Bihar Board 12th Home Science Objective Important Questions Part 2

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Bihar Board 12th Home Science Objective Important Questions Part 2

प्रश्न 1.
सूखी धुलाई इस्तेमाल किये जाते हैं
(a) सूती वस्त्र के लिए
(b) रेशमी वस्त्र के लिए
(c) जूट के वस्त्र के लिए
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) रेशमी वस्त्र के लिए

प्रश्न 2.
ढोकला किस विधि से बनाया जाता है ?
(a) किण्वन
(b) सेंक कर
(c) वाष्पन
(d) तलकर
उत्तर:
(c) वाष्पन

प्रश्न 3.
रेशा जो मजबूत होता है व रस्सियाँ बनाने के काम आता है, हैं
(a) सूती
(b) रेयॉन
(c) रेशम
(d) नायलॉन
उत्तर:
(a) सूती

प्रश्न 4.
सांकेतिक भाषा का प्रयोग होता है
(a) अंधों के लिए
(b) असामाजिक बच्चों के लिए
(c) विकलांग बच्चों के लिए
(d) गूंगे तथा बहरे बच्चों के लिए
उत्तर:
(d) गूंगे तथा बहरे बच्चों के लिए

प्रश्न 5.
रेफ्रीजरेटर का प्रयोग होता है
(a) प्रशीतन में
(b) किण्वन में
(c) निर्जलीकरण में
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) प्रशीतन में

प्रश्न 6.
ज्यादा ऊष्मा और शक्ति उत्पादन करने वाला पदार्थ है
(a) वसा
(b) कार्बोहाइड्रेट
(c) प्रोटीन
(d) कैल्शियम
उत्तर:
(b) कार्बोहाइड्रेट

प्रश्न 7.
पोषण मानव जीवन की ………….. आवश्यकता है।
(a) प्राथमिक
(b) द्वितीयक
(c) तृतीयक
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) प्राथमिक

प्रश्न 8.
दो से छः वर्ष तक की आयु को कहते हैं
(a) शैशवावस्था
(b) बाल्यावस्था
(c) किशोरावस्था
(d) प्रौढ़ावस्था
उत्तर:
(b) बाल्यावस्था

प्रश्न 9.
मासिक वेतन परिवार की किस आय के अंतर्गत आता है ?
(a) मौद्रिक आय
(b) वास्तविक आय
(c) आत्मिक आय
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) मौद्रिक आय

प्रश्न 10.
विकासात्मक मनोविज्ञान लाभदायक है
(a) बच्चों के लिए
(b) शिक्षकों के लिए
(c) अभिभावकों के लिए
(d) इन सभी के लिए
उत्तर:
(d) इन सभी के लिए

प्रश्न 11.
कौन-सी रेखा लम्बाई की आभासी है ?
(a) खड़ी रेखा
(b) पड़ी रेखा
(c) वक्र रेखा
(d) क्रॉस रेखा
उत्तर:
(a) खड़ी रेखा

प्रश्न 12.
किसान विकास पत्र खरीदता हैं
(a) दुकान से
(b) बैंक से
(c) डाकखाना से
(d) एल० आई० सी० से
उत्तर:
(c) डाकखाना से

प्रश्न 13.
‘एगमार्क’ किन पदार्थों की गुणवत्ता और शुद्धता तय करता है ?
(a) पेय पदार्थ
(b) इलेक्ट्रॉनिक पदार्थ
(c) कृषि पदार्थ
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(a) पेय पदार्थ

प्रश्न 14.
एफ० पी० ओ० का पूर्ण रूप क्या है ?
(a) फुड प्रोडक्ट ऑर्डर
(b) मिट प्रोडक्शन कन्ट्रोल ऑर्डर
(c) इनवायरमेंट कनजरवेशन ऑर्डर
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) फुड प्रोडक्ट ऑर्डर

प्रश्न 15.
एफ० पी० ओ० मार्क वाले खाद्य पदार्थ हैं।
(a) जैम
(b) जेली
(c) आचार
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 16.
WHO का पूरा रूप है
(a) वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन
(b) फुड एण्ड एग्रीकल्चर आर्गनाइजेशन
(c) वोमेन हेल्थ आर्गनाइजेशन
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) वर्ल्ड हेल्थ आर्गनाइजेशन

प्रश्न 17.
वस्त्र आवश्यक है
(a) शरीर के आवरण हेतु
(b) शरीर को गर्म रखने हेतु
(c) सामाजिक प्रतिष्ठा हेतु
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 18.
कपड़ों के चयन में किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए ?
(a) कपड़े की किस्म
(b) कपड़े की सिलाई
(c) शैली एवं फैशन
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 19.
भारत की स्वास्थ्य समस्या क्या है ?
(a) संक्रामक रोग की समस्या
(b) बढ़ती जनसंख्या की समस्या
(c) पोषण की समस्या
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 20.
माँ के स्तन से निकलने वाला पहला दूध क्या कहलाता है ?
(a) विटामिन
(b) प्रोटीन
(c) कैल्शियम
(d) कोलस्ट्रम
उत्तर:
(d) कोलस्ट्रम

प्रश्न 21.
दूध सबसे अच्छा स्रोत है
(a) कैल्शियम का
(b) विटामिन ए का
(c) विटामिन डी का
(d) कार्बोहाइड्रेट का
उत्तर:
(a) कैल्शियम का

प्रश्न 22.
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत उपभोक्ताओं को क्या-क्या अधिकार दिया गया है ?
(a) चयन का अधिकार
(b) सुरक्षा का अधिकार
(c) उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 23.
आहारीय मिलावट प्रतिबंधात्मक कानून लागू हुआ
(a) 4 जून, 1955 में
(b) 1 जून, 1968 में
(c) 1 जून, 1959 में
(d) 1 जून, 1955 में
उत्तर:
(d) 1 जून, 1955 में

प्रश्न 24.
बच्चे को पूरक आहार कितने माह के बाद से देनी चाहिए ?
(a) 6 माह
(b) 8 माह
(c) 3 माह
(d) 9 माह
उत्तर:
(a) 6 माह

प्रश्न 25.
धन को बढ़ाने के लिए क्या करना चाहिए ?
(a) बैंक में फिक्स्ड डिपोजिट
(b) किसान विकास पत्र
(c) मोटर
(d) (a) और (b) दोनों
उत्तर:
(d) (a) और (b) दोनों

प्रश्न 26.
जन्म से ही शिशु में किस संवेग का प्रदर्शन होता है ?
(a) प्यार
(b) भय
(c) क्रोध
(d) नापसंद
उत्तर:
(d) नापसंद

प्रश्न 27.
कार्बोहाइड्रेट का सबसे सरल रूप होता है
(a) एमीनो एसिड
(b) ग्लूकोज
(c) वसीय अम्ल
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 28.
बच्चों को किस रोग से बचने के लिए विटामिन ‘ए’ की खुराक दी जाती है ?
(a) शारीरिक शक्ति की क्षीणता
(b) भार में कमी
(c) कमजोरी
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(a) शारीरिक शक्ति की क्षीणता

प्रश्न 29.
निम्न में से कौन क्रियात्मक विकास नहीं है ?
(a) सिर संभालना
(b) बोलना
(c) घुटनों के बल चलना
(d) पकड़ना
उत्तर:
(b) बोलना

प्रश्न 30.
भोजन के पौष्टिक मूल्य में वृद्धि करने की विधि है
(a) खमीरीकरण
(b) अंकुरीकरण
(c) विभिन्न भोज्य पदार्थों का मिश्रीकरण
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 31.
पाचन, अवशोषण एवं चयापचय में जल किस स्रोत से मदद करता है ?
(a) लार ग्रंथियों से निकला जल
(b) ऊपर से पीया गया जल
(c) भोज्य पदार्थों से निकला जल
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 32.
निम्न में से कौन बच्चे का पारिवारिक समाजीकरण का साधन नहीं है ?
(a) बच्चे का जन्मक्रम
(b) माता-पिता से सम्बन्ध
(c) दोस्तों से सम्बन्ध
(d) भाई-बहनों से सम्बन्ध
उत्तर:
(c) दोस्तों से सम्बन्ध

प्रश्न 33.
संक्रामक रोग से तात्पर्य है
(a) रोग का बार-बार होना
(b) रोग का लम्बे समय तक बने रहना
(c) एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को लगना
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति को लगना

प्रश्न 34.
निम्न में से कौन प्रत्यक्ष वास्तविक आय है ?
(a) कार्यालय से मुफ्त मकान
(b) सस्ते मूल्य पर पौष्टिक सामग्री खरीदना
(c) निःशुल्क स्वास्थ्य सेवाएँ
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 35.
सम्पूर्ण धुलाई क्रिया के अंतर्गत कौन शामिल नहीं है ?
(a) दाग-धब्बे छुड़ाना
(b) धुलाई
(c) सुखाना
(d) इस्तरी करना
उत्तर:
(d) इस्तरी करना

प्रश्न 36.
उपभोक्ता के अधिकार कौन नहीं है ?
(a) चयन का
(b) क्षतिपूर्ति का
(c) दुकान में रेड करवाने का
(d) शिकायत दर्ज करने का
उत्तर:
(c) दुकान में रेड करवाने का

प्रश्न 37.
कौन रोजगार अन्यत्र रोजगार एवं स्व-रोजगार दोनों क्षेत्रों में संभव है ?
(a) ड्रेस डिजाइनर
(b) डायटीशियन
(c) आंतरिक सज्जाकार
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 38.
जन्म से तीन वर्ष की आयु तक बालक का भार होता है
(a) दो गुना
(b) तिगुना
(c) चौगुना
(d) पाँच गुना
उत्तर:
(b) तिगुना

प्रश्न 39.
बच्चों को पोलियो और डी० पी० टी० का बुस्टर डोज किस आयु में दिया जाता है ?
(a) 2-4 माह
(b) 16-24 माह
(c) 0-3 माह
(d) 6-9 माह
उत्तर:
(b) 16-24 माह

प्रश्न 40.
रोग निरोधी क्षमता कितने प्रकार की होती है ?
(a) 3
(b) 2
(c) 4
(d) 6
उत्तर:
(b) 2

प्रश्न 41.
कुकुरखाँसी से बचाव के लिए कौन-सा टीका लगाया जाता है ?
(a) बी० सी० जी०
(b) डी० पी० टी०
(c) पोलियो
(d) टिटनस
उत्तर:
(b) डी० पी० टी०

प्रश्न 42.
बच्चों को किस रोग से बचाने के लिए विटामिन ‘ए’ की खुराक दी जाती है ?
(a) रतौंधी
(b) पोलियो
(c) अतिसार
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(a) रतौंधी

प्रश्न 43.
क्षय रोग से निवारण के लिए कौन-सी टीका लगाया जाता है ?
(a) हेपेटाइटिस ‘बी’
(b) एम० एम० आर०
(c) बी० सी० जी०
(d) डी० पी० टी०
उत्तर:
(c) बी० सी० जी०

प्रश्न 44.
नवजात शिशु के जन्म के 48 घंटों के अंदर कौन-सा टीका लगता है ?
(a) डी० पी० टी०
(b) बी० सी० जी०
(c) पोलियो
(d) एम० एम० आर०
उत्तर:
(b) बी० सी० जी०

प्रश्न 45.
डी० पी० टी० का पहला टीका कब लगाया जाता है ?
(a) एक माह की आयु में
(b) दो माह की आयु में
(c) तीन माह की आयु में
(d) चार माह की आयु में
उत्तर:
(a) एक माह की आयु में

प्रश्न 46.
डी० पी० टी० का टीका किन तीनों रोगों से बचाव के लिए लगाया जाता है ?
(a) पोलियो, खसरा, हैपेटाइटिस बी
(b) डिप्थीरिया, काली खाँसी, टेटनस
(c) हैपेटाइटिस बी, एम० एम० आर०, टायफायड
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) डिप्थीरिया, काली खाँसी, टेटनस

प्रश्न 47.
टेटनस से बचने के लिए बच्चे को कौन-सा टीका लगाया जाता है ?
(a) डी० पी० टी०
(b) एम० एम० आर०
(c) पोलियो
(d) बी० सी० जी०
उत्तर:
(a) डी० पी० टी०

प्रश्न 48.
बी० सी० जी० का टीका दिया जाता है।
(a) जन्म के समय
(b) एक वर्ष
(c) दो वर्ष
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) जन्म के समय

Bihar Board 12th Chemistry Objective Important Questions Part 2

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Bihar Board 12th Chemistry Objective Important Questions Part 2

प्रश्न 1.
[Cu(NH3)4] में Hybridisation होती है-
(a) SP3
(b) Sp3d2
(c) dSP2
(d) dSP3
उत्तर:
(c) dSP2

प्रश्न 2.
फेन उत्प्लावन विधि का उपयोग किया जाता है।
(a) अयस्कों के निस्तापन के लिए
(b) अयस्कों के जारण के लिए
(c) अयस्कों के प्रक्षावण के लिए
(d) अयस्कों के सान्द्रण के लिए
उत्तर:
(d) अयस्कों के सान्द्रण के लिए

प्रश्न 3.
सल्फाइड अयस्कों का सान्द्रण किया जाता है :
(a) गुरुत्व विधि के द्वारा
(b) विद्युत चुम्बकीय विधि के द्वारा
(c) फेन उत्प्लावन विधि के द्वारा
(d) इनमें से किसी के द्वारा नहीं
उत्तर:
(c) फेन उत्प्लावन विधि के द्वारा

प्रश्न 4.
फेन उत्प्लावन विधि आधारित है :
(a) अयस्क के विशिष्ट गुरुत्व पर
(b) सल्फाइड अयस्क का तेल एवं जल के वरणात्मक गीलापन पर
(c) अयस्क के चुम्बकीय गुण पर
(d) अयस्क के विद्युतीय गुण पर
उत्तर:
(b) सल्फाइड अयस्क का तेल एवं जल के वरणात्मक गीलापन पर

प्रश्न 5.
निम्न में से किस अयस्क का सान्द्र फेन उत्प्लावन विधि के द्वारा किया जाता है :
(a) कैसिटेराइट
(b) गैलेना
(c) सिडेराइट
(d) बॉक्साइट
उत्तर:
(b) गैलेना

प्रश्न 6.
निम्न में कौन ग्लेशियल एसिटिक अम्ल की उपस्थिति में क्रोमिक एनहाइड्राइड के द्वारा ऑक्सीकृत करने पर एल्डिहाइड देता है।
(a) CH3COOH
(b) CH3CH2OH
(c) CH3CH(OH)CH3
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(b) CH3CH2OH

प्रश्न 7.
निम्न में कौन ऑक्सीकृत होकर कीटोन देता है ?
(a) CH3CH2OH
(b) CH3CH(OH)
(c) CH3OH
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(b) CH3CH(OH)

प्रश्न 8.
निम्न में केटलिंग घोल को अवकृत करता है ?
(a) CH3COOH
(b) CH3COCH3
(c) HCHO
(d) CH3OH
उत्तर:
(c) HCHO

प्रश्न 9.
निम्न में कौन कैनिजारो प्रतिक्रिया प्रदर्शित करता है ?
(a) HCHO
(b) CH3CHO
(c) CH3COCH3
(d) CH3 CH(CHO).CH3
उत्तर:
(a) HCHO

प्रश्न 10.
निम्न में कौन नीला लिटमस को लाल करता है ?
(a) CHOOH
(b) CH3CHO
(c) CH3COCH3
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(a) CHOOH

प्रश्न 11.
कैल्सियम एसीटेट का शुष्क स्त्रवण करने पर बनता है ?
(a) CH3COOH
(b) CH3COCH3
(c) CH3CHO
(d) CH3 CH3
उत्तर:
(b) CH3COCH3

प्रश्न 12.
कैल्सियम एसीटेट और कैल्सियम फॉमेंट को गर्म करने पर निम्न में कान बनता है?
(a) एसीटोन
(b) फॉर्मिक अम्ल
(c) एसीटिक अम्ल
(d) एसीटल्डिहाइड
उत्तर:
(d) एसीटल्डिहाइड

प्रश्न 13.
कार्बोक्सिलिक अम्ल निम्न में किसका विशिष्ट गुण प्रदर्शित नहीं करता है?
(a) > C = 0 समूह
(b) -COOH समूह
(c) एल्काइल समूह
(d) किसी का नहीं
उत्तर:
(a) > C = 0 समूह

प्रश्न 14.
निम्न में कौन फेनॉल है ?
(a) C6H5CH2OH
(b) C6H5OH
(c) C6H5CHO
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(b) C6H5OH

प्रश्न 15.
सबसे प्रबल अम्ल है ?
(a) p-फेनॉल
(b) o-फेनॉल
(c) फेनॉल
(d) m-फेनॉल
उत्तर:
(a) p-फेनॉल

प्रश्न 16.
निम्न में से नीला लिटमस को लाल करता है ?
(a) CH3CH2OH
(b) C6H5CHO
(c) C6H5OH
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(c) C6H5OH

प्रश्न 17.
फेनॉल प्रतिक्रिया नहीं करता है?
(a) NaOH
(b) KOH
(c) NaHCO3
(d) किसी के साथ नहीं
उत्तर:
(c) NaHCO3

प्रश्न 18.
सबसे क्रियाशील एल्काइल हैलाइड कौन है ?
(a) C2H5Br
(b) C2H5l
(c) C2H5Cl
(d) सभी समान क्रियाशील हैं
उत्तर:
(b) C2H5l

प्रश्न 19.
निम्न में कौन सबसे क्रियाशील है ?
(a) CH3CH2l
(b) (CH3)3CHl
(c) (CH3)Cl
(d) सभी समान क्रियाशील हैं
उत्तर:
(c) (CH3)Cl

प्रश्न 20.
इथाइल आयोडाइड को आर्द्र सिल्वर ऑक्साइड के साथ गर्म करने पर बनता है ?
(a) एसीटिक अम्ल
(b) इथाइल एल्कोहॉल
(c) एसीटल्डिहाइड
(d) सभी
उत्तर:
(b) इथाइल एल्कोहॉल

प्रश्न 21.
निम्न में सबसे अधिक क्षारीय कौन है ?
(a) NH3
(b) AsH3
(c) SbH3
(d) PH3
उत्तर:
(a) NH3

प्रश्न 22.
निम्न में सबसे अधिक स्थायी कौन है ?
(a) PH3
(b) NH3
(c) AsH3
(d) SbH3
उत्तर:
(b) NH3

प्रश्न 23.
इनमें सबसे प्रबल अवकारक कौन है ?
(a) PH3
(b) NH3
(c) SbH3
(d) AsH3
उत्तर:
(c) SbH3

प्रश्न 24.
निम्न में से कौन सबसे कम अम्लीय होता है?
(a) H2O
(b) H2Se
(c) H2S
(d) H2Te
उत्तर:
(a) H2O

प्रश्न 25.
निम्न में कौन सबसे स्थायी होता है ?
(a) H2S
(b) H2O
(c) H2Te
(d) H2He
उत्तर:
(b) H2O

प्रश्न 26.
निम्न में कौन सबसे प्रबल अवकारक है ?
(a) H2O
(b) H2Se
(c) H2Te
(d) H2S
उत्तर:
(c) H2Te

प्रश्न 27.
H2SO4 है-
(a) अम्ल
(b) भस्म
(c) क्षारीय
(d) लवण
उत्तर:
(a) अम्ल

प्रश्न 28.
निम्न में किसका हिमांक में अवनमन अधिकृत होगा-
(a) K2SO4
(b) NaCl
(c) Urea
(d) Glucose
उत्तर:
(a) K2SO4

प्रश्न 29.
प्रथम कोटि अभिक्रिया के गति स्थिरांक की इकाई होती है-
(a) समय -1
(b) मोल लीटर -1 सेकेण्ड -1
(c) लीटर मोल -1 सेकेण्ड -1
(d) लीटर मोल -1 सेकेण्ड
उत्तर:
(a) समय -1

प्रश्न 30.
CH4 के कार्बन का संकरण है-
(a) sp3
(b) sp2
(c) sp
(d) sp3d2
उत्तर:
(a) sp3

प्रश्न 31.
Ethane (C2H6) में कार्बन का संकरण है-
(a) sp2
(b) sp3
(c) sp
(d) dsp2
उत्तर:
(b) sp3

प्रश्न 32.
ALKANE का सामान्य सूत्र है-
(a) CnH2n
(b) CnH2n+1
(c) CnH2n+2
(d) CnH2n-2
उत्तर:
(c) CnH2n+2

प्रश्न 33.
Acetylene में किसने σ तथा π बंधन है-
(a) 2σ तथा 3π
(b) 3σ तथा 1π
(c) 2σ तथा 2π
(d) 3σ तथा 2π
उत्तर:
(d) 3σ तथा 2π

प्रश्न 34.
ALKYNE का सामान्य सूत्र है-
(a) CnH2n
(b) CnH2n+1
(c) CnH2n-2
(d) CnH2n+2
उत्तर:
(c) CnH2n-2

प्रश्न 35.
K4[Fe(CN)6] है-
(a) डबल साल्ट
(b) जटिल लवण
(c) अम्ल
(d) भस्म
उत्तर:
(b) जटिल लवण

प्रश्न 36.
XeF4 का आकार होता है-
(a) चतुष्फलकीय
(b) स्कवायर प्लेनर
(c) पिरामिडल
(d) एकरैखिक
उत्तर:
(b) स्कवायर प्लेनर

प्रश्न 37.
किसी अभिक्रिया का वेग निम्नांकित प्रकार से व्यक्त होता है। वेग = K[A]2[B], तो अभिक्रिया की कोटि क्या है ?
(a) 2
(b) 3
(c) 1
(d) 0
उत्तर:
(b) 3

प्रश्न 38.
25°C ताप शुद्धजल का मोलरता होता है-
(a) 5.55 M
(b) 50.5 M
(c) 55. 5 M
(d) 5.05 M
उत्तर:
(c) 55. 5 M

प्रश्न 39.
यदि 200ml NaOH घोल में 2 ग्राम NaOH हो तो घोल का मोलरता-
(a) 0.25
(b) 0.5
(c) 5
(d) 10
उत्तर:
(a) 0.25

प्रश्न 40.
निम्न किसमें H-Bond नहीं है-
(a) NH3
(b) H2O
(c) HCl
(d) HF
उत्तर:
(c) HCl

प्रश्न 41.
यदि CuSO4 घोल में 96500 कूलम्ब विद्युत धारा प्रवाहित होती है तो मुक्त Cu का द्रव्यमान होगा-
(a) 63.5 gram Cu
(b) 31.75 gram Cu
(c) 96500 gram Cu
(d) 100 gram Cu
उत्तर:
(b) 31.75 gram Cu

प्रश्न 42.
निम्नलिखित में कौन-सा धातु साधारण तापक्रम पर द्रव होता है-
(a) जस्ता
(b) पारा
(c) ब्रोमिन
(d) जल
उत्तर:
(b) पारा

प्रश्न 43.
Caprolactum Monomer है-
(a) Nylon-6
(b) Nylon-6, 6
(c) Nylon-2-Nylon-6
(d) Terylene
उत्तर:
(a) Nylon-6

प्रश्न 44.
Alkylhalide को Alcohol में परिवर्तित करने की प्रतिक्रिया है-
(a) योगशील प्रतिक्रिया
(b) प्रतिस्थापन प्रतिक्रिया
(c) विलोपन प्रतिक्रिया
(d) जल अपघटन प्रतिक्रिया
उत्तर:
(b) प्रतिस्थापन प्रतिक्रिया

प्रश्न 45.
Glucose (C6H12O6) में chiral carbon की संख्या है-
(a) 4
(b) 5
(c) 3
(d) 1
उत्तर:
(b) 5

प्रश्न 46.
Glycerol है
(a) Primary Alcohol
(b) Secondary Alcohol
(c) Tertiary Alcohol
(d) Trihydric alcohol
उत्तर:
(d) Trihydric alcohol

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 5 in Hindi

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Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 5 in Hindi

प्रश्न 1.
आय विधि से सम्बन्धित सावधानियाँ कौन-सी हैं ?
उत्तर:
आय विधि से संबधित सावधानियाँ ये हैं

  • गैर-कानूनी ढ़ग से कमाई गयी आय (जैसे-तस्करी, कालाबाजारी, जुआ, चोरी, डाका, आदि से प्राप्त आय) पर
  • हस्तारण आय (जैसे-छात्रवृति, वृद्धावस्था पेंशन, बेकारी भत्ता आदि) को राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं करना चाहिए।
  • स्व उद्योग के लिए उत्पादन को राष्ट्रीय आय में शामिल किया जाना चाहिए।
  • निगम कर लाभ का एक अंग है। अतः इसे अलग से राष्ट्रीय आय को राष्ट्रीय आय में शामिल नहीं किया जाना चाहिए।

प्रश्न 2.
राष्ट्रीय आय को व्यय विधि से कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
राष्ट्रीय आय की विभिन्न विधियों में व्यय विधि भी एक है। राष्ट्रीय आय को व्यय विधि से निम्न रूप से मापा जा सकता है-

व्यय विधि:
‘निजी अंतिम उपयोग व्यय + सरकारी अंतिम अपयोग – सकल घरेलू पूँजी निर्माण + शुद्ध निर्यात = बाजार कीमत पर सकल घरेलू उत्पाद – शुद्ध अप्रत्यक्ष करं – मूल्य ह्रास।
= साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद + विदेशों से शुद्ध साधन आया
= राष्ट्रीय आय।

प्रश्न 3.
मुद्रा की विनिमय के माध्यम के रूप में भूमिका पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
व्यापार में विभिन्न पक्षों के बीच मुद्रा विनिमय या भुगतान के माध्यम का काम करती है। भुगतान का काम लोग किसी भी वस्तु से कर सकते हैं परन्तु उस वस्तु में सामान्य स्वीकृति का गुण होना चाहिए। कोई भी वस्तु अलग-अलग समय काल एवं परिस्थितियों में अलग हो सकती है। जैसे पुराने समय में लोग विनिमय के लिए कौड़ियों, मवेशियों, धातुओं अन्य लोगों के ऋणों का प्रयोग करते थे। इस प्रकार के विनिमय में समय एवं श्रम की लागत बहुत ऊँचीहोती थी। विनिमय के लिए मुद्रा को माध्यम बनाए जाने में समय एवं श्रम की लागत की बचत, होती है। आदर्श संयोग तलाशने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। मुद्रा के माध्यम से व्यापार करने से व्यापार प्रक्रिया बहुत सरल हो जाती है।

प्रश्न 4.
वस्त एवं सेवा में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
वस्तु एवं सेवा में निम्नलिखित अन्तर हैं-
वस्तु:

  1. वस्तु भौतिक होती है अर्थात् वस्तु का आकार होता है। उसे छू सकते हैं।
  2. वस्तु के उत्पादन काल एवं उपभोग काल में अन्तर पाया जाता है।
  3. वस्तु का भविष्य के लिए भण्डारण कर सकते हैं।
  4. उदाहरण-मेज, किताब, वस्त्र आदि।

सेवा:

  1. सेवा अभौतिक होती है। वस्तु सेवा का कोई आकार नहीं होता है। उसे छू नहीं सकते हैं।
  2. सेवा का उत्पादन एवं उपभोग काल एक ही होता है।
  3. सेवा का भविष्य के लिए भण्डारण नहीं कर सकते हैं।
  4. उदाहरण-डॉक्टर की सेवा, अध्यापक की सेवा।

प्रश्न 5.
मूल्य के भण्डार के रूप में मुद्रा की भूमिका बताइए।
उत्तर:
मूल्य की इकाई एवं भुगतान का माध्यम लेने के बाद मुद्रा मूल्य के भण्डार का कार्य भी सहजता से कर सकती है। मुद्रा का धारक इस बात से आश्वस्त होता है कि वस्तुओं एवं सेवाओं के मालिक उनके बदले मुद्रा को स्वीकार कर लेते हैं। अर्थात् मुद्रा में सामान्य स्वीकृति का गुण होने के कारण मुद्रा का धारक उसके बदले कोई भी वांछित चीज खरीद सकता है। इस प्रकार मुद्रा मूल्य भण्डार के रूप में कार्य करती है।

मुद्रा के अतिरिक्त स्थायी परिसंपत्तियों जैसे भूमि, भवन एवं वित्तीय परिसंपत्तियों जैसे बचत, ऋण पत्र आदि में भी मूल्य संचय का गुण होता है और इनसे कुछ आय भी प्राप्त होती है। परन्तु इनके स्वामी को इनकी देखभाल एवं रखरखाव की जरूरत होती है, इसमें मुद्रा की तुलना में कम तरलता पायी जाती है और भविष्य में इनका मूल्य कम हो सकता है। अतः मुद्रा मूल्य भण्डार के रूप में अन्य चीजों से बेहतर है।

प्रश्न 6.
नकद साख पर चर्चा कीजिए।
उत्तर:
ग्राहक की साख सुपात्रता के आधार पर व्यापारिक बैंक द्वारा ग्राहक के लिए उधार लेने की सीमा के निर्धारण को नकद साख कहते हैं। बैंक का ग्राहक तय सीमा तक की राशि का प्रयोग कर सकता है। इस राशि का प्रयोग ग्राहक को आहरण क्षमता से तय किया जाता है। आहरण क्षमता का निर्धारण ग्राहक की वर्तमान परिसंपत्तियों के मूल्य, कच्चे माल के भण्डार, अर्द्धनिर्मित एवं निर्मित वस्तुओं के भण्डारन एवं हुन्डियों के आधार पर किया जाता है। ग्राहक अपने व्यवसाय एवं उत्पादक गतिविधियों के प्रमाण प्रस्तुत करने के लिए अपनी परिसंपत्तियों पर . अपना कब्जा करने की कार्यवाही शुरू कर सकता है। ब्याज केवल प्रयुक्त ब्याज सीमा पर चुकाया जाता है। नकद साख व्यापार एवं व्यवसाय संचालन में चिकनाई का काम करती है।

प्रश्न 7.
मुद्रा की आपूर्ति क्या होती है ?
उत्तर:
मुद्रा रक्षा में सभी प्रकार की मुद्राओं के योग को मुद्रा की आपूर्ति कहते हैं। मुद्रा की आपूर्ति में दो बातों का ध्यान रखना आवश्यक होता है।

  • मुद्रा की आपूर्ति एक स्टॉक है। यह किसी समय बिन्दु के उपलब्ध मुद्रा की सारी मात्रा को दर्शाता है।
  • मुद्रा के स्टॉक से अभिप्राय जनता द्वारा धारित स्टॉक से है। जनता द्वारा धारित स्टॉक समस्त स्टॉक से कम होता है। भारतीय रिजर्व बैंक देश में मुद्रा की आपूर्ति के चार वैकल्पिक मानों के आँकड़े प्रकाशित (M1, M2, M3, M4) है।

जहाँ M1 = जनता के पास करेन्सी+जनता की बैंकों में माँग जमाएँ
M2 = M + डाकघरों के बचत बैंकों में बचत जमाएँ
M3 = M2 + बैंकों की निबल समयावधि योजनाएँ
M4 = M3 + डाकघर बचत संगठन की सभी जमाएँ।

प्रश्न 8.
समष्टि अर्थशास्त्र से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
अर्थशास्त्र का वह भाग जिसमें समूची अर्थव्यवस्था से संबंधित विभिन्न योगों या औसतों का अध्ययन किया जाता है, समष्टि अर्थशास्त्र कहलाता है। उदाहरण के लिए, कुल रोजगार, राष्ट्रीय आय, कुल उत्पादन, कुल निवेश, कुल उपभोग, कुल बचत, समग्र माँग, समग्र पूर्ति, सामान्य कीमत स्तर, मजदूरी स्तर, लागत, संरचना, स्फीति, बेरोजगारी, भुगतान शेष, विनिमय दरें, मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियाँ आदि समष्टि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आते हैं। दूसरे शब्दों में, इसे योगमूलक अर्थशास्त्र (Aggregative ecomomics) भी कहा जाता है जो विभिन्न योगों के बीच आपसी संबंधों, उनके निर्धारण एवं उनमें उतार-चढ़ाव के कारणों की जाँच करता है। इस प्रकार, समष्टि का संबंध समूची अर्थव्यवस्था के कार्यव्यवहार से होता है।

प्रश्न 9.
वस्तु विनिमय की कठिनाइयाँ लिखिए।
उत्तर:
वस्तु विनिमय की निम्नलिखित कठिनाइयाँ है-

  • इस प्रणाली में वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य मापने की कोई सर्वमान्य इकाई नहीं होती. है। अतः वस्तु विनिमय लेखांकन की उपयुक्त व्यवस्था के विकास में एक बाधा है।
  • आवश्यकताओं का दोहरा संयोग विनिमय का आधार होता है। व्यवहार में दो पक्षों में हमेशा एवं सब जगह परस्पर वांछित संयोग का तालमेल होना बहुत मुश्किल होता है।
  • स्थगित भुगतानों को निपटाने में कठिनाई होती है। दो पक्षों के बीच सभी लेन-देनों का निपटारा साथ के साथ होना मुश्किल होता है अतः वस्तु विनिमय प्रणाली में स्थगित भुगतानों के संबंध में वस्तु की किस्म, गुणवत्ता, मात्रा आदि के संबंध में असहमति हो सकती है।

प्रश्न 10.
भारत में नोट जारी करने की क्या व्यवस्था है ?
उत्तर:
भारत में नोट जारी करने की व्यवस्था को न्यूनतम सुरक्षित व्यवस्था कहा जाता है। जारी की गई मुद्रा के लिए न्यूनतम सोना व विदेशी मुद्रा सुरक्षित निधि में रखी जाती है।

प्रश्न 11.
भारत में मुद्रा की पूर्ति कौन करता है ?
उत्तर:
भारत में मुद्रा की पूर्ति करते हैं-

  • भारत सरकार।
  • केन्द्रीय बैंक
  • व्यापारिक बैंक।

प्रश्न 12.
वाणिज्य बैंक कोषों का अन्तरण किस प्रकार करते हैं ?
उत्तर:
वाणिज्य बैंक एक स्थान से दूसरे स्थान पर धन राशि को भेजने में सहायक होते हैं। यह राशि साख पत्रों, जैसे-चेक, ड्राफ्ट, विनिमय, बिल आदि की सहायता से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजी जाती है।

प्रश्न 13.
क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
2 अक्टूबर 1975 को 5 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक स्थापित किए गए। इनका कार्यक्षेत्र एक राज्य के या दो जिले तक सीमित रखा गया। ये छोटे और सीमित किसानों, खेतिहर मजदूरों, ग्रामीण दस्तकारों, लघु उद्यमियों, छोटे व्यापार में लगे व्यवसायियों को ऋण प्रदान करते हैं। इन बैंकों का उद्देश्य ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास करना है। ये बैंक ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि, लघु-उद्योगों, वाणिज्य, व्यापार तथा अन्य क्रियाओं के विकास में सहयोग करते हैं। .

प्रश्न 14.
श्रम विभाजन व विनिमय पर आधारित अर्थव्यवस्था में किस प्रकार की वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है ?
उत्तर:
श्रम विभाजन एवं विनिमय पर आधारित अर्थव्यवस्था में लोग अभीष्ट वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि उन वस्तुओं अथवा सेवाओं का उत्पादन करते हैं जिनके उत्पादन में उन्हें कुशलता या विशिष्टता प्राप्त होती है। इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में लोग आवश्यकता से अधिक मात्रा में उत्पादन करते हैं और दूसरे लोगों के अतिरेक से विनिमय कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में स्व-उपभोग के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि विनिमय के लिए उत्पादन करते हैं।

प्रश्न 15.
कीमत नम्यता वस्तु बाजार में सन्तुलन कैसे बनाए रखती है ?
उत्तर:
कीमत नम्यता (लोचनशीलता) के कारण वस्तु व सेवा बाजार में सन्तुलन बना रहता है। यदि वस्तु की माँग, आपूर्ति से ज्यादा हो जाती है अर्थात् अतिरेक माँग की स्थिति पैदा हो जाती है तो वस्तु बाजार में कीमत का स्तर अधिक होने लगता है। कीमत के ऊँचे स्तर पर वस्तु की माँग घट जाती है तथा उत्पादक वस्तु आपूर्ति अधिक मात्रा में करते हैं। वस्तु की कीमत में वृद्धि उस समय तक जारी रहती है जब तक माँग व आपूर्ति सन्तुलन में नहीं आ जाती है। नीची को माँग बढ़ाते हैं तथा उत्पादक आपूर्ति कम करते हैं। माँग व पूर्ति में परिवर्तन वस्तु की माँग बढ़ाते हैं तथा उत्पादक आपूर्ति सन्तुलन में नहीं आ जाती है।

प्रश्न 16.
वास्तविक मजदूरी का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
श्रमिक अपनी शारीरिक एवं मानसिक सेवाओं के प्रतिफल के रूप में कुल जितनी उपयोगिता प्राप्त कर सकते हैं उसे वास्तविक मजदूरी कहते हैं। दूसरे शब्दों में श्रमिक की अपनी आमदनी से वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने की क्षमता को वास्तविक मजदूरी कहते हैं। वास्तविक मजदूरी का निर्धारण श्रमिक की मौद्रिक मजदूरी एवं कीमत स्तर से होता है। वास्तविक मजदूरी एवं मौद्रिक मजदूरी में सीधा संबंध होता है अर्थात् ऊँची मौद्रिक मजदूरी दर पर वास्तविक मजदूरी अधिक होने की संभावना होती है। वास्तविक मजदूरी व कीमत स्तर में विपरीत संबंध होता है। कीमत स्तर अधिक होने पर मुद्रा की क्रय शक्ति कम हो जाती है अर्थात् वस्तुओं एवं सेवाओं को खरीदने की क्षमता कम हो जाती है।

प्रश्न 17.
मजदूरी-कीमत नभ्यता की अवधारणा समझाइए।
उत्तर:
मजदूरी-कीमत नम्यता का आशय है कि मजदूरी व कीमत में लचीलापन। वस्तु-श्रम की माँग व पूर्ति की शक्तियों में परिवर्तन होने पर मजदूरी दर व कीमत में स्वतंत्र रूप से. परिवर्तन को मजदूरी-कीमत नम्यता कहा जाता है। श्रम बाजार में श्रम की माँग बढ़ने से मजदूरी दर बढ़ जाती है तथा श्रम की माँग कम होने से श्रम की मजदूरी दर कम हो जाती है। इसी प्रकार वस्तु बाजार में वस्तु की माँग बढ़ने पर वस्तु की कीमत बढ़ जाती है तथा इसके विपरीत माँग कम होने से कीमत घट जाती है। मजदूरी कीमत नम्यता के कारण श्रम एवं वस्तु बाजार में सदैव सन्तुलन बना रहता है।

प्रश्न 18.
व्यष्टि स्तर एवं समष्टि स्तर उपयोग को प्रभावित करने वाले कारक बताइए।
उत्तर:
व्यष्टि स्तर पर उपभोग उन वस्तुओं एवं सेवाओं के मूल्य के बराबर होता है जिन्हें विशिष्ट समय एवं विशिष्ट कीमत पर परिवार खरीदते हैं। व्यष्टि स्तर पर उपभोग वस्तु की कीमत, आय एवं संपत्ति, संभावित आय एवं परिवारों की रूचि अभिरूचियों पर निर्भर करता है।

समष्टि स्तर पर केन्ज ने मौलिक एवं मनोवैज्ञानिक नियम की रचना की है। केन्ज के अनुसार अर्थव्यवस्था में जैसे-जैसे राष्ट्रीय आय का स्तर बढ़ता है लोग अपना उपभोग बढ़ाते हैं परन्तु उपभोग में वृद्धि की दर राष्ट्रीय आय में वृद्धि की दर से कम होती है। आय के शून्य स्तर पर स्वायत्त उपभोग किया जाता है। स्वायत्त उपभोग से ऊपर प्रेरित निवेश उपभोग प्रवृति एवं राष्ट्रीय आय के स्तर से प्रभावित होता है।
C = \(\overline{\mathrm{C}}\) + by
जहाँ C उपभोग, \(\overline{\mathrm{C}}\) स्वायत्त निवेश, b सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति, y राष्ट्रीय आय।

प्रश्न 19.
वितरण फलन को संक्षेप में समझाइए।
उत्तर:
प्रत्येक सरकार की एक राजकोषीय नीति होती है। राजकोषीय नीति के माध्यम से प्रत्येक सरकार समाज में आय के वितरण में समानता या न्याय करने की कोशिश करती है। सरकार से अधिक मात्रा में उत्पादन करते हैं और दूसरे लोगों के अतिरेक से विनिमय कर लेते हैं। दूसरे शब्दों में, इस प्रकार की अर्थव्यवस्था में स्व-उपभोग के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन नहीं करते हैं बल्कि विनिमय के लिए उत्पादन करते हैं।

प्रश्न 20.
निजी व सार्वजनिक वस्तुओं में भेद स्पष्ट करें।
उत्तर:
निजी एवं सार्वजनिक वस्तुओं में दो मुख्य अन्तर होते हैं जैसे-

  • निजी वस्तुओं का उपयोग व्यक्तिगत उपभोक्ता तक सीमित होता है लेकिन सार्वजनिक वस्तुओं का लाभ किसी विशिष्ट उपभोक्ता तक सीमित नहीं होता है, ये वस्तुएँ सभी उपभोक्ताओं को उपलब्ध होती है।
  • कोई भी उपभोक्ता जो भुगतान देना नहीं चाहता या भुगतान करने की शक्ति नहीं रखता निजी वस्तु के उपभोग से वंचित किया जा सकता है। लेकिन सार्वजनिक वस्तुओं के उपभोग से किसी को वंचित रखने का कोई तरीका नहीं होता है।

प्रश्न 21.
सार्वजनिक उत्पादन एवं सार्वजनिक बन्दोबस्त में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
सार्वजनिक बन्दोबस्त (व्यवस्था) से अभिप्राय उन व्यवस्थाओं से है जिनका वित्तीयन सरकार बजट के माध्यम से करती है। ये सभी उपभोक्ताओं को बिना प्रत्यक्ष भुगतान किए मुफ्त में प्रयोग के लिए उपलब्ध होते हैं। सार्वजनिक व्यवस्था के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन सरकार प्रत्यक्ष रूप से भी कर सकती है अथवा निजी क्षेत्र से खरीदकर भी इनकी व्यवस्था की जा सकती है।

सार्वजनिक उत्पादन से अभिप्राय उन वस्तुओं एवं सेवाओं से है जिनका उत्पादन सरकार द्वारा संचालित एवं प्रतिबंधित होता है। इसमें निजी या विदेशी क्षेत्र की वस्तुओं को शामिल नहीं किया जाता है। इस प्रकार सार्वजनिक व्यवस्था की अवधारणा सार्वजनिक उत्पादन से भिन्न है।

प्रश्न 22.
राजकोषीय नीति के प्रयोग बताएँ।
उत्तर:
General Theory of Income, Employment, Interest and Money में जे० कीन्स ने राजकोषीय नीति के निम्नलिखित प्रयोग बताएँ हैं-

  • इस नीति का प्रयोग उत्पादन-रोजगार स्थायित्व के लिए किया जा सकता है। व्यय एवं कर नीति में परिवर्तन के द्वारा सरकार उत्पादन एवं रोजगार में स्थायित्व पैदा कर सकती है।
  • बजट के माध्यम से सरकार आर्थिक उच्चावचनों को ठीक कर सकती है।

प्रश्न 23.
राजस्व बजट और पूँजी बजट का अन्तर क्या है ?
उत्तर:
राजस्व बजट : सरकार की राजस्व प्राप्तियों एवं राजस्व के विवरण को राजस्व बजट कहते हैं।
राजस्व प्राप्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-
(i) कर राजस्व एवं (ii) गैर कर राजस्व।
राजस्व व्यय सरकार की सामाजिक, आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के संचालन पर किए गए खर्चों का विवरण है।

राजस्व बजट में वे मदें आती हैं जो आवृत्ति किस्म की होती हैं और इन्हें चुकाना नहीं पडता है।
राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ

पूँजी बजट : सरकार की पूँजी प्राप्तियों एवं पूँजी व्यय के विवरण को पूँजी बजट कहते हैं।
पूँजी प्राप्तियाँ दो प्रकार की होती है :
(i) ऋण प्राप्तियाँ एवं (ii) गैर ऋण प्राप्तियाँ।

पूँजी व्यय सरकार की सामाजिक, आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के लिए पूँजी निर्माण पर किये गये व्यय को दर्शाता है।
पूँजी घाटा = पूँजीगत व्यय – पूँजीगत प्राप्तियाँ
पूँजीगत राजस्व सरकार के दायित्वों को बढ़ाता व पूँजीगत व्यय से परिसंपत्तियों का अर्जन होता है।

प्रश्न 24.
सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण करें।
उत्तर:
सार्वजनिक व्यय का तीन वर्गों में बाँटते हैं-
(i) राजस्व व्यय एवं पूँजीगत व्यय- राजस्व व्यय सरकार की सामाजिक आर्थिक एवं सामान्य गतिविधियों के संचालन पर किया गया व्यय होता है। इस व्यय से परिसंपत्तियों का निर्माण नहीं होता है।

पूँजीगत व्यय भूमि, यंत्र-संयंत्र आदि पर किया गया निवेश होता है। इस व्यय से परिसंपत्तियों का निर्माण होता है।

(ii) योजना व्यय एवं गैर योजना व्यय- योजना व्यय में तात्कालिक विकास और निवेश : ममें शामिल होती हैं। ये मदें योजना प्रस्तावों के द्वारा तय की जाती है। बाकी सभी खर्च गैर योजना व्यय होते हैं।

(iii) विकास व्यय तथा गैर विकास व्यय- विकास व्यय में रेलवे, डाक एवं दूरसंचार तथा गैर-विभागीय उद्यमों के गैर बजटीय स्रोतों से योजना व्यय, सरकार द्वारा गैर विभागीय उद्यमों एवं स्थानीय निकायों को प्रदत ऋण भी शामिल किए जाते हैं।
गैर-विकास व्यय में प्रतिरक्षा, आर्थिक अनुदान आदि भी इसी श्रेणी में आते हैं।

प्रश्न 25.
खुली अर्थव्यवस्था के दो बुरे प्रभाव बताइए।
उत्तर:
खुली अर्थव्यवस्था के दो बुरे प्रभाव निम्नलिखित हैं-

  • अर्थव्यवस्था में जितना अधिक खुलापन होता है. गुणक का मान उतना कम होता है।
  • अर्थव्यवस्था जितनी ज्यादा खुली होती है व्यापार शेष उतना ज्यादा घाटे वाला होता है।

खुली अर्थव्यवस्था में सरकारी व्यय में वृद्धि व्यापार शेष घाटे को जन्म देती है। खुली अर्थव्यवस्था में व्यय गुणक का प्रभाव उत्पाद व आय पर कम होता है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था का अधिक खुलापन अर्थव्यवस्था के लिए कम लाभप्रद या कम आकर्षक होता है।

प्रश्न 26.
विदेशी मदा की पर्ति को समझाइए।
उत्तर:
एक लेखा वर्ष की अवधि में एक देश को समस्त लेनदारियों के बदले जितनी मुद्रा प्राप्त होती है उसे विदेशी मुद्रा की पूर्ति कहते हैं।

विदेशी विनिमय की पूर्ति को निम्नलिखित बातें प्रभावित करती हैं-

  • निर्यात दृश्य व अदृश्य सभी मदें शामिल की जाती हैं।
  • विदेशों द्वारा उस देश में निवेश।
  • विदेशों से प्राप्त हस्तांतरण भुगतान।

विदेशी विनिमय की दर तथा आपूर्ति में सीधा संबंध होता है। ऊँची विनिमय दर पर विदेशी मुद्रा की अधिक आपूर्ति होती है।

प्रश्न 27.
विस्तृत सीमा पट्टी व्यवस्था पर चर्चा करें।
उत्तर:
विस्तृत सीमा पट्टी व्यवस्था में देश की सरकार अपनी मुद्रा की विनिमय दर की घोषणा करती है। परन्तु इस व्यवस्था में स्थिर घोषित विनिमय दर के दोनों ओर 10 प्रतिशत उतार-चढ़ाव मान्य होने चाहिए। इससे सदस्य देश अपने भुगतान शेष के समजन का काम आसानी से कर सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी देश का भुगतान शेष घाटे का है तो इस समस्या से छुटकारा पाने के लिए उस देश को अपनी मुद्रा की दर 10 प्रतिशत तक घटाने की छूट होनी चाहिए। मुद्रा की दर कम होने पर दूसरे देशों के लिए उस देश की वस्तुएँ एवं सेवाएँ सस्ती हो जाती हैं जिससे विदेशों में उस देश की वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है और उस देश को विदेशी मुद्रा पहले से ज्यादा प्राप्त होती है।

प्रश्न 28.
चालू खाते व पूँजीगत खाते में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
चालू खाते व पूँजीगत खाते में निम्नलिखित अंतर है-
चालू खाता:

  1. भुगतान शेष के चालू खाते में वस्तुओं व सेवाओं के निर्यात व आयात शामिल करते हैं।
  2. भुगतान शेष के चालू खाते के शेष का एक देश की आय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। यदि किसी देश का चालू खाते का शेष उस देश के पक्ष में होता है तो उस देश की राष्ट्रीय आय बढ़ती है।

पूँजी खाता:

  1. भुगतान शेष के पूँजी खातों में विदेशी ऋणों का लेन-देन, ऋणों का भुगतान व प्राप्तियाँ, बैकिंग पूँजी प्रवाह आदि को दर्शाती है।
  2. भुगतान शेष का देश की राष्ट्रीय आय का प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ता है ये केवल परिसम्पतियों की मात्रा को दर्शाते हैं।

प्रश्न 29.
भुगतान शेष की संरचना के पूँजी खाते को समझाएँ।
उत्तर:
पूँजी खातों में दीर्घकालीन पूँजी के लेन-देन को दर्शाया जाता है। इस खाते में निजी व सरकारी पूँजी लेन-देन, बैंकिंग पूँजी प्रवाह में अन्य वित्तीय विनिमय दर्शाए जाते हैं।

