Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions  Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 2 भारतीय संविधान में अधिकार

Bihar Board Class 11 Political Science भारतीय संविधान में अधिकार Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में कौन मौलिक अधिकारों का सबसे सटीक वर्णन है?
(क) किसी व्यक्ति को प्राप्त समस्त अधिकार।
(ख) कानून द्वारा नागरिक को प्रदत्त समस्त अधिकार।
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त तथा सुरक्षित समस्त अधिकार।
(घ) संविधान द्वारा प्रदत्त वे अधिकार जिन पर कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता।
उत्तर:
(ग) संविधान द्वारा प्रदत्त तथा सुरक्षित समस्त अधिकार।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित प्रत्येक कथन के बारे में बताएँ कि वह सही है या गलत –

  1. अधिकार-पत्र में किसी देश की जनता को हासिल अधिकारों का वर्णन रहता है।
  2. अधिकार-पत्र स्वतन्त्रता की रक्षा करता है।
  3. विश्व के हर देश में अधिकार-पत्र होता है।

उत्तर:

  1. सही
  2. सही
  3. गलत

प्रश्न 3.
निम्नलिखित स्थितियों को पढ़ें। प्रत्येक स्थिति के बारे में बताएं कि किस मौलिक अधिकार का उपयोग या उल्लंघन हो रहा है और कैसे?
(क) राष्ट्रीय एयरलाइन के चालक-परिचालक दल के ऐसे पुरुषों को जिनका वजन ज्यादा है-नौकरी में तरक्की दी गई, लेकिन उनकी ऐसी महिला-सहकर्मियों को दंडित किया गया, जिनका वजन बढ़ गया था।
(ख) एक निर्देशक एक डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाता है, जिसमें सरकारी नीतियों की आलोचना है।
(ग) एक बड़े बाँध के कारण विस्थापित हुए लोग अपने पुनर्वास की माँग करते हुए रैली निकलते हैं।
(घ) आन्ध्र-सोसायटी आन्ध्रप्रदेश के बाहर तेलगू माध्यम में विद्यालय चलाती है।
उत्तर:
(क) नेशनल एयरलाइन्स के अधिक भारी पुरुष कर्मचारी को प्रोन्नति दी जाती है। परन्तु उनके साथी महिला कर्मचारी जो अधिक भारी हो जाती हैं, को प्रोन्नति नहीं दी जाती वरन उनको पेनेलाइज्ड किया जाता है। इस दशा में समानता के अधिकार का उल्लंघन होता है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार राज्य भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता से या समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। अनुच्छेद 15 (i) में कहा गया है कि राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा।

अनुच्छेद 16 (i) के अनुसार राज्य के अधीन किसी नियोजन या नियुक्ति से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता होगी। अनुच्छेद 16 (ii) के अनुसार राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के सम्बन्ध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा। परन्तु उपरोक्त घटना में लिंग के आधार पर भेदभाव किया गया है। अत: महिला कर्मचारियों को लिंग भेद के कारण प्रोमोशन नहीं दिया गया। यह समानता के अधिकार का उल्लंघन है।

(ख) इस घटना में एक निर्देशक के द्वारा डॉक्यूमेन्ट्री फिल्म बनाकर सरकार की नीतियों की आलोचना की गयी है। अनुच्छेद 19 (i) के अनुसार व्यक्ति को (सभी नागरिकों को) विचार, अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार प्राप्त है।

(ग) इस घटना में क्योंकि बड़े बाँध के निर्माण को लेकर विस्थापित व्यक्तियों द्वारा पुनः स्थापित करने की माँग को लेकर रैली का आयोजन किया गया। यहाँ पर अनुच्छेद 19 (ii) में दिए गए शान्तिपूर्वक सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता के अधिकार का प्रयोग हुआ है।

(घ) इस घटना में अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार प्राप्त है। उसी के आधार पर आन्ध्र सोसायटी, आन्ध्रप्रदेश के बाहर तेलगू भाषा का विद्यालय चलाती है। यहाँ अल्पसंख्यकों के अधिकार का प्रयोग हुआ है।

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प्रश्न 4.
निम्नलिखित में कौन सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की सही व्याख्या है?
(क) शैक्षिक-संस्था खोलने वाले अल्पसंख्यक वर्ग के ही बच्चे इस संस्थान में पढ़ाई कर सकते हैं।
(ख) सरकारी विद्यालयों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अल्पसंख्यक-वर्ग के बच्चों को उनकी संस्कृति और धर्म-विश्वासों से परिचित कराया जाए।
(ग) भाषाई और धार्मिक-अल्पसंख्यक अपने बच्चों के लिए विद्यालय खोल सकते हैं और उनके लिए इन विद्यालयों को आरक्षित कर सकते हैं।
(घ) भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यक यह माँग कर सकते हैं कि उनके बच्चे उनके द्वारा संचालित शैक्षणिक-संस्थाओं के अतिरिक्त किसी अन्य संस्थान में नहीं पढ़ेंगे।
उत्तर:
उपरोक्त चारों कथनों में से (ग) भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों को अपने बच्चों को शिक्षा देने के लिए और अपनी व संस्कृति की रक्षा के लिए स्कूल खोलने का अधिकार है। यह कथन सत्य है, क्योंकि यही संस्कृति और शैक्षणिक अधिकार की सही अभिव्यक्ति है। अनुच्छेद 29 (i) के अनुसार अल्पसंख्यक वर्गों के हितों के संरक्षण हेतु भारत के राज्यक्षेत्र या उसके किसी भाग के निवासी नागरिकों के किसी अनुभाग को जिनकी अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाए रखने का अधिकार सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रुचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना प्रशासन का अधिकार होगा।

प्रश्न 5.
इनमें कौन-मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है और क्यों?
(अ) न्यूनतम देय मजदूरी नहीं देना।
(ब) किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाना।
(स) 9 बजे रात के बाद लाउड-स्पीकर बजाने पर रोक लगाना।
(द) भाषण तैयार करना।
उत्तर:
भारत के संविधान में मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। प्रारम्भ में 7 मूल अधिकार दिए गए थे किन्तु 44वें संविधान द्वारा सम्पत्ति का अधिकार समाप्त कर दिया गया। दिसम्बर 2002 में 86वें संविधान संशोधन द्वारा 6 – 14 वर्ष आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा का मूल अधिकार प्रदान किया गया है। अत: मूल अधिकारों की संख्या पुन: 7 हो गयी है। उपरोक्त प्रश्न में 4 घटनाएँ दी गयी हैं। इनमें से पहली घटना न्यूनतम मजदूरी न देना ‘शोषण के विरुद्ध अधिकार’ का उल्लंघन माना जाएगा।

परन्तु अन्य तीन घटनाओं में मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं होता, क्योंकि किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाने से उस पुस्तक के लेखक के विचार, अभिव्यक्ति पर यद्यपि प्रतिबन्ध तो है। परन्तु समाज के किसी वर्ग की भावनाओं को ठेस पहुँचाने पर किसी पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। इसी प्रकार तीसरी घटना में रात्रि 9 बजे के बाद लाउडस्पीकर पर प्रतिबन्ध भी समाज के हित में लगाया जाता है। भाषण देना तो विचार अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के अधिकार की पूर्ति ही है। अत: उपरोक्त घटनाओं में से प्रथम घटना जिसमें न्यूनतम मजदूरी नहीं दी गयी, में उस श्रमिक के ‘शोषण के विरुद्ध मौलिक अधिकार’ का उल्लंघन हुआ है।

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प्रश्न 6.
गरीबों के बीच काम कर रहे एक कार्यकर्ता का कहना है कि गरीबों को मौलिक अधिकारों की जरूरत नहीं है। उनके लिए जरूरी यह है कि नीति निर्देशक सिद्धान्तों को कानूनी तौर पर बाध्यकारी बना दिया जाय। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
उत्तर:
मैं इस कथन से सहमत नहीं हूँ, क्योंकि नागरिकों के लिए मौलिक अधिकार नीति निर्देशक तत्त्वों से अधिक जरूरी है. दूसरे नीति निर्देशक तत्त्वों को बाध्यकारी (न्यायसंगत) नहीं बनाया जा सकता है, क्योंकि हमारे पास सभी को नीति निर्देशक तत्त्वों में दी गयी सुविधाओं को देने के लिए पर्याप्त श्रोत नहीं है।

प्रश्न 7.
अनेक रिपोर्टों से पता चलता है कि जो जातियाँ पहले झाडू देने के काम में लगी थीं, उन्हें मजबूरन यही काम करना पड़ रहा है, जो लोग अधिकार-पद पर बैठे हैं, वे इन्हें कोई और काम नहीं देते। इनके बच्चों को पढ़ाई-लिखाई करने पर हतोत्साहित किया जाता है। इस उदाहरण में किस मौलिक-अधिकार का उल्लंघन हो रहा है।
उत्तर:
इस उदाहरण में निम्न मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है –

1. स्वतन्त्रता का अधिकार:
जब उन व्यक्तियों को हमेशा उसी व्यवसाय को अपनाने को बाध्य किया गया हो तो उनके स्वतन्त्रता अधिकार का उल्लंघन हुआ है, क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अनुसार संविधान ने सभी नागरिकों को वृत्ति, उपजीविका, व्यापार अथवा व्यवसाय की स्वतन्त्रता प्रदान की है। यह स्वतन्त्रता उनको नहीं दी जा रही है। अत: उनके स्वतन्त्रता के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है।

2. संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार:
उपरोक्त घटना में उन व्यक्तियों के संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार का भी उल्लंघन हुआ है। अनुच्छेद 29 के उपखंड (2) के अनुसार राज्य द्वारा घोषित वा राज्यनिधि से सहायता प्राप्त किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश से किसी भी नागरिक को केवल धर्म, मूलवंश, जाति, भाषा या इनमें से किसी के भी आधार पर वंचित नहीं किया जाएगा।

3. समानता का अधिकार:
उपरोक्त घटना में समानता के अधिकार का भी उल्लंघन होता है। अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति कानून के समक्ष समान समझा जाएगा। अनुच्छेद 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध करता है।

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प्रश्न 8.
एक मानवाधिकार-समूह ने अपनी याचिका में अदालत का ध्यान देश में मौजूद भूखमरी की स्थिति की तरफ खींचा। भारतीय खाद्य-निगम के गोदामों में 5 करोड़ टन से ज्यादा अनाज भरा हुआ था। शोध से पता चलता है कि अधिकांश राशन-कार्डधारी यह नहीं जानते कि उचित-मूल्य की दुकानों से कितनी मात्रा में वे अनाज खरीद सकते हैं। मानवाधिकार समूह ने अपनी याचिका में अदालत से निवेदन किया कि वह सरकार को सार्वजनिक-वितरण-प्रणाली में सुधार करने का आदेश दे।
(अ) इस मामले में कौन-कौन से अधिकार शामिल हैं? ये अधिकार आपस में किस तरह जुड़े हैं?
(ब) क्या ये अधिकार जीने के अधिकार का एक अंग हैं?
उत्तर:
(अ) उक्त उदाहरण के अन्तर्गत संवैधानिक उपचारों का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार तथा स्वतन्त्रता का अधिकार लिप्त है। ये अधिकार आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। भूख से मरने के कारण जीने के अधिकार का उल्लंघन हुआ। गोदामों में पाँच करोड़ टन अनाज होते हुए भी सरकार ने वितरण व्यवस्था ठीक नहीं की और मानव अधिकार समूह द्वारा कोर्ट से प्रार्थना की गयी कि सरकार को पब्लिक वितरण व्यवस्था सुधारने के लिए आदेश दिया जाए अर्थात् संवैधानिक उपचारों का अधिकार सम्मिलित है।

(ब) ये अधिकार यद्यपि सभी अलग-अलग मूल अधिकार हैं। परन्तु ये इस मामले में जीव के अधिकार के भाग बने हुए हैं।

प्रश्न 9.
इस अध्याय में उद्धृत सोमनाथ लाहिड़ी द्वारा संविधान-सभा में दिए गए वक्तव्य को पढ़ें। क्या आप उनके कथन से सहमत हैं? यदि हाँ तो इसकी पुष्टि में कुछ उदाहरण दें। यदि नहीं तो उनके कथन के विरुद्ध तर्क प्रस्तुत करें।
उत्तर:
सोमनाथ लाहिड़ी का संविधान सभा में दिया गया कथन इस प्रकार है – “मैं समझता हूँ कि इसमें ये अनेक मौलिक अधिकारों को एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाया गया है। … आप देखेंगे कि काफी कम अधिकार दिए गए हैं और प्रत्येक अधिकार के बाद एक उपबन्ध जोड़ा गया है। लगभग प्रत्येक अनुच्छेद के बाद एक उपबन्ध है, जो इन अधिकारों को वापस ले लेता है। … मौलिक अधिकारों की हमारी क्या अवधारणा होनी चाहिए? … हम उस प्रत्येक अधिकार को संविधान में पाना चाहते हैं, जो हमारी जनता चाहती है।”

इस कथन से यह तात्पर्य निकलता है कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकार दिए ही कम हैं, बहुत सी ऐसी बातों को छोड़ दिया गया है, जो मौलिक अधिकारों में शामिल होनी चाहिए थीं। जैसे काम करने का अधिकार, निःशुल्क शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार, आवास का अधिकार, सूचना प्राप्त करने का अधिकार आदि। दूसरी आलोचना इस कथन से पता चलती है कि प्रत्येक मौलिक अधिकारों के साथ अनेक प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं, जिससे यह समझना कठिन हो जाता है कि व्यक्ति को मौलिक अधिकारों से क्या मिला? आलोचकों का मत है कि भारतीय संविधान एक हाथ से अधिकार देता है, तो दूसरे हाथ से उन्हें छीन लेता है।

तीसरी महत्त्वपूर्ण बात उक्त कथन से प्रकट होती है कि हमारे संविधान में मौलिक अधिकार पुलिस के सिपाही के दृष्टिकोण से दिए गए हैं। इसका यह अर्थ है कि प्रत्येक अधिकार पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं। हरिविष्णु कामथ ने भी संविधान सभा में कहा था कि “इस व्यवस्था द्वारा तानाशाही राज्य और पुलिस राज्य की स्थापना कर रहे हैं।”

इसी प्रकार सरदार हुकमसिंह ने कहा था “यदि हम इन स्वतन्त्रताओं को व्यवस्थापिका की इच्छा पर ही छोड़ देते हैं, जो कि एक राजनीतिक दल के अलावा कुछ नहीं है, तो इन स्वतन्त्रताओं के अस्तित्व में भी सन्देह हो जाएगा।” संविधान में मौलिक अधिकारों पर जो प्रतिबन्ध लगे हैं जैसे विचार अभिव्यक्ति पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया कि किसी की भावना को ठेस न पहुँचे। बिना शस्त्र सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता के अधिकार पर कभी यह प्रतिबन्ध लगा दिया जाता है कि इससे साम्प्रदायिक दंगा भड़कने की आशंका है। इस प्रकार मौलिक अधिकारों की उपयोगिता ही समाप्त हो जाती है।

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प्रश्न 10.
आपके अनुसार कौन-सा मौलिक अधिकार सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसके प्रावधानों को संक्षेप में लिखें और तर्क देकर समझायें कि यह क्यों महत्त्वपूर्ण है?
उत्तर:
भारतीय संविधान में दिया गया अन्तिम अधिकार संवैधानिक उपचारों का अधिकार सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि यह अधिकार है कि अगर संविधान में दिये गये अन्य मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो तो यह अधिकार नागरिकों को न्यायालय में जाने का अधिकार देता है। न्यायालय केस के आधार पर आवश्यक आदेश जारी करता है, जिससे उस अधिकार की रक्षा की जाती है। डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने भी इस अधिकार को संविधान का हृदय व आत्मा (Heart and Soul) कहा है।

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अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
अधिकारों से आपका क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
अधिकार:
व्यक्ति की उन माँगों को, जिन्हें समाज द्वारा मान्यता प्राप्त हो तथा राज्य द्वारा संरक्षण प्राप्त हो, अधिकार कहते हैं। कभी-कभी असंरक्षित माँगें भी अधिकार बन जाती हैं, भले ही उन्हें कानून का संरक्षण प्राप्त न हुआ हो। उदाहरण के लिए काम पाने का अधिकार राज्य ने भले ही स्वीकार न किया हो परन्तु उसे अधिकार ही माना जाएगा क्योंकि काम के बिना कोई भी व्यक्ति अपना सर्वोच्च विकास नहीं कर सकता।

बेन तथा पीटर्स ने अधिकार की परिभाषा देते हुए कहा है, “अधिकारो की स्थापना एक। सुस्थापित नियम द्वारा होती है। वह नियम चाहे कानून पर आधारित हो या परम्परा पर।” अस्टिन के अनुसार, “अधिकार एक व्यक्ति की वह सामर्थ्य है, जिससे वह किसी दूसरे से कोई काम करा सकता हो या दूसरे को कोई काम करने से रोक सकता है।” लास्की के अनुसार, “अधिकार सामान्य जीवन की वह परिस्थितियाँ हैं जिनके बिना कोई व्यक्ति अपने जीवन को पूर्ण नहीं पर सकता।”

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प्रश्न 2.
मौलिक अधिकारों से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मौलिक अधिकार-किसी देश के नागरिकों को लोकतन्त्रिक शासन व्यवस्था में जिन अनेक व्यक्तियों की प्राप्ति होती है, उनमें से कुछ प्रमुख अधिकार, जिनके बिना व्यक्ति अपनी उन्नति व विकास नहीं कर सकता, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। जैसे-जीवन का अधिकार, समानता का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार, शिक्षा व संस्कृति का अधिकार इत्यादि। जिन कारणों से इन अधिकारों को मौलिक कहा जाता है, वे हैं –

  1. ये व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए अत्यावश्यक है।
  2. देश के संविधान में इन अधिकारों का वर्णन किया गया है। कोई सरकार स्वेच्छा से इनमें परिवर्तन नहीं कर सकती।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान में दिए गए मूल अधिकारों का महत्त्व बताइए।
उत्तर:
ब्रिटिश शासन में जनता के अधिकारों का हनन हुआ जिस कारण भारतीय समाज पिछड़ता गया। इस कारण संविधान निर्माताओं ने मौलिक अधिकारों को संवैधानिक प्रावधानों के द्वारा सुरक्षित बना दिया। संविधान में दिए गए इन अधिकारों का बहुत महत्त्व है। इन अधिकारों के द्वारा व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति और स्वतन्त्रता की रक्षा होती है। ये अधिकार शासन को निरन्कुश होने से रोकते हैं, तथा नागरिकों को आत्म-विकास का अवसर देते हैं। मूल अधिकार देश की एकता बनाए रखने में सहायक होते हैं।

प्रश्न 4.
नागरिकों के दो धार्मिक अधिकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  1. धार्मिक विश्वास का अधिकार-कोई भी मनुष्य अपनी इच्छानुसार धार्मिक विश्वास रख सकता है। धर्म उसका व्यक्तिगत मामला है। अतः प्रत्येक मनुष्य को अपने धार्मिक विश्वास के अनुसार पूजा-पाठ करने का अधिकार है।
  2. धार्मिक प्रचार का अधिकार-प्रत्येक धर्म के मानने वालों को अपने धर्म का प्रचार करने का समान अधिकार प्राप्त है। धर्म-प्रचारक अपने धर्म के प्रचार के लिए शान्तिपy सम्मेलन कर सकते हैं।

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प्रश्न 5.
नागरिक के किन्हीं दो राजनीतिक अधिकारों के उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
राजनीतिक अधिकार –

  1. चुनाव में उम्मीदवार के रूप में खड़ा होने का अधिकार।
  2. चुनाव में मत देने का अधिकार।
  3. रातनीतिक पद प्राप्त करने का अधिकार।
  4. कानून के समक्ष समानता का अधिकार।

प्रश्न 6.
भारत में स्त्रियों के कल्याण से सम्बन्धित कोई दो निर्देशक सिद्धान्त लिखें।
उत्तर:

  1. महिला और पुरुष दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन दिया जाए।
  2. स्त्रियों व बच्चों का शोषण न किया जाए। महिला और पुरुष कामगारों के स्वास्थ्य और शक्ति तथा बालकों की सुकुमार अवस्था का दुरुपयोग न हो।
  3. पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो।

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प्रश्न 7.
राज्य के दो नीति निर्देशक सिद्धान्त लिखें जो भारत में बाल कल्याण से सम्बन्धित हैं।
उत्तर:
भारत में बाल कल्याण से सम्बन्धित राज्य के दो नीति निर्देशक तत्व निम्नलिखित हैं –

  1. बालकों को स्वतन्त्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दी जाएँ और बालकों व अल्पवय व्यक्तियों की शोषण तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए।
  2. राज्य इस संविधान के प्रारम्भ से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करने का प्रयास करेगा।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
‘प्रतिषेध लेख’ तथा ‘अधिकार पृच्छा’ पर टिप्पणी लिखिये।
उत्तर:
मौलिक अधिकारों से किसी को वंचित न किया जाए इस हेत संविधान ने मौलिक अधिकारों की रक्षा का भार सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को सौंपा है। ये न्यायालय बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध लेख, अधिकार पृच्छा तथा उत्प्रेषण लेख या आदेश जारी करते हैं। इनमें से प्रतिबन्ध लेख तथा अधिकार पृच्छा का वर्णन निम्नलिखित है –

1. प्रतिषेध लेख:
प्रतिषेध का अर्थ है ‘मना करना’। जब कोई अधीनस्थ न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर जा रहा हो या कानूनी प्रक्रिया के विरुद्ध जा रहा हो तो उच्च न्यायालय अथवा सर्वोच्च न्यायालय उस अधीनस्थ न्यायालय को ऐसा करने पर प्रतिषेध (मना) कर सकता है। इसके लिए सम्बन्धित उच्च न्यायालय अधीनस्थ न्यायालय को इस प्रतिषेध लेख द्वारा उचित कार्यवाही करने के लिए आदेश दे सकता है।

2. अधिकार पृच्छा:
इसका अर्थ है ‘किस अधिकार से?’ यदि किसी व्यक्ति ने कानून के विरुद्ध किसी पद पर अधिकार प्राप्त कर रखा है, तो उच्च न्यायालय उसे ऐसा करने से रोक सकता है। जैसे केन्द्रीय लोकसेवा आयोग के सदस्य की आयु की सीमा 65 वर्ष है। यदि कोई व्यक्ति इस आयु के पश्चात् भी सदस्य बना हुआ है, तो उच्चतम न्यायालय उससे यह पूछ सकता है, कि किस कानून के अन्तर्गत उसने ऐसा किया है, और उसे अधिकार है, कि,आवश्यक समझने पर वह उस व्यक्ति को पदमुक्त करने का आदेश दे सकता है।

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प्रश्न 2.
निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए –
(क) गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध संरक्षण।
(ख) अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा।
(ग) बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख।
(घ) परमादेश।
उत्तर:
(क) गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध संरक्षण:
अनुच्छेद 22 के अनुसार जब कोई व्यक्ति गिरफ्तार किया जाता है, तो यथाशीघ्र इसकी गिरफ्तारी का कारण बताया जाना आवश्यक है। गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम न्यायाधीश के सम्मुख पेश किया जाना चाहिए। गिरफ्तार व्यक्ति को अपनी रुचि का वकील करने या वकील से परामर्श लेने का अधिकार है।

(ख) अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा:
अनुच्छेद 39 अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करने तथा उनका प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता देता है। यदि राज्य किसी ऐसी शिक्षण संस्थाओं का आधिपत्य ग्रहण करता है, जिसकी स्थापना अल्पसंख्यक वर्ग द्वारा हुई हो तो उतना मुआवजा देना अनिवार्य होगा जिससे अल्पसंख्यक के अधिकार समाप्त अथवा सीमित न हों।

(ग) बन्दी प्रत्यक्षीकरण लेख:
लैटिन भाषा के इस शब्द का अर्थ है, कि ‘शरीर को हमारे सम्मुख प्रस्तुत करो।’ इसके द्वारा न्यायालय को अधिकार प्राप्त होता है, कि वह बन्दी बनाए गए किसी व्यक्ति को अपने समक्ष उपस्थित करने का आदेश दे सके यदि बन्दी बनाया गया व्यक्ति यह अनुभव करता है, कि उसे गैरकानूनी अथवा अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है, तो वह स्वयं अथवा उसका कोई साथी उच्च या सर्वोच्च न्यायालय में आवेदन पत्र दे सकता है, कि बन्दी बनाए गए व्यक्ति को न्यायालय के समक्ष उपस्थित किया जाए।

(घ) परमादेश:
लैटिन भाषा के इस शब्द का अर्थ है, ‘हम आज्ञा देते हैं। जब कोई व्यक्ति या संस्था अपने कर्त्तव्य की पूर्ति न करे तो न्यायालय उसे अपने कर्त्तव्य पालन के लिए परमादेश द्वारा आदेश दे सकता है। जैसे कोई विश्वविद्यालय अपने किसी सफल विद्यार्थी को डिग्री न दे अथवा कोई संस्था अपने कर्मचारी को बिना समुचित कारण बताए नौकरी से निकाल दे और न्यायालय के निर्णय के बाद भी उसे पुनः नियुक्त न करे। ऐसी अवस्था में उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालय परमादेश के द्वारा इन संस्थाओं को कर्तव्य पालन करने के लिए आदेश दे सकती है।

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प्रश्न 3.
किन्हीं दो मौलिक अधिकारों का उल्लेख करें, जो संविधान अल्पसंख्यकों को देता है।
उत्तर:
किसी देश के नागरिकों को लोकतन्त्रीय शासन व्यवस्था में जिन अधिकारों की प्राप्ति होती है, उनमें से कुछ प्रमुख अधिकार, जिनके बिना व्यक्ति अपनी उन्नति व विकास नहीं कर सकता, मौलिक अधिकार कहलाते हैं। जैसे-जीवन का अधिकार, समानता का अधिकार, स्वतन्त्रता का अधिकार, शिक्षा व संस्कृति का अधिकार इत्यादि। भारतीय संविधान द्वारा भारत के सभी नागरिकों को छः प्रकार के मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, उनमें से दो मौलिक अधिकार जो अल्पसंख्यकों को दिए गए हैं, निम्नलिखित हैं –

  1. संविधान के अनुच्छेद 16 के अनुसार भारत के प्रत्येक नागरिक को योग्यता होने पर बिना किसी भेदभाव के नौकरी के लिए समान अवसर प्रदान किए गए हैं, परन्तु अल्पसंख्यकों अथवा पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में कुछ स्थान सुरक्षित रखे गए हैं।
  2. अनुच्छेद 30 के अनुसार अल्पसंख्यकों को अपनी शिक्षण संस्थाएँ स्थापित करने का अधिकार होगा। उसका प्रबन्धन वे स्वयं कर सकेंगें, राज्य उसमें हस्तक्षेप नहीं करेगा।

प्रश्न 4.
मौलिक अधिकारों तथा निर्देशक तत्वों में कोई दो अन्तर बताएँ।
उत्तर:
भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों तथा नीति-निर्देशक सिद्धान्तों को एक महत्त्वपूर्ण अंग मानकर इसकी व्याख्या की गई है, ताकि इनके द्वारा प्रत्येक अपना विकास कर सकें और सभी को सामाजिक और आर्थिक न्याय मिल सके। यद्यपि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, किन्तु फिर भी दोनों में भिन्न अन्तर हैं –

1. मौलिक अधिकारों को कानूनी संरक्षण प्राप्त है, लेकिन निर्देशक सिद्धान्त को नहीं-संविधान द्वारा मौलिक अधिकारों को कानूनी संरक्षण प्रदान किया गया है, अर्थात् यदि सरकार किसी कानून या प्रशासनिक आदेश द्वारा नागरिकों के अधिकार पर आक्षेप करती है तो, नागरिक सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय से न्याय की माँग कर सकता है। इन न्यायालयों का कर्तव्य है, कि वे अधिकारों की रक्षा करें परन्तु निर्देशक सिद्धान्तों को इस प्रकार का कोई कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है।

2. नीति निर्देशक सिद्धान्त राज्य से संबन्धित हैं, लेकिन मौलिक अधिकार नागरिकों से-मौलिक अधिकार नागरिकों को प्राप्त हैं और इनका सम्बन्ध नागरिकों से है, किन्तु नीति निर्देशक सिद्धान्त राज्य से सम्बन्धित हैं। इनका पालन करना राज्य का काम है। मौलिक अधिकार संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान की गई सुविधाएँ हैं, जब कि निर्देशक सिद्धान्तों के द्वारा सरकार को जनता के कल्याण के कार्य करने के लिए निर्देश दिए गए हैं।

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प्रश्न 5.
संविधान के 42 वीं संशोधन द्वारा जोड़े गए राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
42 वीं संविधान संशोधन द्वारा नीति निर्देशक तत्वों का विस्तार किया गया जो निम्नलिखित है –

  1. राज्य अपनी नीति का संचालन इस प्रकार करेगा कि बच्चों को स्वस्थ, स्वतन्त्र और प्रतिष्ठापूर्ण वातावरण में अपने विकास के लिए अवसर और सुविधाएँ प्राप्त हों।
  2. राज्य ऐसी कानून प्रणाली के प्रचलन की व्यवस्था करेगा जो समाज में अवसर के आधार पर न्याय का विकास करे। राज्य उपयुक्त कानून या अन्य ढंग से आर्थिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता की व्यवस्था करने का प्रयत्न करंगा।
  3. राज्य उपयुक्त कानून द्वारा या अन्य उपायों से श्रमिकों को उद्योगों के प्रबन्धन में भागीदार बनाने के लिए कदम उठाएगा।
  4. राज्य पर्यावरण की सुरक्षा और विकास तथा देश के वन और वन्य जीवों को सुरक्षित रखने का प्रयत्न करेगा।

प्रश्न 6.
शिक्षा और संस्कृति से सम्बन्धित कौन से अधिकार भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए हैं?
उत्तर:
संस्कृति तथा शिक्षा-सम्बन्धी अधिकार- भारतीय संविधान की धारा 29 व 30 में इन अधिकारों का वर्णन है। इन अधिकारों को संविधान में स्थान देकर अल्पसंख्यकों के लिए नया युग आरम्भ किया गया है।

  1. भारत के नागरिकों को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाए रखने का अधिकार है।
  2. धर्म, वंश, जाति, भाषा अथवा इनमें से किसी एक के आधार पर किसी भी नागरिक को किसी राजकीय संस्था या राजकीय सहायता प्राप्त संस्था में प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता।
  3. अल्पसंख्यकों को अपनी इच्छानुसार स्कूल, कॉलेज खोलने का अधिकार होगा। इस प्रकार की संस्थाओं को अनुदान देने में राज्य कोई भेदभाव नहीं करेगा।

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प्रश्न 7.
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना से आप क्या समझते हैं? राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों में इसे किस प्रकार व्यक्त किया गया है?
उत्तर:
अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना का अर्थ है, कि भिन्न देशों के बीच सहयोग व सद्भावना का वातावरण बना रहे। इससे अभिप्राय यह भी है, कि भिन्न देश एक-दूसरे के साथ मित्र की भाँति व्यवहार करे। निर्देशक सिद्धान्तों में अन्तर्राष्ट्रीय सद्भावना को और अधिक दृढ़ करने के लिए संविधान की धारा 51 में निम्न प्रावधान का मुख्य रूप से उल्लेख किया गया है –

  1. सदस्य देश अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र चार्टर का पालन करें।
  2. आपसी झगड़ों को शान्तिपूर्ण ढंग से सुलझाने का प्रयास करें। अन्तर्राष्ट्रीय विवाद को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने की व्यवस्था को राज्य प्रोत्साहन दे।
  3. आपसी सहयोग को बढ़ाने के लिए एक दूसरे के साथ हरेक प्रकार के सहयोग का आदान-प्रदान करें।
  4. सह-अस्तित्व की भावना पर बल दें। राज्य विभिन्न राज्यों के बीच न्याय और सम्मानपूर्ण सम्बन्धों की स्थापना के लिए प्रयत्न करे।
  5. अन्तर्राष्ट्रीय कानूनों व अन्तर्राष्ट्रीय संधियों के प्रति राज्य सरकार आदर की भावना बढ़ाने की कोशिश करे।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 के अन्तर्गत प्रदत्त छः स्वतन्त्रताओं का मूल्यांकन करें। इनकी रक्षा किस प्रकार की जाती है?
उत्तर:
नागरिक स्वतन्त्रता:
अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को सात स्वतन्त्रताएँ दी गई थीं जिनमें से 44 वें संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अर्जन स्वतन्त्रता को निकाल दिया गया है। शेष छः स्वतन्त्रताएँ निम्नलिखित हैं –

1. भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को भाषण, लेख, चलचित्र अथवा अन्य किसी माध्यम से अपने विचार को प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। 44 वें संशोधन द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद 361 – A जोड़ा गया है, जिसके अन्तर्गत समाचार पत्रों को संसद, विधानमण्डलों की कार्यवाही प्रकाशित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होगी परन्तु राज्य को अधिकार है कि देश की अखंडता, सुरक्षा, शान्ति, नैतिकता, न्यायालयों के सम्मान और विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध को ध्यान में रखते हुए इन अधिकारों पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।

2. शान्तिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के सभा:
सम्मेलन करने की स्वन्तत्रता-नागरिकों को शान्तिपूर्वक एकत्र होकर सभा करने की स्वन्तत्रता है, परन्तु सुरक्षा और शान्ति की दृष्टि से इस अधिकार पर भी उचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

3. संस्था या संघ बनाने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को संस्था व संघ बनाने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु उसका उद्देश्य सुरक्षा व शान्ति को खतरा पहुँचाना न हो।

4. भ्रमण की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को देश की सीमाओं के भीतर घूमने-फिरने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सार्वजनिक हितों तथा जनजातियों की रक्षा के लिए राज्य इस स्वतन्त्रता पर रोक लगा सकता है।

5. देश के किसी भाग में निवास करने और बसने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को देश के किसी भाग में निवास करने और बसने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सार्वजनिक हित और जनजाति, संस्कृति की रक्षा के लिए इस अधिकार पर भी प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

6. व्यवसाय अपनाने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को अपना कोई भी व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता दी गई है, पर सार्वजनिक हित में इस पर प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। सितम्बर 1989 में एक विवाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि “पटरियों और गली-कूचों में बैठकर या फेरी लगाकर व्यापार करना नागरिकों का मौलिक अधिकार है, पर उसके लिए किसी भी जगह पर स्थायी रूप से बैठने या जम जाने का कोई भी बुनियादी हक उन्हें नहीं है।”

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प्रश्न 2.
राज्य-नीति के निर्देशक सिद्धान्तों को व्यवहारिक रूप देने के लिए भारत सरकार तथा भारत के राज्यों की सरकारों ने क्या किया?
उत्तर:
भारत में केन्द्र सरकार व राज्य सरकारों ने 1950 ई. से लेकर अब तक निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करने के लिए बहुत से प्रयत्न किए हैं। उनमें से मुख्य निम्नलिखित हैं –

  1. भारत में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, कबीलों और अन्य पिछड़े हुए वर्गों को बहुत सी सुविधाएँ प्रदान की गयी हैं। जैसे-संसद और राज्य विधान मण्डलों में इनके लिए सीटें सुरक्षित रखी गयी हैं। इन्हें सरकारी नौकरियों में आरक्षण प्राप्त है।
  2. भारत के प्रायः सभी राज्यों में प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क तथा अनिवार्य है। कुछ राज्यों जैसे पंजाब, हरियाणा व केन्द्रशासित प्रदेश दिल्ली में तो माध्यमिक स्तर तक शिक्षा निःशुल्क है।
  3. संसद द्वारा कानून बनाकर स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार दिए गए है। अब स्त्रियों को समान कार्य के लिए पुरुषों के समान वेतन दिया जाता है।
  4. महिला कल्याण के लिए सरकार द्वारा प्रसूति गृह खोले गए हैं, और वेश्यावृत्ति को कानूनन समाप्त किया जा रहा है।
  5. केन्द्र में व भारत के अधिकांश राज्यों में न्यायापालिका को कार्यपालिका से मुक्त रखा गया है।
  6. भारत में कई राज्यों ने नशाबन्दी के लिए प्रयास किए हैं। इन राज्यों में शराब बनाने, बेचने, खरीदने पर पाबन्दी लगा दी गयी है।
  7. समाजवाद के उद्देश्य की पूर्ति के लिए बड़े-बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया है। भूतपूर्व राजाओं के विशेषाधिकार समाप्त कर दिए गए हैं।
  8. भारत के प्राचीन स्मारकों की रक्षा के लिए भारतीय संसद द्वारा कई कानून बनाए गए हैं, और कार्यपालिका ने उन कानूनों को लागू किया है।
  9. कृषि की उन्नति के लिए सिंचाई योजनाएँ, ट्रैक्टर, उन्नत किस्म के बीज, किसानों को ऋणी सुविधाएँ आदि प्रदान की गयी हैं।
  10. पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया गया है। पंचायतों को अधिक शक्तियाँ भी दी गई हैं।
  11. विदेश नीति को पंचशील के सिद्धान्तों पर आधारित किया है। अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व सुरक्षा के लिए भारत ने सदा ही संयुक्त राष्ट्र जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं को सहयोग प्रदान किया है।

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प्रश्न 3.
संवैधानिक उपचारों का अधिकार से क्या तात्पर्य है? इसके महत्त्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (धारा 32 व 36 ):
इस अधिकार के अनुसार प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार दिया गया है, कि यदि उसे प्राप्त मौलिक अधिकारों में आक्षेप किया जाए या छीना जाए, चाहे वह सरकार की ओर से ही क्यों न हो, वह सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय से न्याय की माँग कर सकता है। मूल अधिकारों की रक्षा के लिए ये न्यायालय भिन्न प्रकार के निर्देश, आदेश या लेख जारी कर सकते हैं –

1. बंदी प्रत्यक्षीकरण:
इसके अन्तर्गत न्यायालय को यह अधिकार प्राप्त होता है, कि वह बन्दी बनाए गए किसी व्यक्ति को अपने सामने उपस्थित करने का आदेश दे सके ताकि इस बात की जाँच की जा सके कि उसे गैर-कानूनी तौर पर बन्दी नहीं बनाया गया। निर्दोष साबित होने पर उसे तुरन्त छोड़ दिया जाता है।

2. परमादेश:
लैटिन भाषा के इस शब्द का अर्थ है, हम आज्ञा देते हैं। जब किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा अपना कर्त्तव्य पालन न किए जाने की दशा में परमादेश जारी किया जाता है, तो परमादेश जारी होने पर उसे अपना कर्त्तव्य पालन करने का आदेश दिया जाता है।

3. प्रतिषेध:
प्रतिषेध द्वारा किसी अधिकारी या न्यायालय को ऐसा करने से रोका जाता है, जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो।

4. अधिकार पृच्छा:
गैरकानूनी एवं अनुचित तरीके से किसी व्यक्ति द्वारा किसी सरकारी, अर्धसरकारी या निर्वाचित पद को सम्भालने का प्रयत्न जारी करने की स्थिति में सर्वोच्च या उच्च अधिकार पृच्छा जारी करके उसे रोक सकता है। संवैधानिक उपचारों के अधिकार की महत्ता-भारतीय संविधान में भारतीय नागरिकों को जो मौलिक अधिकार प्रदान किए गए हैं, उनका तब तक कोई महत्त्व नहीं जब तक कि संविधान उनकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे।

संविधान में संवैधानिक उपचारों के अधिकार द्वारा मौलिक अधिकारों की सुरक्षा दी गई है। इन उपचारों का उल्लेख संविधान के 32 और 226 अनुच्छेदों, में किया गया है। इस अधिकार द्वारा संविधान मौलिक अधिकारों के लिए प्रभावी कार्यविधियाँ प्रतिपादित करता है। इस अधिकार के बिना मौलिक अधिकार खोखले वायदे साबित होते हैं। संविधान के 32 और 226 अनुच्छेदों द्वारा नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्य के उच्च न्यायालयों को सौंपा गया है। यदि किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो वह उन न्यायालयों में प्रार्थना पत्र देकर अपने अधिकार की रक्षा कर सकता है।

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प्रश्न 4.
आपके अनुसार कौन-सा मौलिक अधिकार सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसके प्रावधानों को लिखें और तर्क देकर बताएँ कि यह क्यो महत्त्वपूर्ण हैं?
उत्तर:
मौलिक अधिकार जो भारतीय संविधान में दिए गए थे, उनकी संख्या प्रारम्भ में 7 थी। 44 वें संशोधन द्वारा 1979 में सम्पत्ति का अधिकार समाप्त कर दिया गया और इनकी संख्या 6 हो गयी। परन्तु 86 वें संशोधन द्वारा प्राथमिक शिक्षा का अधिकार भी मौलिक अधिकार के रूप में स्वीकार किया गया । इस प्रकार पुनः इसकी संख्या 7 हो गई। भारतीय संविधान द्वारा छः
अधिकारों की सूची निम्न प्रकार है –

  1. समानता का अधिकार
  2. स्वतन्त्रता का अधिकार
  3. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार
  4. शोषण के विरुद्ध अधिकार
  5. संस्कृति एवं शिक्षा का अधिकार
  6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार

इन सभी अधिकारों की उपयोगिता तभी सम्भव है, जबकि इन सभी अधिकारों को भारतीय संविधान में सुरक्षा की गारंटी मिले। यह गारंटी संविधान में संवैधानिक उपचारों के अधिकार द्वारा दी गई है। इन उपचारों का उल्लेख संविधान के 32 और 226 अनुच्छेदों में किया गया है। अधिकार के बिना अन्य मौलिक अधिकारों के लिए प्रभावी कार्यविधियाँ प्रतिपादित करता है। इस अधिकार के बिना अन्य मौलिक अधिकार खोखले वायदे साबित होते हैं।

संविधान के द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्य के उच्च न्यायालयों को सौंपा गया है। यदि किसी नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन होता है, तो वह न्यायालयों में प्रार्थना पत्र (application) देकर अपने अधिकार की रक्षा कर सकता है। न्यायालय इस हेतु बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार पृच्छा तथा उत्प्रेषण लेख जारी कर सकता है। इस अधिकार के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है, कि न्यायालय ऐसे मामलों में तुरन्त कार्यवाही करता है, ताकि एक क्षण के लिए भी मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न हो सके। संक्षेप में संवैधानिक उपचारों का अधिकार सर्वश्रेष्ठ मौलिक अधिकार है।

प्रश्न 5.
‘राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग’ पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में मूल अधिकारों का प्रावधान होते हुए भी अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर एमनेस्टी इण्टरनेशनल तथा कुछ अन्य मानव अधिकार समर्थकों द्वारा यह कहा जा रहा था कि राज्य के पुलिस बल, अर्धसैनिक बल, सेना और जेल अधिकारियों द्वारा व्यक्ति के अधिकारों का हनन किया जाता है। अतः इस प्रसंग में पहले तो सितम्बर 1993 में राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी किया गया उसके बाद दिसम्बर 1993 में “मानव अधिकार अयोग व न्यायालय’ गठन सम्बन्धी विधेयक पारित किया गया। यह आयोग भारतीय संविधान द्वारा स्वीकृत अधिकारों तथा अन्तर्राष्ट्रीय प्रसविदाओं से मान्यता प्राप्त अधिकारों के हनन की स्थिति में सरकारी कर्मचारियों की उपेक्षा की शिकायतों पर विचार करता है।

आयोग को केवल जाँच करने व सिफारिश करने का अधिकार है। इस आयोग में 8 सदस्य होते हैं। आयोग की अध्यक्षता सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश करते हैं। आयोग के अन्य सदस्यों में सर्वोच्च न्यायालय का एक वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश, दो प्रतिष्ठित व्यक्ति जिन्हें मानवी अधिकारों के विषय में ज्ञान और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त हो, अल्पसंख्यक आयोग का अध्यक्ष, अनुसूचित जाति व जनजाति का अध्यक्ष तथा महिला आयोग का अध्यक्ष शामिल होंगे। आयोग को सशस्त्र बलों या अन्य सैनिक बलों के सम्बन्ध में जाँच करने का अधिकार नहीं है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को मानव अधिकारों के उल्लंघन की घटनाओं की स्वतन्त्र रूप से जाँच करने का अधिकार है। आयोग अपने जाँच कार्य में ‘एमनेस्टी इण्टरनेशनल’ अथवा अन्य किसी अन्तर्राष्ट्रीय एजेन्सी की सहायता भी ले सकता है। आयोग को यह भी अधिकार है, कि वह मानवीय अधिकारों की रक्षा की दृष्टि से, विद्यमान कानूनों में संशोधन के लिए शासन को सुझाव दे सके। राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग ने 1994 ई. के प्रारम्भिक दिनों से ही अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया। टाडा कानून की समाप्ति और बाल श्रम का निषेध करने के बारे में इस आयोग का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है।

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प्रश्न 6.
भारतीय संविधान में दी गई विभिन्न मूल स्वतन्त्रताओं की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत के संविधान में अनुच्छेद 19 से 22 तक विभिन्न स्वतन्त्रताओं का वर्णन किया गया है। अनुच्छेद 19 में नागरिक स्वतन्त्राओं का वर्णन दिया है।

1. नागरिक स्वतन्त्रताएँ:
अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को सात स्वतन्त्रताएँ दी गई थीं, जिनमें से 44वें संशोधन द्वारा सम्पत्ति के अर्जन सम्बन्धी स्वतन्त्रता को निकाल दिया गया है। शेष छः स्वतन्त्रताएँ हैं –

(क) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को भाषण, लेख, चलचित्र अथवा अन्य किसी माध्यम से अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतन्त्रता प्राप्त है। 44 वें संशोधन द्वार संविधान में एक नया अनुच्छेद 361 A जोड़ा गया जिसके अन्तर्गत समाचार-पत्रों को संसद, विधानमण्डलों की कार्यवाही प्रकाशित करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होगी परन्तु. राज्य को अधिकार है कि देश की अखन्डता, सुरक्षा, शान्ति, नैतिकता, न्यायालयों के सम्मान और विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए इन अधिकारों पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।

(ख) शान्तिपूर्ण ढंग से बिना हथियारों के सभा:
सम्मेलन करने की स्वतन्त्रता-नागरिकों को शान्तिपूर्ण एकत्र होने की स्वतन्त्रता है, परन्तु सुरक्षा और शान्ति की दृष्टि से इस अधिकार पर भी उचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

(ग) संस्था या संघ बनाना:
नागरिकों को संस्था व संघ बनाने की पूर्ण स्वतन्त्रता है, परन्तु सार्वजानिक हितों तथा जनजातियों की रक्षा के लिए इस स्वतन्त्रता पर रोक लगाया जा सकता है।

(घ) देश के किसी भाग में निवास करने और बसने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को देश में कहीं भी बसने की स्वतन्त्रता दी गई है, सार्वजानिक हित में इस पर भी प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।

(ङ) व्यवसाय अपनाने की स्वतन्त्रता:
नागरिकों को अपना कोई भी व्यवसाय करने की स्वतन्त्रता दी गई है पर सार्वजानिक हित में इस पर भी प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है। दूसरे, किसी भी व्यवसाय के लिए कुछ व्यावसायिक योग्यताएँ निर्धारित की जा सकता हैं। तीसरे राज्य को स्वयं या किसी सरकारी कम्पनी द्वारा किसी भी व्यापार या धन्धे को अपने हाथों में लेने का अधिकार है।

2. व्यक्तिगत स्वतन्त्रता:
अनुच्छेद 20, 21, 22 में ये स्वतन्त्रताएँ दी गई हैं। अनुच्छेद 20 के अनुसार –
(क) किसी भी व्यक्ति को किसी ऐसे कानून का उल्लंघन करने के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकता जो अपराध करते समय लागू न हो।
(ख) किसी व्यक्ति को उससे अधिक दण्ड नहीं दिया जा सकता जो उस कानून के लिए उल्लंघन करते समय निश्चित हो।
(ग) किसी भी व्यक्ति पर एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक न तो मुकद्दमा चलाया जा सकता है, और न ही दोबारा दण्डित किया जा सकता है।
(घ) किसी भी व्यक्ति को अपने विरुद्ध किसी अपराध में गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

अनुच्छेद 21 में जीवन तथा निजी स्वतन्त्रता की रक्षा की व्यवस्था की गई है। किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त अन्य किसी तरीके से जीवन अथवा निजी स्वतन्त्रता से वंचित नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 20 तथा 21 में प्राप्त अधिकारों को आपात स्थिति में भी निलम्बित नहीं किया जा सकता।

3. बन्दीकरण व नजरबन्दी से रक्षा:
अनुच्छेद 22 के अन्तर्गत –
(क) बन्दी बनाये गए व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी का कारण शीघ्र बताया जाएगा।
(ख) बन्दी व्यक्ति को अपनी इच्छा से वकील से सलाह लेने का अधिकार होगा।
(ग) बन्दी बनाए गए व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर न्यायाधीश के समक्ष प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है।

44 वें संशोधन के अनुसार नजरबन्दी का मामला दो महीने के भीतर सलाहकार मण्डल के पास जाना आवश्यक है। सलाहकार मण्डल का गठन उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा किया जाएगा।

आलोचना:
उपरोक्त स्वतन्त्रताओं की निम्न आधार पर आलोचना की जाती है –

  1. नागरिकों की स्वतन्त्रताओं पर अनेक सीमाएँ लगा दी गई हैं। ये स्वतन्त्रताएँ यदि एक हाथ से दी गई हैं तो दूसरे हाथ से छीन ली गई हैं।
  2. सीमाएँ अत्यधिक व्यापक होने के कारण अस्पष्टता से ग्रसित हो जाती है। परिणामस्वरूप विधायिका व न्यायापालिका में टकराव की संभावना बनी रहती है।
  3. निवारक नजरबन्दी का अधिकार राज्य को प्राप्त है, जिसके कारण शान्तिकाल में भी जीवन तथा निजी स्वतन्त्रता का अधिकार अर्थहीन हो जाता है।
  4. न्यायाधीश मुखर्जी के शब्दों में, “जहाँ तक मुझे मालूम है, संसार के किसी भी देश में निवारक मिरोध को संविधान का अटूट भाग नहीं बनाया गया हैं, जैसे भारत में किया गया है। यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है।”

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प्रश्न 7.
भारतीय संविधान में दिए गए समानता के अधिकार की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
समानता का अधिकार-समानता का अधिकार का वर्णन अनुच्छेद 14 से 18 तक दिया गया है।

1. कानून के समक्ष समानता:
संविधान के अनुच्छेद 14 में कहा गया है – “राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता अथवा कानून के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा। “कानून के समक्ष समानता का तात्पर्य यह है, कि एक जैसे लोगों के साथ एक सा व्यवहार किया जाए।”

2. भेदभाव की मनाही:
अनुच्छेद 15 दो बातें स्पष्ट करता है। प्रथम “राज्य केवल धर्म, वंश, जाति, लिंग व जन्म स्थान या इनमें से किसी एक आधार पर कोई नागरिक दुकानों, भोजनालयों, मनोरंजन की जगहों, तालाबों और कुओं का प्रयोग करने से वंचित नहीं किया जा सकेगा। परन्तु महिलाओं और बच्चों को विशेष सुविधाएँ प्रदान की जा सकती हैं। अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए राज्य विशेष प्रकार की व्यवस्था कर सकता है।

3. अवसरों की समानता:
अनुच्छेद 16 के अनुसार सरकारी नियुक्तियों के लिए सभी नागरिकों को समान अवसर दिए जाएंगे। कोई भी नागरिक धर्म, वंश, जाति, जन्मस्थान या निवास स्थान के आधार पर सरकारी नियुक्तियों के लिए अयोग्य नहीं ठहराया जाएगा। इस अनुच्छेद 16 के कुछ अपवाद भी दिए गए हैं –

(क) कुछ विशेष पदों के लिए निवास स्थान सम्बन्धी शर्ते आवश्यक मानी जा सकती हैं।
(ख) पीछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान आरक्षित किए जा सकते हैं।
(ग) यह व्यवस्था. की जा सकेगी कि धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्थाओं के पदाधिकारी किसी विशेष धर्म या सम्प्रदाय के ही हों।

अगस्त, 1990 ई. में भारत सरकार ने, सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े हुए समुदायों के लिए सरकारी नौकरियों में 27 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा की। यह घोषणा मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने के लिए की गई थी। राज्य स्तर पर तो आरक्षण पिछले कई दशकों से चला आ रहा है, पर केन्द्र के अधीन नौकरियों में आरक्षण की घोषणा पहली बार की गई।

4. अस्पृश्यता की समाप्ति:
अस्पृश्यता अथवा छुआछूत का अन्त अनुच्छेद 17 में कर दिया गया है, और किसी भी रूप में छुआछूत को बरतने की मनाही की गई है। 1976 ई. में संसद ने कैद और जुर्माने की व्यवस्था को और कठोर बना दिया। छुआछूत बरतने या उसका प्रचार करने के अपराध में तीसरी बार या उससे अधिक बार दोषी पाये जाने वाले व्यक्तियों को दो साल की सजा और एक हजार जुर्माना किया जाएगा।

पहली बार किए गए अपराध के लिए कम से कम एक महीने की कैद और एक सौ रुपया जुर्माने की व्यवस्था की गई है। कानून में यह भी कहा गया है, कि छुआछूत के अन्तर्गत दोषी पाया गया व्यक्ति सजा की तारीख से छः वर्षों तक संसद और राज्य विधानमण्डल का चुनाव नहीं लड़ सकता।

5. उपाधियों की समाप्ति:
अनुच्छेद 18 के अनुसार –

  • राज्य सेना या शिक्षा सम्बन्धी सम्मान के सिवाय कोई ओर उपधि प्रदान नहीं करेगा।
  • भारत का कोई नागरिक किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि स्वीकार नहीं करेगा।
  • कोई व्यक्ति जो भारत का नागरिक नहीं है, राज्य के अधीन लागू या विश्वास के किसी पद को धारण करते हुए किसी विदेशी राज्य से कोई उपाधि राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।
  • राज्य के अधीन लाभ या विश्वास का पद धारण करने वाला कोई व्यक्ति किसी विदेशी राज्य के या उसके अधीन संस्थान से किसी रूप में कोई भेंट उपलब्धि या पद राष्ट्रपति की सहमति के बिना स्वीकार नहीं करेगा।

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प्रश्न 8.
भारतीय संविधान में वर्णित शोषण के विरुद्ध अधिकार का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
शोषण के विरुद्ध का उद्देश्य है समाज के निर्बल वर्ग को शक्तिशाली वर्ग के अन्याय से बचाना। इस मौलिक अधिकार के अन्तर्गत निम्नलिखित व्यवस्थाएँ दी गई है –

1. मानव के क्रय-विक्रय तथा शोषण पर प्रतिबन्ध:
अनुच्छेद 23 के अनुसार मानव तथा किसी भी व्यक्ति से बेगार लेना गैरकानूनी घोषित किया गया है, परन्तु इस अधिकार का यह अपवाद है कि राज्य सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए अनिवार्य सेवा लागू कर सकता है। उदाहरण के लिए अनिवार्य सैन्य कानून के अन्तर्गत लोग सेना में भर्ती किए जा सकते हैं । शोषण की मनाही के बावजूद पिछड़े वर्गों के लोग, जनजातियाँ, महिलाएँ और बन्धक मजदूर आज भी शोषण के शिकार हैं।

2. कारखानों आदि में बच्चों को काम करने की मनाही:
अनुच्छेद 24 के अनुसार चौदह वर्ष से कम आयु के किसी भी बच्चे को फैक्ट्री या खान में नहीं लगाया जाएगा और न किसी अन्य जोखिम के काम पर लगाया जाएगा। ऐसा करना अब एक दण्डनीय अपराध है। यह व्यवस्था इसलिए की गई है, ताकि उनके स्वास्थ्य पर कोई विपरीत प्रभाव न पड़े। भारत में मध्यकाल में जमींदार, राजा और नवाब तथा अन्य लोग अपने अधीनस्थ लोगों से बेगार लेते थे।

अपना निजी कार्य कराकर उनको बदले में कुछ नहीं देते थे। इसके विपरीत ग्रामों में स्त्रियों, दासों व बालकों के क्रय-विक्रय की कुरीति प्रचलन में थी। स्वतन्त्र हो जाने के बाद भी समाज के दुर्बल वर्ग का सर्वत्र शोषण होता रहा है। भारत के संविधान में दी गई उपरोक्त व्यवस्थाओं से शोषण कुछ रुका है। इस प्रकार बालकों व उपेक्षित वर्ग के शोषण या बेगार पर प्रतिबन्ध लगा है।

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प्रश्न 9.
राज्य के नीति निर्देशक तत्व एवं मौलिक अधिकारों में अन्तर स्पष्ट करें और यह भी स्पष्ट करें की सरकार निर्देशक तत्वों को उपेक्षा कर सकती है।
उत्तर:
मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक तत्व दोनों ही भारतीय लोकतंत्र की आधारभूत संरचना है। फिर भी दोनों में मौलिक अन्तर है, जो निम्नलिखित है –

  1. मौलिक अधिकार नकारात्मक प्रकृति का है। ये राज्य को कुछ कार्य करने से रोकती है। जबकि राज्य के नीति निर्देशक सिद्धान्त सकारात्मक प्रकृति के हैं। ये राज्य को कुछ कार्य करने के लिए निर्देश है।
  2. मौलिक अधिकार का उद्देश्य भारत में राजनीतिक लोकतन्त्र की स्थापना करना है, जबकि नीति निर्देशक सिद्धान्तों का मुख्य उद्देश्य आर्थिक लोकतन्त्र एवं लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है।
  3. मौलिक अधिकार की प्रकृति कानूनी है। अर्थात् मौलिक अधिकार के उल्लंघन होने पर न्यायालय में जा सकते हैं। जबकि नीति निर्देशक तत्व की प्रकृति राजनीतिक है । लागू नहीं होने पर न्यायालय में नहीं जा सकते हैं। अर्थात् यह न्याय-योग्य नहीं है।
  4. मौलिक अधिकार अधिक स्पष्ट और निश्चित है, जबकि निर्देशक सिद्धान्त अस्पष्ट और अनिश्चित है। इस तरह स्पष्ट है, कि मौलिक अधिकार और निर्देशक तत्व में व्यापक अन्तर है।
  5. जहाँ तक सरकार द्वारा निर्देशक तत्वों की उपेक्षा का प्रश्न है, इसमें उत्तर में कहा जा सकता है। कि निर्देशक तत्वों का संवैधानिक और व्यावहारिक दोनों दृष्टि से काफी महत्त्व है, इसलिए इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती है।

नीति निर्देशक तत्व का मुख्य उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज्य और आर्थिक लोकतन्त्र एवं सामाजिक न्याय की स्थापना करना है। यह हमारे पूर्वजों एवं महापुरुषों का सपना है, इसके पीछे जनमत की शक्ति है। इसलिए सरकार इसकी उपेक्षा नहीं कर सकती है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान स्वीकृत हुआ था –
(क) 30 जनवरी, 1948
(ख) 26 नवंबर, 1949
(ग) 15 अगस्त, 1947
(घ) 26 जनवरी, 1950
उत्तर:
(ख) 26 नवंबर, 1949

प्रश्न 2.
‘संविधान की आत्मा’ की संज्ञा दी गई है?
(क) अनुच्छेद 14 को
(ख) अनुच्छेद 19 को
(ग) अनुच्छेद 21 को
(घ) अनुच्छेद 32 को
उत्तर:
(घ) अनुच्छेद 32 को

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प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में राज्यों को ग्राम पंचायतों की स्थापना का निर्देश दिया गया है?
(क) अनुच्छेद 38
(ख) अनुच्छेद 39
(ग) अनुच्छेद 40
(घ) अनुच्छेद 44
उत्तर:
(ग) अनुच्छेद 40

Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 3 शहरी जीवन-यापन के स्वरूप

Bihar Board Class 6 Social Science Solutions Civics Samajik Aarthik Evam Rajnitik Jeevan Bhag 1 Chapter 3 शहरी जीवन-यापन के स्वरूप Text Book Questions and Answers, Notes.

