Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 4

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Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
अल्लाउद्दीन खिलजी के शासन की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
अथवा, अल्लाउद्दीन खिलजी के प्रशासनिक एवं सैनिक सुधारों का वर्णन करें।
उत्तर:
अलाउद्दीन एक सुयोग्य शासक और कुशल राजनीतिज्ञ था। उसमें उच्चकोटि की मौलिकता थी और नये प्रयोगों को सफलतापूर्वक कार्यान्वित करने की क्षमता। उसमें रचनात्मक प्रतिभा थी और वह नये-नये प्रयोगों को करने के लिए सदैव उत्सुक रहता था। पुरानी परिपाटियों और संस्थाओं से उसे संतोष नहीं था।

उसने अपने शासनकाल में सभी क्षेत्रों में क्रान्तिकारी सुधार किये थे जिनकी उसके पूर्वाधिकारियों ने कल्पना भी नहीं की थी। प्रत्येक क्षेत्रों में अलाउद्दीन ने ऐसी नवीन नीति का अनुसरण किया जो उसकी प्रतिभा का परिचय देती है। नीचे प्रत्येक क्षेत्र में अलाउद्दीन के सुधारों का वर्णन दिया जाता है-

प्रशासनिक सुधार – अलाउद्दीन उच्च कोटि का प्रबन्धक और शासनकर्त्ता था। उसमें एक जन्मजात सेनानायक और प्रशासक के गुण विद्यमान थे। अतएव एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करने के साथ-साथ उसने उस साम्राज्य को सरक्षित ससंगठित तथा सव्यवस्थित रखने के किया। उसका शासन पूर्ण रूप से स्वेच्छाचारी, निरंकश और विशद्ध सैनिक शासन था। राज्य की सारी शक्तियाँ सुल्तान के हाथ में थी और वह सभी अधिकारों का स्रोत था। राज्य के सभी कार्य उसकी आज्ञा और आदेश से होता था। शासन के प्रत्येक भाग पर उसका नियंत्रण रहता था। उसका गुप्तचर-विभाग इतना सुसंगठित और सक्षम था कि राज्य की सारी घटनाओं की सूचना उसे मिलती रहती थी। वह अपने कर्मचारियों पर कड़ा नियंत्रण रखता था। इस प्रकार अलाउद्दीन का शासन एक केन्द्रीभूत सैनिक शासन था।

अलाउद्दीन ने भी बलवन के राजत्व सम्बन्धी सिद्धान्त को पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। वह राजा के प्रताप में विश्वास करता था और उसे पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि मानता था। उसका दृढ़ विश्वास था कि सुल्तान अन्य मनुष्यों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान होता है, इसलिए उसकी इच्छा ही कानन होनी चाहिए। वह इस सिद्धान्त में विश्वास करता था कि राजा . का कोई सम्बन्धी नहीं होता है और राज्य के सभी निवासी उसके सेवक होते हैं। इसलिए वह राज्य के मामले में उलेमा के हस्तक्षेप का विरोधी था। वह यह मानता था कि धर्म और प्रशासन दो भिन्न विषय हैं। उसने किसी भी अधिकारी को यह अनुमति न दी कि वह उसे किसी बात में सलाह दे या धर्म का दबाव डालकर उसे कोई काम करने के लिए मजबूर करे। केवल दिल्ली का कोतवाल काजी अलाउल मुल्क ही ऐसा व्यक्ति था जिसकी सलाह का सुल्तान सम्मान करता था।

वह राज्य प्रबन्ध के सम्बन्ध में स्पष्ट कहता था कि, “मुझे जो बात पसन्द आयेगी, वही मैं करूँगा। जो बात मैं देश के हित के लिए समशृंगा, चाहे वह धर्म के विपरीत हो या अनुकूल, वही कार्य मैं करूँगा। जो बात मैं देश के हित के लिए समझूगा, चाहे वह धर्म के विपरीत हो या अनुकूल, वही कार्य मैं करूँगा। मैं नहीं जानता कि मेरा आचरण धार्मिक-कानून की दृष्टि में उचित है अथवा विपरीत। मैं तो राज्य की भलाई के लिए जो कुछ ठीक समझता हूँ अथवा अवसर के अनुकूल मुझे जो कुछ ठीक अँचता है, वह मैं कर डालता हूँ। मैं नहीं जानता कि कयामत के दिन ईश्वर के दरबार में मेरा क्या होगा।” इस प्रकार अलाउद्दीन दिल्ली का पहला सुल्तान था जिसने धर्म पर राज्य का नियंत्रण स्थापित किया।

अलाउद्दीन के शासन की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि उसने राजनीति को धर्म से अलग कर दिया था। वह राजनीति में उलेमा के हस्तक्षेप का विरोधी था। शासन में मुल्लाओं का कोई प्रभाव नहीं था। वह वही करता था, जिसे वह राज्य के हित में ठीक समझता था। डॉ० ईश्वरी प्रसाद के अनुसार, “उसे जो सामग्री उपलब्ध थी, उसी की सहायता से वह दृढ़तापूर्वक अपने गन्तव्य की ओर बढ़ता जाता था और उसकी मैकियावेलियन राजनीति में नैतिकता और धार्मिक निर्णय के लिए कोई स्थान न था।” इस प्रकार बलवन की भाँति अलाउद्दीन ने भी लौकिक शासन की स्थापना की, जिसका अनुसरण आगे चलकर अकबर और शेरशाह ने किया।

अलाउद्दीन ने अपनी न्याय व्यवस्था को भी लौकिक रूप दिया था। उसने इस सिद्धान्त को प्रतिपादित किया कि परिस्थिति और लोक-कल्याण के विचार से जो नियम उपयुक्त हो, वही राज्य का नियम होना चाहिए। इस प्रकार उसने राज्य के नियम को धर्म के चंगुल से मुक्त किया। न्यायाध श के पद पर चरित्रवान और नीति-निपुण व्यक्तियों को नियुक्त किया गया। न्यायाधीशों की सहायता के लिए पुलिस और गुप्तचर की नियुक्ति की गयी। प्रत्येक नगर में कोतवाल का कार्य अपराधी का पता लगाना था। गुप्तचर भी अपराधियों का पता लगाने में सहायता करते थे। दण्ड-विधान अत्यन्त ही कठोर था। बिना किसी भेदभाव के अपराधियों को दण्ड दिया जाता था।

सैनिक व्यवस्था – अलाउद्दीन का शासनतंत्र पूर्णतया सैन्य शक्ति पर आधारित था। उसका विश्वास था कि बाह्य आक्रमण से साम्राज्य की सुरक्षा और आन्तरिक शांति के लिए एक सुसज्जित एवं सुसंगठित सेना का होना आवश्यक है। अतः उसने सैन्य-सुधार की ओर ध्यान दिया और निम्नलिखित सुधार किए-

(i) स्थायी सेना की व्यवस्था – दिल्ली के सुल्तानों में अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जिसने स्थायी सेना रखने की व्यवस्था की थी। उसने 4,75,000 (चार लाख पचहत्तर हजार) स्थायी सेना का संगठन किया और सेना के प्रधान के पद पर ‘अरोज-ए-मुमालिक’ (सेना-मंत्री) की नियुक्ति की। स्थायी सेना की मदद से ही अलाउद्दीन ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी।

(ii) सेना में भर्ती करने की व्यवस्था – यद्यपि सेना में सैनिकों की भर्ती सेना-मंत्री द्वारा की जाती थी, लेकिन इसे साथ-ही-साथ सुल्तान स्वयं सेना की भर्ती करता था। सेना में भर्ती योग्यता के आधार पर होती थी। प्रत्येक सैनिक सम्बन्धी जानकारी एक राजकीय रजिस्टर में अंकित रहती थी, ताकि सैनिक के स्थान पर कोई न आ सके।

(iii) नकद वेतन की व्यवस्था – अलाउद्दीन ने सैनिकों को जागीरें देने के स्थान पर नकद वेतन देने की व्यवस्था चलायी। प्रत्येक सैनिक को 234 टंका वेतन दिया जाता था तथा एक घोड़ा रखने वाले को 78 टंका अधिक मिलता था। सैनिक को वेतन राजकीय कोष से मिलता था तथा उन्हें घोड़े, हथियार तथा युद्ध की अन्य सामग्री भी राज्य की ओर से दी जाती थी।

(iv) घोड़ों पर दाग लगाने की व्यवस्था – अलाउद्दीन के पहले सैनिक लोग अच्छी नस्ल के घोड़ों के स्थान पर रद्दी नस्ल के घोड़े रखकर राज्य को धोखा दिया करते थे। अत: अलाउद्दीन ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए घोड़ों पर दाग लगवाने की प्रथा चलायी। फरिश्ता के अनुसार उसकी सेना में 47,500 अश्वारोही सैनिक थे। अच्छी नस्ल के घोड़े बाहर से मँगवाये गये थे

(v) ये दुर्गों का निर्माण तथा पुराने दुर्गों की मरम्मत करने की व्यवस्था – अलाउद्दीन ने मंगोलों के आक्रमण को रोकने के लिए सीमान्त प्रदेश में कुछ नये दुर्गों का निर्माण करवाया था । तथा पुराने किलों की मरम्मत करवायी, क्योंकि उसके शासन काल में मंगोलों के आक्रमणों के कारण अत्यधिक अशांति रही थी। इन दुर्गों में शक्तिशाली सेनाएँ रखी गईं जो किसी भी बाह्य आक्रमण का सामना करने के लिए सदैव तत्पर रहती थीं।

इन सुधारों के परिणामस्वरूप अलाउद्दीन की सेना का संगठन बहुत सुदृढ़ हो गया और वह अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में सफल रहा। उसका सेना पर पूर्ण नियंत्रण था। उसके इस सैन्य-संगठन ने ही उसकी निरंकुशता को पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया था।

राजस्व-व्यवस्था – अलाउद्दीन की आर्थिक व्यवस्था उसकी सैन्य व्यवस्था का परिणाम थी, क्योंकि एक विशाल स्थायी सेना का प्रबन्ध और उसका व्यय आसानी से चलाना असम्भव था। इसलिए उसने आर्थिक व्यवस्था में सुधार करने का संकल्प किया और अत्यधिक धन प्राप्त करने के लिए अनेक उपायों को अपनाया था। वह राज्य के आर्थिक साधनों को भी बढ़ाना चाहता था। इसलिए उसने राजस्व-विभाग में सुधार की ओर ध्यान दिया। पहले के शासकों में वैज्ञानिक राजस्व-नीति निर्धारित करने का प्रयास नहीं किया था। उन्होंने हिन्दू-काल की पुरातन-व्यवस्था को कायम रखा। किन्तु अलाउद्दीन एक साहसी शासन-सुधारक था। वह राजस्व में वृद्धि करने के लिए मौलिक परिवर्तन का इच्छुक था। इस उद्देश्य से उसने एक नियमावली प्रचलित की जिससे राजस्व-व्यवस्था में परिवर्तन आया। उसने मुसलमान माफीदारों तथा धार्मिक व्यक्तियों की राज्य द्वारा दी गयी सम्पत्ति, पेंशन और वक्फ आदि के रूप में मिली हुई भूमि जब्त कर ली। मुकद्दम, खुत तथा चौधरी आदि अधिकारियों को विशेषाधिकार से वंचित कर दिया गया। उन्हें भी भूमि, मकान तथा चारागाह पर कर देना पड़ता था।

इस प्रकार भूमि-कर के सम्बन्ध में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच कोई अन्तर नहीं था। खेती योग्य भूमि का पता लगाने के लिए भूमि की नाप करवायी गयी। भूमि का नाप कराना हिन्दूकालीन राजस्व-व्यवस्था की एक विशेषता थी। भूमि का बन्दोबस्त करने से पहले उसने यह पता लगाया कि राज्य के प्रत्येक गाँव में कितनी खेती के योग्य जमीन है और उससे कितना लगान आता है। भूमि-सम्बन्धी नियमों को लागू करने के लिए योग्य तथा ईमानदार राजस्व पदाधिकारी नियुक्त किये गये। इन सुधारों का परिणाम यह हुआ कि राज्य की आय में पर्याप्त वृद्धि हुई और उसका बोझ किसानों, भूमिहरों तथा समाज के अन्य वर्गों पर पड़ा। किन्तु इस व्यवस्था का अधिक भार हिन्दुओं पर पड़ा क्योंकि बहुसंख्यक हिन्दू भूमि से सम्बन्धित थे।

इन सुधारों का कृषकों और प्रजा पर बहुत भयंकर प्रभाव पड़ा। उनको किसी-न-किसी प्रकार से कर देना ही पड़ता था। दिल्ली तथा दोआब के आस-पास के किसानों को उनकी उपज का पचास प्रतिशत कर के रूप में देना पड़ता था। गैर-मुस्लिम प्रजा को जजिया देना पड़ता था। अधिकांश जनता को अपनी उपज का अर्ध भाग और चरागाहों पर भारी कर देना पड़ता था। सुल्तान उनको ऐसा परिस्थिति में कर देना चाहता था कि न वे अस्त्र उठा सकें, न अश्वों पर आरूढ़ हो सकें, न सुन्दर वस्त्र धारण कर सकें और न जीवन के अन्य ऐश्वर्य साधनों का उपयोग कर सकें। वास्तव में उनकी दशा अति दयनीय थी।

प्राचीन जागीरदार तथा हिन्दू जो अपनी खोई स्वतन्त्रता के लिए विद्रोह कर रहे थे, उसकी स्थिति अब ऐसी दयनीय हो गई थी कि उनकी जबान पर अब विद्रोह शब्द नहीं आता। जनता से किसी-न-किसी प्रकार का बहाना करके धन लिया जाता था। अनेक हिन्दू धनहीन हो गये और अन्त में ऐसा हो गया कि बड़े अमीरों, उच्च पदाधिकारियों तथा चोटी के व्यापारियों को छोड़कर अन्य लोगों के घरों में सोना देखने को न मिलता था। सम्पूर्ण राज्य में हिन्दू दुख और दरिद्रता में डूब गये। यदि कोई ऐसा वर्ग था जिसकी दशा दूसरों से अधिक दयनीय थी तो वह वंशानुगत कर निर्धारित तथा वसूल करने वाले पदाधिकारियों का था जिसका पहले समाज में सबसे अधिक सम्मान था। समकालीन इतिहासकार बनी इस नियमों के परिणामों का सारांश इस प्रकार लिखता है-“चौधरी, और मुकद्दम इस योग्य न रह गये थे कि घोड़े पर चढ़ सकते, हथियार बाँध सकते, अच्छे वस्त्र पहन सकते अथवा पान का शौक कर सकते। कोई भी हिन्दू सर ऊँचा नहीं कर सकता था। उनके घरों में सोने, चाँदी, पीतल या टंका के कोई अलंकार का चिन्ह नहीं दिखाई पड़ता था। निर्धनता की मार से त्रस्त होकर हिन्दु मुखियों और जमीन्दारों के घरों की स्त्रियाँ मुसलमान के घरों में जाकर मजदूरी करती थीं।”

मुनाफाखोरों के साथ-साथ निरीह जनता को भी पिसना पड़ा। उसने भी नाना प्रकार के कर लिए जाते थे। अधिक दरिद्र तथा दुखी हो जाने से खेती-बाड़ी से उनका विश्वास हट गया था। इस विश्वास को फिर से स्थापित करने के लिए तथा खेती को प्रोत्साहन देने के लिए गयासुद्दीन तुगलक को भूमि-कर में कमी करनी पड़ी।

कुछ विद्वानों का कथन है कि अलाउद्दीन ने ये नियम हिन्दुओं को दबाने के लिए नहीं बनाये थे। हिन्दुओं को इसलिए पिसना पड़ा कि अधिकांश हिन्दू किसी-न-किसी रूप से जमीन पर आश्रित थे।

प्रश्न 2.
अलाउद्दीन खिलजी के आर्थिक सुधारों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें।
उत्तर:
अलाउद्दीन खिलजी ने अपने शासनकाल में आर्थिक जीवन के दो महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सुधार लागू किये। वे थे कृषि और व्यापार कृषि-क्षेत्र में सुधारों का सम्बन्ध लगान व्यवस्था से था। लगान अथवा भू-राजस्व राज्य की आमदनी का प्रमुख साधन था और अलाउद्दीन राज्य की आमदनी में पर्याप्त वृद्धि करने का इच्छुक था। इसके अतिरिक्त वह मध्यस्थ भूमिपति वर्ग का दमन भी करना चाहता था जो राज्य में विद्रोह का एक प्रमुख कारण था। इस प्रकार अलाउद्दीन के राजस्व-सुधार दो उद्देश्यों से प्रेरित थे, राज्य की आमदनी में पर्याप्त वृद्धि जिससे कि साम्राज्य-विस्तार के लिए विशाल सेना का निर्माण किया जा सके, मध्यस्थ भूमिपति वर्ग का दमन और उसका धन छीनना ताकि इस वर्ग द्वारा विद्रोह एवं उपद्रव की समस्या का समाधान हो सके।

प्रथम उद्देश्य की प्राप्ति के लिए अलाउद्दीन ने तीन महत्वपूर्ण उपाय किए-उसने दोआब – (गंगा और यमुना के बीच के क्षेत्र) में लगान की दर में वृद्धि के आदेश दिये। किसानों को उपज के 1/3 अथवा 33% के स्थान पर 1/2 अथवा 50% लगान के रूप में देने के आदेश दिये गये। इससे राज्य की आमदनी में वृद्धि हुई। दूसरी ओर अलाउद्दीन ने दोआब क्षेत्र में कर-मुक्त भूमि पर केन्द्रीय नियंत्रण स्थापित कर दिया और भूमि अनुदान वापस ले लिए। इक्ता, मिल्क, वक्फ आदि के रूप में सीमान्तों, अधिकारियों और उलेमा के पास जो भूमि थी उसे खालसा (सुल्तान के प्रत्यक्ष शासन के अधीन) भूमि में परिवर्तित करने के आदेश दिये गये। इस प्रकार राज्य की आमदनी में और वृद्धि संभव हुई। अलाउद्दीन ने संभवतः लगान निर्धारण की पद्धति में सुधार लाया। बरनी के अनुसार, उसने भूमि की माप के आधार पर लगान के निर्धारण के आदेश दिये। इस पद्धति के लिए ‘मसाहत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। परन्तु बरनी ने इस सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी नहीं दी है। उसने मात्र इतना ही लिखा है कि अलाउद्दीन ने प्रति ‘बिस्वा’ में उपज के आधार पर लगान निर्धारण करने के आदेश दिये। लगान, वसूली के कार्य में व्याप्त दोषों को दूर करने के लिये अलाउद्दीन ने एक नये विभाग ‘दीवान मुस्तखरज’ की स्थापना की। इस विभाग द्वारा लगान वसूलने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों द्वारा बकाया राशि की वसूली के लिए कठोर उपाय किये गये।

मध्यस्थ भूमिपति वर्ग के दमन के लिए भी अलाउद्दीन ने कई उपाय किये। इस वर्ग के लिए बरनी ने ‘खूत मुकद्दम एवं चौधरी’ शब्द का प्रयोग किया है। ये विभिन्न श्रेणियों के भूमिपति थे जो लगान वसूली के काम में राज्य का सहयोग देते थे। इनके द्वारा किसान से लगान वसूल कर राज्य को पहुँचाया जाता था। इस सेवा के बदले में राज्य द्वारा कुछ सुविधाएँ इन्हें दी जाती थीं। जैसे ये लोग अपनी भूमि का रियायती दर पर लगान देते थे और किसानों से ये राज्य के लगान के अतिरिक्त अपने लिए भौकर आदि वसूल सकते थे। राज्य को दिया जानेवाला लगान सामान्य रूप से ‘खिराज’ कहलाता था, जबकि भूमिपतियों द्वारा लिया जानेवाला कर ‘हुक्क’ कहलाता था। ऐसा देखा गया था कि इस वर्ग के लोग अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते थे। किसानों से अधिक लगान और अपने कर वसूल कर ये धन अर्जित कर रहे थे, जबकि राज्य को लगान की राशि का पूर्ण भुगतान न करके ये लोग धनी हो गये थे। धनी होने के कारण इनके लिए अपनी निजी सेना भरती करना आसान था और इन सैनिकों के माध्यम से ये विद्रोह और उपद्रव खड़े करते थे।

अलाउद्दीन ने इस वर्ग को कमजोर बनाने के लिए इसका धन छीनना आवश्यक समझा। उसने सर्वप्रथम इन भूमिपतियों को लगान देने की सुविधा से वंचित कर दिया। द्वितीय उसने इन्हें रियायती दर पर लगान वसूली के काम से मुक्त कर दिया। तृतीय उसने इनके सभी ‘हुक्क’ अवैध घोषित कर दिये। इन उपायों से इस वर्ग की आर्थिक स्थिति पर आघात पहुँचा। बरनी के अनुसार अब इस वर्ग के लिए घुड़सवारी करना, हथियार रखना, उत्तम वस्त्र पहनना और पान खाना संभव नहीं रहा। इनके घरों की औरतें अब दूसरों के घरों में काम करने पर बाध्य हुई। वरनी के ये विचार अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। परन्तु मध्य भूमिपतियों की स्थिति निश्चित रूप से कमजोर पड़ी और उनकी उद्दण्डता समाप्त हो गयी।

अलाउद्दीन ने कर-प्रणाली में भी सुधार किया। खिराज (भूमिकर) की दर में उसने वृद्धि की। खम्स (युद्ध में लूटे गये धन में राज्य का 1/5 अंश) की दर उसने बदलकर 4/5 कर दी। उसने कई नये कर लगाये जिनमें घरों (मकान पर लगने वाला कर) और चराई (चरागाह पर लगनेवाला कर) प्रमुख हैं। पूर्वकाल से प्रचलित ‘जजिया’ और ‘जकात’ कर भी उसके समय में लिये जाते रहे।

इन सभी उपायों से अलाउद्दीन अपने दोनों लक्ष्य प्राप्त करने में सफल रहा। धन अर्जित करने और राज्य में सुव्यवस्था बनाये रखने में अलाउद्दीन की सफलता पूर्णतः स्पष्ट है।

अलाउद्दीन के सुधारों में सबसे अधिक महत्व उसकी मूल्य-निर्धारण योजना अथवा बाजार नियंत्रण की नीति का है। इतिहासकारों में इस योजना के उद्देश्य, क्षेत्र एवं प्रभाव के सम्बन्ध में मतभेद है। इसके उद्देश्यों के सम्बन्ध में के. एस. लाल ने बरनी के विचार से सहमति व्यक्त की और कहा कि यह योजना कम खर्च पर विशाल सेना को बनाए रखने के लिए लागू की गयी थी। उनके अनुसार अलाउद्दीन ने साम्राज्य विस्तार एवं मंगोल आक्रमण का सामना करने के लिए विशाल सेना का निर्माण किया। इस कार्य में राज्य को अत्यधिक धन खर्च करना पड़ता था। अतः अलाउद्दीन ने सैनिकों का वेतन निर्धारित कर दिया। 234 टंका प्रतिवर्ष वेतन और 78 टंका भत्ते के रूप में सैनिकों को दिया जाता था। अब यह अनिवार्य हो गया कि उस निर्धारित वेतन में ही सैनिकों को सभी आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध कराई जाएँ अन्यथा इनमें असंतोष फैलता। बाजार नियंत्रण की योजना इसलिए लागू की गई।

योजना कार्यान्वित करने के लिए अलाउद्दीन ने एक नये विभाग का गठन किया जिसे ‘दीवाने रियासत’ नाम दिया। यह वाणिज्य विभाग था तथा इसका प्रधान सरे-रियासत कहा जाता था। इस विभाग के अधीन प्रत्येक बाजार के लिए निरीक्षक नियुक्त किया गया। इन्हें शहना कहते थे जो योजना लागू करने के लिए उत्तरदायी थे। गुप्तचर अथवा बरीद एवं मुन्हीयाँ नियुक्त किये गये ताकि बाजार की गतिविधियों और शहना पर निगरानी रखें। इसके अतिरिक्त अलाउद्दीन स्वयं भी अपने दासों और अन्य व्यक्तियों द्वारा समय-समय पर बाजार से सामान मँगा कर अपनी सन्तुष्टि करता था। आदेशों का उल्लंघन करने वाले व्यापारियों के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था, अधिक मूल्य लेने पर कोड़े मारने की सजा थी तथा कम तौलने पर अनुपात में मांस व्यापारी के शरीर से काट लिया जाता था। इस कठोर दण्ड एवं कुशल गुप्तचर व्यवस्था के माध्यम से अलाउद्दीन ने योजना को पूरी कड़ाई से लागू किया।

समकालीन इतिहासकारों के अनुसार अलाउद्दीन ने निम्नलिखित बाजार स्थापित किये-

  1. मण्डी-जहाँ अनाज का व्यापार होता था।
  2. सराय अदल-जहाँ वस्त्र का व्यापार होता था।
  3. दास, घोड़ों और मवेशियों एवं अन्य वस्तुओं के लिए सामान्य बाजार।

उसने विभिन्न वस्तुओं के लिए मूल्य निर्धारित कर दिये। गेहूँ 7 1/2 जीतल प्रति मन, चावल 5 जीतल प्रति मन, जौ 4 जीतल प्रति मन, चना 5 जीतल प्रति मन आदि मूल्य निर्धारित किये। कपड़े में रेशमी वस्त्र सोलह टंका से लेकर दो टंका के बीच बिकता था, जबकि सूती कपड़ा 36 जीतल से 6 जीतल के बीच बिकता था। उत्तम श्रेणी के घोड़े 100 से 120 टंका एवं मामूली टटू 10 से 25 टंका में बिकते थे। दासों का मूल्य 5 टंका से 40 टंका के बीच था।

मण्डी में अनाज की आपर्ति के लिए अलाउद्दीन ने लगान की वसली अनाज के रूप में करने का आदेश दिया। इसके अतिक्ति उसने किसान से निजी आवश्यकता से अधिक अनाज निर्धारित मूल्य पर खरीदने का आदेश दिया। इन उपायों से राज्य को अनाज का विस्तृत भण्डार उपलब्ध हो गया जिसे बाजारों के माध्यम से मण्डी तक पहुँचाया गया। मण्डी में यह अनाज लाइसेंस प्राप्त व्यापारियों द्वारा बेचने का आदेश दिया गया। व्यापारियों को निर्धारित मात्रा में ही अनाज प्रतिदिन बेचने का आदेश था। यह अनाज राज्य के अतिरिक्त भण्डार से उपलब्ध कराया जाता था। इन उपायों से अलाउद्दीन ने सभी परिस्थितियों में अनाज का व्यापार नियंत्रित मूल्य पर ही होने की व्यवस्था की जो कि निश्चित रूप से एक असाधारण सफलता थी।

वस्त्र बाजार में विदेशों से आयात किये गये रेशमी कपड़ों का मूल्य-निर्धारित करना कठिन था। अतः अलाउद्दीन ने मुल्तानी व्यापारियों को राज्य ऋण प्रदान किया ताकि वे व्यापारियों से उपलब्ध मूल्य पर कपड़ा खरीदें और उसे बाजार लाकर निर्धारित मूल्य पर बेच दें। इस व्यापार में जो हानि होती थी वह राज्य द्वारा पूरी की जाती थी तथा व्यापारियों को उनकी सेवा के बदले में कमीशन प्रदान किया जाता था। महँगे वस्त्र केवल विशेष परमिट के आधार पर ही खरीदे जा सकते थे।

दासों, घोड़ों एवं मवेशियों के बाजार में मूल्य वृद्धि की समस्या दलालों द्वारा उत्पन्न की जाती थी जो व्यापारी एवं ग्राहक दोनों से कमीशन वसूलते थे। अत: अलाउद्दीन ने इन दलालों को बाजार से निष्कासित कर दिया एवं राज्य द्वारा व्यापारियों के लिए कुछ नियम निर्धारित कर दिये। हर व्यापारी को अपने सामान सरकारी अधिकारियों द्वारा निरीक्षित कराना पड़ता था। इस आधार पर इनकी श्रेणियाँ निर्धारित कर दी जाती थीं। प्रत्येक श्रेणी के लिए निर्धारित मूल्य के अनुसार ही उन्हें अपना सामान बेचना पड़ता था।

अलाउद्दीन ने इन उपायों से सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित कर दिया और अपने शासन काल की पूरी अवधि में इनमें किसी प्रकार की वृद्धि नहीं होने दी। यह एक प्रशंसनीय सफलता थी, किन्तु प्रश्न यह उठता है कि ये उपाय क्या सभी वर्गों के लिए लाभदायक एवं हितकारी सिद्ध हुए ? के० एस० लाल के अनुसार अलाउद्दीन का उद्देश्य केवल सैनिक और सामान्त वर्ग को ही सन्तुष्ट रखना था ताकि इनके समर्थन से वह अपनी निरंकुश सत्ता को मजबूत बना सके। उसने अन्य सभी वर्गों के शोषण पर इस व्यवस्था को विकसित किया और किसान, शिल्पकार एवं व्यापारी इससे असंतुष्ट रहे। कुछ इतिहासकार यह भी मानते हैं कि अलाउद्दीन के इन उपायों का उद्देश्य केवल दिल्ली की प्रजा को सन्तुष्ट रखना था ताकि वे उसके निरंकुश शासन के विरुद्ध आवाज न उठाएँ।

इसके लिए उसने सीमावर्ती क्षेत्रों की प्रजा का शोषण किया । सक्सेना आदि ने इन विचारों को गलत बताते हुए स्पष्ट किया है कि स्वयं बरनी के अनुसार अलाउद्दीन ने सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने के पूर्व उत्पादन पर हुई लागत को ध्यान में रखा अर्थात् मूल्य-निर्धारण मनमाने ढंग से नहीं हुआ। बरनी के ही शब्दों में अलाउद्दीन ने मुनाफाखोरी को समाप्त करने का प्रयास किया, साधारण व्यापार को अस्त-व्यस्त करने का नहीं। यह भी स्मरणीय है कि अलाउद्दीन ने सभी आवश्यक वस्तुओं का मूल्य निर्धारित किया । यदि किसान को निर्धारित मूल्य पर अनाज बेचना था तो उन्हें निर्धारित मूल्य पर ही वस्त्र एवं अन्य वस्तुएँ उपलब्ध कराई जा रही थीं। इसलिए किसानों और शिल्पकारों पर योजना का बुस प्रभाव पड़ना तर्कसंगत नहीं लगता। व्यापारी वर्ग निश्चित रूप से योजना से अप्रसन्न था परन्तु इरफान हबीब ने बरनी के वर्णन के आधार पर स्पष्ट किया है कि योजना का लाभ वास्तव में केवल सामन्त और सैनिक वर्ग को ही प्राप्त हुआ। सामान्य जनता को इसका लाभ इसलिए नहीं हुआ कि मूल्य में कमी के साथ-साथ मजदूरी की दर भी घटी।