पँजी खाते की मदें : इस खाते की प्रमुख मदें निम्नलिखित है-
(i) सरकारी पूँजी का विनिमय : इससे सरकार द्वारा विदेशों से लिए गए ऋण तथा विदेशों को दिए गए ऋणों के लेन-देन, ऋणों के भुगतान तथा ऋणों की स्थितियों के अलावा विदेशी मुद्रा भण्डार, केन्द्रीय बैंक के स्वर्ण भंडार विश्व मुद्रा कोष के लेन-देन आदि को दर्शाया जाता है।

(ii) बैंकिंग पंजी : बैंकिंग पूँजी प्रवाह में वाणिज्य बैंकों तथा सहकारी बैंकों की विदेशी लेनदारियों एवं देनदारियों को दर्शाया जाता है। इसमें केन्द्रीय बैंक के पूँजी प्रवाह को शामिल नहीं करते हैं।

(iii) निजी ऋण : इसमें दीर्घकालीन निजी पूँजी में विदेशी निवेश ऋण, विदेशी जमा आदि को शामिल करते हैं। प्रत्यक्ष पूँजीगत वस्तुओं का आयात व निर्यात प्रत्यक्ष रूप से विदेशी निवेश में शामिल किया जाता है।

प्रश्न 30.
वस्तु विनिमय प्रणाली क्या है ? इसकी क्या कमियाँ हैं ?
उत्तर:
वस्तु विनिमय वह प्रणाली होती है जिसमें वस्तुओं व सेवाओं का विनिमय एक-दूसरे के लिए किया जाता है उसे वस्तु विनिमय कहते हैं।

वस्तु विनिमय की निम्नलिखित कमियाँ है-

  • वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य मापन करने के लिए एक सामान्य इकाई का अभाव। इससे वस्तु विनिमय प्रणाली में लेखे की कोई सामान्य इकाई नहीं होती है।
  • दोहरे संयोग का अभाव- यह बड़ा ही विरला अवसर होगा जब एक वस्तु या सत्र के मालिक को दूसरी वस्तु या सेवा का ऐसा मालिक मिलेगा कि पहला मालिक जो देना चाहता है और बदले में लेना चाहता है दूसरा मालिक वही लेना व देना चाहता है।
  • स्थगित भुगतानों को निपटाने में कठिनाई- वस्तु विनिमय में भविष्य के निर्धारित सौदों का निपटारा करने में कठिनाई होती है। इसका मतलब है वस्तु के संबंध में, इसकी गुणवत्ता व मात्रा आदि के बारे में दोनों पक्षों में असहमति हो सकती है।
  • मूल्य में संग्रहण की कठिनाई- क्रय शक्ति के भण्डारण का कोई ठोस उपाय वस्तु विनिमय प्रणाली में नहीं होता है क्योंकि सभी वस्तुओं में समय के साथ घिसावट होती है तथा उनमें तरलता व हस्तांतरणीयता का गुण निम्न स्तर का होता है।

प्रश्न 31.
मुद्रा की सट्टा माँग और ब्याज की दर में विलोम संबंध क्यों होता है ?
उत्तर:
एक व्यक्ति भूमि, बॉण्ड्स. मुद्रा आदि के रूप में धन को धारण कर सकता है। अर्थव्यवस्था में लेन देन एवं सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग के योग मुद्रा की कुल माँग कहते हैं। सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग का ब्याज की दर के साथ उल्टा संबंध होता है। जब ब्याज की दर ऊँची होती है तब सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग कम होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि ऊँची ब्याज पर सुरक्षित आय बढ़ने की आशा हो जाती है। परिणामस्वरूप लोग सट्टा उद्देश्य के लिए जमा की गई मुद्रा की निकासी करके उसे बाँड्स में परिवर्तित करने की इच्छा करने लगता है। इसके विपरीत जब ब्याज दर घटकर न्यूनतम स्तर पर पहुँच जाती है तो लोग सट्टा उद्देश्य के लिए मद्रा की माँग असीमित रूप से बढ़ा देते हैं।

प्रश्न 32.
एकाधिकार तथा एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता में क्या अन्तर है ?
उत्तर:
एकाधिकार प्रतियोगिता तथा एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता में निम्नलिखित अंतर हैं-
एकाधिकार प्रतियोगिता:

  • एकाधिकार बाजार को उस स्थिति को प्रकट करता है जिसमें किसी वस्तु का केवल एक विक्रेता होता है संक्षेप में एकाधिकार का ऊर्जा है सभी प्रकार की प्रतियोगिता का अभाव। इस बाजार में फर्म ही उद्योग है और उद्योग ही फर्म है।

एकाधिकारात्मक प्रतियोगिता:

  • एकाधिकार प्रतियोगिता वह स्थिति है, जिसमें मिलती-जुलती वस्तुओं के विक्रेता होता है। प्रत्येक विक्रेता की वस्तु अन्य विक्रेताओं से किसी-न-किसी रूप से भिन्न-भिन्न होती है।

प्रश्न 33.
सन्तुलन कीमत तथा सन्तुलन मात्रा से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
संतुलन कीमत-संतुलन कीमत वह कीमत है जिसपर माँग तथा पूर्ति एक-दूसरे के बराबर होते हैं। या जहाँ क्रेताओं की खरीद या बिक्री एक-दूसरे के समान होती है। संतुलन मात्रा-संतुलन मात्रा वह मात्रा होती है जिसपर माँग की मात्रा तथा पूर्ति की मात्रा दोनों बराबर होती है।

प्रश्न 34.
वस्तु विनिमय प्रणाली के दोष को दूर करने में किस प्रकार सहायक होती है ?
उत्तर:
मुद्रा के प्रयोग से वस्तु विनियम की कमियाँ निम्न रूप से दूर हो जाती है-

  • विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा के प्रयोग से दोहरे संयोग को तलाशने की आवश्यकता खत्म हो जाती है। दोहरे संयोग को तलाशने में प्रयुक्त ऊर्जा व समय की बचत होती है।
  • लेखे का इकाई के रूप में मुद्रा का प्रयोग होने पर वस्तुओं व सेवाओं के मूल्य को मापने में कोई कठिनाई नहीं होती है।
  • मूल्य संचय के लिए मुद्रा के प्रयोग से धन व सम्पति संग्रह करने में कठिनाई समाप्त हो जाती है।
  • स्थगित भुगतानों का निपटारा करने में मुद्रा का प्रयोग करने से माँग गुणवता आदि के संबंध में कोई असहमति नहीं होती है।

प्रश्न 35.
अपूर्ण रोजगार तथा अति पूर्ण रोजगार सन्तुलन से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
अपूर्ण रोजगार संतुलन- अपूर्ण रोजगार की स्थिति से तात्पर्य संतुलन की उस स्थिति से है जिसमें वस्तुओं एवं सेवाओं की कुल माँग उसकी पूर्ति के बराबर नहीं होती है। इस स्थिति में सभी योग्य स्वस्थ व्यक्तियों को प्रचलित मजदूरी दर पर रोजगार के अवसर प्राप्त नहीं होते हैं।

अतिपूर्ण रोजगार संतुलन- अतिपूर्ण रोजगार की स्थिति से तात्पर्य संतुलन की उस स्थिति से है जिसमें वस्तुओं एवं सेवाओं की कुल माँग उनकी पूर्ति के बराबर होती है। इस स्थिति में सभी योग्य स्वस्थ व्यक्तियों को प्रचलित मजदूरी दर पर रोजगार के अवसर प्राप्त होते हैं।

प्रश्न 36.
निवेश गुणक तथा सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति के सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
निवेश गुणांक का सीमांत उपयोग प्रवृति (MPC) से प्रत्यक्ष संबंध है। MPS के बढ़ने पर निवेश गुणांक बढ़ता है तथा कम होने पर कम होता है।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 4

BSEB Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 4 are the best resource for students which helps in revision.

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
What is according to jaina Philosophy ? (जैनियों के द्रव्य-सम्बन्धी विचार का विवेचन प्रस्तुत करें।)
उत्तर:
जैनियों के स्याद्वाद के विवेचनोपरान्त हम पाते हैं कि वस्तुएँ अनेक गुणों से परिपूर्ण हैं। इन गुणों में कुछ स्थायी (Permanent) हैं और कुछ अस्थायी (Temporary) हैं। वस्तुओं में निरन्तर विद्यमान रहने वाले गुणों को स्थायी गुण कहा जाता है। अस्थायी गुणों के अन्तर्गत वे गुण आते हैं जो निरन्तर परिवर्तित होते रहते हैं। वस्तु के स्वरूप का निर्धारण स्थायी गुणों के द्वारा होता है इसलिए उन्हें आवश्यक गुण भी कहा जाता है।

इसके विपरीत अस्थायी गुण के अभाव में भी वस्तु की कल्पना की जा सकती है, इसलिए उन्हें अनावश्यक गुण भी कहा जाता है। चेतना मनुष्य का आवश्यक गुण है और सुख, दुख, कल्पना मनुष्य के अनावश्यक गुण हैं। इन गुणों का कुछ-न-कुछ आधार होता है और वह आधार ही ‘द्रव्य’ (Substance) कहलाता है, जैनों के अनुसार गुण ही ‘गुण’ है यथा अनावश्यक गुण को ‘पर्याय’ की संज्ञा दी गयी है। द्रव्य की परिभाषा यह कहकर दी गई है गुण पर्यायवाद द्रव्यम्। अर्थात् जिसमें गुण और पर्याय हो वही द्रव्य है।

जैनियों का द्रव्य सम्बन्धी विचार अनूठा है। साधारणतया द्रव्य को आवश्यक गुणों का आधार ही कहा जाता है। जैनों ने आवश्यक और अनावश्यक गुणों के आधार को ‘द्रव्य’ कहा है। जहाँ एक ओर वेदान्ती ब्रह्म की नित्यता पर जोर देते हैं और बौद्ध विश्व की नश्वरता एवं क्षण-भंगुरता पर जोर देते हैं, वहीं दूसरी ओर जैनों ने दोनों को एकांगी बतलाकर नित्यता और नश्वरता दोनों का समर्थन किया है।

जैनों के मतानुसार द्रव्य (Substance) के दो प्रकार हैं-

  1. अतिस्तकाय (Extended),
  2. अनास्तिकाय (Non-Extended)।

स्थान छोड़नेवाले सभी द्रव्यों को अस्तिकाय (Extended) कहा जाता है। अनास्तिकाय द्रव्य की श्रेणी में वही आते हैं जो जगह नहीं छोड़ते अर्थात् जिनमें विस्तार नहीं है। अनस्तिकाय द्रव्य एक ही है जिसे ‘काल’ कहा जाता है। काल के अतिरिक्त सभी द्रव्यों को अस्तिकाय (Extended) कहा जाता है। अस्तिकाय द्रव्यों का विभाजन दो वर्गों में होता है और वे दो वर्ग हैं-जीव और अजीव। जीव दो प्रकार के हैं बद्ध (Bond) और मुक्त (Liberted) जिन्होंने मोक्ष की प्राप्ति कर लिया है वे मुक्त जीव की श्रेणी में आ जाते हैं, बुद्धजीव दो प्रकार के होते हैं-गतिमान (Mobile) और गतिहीन (Immobile)। गतिहीन श्रेणी में एक इन्द्रियवाले जीव आते हैं। इसके उदाहरण वनस्पति के जीव हैं। गतिमान (Mobile) जीवों में दो से लेकर पाँच तक इन्द्रियाँ रहती हैं। उदाहरणस्वरूप-कीड़े, चींटी, भौरे और मनुष्य को क्रमशः दो, तीन, चार एवं पाँच इन्द्रियाँ रहती है।

‘अजीव तत्त्व’ चार प्रकार के होते हैं-धर्म, अधर्म, पुग्दल और आकाश।

1. धर्म-साधारणतः धर्म का अर्थ पुण्य होता है। परन्तु जैन दर्शन में धर्म का प्रयोग विशेष अर्थ में किया गया है। जैनों के अनुसार गति के लिए जिस सहायक वस्तु की आवश्यकता होती है उसे ‘धर्म’ कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप-मछली जल में तैरती है। मछली का तैरना जल के कारण ही सम्भव होता है। यदि जल नहीं रहे तब मछली के तैरने का प्रश्न ही नहीं उठता। उपर्युक्त उदाहरण में जल धर्म है, क्योंकि वह मछली की गति में सहायक है।

2. अधर्म-साधारणतः अधर्म का अर्थ ‘पाप'(Vice) होता है। लेकिन जैनियों के अनुसार, किसी वस्तु को स्थिर रखने में जो सहायक होता है उसे ‘अधर्म’ कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप-वृक्षों की छाया को ही अधर्म का उदाहरण कहा जा सकता है। यहाँ अधर्म धर्म का विरोधी है।

3. पुग्दल (Material Substance)-साधारणतः जिसे भूत (Matter) कहा जाता है, उसे ही जैन दर्शन में ‘पुग्दल’ की संज्ञा से विभूषित किया गया है। जैनों के मतानुसार जिसका संयोजन और . विभाजन हो सके, वही पुग्दल है। भौतिक द्रव्य ही जैनियों के अनुसार पुग्दल हैं। पुग्दल या तो अणु (Atom) के रूप में रहता है अथवा स्कन्धों (Compound) के रूप में। किसी वस्तु का विभाजन करते-करते जब हम ऐसे अंश पर पहुँचते हैं जिसका विभाजन नहीं किया जा सके तो उसे ही अणु (Atom) कहते हैं। स्कन्ध दो या दो से अधिक अणुओं के संयोजन से मिश्रित होता है पुग्दल, स्पर्श, रस, गन्ध और रूप जैसे गुणों से परिपूर्ण है। जैनियों द्वारा ‘शब्द’ को पुग्दल का गुण नहीं माना जाता है।

4. आकाश-जैन दर्शन के अनुसार जो धर्म, अधर्म, जीव और पुग्दल से अस्तिकाय द्रव्यों को स्थान देता है, उसे ही आकाश कहा गया है। आकाश का ज्ञान अनुमान से प्राप्त होता है, क्योंकि आकाश अदृश्य है। आकाश ही विस्तारयुक्त द्रव्यों को रहने के लिए स्थान देता है। आकाश दो प्रकार का होता है-‘लोकाकाश’ और अलोकाकाश’। लोकाकाश जीव, पुग्दल, धर्म एवं अधर्म का निवास स्थान है। ‘अलोकाकाश’ जगत से परे माना गया है।

अनस्तिकाय (Non-extended) द्रव्य का उदाहरण काल (Time) को माना जाता है, क्योंकि यह स्थान नहीं घेरता। द्रव्यों के परिणाम (modification) और क्रियाशीलता (Movement) की व्याख्या ‘काल’ के द्वारा ही सम्भव होती है। वस्तुओं में जो परिणाम होता है उसकी व्याख्या के लिए काल को मानना पड़ता है। गति की व्याख्या के लिए भी काल को मानना अपेक्षित है। प्राचीन, नवीन, पूर्व, पाश्चात् इत्यादि भेदों की व्याख्या काल के आधार पर ही की जा सकती है। काल दो प्रकार का होता है-(i) व्यावहारिक काल (Empricial Time), (ii) परमार्थिक काल (Transcedental Time)। व्यावहारिक काल को साधारणतः समय कहा जाता है। क्षण, प्रहर, घण्टा, मिनट इत्यादि व्यावहारिक काल के उदाहरण हैं। इसका आरम्भ और अन्त दोनों होता है। परन्तु परमार्थिक काल नित्य और अमूर्त है। इसका विभाजन सम्भव नहीं है।

प्रश्न 2.
Explain and Examine Sankhya theory of Evolution.
(सांख्य के विकासवाद की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए।)
उत्तर:
भारतीय दर्शन के अन्तर्गत विश्व सम्बन्धी मुख्यतः दो विचार प्रचलित हैं-

  1. सृष्टिवाद
  2. विकासवाद।

जिन सम्प्रदायों ने ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया है वे सृष्टिवाद के समर्थक हैं और मानते हैं कि विश्व की रचना किसी समय विशेष में ईश्वर के द्वारा की गई है जबकि जो निरीश्वरवादी हैं वे विकास के द्वारा विश्व की उत्पत्ति को मानते हैं। सांख्य चूंकि निरीश्वरवादी है इसलिए यह विश्व को क्रमिक विकास की देन मानता है। अतएव सांख्य का विश्व सम्बन्धी विचार विकासवाद का सिद्धान्त कहलाता है।

सांख्य के अनुसार विश्व का विकास प्रकृति और पुरुष के संयोग से हुआ है। जब प्रकृति पुरुष के सम्पर्क में आती है तो संसार की उत्पत्ति होती है। प्रकृति और पुरुष का संयोग उस तरह का साधारण संयोग नहीं होता जैसा कि दो भौतिक पदार्थों के मध्य होता है वरन् इसके बीच वैसा ही सम्बन्ध होता है जैसा कि विचार का प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। विश्व की उत्पत्ति के लिए प्रकृति और पुरुष का संयोग अनिवार्य है क्योंकि अकेला पुरुष सृष्टि में असमर्थ है, क्योंकि वह निष्क्रिय है। उसी प्रकार अकेली प्रकृति भी असमर्थ है क्योंकि वह जड़ है।

प्रकृति की क्रिया पुरुष के चैतन्य से निरूपित होती है तभी सृष्टि का उद्गम होता है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि पुरुष और प्रकृति एक-दूसरे से भिन्न और विरुद्ध धर्म है तो फिर उनका परस्पर सहयोग कैसे संभव है। इसके उत्तर में सांख्य एक रूपक प्रस्तुत करता है कि जिस प्रकार एक लंगड़ा और अंधा एक-दूसरे के सहयोग से जंगल पार कर सकता है उसी प्रकार जड़ प्रकृति और निष्क्रिय पुरुष ये दोनों परस्पर सहयोग से अपना कार्य सम्पादित करते हैं। प्रकृति दर्शनार्थ (ज्ञात होने के लिए) पुरुष की अपेक्षा रखती है और पुरुष कैवल्यार्थ (अपना स्वरूप पहचानने के लिये) प्रकृति की सहायता लेता है।

सृष्टि के पूर्व तीनों गुण साम्यावस्था में रहते हैं। प्रकृति और पुरुष का संयोग होने से गुणों की साम्यावस्था में विकार उत्पन्न हो जाता है जिसे गुण क्षोभ कहते हैं। पहले रजोगुण जो स्वभावतः क्रियात्मक है परिवर्तनशील होता है। तब उसके कारण और गुणों में भी स्पन्दन होने लगता है। परिणामस्वरूप प्रकृति में एक भीषण आन्दोलन उठ जाता है जिससे प्रत्येक गुण दूसरे गुणों पर अपना आधिपत्य जमाना चाहता है। क्रमशः तीनों गुणों का पृथक्करण और संयोजन होता है जिससे न्यूनाधिक अनुपातों में उनके संयोगों के फलस्वरूप नाना प्रकार के सांसारिक विषय उत्पन्न होते हैं।

सांख्य के अनुसार सृष्टि के प्रारम्भ में सर्वप्रथम “महत” या बुद्धि का प्रादुर्भाव होता है। यह प्रकृति का प्रथम विकार है। बाह्य जगत की दृष्टि से यह विराट बीज स्वरूप है अतः यह तत्व कहलाता है। आभ्यंतरिक दृष्टि से यह बुद्धि है जो जीवों में विद्यमान रहती है। बुद्धि के विशेष कार्य हैं निश्चय और अवधारणा। बुद्धि के द्वारा ही ज्ञाता और ज्ञेय के अन्तर को जाना जा सकता है। बुद्धि का उदय सत्य गुण की अधिकता से होता है।

इसका स्वाभाविक धर्म है स्वतः अपने को तथा दूसरी वस्तुओं को प्रकाशित करना। इसके मुख्य गुण-धर्म, ज्ञान वैराग्य और ऐश्वर्य हैं। ये चारों सात्विक बुद्धि के लक्षण हैं। जब बुद्धि पर तमोगुण का प्रभाव रहता है तब इसके लक्षण हो जाते हैं अधर्म, आसक्ति और अनैश्वर्य। बुद्धि प्रकृति के अन्य सभी विकारों से अधिक सूक्ष्म है। इसी से विश्व का विकास प्रारम्भ होता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि सांख्य के अनुसार विकास क्रिया सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है।

विकास क्रम में बुद्धि के पश्चात् दूसरा अंहकार तत्व का उदय होता है। मैं और मेरा की भावना ही अहंकार है। इसी के कारण पुरुष अपने को कर्ता कामी (इच्छा करने वाला और स्वामी ‘अधिकारी’) मान लेता है। अहंकारवश ही पुरुष अपना स्वरूप भूलकर सांसारिक विषयों में आसक्त हो जाता है। अहंकार के तीन प्रकार होते हैं-

  1. सात्विक
  2. राजस और
  3. तामस। सात्विक अहंकार में सत्वगुण की प्रधानता रहती है, राजस में रजोगुण की और तामस में तमोगुण की प्रधानता रहती है।

सात्विक अहंकार से एकादश इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है। तामस अहंकार पंचतंत्रताओं को उत्पन्न करता है। राजस अहंकार गतिशील होने के कारण अन्य दोनों अहंकारों की मदद करता है और स्वयं कोई विकार उत्पन्न नहीं करता।

एकादश- इन्द्रियाँ अत्यन्त सूक्ष्म होती हैं। इनका प्रत्यक्ष ज्ञान संभव नहीं होता है। अनुमान के आधार पर इनके विषय में जानकारी प्राप्त होती है। आँख, नाक, कान इत्यादि वस्तुत: इन्द्रिय न होकर इन्द्रियों के निवास स्थान हैं। एकादश इन्द्रियों के अन्तर्गत पंचकर्मेन्द्रियों, पंचज्ञानेन्द्रियाँ और मन को सम्मिलित किया गया है। पाँच कर्मेन्द्रियाँ हाथ, पैर, मुख, मलद्वार तथा जननेन्द्रिय में स्थित हैं। ये क्रमशः पकड़ने, चलने-फिरने, बोलने, मलमूत्र त्याग करने तथा सन्तानोत्पत्ति का कार्य करती है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ के अन्तर्गत चक्षु, श्रवणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। मन या मन से आन्तरिक इन्द्रिय है। यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्य करता है। ज्ञानेन्द्रियों एवं कर्मेन्द्रियों से काम लेना इसी का काम है। इन्द्रियों द्वारा प्रस्तुत संवेदना में अर्थ जोड़ना “मन” का कार्य है।

बुद्धि, अहंकार और गुण, क्षोभ को अन्तःकरण कहते हैं। अन्त:करण मुख्यत: दो कार्य करता है-(क) प्राणदायक क्रियाओं (जैसे रक्तचाप, सांस आदि) का संचालन करता है और (ख) इन्द्रियों द्वारा प्राप्त संवेदनाओं का अर्थ लगाकर उनके अनुसार कार्यक्रम निर्धारित करता है। पाँच कर्मेन्द्रियों और पाँच ज्ञानेन्द्रियों को मिलाकर बाह्यकरण होता है। बाह्यकरण और अन्त:करण के संयुक्त रूप को त्रयोदशकरण कहा जाता है। त्रयोदशकरण का अर्थ तेरह साधन है।

पंचतन्मात्राएँ- तामसिक अहंकार से पंचतन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं। ये अत्यधिक सूक्ष्म होने के कारणं केवल योगियों द्वारा ही प्रत्यक्ष रूप से जाने जाते हैं। तन्यमात्राएँ पाँच प्रकार की होती हैं-

  1. रूपतन्मात्रा-यह रंग रूप का सार (essence) है।
  2. गन्धतन्मात्रा-यह गन्ध का सूक्ष्म रूप है।
  3. स्पर्शतन्मात्रा-यह स्पर्श का सार है।
  4. शब्दतन्मात्रा-यह शब्द एवं आवाज का सूक्ष्म रूप है।
  5. रसतन्मात्रा-यह रस या स्वाद का सार है।

पंचमहाभूत- पंचतन्मात्रा के द्वारा पंचमहाभूत का विकास होता है। जहाँ “तन्मात्रा” अत्यन्त सूक्ष्म होती है वहीं “महाभूत” स्थूल होते हैं। तन्मात्रा से महाभूत का आविर्भाव इस प्रकार से होता है-शब्दतन्मात्रा से आकाश नामक महाभूत उत्पन्न होता है। शब्द और स्पर्श तन्मात्रों के योग से “वायु” नामक महाभूत उत्पन्न होता है। शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्राओं से “अग्नि” तथा “तेज” उत्पन्न होता है। पुनः शब्द, स्पर्श, रूप और रस तन्मात्राएँ जल को उत्पन्न करती हैं। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध तन्मात्राओं से पृथ्वी उत्पन्न होती है।

शब्द (तन्मात्रा) = आकाश (महाभूत)
शब्द + स्पर्श (तन्मात्रा) = वायु (महाभूत)
शब्द (तन्मात्रा) + स्पर्श (तन्मात्रा) + रूप (तन्मात्रा) = अग्नि (महाभूत)
शब्द (तन्मात्रा) + स्पर्श (तन्मात्रा) + रूप (तन्मात्रा) + रस (तन्मात्रा) = जल (महाभूत)
शब्द (तन्मात्रा) + स्पर्श (तन्मात्रा) + रूप (तन्मात्रा) + रस (तन्मात्रा) + गन्ध (तन्मात्रा) = पृथ्वी।
इस प्रकार स्पष्ट है कि पञ्चतन्मात्राएँ-शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध। इनसे पंचमहाभूत की उत्पत्ति होती है।

प्रकृतेर्महांस्ततोऽहंकारस्तस्माद गणश्च षोडशकः।
तस्मादपि षोऽशकात्यञ्चम्यः पञ्चभूतानि।। (सांख्यकारिका)

अतएव सांख्य दर्शन के विकासवाद की व्याख्या एक तालिका के द्वारा की जाए तो उसे निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है।
Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 4 1
उपर्युक्त तालिका से स्पष्ट है कि सांख्य का विकासवाद चौबीस तत्वों का खेल है। अगर इन तत्वों में पुरुष को भी जोड़ दिया जाए तो कुल मिलाकर पच्चीस तत्व हो जाते हैं। इसमें विकास का प्रारम्भ सूक्ष्म से स्थूल की ओर बढ़ता है और अन्त में पंचमहाभूतों पर आकर रुक जाता है। विश्व के विभिन्न पदार्थ पंचमहाभूत से विकसित नहीं होते बल्कि संयोग से निर्मित होते हैं। पंचमहाभूत से विश्व की वस्तुएँ बनती हैं और पुनः नष्ट होकर इन्हीं पंचमहाभूतों में विलीन हो जाती हैं।

इस सम्पूर्ण खेल में पुरुष केवल देखने वाला या दृष्टा है, वह न तो किसी का कार्य है और न कारण। प्रकृति केवल कारण है, कार्य नहीं। महत् (बुद्धि), अहंकार और तन्मात्राएँ कार्य और कारण दोनों हैं। पञ्चमहाभूत आदि केवल कार्य हैं कारण नहीं।

मूल प्रकृतिरवि कृतिर्मह्याधाः प्रकृतिविकृतयः।
षोऽशकस्तु विकारो न प्रकृतिनं विकृतिपुरुषः।। (सांख्यकारिका)

विकास का स्वरूप-सांख्य के अनुसार यह विकासवाद सोद्देश्य या सप्रयोजन है। इसमें दो प्रयोजन सिद्ध होते हैं-(क) प्रकृति अपने विकसित रूप का दर्शन करने में समर्थ होती है। इसलिए विकास “प्रकृति के दर्शनार्थम्” कहा गया है। (ख) पुरुष विकास क्रम में मुक्ति पाना चाहता है। प्रकृति से निकले इस संसार में पुरुष महान नैतिक एवं धार्मिक कृत्यों का सम्पादन करके मोक्ष प्राप्त कर पाता है। मोक्ष पाने के लिए यह भी आवश्यक है कि पुरुष अपने को प्रकृति एवं इसके विकारों से भिन्न समझ ले। विकास प्रक्रिया उसे इस दिशा में मदद देती है। इस प्रकार विकासवाद प्रयोजनपूर्ण माना गया है।

पुनः सांख्य का विकासवाद ‘अचेतन प्रयोजनवाद’ का समर्थन करता है। विकास प्रकृति का होता है जो कि जड़ है। अतः इस विकास की प्रक्रिया को अचेतन प्रयोजनवाद कहा जाता है । यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि अगर प्रकृति अचेतन है तो किस प्रकार वह चेतन पुरुष के प्रयोजन को पूर्ण करती है ? इसके उत्तर में सांख्य एक रूपक प्रस्तुत करता है कि बछड़े के मुँह में गाय के स्तन का दूध स्वाभाविक एवं अचेतन रूप से प्रवाहित होने लगता है। इस अचेतन दुग्ध-प्रवाह का भी एक लक्ष्य है और वह है बछड़े का पालन-पोषण।

वत्स विवृद्धिनिमित्तं क्षीरस्य यथा प्रवृत्तिरज्ञस्य।
पुरुष विमोक्षनिमित्तं तथा प्रवृत्ति; प्रधानस्य।।

इस प्रकार सांख्य के विकासवाद को अचेतन प्रयोजनवाद का सुन्दर उदाहरण मानना संगत होगा।

सांख्य विकासवाद की विशेषताएँ-

1. सर्वप्रथम सांख्य का विकासवाद सभी सांसारिक वस्तुओं की सृष्टि नहीं स्वीकार करता वरन् आविर्भाव स्वीकार करता है। इसके अनुसार मूल प्रकृति से ही सभी वस्तुओं का आविर्भाव हुआ है अर्थात् इस संसार की सभी वस्तुएँ अव्यक्त रूप में प्रकृति में विद्यमान रहती हैं। सृष्टि से आशय है इन अव्यक्त वस्तुओं का आविर्भाव होना।

2. सांख्य का विकासवाद प्रयोजन या सोद्देश्य है। सांख्य के अनुसार जगत के विकास का मूल कारण प्रकृति और पुरुष का स्वार्थ या प्रयोजन है। प्रकृति को पुरुष की आवश्यकता भोग के लिए है और पुरुष को प्रकृति की आवश्यकता मोक्ष के लिए है। अतः भोग और कैवल्य के लिए प्रकृति और पुरुष का संयोग होता है तथा इस संयोग से जगत का विकास होता है । अतः सांख्य प्रयोजन विकासवाद को स्वीकार करता है।

3. सांख्य का विकास चक्रक है सीधी रेखा में नहीं। सांख्य के अनुसार आविर्भाव और . तिरोभाव, सृष्टि और प्रलय का अनवरत चक्र चलता रहता है।

4. सांख्य के विकासवाद की चौथी विशेषता यह है कि इस विकास प्रक्रिया में सूक्ष्म से स्थूल की ओर गति है। बुद्धि या महत् सबसे सूक्ष्म है तथा पंचमहाभूत सबसे स्थूल।

आलोचना-1.
सांख्य दर्शन वस्तुवाद और व्यक्तिवाद-प्रकृति और पुरुष का प्रतिपादन करता है। यह प्रकृति और पुरुष इन दो तत्वों के सहारे जगत की उत्पत्ति सिद्ध करता है। समस्त जगत इन्हीं दो वस्तुओं का खेल है। प्रकृति भौतिक संसार का मूल कारण है अर्थात् संसार का उपादान और निमित्त कारण है। यद्यपि यह अचेतन है तथापि सक्रिय होकर शृंखलापूर्ण एवं नियंत्रित जगत का निर्माण करता है। यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि आखिर यह संभव कैसे है ? अपने निश्चित ध्येय तक कैसे पहुँचता है ? इसके उत्तर में सांख्य का कहना है कि प्रकृति की साम्यावस्था में पुरुष की उपस्थिति से क्षोभ उत्पन्न होता है। पुनः यहाँ प्रश्न उठता है कि अगर पुरुष चेतन निष्क्रिय एवं अपरिणामी है तो उसकी उपस्थिति में क्षोभ क्यों उत्पन्न होता है ? इसका उत्तर दर्शनशास्त्र की मुख्य समस्या का संतोषप्रद समाधान नहीं माना जा सकता है।

2. विकृतियों के क्रम का युक्तिपूर्ण आधार नहीं- तत्व या तर्क की दृष्टि से सांख्य विकासवाद में प्रकृति के आविर्भाव का क्रम आवश्यक नहीं प्रतीत होता। “द्वैतपरक यथार्थवाद मिथ्या तत्व विज्ञान का परिणाम है।” सांख्य द्वारा प्रस्तुत विकास के विवरण की ठीक-ठीक सार्थकता को समझना कठिन है। और हमें कोई सन्तोषजनक व्याख्या इस विषय में नहीं दिखाई दी कि विकास में जो विभिन्न ढंग हैं वे ऐसे क्यों हैं। विज्ञान भिक्षु ने इस दोष को जानकर ही ‘अत्र प्रकृतेर्महान महतोऽहंकार इत्यादि सृष्टिक्रम शास्त्रमेव प्रमाणन्” कहकर हमें सांख्य के विकास विषयक विवरण को शास्त्र के प्रमाण के आधार पर ही स्वीकार करने की सम्मति दी है।

3. प्रकृति और दुरुष सम्बन्धी उपमा नितान्त असफल-सांख्य दार्शनिकों ने विकासवाद की व्याख्या करने के क्रम में सबसे पहले यह दर्शाया है कि प्रकृति और पुरुष एक-दूसरे से नितान्त विरुद्धधर्मी होते हुए भी एक साथ मिलकर विकास प्रक्रिया में भाग लेता है। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिए वे एक अंधा और लंगड़ा के रूपक का सहारा लेते हैं जबकि जहाँ पुरुष और प्रकृति . दोनों क्रमशः चेतन, निष्क्रिय और जड़ सक्रिय है वहीं अंधा और पंगु दोनों चेतन प्राणी है। ऐसे में पुरुष और प्रकृति की तुलना उनसे करना कहाँ तक सार्थक प्रतीत होगा।

पुनः सांख्य के अनुसार विकास प्रकृति का ही होता है जो कि सप्रयोजन, सोद्देश्य है। इसके दो उद्देश्य हैं-

1. प्रकृति को आत्म प्रदर्शन का अवसर मिलना और

2. पुरुष के लिए मोक्ष का मार्ग – प्रशस्त करना। यहाँ प्रश्न उठता है कि अचेतन प्रकृति कैसे इन लक्ष्यों के लिए क्रियाशील होती है।सांख्य यहाँ अचेतन प्रयोजनवाद का सिद्धान्त देता है। इसके लिए यहाँ बछड़े द्वारा गाय के स्तन से दूध ग्रहण करने का रूपक दिया गया है किन्तु इससे समस्या पर सन्तोषप्रद प्रकाश नहीं पड़ता।

प्रश्न 3.
Explain briefly the sixteen padarthas according to the Nyaya Philosophy.
(न्याय दर्शन के अनुसार सोलह पदार्थों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।)
उत्तर:
न्याय दर्शन में ज्ञान को मोक्ष प्राप्ति का साधन माना गया है। इसके लिए सम्पूर्ण जीवन, जगत एवं वातावरण सभी पदार्थों का सम्यक् ज्ञान अनिवार्य है। विश्व में यद्यपि अनगिनत पदार्थ हैं किन्तु मौलिक रूप से न्याय दर्शन में सोलह पदार्थों का वर्णन मिलता है। वे पदार्थ इस प्रकार से है-

  1. प्रमाण,
  2. प्रमेय,
  3. संशय,
  4. प्रयोजन,
  5. दृष्टान्त,
  6. सिद्धान्त,
  7. अवयव,
  8. तर्क, .
  9. निर्णय,
  10. वाद,
  11. जल्प,
  12. वितण्डा,
  13. हेत्वाभास,
  14. छल,
  15. जाति एवं
  16. निग्राह स्थान।

1. प्रमाण-किसी विषय के यर्थात् ज्ञान अर्थात् प्रमा की प्राप्ति के साधन को प्रमाण कहा जाता है। न्याय दर्शन में प्रमाण पर अत्यधिक बल दिया गया है। यही कारण है कि कभी-कभी न्याय शास्त्र को प्रमाण शास्त्र भी कहा जाता है। न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतम ने चार प्रमाण को स्वीकार किया है-प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान। बाद के नैयायिकों ने अथोपति और अनुपलब्धि की भी प्रमाण के अन्तर्गत चर्चा की है।

2. प्रमेय-प्रमाण के द्वारा जिस विषय का ज्ञान होता है उसे प्रमेय कहते हैं अर्थात् यथार्थ ज्ञान के विषय को प्रमेय कहा है। न्याय दर्शन ने 12 प्रमेयों को स्वीकार किया है-

आत्माशरीरेन्द्रियथार्थ बुद्धि मनः प्रवृति दोष
प्रेत्यभाव फल दुःखपवर्गास्त प्रमेयय।

  • आत्मा-इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख-दुख एवं ज्ञान लक्षणों से युक्त पदार्थ को आत्मा कहा गया है।
  • शरीर-जो इन्द्रिय और क्रियाओं का आश्रय तथा भौतिक होता है।
  • इन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, जिह्वा एवं त्वचाएँ पाँच इन्द्रियाँ कहलाती हैं।
  • अर्थ-पाँच इन्द्रियों के पाँच अर्थ हैं जैसे-आँख का रूप, नाक का गंध, कान का शब्द जिह्वा का स्वाद एवं त्वचा का स्पर्श।
  • बुद्धि-न्याय दर्शन में बुद्धि, लब्धि एवं ज्ञान इन तीनों को एक ही अर्थ में स्वीकार किया गया है।
  • मन-मन अणु होता है इसलिए एक शरीर में एक ही मन रहने से वह एक समय में एक ही ज्ञान ग्रहण करता है। यह मन का लक्षण है।
  • प्रवृत्ति-मन, इन्द्रिय और शरीर को काम में लगाना प्रवृत्ति कहलाती है।
  • दोष-प्रवृत्ति के कारण को दोष कहते हैं, जैसे राग द्वेष, भोर इत्यादि सभी प्रवृत्तियों के मूल हैं।
  • प्रेत्यभाव-हमारे अच्छे-बुरे कर्मों के फलस्वरूप होने वाले पुनर्जन्म को प्रेत्यभाव कहते हैं।
  • फल-प्रवृत्ति और दोष से उत्पन्न जो सुख और दुःख का ज्ञान है वही फल कहलाता है।
  • दुख-स्वतंत्रता का न होना तथा विकल्प का होना दुःख कहलाता है।
  • अपर्का-दुःखों से अत्यान्तिक निवृत्ति अपर्का कहलाता है।

3. संशय-“समानानेक: धर्मोपर्विप्रतिपत्ते रूपलब्ध्यनुलब्ध व्यवस्थातश्च विशेषापेक्षो विमर्शः संशयः।” अर्थात् जहाँ सामान्य गुण तो उपलब्ध हो किन्तु विशेष के सम्बन्ध में एक ही साथ दो अलग-अलग विचार हों तो वह संशय कहलाता है। दूसरे अर्थ में मन की अनिश्चित अवस्था ही
संशय है, जैसे दूर किसी पक्षी को उड़ता देखकर अगर यह लगे कि चाहे तो यह कौआ है या कबूतर तो यह संशय की अवस्था है।

4. प्रयोजन प्रत्येक व्यक्ति कोई न कोई कार्य किसी खास उद्देश्य से करता है। जिस विषय के लिए कार्य में प्रवृत्ति होती है उसे प्रयोजन कहते हैं।

5. दृष्टान्त-जिसे देखकर किसी बात का निर्णय कर लिया जाए उसे दृष्टान्त कहते हैं। जब वादी और प्रतिवादी किसी वाद-विवाद में उलझ जाए तो फिर ऐसी अवस्था में निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए दृष्टान्त की सहायता ली जाती है।

6. सिद्धान्त-पूर्वस्थापित निर्णय को ही सिद्धान्त कहा जाता है। प्रमाण द्वारा अन्तिम रूप से सिद्ध या प्रमाणित विषय ही सिद्धान्त कहा जा सकता है। न्याय दर्शन में तीन प्रकार के सिद्धान्त को माना गया है।

  • तंत्र सिद्धान्त
  • अधिकरण सिद्धान्त तथा
  • अभ्युपगम सिद्धान्त।

7. अवयव अवयव अनुमान के उन पाँच वाक्यों को कहते हैं जिनके द्वारा किसी मत या सिद्धान्त को सिद्ध किया जाता है। वे पाँच अवयव है-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन।

8. तर्क-‘व्याज्य के आधार पर व्यापक को प्रमाणित करना ही तर्क है। जैसे-किसी स्थान पर धुएँ को पाकर वहाँ अग्नि की उपस्थिति को सिद्ध करना तर्क है।

9. निर्णय-किसी विषय के सम्बन्ध में भ्रम या संशय उत्पन्न होने पर हम विषय के पक्ष और विपक्ष में दिए गए तर्कों पर विचार करने के बाद जिस निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचते हैं इसे ही निर्णय कहते हैं। न्याय शास्त्र में निर्णय को अग्रांकित प्रकार से स्पष्ट किया गया है-

विमृश्य पक्षप्रतिपमक्षाभ्यामर्थावधारणं निर्णयः “अर्थात् किसी विषय के पक्ष और विपक्ष दोनों की युक्तियों पर विचार करके ही उसे धारण करना निर्णय है। जैसे-अंधकार होने पर जमीन पर पड़ी किसी वस्तु को देखकर यह संशय हो कि यह रस्सी है या साँप तो, जमीन पर पड़ी हुई वस्तु पर प्रकाश डालकर हम जब इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह रस्सी है तो यह निर्णय कहलाएगा।

10. वाद-“प्रमाण तर्क साधनोपालम्भः सिद्धान्ता विरुद्ध पंचावयवयोपषन्नः पक्ष प्रतिपक्ष . परिग्रही वादः” अर्थात् एक पदार्थ के विरोधी धर्मों को लेकर प्रमाण, तर्क, साधन और अशुद्धियों को दिखाने से तत्व के विरुद्ध न होकर पक्ष और प्रतिपक्ष को अनुमान के पंच अवयवों के साथ प्रश्नोत्तर करना वाद कहलाता है। इस प्रकार वाद एक प्रकार का विचार-विमर्श है, जिसका लक्ष्य सत्य की परीक्षा और प्राप्ति करना है।

11. जल्प-ऐसा वाद-विवाद जिसका उद्देश्य सत्य और असत्य का निर्धारण करना न होकर मात्र जय-पराजय होता है तो उसे जल्प कहते हैं। इसमें विजय प्राप्ति के लिए छल-छद्म आदि कुतर्कों का सहारा लिया जाता है।

12. वितण्डा-जिस वाद-विवाद में जल्प करनेवाला उसके पक्ष को प्रमाणित करना छोड़कर विपक्ष का खण्डन करना ही अपना मुख्य लक्ष्य बनाए रखता है तो ऐसे वाद-विवाद को वितण्डा कहते हैं। जहाँ “वाद” उच्च कोटि का शास्त्रार्थ है वही जल्प तथा वितण्डा निम्न कोटि के वाद-विवाद के रूप हैं। नैयायिक सत्यप्राप्ति के लिए बाद का सहारा लेते हैं जबकि नास्तिकों और मूल् का मुँह बन्द करने के लिए जल्प और वितण्डा का सहारा लेते हैं।

13. हेत्वाभास हेत्वाभास का शाब्दिक अर्थ होता है “हेतु का आभास” अर्थात् अवास्तविक हेतु का वास्तविक हेतु जैसा दीख पड़ना। इसके पाँच प्रकार है-सत्याभिचार, विरुद्ध, प्रकरणसम साध्यसम तथा कालातीत।

14. छल-प्रतिवादी के कथन का अर्थ बदलकर इसे परास्त करने का प्रयत्न करना ही छल है। एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। वक्ता के शब्दों का अपने मन के अनुसार अर्थ लगा देने से वक्ता पराजित हो जाता है। यही छल है। छल तीन प्रकार के होते हैं-

  • वाक्छल
  • सामान्य छल और
  • उपचार छल।

15. जाति-न्याय दर्शन में जाति को एक विशेष अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। असंगत उपमान के द्वारा अपनी बात को सिद्ध करना जाति है। यहाँ व्याप्ति सम्बन्ध के अभाव में केवल समानता और असमानता के आधार पर कोई दोष दिखलाया जाता है।

16. निग्रह स्थान-निग्रह स्थान का शाब्दिक अर्थ है पराजय या तिरस्कार का स्थान । साधारणतः अज्ञान या असंगत ज्ञान के कारण यह दोष होता है।

प्रश्न 4.
Explain the Nature of Anuman or Inference according to the Nyaya. (न्याय के अनुसार अनुमान के स्वरूप की व्याख्या करें।)
उत्तर:
साधारणतः प्रत्यक्ष के पश्चात् आनेवाला ज्ञान अनुमान कहलाता है। इसलिए गौतम अनुमान को तत्पूर्वकम् कहते हैं। वात्स्यायन के अनुसार प्रत्यक्ष के साथ-साथ आगम् (शब्द) पर भी आधारित है। किसी पर्वत पर धुआँ को देखकर समझते हैं कि उस पर आग है। धुआँ को देखना प्रत्यक्ष है। आग का जानना अनुमान। अतः अनुमान प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर जाने की एक मानसिक प्रक्रिया है। आगम द्वारा आत्मा की अमरता का ज्ञान होता है, इसके बाद हम अनुमान करते हैं कि आत्मा का स्वरूप निरंवयव है। अतएव अनुमान का तात्पर्य है-एक वस्तु की किसी विशेषता को जानकर उसकी दूसरी विशेषता का जान लेना अथवा एक घटना से दूसरी घटना को देख लेना। इसलिए अनुमान का प्रयोगात्मक पद “अन्वीक्षा” है। अन्वीक्षा का अर्थ है-अनुत्वीक्षे + ईक्षा (देखना)।

अनुमान के मुख्यतः चार तत्व हैं-लिंग, लिंगी, पक्ष और पक्षधर्मता। जिस वस्तु का अनुमान किया जाता है उसे लिंगी या साध्य कहते हैं। लिंग का प्रत्यक्ष किसी स्थान विशेष में होता है। वह स्थान-विशेष पक्ष कहलाता है। पक्ष में लिंग की सत्ता को पक्ष-धर्मता कहते हैं। धुआँ लिंग है, आग लिंगी और पर्वत पक्ष है। पर्वत पर धुआँ है-यह पक्षधर्मता है।

पक्षधर्मता के साथ-साथ व्याप्ति का होना भी अनिवार्य है। वस्तुत: व्याप्ति अनुमान का प्राण है। व्याप्ति का शाब्दिक अर्थ है-वि + आप्ति, अर्थात् विशेष रूप से सम्बन्ध। जिन किन्हीं दो वस्तुओं के मध्य व्याप्ति द्वारा सम्बन्ध स्थापित होता है इनमें से एक को व्यापक और दूसरा व्याप्य कहलाता है। व्यापक उस वस्तु को कहते हैं जिसकी व्याप्ति रहती है तथा व्याप्य उस वस्तु को कहते हैं जिसमें व्याप्ति रहती है। इस तथ्य को आग तथा धुएँ के उदाहरण द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है। आग को व्यापक कहा जायेगा क्योंकि यह सदैव धुएँ के साथ रहती है। धुएँ को यहाँ व्याप्य कहा जायेगा क्योंकि धुएँ के साथ ही आग रहती है। हम कह सकते हैं कि व्याप्ति उस सम्बन्ध को कहते हैं जो हेतु और साध्य के बीच होता है। व्याप्ति ही अनुमान का आधार है। यह अनुमान प्रमाण के लिए सर्वाधिक अनिवार्य है।

व्याप्ति के अर्थ एवं महत्त्व को जानने के पश्चात् उसकी स्थापना की विधियों का उल्लेख करना भी अनिवार्य है। न्याय-प्रमाण-शास्त्र में निम्नलिखित छः विधियों द्वारा व्याप्ति की स्थापना की जाती है-

1. अन्वय-अन्वय से आशय है-एक वस्तु के भाव से दूसरी वस्तु का भाव होना। इसका मुख्य उदाहरण है-जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग है।

2. व्यतिरेक- व्यतिरेक से आशय है-किसी एक वस्तु के अभाव से किसी दूसरी वस्तु का अभाव होना। उदाहरण के लिए.-जहाँ-जहाँ आग नहीं है, वहाँ-वहाँ धुआँ भी नहीं है।

3. व्याभिचाराग्रह- व्याभिचाराग्रह का आशय है-दो वस्तुओं के मध्य व्यभिचार का अभाव। व्यभिचार के अभाव से भी व्याप्ति सम्बन्धैं निश्चित होता है। हम देखते हैं कि धुएँ के साथ सदैव आग रहती है तथा ऐसा कभी नहीं देखा गया कि कहीं धुआँ हो परन्तु आग न हो। इस अत्याघातक अनुभव के आधार पर निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ आग होती है।

4. उपाधिनिरास-न्याय-प्रमाण-शास्त्र के अनुसार व्याप्ति सम्बन्ध के लिए अनोपाधिक सम्बन्ध का विद्यमान होना अनिवार्य है। यदि यह सम्बन्ध किसी उपाधि पर निर्भर हो तो व्याप्ति सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता। “जैसे-जहाँ-जहाँ धुआँ है वहाँ-वहाँ आग है” वास्तव में धुएँ तथा. आग में अनौपाधिक सम्बन्ध है जबकि आग और धुएँ में सौपाधिक सम्बन्ध है।

5. तर्क-व्याप्ति की स्थापना तर्क द्वारा भी की गयी है। सामान्य रूप से व्याप्ति का निर्धारण अनुभव के आधार पर किया जाता है परन्तु अनुभव केवल वर्तमान तक ही सीमित होता है। ऐसी अवस्था में कोई आक्षेप लग सकता है कि क्या मालूम भविष्य में धुएँ के साथ अनिवार्य रूप से आग हो ? इस समस्या के समाधान के लिए न्याय-प्रमाण-शास्त्र में तर्क द्वारा व्याप्ति स्थापित करने का विधान है। नैयायिकों का कहना है कि यदि इस बात को हम असत्य मान लें कि समस्त धूमयुक्त पदार्थ अग्नियुक्त है। तब इसका विरोधपूर्ण विरोध कथन सत्य होना चाहिए परन्तु ऐसा नहीं होता है। इस प्रकार यह कहना उचित होगा कि सभी धूमयुक्त पदार्थ अग्नियुक्त है अर्थात् धुएँ तथा अग्नि में व्याप्ति है।