BSEB Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 3 शहरी जीवन-यापन के स्वरूप

Bihar Board Class 6 Social Science शहरी जीवन-यापन के स्वरूप Text Book Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
किन आधारों पर कहेंगे कि फुटपाथ या पटरी पर काम करने वाले स्वरोजगार में लगे होते हैं ?
उत्तर-
फुटपाथ या पटरी पर काम करने वाले लोग अपना व्यवसाय खुद चलाते हैं । वे स्वयं योजना बनाते हैं कि किन-किन चीजों को बेचें, माल कितना खरीदें, कहाँ से खरीदे, अपनी दुकान कहाँ लगाएँ । वह अपनी सड़क के किनारे चादर या चटाई बिछाकर दुकान लगाते हैं। ये रोज खरीदते हैं, रोज बेचते हैं, इनकी कमाई कम होती है। इनकी आय मजदूरों जैसी है। पर ये अपना रोजगार स्वयं करते हैं। ये सभी लोग स्वरोजगार में लगे होते हैं। उनको कोई दूसरा व्यक्ति रोजगार नहीं देता है। उन्हें अपना काम स्वयं ही संभालना पड़ता है।

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प्रश्न 2.
अपने आस-पास के फुटपाथ पर फल की दूकान लगाने वाले व्यक्ति से पूछ कर बताएँ कि उसकी दिनचर्या, जैसे वह फल कहाँ से एवं कब खरीदता है ? वह सुबह दुकान कब लगाता है ? शाम को दुकान कब उठाता है ? यानी वे दिन भर में कितने घंटे काम करते हैं? इस काम में उनके परिवार के सदस्य उसकी क्या मदद करते हैं ?
उत्तर-
फुटपाथ पर फल की दूकान लगाने वाला व्यक्ति फल बाजार समिती से वह सुबह ही खरीदता है। वह सुबह दुकान 5-6 के बीच में लगाता है। शाम को वह दुकान 8-9 के बीच उठाता है। वह 15-16 घंटे काम करता है। इस काम में उनके घर परिवार भी उनकी सहायता करते हैं।

प्रश्न 3.
श्याम नारायण कुछ समय शहर में रहता है एवं कुछ समय गाँव में क्यों?
उत्तर-
श्याम नारायण एक कृषक मजदूर है। उसके पास जमीन नहीं है। गाँवों में साल भर खेती में मजदूरों की आवश्यकता नहीं होती है। ये फसल के कटाई-बुवाई के समय गाँवों में काम करते हैं। इस काम से जो कमाई होती है उससे परिवार का खर्च नहीं चल पाता है। इसलिए जब खेतों में काम नहीं मिलता है तो ये शहर में आकर रिक्शा चलाते हैं।’

प्रश्न 4.
श्यामनारायण रैन-बसेरा में क्यों रहता है?
उत्तर-
श्याम नारायण रेन बसेरा में रहता है। रोज उसकी कमाई 200300 रु. होती है जिसमें उसे प्रतिदिन रिक्शा का भाडा 30-50 रु. देना पड़ता है। प्रतिदिन 600-100 रू खाने के एवं अन्य जरूरतों में खर्च होता है जिससे उसकी अच्छी कमाई नहीं हो पाने की वजह से श्याम नारायण रैन-बसेरा में रहता है।

प्रश्न 5.
जो बाजार में सामान बेचते हैं और जो सड़कों पर सामान बेचते हैं उनमें क्या अंतर है?
उत्तर-
जो बाजार में सामान बेचते हैं ये दुकान पक्की होती है। बाजार की दुकानें रविवार, सोमवार को बंद रहती हैं। ये दुकानें वह स्वयं चलाते हैं। जरूरत पड़ने पर वे नौकर भी रखते हैं। वे दुकान किराये पर लेते हैं। उनकी कमाई भी अच्छी होती है। इन बाजारों में दुकान होने से बहुत लाभ होता है। उनका जीवन सुखमय होता है। जो सड़कों पर सामान बेचते हैं, ये दुकान कच्ची होती है। उसे रोज लगाना एवं उठाना पड़ता है। उसे रोज काम करना पड़ता है। वह स्वयं योजना बनाते हैं। सामान खरीदते एवं बेचते हैं। और उसके घर परिवार भी उसकी सहायता करते हैं । इन व्यापारियों के पास कोई सुरक्षा नहीं होती है। उनको अक्सर दुकान हटाने के लिए कहा जाता है। उनका जीवन-यापन कष्टमय बीतता है।

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प्रश्न 6.
प्रमोद और अंशु ने एक बड़ी दकान क्यों शरू की? उनको यह दुकान चलाने के लिए कौन-कौन से कार्य करने पड़ते हैं ?
उत्तर-
प्रमोद और अंशु ने दोनों मिलकर एक बड़ी दुकान शोरूम खोला है। बड़ी दुकान में उसे बहुत मेहनत मिलजुल कर करते हैं। इससे व्यापार में बढ़ोत्तरी हुई है। इसके लिए उसे प्रचार-प्रसार के लिए विज्ञापन देना पड़ता है और वह अपने दुकान में दूसरों को नौकरी भी देता है। इनके पास नगर-निगम के लाईसेंस होते हैं। इस दुकान की कमाई अच्छी होती है।

प्रश्न 7.
आकांक्षा जैसे लोगों की नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है। ऐसा आप किस आधार पर कह सकते हैं?
उत्तर-
आकांक्षा की तरह बहुत सारे लोग कारखाने में व अन्य जगहों पर हैं जिन्हें वर्ष भर काम नहीं मिलता। ये अनियमित रूप से काम में लगे होते. हैं, इन्हें बचे हुए समय में दूसरा काम ढूँढना पड़ता है। ऐसे लोगों की नौकरियाँ स्थाया नहीं होता । अगर कारीगर अपनी तनख्वाह या परिस्थितियों के बारे में शिकायत करते हैं, तो उन्हें निकाल दिया जाता है। इस तरह आकांक्षा जैसे लोगों की नौकरी की कोई सुरक्षा नहीं है।

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प्रश्न 8.
आकांक्षा जैसे लोगं अनियमित रूप से काम पर रखे जाते हैं। ऐसा क्यों है ?
उत्तर-
आकांक्षा जैसे लोग अनियमित रूप से काम पर रखे जाते हैं। यह कारीगरों को बरसात में कार्यमुक्त कर दिया जाता है। करीब तीन से चार महोने के लिए उनके पास काम नहीं रहता है। इन्हें बचे हुए समय में दूसरा काम’ ढूँढ़ना पड़ता है।

प्रश्न 9.
दूसरों के घरों में काम करने वाली एक कामगार महिला के दिन र के काम का विवरण दीजिए।
उत्तर-
सरला दूसरों के घरों में काम करती है। वह दूसरों के घर जाकर बर्तन साफ करना, झाडू देना, पोछा लगाना आदि काम करती है और वह बच्चों को समय पर स्कूल जाने के लिए बस स्टैण्ड तक छोड़ने तथा लाने का काम करती है।

प्रश्न 10.
दफ्तर में काम करने वाली महिला और कारखानों में काम करने वाली महिला में क्या-क्या अंतर है?
उत्तर-
दफ्तर में काम करने वाली महिला प्रतिदिन साढे नौ बजे काम पर जाती है, और साढ़े पांच बजे वापस आती है। वह एक स्थायी कर्मचारी होती है, उनके वेतन का एक हिस्सा भविष्य निधि में जमा होता है। बचत पर ब्याज भी मिलता है। रविवार और अन्य पर्व त्योहारों में छुट्टी मिलती है। उनको समय पर वेतन मिलता है, उन्हें काम नहीं होने पर अनियमित मजदूरों की तरह निकाला नहीं जाता है। कारखानों में काम करने वाली महिला प्रतिदिन काम करती है। उसे कोई छुट्टी नहीं मिलती है । वह एक अस्थायी रूप से काम करती है । उनको समय के अनुसार वेतन भी नहीं मिल पाता है। उन्हें काम नहीं होने पर अनियमित मजदूरों की तरह काम से निकाल दिया जाता है। पर्व-त्योहारों पर साल में एक बार इन्हें कपड़ा दिया जाता है।

प्रश्न 11.
क्या भविष्यनिधि, अवकाश या चिकित्सा सुविधाहर में स्थायी नौकरी के अलावा दूसरे काम करने वालों को मिल सकती है? चर्चा करें।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

अभ्यास

प्रश्न 1.
अपने अनुभव तथा बड़ों से चर्चा कर शहरों में जीवन-यापन के विभिन्न स्वरूपों की सूची बनायें।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 2.
अपने अनुभव के आधार पर नीचे दी गई तालिका के खाली स्थान को भरें
उत्तर-
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प्रश्न 3.
पटरी पर दुकानदार एवं अन्य दुकानदारों की स्थिति में क्या अंतर है?
उत्तर-
पटरी पर दुकानदारों की स्थिति दयनीय होती है। वह अपना दुकान रोज लगाते एवं उठाते हैं उनकी दुकानें अस्थायी होती हैं वे रोज योजना बनाते हैं। रोज समान खरीदते और बेचते है। वे अपना व्यवसाय स्वयं चलाते हैं। उनके पास कोई सुरक्षा नहीं होती है। पुलिस या नगर निगम वाले इन्हें तंग करते रहते हैं। उनको अक्सर दुकान हटाने के लिए कहा जाता है।

उनकी आय भी बहुत कम होती है। _अन्य दुकानदारों की स्थिति अच्छी होती है। उनकी दुकानें स्थायी होती हैं। वह अपना व्यापार खुद संभालते हैं। वे किसी दूसरे की नौकरी नहीं करते बल्कि दूसरों को नौकरी पर रखते हैं। इनके पास सुरक्षा के तौर पर गार्ड रखते हैं। सहायता के लिए सहायक, मैनेजर, साफ-सफाई के लिए कर्मचारी आदि की भी व्यवस्था होती है। ये दुकानें पक्की होती हैं। इनके पास नगर-निगम के लाईसेंस होते हैं।

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प्रश्न 4.
एक स्थायी और नियमित नौकरी, अनियमित काम से किस तरह अलग हैं।
उत्तर-
एक स्थायी और नियमित नौकरी होने से उन्हें नियमित और स्थायी कर्मचारी की तरह रोजगार मिलता है। उनका विभाग एवं कार्य तय होता है। काम नहीं होने पर भी उन्हें मजदूरों की तरह निकाला नहीं जाता है। उन्हें सही समय पर वेतन भी मिलता है। अनियमित मजदूरों की तरह उसे दूसरे कामों को करने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इस तरह एक स्थायी नौकरी और – एक अनियमित काम से अलग है।

प्रश्न 5.
निम्नलिखित तालिका को पूरा कीजिए।
उत्तर-
Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 3 शहरी जीवन-यापन के स्वरूप 2

प्रश्न 6.
एक स्थायी एवं नियमित नौकरी करने वालों के वेतन के अलावा और कौन-कौन से लाभ मिलते हैं ?
उत्तर-
एक स्थायी एवं नियमित नौकरी करने वालों को वेतन के अलावे और कई लाभ मिलते है। जैसे बुढ़ापे के लिए बचत – उनके वेतन का एक हिस्सा भविष्य निधि में. जमा होता है। उसको बचत पर ब्याज भी मिलता है। उसे पेंशन भी सरकार देती है। रविवार और अन्य पर्व त्योहारों में छुट्टी मिलती. है। वार्षिक छुट्टी के रूप में कुछ दिन भी मिलते हैं। परिवार के लिए चिकित्सा की सुविधाएँ-सरकार एक सीमा तक कर्मचारी और उनके परिवार के सदस्यों के इलाज का खर्च उठाती है।

Bihar Board Class 6 Social Science शहरी जीवन-यापन के स्वरूप Notes

पाठ का सारांश

भारत में पाँच हजार से ज्यादा शहर हैं और कई महानगर हैं। इन महानगरों में दस लाख से भी ज्यादा लोग रहते हैं और काम करते हैं। शहर की जिन्दगी कभी रुकती नहीं। वे नौकरी करते हैं या अपने व्यवसाय में लगे रहते हैं। वे अपना जीवन रोजगार और कमाई के द्वारा चलाते हैं।

यह बिहार की राजधानी पटना है। यह बहत बड़ा शहर है। में अक्सर यहाँ आती हूँ। देखती!

सडके के किनारे फल, सब्जी बेचने वाले अपने ठेले पर सब्जी एवं फल सजाकर अपना ठेला लेकर जा रहा होता है। सड़क के दूसरी ताफ एक व्यक्ति टेबल पर कई तरह के अखबार रखकर बेच रहा होता है।

Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 3 शहरी जीवन-यापन के स्वरूप

फुटपाथ, पटरी पर काम करने वाले की संख्या काफी अधिक होती है। सभी लोग स्वरोजगार में लगे होते हैं ! उनको कोई दूसरा व्यक्ति रोजगार नहीं देता है। वे स्वयं ही योजना के अनुसार अपना रोजगार करके अपना खुद का । व्यवसाय चलाते हैं। इन सभी व्यापारी को पटरीवाला व्यापारी कहा जाता है। ये व्यापारी सड़कों के किनारे फुटपाथ पर रखकर अपना सामान बेचते हैं। इनके द्वारा बेची जाने वाली वस्तुएँ दैनिक उपयोग की होती हैं। उदाहरण के लिए सड़कों पर गुप-चुप, समोसे, चाट, भंजा आदि इन व्यापारियों के पास कोई सुरक्षा नहीं होती है। पुलिस या नगरनिगम वाले इन्हें तंग भी करते हैं। उनको अक्सर दुकान हटाने के लिए कहा जाता है।

हमारे देश के शहरी इलाकों में लगभग एक करोड़ लोग फुटपाथ और ठेलों पर सामान बेचते हैं।

एक रिक्शा चालक-श्यामनारायण एक कृषक मजदूर हैं। जो गाँवों में खेती की फसल कटाई-बुवाई के समय गाँवों में काम करते हैं। जब खेतों में काम नहीं मिलता है तो ये शहर आकर रिक्शा चलाते हैं और रैन बसेरा में रात गुजारते हैं। इनके घर की महिलायें भी घर-घर के कार्य करती हैं।

परिवार के लिए चिकित्सा की सविधाएँ-सरकार एक सीमा तक कर्मचारी और उनके परिवार के सदस्यों के इलाज का खर्च उठाती है। इस तरह के कई कर्मचारी को बीमार पड़ने पर उसका इलाज का खर्च उठाती है।

इसी तरह सरकारी कर्मचारी को सुविधा दी जाती है। हमारे सहकर्मी के यहाँ काम करने वाली सरला घरों में अपनी सेवा देती है। ये दूसरे के घर जाकर बर्तन साफ करना, झाडू देना, पोछा लगाना आदि काम करती है। इसी प्रकार शहर में इतने सारे लोग इतनी तरह का काम करके अपना जीवन-यापन करते हैं। वे कभी एक-दूसरे से मिलते भी नहीं, मगर उनका काम उन्हें बांधता है और शहरी जीवन को बनाए रखता है।

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे? Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

Bihar Board Class 11 Political Science संविधान : क्यों और कैसे? Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
इनमें कौन-सा संविधान का कार्य नहीं है?
(क) यह नागरिकों के अधिकार की गारंटी देता है।
(ख) यह शासन की विभिन्न शाखाओं की शक्तियों के अलग-अलग क्षेत्र का रेखांकन करता है।
(ग) यह सुनिश्चित करता है, कि सत्ता में अच्छे लोग आएँ।
(घ) यह कुछ साझे मूल्यों की अभिव्यक्ति करता है।
उत्तर:
(ग) यह सुनिश्चित करता है, कि सत्ता में अच्छे लोग आएँ।

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा कथन इस बात की दलील है, कि संविधान की प्रमाणिकता संसद से ज्यादा है?
(क) संसद के अस्तित्व में आने से कहीं पहले संविधान बनाया जा चुका था।
(ख) संविधान के निर्माता संसद के सदस्यों से कहीं ज्यादा बड़े नेता थे।
(ग) संविधान ही यह बताता है, कि संसद कैसे बनायी जाय और इसे कौन-कौन सी शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
(घ) संसद, संविधान का संशोधन नहीं कर सकती।
उत्तर:
(ग) संविधान ही यह बताता है, कि संसद कैसे बनायी जाये और इसे कौन-कौन सी शक्तियाँ प्राप्त हो सकेगी।

Bihar Board Class 11th Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 3.
बताएँ संविधान के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत?
(क) सरकार के गठन और उसकी शक्तियों के बारे में संविधान एक लिखित दस्तावेज है।
(ख) संविधान सिर्फ लोकतांत्रिक देशों में होता है, और उसकी जरूरत ऐसे ही देशों में होती है।
(ग) संविधान एक कानूनी दस्तावेज है, और आदर्शों तथा मूल्यों से इसका कोई सरोकार नहीं।
(घ) संविधान एक नागरिक को नई पहचान देता है।
उत्तर:
(क) सही
(ख) गलत
(ग) गलत
(घ) सही

प्रश्न 4.
बताएँ कि भारतीय संविधान के निर्माण के बारे में निम्नलिखित अनुमान सही है, या नहीं। अपने उत्तर का कारण बताएँ।
(क) संविधान सभा में भारतीय जनता की नुमाइंदगी नहीं हुई। इसका निर्वाचन सभी नागरिकों द्वारा नहीं हुआ था।
(ख) संविधान बनाने की प्रक्रिया में कोई बड़ा फैसला नहीं लिया गया क्योंकि उस समय नेताओं के बीच संविधान की बुनियादी रूपरेखा के बारे में आम सहमति थी।
(ग) संविधान में कोई मौलिकता नहीं है, क्योंकि इसका अधिकांश हिस्सा दूसरे देशों से लिया गया है।
उत्तर:
(क) हमारी संविधान सभा के सदस्य सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं चुने गए थे, पर उसे अधिक से अधिक प्रतिनिधियात्मक बनाने की कोशिश की गयी थी विभाजन के बाद संविधान सभा में कांग्रेस का वर्चस्व था। कांग्रेस में सभी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व था। अतः यह कहना असत्य होगा कि संविधान सभा भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व नहीं करती थी।

(ख) यह बात भी असत्य है, कि संविधान सभा के सदस्य एकमत थे, और उन्हें कोई बड़े निर्णय लेने की आवश्यकता नहीं थी। वास्तव में संविधान का केवल एक ही ऐसा प्रावधान है, जो बिना किसी वाद-विवाद के पारित हुआ कि मताधिकार किसे प्राप्त हो। इसके अतिरिक्त प्रत्येक विषय पर गंभीर विचार-विमर्श और वाद-विवाद हुए।

(ग) यह कहना गलत है, कि भारतीय संविधान मौलिक नहीं है, क्योंकि इसका अधिकांश भाग विश्व के अन्य देशों के संविधानों से लिया गया है। वास्तव में हमारे संविधान निर्माताओं ने आत्य संवैधानिक परम्पराओं से कुछ ग्रहण करने में परहेज नहीं किया। दूसरे देशों के प्रयोगों और अनुभवों से कुछ सीखने में संकोच भी नहीं किया। परन्तु उन विचारों को लेना कोई अनुकरण की मानसिकता नहीं थी, वरन संविधान के प्रत्येक प्रावधान को भारत की समस्याओं और आशाओं के अनुरूप ग्रहण कर उन्हें अपना बना लिया गया। भारत का संविधान एक विशाल दस्तावेज है। इसकी मौलिकता पर कोई प्रश्न नहीं लगाया जा सकता।

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प्रश्न 5.
भारतीय संविधान के बारे में निम्नलिखित प्रत्येक निष्कर्ष की पुष्टि में दो उदाहरण दें।
(क) संविधान का निर्माण विश्वसनीय नेताओं द्वारा हुआ। इनके लिए जनता के मन में आदर था।
(ख) संविधान ने शक्तिओं का बँटवारा इस तरह किया कि इसमें उलट-फेर मुश्किल है।
(ग) संविधान जनता की आशा और आकांक्षाओं का केन्द्र है।
उत्तर:
(क) संविधान का निर्माण उस संविधान सभा ने किया जो विश्वसनीय नेताओं से बनी थी। इस सभी नेताओं ने न केवल राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लिया था, वरन वे भारतीय समाज के सभी अंगों, सभी जातियों या समुदायों अथवा सभी धर्मों का प्रतिनिधित्व करते थे। भारतीय जनता का इनमें पूर्ण विश्वास था, और राष्ट्रीय आन्दोलन में उठने वाली सभी माँगों का संविधान बनाते समय ध्यान रखा गया। संविधान सभा के सदस्यों ने पूरे देश के हित को ध्यान में रखकर विचार-विमर्श किया।

(ख) संविधान ने शक्तियों का वितरण भी इस प्रकार किया कि जिससे विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपना-अपना कार्य समुचित रूप से कर सकें। कार्य वितरण के समय नियंत्रण एवं सन्तुलन के सिद्धान्त को भी महत्त्व दिया गया। कोई एक सरकारी अंग अन्य दूसरे अंगों पर हावी नहीं हो सकता। कार्यपालिका के कार्यों पर संसद नियंत्रण रखती है। न्यायिक पुनरावलोकन द्वारा संसद अथवा मंत्रिमंडल के कार्यों की समीक्षा की जा सकती है। संविधान ने सुनिश्चित किया कि किसी एक समूह के लिए संविधान को नष्ट करना आसान न हो।

(ग) संविधान लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया गया। संविधान न्यायपूर्ण है। भारत के संविधान में न्याय के बुनियादी सिद्धान्तों का विशेष ध्यान रखा गया। लोगों के मौलिक अधिकार सुरक्षित रहें। जनता के उत्थान के लिए राज्य नीति निर्देशक सिद्धान्त, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, वयस्क मताधिकार, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के हितों का विशेष ध्यान रखने के विभिन्न प्रावधान संविधान में दिए गए हैं। इस प्रकार संविधान जनता की आशाओं और आकांक्षाओं के अनुरूप ही बनाया गया है।

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प्रश्न 6.
किसी देश के लिए संविधान में शक्तियों और जिम्मेदारियों का साफ-साफ निर्धारण क्यों जरूरी है? इस तरह का निर्धारण न हो, तो क्या होगा?
उत्तर:
किसी भी देश के संविधान में विभिन्न संस्थाओं की शक्तियों का सीमांकन करना अत्यन्त आवश्यक होता है। जब कोई एक समूह या संस्था अपनी शक्तियों को बढ़ा लेती है, तो वह पूरे संविधान को नष्ट कर सकती है। इस समस्या के बचाव के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है, कि संविधान में शक्तियों का सीमांकन विभिन्न संस्थाओं में इस प्रकार किया जाए कि कोई भी समूह या संस्था संविधान को नष्ट न कर सके। संविधान को इस प्रकार बनाया जाए आर्थात् संविधान की रूपरेखा इस प्रकार से तैयार की जाए कि शक्तियों को ऐसी चतुराई से बाँट दिया जाए कि कोई एक संस्था एकाधिकार प्राप्त न कर सके।

ऐसा करने के लिए शक्तियों का विभाजन विभिन्न संस्थाओं में किया जाए। उदाहरणार्थ, भारतीय संविधान में शक्तियों का विभाजन कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के मध्य तथा कुछ स्वतन्त्र संवैधानिक निकायों जैसे निर्वाचन आयोग आदि में किया जाता है। केन्द्र और राज्यों के बीच भी शक्तियों का सीमांकन किया जाता है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है, कि यदि कोई एक संस्था संविधान को नष्ट करना चाहे तो अन्य संस्थाएँ उसके अतिक्रमण को रोक सकती हैं। भारतीय संविधान में अवरोध व सन्तुलन का सिद्धान्त भी इसीलिए अपनाया गया है।

जब विधायिका अपने क्षेत्र का अतिक्रमण करती है तो न्यायापलिका को यह अधिकार है, कि वह उसके द्वारा निर्मित विधान को असंवैधानिका घोषित कर सकती है। कार्यपालिका की शक्तियों को असीम बनने से रोकने के लिए विधायिका को उस पर विभिन्न प्रकार से अंकुश लगाने का अधिकार है। वह प्रश्न पूछकर, काम रोको प्रस्ताव लाकर, अविश्वास प्रस्ताव आदि के द्वारा कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्तियों का सीमांकन संविधान द्वारा पहले से ही किया है, और ये सभी संस्थाएँ अपने-अपने कार्यक्षेत्र में स्वतन्त्र रूप से कार्य करती हैं परन्तु अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकतीं।

दूसरी संस्थाएँ उनके अतिक्रमण को नियंत्रित कर लेती हैं। यदि संविधान में इन शक्तियों का बँटवारा या सीमांकन विभिन्न संस्थाओं में नहीं किया जाता तो कोई एक संस्था या सरकार कोई एक अंग अपनी शक्तियों को बढ़ा लेता और वह संविधान को नष्ट कर सकता था, तथा निरंकुशता पूर्ण शासन करने लगता जिससे नागरिकों की स्वतन्त्रता नष्ट हो जाती है।

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प्रश्न 7.
शासकों की सीमा का निर्धारण संविधान के लिए क्यों जरूरी है? क्या कोई ऐसा भी संविधान हो सकता है, जो नागरिकों को कोई अधिकार न दे।
उत्तर:
संविधान का एक प्रमुख कार्य यह भी है, कि वह सरकार द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किए जाने वाले कानूनों पर कुछ सीमाएँ लगाए। ये सीमाएँ इस रूप में मौलिक होती हैं, कि सरकार कभी उनका उल्लंघन नहीं कर सकती। संसद नागरिकों के लिए कानून बनाती है, कार्यपालिका कानूनों के प्रारूप तैयार करती है, और कई बार मंत्रिमंडल के सदस्य अथवा संसद ही इस प्रकार के कानून बनाने का प्रयास करें जिससे नागरिकों की स्वतन्त्रता समाप्त हो जाए तो इसे रोकने के लिए संसद की शक्तियों पर नियंत्रण लगाना अत्यन्त आवश्यक है।

भारतीय संविधान में संशोधान करने के लिए संसद को न्यायपालिका द्वारा निषेध कर दिया गया है, कि संसद संविधान के बुनियादी ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती अथवा वह संविधान के मूल स्वरूप को नहीं बदल सकती। संविधान सरकार की शक्तियों को कई प्रकार से सीमित करता है। संविधान में नागरिकों के मौलिक अधिकारों का स्पष्टीकरण किया गया है, जिनका उल्लंघन कोई भी सरकार नहीं कर सकती। नागरिकों को मनमाने ढंग से बिना किसी कारण के गिरफ्तार नहीं किया जा सकता। यह सरकार की शक्तियों के ऊपर एक बन्धन या सीमा कहलाती है। प्रत्येक नागरिक को अपनी इच्छानुसार अपना व्यवसाय चुनने का अधिकार है।

इस पर सरकार कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती। नागरिकों को जो स्वतन्त्रताएँ मूलतः प्राप्त है जैसे-भाषण की स्वतन्त्रता अन्तरात्मा की अवाज पर काम करने का अधिकार या संगठन बनाने की स्वतन्त्रता या देश के किसी भी भाग में भ्रमण करने की स्वतन्त्रता आदि पर सरकार सामान्य परिस्थिति में प्रतिबन्ध नहीं लगा सकती।

कोई भी सरकार स्वयं भी किसी से बेगार नहीं ले सकती और न ही किसी व्यक्ति को इस बात की छूट दे सकती कि वह दूसरे व्यक्तियों का शोषण करें, उन्हें बन्धुआ मजदूर बनाए आदि। इस प्रकार के कर्त्तव्यों पर सीमाएँ लगायी जाती हैं। दुनिया का कोई भी संविधान अपने नागरिकों को शक्तिविहीन नहीं कर सकता। हाँ तानाशाह शासक अवश्य संविधान को नष्ट कर देते हैं, और वे नागरिकों की स्वतन्त्रताओं का हनन करने की कोशिश करते हैं, यद्यपि संविधान में नागरिकों को सुविधाएँ प्रदान की जाती है।

प्रश्न 8.
जब जापान का संविधान बना तब दूसरे विश्वयुद्ध में पराजित होने के बाद जापान अमेरिकी सेना के कब्जे में था। जापान के संविधान में ऐसा कोई प्रावधान होना संभव नहीं था, जो अमेरिको सेना की पसंद न हो। क्या आपको लगता है, कि संविधान को इस तरह बनाने में कोई कठिनाई है? भारत में संविधान बनाने का अनुभव किस तरह इससे अलग है?
उत्तर:
जापान का संविधान ऐसे समय में निर्मित हुआ था, जब वह अमेरिका की सेना की नियंत्रण में था। अतः जापान के संविधान का कोई भी प्रावधान अमेरिका की सरकार की आकांक्षाओं के विरुद्ध नहीं था। यह सब इस कारण से होता है, क्योंकि अधिकतर देशों में संविधान वह लिखित दस्तावेज होता है, जिसमें राज्य के विषय में कई प्रावधान होते हैं, जो यह बताते हैं, कि राज्य किन सिद्धान्तों का पालन करेगा।

राज्य की सरकार किस विचारधारा पर आधारित नियमों एवं सिद्धान्तों के द्वारा शासन चलाएगी। जब किसी राज्य पर दूसरे राज्य का आधिपत्य हो जाता है, तो उस राज्य के संविधान में शासकों की इच्छओं के विपरीत कोई प्रावधान नहीं रखे जा सकते। अतः यह स्वाभाविक ही है, कि जापान के संविधान में अमेरिकी शासकों के हितों का विशेष ध्यान रखा गया।

भारत के संविधान को बनाते समय ऐसी कोई बात नहीं थी। भारत ने लोकतन्त्रीय शासन को अपनाया तथा अपने राष्ट्रीय आन्दोलन के समय सामने आने वाली समस्याओं के निराकरण का भी ध्यान रखा। अनेक देशों में संविधान निष्प्रभावी होते हैं, क्योंकि वे सैनिक शासकों या ऐसे नेताओं के द्वारा बनाये जाते हैं, जो लोकप्रिय नहीं होते और जिसके पास लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता नहीं होती।

यद्यपि भारतीय संविधान को औपचारिक रूप से एक संविधान सभा ने दिसम्बर 1946 ई. और नवम्बर 1949 ई. के मध्य बनाया। पर, ऐसा करने में उसने राष्ट्रीय आन्दोलन के लम्बे इतिहास से काफी प्रेरणा ली, जिसमें समाज में सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता थी। संविधान को भारी वैधता मिली क्योंकि उसे ऐसे लोगों द्वारा बनाया गया जिनकी अत्यधिक सामजिक विश्वसनीयता थी। संविधान का अन्तिम प्रारूप उस समय की राष्ट्रीय व्यापक आम सहमति को व्यक्त करता है।

Bihar Board Class 11th Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 9.
रजत ने अपने शिक्षक से पूछा-‘संविधान एक पचास साल पुराना दस्तावेज है, और इस कारण पुराना पड़ चुका है। किसी ने इसको लागू करते समय मुझसे राय नहीं माँगी। यह इतनी कठिन भाषा में लिखा हुआ है, कि मैं इसे समझ नहीं सकता। आप मुझे बताएँ की मैं इस दस्तावेज की बातों का पालन क्यों करूँ?’ अगर आप शिक्षक होते तो रजत को क्या उत्तर देते?
उत्तर:
यदि मैं रजत का शिक्षक होता तो उसके प्रश्न का उत्तर निम्न प्रकार से देता-भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है, कि यह कठोर तथा लचीला दोनों का मिश्रण है। संविधान अनेक धाराओं के साधारण बहुमत से संशोधित किया जा सकता है। संशोधन की यह प्रक्रिया संविधान को लचीला बना देती है। कुछ विषय ऐसे भी हैं, जिनमें संशोधन की प्रक्रिया अत्यधिक जटिल है। इन धाराओं में संशोधन करने के लिए संसद के स्पष्ट बहुमत तथा उपस्थित सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करके संशोधन किया जा सकता है। कुछ अनुच्छेद ऐसे भी हैं, जिनमें संशोधन करने के लिए कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों से अनुमोदन कराना आवश्यक है।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि 50 वर्षों के बाद भी भारतीय संविधान कोई बीते दिनों की पुस्तक नहीं कही जा सकती क्योंकि यह एक ऐसा संविधान है, जिसमें आवश्यकतानुसार संशोधन किया जा सकता है, परन्तु उसके अधिकांश प्रावधान इस प्रकार के हैं जो कभी भी पुराने नहीं पड़ सकते। संविधान का मूल ढाँचा तो सदैव ही एक जैसा रहेगा उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता। अतः यह कहना त्रुटिपूर्ण होगा कि भारतीय संविधान 50 वर्षों के बाद बीते दिनों की पुस्तक बनकर रह गयी है।

इसमें अभी तक लगभग 93 संशोधन हो चुके हैं। इस संविधान का निर्माण जिस संविधान सभा के द्वारा किया गया उसमें लगभग 82 प्रतिशत प्रतिनिधि कांग्रेस के सदस्य थे, और इसमें भारत के सभी घटकों, सभी धर्मों, सभी विचारधाराओं तथा सभी जाति एवं जनजातियों व पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधि भी शामिल थे। ये सभी व्यक्ति बड़े योग्य एवं अनुभवी थे। अत: संविधान को इस प्रकार से तैयार किया गया जिससे की वह समय के साथ-साथ सभी चुनौतियों का सामना करता रहेगा।

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प्रश्न 10.
संविधान के क्रिया-कलाप से जुड़े अनुभवों को लेकर एक चर्चा में तीन वक्ताओं ने तीन अलग-अलग पक्ष दिए –
(अ) हरबंस-भारतीय संविधान में एक लोकतान्त्रिक ढाँचा प्रदान करने में सफल रहा है।
(ब) नेहा-संविधान में स्वतन्त्रता, समता और भाईचारा सुनिश्चित करने का विधिवत् वादा है। चूंकि ऐसा नहीं हुआ इसलिए संविधान असफल है।
(स) नाजिमा-संविधान असफल नहीं हुआ, हमने उसे असफल बनाया। क्या आप इनमें से किसी पक्ष से सहमत हैं, यदि हाँ, तो क्यों? यदि नहीं, तो आप अपना पक्ष बताएँ।
उत्तर:
तीनों व्यक्तियों के इस संवाद में यह दर्शाने की कोशिश की गयी है, कि हमारे संविधान के क्रियाकलाप लाभप्रद हैं, अथवा नहीं। अपने प्रथम अनुभव के आधार पर हरबंश का मानना है, कि भारतीय संविधान हमें एक लोकतन्त्रात्मक सरकार का आधारभूत ढाँचा देने में सफल रहा है। परन्तु दुसरे वक्ता के रूप में नेहा का विश्वास है, कि संविधान में समानता, स्वतन्त्रता एवं बन्धुता के आश्वासन दिए जाने के बावजूद उनको पुरा नहीं किया गया है। ऐसा न होने के कारण संविधान असफल हो रहा है। नाजिमा का कथन कुछ इस प्रकार है, कि यह संविधान नहीं है, जिसने हमें असफल किया है, वरन ये हम हैं जिन्होंने संविधान को ही असफल कर दिया।

हम जानते हैं, कि भारतीय संविधान का निर्माण एक ऐसी संविधान सभा द्वारा किया गया जिसके सदस्य बड़े योग्य तथा राजनीतिक रूप से बड़े अनुभवी व्यक्ति थे। उन्होंने एक ऐसा संविधान तैयार किया जो भारत के नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने का साधन हो और भारत के विभिन्नताओं के लोगों को सर्वमान्य हो। अतः सभी वर्गों के कल्याण एवं उसकी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए संविधान में लोकतन्त्रीय शासन को स्थापित किया गया। संविधान में शासन के विभिन्न अंगों के सम्बन्धों का भी वर्णन किया गया।

व्यक्ति की स्वतन्त्रता को कायम रखने के लिए मौलिक अधिकार, न्यायालय की स्वतन्त्रता, विधि की शासन आदि को अपनाया गया। भारत में लोकतन्त्र की नींव रखी गयी और इसे शक्तिशाली बनाने के हरसम्भव प्रयास किए गए। भारत के संविधान की प्रस्तावना में ही यह भी दर्शाया गया है, कि संविधान का उद्देश्य सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान करना है, जिससे भारतीय नागरिक अपने को स्वतन्त्र महसूस करें। यह प्रयास किया गया कि संविधान में भारतीय शासन को आदर्श लोकतन्त्रात्मक शासन के रूप में सिद्धान्ततः स्वीकार किया जाए। परन्तु व्यवहार में भारतीय लोकतन्त्र विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक बुराईयों से पीड़ित हो रहा है।

नेहा के विश्वास के अनुसार संविधान में अनेक वायदों को लिया गया। नागरिकों को स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुता एवं धार्मिक उपासना जैसे अधिकारों से सुसज्जित किया गया है, लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं है। नागरिकों की स्वतन्त्रता पर सरकार विशेष अवसरों पर प्रतिबन्ध लगा सकती है। समानता का अधिकार हमारे समाज मे अभी भी पूरी तरह से सफल नहीं हुआ। समानता, स्वतन्त्रता और बन्धुता समाज में कायम नहीं हो पायी अतः संविधान असफल रहा है। आज भी चुनाव के समय धन एवं बाहुबलियों का सहारा लिया जाता है। लोगों की भावनाओं को भड़काकर वोट माँगे जाते हैं, और बाद में उनके हितों की अनदेखी होती रहती है।

नाजिमा को यह विश्वास है, कि संविधान ने हमें असफल नहीं किया वरन हमने ही संविधान को फेल कर दिया है। संविधान के मूल ढाँचे से भी हम छेड़छाड़ करने लगते हैं। संविधान में सबं कुछ लिखा हुआ होते हुए भी हमारी सरकारों ने ईमानदारी से नागरिकों को काम करने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार या एक ही प्रकार के कार्य के लिए स्त्री तथा पुरुष दोनों को समान वेतन आदि कार्यों को पूर्ण नहीं किया। अत: यह संविधान नहीं है, जिसने हमें असफल किया है, वरन यह हम हैं, जिन्होंने संविधान को असफल किया है। परन्तु नाजिमा का यह कथन पूर्णतया सत्य नहीं है। हमारा संविधान तो काफी आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है। भले ही भारत में अभी भी 26 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन कर रहे हैं, परन्तु पहले की अपेक्षा ‘उसमें कमी तो हो रही है। 2020 तक भारत को विकसित देशों की श्रेणी में लाने के प्रयास हो रहे हैं, तो यह संविधान की सफलता ही तो है।

Bihar Board Class 11 Political Science संविधान : क्यों और कैसे? Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारत के संविधान में किन विषयों में संशोधन करने के लिए साधारण प्रक्रिया अपनायी जाती है?
उत्तर:
भारत का संविधान लचीला भी है, कठोर भी अर्थात् लचीले और कठोर का समन्वय है। कुछ प्रावधानों में संशोधन करने की प्रक्रिया केवल साधारण विधेयक पारित करने की प्रक्रिया के सामन ही है। जैसे –

  1. राज्यों के नाम में परिवर्तन करना।
  2. राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करना।
  3. राज्यों में विधान परिषद् की स्थापना या समाप्ति, आदि।

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प्रश्न 2.
भारतीय संविधान के कोई चार एकात्मक लक्षण बताइए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के चार एकात्मक लक्षण निम्नलिखित हैं –

  1. शक्तिशाली केन्द्र: संविधान निर्माता संघात्मक शासन की कमजोरियों से अवगत थे। अतः उन्होंने भारत में शक्तिशाली केन्द्र की स्थापना की। केन्द्र संघ सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर तो कानून बनाता ही है, वह विशेष परिस्थितियों में राज्य सूची के विषयों पर भी कानून बना सकता है।
  2. आपातकालीन शक्तियाँ: राष्ट्रपति के द्वारा आपातकाल की घोषणा करने पर भारत संघीय शासन का रूप ले लेते।
  3. राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा होती है, और वे विशेष परिस्थितियों में केन्द्र के एजेन्ट के रूप में कार्य करते हैं।
  4. भारत में इकहरी नागरिकता है।

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में कौन सा सर्वाधिक उपयुक्त कारण हैं, जिससे यह निष्कर्ष निकलता हो कि संविधान संसद की अपेक्षा सर्वोच्च है?

  1. संविधान संसद से पहले अस्तित्व में आया।
  2. संविधान निर्माता संसद सदस्यों से अधिक महत्त्वपूर्ण नेता थे।
  3. संविधान तय करता है, कि संसद का निर्माण कैसे हो तथा उसकी शक्तियाँ क्या हों।
  4. संविधान संसद द्वारा संशोधन नहीं किया जा सकता।

उत्तर:
संविधान संसद से सर्वोच्च है, क्योंकि संविधान ही तय करता है, कि संसद का निर्माण कैसे हो तथा उसकी शक्तियाँ क्या होंगी।

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प्रश्न 4.
संविधान में प्रस्तावना की आवश्यकता पर एक टिप्पणी लिखो। अथवा, संविधान की प्रस्तावना का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
प्रत्येक देश की मूल विधि का अपना विशेष दर्शन होता है। दर्शन को समझे बिना संविधान समझना कठिन होता है, और इस विशेष दर्शन का वर्णन ‘प्रस्तावना’ में किया जाता है। हमारे देश के संविधान का मूल दर्शन हमें संविधान की प्रस्तावना में मिलता है। संविधान में प्रस्तावना की आवश्यकता इसलिए है, ताकि संविधान के लक्ष्यों, उद्देश्यों तथा सिद्धान्तों का संक्षिप्त और स्पष्ट वर्णन किया जा सके। सरकार के मार्गदर्शक सिद्धान्तों का वर्णन भी प्रस्तावना में ही किया जाता है।

इसके अतिरिक्त संविधान का आरम्भ एक प्रस्तावना से करना एक संवैधानिक प्रथा बन गई है। 1789 ई. के संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान, 1874 ई. के स्विट्जरलैंड के संविधान, 1937 ई. के आयरलैंड के संविधान, 1946 ई. के जापान के संविधान, 1949 ई. के तत्कालीन पश्चिमी जर्मनी के संविधान, 1954 ई. के समाजवादी चीन के संविधान और 1973 ई. के बंग्लादेश के संविधान का आरम्भ प्रस्तावना से होता है। अतः भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान का आरम्भ भी प्रस्तावना से किया।

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. प्रस्तावना में भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय प्रदान करने की बात कही गयी है।
  2. प्रस्तावना में कहा गया है, की भारतीय जनता को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता होगी।
  3. प्रस्तावना में प्रतिष्ठा व अवसर की समानता की बात कही गई है।
  4. प्रस्तावना में बन्धुत्व की कल्पना की गई है।
  5. प्रस्तावना में राष्ट्रीय एकता व अखण्डता को सर्वोपरि स्थान दिया गया है।

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प्रश्न 6.
भारतीय संविधान के दो स्त्रोतों से लिए गए प्रावधानों का भी उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
भारत का संविधान 1935 ई. के भारत शासन अधिनियम तथा विभिन्न देशों के संविधानों से प्रभावित संविधान है। इसके विभिन्न स्रोतों में से दो स्रोतें निम्नलिखित हैं –

  1. ब्रिटेन का संविधान
  2. अमेरिका का संविधान

ब्रिटेन के संविधान का प्रभाव तत्कालीन भारतीय नेताओं पर था, और होना भी स्वाभाविक था। इस संविधान से हमने संसदीय शासन प्रणाली, विधि प्रक्रिया, विधायिका के अध्यक्ष का पद, इकहरी नागरिकता और न्यायपालिका के ढाँचे का प्रावधान भारतीय संविधान में लिए हैं। अमेरिका के संविधान से संविधान की सर्वोच्चता, संघीय व्यवस्था, न्यायिक पुनरावलोकन, निर्वाचित राज्याध्यक्ष, राष्ट्रपति पर महाभियोग लगाने की प्रक्रिया, संविधान संशोधन में राज्यों की विधायिकाओं द्वारा अनुमोदन आदि प्रमुख प्रावधान लिए गए हैं।

प्रश्न 7.
संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
भारत में संसदीय शासन प्रणाली अपनायी गयी है। संसदात्मक शासन प्रणाली में कार्यपालिका का अध्यक्ष नाममात्र का होता है। वास्तविक शक्तियाँ मंत्रिपरिषद् के पास होती हैं। मंत्रिपरिषद् का निर्माण व्यवस्थापिका के प्रति उत्तरदायी होती है। प्रधानमंत्री निम्न सदन के बहुमत दल का नेता होता है। मंत्रियों को सामूहिक उत्तरदायित्व होता है। भारत में इसी प्रकार की शासन व्यवस्था है।

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प्रश्न 8.
इकहरी नागरिकता का क्या अर्थ है?
उत्तर:
इकहरी नागरिकता का अर्थ है, कि किसी राज्य में व्यक्तियों को केवल एक ही नागरिकता प्राप्त होती है। संघात्मक शासन वाले राज्यों में सामान्यतः दोहरी नागरिकता होती है। संयुक्त राज्य अमेरिका में व्यक्ति अमेरिका का नागरिक होने के साथ-साथ अपने उस राज्य का भी नागरिक होता है, जिसका वह निवासी है। भारत में संघात्मक शासन होते हुए भी यहाँ पर नागरिकों को इकहरी नागरिकता ही प्राप्त है।

प्रश्न 9.
क्या संविधान संशोधनों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है?
उत्तर:
भारत के संविधान में 42वीं संशोधन करके यह व्यवस्था बना दी गयी है, कि संविधान संशोधन को किसी भी न्यायालय में किसी आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी परन्तु मिनर्वा मिल केस (1980 ई.) में उच्चतम न्यायलय ने संविधान की इस धारा को अवैध घोषित कर दिया। इसका अभिप्राय यह है, कि न्यायलय को संविधान की जाँच करने की शक्ति प्राप्त है।

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प्रश्न 10.
निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखो –
(क) पंथ निरपेक्ष राज्य
(ख) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार
(ग) भारतीय संविधान के स्वतंत्र अधिकरण
उत्तर:
(क) पंथ निरपेक्ष राज्य:
जिन राज्यों में किसी धर्म विशेष को राज्य का धर्म स्वीकार न करके सभी धर्मों को समान समझा जाए तथा राज्य के नागरिक अपनी इच्छानुसार अपने धर्म का पालन कर सकें उसे पंथ-निरपेक्ष राज्य कहते हैं।

(ख) सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार:
राज्य के द्वारा जब एक निश्चित आयु (वयस्क होने की आयु, भारत में यह 18 वर्ष है) पूरी करने वाले अपने सभी नागरिकों को जाति, रंग, नस्ल, लिंग, शिक्षा तथा आय के भेदभाव के बिना मताधिकार दिया जाता है तो इसे सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार कहते हैं।

(ग) भारतीय संविधान के स्वतन्त्र अभिकरण:
भारतीय संविधान में निम्नलिखित स्वतन्त्र अभिकरण दिए गए हैं –

  • निर्वाचन आयोग
  • नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक
  • संघ लोक सेवा आयोग
  • राज्य लोक सेवा आयोग आदि

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प्रश्न 11.
राजनैतिक और आर्थिक न्याय से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में राजनीतिक और आर्थिक न्याय का वर्णन निम्नलिखित सन्दर्भ में किया गया है –

  1. राजनैतिक न्याय-राजनैतिक न्याय का अर्थ है, कि सभी व्यक्तियों को धर्म, जाति, रंग आदि भेदभाव के बिना समान राजनैतिक अधिकार प्राप्त हों। सभी नागरिकों को समान मौलिक अधिकार प्राप्त हैं।
  2. आर्थिक न्याय-आर्थिक न्याय से अभिप्राय है, कि प्रत्येक को अपनी आजीविका कमाने के समान अवसर प्राप्त हों तथा कार्य के लिए उचित वेतन प्राप्त हो।

प्रश्न 2.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना से क्या तात्पर्य है? प्रस्तावना में लिखे गए प्रमुख आदर्श कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
हमारे देश के संविधान का मूल दर्शन हमें संविधान की प्रस्तावना में मिलता है। संविधान की प्रस्तावना में संविधान के लक्ष्यों, उद्देश्यों तथा सिद्धान्तों का संक्षिप्त और स्पष्ट वर्णन किया गया है। भारत सरकार व राज्य सरकारों के मार्गदर्शक सिद्धान्तों का वर्णन भी प्रस्तावना में ही किया गया है। प्रस्तावना ही हमें यह बतलाती है, कि भारत में सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गई है। भारतीय संविधान की प्रस्तावना के मुख्य आदर्श हैं, कि भारत प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य है।

प्रश्न 13.
भारतीय संविधान की कोई तीन विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान की तीन विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. भारतीय संविधान लिखित तथा विश्व का विशालतम संविधान है।
  2. संविधान के द्वारा भारत के नागरिकों के मौलिक अधिकार और कर्त्तव्यों का वर्णन किया गया है।
  3. भारतीय संविधार कठोर और लचीले संविधानों का मिश्रण है।

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प्रश्न 14.
संविधान सभा के किन्हीं आठ सदस्यों के नाम लिखिए।
उत्तर:
संविधान सभा के मुख्य सदस्य थे –

  1. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद
  2. डॉ. भीमराव अम्बेडकर
  3. पण्डित जवाहरलाल नेहरू
  4. सरदार वल्लभ भाई पटेल
  5. मौलाना अबुल कलाम आजाद
  6. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी
  7. सरदार बलदेव सिंह
  8. श्रीमती सरोजनी नायडू

प्रश्न 15.
संविधान सभा द्वारा संविधान कब पारित किया गया तथा कब इसे लागू किया गया?
उत्तर:
संविधान सभा द्वारा संविधान को 26 नवम्बर, 1949 को पारित किया गया तथा इसे 26 जनवरी, 1950 ई. को लागू किया गया।

प्रश्न 16.
राजनीतिक समानता से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
राजनीतिक समानता भारतीय संविधान की एक प्रमुख विशेषता है। राजनीतिक समानता का अर्थ है, कि देश की राजनीतिक क्रिया-कलापों में सभी को बिना किसी भेदभाव के भाग लेने का अधिकार एवं सभी को वोट देने का अधिकार।

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प्रश्न 17.
भारतीय संविधान का जन्म या निर्धारण करने वाली संविधान सभा का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
संविधान सभा में जनसंख्या के आधार पर प्रान्तों से 296 और देशी रियासतों से 93 प्रतिनिधियों की व्यवस्था की गई। प्रान्तों के प्रतिनिधियों को प्रान्तों की व्यवस्थापिका के निचले सदन से अप्रत्यक्ष रूप से चुना गया। इन्हें तीन श्रेणियों-सामान्य, मुस्लिम, और सिक्ख, में जनसंख्या के अनुपात में बाँट दिया गया। रियासतों के प्रतिनिधियों के चुनाव का प्रश्न आपसी समझौते के आधार पर तय होना था।

प्रश्न 18.
संविधान सभा में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा डॉ. भीमराव अम्बेडकर के विशिष्ट स्थान कैसे थे?
उत्तर:
संविधान सभा ने डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अपना सभापति तथा डॉ. बी. आर. अम्बेडकर को प्रारूप समिति का सभापति बनाया।

प्रश्न 19.
किसी देश के लिए संविधान का क्या महत्त्व है?
उत्तर:
किसी भी देश के लिए संविधान बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। इसलिए संविधान को सरकार की शक्ति तथा सत्ता का स्रोत कहा जाता है। संविधान में यह वर्णित है, कि सरकार के विभिन्न अंगों की शक्तियाँ क्या हैं, तथा वे क्या कर सकती हैं। ऐसा करने का उद्देश्य यह होता है, कि सरकार के विभिन्न अंगों में तनाव उत्पन्न न हो। संविधान के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार हैं –

  1. सरकार के विभिन्न अंगों के पारस्परिक सम्बन्धों का व्याख्या करना।
  2. सरकार और नागरिकों के सम्बन्धों का वर्णन करना। संविधान की सबसे अधिक उपयोगिता यह है, कि वह सरकार द्वारा सत्ता के दुरुपयोग को रोकता है। इसलिए संविधान देश में सबसे महत्त्वपूर्ण प्रलेख है।

प्रश्न 20.
संविधान का क्या अर्थ है?
उत्तर:
संविधान किसी देश के शासन की रीढ़ है। शासन के नियमों का समूह, उसके आधारभूत सिद्धान्तों का संग्रह संविधान कहलाता है। शासन व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने के लिए संविधान की रचना की जाती है। इस कार्य में देश की तत्कालीन परिस्थितियों और संविधान निर्माताओं के आदर्शों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

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प्रश्न 21.
लिखित संविधान किसे कहते हैं?
उत्तर:
लिखित संविधान उस संविधान सभा द्वारा पारित होता है, जो इसी उद्देश्य के लिए बुलाई जाती है। भारत का संविधान लिखित है। 1946 में एक संविधान सभा की रचना की गई जिसने इस संविधान का निर्माण किया।

प्रश्न 22.
भारतीय संविधान की अद्वितीय विशेषताएँ क्या हैं?
उत्तर:
भारत के संविधान की अद्वितीय विशेषताएँ –

  1. भारत का संविधान एकात्मक और संघात्मक दोनों का मिश्रण है।
  2. भारत के संविधान में यद्यपि संसदात्मक शासन को अपनाया गया है, परन्तु इसमें अध्यक्षात्मक शासन के भी तत्व पाये जाते हैं।
  3. भारत एक संघात्मक राज्य है, परन्तु यहाँ इकहरी नागरिकता है।
  4. भारत के संविधान में नागरिकों को मौलिक अधिकार एवं मूल स्वतन्त्रताएँ प्रदान की गई हैं, परन्तु राष्ट्रीय हित में उन पर प्रतिबन्ध भी लगाए जा सकते हैं। आपात स्थिति में उन्हें राष्ट्रपति द्वारा निलम्बित किया जा सकता है।
  5. भारत का संविधान भारतीय जनता द्वारा निर्मित है। एक संविधान सभा का निर्माण किया गया जो प्रान्तीय विधान सभाओं द्वारा परोक्ष रूप से निर्वाचित की गयी।
  6. देश की सर्वोच्च सत्ता जनता में निहित है।
  7. भारत को संविधान द्वारा एक गणराज्य घोषित किया गया है।
  8. संविधान में राज्य के नीति निर्देशक तत्व दिए गए हैं।
  9. संघीय तथा राज्य विधानमण्डलों के अधिनियमों और कार्यपालिका के क्रियाकलापों की न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था है।
  10. भारतीय संविधान कठोर तथा लचीला दोनों का मिश्रण है।

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प्रश्न 23.
भारतीय संविधान का निर्माण कब हुआ?
उत्तर:
भारतीय संविधान का निर्माण एक संविधान सभा द्वारा किया गया। 9 दिसम्बर, 1946 ई. को संविधान सभा बुलाई गई। डॉ. सच्चिदानन्द सिन्हा इसके अस्थायी अध्यक्ष थे। 11 दिसम्बर, 1946 ई. को डॉ. राजेन्द्र प्रसाद को अस्थायी अध्यक्ष चुना गया। संविधान सभा के 2 वर्ष 11 मास और 18 दिन के अथक प्रयास द्वारा 26 नवम्बर 1949 ई. को भारत का संविधान सम्पूर्ण हुआ और ऐतिहासिक दिवस 26 जनवरी, 1950 ई. से इसे लागू किया गया।

प्रश्न 24.
भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 ई. को क्यों लागू किया गया?
उत्तर:
भारत का संविधान 26 नवम्बर, 1949 ई. को बनकर तैयार हो गया था, परन्तु उसे 2 महीने बाद 26 जनवरी, 1950 ई. को लागू किया गया। इसका एक कारण यह था कि पं. जवाहर लाल नेहरू ने कांग्रेस के 31 दिसम्बर, 1929 ई. के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग का प्रस्ताव पारित कराया था और 26 जनवरी, 1930 ई. का दिन सारे भारत में ‘संविधान दिवस’ के रूप में मनाया गया था। इसके बाद प्रतिवर्ष 26 जनवरी को इसी रूप में मनाया जाने लगा। इसी पवित्र दिवस की यादगार को ताजा रखने के लिए संविधान सभा ने संविधान को 26 जनवरी, 1950 ई. से लागू किया।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना लिखें।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना प्रकार है –
“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न समाजवादी धर्म निरपेक्ष लोकतन्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए, दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष) शुक्ल सप्तमी संवत् 2006 वि. को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मसमर्पित करते है।”

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प्रश्न 2.
“न्यायिक पुनरावलोकन” के सिद्धान्त से क्या अभिप्राय है?
उत्तर:
न्यायिक पुनरावलोकन-संविधान ने भारत में संघीय व्यवस्था की स्थापना की है। ऐसी व्यवस्था में न्यायपालिका को संविधान के रक्षक के रूप में स्थापित किया जाता है। भारत में सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को पुनरावलोकन का अधिकार प्राप्त है। इसका अर्थ है, न्यायपालिका विधानमण्डलों (संसद तथा राज्यों के विधानमण्डल) द्वारा बनाए गए कानून संविधान की दृष्टि से पुनरावलोकन कर सकती है, कि सम्बन्धित विधायिका ने वह कानून संविधान के अनुसार बनाया है या नहीं। यदि न्यायपालिका की दृष्टि में विधायिका द्वारा पारित कोई कानून संविधान की धाराओं के विपरीत है, तो वह उसे निरस्त या रद्द घोषित कर सकती है। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों ने अपने इस अधिकार का काफी प्रयोग किया है। न्यायपालिका का मानना है, कि संसद संविधान में संशोधन तो कर सकती है, परन्तु संविधान के मूलभूत ढाँचे को नहीं बदल सकती।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान की संघात्मक विशेषताओं का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारतीय संविधान के द्वारा भारत में संघात्मक शासन की स्थापना की गई है, या एकात्मक की, इसके बारे में विद्वानों के विचारों में मतभेद है। कुछ विद्वान इसे पूर्णतया संघात्मक मार मानते हैं, तो कुछ उसे इसे अर्द्ध-संघात्मक तथा कुछ विचारक ऐसे भी हैं, जो इसे एकात्मक शासन के रूप में स्वीकार करते हैं। श्री के. सी. बीहर के अनुसार, “भारत एकात्मक राज्य है, जिसमें संघीय विशेषताएँ नाममात्र की हैं, न कि यह एक संघात्मक राज्य है, जिसमें कुछ एकात्मक ‘विशेषताएँ हैं।” डी. डी. बसु के अनुसार, “भारतीय संविधान न तो पूर्णतया संघात्मक है, और न ही पूर्णतया एकात्मक, यह दोनों का मिश्रण है।

भारतीय संविधान की संघात्मक विशेषताएँ:

1. लिखित संविधान-भारत में एक लिखित संविधान है। इसमें संघात्मक शासन की व्यवस्था विभिन्न इकाईयों (राज्यों) के समझौते द्वारा की जाती है। इसीलिए यहाँ भी संविधान सभा ने अमेरिका, रूस या जापान की तरह एक लिखित: संविधान तैयार किया है।

2. कठोर संविधान-भारत का संविधान लिखित होने के साथ-साथ कठोर भी है। इसमें संशोधन करने की विधि आसान नहीं है। संविधान के महत्त्वपूर्ण विषयों में संशोधन के लिए संसद के दोनों सदनों के उपस्थित सदस्यों का दो-तिहाई बहुमत एवं कुल सदस्यों का बहुमत तथा कम से कम आधे राज्यों के विधान मण्डलों की स्वीकृति आवश्यक होती है।

3. शक्तियों का विभाजन-भारतीय संविधान के अनुसार संघ तथा राज्यों के बीच शक्तियों का बँटवारा किया गया है। दोनों के अधिकारों को –

  • संघ सूची
  • राज्य सूची और
  • समवर्ती सूची में विभाजित किया गया है।
  1. संघ सूची में 97 विषय है। इन विषयों पर संसद को कानून का अधिकार है।
  2. राज्य सूची में 66 विषय हैं, जिन पर राज्य की विधायिकाओं को कानून बनाने का अधिकार है।
  3. समवर्ती सूची में 47 विषय हैं। इस पर केन्द्र तथा राज्य विधान मण्डल दोनों का अधिकार है, परन्तु टकराव की स्थिति में केन्द्र की संसद द्वारा निर्मित कानून लागू होगा।
  4. न्यायपालिका की स्वतन्त्रता सुनिश्चित की गई है।
  5. द्विसदनीय व्यवस्थापिक है। निम्न सदन लोक सभा तथा उच्च सदन राज्य सभा है।

Bihar Board Class 11th Political Science Solutions Chapter 1 संविधान : क्यों और कैसे?

