(i) लोकप्रिय वस्तुवाद-लोकप्रिय वस्तुवाद का आधार दार्शनिक चिन्तन नहीं स्वाभाविक विश्वास है। साधारण मनुष्य स्वभावतः वस्तुवादी होता है। उसके अंदर यह विश्वास रहता है कि जिन वस्तुओं को वह जानता है वे उसके ज्ञान पर निर्भर नहीं हैं। साधारणतः लोगों में इस तरह का विश्वास देखा जाता है इसलिए इसे लोकप्रिय वस्तुवाद कहा जाता है। इसके लिए अंग्रेजी शब्द Native Realism या Common Sense Realism प्रचलित है। लोकप्रिय वस्तुवाद के अनुसार

  • ज्ञेय पदार्थ ज्ञाता से स्वतंत्र है,
  • ज्ञान होने से ज्ञात पदार्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता, अतः उसके वास्तविक रूप का ज्ञान ज्ञाता को होता है और
  • ज्ञाता को वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में होता है। इसलिए निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान में मन या ज्ञाता से स्वतंत्र अस्तित्व वाली वस्तुओं के वास्तविक रूप का प्रत्यक्ष दर्शन (direct revelation) होता है।

आलोचना-दार्शनिक दृष्टिकोण से मूल्यांकन करने के पश्चात् वस्तुवाद में बहुत सी त्रुटियाँ दृष्टिगत होती हैं। उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि स्वप्न (Dream), विपर्यय (Illusion), विभ्रम (Hallucination) आदि भ्रान्तिपूर्ण अनुभूतियों की व्याख्या नहीं कर सकता है। इसके फलस्वरूप वस्तुओं के वास्तविक रूप का ज्ञान नहीं मिलता, स्वप्न में वस्तुतः कोई पदार्थ अनुभवकर्ता के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं होता, किन्तु तरह-तरह की घटनाओं और वस्तुओं का अनुभव होता है। उसी तरह विपर्यय में वस्तुओं के वास्तविक रूप के बदले कोई दूसरा ही रूप सत्य जान पड़ता है।

जैसे-रस्सी अंधेरे में सर्प के रूप में दीख पड़ती है तथा सर्प कभी-कभी रस्सी के रूप में प्रतीत होता है। विभ्रम में भी किसी वास्तविक वस्तु का ज्ञान नहीं होता, बल्कि मन की कोई प्रतिमा (Image) किसी बाह्य वस्तु के रूप में वास्तविक जान पड़ती है जैसे-शोकातुर माता को अपने मरे हुए पुत्र की आवाज सुनाई पड़ती है। अब चूँकि लोकप्रिय वस्तुवाद के अनुसार ज्ञान में वस्तुओं के यथार्थ रूप का दर्शन होता है। किन्तु उपर्युक्त उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि कभी-कभी अयथार्थ (Unreal) का भी अनुभव होता है, ऐसा क्यों होता है ? अयथार्थ की प्रतीति (Appearance) का क्या कारण है ? इन प्रश्नों का लोकप्रिय वस्तुवाद कोई उत्तर नहीं देता है।

(ii) दार्शनिक वस्तुवाद (Philosophical realism)-दार्शनिक वस्तुवाद के अनुसार भी वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर नहीं है। लेकिन इस निष्कर्ष को विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से प्रतिपादित किया है जिसके फलस्वरूप कई रूप हो जाते हैं। Western philosophy में दार्शनिक वस्तुवाद के तीन रूप पाये जाते हैं-

(a) प्रत्यय प्रतिनिधित्वाद (Representation Realism),
(b) नवीन वस्तुवाद (New Realism),
(c) समीक्षात्मक वस्तुवाद।

ये तीनों इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि ज्ञान का विषय ज्ञाता से स्वतंत्र है और ज्ञान होने से उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता बल्कि ज्ञान उसके यथार्थ के रूप का होता है। किन्तु अन्य विषयों पर उनमें मतान्तर है।

प्रश्न 9.
अनेकान्तवाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
अनेकान्तवाद जैन दर्शन के तत्त्वशास्त्र से जुड़ा हुआ है। जैन अपने को अनेकान्तवाद का समर्थक मानते हैं जबकि वेदान्त और बौद्ध दर्शन को एकान्तवाद का पोषक मानते हैं। वस्तुतः जैन दर्शन का अनेकान्तवाद वास्तववादी, सापेक्षवादी अनेकान्तवाद है।

जैन दर्शन के अनुसार इस संसार में अनेक वस्तुएँ हैं तथा इनमें से प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म हैं। जैन जीवों के संदर्भ में अनेकवादी मत को अपनाता है। उनके अनुसार जीव का निवास केवल मानव, पशुओं तथा पेड़-पौधों में ही नहीं है बल्कि धातुओं और पत्थरों जैसे पदार्थों में भी निहित है। जीव के अतिरिक्त जड़-तत्व को जैन दर्शन में पुग्दल की संज्ञा दी गयी है। जो द्रव्य पूरण तथा गलने के द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता है, वह पुग्दल है। पुग्दल के दो भेद हैं।

वे हैं-अणु (atom) और ‘स्कन्ध’ (compound)। पुग्दल का वह अंतिम अंश जो विभाजन से परे हैं अणु हैं। अणुओं के संकलन को ‘स्कन्ध’ कहा जाता है। जैनों के मतानुसार पूरा संसार चेतन, जीव और अचेतन पुग्दल से भरा है जो नित्य, स्वतंत्र तथा अनेक हैं। इस प्रकार जैन दर्शन बहुतत्ववादी यथार्थवाद (Realistic Pluralism) का समर्थक है। इसे ही हम अनेकान्तवाद से जानते हैं।

प्रश्न 10.
ईश्वर के अस्तित्व संबंधी प्रमाणों को दें।
उत्तर:
न्याय दर्शन में ईश्वर को जीवों के सुख-दुःख का विधायक एवं जगत का सृष्टिकर्ता माना गया है। ईश्वर जगत का निर्माता, पालक एवं संहारक है। ईश्वर अनन्त और नित्य है। ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ एवं विभु है। ईश्वर के अस्तित्व के लिए निम्नलिखित प्रमाण दिए गए हैं-

1. कारणाश्रित तर्क प्रत्येक घटना का एक कारण होता है। यह विश्व भी एक घटना या कार्य है, अत: विश्वरूपी कार्य का कोई कारण होगा। वह कारण ईश्वर है। दुनिया में दो प्रकार की वस्तुएँ दीख पड़ती हैं। कुछ वस्तुएँ निरवयव होती हैं, जैसे आत्मा, मन, दिक्, काल इत्यादि। इनके कर्ता का प्रश्न नहीं उठता है। कुछ वस्तुएँ सावयव होती हैं, जैसे-नक्षत्र, पहाड़, समुद्र, तारे इत्यादि। इनका कोई कारण होगा। यह कारण ईश्वर है, यहाँ पर विश्व के निमित्त कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है।

नैयायिकों की तरह यह युक्ति पॉल जानेट, लॉटजा, माटिन एकव डेकार्ट के कारणमूलक तर्क से मिलती है। इस तर्क में कमजोरी यह है कि ईश्वर को यह शरीरधारी बना देता है। पुनः यह तर्क इस बात पर आधारित है कि विश्व एक कार्य है। ईश्वर अगर कर्ता है तो इसका क्या लक्ष्य है ? ईश्वर तो पूर्ण है। उसकी किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सृष्टि की गई है ?

2. अदृष्ट का अधिष्ठाता ईश्वर है- संसार में कुछ लोग सुखी हैं तथा कुछ लोग दुःखी हैं। जीवन की इन घटनाओं का क्या कारण है ? लोगों के भाग्य में विषमता का कोई कारण होगा। न्याय के अनुसार इसका कारण कर्म है। मानव के सभी कर्मों का फल संचित रहता है। न्याय दर्शन अच्छे और बुरे कर्मों से उत्पन्न पाप या पुण्य के भण्डार को अदृष्ट कहता है।

3. श्रति ईश्वर को प्रमाणित करती है हमारे धार्मिक ग्रन्थ ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करते हैं। जैसे-गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि “मैं ही जगत का कर्ता, पालन और संहारक हूँ।” उपनिषद्, वेद, महाभारत और रामायण भी ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करते हैं।
इस प्रमाण में कमी यह है कि यह प्रमाण विश्वास पर आधृत है। जिन्हें धर्म-ग्रन्थों में विश्वास नहीं है, उनके लिए यह प्रमाण महत्त्व नहीं रखता है।

4. वेदों की प्रामाणिकता ईश्वर के अस्तित्व के लिए एक प्रमाण है सभी धर्म अपने-अपने धर्म-ग्रंथों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। वेदों की प्रामाणिकता उनके रचयिता पर निर्भर है। वेदों का रचयिता जीव नहीं हो सकता, क्योंकि जीव अलौकिक और अतीन्द्रिय विषयों को नहीं जानता है। वेदों का कर्ता एक ऐसा व्यक्ति है जो भूत, भविष्य, वर्तमान, विभु और अरूप, अतीन्द्रिय सभी विषयों का अपरोक्ष ज्ञान रखता है, वह पुरुष ईश्वर है वेद प्रमाणित करते हैं कि ईश्वर है।

अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व के लिए जो प्रमाण न्याय दर्शन में मिलते हैं, वे परम्परागत प्रमाण हैं। ये प्रमाण ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं।

प्रश्न 11.
अद्वैत वेदान्त के आत्मा के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर के दर्शन को अद्वैत वेदान्त कहा जाता है। उसने आत्मा को ही ब्रह्म कहा है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। शेष सभी वस्तुएँ व्यावहारिक सत्यता का ही दावा कर सकती है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि “मैं नहीं हूँ” तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है।

फिर भी ‘मैं’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हैं कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप निश्चित करने के लिए तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी मैं शब्द का प्रयोग शरीर के लिए होता है जैसे-मैं मोटा हूँ। कभी-कभी “मैं” का प्रयोग इन्द्रियों के लिए होता है। जैसे-मैं अन्धा हूँ। शंकर के अनुसार जो अवस्थाओं में विद्यमान रहे वही आत्मा का तत्त्व हो सकता है। चैतन्य सभी अवस्थों में सामान्य होने के कारण मौलिक है। अतः चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप है। इसे दूसरे ढंग से भी प्रमाणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन में हम तीन प्रकार की अनुभूतियाँ पाते हैं-

  1. जाग्रत अवस्था (Walking experience)
  2. स्वप्न अवस्था (Dreaming experience)
  3. सुषुप्ति अवस्था (Dreamless sleeps experience)

जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को बाह्य जगत् की चेतना रहती है। स्वप्नावस्था में आभ्यान्तर विषयों की स्वप्न रूप में चेतना रहती है। सुषुप्तावस्था में यद्यपि बाह्य आभ्यान्तर विषयों की चेतना नहीं रहती है, फिर भी किसी न किसी रूप में चेतना अवश्य रहती है। इसी आधार पर तो हम कहते हैं-“मैं खूब आराम से सोया।” इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चैतन्य सामान्य है। चैतन्य ही स्थायी तत्त्व है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। चैतन्य का अर्थ किसी विषयक चैतन्य नहीं बल्कि शुद्ध चैतन्य है। चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। सत्ता (Existence) चैतन्य में सर्वथा वर्तमान रहती है। चैतन्य के साथ-साथ आत्मा में आनन्द भी है।

साधारण वस्तु में जो आनन्द रहता है वह क्षणिक है, पर आत्मा का आनन्द शुद्ध और स्थायी है। शंकर ने आत्मा को सत् + चित् + आनन्द = सच्चिदानन्द कहा है। शंकर के अनुसार “ब्रह्म” सच्चिदानन्द है। चूंकि आत्मा वस्तुतः ब्रह्म ही है इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण संगत प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन के आत्मा सम्बन्धी सभी विचारों में शंकर का विचार अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिक ने आत्मा का स्वरूप सत् माना है। न्याय की आत्मा स्वभावतः अचेतन है। सांख्य में आत्मा को सत् + चित् (Existence Consciousness) माना है। शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द मानकर आत्मा सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।

शंकर ने आत्मा को नित्य शुद्ध और निराकार माना है। आत्मा एक है। आत्मा यथार्थतः भोक्ता और कर्त्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्त्ता दिखाई पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है, तथा विभिन्न विषयों को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों में स्वतंत्र है। वह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करता है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि आत्मा को साध्य जाना जाए तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगा। इस तरह आत्मा की नित्यता खण्डित हो जायेगी। आत्मा देश, काल और कारण नियम की सीमा से परे हैं। आत्मा सभी विषयों का आधार स्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य हो। आत्मा त्रिकाल-अवाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है।

प्रश्न 12.
सप्तभंगी नय से आप क्या समझते हैं? विवेचना करें।
उत्तर:
जैन दर्शन के सात प्रकार के परामर्श के अन्तर्गत ये दो परामर्श भी निहित हैं। जैन-दर्शन के इस वर्गीकरण को सप्त-भगी नय कहा जाता है। सप्तभंगी नय की संख्या सात है, जिनका वर्णन निम्नलिखित हैं-

(i) स्यात् अस्ति (Some how Sis)-यह प्रथम परामर्श है। उदाहरणस्वरूप यदि कहा जाय कि “स्यात् दीवाल लाल है” तो इसका अर्थ यह होगा कि किसी विशेष देश काल और प्रसंग में दीवाल लाल है। यह भावात्मक वाक्य है।

(ii) स्याति नास्ति (Some how S is not)-यह अभावात्मक परामर्श है। टेबुल के संबंध में अभावात्मक परामर्श इस प्रकार का होना चाहिए-स्यात् टेबुल इस कोठरी के अन्दर नहीं है।

(iii) स्याति अस्ति च नास्ति च (Some how S is and also is not)-वस्तु की सत्ता एक अन्य दृष्टिकोण से हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। घड़े के उदाहरण में घड़ा लाल भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में ‘स्यात है’ और ‘स्यात नहीं है’ का ही प्रयोग हो सकता है।

(iv) स्यात अव्यक्तव्यम् (Some how S is indescribable)-यदि किसी परामर्श में परस्पर विरोधी गुणों के संबंध में एक साथ विचार करना हो तो उसके विषय में स्यात् अव्यक्तव्यम का प्रयोग होता है। लाल टेबुल के सम्बन्ध में कभी ऐसा भी हो सकता है जब उसके बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि वह लाल है या काला। टेबुल के इस रंग की व्याख्या के लिए ‘स्यात अव्यक्तव्यम’ का प्रयोग वांछनीय है। यह चौथा परामर्श है।

(v) स्यात् अस्ति च अव्यवक्तव्यम् च (Some how S is and is indescribable)-वस्तु एक ही समय में हो सकती है और फिर अव्यक्तव्यम् रह सकती है। किसी विशेष दृष्टि से कलम को लाल कहा जा सकता है। परन्तु जब दृष्टि का स्पष्ट संकेत न हो तो कलम के रंग का वर्णन असम्भव हो जाता है। अतः कलम लाल और अव्यक्तव्यम है। यह परामर्श पहले और चौथे को जोड़ने से प्राप्त होता है।

(vi) स्यात् नास्ति च अव्यक्तव्यम् च (Some how S is not, and is Indescribable)-दूसरे और चौथे परामर्श को मिला देने से छठे परामर्श की प्राप्ति हो जाती है। किसी विशेष दृष्टिकोण से किसी भी वस्तु के विषय में “नहीं है” कह सकते हैं। परन्तु दृष्टि स्पष्ट न होने पर कुछ स्पष्ट न होने पर कुछ नहीं कहा जा सकता। अतः कलम लाल है और अव्यक्तव्यम् भी है।

(vii) स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तव्यम् च (Some how S is, and is not and is indescribable)-इसके अनुसार एक दृष्टि से कलम लाल है, दूसरी दृष्टि से कलम लाल नहीं है और जब दृष्टिकोण अस्पष्ट हो तो अव्यक्तव्यम् है। यह परामर्श तीसरे और चौथे को जोड़कर बनाया गया है।

प्रश्न 13.
प्रत्ययवाद की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या करें।
उत्तर:
ज्ञान शास्त्रीय प्रत्ययवाद मानता है कि ज्ञाता और ज्ञेय में ऐसा सम्बन्ध है कि ज्ञाता से स्वतंत्र या असम्बद्ध होने पर ज्ञेय का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता। प्रत्ययवाद इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञाता से स्वतंत्र ज्ञेय की कल्पना संभव नहीं है। यह सिद्धान्त ज्ञान को परमार्थ (ultimate) मानता है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञान की परिधि को कम करना संभव नहीं है, इसलिए हम जो भी कथन करेंगे वह उसकी सीमा के अन्दर ही। इस प्रकार ज्ञान हमारे चिन्तन की सीमा है। ज्ञान के द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सम्बन्ध स्थापित होता है। जब कभी किसी पदार्थ का अनुभव या ज्ञान होता है तो ज्ञाता से सम्बन्धित करते हैं।

ज्ञाता से असम्बन्ध पदार्थ का अनुभव या ज्ञान होता है तो ज्ञाता से सम्बन्धित करते हैं। ज्ञाता से असम्बन्ध पदार्थ से कभी हमारा संपर्क नहीं होता। जिसका ज्ञान संभव नहीं है उसे हम सत्य नहीं मान सकते, क्योंकि ज्ञान ही हमारी सीमा है। किसी पदार्थ को ज्ञाता से स्वतंत्र तभी कहा जा सकता है जबकि ज्ञाता से स्वतंत्र अर्थात् असम्बद्ध करके उसका ज्ञान मिल सके। किन्तु यह बिल्कुल असंभव है।

प्रत्ययवाद के निम्नलिखित विशेषता होती है-

(i) प्रत्ययवादियों का एक प्रसिद्ध तर्क परस्पर सम्बद्धता सिद्धान्त (Theory of inter relation) पर आधारित है। वे मानते हैं कि सभी सम्बद्ध अन्तरंग (Internal) है। आन्तरिक संबंध (Internal relation) उसे कहते हैं जिसके सम्बन्धित पदों में एक-दूसरे पर निर्भर करता है। जबकि सभी सम्बद्ध अन्तरंग (Internal) होगा ही। इसलिए यह निश्चित है कि ज्ञेय ज्ञाता पर अवलम्बित होगा।

(ii) अनुभव की सपेक्षता से भी प्रत्ययवाद प्रमाणित होता है। सापेक्षिता का मतलब है कि अनुभवकर्ताओं में भिन्नता होने पर पदार्थों का अनुभव भिन्न रूप में होता है। प्रत्ययवादी विचारक बतलाते हैं कि एक ही उजला रंग स्वस्थ्य आँख वाले को उजला और पीलिया के रोगी को पीला दीख पड़ता है। इस प्रकार अनुभवकर्ताओं में भेद होने से अनुभव पदार्थों में भेद होना प्रमाणित करता है कि वे अनुभवकर्ताओं पर अवलंबित हैं।

(iii) प्रत्ययवादी कहते हैं कि यदि हम मान भी लें कि ज्ञाता से बिल्कुल स्वतंत्र पदार्थ हैं तो उनके लिए कोई प्रमाण नहीं है। बिल्कुल स्वतंत्र होने का मतलब है कि बिल्कुल असम्बद्ध होना। किन्तु ‘स्वतंत्र पदार्थ है’ यह तभी प्रमाणित हो सकता है जबकि उक्त पदार्थों का ज्ञान हो। किन्तु उक्त ज्ञान के होने पर वे ज्ञाता से सम्बन्धित हो जायेंगे अत: उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी। . इसलिए यदि वस्तु स्वतंत्र है भी तो यह असिद्ध है।

(iv) फिर यदि हम मानते हैं कि कोई पदार्थ ज्ञाता से बिल्कुल असम्बद्ध है तो प्रश्न उठता . है कि वह कभी उससे क्यों सम्बन्धित होता है। ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध होता है किन्तु जो पदार्थ ज्ञाता से असंबद्ध है उसका उससे सम्बन्धित होना अचिंत्य है। यह कठिनाई पदार्थों को ज्ञाता से स्वतंत्र मानने से होती है। यदि मान लिया कि सभी पदार्थ ज्ञाता पर निर्भर है तो ऐसी कठिनाई नहीं होगी।

प्रश्न 14.
दर्शनशास्त्र के स्वरूप की व्याख्या करें तथा जीवन के साथ इसके संबंध को दर्शाइए।
उत्तर:
दर्शन की कई परिभाषाएँ दी जाती हैं। वास्तव में, दर्शन को किसी परिभाषा विशेष के अंतर्गत सीमित करना उचित नहीं जान पड़ता। हाँ, इसकी व्याख्या की जा सकती है। हम ऐसा कह सकते हैं कि “अनवरत तथा प्रयत्नशील चिंतन के आधार पर विश्व की समस्त अनुभूतियों की बौद्धिक व्याख्या तथा उनके मूल्यांकन (Evaluation) के प्रयास को ही दर्शन की संज्ञा दी जा संकती है।” यदि इस व्याख्यात्मक परिभाषा का विश्लेषण किया जाए, तो दार्शनिक चिंतन की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट दीख पड़ती हैं-

(a) दर्शन विश्व को उसकी समग्रता में समझने का प्रयास करता है-यहाँ दर्शन और विज्ञान से स्पष्ट अन्तर है। विज्ञान विश्व को विभिन्न अंशों में बाँटकर उसका अध्ययन करता है। भौतिकशास्त्र भौतिक पदार्थों का, रसायनशास्त्र रस, गैस आदि का और जीवविज्ञान जीव का अध्ययन करता है। अध्ययन की यह विधि विश्लेषणात्मक (Analytic) है। इसके विपरीत, दर्शन की विधि संश्लेषणात्मक (Synthetic) है। यह विश्व को एक इकाई के रूप में जानना चाहता हैं।

(b) दार्शनिक चिन्तन बौद्धिक (Intellectual) है-दार्शनिक व्याख्या सदैव बुद्धि (Intellect or Reason), ठोस प्रमाण और तार्किक युक्ति पर आधृत रहती है। बुद्धि की कसौटी है सामंजस्य (Consistency) अर्थात् व्याघातकता (Contradiction) का अभाव। भावनाओं, संवेगों या विश्वास (Faith) के आधार पर दार्शनिक चिन्तन नहीं हो सकता। यहाँ धर्म और दर्शन का अंतर स्पष्ट हो जाता है। धर्म भावनाओं एवं विश्वासों पर आधृत है, किंतु दर्शन का आधार बौद्धिक है।

(c) दार्शनिक चिन्तन निष्पक्ष होता है-विश्व का अध्ययन करने के समय दार्शनिक अपने स्वार्थभाव, राग-द्वेष एवं पक्षपातपूर्ण भावनाओं से पूर्णतया मुक्त हो जाता है। विश्व को उसके यथार्थ रूप में जानना ही उसका लक्ष्य रहता है, इसलिए दार्शनिक चिंतन को निष्पक्ष (Impartial) कहा जाता है। यह आत्मनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ हो जाता है।

(d) दार्शनिक चिंतन का व्यावहारिक (Practical) उद्देश्य होता है-मानव-जिज्ञासा को शान्त करना ही दर्शन का लक्ष्य है। जबतक दार्शनिक जीवन और जगत का सही अर्थ नहीं जान लेता, तबतक उसका चिंतन अनवरत जारी रहता है। जीवन और जगत को नश्वर समझने पर व्यक्ति अपने जीवन को सुखी बना सकता है। इस प्रकार जीवन की मौलिक समस्याओं का समाधान प्राप्त करना दर्शन अपना कर्त्तव्य समझता है।

भारतीय दार्शनिकों के अनुसार ‘दर्शन’ का अर्थ वह विद्या है जिसके द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया जा सके। सत्य का साक्षात्कार (Vision of Truth) हो जाने पर व्यक्ति वास्तविक और मिथ्या (Real and Unreal) का अन्तर समझ लेता है। दर्शन से हमें सम्यक् दृष्टि प्राप्त होती है। विषयों का वास्तविक ज्ञान हमें इसी शास्त्र के द्वारा होती है। व्यक्ति तभी तक बन्धन में रहता है, जबतक उसे सत्यज्ञान नहीं होता। सत्यज्ञान मिलते ही व्यक्ति सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है और उसे मोक्ष (Salvation) मिल जाता है। इस प्रकार, भारतीय विचारकों के अनुसार दर्शन का उद्देश्य बंधन काटकर व्यक्ति को मोक्ष दिलाना है। इसलिए, भारतीय दर्शन को ‘मोक्ष दर्शन’ कहा जाता है।

प्रश्न 15.
पर्यावरणीय नीतिशास्त्र की परिभाषा दें। इसकी विषय-वस्तु का उल्लेख करें। अथवा, पर्यावरणीय नैतिकता की विवेचना करें।
उत्तर:
पर्यावरण के अंतर्गत हमारे परिवेश या आस-पड़ोस की वस्तुएँ, जीव-जंतु इत्यादि सम्मिलित किए जाते हैं। इसमें वायु, जलमिट्टी, पेड़-पौधे, वनस्पति इत्यादि आ जाते हैं। मानवीय परिवेश की समस्त जीवित और निर्जीव वस्तुएँ मानव के अस्तित्व के लिए ही नहीं वरन् समस्त पृथ्वी के लिए अनिवार्य है। मानव समेत, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे झाड़ी, घास-पात, मिट्टी आदि सभी प्रकृति के अंग है। इसके बीच एक आंतरिक संबन्ध है। इसी संबंध की दृष्टि से जब हम प्रकृति का अवलोकन करते हैं तो प्रकृति को ही पारिस्थिति की (Ecology) कहते हैं। मानव का इस प्रकृति की अन्य वस्तुओं से निर्भरता का संबंध है। ये परस्पर एक-दूसरे पर अपने अस्तित्व के लिए निर्भर हैं। इसी पारिस्थितिकी (Ecology) में आहार-चक्र जलचक्र एवं ऋतु परिवर्तन आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए प्रकृति पर निर्भर करता है।

पर्यावरण की नैतिकता का संबंध भी पारिस्थितिकी की स्वाभाविक प्रक्रिया को कायम रखने से है। यहाँ दो प्रकार के नैतिकता संबंधी विचार हमारे समक्ष उत्पन्न होते हैं-

(i) व्यक्तिवादी नैतिकता यहाँ व्यक्ति को केंद्र में रखकर अन्य सभी वस्तुओं एवं परिस्थितियों का मूल्यांकन किया जाता है। यहाँ व्यक्ति का हित सर्वोपरि होता है, परंतु व्यक्ति अधिकतम सुख चाहता हूँ और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण व्यक्ति के सुख के लिए प्रकृति के उपयोग का अधिकतम उपयोग को वैध (Valid) मानता है।

(ii) प्रकृतिवादी दृष्टिकोण (Non Anthroposontiric)-इस दृष्टिकोण से व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं वरन् प्रकृति स्वयं महत्वपूर्ण है। यह मातृ सत्तात्मक (Feminist) विचारधारा है जो आधुनिक एवं वर्तमान परिवेश में महत्वपूर्ण है।

प्रश्न 16.
अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया का वर्णन करें।
उत्तर:
अविद्या, अज्ञान, अध्यास, अध्यारोप, अनिर्वचनीय, विर्क्स, भ्रान्ति, भ्रम, नाम-रूप, अव्यक्त, बीज शक्ति, मूल-प्रकृति आदि शब्दों का प्रयोग माया के अर्थ में ही हुआ है। माया तथा अविद्या प्रायः पर्यायवाची रहे हैं। वेदांत में दो प्रकार के विचार मिलते हैं। कुछ लोग माया और अविद्या में कोई भेद नहीं मानते। शंकराचार्य का कहना है कि “आवरण” माया है “विक्षेप” अविद्या। पहला छिपाता है और दूसरा कुछ अन्य ही तथ्य दिखलाता है। ब्रह्म छिप जाता है और वह जगत के रूप में परिलक्षित होता है। दूसरे लोगों का कहना है कि माया और अविद्या में भेद है। माया भावात्मक है।

उसका ब्रह्म से अलग होना सम्भव नहीं है। वह ब्रह्म में रहता है। पर अविद्या जीव के अज्ञान अर्थ में प्रयुक्त होता है। चरम तत्व का अज्ञान ही अविद्या है। यह निषेध का निर्देश करता है। पुनः माया ब्रह्म को जगत रूप दिखानेवाली व्यापक शक्ति है। यह शक्ति ईश्वर को साकार बनाती है। अविद्या जीव की शक्ति है। यह ईश्वर को प्रभावित नहीं करती। ब्रह्म माया-वश ईश्वर है। ब्रह्म अविद्या-वश जीव की अविद्या ज्ञानोदय होने पर नष्ट हो सकती है। पर माया का नाश संभव नहीं है। पुनः, माया सत्वगुण-प्रधान है। अविद्या तीन गुणों से बनी है। इन भेदों के बावजूद भी दोनों स्वभावतः एक ही है। ब्रह्म की शक्ति का सामान्य रूप माया है, विशेष रूप अविद्या

शंकर के अनुसार माया या अविद्या की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(क) माया ब्रह्म के विपरीत अचेतन है। इसमें किसी प्रकार की चित्-शक्ति नहीं है।

(ख) यह ब्रह्म की आंतरिक शक्ति है। यह ब्रह्म पर आश्रित पर निर्भर है। माया और ब्रह्म का सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध है।

(ग) माया अनादि है। यह भ्रम कि जगत सत्य है, यह कब आरम्भ हुआ, नहीं कहा जा सकता।

(घ) माया भाव-रूप है। भाव-रूप होने पर भी यह वास्तविक नहीं। इसे भाव-रूप इस कारण कहा जाता है कि इसके दो पक्ष हैं-निषेध-पक्ष से यह ब्रह्म का आवरण और भाव-पक्ष से उसे जगत रूप में दिखाता है।

(ङ) माया अनिर्वचनीय है। इसे न सत् कहते बनता है, न असत्। यह सत्य इस कारण नहीं है कि यह जगत् का आभास है। फिर इस सत्यं इसलिए नहीं है कि इसका अपना निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। अविद्या असत्य है क्योंकि ज्ञानोदय होने पर इसका नाश होता है। पर यह सत्य है क्योंकि जबतक भ्रम रहता है तबतक उनका अस्तित्व कायम रहता है। यह सत्य-असत्य दोनों है। इस कारण ही इसे अनिर्वचनीय कहा गया है।

(च) माया में व्यावहारिक सत्ता, सापेक्ष सत्ता है। व्यवहार में इससे काम चलता है। जगतः सत्य दीखता है। पर मूलतः ब्रह्म ही सत्य है। वही मात्र निरपेक्ष सत्य है।

(छ) इसकी प्रकृति अभ्यास (Super imposition), भ्रान्ति की है।

(ज) माया का सम्यक ज्ञान से ही निरोध होता है।

(झ) माया का आश्रय तथा विषय ब्रह्म है। यह बात सही है कि ब्रह्म माया से किसी प्रकार प्रभावित नहीं होता। जिस तरह जादूगर अपने जादू से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्म अपनी माया-शक्ति से कभी परिचालित नहीं होता। माया के कारण ही अनेकता का विश्व दीखता है और अखंडित ब्रह्म छिप जाता है। अभ्यास और विक्षेप माया के दो कर्म हैं।

प्रश्न 17.
चिकित्सा नीतिशास्त्र की समीक्षात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
चिकित्सा नीतिशास्त्र (Medical Ethics)-आज चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी फैल चुकी हैं। एक समय ऐसा था कि भारत देश में सुश्रुत चरक, धन्वन्तरि जैसे महान चिकित्साशास्त्री हुए थे। ये सब अपने विषय के विद्वान व्यक्ति थे। इन्होंने चिकित्साशास्त्र के क्षेत्र में जो उल्लेखनीय कार्य किया उसकी परम्परा आज तक भारत में आयुर्वेद के नाम से चली आ रही है। आयुर्वेद में अनेकों बातें इन्होंने सार रूप में कही हैं जिनका उपयोग आज तक मानव समाज कर रहा है। इन चिकित्साशास्त्रियों ने न केवल चिकित्साशास्त्र का ज्ञान दिया बल्कि उसमें चिकित्सा करने के नियम, वैद्य के गुण, चिकित्सा करने वाले को क्या करना चाहिए, क्या नहीं, चिकित्सक की वृत्ति किस प्रकार की होनी चाहिए ये सब बातें उन्होंने अपने ग्रंथ में बतायी।

एक बात मानी जा सकती है कि पुरातन समय के शिक्षाशास्त्रियों ने न केवल चिकित्सा क्षेत्र का ज्ञान बढ़ाया बल्कि चिकित्सा के सिद्धांत, चिकित्सा व चिकित्सा करने के नियम, चिकित्सा की आचार नीति भी बतायी। लगता है कि उन लोगों को पहले ही इस बात का ज्ञान हो गया था कि आने वाले समय में चिकित्सा जैसे पवित्रतम पेशे में भी भ्रष्टाचार व लालच की प्रवृत्ति पनप जायेगी। उन्होंने बहुत वर्ष पहले यह अनुमान लगा लिया कि कहीं न कहीं कुछ कमी इस वृत्ति में अवश्य मिलेगी। तभी उनके नीतिशास्त्रों में गलत उपायों से चिकित्सा वृत्ति को केवल धन वृत्ति बनाने वालों के बारे में यथोचित वर्णन मिलता है।

चिकित्सक को तो भगवान के रूप में माना जाता है परंतु आज यह हालत है कि चिकित्सक रूपी भगवान ही हैवान बने बैठे हैं। उनके मन में पैसा कमाने की इतनी वृत्तियाँ हैं कि वे साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों विधियों से धन कमाने में लगे हैं।

वास्तव में प्रत्येक चिकित्सक सामाजिक दायित्व से बँधा है। उस दायित्व को पूरा करना ही चिकित्सक का कर्तव्य है। अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए जिन उपायों को अपनाने की आवश्यकता है वह हैं-ईमानदारी, सहानुभूति, सत्यवादिता, दयालुता, प्रेम आदि। किसी रोगी के साथ ईमानदारी से व कार्य कुशलता से व्यवहार किया जाये तो उसके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और रोगी तो अपने-आप ही ठीक हो जाता है। चिकित्सक अपने रोगियों के साथ प्रेमपूर्वक बातें करें, उसका दर्द समझे, उसे अपनापन प्रदर्शित करें तो रोगी को अस्पताल-अस्पताल न लगकर घर लगने लगता है।

मगर आज के समय में चिकित्सक मोटी फीस, महँगे ऑपरेशन, खर्चीली दवाईयाँ पर रोगी का इतना खर्चा करा देते हैं कि रोगी अपने रोग से न मरकर अपने इलाज के खर्चे तले ही आकर मर जाता है।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि चिकित्साशास्त्र में व्याप्त कटुताएँ व भ्रष्टाचार ने इस पेशे को कलंकित कर दिया है। इतने पवित्र पेशे को बर्बाद करने वालों से यह पूछा ‘जाना चाहिए कि किसी गरीब की हाथ पाकर, उनका सर्वस्व लूटकर चिकित्सक को कौन-सा ।
पुण्य लाभ प्राप्त हो जायेगा ? आज इस विषय पर समग्र चिंतन की महती आवश्यक है। क्या इतने प्रतिष्ठित व्यवसाय बल्कि सेवा क्षेत्र में व्याप्त अनैतिकता को दूर किये जाने का कोई प्रयास होगा?