6. सामान्य लक्षण-प्रत्यक्ष-व्याप्ति सम्बन्ध को स्थापित करने के लिए न्याय-प्रमाण-शास्त्र में सामान्य-लक्षण-प्रत्यय को भी आधार बनाया गया है। सामान्य-लक्षण-प्रत्यय के किसी एक वस्तु या व्यक्ति के प्रत्यक्ष के आधार पर सम्बन्धित जाति का प्रत्यक्ष कर लिया जाता है। एक मनुष्य के प्रत्यक्ष द्वारा सम्पूर्ण मनुष्य जाति का प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है।

न्याय-प्रमाण-शास्त्र में अनुमान के विभिन्न प्रकार स्वीकार किये गये हैं तथा अनुमान के प्रकारों का वर्गीकरण भी भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण से किया गया है। यह वर्गीकरण मुख्य रूप से तीन दृष्टिकोणों से किया गया है-

  • प्रयोजन के अनुसार,
  • प्राचीन न्याय या गौतम के अनुसार और
  • नव्य न्याय के अनुसार।

(i) प्रयोजन के अनुसार अनुमान के प्रकार-प्रयोजन के अनुसार अनुमान के दो प्रकार होते हैं-(क) स्वार्थानुमान और (ख) परार्थानुमान। अनुमान दो उद्देश्यों से किया जा सकता है-अपनी शंका के समाधान के लिए या दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने के लिए। जब अनुमान अपनी शंका के समाधान के लिए किया जाता है तब उसे स्वार्थानुमान कहते हैं। ऐसे अनुमान में तीन वाक्य रहते हैं-निगमन हेतु और व्याप्ति वाक्य।

उदाहरण-राम मरणशील है-निगमन
क्योंकि वह मनुष्य है-हेतु
∴ सभी मनुष्य मरणशील है-व्याप्तिवाक्य
जब अनुमान दूसरों को समझाने के लिए किया जाता है तब इसे परार्थानुमान कहते हैं। इसमें पाँच वाक्य होते हैं-प्रतिज्ञा, हेतु, व्याप्तिवाक्य, उपनय और निगमन। इसे “पंचवयव-न्याय” कहते हैं। इसके द्वारा दूसरों के सम्मुख किसी तथ्य को सिद्ध करने का प्रयास किया जाता है।

उदाहरण-

  1. राम मरणशील है-प्रतिज्ञा
  2. क्योंकि वह एक मनुष्य है-हेतु
  3. सभी मनुष्य मरणशील है, जैसे-मोहन, रहीम इत्यादि-उदाहरण
  4. राम भी एक मनुष्य है-उपनय
  5. इसलिए राम मरणशील है-निगमन

(ii) प्राचीन न्याय या गौतम के अनुसार-प्राचीन न्याय या गौतम के अनुसार अनुमान तीन प्रकार के हैं
(a) पूर्ववत अनुमान
(b) शेषवत अनुमान
(c) सामान्यतोदृष्ट अनुमान।

(a) पूर्ववत अनुमान-पूर्ववत अनुमान में पूर्ववर्ती के आधार पर अनुवर्ती का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। दूसरे शब्दों में ज्ञात कारण से अज्ञात कार्य का अनुमान करना ही पूर्ववत अनुमान कहलाता है। उदाहरण–विद्यार्थी को कड़ी मेहनत करते देखकर, उसके परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करने का अनुमान।

(b) शेषवत अनुमान-यहाँ अनुवर्ती आधार पर पूर्ववर्ती का अनुमान किया जाता है। दूसरे शब्दों में ज्ञात कार्य के अज्ञात कारण का अनुमान लगाया जाता है। उदाहरण-कहीं मलेरिया बुखार का प्रकोप देखकर वहाँ अनोफिल मच्छरों की भरमार का अनुमान।

पूर्ववत और शेषवत अनुमान कार्य-कारण सम्बन्ध पर निर्भर है। प्रथम अनुमान में कारण से कर्म का और द्वितीय अनुमान में कर्म से कारण का पता लगाया जाता है।

(c) सामान्यतोदृष्ट अनुमान-जब दो वस्तुओं में कार्य कारण सम्बन्ध न हो किन्तु दोनों में … साहचर्य सम्बन्ध पाया जाय तो एक की उपस्थिति से दूसरे की उपस्थिति का अनुमान किया जाता है। यहाँ सहचर सम्बन्ध अपवाद रहित होता है, जैसे-जीभ से पानी पीनेवाले जानवर को हमने सदैव मांसाहारी पाया है। यह सामान्यतोदृष्ट अनुमान केवल सामान्यतः साधारणतः दृष्ट (देखी गई) घटनाओं पर आधृत है।
पूर्ववत्, शेषवत और सामान्यतोदृष्ट का प्रयोग एक-दूसरे अर्थ में भी किया जाता है।

(a) पूर्ववत् अनुमान-पूर्ववत् का शाब्दिक अर्थ है-पूर्व के समान। अर्थात् जिस प्रकार अनुभव में पहले प्रमाणित हो चुका है उसी प्रकार अनुभव करना पूर्ववत् अनुमान कहलाता है। उदाहरण-अनुभव के आधार पर यह पहले ही सिद्ध हो चुका है कि जहाँ अनोफिल मच्छर हो तो वहाँ मलेरिया बुखार होगा। इसलिए अनोफिल मच्छर की उपस्थिति मलेरिया बुखार का अनुमान किया जाता है।

(b) शेषवत अनुमान-यदि विकल्पों को छाँट-छाँट कर अंत में शेष बचनेवाले विकल्प के आधार पर कोई अनुमान निकाला जाय तो इसे शेषवत अनुमान कहते हैं। शेषवत का शाब्दिक अर्थ ही है-शेष के समान। उदाहरण-हम एक-एक कर देखते हैं कि शब्द में दृव्य, कर्म सामान्य विशेष समवाय और अभाव के लक्षण नहीं पाये जाते। सात पदार्थों में केवल “गुण” बच जाता है। इसलिए हम अनुमान करते हैं कि शब्द एक गुण है। यहाँ वस्तुओं की क्रमिक निराकरण विधि द्वारा शेष का अनुमान किया जाता है। शेषवत अनुमान को “परिशेष अनुमान” भी कहते हैं।

(c) सामान्यतोदृष्ट अनुमान-कई ऐसे पदार्थ हैं जिनका प्रत्यक्ष नहीं होता। इस स्थिति में इनके लक्षणों या चिह्नों के आधार पर इनके अस्तित्व का अनुमान किया जाता है। यहाँ सामान्य नियम के आधार पर लिंग और लिंगी के बीच सम्बन्ध दिखाकर लिंगी या साध्य की सत्ता का अनुमान किया जाता है। उदाहरण-आत्मा का प्रत्यक्षीकरण नहीं होता है। किन्तु इसके कई लक्षणों या गुणों (जैसे-सुख-दुख इच्छा आदि) का प्रत्यक्ष हमें होता है। यह सामान्य नियम है कि गुण या चिह्न किसी आश्रय में ही रह सकते हैं। इस प्रकार, हम अनुमान करते हैं कि इन गुणों के आधार या आश्रय में ही रह सकते हैं। इस प्रकार हम अनुमान करते हैं कि इन गुणों के आधार या आश्रय के रूप में कोई सत्ता अवश्य है। यह सत्ता निश्चय ही आत्मा है। सामान्यतोदृष्ट को समान्यतोऽदृष्ट भी कहते हैं क्योंकि यहाँ साध्य या लिंगी सामान्यतः अदृष्ट (अप्रत्यक्ष) रहता है।

(iii) नतन्याद के अनुसार अनुमान के प्रकार-इस दृष्टिकोण से अनुमान के तीन प्रकार हैं-
(a) केवलान्वयी
(b) केवल व्यतिरेकी और
(c) अन्वय व्यतिरेकी। अनुमान के ये तीनों रूप व्याप्ति की विधि पर आधुत है।

(a) केवलान्वयी-जब केवल भावात्मक उदाहरणों के आधार पर स्थापित व्याप्ति को अनुमान का आधार बनाया जाता है तब उसे केवलान्वयी अनुमान कहते हैं। यहाँ निषेधात्मक उदाहरण नहीं लिए जाते।
उदाहरण-

  1. यह नौकर रखने योग्य है-प्रतिज्ञा
  2. क्योंकि यह नौकर ईमानदार है-हेतु
  3. और जो ईमानदार होता है उसे नौकर रखा जा सकता है। जैसे–मोहन, यदु इत्यादि।
  4. यह नौकर ईमानदार है-उपनय
  5. इसलिए यह नौकर रखने योग्य है-निगमन।

(b) केवल व्यतिरेकी-केवल व्यतिरेकी अनुमान पाश्चात्य तर्कशास्त्र की व्यतिरेक विधि से मिलता-जुलता है।

(c) अन्वय व्यतिरेकी-कभी-कभी व्याप्ति की स्थापना अन्वय और व्यतिरेक दोनों विधियों की मदद से होती है। अन्वय विधि में भावात्मक उदाहरणों के आधार पर व्याप्ति या सामान्य वाक्य की स्थापना की जाती है और व्यतिरेक विधि में निषेधात्मक उदाहरणों के आधार पर। इसलिए अन्वयव्यतिरेक अनुमान वह है जो भावात्मक और निषेधात्मक दोनों प्रकार के उदाहरणों द्वारा स्थापित व्याप्ति पर आधृत हो-

भावात्मक उदाहरण-
सभी धुआँयुक्त स्थान अग्नियुक्त है।
पर्वत धुआँयुक्त है।
इसलिए पर्वत अग्नियुक्त है।
निषेधात्मक उदाहरण-
सभी अग्नि रहित स्थान धुआँ रहित है।
पर्वत धुआँयुक्त है।
∴ पर्वत अग्नियुक्त है।

अन्वय व्यतिरेक अनुमान पाश्चात्य तर्कशास्त्र की संयुक्त विधि (Joint Method of Agreement and difference) से मिलता-जुलता है।

प्रश्न 5.
Explain the vaisesika theory of ‘Guna’ or Quality.
(वैशेषिक के अनुसार गुण की व्याख्या करें।)
उत्तर:
वैशेषिक दर्शन के अनुसार “गुण वह पदार्थ है जो द्रव्य में रहता है। परन्तु जिसमें गुण
और कर्म नहीं रहते।” गुण के तीन लक्षण बताये गये हैं-द्रव्याश्रितत्व, निर्गुणत्व और निष्क्रियत्व अर्थात् गुण द्रव्य पर आश्रित होते हुए भी निर्गुण और निष्क्रिय होता है। गुण के तीनों लक्षण अलग-अलग से इस प्रकार स्पष्ट होता है-

1. द्रव्याश्रित-द्रव्य गुण का आधार है क्योंकि वह निराधार नहीं रह सकता है इसलिए गुण को द्रव्याश्रयी कहा गया है। हम निर्गुण द्रव्य की कल्पना नहीं कर सकते। गुण द्रव्य में आश्रित रहता है। इससे गण और द्रव्य के परस्पर तादात्म्य का निषेध रहता है।

2. निर्गुणत्व-गुण निर्गुण होता है। यदि गुण में गुण मान लिया जाए तो इनसे मुख्यतः समस्या सामने आएगी

(i) यदि एक गुण में दूसरा गुण है तो दूसरे में तीसरा, तीसरे में चौथा और इस प्रकार इस श्रृंखला का कभी अंत ही नहीं होगा फलतः अनवस्था दोष का प्रादुर्भाव होगा। अतः अनवस्था दोष से बचने के लिए गुण को निर्गुण मानना आवश्यक है।

(ii) दूसरी समस्या यह उत्पन्न होगी कि अगर एक गुण में दूसरे गुण को मान लिया जाए तो इन दोनों गुणों के दो प्रकार के स्वरूप हो जाएंगे। हम जानते हैं कि गुण द्रव्य में ही रहते हैं। यदि गुण, में गुण भी रहने लगे तो ये दोनों गुण दो प्रकार के हो जाएँगे जिससे समस्या उत्पन्न होगी। अतः समस्याओं से बचने के लिए गुण को निर्गुण मान लिया गया है।

3. निष्क्रियत्व-गुण कर्म से भिन्न होता है। कर्म का भी कुछ गुण है और वह द्रव्याश्रित भी है। अतः कर्म से भेद करने के लिए इसे निष्क्रिय कहा गया है।

प्रशस्तपाद (वैशेषिक सूत्र के प्रमुख भाष्यकार) गुणों के तीन वर्गीकरण प्रस्तुत करते हैं-
1. प्रथम दृष्टिकोण से गुण के दो प्रकार होते हैं-(क) वे गुण, जो एक द्रव्य में रहे जैसे-गन्ध, स्वाद, रंग इत्यादि। (ख) वे गुण, जो एक से अधिक द्रव्यों में रहे। जैसे संयोग और वियोग के लिए कम-से-कम दो वस्तुओं का रहना आवश्यक है।

2. दूसरे दृष्टिकोण से भी गुण के दो प्रकार होते हैं-(क) विशेष गुण-ये ऐसे गुण हैं जिसके आधार पर उनको धारण करने वाले द्रव्य में अन्तर लाया जाता है। (ख) सामान्य गुण-ये गुण किसी द्रव्य की विशेषता नहीं बतलाते हैं। जैसे संख्या इत्यादि।

3. तीसरे दृष्टिकोण से गुण के तीन प्रकार हैं-(क) एक ही इन्द्रिय से जानने योग्य गुण (ख) एक से अधिक इन्द्रिय से जानने योग्य गुण (ग) ऐसा गुण जिसका अनुभव से नहीं होता है जैसे धर्म, अधर्म, पाप, पुण्य।

वैशेषिक के अनुसार गुणों की संख्या चौबीस है। वे इस प्रकार से है-

  1. रूप
  2. रस या स्वाद
  3. गन्ध
  4. स्पर्श
  5. शब्द
  6. संयोग
  7. वियोग
  8. पृथकत्व
  9. परिमाण
  10. परत्व
  11. अपरत्व
  12. गुरुत्व
  13. प्रयत्न
  14. सुख
  15. दुःख
  16. इच्छा
  17. द्रवत्व
  18. स्नेह
  19. द्वेष
  20. धर्म
  21. अधर्म
  22. संस्कार
  23. संख्या
  24. बुद्धि।

1. रूप-चक्षुमात्र से ग्राह्य विशेष गुण है। रूप के सात भेद होते हैं-शुक्ल, नील, हरित, रक्त, पीत, कपिश और चित्र।

2. रस-रसना (जिह्वा) से प्रत्यक्ष योग्य गुण को रस कहते हैं। रस के छः भेद हैं-मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कपाल और तिक्त।

3. गन्ध-घ्राण (या नाक) से ग्राह्य विशेष गुण का नाम है गन्ध। यह दो प्रकार का है-सुरभि और असुरभि।

4. स्पर्श-त्वचा से ग्राह्य गुण ही स्पर्श है। स्पर्श तीन प्रकार का है-शीत, उष्ण और अनुष्णशीत।

5. संख्या-एक, दो, तीन आदि के व्यवहार हेतु का नाम संख्या है। संख्या एक से लेकर परार्द्ध तक, दो से लेकर परार्द्ध तक की संख्याएँ अपेक्षा बुद्धिजन्य हैं।

6. परिमाण-कोई द्रव्य जिसके द्वारा नापा जाए वह परिमाण कहलाता है। इसके चार भेद हैं-अणु, महत्, दीर्घ और ह्रस्व।

7. पृथकत्व-यह द्रव्य से अलग है। इस प्रकार के आधार को पृथकत्व कहते हैं। यह दो प्रकार का होता है-पृथकत्व और द्विपृथकत्व।

8. संयोग-यह पदार्थ उस पदार्थ से संयुक्त है। इस व्यवहार के आधार को संयोग कहते हैं। संयोग तीन प्रकार का है (क) अन्यतर कर्मज-यह किसी एक ही पक्ष के कर्म से उत्पन्न होता है जैसे पक्षी उड़कर पेड़ पर बैठता है। (ख) उभयं कर्मज-यहाँ दोनों पक्षों की क्रिया से संयोग उत्पन्न होता है जैसे दो मुर्गी का लड़ना। (ग) संयोगज-जहाँ एक संयोग से दूसरा संयोग उत्पन्न होता है जैसे वृक्ष से मनुष्य के हाथ के संयोग से उत्पन्न मनुष्य तथा वृक्ष का संयोगा।

9. विभाग-संयोग के नाश करने वाले गुण का नाम विभाग है। संयोग के समान विभाग भी तीन प्रकार का होता है। (क) अन्तर कर्मज जैसे पेड़ से पक्षी का उड़ जाना। (ख) उभय कर्मज-एक साथ बैठे हुए दो पक्षियों का उड़ जाना (ग) विभागज-पत्ते शाखा से गिरते हैं परन्तु उनका वृक्ष से भी विभाग हो जाता है।

10. परत्व-उपरत्व-यह दूर है, यह समीप है इन व्यवहारों के आधार को परत्व-अपरत्व कहते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है-दैशिक तथा कालिक।

11. गुरुत्व-जिस गुण के कारण स्वभावतः पतन क्रिया सम्भव हो या दो वस्तु का भारीपन ही गुरुत्व है।

12. द्रवत्व-जिस गुण के कारण कोई वस्तु बहती है उसे द्रवत्व कहते हैं।

13. स्नेह-वस्तु में जो चिकनाहट होती है जिसके कारण चिकनी वस्तु के सम्पर्क से आँटे आदि चूर्ण रूप का पिंड बनता है वही स्नेह है।

14.शब्द-कान के द्वारा ग्राह्य का नाम शब्द है। शब्द दो प्रकार का होता है-वर्णात्मक और ध्वन्यात्मक। यह आकाश का विशेष गुण है।

15. बुद्धि-आत्मा का विशेष गुण है। बुद्धि का कार्य है विषयों का प्रकाश करना। बुद्धि के दो भेद होते हैं-अनुभव और स्मृति।

16. सुख-प्रीति का काम सुख है। इसे लोग अनुकूल रूप में अनुभव करते हैं।

17. दुःख-पीड़ा का नाम है दुःख। यह सब प्राणियों के प्रतिकूल है।

18. इच्छा-राग ही इच्छा है। यह दो प्रकार की होती है-नित्य और अनित्य। ईश्वर की इच्छा नित्य है और जीव की अनित्य।

19. द्वेष-क्रोध का नाम ही द्वेष है। 20. प्रयल-उत्साह को प्रयत्न कहते हैं।

21. धर्म-अधर्म-सुख का असाधारण कारण धर्म है तथा दुःख का असाधारण कारण अधर्म है। ये दोनों जीवात्मा के विशेष गुण हैं।

22. संस्कार-यह तीन प्रकार का है वेग, भावना और स्थिति स्थापक। (क) वेग-इसके कारण किसी वस्तु में गति होती है। (ख) भावना-इसके कारण किसी विषय की स्मृति होती है। (ग) स्थिति स्थापक-इसके कारण किसी पदार्थ में विक्षोभ होने के बाद पुनः स्थिति में वह आ जाता है।

इस प्रकार से वैशेषिक दर्शन में चौबीस गुणों की चर्चा की गई है। अक्सर यह प्रश्न उठता है कि वैशेषिक ने आखिर 24 गुणों को ही क्यों स्वीकार किया ? इसका कारण यह है कि इन सभी गुणों की गणना की जाए तो इनकी संख्या अत्यधिक बढ़ जाएगी। इसीलिए वैशेषिकों ने केवल मौलिक गुणों की गणना की है और इस प्रकार चौबीस गुण माने गए हैं।

प्रश्न 6.
What is Verbal Authority ? Discuss its main types on forms. (शब्द क्या है ? शब्द के मुख्य प्रकारों या भेदों की व्याख्या करें।)
Or,
What is mean of real Authority ? Discuss its main types from. । अथवा, (न्याय दर्शन के अनुसार शब्द के अर्थ को स्पष्ट करें। शब्द के मुख्य प्रकारों की व्याख्या करें।)
उत्तर:
बौद्ध, जैन, वैशेषिक दर्शन शब्द को अनुमान का अंग मानते हैं जबकि गौतम के अनुसार ‘शब्द’ चौथा प्रमाण (Source of knowledge) है। अनेक शब्दों एवं वाक्यों द्वारा जो वस्तुओं का ज्ञान होता है उसे हम शब्द कहते हैं। सभी तरह के शब्दों से हमें ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती है। अतः ऐसे ही शब्द को हम प्रमाण मानेंगे जो यथार्थ तथा विश्वास के योग्य हो। भारतीय विद्वानों के अनुसार ‘शब्द’ तभी प्रमाण बनता है जब वह विश्वासी आदमी का निश्चयबोधक वाक्य हो, जिसे आप्त वचन भी कह सकते हैं। संक्षेप में, “किसी विश्वासी और महान पुरुष के वचन के अर्थ (meaning) का ज्ञान ही शब्द प्रमाण है।” अतः रामायण, महाभारत या पुराणों से जो ज्ञान हमें मिलते हैं, वह प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान के द्वारा नहीं मिलते हैं, बल्कि ‘शब्द’ (verbal authority) के द्वारा प्राप्त होते हैं।

‘शब्द’ के ज्ञान में तीन बातें मुख्य हैं। वे हैं-शब्द के द्वारा ज्ञान प्राप्त करने की क्रिया। शब्द ऐसे मानव के हों जो विश्वसनीय एवं सत्यवादी समझे जाते हों, कहने का अभिप्राय, जिनकी बातों को सहज रूप में सत्य मान सकते हों। शब्द ऐसे हों जिनके अर्थ हमारी समझ में हो। कहने का अभिप्राय है कि यदि कृष्ण के उपदेश को अंग्रेजी भाषा में हिन्दी भाषियों को सुनाया जाए तो उन्हें समझ में नहीं आएगी।

शब्द के प्रकार या भेद (Kinds of Forms of Types of Authority)-शब्द के वृहत् अर्थानुसार कान का जो विषय है वह शब्द कहलाता है। इस दृष्टिकोण से शब्द के दो प्रकार होते हैं-
(क) ध्वनि-बोधक शब्द (Inarticulate)-जिसमें केवल एक ध्वनि या आवाज ही कान को सुनाई पड़ती है, उससे कोई अक्षर प्रकट नहीं होता है। जैसे-मृदंग या सितार की आवाज या गधे का रेंकना आदि।

(ख) वर्ण-बोधक शब्द (Articulate)-जिसमें कंठ, तालु आदि के संयोग से स्वर-व्यंजनों का उच्चारण प्रकट होता है। जैसे-मानव की आवाज, पानी, हवा, आम, मछली आदि।

वर्ण-बोधक शब्द के भी दो रूप होते हैं-

  • सार्थक शब्द (meaningful)-सार्थक शब्दों में कुछ-न-कुछ अर्थ छिपे रहते हैं। जैसे-धर्म, कॉलेज, पूजा, पुस्तक, भवन आदि।
  • निरर्थक शब्द (unmeaningful)-निरर्थक शब्द के अर्थ प्रकट नहीं होते हैं जैसे-आह, ओह, उफ, खट, पट आदि।

तर्कशास्त्र में हमारा सम्बन्ध केवल सार्थक शब्दों द्वारा ही प्रकट किए जाते हैं।
न्यायिकों ने शब्द के दो प्रकार बताए हैं। वे निम्नलिखित हैं-

(क) दृष्टाथ शब्द (Perceptible)-दृष्टार्थ शब्द उसे कहेंगे जिसका ज्ञान प्रत्यक्ष (Perception) द्वारा प्राप्त हो सकता है। यह भी आवश्यक नहीं है कि सभी शब्दों का प्रत्यक्ष हमें हमेशा ही हो। जैसे हिमालय पहाड़ा, आगरा का ताजमहल, नई दिल्ली का संसद भवन आदि की बात की जाए तो वे दृष्टार्थ शब्द होंगे क्योंकि उनका प्रत्यक्ष संभव है।

(ख) अदृष्टार्थ शब्द (Imperceptible)-अदृष्टार्थ शब्द वे हैं जो सत्य तो माने जाते हैं, लेकिन प्रत्यक्ष की पहुँच से बिल्कुल बाहर रहते हैं। ऐसे शब्द आप्त वचन या विश्वसनीय लोगों के मुँह से सुनाई पड़ते हैं, यदि उन शब्दों का प्रत्यक्षीकरण करना चाहें तो संभव नहीं है। जैसे ईश्वर, मन, आत्मा, अमरता आदि ऐसे शब्द हैं जिन्हें हम सत्य तो मान लेते हैं लेकिन उसका प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है। इसी तरह बड़े-बड़े महात्माओं एवं ऋषि-मुनियों की पाप-पुण्य, धर्म-अधर्म, नीति-अनीति आदि बातों का प्रत्यक्षीकरण संभव नहीं है।

सूत्र के आधार पर नेयायिकों ने शब्द के दो भेद बताए हैं। वे हैं-वैदिक शब्द (World of Vedas) एवं लौकिक शब्द (Word of human being)।

वैदिक शब्द (World of Vedas of God)-भारतवर्ष में ‘वेद’ आदि ग्रन्थ है। वैदिक वचन ईश्वर के वचन माने जाते हैं। ऐसे शब्द की सत्यता पर संदेह की बातें नहीं की जा सकती हैं। इसे हम ब्रह्मवाक्य नाम से जानते हैं। वैदिक शब्द सदा निर्दोष, अभ्रान्त, विश्वास-पूर्ण तथा पवित्र माने जाते हैं। कहने का अभिप्राय वैदिक शब्दों को बहुत से भारतीय स्वतः एक प्रमाण मानते हैं। वैदिक शब्द या वाक्य तीन प्रकार के हैं-

(क) विधि वाक्य-विधि वाक्य में हम एक तरह की आज्ञा या आदेश पाते हैं जैसे-जो स्वर्ग जाने की इच्छा रखते हैं, वे अग्निहीन होम करें।

(ख) अर्थवाद- अर्थवाद वर्णनात्मक वाक्य के रूप में हम पाते हैं। इसके चार प्रकार माने जाते हैं-

(i) स्तुतिवाक्य- स्तुति-वाक्य में किसी काम का फल बतलाकर किसी की प्रशंसा की जाती है। जैसे-अमुक यज्ञ को पूरा कर अमुक व्यक्ति ने यश की प्राप्ति की।

(ii) निन्दा वाक्य- निन्दा वाक्य में बुरे काम के फल को बतलाकर उसकी निन्दा की जाती है। जैसे-पाप कर्म करने से मनुष्य नरक में जाता है।

(iii) प्रकृति वाक्य- प्रकृति वाक्य में मानव के द्वारा किए हुए कामों में विरोध दिखलाया जाता है। जैसे-कोई पूरब मुँह होकर आहुति करता है और कोई पश्चिम मुँह।

(iv) पुराकल्प वाक्य- पुराकल्प वाक्य ऐसी विधि को बतलाला है जो परम्परा से चली आती है। जैसे–’महान संतगण’ यही कहते आते हैं, अतः हम इसे ही करें।

(ग) अनुवाद- अनुवाद वैदिक वाक्य का तीसरा रूप कहा जा सकता है। इसमें पहले से कही हुई बातों को दुहरा (repeat) दिया गया है।

लौकिक शब्द (Word of human beings)-सामान्य रूप से मनुष्य के वचन को हम लौकिक शब्द कह सकते हैं। लौकिक शब्द वैदिक शब्द की तरह पूर्णतः सत्य होने का दावा नहीं कर सकता है। मनुष्य के वचन झूठे भी हो सकते हैं। यदि लौकिक शब्द किसी महान् या विश्वसनीय पुरुष के द्वारा कहे जाएँ तो वे शब्द भी वैदिक वचन की तरह सत्य माने जाते हैं।

मीमांसा- दर्शन में भी शब्द के दो भेद बताए गए हैं-‘पौरुषेय’ और ‘अपौरुषेय’। नैयायिकों ने जिस शब्द को लौकिक कहा है, उसी को मीमांसा-दर्शन में ‘पौरुषेय’ कहा जाता है। जैसे-मनुष्य के वचन या आप्तवचन ‘पौरुषेय’ शब्द कहलाते हैं। दूसरी ओर वैदिक शब्द को मीमांसा-दर्शन में ‘अपौरुषेय’ शब्द से पुकारा जाता है। मीमांसा-दर्शन वैदिक शब्द की सत्यता एवं प्रामाणिकता को सिद्ध करना ही अपना लक्ष्य मानता है। अतः वहाँ ‘शब्द-प्रमाण’ का सहारा आवश्यक हो जाता है।

प्रश्न 7.
Differentiate between Western Syllogism and Five-membere Syllogism.
(पाश्चात्य न्याय वाक्य और पंचावयव में अन्तर स्पष्ट करें।)
उत्तर:
पाश्चात्य न्याय वाक्य एवं पंचावयव में निम्नलिखित मुख्य अंतर हैं-

1. पाश्चात्य न्याय वाक्य (Syllogism) में केवल तीन वाक्य होते हैं, जबकि गौतम के. पंचायव में पाँच वाक्य होते हैं।

2. पाश्चात्य न्याय-वाक्य में निष्कर्ष तीसरे या अन्तिम वाक्य के रूप में होता है लेकिन गौतम के पंचावयव में निष्कर्ष यानि निगमन तीसरे वाक्य के रूप में नहीं रहता है। यह प्रतिज्ञा के रूप में एक जगह पहले वाक्य के रूप में रहता है तथा निगमन के रूप पाँचवें वाक्य की जगह होता है।

3.-पाश्चात्य न्याय वाक्य में जो वाक्य वृहत् वाक्य (Major prermise) के रूप में रहता है वह वाक्य ‘व्याप्ति’ के रूप में ‘पंचावयव’ में तीसरे स्थान के वाक्य में रहता है।

4. पाश्चात्य न्याय-वाक्य (Syllogism) में उदाहरण देने की कोई जरूरत नहीं होती है, के लिए उदाहरण दिया जाता है तथा उसके लिए ‘व्याप्ति-वाक्य’ के रूप में एक खास स्थान दिया जाता है।

5. पाश्चात्य न्याय वाक्य में परिभाषा तथा गुण की स्थापना पश्चिमी तरीके से की जाती है जो भारतीय तरीके से भिन्न है। इसलिए दोनों के न्याय-वाक्य का गुण भी आपस में एक-दूसरे से भिन्न श्रेणी का पाया जाता है।

6. भारतीय नैयायिकों का तर्क है कि पाँच वाक्य होने से हमारा अनुमान अधिक मजबूत होता है जबकि पाश्चात्य न्याय वाक्य में केवल तीन वाक्य ही होते हैं। अतः उनका अनुमान पंचवायव की तरह मजबूत नहीं कहा जा सकता है

7. पाश्चात्य न्याय वाक्य में एक ही वाक्य पूर्णव्यापी (Universal) होता है, जिसे हम वृहत् वाक्य (Major premise) के रूप में जानते हैं। उदाहरणार्थ-
सभी मनुष्य मरणशील हैं। – Major Premise
राम मनुष्य है। – Minor Premise
इसलिए राम मरणशील है। – Conclusion

8. पाश्चात्य तर्कशास्त्र में पूर्णव्यापी (Universal) वाक्य की स्थापना हेतु आगमन (Conduction) की जरूरत पड़ती है, जिसमें कुछ उदाहरणों का निरीक्षण कर हम पूर्णव्यापी वाक्य बनाते हैं। जैसे-मोहन, सोहन, करीम आदि को मरते देखकर हम पूर्णव्यापी वाक्य की स्थापना करते हैं कि ‘सभी मनुष्य मरणशील है।’

9. भारतीय न्याय दर्शन में ‘आगमन’ के रूप में कोई तर्कशास्त्र अलग नहीं है। जो काम आगमन के द्वारा होता है वह तो उदाहरण सहित ‘व्याप्ति-वाक्य’ में ही हो जाता है। इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘पंचावयव’ में आगमन एवं निगमन दोनों सम्मिलित हैं। इस प्रकार उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि पाश्चात्य न्याय-वाक्य एवं ‘पंचावयव’ में मौलिक अंतर है।

प्रश्न 8.
Explain the Vaisheshika Category of Samavaya. Distinguish from Samyoga.
(वैशेषिक के अनुसार समवाय की व्याख्या करें और संयोग के साथ इसका अंतर बतलायें।)
उत्तर:
‘समवाय’ वह सम्बन्ध है जिसके कारण दो पदार्थ एक-दूसरे में समवेत रहते हैं। यह एक आन्तरिक सम्बन्ध है जो दो अविच्छेद (Inseparable) वस्तुओं को सम्बन्धित करता है। उदाहरणस्वरूप, द्रव्य और गुण या कर्म का सम्बन्ध ‘समवाय’ है। इस सम्बन्ध से जुटी वस्तुएँ एक-दूसरे से अलग नहीं की जा सकती। प्रभाकर मीमांसा में समवाय अनेक माने गये हैं। प्रभाकर के मतानुसार, नित्य वस्तुओं का समवाय नित्य और अनित्य वस्तु का समवाय अनित्य होते हैं। परन्तु न्याय वैशेषिक में एक ही नित्य समवाय माना गया है। समवाय अदृश्य होता है इसलिए इसका ज्ञान अनुमान द्वारा प्राप्त किया जाता है।

समवाय को अच्छी तरह समझने के लिए वैशेषिक द्वारा प्रमाणित दूसरे ‘सम्बन्ध संयोग’ (Conjunction) को समझ लेना आवश्यक है। संयोग और समवाय वैशेषिक के मतानुसार दो प्रकार के सम्बन्ध हैं। संयोग एक अनित्य सम्बन्ध है। संयोग की परिभाषा देते हुए कहा गया है’पृथक-पृथक वस्तुओं का कुछ काल के लिए परस्पर मिलने से जो सम्बन्ध होता है, उसे संयोग (conjunction) कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप-पक्षी वृक्ष की डाल पर आकर बैठता है। उसके बैठने से वृक्ष की डाल और पक्षी के बीच जो सम्बन्ध होता है उसे ‘संयोग’ कहा जाता है। यह सम्बन्ध अनायास हो जाता है। कुछ काल के बाद यह सम्बन्ध टूट भी सकता है। इसलिए इसे अनित्य सम्बन्ध कहा गया है। यद्यपि समवाय और संयोग दोनों सम्बद्ध हैं फिर भी दोनों के बीच अनेक विभिन्नताएँ दृष्टिगत होती हैं।

1. संयोग एक बाह्य सम्बन्ध (External relation) है, किन्तु समवाय एक आन्तरिक सम्बन्ध (Internal relation) है।

2. संयोग द्वारा सम्बन्धित वस्तुएँ एक-दूसरे से पृथक् की जा सकती हैं। परन्तु समवाय द्वारा सम्बन्धित वस्तुओं को एक-दूसरे से पृथक् नहीं किया जा सकता। उदाहरणस्वरूप-पुस्तक और टेबुल को एक-दूसरे से पृथक् किया जा सकता है, किन्तु द्रव्य और गुण को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। चीनी में मिठास समवेत है। मिठास को चीनी से पृथक् नहीं किया जा सकता।

3. संयोग अस्थायी (Temporary) है, किन्तु समवाय स्थायी (Permanent) होता है।

4. संयोग एक प्रकार का आकस्मिक सम्बन्ध (Accidental relation) है, किन्तु समवाय आवश्यक सम्बन्ध (Essential relation) है। संयोग द्वारा सम्बन्धित टेबुल और पुस्तक पहले अलग-अलग थे, किन्तु अकस्मात् इनमें संयोग स्थापित हो गया। किन्तु चीनी और मिठास तथा नमक और खरापन में समवाय है जो आवश्यक सम्बन्ध है।

5. ‘संयोग’ अपने सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित नहीं करता किन्तु ‘समवाय’ सम्बन्धित पदों का स्वरूप निर्धारित करता है। उदाहरणस्वरूप, टेबुल और पुस्तक संयोग के पहले अलग-अलग थे और संयोग के नष्ट हो जाने पर पुनः अलग-अलग हो जाते हैं।

संयोग के अभाव या भाव से इनके अस्तित्व और स्वरूप पर कोई असर नहीं पड़ता। इसके विपरीत, ‘समवाय’ से जुटे पदार्थ परस्पर अलग होकर अपना अस्तित्व एवं स्वरूप कायम नहीं रख सकते। उदाहरणस्वरूप शरीर और इसके अवयवों में समवाय सम्बन्ध रहता है। शरीर से पृथक् अवयवों का अस्तित्व नहीं रह सकता और इसका कार्य भी समाप्त हो जाता है। इसी प्रकार शरीर भी अवयवों से पृथक् होकर नहीं रह सकता।

6. संयोग के लिए दो या कम-से-कम एक वस्तु में गति या कर्म का होना अनिवार्य है। किन्तु समावाय किसी कर्म या गति पर आश्रित नहीं है।

7. न्याय-वैशेषिक संयोग के स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानते, किन्तु समवाय को स्वतंत्र पदार्थ मानते हैं।
अब प्रश्न उठता है कि क्या समवाय एक स्वतंत्र पदार्थ है ? वैशेषिकों ने निम्नलिखित कारणों से समवाय को एक स्वतंत्र रूप में प्रतिष्ठित किया है-

(i) वैशेषिकों का कहना है कि यदि द्रव्य वास्तविक है और गुण वास्तिक है तो दोनों का सम्बन्ध समवाय भी वास्तविक ही है। यदि व्यक्ति और सामान्य दोनों वास्तविक है तब व्यक्ति और . सामान्य का सम्बन्ध समवाय भी वास्तविक ही है। अतः समवाय को एक स्वतंत्र पदार्थ मानना युक्तिसंगत है।

(ii) समवाय को इसलिये भी स्वतंत्र पदार्थ माना गया है कि इसे अन्य पदार्थ के अन्दर नहीं . लाया जा सकता। सामान्य और व्यक्ति के बीच के सम्बन्ध को समवाय कहा जाता है। इसे द्रव्य, गुण, कर्म, विशेष या अभाव के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। अतः समवाय को एक स्वतंत्र पदार्थ मानना अनिवार्य हो सकता है।

प्रश्न 9.
Explain the Vaishesika theory of Samanya. What are the different forms of Samanya?
(वैशेषिक के सामान्य नामक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए । सामान्य के विभिन्न प्रकार क्या है ?)
उत्तर:
‘सामान्य वह पदार्थ है जिसके कारण एक ही प्रकार के विभिन्न व्यक्तियों के एक जाति के अन्दर रखा जाता है। उदाहरणस्वरूप-राम, श्याम, मोहन इत्यादि व्यक्तियों में भिन्नता होने के बावजूद उन सबों को मनुष्य कहा जाता है। ठीक यही बात गाय, घोड़े इत्यादि जातिवाचक शब्दों पर लागू होती है। संसार की समस्त गायों को गाय के वर्ग में रखा जाता है। अब हमारे सामने यह प्रश्न उठता है कि कौन-सी वस्तु है जिसके आधार पर संसार में विभिन्न वस्तुओं को एक नाम से पुकारा जाता है ? उसी सत्ता को सामान्य (Universality) कहा जाता है। व्यक्ति विशेष जन्म लेते हैं और मरते हैं, किन्तु सामान्य नित्य (eternal) है। सामान्य द्रव्यों, गुणों, कर्मों में विद्यमान रहता है।

1. नामवाद (Nominalism)-इस मत के अनुसार व्यक्ति से स्वतंत्र सामान्य की सत्ता नहीं है। सामान्य एक प्रकार का ‘नामकरण’ है। व्यावहारिक जीवन में सुविधा एवं सहूलियत के अनुसार अनेक व्यक्तियों को एक ही नाम से पुकारते हैं। सभी मनुष्यों को ‘मनुष्य’ एवं सभी गायों को ‘गाय’ नाम से पुकारते हैं। इस मत के अनुसार ‘नाम’ (जैसे हाथी, घोड़ा आदि) ही सत्य है और इसके अतिरिक्त सामान्य (जैसे हाथीत्व, घोड़त्व आदि) की कोई सत्ता नहीं है। ‘नाम’ से सिर्फ एक नामवाले व्यक्ति से दूसरे नामवाले व्यक्तियों की भिन्नता का पता चलता है। इस तरह इस मत में सामान्य की सत्ता का निषेध हुआ है। इस मत का समर्थक बौद्ध-दर्शन हैं।

2. प्रत्ययवाद (Conceptualism)-यह मत सामान्य को प्रत्ययमात्र (Concept) मानता है। प्रत्यय का निर्माण व्यक्तियों के सर्वनिष्ट आवश्यक धर्म के आधार पर होता है। इसीलिए इस मत के अनुसार व्यक्ति और सामान्य अभिन्न है। सामान्य व्यक्तियों का आंतरिक स्वरूप है जिसे बुद्धि ग्रहण करती है। इस मत के पोषक जैन मत और अद्वैत वेदान्त दर्शन है।

3. वस्तुवाद (Realism)-इस मत के अनुसार, सामान्य की स्वतंत्र सत्ता है। सामान्य व्यक्तियों का नाममात्र अथवा मानसिक प्रत्यय न होकर यथार्थवाद है। इसी कारण इस मत को वस्तुवादी मत (Realistic view) कहा जाता है। इस मत के समर्थक न्याय और वैशेषिक दर्शनों को. माना जाता है। व्यक्ति विशेष मरणशील है, किन्तु सामान्य नित्य एवं अमर है। मनुष्य विशेष जन्म लेते और मरते हैं, किन्तु मनुष्य का सामान्य (मनुष्यत्व) नित्य एवं अविनाशी बना रहता है।

वैशेषिक के अनुसार, सामान्यों (जैसे मुनष्यत्व, गौत्व, घटत्व इत्यादि) का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व (Objective existence) रहता है। यह अन्य द्रव्यों (जैसे पृथ्वी, जल आदि) की भाँति ही वस्तुनिष्ठ है। न्याय-वैशेषिक में सामान्य की यह परिभाषा दी गयी है-“नित्यमेकमनेकानुगत सामान्य” अर्थात् सामान्य नित्य, एक और अनेक वस्तुओं में समाविष्ट है। इसके विश्लेषणात्मक सामान्य की कई विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं।

सामान्य एक है-एक वर्ग या जाति के सभी सदस्यों का एक ही सामान्य होता है। उदाहरणस्वरूप सभी मनुष्यों का एक ही सामान्य है-‘मनुष्यत्व’। इसी प्रकार ‘गौत्व’ गाय का सामान्य है। यदि एक वर्ग के एक से अधिक सामान्य हो तो इसमें परस्पर विरोध की सम्भावना हो जाती है। इसीलिए न्याय वैशेषिक प्रत्येक वर्ग के लिए एक ही सामान्य मानते हैं।

सामान्य नित्य है-व्यक्तियों का जन्म होता है, नाश होता है परन्तु उनका सामान्य अविनाशी होता है। उदाहरणस्वरूप मनुष्यों का जन्म और उनकी मृत्य होती है. परन्त उनका सामान्य ‘मनुष्यत्व’ शाश्वत है। सामान्य अनादि और अनन्त है।-सामान्य अनेक वस्तुओं या व्यक्तियों में समवेत है-उदाहरणस्वरूप-‘मनुष्यत्व’ सामान्य संसार के सभी मनुष्यों में निहित है। ‘गौत्व’ सामान्य विश्व की समस्त गायों में समाविष्ट है।

सामान्य का सामान्य नहीं होता-यदि सामान्य का सामान्य माना जाए तो एक सामान्य और दूसरे सामान्य में तीसरा सामान्य मानना पड़ेगा। इस प्रकार अनावस्था (Fallacy Infinite regress) का सामना करना पड़ेगा। इस दोष से बचने के लिए सामान्य की सत्ता नहीं मानी जाती है। मनुष्य का सामान्य ‘मनुष्यत्व’ है, किन्तु ‘मनुष्यत्व’ का कोई सामान्य नहीं होता।

सामान्य द्रव्य (Substance), गुण (Quality) एवं कर्म (Action) में पाया जाता है-सभी द्रव्यों में समवेत सामान्य ‘द्रव्यत्व’ है। सभी गुणों में समवेत सामान्य ‘गुणत्व’ और सभी कर्मों में पाया जाने वाला सामान्य ‘कर्मत्व’ कहलाता है।

सामान्य अन्य सभी पदार्थों से भिन्न है। यद्यपि सामान्य वास्तविक है, फिर भी अन्य वस्तुओं की तरह काल और देश (Time and Space) में स्थित नहीं है। पाश्चात्य विचारकों के अनुसार सामान्य का ‘Existence’ नहीं होता, बल्कि Subsistence होता है।

न्याय-वैशेषिक के मतानुसार सामान्य का ज्ञान सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष के द्वारा संभव होता है। उनके अनुसार जब हम राम, श्याम आदि किसी मनुष्य का प्रत्यक्षीकरण करते हैं तो ‘मनुष्यत्व’ का भी इसके साथ प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। ऐसा इसलिए होता है कि मनुष्यत्व का प्रत्यक्ष किये बिना कैसे जाना जा सकता है कि अमुक व्यक्ति मनुष्य है। इस प्रकार न्याय-वैशेषिक दर्शन में सामानय के प्रत्यक्ष द्वारा वर्ग का प्रत्यक्ष होता है। इसी असाधारण प्रत्यक्ष को हम सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष के नाम से जानते हैं।

सामान्य के प्रकार (Kinds of Universility)-वैशेषिक दर्शन में व्यापकता विस्तार के दृष्टिकोण से सामान्य के तीन भेद किये गये हैं-

  1. पर सामान्य,
  2. अपर सामान्य और
  3. परापर सामान्य।

पर सामान्य- अत्यधिक व्यापक सामान्य को पर सामान्य कहा जा सकता है। पर सामान्य के अन्दर सभी सामान्य समाविष्ट है।

अपर सामान्य- सबसे छोटे सामान्य को ‘अपर सामान्य’ कहा जाता है। उदाहरणस्वरूपगोत्व, मनुष्यत्व, घटत्व इत्यादि। ‘गोत्व’ केवल गौओं तक ‘मनुष्यत्व’ केवल मनुष्यों तक और ‘घटत्व’ केवल घड़ों तक ही सीमित रहते हैं।

परापर सामान्य- पर सामान्य और सामान्य के बीच आनेवाले सामान्य को परस्पर सामान्य कहा जाता है। उदाहरणस्वरूप-द्रव्यत्व (Substantiality) को लिया जा सकता है। ‘द्रव्यत्व’ सत्ता की अपेक्षा कम व्यापक है, किन्तु गोत्व, मनुष्यत्व, घटत्व आदि की अपेक्षा अधिक व्यापक है। सामान्य का यह भेद व्यापकता के दृष्टिकोण से किया गया है।

प्रश्न 10.
Explain the Vaisheshika conception of Visesa particularity.
(वैशेषिक के अनुसार, “विशेष’ की व्याख्या करें।)
उत्तर:
विशेष वैशेषिक दर्शन का पाँचवाँ पदार्थ है। इसको वैशेषिक दर्शन में विशिष्ट अर्थ में लिया गया है। इसके अनुसार ‘नित्य तथा निरवयव द्रव्यों के विशिष्ट व्यक्तित्व जिसके कारण वे अपने पहचान बनाते हैं, को ‘विशेष’ की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार के नित्य एवं निरवयव द्रव्य है–दिक्, काल, आकाश, मन और चार भूतों (पृथ्वी, जल, वायु एवं अग्नि) के परमाणु। विशेष के आधार पर ही एक आत्मा दूसरी आत्मा से भिन्न दृष्टिगत होती है। इसी तरह अग्नि के परमाणुओं में परस्पर भेद विशेष के कारण ही होता है। इस प्रकार नित्य एवं निरवयव द्रव्यों के अपने-अपने व्यक्तिगत स्वरूप ही ‘विशेष’ है। इस प्रकार नित्य एवं निरवयव द्रव्यों के अपनेअपने व्यक्तिगत स्वरूप ही ‘विशेष’ कहे जा सकते हैं। संक्षेपतः हम कह सकते हैं कि ‘विशेष नित्य पदार्थों की विशेषता है।

कणाद ने ‘विशेष’ को विशिष्ट अर्थ में रखते हुए इसे केवल नित्य एवं निरवयव (Eternal and partless) द्रव्यों तक ही सीमित रखा है। इससे केवल इन्हीं द्रव्यों की पहचान एवं इनसे परस्पर भेद समझे जा सकते हैं। साधारण एवं सावयव पदार्थों (Substances having parts) के पारस्परिक अन्तर को उनके अवयवों एवं गुणों के आधार पर ही हम समझ लेते हैं। इनका विश्लेषण संभव है, इसलिए इनके पारस्परिक भेद को समझना आसान है। नित्य पदार्थ निरवयव होते हैं। इनका विश्लेषण अवयवों में नहीं हो सकता। इसलिए इनके पारस्परिक भेद को जानने के लिए कणाद ने ‘विशेष’ को अपनाया है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार ‘विशेष’ सभी नित्य द्रव्यों में नहीं रहता। यह केवल उसी नित्य द्रव्य में रहता है जहाँ एक प्रकार के अनेक द्रव्य होते हैं। उदाहरणस्वरूप-अनेक आत्माओं में पारस्परिक भेद को स्पष्ट करने के लिए तथा परमाणुओं में परस्पर अन्तर दिखलाने के लिए विशेष का सहारा लिया जाता है। विशेष उस नित्य द्रव्य में नहीं हो सकता जो अपने प्रकार का अकेला है। उदाहरणस्वरूप-‘आकाश’ एक नित्य द्रव्य है किन्तु इसका गुण ‘शब्द’ केवल आकाश का ही गुण है, न कि किसी अन्य द्रव्य का। यहाँ ‘विशेष’ की कोई आवश्यकता नहीं पड़ती। इसलिए आकाश में विशेष नहीं पाया जाता।