प्रश्न 4.
भारतीय संविधान संसदीय सर्वोच्चता एवं न्यायपालिका की सर्वोच्चता के बीच से गुजरता है। बताइए, कैसे?
उत्तर:
भारतीय संविधान में ब्रिटेन की तरह संसदीय प्रभुता तथा अमेरिका की तरह न्यायिक सर्वोच्चता इन दोनों के बीच का मार्ग अपनाकर दोनों में समन्वय स्थापित किया गया है। ब्रिटेन में संसद सर्वोच्च है। उसके द्वारा पारित कानूनों को न तो सम्राट वीटो कर सकता है, और न न्यायालय उन्हें अवैध घोषित कर सकता है। उधर अमेरिका में संविधान की व्याख्या और विधियों की संवैधानिकता के सम्बन्ध में अन्तिम निर्णय की शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है।

भारतीय संविधान में ब्रिटिश संविधान की भाँति संघात्मक व्यवस्था के आदर्श को अपनाते हुए सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षण तथा व्याख्या करने का अधिकार भी दिया गया है। सर्वोच्च न्यायालय उन विधियों को अवैध घोषित कर सकता है, जो संविधान के विरुद्ध. हों। संसद को भी यह अधिकार है, कि आवश्यकता पड़ने पर विशिष्ट बहुमत के आधार पर संविधान में संशोधन कर सकती है। इस प्रकार भारतीय संविधान अद्भुत ढंग से संसदीय सर्वोच्चता एवं न्यायालय की सर्वोच्चता के बीच का मार्ग अपनाता है।

प्रश्न 5.
भारतीय नागरिकों के कोई पाँच मौलिक कर्त्तव्य लिखें।
उत्तर:
भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य है कि वह –

  1. संविधान का पालन करे और उसके आदर्श, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान का आदर करे।
  2. स्वतन्त्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे।
  3. भारत की प्रभुसत्ता, एकता और अखण्डता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्ण रखे।
  4. देश की रक्षा करे और आहान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करे।
  5. भारत के सभी लोगों में समरसता और भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो और ऐसी प्रथाओं का त्याग करे जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध हो।

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प्रश्न 6.
संविधान सभा में ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ किसने प्रस्तुत किया? इसके मुख्य उपबन्धों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उद्देश्य प्रस्ताव:
संविधान सभा के समक्ष 13 दिसम्बर, 1946 ई. को पं. जवाहर लाल नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव प्रस्तुत किया। इस उद्देश्य प्रस्ताव में स्पष्ट किया गया है कि “संविधान सभा भारत के लिए एक ऐसा संविधान बनाने का दृढ़ निश्चय करती है जिसमें –
(क) भारत के सभी निवासियों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त हो, विचार, भाषण, अभिव्यक्ति और विश्वास की स्वतन्त्रता हो, अवसर और कानून के समक्ष समानता हो और भाईचारा हो,

(ख) अल्पसंख्यक वर्गों, अनुसूचित जातियों और पिछड़ी जातियों की सुरक्षा की समुचित व्यवस्था हो।” 22 जनवरी, 1947 ई. को संविधान सभा ने यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया। पं. जवाहर लाल नेहरू के अनुसार उद्देश्य प्रस्ताव एक घोषणा है, एक दृढ़ निश्चय है, एक शपथ है, एक वचन है, और हम सबका एक आदर्श के लिए समर्पण है। उद्देश्य प्रस्ताव के इन आदर्श को कुछ संशोधित करके संविधान की प्रस्तावना में स्वीकार किया गया है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान की प्रस्तावना लिखकर इसके मुख्य उद्देश्यों का वर्णन कीजिए। अथवा, भारतीय संविधान की प्रस्तावना में प्रयुक्त निम्नलिखित शब्दों के क्या अर्थ हैं?
(क) न्याय
(ख) स्वतन्त्रता
(ग) समानता
(घ) बन्धुता
(ड.) एकता व अखण्डता।
उत्तर:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का विवेचन निम्नलिखित शब्दों में किया गया है-संविधान धर्मनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य बनाने तथा इसके सब नागरिकों को …… ।

न्याय:
सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक।

स्वतन्त्रता:
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म पूजा की।

समानता:
प्रतिष्ठा, और अवसर की और उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता, सुनिश्चित करने वाली, बन्धुत्व की भावना बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवम्बर, 1949 को इसे अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के उद्देश्य –

1. न्याय-सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक:
प्रस्तावना में भारत के सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय प्रदान करने की बात कही गयी है। सामाजिक न्याय से अर्थ लिया गया है, कि भारतीय समाज में ऐसी स्थिति पैदा की जाए जिसके अनुसार व्यक्ति-व्यक्ति में भेदभाव न हो, ऊँच-नीच की भावना न हो तथा समाज के सभी वर्गों के लोगों को अपने व्यक्तित्व के विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त हों। आर्थिक न्याय से तात्पर्य लोगों को अपने व्यक्तित्व के विकास के पूर्ण अवसर प्राप्त हों।

आर्थिक न्याय से तात्पर्य उस स्थिति से है, जिसमें देश के धन का यथासम्भव समान बँटवारा हो, प्रत्येक व्यक्ति को अपनी योग्यतानुसार धनोपार्जन के साधन उपलब्ध हों तथा किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति का आर्थिक शोषण करने का अधिकार प्राप्त न हो। राजनैतिक न्याय के अनुसार देश के नागरिकों को अपने देश की शासन व्यवस्था में भाग लेने का अधिकार हो। बात को ध्यान में रखते हुए भारत में वयस्क मताधिकार प्रणाली की व्यवस्था की गयी है।

2. स्वतन्त्रता-विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म तथा उपासना की:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि “भारतीय जनता को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता होगी।” जिससे भारतीय नागरिकों को व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के अवसर प्राप्त होंगे। संविधान की धारा 25 से 28 तक में भारतीय नागरिकों को धार्मिक स्वतन्त्रता का मौलिक अधिकार भी प्रदान किया गया है।

3. समानता-प्रतिष्ठा व अवसर की:
संविधान की धारा 14 के अनुसार नागरिकों को कानूनी समानता प्रदान की गयी तथा धारा 15 के अनुसार सामाजिक समानता की व्यवस्था की गयी है। धारा 16 के अनुसार सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है। धारा 18 के आनुसार शिक्षा तथा सैनिक उपाधियों के अतिरिक्त सब प्रकार की उपाधियाँ समाप्त कर दी गयी हैं। प्रस्तावना में इन सबका उल्लेख किया गया है।

4. बन्धुता:
बन्धुत का अर्थ भाईचारे और नागरिकों की समानता से है। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग फ्रांसीसी क्रांति के घोषण पत्र में और फिर संयुक्त राष्ट्र संघ के मानव अधिकारों की घोषणा में किया गया था। भारत के इतिहास में बन्धुता की भावना के विकास का विशेष महत्त्व है। संविधान की प्रस्तावना में जिस बन्धुत्व की कल्पना की गयी है, उसे अनुछेद 17 व 18 में छुआछूत को समाप्त करके, उपाधियाँ प्राप्त करने पर प्रतिबन्ध लगाकर और अनेक सामाजिक बुराईयों को दूर करके भारतीय समाज में स्थापित किया गया है।

5. राष्ट्र की एकता व अखण्डता:
भारतीय संविधान की प्रस्तावना के 42 वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के अनुसार अखण्डता शब्द को जोड़कर भारत में विघटनकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने की कोशिश की गयी है। इसके द्वारा इस भावना का विकास किया गया है, कि भारत के सभी लोग पूरे देश को अपनी मातृभूमि समझें और इसके विघटन की भावना को मन में न लाएँ।

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प्रश्न 2.
उद्देश्य प्रस्ताव से आप क्या समझते हैं? उद्देश्य प्रस्ताव के मुख्य बिन्दुओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उद्देश्य प्रस्ताव भारतीय संविधान की प्रस्तावना का आधार है। इसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने 13 दिसम्बर, 1946 ई. को संविधान सभा में प्रस्तुत किया था। इस उद्देश्य प्रस्ताव को रखकर पं. जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा का मार्ग प्रशस्त किया। इसके द्वारा भावी संविधान की मौलिक रूपरेखा व सिद्धान्तों की दार्शनिक व्याख्या प्रस्तुत की।

वास्तव में उद्देश्य प्रस्ताव भारतीय स्वाधीनता का घोषण पत्र था। पं. नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव को रखते हुए कहा कि, इस प्रस्ताव के माध्यम से हम देशों की करोड़ों जनता को जो हमारी और निहार रही है, तथा समूचे विश्व को यह बताना चाहते हैं कि हम क्या करेंगे और हमारा लक्ष्य क्या है, और हमें किधर जाना है। प्रस्ताव होते हुए भी यह प्रस्ताव से कहीं अधिक है। यह एक घोषणा है, दृढ़ निश्चय है, प्रतिज्ञा है, और हमारे ऊपर दायित्व है। 22 जनवरी, 1947 ई. को संविधान सभा ने इसे स्वीकार कर लिया।

उद्देश्य प्रस्ताव के प्रमुख बिन्दु –

  1. भारत एक स्वतन्त्र, संप्रभु गणराज्य है।
  2. भारत पूर्व ब्रिटिश भारतीय क्षेत्रों, देशी रियासतों और ब्रिटिश क्षेत्रों तथा देशी रियासतों के बाहर के ऐसे क्षेत्रों जो हमारे संघ का अंग बनना चाहते हैं, का एक संघ होगा।
  3. संघ की इकाइयाँ स्वायत्त होंगी और उन सभी शक्तियों का प्रयोग और कार्यों का सम्पादन करेंगी जो संघीय सरकार को नहीं दी गयी।
  4. सम्प्रभु और स्वतन्त्र भारत तथा इसके संविधान की समस्त शक्तियाँ और सत्ता का स्रोत जनता है।
  5. भारत के सभा लोगों को समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, कानून के समक्ष प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा कानून और नैतिकता की सीमाओं के रहते हुए, भाषण, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना, व्यवसाय, संगठन और कार्य करने की मौलिक स्वतन्त्रता की गारण्टी और सुरक्षा दी जाएगी।
  6. अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातियों, दलित व अन्य पिछड़े वर्गों को समुचित सुरक्षा दी जाएगी।
  7. गणराज्य की क्षेत्रीय अखण्डता तथा जल, थल और आकाश में इसके संप्रभु अधिकारों की रक्षा सभ्य राष्ट्रों के कानून और न्याय के अनुसार की जाएगी।
  8. विश्व शन्ति और मानव कल्याण के विकास के लिए देश स्वेच्छापूर्वक और पूर्ण योगदान करेगा।

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प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के प्रमुख स्रोत बताइए। इनमें से किन्हीं दो स्रोतों की पहचान कीजिए और संक्षेप में बताइए कि इन स्रोतों से कौन-कौन से प्रावधान लिए गए हैं?
उत्तर:
भारतीय संविधान के मुख्य स्त्रोत-भारतीय संविधान निर्माताओं ने विश्व के अनेक देशों के संविधनों का गहन अध्ययन कर उनसे भारत के लिए उपयोगी तत्वों को बिना हिचक अपनाया। इस कारण कुछ लोगों ने भारतीय संविधान को उधार ली गयी वस्तुओं का संकलन मात्र भी कहा है। भारतीय संविधान के मुख्य स्रोत इस प्रकार हैं –

  1. 1935 का भारत सरकार अधिनियम
  2. ब्रिटिश संविधान
  3. संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान
  4. आयरलैण्ड का संविधान
  5. कनाडा का संविधान
  6. आस्ट्रेलिया का संविधान
  7. वीमर संविधान
  8. जापान का संविधान
  9. नेहरू रिपोर्ट का प्रभाव

प्रमुख स्त्रोत और उनसे लिए गए प्रावधान –

1. ब्रिटेन का संविधान:
संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश संविधान से निम्नलिखित प्रावधान लिए है –

  • सम्पूर्ण संसदीय व्यवस्था। संवैधानिक अध्यक्ष की धारणा एवं प्रधानमंत्री का पद
  • द्विसदनात्मक संसद
  • संसदीय सम्प्रभुता की धारणा
  • संसद के प्रथम सदन की प्रमुखता
  • विधि का शासन, अभिसमय, विशेषाधिकारों की धारणा
  • लोकसभा के स्पीकर का पद
  • विधि निर्माण प्रक्रिया

2. संयुक्त राज्य अमेरिका का संविधान:
भारतीय संविधान पर अमेरिका के संविधान की व्याख्या की शक्ति, उपराष्ट्रपति का पद तथा कार्य एवं संविधान संशोधन विधि, संविधान का लिखितं स्वरूप, संघीय, धारणा, सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना तथा निर्वाचन राष्ट्रपति के पद का विचार अमेरिका के संविधान से लिया गया है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
भारतीय संविधान –
(क) संसदीय सर्वोच्चता पर जोर देता है।
(ख) न्यायिक सर्वोच्चता पर जोर देता है।
(ग) संसदीय सर्वोच्चता और न्यायिक सर्वोच्चता के मध्यम मार्ग का अनुसरण करता है।
(घ) इनमें से किसी पर जोर नहीं देता है।
उत्तर:
(ग) संसदीय सर्वोच्चता और न्यायिक सर्वोच्चता के मध्यम मार्ग का अनुसरण करता है।

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प्रश्न 2.
विकसित संविधान का श्रेष्ठ उदाहरण है –
(क) भारत
(ख) अमेरिका
(ग) इंग्लैंड
(घ) रूस
उत्तर:
(ख) अमेरिका

प्रश्न 3.
“भारतीय संविधान वकीलों का स्वर्ग है।” किसने कहा था –
(क) मौरिस जोंस
(ख) ऑस्टिन
(ग) जेनिंग्स
(घ) वीनर
उत्तर:
(ग) जेनिंग्स

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प्रश्न 4.
संविधान की अवधारणा सर्वप्रथम कहाँ उत्पन्न हुई?
(क) ब्रिटेन
(ख) भारत
(ग) चीन
(घ) अमेरिका
उत्तर:
(क) ब्रिटेन

प्रश्न 5.
भारतीय संविधान स्वीकृत हुआ था –
(क) 30 जनवरी, 1948
(ख) 26 जनवरी, 1949
(ग) 15 अगस्त, 1947
(घ) 26 जनवरी, 1950
उत्तर:
(घ) 26 जनवरी, 1950

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प्रश्न 6.
‘संविधान की आत्मा’ की संज्ञा दी गई है?
(क) अनुच्छेद 14 को
(ख) अनुच्छेद 19 को
(ग) अनुच्छेद 21 को
(घ) अनुच्छेद 32 को
उत्तर:
(घ) अनुच्छेद 32 को

प्रश्न 7.
भारत के मूल संविधान में कितने अनुच्छेद हैं?
(क) 400
(ख) 395
(ग) 390
(घ) 385
उत्तर:
(ख) 395

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प्रश्न 8.
संविधान का संरक्षक किसे बनाया गया है?
(क) सर्वोच्च न्यायालय को
(ख) लोकसभा को
(ग) राज्य सभा को
(घ) उपराष्ट्रपति को
उत्तर:
(क) सर्वोच्च न्यायालय को

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 विकास

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 10 विकास Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

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Bihar Board Class 11 Political Science विकास Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
आप ‘विकास’ से क्या समझते हैं? क्या ‘विकास’ की प्रचलित परिभाषा से समाज के सभी वर्गों को लाभ होता है?
उत्तर:
विकास की संकल्पना का एक विस्तृत अर्थ है परन्तु इसका प्रयोग सीमित दृष्टि से किया जाता है। यह समाज के परिवर्तन, उन्नति, वृद्धि और पर्याप्त अग्रसर होने से है। विस्तृत दृष्टिकोण में इस शब्द का अर्थ (विकास की संकल्पना) सुधार, उन्नति, सुखी और अच्छे जीवन के लिए आकांक्षा के विचार से है। विकास का उद्देश्य समाज के उन सपनों पर आधारित है, जो इच्छित और सुनियोजित जीवन के लिए जरूरी है। इसलिए विकास विभिन्न उपायों की प्रक्रिया है, जो समाज के सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सम्प्रेषण से लिया जाता है। यह इस प्रकार ग्रहण किया जाता है कि विकास का लाभ और उन्नति प्रत्येक को प्राप्त हो सके।

लुसियन पाये ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द आस्पेकट्स आफ डेवेलपमेन्ट’ (The Aspects of Development) में विकास को एक आधुनिक समाज के निर्माण में उपलब्ध साधनों के न्यायपूर्ण सदुपयोग के रूप में परिभाषित किया है। उसने विकास को अनेक पहलुओं जैसे पर्यावरणीय परिवर्तन राज्य के निर्माण के रूप में विकास, राष्ट्र के निर्माण के रूप में विकास, आधुनिकीकरण के रूप में विकास, गतिशीलता के रूप में विकास, सांस्कृतिक प्रसाद के रूप में विकास और समाज के आधुनिकीकरण के मशीनीकरण के विकास की व्याख्या की। इसका अन्तिम उद्देश्य सभी समान्य व्यक्तियों के अन्दर वृद्धि और उन्नति को लाना है। इसका लक्ष्य समाज के सभी वर्गों के सभी व्यक्तियों का सुनिश्चित रूप से जीवन बदलना है।

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प्रश्न 2.
जिस तरह का विकास अधिकतर देशों में अपनाया जा रहा है उससे पड़ने वाले सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
वस्तुतः विश्व के विभिन्न भागों में विकास की अवधारणा को विभिन्न प्रकार से समझा गया है, इसलिए इसे उसी ढंग से लागू किया जाता है। परन्तु इससे इच्छित परिणाम पर्याप्त वित्तीय लागत के बावजूद नहीं प्राप्त हुए हैं और उन देशों पर पर्याप्त ऋण हो गया है। विकास के सामाजिक लागत और पर्यायवरणीय लागत दो प्रकारों का विवरण निम्नलिखित है –

(क) विकास की सामाजिक लागतें (Social Costs of Development):
विकास की सामाजिक लागत निम्नलिखित कारणों से है –

  • अनेक लोग अपने घर और स्थानीय आवास से विकास के कार्यों जैसे बाँध के निर्माण और औद्योगिक इकाई की स्थापना के कारण स्थानान्तरित हो जाते हैं।
  • जीविका की हानि।
  • परम्परागत व्यवसाय का स्थानान्तरण होना।
  • शहरी और ग्रामीण गरीबी में वृद्धि।
  • जीवन के नये ढंग और नई संस्कृति की ग्राह्यता।
  • परम्परागत कौशल की हानि।
  • विषमताओं और असमानताओं में वृद्धि। इसका विशिष्ट उदाहरण ‘नर्मदा बचाओं आन्दोलन’ है, जो सरदार सरोबर बाँध के विरुद्ध नर्मदा नदी पर चलाया जा रहा है।

(ख) विकास का पर्यावरणीय लागत (Environmental costs of Development):
विकास की आज की विधि पर्यावरणीय लागत की है। इसको निम्नलिखित क्षेत्रों में समझा जा सकता है –

  • यह एक बड़ी जनसंख्या को प्रभावित कर रहा है। इसने बड़े पैमाने पर प्रदूषण पैदा किया है।
  • इससे पारिस्थितिक सन्तुलन में गड़बड़ी आई है।
  • इससे वैश्विक चेतावनी मिली है।
  • हरे भरे क्षेत्र कम होते जा रहे हैं।
  • इसके कारण ऊर्जा संकट उत्पन्न हो गया है।
  • प्राकृतिक संकट यथा-बाढ़ और सुनामी का जन्म।

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प्रश्न 3.
विकास की प्रक्रिया ने किन नए अधिकारों के दावों का जन्म दिया है?
उत्तर:
लोकतान्त्रिक सहभागिता के रूप में नई माँगें-समाज और राजनीति के लोकतान्त्रिक ढाँचे में और आधुनिक युग में प्रत्येक व्यक्ति अपना अच्छा जीवन व्यतीत करना चाहता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति निर्णय, निर्माण प्रक्रिया, किास के लक्ष्यों के निर्धारण और इसके कार्यान्वयन की प्रणाली में शामिल होना पसन्द करता है। ऐसा सहभागिता के उद्देश्य और शक्तिशाली होने के लिए किया जाता है। विकास और लोकतन्त्र सामान्य हित को अनुभव करने से सम्बन्धित है।

लोकतान्त्रिक राजनीतिक उद्देश्य सामान्य हित के लोगों के अधिकार को प्राप्त करने से है। यह संसाधनों के अधिकतम सदुपयोग द्वारा विकास की प्रक्रिया और सामान्य लोगों को विकास का लाभ लेने से सम्भव है। लोकतान्त्रिक समाजों में लोगों की सहभागिता के अधिकार की प्रशंसा की गई है और इस पर जोर दिया गया है। इस प्रकार की सहभागिता की एक विधि यह बताई जाती है कि स्थानीय क्षेत्रों में विकास की परियोजनाओं के विषय में निर्णय निर्माण संस्था को लेना चाहिए।

इसीलिए अधिकतर संसाधन जो स्थानीय निकायों के हैं, बढ़ाये जा रहे हैं। भारतीय संविधान का 73 वाँ और 74 वाँ संशोधन इस दिशा में किए गए प्रयास हैं। इन संशोधनों के द्वारा सभी वर्ग के लोगों की सहभागिता को सुनिश्चित करने के लिए प्रयास हो रहे हैं। इसके साथ यह कार्य कमजोर वर्ग जैसे महिलाओं, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के लिए भी किया जा रहा है, जिससे वे विकासगत परियोजनाओं को प्रेरित कर सकें। नीतियों का नियोजन और सूत्रीकरण लोगों को अपनी आवश्यकताओं के लिए संसाधनों के निर्धारण का आदेश देता है। इसलिए विकास के मॉडल को शामिल करने की आवश्यकता है, जो कल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लोकतान्त्रिक आधुनिक समाज के उद्देश्यों की सेवा कर सकता है।

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प्रश्न 4.
विकास के बारे में निर्णय सामान्य हित को बढ़ावा देने के लिए किए जाएँ, यह सुनिश्चित करने में अन्य प्रकार की सरकार की अपेक्षा लोकतान्त्रिक व्यवस्था के क्या लाभ हैं?
उत्तर:
लोकतन्त्र ऐसी सरकार है, जो लोगों की है, लोगों के लिए है और लोगों द्वारा निर्मित होती है। इसका तात्पर्य यह है कि लोकतान्त्रिक सरकार केवल लोगों से सम्बन्धित है और सभी अधिकार लोगों के साथ है। यह तानाशाही के विपरीत है, जिसमें सम्पूर्ण शक्ति एक व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह के हाथ में होती है और जहाँ लोगों को निर्णय लेने का कोई अधिकार नहीं होता। इसलिए लोकतान्त्रिक सरकार अन्य सरकारों की अपेक्षा अधिक लाभदायक होती है। विशेष रूप से जनता के हित के मामले में लोकतान्त्रिक सरकार मुख्य रूप से लोगों की रुचियों, अधिकारों और कल्याण से अधिक सम्बन्धित होती हैं।
प्रजातन्त्र निम्नलिखित तथ्यों पर आधारित होता है –

  1. यह समानता पर आधारित होता है।
  2. यह न्याय पर आधारित होता है।
  3. यह जनता के अधिकारों को प्रेरित करता है।
  4. यह लोगों की स्वतन्त्रता को बढ़ावा देता है।
  5. यह भाई-चारे का बढ़ाता है।
  6. यह एक विस्तृत संविधान उपलब्ध कराता है।
  7. यह वाद-विवाद, बातचीत पर आधारित होता है।
  8. यह अधिकारों के विकेन्द्रीकरण पर आधारित है।
  9. सर्वाधिक अधिकार लोगों के पास होते हैं।
  10. प्रजातन्त्र में लोगों को अभिव्यक्ति का अधिकार होता है।

उपरोक्त सभी विशिष्ट लक्षण किसी अन्य राजनीतिक व्यवस्था में नहीं मिलते। यही कारण है कि लोगों के हित के लिए लोकतन्त्र को अन्य व्यवस्थाओं की अपेक्षा सबसे अच्छी व्यवस्था माना जाता है। प्रजातान्त्रिक संस्कृति विकासगत प्रक्रिया के प्रसार को बढ़ावा देता है। इसमें व्यक्ति और राष्ट्र के सभी पहलुओं का समावेश होता है।

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प्रश्न 5.
विकास से होने वाली सामाजिक और पर्यावरणीय क्षति के प्रति सरकार को जवाबदेह बनवाने में लोकप्रिय संघर्ष और आन्दोलन कितने सफल रहे हैं?
उत्तर:
अनेक राज्यों की सरकारों और यहाँ तक कि केन्द्रीय सरकार ने विकास के नाम पर विभिन्न क्षेत्रों में अनेक महत्त्वकांक्षी परियोजनाएं शुरू की हैं। परन्तु इन परियोजनाओं का अपना ही सामाजिक और पर्यावरणीय मूल्य है। स्थानीय लोगों ने सामाजिक कार्यकर्ताओं और पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं के नेतृत्व में इन परियोजनाओं के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया है। उदाहरण के लिए मेधापाटेकर और सुन्दरलाल बहुगुणा के आन्दोलन इन परियोजनाओं के खिलाफ चल रहे हैं, फलस्वरूप वे मुद्दे राजनीतिक बन गए हैं। हाल के वर्षों में सरकार की कुछ नई विवासस्पद परियोजनाएँ शुरू हुई हैं। इनमें से एक परियोजना एस.ई.जेड. (Creation of Special Economic Jone) है, जो किसानों के आक्रोश का शिकार है। इसका विभिन्न राजनैतिक दलों द्वारा राजनीतिकरण किया गया है।

स्थानीय लोगों ने इन्हें विकासगत क्रियाओं के रूप में नये भविष्य को स्वीकार नहीं किया है। उनके प्रभाव को सामाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनाया है। इस प्रकार के आन्दोलनों में ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ सरदार सरोवर बाँध के विरुद्ध एक महत्त्वपूर्ण आन्दोलन रहा है। इस बाँध का निर्माण नर्मदा नदी पर विद्युत्त उत्पादन के लिये किया गया है। इसके अलावा एक बड़े क्षेत्र की सिंचाई करने में सहायता मिलेगी और सौराष्ट्र तथा कच्छ क्षेत्र के लोगों को पेय जल मिल सकेगा। परन्तु इसके विरोधी इस योजना से सहमत नहीं हैं और मेघा पाटेकर के नेतृत्व में अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आन्दोलन शुरू कर दिया है। इस प्रकार के आन्दोलनों ने निश्चित रूप से सरकार को सभी मुद्दों पर विचार करने के लिए विवश कर दिया है।

Bihar Board Class 11 Political Science विकास Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
‘समतावादी समाज’ पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए। Write short note on ‘Equalized Society’
उत्तर:
समतावादी समाज (Equalized Society):
जी.डी.एच. कोल के अनुसार समाजवाद भाईचारे की व्यवस्था पर बल देता है, जो वर्ग, जाति व वर्ग-विषयक भेदों को नकारती है, उनका खण्डन करती है। समाजवादी समाज में राजनीतिक शक्ति का उद्देश्य समाज का कल्याण होता है। समानता और स्वतन्त्रता पर बल दिया जाता है। सबको आजीविका कमाने के समान अवसर दिए जाते हैं तथा प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम जीवन-स्तर की गारन्टी दी जाती है। इसमें यह मान्यता है कि समानता के बिना वास्तविक स्वतन्त्रता सम्भव नहीं हो सकती। बिना स्वतन्त्रता के सुरक्षा सम्भव नहीं है।

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प्रश्न 2.
समाजवादी समाज का क्या अर्थ है? (What is meant by Socialist Society?)
उत्तर:
श्री जयप्रकाश नारायण के अनुसार समाजवादी समाज एक ऐसा वर्गहीन समाज होता है, जिसमें व्यक्तिगत सम्पत्ति के लिए मजदूरों का शोषण नहीं होता, जिसमें समस्त सम्पत्ति राष्ट्र की होती है, जिसमें किसी को बिना किए कुछ नहीं मिलता, जहाँ आय की अधिक असमानताएँ नहीं होती, जिसमें मनुष्य जीवन की उन्नति योजनानुसार की जाती है और जिसमें सब सबके लिए जीवित रहते हैं। इस प्रकार के समाज में आर्थिक शक्ति कुछ लोगों के हाथों में केन्द्रित नहीं होने दी जाती।

प्रश्न 3.
लोकतान्त्रिक समाजवाद से क्या अभिप्राय है? (What is meant by Democratic Socialism?) अथवा, लोकतान्त्रिक समाजवाद पर टिप्पणी लिखो। (Write a short note on Democratic Socialism)
उत्तर:
लोकतन्त्रीय समाजवाद उसे कहते हैं, जहाँ समाजवाद के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए हिंसा और क्रान्ति को छोड़कर लोकतान्त्रिक साधनों का प्रयोग किया जाता है। इसमें राज्य को व्यक्तिवादी तथा उदारवादियों की भाँति आवश्यक बुराई नहीं माना जाता और न ही अराजकतावादियों की भाँति अनावश्यक बुराई माना जाता है। वे तो राज्य को शुभ मानते हैं और इसका उपयोग जन-कल्याण में करना चाहते हैं। उनका लोकतन्त्र में पूर्ण विश्वास होता है।

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प्रश्न 4.
विकासवादी समाजवाद किसे कहते हैं? (What is Evolutionary Socialism?)
उत्तर:
लोकतन्त्रीय समाजवाद को ही विकासवादी समाजवाद कहते हैं। लोकतन्त्रीय देश कार्ल मार्क्स के विचारों से तो प्रभावित थे किन्तु ये देश अपना लोकतन्त्रीय स्वरूप समाप्त नहीं करना चाहते थे। इनके विचार में पूँजीवादी व्यवस्था में भी समानता की अधिक क्षमता विद्यमान है। वे सर्वहारा की तानाशाही में विश्वास नहीं करते थे। विकासवादी समाजवाद सभी नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक अधिकारों और न्याय की उपलब्धि कराता है। इनके विचार में राज्य एक कल्याणकारी संस्था है। लोकतान्त्रिक समाज का मूलमंत्र क्रमिक विकास है।

प्रश्न 5.
समाजवाद के पक्ष में कोई चार तर्क दीजिए। (Give any four arguments in favour of Socialism)
उत्तर:
समाजवाद के पक्ष में तर्क (Arguments in favour of Socialism):

  1. समाजवाद न्याय का समर्थक है। व्यापार व उद्योग-धंधों का राष्ट्रीयकरण करके यह सभी व्यक्तियों को समान उन्नति का अवसर उपलब्ध कराता है।
  2. बिना समाजवाद के प्रजातन्त्र अर्थहीन है। जब तक आर्थिक प्रजातन्त्र की स्थापना नहीं होती, राजनैतिक प्रजातन्त्र सम्भव नहीं हो सकती।
  3. समाजवादी व्यवस्था अधिक वैज्ञानिक है।
  4. समाजवादी आर्थिक अपव्यय को रोकता है, क्योंकि इसमें उत्पादन के लिए प्रतियोगिता का नहीं, सहयोग का सिद्धान्त अपनाया जाता है।

प्रश्न 6.
‘समाजवाद का उदय पूँजीवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में हुआ।’ इस कथन पर टिप्पणी लिखो। (“’Socialism emerged as a reaction of Capitalism.” Comment)
उत्तर:
समाजवाद वास्तव में “पूँजीवाद व आर्थिक असमानता” के विरोध में विकसित हुआ। यूरोप में आद्योगिक विकास ने श्रमिकों के जीवन को नरक बना दिया था। पूँजीवादी उनका शोषण कर रहे थे। अहस्तक्षेप की नीति के कारण श्रमिकों की दशा बिगड़ने लगी। कुछ विचारशील लोगों का ध्यान उनकी दुर्दशा की ओर गया और पूँजीवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया हुई। व्यक्ति के स्थान पर समाज को महत्त्व दिया जाने लगा।

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प्रश्न 7.
मुक्त उद्यम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
मुक्त उद्यम (Free enterprise):
बाजार अर्थव्यवस्था मुक्त उद्यम पर आधारित है। इसमें उद्योगपति को उद्योग प्रारम्भ करने, उनकी वृद्धि करने, उनमें पूँजी निवेश करने आदि की पूरी छूट होगी। इस कार्य के लिए उन्हें सरकार से किसी प्रकार के लाइसेंस लेने की आवश्यकता नहीं होगी। सरकार केवल कुछ उद्योगों को अपने पास रखती है। इनमें भी वह निजी उद्यमियों से सहयोग प्राप्त कर सकती है।

प्रश्न 8.
मुक्त व्यापार से क्या आशय है? (What did you mean by free trade?)
उत्तर:
मुक्त व्यापार (Free Trade):
बाजार अर्थव्यवस्था मुक्त व्यापार पर आधारित होती है। इसकी मान्यता है कि विश्व को एक बाजार समझा जाए और उसमें सभी देशों को मुक्त रूप से व्यापार करने की सुविधा हो अर्थात् विभिन्न देशों की सरकारों द्वारा लगाए जाने वाले आयात व निर्यात करों से व्यापार प्रतिबन्धित न हो। सामान्यतः सभी देशों में सरकारें अपने उद्योगों को संरक्षण देने के लिए तथा अपने आय के स्रोत के रूप में करों का प्रावधान करती है। बाजार अर्थव्यवस्था ऐसे करों को उदारीकरण के विरुद्ध मानती है, क्योंकि इनसे कीमतों में माँग व पूर्ति द्वारा अवरोध उत्पन्न होता है।

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प्रश्न 9.
विकास क्या है? (What is development?)
उत्तर:
वर्तमान के भौतिकवादी युग में विकास का अर्थ केवल भौतिक विकास से ही लगाया जाता है, जबकि भारत के सन्दर्भ में यह भौतिक व आध्यात्मिक दोनों ही रहा है।

प्रश्न 10.
तृतीय विश्व क्या है। (What is third world?)
उत्तर:
भौतिक विकास की दिशा में प्रयत्नशील देशों को अनेक नामों से पुकारा जाता है, जैसे-विकासशील देश, उभरते हुए राष्ट्र, तृतीय विश्व के देश आदि।

प्रश्न 11.
विकास के तीन उद्देश्य लिखिए। (Write three objectives of development)
उत्तर:

  1. दरिद्रों के न्यूनतम जीवन को जीवन स्तर तक (Minimum Living Standard) लाना।
  2. बेरोजगारी की समस्या को दूर करना।
  3. विकास प्रक्रिया को लोकतान्त्रिक पद्धति से चलाना।

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प्रश्न 12.
समाजवाद की परिभाषा दीजिए और इसका अर्थ समझाइए। (Define Socialism and discuss meaning)
उत्तर:
समाजवाद की परिभाषा-समाजवाद की कोई निश्चित परिभाषा नहीं दी जा सकती। विभिन्न विचारकों ने इसकी परिभाषा भिन्न-भिन्न प्रकार से दी है –
1. हमफ्री के शब्दों में, “समाजवाद एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसके अन्तर्गत जीवन के साधनों पर सम्पूर्ण समाज का स्वामित्व होता है और पूरा समाज सामान्य जन-कल्याण के उद्देश्य से विकास और प्रयोग करता है।”

2. राबर्ट के अनुसार, “समाजवाद के कार्यक्रम की माँग है कि सम्पत्ति तथा उत्पादन के अन्य साधन जनता की सामूहिक सम्पत्ति हो और उसका प्रयोग भी जनता के द्वारा जनता के लिए ही किया जाए।” इस प्रकार समाजवाद एक ऐसी विचारधारा है, जो समानता पर आधारित है और जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण समाज का हित है। यह विचारधारा देश की सम्पत्ति तथा उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व को समाप्त करके उस पर सम्पूर्ण समाज का नियन्त्रण चाहती है।

प्रश्न 13.
समाजवाद के दो मूल सिद्धान्त बताइए। (Mention two basic principles of Socialism)
उत्तर:
समाजवाद के दो मूल सिद्धान्त निम्नलिखित हैं –

1. पूँजीवाद का विरोध (Opposition of Capitalism):
समाजवाद पूँजीवाद का विरोध करता है। समाज के हित को अधिक महत्त्व देता है। उत्पादन तथा वितरण के सभी साधनों पर समाज का नियन्त्रण होता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
समाजवाद के किन्हीं दो गुणों का उल्लेख कीजिए। (Mention any two merits of Socialism)
उत्तर:
समाजवाद के गुण (Merits of Socialism):

1. समाजवाद आर्थिक समानता पर बल देता है (Socialism consists of Economic Equality):
समाजवादी चाहते हैं कि सभी को रोजगार के अवसर सुलभ हो, राष्ट्रीय सम्पत्ति का उचित बँटवारा हो और सभी को विकास का उचित अवसर मिले। समाजवाद में प्रत्येक व्यक्ति को श्रम करना आवश्यक है। उत्पादन के साधनों पर राज्य का स्वामित्व रहता है और इन साधनों का सार्वजनिक हित के लिए उपयोग किया जाता है।

2. समाजवाद अधिक प्रजातन्त्रीय है (Socialism is more democratic):
विद्वानों का कहना है कि बिना समाजवाद के प्रजातन्त्र अस्वाभाविक और अर्थहीन है। वास्तव में समाजवाद प्रजातन्त्र का पूरक हैं। यह राज्य के लोकतांत्रिक स्वरूप में विश्वास रखता है। यह मताधिकार का विस्तार करके संसद में बहुमत प्राप्त दल को सरकार बनाने का अधिकार देने के पक्ष में है। अतः जनता का हित साधन होता रहता है।

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प्रश्न 2.
समाजवाद के दो प्रमुख दोष बताइए। (What are the two main shortcomings of Socialism?)
उत्तर:
समाजवाद के दोष (Short comings of Socialism)

1. कार्य करने की प्रेरणा का अन्त हो जाता है (No incentives to work):
समाजवाद में क्योंकि सभी कार्य सरकार की इच्छा पर निर्भर होते हैं। अत: व्यक्ति को उनके बारे में सोचने, उनकी योजना बनाने, उनमें पहल करने आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। व्यक्ति एक मशीन बनकर रह जाता है और उसकी कार्य करने की प्रेरणा का अन्त हो जाता है।

2. सरकार सभी उद्योग-धंधों का भली प्रकार प्रबन्ध नहीं कर सकती है (All that is managed by the State is not well managed):
समाजवादी व्यवस्था में राज्य का कार्यक्षेत्र बहुत बढ़ जाता है। बहुत अधिक कार्यों के भार से कई बुराईयाँ पैदा हो जाती हैं। सरकार के लिए सभी उद्योग-धंधों का संचालन करना आसान नहीं है। प्रबन्धन में व्याप्त भ्रष्टाचार और अक्षमता के कारण भारत में सार्वजनिक क्षेत्र में उपक्रमों की हालत खराब हुई है।

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प्रश्न 3.
विकेन्द्रित अर्थव्यवस्था के क्या लाभ होते हैं? (What are the advantages of decentralised economy)
उत्तर:
जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया तथा रॉजर गॉरोड़ी ने अर्थव्यवस्था के विकेन्द्रीकरण पर अत्यधिक बल दिया है। केन्द्रीयकृत नियोजन आर्थिक विकास की एक ऐसी एकरूपी व्यवस्था निर्मित करता है, जो वैयक्तिक आकांक्षाओं की स्थानीय विविधता पर पूरा ध्यान केन्द्रित नहीं कर पाती। उत्पादन के बारे में निर्णय का अधिकार एक स्थान पर केन्द्रित न करके यह अधिक लाभदायक होगा। यदि उसे कई केन्द्रों में विभाजित् कर दिया जाए और प्रत्येक केन्द्र अपने क्षेत्र के लोगों की आवश्यकताओं तथा उपलब्ध साधनों को सामने रखकर निर्णय करें। केन्द्रीयकृत अर्थव्यवस्था में वास्तविक शक्ति नौकरशाही के हाथों में चली जाती है, जनता के हाथों में नहीं। आज लोकतन्त्र का युग है और अर्थव्यवस्था का विकेन्द्रीकरण उसका आधार है।

प्रश्न 4.
पूँजीवाद के उदय और विकास के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में समाजवाद का उदय हुआ था। इस कथन की समीक्षा कीजिए। (Socialism emerged as a reaction to the rise and development of capitalism Discuss)
उत्तर:
समाजवाद वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध एक आन्दोलन है। यह पूँजीवादी आर्थिक व्यवस्था को समाप्त करके, उत्पादन तथा विवरण के साधनों पर समाज के नियन्त्रण का समर्थक है, जिसमें आर्थिक समानता की स्थापना हो। समाजवाद का उदय पूँजीवाद के उदय और विकास के विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप प्रकट हुआ था। अहस्तक्षेप (Leissezfaire) के सिद्धान्त ने समाज में गम्भीर संकट पैदा कर दिया था। स्वतन्त्र प्रतियोगिता के कारण विसंगतियाँ प्रकट होने लगी थीं।

आर्थिक शक्ति का केन्द्र होने के कारण अमीर और गरीब का भेद बढ़ता जा रहा था। अधिकांश लोगों की जरूरी आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो रही थी। उद्योगपति पूँजी के बल पर अपने हित साधन में ही लगे हुए थे। इस कारण समाज में अव्यवस्था फैलने लगी और समाज पर जंगल का कानून लागू होने का डर लोगों को सताने लगा था। इस प्रकार स्वयं पूँजीवाद ने उद्यमियों की स्वतन्त्रता को परिसीमित किया है। धीरे-धीरे समाजवाद विकसित होने लगा। व्यक्ति के स्थान पर समाज के कल्याण की बात आई और व्यापार व उद्योग-धंधों के राष्ट्रीयकरण की आवश्यकता अनुभव की गई। इस प्रकार पूँजीवाद के उदय और विकास के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप समाजवाद का अभ्युदय हुआ।

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प्रश्न 5.
संसदीय समाजवाद से आप क्या समझते हैं? (What do you mean by Parliamentry Socialism?)
उत्तर:
समाजवाद के विभिन्न रूप हैं। इनमें से कुछ हिंसा के माध्यम से समाजवाद लाना चाहते हैं। जैसे-साम्यवाद, मार्क्सवाद तथा श्रमिक संघवाद दूसरी ओर विकासवादी समाजवादी हिंसा के माध्यम से समाजवाद स्थापित न करके धीरे-धीरे जन जागरण के माध्यम से समाजवाद स्थापित करना चाहते हैं। संसदीय समाजवाद इन्हीं में एक है।

संसदीय समाजवाद इंग्लैंड के मजदूर दल (Labour Party) की देन है। इसकी मुख्य विशेषता यह है कि समाजवाद की स्थापना के लिए संसदीय पद्धति के मार्ग को अपनाता है। इसका संविधान उपायों में अटल विश्वास रखता है। संसदीय पद्धति के माध्यम से यह न केवल मजदूरों बल्कि अन्य कमजोर वर्गों की मांगों को पूरा करने में विश्वास रखता है। यह समाजवादी पुनर्निर्माण के लिए भी आश्वस्त है। यह दृष्टिकोण मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के स्थान पर मानव बन्धुत्व में आस्था प्रकट करता है और सभी वर्गों को संतुष्ट करने की बात कहता है।

प्रश्न 6.
विकास के उदारवादी लोकतान्त्रिक मॉडल का क्या अर्थ है?
उत्तर:
विकास के उदारवादी लोकतान्त्रिक मॉडल का अर्थ-पश्चिम के विकसित राष्ट्रों में उदारवादी लोकतन्त्र एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति है उदारवादी विचारधारा व्यक्ति को समाज की तुलना में उच्च नैतिक मूल्य प्रदान करती है। उदारवादी लोकतन्त्र में श्रमिकों को पर्याप्त पारिश्रमिक सम्मानपूर्ण जीवन, निजी संपत्ति के अधिकार अर्थव्यवस्था पर बाजारवाद का प्रभाव उत्पादन एवं वितरण के साधनों निजी शक्तियों द्वारा नियन्त्रण, बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी असमानता की स्थिति में राज्य द्वारा लोकतान्त्रिक भावना के अनुरूप है।

प्रश्न 7.
मानव विकास के चार तत्त्वों का उल्लेख करें।
उत्तर:
मानव विकास का अर्थ है व्यक्ति के विकास के लिए बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करना। मानव विकास के चार तत्त्व हैं – साक्षरता, शैक्षिक स्तर, आयु-सम्भाविता और मातृ मृत्युदर। मानव विकास के इन चार तत्त्वों के अलावे भी अनेक तत्त्व हैं। जैसे-भोजन, वस्त्र एवं आवास जिसको प्राप्त करने का प्रयास प्रत्येक राज्य करता है।

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प्रश्न 8.
स्थायी या सतत् विकास किसे कहते हैं? (What is sustainable development?)
उत्तर:
स्थायी विकास के लिए पर्यावरण तन्त्र और औद्योगिक तन्त्र के मध्य सही सम्बन्ध तथा संयोजन की आवश्यकता है। विकास के नाम पर औद्योगीकरण ने पर्यावरण को दूषित किया है। विकास के लिए आर्थिक रूप और नीतियों का निर्धारण होना चाहिए। मनुष्य के लिए पर्यावरण प्रदूषण को रोकते हुए विकास के कार्यक्रम किए जाने चाहिए। अधिक प्रभावी देशों में जीवन शैली के साथ-साथ जीव-जन्तु और मानव को पर्यावरण प्रदूषण से बचाए रखने का प्रयास होना चाहिए। पर्यावरण को विकास नीतियों के साथ प्रबन्ध के स्तर पर जोड़ दिया जाना चाहिए। वास्तव में पर्यावरण और विकास नीति एक दूसरे के पूरक हैं। स्थायी विकास तभी सम्भव है।

प्रश्न 9.
“विकास का आधार प्राकृतिक दोहन होना चाहिए न कि शोषण।” (The base of development is natural utilisation not the exploitation. Explain)
उत्तर:
भौतिकवादी जगत की मान्यता है कि विश्व में जो भी कुछ है वह उसके उपयोग के लिए है और जितना अधिक उपयोग किया जा सकता है उतना ही भौतिक सुख प्राप्त किया जा सकता है। इसी कारण पश्चिम के लोग प्राकृतिक संसाधनों का भरपूर शोषण कर रहे हैं। वह भूल जाते हैं कि ईश्वर ने विश्व में मानव, पशुओं; कीट, पतंग, प्रकृति की प्रत्येक वस्तु आदि सभी का सन्तुलन स्थापित किया है। मानव जाति से प्रकृति का उतना ही उपयोग करने की आशा की जाती है जितनी उसकी आवश्यकता है।

अधिकतम उपभोग की प्रकृति देने की शक्ति को कम कर देता है। अधिकतम उपयोग से प्रकृति का विनाश होता है और उसके कारण मानव को अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ते हैं। वर्तमान में हम इसका अनुभव कर रहे हैं। एक ओर प्रकृति की सम्पदा समाप्त हो रही है और दूसरी ओर प्राकृतिक प्रकोपों से मानव भयभीत है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि प्रकृति की देन की शक्ति बनाए रखने तथा प्राकृतिक प्रकोपों से बचने के लिए प्रकृति का शोषण न करके उसका मात्र दोहन किया जाए। विकास के लक्ष्य निर्धारण का यह महत्त्वपूर्ण आधार है।

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प्रश्न 10.
कल्याणकारी राज्य की कोई विशेषताएँ बताइए। (Mention two features of a welfare state)
उत्तर:
कल्याणकारी राज्य की विशेषताएँ इस प्रकार हैं –

  1. कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य उस राज्य से है, जो जन-कल्याण को ध्यान में रखकर अपनी योजनाओं एवं कार्यक्रमों का निर्धारण करता है। यह समाज के कमजोर वर्गों की सेवाएँ तथा वस्तुएँ सुलभ कराने का सामाजिक दायित्व स्वयं वहन करता है। इसका कार्यक्रम काफी विकसित होता है।
  2. कल्याणकारी राज्य की संरचना स्वायत्तता पर आधारित होती है। यह सामाजिक न्याय तथा समानता के प्रति समर्पित होता है।
  3. कल्याणकारी राज्य सामान्य इच्छा का समर्थक है। यह जाति, वर्ण, साम्प्रदायिक विचारों तथा मान्यताओं से ऊपर उठने की क्षमता रखता है।

प्रश्न 11.
श्रेणी समाजवाद पर टिप्पणी लिखिए। (Write a short not on Guild Socialism)
उत्तर:
श्रेणी समाजवाद, समाजवाद का अंग्रेजी संस्करण है। इस विचारधारा का जन्म इंग्लैंड में हुआ। श्रेणी समाजवाद का उद्देश्य एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना है, जिसमें वेतन प्रणाली का उन्मूलन कर उद्योगों में मजदूरों की स्वायत्त सरकार की स्थापना की जाएगी, जो राष्ट्रीय श्रेणी संघों द्वारा एक प्रजातन्त्रात्मक प्रणाली पर चलती हुई समाज के अन्य व्यवहारिक संघों के साथ मिलकर कार्य करेगी। श्रेणी समाजवादी की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  1. उत्पादन के साधनों पर मजदूरों का नियन्त्रण होना चाहिए।
  2. यह एक मध्यममार्गी विचारधारा है, न तो यह पूरी सत्ता मजदूरों के हाथ में देना चाहता है और न ही सम्पूर्ण सत्ता उत्पादकों को देने के पक्ष में है।
  3. श्रेणी समाजवाद पूँजीवादी व्यवस्था का घोर विरोध करता है।
  4. श्रेणी समाजवाद प्रजातन्त्र और प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की निन्दा करता है।
  5. श्रेणी समाजवाद व्यावसायिक प्रतिनिधित्व चाहता है।
  6. श्रेणी समाजवाद सत्ता के विकेन्द्रीकरण का समर्थक है।

वास्तव में समाज में किसी कार्य विशेष को उत्तरदायित्वपूर्ण ढंग से सम्पन्न करने के लिए संगठित और परस्पर निर्भर व्यक्तियों का एक स्वायत्त समुदाय ही श्रेणी है। इन श्रेणियों का उद्देश्य समस्त राज्य की सेवा करना है। प्रत्येक स्तर पर श्रेणी के सदस्य अपनी श्रेणी के संचालन के लिए अधिकारियों और समितियों आदि का चुनाव करेंगे और ऊपर की श्रेणियों के सदस्य नीचे की श्रेणियों द्वारा निर्वाचित और उनके प्रति उत्तरदायी होंगे।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
बाजार अर्थव्यवस्था के गुण-दोष संक्षेप में लिखें। (Write merits and demerits of market economy)
उत्तर:
I. गुण (Merits):
बाजार अर्थव्यवस्था के गुणों को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है –

  • तकनीक का सुदृढ़ विकास-वस्तु की गुणवत्ता बढ़ाने तथा बड़े पैमाने पर उत्पादन के दृष्टिकोण के कारण उद्योगों में नई-नई तकनीकी के अनुसन्धानों की व्यवस्था की जाती है, जिससे देश में तकनीकी का विकास होता है।
  • उपभोक्ता की पसन्द-यह अर्थव्यवस्था ग्राहक या उपभोक्ता की पसन्द पर अधिक ध्यान देती है। अतः बाजार में ग्राहक को मनपसन्द सन्तुलित कीमत पर वस्तुएँ उपलब्ध हो जाती हैं।
  • उत्तम वस्तु का उत्पादन-इस अर्थव्यवस्था में प्रत्येक उत्पादक दूसरे उत्पादकों की तुलना में अधिक उत्तम वस्तु का उत्पादन करना चाहता है, जिससे बाजार में उसकी माल की माँग बढ़े।
  • लोकतान्त्रिक पद्धति पर आधारित-बाजार अर्थव्यवस्था पूरी तरह लोकतान्त्रिक है। प्रत्येक व्यापारी व उद्योगपति को बिना बन्धनों के विकास करने के अवसर प्राप्त होते हैं।
  • कीमतों में सन्तुलन-कीमतों में सन्तुलन इस व्यवस्था का सर्वोत्तम गुण है। कोई भी उत्पादक मनचाही कीमत नहीं रख सकता। अन्य उत्पादों की कीमतों में सन्तुलन बनाए रखने योग्य कीमतें निर्धारित की जाती है।
  • आय में वृद्धि-बाजार की अर्थव्यवस्था में भाग लेने के कारण व्यापार व उद्योग की वृद्धि से सरकार को करों के रूप में धन प्राप्त होता है। सरकार यह धन समाज सेवा व समाज सुरक्षा के कार्यों पर व्यय कर सकती है।
  • निजी क्षेत्र का उपयोग-यह व्यवस्था निजी क्षेत्र में विद्यमान प्रतिभा व साधनों को देश के लिए उपयोग को सम्भव बनाती है। स्वार्थ के जुड़ जाने से समाज का उद्यमी वर्ग देश की समृद्धि में हाथ बँटाता है।

II. हानियाँ (Demerits):
बाजार अर्थव्यवस्था का एक रूप यह भी है, जो अधिक भयावह है। इस व्यवस्था की हानियों को निम्नलिखित प्रकार से व्यक्त किया जा सकता है –