अतः केवल उसी वर्ग को वास्तविक लाभ हुआ और उसकी क्रयशक्ति में वृद्धि हुई जो वेतन पाता था, जैसे सैनिक या सामन्त जिनके पास संचित धन था। अलाउद्दीन के जीवन काल में तो व्यापारी ने योजना का विरोध करने का साहस नहीं कर सके। किन्तु उसकी मृत्यु के बाद व्यापारियों ने योजना का विरोध करना आरम्भ किया और मुबारक खिलजी जैसे अयोग्य शासक के लिए योजना को जारी रखना असम्भव हो गया। अतः योजना स्थगित हो गयी। किन्तु के. एस. लाल के अनुसार मुबारक खिलजी ने योजना इसलिए स्थगित कर दी थी कि अब पहले की तरह सैनिक खर्च की आवश्यकता नहीं रह गयी थी।

इरफान हबीब के अनुसार योजना स्थगित करने का कारण यह था कि उसकी उपयोगिता सीमित समय के लिए ही थी। मूल्यों में कमी से आगे चलकर राज्य का भी लाभ प्राप्त नहीं हो सकता था, क्योंकि मूल्यों में कमी से राज्य की आय का वास्तविक मूल्य भी कम हो रहा था। अतः अलाउद्दीन के उत्तराधिकारी ने इसे स्थगित कर दिया।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि मूल्य-निर्धारण की योजना अलाउद्दीन खिलजी की एक विशिष्ट उपलब्धि थी जो उसकी असाधारण प्रतिभा का व्यापक प्रमाण प्रस्तुत करती है। इस योजना के लिए उसकी प्रशंसा समकालीन, मुगलकालीन और आधुनिक इतिहासकारों ने भी की है। दुर्भाग्यवश यह सारी उपलब्धि एक व्यक्ति की प्रतिभा पर आधारित थी और उस व्यक्ति अर्थात् अलाउद्दीन की मृत्यु के पश्चात् इस योजना का कार्यान्वयन कारगर रूप से सम्भव नहीं रहा।

प्रश्न 3.
कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
कुतुबुद्दीन का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। बचपन से ही वह कुशाग्र बुद्धि का था। बचपन में ही उसे गुलाम बनाकर फारस के एक व्यापारी काजी फखरुद्दीन अब्दुल अजीज कूफी के हाथ बेच दिया गया था। वहाँ उसने काजी के पुत्रों के साथ पढ़ने-लिखने के अलावे सैनिक घुड़सवारी का प्रशिक्षण लिया। काजी फखरुद्दीन की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों ने उसे बेच दिया। अंत में मुहम्मद गोरी ने उसे खरीदा। यह उसकी प्रतिभा एवं योग्यता से काफी प्रभावित हुआ और उसे अपनी सेना की एक टुकड़ी का नायक बना दिया। बाद में उसका साहस, कर्तव्यनिष्ठा तथा स्वामिभक्ति से प्रभावित होकर उसने ‘अमीर-ए-आखूर’ (अस्तबल का अध्यक्ष) के सम्मानित पद पर प्रतिष्ठित किया।

अब से वह गोरी के साथ सैनिक अभियानों में भाग लेने लगा। गोरी के भारत आक्रमण के समय उसने अपनी योग्यता प्रदर्शित की तथा उसे पूर्ण सहयोग दिया। उसकी योग्यता एवं सक्रिय सहायता से गोरी को भारतीय शासकों के विरुद्ध सफलता मिली। उसकी योग्यता एवं स्वामिभक्ति देखकर गोरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध (1192 ई०) में अजमेर तथा दिल्ली के शासक पृथ्वीराज ने शासन-व्यवस्था को अपनी राजधानी दिल्ली बनाई और गोरी की अनुपस्थिति में ही विजय अभियान चलाकर गोरी के राज्य तथा यश की काफी वृद्धि की। 1192 ई० से 1205 ई० के बीच उसने गोरी के विरुद्ध राजपूतों के विद्रोहों का दमन किया तथा कई नए प्रदेशों को भी जीता।

मुहम्मद गोरी का गुलाम कुतुबद्दीन ऐबक गोरी की मृत्यु के बाद 1206 ई० में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसकी उपलब्धियों को हम दो भागों में विभक्त कर दर्शा सकते हैं। पहले गोरी के सूबेदार के रूप में तथा दूसरे शासक के रूप में।

सूबेदार के रूप में ऐबक की उपलब्धियाँ – 1192 ई० में जब गोरी ने उसे भारतीय प्रांतों का सूबेदार बनाकर गजनी लौट गया तो पृथ्वीराज का भाई हरि राय ने विद्रोह कर दिया तथा रणथम्भौर पर घेरा डाल दिया। ऐबक ने उस विद्रोह को सफलतापूर्वक दबा दिया। पुनः अजमेर के पास राजपूतों ने जटवन नामक सरदार के नेतृत्व ने विद्रोह किया और हौसी को घेर लिया। लेकिन ऐबक ने उसे भी दबा दिया। बुलंदशहर पर भी उसने अधिकार कर लिया। 1192 ई० में ही उसने मेरठ पर विजय की। 1193 ई० में दिल्ली के तोमर राजा को हराकर दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उसने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाई। उसके बाद वह गजनी चला गया।

1194 ई० में वह पुनः गजनी से लौटकर आया। उसने अलीगढ़ पर विजय प्राप्त की। उसी वर्ष गोरी में राजपूतों की शक्ति के प्रमुख केन्द्र कनौज (जहाँ का राजा जयचन्द था) पर आक्रमण कर उसे परास्त किया। उसमें ऐबक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विजय के बाद गोरी जब लौटकर चला गया तो ऐबक ने स्वामी के विजय अभियान को जारी रखा। 1195 ई० में पृथ्वीराज के भाई हरि राय ने पुनः विद्रोह कर दिल्ली पर अधिकार करने का प्रयास किया। लेकिन ऐबक ने उसे विफल कर दिया। 1195 ई० में उसने अलीगढ़ (कोइल) को जीता।

1196 ई० में उसने रणथम्भौर का दुर्ग जीतकर अजमेर पहुँचा जहाँ विद्रोह हो गये थे। 1197 ई० में उसने विद्रोह को दबाकर वहाँ अपनी स्थिति मजबूत बनाई। 1197 ई० में ही उसने गुजरात की राजधानी अन्हिलबाड़ा पर आक्रमण किया। उसे हराकर काफी सम्पत्ति लूटी क्योंकि वहाँ का चालुक्य राजा भीमदेव द्वितीय का हाथ अजमेर के विद्रोह में था। 1197 से 1203 ई० के बीच उसने कोटा बदायूँ, चन्दवर, सिरोह, उज्जैन तथा काशी को जीता। 1202-03 ई० कालिंजर (बुंदेलखंड), महोबा, खजुराहो तथा कालपी पर विजय प्राप्त की। इस तरह उस समय तक लगभग सम्पूर्ण पश्चिमोत्तर भारत ऐबक के अधीन हो गया। यही कारण था कि गोरी की हत्या (15 मार्च, 1206 ई०) के बाद उसे यहाँ का शासक बनने में काफी आसानी हुई।

शासक के रूप में उसकी उपलब्धियाँ – गोरी की मृत्यु के लगभग 3 महीने बाद ऐबक ने 24 जून 1206 ई० को राज्य की बागडोर अपने हाथों में ली और गुलामवंश की स्थापना की, क्योंकि गोरी का भतीजा तथा उत्तराधिकारी ग्यासुद्दीन मोहम्मद गोर इतना योग्य नहीं था कि गजनी के साथ-साथ वह भारतीय राज्य को भी सम्हाल सके। अतः लाहौर की जनता के आमंत्रण पर उसने अपना राज्याभिषेक किया। लेकिन उस समय उसने सुल्तान की उपाधि नहीं धारण की क्योंकि उस समय उसकी स्थिति बहुत नाजुक थी। गोरी का उत्तराधिकारी गयासुद्दीन रजनी और अफगानिस्तान का शासक एल्दौज, कुबाचा (सिन्ध का शासक) अली मर्दान तथा कई तुर्क अमीर ऐबक के विरोधी थे। इनके अलावे भारत में भी राजपूत शासक पुनः अपने को स्वतंत्र कर रहे थे। सभी जगह विद्रोह हो रहे थे। इस तरह वह आंतरिक तथा बाह्य कठिनाइयों से घिरा हुआ था।

ऐसी विषम स्थिति में भी उसने हिम्मत नहीं हारी और धैर्य, वीरता, कुशलता एवं दूरदर्शिता से उनका सामना किया। उसने लगभग 4 वर्षों तक शासन किया। उस समय वह कोई नयी विजय नहीं कर सका बल्कि अपनी स्थिति सुरक्षित एवं सुदृढ़ करने में लगा रहा।

अपनी स्थिति को सुरक्षित एवं सुदृढ़ करने के उद्देश्य से उसने वैवाहिक संबंधों का सहारा लिया और इल्तुतमिश, कुबाचा तथा एल्दौज के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किए। गजनी और अफगानिस्तान का शासक ताजुद्दीन एल्दोज से ऐबक को सर्वाधिक खतरा महसूस होता था। उसने गयासुद्दीन से मुक्ति पत्र पा लिया था लेकिन एल्दौज गजनी का शासक होने के का अपने आपको भारतीय राज्य का भी संप्रभु मानता था। जब ख्वारिज्म के शाह ने (जो मध्य एशिया में अपनी शक्ति का विस्तार कर रहा था।) गजनी पर चढ़ाई कर एल्दौज को वहाँ से निकाल दिया तो वह 1208 में भारत आकर पंजाब पर आक्रमण किया लेकिन ऐबक ने उसे पीछे धकेल दिया और पीछा करते-करते गजनी पहुँच गया और वहाँ अधिकार कर लिया। लेकिन मात्र 80 दिन ही वह वहाँ रह सका। जब वहाँ के नागरिकों में असंतोष फैला तो वह लौटकर यहाँ चला आया। एल्दौज पुनः वहाँ अधिकार कर लिया। इसके बाद एल्दौज पुनः भारतीय राज्य की ओर नजर नहीं घुमाई तथा अपनी लड़की की शादी ऐबक से कर अच्छे संबंध बना लिए।

सिन्ध तथा उच्च का शासक नासिरउद्दीन कुबाचा भी काफी महत्वाकांक्षी था। गोरी की मृत्यु के बाद वह स्वतंत्र शासक बन गया था। उसकी शक्ति का भी विस्तार हो चुका था। वह भी भारतीय राज्य पर अधिकार करना चाहता था। ऐबक ने उसे अपने पक्ष में करने हेतु अपनी बहन की शादी कुबाचा से कर दी। इसके कारण दोनों के संबंध मधुर हो गए।

अपनी स्थिति सुरक्षित करने के बाद उसने आंतरिक स्थिति को ठीक करने हेतु कदम उठाये। बख्तियार खिलजी के मरने के बाद अली मर्दान खाँ बंगाल तथा बिहार का स्वतंत्र शासक बन बैठा था। लेकिन स्थानीय खिलजी सरदारों ने उसे पदच्युत कर जेल में बंद कर दिया था। वह किसी तरह से जेल से निकलकर ऐबक से मिला। ऐबक ने खिलजी सरदारों से समझौता करवाकर उसे पुनः बंगाल का नवाब बना दिया। उसने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली।

गोरी की मृत्यु के बाद कई राजपूत शासकों ने बुन्देलखंड, ग्वालियर, बदायूं आदि कई स्थानों पर अधिकार कर लिया था। ऐबक को उन प्रदेशों को जीतने की फुर्सत नहीं मिली। फिर भी राजाओं पर दबाव डालकर बदायूँ पर पुनः अधिकार कर लिया और अपने योग्य गुलाम इल्तुतमिश को वहाँ का सूबेदार नियुक्त किया। 4 नवंबर, 1210 ई० को लाहौर में चौगान (पोलो) खेलते समय अचानक घोड़े पर से गिर गया। पोलो की छड़ी का नुकीला. भाग छाती तथा पेट में गड़ गया। साथ ही घोड़ा भी उसपर चढ़ गया। इस कारण उसकी मृत्यु हो गई।

इस प्रकार हम देखते हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक काफी योग्य, प्रतिभावान, दूरदर्शी एवं साहसी था। उसमें स्वामीभक्ति की भावना भी कूट-कूटकर भरी हुई थी। जैसा कि हम देखते हैं कि अपने मालिक गोरी का वह सबसे प्रिय एवं विश्वासी व्यक्ति था। उसने मात्र दूरदर्शिता से विजय पायी वह उसकी कुशलता का परिचायक था।

भारतीय इतिहास में उसे महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। उसने गोरी द्वारा स्थापित भारतीय राज्य में शत्रुओं का दमन कर अपना शासन (गुलाम वंश) की स्थापना की। यद्यपि समय की कमी के कारण वह अपने राज्य को बढ़ा नहीं सका लेकिन उसकी स्थिति सुरक्षित, सुदृढ़ अवश्य कर दी। समयाभाव के कारण वह शासन संबंधी सुधार नहीं ला सका फिर भी वह अपने राज्य में शांति स्थापित करने में बहुत हद तक सफल रहा। इस तरह हम कह सकते हैं कि ऐबक जो एक गुलाम था ने अपनी प्रतिभा, शौर्य, वीरता तथा साहस के बदौलत भारत में अपना स्वतंत्र शासन स्थापित कर सका। इसलिए यदि उसे भारत प्रथम मुस्लिम बादशाह कहा जाय तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

प्रश्न 4.
विजयनगर राज्य का ‘चरमोत्कर्ष और पतन’ नामक विषय पर एक निबंध लिखिए।
उत्तर:
विजयनगर साम्राज्य का चरमोत्कर्ष – राजनीति में सत्ता के दावेदारों में शासकीय वंश के सदस्य तथा सैनिक कमांडर शामिल थे। पहला राजवंश, जो संगम वंश कहलाता था, ने 1485 ई० तक नियंत्रण रखा। उन्हें सुलुवों ने उखाड़ फेंका, जो सैनिक कमांडर थे और वे 1503 ई० तक सत्ता में रहे। इसके बाद तुलुवों ने उनका स्थान लिया। कृष्णदेव राय तुलुव वंश से ही संबद्ध था।

कृष्णदेव राय के काल में विजयनगर – कृष्णदेव राय के शासन की चारित्रिक विशेषता विस्तार और दृढीकरण था। इसी काल में तुंगभद्रा और कृष्णा नदियों के बीच का क्षेत्र (रायचूर दोआब) हासिल किया गया (1512), उड़ीसा के शासकों का दमन किया गया (1514) तथा बीजापुर के सुल्तान को बुरी तरह पराजित किया गया था (1520)। हालाँकि राज्य हमेशा सामरिक रूप से तैयार रहता था, लेकिन फिर भी यह अतुलनीय शांति और समृद्धि की स्थितियों में फला-फूला। कुछ बेहतरीन मंदिरों के निर्माण तथा कई महत्त्वपूर्ण दक्षिण भारतीय मंदिरों में भव्य गोपुरमों को जोड़ने का श्रेय कृष्णदेव को ही जाता है। उसने अपनी माँ के नाम पर विजयनगर के समीप ही नगलपुरम् नामक उपनगर की स्थापना भी की थी। विजयनगर के संदर्भ में सबसे विस्तृत विवरण कृष्णदेव राय के या उसके तुरंत बाद के कालों से प्राप्त होते हैं।

विजयनगर कष्णदेव राय की मत्य के उपरान्त – कृष्णदेव की मत्य के पश्चात 1529 ई० में राजकीय ढाँचे में तनाव उत्पन्न होने लगा। उसके उत्तराधिकारियों को विद्रोही नायकों या सेनापतियों से चुनौती का सामना करना पड़ा। 1542 ई० तक केन्द्र पर नियंत्रण एक अन्य राजकीय वंश, अराविदु के हाथों में चला गया, जो सत्रहवीं शताब्दी के अंत तक सत्ता पर काबिज रहे। पहले की ही तरह इस काल में भी विजयनगर शासकों और साथ ही दक्कन सल्तनतों के शासकों की सामरिक महत्त्वाकांक्षाओं के चलते समीकरण बदलते रहे। अंततः यह स्थिति विजयनगर के विरुद्ध दक्कन सल्तनतों के बीच मैत्री-समझौते के रूप में परिणत हुई।

विजयनगर का पतन – 1565 ई० में विजयनगर की प्रधानमंत्री रामराय के नेतृत्व में राक्षसी-तांगड़ी (जिसे तालीकोटा के नाम से भी जाना जाता है) के युद्ध में उतरी जहाँ उसे बीजापुर, अहमदनगर तथा गोलकुण्डा की संयुक्त सेनाओं द्वारा करारी शिकस्त मिली। विजयी सेनाओं ने विजयनगर शहर पर धावा बोलकर उसे लूटा। कुछ ही वर्षों के भीतर यह शहर पूरी तरह से उजड़ गया। अब साम्राज्य का केंद्र पूर्व की ओर स्थानांतरित हो गया जहाँ अराविदु राजवंश ने पेनुकोण्डा से और बाद में चन्द्रगिरि (तिरुपति के समीप) से शासन किया।

प्रश्न 5.
विजयनगर साम्राज्य के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं कलात्मक स्थिति का वर्णन करें।
उत्तर:
दक्षिण भारत के इतिहास में विजयनगर का महत्त्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि इसके राजाओं ने एक सुदृढ़ और विशाल साम्राज्य की स्थापना की, बल्कि इसका महत्त्व इस कारण भी है कि इस समय यह राज्य ‘हिन्दु-पुनरुत्थान’ का केन्द्र था। तत्कालीन अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों एवं यूरोपीय, मध्य एशियाई एवं पुर्तगाली यात्रियों के विवरणों से इस राज्य की आंतरिक व्यवस्था पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।

प्रशासनिक व्यवस्था – विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत साम्राज्य की आर्थिक एवं सामाजिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए एक सर्वथा नई राज्य व्यवस्था का विकास हुआ। राजा शासन का प्रधान होता था। प्रत्येक राजा शासन में गहरी रुचि लेता था। वह राय कहलाता था। राजा राज्य में न्याय, समता, धर्मनिरपेक्षता, शांति और सुरक्षा की व्यवस्था करता था। वह आर्थिक और सामाजिक मामलों में भी अभिरुचि रखता था। वह प्राचीन राजधर्म को ध्यान में रखते हुए शासन करता था। सिद्धांततः उसकी भक्ति असीम थी, परंतु व्यवहारतः उसे धर्मानुकूल शासन करना पड़ता था। युवराज को भी प्रशासन में महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। कभी-कभी दो राजा साथ-साथ शासन करते थे, जैसे हरिहर एवं बुक्का, विजयराय और देवराय। नाबालिग राजाओं के लिए संरक्षक नियुक्त किए जाते थे, जो कभी-कभी सारी शक्ति स्वयं अपने ही हाथों में केन्द्रित कर लेते थे। राजपरिषद् राजा की सलाहकार समिति थी। इसमें प्रांतीय शासकों, सामंतों, व्यापारिक निगमों इत्यादि को स्थान दिया गया था। राज्य के नीति-निर्धारण का कार्य इसी के जिम्मे था।

मंत्रिपरिषद् का प्रधान महाप्रधानी या प्रधानमंत्री होता था। इसमें राज्य के मंत्रियों, उप-मंत्रियों और विभागीय अध्यक्षों के अतिरिक्त राजा के निकट संबंधी भी होते थे। परिषद् के सदस्यों की संख्या करीब 20 थी। राजा की सहायता के लिए दंडनायक (अधिकारियों की एक विशिष्ट श्रेणी) एवं कार्यकर्ता (अधिकारियों का एक अन्य वर्ग) थे। राजा और युवराज के पश्चात् महाप्रधानी ही शासन का सर्वोच्च पदाधिकारी था। केन्द्र में एक सचिवालय होता था, जो पूरे प्रशासन पर नियंत्रण रखता था। इसमें विभिन्न विभागों के प्रधान एवं उनके प्रमुख सहकर्मी रहते थे, जैसे, मानेय प्रधान (गृहमंत्री), रायसम् (सचिव), कर्णिकम् (हिसाब-किताब रखनेवाले), मुद्राकर्ता (राजकीय मुद्रा रखने वाला) इत्यादि। विजयनगर के राजा न्याय के संपादन में भी दिलचस्पी लेते थे। राजा स्वयं सर्वोच्च न्यायाधीश था, यद्यपि केन्द्रीय एवं स्थानीय स्तर पर अनेक न्यायालय थे। विजयनगर की सेना विशाल, स्थायी एवं सुदृढ़ थी। सेना में पैदल, घुड़सवार, हाथी तथा तोपखाने की टुकड़ियाँ थीं। इस सेना में मुसलमानों और तुर्की अश्वारोहियों एवं धनुर्धरों की भी भर्ती की गई। यद्यपि सैन्य व्यवस्था सामंती सिद्धांतों पर आधृत थी, तथापि इस पर कठोर निगरानी रखी जाती थी। राज्य में शांति व्यवस्था की स्थापना के लिए पुलिस का प्रबंध भी था। राज्य की आमदनी के साधन विभिन्न कर थे, जैसे भूमि कर, व्यापार, उद्योग इत्यादि से प्राप्त होनेवाली आय, व्यावसायिक कर, विवाह-कर इत्यादि।

प्रशासनिक सुविधा के दृष्टिकोण से सम्पूर्ण साम्राज्य विभिन्न प्रांतों (राज्य) में विभक्त था। इनकी संख्या बदलती रहती थी। प्रांत मंडल, कोट्टम् या वलनाडु में विभाजित थे। कोट्टम से छोटी इकाई नाडु थी। नाडु मेलाग्राम (पचास गाँवों का समूह) में विभक्त था। सबसे छोटी इकाई उर या ग्राम था। प्रांतों का शासन प्रांतपतियों के जिम्मे सुपुर्द किया गया था। यह पद राजपरिवार से सम्बद्ध व्यक्तियों एवं महत्त्वपूर्ण सैनिक-पदाधिकारियों को सौंपा जाता था। इन्हें पर्याप्त प्रशासनिक स्वतंत्रता प्राप्त थी। केन्द्र सामान्यतया प्रांतीय मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता था। प्रांतीय गवर्नरों का मुख्य कार्य राजस्व की वसूली एवं कानून-व्यवस्था को बनाए रखना था। प्रांतीय व्यवस्था के साथ-साथ नायंकर व्यवस्था भी प्रचलित थी। नायंकर भी प्रांतीय गवर्नरों के ही समान क्षेत्र-विशेष में राज्य करते थे एवं उन्हें भी प्रशासनिक स्वायत्तता प्राप्त थी। नायंकर एक प्रकार से सैनिक सामंत थे, जो राजस्व वसूली के अतिरिक्त अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था बनाए रखते थे, न्याय करते थे, राजा के लिए सेना एकत्र करते थे तथा आर्थिक विकास के कार्य करते थे। इन्हें प्रांतीय गवर्नरों से भी अधिक स्वतंत्रता प्राप्त थी, जिसका दुरुपयोग भी इन लोगों ने किया। स्थानीय शासन में प्राचीन संस्थाएँ सभा, नाडु अब भी वर्तमान रही, किन्तु आयगार-व्यवस्था (बारह व्यक्तियों का समूह) की स्थापना ने स्थानीय शासन की स्वायत्तता समाप्त कर दी।

सामाजिक जीवन – विजयनगर राज्य का सामाजिक जीवन वर्ण व्यवस्था पर आधृत था। राज्य समस्त वर्गों के हितों की रक्षा करता था। समाज में प्रथम स्थान ब्राह्मणों को प्राप्त था। वे मृत्युदण्ड से परे थे। उन्हें सेना एवं शासन में उच्च पद प्राप्त थे। क्षत्रियों के विषय में स्पष्ट जानकारी उपलब्ध नहीं है। तीसरा वर्ग शेट्टी या चेट्टी का था। इसी वर्ग के अंतर्गत बड़े एवं छोटे व्यापारी, दस्तकार (वीर-पांचाल) रेड्डी,लोहार, स्वर्णकार, बढ़ई, जुलाहे, मूर्तिकार इत्यादि आते हैं।डोंबर (बाजीगर), जोगी, मछुआरों इत्यादि की स्थिति निम्न थी। समाज में दास-प्रथा भी प्रचलित थी। पुरुष एवं स्त्री दोनों ही दास बनते थे। उत्तरी भारत से दक्षिण आकर बसनेवाली जातियाँ वडवा कहलाती थी। इनका भी सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान था।

राज्य सामाजिक मामलों में यदा-कदा हस्तक्षेप कर सामाजिक करीतियों एवं तनाव को समाप्त करने की कोशिश करता था। उदाहरणस्वरूप 1424-25 ई० के एक अभिलेख से ज्ञात होता है कि राज्य ने दहेज-प्रथा को गैर-कानूनी घोषित कर दिया था। सामाजिक नियमों को तोड़नेवालों के लिए दण्ड की व्यवस्था की गई थी। स्त्रियों की स्थिति बहुत उच्च नहीं थी। सामान्यतः, उन्हें भोग्या ही माना जाता था। आभिजात्य वर्ग की महिलाओं की स्थिति कुछ अच्छी थी। उन्हें नृत्य, संगीत एवं साहित्य की शिक्षा दी जाती थी। निम्न वर्गों की स्त्रियाँ विभिन्न व्यवसायों और दस्तकारियों में प्रवीण होती थीं। सामान्य वर्गों में एकात्मक विवाह ही होते थे, परंतु राजपरिवार एवं सामंत वर्गों में बहुपत्नीत्व की प्रथा प्रचलित थी। इसके अतिरिक्त राजपरिवार में असंख्य दासियाँ एवं रखैलें भी रहती थीं। समाज में देवदासियों एवं गणिकाओं की भी भरमार थी। इनका सामाजिक जीवन उपेक्षित न होकर सम्मानित था। परदा प्रथा का प्रचलन नहीं था, परंतु सती प्रथा विद्यमान थी। सामान्यतया यह प्रथा राजपरिवारों और सैनिक पदाधिकारियों के परिवारों तक ही सीमित थी। सती स्त्रियों के सम्मान में पाषाण स्मारक स्थापित किए जाते थे।

यद्यपि राज्य विधवा विवाह को प्रोत्साहन देता था, (विधवा विवाह करनेवाले दम्पत्ति विवाह कर से मुक्त थे) तथापि विधवाओं की स्थिति बहुत ही दयनीय थी। इस समय के लोग वस्त्र आभूषण एवं श्रृंगार के प्रसाधनों के शौकीन थे। कुलीन वर्ग के वस्त्र आभूषण विशिष्ट प्रकार के होते थे। लोग मांस मदिरा का सेवन भी करते थे। मनोरंजन के साधनों में नाटक, नृत्य, संगीत, शतरंज एवं पासा का खेल तथा जुआ खेलना प्रचलित था। संक्षेप में विजयनगर राज्य का सामाजिक जीवन, अंतर्विरोधों और तनावों के बावजूद शांत, सुखी एवं समृद्ध था।

आर्थिक स्थिति – विजयनगर एक समद्ध एवं वैभवपूर्ण राज्य था। तत्कालीन इतालवी और पोर्तुगीज यात्रियों ने इस नगर के वैभव का वर्णन किया है। कोण्टी, अब्दुर रज्जाक, पेईज, बारबोसा, सभी विजयनगर को समृद्धि का वर्णन करते हैं। इनके वर्णनों से राज्य की आर्थिक स्थिति पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। राज्य की आर्थिक व्यवस्था का मुख्य आधार कृषि था। राज्य की तरफ से कृषि के विकास के लिए अनेक कदम उठाए गए। बंजर और जंगली भूमि को भी कृषि योग्य बनाकर कृषि का विस्तार किया गया। सिंचाई की सुविधा के लिए राज्य, मंदिर, व्यक्तियों और अनेक संस्थाओं ने प्रयास किया। अनेक नहरें एवं तालाब खुदवाए गए। जो व्यक्ति सिंचाई की सुविधा के लिए प्रयास करते थे एवं सिंचाई के साधनों की देखभाल करते थे, उन्हें राज्य की तरफ से करमुक्त भूमि अनुदान में दी जाती थी।

भू-व्यवस्था में भी इस समय महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। भू-स्वामित्व के अनेक रूप इस समय देखने को मिलते हैं। इनमें प्रमुख हैं भंडारवाद ग्राम (राज्य के सीधे नियंत्रणवाली भूमि), ब्रह्मदेय, देवदेथ, मठापुर भूमि (ब्राह्मणों, मठों मंदिरों को दान में दी गई भूमि), अमरम् भूमि (सैनिक एवं असैनिक कार्यों के बदले दी जाने वाली जमीन), उबलि (ग्राम में विशिष्ट सेवा के बदले दी गई जमीन) कट्टगि (पट्टे पर दी जाने वाली भूमि) इत्यादि। इस भूमि व्यवस्था का एक दुष्परिणाम यह निकला कि राज्य में बड़े भू-स्वामियों की संख्या बढ़ गई एवं छोटे किसानों की स्थिति बिगड़ गई। उनमें अनेक कुदि या कृषक मजदूर बन गए।

इस समय उपजाई जाने वाली फसलों में प्रमुख थी चावल, जौ, दलहन, तिलहन, नील, कपास, काली मिर्च, अदरक, इलायची, नारियल इत्यादि। विभिन्न प्रकार के उद्योगों एवं व्यवसायों का भी विकास हुआ। धातुकर्म का व्यवसाय सबसे अधिक उन्नत अवस्था में था। इस समय देशी और विदेशी व्यापार की भी प्रगति हुई। पुर्तगाल, मध्य एशिया और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ व्यापारिक संबंध उन्नत था। विजयनगर से इस्पात एवं इस्पात से बने सामान, शक्कर, वस्त्र एवं शोरा विदेशों को भेजे जाते थे तथा बाहर से घोड़े, सिल्क, जवाहरात इत्यादि मँगवाए जाते थे। बारबोसा के अनुसार, विजयनगर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का केन्द्र था। उसका कहना है कि ‘नगर विस्तृत और घना बसा हुआ है तथा चालू व्यापार का केन्द्र है; हीरे, पीगू के लाल, चीन और सिकंदरिया का रेशम, कपूर, सिन्दूर, कस्तूरी तथा मालावार की काली मिर्च और चन्दन इन वस्तुओं का अधिक क्रय-विक्रय होता है।” आर्थिक समृद्धि के कारण जनता का जीवन खुशहाल था। करों की संख्या अधिक रहने पर भी करों का बोझ हल्का था।

धार्मिक व्यवस्था-विजयनगर के राजाओं का शासनकाल हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान का समय माना जाता है। दक्षिण में इस्लामी राजाओं के उत्थान और प्रसार के बावजूद विजयनगर के.शासक हिन्दूधर्म की दृढ़तापूर्वक रक्षा कर सके। यह उनकी एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। विजयनगर साम्राज्य में वैष्णव और शैवधर्म प्रधान थे। यज्ञ, आहुति और बलि की प्रथा प्रचलित थी। देवताओं के मंदिर बने। उनकी मूर्तियाँ भी बनाई गई। समाज में ब्राह्मणों (पुरोहितों) का यथेष्ट सम्मान था। विजयनगर के राजाओं ने हिन्दूधर्म को प्रश्रय देते हुए भी उदार धार्मिक नीति अपनाई। सभी धर्मानुयायियों के साथ उदारतापूर्वक व्यवहार किया गया। फलतः, हिन्दू धर्म के साथ-साथ इस्लाम, जैन एवं ईसाई धर्म के माननेवाले भी राज्य में शांति और सम्मान के साथ रहते थे।