प्रश्न 18.
अष्टांगिक योग का वर्णन करें।
अंथवा, योग दर्शन के अष्टांग मार्ग की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
योग दर्शन सांख्य के समान ही विवेकज्ञान को मुक्ति का साधन मानता है। विवेक ज्ञान का अर्थ है आत्म दृष्टि के द्वारा इस सत्य का दर्शन कि आत्मा नित्यमुक्त शुद्ध चैतन्य स्वरूप और शरीर तथा मन से पृथक है। परन्तु यह दृष्टि तभी हो सकती है जब अन्त:करण सर्वथा निर्विकार, शुद्ध और शांत हो जाए। चित्त की शुद्धि और पवित्रता के लिए योग आठ प्रकार के साध न बतलाता है। इसलिए इसे “अष्टांग योग” या “अष्टांग साधन” कहते हैं। ये अष्टांग साधन इस प्रकार से हैं-

(i) यम-यम योग का प्रथम अंग है। इसका अर्थ होता है-मन, वचन और कर्म पर नियंत्रण। भारतीय दर्शन में वर्णित पाँच व्रतों या धर्मों का मन, वचन और कर्म से पालन करना ही यम है। ये पाँच व्रत इस प्रकार हैं-
(a) अहिंसा-किसी जीव को कोई कष्ट नहीं देना।
(b) सत्य-मिथ्या का पूर्ण त्याग।
(c) अस्तेय-दूसरों की वस्तु की चोरी नहीं करना।
(d) ब्रह्मचर्य-विषय वासना की ओर नहीं जाना।
(e) अपरिग्रह-लोभ वश अनावश्यक वस्तु ग्रहण नहीं करना।

(ii) नियम-नियम योग का दूसरा अंग है। इसके अन्तर्गत उन सभी बातों का उल्लेख किया गया है जिसको करना चाहिए जबकि नियम में उन बातों का उल्लेख किया गया है जिसे नहीं करना चाहिए। नियम के अन्तर्गत पाँच अनुशासन होते हैं-
(a) शौच,
(b) सन्तोष,
(c) तपस,
(d) स्वाध्याय,
(e) ईश्वर प्राणिधान।

(iii) आसन-आसन शरीर का साधन है। इसका अर्थ है शरीर को ऐसी स्थिति में रखना जिससे निश्चय होकर सुख के साथ देर तक रह सकते हैं। नाना प्रकार के आसन होते हैं। जैसे-
पद्मासन-पद्मासन, भद्रासन, सिद्धासन, वीरासन, शीर्षासन, गरूडासन, मयूरासन, शवासन इत्यादि। इनका ज्ञान किसी सिद्ध गुरु से ही प्राप्त करना चाहिए। आसन क्रिया के द्वारा व्यक्ति शरीर को विकारों एवं व्याधियों से बचा सकता है।

(iv) प्राणायाम-प्राणायाम का साधारण अर्थ जीवन वृद्धि है। किन्तु योग दर्शन में इसका अर्थ है-श्वास क्रिया पर नियंत्रण। सांस चलते रहने से मन चंचल एवं अशान्त बना रहता है। ऐसी स्थिति में योग का पालन नहीं हो सकता। श्वास क्रिया पर नियन्त्रण रखना योगी के लिए आवश्यक माना गया है। श्वास क्रिया को तीन प्रकार से नियंत्रित किया जा सकता है-

(क) सांस को भीतर खींचकर।
(ख) सांस को बाहर फेंककर रोकना और
(ग) एकाएक सांस को रोंक लेना और छोड़ना।

(v) प्रत्याहार-प्रत्याहार का अर्थ है खींचना। अपनी इन्द्रियों को बाह्य एवं आन्तरिक विषयों से खींचकर मन को वश में करना ही प्रत्याहार कहलाता है। दृढ़ संकल्प एवं कठिन अभ्यास के द्वारा इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखा जा सकता है।

(vi) धारणा- इन्द्रियों को बाह्य वस्तुओं से हटा लेने के बाद योग के आन्तरिक साधनों का प्रयोग किया जाता है-अभीष्ट विषय पर चित्त को केन्द्रित करना ही धारणा है। वह अभीष्ट वस्तु बाह्य भी हो सकती है और आन्तरिक या अपना शरीर भी जैसे सूर्य या देवता की प्रतिमा और शरीर में अपनी नाभि या भौहों का मध्य भाग। किसी विषय पर दृढ़तापूर्वक चित्त को एकाग्र करने की शक्ति ही योग की कुंजी है। इसी को सिद्ध करने वाला समाधि अवस्था तक पहुँच जाता है।

(vii) ध्यान-धारणा के पश्चात् मन की अगली सीढ़ी है ध्यान। ध्यान का अर्थ है ध्येय विषय का निरन्तर मनन। अर्थात् उसी विषय को लेकर विचार का अविच्छिन्न प्रवाह। इसके द्वारा विषय का सुस्पष्ट ज्ञान हो जाता है। पहले भिन्न-भिन्न अंशों या स्वरूपों का बोध होता है। तदन्तर अविराम ध्यान के द्वारा सम्पूर्ण चित्र आ जाता है और उस वस्तु के असली रूप का दर्शन हो जाता है। इस तरह योगी के मन में ध्यान के द्वारा ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रकट हो जाता है।

(viii) समाधि- यह योगासन की अन्तिम सीढ़ी है। ध्यान की अवस्था में ज्ञाता को आत्मचेतना रहती है। उसे यह ज्ञान रहता है कि वह अमुक विषय पर अपना चित्र केन्द्रित रख रहा है। किन्तु समाधि की अवस्था में साधक आत्म चेतना भी खो देता है। वह अभीष्ट विषय में इतना लीन हो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व की चेतना नहीं रहती। वह विषय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

समाधि की दो अवस्थाएँ हैं-
(a) सम्प्रज्ञात समाधि और
(b) असम्प्रज्ञात समाधि। इनमें से प्रथम आरंभिक अवस्था है और दूसरी अन्तिम अवस्था।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2 in Hindi

BSEB Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2 in Hindi

प्रश्न 1.
सामूहिक माँग की अवधारणा को उचित चित्र द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामूहिक माँग (Aggregate Demand)- एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की सम्पूर्ण माँग को ही सामूहिक माँग कहा जाता है और यह अर्थव्यवस्था के कुल व्यय के रूप में व्यक्त की जाती है। इस प्रकार, एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं पर किये गये कुल व्यय के संदर्भ में सामूहिक माँग की माप की जाती है।

दूसरे शब्दों में, सामूहिक माँग, उस कुल व्यय को बताती है जिसे एक देश के निवासी, आय के दिए हुए स्तर पर, वस्तुओं तथा सेवाओं को खरीदने के लिए खर्च करने को तैयार हैं।
सामूहिक मांग = उपभोग व्यय + निवेश व्यय
AD = C + I

उपभोग अनुसूची एवं निवेश अनुसूची का योग करके सामूहिक माँग अनुसूची का निर्माण किया जाता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 1
उपर्युक्त तालिका बताती है कि

‘शून्य आय स्तर पर भी उपभोग माँग शून्य न होकर एक न्यूनतम स्तर पर बनी रहती है’ क्योंकि व्यक्ति को जीवित रहने के लिए अनिवार्य वस्तुओं (भोजन आदि) के लिए उपभोग करना आवश्यक होता है-यह व्यय व्यक्ति या तो अपनी पूर्व बचतों से करता है या फिर दूसरों से उधार लेता है।

उपर्युक्त तालिका के आधार पर प्राप्त होने वाला सामूहिक माँग वक्र चित्र में प्रदर्शित किया गया है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 2

प्रश्न 2.
केन्द्रीय बैंक के मुख्य कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
रिजर्व बैंक के कार्य (Functions of R.B.I.)- रिजर्व बैंक के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 3

(i) नोट निर्गमन का एकाधिकार- भारत में एक रुपये के नोट और सिक्कों के अलावा सभी करेन्सी नोटों को छापने का एकाधिकार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को है। नोटों की डिजाइन केन्द्रीय सरकार द्वारा तय तथा स्वीकृत की जाती है। 115 करोड़ रुपये का सोना और 85 करोड़ रुपये की विदेशी प्रतिभूतियाँ रखकर रिजर्व बैंक आवश्यकतानुसार नोटों का निर्गमन कर सकता है।

(ii) सरकार का बैंकर- रिजर्व बैंक जम्मू तथा कश्मीर को छोड़कर शेष सभी राज्यों और केन्द्रीय सरकार के बैंकर के रूप में कार्य करता है। यह सार्वजनिक ऋणों का प्रबंध करता है तथा नये ऋणों को जारी करता है। सरकार के ट्रेजरी बिलों की बिक्री करता है। सरकार को आर्थिक मामलों में सलाह देने का कार्य करता है।

(iii) बैंकों का बैंक- रिजर्व बैंक को व्यापार, उद्योग, वाणिज्य और कृषि की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त बैंकिंग प्रणाली का विकास करना पड़ता है। रिजर्व बैंक को वाणिज्य बैंकों और सरकारी बैंकों के निरीक्षण की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संकट के समय रिजर्व बैंक व्यापारिक बैंकों को सहायता करता है।

(iv) विदेशी विनिमय कोषों का रक्षक- रिजर्व बैंक का एक महत्त्वपूर्ण कार्य रुपये के बाहरी मूल्य को कायम रखना है। देश में आर्थिक स्थिरता को बनाये रखने के लिए उचित मौद्रिक नीति को अपनाता है।

(v) साख का नियंत्रण- रिजर्व बैंक साख- नियंत्रण के परिमाणात्मक और चयनात्मक उपाय अपनाकर देश में साख की पूर्ति को नियंत्रित करता है, जिससे वाणिज्य, कृषि, उद्योग और व्यापार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

(vi) विकासात्मक कार्य- रिजर्व बैंक ने भारत में बैंकिंग व्यवस्था का विकास करने, बचत और निवेश को प्रोत्साहित करने और औद्योगिक विकास के लिए विभिन्न संस्थाओं की स्थापना करने का कार्य किया है। पूँजी बाजार को विकसित करने तथा सरकारी आन्दोलन को मजबूत बनाने का कार्य रिजर्व बैंक द्वारा ही किया गया है।

प्रश्न 3.
व्यावसायिक बैंक की परिभाषा दीजिए और इसके प्रमुख कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
व्यापारिक बैंक वे बैंक है, जो लाभ कमाने के उद्देश्य से बैंकिंग का कार्य करते हैं। कलर्वस्टन के अनुसार व्यापारिक बैंक वे संस्थाएँ हैं जो व्यापार को अल्पकाल के लिए ऋण देती हैं तथा इस प्रक्रिया में मुद्रा का निर्माण करती हैं।

व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य निम्नांकित हैं जिन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-

  • मुख्य कार्य
  • गौण कार्य
  • विकासात्मक कार्य।

मुख्य कार्य- बैंक के तीन प्रमुख कार्य हैं-

  • जमा स्वीकार करना- एक व्यापारिक बैंक जनता के धन को जमा करता है।
  • ऋण देना- बैंक के अपने पास जो रुपया जमा के रूप में आता है उसमें से एक निश्चित राशि निगद कोष में रखकर बाकी रुपया बैंक द्वारा उधार दे दिया जाता है।
  • विनिमय पत्रों की कटौती करना- इसके अंतर्गत बैंक अपने ग्राहकों को उनके विनिमय पत्रों के आधार पर रुपया उधार देता है। भुगतान के बांकी समय की ब्याज की कटौती करके बैंक तत्काल भुगतान कर देता है।

गौण कार्य- बैंक अपने ग्राहकों के लिए विभिन्न तरीकों के एजेंट का कार्य करता है।

  • चेक, ड्राफ्ट आदि का एकत्रीकरण और भुगतान।
  • प्रतिभूतियों की खरीद तथा बिक्री।
  • बैंक अपने ग्राहकों के आदेश पर उनकी सम्पत्ति के ट्रस्टी तथा प्रबंधक का कार्य भी करते हैं। साथ ही बैंक लॉकर की सुविधा यात्री चेक तथा साख प्रमाण पत्र, मर्चेन्ट बैंकिंग और वस्तुओं के वाहन में सहायक प्रदान करता है।

विकासात्मक कार्य- आर्थिक विकास तथा सामाजिक कल्याण के लिए निम्नांकित कार्य करते हैं-
लोगों की निष्क्रीय बचतों को इकट्ठा करके उन्हें उत्पादकीय कार्यों में निवेश करके पूँजी निर्माण को बढ़ाने में सहायक होते हैं। बैंक उद्यमियों को साख प्रदान करके जब प्रवर्तक को प्रोत्साहित करता है, साथ ही केन्द्रीय बैंक की मौद्रिक नीति को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करने में सहायक करते हैं।

प्रश्न 4.
भुगतान शेष में असंतुलन के कारण कौन-कौन है ?
उत्तर:
भुगतान शेष में असंतुलन उत्पन्न होने के कारण निम्नलिखित हैं-

  • प्राकृतिक प्रकोप- प्राकृतिक प्रकोप (अकाल, बाढ़, भूकम्प आदि) के कारण भुगतान शेष में असंतुलन उत्पन्न होता है, क्योंकि इन दशाओं में अर्थव्यवस्था आयतों पर आश्रित हो जाती है।
  • विकास व्यय- विकास व्यय अधिक होने से भुगतान संतुलन में घाटा उत्पन्न हो जाता है।
  • व्यापार चक्र- व्यावसायिक क्रियाओं में होने वाले उतार-चढ़ाव का प्रतिकूल प्रभाव निर्यात पर पड़ता है। फलतः भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • बढ़ती कीमतें- कीमतों में वृद्धि के कारण भी भुगतान संतुलन में घाटा उत्पन्न होता है।
  • आयात प्रतिस्थापन्न- इसके चलते आयातों में कमी होती है। अतः भुगतान संतुलन में घाटा कम हो जाता है।
  • अधिक सुरक्षा व्यय- देश की सुरक्षा का व्यय अधिक होने पर भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • राजनीतिक अस्थिरता- देश में जब राजनीतिक अस्थिरता रहती है तो इसका भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध- देश का अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध कैसा है इस पर भुगतान संतुलन निर्भर करता है। यदि अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तनावपूर्ण होता है या युद्धमय होता है तो भुगतान संतुलन असंतुलित रहता है।
  • दूतावासों का विस्तार- दूतावासों के विस्तार और उसके रख-रखाव पर जब अधिक खर्च होता है तो भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • रुचि, फैशन तथा स्वभाव में परिवर्तन- जब व्यक्तियों की रुचि फैशन तथा स्वभाव परिवर्तित होता है तो यह भुगतान संतुलन को असंतुलित करता है।

प्रश्न 5.
व्यावसायिक बैंक से आप क्या समझते हैं ? इसके साख निर्माण की सीमाएँ क्या हैं ?
उत्तर:
व्यावसायिक बैंक से अभिप्राय उस बैंक से है जो लाभ कमाने के उद्देश्य से बैंकिंग कार्य करता है, व्यापारिक जमाएँ स्वीकार करता है तथा जनता को उधार देकर साख का सृजन करता है।

सीमाएँ- व्यावसायिक बैंक द्वारा किये जाने वाले साख निर्माण की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

  • देश में मुद्रा की मात्रा- देश में नकद मुद्रा की मात्रा जितनी अधिक होगी, बैंकों के पास नकद जमाएँ उतनी ही अधिक होगी और बैंक उतनी ही अधिक मात्रा में साख निर्माण कर सकेगा।
  • मुद्रा की तरलता पसंदगी- व्यक्ति जब अपने पास अधिक नकदी रखता है तो बैंक में जमाएँ घटती हैं और साख निर्माण का आकार घट जाता है।
  • बैंकिंग आदतें- व्यक्ति में बैंकिंग आदत जितनी अधिक होती है, बैंकों की साख निर्माण शक्ति उतनी ही अधिक होती है। इसके विपरीत स्थिति में साख का निर्माण कम होगा।
  • जमाओं पर नकद कोष अनुपात- यदि नकद कोष अनुपात अधिक है तो कम साख का निर्माण होगा और यदि नकद कोष अनुपात कम है तो अधिक साख का निर्माण होगा।
  • ब्याज दर- ब्याज दर ऊँची रहने पर साख की मात्रा कम हो जाती है और कम ब्याज दर साख की माँग को प्रोत्साहित करती है।
  • रक्षित कोष- यदि रक्षित कोष अधिक होता है तो बैंक के नकद साधन कम हो जाते हैं और वह कम साख निर्माण करता है। इसके विपरीत रक्षित कोष कम होने पर उसकी साख निर्माण की शक्ति बढ़ जाती है।
  • केन्द्रीय बैंक की साख सम्बन्धी नीति- केन्द्रीय बैंक की साख नीति पर भी साख निर्माण की मात्रा निर्भर करती है। कारण यह है कि केन्द्रीय बैंक के पास देश में मुद्रा की मात्रा को प्रभावित करने की शक्ति होती है और वह बैंकों की साख के संकुचन और विस्तार की शक्ति को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित कर सकता है।

प्रश्न 6.
अल्पाधिकार किसे कहते हैं ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
अल्पाधिकार (Oligopoly)- अल्पाधिकार अपूर्ण प्रतियोगिता का एक रूप है। अल्पाधिकार बाजार की ऐसी अवस्था को. कहा जाता है जिसमें वस्तु के बहुत कम विक्रेता होते हैं और प्रत्येक विक्रेता पूर्ति एवं मूल्य पर समुचित प्रभाव रखता है। प्रो० मेयर्स के अनुसार “अल्पाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें विक्रेताओं की संख्या इतनी कम होती है कि प्रत्येक विक्रेता की पूर्ति का बाजार कीमत पर समुचित प्रभाव पड़ता है और प्रत्येक विक्रेता इस बात से परिचित होता है।”

अल्पाधिकार की विशेषताएँ (Characteristics of Oligopoly)- अल्पाधिकार की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. विक्रेताओं की कम संख्या (A few sellers firms)- अल्पाधिकार में उत्पादकों एवं विक्रेताओं की संख्या सीमित होती है। प्रत्येक उत्पादक बाजार की कुल पूर्ति में एक महत्वपूर्ण भाग रखता है। इस कारण प्रत्येक उत्पादक उद्योग की मूल्य नीति को प्रभावित करने की स्थिति में होता है।

2. विक्रेताओं की परस्पर निर्भरता (Mutual dependence)- इसमें सभी विक्रेताओं में आपस में निर्भरता पाई जाती है। एक विक्रेता की उत्पाद एवं विक्रय नीति दूसरे विक्रेताओं की उत्पाद एवं मूल्य नीति से प्रभावित होती है।

3. वस्तु की प्रकृति (Nature of Product)- अल्पाधिकार में विभिन्न उत्पादकों के उत्पादों में समरूपता भी हो सकती है और विभेदीकरण भी। यदि उनका उत्पाद एकरूप है तो इसे विशुद्ध अल्पाधिकार कहा जाता है और यदि इनका उत्पाद अलग-अलग है तो इसे विभेदित अल्पाधिकार कहा जाता है।

4. फर्मों के प्रवेश एवं बर्हिगमन में कठिनाई (Difficult entry and exit to firm)- अल्पाधिकार की स्थिति में फर्मे न तो आसानी से बाजार में प्रवेश कर पाती हैं और न पुरानी फर्मे आसानी से बाजार छोड़ पाती हैं।

5. अनम्य कीमत (Rigid Price)- कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि अल्पाधिकार बाजार संरचना में वस्तुओं की अनन्य कीमत होती है अर्थात् माँग में परिवर्तन के फलस्वरूप बाजार कीमत में निर्बाध संचालन नहीं होता है। इसका कारण यह है कि किसी भी फर्म द्वारा प्रारंभ की गई कीमत में परितर्वन के प्रति एकाधिकारी फर्म प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यदि एक फर्म यह अनुभव करती है कि कीमत में वृद्धि से अधिक लाभ का सृजन होगा और इसलिये वह अपने निर्गत (उत्पाद) को बेचने के लिये कीमत में वृद्धि करेगी (अन्य फर्मे इसका अनुकरण नहीं कर सकती हैं)। अतः कीमत वृद्धि अतः कीमत वृद्धि से बिक्री की मात्रा में भारी गिरावट आएगी जिससे फर्म की संप्राप्ति और लाभ में गिरावट आएगी। अतः किसी फर्म के लिये कीमत में वृद्धि करना विवेक संगत नहीं होगा। इसी प्रकार कोई भी फर्म अपने उत्पाद की कीमत में कमी नहीं लाएगी।

6. आपसी अनुबंध (Mutual Agreement)- कभी-कभी अल्पाधिकार के अंतर्गत कार्य करने वाली विभिन्न फर्मे आपस में एक अनुबंध कर लेती हैं। यह अनुबंध वस्तु के मूल्य तथा उत्पादन की मात्रा के सम्बन्ध में किया जाता है। इसका उद्देश्य सभी फर्मों के हितों की रक्षा करना तथा उनके लाभों में वृद्धि करना होता है। ऐसी दशा में निर्धारित किया गया मूल्य एकाधिकारी फर्म के समान ही होगा।

प्रश्न 7.
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम इस तथ्य की विवेचना करता है कि जैसे-जैसे उपभोक्ता किसी वस्तु की अगली इकाई का उपभोग करता है. अन्य बातें समान रहने पर उसे प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। एक बिन्दु पर पहुँचने पर यह शून्य हो जाती है। यदि उपभोक्ता इसके पश्चात भी वस्तु का सेवन जारी रखता है तो यह ऋणात्मक हो जाती है। निम्न उदाहरण से भी इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 4

इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा एक से बढ़कर 6 तक पहुँच जाती है। वैसे-वैसे उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता भी 10 से घटते-घटते शून्य और ऋणात्मक यानी -4 तक हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि वस्तु की मात्रा में वृद्धि होते रहने से उससे मिलने वाली सीमान्त उपयोगिता घटती जाती है।

आलोचकों के इस नियम के अपवादों का भी उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं-

  1. मादक एवं नशीली वस्तुओं के सेवन में यह नियम लागू नहीं होता है, क्योंकि इसका लोग अधिकाधिक मात्रा में सेवन करने लगते हैं।
  2. अर्थलिप्या एवं प्रदर्शन प्रियता की इच्छा भी बढ़ती जाती है जहाँ यह नियम लागू नहीं होता है।
  3. अच्छी कविता या संगीत के साथ यह नियम लागू नहीं होता है, क्योंकि इनके सुनने की इच्छा बढ़ती जाती है।
  4. पूरक वस्तुएँ भी इसके अपवाद हैं, क्योंकि एक वस्तु की उपयोगिता पूरक वस्तुओं के चलते बढ़ जाती है।
  5. विचित्र एवं दुर्लभ वस्तुओं के संग्रह के साथ भी यह लागू नहीं होता है, क्योंकि लोग अधिकाधिक मात्रा में इनका संग्रह करने लग जाते हैं।

प्रश्न 8.
पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण कैसे होता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु का मूल्य निर्धारण माँग द्वारा होता है या पूर्ति द्वारा, इस प्रश्न को लेकर प्राचीन अर्थशास्त्रियों में विवाद था। इस विवाद का समाधान प्रो० मार्शल ने किया। प्रो० मार्शल के अनुसार, “वस्तु का मूल्य माँग एवं पूर्ति दोनों के द्वारा निर्धारित होता है।” अपने विचार के समर्थन में मार्शल ने कैंची का उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, जिस प्रकार कैंची के दोनों फलक कागज को काटने के लिए आवश्यक हैं उसी प्रकार वस्तु की कीमत निर्धारित करने के लिए माँग पक्ष एवं पूर्ति पक्ष दोनों आवश्यक है। इस प्रकार संतुलित की मत वहाँ निर्धारित होती है जहाँ माँग = पूर्ति।

निम्न उदाहरण से भी यह ज्ञात हो जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 5

उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जब मूल्य 15 रु० प्रति इकाई है तो माँग एवं पूर्ति दोनों 30 के बराबर है। अत: यहीं पर मूल्य का निर्धारण होगा और मूल्य 15 रु० प्रति इकाई होगा। निम्न रेखाचित्र से भी यह ज्ञात हो जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 6

इस रेखाचित्र में P बिन्दु पर माँग एवं पूर्ति की रेखा एक-दूसरे को काटती है। अतः यही बिन्दु साम्य बिन्दु तथा OM कीमत साम्य कीमत कहा जायेगा। साथ ही, इस OM कीमत पर OR मात्रा वस्तुओं का उत्पादन। इस तरह पूर्ण प्रतियोगिता माँग एवं पूर्ति की मात्रा में माँग एवं पूर्ति द्वारा मूल्य निर्धारण होता है।

प्रश्न 9.
सरकारी बजट किसे कहते हैं ? इसकी क्या-क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर:
आगामी आर्थिक वर्ष के लिए सरकार के सभी प्रत्याशित राजस्व और व्यय का अनुमानित वार्षिक विवरण बजट कहलाता है। सरकार कई प्रकार की नीतियाँ बनाती है। इन नीतियों को लागू करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। सरकार आय और व्यय के बारे में पहले से ही अनुमान लगाती है। अतः बजट आय और व्यय का अनुमान है। सरकारी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

बजट की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  • एक नियोजित अर्थव्यवस्था में बजट राष्ट्रीय नियोजन के वृहत उद्देश्यों पर आधारित होता है।
  • नियोजन के आरंभिक काल में देश के आर्थिक विकास को ध्यान में रखकर प्रायः घाटे का बजट बनाया जाता है तथा बाद में बजट को धीरे-धीरे संतुलित करने का प्रयास किया जाता है।
  • नियोजित अर्थव्यवस्था में बजट का निर्माण इस तरह किया जाता है कि बजट का प्रभाव अधिकाधिक न्यायपूर्ण हो। इसके लिए प्रगतिशील की नीति अपनायी जाती है।
  • देश के आर्थिक क्रियाओं के निष्पादन में बजट की भूमिका सकारात्मक होती है।

प्रश्न 10.
चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में चक्रीय प्रवाह को समझाइए।
उत्तर:
चार क्षेत्रीय मॉडल खुली अर्थव्यवस्था को प्रदर्शित करता है। चार क्षेत्रीय चक्रीय प्रवाह मॉडल में विदेशी क्षेत्र या शेष विश्व क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है। वर्तमान समय में अर्थव्यवस्था का स्वरूप खुली अर्थव्यवस्था का है जिसमें वस्तुओं का आय एवं निर्याता होता है।

y = C + I + G + (X – M)
यहाँ y = आय या उत्पादन
C= उपभोग व्यय
I = निवेश व्यय
G = सरकारी व्यय
(X – M) = शुद्ध निर्यात (यहाँ X = निर्यात तथा M = आयात)

खुली अर्थव्यवस्था में आय प्रवाह के पाँच स्तम्भ होते हैं-
1. परिवार क्षेत्र- यह क्षेत्र उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। यह क्षेत्र अपनी सेवा के बदले मजदूरी लगान, ब्याज, लाभ के रूप में आय प्राप्त करते हैं। वे सरकार से कुछ निश्चित हस्तारण भी प्राप्त करते हैं। यह क्षेत्र उत्पादक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं की खरीद पर अपनी आय खर्च करता है और सरकार को कर भुगतान भी करता है। यह क्षेत्र अपनी आय का कुछ भाग बचा लेता है जो पूँजी बाजार में चला जाता है।

2. उत्पादक क्षेत्र- उत्पादक क्षेत्रक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है जिसका उपयोग परिवार तथा सरकार द्वारा किया जाता है। फर्मे वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री से आय प्राप्त करती है। यह क्षेत्र निर्यात आय की प्राप्त करती है।

फर्मे साधन सेवाएँ प्राप्त करती हैं तथा उन्हें भुगतान करती हैं। फर्मों को अपनी वस्तुओं की बिक्री एवं उत्पादन पर सरकार को कर भुगतान करना पड़ता है। कुछ फमें सरकार से अनुदान भी प्राप्त करती हैं। फर्म अपनी आय का एक भाग बचाती है जो पूँजी बाजार में जाता है।

3. सरकारी क्षेत्र- सरकार परिवार एवं उत्पादक दोनों क्षेत्रों से कर वसुलता है। सरकार परिवारों का हस्तांतरण भुगतान तथा फर्मों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। अन्य क्षेत्रक की भाँति सरकारी क्षेत्रक भी बचत करता है जो कि पूँजी बाजार में जाता है।

4. शेष विश्व- शेष विश्व निर्यात के लिए भुगतान प्राप्त करता है। यह क्षेत्र सरकारी खातों पर भुगतान प्राप्त करता है।

5. पूँजी बाजार- पूँजी बाजार तीनों क्षेत्रकों परिवार, फर्मों तथा सरकार की बचतें एकत्रित करता है। यह क्षेत्र परिवार, फर्म तथा सरकार को पूँजी उधार देकर निवेश करता है। पूँजी बाजार में अन्तप्रवाह तथा बाह्य प्रवाह बराबर होते हैं।

प्रश्न 11.
नियोजित अर्थव्यवस्था एवं बाजार अर्थव्यवस्था में भेद करें।
उत्तर:
नियोजित तथा बाजार अर्थव्यवस्था में निम्न अंतर है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 7

प्रश्न 12.
लोचशील विनिमय दर प्रणाली के गुण तथा दोषों की व्याख्या करें।
उत्तर:
लोचशील विनिमय दर प्रणाली के निम्नलिखित गुण हैं-

  1. सरल प्रणाली- यह एक सरल प्रणाली है जिसमें विनिमय दर वहाँ निर्धारित होती है जहाँ माँग एवं पूर्ति में साम्य स्थापित हो जाता है। इसमें बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है।
  2. सतत समायोजन- इसमें सतत समायोजन की गुंजाइश होती है। इस प्रकार दीर्घकालीन असंतुलन के विपरीत प्रभावों से बचा जा सकता है।
  3. भुगतान संतुलन में सुधार- लोचपूर्ण विनिमय दर होने पर भुगतान शेष में संतुलन आसानी से पैदा किया जा सकता है।
  4. संसाधनों का कुशलतम उपयोग- लोचपूर्ण विनिमय दर साधनों के कुशलतम उपयोग के अवसर प्रदान करती है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में कार्य कुशलता के स्तर को बढ़ाती है।

लोचपूर्ण विनिमय दर प्रणाली के कुछ दोष भी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  1. निम्न लोच के दुष्परिणाम-यदि विनिमय दरों की लोच काफी कम है तो विदेशी विनिमय बाजार अस्थिर होगा जिसके फलस्वरूप दुर्लभ मुद्रा के केवल मूल्य ह्रास से ही भुगतान संतुलन की स्थिति बिगड़ जाएगी।
  2. अनिश्चितता-लोचपूर्ण विनिमय दर अनिश्चितता उत्पन्न करने वाली होती है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और पूँजी की गतिशीलता के लिए घातक है।
  3. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अस्थिरता अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में अस्थिरता अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अस्थिरता का कारण बनती है। आयात तथा निर्यात संबंधी दीर्घकालीन नीतियाँ बनाना . कठिन हो जाता है।

प्रश्न 13.
अवसर लागत की अवधारणा की व्याख्या करें।
उत्तर:
अवसर लागत (Opportunity cost)- अवसर लागत की अवधारणा लागत की आधुनिक अवधारणा है। किसी साधन की अवसर लागत से अभिप्राय दूसरे सर्वश्रेष्ठ प्रयोग में उसके मूल्य से है। दूसरे शब्दों में किसी साधन की अवसर लागत वह लागत है जिसका उस साधन को किसी एक कार्य में कार्यरत होने के फलस्वरूप दूसरे वैकल्पिक कार्य को नहीं कर पाने के कारण त्याग करना पड़ता है। प्रो० लैफ्टविच के अनुसार किसी वस्तु की अवसर लागत उन परित्याक्त (छोड़े गये) वैकल्पिक पदार्थों का मूल्य होती है, जिन्हें इस वस्तु के उत्पादन में लगाये गये साधनों द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है। अवसर लागत की अवधारणा के संबंध में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं-

  • अवसर लागत किसी वस्तु को उत्पादन लागत के सर्वोत्तम विकल्प के लगने की लागत है।
  • अवसर लागत का आकलन साधनों की मात्रा के आधार पर न करके उसके मौद्रिक मूल्य के आधार पर किया जाना चाहिए। अवसर लागत को साधन की हस्तान्तरण आय भी कहा जाता है।

अवसर लागत की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। माना कि भूमि के एक टुकड़े पर गेहूँ, चने, आलू व मटर की खेती की जा सकती है। एक किसान उस टुकड़े पर साधनों की एक निश्चित मात्रा का प्रयोग करते हुए 400 रुपए के मूल्य के गेहूँ का उत्पादन करता है। इस प्रकार वह चने, आलू तथा मटर के उत्पादन का त्याग करता है। जिनका मूल्य क्रमशः 3200, 2000 तथा 1500 रुपए है। इन तीनों विकल्पों में चने का उत्पादन सर्वोत्तम विकल्प है। अतः गेहूँ उत्पादन की अवसर लागत 3200 रुपए होगी।

प्रश्न 14.
सीमान्त उपयोगिता की परिभाषा दीजिए तथा सीमान्त उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता के संबंध को बतलाइए।
उत्तर:
किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के उपभोग से जो अतिरिक्त उपयोगिता मिलती है, उसे सीमान्त उपयोगिता कहते हैं।
सीमान्त उपयोगिताn = कुल उपयोगताn – कुल उपयोगिताn-1
MUn = TUn – TUn-1

प्रो० बोल्डिंग के अनुसार, किसी वस्तु को दी हुई मात्रा को सीमांत उपयोगिता कुल उपयोगिता होनेवाली वह वृद्धि है, जो उसके उपभोग में एक इकाई के बढ़ने के परिणामस्वरूप होती हैं। कुल उपयोगिता (TLY) उपभोग की विभिन्न इकाइयों से प्राप्त सीमांत उपयोगिता का योग है। सीमांत उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता से संबंध :

MU एवं TU में संबंध को निम्न तालिका एवं चित्र द्वारा निरुपित किया जा सकता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 8
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 9

उपरोक्त तालिका एवं चित्र से MU एवं TU के निम्न संबंध को बतलाया जा सकता है।

  • प्रारंभ में कुल उपयोगिता एवं सीमांत उपयोगिता दोनों घनात्मक होती है।
  • जब सीमांत उपयागिता घनात्मक है चाहे वह घट रही हो, तब तक कुल उपयोगिता बढ़ती है। तालिका में इकाई 1 से 4 चित्र में A से E बिन्दु की स्थिति ।
  • जब सीमांत उपयोगिता शन्यू हो जाती है, तब कुल उपयोगिता अधिकतम होती है। तालिका में पाँचवीं इकई पर MUO एवं TU अधिकतम 100 है। चित्र में E तथा B बिन्दुओं की स्थिति। बिन्दु E उच्चतम तथा बिन्दु E पर उपभोक्ता शून्य उपयोगिता के कारण पूर्ण तृप्त है।
  • जब सीमांत उपयोगिता ऋणात्मक होती है (इकाई 6 एवं 7) तब कुल उपयोगिता घटने लगती है। चित्र में TU में E से F तक की स्थिति एवं MU में B बिन्दु से G बिन्दु की स्थिति।

प्रश्न 15.
माँग के निर्धारक तत्त्वों की विवेचना करें।
उत्तर:
बाजार माँग किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर बाजार के सभी उपभोक्ताओं द्वारा माँगी गई मात्राओं को प्रकट करता है। व्यक्तिगत माँग वक्रों के समस्त जोड़ के द्वारा बाजार माँग वक्र खींचा जा सकता है।

बाजार माँग को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित कारक हैं-
(i) वस्तु की कीमत (Price of a commodity)- सामान्यतः किसी वस्तु की माँग की मात्रा उस वस्तु की कीमत पर आश्रित होती है। अन्य बातें पूर्ववत् रहने पर कीमत कम होने पर वस्तु की मांग बढ़ती है और कीमत के बढ़ने पर माँग घटती है। किसी वस्तु की कीमत और उसकी माँग में विपरीत सम्बन्ध होता है।

(ii) संबंधित वस्तुओं की कीमतें (Prices of related goods)- संबंधित वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं. पूरक वस्तुएँ तथा स्थानापन्न वस्तुएँ- पूरक वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो किसी आवश्यकता को संयुक्त रूप से पूरा करती हैं और स्थानापन्न वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग की जा सकती हैं। पूरक वस्तुओं में यदि एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो उसकी पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि स्थानापन्न वस्तुओं में किसी एक की कीमत कम हो जाती है तो दूसरी वस्तु की मांग भी कम हो जाती है।

(iii) उपभोक्ता की आय (Income of Consumer)- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर सामान्यतया उसके द्वारा वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है।

आय में वृद्धि के साथ अनिवार्य वस्तुओं की माँग एक सीमा तक बढ़ती है तथा उसके बाद स्थिर हो जाती है। कुछ परिस्थितियों में आय में वृद्धि का वस्तु की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसा खाने-पीने की सस्ती वस्तुओं में होता है। जैसे नमक आदि।

विलासितापूर्ण वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ लगातार बढ़ती रहती है। घटिया (निम्नस्तरीय) वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ कम हो जाती है लेकिन सामान्य वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ बढ़ती है और आय में कमी से कम हो जाती है।

(iv) उपभोक्ता की रुचि तथा फैशन (Interest of Consumer and Fashion)- परिवार या उपभोक्ता की रुचि भी किसी वस्तु की माँग को कम या अधिक कर सकती है। किसी वस्तु का फैशन बढ़ने पर उसकी माँग भी बढ़ती है।

(v) विज्ञापन तथा प्रदर्शनकारी प्रभाव (Advertisement and Demonstration Effect)- विज्ञापन भी उपभोक्ता को किसी विशेष वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार या स्कूटर की माँग बढ़ सकती है।

(vi) जनसंख्या की मात्रा और बनावट (Quantity and Composition of Population) अधिक जनसंख्या का अर्थ है परिवारों की अधिक संख्या और वस्तुओं की अधिक माँग। इसी प्रकार जनसंख्या की बनावट से भी विभिन्न वस्तुओं की माँग निर्धारित होती है।

(vii) आय का वितरण (Distribution of Income)- जिन अर्थव्यवस्थाओं में आय का वितरण समान है वहाँ वस्तुओं की माँग अधिक होगी तथा इसके विपरीत जिन अर्थव्यवस्थाओं में आय का वितरण असमान है, वहाँ वस्तुओं की माँग कम होगी।

(viii) जलवायु तथा रीति-रिवाज (Climate and Customs)- मौसम, त्योहार तथा विभिन्न परम्पराएँ भी वस्तु की माँग को प्रभावित करती हैं। जैसे-गर्मी के मौसम में कूलर, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक आदि की माँग बढ़ जाती है।

प्रश्न 16.
एकाधिकार क्या है ? इसकी प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
एकाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु का एक ही उत्पादक अथवा एक ही विक्रेता होता है तथा उसकी वस्तु का कोई निकट स्थानापन्न नहीं होता है।

एकाधिकार बाजार की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  • एक विक्रेता तथा अधिक क्रेता।
  • एकाधिकारी फर्म और उद्योग में अन्तर नहीं होता।
  • एकाधिकारी बाजार में नई फर्मों के प्रवेश पर बाधाएँ होती हैं।
  • वस्तु की कोई निकट प्रतिस्थापन्न वस्तु नहीं होती।
  • कीमत नियंत्रण एकाधिकारी द्वारा किया जाता है।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 1

BSEB Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 1 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषताओं की विवेचना करें।
अथवा, भारतीय दर्शन की मूलभूत विशेषताएँ क्या हैं ? व्याख्या करें।
उत्तर:
भारतीय दर्शन वैविध्यपूर्ण है। इसके विभिन्न सम्प्रदाय विभिन्न विचारधाराओं के समर्थक हैं। इसमें कुछ आस्तिक हैं तो कुछ नास्तिक। फिर भी कुछ ऐसी सामान्य बातें अवश्य हैं जिन पर सभी भारतीय सम्प्रदाय एकमत हैं। इन्हीं सामान्य बातों को भारतीय दर्शन की प्रमुख विशेषताओं की संज्ञा दी जाती है। ये प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखत हैं-

(क) जीवन के प्रति निश्चित दृष्टिकोण- पाश्चात्य विचारकों के लिए दर्शन एक मानसिक व्यायाम (mental exercise) मात्र है। वहाँ दर्शन की उत्पत्ति मानव जिज्ञासा की शांति के लिए होती है। किन्तु भारतीय दर्शन को केवल मानसिक कसरत नहीं कहा जा सकता। इसका व्यावहारिक पक्ष इसके सैद्धांतिक पक्ष से अधिक सबल है। यह जीवन के अत्यन्त नजदीक है। बुद्धि को सन्तुष्ट करना ही इसका लक्ष्य नहीं है। बल्कि ज्ञान के प्रकाश में जीवन को सुव्यवस्थित बनाना इसका मुख्य उद्देश्य है। जीवन की समस्याओं का समाधान ढूँढना भारतीय विचारक अपना पवित्र उद्देश्य मानते हैं। इस प्रकार भारतीय दर्शन का दृष्टिकोण व्यावहारिक है।