  • उदारीकरण का दुष्परिणाम-बाजार अर्थव्यवस्था उदारीकरण की नीति पर आधारित होती है। इसमें विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने विशाल स्रोतों के माध्यम से नवोदित राष्ट्रों से अधिक लाभ कमाने के लिए आती है। उदारीकरण विकसित देशों के हितों का सन्वर्धन करता है, क्योंकि इन देशों के भारी मात्रा में उत्पाद को नवोदित राष्ट्रों की विशाल जनसंख्या का बाजार प्राप्त हो जाता है।
  • विदेशी मुद्रा भी प्राप्त नहीं होती-नवोदित राष्ट्र विदेशी मुद्रा के लालच में जिन कम्पनियों को आमन्त्रित करते हैं, वे कम्पनियाँ कम से कम मुद्रा का नवोदित राष्ट्रों को लाभ होने देती हैं। वे अधिकांश अपने उन्हीं देशों में जाकर आकर्षक भाव पर जनता से प्राप्त करके अपना कारोबार करती है।
  • निजी लाभ की प्राप्ति-बाजार अर्थव्यवस्था के मूल में निजी लाभ की प्राप्ति करना पाया जाता है। उद्योगपति ऐसे उद्योगों में रुचि लेते हैं, जिनमें लाभ की सम्भावनाएँ अधिक हों। वे ऐसी वस्तुओं का उत्पादन कभी नहीं करना चाहेंगे, जो कम लाभ दे और समाज के दुर्बल वर्ग की आवश्यकताओं की पूर्ति करें।
  • तकनीक का आयात नहीं हो सकता-नवोदित राष्ट्र विदेशी आधुनिक तकनीक के आयात के लिए तत्पर रहते हैं। इसी कारण वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को आमन्त्रित भी करते हैं, किन्तु ये कम्पनियाँ पाश्चात्य देशों में पुरानी पड़ गई तकनीक को हस्तान्तरित करती हैं और उसी पर आधारित मशीनरी का निर्यात करती हैं।

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प्रश्न 2.
विकास के प्रमुख उद्देश्यों पर संक्षेप में प्रकाश डालिए। (Explain in brief the main objectives of development)
उत्तर:
विकास के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते समय सामान्यतः विकासशील देशों का गरीब वर्ग ही दृष्टि में आता है, किन्तु वास्तव में पश्चिम के धनी देशों की स्थिति भी इस दृष्टि से कुछ अच्छी नहीं है। वहाँ भी व्यक्तिवादी पूँजीवादी व्यवस्था ने एक बड़े वर्ग को आर्थिक दृष्टि से निर्धन बनाया है। वहाँ के प्रत्येक देश में एक अथवा अधिक उपेक्षित वर्ग देखने को मिल जाएंगे, जिनके पास देश का समृद्धि का कुछ भी अंश नहीं पहुँच पाता है और वहाँ की समृद्धि की तुलना में ये वर्ग स्वयं को गरीब पाते हैं। अतः विकास के उद्देश्यों पर विचार करते समय विकसित देशों के इन वर्गों का भी अध्ययन करना समीचीन होगा।

पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि में विश्व के सभी देशों के सामान्य लोग अब आवश्यक वस्तुओं के साथ-साथ विलास की वस्तुओं का भी उपयोग करने लगे हैं। अर्थात् वर्तमान में आर्थिक दृष्टि से दुर्बल व सबल वर्गों की अवधारणा अब अदृश्य होती जा रही है। वास्तव में इन पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि पश्चिम के धनी समाजों तक सीमित है। उन्होंने विकासशील देशों के आर्थिक दृष्टि से दरिद्र लोगों को अपने अध्ययन का केन्द्र बनाया ही नहीं है। विकास के उद्देश्यों को निर्धारित करते समय विश्व के निर्धन लोगों को आधार बनाना आवश्यक है। इन उद्देश्यों का निम्नलिखित प्रकार से वर्णन किया जा सकता है –

1. अन्त्योदय (Development of the last Man):
हम कह सकते हैं कि विकास का कार्य कहाँ से प्रारम्भ किया जाना उचित है। वास्तव में विकास के महत्त्व को तभी समझा जा सकता है, जबकि समाज का निर्धन व्यक्ति विकास की योजना का लाभ प्राप्त कर सके। अतः विकास का लक्ष्य अन्त्योदय होना चाहिए। यदि लक्ष्य अन्त्योदय नहीं रखा गया, तो समाज का विकास तो होगा, किन्तु विकास का लाभ धनी व सामान्य निर्धन वर्ग को ही प्राप्त होगा। अत्यन्त निर्धन तथा निर्धन समाज के अन्त के व्यक्ति की विकास में कोई भागीदारी सम्भव नहीं होगी।

2. जीवन का न्यूनतम स्तर (Minimum Living Standard):
विकास का पहला उद्देश्य दरिद्र लोगों को जीवन के ऐसे न्यूनतम स्तर की प्राप्ति करना चाहिए, जिसमें न केवल नितान्त आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हो बल्कि उनके सुखा सुविधा की भी व्यवस्था हो सके। उन्हें व सामान्य परिस्थितियाँ प्राप्त हों, जिनमें उनकी प्रतिभा के विकास के अवसर विद्यमान हों तथा उनकी कार्यकुशलता को बढ़ाया जा सके।

3. Michalot Here for art facire (Development through Democratic Method):
यह उचित है कि अधिनायकवादी देशों में विकास की गति तीव्र होती है और अधिनायक विकास की जो दिशा निश्चित करता है, उसी दिशा में विकास होता है। भय व आतंक के कारण विकास में किसी प्रकार का अवरोध नहीं होता, किन्तु ऐसे देशों में जन सहयोग के अभाव में न विकास के लाभ का सही वितरण हो पाता है और न ही ऐसे विकास में जनता की रुचि जागृत होतो है।

साम्यवादी देशों के विकास की स्थिति से विश्व भली-भाँति परिचित है कि वहाँ विकास के प्रतिमानों का कितना बढ़ा-चढ़ाकर प्रचार हुआ, जबकि वास्तविकता इसके सर्वथा विरुद्ध थी। लोकतन्त्र में विकास जनसहयोग से होता है, यह विकास खुला तथा जन हिताय होता है। किसी विशिष्ट वर्ग के लिए किए जाने वाले विकास का लोकतान्त्रिक पद्धति में विरोध होता है।

4. बेरोजगारी की समस्या का हल (Solution of the Problem of Unemployment):
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर मशीनों की सहायता से उत्पादन किया जाता है। इस कारण जिन देशों में जनसंख्या अधिक है वहाँ बेरोजगारी की समस्या का गम्भीर रूप प्रकट हुआ है।

अब तो स्थिति यह है कि पूँजीवादी समृद्ध देशों में, जिनमें अमेरिका व इंग्लैंड भी सम्मिलित हैं, बेरोजगारी की समस्या विकट रूप में सामने आ रही है। यद्यपि कुछ देशों ने अपने बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ते प्रारम्भ किया है, किन्तु यह समस्या का निदान नहीं है। भारत में भी कुछ राज्य बेरोजगारी भत्ता दे रहे हैं। विकास के लक्ष्यों का निर्धारण करते समय बेरोजगारी दूर करने के लक्ष्य को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाना चाहिए। इसके लिए आवश्यक है कि प्रत्येक देश अर्थव्यवस्था के स्कम का निर्धारण अपने यहाँ के साधनों की प्राप्ति को ध्यान में रखकर करें।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
विकास सम्बन्धी मॉडलों का प्रभाव निम्न में से सबसे ज्यादा किस पर पड़ा?
(क) पर्यावरण एवं समाज पर
(ख) व्यक्ति एवं कृषि पर
(ग) मानव एवं सभ्यता पर
(घ) शिक्षा एवं संस्कृति पर
उत्तर:
(क) पर्यावरण एवं समाज पर

प्रश्न 2.
जून 1992 में पर्यावरण और विकास विषय पर अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया –
(क) जेनेवा
(ख) रियो द जेनेरो
(ग) टोकियो
(घ) न्यूयार्क
उत्तर:
(ख) रियो द जेनेरो

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प्रश्न 3.
संयुक्त राष्ट्रसंघ की विश्व जल विकास सम्बन्धी प्रतिवेदन प्रकाशित हुआ –
(क) मई 2007
(ख) अप्रैल 2006
(ग) मार्च 2006
(घ) फरवरी 2005
उत्तर:
(क) मई 2007

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति

Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Political Science Solutions Chapter 9 शांति

Bihar Board Class 11 Political Science शांति Textbook Questions and Answers

प्रश्न 1.
क्या आप जानते हैं कि एक शांतिपूर्ण दुनिया की ओर बदलाव के लिए लोगों के सोचने के तरीके में बदलाव जरूरी है? क्या मस्तिष्क शान्ति को बढावा दें सकता है? और, क्या मानव मस्तिष्क पर केन्द्रित रहना शांति स्थापना के लिए पर्याप्त है?
उत्तर:
यह सही कहा जाता है कुछ भी अच्छा या बुरा नहीं है बल्कि व्यक्ति की सोच ऐसा बताती है। इसलिए यह सोचने का ढंग ही है जिससे तनाव या शान्ति होती है। यह सोच ही किसी कार्य का कारण बनती है। सोच आत्मा की उपज है और आत्मा आनुवंशिक और पर्यावरणीय कारकों से उत्पन्न और प्रभावित होती है। अंततः वातावरण में यदि सुधार और संशोधन किया जाए तो स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण हो सकता है जिससे सकारात्मक सोच उत्पन्न हो सकती है। व्यक्ति के व्यवहार के निर्माण में मस्तिष्क की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। शान्ति से सम्बन्धित सभी अध्ययन आत्मा, मस्तिष्क और व्यक्ति के व्यवहार की आवश्यकता को मंडित किया है।

गौतम बुद्ध ने बताया, “सभी गलत कार्य मस्तिष्क से उत्पन्न होते हैं। यदि मस्तिष्क को परिवर्तित कर दिया जाए तो गलत कार्य को खत्म किया जा सकता है।” दार्शनिक रूप से ये दोनों काम हुए है अर्थात् अच्छाई और बुराई, हिंसा और अहिंसा, तनाव और शान्ति। पूर्ण शान्ति या अशान्ति या हिंसा परिवर्तनीय है। ऐसे में जरूरत है कि आत्मा और व्यक्ति का व्यवहार इस प्रकार बनाया जाय, सामाजिक, आर्थिक वातावरण को वह रूप दिया जाए कि यह शान्ति के लिए तैयार हो जाए।

विश्व दो पराकाष्ठा की स्थिति में जीवित नहीं रह सकता। वस्तुतः सामान्य वातावरण के साथ सामान्य जीवन की ही आवश्यकता होती है। केवल कुछ दार्शनिकों ने सामाजिक पराकाष्ठा के विषय में सोचा या बात की। हिंसा को रोका और नियंत्रित किया जाना चाहिए जिससे अच्छा व्यवहार और अच्छा वातावरण लाया जा सके। यदि वातावरण अच्छा है तो इससे मस्तिष्क अच्छा होगा जिससे अच्छा व्यवहार उत्पन्न होगा और अंततः शान्ति स्थापित होगी।

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प्रश्न 2.
राज्य को अपने नागरिकों के जीवन और अधिकारों की रक्षा अवश्य ही करनी चाहिए। हालाँकि कई बार राज्य के कार्य इसके कुछ नागरिकों के खिलाफ हिंसा के स्रोत होते हैं। कुछ उदाहरणों की मदद से इस पर टिप्पणी कीजिए।
उत्तर:
यदि हम राज्य की प्रकृति और उत्पत्ति के इतिहास में झांके तो राज्य के विषय में विभिन्न कालों में विभिन्न विचाराकों द्वारा विभिन्न अवधारणाएँ दी गई हैं। मूलरूप से अरस्तू. राज्य को एक कल्याणकारी संस्था मानता था। सामाजिक विचारक राज्य के कानून और सम्पत्ति को कायम रखने और लोगों के जीवन तथा सम्पत्ति की सुरक्षा के लिए मानते थे।

आधुनिक राज्य को भी कानून और व्यवस्था बनाये रखने वाला और आवश्यक कार्य के रूप मे जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा करना माना जाता है। इसके अलावा उसके वैकल्पिक कार्य, विकास करना और कल्याण करना है। राज्य एक प्रभुता संपन्न संस्था है जिसे लोगों की भलाई में निर्णय लेने, कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए आदेश जारी करने और लोगों के जीवन की रक्षा करने का पूर्ण अधिकार और उसका अंतिम उत्तरदायित्व भी है।

अपने उत्तरदायित्व को पूरा करने के लिए राज्य कोई भी आवश्यक कार्य या निर्णय ले सकता है जिसे राज्य आवश्यक समझता है। कभी-कभी राज्य के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह गलत लोगों, आक्रमणकारी ओर कानून तोड़ने वालों की हिंसात्मक कार्यवाही रोकने के लिए दण्ड दे। यह माना जाता है कि अपराधियों के विरुद्ध गलत कार्यों के लिए राज्य कठोर कदम उठाए परन्तु यह वैधानिक नियमों और न्याय की. सीमा में होना चाहिए। जब राज्य नियमों का उल्लंघन करता है तो यह राज्य का अतिक्रमण कहलाता है। आधुनिक शब्दावली में यह राज्य का आतंकवाद कहलाता है। पुलिस और सेना को विभिन्न। कार्यों को करना पड़ता है जिससे कानून और व्यवस्था कायम किया जा सके।

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प्रश्न 3.
शान्ति को सर्वोत्तम रूप में तभी पाया जा सकता है जब स्वतंत्रता, समानता और न्याय कायम हो। क्या आप इस कथन से सहमत हैं?
उत्तर:
यह सही है कि शान्ति के आवश्यक अवयव-स्वतंत्रता, समानता और न्याय हैं। इतिहास में इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि जब सभी स्वतंत्रता, समानता और न्याय का लोप हुआ है वहाँ शान्ति भी लुप्त हो जाती है। असमानता, अन्याय गुलामी से तनाव और संघर्ष उत्पन्न होता है जिससे स्वाभाविक रूप से आशान्त वातावरण उत्पन्न हो जाता है। परम्परागत जाति प्रथा धार्मिक शासन पर आधारित थी जिससे कुछ समूह के लोग अस्पृश्य घोषित कर दिए जाते थे और उनका सामाजिक बहिष्कार होता था और उन्हें निकृष्ट प्रकार का माना जाता था। यह गंभीर समस्या असमानताओं, अन्याय और परतंत्रता पर आधरित था। इन असमानताओं से अंततः तनाव और संघर्ष पैदा होता था। जिससे शान्ति की उपेक्षा होती थी।

इसी प्रकार महिलाएँ पुरुष प्रधानता की शिकार थीं। उससे संबधित अनेक बुराईयों का बोलबाला था जो महिलाओं के विरुद्ध व्यवस्थित अधीनता और भेदभाव उत्पन्न करती थी। महिलाओं का बुरी तरह शोषण होता था और उनकी स्वतंत्रता, न्याय और समानता की उपेक्षा की जाती थी।

उपनिवेशवाद एक अत्यन्त बुरी विचारधारा थी जिसमें लम्बी और प्रत्यक्ष गुलामी शोषण और अन्याय भरा पड़ा था। फलस्वरूप अनेक विद्रोह हुए और शान्ति भंग हुई। इसी प्रकार जातीयता और सम्प्रदायवाद से भी अनेक विकृतियाँ उत्पन्न हुई और इससे सम्पूर्ण जातीय समूह या समुदाय दमन का शिकार हुआ। इस प्रकार यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सम्पन्नता का आधार समानता, न्याय और स्वतंत्रता है। यदि इनमें किसी को लुप्त कर दिया जाए तो शान्ति को खतरा उत्पन्न हो सकता है।

प्रश्न 4.
हिंसा के माध्यम से दूरगामी न्यायोचित उद्देश्यों को नहीं पाया जा सकता। आप इस कथन के बारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर:
यह कथन सर्वथा सत्य है। हिंसा हमें पत्राचार की ओर ले जाती है अंततः उद्देश्य से दूर ले जाती है। यह सहिष्णुता और अहिंसा है जो न्याय को प्राप्त करने में सहायता करती है। कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि हिंसा कुछ उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता करती है। हिंसा कुछ परिस्थितियों में आवश्यक हो जाती है। परन्तु यह स्थाई लक्षण. नहीं है। हिंसा से स्थायी शान्ति नहीं प्राप्त की जा सकती। केवल अहिंसा के द्वारा स्थायी शान्ति आ सकती है। यही कारण है कि अहिंसा के समर्थक शान्ति को एक सर्वोच्च मूल्य मानते हैं। वे हिंसा के विरुद्ध अन्याय में भी नैतिक मार्ग को अपनाते हैं। वे हिंसात्मक आन्दोलनों के विरोध की वकालत करते हैं। परन्तु प्रेम और सहनशीलता के प्रयोग को बढ़ावा देते हैं। वे हृदय परिवर्तन के द्वारा हिंसा को रोकना चाहते हैं। वे हिंसा को अन्तिम साधन मानते हैं।

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प्रश्न 5.
विश्व में शान्ति स्थापना के जिन दृष्टिकोणों की अध्याय मे चर्चा की गई है उनके बीच क्या अंतर है?
उत्तर:
शान्ति को कायम रखने और उसके अनुभवीकरण (Realisation) के लिए अनेक उपागम किए गए हैं। इनमें तीन मुख्य उपागम निम्नलिखित हैं –
1. प्रथम उपागम:
यह राज्य पर जोर देता है और उसकी पवित्रता का सम्मान करता है। जीवन के तथ्य के रूप मे लोगों में प्रतियोगिता होती है। इसका संबन्ध प्रतियोगिता के उचित प्रबन्धन एवं शान्ति के लिये उचित संतुलन स्थापित करना है।

2. द्वितीय उपगम:
द्वितीय उपागम अति लूट वाले राज्य पर ध्यान केद्रित करता है। परन्तु सामाजिक आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देता है।

3. तृतीय उपागम:
इसमें इतिहास के बीते कालों पर विचार किया जाता है । यह शांति के सुनिश्चितता के रूप में समुदाय पर विचार करता है।

Bihar Board Class 11 Political Science शांति Additional Important Questions and Answers

अति लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
उस विश्व संस्था का नाम बताइए जिसका इस्तेमाल भारत विश्व शान्ति को बढ़ावा देने के लिए करता रहा है। (Name the institution by which India promote world peaces)
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र संघ (यू.एन.ओ.)।

प्रश्न 2.
शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद कौन सा देश विश्व में शक्तिशाली रूप में उभरा? (Which country emerged as powerful after the end of cold war?)
उत्तर:
संयुक्त राज्य अमेरिका।

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प्रश्न 3.
उस संस्था का नाम लिखिए जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शान्ति बनाए रखने के लिए दंड की व्यवस्था करती है। (Name the organ of the UN that punished a country who violate the world peace)
उत्तर:
संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद्।

प्रश्न 4.
अंतर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना कैसे की जा सकती है? (In which manner the world peace established?)
उत्तर:
अंतर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना सहयोग, समानता तथा स्वतन्त्रता के आधार पर की जा सकती है।

प्रश्न 5.
शान्ति क्या है? (Define peace)
उत्तर:
साधारण शब्दों में शान्ति का अर्थ है “युद्ध रहित अवस्था”। युद्ध या किसी अप्रिय स्थिति की आशंका को शान्ति नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न 6.
एक दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता के सम्मान से आप क्या समझते हैं? (What do you know about regional integrity of each other?)
उत्तर:
प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक अस्तित्व होता है जिसे दूसरे राष्ट्रों द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए। इस शर्त की पूर्ति शान्ति स्थापना के लए आवश्यक है।

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प्रश्न 7.
शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व क्या है? (What is peaceful co-existance?)
उत्तर:
‘जियो और जीने दो’ का वाक्य शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व है जिसमें युद्ध का कोई स्थान – नहीं है।

प्रश्न 8.
युद्ध की आवश्यकता क्यों पड़ती है? कोई दो कारण बताइए। (why are the wars necessary? Explain any two causes)
उत्तर:

  1. आत्मरक्षा के लिए
  2. शान्तिवार्ता असफल होने पर।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
क्या शान्ति बनाए रखने के लिए हिंसा की आवश्यकता है? (Are violence is necessary for peace?)
उत्तर:
इस मत को मानने वाले राजनीतिज्ञों का मानना है कि विश्व में शान्ति बनाए रखने के लिए हिंसा की आवश्यकता होती है। अन्तर्राष्ट्रीय कानून ने सभी राज्यों को अन्य राज्य के आक्रमण के विरुद्ध आत्मरक्षा का अधिकार दिया है। इस अधिकार के अंतर्गत हर राज्य हर समय अपनी आत्मरक्षा करने के लिए तैयार रह सकता है। सभी राष्ट्रों को सशक्त आक्रमण के विरुद्ध व्यक्तिगत अथवा सामूहिक आत्मरक्षा का अधिकार है। सशक्त आक्रमण को रोकने के लिए किसी भी राष्ट्र को चाहे वह कमजोर हो अथवा सबल, हिंसा का सहारा लेना ही पड़ता है।

व्यवहार में आत्म-संरक्षण में की जा रही कार्यवाही की कोई सीमा नहीं होती। परन्तु आत्मरक्षा का अधिकार किसी राज्य को भी मिलता है जब उस पर सशस्त्र बलों द्वारा आक्रमण किया गया हो और किसी भी राष्ट्र को अपनी आत्मरक्षा करने के लिए आक्रामक राष्ट्र से अधिक शस्त्रों को एकत्र करना पड़ता है। ऐसी स्थिति में आक्रामक राष्ट्र की शक्ति का अनुमान लगाना कठिन है और क्या वह राज्य आक्रामक राज्य बन सकता है, की भविष्यवाणी करना कठिन है। इसलिए हर हालत में हर राज्य को हर दूसरे राज्य के विरुद्ध आत्मरक्षा के लिए अधिक-से-अधिक हिंसा के लिए तैयार रहना होगा जिससे शान्ति स्थापना संभव हो।

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प्रश्न 2.
युद्ध करना अब न्यायसंगत होता है? (In which circumstances the war is justiflable?)
उत्तर:
विवादों के शान्तिपूर्ण तरीकों से निपटारा न होन के कारण ही युद्ध की परिस्थिति उत्पन्न होती है। युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय विवादों को निपटाने का अन्तिम साधन मात्र है। युद्ध शस्त्र चलों के प्रयोग के माध्यम से हिंसात्मक संघर्ष है। आक्रमण अथवा युद्ध किन अवस्थाओं में न्यायसंगत होते हैं, यह प्रश्न आज भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना पूर्व में था। युद्ध के न्यायसंगत होने के कई तर्क दिए जाते हैं। जैसा कि पहला तर्क यह दिया जाता है कि शान्ति वार्ताओं के असफल होने के कारण युद्ध जरूरी हो जाता है। कुछ मामलों में संयुक्त राष्ट्र चार्टर के प्रावधानों के अंतर्गत राज्य द्वारा बल का प्रयोग विधिपूर्ण है व न्यायसंगत है।

1. आत्मरक्षा (Self Defence):
“आत्मरक्षा में बल प्रयोग करने के लिए राज्य के अधिकारों को बहुत पहले से ही अन्तर्राष्ट्रीय विधि से मान्यता दी गई है।” ग्रोशियस के अनुसार जीवन, स्वतंत्रता व सम्पत्ति की रक्षा तथा सुरक्षा के लिए आत्मरक्षा का अधिकार सहज प्रकृति पर आधरित है। इस आत्मरक्षा के लिए राज्यों को युद्ध करने का पूरा अधिकार है।

2. चार्टर पर हस्ताक्षरित सदस्यों के दुश्मन (Enemy of the Signatories of the charter):
अनुच्छेद 10 संयुक्त राष्ट्र संघ के चार्टर) के तहत संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों के विरुद्ध युद्ध अवैध नहीं होगा।

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प्रश्न 3.
हम कैसे कह सकते हैं कि भारत का शान्ति का दृष्टिकोण व्यापक है? (India’s veiw of peace is comprehensive. How?)
उत्तर:
1. भारत की विदेश नीति का दुष्टिकोण (नजरिया) व्यापक है। भारत की विदेश नीति विश्व-शान्ति के लिए लगातार प्रयासरत है। भारत अन्य देशों की अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर सकारात्मक भूमिका निभाता रहा है। देश की विदेश नीति के उद्देश्य और सिद्धान्त हैं-हर तरह का साम्राज्यवाद (Imperialism) का विरोध करना तथा सभी देशों को उपनिवेशी मामलों से स्वतंत्रता रंग-भेद नीति का बहिष्कार, भुखमरी तथा बीमारी को जड़ से उखाड़ना, सभी देशों के साथ मित्रता का संबन्ध स्थापित करना व संयुक्त राष्ट्र संघ तथा अन्य संगठनों और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी की भूमिका निभाना।

2. भारत की शान्ति नीति का दृष्टिकोण नकारात्मक या युद्ध विरोधी नहीं है, किन्तु हम यह मानते हैं कि युद्ध के कारणों को समाप्त किए बिना विश्व में चिरकालीन स्थायी शान्ति की स्थापना नहीं की जा सकती। भारत चाहता है सभी देश अपने अनावश्यक विनाशकारी हथियारों का विनाश कर दें तथा सभी राष्ट्र स्वेच्छा से निः शस्त्रीकरण संबंधी संधियों पर सच्चे मन से हस्ताक्षर कर दें।

प्रश्न 4.
शीत युद्ध को कम करने में भारत के योगदान का परिक्षण कीजिए। (Examine India’s role in reducing the cold war)
उत्तर:
1. दूसरे विश्व युद्ध के बाद विश्व दो प्रमुख गुटों में बंटने लगा। एक गुट पश्चिमी देशों (शक्तियों) का था जिसका नेता संयुक्त राज्य अमेरिका था तो दुसरा गुट साम्यवादी देशों का था जिसका नेता पूर्व सोवियत संघ था।

2. पश्चिम के देश एक-दूसरे के साथ उचित और मैत्रिपूर्ण संबन्ध बनाने के इच्छुक थे। शीतकाल के इस वातावरण में भारत का आग्रह बातचीत के लिए था। हमारे नेताओं ने दोनों गुटों के मतभेदों को वाकयुद्ध तथा हथियारों का इस्तेमाल किए बिना स्वतंत्र तथा सीधी बातचीत के द्वारा सुलझाने का प्रयास किया। भारत ने एक अद्भुत नीति की खोज की, जिसे बाद में गुटनिरपेक्षता की नीति के नाम से जाना गया। इस नीति का अर्थ तटस्थता नहीं है (तटस्थता का अर्थ है कि दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच युद्ध के दौरान समान दूरी बनाए रखना) इसका अर्थ है अन्तर्राष्ट्रीय विषयों से संबंधित सभी मामलों पर स्वतंत्रतापूर्वक निडर होकर निर्णय लेना।

3. इस नीति में सैनिक मुकाबले को प्रोत्साहन देने की अपेक्षा सभी शान्तिपूर्ण तरीकों को अपनाया गया। इस नीति की लोकप्रियता का यह लाभ मिला कि नए स्वतंत्र राष्ट्रों ने शीत युद्ध के दो गुटों का सदस्य बनने की अपेक्षा गुटनिरपेक्ष नीति को अपनाने को प्राथमिकता दी। इस प्रकार गुटनिरपेक्ष आन्दोलन 1960 ई. मे जवाहरलाल नेहरू, यूगोस्लाविया के मार्शल टीटो और मिस्र के नासिर के नेतृत्व में शुरू हुआ। इस आन्दोलन का स्वागत विश्व शान्ति की स्थापना करने वाले सबसे बड़े आन्दोलन के रूप में किया गया। भारत शीत युद्ध के प्रतिद्वंद्वियों को स्वतंत्र तथा नए स्वतंत्र देशों के बीच तनाव पैदा नहीं करने देना चाहता था। भारत ने अंतर्राष्ट्रीय शान्ति, सुरक्षा तथा विकास के लिए प्रतिस्पर्धियों में शीत युद्ध समाप्त करने की वकालत की।

प्रश्न 5.
शांति के खोज के विभिन्न उपाय क्या हैं?
उत्तर:
शान्ति के खोज के विभिन्न उपाय:
शान्तिवादियों की यह मान्यता है कि हिंसा किसी भी स्थिति में उचित नहीं है। शान्तिवादी और व्यवहारिक राजनीतिक शान्ति स्थापना के सम्बन्ध में अनेक उपायों का सुझाव देते हैं – सर्वप्रथम वे शान्ति संतुलन स्थापित करने का सुझाव देते हैं, जबकि प्रमुख राष्ट्रों का सैनिक और राजनीतिक शक्ति समान हो तो शान्ति की संभावना अधिक होती है दुसरे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से भी शान्ति के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। तीसरे वैश्विक शासन भी इसका आधार बन सकता है और चौथे संयुक्त राष्टसंघ विश्व में शान्ति स्थापित करने की जिससे शान्ति के लक्ष्य को आसानी से प्राप्त किया जा सके।

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प्रश्न 6.
क्या हथियार वैश्विक शान्ति को बढ़ावा देते हैं?
उत्तर:
नाभिकीय शक्ति से लैस देश परमाणु बम की विनाशलीला को स्वीकार करते हैं। लेकिन यह तर्क भी देते हैं कि इससे शान्ति स्थापना का उद्देश्य पुरा हो सकता है यानि महाविनाशकारी संभावना उसे शान्ति स्थापना के लिए प्रेरित करता है। वर्तमान परमाणु संपन्न राष्ट्र अमेरिका, फ्रांस, चीन, रूस नाभकीय युद्ध से बचना चाहते हैं। यह माना जाने लगा है कि परमाणु नामक राक्षस ने ही विश्व में शान्ति स्थापित की है। लेकिन यह अस्थायी एवं संदिग्ध है क्योंकि तानाशाही प्रकृति के लोगों के पास परमाणु शक्ति आ जाय तो शान्ति नहीं बल्कि विनाश होगा।

प्रश्न 7.
शान्ति एवं हिंसा में क्या सम्बन्ध है?
उत्तर:
समय और परिस्थिति के अनुसार शांति और हिंसा एक दूसरे से सम्बन्धित है। कभी-कभी शांति लाने के लिए हिंसा अपरिहार्य हो जाती है। उदाहारणस्वरूप-हिंसा का सहारा लेना पड़ता है। ऐसी स्थिति में हिंसा उचित और न्यायपूर्ण है। अनेक.ऐसे उदाहरण हैं जब शान्ति के लिए हिंसा का प्रयोग किया गया। 1960 में मार्टिन लूथर किंग ने अमेरिका में काले लोगों के साथ भेद-भाव के विरुद्ध हिंसक संघर्ष किया। 1991 में निरंकुश सोवियत व्यवस्था का विघटन। यही कारण है जिसके चलते शान्तिवादी किसी न्यायपूर्ण संघर्ष में भी हिंसा के इस्तेमाल के विरुद्ध नैतिक रूप से खड़े होते हैं तथा शोषकों का दिल-दिमाग जीतने के लिए प्रेम और सत्य की बात करते हैं।

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प्रश्न 8.
शान्ति क्या है? किन दो तरीकों से विश्व मे शान्ति स्थापित की जा सकती है? (What is peace? In which two methods the world peace established?)
उत्तर:
सरल शब्दों में शान्ति से आशय है “युद्ध रहित अवस्था”। शान्ति एक ऐसी अवस्था है जिसमें सभी लोग एक साथ मिलकर रहते हैं तथा एक-दूसरे को सहयोग प्रदान करते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भी शान्ति का यही अर्थ निकालता है। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शान्ति से आशय है विश्व के सभी राष्ट्र-राज्य एक-दूसरे की सत्ता व स्वतन्त्रता का सम्मान करें तथा आपसी सहयोग को बढ़ावा दें जिससे समानता का अस्तित्व बना रहे। इसी सिद्धान्त को दूसरे शब्दों में ‘जियो और जीने दो’ (Live and Let Live) के नाम से जाना जाता है। सह-अस्तित्व के आधार पर जीने की कला व राष्ट्रों के आपस में होने वाले कार्यकलापों के द्वारा शान्ति को स्थापित किया जाता है।

विश्व में शान्ति-स्थापना के अनेक तरीके हैं जिन्हें निम्नलिखित रूप से वर्णित किया सकता है –

1. दूसरे की क्षेत्रीय अखण्डता व प्रभुसत्ता के लिए पारस्परिक सम्मान (Mutual respect for each other’s territorial integrity):
विश्व में शान्ति स्थापित करने का सर्वप्रथम सिद्धान्त है कि विश्व के प्रत्येक राष्ट्र-राज्य का कर्तव्य है कि वह अपनी अखण्डता व प्रभुसत्ता को उस राज्य के लिए आवश्यक समझे। प्रत्येक राष्ट्र का अपना एक अस्तित्व होता है जिसे दूसरे राष्ट्रों द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए। इस शर्त की पूर्ति शान्ति स्थापना के लिए अत्यन्त आवश्यक है। किसी भी राज्य को दूसरे राज्यों कि विरुद्ध अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।

2. आक्रमण न करना (Non-Aggression):
एक दूसरे के प्रति क्षेत्रीय अखण्डता व प्रभुसत्ता के प्रति पारस्परिक सम्मान की दशा में संभव है जब एक राष्ट्र-राज्य स्वयं जीवित रहने के साथ-साथ दूसरे राष्ट्रों को भी जीवित रहने व विकसित होने का अवसर प्रदान करे। किसी भी राज्य को यह अधिकार बिल्कुल नहीं दिया जा सकता कि वह स्वयं की क्षेत्रीय सीमा का विस्तार करने के लिए अन्य राज्यों पर आक्रमण करे अथवा जोर-जबरदस्ती द्वारा अन्य राज्य की भूमि को हड़प ले।

एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करके अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेना एक सभ्य देश का कार्य नहीं है। ऐसा व्यवहार सम्पूर्ण विश्व के शान्तिपूर्ण माहौल में बाधा पहुँचाता है। राज्यों के मध्य मतभेद अवश्य होते हैं परन्तु ऐसे मतभेदों को शान्तिपूर्ण तराकों से ही निपटारा करना चाहिए, हिंसात्मक रूप से नहीं। यह सभ्य समाज व राज्य की मुख्य निशानी है।

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
क्या शस्त्रों की होड़ से विश्व शान्ति स्थापित हो सकती है चर्चा कीजिए। (Is the armament is helpful in World peace. Discuss)
उत्तर”
क्या शस्त्रीकरण वैश्विक शान्ति को जन्म दे सकता है? (Can armament Promote Global peace):
इस प्रश्न को लेकर कि क्या शस्त्रीकरण द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति स्थापित की जा सकती है अथवा नहीं, राजनीतिक दार्शनिकों के मतों में मतभेद है। कुछ लोगों का मानना है कि शान्ति स्थापित हो सकती है क्योंकि शस्त्रीकरण, आक्रमणकारी राज्य के मन में भय उत्पन्न कर देगा और वह युद्ध नहीं करेगा या किसी भी प्रकार से शान्ति भंग नहीं करेगा। परन्तु इस धारणा को अन्य दार्शनिक ठीक नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि अन्तर्राष्ट्रीय अशान्ति का कारण ही शस्त्रीकरण है।

शस्त्रीकरण न केवल युद्ध के कारणों को प्रभावित करता है वरन् अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए भी खतरा है। इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी नि:शास्त्रीकरण (Disarmament) की ओर जोर दिया है। शीत युद्ध (Cold War) में पैदा हुए डर के माहौल को कोई भी आज तक भूल नहीं पाया है। अनेक बार ऐसा सोचा जाता है कि शान्ति स्थापित करने के लिए युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए या शस्त्रीकरण करना चाहिए। इसका अर्थ यह हुआ कि संभी राष्ट्र अपनी सैनिक शक्ति को अधिक बढ़ाएँ। परन्तु ऐसा करने से विश्व में तनाव बना रहेगा और प्रत्येक राष्ट्र एक-दूसरे के साथ मैत्री सम्बन्ध जोड़ने के स्थान पर एक-दूसरे को डराने व धमकाए. रखने का माहौल तैयार कर लेगा।

इससे शान्ति, विश्वास व प्रेम के स्थान पर भय, डर, अविश्वास आदि का वातावरण उत्पन्न होगा। शान्ति बनाए रखने का पहला कार्य यदि कुछ हो सकता है तो वह है नि:शस्त्रीकरण (disarmament) न कि शस्त्रीकरण। वास्तविक अर्थों में देखा जाए तो शस्त्रीकरण साधन है, साध्य नहीं। साध्य मनुष्य के निजी स्वार्थ से उत्पन्न क्लेश व कलह है। मनुष्य अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए दूसरे को अपने वशीभूत करना चाहता है। इस लक्ष्य प्राप्ति के लिए हथियारों को जन्म देता है और युद्धों का अकस्मात् स्वरूप होने के कारण अस्त्र-शस्त्रों के होते हुए युद्धों को कभी भी समाप्त नहीं किया जा सकता है। युद्ध की समाप्ति के लिए निःशस्त्रीकरण को व्यापक पैमाने में प्रेरित करना होगा। विश्व में लोगों को शान्ति का पाठ पढ़ाना होगा तभी वैश्विक शान्ति सम्भव है।

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प्रश्न 2.
विश्व शांति को बढ़ावा देने की दिशा में भारत की भूमिका का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
भारत तथा संयुक्त राष्ट्र (India $ UN):
संयुक्त राष्ट्र संघ के उद्देश्यों को भारतीय संविधान में भी स्थान दिया गया है तथा भारत शुरू से इसका सदस्य रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ को शक्तिशाली बनाना और उसके कार्यों में सहयोग देना भारत की विदेश नीति के प्रमुख सिद्धान्त रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा किए गए शान्ति प्रयासों में भारत ने हर प्रकार से सहायता प्रदान की है। भारत कई बार सुरक्षा परिषद् (संयुक्त राष्ट्र संघ का एक अंग) का सदस्य रहा है। 1952 ई० में भारत की श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित साधारण सभा की अध्यक्षा चुनी गई थीं।

संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य के रूप में भारत ने हमेशा दूसरे देशों के साथ झगड़ों का निपटारा शान्तिपूर्वक करने का प्रयत्न किया है। स्वतन्त्रता के पश्चात् भारत का कश्मीर मामले पर पाकिस्तान से झगड़ा हुआ। भारत ने इस झगड़े का हल करने के लिए इस समस्या को संयुक्त राष्ट्र संघ के पास भेजा। सन् 1962 ई. में चीन ने सीमा विवाद को लेकर भारत पर अचानक ही आक्रमण कर दिया और नेफा तथा लद्दाख के बहुत बड़े क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।

भारत ने शान्तिपूर्ण ढंग से इस समस्या का समाधान करने का भरसक प्रयत्न किया। 1965 ई. में पाकिस्तान ने भारत पर फिर आक्रमण कर दिया, परन्तु भारत ने इसका मुंहतोड़ जवाब दिया और पाकिस्तान को बुरी तरह पराजित किया। अन्त में तत्कालीन सोवियत संघ के माध्यम से दोनों देशों में ताशकन्द समझौता हुआ जिसके परिणामस्वरूप भारत ने पाकिस्तान के जीते हुए क्षेत्र उसे वापस लौटा दिए। इसके बाद भी भारत पाकिस्तान में युद्ध हुआ और पाकिस्तान की पराजय हुई परन्तु भारत ने विश्व में शान्ति बनाए रखने के लिए उससे संधि की।

संयुक्त राष्ट्र ने नि:शस्त्रीकरण के प्रश्न को अधिक महत्त्व दिया है तथा इस समस्या को हल करने के लिए बहुत ही प्रयास किए हैं। भारत ने इस समस्या का समाधान करने के लिए हमेशा संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता की है क्योंकि भारत को यह विश्वास है कि पूर्ण निःशस्त्रीकरण के द्वारा ही संसार में शान्ति की स्थापना हो सकती है। सातवें गुट-निरपेक्ष शिखर को सम्बोधित करते हुए श्रीमती गाँधी ने कहा था-विकास, स्वतन्त्रता, निःशस्त्रीकरण और शान्ति परस्पर एक दूसरे से सम्बन्धित हैं।

एक नाभिकीय विमानवाहक पर जो खर्च होता है वह 53 देशों के सकल राष्ट्रीय उत्पादन से अधिक है। नाग ने अपना फन फैला दिया है। समूची मानव जाति भयाक्रांत है और भयभीत निगाहों से इस झूठी आशा के साथ देख रही है कि उसे काटेगी नहीं। इस समय विश्व में बहुत से सैनिक गुट बना रहे हैं। जैसे-नाटो, सैन्टो आदि। भारत का हमेशा यह विचार है कि ये सैनिक गुट विश्व शान्ति मे बाधक हैं। अतः भारत ने इस सैनिक गुटों की केवल आलोचना ही नहीं की अपितु इनका पूरी तरह से विरोध भी किया है।

संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनने के लिए भारत ने विश्व के प्रत्येक देश को कहा है भारत ने चीन, बांग्लादेश, हंगरी, श्रीलंका, आयरलैंड और रूमानिया आदि देशों को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारत की सक्रियता का प्रमाण यह है कि श्रीमती विजय लक्ष्मी पंडित को महासभा की अध्यक्ष चुना गया। इसके अतिरिक्त मौलाना आजाद यूनेस्को के प्रधान बने, श्रीमती अमृतकौर विश्व स्वास्थ्य संघ की अध्यक्षा बनीं।

डॉ. राधाकृष्णन आर्थिक व सामाजिक परिषद् के अध्यक्ष बनाए गए। भारत को 1950 ई० में सुरक्षा परषिद् का अस्थायी सदस्य चुना गया। अब तक भारत सुरक्षा परिषद् का 6 बार अस्थायी सदस्य रह चुका है। डॉ. नागेन्द्र सिंह अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रहे हैं। विश्व शान्ति की स्थापना के सम्बन्ध में भारत का मत है कि जब तक संसार के सभी देशों का प्रतिनिधित्व संयुक्त राष्ट्र संघ में नहीं होगा वह प्रभावशाली कदम नहीं उठा सकता।

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प्रश्न 3.
शान्ति से क्या आशय है? किन तरीकों से विश्व में शान्ति बनाए रखी जा सकती है? (What is peace? Which methods the World peace established?)
उत्तर:
शान्ति क्या है? (What is peace?):
“युद्ध रहित अवस्था” को शन्ति कहा जाता है। यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें सभी लोग मिल-जुल कर रहते हैं तथा एक-दूसरे को सहयोग देते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शान्ति का तात्पर्य है विश्व के सभी राष्ट्र-राज्य एक-दूसरे की सत्ता व स्वतन्त्रता का सम्मान करें तथा पारस्परिक सहयोग को बढ़ावा दें ताकि समानता का अस्तित्व बना रहे। सह-अस्तित्व के आधार पर जीने की कला व राष्ट्रों के आपस में होने वाले क्रिया-कलापों के द्वारा शान्ति स्थापित की जा सकती है। विश्व में शान्ति-स्थापना के अनेक तरीके हैं जिन्हें निम्नलिखित रूप में वर्णित किया जा सकता है –

1. एक दुसरे की क्षेत्रीय अखण्डता बनाए रखना:
विश्व में शान्ति स्थापित करने का सबसे पहला सिद्धान्त है कि विश्व के प्रत्येक राष्ट्र-राज्य का कर्तव्य हो कि वह जिस प्रकार अपनी अखण्डता व प्रभुसत्ता को आवश्यक समझता है उसी प्रकार दूसरे राष्ट्रों की अखण्डता व प्रभुसत्ता को उस राज्य के लिए आवश्यक समझे। हर राष्ट्र का अपना एक अस्तित्व होता है जिसे दूसरे राष्ट्रों द्वारा सम्मानित किया जाना चाहिए। इस शर्त की पूर्ति शान्ति स्थापनों के लिए अति आवश्यक है। किसी भी राज्य को दूसरे राज्य के विरुद्ध अपनी शक्ति का दुरुपयोग या उसको अनावश्यक लाभ नहीं उठाना चाहिए।

2. अन्य देश पर आक्रमण न करना:
एक-दूसरे देश के प्रति अखण्डता व प्रभुसत्ता के प्रति पारस्परिक सम्मान तभी सम्भव है जब एक राष्ट्र-राज्य स्वयं जीवित रहने के साथ-साथ दूसरे राष्ट्रों को भी जीवित रहने व विकसित होने का अवसर प्रदान करे। किसी भी राज्य को यह अधिकार कतई नहीं दिया जा सकता कि वह स्वयं क्षेत्रीय सीमा का विस्तार करने के लिए दूसरे राज्यों पर आक्रमण करे अथवा जोर-जबर्दस्ती द्वारा उस राज्य की भूमि को हथिया ले। एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र पर आक्रमण करके अपना लक्ष्य प्राप्त कर लेना एक सभ्य देश की निशानी नहीं है। ऐसा व्यवहार पूरे विश्व के शान्तिपूर्ण माहौल में बाधा पहुँचाता है। राज्यों के मध्य मतभेद अवश्य होते हैं परन्तु ऐसे मतभेदों का शान्तिपूर्ण तरीकों से ही निपटारा करना चाहिए, हिंसात्मक रूप से नहीं। यही सभ्य समाज व राज्य की मुख्य निशानी है।

3. एक-दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करना:
शान्ति स्थापना के लिए स्वतन्त्र राष्ट्रों का उत्तरदायित्व न केवल अन्य राष्ट्रों के विरुद्ध आक्रमण करने से है परन्तु उनका यह भी दायित्व है कि वे अन्य राष्ट्र-राज्यों के आन्तरिक गतिविधियों में बिल्कुल भी दखल न दें। निर्बल राष्ट्रों की भी अपनी प्रभुसत्ता व अखण्डता होती है और अन्य राष्ट्रों का यह दायित्व बन जाता है कि वे उन्हें सम्मानित करें। प्रायः यह देखा गया है कि अपने-अपने गुटों की शक्ति को बढ़ाने के उद्देश्य से बड़े शक्तिशाली राष्ट्र कमजोर और निर्बल राष्ट्रों को आर्थिक सहायता देकर उनके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करते हैं। वियतनाम, कोरिया आदि देशों को शक्तिशाली देशों ने आर्थिक सहायता देकर आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप किया है। इस कारण से न केवल अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति व्यवस्था को खतरा उत्पन्न होता है अपितु साम्राज्यवाद के फैसले को भी बल मिलता है। इसी कारण राष्ट्रों के आन्तरिक मामलों में अन्य राष्ट्र हस्तक्षेप न करे।

4. समानता तथा पारस्परिक लाभ:
जब तक राष्ट्र, चाहे वह दुर्बल हो अथवा सबल, जब वह दूसरे राज्यों पर आक्रमण नहीं करता है और हर प्रकार के मतभेदों को, अन्तिम रूप से शान्तिपूर्ण तरीकों से सुलझाने का प्रयत्न करता है तो इसका तात्पर्य है कि वह सब राष्ट्रों को समान समझता है। इस व्यवहार से अन्य सभी राष्ट्रों के मध्य समानता का वातावरण उत्पन्न होता है और सभी एक-दूसरे को सहयोग देकर विकास करने का अवसर मिलता है।

5. शान्तिमय सह-अस्तित्व:
सह-अस्तित्व के होने की सम्भावना केवल शान्तिपूर्ण वातावरण पर निर्भर है। अनेक राजनीतिक दार्शनिकों का मानना है कि शान्ति और व्यवस्था स्थापित करने के लिए युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए परन्तु यह वक्तव्य केवल सभी राष्ट्रों को हथियारों के निर्माण व होड़ करने के लिए प्रेरित करेगा। ऐसी स्थिति में शान्ति तो होगी परन्तु इस शान्ति का आधार भय और शंका होगा, एक-दूसरे राज्य के प्रति विश्वास और मैत्री का नहीं। ऐसी स्थिति में सभी राष्ट्र अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाएँगे।

ऐसा करने से ऊपरी तौर से शान्ति तो होगी परन्तु भीतर-ही-भीतर विश्व में तनाव की स्थिति होगी जो किसी भी समय विस्फोटक रूप धारण कर सकती है। मनुष्य युग-युगांतर तक अनेक युद्धों को देख चुका है। अब युद्ध का स्वरूप इतना भयानक हो चुका है कि झेलने, की हिम्मत व सामर्थ्य सभी में नहीं है। इसलिए आज सभी राष्ट्र निःशस्त्रीकरण (disarmament) चाहते हैं। यही नीति उत्तम है। इसी राह पर चलकर हम अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति को स्थापित कर सकेंगे जो सह-अस्तित्व व विकास के लिए अतिआवश्यक है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
मूवमेंट फॉर सखाइवल ऑफ ओगोनी पीपल (ओगोनी लोगों के अस्तित्व के लिए आन्दोलन) 1990 नामक आन्दोलन किसने चलाया?
(क) नेल्सन मंडेला
(ख) आँग-सान सू की
(ग) केन सारो वीवा
(घ) महात्मा गाँधी
उत्तर:
(ग) केन सारो वीवा

Bihar Board Class 11th Political Science Solutions Chapter 9 शांति

प्रश्न 2.
2005 का गाँधी शान्ति पुरस्कार दिया गया –
(क) रोबर्ट मुंगावे
(ख) आर्चविशप डेसमंड टूटू
(ग) फिडेल
(घ) नेलसन मंडेला
उत्तर:
(ख) आर्चविशप डेसमंड टूटू

प्रश्न 3.
शीत युद्ध का प्रारंभ कब हुआ –
(क) 1945
(ख) 1960
(ग) 1978
(घ) 1980
उत्तर:
(क) 1945

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

Bihar Board Class 11 Sociology संस्कृति तथा समाजीकरण Additional Important Questions and Answers

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:

  • संस्कृति के संज्ञानात्मक आयामों के अंतर्गत अंधविश्वास, वैज्ञानिक तथ्य, मिथक, कला तथा धर्म शामिल हैं।
  • विचार संस्कृति के संज्ञानात्मक आयामों की ओर संकेत करते हैं। इसके अन्तर्गत विश्वासों तथा ज्ञान को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 2.
संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयाम का संक्षेप में वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  • संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयामों के अंतर्गत अपेक्षाओं, नियमों तथा प्रतिमानात्मक पद्धतियों को सम्मिलित किया जाता है।
  • संस्कृति के प्रतिमानित आयामों के द्वारा व्यक्तियों की अंत:क्रिया की पुनरावृत्ति को प्रोत्साहन दिया जाता है।
  • प्रतिमानों को जनरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं तथा कानून के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है तथा इनके द्वारा व्यवहार को निर्देशित किया जाता है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 3.
संस्कृति के भौतिक आयाम को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:

  • संस्कृति के भौतिक आयामों के अंतर्गत कुछ वस्तुएँ जैसे कि कपड़ा, आवास, उपकरण, आभूषण, रेडियो तथा संगीत के वाद्य-यंत्र आदि आते हैं।
  • भौतिक संस्कृति में उन वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है जो भौतिक वस्तुएँ हैं तथा जिनका समाज के सदस्यों द्वारा उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 4.
सांस्कृतिक पिछड़ेपन अथवा सांस्कृतिक विलंबना से आप समझते हैं?
उत्तर:
सांस्कृतिक पिछड़ेपन अथवा संस्कृतिक विलंबना की अवधारणा का विवरण प्रसिद्ध समाजशास्त्री आगबर्न द्वारा किया गया है। आगबर्न के अनुसार भौतिक संस्कृति जैसे तकनीकी इत्यादि का विकास तथा परिवर्तन तेजी से होता है। दूसरी तरफ, अभौतिक संस्कृति चिंतन के प्रतिमानित तरीकों, भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं, प्रमुख रूप से प्रतीकों द्वारा अर्जित तथा हस्तांतरित, मानव व समूह द्वारा विशिष्ट उपलब्धियों के निर्माण करने वाले तथा व्यक्ति के कौशल का साकार स्वरूप है। संस्कृति के आवश्यक तत्वों में जिसमें परंपरागत जैसे ऐतिहासिक परिणाम तथा श्रेष्ठताएँ एवं विचार मुख्य हैं, उसमें विशेष रूप से उससे जुड़े हुए मूल्यों से निर्मित होती है।

संस्कृति के तीन आयाम बताए गए हैं –

  • संज्ञात्मक आयाम
  • प्रतिमानात्मक आयाम तथा
  • भौतिक आयाम

आगबर्न ने अनुसार संस्कृति के दोनों पहलू अर्थात् भौतिक तथा अभौतिक व्यक्तित्व के निर्माण पर प्रभाव डालती हैं। आगबर्न द्वारा सांस्कृतिक पिछड़ेपन अथवा विलंबना की अवधारणा प्रस्तुत की गई है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 5.
प्रौद्योगिकी क्या है?
अथवा
प्रौद्योगिकी से आप क्या समझते हैं? वे अलग-अलग समाजों में भिन्न-भिन्न क्यों होती है?
उत्तर:
प्रौद्योगिकी का तात्पर्य तकनीकी मानदंडों अथवा तकनीक से होता है। वैचारिक तर्ज पर प्रौद्योगिकी समाज की संस्कृति का समन्वित भाग होती है। प्रौद्योगिकी अथवा तकनीकी मानदंड अलग-अलग समाजों में पृथक्-पृथक पाए जाते हैं। समाजों में विभेदीकरण उनके द्वारा प्राप्त की गई प्रौद्योगिकीय उपलब्धियों के आधार पर किया जाता है।

प्रश्न 6.
सामाजिक विज्ञान में संस्कृति की समझ, दैनिक प्रयोग के शब्द “संस्कृति” से कैसे भिन्न है?
उत्तर:
जिस प्रकार सामाजिक विज्ञान में हमें किसी स्थान का पता लगाने के लिए मानचित्र की आवश्यकता होती है उसी प्रकार समाज में व्यवहार करने के लिए हमें संस्कृति की आवश्यकता पड़ती है। संस्कृति एक सामान्य समझ है जिसे समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ सामाजिक अंत:क्रिया के माध्यम से सीखा तथा विकसित किया जाता है।

प्रश्न 7.
संस्कृति शब्द की उत्पत्ति तथा अर्थ बताइए।
उत्तर:
संस्कृति शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा में ‘कोलरे’ शब्द से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ ‘जमीन जोतना’ अथवा ‘खेती करना’ है। यंग तथा मैक के अनुसार, “संस्कृति सीखा हुआ तथा भागीदारी का व्यवहार है।” संस्कृति किसी एक व्यक्ति का विशेष व्यवहार नहीं होता है। संस्कृति वह व्यवहार है जिसे व्यक्ति सामाजिक अन्त:क्रिया के माध्यम से समूह में सहभागिता के कारण प्राप्त करता है।

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प्रश्न 8.
संस्कृति के मुख्य तत्त्व कौन-कौन से हैं?
उत्तर:
संस्कृति के मुख्य तत्त्व हैं –

  • व्यक्तियों द्वारा समाज के सदस्य के रूप में ग्रहण की गई आदतें तथा अक्षमताएँ।
  • भाषा तथा उपकरण बनाने की विधियाँ।
  • ज्ञान, विश्वास, प्रथा, कला, कानून तथा नैतिकता।

रौबर्ट बियरस्टेड ने अपनी पुस्तक ‘The Social Order’ में संस्कृति के तीन तत्व बताए हैं –

  • विचार
  • प्रतिमान
  • पदार्थ

प्रश्न 9.
संस्कृति के तीन मुख्य आयाम बताइए।
उत्तर:
संस्कृति के तीन मुख्य आयाम निम्नलिखित हैं –

  1. संज्ञानात्मक आयाम – संज्ञान अथवा ज्ञान की प्रक्रिया में सभी व्यक्ति अपनी भागीदारी करते हैं। इसमें धर्म, अंधविश्वास, वैज्ञानिक तथ्य, कलाएँ तथा मिथक शामिल किए जाते हैं।
  2. प्रतिमानात्मक आयाम – समाजशास्त्र के प्रतिमानात्मक आयामों के अन्तर्गत सोचने के बजाए कार्य करने के तरीकों को उल्लेख किया जाता है । इसके अन्तर्गत नियमों, अपेक्षाओं तथा प्रतिमानात्मक पद्धतियों को सम्मिलित किया जाता है।
  3. भौतिक आयाम – संस्कृत के भौतिक आयामों के अंतर्गत आवास, औजार, कपड़ा, आभूषण तथा संगीत के उपकरण आदि सम्मिलित किए जाते हैं।

प्रश्न 10.
संस्कृति के दो प्रमुख भाग कौन-से हैं?
उत्तर:
संस्कृति के दो प्रमुख भाग निम्नलिखित हैं –

  1. भौतिक संस्कृति – इसके अंतर्गत मूर्त, पार्थिक तथा पदार्थगत संस्कृति को सम्मिलित किया जाता है। संस्कृति का यह पक्ष मनुष्यों द्वारा निर्मित वस्तुगत पदर्थगत होता है। प्रौद्योगिकी, कला, उपकरण तथा वस्त्र आदि इसमें सम्मिलित किए जाते हैं।
  2. अभौतिक संस्कृति – इसे अंतर्गत विचार, ज्ञान, कला, परंपरा तथा विश्वास को सम्मिलित किया जाता है। यह अमूर्त तथा अपदार्थगत पक्ष है।

प्रश्न 11.
संस्कृति की अवधारणा के मुख्य चिंतकों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
संस्कृति की अवधारणा की व्याख्या करने वाले चिंताकों निम्नलिखित दो श्रेणियों में बाँटा गया है :

(i) मानवशास्त्री व्याख्या के अनुसार संस्कृति के अध्ययन के माध्यम से व्यक्ति तथा उसमें विभिन्न व्यवहारों को समझा जा सकता है। मानवशास्त्रियों द्वारा संस्कृति की अवधारणा तथा आदिम समुदायों के संदर्भ में संस्कृति के विभिन्न प्रतिरूपों का अध्ययन किया गया है। प्रमुख मानवशास्त्री-चिंतक हैं –