शैक्षणिक एवं साहित्यिक प्रगति – यद्यपि विजयनगर के राजाओं ने राज्य की तरफ से शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था नहीं की तथा चोलों और पल्लवों की तरह राजकीय विद्यालयों की भी स्थापना नहीं की, तथापि स्वतंत्र शैक्षणिक संस्थाओं को दान एवं संरक्षण देकर शिक्षा के विकास में सहायता पहुँचाई। मठ, मंदिर एवं अग्रहार शिक्षा के प्रचार का कार्य करते थे। राज्य विद्वानों को संरक्षण देता था। उन्हें करमुक्त भूमि दान में दी जाती थी। इस युग में संस्कृत, तेलुगु, तमिल तथा कन्नड़ भाषाओं का पर्याप्त विकास हुआ। कृष्णदेवराय के समय में साहित्यिक प्रगति पराकाष्ठा पर पहुंच गई। उसने तेलुगु और संस्कृत में कई ग्रंथों की रचना की। उसके द्वारा रचित ग्रंथों में आमुक्त माल्यद (तेलुगु) सबसे प्रसिद्ध है। इस युग के प्रसिद्ध विद्वानों में विद्यारण्य, सायणाचार्य एवं माधवाचार्य के नाम प्रमुख हैं। अलसनी तेलुगु का महान कवि था।

कलात्मक विकास – विजयनगर साम्राज्य के अंतर्गत विभिन्न कलाओं का भी विकास हुआ। स्थापत्य के क्षेत्र में विशेष प्रगति हुई। इस युग के राजाओं ने सुंदर और भव्य महलों, झीलों, नहरों, पुलों, तालाबों का निर्माण करवाया। विजयनगर की प्रशंसा विदेशी यात्रियों ने की है। इतालवी यात्री निकोलो कोण्टी लिखता है कि “नगर की परिधि 60 मील है; उसकी दीवारें पर्वत-शिखरों तक पहुँचती हैं और उनके चरणों को घाटियाँ घेरे हुई हैं; इससे उसका विस्तार और भी अधिक बढ़ जाता है……”। बारबोसा के अनुसार नगर विस्तृत और धनी आबादीवाला था। अब्दुर रजाक तो नगर की सुंदरता देखकर विमुग्ध हो गया था। वह कहता है कि “विजयनगर ऐसा है, जिसकी समता का दूसरा नगर पृथ्वी पर आँख से न देखा और न कान से सुना।” इस काल में सुंदर एवं भव्य मंदिरों का भी निर्माण हुआ। विजयनगर के मंदिरों में सबसे अधिक विख्यात कृष्णदेव राय द्वारा निर्मित हजार खम्भों वाला मंदिर तथा विट्ठलस्वामी का भव्य मंदिर है। विभिन्न ललित कलाओं-नृत्य, संगीत, अभिनय के साथ-साथ चित्रकला एवं मूर्तिकला की भी प्रगति हुई। वस्तुतः विजयनगर साम्राज्य दक्षिण भारत के मध्यकालीन राज्यों में राजनीतिक और सांस्कृतिक दोनों ही क्षेत्रों में, सबसे प्रमुख बन गया।

प्रश्न 6.
भक्ति आंदोलन के परिणामों का वर्णन करें।
उत्तर:
भक्ति आंदोलन का प्रभाव (Effect of Bhakti Movement) – संतों तथा सुधारकों के प्रयासों से जो भक्ति आंदोलन का आरम्भ हुआ उनसे मध्य भारत के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में एक नवीन शक्ति एवं गतिशीलता का संचार हुआ। प्रो० रानाडे के अनुसार भक्ति आंदोलन के परिणामों में साहित्य-रचना का आरम्भ, इस्लाम के साथ सहयोग के परिणामस्वरूप सहिष्णुता की भावना का विकास जिसकी वजह से जाति व्यवस्था के बंधनों में शिथिलता आई और विचार तथा कर्म दोनों स्तरों पर समाज का उन्नयन हुआ।

(i) सामाजिक प्रभाव (Social Impact) – भक्ति आंदोलन के कारण जाति प्रथा, अस्पृश्यता तथा सामाजिक ऊँच-नीच की भावना को गहरी चोट लगी। अधिकतर भक्त संतों ने विभिन्न जातियों के लोगों को अपना शिष्य बनाया। उन्होंने जाति प्रथा का तीव्र विरोध किया एवं ब्राह्मण तथा शूद्र को समान बताया। इस तरह समाज में जाति बंधनों पर गहरा प्रहार हुआ लेकिन यह मानना पड़ेगा कि भक्ति आंदोलन भारतीय समाज से जाति प्रथा के दोषों को पूर्णतया समाप्त नहीं कर सका। भक्त-संतों ने नारी को समाज में उच्च तथा सम्मानीय स्थान दिये जाने का समर्थन किया। उन्होंने स्त्रियों को पुरुषों के साथ मिलकर सांसारिक बोझ उठाने का परामर्श दिया। कबीर तथा नानक ने पुरुषों की तरह नारियों को अपनी शिक्षाएँ दीं। उन्होंने सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराई का भी विरोध किया। इस आंदोलन में समाज सेवा की भावना को प्रोत्साहन मिला क्योंकि भक्त संतों ने लोगों को निर्धन. अनाथों. बेसहारा आदि की सेवा करने का उपदेश दिया।

(ii) धार्मिक प्रभाव (Religious Impact) – भक्ति आंदोलन का सर्वाधिक प्रभाव धर्म पर पड़ा। इस आंदोलन के कारण ही इस्लाम तथा हिन्दू धर्म के अनुयायियों में कर्मकांडों और अंधविश्वासों के विरुद्ध वातावरण तैयार हुआ। हिन्दुओं में मूर्तिपूजा की लोकप्रियता में कमी हुई। हिन्दू-मुस्लिम सम्प्रदायों में समन्वय तथा एकता की भावना को प्रोत्साहन मिला। भक्ति आंदोलन के कारण ही सिख धर्म के रूप में नये धर्म का जन्म हुआ। गुरु नानक देव सिखों के प्रथम गुरु तथा गुरु ग्रंथ साहिब सिखों के लिए बाइबल है। गुरु ग्रंथ साहिब में अधिकांश भक्ति-संतों की वाणी ही संकलित है। इससे धार्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहन मिला। हिन्दु तथा मुसलमानों में जो कटुता व्याप्त थी धीरे-धीरे इस आंदोलन से उसको गहरा आघात पहुँचा। धार्मिक कट्टरता कम हुई तथा धार्मिक सहनशीलता का प्रसार हुआ।

(iii) सांस्कृतिक प्रभाव (Cultural Effects) – भक्ति आंदोलन के कारण सर्वसाधारण की भाषा एवं बोलियाँ अधिक लोकप्रिय हुईं। अनेक प्रांतीय एवं क्षेत्रीय भाषाओं में अनेक भक्त संतों ने रचनाएँ की। कबीर की भाषा अनेक भाषाओं के सुन्दर समन्वय का अच्छा उदाहरण है जो खिचड़ी भाषा कहलाती है। मलिक मुहम्मद जायसी, तुलसीदास आदि ने अवधी में अपनी रचनाएँ कीं। सूरदास ने ब्रज तथा नानक ने पंजाबी व हिन्दी को अपनाया। चैतन्य ने बंगला में और अनेक भक्त संतों ने उर्दू में भी रचनाएँ की। यह रचनाएँ समय पाकर भारतीय भाषाओं के साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग बन गईं।

प्रश्न 7.
भक्ति आन्दोलन से आप क्या समझते हैं ? इस आन्दोलन का क्षेत्र एवं इससे जुड़े प्रमुख सन्तों के नाम बताइए।
उत्तर:
(i) भक्ति आन्दोलन का अर्थ (Meaning of Bhakti Movement) – भक्ति आन्दोलन से हमारा अभिप्राय उस आन्दोलन से है जो तुर्कों के आगमन (बारहवीं सदी से पूर्व ही) से काफी पहले ही यहाँ चल रहा था और जो अकबर के काल (इसका अन्त 1605 ई. को हुआ।) तक चलता रहा। इस आन्दोलन ने मानव और ईश्वर के मध्य रहस्यवादी संबंधों को स्थापित करने पर बल दिया। कुछ विद्वानों की राय है कि भक्ति भावना का प्रारम्भ उतना ही पुराना है जितना कि आर्यों के वेद। परन्तु इस आन्दोलन की जड़ें सातवीं शताब्दी से जमीं। शैव नयनार और वैष्णव अलवार ने जैन और बौद्ध धर्म के अपरिग्रह सिद्धान्त को अस्वीकार कर ईश्वर के प्रति व्यक्तिगत भक्ति को ही मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बताया। उन्होंने वर्ण और जाति भेद को अस्वीकार किया और प्रेम तथा व्यक्तिगत ईश्वर भक्ति का संदेश दिया। उत्तर भारत में भक्ति आन्दोलन का प्रसार दक्षिण भारत से आया यद्यपि इस प्रसार में बहुत कम समय लगा। उत्तर में संत और विचारक दोनों भक्ति दर्शन लाए।

भक्ति आन्दोलन की परिभाषा देते हुए प्रसिद्ध विद्वान तथा इतिहासकार डॉ० युसूफ हुसैन के अनुसार, “भक्ति आंदोलन रूढ़िवादी, सामाजिक तथा धार्मिक विचारों के विरुद्ध हृदय की प्रतिक्रिया तथा भावों का उद्गार है। भारतीय परिवेश में भक्ति आन्दोलन का विकास इन्हीं परिस्थितियों का परिणाम है।”

(ii) क्षेत्र तथा संत (Area and Saints) – भक्ति आन्दोलन व्यापक था और सारे देश में इसका प्रसार हुआ। यह आन्दोलन तेरहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक इस्लाम के सम्पर्क में आया और इसकी चुनौतियों को अंगीकार करता हुआ इससे प्रभावित, उत्तेजित और आन्दोलन हुए। इस आन्दोलन ने शंकराचार्य जैसे महान दार्शनिक के अद्वैतवाद और ज्ञान-मार्ग के विरोध में भक्ति मार्ग पर अधिक जोर दिया। इस आन्दोलन के चार विभिन्न संस्थापकों ने चार मतों को जन्म दिया। वे थे-

(a) बारहवीं शताब्दी के रामानुजाचार्य (विशिष्टद्वैतवाद),
(b) तेरहवीं सदी के मध्वाचार्य (द्वैतवाद),
(c) तेरहवीं शताब्दी के विष्णु स्वामी (शुद्धसद्वैतवाद) और
(d) तेरहवीं शताब्दी के निम्बार्काचार्य (द्वैताद्वैतवाद)। थोड़े बहुत अन्तर होते हुए भी इन चारों मतों की मूल प्रवृत्ति सगुण भक्ति की ओर झुकी हुई थी। इन्होंने ब्रह्म और जीव की पूर्ण एकता को स्वीकार नहीं किया। मध्यकाल में यह आन्दोलन विराट आन्दोलन के रूप में प्रकट हुआ और इसका प्रसार सोलहवीं सदी तक होता रहा।

प्रश्न 8.
सूफीवाद पर संक्षिप्त लेख लिखें।
उत्तर:
सूफीवाद उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रित एक अंग्रेजी शब्द है। सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रंथों में जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है तसत्वुफ। कुछ विद्वानों के अनुसार यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ ऊन है। यह उस खुरदुरे ऊनी कपड़े की ओर इशारा करता है जिसे सूफी पहनते थे। अन्य विद्वान इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ है साफ। यह भी संभव है कि यह शब्द ‘सफा’ से निकला हो जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जहाँ निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के बारे में जानने के लिए इकट्ठी होती थी।

सूफी सन्त के प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या :

  • एकेश्वरवाद (Mono God) – सूफी लोग इस्लाम धर्म को मानने के साथ एकेश्वरवाद पर जोर देते थे। पीरों और पैगम्बरों के उपदेशों को वे मानते थे।
  • रहस्यवाद (Mistensue) – इनकी विचारधारा रहस्यवादी है। इनके अनुसार कुरान के छिपे रहस्य को महत्त्व दिया जाता है। सफी सारे विश्व के कण-कण में अल्लाह को देखते हैं।
  • प्रेम समाधना पर जोर (Stress on Love and Meditation) – सच्चे प्रेम से मनुष्य अल्लाह के समीप पहुँच सकता है। प्रेम के आगे नमाज, रोजे आदि का कोई महत्त्व नहीं।
  • भक्ति संगीत (Bhakti Music) – वे ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गायन को विशेष महत्त्व देते थे। मूर्ति-पूजा के वे विरोधी थे।
  • गुरु या पीर का महत्व (Importance of Pir or Teacher) – गुरु या पीर को सूफी लोग अधिक महत्त्व देते थे। उनके उपदेशों का वे पालन करते थे।
  • इस्लाम विरोधी कछ सिद्धान्त (SomePrinciples Against Islam) – वे इस्लाम विरोधी कुछ बातें-संगीत, नृत्य आदि को मानते थे। वे रोजे रखने और नमाज पढ़ने में विश्वास नहीं रखते थे।

प्रश्न 9.
अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना करें।
उत्तर:

  • आरम्भ में अकबर एक कट्टरपंथी मुसलमान था परंतु बैरम खाँ, अब्दुल रहीम खानखाना, फैजी, अबुल फजल, बीरबल जैसे उदार विचारों वाले लोगों के सम्पर्क से उसका दृष्टिकोण बदल गया। हिंदू रानियों का भी उस पर प्रभाव पड़ा। अब वह अन्य धर्मों के प्रति उदार हो गया था।
  • 1575 ई० में उसने इबादतखाना बनवाया, जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों को अपने-अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। अक्सर बहस करते समय मौलवी गाली-गलौच पर उतर जाते थे। अतः अकबर को इस्लाम धर्म में रुचि कम हो गई।
  • वह स्वयं तिलक लगाने लगा और गौ की पूजा करने लगा। अतः कट्टरपंथी मुसलमान उसे काफिर कहने लगे थे।
  • 1579 ई० में उसने अपने नाम का खुतवा पढ़वा कर अपने आप को धर्म का प्रमुख घोषित कर दिया। इससे उलेमाओं का प्रभाव कम हो गया।
  • अंत में उसने सभी धर्मों का सार लेकर नया धर्म चलाया, जिसे दीन-ए-इलाही के नाम से जाना जाता है। अपने धर्म को उसने किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया।
  • उसने रामायण, महाभारत आदि कई हिन्दु ग्रंथों का भी फारसी में अनुवाद करवाया। वह धर्म को राजनीतिक से दूर रखता था।
  • फतेहपुर सीकरी में एक महल, जोधाबाई का महल में भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक देखते हैं।

प्रश्न 10.
दीन-ए-इलाही से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
अकबर इतिहास में महान् की उपाधि से विभूषित है और इसकी महानता का मुख्य कारण है इसका विराट व्यक्तित्व। साम्राज्य की सुदृढता, साम्राज्य में शांति स्थापना पापना तथा मानवीय से उत्प्रेरित अकबर ने न सिर्फ गैर-मसलमानों को राहत दिया. राजपतों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किया। बल्कि एक कशल प्रशासनिक व्यवस्था भी प्रदान किया। धार्मिक सामंजस्य के प्रतीक के रूप में उसका दीन-ए-इलाही प्रशंसनीय है।

दीन-ए-इलाही द्वारा अकबर ने सर्व-धर्म-समभाव की भावना को उत्प्रेरित किया है।

प्रश्न 11.
मुगल शासक अकबर की उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
अकबर को भारतीय इतिहास का एक महान और प्रतापी शासक एवं सम्राट माना जाता है। कुछ इतिहासकार उसे राष्ट्रीय भी कहते हैं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी रचना ‘Discovery of India’ में अकबर को भारतीय राष्ट्रीयता का पिता कहा है। यहाँ पर स्मरणीय है कि राष्ट्रीयता का सिद्धांत आधुनिक युग की देन है और मध्यकालीन भारत में राष्ट्रीय चेतना का वह आधुनिक युग विकसित नहीं हुआ था फिर भी अकबर को एक राष्ट्रीय सम्राट कहा जाता है क्योंकि इसने अपनी नीतियों से ऐसे तथ्यों को प्रोत्साहित किया और ऐसी परिस्थितियों को विकसित किया जिससे राष्ट्रीय चेतना प्रबल हो सकें। एक राष्ट्र निर्माता उस व्यक्ति को कहा जा सकता है जो किसी जनसमूह में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक एकता का भान जाए और उन्हें प्रशासनिक एकता के रूप में बाध्य है। 15वीं एवं 16वीं शताब्दी में यूरोप में ऐसे शासकों का प्रादुर्भाव हुआ, जिन्हें राष्ट्रीय सम्राट (National Monarch) कहा जाता है।

इनमें इंगलैंड के हेनरी सप्तम फ्रांस का लुई चौदह, प्रशा के फ्रेडरिक महान जैसे शासक अग्रगण्य है। इनके मुख्य उपलिब्ध रह रही है कि उन्होंने अपने देशों में सामंतवादी एवं विघटनकारी शक्तियों का अंत किया और भौगोलिक एवं प्रशासनिक एकता स्थापित की। भारत में भी अकबर ने एक विशाल एवं संगठित राज्य का निर्माण किया जो विभिन्न सम्प्रदायों के बीच एकता एवं सहिष्णुता की भावना पर आधारित था और जिसमें विभिन्न संस्कृति तथा परंपराओं का संतुलित एवं सुंदर समन्वय था। विविधता में एकता का जो लक्ष्य अकबर ने सफलता से प्राप्त किया वह अद्भुत है और इसलिए अकबर को एक महान शासक और राष्ट्र निर्माता के रूप में जाना जाता है।

अकबर ने एक विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। मौर्य साम्राज्य के पतनोपरांत लगभग 1000 वर्षों के अंतराल पर एक भारत व्यापी साम्राज्य अकबर ने संगठित किया जिसमें एक रूपी शासन प्रणाली थी। अकबर ने अपने शासन के प्रथम दो दशकों में उत्तरी भारत में साम्राज्य विस्तार किया। मालवा, गांण्डवाना, राजपूताना के अनेक राज्य गुजरात, बिहार और बंगाल की विजय इस काल में सम्पन्न हुई। दूसरे चरण में अकबर ने पश्मिोत्तर सीमांत में साम्राज्य विस्तार किया जिसके फलस्वरूप कश्मीर एवं लद्दाख, काबुल, कंधार, सिंध और मकरान के क्षेत्र मुगल साम्राज्य में सम्मिलित हुए। अंतिम चरण में अकबर ने दक्षिण भारत में साम्राज्य विस्तार किया, जिसके फलस्वरूप खान देश बराट और हमद नगर का एक बड़ा क्षेत्र उसने अपने अधिकार में ले लिया। इस तरह उत्तर में कश्मीर, दक्षिण में गोदावरी, पश्चिम में सिंध और पूरब में बंगाल तक फैले हुए क्षेत्र पर अकबर ने राजनीति एकता की स्थापना की। पश्चिमोत्तर क्षेत्र में हिन्दुकुश पर्वतमाला को पारकर अकबर ने काबुल तक साम्राज्य का विस्तार किया।

अकबर द्वारा स्थापित इस विशाल साम्राज्य की विशिष्टता यह थी कि इसमें प्रशासनिक एकरूपता स्थापित की गई। इस तरह भारतीय उपमहाद्वीप में पहली बार ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था का विकास हुआ, जिसमें स्थानीय और क्षेत्रीय भावनाओं और परम्पराओं के स्थान पर केन्द्रीय नियंत्रण एवं एकरूपता की सिद्धांत को अपनाया गया। अकबर ने मंसवादारी प्रथा का निर्माण किया। मंसवदार लोग प्रशासनिक तथा सैनिक अधिकारी थे, जिनकी वेतनमान एवं सेवा के नियम सारे राज्य में एक थे। इसकी तुलना भारतीय प्रशासनिक सेवा से भी की गई है। इस प्रकार अकबर ने प्रशासकों और सेवकों का एक मिला-जुला वर्ग विकसित किया, जो शासन के प्रति निष्ठा रखता था।

प्रशासनिक एकरूपता लाने के लिए अकबर ने सभी प्रांतों में एक जैसी प्रशासनिक व्यवस्था लागू की। हर प्रांत में एक सूवेदार की नियुक्ति की गई जो प्रांतीय प्रशासन का प्रधान था। उसके सहायता के लिए हर प्रांत में दीवान, वित्त-अधिकारी, बख्सी (सैनिकों का वेतन दाता) वाकियाँ नवीश (गुप्तचर), सदर (धार्मिक एवं न्याय संबंधी मामलों का प्रधान), काजी (न्यायधीश) आदि की नियुक्ति हुई। प्रांत को सरकार एवं हर सरकार को परगना में विभक्त किया गया और सभी स्तरों पर प्रशासनिक एकरूपता लाई गई। प्रत्येक सरकार में 3 प्रशासनिक अधिकारी नियुक्त किये गये। इनमें फौजदार साम्राज्य प्रशासन के लिए, अमल गुजार-लगान वसूली के लिए एवं काजी-न्याय के लिए उत्तरदायी थे। इसी प्रकार हर परगना में तीन अधिकारी बहाल किये गये, जिसमें सिकंदर-साम्राज्य प्रशासन के लिए, अमल गजारा लगान वसूली के लिए एवं काजी न्याय के लिए उत्तरदायी थे।

अकबर ने आर्थिक एकीकरण के लिए भी उपाय किये। उसने अपने राज्य में लगान व्यवस्था में भी एकरूपता लाई और प्रबल व्यवस्था को लागू किया। मुद्रा प्रणाली, माप तौल के उपकरण आदि में एकरूपता लाई गई जिससे कि उत्तरी भारत में एकरूपता स्थापित हई। यू तो शेरशाह के समय में ही अर्थ व्यवस्था में एरूपता लाने के उपाय किये गये थे परंतु अकबर ने इस व्यवस्था को और सदढ एवं स्थायी आधार प्रदान किया। आर्थिक एकीकरण ने राष्ट्रीय एकीकरण के कार्य में सहायता पहचायी।

अकबर ने अपने शासनकाल में सांस्कृतिक एकीकरण के भी उपाय किये। उसने उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया। उसने हिन्दुओं को जजिया कर और तीर्थ भाग कर देने से मुक्त करदिया एवं बलपूर्वक धर्म परिवर्तन को अवैध घोषित कर दिया। अकबर ने हिन्दुओं के अतिरिक्त, ईसाइयों, पारसियों, सिक्खों एवं बौद्धों के साथ भी धार्मिक सहिष्णुता बरती। इन सभी धर्मों के आचारियों को उसने अपनी राजधानी फतेहपुर सिकरी में स्थित इबास्तखाना में निमंत्रित किया। उसने विभिन्न धर्मों के उपदेशों का संकलन करके ‘दीन-ए-इलाही के रूपमें एक ऐसी आचारसंहिता (Code of Corduct) प्रस्तुत किया जिसके अनुसार सभी धर्मों के अनुयायी पूरी निष्ठा रखते हुए भी कार्य कर सकते थे। अशोक के धर्म (धम्म) की तरह दीन-ए-इलाही भी विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच एकता और सद्भावना लाने का एक सराहनीय प्रयास था।

अकबर ने हिन्दू धर्म और इस्लाम के बीच अलगाव एवं भांतियों को दूर करने के लिए दोनों ही धर्मों से संबंधित रचनाओं का अनुवाद करवाया ताकि उसके सिद्धांत को अच्छे ढंग से समझ सकें। उसने मुगल दरबार में हिन्दू उत्सवों और प्रभावों को अपनाया ताकि एक संभावित परम्परा का विकास हो सके। इसी तरह अकबर ने संगीत, चित्रकला और स्थापत्य-कला के क्षेत्रों में एकता लाने का प्रयास किया जिससे भारत में एक समन्वित सांस्कृतिक परम्परा का विकास संभव हो सका।

अकबर ने अपने शासन काल में स्थापत्य कला में एक समन्वित शैली का विकास किया जिसमें ईरानी शैली और राजपूत शैली के साथ-साथ भारत के विभिन्न शैलियों का समावेश था। इस समन्वित शैली का उदाहरण फतेहपुर सिकरी के अनेक भवनों में देखें जा सकते हैं। अकबर ने जो समन्वित शैली विकसित की उसे उसके उत्तराधिकारियों ने बनायें रखा और जहाँगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब एवं प्रवर्ती शासकों के काल में भी भवन निर्माण कला का यह समन्वित रूप बना रहा।

अकबर ने संगीत और चित्रकला में भी समन्वित शैली का विकास किया। मुगल दरबार में ईरानी शैली समन्वित रूप को चित्रकला में विकसित हुआ कहा जाता है कि मुगल दरबार में जो शैली विकसित हुई उसका रूप भारतीय था जबकि उसकी आत्मा ईरानी थी। इसमें यूरोपीय शैली की विशेषताएँ सम्मिलित थी। इसलिए मुगल शैली अत्यधिक उन्नत और परिपक्व बनी रही। इसका विकास जहाँगीर के समय में चरमोत्कर्ष पर पहुँच गया। संगीत में भी ईरानी और भारतीय गायन शैलियों के समन्वय से एक नयी मिश्रित परम्परा विकसित हुई इसका सबसे उत्कृष्ट प्रदर्शन तानसेन की गायन शैली में हुआ। यही समन्वित शैली हिन्दुस्तानी शैली कहलायी। अकबर ने दरबार में ऐसी प्रथाएँ और रीति-रिवाज विकसित किये जिससे कि दरबार में समन्वित सांस्कृतिक परम्परा का विकास हुआ। उसने नौ रोज का व्यवहार मुगुले का राष्ट्रीय व्यवहार बना दिया। उसने राजपूतों से झरोखा दर्शन और कलादान की पद्धति मुगल दरबार में लागू की।

अकबर ने हिन्दू और मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों को दूर किया। उसने अपने आप को हिन्दुओं और मुसलमानों का शुभ चिंतक माना। अकबर की नीति की खास विशेषता यह थी कि उसने किसी एक धर्म का सम्प्रदाय से ही अपना संबंध नहीं रखा बल्कि उसने सभी वर्गों, सम्प्रदाय और क्षेत्रों को अपनी प्रजा के रूप में एक जैसा अधिकार और सुविधा प्रदान की जो कि भारतीय इतिहास में एक महत्वपर्ण घटना थी।

इस प्रकार अकबर की उपलब्धियों और उसके प्रयास ही दिशा में एकीकरण के उद्देश्य से प्रेरित थी। उसने राजनैतिक और भौगोलिक एकता स्थापित की प्रशासनिक एवं आर्थिक एकरूपता लाई और सांस्कृतिक क्षेत्र में विभिन्न धर्मों और सम्प्रदायों के बीच एकता स्थापित करके विविधता में एकता (Unity in diversity) का उद्देश्य प्राप्त करना चाहा।

Bihar Board 12th Geography Objective Important Questions Part 5

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Bihar Board 12th Geography Objective Important Questions Part 5

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में खनिज तेल का सबसे बड़ा उत्पादक देश कौन है?
(a) संयुक्त राज्य अमेरिका
(b) रूस
(c) सऊदी अरब
(d) बेनजुएला
उत्तर:
(c) सऊदी अरब

प्रश्न 2.
निम्नलिखित में कौन-सा मानव का प्राचीन क्रियाकलाप था ?
(a) आखेट एवं संग्रहण
(b) पशुपालन
(c) खनन
(d) बुनाई
उत्तर:
(a) आखेट एवं संग्रहण

प्रश्न 3.
निम्नलिखित में किस देश में न्यूनतम जन्म-दर पाई जाती है ?
(a) फ्रांस
(b) जापान
(c) जर्मनी
(d) संयुक्त राज्य अमेरिका
उत्तर:
(a) फ्रांस

प्रश्न 4.
विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या केन्द्रित है
(a) पर्वतीय प्रदेशों में
(b) पठारी प्रदेशों में
(c) मैदानी प्रदेशों में
(d) मरुस्थलीय प्रदेशों में
उत्तर:
(c) मैदानी प्रदेशों में

प्रश्न 5.
कौन आधुनिक मानव भूगोल के पिता के रूप में जाने जाते हैं?
(a) विडाल डीला ब्लाश
(b) इलिशवर्थ हंटिगटन
(c) फ्रेडरिक रैटजेल
(d) कुमारी अलेन सैम्पल
उत्तर:
(c) फ्रेडरिक रैटजेल

प्रश्न 6.
मुम्बई में सबसे पहला आधुनिक सूती वस्त्र उद्योग स्थापित किया गया क्योंकि
(a) मुम्बई एक पतन है
(b) यह कपास उत्पादक क्षेत्र के निकट है
(c) मुम्बई एक वित्तीय केन्द्र है
(d) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 7.
निम्नलिखित में से कौन-सा ऊर्जा की अनवीकरणीय स्रोत है?
(a) जल
(b) सौर
(c) कोयला
(d) पवन
उत्तर:
(c) कोयला

प्रश्न 8.
शुष्क भूमि में निम्नलिखित में से कौन-सी फसल नहीं बोयी जाती है?
(a) रागी
(b) मूंगफली
(c) ज्वार
(d) गन्ना
उत्तर:
(d) गन्ना

प्रश्न 9.
कौन-सा देश रेलमार्ग नेटवर्क का सबसे अधिक घनत्व रखता है?
(a) ब्राजील
(b) रूस
(c) संयुक्त राज्य अमेरिका
(d) कनाडा
उत्तर:
(c) संयुक्त राज्य अमेरिका

प्रश्न 10.
निम्नलिखित में से कौन-सा उद्योग अन्य उद्योगों के लिए कच्चा माल उत्पन्न करता है ?
(a) गृह उद्योग
(b) लघु उद्योग
(c) बेसिक उद्योग
(d) फूटलूज उद्योग
उत्तर:
(c) बेसिक उद्योग

प्रश्न 11.
निम्नलिखित में से कौन-सा बागानी फसल नहीं है?
(a) कॉफी
(b) गन्ना
(c) गेहूं
(d) रबर
उत्तर:
(c) गेहूं

प्रश्न 12.
निम्नलिखित में से किस महादेश में सबसे अधिक जनसंख्या वृद्धि है?
(a) अफ्रीका
(b) एशिया
(c) दक्षिण अमेरिका
(d) उत्तरी अमेरिका
उत्तर:
(a) अफ्रीका

प्रश्न 13.
दक्षिण-पूर्वी एशिया में जनसंख्या केन्द्रित है
(a) बाढ़ के मैदानों में
(b) समतल पठारों पर
(c) उच्च दोआबों पर
(d) नदी घाटी के उच्च भागों में
उत्तर:
(d) नदी घाटी के उच्च भागों में

प्रश्न 14.
विश्व में सबसे अधिक नगरीकृत देश हैं।
(a) संयुक्त राज्य अमेरिका
(b) ग्रेट ब्रिटेन
(c) ऑस्ट्रेलिया
(d) मिस्र
उत्तर:
(b) ग्रेट ब्रिटेन