विशेष नित्य है, क्योंकि जिन द्रव्यों में वह निवास करता है वे नित्य हैं। विशेष जिन द्रव्यों में निवास करता है वे असंख्य हैं। इसीलिए विशेष भी असंख्य हैं।

प्रश्न उठता है कि “विशेष” को एक स्वतंत्र पदार्थ मानने का क्या आधार है? नव नैयायिक विशेष के को स्वतन्त्र पदार्थ नहीं मानता। वेदान्त दर्शन में भी विशेष को पदार्थ के रूप में मान्यता नहीं मिली है। वैशेषिक दर्शन में ‘विशेष’ को स्वतंत्र पदार्थ के रूप में निम्नलिखित कारणों में मान्यता मिलती है-

1. विशेष एक वास्तविक पदार्थ है। यह उन नित्य द्रव्यों में पाया जाता है जो वास्तविक (Real) होते हैं। इसलिए विशेष भी वास्तविक है। वास्तविक होने के कारण इसे स्वतंत्र पदार्थ मानना आवश्यक है।

2. विशेष को स्वतंत्र मानने का दूसरा कारण यह है कि अन्य सभी पदार्थों से सर्वथा भिन्न है। यह न तो द्रव्य है, न कर्म है, न सामान्य, न समवाय है। इसे अन्य किसी पदार्थ में अन्तर्भूत नहीं किया जा सकता। अतः विशेष को स्वतंत्र पदार्थ मानना तर्कसंगत है।

प्रश्न 11.
Explain clearly Shankar’s theory of Bondage and Liberation.
(शंकर के बंधन और मोक्ष सम्बन्धी सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।)
उत्तर:
शंकर के मतानुसार आत्मा का शरीर के साथ आसक्त हो जाना ही बन्धन है। आत्मा स्वभावतः नित्य, शुद्ध, चैतन्य, मुक्त और अविनाशी है। परन्तु अज्ञान से वशीभूत होकर वह बन्धनग्रस्त हो जाता है। आत्मा शरीर और पृथकत्व के ज्ञान के अभाव में शरीर के सुख-दुख को निजी सुख-दुख समझने लगती है। यही बन्धन (Bondage) है। अविद्या के नाश होने के साथ ही साथ जीव के पूर्व संचित कार्यों का अन्त हो जाता है और इस प्रकार वह दुखों से छुटकारा पा जाता है। अविद्या का अन्त ज्ञान से ही सम्भव है। मोक्ष को अपनाने के लिए ज्ञान परमावश्यक है।

Dr. C. D. Sharma के अनुसार-“Liberation, therefore means removal of ignorance knowledge” जैसा कि काल्पनिक साँप अविद्या के दूर हो जाने पर रस्सी के वास्तविक रूप में आ जाता है। मीमांसा, मोक्ष की प्राप्ति के द्वारा सम्भव मानता है। परन्तु शंकर के अनुसार कर्म और भक्ति ज्ञान की प्राप्ति में भले ही सहायक हो सकती है, वह मोक्ष की प्राप्ति में सहायक नहीं हो सकती। मोक्ष का अर्थ है अविद्या को दूर करना। अविद्या केवल विद्या के द्वारा ही दूर हो सकती है। शंकर ने सिर्फ ज्ञान को ही मोक्ष का उपाय माना है।

ज्ञान की प्राप्ति वेदान्त दर्शन के अध्ययन से ही सम्भव हो सकती है। परन्तु वेदान्त-दर्शन का अध्ययन करने के लिए साधक को साधना की आवश्यकता है। ये “साधन-चतुष्टय” इस प्रकार है-

(i) नित्यानित्य-वस्तु-विवेक- साधक को नित्य और अनित्य वस्तुओं में भेद करने का विवेक होना चाहिए।

(ii) इहामुत्तार्थ-भोग-विराग- साधक को लौकिक और पारलौकिक भोगों की कामना का विवेक होना चाहिए।

(iii) शमदमादि-साधन-सम्पत्- साधक को शम, दम, श्रद्धा, समाधान, उपरति और तितिक्षा इन छः साधनों को अपनाना चाहिए। “शम” का अर्थ है-मन का संयम। “दम” का तात्पर्य है-इन्द्रियों को वश में रखना। शास्त्रों के प्रति आदरभाव ही “श्रद्धा” है। समाधान, मन को ज्ञान के साधन में रमाने को कहा जाता है। ‘उपरति” का अर्थ विशेषकर कार्यों से उदासीन रहना है। सर्दी, गर्मी, बर्दाश्त करने के अभ्यास को तितिक्षा कहा जाता है।

(iv) मुमुक्षुत्व- साधक को मोक्ष प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्पी होना चाहिए। जो साधन इन चार साधनों से युक्त होता है उसे वेदान्त की शिक्षा लेने के लिए एक ऐसे गुरु के चरणों में उपस्थित होना चाहिए जिसे ब्रह्म ज्ञान की अनुभूति हो गई हो। गुरु के साथ साधक को श्रवण कहा जाता है। सत्य पर निरन्तर ध्यान रखना निदिध्यासन कहलाता है। गुरु साधक को “तत्वमसि” की शिक्षा देते हैं। जब साधक इस तथ्य की अनुभूति करने लगता है, तब वह ब्रह्म को साक्षात्कार कर पाता और वह कह उठता है-“अहं ब्रह्मास्मि” (I am Brahman) और ब्रह्म का भेद हट जाता है।

बन्धन का अन्त हो जाता है तथा मोक्ष की अनुभूति हो जाती है। जिस प्रकार वर्षा की बूंद समुद्र में मिलकर एक हो जाते हैं उसी प्रकार मोक्ष की अवस्था में जीव ब्रह्म में विलीन हो जाता है। शंकर का मोक्ष सम्बन्धी यह विचार रामानुज के मोक्ष-सम्बन्धी विचार से भिन्न है। रामानुज का कहना है कि मोक्ष की अवस्था में जीव ब्रह्म के सादृश्य होता है, वह ब्रह्म नहीं हो जाता है।

शंकर ने दो प्रकार की मुक्ति को माना है-
(i) जीवन मुक्ति और (ii) विदेह मुक्ति। मोक्ष की प्राप्ति के बाद भी मानव का शरीर कायम रहता है, जैसा कि भगवान बुद्ध का। मोक्ष का अर्थ शरीर का अन्त नहीं है। शरीर तो प्रारब्ध कर्मों का फल है। जब तक इनका फल समाप्त नहीं हो जाता शरीर विद्यमान रहता है। जिस प्रकार कुम्हार का चाक कुम्हार के द्वारा घुमाना बन्द कर देने के बाद भी कुछ काल तक चलता है उसी प्रकार मोक्ष प्राप्त कर लेने के बाद भी पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार शरीर कुछ काल तक जीवित रहता है।

इसे जीवन मुक्ति कहा जाता है। जीवनमुक्ति में व्यक्ति अनासक्त भाव से काम करता है जिस कारण वह बन्धनग्रस्त नहीं होता। जो काम असक्त भाव से किये जाते हैं उसमें फल की प्राप्ति होती है। परन्तु निष्काम कर्म या अनासक्त कर्म भूजे हुए बीज की तरह है जिनसे फल की प्राप्ति नहीं होती है। गीता के निष्काम कर्म को शंकर ने मान्यता दी है। जब जीवन-मुक्त व्यक्ति के सूक्ष्म औरम स्थूल शरीर का अन्त हो जाता है तब “विदेह-मुक्ति” की प्राप्ति होती है। विदेह मुक्ति मृत्योपरान्त या मरणोपरान्त प्राप्त होती है।

मोक्ष एक ऐसी सत्ता का साक्षात्कार का विषय है जो बन्धकाल से विद्यमान है, यद्यपि वह हमारे दृष्टि के क्षेत्र से परे है। जब प्रतिबन्ध दूर हो जाते हैं तो आत्मा मुक्त हो जाती है। शंकर के मतानुसार आत्मा स्वभावतः मुक्त है। उसे बंधन की प्रतीत होती है, इसलिए मोक्ष की अवस्था में आत्मा में नये गुणों का विकास नहीं होता है। जिस प्रकार भ्रम निवारण के बाद रस्सी साँप नहीं प्रतीत होती है उसी प्रकार मोक्ष की प्राप्ति के बाद आत्मा को यह ज्ञान हो जाता है कि वह कभी बन्धन ग्रस्त नहीं थी। आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान ही मोक्ष है। वह जो कुछ थी वही रहती है। मोक्ष प्राप्त वस्तु को ही फिर से प्राप्त करता है। जिस प्रकार कोई रमणी अपने गले में लटकते हुए हार को इधर-उधर ढूँढ़ती है उसी प्रकार मुक्त आत्मा मोक्ष के लिए प्रयत्नशील रहती है।

शंकर ने मोक्ष को निषेधात्मक नहीं माना है बल्कि भावात्मक भी माना है। निषेधात्मक रूप से मोक्ष दुःख रहित अवस्था का नाम है, किन्तु भावात्मक रूप से यह चिर-आनन्द एवं शान्ति की अवस्था है। यहाँ शंकर का मोक्ष सम्बन्धी मत अन्य कई भारतीय विचारकों के मतों से अधिक संतोषप्रद एवं उत्साहवर्धक दीख पड़ता है। बौद्धों के अनुसार मोक्ष केवल दु:खरहित अवस्था है। सांख्य मोक्ष को एक निषेधात्मक अवस्था माना है, जिसमें दु:खों का अन्त हो जाता है। इसमें आनन्दानुभूति नहीं होती। शंकर का मोक्ष सम्बन्धी मत न्याय-वैशेषिक के मोक्ष में भिन्न है।

इसमें आनन्दानुभूति नहीं होती। न्याय-वैशेषिक दर्शन में मोक्ष की अवस्था में आतमा अपने स्वाभाविक रूप से अचेतन दीख पड़ती है, परन्तु शंकर के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप में रहती है। शंकर और रामानुज के मोक्ष सम्बन्धी मतों में स्पष्ट अन्तर दृष्टिगत होता है। रामानुज के अनुसार मोक्ष की अवस्था में आत्मा स्वयं ब्रह्म नहीं हो जाती है, बल्कि उसके समान प्रतीत होने लगती है। रामानुज मोक्ष की प्राप्ति ईश्वर की कृपा मानते हैं, परन्तु शंकर का कहना कि मोक्ष की प्राप्ति मानव अपने प्रयासों से ही कर सकता है।

प्रश्न 12.
What is the nature of Atma according to Shankara? Explain the difference between Atam and Brahma.
(शंकर के अनुसार आत्मा का स्वरूप क्या है ? आत्मा और ब्रह्म के बीच भिन्नता की व्याख्या करें।)
उत्तर:
शंकर ने आत्मा को ही ब्रह्म कहा है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। शेष सभी वस्तुएँ व्यावहारिक सत्यता का ही दावा कर सकती है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि “मैं नहीं हूँ” तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है। फिर भी ‘मैं’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हैं कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप निश्चित करने के लिए तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी मैं शब्द का प्रयोग शरीर के लिए होता है जैसे-मैं मोटा हूँ।

कभी-कभी “मैं” का प्रयोग इन्द्रियों के लिए होता है। जैसे-मैं अन्धा हूँ। अब प्रश्न उठता है कि इसमें किसको आत्मा कहा जाए। शंकर के अनुसार जो अवस्थाओं में विद्यमान रहे वही आत्मा का तत्त्व हो सकता है। चैतन्य सभी अवस्थों में सामान्य होने के कारण मौलिक है। अतः चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप है। इसे दूसरे ढंग से भी प्रमाणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन में हम तीन प्रकार की अनुभूतियाँ पाते हैं-

  1. जाग्रत अवस्था (Walking experience)
  2. स्वप्न अवस्था (Dreaming experience)
  3. सुषुप्ति अवस्था (Dreamless sleeps experience)

जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को बाह्य जगत् की चेतना रहती है। स्वप्नावस्था में आभ्यान्तर विषयों की स्वप्न रूप में चेतना रहती है। सुषुप्तावस्था में यद्यपि बाह्य आभ्यान्तर विषयों की चेतना नहीं रहती है, फिर भी किसी न किसी रूप में चेतना अवश्य रहती है। इसी आधार पर तो हम कहते हैं-“मैं खूब आराम से सोया।” इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चैतन्य सामान्य है। चैतन्य ही स्थायी तत्त्व है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। चैतन्य का अर्थ किसी विषयक चैतन्य नहीं बल्कि शुद्ध चैतन्य है। चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। सत्ता (Existence) चैतन्य में सर्वथा वर्तमान रहती है।

चैतन्य के साथ-साथ आत्मा में आनन्द भी है। साधारण वस्तु में जो आनन्द रहता है वह क्षणिक है, पर आत्मा का आनन्द शुद्ध और स्थायी है। शंकर ने आत्मा को सत् + चित् + आनन्द = सच्चिदानन्द कहा है। शंकर के अनुसार “ब्रह्म” सच्चिदानन्द है। चूँकि आत्मा वस्तुतः ब्रह्म ही है इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण संगत प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन के आत्मा सम्बन्धी सभी विचारों में शंकर का विचार अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिर्क ने आत्मा का स्वरूप सत् माना है। न्याय की आत्मा स्वभावतः अचेतन है। सांख्य में आत्मा को सत् + चित् (Existence Consciousness) माना है। शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द मानकर आत्मा सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।

शंकर ने आत्मा को नित्य शुद्ध और निराकार माना है। आत्मा एक है। आत्मा यथार्थतः भोक्ता और कर्त्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्त्ता दिखाई पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है, तथा विभिन्न विषयों को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों में स्वतंत्र है। वह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करता है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि आत्मा को साध्य जाना जाए तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगा। इस तरह आत्मा की नित्यता खण्डित हो जायेगी। आत्मा देश, काल और कारण नियम की सीमा से परे है। आत्मा सभी विषयों का आधार स्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य हो। आत्मा त्रिकाल-अवाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है।

शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। आत्मा ही वस्तुतः ब्रह्म है। शंकर ने आत्मा-ब्रह्म कहकर दोनों की तादात्म्यता को प्रमाणित किया है। एक ही तत्व आत्मनिष्ठ दृष्टि से आत्मा है तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म है। शंकर आत्मा और ब्रह्म के ऐक्य को तत्त्व मसि (that thou art) से पुष्टि करता है। उपनिषद के वाक्य “अहं ब्रह्मास्मि’ (I am Brahman) से भी ‘आत्मा” और ब्रह्म के भेद का ज्ञान होता है।

प्रश्न 13.
Explain the Good end Evil ethical concept.. (शुभ एवं अशुभ नैतिक प्रत्यय की व्याख्या करें।)
उत्तर:
शुभ (Good) भी एक अत्यन्त ही मौलिक नैतिक प्रत्यय है और उसका प्रयोग भी हम नैतिक आचरण के मूल्यांकन के साथ-ही-साथ कभी सर्वोच्च शुभ के लिए भी कर बैठते हैं। Good शब्द जर्मन शब्द Gut से व्युत्पन्न माना जाता है। जिसका अर्थ है-किसी उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक। अतः शुभ वह है जो हमें किसी लक्ष्य की प्राप्ति में सहायता करता है। इस शुभ का विलोम शब्द अशुभ (Evil) है।

अतः अशुभ वह है-जो हमें लक्ष्य प्राप्ति में बाधा उपस्थित करता हो। एक ओर जहाँ शुभ का सामान्य स्वीकृति है तो वहीं अशुभ को सामान्य तिरस्कार प्राप्त है और उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। उदाहरण के लिए यदि कोई रोगग्रस्त हो तो दवा और उपचार उसके लिए शुभ है-किन्तु यदि वहीं शोरगुल होता तो वह उसके अशुभ है, क्योंकि उससे उसका रोग घटने के बजाय बढ़ने लगता है। इसी तरह करुणा, क्षमा, परोपकार आदि को भी शुभ माना जाता है। उसका कारण है कि इन्हें सामान्य स्वीकृति प्राप्त है। उसके विपरीत घृणा, स्वार्थ लोभ आदि को सामान्य तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है। अतः ये अशुभ है।

शुभ अनेक प्रकार के हैं। उदाहरण के लिए शारीरिक शुभ, आर्थिक शुभ, सामाजिक शुभ, नैतिक लाभ आदि। उसमें शारीरिक शुभ वह है-जिससे शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति होती है और आर्थिक शुभ से अर्थ सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है। इसी तरह सामाजिक शुभ से सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हो सकती है और नैतिक सुख जीवन का सर्वोच्च शुभ है। जिसकी कामना प्रत्येक मनुष्य करता है। अतः नैतिक शुभ की प्राप्ति में जिससे सहायता मिले उसे नैतिक दृष्टि से शुभ माना जाता है। जो उपर्युक्त आवश्यकताओं की पूर्ति में बाधा उपस्थित करे उसे अशुभ की कोटि में रखेंगे।

शुभ और अशुभ दोनों शब्दों का प्रयोग सामान्यत: दो अर्थों में किया जाता है। उसका संज्ञा रूप में प्रयोग और उसका विशेषण रूप में प्रयोग। जब शुभ का प्रयोग End या Highest good (सर्वोच्च) शुभ या निरपेक्ष शुभ के रूप में किया जाता है तो यह प्रयोग संज्ञा के रूप में माना जाएगा। विशेषण अर्थ में साधन का औचित्य बतलाने के लिए शुभ का प्रयोग किया जाता है। संज्ञा रूप में शुभ का जब प्रयोग किया जाता है, तो वहाँ हमारा तात्पर्य वैसे वस्तुओं से रहता है-जिसे प्राप्त करने की कामना हम करते हैं। ये वस्तुएँ स्वास्थ्य धन या आदर्श भी हो सकते हैं।

उसके विपरीत जिसे हम अग्राह्य समझकर तिरस्कृत कर देते हैं अथवा जो शुभ की प्राप्ति में बाधक होते हैं-उसे अशुभ कहते हैं। उदाहरण के लिए रोग, सजा, दरिद्रता आदि को रखा जा सकता है। ये सब अशुभ है, क्योंकि इसके द्वारा शुभ प्राप्ति में बाधा उपस्थित होता है। अशुभ का प्रयोग जब शंका रूप में किया जाता है तो उसका तात्पर्य होता है-लक्ष्य सिद्धि में बाधा उपस्थित करना। इस प्रकार संज्ञा रूप में प्रयुक्त ‘शुभ’ स्वतः में अशुभ है। किन्तु विशेषण रूप में यह लक्ष्य प्राप्ति का साधन है।

शुभ का विभाजन दो वर्गों में किया जाता है। शुभ का एक रूप दूसरे रूप में साधन के रूप ‘ में है। लक्ष्य के लिए हम ‘End’ का प्रयोग भी करते हैं जबकि ‘means’ का प्रयोग करते हैं। अतः शुभ को भी हम good as कर कामना ‘good as end’ के रूप में करता है। अतः यहाँ विद्या किन्तु बाद में उसे जीविकोपार्जन का साधन बनाया जाता है। अतः यह परिवर्तित होकर साधन रूप में शुभ हो जाता है। यहाँ आकर जीवन में सुख प्राप्ति साध्य हो जाता है और विद्या उसका साधन बन जाती है।

फिर शुभ के दो प्रकार माने जाते हैं-सापेक्ष (relative) शुभ और निरपेक्ष (Absolute) शुभ। निरपेक्ष शुभ को सर्वोच्च शुभ भी कहा जाता है। सापेक्ष शुभ से हमारा तात्पर्य वैसे शुभ से है-जो किसी लक्ष्य प्राप्ति में सहायक अथवा लक्ष्य प्राप्ति हेतु साधन है। यह शुभ साधन रूप में शुभ है। साध्य रूप में शभ का स्वतः कोई मल्य नहीं होता, बल्कि उसका मल्यांकन सबके द्वारा प्राप्त लक्ष्य के आधार पर किया जाता है। उदाहरण के लिए छात्र कठिन मेहनत करता है, परीक्षा में प्रथम आने के लिए। इसी डिग्री से उसे अच्छी नौकरी मिलती है।

नौकरी में वह जीवन को सुखमय बनाता है। इस क्रम में कठिन मेहनत करना-परीक्षा में प्रथम आना और नौकरी प्राप्त करना-ये सभी सापेक्ष शुभ हैं क्योंकि इन सबों का उद्देश्य सुखमय जीवन व्यतीत करना है। अत: ये शुभ अपने आप में महत्त्वपूर्ण नहीं है। उसका मूल्यांकन इतना ही है कि ये किसी अन्य साध्य की प्राप्ति में साधन है। निरपेक्ष शुभ किसी अन्य शुभ की प्राप्ति के लिए साधन नहीं होता बल्कि वह अपने आप में साध्य है। निरपेक्ष शुभ सबसे ऊपर है, अतः यह किसी साध्य का नहीं बनता है। यहाँ सुख ही परम शुभ है-यह सुख किसी अन्य साध्य का साधन नहीं है। अतः सुख ही जीवन का सर्वोच्च शुभ है। सुखवादियों के अनुसार सुख की परम मंगल है।

इस प्रकार साधन और साध्य की एक लम्बी श्रृंखला होती है। ऐसे मुंखला में साधक साध्य और साध्य साधन बनते रहते हैं। मानव द्वारा सम्पादित ऐच्छिक कर्म हमेशा किसी न किसी लक्ष्य से निर्देशित होता रहता है। यह लक्ष्य और कुछ नहीं किसी आदर्श की प्राप्ति ही है। ऐच्छिक कर्म किसी-न-किसी लक्ष्य का साधन ही है। अन्य लक्ष्य अन्तिम नहीं होता है क्योंकि वह उच्चतर लक्ष्य प्राप्ति का साधन मात्र है। फिर वह लक्ष्य किसी अन्य लक्ष्य का साधन बन जाता है। इस प्रकार हम एक साधन और साध्य की एक लम्बी श्रृंखला हो पाते हैं।

परन्तु यदि उसी प्रकार साधन और साध्य की लम्बी श्रृंखल हो और उसका अन्त नहीं हो तो सभी ऐच्छिक कर्म निरपेक्ष हो जायेंगे। अतः हमें यह स्वीकार करना ही पड़ता है कि इसके श्रृंखला का अन्त एक सर्वोच्च शुभ में हो जाता है। यही सर्वोच्च शुभ जीवन का चरम लक्ष्य है-जिसमें बड़ा कोई आदर्श नहीं है। अत: उसे स्वतः में साध्य भी कहा जाता है। किसी का साधन नहीं। अब प्रश्न उठता है कि यह सर्वोच्च शुभ क्या है ? इस प्रश्न पर मतैक्य नहीं है। विद्वानों ने इस प्रश्न का भिन्न-भिन्न उत्तर दिया है। सुखवादियों के अनुसार सुख ही सर्वोच्च शुभ है तो आत्मप्रवर्णतावादियों के अनुसार आत्मा की पूर्णता ही सर्वोच्च शुभ है।

शुभ का दो प्रकार एक अन्य आधार पर भी किया जाता है। इस आधार पर आत्मगत और वस्तुगत दो प्रकार के शुभ माने जाते हैं। आत्मगत शुभ से तात्पर्य है वैसा शुभ जो व्यक्ति के स्वयं के हित में हो। इसके विपरीत वस्तुगत शुभ वैसा शुभ है जिसे अपने हित में नहीं, बल्कि दूसरे के हित में प्राप्त करना चाहता है। परन्तु ऐसा कहा जा सकता है कि इन शुभों में परस्पर विरोध है, क्योंकि व्यक्ति और सुख एक दूसरे के पूरक हैं और दोनों में अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। अतः जो व्यक्ति के लिए भी शुभ अवश्य ही होगा और जो समाज का सुख है वह अवश्य ही होगा। इस प्रकार आत्मगत और वस्तुगत सुख एक-दूसरे के शुभ में दोनों प्रकार के शुभों का समन्वय हो जाता है।

प्रश्न 14.
Write a note on Mill’s Theory of Causation.
(मिल के कारणता के सिद्धान्त पर टिप्पणी लिखो।)
उत्तर:
मिल का कारणता का सिद्धान्त (Mil’s Theory of Causation)-मिल ने कारणता के सिद्धांत (Theory of Causation) के विषय में मौलिक विचार प्रस्तुत किये हैं। उनके अनुसार कारणता का अर्थ किसी वस्तु के उस पूर्ववर्ती या पूर्ववर्तियों के समूह से है जिसके या जिनके होने के बाद वस्तु सदैव अनिवार्य रूप से होती है। मिल ने लिखा है कि “भावात्मक और अभावात्मक उपाधियों को मिलकार जो समूह बनता है वह ‘कारण’ होता है।” इस प्रकार मिल के अनुसार कारण और कार्य में अनुक्रम होता है अर्थात् कारण कार्य का निश्चित रूप में पूर्ववर्ती होता है। उदाहरणार्थ-दही बनाने के लिये दही से पूर्व दूध का होना अनिवार्य होता है अत: दूध दही के बनने का कारण है। अतः मिल के कारणता के सिद्धान्त की मुख्य विशेषताओं का विवेचन निम्न प्रकार किया जा सकता है।

1. कारण कार्य का नियम पूर्ववर्ती होता है- मिल के अनुसार किसी वस्तु का कारण “वह पूर्ववर्ती या पूर्ववर्तियों का समूह है जिसके या जिसके होने के बाद वह वस्तु सदैव अनिवार्य रूप से होती है।”उदाहरणार्थ- वर्षा जब भी होगी तब उससे पूर्व बादलों का होना अनिवार्य होगा, इसी प्रकार दही बनने के पूर्व दूध का होना सदैव अनिवार्य है अतः बादल वर्षा के कारण है तथा दूध दही का कारण है। हम अपने दैनिक जीवन में भी नित्य प्रति यह देखते हैं कि कुछ घटनायें सदैव काल-क्रम में पूर्ववर्ती उत्तरवर्ती होती हैं। इन घटनाओं के क्रम में पूर्ववर्ती घटना को उत्तरवर्ती घटना का कारण माना जाता है।

किन्तु इस विषय में यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि कालक्रम में घटित होनेवाली प्रत्येक पूर्ववर्ती घटना को कारण नहीं माना जा सकता यथा-यदि घर घर से निकलते ही बिल्ली ने रास्ता काट दिया और बाद में कोई दुर्घटना हो गयी तो उस दुर्घटना का कारण बिल्ली का रास्ता काटना नहीं माना जा सकता अपितु इस कारणता के सिद्धान्तानुसार वस्तु के उस पूर्ववर्ती को सदैव अनिवार्य रूप से होना आवश्यक है। दूसरे शब्दों में कारण उसी को कहा जा सकता है जो कार्य से नियमित रूप से सदैव पहले होता है। इस विषय में मिल का स्पष्ट कथन है कि “यदि किसी घटना को दो या दो से अधिक उदाहरणों में केवल एक अवस्था उभयनिष्ठ हो, तो केवल वही अवस्था जो सब उदाहरणों में अन्वित हो, दी हुई घटना का कारण (या कार्य) होगी।

2. कारण निरुपाधिक (Unconditional) पूर्ववर्ती होता है- निरुपाधिक पूर्ववर्ती का अर्थ स्पष्ट करते हुए मिल ने उन उपाधियों की ओर संकेत किया है जिनके उपस्थित होने के पश्चात् किसी अन्य उपाधि की कार्य के लिये आवश्यकता नहीं पड़ती। इससे स्पष्ट है कि कोई भी ऐसी दो घटनायें जो सदैव आगे पीछे होती हैं कारण कार्य नहीं मानी जा सकती अथवा उनमें कार्य-कारण सम्बन्ध नहीं माना जा सकता यथा-रात के बाद सदैव दिन और दिन के बाद सदैव रात होती है किन्तु इन दोनों में किसी भी प्रकार का कार्य कारण सम्बन्ध नहीं होता इसलिये कारण कार्य का केवल नियम पूर्ववर्ती नहीं होता अपितु निरुपाधि पूर्ववर्ती भी होता है अर्थात् कारण पूर्ववर्ती या पूर्ववर्तियों का ऐसा समूह होता है जिनके होने पर बिना किसी उपाधि की आवश्यकता के कार्य हो जाये।

3. कारण अव्यवहित (Immediate) पूर्ववर्ती है-किसी पूर्ववर्ती को कारण होने के लिये निरुपाधिक होने के साथ-साथ अव्यवहित होना भी आवश्यक है अर्थात् कारण का निरुपाधिक पूर्ववर्ती होने के साथ-साथ अव्यवहित पूर्ववर्ती होना भी आवश्यक होता है। यथा-साधारण व्यक्ति किसी कार्य का दूरस्थ पूर्ववर्ती को ही कारण मान लेते हैं किन्तु वैज्ञानिक दृष्टि से केवल अव्यवहित पूर्ववती को ही कारण माना जा सकता है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है। कि अव्यवहित का अर्थ किसी कारण के तुरन्त बाद कार्य का होना नहीं है क्योंकि कार्य कारण-कार्य में भिन्न-भिन्न समयों में न्यूनाधिक अन्तर पाया जाता है।

4. कारण भावात्मक और अभावात्मक उपाधियों का सहयोग है-भावात्मक उपाधि उनको कहा जाता है जिनको छोड़ देने से कार्य का होना रुक जाता है तथा अभावात्मक उपाधियों से तात्पर्य उनसे होता है जिनको सम्मिलित कर देने पर कार्य रूक जाता है उदाहरणार्थ मनुष्य पानी . का गिलास हाथ में लेकर पानी पीता है और उसकी प्यास बुझ जाती है और यदि पानी नहीं पीता तब प्यास नहीं बुझती यहाँ पानी भावात्मक उपाधि है। मिल ने अभावात्मक उपाधि की परिभाषा करते हुये लिखा है कि यह कार्य को रोकने वाले कारण की अनुपस्थिति है।

5. कारणों में अनेकता का सिद्धान्त-सर्वप्रथम मिल ने कारणों की अनेकता पद का प्रयोग किया। मिल ने अपने कारणों की अनेकता के विषय में कहा है कि यह कहना सही नहीं है कि एक कार्य का केवल एक ही कारण से सम्बन्ध होना चाहिये कि एक ही घटना केवल एक ही तरीके से उत्पन्न की जा सकती है। प्रायः एक घटना को उत्पन्न करने के कई स्वतन्त्र उपाय है अनेक कारण यान्त्रिक गति उत्पन्न कर सकते हैं, कई कारण उसी तरह की संवेदना उत्पन्न कर सकते हैं कई कारणों से मृत्यु हो सकती है।” इस प्रकार मिल के अनुसार एक ही कार्य अलग-अलग सन्दर्भो में अलग-अलग कारणों से उत्पन्न हो सकता है अर्थात् किसी कार्य के लिये अनेक कारण हो सकते हैं।

प्रश्न 15.
Cause is equal to effect. Explain it.
(कारण और कार्य दोनों बराबर है। इसकी व्याख्या करें।)
Or,
“The effect is cause concealed and cause is an effect revealed.” Explain it.
अथवा, (“कार्य कारण से संबंधित है और कारण कार्य में अभिव्यक्त है।” इस कथन की व्याख्या करें।)
उत्तर:
कारण और कार्य दोनों परिणाम के अनुसार बिल्कुल बराबर होते हैं (A cause is equal to effect quantity.) इसका अर्थ यही हुआ कि कारण और कार्य, द्रव्य और शक्ति (Matter and Energy) अविनाशिता के नियम (Law of conservation of matter and energy) पर निर्भर करते हैं।

द्रव्य की अविनाशिता के नियमानुसार हम यह जानते हैं कि संसार में द्रव्य की मात्रा हमेशा ही एक समान रहती है। वह कभी घटती-बढ़ती नहीं है बल्कि उसका रूप परिवर्तन होते रहता है। ऑक्सीजन और हाइड्रोजन दो गैस है जिनके मिलाने से पानी बनता है। यहाँ पर भी पानी दोनों गैसों की मात्रा के बराबर रहता है।

इसी तरह शक्ति की अविनाशिता का नियम (Law of conservation fo Energy) यह कहता है कि दुनियाँ में शक्ति का विनाश नहीं होता है। वह हमेशा एक ही समान रहती है। केवल उसके रूप में परिवर्तन होता रहता है। शक्ति दो तरह की होती है-(क) गति संबंधी शक्ति (Kinetic Energy) तथा (ख) संभावित शक्ति (Potential Energy)। एक में गति रहती है दूसरे में नहीं। एक किसी वस्तु को गतिशील बनाता है दूसरी स्थिर। इन्हीं दोनों में शक्ति का रूप परिवर्तन होता रहता है। उसका नाश कभी नहीं होता है। दोनों मात्रा में भी बराबर रहते हैं। विज्ञान के इसी आधार पर हम कारण और कार्य को परिमाण के अनुसार बराबर पा सकते हैं।

थोड़ी देर के लिए यदि हम मान लें कि कारण और कार्य बराबर नहीं है तो इसके बाद तीन संभावनाएँ हो सकती हैं।
(क) कारण-कार्य से मात्रा में बड़ा होता है।
(ख) कारण-कार्य से मात्रा में छोटा होता है।
(ग) कभी कारण बड़ा होता है और कभी छोटा।

इसमें यदि हम पहले को सही मान लें तो बहुत-सी असंभव घटनाएँ हमारे सामने आ जाएँगी। इसी तरह दूसरी संभावना भी गलत है कि जिसमें कारण-कार्य से छोटा कहा गया है। इसी तरह तीसरी संभावना भी नहीं मानी जा सकती है। क्योंकि उसे मान लेने से प्राकृतिक समरूपता नियम का उल्लंघन होता है। प्रकृति की घटनाओं में एकरूपता हो। अतः, इन तीनों को देखने के बाद सही मानना पड़ता है कि कारण और कार्य परिणाम के अनुसार बराबर होते हैं।

इसे मान लेने के बाद यह भी कहने का अवसर मिलता है कि कारण कार्य छिपा रहता है और कार्य में कारण का छिपा हुआ रूप रहता है (Cause is nothing but effect can cealed and effect is nothing but cause evealed)। कारण और कार्य परिणामों के अनुसार बराबर होते हैं। कार्य कारण में पहले से ही निवास करता है, जैसे-बीज में वृक्ष, सरसों में तेल। वृक्ष बीज का खुला हुआ रूप है और तेल सरसों का। वृक्ष और तेल कोई नया चीज नहीं है। अंतः, परिणाम के अनुसार कारण और कार्य बिल्कुल बराबर होते हैं केवल उनके रूप में परिवर्तन होता है। अतः, दोनों बराबर हैं।

प्रश्न 16.
Explain ethical arguments of the existence of God. (ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी नैतिक युक्ति की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिये।)
उत्तर:
नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है कि यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत् में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत् में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना ही पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत् की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता और जगत् में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुगत नहीं माना जा सकता किन्तु नैतिक मूल्यों को वस्तुगत न मान कर कोई भी दार्शनिक मानव को सन्तुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों का वस्तुगत मानना ईश्वर को अस्तित्व सिद्ध करना है।

ईश्वर के अस्तित्व के विषय में यह तर्क बहुत प्राचीन समय से उपस्थित किया जाता रहा है। काण्ट ने भी नैतिक तर्क द्वारा ही ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया है। इनके अतिरिक्त प्रो० सोरले ने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए नैतिक तर्क इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि, “नैतिक मूल्यों के विषय में यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि वे केवल वस्तुओं में ही नहीं बल्कि व्यक्तियों में प्राप्त किये जाते हैं और फिर वे व्यक्तियों में उसी प्रकार से सच्चे वस्तुगत अर्थ में सम्बन्धित हैं जिस प्रकार से अन्य कोई भी विशेषताएँ उनसे सम्बन्धित हैं परन्तु इससे अधिक कुछ अन्य भी सत्य है।

किसी के चेतन जीवन में यथार्थ रूप से प्राप्त किये गये मूल्य मात्र को वस्तुगत सत्ता से सम्बन्धित मानना पर्याप्त नहीं है। मूल्य को प्राप्त करने में व्यक्ति एक मापदण्ड या आदर्श के प्रति चेतन होता है जो कि उसके व्यक्तिगत प्रयत्नों के निर्देश के रूप में अथवा उस पर आधारित एक बाध्यता के रूप में प्रमाणितकता रखता है। मूल्य के प्राप्त करने को मूल्य माना जाता है क्योंकि वह मूल्य के इस मापदण्ड या नियम के अनुरूप है अथवा यह मूल्य के इस आदर्श को प्राप्त करता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि व्यक्तिगत जीवन में मूल्य अथवा शुभ की प्राप्ति शुभ के इस मापदण्ड अथवा आदर्श के आधार पर निहित है। इसलिए हम एक आदर्श शुभ अथवा नैतिक व्यवस्था की धारणा बनाने के लिए बाध्य हो जाते हैं जो कि यथार्थ शुभ के आधार के रूप में किसी-किसी अर्थ में वस्तुगत सत्ता रखने वाली मानी जानी चाहिए। इससे यह स्पष्ट है कि नैतिक तर्क नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानता है।

काण्ट का इस विषय में यह तर्क है कि नैतिक मूल्यों के सत्य होने का सबसे प्रबल प्रमाण यह है कि उसके शुभ कर्मों का फल सुख और अशुभ कर्मों का फल दुख अवश्य मिलना चाहिए। किन्तु संसार में इसके विपरीत अच्छे कर्मों का फल दुख और बुरे कर्म करने वाले सुखी देखे जाते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है अर्थात् अब नहीं तो आगे आने वाले जन्मों में इन शुभ कर्मों का फल सुख अवश्य मिलेगा और अगले जन्मों में कर्मों के फलों का मिलना ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करता है। अतः ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार किये बिना नैतिक मूल्यों को यथार्थ नहीं माना जा सकता, इसलिए ईश्वर को मानना एक नैतिक बाध्यता है।

समीक्षा-ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी नैतिक तर्क के विषय में निम्नलिखित प्रश्न उपस्थित होते हैं-

1. यह आवश्यक नहीं है कि शुभ कर्मों का फल भी शुभ हो काण्ट ने ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने में नैतिक मूल्य को यथार्थ सिद्ध करते समय यह पूर्व ही मान लिया है कि शुभ कर्म का फल सुख होता है, अतः नैतिक व्यक्ति को सुखी होना चाहिए किन्तु यदि इस कथन को आधार मानकर प्रकृति और नैतिक व्यक्ति दोनों के व्यवहारों का विश्लेषण करें तो न तो प्रकृति से ही सिद्ध होता है कि नैतिक कर्मों का फल शुभ होना चाहिए और न ही नैतिक मनुष्य ही कोई कर्म करते समय उसको मिलने वाले फल को ध्यान में रखता है। इस प्रकार नैतिक व्यक्ति के सुखी होने की धारणा विवादास्पद हो जाने से इसके आधार पर ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता।

2. विश्व की नैतिक व्यवस्था परिकल्पना मात्र है-इस तर्क में ईश्वर के अस्तित्व को विश्व की नैतिक व्यवस्था के आधार पर सिद्ध किया गया है किन्तु यह परिकल्पना को करने के पश्चात् सर्वप्रथम तो ‘विश्व में नैतिक व्यवस्था है इस परिकल्पना को ही सत्य सिद्ध करना चाहिए था जो कि नहीं की गई। इस परिकल्पना के पक्ष और विपक्ष दोनों में ही अनेक तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं जिनके आधार पर इस धारणा को परिकल्पना मात्र ही माना जा सकता है। अतः इस आधार पर भी ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता।

ईश्वर के अस्तित्व सम्बन्धी नैतिक तर्क के विरुद्ध लगाये गये उपर्युक्त दोनों ही आक्षेप इस कारण महत्त्वपूर्ण नहीं माने जा सकते क्योंकि मानव जीवन में मूल्यों के सर्वोच्च स्थान से इन्कार नहीं किया जा सकता। इसलिये जो दर्शन सत्य, शिव और सुन्दर जैसे सर्वोच्च मूल्यों को असत्य सिद्ध करता है, वह उपयुक्त दर्शन नहीं माना जा सकता। इसलिए मूल्यों को सत्य और वस्तुगत मानना दार्शनिकों के लिए विवशता है और मूल्यों को सत्य मान लेने पर विश्व को नैतिक व्यवस्था मानना स्वाभाविक है तथा विश्व को नैतिक व्यवस्था मानने पर इसको एक चेतन संचालक मानना भी आवश्यक हो जाता है।

इस प्रकार यह तो यथार्थ है कि मूल्यों के अस्तित्व को इस प्रकार से तो सिद्ध नहीं किया जा सकता है जिस प्रकार से अन्य वस्तुओं को सिद्ध किया जा सकता है किन्तु इस विषय में जब मौलिक रूप से विचार किया जाता है तब पता चलता है कि यह आत्मगत और वस्तुगत का जो अन्तर है यह भी तो मनुष्य का ही बनाया हुआ है, इसलिये मनुष्य स्वयं भी तो अन्य वस्तुगत से कम वस्तुगत नहीं है। इस आधार पर यह स्पष्ट है कि ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए नैतिक तर्क ही ठोस तर्क है।

प्रश्न 17.
Critically explain New realsim. (नवीन वस्तुवाद की आलोचनात्मक व्याख्या करें।)
उत्तर:
नवीन वस्तुवाद (New realism)-प्रत्यय प्रतिनिधित्ववाद की त्रुटियों के फलस्वरूप कुछ आधुनिक विचारकों ने एक नये सिद्धान्त की स्थापना की है जिसे नवीन वस्तुवाद के नाम से पुकारा जाता है । नवीन वस्तुवाद को लोकप्रिय वस्तुवाद (Naive realism) का विकसित रूप माना जा सकता है, क्योंकि इसमें लोकप्रिय वस्तुवाद की त्रुटियों के निराकरण की चेष्टा की गयी है।

नवीन वस्तुवाद का सर्वाधिक प्रचार ग्रेट ब्रिटेन एवं अमेरिका में हुआ। किन्तु इसका आरम्भ जर्मन दार्शनिक ब्रेनटानो (F.. Brentano) के दर्शन में होता है। Brentano ज्ञान की प्रक्रिया में दो तत्वों को मानते हैं-

(i) मानसिक क्रिया (Object act)-जिससे ज्ञान सम्पन्न होता है।
(ii) ज्ञान का विषय (Object of knowledge)।

ज्ञात वस्तुएँ ज्ञाता से स्वतंत्र हैं और प्रत्यक्ष ज्ञान होता है। Brentano के इसी two factor theory of knowledge के आधार पर आधुनिक वस्तुवादी नवीन वस्तुवाद का मंडन करते हैं। Great Britain के विचारकों में Moore, Russell इत्यादि इसके प्रतिनिधि समझे जाते हैं। अमेरिका में New-Realism के प्रतिपादक Holit, Marbin, Montague, Perry, Pitkin इत्यादि माने जाते हैं।

नवीन वस्तुवाद के अनुसार,
(i) ज्ञान का विषय ज्ञाता से स्वतंत्र है तथा

(ii) ज्ञात और ज्ञेय अर्थात् ज्ञान का विषय के बीच बाह्य सम्बन्ध (external relation) है। बाह्य सम्बन्ध उसे कहा जाता है जिससे सम्बन्धित पदों में एक-दूसरे पर निर्भर नहीं करता और उसे सम्बन्ध के कारण पदों में कोई अन्तर या परिवर्तन नहीं होता। Moore कुछ सम्बन्धों को बाह्य मानते हैं जैसे विद्यार्थी और कॉलेज का सम्बन्ध है। विद्यार्थी का अस्तित्व कॉलेज पर निर्भर नहीं करता है। लेकिन शरीर और उसके अंगों के बीच अंतरंग सम्बन्ध वे स्वीकार करते हैं क्योंकि ये एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं।

किन्तु Pitkin जैसे वस्तुवादी सभी सम्बन्धों को बाह्य मानते हैं। उनके अनुसार शरीर और उसके अंगों का सम्बन्ध भी बाह्य है। उदाहरणस्वरूप मछली की पूँछ काट ली जाती है और पूँछ काल-क्रम में पैदा हो जाती है। फिर, एक मेढ़क के शरीर का शूक भाग काट कर दूसरे के शरीर में लगा दिया जाता है और वह भाग जीवित रहता है। इससे प्रमाणित होता है कि शरीर का अंग शरीर पर निर्भर नहीं है।

नव वस्तुवाद (New Realism) की तीसरी विशेषता है कि उसके अनुसार ज्ञाता को यथार्थ वस्तु का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, प्रत्यय या किसी और के माध्यम में नहीं। G F. Moore कहते हैं कि जब हम बाघ को देखते हैं तो स्पष्टतः महसूस करते हैं कि बाघ है, बाघ के प्रत्यय को नहीं। इस प्रकार नवीन वस्तुवाद के अनुसार यथार्थ वस्तु ही ज्ञात होती है। चूँकि यहाँ यथार्थ वस्तु और ज्ञात वस्तु को एक माना जाता है, इसलिए नवीन वस्तुवाद को ज्ञानशास्त्रीय एकवाद (Epistemological Monism) कहते हैं।

लोकप्रिय वस्तुवाद की असफलता का कारण भ्रांति की व्याख्या में उसकी अक्षमता है। नवीन वस्तुवाद के समर्थक Holt भ्रांति की व्याख्या करते हुए बताते हैं कि भ्रांति में एक ही पदार्थ में विरोधी, गुण (Contradictory qualities) दीख पड़ते हैं जैसे एक ही छड़ी जमीन पर सीधी और पानी में टेढ़ी जान पड़ती है। इसका कारण है कि प्रकृति में ही विरोधी नियम है जिसके चलते पदार्थों में विरोधी गुणों की प्रतीति होती है। इसलिए होल्ट (Holt) मानते हैं कि भ्रांति का कारण आत्मनिष्ठ अर्थात् हमारे मन के अन्दर नहीं है बल्कि वस्तुनिष्ठ है वस्तु जगत् के अन्दर है। यही कारण है कि वे भ्रांतियों में अनुभूत वस्तुओं को मन गठित नहीं बल्कि वस्तुनिष्ठ (Objective) अर्थात् वस्तु-जगत का अंग मानते हैं।

नवीन वस्तवाद की समीक्षा (Criticism of New Realism)-समीक्षात्मक वस्तुवादियों ने अपनी आलोचना से नवीन वस्तुवाद को दोषपूर्ण साबित किया है-

(i) नवीन वस्तुवाद भ्रांति की समुचित व्याख्या नहीं कर पाता है। Holt ने कहा है कि प्रकृति के विरोधी नियमों के चलते भ्रांति होती है किन्तु अब किसी पदार्थ पर विरोधी नियम एक साथ काम करते हैं तो वे विरोधी गुण नहीं पैदा करते बल्कि एक-दूसरे के असर को खत्म कर देते हैं।

(ii) भ्रांति में अनुभूत पदार्थों को होल्ट (Holt) वस्तुनिष्ठ मानते हैं किन्तु वस्तुनिष्ठ नहीं माना जा सकता क्योंकि उनका आचरण वस्तुनिष्ठ पदार्थों जैसा नहीं होता है।

(iii) भ्रांति की वस्तुओं को वस्तुनिष्ठ मानने पर हमारी दुनिया बड़ी विचित्र हो जायेगी क्योंकि उसमें वास्तविक पदार्थों के साथ-साथ स्वप्न, विपर्यय, विभ्रम, आदि सबको वस्तु-जगत् का अंग मानना पड़ेगा।

(iv) नवीन वस्तुवाद ज्ञात वस्तु और यथार्थ वस्तु को एक मानता है, किन्तु यह मत विज्ञान के विरुद्ध है। कुछ नक्षत्र इतनी दूर पर है कि उससे पृथ्वी पर प्रकाश पहुँचने में कई वर्ष लग जाते हैं। मान लीजिए कि किसी नक्षत्र के प्रकाश को हमारे यहाँ पहुँचने में दस वर्ष लगते हैं। अत: यदि हम नक्षत्र को आज देखते हैं तो वह आज का नहीं बल्कि दस वर्ष पहले का है, क्योंकि जो प्रकाश दस वर्ष पहले चला था वही आज हमारी आँखों तक पहुँच सका है। हो सकता है कि इन वर्षों में वह परिवर्तित हो गया हो या बिल्कुल नष्ट ही हो गया हो। हम उसके परिवर्तित रूप को ही देख रहे हों ऐसी हालत यथार्थ वस्तु और ज्ञात वस्तु को यह कहना उचित नहीं है। इसलिए नवीन वस्तुवाद का ज्ञानशास्त्रीय एकवाद (Epistemological monism) सत्य नहीं है।

प्रश्न 18.
Explain the ethical concept of virtue. (नैतिक प्रत्यय की व्याख्या करें।)
उत्तर:
सद्गुण से हमारा तात्पर्य किसी व्यक्ति के नैतिक विकास से रहता है। सद्गुण के अन्तर्गत तीन बातें पायी जाती हैं-
(i) कर्तव्य बोध,

(ii) कर्तव्य का पालन इच्छा से हो और

(iii) सद्गुण का अर्जन। सद्गुण को परिभाषित करते हुए हम कह सकते हैं कि निरन्तर अभ्यास के द्वारा कर्तव्य पालन करने से जो स्थिर प्रवृत्ति में श्रेष्ठता आती है-वही सद्गुण है। हम जानते हैं कि उचित कर्मों का पालन करना ही हमारा कर्तव्य है और अनुचित कर्मों का त्याग भी कर्तव्य ही है। जब कोई मनुष्य अभ्यासपूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है तो उसमें एक प्रकार का नैतिक गुण स्वतः विकसित होने लगता है और यही विकसित गुण सद् गुण है। उसी तरह यदि कोई मनुष्य अभ्यासपूर्वक अनुचित कर्म का सम्पादन करता है तो उसमें अनैतिक गुणों का विकास होता है जिसे हम दुर्गण कहते हैं। सद्गणी होने के लिए निरन्तर अभ्यास की आवश्यकता है। अच्छे चरित्र का लक्षण की सद्गुण है। कर्तव्य हमारे बाहरी कर्म का द्योतक है-जबकि सद्गुण हमारे अन्त चरित्र का द्योतक है।

सद्गुण के ऊपर अनेक विचारकों ने अपना विचार प्रकट किया है। अरस्तू ने सद् गुण के बारे में कहा है-सद्गुण को हम एक मानसिक अवस्था कहेंगे जो संकल्प के आधार पर निर्मित होता है और वह विवेक द्वारा नियंत्रित जीवन के सच्चे आदर्श पर आधारित है। म्यूरहेड (Murehead) ने सद्गुण को परिभाषित करते हुए कहा है-“Virtue is the quality of character that fiuts us for the discharge of duty.” अर्थात् सद्गुण चरित्र का एक गुण है जो मानव को कर्तव्य पालन के योग्य बनाता है। अतः यह कहा जा सकता है कि अच्छे जीवन के लिए सद्गुण एक मुकुट है।

महान् संत सुकरात (Socrates) ने तो ज्ञान को ही सद्गुण माना है (Knowledge is Virtue) यहाँ ज्ञान का अर्थ सामान्य ढंग का नहीं है बल्कि ज्ञान का आशय है-कर्तव्य बोध। लेकिन दैनिक जीवन में हमें ऐसा भी उदाहरण भी मिला है कि ज्ञानी व्यक्ति भी कुकर्म करते हैं। अतः सुकरात का तात्पर्य यहाँ अभ्यास से है। इसलिए अभ्यास को ही ज्ञान या सद्गुण कहना उचित होगा। मैकेन्जी (Macknzie) ने सद्गुण, के बारे में कहा है-‘The essence of Virtue lise in the will अर्थात् सद्गुण का सार संकल्प में निहित है। अतः कहा जा सकता है कि कोई अच्छा संकल्प मात्र इसलिए अच्छा नहीं है कि वह चरितार्थ योग्य है अथवा हमें प्रभावित कर लेता है या किसी उद्देश्य की पूर्ति करता है, बल्कि वह इसलिए अच्छा है, क्योंकि हम उसकी आकांक्षा करते हैं।

जिस प्रकार कर्तव्य और दायित्व में घनिष्ठता का सम्बन्ध है, इसी प्रकार कर्तव्य और सद्गुण में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यदि कोई व्यक्ति कर्तव्य का पालन करता है तो निःसन्देह वह व्यक्ति सद्गुणी है। सद्गुण के अभाव में कर्तव्य का पालन कठिन है। जैसा कि मैकेन्जी ने लिखा भी है-“A man does his duty, but he possesses a virtue so he is virtuous.” कर्तव्य हमें किसी विशेष कर्म की ओर संकेत करता है लेकिन सद्गुण हमें स्थायी रूप से अर्जित प्रवृत्ति और अभ्यास की ओर संकेत करता है।

फिर सद्गुण किसी व्यक्ति को उचित कर्म करने और अनुचित कर्म से बचने की प्रेरणा देता है। सद्गुण आकाश से नहीं टपकता बल्कि अभ्यासपूर्वक कर्तव्य पालन से यह उत्पन्न होता है। जब कोई अभ्यासपूर्वक कर्तव्य का पालन करता है तो उसका चारित्रिक उत्थान भी होता है। जब किसी का चारित्रिक उत्थान हो जाता है तो वह गलत कर्म नहीं कर सकता है। वह हमेशा प्रयास करता है कि अच्छा कर्म ही करें।

सद्गुण को सहजात या जन्मजात प्रवृत्ति के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता है। कारण कि यह अर्जित गुण है। निरन्तर अभ्यासपूर्वक कर्म करने से ही सद्गुण का उद्भव होता है। अतः उसे हम प्राप्त की हुई वस्तु कह सकते हैं। उसके विपरीत प्राकृतिक प्रवृत्तियाँ चंचल और परिवर्तनशील हुआ करती है। सद्गुण हमेशा स्थिर हुआ करती है।

जब व्यक्ति सद्गुणी हो जाती है तो उसे एक प्रकार के आनन्द की अनुभूति होती है। किसी उचित कर्म को करने पर व्यक्ति में एक प्रकार के संतोष का उदय होता है और यह संयोग उनके इन्द्रियों को भी तुष्ट करता है। अच्छे कर्म को करने से मानव में एक अदम्य आनन्द उत्पन्न होता है। यह आनन्द क्षणिक नहीं बल्कि अपेक्षाकृत अधिक स्थाई भी होता है। सद्गुण प्राप्त करने से पहले शर्त का पालन करना पड़ता है। वह शर्त है उचित और अनुचित का भेद करना। उसके उपरान्त अनुचित से बचना और उचित का पालन निरन्तर करना अनिवार्य है। तभी मानव को सद्गुण की प्राप्ति होती है।

सद्गुण एक नहीं है-जैसा कि अरस्तू का विचार भी है। सद्गुण की एक लम्बी श्रृंखला होती है। ये सद्गुण एक-दूसरे से गूंथे हुए रहते हैं। ऐसा नहीं होता कि सद्गुण अलग-अलग होते हैं। इन सद्गुणों में परस्पर विरोध नहीं सामन्जस्य पाया जाता है। इन श्रृंखला के अन्तिम शिखर पर . सर्वोच्च सद्गुण रहता है। यही सर्वोच्च शुभ भी है। इस सद्गुण के अन्तर्गत सारे सद्गुण समाहित हो जाते हैं। यह सद्गुण दिक्-काल और परिस्थिति से बाधित नहीं होता-जबकि अन्य सद्गुण दिक्-काल पर आश्रित होते हैं।

प्रश्न 19.
What are the postulates of moral judgment? Explain.
(नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताओं की व्याख्या करें।)
उत्तर:
प्रत्येक शास्त्र के अन्तर्गत हम बहुत-सी ऐसी बात पाते हैं, जिसके बिना कोई नियम सम्भव नहीं होता। उन्हें ही उस शास्त्र की आवश्यक मान्यताएँ कहा जाता है। नीतिशास्त्र की भी कुछ आवश्यक मान्यताएँ हैं। इससे तात्पर्य यह है कि यदि इन मान्यताओं को सत्य न माना जाए तो नैतिकता का कोई प्रश्न ही नहीं उठ सकता। हर नैतिक निर्णय के साथ उसके आधार के रूप में ये मान्यताएँ ही रहती हैं। यदि उन मान्यताओं को हम असत्य मानते हैं तो किसी नैतिक निर्णय का कोई मूल्य नहीं रहेगा। इसलिए, इन मान्यताओं को नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ कहा जाता है। नैतिक की मान्यताएँ विज्ञान की मान्यताओं से भिन्न होती है। विज्ञान की मान्यता केवल उनके प्रतिपाद्य विषय की व्याख्या के लिए है, उसका जीवन तथा व्यवहार से कोई मतलब नहीं है।

किन्तु नैतिकता की मान्यताएँ वस्तुतः वे सत्य हैं जिनसे मनुष्य जीते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए Urban ने लिखा है-“These (postulates of morality) are, in very truth, the truths men live by, and for these truths to turn into crror and illusion in our hands, is in a very real sense for us to cease to live.”