  • टालयर
  • आर. बेनडिक्स
  • लिंटन
  • मैलिनोवस्की
  • क्रोबर

(ii) कुछ समाजशास्त्रियों के द्वारा संस्कृति को समाज के एक अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। तथा इन चिंतकों के अनुसार समाज एक व्यापक अवधारणा है तथा जिसका संबंध व्यक्ति तथा समूह के अंतर्संबंध से है। संस्कृति का तात्पर्य प्रतिमानात्मक व्यवस्था, मूल्यों तथा व्यवहारों से है।

इस विचारधारा के चिंतक प्रमुख समाजशास्त्री हैं –

  • समनर
  • दुर्खाइम
  • मैक्स वैबर
  • सोरोकिन
  • पारसंस

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 12.
संस्कृति के चार प्रमुख लक्षण बताइए।
उत्तर:
संस्कृति के चार प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –

  • संस्कृति अर्जित व्यवहार है जिसे सीखा जाता है।
  • संस्कृति परिवर्तनशील, गतिशील तथा सापेक्षिक है।
  • संस्कृति संरचित होती है, इसका निर्माण चिंतन के प्रतिमानों, अनुभवों तथा व्यवहारों से होता है।
  • संस्कृति को विभिन्न पहलुओं में विभाजित किया जा सकता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
‘स्व’ व्यक्तित्व का केन्द्र है। स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति अपने बचपन से ही भूमिका की संरचना को सीखता तथा आत्मसात करता है। व्यक्ति के ‘स्व’ का विकास इसी प्रकार होता है। कूले, फ्रायड, मीड तथा पारसंस जैसे विद्वानों का मत है कि ‘स्व’ का विकास व्यक्ति की ग्रहणशीलता तथा समूह द्वारा शिशु के अपने प्रतिमानों के अनुरूप ढालने के प्रयत्नों का मिला-जुला स्वरूप है। ‘स्व’ का अर्थ मैं तथा मुझसे से है लेकिन ‘स्व’ की अवधारणा का विकास बच्चे के मन में स्वाभाविक वृद्धि की प्रक्रिया के कारण नहीं होता है।

वस्तुतः ‘स्व’ की अवधारणा दूसरे व्यक्तियों से संपर्क के कारण ही विभाजित होती है। ‘स्व’ के विकास में भाषा का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है तथा भाषा समाज की देन होती है। सी. एच. कुले का मत है कि ‘स्व’ एक सामाजिक सत्य है जिसका विकास प्राथमिक समूह तथा सामाजिक अंत:क्रिया की भूमिका के कारण होता है।

प्रश्न 2.
‘समाजीकरण के साथ सीखने की प्रक्रिया अनिवार्य रूप से संबद्ध है।’ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सीखने की प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति कुछ बातों को स्वयं सीख जाता है। उदाहरण के लिए, माता के स्तन से दुग्धपान करना, चलना तथा परिवार में माता-पिता तथा अन्य सदस्यों को पहचानना। सीखने की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है तथा व्यक्ति की समझ तथा ज्ञान में लगातार विकास होता रहता है। इस प्रकार, समाजीकरण सीखने की ऐसी प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत व्यक्ति सामाजिक तथा सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप वांछित व्यवहारों को सीख जाता है।

सीखने की उत्प्रेरक दशाएँ जिसके कारण बच्चा सीखता है –

  • व्यक्ति की स्वयं की आवश्यकताएँ
  • नई बातों के प्रति उत्सुकता तथा सीखने की प्रवृत्ति
  • पुरस्कार तथा दंड
  • नई परिस्थितियों में समायोजन

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प्रश्न 3.
समाजीकरण के विभिन्न स्तर बताइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री गिडिंग्स ने समाजीकरण के दो स्तर बताए हैं –

  • प्राथमिक समाजीकरण तथा
  • द्वितीयक समाजीकरण

1. प्राथमिक समाजीकरण शैशवावस्था तथा बाल्यावस्था में होता है। यह समाजीकरण का सबसे महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक बिन्दु है क्योंकि बच्चा मूलभूत व्यवहार प्रतिमान इसी स्तर पर सीखता है। प्राथमिक समाजीकरण के तीन उप स्तर हैं –

  • मौखिक अवस्था
  • शैशवावस्था तथा
  • किशोरावस्था।

परिवार प्राथमिक समाजीकरण का सशक्त माध्यम है।

2. द्वितीयक समाजीकरण के अंतर्गत व्यक्ति व्यवसाय तथा जीविका के साधनों की खोज में प्राथमिक समूहों के अलावा अन्य समूहों से अपने मूल्यों, प्रतिमानों, आदर्शों, व्यवहारों तथा सांस्कृतिक मानदंडों को ग्रहण करता है। समाजशास्त्री ऐसे समूहों को संदर्भ समूह कहते हैं। प्रसिद्ध समाजशास्त्री रॉबर्ट के. मर्टन इस सामाजिक प्रघटना को सदस्यता समूह के स्थान पर असदस्यता समूह की ओर अभिमुखता कहते हैं।

प्रश्न 4.
“व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार की भूमिका सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा निर्णायक होती है।” स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
व्यक्ति के समाजीकरण में परिवार की भूमिका –

  • परिवार व्यक्ति के समाजीकरण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथा निर्णायक भूमिका निभाता है। परिवार समाज की मूलभूत तथा प्राथमिक इकाई है जो समाज का पूर्ण तथा समेकित प्रतिनिधित्व करती है।
  • बच्चा परिवार में विभिन्न भूमिकाओं तथा प्रतिस्थतियों से अपना तादात्म्य स्थापित करता है।
  • बच्चा शैशवावस्था से तीन वर्ष की अवस्था तक परिवार तक ही सीमित रहता है।

परिवार मे ही वह भाषा, चलना, बोलना तथा परिवार के सदस्यों के बारे में जानता है। यह समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रथम चरण है। किंबाल यंग के अनुसार, “समाज के अंतर्गत समाजीकरण के विभिन्न माध्यमों में परिवार सबसे महत्वपूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं कि परिवार के अंतर्गत माता एवं पिता ही साधारणतया अत्यधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं।” किंबाल यंग ने आगे कहा है कि, “परिवार की स्थिति के अंतर्गत मौलिक अंत:क्रियात्मक साँचा बच्चे तथा माता का है।”

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प्रश्न 5.
फ्रायड द्वारा व्यक्तित्व की किन तीन उपकल्पनात्मक अवस्थाओं का वर्णन किया गया है?
उत्तर:
सिगमंड फ्रायड ने व्यक्तित्व के निर्माण की तीन उपकल्पनात्मक अवस्थाओं का उल्लेख किया है –

  1. इड
  2. अहं तथा
  3. पराअहं

इड में व्यक्ति की सभी अनुवांशिक तथा मूल प्रवृत्तियों का मनोवैज्ञानिक पहलू सम्मिलित होता है। इड सुख के सिद्धांत पर आधारित होता है। अहं वास्तविकता के सिद्धांत पर आधारित होता है। अहं व्यक्ति की क्रिया को निर्देशित करता है। पराअहं व्यक्तित्व के विकास की तीसरी अवस्था है। पराअहं व्यक्तित्व का नैतिक पहलू है तथा यह आदर्श के सिद्धांत से निर्देशित होता है। इसके द्वारा समाज के आदर्श प्रतिमानों तथा मूल्यों का प्रतिनिधित्व किया जाता है।

प्रश्न 6.
अनुकरण पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अनुकरण का अर्थ – अनुकरण सीखने की एक प्रक्रिया है। बच्चों द्वारा दूसरों के व्यवहार का अनुकरण उस स्थिति में किया जाता है, जब उन्हें पुरस्कार मिलता है। कुछ विद्वानों को मत है कि चेतनावस्था अथवा अचेतनावस्था में किए जाने वाले समस्त कार्य अनुकरण के अंतर्गत आते हैं। अनुकरण की परिभाषा-थाउलस के अनुसार, “अनुकरण एक प्रतिक्रिया है जिसके लिए उत्तेजक दूसरे को उसी प्रकार की प्रतिक्रिया का ज्ञान है।”

मैक्डूगल के अनुसार, “अनुकरण केवल एक मनुष्य द्वारा उन क्रियाओं, जो दूसरे के शरीर संबंधी व्यवहार से संबंधित हैं, की नकल करने पर लागू होता है।” मीड के अनुसार, “अनुकरण दूसरों के व्यवहारों या कार्यों को जान-बूझकर अपनाने को कहते हैं।”

अनुकरण का वर्गीकरण-गिंसबर्ग के अनुकरण को निम्नलिखित तीन वर्गों में विभाजित किया है –

  • प्राणिशास्त्रीय अनुकरण
  • भाव-चालक अनुकरण तथा
  • विवेकशील अथवा सप्रयोजन अनुकरण।

प्रश्न 7.
अभौतिक संस्कृति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
अभौतिक संस्कृति से तात्पर्य है –

  • अभौतिक संस्कृति का स्वरूप आंतरिक तथा अमूर्त होता है।
  • अभौतिक संस्कृति के अंतर्गत संज्ञानात्मक प्रतिमान आयामों तथा व्यक्तियों द्वारा रचित अमूर्त वस्तुओं को शामिल किया जाता है।
  • अभौतिक संस्कृति में विचार, भावनाएँ, ज्ञान, कला, प्रथा, विश्वास तथा कानून आदि को सम्मिलित किया जाता है। वास्तव में, विचारों तथा भावनाओं के स्तर पर संस्कृति अमूर्त होती है।
  • व्यक्ति द्वारा समाज के सदस्य के रूप में सीखे तथा विकसित किए गए प्रतीक तथा संचार माध्यम भी संस्कृति में सम्मिलित किए जाते हैं।

भाषा, वर्णमाला, धार्मिक चिह्न जैसे चाँद, सूरज, क्रास तथा स्वास्तिक आदि ऐसे प्रतीक चिह्न जिनके पीछे एक अर्थ छिपा होता है। इस प्रकार संस्कृति को उसके अर्थ के रूप में ही समझा जा सकता है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 8.
भौतिक संस्कृति से क्या तात्पर्य है?
उत्तर:
भौतिक संस्कृति का तात्पर्य इस प्रकार है –

  1. समाज के सदस्यों के रूप में व्यक्ति जिन वस्तुओं पर अधिकार रखता है वह भौतिक संस्कृति कहलाती है।
  2. भौतिक संस्कृति मानव-निर्मित, वस्तुपरक तथा मूर्त होती है।
  3. कुछ विद्वानों ने संस्कृति के पदार्थगत तथा भौतिक पक्ष पर अधिक बल दिया है।
  4. आदिम समय से लेकर वर्तमान समय तक व्यक्तियों द्वारा निर्मित उपकरण, गृह निर्माण की पद्धति, वस्त्र, संचार तथा यातायात के साधन, आभूषण आदि भौतिक वस्तुएँ हैं । इन भौतिक वस्तुओं को समाज के सदस्य ग्रहण करते हैं तथा उनका उपयोग करते हैं।
  5. इस प्रकार व्यक्तियों द्वारा उचित मूर्त वस्तुओं को भौतिक संस्कृति कहा जाता है। पदार्थ चूँकि अत्यधिक स्पष्ट होता है इसलिए संस्कृति को समझने का सरल स्वरूप है।
  6. जब किसी पुरातत्त्वशास्त्री द्वारा किसी प्राचीन नगर अथवा स्थान की खुदाई की जाती है तो उसे अनेक प्रकार के टेराकोटा, शिल्पकृतियाँ, रंगदार भूरे बर्तन तथा सिक्के इत्यादि मिलते हैं।
  7. वास्तव में ये सभी वस्तुएँ प्राचीन भौतिक संस्कृति के अवशेष कहे जाते हैं। इन वस्तुओं को ‘सांस्कृतिक पदार्थ’ भी कहा जाता है।

प्रश्न 9.
संस्कृति को समाज से किस प्रकार भिन्न किया जा सकता है?
उत्तर:
संस्कृति तथा समाज दो पृथक् – पृथक् अवधारणाएँ हो सकती हैं, लेकिन उनके बीच पाए जाने वाला संबंध इस अवधारणात्मक पर्दे को खत्म कर देता है। अध्ययन की सुविधा के लिए संस्कृति तथा समाज के संबंधों का अध्ययन निम्नलिखित बिन्दुओं के तहत किया जा सकता है –

  1. समाज तथा संस्कृति दोनों ही व्यक्तियों के बीच पारस्परिक अंत:क्रिया का परिणाम है।
  2. मेकाइवर तथा पेज के अनुसार, “समाज सामाजिक संबंधों का जाल है।” हॉबेल के अनुसार, “सांस्कृतिक मनुष्य मस्तिष्क में उत्पन्न हुई है।”
  3. संस्कृति तथा समाज एक – दूसरे के पूरक हैं। कोई भी समाज संस्कृति के बिना अस्तित्व में नहीं रह सकता है, ठीक इसी प्रकार संस्कृति भी समाज के बिना सार्थक नहीं हो सकती है।
  4. समाज संस्कृति के हस्तांतरण, गतिशीलता, परिवर्तन, विकास तथा सामंजस्य के लिए सामाजिक वातावरण प्रस्तुत करता है।
  5. दूसरी तरफ, संस्कृति के विकास के बिना सामाजिक परिवेश शून्य हो जाता है।
  6. संस्कृति समाजीकरण की प्रक्रिया का मुख्य तत्व है। जन्म के समय बालक का स्वरूप प्राणिशास्त्रीय होता है।
  7. संस्कृति तथा सांस्कृतिक प्रतिमान ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं।
  8. संस्कृति सीखे हुए प्रतिमानों का कुल योग है जो किसी समाज के सदस्यों की विशेषता है जो प्राणिशास्त्रीय पैतृक गुण का नतीजा नहीं है।
  9. संस्कृति वस्तुतः सामाजिक व्यवस्था का आधार होती है लेकिन समाज की अनुपस्थिति में सांस्कृतिक विकास सामाजिक निर्वात में नहीं हो सकता।
  10. इस प्रकार समाज तथा संस्कृति एक-दूसरे के पूरक होने के साथ अपरिहार्य भी हैं। एक की अनुपस्थिति में दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है।

प्रश्न 10.
“क्या संस्कृति उच्च और निम्न हो सकती है?” समझाइए।
उत्तर:
समाजशास्त्री रूप से जैसा कि हरस्कोविट्स का मत है, “संस्कृति मानव व्यवहार का सीखा हुआ भाग है।” प्रत्येक व्यक्ति समाज में रहकर व्यवहार के प्रतिमानों को सीखता रहता है। सीखने की यह प्रक्रिया सामाजिक अंत:क्रिया के माध्यम से शिशुकाल से ही शुरू हो जाती है। प्रत्येक समाज की संस्कृति तथा सांस्कृतिक प्रतिमान भिन्न होते हैं जो उसे दूसरे समाज से पृथक करते हैं। संस्कृति एक व्यापक तथा विस्तृत अवधारणा है जैसा कि टायलर ने लिखा है कि संस्कृति वह जटिल संपूर्णता है “जिसके अन्तर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा एवं सभी प्रकार की क्षमताएँ तथा आदतें, जो मनुष्य समाज के सदस्यों के नाते प्राप्त करता है, आती हैं।”

टायलर की परिभाषा से स्पष्ट है कि प्रत्येक संस्कृति ज्ञान, विज्ञान, कला, विश्वास तथा क्षमताओं आदि के आधार पर पृथक् होती है। इस प्रकार संस्कृति की भिन्नता ही अलग-अलग सांस्कृतिक क्षेत्र बना देती है। संस्कृतियों की उपलब्धियाँ भौतिक तथा अभौतिक सांस्कृतिक क्षेत्रों में उनकी प्रगति से आंकी जाती है। कुछ संस्कृतियों का भौतिक पक्ष अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा अधिक प्रगतिशील हो सकता है। विभिन्न संस्कृतियों के बीच परस्पर आदान-प्रदान सदैव चलता रहता है। एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के प्रतिमानों को ग्रहण करती है लेकिन कोई भी संस्कृति अपने मूल्यों का पूर्ण लुप्तिकरण

नहीं चाहती है। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान पश्चिमी संस्कृति को भारतीय संस्कृति पर थोपने का प्रयास किया गया, लेकिन इसका विरोध किया गया। इस प्रकार, साधारणतया एक संस्कृति दूसरी संस्कृति के भौतिक पक्ष को तो ग्रहण कर लेती है, लेकिन अभौतिक पक्ष के संदर्भ में ऐसा नहीं होता है । संस्कृति की संरचना चिंतन के प्रतिमानों, अनुभवों तथा व्यवहारों के माध्यम से होती है। चूँकि इन सभी तत्वों में भिन्नता पायी जाती है अतः विभिन्न संस्कृतियों में भिन्नतां स्वाभाविक है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 11.
सांस्कृतिक विलंबन की अवधारणा की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
सांस्कृतिक विलम्बन की अवधारणा-प्रसिद्ध समाजशास्त्री विलियम एफ ऑगबर्न द्वारा सांस्कृतिक विलंबन की अवधारणा का विकास किया गया है। समाज का आकार छोटा होने पर परिवर्तन की गति धीमी होती है तथा समाज में एकता पायी जाती है। ऐसी स्थिति में समाज में सामाजिक संतुलन पाया जाता है। दूसरी तरफ समाज में परिवर्तन की गति तीव्र होने पर सांस्कृतिक विलंबन तथा प्रतिमानहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऑगबन का मत है कि समय के संदर्भ में संस्कृति में सदैव परिवर्तन जारी रहता है। जैसा कि हम जानते हैं कि संस्कृति के दो पक्ष होते हैं –

  • भौतिक पक्ष तथा
  • अभौतिक पक्ष।

संस्कृति के भौतिक पक्षों अर्थात् उत्पादन, तकनीक, उपकरण तथा यातायात एवं संचार के साधनों में तेजी से परिवर्तन होता है। जबकि, संस्कृति के अभौतिक पक्षों अर्थात् जनरीतियों, प्रथाओं, विचारों तथा विश्वासों आदि में परिवर्तन की गति अपेक्षाकृत बहुत धीमी होती है।

संस्कृति के दोनों पक्षों अर्थात् भौतिक संस्कृति तथा अभौतिक संस्कृति में होने वाले परिवर्तन यदि साथ-साथ नहीं हो रहे हैं अथवा संस्कृति के जिस पक्ष में परिवर्तन की गति अपेक्षाकृत धीमी है, तो तनाव तथा दबाव उत्पन्न होता है। इसके फलस्वरूप सांस्कृतिक संतुलन बिगड़ जाता है।

संस्कृति के दोनों पक्षों के एकीकरण तथा पुनः सामंजस्य के स्तर तक पहुँचने में समय लगता है। ऑगबन ने इस स्थिति को सांस्कृतिक विलंबन का नाम दिया है। सांस्कृतिक विलंबन की स्थिति को एक उदाहरण से अच्छी तरह से समझा जा सकता है। ब्रिटिश शासन के दौरान अनेक भारतीयों ने अंग्रेजी शिक्षा तथा वेशभूषा को तो स्वीकार किया, लेकिन वे अपनी सामाजिक प्रथाओं तथा जाति व्यवस्था से पृथक् नहीं हो सके । कभी-कभी ऐसा भी होताा है कि तीव्र गति से परिवर्तन होने की स्थिति में पुराने सांस्कृतिक प्रतिमान तो प्रभावहीन हो जाते हैं, लेकिन उनके स्थान पर नए सामाजिक प्रतिमान विकसित नहीं हो पाते हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिमानहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

प्रश्न 12.
हम कैसे दर्शा सकते हैं कि संस्कृति के विभिन्न आयाम मिलकर समग्र बनाते हैं?
उत्तर:
संस्कृति के तीन आयाम प्रचलित हैं –

  1. संज्ञानात्मक – इसका संदर्भ हमारे द्वारा देखे या सुने गए को व्यवहार में लाकर उसे अर्थ प्रदान करने की प्रक्रिया से है। जैसे अपने मोबाइल फोन की घंटी को पहचानना किसी नेता के कार्टून की पहचान करना।
  2. मानकीय – इसका संबंध आचरण के नियमों से है। जैसे अन्य व्यक्तियों के पत्रों को न खोलना, निधन पर कर्मकांडों का निष्पादन।
  3. भौतिक – इसमें भौतिक साधनों के प्रयोग से संभव कोई भी क्रियाकलाप शामिल है। भौतिक पदार्थों में उपकरण या यंत्र भी शामिल हैं। जैसे इंटरनेट चेटिंग, जमीन पर अल्पना बनाने के लिए चावल के आटे का उपयोग किया जाता है।

प्रश्न 13.
संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयामों की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
प्रतिमानात्मक आयामों का अर्थ –

  1. संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयामों के अंतर्गत नियमों, अपेक्षाओं तथा मानवीकृत कार्यविधियों को सम्मिलित किया जाता है।
  2. प्रतिमानात्मक आयाम संस्कृति के दूसरे बड़े तत्त्व के रूप में जाने जाते हैं।
  3. संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयामों द्वारा व्यक्तियों के बीच अंत:क्रिया की पुनरावृत्ति को प्रोत्साहन दिया जाता है। पूर्वानुमानों का इसमें आलोचनात्मक महत्त्व होता है।
  4. प्रतिमानों के द्वारा व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित किया जाता है। प्रतिमान जनरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं तथा कानून के रूप में वर्गीकृत किए जा सकते हैं।
  5. प्रतिमान की अवधारणा के अंतर्गत चिंतन के बजाए कार्य करने के तरीकों को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है।
  6. आचरण में प्रतिमानों की उपस्थिति निहित होती है जबकि व्यवहार, आवेग अथवा प्रत्युत्तर हो सकता है।
  7. व्यक्ति के आचरण को मान्यता समाज द्वारा निर्धारित प्रतिमानों से ही प्राप्त होती है।
  8. प्रतिमान सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपरिहार्य हैं। इस प्रकार प्रतिमान तथा मूल्य संस्कृति को समझने हेतु एक केन्द्रीय अवधारणा है।

प्रश्न 14.
समाजीकरण क्या है?
उत्तर:
समाजीकरण का अर्थ – व्यक्तियों द्वारा सामाजिक संपर्कों के माध्यम से सीखने की प्रक्रिया को ही समाजीकरण कहा जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया से ही प्राणी सामाजिक प्राणी बनता है।

समाजीकरण की परिभाषा – रोज तथा ग्लेजर के अनुसार, “समाजीकरण समाज तथा संस्कृति के विश्वासों, मूल्यों तथा प्रतिमानों एवं सामाजिक भूमिकाओं को सीखने की प्रक्रिया है।” गुडे के अनुसार, “समाजीकरण के अंतर्गत वे समस्त प्रक्रियाएँ आती हैं जिनसे कोई बचपन से वृद्धावस्था तक अपने सामाजिक कौशल, भूमिका, प्रतिमान, मूल्य तथा व्यक्तित्व के प्रति रूप ग्रहण करता है।”

ऑगबर्न के अनुसार, “समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिससे कि व्यक्ति समूह के आदर्श नियमों के अनुसार व्यवहार करना सीखता है।” एच. टी. मजूमदार के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा मूल प्रकृति मानव प्रकृति में बदल जाती है तथा पुरुष व्यक्ति बन जाता है।” जॉनसन के अनुसार, “समाजीकरण एक प्रकार का सीखना है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने के योग्य बनाता है।” उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि समाजीकरण मानवीय शिशु के जैविकीय प्राणी रूप से सामाजिक मनुष्य में रूपांतरण है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार की भूमिका की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार की भूमिका-परिवार समाज की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है। परिवार समाज का दर्पण है। इसके अंतर्गत समाज में पाए जाने वाले सभी आदर्श, मूल्य, प्रस्थितियाँ, व्यवहार प्रतिमान तथा भूमिकाएँ पायी जाती हैं। यही कारण है कि परिवार समाजीकरण की प्रक्रिया का सशक्त तथा प्राथमिक माध्यम है।

समाजीकरण सीखने की प्रक्रिया है तथा इसके जरिए समाज की विशेषताओं तथा तत्त्वों को ग्रहण किया जाता है। मेकाइवर के अनुसार, “समाजीकरण एक प्रक्रिया है जिसके द्वारा सामाजिक प्राणी एक-दूसरे के साथ अपने व्यापक तथा घनिष्ठ संबंध स्थापित करते हैं जिसमें वे एक-दूसरे से अधिकाधिक बँध जाते हैं तथा एक-दूसरे के प्रति अपने कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों की भावना का विकास करते हैं, जिसमें वे अपने एवं दूसरों के व्यक्तित्व को अधिक अच्छी तरह समझने लगते हैं तथा जिसमें वे निकट एवं अधिक साहचर्य की जटिल संरचना का निर्माण करते हैं।”

परिवार समाजीकरण के सबसे महत्त्वपूर्ण माध्यम के रूप में परिवार समाज का प्राथमिक समूह है। परिवार के सभी सदस्यों की अपनी-अपनी प्रस्थितियाँ तथा भूमिकाएँ होती हैं। उदाहरण के लिए, माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य अपने उत्तरदायित्वों का निर्वाह निर्धारित मापदंडों के अनुरूप करते हैं। बच्चा परिवार के आदर्शों, मूल्यों तथा प्रतिमानों को आत्मसात् करता है तथा उनके साथ अपना तादात्म्य कायम करता है। इस प्रकार परिवार बच्चे के समाजीकरण की प्रक्रिया की नर्सरी है, जहाँ से बच्चा समाजीकरण की प्रक्रिया से निकलकर समाज में अनुकूलन करना सीखत है।

जॉनसन के अनुसार, “परिवार विशेष रूप से इस प्रकार संगठित रहता है जो समाजीकरण को संभव बनाता है।” किंबाल यंग के अनुसार, “पारिवारिक स्थिति के अंतर्गत मौलिक अंत: क्रियात्मक साँचा बच्चे तथा माता का है।” किंबाल यंग ने आगे कहा है कि “समाज के अंतर्गत, समाजीकरण के विभिन्न माध्यमों में परिवार सबसे महत्वपूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं कि परिवार के अंतर्गत माता एवं पिता की साधारतया अत्यधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हैं। अपने जन्म से लेकर तीन वर्ष तक बालक प्रायः परिवार से बाहर कोई संबंध नहीं रखता है। परिवार के सदस्यों के मूल्यों, प्रतिमानों तथा व्यवहारों आदि का बच्चे के समाजीकरण पर काफी अधिक प्रभाव पड़ता है। उदाहरण के लिए, जो माता-पिता परिवार में बच्चों को सशक्त सामाजिक तथा सांस्कृतिक आधार प्रदान करते हैं, उन परिवारों में समाजीकरण की प्रक्रिया निर्दोष। रूप से चलती रहती है।

दूसरी तरफ, जिन परिवारों में बच्चों को संतुलित सामाजिक तथा सांस्कृतिक आधार नहीं मिल पाता, वहाँ समाजीकरण की प्रक्रिया में बाधा पड़ जाती है। प्रत्येक परिवार अपने बच्चों को समाज के मूल्यों तथा प्रतिमानों के अनुरूप ढालने का प्रयास करता है।

किंबल यंग – के अनुसार सांस्कृतिक अनुकूलन परिवार में ही होता है। किंबाल यंग ने इस बारे में लिखा है कि “यह इस प्रकार से माना गया है जिसमें परिवार के सदस्य और विशेष रूप से माता पिता एक दिए हुए समाज के मौलिक सांस्कृतिक प्रतिमानों का परिचय बच्चे को देते हैं।

अंततः हम कह सकते हैं कि परिवार समाजीकरण की प्रक्रिया का अत्यंत महत्वपूर्ण तथा निर्णायक मा

प्रश्न 2.
संस्कृति को परिभाषित कीजिए।
उत्तर:
संस्कृति का शाब्दिक अर्थ-संस्कृति शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के ‘कोलरे’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ है कृषि कार्य अथवा जमीन जोतना।

(i) संस्कृति का सामान्य अर्थ – मनुष्यों की समस्त कृतियाँ तथा सीखे हुए व्यवहार संस्कृति के अंतर्गत सम्मिलित किए जाते हैं जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते रहते हैं। प्रत्येक समाज की अपनी विशिष्ट संस्कृति होती है जो उसे दूसरे समाजों से पृथक् कर देती है। कोई भी व्यवहार जिसे व्यक्ति समाज से प्राप्त करता है अथवा जो समूह में सहभागिता के कारण व्यक्ति की आदत का हिस्सा बना जाता है, उसे सीखा हुआ व्यवहार कहा जाता है। अतः संस्कृति व्यक्ति द्वारा सीखने अथवा विकसित होने की वह प्रक्रिया है जो सामाजिक अंत:क्रिया के साथ-साथ चलती है।

(ii) संस्कृति की परिभाषा – विभिन्न मानवशास्त्रियों तथा समाजशास्त्रियों तो ने संस्कृति की अवधारणा को अलग-अलग प्रकार से परिभाषित किया है यंग तथा मैक के अनुसार, “संस्कृति सीखा हुआ तथा भागीदारी का व्यवहार है।” हॉबेल के अनुसार, “संस्कृति सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का कुल योग है।” हकोविट्स के अनुसार, “संस्कृति मानव व्यवहार का सीखा हुआ भाग है।” टायलर के अनुसार, “संस्कृति वह जटिल संपूर्णता है जिसके अंतर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा तथा सभी तरह की क्षमताएँ एवं आदतें जो वयक्ति समाज के एक सदस्य के नाते प्राप्त करता है, आती हैं।”

राल्फ लिंटन के अनुसार, “संस्कृति समाज के सदस्यों के जीवन का तरीका है, यह विचारों तथा आदतों का संग्रह है, जिन्हें व्यक्ति सीखते हैं, भागीदारी करते हैं तथा एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को हस्तांरित करते हैं।”

क्लाइड क्लूखोन – के अनुसार, “संस्कृति व्यक्तियों के समग्र जीवन का एक तरीका है।” संस्कृति की उपरोक्त परिभाषाओं से निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट होती है –

  • संस्कृति की उत्पत्ति व्यक्ति के मस्तिष्क से हुई है।
  • संस्कृति सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का कुल योग है जो किसी समाज के सदस्यों की विशेषता है जो प्राणिशास्त्रीय पैतृक गुणों का परिणाम नहीं है।
  • संस्कृति का हस्तांतरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को होता है।
  • संस्कृति मनुष्य की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करती है।
  • संस्कृति गतिशील तथा परिवर्तनशील होती है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 3.
संस्कृति की अवधारणा का उद्भव कैसे हुआ?
उत्तर:
(i) संस्कृति का अर्थ – संस्कृति के अंतर्गत व्यक्तियों की समस्त कृतियाँ तथा सीखे हुए व्यवहार को सम्मिलित किया जाता है। यंग तथा मैक के अनुसार, “संस्कृति सीखा हुआ और भागीदारी का व्यवहार है।” व्यवहार का तात्पर्य विचार, भावना तथा बाह्य क्रियाओं से है। जहाँ तक किसी भी व्यवहार का संस्कृति का हिस्सा बनने का सवाल है, यह भी होता है जबकि ज्यादातर समूह के सदस्यों की उसमें भागीदारी हो।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि एक व्यक्ति का विशेष व्यवहार संस्कृति नहीं हो सकता है। वास्तव में, जिस व्यवहार को व्यक्ति समाज से प्राप्त करता है या जो समूह में सहभागिता के कारण व्यक्ति की आदत का हिस्सा बन जाता है, उसे सीखा हुआ व्यवहार कहा जाता है।

अत: कहा जा सकता है कि संस्कृति व्यक्ति द्वारा सीखने तथा विकसित करने की वह प्रक्रिया है जो सामाजिक अंत:क्रिया के साथ-साथ चलती है। प्रसिद्ध मानवशास्त्री टायलर के अनुसार, “संस्कृति एक ऐसी जटिल संपूर्णता है जिसके अंतर्गत ज्ञान, विश्वास, कला, नैतिकता, कानून, प्रथा तथा समाज के एक सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा प्राप्त अन्य क्षमताएँ तथा आदतें शामिल की जाती हैं। हॉबेल ने भी कहा है कि “संस्कृति सीखे हुए व्यवहारों या प्रतिमानों का कुल योग है।”

हरस्कोविट्स के अनुसार, “संस्कृति मानव व्यवहार का सीखा हुआ “राग है।”

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर संस्कृति के निम्नलिखित प्रमुख तत्व हैं –

  • व्यक्ति द्वारा समाज के सदस्य के रूप में धारण की गई आदतें तथा क्षमताएँ।
  • भाषा तथ उपकरण बनाने के तरीके।
  • विश्वास, ज्ञान, कला, नैतिकता, प्रथा तथा कानून।
  • सांस्कृतिक प्रतिमान एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होते हैं।
  • संस्कृति सदैव गतिशील तथा परिवर्तनशील होती है।

(ii) संस्कृति का शाब्दिक अर्थ – संस्कृति शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के कोलरे शब्द से हुई है जिसका तात्पर्य कृषि कार्य करना अथवा जमीन जोतना है। 18वीं तथा 19वीं सदियों में संस्कृति शब्द व्यक्तियों के परिमार्जन के लिए प्रयोग होने लगा। इसी कारण राल्फ लिंटन ने कहा है कि “संस्कृति समाज के सदस्यों के जीवन का तरीका है। इसमें व्यक्ति विचारों तथा व्यवहारों को सीखता है, एक-दूसरे सधे ग्रहण करता है तथा एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी को हस्तारित करता है।”

(iii) भौतिक तथा अभौतिक संस्कृति – भौतिक संस्कृति का स्वरूप मूर्त होता है। इसके अन्तर्गत उपकरण, प्रौद्योगिकी, उद्योग तथा यातायात एवं संचार को सम्मिलित किया जाता है अभौतिक संस्कृति का स्वरूप अमूर्त होता है। इसके अंतर्गत विश्वास, ज्ञान विचार, कला, प्रथा तथा कानून आदि सम्मिलित किए जाते हैं।

(iv) संस्कृति के प्रमुख आयाम – संस्कृति के निम्नलिखित तीन प्रमुख आयाम हैं –

  • संज्ञानात्मक आयाम-संस्कृति के संज्ञानात्मक आयामों के अंतर्गत अंधविश्वासों, वैज्ञानिक तथ्यों, धर्म तथा कलाओं को सम्मिलित किया जाता है।
  • प्रतिमानात्मक आयाम-संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयामों के अंतर्गत नियमों, अपेक्षाओं तथा मानकीकृत कार्यविधियों को सम्मिलित किया जाता है।
  • भौतिक आयाम-संस्कृति के भौतिक आयामों के अंतर्गत मौलिक दशाओं का उल्लेख किया जाता है। इसमें आवास, कपड़ा, उपकरण, आभूषण, यातायात तथा संचार के साधनों को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 4.
संस्कृति की विशेषताओं की सूची दीजिए।
उत्तर:
हरस्कोविट्स का मत है कि “संस्कृति मानव व्यवहार का सीखा हुआ भाग है।” सी.एस.कून ने कहा है कि “संस्कृति उन विधियों का कुल योग है, जिनमें मनुष्य एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सीखने के कारण रहता है।”

संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

(i) संस्कृति व्यक्तियों की कृति है-संस्कृति का निर्माण, विकास तथा गति व्यक्तियों के बीच सांस्कृतिक अंत:क्रिया के जरिए होती है। होबेल के अनुसार, “संस्कृति व्यक्ति के मस्तिष्क में उत्पन्न हुई है।” व्यक्तियों में संस्कृति का निर्माण करने तथा उसे ग्रहण करने की क्षमता होती है। यही कारण है कि कोत तथा क्रोबर ने व्यक्ति को अतिप्राणी कहा है।

(ii) संस्कृति सीखा हुआ व्यवहार-संस्कृति को व्यक्तियों द्वारा सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों का कुल योग कहा जाता है । व्यक्ति सांस्कृतिक प्रतिमानों के विभिन्न स्वरूपों को समाज में रहकर ही सीखता है। हॉबेल के अनुसार, “संस्कृति सीखे हुए व्यवहार प्रतिमानों को योग है जो किसी समाज के सदस्यों की विशेषता है जो प्राणिशास्त्रीय पैतृक गुण का परिणाम नहीं है।”

(iii) संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती है-संस्कृति का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरण सतत् रूप से चलता रहता है । सी. एस. कून के अनुसार, “संस्कृति उन विधियों का कुल योग है, जिनमें व्यक्ति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सीखने के कारण रहता है।”

(iv) संस्कृति व्यक्तियों की मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है-संस्कृति मनुष्य की सामाजिक तथा प्राणिशास्त्रीय आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। मेलिनवॉस्की ने मानव आवश्यकताओं को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बाँटा है

  • प्राथमिक अथवा मौलिक आवश्यकताएँ – भोजन तथा मैथुन आदि मनुष्य की प्राथमिक आवश्यकताएँ हैं। ये मनुष्य के सामाजिक तथा प्राणिशास्त्रीय अस्तित्व के लिए आवश्यक हैं।
  • द्वितीयक आवश्यकताएँ – द्वितीयक आवश्यकताओं में उन सभी कार्यों तथा प्रविधियों को सम्मिलित किया जाता है जो मनुष्य के जीवन के सुगम संचालन हेतु आवश्यक हैं। तृतीयक आवश्यकताएँ-तृतीयक आवश्यकताओं के अंतर्गत शिक्षा, धर्म, राजनीति तथा आर्थिक संस्थाएँ, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी आदि आते हैं।

(v) भाषा संस्कृति का मुख्य वाहक है- भाषा के माध्यम से ही संस्कृति तथा सांस्कृतिक प्रतिमानों का पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरण होता रहता है । इस प्रकार, भाषा संचित ज्ञान को हस्तांतरित करने का मुख्य वाहक है।

(vi) संस्कृति की प्रकृति गतिशील होती है-संस्कृति कभी भी स्थिर नहीं होती है। यह सदैव गतिशील रहती है। यह गति कम या अधिक हो सकती है। जैसा कि हम जानते हैं कि भौतिक संस्कृति तथा अभौतिक संस्कृति गतियों में अंतर आने से सांस्कृतिक विलंबन की स्थिति हो जाती हैं।

(vii) संस्कृति सदैव आदर्शात्मक होती है-संस्कृति व्यक्ति के समक्ष समूह के आदर्श तथ्य प्रस्तुत करती है। ये आदर्श तथा प्रतिमान ही मनुष्य के व्यक्तित्व के प्रमुख तत्व होते हैं। संस्कृति प्रत्येक परिस्थिति के लिए मानव व्यवहार के आदर्श प्रतिमान प्रस्तुत करती है।

(viii) सामाजिक व्यवस्था का प्रमुख आधार-संस्कृति सामाजिक प्रतिमानों, सामाजिक संरचना तथा सामाजिक व्यवस्था का निर्माण तथा विकास करती है। इस प्रकार, संस्कृति सामाजिक व्यवस्था का आधार है।

हरकोविट्स ने संस्कृति के निम्नलिखित लक्षण बताए हैं –

  • संस्कृति एक सीखा हुआ तथा अर्जित व्यवहार है।
  • संस्कृति मानव अनुभवों के प्राणिशास्त्रीय पर्यावरण संबंधी मनोवैज्ञानिक तथा ऐतिहासिक तत्वों से प्राप्त होती है।
  • संस्कृति संरचित होती है। इसके अंतर्गत चिंतन, भावनाओं तथा व्यवहारों के संगठित प्रतिमान सम्मिलित होते हैं।
  • संस्कृति को पहलुओं में विभाजित किया जाता है।
  • संस्कृति गतिशील होती है।
  • संस्कृति परिवर्तनशील तथा सापेक्षिक होती है।
  • संस्कृति के द्वारा नियमितताओं को प्रदर्शित किया जाता है जो कि विज्ञान की पद्धतियों के द्वारा इसके विश्लेषण की अनुमति देता है।
  • संस्कृति एक यंत्र है जिसमें व्यक्ति सामंजस्य तथा संपूर्ण समायोजन द्वारा रचनात्मक अनुभवों को प्राप्त करता है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 5.
समाजीकरण की प्रक्रिया में व्यक्ति के विकास का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
समाजीकरण की प्रक्रिया तथा व्यक्ति का विकास –

(i) समाजीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत व्यक्ति समाज के आदर्शों, प्रतिमानों, मूल्यों तथा व्यवहारों को सीखता है। जॉनसन के अनुसार, “समाजीकरण एक सोखता है जो सीखने वाले को सामाजिक कार्य करने योग्य बनाता है।”

(ii) समाजीकरण प्रत्येक समाज में पाया जाता है। इस प्रक्रिया के द्वारा प्राणी न केवल सामाजिक मनुष्य बनता है वरन् मानव भी बनता है।

(iii) जन्म के समय मनुष्य पशु के समान होता है। समाज में ही मनुष्य का समाजीकरण होता है। प्रसिद्ध विद्वान् अरस्तू के अनुसार, “मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है।” प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैक्डूगल ने सामूहिकता की मूल प्रवृत्ति का उल्लेख किया है।

(iv) यदि व्यक्ति को जन्म के समय सामाजिक परिवेश नहीं मिल पाता है तो वह सामाजिक मानव नहीं बन पाता है।

इस संबंध में निम्नलिखित उदाहरण दिए जा सकते हैं –

(i) कमला तथा अमला – 1920 ई. में बंगाल में पादरी जे. सिंह को भेड़ियों के पास से दो बच्चे मिले। कमला की आयु 8 वर्ष थी तथा अमला की 12 वर्ष थी । ये बच्चे भेड़ियों के समान ही रहते थे तथा खाते थे। दिन के समय ये बच्चे अधिक चलते-फिरते नहीं थे, जबकि रात के समय घूमते थे। सामाजिक परिवेश में पालन-पोषण के बाद इनके व्यवहार तथा मूल प्रवृत्तियों में परिवर्तन आया । अमला की मृत्यु 15 महीने बाद हो गई । कमला 512 साल तक लगातार सीखने के बाद भी ठीक से नहीं चल पाता थी। दौड़ने के समय हाथों का प्रयोग करती थी। वह केवल 45 शब्द ही सीख पायी। 17 वर्ष की आयु में उसकी भी मृत्यु हो गयी।

(ii) अवेरान का जंगली बालक-फ्रांस के अवेरान जंगल में एक बालक मिला था । वह जानवरों की तरह खाता था तथा उन्हीं की तरह हरकतें करता था। फ्रांस के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक पिनेल ने इस बालक को जड़बुद्धि कहकर छोड़ दिया। 11 वर्ष की आयु में भी यह बालक 1 साल के बालक की क्षमताएँ रखता था।

ईतार्द ने पिनेल – के विश्लेषण को स्वीकार नहीं किया। उसने कहा कि यदि यह बालक जड़बुद्धि होता तो जंगल की विषम परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाता । ईतार्द ने उसे पाला । धीरे-धीरे वह बालक समाजीकरण की धारा में बहने लगा। वह गर्मी तथा सर्दी में अंतर करने लगा । यद्यपि वह बोलना तो नहीं सीख सका तथापि प्रसन्नता तथा क्रोध के उद्वेगों को प्रकट करने लगा।

सांकेतिक भाषा का प्रयोग करने लगा। उदाहरण के लिए, यदि वह बालक दूध चाहता था तो दूध का बर्तन आगे कर देता था। ईतार्द ने The Wild Boy of Aveyron ने लिखा है कि “विक्टर ने एक जंगली से यह सीखा कि किस प्रकार मानव समाज में रहना चाहिए तथा साधारण इच्छाओं को किस प्रकार एक लिखित भाषा में अभिव्यक्त करें, लेकिन उसने अन्य समान आयु के बालकों से कभी योग्यता की बारबरी नहीं की। बचपन में मानव समाज के अभाव ने बालक में इतनी अधिक रुकावटें उत्पन्न कर दी कि अत्यधिक प्रयत्नों के बावजूद भी बहुत कम परिणाम निकले।

इसके अतिरिक्त, अन्ना तथा ईजावेल के उदाहरण भी इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि जन्म के समय मनुष्य केवल एक पशु होता है, समाज ही उसे मानव बनाता है। समाज में अंत:क्रिया द्वारा ही सामाजिक गुणों, व्यवहारों, आदर्शों, प्रतिमानों तथा मूल्यों को सीखता है। गिटलर के अनुसार, “सामाजिक जीव बनने के लिए, मनुष्य को आदतें, विश्वासों, ज्ञान, अभिवृत्तियों तथा स्थायी भावों जैसे उच्च जैविक लक्षणों को प्राप्त करना चाहिए, जो उसमें अन्य व्यक्तियों की संगति से विकसित होते हैं तथा जिनमें ये गुण पाए जाते हैं।”

अंत में कहा जा सकता है कि बचपन से लेकर मृत्यु मनुष्य तक समाज से कुछ न कुछ सीखता रहता है। समाज के मूल्यों, आदर्शों, प्रतिमानों के साथ तादात्म्य ही समाजीकरण कहलाता है।

समाजीकरण के मुख्य चरण – समाजीकरण की क्रिया के निम्नलिखित चरण व्यक्ति के विकास में सहायक हैं –

(i) शिशु का समाजीकरण – शैशवावस्था में समाजीकरण की प्रक्रिया परिवार में होती है। बच्चा अपने माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों से सामाजिक अंत:क्रिया करता है । परिवार में ही वह भाषा, चलना-फिरना तथा खाना-पीना सीखता है। यह समाजीकरण की प्रक्रिया का प्रथम चरण है।

(ii) बालक का समाजीकरण – समाजीकरण के द्वितीय चरण में बालक पड़ोस, मित्रमंडली, विद्यालय, अध्यापकों तथ सहपाठियों के संपर्क में आता है। उसकी सामाजिक अंत:क्रिया का क्षेत्र व्यापक हो जाता है।

(iii) किशोरावस्था में समाजीकरण – समाजीकरण का यह तीसरा चरण है । इस अवस्था में समाजीकरण परिवेश से अत्यधिक प्रभावित होता है। नगरीय, ग्रामीण तथा जनजातीय इलाकों में समाजीकरण के अभिकर्ता पृथक्-पृथक होते हैं।

(iv) वयस्क समाजीकरण-समाजीकरण की प्रक्रिया के इस चरण में समाजीकरण में आयाम तथा अभिकर्ता बदल जाते हैं। समाजीकरण का दायरा अत्यधिक व्यापक हो जाता है। व्यक्ति भविष्य की विभिन्न भूमिकाओं की तैयारी वर्तमान में ही करने लगता है। इस प्रकार के समाजीकरण को पूर्वपेक्षित समाजीकरण कहते हैं।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 6.
समाजीकरण के विभिन्न अभिकरणों अथवा संस्थाओं का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
समाज समाजीकरण की प्रक्रिया को संभव बनाता है। इस संबंध में किंबाल यंग ने उचित ही कहा है, “समाज के अंतर्गत, समाजीकरण के विभिन्न माध्यमों में परिवार सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, इसमें कोई संदेह नहीं कि परिवार के अंतर्गत माता तथा पिता ही साधारणतया अत्यधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं।” समाजीकरण के अन्य माध्यमों में पड़ोस, संबंधी, प्राथमिक समूह के सदस्य, साथ ही साथ द्वितीयक समूह बाद की सदस्यता में आते हैं।”

समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण निम्नलिखित हैं –

(i) परिवार – परिवार समाजीकरण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अभिकरण है। परिवार समाज के आदर्शों, मूल्यों, प्रतिमानों तथा व्यवहारों का प्रतिनिधित्व करता है। समाजीकरण की प्रक्रिया में परिवार की भूमिका अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तथा निर्णायक है। जॉनसन के अनुसार, “परिवार विशेष रूप से इस प्रकार संगठित रहता है जो समाजीकरण को संभव बनाता है।”

परिवार की सामाजिक तथा आर्थिक स्थिति का बच्चों के विकास पर अत्यधिक प्रभाव पड़ता है। किंबाल यंग के अनुसार,” जिसमें परिवार के सदस्य तथा विशेष रूप से माता तथा पिता एक दिए हुए समाज के मौलिक सांस्कृतिक नियमों से बच्चे को परिचय दिलाते हैं।”

(ii) समान आयु समूह – समान आयु समूह समाजीकरण का प्राथमिक तथा सशक्त अभिकरण है। बच्चा परिवार से बाहर अपनी आयु के बच्चों के साथ अंत:क्रिया करता है वह अन्य बच्चों के साथ खेलता है तथा पारस्परिकता के नए आयाम सीखता है।

(iii) पड़ोस – पड़ोस भी समाजीकरण का सशक्त माध्यम है। बच्चे पड़ोस में रहने वाले व्यक्तियों के संपर्क में आकर अनेक बातें सीखते हैं।

(iv) नातेदारी समूह – नातेदारी समूह भी समाजीकरण के महत्वपूर्ण अभिकरण हैं। नातेदारी समूहों में बच्चे समाजीकरण की अनेक बातें सीखते हैं।

(v) शिक्षा संस्थाएँ – शिक्षण संस्थाएँ समाजीकरण का द्वितीयक तथा औपचारिक माध्यम हैं । बच्चा स्कूल में अपने सहपाठियों तथा अध्यापकों के संपर्क में आकर अनेक बातें सीखता है।

(vi) अन्य द्वितीयक समूह – प्राथमिक समूहों के अलावा द्वितीयक समूह भी समाजीकरण की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। द्वितीयक समूहों के अंतर्गत राजनीतिक दल, जाति, सांस्कृतिक समूह, वर्ग, भाषा समूह, धार्मिक समूह तथा व्यावसायिक समूह आदि आते हैं।

प्रश्न 7.
संस्कृति के मुख्य अंग कौन से हैं ?
उत्तर:
सल्फ लिंटन के अनुसार, “संस्कृति समाज के सदस्यों के जीवन का तरीका है। इसमें व्यक्ति विचारों तथा व्यवहारों को सीखता है, एक-दूसरे से ग्रहण करता है तथा एक पीढ़ी से दूसरी को हस्तारित करता है।”

संस्कृति के मुख्य अंग निम्नलिखित हैं –

  • संज्ञानात्मक आयाम
  • प्रतिमानात्मक आयाम
  • भौतिक आयाम

1. संज्ञानात्मक आयाम –
(a) संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम के अंतर्गत अंधविश्वास, वैज्ञानिक तथ्य, मिथक, कला तथा धर्म सम्मिलित हैं।

(b) संज्ञानात्मक आयाम संस्कृति के एक महत्वपूर्ण तत्व हैं जो चिंतन की पद्धतियों को प्रतिबिंबित करते हैं। विचारों के द्वारा संस्कृति के संज्ञानात्मक आयाम को स्पष्ट किया जाता है जिसमें ज्ञान तथा विश्वास सम्मिलित होते हैं। विचार समाज में रहने वाले व्यक्तियों की बौद्धिक धरोहर होते हैं । शिक्षित समाज में विचारों को पुस्तकों तथा दस्तावेजों के रूप में अभिलेखित कर लिया जाता है।

(c) दूसरी तरफ अशिक्षित समाज में विचारों का निर्माण लोकरीतियों तथा जनजातीय दंत कथाओं से होता है। इस प्रकार विचार संस्कृति का प्रथम मुख्य तत्व है।

(d) जहाँ तक संज्ञान की प्रक्रिया का सवाल है, इसके निर्माण में सभी लोग भागीदारी करते हैं, सभी लोग चिंतन करते हैं, अनुभव करते हैं पहचानते हैं तथा अतीत की वस्तुओं का स्मरण करते हैं व उन्हें वास्तविक तथा काल्पनिक भविष्य के बारे में प्रक्षेपित करते हैं। संज्ञान एक सामाजिक प्रक्रिया है जो व्यक्तियों को समझने के योग्य बनाती है तथा उन्हें उनके वातावरण से संबद्ध करती है।

(e) संस्कृति द्वारा सांस्कृतिक विश्वासों को व्यापक आधार पर स्वीकार किया जाता है। कुछ विश्वास, आदतें तथा परम्पराएँ सत्ता की अपील पर माने जाते हैं लेकिन वास्तविक रूप से ये असत्य होते हैं। दूसरी तरफ, जो आदतें तथा परंपराएँ अन्य अधिकारिक स्रोतों पर आधारित होती हैं तथा जिन्हें आलोचनात्मक अवलोकन द्वारा प्रमाणित किया जाता है, उन्हें सत्य-स्वीकार किया जाता है।

2. प्रतिमानात्मक आयाम –
(a) संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयामों के अंतर्गत नियमों, अपेक्षाओं तथा मानवीकृत कार्यविधियों को सम्मिलित किया जाता है।

(b) प्रतिमानात्मक आयाम संस्कृति के दूसरे बड़े तत्व के रूप में जाने जाते हैं। संस्कृति के प्रतिमानात्मक आयामों द्वारा व्यक्तियों के बीच अंतःक्रिया को प्रोत्साहित किया जाता है। पूर्वानुमानों का इसमें आलोचनात्मक महत्त्व होता है।

(c) प्रतिमानों के द्वारा व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित किया जाता है। प्रतिमान जनरीतियों, रूढ़ियों, प्रथाओं तथा कानून के रूप में वर्गीकृत किए जा सकते हैं। प्रतिमान की अवधारणा के अंतर्गत चिंतन बजाए कार्य करने के तरीकों को अधिक महत्व प्रदान किया जाता है।

(d) आचरण में प्रतिमानों की उपस्थिति निहित होती है जबकि व्यवहार, आवेग अथवा प्रत्युत्तर हो सकता है। व्यक्ति का आचरण मान्य समाज द्वारा निर्धारित प्रतिमानों से ही प्राप्त होती है। प्रतिमान सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपरिहार्य हैं । इस प्रकार, प्रतिमान तथा मूल्य संस्कृति को समझने हेतु एक केन्द्रीय अवधरणा है।

3. भौतिक आयाम –
(a) संस्कृति के भौतिक आयामों के अंतर्गत कुछ वस्तुएँ जैसे कि कपड़ा, आवास, उपकरण, आभूषण, रेडियो तथा संगीत वाद्ययंत्र आदि आते हैं।

(b) भौतिक आयामों में उन वस्तुओं को सम्मिलित किया जाता है, जिन्हें समाज के सदस्यों द्वारा ग्रहण किया जाता है अथवा जिन्हें वे उपयोग में लाते हैं।

(c) व्यक्तियों द्वारा रचित मूर्त वस्तुओं को भौतिक संस्कृति कहते हैं । पदार्थ अत्यधिक स्पष्ट होने के कारण संस्कृति को जानने का सरलतम स्वरूप है।

(d) भौतिक संस्कृति के साथ अभौतिक संस्कृति के अंतर्गत संस्कृति के संज्ञानात्मक आयामों तथा प्रतिमानात्मक आयामों को सम्मिलित किया जाता है । भौतिक संस्कृति तक अभौतिक संस्कृति के तत्वों में घनिष्ठ संबंध होता है।

प्रश्न 8.
उन दो संस्कृतियों की तुलना करें जिनसे आप परिचित हों। क्या नृजातीय बनना कठिन नहीं है ?
उत्तर:
Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण
क्या नृजातीय बनाना कठिन नहीं है –
जब संस्कृतियाँ एक-दूसरे के संपर्क में आई तभी नृजातीयता की उत्पति हुई। नृजातीयता से आशय अपने सांस्कृतिक मूल्यों का अन्य संस्कृतियों के लोगों के व्यवहार तथा आस्थाओं का मूल्यांकन करने के लिए प्रयोग करने से है। इसका अर्थ है कि जिन सांस्कृतिक मूल्यों को मानदंड या मानक के रूप में प्रदर्शित किया गया था उन्हें अन्य संस्कृतियों की आस्थाओं तथा मूल्यों से श्रेष्ठ माना जाता है। इस दृष्टि से नृजातीय बनाना कठिन है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 9.
समाजीकरण के महत्वपूर्ण सिद्धांतों का आलोचनात्मक विवेचना कीजिए।
अथवा
फ्रायड के समाजीकरण की तीन अवस्थाएँ क्या हैं?
उत्तर:
समाजीकरण के प्रमुख सिद्धांत निम्नलिखित हैं –

(i) कले का “आत्मदर्पण” का सिद्धात – प्रसिद्ध समाजशास्त्री चार्ल्स एच. कूले ने अपनी पुस्तक ‘Human Nature and the Social Order’ में ‘आत्मदर्पण’ की अवधारणा को उल्लेख किया है। कले के अनसार स्व का विकास व्यक्तित्व तथा समाजीकरण के विकास का सर्वाधिव महत्वपूर्ण प्रश्न है । कूले के अनुसार स्व के विकास तथा व्यक्तित्व निर्माण में निम्नलिखित तीन तत्व महत्वपूर्ण हैं –

  • अन्य व्यक्तियों की दृष्टि में हमारे स्वरूप तथा आकृति की कल्पना।
  • स्वयं की कल्पना में वह जैसा दिखाई पड़ता है, उस पर वह स्वयं के विषय में क्या निर्णय करता है।
  • गौरव तथा ग्लानि से युक्त आत्मबोध।

कूले का मत है कि ‘स्व’ अथवा ‘मैं’ की अवधारणा का विकास दूसरे व्यक्तियों के संपर्क में आने से ही होता है। इस प्रकार, ‘स्व’ का विचार सामाजिक उत्पाद है, जिसे सामाजिक स्व भी कहते हैं। कूले का मत है कि स्व का विकास समाज में होता है। यह अन्य व्यक्तियों के साथ पारम्परिक अंतःक्रिया के द्वारा उत्पन्न होता है। नवजात शिशु का अपना कोई ‘स्व’ नहीं होता है। उसकी अपने विषय में उसी समय रुचि जागृत होती है जब वह सचेत होता है।

यदि समाज में बालक के व्यवहार का व्यक्तियों द्वारा प्रशंसा की जाती है तो वह गर्व का अनुभव करता है। दूसरी तरफ, यदि उसके व्यवहार की आलोचना की जाती है तो ग्लानि का अनुभव करता है। बालक के व्यवहार की निरंतर प्रशंसा होने पर उसमें आत्मविश्वास उत्पन्न होता है तथा बाह्यमुखी व्यक्तित्व का विकास होता है। दूसरी तरफ, निरंतर आलोचना होने की स्थिति में बालक हतोत्साहित हो जाता है तथा अंतर्मुखी व्यक्तित्व का विकास होता है।