प्रश्न 15.
मानव विकास सूचकांक का मापक निम्न में से कौन-सा है?
(a) स्वास्थ्य
(b) शिक्षा
(c) संसाधनों तक पहुंच
(d) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 16.
भारत में कौन-सा राज्य प्रवास को आकर्षित करता है?
(a) महाराष्ट्र
(b) दिल्ली
(c) गुजरात
(d) हरियाणा
उत्तर:
(a) महाराष्ट्र

प्रश्न 17.
ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत निम्न में से कौन-सा है?
(a) सौर ऊर्जा
(b) पवन ऊर्जा
(c) भूतापीय ऊर्जा
(d) उपर्युक्त सभी
उत्तर:
(d) उपर्युक्त सभी

प्रश्न 18.
अनान्नास किस प्रकार की कृषि की उपज है ?
(a) दुग्ध कृषि
(b) रोपण कृषि
(c) भूमध्यसागरीय कृषि
(d) मिश्रित कृषि
उत्तर:
(c) भूमध्यसागरीय कृषि

प्रश्न 19.
ग्रामीण बस्तियों में किस कार्य की प्रधानता पायी जाती है ?
(a) व्यापार
(b) कृषि
(c) निर्माण उद्योग
(d) मिट्टी उद्योग
उत्तर:
(b) कृषि

प्रश्न 20.
जनांकिकीय संक्रमण की ………अवस्थाएँ होती हैं।
(a) दो
(b) तीन
(c) छः
(d) सात
उत्तर:
(b) तीन

प्रश्न 21.
ट्रक-फार्मिंग के लिए…………..विश्व प्रसिद्ध है।
(a) वाशिंगटन
(b) टोक्यो
(c) फ्लोरिडा
(d) ब्राजीलिया
उत्तर:
(c) फ्लोरिडा

प्रश्न 22.
ब्राजील में कॉफी बागान को ………… कहा जाता है।
(a) फेजेण्डा
(b) हेसिए डा
(c) पंपास
(d) भेल्ड
उत्तर:
(a) फेजेण्डा

प्रश्न 23.
1992-97 तक भारत में…………पंचवर्षीय योजना का कार्यकाल था।
(a) 9वीं
(b) 7वीं
(c) 8वीं
(d) 10वीं
उत्तर:
(c) 8वीं

प्रश्न 24.
ध्वनि की तीव्रता ……. में मापी जाती है।
(a) डेसीबेल
(b) मिलीमीटर
(c) किलोमीटर
(d) हर्ट्ज
उत्तर:
(a) डेसीबेल

प्रश्न 25.
निम्नलिखित में कौन असत्य कथन है ?
(a) संभववाद के समर्थक ब्लाश
(b) चिकल जेपोटा वृक्ष के दूध से नहीं बनता है
(c) प्रारंभ में भूगोल को भूगोल कोश कहा जाता था
(d) मुरादाबाद का बर्तन उद्योग कुशल श्रमिक प्रधान उद्योग का उदाहरण है
उत्तर:
(b) चिकल जेपोटा वृक्ष के दूध से नहीं बनता है

प्रश्न 26.
निम्न में कौन सत्य कथन है ?
(a) बिंग इंच पाइपलाइन द्वारा दूध का परिवहन किया जाता है
(b) बिंग इंच पाइपलाइन द्वारा पानी का परिवहन किया जाता है
(c) बिंग इंच पाइपलाइन द्वारा पेट्रोलियम का परिवहन किया जाता है
(d) एल्युमीनियम उद्योग कच्चा माल आधारित उद्योग है
उत्तर:
(c) बिंग इंच पाइपलाइन द्वारा पेट्रोलियम का परिवहन किया जाता है

प्रश्न 27.
निम्न में कौन सत्य कथन है ?
(a) जनांकिकीय संक्रमण की दूसरी अवस्था में जनसंख्या वृद्धि उच्च होती है
(b) जनांकिकीय संक्रमण की पहली अवस्था में जनसंख्या वृद्धि उच्च होती है
(c) जनांकिकीय संक्रमण की तीसरी अवस्था में जनसंख्या वृद्धि उच्च होती है
(d) सभी कथन गलत हैं
उत्तर:
(a) जनांकिकीय संक्रमण की दूसरी अवस्था में जनसंख्या वृद्धि उच्च होती है

प्रश्न 28.
निम्न में कौन असत्य कथन है ?
(a) पश्चिमी देशों के नगरीय क्षेत्रों में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों की संख्या अधिक है
(b) पश्चिमी देशों के नगरीय क्षेत्रों में बच्चों की संख्या कम है।
(c) पश्चिमी देशों के ग्रामीण क्षेत्रों में पुरूषों की संख्या अधिक है
(d) पश्चिमी देशों में परिवहन का उत्तम विकास मिलता है
उत्तर:
(a) पश्चिमी देशों के नगरीय क्षेत्रों में स्त्रियों की अपेक्षा पुरुषों की संख्या अधिक है

प्रश्न 29.
किस खनिज को तरल सोना कहा जाता है?
(a) पारा
(b) सीसा
(c) पीतल
(d) पेट्रोलियम
उत्तर:
(d) पेट्रोलियम

प्रश्न 30.
विश्व में नगरीय जनसंख्या का प्रतिशत है
(a) 28
(b) 48
(c) 55
(d) 65
उत्तर:
(b) 48

प्रश्न 31.
भारतीय रेल प्रतिदिन कितने यात्रियों को उनके नियत स्थानों पर पहुँचाती हैं ?
(a) 25 लाख
(b) 2.3 करोड़
(c) 10 करोड़
(d) 50 लाख
उत्तर:
(b) 2.3 करोड़

प्रश्न 32.
भारत में प्रतिदिन कितनी रेलगाड़ियाँ चलती हैं ?
(a) 12,617
(b) 12,680
(c) 10,500
(d) 11,670
उत्तर:
(a) 12,617

प्रश्न 33.
दिल्ली और मुम्बई को कौन-सा राष्ट्रीय महामार्ग जोड़ता है ?
(a) राष्ट्रीय महामार्ग-1
(b) राष्ट्रीय महामार्ग-6
(c) राष्ट्रीय महामार्ग-4
(d) राष्ट्रीय महामार्ग-8
उत्तर:
(d) राष्ट्रीय महामार्ग-8

प्रश्न 34.
भारत में पहली रेलगाड़ी कब चलाई गई ?
(a) 1853 में
(b) 1856 में
(c) 1840 में
(d) 1836 में
उत्तर:
(a) 1853 में

प्रश्न 35.
सीमा सड़क संगठन कब बनाया गया ?
(a) 1950
(b) 1960
(c) 1962
(d) 1956
उत्तर:
(b) 1960

प्रश्न 36.
इंदिरा गाँधी नहर कमान क्षेत्र में सतत पोषणीय विकास के लिए इनमें से कौन-सा सबसे महत्त्वपूर्ण कारक है ?
(a) कृषि विकास
(b) पारितंत्र विकास
(c) परिवहन विकास
(d) भूमि उपनिवेशन
उत्तर:
(b) पारितंत्र विकास

प्रश्न 37.
‘लिमिटस टू ग्रोथ’ पुस्तक का अधिकृत लेखक कौन है ?
(a) ब्रन्डटलैंड
(b) मीडोरू तथा अन्य
(c) एलियोट और अन्य
(d) वाकर तथा अन्य
उत्तर:
(d) वाकर तथा अन्य

प्रश्न 38.
कौन-सी पंचवर्षीय योजना स्पष्ट रूप से विकास विचारधारा पर बल देती है ?
(a) द्वितीय
(b) चौथी
(c) पाँचवीं
(d) आठवीं
उत्तर:
(b) चौथी

प्रश्न 39.
किस वर्ष में कृषि जलवायु नियोजन को आरंभ किया गया ?
(a) 1988
(b) 1974
(c) 1966
(d) 1992
उत्तर:
(a) 1988

प्रश्न 40.
टाटा और बिड़ला ने मुम्बई योजना कब बनाई ?
(a) 1944 में
(b) 1952 में
(c) 1956 में
(d) 1936 में
उत्तर:
(a) 1944 में

प्रश्न 41.
एम० विश्वेश्वरैया ने दस वर्षों की योजना कब प्रकाशित की ?
(a) 1836 में
(b) 1936 में
(c) 1944 में
(d) 1926 में
उत्तर:
(b) 1936 में

प्रश्न 42.
क्रियाओं को विकसित करने की प्रक्रिया को क्या कहते हैं ?
(a) नियोजन
(b) योजन
(c) विकास
(d) योजना
उत्तर:
(a) नियोजन

प्रश्न 43.
शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद और प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि मुख्य रूप से किस पर आधारित थी?
(a) उद्योग
(b) कृषि
(c) योजना
(d) राष्ट्रीय आय
उत्तर:
(d) राष्ट्रीय आय

प्रश्न 44.
किस पंचवर्षीय योजना में भारत में समाजवादी समाज की स्थापना का प्रतिरूप प्रस्तुत किया गया ?
(a) प्रथम पंचवर्षीय योजना
(b) द्वितीय पंचवर्षीय योजना
(c) चौथी पंचवर्षीय योजना
(d) छठी पंचवर्षीय योजना
उत्तर:
(b) द्वितीय पंचवर्षीय योजना

प्रश्न 45.
उन क्षेत्रों में कौन-सा विकास कार्यक्रम शुरू किया गया जहाँ 50% से अधिक जनजाति के लोग रहते हैं ?
(a) जनजातीय विकास कार्यक्रम
(b) पहाड़ी क्षेत्र विकास कार्यक्रम
(c) गहन कृषि विकास कार्यक्रम
(d) सामुदायिक विकास कार्यक्रम
उत्तर:
(a) जनजातीय विकास कार्यक्रम

प्रश्न 46.
रोजगारों की संख्या 2000 में कितनी हो गई ?
(a) 30.3 करोड़
(b) 33.3 करोड़
(c) 39.7 करोड़
(d) 37.9 करोड़
उत्तर:
(d) 37.9 करोड़

प्रश्न 47.
‘गहन कृषि विकास कार्यक्रम’ किस पंचवर्षीय योजना में शुरू किया गया ?
(a) प्रथम पंचवर्षीय योजना
(b) चौथी पंचवर्षीय योजना
(c) तीसरी पंचवर्षीय योजना
(d) छठी पंचवर्षीय योजना
उत्तर:
(c) तीसरी पंचवर्षीय योजना

Bihar Board 12th History Important Questions Short Answer Type Part 3

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Bihar Board 12th History Important Questions Short Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
अकबर के व्यक्तित्व पर टिप्पणी दें।
उत्तर:
अकबर इतिहास में महान् की उपाधि से विभूषित हैं और इसकी महानता का मुख्य कारण है-इसका विराट् व्यक्तित्व। साम्राज्य की सुदृढ़ता, साम्राज्य में शांति स्थापना तथा मानवीय भावनाओं से उत्प्रेरित अकबर ने न सिर्फ गैर मुसलमानों को राहत दिया, राजपूतों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किया बल्कि एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था भी प्रदान किया। धार्मिक सामंजस्य के प्रतीक के रूप में उसका दीन-ए-इलाही प्रशंसनीय है।

प्रश्न 2.
अकबर ने लगान व्यवस्था में कौन-से सुधार किये ?
उत्तर:
अकबर ने टोडरमल की सहायता से समस्त भूमि की नाप ईलाही गज से करवाई। समस्त जमीन को पोलज, परौती, चचर और बंजर में विभक्त कर उपज के अनुसार लगान की राशि तय की गई। 1580 में लगान वसूली के लिए दहसाला प्रबंध या जाब्ती व्यवस्था लागू की गई। उपज बढ़ाने के लिए किसानों को सहायता दी जाती थी। आवश्यकतानुसार लगान में कमी की जाती थी या माफी दी जाती थी।

प्रश्न 3.
फतेहपुर सीकरी के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
1556 ई० में जब अकबर बादशाह बना उस समय मुगल साम्राज्य की राजधानी आगरा में थी। 1570 ई० में उसने फतहपुर सीकरी में एक नयी राजधानी बनाने का निर्णय लिया। कहा जाता है कि अकबर की अजमेर के शेख मोइनुद्दीन चिश्ती के दरगाह पर असीम आस्था थी और फतेहपुर सीकरी अजमेर की ओर जानेवाली सीधी सड़क पर अवस्थित था, इसलिए उसने नयी राजधानी के लिए इस जगह का चुनाव किया। यहाँ उसने सुन्दर महल बनवाये। गुजरात विजय की स्मृति में बुलन्द दरवाजा बनवाया। उसने यहाँ शेख सलीम चिश्ती का मकबरा भी बनवाया। किन्तु अधिक दिनों तक फतेहपुर सीकरी मुगल साम्राज्य की राजधानी नहीं रह सकी। पश्चिमोत्तर प्रान्त पर ध्यान देने के लिए 1585 में अकबर राजधानी लाहौर ले गया।

प्रश्न 4.
खान-ए-खाना के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
खान-ए-खाना (Khan-a-khana) – खान-ए-खाना का शाब्दिक अर्थ है- खानों (उपाधि खान, मलिक आदि) में सबसे महान। यह एक उपाधि थी जो अकबर ने बैरम को दी थी। बैरम खाँ अकबर का संरक्षक एवं गुरु था। सन् 1556 से 1560 ई० तक बैरम खाँ ने अकबर को अपने दिशा-निर्देश द्वारा राजकार्य चलवाया। सिंहासनारोहण के समय अकबर की आयु केवल 13 वर्ष एवं 4 माह थी। अतः मुगल साम्राज्य स्थिरीकरण में बैरमखाँ का बड़ा हाथ था।

प्रश्न 5.
अंबुल फजल कौन था ? उस पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अबुल फजल-वह अकबरकालीन महान कवि, निबन्धकार, इतिहासकार, राजनीतिज्ञ सेनापति तथा आलोचक था। उसका जन्म 1557 ई० में आगरा के प्रसिद्ध सूफी शेख मुबारक के यहाँ हुआ था। उसने 1574 ई० में अकबर के दरबारियों के रूप में अपना जीवन शुरू किया। उसने कोषाध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री तक के पद पर कार्य किया। यह भारतीय इतिहास में एक महान इतिहासकार के रूप में प्रसिद्ध है। उसने दो प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुस्तकों की रचनाएँ की। वे थीं ‘अकबरनामा’ तथा ‘आइने अकबरी’। ये दोनों ग्रंथ फारसी भाषा में लिखे गये और अकबर कालीन इतिहास जानने के मूल स्रोत हैं।

अकबरनामा अकबर की जीवनी, विजयों, शासन प्रबन्ध के साथ-साथ तत्कालीन भारतीय राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों को समझने में भी सहायक हैं। उसने ‘पंचतंत्र’ का अनुवाद फारसी में किया और उसका नाम ‘अनघरे साहिली’ रखा। उसे अकबर के नौ रत्नों में स्थान प्राप्त था। उसने अनेक सैनिक अभियानों का नेतृत्व भी किया। वह पर्याप्त समय तक अकबर का प्रधानमंत्री और परामर्शदाता रहा। उसके विचार सूफी सन्तों से मिलते थे। धार्मिक दृष्टि से उसका दृष्टिकोण बहुत उदार था। कहा जाता है कि उसी ने अकबर को दीन-ए-इलाही नामक धर्म चलाने की प्रेरणा दी थी। इबादतखाने में वह सूफी मत के लोगों का प्रतिनिधित्व किया करता था।

अकबर के नौ रत्नों में दीन-ए-इलाही को अपनाने वाला वह पहला व्यक्ति था। उसे सलीम ने ओरछा नरेश वीरसिंह बुन्देला के साथ सांठ-गांठ करके मरवा डाला था। कहते हैं अबुल फजल की मृत्यु के शोक में अकबर ने तीन दिनों तक दरबार नहीं गया। अकबर ने भावुक होकर कहा था कि “अगर सलीम राज्य चाहता था तो वह मेरी हत्या करवा देता लेकिन अबुल फजल को छोड़ देता।” जब तक भारतीय इतिहास में अकबर का नाम रहेगा तब तक अबुल फजल को अवश्य याद किया जायेगा।

प्रश्न 6.
अकबरकालीन युग के नवरत्न पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
अकबर के नवरत्ल-अकबर के पास विद्वानों का समूह था, जो नवरत्नों के नाम से प्रसिद्ध था। जिनमें से प्रसिद्ध विद्वान थे-अबुल फजल, फैजी, रहीम खान-ए-खाना, टोडरमल, तानसेन और बीरबल। बीरबल अपनी बुद्धिमत्ता, तत्परता और हँसी-मजाक के लिए प्रसिद्ध था। वह एक महान् सेनापति भी था। एक अन्य रत्न था, राजा मानसिंह। वह एक महान् सेनापति होने के अलावा अकबर का अति विश्वसनीय सलाहकार भी था। कई अन्य विद्वान भी अकबर के संरक्षण में थे।

तानसेन अकबर के दरबार का एक प्रसिद्ध संगीतकार था। वह अकबर के नवरत्नों में से एक था। उसने अनेक रागों की गायन-शैली में नवीनता का समावेश करके भारतीय संगीत को समृद्ध किया। राग दरबारी इन रागों में सबसे अधिक लोकप्रिय था जिसकी रचना तानसेन ने विशेष रूप से अकबर के लिए की थी। अकबर के शासन काल में भारत की संगीत कला में फारस की संगीत कला की ‘बहुत-सी विशेषताएँ ली गई थीं। अबुल फजल तानसेन के बारे में लिखता है- “उस जैसे संगीतकार भारत में आने वाले हजारों वर्षों तक नहीं होगा।”

प्रश्न 7.
चाँद बीबी पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
1. 1519 ई० में अकबर ने कूटनीतिक स्तर पर कार्यवाही आरम्भ की तथा प्रत्येक दक्कनी राज्य में दूत भेजे और उसने मुगल सत्ता स्वीकार करने को कहा। 1595 ई० में बुरहान की मृत्यु के बाद छिड़े निजामशाही सरदारों के आपसी संघर्ष ने अकबर को अवसर दे दिया। उत्तराधिकार का संघर्ष छिड़ गया।

2. बुरहान की बहन चाँद बीबी इब्राहीम के चाचा और बीजापुर के भूतपूर्व सुल्तान की विधवा थी। वह बहुत योग्य स्त्री थी और उसने आदिलशाह के वयस्क होने के दस साल तक शासन सँभाला था।

3. अहमदनगर के अमीरों में आपस में फूट होने के कारण राजधानी तक मुगलों को बहुत कम विरोध का सामना करना पड़ा। चाँद बीबी ने तरुण सुल्तान बहादुर के साथ स्वयं को किले के अंदर बंद कर लिया। चार महीनों के घेरे के बाद दोनों पक्षों में समझौता हुआ। शर्तों के अनुसार बरार मुगलों को सौंप दिया गया और शेष क्षेत्र पर फिर सुल्तान बहादुर का अधिकार मान लिया गया। 1596 ई० में यह समझौता हुआ।

4. बीजापुर, गोलकुण्डा और अहमदनगर की संयुक्त सेना को 1597 ई० में मुगलों ने बरार से खदेड़ दिया। बीजापुर और गोलकुण्डा की सेनाएँ पीछे हट गईं परन्तु चाँद बीबी ने फिर समझौते की बात चला दी परन्तु उसके विरोधियों ने उसे विश्वासघाती कहा और उसे मार डाला। अहमदनगर पर आक्रमण करके उसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया।

प्रश्न 8.
बुकानन कौन था ? उसका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
फ्रांसीसी बुकानन एक चिकित्सक था जो भारत में 1794 में आया। उन्होंने 1794 से 1815 तक बंगाल चिकित्सा सेवा में कार्य किया। कुछ वर्षों तक वे भारत के गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली के शल्य-चिकित्सक रहे। उन्होंने अपने प्रवास के दौरान कलकत्ता (अब कोलकाता) में एक चिड़ियाघर की स्थापना की जो अलीपुर चिड़ियाघर कहलाया। वे कुछ समय के लिए वानस्पतिक उद्यान के प्रभारी रहे। उन्होंने बंगाल सरकार के अनुरोध पर ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकार क्षेत्र में आने वाली भूमि का विस्तृत सर्वेक्षण किया। वे 1815 में बीमार हो गए और इंग्लैंड चले गए। बुकानन अपनी माताजी की मृत्यु के पश्चात् उनकी जायदाद के वारिस बने और उन्होंने उनके वंश का नाम ‘हैमिल्टन’ को अपना लिया। इसलिए उन्हें अक्सर बुकानन-हैमिल्टन भी कहा जाता है।

प्रश्न 9.
मुगलकाल में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालें।
उत्तर:
मुगलकाल में आम महिलाओं में पर्दा-प्रथा का रिवाज था। शिक्षा और सम्पत्ति उनके अधिकार भी सीमित थे। बहु पत्नी प्रथा सती प्रथा भी समाज में प्रचलित थी। मुगल राजपरिवार की महिलाएँ प्रभावी भी थीं। जहाँआरा व्यापार, निर्माण कार्य में रूचि लेती थी तो हुमायूँ की बहन गुलबदन बेगम ने हुमायूँनामा की रचना की। नूरजहाँ का मुगल दरबार में प्रभाव तो जगजाहिर ही था।

प्रश्न 10.
जमींदार कौन थे ? मुगल व्यवस्था में उनकी क्या भूमिका थीं?
उत्तर:
मुगलकालीन ग्रामीण समुदाय में जमींदारी का प्रभावशाली वर्ग था। जमींदार वे थे जिनका भूमि और कृषि से सम्बन्ध तो था परन्तु वे प्रत्यक्ष रूप से कृषि में भाग नहीं लेते थे। जमीन पर उनका पुश्तैनी और मालिकाना हक था।

जमींदारों की मुख्य तीन श्रेणियाँ थीं-

  • स्वायत्त सरदार
  • मध्यवर्ती जमींदार
  • प्राथमिक जमींदार।

इनका मुख्य कार्य राजस्व की वसूली करना तथा कृषि के विस्तार को प्रोत्साहित करना था। आवयकतानुसार ये शांति स्थापना तथा राज्य को सैनिक सेवा. भी प्रदान करते थे।

प्रश्न 11.
साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका की चर्चा कीजिए।
उत्तर:
साँची के स्तूप के संरक्षण में भोपाल की बेगमों की भूमिका (The Role of the Begums of Bhopal in Preserving the Stupa of Sanchi)
(i) भोपाल की नवाब (शासन काल 1868-1901), शाहजहाँ बेगम की आत्मकथा ताज-उल इकवाल तारीख भोपाल (भोपाल का इतिहास) से। 1876 ई० में एच० डी० ब्रास्तो ने इसका अनुवाद किया। बेगम साँची के स्तूप की प्रसिद्धि एवं जानकारी का प्रचार-प्रसार करना चाहती थी।

(ii) उन्नीसवीं सदी के यूरोपीयों में साँची के स्तूप को लेकर काफी दिलचस्पी थी। फ्रांसीसियों ने सबसे अच्छी हालत में बचे साँची के पूर्वी तोरण द्वारा को फ्रांस ले जाने की इजाजत माँगी। कुछ समय के लिए अंग्रेजों ने भी ऐसी ही कोशिश की। सौभाग्यवश फ्रांसिसी और अंग्रेज दोनों ही बड़ी सावधानी से बनाई प्लास्टर प्रतिकृतियों से संतुष्टि हो गये। इस प्रकार मूल कृति भोपाल राज्य में अपनी जगह पर ही रही।

(iii) भोपाल के शासकों शाहजहाँ बेगम और उनकी उत्तराधिकारी सुल्तान जहाँ बेगम ने इस प्राचीन स्थल के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान किया। आश्चर्य नहीं कि जॉन मार्शल ने साँची पर लिखे अपने महत्त्वपूर्ण ग्रंथों को सुल्तानजहाँ को समर्पित किया।

(iv) सुल्तानजहाँ बेगम ने वहाँ पर एक संग्रहालय और अतिथिशाला बनाने के लिए अनुदान दिया। वहाँ रहते हुए ही जॉन मार्शल ने उपर्युक्त पुस्तकें लिखीं। इस पुस्तक के विभिन्न खंडों के प्रकाशन में भी सुल्तानजहाँ बेगम ने अनुदान दिया। इसलिए यदि यह स्तूप समूह बना रहा है तो इसके पीछे कुछ विवेकपूर्ण निर्णयों की बड़ी भूमिका है। शायद हम इस मामले में भी भाग्यशाली रहे हैं कि इस स्तूप पर किसी रेल ठेकेदार का निर्माता की नजर नहीं पड़ी। यह उन लोगों से भी बचा रहा जो ऐसी चीजों को यूरोप के संग्रहालयों में ले जाना चाहते थे।

(v) बौद्ध धर्म के इस महत्वपूर्ण केन्द्र की खोज से आरंभिक बौद्ध धर्म के बारे में हमारी समझ में महत्वपूर्ण बदलाव आये। आज यह जगह आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के सफल मरम्मत और संरक्षण का जीता जागता उदाहरण है।

प्रश्न 12.
अमीर खुसरो कौन था ? उनके नाम के साथ कौल शब्द कैसे जुड़ा है ?
उत्तर:
अमीर खुसरो (1253-1323) महान कवि, संगीतज्ञ तथा खेश निजामुद्दीन औलिया के अनुयायी थे। उन्होंने कौल (अरबी शब्द जिसका अर्थ है कहावत) का प्रचलन करके चिश्ती समा को एक विशिष्ट आकार दिया। कौल को कव्वाली के शुरू और आखिर में गाया जाता था। इसके बाद सूफी कविता का पाठ होता था जो फारसी, हिन्दवी अथवा उर्दू में होती थी और कभी-कभी इन तीनों ही भाषाओं के शब्द इसमें मौजूद होते थे। शेख निजामुद्दीन औलिया की दरगाह पर गाने वाले कव्वाल अपने गायन की शुरुआत कौल से करते हैं। उपमहाद्वीप की सभी दरगाहों पर कव्वाली गाई जाती है।

प्रश्न 13.
‘भक्ति और सूफी आन्दोलन एक-दूसरे के पूरक थे।’ व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
भारत में मध्यकाल में एक नवीन धार्मिक आन्दोलन प्रारम्भ हुआ। हिन्दुओं के आन्दोलन को भक्ति आन्दोलन तथा मुसलमानों के आन्दोलन को सूफी आन्दोलन कहते हैं। ये दोनों ही आन्दोलन आम जनता पर अपना प्रभाव छोड़ने में सफल हुए। हालांकि रीति-रिवाजों में ये एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न थे किन्तु वृहद् दृष्टि से ये एक-दूसरे के पूरक भी थे। दो समुदायों में एक साथ आन्दोलन शुरू होना ही इस तथ्य की पुष्टि करता है कि दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं।

भक्ति एवं सूफी आन्दोलन के प्रभाव-

  • इन आन्दोलनों के सन्तों ने धर्म की जटिलताओं को दूर करके उसे सभी के लिए सरल एवं सुलभ बना दिया।
  • भक्ति तथा सूफी दोनों ही आन्दोलनों ने स्थापित धार्मिक व्यवस्था पर कड़ा प्रहार किया था।
  • दोनों ही आन्दोलनों में गरीब, लाचार एवं बेबस लोगों की ओर विशेष ध्यान दिया गया था।
  • सन्तों एवं सूफियों की वाणी घर-घर तक पहुंच गई।
  • सन्तों का जीवन अत्यन्त सादा तथा आदर्शों से भरा हुआ था।
  • नृत्य एवं संगीत ईश्वर से प्रेम करने का साधन बना।
  • इस आन्दोलन ने जाति प्रथा जैसी सामाजिक व्यवस्था को कमजोर कर दिया।

प्रश्न 14.
‘भुक्ति’ शब्द का क्या आशय है ?
उत्तर:
गुप्त काल में प्रांत को ‘भुक्ति’ कहा जाता था। प्रांत भी कई इकाइयों में बँटा हुआ था। भुक्ति का प्रबंध मुख्यतः राजकुमारों अथवा राजवंश के विश्वस्त लोगों को ही सौंपा जाता था।

प्रश्न 15.
सूफीवाद से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
सूफीवाद उन्नीसवीं शताब्दी में मुद्रित एक अंग्रेजी शब्द है। सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रंथों में जिस शब्द का इस्तेमाल होता है वह है तसत्वुफ। कुछ विद्वानों के अनुसार यह शब्द ‘सूफ’ से निकला है जिसका अर्थ ऊन है। यह उस खुरदुरे ऊनी कपड़े की ओर इशारा करता है जिसे सूफी पहनते थे। अन्य विद्वान इस शब्द की व्युत्पत्ति ‘सफा’ से मानते हैं जिसका अर्थ है साफ। यह भी संभव है कि यह शब्द ‘सफा’ से निकला हो जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जहाँ निकट अनुयायियों की मंडली धर्म के बारे में जानने के लिए इकट्ठी होती थी।

प्रश्न 16.
सूफी सन्त के प्रमुख सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए। इनका जन-जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर:

  1. एकेश्वरवाद (Mono God) – सूफी लोग इस्लाम धर्म को मानने के साथ एकेश्वरवाद पर जोर देते थे। पीरों और पैगम्बरों के उपदेशों को वे मानते थे।
  2. रहस्यवाद (Mistensue) – इनकी विचारधारा रहस्यवादी है। इनके अनुसार कुरान के छिपे रहस्य को महत्त्व दिया जाता है। सूफी सारे विश्व के कण-कण में अल्लाह को देखते हैं।
  3. प्रेम साधना पर जोर (Stress on Love and Meditation) – सच्चे प्रेम से मनुष्य अल्लाह के समीप पहुँच सकता है। प्रेम के आगे नमाज, रोजे आदि का कोई महत्त्व नहीं।
  4. भक्ति संगीत (Bhakti Music) – वे ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए गायन को विशेष महत्त्व देते थे। मूर्ति-पूजा के वे विरोधी थे।
  5. गुरु या पीर का महत्व (Importance of Pir or Teacher) – गुरु या पीर को सूफी लोग अधिक महत्त्व देते थे। उनके उपदेशों का वे पालन करते थे।
  6. इस्लाम विरोधी कुछ सिद्धान्त (Some Principles Against Islam) – वे इस्लाम विरोधी कुछ बातें-संगीत, नृत्य आदि को मानते थे। वे रोजे रखने और नमाज पढ़ने में विश्वास नहीं रखते थे।

प्रश्न 17.
चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का संक्षिप्त परिचय दें।
उत्तर:
भारत वर्ष में चिश्ती सम्प्रदाय का प्रवर्तक ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को माना जाता है। ये 1192 ई० में भारत में आये।

चिश्ती सम्प्रदाय के तीन प्रमुख संतों का परिचय :

  • शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी – यह मुइनुद्दीन चिश्ती के प्रमुख शिष्य थे। ये इल्तुतमिश के समय भारत आये। इनका जन्म 1235 ई० में फरगना के गौस नामक स्थान पर हुआ था। बख्तियार (भाग्य-बन्धु) नाम मुइनुद्दीन का दिया हुआ था।
  • फरीदउद्दीन-गंज-ए-शकर – इनका जन्म मुल्तान जिले के कठवाल शहर में 1175 ई. में हुआ था। ये बाबा फरीद के नाम से प्रसिद्ध थे। तीन पलियों में से एक, प्रथम पत्नी बलवन की पुत्री थी जिसका नाम हुजैरा था।
  • शेख निजामुद्दीन औलिया – इनका वास्तविक नाम मुहम्मद-बिन-दनियल-अल बुखारी था। इनका जन्म बदायूँ में 1236 ई० में हुआ था। इन्होंने अपने जीवनकाल में दिल्ली के सात सुल्तानों का राज्य देखा था। अमीर खुसरो इन्हीं के शिष्य थे। दुर्भाग्यवश इनका सम्बन्ध किसी भी सुल्तान के साथ मधुर नहीं रहा। इनकी मृत्यु 1325 ई० में हुई।

प्रश्न 18.
गुरु नानक कौन थे ? उनके व्यक्तित्व के बारे में किसी एक इतिहासकार का कथन लिखिए।
उत्तर:
पंजाब में भक्ति आन्दोलन का ज्वार लाने का श्रेय गुरु नानक जी को है। वे जाति-पाँति, धर्म, वर्ग और मूर्ति पूजा के विरोधी थे। उन्होंने निष्काम भक्ति, शुभ कर्म तथा शुद्ध जीवन को ईश्वर प्राप्ति का मार्ग बतलाया। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के समर्थक थे। “उनका स्वाभाविक मिठास और सबसे प्रेम करने की भावना के कारण हिन्दू और मुसलमान दोनों उनका आदर करते थे। इसी कारण से वह दोनों धर्मों को एक-दूसरे के समीप लाने का केन्द्र बन गए।”

प्रश्न 19.
रामानुज और रामानंद पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
1. रामानुज (Ramanuja) – शंकराचार्य के बाद प्रसिद्ध भक्त सन्त रामानुज हुए। उन्हें प्रथम वैष्णव आचार्य माना जाता है। उनका कार्य-काल बारहवीं शताब्दी था। उन्होंने सगुण ब्रह्म की भक्ति पर जोर दिया तथा कहा कि उसकी सच्ची भक्ति, ज्ञान तथा कर्म ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है।

2. रामानन्द (Ramanand) – आचार्य रामानुज की पीढ़ी में स्वामी रामानन्द प्रथम सन्त थे जिन्होंने भक्ति द्वारा जन-साधारण को नया मार्ग दिखाया। उनका समय चौदहवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और पंद्रहवीं शताब्दी के प्रथम पच्चीस वर्ष माने जाते हैं। उनका जन्म प्रयाग (इलाहाबाद) में 1299 ई० में कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उन्होंने एकेश्वरवाद पर जोर देकर हिन्दू मुसलमानों में प्रेम भक्ति सम्बन्ध के साथ सामाजिक समाधान प्रस्तुत किया। उससे भी अधिक उन्होंने हिन्दू समाज के चारों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) को भक्ति का उपदेश दिया और निम्न वर्ण के लोगों के साथ खान-पान निषेध का घोर विरोध किया। उनके शिष्यों में सभी जातियों के लोग थे। इनमें शूद्र भी थे। इनके शिष्यों में रविदास चर्मकार थे। कबीर जुलाहे थे, सेनापति नाई, पीपा राजपूत थे और सन्तधना कसाई थे। उन्होंने ब्राह्मणों और क्षत्रियों की उच्चता का खण्डन किया और मानववाद तथा मानवीय समानता जैसे प्रगतिशील विचारों एवं सिद्धान्तों का प्रचार किया उन्होंने अपने उपदेशों का प्रचार क्षेत्रीय भाषा के माध्यम से किया।

प्रश्न 20.
कबीर पर एक टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
मध्ययुगीन भारतीय संतों में कबीरदास की साहित्यिक एवं ऐतिहासिक देन स्मरणीय है। वे मात्र भक्त ही नहीं, बड़े समाज सुधारक भी थे। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों का डटकर विरोध किया। अंधविश्वासों, दकियानूसी, अमानवीय मान्यताओं तथा गली-सड़ी रूढ़ियों की कटु आलोचना की। उन्होंने समाज, धर्म तथा दर्शन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण विचारधारा को प्रोत्साहित भी किया। कबीर ने जहाँ एक ओर बौद्धों, सिद्धों और नाथों की साधना पद्धति तथा सुधार परम्परा के साथ वैष्णव सम्प्रदायों की भक्ति-भावना को ग्रहण किया वहाँ दूसरी ओर राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक असमानता के विरुद्ध प्रतिक्रिया भी व्यक्त की। इस प्रकार मध्यकाल में कबीर ने प्रगतिशील तथा क्रांतिकारी विचारधारा को स्थापित किया। कबीर एकेश्वरवाद के समर्थक थे। वे मानसिक पवित्रता, अच्छे कर्मों तथा चरित्र की शुद्धता पर बल देते थे। उन्होंने जाति, धर्म या वर्ग को प्रधानता नहीं दी। उन्होंने धार्मिक कुरीतियों, आडम्बरों, अंधविश्वासों तथा कर्मकाण्डों को व्यर्थ बतलाया। उन्होंने मूर्ति-पूजा का खंडन करने के उद्देश्य से लिखा था-

“पाहन पूजे हरि मिले, तो मैं पूजूं पहार।
ताते तो चाकी भली पीस खाय संसार॥”

सारांश यह है कि कबीर धार्मिक क्षेत्र में सच्ची भक्ति का संदेश लेकर प्रकट हुए थे। उन्होंने निर्गुण-निराकार भक्ति का मार्ग अपनाकर मानव धर्म के सम्मुख भक्ति का मौलिक रूप रखा। यह सदैव स्मरण रखना चाहिए कि “कबीर के राम दशरथ पुत्र राजा राम नहीं है अपतुि घट-घट में निवास करने वाली अलौकिक शक्ति हैं जिसे राम-रहीम, कृष्ण, खुदा वाहेगुरु साईंनाथ कोई भी नाम दिया जाए। उसका रूप एक है। उसकी प्राप्ति के लिए न मंदिर की आवश्यकता है न मस्जिद की। वह सब में विद्यमान हैं और सभी उसे भक्ति तथा गुरु की कृपा से प्राप्त कर सकते हैं।”

कबीर जनसाधारण की भाषा में अपने उपदेश देते थे। उन्होंने अपने दोहों में धार्मिक कुरीतियों, आडम्बरों, अन्धविश्वासों तथा कर्मकाण्डों को व्यर्थ बतलाया।

“कबीर का नाम भारतीय इतिहास में इस कारण लिया जाता है कि उन्होंने हिन्दू और मुसलमानों के आपसी अंतर को दूर करने और एक मनुष्य के दूसरे से अंतर को दूर करने का प्रयास किया।”

प्रश्न 21.
सन्त नामदेव पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
नामदेव (Namdev):

(i) मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के विकास एवं लोकप्रियता में महाराष्ट्र के सन्तों का महत्त्वपूर्ण योगदान है। ज्ञानेश्वर, हेमाद्रि और चक्रधर से आरम्भ होकर रामनाथ, तुकाराम, नामदेव ने भक्ति पर बल दिया तथा एक ईश्वर की सम्पूर्ण मानव जाति सन्तान होने के नाते सबकी समानता के सिद्धान्त को प्रतिष्ठित किया।

(ii) नामदेव ने भरपूर कोशिश के साथ जाति प्रथा का खण्डन किया। नामदेव जाति से दर्जी थे। वे अपने पैतृक व्यवसाय की ओर कभी भी आकृष्ट नहीं हुए तथा साधु संगत को ही उन्होंने चाहा।

(iii) सन्त विमोवा खेचम उनके गुरु थे तथा वे सन्त ज्ञानेश्वर के प्रति गहरी निष्ठा रखते थे। उन्होंने भक्त सन्त प्रचारक बनने के बाद अपने शिष्यों के चुनाव में विशाल हृदय से काम लिया।

(iv) उनका काव्य जो मराठी भाषा में है, ईश्वर के प्रति गहरे प्रेम और भक्ति को व्यक्त करता है। उनके अनुसार ईश्वर सर्वव्यापी, एकेश्वर तथा सर्वत्र हैं वे समाज सुधारक तथा हिन्दू मुस्लिम एकता के कट्टर समर्थक थे। उन्होंने भरपूर कोशिश के साथ जाति प्रथा का खण्डन किया। .

(v) कहा जाता है कि उन्होंने दूर-दूर तक यात्राएँ की और दिल्ली में सूफी सन्तों के साथ विचार-विमर्श किया। वे प्रार्थना, भ्रमण, तीर्थयात्रा सत्संग तथा गुरु की सेवा के समर्थक थे। उन्होंने आध्यात्मिक क्षेत्र में आचरण की शुद्धता, भक्ति की पवित्रता एवं सरसता और चरित्र की निर्मलता पर बल दिया।

प्रश्न 22.
मीराबाई पर एक संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
उत्तर:
गिरिधर गोपाल की भक्त मीराबाई का मध्यकलीन संतों में विशेष स्थान है। उसने भक्ति की जो मंदाकिनी (गंगा) अपने हृदय से निकाली, कविताओं द्वारा प्रवाहित की, उसने केवल राजस्थान की मरुभूमि ही नहीं, अपितु सारे उत्तरी भारत को रसमग्न कर दिया।

मीराबाई का जन्म लगभग 1516 ई० में राजस्थान के मेड़ता परगने के कुड़की या चौकड़ी गाँव में हुआ था। मीरा जोधपुर के शासक रतनसिंह राठौर की पुत्री थी। मीरा अभी 4-5 वर्ष की ही थी कि उसकी माता का देहांत हो गया। उसका पालन-पोषण उसके दादा ने किया। अपने दादा के धार्मिक विचारों से मीरा बहुत प्रभावित हुई।

18 वर्ष की आयु में मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा संग्राम सिंह के बड़े पुत्र भोजराज से कर दिया गया लेकिन मीरा का वैवाहिक जीवन बहुत संक्षिप्त था। विवाह के लगभग एक वर्ष बाद ही उसके पति की मृत्यु हो गई। इस तरह मीरा छोटी आयु में ही विधवा हो गई। कुछ समय बाद उसके ससुर राणा साँगा की भी मृत्यु हो गई। अब मीरा बेसहारा हो गई। अत: वह संसार से मोह त्यागकर कृष्ण-भक्ति में लीन हो गई। वह साधुओं का सत्कार करती और पैरों में घुघरू बाँधकर भगवान कृष्ण की मूर्ति के सामने नाचने लगती।

उसके ससुराल के लोगों ने उसके कार्यों को अपने कुल की मर्यादा के विपरीत समझा। अतः उसे कई प्रकार के अत्याचारों द्वारा मारने के प्रयास किए। लेकिन जहर का प्याला, साँप और सूली आदि भी मीरा का बाल-बाँका न कर सके। इस विषय में मीरा ने स्वयं कहा है कि “मीरा मारी न मरूँ, मेरो राखणहार और”। इससे उसकी भक्ति-भावना और बढ़ गई, लेकिन अत्याचार भी बढ़ते जा रहे थे। कहा जाता है कि मीरा ने अपने ससुराल वालों से तंग आकर गोस्वामी तुलसीदासजी । को पत्र लिखकर उनकी सलाह माँगी। तुलसीदासजी ने मीरा को इस प्रकार उत्तर दिया।

“जाके प्रिय न राम वैदेही।
तजिये ताहि कोटि वैरी सम, यद्यपि परम सनेही।”

इस उत्तर को पाकर मीरा ने घर-बार छोड़ दिया और वह वृंदावन चली गई। वहाँ कुछ समय रहने के बाद मीरा द्वारिका चली गई। कहा जाता है कि मीरा को द्वारिका से लाने के लिए उनकी ससुराल तथा मायके-दोनों स्थानों से ब्राह्मण आये लेकिन वह नहीं गई। द्वारिका में ही 1574 ई. में मीराबाई का देहांत हो गया।

प्रश्न 23.
अलबरूनी के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
अलबरूनी का जन्म 973 ई० में उजबेकिस्तान के ख्वारिज्म नामक स्थान में हुआ था। वह अरबी, फारसी, संस्कृत आदि कई भाषाओं का जानकार था। 1017 ई० में जब महमूद गजनी के ख्वारिज्म पर आक्रमण किया तब लौटते समय वह अल-बेरूनी को भी साथ ले आया। जब पंजाब गजनी के साम्राज्य में मिला लिया गया तब अल बेरूनी को भारत के संस्कृत के विद्वान ब्राह्मणों से सम्पर्क करने एवं संस्कृत के ग्रन्थों को पढ़ने का मौका मिला। उसने तत्कालीन भारत के धर्म, प्रथाएँ, औषधियाँ, ज्योतिष, त्योहार, दर्शन, विधि, प्रतिमा-निर्माण आदि से सम्बन्धित एक किताब अरबी भाषा में लिखी जिसका नाम है-किताब-उल-हिन्द। यह पुस्तक ग्यारहवीं शताब्दी में भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न 24.
विदेशी यात्रियों के विवरणों से भारतीय स्त्रियों की स्थिति के बारे में क्या पता चलता है ?
उत्तर:
बर्नियर तथा इब्नबतूता दोनों ही यात्रियों के विवरणों में स्त्रियों की स्थिति का वर्णन मिलता है। बर्नियर ने एक ‘सती बालिका’ का वर्णन किया है। इसमें एक बालिका को पति के शव के साथ जला दिया जाता है। बर्नियर ने इसे एक हृदय विदारक घटना बताया है। इसी प्रकार इब्नबतूता ने भी दासियों का उल्लेख किया है जिनका उपयोग उनका स्वामी प्रत्येक प्रकार से करता था। स्त्रियाँ बिकाऊ थीं तथा उपहारस्वरूप इनका आदान-प्रदान किया जाता था। इसके अतिरिक्त बादशाहों के विशाल हरम भी स्त्रियों की लाचारी को भी दर्शाते हैं। ये विवरण यही दर्शाते हैं कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आम स्त्रियों को कोई विशेष स्थान प्राप्त नहीं था।

प्रश्न 25.
1793 ई० का स्थायी बंदोबस्त क्या था ? इसकी मुख्य विशेषताओं और बंगाल के लोगों पर इसके प्रभावों का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
बंगाल में स्थायी बंदोबस्त 1793 में लागू किया गया था।

  1. 1. इस व्यवस्था में भूमि जमींदारों को स्थायी रूप से दे दी जाती थी और उन्हें एक निश्चित धनराशि सरकारी कोष में जमा करनी पड़ती थी।
  2. इससे जमींदारों को कानूनी तौर पर मालिकाना अधिकार मिल गये। अब वे किसानों से मनमाना लगान लेते थे।
  3. इस व्यवस्था से सरकार को लगान के रूप में एक बँधी-बँधाई धनराशि मिल जाती थी।
  4. इस व्यवस्था से नये जमींदारों का जन्म हुआ, जो शहरों में बड़े-बड़े बंगलों में और तरह-तरह की सुख-सुविधाओं के साथ रहते थे। गाँव में उनके कारिन्दे किसानों पर तरह-तरह के अत्याचार करके भूमि कर ले जाते थे। जमींदार को किसानों के दुःख-सुख से कोई मतलब न था।
  5. किसानों को बदले में सिंचाई या ऋण सुविधा नाम मात्र को भी नहीं मिलती थी।

प्रश्न 26.
मनसबदारी व्यवस्था की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
अकबर ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से मनसबदारी व्यवस्था का प्रवर्तन किया। यह दशमलव प्रणाली पर आधारित था। मनसबदार को दो पद जात एवं सवार प्रदान किए जाते थे। ब्लाकमैन के अनुसार, एक मनसबदार को अपने जितने सैनिक रखने पड़ते थे वह जात का सूचक था। वह जितने घुड़सवार रखता था वह सवार का सूचक था।

40 से 500 तक का मनसबदार ‘मनसबदार’ कहलाता था। 500 से 2500 का मनसबदार अमीर कहलाता था। 2500 से अधिक का मनसबदार अमीर एक उम्दा कहलाता था।

मनसबदारों को वेतन में नकद रकम मिलता था। कभी-कभी वेतन में जागीर भी दी जाती थी। इस प्रकार मनसबदारी व्यवस्था मुगल सेना का प्रमुख आधार बन गयी। उसने मुगल साम्राज्य का विस्तार एवं सुव्यवस्था की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

प्रश्न 27.
स्थायी बंदोबस्त से कम्पनी को हुए लाभों का वर्णन करें।
उत्तर:
स्थायी व्यवस्था से पूर्व राज्य की होने वाली आय निश्चित न थी। उच्चतम बोली देने वाले ऐसे बहुत कम होते थे जो समय पर अपने धन की अदायगी कर पाते थे। इससे सरकार की आय अनिश्चित बनी रहती थी। अब सरकार को जमींदारी द्वारा प्राप्त धन का एक निश्चित भाग प्राप्त होने लगा। यदि कोई जमींदार धन की अदायगी राज्य को समय पर न कर पाता था तो उसकी भूमि कुर्क कर दी जाती थी। क्योंकि भू-राजस्व राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था, अतः कम्पनी के योग्य कर्मचारियों को इस राजस्व को वसूल करने के लिए लगाया जाता था, फलतः दूसरे विभागों का कार्य ठीक प्रकार से न हो पाता था परंतु इस व्यवस्था के कारण सरकार इस ओर से निश्चित हो गई और अन्य योग्य व्यक्तियों को अन्य विभागों में लगाया जाने लगा जिससे शासन व्यवस्था की क्षमता का बढ़ना निश्चित था।

प्रश्न 28.
महालबाड़ी व्यवस्था क्या थी ?
उत्तर:
महालबाड़ी नामक भू-व्यवस्था जमींदारी व्यवस्था (स्थायी व्यवस्था) का ही संशोधित रूप था। यह 1801 ई० में अवध क्षेत्र तथा 1803-04 में मराठे अधिकृत प्रदेशों में लागू किया गया था। इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रति खेत के आधार पर लगान नहीं निश्चित कर प्रत्येक महाल (गाँव या जागीर) के आधार पर निश्चित किया गया। पूरा गाँव सम्मिलित रूप से लगान चुकाने के लिए उत्तरदायी था। इस व्यवस्था में भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं रहता था बल्कि समस्त गाँव का रहता था। इसीलिए इसे महालबाड़ी व्यवस्था कहा गया।

प्रश्न 29.
रैयतवाड़ी व्यवस्था क्या थी? इससे क्या सामाजिक और आर्थिक प्रभाव उत्पन्न हुए ?
उत्तर:
दक्षिण और दक्षिण-पश्चिमी भारत में रैयतवाड़ी बंदोबस्त लागू किया गया, जिसके अंतर्गत किसान भूमि का मालिक था यदि वह भू-राजस्व का भुगतान करता रहे। इस व्यवस्था के समर्थकों का कहना था कि यह वही व्यवस्था है, जो भारत में पहले थी। बाद में यह व्यवस्था मद्रास और बंबई प्रेसिडेंसियों में भी लागू कर दी गई। इस व्यवस्था में 20-30 वर्ष बाद संशोधन कर दिया जाता था तथा राजस्व की राशि बढ़ा दी जाती थी। रैयतवाड़ी व्यवस्था में निम्नलिखित त्रुटियाँ थीं-

  • भू-राजस्व 45 से 55 प्रतिशत था, जो बहुत अधिक था।
  • भू-राजस्व बढ़ाने का अधिकार सरकार ने अपने पास रखा था।
  • सूखे अथवा बाढ़ की स्थिति में भी पूरा राजस्व देना पड़ता था। इससे भूमि पर किसान का प्रभुत्व कमजोर पड़ गया।

प्रभाव:

  • इससे समाज में असंतोष और आर्थिक विषमता का वातावरण छा गया।
  • सरकारी कर्मचारी किसानों पर अत्याचार करते रहे तथा किसानों का शोषण पहले जैसा ही होता रहा।

प्रश्न 30.
अंग्रेजों ने मद्रास (चेन्नई) के आस-पास अपना प्रभाव कब और कैसे स्थापित किया ?
उत्तर:
अंग्रेजों ने दक्षिण में अपनी फैक्ट्री मसुलीपट्टनम में 1611 में स्थापित की। पर जल्द ही उनकी गतिविधियों का केन्द्र मद्रास (चेन्नई) हो गया जिसका पट्टा 1639 में वहाँ के स्थानीय राजा ने उन्हें दे दिया था। राजा ने उनको उस जगह की किलेबंदी करने, उसका प्रशासन चलाने और सिक्के ढालने की अनुमति इस शर्त पर दी कि बंदरगाह से प्राप्त चुंगी का आधा भाग राजा को दिया जाएगा। यहाँ अंग्रेजों ने अपनी फैक्ट्री के इर्द-गिर्द एक छोटा-सा किला बनाया जिसका नाम फोर्ट सेंट जार्ज पड़ा।

प्रश्न 31.
भारत में यूरोपीय उपनिवेशों की स्थापना के क्या कारण थे ?
उत्तर:
यूरोपीय देशों ने निम्नलिखित कारणों से भारत में उपनिवेशों की स्थापना की-

  • कच्चे माल की प्राप्ति
  • निर्मित माल की खपत
  • इसाई धर्म का प्रचार तथा
  • समृद्धि की लालसा।

कुल मिलाकर यूरोपियन अपने उद्योगों के लिये आवश्यक कच्चे माल एवं इन कच्चे मालों से तैयार सामानों के बाजार की तालाश में ही भारत की ओर आये और इसके माध्यम से उनका उद्देश्य था-अपनी समृद्धि।

प्रश्न 32.
1857 के विद्रोह की असफलता के कारणों का संक्षिप्त उल्लेख करें।
उत्तर:
1857 के विद्रोह की असफलता के कारण (Causes of the Failure of the Revolt of 1857) – 1857 के विद्रोह में भारतीय जनता ने जी-तोड़ संघर्ष कर अंग्रेजों का सामना किया, किन्तु कुछ कारणों से इस विद्रोह में भारतवासियों को असफलता मिली। इस असफलता के निम्न कारण थे-

  1. यह विद्रोह निश्चित तिथि से पहले आरम्भ हो गया। इसकी तिथि 31 मई निर्धारित की गई थी, किंतु यह 10 मई, 1857 को शुरू हो गया।
  2. यह स्वतंत्रता संग्राम सारे भारत में फैल गया, परिवहन तथा संचार के अभाव में भारतवासी इस पर पूर्ण नियंत्रण न रख सके।
  3. भारतवासियों के पास अंग्रेजों के मुकाबले हथियारों का अभाव था।
  4. भारत में कुछ वर्गों ने इस विद्रोह में सक्रिय भाग नहीं लिया।
  5. भारत में अंग्रेजों के समान कुशल सेनापतियों का अभाव था।
  6. अंग्रेजों को ब्रिटेन से यथासमय सहायता प्राप्त होती गई।
  7. क्रांतिकारियों में किसी एक योजना एवं निश्चित उद्देश्यों की कमी थी।

प्रश्न 33.
ब्रिटिश चित्रकारों ने 1857 के विद्रोह को किस रूप में देखा ?
उत्तर:
ब्रिटिश पत्र-पत्रिकाओं, अखबारों, कार्टूनों में 1857 के विद्रोह के दो बिन्दुओं पर बल दिया गया-हिन्दुस्तानी सिपाहियों की बर्बरता और ब्रिटिश सत्ता की अजेयता का प्रदर्शन।।

टॉमस जोन्स वर्कर के 1859 के रिलीज ऑफ लखनऊ इन मेमोरियम, न्याय जैसे चित्रों के माध्यम से ब्रिटिश प्रतिरोध की भावना और उनकी अजेयता के भाव ही प्रदर्शित होते हैं।

प्रश्न 34.
1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण क्या था?
उत्तर:
1857 के विद्रोह का तात्कालिक कारण कारतूसों में लगी सूअर और गाय की चर्बी थी। नयी स्वफील्ड बंदूकों में गोली भरने से पूर्व कारतूस को दाँत से छीलना पड़ता था। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही गाय और सूअर की चर्बी को अपने-अपने धर्म के विरुद्ध समझते थे। अतः उनका भड़कना स्वाभाविक था।

26 फरवरी, 1857 ई० को बहरामपुर में 19वीं नेटिव एनफैण्ट्री ने नये कारतूस प्रयोग करने से मना कर दिया। 19 मार्च, 1857 ई० को चौंतीसवीं नेटिव एनफैण्ट्री के सिपाही मंगल पाण्डेय ने दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला। बाद में उसे पकड़कर फाँसी दे दी गई। सिपाहियों का निर्णायक विद्रोह 10 मई, 1857 को मेरठ में शुरू हुआ।

प्रश्न 35.
1857 की क्रांति के प्रभाव पर प्रकाश डालिए।
उत्तर:
1857 की क्रांति के प्रभाव – 1857 ई० भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण है क्योंकि उसी वर्ष ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन के विरुद्ध भारतीयों का असंतोष क्रांति के रूप में प्रकट हुआ। इसे ‘भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम’ कहा जाता है। इसी के बाद 1858 ई० में एक घोषणा के द्वारा यह कहा गया कि अब भारत का शासन ब्रिटिश महारानी के नाम से होगा।

प्रश्न 36.
1857 के विद्रोह के मुख्य कारण क्या थे ?
उत्तर:
1857 के सिपाही विद्रोह के महत्त्वपूर्ण प्रमुख कारण निम्नांकित थे
(i) सामाजिक कारण (Social causes) – अंग्रेजों ने अनेक भारतीय सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए कानून बनाया। उन्होंने सती प्रथा को कानूनी अपराध घोषित कर दिया। उन्होंने विधवा पुनर्विवाह करने की कानूनी अनुमति दे दी। स्त्रियों को शिक्षित किया जाने लगा। रेलवे तथा यातायात के अन्य साधनों को बढ़ावा दिया गया। रूढ़िवादी लोग इन सब कामों को संदेह से देखते थे। उन्हें भय हुआ कि अंग्रेज हमारे समाज को तोड़-मरोड़ कर हमारी सारी सामाजिक मान्यताओं को समाप्त कर देना चाहते हैं।

(ii) धार्मिक कारण (Religious causes) – ईसाई धर्म प्रचारक धर्म परिवर्तन करा देते थे। अंग्रेजों ने मंदिरों और मस्जिदों की भूमि पर कर लगा दिया। अत: पंडितों और मौलवियों ने रुष्ट होकर जनता में अंग्रेजों के विरुद्ध जागृति फैला दी।

(iii) सैनिक कारण(Military causes) – भारतीय एवं यूरोपियन सैनिकों में पद, वेतन पदोन्नति आदि को लेकर भेदभाव किया जाता था। भारतीय सैनिकों के साथ बुरा व्यवहार किया जाता था और उन्हें कम महत्त्व दिया जाता था। सामूहिक रसोई होने के कारण भी उच्च वर्ग के (ब्राह्मण और ठाकुर) लोग निम्न वर्ग के लोगों के साथ खाने से प्रसन्न न थे।

(iv) तात्कालिक कारण (Immediate causes) – तात्कालिक कारण कारतूसों में लगी सूअर और गाय की चर्बी थी। नयी स्वफील्ड बंदूकों में गोली भरने से पूर्व कारतूस को दाँत से छीलना पड़ता था। हिन्दू और मुसलमान दोनों ही गाय और सूअर की चर्बी को अपने-अपने धर्म के विरुद्ध समझते थे। अत: उनका भड़कना स्वाभाविक था।

प्रश्न 37.
लक्ष्मीबाई कौन थी ? संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
वह झाँसी (उत्तर प्रदेश) की रानी थीं। अपनी सन्तान न होने पर उसने एक बच्चे को दत्तक पुत्र के रूप में गोद ले लिया था तथा झाँसी का उत्तराधिकारी घोषित किया था। लेकिन अंग्रेजों ने उसके उत्तराधिकार की घोषणा के अधिकार को मान्यता नहीं दी थी। इसी कारण वह 1857 के विद्रोह के दिनों में अंग्रेजी सेनाओं से जूझ पड़ी। उसने नाना साहिब के विश्वसनीय सेनापति तात्यां टोपे और अफगान सरदारों की मदद से ग्वालियर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। अन्त में कालपी के स्थान पर वह अंग्रेजों से संघर्ष करती हुई वीरगति को प्राप्त हुई। उसकी वीरता सभी के लिए प्रेरणा मानी जाती है।

प्रश्न 38.
तात्या टोपे कौन था ? उसका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
तात्या टोपे नाना साहिब की सेना का एक कुशल, अत्यधिक साहसी, परमवीर एवं विश्वसनीय सेनापति था। उसने 1857 के विद्रोह में कानपुर में अंग्रेजों के विरुद्ध कुशलता से गुरिल्ला नीति अपनाते हुए अंग्रेजी सेना की नाक में दम कर दिया था। उसने अंग्रेज जनरल बिन्द्रहैम को बुरी तरह परास्त किया तथा झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का पूर्ण निष्ठा से सहयोग दिया। कालान्तर में सर कोलिन कैम्पवेल ने उसे हराया तथा 1858 में अंग्रेजों ने तात्या टोपे को फाँसी की सजा दे दी।

प्रश्न 39.
नाना साहिब कौन थे ? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
नाना साहिब अन्तिम मराठा पेशवा बाजीराव द्वितीय का दत्तक पुत्र था। 1857 के विद्रोहियों ने उन्हें अंग्रेजों के विरुद्ध कानपुर में विप्लव छेड़ने के लिए उकसाया था। जब कानपुर के सिपाहियों और शहर के लोगों ने नाना साहिब के समक्ष बगावत की बागडोर संभालने की प्रार्थना की तो ऐसा करने के अतिरिक्त उनके समक्ष कोई भी विकल्प नहीं था।

सन् 1851 से ही (जब पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हो गई थी) अंग्रेजों ने नाना साहिब को न तो पेशवा माना और न ही उन्हें पेंशन दी। लम्बे संघर्ष के बाद जब अंग्रेजों ने कानपुर पर अधिकार कर लिया तो नाना साहिब ने अंग्रेज सेनापति नील तथा हैवलॉक को तात्या टोपे की मदद से पराजित कर कानपुर के किले पर पुनः अधिकार कर लिया। दिसम्बर 1857 में नई सेना के आने के बाद सर कोलिन कैम्पवेल ने पुनः नाना साहिब को पराजित किया। नाना साहिब अंग्रेजों के हाथों नहीं आये। वे नेपाल भागकर पहुँचने में कामयाब रहे। उनके प्रशंसक उनकी इस कूटनीति को उनके साहस एवं बहादुरी की ही हिस्सा मानते हैं।

प्रश्न 40.
कुंवर सिंह कौन थे ? उनका संक्षिप्त परिचय दीजिए।
उत्तर:
कुंवर सिंह आरा (जगदीशपुर), बिहार में एक स्थानीय जमींदार थे। वह बड़े जमींदार होने के कारण लोगों में राजा के नाम से विख्यात थे। कुंवर सिंह की उम्र बहुत कम थी तो भी उन्होंने आजमगढ़ तथा बनारस में अंग्रेजी फौज को पराजित किया। उन्होंने छापामार युद्ध पद्धति से अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये। उन्होंने ब्रिटिश सेनापति मार्कर को पराजित कर गंगा पार अपने प्रमुख किले जगदीशपुर पहुँचने में सफलता प्राप्त की। अप्रैल 1858 में उनकी मृत्यु हो गई।

Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 3

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Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
अशोक के ‘धम्म’ से आप क्या समझते हैं ? अशोक के धम्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या थे?
उत्तर:
धम्म का स्वरूप : धम्म’ संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत स्वरूप है। अशोक ने इसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। इस विषय पर विद्वानों के बीच काफी मतभेद है। बहुत-से विद्वान धम्म और बौद्धधर्म में कोई फर्क नहीं मानते। अतः प्रारंभ में ही यह कह देना आवश्यक है कि धम्म और बौद्धधर्म दोनों अलग-अलग बातें हैं। बौद्धधर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था। लेकिन उसने जिस धम्म की चर्चा अपने अभिलेखों में की है वह उसका सार्वजनिक धर्म था तथा विभिन्न धर्मों का सार था। यह अलग बात है कि बौद्धधर्म की कई विशेषताएँ भी उसमें मौजूद थीं। अशोक ने अपने अभिलेखों में कई स्थान पर धम्म (धर्म) शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु भाबरु अभिलेख को छोड़कर (जहाँ उसे बुद्ध, धम्म और संघ में अपना विश्वास प्रकट किया है) उसने कहीं भी धम्म का प्रयोग बौद्धधर्म के लिए नहीं किया है। बौद्ध धर्म के लिए ‘सर्द्धम’ या ‘संघ’ शब्द का . प्रयोग किया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि अशोक का धम्म बौद्धधर्म नहीं था क्योंकि इसमें चार आर्य सत्यों, अष्टांगिक मार्ग तथा निर्वाण की चर्चा नहीं मिलती है।

अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त इस प्रकार अग्रलिखित हैं-

  1. बड़ों का आदर (Elder’sregards) – अशोक ने अपने शिलालेख में लिखा है कि माता-पिता, अध्यापकों और अवस्था तथा पद में जो बड़े हों उनका उचित आदर करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
  2. छोटों के प्रति उचित व्यवहार (Proper behaviour with youngers) – बड़ों को अपने से छोटों के प्रति प्रेम-भाव रखना चाहिए और उनसे दया तथा नम्रता का व्यवहार करना चाहिए।
  3. सत्य बोलना (Speak truth) – मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। दिखाने की भक्ति से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।
  4. अहिंसा (Non-violence) – मनुष्य को मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को दु:ख नहीं देना चाहिए।
  5. दान (Donation) – अशोक के धर्म में दान का विशेष महत्व है। उसके अनुसार अज्ञान के अन्धकार में भूले-भटके लोगों को धर्म का दान करके प्रकाश में लाना सबसे उत्तम दान है।
  6. पवित्र जीवन (Pure Life) – मनुष्य को पाप से बचना चाहिए और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए। .
  7. शुभ कार्य (Pure Action) – प्रत्येक मनुष्य बुरे कर्म का बुरा और अच्छे कर्म का अच्छा फल प्राप्त करता है। इसलिए उसे शुभ कर्म करने चाहिए ताकि उसका लोक और परलोक सुधरे।
  8. सच्चे रीति-रिवाज (True Rituals) – मनुष्य को झूठे रीति-रिवाजों, जादू-टोना, व्रत तथा अन्य दिखावों के जाल में नहीं फंसना चाहिए। उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए, बड़ों का आदर करना चाहिए तथा उसे सत्य बोलना चाहिए। यही सच्चे रीति-रिवाज हैं।
  9. धार्मिक सहनशीलता (Religious Tolerance) – मनुष्य को अपने धर्म का आदर करना चाहिए लेकिन दूसरे धर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए।

इस प्रकार अशोक ने सभी धर्मों के मुख्य नैतिक सिद्धान्तों का संग्रह किया और उन्हें साधारण लोगों तक पहुँचाया ताकि वे उस पर चलकर अपना लोक और परलोक सुधार सकें।

प्रश्न 2.
अशोक धर्म के प्रमुख सिद्धान्त क्या थे ?
उत्तर:
अशोक के धर्म के प्रमुख सिद्धान्त-

  1. बड़ों का आदर (Elders’ regards) – अशोक ने अपने शिलालेख में लिखा है कि मातापिता, अध्यापकों और अवस्था तथा पद में जो बड़े हों उनका उचित आदर करना चाहिए और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिए।
  2. छोटों के प्रति उचित व्यवहार (Proper behaviour with youngers) – बड़ों को अपने से छोटों के प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए और उनसे दया तथा नम्रता का व्यवहार करना चाहिए।
  3. सत्य बोलना (Speak truth) – मनुष्य को सदा सत्य बोलना चाहिए। दिखावे की भक्ति से सत्य बोलना अधिक अच्छा है।
  4. अहिंसा (Non-violence) – मनुष्य को मन, वाणी और कर्म से किसी जीव को दुःख नहीं देना चाहिए।
  5. दान (Donation) – अशोक के धर्म में दान का विशेष महत्त्व है। उसके अनुसार अज्ञान के अंधकार में भूले-भटके लोगों को धर्म का दान करके प्रकाश में लाना सबसे उत्तम दान है।
  6. पवित्र जीवन (Pure Life) – मनुष्य को पाप से बचना चाहिए और पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए।
  7. शुभ कार्य (Pure Action) – प्रत्येक मनुष्य बुरे कर्म का बुरा और अच्छे कर्म का अच्छा फल प्राप्त करता है। इसलिए उसे शुभ कर्म करने चाहिए ताकि उसका लोक और परलोक सुधरे।
  8. सच्चे रीति-रिवाज (True Rituals) – मनुष्य को झूठे रीति-रिवाजों, जादू-टोना, व्रत तथा अन्य दिखावों के जाल में नहीं फँसना चाहिए। उसे पवित्र जीवन व्यतीत करना चाहिए; बड़ों का आदर करना चाहिए तथा उसे सत्य बोलना चाहिए। यही सच्चे रीति-रिवाज हैं।
  9. धार्मिक सहनशीलता (Religious tolerance) – मनुष्य को अपने धर्म का आदर करना चाहिए लेकिन दूसरे धर्मों की निन्दा नहीं करनी चाहिए।

इस प्रकार अशोक ने सभी धर्मों के मुख्य नैतिक सिद्धान्तों का संग्रह किया और उन्हें साधारण लोगों तक पहुँचाया ताकि वे उस पर चलकर अपना लोक और परलोक सधार

प्रश्न 3.
अशोक ने बौद्ध-धर्म के प्रसार में क्या योगदान दिया ?
उत्तर:
अशोक के बौद्ध-धर्म के प्रसार में निम्नलिखित योगदान दिया-

  • अशोक ने कलिंग युद्ध के बाद 265 ई० पू० में बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। उसने अपने पुत्र महेन्द्र, पुत्री संघमित्रा तथा स्वयं को इस धर्म के प्रचार में लगा दिया था।
  • उसने सम्राट होकर भी भिक्षुओं जैसा जीवन बिताया। उसने अहिंसा को अपनाकर शिकार करना, माँस खाना छोड़ दिया था। उसने राजकीय वधशाला में पशु-वध पर रोक लगा दी थी। जनता राजा के आदर्शों पर चलती थी।
  • उसने बौद्ध धर्म के नियम स्तम्भों, शिलालेखों आदि पर खुदवाकर ऐसे स्थानों पर लगवा दिये थे कि जहाँ से जनता देखकर उन्हें पढ़ सके और तत्पश्चात् अमल करे।
  • उसने लगभग 84000 बौद्ध विहारों और 48000 स्तूपों का निर्माण कराया। यह मुख्यमुख्य नगरों में स्थापित किये।
  • उसने कई धार्मिक नाटकों का आयोजन किया जिनमें बौद्ध धर्म पर आचरण करने पर स्वर्ग की प्राप्ति दिखाई गई थी। अतः बौद्ध धर्म को ग्रहण करने के लिये जनता प्रेरित हुई।
  • बौद्ध धर्म के मतभेदों को दूर करने के लिये अशोक ने 252 ई० पू० में एक विशाल सभा का आयोजन किया था, जिससे लोग इस धर्म की ओर आकर्षित हुए। सम्राट अशोक स्वयं बौद्ध तीर्थों-सारनाथ, कपिलवस्तु एवं कुशीनगर गया। रास्ते में उसने बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उसने धर्म महापात्रों की नियुक्ति की, जो देखते थे कि लोग इस धर्म का पालन कर रहे हैं या नहीं।
  • जन साधारण तक बौद्ध धर्म की शिक्षाओं को पहुँचाने के लिये पालि भाषा में शिलालेख और बौद्ध साहित्य का अनुवाद कराया था। उसने बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, गंधार, चीन, जापान, सीरिया श्रीलंका व मित्र आदि देश में भिक्षु भेजे।
  • सम्राट ने सम्पूर्ण राजकीय तंत्र बौद्ध धर्म के प्रचार में लगा दिया। सार्वजनिक समारोहों को रोककर उनके स्थान पर बौद्ध उत्सव मनाने प्रारंभ कर दिये। उसने नाचने-गाने तथा मद्यपान पर रोक लगा दी थी तथा लोगों को नैतिक जीवन व्यतीत करने की प्रेरणा दी।

प्रश्न 4.
मौर्य साम्राज्य के पतन के कारणों पर प्रकाश डालें। अशोक इसके लिए कहाँ तक उत्तरदायी था?
उत्तर:
मौर्य साम्राज्य का पतन साम्राज्यों की तुलना में बहुत ही शीघ्र हो गया। जिस साम्राज्य की नींव चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने खून-पसीने से डाली थी और सम्राट अशोक ने बुलन्द महलों का निर्माण किया था। परन्तु उसके मरने के साथ ही उसका पतन होना शुरू हो गया, जो वास्तव में एक आश्चर्य की बात है। मौर्य साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित प्रमुख कारण हैं-

1. विघटनात्मक प्रवृत्ति – मौर्य साम्राज्य के पतन के यों तो बहुत से कारण हैं परन्तु साम्राज्य की विघटनात्मक प्रवृत्ति सबसे महत्त्वपूर्ण है। अशोक के समय तक तो यह साम्राज्य ठोस बना रहा परन्तु उसके आँख मूंदते ही यह साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा। उसकी नींव की एक-एक ईंट हिल-हिल कर गिरने लगी और एक दिन ऐसा आया कि सारा बुलन्द महल भरभरा कर पतन के गड्ढे में गिर पड़ा। अर्थात् उसका एक-एक प्रान्त इससे निकलने लगा और स्वतंत्र होकर इस साम्राज्य की नींव को खोदने लगा। कश्मीर के प्रसिद्ध इतिहासकार कल्हण के शब्दों में, “स्वयं अशोक का दूसरा पुत्र कश्मीर का स्वतंत्र शासक हो गया था और कन्नौज तक के प्रदेशों को हस्तगत कर लिया था।”

तारानाथ के अनुसार, वीरसेन नामक अशोक का उत्तराधिकारी गंधार में स्वतंत्र हो गया था। कालिदास के मालविकाग्निमित्र से ज्ञात होता है कि विदर्भ भी इस साम्राज्य से अलग हो गया था। कलिंग भी एक दिन स्वतंत्र हो गया। इन सबों की देखा-देखी साम्राज्य को बहुत से प्रदेश हाथ से निकल गए। अशोक के उत्तराधिकारी इस विकेन्द्रीयकरण की प्रवृत्ति को रोक नहीं सके जिसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

2. साम्राज्य की विशालता – चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक के प्रयत्नों के फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य विशाल हो गया था। केन्द्र में इसकी राजधानी भी नहीं थी जिससे शासन काल पर नियंत्रण करने में बड़ी असुविधा होती थी, क्योंकि आवागमन के साधनों का विकास भी नहीं हुआ था। दक्षिण भारत पर नियंत्रण रखने में अशोक के उत्तराधिकारियों को बहुत दिक्कत हो रही थी। अंत में वे इसके पतन को रोकने में सफल नहीं हो सके।

3. प्रांतीय शासकों ने प्रजा के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया – दूर-दूर के प्रांतों में कर्मचारियों तथा पदाधिकारियों का प्रजा के साथ बर्ताव अच्छा नहीं था। वे लोग जनता को हर तरह से कष्ट दिया करते थे। अंत में विवश होकर जनता विद्रोही हो गयी थी। जैसे-बिन्दुसार के शासन काल में जनता उसके मंत्रियों के विरुद्ध विद्रोह कर बैठी थी जो दबाते न दबता था। अंत में अशोक ने वहाँ जाकर उस विद्रोह को दबाया था। अशोक के शासन काल में भी तक्षशिला में इस तरह का विद्रोह हुआ था जिसको अशोक के पुत्र कुणाल ने जाकर दबाया था। अशोक के मरने के बाद इस तरह के विद्रोह को दबाने के लिए किसी में ताकत नहीं रह गयी थी। अतः यह भी मौर्य साम्राज्य के पतन का एक प्रमुख कारण बना।

4. अशोक की अहिंसा की नीति – कुछ इतिहासज्ञों का यह मत है कि अशोक की अहिंस्म की नीति से भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ। क्योंकि इस नीति के फलस्वरूप साम्राज्य की सैनिक शक्ति नष्ट हो गई। जब केन्द्रीय-शक्ति कमजोर हो गई तब प्रांतों के शासन स्वतंत्र होने लग गए। ऐसी परिस्थिति में ही पश्चिमोत्तर प्रदेश में बैक्ट्रिया के यवनों का भयंकर आक्रमण हुआ। इससे भी यह साम्राज्य पतनोन्मुख हुआ।

5. अत्यधिक दान देने की प्रवृत्ति – कहा जाता है कि अशोक की दान देने की नीति से भी मौर्य साम्राज्य का पतन हुआ क्योंकि अत्यधिक दान से शाही खजाना खाली पड़ गया था। जिससे साम्राज्य की आर्थिक स्थिति नाजुक हो गयी थी। सैनिकों का वेतन समय पर नहीं दिया जा रहा था। इतना ही नहीं, एक जगह पर यह भी कहा गया कि अशोक को दान देने की नीति के फलस्वरूप ही राज्य छोड़ देना पड़ा था। इसके बाद मौर्य साम्राज्य का पतन होने लगा।

6. अंतःपुर और राजदरबारियों का षड्यंत्र – अंत:पुर और दरबारियों के षड्यंत्र से मौर्य साम्राज्य को बहुत बड़ा धक्का लगा। स्वयं अशोक की अनेक रानियाँ तथा अनेक पुत्र दिन-रात षड्यंत्र रचा करते थे। राजा वृहद्रथ के शासन काल में तो साम्राज्य की शक्ति दो दलों में बँट गयी थी। एक दल का प्रधान सेनापति और दूसरा दल था प्रधान सचिव थे। इन दलों में हमेशा टक्कर होती रहती थी। फलतः साम्राज्य की शक्ति बहुत कम हो गयी। राजा वृहद्रथ इसमें सुधार नहीं ला सका। मौका पाकर उसी के समय में पुष्यमित्र शुंग ने सम्राट का कत्ल कर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया।

7. अशोक की धार्मिक नीति – अशोक के धार्मिक नीति के कारण हिन्दुओं में उसके विरुद्ध विद्रोह की भावनाएँ उठने लगी। क्योंकि वे लोग बौद्ध धर्म की उन्नति और हिन्दू धर्म की अवनति को नहीं देखना चाहते थे। इसलिए उनमें बौद्ध धर्म के प्रति द्वेष हो गया। वे लोग मौर्य साम्राज्य को ही नष्ट कर देने की बात सोचने लगे और अंत में मौर्य साम्राज्य को पतन के गड्ढ़े में धकेल कर ही दम लिया।

8. विदेशी आक्रमण – जब उपरोक्त कारणों से मौर्य साम्राज्य कमजोर हो गया तो विदेशियों की दृष्टि इस पर पड़ी और इस पर बहुत से विदेशी आक्रमण हुए। मौर्य साम्राज्य के अंतिम दिनों में यूनानी और बैक्टिरियन राजाओं की चढ़ाई हुई जो मौर्य साम्राज्य के लिए हितकर न हुई।

9. गुप्तचर विभाग में संगठन का अभाव – अंशोक के शासन काल से ही गुप्तचर विभाग में शिथिलता आ गई थी। साम्राज्य को सुन्दर ढंग से चलाने के लिए एक सुसंगठित गुप्तचर विभाग की आवश्यकता होती है क्योंकि इसके अभाव में सम्राट को गुप्त बातों की जानकारी नहीं हो सकती। जगह-जगह पर षड्यंत्र रचा जा सकता है। अतः सम्राट गुप्तचर विभाग की मदद से षड्यंत्रों से बचा करता है। परन्तु अशोक के शासन काल में ही यह विभाग अस्त-व्यस्त हो चुका था और उसके उत्तराधिकारी इस ओर ध्यान नहीं दे सके। जिसके फलस्वरूप मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

10. सेना विभाग की उदासीनता – साम्राज्य में अहिंसा की नीति से सैन्य बल कमजोर पड़ गया। सेना का स्तर बहुत नीचे गिर गया। लेकिन उस समय सैन्य बल की पुकार थी क्योंकि साम्राज्यवादी नीति जोर पकड़ रही थी। परन्तु कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र पर पाबन्दी लगा दी गई थी। फलतः मौर्य साम्राज्य का पतन हो गया।

प्रश्न 5.
साँची स्तुप से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों का विवरण दीजिए।
अथवा, साँची स्तूप की मूर्तियों के बारे में दी गई सूचनाओं का उल्लेख कीजिए। इतिहासकारों ने इसका कैसे उल्लेख किया है ?
उत्तर:
साँची का स्तूप (The Sanchi Stupa) – साँची का स्तूप मध्यप्रदेश में विदिशा के पास स्थित है। साँची का स्तूप और निकट के एकाश्म स्तंभ द्वारा बनाये गये थे। शुंग काल में स्तूप के आकार में वृद्धि की गई तथा कई नवीन निर्माण किये गये। अशोक के काल में यह स्तूप ईंटों का बनवाया गया था। शुंगकाल में उस पर पाषाण की शिलाओं का आवरण लगाया गया।

स्तूप के चारों ओर 16 फीट ऊँची मेधी या चबूतरे का निर्माण किया गया। इसमें दक्षिण की ओर सीढ़ियों का सोपान निर्माण किया गया। स्तूप के चारों ओर एक वर्गाकार वेदिका का भी निर्माण किया गया। शुंग काल में स्तूप का आकार दुगुना हो गया था। अब यह 54 फीट ऊँचा, 120 फीट व्यास का है।

वेदिका की चारों दिशाओं में चार तोरण द्वारों का निर्माण किया गया है। प्रत्येक तोरण दो सीधे खड़े वर्गाकार स्तंभों की सहायता से बना है। इन स्तंभों में पाषाण की तीन समानांतर और मेहराबदार बेड़ियाँ लगायी गयी हैं। तोरण द्वार की कलात्मकता उच्च कोटि की है। दोनों स्तंभों के शीर्ष पर चार सिंह, बैलों की मूर्तियों को बनाया गया है।

साँची के तोरण द्वार अधिक अलंकृत हैं। साँची की वेदिका सादी और अलंकरण रहित है। इसलिए सादी वेदिका की पृष्ठभूमि में अलंकृत तोरण प्रभावशाली प्रतीत होता है। स्तंभों की चौकियों पर शाल मंजिकाओं की मूर्तियाँ बनाई गई हैं।

तोरण पर बुद्ध के जीवन की घटनाओं तथा जातक कथाओं के चित्रों को अंकित किया गया है। डेरियों पर सिंह, हाथी, धर्म चक्र, यक्ष तथा विरल के प्रतीक चित्र उत्कीर्ण किये गये हैं। स्तंभों के निचले भागों में द्वारपाल यक्षों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। स्तंभ तथा नीचे की डेरी के बाहरी कोनों में शाल मंजिकाओं की मूर्तियाँ बनाई गई हैं। उनके अंग-प्रत्यंगों का अत्यंत आकर्षक अंकन किया गया है। सबसे ऊपर की बड़ेरी के मध्य में धर्मचक्र त्रिरत्न के लक्षण हैं। धर्मचक्र के दोनों ओर चामर लिए यक्ष मूर्तियाँ हैं।

स्तूप के सबसे ऊपर शीर्ष पर हर्मिका, याष्टिदंड तथा त्रिछत्र बने हैं। साँची के तोरण पर पाँच जातक कथाओं के चित्र पहचाने गये हैं। ये जातक कथाएँ हैं-छदंत जातक, महाकपि जातक, वेस्संतर जातक, अलंबुसा जातक, साम जातक। बुद्ध के जन्म, संबोधि, प्रथम प्रवचन, परिनिर्वाण का प्रदर्शन संकेतों के द्वारा किया गया है। माया का गर्भधारण, रथयात्रा, महाभिनिष्क्रमण, सुजाता की भेंट, मार द्वार प्रलोभन आदि बुद्ध के जीवन की घटनाओं के चित्रों को भी उत्कीर्ण किया गया है। कुछ सांसारिक जीवन के दृश्य तथा पुष्पों का अंकन किया गया है।

उपरोक्त वर्णन साँची के मुख्य स्तूप का है। इसके अतिरिक्त दो लघु स्तूप भी मुख्य स्तूप के निकट हैं। कला की दृष्टि से मुख्य स्तूप अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

मूर्तियों का इतिहासकारों द्वारा ऐतिहासिक सृजन के लिए उपयोग (Use of Sculptures by Historians for Reconstruction of History) – बौद्ध की मूर्तियाँ मुख्यतः दो श्रेणियों में विभाजित की जाती हैं-मथुरा शैली और गांधार शैली। मथुरा शैली पूर्णतः भारतीय है। इसके विषय भगवान बुद्ध की प्राचीन पौराणिक कथाओं और जीवन से लिए गए हैं। ये प्रतिमाएँ मध्य भारत में अधिक संख्या में पाई जाती हैं। कुछ मूर्तियाँ गांधार शैली की हैं, जिनमें ईरानी, रोमन और भारतीय मूर्तिकला शैली की विशेषताएँ मिश्रित हैं। इस शैली में विषय तो मथुरा शैली की तरह पूर्णतः भारतीय है लेकिन अभिव्यक्ति की शैली, केश निखार यूनानी और ईरानी है।

इतिहासकारों ने बौद्ध प्रतिमाओं के माध्यम से बौद्ध कालीन भारतीय वस्त्रों, पूजा के तरीकों, बौद्ध धर्म से संबंधित अनेक तरह की बातों को लोगों के सामने रखा है। यह प्रतिमाएँ भारतीय मूर्ति कला की प्रगति और भव्यता को अभिव्यक्त करती हैं। उदाहरण के लिए अजंता में छा गई बुद्ध की एक विशाल प्रतिमा उदासी, गंभीरता, आँखों से निकलते हुए आँसू आदि को प्रकट करती है।

कुछ बुद्ध प्रतिमाएँ विदेशों में मिली हैं। इतिहासकार इससे कुछ निष्कर्ष निकालते हैं जिनमें से निम्नांकित प्रमुख हैं-

  1. बौद्ध धर्म प्रचार-प्रसार चीन, तिब्बत, भूटान, सिक्किम, श्रीलंका, अफगानिस्तान, मध्य एशिया, मध्यपूर्व एशिया के देशों में हुआ।
  2. इन प्रतिमाओं से बौद्ध धर्म के प्रचार क्षेत्र की जानकारी मिलती है।
  3. बौद्ध धर्म की उपस्थिति भारतीय सांस्कृतिक उपनिवेशवाद और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान होने की पक्की पुष्टि करती है।
  4. भगवान बुद्ध के बाद की अनेक देशों ने बौद्ध शिक्षाओं और बौद्ध ग्रंथों की तरफ जो अपना धर्म आकर्षित किया और बौद्ध मठों और बौद्ध सभाओं में रुचि ली उसे किसी सीमा तक विभिन्न मूर्तियों ने बनने में अहम् भूमिका अदा की ऐसा विद्वान मानते और ऐतिहासिक साक्ष्य इस बात की पुष्टि करते हैं।

प्रश्न 6.
कुषाण कौन थे? कनिष्क प्रथम की उपलब्धियों की विवेचना करें।
अथवा, कनिष्क प्रथम की जीवनी एवं उपलब्धियों का विवरण दें।
उत्तर:
कडफिसस द्वितीय ने 64-78 ई० के मध्य शासन किया। इसके पश्चात् सत्ता कनिष्क ग्रुप के शासकों के हाथों में आयी। कनिष्क प्रथम इस शाखा का सबसे महान शासक हुआ। वह एक साम्राज्य निर्माता, महान योद्धा, कला, धर्म एवं संस्कृति का संरक्षक माना जाता है। बौद्धधर्म के इतिहास में कनिष्क को विशिष्ट स्थान दिया गया है। अशोक के ही समान कनिष्क ने भी बौद्धधर्म को राज्याश्रय दिया। उनके प्रयासों से महायान बौद्धधर्म का मध्य एशिया में प्रसार हुआ।

कनिष्क की तिथि – कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि विवादग्रस्त है। भिन्न-भिन्न समय पर विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग तिथियाँ सुझायी हैं। अनेक विद्वान मानते हैं कि कनिष्क ने ही अपने राज्यारोहन के साथ 78 ई० में शक संवत आरम्भ किया। फ्लीट महोदय कनिष्क को विक्रम संवत् का संस्थापक (58 ई० पू०) मानते हैं। अन्य विद्वानों ने कनिष्क के राज्यारोहण की तिथि क्रमश 125 ई०, 144 ई०, 248 ई०, 278 ई० माना है, परन्तु अधिकांश आधुनिक विद्वान यह स्वीकार करते हैं कि कनिष्क 78 ई० में गद्दी पर बैठा। उसने 23 या 24 वर्षों तक शासन किया (101-102 ई०)। उसके राज्यारोहण से ही शक संवत आरम्भ हुआ, जिसे भारत सरकार द्वारा भी व्यवहार में लाया जाता है।

कनिष्क की उपलब्धियाँ (Achievements of Kanishka)

साम्राज्य का विस्तार – कनिष्क एक महान योद्धा एवं साम्राज्य निर्माता के रूप में विख्यात है। उसने कुषाण राज्य का भारत में और अधिक विस्तार किया। कनिष्क के अभिलेखों उसके सिक्कों के प्राप्ति स्थानों एवं कतिपय साहित्यिक ग्रन्थों से उसके सैनिक अभियानों एवं साम्राज्य के विस्तार की जानकारी मिलती है। जिस समय कनिष्क गद्दी पर बैठा उस समय कुषाण साम्राज्य में अफगानिस्तान सिंध का भाग, बैक्ट्रिया एवं पार्थिया भी सम्मिलित थे। भारत में अपने राज्य का विस्तार उसने मगध तक किया कल्हन की राजतरंगिणी से ज्ञात होता है कि उसने कश्मीर पर अधिकार कर कनिष्कपुर नगर (आधुनिक श्रीनगर के निकट काजीपुर) की स्थापना की। तिब्बती साहित्य में यह वर्णित है कि उसने अपनी सेना के साथ साकेत अयोध्या तक आक्रमण किया एवं साकेत के राजा को युद्ध में पराजित किया।

चीनी साहित्य (कल्पनामडितिका का चीनी अनुवाद), अश्वघोष की रचनाओं और श्री धर्मपिटक सम्प्रदायनिदान से विदित होता है कि उसने मगध की राजधानी पाटलिपुत्र पर आक्रमण किया तथा वहाँ से वह प्रसिद्ध बौद्ध-विद्वान अश्वघोष और बुद्ध का भिक्षा-पात्र लेकर अपनी राजधानी पुरुषपर या पेशावर (पाकिस्तान) लौट गया। उसने संभवत: उज्जैन के क्षत्रपों से भी यद्ध कर उन्हें पराजित किया तथा मालवा पर अधिकार कर लिया। कनिष्क ने भारत के बाहर म एशिया में भी युद्ध किया। काशनगर, यारकंद और खोतान पर आधिपत्य जमाने के लिए उसे चीनी सम्राट हो-तो के महत्त्वाकांक्षी सेनापति पान-चाओ से दो बार युद्ध करना पड़ा। पहली बार युद्ध में कनिष्क पराजित हुआ, लेकिन दूसरी (पानचाओ की मृत्यु के पश्चात्) वह चीनी सम्राट पर विजय प्राप्त कर सका। उसने सम्भवतः पार्थिया के राजा को भी युद्ध में पराजित किया। इस प्रकार मौर्य साम्राज्य के पश्चात् पहली बार एक विशाल साम्राज्य की स्थापना हुई जिसमें गंगा, सिन्धु और ऑक्सस की घाटियाँ सम्मिलित थीं।’

कनिष्क की विजयों के परिणामस्वरूप कुषाण साम्राज्य अराल समुद्र से लेकर गंगा की घाटी तक फैल गया।

कनिष्क के अभिलेखों और उसके सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से इस विशाल साम्राज्य की सीमा की जानकारी मिलती है। उसके अभिलेख पेशावर, कोशल, सारनाथ, मथुरा, सूई बिहार, जेद्दा तथा मनिक्याला से मिले हैं। साँची से भी एक अभिलेख मिला है। अभिलेखों के आधार पर कनिष्क के साम्राज्य की सीमा, पूर्व में बनारस से लेकर दक्षिण-पश्चिम में बहावलपुर तक निश्चित की गयी है मालवा सहित परन्तु सिक्कों के प्राप्ति स्थानों से पता लगता है कि पूर्व में बनारस के आगे भी उनका साम्राज्य था। बिहार में पाटलिपुत्र, बक्सर, चिरांद और बक्सर की खुदाइयों से कनिष्क के सिक्के मिले हैं जिनसे इन जगहों पर कुषाण आधिपत्य की पुष्टि होती है। कुछ विद्वान दक्षिण भारत और बंगाल पर भी कनिष्क का आधिपत्य स्वीकार करते हैं, परन्तु इसके लिए स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं।

प्रशासनिक व्यवस्था – साम्राज्य-विस्तार के साथ ही कनिष्क ने प्रशासनिक व्यवस्था की तरफ भी ध्यान दिया। विजित क्षेत्रों पर अपना प्रभाव जमाने के लिए उसने गौरवपूर्ण उपाधियाँ धारण कीं। चीनी एवं रोमन सम्राटों की ही तरह उसने देवपुत्र (Son of Heaven) और कैसर (Cassar) की उपाधियाँ धारण की। उस समय में साम्राज्य की दो राजधानियाँ थी-पुरुषपुर और मथुरा। कनिष्क ने प्रशासनिक सुविधा के लिए क्षेत्रीय प्रशासनिक व्यवस्था को लागू किया। सारनाथ से प्राप्त अभिलेख से ज्ञात होता है कि बनारस में खर-पल्लन एवं वनस्पर कनिष्क के महाक्षत्रप एवं क्षत्रप के रूप में शासन करते थे। पश्चिमोत्तर भाग में सेनानायक लल वेसपति एवं लियाक क्षत्रपों के रूप में शासन करते थे।