नैतिकता की आवश्यक मान्यताओं के दो रूप हैं-
1. प्राथमिक आवश्यक मान्यताएँ (Primary postulates) और

2. गौण आवश्यक मान्यताएँ (Secondary postulates)। प्राथमिक आवश्यक मान्यताओं के अन्तर्गत (क) व्यक्तित्व (Personality) (ख) विवेक (reason) और (ग) आत्म नियंत्रण या इच्छा स्वातन्त्रय (Freedom of will) आते हैं। इसी तरह गौण आवश्यक मान्यताएँ भी तीन हैं। (क) आत्मा का अमरत्व (Immorality of soul) (ख) ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास (belief in God’s existence) और (ग) इच्छा स्वातन्त्र्य (Freedom of will)।

1. व्यक्तित्व (Personality)-ऐच्छिक कर्मों को ही नैतिकता की परिधि में माना जाता है। वैसा कर्म, जो कि कर्ता द्वारा अपनी इच्छा से शुभाशुभ, उचित-अनुचित का विचार का या हेतु साधन आदि का संकल्प करके हो, उसे ही ऐच्छिक कर्म कहा जाता है। क्रियाएँ अनेक प्रकार की और अनेक प्राणियों की होती हैं, पर उनमें अन्तर है। पेड़-पौधों की क्रियाओं में चेतना का अभाव है। पशुओं की क्रियाएँ चेतना होती हैं, पर उनमें शुभाशुभ का ज्ञान नहीं रहता है।

यह ज्ञान तभी सम्भव है जब किसी नैतिक सिद्धान्त की चेतना हो और उसके अनुकूल आचरण करने की शक्ति हो। ऐच्छिक कर्म इसीलिए उसी का होगा, जिसमें इस प्रकार ज्ञान हो। इस दृष्टिकोण से विवेक और चेतना से सम्पन्न मनुष्य ही ऐच्छिक कर्म (voluntary action) का कर्ता हो सकता है। इसलिए P. B. Chatterji का कहना है-“The central fact of marality is called personality.” इसी तरह कालडरवुड ने कहा है कि व्यक्ति ही नैतिकता का आधार है। नैतिक निर्णय का विषय किये गये. कर्म नहीं अपितु कर्ता है-ऐसा कर्ता जिस पर किये गये कर्मों का उत्तरदायित्व हो। इसलिए व्यक्तित्व के बिना नैतिकता का कोई मूल्य नहीं है।

अनुभववादी (Empiricists) और संवितावादी (Sensationists) व्यक्तित्व को केवल चेतना प्रतिक्रयाओं और स्थितियों को योग मानते हैं। किन्तु यह दोषपूर्ण है। यदि अनुभूतियाँ सतत् परिवर्तनशील हों और उनका अनुभव कर्ता अर्थात् व्यक्तित्व भी स्थायी तत्व न होकर परिवर्तनशील हो तो फिर अनुभव किसमें और कहाँ होगा ? यदि अनुभव की भाँति अनुभवकर्ता भी परिवर्तनशील हो तो फिर व्यक्ति में ‘एकता’ अर्थात् उसे ‘वही व्यक्ति’ मानने का कोई आधार नहीं जान पड़ता। वस्तुतः शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं में सतत् परिवर्तन होते रहने पर भी किसी व्यक्ति को ‘दूसरा व्यक्ति’ नहीं कहा जा सकता।

व्यक्तित्व का विचार वास्तव में आत्मचेतना और आत्मनियन्त्रण का संकेत करता है। किसी भी व्यक्ति को उन्हीं गुणों के कारण व्यक्तित्व प्रदान किया जाता है। वैसे प्राणी को व्यक्ति कहा जाता है, जिसकी क्रिया अपनी हो अर्थात् आत्मनियंत्रित हो और वह उसके लिए उत्तरदायी हो। अतः व्यक्तित्व केवल बुद्धि नहीं बल्कि शक्ति है। आत्म-नियंत्रित बुद्धि और आत्मनियन्त्रित क्रिया जिसकी हो, वही व्यक्ति है। व्यक्तित्व से आत्मज्ञान, आत्मचेतना एवं आत्म नियंत्रण का बोध होता है। इस सम्बन्ध में हम कह सकते हैं कि ‘व्यक्तित्व ही हमारा मानसिक और नैतिक जीवन का आधार है।’ इसलिए व्यक्तित्व को नैतिक ‘निर्णय की एक आवश्यक मान्यता के रूप में स्वीकार किया जाता है।

2. विवेक (Reason)-मनुष्य में दो प्रकार के गुण सामान्य रूप से पाये जाते हैं-
(क) पाशविक प्रवृत्ति या कामुकता (Sensibility) और विवेक शक्ति (Reason)। मनुष्य के जीवन में दोनों का महत्वपूर्ण योगदान है। पर विवेक शक्ति के कारण ही मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ माना जाता है। पाशविक प्रवृत्ति तो पशुओं में भी होती है। मनुष्य विवेक शक्ति द्वारा ही अपनी संवेदनाओं को अर्थपूर्ण करता है और ज्ञानोपार्जन करता है। यदि व्यक्ति को विवेक न हो तो फिर उसके आचरण पर नैतिक निर्णय नहीं दिया जा सकता। विवेक के आधार पर ही व्यक्ति नैतिक नियमों को जानता है। यदि मनुष्य में नैतिकता का ज्ञान ही न हो तो उसके कार्यों को उचित या अनुचित, शुभ या अशुभ नहीं कहा जा सकता।

मनुष्य की ऐच्छिक क्रियाओं (Voluntay actions) पर ही नैतिक निर्णय दिया जाता है। यदि ऐच्छिक कर्म ही न हो तो फिर नैतिकता कहाँ ? अविवेकी, पागल एवं बच्चों के कार्य नैतिक .. निर्णय के विषय नहीं, क्योंकि ये कार्य ऐच्छक कर्म नहीं है। अत: नैतिक निर्णय का विषय ऐच्छिक कर्म, विवेक शक्ति रहने पर ही सम्भव है और साथ-साथ नैतिक निर्णय के कर्ता को भी विवेक-युक्त होना आवश्यक है। अतः नैतिक निर्णय के लिए विवेक (Reason) एक अनिवार्य नैतिक मान्यता है।

3. संकल्प स्वातन्त्रय (Freedom of will)-संकल्प-स्वातंत्रय भी नैतिकता का एक आवश्यक आधार है। ऐच्छिक कर्म संकल्प स्वातन्त्र्य के बिना सम्भव नहीं है। उसी कर्म पर नैतिक निर्णय दिया जा सकता है जिसे करने में व्यक्ति किसी बाह्य सत्ता द्वारा विवश न हो। मनुष्य में इच्छा संघर्ष होता है और वह अपनी स्वतन्त्र इच्छा से किसी एक को चुन लेता है और उसी के पूर्ति के लिए ऐच्छिक कर्म करता है। लेकिन जब व्यक्ति दूसरों के प्रभाव में या दबाव में आकर कोई कर्म करता हैं तो उसके लिए उसे उत्तरदायी बतलाना अनुचित है। तब कर्म करने में व्यक्ति की अपनी इच्छा स्वातन्त्र्य नहीं है तो फिर उसके कर्म का उचित या अनुचित नहीं कहा जा सकता। इसलिए नैतिक निर्णय के लिए संकल्प स्वातन्त्र्य का रहना नितांत आवश्यक है।

नियतिवाद (Determinism)-संकल्प स्वातन्त्र्य का निषेध करते हैं। इसके अनुसार मनुष्य अपने संकल्पों में बाह्य परिस्थितियों से ही बाह्य हैं और जैसा वह संकल्प करता है, उसके विरुद्ध संकल्प करने की स्वतंत्रता उसमें नहीं है।

यदि मनुष्य बाह्य परिस्थितियों एवं दबाव के चलते कोई कर्म करता है तो फिर उसके कर्म और एक मशीन के कर्म में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा। दबाव में आकर कर्म करने से उसके उत्तरदायित्व का भाव समाप्त हो जाता है। वेदान्ती और हीगेल (Hegel) भी इसे मानते हैं कि यन्त्रवत् विश्व में नैतिकता का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। जब स्वतन्त्रता ही नहीं है तो फिर ‘चाहिए’ का प्रश्न ही नहीं उठता।

यदि मनुष्य कर्मों में स्वतंत्र नहीं है, तो किसी आचरण का सुधार या विधिपूर्वक नियन्त्रण की बात करना निरर्थक हैं। जब हम किसी मनुष्य के आचरण में सुधार लाने की बात सोचते हैं तो मानना पड़ता है कि यह तभी सम्भव था जब वह चाहता तो वैसा कर्म नहीं कर सकता था, अर्थात् जो उसने किया, उसमें वह स्वतंत्र था। ऐसा यदि न माना जाय तो फिर आचरण में सुधार आदि का विचार ही गलत है।

कभी-कभी इच्छा स्वातन्त्र्य रहने पर भी कोई कर्म करने के बाद हमें पश्चाताप होता है। यदि मनुष्य का संकल्प स्वतंत्र नहीं, अर्थात् उसका कर्म नियम है तो पश्चाताप की भावना भी निरर्थक है। पश्चाताप तो इसलिए होता है कि हमारे वश की बात थी कि जैसा किया वैसा नहीं भी किया जा सकता था, अर्थात् हम स्वमंत्र थे।

काण्ट (Kant) का कहना है कि चाहिए के साथ योग्यता का भाव भी छिपा हुआ है। जब हम ‘चाहिए’ कहते हैं तब यह स्पष्ट है कि वैसा किया भी जा सकता है या नहीं भी। दोनों की स्वतंत्रता हमें है। यदि यह निश्चित और अटल हो कि यहीं करना है तो फिर ऐसा चाहिए, दोनों निरर्थक है। वैसा होना चाहिए या नहीं चाहिए। इसलिए (Martineau) मार्टिन्यू ने ठीक ही कहा है कि या तो संकल्प स्वातन्त्र्य सत्य है या नैतिक निर्णय एक भ्रम है।’ इसका तात्पर्य यह है कि या तो संकल्प-स्वातंत्र्य को सत्य माना जाय या यदि ऐसा नहीं विचार किया जाता तो कर्मों की अच्छाई-बुराई, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य आदि का विचार करना बिल्कुल फिजुल है।

प्रश्न 20.
Expalin the concept of punishment. (दण्ड की अवधारणा को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
मनुष्य इस संसार में विभिन्न प्रकार की क्रियाओं का सम्पादन करता है। हम उसके। द्वारा सम्पादित कुछ क्रियाओं के लिए नैतिक दृष्टिकोण से उत्तरदायी ठहराते हैं तथा उसके आचरण को अच्छा या बुरा, शुभ या अशुभ, उचित या अनुचित करार देते हैं। इतना ही नहीं प्रत्येक नैतिक आचरण के साथ कुछ-न-कुछ दंड और पुरस्कार की भावना निहित है। हम अनैतिक आचरण के लिए दण्ड देते हैं तथा नैतिक आचरण के लिए उसे पुरस्कार प्रदान करते हैं। यहाँ नैतिक और अनैतिक शब्द का प्रयोग संकुचित अर्थ में किया जा रहा है, क्योंकि नैतिक से हमारा तात्पर्य कम-से-कम वैसी क्रियाओं से है, जिसके साथ हम भावात्मक नैतिक मूल्य (Positive ethical values) पाते हैं और जिसमें इसका अभाव पाया जाता है, उसे संकुचित अर्थ में अनैतिक माना जाता है।

नैतिक तथा अनैतिक क्रियाओं के लिए दण्ड की भावना अत्यन्त ही प्रचलित भावना है। प्रायः प्रत्येक सुसंस्कृत समाज में हम अनैतिक आचरण के लिए कुछ-न-कुछ दण्ड की व्यवस्था पाते हैं, भले ही मनुष्य की आदिम अवस्था में दण्ड व्यवस्था का अभाव रहा हो, किन्तु संस्कृति के उदय के साथ ज्योंहि हम नैतिक दृष्टिकोण से क्रियाओं के बीच भेद करते हैं, वहाँ इसे दण्ड और पुरस्कार की भावना से भी सम्बन्धित करते हैं, किन्तु सैद्धांतिक दृष्टिकोण से हमारे लिए कुछ समस्याएँ अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण हैं, उन्हीं के आधार पर हम दण्ड के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न सिद्धांत देते हैं। दण्ड के सम्बन्ध में प्रमुख समस्याएँ हैं, क्या दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जाता है ? दण्ड का स्वरूप क्या हो ? क्या हम किसी अपराध कर्म के लिए दण्ड के निर्धारण में केवल अपराध के आधार पर ही दण्ड की व्यवस्था करें या वातावरण या परिस्थिति के अनुसार ही दण्ड की तीव्रता का निर्धारण करें।

इन्हीं समस्याओं के प्रसंग में दण्ड के सम्बन्ध में भिन्न-भिन्न सिद्धांत दिये गये हैं। इसके पूर्व ही हम दण्ड सम्बन्धी भिन्न-भिन्न सिद्धांतों की चर्चा करें, इन समस्याओं के ऊपर भी विचार करना अपेक्षित है। क्या दण्ड देने के पीछे किसी भी प्रकार का नैतिक औचित्य है ? (Is Punishment ethically justified ?)

क्या दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जा सकता है या नहीं, यह एक अत्यन्त ही जटिल समस्या है। जहाँ एक ओर दण्ड देने के पक्ष में मत देनेवाले विद्वान का यह मानना है कि दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित है, क्योंकि उसी के आधार पर हम सामाजिक व्यवस्था कायम रखते हैं, वहीं दूसरी ओर दण्ड के सम्बन्ध में सुधारवादी विचार रखनेवाला का कहना है कि मनुष्य किसी अपराध कर्म का सम्पादन शारीरिक कारण से या मानसिक कारण से या सामाजिक कारण से करता है। अतः अपराध करने वाले के लिए दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित नहीं है, बल्कि उसके लिए सर्वोत्तम स्थान जेल नहीं होकर सुधारगृह या अस्पताल माना जाता है।

क्या दण्ड नैतिक दृष्टिकोण से उचित है या नहीं, इस सम्बन्ध में ऊपर चर्चित दोनों ही सिद्धांत एकांगी माने जा सकते हैं। जहाँ एक ओर extreme के समर्थक प्रत्येक स्थिति में दण्ड देना उचित मानते हैं वहीं दूसरी सुधारवादी विचारक किसी भी प्रकार के अपराध कर्म के लिए दण्ड देना उचित नहीं मानते हैं। यहाँ मध्यम मार्ग का अनुसरण किया जा सकता है और यह कहा जा सकता है कि कम-से-कम उन क्रियाओं के लिए दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित माना जा सकता है, जिसके लिए किसी अपराधकर्मी को सुधारने के लिए समुचित अवसर दिया जाता है फिर भी वह अपने आचरण में सुधार नहीं लाता है। साथ ही साथ जिस अपराध कर्म से सामाजिक व्यवस्था समाप्त होने का भय हो उसके लिए भी दण्ड देना नैतिक दृष्टिकोण से उचित मालूम होता है।

Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 3

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Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
किसी उत्तल लेंस को पानी में पूर्णतः डुबाने पर उसकी फोकस दूरी बढ़ जाती है, क्यों?
उत्तर:
किसी लेंस की फोकस दूरी निम्न सूत्र द्वारा दी जाती है-
\(\frac{1}{F}\) = \(\left(\frac{\mu}{\mu_{1}}-1\right)\left(\frac{1}{r_{1}}-\frac{1}{r_{2}}\right)\)
जहाँ लेंस पदार्थ का अपवर्तनांक है तथा. माध्यम का अपवर्तनांक तथा r1, एवं r2, लेंस की सतहों की वक्रता त्रिज्याएं हैं।
अतः दिये गए लेंस के लिए-
F ∝ \(\frac{\mu_{1}}{\mu-\mu_{1}}\)
हवा के लिए μ1 = 1
∴ Fa ∝ \(\frac{1}{\mu-1}\)
तथा पानी के लिए μ1 = \(\frac{4}{3}\)
∴ fw ∝ \(\frac{4}{3 \mu-4}\)
∴ \(\frac{F W}{F a}\) = \(\frac{4}{3 \mu-4}\) × \(\frac{\mu-1}{1}\) = \(\frac{4 \mu-4}{3 \mu-4}\) >1
∴ fw > fa अतः पानी में लेंस की फोकस दूरी हवा की अपेक्षा अधिक होगी।

प्रश्न 2.
सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय क्षितिज लाल प्रतीत क्यों होता है?
उत्तर:
लॉर्ड रैले (Lord Rayliegh) के अनुसार प्रकीर्णन तीव्रता (I) तरंग लंबाई (λ) के Fourth Power के व्युत्क्रमानुपाती होती है।
अर्थात् I ∝ \(\frac{I}{\lambda^{4}}\)
सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय सूर्य की किरणें तिरछी दिशा में वायुमंडल में अधिक दूरी तय करके हमारी आँखों पर पहुंचती हैं। प्रकाश के लाल रंग का तरंग लम्बाई अधिक तथा नीला या बैंगनी का कम होता है।

इस कारण से प्रकाश के लाल रंग का प्रकीर्णन कम तथा नीला या बैंगनी का प्रकीर्णन सबसे अधिक होता है। इससे नीला या बैंगनी वायुमण्डल में विलीन हो जाती है। लाल किरणों का प्रकीर्णन कम होने से वह बचा रह जाता है। इस कारण से ही सूर्योदय और सूर्यास्त के समय क्षितिज लाल प्रतीत होता है।

प्रश्न 3.
Why sky appears blue? (आकाश नीला क्यों दिखाई पड़ता है?)
उत्तर:
वायुमण्डल में जल कण, धूल-कण, धातुएँ के कण तथा गैस के अणु उपस्थित रहते हैं। सूर्य का श्वेत प्रकाश इन कणों पर आपतित होती है। कण इन प्रकाशों का प्रकीर्णन (Scattering) करता है। इसमें लाल रंग के प्रकाश की तरंग लम्बाई सबसे अधिक होती है।

अत: इसका प्रकीर्णन कम होता है परन्तु नीला रंग का तरंग लम्बाई सबसे कम होता है। इसमें प्रकाश प्रकीर्णन सबसे अधिक होता है। इस कारण से आकाश में नीले रंग के प्रकाश सबसे अधिक . पाये जाते हैं, जिससे आकाश नीला या आसमानी दिखलाई पड़ता है।

प्रश्न 4.
What is Light year?’ (प्रकाश वर्ष क्या है ?)
उत्तर:
निर्वात (vacuum) में प्रकाश 1 वर्ष में जितनी दूरी तय करती है उसे ‘प्रकाश-वर्ष’ कहते हैं।
प्रकाश वर्ष का विमा = दूरी का विमा = [L]
अब निर्वात में प्रकाश द्वारा 1 sec. में तय की गई दूरी
= 3 × 108 मी०
∴ 1 प्रकाश वर्ष = 365 × 24 × 60 × 60 × 3 × 108 मी०
= 9.461 × 1015 मीटर
= 9.461 × 1012 कि० मीटर
सूर्य से पृथ्वी तक प्रकाश को आने में लगभग 8 मिनट लगता है। अतः सूर्य से पृथ्वी की दूरी 8 प्रकाश मिनट होती है। पृथ्वी से निकटतम तारा की दूरी 22 प्रकाश वर्ष है।

प्रश्न 5.
What do you understand by dispersion of light? ( प्रकाश के वर्ण विक्षेपण से आप क्या समझते हैं?)
उत्तर:
जब एक श्वेत प्रकाश (White light) की किरण प्रिज्म से गुजरती है तब यह सात . रंगों में विभक्त हो जाता है। इस घटना को “प्रकाश का वर्ण- विक्षेपण” कहते हैं।
इन सातों रंगों को “बैनीआहपीनाला” से जाना जाता है। इसमें बैगनी रंग का प्रिज्म से विचलन सबसे अधिक तथा लाल रंग का सबसे कम होता है। इस कारण से बैगनी सबसे नीचे तथा लाल सबसे ऊपर हो जाता बीच में बाकी पाँच रंगों की किरणें रहती है।
मान लिया कि लाल तथा बैगनी रंग की किरणों का विचलन क्रमशः δR तथा δν है। इसके अपवर्तनांक क्रमशः μR तथा μν है।
∴ δR = (μR- 1)A, जहाँ A प्रिज्म का वर्तक कोण है।
तथा δv = (μν – 1)A
∴ वर्ण विक्षेपण कोण = δν – dR
= (μν – 1)A – (μR – 1) A
= (μν – μR)A

प्रश्न 6.
Why red lamp is used in signal of danger ? (खतरे की सूचना लाल बत्ती से ही क्यों दी जाती है?)
उत्तर:
लॉर्ड रैले (Lord Rayleigh) के अनुसार प्रकीर्णन तीव्रता (I) तरंग लम्बाई (λ) के forth power के व्युत्क्रमानुपाती होता है।
अर्थात् I ∝ \(\frac{1}{\lambda^{4}}\)
लाल रंग के प्रकाश की तरंग लम्बाई सबसे अधिक होती है।
अतः इसका प्रकीर्णन कम होता है। इस कारण से लाल वस्तु दूर तक चला जाता है। इससे हमें लाल बहुत दूर से ही दिखलाई पड़ने लगता है। अतः रेलवे में खतरे की सूचना लाल बत्ती से दी जाती है।

प्रश्न 7.
Compare the difference between diffraction and Interference. (प्रकाश के विवर्तन तथा व्यतिकरण की तुलना करें।)
उत्तर:

  • व्यतिकरण दो फलाबद्ध स्रोतों (coherent source) से निकलने वाली तरंगों के आपसी अध्यारोपण (Super position) के फलस्वरूप उत्पन्न होता है। परन्तु विवर्तन एक ही तरंगाग्र (wave front) के विभिन्न बिन्दुओं से चलने वाले Secondary wave lets के अध्यारोपण से उत्पन्न होता है।
  • व्यतिकरण में सभी चमकीली धारियाँ एक ही तीव्रता की होती हैं। परन्तु विवर्तन में सभी विभिन्न तीव्रताओं के रहते हैं।
  • व्यतिकरण में धारियों की चौथाई समान होती है परन्तु विवर्तन में समान नहीं रहती है।
  • व्यतिकरण धारियों में न्यूनतम प्रदीपन (minimum illumination) की स्थिति पूर्ण रूप से काली होती है। परन्तु विवर्तन में पूर्ण काली नहीं होती है।

प्रश्न 8.
What is meant by resolving power of an instrument? (यंत्र की विर्भेदन क्षमता का क्या अर्थ है?)
उत्तर:
किसी यंत्र की विभेदन क्षमता वह क्षमता है जो बहुत ही निकट के तरंग लम्बाई का प्रतिबिम्ब अलग-अलग बना लें। Na में 5890 Å तथा 5896Å तरंग लम्बाई के दो तरंगों बहुत निकट में रहते हैं। इसे अलग करने को विभेदन क्षमता कहते हैं।
इसकी माप इन दोनों द्वारा objective पर बनाये गये कोण से की जाती है। कोण के छोटा रहने पर विभेदन क्षमता अधिक होती है।

प्रश्न 9.
Explain the cause of presence of dark lines in solar spectra.
(सौर वर्णपट में काली रेखाओं की उपस्थिति का कारण बतलावें।)
उत्तर:
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 3 1
सूर्य के प्रकाश से लगातार वर्णपट प्राप्त होता है। इसमें सात रंग दिखलाई पड़ते हैं। फ्रॉन हाफर (Fraunhofer) नाम के एक वैज्ञानिक ने एक अच्छे यंत्र से देखकर यह पता लगाया कि वर्णपट में सात रंग के अलावा बहुत सी काली-काली रेखाएं हैं।
इन रेखाओं की उपस्थिति का कारण किरचॉफ (Kirchoff) ने बतलाया। इसके लिए उसने एक नियम दिया-“कम ताप पर स्थिर तत्त्व उसी तत्त्व से अधिक ताप स्रोतों से निकले प्रकाश को शोषित कर देता है।”

सूर्य के भीतरी भाग को “प्रकाश मंडल (Photo sphere) कहते हैं।” इसका ताप कई लाख डिग्री या सेन्टीग्रेड रहता है। इसके चारों ओर कम ताप वाला घेरा रहता है। इसे “काल मण्डल (Chromo sphere)” कहते हैं। प्रकाश मण्डल से जब प्रकाश चलता है तब इनमें से कुछ रंगों की रेखा को काल मण्डल शोषित कर लेता है। इसके फलस्वरूप सौर वर्णपट में बहुत.सी काली रेखाएँ दिखलाई पड़ती हैं।

प्रश्न 10.
What is photo cell?(प्रकाश का फोटो सेल क्या है?)
उत्तर:
फोटो सेल एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें प्रकाश ऊर्जा को विद्युत ऊर्जा में बदला जा सकता है। यह प्रकाश विद्युत प्रभाव के सिद्धान्त पर बनी रहती है। यह मुख्यतः दो प्रकार का होता है-

  1. प्रकाश उत्सर्जक सेल (Photo emissive cell)
  2. प्रकाश वोल्टीय सेल (Photo voltaic cell)

उपयोग –

  1. सिनेमाओं में ध्वनि के पुनः उत्पादन (reproduction) में।
  2. टेलीविजन तथा फोटोग्राफी में।
  3. अन्तरिक्ष में Solar battery द्वारा विद्युत उत्पन्न में।
  4. सड़कों पर बत्तियों के अपने-आप जलने या बुझने में तथा crossing पर signal देने के काम में.
  5. दरवाजों को अपने-आप खोलने तथा बन्द करने में।
  6. बैंक, खजानों इत्यादि में चोरों की सूचना देने के काम में।
  7. मौसम विज्ञान विभाग में दिन के प्रकाश की तीव्रता मापने के काम में।
  8. तारों के ताप मापने के काम में।

प्रश्न 11.
समान फोकस दूरी के एक अवतल एवं एक उत्तल लेंस समाक्षीय रूप में एक दूसरे से सटाकर रखे गये हैं। इस संयोग की क्षमता एवं फोकस दूरी ज्ञात करें।
उत्तर:
मान लिया उत्तल एवं अवतल लेसों की क्षमता क्रमशः P, एक P, है तो इस संयोग की क्षमता होगी-
P = P1 + P2
लेकिन यह P2 = -P1 है क्यों कि दोनों की क्षमता समान लेकिन प्रकृति विपरित है।
अतः P = P1 + (-P1) = 0 (शून्य)
अर्थात् इस संयोग की क्षमता शून्य होगी।
लेकिन P = \(\frac{1}{f}\)
⇒ f = \(\frac{1}{p}\) = \(\frac{1}{0}\) = ∞
अर्थात् फॉकस दूरी अनन्त होगी।
अतः यह संयोग एक सामान्य कांच की प्लेट जैसा कार्य करेगा।

प्रश्न 12.
पूर्ण आंतरिक परावर्तन क्या है? इसके लिए दो आवश्यक शर्तों को लिखें।
उत्तर:
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 3 2
पूर्ण आन्तरिक परावर्तन : जब प्रकाश किरण सघन माध्यम से विरल माध्यम में प्रवेश करता है तो अपवर्त्तन के कारण यह अविलम्ब से दूर हट जाता है। अर्थात् r > i होता है। i का मान बढ़ाने के साथ r का मान भी बढ़ता जाता है और i के एक विशेष मान ic पर r = 90° हो जाता है। अब अगर i का मान और बढ़ाया जाय तो किरण दूसरे माध्यम से प्रवेश नहीं कर पाता है बल्कि उसी माध्यम में लौट आता है अर्थात् इसका पूर्ण आन्तरिक परावर्तन हो जाता है। 90° के अपवर्त्तन कोण के संगत आपतन कोण ic को क्रांतिक कोण कहा जाता है जिसका मान दोनों माध्यमों की प्रकृति
पर निर्भर करता है तथा sinic = \(\frac{\mu_{1}}{\mu_{2}}\)

पूर्णतः आन्तरिक परावर्तन के लिए शर्त-

  1. प्रकाश सघन से विरल की ओर चलना चाहिए
  2. i > ic होना चाहिए।

प्रश्न 13.
ऑप्टिकल फाइवर क्या है?
उत्तर:
ऑप्टिकल फाइवर: यह एक प्रकाशिक युक्ति जिसकी सहायता से बिना तीव्रता क्षय के प्रकाश को एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रेषित किया जाता है। यह पूर्ण आन्तरिक परावर्तन के सिद्धान्त पर कार्य करता है। इसके केन्द्रीय भाग में उच्च कोटि के काँच या क्वार्टज होता है जिसे क्रोड कहा जाता है। यह कम अपवर्तन में आवरण से घिरा रहता है जिसे cladin कहा जाता. है। क्लैडिंग भी एक कवर से ढंका रहता है जिसे Jacket कहा जाता है। एक से लेकर कई सौ फाइवर मिलकर केवल (cable) बनाते हैं।

आज कल इसका उपयोग अनेक रूपों में किया जा रहा है। जैसे-

  1. चिकित्सीय जाँच में लाइट पाइप के रूप में
  2. प्रकाशीय संकेतों के सम्प्रेषण में
  3. इसका उपयोग विद्युत संकतों को भी सूदूर स्थानों पर भेजने में भी किया जाता है।

प्रश्न 14.
व्योम तरंग (Sky Wave) एवं अतरिक्ष तरंग (Space Wave) की व्याख्या करें।
उत्तर:
व्योम तरंगः वे तरंग जो ट्रांसमीटर के ऐंटेना से निकलकर पृथ्वी के वायुमण्डल के उपरी परत (आयन मंडल) से टकराकर कर लौटती है और रिसीवर ऐंटेना तक पहुंचती है, व्योम तरंग या आकाश तरंग या आयनोस्फेरिक तरंग कहलाती है। यह 2MHg से 30 MHg आवृत्ति परास की होती है। आयन मंडल से परावर्तित होने वाले तरंग की यह क्रम आवृत्ति-
Vc = 9 (Nmax)1/2 होता है जिसे क्रांतिक आवृत्ति कहा जाता है।
जहाँ  Nmax = आयन मंडल में इलेक्ट्रॉन घनत्व है।

आतंरिक तरंग : वे तरंगें जो ट्रांसमीटर ऐंटीना से रिसीवर ऐंटिना तक या तो सीधे या पृथ्वी के ट्रॉपोस्फेयर क्षेत्र से परावर्तित होकर पहुँचती है, अंतरिक्ष तरंग या ट्रॉपोस्फेरिक तरंग कहलाता है। ये अति ऊच्च आवृत्ति (30 MHg से 300 MHg) या (ज्यादा) की रेडियो तरंग होती है। टेलीविजन सिगनल का प्रसारण अंतरिक्ष तरंग के रूप में होता है।

प्रश्न 15.
What are Fraunhofer lines?
(फ्रॉनहाफॅर रेखाएँ क्या हैं?)
उत्तर:
सूर्य के प्रकाश से लगातार वर्णपट प्राप्त होता है। इसमें सात रंग दिखलाई पड़ते हैं। “फ्रॉनहाफॅर (Fraunhofer)” नाम के एक वैज्ञानिक ने एक अच्छे यंत्र से देखकर यह पता लगाया कि इस वर्णपट में सात रंग के अलावे बहुत सी काली-काली रेखाएँ हैं। इसकी संख्या लगभग 700 है। इसमें से कुछ काली रेखाएँ स्पष्ट तथा कुछ अस्पष्ट होते हैं। Fraunhofer ने स्पष्ट रेखाओं का नाम A, B,C, D, E, F,G, H तथा K रखा। इसे “Fraunhofer lines” कहते हैं।

मध्य A रेखा लाल रंग के आखिरी छोर में, B तथा C रेखा लाल रंग के मध्य में, D रेखा पीला तथा नारंगी के मध्य में, E हरा रंग के नजदीक, F आसमानी के नजदीक, G नीला भाग में तथा H और K रेखा बैंगनी रंग के किनारों पर रहता है।
इन रेखाओं की उपस्थिति का कारण किरचाफॅ (Kirchoff) ने बतलाया।

प्रश्न 16.
Do x-rays and y-rays have same nature of origin? (क्या x-किरण एवं y-किरण की उत्पत्ति एक ही तरह से नहीं होती है?)
उत्तर:
x-किरण एवं y-किरण की उत्पत्ति एक ही तरह से नहीं होती है-

  1. सतत् x-किरण (Continuous x-rays)
  2. अभिलाक्षणिक-किरण (Characteristic-x-rays)

(1) सतत् किरण की उत्पत्ति की व्याख्या इस प्रकार दी जाती है – जब कभी आविष्ट कण त्वरित होता है तो विद्युत चुम्बकीय तरंग (Electro magnetic wave) उत्पन्न करती है। इलेक्ट्रॉन भी एक आविष्ट कण है। जब वह लक्ष्य (target) से टकराता है तो उसका अवमंदन होता है और वह x-ray उत्पन्न करता है।

(2) अभिलाक्षणिक x-ray की उत्पत्ति की व्याख्या इस प्रकार दी जाती है – जब कैथोड किरण लक्ष्य पर आपतित होती है और लक्ष्य के परमाणु के काफी अन्दर जाती है तो k अथवा m कक्षा के रिक्त स्थान को भरने के लिए ऊर्जा स्तर वाले कक्षा में इलेक्ट्रॉन कूद कर आता है। दोनों कक्षाओं के इलेक्ट्रॉन की ऊर्जा में जो अन्तर है वह अभिलाक्षणिक x-ray के रूप में प्रकट होता है।

y-किरण की उत्पत्ति – स्थायी न्यूक्लियस को न्यूनतम ऊर्जा होती है और वह भू-दशा (ground state) में होता है। इसे अधिक ऊर्जा वाले कण का फोटॉन द्वारा बमबारित कर उत्तेजित किया जा सकता है। जब कोई उत्तेजित न्यूक्लियस भू-दशा में आता है तो y-किरण की उत्पत्ति होती है।

प्रश्न 17.
What do you understand by photo electric effect. (प्रकाश विद्युत प्रभाव से आप क्या समझते हैं?)
उत्तर:
प्रकाश के प्रभाव से कुछ धातुओं से electron उत्सर्जित होता है। इससे विद्युत की उत्पत्ति होती है। इस घटना को प्रकाश विद्युत प्रभाव (Photo electric effect) कहते हैं।
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 3 3
इसका आविष्कार सबसे पहले एक टेलीग्राफ ऑपरेटर W. Smith ने 1873 ई० में किया। फिर कुछ वर्षों बाद 1887 में हर्ट्स (Hertz) ने भी इसकी पुष्टि की। उसने कहा कि कैथोड पर पराबैंगनी प्रकाश (ultraviolet light) डालने से इस नलिका से विद्युत विसर्जन सुगमता से हो जाता है। फिर एक वर्ष बाद हालवेश (Hallwachs) ने हर्ट्स के प्रयोग को और आगे बढ़ाया।

हालवेश ने इसके लिए एक बल्ब लिया। इसके अन्दर की हवा को उसने निकाल दिया। बल्ब के अन्दर जस्ते का दो प्लेट A और C रखा। इसमें एक प्लेट (+ve) तथा दूसरे प्लेट (-ve) से जुड़ा रहता है। इन्हें एक galv. के द्वारा विद्युत बैट्री से जोड़ा जाता है।

(-ve) प्लेट पर पराबैंगनी प्रकाश डालने से galv. में विक्षेप होता है। पराबैंगनी प्रकाश डालना बन्द कर देने पर विक्षेप शून्य हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि केवल (-ve) प्लेट पर ही पराबैंगनी प्रकाश डालने से धारा प्रवाहित होता है। हालवेश इस घटना का कोई कारण बतला नहीं सके।

फिर 1900 में J. J. Thomson तथा P. Leonard ने अपने प्रयोगों में दिखलाया कि धातुओं पर प्रकाश डालने से उससे Negative charged कण निकलते हैं। यह कण Electron के समान है। अतः इसे “Photo electron” ( प्रकाश इलेक्ट्रॉन) कहते हैं। यह धन प्लेट की ओर आकर्षित होते हैं। इसके चलने से परिपथ में धारा बहने लगती है। इस धारा को “प्रकाश विद्युत प्रभाव” (Photo electric effect) कहते हैं। A पर प्रकाश के आपतित होने पर यह बात नहीं होती है।

प्रश्न 18.
What are n-type and p-type of semi conductor ?  (n-प्रकार और P-प्रकार के अर्द्ध-चालक क्या हैं ?)
उत्तर:
अर्द्धचालक पदार्थ चालक एवं विद्युतरोधी पदार्थ के बीच में होते हैं। जरमेनियम तथा सिलिकन अर्द्धचालक पदार्थ हैं। शुद्ध अर्द्ध-चालकों की चालकता कमरे की ताप पर बहुत कम होती है। कुछ अपद्रव्य (impurity) मिलाकर उसकी चालकता बढ़ायी जा सकती है। अपद्रव्य मिलाने पर परिणामी क्रिस्टल को चालकता मिलाये गये अपद्रव्य के द्रव्यमान एवं प्रकार पर निर्भर करती है। मिलाया गया अपद्रव्य दाता (donar) अथवा ग्राही (acceptor) किसी भी प्रकार का हो सकता है। यदि शुद्ध जरमेनियम में (एक अर्द्धचालक) जो चतुसंयोगी तत्त्व है, परिमाण में पंचसंयोगी तत्त्व जैसे आर्सेनिक मिलाया जाता है, तो इससे जो पदार्थ बनता है उसमें इलेक्ट्रॉनों का आधिक्य रहता है। इस प्रकार बने क्रिस्टल को n-प्रकार का अर्द्धचालक अथवा दाता प्रकार का अर्द्धचालक कहा जाता है।

जरमेनियम में ही कम परिमाण में विसंयोगी तत्त्व जैसे मिला देने पर जो पदार्थ बनता है उसमें छिद्रों (holes) का आधिक्य रहता है। अपद्रव्यों के परमाणुओं को जो छिद्र करने में मदद करते हैं। ग्राही कहा जाता है। क्योंकि ये जरमेनियम परमाणु से इलेक्ट्रॉन ग्रहण करते हैं। इस प्रकार के अर्द्धचालक को P-प्रकार का अर्द्धचालक कहा जाता है।

प्रश्न 19.
What is Isotopes?
(आइसोटोप क्या है ?)
उत्तर:
एक ही तत्त्व के ऐसे परमाणु जिसके Atomic number समान परन्तु Atomic weight असमान हो तो उसे उस तत्त्व का Isotopes कहते हैं। अतः इसे किसी भी रासायनिक क्रिया द्वारा अलग करना संभव नहीं है। इन्हें विसरण द्वारा अलग किया जा सकता है।

हाइड्रोजन के तीन Isotopes हैं। परमाणु भार 1-2 तथा 3 हैं। इनमें से एक परमाणु-भार वाले को हाइड्रोजन, 2 परमाणु.भार वाले को deuterium या भारी हाइड्रोजन (Heavy hydrogen) D तथा 3 परमाणु भार वाले को ट्रिटियम (Tritium)T कहते हैं। इन्हें क्रमशः H1, H2,H3 से दिखलाते हैं। ऑक्सीजन के तीन Isotopes हैं जिनके परमाणु भार क्रमशः 16,17 तथा 18 हैं। क्लोरीन के दो Isotopes हैं जिनके परमाणु भार 35 और 37 है।

प्रश्न 20.
What do you understand by Nuclear fission and Nuclear fusion? (नाभिकीय विखंडन तथा नाभिकीय संलग्न से क्या समझते हैं?)
उत्तर:
नाभिकीय विखंडन – 1939 ई० में दो जर्मन वैज्ञानिक ओटोहान (Ottohaun) और स्ट्रासमैन (Starssman) ने एक नवीन खोज की। उन्होंने देखा कि जब यूरेनियम पर तीव्रगामी न्यूट्रॉन की बमबारी की जाती है तब यह दो खण्डों में टूट जाते हैं। ये खण्ड क्रमशः बेरियम (Br) तथा क्रिप्टन (Kr) है। इसके अलावा इसमें अन्य न्यूट्रॉन तथा बहुत अधिक ऊर्जा भी उत्पन्न होती है। इस घटना को “नाभिकीय विखण्डन” कहते हैं। इस घटना से उत्पन्न ऊर्जा को “नाभिकीय ऊर्जा” कहते हैं।
इसे निम्न समीकरण से दिखलाया जाता है।
Bihar Board 12th Physics Important Questions Short Answer Type Part 3 4
इस क्रिया में 3 न्यूट्रॉन प्राप्त होते हैं। ये तीनों फिर तीन यूरेनियम को विखंडित करते हैं जिसमें 9 न्यूट्रॉन, यूरेनियम के 9 परमाणु को विखंडित करते हैं। इस प्रकार एक Chain reaction प्राप्त होता है।

नाभिकीय संलग्न (Nuclear fusion)-जब हल्के तत्त्वों के दो नाभिक बहुत तेजी से एक-दूसरे से मिलते हैं तो इससे भारी नाभिक का निर्माण होता है। इसकी मात्र, हल्के तत्त्वों के नाभिकों से कुछ कम होता है। यह मात्र ऊर्जा के रूप में परिणत हो जाता है। यह Eeinstein के समीकरण E = mc2के अनुसार होता है। इस क्रिया को “नाभिकीय संलग्न” या ऊष्मा “नाभिकीय प्रतिक्रिया” कहते हैं।

बेथे (Bethe) के अनुसार यह क्रिया सूर्य पर बराबर दो तरह से होते रहते हैं।

  1. प्रोटॉन-2 चक्र द्वारा
  2. कार्बन-नाइट्रोजन चक्र द्वारा इस प्रकार Semi conductor, rectifier की तरह काम करता है।

प्रश्न 21.
What is Boolean Algebra?
(बूलियन बीजगणित क्या है ?)
उत्तर:
अंग्रेज गणितज्ञ “जार्ज बूलि” (Jarge Booli) ने सबसे पहले इस बीजगणित का व्यवहार किया। यह गणित की एक पद्धति है जो मौलिक नियमों (Fundamental laws) पर आधारित हैं। इससे अनेकों तरह के व्यंजक प्राप्त किये जा सकते हैं। इस बीजगणित के सिद्धान्त पर Computer के electronic circuit पर आधारित है। इसमें बूलियन ने सामान्य कहा तथा Logical statement में सभी प्रश्नों के उत्तर “हाँ” या “ना” अर्थात् “सत्य (Truth)” या गलत (False) में होते हैं। ऐसे उत्तर को “1” या “0” से निरूपित करते हैं।

बूलियन बीजगणित के तीन आधार हैं, जिसे “बूलियन ऑपरेटर (Boolean Operator)” कहते हैं।

  1. OR
  2. AND
  3. NOT

प्रश्न 22.
What is transistor? (ट्रांजिस्टर क्या है?)
उत्तर:
Transistor एक प्रकार का अर्द्धचालक साधन (Semi conductor device) है। इसका उपयोग एक amplifier तथा oscillator की तरह किया जा सकता है। यह आकार में छोटा, सस्ता तथा अधिक आयु (life) वाला होता है। यह Triode valve के स्थान पर प्रयोग किया जाता है।

प्रारम्भ में इसका आविष्कार John Bardeen और Walter ने किया था। फिर इसमें William Bradford ने सुधार किया। इसे Radio तथा टेलीविजन के receivers के रूप में प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 23.
Describe the properties of electro magnetic waves. (विद्युत चुम्बकीय तरंगों के गुण का वर्णन करें!)
उत्तर:
(i) विद्युत चुम्बकीय तरंगें त्वरित आवेश से उत्पन्न होता है।