(ख) भारतीय दर्शन की उत्पत्ति आध्यात्मिक असन्तोष के चलते होती है- विश्व में दुःख एवं बुराई का साम्राज्य पाकर भारतीय विचारक एक प्रकार से आध्यात्मिक असन्तोष का अनुभूत करते हैं और फलस्वरूप इनका दार्शनिक चिन्तन प्रारम्भ होता है। भारतीय विचारकों का प्रधान लक्ष्य मानव को दुःखों से मुक्त करना है। महात्मा बुद्ध ने अपने दर्शन में दुःख का विशद वर्णन किया है। इनके चार आर्य-सत्य दुःख के विचार पर आधारित है।

(क) दुख है (ख) का कारण है (ग) दु:ख का निरोध सम्भव होता है, There is cessation of suffering और (घ) दुख निरोध का मार्ग है। इसी प्रकार अन्य भारतीय दर्शन भी दुख के भावों से ओत-प्रोत हैं।

(ग) विश्व को एक नैतिक रंग-मंच मानना- प्रायः सभी भारतीय दार्शनिक विश्व को एक नैतिक रंग मंच मानते हैं। मनुष्य अपने विगत कर्म के अनुसार ईश्वर का प्रकृति की ओर से शरीर, इन्द्रिय एवं वातावरण प्राप्त करके विश्वरूपी रंग-मंच पर उपस्थित होता है। जिस प्रकार, किसी रंग-मंच पर, पात्र अपने विभिन्न वस्त्रों में सजधज कर, अपना पार्ट अदा करते हैं और इसके बाद रंग-मंच से अलग हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार, विश्वव्यापी रंग-मंच पर भी विभिन्न प्राणी अपने कर्मों का कमाल दिखाकर विदा हो जाते हैं। प्राणियों को अच्छे कर्मों द्वारा सफल अभिनेता बनने का प्रयास करना चाहिए। जिस प्रकार साधारण रंग-मंच पर पुराने पात्र स्थान रिक्त करते जाते हैं और नये पात्र इन रिक्त स्थानों पर आते-जाते रहते हैं। इसी प्रकार विश्व भी एक ऐसा मंच है जहाँ पुराने और नये चेहरे सदैव आते-जाते रहते हैं।

(घ) विश्व की शाश्वत नैतिक अवस्था में विश्वास- विश्व में एक शाश्वत नैतिक अवस्था का समर्थन प्रायः भारतीय विचारक करते हैं। विश्व में जो भी हम करते हैं, इसका हमें निश्चित रूप मिलता है। अच्छे कर्मों के लिए परस्कार और बुरे कर्मों के लिए दण्ड का भागी होना पड़ता है।

यही कर्म सिद्धान्त (The Law of Karma) है। इस सिद्धांत के अनुसार हमारा वर्तमान जीवन हमारे विगत जीवन का फल है और भावी जीवन की आधारशिला हमारे वर्तमान जीवन के कर्मों पर आधारित है। जिस प्रकार भौतिक जगत की व्यवस्था की व्याख्या कार्य-करण नियम जिसमें (Law of causation) के आधार पर की जाती हैं, उसी प्रकार नैतिक जगत की व्यवस्था कर्म सिद्धान्त द्वारा ही सम्भव है। यहाँ भाग्यवाद या नियतिवाद (Fatalism) का खण्डन किया जाता है। व्यक्ति का भाग्य निर्माण स्वयं इसके साथ है।

(ङ) आत्मा के अस्तित्व में विश्वास- चार्वाक और बौद्ध को छोड़कर सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा की सत्ता में अटूट विश्वास करता है। यहाँ आत्मा को शरीर से भिन्न एक आध्यात्मिक सत्ता माना गया है। यह नित्य (eternal) एवं अविनाशी (Indestructible) है। शंकर ने तो आत्मज्ञान (self-realisation) को ही ब्रह्म ज्ञान (realization of Brahma) माना है। इस प्रकार प्रायः सम्पूर्ण भारतीय दर्शन आत्मा को नित्य, अविनाशी, आध्यात्मिक सत्ता के रूप में स्वीकार करता है। उपनिषदों एवं वेदों में भी आत्मा के महत्त्व पर काफी बल दिया गया है।

आत्मा के स्वरूप को लेकर भारतीय दर्शन में कई विचारधाराओं का जन्म हुआ है। चार्वाक के अनुसार चेतन शरीर ही आत्मा है। बौद्धों के अनुसार चेतना का प्रवाह (Stream of Consciousness) है। William James के विचार से बौद्ध मत मिलता-जुलता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा या जीवन चैतन्य युक्त है। इसमें चार प्रकार की पूर्णता पायी जाती है-अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य और अनन्त आनन्द।

(च) अज्ञान दुख एवं बंधन को उत्पन्न करता है और ज्ञान से मोक्ष मिलता है- भारतीय दर्शन में अज्ञान को बंधन (Bondage) और दुख का कारण बतलाया गया है। जन्म-मरण एवं पूर्वजन्म के चक्कर में पड़कर दुख झेलना ही बंधन है। जन्म, पूर्वजन्म के जाल से मुक्त हो जाना ही मोक्ष (Liberation) कहलाता है। प्रायः सभी भारतीय विचारक अज्ञानता (Ignorance) को दुखों के कारण मानते हैं। बुद्ध ने अज्ञान को दुखों का मूल कारण बतलाया है। अज्ञान का नाश से ही सम्भव होता है। इसलिए सभी दर्शनों में मोक्ष को अपनाने के लिए ज्ञान को परमावश्यक माना गया है।

(छ) आत्म नियन्त्रण पर जोर- मोक्ष की प्राप्ति के लिए मस्तिष्क से बुरे विचारों को निष्कासित करके उत्तम विचारों को प्रतिष्ठित करना एवं आत्मसंयम रखना भी अनिवार्य माने गये हैं। मस्तिष्क से दूषित भावनाओं को समूल नष्ट करने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है। आत्मसंयम का अर्थ राग, द्वेष, वासना आदि का निरोध और ज्ञानेन्द्रियों तथा कर्मेन्द्रियों का नियन्त्रण माना जाता है। आत्मनियन्त्रण पर जोर देने के फलस्वरूप सभी दर्शनों में नैतिक अनुशासन और सदाचार-संबंधित जीवन को आवश्यक माना गया है। चार्वाक के सिवा अन्य सभी भारतीय विचारकों ने आत्मनियन्त्रण को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण बतलाया है।

(ज) मोक्ष को जीवन का चरम लक्ष्य माना गया है- चार्वाक के सिवा सम्पूर्ण भारतीय दर्शन मोक्ष को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। दुख रहित अवस्था को ही मोक्ष कहते हैं। कुछ अन्य विचारकों ने इसे आनंदमय अवस्था बतलाया है। इस प्रकार मोक्ष के सम्बन्ध में दो मत हैं-निषेधात्मक और भावात्मक। निषेधात्मक रूप से मोक्ष दुखरहित अवस्था है और भावात्मक रूप से यह आनन्दमय अवस्था है। मोक्ष दो प्रकार के होते हैं-जीवन मुक्ति और विदेह मुक्ति। शरीर धारण करते हुए भी इसी जीवन में मुक्त हो जाना ही जीवन मुक्ति है। मृत्यु के बाद शरीर छोड़कर मुक्ति पाना विदेह मुक्ति है। मोक्ष को निर्वाण, कैवल्य आदि विभिन्न नामों से पुकारा जाता है। मोक्ष सर्वोच्च साध्य है। यह किसी अन्य साधन का साध्य नहीं हो सकता।

प्रश्न 2.
गीता के “निष्काम कर्म’ की व्याख्या करें।
अथवा, गीता के अनासक्त कर्म की विवेचना करें।
उत्तर:
अनासक्त या निष्काम कर्म गीता का मौलिक तथा नैतिक उपदेश है। निष्काम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के निः काम से हुई है जिसका अर्थ है बिना फल के तथा कर्म का अर्थ क्रियाशील होना अतः शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से निष्काम कर्म का अर्थ है कि कर्ता को बिना फल या परिणाम की कामना के क्रियाशील होना। निष्काम शब्द का विपरीत सकाम है, जिसका अर्थ है फल प्राप्ति की कामना के साथ कर्म करना। निष्काम कर्म गीता का मुख्य विषय है।

गीता के अनुसार मनुष्य को स्वधर्म का पालन करना चाहिए, जिससे वह अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य तक पहुँचने में समर्थ हो सके। गीता संसार में मनुष्य को सक्रिय जीवन व्यतीत करने का उपदेश देती है, जिससे उसका आन्तरिक जीवन परमात्मा के साथ जुड़ा रहे। भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन को कर्म की समस्या की अत्यधिक सूक्ष्मता की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि-गहना कर्मणे गतिः। अर्थात् कर्म की गति गहन है। हमारे लिए कर्म से बचना संभव नहीं है। अर्जुन अज्ञानता के कारण युद्ध करना नहीं चाहता है। भगवान कृष्ण अर्जुन को स्वधर्म या निष्काम भाव से कर्म करने का उपदेश देते हैं और अर्जुन युद्ध करने के लिए तत्पर हो जाता है। कृष्ण ने कहा है, कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल में कभी नहीं तुम कर्म-फल का हेतु भी मत बनो. अकर्मण्यता से तुम्हारी आसक्ति न हो। ‘गीता का निष्काम कर्म कर्मों के त्याग के स्थान पर कर्म-फल त्याग का उपदेश देती है। गीता कर्म कल त्यागने को अवश्य कहती है। परन्तु उसका उद्देश्य कर्म से संन्यास नहीं है। जो कर्म-फल को छोड़ देता है वही वास्तविक त्यागी है। गीता में कहा गया है-

“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूमा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ॥”

इस प्रकार, गीता प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच समन्वय करती है। मनुष्य को कर्म प्रवृत्ति तथा फल निवृत्ति होना चाहिए। अर्थात् मनुष्य को कर्म करना चाहिए, फल के बारे में नहीं सोचना चाहिए। प्रो० हरियाना के शब्दों में “The Gita teaching stands nor for renuciation of action but for renunciation in action.”

अगर हम कर्म के फल में अनासक्ति और परमात्मा के प्रति समर्पण की भावना विकसित कर लें तो हम कर्म करते हुए भी नित्य संन्यासी हैं। इस प्रकार, गीता हमें पूर्णतः सक्रिय जीवन व्यतीत करने का आदेश देती है।

गीता के निष्काम कर्मयोग की तुलना प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक कांट के “Duty for the sake of Duty” के साथ की जा सकती है। कांट ने भी यह कहा है कि मनुष्य को कर्तव्य करते समय कर्त्तव्य के लिए तत्पर रहना चाहिए। कर्त्तव्य करते समय फल की आशा का भाव छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार गीता तथा कांट के बीच समता दीखता है। लेकिन दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि यहाँ कांट इन्द्रियों को दमन की बात करते हैं। वहाँ गीता इन्द्रियों के नियंत्रित करने की बात करती है। कामनाओं का दमन व्यक्तित्व के विकास के लिए घातक है।

अत: निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि साधारण मनुष्य के कर्म निष्काम नहीं बल्कि सकाम होते हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि निष्काम कर्म असंभव है। एक असाधारण व्यक्ति का कर्म निष्काम होता है। क्योंकि वह लोकसंग्रह की भावना से प्रेरित होकर कर्म करता है। अतः निष्काम कर्मयोग या अनासक्त कर्म गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है।

प्रश्न 3.
बुद्ध के चार आर्य सत्य की व्याख्या करें।
उत्तर:
बौद्ध दर्शन के प्रवर्तक गौतम बुद्ध हैं। बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। उनका जन्म कपिलवस्तु के राज-परिवार में हुआ था। परन्तु राजसी जीवन से वे संतुष्ट नहीं थे और जीवन की सच्चाई को समझने के लिए ज्ञान प्राप्त करने हेतु अपने राजसी जीवन का परित्याग कर जंगलों एवं पहाड़ों में एक भिक्षु का जीवन व्यतीत करने लगे। कई वर्षों की साधना एवं ध्यान के बाद मध्यम मार्ग के माध्यम से बोधगया में पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। बुद्ध द्वारा. प्राप्त ज्ञान को चार आर्य सत्यों के रूप में संकलित किया गया है, जो निम्नलिखित हैं-

  1. मानव जीवन में दुःख का होना नितांत अनिवार्य है।
  2. मानव-जीवन दुःख का कारण अवश्य है।
  3. इन दुखों को हटाया जा सकता है।
  4. इन दु:खों को हटाने का मार्ग विद्यमान है।

जब मनुष्य अपने जीवन से इन दुःखों को हमेशा के लिए हटाने में सफल होता है। तब उसके जीवन के उस स्थिति को निर्वाण की स्थिति कहीं जाती है। कोई भी मनुष्य बुद्ध द्वारा बतलाये गये आष्टांगिक मार्ग को अपनाते हुए निर्वाण की स्थिति को प्राप्त कर सकता है। आष्टांगिक मार्ग एक दुःख निरोध मार्ग हैं जो चतुर्थ आर्यसत्य के अन्तर्गत आता है। यह एक नैतिक और आध्यात्मिक साधना का मार्ग है जहाँ पूजा, शील और समाधि पर संयुक्त रूप से बल दिया जाता है। इस मार्ग के आठ अंग हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  • सम्यक् दृष्टि- सम्यक् शब्द का अर्थ है उचित। अतः सम्यक् दृष्टि का तात्पर्य उचित ज्ञान है। यह बुद्ध के उपदेशों में श्रद्धा और आर्य सत्यों का ज्ञान है।
  • सम्यक् संकल्प- यह आर्य मार्गों पर चलने का दृढ़ निश्चय है।
  • सम्यक् वाक्- यह मार्ग साधक को अपने वाणी की पवित्रता और सत्यता बनाये रखने की प्रेरणा देता है।
  • सम्यक् कर्मान्त- यहाँ साधक को हिंसा द्वेष और दुराचरण का त्याग तथा सत्य कर्मों का आचरण करने को बतलाया गया है।
  • सम्यक् आजीव- यहाँ साधक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने जीविकोपार्जन के लिए भी अनैतिक कर्मों का सहारा नहीं लेगा तथा न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन करता रहेगा।
  • सम्यक् व्यायाम- यह वह मानसिक प्रयास हैं जहाँ मन में दबे हुए सभी नए एवं पुराने अशभ विचारों. विकारों एवं मान्यताओं को निरस्त कर नये, अच्छे एवं शुभ विचारों का समावेश किया जाता है।
  • सम्यक् स्मृति- यह साधक के लिए उचित स्मरण की स्थिति है जहाँ वह अभी तक प्राप्त सभी ज्ञान को बार-बार यह करता है। साधक को हमेशा यह याद रखना है कि इस संसार में कुछ भी नित्य नहीं है। “जिसे वह नित्य समझता है। वास्तव में वह क्षणभंगुर है।”
  • सम्यक् समाधि- यह चित्त की एकाग्रता की परम स्थिति हैं जहाँ साधक सुख-दुःख से परे की अवस्था को प्राप्त करता है। इसी अवस्था में निर्वाण की प्राप्ति होती है। या कह सकते हैं कि चित्त की एकाग्रता की यह प्रम स्थिति निर्वाण की अवस्था है। इसकी तुलना भगवत् गीता के ‘स्थित प्रज्ञ’ की अवस्था से की जा सकती है।

प्रश्न 4.
काण्ट के अनुसार ‘समीक्षावाद’ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जर्मन दार्शनिक काण्ट का ज्ञानशास्त्रीय मत समीक्षावाद कहलाता है, क्योंकि समीक्षा के बाद ही इस सिद्धान्त का जन्म हुआ। काण्ट के समीक्षावाद के अनुसार बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही सिद्धान्तों में आंशिक सत्यता है। जिन बातों को बुद्धिवाद और अनुभववाद स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं, और जिन बातों का खण्डन करते हैं, वे गलत हैं- “They are . justified in what they affirm but wrong in what they deny”।

अनुभववाद के अनुसार संवेदनाओं के बिना ज्ञान में वास्तविकता नहीं आ सकती है और बुद्धिवाद के अनुसार सहजात प्रत्ययों के बिना ज्ञान में अनिवार्यता तथा असंदिग्धता नहीं आ सकती है। समीक्षावाद इन दोनों सिद्धान्तों के उपर्युक्त पक्षों को स्वीकार करता है। फिर अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की अनिवार्यता के अनुसार संवेदनाओं को ज्ञान का रचनात्मक अंग नहीं माना जाता है। पर हमें दोनों सिद्धान्तों के इस अभावात्मक (Negative) पक्षों को अस्वीकार करना चाहिए। समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों के भावात्मक अंशों को मिलाकर ग्रहण किया जाता है।

ज्ञान की परिभाषा- काण्ट (Kant) ज्ञान को संश्लेषणात्मक प्रागनुभविक निर्णयों के एकतंत्र (A system of Synthetica priorijudgements) के रूप में परिभाषित करते हैं। निर्णय दो प्रत्ययों (Ideas) उद्देश्य तथा विधेय के मेल को कहते हैं। जैसे-‘मेज गोल है’ एक निर्णय है जिसका निर्माण ‘मेज’ तथा ‘गोलापन’ प्रत्ययों के मिलाने से हुआ है। इसमें ‘मेज’ उद्देश्य है तथा ‘गोलापन’ विधेय है। संश्लेषणात्मक निर्णय वैसे निर्णय को कहते हैं जो अनुभव पर आधारित हो, यानी जिसके अनुभव विधेय में अनुभव के आधार पर उद्देश्य के सम्बन्ध में कोई नयी बात कही जाए सिर्फ उद्देश्य का विश्लेषण भर नहीं कर दिया जाए। संश्लेषणात्मक निर्णयों के विपरीत काण्ट विश्लेषणात्मक (Analaytic), निर्णयों को लेते हैं जिनके विधेय में उद्देश्य का सिर्फ विश्लेषण किया गया रहता है, उसके सम्बन्ध में कोई नयी बात नहीं कही जाती है।

‘त्रिभुज तीन भुजाओं से घिरा क्षेत्र है’ निर्णय विश्लेषणात्मक है चूँकि इसका विधेय इसके उद्देश्य ‘त्रिभुज’ का विश्लेषण मात्र है। परन्तु ‘गुलाब लाल है’ एक संश्लेषणात्मक निर्णय है चूँकि ‘लाली’ गुलाब के विश्लेषण से नहीं निकलती बल्कि अनुभव के आधार पर गुलाब के साथ जोड़ा जाता है जो गुलाब के सम्बन्ध में एक नवीन ज्ञान देता है। प्रागानुभविक निर्णय वैसे निर्णय हैं जिनकी सत्यता किसी विशिष्ट अनुभव तक ही सीमित नहीं है बल्कि विशिष्ट अनुभवों के परे सभी स्थान, सभी काल आदि के लिए अनिवार्यतः सत्य है। उदाहरणस्वरूप दो और दो का योग चार होता है। भौतिक पदार्थों में फैलाव (Extension) होता है आदि निर्णय प्रागानुभविक हैं। ऐसे ही निर्णयों के एक तंत्र (System) को जो संश्लेषणात्मक तथा प्रागानुभविक दोनों हो काण्ट ज्ञान की संज्ञा देते हैं।

ज्ञान का निर्णय-अब प्रश्न उठता है कि ऐसे ज्ञान का निर्माण कैसे होता है। इस प्रश्न का उत्तर काण्ट ने अपनी विख्यात पुस्तक ‘Critique of pure Reason’ में दिया है। इसमें उन्होंने बताया है कि ज्ञान का निर्माण दो पक्षों के सम्मिलित प्रयास से होता है। एक को वे संवेदन-शक्ति (Sensibility) तथा दूसरे को बुद्धि (understanding) कहते हैं। संवेदन-शक्ति से ज्ञान की वस्तु प्राप्त होती है तथा बुद्धि से उसका आकार। संवेदनाएँ मन को दिक् तथा काल के आकारों से होकर ही प्राप्त होती हैं। संवेदनायें अपने आप में बिल्कुल असम्बद्ध तथा अव्यवस्थित होती हैं।

सिर्फ उन्हें प्राप्त कर लेने से ही ज्ञान का निर्णय नहीं हो जाता। उन्हें आकार देकर व्यवस्थित करना तथा. निर्णयों का निर्माण करने का काम मन करता है। संवेदनाओं को पूर्ण आकार में ढालकर निर्णय का निर्माण करना मन के उस पक्ष का काम है जिसे बुद्धि की संज्ञा दी गयी है। काण्ट के अनुसार मन के अन्दर सोचने के बारह आकार जन्मजात आकारों के रूप में मौजूद हैं जिसे, “Categories of Understanding” कहा जाता है। ये बारह आकार बारह साँचे के समान हैं जिनमें ढालकर संवेदनाएँ आकार पाती हैं। बुद्धि के ये बारह आकार निम्नलिखित हैं-

  1. अनेकता (Plurity)
  2. एकता (Unity)
  3. सम्पूर्णता (Totality)
  4. भाव (Affirmation)
  5. अभाव (Negation)
  6. सीमितभाव (Limitation)
  7. कारण कार्यभाव (Causality)
  8. गुणभाव (Substantiality)
  9. अन्योन्याश्रय भाव (Reciprocity)
  10. सम्भावना (Possibility)
  11. वास्तविकता (Actuality)
  12. अनिवार्यता (Necessity)।

कान्टीय सिद्धांत की समीक्षा-काण्ट अपने सिद्धान्त के द्वारा बुद्धिवाद तथा अनुभववाद के एकांगी मतों के बीच एक समन्वय स्थापित करते हैं जो बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। परन्तु जिस प्रकार के ज्ञान की क्रिया में अनुभव तथा बुद्धि दोनों के कार्यों का विश्लेषण करते हैं और जिस प्रकार बेमेल अवधारणाओं को ज्ञान की व्याख्या में वे एक साथ मिलाने की कोशिश करते हैं। उनके फलस्वरूप उनके सिद्धान्त में कई दोषों का समावेश हो जाता है जिनमें से निम्नलिखित प्रमुख हैं-

सर्वप्रथम काण्ट द्वारा ज्ञान की वास्तविक प्रक्रिया का किया गया विश्लेषण एक मनगढन्त तथा कृत्रिम सिद्धान्त लगता है। काण्ट का यह कहना कि अमुक प्रकार से संवेदनाएँ आती हैं और तब फिर मन अपने बुद्धि के आकारों के द्वारा व्यवस्था प्रदान करता है और तब फिर प्रज्ञा अन्तिम * व्यवस्था प्रदान करती है, मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से असत्य है। ज्ञान की क्रिया इस यांत्रिक रूप में सम्पन्न नहीं होती।

काण्ट का यह कहना है कि संवेदनाएँ अपने आप में बिल्कुल असम्बद्ध तथा अव्यवस्थित होती हैं यथार्थ प्रतीत नहीं होता। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक तथा दार्शनिक William James का कहना है कि संवेदनाएँ बिल्कुल असंबद्ध रूप में मन में नहीं आती। उन्हें ग्रहण करने तथा व्यवस्थित करने की क्रियाएँ कुछ इस प्रकार अभिन्न हैं कि यह कहा जा सकता है कि पहले वे एक असम्बद्ध रूप में मन में आती है तब मन अपने आकारों द्वारा उनमें व्यवस्था लाता है। एक व्यवस्थित रूप में ही मन संवेदनाओं को ग्रहण करता है।

प्रश्न 5.
देकार्त के दर्शन में शरीर एवं मन के संबंध की व्याख्या करें।
उत्तर:
मन और शरीर के आपसी सम्बन्ध की समस्या दर्शन के इतिहास में अत्यन्त ही पुरानी एवं विवादास्पद है। देकार्त ने मन और शरीर के बीच सम्बन्ध की व्याख्या अपने द्रव्य विचार के अन्तर्गत किया है। इन्होंने मन और शरीर को सापेक्ष द्रव्य स्वीकार करते हुए दोनों को विरोधात्मक कहा है। आत्मा का मौलिक गुण चेतना है तथा शरीर का मौलिक गुण विस्तार है।

देकार्त ने इन दोनों के बीच सम्बन्ध की व्याख्या क्रिया-प्रक्रिया के द्वारा करने का प्रयास किया है। हमारे अन्दर पिनियस ग्लैन्ड नामक एक विशेष प्रकार की ग्रन्थि है, जिसके सहारे मन और शरीर एक-दूसरे पर क्रिया-प्रतिक्रिया करते हैं। मन शरीर के बीच आपसी सम्बन्ध के लिए देकार्त ने घोड़ा और घुड़सवार का भी उदाहरण दिया है। जिस प्रकार घुड़सवार घोड़ा को अपने ऐंड से मारता है तो घोड़ा तेज भागता है, उसी प्रकार मन के निर्देश देने के बाद शरीर सक्रिय हो जाता है। देकार्त के मन और शरीर के स्वतंत्र सत्ता मानने के कारण ही इन्हें द्वैतवादी कहा जाता है।

प्रश्न 6.
अनुभववाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
अनुभववाद वह ज्ञानशास्त्रीय दार्शनिक सिद्धान्त है, जो समस्त ज्ञान का स्रोत बाह्य इन्द्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव को मानता है। यह बुद्धिवाद का पूर्णतः विरोधी सिद्धान्त है। अनुभववाद के अनुसार अनुभव ही एक मात्र ज्ञान का साधन है। इस सिद्धान्त के अनुसार यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य का प्रत्येक ज्ञान अर्जित है, जन्म के समय मनुष्य के मस्तिष्क में किसी प्रकार का ज्ञान नहीं रहता है। इसलिए अनुभववाद का कहना है कि जन्म के समय हमारा मस्तिष्क कोरे कागज के तरह रहता है तथा बाद में अनुभव के आधार पर ज्ञान अंकित होते हैं।

ज्ञान के मनुष्य तत्त्व प्रत्यय है। इन प्रत्ययों की उत्पत्ति अनुभव से होता है। बुद्धि प्रत्यय को मात्र ग्रहण करता है, उत्पन्न नहीं करता है। बुद्धि के प्रत्ययों को निष्क्रिय ढंग से ग्रहण करती है। इसलिए प्रत्यय का एक मात्र जननी अनुभव है। अनुभववाद के समर्थक प्रमुख तीन दार्शनिक हैं . लॉक, बर्कले और ह्यूम है। इन तीनों दार्शनिक ग्रेट ब्रिटेन के तीन प्रदेशों, लंदन, आयरलैण्ड और स्कॉटलैण्ड के रहने वाले थे।

(i) जॉन लॉक का कहना है कि हमारा समस्त ज्ञान प्रत्ययों से बनता है। लेकिन हमारे सामने एक प्रश्न उपस्थित होता है कि प्रत्यय क्या हैं ? इसके उत्तर में लॉक का कहना है कि प्रत्यय किसी बाह्य वस्तु के प्रतिनिधि होते हैं। जैसे-टेबुल, कुर्सी, पुस्तक आदि बाह्य पदार्थ है। जब इसे देखते हैं तो हमारे मन में एक प्रतिबिम्ब द्वारा वस्तु का बनता है। जब आँख बंद कर लेते हैं तो उस वस्तु का प्रतिमा बनी रहती है। यही प्रतिमा लॉक के अनुसार प्रत्यय है। अतः समस्त ज्ञान इन्हीं प्रत्ययों से बनता है जो अनुभव के द्वारा प्राप्त होता है।

लॉक अनुभव का कहना है कि जन्म के समय हमारा मन एक स्वच्छ कोरे कागज के समान रहता है। इस मन में कुछ भी पूर्व से अंकित नहीं रहती है बल्कि समस्त ज्ञान प्रत्ययों से प्राप्त “Black tabula, table rase, white paper empty calamity”.

लॉक को दो भागों में विभक्त किया है-सरल प्रत्यय से मिश्र प्रत्यय का निर्माण होता है और हमारा समस्त ज्ञान बनता है। जितने भी बुद्धिवादी दार्शनिक है वे सहज प्रत्यय को जन्मजात मानते हैं। बुद्धिवादियों का कहना है कि ईश्वर, आत्मा, धार्मिक और नैतिक मूल्य आदि प्रत्यय हमारे मन में जन्म से ही बैठा दी जाती है। वे प्रत्यय पर और अनिवार्य होते हैं। इसके विरुद्ध में लॉक का कहना है कि सहज प्रत्यय नाम का कोई भी चित्र अनुभव से पूर्व मन में स्थित नहीं होती।

(ii) अनुभववाद के दूसरा प्रबल समर्थक बर्कले का कहना है कि ज्ञान केवल अनुभव के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। ये एक रोचक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि एक बार मुझे जिज्ञासा हुई कि फाँसी लगाते समय कैसा अनुभव होता है यह जाना जाए। इसलिए अनुभववादी बर्कले ने स्वयं फाँसी के फंदे गले में लगा लिया। जब उसके मित्र फाँसी के फंदै खोले तो बर्कले बेहोश थे। इतना कट्टर अनुभववादी होते हुए भी भौतिकवादी न होकर अध्यात्मवादी हैं।

बर्कले अपने अनुभववादी विचार को लॉक के विचारों से ताल मेल कराते हुए आगे बढ़ाई है। बर्कले लॉक के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण को मानकर कहते हैं कि हमारा समस्त ज्ञान संवेदनाओं और इन संवेदनाओं के द्वारा होता है। इन्द्रिय बौधी समस्त ज्ञान को उत्पन्न करते हैं किन्तु ऐन्द्रिय बोध जो बर्कले प्रत्यय कहते हैं, वह मन में ही रहते हैं लॉक ने इसके श्रोत के रूप में स्थित पदार्थ की कल्पना की थी, पर बर्कले का मत है कि ऐसा किसी पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता। हम केवल मन्स के प्रत्यय का अनुभव करते हैं, जो प्रत्यय इन्द्रियों का देन है, भौतिक पदार्थों का नहीं।

जैसे हमें आँख से रंग या प्रकाश का ज्ञान होता है, जीभ से स्वाद, कान से शब्द इत्यादि का बोध होता है। ये प्रत्यय एकत्र होकर वस्तु की संज्ञा देते हैं और ये संवेदना के द्वारा मिलते हैं। इन प्रत्ययों का संहार रूप वस्तुओं से हमारे मन में सुख-दु:ख, प्रेम, घृणा, आशा-निराशा इत्यादि भावों का ज्ञान होता है। इनका ज्ञान एवं संवेदना से होता है जिसे बर्कले हमारे मन में कल्पना प्रस्तुत और स्मृति जन-प्रत्यय भी है। इसी को बर्कले में प्रत्ययवादी कहते हैं। इस प्रकार बर्कले के लिए अनुभव ज्ञान का साधन है किन्तु वह भौतिक पदार्थों का नहीं बल्कि ईश्वरीय प्रत्ययों का अनुभव है।

(iii) अनुभववाद के तीसरा प्रबल समर्थक ह्यूम ने लॉक और बर्कले के तरह यह मानते हैं कि सभी ज्ञान अनुभवजन्य होते हैं। ह्यूम का कहना है कि अनुभव प्रत्ययों का होता है वस्तु का नहीं। ह्यूम का अनुभववादी विचार लॉक और बर्कले के अनुभववादी विचार के अस्वीकार करते हुए जड़, जगत, ईश्वर और आत्मा के सत्ता को इंकार करते हैं और कहते हैं कि अनुभव केवल प्रत्ययों का ही होता है, जो लगातार आते-जाते रहता है।

हम भ्रमवश एक स्थायी आत्मा की कल्पना कर बैठते हैं, जबकि आत्मा नाम की चीज मनुष्य के पास नहीं है। ह्यूम कार्य कारण नियम का खंडन करता है, जिसे उसके पूर्व लॉक और बर्कले स्वीकार करते हैं। इनका कहना है कि कार्य कारण नियम कोई वृद्धिजन्य और सार्वभौम नियम नहीं है। बल्कि हम अपने अनुभव के आधार पर कार्य कारण के संबंध का ज्ञान प्राप्त करते हैं। हम केवल संवेदना और स्व-संवेदना का अनुभव करते हैं। किसी जड़ पदार्थ का नहीं। इसी तरह आत्मा के बारे में ह्यूम का कहना है कि हमें कभी भी आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता। आत्मा कुछ नहीं है। केवल भिन्न-भिन्न संवेदनाओं का प्रवाह मात्र है। इसी प्रकार ईश्वर का भी प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता। इसलिए इसकी पत्ता को भी ह्यूम इंकार करते हैं।

प्रश्न 7.
अरस्तू के कारणता सिद्धान्त की व्याख्या करें।
उत्तर:
कारणता सिद्धांत को सामान्य मानव, दार्शनिक तथा वैज्ञानिक सभी स्वीकारते हैं। जिसका मूल सिद्धांत है कि प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। इस मत को पाश्चात दार्शनिक अरस्तू भी स्वीकारते हैं। अरस्तू के अनुसार किसी घटना के चार कारण होते हैं। वे हैं-

  1. उपादान कारण (Material cause)
  2. निर्मित कारण (Efficient cause)
  3. आकारिक कारण (Formal cause)
  4. प्रयोजन कारण (Final cause)

उपादान कारण- किसी वस्तु के निर्माण में जिस उपादान या सामग्री की आवश्यकता पड़ती है उसे उपादान कारण कहते हैं। जैसे-मिट्टी घड़ा के लिए उपादन कारण है।

नामत कारण- किसी वस्तु का निर्मित कारण वह है, जो उपादान में शक्ति या गति प्रदान कर उसमें परिवर्तन लाता है। जैसे-कुम्हार घड़ा का निर्मित कारण माना जाता है।

आकारक कारण- किसी उपादान सामग्री को एक निश्चित दिशा में गति प्रदान करने का काम आकारिक कारण द्वारा सम्पन्न होता है। जैसे कुम्हार द्वारा घड़ा का बनाया जाना है। उनके मन में घड़ा का आकार विद्यमान रहता है तब वो घड़ा बनाता है।

प्रयोजन कारण – किसी वस्तु के निर्माण में प्रयोजन या लक्ष्य अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है। इसी प्रयोजन या लक्ष्य की पूर्ति के लिए किसी वस्तु का निर्माण होता है। घड़ा का बनकर तैयार होना प्रयोग कारण कहलाता है।

अरस्तू का चारों कारणों को आगे चलकर दो कारणों में सीमित कर देते हैं। उपादान कारण और आकारिक कारण में। निमित कारण एवं प्रयोजन कारण को आकारिक कारण में मिला देते हैं।

अरस्तु के अनुसार किसी भी वस्त के निर्माण में दो तत्त्व रहते हैं- उपादान और आकार। उपादान एक संभावनामार्ग है, परन्तु आकार वास्तविकता संभावना को वास्तविकता में परिणत होना ही किसी वस्तु का उत्पन्न होता है। इस प्रकार किसी वस्तु के निर्माण में आकार मूल प्रेरक का कार्य करता है।

प्रश्न 8.
वैशेषिक के अभाव पदार्थ की व्याख्या करें।
Ans.
वैशेषिक दर्शन में पदार्थों की संख्या दो बताई गई है-

  • भाव पदार्थ जिसका संख्या छ; है। वो है-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय।
  • अभाव, अभाव पदार्थ के अंतर्गत अभाव को रखा गया है। वैसे वैशेषिक सूत्र में अभाव की चर्चा नहीं की गई है। बाद के भाष्करों ने अभाव का वर्णन किया है। इस प्रकार वैशेषिक दर्शन में दर्शन की संख्या सात हो जाते हैं।

अभाव किसी वस्तु का न होना कहा जाता है। अभाव का अर्थ किसी वस्तु का किसी विशेष काल में किसी विशेष स्थान में अनुपस्थित है। जैसे-रात्रि में बिस्तर में सर्प का अभाव। अभाव दो प्रकार के होते हैं-

  1. संसर्गाभाव
  2. अन्योन्यभाव।

संसर्गाभाव-दो वस्तुओं के सम्बन्ध के अभाव को कहा जाता है जब एक वस्तु का दूसरी वस्त में अभाव होता है तो उस अभाव को संसर्गाभाव कहा जाता है। जैसे जल में अग्नि का अभाव। संसर्गाभाव तीन प्रकार के होते हैं। प्रागभाव, ह्वसीभाव और अत्यन्ताभाव उत्पत्ति के पूर्व कार्य का भ्रांतिक कारण में अभाव प्रागाभाव है। जैसे-मिट्टी में घड़ा का अभाव। ध्वंस समावय का अर्थ है विनाश के बाद किसी चीज का अभाव। जैसे-घड़े के टूटे हुए टुकड़ों में घड़ा का अभाव। अन्यन्ताभाव दो वस्तुओं के सम्बन्ध का अभाव जो भूत, वर्तमान और भविष्य में रहता है।

अन्योन्यभाव-अन्योन्यभाव का मतलब दो वस्तुओं की भिन्नता। अर्थात् एक वस्तु में दूसरे का पूर्ण निषेध। जैसे-घोड़े गाय नहीं हो सकता। इसे एक रेखा चित्र द्वारा दर्शाया जा सकता है।

प्रश्न 9.
जैन के स्याद्वाद सिद्धान्त की व्याख्या करें। अथवा, स्याद्वाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
जैन दर्शन के अनुसार वस्तुओं के अनन्त धर्म होते हैं- ‘अनन्त धर्मकर्म वस्तु’। हम किसी भी वस्तु के जितने गुणों या लक्षणों को जानते हैं, उतने ही गुण या लक्षण उस वस्तु में नहीं होते। वस्तु के ‘अनन्त धर्म’ को जीतना हमारे लिए संभव नहीं है। यह जैन का अनेकान्तवाद है। अब चूँकि हम वस्तु के अनन्त धर्म को नहीं जान सकते। अतः यह कहा जा सकता है कि वस्तु को हम सही-सही नहीं जानते हैं। अत: वस्तुओं के विषय में हमारा ज्ञान एकांगी है। यहाँ जैन दर्शन का स्याद्वाद हमारी सहायता करता है। स्याद्वाद बतलाता है कि हम निरपेक्ष रूप से नहीं कह सकते हैं कि कोई वस्तु है या नहीं है।

स्याद्वाद जैनदर्शन का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसकी धारणा है कि सत् का स्वरूप अत्यधिक अनियत भिन्न-भिन्न (निष्कर्ष वाला) है। ‘स्यात्’ शब्द संस्कृत की अस धातु (होना) के विधिलिंग का एक रूप है। इसका अर्थ है-हो सकता है शायद, इसलिए स्याद्वाद शायद का सिद्धांत है। इस सिद्धांत का तात्पर्य है कि वस्तु को अनेक दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है और प्रत्येक दृष्टिकोण से एक भिन्न निष्कर्ष प्राप्त होता है। किसी भी वस्तु के सम्बन्ध में हमारा जो निर्णय होता है वह सभी दृष्टियों से सत्य नहीं होता। साधारण मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आंशिक होता है।

हमारे मतभेद का कारण यह है कि हम उपर्युक्त सिद्धान्त को भूल जाते हैं और अपने विचारों को सर्वथा सत्य मानते हैं। इसे एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट किया गया है। छः अन्धे, हाथी के आकार के ज्ञान जानने के उद्देश्य से, हाथी के अंग का स्पर्श करते हैं। कोई उसका पेट, कोई पैर, कोई कान, कोई पूँछ तथा कोई उसका लँड पकड़ता है। प्रत्येक अंधा सोचता है कि उसी ज्ञान में सब कुछ है, शेष गलत है। किन्तु जैसे ही उन्हें यह विश्वास दिलाया जाता है कि प्रत्येक ने हाथी का एक-एक अंग स्पर्श किया है, उनका मतभेद दूर हो जाता है। इस आंशिक ज्ञान के आधार पर जो परामर्श होता है उसे ही ‘नय’ कहते हैं। ‘नय’ एक दृष्टिकोण है जिसके आधार पर तप किसी पदार्थ के विषय में कोई कथन कहते हैं। ‘नय’ को स्पष्ट करते हुए Dr. C. D. Sharma ने लिखा है-A mere statement of relative truth calling it either absolute relative is called Naya.