समाज में व्यक्ति के विचार, मनोवृत्तियाँ, मूल्य, आदर्श, प्रतिमान तथा आदतें उसके निकट रहने वाले व्यक्तियों के विचारों तथा मनोवृत्तियाँ पर आधारित होते हैं तथा बालक का समाजीकरण इन्हीं कारकों पर निर्भर करता है। कूले का मत है कि प्राथमिक समूह जैसे परिवार, मित्र, समूह तथा पड़ोस आदि समाजीकरण में निर्णायक तथा प्रभावी भूमिका निभाते हैं। प्राथमिक समूहों में आमने-सामने के अनौपचारिक संबंध होते हैं। कूले का मत है कि स्व के विकास में यही जानना आवश्यक नहीं है कि व्यक्ति एक-दूसरे के प्रति किस तरह सोचते हैं तथा क्या निर्णय देते हैं, वरन् स्वयं को दूसरे व्यक्तियों के निर्णय के दर्पण में देखना भी आवश्यक है।

(ii) मीड की भूमिका ग्रहण का सिद्धांत – मीड का मत है कि ‘स्व’ की धारणा का अस्तित्व एवं विकास अन्य व्यक्तियों की भूमिका ग्रहण करने पर निर्भर करता है। दूसरों से भूमिका ग्रहण करने का तात्पर्य है कि हम अन्य व्यक्तियों के विचार तथा भावनाओं को स्वीकार करते हैं। उदाहरण के लिए इस श्रृंखला में सर्वप्रथम माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य तथा फिर मित्र व अध्यापक आदि आते हैं।

मीड का विचार है कि व्यक्तियों की अंतः क्रिया का आधार प्रतीक होते हैं। प्रतीक निर्मित होते हैं एवं वस्तु अथवा घटक की आंतरिक प्रकृति से इनका कोई संबंध नहीं होता है। मानव अंत:क्रिया के लिए प्रतीक अपरिहार्य हैं। अत: हम कह सकते हैं कि समाज के अस्तित्व के लिए प्रतीक आवश्यक हैं। मानव समाज का सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रतीक भाषा है। इसलिए, प्रतीकों में समाज के सदस्यों द्वारा भाग लिया जाता है। मीड ने इस प्रक्रिया को भूमिका ग्रहण कहा है।

समाज में भूमिका ग्रहण की प्रक्रिया बच्चे के जन्म से ही आरंभ हो जाती है। आरंभ में बच्चों के द्वारा माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों की भूमिकाओं में तादात्म्य स्थापित किया जाता है । मीड इस प्रकार के तादात्म्य को विशिष्ट अन्य का नाम देता है। बच्चे के विकास के साथ-साथ उसका तादात्म्य सामान्यीकृत अन्य के साथ हो जाता है। जब तक बच्चा दूसरों के साथ तादात्म्य स्थापित नहीं कर पाता या अन्यों की भूमिकाओं को समझ नहीं पाता है वह केवल ‘मैं’ होता है, लेकिन जब बच्चे का सामान्यीकृत अन्य की भूमिकाओं से तादात्म्य हो जाता है तो उसका मैं ‘मुझ’ बदल जाता है। मैं का मुझ में परिवर्तन बच्चे के समाजीकरण के विषय में बताता है।

जॉर्ज हरबर्ट मीड का मत है कि व्यक्ति तथा समाज को पृथक नहीं किया जा सकता है। समाज ही व्यक्ति को एक मानव प्राणी के रूप में परिवर्तित करता है। व्यक्ति द्वारा पहले सामाजिक पर्यावरण की रचना की जाती है, इसके बाद वह उसी से आकृति प्राप्त करता है। समाज में अन्य व्यक्तियों के साथ अंत:क्रिया से व्यक्ति के स्व का विकास होता है। अंत: क्रिया के लिए संचार आवश्यक है। संचार का आधार प्रतीक होते हैं, जिन्हें व्यक्तियों द्वारा परस्पर समझा जाता है।

(iii) फ्रायड का विश्लेषणात्मक सिद्धांत – फ्रायड ने समाजीकरण के सिद्धांत में कहा है कि व्यक्तियों का निर्माण व्यक्ति में पायी जाने वाली जैविकीय, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक क्षमताओं के मध्य होने वाली क्रियाओं का परिणाम होता है। फ्रायड का मत है कि बच्चे में व्यक्तित्व का प्रमुख भाग 5 वर्ष की आयु तक विकसित हो जाता है। व्यक्ति के शेष जीवन काल में इसी व्यक्तियों का विस्तार होता है।

  • चेतन
  • अवचेतन तथा
  • अचेतन

मानव मस्तिष्क का चेतन क्षेत्र उसे जीवन की वर्तमान घटना तथा क्रियाओं से संबद्ध होता है। मस्तिष्क के अचेतन क्षेत्र में निकट भूत की घटनाओं तथा अनुभवों के एकत्रीकरण होता है। मस्तिष्क के अवचेतन क्षेत्र में भूतकाल की घटनाओं के अनुभव होते हैं। मानव मस्तिष्क में एकत्रित अनुभव व्यक्तित्व के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। ये अनुभव किसी न किसी रूप में प्रकट होने का प्रयास करते रहते हैं।

फ्रायड व्यक्तियों के निर्माण में निम्नलिखित तीन उपकल्पनात्मक अवस्थाओं को महत्त्वपूर्ण मानते हैं –

  • इड
  • अहं
  • पराअहं

उपरोक्त वर्णित अवस्थाएँ परस्पर अंतःक्रिया करती हैं तथा इससे मानव व्यवहार का जन्म होता है। फ्रायड में इड को वास्तविक मानसिक यथार्थ माना है। इसके अंतर्गत व्यति की मनोवैज्ञानिक, आनुवंशिकी तथा मूल प्रवृत्ति सम्मिलित होती है। यह सुख के सिद्धांत पर कार्य करता है। तथा व्यक्ति की मनोवैज्ञानिक ऊर्जा का भंडार है। इड समाज के नियमों, मूल्यों तथा आदर्शों से दूर रहता है। इसका मूल उद्देश्य किसी भी तरह से अपनी जरूरतों की पूर्ति करना है। भले ही यह पूर्ति कल्पना या स्वप्न में हो, लेकिन मात्र कल्पना से तो जरूरत पूरी होने का तनाव कम हो सकता। उदाहरण के लिए, पानी की कल्पना प्यास शांत नहीं कर सकती।

इसके बाद, द्वितीय मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का निर्माण होता है। इसे अहं कहते हैं। अहं का प्रकार्य वास्तविक सिद्धांत पर आधारित होता है। जहाँ तक इड तथा अहं में अंतर का प्रश्न है; इड मस्तिष्क के विषयक यथार्थ को जानता है, जबकि अहं वस्तगत यथार्थ तथा विषयक यथार्थ में अंतर करता है। अहं की भूमिका इस संदर्भ में महत्वपूर्ण है कि मूर्त साधनों पर निर्भर करता है। व्यक्ति की विभिन्न जरूरतें केवल काल्पनिक साधनों से पूर्ण नहीं हो सकतीं। अहं इस बात का भी विश्लेषण करता है कि समाज के लिए क्या उचित या क्या अनचिंत है? अहं इड के लक्ष्यों में रुकावट नहीं डालता वरन उन्हें संगठित रूप में आगे बढ़ाता है।

व्यक्तित्व की तृतीय अवस्था पराअहं है। यह मानव व्यक्तित्व का नैतिक पहलू है, जो आदर्शवाद के सिद्धांत से निर्देशित होता है। पराअहं समाज में उन मूल्यों, आदर्शों तथा प्रतिमानों का प्रतिनिधित्व करता है जिन्हें बच्चे ने समाजीकरण की प्रक्रिया के समय आत्मसात् कर लिया है। पराअहं का मुख्य उद्देश्य इस बात का निर्णय करना है कि मानव की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए जिन साधनों को चुना गया है वे समाज द्वारा स्थापित प्रतिमानों के अनुसार उचित हैं अथवा अनुचित । पराअहं के मुख्य कार्य की उन तीव्र इच्छाओं पर नियंत्रण लगाना है, जो समाज द्वारा स्वीकृत नहीं है।

इड, अहं तथा पराअहं क्रमशः जैविकीय, मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक कारक हैं, जो वस्तुतः एक-दूसरे को संतुलित करने का कार्य करते हैं। इन्हीं से व्यक्तित्व का निर्माण तथा विकास होता है। अहं के अव्यवस्थित होने पर व्यक्तित्व का विकास अव्यवस्थित हो सकता है। इस प्रकार की स्थिति में इड अहं की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होता है तो व्यक्तित्व के अनैतिक तथा आपराधिक होने की संभावना बढ़ जाती है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 4 संस्कृति तथा समाजीकरण

प्रश्न 10.
क्या विश्वव्यापीकरण को आप आधुनिकता से जोड़ते हैं ? नृजातीयता का प्रेक्षण करें तथा उदाहरण दें।
उत्तर:
विश्वव्यापीकरण की प्रक्रिया वात्सव में आधुनिकीकरण की ही प्रक्रिया है। विश्वव्यापीकरण की प्रक्रिया में अन्य देशों से जो संस्कृति आयात की गई है उसने आधुनिकता को बढ़ावा दिया है। नृजातीय जब संस्कृतियाँ एक-दूसरे के संपर्क में आईं, तभी नृजातीयता की उत्पत्ति हुई। नृजातीयमा से आशय अपने सांस्कृतिक मूल्यों का अन्य संस्कृतियों के लोगों के व्यवहार तथा आस्थाओं का मूल्यांकन करने के लिए प्रयोग करने से है। इसका अर्थ है कि जिन सांस्कृतिक मूल्यों को मानदंड या मानक के रूप में प्रदर्शित किया गया था उन्हें अन्य संस्कृतियों की आस्थाओं तथा मूल्यों से श्रेष्ठ माना जाता है।

नृजातीय तुलनाओं में निहित सांस्कृतिक श्रेष्ठता की भावना उपनिवेशवाद की स्थितियों में स्पष्ट दिखाई देती है। थॉमस बाबींटोम मेकॉले के ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत की शिक्षा (1835 ई.) के प्रसिद्ध विवरण में नृजातीयता का दृष्टांत दिया है जब वे कहते हैं, “हमें इस समय ऐ ऐसे वर्ग का निर्माण अवश्य करना चाहिए जो हमारे तथा हमारे द्वारा शासित लाखों लोगों के बची द्विभाषियों का काय करे, व्यक्तियों का ऐसा वर्ग जो खून तथा रंग में भारतीय हो परंतु रुचि में, विचार में, नैतिकता तथा प्रतिभा में अंग्रेज हो।”

नृजातीयता विश्वबंधुता के विपरीत है जोकि अंतर के कारण अन्य संस्कृतियों को महत्त्व देती है। विश्वबंधुता में कोई भी व्यक्ति अन्य व्यक्तियों के मूल्यों तथा आस्थाओं का मूल्यांकन अपने मूल्य तथा आस्थाओं के अनुसार नहीं करता । यह विभिन्न सांस्कृतिक प्रवृत्तियों की मानता तथा उन्हें अपने अंदर समायोजित करता है तथा एक-दूसरे की संस्कृति को समृद्ध बनाने के लिए सांस्कृतिक विनिमय व लेन-देन को बढ़ावा देता है । विदेशी शब्दों को अपनी शब्दावली में लगातार शामिल करके अंग्रेजी भाषा अंतर्राष्ट्रीय संप्रेषण का मुख्य साधन बनकर उभरी है। पुनः हिन्दी फिल्मों के संगीत की लोकप्रियता को पाश्चात्य पॉप संगीत तथा साथ ही भारतीय लोकगीत की विभिन्न परंपराओं तथा भंगड़ा और गजल जैसे अर्द्धशास्त्रीय संगीत से ली गई देन का परिणाम मान सकते हैं।

एक आधुनिक समाज सांस्कृतिक विभिन्नता का प्रशंसक होता है तथा बाहर से पड़ने वाले सांस्कृतिक प्रभावों के लिए अपने दरवाजे बंद नहीं करता परंतु ऐसे सभी प्रभावों को सदैव इस प्रकार शामिल किया जाता है कि ये देशीय संस्कृति के तत्वों के साथ मिल सकें । विदेशी शब्दों को शामिल करने के बावजूद अंग्रेजी अलग भाषा नहीं बन पाई और न ही हिन्दी फिल्मों के संगीत ने अन्य जगहों से उधार लेने के बावजूद अपना स्वरूप खोया। विविध शैलियों, रूपों, श्रव्यों तथा शिल्पों को शामिल करने से विश्वव्यापी संस्कृति को पहचान प्राप्त होती है। आज सार्वभौमिक विश्व में, जहाँ संचार के आधुनिक साधनों से संस्कृतियों के बीच अंतर कम हो रहे हैं, एक विश्वव्यापी दृष्टि व्यक्ति को अपनी संस्कृति को विभिन्न प्रभावों द्वारा सशक्त करने की स्वतंत्रता देती है।

प्रश्न 11.
आपके अनुसार आपकी पीढ़ी के लिए समाजीकरण का सबसे प्रभावी अभिकरण क्या है ? यह पहले अलग कैसे था? आप इसके चारे में क्या सोचते हैं?
उत्तर:
हमारी पीढ़ी के लिए समाजीकरण का सबसे प्रभावी अभिकरण विद्यालय है। विद्यालय एक सामान्य प्रक्रिया है, जहाँ पढ़ाए जाने वाले विषयों की एक निश्चित पाठ्यचर्या होती है। विद्यालय समाजीकरण के प्रमुख अभिकरण होते हैं। कुछ समाजशास्त्रियों के अनुसार औपचारिक पाठ्यक्रम के साथ-साथ बच्चों को सिखाने के लिए कुछ अप्रत्यक्ष पाठ्यक्रम भी होता है।

भारत तथा दक्षिणी अफ्रीका में कुछ ऐसे विद्यालय हैं जहाँ लड़कों की अपेक्षा लड़कियों से अपने कमरे साफ करने की आशा की जाती है। कुछ विद्यालयों में, इसके समाधान के लिए प्रयास किए जाते हैं जिससे तहत लड़के तथा लड़कियों से ऐसे काम करने को कहा जाता है जिनके बारे में सामान्यता उनसे आशा नहीं की जाती है। पहले शिक्षा का अधिक महत्व नहीं था इसलिए यह वर्तमान से हटकर था।

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प्रश्न 12.
सांस्कृतिक परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिए दो विभिन्न उपागमों की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सांस्कृतिक परिवर्तनों का अध्ययन करने के लिए विभिन्न उपागमों का प्रयोग किया जाता है। उनमें से दो प्रमुख हैं –

(i) ऐतिहासिक उपागम – किसी भी विषय के सही ज्ञान के लिए ऐतिहासिक पृष्ठभूमि का सहारा लेना ही पड़ता है। इतिहास में मानवजाति की घटनाओं का भंडार छिपा है। संस्कृति की उत्पत्ति, विकास तथा वर्तमान स्वरूप के विषय की पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए इतिहास के पन्नों को उलटना ही पड़ेगा। यह बात निर्विवाद है कि किसी भी संस्कृति का निर्माण एक साथ एक ही समय में नहीं हुआ है, इसलिए संस्कृति के परिवर्तनों की जानकारी के अध्ययन के लिए ऐतिहासिक उपागम की आवश्यकता पड़ती है।

(ii) दार्शनिक उपागम – सांस्कृतिक परिवर्तनों के अध्ययन के लिए दार्शनिक उपागम पर भी जोर दिया जाता है। कुछ समाजशास्त्री सांस्कृतिक परिवर्तनों को दार्शनिक दृष्टि से भी स्पष्ट का लेते हैं। इस कारण इस उपागम की महत्ता है।

वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
सामाजिक अनुसंधन की समस्या निम्नलिखित से कौन-सा है?
(अ) वस्तुनिष्ठता
(ब) चक्रीय
(स) रेखीय
(द) पाराबोलिक
उत्तर:
(द) पाराबोलिक

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में असत्य कथन छाँटिये ………………………
(अ) सामाजिक सर्वेक्षण में सामाजिक समस्याओं का अध्ययन किया जाता है
(ब) सामाजिक सर्वेक्षण का निश्चित भौगोलिक क्षेत्र होता है
(स) सामाजिक सर्वेक्षण एक वैज्ञानिक पद्धति है
(द) सामाजिक सर्वेक्षण सदैव व्यक्तिगत रूप से किया जाता है
उत्तर:
(द) सामाजिक सर्वेक्षण सदैव व्यक्तिगत रूप से किया जाता है

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प्रश्न 3.
जन्म द्वारा प्रदत्त प्रस्थिति कहलाती है ……………………..
(अ) वर्ण
(ब) संघ
(स) जाति
(द) समूह
उत्तर:
(स) जाति

प्रश्न 4.
समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा हम सीखते हैं ………………………..
(अ) समाज का सदस्य बनना
(ब) राजनीतिक दल का सदस्य बनना
(स) धार्मिक संस्था का सदस्य बनना
(द) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(अ) समाज का सदस्य बनना

प्रश्न 5.
सामान्यतया विस्तृत दल द्वारा किये जानेवाले अनुसंधान हैं ……………………….
(अ) साक्षात्कार
(ब) अनुसूची
(स) सर्वेक्षण
(द) प्रश्नावली
उत्तर:
(द) प्रश्नावली

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प्रश्न 6.
असहभागी अवलोकन में अनुसंधानकर्ता की स्थिति होती है ……………………..
(अ) समूह में शामिल होना
(ब) समूह में शामिल नहीं होना
(स) समूह के साथ अंत:क्रिया करना
(द) समूह से संबंध स्थापित करना
उत्तर:
(द) समूह से संबंध स्थापित करना

प्रश्न 7.
खुली प्रश्नावली में उत्तरदाता अपने उत्तर देने में होता है ……………………….
(अ) बंधा हुआ
(ब) चयन हेतु बाध्य
(स) सीमित
(द) स्वतंत्र
उत्तर:
(द) स्वतंत्र

प्रश्न 8.
समाजीकरण के अभिकरण हैं …………………………
(अ) परिवार
(ब) स्कूल
(स) जाति
(द) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(द) उपरोक्त सभी

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प्रश्न 9.
नगरीय समुदाय में जनसंख्या घनत्व पाया जाता है ……………………….
(अ) काफी
(ब) कम
(स) साधारण
(द) विरल
उत्तर:
(अ) काफी

प्रश्न 10.
सहभागी अवलोकन के द्वारा अनुसंधान किया जाता है ………………………
(अ) एक समूह का
(ब) एक पुरुष का
(स) एक महिला का
(द) पशुओं के समूह का
उत्तर:
(अ) एक समूह का

प्रश्न 11.
बंद प्रश्नावली में उत्तरदाता को उत्तर देने की होती है ……………………….
(अ) स्वतंत्रता
(ब) सीमाएँ
(स) छूट
(द) विकल्पों की स्वतंत्रता
उत्तर:
(ब) सीमाएँ

Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 2 ग्रामीण जीवन-यापन के स्वरूप

Bihar Board Class 6 Social Science Solutions Civics Samajik Aarthik Evam Rajnitik Jeevan Bhag 1 Chapter 2 ग्रामीण जीवन-यापन के स्वरूप Text Book Questions and Answers, Notes.

BSEB Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 2 ग्रामीण जीवन-यापन के स्वरूप

Bihar Board Class 6 Social Science ग्रामीण जीवन-यापन के स्वरूप Text Book Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर दें –

प्रश्न 1.
एक मध्यम किसान परिवार को आमतौर पर आजीवन चलाने हेतु कितनी भूमि की आवश्यकता होती है, शिक्षक के साथ चर्चा करें।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 2.
मध्यम किसान दूसरे के खेतों में काम क्यों नहीं करते हैं?
उत्तर-
मध्यम किसान जैसे लोगों को थोड़ी-सी जमीन होती है और वह उसी में दो फसलों को उपजाता है। मजदूरों की कमी के कारण काम समय पर नहीं हो पाता है जिससे उसे बैंक का कर्ज चुकाने के लिए फसल जल्दी बेचना पड़ता है। इसमें उनके परिवार का गुजारा तो हो जाता है, इसलिए मध्यम किसान दूसरों के खेतों में मजदूरी नहीं करनी पड़ती है।

प्रश्न 3.
ललन की पारिवारिक आय में वृद्धि होने के अन्य तीन स्रोत बताएँ।
उत्तर-
ललन की पारिवारिक आय में वृद्धि होने के अन्य तीन स्रोत निम्न

  1. ललन कृषि करने के लिए खाद-बीज-कीटनाशक आदि चीजों को खरीदने के लिए बैंक से ऋण भी लेता है।
  2. खेती के साथ वह मुर्गी फार्म भी चलाता है। ललन को खेती के लिए खाद बीज के पैसे के०सी०सी० (किसान क्रेडिट कार्ड) के माध्यम से मिल जाता है।

प्रश्न 4.
सीमान्त किसान कृषि कार्य के अलावे कौन-कौन से कार्य करते हैं, सूची बनाएँ।
उत्तर-
सीमान्त किसान कृषिकार्य के अलावे निम्नलिखित कार्य करते हैं।

  1. सीमान्त किसान जैसे कृपाशंकर को कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। वह बाकी समय में चावल मिल पर भी काम करता है।
  2. उसके पास दो गाय और एक भैंस भी है जिसका दूध वह दुकानदारों एवं सहकारी समिति में बेचता है जिससे कुछ आय प्राप्त हो सके।
  3. और उसे दूसरों के खेतों में भी खेती करना पड़ता है।

प्रश्न 5.
कृपाशंकर जैसे किसानों को खाद-बीज के लिए कर्ज कहाँ-कहाँ से मिल जाता है ? इस कर्ज को कब और कैसे वापस करना होता है?
उत्तर-
कृपाशंकर जैसे किसानों को खाद-बीज के लिए महाजन या साहूकार से ऊँची ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता है। क्योंकि इस कारण फसल कटते ही उसे बेचकर ब्याज समेत लिए कर्ज की रकम को लौटाने की जल्दी होती है। इस कर्ज को किसान अपने फसलों को समय से पहले ही उसे बेच देते हैं। पैसे की कमी के कारण वह भाव बढ़ने का भी इन्तजार नहीं कर पाते हैं। अगर समय पर कर्ज की रकम वापस नहीं की गई तो अत्यधिक ब्याज के कारण कर्ज की रकम को वापस करना संभव नहीं होता है और वह अपनी फसल को कम समय और उधार को चुकाने के लिए उस फसल को बेच कर ही वापस करना होता है।

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प्रश्न 6.
कृपाशंकर को डेयरी में दूध बेचने से कितनी आय प्राप्त होती होगी, अनुमान लगायें।
उत्तर-
कृपाशंकर को डेयरी में दूध बेचने से कुछ ही आय प्राप्त होता होगा, जिससे उसका घर परिवार के लिए कुछ ही बच पाता होगा। इसके लिए वह कहीं दूसरों के खेतों पर खेती करना पड़ता होगा। खेती और घर खर्च के लिए उन्हें समय-समय पर कर्ज लेना भी पड़ता होगा।

प्रश्न 7.
मध्यम किसान और कृपाशंकर के काम में क्या अन्तर है?
उत्तर-
मध्यम किसान-मध्यम किसान को फसल के लिए समय पर खाद-बीज खरीदने के लिए पैसे किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से मिल जाता है और उसके पास थोड़ी-सी जमीन होती है। इसमें उसके परिवार का गुजारा हो जाता है। लेकिन उसके पास इतने पैसे ही नहीं होते की वह खेती के लिए खाद-बीज-कीटक आदि समय पर खरीद नहीं पाते हैं और वह अपनी दैनिक खर्चों को पूरा करने के लिए खेती के साथ वह मुर्गी फार्म भी चलाता है।

कृपाशंकर किसान यह किसान के पास खेती करने के लिए खाद, बीज, कीटनाशक दवा सब कुछ उधार लेना पड़ता है। पर उधार चुकाने के लिए वह अपनी फसल समय से जल्दी बेच देता है। वह फसल का भाव बढ़ने का भी इन्तजार नहीं कर पाता है। कृपाशंकर की आमदनी कम होने के कारण वह खेती के नये-नये उपकरण का इस्तेमाल भी नहीं कर पाता है। उसे खेती और घर खर्च के लिए दूसरे के खेतों पर काम भी करना पड़ता है। वह दूध को सहकारी दुकानों पर बेचता है जिससे कुछ ही आय प्राप्त हो पाती है।

प्रश्न 8.
सीमान्त किसान, मध्यम किसान, बड़ा किसान जरूरत पड़ने पर कर्ज कहाँ से लेते हैं?
उत्तर-
सीमान्त किसान सीमान्त किसानों को आसानी से कर्ज नहीं मिल पाता है उन्हें महाजन या साहूकार से ऊँचा ब्याज पर कर्ज लेना पड़ता है। मध्यम किसान-मध्यम किसानों को खेती करने के लिए के सी०सी० (किसान क्रेडिट कार्ड) के माध्यम से मिल जाता है। बड़ा किसान-बड़ा किसान के पास 30-40 एकड़ तक की जमीन उपलब्ध होती है। वह बैंक से लोन लेकर मोटर पंप, थ्रेसर और ट्रैक्टर-ट्राली जैसी कई चीजें खरीदते हैं और वह निश्चित समय पर लोन भी चुका देते हैं।

प्रश्न 9.
आप अपने अनुभव से बताइए कि आप के यहाँ जोतदार किसान खेती के अलावे क्या-क्या करते हैं?
उत्तर-
जोतदार किसान खेती के अलावे चावल के मिल से चावल को वह शहर के व्यापारियों को बेचने का भी काम करता है। वह मुर्गी फार्म में भी काम करता है। अवकाश मिलने पर वह घर परिवार के लिए अन्य भी काम कर सकता है।

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प्रश्न 10.
एक बड़े किसान और सीमान्त किसान के खेती के कार्य के तरीकों में क्या अन्तर है?
उत्तर-
एक बड़े किसान के पास 30-40 एकड तक की जमीन होती है। वह आधुनिक उपकरणों के द्वारा खेतों में सिंचाई करता है। नई मशीनों जैसेमोटरपंप, थ्रेसर और ट्रैक्टर-ट्राली के द्वारा खेती करना काफी आसान हो गया है सीमान्त किसान के पास | एकड़ जमीन ही हो पाती है। उसके पास खेती करने के लिए आधुनिक उपकरण नहीं हैं। उसे खेती करने के लिए खाद-बीज-दवा सब उधार लेना पड़ता है। नहरों से सिंचाई तथा समय पर बारिश का इन्तजार करना पड़ता है। उन्हें कई कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है।

प्रश्न 11.
एक बड़े किसान उत्पादित अनाज को क्या करते हैं, शिक्षक के साथ चर्चा करें।
उत्तर-
एक बड़े किसान उत्पादित अनाज को अपने पास रखता है। इसके लिए उसके पास घर होता है। फसल की कीमतों का भाव बढ़ने का इन्तजार करता है। फिर उसे बजारों में बेच देता है । इससे उसे कई गुणा फायदा मिलता है।

प्रश्न 12.
कृषक मजदूर एवं सीमान्त किसान में क्या समानता और अंतर है?
उत्तर-
कृषक मजदूर-इन कृषक मजदूर के पास बिल्कल जमीन नहीं होती है। वह मजदूर परिवार अपने खेतों से नहीं बल्कि पूरी तरह दूसरे के खेतों पर जीवन-यापन करते हैं। कृषक मजदूर मजदूरी करके अपने घर-परिवार का जीवन यापन करते हैं।

सीमान्त किसान-सीमान्त किसान के पास केवल | एकड़ जमीन ही होती है। उसे खेती करने के लिए खाद-बीज सभी चीजों के लिए उधार लेना पड़ता है और कृषक मजदूर एवं सीमान्त किसान में यही समानता है कि मजदूर किसान दूसरों की जमीन पर मजदूरी करते हैं। उसकी अपनी जमीन नहीं होती है। लेकिन सीमान्त किसान को अपनी जमीन होने के बावजूद भी घर परिवार के खर्चे के लिए दूसरों के खेतों में खेती करना पड़ता है।

Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 2 ग्रामीण जीवन-यापन के स्वरूप

प्रश्न 13.
आमतौर पर कृषक मजदर को कर्ज कहाँ और कैसे प्राप्त होता है?
उत्तर-
आमतौर पर कृषक मजदूर को कर्ज महाजन से तथा जमींदारों से मिल जाता है और गैर कृषि-कार्य (टोकरी बनाना, मिट्टी के बर्तन, ईंट, झाड़, सूप, पंखा, चटाई) बनाकर अपना जीवन यापन करते हैं।

प्रश्न 14.
पशु पालने का क्या कारण है?
उत्तर-कृषक मजदूर को फसलों की कटाई के समय ही काम आसानी से मिलता है। परंतु साल के बाकी दिनों में मजदूर को मजदूरी नहीं मिलने पर वे लोग गाय तथा भैंस को पालते हैं और पशुपालन करके अपने परिवार का खर्च निकाल पाते हैं। इसलिए मजदूर किसान पशु पालने का भी काम करते हैं।

प्रश्न 15.
कृषक मजदूरों को किन-किन महीनों में काम नहीं मिलता है? अपने कक्षा के चार-पाँच सहपाठियों की टोली बनाकर सर्वेक्षण कीजिए।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

अभ्यास

प्रश्न 1.
आपके गाँव में किन-किन फसलों की खेती की जाती है ? सूची बनाएं।
उत्तर-
हमार गाँव में निम्नलिखित फसलों की खेती की जाती है

  1. गेहूँ
  2. चावल
  3. बाजरा
  4. जो
  5. मक्का
  6. दलहन की खेती भी की जाती है।

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प्रश्न 2.
मध्यम किसान खेती के काम के लिए किन-किन माध्यमों से धन उपलब्ध करते हैं?
उत्तर-
मध्यम किसान खेती के लिए पैसा के सी सी० (किसान क्रेडिट कार्ड) के माध्यम से धन उपलब्ध हो जाता है। बैंक से कर्ज भी मिल जाता है। इस तरह इन माध्यमों के द्वारा मध्यम किसान खेती के काम को आसानी कर पाता है।

प्रश्न 3.
आमतौर पर आपके गाँव में एक किसान परिवार को खेती से गुजारा करने के लिए कितनी एकड़ जमीन की आवश्यकता होती है, जिससे उन्हें या उनके परिवार के सदस्यों को दूसरे के यहाँ मजदूरी नहीं करनी पड़े?
उत्तर-
आमतौर पर हमारे गाँव में एक किसान परिवार को खेती करके गुजारा करने के लिए 30-40 एकड़ जमीन की आवश्यकता होती है, जिससे उन्हें या उनके परिवार के सदस्यों को दूसरे के यहाँ मजदूरी नहीं करनी पड़े।

प्रश्न 4.
महाजन या साहूकार के यहाँ कर्ज की ब्याज दर ऊंची क्यों होती है?
उत्तर-
महाजन या साहूकार के यहाँ कर्ज की ब्याज दर हमेशा ऊँची होती है जब छोटे सीमान्त किसानों को आसानी से कर्ज नहीं मिल पाता है और इसका फायदा महाजन लोग उसे ऊँची ब्याज की दर पर आसानी से कर्ज दे देते हैं। जिससे किसानों को खेती करने में सहायता मिल जाती है और इसलिए महाजन या साहुकार के यहाँ ब्याज दर ऊँची होती है।

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प्रश्न 5.
एक व्यक्ति को अमूमन एक वर्ष में कितने समय कषक मजदूर के रूप में काम मिलता है एवं बाकी दिनों में वह आजीविका संबंधी कौन-कौन से कार्य करते हैं?
उत्तर-
एक व्यक्ति को अमूमन. एक वर्ष सिर्फ फसलों की कटाई के समय में ही कृषक मजदूर के रूप में काम मिल पाता है एवं बाकी दिनों में वह गाँव

में मजदूरी नहीं मिलने पर वह शहर में मिट्टी ढोने, बालू ढोने तथा निर्माणाधीन -मकानों में मजदूरी का काम करते हैं और वे लोग गाय तथा भैंस को भी पालते हैं। ग्रामीण मजदुर गैर कृषि कार्य (टोकरी बनाना, मिट्टी के बर्तन, ईंट, सूप, पंखा, चटाई आदि) बना कर वह अपना जीवन-यापन करते हैं।

प्रश्न 6.
संतोष और प्रमोद के परिवारों में क्या अंतर है?
उत्तर-
संतोष का परिवार – संतोष का परिवार बहुत ही गरीब है। वह मजदूरी करके अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। गाँव में मजदूरी नहीं मिलने पर संतोष, पली और बच्चों के साथ पास के शहर में मिट्टी ढोने, बालू ढोने तथा निर्माणाधीन मकानों में मजदूरी का काम करते हैं। संतोष की पत्नी घरों के घरेलू काम करती है। गाय, भैंस भी पालती है। कृषक मजदूर का गुजारा नहीं हो पाता है, तो वह गैर कृषि कार्य करके अपना जीवन यापन करते हैं।

प्रमोद का परिवार – प्रमोद का परिवार खुशहाल है और उन्नति करके वह अपने परिवार का भरण-पोषण उचित तरीके से करता है। उसके पास 300-40 एकड़ तक जमीन है। वह अपनी फसल की कीमत बढ़ जाने पर ही बेचता है जिससे उसे बहुत अच्छी आमदनी हो जाती है। अपने खेतों की कमाई से उसके परिवार का गुजारा अच्छी तरह हो जाता है। उनको और उनके परिवार के अन्य सदस्यों को अपने खेतों पर काम करने की जरूरत नहीं होती। प्रमोद अपने पास एक या दो मजदूर साल भर के लिए रखते है। वह अपने खता । बागवानी भी करता है। वह सुखी सम्पन्न जीवन यापन करता है।

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प्रश्न 7.
गैर कृषि कार्य के अन्तर्गत आपके गाँव के लोग कौन-कौन-सा कार्य करते हैं?
उत्तर-
गैर कृषि कार्य के अन्तर्गत हमारे गाँव के लोग निम्न कार्य करते हैं। जैसे हस्तशिल्प, सिलाई का काम, जरी-गोटा लगाने का काम, दीया, टोकरी, सूप, दौरी, पंखा, मिट्टी के बर्तन, ईंट, दर्जी, राजमिस्त्री, लोहारगिरी, खिलाना इत्यादि बनाकर अपनी आजीविका चलाते हैं। इन हस्तनिर्मित सामानों को गाँवों में बेचकर अपने परिवार का जीवन-यापन करते हैं।

प्रश्न 8.
गैरकृषि-कार्य किसे कहते हैं ? उदाहरण सहित उत्तर दें।
उत्तर-
ग्रामीण परिवारों जो मजदूर ऐसे भी हैं जो थोड़ा पैसा कमाते हैं, जिससे उनका भरण-पोषण नहीं हो पाता है। इस कारण वह मजदूर अपने जीविका उपार्जन के लिए गैर कृषि कार्य करते हैं। जैसे-टोकरी बनाना, मिट्टी के बर्तन, झाडू, सूप, पंखा, चटाई, खिलौना, हस्तशिल्प, सिलाई का काम, जरी-गोटा लगाने का काम, बढ़ईगिरी, लोहारगिरी, राजमिस्त्री, दर्जी इसके अलाये कृषक मजदूर ग्रामीण क्षेत्रों के लोग हाथ से कम्बल, लाई, चादर इत्यादि कार्यों को करते हैं।

प्रश्न 9.
आप बड़ा होकर जीवन-यापन सम्बंधी कौन-से कार्य करना चाहते हैं और क्यों?
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 10.
आपने पाठ में अलग-अलग किसानों के बारे में जाना। खाली स्थानों पर उनकी स्थितियों के बारे में भरें।
उत्तर-
Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 2 ग्रामीण जीवन-यापन के स्वरूप 1

Bihar Board Class 6 Social Science ग्रामीण जीवन-यापन के स्वरूप Notes

पाठ का सारांश

  • भारत गाँवों का देश है, यहाँ छहलाख से भी अधिक गाँव है।
  • गाँव के लोग अपनी आजीविका कई तरीकों से करते हैं।
  • खेती में भी कई प्रकार के काम है जैसे खेत तैयार करना, रोपाई, बुवाई, निराई एवं कटाई।
  • बिहार में अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न तरह की खेती की जाती है।
  • मुर्गी पालन का उनका उद्देश्य खेती के साथ आय को बढ़ाना है ।
  • गाँव में कुछ परिवार बड़ी-बड़ी जमीनों पर खेती, व्यापार और अन्य काम कर रहे हैं।
  • ज्यादातर छोटे किसान, खेतीहर मजदूर, पशुपालक, दुग्ध उत्पादन कर्ता, मुर्गी पालक, हस्तशिल्प का काम करनेवाले लोगों को पूरे साल जीवन यापन करने के लिए काम नहीं मिल पाता है।
  • घरेलू सेवा से जुड़े असंगठित श्रमिक, झग्मी-झोपड़ियों में रहते हैं या – बेघर हैं।
  • शहरों में घरेलू सेवा, नौकरी, व्यवसाय की तरह ही अजीविका का बड़ा” साधन है। शहरों में हाऊसिंग सोसाइटी या निजी कोठियों में रहनेवाले लोगों के रोजमर्रा के काम करने के लिए ऐसे लाखों घरेलू कामगर हैं, जिनकी सेवाओं को मान्यता भी नहीं मिलती ।
  • घरेलू कामगर आकर घर में झाडू-पोछा करते हैं, कपड़े धोते हैं खाना पकाते हैं और बरतन धोते हैं।
  • बिहार में 85 प्रतिशत श्रमिक असंगठित क्षेत्र से जुड़े हैं।
  • भारत में पांच हजार से ज्यादा शहर और सत्ताइस’ महानगर हैं ।
  • दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई जैसे कई शहरों में दस लाख से भी ज्यादा लोग रहते और काम करते है।
  • बिहार के शहरी इलाको में लाखों लोग फुटपाथ और ठेलों पर समान बेचते हैं।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ Textbook Questions and Answers, Additional Important Questions, Notes.

BSEB Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

Bihar Board Class 11 Sociology समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ Additional Important Questions and Answers

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

अतिलघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
लंबवत गतिशीलता किसे कहते हैं?
उत्तर:
लंबवत गतिशीलता में व्यक्ति की सामाजिक स्थिति में परिवर्तन उच्च अथवा निम्न श्रेणी में हो सकता है। उदाहरण के लिए यदि एक लिपिक अपने ही कार्यालय या दूसरे कार्यालय में पदोन्नति पर जाता है तो उसे लंबवत गतिशीलता कहा जाएगा।

प्रश्न 2.
अंतरपीढ़ी गतिशीलता का अर्थ बताइए?
उत्तर:
अंतरपीढ़ी गतिशीलता सामाजिक-आर्थिक सोपान पर आधारित गतिशीलता है। अंतरपीढ़ी गतिशीलता परिवार में पृथक् पीढ़ी वाले सदस्यों द्वारा अनुभव की जाती है। उदाहरण के लिए किसी लिपिक के पुत्र का आई.ए.एस. अधिकारी बन जाना अंतरपीढ़ी गतिशीलता का उदाहरण है। दोनों पीढ़ियाँ अलग-अलग हैं तथा दोनों में व्यावसायिक भिन्नता है।

प्रश्न 3.
कार्ल मार्क्स द्वारा किया गया समाज का विभाजन बताइए?
उत्तर:
कार्ल मार्क्स ने समाज को निम्नलिखित दो भागें में बाँटा है:

  • जिनके पास है या बुर्जुआ वर्ग।
  • जिनके पास नहीं है या प्रोलीटेरिएट्स।

जिनके पास है उन्हें उत्पादन के साधनों का स्वामी कहा जाता है। जिनके पास नहीं है, उन्हें मजदूर कहा जाता है।

प्रश्न 4.
सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न आधार बताइए।
उत्तर:
सामाजिक स्तरीकरण के विभिन्न आधार निम्नलिखित हैं:

  • दासता
  • एस्टेट्स
  • वर्ग
  • सत्ता
  • जाति
  • सजातीयता

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प्रश्न 5.
सामाजिक जीवन में सत्ता एक प्रमुख संसाधन किस प्रकार है?
उत्तर:
सामाजिक जीवन में सत्ता एक प्रमुख संसाधन निम्नलिखित प्रकार से है:

  • संयोग जो एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों को समूहों को मिलाता है।
  • जिन्हें सामुदायिक गतिविधियों में अनुभव किया जाता है।
  • सत्ता का प्रयोग दूसरों के विरोध के लिए भी किया जाता है।

प्रश्न 6.
परंपरागत भारत में सामाजिक असमानता का प्रमुख आधार बताइए।
उत्तर:
परंपरागत भारत में सामाजिक असमानता का प्रमुख आधार जाति है।

प्रश्न 7.
भारतीय समाज में पायी जाने वाली वर्णाश्रम व्यवस्था बताइए।
उत्तर:
भारतीय वर्णाश्रम व्यवस्था के अनुसार भारतीय समाज निम्नलिखित चार वर्गों में बाँटा गया है:

  • ब्राह्मण (पुरोहित या विद्वान)
  • क्षत्रिय शासक तथा योद्धा
  • वैश्य व्यापारी
  • शूद्र (कृषक, मजदूर तथा सेवक)

प्रश्न 8.
सजातीयता का शाब्दिक अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सजातीयता शब्द ग्रीक भाष के शब्द एथनिकोस से लिया गया है, जो कि एथनोस का विशेषण है एथनोस का तत्पर्य एक जन समुदाय अथवा राष्ट्र से है। अपने समकालीन रूप में सजातीयता की अवधारणा उस समूह के लिए प्रयोग की जाती है जिसमें कुछ अंशों में सामंजस्य तथा एकता पायी जाती हो । इस प्रकार, सजातीयता का अर्थ सामूहिकता से है।

प्रश्न 9.
बहुसंख्यक तथा अल्पसंख्यक समूहों का समाजशास्त्रीय अर्थ स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
समाजशास्त्र में बहुसंख्यक समूह को सत्ता के अधिकार तथा प्रयोग से परिभाषित किया जाता है तथा अल्पसंख्यक समूह में इन दोनों का अभाव होता है।

प्रश्न 10.
समाज में असमानता पाए जाने का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर:
समाज में असमानता पाए जाने का मुख्य कारण उपलब्ध संसाधनों, जैसे-भूमि, धन-संपत्ति, शक्ति तथा प्रतिष्ठा आदि का समान वितरण न होना है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 11.
सामाजिक स्तरीकरण की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
टॉलकॉट पारसंस के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण से अभिप्राय किसी सामाजिक व्यवस्था में व्यक्तियों का ऊँचे तथा नीचे के पदासोपानक्रम में विभाजन है।”

प्रश्न 12.
स्तरीकरण शब्द या शाब्दिक अर्थ बताइए।
उत्तर:
अंग्रेजी भाषा में स्ट्रैटिफिकेशन (स्तरीकरण) शब्द भूगर्भशास्त्र से लिया गया है। स्ट्रैटिफिकेशन का मूल शब्द स्ट्रैटन है। स्ट्रैटन का तात्पर्य भूमि की परतों से है। भूगर्भशास्त्रियों द्वारा भूमि की विभिन्न परतों का अध्ययन जिस प्रकार किया जाता है, उसी प्रकार समाजशास्त्र में समाज की विभिन्न परतों का अध्ययन किया जाता है।

प्रश्न 13.
सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक स्तरीकरण में कैसे परिवर्तित हो जाता है?
उत्तर:
सामाजिक विभेदीकरण सामाजिक स्तरीकरण में निम्नलिखित स्थितियों में परिवर्तित हो जाता है:

  • स्थितियों की विभिन्न श्रेणियों तथा मूल्यांकन के द्वारा।
  • किसी को पुरस्कार देना अथवा न देना।

प्रश्न 14.
स्तरीकरण व्यवस्था को किस प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है?
उत्तर:
स्तरीकरण व्यवस्था को निम्नलिखित दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  • मुक्त स्तरीकरण-स्तरीकरण की इस अवस्था में लचीलापन पाया जाता है।
  • बंद स्तरीकरण-स्तरीकरण की इस अवस्था में दृढ़ता तथा कठो जाती है।

प्रश्न 15.
सामानान्तर गतिशीलता से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
समानान्तर गतिशीलता में एक व्यक्ति की स्थिति में तो परिवर्तन होता है, लेकिन उसकी श्रेणी पहले जैसा रहती है। उदाहरण के लिए यदि एक लिपिक का स्थानान्तरण एक कार्यालय से दूसरे कार्यालय में होता है, लेकिन उसकी श्रेणी में परिवर्तन नहीं होता है तो इसे समानान्तर श्रेणी कहते हैं।

प्रश्न 16.
सामाजिक संरचना शब्द को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
पारसंस के अनुसार, “सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं, अभिकरणों, सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण, किए गए पदों तथा कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।”

प्रश्न 17.
प्रस्थिति शब्द की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
ऑग्बर्न तथा निमकॉफ के अनुसार “एक व्यक्ति की प्रस्थिति, उसका समूह में स्थान तथा दूसरों के संबंध में उसका क्रम है।”

प्रश्न 18.
सामाजिक संरचना के स्तर बताते हुए उपयुक्त उदाहरण दीजिए।
उत्तर:
प्रत्येक समाज की संरचना में निम्नलिखित दो स्तर पाये जाते हैं:

  • सूक्ष्म स्तर, यथा किसी विशिष्ट समुदाय अथवा गाँव का अध्ययन।
  • वृहद स्तर, यथा संपूर्ण सामाजिक संरचना जैसे कि भारतीय समाज का अध्ययन।

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प्रश्न 19.
सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग समाजशास्त्र में सर्वप्रथम किस विद्वान के द्वारा किया गया?
उत्तर:
समाजशास्त्र में सामाजिक संरचना शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ब्रिटिश विद्वान हारबर्ट स्पेंसर के द्वारा किया गया था.। उनके द्वारा समाज तथा जीवित प्राणी में समानता देखी गयी थी।

प्रश्न 20.
संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण के सिद्धांत कां मुख्य प्रवर्तक कौन था? इस दृष्टिकोण की दो विशेषताएँ बताइए।
उत्तर:
ब्रिटिश मानवशास्त्री रैडक्लिफ ब्राउन संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक दृष्टिकोण का प्रमुख प्रवर्तक था। इस दृष्टिकोण की दो विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

व्यक्ति सामाजिक संरचना की एक इकाई है।

  • सभी समाजों में संरचनात्मक लक्षण पाए जाते हैं।

प्रश्न 21.
उन मूलभूत प्रकार्यों को बताइए जो समाज की निरंतता तथा उसे बनाए रखने हेतु आवश्यक हैं।
उत्तर:
निम्नलिखित मूल प्रकार्य समाज की निरंतरता तथा उसे बनाए रखने के लिए आवश्यक है –

  • नए सदस्यों की भर्ती।
  • समाजीकरण।
  • वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन तथा वितरण।
  • व्यवस्था की सुरक्षा।

प्रश्न 22.
सामाजिक प्रक्रिया की परिभाषा दीजिए। अथवा, सामाजिक प्रक्रिया से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
हार्टन तथा हंट के अनुसार “सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक जीवन में सामान्यतः पाए जाने वाले व्यवहारों की पुनरावृत्ति अन्त:क्रिया है।”

प्रश्न 23.
सामाजिक अन्तःक्रिया का अर्थ बताइए।
उत्तर:
व्यक्ति विभिन्न परिस्थितियों के माध्यम से समाज में अनेक व्यक्तियों के साथ संबद्ध होता है तथा समाज के दूसरे सदस्य भी उसके साथ क्रियात्मक संबंध रखते हैं। इसी प्रक्रिया को अन्त:क्रिया कहा जाता है। इस प्रकार अन्त:क्रिया किसी भी विशिष्ट समाज के सामाजिक पर्यावरण में होने वाली प्रक्रिया है। अन्तःक्रिया निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।”

प्रश्न 24.
सामाजिक प्रक्रियाओं के विभिनन स्वरूप बताइए। अथवा, सहयोगात्मक . तथा असहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रियाएँ किन्हें कहते हैं?
उत्तर:
समाज में निम्नलिखित दो प्रकार की सामाजिक प्रक्रियाएँ पायी जाती हैं –

(i) सहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रियाएँ –

  • सहयोग
  • समायोजन
  • समन्वयन
  • अनुकूलन
  • एकीकरण
  • सात्मीकरण

(ii) असहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रियाएँ –

  • प्रतियोगिता
  • संघर्ष
  • अंतर्विरोध

प्रश्न 25.
सहयोगात्मक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में सहयोग की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
ग्रीन के अनुसार, “सहयोग दो या दो से अधिक व्यक्तियों द्वारा कोई कार्य करने या सामान्य रूप से इच्छित किसी लक्ष्य तक पहुँचने के लिए किया जाने वाला निरंतर एवं सामूहिक प्रयास है।” एल्ड्रिज तथा मैरिल के अनुसार, “सहयोग सामाजिक अन्त:क्रिया का वह स्वरूप है जिसमें दो या दो से अधिक व्यक्ति एक सामान्य उद्देश्य की पूर्ति में एक साथ मिलकर कार्य करते हैं।”

प्रश्न 26.
संघर्ष की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
हॉर्टन तथा हंट के अनुसार, “संघर्ष वह प्रक्रिया है जिसमें प्रतिस्पर्धियों को कमजोर बनाकर या उन्हें प्रतियोगिता से हटाकर स्वयं पुरस्कार मा लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है।” ए.डब्लू. ग्रीन के अनुसार, “संघर्ष किसी अन्य व्यक्ति अथवा व्यक्तियों की इच्छा का जान-बूझकर विरोध करने, उसे रोकने अथवा उसे बलपूर्वक कराने से संबंधित प्रयत्न है।”

प्रश्न 27.
संघर्ष के विघटनकारी प्रभाव बताइए।
उत्तर:
प्रसिद्ध समाजशास्त्री हॉटर्न तथा हंट ने संघर्ष के निम्नलिखित विघनटकारी प्रभाव बताए हैं –

  • संघर्ष पारस्परिक कटुता बढ़ाता है।
  • संघर्ष हिंसा तथा विनाश पैदा करता है।
  • संघर्ष के द्वारा सहयोग के रास्ते में बाधा उत्पन्न की जाती है।
  • संघर्ष द्वारा सदस्यों का ध्यान समूह के लक्ष्यों से हटा दिया जाता है।

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प्रश्न 28.
संघर्ष के समन्वयकारी प्रभाव बताइए।
उत्तर:
हॉर्टन तथा हंट ने संघर्ष के निम्नलिखित समन्वयकारी प्रभाव बताए हैं –

  • संघर्ष के द्वारा विवाद स्पष्ट किए जाते हैं।
  • संघर्ष समूह की एकता से वृद्धि करता है।
  • संघर्ष के माध्यम से दूसरे समूहों के साथ संधियाँ की जाती हैं।
  • संघर्ष में समूहों को अपने सदस्यों के हितों के प्रति जागरूक बनाया जाता है।

लघु उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
पुरस्कारों का वर्गीकरण समाज में किस प्रकार किया जाता है?
उत्तर:
स्तरीकरण के विभाजन में पुरस्कारों को निम्नलिखित तीन श्रेणियों में बाँटा गया है –

  1. धन-धन अथवा संपत्ति किसी व्यक्ति या परिवार की कुल आर्थिक पूँजी है, जिसमें आय व्यक्तिगत संपत्ति तथा संपत्ति से होने वाली आय सम्मिलित हैं।
  2. शक्ति-शक्ति के माध्यम से व्यक्ति अथवा समूह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति दूसरों के विरोध के बावजूद करते हैं।
  3. मनोवैज्ञानिक संतुष्टि-मनोवैज्ञानिक संतुष्टि एक अभौतिक संसाधन है। किसी कार्य के द्वारा व्यक्ति को आनंद तथा सम्मान मिलता है। समाज समुचित कार्य के लिए व्यक्ति को पुरस्कृत करता है।

प्रश्न 2.
कुछ समाजशास्त्री सामाजिक स्तरीकरण को अपरिहार्य क्यों मानते हैं?
उत्तर:
समाजशास्त्री सामाजिक स्तरीकरण के निम्नलिखित कारणों को अपरिहार्य मानते हैं। –

  1. मानव समाज में असमानता प्रारम्भ से ही पायी जाती है। असमानता पाए जाने का प्रमुख कारण यह है कि समाज में भूमि, धन, संपत्ति, शक्ति तथा प्रतिष्ठा जैसे संसाधनों का वितरण समान नहीं होता है।
  2. विद्वानों का मत है कि यदि समाज के समस्त सदस्यों को समानता का दर्जा दे भी दिया जाए तो कुछ समय पश्चात उस समाज के व्यक्तियों में असमानता आ जाएगी। इस प्रकार समाज में असमानता एक सामाजिक तथ्य है।
  3. गम्पलाविज तथा ओपेनहीमार आदि समाजशास्त्रियों का मत है कि सामाजिक स्तरीकरण की शुरूआत एक समूह द्वारा दूसरे पर हुई।
  4. जीतने वाला समूह अपने को उच्च तथा श्रेष्ठ श्रेणी को समझने लगा। सीसल नाथ का विचार है कि “जब तक जीवन का शांतिपूर्ण क्रम चलता रहा, तब तक कोई तीव्र तथा स्थायी श्रेणी-विभाजन प्रकट नहीं हुआ।”
  5. प्रसिद्ध समाजशास्त्री डेविस का मत है कि सामाजिक अवचेतना अचेतन रूप से अपनायी जाती है। इसके माध्यम से विभिन्न समाज यह बात कहते हैं कि सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तियों को नियुक्त किया गया है। इस प्रकार प्रत्येक समाज में सामाजिक स्तरीकरण अपरिहार्य है।

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प्रश्न 3.
प्रदत्त व अर्जित प्रस्थिति में अंतर बताइए। उचित उदाहरण देकर समझाइए।
उत्तर:
(i) प्रदत्त प्रस्थिति – प्रदत्त प्रस्थिति वह सामाजिक पद है जो किसी व्यक्ति को उसके जन्म के आधार पर या आयु, लिंग, वंश जाति तथा विवाह आदि के आधार पर प्राप्त होता है। लेपियर के अनुसार, “वह स्थिति जो एक व्यक्ति के जन्म पर या उसके कुछ ही क्षण बाद अभिगेपित होती है, विस्तृत रूप में निश्चित करती है कि उसका समाजीकरण कौन-सी दिशा ‘लेगा-अपनी संस्कृति के अनुसार-पुंल्लिग-स्त्रीलिंग निम्न या उच्च वर्ग के व्यक्ति के रूप में उसका पोषण किया जा सकेगा।

वह कम या अधिक प्रभावशाली रूप में अपनी उस स्थिति से समाजीकृत होगा जो उस पर अभिरोपित है।” प्रदत्त प्ररिस्थति का निर्धारण सामाजिक व्यवस्था के मानकों द्वारा निर्धारित किया जाता है। उदाहरण के लिए उच्च जाति में जन्म के द्वारा किसी व्यक्ति को समाज में जो प्रस्थिति प्राप्त होती है वह उसकी प्रदत्त प्रस्थिति है। इसी प्रकार एक धनी परिवार में जन्म लेने वाले बालक से भिन्न होती है।

(ii) अर्जित प्रस्थिति – अर्जित प्रस्थिति वह सामाजिक पद है जिसे व्यक्ति अपने निजी प्रयासों से प्राप्त करता है। लेपियर के अनुसार “अर्जित प्रस्थिति वह स्थिति है, जो साधारणतः लेकिन अनिवार्यतः नहीं, किसी व्यक्तिगत सफलता के लिए इस अनुमान पर पुरस्तकार स्वरूप स्वीकृत होती है कि जो सेवाएँ अपने भूत में की हैं वे सब भविष्य में जारी रहेंगी।” उदाहरण के लिए कोई भी व्यक्ति अपने निजी प्रयासों के आधार पर डॉक्टर, वकील, इंजीनियर या अधिकारी बन सकता है।

प्रश्न 4.
क्या सहयोग हमेशा स्वैच्छिक अथवा बलात् होता है? यदि बलात् है, तो क्या मंजूरी प्राप्त होती है मानदंडों की शक्ति के कारण सहयोग करना पड़ता है? उदाहरण सहित चर्चा करें।
उत्तर:
सहयोग एक निरंतर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है। एक सामाजिक प्रक्रिया के रूप में सहयोग प्रत्येक समाज में पाया जाता है। सहयोग कुछ स्तरों पर तो स्वैच्छिक होता है। इस स्वैच्छिक सहयोग के आधार पर रक्त संबंध, भावनाएँ तथा पारस्परिक उत्तरदायित्व होते हैं। इस सहयोग में व्यक्तियों में स्वार्थ भिन्नता नहीं पायी जाती है। उद्देश्यों तथा साधनों में समानता पाई जाती है। उदहारण के लिए, स्वैच्छिक सहयोग परिवार में पाया जाता है। इस प्रकार के सहयोग की प्रकृति वैयक्तिक होती है। इस प्रकार के सहयोग के लिए बाध्य नहीं किया जाता।

सहयोग का एक अन्य रूप है-व्यक्ति अन्य समूहों के साथ अपने स्वार्थों तथा उद्देश्यों की पूर्ति के लिए सहयोग करता है। इसमें स्वीकृति भी होती है, नियमों की शक्ति भी। व्यक्ति द्वारा अन्य व्यक्तियों को उसी सीमा तक सहयाग दिया जाता है जितना उसके स्वार्थों की पूर्ति के
लिए आवश्यक है। आधुनिक समाजों में श्रम-विभाजन तथा विशेषीकरण की प्रक्रियाएँ इसी का उदाहरण है। इसके अलावा ट्रेड यूनियनों, उद्योगों, कार्यालयों में ऐसा ही सहयोग मिलता है।