(ii) इसका संचारण विद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्रों के परिवर्तित रूप में होता है। इसका क्षेत्र एक-दूसरे के लम्बवत् तथा तरंगों की दिशा में भी होता है। इस कारण से यह अनुप्रस्थ तरंग के रूप में चलता है।

(iii) विद्युत चुम्बकीय तरंगों को आगे पढ़ने के लिए किसी माध्यम की जरूरत नहीं पड़ती है।

(iv) विद्युत चुम्बकीय तरंगों तथा प्रकाश का वेग free space में समान होता है।

(v) Free space में विद्युत चुम्बकीय तरंगों का चाल होता है।
C = \(\frac{1}{\sqrt{\mu_{0} \epsilon_{0}}}\)
जहाँ μ0 तथा ∈0 निर्वात (vacum) की चुम्बकनशीलता तथा विद्युतशीलता है।
परन्तु किसी माध्यम से,
चाल C = \(\frac{1}{\sqrt{\mu \in}}\)
जहाँ μ तथा μ माध्यम की चुम्बकनशीलता तथा विद्युतशीलता है।

(vi) तरंगों के अध्यारोपण (Super position of waves) के सिद्धान्त पर विद्युत चुम्बकीय तरंग काम करता है।

प्रश्न 24.
Why sky waves are not used in the transmission of TV signal? (TV signal के संचारण में क्यों sky wave का उपयोग नहीं किया जाता है ?)
उत्तर:
40. Hz आवृत्ति के ऊपर के signal को ionosphere पृथ्वी पर परावर्तित करने में असमर्थ होता है। TV signal की आवृत्ति 100 से 200 MHz होती है। अत: Sky wave से इस आवृत्ति के signal का संचारण संभव नहीं हो पाता है।

प्रश्न 25.
Discuss the spectrum of electromagnetic radiation. (विद्युत चुम्बकीय विकिरण के वर्णपट का वर्णन करें।)
उत्तर:
तरंग लम्बाई या आवृत्ति के आधार पर विद्युत चुम्बकीय विकिरण के वितरण को “विद्युत चुम्बकीय वर्णपट” कहते हैं।

इसे निम्न श्रेणियों में बाँटा जाता है-
(i) Radio waves – इन तरंगों की तरंग लम्बाई कुछ किलोमीटर में 3.3 m तक होता है। इसकी आवृत्ति कुछ Hz से 109 Hz के बीच होता है। इन तरंगों का TV तथा रेडियो के प्रसारण में किया जाता है।

(ii) Micro waves – इन तरंगों की तरंग लम्बाई 0.3m से 10-3 m तक होता है। इसकी आवृत्ति 109 Hz से 3 × 1011 Hz के बीच होता है। इसका उपयोग Radar तथा Communication प्रणाली में किया जाता है।

(iii) Infrared spectrum – इसकी तरंग लम्बाई 10-3 m आवृत्ति 3 × 1011 Hz से 4 × 104 Hz के बीच होता है। इसका उपयोग उद्योग, दवा इत्यादि में किया जाता है।

(iv) Optical spectrum – इसकी तरंग लम्बाई 7.8 × 10-7 m से 3.8 × 10-7m तक होता है। इसकी आवृत्ति 4 × 104 Hz से 8 × 1014 Hz के बीच होता है। प्रकाश में इसका बहुत उपयोग किया जाता है।

(v) Ultra violet rays – इसकी तरंग लम्बाई 3.8 × 10-7 m से 6 × 10-10 m के बीच होती है। इसकी आवृत्ति 8 × 1014 Hz से 5 × 1019 Hz के बीच होता है। इसका उपयोग दवा तथा Sterilisation processes में किया जाता है।

(vi) x-rays – इसकी तरंग लम्बाई 10-9m से 6 × 1012 m के बीच होती है। इसकी आवृत्ति 3 × 1017Hz से 5 × 1019 Hz के बीच होता है। इसका उपयोग शरीर के अन्दर टूटी हड्डी, कोई रोग का पता लगाने में किया जाता है। Cancer में दवा के रूप तथा tissue को नष्ट करने के काम में आता है।

(vii) Gamma rays – इसकी तरंग लम्बाई 10-10 m से 1014 m तक होता है। इसकी आवृत्ति 3 × 1018 Hz से 3 × 1022 Hz के बीच होता है।

प्रश्न 26.
दशमलव (Decimal) संख्या को द्विआधारी (Binary) संख्या में बदलें।
(a) (25)10 को बदलना- 25 = 12 × 2 + 1
12 = 6 × 2 +0
6 = 3 × 2 +0
3 = 1 × 2 + 1
1= 0 × 2 + 1
∴ (25)10 = (11001)2

(b) भिन्न (fraction) अर्थात् (0.8125)10 को बदलना-
0.8125 × 2 = 1.6250.
0.6250 × 2 = 1.2500
0.2500 × 2 = 0.5000
0.5000 × 2 = 1.0000 ∴ (0.8125)10 = (0.1101)2
(a) तथा (b) को एक साथ मिलाने पर,
(25.8125)10 = (11001.1101)2

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
गर्भावस्था में आहार के महत्व की विवेचना करें।
उत्तर:
प्राचीनकाल से ही गर्भावस्था के दौरान स्त्रियों को दिए जानेवाले भोजन के विषय में खास ध्यान दिया जाता रहा है। उस समय यह मान्यता थी कि गर्भवती में स्त्री जो कुछ भी खाती पीती है उसका सीधा प्रभाव गर्भस्थित शिशु पर पड़ता है। फलतः विभिन्न समाजों में इस तरह के दृढ़ नियम बन गए कि गर्भवती स्त्री को क्या खाना चाहिए।

गर्भावस्था में स्त्री का वजन 7 से 10 किलोग्राम तक बढ़ जाता है। जन्म के समय बच्चे में काफी मात्रा में लोहा, प्रोटीन, विटामिन सी तथा दूसरे विटामिन होते हैं। यह सभी उसे माँ के शरीर से या अंगों से मिलते हैं। इसलिए गर्भावस्था में कमजोर खुराक मिलना एक ऐसा खतरा है जिससे कई बार जन्म देते वक्त माँ की मृत्यु हो जाती है अथवा जन्म से पहले साल में ही बच्चे की मौत हो जाती है। एक सर्वेक्षण से पता चला कि यदि गर्भवती स्त्री को पौष्टिक भोजन दिया जाए तो उसे प्रसव के समय अधिक कष्ट नहीं होता तथा उसका बच्चा सदैव स्वस्थ एवं हष्ट-पुष्ट रहता है।

पौष्टिक आवश्यकताएँ (Nutritional Requirement) :
(i) ऊर्जा (Energy)- गर्भकाल के प्रथम तीन मास में अधिक कैलोरीज की आवश्यकता नहीं है किन्तु द्वितीय और तृतीय अवस्था में लगभग 300 कैलोरीज सामान्य आवश्यकता के अलावा लेना जरूरी है। परंतु एक मोटी स्त्री का यदि गर्भावस्था में वजन बढ़ता है तो उसे कम कैलोरीज लेना ही उचित है।

(ii) प्रोटीन (Protein)- प्रोटीन से शरीर की सूक्ष्मतम इकाई-कोशिका की रचना होती है और कोशिकाओं से शिशु का शरीर बनता है और बढ़ता है। चतुर्थ मास के बाद प्रोटीन अत्यन्त आवश्यक हैं साधारण स्त्री के भोजन से गर्भवती के भोजन में 1 ग्राम उत्तम श्रेणी का प्रोटीन अधिक होना चाहिए। अन्तिम छ: महीने में लगभग 850 ग्रा० प्रोटीन का भण्डारण होता है। इसमें से आधा बच्चे के शरीर की वृद्धि और शेष माता के बढ़ते हुए तन्तुओं के लिए आवश्यक है।

अतः प्रोटीनयुक्त पदार्थ जैसे दूध, पनीर, अण्डा, मांस, मछली, दालें, सोयाबीन, मेवे आदि की मात्रा बढ़ानी चाहिए।

(iii) खनिज लवण (Mineral Salts)- लवण शरीर की मांसपेशियों के उचित संगठन और शरीर की क्रियाओं को नियमित रखने के लिए आवश्यक हैं। गर्भावस्था में कैल्शियम, लोहा आदि की आवश्यकता अधिक होने के कारण ही उनके पोषण में जरूरत बढ़ जाती है।

(iv) कैल्शियम (Calcium)- कैल्शियम का भोजन में पाया जाना जरूरी हैं हड्डियों के निर्माण एवं वृद्धि के लिए कैल्शियम और फॉस्फोरस की अत्यन्त आवश्यकता है। जन्म के समय बच्चे के शरीर में लगभग 22 ग्रा. कैल्शियम होता है जिसका अधिकांश भाग उसे आखिरी के एक महीने में मिलता है। यदि स्त्री के आहार में अपनी और भ्रूण की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पूर्ण कैल्शियम न हो तो माता के अपने शरीर के कैल्शियम का अपहरण होता है। यदि गर्भावस्था से पूर्व ही स्त्री अपोषण (Under Nutrition) से पीड़ित हो तो गर्भावस्था में उसके भोजन में प्रोटीन और कैल्शियम आदि सामान्य मात्रा से अधिक होना चाहिए। गर्भवती को 1.3 से 1.5 ग्राम प्रतिदिन कैल्शियम की जरूरत होती है।

(v) फॉस्फोरस (Phosphorous)- फास्फोरस का उपभोग कैल्शियम के साथ किया जाता है। यह गर्भावस्था में भ्रूण के शरीर की वृद्धि के लिए अति आवश्यक है। इसकी सहायता से अंस्थियों का निर्माण होता है। फॉस्फोरस की आवश्यकता आहार में पर्याप्त कैल्शियम होने पर स्वतः पूर्ण हो जाती है क्योंकि यह बहुधा उन्हीं खाद्य पदार्थों में पाया जाता है जिनमें कैल्शियम एएए अारा है। इसके अतिरिक्त कैल्पिएएए और फॉस्फोरस के सुपिक-ऐ-शुटिक सुत्रपऐपए के लिए आहार में विटामिन डी का आवश्यक मात्रा में होना आवश्यक है।

(vi) लोहा (Iron)- गर्भकाल में स्त्री को लोहे की आवश्यकता होती है। इसकी कमी से रक्त में हीमोग्लोबिन की कमी हो जाती है। सम्पूर्ण गर्भावस्था में गर्भवती महिला को 700-1000 मि. ग्रा. लोहे को शोषित करना जरूरी है। गर्भावस्था में माता के रक्त में वृद्धि होती है तथा शिशु का रक्त बनता है जिसके लिए गर्भवती को प्रतिदिन अधिक लोहे की आवश्यकता है।

(vii) आयोडीन (Iodine)-गर्भावस्था में आयोडीन की आवश्यकता भी साधारण अवस्था से बढ़ जाती है। भोजन में आयोडीन की कमी होने से माँ और शिशु दोनों को गलगण्ड, घेघा, (Goiter) रोग होने की संभावना रहती है। गर्भकालीन स्थिति में अबट ग्रंथि (Thyroid Gland) अत्यधिक क्रियाशील होती है। आयोडीन की कमी होने पर ग्रंथि थाइराक्सिन नामक अन्त:स्राव (Hormone) निर्मित करने का कार्य भी सम्पन्न करने लगती है जिसके फलस्वरूप इसकी वृद्धि हो जाती है। आयोडीन शरीर में ग्रंथियों (Glands) के द्वारा हारमोन्स उत्पन्न करने में सहायता करता है। अत: हरी पत्तेदार सब्जियाँ, अनाज तथा सामूहिक वनस्पति ऐसे ही खाद्य-पदार्थ हैं जिन्हें अपने आहार में सम्मिलित करने से आयोडीन की मात्रा सरलता से प्राप्त हो सकती है।

प्रश्न 2.
आहार आयोजन के सिद्धान्त उदाहरण सहित समझाइये। एक किशोरी के लिए एक दिन की भोजन तालिका बनाइए।
उत्तर:
आहार आयोजन के सिद्धान्त :
(i) परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना (Economic Status of the Family)- उचित आहार आयोजन के द्वारा पारिवारि आर्थिक स्थिति के अनुसार श्रेष्ठ आहार उपलब्ध कराया जाना सम्भव है। अतः अहार आयोजन करने से पूर्व परिवार की आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखा जाता है क्योंकि कम खर्च में भी वे सभी पौष्टिक तत्व प्राप्त किए जा सकते हैं जो कि महँगे खाद्य पदार्थों से प्राप्त होते हैं, जैसे अंडे से प्रोटीन प्राप्त होता है। इसकी तुलना में सोयाबीन से भी उत्तम श्रेणी का प्रोटीन प्राप्त होता है। इसी प्रकार से महंगे मछली के तेल की तुलना में मौसमी फल (जैसे-पपीता, आम) या सब्जी (जैसे-गाजर) विटामिन A के अच्छे और सस्ते स्रोत हैं।

(ii) समय तथा श्रम की मितव्ययिता का ध्यान रखना (Saving Time and Labour)- आहार आयोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि समय और श्रम दोनों ही व्यर्थ न जाए और सही समय पर पौष्टिक भोजन भी तैयार मिले, जैसे सुबह का नाश्ता-एक परिवार जिसमें पति-पत्नी को ऑफिस जाना हो तथा बच्चों को स्कूल जाना हो तो ऐसे में जल्दी-जल्दी नाश्ता भी बनेगा और दोपहर का लंच भी पैक होगा। ऐसी अवस्था में इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जो भी आहार आयोजित किया जाए वह जल्दी बने तथा उसे ऑफिस एवं स्कूल ले जाने में कठिनाई न हो। समय तथा श्रम की बचत करने के लिए अनेक उपकरणों जैसे प्रेशर कूकर, मिक्सर, ग्राइंडर, फ्रिज इत्यादि का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। .

(iii) उत्सवों का ध्यान रखना (Celebration)- आहार आयोजन करते समय विभिन्न उत्सवों का भी ध्यान रखना चाहिए। इसके अतिरिक्त यदि कोई जन्मदिन पार्टी हो या कोई पर्व व त्यौहार हो तो उसके अनुसार ही आहार का आयोजन करना चाहिए।

(iv) सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताओं का ध्यान रखना (Social & Religious Sanction)- किसी विशेष अवसर पर आहार आयोजित करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जिस व्यक्ति के लिए आहार-नियोजन किया जा सका है उसकी सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताएँ क्या है, जैसे कुछ व्यक्ति प्याज नहीं खाते, कुछ लहसुन नहीं खाते, कुछ अंडा मांस, मछली इत्यादि नहीं खाते।

(v) आहार पकाते समय पौष्टिक तत्वों को नष्ट न होने देना (Protecting the Nutrients While Cooking)- आहार आयोजन करते समय आहार बनाने की विधि की ओर भी विशेष ध्यान रखना चाहिए। आयोजन आहार ऐसी विधि से बनाया जाना चाहिए जिससे आहार के पौष्टिक तत्व कम-से-कम नष्ट हो और वह पाचनशील हो।

(vi) आहार द्वारा क्षुधा संतुष्टि हो (Providing Satisfy)- आहार आयोजन करते समय : इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि जो भी कुछ खाएँ उससे पेट भरने की संतुष्टि हो। उदाहरण के लिए यदि शरीर को कार्बोज की आवश्यकता हो तो टॉफी खाई जा सकती है पर टॉफी खाने से पेट भरने की संतुष्टि नहीं होती। इसकी तुलना में यदि आलू (उबालकर, भूनकर अथवा चाट बनाकर) खाया जाए तो कार्बोज की आवश्यकता भी पूरी होती है और पेट भी भरता है।

एक किशोरी के लिए दिन की भोजन तालिका
1. दूध – 1 कप
2. भरा हुआ पराठा – 2
3. टमाटर चटनी – 2 चम्मच
4. टिफिन सेब अथवा संतरा
5. दोहपर का सांभर – 1 कटोरी
6. भोजन उबले चावल – 1 प्लेट
7. मेथी आलू – 1/4 कटोरी
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2, 1

प्रश्न 3.
किशोरावस्था में आहार आयोजन करते समय किन-किन बातों का ध्यान रखना आवश्यक है ?
उत्तर:
किशोरावस्था तीव्र गति से वृद्धि तथा विकास की अवस्था है। 13 से 18 वर्ष के बालक को किशोर कहा जाता है। इस आयु में शारीरिक, मानसिक तथा भावानात्मक परिवर्तन होते हैं। कंकाल तंत्र तथा पेशीय तंत्र की वृद्धि तथा विकास होता है, यौन अंग परिपक्व होते हैं। शारीरिक संरचना में तीव्र परिवर्तन के कारण यह अवस्था शारीरिक एवं संवेगात्मक दबाव की अवधि होती है। वृद्धि को प्रोत्साहित तथा बढ़ाने में आहार एक जटिल भूमिका निभाता है।

किशोरी के लिए आहार आयोजन करते समय विशेष ध्यान रखने योग्य बातें निम्नलिखित हैं-

  • आयु वर्ग (13 से 15 या 16-18 वर्ष)
  • लिंग (लडका/लडकी)
  • आय वर्ग (निम्न वर्ग, मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग
  • दिनचर्या-क्रियाकलाप
  • पौष्टिक तत्वों की पर्याप्त-संतुलित आहार
  • स्वीकृति-भोजन संबंधी आदतें
  • खाद्य पदार्थों की स्थानीय उपलब्धता
  • वृद्धि दर की गति (तीव्र या मंद)

आहार आयोजन में खाद्य पदार्थों का चयन करते समय निम्नलिखित बातों का भी ध्यान जरूरी है-

  • प्रत्येक आहार में प्रत्येक खाद्य वर्ग के पदार्थ अवश्य सम्मिलित करें।
  • प्रोटीन तथा कैल्शियम के लिए दूध, मांस, मछली, अंडा को सम्मिलित करें।
  • प्रोटीन की किस्म को बढ़ाने के लिए अनाज व दालों को मिलाकर प्रयोग करें।
  • भोजन में पर्याप्त मात्रा में तरल पदर्थों का समावेश भी आवश्यक है-सूप, जूस, आदि दें ताकि पर्याप्त खनिज लवण व विटामिन तत्व मिल सके।
  • आहार में तले हुए, मिर्च मसाले वाले गरिष्ठ भोजन नहीं सम्मिलित करना चाहिए ताकि इस अवस्था में मुहांसे और पेट की गड़बड़ियाँ होने का डर रहता है।
  • इस आयु में कब्ज होने की शिकायत रहती है इसलिए रेशेदार पदार्थ, जैसे-कच्ची सब्जियाँ, फल, सलाद इत्यादि आहार में होना जरूरी है।
  • आहार में किशोरों के रूचि के अनुसार भी खाद्य पदार्थों को सम्मिलित करना चाहिए।
  • आहार में खाद्य पदार्थों के रंग, सुगंध व बनावट पर भी ध्यान देना चाहिए, इससे भोजन को आकर्षण व भूख बढ़ती है।
  • किशोरों के भोजन करने के समय को निश्चित रखना चाहिए।
  • इस आयु में समय-समय पर शरीर का भार ज्ञात करवाते रहना चाहिए। शरीर भार यदि सामान्य भार से कम या अधिक हो तो भोजन में कैलोरीज की मात्रा बढ़ा या कम कर देनी चाहिए। गलत आदतें (भोजन संबंधी) किशोरों के सामान्य वृद्धि में बाधक हो सकती है या दिल की बीमारी, मोटापा और कुपोषण का कारण बन सकती हैं। इसलिए किशोरों के लिए आहार आयोजन में इसकी महत्वपूर्ण बातों का ध्यान जरूर रखना चाहिए।

प्रश्न 4.
आहार आयोजन से आप क्या समझती हैं ? इनके सिद्धांतों की संक्षेप में व्याख्या करें।
उत्तर:
आहार आयोजन का अर्थ है आहार की ऐसी योजना बनाना जिससे सभी पोषक तत्त्व उचित तथा सन्तुलित मात्रा में उपयुक्त व्यक्ति को मिल सके। आहार आयोजन बनाने में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि वह उस व्यक्ति के लिये पौष्टिक सुरक्षित सन्तुलित साथ में रूचिकर भी हो।

सिद्धांत-
आहार आयोजन के सिद्धान्त निम्नलिखित हैं-
(i) परिवार की पोषण आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए सन्तुलित आहार की व्यवस्था करना-प्रत्येक व्यक्ति की पोषण आवश्यकताएँ उसकी आयु, लिंग कार्य प्रणाली से प्रभावित होती हैं अतः इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए आहार में आवश्यक पौष्टिक तत्त्व सम्मिलित करना ही आहार आयोजन का पहला सिद्धान्त है।

(ii) भोज्य पदार्थों का चयन करना- मीनू बनाते समय सभी भोज्य वर्गों से खाद्य पदार्थों : का चुनाव करना तथा एक आहार में एक ही प्रकार के पोषण तत्वों का कम या अधिक न होना।

(iii) परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखना- आहार आयोजन करते समय परिवार की आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखकर उसके आधार पर परिवार को श्रेष्ठ तथा पौष्टिक आहार उपलब्ध कराना चाहिये।

(iv) परिवार के सदस्यों की रुचियों तथा अरुचियों का ध्यान रखना- आहार आयोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि परिवार के सारे सदस्यों की रूचि की अनदेखी न हो।

(v) समय तथा श्रम की मितव्ययता को दृष्टिगत रखना- आहार-नियोजन करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि समय तथा श्रम दोनों बेकार न हो जायें।

(vi) आहार ऐसा हो जो भूख को संतुष्ट कर सके- इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जो भी हम खाएँ वे पौष्टिक हों तो साथ ही उससे पेट भरने की सन्तुष्टि प्राप्त हो।

(vii) आहार पकाते समय पौष्टिक तत्त्व नष्ट होने देना- आहार आयोजन करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि आहार इस विधि से पकाया जाय जिससे पौष्टिक तत्त्व नष्ट न. होने पायें।

(viii) उत्सवों का ध्यान रखना- होली दीपावली दशहरा जन्मदिन पर कोई विशेष पर्व होने पर उसके अनुसार आहार रखना चाहिये।

(ix) सामाजिक तथा धार्मिक मान्यताओं को ध्यान में रखना- आयोजन करते समय इस बात का विशेष ध्यान में रखना चाहिए कि जिस व्यक्ति के लिए हम आहार आयोजन कर रहे हैं, उसकी सामाजिक धार्मिक मान्यताएँ क्या हैं ? इस प्रकार सभी बातों को ध्यान में रखते हुए जो आयोजन की जाती है वे सफल होती है। अथवा, बचत वर्तमान उपभोग से भविष्य के उपयोग के लिये अलग रखा हुआ भाग होता है। यह चालू आय से भविष्य की आवश्यकताओं तथा जरूरतों को देख भाल करने के उद्देश्य से कुछ राशि रखने की प्रक्रिया होती है।

प्रश्न 5.
क्रोनिक दस्त से ग्रस्त एक दो वर्षीय बालक की एक दिन की आहार तालिका बनाइए।
उत्तर:
क्रोनिक दस्त से ग्रस्त एक दो वर्षीय बालक की एक दिन की आहार तालिका :
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प्रश्न 6.
मर्भावस्था मुख्यता कौन-कौन से पौष्टिक तत्त्वों की आवश्यकता होती है, वर्णन करें।
उत्तर:
गर्भावस्था के समय स्त्रियों को दिये जानेवाले भोजन पर विशेष ध्यान दिया जाता है, क्योंकि किसी भी शिशु का विकास उसके गर्भकाल में ही प्रारंभ हो जाता है। इस दौरान पौष्टिक आहार में कमी, जच्चा और बच्चा दोनों के लिए खतरा पैदा करता है। गर्भावस्था के समय निम्नलिखित पौष्टिक तत्वों की आवश्यकताओं पर ध्यान देना जरूरी है-

(i) ऊर्जा- गर्भ काल के प्रथम तीन माह में अधिक कैलोरीज की आवश्यकता नहीं है किन्तु द्वितीय एवं तृतीय अवस्था में लगभग 300 कैलोरीज सामान्य आवश्यकता के अलावा लेना जरूरी है। किन्तु यह आयु, कद, वजन, क्रियाशीलता व गर्भ की स्थिति के अनुसार बदल सकती है।

(ii) प्रोटीन- प्रोटीन से शरीर की सूक्ष्मतम इकाई कोशिका की रचना होती है। कोशिकाओं से शिशु का शरीर बनता है और बढ़ता है। इस समय गर्भवती महिला को 15 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन की आवश्यकता होती है। अतः प्रोटीन युक्त पदार्थ, जैसे-दूध, अंडा, मांस मछली, दाल, सोयाबीन, मेवा आदि की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए।

(iii) खनिज लवण- लवण शरीर की मांसपेशियों के उचित संगठन और शरीर की क्रियाओं को नियमित रखने के लिए आवश्यक है। गर्भावस्था में कैल्शियम लोहा आदि की आवश्यकता अधिक हो जाती है। हरी पत्तेदार सब्जियाँ, मांस आदि खाने से गर्भवती महिला के शरीर में लौह तत्व के फोलिक अम्ल की कमी पूरी हो जाती है।

(iv) कैल्शियम- हड्डियों के निर्माण एवं वृद्धि के लिए कैल्शियम और फॉस्फोरस की अत्यंत आवश्यकता है। एक गर्भवती महिला को 1.3 से 1.5 ग्राम प्रतिदिन कैल्शियम की आवश्यकता होती है। दूध, पनीर, शलजम, अंडा, मछली, मांस, रसदार फल, सोयाबीन आदि खाने से कैल्शियम की मात्रा पूरी की जा सकती है।

(v) आयोडीन- गर्भावस्था में आयोडीन की आवश्यकता साधारण अवस्था से अधिक होती है। भोजन में आयोडीन की कमी से माँ और शिशु दोनों को गलगंड, घंघा रोग होने की संभावना रहती है। अतः हरी पत्तेदार सब्जियाँ, अनाज तथा सामूहिक वनस्पति खाने से आयोडीन की कमी पूरा किया जा सकता है।

(vi) जल तथा रेशे- जल एवं रेशे शरीर की व्यवस्थित रखने में सहायता करते हैं। छिलका युक्त अनाज, दाल हरी पत्तेदार सब्जियों से शरीर को रेशे की मात्रा काफी मिलती है। इससे गर्भवती महिलाओं में कब्ज की शिकायत नहीं होती है।

प्रश्न 7.
वृद्धावस्था के पोषक तत्वों का महत्त्व क्या है ?
उत्तर:
60 वर्ष तथा 60 वर्ष से अधिक की अवस्था को वृद्धावस्था कहा जाता है। इस अवस्था में चिन्ताएँ, संघर्ष तथा तनाव पहले की अपेक्षा कम होता है। जीवन का अधिक अनुभव होने के कारण अपने काम में अधिक श्रम नहीं करना पड़ता है। अतः इस अवस्था में कैलोरी वाले आहार की कम मात्रा में आवश्यकता होती है। बढ़ती आयु तथा दाँतों की क्षति के कारण स्वाद में परिवर्तन होने से वृद्ध उचित आहार निश्चित करने में समस्या का सामना करते हैं।

शारीरिक क्रियाओं में कमी के साथ ऊर्जा संग्रहण में कमी न होने के कारण मोटापा आ जाता है। इस अवस्था में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शरीर को विटामिन, प्रोटीन, खनिज लवण पूरी मात्रा में मिले और आहार संतुलित हो। जो वृद्ध संतुलित आहार लेते हैं वे अधिक स्वस्थ और लम्बे समय तक फुर्तीले रहते हैं। वृद्धों की ऊर्जा आवश्यकता वयस्कों से कम होती है। परंतु प्रोटीन तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की आवश्यकता उसी मात्रा में रखते हैं।

प्रश्न 8.
पेय जल को शुद्ध करने के लिए घरेलू उपाय विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर:
पेय जल हम चाहे किसी भी स्रोत द्वारा प्राप्त करें, उनमें कुछ न कुछ अशुद्धियाँ अवश्य पायी जाती हैं। अतः जल को पीने से पहले कुछ आसान घरेलू विधियों द्वारा शुद्ध एवं सुरक्षित किया जा सकता है। ये विधियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) उबालना, (ii) छानना, (iii) फिटकरी का प्रयोग, (iv) क्लोरीन या विसंक्रमण करना, (v) घड़ों द्वारा छानना, (vi) फिल्टर द्वारा छानना, (vii) नल में लगनेवाले छोटे फिल्टर द्वारा छानना।

(i) उबालना- जल को दस मिनट 100°C या 212° पर उबालकर साफ किया जाता है। उबालने से पानी में उपस्थित सभी जीवाणु मर जाते हैं। जा तक हो सके उबले पानी को उसी बर्तन में रहने देना चाहिए, जिससे दुबारा गंदा न हो।

(ii) छानना- आमतौर से जल को मलमल के कपड़े से छानना पड़ता है, किन्तु मलमल के कपड़े से छानने में जल के सारे जीवाणु, महीन कीचड़ व दुर्गंध युक्त गैसें नहीं छनतीं। इसके लिए चार कलशों के द्वारा छानना उचित होता है।

(iii) फिटकरी का प्रयोग-जल का विसंक्रमण करने के लिए प्रायः क्लोरीन का प्रयोग किया जाता है। साफ करने के लिए आमतौर पर फिटकरी का प्रयोग किया जाता है। फिटकरी अथवा ऐलम जलीय पोटेशियम व एल्युमिनियम सल्फेट का द्विलवण होता है। इस विधि को पोटाश एलम भी कहते हैं। फिटकरी को जब जल में डाला जाता है, जिन्हें फ्लॉक्स कहते हैं तो जीवाणु इस फ्लॉक्स में चिपक जाते हैं और पानी के निचली सतह पर जम जाते हैं।

(iv) क्लोरीन या विसंक्रमण करना- जल का विसंक्रमण करने के लिए प्रायः क्लोरीन का उपयोग किया जाता है। वाटर वर्क में जल को शुद्ध करने के लिए विरंजक, ब्लीचिंग पाउडर पानी में घुलने के बाद नेसेंट क्लोरीन देता है, जिससे पानी शुद्ध हो जाता है।
घडों दारा छानना-प्रथम तीन घड़ों के तल में छेद होता है। इसमें गंदा पानी क्रमश: कोयले का चूर्ण, रेत, कंकड़ की तह से गुजारा जाता है। चौथे घड़े में स्वच्छ जल जाता है।

(vi) फिल्टर द्वारा छानना- पानी को फिल्टर करनेवाले कई उपकरण आजकल बाजार में उपलब्ध हैं। बिजली से चलनेवाले यंत्र में पोर्सलीन कन्डेल लगा रहता है जो जल में आलम्बित अपद्रव्यों को दूर करता है। इसके बाद पानी को सक्रिय कार्बन में से गुजारा जाता है। जो रासायनिक उपद्रव्यों को दूर करता है। अतः पानी को अल्ट्रावायलेट किरणों से गुजारा जाता है। जो जल के जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं।

(vii) नल में लगने वाला छोटे फिल्टर द्वारा छानना- आजकल तकनीकी विकास के साथ बाजार में छोटे फिल्टर आ गये हैं जो सीधा नल में लगा दिए जाते हैं और नल खोलने पर इसमें से छन कर पानी शुद्ध होकर निकलता है।

प्रश्न 9.
जल की भूमिका एवं महत्ता की चर्चा करें।
अथवा, जल के कार्यों की विवेचना करें।
उत्तर:
जल के अनेक कार्य हैं, जो निम्नवत् हैं-

  • यह शरीर के निर्माण में सहायक होता है। यह रक्त, कोशिकाओं, अस्थियों आदि में पाया जाता है।
  • यह शरीर के ताप का नियमन करता है।
  • यह शरीर की आंतरिक सफाई करता है। मल-मूत्र, पसीना और विषैले पदार्थ को शरीर से बाहर निकालता है।
  • यह भोजन के पाचन में सहायक पाचक रसों से बनाने में सहायक होता है।
  • शरीर के अंगों की चोट, झटकों और रगड़ से रक्षा करता है।
  • व्यक्तिगत स्वच्छता, जैसे स्नान आदि के काम में इसका प्रयोग करता है।
  • खाना पकाने, बर्तन साफ करने, पीने, वस्त्र धोने तथा घर की सफाई में काम आता है।
  • घरेलू जानवरों और बागवानी के काम में आता है।
  • सड़कों, नालियों की धुलाई आदि के लिए प्रयोग किया जाता है।
  • सार्वजनिक शौचालयों की सफाई में उपयोग होता है।
  • पार्कों, उद्यानों तथा फब्बारों के लिए भी इसकी आवश्यकता होती है।
  • यह आग बुझाने के काम में आता है।
  • बिजली उत्पादन, खेतों की सिंचाई तथा कारखानों में भी जल काम में लाया जाता है।

प्रश्न 10.
जल को शुद्ध करने की दो विधियाँ लिखें तथा बताएँ कि दोनों में कौन-सी विधि दूसरी से अच्छी है तथा क्यों ?
उत्तर:
जल को उबालना तथा क्लोरीन या ब्लीचिंग पाउडर के साथ शुद्ध व कीटाणुरहित करने की दो विधियाँ हैं। इसमें से उबालना एक बेहतर विधि है क्योंकि जल में डाले रसायन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त उबालने से जल के सभी सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। जहाँ तक हो सके उबले पानी को उसी बर्तन में रहने देना चाहिए जिससे वह दोबारा गंदा न हो जाए। उबालना जल को स्वच्छ बनाने का सस्ता तथा सरल उपाय है।

ORS बनाने की घरेलू विधि (Household Method of O.R.S)- एक लीटर (4-5 गिलास) स्वच्छ पेय जल उबालकर छान लें तथा ठंडा होने दें। इसमें एक छोटा चम्मच नमक (लगभग 5 ग्राम) तथा 4-5 छोटे चम्मच चीनी (20-25 ग्राम) डालकर घोलें । पूर्णत: ढक्कनदार जग में भरकर प्रयोग के लिए रखें।

नोट-

  1. इसका प्रयोग तथा सावधानियाँ पहले बताए गए पाउडर के समान ही हैं।
  2. इसमें कुछ बूंदें नींबू के रस की भी डाली जा सकती हैं।
  3. नमक की पर्याप्त मात्रा में उपस्थिति की जाँच की जा सकती है। यह आँसुओं से अधिक या कम नमकीन नहीं होना चाहिए।

शुद्ध एवं अशुद्ध जल में अन्तर
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2, 3

पानी के प्राकृतिक स्रोत (Natural Sources of Water)- हमें जल हमेशा प्राकृतिक स्रोतों से ही प्राप्त होता है। ये स्रोत इस प्रकार हैं-

  1. वर्षा का जल (Rain Water)
  2. पृथ्वी के ऊँचे तलों का जल (Upland Surface Water)
  3. नदी का जल (River Water)
  4. चश्मे का जल (Spring Water)
  5. गहरे कुएँ (Deep Well)
  6. उथले कुएँ (Surface Well)
  7. समुद्र का जल (Sea Water)
  8. तालाब (Ponds)
  9. पानी का पम्प अथवा नलकूप (Water Pump or Tubewell)।

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 2, 4

जल के अभाव लक्षण (Deficiency Symptoms)- यदि शारीरिक जल की मात्रा में 10% की कमी हो जाए तो निर्जलीकरण (Dehydration) की स्थिति बन जाती है। निर्जलीकरण लगातार उल्टी (Vomiting) और दस्त होने से व्यक्ति में होता है।

  • आँखें निस्तेज व धंसी हुई।
  • मुँह सूखा हुआ।
  • चमड़ी झुरियाँ पड़ी हुई।
  • हाथ-पाँव में ऐंठन।
  • मूत्र में अत्यधिक कमी।
  • रक्तचाप गिरा हुआ।
  • जल की कमी से शरीर से व्यर्थ पदार्थ निष्कासित होने में कठिनाई होती है। व्यक्ति कब्ज का शिकार हो जाता है तथा कई बार गुर्दो में भी विकार उत्पन्न हो जाता है।
  • शारीरिक वजन कम हो जाता है।

विशेषकर बच्चों में यदि 20% पानी की कमी हो जाए तो मृत्यु हो जाती है।

प्रश्न 11.
मानव शरीर में जल के क्या कार्य हैं ?
अथवा, शरीर में जल के कार्य विस्तारपूर्वक लिखें।
उत्तर:
कार्य (Functions)- जल के शरीर में अनेक कार्य हैं क्योंकि कोशिकाओं में होने वाले समस्त रासायनिक परिवर्तन जल पर ही आधारित हैं-
1. शरीर का निर्माण कार्य (Body Building)- शरीर के पूरे वजन का 55-70% भाग पानी का होता है। जैसे-जैसे व्यक्ति बूढा होता है, पानी की मात्रा कम होती है। शरीर के विभिन्न अंगों में जल की मात्रा निम्न है-

  • गुर्दे 83%,
  • रक्त 80-90%,
  • मस्तिष्क 79%,
  • मांसपेशियाँ 72%,
  • जिगर 70%
  • अस्थियाँ 30%

रक्त में 90% मात्रा जल की होती है। जल शरीर के विभिन्न अंगों तथा द्रवों की रचना एवं कोषों के निर्माण में सहायक होता है। रक्त में स्थिर जल का मुख्य कार्य भोज्य पदार्थों द्वारा लिए गए पानी में घुलित पोषक तत्वों का शोषण करके रक्त में पहुँचाना है और यह रक्त शरीर के निर्माण करने वाले विभिन्न अंगों के कोषों तक पोषक तत्त्वों से प्राप्त शक्ति को पहुंचाते हैं। कार्बन-डाई-ऑक्साइड को फेफड़ों तक पहुँचाना एवं वहीं से बेकार पदार्थों तथा विभिन्न लवणों को गुर्दे तक पहुँचाने का कार्य भी रक्त ही करता है। यदि रक्त में जल की मात्रा कम हो जाए तो रक्त गाढ़ा हो जाता है और अपने शारीरिक कार्य जो रक्त के माध्यम द्वारा करता है, सुचारू रूप में नहीं कर पाता। परिणामस्वरूप मनुष्य बीमार हो जाता है।

2. ताप नियन्त्रक के रूप में (Act as a Temperature Controller)- जल से शरीर के तापमान को भी स्थिर रखने में सहायता मिलती है। ग्रीष्म ऋतु में पसीने के सूखने पर शरीर में ठण्डक पहुँचती है। बरसात के दिनों में वर्षा के उपरान्त वायु में नमी होती है। पसीना शीघ्र सूख नहीं पाता तो बहुत बेचैनी होती है।

जब कभी शरीर का तापक्रम बढ़ जाता है, त्वचा और श्वासोच्छवाद संस्थान से जल वाष्य अथवा पसीने के रूप में उत्सर्जित होने लगता है।

3. घोलक के रूप में कार्य (Act as a Solven)- जल ही वह माध्यम है जिसके द्वारा पोषक तत्वों को कोषों तक ले जाया जाता है तथा चपाचय के निरर्थक पदार्थों को निष्कासित किया जाता है। भोजन को कोषों तक ले जाने से पूर्व पाचन की क्रिया सम्पन्न हो जानी चाहिए। पाचन प्रक्रिया में जल का प्रयोग किया जाता है, मूत्र में 96% जल पाया जाता है। मल-विसर्जन के लिए जल की अत्यन्त आवश्यकता है। भोजन में जल की मात्रा कम रहने से मल अवरोध (Constipation) होने का भय रहता है।

4. स्नेहक का कार्य (Act as Lubricant)- यह शरीर में पाए जाने वाले समस्त हड्डियों : के जोड़ों में रगड़ होने से बचाता है। जोड़ों या सन्धियों (Joints) के चारों ओर थैली के समान (Sac-like) जो ऊतक होते हैं, उनमें जल उपस्थित रहता है। यदि आघात के कारण यह नष्ट हो जाय या रोग के कारण परिवर्तित हो जाए तो सन्धियाँ जकड़ जाती हैं।

5. शरीर के निरुपयोगी पदार्थों को बाहर निकलना (To Excrete Out the Waste Products)- जल शरीर में बने विषैले पदार्थों को मूत्र तथा पसीने द्वारा बाहर निकालता है। इससे गुर्दो की सफाई होती रहती है। मल विसर्जन के लिए पानी की अत्यन्त आवश्यकता होती है, जल शरीर में उत्पन्न निरुपयोगी पदार्थों को अधिकतर मात्रा में घोल लेता है एवं उन्हें उत्सर्जक अंगों यकृत, त्वचा आदि द्वारा शरीर के बाहर निकाल देता है।

6. पोषक तत्त्वों का हस्तान्तरण (Transportation of Nutrients)- पोषक तत्त्वों को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने का कार्य भी जल का ही है।

7. शरीर में नाजुक अंगों की सुरक्षा (Protection of Delicate Organs)- शरीर के कोमल अंग एक जल से भरी पतली झिल्ली की थैली से घिरे रहते हैं जो अंगों की बाहरी आघातों से रक्षा करती है।

प्रश्न 12.
रसोई घर की स्वच्छता के लिए क्या नियम अपनायेंगे ?
अथवा, रसोई घर की स्वच्छता के लिए क्या उपाय अपनाये जा सकते हैं ?
उत्तर:
रसोईघर की स्वच्छता के लिए निम्नलिखित उपाय अपनाये जा सकते हैं-

  • रसोईघर सदा प्रकाशमय और हवादार होना चाहिए।
  • रसोईघर के दरवाजे तथा खिड़कियों में जाली लगी होनी चाहिए ताकि मक्खियाँ अन्दर न आ सके।
  • कूड़ेदान के अंदर प्लास्टिक लगा देना चाहिए तथा उसे रोज खाली करना चाहिए।
  • रसोईघर के स्लैव और जमीन सरलता से साफ होने वाला होना चाहिए।
  • भोजन पकाने और बरतन साफ करने के लिए पर्याप्त ठंडा और गरम पानी उपलब्ध होना चाहिए।
  • रसोईघर के झाड़न और डस्टर साफ रखना चाहिए। उसे किसी अच्छे डिटरजेंट से साफ करना चाहिए।

प्रश्न 13.
खाद्य स्वच्छता को प्रभावित करने वाले कारक कौन हैं ?
अथवा, घर में खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाले कौन-कौन से कारक होते हैं ?
उत्तर:
घर में खाद्य सुरक्षा को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित कारक होते हैं-
(i) रसोईघर की स्वच्छता (Kitchen hygiene)- यदि रसोई साफ-सुथरी न हो तो भोजन सुरक्षित नहीं रह पाता अतः रसोईघर की दीवारों, फर्श के साथ-साथ आलमारी, बर्तन, स्लैब व झाड़न एवं डस्टर का स्वच्छ रहना आवश्यक होता है।

(ii) घर पर खाद्य पदार्थ के संग्रह करते समय स्वच्छता- खाद्य पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिये उचित संग्रह करना चाहिये। ढक्कनदान टकियों या डिब्बों में खाद्य पदार्थ रखना चाहिये। समय-समय पर धूप लगाते रहने में खाद्य पदार्थ सुरक्षित रहते हैं।

(iii) भोजन पकाने वाले तथा परोसने वाले बर्तनों की स्वच्छता- भोजन पकाने तथा परोसने वाले बर्तनों की सफाई पर विशेष ध्यान रखना चाहिये। कभी-कभी प्रयोग आने वाले बर्तन जैसे : कदुकस, छलनी, आदि का प्रयोग करके तुरन्त साफ करके रख देना चाहिये। परोसने वाले बर्तन को कभी भी गंदे हाथों से नहीं पकड़ना चाहिये अन्यथा भोजन संदूषित हो जाता है।

(iv) घरेलू स्तर पर खाद्य पदार्थों में होने वाली रासायनिक विषाक्तता से बचाव सम्बन्धी सावधानियाँ- कुछ रासायनिक पदार्थ जैसे-सीसा, टीन, ताँबा, निकिल, एल्युमीनियम और कैडमीयम प्रायः उस भोज्य पदार्थ में पाये जाते हैं जो इन धातुओं में पकाये जाते हैं।

(v) भोजन पकाते, परोसते व खाते समय की स्वच्छता- भोजन पकाने के समय, परोसने के समय एवं खाने के समय स्थान की सफाई एवं हाथों की सफाई अत्यन्त आवश्यक होती है। वरन् खाद्य पदार्थ सुरक्षित नहीं रहता।
अतः हमें घर में भोज्य पदार्थ की सुरक्षा के लिये कुछ सावधानियाँ करनी पड़ती हैं जिससे खाद्य पदार्थ सुरक्षित रहें।

प्रश्न 14.
भोजन पकाने, परासने और खाने में किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए?
उत्तर:
भोजन पकाते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन पकाने से पहले हाथों को स्वच्छ पानी और साबुन से धोना चाहिए।
  • दाल, चावल, सब्जियों तथा फल आदि को स्वच्छ पानी से धोना चाहिए।
  • मिर्च मसाले का अधिक प्रयोग नहीं करना चाहिए।
  • साफ तथा प्रदूषण रहित बर्तन का प्रयोग करना चाहिए।
  • खाद्य पदार्थों को अधिक नहीं तलना चाहिए।

भोजन परोसते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन परोसते समय हाथ को स्वच्छ पानी और साबुन से धोना चाहिए।
  • स्वच्छ बर्तन तथा स्थान का प्रयोग करना चाहिए।
  • भोजन को ढककर रखना चाहिए।
  • परोसने वाले का नाखून बढ़े न हो तथा साफ हों।
  • खाने का समान उतना ही परोसना चाहिए जितना खाने वाला चाहता है।
  • भोज्य सामग्री तथा पेय जल में हाथ नहीं डालना चाहिए।

भोजन करते समय निम्नलिखित नियमों का पालन करना चाहिए-

  • भोजन करने से पहले हाथ को साबुन से धोकर साफ करना चाहिए।
  • ताजा एवं गरम भोजन करना चाहिए।
  • खाना पूरी तरह चबाकर धीरे-धीरे खाना चाहिए।
  • संतुलित मात्रा में भोजन करना चाहिए।
  • खाते समय कम मात्रा में पानी पीना चाहिए। खाने के कुछ देर बाद पानी पीना ज्यादा लाभदायक है।
  • खाने के बाद हाथ को अच्छी तरह धोना चाहिए। इन्हीं नियमों का पालन खाना पकाने, परोसने तथा खाते समय करना चाहिए।

प्रश्न 15.
भोजन का हमारे जीवन में क्या महत्त्व है ?
अथवा, भोजन के कार्यों की व्याख्या करें।
उत्तर:
भोजन का प्रमुख कार्य है क्षुधा-तृप्ति एवं शरीर को स्वस्थ ढंग से कार्य करने के लिए पर्याप्त कैलोरी एवं पोषण प्रदान करना।

शरीर में उपचयापचयन होता रहता है, जिसके दो हिस्से हैं-उपचय एवं अपचय। कोषों में होनेवाली टूट-फूट अपचय है और तंतुओं के मरम्मत या बनने की प्रक्रिया उपचय कहलाती है। अर्थात् शरीर में कोष बनते-बिगड़ते रहते हैं जो एक रासायनिक क्रिया है। इस प्रक्रिया में आहार की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। आधारीय उपचयापचयन (Basal Metabolism) से उच्छ्वास क्रिया, रक्त परिभ्रमण क्रिया, शारीरिक तापमान में संतुलन बनाने की क्रिया, मांसपेशियों में संकुचन-विमोचन की क्रियाएँ नियंत्रित होती हैं।

मानव आहार में विद्यमान शक्ति उसे कई प्रकार के शारीरिक कार्य के निष्पादन से लगतीहै, जैसे-यकृत, फेफड़ा, हृदय, ज्ञानेन्द्रिय आदि अंगों की यांत्रिक क्रियाओं में। शारीरिक तापमान को समान रखने में भी इस शक्ति की आवश्यकता पड़ती है। यह शक्ति ताप के रूप में (कैलोरी) प्रकट होती है। कैलोरी वह क्षमता है जो शरीर को कार्यरत् रखती है। यह एक प्रकार की रासायनिक ऊर्जा है जो कार्बोज, वसा व प्रोटीन से प्राप्त होती है।

मानव शरीर की तुलना एक मशीन से की जाती है जिसके भीतर मस्तिष्क जैसा महाकम्प्यूटर लगा हुआ है। अतएव इस मशीन और कम्प्यूटर के संचालन के लिए ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है, वह भोजन से प्राप्त होती है। इस प्रकार भोजन से प्राप्त रासायनिक ऊर्जा यांत्रिक ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है।

प्रश्न 16.
मिलावट रोकने के उपायों की चर्चा करें।
उत्तर:
मिलावट रोकने के निम्नलिखित उपाय हैं-

  • सामान विश्वसनीय दुकान से खरीदें।
  • विश्वसनीय तथा उच्च स्तर की सामग्री खरीदें क्योंकि उनकी गुणवता अधिक होती है। एगमार्क, E.P.O. तथा I.S.I. चिह्नित वस्तुएँ खरीदें।
  • खुले पदार्थ न खरीदें, सील बंद पैकेट तथा डिब्बे ही लें।
  • खरीदने से पहले लेबल व प्रमाण चिह्न अवश्य पढ़ लें।
  • गुणवत्ता के लिये सचेत रहें और ध्यान रखें कि आप मिलावट के कारण ठगे न जा सके।
  • स्वास्थ्य चिकित्सा प्रयोगशाला से मिलावटी पदार्थ का निरीक्षण और परीक्षण करायें।

Bihar Board 12th Home Science Objective Important Questions Part 1

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Bihar Board 12th Home Science Objective Important Questions Part 1

प्रश्न 1.
जन्म के समय भारतीय बच्चों की औसत लंबाई है
(a) 40 सेमी०
(b) 80 सेमी०
(c) 50 सेमी०
(d) 30 सेमी०
उत्तर:
(c) 50 सेमी०

प्रश्न 2.
विकासात्मक मनोविज्ञान लाभदायक है
(a) बच्चों के लिए
(b) शिक्षकों के लिए
(c) अभिभावकों के लिए
(d) इन सभी के लिए
उत्तर:
(a) बच्चों के लिए