धार्मिक नीति – कनिष्क की महानता इस बात में भी निहित है कि विदेशी होते हए भी उसने भारतीय धर्म में गहरी अभिरुचि ली। बौद्धधर्म से वह विशेष रूप से प्रभावित था। बौद्ध ग्रन्थों में कनिष्क को एक उत्साही बौद्ध के रूप में चित्रित किया गया। भारतीय इतिहास में बौद्ध धर्म को संरक्षण देने वाले शासकों में अशोक के पश्चात कनिष्क का ही नाम सबसे अधिक विख्यात है। अश्वघोष और मातृचेट जैसे बौद्धों के आकार उसने बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया। बौद्ध विद्वान पार्श्व की सलाह पर उसने कश्मीर कुछ विद्वानों के अनुसार जालंधर में बौद्धों की चौथा महासंगीत का आयोजन किया। इस महासभा की अध्यक्षता वसुमित्र ने की। इस सभा का उद्देश्य विभिन्न बौद्ध विद्वानों में प्रचलित मतभेदों को दूर करना था। सभा करीब छह मास तक चली जिसमें लगभग 500 विद्वानों ने भाग लिया। अश्वघोष उस सभा का उपाध्यक्ष था।

इस सभा में बौद्ध – धर्म ग्रन्थों पर विस्तृत टीकाएँ लिखवायी गयीं तथा महाविभाग (बौद्ध-ज्ञानकोष) तैयार किया गया। इस परिषद ने महायान-बौद्धधर्म को मान्यता दी। फलस्वरूप इस समय से महायान की प्रमुख बौद्धधर्म बन गया। कनिष्क ने अशोक की ही तरह बौद्धधर्म (महायान शाखा) के प्रसार के लिए अनेक कदम उठाये। उसने अनेक बौद्ध विहारों, चैत्यों एवं स्तूपों का निर्माण करवाया। उसने पेशावर (पुरुषपुर) में एक बहुत ही भव्य स्तूप का निर्माण करवाया। बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए चीन एवं मध्य एशिया में धर्म-प्रचारक भी भेजे गये। यद्यपि कनिष्क स्वयं बौद्धधर्म को माननेवाला था, परन्तु उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनायी। इसका प्रमाण उसके सिक्कों पर अनुकृत बुद्ध के अतिरिक्त सूर्य, शिव, अग्नि, हेराक्लीज-जैसे भारतीय यूनानी एवं ईरानी देवताओं की आकृतियाँ हैं। कुछ ताम्र सिक्कों में उसे वेदि पर बलिदान चढ़ते हुए भी दिखलाया गया है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि कनिष्क अपने राज्य में प्रचलित सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु था।

कला एवं साहित्य को संरक्षण – कनिष्क की उदारता से कुषाणकाल में कला एवं साहित्य की भी प्रगति हुई। स्थापत्य और मूर्तिकला का विकास हुआ। कनिष्क ने पुरुषपुर में एक विशाल स्तूप का निर्माण करवाया जिसकी प्रशंसा चीनी यात्री ह्वेनसांग भी करता है। कश्मीर में उसने कनिष्क पर नगर की स्थापना की। तक्षशिला का नया नगर सिरसुख भी कनिष्क के समय में ही बनी। कनिष्कयुगीन स्थापत्य का एक सुन्दर नमूना मथुरा का देवकुल और नाम मन्दिर हैं। महायान बौद्धधर्म के विकास ने मूर्तिकला को भी प्रभावित किया। गांधार और मथुरा की विशिष्ट शैलियों में बुद्ध की सुन्दर मूर्तियाँ बनायी गयीं। कुषाण (कनिष्क) कालीन सिक्के भी कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।

कनिष्क ने विद्वानों को समुचित सम्मान प्रदान किया। उसके दरबार में पार्श्व, वसुमित्र, नागार्जुन जैसे प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान एवं दार्शनिक थे।

प्रश्न 7.
समुद्रगुप्त की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
समुद्रगुप्त-पराक्रमांक के अध्ययन-स्रोत अनेक हैं। कौशाम्बी के अशोक-स्तम्भ पर समुद्रगुप्त की विस्तृत प्रशस्ति अंकित है। हरिषेण-रचित प्रयाग-प्रशस्ति भी उल्लेखनीय है। समुद्रगुप्त की निम्नलिखित उपलब्धियाँ उल्लेखनीय हैं-

विजय – समुद्रगुप्त का राजनीतिक आदर्श दिग्विजय और भारत का राजनीतिक एकीकरण था। इसके लिए उसने दिग्विजय की योजना बनायी। इस विजय-यात्रा में उसने आर्यावर्त के नौ राजाओं तथा दक्षिणपथ के बारह नरेशों को परास्त किया, मध्यभारत के समस्त जंगल के राजाओं को अपना सेवक बनाया और सीमा प्रदेश के शासकों तथा गणराज्यों को कर देने के लिए बाध्य किया। दूर देशों के नरेशों ने उससे मित्रता स्थापित की। प्रयाग-प्रशस्ति में उसकी विजयों का वर्णन कई स्थलों पर किया गया है, पर इसके आधार पर तिथिक्रम के संबंध में कुछ कहना असंभव है। समुद्रगुप्त के विजय-कार्य का वर्णन निम्नलिखित है-

1. आर्यावर्त की विजय – विन्ध्य तथा हिमालय के बीच के क्षेत्रों को आर्यावर्त कहते थे। समुद्रगुप्त ने समस्त उत्तरी भारत के राजाओं को परास्त कर उनके राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। प्रयाग-प्रशस्ति में आर्यावर्त के नौ राजाओं के नाम इस प्रकार हैं-रुद्रदेव, मतिल, नागदत्त, चन्द्रवर्मन, गणपतिनाग, नागसेन, अच्युत, नन्दि और बलवर्मा। प्रारम्भ में समुद्रगुप्त के दो प्रबल शत्रु थे–पाटलिपुत्र का कोटकुल और मथुरा तथा पद्मावती के नागवंश, जो कोटकुल के सम्बन्धी थे। जिस समय समुद्रगुप्त पाटलिपुत्र पर आक्रमण कर रहा था, संभवतः उसी समय पीछे से अच्युत और नागसेन नामक राजाओं ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। समुद्रगुप्त ने पहले अच्युत और नागसेन को बुरी तरह से पराजित किया और तब आसानी से कोटकुल का विनाश कर पाटलिपुत्र में प्रवेश किया। आर्यावर्त में उसे दो बार अपना अभियान चलाना पड़ा। उसने प्रथम अभियान में अच्युत और नागसेन को पराजित किया। दूसरे, आर्यावर्त के युद्ध में उसने शेष राज्यों को बलपूर्वक समाप्त करके अपने साम्राज्य में मिला लिया। प्रथम अभियान में अच्युत, नागसेन और कोटवंशी शासक और दूसरे अभियान में गणपतिनाग, चन्द्रवर्मन, रुद्रदेव आदि शासक पराजित हुए और उनके राज्य गुप्त साम्राज्य में मिला लिये गये।

2. आटविक-नरेश-फ्लीट के अनुसार, आटविक-नरेश गाजीपुर से लेकर जबलपुर तक फैले हुए थे। आटविक राज्यों की संख्या 18 थी। इस क्षेत्र को ‘महाकान्तार’ भी कहा गया है। डॉ. हेमचन्द्र राय चौधरी इसे मध्यभारत का जंगल मानते हैं रामदासजी ने इसे जबलपुर से छोटानागपुर तक का झारखण्ड का क्षेत्र माना है। समुद्रगुप्त ने आटविक के नरेशों को पराजित किया।

3. दक्षिण-भारत-दक्षिण-विजय के सम्बन्ध में इतिहासकारों में बड़ा मतभेद है। के० पी० जायसवाल और प्रो० डूबेल का अनुमान है कि कोलेरू तालाब के किनारे दक्षिणी नरेशों ने समुद्रगुप्त से युद्ध किया। इसका नेतृत्व केरल के मण्टराज और काँची के विष्णुगोप ने किया। पराक्रमी विजेता समुद्रगुप्त ने समस्त दक्षिणी राजाओं को पराजित किया, परन्तु उसने राज्यों को गुप्त साम्राज्य में सम्मिलित नहीं किया। उसने विजित प्रदेश स्थानीय शासकों को लौटा दिया तथा अपने छत्रछाया में उन्हें राज्य करने की आज्ञा दी। दक्षिणापथ के पराजित राजाओं की नामावली इस प्रकार हैं-

कोशल का महेन्द्र – इसमें महाकोशल, विलासपुर, रायपुर और संभलपुर के जिले सम्मिलित थे ।
महाकांतार का व्याघ्रराज – व्याघ्रराज महाकान्तार का शासक था।
केरल का मण्टराज – संभवत: यह प्रदेश गोदावरी तथा कृष्णा के बीच कोलेरूकासार है।
पैण्ठपुर का स्वामीदत्त – पिष्टपुर, महेन्द्रगिरी और कोटूर का शासक स्वामी दत्त था।
एरण्डपल्लक दमन – यह स्थान गंजाम जिले में चिकाकोल के समीप एरण्डपल्ली में है।
कांचेयक विष्णुगोप – विष्णुगोप कांची का शासक था। मद्रास के निकट कांजीपुरम ही कांची है।
आवमुक्तक नीलराज – इसकी राजधानी गोदावरी के निकट पिथुण्डा थी।
वैगेयक हस्तिवर्मा – हस्तिवर्मा वेंगी का राजा था। यह स्थान नेलोर जिले में है।
देवराष्ट्रक कुबेर – राजा कुबेर देवराष्ट्र स्थान का था। यह स्थान विजिगापत्तम जिले का एलमंचि है।
कोस्थलपुरम धनंजय – कोस्थलपुर का शासक धनंजय था। वह स्थान उत्तर आर्काट का कुट्टलुर है।

प्रयाग – प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त आटविक राज्यों को जोतकर मध्यप्रदेश में पहुँचा और वहाँ से महाकोशल तथा महाकान्तार के मार्ग से होता हुआ कलिंग के समीप उसने समस्त नरेशों को पराजित किया। दक्षिण-पूर्व के प्रदेशों को अपने अधीन करते हुए उसने कांची पर आक्रमण किया। दक्षिण में उसका प्रभाव चरराज्य तक पहुँच गया। डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी के अनुसार, “वह महाराष्ट्र तथा खानदेश के रास्ते अपनी राजधानी लौट आया।”

दक्षिणी राजाओं के साथ समुद्रगुप्त ने धर्मविजय-नीति का अवलंबन किया। उसने इन राजाओं को पराजित करने के बाद उनका राज्य फिर उन्हीं को लौटा दिया। उन लोगों ने समुद्रगुप्त का आधिपत्य स्वीकार किया और वह उपहार तथा कर ग्रहण करके उत्तर भारत लौटा। दक्षिण के राज्य उसे कर, आज्ञाकरण और प्रणाम द्वारा प्रसन्न करने लगे।

4. प्रत्यन्त राज्यों (सीमावर्ती राज्यों) से सम्बन्ध-दक्षिणी राजाओं को परास्त करने के बाद सीमावर्ती राज्यों की विजय की गयी। इसमें पाँच भिन्न-भिन्न प्रदेशों के शासक और नौ गणराज्य थे। सीमान्त प्रदेशों ने समुद्रगुप्त को सर्वकर (सर्वनकर दान) दिये, उसकी आज्ञाओं का पालन (आज्ञाकरण) किया, स्वयं उपस्थित होकर प्रणाम (प्रणामकरण) किया और उसके सुदृढ़ शासन को पूर्णतः परितुष्ट किया। ऐसे राज्य निम्नलिखित थे-

समतट-पूर्वी सीमा के राज्य (समुद्र तक विस्तीर्ण पूर्वी बंगाल)।
कामरूप-असम का गौहाटी जिला।
डवाक – नौगाँव जिला।
नोपाल और कर्तपुर – कुमायूँ, गढ़वाल और रुहेलखंड के पर्वतीय राज्य। गणराज्यों में निम्नलिखित प्रमुख हैं-
मालवा – अमेर, टोंक, मेवाड़।
आर्जुनायन – अलवर, मूर्वी जयपुर।
यौधेय – जोहियावार।
मद्र – रावी-चिनाव के बीच का प्रदेश।
आभीर – सराष्ट, मध्य भारत।
आर्जुन-मध्य प्रदेश के नरसिंपुर के पास का क्षेत्र।
सनकानिक – भिलसा के पास के क्षेत्र।
खरपरिक – मध्यप्रदेश में दमोह के पास।
उपर्युक्त नौ गणराज्यों ने स्वयं समुद्रगुप्त के प्रति आत्म-समर्पण कर दिया।

विदेशी राज्यों से सम्बन्ध – सिंहल और समुद्रपार के द्वीपों के साथ समुद्रगुप्त ने इन शर्तों पर सेवा और सहयोग की संधियाँ की-आत्मनिवेदन (मैत्री के प्रस्ताव), कन्योपायन (राजमहल में सेवा के लिए कन्याओं का उपहार), दान (स्थानीय वस्तुओं की भेंट) एवं उनकी स्वायत्तता और सुरक्षा (स्वविषयमुक्ति) को प्रमाणित करनेवाली मुद्रांकित सनदों का याचना। विदेशी राज्यों में दैवपुत्रशाही शाहानुशाही, शक, मुरुण्ड, सिंहल और हिन्दमहासागर के असंख्य छोटे-छोटे द्वीप थे। दैवपुत्रशाही शाहानुशाही उत्तर-पश्चिम में शासन करनेवाले कुषाण थे। शक उत्तर-पश्चिम भारत में थे। मुरुण्ड एक कुषाण जाति का नाम था। सिंहल के राजा मेघवर्मन ने समुद्रगुप्त की राजसभा में उपहारसहित एक दूतमंडल भेजकर बोधगया में यात्रियों के ठहरने के लिए एक मंदिर बनवाने की अनुमति मांगी थी और समुद्रगुप्त ने उसे मंजूर भी किया था। फाहियान को जावा में एक सम्पन्न हिन्दू-उपनिवेश देखने को मिला था।

इस प्रकार, समुद्रगुप्त ने एक विस्तृत साम्राज्य का निर्माण किया। उसने आर्यावर्त, दक्षिणापथ, आटविक राज्यों, प्रत्यन्त-नृपति और द्वीपों के नरेशों पर विजय प्राप्त की, लेकिन समस्त विजित देशों को अपने अधिकार में नहीं किया। विभिन्न देशों के प्रति उसकी विभिन्न नीति थी। सुदूर देशों में उसने मैत्री की, दक्षिण के शासकों को अपनी छत्रछाया में रखकर उन्हें स्वतंत्र शासन करने का अधिकार दिया और आर्यावर्त तथा आटविक राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया । इस प्रकार उसका साम्राज्य उत्तरी भारत तथा मध्य भारत तक विस्तृत था। बिहार से कांजीवरम् तक, सीमान्त राजाओं और गणराज्यों को पराजित कर उसने विदेशी शासकों के भी दाँत खट्टे किये और द्वीपान्तरों में अपना प्रभाव फैलाया। अपनी दिग्विजय के फलस्वरूप उसने अश्वमेघ-यज्ञ का आयोजन किया। इस यज्ञ में दान देने के लिए उसने सोने के सिक्के भी ढलवाये। सिक्कों पर ‘अश्वमेघ पराक्रम’ लिखा हुआ है।

समुद्रगुप्त के विजय-अभियानों को देखते हुए इतिहासकार विश्व ने उसे भारतीय नेपोलियन कहा है।

प्रश्न 8.
गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग क्यों कहा जाता है ?
अथवा, गुप्तों के अधीन भारत की सांस्कृतिक प्रगति की विवेचना करें।
उत्तर:
गुप्तकाल प्राचीन भारतीय इतिहास का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण युग माना जाता है। यह युग सिर्फ राजनीतिक एकता एवं प्रशासन के लिए ही महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि सांस्कृतिक विकास की दृष्टि से भी यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण काल है। इस समय कला, साहित्य, विज्ञान, धर्म की तपूर्व वृद्धि हुई। फलस्वरूप अनेक विद्वानों ने इसे प्राचीनकाल का स्वर्णिम युग (The Golden Age) की संज्ञा दी है। अनेक विद्वानों ने इसकी तुलना यूनान के पेरोक्लीज युग तथा रोम के ऑगस्टस यग से की है।

इसे अभिजात्य यग (Classical Age) भी कहा जाता है। नि:संदेह इस यग में सांस्कतिक प्रगति अधिक हई. परन्त यह प्रगति एक विशेष वर्ग के लिए ही थे साधारण के लिए यह काल सांस्कतिक विकास का यग था. ऐसा नहीं कहा जा स क्योंकि जनसाधारण के लिए इस प्रगति का कोई लाभ नहीं था। फलस्वरूप गप्तकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा दे उचित प्रतीत नहीं होता। फिर भी इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि यह काल सांस्कृतिक विकास का युग था, भले ही इसका लाभ किसी विशेष वर्ग के लिए सुरक्षित रहा हो।

वास्तव में चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ आदि जैसे प्रतापी गुप्त शासकों ने देश के लगभग समस्त भाग में एकछत्र राज्य कायम कर राजनीतिक एकता के सूत्र में समस्त भारत को बाँध दिया। पूरे क्षेत्र पर एक जैसी सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था कायम की गयी। फलस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता एवं अशांति का वातावरण समाप्त हो गया तथा सुख एवं शांति का साम्राज्य व्याप्त हो गया। इस अवस्था ने सांस्कृतिक विकास में काफी मदद पहुँचाई जिसके आधार पर विद्वान गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण युग मानते हैं।

गुप्तकाल धार्मिक पुनरुत्थान का युग था। इस समय वैदिक धर्म या ब्राह्मण धर्म पराकाष्ठा पर पहुँच गया। मूर्ति पूजा एवं मंदिरों का निर्माण भी इस युग में प्रारंभ हुआ। जैन एवं बौद्ध मतावलम्बी भी इस युग में थे। धार्मिक जीवन की प्रमुख विशेषता विभिन्न समुदायों में सहिष्णुता की भावना है। यूरोपीय देशों की तरह भारत में धर्म-युद्ध नहीं हुए बल्कि सभी धर्म वाले मिलजुल कर एक-दूसरे के साथ रहते थे। ऐसी बात नहीं है कि इनमें आपसी प्रतिद्वन्द्विता नहीं थी परन्तु वह कभी भी व्यापक रूप नहीं ले सकी। इसी से एक प्रसिद्ध विद्वान ने कहा है- “The Gupta period was an age of catholicity, toleration and a goodwill.”

इस काल में शिक्षा एवं साहित्य की भी अभूतपूर्व प्रगति हुई। अभी भी मौखिक शिक्षण-संस्थान ही प्रचलित थे। विद्यार्थियों को वेद, वेदांत, पुराण, मीमांसा, न्याय, धर्म एवं कानून की शिक्षा मुख्यतया दी जाती थी। गुप्तकालीन अभिलेखों में 14 प्रकार की विद्या का उल्लेख किया गया है। वैज्ञानिक शिक्षा का भी प्रसार इस युग में हुआ। अनेक शिक्षण केन्द्रों की स्थापना गुप्तकाल में हो चुकी थी। पाटलिपुत्र, बल्लभी, उज्जयिनी, पद्मावती, काशी, मथुरा, करा आदि इस समय के प्रख्यात शैक्षणिक केन्द्र थे। नालन्दा विश्वविद्यालय का भी विकास हो रहा था। राजाओं एवं धनी व्यक्तियों द्वारा इन शिक्षण-संस्थानों को धन एवं भूमि दान में दी जाती थी। कुमारगुप्त प्रथम, बुद्धगुप्त, तथागत गुप्त, बालादित्य आदि गुप्त शासकों ने नालन्दा महाविहार को अनुदान दिये।

गुप्तकाल की साहित्यिक प्रगति विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इस समय संस्कृत का समुचित विकास हुआ। संस्कृत प्रमुख भाषा बन गई। इसका व्यवहार अभिलेखों एवं मुद्राओं में भी होने लगा। फलस्वरूप यह राजकीय माध्यम बन गयी। संस्कृत में ही काल के प्रमुख विद्वानों एवं कवियों ने रचनाएँ लिखीं। इस युग में धार्मिक एवं धर्म-निरपेक्ष दोनों प्रकार की अनेक रचनाएँ । लिखी गईं। इसी साहित्यिक प्रगति के चलते कुछ विद्वानों में गुप्तकाल को अभिजात्य युग कह कर पुकारा है।

हिन्दू, बौद्ध एवं जैन सभी धर्मों के प्रमुख ग्रन्थों का रचना-काल गुप्त युग है। रामायण एवं महाभारत इसी काल में परिवर्द्धित रूप में लिखे गये। अधिकांश पुराणों को भी संकलित एवं सम्पादित किया गया। नारद स्मृति इस काल की स्मृतियों में प्रमुख है। पंचतंत्र, मानसागर, आर्यभट्टीय, वृहज्जातक, समाकावली, कामंदकीय, नीतिशास्त्र, वात्स्यायन का कामसूत्र आदि की भी रचना काल यही है। बौद्ध एवं जैन साहित्य की भी इस समय प्रगति हुई है। बुद्धघोष ने पट्टकथा का पालि भाषा में अनुवाद किया। असंग, दिङ्नाग एवं वसुबंधु ने दर्शन पर पुस्तकें लिखीं। इस युग के अन्य बौद्ध विद्वानों में कुमारजीव, बुद्धभद्र, धर्मरक्ष, गुपभद्र आदि के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। इन लोगों ने चीन में बौद्धधर्म एवं साहित्य का प्रचार किया। जैन रचनाओं में प्रसिद्ध स्थान जैन-आगम का है। जैन विद्वानों में सिद्धसेन, भद्रबाहु द्वितीय और उमास्वाति प्रमुख है।

गुप्तकाल संस्कृत नाटकों एवं काव्यों की रचना के लिए विश्वविख्यात है। इनमें सर्वोच्च स्थान महाकवि कालिदास का है। मेघदूत उनकी अनुपम काव्यकृति है। इसमें एक प्रेमातुर यक्ष की व्याकुल मनोभावना का बड़ा सजीव चित्रण किया गया है। रघुवंश में राम की विजय का उल्लेख है। ऋतुसंहार में विभिन्न ऋतुओं का शृंगारिक वर्णन है। कालिदास की सर्वोत्तम कृति अभिज्ञानशाकुन्तलम् है। कालिदास के अतिरिक्त शुद्रक एवं विशाखदत्त इस युग के दूसरे महान् नाटककार हुए। शूद्रक ने मृच्छकटिक एवं विशाखदत्त ने मुद्राराक्षस एवं देवी चन्द्रगुप्त की रचना की। स्वप्नवासवदत्तम भी इसी समय लिखी गई। इस प्रकार संस्कृत साहित्य की प्रगति के दृष्टिकोण से यह काल अपूर्व है।

दर्शन : गुप्त युग दार्शनिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार के लिए भी प्रसिद्ध है। षड्दर्शन का इस समय काफी प्रचार हुआ एवं यह भारतीय दर्शन की मुख्य विशेषता बन गयी है। भारतीय दर्शन के इतिहास में यह युग भाष्य रचनाकाल के रूप में प्रसिद्ध है। अनेक दार्शनिक ग्रंथों की रचना इस समय हुई। इनमें सांख्यशास्त्र, परमार्थ सप्तशती, न्याय, भाष्य, न्यायवर्तिका, पदार्थ-संग्रह इत्यादि प्रसिद्ध ग्रंथ है। जैमिनी-सूत्र, पूर्व-मीमांसा दर्शन, दर्शन के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं।

विज्ञान के क्षेत्र में गुप्तों की देन बहुमूल्य है। इस समय गणित, ज्योतिष, चिकित्सा, रसायन, भौतिकी आदि प्रत्येक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। इस युग के सबसे बड़े वैज्ञानिक आर्यभट्ट माने जाते हैं। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक आर्यभट्टीय है। इन्होंने अंकगणित, बीजगणित, ज्यामिति एवं त्रिकोणमिति के क्षेत्र में अन्वेषण किये। इन्होंने यह भी प्रमाणित कर दिया कि पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है तथा पृथ्वी एवं चन्द्रमा की बदलती हुई परिस्थितियों के कारण ग्रहण होता है। बाराहमिहिर इस युग के सबसे बड़े ज्योतिषी थे। इनकी प्रसिद्ध पुस्तक वृहदसहिता है।

बाराहमिहिर के ग्रन्थों में यवन सिद्धांतों का सामंजस्य मिलता है। कल्याणवर्मन ने फलित ज्योतिष पर जवली नाम का ग्रन्थ की रचना की। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान नागार्जुन ने रस चिकित्सा का आविष्कार किया। पारद (पारा) का आविष्कार भी इसी काल में हुआ था। उसके भस्म करने की क्रिया का आविष्कार कर नागार्जुन ने आयुर्वेद तथा रसायन शास्त्र के इतिहास में एक नये युग का आरंभ किया। महान् वैद्य धन्वन्तरि भी संभवत: गुप्तकाल में ही हुआ था। धातु विज्ञान एवं शिल्प कला की भी इस समय में प्रगति हुई। मेहरौली का लौह स्तम्भ गुप्तकालीन धातु विज्ञान की प्रगति का सबसे बढ़िया नमूना पेश करता है।

कला : कला की जितनी प्रगति इस समय हुई वह वास्तव में सराहनीय है। स्थानीय मूर्तिकला एवं चित्रकला की इस समय समुचित प्रगति हुई। मुद्रणकला में भी प्रगति हुई। गुप्त शासकों ने सोने के सिक्के भी काफी संख्या में ढलवाये। इन पर विभिन्न आकृतियाँ एवं लेख उत्कीर्ण किये जाते थे। इस समय मुद्रण-कला काफी उन्नत अवस्था में थी। संगीत, नाटक, अभिनय एवं नृत्य कला का भी विकास हुआ।

शहरी जीवन के विकास ने ललित कलाओं की प्रगति में सहयोग दिया। पत्थर पर लोहे के विशाल स्तम्भ भी इस युग में बने। लौह-स्तम्भ में राजा चन्द्र के मेहरौली स्तम्भ का उल्लेख किया जा सकता है। हजारों वर्ष तक धूप एवं वर्षा झेलने के बावजूद इसमें आज तक जंग नहीं लगा। गुप्त राजाओं ने अनेक स्तम्भ बनवाये जिनका प्रयोग अभिलेखों को उत्कीर्ण कराने के लिए किया गया। ऐसे स्तम्भ अनेक जगहों पर पाये गये हैं।

गुप्तयुगीन वास्तुकला एवं मूर्तिकला धर्म प्रभावित थी। वास्तुकला के क्षेत्र में स्तूपों, चैत्यों, गुफाओं, मंदिरों आदि का निर्माण हुआ। मंदिरों के निर्माण में गुप्तकाल में विशेष प्रगति हुई। इस युग में प्रमुख मंदिरों में साँची, लाघखान, देवगढ़ एवं भुमरा के मंदिर प्रसिद्ध है। इन सबमें देवगढ़ का विष्णु मंदिर महत्त्वपूर्ण है। इस समय में मंदिरों की मुख्य विशेषता यह थी कि इनमें केवल देवस्थान बनाये जाते थे। उपासकों के लिए हॉल या प्रांगण की व्यवस्था इन मंदिरों में नहीं थी। आरंभ में कलशों का भी निर्माण नहीं हुआ था। अजन्ता के कुछ गुफा मंदिर भी गुप्तकाल में ही बने थे। बौद्ध वास्तुकला के उदाहरण अमरावती, नागार्जुन कोण्डा, राजगृह, नालन्दा एवं सारनाथ में पाये जाते हैं।

मंदिर – निर्माण ने मूर्तिकला को भी प्रश्रय दिया। गुप्तकाल का स्वतंत्र रूप से विकास हुआ। इस पर विदेशी प्रभाव नहीं था। इस समय मथुरा, सारनाथ एवं पाटलिपुत्र मूर्तिकला के प्रमुख केन्द्र थे। धर्म का मूर्तिकला के विकास पर गहरा प्रभाव था। देवी-देवताओं की विभिन्न मूर्तियाँ इस समय बनायी गईं जिनमें सबसे प्रमुख विष्णु को विभिन्न अवतारों में दिखलाया गया। शिव को भी विभिन्न रूपों में प्रस्तुत किया गया। एकमुखी शिव, चतुर्मुखी शिव और अर्द्धनारीश्वर शिव की मूर्तियाँ गप्तकाल की विशिष्ट उपलब्धियाँ हैं। बौद्ध प्रतिमाएँ भी काफी बडी संख्या में बनीं। इनमें सारनाथ से प्राप्त बुद्ध की मूर्ति एवं सुल्तानगंज की ताम्बे की मूर्तियाँ गुप्तकालीन मूर्तिकला का अनूठा उदाहरण पेश करती हैं। जैन तीर्थंकरों की भी कुछ मूर्तियाँ इस समय बनीं।

चित्रकला भी उन्नत अवस्था में थी। गुप्तकालीन चित्रकला के नमूने अजन्ता, ग्वालियर की बाघ-गुफाओं एवं बादामी की गुफ़ाओं में अभी भी सुरक्षित हैं। अजन्ता की गुप्तयुगीन गुफाओं में गौतम बुद्ध के माहभिनिष्क्रमण का दृश्य बड़ा ही सजीव है। इसके अतिरिक्त इनमें बुद्ध एवं बोधि सत्वों के चित्र, जातक कथाएँ, मानव एवं पशु-पक्षी, देवी-देवता आदि के चित्र भी बड़े ही अच्छे एवं मनमोहक हैं। इन चित्रों में विशषया उच्चवर्गीय जीवन की झलक देखने को मिलती है। बाघ एवं बादामी की गफाओं के चित्र भी काफी सन्दर हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि गुप्त युग में सभ्यता एवं संस्कृति का चतुर्दिक विकास हुआ। इसी कारण गुप्त युग को हिन्दू-पुनर्जागरण का काल भी कहा जाता है, परन्तु कई आधनिक विद्वान इससे सहमत नहीं हैं। वास्तव में, इस समय कला के विकास पर बौद्ध धर्म की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है। इसी के प्रभाव में आकर इस युग में कला का विकास हुआ, उसी प्रकार ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में भी विदेशी प्रभाव परिलक्षित होता है। उदाहरणस्वरूप “वारहमिहिर के सिद्धांत रोमन एवं सिकन्दरिया के कालजयी ज्योतिर्विद पाल की स्थापनाओं की छाप है।” इस प्रकार “वैष्णव मत एवं शैव मत से भी किसी धार्मिक पुनरुत्थान का बोध नहीं होता है।”

कालिदास के ग्रंथों से बौद्धिक पुनर्जारण अथवा साहित्यिक कृतित्व के पुनरुत्थान का संकेत नहीं मिलता है। प्रो. डी० एन० झा के मत में “जिस हिन्दू पुनर्जागरण का बहुत प्रचार किया जाता है, वस्तुतः कोई पुनर्जागरण नहीं था, बल्कि वह बहुत अंशों में हिन्दुत्व का द्योतक था।” प्रो० डी. एन झा की यह मान्यता है कि “गुप्तकाल में राष्ट्रीयता का पुनरुत्थान नहीं हुआ, बल्कि राष्ट्रीयता ने ही गुप्तकाल को नवजीवन प्रदान किया। गुप्तकाल को स्वर्णयुग की संज्ञा देना उचित नहीं है।” फिर भी यह तो मानना ही होगा कि इस युग में कला एवं साहित्य की काफी अधिक प्रगति हुई।