प्रश्न 5.
कृषि तथा उद्योग के संदर्भ में सहयोग के विभिन्न कार्यों की आवश्यकता की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
सहयोग शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के दो शब्दों ‘को’ तथा ऑपेरारी से हुई है। ‘को’ का अर्थ है साथ-साथ तथा ऑपरेरी का अर्थ है कार्य। अपने साधारण अर्थ में सहयोग का तात्पर्य समान हितों की पूर्ति हेतु एक साथ मिलकर कार्य करना है । इमाईल दुखाईम की सावयवी एकता की अवधारणा तथा कार्ल मार्क्स के प्रायः विभाजन की अवधारणा भी ‘सहयोग’ पर आधारित है।

कृषि के संदर्भ में सहयोग की अत्यन्त आवश्यकता पड़ती है। एक परिवार जो कृषि कार्य में संलग्न है, उसके सभी सदस्य कृषि के कार्यों में सहयोग करते हैं : खेत जोतने, बीज बोने, सिंचाई करने, फसल पकने तक उसकी रखवाली करने, फसल काटने आदि सभी कार्यों में बिना सहयोग के कार्य संपन्न होने में कठिनाई होती है। परिवारिक सदस्यों के सहयोग से ये कार्य शीघ्र संपन्न हो जाते हैं।

इसी प्रकार औद्योगिक कार्यों के संदर्भ में भी सहयोग की आवश्यकता तो देखा जा सकता है। एक रेडीमेड गारमेंट फैक्ट्री तथा एक कार निर्माण फैक्ट्री में बिना कुशल/अकुशल श्रमिकों के बीच सहयोग के उत्पादन कार्य नहीं हो सकता है। कार्ल मार्क्स ने इसलिए कहा है-“बिना सहयोग के मानव जीवन पशु जीवन के समान है।”

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प्रश्न 6.
लिंग के आधार पर स्तरीकरण की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
लिंग के आधार पर भी सामाजिक संस्तरण किया जाता है। इसके अंतर्गत पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग में अंतर किया जाता है। लिंग की भूमिकाएँ अलग-अलग संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न हो सकती हैं, लेकिन लिंग पर आधारित स्तरीकरण सार्वभौमिक होता है। उदाहरण के लिए पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुषों के कार्यों को स्त्रियों की अपेक्षा अधिक महत्व प्रदान किया जाता है। समाज में राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक संरचनाओं पर पुरुषों का दबदबा कायम रहता है।

लिंग की समानता के समर्थक शिक्षा, सार्वजनिक अधिकारों में भागीदारी तथा आर्थिक आत्मनिर्भरता के जरिए स्त्रियों को समर्थ बनाए जाने की हिमायती हैं। वर्तमान समय में लिंग पर आधारित असमानताओं को हटाने की बात अधिक जोरदार तरीके से उठायी जा रही है। महिला आंदोलन के कारण लिंग पर आधारित भेदभावों को हटाने का सतत प्रयास किया जा रहा है। वर्तमान समय में लिंग भेद की अवधारणा जैविक भिन्नता के अलग हो गई है। समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण के अनुसार भिन्नता भूमिकाओं तथा संबंधों के संदर्भ में देखी जानी चाहिए।

प्रश्न 7.
स्तरीकरण की खुली बंद व्यवस्था अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
स्तरीकरण की खुली तथा बंद व्यवस्था में निम्नलिखित अंतर है –
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प्रश्न 8.
ऐसे समाज की कल्पना कीजिए जहाँ प्रतियोगिता नहीं है। क्या यह संभव है? अगर नहीं तो क्यों?
उत्तर:
समाज में प्रतियोगिता एक सार्वभौमिक प्रक्रिया है। समाजशास्त्री मैक्स वैबर ने समाज में प्रतियोगिता के महत्व को स्वीकार किया है। प्रतियोगिता किसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए प्राप्न की जाती है। यथा विद्यालय की कक्षा में छात्रों में सर्वप्रथम स्थान पाने के लिए प्रतियोगिता की स्थिति उत्पन्न होती है। हॉकी की दो टीमों के बीच में प्रतियोगिता का अनुभव किया जा सकता है। दो उत्पादकों में प्रतियोगिता का स्वरूप अनुभव किया जा सकता है। हर्टन एवं हंट ने स्पष्ट किया है कि किसी भी पुरस्कार को प्रतिद्वंदियों से प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रतियोगिता है।

प्रतियोगिता का क्षेत्र व्यापक होता है। किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों अथवा समूहों के बीच प्रतियोगिता एक स्वरूप बनता है। स्पष्ट है कि ऐसे समाज की कल्पना असंभव है जहाँ प्रतियोगिता न हो। इसका कारण है कि प्रतियोगिता से जुड़े व्यक्तियों में अपने उद्देश्यों के प्रति समर्पण की भावना पैदा होती है। लोग अपनी गुणवत्ता को बढ़ाने का प्रयास करते हैं। जैसे उत्पादकों के बीच में तीव्र प्रतियोगिता की स्थिति बनी रहती है। प्रत्येक उत्पादक अधिक से अधिक उपभोक्ताओं को उपहार प्रदान कर तथा विक्रेताओं को अधिक लाभांश देकर बाजार में सबसे आगे निकलना चाहता है। प्रतियोगिता सबसे आगे निकलने की प्रक्रिया है। प्रतियोगिता के बिना समाज अधूरा है।

प्रश्न 9.
संघर्ष से किस प्रकार सामाजिक विघटन होता है? समझाइए।
उत्तर:
संघर्ष द्वारा सामाजिक एकता के ताने-बाने को खंडित किया जाता है। एक प्रक्रिया के रूप में संघर्ष वस्तुतः सहयोग का प्रविवाद है । गिलिन तथा गिलिन के अनुसार, “संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अथवा समूह अपने उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु अपने विरोधी को हिंसा या हिंसा के भय द्वारा प्रत्यक्ष आह्वान देकर करते हैं” बीसंज तथा बीसंज ने इस संबंध में लिखा है कि “फिर भी अधिक संघर्ष विनाशकारी होता है तथा जितनी समस्याओं को सुलझाता है उससे कहीं अधिक समस्याओं को जन्म देता है।”

वैयक्तिक स्तर पर विघटन-वैयक्तिक स्तर पर पृथक्-पृथक् स्वभाव, दृष्टिकोण, मूल्य, आदर्श तथा हित होने के कारण कोई भी दो व्यक्ति परस्पर समायोजित नहीं कर पाते हैं, जिसके कारण उनके बीच संघर्ष होता है, इससे व्यक्तियों का सामाजिक विकास बाधित होता है। सामूहिक स्तर पर विघटन-सामूहिक स्तर पर संघर्ष दो समूहों अथवा समाजों के बीच होता है।

सामूहिक संघर्ष के निम्नलिखित उदाहरण है –

  • प्रजातीय संघर्ष
  • सांप्रदायिक संघर्ष
  • धार्मिक संघर्ष
  • मजदूर-मालिक संघर्ष
  • देश के बीच संघर्ष तथा
  • राजनीतिक दलों में संघर्ष

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दीर्घ उत्तरीय प्रश्न एवं उनके उत्तर

प्रश्न 1.
क्या आप भारतीय समाज के संघर्ष के विभिन्न उदाहरण ढूंढ सकते हैं? प्रत्येक उदाहरण में वे कौन से कारण थे जिसने संघर्ष को जन्म दिया? चर्चा कीजिए?
उत्तर:
‘संघर्ष विश्व के सभी समाजों में पाया जाता है। ग्रीन के अनुसार, “संघर्ष जान-बूझकर किया गया वह प्रयत्न है जो किसी भी इच्छा का विरोध करके उसके आड़े आने या उसे दबाने के लिए किया जाता है।” गिलिन और गिलिन के अनुसार, “संघर्ष वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति या समूह अपने विरोधी के प्रति प्रत्यक्षतः हिंसात्मक तरीके अपनाकर या उसे हिंसात्मक तरीका अपनाने की धमकी देकर अपने उद्देश्यों की पूर्ति करना चाहते हैं।”

इस प्रकार अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हिंसात्मक तरीके अपनाकर दूसरे के इच्छाओं का दमन करना संघर्ष कहलाता है। भारतीय समाज में भी अनेक प्रकार के संघर्ष विद्यमान हैं जिनमें प्रमुख हैं-जाति एवं वर्ग, जनजातीय संघर्ष, लिंग, नृजातीयता, धर्म, सांप्रदायिकता से जुड़े संघर्ष।

प्रमुख संघर्षों की चर्चा निम्नवत है –
(i) जातीय संघर्ष – समाजशास्त्री एच.ची. वेल्स का कहना है कि मनोवैज्ञानिक प्रवृतियों के आधार पर समाज का स्तरीकरण करने से समाज का विकास तीव्र गति से होता है। प्राचीनकाल में भारतीय समाज ने स्वयं को स्थित तथा शक्तिशाली बनाने के लिए अपने सदस्यों को उनकी योग्यता, पटुता तथा शक्ति के अनुसार चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र में बांट दिया । यही प्राचीन वर्णों को चार अलग-अलग सामाजिक कार्य सौंप दिए गए। धीरे-धीरे यह असमानता ऊँच-नीच की भावनाओं का आधार बन गई और समाज में संघर्ष उत्पन्न हो गया। डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णनन् ने इसी बात को और अधिक स्पष्ट करते हुए कहा कि भारतीय वर्ण-व्यवस्था में यद्यपि वंशानुगत क्षमताओं का महत्व तो था, तथापि यह व्यवस्था मुख्य रूप से गुण तथा कर्म सिद्धांतों पर आधारित थी।

पौराणिक काल के बाद कर्म सिगन्त का स्थान जन्म सिद्धांत ने ले लिया और वर्ण-व्यवस्था जाति-व्यवस्था के स्वरूप में परिवर्तित हो गई जाति-व्यवस्था में सामाजिक असमानता का स्वरूप हो गया। ब्राह्मण सबसे उच्च तथा पवित्र माने गए; तो क्षत्रिय का स्थान द्वितीय माना गया, वैश्य का स्थान तीसरा तथा शूद्र का स्थान चौथा माना गया। एक वर्ण में फिर अनेक जातियाँ, उप-जातियों बनी, उनमें उच्चता और निम्नता की सीढ़ियाँ बनती चली गई, इनका आधार जन्म था, इसलिए इस व्यवस्था में दृढ़ता और रूढ़िवादिता आती चली गई, इस प्रकार स्पष्ट है कि भारत में स्तरीकरण के सिद्धांत के अन्तर्गत जाति व्यवस्था का जन्म हुआ।

इस जाति-व्यवस्था के आधार पर भारतीय समाज में विभिन्न प्रकार की सामाजिक सांस्कृतिक एवं आर्थिक असमानताएँ उत्पन्न होती चली गई। अनेक समाजशास्त्रियों का कहना है कि भारतीय समाज में जाति-प्रथा के कारण जो सामाजिक असमानता, भेद-भाव तथा छुआछूत की भावना दिखाई देती है, ऐसे भेदभाव की भावना संसार के अन्य किसी समाज में देखने को नहीं मिलती है जिसने जातिगत संघर्ष को जन्म दिया। इस संघर्ष को जातिवाद नाम दिया गया।

निराकरण-जातिवाद विभिन्न संघर्षों को जन्म देता है। इसके निराकरण के लिए डॉ. जी. एस. घुरिये ने सुझाव दिया था कि अन्तर्जातीय विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए। समाजशास्त्री पी.एच.प्रभु की मान्यता डालकर जातिवाद को दूर किया जा सकता है। डॉ. राव ने वैकल्पिक समूहों के निर्माण में जातिवाद को समाप्त करने के लिए कहा है। कुछ समाजशास्त्रियों ने जातिवाद से छूट पाने केलिए आर्थिक विकास को अत्यन्त आवश्यक माना है। सरकार ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन-जातियों, अछूतों की निर्योग्यताओं को समाप्त कर उच्च जातियों के समकक्ष लाने का प्रयत्न किया है जिसके लिए अस्पृष्ठता अधिनियम, 1995 पारित किया गया और इस असमानता को दूर करने में सरकार ने सफलता भी प्राप्त की है।

(ii) नृजातीय संघर्ष – समाजशास्त्रियों ने प्रजातीय दृष्टि से भारत को विभिन्न प्रजातियों का ‘द्रवणपात्र’ और प्रजातियों का अजायबघर की संज्ञा दी है। भारत में संसार की तीनों प्रमुख प्रजातियाँ श्वेत प्रजाति, पीत प्रजाति एवं काली प्रजाति और अनेक उपशाखायें निवास करती हैं। उत्तर भारत में आर्य प्रजातीय भिन्नता होने पर भी भारत में अमेरिका और अफ्रीका की भांति प्रजातीय संघर्ष और दंगे-फसाद नहीं हुए हैं, बल्कि उनमें पारस्परिक सद्भाव एवं सहयोग ही रहा है।

छिटपुट घटनाएँ होना साधारण बात है। भारत में विभिन्न प्रजातियों का मिश्रण भी हुआ है। स्पष्ट है कि भारत में प्रजातिवादी संघर्ष की समस्या नहीं पायी जाती है। भारतीय समाज प्रारंभ से ही मानता रहा है कि भारत में प्रजातिवाद एक अवैज्ञानिक अवधारणा है। भारत की भौगोलिक विशेषताओं एवं आजीविका के प्रचुर साधन विभिन्न प्रजातीय समूहों के लिए प्रारंभ से ही आकर्षण का केन्द्र बन रहे हैं।

(iii) जनजातीय संघर्ष – वर्तमान में सम्पूर्ण जनजातीय भारत संक्रमण के दौर से गुजर रहा है। इस संक्रमण के दौरान जनजातियों में अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गयी हैं। इन समस्याओं की प्रकृति और कारण अलग-अलग जनजातियों में भिन्न-भिन्न हैं। कुछ जनजातियों में जनसंख्या की वृद्धि हो रही है, जैसे-भील और गोंड में तो कुछ जनजातियों में, जैसे-टोडा एवं कोरबा में जनसंख्या घट रही है।

कई जनजातियाँ नगरीय संस्कृति के संपर्क में आई हैं जिसके फलस्वरूप उनकी मूल संस्कृति में कई परिवर्तन हुए हैं। उनमें दिशाहिनता एवं सांस्कृतिक छिन्न-भिन्नता उत्पन्न हुई है और मानसिक असंतोष में वृद्धि हुई है। ब्रिटिश काल में जनजातिय लोगों के संपर्क ईसाई मिशनरियों और राज्य कर्मचारियों के साथ बढ़े। परिणामस्वरूप उन्हें कुछ लाभ तो प्राप्त हुए, किन्तु इनसे उनके जीवन में विघटन भी प्रारंभ हो गया।

जनजातीय लोगों के संपर्क ईसाई मिशनरियों और राज्य कर्मचारियों के साथ बढे। परिणामस्वरूप उन्हें कुछ लाभ तो प्राप्त हुए, किन्तु जनजातियों के निवास क्षेत्र में व्यापारी और ठेकेदार लोग पहुँच गए। उन्होंने जनजातीय लोगों का खूब आर्थिक शोषण किया और कम मजदूरी पर उनसे अधिक श्रम लेने लगे सूदखोरों ने इन लोगों की जमीनें कम दामों में खरीद ली और अपने घर में वे परायों की तरह कृषि मजदूर के रूप में काम करने लगे।

कभी-कभी इनसे बेगारी भी ली जाने लगी। ठेकेदारों एवं व्यापारियों ने कहीं-कहीं जनजातीय स्त्रियों के साथ अनैतिक संबंध भी स्थापित किये जिसके परिणामस्वरूप अनेक जनजातीय लोग गुप्त रोगों से पीड़ित हो गए। इस संपर्क के फलस्वरूप जनजातियों में वेश्यावृत्ति पनपी। ईसाई मिशनरियों ने जनजातीय धर्म के स्थान पर ईसाई धर्म को स्थापित कर आदिवासियों को अपने पड़ोसी समुदाय से अलग कर दिया।

इससे आदिवासियों में धार्मिक और सामाजिक एकता का सकंट पैदा हो गया, सांस्कृतिक और राजनीतिक समस्याएँ खड़ी हुईं, उनमें पृथकता की भावना पनपी और वे पृथक् राज्य की मांग करने लगे। इसके लिए संघर्ष प्रारंभ हुआ। इस संघर्ष के कारण उत्तरांचल, छत्तीसगढ़, झारखंड जैसे नवीन राज्यों का गठन हुआ।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 2.
सामाजिक संरचना किसे कहते हैं? इसके विभिन्न तत्वों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
सामाजिक संरचना का अर्थ-सामाजिक संरचना का तात्पर्य उन विभिन्न पद्धतियों से है जिनके अंतर्गत सामूहिक नियमों, भूमिकाओं तथा कार्यों के साथ एक स्थिर प्रतिमान संगठित होता है। प्रमाजिक संरचना अदृश्य होती है, लेकिन यह हमारे कार्यों के स्वरूप को स्पष्ट करती है। सामाजिक संरचना के निम्नलिखित तत्व हमारे कार्यों का निर्देशन करते हैं –

  • सामाजिक प्रस्थितियाँ
  • सामाजिक भूमिकाएँ
  • सामाजिक मानक
  • सामाजिक मूल्य

सामाजिक संरचना की तुलना एक भवन से की जा सकती है। एक भवन के अंतर्गत निम्नलिखित तीन तत्व पाए जाते हैं –

  • भवन निर्माण सामग्री जैसे-ईंटें, गामा, बीम तथा स्तंभ।
  • इन सभी को एक निश्चित क्रम में जोड़ा जाता है तथा एक-दूसरे से मिलाकर रखा जाता है।
  • भवन सामग्री के इन सब तत्वों को मिलाकर भवन का एक इकाई के रूप में निर्माण किया जाता है।

उपरोक्त वर्णित विशेषताओं का प्रयोग सामाजिक संरचना का वर्णन करने में किया जा सकता है। एक समाज की संरचना का निर्माण निम्नलिखित तत्वों से मिलकर बनता है –

  • स्त्री, पुरुष, वयस्क तथा बच्चे, अनेक व्यावहारिक तथा धार्मिक समूह आदि।
  • समाज के विभिन्न अंगों में अंतःसंबंध जैसे जैसे पति-पत्नी के बीच संबंध, माता-पिता तथा उनके बीच संबंध तथा विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच संबंध।
  • समाज के सभी अंग मिला दिए जाते हैं ताकि वे एक इकाई के रूप में कार्य कर सकें।

सामाजिक संरचना की परिभाषा –
(i) गिन्सबर्ग के अनुसार, सामाजिक संरचना के अध्ययन का संबंध सामाजिक संगठन के प्रमुख स्वरूपों, यथा समूहों, समितियों तथा संस्थाओं के प्रकारों तथा इनके संकुल जो समाजों के निर्माण करते हैं, से है। सामाजिक संरचना के विस्तृत वर्णन में तुलनात्मक संस्थाओं के समग्र क्षेत्र का अध्ययन समाहित है।”

(ii) रेडक्लिफ ब्राउन के अनुसार “सामाजिक संरचना के घटक मानव प्राणी हैं, स्वयं संरचना तो व्यक्तियों को क्रमबद्धता है, जिनके संबंध संस्थात्मक रूप से परिभाषित एवं नियमित हैं।

(iii) टॉलकॉट पारसंस के अनुसार, “सामाजिक संरचना परस्पर संबंधित संस्थाओं, अभिकरणों और सामाजिक प्रतिमानों तथा साथ ही समूह में प्रत्येक सदस्य द्वारा ग्रहण किए गए पदों तथा कार्यों की विशिष्ट क्रमबद्धता को कहते हैं।”

(iv) जॉनसन के अनुसार “किसी भी वस्तु की संरचना उसके अंगों में पाये जाने वाले अपेक्षाकृत स्थायी अंतःसंबंधों को कहते हैं। इसके अलावे, अंग शब्द स्तंभ स्थिरता की कुछ मात्रा का बोध कराता है। सामाजिक व्यवस्था व्यक्तियों के अंत:संबंधित कार्यों से निर्मित होती है, इसलिए इसकी संरचना की खोज इन कार्यों में नियमितता या पुरावृत्ति की कुछ मात्रा में की जाती है।”

(v) कर्ल मानहीम के अनुसार, “सामाजिक संरचना परस्पर क्रिया करती हुई सामाजिक शक्तियों का जाल है, जिसमें अवलोकन तथा चिंतन की विश्वप्रणालियों को जन्म होता है।

(vi) रॉबर्ट के. मर्टन ने संरचना पर प्रतिमानहीनता के संदर्भ में विचार किया है। मर्टन के अनुसार सामाजिक संरचना के निम्नलिखित दो तत्व अत्यकि महत्वपूर्ण हैं

  • सांस्कृतिक लक्ष्य तथा
  • संस्थागत प्रतिमान।

सांस्कृतिक तत्व के अंतर्गत वे लक्ष्य तथा उद्देश्य आते हैं जो संस्कृति द्वारा स्वीकृत होते हैं। इसके अलावा, समाज के अनेक सदस्यों में से प्राय:सभी सदस्य उन्हें स्वीकार कर लेते हैं। संस्थागत प्रतिमान के अंतर्गत लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु संस्कृति द्वारा स्वीकृत साधनों/प्रतिमानों को सम्मिलित किया जाता है। वास्तव में सांस्कृतिक लक्ष्यों तथा संस्थागत प्रतिमानों के बीच पाया जाने वाला संतुलन ही सामाजिक संरचना है। मर्टन के विचार में इसके बीच संतुलन की स्थिति भंग होने पर समाज में प्रतिमामहीनता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

सामाजिक संरचना की प्रमुख विशेषताएँ –

  • प्रत्येक सामाजिक व्यवस्था के दो पक्ष होते हैं –
    (a) संरचनात्मक पक्ष तथा
    (b) प्रकार्यात्मक पक्ष
  • मानव आवश्यकताएँ सामाजिक संरचना का मूल आधार हैं।
  • समुदाय, समूह, समिति तथा संगठन सामाजिक संरचना के मुख्य भाग हैं।
  • समुदाय संरचना की प्रकृति मूल्यपरक होती है।
  • सामाजिक संरचना के इस पक्ष के अंतर्गत प्रथाएँ, जनरीतियों, मूल्यों, सांस्कृतिक मापदंडों तथा कानूनों के द्वारा संबद्ध होते हैं।
  • सामाजिक संरचना के विभिन्न भागों जैसे समुदाय, समिति, समूह तथा संगठन आदि परस्पर प्रथाओं, जनरीतियों तथा कानूनों द्वारा संबद्ध होते हैं।
  • इन सभी भागों के अपने प्रकार्य हैं। इन प्रकार्यों का निर्धारण सामाजिक प्रतिमानों तथा मूल्यों के द्वारा होता है।

सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्व-सामाजिक संरचना के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं –

(i) आदर्शात्मक व्यवस्था – आदर्शात्मक व्यवस्था समाज के सम्मुख कुछ आदर्शों तथा मूल्यों को प्रस्तुत करती है। इन आदर्शों तथा मूल्यों के अनुसार संस्थाओं तथा समितियों को अंतः संबंति किया जाता है। व्यक्तियों द्वारा समाज स्वीकृत आदर्शों तथा मूल्यों के अनुसार अपनी भूमिकाओं को निभाया जाता है।

(ii) पद व्यवस्था – पद व्यवस्था द्वारा व्यक्तियों की प्रस्थितियों तथा भूमिकाओं का निर्धारण किया जाता है।

(iii) अनुज्ञा व्यवस्था – प्रत्येक समाज में आदर्शों तथ मूल्यों को समुचित तरीके से लागू करने के लिए अनुज्ञा व्यवस्था होती है। वास्तव में सामाजिक संरचना के विभिन्न अंगों का समन्वय सामाजिक आदर्शों तथा मूल्यों को पालन करने पर निर्भर करता है।

(iv) पूर्वानुमानित अनुक्रिया व्यवस्था – पूर्वानुमानित अनुक्रिया व्यवस्था सामाजिक संरचना, स्तरीकरण एवं समाज में सामाजिक प्रक्रियाएँ लोगों से सामाजिक व्यवस्था में भागीदारी की मांग करती है। इसके द्वारा सामाजिक संरचना को गति मिलती है।

(v) क्रिया व्यवस्था – क्रिया व्यवस्था के द्वारा सामाजिक संबंधों के ताने-बाने को पूर्ण किया जाता है। वह सामाजिक संरचना को आवश्यक गति भी प्रदान करती है।

प्रश्न 3.
किसी समाज की उत्तरजीविता के लिए विभिन्न प्रकार्यों की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
प्रकार्य वस्तुतः किसी भी समाज की उत्तरजीविका तथा निरंतरता के लिए आवश्यक है। किसी भी संरचना का विशिष्ट कार्य ही उसका प्रकार्य कहलाता है। प्रकार्यों में अंतिनिर्भरता पायी जाती है। प्रकार्य समाज को बनाए रखने तथा उसमें स्थिरता तथा निरंतरता के लिए आवश्यक है। प्रकार्यों की सफलता तथा असफलता का प्रभाव समाज के अन्य संगठनों के प्रकार्यों को प्रभावित करता है। किसी भी समाज की उत्तरजीविका तथा निरंतरता के लिए निम्नलिखित प्रकार्य आवश्कय हैं

(i) सदस्यों की भर्ती – सभी समाजों में प्रजनन नए सदस्यों की भर्ती का मूल स्रोत है। हालांकि अप्रवास तथा नए क्षेत्रों को मिलाकर भी नए सदस्यों को भर्ती की जा सकती है।

(ii) समाजीकरण – ऑग्बर्न के अनुसार, “समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे कि व्यक्ति समूह के आदर्श नियमों के अनुरूप व्यवहार करना सीखता है।” सामाजिक व्यवस्था मुख्य रूप से समाजीकरण पर आधारित होती है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा एक जैविक मनुष्य एक सामाजिक प्राणी में बदल जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा ही व्यक्ति सामाजिक मूल्यों, मानकों, नियमों तथा कुशलताओं को सीखता है। समाजीकरण की प्रक्रिया के दो माम निम्नलिखित हैं

  • अनौपचारिक माध्यम-जैसे-परिवार, मित्र समूह तथा पड़ोस।
  • औपचारिक साधन-जैसे-विद्यालय तथा अन्य संस्थाएँ।

समाजीकरण की प्रक्रिया निरतर रूप से जीवन-पर्यन्त चलती रहती है।

(iii) वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन एवं वितरण-समाज की उत्तरजीविता तथा निरंतरता हेतु समाज के सदस्यों की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति आवश्यक है। आर्थिक आवश्यकताओं के अंतर्गत वस्तुओं तथा सेवाओं का उत्पादन ही पर्याप्त नहीं है वरन् उनका क्रमबद्ध तरीके से सूक्ष्म वितरण भी आवश्यक है। सभी समाजों में मानकों तथा मूल्यों का समुचित विकास किया जाता है, जिससे वस्तुओं तथा सेवाओं का उपयुक्त निर्धारण हो सके। उत्पादन के अनुपयुक्त वितरण से समाज में भ्रांति तथा अराजकता उत्पन्न हो सकती है।

(iv) व्यवस्था का संरक्षण-व्यक्तियों के व्यवहार को नियंत्रित करने के लिए सभी समाजों में नियमों की कोई न कोई व्यवस्था अपनायी जाती है। समाज को नष्ट होने से बचाने के लिए उसका संरक्षण जरूरी है। व्यवस्था का संरक्षण औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों के माध्यम से किया जाता है। अनौपचारिक साधनों के अंतर्गत रूढ़ियों, लोकाचार, मानक तथा दबाव समूह आदि आते हैं लेकिन आधुनिक समाजों में व्यवस्थरा के संरक्षण हेतु औपचारिक साधन कानून व न्यायालय हैं।

प्रश्न 4.
संरचना, प्रकार्य व व्यवस्था के संबंधों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संरचना, प्रकार्य तथा व्यवस्था के बीच संबंध-संरचना तथा प्रकार्य सामाजिक व्यवस्था के दो महत्वपूर्ण पक्ष हैं। यही कारण है कि सामाजिक संरचना की तुलना मानव शरीर या भवन से की जाती है। जिस प्रकार शरीर तथा भवन में अनेक भाग होते हैं, उसी प्रकार सामाजिक संरचना का निर्माण अनेक तत्वों से मिलाकर होता है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री स्पेंसर समाज को एक व्यवस्था के रूप में वर्णित करते हैं। एक व्यवस्था के रूप में समाज अपने विभिन्न अंगों के पारस्परिक संबंधों से मिलकर निर्मित होता है।

अपनी धारणा को और अधिक स्पष्ट करने के लिए स्पैंसर समाज की तुलना मानव शरीर से करते हैं। जिस तरह मानव शरीर के विभिन्न अंगों का समुच्चय शरीर है, उसी प्रकार संगठनों, संस्थाओं तथा समूहों के रूप में समाज के अनेक अंग हैं। उनके पारस्परिक संबंधों तथा मिले-जुले स्वरूप को ही सामाजिक व्यवस्था कहते हैं। स्पेंसर समाज को एक प्रणाली के रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन अपनी व्याख्या में उन्होंने व्यवस्था तथा संरचना में अंतर किया है।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री पैरेटो व्यवस्था की व्याख्या समाज के विभिन्न अंगों के अंत:संबंधों के रूप में करते हैं। दूसरी तरफ, टालकाट पारसंस ने सामाजिक व्यवस्था की अवधारणा को तार्किक रूप से परिभाषित किया है। पारसंस के अनुसार, “एक सामाजिक व्यवस्था एक ऐसे परिस्थिति में जिसका कि कम से कम एक भौतिक या पर्यावरण संबंधी पक्ष हो, अपनी आवश्यकताओं की आदर्श पूर्ति से प्रवृति से प्रेरित होने वाले अनेक व्यक्तिगत कर्ताओं की परस्पर अंत:क्रियाओं के फलस्वरूप होती है तथा इन अंत:क्रियाओं में संलग्न व्यक्तियों का पारस्परिक संबंध तथा उनकी स्थितियों के साथ संबंध को सांस्कृतिक रूप से संरचित तथा स्वीकृत प्रतीकों की एक व्यवस्था द्वारा परिभाषित तथा मध्यस्थित किया जाता है।”

संक्षेप में पारसंस ने कहा है कि “सामाजिक व्यवस्था अनिवार्य रूप में अंतः क्रियात्मक संबंधों का जाल है।” – शरीर के संरचनात्मक अध्ययन में शरीर के विभिन्न अंगों का वैज्ञानिक रूप से अध्ययन किया जाता है। हाथ, पैर, आँख, नाक, कान आदि अलग-अलग रहकर शरीर का निर्माण नहीं करते हैं। वस्तुतः इनका मिला-जुला स्वरूप ही शरीर है। उसी प्रकार एक भवन में छत, दरवाजे, दीवारें तथा खिड़कियाँ आदि होते हैं लेकिन अकेली छत, खिड़की या दीवार भवन नहीं हो सकती।

विभिन्न संस्थाएँ, समूह तथा संगठन ही मिलकर सामाजिक संरचना का निर्माण करते हैं। सामाजिक संरचना एक गतिशीलता वास्तविककता है। सामाजिक संरचना बदलती हुई परिस्थतियों से अनुकूलन की क्षमता रखती है। जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग विभिन्न कार्यों को करते हैं, ठीक उसी प्रकार सामाजिक संरचना के विभिन्न अंग भी विभिन्न आवश्यकताओं तथा प्रकार्यों को पूरा करते हैं।

प्रकार्य का तात्पर्य समाज को निर्मित करने वाले विभिन्न अंगों या इकाईयों के कार्यों से है। प्रकार्य सामूहिक मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायक होते हैं रेडिक्लिफ ब्राउन का मत है कि प्रकार्यों द्वारा ही संपूर्ण समाज का अस्तित्व बना रहा है। पैरेटो ने कहा है कि समाज संतुलन की एक व्यवस्था है और इसका प्रत्येक अंग एक-दूसरे पर निर्भर है।

एक अंग में होने वाला परिवर्तन दूसरे अंग को प्रभावित करता है। इसी प्रकार एक भाग जब तक अपने कार्यों का निष्पादन उचित प्रकार से करता रहता है, तब तक संतुलन की स्थिति बनी रहती है तथा सामाजिक व्यवस्था निर्बाध रूप से चलती रहती है।

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प्रश्न 5.
समाज के लिए संरचना व प्रकार्य के महत्व की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
समाज के लिए संरचना का महत्व-सामाजित संरचना का तात्पर्य उन विभिन्न पद्धतियों से है जिसके अंतर्गत सामाजिक संरचना के तत्व हमारे कार्यों के साथ एक स्थिर प्रतिमान संगठित होता है। सामाजिक संरचना के तत्व हमारे कार्यों को निर्देशित करते हैं। सामाजिक संरचना के निम्नलिखित तत्व महत्वपूर्ण हैं –

  • सामाजिक प्रस्थितियाँ
  • सामाजिक भूमिकाएँ
  • सामाजिक मानक
  • सामाजिक मूल्य तथा
  • आवश्यकताएँ

व्यक्तियों की सामाजिक जीवन में अनेक आवश्यकताएँ होती हैं। इन आवश्यकताओं को पूरा करने की प्रक्रिया में व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से अंत:क्रिया तथा अंत:संबंध विकसित करता है। इसी संदर्भ में व्यक्ति अनेक भूमिकाओं का संपादन करता है। उदाहरण के लिए परिवार में एक व्यक्ति5 पिता, पुत्र पति तथा भाई आदि की भूमिका निभाता है। भूमिकाओं की इस बहुलता को भूमिकाकुलक कहते हैं। व्यक्तियों की आवश्यकताओं, भूमिकाओं, प्रतिस्थतियों, मानकों तथा मूल्यों के अनुसार सामाजिक प्रणाली की संरचना तथा उप-संरचना में विभेदीकरण तथा विविधता पापी जाती है।

उदाहरण के लिए विवाह की संस्था से संबद्ध पति, पत्नी तथा बच्चों की जो भूमिका तथा प्रस्थिति है, उसी के परिणामस्वरूप परिवार तथा नातेदारी जैसे संबंधों की संरचनात्मक तत्वों का समूहीकरण कहा है। अतः समाज के लिए संरचना का महत्व अत्यधिक है। यह समाज के लिए विकास के लिए अपरिहार्य है। संरचना के माध्यम से समाज के मानकों तथा मूल्यों का विकास होता है।

समाज के लिए प्रकार्यों का महत्व – रॉबर्ट के. मर्टन के अनुसार, “प्रकार्य वे अवलोकित परिणाम हैं जो सामाजिक व्यवस्था से अनुकूलन व सामंजस्य को बढ़ाते हैं।” रैडक्लिफ ब्राउन के अनुसार, “किसी सामाजिक इकाई का प्रकार्य उस इकाई द्वारा किए जाने वाला वह योगदान है जिसे वह सामाजिक व्यवस्था की क्रियाशीलता हेतु सामाजिक जीवन को प्रदान करता है।”

हैरी.एम. जानसन एक विशेष प्रकार का उपसमूह, एक कार्य, एक सामाजिक मान्यता अथवा एक सांस्कृतिक मूल्य का योगदान प्रकार्य कहलाता है, जबकि वह एक सामाजिक व्यवस्था अथवा उपव्यवस्था की एक अथवा अधिक आवश्यकताओं की पूर्ति करे।”

उपरोक्त वर्णित परिभाषाओं के आधार पर समाज के लिए प्रकार्यों का महत्व निम्नलिखित है –

  • सामाजिक प्रकार्यों द्वारा सामाजिक व्यवस्था तथा सामाजिक संगठन को बनाए रखने में सहायता मिलती है।
  • प्रकार्यों का तार्प्य समाज को बनाने वाले विभिन्न अंगों या कार्यों से होता है।
  • समाज के विभिन्न अंगों तथा संस्थाओं के प्रकार्य अलग-अलग होते हैं लेकिन उनके बीच पारस्परिक संबंध पाया जाता है। इन्हें प्रकार्यात्मक कहते हैं।
  • प्रकार्य मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सहायक होते हैं।
  • प्रकार्य सकारात्मक सामाजिक अवधारण है इनके द्वारा समाज में मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती है।
  • प्रकार्य समाज के अस्तित्व के लिए अपरिहार्य हैं।
  • प्रकार्यों के साथ-साथ समाज में अकार्य भी पाये जाते हैं।

मार्टन के अनुसार, “अकार्य निरीक्षण द्वारा स्पष्ट होने वाले परिणाम हैं जो सामाजिक व्यवस्था के अनुकूलन अथवा अभियोजन को कम कर देते हैं।” अकार्य एक नकारात्मक अवधारणा है जिनसे समाज में विघटन उत्पन्न होता है।

प्रकार्य किसी भी समाज की निरंतरता को बनाए रखने के लिए निम्नलिखित महत्वपूर्ण कार्य करते हैं –

  • नए सदस्यों की भर्ती-इसका मूल स्रोत प्रजनन है।
  • समाजीकरण-समाजीकरण की प्रक्रिया द्वारा जैविक मनुष्य का एक सामाजिक प्राणी में बदल जाता है।
  • वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन वितरण-समाज को बनाए रखने के लिए. वस्तुओं और सेवाओं का उचित उत्पादन तथा वितरण आवश्यक है।
  • व्यवस्था का संरक्षण-प्रत्येक समाज में सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण हेतु औपचारिक तथा अनौपचारिक साधनों को अपनाया जाता है।
  • आधुनिक समाजों में कानून तथा न्यायालय जैसे औपचारिक साधनों का महत्व बढ़ता जा रहा है।

प्रश्न 6.
प्रतियोगिता की विस्तृत व्याख्या दीजिए।
उत्तर:
हार्टन तथा हंट के अनुसार, “किसी भी पुरस्कार को प्रतिद्वंदीयों से प्राप्त करने की प्रक्रिया ही प्रतियोगिता है” सदरलैंड, वुडवर्ड तथा मैक्सवैल के अनुसार, “प्रतियोगिता कुछ व्यक्तियों तथा समूहों के बीच उन संतुष्टियों को प्राप्त करने के लिए होने वाला अवैयक्तिक, अचेतन तथा निरंतन संघर्ष है, जिनकी पूर्ति सीमित होने के कारण उन्हें सभी व्यक्ति प्राप्त नहीं कर सकते।”

मसर तथा वारंडरर ने प्रतियोगिता का वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से दिया है –

  • विशुद्ध एवं सीमित प्रतियोगिता
  • निरपेक्ष प्रतियोगिता एवं सापेक्ष प्रतियोगिता
  • वैयक्तिक एवं अवैयक्तिक प्रतियोगिता
  • सृजनात्मक एवं असृजनात्मक प्रतियोगिता

1. विशुद्ध एवं सीमित प्रतियोगिता – सैद्धांतिक तौर पर प्रतियोगिता का स्वरूप विशुद्ध हो सकता है। इसका तात्पर्य है कि प्रतियोगिता बिना सांस्कृतिक बंधनों के भी हो सकती है। विशुद्ध प्रतियोगिता आदर्श प्रतियोगिता होती है। दूसरी तरफ, जब प्रतियोगिता में सहयोग आ जाता है तथा व्यक्ति नियमों के अनुसार प्रतियोगिता में भाग लेते हैं, यह सीमित प्रतियोगिता कहलाती है।

2. निरपेक्ष प्रतियोगिता एवं सापेक्ष प्रतियोगिता – अनेक बार व्यक्ति अथवा समूह द्वारा सीमित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रतियोगिता की जाती है। सफल व्यक्ति द्वारा ही उस सीमित लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है। उदाहरण के लिए हमारे देश में एक ही व्यक्ति उप-राष्ट्रपति के चुनाव में विजय प्राप्त कर सकता है। पराजित व्यक्ति को उस पद का लाभ नहीं मिलता है। उसे निरपेक्ष प्रतियोगिता कहते हैं।

दूसरी ओर, जब व्यक्तियों द्वारा सामाजिक प्रतिष्ठा, शक्ति तथा धन आदि को प्राप्त करने के लिए प्रयास किया जात है तथा वे अपने प्रयास में सफलता प्राप्त करते हैं लेकिन वह यह आशा नहीं करते हैं कि उनके प्रतियोगितों के पास प्रतिष्ठा, शक्ति तथा धन आदि में से कुछ भी न हो । इन समस्त प्राप्तियों का अनुपाल कम या अधिक हो सकता है। इसे सापेक्ष प्रतियोगिता कहा जाता है।

3. वैयक्तिक एवं अवैयक्तिक प्रतियोगिता – कभी-कभी दो व्यक्तियों के मध्य प्रतियोगिता होती है। दोनों व्यक्ति एक-दूसरे से प्रत्यक्ष रूप से अन्तः क्रिया करते हैं। इस प्रतियोगिता में एक व्यक्ति अपने इच्छित लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाता है। उदाहरण के लिए यदि किसी एक पद को प्राप्त करने के लिए जब अनेक व्यक्तियों द्वारा प्रयास किया जाता है तो उसे वैयक्तिक प्रतियोगिता कहते हैं।

अवैयक्तिक प्रतियोगिता विशालकाय व्यावहारिक प्रतिष्ठानों के मध्य देखने को मिलती है। उदाहरण के लिए कार तथा टी.वी. बनाने वाली कंपनियों के बीच अपने-अपने उत्पादों को बाजार में बेचने के लिए अवैयक्तिक प्रतियोगिता पायी जाती है लेकिन इन कंपनियों के कर्मचारियों के बीच वैयक्तिक अन्त:क्रिया के रूप में प्रतियोगिता नहीं पायी जाती है।

4. सृजनात्मक एवं असृजनात्मक प्रतियोगिता – जिस प्रतियोगिता से विकास को बल मिलता है उसे सृजनात्मक प्रतियोगिता कहा जाता है। उसके विपरीत जिस प्रतियोगिता से विकास के कार्य में बाधा पहुँचती है, उसे असृजनात्मक प्रतियोगिता कहते हैं।

प्रश्न 7.
सामाजिक स्तरीकरण की प्रमुख विशेषताएँ लिखिए।
उत्तर:
सदरलैण्ड तथा मैक्सवेल के अनुसार, “सामाजिक स्तरीकरण अन्त:क्रिया तथा विभेदीकरण की प्रक्रिया है, जिसके आधार पर कुछ व्यक्तियों का स्थानक्रम अन्य व्यक्तियों की अपेक्षा उच्च होती है।”
असमानता का तथ्य सामाजिक स्तरीकरण में अन्तर्निहित होता है।

सामाजिक स्तरीकरण की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • समाज में शक्ति, प्रतिष्ठा, संसाधनों, पुरस्कारों तथा सुविधाओं का असमान वितरण पाया जाता है।
  • विभेदीकृत वितरणात्मक प्रक्रियाओं के आधार पर समाज में सामाजिक श्रेणियों तथा मूहों का निर्माण होता है।
  • किसी भी समाज की सामाजिक संरचना में श्रेणियों अथवा स्तरों के पदासोपानक्रम का निर्धारण शक्ति, प्रतिष्ठा तथा विशेषाधिकारों के आधार पर होता है।
  • समाज में पायी जाने वाली श्रेणियों तथा स्तरों के बीच अन्तःक्रिया तथा पारस्परिक संबंध उच्चता व निम्नता की अवधारणा पर आधारित होते हैं।
  • किसी भी समाज में श्रेणियों तथा स्तरों के पारस्परिक संबंधों में क्रमबद्ध सामाजिक असमानता पायी जाती है।
  • सामाजिक स्तरीकरण की प्रक्रिया में श्रेणियों तथा स्तरों की संरचना में प्रत्येक समाज तथा काल में परिवर्तन होते हैं।
  • सामाजिक स्तरीकरण एवं सार्वभौमिक प्रक्रिया है। सामाजिक असमानता इसका मूल आधार है।
  • सामाजिक संरचना तथा स्तरीकरण में अत्यधिक निकटता पायी जाती है।
  • भूमिका तथा प्रस्थिति सामाजिक संस्तरण का मूल आधार है।
  • सामाजिक गतिशीलता तथा संस्तरण एक-दूसरे से संबंधित हैं।

प्रश्न 8.
संघर्ष को किस प्रकार कम किया जा सकता है? इस विषय पर उदाहरण सहित निबंध लिखिए।
उत्तर:
संघर्ष को कम करने के संबंध में हम अंतरपीढ़ी संघर्ष पर विचार-विमर्श कर भलीभाँति समझ सकते हैं – समाज सैदव बना रहता है, लेकिन पीढ़ियाँ निरंतर आती-जाती रहती है। पुरानी पीढ़ी का स्थान नवीन पीढ़ी ग्रहण करती रहती है। यह समाज में निरंतर चलने वाली स्वाभाविक प्रक्रिया है। जन्म, मरण प्राकृतिक घटनाएँ हैं। पुरानी पीढ़ी अनुभवों की दृष्टि से सुदृढ़ होती है।

वह परम्पराओं, प्रथाओं एवं रूढ़ियों से प्रायः बंधी होती है। पुरानी पीढ़ी ने अपने पूर्वजों से जो विरासत में प्राप्त किया है, वह उनकी धरोहर होती है और वे उस धरोहर को आगामी पीढ़ी को हस्तान्तरित करना चाहते हैं। सामान्यतः ऐसा देखा गया है कि नवीन पीढ़ी भी अपने बुजुर्गों का आदर करती है और उनकी आज्ञाओं का पालन करती आई है, लेकिन आधुनिक युग में कुछ ऐसी शक्तियाँ कार्य कर रही हैं कि पीढ़ियों के मध्य दूरी बढ़ती जा रही है।

नवीन पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के लोगों का दकियानूस, कम ज्ञापन रखने वाले, परम्परावादी, अंधविश्वासी और रूढ़िवादी समझती है। इसके मुख्य कारण हैं-बढ़ती हुई शिक्षा, विज्ञान का प्रभाव आदि। आधुनिकता के नाम पर नवीन पीढ़ी परम्पराओं का विरोध करती है और पुरानी पीढ़ी जो कि परम्पराओं को बनाये रखने को प्राथमिकमा देती है, उससे उनका संघर्ष होना स्वाभावित हो जाता है। इसे ही अंतर पीढ़ी संघर्ष कहते हैं।

पीढ़ियों के मध्य दूरी से आशय है कि दोनों के विचारों, आस्थाओं, कार्य करने तरीकों और जीवन-पद्धति में अंतर। एक और पुरानी पीढ़ी तो परम्पराओं से बंधकर, पूर्वजों की संस्कृति को आगे और बढ़ाते हुए, सोच-समझकर धैयपूर्वक किसी कार्य को सम्पन्न करना चाहता है, वहीं दूसरी ओर, नई पीढ़ी अर्थात् युवाओं में स्फूर्ति एवं जोश होता है। वे नवीनता ही हाड़ में आगे निकलना चाहते हैं, अत: वे परम्पराओं की अवहेलना करने में संकोच नहीं करते हैं।

उननके कार्य करने का तरीका भी पुरानी पीढ़ी से भिन्न होता है। ये किसी भी कार्य का अधिक-सोचे-बिना, अधैर्यता से तथा शीघ्र करना चाहते हैं। वास्तप में दोनों पीढ़ियों को एक-दूसरे में दोष व कमियाँ दिखाई देती हैं, फलस्वरूप वे अपने विचारों एवं कार्यप्रणाली में समन्वय एवं ताल-मेल नहीं बैठा पाते, जिसका परिणाम आपसी सम्बन्धी में तनाव, कटुता एवं कभी-कभी संघर्ष भी हो जाता है। कभी-कभी परिवार में इसके गम्भीर प्ररणाम भी दिखाई देते हैं।

वैसे तो पीढ़ियों के मध्य यह दूसरी समाज में सदैव विद्यमान रही है, क्योंकि आज जिन विचारों, वस्तुओं, मूल्यों, भावनाओं आदि को हम नवीनता कहते हैं, अगली पीढ़ी के लिए वे ही तथ्य परम्परा के रूप में परिणत हो जाते हैं। समाज हमेशा अदलता रहता है और उसी के साथ-साथ परम्परा एवं आधुनिकता भी बदलती रहती है। पुरानी पीढ़ी सदैव परम्परा के पक्ष में रहती है और नवीन पीढ़ी आधुनिकता के।

अतः यह स्वाभाविक है कि पीढ़ियों के मध्य दूरी तक न कुछ अंशें में सदैव विद्यमान रहीत है, लेकिन साथ-साथ यह भी कहा जा सकता है कि दोनों पीढ़ियों के व्यक्ति साझेदारी से काम लें और एक-दूसरे के विचारों, भावनाओं तथा समय की मांग को समझें तो यह दूरी निश्चित रूप से कम हो सकती है। शिक्षा के विकास के साथ-साथ भी यह दूरी कम होनी-ऐसा निश्तिच रूप से कहा जा सकता है?

अंतर-पीढ़ी संघर्ष विभिन्न क्षेत्रों में पाया जाता है, ये क्षेत्र प्रमुख रूप से निम्नलिखित हैं –

(i) अंतर-पीढ़ी प्रजातीय संघर्ष – जब दो या दो से अधिक प्रजातियाँ एक ही स्थान पर एक साथ निवास करने लगती हैं और उसमें एक-दूसरे की शारीरिक विशेषताओं के प्रति चेतना उत्पन्न हो जाती है तब प्रजातीय संघर्ष की उत्पत्ति होती है। प्रायः अमेरिका में नीग्रो और श्वेत प्रजाति और अफ्रीका में श्वेत एवं वहाँ के मूल निवासियों तथा भारतीयों के बीच संघर्ष चला करता है। इन प्रजातियों में संघर्ष का कारण शारीरिक विभिन्नताओं के अतिरिक्त एवं सांस्कृतिक विभिन्नताएँ भी हैं ये विभिन्नताएँ प्रजातीय संघर्ष को बढ़ावा देती हैं।

श्वेत प्रजाति नीग्रो लोगों को अपने से निम्न समझती है और उनसे सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक विभेद बनाए रखने का प्रयास करती है। दूसरी और नीग्रो श्वेत या गोरे लोगों के अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाते हैं और अपने अधिकारों की मांग करते हैं। ऐसा करने में कई नीग्रो को जीवन से हाथ धो लेना पड़ता है। इस प्रकार प्रजातीय भेद के कारण ही पुरानी एवं नवीन पीढ़ी में अंतर-पीढ़ी संघर्ष पाया जाता है।

(ii) अंतर-पीढ़ी वर्ग संघर्ष – प्रत्येक समाज में किसी-न-किसी आधार पर वर्ग व्यवस्था पाई जाती है। प्रायः वर्गों का विभाजन आर्थिक आधार पर किया जाता है। इस आधार पर प्रत्येक। समाज में प्रायः तीन वर्ग पाए जाते हैं-उच्च, मध्यम तथा निम्न । इसके मध्य भी अंतर-पीढ़ी संघर्ष पाया जाता है। ‘साम्यवाद’ के समर्थक केवल दो वर्गों का समर्थन करते हैं मजदूर वर्ग तथा पूँजीवादी वर्ग। इन वर्गों में आपस में संघर्ष चलता रहता है। पूँजीवादी वर्ग मजदूरों को नाममात्र की मजदूरी देकर उनका शोषण करते हैं।

मजदूर वर्ग श्रम-संगठन बनाकर इस शोषण के विरुद्ध संघर्ष करते हैं। पूँजीवादी व्यवस्था में इस प्रकार का संघर्ष चलता ही रहता है। साम्यवादी इस संघर्ष को मिटाने के लिए पूँजीपति का जड़ से विनाश करना चाहते हैं।

(iii) अंतर-पीढ़ी जातीय संघर्ष – जातीय आधार पर पुरानी पीढ़ी के बीच संघर्षों का उल्लेख विभिन्न समाजशास्त्रियों ने किया है। प्राचीन समय में कुछ जातियों द्वारा निम्न जातियों का शोषण किया जाता था, जबकि आज की पीढ़ी ने शोषण के विरुद्ध आवाज उठाई है तथा विभिन्न जातिों के बीच संघर्ष भी देखा जा सकता है। आरक्षण के कारण पुरानी और नई पीढ़ी में भी संघर्ष उत्पन्न हुआ है, हिंसक कार्य-जनित गतिविधियाँ हो रही हैं तथा उच्च और निम्न जातियों में इस बात को लेकर तनाव एवं संघर्ष पाया जाता है।

(iv) अंतर-पीढ़ी धार्मिक संघर्ष – भारत एक विशाल देश है, जिसमें हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, पारसी, जैन, बौद्ध आदि अनेक धर्मों के अनुयायी निवास करते हैं। भारत में जब से अंग्रेज व मुसलमानों का आगमन हुआ है, तब से धार्मिक संघर्ष की समस्या उत्पन्न हुई है, जिसे सांप्रदायिकता के नाम से जाना जाता है। विभिन्न धर्मों के अलग-अलग आध्यात्मिक सिद्धांत पूजा-पाठ के तरीके, आचार-व्यवस्था, कर्मकाण्ड आदि होते हैं।

मानवता के अनुसार जो व्यक्ति किसी धर्म को मानता है तो उसे उस धर्म के नियमों व आचार-व्यवहार को अपनाने व उनका पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए, किन्तु तब एक धर्मावलम्बी अपने धर्म को श्रेष्ठ व दूसरे धर्म को हीन घोषित करने की चेष्टा कर अपने धर्म के अनुयायियों को दूसरे धर्म के अनुयायियों के विरुद्ध भड़काने का कार्य करता है, तो धार्मिक संघर्ष या साम्प्रदायिकता की समस्या उत्पन्न होती है। भारत में धार्मिक संघर्ष हिन्दू एवं मुसलमानों में ही नहीं, वरन् अन्य धर्मावनलंबियों; जैसे-शिया एवं सुन्नियों, जैनियों, निरंकारियों एवं अकालियों, बौद्धों और ईसाईयों में भी हुए हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत कम है।

(v) अंतर-पीढ़ी राजनैतिक संघर्ष – दो राष्ट्र के माध्यम या एक ही राष्ट्र के विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच भी अंतर-पीढ़ी संघर्ष पाया जाता है। अंतर पीढ़ी राजनैतिक संघर्ष दो भागों में बाँटा जा सकता है

(a) अन्तर्देशीय संघर्ष – प्रजातंत्रीय देशों में विचारों की अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। जनता अपने विचारों के अनुकूल सरकार बनाने के लिए दो या दो से अधिक राजनैतिक दलों को विकसित कर लेती है। प्रायः इन राजनैतिक दलों के नेता तथा सक्रिय समर्थक राज्यसत्ता पर अधिकार करने के उद्देश्य से चुनाव, संसद या विधानसभाओं की बैठक आदि के समय एक-दूसरे से संघर्ष कर बैठते हैं। कभी-कभी चुनाव के समय संघर्ष का रूप इतना विकराल हो जाता हैं कि कई लोगों की हत्याएँ तक हो जाती हैं । राष्ट्र के अंदर ‘क्रांति’ का जन्म होना राजनैतिक संघर्ष का सबसे बड़ा स्वरूप है।

(b) अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष – जब से विज्ञान की प्रगति के परिणामस्वरूप विभिन्न राष्ट्रों में सम्पर्क स्थापित हुआ, तब से अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष भी प्रारम्भ हो गया है। प्रायः देखा जाता है कि जिन राष्ट्रों के बीच किसी बात पर वैमनस्य हो जाता है, तो उन राष्ट्रों की जनता तथा सरकार एक-दूसरे राष्ट्र की जनता तथा सरकार से घृणा तथा वैमनस्य करने लगती है। कभी-कभी घृणा तथा वैमनस्य का रूप इतना उग्र हो जाता है कि उनकी अभिव्यक्ति ‘युद्ध’ के रूप में होने लगती है। युद्ध अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष का सबसे भयंकर रूप है।

संघर्ष को कम करने के उपाय – किसी भी संघर्ष को कम करने के लिए निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिए :
(i) पुरानी पीढ़ी का यह कर्तव्य है कि वह नयी पीढ़ी की आकांक्षाओं व आवश्यकताओं को महसूस करे और नये युग के अनुकूल अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करे।

(ii) पुरानी पीढ़ी को चाहिए कि वह नयी पीढ़ी से सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार करे, सद्परामर्श दे और उनके मार्ग में रूढ़ि या प्रथा सम्बन्धी कोई बाधा उपस्थिति न करे। यदि नवीन पीढ़ी के कुछ कार्य उसे पसंद आयें, तो वह उनकी भरपूर प्रशंसा भी करे।

(iii) युवा कल्याण सम्बन्धी नवीन नीतियों का निर्माण करते समय सरकार को युवकों से बातचीत आवश्य करनी चाहिए। बातचीत से समझौते का मार्ग प्रशस्त होगा तथा युवक कम-से-कम गलतफहमी के शिकार नहीं होंगे।

(iv) नवीन पीढ़ी को यह महसूस अवश्य होना चाहिए कि सरकार द्वारा उनके संबंध में जो नीति बनाई जा रही हैं, वह उनके लिए कल्याणकारी है यदि नीतियाँ बनाते समय सरकार युवकों के दृष्टिकोण में समन्वय स्थापित हो जाये तो फिर युवकों में अंतर-पीढ़ी संघर्ष जन्म ही न लेगा।

(v) नवीन पीढ़ी का समाजीकरण इस प्रकार से किया जाए कि वे समानता एवं राष्ट्रीय विकास के मूल्यों के प्रति आस्था को रख सकें। इससे दोनों पीढ़ियों में संघर्ष के स्थान पर सहयोग उत्पन्न होगा।

(vi) जाति, वर्ण, धर्म, प्रजाति आदि क्षेत्रों में पुरानी पीढ़ी के विचारों का सम्मान करना चाहिए तथा उनके चरित्र निर्माण की प्रक्रिया में मार्गदर्शन करना चाहिए। नई पीढ़ी को भी चाहिए कि वह पुरानी पीढ़ी के मार्गदर्शन को स्वीकार करे।