प्रश्न 3.
शारीरिक विकास की सबसे महत्त्वपूर्ण अवस्था है
(a) शैशवावस्था
(b) बाल्यावस्था
(c) प्रौढ़ावस्था
(d) वृद्धावस्था
उत्तर:
(b) बाल्यावस्था

प्रश्न 4.
कौन-सा तत्त्व विकास को प्रभावित नहीं करता ?
(a) पोषण
(b) धन
(c) अन्तःस्त्रावी ग्रंथियाँ
(d) रोग एवं चोट
उत्तर:
(b) धन

प्रश्न 5.
इनमें से कौन गर्भावस्था की कठिनाई है ?
(a) अपरिपक्व जन्म
(b) गर्भकालीन विषारक्तता
(c) गर्भपात
(d) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 6.
गर्भावस्था का प्रथम लक्षण है
(a) मासिक धर्म का बंद होना
(b) प्रात:काल जी मचलाना
(c) बार-बार मूत्र त्याग होना
(d) स्तनों के आकार में परिवर्तन
उत्तर:
(a) मासिक धर्म का बंद होना

प्रश्न 7.
दूध अच्छा स्रोत है
(a) कैल्शियम का
(b) विटामिन A का
(c) विटामिन D का
(d) कार्बोहाइड्रेट का
उत्तर:
(a) कैल्शियम का

प्रश्न 8.
कीड़ों को वस्त्रों से दूर रखने के लिए निम्न में से किसका प्रयोग करना चाहिए ?
(a) सूखी नीम की पत्तियाँ
(b) नैफ्थलीन की गोलियाँ
(c) समाचार-पत्र की स्याही
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(b) नैफ्थलीन की गोलियाँ

प्रश्न 9.
ब्याज एवं लाभांश पारिवारिक आय का कौन-सा प्रकार है ?
(a) मौद्रिक आय
(b) प्रत्यक्ष वास्तविक आय
(c) अप्रत्यक्ष वास्तविक आय
(d) मानसिक आय
उत्तर:
(c) अप्रत्यक्ष वास्तविक आय

प्रश्न 10.
अपमिश्रण के उदाहरण हैं
(a) नकली को असली बनाकर बेचना
(b) बासी को ताजा बनाकर बेचना
(c) गलत लेबल लगाकर बेचना
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 11.
प्रदूषित भोजन से कौन-सी बीमारी होती है ?
(a) पीलिया
(b) क्षय रोग
(c) टिटनस
(d) डिफ्थीरिया
उत्तर:
(a) पीलिया

प्रश्न 12.
जन्म के समय कौन-सा टीका लगाया जाता है ?
(a) बी० सी० जी०
(b) टिटनस
(c) चेचक
(d) हैजा
उत्तर:
(a) बी० सी० जी०

प्रश्न 13.
रिकेट्स किस विटामिन के अभाव में होता है ?
(a) विटामिन ए
(b) विटामिन बी
(c) विटामिन सी
(d) विटामिन डी
उत्तर:
(c) विटामिन सी

प्रश्न 14.
निम्न में से कौन प्राकृतिक तन्तु है ?
(a) प्राणिज
(b) वानस्पतिक
(c) खनिज
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 15.
निम्न में से कौन कपड़े की धुलाई के अंतर्गत नहीं आता है ?
(a) दाग-धब्बे छुड़ाना
(b) वस्त्रों की मरम्मत
(c) सूखाना
(d) आयरन करना
उत्तर:
(b) वस्त्रों की मरम्मत

प्रश्न 16.
वस्त्रों के चुनाव को प्रभावित करने वाला कारक है
(a) जलवायु
(b) शारीरिक आकृति
(c) अवसर
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(a) जलवायु

प्रश्न 17.
मोबाइल क्रैच घूमती है
(a) बच्चों के साथ
(b) कर्मियों के साथ
(c) नियोजकों के साथ
(d) माता-पिता के साथ
उत्तर:
(a) बच्चों के साथ

प्रश्न 18.
निम्न में से कौन पारिवारिक आय है ?
(a) मौद्रिक आय
(b) वास्तविक आय
(c) आत्मिक आय
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 19.
निम्न में से कौन निवेश का सबसे अच्छा साधन है ?
(a) राष्ट्रीय बचत पत्र
(b) सोना
(c) जमीन
(d) मकान
उत्तर:
(a) राष्ट्रीय बचत पत्र

प्रश्न 20.
असीमित खरीददारी की जा सकती है
(a) क्रेडिट कार्ड द्वारा
(b) डेबिट कार्ड द्वारा
(c) दोनों कार्ड द्वारा
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) डेबिट कार्ड द्वारा

प्रश्न 21.
बजट कितने प्रकार का होता है ?
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) पाँच
उत्तर:
(b) तीन

प्रश्न 22.
उपभोक्ता अपनी शिकायत दर्ज कर सकता है
(a) निर्माता के पास
(b) विक्रेता के पास
(c) उपभोक्ता निवारण संगठन के पास
(d) इनमें से किसी के पास
उत्तर:
(c) उपभोक्ता निवारण संगठन के पास

प्रश्न 23.
एक उपभोक्ता प्रभावपूर्ण खरीददारी हेतु सहायता प्राप्त कर सकता है
(a) विज्ञापन द्वारा
(b) अन्य व्यक्तियों के अनुभव द्वारा
(c) निजी अनुभव द्वारा
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 24.
निम्न में से कौन गृह विज्ञान की शाखा नहीं है ?
(a) प्रसार शिक्षा
(b) डायटेटिक्स
(c) वस्त्र विज्ञान
(d) मानव विकास
उत्तर:
(b) डायटेटिक्स

प्रश्न 25.
वृद्धि एवं विकास को प्रभावित करने वाला कारक है
(a) पोषण
(b) वातावरण
(c) अन्त:स्रावी ग्रंथियाँ
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 26.
कौन-सा रोग वायु द्वारा नहीं फैलता है ?
(a) खसरा
(b) हैजा
(c) सर्दी
(d) क्षयरोग
उत्तर:
(a) खसरा

प्रश्न 27.
बच्चों में असमर्थता हो सकती है
(a) जन्म से पूर्व
(b) जन्म के समय से
(c) जन्म के पश्चात
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(b) जन्म के समय से

प्रश्न 28.
निम्न में से कौन प्राकृतिक तंतु है ?
(a) वनस्पति
(b) प्राणिज
(c) खनिज
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(b) प्राणिज

प्रश्न 29.
कैल्शियम का सर्वोत्तम स्रोत है
(a) माँस
(b) सब्जियाँ
(c) दूध से बने पदार्थ
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 30.
आंतरिक सज्जा अभिव्यक्ति है
(a) रुचि की
(b) कौशल की
(c) धन के सदुपयोग की
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 31.
निम्न में से कौन वानस्पतिक धब्बा नहीं है ?
(a) रसदार सब्जी
(b) कॉफी
(c) फल
(d) फूल
उत्तर:
(a) रसदार सब्जी

प्रश्न 32.
ऊर्जा प्राप्ति का मुख्य स्रोत है
(a) प्रोटीन
(b) कार्बोहाइड्रेट
(c) खनिज लवण
(d) विटामिन
उत्तर:
(a) प्रोटीन

प्रश्न 33.
चेक कितने प्रकार का होता है ?
(a) एक
(b) दो
(c) तीन
(d) चार
उत्तर:
(c) तीन

प्रश्न 34.
निम्न में से कौन-सा कार्य स्वरोजगार एवं संस्था में रोजगार दोनों क्षेत्रों में संभव है ?
(a) डायटिशियन
(b) इंटीरियर डिजाइनर
(c) ब्यूटीशियन
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 35.
निम्न में से कौन खाद्य पदार्थ संबंधित भारतीय मानक चिह्न है ?
(a) एगमार्क
(b) वुलमार्क
(c) हॉलमार्क
(d) इकोमार्क
उत्तर:
(a) एगमार्क

प्रश्न 36.
क्षय रोग फैलने का माध्यम है
(a) दूषित वायु
(b) प्रदूषित भोजन
(c) प्रदूषित मिट्टी
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(a) दूषित वायु

प्रश्न 37.
ओ० आर० एस० पेय बनाने के लिए इसे किसके साथ-साथ मिलाना चाहिए ?
(a) दूध
(b) सूप
(c) जूस
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(d) इनमें से कोई नहीं

प्रश्न 38.
बच्चे की वैकल्पिक देखरेख की आवश्यकता होती है
(a) माता के बीमार पड़ने पर
(b) पिता के नौकरी पर जाने पर
(c) माता-पिता की अनुपस्थिति में
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(c) माता-पिता की अनुपस्थिति में

प्रश्न 39.
ब्याज एवं लाभांश पारिवारिक आय का कौन-सा प्रकार है ?
(a) मौद्रिक आय
(b) प्रत्यक्ष वास्तविक आय
(c) अप्रत्यक्ष वास्तविक आय
(d) मानसिक आय
उत्तर:
(a) मौद्रिक आय

प्रश्न 40.
बच्चों के स्कूल का टिफिन होना चाहिए
(a) संतुलित
(b) जिससे बच्चे का स्कूल बैग, पुस्तकें खराब न हो
(c) प्रतिदिन विभिन्नता लिए हुए
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 41.
निम्न में से कौन विशिष्ट बालकों का प्रकार नहीं है ?
(a) आर्थिक अक्षमता
(b) शारीरिक अक्षमता
(c) मानसिक अक्षमता
(d) सामाजिक अक्षमता
उत्तर:
(a) आर्थिक अक्षमता

प्रश्न 42.
कीड़ों को वस्त्रों से दूर रखने के लिए निम्न में से किसका प्रयोग करना चाहिए ?
(a) सूखी नीम की पत्तियाँ
(b) नैफ्थलीन की गोलियाँ
(c) समाचार-पत्र की स्याही
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(a) सूखी नीम की पत्तियाँ

प्रश्न 43.
सिरका है
(a) अम्लीय पदार्थ
(b) क्षारीय पदार्थ
(c) चिकनाई विलायक
(d) चिकनाई अवशोषक
उत्तर:
(a) अम्लीय पदार्थ

प्रश्न 44.
जंग का धब्बा है
(a) प्राणिज धब्बा
(b) खनिज धब्बा
(c) चिकनाई युक्त धब्बा
(d) वानस्पतिक धब्बा
उत्तर:
(b) खनिज धब्बा

प्रश्न 45.
इनमें कौन-सा प्राणिज धब्बा है ?
(a) दूध
(b) चाय
(c) फूल
(d) सब्जी
उत्तर:
(a) दूध

प्रश्न 46.
दाग-धब्बे छुड़ाने का सिद्धांत है
(a) कपड़ों की जाँच
(b) धब्बे छुड़ाने वाला द्रव्य
(c) द्रव्य का व्यवहार
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 47.
वनस्पति दाग-धब्बों को किस माध्यम द्वारा हटाया जाता है ?
(a) बोरेक्स
(b) अमोनिया
(c) वाशिंग सोडा
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(b) अमोनिया

प्रश्न 48.
शुष्क धुलाई में किसका प्रयोग किया जाता है ?
(a) फ्रेंच चॉक
(b) मैदा
(c) टेलकम पाउडर
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(d) इनमें से कोई नहीं

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4 in Hindi

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Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4 in Hindi

प्रश्न 1.
अल्पकाल तथा दीर्घकाल में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
अल्पकाल यह समयावधि है जिसमें उत्पादन के कुछ साधन परिवर्ती होते हैं और कुछ स्थिर। अल्पकाल में केवल परिवर्ती साधनों में परिवर्तन किया जा सकता है। इसके विपरीत दीर्घकाल एक लम्बी समयावधि है। इसमें उत्पादन के सभी साधन परिवर्ती होते हैं।

प्रश्न 2.
औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में क्या संबंध है ?
उत्तर:
औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में सम्बन्ध (Relationship between AP and MP)-

  • औसत उत्पाद तब तक बढ़ता है जब तक सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से अधिक होता है।
  • औसत उत्पाद उस समय अधिकतम होता है जब सोमान्त उत्पाद औसत उत्पाद के बराबर होता है।
  • औसत उत्पाद तब गिरता है जब सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से कम होता है।

प्रश्न 3.
औसत उत्पाद तथा कुल उत्पाद में सम्बन्ध बतायें।
उत्तर:
औसत उत्पाद एवं कुल उत्पाद में सम्बन्ध (Relationship between AP and TP)-

  • जब कुल उत्पाद बढ़ती दर से बढ़ता है तो औसत उत्पाद भी बढ़ता है।
  • जब कुल उत्पाद घटती दर से बढ़ता है तो औसत उत्पाद घटता है।
  • कुल उत्पाद तथा औसत उत्पाद हमेशा धनात्मक रहते हैं।

प्रश्न 4.
कुल उत्पाद, औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर:
कुल उत्पाद, औसत उत्पाद तथा सीमान्त उत्पाद में सम्बन्ध (Relation between TP, AP)-

  • आरम्भ में कुल उत्पाद, सीमान्त उत्पाद तथा औसत उत्पाद सभी बढ़ते हैं। इस स्थिति में सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से अधिक होता है।
  • जब औसत उत्पाद अधिकतम व स्थिर होता है तो सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद के बराबर होता है।
  • इसके बाद औसत उत्पाद और सीमान्त उत्पाद कम होता है, सीमान्त उत्पाद औसत उत्पाद से कम होता है, शून्य होता है और ऋणात्मक होता है परन्तु औसत उत्पाद तथा कुल उत्पाद हमेशा धनात्मक होते हैं।
  • जब सीमान्त उत्पाद शून्य होता है तब कुल उत्पाद अधिकतम होता है।

प्रश्न 5.
अल्पकाल तथा अति अल्पकाल में अन्तरं स्पष्ट करें।
उत्तर:
अल्पकाल तथा अति अल्पकाल में अन्तर (Difference between short period and very short period)- अति अल्पकाल से अभिप्राय उस समय-अवधि से है जब बाजार में पूर्ति बेलोचदार होती है जैसे सब्जियों, दूध आदि की पूर्ति। ऐसी अवधि में कीमत के घटने-बढ़ने से पूर्ति को घटाया या बढ़ाया नहीं जा सकता। पूर्ति अपरिवर्तनशील रहती है।

प्रश्न 6.
प्रतिफल के नियम से क्या अभिप्राय है ? ये कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर:
प्रतिफल के नियम (Laws of Returns)- साधन आगतों में परिवर्तन के फलस्वरूप उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से सम्बन्धित नियम को प्रतिफल के नियम कहते हैं। दूसरे शब्दों में प्रतिफल के नियम साधन आगतों और उत्पादन के बीच व्यवहार विधि को बताते हैं। प्रतिफल . के नियम इस बात का अध्ययन करते हैं कि साधनों की मात्रा में परिवर्तन करने पर उत्पादन की मात्रा में कितना परिवर्तन होता है।

प्रतिफल के नियम के प्रकार (Types of Law of returns)- प्रतिफल के नियम दो प्रकार के होते हैं- (i) साधन के प्रतिफल के नियम। पैमाने के प्रतिफल के नियम साधन के प्रतिफल के नियम अल्पकाल से संबंधित हैं जबकि पैमाने के प्रतिफल के नियम दीर्घकाल से संबंध रखते हैं।

प्रश्न 7.
साधन के प्रतिफल किसे कहते हैं ? ये कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर:
साधन के प्रतिफल (Returns to Factor)- जब उत्पादक अन्य साधनों की मात्रा को स्थिर रखते हुए उत्पादन के एक ही साधन में परिवर्तन करके उत्पादन की मात्रा में परिवर्तन करना चाहता है तो उत्पादन के साधनों तथा उत्पादन के संबंध को साधन के प्रतिफल कहते हैं। साधन के प्रतिफल का सम्बन्ध परिवर्तनशील साधनों में परिवर्तन होने के कारण उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से है, जबकि स्थिर साधनों में परिवर्तन नहीं होता, परन्तु परिवर्तनशील तथा स्थिर साधनों के अनुपात में परिवर्तन हो जाता है। इसे परिवर्ती अनुपात का नियम भी कहते हैं।

साधन के प्रतिफल के प्रकार (Types of Returns to Factor)- इसे बढ़ते (वर्धमान) सीमान्त प्रतिफल भी कहते हैं। साधन के बढ़ते प्रतिफल वह स्थिति है जब स्थिर साधन की निश्चित इकाई के साथ परिवर्तनशील साधन अधिक इकाइयों का प्रयोग किया जाता है। इस स्थिति में परिवर्तनशील साधनों का सीमान्त उत्पादन बढ़ता जाता है और उत्पादन की सीमान्त लागत कम होती जाती है इसलिए इसे ह्रासमान लागत का नियम भी कहते हैं। साधन के बढ़ते प्रतिफल को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट किया गया है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 1

प्रश्न 8.
साधन के समान प्रतिफल के तीन कारण लिखें।
उत्तर:
साधन के समान प्रतिफल के तीन कारण (Causes of constant returns of factor) साधन के समान प्रतिफल के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-

(i) स्थिर साधनों का अनुकूलतम प्रयोग (Optimum Utilisation of Fixed Factors)- नियम स्थिर साधनों का अनुकूलतम उपयोग होने के कारण क्रियाशील होता है। जैसे-जैसे परिवर्ती साधन की अधिक इकाइयाँ प्रयोग में लायी जाती हैं, एक ऐसी अवस्था आ जाती है जब स्थिर साधनों का अनुकूलतम उपयोग होता है। इससे आगे परिवर्ती साधन की और अधिक इकाइयों के उपयोग से उत्पादन की मात्रा में समान दर में वृद्धि होगी।

(ii) परिवर्तित साधनों का अनुकूलतम प्रयोग (Most Efficient Utilisation of Variable Factors)- जब स्थिर साधन के साथ परिवर्तनशील साधन की बढ़ती हुई इकाइयों का प्रयोग क्रिया जाता है तो. एक ऐसी स्थिति आती है जिसमें सबसे अधिक उपर्युकत श्रम विभाजन सम्भव होता है। इसके फलस्वरूप परिवर्तनशील साधन जैसे श्रम का सबसे अधिक उपयुक्त प्रयोग संभव होता है तथा सीमान्त उत्पादन अधिकतम मात्रा पर स्थिर हो जाता है।

(iii) आदर्श साधन अनुपात (Ideal Factor Ratio)- जब स्थिर तथा परिवर्तनशील साधन का आदर्श अनुपात में प्रयोग किया जाता है तो समान प्रतिफल की स्थिति होती है। इस स्थिति में साधन का सीमान्त उत्पादन अधिकतम मूल्य पर स्थिर हो जाता है।

प्रश्न 9.
आन्तरिक तथा बाह्य बचतों में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
आन्तरिक तथा बाह्य बचतों में निम्नलिखित अन्तर हैं-
आन्तरिक बचतें:

  1. ये वे लाभ हैं जो किसी फर्म को अपने निजी प्रयत्नों के फलस्वरूप प्राप्त होते हैं।
  2. आन्तरिक बचतों से प्राप्त होने वाले लाभ एक व्यक्तिगत फर्म तक ही सीमित होते हैं।
  3. आन्तरिक बचतें केवल बड़े पैमाने की फर्मों को प्राप्त होती हैं।
  4. आन्तरिक बचतों के उदाहरण हैं- तकनीकी बचतें, प्रबन्धकीय बचतें, विपणन बचतें आदि।

बाह्य बचतें:

  1. ये वे लाभ हैं जो समस्त उद्योग के विकसित होने पर सभी फर्मों को प्राप्त होते हैं।
  2. बाह्य बचतों से प्राप्त होने वाले लाभ उद्योगों की फर्मों को प्राप्त होते हैं।
  3. बाह्य बचतें छोटे प्रकार पैमाने की फर्मों को प्राप्त होती हैं।
  4. बाह्य बचतों के उदाहरण हैं : उत्तम परिवहन एवं संचार सुविधाओं की उपलब्धि, सहायक उद्योगों की स्थापना, कच्चे माल का सुगमता से प्राप्त होना आदि।

प्रश्न 10.
किसी साधन के सीमान्त भौतिक उत्पाद में परिवर्तन होने पर कुल भौतिक उत्पाद में परिवर्तन किस प्रकार होता है ?
उत्तर:
कुल भौतिक उत्पाद और सीमान्त भौतिक उत्पाद परस्पर संबंधित हैं। अन्य आगतों को स्थिर रखकर जब परिवर्तनशील साधन की एक अतिरिक्त इकाई का प्रयोग किया जाता है तो कुल भौतिक उत्पाद में जो परिवर्तन होता है, उसे सीमान्त भौतिक उत्पाद कहते हैं। कुल भौतिक उत्पाद सीमान्त भौतिक उत्पाद का जोड़ होता है। जब सीमान्त भौतिक उत्पाद धनात्मक होता है तो कुल भौतिक उत्पाद में वृद्धि होती है। जब सीमान्त भौतिक उत्पाद ऋणात्मक होता है तो उत्पाद कम होने लगता है। सीमान्त भौतिक उत्पाद में परिवर्तन उत्पादन की तीन अवस्थाओं को प्रकट करता है। उत्पादन की प्रथम अवस्था में सीमान्त भौतिक उत्पाद में वृद्धि होती है। उत्पादन की दूसरी अवस्था में यह धनात्मक तो रहता है, लेकिन कुल उत्पाद में वृद्धि घटती हुई दर से होती है। उत्पादन की तीसरी अवस्था में सीमान्त भौतिक उत्पाद ऋणात्मक हो जाता है और कुल उत्पाद में गिरावट आती है।

प्रश्न 11.
निजी लागत और सामाजिक लागत में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
निजी लागत (Private Cost)- निजी लागत वह लागत है जो किसी फर्म को एक वस्तु के उत्पादन में खर्च करनी पड़ती है। वस्तु के उत्पादक में उत्पादन द्वारा आगतों के खरीदने और किराए पर लेने के लिए किया गया. खर्चे निजी लागत कहलाती है। जैसे-ब्याज, मजदूरी, किराया आदि।

सामाजिक लागत (Social Cost)- सामाजिक लागत वह लागत है जो सारे समाज को वस्तु के उत्पादन के लिए चुकानी पड़ती है। सामाजिक लागत पर्यावरण प्रदूषण के रूप में होती है। जैसे-कारखाने द्वारा गंदे पानी को नदी में बहाना। इससे नदी की मछलियाँ मर जाती हैं और पानी को पीने योग्य बनाने के लिए नगर निगम को अधिक पैसे खर्च करना पड़ता है।

इसी प्रकार शहर में स्थिर फैक्टरो के धुएँ से पर्यावरण के दूषित होने पर शहरी नागरिकों. के डॉक्टरी खर्च और लांडरी खर्च में वृद्धि सामाजिक लागत है।

फर्म के उत्पादन की लागत से हमारा आशय निजी लागत से है, न कि सामाजिक लागत से।

प्रश्न 12.
पैमाने के बढ़ते प्रतिफल को समझायें।
उत्तर:
पैमाने के बढ़ते प्रतिफल (Increasing returns to scale)- पैमाने के बढ़ते प्रतिफल
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 2
उस स्थिति को प्रकट करते हैं जब उत्पादन के सभी साधनों को एक निश्चित अनुपात में बढ़ाये जाने पर उत्पादन में वृद्धि अनुपात से अधिक होती है। दूसरे शब्दों में उत्पादन के साधनों में 10 प्रतिशत की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है। नीचे चित्र में पैमाने के बढ़ते प्रतिफल को दर्शाया गया है।

चित्र से पता चलता है कि उत्पादन के साधनों में 10 प्रतिशत की वृद्धि करने पर उत्पादन की मात्रा में 20 प्रतिशत की वृद्धि होती है। वह पैमाने के बढ़ते प्रतिफल की स्थिति है।

प्रश्न 13.
औसत स्थिर लागत वक्र किस प्रकार का दिखाई देता है ? यह ऐसा क्यों दिखाई देता है ?
उत्तर:
औसत स्थिर लागत (AFC) उतनी ही कम होती जाती है जितनी अधिक इकाइयों का उत्पादन किया जाता है। अतः औसत स्थिर लागत वक्र हमेशा बायें से दायें को नीचे की ओर झुकता हुआ होता है परन्तु यह कभी X अक्ष को स्पर्श नहीं करता क्योंकि औसत स्थिर लागत कभी भी शून्य नहीं हो सकती और उत्पादन का स्तर शून्य होने पर स्थिर लागत बनी रहती है।

प्रश्न 14.
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा की क्या प्रकृति होती है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा की प्रकृति (Nature of price line under perfect competition)- पूर्ण. प्रतियोगिता में कीमत रेखा क्षैतिज (Horizontal) अर्थात् X- अक्ष के समान्तर होती है। पूर्ण प्रतियोगिता में उद्योग कीमत का निर्धारण करता हैं फर्म उस कीमत को स्वीकार करती है। दी हुई कीमत पर एक फर्म एक वस्तु की जितनी भी मात्रा बेचना चाहती है, बेच सकती है। पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा न केवल OX-अक्ष के समान्तर होती है, अपितु औसत आगम तथा सीमान्त आगम वक्र को भी ढकती है। कीमत रेखा को पूर्ण प्रतियोगिता फर्म का माँग वक्र भी कहा जाता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 3

प्रश्न 15.
एकाधिकारी प्रतियोगिता में सीमान्त आगम तथा औसत आगम में सम्बन्ध बताएँ।
उत्तर:
एकाधिकारी प्रतियोगिता में सीमान्त आगम तथा औसत आगम में सम्बन्ध (Relationship between MR and AR under Monopolistic Competition)- एकाधिकारी प्रतियोगिता में फर्म अपनी कीमत कम करके अधिक माल बेच सकती है। अत: माँग वक्र (औसत आगम वक्र) ऊपर से नीचे की ओर ढालू होता है। जब AR वक्र नीचे की ओर होता है तो -MR वक्र इसके नीचे होता है। इस बात का स्पष्टीकरण नीचे तालिका तथा रेखाचित्र से किया गया है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 4
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 5

प्रश्न 16.
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा तथा कुल आगम में क्या सम्बन्ध है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में कीमत रेखा तथा कुल आगम में सम्बन्ध (Relation between price line and perfect competition under perfect competition) पूर्ण प्रतियागिता में कीमत तथा कुल आगम में महत्वपूर्ण सम्बन्ध है। कीमत रेखा के नीचे का क्षेत्र कुल आगम के बराबर होता है। पूर्ण प्रतियोगिता में प्रत्येक फर्म कीमत को स्वीकार करती है। उद्योग द्वारा निर्धारित कीमत को इसे स्वीकार करना पड़ता है वह दी हुई कीमत पर अपने उत्पाद की जितनी चाहं इकाइयाँ बेच सकती है। अत: कुल आगम कीमत तथा बेची गई इकाइयों का गुणनफल होगा। रेखाचित्र में वस्तु की कीमत OP है। PA कीमत रेखा है। फर्म की विक्रय की मात्रा OQ है। अत: कुल आगम OP × OQ होगा। यह OQRP आयत के क्षेत्रफल को प्रदर्शित करता है। अतः हम कह सकते हैं कि पूर्ण प्रतियोगिता में कुल आगम कीमत रेखा के नीचे का क्षेत्रफल के बराबर है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 6

प्रश्न 17.
पूर्ति के नियम के अपवाद बताइये।
उत्तर:
अपवाद (Exceptions)-

  • कीमत में और परिवर्तन की आशा।
  • कृषि वस्तुओं की स्थिति में-चूँकि कृषि मुख्य रूप से प्रकृति पर निर्भर करती हैं जो अनिश्चित होती है।
  • उन पिछड़े देशों में जिनमें उत्पादन के लिए पर्याप्त साधन नहीं पाये जाते।
  • उच्च स्तर की कलात्मक वस्तुएँ।

प्रश्न 18.
बाजार पूर्ति से क्या अभिप्राय है ? इसे कैसे प्राप्त किया जाता है ?
उत्तर:
बाजार पूर्ति (Market Supply)- बाजार पूर्ति से अभिप्राय विभिन्न कीमतों पर बाजार के सभी विक्रेताओं की एक सामूहिक पूर्ति से है। व्यक्तिगत पूर्ति के जोड़ने से बाजार पूर्ति प्राप्त होती है। मान लो एक बाजार में गेहूँ के तीन विक्रेता (A, B तथा C) हैं। इनकी पूर्ति को जोड़ने से हमें बाजार पूर्ति प्राप्त होगी। बाजार पूर्ति को नीचे तालिका की सहायता से समझाया गया है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 4, 7

प्रश्न 19.
निजी आय तथा वैयक्तिक आय में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
निजी आय तथा वैयक्तिक आय में निम्नलिखित अंतर है-
निजी आय:

  1. निजी उद्यमों तथा कर्मियों द्वारा समस्त स्रोत से प्राप्त आय।
  2. यह विस्तृत अवधारणा है।
  3. इसमें निगम कर, अवितरित लाभ इत्यादि शामिल हैं।
  4. निजी आय = NI – सार्वजनिक क्षेत्र को घरेलू उत्पदि से प्राप्त आय + समस्त

वैयक्तिक आय:

  1. व्यक्तियों तथा परिवारों को प्राप्त होने वाली आय
  2. यह संकुचित अवधारणा है।
  3. इसमें ये सब शामिल नहीं हैं।
  4. वैयक्तिक आय = निजी आय – निगम कर – अवितरित लाभ चालू अंतरण

प्रश्न 20.
क्या होगा यदि बाजार में प्रचलित कीमत-
(i) संतुलन कीमत से अधिक है, (ii) संतुलन कीमत से कम है ?
उत्तर:
(i) बाजार में प्रचलित कीमत के संतुलन कीमत से अधिक होने पर यह सोचते हुए कि दूसरे स्थानों से यहाँ पर अधिक लाभ कमा सकते हैं, फर्मे बाजार में प्रवेश करेंगी। परिणामस्वरूप प्रचलित कीमत पर बाजार में आधिक्य पूर्ति होगी। यह आधिक्य पूर्ति बाजार मूल्य में कमी लाएगी और बाजार कीमत कम होकर संतुलन कीमत के बराबर हो जाएगी।

(ii) इस स्थिति में बहुत सी फर्मे जिन्हें हानि हो रही होगी वे फर्मे इस उद्योग से बाहार निकल आएँगी। परिणामस्वरूप प्रचलित बाजार मूल्य पर आधिक्य माँग की स्थिति उत्पन्न होगी। आधिक्य माँग बाजार मूल्य में वृद्धि लाएगी और बाजार मूल्य संतुलन कीमत कम हो जाएगी।

प्रश्न 21.
एक पूर्ण प्रतियोगी फर्म में श्रम के श्रेष्ठ चयन की शर्त क्या है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगी फर्म में श्रम में श्रेष्ठ चयन की शर्त (Condition for optimal choice of labour in perfectly competitive firm)- श्रम बाजार में श्रम की माँग फर्मों द्वारा की जाती है। श्रम से अभिप्राय श्रमिकों के कार्य के घंटों से है न कि श्रमिकों की संख्या से। प्रत्येक फर्म का मुख्य उद्देश्य अधिकतम लाभ प्राप्त करना है। फर्म को अधिकतम लाभ तभी प्राप्त होता है जबकि नीचे दी गई शर्त पूरी होती है-
W = MRPL       MRPL = MR × MPL
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार में सीमान्त आगम कीमत के बराबर होता है और कीमत सीमान्त उत्पाद के मूल्य के बराबर होती है। अतः श्रम के आदर्श (श्रेष्ठ) चयन की शर्त मजदूरी दर तथा सीमान्त उत्पाद के मूल्य में समानता है।

प्रश्न 22.
बाजार के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख करें।
उत्तर:
बाजार के विभिन्न प्रकारों का निम्नलिखित उल्लेख है-
1. पूर्ण प्रतियोगिता- पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति होती हैं जिसमें एक समान वस्तु के बहुत अधिक क्रेता एवं विक्रेता होते हैं। एक क्रेता तथा एक विक्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाते और यही कारण है कि पूर्ण प्रतियोगिता में बाजार में वस्तु की एक ही कीमत प्रचलित रहता है।

2. एकाधिकार- एकाधिकार दो शब्दों से मिलकर बना है-एक + अधिकार अर्थात् बाजार की वह स्थिति जब बाजार में वस्तु का केवल एक मात्र विक्रेता हो। एकाधिकारी बाजार दशा में वस्तु का एक अकेला विक्रेता होने के कारण विक्रेता का वस्तु की पूर्ति पर पूर्ण नियंत्रण रहता है। विशुद्ध एकाधिकार में वस्तु का निकट स्थापन्न की उपलब्ध नहीं होता।

3. एकाधिकारी प्रतियोगिता- वास्तविक जगत में न तो पूर्ण प्रतियोगिता प्रचलित होती और न ही एकाधिकार। वास्तविक बाजार में प्रतियोगिता एवं एकाधिकार दोनों के ही तत्त्व उपस्थित रहते हैं। इस बाजार दशा के समूह के उत्पादक विभेदीकृत वस्तुओं दोनों के ही तत्त्व उपस्थित रहते हैं। इस बाजार दशा में समूह के उत्पादक विभेदीकृत वस्तुओं का उत्पादन करते हैं जो एक समान तथा समरूप नहीं होता है, किन्तु निकट स्थापन्न अवश्य होता है।

प्रश्न 23.
स्थानापन्न वस्तुओं से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
स्थानापन्न वस्तुएँ वे सम्बन्धित वस्तुएँ हैं जो एक-दूसरे के बदले एक ही उद्देश्य के लिए प्रयोग की जा सकती है। उदाहरण के लिए चाय और कॉफी। स्थानापन्न वस्तुओं में से एक वस्तु की माँग तथा दूसरी वस्तु की कीमत में धनात्मक सम्बन्ध होता है। अर्थात् एक वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी स्थानापन्न वस्तु की माँग बढ़ती है तथा कीमत कम होने पर माँग कम होती है।

प्रश्न 24.
चालू जमा खाता क्या है ?
उत्तर:
चालू खाते की जमाएँ चालू जमाएँ कहलाती हैं। चालू खाता वह खाता है जिसमें जमा की गई रकम जब चाहे निकाली जा सकती है। चूंकि इस खाते में आवश्यकतानुसार कई बार रुपया निकालने की सुविधा रहती है, इसलिए बैंक इस खाते का धन प्रयोग करने में स्वतंत्र नहीं होता। यही कारण है कि बैंक ऐसे खातों पर ब्याज बिल्कुल नहीं देता। कभी-कभी कुछ शुल्क ग्राहक से वसूल करता है।

प्रश्न 25.
पूर्ण प्रतियोगिता से क्या समझते हैं ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार की वह स्थिति होती है जिसमें एक समान वस्तु के बहुत अधिक क्रेता एवं विक्रेता होते हैं। एक क्रेता तथा विक्रेता बाजार कीमत को प्रभावित नहीं कर पाते और यही कारण है कि पूर्ण प्रतियोगिता में बाजार में वस्तु की एक ही कीमत प्रचलित रहती है।

प्रश्न 26.
व्यावसायिक बैंक के तीन प्रमुख कार्यों को बतायें।
उत्तर:
व्यावसायिक बैंक के तीन प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-

  • जमाएँ स्वीकार करना
  • ऋण देना
  • साख निर्माण।

प्रश्न 27.
सरकारी बजट के किन्हीं तीन उद्देश्यों को बतायें।
उत्तर:
सरकारी बजट के किन्हीं तीन उद्देश्य निम्नलिखिः हैं-

  • आर्थिक विकास को प्रोत्साहन
  • संतुलित क्षेत्रीय विकास
  • रोजगार का सृजना

प्रश्न 28.
भुगतान संतुलन क्या है ?
उत्तर:
भुगतान संतुलन का संबंध किसी देश के शेष विश्व के साथ सभी आर्थिक लेन-देन के लेखांकन के रिकार्ड हैं। प्रत्येक देश विश्व के अन्य देशों के साथ आर्थिक लेन-देन करता है। इस लेन-देन के फलस्वरूप रसे अन्य देशों से प्राप्तियाँ होती है तथा उसे अन्य देशों को भुगतान. करना पड़ता है। भुगतान संतुलन इन्हीं प्राप्तियों एवं भुगतानों का विवरण हैं।

प्रश्न 29.
संतुलित और असंतुलित बजट में भेद करें।
उत्तर:
संतुलित बजट : संतुलित बजट वह बजट है जिसमें सरकार की आय एवं व्यय दोनों बराबर होते हैं।
असंतुलित बजट : वह बजट जिसमें सरकार की आय एवं सरकार की व्यय बराबर नहीं होते असंतुलित बजट दो प्रकार का हो सकता है-

  • वजन का बजट या अतिरेक बजट जिसमें आय व्यय की तुलना में अधिक हो।
  • घाटे का बजट जिसमें व्यय आय की तुलना में अधिक हो।

प्रश्न 30.
अर्थशास्त्र की विषय वस्तु की विवेचना करें।
उत्तर:
प्रो. चैपमैन अर्थशास्त्र के विषय-वस्तु में धन के उपयोग, उत्पादन, विनिमय तथा वितरण को शामिल करते हैं। किन्तु आधुनिक अर्थशास्त्री प्रो. बोल्डिंग इसके विषय वस्तु में निम्न पाँच मदों को शामिल करते है।

  • उपयोग (Consumption)- उपयोग का अर्थ उस आर्थिक क्रिया से है, जिसका संबंध मानवीय आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिए वस्तुओं तथा सेवाओं की उपयोगिता का प्रयोग करने से है।
  • उत्पादन (Production)- उत्पादन का अर्थ वस्तुओं तथा सेवाओं द्वारा उपयोगिता या मूल्य में वृद्धि करने से है।
  • विनिमय (Exchange)- विनिमय में उन सभी क्रियाओं को शामिल किया जाता है जिसमें वस्तुओं तथा सेवाओं का क्रय-विक्रय दूसरी वस्तुओं के साथ अथवा मुद्रा के साथ किया जाता है।
  • वितरण (Distribution)- वितरण का अर्थ राष्ट्रीय आय का विभिन्न उत्पादन के साधनों में वितरण करना है। साधनों को मजदूरी लगान ब्याज तथा लाभ के रूप में पुरस्कार दिया जाता है।
  • सार्वजनिक वित्त (Public Finance)- इसमें सरकार की उन सभी क्रियाओं को शामिल किया जाता है, जो अर्थव्यवस्था की कुशल व्यवस्था के लिए अपनानी पड़ती है। इसमें सरकारी बजट सार्वजनिक आय तथा व्यय आदि शामिल किए जाते हैं।

प्रश्न 31.
भुगतान शेष के चालू खाता एवं पूँजी खाता में अन्तर बताएँ।
उत्तर:
चालू खाता : चालू खाते के अन्तर्गत उन सभी लेन देनों को शामिल किया जाता है जो वर्तमान वस्तुओं और सेवाओं के आयात निर्यात के लिए किए जाते हैं। चालू खाते के अन्तर्गत वास्तविक व्यवहार लिखे जाते हैं।

पूँजी खाता : पूँजी खाता पूँजी सौदों निजी एवं सरकारी पूँजी, अन्तरणों और बैंकिंग पूँजी प्रवाह का एक रिकार्ड है पूँजी खाता ऋणों और दावों के बारे में बताता है। उसके अन्तर्गत सरकारी सौदे विदेशी प्रत्यक्ष विनियोग पार्टफोलियो विनियोग को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 32.
बाजार की प्रमुख विशेषताएँ बताएँ।
उत्तर:
बाजार की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

  • एक क्षेत्र
  • क्रेताओं और विक्रेताओं की अनुपस्थिति
  • एक वस्तु
  • वस्तु का एक मूल्य.

प्रश्न 33.
रोजगार का परंपरावादी सिद्धान्त समझाइए।
उत्तर:
रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त का प्रतिपादन परंपरावादी अर्थशास्त्रियों ने किया था। इस सिद्धान्त के अनुसार एक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रत्येक इच्छुक व्यक्ति को प्रचलित मजदूरी पर उसकी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार आसानी से काम मिल जाता है। दूसरे शब्दों में प्रचलित मजदूरी दर पर अर्थव्यवस्था में सदैव पूर्ण रोजगार की स्थिति होती है। काम करने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए दी गई मजदूरी दर पर बेरोजगारी की कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती है। रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त को बनाने में डेबिड रिकार्डों, पीगू, मार्शल आदि व्यष्टि अर्थशास्त्रियों ने योगदान दिया है। रोजगार के परंपरावादी सिद्धान्त में जे. बी. से का रोजगार सिद्धान्त बहुत प्रसिद्ध है।

प्रश्न 34.
संक्षेप में अनैच्छिक बेरोजगार को समझाइए।
उत्तर:
यदि दी गई मजदूरी दर या प्रचलित मजदूरी दर पर काम करने के लिए इच्छुक व्यक्ति को आसानी से कार्य नहीं मिल पाता है तो इस समस्या को’ अनैच्छिक बेरोजगारी कहते हैं।

एकं अर्थव्यवस्था में अनैच्छिक बेरोजगारी के निम्नलिखित कारण हो सकते हैं-

  • अर्थव्यवस्था में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति हो सकती है।
  • प्राकृतिक संसाधनों की कमी।
  • पिछड़ी हुई उत्पादन तकनीक।
  • आधारित संरचना की कमी आदि।

प्रश्न 35.
साधन आय को कितने भागों में बाँटा जाता है ?
उत्तर:
उत्पादन के साधनों द्वारा प्रदान की गयी सेवाओं के बदले में जो आय प्राप्त प्राप्त होती है। उसे. साधन आय कहते हैं। साधन आय को निम्न भाग में बाँटा जा सकता है लगान, ब्याज, मजदूरी इत्यादि।

Bihar Board 12th Chemistry Objective Important Questions Part 1

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Bihar Board 12th Chemistry Objective Important Questions Part 1

प्रश्न 1.
C2 अणु में σ तथा π बंधन की संख्या है-
(a) 1σ तथा 1π
(b) 1σ तथा 2π
(c) 2π
(d) 1σ तथा 3π
उत्तर:
(c) 2π

प्रश्न 2.
LiCl, NaCl तथा KCl के विलयन का अनन्त तनुता पर समतुल्यांक चालकता का सही क्रम है-
(a) LiCl > NaCl > KCl
(b) KCl > NaCl > LiCl
(c) NaCl > KCl > LiCl
(d) LiCl > KCl > NaCl
उत्तर:
(b) KCl > NaCl > LiCl

प्रश्न 3.
किस अणु का द्विध्रुव आघूर्ण शून्य है?
(a) NF3
(b) BF3
(c) CrO3
(d) CH2Cl2
उत्तर:
(b) BF3

प्रश्न 4.
NaF के जलीय घोल का विद्युत विच्छेदन कराने पर धनोद एवं कैथोड प्राप्त प्रतिफल है-
(a) F2, Na
(b) F2, H2
(c) O2, Na
(d) O2, H2
उत्तर:
(d) O2, H2

प्रश्न 5.
R – OH + CH2N2 → इस प्रतिक्रिया में निकलने वाला समूह है-
(a) CH3
(b) R
(c) N2
(d) CH2
उत्तर:
(c) N2

प्रश्न 6.
सिलिका और हाइड्रोजन फ्लोराइड़ के प्रतिक्रिया से प्राप्त प्रतिफल है-
(a) SiF4
(b) H2SiF6
(c) H2SiF4
(d) H2SiF3
उत्तर:
(a) SiF4

प्रश्न 7.
0.1 M Ba(NO3)2 घोल का वॉन्ट हॉफ गुणक 2.74 है। तो विघटन स्तर है-
(a) 91.3%
(b) 87%
(c) 100%
(d) 74%
उत्तर:
(b) 87%

प्रश्न 8.
किसका +2 ऑक्सीकरण अवस्था सबसे स्थिर है-
(a) Sn
(b) Ag
(c) Fe
(d) Pb
उत्तर:
(d) Pb

प्रश्न 9.
कैनिजारो प्रतिक्रिया नहीं प्रदर्शित करता है-
(a) फॉरमलडिहाइड
(b) एसिटलडिहाइड
(c) बेंजलडिहाड
(d) फरफ्यूरल
उत्तर:
(b) एसिटलडिहाइड

प्रश्न 10.
किस गैस का अवशोषण चारकोल के द्वारा सबसे अधिक होता है-
(a) CO
(b) NH3
(c) NCl3
(d) H2
उत्तर:
(b) NH3

प्रश्न 11.
एक कार्बनिक यौगिक आयडोफार्म जाँच दिखलाता है और टॉलनस अभिकारक के साथ भी धनात्मक जाँच देता है। वो यौगिक है।
(a) CH3CHO
Bihar Board 12th Chemistry Objective Important Questions Part 1, 1
(c) CH3CH2OH
(d) (CH3)2 CHOH
उत्तर:
(a) CH3CHO

प्रश्न 12.
कौन Alkyl halide सिर्फ SN2 reaction द्वारा होता है।
(a) CH3CH2X
(b) (CH3)2 CHX
(c) (CH3)3 C – X
(d) C6H5CH2X
उत्तर:
(a) CH3CH2X

प्रश्न 13.
विस्मथ का कौन-सा ऑक्सीकरण अवस्था ज्यादा स्थायी होता है?
(a) +3
(b) +5
(c) +3 तथा +5 दोनों
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) +3

प्रश्न 14.
निम्नलिखित में कौन से जोड़े में क्रमश: Tetrahedral तथा Octahedral void होता है-
(a) b.c.c. और f.c.c.
(b) hcp तथा Simplecubic
(c) hcp तथा ccp
(d) b.c.c. और hcp
उत्तर:
(c) hcp तथा ccp

प्रश्न 15.
निम्नलिखित में कौन अक्रिस्टलीय ठोस पदार्थ है ?
(a) हीरा
(b) ग्रेफाइट
(c) काँच
(d) साधारण नमक
उत्तर:
(c) काँच

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में किसका हिमांक अवनमन अधिकतम होगा?
(a) K2SO4
(b) NaCl
(c) यूरिया
(d) ग्लूकोज
उत्तर:
(a) K2SO4

प्रश्न 17.
किसी विलयन के 200 ml में 2 ग्राम NaOH घुले हैं। विलयन की मोलरता है
(a) 0.25
(b) 0.5
(c) 5
(d) 10
उत्तर:
(a) 0.25

प्रश्न 18.
द्रवित सोडियम क्लोराइड के वैद्युत अपघटन से कैथोड पर मुक्त होता है
(a) क्लोरीन
(b) सोडियम
(c) सोडियम अमलगम
(d) हाइड्रोजन
उत्तर:
(d) हाइड्रोजन

प्रश्न 19.
96500 कूलॉम विद्युत CuSO4 के विलयन से मुक्त करता है।
(a) 63.5 ग्राम ताँबा
(b) 31.76 ग्राम तांबा
(c) 96500 ग्राम तांबा
(d) 100 ग्राम ताँबा।
उत्तर:
(b) 31.76 ग्राम तांबा

प्रश्न 20.
किसी अभिक्रिया का वेग निम्नांकित प्रकार से व्यक्त होता है :
वेग = K[A]2[B] तो इस अभिक्रिया की कोटि होगी
(a) 2
(b) 3
(c) 1
(d) 0
उत्तर:
(b) 3

प्रश्न 21.
निम्नलिखित में कौन-सी धातु प्रकृति में मुक्त अवस्था में पाई जाती है ?
(a) सोडियम
(b) लोहा
(c) जिंक
(d) सोना
उत्तर:
(b) लोहा

प्रश्न 22.
निम्नलिखित में कौन हाइड्रोजन बंधन नहीं बनाता है ?
(a) NH3
(b) H2O
(c) HCl
(d) HF
उत्तर:
(c) HCl

प्रश्न 23.
हीलियम का मुख्य स्रोत है-
(a) हवा
(b) रेडियम
(c) मोनाजाइट
(d) जल
उत्तर:
(a) हवा

प्रश्न 24.
निम्नलिखित आयनों में कौन प्रतिचुम्बकीय है ?
(a) Co2+
(b) Ni2+
(c) Cu2+
(d) Zn2+
उत्तर:
(d) Zn2+

प्रश्न 25.
Milk is an example of :
(a) emulsion
(b) suspension
(c) boam
(d) Solution
उत्तर:
(a) emulsion

प्रश्न 26.
Which of the following solution (in water) has the highest boiling point?
(a) 1M Nacl
(b) 1M MgCl2
(c) 1M urea
(d) 1M glucose
उत्तर:
(b) 1M MgCl2

प्रश्न 27.
Which of the following is a natural fibre?
(a) Starch
(b) Cellulose
(c) Rubber
(d) Nylon-6
उत्तर:
(b) Cellulose

प्रश्न 28.
Antiterromagnetic oxide है-
(a) MnO2
(b) TiO2
(c) VO2
(d) CrO2
उत्तर:
(d) CrO2

प्रश्न 29.
B.C.C. unit cell में atoms की संख्या होती है-
(a) 1
(b) 2
(c) 3
(d) -4
उत्तर:
(b) 2

प्रश्न 30.
Simple cubic unit cell में atoms की संख्या होती है-
(a) 1
(b) 2
(c) 3
(d) 4
उत्तर:
(a) 1

प्रश्न 31.
f.c.c. unit cell में atoms की संख्या होती है-
(a) 1
(b) 2
(c) 3
(d) 4
उत्तर:
(d) 4

प्रश्न 32.
समान परमाणुओंयुक्त f.c.c. संरचना में प्रति unit cell में Tetrahederal voids की संख्या होती है-
(a) 4
(b) 6
(c) 8
(d) 12
उत्तर:
(c) 8

प्रश्न 33.
5 ग्राम Glucose को 20 ग्राम जल में घोला गया है। घोल का भार प्रतिशत है-
(a) 25%
(b) 20%
(c) 5%
(d) 4%
उत्तर:
(b) 20%

प्रश्न 34.
निम्न में से विलयन का जो गुण ताप पर निर्भर नहीं करता है, वह है-
(a) मोलरता
(b) मोललता
(c) सामान्यता
(d) घनत्व
उत्तर:
(b) मोललता