स्याद्वाद के सम्बन्ध में दो तरह के मत देखने को मिलते हैं। पहला मत उपनिषदों का था कि सत् ही तत्त्व है और दूसरा मत छान्दोग्य उपनिषद् का, किन्तु अस्वीकृत, कि असत ही तत्त्व है। जैनदर्शन के अनुसार ये दोनों ही मत अंशत: सही हैं। जैनों के विचार से तत्त्व का स्वरूप इतना जटिल है कि उसके बारे में इन मतों में से प्रत्येक अंशतः तो सही हैं, लेकिन पूर्णतः सही नहीं है। अतः जैन इस बात का आग्रह करते हैं कि प्रत्येक नया के प्रारम्भ में ‘स्यात’ शब्द का प्रयोग करना चाहिए। स्यात शब्द से यह संकेत होता है कि इसके साथ के प्रयुक्त वाक्य की सत्यता प्रसंग विशेष पर ही निर्भर करती है। अन्य प्रसंगों में वह मिथ्या भी हो सकता है। अतः स्याद्वाद वह सिद्धांत है जो मानता है कि मनुष्य का ज्ञान एकांगी तथा आशिक है।

जैनियों ने भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से परामर्श (Judgement) के भेद किए हैं। जिस परामर्श में किसी वस्तु के साथ उसके अपने धर्म या लक्षण का संबंध जोड़ा जाता है उसको अस्तिवाचक परामर्श कहते हैं। जिस परामर्श में किसी वस्तु का किसी अन्य वस्तु के धर्म या लक्षण के साथ संबंध भाव दिखलाया जाता है, उसे नास्तिवाचक परामर्श कहते हैं। जैन दर्शन के सात प्रकार के. परामर्श के अंतर्गत ये दो परामर्श भी निहित हैं। जैन-दर्शन में इस वर्गीकरण को ‘सप्त-भंगी नय’ कहा जाता है।

प्रश्न 10.
शिक्षा का उद्देश्य क्या है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
शिक्षा का उद्देश्य एवं पद्धति समय के अनुसार बदलते रहा है। प्राचीन काल में शिक्षा उद्देश्य चारित्रिक विकास करना होता था तथा धार्मिक शिक्षा दी जाती थी जबकि वर्तमान शिक्षा पद्धति का आधार रोजगार परक है। अर्थात् वही शिक्षा उचित है जो रोजगार दे सके। लेकिन शिक्षा का उद्देश्य न सिर्फ रोजगार परक होना चाहिए, बल्कि व्यक्ति का सर्वांगीण विकास होना चाहिए। इसलिए इस संदर्भ में महात्मा गाँधी ने कहा है शिक्षा ऐसे होनी चाहिए जिससे व्यक्तित्व का विकास हो तथा उसे रोजगार मिल सके। इसीलिए उन्होंने मूल्य युक्त तकनीक शिक्षा की वकालत की है।

वर्तमान में विश्व के सामने अनेकों समस्याएँ, जैसे-भ्रष्टाचार की समस्या, धार्मिक उन्माद, सम्प्रदायवाद, नक्सलवाद आदि। इन सभी के मूल में देख पाते हैं कि हमारी शिक्षा व्यवस्था दोषपूर्ण हैं। तकनीकी शिक्षा के साथ-साथ नैतिक मूल्यपरक शिक्षा आवश्यक है। आध्यात्मिक शिक्षा आवश्यक है। तकनीकी शिक्षा लोगों को रोजगार तो अवश्य दे देता है पर जीने की कला नहीं सिखाती मानव मशीनी जीवन जीते-जीते स्वयं मशीन बन जाता है।

इसलिए व्यावसायिक शिक्षा के साथ-साथ मूल्यपरक शिक्षा दिया जाना चाहिए ताकि व्यक्ति अपने कर्त्तव्य को समझे। परिवार के प्रति, समाज के प्रति एवं राष्ट्र के प्रति क्या कर्त्तव्य होना चाहिए। साथ ही आज धर्म के नाम प्रतिदिन हजारों लोगों की जान जाती है क्यों? क्योंकि धर्म के वास्तविक अर्थ को हम नहीं समझ पाते हैं इसलिए इतिहास, भूगोल की तरह सभी धर्मों की भी शिक्षा प्राथमिक स्तर में दिशा जाना चाहिए।

प्रश्न 11.
बुद्धिवाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
बुद्धिवाद वह ज्ञान शास्त्रीय सिद्धान्त है जिसके अनुसार ज्ञान की प्राप्ति मात्र बुद्धि से संभव है। इसके निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

(a) इस सिद्धांत के अनुसार बुद्धि ज्ञानप्राप्ति का एकमात्र साधन है। अनुभव के द्वारा यथार्थ ज्ञान कदापि नहीं मिल सकता।

(b) इस सिद्धांत के अनुसार यथार्थ ज्ञान वह है, जो सार्वभौम (Universal) और अनिवार्य (Necessary) हो। यह ज्ञान सार्वभौम है; क्योंकि यह सभी स्थानों (Place) और सभी कालों (Time) में सत्य होता है। यह ज्ञान अनिवार्य है; क्योंकि इसका अपवाद या विपरीत सत्य नहीं हो सकता। उदाहरण- 2 + 2 = 4। यह हमेशा और सभी स्थान में सत्य है और इसका अपवाद कभी सत्य नहीं हो सकता। बुद्धिवादियों का दावा है कि इस प्रकार के यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति केवल बुद्धि द्वारा ही। हो सकती है। अनुभव सीमित है, इसलिए इसके द्वारा सार्वभौम और अनिवार्य ज्ञान मिलना असंभव है।

(c) इस सिद्धांत में जन्मजात या सहज प्रत्यायों (Innate Ideas) का समर्थन किया गया है। जन्मजात प्रत्यय मनुष्य के मस्तिष्क में जन्मकाल से ही विद्यमान रहते हैं। इन्हें अनुभव के द्वारा प्राप्त नहीं किया जा सकता। ये स्वयं सिद्ध (Self-proved) है; क्योंकि इनको सिद्ध करने के लिए किसी अन्य साधन की आवश्यकता नहीं पड़ती। संपूर्ण ज्ञान इन्हीं जन्मजात प्रत्ययों में अव्यक्त रूप से निहित हैं। इन्हीं प्रत्ययों को विकसित करके बुद्धि हमें यथार्थ ज्ञान देती है। इसलिए, बुद्धिवाद को सहज ज्ञानवाद (Innatism) या अनुभवनिरपेक्षवाद (Apriorism) भी कहा जाता है।

(d) बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति निगमनात्मक पद्धति (Deductive Method) द्वारा होती है। गणितशास्त्र में निगमनात्मक या ज्यामितिक विधि (Geometrical Method) का सुंदर प्रयोग होता है। गणित में और विशेषकर ज्यामिति में कुछ स्वयंसिद्ध वाक्यों (Axioms) से आरंभ कर निगमनात्मक विधि द्वारा निष्कर्ष निकाला जाता है। इसी प्रकार, बुद्धि स्वसिद्ध जन्मजात प्रत्ययों के आरंभ कर उनके विश्लेषण द्वारा हमें यथार्थ ज्ञान प्राप्त कराती है। यह निगमनात्मक विधि है।

(e) बुद्धि के अनुसार मानव-मस्तिष्क हमेशा सक्रिय रहता है। (Human mind is always active)। यह विचार अनुभववादी विचारक लॉक के मत से सर्वथा भिन्न है। लॉक के अनुसार मस्तिष्क सदा निष्क्रिय (Passive) रहता है। बुद्धिवाद के अनुसार मस्तिष्क सक्रिय होकर ही सहज प्रत्ययों को सुव्यवस्थित करके हमें यथार्थ ज्ञान दिलाने में समर्थ होता है।

प्रश्न 12.
बौद्ध दर्शन के द्वितीय आर्य सत्य की व्याख्या करें। अथवा, द्वितीय आर्य सत्य को द्वादश निदान क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
बुद्ध का दूसरा आर्य सत्य दु:ख समुदय है। समुदय का अर्थ है-कारण। दुःख समुदय अर्थात दु:ख का कारण। इस प्रकार द्वितीय आर्य सत्य में बुद्ध ने दुःख की उत्पत्ति या कारण पर विचार किया है। बुद्ध मानते हैं कि प्रत्येक घटना का कोई-न-कोई कारण अवश्य होता है। दुःख भी एक घटना या कार्य है। इसलिए इसका भी कोई कारण अवश्य होना चाहिए। प्रायः सभी भारतीय विचारकों ने अज्ञान को ही दुःख का मूल कारण माना है। बुद्ध ने भी दुःख का कारण अज्ञान को ही माना है। बौद्ध दर्शन का यह दु:ख उत्पत्ति का सिद्धान्त बौद्धों के प्रतीत्य समुत्पाद अर्थात् कार्य कारण का सिद्धान्त भी कहलाता है।

प्रतीत्य समुत्पाद या द्वादश निदान का सिद्धान्त बौद्ध दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त कहा जा सकता है। बौद्ध दर्शन के अन्य दार्शनिक सिद्धान्त जैसे-क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, संघातवाद, कर्म का सिद्धान्त तथा अर्थक्रिया करित्वा का सिद्धान्त इसी पर आधारित है। प्रतीत्य समुत्पाद का अर्थ है–एक वस्तु के प्राप्त होने से दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा कारण के आधार पर कार्य की उत्पत्ति। प्रतीत्य समुत्पाद के एक सूत्र में कहा जाता है-“अस्मिन् सति इदम् भवति” यह होने पर यह होता है। इस प्रकार प्रतीत्य समुत्पाद सापेक्ष कारणतावाद का सिद्धान्त है। बुद्धि अविछिन्न कारण कार्य के प्रवाह को नहीं मानते। एक के होने से दूसरे की उत्पत्ति वे स्वीकार करते हैं।

प्रतीत्य समुदाय का नियम अमिट और अटल है। यह हेतु समूह को बताता है जो संस्कार आदि की उत्पत्ति के लिए एक-एक हेतु को निर्दिष्ट करता है। बुद्ध मानते हैं कि संसार के सभी ‘सत्व’ इस नियम के वशीभूत हैं। यह अनादि और अनन्त है तथा भूत, भविष्य और वर्तमान सभी कालों में निर्बाध रूप से लागू होता है। बुद्ध प्रतीत्य समुत्पाद को महत्त्व देते हुए कहते हैं-जो देखता है वह धर्म देखता है। और जो धर्म देखता है वह प्रतीत्य समुत्पाद देखता है।

प्रतीत्य समुत्पाद सापेक्ष और निरपेक्ष दोनों है। सापेक्ष दृष्टि से संसार और उसके हेतु निर्देश करता है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण का। कुछ मानते हैं कि यह बौद्ध धर्म है। इसको भूल जाना ही दुःख का कारण है और इसके ज्ञान से दुःख का अन्त होता है। नागार्जुन कहता है कि यह सिद्धान्त समस्त प्रपंच को समाप्त कर आनन्द देता है।

प्रतीत्य समुत्पाद में द्वादश अंग हैं। इन अंगों को निदान भी कहते हैं। इसमें एक अंग दूसरे के प्रत्यय से होता है। कारण कार्य की यह शृंखला स्वयं चलती रहती है। बुद्ध ने इसे भावचक्र भी कहा है।

गौतम ने रोग और जरामरण के दृश्यों को देखकर इनकी समस्या को सुलझाने के लिए घर-बार छोड़कर कठिन तपस्या और ध्यान किया। तब उन्हें समस्या के हल के रूप में कारण-कार्य श्रृंखला का यह सिद्धान्त प्राप्त हुआ जिसे वे सीधे और उल्टे दोनों ही क्रम से विवेचित करते हैं। दुःख निर्मिति के स्पष्टीकरण के रूप में उपर्युक्त द्वादश निदान हैं। प्रतीत्य समुत्पाद को कई नामों से पुकारा जाता है। द्वादश निदान, भावचक्र, जन्म-मरण चक्र और धर्मचक्र आदि। तिब्बत के बौद्ध भिक्षु चक्र घुमा-घुमाकर इन बारह कड़ियों का स्मरण करते रहते हैं।

1. अविद्या-अविद्या का अर्थ अज्ञान है। अविद्या के कारण ही संसार का दुःख रूप छिपा है। इसे अज्ञान, मोह, अदर्शन आदि भी कहते हैं। अनित्य में नित्यता, दुःख में सुख और अनात्म भूत जगत में आत्मा को खोजना यह अज्ञान ही अविद्या है। इससे ही संस्कार आदि समस्त भाव विरोधिनी है। अविद्या सभी बुराइयों का बीज है।

2. संस्कार-संस्कार या पूर्वजन्म की कर्मावस्था। अविद्या के कारण सत्य जो भी भला-बुरा कर्म करता है, वही संस्कार कहलाता है। जैसे संस्कार होते हैं वैसी ही उनका फल होता है। यह वह संकल्प शक्ति है जो नवीन अस्तित्व को उत्पन्न करती है। कर्म संस्कार, मनः संस्कार और वाक् संस्कार-ये संस्कार के तीन भेद किये जाते हैं।

3. विज्ञान-विज्ञान वे चित्त धाराएँ हैं जो पूर्ण जन्म में सत्व कर्म करता है उनके विपाक स्वरूप प्रकट होती है। शरीर, संवेदना, इन्द्रियाँ आदि नष्ट होने पर भी विज्ञान बचता है। यह प्राणी के माता के गर्भ में प्रवेश करता है और नवीन जन्म की ओर ले जाता है।

4. नाम रूप- विज्ञान से नामरूप का जन्म होता है। रूप में पृथ्वी, वायु, अग्नि और जल ये चार महाभूत तथा नाम से संज्ञा, वेदना, संस्कार और विज्ञान ये चार स्कन्ध आते हैं। दोनों को मिलाकर ही पंच स्कन्ध नामरूप कहलाते हैं जब विज्ञान माता के गर्भ में प्रति सन्धि ग्रहण करता है। तभी से नाम रूप उत्पन्न होना शुरू हो जाते हैं।

5. षडायतन- पाँच इन्द्रियाँ और मन षडायतन कहलाते हैं। इनसे ज्ञान की प्राप्ति में सहायता मिलती है । आँख, कान, नाक, त्वचा, जिह्वा और मन ये छ: इन्द्रियाँ माता के उदर से बाहर आने पर सत्व प्रयुक्त करता है।

6. स्पर्श- षडायतन से बाह्य संसार का जो सम्पर्क होता है, उसे स्पर्श कहते हैं । ये पंचेन्द्रिय और मन इन भेदों से छः प्रकार का होता है।

7. वेदना- वेदना का अर्थ अनुभव करना है। बाह्य जगत की वस्तुओं के स्पर्श से जो प्रथम प्रभाव मन पर उत्पन्न होता है, वह वेदना है। यह तीन प्रकार की होती है-सुख वेदना, असुखा-दुखा, वेदना।

8. तृष्णा-वेदना से तृष्णा उत्पन्न होती है। यह सब दुखों का मूल है। तृष्णा तीन प्रकार की है

  • काम तृष्णा-इन्द्रिय सुखों की इच्छा,
  • भव तृष्णा-जीवन के लिए,
  • विभव तृष्णा-वैभव के लिए।

ये तीनों तृष्णाएँ सत्व को भव चक्र में घुमाती रहती हैं। जबतक इच्छा या तृष्णा बाकी रहती है तब तक सत्व का जन्म होता रहता है और जब तृष्णा नहीं रह जाती तब के लिए कोई अवसर नहीं रहता।

9. उपादान-उपादान अर्थात् जगत को वस्तुओं के प्रति राग और मोह से सत्व का दृढ़तापूर्वक बन्धन उपादान की तृष्णा की आग को ईंधन प्रदान करते हैं। ये चार प्रकार के होते हैं-

  • शीलवतोपादान-व्यर्थ के शीलाचार में लगे रहना
  • दृष्ट्युपादान-मिथ्या सिद्धान्तों में विश्वास करना
  • आत्मवादोपादान-आत्मा के अस्तित्व में दृढ़ आग्रह करना
  • कालोपादान-अर्थात् वासनाओं में चिपटे रहना ।

10. भव-पुनर्जन्म के कारण कराने वाले कर्म को भव कहा गया है। भव से जन्म होता है।

11. जाति-उत्पन्न होना जाति है। पूर्व भव के कारण सत्व उत्पन्न होता है और वह संसार चक्र में फंसता है।

12. जरा-मरण-बुढ़ापा तथा मृत्यु इन दो अवस्थाओं को जरामरण कहा गया है। बुद्ध इनके अन्दर समस्त दुःखों का समावेश कर लेते हैं। संसार में जन्म के कारण सत्व, दुःख, रोग, निराशा, कष्ट, बुढ़ापा और अन्त में मृत्यु को प्राप्त करता है।

बुद्ध द्वादश निदान को (कार्य कारण) को इस उल्टे क्रम में समझाते हुए कहते हैं कि सत्व के सभी दु:खों तथा जरामरण का कारण जाति है। जाति का कारण भव, भव का कारण उपादान, उपादान का कारण वेदना, वेदना का कारण स्पर्श, स्पर्श का कारण षडायतन, षडायतन का कारण नामरूप, नामरूप का कारण विज्ञान, विज्ञान का कारण संस्कार और संस्कार का कारण अविद्या है। बुद्ध का अभिप्राय है कि हेतु से उत्पन्न होने वाले धर्मों के हेतु को जानना और उनका विरोध करने से निर्वाण की प्राप्त होती है।

ये धम्मा हेतुप्पभवा हेतु तेसं तथा गतो आह।
तेसं चयो निरोधो एवं वादी महसभणो।।

प्रश्न 13.
अन्तक्रियावाद और समानान्तरवाद में अन्तर करें।
उत्तर:
अन्तक्रियावाद (Interactionism)- मन शरीर संबंध का विश्लेषण देकार्त, स्पिनोजा और लाइबनीज ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। देकार्त्त का विचार है अन्तक्रियावाद (Interactionism), स्पिनोजा का विचार समानान्तरवाद (Parallelism) और लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। देकार्त के अनुसार मन और शरीर एक-दूसरे से स्वतंत्र है। मन चेतन है। शरीर जड़ है।

अत: दोनों का स्वरूप भिन्न है। फिर भी उनमें पारस्परिक संबंध है जिसे देकार्त ने अन्तक्रिया संबंध (relation of interaction) कहा है। जब भूख लगती है तो मन खिन्न रहता है। भोजन करने से भूख मिटती है और मन तृप्त होता है। मन में निराशा होती है, तो किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती है। हाथ-पैर हिलाने से काम होता है। इस प्रकार विरोधी स्वभाववाले ये दो सापेक्ष द्रव्य एक-दूसरे पर निर्भर है।

समानान्तारवाद (Parallelism)- पाश्चात्य विचारक स्पिनोजा ने मन-शरीर संबंध की व्याख्या के लिए सिद्धांत का प्रणयन किया है, उसे समानांतरवाद कहा जाता है। स्पिनोजा की मान्यता है कि मन और शरीर सापेक्ष द्रव्य नहीं हैं, जैसा की देकार्त ने स्वीकार किया है। चैतन और विस्तार क्रमश: मन और शरीर के गुण हैं तथा ये गुण ईश्वर में निहित रहते हैं। ये दोनों गुण ईश्वर के स्वभाव हैं। ये दोनों विरोधी स्वभाव नहीं है, बल्कि रेल की पटरियों के समान समानांतर स्वभाव हैं। इन दोनों की क्रियाएँ साथ-साथ होती हैं। ….

प्रश्न 14.
परिवेशीय नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर:
परिवेश अथवा पर्यावरण दो शब्दों से मिलकर बना है-परि + आवरण। परि का अर्थ है ‘चारों ओर’ और ‘आवरण’ का अर्थ है ‘घेरा’ अर्थात् हमारे चारों ओर जो भी प्राकृतिक और मानव निर्मित चीजें हैं जिसमें जैव एवं अजैव घटक जैसे-पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, पेड़-पौधे, समस्त जीव एवं पशुजगत पर्यावरण के अंतर्गत आते हैं। हरकोविट्ज ने पर्यावरण को परिभाषित करते हुए कहा है-“किसी जीवित तत्त्व के विकास चक्र को प्रभावित करने वाले समस्त बाह्य दशाओं को पर्यावरण कहते हैं।

मानव सभ्यता का विकास पर्यावरण की गोद में हुआ है। मानव सदा से पर्यावरण पर निर्भर रहे हैं लेकिन वर्तमान में वैश्वीकरण, उदारीकरण, औद्योगिकीकरण, जनसंख्या वृद्धि के कारण जिस प्रकार से मानव पर्यावरण का दोहन किया है कि सम्पूर्ण पारिस्थितिकी में असंतुलन उत्पन्न हो गया है जो सम्पूर्ण प्राणी जगत के अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो गया है। आज पर्यावरण के मुख्य घटक जल, वायु, पृथ्वी आदि प्रदूषित हो गई है। जल प्रदूषण का मूल कारण औद्योगिक करों को सीधे नदी में बहाया जाना शहर की नाली को सीधे नदी में बहाया जाना जिसमें जल प्रदूषण उत्पन्न हो गई है जिसका प्रमुख समस्त प्राणी जगत. पर पड़ रहा है।

वायु प्रदूषण का मूल कारण औद्योगिक चिमनी का वायु में छोड़ा जाना, नाभिकीय विस्फोट, परिवहन का विषैला गैस का वातावरण में छोड़ा जाना जिससे वायुमंडल गर्म हो गया जिसका प्रभाव ग्लोबल वार्मिंग ध्रुवीय प्रदेश का बर्फ का पिघलना, ओजोन परत में छेद होना आदि जिसका समस्त प्राणी जगत पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है।

इस प्रकार पर्यावरण प्रदूषण की समस्या समस्त प्राणी जगत के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है जिसका निदान आवश्यक है अन्यथा प्राणी जगत का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा।

प्रश्न 15.
शिक्षा दर्शन की व्याख्या करें। अथवा, शिक्षा दर्शन की परिभाषा दें तथा इसके दार्शनिक आधारों की विवेचना करें।
उत्तर:
शिक्षा दर्शनशास्त्र की वह शाखा है जिसमें शिक्षा के अर्थ, उद्देश्य, स्वरूप और विषय-वस्तु का अध्ययन दार्शनिक दृष्टि से किया जाता है। दार्शनिक दृष्टि का तात्पर्य है कि शिक्षा के विस्तृत आयाम का अध्ययन समग्र रूप में करना। समग्रता ही दर्शन है। दर्शन का मुख्य उद्देश्य सत्य की खोज है। शिक्षा का उद्देश्य सत्य ज्ञान (True knowledge) देना है। दर्शन में हम जिस सत्य की खोज करते हैं वह परमतत्त्व है जिस पर समस्त विश्व आधारित है। उस परमतत्त्व का ज्ञान उसे ही होता है जो शिक्षित है अर्थात् शिक्षा द्वारा सत्य ज्ञान की प्राप्ति होती है। अतएव शिक्षा और दर्शन में अवियोज्य संबंध है। यदि दर्शन साध्य है तो उसका साधन शिक्षा है। यही कारण है कि भारतीय मनीषियों ने शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहा है कि सा विद्या या विमुक्त्ये।

अर्थात् विद्या या ज्ञान या शिक्षा वही है जो मानव को मुक्ति दिलाये। भारतीय दार्शनिकों ने मानव-जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष (मुक्ति) को माना है। बौद्ध एवं जैन दार्शनिकों ने मुक्ति को क्रमशः निर्वाण और कैवल्य की संज्ञा दी है। चार्वाक दर्शन में देहोच्छेद (मृत्यु) को मोक्ष कहा गया है। यदि मोक्ष की शास्त्रीय अवधारणा पर विचार किया जाय तो मोक्ष मृत्यु नहीं है वरन् मानव-जीवन में निहित विकारों और कुविचारों का अंत है। इनके अंत के साथ ही मानव-व्यक्तित्व अपनी पूर्णता में आ जाता है और सामाजिक समग्रता और समरसता स्थापित हो जाती है। शिक्षा हमें इसी समग्रता और समरसता की ओर ले जाती है।

शिक्षा ‘शिक्ष्’ धातु से व्युत्पन्न है। शिक्ष् का अर्थ सीखना और सिखाना दोनों है। अतएव शिक्षा, जैसा कि पाणिनी ने कहा है, संस्कृत शब्द जो ‘शिक्ष्’ विद्योपादाने धातु से ‘गुरोश्च हल’ सूत्र भावार्थ में ‘अ’ प्रत्यय करने पर निष्पन्न माना गया है। इस परिभाषा में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि शिक्षा वह है जो गुरु द्वारा प्रस्तुत समाधान से प्राप्त होती है, अर्थात् शिक्षा गुरु के बिना प्राप्त नहीं होती। कहा भी गया है कि
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागू पाय।
बलिहारी गरु की. जिन दीऊ बताय।।
तात्पर्य यह है कि शिक्षा के दो मुख्य तत्त्व हैं-गुरु और शिष्य। शिष्य गुरु द्वारा शिक्षा ग्रहण करता है। प्रश्न है गुरु किस तरह शिष्य को शिक्षा देता है ? दूसरे शब्दों में, शिक्षा का तरीका क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के पूर्व पाश्चात्य दृष्टिकोणं से शिक्षा को परिभाषित करना आवश्यक है।

आश्रम व्यवस्था की शिक्षा प्रणाली और अकादमी शिक्षा प्रणाली दोनों में यह सम्मिश्रण देखने को मिलता है। ब्रह्मचर्य आश्रम की शिक्षा का आरंभ ईश्वर-भक्ति से होता है। आसन, प्राणायाम आदि शारीरिक क्रियाओं के पश्चात् वेद, वेदांग आदि शास्त्रों की शिक्षा मिलती है। अकादमीय शिक्षा प्रणाली के अनुसार आरम्भ में बच्चों को मात्र शारीरिक शिक्षा (Physical education) देना चाहिए। तत्पश्चात् विभिन्न विषयों की शिक्षा प्रदान करना चाहिए। शारीरिक शिक्षा शरीर और मन दोनों को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है। अन्य विषयों के ज्ञान से बौद्धिक विकास होता है। शरीर और बुद्धि दोनों का विकास होने पर ही मनुष्य का सर्वांगीण विकास होता है। मानव व्यक्तित्व अपनी पूर्णता को प्राप्त करता है। आज की शिक्षा प्रणाली शारीरिक शिक्षा पर कम ध्यान देती है। मात्र बौद्धिक शिक्षा पर बल देती है। फलतः शिक्षा का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है।

प्रश्न 16.
क्या शंकर के अनुसार जगत् असत्य है ? अथवा, शंकर के जगत विचार की व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर एकतत्ववादी है। ब्रह्म को छोड़कर शेष सभी वस्तुएँ जगत्, ईश्वर सत्य नहीं है। वह ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानता है। उपनिषद् के अनुसार ब्रह्म के दो स्वरूप है-शब्द, स्पर्श आदि से रहित निर्विवेक, निर्गुण, निराकार, ब्रह्म और गुणों से युक्त सगुण, साकार ब्रह्म। निर्गुण ब्रह्म को परब्रह्म तथा सगुण ब्रह्म को अपर ब्रह्म या ईश्वर कहा गया है। शंकर उपनिषद के समान ब्रह्म के निर्गुण और सगुण भेद को स्वीकार करते हैं। शंकर के अनुसार निर्गुण ब्रह्म को सत्, परमार्थ सत्य, परमार्थ-तत्व, भूमा, निरतिशय, कूटस्थ, नित्य, एक समस्त विशेषण रहित, दिग्देशक, लाद्यनपेक्ष, सर्वसंसार धर्म वर्जित निरस्त, सर्वोपाधिक सर्वगत, चैतन्य मात्र सत्ता, निराकृत सर्वनाम रूप, कर्म ज्ञान ज्ञेय ज्ञात भेद रहित आदि कहा गया है। शंकराचार्य केवल इसी निर्गुण ब्रह्म या आत्मा को एकमात्र तत्व मानते हैं, अतः अद्वैतवादी कहलाते हैं। परमार्थिक दृष्टि से यही परम तत्व है। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से अपर ब्रह्म या ईश्वर भी सत्य है।

शंकर का ब्रह्म सत्य होने के नाते सभी प्रकार के विरोधों से मुक्त है। शंकर का ब्रह्म प्रत्यक्ष विरोध और संभावित विरोध से शून्य है। ब्रह्म त्रिकाल बाधित सत्ता है। ब्रह्म व्यक्तित्व से शून्य है। व्यक्तित्व (Personality) में आत्मा (self) और अनात्मा (Not Self) का भेद रहता है। ब्रह्म सब भेदों से शून्य है। इसलिए ब्रह्म को निर्व्यक्तिक (Impersonal) कहा गया है। ब्रैडले ने भी ब्रह्म को व्यक्तित्व से शून्य माना है। शंकर ने ब्रह्म को अनन्त असीम कहा है। वह सर्वव्यापक है। उसका आदि और अंत नहीं है। वह सबका कारण होने के कारण सब का आधार है।

शंकर के ब्रह्म की सबसे प्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने ब्रह्म को अनिवर्चनीय माना है। ब्रह्म को शब्दों के द्वारा प्रकाशित करना असंभव है। ब्रह्म को भावात्मक रूप से जानना भी संभव नहीं है। हम यह नहीं जान सकते हैं कि “ब्रह्म” क्या है अपितु हम यह जान पाते हैं कि “ब्रह्म क्या नहीं है।” उपनिषद में ब्रह्म का “नेति-नेति’ कहकर वर्णन किया गया है। शंकर उपनिषद के इस विचार के आधार पर ही ब्रह्म की व्याख्या करता है। नेति-नेति का शंकर के दर्शन में इतना प्रभाव है कि वह ब्रह्म को एक कहने की बजाय अद्वैत (Non-dualism) कहते हैं।

शंकर के अनुसार जो सत है वही चित् है, जो चित् है वही सत् है। अतः शंकर ने परमार्थिक सत्य तथा ज्ञानात्मक सत्य में कोई भेद नहीं माना है। ज्ञान के क्षेत्र में भी ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञेय में कोई भेद नहीं है। शंकर का ब्रह्म सब प्रकार के गुणों से परे होकर भी निषेधात्मक नहीं है। निरपेक्ष सहज ज्ञान द्वारा उसका अनुभव किया जा सकता है। ब्रह्म आनन्द स्वरूप है। ब्रह्मानन्द अनुभव का विषय है। ज्ञान ब्रह्म का गुण नहीं बल्कि स्वरूप है। गुणातीत होने के कारण वह निर्गुण है। शंकर के ब्रह्म का वर्णन नेति-नेति के आधार पर ही किया है। वह सत् है, चित् है तथा आनंद स्वरूप है।

प्रश्न 17.
परार्थानुमान क्या है?
उत्तर:
प्रयोजन के अनुसार अनुमान के दो प्रकार होते हैं-(क) स्वार्थानुमान और (ख) परार्थानुमान। अनुमान दो उद्देश्यों से किया जा सकता है-अपनी शंका के समाधान के लिए या दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए। जब अनुमान अपनी शंका के समाध न के लिए किया जाता है तब उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। ऐसे अनुमान में तीन वाक्य रहते हैं-निगमन हेतु और व्याप्ति वाक्य। उदाहरण-

राम मरणशील है-निगमन
क्योंकि वह मनुष्य है-हेतु
∴ सभी मनुष्य मरणशील है-व्याप्तिवाक्य

जब अनुमान दूसरों को समझाने के लिए किया जाता है तब इसे परार्थानुमान कहते हैं। इसमें पाँच वाक्य होते हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, व्याप्तिवाक्य, उपनय और निगमन। इसे “पंचवयव-न्याय” कहते हैं। इसके द्वारा दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है।

उदाहरण-

  1. राम मरणशील है-प्रतिज्ञा
  2. क्योंकि वह एक मनुष्य है-हेतु
  3. सभी मनुष्य मरणशील है, जैसे-मोहन, रहीम इत्यादि-उदाहरण
  4. राम भी एक मनुष्य है-उपनय
  5. इसलिए राम मरणशील है-निगमन।

प्रश्न 18.
सांख्य की प्रकृति के तीन गुणों की व्याख्या करें।
उत्तर:
प्रकृति त्रिगुणात्मक है। सत्व, रजस् और तमस्-वे प्रकृति के तीन गुण हैं। ये तीनों गुण प्रकृति के विशेषण नहीं बल्कि प्रकृति के निर्णायक तत्त्व हैं और इन्हीं तीनों गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है।

सत्व- यह ज्ञान का प्रतीक एवं सुख का कारण है। यह प्रकाशक है। मन एवं बुद्धि में प्रकाश, दर्पण में प्रतिबिम्ब की शक्ति, पदार्थों के हल्के होने पर ऊपर उठने की प्रवृत्ति इसी तत्त्व के कारण हैं। यह सुख, प्रेम, आनन्द, उल्लास आदि का सिद्धांत है। इसका रंग सफेद होता है।

रजस- यह दुःख का कारण है। मन का भारीपन एवं हृदय पर बोझ इसी गुण के कारण होता है। यह स्वयं गतिशील और अन्य वस्तुओं को गति प्रदान करता है। इसका रंग लाल होता है।

तमस्- आलस्य, उदासीनता, जड़ता आदि तमस् के कारण होती है। यह अज्ञान एवं अंधकार का प्रतीक है। यह भारी होता है और इसलिए सत्व का विरोधी है और गति में बाधा पहुँचाकर कभी-कभी रजस् का भी विरोधी बन जाता है। इसका रंग काला होता है।

ये तीनों गुण यद्यपि स्वभाव में एक-दूसरे से एकदम ही भिन्न और विरोधी भी हैं, फिर भी तीनों गुणों में सहयोग भी होता है और तीनों साथ-साथ रहते हैं। एक ही वस्तु किसी को सुख, किसी को दुख पहुँचाता है और किसी अन्य में तटस्थता का भाव उत्पन्न करता है। एक सुन्दर स्त्री अपने पति को सुख, ईर्ष्यालु को दुःख पहुँचाती है तो सज्जनों को तटस्थ या उदासीन बनाती है। इन तीनों गुणों में विरोध रहते हुए भी सहयोग होता है। इसे सांख्य ने एक उपमा द्वारा समझाने का प्रयास किया है। जिस प्रकार तेल, बत्ती और अग्नि परस्पर भिन्न होते हुए भी एक साथ मिलकर प्रकाश उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार ये तीनों गुण परस्पर भिन्न होते हुए भी सहयोग द्वारा सांसारिक वस्तुओं को उत्पन्न करते हैं।

इन गुणों में सतत् परिवर्तन होते रहते हैं। ये परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं-सरूप परिणाम और विरूप परिणाम। सरूप परिणाम परिवर्तन तब होता है जब प्रत्येक गुण अन्य गुणों से अलग होकर अपने आप में सिमट जाता है, सत्व परिवर्तित होता है सत्व में, रजस् रजस् में, तमस् तमस् में। यह अवस्था प्रकृति की शान्तावस्था है। जब किसी कारणवश एक अन्य दो गुणों को दबाकर आगे बढ़ने का प्रयास करता है तो प्रकृति की साम्यावस्था भंग हो जाती है, प्रकृति में एक प्रकार की हलचल सी उत्पन्न हो जाती है। यहाँ सृष्टि का क्रम आरम्भ हो जाता है। इसे ही विरूप परिणाम परिवर्तन कहते हैं।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1 in Hindi

BSEB Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1 in Hindi

प्रश्न 1.
माँग के नियम की रेखाचित्र द्वारा व्याख्या कीजिए। किसी वस्तु की माँग को प्रभावित करने वाले पाँच तत्वों का वर्णन करें।
उत्तर:
माँग के नियम का रेखाचित्र द्वारा प्रदर्शन- मार्शल के अनुसार ‘मूल्य में कमी के साथ माँग में वृद्धि के साथ माँग की मात्रा में कमी आती है।’ (The amount demanded increases with a foll in Price and diminishes with a rise in Price-Marshall.)