(vii) शिक्षा में नैतिक मूल्यों व अध्यात्मवाद की शिक्षा पर विशेष बल दिया जाये। नवीन युवा पीढ़ी में यह समझ विकसित होनी चाहिए कि जीवन में धन साधन है, साध्य नहीं तथा धन कमाने हेतु अनुचित व अनैतिक साधनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

(viii) सभी राजनैतिक दलों का यह कर्तव्य है कि वे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से नवीन। युवा पीढ़ी का अपने हित में शोषण न करें।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 9.
समाज के स्तरीकरण में जाति का आधार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
जाति एक ऐसे पदसोपानीकृति संबंध को बताती है जिसमें व्यक्ति जन्म लेता है तथा जिसमें व्यक्ति का स्थान, अधिकार तथा कर्तव्य का निर्धारण होता है। व्यक्तिगत उपलब्धियाँ तथा गुण व्यक्ति की जाति में परिवर्तन नहीं कर सकते हैं। जाति व्यवस्था वस्तुतः हिंदु सामाजिक संगठन का आधार है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी समाजशास्त्री लुई ड्यूमो ने अपनी पुस्तक होमो हाइराकीकस में जाति व्यवस्था का मुख्य आधार शुद्धता तथा अशुद्धता की अवधारणा बताया है। ड्यूमो ने पदसोपानक्रम को जाति-व्यवस्था की विशेषता माना है।

प्रारम्भ में हिंदू समाज निम्नलिखित चार वर्गों में विभाजित था –

  • ब्राह्मण
  • क्षत्रिय
  • वैश्य
  • शूद्र

शुद्धता तथा अशुद्धता के मापदंड पर ब्राह्मण का स्थान सर्वोच्च तथा शूद्र का निम्न होता है। वर्ण व्यवस्था में पदानुक्रम के अनुसार क्षत्रियों का द्वितीय तथा वैश्य का तृतीय स्थान होता है। एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार जिस प्रकार जाति व्यवस्था की इकाई कार्य करती है, उस संदर्भ में वह जाति है, वर्ग नहीं है। हालांकि, जाति-व्यवस्था के लक्षणों को वर्ण व्यवस्था से ही लिया गया है लेकिन वर्तमान संदर्भ में जाति प्रारूप अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।

एम.एन. श्रीनिवास ने जाति की परिभाषा करते हुए कहा है, कि –

  • जाति वंशानुगत होती है।
  • जाति अंत:विवाही होती है।
  • जाति आमतौर पर स्थानीय समूह होती है।
  • जाति परंपरागत व्यवस्था से संबद्ध होती है।
  • जाति की स्थानीय पदसोपानक्रम में एक विशिष्ट स्थिति होती है।
  • अतर्जातीय खान-पान पर प्रतिबंध होता है।
  • जातियों में परस्पर संबंध शुद्धता तथा अशुद्धता के नियमों पर आधारित होते हैं।

जातीय संस्तरण को कर्म तथा धर्म के विचार पर विभाजित किया जाता है। कर्म का विचार एक हिंदू को सिखाता है कि वह अपने पिछले जन्म के लिए गए कर्मों के आधार पर एक जाति-विशेष के जन्म लेने का अधिकारी है। कर्म के सिद्धांत के अनुसार यदि व्यक्ति ने पिछले जन्म में अच्छे कर्म किए हैं तो उसे पुस्कारस्वरूप उच्च वर्ग में जन्म मिलता है। इसके विपरीत, उसे कर्मों के आधार पर ही दंड स्वरूप नीची जाति में जन्म मिलता है । यदि व्यक्ति अपने जाति के अनुसार व्यवहार करता है तो उसका जन्म ऊँची जाति में तय हो जाता है। यही कारण है कि परंपरागत भारतीय समाज में जाति संस्तरण की व्यवस्था में लंबवत गतिशीलता अत्यधिक कठिन है।

एम.एन. श्रीनिवास ने जाति-व्यवस्था की नमनीयता अथवा लचीलेपन को संस्कृतीकरण कहा है। संस्कृतीकरण की प्रक्रिया के अंतर्गत निम्न जाति, जनजाति अथवा अन्य समूहों के सदस्य अपने रीति-रिवाजों, विश्वासों, विचारधारा तथा जीवन-शैली में उच्च जाति का अनुसरण करके ऊपर की ओर गतिशीलता कर सकते हैं। श्रीनिवास ने 1960 में अनुभव किया कि भारत में जातीय चेतना तथा जातीय संगठन की भावना बढ़ रही है। वर्तमान समय में जाति राजनीतिक तथा आर्थिक सत्ता प्राप्त करने के सशक्त संसाधन बनती जा रही है।

स्वतंत्रता के पश्चात् बनाए गए कानूनों तथा शिक्षा के प्रकार के कारण जाति संरचना में परिवर्तन हुए हैं । अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के सदस्यों के लिए शिक्षा तथा रोजगार के विशेष प्रावधान किए गए हैं। इन सबका प्रभाव सामाजिक सरंचना तथा स्तरीकरण पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा है।

प्रश्न 10.
वर्ग को सामाजिक स्तरीकरण का आधार क्यों माना गया है? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
वर्ग सामाजिक स्तरीकरण का आधार स्वीकार करने के महत्वपूर्ण कारण निम्नलिखित हैं –

  • वर्ग एक विस्तारित सामाजिक समूह है जो समान आर्थिक स्रोतों में भागीदार होते हैं।
  • वर्गों की सामाजिक प्रस्थिति का निर्धारण संपत्ति, धन, निजी उपलब्धि तथा व्यक्तिगत क्षमताओं से होता है। वर्ग के आधार प्रतिस्पर्धा तथा व्यक्तिगत क्षमता होता है।
  • समाजवादी दृष्टिकोण के अंतर्गत वर्ग व्यवस्था को प्रायः अर्जित प्रस्थिति तथा मुक्त स्तरीकरण के साथ संबद्ध किया जाता है।
  • वर्तमान समय की पूँजीवादी औद्योगिक संरचना में वर्ग प्रमुख समूह है।
  • एक वर्ग के व्यक्तियों में समान आर्थिक हित तथा वर्ग चेतना पायी जाती है।

वर्ग व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

  • वर्ग वास्तव में समूह होते हैं लेकिन उनकी कानूनी मान्यता होती है।
  • वर्ग की सदस्यता विरासत में प्राप्त नहीं होती है।
  • वर्गों के मध्य सुपरिभाषित सीमाएँ नहीं पायी जाती हैं।
  • वर्गों की सदस्यता आमतौर पर अर्जित होती है।
  • वर्ग व्यवस्था अवैयक्तिक संबंधों द्वारा संचालित होती है।

समाजशास्त्री टी.बी. बोटमोर तथा एंथोनी गिडस ने आधुनिक विश्व में निम्नलिखित चार प्रकार के वर्गों का उल्लेख किया है –

  • उच्च वर्ग
  • मध्य वर्ग
  • श्रमिक वर्ग
  • कृषक वर्ग

प्रसिद्ध विद्वान कार्ल मार्क्स के अनुसार, पूँजीवाद औद्योगिक व्यवस्था में निम्नलिखित दो वर्ग पाए जाते हैं –

  • पूँजीपति वर्ग
  • श्रमिक वर्ग

प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्स वैबर की सामाजिक असमानता की अवधारणा मार्क्स की अवधारणा से निम्नलिखित रूप में पृथक है –

  • मार्क्स ने समाज में दो मुख्य वर्गों का उल्लेख किया है। वैबर का मत है कि समाज में दो से अधिक वर्ग पाये जाते हैं।
  • मार्क्स ने वर्गों के बीच पारस्परिक संबंधों को अत्यधिक महत्व दिया है। वैबर वर्गों के पारस्परिक संबंधों के बारे में अत्यधिक संदेह व्यक्त करता है
  • मार्क्स ने सामाजिक असमानता के आर्थिक पहलू को ही अत्यधिक महत्व दिया है।

वैबर ने असमानता के लिए उत्तरदायी अनेक कारण बताए हैं –

  • धन
  • शक्ति
  • प्रतिष्ठा तथा सम्मान

मैक्स वैबर ने वर्ग को व्यक्तियों की एक बड़ी संख्या के रूप में परिभाषित किया है जिनके पास समान संसाधन होने के कारण समान जीवन संयोग पाये जाते हैं। मैक्स वैबर ने वर्ग के अलावा स्तरीकरण के दो मूल पहलू बताए हैं –

  • प्रस्थिति
  • शक्ति

प्रश्न 11.
संघर्ष से सामाजिक एकीकरण कैसे संभव होता है? विवेचना कीजिए।
उत्तर:
संघर्ष न केवल विघटनकारी प्रवृति है, वरन यह सामाजिक एकीकरण भी उत्पन्न करती है। के. डेविस के अनुसार, “इसलिए आंतरिक एकता तथा बाह्य संघर्ष एक ही ढाल के दो पहलू हैं।” पार्क तथा बर्गेस के अनुसार, “संघर्ष अति तीव्र उद्वेग तथा अत्यधिक शक्तिशाली उत्तेजना को जागृत कर देता है तथा ध्यान व प्रयत्न को एकाग्रचित कर देता है।” संघर्ष द्वारा निम्नलिखित प्रकार से एकीकरण की स्थिति भी उत्पन्न की जाती है

(i) संघर्ष सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देता है-संघर्ष सामाजिक परिवर्तनों को जन्म देता है। इस प्रकार संघर्ष तथा परिवर्तन सामाजिक प्रक्रिया के मध्य सेतु का कार्य करते हैं। संघर्ष के परिणाम सदैव नकारात्मक नहीं होते हैं, वे कभी-कभी सकारात्मक भी होते हैं। इस संबंध में कोसर ने कहा कि “ढीले संचरित समूहों तथा खुले समाजों में संघर्ष तनावों को कम कर स्थिरता तथा एकता की भूमिका निभाता है।”

(ii) अत्यधिक संघर्ष विघटन के कारणों को समाप्त करने का कार्य करते हैं तथा समाज में पुनः एकता स्थापित करते हैं-विरोधी द्वारा तात्कालिक एकता की अभिव्यक्ति सामाजिक व्यवस्था में असंतोष को समाप्त करके सामाजिक संबंधों में दोबारा समांजस्य कायम करने में सहायक होती है। अतः संघर्ष द्वारा समाज में विघटन के कारणों को समाप्त करके पुनः एकता कायम की जाती है।

(iii) बाह्य संघर्ष से समूह में एकीकरण स्थापित होता है-बाह्य संघर्षों में लिप्त समूहों में एकता उत्पन्न होती है। अंतर समूह संघर्षों द्वारा अंत:समूहों में वैमनस्य तथा शिकायतें कम करने में सहायता की जाती है। बाह्य संघर्षों द्वारा समूह के अंदर सदस्यों को निष्ठापूर्वक सहयोग हेतु बाध्य किया जाता है। सिमेल का मत है कि बाह्य संघर्षों से समूह में एकीकारण स्थापित होता है।

(iv) संघर्ष रचनात्मक व सकारात्मक लक्ष्यों की पूर्ति करता है-प्रसिद्ध समाजशास्त्री सिमेल संघर्ष को समाज के निर्माण तथा विकास के लिए आवश्यक मानते हैं। उनका मत है कि संघर्ष रहित समरस समूह का अस्तित्व असंभव तथा अयथार्थवादी है। सिमेल का कहना है कि संघर्ष एक प्रकार से सामाजिक एकता प्राप्त करने की पद्धति है।

संघर्ष के द्वारा समाज में फैला हुआ विरोध समाप्त हो जाता है। उदाहरण के लिए परिवार तथा दंपतियों के मध्य आंतरिक वैमनस्य, विरोध तथा बाहरी विवाद उन्हें परस्पर संबद्ध रखते हैं। सिमेल कहते हैं कि संघर्ष द्वारा अपने आप नई सामाजिक संरचना का सृजन नहीं किया जाता है। वस्तुतः संघर्ष समाज की एकता बढ़ाने वाले विभिन्न कारकों के साथ मिलकर नहीं, सामाजिक संरचना को जन्म देता है।

कोसर का मानना है कि संघर्ष खुले समाजों में तनाव के समाधान द्वारा सामाजिक स्थिरता को मजबूत बनाता है। व्यक्ति तथा समूह संघर्ष के दौरान परस्पर संबंध विकसित करते हैं । राल्फ डाहरण डार्फ का मत है कि सामाजिक संघर्ष द्वारा समाज की वास्तविक स्थिति का प्रकटीकरण किया जाता है। बाह्य संघर्ष के समय सभी समूहों में सहयोग के लिए मित्रता की मनोवृति पायी जाती है, लेकिन शांति काल में यह भावना अनुपस्थिति रहती है। संघर्ष द्वारा समूह में चेतना तथा संगठन उत्पन्न किया जाता है। ग्रीन के अनुसार, “युद्ध सामूहिक चेतना तथा सामूहिक समानता को बढ़ाता है।”

प्रसिद्ध समाजशास्त्री मजूमदार ने संघर्ष के निम्नलिखित सकारात्मक प्रकार्य बताए हैं –

  • संघर्ष द्वारा अंत:समूह के मनोबल को सुदृढ़ किया जाता है उसकी शक्ति में वृद्धि की जाती है।
  • संघर्ष के द्वारा मूल्य-प्रणालियों की परिभाषा दोबारा हो।
  • संकटों के निवारण हेतु संघर्ष अहिंसात्मक साधनों की खोज के प्रेरित कर सकता है।
  • संघर्षरत पक्षों की सापेक्ष प्रस्थिति में परिवर्तन लाया जा सकता है।
  • संघर्ष के द्वारा नई सहमति की उत्पत्ति हो सकती है।

हार्टन तथा हंट के अनुसार संघर्ष द्वारा विवाद स्पष्ट किए जाते हैं। समूह की एकता में वृद्धि कर सदस्यों के हितों के प्रति चेतना उत्पन्न की जाती है।

Bihar Board Class 11 Sociology Solutions Chapter 1 समाज में सामाजिक संरचना, स्तरीकरण और सामाजिक प्रक्रियाएँ

प्रश्न 12.
सामाजिक स्तरीकरण में सजातीयता का आधार स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सजातीयता का शाब्दिक अर्थ-सजातीयता शब्द ग्रीक भाषा के शब्द ‘एथनिकोस’ से लिया है, जो कि ‘एथनोस’ का विशेषण है। ‘एथनोस’ का तात्पर्य एक जनसमुदाय अथवा राष्ट्र से है। अपने समकालीन रूप में सजातीयता की अवधारणा उस समूह के लिए प्रयोग की जाती है जिसमें कुछ अंशों में सामंजस्य तथा एकता पायी जाती हो।

इस प्रकार, सजातीयता का अर्थ समूहिकता से है। सजातीयता की परिभाषा-सजातीयता की अवधारणा उस समूह के लिए प्रयुक्त की जाती है जिसमें सामंजस्य तथा आपसी भाईचारा पाया जाता है तथा जिसमें सदस्य अपने समान उद्गम तथा समान हित को स्वीकारते हैं। इस प्रकार, सजातीयता का तात्पर्य सामूहिकता से है।

एंथोनी गिडिंस के अनुसार –

  • सजातीय समूह के सदस्य समाज में स्वयं को एक अलग सांस्कृतिक समूह के रूप में देखते हैं।
  • अन्य व्यक्तियों को इस पृथकता का अनुभव होता है।

सजातीय समूह वस्तुतः एकता की भावना, पारस्परिक जागरुकता, समान उद्भव एवं हितों के कारण अस्तित्व में आते हैं। ए. शेर्मरहोर्न के अनुसार एक सजातीय समूह में एक व्यापक समाज में सामूहिकता है जिनका एक वास्तविक तथा काल्पनिक पूर्वज तथा समान ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है।

सजातीय समूह वस्तुतः नातेदारी, गोत्र व्यवस्था, धार्मिक समूह तथा भाषा समूह से अधिक महत्वपूर्ण होते हैं। शिबूतनी ओर क्वान के सजातीय समूह की पहचान हेतु एक अतिरिक्त तत्व का उल्लेख किया है। उनके अनुसार, “सजातीय समूह के अंतर्गत वे व्यक्ति आते हैं जिनका एक वास्तविक अथवा काल्पनिक पूर्वज होता है तथा उनमें सह-अस्तित्व की भावना पायी जाती है।”

Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 5 हमारी सरकार

Bihar Board Class 6 Social Science Solutions Civics Samajik Aarthik Evam Rajnitik Jeevan Bhag 1 Chapter 5 हमारी सरकार Text Book Questions and Answers, Notes.

BSEB Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 5 हमारी सरकार

Bihar Board Class 6 Social Science हमारी सरकार Text Book Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
ऊपर दिये गये अखबारों के मुख्य समाचार सरकार के किन-किन कार्यों को दर्शाते हैं? आपस में चर्चा करें।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 2.
सरकार क्या-क्या काम करती है ? अपने शब्दों में समझाएँ।
उत्तर-
सरकार-सरकार देश को आगे बढ़ाने और उन्नति करने के लिए अनेक कार्य करती है। सड़क का निर्माण, स्कल का निर्माण, बहत ज्यादा महंगाई हो जाने पर किसी चीज के दाम कैसे घटाया जाए अथवा बिजली की आपूर्ति को कैसे बढ़ायी जाए, सरकार कई समाजिक मुद्दों पर भी कार्रवाई करती है। सरकार गरीबों की मदद करने के लिए कई कार्यक्रम चलाती है। इनके अलावा वह अन्य महत्वपूर्ण काम भी करती है, जैसे-तार. फोन.

रेल सेवाएँ आदि । सरकार का काम देश की सीमाओं की सुरक्षा करना और दूसरे देशों से शांतिपूर्ण संबंध बनाए रखना, देश के सभी नागरिकों को पर्याप्त भोजन, शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ, प्राकृतिक आपदा, सूखा, बाढ़ या भूकंप से पीड़ित लोगों की सहायता करना है। सरकार कई तरह के काम करती है। वह नियम बनाती है और निर्णय लेती है और अपनी सीमा में रहने वाले लोगों पर उन्हें लागू करती है।

प्रश्न 3.
सरकार के कुछ ऐसे कार्यों का उदाहरण दें जिसकी चर्चा यहाँ नहीं की गई है।
उत्तर-
सरकार अपने देश को विकास में आगे बढ़ने के लिए अनेक नये तरीकों के द्वारा देश को विकासशील बनाने का हर संभव प्रयास करती है। सरकार महत्वपूर्ण योजनाएं लागू कर अपने राष्ट्र को विकसित करने में अपना योगदान देती है।

सरकार के द्वारा चलाये गये योजनाओं को समय-समय पर लागू करके विभिन्न क्षेत्रों में अपना विशेष योगदान देती है। भारत सरकार गरीबों पर विशेष ध्यान में रखकर उसे आगे बढ़ने को प्रोत्साहित करने का भी काम करती है। राज्य सरकार राज्य स्तर पर कार्य करती है। स्थानीय सरकार केवल एक ही स्थान जैसे पटना की सरकार पटना के लिए कार्य करती

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प्रश्न 4.
लोकतंत्र और राजतंत्र की तीन मुख्य अंतर को रेखांकित करें।
उत्तर-
लोकतंत्र-

  1. लोकतंत्र में जनता अपनी इच्छा से मताधिकार का प्रयोग कर सरकार को चुनती है।
  2. लोकतंत्र में अपने किये गये कार्यों पर सफाई देनी पड़ती है।
  3. लोकतंत्र में सभी वयस्क लोगों को चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने का अधिकार प्राप्त होता है।

राजतंत्र-

  1. राजतंत्र में राजा अपने वंश परम्परा से आते हैं।
  2. वे स्वयं निर्णय लेते हैं, जिनके लिए उन्हें कोई सफाई नहीं देनी पड़ती
  3. राजतांत्रिक सरकार में सत्ता की सारी शक्ति राजा में निहित होती

प्रश्न 5.
दोनों में क्या बहस हई होगी? अभिनय द्वारा दर्शाएँ।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की मदद से स्वयं करें।

प्रश्न 6.
शिक्षक की मदद से ऊपर दिये गए तरीकों के कुछ उदाहरण ढूंढें और चर्चा करें कि उनका क्या प्रभाव पड़ सकता है।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 7.
अपने अध्यापक की सहायता से ऊपर लिखित विवादों के पीछे क्या कारण थे समझें और उसके समाधान के रास्ते क्या हैं ? चर्चा करें।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

अभ्यास

प्रश्न 1.
रिक्त स्थानों को भरें

  1. सरकार राज्य का ………………… रूप है।
  2. राज्य अपना कार्य ………….. के माध्यम से करती है।
  3. सरकार के ……………….. अंग हैं।
  4. कानून …………….. बनाती है।
  5. राजतंत्र में शक्ति …………….. के हाथ में होता है।

उत्तर-

  1. मूर्त
  2. राज्य सरकार
  3. तीन
  4. विधायिका
  5. राजा।

प्रश्न 2.
सरकार से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर-
विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित निर्णय लेने एवं काम करने के लिए सरकार की जरूरत होती है। ये निर्णय कई विषयों से संबंधित हो सकते हैंसड़क और स्कूल कहाँ बनाये जाएँ, अधिक से अधिक बच्चे स्कूल कैसे पहुँचे, बहुत ज्यादा महँगाई हो जाने पर किसी चीज के दाम कैसे घटाए जाएँ अथवा बिजली की आपूर्ति को कैसे बढ़ाई जाए. आदि ।

सरकार ही पूरी व्यवस्था को बनाये रखती है। उसकी जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करती है कि देश के सभी नागरिकों को पर्याप्त भोजन, शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ मिले । जब प्राकृतिक विपदा घेरती है, जैसे सूखा, बाढ़ या भूकंप तो मुख्य रूप से सरकार ही पीडित लोगों की सहायता करती है।

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प्रश्न 3.
लोकतांत्रिक सरकार क्या है?
उत्तर-
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। लोकतंत्र की प्रमुख बात यह है कि इसमें जनता अपना प्रतिनिधि मतदान के द्वारा चुनती है। वही प्रतिनिधि शासन भी चलात हैं। लोकतंत्र की महत्वपूर्ण बात यह है कि लोग खुद सरकार में अपने प्रतिनिधि द्वारा शामिल होकर शासन करते हैं लोकतांत्रिक सरकार कहलाते हैं।

प्रश्न 4.
लोकतांत्रिक सरकार में कौन-कौन तत्व हैं? व्याख्या करें।
उत्तर-
लोकतांत्रिक सरकार तीन अधारभूत सिद्धान्तों पर काम करती है।

  1. लोगों की भागीदारी
  2. समस्याओं का समाधान
  3. समानता एवं न्याय इसके प्रमुख सिद्धान्त हैं।

1. भागीदारी लोकतांत्रिक सरकार चुनने में जनता की सबसे अहम, भागीदारी होती है। जनता अपने मताधिकार का प्रयोग कर अपने लिए प्रतिनिधि चुनती है और प्रतिनिधि के जरिए अपनी हर समस्याओं को सरकार के सामने रखती है ताकि उनकी समस्याओं का समाधान हो सके । अगर जनता सरकार के कार्यों से संतुष्ट नहीं होती है तो, धरने, जुलुस, हड़ताल, सत्याग्रह आदि के द्वारा अपनी बात सरकार तक पहुँचाती है और शासन में भागीदार बनती है। लोकतांत्रिक सरकार में सरकार बनाने से लेकर सरकार के कार्यों की समीक्षा में भी भागीदारी रहती है।

2. समस्याओं का समाधान हमारा देश लोकतांत्रिक है। यहाँ विभिन्न प्रकार के विवाद उत्पन्न होते रहते हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। जहाँ लोगों के बीच मतभिन्नता होती है लोग अपने-अपने कार्यों की स्वार्थसिद्धि में रहते है। दूसरे के हितों का ख्याल नहीं रखते है, आपसी समझ का उपयोग नहीं करते हैं लोगों के बीच सामंजस्य का अभाव होता है।

इन सभी कारणों से ही विवाद उत्पन्न होते हैं। कुछ लोग इन विवादों को अपने ढंग से सुलझाना चाहते हैं जिससे कभी-कभी विवादों का समाधान होने की जगह ये और बढ़ जाते हैं तथा हिंसात्मक रूप ले लेता है। ऐसे में सरकार की जिम्मेदारी होती है कि वह विवादों का सामाधान करे। विवाद कई स्तरों पर होते हैं. ग्रामीण या राष्ट्रीय अथवा अन्तर्राष्ट्रीय । जैसे-कृष्णा-कावेरी विवाद, दो राज्य तमिलनाडु कर्नाटक के बीच, कोशी नदी विवाद, दो देशों नेपाल-भारत के बीच, पाकिस्तान-भारत के बीच । सरकार प्रायः विवादों का समाधान दो पक्षीय वार्ता के आधार पर करती है।

3. समानता और न्याय-समानता के बिना न्याय संभव नहीं हो सकता है। लोकतात्रिक सरकार समानता एवं न्याय के लिए कटिबद्ध होती है। सरकार द्वारा कानून के माध्यम से महिलाओं को विशेष दर्जा देकर समान अवसर प्रदान किया गया है, जैसे-पैतृक धन-सम्पत्ति में बाँटना । लडकों को समाज में अधिक महत्व दिया जाता है, लेकिन अब लड़कियों को भी समान अधिकार दिये गये हैं। सरकार ने छुआ-छूत पर भी रोक लगायी है जिससे अभिवंचित वर्ग के लोगों को भी समाज में समान अवसर मिले।

सरकार ने लड़के-लड़कियों के बीच होने वाले भेद-भाव पर विशेष ध्यान देते हुए लड़कियों की शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों और कॉलेजों में शिक्षा निशुल्क कर दी है। ताकि उन्हें भी समाज में समान अवसर मिल सके और वे भी आगे बढ़े। लोकतांत्रिक सरकार लोक कल्याण की भावना पर आधारित होती है जो स्वतंत्रता, समानता न्याय एवं बंधुत्व की अवधारणाओं को प्रश्रय देती है।

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प्रश्न 5.
नचे दिये गये प्रश्न आपके विद्यालय से संबंधित हैं। इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास शिक्षक अथवा अभिभावक के साथ करें।

प्रश्न (i)
आपके विद्यालय भवन बनाने के लिए राशि कहाँ से प्राप्त हई?
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

प्रश्न (ii)
मध्याह्न भोजन की व्यवस्था कौन करता है?
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

प्रश्न (iii)
आपके विद्यालय तथा गाँव या मोहल्ले के बीच की सड़क किसने बनवायी है ?
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न (iv)
आपको मिलने वाले पुस्तकों की व्यवस्था कौन करता है ?
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

Bihar Board Class 6 Social Science हमारी सरकार Notes

पाठ का सारांश

हम अक्सर सरकार का शब्द सुनते हैं। सरकार क्या है ? लोकतांत्रिक सरकार की विशेषतायें।

विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित निर्णय लेने का काम करने के लिए सरकार की आवश्यकता होती है। सरकार कई समाजिक, राजनीतिक आर्थिक तथा महत्वपूर्ण कार्यों पर भी ध्यान देती है। जैसे-डाक, तार, फोन, रेल सेवाएँ आदि । देश की सीमाओं की सुरक्षा करना और दूसरे देशों से शांतिपूर्ण संबंध बनाए रखने का भी काम सरकार ही करती है। उसकी जिम्मेदारी यह सुनिश्चित करना है कि सभी नागरिकों को पर्याप्त भोजन, शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएँ मिले।

जब प्राकृतिक विपदा घेरती है, जैसे सूखा, बाढ़ या भूकंप तो मुख्य रूप से सरकार ही पीड़ित लोगों की सहायता करती है।

सरकार हमारे देश में शान्ति-व्यवस्था बनाए रखना भी लोकतंत्र की जिम्मेदारी है। निर्णय लेना, कानून बनाना, उनको लागू करना, उनकी समीक्षा करना, उनमें परिवर्तन करना इत्यादि सभी सरकार के द्वारा संचालित होते हैं। सरकार के नियमों को भंग करने वालों को सरकार दंडित भी करती है।

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सरकार की आवश्यकता हमारे जीवन को सहज, सखद एवं नियमित बनाने के लिए होती है।

बिहार राज्य में सरकार पूरे बिहार के लोगों के लिए कार्य करती है। उसी प्रकार झारखण्ड, उत्तरप्रदेश, अन्य राज्यों की सरकार अपने प्रदेश के निवासियों के लिए कार्य करती है।

मतदान के द्वारा सरकार की नियुक्ति की जाती है। लोग अपने मताधिकार का उपयोग कर मतदान देकर लोग सरकार का निर्माण करती है। ऐसी सरकार को लोकतांत्रिक सरकार कहते हैं। इससे अलग भी एक और सरकार होती है, जिसे राजतंत्र कहते हैं। राजतंत्र में सत्ता की सारी शक्ति राजा में निहित · होतो है। राजतंत्र में राजा के द्वारा शासन चलता है।

लोकतंत्र में जनता अपनी इच्छा से मताधिकार का प्रयोग कर सरकार को चुनती है और अपने किये गये कार्यों की सफाई भी देनी होती है। जबकि राजतंत्र में राजा अपने वंश परम्परा से आते हैं। वे स्वयं निर्णय लेते हैं, जिनके लिए उन्हें कोई सफाई नहीं देनी पड़ती है।

भारत एक लोकतांत्रिक देश हैं । लोकतंत्र की प्रमुख बात यह है कि इसमें जनता अपना प्रतिनिधि मतदान द्वारा चुनती है। वही प्रतिनिधि शासन भी चलाते हैं। लोकतंत्र की महत्वपूर्ण बात है । लोकतंत्र में सभी वयस्क लोगों को चुनाव प्रक्रिया में शामिल होने का अधिकार है।

लोकतांत्रिक सरकार-सरकार जनता के लिए कुछ कायदे बनाती है जो संसद में बहुमत से पारित होने के पश्चात कानून बन जाते हैं। लोकतांत्रिक सरकार जनता के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है। हर नागरिक जो 18 वर्ष से ज्यादा का है, मतदान करने का अधिकार प्राप्त है।

लोकतांत्रिक सरकार – सरकार के मुख्य तत्वों में भागीदारी समस्याओं का समाधान, संमानता एवं न्याय प्रमुख होते हैं। भागीदारी मतदान से जनता शासन चलाने में भागीदार बन सकती है। अगर वह जनता के भले के लिए कार्य नहीं करती तो जनता धरने, जुलूस, हड़ताल, हस्ताक्षर अभियान, सत्याग्रह आदि के माध्यम से अपनी बात सरकार तक पहुँचा सकती है। जनता सरकार बनाने से लेकर उसके कार्यों की समीक्षा तक में भागीदारी होती है।

समानता – समानता का सवाल तभी उठता है। जब कही भेदभाव या असमानता होती है। असमानता भी दो प्रकार की होती है

प्राकृतिक असमानता जा प्रकृति की देन होती है तथा जिसमें बदलाव संभव नहीं होता है। दूसरी असमानता समाज द्वारा उत्पन्न की हुई होती है जैसे छुआ-छूत, लिंग-भेद, आर्थिक असमानता, अमीर-गरीब आदि । समानता तभी आ सकती है जब राज्य द्वारा सभी व्यक्तियों को विकास के लिए समान अवसर मिले।

न्याय – समानता के अधिकार के बगैर न्याय संभव नहीं है। छुआछत पर रोक लगाकर सरकार ने निम्न वर्ग के लोगों को समान अवसर प्रदान करने का प्रयास किया। लड़कियों को आगे बढ़ाने के लिए सरकारी विद्यालयों एवं कॉलेजों में फीस माफ कर दी गई है। पोशाक योजना आरंभ की गई है। महादलित बच्चे-बच्चियों के लिए छात्रावृति योजना का आरंभ किया गया है। सरकार द्वारा कानून के माध्यम से महिलाओं को विशेष दर्जा देकर समान अवसर प्रदान किया गया है।

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जैसे – पैतृक धन-सम्पत्ति में समान बँटवारा । सरकार नियम, कायदे बनाती है। कोई व्यक्ति यदि किसी दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति को क्षति या नुकसान पहुंचाता है, उसके चीजों की चोरी करता है. तो सरकार द्वारा बनाए गए कानून के तहत उसे न्यायलय की प्रक्रिया द्वारा दण्डित किया जा सकता है। सरकार को भी अपने बनाये नियमों का पालन करना होता है।

लोकतांत्रिक सरकार लोक कल्याण की भावना पर अधारित होती है जो स्वतंत्रता, समानता, न्याय एवं बंधुत्व की अवधारणाओं को प्रश्रय देती है।

Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 4 लेन-देन का बदलता स्वरूप

Bihar Board Class 6 Social Science Solutions Civics Samajik Aarthik Evam Rajnitik Jeevan Bhag 1 Chapter 4 लेन-देन का बदलता स्वरूप Text Book Questions and Answers, Notes.

BSEB Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 4 लेन-देन का बदलता स्वरूप

Bihar Board Class 6 Social Science लेन-देन का बदलता स्वरूप Text Book Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आपने या आपके परिवार के किसी सदस्य ने वस्तु देकर किसी वस्तु को खरीदा है ? यदि हाँ तो वर्णन करें।
उत्तर-
हाँ हमारे परिवार में दादाजी ने वस्तु देकर वस्तु को खरीदा है। एक बार दादाजी ने एक गरीब किसान से अनाज लेकर उसके बदले में उसे खाद, बीज और कीटनाशक दवाईया दी थी। इस तरह वे अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वस्तुओं की अदला-बदली करते थे।

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प्रश्न 2.
यदि आपको बाजार से कुछ बर्तन और चादर खरीदना हो तो आप इसे पैसे से खरीदना चाहेंगे या वस्तु के माध्यम से और क्यों?
उत्तर-
यदि हमको बाजार से कुछ बर्तन और चादर खरीदना होगा तो मैं इस पैसे से खरीदना चाहूँगी । क्योंकि रुपयों के चलन शुरू होने से लेन-देन, वस्तुओं की खरीद-बिक्री तथा व्यापार में काफी सहूलियत होती है और इसी सहूलियत के लिए मैं वस्तुओं की खरीद रुपयों के माध्यम से करना पसंद करूँगा।

प्रश्न 3.
गाँवों/शहरों में वस्तु-विनिमय प्रणाली का और कौन-कौन-सा उदाहरण दिखता है?
उत्तर-

  1. लहार को चमड़े की किसी वस्तु या चप्पल की आवश्यकता हो तो वह चर्मकार उसे उस वस्तु को खरीदता है। इसके बदले वह उसे लोहे की निर्मित कोई वस्तु या कहीं से प्राप्त अनाज उसे देता है।
  2. यदि लहार खेती कार्य के लिए कदाल या हल बनाता है। तो किसान उसे अनाज देकर भी उससे खरीद लेता है। अनाज की मात्रा या वस्तुओं की संख्या निर्धारण आपसी बातचीत से तय होते है। उसे ही वस्तु विनियम प्रणाली कहा जाता है।

प्रश्न 4.
क्या इसके अतिरिक्त भी कोई अन्य परम्परा जिसके माध्यम से लेन-देन देखने को मिलता है? जैसे शादी विवाह के समय?
उत्तर-
दहेज प्रथा एक ऐसी परम्परा है जिसके माध्यम से लेन-देन देखने को मिलता है।

प्रश्न 5.
क्या आप आपस में लेन-देन कर सकते हैं?
उत्तर-
ऊपर के चित्र से स्पष्ट है। यदि किसी के पास गेहूँ है और उसके बदले वह आम चाहता है तो उसे ऐसे व्यक्ति की खोज करनी होगी जिसके पास आम हो और वह उसके बदले गेहूँ चाहता है। लेकिन सामान्यता इस प्रकार के दोहरे संयोग का अभाव होता है।

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प्रश्न 6.
दोनों के बीच मूल्य कैसे तय होगा?
उत्तर-
दोनों के बीच मूल्य मुद्रा के द्वारा तय होगा। मुद्रा के चलने से वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाईयों को दूर करना शुरू कर दिया तथा लेन-देन मुद्रा के माध्यम से होने लगा। इससे व्यापार में भी सुविधा होने लगी।

प्रश्न 7.
उपरोक्त चित्रों तथा विवरण से आप वस्तु विनिमय की कठिनाईयों को अपने शब्दों में समझाएँ।
उत्तर-
मान लें कि अविनाश का मकान सहरसा में है जिसे बेचकर वह ‘ पटना जाकर बसना चाहता है । वस्तु विनिमय प्रणाली में मकान का जो मूल्य वस्तु (गाय, अनाज आदि) के रूप में प्राप्त होगा उसे पटना ले जाना काफी कठिन होगा। अर्थात इस प्रणाली में मूल्य के हस्तांतरण का अभाव होता है जिससे वस्तु विनिमय प्रणाली में अनेक प्रकार की कठिनाईयाँ आती थी। उन कठिनाईयों के कारण व्यापार में भी दिक्कतें आने लगी थीं।

प्रश्न 8.
लेन-देन के माध्यम के रूप में पैसा सभी द्वारा स्वीकार किया जाता है। पैसे द्वारा किसी भी वस्तु का मूल्य आसानी से तय किया जा सकता है। इसका संग्रह, संचय या बचत करना सविधाजनक है। इसे एक स्थान से दूसरे स्थान ले जाना आसान होता है। समझाएँ।
उत्तर-
जब किसी वस्तु की खरीद-बिक्री मुद्रा अथवा रुपये-पैसे के माध्यम से किया जाता है तो मुद्रा विनिमय प्रणाली कहा जाता है। मुद्रा के चलन से वस्तु विनिमय प्रणाली में आ रही कठिनाईयों को दूर कर दिया तथा लेन-देन मुद्रा के माध्यम से व्यापार में भी काफी सुविधा होने लगी है और उसे इस स्थान से उस स्थान ले जाना और लाना भी काफी सहूलियत होने लगी है। एक स्थान से दूसरे स्थान पर वस्तुओं का व्यापार भी बढ़ने लगा।

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प्रश्न 9.
रचित और दुकानदार को क्या सुविधा प्राप्त हुई?
उत्तर-
रचित अपने मुहल्ले की दुकान पर कॉपी, किताब, पेंसिल एवं रबर खरीदने के लिए जाता है। उसके सभी मूल्यों को जोड़कर 50 रुपये होता है। रचित दुकानदार को 50 रुपये का नोट देता है । यहाँ रचित मुद्रा देकर वस्तुओं को खरीदता है। दुकानदार मुद्रा लेकर वस्तुओं को बेचता है। दुकानदार को बिक्री से जो रुपये प्राप्त हुए उसका प्रयोग वह आगे दुकान में बिक्री के लिए सामान खरीदने में करता है। आमदनी के कुछ रुपयों से वह अपनी तथा अपने परिवार की जरूरत की वस्तुओं को खरीदता है तथा कुछ रुपये वह भविष्य के लिए बचाकर रखता है।

प्रश्न 10.
यहाँ मुद्रा विनिमय का कौन-सा गुण दिखाई दिया जो वस्तु विनिमय में नहीं है ?
उत्तर-
मुद्रा विनिमय करने की क्रिया से बचत करने की क्रिया भी सम्पन्न हुई। जब मौद्रिक विनिमय प्रणाली का प्रचलन शुरू हो गया तब आमदनी के रुपयों का संग्रह आसान हो गया। जो बाद में मार रुपयों को सरक्षित रखने के लिए बैंक की अवधारणा शुरू हो गई। ज. पस्तु विनिमय में नहीं है।

प्रश्न 11.
चेक द्वारा लेन-देन कैसे किया जाता है? परिवार एवं शिक्षक के साथ चर्चा करें।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 12.
एटीएम मशीन के आने से क्या सुविधा मिली ? इसके प्रयोग में क्या सावधानी बरतनी चाहिए? शिक्षक के साथ चर्चा करें।
उत्तर-
ए टी एम-सह-डेबिट कार्ड जारी होता है। इसे प्लास्टिक मुद्रा भी कहा जाता है । इसके द्वारा कोई बिना पास में रुपया रखे बैंक में जमा रुपये के आधार पर किसी वस्तु को खरीद सकता है। लेकिन आपको ए टी एम कार्ड को संभाल कर रखना चाहिए और पासवर्ड का अंक किसी को नहीं बताना चाहिए।

प्रश्न 13.
क्या चेक से लेन-देन करने में पत्र मद्रा की आवश्यकता होती है?
उत्तर-
नहीं चेक से लेन-देन करने में पत्र मद्रा की आवश्यकता नहीं होती है।

अभ्यास

प्रश्न 1.
बिना पैसे के लेन-देन में ‘भाव’ कैसे तय होता है?
उत्तर-
अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति की वे वस्तुओं की अदला-बदली के द्वारा करते हैं। अनाज की मात्रा या वस्तुओं की संख्या का निर्धारण परम्परा या आपसी बातचीत से तय होते हैं। इस प्रणाली को वस्तु विनिमय प्रणाली कहा जाता है।

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प्रश्न 2.
पैसे के माध्यम से लेन-देन में किस प्रकार की सहूलियत होती है?
उत्तर-
पैसे के माध्यम से लेन-देन वस्तुओं की खरीद-बिक्री तथा व्यापार में काफी सहूलियत होने लगी और इसी सहलियत के लिए लोग मुद्रा माध्यम से लेन-देन करने लगे। जिसके बदले में जरूरत की सभी चीजें वह असानी से खरीद सकता है और वह अपनी आमदनी को बचाकर बैंक में भी जमा कर सकता है। इससे व्यापार करने में काफी आसान हो गया। मुद्रा के चलन से व्यापार में सुविधा होने लगी।

प्रश्न 3.
नीचे दी गयी तालिका देखकर समझाएँ कि किसी भी दो व्यक्तियों के बीच सौदा क्यों नहीं हो पा रहा है?
उत्तर-
Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 4 लेन-देन का बदलता स्वरूप 1

राजन गुड़ खरीदना चाहता है और बकरी बेचता है।
रंजीत बकरी खरीदना चाहता है और चावल बेचना चाहता है।
रबीन चावल खरीदना चाहता है और गड बेचना चाहता है।
दो व्यक्तियों के बीच अलग-अलग सामग्री होने के कारण दोनों के बीच में सौदा नहीं हो पा रहा है।

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प्रश्न 4.
रचित तथा दुकानदार को लेन-देन में क्या सहूलियत हुई ?
उत्तर-
रचित दुकानदार से मुद्रा के द्वारा वस्तु को खरीदता है । इस प्रकार दुकानदार को बिक्री से जो रुपये प्राप्त हाः उसका प्रयोग वह दुकान की बिक्री के लिए सामान खरीदता है। आमदनी के कुछ रुपयों से वह अपनी तथा अपने परिवार के लिए जरूरत की वस्तुओं को भी खरीदता है और कुछ पैसे भविष्य के लिए बचाकर रखता है। इससे दोनों को ही सामान खरीदने और बेचने में आसानी होती है। मुद्रा के लेन-देन की क्रिया भुगतान करने की क्रिया तथा बचत करने की क्रिया भी आसान हो गई। इसमें वस्तु के बदले कितनी कीमत चुकायी जाए, यह भी निर्धारित किया गया।

प्रश्न 5.
मुद्रा का चलन कैसे शुरू हुआ?
उत्तर-
प्राचीन काल से आज तक मुद्रा का स्वरूप निरंतर बदलता ही रहा. है। वस्तु-मुद्रा के बाद सर्वप्रथम् धातु मुद्रा का चलन शुरू हुआ। इसमें लोहा, तांबा, पीतल, सोना, चाँदी आदि का प्रयोग किया जाता था। लेकिन धातु मुद्रा के बाद सिक्कों का चलन शुरू हुआ। भारत में सबसे पहले चांदी के सिक्के बने । दिल्ली की गद्दी पर बैठे शेरशाह सूरी ने चांदी के सिक्के को चलाया जिसे ‘रुपया’ नाम दिया । रुपया तथा ताँबे का बना दाम चलता था परंतु आज जो सिक्के चलते हैं वे एल्यूमीनियम तथा निकिल के बने होते हैं। इन सिक्कों की लागत इनके मूल्य से कम होती है।

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प्रश्न 6.
पत्र मुद्रा कैसे शुरू हुई होगी?
उत्तर-
सिक्कों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में होने वाली परेशानी एवं सिक्कों को घिस-घिस कर अपना फायदा बनाने की आदत को देखते हुए कागज के नोट का चलन शुरू हुआ । इसे पत्र या कागजी मुद्रा कहा जाता है। भारत में कागज के नोट को छपवाने तथा जारी करने का अधिकार सिर्फ भारतीय रिजर्व बैंक को ही है।

प्रश्न 7.
आप अपनी कक्षा के दोस्तों के साथ वस्तुओं की अदला-बदली द्वारा लेन-देन या अदान-प्रदान करते हैं। इनकी सूची बनाएँ। क्या यह वस्तु विनिमय प्रणाली का उदाहरण है ?
उत्तर-
छा शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 8.
इस पाठ में वस्तु विनिमय प्रणाली की कठिनाईयों से सम्बंधित कुछ चित्र दिये गये हैं। इन कठिनाईयों को दर्शाते हुए कुछ अन्य चित्र बनाएँ।
उत्तर-
छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

Bihar Board Class 6 Social Science लेन-देन का बदलता स्वरूप Notes

पाठ का सारांश

जब किसी वस्तु की खरीद बिक्री दूसरी वस्तु के माध्यम से की जाती है तो उसे वस्तु विनिमय प्रणाली कहा जाता है।

प्राचीन काल से आज तक मुद्रा का स्वरूप निरंतर बदलता रहा है। वस्तु-मुद्रा के बाद सर्वप्रथम धातु मुद्रा का चलन शुरू हुआ। इसमें लोहा, तांबा,पीतल, सोना, चाँदी आदि का प्रयोग किया जाता था। यह भारी होता था लेन-देन के बीच हमेशा संदेह बना रहता था क्योंकि इनका वजन और शुद्धता जाँचना कठिन था।

इसके बाद सिक्कों का चलन शुरू हुआ। भारत में सबसे पहले चाँदी के सिक्के बने।

दिल्ली की गद्दी पर बैठे शेरशाह सूरी ने ऐसा ही एक चाँदी का सिक्का चलाया जिसे उसने ‘रुपया’ नाम दिया सिक्के के आने से हर बार वजन करना और शुद्धता जाँचने की जरूरत नहीं रही।

उस समय ताँबे का बना सिक्के का चलन या आज जो सिक्के चलते हैं वे एल्यूमीनियम तथा निकल के बने होते हैं। इन सिक्कों की लागत इनके मूल्य से कम होती है। पत्र-मुद्रा या कागजी मुद्रा-सिक्कों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने में होने वाली परेशानी को देखते हुए कागज के नोट का चलन शुरू हुआ। इसे पत्र या कागजी मुद्रा कहते हैं।

Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 4 लेन-देन का बदलता स्वरूप

भारत में कागज के नोट छपवाने तथा जारी करने का अधिकार सिर्फ भारतीय रिजर्व बैंक को है। हमारे देश में दो रुपये, पाँच रुपये, दस रुपये, बीस रुपये, पचास रुपये, सौ रुपये, पाँच सौ रुपये तथा एक हजार रुपये का नोट भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी किया जाता है। बाजार एवं व्यापार के फैलने के साथ मुद्रा के स्वरूप में बदलाव आते गया। मुद्रा के विकास के साथ-साथ बाजार का विकास हुआ। एक स्थान से दूसरे स्थान पर वस्तुओं का व्यापार बढ़ने लगा। इस प्रकार खरीद-बिक्री का रूप भी बदला।

जब मौद्रिक विनिमय प्रणाली का प्रचलन शुरू हो गया तब आमदनी या अर्जित रुपयों का संग्रह आसान हो गया।

बाद में संग्रहित रुपयों को सुरक्षित रखने के लिए बैंक की अवधारणा शुरू हुई।

इसके अतिरिक्त वर्तमान समय में लेन-देन अथवा खरीद-बिक्री के लिए बैंक अपने ग्राहकों को ए टी एम–सह-डेबिट कार्ड जारी करने लगा। इसे प्लास्टिक मुद्रा भी कहा जाता है। इसके द्वारा कोई बिना पास में रुपया रखे, बैंक में जमा रुपये के आधार पर किसी वस्तु को खरीद सकता है । इस प्रकार शुरू से अंत तक लेन-देन का यह स्वरूप बदलता रहा।

Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 1 विविधता की समझ

Bihar Board Class 6 Social Science Solutions Civics Samajik Aarthik Evam Rajnitik Jeevan Bhag 1 Chapter 1 विविधता की समझ Text Book Questions and Answers, Notes.

BSEB Bihar Board Class 6 Social Science Civics Solutions Chapter 1 विविधता की समझ

Bihar Board Class 6 Social Science विविधता की समझ Text Book Questions and Answers

पाठ्य-पुस्तक के प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1.
क्या आपने किसी के साथ भेदभाव होते हुए देखा है? उदाहरण के साथ बताइए।
उत्तर-
हम सबसे ज्यादा भेदभाव अपने समाज में, अपने आस-पास ही देखते हैं। हमारे समाज में जाति, धर्म, अमीर-गरीब, रंग, लिंग इत्यादि के आधार पर भेदभाव होता है। आज सबसे ज्यादा भेदभाव लिंग के आधार पर होता है। भ्रूण जाँच के द्वारा लिंग पता करवा लिया जाता है तथा कन्या होने पर उसकी हत्या करवा दी जाती है। हमारे आस-पास, अगर किसी परिवार में पुत्र तथा पुत्री दोनों हैं तो परिवार की मानसिकता होती है कि वह पत्र को हर सुविधा उपलब्ध करवाये ।

लेकिन पुत्री को वह घर की चारदीवारी में बंद करके रखना पसंद करता है। पुत्री की शिक्षा उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती है जितना पुत्र की। पुत्री के जन्म को ही एक बोझ समझा जाता है। पुत्री को वह प्यार-दुलार नहीं मिलता जिसकी वह हकदार होती है। उदाहरण के तौर ए रामजीवन के ही परिवार में पुत्री के साथ कितना भेद-भाव किया गया। उन्हें वह हक नहीं मिला जिसकी वह हकदार थी। फिर भी पुत्र लाड़-दुलार की वजह से भविष्य में कुछ नहीं कर सका जबकि पुत्रियों ने पिता का सर ऊँचा कर दिया।

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प्रश्न 2.
अगर किसी के साथ भेदभाव होता है तो क्या आपने इस स्थिति में उसकी मदद करने का प्रयास किया ?
उत्तर-
हमारे आस-पास वैसे तो कई प्रकार के भेदभाव होते हैं। मेरे बगल में एक लड़की की शादी हो रही थी जिसकी उम्र 18 वर्ष से कम थी अर्थात् वह नाबालिग थी। कानूनन यह अत्याचार था। मैंने अपनी सभी सहेलियों के साथ मिलकर पुलिस को इसकी जानकारी दे दी जिससे उस नाबालिग की जिंदगी बर्बाद होने से बच गई।

प्रश्न 3.
आपकी समझ से इस समाज में किस प्रकार के भेदभाव होते हैं?
उत्तर-
हमारे समाज में विभिन्न प्रकार के भेदभाव होते हैं। लैंगिक भेदभाव जिसमें लड़के तथा लड़कियों के बीच भेद-भाव किया जाता है। नि:शक्तों एवं सामान्य सवर्णों के बीच भेदभाव जिसमें सिर्फ ऊँची जाति के लोगों को ही मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत होती है तथा नीची जाति के लोगों को गाँव में भी अंदर आने की इजाजत नहीं होती, अमीर तथा गरीब के बीच का भेदभाव तो हर जगह नजर आता है।

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प्रश्न 4.
समाज में भेदभाव क्यों होता है?
उत्तर-
समाज में भेदभाव होते हैं। अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे अनपढ़, सवर्णों-दलितों, महिलाएं पुरुषों में देखा जाता है। ऐसे लोग अपनी अज्ञानता एवं संकुचित मानसिकता के कारण समाज में हो रहे परिवर्तन को नजरअंदाज करते हैं और पुरानी रूढ़िवादी परम्पराओं को अपनाते हैं जिससे वह इन सभी चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं। उन्हें नयी क्रियाशीलता और बराबरी का व्यवहार को न अपनाने की वजह से समाज में 3 कतम भेदभाव देखे जाते हैं।

अभ्यास

प्रश्न 1.
किस आधार पर आप कह सकते हैं कि रामजीवन अपने बेटा एवं बेटियों के बीच भेदभाव करता था।
उत्तर-
रामजीवन अपने बेटियों की अपेक्षा बेटे के रहन-सहन, खान-पान, पहनावा, खेलकूद आदि पर विशेष ध्यान देता था जबकि बेटियों से घर का सारा काम (जैसे-भोजन, चौका, बर्तन, झाडू-पोछा आदि काम) करवाया जाता था। बेटियाँ इन कामों के अलावा पढ़ाई पर खुद ध्यान देती थी। वही बेटे के लिए स्कूली शिक्षा अच्छे विद्यालय में होती है और साथ में ही घर पर शिक्षक आकर पढ़ाते थे। इस तरह राम जीवन बेटियों की अपेक्षा बेटा को ज्यादा महत्व देता था।

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प्रश्न 2.
व्यक्तियों के बीच विभिन्नताओं में कौन-कौन से आधार
उत्तर-
व्यक्तियों के बीच हमारे समाज में विभिन्न प्रकार के भेद-भाव होते हैं। लैंगिक भेदभाव जिसमें लड़के तथा लड़कियों के बीच की विभिन्नताएँ हैं। नि:शक्तों एवं सामान्य सवर्णों के बीच भेदभाव, अमार-गराव, पढ़े-लिखे, अनपढ़ ये सभी समाज की विभिन्नता है।

प्रश्न 3.
भारतीय संविधान के आठवीं अनुसूची में कितनी भाषाओं का उल्लेख किया गया है?
उत्तर-
भारतीय संविधान आठवीं अनुसूची में कंवल 22 भाषाएँ सूचीबद्ध की गयी हैं।

प्रश्न 4.
आपके विचार में बिहार की समृद्धि-विविधता एवं विरासत आपके जीवन को बेहतर कैसे बनाती है?
उत्तर-
बिहार भी विविधताओं से भरा पड़ा है। हम अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं। अनेक प्रकार का खान-पान खाते हैं। अलग-अलग त्योहार मनाते हैं और खान-पान के साथ-साथ भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं। बिहार के लोग जब भारत के अन्य राज्यों जैसे – दिल्ली, मुम्बई, पंजाब, हरियाणा में काम अथवा व्यवसाय करने जाते हैं। उन्ह. कई हद तक अपनाने की कोशिश भी करते हैं। इन सभी चीजों से एक-दूसरे का सम्मान करते हैं। उन्हें अपने जीवन में लाने का प्रयास करते हैं। यह बिहार की समृद्धि, विविधता एवं विरासत-हमारे जीवन को काफी हद तक बेहतर बनाती है।

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प्रश्न 5.
आपके अनुसार जिस व्यक्ति के साथ भेदभाव होता है, उसे कैसा महसूस होता है?
उत्तर-
हमारे अनुसार जिस व्यक्ति के साथ भेदभाव किया जाता है। वह व्यक्ति अपने को संकुचित रखता है जिससे की उसकी अवहेलना कम हो और वह मानसिक रूप से परेशान होता है। हमें किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करना चाहिए जिससे कि उसे परेशानियों का सामना करना पड़े। आज समाज में लोगों के साथ बराबरी का व्यवहार हो जिससे नये समाज का विकास हो सभी प्रकार की विभिन्नताओं को समाहित करते हुए राष्ट्र की एकता को कायम रखना चाहिए।

प्रश्न 6.
दो व्यक्तियों के चित्र एकत्र करें जिन्होंने भेद-भाव एवं असमानता के विरुद्ध कार्य किया है।
उत्तर-

  1. महात्मा गाँधी
  2. डॉ. अम्बेडकर छात्र शिक्षक की सहायता से स्वयं करें।

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प्रश्न 7.
पाँच लड़कियों के नाम एकत्र करें जिन्होंने अपने देश का नाम रोशन किया है।
उत्तर-

  1. कल्पना चावला
  2. किरण वेदी
  3. सरोजनी नायडू
  4. मदर टेरेसा।
  5. इंदिरा गाँधी।।

Bihar Board Class 6 Social Science विविधता की समझ Notes

पाठ का सारांश

  • उत्तर बिहार की नदियों में घाघरा, गंडक, कोशी तथा बागमती प्रमुख है।
  • शुष्क पतझड़ वन उत्तर-पूर्व में पाए जाते हैं।
  • उत्तरी बिहार में मिट्टी प्रायः बलुई होती है।
  • बिहार का यह हिस्सा अक्सर बाढ़ के चपेट में आ जाया करता है।
  • मछली भात इस क्षेत्र का लोकप्रिय भोजन है।
  • भारत विविधताओं से भरा हुआ देश है, साथ ही अपना बिहार भी विविधता से भरा पड़ा है।
  • सामान्यतः विविधता का तात्पर्य असमानता है ।
  • हमारे यहाँ प्रजातियों, धों, भाषाओं, जातियों और संस्कृतियों की विविधता है।
  • भारत के विभिन्न राज्यों के निवासियों का खानपान, वेशभूषा, रीति-रिवाज, त्योहार एक-दूसरे से अलग हैं, यही भिन्नता विविधता है।
  • दक्षिणी बिहार एक विशाल समतल मैदान के रूप में गंगा नदी के दक्षिणी तट पर अवस्थित है।
  • यहां की मिट्टी बहुत उपजाऊ है, किन्तु मानसून के नहीं आने के बाद यह क्षेत्र कभी-कभी भयानक सुखा का सामना करता है।
  • भारत में 3000 से भी अधिक जातियां हैं।
  • भारतीय समाज में जातीय व्यवस्था एक विशेष स्थान आम राय के विपरित जातीय व्यवस्था हिन्दू धर्म में ही नहीं बल्कि, सिक्ख, मुस्लिम एवं ईसाई धर्म में भी पाया जाता है।
  • डॉ. अम्बेडकर ने दलित समुदाय के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी थी।