प्रश्न 35.
25°C ताप पर जल का मोलरता होती है-
(a) 18 मोल लीटर -1
(b) 10-7 मोल लीटर -1
(c) 55.5 मोल लीटर -1
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) 55.5 मोल लीटर -1

प्रश्न 36.
निम्न में से किस धातु को उसके लवण के जलीय घोल का विद्युत-अपघटन करके प्राप्त किया जा सकता है-
(a) Al
(b) Ca
(c) Na
(d) Ag
उत्तर:
(d) Ag

प्रश्न 37.
Platinum Electrode पर H+ आयन पहले अपचयित होता है-
(a) Zn++ से
(b) Cu++ से
(c) Ag+ से
(d) I2 से
उत्तर:
(a) Zn++ से

प्रश्न 38.
द्रवित NaCl के विद्युत अपघटन से कैथोड पर मुक्त होता है-
(a) क्लोरीन
(b) सोडियम
(c) सोडियम अमलगम
(d) हाइड्रोजन
उत्तर:
(b) सोडियम

प्रश्न 39.
Cu, Ag, Zn तथा Fe के अवकरण विभवों का क्रम है-
(a) Cu, Ag, Fe, Zn
(b) Ag, Cu, Fe, Zn
(c) Fe, Ag, Cu. Zn
(d) Zn, Cu, Ag, Fe
उत्तर:
(b) Ag, Cu, Fe, Zn

प्रश्न 40.
प्रथम कोटि की अभिक्रिया के लिए वेग स्थिरांक का मात्रक है-
(a) Mol L-1
(b) Mol L-1S-1
(c) Second-1
(d) L Mol-1S-1
उत्तर:
(c) Second-1

प्रश्न 41.
वह अभिक्रिया कोटि है, जिसका गति स्थिरांक का मात्रक-
(a) शून्य
(b) प्रथम
(c) द्वितीय
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) शून्य

प्रश्न 42.
आरहेनियस समीकरण है-
(a) K = Ae-E/RT
(b) K = Ae-ΔH/RT
(c) k= -Ae-E/RT
(d) K = AeR/T
उत्तर:
(a) K = Ae-E/RT

प्रश्न 43.
अभिक्रिया 2A + 3B → C + 2D के लिए अणुकता होगी-
(a) 2
(b) 5
(c) 6
(d) -3
उत्तर:
(b) 5

प्रश्न 44.
वनस्पति तेल से वनस्पति घी के निर्माण में प्रयुक्त उत्प्रेरक है-
(a) Fe
(b) Mo
(c) Ne
(d) V2O5
उत्तर:
(c) Ne

प्रश्न 45.
Collor’s Particles का size होती है।
(a) 5Å से 200 Å
(b) 5 nm से 200 nm
(c) 5 × 10-8 cm से 2 × 10-6 cm
(d) 50 mu से 2000 mu
उत्तर:
(b) 5 nm से 200 nm

प्रश्न 46.
बादल, कुहरा, कुहासा, द्रव-गैस Colloids aersol हो धुम (smoke) किस प्रकार colloids है-
(a) ठोस-गैस
(b) गैस-द्रव
(c) द्रव-गैस
(d) गैस-ठोस
उत्तर:
(a) ठोस-गैस

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 4

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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
पूर्व-स्थापित सामंजस्य सिद्धान्त क्या है?
उत्तर:
पूर्व-स्थापित सामंजस्य सिद्धान्त के अन्तर्गत कहा गया है कि बिना खिड़कियों वाले अनेक कमरे होते हैं जिनमें परस्पर कोई समवाद नहीं होता परन्तु पूर्व-स्थापित सामंजस्य के कारण आपस में बिना किसी टकराव अथवा द्वन्द्व के वे एक साथ रहते हैं।

प्रश्न 2.
क्या पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का अध्ययन प्रासंगिक है?
उत्तर:
नीतिशास्त्र एक सामाजिक विज्ञान होने के नाते इस बात की भी अध्ययन करता है की मनुष्य या समाज के बीच एक पूर्ण संबन्ध हो तथा व्यक्ति के अधिकार एवं कर्तव्य उचित कार्यों के लिए पुरष्कार और अनुचित डंड का निर्धारण भी करता है नीतिशास्त्र में पर्यावरण सम्बन्ध 7 बातों का भी अध्ययन किया जाता है इसलिएए पर्यावरणीय नीतिशास्त्र का अध्ययन प्रासंगिक है।

प्रश्न 3.
शिक्षा दर्शन की एक विशेषता पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
शिक्षा दर्शन की एक विशेषता के अन्तर्गत शिक्षा लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साध न है यदि दर्शन जीवन के लक्ष्य को निर्धारित करता है तो शिक्षा उस लक्ष्य को प्राप्त करने का एक साधन है। दर्शन तथा शिक्षा का घनिष्ट सम्बन्ध है।

प्रश्न 4.
भारतीय दर्शन में कितने प्रमाण स्वीकृत हैं?
उत्तर:
भारतीय दर्शन में निम्नलिखित चार प्रमाण स्वीकृत है-

  1. प्रत्यक्ष (Perception),
  2. अनुमाण (Inference),
  3. उपमाण (Comtarison),
  4. शब्द (Verbal Autority)।

प्रश्न 5.
योगज प्रत्यक्ष क्या है?
उत्तर:
योगज प्रत्यक्ष एक ऐसा प्रत्यक्ष है जो भूत, वर्तमान और भविष्य के गुण तथा सूक्ष्म, निकट तथा दुरस्त सभी प्रकार की वस्तुओं की साक्षात अनुभूती कराता है। यह एक ऐसी शक्ति है जिसे हम घटा बढ़ा सकते हैं जब यह शक्ति बढ़ जाती है तो हम दूर की चीजे तथा सूक्ष्म चीजों को भी प्रत्यक्ष कर पाते हैं। यहि स्थिति योगज प्रत्यक्ष कहलाता है।

प्रश्न 6.
What do you know about the orthodox school of Indian philosophy ? (भारतीय दर्शन के आस्तिक सम्प्रदाय के बारे में आप क्या जानते हैं ?) अथवा, भारतीय दर्शन में आस्तिक सम्प्रदाय किसे कहते हैं ?
उत्तर:
भारत के दार्शनिक सम्प्रदायों को दो भागों में बाँटा गया है। वे हैं-आस्तिक एवं. नास्तिक।
व्यावहारिक जीवन में आस्तिक का अर्थ है–ईश्वरवादी तथा नास्तिक का अर्थ है-अनीश्वरवादी। ईश्वरवादी का मतलब ईश्वर में आस्था रखनेवालों से है। लेकिन दार्शनिक विचारधारा में आस्तिक शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है। भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहा जाता है, जो वेद की प्रामाणिकता में विश्वास करता हो। इस प्रकार, आस्तिक का अर्थ है वे का अनुयायी। इस प्रकार, भारतीय दर्शन में छः दर्शनों को आस्तिक माना जाता है। वे हैं-न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा और वेदान्त। ये सभी दर्शन किसी-न-किसी रूप में वेद पर आधारित हैं।

प्रश्न 7.
What do you know about the heterodox school? (नास्तिक सम्प्रदाय के बारे आप क्या जानते हैं ?)
उत्तर:
व्यावहारिक जीवन में नास्तिक उसे कहा जाता है जो ईश्वर का निषेध करता है। भारतीय दार्शनिक विचारधारा में नास्तिक शब्द का प्रयोग इस अर्थ में नहीं हुआ है। यहाँ नास्तिक उसे कहा जाता है जो वेद को प्रमाण नहीं मानता है। नास्तिक दर्शन के अन्दर चर्वाक, जैन और बौद्ध को रखा जाता है। इस प्रकार नास्तिक दर्शन की संख्या तीन है।

प्रश्न 8.
Explain the meaning of Karma Yoga in Bhagvad Gita. (भगवद्गीता में कर्मयोग के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
गीता का मुख्य विषय कर्म-योग है। गीता में श्रीकृष्ण किंकर्तव्यविमूढ़ अर्जुन को निरन्तर कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। गीता में सत्य की प्राप्ति के निमित्त कर्म को करने का आदेश दिया गया है। वह कर्म जो असत्य तथा अधर्म की प्राप्ति के लिए किया जाता है, सफल कर्म की श्रेणी में नहीं आते हैं। गीता में कर्म से विमुख होने को महान मूर्खता की संज्ञा दी गयी है। व्यक्ति को कर्म के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहने की बात की गयी है साथ ही कर्म के फलों की चिन्ता नहीं करने की बात भी कही गयी है। गीता में कर्मयोग को ‘निष्काम कर्म’ की भी संज्ञा दी गयी है। इसका अर्थ है, कर्म को बिना किसी फल की अभिलाषा से करना। डॉ. राधाकृष्णन ने कर्मयोग को गीता का मौलिक उपदेश कहा है।

प्रश्न 9.
What is the meaning of Right views in the Eightford Noble Path ? (अष्टांगिक-मार्ग में सम्यक् दृष्टि का क्या अर्थ है ?)
उत्तर:
गौतम बुद्ध ने दुख का मुख्य कारण अविद्या को माना है। अविद्या से मिथ्या-दृष्टि . :(Wrong views) का आगमन होता है। मिथ्या-दृष्टि का अन्त सम्यक् दृष्टि (Right views) से ही
संभव है। अत: बुद्ध ने सम्यक् दृष्टि को अष्टांगिक मार्ग की पहली सीढ़ी माना है। वस्तुओं के यथार्थ .स्वरूप को जानना ही सम्यक् दृष्टि कहा जाता है। सम्यक् दृष्टि का मतलब बुद्ध के चार आर्य सत्यों
का यथार्थ ज्ञान भी है। आत्मा और विश्व सम्बन्धी दार्शनिक विचार मानव को निर्वाण प्राप्ति में बाधक का काम करते हैं। अत: दार्शनिक विषयों के चिन्तन के बदले निर्वाण के लिए बुद्ध ने चार आर्य-सत्यों के अनरूप विचार ढालने को आवश्यक माना।

प्रश्न 10.
What do you know about the Jain Philosophy? (जैन-दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं?)
उत्तर:
जैन-दर्शन, बौद्ध-दर्शन की तरह छठी शताब्दी के विकसित होने के कारण समकालीन दर्शन कहे जा सकते हैं। जैन मत के प्रवर्तक चौबीसवें तीर्थंकर थे। ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर थे। महावीर अन्तिम तीर्थंकर थे। जैनमत के विकास और प्रचार का श्रेय अन्तिम तीर्थंकर महावीर को जाता है। बौद्ध की तरह जैन दर्शन भी वेद-विरोधी हैं। इसलिए बौद्ध-दर्शन की तरह जैन दर्शन को भी नास्तिक कहा जाता है। इसी तरह जैन-दर्शन भी ईश्वर में अविश्वास करता है। दोनों दर्शनों में अहिंसा पर अत्यधिक जोर दिया गया है। जैन-दर्शन में भी मुख्य दो सम्प्रदाय हैं। वे हैं-श्वेताम्बर तथा दिगम्बर। जैन-दर्शन का योगदान प्रमाण-शास्त्र तथा तर्क-शास्त्र के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण है। जैन-दर्शन प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य में उपलब्ध हैं।

प्रश्न 11.
What do you know about Buddhism? (बौद्ध-दर्शन के बारे में आप क्या जानते हैं ?)
उत्तर:
बौद्ध-दर्शन के संस्थापक महात्मा बुद्ध माने जाते हैं। बोधि (Cenlightment) यानि तत्त्वज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद वे बुद्ध कहलाए। उन्हें तथागत और अहर्ता की संज्ञा भी दी गयी। बुद्ध के उपदेशों के फलस्वरूप बौद्ध-धर्म एवं बौद्ध-दर्शन का विकास हुआ। बौद्ध-दर्शन के अनेक अनुयायी थे। उन अनुयायियों में मतभेद रहने के कारण बौद्ध-दर्शन की अनेक शाखाएँ निर्मित हो गयी जिसके फलस्वरूप उत्तरकालीन बौद्ध-दर्शन में दार्शनिक विचारों की प्रधानता बढ़ी। बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् उनके शिष्यों ने उपदेशों का संग्रह त्रिपिटक में किया। त्रिपिटक की रचना पाली . साहित्य में की गई है।

सुत्तपिटक, अभिधम्म पिटक और विनय पिटक तीन पिटकों के नाम हैं। सुत्त पिटक में धर्म सम्बन्धी बातों की चर्चा है। बौद्धों की गीता ‘धम्मपद’ सुत्तपिटक का ही एक अंग है। अभिधम्म पिटक में बुद्ध के दार्शनिक विचारों का संकलन है। इसमें बुद्ध के मनोविज्ञान सम्बन्धी विचार संग्रहीत है। विनयपिटक में नीति-सम्बन्धी बातों की व्याख्या हुई है।

प्रश्न 12.
Discuss the meaning of post by the base of Philosophy. (न्याय-दर्शन के आधार पर ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
Or,
Discuss the meaning of word in Indian Philosophy. अथवा, (भारतीय दर्शन में ‘पद’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
जिस किसी शब्द में अर्थ या संकेत की स्थापना हो जाती है, उसे ‘पद’ कहते हैं। दूसरे शब्दों में शक्तिमान शब्द को हम पद कहते हैं। किसी पद या शब्द में निम्नलिखित अर्थ या संकेत को बतलाने की शक्ति होती है-
(अ) व्यक्ति-विशेष (Individual)-यहाँ ‘व्यक्ति’ का अर्थ है वह वस्तु जो अपने गुणों के साथ प्रत्यक्ष हो सके। जैसे–’गाय’ शब्द को लें। वह द्रव्य या वस्तु जो गाय के सभी गुणों की उपस्थिति दिखावे गाय के नाम से पुकारी जाएगी। न्याय-सूत्र के अनुसार गुणों का आधार-स्वरूप जो मूर्तिमान द्रव्य है, वह व्यक्ति है।

(ब) जाति-विशेष (Universal)-अलग-अलग व्यक्तियों में रहते हुए भी जो एक समान गुण पाये जाए, उसे जाति कहते हैं। पद में जाति बताने की भी शक्ति होती है। जैसे-संसार में ‘गाय’ हजारों या लाखों की संख्या में होंगे लेकिन उन सबों की ‘जाति’ एक ही कही जाएगी।

(स) आकृति-विशेष (Form)-पद में आकृति (Form) को बतलाने की शक्ति होती है। आकृति का अर्थ है, अंगों की सजावट। जैसे–सींग, पूँछ, खूर, सर आदि हिस्से को देखकर हमें ‘जानवर’ का बोध होता है। उसी तरह, दो पैर, दो हाथ, दो आँखें, शरीर, सर आदि को देखकर आदमी (मानव) का बोध होता है।

प्रश्न 13.
What is means of object perception?
(पदार्थ-प्रत्यक्ष का क्या अभिप्राय है ?)
उत्तर:
किसी ज्ञान की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि हमारे सामने कोई पदार्थ वस्तु या द्रव्य हो। जब हमारे सामने ‘गाय’ रहेगी तभी हमें उसके सम्बन्ध में किसी तरह का प्रत्यक्ष भी हो सकता है। अगर हमारे सामने कोई पदार्थ या वस्तु नहीं रहे तो केवल ज्ञानेन्द्रियाँ ही प्रत्यक्ष का निर्माण कर सकती है। इसलिए प्रत्यक्ष के लिए बाह्य पदार्थ या वस्तु का होना आवश्यक है। न्याय दर्शन में सात तरह के पदार्थ बताए गए हैं-द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष समवाय एवं अभाव। इनमें ‘द्रव्य’ को विशेष महत्त्व दिया जाता है। इसके बाद अन्य सभी द्रव्य पर आश्रित हैं।

प्रश्न 14.
Discuss relation between Comarison and inference. (उपमान एवं अनुमान के बीच सम्बन्धों की व्याख्या करें।)
Or,
What is relation between Comparison and inference ? अथवा, (उपमान एवं अनुमान के बीच क्या सम्बन्ध है ?)
उत्तर:
अनुमान प्रत्यक्ष के आधार पर ही होता है, लेकिन अनुमान प्रत्यक्ष से बिल्कुल ही भिन्न क्रिया है। अनुमान का रूप व्यापक है। उसमें उसका आधार व्याप्ति-सम्बन्ध (Universal rclation) रहता है, जिसमें निगमन यानि निष्कर्ष में एक बहुत बड़ा बल रहता है तथा वह सत्य होने का अधिक दावा कर सकता है। दूसरी ओर, उपमान भी प्रत्यक्ष पर आधारित है लेकिन अनुमान की तरह व्याप्ति-सम्बन्ध से सहायता लेने का सुअवसर प्राप्त नहीं होता है। उपमान से जो कुछ ज्ञान हमें प्राप्त होता है, उसमें कोई भी व्याप्ति-सम्बनध नहीं बतलाया जा सकता है। अतः उपमान से जो निष्कर्ष निकलता है वह मजबूत है और हमेशा सही होने का दाबा कभी नहीं कर सकता है।

महत्त्वपूर्ण बात यह है कि अनुमान को उपमान पर उस तरह निर्भर नहीं करना पड़ता है जिस तरह उपमान अनुमान पर निर्भर करता है। सांख्य और वैशेषिक दर्शनों में ‘उपमान’ को ही बताकर अनुमान का ही एक रूप बताया गया है। अगर हम आलोचनात्मक दृष्टि से देखें तो पाएंगे कि उपमान भले ही ‘अनुमान’ से अलग रखा जाए लेकिन अनुमान का काम ‘उपमान’ में हमेशा पड़ता रहता है।

प्रश्न 15.
Explain ‘Substance’ as ‘first Padartha’. (प्रथम पदार्थ के रूप में द्रव्य की चर्चा करें।)
उत्तर:
द्रव्य कणाद का प्रथम पदार्थ है। द्रव्य गुण एवं कर्म का आधार है। द्रव्य के बिना गुण एवं कर्म की कल्पना नहीं की जा सकती है। द्रव्य गुण एवं कर्म का आधार हाने के अतिरिक्त अपने कार्यों का समवायिकरण (material cause) है। उदाहरण के लिए-सूत से कपड़ा का निर्माण होता है। अतः सूत को कपड़े का समवायि कारण कहा जाता है। द्रव्य नौ प्रकार के होते हैं। वे हैं-पृथ्वी अग्नि, वायु, जल, आकाश, दिक् काल, आत्मा एवं मन। इन द्रव्यों में पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और आकाश को पंचभूत कहा जाता है। पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि के परमाणु नित्य हैं तथा उनसे बने कार्य-द्रव्य अनित्य हैं। परमाणु दृष्टिगोचर नहीं होते हैं।

परमाणुओं का अस्तित्व, अनुमान से प्रमाणित होता है। परमाणु का निर्माण एवं नाश असंभव है। पाँचवाँ भौतिक द्रव्य ‘आकाश’ परमाणुओं से रहित है। ‘शब्द’ आकाश का गुण है। सभी भौतिक द्रव्यों का अस्तित्व ‘दिक्’ और ‘काल’ में होता है। दिक् और काल के बिना भौतिक द्रव्यों की व्याख्या असंभव है।

प्रश्न 16.
Explain the meaning of ‘Sankhya’ in the Sankhya philosophy. (सांख्य-दर्शन में सांख्य के अर्थ की व्याख्या करें।)
उत्तर:
सांख्य-दर्शन में ‘सांख्य’ नामकरण के सम्बन्ध में दार्शनिकों के बीच, अनेक मत प्रचलित हैं। कुछ दार्शनिकों के अनुसार ‘सांख्य’ शब्द ‘सं’ और ख्या’ के संयोग से बना है। ‘स’ का अर्थ सम्यक् तथा ‘ख्या’ का अर्थ ज्ञान होता है। अत: सांख्य का वास्तविक अर्थ ‘सम्यक् ज्ञान’ हुआ। सम्यक् ज्ञान का अभिप्राय पुरुष और प्रकृति के बीच भिन्नता का ज्ञान होता है। दूसरी ओर कुछ दार्शनिकों के अनुसार ‘सांख्य’ नाम ‘संख्या’ शब्द से प्राप्त हुआ है। सांख्य-दर्शन का सम्बन्ध संख्या से होने के कारण ही इसे सांख्य कहा जाता है।

सांख्य दर्शन में तत्त्वों की संख्या बतायी गयी है। तत्वों की संख्या पचीस बतायी गयी है। एक तीसरे विचार के अनुसार ‘सांख्य’ को सांख्य कहे जाने का कारण सांख्य के प्रवर्तक का नाम ‘संख’ होना बतलाया जाता है। लेकिन यह विचार प्रमाणित नहीं है। महर्षि कपिल को छोड़कर अन्य को सांख्य का प्रवर्तक मानना अनुचित है। सांख्य-दर्शन वस्तुतः कार्य-कारण पर आधारित है।

प्रश्न 17.
Explain the meaning of ‘Satva’ in Sankhya Philosophy.
(सांख्य-दर्शन में ‘सत्व’ के अर्थ बतावें।)
उत्तर:
सांख्य दर्शन में गुण तीन प्रकार के होते हैं। वे हैं-सत्व, रजस् और तमस्। सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है। यह खुद प्रकाशमय है तथा दूसरों को भी प्रकाशित करता है। सत्व के कारण ही मन तथा बुद्धि विषयों को ग्रहण करते हैं। इसका रंग श्वेत (उजला) है। यह सुख का कारण होता है। सत्व के कारण ही सूर्य पृथ्वी को प्रकाशित करता है तथा ऐनक में प्रतिबिम्ब की शक्ति होती है। इसका स्वरूप हल्का तथा छोटा (लघु) होता है। सभी हल्की वस्तुओं तथा धुएँ का ऊपर की दिशा में गमन ‘सत्व’ के कारण ही संभव होता है। सभी सुखात्मक अनुभूति यथा हर्ष, तृप्ति, संतोष, उल्लास आदि सत्य के ही कार्य माने जाते हैं।

प्रश्न 18.
Explain positive ideas of Sankara about the Absolute. (ब्रह्म के सम्बन्ध में शंकर के भावात्मक विचार को स्पष्ट करें।) Or, Explain the meaning of Sachchidananda. अथवा, (‘सच्चिदानन्द’ के अर्थ को स्पष्ट करें।)
उत्तर:
शंकर ने ‘ब्रह्म’ की निषेधात्मक व्याख्या के अतिरिक्त भावात्मक विचार भी दिए हैं। शंकर के अनुसार ब्रह्म सत् (real) है जिसका अर्थ हुआ कि वह असत् (Un-real) नहीं है। वह चित् (Conscisouness) है जिसका अर्थ कि वह अचेत् नहीं है। वह आनन्द (bliss) है जिसका अर्थ है कि वह दुःख स्वरूप नहीं है। अतः ब्रह्म सत्, चित् और आनन्द है यानि सच्चिदानन्द है। सत्, चित् और आनन्द में अवियोज्य सम्बन्ध है। इसीलिए ये तीनों मिलकर एक ही सत्ता का निर्माण करते हैं। शंकर ने यह भी बतलाया कि ‘सच्चिदानन्द’ के रूप में जो ब्रह्म की व्याख्या की जाती है वह अपूर्ण है। हालाँकि भावात्मक रूप से सत्य की व्याख्या इससे और अच्छे ढंग से संभव नहीं है।

प्रश्न 19.
What are proofs of the existence of Brahma according to Shankar. (शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व के क्या प्रमाण दिये?)
उत्तर:
शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कुछ प्रमाण दिए हैं। उन्हें हम . श्रुति प्रमाण, मनोवैज्ञानिक प्रमाण, प्रयोजनात्मक प्रमाण, तात्विक प्रमाण तथा अपरोक्ष अनुभूतिप्रमाण कहा जाता है। श्रुति प्रमाण के अन्तर्गत शंकर के दर्शन का आधार उपनिषद्, गीता तथा ब्रह्मसूत्र है। उनके अनुसार इन ग्रन्थों के सूत्र में ब्रह्म के अस्तित्व का वर्णन है अतः ब्रह्म है। इसी मनोवैज्ञानिक प्रमाण के अन्तर्गत शंकर ने कहा है कि ब्रह्मा सबकी आत्मा है। हर व्यक्ति अपनी आत्मा के अस्तित्व को अनुभव करता है। अतः इससे भी प्रमाणित होता है कि ब्रह्म का अस्तित्व है।

प्रयोजनात्मक प्रमाण के अन्तर्गत कहा गया है कि जगत् पूर्णतः व्यवस्थित है। इस व्यवस्था का कारण जड नहीं कहा जा सकता। अतः व्यवस्था का एक चेतन कारण है. उसे ही हम ब्रह्म कहते हैं। इसी तरह तात्त्विक प्रमाण के अन्तर्गत बताया गया है कि ब्रह्म वृह धातु से बना है जिसका अर्थ है वृद्धि। ब्रह्म की सत्ता प्रमाणित होती है। अन्ततः ब्रह्म के अस्तित्व का सबसे सबल प्रमाण अनुभूति है। वे अपरोक्ष अनुभूति के द्वारा जाने जाते हैं। अपरोक्ष अनुभूति के फलस्वरूप सभी प्रकार के द्वैत समाप्त हो जाते हैं तथा अद्वैत ब्रह्म का साक्षात्कार होता है।

प्रश्न 20.
Explain the concept of Soul according to Shankar.
(शंकर के ‘आत्मा’ की अवधारणा को स्पष्ट करें।)
Or,
Explain the relationship between the Soul and the Absolute. अथवा, (आत्मा और ब्रह्म के बीच सम्बन्ध की व्याख्या करें।)
उत्तर:
शंकर आत्मा को ब्रह्म की संज्ञा देते हैं। उनके अनुसार दोनों एक ही वस्तु के दो भिन्न-भिन्न नाम है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। आत्मा स्वयं सिद्ध (Axioms) अतः उसे प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा देश, काल और कारण-नियम की सीमा से परे हैं। वह त्रिकाल-अबाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है। शंकर के दर्शन में आत्मा और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है। शंकर ने एक ही तत्त्व को आत्मनिष्ठ दृष्टि से ‘आत्मा’ तथा वस्तुनिष्ठ दृष्टि से ब्रह्म कहा है। शंकर आत्मा और ब्रह्म के ऐक्य को ‘तत्तवमसि’ (that thou art) से पुष्टि करता है।

प्रश्न 21.
Explain the quantitative marks of the cause.
(कारण के परिमाणात्मक लक्षणों की व्याख्या करें।)
उत्तर:
परिमाण के अनुसार कारण और कार्य के बीच मुख्यतः तीन प्रकार के विचार बताए गए हैं-
(क) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में अधिक हो सकता है,
(ख) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कम हो सकता है,
(ग) कारण-कार्य से परिमाण या मात्रा में कभी अधिक और कभी कम हो सकता है।

अतः, इन तीनों को असत्य साबित किया गया है। यदि कारण अपने कार्य से कभी अधिक और कभी कम होता है तो इसका यही अर्थ है कि प्रकृति में कोई बात स्थिर नहीं है। किन्तु, प्रकृति में स्थिरता में समरूपता है, अत: यह संभावना भी समाप्त हो जाता है।

इसी तरह पहली और दूसरी संभावना भी समाप्त हो जाती है। ये तीनों संभावनाएँ निराधार हैं। अतः, निष्कर्ष यही निकलता है कि कारण-कार्य मात्रा में बराबर होते हैं और यही सत्य भी है।

प्रश्न 22.
Explain the composition of causes
(कारणों का संयोग की व्याख्या करें।)
उत्तर:
जब बहुत से कारणं मिलकर संयुक्त रूप से कार्य पैदा करते हैं तो वहाँ पर कारणों के मेल को कारण-संयोग कहा जाता है। यह भी कारण-कार्य नियम के अंतगर्त पाया जाता है। जैसे-भात-दाल, सब्जी, दूध, दही, घी, फल आदि खाने के बाद हमारे शरीर में खून बनता है। इसलिए खून यहाँ बहुत से कारणों के मेल से बनने के कारण कार्य-सम्मिश्रण हुआ तथा दाल, भात आदि कारणों का मेल कारण-संयोग कहा जाता है। अतः, कारणों के संयोग और कार्यों के सम्मिश्रण में अंतर पाया जाता है।

प्रश्न 23.
Compare between caused and condition. (कारण और उपाधि की तुलना करें।)
उत्तर:
आगमन में कारण का एक हिस्सा स्थित बतायी गई है। जिस तरह से हाथ, पैर, आँख, कान, नाक आदि शरीर के अंग हैं और सब मिलकर एक शरीर का निर्माण करते हैं। उसी तरह बहुत-सी स्थितियाँ मिलकर किसी कारण की रचना करती हैं। परन्तु, कारण में बहुत-सा अंश या हिस्सा नहीं रहता है। कारण तो सिर्फ एक ही होता है। इसमें स्थिति का प्रश्न ही नहीं रहता है। कारण और उपाधि में तीन तरह के अंतर हैं-
(क) कारण एक है और उपाधि कई हैं।
(ख)कारण अंश रूप में रहता है और उपाधि सम्पूर्ण रूप में आता है।
(ग) कारण चार प्रकार के होते हैं जबकि उपाधि दो प्रकार के होते हैं। इस तरह कारण और उपाधि में अंतर है।

प्रश्न 24.
What are Affirmative Conditions ? (भावात्मक कारणांश या उपाधि क्या है?)
उत्तर:
भावात्मक कारणांश उपाधि का एक भेद है। उपाधि प्रायः दो तरह के हैं-भावात्मक तथा अभावात्मक। ये दोनों मिलकर ही किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। यह कारण का वह भाग या हिस्सा है जो प्रत्यक्ष रूप में पाया जाता है। इसके रहने से कार्य को पैदा होने में सहायता मिलती है। जैसे-नाव का डूबना एक घटना है, इसमें भावात्मक उपाधि इस प्रकार है-एकाएक आँधी का आना, पानी का अधिक होना, नाव का पुराना होना तथा छेद रहना, वजन अधिक हो जाना आदि ये सभी भावात्मक उपाधि के रूप में जिसके कारण नाव पानी में डूब गई।

प्रश्न 25.
Explain in brief the Ontological proof. (सत्ता या तत्त्व सम्बन्धी प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।)
उत्तर:
अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईबनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की धारणा है. अतः यह धारणा केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक में होगी। ईश्वर की यथार्थता (existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है।

संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की. जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा, नंगा और दरिद्र न होता।

प्रश्न 26.
How did Kant criticize the Cosmological Proof. (विश्व सम्बन्धी प्रमाण की आलोचना काण्ट ने कैसे की?)
उत्तर:
काण्ट के अनुसार वैश्विक प्रमाण को आनुभविक नहीं समझना चाहिए, क्योंकि आपातकाल वस्तुओं को कोई इन्द्रियानुभविक लक्षण नहीं है। यह अनुभव वस्तुओं का अतिसामान्य अमूर्त लक्षण है जिसे अनुभवाश्रित मुश्किल से कहा जा सकता है। वैश्विक प्रमाण का मुख्य उद्देश्य यही है कि यह अनिवार्य सत्ता के प्रत्यय (Idea) को स्थापित करे तथा इस अनिवार्य सत्ता से ईश्वर की वास्तविकता सिद्ध करे। ऐसा करने पर यह सत्तामूलक प्रमाण का रूप धारण कर लेता है।

जिस प्रकार पूर्ण (perfect) ईश्वर की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है, उसी तरह यहाँ अनिवार्य सत्ता की भावना से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध किया जाता है। इस प्रकार वैश्विक प्रमाण वस्तुतः सत्तामूलक प्रमाण का ही छुपा रूपं है, अतः यह सिद्धान्त भी ईश्वर के अस्तित्व को नहीं सिद्ध कर पाता है।

प्रश्न 27.
Explain in brief ther Teleological Proof. , (उद्देश्य मूलक प्रमाण की संक्षेप में व्याख्या करें।)
उत्तर:
उद्देश्य मूलक प्रमाण के अनुसार जहाँ तक मानव का अनुभव प्राप्त होता है, वहाँ तक सम्पूर्ण विश्व में क्रम व्यवस्था, साधन-साध्य की सम्बद्धता दिखाई देती है। अतः प्राकृतिक समरूपता व्यवस्था, सौन्दर्य आदि से स्पष्ट होता है कि कोई परम सत्ता है, जिसने इस विश्व की रचना अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए की है। काण्ट ने इस प्रमाण को भी उपयुक्त नहीं माना। उनके अनुसार उद्देश्य मूलक प्रमाण से इतना ही सिद्ध हो पाता है कि विश्व का कोई शिल्पकार (architect) है, न कि इस विश्व का कोई सृष्टिकर्ता। सृष्टिकर्ता वह है जो विश्व के उपादान और उसके रूप दोनों का रचयिता हो। वस्तुतः उद्देश्य मूलक प्रमाण से अपरिमित, निरपेक्ष, परम सत्ता का अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। काण्ट की दृष्टि में सभी प्रमाण अन्त में सत्तामूलक प्रमाण के ही विभिन्न चरण हैं।

प्रश्न 28.
What are modern ideas regarding mind-body problem?
(‘मन-शरीर समस्या के सम्बन्ध में आधुनिक विचार क्या है?)
उत्तर:
मन-शरीर के सम्बन्ध की विवेचना एक जटिल दार्शनिक समस्या है। आधुनिक विचारधारा के अनुसार शारीरिक प्रक्रियाओं के अतिरिक्त मन की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार नहीं : किया जा सकता है। इस दृष्टि से मन और शरीर के बीच सम्बन्ध स्थापित करने का प्रश्न ही नहीं उठता है। शारीरिक या मानसिक प्रक्रियाओं के तंत्र को ही ‘मन’ की संज्ञा दी जाती है। लेकिन मन को स्वतंत्र मानने को मशीन में भूत (ghost in the machine) के बराबर काल्पनिक सिद्धान्त कहा • जाता है। व्यवहारतः यन्त्र अपने-आप चलता है, न कि कोई भूत इसे चलाता है।

प्रश्न 29.
What is virtue ? (सद्गुण क्या है ?).
उत्तर:
सद्गुण से हमारा तात्पर्य किसी व्यक्ति के नैतिक विकास से रहता है। सद्गुण के अन्तर्गत तीन बातें आती हैं। वे हैं-कर्तव्य का पालन इच्छा से हो तथा सद्गुण का अर्जन। निरन्तर अभ्यास द्वारा कर्तव्य पालन करने से जो स्थिर प्रवृत्ति में श्रेष्ठता आती है-वही सद्गुण है। उचित कर्मों का पालन करना ही हमारा कर्त्तव्य है और अनुचित कर्मों का त्याग भी कर्तव्य ही है। जब कोई मानव अभ्यास पूर्वक अपने कर्तव्य का पालन करता है तो उसमें एक प्रकार का नैतिक गुण स्वतः विकसित होने लगता है। यही विकसित गुण सद्गुण है। वस्तुत: अच्छे चरित्र का लक्षण ही सद्गुण है। कर्त्तव्य हमारे बाहरी कर्म का द्योतक है जबकि सद्गुण हमारे अन्तः चरित्र का द्योतक है। सुकरात ने तो सद्गुण ज्ञान को ही माना है।

प्रश्न 30.
What do you mean by the Preventive theory of Punishment ? (दण्ड के निवर्तन सिद्धांत से आप क्या समझते हैं?)
उत्तर:
निवर्तन सिद्धान्त की मूल धारणा है कि दण्ड देने के पीछे हमारा एकमात्र उद्देश्य यह होता है कि भविष्य में व्यक्ति वैसे अपराध की पुनरावृत्ति न करें। दण्ड एक तरह से व्यक्ति के ऊपर अंकुश डालता है। यदि किसी व्यक्ति को कठिन-से-कठिन दण्ड देते हैं तो उसका उद्देश्य दो माने जाते हैं। पहला, वह व्यक्ति भविष्य में अपराध करने के लिए हिम्मत नहीं कर पाता है। साथ ही जब दूसरा व्यक्ति अपराधकर्मी को दण्ड भोगते देखता है तो वह व्यक्ति भी भय से अपराध नहीं करता है। जैसे किसी को गाय चुराने के लिए दण्ड इसलिए नहीं दिया जाता है कि वह गाय चुरा चुका है बल्कि इसलिए दिया जाता है कि वह भविष्य में गाय चुराने की हिम्मत न करे। इस प्रकार निवर्तनवादी सिद्धान्त का मुख्य उद्देश्य अपराधी कार्य पर नियंत्रण लगाना माना जाता है। “.

प्रश्न 31.
Explain the relationship between social philosophy and Ethics.
(समाजदर्शन एवं नीतिशास्त्र के बीच सम्बन्धों की विवेचना करें।)
उत्तर:
नीतिशास्त्र का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के उन लक्ष्यों (ends) से है जिन्हें प्राप्त करना मानव-जीवन का उद्देश्य होता है। अतः समाज दर्शन का जितना गहरा सम्बन्ध नीतिशास्त्र से है उतना किसी अन्य शास्त्र से नहीं। समाजदर्शन वास्तव में नीतिशास्त्र का एक अंग कहा जा सकता है। इसी तरह नीतिशास्त्र को भी समाज-दर्शन का अंग कहने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। इसके बावजूद सुविधा की दृष्टि से हम दोनों में अन्तर स्पष्ट कर सकते हैं। नीतिशास्त्र मुख्य रूप से व्यक्तियों के आचरण (conduct) से सम्बन्धित है, दूसरी ओर समाज का निर्माण व्यक्तियों से ही होता है तथा वे लक्ष्य जिन्हें प्राप्त करने के लिए व्यक्ति तथा समाज प्रयत्न करते हैं लगभग समान होते हैं। .

प्रश्न 32.
नैतिकता का ईश्वर से क्या संबंध है?
उत्तर:
नैतिक तर्क के अनुसार ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए इस प्रकार से विचार किया जाता है। यदि नैतिक मूल्य वस्तुगत है तो यह आवश्यक हो जाता है कि जगत में नैतिक व्यवस्था हो और यदि जगत में नैतिक व्यवस्था है तब नैतिक नियमों को मानना पड़ेगा। यदि ईश्वर के अस्तित्व को न माना जाए तब जगत की नैतिक व्यवस्था को भी नहीं माना जा सकता है और जगत में नैतिक व्यवस्था के अभाव में नैतिक मूल्यों को भी वस्तुतः नहीं माना जा सकता है किन्तु नैतिक मूल्यों का वस्तुगत न मान कोई भी दार्शनिक मानव को संतुष्ट नहीं कर सकता। इसलिए नैतिक मूल्यों को वस्तुगत मानना ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध करना है।

Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 4

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Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 4

प्रश्न 1.
प्रकाश का वेग अधिकतम होता है :
(a) हवा में
(b) काँच में
(c) पानी में
(d) निर्वात में
उत्तर:
(d) निर्वात में

प्रश्न 2.
किसी माध्यम से प्रकाश का वेग निर्भर करता है :
(a) प्रकाश स्रोत की तीव्रता पर
(b) प्रकाश स्रोत की आवृत्ति पर
(c) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) प्रकाश स्रोत की आवृत्ति पर

प्रश्न 3.
प्रकाश की तरंगें अनुप्रस्थ (Transverse) है यह साबित होता है :
(a) व्यतिकरण से
(b) विवर्तन से
(c) ध्रुवण से
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) ध्रुवण से

प्रश्न 4.
ब्रूस्टर का नियम (Brewster’s law) है :
(a) μ = sinip
(b) μ = cosip
(c) μ = tanip
(d) μ = tan2ip
उत्तर:
(c) μ = tanip

प्रश्न 5.
Laser beam है :
(a) उच्च एक वर्ण प्रकाश
(b) एक वर्ण प्रकाश
(c) स्वभाव में hetrogenous
(d) एक वर्ण प्रकाश या ऊर्जा पर नहीं निर्भर करता है
उत्तर:
(a) उच्च एक वर्ण प्रकाश

प्रश्न 6.
Leaser एक स्रोत (Source) है :
(a) विद्युत धारा का
(b) ध्वनि का
(c) अकलाबद्ध प्रकाश (Incoherent light)
(d) कलाबद्ध प्रकाश (choherent light)
उत्तर:
(d) कलाबद्ध प्रकाश (choherent light)

प्रश्न 7.
चित्र में दो समाक्षीय उत्तल लेंस L1 तथा L2 कुछ दूरी से विलंगति है जिनके फोकस लौटा क्रमशः F1 तथा F2है। L1 तथा L2 के बीच की दूरी है-
Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 4 1
(a) F1
(b) F2
(c) F1 + F2
(d) F1 – F2
उत्तर:
(c) F1 + F2

प्रश्न 8.
f फोकस लम्बाई वाले दो पतले लेन्स को जोड़ने पर समतुल्य (Equivalent) फोकस लम्बाई होगा।
(a) 2f
(b) 4f
(c) \(\frac{f}{2}\)
(d) 3f
उत्तर:
(c) \(\frac{f}{2}\)

प्रश्न 9.
fo, तथा fE, फोकस लम्बाई के अभिदृश्यक (objective) तथा नेत्रिका के संयुक्त
सूक्ष्मदर्शी में होता है
(a) fo > fE
(b) fo < fE
(c) fo = fE
(d) fo = 2fE
उत्तर:
(b) fo < fE

प्रश्न 10.
संयुक्त सूक्ष्मदर्शी के अभिदृश्यक (objective) तथा नेत्रिका का आवर्द्धन क्षमता (Magnifying power) क्रमश m1 तथा m2 हो तो सूक्ष्मदर्शी का आवर्द्धन क्षमता होगा :
(a) m1 + m2
(b) m1 – m2
(c) m1 m2
(d) m1/m2
उत्तर:
(c) m1 m2

प्रश्न 11.
बहुमूल्य रत्नों की पहचान के लिए प्रयुक्त होता है-
(a) परा बैगनी किरणों
(b) अवरक्त किरणें
(c) x-किरण
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(a) परा बैगनी किरणों

प्रश्न 12.
विनाशी व्यतिकरण (Destructive interference) में path diff. होता है :
(a) n λ
(b) (n+ 1) λ
(c) (2n+1) λ
(d) (2n+1)\(\frac{\lambda}{2}\).
उत्तर:
(d) (2n+1)\(\frac{\lambda}{2}\).

प्रश्न 13.
संपोषी ब्यतिकरण (constructive interference) में path diff. होता है :
(a) n λ
(b) (n+ 1) λ
(c) (2n+1)\(\frac{\lambda}{2}\)
(d) (2n + 1) λ
उत्तर:
(a) n λ

प्रश्न 14.
विद्युत चुम्बकीय तरंगें होती हैं :
(a) अनुदैर्घ्य
(b) अनुप्रस्थ
(c) कभी अनुदैर्घ्य तथा कभी अनुप्रस्थ
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) अनुप्रस्थ

प्रश्न 15.
एक परमाणु के नाभिक (nucleus) में रहता है :
(a) प्रोटॉन
(b) प्रोटॉन तथा इलेक्ट्रॉन
(c) प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन
(d) 4-कण
उत्तर:
(c) प्रोटॉन तथा न्यूट्रॉन

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में से कौन मूल कण (Fundamental paricle) नहीं है ?
(a) न्यूट्रॉन
(b) प्रोटॉन
(c) α-कण
(d) इलेक्ट्रॉन
उत्तर:
(c) α-कण

प्रश्न 17.
फ्रेजनेल दूरी Zf का मान होता है-
(a) \(\frac{a}{\lambda}\)
(b) \(\frac{a^{2}}{\lambda}\)
(c) \(\frac{\lambda}{a}\)
(d) \(\frac{\lambda}{a^{2}}\)
उत्तर:
(b) \(\frac{a^{2}}{\lambda}\)

प्रश्न 18.
नाभिक (Nucleus) का आकार होता है :
(a) 10-13 cm
(b) 10-23 cm
(c) 10-8 cm
(d) 10-10 cm
उत्तर:
(a) 10-13 cm

प्रश्न 19.
द्रव्यमान तथा ऊर्जा के बीच सम्बन्ध है :
(a) E = mc2
(b) E = mc
(c) E = mc3
(d) E = m2c
उत्तर:

प्रश्न 20.
λ = 1Å के x-किरणों की आवृत्ति होते हैं-
(a) 3 × 108Hz
(b) 3 × 1018Hz
(c) 3 × 1010Hz
(d) 3 × 1015Hz
उत्तर:
(b) 3 × 1018Hz

प्रश्न 21.
चैडविक (Chadwick) खोज किये थे :
(a) Radioactivity
(b) Electron
(c) प्रोटॉन
(d) न्यूट्रॉन
उत्तर:
(d) न्यूट्रॉन

प्रश्न 22.
एक परमाणु में परमाणु संख्या तथा द्रव्यमान संख्या है। इसके प्रोटॉन की संख्या होगी :
(a) Z
(b) A
(c) A – Z
(d) A + Z
उत्तर:
(a) Z

प्रश्न 23.
Electron पर आवेश होता है. :
(a) 1.6 × 10-1C
(b) 1.6 × 10-9C
(c) 1.6C
(d) 1.6 × 10-10C
उत्तर:
(d) 1.6 × 10-10C

प्रश्न 24.
γ- किरणें समान होता है :
(a) α किरणों से
(b) कैथोड किरणों से
(c) x किरणों से
(d) β – किरणों से।
उत्तर:
(c) x किरणों से

प्रश्न 25.
Radioactivity संबंधित है :
(a) नाभिकीय संलग्न से
(b) नाभिकीय decay से
(c) x-rays के उत्पादन से
(d) तापयनिक उत्सर्जन (Thermionic emission) से
उत्तर:
(b) नाभिकीय decay से

प्रश्न 26.
λ तरंग लम्बाई के Photon की ऊर्जा होती है :
(a) \(\frac{h}{\lambda}\)
(b) \(\frac{h c}{\lambda}\)
(c) \(\frac{h}{c}\)
(d) \(\frac{h \lambda}{c}\)
उत्तर:
(b) \(\frac{h c}{\lambda}\)

प्रश्न 27.
P- n Jn का उपयोग किया जाता है :
(a) ताप मापने में।
(b) A.C. को D.C. में बदलने में।
(c) निम्न वोल्टेज को उच्च बोल्टेज में बदलने में।
(d) उच्च वोल्टेज को निम्न वोल्टेज में बदलने में।
उत्तर:
(b) A.C. को D.C. में बदलने में।

प्रश्न 28.
J.C. Bose के अनुसार e.m. wave में तरंग लम्बाई का range होता है :
(a) 1 mm – 10 mm
(b) 25 mm – 50 mm
(c) 200 mm – 500 mm
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) 25 mm – 50 mm

प्रश्न 29.
m द्रव्यमान एवं e आवेश वाले electron r त्रिग्यावाला वृत्तीय पथ पर घुम रहा रहा है जिसका कोणीय संवेग L है। इसका चुम्बकीय आघूर्ण होगा-
(a) eLm
(b) \(\frac{e L}{m}\)
(c) \(\frac{e L}{2 m}\)
(d) \(\frac{2 e L}{2 m}\)
उत्तर:
(c) \(\frac{e L}{2 m}\)

प्रश्न 30.
मैक्सवेल की परिकल्पना के अनुसार परिवर्ती विद्युत क्षेत्र स्रोत है
(a) एक emf का
(b) विद्युत धारा का
(c) दाब प्रवणता का
(d) चुम्बकीय क्षेत्र का
उत्तर:
(d) चुम्बकीय क्षेत्र का

प्रश्न 31.
E.m. wave में विद्युत तथा चुम्बकीय क्षेत्र के बीच Phase diff. होता है :
(a) Zero
(b) 90°
(c) 120°
(d) 180°
उत्तर:
(a) Zero

प्रश्न 32.
पृथ्वी के सतह से Ozone परत रहता है :
(a) 40 km – 50 km
(b) 100 km – 400 km
(c) 500 km – 1000 km
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) 40 km – 50 km

प्रश्न 33.
पृथ्वी के सतह से Ionosphere रहता है :
(a) 50 km – 100 km
(b) 200 km – 400 km
(c) 500 km – 1000 km
(d) 1000 km – 1500 km
उत्तर:
(b) 200 km – 400 km

प्रश्न 34.
E.m. spectrum (वि० चु० वर्णपट ) में उच्च आवृत्ति होती है :
(a) α – किरणों का
(b) β – किरणों का
(c) γ – किरणों का
(d) कैथोड किरणों का
उत्तर:
(c) γ – किरणों का

प्रश्न 35.
NOR-गेट के लिए बुलियन-व्यंजक होता है
(a) \(\overline{A \cdot B}\) =y
(b) \(\overline{A+B}\) = y
(c) A . B =y
(d)A + B =y
उत्तर:
(b) \(\overline{A+B}\) = y

प्रश्न 36.
लॉजिक-संकेत IM होता है
(a) OR-गेट का
(b) AND-गेट का
(c) NOR-गेट का
(d) NAND-गेट का
उत्तर:
(c) NOR-गेट का

प्रश्न 37.
सामान्य आँख के लिए, स्पष्ट दृष्टि की न्यूनतम दूरी होता है।
(a) 100 cm
(b) 50 cm
(c) 250 cm
(d) 25 cm
उत्तर:
(d) 25 cm

प्रश्न 38.
निम्नलिखित में से कौन विद्युत क्षेत्र द्वारा विच्छेदित होता है-
(a) γ – किरण
(b) x-किरण
(c) UV विकिरण
(d) कैथोड किरण
उत्तर:
(d) कैथोड किरण

प्रश्न 39.
TV संप्रेषण टॉवर की ऊँचाई 245 m पृथ्वी पर के किसी स्थान पर है। इस टॉपर से कितनी दूरी तक संप्रेषण भेजा जा सकता है।
(a) 245m
(b) 245 km
(c) 56 km
(d) 112 km
उत्तर:
(c) 56 km

प्रश्न 40.
6.62J के विकिरण के उत्सर्जन में 1014Hz आवृत्ति के फॉटोन की संख्या होगी-
(a) 1010
(b) 1015
(c) 1020
(d) 1025
उत्तर:
(c) 1020

प्रश्न 41.
TV प्रसारण के लिए audio signal के लिए किस प्रकार का modulan किया ‘ जाता है?
(a) आयाम मॉडुलन
(b) स्पंद (pulse) मोडुलन
(c) आवृत्ति मोडुलन
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(c) आवृत्ति मोडुलन