इस बात को मार्शल ने बच्चों के सी-सौ (See-saw) खेल के द्वारा भी समझाया है। इस उदाहरण से यह बात स्पष्ट हो जाती है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 1

इस उदाहरण में ऊपर से नीचे देखने पर मालूम हो जाता है कि मूल्य में ज्यो-ज्यों कमी होती है। तो माँग में उसी तरह वृद्धि होती है। इसके विपरीत नीचे से ऊपर देखने पर यह मालूम हो जाता है कि मूल्य वृद्धि के फलस्वरूप माँग में कमी होती जाती है। इसी बात को निम्न रेखाचित्र द्वारा दिखलाया जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 2
इस रेखाचित्र से Ox नारंगी की मात्रा को और OY उसके मूल्य को बतलाया है। साथ ही DD वक्र रेखा माँग के नियम की रेखा है जिसे हम माँग की वक्र रेखा भी कहते हैं इस तरह इस नियम पर ध्यान देने से मुख्यतः ये बाते स्पष्ट हो जाती हैं-

सर्वप्रथम इस नियम से यह स्पष्ट हो जाता है कि मूल्य तथा माँग के बीच विपरीतार्थक संबंध पाया जाता है तथा अंत में इस नियम से यह भी ज्ञात हो जाता है कि यह सिर्फ एक प्रवृति को बतलाता है।

वे तत्व किसी वस्तु की माँगी गयी मात्रा को प्रभावित करते हैं माँग की निर्धारित करने वाले तत्व कहलाते हैं। ये तत्व निम्नलिखित हैं-

  • संबंधित वस्तुओं की कीमतें- प्रतिस्थापन वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर दी गयी वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है। जैसे-धान की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी प्रतिस्थापन वस्तु काफी माँग में वृद्धि हो जाती है एक पूरक वस्तु की कीमत में वृद्धि होने पर दी गयी वस्तु की माँग में कमी हो जाती है। पेट्रोल की कीमत में वृद्धि होने पर मोटर गाड़ी की माँग में कमी हो जाती है।
  • आय- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है। यह वस्तु पर निर्भर करता है कि वस्तु सामान्य वस्तु है अथवा घटिया वस्तु है।
  • रुचि स्वभाव आदत- यदि रुचि, स्वभाव और आदत में परिवर्तन अनुकूल हो तो वस्तु की माँग में वृद्धि होती है।
  • जनसंख्या- जनसंख्या बढ़ने पर माँग बढ़ती है और इसमें कमी होने पर माँग में कमी होती है।
  • संभावित कीमत- वस्तु की संभावित कीमत बढ़ने या घटने पर उसकी वतर्मान माँग में वृद्धि या कमी आएगी।

प्रश्न 2.
पैमाने के प्रतिफल से क्या अभिप्राय है ? उपयुक्त रेखाचित्र का प्रयोग करते हुए पैमाने के प्रतिफल की बढ़ती समान तथा घटती धारणाओं की व्याख्या करें।
उत्तर:
पैमाने के प्रतिफल- पैमाने के प्रतिफल का संबंध सभी कारकों में समान अनुपात में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप कुल उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से है। यह एक दीर्घकालीन अवधारणा है।

रेखाचित्र द्वारा पैमाने के प्रतिफलों का प्रदर्शन :
(i) पैमाने के बढ़ते प्रतिफल- पैमाने के बढ़ते प्रतिफल उस स्थिति को प्रकट करते हैं जब उत्पादन के सभी साधनों को एक निश्चित अनुपात में बढ़ाए जाने पर उत्पादन में वृद्धि अनुपात से अधिक होती है। दूसरे शब्दों में उत्पादन के साधनों में 10% की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20% की वृद्धि होती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 3
बगल के चित्र में पैमाने के बढ़ते प्रतिफल को दर्शाया गया है। चित्र से पता चलता है कि उत्पादन के साधनों में 10% की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20% की वृद्धि होती है यह पैमाने के बढ़ते प्रतिफल की स्थिति है।

(ii) पैमाने के समान प्रतिफल- पैमाने के समान प्रतिफल उत्पादन की उस स्थिति को प्रकट करते हैं। जिसमें साधनों की मात्रा में % वृद्धि और उत्पादन की मात्रा में % वृद्धि समान होती है। चित्र में साधनों की मात्रा में 10% वृद्धि होती है और उसके फलस्वरूप उत्पादन में भी 10% की वृद्धि हो रही है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 4

(iii) पैमाने के घटते प्रतिफल-साधनों को घटते प्रतिफल के अन्तर्गत उत्पाद (MP) वक्र का ढलान नीचे की ओर होता है। एक निश्चित बिंदु के पश्चात यह X-अक्ष को छुता है और उसको पार कर जाता है। जैसा कि चित्र में दिखाया गया है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 5

प्रश्न 3.
माँग की कीमत लोच से आप क्या समझते हैं ? इसे कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
माँग की कीमत लोच- माँग की लोच एक मात्रात्मक या परिमाणात्मक कथन है जो किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन के कारण उसकी माँग में परिवर्तन की मात्रा को दर्शाती है। दूसरे शब्दों में कीमत में परिवर्तन के परिणामस्वरूप माँगी गयी मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन तथा कीमत में प्रतिशत परिवर्तन के अनुपात को माँग की कीमत लोच कहते हैं।

माँग की कीमत लोच को इस प्रकार मापा जा सकता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 6

प्रश्न 4.
उत्पादन लागत के विभिन्न प्रकारों का वर्णन करें। औसत लागत तथा सीमान्त लागत के परस्पर सम्बन्धों की व्याख्या करें।
उत्तर:
उत्पादन के साधनों का प्रयोग करने के लिए जो धनराशि व्यय करनी पड़ती है उसे उत्पादन लागत कहा जाता है। उत्पादन लागत मुख्य रूप से उत्पादन की मात्रा पर निर्भर करती है।

उत्पादन लागत के विभिन्न प्रकार :
(i) अल्पकाल में उत्पादन लागतें
(ii) दीर्घकाल में उत्पादन लागतें।

(i) अल्पकाल में उत्पाद लागतें- अल्पकाल में उत्पादन प्रक्रिया के साधन होते हैं-
(a) स्थिर साधन- ऐसे साधन जिनकी मात्रा को उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तित नहीं किया जा सके।
(b) परिवर्तनशील साधन- ऐसे साधन जिनकी मात्रा के उत्पादन प्रक्रिया की आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता है।

अल्पकाल में दो प्रकार की उत्पादन लागतें सम्मिलित होती है-
(a) स्थिर लागतें (Fixed costs)- स्थिर लागत उस खर्च का जोड़ है जो उत्पादक को उत्पादन के स्थिर साधनों की सेवाओं को खरीदने या भाड़े पर लेने के लिए खर्च करनी पड़ती है।

(b) परिवर्तनशील लागते (Veriable Costs)- परिवर्तनशील लागत वह लागत है जो उत्पादक को उत्पादन के घटते-बढ़ते साधनों के प्रयोग के लिए खर्च करनी पड़ती है।
अल्पकाल में कुल उत्पादन लागत = कुल स्थिर लागत + कुल परिवर्तनशील लागत।

अल्पकाल में औसत लागतें- किसी वस्तु की प्रति इकाई लागत को औसत लागत कहते हैं। औसत लागत कुल लागत एवं उत्पादन की मात्रा का भागफल होता है।

सीमांत लागत (Marginal cost)- सीमांत का मतलब है एक अतिरिक्त इकाई का उत्पादन करने से कुल लागत में जितनी वृद्धि होती है उसे उस इकाई विशेष की सीमांत लागत कहा जाता है।

(ii) दीर्घकाल में उत्पादन लागतें (Production costs in long period)- दीर्घकाल में उत्पति का कोई स्थिर नहीं होता बल्कि उत्पादन की लम्बी समय अवधि के कारण उत्पादन का प्रत्येक परिवर्तनशील बन जाता है।
(a) दीर्घकालीन औसत लागत (Long period Average Cost curve)- दीर्घकालीन औसत लामत, दीर्घकालीन कुल लागत को उत्पादन लागत को कुल मात्रा से भाग देने पर प्राप्त होती है।
(b) दीर्घकालीन सीमांत लागत (Long period Marginal cost curve)- दीर्घकाल के उत्पाद की एक अतिरिक्त इकाई उत्पादन करने में कुल उत्पादन लागत में जो वृद्धि होती है उसे उस अतिरिक्त एक इकाई की सीमांत लागत कहते हैं।Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 7

औसत लागत एवं सीमांत लागत में सम्बन्ध-
औसत लागत तथा सीमांत लागत के बीच सम्बन्ध को इस प्रकार देखा जा सकता है-
(i) औसत लागत तथा सीमांत लागत की गणना उत्पादन की कुल लागत द्वारा की जाती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 8
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 9

(ii) आरंभ में जब औसत लागत वक्र गिरता है तब सीमांत लागत वक्र एक सीमा तक गिरता है किन्तु एक अवस्था के बाद सीमांत लागत वक्र बढ़ना आरंभ हो जाता है यद्यपि लागत से कम वक्र गिरता रहता है। इस प्रकार घटती औसत लागत की दशा के MC सदा औसत लागत से कम होती है। अर्थात MC < AC.

(iii) जब AC न्यूनतम होती तब MC वक्र AC वक्र को नीचे से काटता है। अर्थात् न्यूनतम औसत लागत सीमांत लागत के बराबर होती है। अर्थात् MC = AC

(iv) जब AC बढ़ता है तो MC वक्र AC से ऊपर होता है एवं साथ-ही-साथ AC वक्र से तीव्र गति से बढ़ता है अर्थात MC > AC चित्र में AC तथा MC वक्रों को प्रदर्शित किया गया है। AC वक्र बिन्दु A तक गिरता है और इस दिशा में MC क्रम बना रहता है AC से। AC के गिरने की दिशा में MC अधिक तेजी से नीचे गिरता है। AC के न्यूनतम बिन्दु A पर MC उसे नीचे से काटता है। A बिन्दु से AC बढ़ना आरंभ करती है ओर बिन्दु A के बाद MC अधिक तेजी से बढ़ती है। इसी प्रकार हम देख सकते हैं-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 10

प्रश्न 5.
राष्ट्रीय आय से आप क्या समझते हैं ? राष्ट्रीय आय की गणना करने की विधियों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
आय की दृष्टि में राष्ट्रीय आय से अंभिप्राय एक देश के सामान्य निवासियों के द्वारा एक वर्ष के अंदर तथा बाहर अर्जित आय का योग है। प्रत्येक देश वित्तीय वर्ष के अन्तर्गत अपने राष्ट्रीय आय का मूल्यांकन करती है। देश में वित्तीय वर्ष भर में कुल उत्पादन के मूल्य सेवाओं के मूल्य तथा विदेशी मुद्रा से प्राप्त आय का योगफल निकाला जाता है। इनके सम्मिलित मूल्य को राष्ट्रीय आय कहा जाता है। इसे सामाजिक आय भी कह सकते हैं। राष्ट्रीय आय का मूल्यांक करके एक देश अपने आय का अनुमान लगाती है और यह देखती है कि पिछले वर्ष की तुलन में राष्ट्रीय आय घटी है या बढ़ी है अथवा स्थिर रही है।

किसी अर्थव्यवस्था की गतिविधियों को मापने के लिए, उसके निर्धारित लक्ष्यों को किस सीमा तक प्राप्त किया जा सकता है इसके लिए उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य को मापना आवश्यक है। राष्ट्रीय उत्पादन के चक्रीय प्रवाह के तीन चरण हैं-उत्पादन, आय और व्यय। प्रत्येक के लिए आँकड़ों और विधियों की आवश्यकता पड़ती है।

उत्पादन के चरण पर राष्ट्रीय आय को मापने के लिए देश के निजी क्षेत्र तथा सरकारी क्षेत्र के सभी उत्पाद उद्यमों द्वारा की गई शुद्ध मूल्य वृद्धि के कुल जोड़ को ज्ञात करना चाहिए।

व्यय के चरण के लिए हमें व्यय करने वाली इकाइयों अर्थात् सामान्य सरकार, उपभोक्ता, ‘परिवारों तथा उत्पादक उद्यमों के कुल आय के जोड़ को ज्ञात करना होगा।

आय के वितरण चरण पर राष्ट्रीय आय को मापने के लिए वस्तुओं और सेवाओं की उत्पादन प्रक्रिया के दौरान सृजित की गई कुल आय को ज्ञात करना चाहिए। इसलिए राष्ट्रीय आय की माप के लिए तीन विधियों-उत्पाद विधि, आय विधि और व्यय विधि की सहायता ली जाती है। तीनों विधियों से प्राप्त आँकड़े समान होने चाहिए, क्योंकि जो भी उत्पादन किया जाता है उसका ‘मूल्य ही उत्पादन के साधनों के बीच बाँटा जाता है तथा वही परिवारों, फर्मों और सरकार द्वारा एक वर्ष की अवधि में खर्च किया जाता है।

नीचे दिये गये तीनों विधियों के सूत्रों से यह स्पष्ट होता है।

मूल्य वृद्धि विधि (Value Added Method) :
प्राथमिक क्षेत्र में सकल मूल्य वृद्धि + द्वितीयक क्षेत्र में सकल मूल्य वृद्धि + तृतीयक क्षेत्र में सकल मूल्य वृद्धि।
= बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद – मूल्य ह्रास।
= बाजार कीमत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद – शुद्ध अप्रत्यक्ष कर
= साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद + विदेशों से शुद्ध साधन आय।
= राष्ट्रीय आय (National Income)

व्यय विधि (Expenditure Method) :
निजी अंतिम उपभोग व्यय + सरकारी अंतिम उपभोग व्यय + सकल घरेलू पूँजी निर्माण + शुद्ध निर्यात = बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद – शुद्ध अप्रत्यक्ष कर – मूल्य ह्रास।
= साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद + विदेशों से शुद्ध साधन आय।
=राष्ट्रीय आय (National Income)

आय विधि (Income Method) :
कर्मचारियों का पारिश्रमिक + प्रचालन अधिशेष + मिश्रित आय
= शुद्ध घरेलू आय + विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय
= राष्ट्रीय आय (National Income)

प्रश्न 6.
सरकारी बजट क्या है ? इसके उद्देश्यों की चर्चा करें।
उत्तर:
आगामी आर्थिक वर्ष के लिए सरकार के सभी प्रत्याशित राजस्व और व्यय का अनुमानित वार्षिक विवरण बजट कहलाता है। सरकार कई प्रकार की नीतियाँ बनाती है। इन नीतियों को लागू करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। सरकार आय और व्यय के बारे में पहले से ही अनुमान लगाती है। अतः बजट आय और व्यय का अनुमान है। सरकारी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

बजट के निम्नलिखित उद्देश्य हैं-

  • सरकार को अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को पूरा करने के लिए वित्तीय व्यवस्था करनी पड़ती है।
  • सरकार सामाजिक सुरक्षा, आर्थिक सहायता, सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर व्यय करके अर्थव्यवस्था में धन और आय के पुनर्वितरण की व्यवस्था करती है।
  • बजट के माध्यम से सरकार कीमतों में उतार-चढ़ाव को रोकने का प्रयास करती है। रोजगार के अधिक अवसर उत्पन्न करने और कीमत स्थिरता के लिए,प्रयत्न करने में बजट महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
  • सरकार महत्त्वपूर्ण उद्यमों का संचालन सार्वजनिक क्षेत्र में करती है। विद्युत उत्पादन, रेलवे आदि ऐसे ही उद्यम है। यदि इन्हें अनियंत्रित रखा जाय तो ये एकाधिकारी उद्यम में परिवर्तित हो सकते हैं। अधिकतम लाभ की आशा में उत्पादन में कमी कर सकते हैं, इससे सामाजिक कल्याण में कमी आ सकती है।
  • बजट अर्थव्यवस्था में राजकोषीय अनुशासन उत्पन्न करता है। व्यय के ऊपर पर्याप्त नियंत्रण करता है। संसाधनों को सामाजिक प्राथमिकताओं के अनुसार उपयोग में लाने में सहायता मिलती है। साथ ही सेवाओं की उपलब्धता प्रभावपूर्ण और कुशल तरीके से उपलब्ध कराने में बजट महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

प्रश्न 7.
उदासीनता की वक्र रेखा द्वारा उपभोक्ता को संतुलन की प्राप्ति कैसे होती है ?
अथवा, उदासीनता वक्र विश्लेषण में उपभोक्ता का साम्य कैसे स्थापित होता है ?
उत्तर:
प्रो० हिक्स तथा प्रो० ऐलेन ने दो वस्तुओं के सन्दर्भ में उपभोक्ता संतुलन को उदासीनता रेखा या तटस्थता वक्र तथा बजट रेखा (कीमत रेखा) की सहायता से स्पष्ट किया है।

1. तटस्थता रेखाचित्र- तटस्थता तालिका वह तालिका है जो दो वस्तुओं के ऐसे संयोगों को दर्शाती है जिससे किसी व्यक्ति को समान संतोष मिलता है। यदि हम इन संयोगों को वक्र रेखा के रूप में प्रदर्शित करें तो हमें तटस्थता वक्र रेखाचित्र प्राप्त होता है। यह वक्र यह प्रदर्शित करता है कि यदि व्यक्ति दो वस्तुओं में किसी एक वस्तु का उपभोग ज्यादा करता है तो उसे दूसरी वस्तु की. कुछ मात्रा का त्याग करना होगा।

2. बजट रेखा या कीमत रेखा- बजट रेखा यह दर्शाता है कि उपभोक्ता की आय निश्चित है तथा वह इस आय को दो वस्तुओं पर खर्च करता है। वह यह रेखा से ऊपर नहीं जा सकता क्योंकि उसकी आय इतनी नहीं कि वह उससे आगे खर्च कर सके।

उपभोक्ता संतुलन- तटस्थता वक्र रेखा विधि के अनुसार, एक उपभोक्ता संतुलन की स्थिति उस बिन्दु पर होता है जहाँ तटस्थता वक्र कीमत रेखा को ठीक स्पर्श कर रहा होता है अर्थात् tangent होता है। इस बिन्दु पर प्राप्त दो वस्तुओं के संयोग से उपभोक्ता को अधिकतम संतुष्टि प्राप्त होगी।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 11
चित्र में तटस्थता वक्र IC बजट रेखा BL को बिन्दु E पर स्पर्श कर रही है। यही बिन्दु उपभोक्ता संतुलन की स्थिति है, जहाँ उपभोक्ता वस्तु Y की OY मात्रा तथा वस्तु X की ox मात्रा के संयोग द्वारा अधिकतम संतुष्टि प्राप्त करेगा। उपभोकता IC High तटस्थता वक्र पर खर्च नहीं कर सकता है क्योंकि यह उसकी बजट रेखा से ऊपर है, अर्थात् उपभोक्ता की आय उतनी नहीं है। तटस्थत वक्र IC low पर उसे अधिकतम संतुलित नहीं मिलती है क्योंकि यह उसके बजट रेखा से नीचे तथा x और y के जिस संयोग (बण्डता) पर वह तटस्थ होता है, इस स्थिति में उससे कम संतुष्टि प्राप्त होती है।

उपभोक्ता संतुलन की निम्नलिखित शर्ते तथा मान्यताएँ हैं-

  1. उपभोक्ता विवेकशील है- उपभोक्ता अपनी संतुष्टि को अधिकतम करने की चेष्टा करता है। इसलिए वह दो वस्तुओं पर बहुत सोच समझ कर व्यय करता है।
  2. उपभोक्ता की तटस्थता वक्र निश्चित है- उपभोक्ता दो वस्तुओं के विभिन्न संयोगों का पूर्व निर्धारण कर लेता है।
  3. वस्तुएँ समरूप तथा विभाज्य है एवं वस्तुओं की कीमतें स्थिर हैं।
  4. उपभोक्ता की आय के अनुसार बजट रेखा (कीमत रेखा) निर्धारित है तथा उपभोक्ता अपना संपूर्ण बजट इन दो वस्तुओं पर खर्च करता है।

उदासीनता वक्र तथा बजट रेखा को संतुलन बिन्दु पर मात्र छूती हुई हो।
(i) बजट रेखा, तटस्थता रेखा को संतुलन बिन्दु पर मात्र छूती हुई हो।
(ii) सीमान्त प्रतिस्थापन दर और कीमत अनुपात बराबर हो अर्थात्
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 12
(iii) संतुलन बिन्दु पर उदासीनता (तटस्थता) रेखा मूल बिन्दु से उन्नतोदर (convex) हो।

प्रश्न 8.
माँग वक्र के नीचे की ओर पतनशील होने के कारण की व्याख्या करें।
अथवा, माँग वक्र की ढाल नीचे की ओर क्यों होती है ?
उत्तर:
माँग की वक्र रेखा का घनिष्ठ संबंध माँग की तालिका में होता है। माँग की वक्र रेखा का मतलब एक निश्चित तालिका से होता है। इस तरह जब माँग की तालिका को रेखाचित्र द्वारा व्यक्त किया जाता है तो उसे ही माँग की वक्र रेखा कहा जाता है।

माँग वक्र की ढाल नीचे की ओर होती है। इसके विभिन्न कारण हैं, जो निम्नलिखित हैं-
इस संदर्भ में सबसे पहले उपयोगिता हास नियम का उल्लेख किया जाता है। उसी नियम के अनुसार, “उपभोक्ता जैसे-जैसे वस्तुओं के उपयोग की मात्रा में वृद्धि करते जाता है, वैसे-वैसे उससे प्राप्त उपयोगिता धीरे-धीरे घटती जाती है। लेकिन उपभोक्ता वस्तु का मूल्य सामान्यतः वस्तुओं से प्राप्त होने वाली उपयोगिता के आधार पर देता है। ऐसी स्थिति में कम उपयोगिता मिलने पर कम मूल्य और अधिक उपयोगिता मिलने पर अधिक मूल्य देने को तैयार होता है। ऐसें स्थिति में उपयोगिता कम होने पर कम मूल्य देता है जबकि उपयोगिता में यह कभी वस्तु का अधिक मात्रा के कारण होता है। फलतः मूल्य कम होने पर माँग में कमी होती है। अर्थशास्त्री मार्शल के शब्दों में, “The greater the amount to be said the smaller must be the price of which it is offered.”

दूसरे उपभोक्ताओं की संख्या में परिवर्तन के कारण ही माँग की वक्र रेखा बायें से दायें नीचे की ओर झुकती है। सचमुच में जब किसी वस्तु का मूल्य घट जाता है। तो उनके उपभोक्ताओं की संख्या में वृद्धि हो जाती है जिसके कारण उनका वस्तु की माँग बढ़ जाती है। ऐसी स्थिति को Prof. Boulding ने Industry effect के नाम से संबोधित किया जाता है। तीसरे Prof. Hicks ने इस संदर्भ में अलग प्रभाव का भी उल्लेख किया है। इसके अनुसार जब किसी वस्तु का मूल्य . घट जाता है तो उपभोक्ता महँगी वस्तुओं का उपभोग करने लगता है। फलतः कम मूल्य वाली वस्तुओं के उपभोग में वृद्धि होने से उनकी मांग बढ़ जाती है। इसके विपरीत जब किसी वस्तु का मूल्य बढ़ जाता है तो उपभोक्ता महँगी वस्तुओं के स्थान पर सस्ती वस्तुओं का उपभोग करने लगा है। इस तरह महँगी वस्तुओं का उपभोग की मात्रा घट जाती है जिससे उनकी माँग घट जाती है।

प्रश्न 9.
माँग की प्रतिलोच से क्या समझते हैं ? उसे कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
किसी वस्तु के मूल्य में परिवर्तन के कारण माँग में होने वाले परिवर्तन को माँग की लोच कहा जाता है। माँग की लोच विभिन्न प्रकार की होती है जिनमें माँग की प्रतिलोच का भी महत्वपूर्ण स्थान है। जब वस्तु के मूल्य में प्रतिशत परिवर्तन और वस्तु की माँगी गयी मात्रा में प्रतिशत परिवर्तन बराबर होता है। यानी एक-दूसरे को क्रॉस करती हैं तो इसे ही माँग की प्रतिलोच कहा जाता है।

माँग की प्रतिलोच को मापने का सूत्र इस प्रकार है-
Ed = \(\frac{\Delta Q}{\Delta P} \times \frac{P}{Q}\)

इस सूत्र के द्वारा माँग की प्रतिलोच को मापा जाता है और यह पता लगाया जाता है कि माँग की लोच बेलोचदार है या लोचदार। साथ ही माँग की लोच इकाई से अधिक है या इकाई से कम अथवा इकाई के बराबर है।

प्रश्न 10.
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की व्याख्या करें। इस नियम के लागू होने की आवश्यक शर्ते कौन-कौन सी हैं ?
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम इस तथ्य की विवेचना करता है कि जैसे-जैसे उपभोक्ता किसी वस्तु की अगली इकाई का उपभोग करता है अन्य बातें समान रहने पर उससे प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। एक बिन्दु पर पहुँचने पर यह शून्य यदि उपभोक्ता इसके पश्चात् भी वस्तु का सेवन जारी रखना है तो यह ऋणात्मक हो जाती है। निम्न उदाहरण से भी यह इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 13

इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा एक से बढ़कर 6 तक पहुँच जाती है वैसे-वैसे उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता भी 10 से घटते-घटते शून्य और ऋणात्मक यानी -4 तक हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि वस्तु की मात्रा में वृद्धि होते रहने से उससे मिलने वाली सीमांत उपयोगिता घटती जाती है।

सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की निम्नलिखित शर्ते या मान्यताएँ हैं-

  1. उपभोग की वस्तुएँ समरूप होने चाहिए।
  2. उपभोग की क्रिया लगातार होनी चाहिए।
  3. उपभोक्ता की मानसिक स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
  4. उपभोग निश्चित इकाई में किया जाना चाहिए।
  5. आय, आदत, रुचि, फैशन आदि में कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए।

प्रश्न 11.
कीन्स के आय एवं रोजगार सिद्धांत के मुख्य बिन्दुओं को समझाएँ।
उत्तर:
आर्थिक महामंदी (1929-1933) ने कई ऐसी आर्थिक समस्याओं को जन्म दिया जिनको व्यष्टि अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के आधार पर हल नहीं किया जा सका। इन समस्याओं के समाधान हेतु प्रो० जे० एम० कीन्स ने General theory of Employment, Interest & Money लिखी। इस पुस्तक में कीन्स ने आय एवं रोजगार के बारे में निम्नलिखित मुख्य बातें बताईं-

(i) एक अर्थव्यवस्था में आय एवं रोजगार का स्तर संसाधनों की उपलब्धता एवं उपयोग पर निर्भर करता है। यदि किसी अर्थव्यवस्था में कुछ संसाधन बेकार पड़े होते हैं तो अर्थव्यवस्था उन्हें उपयोग में लाकर आय एवं रोजगार के स्तर को बढ़ा सकता है।

(ii) कीन्स ने परंपरावादियों के इस विचार को कि एक वस्तु की पूर्ति माँग की जनक होती है खारिज कर दिया। कीन्स ने बताया कि वस्तु की कीमत उपभोक्ता की आय और उपभोक्ता की उपयोग प्रवृत्ति पर निर्भर करती है।

(iii) परंपरावादी अर्थशास्त्रियों के अनुसार संतुलन की अवस्था में सदैव पूर्ण रोजगार की स्थिति होती है। लेकिन कीन्स ने संतुलन स्तर के रोजगार स्तर को साम्य रोजगार स्तर का नाम दिया और स्पष्ट किया कि साम्य रोजगार स्तर आवश्यक रूप से पूर्ण रोजगार स्तर के समान नहीं होता है। यदि साम्य रोजगार स्तर, पूर्ण रोजगार स्तर से कम है तो अर्थव्यवस्था उपभोग या सामूहिक माँग की बढ़ाकर आय एवं रोजगार स्तर में वृद्धि कर सकती है।

(iv) परंपरावादी विचार में सरकारी हस्तक्षेप को निषेध करार दिया गया था। लेकिन कीन्स ने सुझाव दिया कि विषम परिस्थितियों जैसे अभाव माँग, अधिमाँग आदि में हस्ताक्षर करके इन्हें ठीक करने के लिए उपाय अपनाने चाहिए।

(v) परंपरावादी सिद्धांत में बचतों को वरदान बताया गया है जबकि समष्टि स्तर पर कीन्स ने बचतों को अभिशाप की संज्ञा दी है। व्यक्तिगत स्तर पर बचत वरदान हो सकती है।

प्रश्न 12.
विदेशी विनिमय दर को परिभाषित करें। स्थिर और लोचपूर्ण विनिमय दर में अंतर करें।
उत्तर:
वह दर जिस पर एक देश की एक मुद्रा इकाई का दूसरे देश की मुद्रा में विनिमय किया जाता है, विदेशी विनिमय दर कहलाता है। इस प्रकार विनिमय दर घरेलू मुद्रा के रूप में दी जाने वाली वह कीमत है जो विदेशी मुद्रा की एक इकाई के बदले दी जाती है।

स्थिर एवं लोचपूर्ण विनिमय दरों में निम्नलिखित अंतर पाया जाता है-
स्थिर विनिमय दर:

  1. यह सरकार द्वारा घोषित की जाती है और इसे स्थिर रखा जाता है।
  2. इसके अंतर्गत विदेशी केन्द्रीय बैंक अपनी मुद्राओं को एक निश्चित कीमत पर खरीदने और बेचने के लिए तत्पर रहता है।
  3. इसमें परिवर्तन नहीं आते हैं।

लोचपूर्ण विनिमय दर:

  1. माँग एवं पूर्ति की शक्तियों द्वारा अंतर्राष्ट्रीय बाजार में निर्धारित होती है।
  2. इसमें केन्द्रीय बैंक का हस्तक्षेप नहीं होता है।
  3. इसमें हमेशा परिवर्तन आते रहते हैं।

प्रश्न 13.
परिवर्तनशील अनुपात के नियम की व्याख्या करें।
उत्तर:
घटते-बढ़ते अनुपात के नियम के अनुसार जब एक या एक से अधिक साधनों को स्थिर रखा जाता है तो उत्पादक के परिवर्तनशील साधनों के अनुपात में वृद्धि करने से उत्पादन पहले बढ़ते हुए अनुपात में बढ़ता है, फिर समान अनुपात में तथा इसके बाद घटते हुए अनुपात में बढ़ता है। श्रीमती जॉन रॉबिन्सन के अनुसार, “उत्पत्ति ह्रास नियम यह बताता है कि यदि किसी एक उत्पत्ति के साधन की मात्रा को स्थिर रखा जाय तथा अन्य साधनों की मात्रा में उत्तरोत्तर वृद्धि की जाय तो एक निश्चित बिन्दु के बाद उत्पादन में घटती दर से वृद्धि होती है।”

इस नियम के अनुसार उत्पादन की तीन अवस्थाएँ हैं-

  • पहली अवस्था- सीमान्त उत्पादन अधिकतम होने के बाद घटना आरम्भ हो जाता है। औसत उत्पादन अधिकतम हो जाता है तथा कुल उत्पादन बढ़ता है।
  • दूसरी अवस्था- औसत उत्पादन घटने लगता है और कुल उत्पादन घटती दर से बढ़ता है तथा अधिकतम बिन्दु पर पहुँचता है तब सीमान्त उत्पादन शून्य हो जाता है।
  • तीसरी अवस्था- औसत उत्पादन घटना जारी रहता है तथा कुल उत्पादन कम होने लगता है तब सीमान्त उत्पादन ऋणात्मक हो जाता है।

प्रश्न 14.
केंद्रीय बैंक किस प्रकार व्यापारिक बैंक से भिन्न होता है ?
उत्तर:
केन्द्रीय बैंक एवं व्यापारिक बैंक निम्नलिखित अंतर हैं-
केन्द्रीय बैंक:

  • यह देश का सर्वोच्च बैंक (Apex Bank) होता है। यह अन्य सभी बैंकों पर नियंत्रण रखता है।
  • इसका प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रहित में बैंकिंग प्रणाली का संचालन करना है। इसका उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका को छोड़कर (जहाँ 12 केन्द्रीय बैंक हैं) अन्य सभी देशों में एक-एक केन्द्रीय बैंक होता है।
  • केन्द्रीय बैंक पर सरकार का स्वामित्व होता है।
  • यह विशेष दशाओं के अतिरिक्त अन्य दशाओं में जनसाधारण के साथ व्यवसाय नहीं कर सकता।
  • यह सरकार के बैंकर के रूप में सरकार की ओर से लेन-देन करता है।

व्यापारिक बैंक:

  • वे सम्पूर्ण बैंकिंग प्रणाली का एक अंग होते हैं और केन्द्रीय बैंक के नियंत्रण में कार्य करते हैं।
  • इसका मुख्य एवं प्राथमिक उद्देश्य लाभ कमाना होता है।
  • देश में अनेक व्यापारिक बैंक होते हैं।
  • ये प्रायः अंशधारियों के बैंक होते हैं। इसका स्वामित्व सरकारी और गैर-सरकारी भी हो सकता है।
  • ये जनसाधारण से व्यवसाय करते हैं।
  • यह जनता का बैंकर है।

प्रश्न 15.
कृषि के संदर्भ में उत्पत्ति ह्रास नियम की व्याख्या करें।
उत्तर:
उत्पत्ति ह्रास नियम हमारे साधारण जीवन के अनुभवों पर आधारित है। सर्वप्रथम इस प्रवृत्ति का अनुभव स्कॉटलैण्ड के एक किसान ने किया था, किन्तु वैज्ञानिक रूप में इसके प्रतिपादन का श्रेय टरगोट को है। यह नियम मुख्यतः कृषि में ही क्रियाशील होता है। कृषि के क्षेत्र में इस नियम की व्याख्या इस प्रकार से की जा सकती है-

जब उपज बढ़ाने के लिए भूमि के एक निश्चित टुकड़े पर कोई किसान पूँजी एवं श्रम की मात्रा को बढ़ाता है तो प्रायः यह देखा जाता है कि उपज में उससे कम ही अनुपात में वृद्धि होती है। अर्थशास्त्र में इसी प्रवृत्ति को क्रमागत उत्पत्ति ह्रास नियम कहते हैं। प्रत्येक किसान अनुभव के आधार पर इस बात को जानता है कि एक सीमा के बाद भूमि की एक निश्चित मात्रा पर आंधक श्रम एवं पूँजी लगाने से उपज घटते हुए अनुपात में बढ़ती है। यदि ऐसा नहीं होता तो आज विश्व में खाद्यान्न के अभाव की समस्या ही उपस्थित नहीं होती तथा एक हेक्टर भूमि में खेती करके ही सम्पूर्ण विश्व को सुगमतापूर्वक खिलाया जा सकता था। किन्तु बात ऐसी नहीं है। इस प्रकार प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री उत्पत्ति ह्रास नियम को कृषि से संबंधित करते थे। इन लोगों के अनुसार भूमि की पूर्ति सीमित है। अतः जनसंख्या में वृद्धि के कारण एक सीमित भूमि पर अधिक लोगों के काम करने से उपज में घटती हुई दर से वृद्धि होगी।

मार्शल ने कृषि के संबंध में इस नियम की व्याख्या इस प्रकार से की है, “यदि कृषि कला में साथ-ही-साथ कोई उत्पत्ति नहीं हो, तो भूमि पर उपयोग की जाने वाली पूँजी एवं श्रम की मात्रा में वृद्धि से कुल उपज में साधारणतया अनुपात से कम ही वृद्धि होती है।” इस प्रकार मार्शल के अनुसार एक निश्चित भूमि के टुकड़े पर ज्यों-ज्यों श्रम एवं पूँजी की इकाइयों में वृद्धि की जाती है, त्यों-त्यों उपज घटते हुए अनुपात में बढ़ती है, यानी सीमान्त उपज में क्रमशः ह्रास होते जाता है। इसे निम्न तालिका द्वारा भी दर्शाया जा सकता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 1, 14

इस तालिका से स्पष्ट होता है कि श्रम एवं पूँजी की पहली इकाई लगाने से उस भूमि पर 20 क्विंटल उपज होती है, दूसरी इकाई के प्रयोग से कुल उपज 35 क्विंटल होती है लेकिन सीमान्त उपज 15 क्विंटल होती है। तीसरी इकाई के प्रयोग से कुल उपज 45 क्विंटल होती है तथा सीमान्त उपज 10 क्विंटल होती है। चौथी इकाई के प्रयोग से कल उपज 50 क्विंटल तथा सीमान्त उपज 5 क्विंटल होती है। अतः स्पष्ट है कि किसान ज्यों-ज्यों एक निश्चित भूमि के टुकड़े पर श्रम एवं पूँजी की इकाइयों को बढ़ाता है, त्यों-त्यों कुल उपज में वृद्धि अवश्य होती है, किन्तु उस अनुपात में नहीं जिस अनुपात में श्रम एवं पूँजी में वृद्धि की जाती है। दूसरे शब्दों में, श्रम एवं पूँजी की अतिरिक्त इकाइयों के प्रयोग के परिणामस्वरूप उपज में घटते हुए अनुपात में वृद्धि होती है।

प्रश्न 16.
पूर्ण प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) क्रेताओं और विक्रेताओं की अधिक संख्या- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में क्रेताओं और विक्रेताओं की संख्या बहुत अधिक होती है जिसके कारण कोई भी विक्रेता. अथवा क्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाता। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में एक क्रेता अथवा एक विक्रेता बाजार में माँग अथवा पूर्ति की दशाओं को प्रभावित नहीं कर सकता।

(ii) वस्तु की समरूप इकाइयाँ- सभी विक्रेताओं द्वारा बाजार में वस्तु की बेची जाने वाली इकाइयाँ एक समान होती हैं।

(iii) फर्मों के प्रवेश व निष्कासन की स्वतंत्रता- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में कोई भी नई फर्म उद्योग में प्रवेश कर सकती है तथा कोई भी पुरानी फर्म उद्योग से बाहर जा सकती है। इस प्रकार पूर्ण प्रतियोगिता में फर्मों के उद्योग में आने-जाने पर कोई प्रबन्ध नहीं होता।

(iv) बाजार दशाओं का पूर्ण ज्ञान- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में क्रेताओं एवं विक्रेताओं को बाजार दशाओं को पूर्ण ज्ञान होता है। इस प्रकार कोई भी क्रेता वस्तु की प्रचलित कीमत से अधिक कीमत देकर वस्तु नहीं खरीदेगा।
यही कारण है कि बाजार में वस्तु की एक समान कीमत पायी जाती है।

(v) साधनों की पूर्ण गतिशीलता- पूर्ण प्रतियोगिता में उत्पत्ति के साधन बिना किसी व्यवधान के एक उद्योग से दूसरे उद्योग में अथवा एक फर्म से दूसरी फर्म में स्थानान्तरित किये जा सकते हैं।

(vi) कोई यातायात लागत नहीं- पूर्ण प्रतियोगी बाजार में यातायात लागत शून्य होती है जिसके कारण बाजार में एक कीमत प्रचलित रहती है।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 5 in Hindi

BSEB Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 5 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 5 in Hindi

प्रश्न 1.
आय विधि से सम्बन्धित सावधानियाँ कौन-सी हैं ?
उत्तर:
आय विधि से संबधित सावधानियाँ ये हैं

  • गैर-कानूनी ढ़ग से कमाई गयी आय (जैसे-तस्करी, कालाबाजारी, जुआ, चोरी, डाका, आदि से प्राप्त आय) पर
  • हस्तारण आय (जैसे-छात्रवृति, वृद्धावस्था पेंशन, बेकारी भत्ता आदि) को राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं करना चाहिए।
  • स्व उद्योग के लिए उत्पादन को राष्ट्रीय आय में शामिल किया जाना चाहिए।
  • निगम कर लाभ का एक अंग है। अतः इसे अलग से राष्ट्रीय आय को राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं किया जाना चाहिए।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय आय को व्यय विधि से कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
राष्ट्रीय आय की विभिन्न विधियों में व्यय विधि भी एक है। राष्ट्रीय आय को व्यय विधि से निम्न रूप से मापा जा सकता है-

व्यय विधि:
‘निजी अंतिम उपयोग व्यय + सरकारी अंतिम अपयोग – सकल घरेलू पूँजी निर्माण + शुद्ध निर्यात = बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद – शुद्ध अप्रत्यक्ष करं – मूल्य ह्रास।
= साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद + विदेशों से शुद्ध साधन आया
= राष्ट्रीय आय।

प्रश्न 3.
मुद्रा की विनिमय के माध्यम के रूप में भूमिका पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
व्यापार में विभिन्न पक्षों के बीच मुद्रा विनिमय या भुगतान के माध्यम का काम करती है। भुगतान का काम लोग किसी भी वस्तु से कर सकते हैं परन्तु उस वस्तु में सामान्य स्वीकृति का गुण होना चाहिए। कोई भी वस्तु अलग-अलग समय काल एवं परिस्थितियों में अलग हो सकती है। जैसे पुराने समय में लोग विनिमय के लिए कौड़ियों, मवेशियों, धातुओं अन्य लोगों के ऋणों का प्रयोग करते थे। इस प्रकार के विनिमय में समय एवं श्रम की लागत बहुत ऊँचीहोती थी। विनिमय के लिए मुद्रा को माध्यम बनाए जाने में समय एवं श्रम की लागत की बचत, होती है। आदर्श संयोग तलाशने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मुद्रा के माध्यम से व्यापार करने से व्यापार प्रक्रिया बहुत सरल हो जाती है।

प्रश्न 4.
वस्त एवं सेवा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वस्तु एवं सेवा में निम्नलिखित अन्तर हैं-
वस्तु:

  1. वस्तु भौतिक होती है अर्थात् वस्तु का आकार होता है। उसे छू सकते हैं।
  2. वस्तु के उत्पादन काल एवं उपभोग काल में अन्तर पाया जाता है।
  3. वस्तु का भविष्य के लिए भण्डारण कर सकते हैं।
  4. उदाहरण-मेज, किताब, वस्त्र आदि।

सेवा:

  1. सेवा अभौतिक होती है। वस्तु सेवा का कोई आकार नहीं होता है। उसे छू नहीं सकते हैं।
  2. सेवा का उत्पादन एवं उपभोग काल एक ही होता है।
  3. सेवा का भविष्य के लिए भण्डारण नहीं कर सकते हैं।
  4. उदाहरण-डॉक्टर की सेवा, अध्यापक की सेवा।

प्रश्न 5.
मूल्य के भण्डार के रूप में मुद्रा की भूमिका बताइए।
उत्तर:
मूल्य की इकाई एवं भुगतान का माध्यम लेने के बाद मुद्रा मूल्य के भण्डार का कार्य भी सहजता से कर सकती है। मुद्रा का धारक इस बात से आश्वस्त होता है कि वस्तुओं एवं सेवाओं के मालिक उनके बदले मुद्रा को स्वीकार कर लेते हैं। अर्थात् मुद्रा में सामान्य स्वीकृति का गुण होने के कारण मुद्रा का धारक उसके बदले कोई भी वांछित चीज खरीद सकता है। इस प्रकार मुद्रा मूल्य भण्डार के रूप में कार्य करती है।

मुद्रा के अतिरिक्त स्थायी परिसंपत्तियों जैसे भूमि, भवन एवं वित्तीय परिसंपत्तियों जैसे बचत, ऋण पत्र आदि में भी मूल्य संचय का गुण होता है और इनसे कुछ आय भी प्राप्त होती है। परन्तु इनके स्वामी को इनकी देखभाल एवं रखरखाव की जरूरत होती है, इसमें मुद्रा की तुलना में कम तरलता पायी जाती है और भविष्य में इनका मूल्य कम हो सकता है। अतः मुद्रा मूल्य भण्डार के रूप में अन्य चीजों से बेहतर है।

प्रश्न 6.
नकद साख पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
ग्राहक की साख सुपात्रता के आधार पर व्यापारिक बैंक द्वारा ग्राहक के लिए उधार लेने की सीमा के निर्धारण को नकद साख कहते हैं। बैंक का ग्राहक तय सीमा तक की राशि का प्रयोग कर सकता है। इस राशि का प्रयोग ग्राहक को आहरण क्षमता से तय किया जाता है। आहरण क्षमता का निर्धारण ग्राहक की वर्तमान परिसंपत्तियों के मूल्य, कच्चे माल के भण्डार, अर्द्धनिर्मित एवं निर्मित वस्तुओं के भण्डारन एवं हुन्डियों के आधार पर किया जाता है। ग्राहक अपने व्यवसाय एवं उत्पादक गतिविधियों के प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए अपनी परिसंपत्तियों पर . अपना कब्जा करने की कार्यवाही शुरू कर सकता है। ब्याज केवल प्रयुक्त ब्याज सीमा पर चुकाया जाता है। नकद साख व्यापार एवं व्यवसाय संचालन में चिकनाई का काम करती है।

प्रश्न 7.
मुद्रा की आपूर्ति क्या होती है ?
उत्तर:
मुद्रा रक्षा में सभी प्रकार की मुद्राओं के योग को मुद्रा की आपूर्ति कहते हैं। मुद्रा की आपूर्ति में दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

  • मुद्रा की आपूर्ति एक स्टॉक है। यह किसी समय बिन्दु के उपलब्ध मुद्रा की सारी मात्रा को दर्शाता है।
  • मुद्रा के स्टॉक से अभिप्राय जनता द्वारा धारित स्टॉक से है। जनता द्वारा धारित स्टॉक समस्त स्टॉक से कम होता है। भारतीय रिजर्व बैंक देश में मुद्रा की आपूर्ति के चार वैकल्पिक मानों के आँकड़े प्रकाशित (M1, M2, M3, M4) है।

जहाँ M1 = जनता के पास करेन्सी+जनता की बैंकों में माँग जमाएँ
M2 = M + डाकघरों के बचत बैंकों में बचत जमाएँ
M3 = M2 + बैंकों की निबल समयावधि योजनाएँ
M4 = M3 + डाकघर बचत संगठन की सभी जमाएँ।

प्रश्न 8.
समष्टि अर्थशास्त्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
अर्थशास्त्र का वह भाग जिसमें समूची अर्थव्यवस्था से संबंधित विभिन्न योगों या औसतों का अध्ययन किया जाता है, समष्टि अर्थशास्त्र कहलाता है। उदाहरण के लिए, कुल रोजगार, राष्ट्रीय आय, कुल उत्पादन, कुल निवेश, कुल उपभोग, कुल बचत, समग्र माँग, समग्र पूर्ति, सामान्य कीमत स्तर, मजदूरी स्तर, लागत, संरचना, स्फीति, बेरोजगारी, भुगतान शेष, विनिमय दरें, मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियाँ आदि समष्टि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आते हैं। दूसरे शब्दों में, इसे योगमूलक अर्थशास्त्र (Aggregative ecomomics) भी कहा जाता है जो विभिन्न योगों के बीच आपसी संबंधों, उनके निर्धारण एवं उनमें उतार-चढ़ाव के कारणों की जाँच करता है। इस प्रकार, समष्टि का संबंध समूची अर्थव्यवस्था के कार्यव्यवहार से होता है।

प्रश्न 9.
वस्तु विनिमय की कठिनाइयाँ लिखिए।
उत्तर:
वस्तु विनिमय की निम्नलिखित कठिनाइयाँ है-

  • इस प्रणाली में वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य मापने की कोई सर्वमान्य इकाई नहीं होती. है। अतः वस्तु विनिमय लेखांकन की उपयुक्त व्यवस्था के विकास में एक बाधा है।
  • आवश्यकताओं का दोहरा संयोग विनिमय का आधार होता है। व्यवहार में दो पक्षों में हमेशा एवं सब जगह परस्पर वांछित संयोग का तालमेल होना बहुत मुश्किल होता है।
  • स्थगित भुगतानों को निपटाने में कठिनाई होती है। दो पक्षों के बीच सभी लेन-देनों का निपटारा साथ के साथ होना मुश्किल होता है अतः वस्तु विनिमय प्रणाली में स्थगित भुगतानों के संबंध में वस्तु की किस्म, गुणवत्ता, मात्रा आदि के संबंध में असहमति हो सकती है।

प्रश्न 10.
भारत में नोट जारी करने की क्या व्यवस्था है ?
उत्तर:
भारत में नोट जारी करने की व्यवस्था को न्यूनतम सुरक्षित व्यवस्था कहा जाता है। जारी की गई मुद्रा के लिए न्यूनतम सोना व विदेशी मुद्रा सुरक्षित निधि में रखी जाती है।

प्रश्न 11.
भारत में मुद्रा की पूर्ति कौन करता है ?
उत्तर:
भारत में मुद्रा की पूर्ति करते हैं-

  • भारत सरकार।
  • केन्द्रीय बैंक
  • व्यापारिक बैंक।

प्रश्न 12.
वाणिज्य बैंक कोषों का अन्तरण किस प्रकार करते हैं ?
उत्तर:
वाणिज्य बैंक एक स्थान से दूसरे स्थान पर धन राशि को भेजने में सहायक होते हैं। यह राशि साख पत्रों, जैसे-चेक, ड्राफ्ट, विनिमय, बिल आदि की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजी जाती है।

प्रश्न 13.
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
2 अक्टूबर 1975 को 5 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित किए गए। इनका कार्यक्षेत्र एक राज्य के या दो जिले तक सीमित रखा गया। ये छोटे और सीमित किसानों, खेतिहर मजदूरों, ग्रामीण दस्तकारों, लघु उद्यमियों, छोटे व्यापार में लगे व्यवसायियों को ऋण प्रदान करते हैं। इन बैंकों का उद्देश्य ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास करना है। ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि, लघु-उद्योगों, वाणिज्य, व्यापार तथा अन्य क्रियाओं के विकास में सहयोग करते हैं। .

प्रश्न 14.
श्रम विभाजन व विनिमय पर आधारित अर्थव्यवस्था में किस प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है ?
उत्तर:
श्रम विभाजन एवं विनिमय पर आधारित अर्थव्यवस्था में लोग अभीष्ट वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि उन वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन करते हैं जिनके उत्पादन में उन्हें कुशलता या विशिष्टता प्राप्त होती है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में लोग आवश्यकता से अधिक मात्रा में उत्पादन करते हैं और दूसरे लोगों के अतिरेक से विनिमय कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में स्व-उपभोग के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि विनिमय के लिए उत्पादन करते हैं।

प्रश्न 15.
कीमत नम्यता वस्तु बाजार में सन्तुलन कैसे बनाए रखती है ?
उत्तर:
कीमत नम्यता (लोचनशीलता) के कारण वस्तु व सेवा बाजार में सन्तुलन बना रहता है। यदि वस्तु की माँग, आपूर्ति से ज्यादा हो जाती है अर्थात् अतिरेक माँग की स्थिति पैदा हो जाती है तो वस्तु बाजार में कीमत का स्तर अधिक होने लगता है। कीमत के ऊँचे स्तर पर वस्तु की माँग घट जाती है तथा उत्पादक वस्तु आपूर्ति अधिक मात्रा में करते हैं। वस्तु की कीमत में वृद्धि उस समय तक जारी रहती है जब तक माँग व आपूर्ति सन्तुलन में नहीं आ जाती है। नीची को माँग बढ़ाते हैं तथा उत्पादक आपूर्ति कम करते हैं। माँग व पूर्ति में परिवर्तन वस्तु की माँग बढ़ाते हैं तथा उत्पादक आपूर्ति सन्तुलन में नहीं आ जाती है।

प्रश्न 16.
वास्तविक मजदूरी का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
श्रमिक अपनी शारीरिक एवं मानसिक सेवाओं के प्रतिफल के रूप में कुल जितनी उपयोगिता प्राप्त कर सकते हैं उसे वास्तविक मजदूरी कहते हैं। दूसरे शब्दों में श्रमिक की अपनी आमदनी से वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने की क्षमता को वास्तविक मजदूरी कहते हैं। वास्तविक मजदूरी का निर्धारण श्रमिक की मौद्रिक मजदूरी एवं कीमत स्तर से होता है। वास्तविक मजदूरी एवं मौद्रिक मजदूरी में सीधा संबंध होता है अर्थात् ऊँची मौद्रिक मजदूरी दर पर वास्तविक मजदूरी अधिक होने की संभावना होती है। वास्तविक मजदूरी व कीमत स्तर में विपरीत संबंध होता है। कीमत स्तर अधिक होने पर मुद्रा की क्रय शक्ति कम हो जाती है अर्थात् वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने की क्षमता कम हो जाती है।

प्रश्न 17.
मजदूरी-कीमत नभ्यता की अवधारणा समझाइए।
उत्तर:
मजदूरी-कीमत नम्यता का आशय है कि मजदूरी व कीमत में लचीलापन। वस्तु-श्रम की माँग व पूर्ति की शक्तियों में परिवर्तन होने पर मजदूरी दर व कीमत में स्वतंत्र रूप से. परिवर्तन को मजदूरी-कीमत नम्यता कहा जाता है। श्रम बाजार में श्रम की माँग बढ़ने से मजदूरी दर बढ़ जाती है तथा श्रम की माँग कम होने से श्रम की मजदूरी दर कम हो जाती है। इसी प्रकार वस्तु बाजार में वस्तु की माँग बढ़ने पर वस्तु की कीमत बढ़ जाती है तथा इसके विपरीत माँग कम होने से कीमत घट जाती है। मजदूरी कीमत नम्यता के कारण श्रम एवं वस्तु बाजार में सदैव सन्तुलन बना रहता है।

प्रश्न 18.
व्यष्टि स्तर एवं समष्टि स्तर उपयोग को प्रभावित करने वाले कारक बताइए।
उत्तर:
व्यष्टि स्तर पर उपभोग उन वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य के बराबर होता है जिन्हें विशिष्ट समय एवं विशिष्ट कीमत पर परिवार खरीदते हैं। व्यष्टि स्तर पर उपभोग वस्तु की कीमत, आय एवं संपत्ति, संभावित आय एवं परिवारों की रूचि अभिरूचियों पर निर्भर करता है।

समष्टि स्तर पर केन्ज ने मौलिक एवं मनोवैज्ञानिक नियम की रचना की है। केन्ज के अनुसार अर्थव्यवस्था में जैसे-जैसे राष्ट्रीय आय का स्तर बढ़ता है लोग अपना उपभोग बढ़ाते हैं परन्तु उपभोग में वृद्धि की दर राष्ट्रीय आय में वृद्धि की दर से कम होती है। आय के शून्य स्तर पर स्वायत्त उपभोग किया जाता है। स्वायत्त उपभोग से ऊपर प्रेरित निवेश उपभोग प्रवृति एवं राष्ट्रीय आय के स्तर से प्रभावित होता है।
C = \(\overline{\mathrm{C}}\) + by
जहाँ C उपभोग, \(\overline{\mathrm{C}}\) स्वायत्त निवेश, b सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति, y राष्ट्रीय आय।

प्रश्न 19.
वितरण फलन को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
प्रत्येक सरकार की एक राजकोषीय नीति होती है। राजकोषीय नीति के माध्यम से प्रत्येक सरकार समाज में आय के वितरण में समानता या न्याय करने की कोशिश करती है। सरकार से अधिक मात्रा में उत्पादन करते हैं और दूसरे लोगों के अतिरेक से विनिमय कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में स्व-उपभोग के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि विनिमय के लिए उत्पादन करते हैं।

प्रश्न 20.
निजी व सार्वजनिक वस्तुओं में भेद स्पष्ट करें।
उत्तर:
निजी एवं सार्वजनिक वस्तुओं में दो मुख्य अन्तर होते हैं जैसे-

  • निजी वस्तुओं का उपयोग व्यक्तिगत उपभोक्ता तक सीमित होता है लेकिन सार्वजनिक वस्तुओं का लाभ किसी विशिष्ट उपभोक्ता तक सीमित नहीं होता है, ये वस्तुएँ सभी उपभोक्ताओं को उपलब्ध होती है।
  • कोई भी उपभोक्ता जो भुगतान देना नहीं चाहता या भुगतान करने की शक्ति नहीं रखता निजी वस्तु के उपभोग से वंचित किया जा सकता है। लेकिन सार्वजनिक वस्तुओं के उपभोग से किसी को वंचित रखने का कोई तरीका नहीं होता है।

प्रश्न 21.
सार्वजनिक उत्पादन एवं सार्वजनिक बन्दोबस्त में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सार्वजनिक बन्दोबस्त (व्यवस्था) से अभिप्राय उन व्यवस्थाओं से है जिनका वित्तीयन सरकार बजट के माध्यम से करती है। ये सभी उपभोक्ताओं को बिना प्रत्यक्ष भुगतान किए मुफ्त में प्रयोग के लिए उपलब्ध होते हैं। सार्वजनिक व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन सरकार प्रत्यक्ष रूप से भी कर सकती है अथवा निजी क्षेत्र से खरीदकर भी इनकी व्यवस्था की जा सकती है।

सार्वजनिक उत्पादन से अभिप्राय उन वस्तुओं एवं सेवाओं से है जिनका उत्पादन सरकार द्वारा संचालित एवं प्रतिबंधित होता है। इसमें निजी या विदेशी क्षेत्र की वस्तुओं को शामिल नहीं किया जाता है। इस प्रकार सार्वजनिक व्यवस्था की अवधारणा सार्वजनिक उत्पादन से भिन्न है।

प्रश्न 22.
राजकोषीय नीति के प्रयोग बताएँ।
उत्तर:
General Theory of Income, Employment, Interest and Money में जे० कीन्स ने राजकोषीय नीति के निम्नलिखित प्रयोग बताएँ हैं-

  • इस नीति का प्रयोग उत्पादन-रोजगार स्थायित्व के लिए किया जा सकता है। व्यय एवं कर नीति में परिवर्तन के द्वारा सरकार उत्पादन एवं रोजगार में स्थायित्व पैदा कर सकती है।
  • बजट के माध्यम से सरकार आर्थिक उच्चावचनों को ठीक कर सकती है।

प्रश्न 23.
राजस्व बजट और पूँजी बजट का अन्तर क्या है ?
उत्तर:
राजस्व बजट : सरकार की राजस्व प्राप्तियों एवं राजस्व के विवरण को राजस्व बजट कहते हैं।
राजस्व प्राप्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-
(i) कर राजस्व एवं (ii) गैर कर राजस्व।
राजस्व व्यय सरकार की सामाजिक, आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के संचालन पर किए गए खर्चों का विवरण है।

राजस्व बजट में वे मदें आती हैं जो आवृत्ति किस्म की होती हैं और इन्हें चुकाना नहीं पडता है।
राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ

पूँजी बजट : सरकार की पूँजी प्राप्तियों एवं पूँजी व्यय के विवरण को पूँजी बजट कहते हैं।
पूँजी प्राप्तियाँ दो प्रकार की होती है :
(i) ऋण प्राप्तियाँ एवं (ii) गैर ऋण प्राप्तियाँ।

पूँजी व्यय सरकार की सामाजिक, आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के लिए पूँजी निर्माण पर किये गये व्यय को दर्शाता है।
पूँजी घाटा = पूँजीगत व्यय – पूँजीगत प्राप्तियाँ
पूँजीगत राजस्व सरकार के दायित्वों को बढ़ाता व पूँजीगत व्यय से परिसंपत्तियों का अर्जन होता है।

प्रश्न 24.
सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण करें।
उत्तर:
सार्वजनिक व्यय का तीन वर्गों में बाँटते हैं-
(i) राजस्व व्यय एवं पूँजीगत व्यय- राजस्व व्यय सरकार की सामाजिक आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के संचालन पर किया गया व्यय होता है। इस व्यय से परिसंपत्तियों का निर्माण नहीं होता है।

पूँजीगत व्यय भूमि, यंत्र-संयंत्र आदि पर किया गया निवेश होता है। इस व्यय से परिसंपत्तियों का निर्माण होता है।

(ii) योजना व्यय एवं गैर योजना व्यय- योजना व्यय में तात्कालिक विकास और निवेश : ममें शामिल होती हैं। ये मदें योजना प्रस्तावों के द्वारा तय की जाती है। बाकी सभी खर्च गैर योजना व्यय होते हैं।

(iii) विकास व्यय तथा गैर विकास व्यय- विकास व्यय में रेलवे, डाक एवं दूरसंचार तथा गैर-विभागीय उद्यमों के गैर बजटीय स्रोतों से योजना व्यय, सरकार द्वारा गैर विभागीय उद्यमों एवं स्थानीय निकायों को प्रदत ऋण भी शामिल किए जाते हैं।
गैर-विकास व्यय में प्रतिरक्षा, आर्थिक अनुदान आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं।

प्रश्न 25.
खुली अर्थव्यवस्था के दो बुरे प्रभाव बताइए।
उत्तर:
खुली अर्थव्यवस्था के दो बुरे प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • अर्थव्यवस्था में जितना अधिक खुलापन होता है. गुणक का मान उतना कम होता है।
  • अर्थव्यवस्था जितनी ज्यादा खुली होती है व्यापार शेष उतना ज्यादा घाटे वाला होता है।

खुली अर्थव्यवस्था में सरकारी व्यय में वृद्धि व्यापार शेष घाटे को जन्म देती है। खुली अर्थव्यवस्था में व्यय गुणक का प्रभाव उत्पाद व आय पर कम होता है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था का अधिक खुलापन अर्थव्यवस्था के लिए कम लाभप्रद या कम आकर्षक होता है।

प्रश्न 26.
विदेशी मदा की पर्ति को समझाइए।
उत्तर:
एक लेखा वर्ष की अवधि में एक देश को समस्त लेनदारियों के बदले जितनी मुद्रा प्राप्त होती है उसे विदेशी मुद्रा की पूर्ति कहते हैं।

विदेशी विनिमय की पूर्ति को निम्नलिखित बातें प्रभावित करती हैं-

  • निर्यात दृश्य व अदृश्य सभी मदें शामिल की जाती हैं।
  • विदेशों द्वारा उस देश में निवेश।
  • विदेशों से प्राप्त हस्तांतरण भुगतान।

विदेशी विनिमय की दर तथा आपूर्ति में सीधा संबंध होता है। ऊँची विनिमय दर पर विदेशी मुद्रा की अधिक आपूर्ति होती है।

प्रश्न 27.
विस्तृत सीमा पट्टी व्यवस्था पर चर्चा करें।
उत्तर:
विस्तृत सीमा पट्टी व्यवस्था में देश की सरकार अपनी मुद्रा की विनिमय दर की घोषणा करती है। परन्तु इस व्यवस्था में स्थिर घोषित विनिमय दर के दोनों ओर 10 प्रतिशत उतार-चढ़ाव मान्य होने चाहिए। इससे सदस्य देश अपने भुगतान शेष के समजन का काम आसानी से कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी देश का भुगतान शेष घाटे का है तो इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए उस देश को अपनी मुद्रा की दर 10 प्रतिशत तक घटाने की छूट होनी चाहिए। मुद्रा की दर कम होने पर दूसरे देशों के लिए उस देश की वस्तुएँ एवं सेवाएँ सस्ती हो जाती हैं जिससे विदेशों में उस देश की वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है और उस देश को विदेशी मुद्रा पहले से ज्यादा प्राप्त होती है।

प्रश्न 28.
चालू खाते व पूँजीगत खाते में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चालू खाते व पूँजीगत खाते में निम्नलिखित अंतर है-
चालू खाता:

  1. भुगतान शेष के चालू खाते में वस्तुओं व सेवाओं के निर्यात व आयात शामिल करते हैं।
  2. भुगतान शेष के चालू खाते के शेष का एक देश की आय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि किसी देश का चालू खाते का शेष उस देश के पक्ष में होता है तो उस देश की राष्ट्रीय आय बढ़ती है।

पूँजी खाता:

  1. भुगतान शेष के पूँजी खातों में विदेशी ऋणों का लेन-देन, ऋणों का भुगतान व प्राप्तियाँ, बैकिंग पूँजी प्रवाह आदि को दर्शाती है।
  2. भुगतान शेष का देश की राष्ट्रीय आय का प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता है ये केवल परिसम्पतियों की मात्रा को दर्शाते हैं।

प्रश्न 29.
भुगतान शेष की संरचना के पूँजी खाते को समझाएँ।
उत्तर:
पूँजी खातों में दीर्घकालीन पूँजी के लेन-देन को दर्शाया जाता है। इस खाते में निजी व सरकारी पूँजी लेन-देन, बैंकिंग पूँजी प्रवाह में अन्य वित्तीय विनिमय दर्शाए जाते हैं।

पँजी खाते की मदें : इस खाते की प्रमुख मदें निम्नलिखित है-
(i) सरकारी पूँजी का विनिमय : इससे सरकार द्वारा विदेशों से लिए गए ऋण तथा विदेशों को दिए गए ऋणों के लेन-देन, ऋणों के भुगतान तथा ऋणों की स्थितियों के अलावा विदेशी मुद्रा भण्डार, केन्द्रीय बैंक के स्वर्ण भंडार विश्व मुद्रा कोष के लेन-देन आदि को दर्शाया जाता है।

(ii) बैंकिंग पंजी : बैंकिंग पूँजी प्रवाह में वाणिज्य बैंकों तथा सहकारी बैंकों की विदेशी लेनदारियों एवं देनदारियों को दर्शाया जाता है। इसमें केन्द्रीय बैंक के पूँजी प्रवाह को शामिल नहीं करते हैं।

(iii) निजी ऋण : इसमें दीर्घकालीन निजी पूँजी में विदेशी निवेश ऋण, विदेशी जमा आदि को शामिल करते हैं। प्रत्यक्ष पूँजीगत वस्तुओं का आयात व निर्यात प्रत्यक्ष रूप से विदेशी निवेश में शामिल किया जाता है।

प्रश्न 30.
वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसकी क्या कमियाँ हैं ?
उत्तर:
वस्तु विनिमय वह प्रणाली होती है जिसमें वस्तुओं व सेवाओं का विनिमय एक-दूसरे के लिए किया जाता है उसे वस्तु विनिमय कहते हैं।

वस्तु विनिमय की निम्नलिखित कमियाँ है-

  • वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य मापन करने के लिए एक सामान्य इकाई का अभाव। इससे वस्तु विनिमय प्रणाली में लेखे की कोई सामान्य इकाई नहीं होती है।
  • दोहरे संयोग का अभाव- यह बड़ा ही विरला अवसर होगा जब एक वस्तु या सत्र के मालिक को दूसरी वस्तु या सेवा का ऐसा मालिक मिलेगा कि पहला मालिक जो देना चाहता है और बदले में लेना चाहता है दूसरा मालिक वही लेना व देना चाहता है।
  • स्थगित भुगतानों को निपटाने में कठिनाई- वस्तु विनिमय में भविष्य के निर्धारित सौदों का निपटारा करने में कठिनाई होती है। इसका मतलब है वस्तु के संबंध में, इसकी गुणवत्ता व मात्रा आदि के बारे में दोनों पक्षों में असहमति हो सकती है।
  • मूल्य में संग्रहण की कठिनाई- क्रय शक्ति के भण्डारण का कोई ठोस उपाय वस्तु विनिमय प्रणाली में नहीं होता है क्योंकि सभी वस्तुओं में समय के साथ घिसावट होती है तथा उनमें तरलता व हस्तांतरणीयता का गुण निम्न स्तर का होता है।

प्रश्न 31.
मुद्रा की सट्टा माँग और ब्याज की दर में विलोम संबंध क्यों होता है ?
उत्तर:
एक व्यक्ति भूमि, बॉण्ड्स. मुद्रा आदि के रूप में धन को धारण कर सकता है। अर्थव्यवस्था में लेन देन एवं सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग के योग मुद्रा की कुल माँग कहते हैं। सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग का ब्याज की दर के साथ उल्टा संबंध होता है। जब ब्याज की दर ऊँची होती है तब सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग कम होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऊँची ब्याज पर सुरक्षित आय बढ़ने की आशा हो जाती है। परिणामस्वरूप लोग सट्टा उद्देश्य के लिए जमा की गई मुद्रा की निकासी करके उसे बाँड्स में परिवर्तित करने की इच्छा करने लगता है। इसके विपरीत जब ब्याज दर घटकर न्यूनतम स्तर पर पहुँच जाती है तो लोग सट्टा उद्देश्य के लिए मद्रा की माँग असीमित रूप से बढ़ा देते हैं।

प्रश्न 32.
एकाधिकार तथा एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
एकाधिकार प्रतियोगिता तथा एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता में निम्नलिखित अंतर हैं-
एकाधिकार प्रतियोगिता:

  • एकाधिकार बाजार को उस स्थिति को प्रकट करता है जिसमें किसी वस्तु का केवल एक विक्रेता होता है संक्षेप में एकाधिकार का ऊर्जा है सभी प्रकार की प्रतियोगिता का अभाव। इस बाजार में फर्म ही उद्योग है और उद्योग ही फर्म है।

एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता:

  • एकाधिकार प्रतियोगिता वह स्थिति है, जिसमें मिलती-जुलती वस्तुओं के विक्रेता होता है। प्रत्येक विक्रेता की वस्तु अन्य विक्रेताओं से किसी-न-किसी रूप से भिन्न-भिन्न होती है।

प्रश्न 33.
सन्तुलन कीमत तथा सन्तुलन मात्रा से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
संतुलन कीमत-संतुलन कीमत वह कीमत है जिसपर माँग तथा पूर्ति एक-दूसरे के बराबर होते हैं। या जहाँ क्रेताओं की खरीद या बिक्री एक-दूसरे के समान होती है। संतुलन मात्रा-संतुलन मात्रा वह मात्रा होती है जिसपर माँग की मात्रा तथा पूर्ति की मात्रा दोनों बराबर होती है।

प्रश्न 34.
वस्तु विनिमय प्रणाली के दोष को दूर करने में किस प्रकार सहायक होती है ?
उत्तर:
मुद्रा के प्रयोग से वस्तु विनियम की कमियाँ निम्न रूप से दूर हो जाती है-

  • विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा के प्रयोग से दोहरे संयोग को तलाशने की आवश्यकता खत्म हो जाती है। दोहरे संयोग को तलाशने में प्रयुक्त ऊर्जा व समय की बचत होती है।
  • लेखे का इकाई के रूप में मुद्रा का प्रयोग होने पर वस्तुओं व सेवाओं के मूल्य को मापने में कोई कठिनाई नहीं होती है।
  • मूल्य संचय के लिए मुद्रा के प्रयोग से धन व सम्पति संग्रह करने में कठिनाई समाप्त हो जाती है।
  • स्थगित भुगतानों का निपटारा करने में मुद्रा का प्रयोग करने से माँग गुणवता आदि के संबंध में कोई असहमति नहीं होती है।

प्रश्न 35.
अपूर्ण रोजगार तथा अति पूर्ण रोजगार सन्तुलन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
अपूर्ण रोजगार संतुलन- अपूर्ण रोजगार की स्थिति से तात्पर्य संतुलन की उस स्थिति से है जिसमें वस्तुओं एवं सेवाओं की कुल माँग उसकी पूर्ति के बराबर नहीं होती है। इस स्थिति में सभी योग्य स्वस्थ व्यक्तियों को प्रचलित मजदूरी दर पर रोजगार के अवसर प्राप्त नहीं होते हैं।

अतिपूर्ण रोजगार संतुलन- अतिपूर्ण रोजगार की स्थिति से तात्पर्य संतुलन की उस स्थिति से है जिसमें वस्तुओं एवं सेवाओं की कुल माँग उनकी पूर्ति के बराबर होती है। इस स्थिति में सभी योग्य स्वस्थ व्यक्तियों को प्रचलित मजदूरी दर पर रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 36.
निवेश गुणक तथा सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति के सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
निवेश गुणांक का सीमांत उपयोग प्रवृति (MPC) से प्रत्यक्ष संबंध है। MPS के बढ़ने पर निवेश गुणांक बढ़ता है तथा कम होने पर कम होता है।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4 in Hindi

BSEB Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4 in Hindi

प्रश्न 1.
अल्पकाल तथा दीर्घकाल में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
अल्पकाल यह समयावधि है जिसमें उत्पादन के कुछ साधन परिवर्ती होते हैं और कुछ स्थिर। अल्पकाल में केवल परिवर्ती साधनों में परिवर्तन किया जा सकता है। इसके विपरीत दीर्घकाल एक लम्बी समयावधि है। इसमें उत्पादन के सभी साधन परिवर्ती होते हैं।

प्रश्न 2.
औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में क्या संबंध है ?
उत्तर:
औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में सम्बन्ध (Relationship between AP and MP)-

  • औसत उत्पाद तब तक बढ़ता है जब तक सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से अधिक होता है।
  • औसत उत्पाद उस समय अधिकतम होता है जब सोमान्त उत्पाद औसत उत्पाद के बराबर होता है।
  • औसत उत्पाद तब गिरता है जब सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से कम होता है।

प्रश्न 3.
औसत उत्पाद तथा कुल उत्पाद में सम्बन्ध बतायें।
उत्तर:
औसत उत्पाद एवं कुल उत्पाद में सम्बन्ध (Relationship between AP and TP)-

  • जब कुल उत्पाद बढ़ती दर से बढ़ता है तो औसत उत्पाद भी बढ़ता है।
  • जब कुल उत्पाद घटती दर से बढ़ता है तो औसत उत्पाद घटता है।
  • कुल उत्पाद तथा औसत उत्पाद हमेशा धनात्मक रहते हैं।

प्रश्न 4.
कुल उत्पाद, औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर:
कुल उत्पाद, औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में सम्बन्ध (Relation between TP, AP)-

  • आरम्भ में कुल उत्पाद, सीमान्त उत्पाद तथा औसत उत्पाद सभी बढ़ते हैं। इस स्थिति में सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से अधिक होता है।
  • जब औसत उत्पाद अधिकतम व स्थिर होता है तो सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद के बराबर होता है।
  • इसके बाद औसत उत्पाद और सीमान्त उत्पाद कम होता है, सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से कम होता है, शून्य होता है और ऋणात्मक होता है परन्तु औसत उत्पाद तथा कुल उत्पाद हमेशा धनात्मक होते हैं।
  • जब सीमान्त उत्पाद शून्य होता है तब कुल उत्पाद अधिकतम होता है।

प्रश्न 5.
अल्पकाल तथा अति अल्पकाल में अन्तरं स्पष्ट करें।
उत्तर:
अल्पकाल तथा अति अल्पकाल में अन्तर (Difference between short period and very short period)- अति अल्पकाल से अभिप्राय उस समय-अवधि से है जब बाजार में पूर्ति बेलोचदार होती है जैसे सब्जियों, दूध आदि की पूर्ति। ऐसी अवधि में कीमत के घटने-बढ़ने से पूर्ति को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता। पूर्ति अपरिवर्तनशील रहती है।

प्रश्न 6.
प्रतिफल के नियम से क्या अभिप्राय है ? ये कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर:
प्रतिफल के नियम (Laws of Returns)- साधन आगतों में परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से सम्बन्धित नियम को प्रतिफल के नियम कहते हैं। दूसरे शब्दों में प्रतिफल के नियम साधन आगतों और उत्पादन के बीच व्यवहार विधि को बताते हैं। प्रतिफल . के नियम इस बात का अध्ययन करते हैं कि साधनों की मात्रा में परिवर्तन करने पर उत्पादन की मात्रा में कितना परिवर्तन होता है।

प्रतिफल के नियम के प्रकार (Types of Law of returns)- प्रतिफल के नियम दो प्रकार के होते हैं- (i) साधन के प्रतिफल के नियम। पैमाने के प्रतिफल के नियम साधन के प्रतिफल के नियम अल्पकाल से संबंधित हैं जबकि पैमाने के प्रतिफल के नियम दीर्घकाल से संबंध रखते हैं।

प्रश्न 7.
साधन के प्रतिफल किसे कहते हैं ? ये कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर:
साधन के प्रतिफल (Returns to Factor)- जब उत्पादक अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखते हुए उत्पादन के एक ही साधन में परिवर्तन करके उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन करना चाहता है तो उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन के संबंध को साधन के प्रतिफल कहते हैं। साधन के प्रतिफल का सम्बन्ध परिवर्तनशील साधनों में परिवर्तन होने के कारण उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से है, जबकि स्थिर साधनों में परिवर्तन नहीं होता, परन्तु परिवर्तनशील तथा स्थिर साधनों के अनुपात में परिवर्तन हो जाता है। इसे परिवर्ती अनुपात का नियम भी कहते हैं।

साधन के प्रतिफल के प्रकार (Types of Returns to Factor)- इसे बढ़ते (वर्धमान) सीमान्त प्रतिफल भी कहते हैं। साधन के बढ़ते प्रतिफल वह स्थिति है जब स्थिर साधन की निश्चित इकाई के साथ परिवर्तनशील साधन अधिक इकाइयों का प्रयोग किया जाता है। इस स्थिति में परिवर्तनशील साधनों का सीमान्त उत्पादन बढ़ता जाता है और उत्पादन की सीमान्त लागत कम होती जाती है इसलिए इसे ह्रासमान लागत का नियम भी कहते हैं। साधन के बढ़ते प्रतिफल को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया गया है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 1

प्रश्न 8.
साधन के समान प्रतिफल के तीन कारण लिखें।
उत्तर:
साधन के समान प्रतिफल के तीन कारण (Causes of constant returns of factor) साधन के समान प्रतिफल के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

(i) स्थिर साधनों का अनुकूलतम प्रयोग (Optimum Utilisation of Fixed Factors)- नियम स्थिर साधनों का अनुकूलतम उपयोग होने के कारण क्रियाशील होता है। जैसे-जैसे परिवर्ती साधन की अधिक इकाइयाँ प्रयोग में लायी जाती हैं, एक ऐसी अवस्था आ जाती है जब स्थिर साधनों का अनुकूलतम उपयोग होता है। इससे आगे परिवर्ती साधन की और अधिक इकाइयों के उपयोग से उत्पादन की मात्रा में समान दर में वृद्धि होगी।

(ii) परिवर्तित साधनों का अनुकूलतम प्रयोग (Most Efficient Utilisation of Variable Factors)- जब स्थिर साधन के साथ परिवर्तनशील साधन की बढ़ती हुई इकाइयों का प्रयोग क्रिया जाता है तो. एक ऐसी स्थिति आती है जिसमें सबसे अधिक उपर्युकत श्रम विभाजन सम्भव होता है। इसके फलस्वरूप परिवर्तनशील साधन जैसे श्रम का सबसे अधिक उपयुक्त प्रयोग संभव होता है तथा सीमान्त उत्पादन अधिकतम मात्रा पर स्थिर हो जाता है।

(iii) आदर्श साधन अनुपात (Ideal Factor Ratio)- जब स्थिर तथा परिवर्तनशील साधन का आदर्श अनुपात में प्रयोग किया जाता है तो समान प्रतिफल की स्थिति होती है। इस स्थिति में साधन का सीमान्त उत्पादन अधिकतम मूल्य पर स्थिर हो जाता है।

प्रश्न 9.
आन्तरिक तथा बाह्य बचतों में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
आन्तरिक तथा बाह्य बचतों में निम्नलिखित अन्तर हैं-
आन्तरिक बचतें:

  1. ये वे लाभ हैं जो किसी फर्म को अपने निजी प्रयत्नों के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं।
  2. आन्तरिक बचतों से प्राप्त होने वाले लाभ एक व्यक्तिगत फर्म तक ही सीमित होते हैं।
  3. आन्तरिक बचतें केवल बड़े पैमाने की फर्मों को प्राप्त होती हैं।
  4. आन्तरिक बचतों के उदाहरण हैं- तकनीकी बचतें, प्रबन्धकीय बचतें, विपणन बचतें आदि।

बाह्य बचतें:

  1. ये वे लाभ हैं जो समस्त उद्योग के विकसित होने पर सभी फर्मों को प्राप्त होते हैं।
  2. बाह्य बचतों से प्राप्त होने वाले लाभ उद्योगों की फर्मों को प्राप्त होते हैं।
  3. बाह्य बचतें छोटे प्रकार पैमाने की फर्मों को प्राप्त होती हैं।
  4. बाह्य बचतों के उदाहरण हैं : उत्तम परिवहन एवं संचार सुविधाओं की उपलब्धि, सहायक उद्योगों की स्थापना, कच्चे माल का सुगमता से प्राप्त होना आदि।

प्रश्न 10.
किसी साधन के सीमान्त भौतिक उत्पाद में परिवर्तन होने पर कुल भौतिक उत्पाद में परिवर्तन किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
कुल भौतिक उत्पाद और सीमान्त भौतिक उत्पाद परस्पर संबंधित हैं। अन्य आगतों को स्थिर रखकर जब परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई का प्रयोग किया जाता है तो कुल भौतिक उत्पाद में जो परिवर्तन होता है, उसे सीमान्त भौतिक उत्पाद कहते हैं। कुल भौतिक उत्पाद सीमान्त भौतिक उत्पाद का जोड़ होता है। जब सीमान्त भौतिक उत्पाद धनात्मक होता है तो कुल भौतिक उत्पाद में वृद्धि होती है। जब सीमान्त भौतिक उत्पाद ऋणात्मक होता है तो उत्पाद कम होने लगता है। सीमान्त भौतिक उत्पाद में परिवर्तन उत्पादन की तीन अवस्थाओं को प्रकट करता है। उत्पादन की प्रथम अवस्था में सीमान्त भौतिक उत्पाद में वृद्धि होती है। उत्पादन की दूसरी अवस्था में यह धनात्मक तो रहता है, लेकिन कुल उत्पाद में वृद्धि घटती हुई दर से होती है। उत्पादन की तीसरी अवस्था में सीमान्त भौतिक उत्पाद ऋणात्मक हो जाता है और कुल उत्पाद में गिरावट आती है।

प्रश्न 11.
निजी लागत और सामाजिक लागत में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
निजी लागत (Private Cost)- निजी लागत वह लागत है जो किसी फर्म को एक वस्तु के उत्पादन में खर्च करनी पड़ती है। वस्तु के उत्पादक में उत्पादन द्वारा आगतों के खरीदने और किराए पर लेने के लिए किया गया. खर्चे निजी लागत कहलाती है। जैसे-ब्याज, मजदूरी, किराया आदि।

सामाजिक लागत (Social Cost)- सामाजिक लागत वह लागत है जो सारे समाज को वस्तु के उत्पादन के लिए चुकानी पड़ती है। सामाजिक लागत पर्यावरण प्रदूषण के रूप में होती है। जैसे-कारखाने द्वारा गंदे पानी को नदी में बहाना। इससे नदी की मछलियाँ मर जाती हैं और पानी को पीने योग्य बनाने के लिए नगर निगम को अधिक पैसे खर्च करना पड़ता है।

इसी प्रकार शहर में स्थिर फैक्टरो के धुएँ से पर्यावरण के दूषित होने पर शहरी नागरिकों. के डॉक्टरी खर्च और लांडरी खर्च में वृद्धि सामाजिक लागत है।

फर्म के उत्पादन की लागत से हमारा आशय निजी लागत से है, न कि सामाजिक लागत से।

प्रश्न 12.
पैमाने के बढ़ते प्रतिफल को समझायें।
उत्तर:
पैमाने के बढ़ते प्रतिफल (Increasing returns to scale)- पैमाने के बढ़ते प्रतिफल
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 2
उस स्थिति को प्रकट करते हैं जब उत्पादन के सभी साधनों को एक निश्चित अनुपात में बढ़ाये जाने पर उत्पादन में वृद्धि अनुपात से अधिक होती है। दूसरे शब्दों में उत्पादन के साधनों में 10 प्रतिशत की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है। नीचे चित्र में पैमाने के बढ़ते प्रतिफल को दर्शाया गया है।

चित्र से पता चलता है कि उत्पादन के साधनों में 10 प्रतिशत की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है। वह पैमाने के बढ़ते प्रतिफल की स्थिति है।

प्रश्न 13.
औसत स्थिर लागत वक्र किस प्रकार का दिखाई देता है ? यह ऐसा क्यों दिखाई देता है ?
उत्तर:
औसत स्थिर लागत (AFC) उतनी ही कम होती जाती है जितनी अधिक इकाइयों का उत्पादन किया जाता है। अतः औसत स्थिर लागत वक्र हमेशा बायें से दायें को नीचे की ओर झुकता हुआ होता है परन्तु यह कभी X अक्ष को स्पर्श नहीं करता क्योंकि औसत स्थिर लागत कभी भी शून्य नहीं हो सकती और उत्पादन का स्तर शून्य होने पर स्थिर लागत बनी रहती है।

प्रश्न 14.
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा की क्या प्रकृति होती है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा की प्रकृति (Nature of price line under perfect competition)- पूर्ण. प्रतियोगिता में कीमत रेखा क्षैतिज (Horizontal) अर्थात् X- अक्ष के समान्तर होती है। पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग कीमत का निर्धारण करता हैं फर्म उस कीमत को स्वीकार करती है। दी हुई कीमत पर एक फर्म एक वस्तु की जितनी भी मात्रा बेचना चाहती है, बेच सकती है। पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा न केवल OX-अक्ष के समान्तर होती है, अपितु औसत आगम तथा सीमान्त आगम वक्र को भी ढकती है। कीमत रेखा को पूर्ण प्रतियोगिता फर्म का माँग वक्र भी कहा जाता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 3

प्रश्न 15.
एकाधिकारी प्रतियोगिता में सीमान्त आगम तथा औसत आगम में सम्बन्ध बताएँ।
उत्तर:
एकाधिकारी प्रतियोगिता में सीमान्त आगम तथा औसत आगम में सम्बन्ध (Relationship between MR and AR under Monopolistic Competition)- एकाधिकारी प्रतियोगिता में फर्म अपनी कीमत कम करके अधिक माल बेच सकती है। अत: माँग वक्र (औसत आगम वक्र) ऊपर से नीचे की ओर ढालू होता है। जब AR वक्र नीचे की ओर होता है तो -MR वक्र इसके नीचे होता है। इस बात का स्पष्टीकरण नीचे तालिका तथा रेखाचित्र से किया गया है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 4
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 5

प्रश्न 16.
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा तथा कुल आगम में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा तथा कुल आगम में सम्बन्ध (Relation between price line and perfect competition under perfect competition) पूर्ण प्रतियागिता में कीमत तथा कुल आगम में महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। कीमत रेखा के नीचे का क्षेत्र कुल आगम के बराबर होता है। पूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्म कीमत को स्वीकार करती है। उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत को इसे स्वीकार करना पड़ता है वह दी हुई कीमत पर अपने उत्पाद की जितनी चाहं इकाइयाँ बेच सकती है। अत: कुल आगम कीमत तथा बेची गई इकाइयों का गुणनफल होगा। रेखाचित्र में वस्तु की कीमत OP है। PA कीमत रेखा है। फर्म की विक्रय की मात्रा OQ है। अत: कुल आगम OP × OQ होगा। यह OQRP आयत के क्षेत्रफल को प्रदर्शित करता है। अतः हम कह सकते हैं कि पूर्ण प्रतियोगिता में कुल आगम कीमत रेखा के नीचे का क्षेत्रफल के बराबर है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 6

प्रश्न 17.
पूर्ति के नियम के अपवाद बताइये।
उत्तर:
अपवाद (Exceptions)-

  • कीमत में और परिवर्तन की आशा।
  • कृषि वस्तुओं की स्थिति में-चूँकि कृषि मुख्य रूप से प्रकृति पर निर्भर करती हैं जो अनिश्चित होती है।
  • उन पिछड़े देशों में जिनमें उत्पादन के लिए पर्याप्त साधन नहीं पाये जाते।
  • उच्च स्तर की कलात्मक वस्तुएँ।

प्रश्न 18.
बाजार पूर्ति से क्या अभिप्राय है ? इसे कैसे प्राप्त किया जाता है ?
उत्तर:
बाजार पूर्ति (Market Supply)- बाजार पूर्ति से अभिप्राय विभिन्न कीमतों पर बाजार के सभी विक्रेताओं की एक सामूहिक पूर्ति से है। व्यक्तिगत पूर्ति के जोड़ने से बाजार पूर्ति प्राप्त होती है। मान लो एक बाजार में गेहूँ के तीन विक्रेता (A, B तथा C) हैं। इनकी पूर्ति को जोड़ने से हमें बाजार पूर्ति प्राप्त होगी। बाजार पूर्ति को नीचे तालिका की सहायता से समझाया गया है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 7

प्रश्न 19.
निजी आय तथा वैयक्तिक आय में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
निजी आय तथा वैयक्तिक आय में निम्नलिखित अंतर है-
निजी आय:

  1. निजी उद्यमों तथा कर्मियों द्वारा समस्त स्रोत से प्राप्त आय।
  2. यह विस्तृत अवधारणा है।
  3. इसमें निगम कर, अवितरित लाभ इत्यादि शामिल हैं।
  4. निजी आय = NI – सार्वजनिक क्षेत्र को घरेलू उत्पदि से प्राप्त आय + समस्त

वैयक्तिक आय:

  1. व्यक्तियों तथा परिवारों को प्राप्त होने वाली आय
  2. यह संकुचित अवधारणा है।
  3. इसमें ये सब शामिल नहीं हैं।
  4. वैयक्तिक आय = निजी आय – निगम कर – अवितरित लाभ चालू अंतरण

प्रश्न 20.
क्या होगा यदि बाजार में प्रचलित कीमत-
(i) संतुलन कीमत से अधिक है, (ii) संतुलन कीमत से कम है ?
उत्तर:
(i) बाजार में प्रचलित कीमत के संतुलन कीमत से अधिक होने पर यह सोचते हुए कि दूसरे स्थानों से यहाँ पर अधिक लाभ कमा सकते हैं, फर्मे बाजार में प्रवेश करेंगी। परिणामस्वरूप प्रचलित कीमत पर बाजार में आधिक्य पूर्ति होगी। यह आधिक्य पूर्ति बाजार मूल्य में कमी लाएगी और बाजार कीमत कम होकर संतुलन कीमत के बराबर हो जाएगी।

(ii) इस स्थिति में बहुत सी फर्मे जिन्हें हानि हो रही होगी वे फर्मे इस उद्योग से बाहार निकल आएँगी। परिणामस्वरूप प्रचलित बाजार मूल्य पर आधिक्य माँग की स्थिति उत्पन्न होगी। आधिक्य माँग बाजार मूल्य में वृद्धि लाएगी और बाजार मूल्य संतुलन कीमत कम हो जाएगी।

प्रश्न 21.
एक पूर्ण प्रतियोगी फर्म में श्रम के श्रेष्ठ चयन की शर्त क्या है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी फर्म में श्रम में श्रेष्ठ चयन की शर्त (Condition for optimal choice of labour in perfectly competitive firm)- श्रम बाजार में श्रम की माँग फर्मों द्वारा की जाती है। श्रम से अभिप्राय श्रमिकों के कार्य के घंटों से है न कि श्रमिकों की संख्या से। प्रत्येक फर्म का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है। फर्म को अधिकतम लाभ तभी प्राप्त होता है जबकि नीचे दी गई शर्त पूरी होती है-
W = MRPL       MRPL = MR × MPL
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में सीमान्त आगम कीमत के बराबर होता है और कीमत सीमान्त उत्पाद के मूल्य के बराबर होती है। अतः श्रम के आदर्श (श्रेष्ठ) चयन की शर्त मजदूरी दर तथा सीमान्त उत्पाद के मूल्य में समानता है।

प्रश्न 22.
बाजार के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करें।
उत्तर:
बाजार के विभिन्न प्रकारों का निम्नलिखित उल्लेख है-
1. पूर्ण प्रतियोगिता- पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति होती हैं जिसमें एक समान वस्तु के बहुत अधिक क्रेता एवं विक्रेता होते हैं। एक क्रेता तथा एक विक्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाते और यही कारण है कि पूर्ण प्रतियोगिता में बाजार में वस्तु की एक ही कीमत प्रचलित रहता है।

2. एकाधिकार- एकाधिकार दो शब्दों से मिलकर बना है-एक + अधिकार अर्थात् बाजार की वह स्थिति जब बाजार में वस्तु का केवल एक मात्र विक्रेता हो। एकाधिकारी बाजार दशा में वस्तु का एक अकेला विक्रेता होने के कारण विक्रेता का वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियंत्रण रहता है। विशुद्ध एकाधिकार में वस्तु का निकट स्थापन्न की उपलब्ध नहीं होता।

3. एकाधिकारी प्रतियोगिता- वास्तविक जगत में न तो पूर्ण प्रतियोगिता प्रचलित होती और न ही एकाधिकार। वास्तविक बाजार में प्रतियोगिता एवं एकाधिकार दोनों के ही तत्त्व उपस्थित रहते हैं। इस बाजार दशा के समूह के उत्पादक विभेदीकृत वस्तुओं दोनों के ही तत्त्व उपस्थित रहते हैं। इस बाजार दशा में समूह के उत्पादक विभेदीकृत वस्तुओं का उत्पादन करते हैं जो एक समान तथा समरूप नहीं होता है, किन्तु निकट स्थापन्न अवश्य होता है।

प्रश्न 23.
स्थानापन्न वस्तुओं से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
स्थानापन्न वस्तुएँ वे सम्बन्धित वस्तुएँ हैं जो एक-दूसरे के बदले एक ही उद्देश्य के लिए प्रयोग की जा सकती है। उदाहरण के लिए चाय और कॉफी। स्थानापन्न वस्तुओं में से एक वस्तु की माँग तथा दूसरी वस्तु की कीमत में धनात्मक सम्बन्ध होता है। अर्थात् एक वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी स्थानापन्न वस्तु की माँग बढ़ती है तथा कीमत कम होने पर माँग कम होती है।

प्रश्न 24.
चालू जमा खाता क्या है ?
उत्तर:
चालू खाते की जमाएँ चालू जमाएँ कहलाती हैं। चालू खाता वह खाता है जिसमें जमा की गई रकम जब चाहे निकाली जा सकती है। चूंकि इस खाते में आवश्यकतानुसार कई बार रुपया निकालने की सुविधा रहती है, इसलिए बैंक इस खाते का धन प्रयोग करने में स्वतंत्र नहीं होता। यही कारण है कि बैंक ऐसे खातों पर ब्याज बिल्कुल नहीं देता। कभी-कभी कुछ शुल्क ग्राहक से वसूल करता है।

प्रश्न 25.
पूर्ण प्रतियोगिता से क्या समझते हैं ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति होती है जिसमें एक समान वस्तु के बहुत अधिक क्रेता एवं विक्रेता होते हैं। एक क्रेता तथा विक्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाते और यही कारण है कि पूर्ण प्रतियोगिता में बाजार में वस्तु की एक ही कीमत प्रचलित रहती है।

प्रश्न 26.
व्यावसायिक बैंक के तीन प्रमुख कार्यों को बतायें।
उत्तर:
व्यावसायिक बैंक के तीन प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  • जमाएँ स्वीकार करना
  • ऋण देना
  • साख निर्माण।

प्रश्न 27.
सरकारी बजट के किन्हीं तीन उद्देश्यों को बतायें।
उत्तर:
सरकारी बजट के किन्हीं तीन उद्देश्य निम्नलिखिः हैं-

  • आर्थिक विकास को प्रोत्साहन
  • संतुलित क्षेत्रीय विकास
  • रोजगार का सृजना

प्रश्न 28.
भुगतान संतुलन क्या है ?
उत्तर:
भुगतान संतुलन का संबंध किसी देश के शेष विश्व के साथ सभी आर्थिक लेन-देन के लेखांकन के रिकार्ड हैं। प्रत्येक देश विश्व के अन्य देशों के साथ आर्थिक लेन-देन करता है। इस लेन-देन के फलस्वरूप रसे अन्य देशों से प्राप्तियाँ होती है तथा उसे अन्य देशों को भुगतान. करना पड़ता है। भुगतान संतुलन इन्हीं प्राप्तियों एवं भुगतानों का विवरण हैं।

प्रश्न 29.
संतुलित और असंतुलित बजट में भेद करें।
उत्तर:
संतुलित बजट : संतुलित बजट वह बजट है जिसमें सरकार की आय एवं व्यय दोनों बराबर होते हैं।
असंतुलित बजट : वह बजट जिसमें सरकार की आय एवं सरकार की व्यय बराबर नहीं होते असंतुलित बजट दो प्रकार का हो सकता है-

  • वजन का बजट या अतिरेक बजट जिसमें आय व्यय की तुलना में अधिक हो।
  • घाटे का बजट जिसमें व्यय आय की तुलना में अधिक हो।

प्रश्न 30.
अर्थशास्त्र की विषय वस्तु की विवेचना करें।
उत्तर:
प्रो. चैपमैन अर्थशास्त्र के विषय-वस्तु में धन के उपयोग, उत्पादन, विनिमय तथा वितरण को शामिल करते हैं। किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री प्रो. बोल्डिंग इसके विषय वस्तु में निम्न पाँच मदों को शामिल करते है।

  • उपयोग (Consumption)- उपयोग का अर्थ उस आर्थिक क्रिया से है, जिसका संबंध मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए वस्तुओं तथा सेवाओं की उपयोगिता का प्रयोग करने से है।
  • उत्पादन (Production)- उत्पादन का अर्थ वस्तुओं तथा सेवाओं द्वारा उपयोगिता या मूल्य में वृद्धि करने से है।
  • विनिमय (Exchange)- विनिमय में उन सभी क्रियाओं को शामिल किया जाता है जिसमें वस्तुओं तथा सेवाओं का क्रय-विक्रय दूसरी वस्तुओं के साथ अथवा मुद्रा के साथ किया जाता है।
  • वितरण (Distribution)- वितरण का अर्थ राष्ट्रीय आय का विभिन्न उत्पादन के साधनों में वितरण करना है। साधनों को मजदूरी लगान ब्याज तथा लाभ के रूप में पुरस्कार दिया जाता है।
  • सार्वजनिक वित्त (Public Finance)- इसमें सरकार की उन सभी क्रियाओं को शामिल किया जाता है, जो अर्थव्यवस्था की कुशल व्यवस्था के लिए अपनानी पड़ती है। इसमें सरकारी बजट सार्वजनिक आय तथा व्यय आदि शामिल किए जाते हैं।

प्रश्न 31.
भुगतान शेष के चालू खाता एवं पूँजी खाता में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
चालू खाता : चालू खाते के अन्तर्गत उन सभी लेन देनों को शामिल किया जाता है जो वर्तमान वस्तुओं और सेवाओं के आयात निर्यात के लिए किए जाते हैं। चालू खाते के अन्तर्गत वास्तविक व्यवहार लिखे जाते हैं।

पूँजी खाता : पूँजी खाता पूँजी सौदों निजी एवं सरकारी पूँजी, अन्तरणों और बैंकिंग पूँजी प्रवाह का एक रिकार्ड है पूँजी खाता ऋणों और दावों के बारे में बताता है। उसके अन्तर्गत सरकारी सौदे विदेशी प्रत्यक्ष विनियोग पार्टफोलियो विनियोग को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 32.
बाजार की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
बाजार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • एक क्षेत्र
  • क्रेताओं और विक्रेताओं की अनुपस्थिति
  • एक वस्तु
  • वस्तु का एक मूल्य.

प्रश्न 33.
रोजगार का परंपरावादी सिद्धान्त समझाइए।
उत्तर:
रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त का प्रतिपादन परंपरावादी अर्थशास्त्रियों ने किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति को प्रचलित मजदूरी पर उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार आसानी से काम मिल जाता है। दूसरे शब्दों में प्रचलित मजदूरी दर पर अर्थव्यवस्था में सदैव पूर्ण रोजगार की स्थिति होती है। काम करने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए दी गई मजदूरी दर पर बेरोजगारी की कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती है। रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त को बनाने में डेबिड रिकार्डों, पीगू, मार्शल आदि व्यष्टि अर्थशास्त्रियों ने योगदान दिया है। रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त में जे. बी. से का रोजगार सिद्धान्त बहुत प्रसिद्ध है।

प्रश्न 34.
संक्षेप में अनैच्छिक बेरोजगार को समझाइए।
उत्तर:
यदि दी गई मजदूरी दर या प्रचलित मजदूरी दर पर काम करने के लिए इच्छुक व्यक्ति को आसानी से कार्य नहीं मिल पाता है तो इस समस्या को’ अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं।

एकं अर्थव्यवस्था में अनैच्छिक बेरोजगारी के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  • अर्थव्यवस्था में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति हो सकती है।
  • प्राकृतिक संसाधनों की कमी।
  • पिछड़ी हुई उत्पादन तकनीक।
  • आधारित संरचना की कमी आदि।

प्रश्न 35.
साधन आय को कितने भागों में बाँटा जाता है ?
उत्तर:
उत्पादन के साधनों द्वारा प्रदान की गयी सेवाओं के बदले में जो आय प्राप्त प्राप्त होती है। उसे. साधन आय कहते हैं। साधन आय को निम्न भाग में बाँटा जा सकता है लगान, ब्याज, मजदूरी इत्यादि।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 4

BSEB Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 4 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
पूर्व-स्थापित सामंजस्य सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
पूर्व-स्थापित सामंजस्य सिद्धान्त के अन्तर्गत कहा गया है कि बिना खिड़कियों वाले अनेक कमरे होते हैं जिनमें परस्पर कोई समवाद नहीं होता परन्तु पूर्व-स्थापित सामंजस्य के कारण आपस में बिना किसी टकराव अथवा द्वन्द्व के वे एक साथ रहते हैं।

प्रश्न 2.
क्या पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का अध्ययन प्रासंगिक है?
उत्तर:
नीतिशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान होने के नाते इस बात की भी अध्ययन करता है की मनुष्य या समाज के बीच एक पूर्ण संबन्ध हो तथा व्यक्ति के अधिकार एवं कर्तव्य उचित कार्यों के लिए पुरष्कार और अनुचित डंड का निर्धारण भी करता है नीतिशास्त्र में पर्यावरण सम्बन्ध 7 बातों का भी अध्ययन किया जाता है इसलिएए पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का अध्ययन प्रासंगिक है।

प्रश्न 3.
शिक्षा दर्शन की एक विशेषता पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
शिक्षा दर्शन की एक विशेषता के अन्तर्गत शिक्षा लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साध न है यदि दर्शन जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करता है तो शिक्षा उस लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन है। दर्शन तथा शिक्षा का घनिष्ट सम्बन्ध है।

प्रश्न 4.
भारतीय दर्शन में कितने प्रमाण स्वीकृत हैं?
उत्तर:
भारतीय दर्शन में निम्नलिखित चार प्रमाण स्वीकृत है-

  1. प्रत्यक्ष (Perception),
  2. अनुमाण (Inference),
  3. उपमाण (Comtarison),
  4. शब्द (Verbal Autority)।

प्रश्न 5.
योगज प्रत्यक्ष क्या है?
उत्तर:
योगज प्रत्यक्ष एक ऐसा प्रत्यक्ष है जो भूत, वर्तमान और भविष्य के गुण तथा सूक्ष्म, निकट तथा दुरस्त सभी प्रकार की वस्तुओं की साक्षात अनुभूती कराता है। यह एक ऐसी शक्ति है जिसे हम घटा बढ़ा सकते हैं जब यह शक्ति बढ़ जाती है तो हम दूर की चीजे तथा सूक्ष्म चीजों को भी प्रत्यक्ष कर पाते हैं। यहि स्थिति योगज प्रत्यक्ष कहलाता है।

प्रश्न 6.
What do you know about the orthodox school of Indian philosophy ? (भारतीय दर्शन के आस्तिक सम्प्रदाय के बारे में आप क्या जानते हैं ?) अथवा, भारतीय दर्शन में आस्तिक सम्प्रदाय किसे कहते हैं ?
उत्तर:
भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों को दो भागों में बाँटा गया है। वे हैं-आस्तिक एवं. नास्तिक।
व्यावहारिक जीवन में आस्तिक का अर्थ है–ईश्वरवादी तथा नास्तिक का अर्थ है-अनीश्वरवादी। ईश्वरवादी का मतलब ईश्वर में आस्था रखनेवालों से है। लेकिन दार्शनिक विचारधारा में आस्तिक शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है। भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है, जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास करता हो। इस प्रकार, आस्तिक का अर्थ है वे का अनुयायी। इस प्रकार, भारतीय दर्शन में छः दर्शनों को आस्तिक माना जाता है। वे हैं-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। ये सभी दर्शन किसी-न-किसी रूप में वेद पर आधारित हैं।

प्रश्न 7.
What do you know about the heterodox school? (नास्तिक सम्प्रदाय के बारे आप क्या जानते हैं ?)
उत्तर:
व्यावहारिक जीवन में नास्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर का निषेध करता है। भारतीय दार्शनिक विचारधारा में नास्तिक शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है। यहाँ नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद को प्रमाण नहीं मानता है। नास्तिक दर्शन के अन्दर चर्वाक, जैन और बौद्ध को रखा जाता है। इस प्रकार नास्तिक दर्शन की संख्या तीन है।

प्रश्न 8.
Explain the meaning of Karma Yoga in Bhagvad Gita. (भगवद्गीता में कर्मयोग के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
गीता का मुख्य विषय कर्म-योग है। गीता में श्रीकृष्ण किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को निरन्तर कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। गीता में सत्य की प्राप्ति के निमित्त कर्म को करने का आदेश दिया गया है। वह कर्म जो असत्य तथा अधर्म की प्राप्ति के लिए किया जाता है, सफल कर्म की श्रेणी में नहीं आते हैं। गीता में कर्म से विमुख होने को महान मूर्खता की संज्ञा दी गयी है। व्यक्ति को कर्म के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने की बात की गयी है साथ ही कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करने की बात भी कही गयी है। गीता में कर्मयोग को ‘निष्काम कर्म’ की भी संज्ञा दी गयी है। इसका अर्थ है, कर्म को बिना किसी फल की अभिलाषा से करना। डॉ. राधाकृष्णन ने कर्मयोग को गीता का मौलिक उपदेश कहा है।

प्रश्न 9.
What is the meaning of Right views in the Eightford Noble Path ? (अष्टांगिक-मार्ग में सम्यक् दृष्टि का क्या अर्थ है ?)
उत्तर:
गौतम बुद्ध ने दुख का मुख्य कारण अविद्या को माना है। अविद्या से मिथ्या-दृष्टि . :(Wrong views) का आगमन होता है। मिथ्या-दृष्टि का अन्त सम्यक् दृष्टि (Right views) से ही
संभव है। अत: बुद्ध ने सम्यक् दृष्टि को अष्टांगिक मार्ग की पहली सीढ़ी माना है। वस्तुओं के यथार्थ .स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि कहा जाता है। सम्यक् दृष्टि का मतलब बुद्ध के चार आर्य सत्यों
का यथार्थ ज्ञान भी है। आत्मा और विश्व सम्बन्धी दार्शनिक विचार मानव को निर्वाण प्राप्ति में बाधक का काम करते हैं। अत: दार्शनिक विषयों के चिन्तन के बदले निर्वाण के लिए बुद्ध ने चार आर्य-सत्यों के अनरूप विचार ढालने को आवश्यक माना।

प्रश्न 10.
What do you know about the Jain Philosophy? (जैन-दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं?)
उत्तर:
जैन-दर्शन, बौद्ध-दर्शन की तरह छठी शताब्दी के विकसित होने के कारण समकालीन दर्शन कहे जा सकते हैं। जैन मत के प्रवर्तक चौबीसवें तीर्थंकर थे। ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे। महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे। जैनमत के विकास और प्रचार का श्रेय अन्तिम तीर्थंकर महावीर को जाता है। बौद्ध की तरह जैन दर्शन भी वेद-विरोधी हैं। इसलिए बौद्ध-दर्शन की तरह जैन दर्शन को भी नास्तिक कहा जाता है। इसी तरह जैन-दर्शन भी ईश्वर में अविश्वास करता है। दोनों दर्शनों में अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया गया है। जैन-दर्शन में भी मुख्य दो सम्प्रदाय हैं। वे हैं-श्वेताम्बर तथा दिगम्बर। जैन-दर्शन का योगदान प्रमाण-शास्त्र तथा तर्क-शास्त्र के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है। जैन-दर्शन प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में उपलब्ध हैं।

प्रश्न 11.
What do you know about Buddhism? (बौद्ध-दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं ?)
उत्तर:
बौद्ध-दर्शन के संस्थापक महात्मा बुद्ध माने जाते हैं। बोधि (Cenlightment) यानि तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद वे बुद्ध कहलाए। उन्हें तथागत और अहर्ता की संज्ञा भी दी गयी। बुद्ध के उपदेशों के फलस्वरूप बौद्ध-धर्म एवं बौद्ध-दर्शन का विकास हुआ। बौद्ध-दर्शन के अनेक अनुयायी थे। उन अनुयायियों में मतभेद रहने के कारण बौद्ध-दर्शन की अनेक शाखाएँ निर्मित हो गयी जिसके फलस्वरूप उत्तरकालीन बौद्ध-दर्शन में दार्शनिक विचारों की प्रधानता बढ़ी। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्यों ने उपदेशों का संग्रह त्रिपिटक में किया। त्रिपिटक की रचना पाली . साहित्य में की गई है।

सुत्तपिटक, अभिधम्म पिटक और विनय पिटक तीन पिटकों के नाम हैं। सुत्त पिटक में धर्म सम्बन्धी बातों की चर्चा है। बौद्धों की गीता ‘धम्मपद’ सुत्तपिटक का ही एक अंग है। अभिधम्म पिटक में बुद्ध के दार्शनिक विचारों का संकलन है। इसमें बुद्ध के मनोविज्ञान सम्बन्धी विचार संग्रहीत है। विनयपिटक में नीति-सम्बन्धी बातों की व्याख्या हुई है।

प्रश्न 12.
Discuss the meaning of post by the base of Philosophy. (न्याय-दर्शन के आधार पर ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
Or,
Discuss the meaning of word in Indian Philosophy. अथवा, (भारतीय दर्शन में ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
जिस किसी शब्द में अर्थ या संकेत की स्थापना हो जाती है, उसे ‘पद’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में शक्तिमान शब्द को हम पद कहते हैं। किसी पद या शब्द में निम्नलिखित अर्थ या संकेत को बतलाने की शक्ति होती है-
(अ) व्यक्ति-विशेष (Individual)-यहाँ ‘व्यक्ति’ का अर्थ है वह वस्तु जो अपने गुणों के साथ प्रत्यक्ष हो सके। जैसे–’गाय’ शब्द को लें। वह द्रव्य या वस्तु जो गाय के सभी गुणों की उपस्थिति दिखावे गाय के नाम से पुकारी जाएगी। न्याय-सूत्र के अनुसार गुणों का आधार-स्वरूप जो मूर्तिमान द्रव्य है, वह व्यक्ति है।

(ब) जाति-विशेष (Universal)-अलग-अलग व्यक्तियों में रहते हुए भी जो एक समान गुण पाये जाए, उसे जाति कहते हैं। पद में जाति बताने की भी शक्ति होती है। जैसे-संसार में ‘गाय’ हजारों या लाखों की संख्या में होंगे लेकिन उन सबों की ‘जाति’ एक ही कही जाएगी।

(स) आकृति-विशेष (Form)-पद में आकृति (Form) को बतलाने की शक्ति होती है। आकृति का अर्थ है, अंगों की सजावट। जैसे–सींग, पूँछ, खूर, सर आदि हिस्से को देखकर हमें ‘जानवर’ का बोध होता है। उसी तरह, दो पैर, दो हाथ, दो आँखें, शरीर, सर आदि को देखकर आदमी (मानव) का बोध होता है।

प्रश्न 13.
What is means of object perception?
(पदार्थ-प्रत्यक्ष का क्या अभिप्राय है ?)
उत्तर:
किसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हमारे सामने कोई पदार्थ वस्तु या द्रव्य हो। जब हमारे सामने ‘गाय’ रहेगी तभी हमें उसके सम्बन्ध में किसी तरह का प्रत्यक्ष भी हो सकता है। अगर हमारे सामने कोई पदार्थ या वस्तु नहीं रहे तो केवल ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रत्यक्ष का निर्माण कर सकती है। इसलिए प्रत्यक्ष के लिए बाह्य पदार्थ या वस्तु का होना आवश्यक है। न्याय दर्शन में सात तरह के पदार्थ बताए गए हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय एवं अभाव। इनमें ‘द्रव्य’ को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसके बाद अन्य सभी द्रव्य पर आश्रित हैं।

प्रश्न 14.
Discuss relation between Comarison and inference. (उपमान एवं अनुमान के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करें।)
Or,
What is relation between Comparison and inference ? अथवा, (उपमान एवं अनुमान के बीच क्या सम्बन्ध है ?)
उत्तर:
अनुमान प्रत्यक्ष के आधार पर ही होता है, लेकिन अनुमान प्रत्यक्ष से बिल्कुल ही भिन्न क्रिया है। अनुमान का रूप व्यापक है। उसमें उसका आधार व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal rclation) रहता है, जिसमें निगमन यानि निष्कर्ष में एक बहुत बड़ा बल रहता है तथा वह सत्य होने का अधिक दावा कर सकता है। दूसरी ओर, उपमान भी प्रत्यक्ष पर आधारित है लेकिन अनुमान की तरह व्याप्ति-सम्बन्ध से सहायता लेने का सुअवसर प्राप्त नहीं होता है। उपमान से जो कुछ ज्ञान हमें प्राप्त होता है, उसमें कोई भी व्याप्ति-सम्बनध नहीं बतलाया जा सकता है। अतः उपमान से जो निष्कर्ष निकलता है वह मजबूत है और हमेशा सही होने का दाबा कभी नहीं कर सकता है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुमान को उपमान पर उस तरह निर्भर नहीं करना पड़ता है जिस तरह उपमान अनुमान पर निर्भर करता है। सांख्य और वैशेषिक दर्शनों में ‘उपमान’ को ही बताकर अनुमान का ही एक रूप बताया गया है। अगर हम आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि उपमान भले ही ‘अनुमान’ से अलग रखा जाए लेकिन अनुमान का काम ‘उपमान’ में हमेशा पड़ता रहता है।

प्रश्न 15.
Explain ‘Substance’ as ‘first Padartha’. (प्रथम पदार्थ के रूप में द्रव्य की चर्चा करें।)
उत्तर:
द्रव्य कणाद का प्रथम पदार्थ है। द्रव्य गुण एवं कर्म का आधार है। द्रव्य के बिना गुण एवं कर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है। द्रव्य गुण एवं कर्म का आधार हाने के अतिरिक्त अपने कार्यों का समवायिकरण (material cause) है। उदाहरण के लिए-सूत से कपड़ा का निर्माण होता है। अतः सूत को कपड़े का समवायि कारण कहा जाता है। द्रव्य नौ प्रकार के होते हैं। वे हैं-पृथ्वी अग्नि, वायु, जल, आकाश, दिक् काल, आत्मा एवं मन। इन द्रव्यों में पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश को पंचभूत कहा जाता है। पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के परमाणु नित्य हैं तथा उनसे बने कार्य-द्रव्य अनित्य हैं। परमाणु दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।

परमाणुओं का अस्तित्व, अनुमान से प्रमाणित होता है। परमाणु का निर्माण एवं नाश असंभव है। पाँचवाँ भौतिक द्रव्य ‘आकाश’ परमाणुओं से रहित है। ‘शब्द’ आकाश का गुण है। सभी भौतिक द्रव्यों का अस्तित्व ‘दिक्’ और ‘काल’ में होता है। दिक् और काल के बिना भौतिक द्रव्यों की व्याख्या असंभव है।

प्रश्न 16.
Explain the meaning of ‘Sankhya’ in the Sankhya philosophy. (सांख्य-दर्शन में सांख्य के अर्थ की व्याख्या करें।)
उत्तर:
सांख्य-दर्शन में ‘सांख्य’ नामकरण के सम्बन्ध में दार्शनिकों के बीच, अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ दार्शनिकों के अनुसार ‘सांख्य’ शब्द ‘सं’ और ख्या’ के संयोग से बना है। ‘स’ का अर्थ सम्यक् तथा ‘ख्या’ का अर्थ ज्ञान होता है। अत: सांख्य का वास्तविक अर्थ ‘सम्यक् ज्ञान’ हुआ। सम्यक् ज्ञान का अभिप्राय पुरुष और प्रकृति के बीच भिन्नता का ज्ञान होता है। दूसरी ओर कुछ दार्शनिकों के अनुसार ‘सांख्य’ नाम ‘संख्या’ शब्द से प्राप्त हुआ है। सांख्य-दर्शन का सम्बन्ध संख्या से होने के कारण ही इसे सांख्य कहा जाता है।

सांख्य दर्शन में तत्त्वों की संख्या बतायी गयी है। तत्वों की संख्या पचीस बतायी गयी है। एक तीसरे विचार के अनुसार ‘सांख्य’ को सांख्य कहे जाने का कारण सांख्य के प्रवर्तक का नाम ‘संख’ होना बतलाया जाता है। लेकिन यह विचार प्रमाणित नहीं है। महर्षि कपिल को छोड़कर अन्य को सांख्य का प्रवर्तक मानना अनुचित है। सांख्य-दर्शन वस्तुतः कार्य-कारण पर आधारित है।

प्रश्न 17.
Explain the meaning of ‘Satva’ in Sankhya Philosophy.
(सांख्य-दर्शन में ‘सत्व’ के अर्थ बतावें।)
उत्तर:
सांख्य दर्शन में गुण तीन प्रकार के होते हैं। वे हैं-सत्व, रजस् और तमस्। सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है। यह खुद प्रकाशमय है तथा दूसरों को भी प्रकाशित करता है। सत्व के कारण ही मन तथा बुद्धि विषयों को ग्रहण करते हैं। इसका रंग श्वेत (उजला) है। यह सुख का कारण होता है। सत्व के कारण ही सूर्य पृथ्वी को प्रकाशित करता है तथा ऐनक में प्रतिबिम्ब की शक्ति होती है। इसका स्वरूप हल्का तथा छोटा (लघु) होता है। सभी हल्की वस्तुओं तथा धुएँ का ऊपर की दिशा में गमन ‘सत्व’ के कारण ही संभव होता है। सभी सुखात्मक अनुभूति यथा हर्ष, तृप्ति, संतोष, उल्लास आदि सत्य के ही कार्य माने जाते हैं।

प्रश्न 18.
Explain positive ideas of Sankara about the Absolute. (ब्रह्म के सम्बन्ध में शंकर के भावात्मक विचार को स्पष्ट करें।) Or, Explain the meaning of Sachchidananda. अथवा, (‘सच्चिदानन्द’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
शंकर ने ‘ब्रह्म’ की निषेधात्मक व्याख्या के अतिरिक्त भावात्मक विचार भी दिए हैं। शंकर के अनुसार ब्रह्म सत् (real) है जिसका अर्थ हुआ कि वह असत् (Un-real) नहीं है। वह चित् (Conscisouness) है जिसका अर्थ कि वह अचेत् नहीं है। वह आनन्द (bliss) है जिसका अर्थ है कि वह दुःख स्वरूप नहीं है। अतः ब्रह्म सत्, चित् और आनन्द है यानि सच्चिदानन्द है। सत्, चित् और आनन्द में अवियोज्य सम्बन्ध है। इसीलिए ये तीनों मिलकर एक ही सत्ता का निर्माण करते हैं। शंकर ने यह भी बतलाया कि ‘सच्चिदानन्द’ के रूप में जो ब्रह्म की व्याख्या की जाती है वह अपूर्ण है। हालाँकि भावात्मक रूप से सत्य की व्याख्या इससे और अच्छे ढंग से संभव नहीं है।

प्रश्न 19.
What are proofs of the existence of Brahma according to Shankar. (शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व के क्या प्रमाण दिये?)
उत्तर:
शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कुछ प्रमाण दिए हैं। उन्हें हम . श्रुति प्रमाण, मनोवैज्ञानिक प्रमाण, प्रयोजनात्मक प्रमाण, तात्विक प्रमाण तथा अपरोक्ष अनुभूतिप्रमाण कहा जाता है। श्रुति प्रमाण के अन्तर्गत शंकर के दर्शन का आधार उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्र है। उनके अनुसार इन ग्रन्थों के सूत्र में ब्रह्म के अस्तित्व का वर्णन है अतः ब्रह्म है। इसी मनोवैज्ञानिक प्रमाण के अन्तर्गत शंकर ने कहा है कि ब्रह्मा सबकी आत्मा है। हर व्यक्ति अपनी आत्मा के अस्तित्व को अनुभव करता है। अतः इससे भी प्रमाणित होता है कि ब्रह्म का अस्तित्व है।

प्रयोजनात्मक प्रमाण के अन्तर्गत कहा गया है कि जगत् पूर्णतः व्यवस्थित है। इस व्यवस्था का कारण जड नहीं कहा जा सकता। अतः व्यवस्था का एक चेतन कारण है. उसे ही हम ब्रह्म कहते हैं। इसी तरह तात्त्विक प्रमाण के अन्तर्गत बताया गया है कि ब्रह्म वृह धातु से बना है जिसका अर्थ है वृद्धि। ब्रह्म की सत्ता प्रमाणित होती है। अन्ततः ब्रह्म के अस्तित्व का सबसे सबल प्रमाण अनुभूति है। वे अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा जाने जाते हैं। अपरोक्ष अनुभूति के फलस्वरूप सभी प्रकार के द्वैत समाप्त हो जाते हैं तथा अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।

प्रश्न 20.
Explain the concept of Soul according to Shankar.
(शंकर के ‘आत्मा’ की अवधारणा को स्पष्ट करें।)
Or,
Explain the relationship between the Soul and the Absolute. अथवा, (आत्मा और ब्रह्म के बीच सम्बन्ध की व्याख्या करें।)
उत्तर:
शंकर आत्मा को ब्रह्म की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार दोनों एक ही वस्तु के दो भिन्न-भिन्न नाम है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। आत्मा स्वयं सिद्ध (Axioms) अतः उसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा देश, काल और कारण-नियम की सीमा से परे हैं। वह त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है। शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। शंकर ने एक ही तत्त्व को आत्मनिष्ठ दृष्टि से ‘आत्मा’ तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म कहा है। शंकर आत्मा और ब्रह्म के ऐक्य को ‘तत्तवमसि’ (that thou art) से पुष्टि करता है।

प्रश्न 21.
Explain the quantitative marks of the cause.
(कारण के परिमाणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।)
उत्तर:
परिमाण के अनुसार कारण और कार्य के बीच मुख्यतः तीन प्रकार के विचार बताए गए हैं-
(क) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में अधिक हो सकता है,
(ख) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कम हो सकता है,
(ग) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कभी अधिक और कभी कम हो सकता है।

अतः, इन तीनों को असत्य साबित किया गया है। यदि कारण अपने कार्य से कभी अधिक और कभी कम होता है तो इसका यही अर्थ है कि प्रकृति में कोई बात स्थिर नहीं है। किन्तु, प्रकृति में स्थिरता में समरूपता है, अत: यह संभावना भी समाप्त हो जाता है।

इसी तरह पहली और दूसरी संभावना भी समाप्त हो जाती है। ये तीनों संभावनाएँ निराधार हैं। अतः, निष्कर्ष यही निकलता है कि कारण-कार्य मात्रा में बराबर होते हैं और यही सत्य भी है।

प्रश्न 22.
Explain the composition of causes
(कारणों का संयोग की व्याख्या करें।)
उत्तर:
जब बहुत से कारणं मिलकर संयुक्त रूप से कार्य पैदा करते हैं तो वहाँ पर कारणों के मेल को कारण-संयोग कहा जाता है। यह भी कारण-कार्य नियम के अंतगर्त पाया जाता है। जैसे-भात-दाल, सब्जी, दूध, दही, घी, फल आदि खाने के बाद हमारे शरीर में खून बनता है। इसलिए खून यहाँ बहुत से कारणों के मेल से बनने के कारण कार्य-सम्मिश्रण हुआ तथा दाल, भात आदि कारणों का मेल कारण-संयोग कहा जाता है। अतः, कारणों के संयोग और कार्यों के सम्मिश्रण में अंतर पाया जाता है।

प्रश्न 23.
Compare between caused and condition. (कारण और उपाधि की तुलना करें।)
उत्तर:
आगमन में कारण का एक हिस्सा स्थित बतायी गई है। जिस तरह से हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर के अंग हैं और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं। उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और उपाधि में तीन तरह के अंतर हैं-
(क) कारण एक है और उपाधि कई हैं।
(ख)कारण अंश रूप में रहता है और उपाधि सम्पूर्ण रूप में आता है।
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं। इस तरह कारण और उपाधि में अंतर है।

प्रश्न 24.
What are Affirmative Conditions ? (भावात्मक कारणांश या उपाधि क्या है?)
उत्तर:
भावात्मक कारणांश उपाधि का एक भेद है। उपाधि प्रायः दो तरह के हैं-भावात्मक तथा अभावात्मक। ये दोनों मिलकर ही किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। यह कारण का वह भाग या हिस्सा है जो प्रत्यक्ष रूप में पाया जाता है। इसके रहने से कार्य को पैदा होने में सहायता मिलती है। जैसे-नाव का डूबना एक घटना है, इसमें भावात्मक उपाधि इस प्रकार है-एकाएक आँधी का आना, पानी का अधिक होना, नाव का पुराना होना तथा छेद रहना, वजन अधिक हो जाना आदि ये सभी भावात्मक उपाधि के रूप में जिसके कारण नाव पानी में डूब गई।

प्रश्न 25.
Explain in brief the Ontological proof. (सत्ता या तत्त्व सम्बन्धी प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।)
उत्तर:
अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईबनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की धारणा है. अतः यह धारणा केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक में होगी। ईश्वर की यथार्थता (existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है।

संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की. जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा, नंगा और दरिद्र न होता।

प्रश्न 26.
How did Kant criticize the Cosmological Proof. (विश्व सम्बन्धी प्रमाण की आलोचना काण्ट ने कैसे की?)
उत्तर:
काण्ट के अनुसार वैश्विक प्रमाण को आनुभविक नहीं समझना चाहिए, क्योंकि आपातकाल वस्तुओं को कोई इन्द्रियानुभविक लक्षण नहीं है। यह अनुभव वस्तुओं का अतिसामान्य अमूर्त लक्षण है जिसे अनुभवाश्रित मुश्किल से कहा जा सकता है। वैश्विक प्रमाण का मुख्य उद्देश्य यही है कि यह अनिवार्य सत्ता के प्रत्यय (Idea) को स्थापित करे तथा इस अनिवार्य सत्ता से ईश्वर की वास्तविकता सिद्ध करे। ऐसा करने पर यह सत्तामूलक प्रमाण का रूप धारण कर लेता है।

जिस प्रकार पूर्ण (perfect) ईश्वर की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, उसी तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार वैश्विक प्रमाण वस्तुतः सत्तामूलक प्रमाण का ही छुपा रूपं है, अतः यह सिद्धान्त भी ईश्वर के अस्तित्व को नहीं सिद्ध कर पाता है।

प्रश्न 27.
Explain in brief ther Teleological Proof. , (उद्देश्य मूलक प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।)
उत्तर:
उद्देश्य मूलक प्रमाण के अनुसार जहाँ तक मानव का अनुभव प्राप्त होता है, वहाँ तक सम्पूर्ण विश्व में क्रम व्यवस्था, साधन-साध्य की सम्बद्धता दिखाई देती है। अतः प्राकृतिक समरूपता व्यवस्था, सौन्दर्य आदि से स्पष्ट होता है कि कोई परम सत्ता है, जिसने इस विश्व की रचना अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए की है। काण्ट ने इस प्रमाण को भी उपयुक्त नहीं माना। उनके अनुसार उद्देश्य मूलक प्रमाण से इतना ही सिद्ध हो पाता है कि विश्व का कोई शिल्पकार (architect) है, न कि इस विश्व का कोई सृष्टिकर्ता। सृष्टिकर्ता वह है जो विश्व के उपादान और उसके रूप दोनों का रचयिता हो। वस्तुतः उद्देश्य मूलक प्रमाण से अपरिमित, निरपेक्ष, परम सत्ता का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। काण्ट की दृष्टि में सभी प्रमाण अन्त में सत्तामूलक प्रमाण के ही विभिन्न चरण हैं।

प्रश्न 28.
What are modern ideas regarding mind-body problem?
(‘मन-शरीर समस्या के सम्बन्ध में आधुनिक विचार क्या है?)
उत्तर:
मन-शरीर के सम्बन्ध की विवेचना एक जटिल दार्शनिक समस्या है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार शारीरिक प्रक्रियाओं के अतिरिक्त मन की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं : किया जा सकता है। इस दृष्टि से मन और शरीर के बीच सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। शारीरिक या मानसिक प्रक्रियाओं के तंत्र को ही ‘मन’ की संज्ञा दी जाती है। लेकिन मन को स्वतंत्र मानने को मशीन में भूत (ghost in the machine) के बराबर काल्पनिक सिद्धान्त कहा • जाता है। व्यवहारतः यन्त्र अपने-आप चलता है, न कि कोई भूत इसे चलाता है।

प्रश्न 29.
What is virtue ? (सद्गुण क्या है ?).
उत्तर:
सद्गुण से हमारा तात्पर्य किसी व्यक्ति के नैतिक विकास से रहता है। सद्गुण के अन्तर्गत तीन बातें आती हैं। वे हैं-कर्तव्य का पालन इच्छा से हो तथा सद्गुण का अर्जन। निरन्तर अभ्यास द्वारा कर्तव्य पालन करने से जो स्थिर प्रवृत्ति में श्रेष्ठता आती है-वही सद्गुण है। उचित कर्मों का पालन करना ही हमारा कर्त्तव्य है और अनुचित कर्मों का त्याग भी कर्तव्य ही है। जब कोई मानव अभ्यास पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है तो उसमें एक प्रकार का नैतिक गुण स्वतः विकसित होने लगता है। यही विकसित गुण सद्गुण है। वस्तुत: अच्छे चरित्र का लक्षण ही सद्गुण है। कर्त्तव्य हमारे बाहरी कर्म का द्योतक है जबकि सद्गुण हमारे अन्तः चरित्र का द्योतक है। सुकरात ने तो सद्गुण ज्ञान को ही माना है।

प्रश्न 30.
What do you mean by the Preventive theory of Punishment ? (दण्ड के निवर्तन सिद्धांत से आप क्या समझते हैं?)
उत्तर:
निवर्तन सिद्धान्त की मूल धारणा है कि दण्ड देने के पीछे हमारा एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि भविष्य में व्यक्ति वैसे अपराध की पुनरावृत्ति न करें। दण्ड एक तरह से व्यक्ति के ऊपर अंकुश डालता है। यदि किसी व्यक्ति को कठिन-से-कठिन दण्ड देते हैं तो उसका उद्देश्य दो माने जाते हैं। पहला, वह व्यक्ति भविष्य में अपराध करने के लिए हिम्मत नहीं कर पाता है। साथ ही जब दूसरा व्यक्ति अपराधकर्मी को दण्ड भोगते देखता है तो वह व्यक्ति भी भय से अपराध नहीं करता है। जैसे किसी को गाय चुराने के लिए दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि वह गाय चुरा चुका है बल्कि इसलिए दिया जाता है कि वह भविष्य में गाय चुराने की हिम्मत न करे। इस प्रकार निवर्तनवादी सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य अपराधी कार्य पर नियंत्रण लगाना माना जाता है। “.

प्रश्न 31.
Explain the relationship between social philosophy and Ethics.
(समाजदर्शन एवं नीतिशास्त्र के बीच सम्बन्धों की विवेचना करें।)
उत्तर:
नीतिशास्त्र का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के उन लक्ष्यों (ends) से है जिन्हें प्राप्त करना मानव-जीवन का उद्देश्य होता है। अतः समाज दर्शन का जितना गहरा सम्बन्ध नीतिशास्त्र से है उतना किसी अन्य शास्त्र से नहीं। समाजदर्शन वास्तव में नीतिशास्त्र का एक अंग कहा जा सकता है। इसी तरह नीतिशास्त्र को भी समाज-दर्शन का अंग कहने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इसके बावजूद सुविधा की दृष्टि से हम दोनों में अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं। नीतिशास्त्र मुख्य रूप से व्यक्तियों के आचरण (conduct) से सम्बन्धित है, दूसरी ओर समाज का निर्माण व्यक्तियों से ही होता है तथा वे लक्ष्य जिन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति तथा समाज प्रयत्न करते हैं लगभग समान होते हैं। .

प्रश्न 32.
नैतिकता का ईश्वर से क्या संबंध है?
उत्तर:
नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है। यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता है और जगत में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुतः नहीं माना जा सकता है किन्तु नैतिक मूल्यों का वस्तुगत न मान कोई भी दार्शनिक मानव को संतुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानना ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना है।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 3

BSEB Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 3 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
जल प्रदूषण क्या है?
उत्तर:
जल की भौतिक, रासायनिक तथा जैवीय विशेषताओं में (मानव स्वास्थ्य तथा जलीय जीवों पर) हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तनों को जल प्रदूषण कहते हैं।

जल में स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता होती है परंतु जब मानव जनित स्रोतों से उत्पन्न प्रदूषकों का जल में इतना अधिक जमाव हो जाता है कि जल की सहन शक्ति तथा स्वयं शुद्धिकरण की क्षमता से अधिक हो जाता है तो जल प्रदूषित हो जाता है।

प्रश्न 2.
चिकित्सा नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
आज चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी फैल चुकी है। एक समय था कि भारत देश में सुश्रुत चरक, धन्वन्तरि जैसे महान चिकित्साशास्त्री हुए थे जिन्हें समाज में भगवान के रूप में माना जाता था। इन चिकित्साशास्त्रियों ने न केवल चिकित्साशास्त्र का ज्ञान दिया, बल्कि वैद्य का गुण भी बताया।

लेकिन आज चिकित्सा ने पेशा का रूप ग्रहण कर लिया है और ईमानदारी, सहानुभूति, सत्यवादिता, दयालुता, प्रेम आदि को बाहर कर दिया है। किसी रोगी के साथ ईमानदारी से व कार्य कुशलता से व्यवहार किया जाये तो उसके. मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और रोगी का कुछ रोग तो अपने-आप ही ठीक हो जाता था।

मगर आज के समय में चिकित्सक मोटी फीस, महँगे ऑपरेशन, खर्चीली दवाईयाँ पर रोगी का इतना खर्चा करा देते हैं कि रोगी अपने रोग से न मरकर अपने इलाज के खर्च तले ही आकर मर जाता है।

प्रश्न 3.
मानसिक पर्यावरण क्या है?
उत्तर:
मानसिक पर्यावरण ज्ञान संपादन पर्यावरण अथवा क्रिया को कहते हैं। ज्ञान में मन के अंदर एक तरह का पदार्थ विद्यमान रहता है जिसके माध्यम से यथार्थ वस्तु का ज्ञान होता है। इसी को ज्ञान का विषय कहते हैं। हर एक ज्ञान का संकेत अपने से भिन्न किसी वस्तु की ओर होता है। इसी वस्तु को ज्ञान की वस्तु कहते हैं, क्योंकि ज्ञान इसी का होता है।

प्रश्न 4.
मोक्ष कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर:
भारतीय नैतिक दर्शन में मोक्ष की प्राप्ति की व्यावहारिक स्तर पर भी सम्भव माना गया है। अगर हम कुछ निश्चित मार्ग को अपनायें तो हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। वैसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए भिन्न-भिन्न मार्गों की चर्चा की गयी है, किन्तु हम सुविधा के दृष्टिकोण से इन्हें तीन मार्गों के रूप में उल्लेख कर सकते हैं-

  • ज्ञान मार्ग-जिसके अनुसार ज्ञान के आधार पर मोक्ष संभव माना जाता है।
  • कर्म मार्ग-जिसके अनुसार निष्काम कर्मों के सम्पादन करने से हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं।
  • भक्ति मार्ग-जिसमें यह माना जाता है कि निष्कपट भक्ति या ईश्वर के ऊपर पूर्ण . आस्था रखकर उनके ऊपर सभी चीजों को छोड़कर हम मोक्ष की प्राप्ति कर सकते हैं। “

प्रश्न 5.
बुद्ध के अनुसार निर्वाण प्राप्ति का मार्ग क्या है?
उत्तर:
बुद्ध के अनुसार दुःख की समाप्ति एवं निर्वाण की प्राप्ति के मार्ग में आठ सीढ़ियाँ हैं। इसलिए इसे अष्टांग मार्ग या आष्टांगिक मार्ग कहते हैं। इसके आठ सोपान हैं जिन पर आरूढ़ होकर सत्व जीवन के चरम लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। वे इस प्रकार से हैं

  1. सम्यक् दृष्टि,
  2. सम्यक् संकल्प,
  3. सम्यक् वाक्,
  4. सम्यक् कर्मान्त,
  5. सम्यक् आजीव,
  6. सम्यक् व्यायाम,
  7. सम्यक् स्मृति,
  8. सम्यक् समाधि।

प्रश्न 6.
ध्वनि प्रदूषण क्या है?
उत्तर:
ध्वनि की भौतिक, रासायनिक तथा जीविय विशेषताओं में (मानव स्वास्थ्य तथा जीवों पर) हानिकारक प्रभाव उत्पन्न करने वाले परिवर्तन को ध्वनि प्रदूषण कहते हैं।

ध्वनि प्रदूषण फैलाने वालों पर सरकार द्वारा बनायी कानून भी सख्त होती है। इस प्रकार ध्वनि प्रदूषण से शारीरिक और मानसिक रूप से व्यक्तियों में असंतोष उत्पन्न होता है।

प्रश्न 7.
नैराश्यवाद क्या है? व्याख्या करें।
उत्तर:
कतिपय विचारकों ने भारतीय दर्शन को निराशावादी दर्शन कहकर आलोचना का विषय बनाया है। लॉर्ड रोनाल्डशॉ का विचार है कि “निराशावाद समस्त भारतीय भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में व्याप्त है।” चेले ने अपनी पुस्तक ‘एडमिनिस्ट्रेटिव प्राब्लम्स’ में लिखा है कि “भारतीय दर्शन आलस्य और शाश्वत विश्राम की कामना से उत्पन्न हुआ है।”

निराशा का अभिप्राय-निराशा से अभिप्राय सांसारिक जीवन को दु:खमय समझना है। निराशा मन की एक प्रवृत्ति है जो जीवन को दुःखमय समझती है। भारतीय दर्शन को इस अर्थ में निराशावादी कहा जा सकता है कि उसकी उत्पत्ति भौतिक संसार की वर्तमान परिस्थितियों के प्रति असंतोष के कारण हुई है, भारतीय दर्शनों ने संसार को दुःखमय कहकर मनुष्य के जीवन को दुःख से परिपूर्ण प्रतिपादित किया है। संसार दु:खमय है। भारतीय दार्शनिक संसार की इस दु:खमय अवस्था का विश्लेषण करता है न केवल अपने जीवन के दु:खमय होने से ही वरन् कहीं-कहीं साक्षात् आशा को भी धिक्कारा गया है। निराशावाद की प्रशंसा की गयी है। एक स्थान पर कहा गया है कि
तेनपधीतं श्रुतं तै सर्वत्रमनुष्ठिन्।
ये नाशय पृष्ठतः कृत्वा नैराश्यमबलम्बित्तम।।
अर्थात् पढ़ना, लिखना तथा अनुष्ठान उसी का सफल है जो आशाओं से पिंड छुड़ाकर निराशा का सहारा पकड़ता है।

आशा को आशीविषी भी कहा है। डॉ. राधाकृष्णन ने कहा है कि “यदि निराशावाद से तात्पर्य जो कुछ है और जिसकी सत्ता हमारे सामने है उसके प्रति असंतोष से है तो भले ही इसे केवल इन अर्थों में निराशावादी कहा जाये। इन अर्थों में तो सम्पूर्ण दर्शनशास्त्र निराशावादी. कहला सकता है।”

प्रश्न 8.
जैन दर्शन के जीव विचार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
जैन-दर्शन के अनुसार चेतन द्रव्य को जीव या आत्मा कहते हैं। संसार की दशा से आत्मा जीव कहलाता है। उसमें प्राण और शारीरिक, मानसिक तथा इन्द्रिय शक्ति है। शुद्ध अवस्था में जीव में विशुद्ध ज्ञान और दर्शन अर्थात् सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञान रहता है। किन्तु कर्म के प्रभाव से जीव, औपशमिक, क्षायिकक्षायों, पशमिक औदायिक तथा परिमाणिक इन पाँच भावप्राणों से युक्त रहता है। द्रव्य रूप में परिणत होकर ही भाक्दशापन्न प्राण पुदगल कहलाता है। अतः भाव द्रव्य में और द्रव्य भाव में परिवर्तित होते रहते हैं।

जीव स्वयं प्रकाश है और अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। वह नित्य है। वह सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है। शुद्ध दृष्टि से जीव में ज्ञान तथा दर्शन है। जीव अमूर्त, कर्ता, स्थूल शरीर के समान लम्बा-चौड़ा कर्मफलों का भोक्ता सिद्ध तथा ऊर्ध्वगामी है। अनादि अविद्या के कारण उसमें कर्म प्रवेश करता है और बन्धन में बंध जाता है। बुद्ध जीव, चेतन और नित्य परिणामी है। संकोच और विकास के गुणों के कारण वह जिस शरीर में प्रवेश करता है उसी का रूप धारण कर लेता है। जीव का विस्तार जड़ के विस्तार से भिन्न है। वह शरीर को घेरता नहीं परन्तु उसका प्रत्येक भाग में अनुभव होता है। एक जड़ द्रव्य में दूसरा जड़ द्रव्य प्रविष्ट नहीं हो सकता। परन्तु जड़ में आत्मा और जीव में जीव प्रविष्ट हो सकता है।

प्रश्न 9.
जैन दर्शन के विरल की व्याख्या करें।
उत्तर:
जैन दर्शन में त्रिरत्न सिद्धांत का बड़ा ही महत्व है। इसके अंतर्गत तीन प्रकार के सम्प्रत्ययों को सम्मिलित किया जाता है। सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन और सम्यक् चरित्र। सम्यक् ज्ञान जैन आगमों का ज्ञान है, सम्यक् दर्शन आगमों (जैनी ग्रंथों) एवं तीर्थकरों में आस्था है और सम्यक चरित्र अनुशासन है, जिसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय एवं अपरिग्रह शामिल है।

प्रश्न 10.
देकार्त के दर्शन में ईश्वर क्या है?
उत्तर:
देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए दो प्रकार के प्रस्तावों को प्रस्तुत किया हैं-कारर्ण कार्य पर आधारित प्रमाण तथा सत्तामूलक प्रमाण। कारण कार्य प्रमाण के अनुसार मानव कार्य है। उसका कार्य भी होगा। मानव में पूर्ण, नित्य, शाश्वत, ईश्वर की भावना है, अत: मानव के अंदर पूर्ण ईश्वर की भावना को अंकित करने वाला भी पूर्ण, नित्य एवं शाश्वत पूर्ण ईश्वर ही हो सकता है। दूसरी ओर सत्तामूलक प्रमाण में देकार्त का मानना है कि ईश्वर प्रत्यय में ही ईश्वर का अस्तित्व निहित है।

ईश्वर की भावना है कि वह सब प्रकार से पूर्ण हैं। ‘पूर्णता’ से ध्वनित होता है कि उसकी वास्तविकता भी अवश्य होगी। कारण-कार्य प्रमाण के संबंध में वह आपत्ति है कि ईश्वर मानव विचारों और जगत् से परे स्वतंत्र सत्यता है जिसमें कारण-कार्य की कोटि लागू नहीं होती है। इसी तरह सत्तामूलक प्रमाण के संबंध में कहा जाता है कि भावना से वास्तविकता सिद्ध नहीं होती है।

प्रश्न 11.
लोक संग्रह से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
सुख सुविधा हेतु द्रव्यों का संग्रहण लोक संग्रह कहलाता है।

प्रश्न 12.
चित्रवृत्तियाँ क्या हैं?
उत्तर:
दो वस्तुओं के बीच प्राप्ति का एक आवश्यक संबंध जो व्यापक माना जाता है, चित्तवृत्तियाँ कहलाती हैं।

प्रश्न 13.
विश्वमूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर:
विश्व का निर्माण प्रकृति या सृष्टि ने किया है। प्रकृति जड़ है अकेली है किन्तु सक्षम है विश्व का निर्माण करने के लिए। यह विश्वमूलक प्रमाण है।

प्रश्न 14.
वैशेषिक के अनुसार पदार्थ क्या है?
उत्तर:
वैशेषिक दर्शन में पदार्थ (substance) को एक विशेष अर्थ में लिखा गया है। पदार्थ वह है, जो गुण और कर्म को धारण करता है। गुण और बिना किसी वस्तु या आधार के नहीं रह सकते। इसका आधार ही पदार्थ कहलाता है। गुण और कर्म पदार्थ में रहते हुए भी पदार्थ से भिन्न है। पदार्थ गुण युक्त है किन्तु गुण और कर्म गुणरहित है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ नौ प्रकार के हैं-

  1. आत्मा
  2. अग्नि या तेज
  3. वायु
  4. आकाश
  5. जल
  6. पृथ्वी
  7. दिक्
  8. काल और
  9. मन।

प्रश्न 15.
काण्ट के ज्ञान-विचार को समीक्षावाद क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
जर्मन दार्शनिक काण्ट का ज्ञानशास्त्रीय मत समीक्षावाद कहलाता है, क्योंकि समीक्षा के बाद ही इस सिद्धान्त का जन्म हुआ। काण्ट के समीक्षावाद के अनुसार बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही सिद्धान्तों में आंशिक सत्यता है। जिन बातों को बुद्धिवाद और अनुभववाद स्वीकार करते हैं, वे सत्य हैं, और जिन बातों का खण्डन करते हैं, वे गलत हैं- “They are justified in what they affirm but wrong in what they deny”| अनुभववाद के अनुसार संवेदनाओं के बिना ज्ञान में वास्तविकता नहीं आ सकती है और बुद्धिवाद के अनुसार सहजात प्रत्ययों के बिना ज्ञान में अनिवार्यता तथा असंदिग्धता नहीं आ सकती है। समीक्षावाद इन दोनों सिद्धान्तों के उपर्युक्त पक्षों को स्वीकार करता है।

फिर अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की अनिवार्यता के अनुसार संवेदनाओं को ज्ञान का रचनात्मक अंग नहीं माना जाता है। पर हमें दोनों सिद्धान्तों के इस अभावात्मक (Negative) पक्षों को अस्वीकार करना चाहिए। समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद दोनों के भावात्मक अंशों को मिलाकर ग्रहण किया जाता है।

प्रश्न 16.
कारण और हेतु में क्या अन्तर है?
उत्तर:
आगमन में कारण का एक हिस्सा हेतु बताया गया है। जिस तरह से हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर के अंग है और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं, उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और हेतु में तीन तरह के अंतर हैं-
(क) कारण एक है और हेतु कई हैं।
(ख) कारण अंश रूप में रहता है और हेतु सम्पूर्ण रूप में आता है।
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं।
इस तरह कारण और हेतु में अंतर है।

प्रश्न 17.
लोकप्रिय वस्तुवाद की परिभाषा दें।
उत्तर:
प्रिय वस्तु सभी को प्रिय लगती है। भारतीय आचार दर्शन के क्षेत्र में वे भौतिक साधन जिसके आधार पर हम जीवन यापन करते हैं। इनका असीम रूप से अर्जन लोकप्रिय वस्तुवाद कहलाता है।

प्रश्न 18.
पीनीयल ग्रंथि किसे कहते हैं?
उत्तर:
हाइपोथेलेमस स्थित ग्रंथि की पीनीयल ग्रंथि कहा जाता है। इससे बुद्धि हार्मोन स्रावित होता है।

प्रश्न 19.
नैतिक संप्रत्यय के रूप में शुभ की व्याख्या करें।
उत्तर:
शुभ से तात्पर्य मनुष्य के उन लक्ष्यों से है जिसके द्वारा वह अपना जीवन निर्विघ्नता से जी सके। वह जो भी कार्य करे शुभ हो। शुभ समाप्त हो। शुभ शुरूआत हो आदि। इस शुभ की इच्छा ही नैतिक संप्रत्यय के रूप में शुभ बन जाती है।

प्रश्न 20.
व्यावहारिक दर्शन से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
व्यावहारिक दर्शन का अर्थ है ज्ञान, प्रेम या अनुराग। वह दर्शन जिसमें व्यावहारिक रूप से पदार्थ सम्पूर्णता में हमारे पास हो।

प्रश्न 21.
यम क्या है?
उत्तर:
यम योग का प्रथम अंग है। बाह्य अभ्यांतर इंद्रिय के संयम की क्रिया को यम कहा जाता है। यम पाँच प्रकार के होते हैं-

  1. अहिंसा
  2. सत्य
  3. आस्तेय
  4. ब्रह्मचर्य
  5. अपरिग्रह।

प्रश्न 22.
अनासक्त कर्म पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गीता का कर्मयोग हमें त्याग की शिक्षा नहीं देता बल्कि फल त्याग की शिक्षा देती है गीता का यह उपदेश व्यवहारिक दृष्टिकोण से भी सही है यदि हम किसी फल की इच्छा से कर्म करना प्रारम्भ करते हैं तो फल की चाह इतनी अधिक हो जाती है कि कर्म में भी हम सही से काम नहीं कर पाते हैं किन्तु कर्म फल त्याग की भावना से अगर हम कर्म करते हैं तो उससे उसका फल और अधिक निश्चित हो जाता है।

प्रश्न 23.
स्याद्वाद का अर्थ बतावें।
उत्तर:
स्याद्वाद जैन दर्शन के प्रमाण शास्त्र से जुड़ा हुआ है। जैन मत के अनुसार प्रत्येक वस्तु के अन्नत गुण होते हैं मानव वस्तु के एक ही गुण का ध्यान एक समय पा सकता है वस्तुओं के अन्नत गुणों का ज्ञान मुक्त व्यक्ति द्वारा सम्भव है समान मनुष्य का ज्ञान अपूर्ण एवं आशिक होता है। वस्तु के आशिक ज्ञान को (नय) किसी वस्तु के समझने के विविध दृष्टिकोण है इनसे सापेक्ष सत्य की प्राप्ति होती है न कि निरपेक्ष सत्य की।

प्रश्न 24.
न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या कितनी है?
उत्तर:
न्याय के अनुसार प्रमाणों की संख्या चार है जो निम्नलिखित है

  1. प्रत्यक्ष (Perception),
  2. अनुमाप (Inference),
  3. उपमाण (Comtarison),
  4. शब्द (Verbal Authority)।

प्रश्न 25.
प्रकृति के तीन गुणों के नाम बतावें।
उत्तर:
प्रकृति के तीन गुणों के नाम निम्नलिखित हैं-

  1. सत्त्व
  2. रजस्
  3. तमस्।

प्रश्न 26.
पदार्थ की परिभाषा दें।
उत्तर:
पदार्थ शब्द “पद” और “अर्थ” शब्दों के मेल से बना है पदार्थों का मतलब है जिसका नामकरण हो सके जिस पद का कुछ अर्थ होता है उसे पदार्थ की संज्ञा दी जाती है पदार्थ के अधीन वैशेशिक दर्शन में विश्व की वास्तविक वस्तुओं की चर्चा हुई है।

प्रश्न 27.
क्या जगत् पूर्णतः असत्य है? व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर ने जगत को पुर्णतः सत्य नहीं माना है शंकर की दृष्टि में ब्राह्म ही एक मात्र सत्य है शेष सभी वस्तुएँ ईश्वर, जीव, जगत प्रपंच है शंकर ने जगत को रस्सी में दिखाई देने वाले ताप को तरह माना है।

प्रश्न 28.
माया के दो कार्यों को बतावें।
उत्तर:
माया के दो कार्य है-आरोण और विछेपण जैसे माया रस्सी के असली रूप को ढक देती है आरोण हुआ फिर उसका दूसरा रूप विछेपण सांप के रूप दिखाती है ठीक उसी प्रकार माया ब्राह्म के वास्तविक स्वरूप पर आग्रण डाल देती है और उसका विश्लेषण जगत के रूप में प्रस्तुत करती है।

प्रश्न 29.
बुद्धिवाद के अनुसार ज्ञान की परिभाषा दें।
उत्तर:
बुद्धिवाद के अनुसार वास्तविक ज्ञान का स्रोत तर्क चिंतन है ज्ञान का विषय संसार के अस्थाई और परिवर्तनशील तथ नहीं है यर्थात ज्ञान का उत्पत्ति बुद्धि से होती है और बुद्धि के अलावा इसका अन्य कोई साधन नहीं है।

प्रश्न 30.
काण्ट के आलोचनात्मक दर्शन को रेखांकित करें।
उत्तर:
काण्ट क आलोचनात्मक दर्शन में ज्ञानशक्तियों का समीक्षा प्रस्तुत की गई है साथ ही 17वीं और 18वीं शताब्दी के इन्द्रीयवाद एवं बुद्धिवाद की समिक्षा हैं विचार सामग्री के अरजन में इन्द्रीयों की माध्यमिकता को स्वीकृती में काण्ट इन्द्रीवासियों से सहमत था।

प्रश्न 31.
अरस्तू के उपादान कारण की चर्चा करें।
उत्तर:
अरस्तु के अनुसार किसी वस्तु के बनाने में द्रव्य की आवश्यकता होती है बिना द्रव्य के वह चीज नहीं बन सकती है अतः द्रव्य किसी वस्तु के बनाने में कारण होता है जैसे टेबूल के बनाने में जिस वस्तु की सहायता ली जाती है वह उपादान कारण है।

प्रश्न 32.
क्या ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण है?
उत्तर:
ईश्वर ब्राह्म का सर्वोच्च आभास है ईश्वर का व्यक्तित्वपूर्ण है। वे सर्वपूर्ण सम्पन्न है उनका स्वरूप सच्चीदानन्द है सत् चित् और आनन्द तीन गुण नहीं है अपीतू एक और ईश्वर स्वरूप है ईश्वर माया पति है माया के स्वामी है। वे सृष्टि के कर्ता हर्ता है। इसलिए ईश्वर व्यक्तित्वपूर्ण नहीं है।