प्रश्न 9.
गुप्त साम्राज्य के पतन के कारणों की चर्चा करें।
अथवा, गुप्त साम्राज्य के पतन के क्या कारण थे ?
उत्तर:
गुप्त साम्राज्य के पतन के निम्नलिखित कारण थे-
1. अयोग्य उत्तराधिकारी (Weak successors) – विशाल गुप्त साम्राज्य के संभालने के लिये समुद्रगुप्त के बाद कोई सबल शासक न हुआ; अत: केंद्रीय सत्ता के कमजोर होते ही कई राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी।

2. उत्तराधिकारी के नियम का अभाव (Lack of the law of succession) – उत्तराधिकार नियम के अभाव के कारण सम्राट के मरते ही गृह युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती थी अत: जो शक्तिशाली होता था, वही राजगद्दी प्राप्त कर लेता था।

3. सीमावर्ती क्षेत्रों की अवहेलना (Negligence of the frontiers) – चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् किसी भी गुप्त शासक ने सीमावर्ती क्षेत्रों पर ध्यान नहीं दिया। अतः विदेशी आक्रमणकारी बिना रोक टोक भारत में प्रवेश कर लेते थे।

4. बौद्ध धर्म का प्रभाव (Effect of Buddhism) – बौद्ध धर्म के प्रभाव ने राजाओं को अहिंसावादी बना दिया। दूसरे शब्दों में सेना बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण पंगु हो गई। अत: जिनजिन गुप्त शासकों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया, मानो उन्होंने शत्रुओं को बुलावा दिया था।

5. विशाल साम्राज्य (Vast Empire) – गुप्त साम्राज्य बहुत विशाल था। उस समय यातायात के साधन नहीं के बराबर थे, अत: इतने बड़े राज्य पर नियंत्रण रखना कठिन था। इस प्रकार गुप्त साम्राज्य की विशालता भी पतन का एक कारण बनी।

6. सैनिक दुर्बलता (Military weakness) – यद्यपि गुप्त काल सुख-समृद्धि का युग था, परंतु बहुत लंबे समय तक युद्ध न होने से सेना सुख-प्रिय, विलासी एवं आलसी हो गई, फलस्वरूप सेना शक्तिहीन हो गई।

7. आंतरिक विद्रोह (Internal Revolts) – जब गुप्त साम्राज्य शक्तिशाली थे तो उनके भारतीय राजाओं ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली थी, परंतु गुप्त सम्राटों की सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गई, तो यह शासक विद्रोह करने लगी। मालवा के राजा यशोधवर्मन तथा वाकाटक के र ने विद्रोह करके स्वयं को स्वतंत्र कर लिया।

8. हूणों के आक्रमण (Attack of Hunas) – गुप्त साम्राज्य के पतन का मुख्य कारण हूण जाति के आक्रमण थे। ये आक्रमण चन्द्रगप्त विक्रमादित्य की मृत्यु के बाद ही प्रारंभ हो गये थे। डॉ. वीसेन्ट स्मिथ के अनुसार ‘पांचवीं और छठी शताब्दी के हूणों के आक्रमणों ने गुप्त साम्राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया और इस प्रकार कई नये राज्यों के जन्म के लिये क्षेत्र तैयार कर दिया।’

9. आर्थिक संकट (Economic Crisis) – धन की कमी भी गुप्त साम्राज्य के पतन का कारण बनी। स्कंदगुप्त को पुष्यमित्र की शुंग जाति और हूण जाति से बहुत से युद्ध करने पड़े। इससे सरकारी खजाना खाली हो गया। इस प्रकार आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ जाने से गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया।

प्रश्न 10.
अलबरूनी द्वारा दिए गए उसके तत्कालीन भारत के विवरण को अपने शब्दों में संक्षेप में दीजिए।
उत्तर:
अलबरूनी द्वारा दिए गए भारत के बारे में विवरण का सारांश-महमूद गजनवी के आक्रमणों के वक्त भारत में आए यात्री एवं इतिहासकार अलबरूनी ने भारत के बारे में जो वर्णन लिखा है, वह संक्षेप में नीचे लिखा जा रहा है-
1. सामाजिक स्थिति (Social Condition) – अलबिरूनी लिखता है कि सारा हिन्दू समाज जाति प्रथा के कड़े बन्धनों में जकड़ा हुआ था। उस समय बाल-विवाह और सती प्रथा की कुप्रथायें थीं। विधवाओं को पुनः विवाह करने की आज्ञा नहीं थी।

2. धार्मिक स्थिति (Religious Condition) – उसके वर्णन के अनुसार सारे देश में मूर्ति पूजा प्रचलित थी। लोग मंदिरों को बहुत दान देते थे। मंदिरों में बहुत-सा धन जमा था। साधारण जनता अनेक देवी-देवताओं में विश्वास रखती थी जबकि सुशिक्षित एवं विद्वान केवल एक ईश्वर में विश्वास रखते थे।

3. राजनीतिक दशा (Political Condition) – सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था। उसमें से कन्नौज, मालवा, गुजरात, सिंध, कश्मीर तथा बंगाल अधिक प्रसिद्ध थे। इनमें राष्ट्रीय भावना की कमी थी। ये आपस में ईर्ष्या के कारण सदैव लड़ते रहते थे। .

4. न्याय व्यवस्था (Judiciary) – फौजदारी कानून नरम थे। ब्राह्मणों को मृत्यु दण्ड नहीं दिया जाता था। केवल बार-बार अपराध करने वाले के ही हाथ-पैर काट दिए जाते थे।

5. भारतीय दर्शन (Indian Philosophy) – भारतीय दर्शन से अल-बिरूनी बहुत प्रभावित हुआ। उसने भगवद्गीता और उपनिषदों के ऊँचे दार्शनिक विचारों की मुक्त कण्ठ से सराहना की है।

6. ऐतिहासिक ज्ञान (Historical Knowledge) – इतिहास लिखने के बारे में वह लिखता है कि “भारतीयों को ऐतिहासिक घटनाओं को तिथि के अनुसार लिखने के बारे में बहुत कम ज्ञान है और जब उनको सूचना के लिए अधिक दबाया जाए तो वे कथा-कहानी शुरू कर देते हैं।” इस वर्णन से स्पष्ट है कि हमें उस काल तक इतिहास लिखने का वैज्ञानिक ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ था।

7. सामान्य स्वभाव (General Nature) – भारतीय झूठा अभिमान करते हैं तथा अपना ज्ञान दूसरों को देने को तैयार नहीं होते हैं। उसने लिखा है कि हिन्दू अपना ज्ञान दूसरों को देने में बड़ी कंजूसी करते हैं, वे अपनी जाति के लोगों को बड़ी कठिनता से ज्ञान देते हैं, विदेशियों की बात तो दूर रही। हिन्दू यह समझते हैं कि उसके जैसा देश नहीं है, उनके जैसा संसार में कोई धर्म नहीं है. उनके जैसा किसी के पास ज्ञान नहीं है…..।”

सारांश यह है कि अल-बिरूनी के वर्णन से तत्कालीन भारत के बारे में विस्तृत जानकारी मिलती है।

प्रश्न 11.
इल्तुतमिश की जीवनी और उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
इल्तुतमिश इलबरी जाति का तुर्क था। उसका पिता इलक खाँ एक कबायली सरदार था। उसका राजनीतिक जीवन ऐबक के दास के रूप में आरंभ हुआ लेकिन मुहम्मद गोरी की अनुशंसा पर ऐबक ने उसे दास्ता से मुक्त कर दिया था। आगे चलकर ऐबक ने अपनी एक बेटी का विवाह इल्तुतमिश के साथ कर दिया। दिल्ली का शासक बनने पर ऐबक ने इल्तुतमिश को बदायूँ का प्रशासन नियुक्त किया जो कि उस समय में एक महत्त्वपूर्ण पद था। बदायूँ में ही इल्तुतमिश को आरामशाह के विरोधियों के द्वारा गद्दी पर अधिकार करने का निमंत्रण प्राप्त हुआ।

दिल्ली की सल्तनत के प्रारंभिक तुर्क सुल्तानों में इल्तुतमिश का व्यक्तित्व महत्त्वपूर्ण और प्रभावशाली है। अनिश्चित राजनीतिक परिस्थितियों में और अत्यन्त गंभीर संकट के काल में इल्तुतमिश दिल्ली का शासक बना था। अपनी योग्यता और प्रतिभा के बल पर उसने दिल्ली सल्तनत को सुदृढ़ एवं शक्तिशाली रूप प्रदान किया। इल्तुतमिश की उपलब्धियों को समझने के लिए अथवा दिल्ली सल्तनत के प्रति उसके योगदान का मूल्यांकन करने के लिए यह आवश्यक है कि उन समस्याओं की ओर ध्यान दिया जाय तो इल्तुतमिश को राज्यारोहण के समय प्रस्तुत थीं।

इल्तुतमिश को अत्यन्त कठिन परिस्थितियों का सामना करना था। उसके पूर्व ऐबक ने अपने संक्षिप्त शासन काल में दिल्ली सल्तनत की स्थापना का काम आरम्भ तो किया, किन्तु उसे पूरा करने में असमर्थ रहा। इल्तुतमिश के लिए यह अनिवार्य था कि इस नवस्थापित राज्य को सुदृढ़ता प्रदान करे और इसके लिए एक कुशल प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण करे। किन्तु इन दोनों कामों के लिए पहले यह आवश्यक था कि इल्तुतमिश की अपनी स्थिति सुदृढ़ हो। इल्तुतमिश के समक्ष निम्नलिखित मुख्य समस्याएँ थीं-

  1. विरोधी सामंतों, विशेषकर कुत्बी और मुइज्जी सामंतों का दमन।
  2. अपने प्रतिद्वन्द्वियों यल्दोज और कुबाचा का दमन।
  3. राजपूताना और बंगाल के उपद्रवों और विद्रोहों का दमन।
  4. मंगोल आक्रमण से सल्तनत की रक्षा।
  5. सल्तनत के लिए प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण।

उसके 25 वर्षीय शासनकाल में इन सभी समस्याओं का समाधान हुआ। इस काल में निम्न चरणों में विभक्त किया जा सकता है। प्रथम चरण 1210 से 1220 तक रहा जबकि उसने अपने विरोधियों एवं प्रतिद्वन्द्वियों का दमन किया। सर्वप्रथम उसने उन सामन्तों की शक्ति को कुचला जो गद्दी पर उसके अधिकार का विरोध कर रहे थे। इसमें अधिकतर कुत्बी और मुइज्जी सामंत थे जो इस आधार पर इल्तुतमिश के विरुद्ध हो रहे थे कि वह एक दास का भी दास है, अतः राजगद्दी पर उसका अधिकार अनुचित है। इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम इन सामंतों को युद्ध में पराजित किया। इसके बाद उसने क्रमिक रूप से सभी महत्त्वपूर्ण पदों से इन सामंतों को चित किया। उसने अपने विश्वसनीय 40 दासों का एक नया दल संगठित किया जो ‘चालीसा’ दल कहा जाता है। इस दल के सदस्यों को सभी बड़े पदों पर नियुक्त करके इल्तुतमिश ने अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली।

इल्तुतमिश के प्रतिद्वन्द्वियों में सर्वप्रथम यल्दोज के साथ उसका संघर्ष हुआ। यल्दोज गजनी का शासक था. और दिल्ली पर भी अपनी सम्प्रभुता का दावा करता था। यद्यपि उसे ऐबक ने पराजित किया था, परन्तु इल्तुतमिश की आरंभिक कठिनाइयों को देखते हुए यल्दोज ने पुन: अपना दाबा दोहराया था। 1215-16 के बीच इल्तुतमिश ने यल्दोज को पुनः पराजित किया और इस समस्या का समाधान किया। यह एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण उपलब्धि थी क्योंकि उसके साथ ही दिल्ली सल्तनत का गजनी के साथ सम्पर्क सदा के लिए टूट गया और सल्तनत का विकास एक स्वतंत्र उत्तर भारतीय राज्य के रूप में हुआ जिसको मध्य एशियाई राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस समय उसने दूसरे विरोधी कुबाचा के विरुद्ध भी कार्यवाही की किन्तु उसे पूर्ण सफलता नहीं मिली।

दूसरा चरण 1212 से 28 के बीच है। इस काल का आरंभ एक अत्यन्त गंभीर संकट के साथ हुआ जब महान मंगलो विजेता चंगेज खाँ अपनी सेना के साथ दिल्ली सल्तनत की सीमा पर आ पहुँचा। चंगेज खाँ इस ओर ख्वारिज्म के राजकुमार मंगबरनी का पीछा करता हुआ आया था जो कि इल्तुतमिश से मंगोलों के विरुद्ध सहायता का आकांक्षी था। इल्तुतमिश ने कूटनीति से काम लेते हुए मंगबरनी को कोई सहायता नहीं दी। उसके आचरण से चंगेज खाँ संतुष्ट रहा और उसने भी दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण नहीं किया। इस प्रकार यह भयंकर संकट आसानी से टल गया। इसका एक अन्य लाभ इल्तुतमिश को हुआ। मंगबरनी ने सिन्धु नदी के किनारे के क्षेत्र में कुबाचा की शक्ति को बहुत कमजोर कर दिया था, अत: इसका लाभ उठाकर कुबाचा पर इल्तुतमिश ने चढ़ाई कर दी और 1224 में कुबाचा को पराजित करके उसने सिन्ध और मुल्तान को भी दिल्ली सल्तनत में मिला लिया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत के क्षेत्रों में पहली बार उल्लेखनीय विस्तार हुआ।

इस अवधि में पूर्वी सीमा की समस्या पर भी इल्तुतमिश ने ध्यान दिया। बंगाल का प्रान्त ऐबक के समय में भी स्वतंत्र होने का प्रयास कर चुका था। इल्तुतमिश की आरंभिक समस्याओं का लाभ उठाकर बंगाल में हेमामुद्दीन इवाज ने स्वतंत्र सत्ता ग्रहण कर ली थी और बिहार, उड़ीसा एवं कामरूप के क्षेत्रों में अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया था। इल्तुतमिश ने बंगाल पर दो सैनिक अभियान किये। 1227 तथा 1229 के अभियानों के फलस्वरूप बंगाल में स्थित लखनौती का राज्य दिल्ली के नियंत्रण में आ गया और बिहार के क्षेत्र बंगाल से अलग करके दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। इस प्रकार अपने राज्य की पूर्वी सीमा को इल्तुतमिश ने सुदृढ़ एवं सुरक्षित बना दिया।

तीसरा चरण 1229 से आरंभ हुआ और 1236 में समाप्त हुआ। इसमें इल्तुतमिश ने राजपूताना की समस्या का समाधान किया और प्रशासन तंत्र को सुव्यवस्थित किया। राजपूताना का क्षेत्र ऐबक के शासन काल से ही विद्रोह और उपद्रवों का केन्द्र बना हुआ था। वहाँ राजपूत सरदार तुर्की की सत्ता का अंत करने के लिए संघर्ष छेड़े हुए थे। अपने संक्षिप्त शासन काल में ऐबक इस समस्या का समाधान करने में असमर्थ रहा था, अतः इल्तुतमिश ने राजपूताना में कार्यवाही आरंभ की। उसका पहला सफल अभियान 1226 में रणथम्भौर पर अधिकार के साथ परा हआ। अगले पाँच वर्षों में इल्तुतमिश ने इस क्षेत्र में कई अभियान किये और अनेक क्षेत्रों को जीता। जिसमें अजमेर, नागौर और थंगनीर के नाम उल्लेखनीय हैं। अंतिम महत्त्वपूर्ण अभियान 1231 में ग्वालियर के विरुद्ध हुआ। इस प्रकार इल्तुतमिश ने उत्तरी और मध्य भारत के राजपूत शासकों को अपने नियंत्रण में रखा।

उपलब्धियाँ – एक विजेता और सेना नायक के रूप में इल्तुतमिश की उपलब्धियाँ अत्यन्त प्रभावशाली हैं। उसने एक असंगठित और निर्बल राज्य को न केवल शक्ति और सुदृढ़ता प्रदान की बल्कि उसके क्षेत्रों का भी पर्याप्त विस्तार किया और अपने विरोधियों की शक्तियों को कुचल डाला। इसमें कोई संदेह नहीं कि दिल्ली सल्तनत के आरंभिक सुदृढीकरण का काम इल्तुतमिश द्वारा ही संभव हुआ। किन्तु इल्तुतमिश मात्र एक विजेता ही नहीं था बल्कि एक योग्य प्रशासक भी था। उसी ने दिल्ली सल्तनत की प्रशासनिक व्यवस्था के निर्माण का काम आरंभ किया। इसके लिए सर्वप्रथम उसने 1229 में बगदाद के अब्बासी खलीफा से एक मंशूर अथवा स्वीकृति पत्र प्राप्त किया जिसके द्वारा उसे दिल्ली सल्तनत के सुल्तान के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। यह एक महत्त्वपूर्ण घटना थी क्योंकि अभी तक दिल्ली सल्तनत के स्वतंत्र अस्तित्व को वैधानिक रूप से स्वीकृति प्राप्त नहीं हो सकी थी। खलीफा के स्वीकृति पत्र से इल्तुतमिश की स्थिति और भी सुदृढ़ हुई। सुल्तान के रूप में अब उसकी सत्ता का विरोध उसकी मुस्लिम प्रजा द्वारा संभव नहीं रही। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस स्वीकृति द्वारा इल्तुतमिश एवं दिल्ली सल्तनत की स्वतंत्र सत्ता को मान्यता प्राप्त हो गयी।

आंतरिक प्रशासन के क्षेत्र में इल्तुतमिश का योगदान तीन क्षेत्रों में उल्लेखनीय है, इकतादारी व्यवस्था, मुद्रा प्रणाली एवं सैन्य संगठन।

इल्तुतमिश ने अपने राज्य को अनेक छोटे-छोटे भू-खंडों में विभक्त कर दिया जिन्हें इकता कहते हैं। इसके अधिकारी इकतादार कहलाते थे। बड़े क्षेत्रों के इकतादार प्रान्तीय गवर्नर के रूप में थे जो कानून और व्यवस्था की देख-रेख, लगान की वसूली, मुकदमों की सुनवाई और सैनिक सेवा प्रदान करने के कार्य करते थे। छोटे क्षेत्रों के इकतादार केवल सैनिक सेवा प्रदान करते थे। दोनों श्रेणियों के इकतादारों को वेतन के रूप में अपने इकता से लगान वसूलने का अधिकार था। इल्तुतमिश ने इस व्यवस्था का उपयोग उत्तर भारत की सामंतवादी प्रथा को समाप्त करने एवं केन्द्रीय प्रशासन को मजबूत बनाने के लिए किया। सामंतवादी प्रथा के विपरीत इल्तुतमिश ने समय-समय पर इकतादारों का स्थानान्तरण करके उन्हें केन्द्रीय प्रशासन के नियंत्रण में रखने का सफल प्रयास किया। इसके अतिरिक्त जिन राजपूत शासकों ने दिल्ली सल्तनत की अधीनता स्वीकार कर ली थी उन्हें भी नजराना देने के बदले उनके राज्य लौटा दिये गये।

इल्तुतमिश ने अरबी प्रथा के आधार पर एक नई मुद्रा-प्रणाली भारत में लागू की। इसमें ताम्बे के सिक्के अथवा पीतल और चाँदी के सिक्कों अथवा टंकों को प्रचलित किया गया। इन सिक्कों पर इल्तुतमिश का नाम अरबी में अंकित था। इन नये सिक्कों का प्रचलन भारत में तुर्कों की सत्ता की सुदृढ़ता का प्रतीक था।

इल्तुतमिश के अधीन किसी केन्द्रीय सेना का प्रमाण नहीं मिलता। उसने शाही अंगरक्षकों अथवा सैनिकों का एक दल बनाया था जो युद्ध के समय शाही सेना के रूप में ही काम करता था। इस व्यवस्था से वह सैनिक शक्ति के मामले में इकतादारों के ऊपर पूरी तरह निर्भर रहने से मुक्त हो गया। आगे चलकर बलवन ने इसी आधारशिला पर सैन्य संगठन का निर्माण किया।

इल्तुतमिश विजेता और प्रशासक के रूप में महान तो था ही, कला और संस्कृति का पोषक भी था। उसके शासन के समय में दिल्ली का नगर एक प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में विकसित हुआ जहाँ मध्य एशिया से आने वाले शरणार्थी कलाकारों, शिल्पकारों और विद्वानों को प्रश्रय मिला। इल्तुतमिश के दरबार में प्रसिद्ध इतिहासकार, मिनहाजेसिराज को प्रश्रय मिला जिसकी रचना तबकात-ए-नासीरी से भारत में तुर्की शासन के निर्माण और आरंभिक इतिहास का पता चलता है। प्रसिद्ध विद्वान् जुनैदी को इल्तुतमिश ने अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया। मध्य एशिया से आने वाले मजदूरों के योगदान से इल्तुतमिश ने अनेक भव्य इमारतों का निर्माण कराया जिनमें कुतुबमीनार, राजकुमार महमूद और इल्तुतमिश के मकबरे और मदरसे आज भी देखे जा सकते हैं।

निष्कर्ष में यह कहा जा सकता है कि भारत में तुर्कों की सत्ता के विकास में इल्तुतमिश का उल्लेखनीय योगदान है। उसने नवजात दिल्ली सल्तनत को न केवल विघटन से बचाया बल्कि उसे एक सुदृढ़ अस्तित्व प्रदान किया और उसके क्षेत्रों का विस्तार किया। उसने मंगोल आक्रमण के भीषण संकट से दिल्ली सल्तनत को सुरक्षित रखा। ऐबक द्वारा स्थापित दिल्ली सल्तनत को इसने सुदृढ़ एवं सुरक्षित बनाया।

Bihar Board 12th Geography Objective Important Questions Part 4

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Bihar Board 12th Geography Objective Important Questions Part 4

प्रश्न 1.
भारत में सबसे पहले कोयले की खुदाई कब प्रारम्भ हुई ?
(a) 1866
(b) 1814
(c) 1912
(d) 1810
उत्तर:
(b) 1814

प्रश्न 2.
एल्युमिनियम बनाने के लिए कच्चे माल के रूप में किस खनिज अयस्क का उपयोग किया जाता है ?
(a) बॉक्साइट
(b) मैंगनीज
(c) डोमोलाइट
(d) जस्ता
उत्तर:
(a) बॉक्साइट

प्रश्न 3.
भारत में मैंगनीज का उत्पादन कितना है ?
(a) 30 लाख टन
(b) 18 लाख टन
(c) 20 लाख टन
(d) 25 लाख टन
उत्तर:
(b) 18 लाख टन

प्रश्न 4.
मुम्बई हाई क्षेत्र जहाँ खनिज तेल मिलता है अरब सागर में बन्दरगाह से कितनी दूरी पर है ?
(a) 130 किमी०
(b) 120 किमी०
(c) 110 किमी०
(d) 150 किमी०
उत्तर:
(d) 150 किमी०

प्रश्न 5.
निम्न में से कौन-सी रोपण फसल नहीं है ?
(a) कॉफी
(b) गन्ना
(c) गेहूँ
(d) रबड़
उत्तर:
(c) गेहूँ

प्रश्न 6.
निम्न देशों में से किस देश में सहकारी कृषि का सफल परीक्षण किया गया है ?
(a) रूस
(b) डेनमार्क
(c) भारत
(d) नीदरलैंड
उत्तर:
(a) रूस

प्रश्न 7.
फूलों की कृषि कहलाती है
(a) ट्रक फार्मिंग
(b) कारखाना कृषि
(c) मिश्रित कृषि
(d) पुष्पोत्पादन
उत्तर:
(d) पुष्पोत्पादन

प्रश्न 8.
निम्न में से कौन-सी कृषि के प्रकार का विकास यूरोपीय औपनिवेशिक समूहों द्वारा किया गया ?
(a) कोलखोज
(b) अंगूरोत्पादन
(c) मिश्रित कृषि
(d) रोपण कृषि
उत्तर:
(d) रोपण कृषि

प्रश्न 9.
निम्न प्रदेशों में से किसमें विस्तृत वाणिज्य अनाज की कृषि नहीं की जाती है ?
(a) अमेरिका एवं कनाडा के प्रेयरी क्षेत्र
(b) अर्जेंटाइना के पंपास क्षेत्र
(c) यूरोपीय स्टेपीज क्षेत्र
(d) अमेजन बेसिन
उत्तर:
(d) अमेजन बेसिन

प्रश्न 10.
निम्न में से किस प्रकार की कृषि में खट्टे रसदार फलों की कृषि की जाती है ?
(a) बाजारीय सब्जी कृषि
(b) भूमध्यसागरीय कृषि
(c) रोपण कृषि
(d) सहकारी कृषि
उत्तर:
(b) भूमध्यसागरीय कृषि

प्रश्न 11.
निम्न कृषि के प्रकारों में से कौन-सा प्रकार कर्तन-दहन कृषि का प्रकार है ?
(a) विस्तृत जीवन निर्वाह कृषि
(b) आदिकालीन निर्वाह कृषि
(c) विस्तृत वाणिज्य अनाज कृषि
(d) मिश्रित कृषि
उत्तर:
(b) आदिकालीन निर्वाह कृषि

प्रश्न 12.
निम्न में से कौन-सी एकल कृषि नहीं है ?
(a) डेयरी कृषि
(b) मिश्रित कृषि
(c) रोपण कृषि
(d) वाणिज्य अनाज कृषि
उत्तर:
(a) डेयरी कृषि

प्रश्न 13.
लिग्नाइट या भूरे कोयले में कार्बन का अंश कितने प्रतिशत होता है ?
(a) 70 से 90%
(b) 45 से 70%
(c) 90% से अधिक
(d) 40%
उत्तर:
(b) 45 से 70%

प्रश्न 14.
एन्थासाइट कोयले में कार्बन की मात्रा कितने प्रतिशत होती है ?
(a) 90% से अधिक
(b) 80% से अधिक
(c) 70 से 90%
(d) 45 से 70%
उत्तर:
(a) 90% से अधिक

प्रश्न 15.
खनिज तेल का सबसे बड़ा उत्पादक देश कौन-सा है ?
(a) अमेरिका
(b) रूस
(c) सउदी अरब
(d) भारत
उत्तर:
(c) सउदी अरब

प्रश्न 16.
विश्व के सबसे बड़े लौह भंडार कहाँ हैं ?
(a) अमेरिका
(b) रूस
(c) घाना
(d) कनाडा
उत्तर:
(b) रूस

प्रश्न 17.
प्राथमिक कार्यकलाप है।
(a) व्यापार
(b) उद्योग
(c) कृषि
(d) सभी
उत्तर:
(c) कृषि

प्रश्न 18.
मानव का प्राचीनतम कार्यकलाप था।
(a) पशुपालन
(b) खनन
(c) आखेट एवं संग्रहण
(d) बुनाई
उत्तर:
(c) आखेट एवं संग्रहण

प्रश्न 19.
अब तक खनिजों की खोज हो चुकी है लगभग
(a) 100
(b) 200
(c) 2000
(d) 20000
उत्तर:
(c) 2000

प्रश्न 20.
चलवासी पशुचारण के कितने स्पष्ट क्षेत्र हैं ?
(a) पाँच
(b) छः
(c) सात
(d) आठ
उत्तर:
(c) सात

प्रश्न 21.
एशिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती कौन-सी है ?
(a) धारावी
(b) इमिजामो एंथू
(c) फेवलास
(d) रांचोज
उत्तर:
(a) धारावी

प्रश्न 22.
लगभग कितने करोड़ लोग आज नगरों में असुरक्षित जीवन जी रहे हैं ?
(a) 10 करोड़
(b) 50 करोड़
(c) 60 करोड़
(d) 80 करोड़
उत्तर:
(c) 60 करोड़

प्रश्न 23.
नगर की परिभाषा के अंतर्गत भारत में बस्तियों की जनसंख्या कितनी होनी चाहिए?
(a) 2000 से ऊपर
(b) 5000 से ऊपर
(c) 3000 से ऊपर
(d) 4000 से ऊपर
उत्तर:
(b) 5000 से ऊपर

प्रश्न 24.
भारत में कितनी जनसंख्या वाली बस्ती को ग्रामीण बस्ती कहते हैं ?
(a) 1000 से कम
(b) 2500 से कम
(c) 5000 से कम
(d) 3000 से कम
उत्तर:
(c) 5000 से कम

प्रश्न 25.
बस्तियों को कितने प्रकारों में बाँटते हैं ?
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) पाँच
उत्तर:
(a) दो

प्रश्न 26.
जापान में कितनी जनसंख्या वाली बस्ती को ग्रामीण बस्ती कहते हैं ?
(a) 10,000
(b) 20,000
(c) 30,000
(d) 40,000
उत्तर:
(c) 30,000

प्रश्न 27.
2006 की सूची के अनुसार टोकियो की जनसंख्या है
(a) तीन करोड़ चार लाख
(b) तीन करोड़ ब्यालीस लाख
(c) दो करोड़ बीस लाख
(d) कोई भी नहीं
उत्तर:
(b) तीन करोड़ ब्यालीस लाख

प्रश्न 28.
विश्व स्तर पर सेवाओं का निम्नलिखित में से कितना प्रतिशत योगदान है ?
(a) 10%
(b) 50%
(c) 20%
(d) 100%
उत्तर:
(c) 20%

प्रश्न 29.
20वीं शताब्दी में विश्व की जनसंख्या बढ़ी है।
(a) दो गुणा
(b) चार गुणा
(c) पांच गुणा
(d) दस गुणा
उत्तर:
(b) चार गुणा

प्रश्न 30.
पारमहाद्वीपीय स्टुवर्ट महामार्ग किनके मध्य से गुजरता है
(a) डार्विन और मेलबोर्न
(b) कनाडा
(c) संयुक्त राज्य अमेरिका
(d) रूस
उत्तर:
(a) डार्विन और मेलबोर्न

प्रश्न 31.
पशुधन की कृषि कहलाती है
(a) कारखाना
(b) ट्रक कृषि
(c) मिश्रित कृषि
(d) दुग्ध
उत्तर:
(c) मिश्रित कृषि

प्रश्न 32.
निम्नलिखित में से कौन-सा एक तृतीयक क्रियाकलाप है?
(a) कृषि
(b) पशुचारण
(c) व्यापार
(d) आखेट
उत्तर:
(c) व्यापार

प्रश्न 33.
निम्न में से कौन-सी रोपण फसल नहीं है?
(a) धान
(b) गन्ना
(c) कपास
(d) कॉफी
उत्तर:
(c) कपास

प्रश्न 34.
मानव विकास की अवधारणा निम्नलिखित में से किस विद्वान की देन है?
(a) डॉ० अबुल कलाम
(b) प्रो० अमर्त्य सेन
(c) डॉ० महबूब-उल-हक
(d) डॉ० राजेन्द्र प्रसाद
उत्तर:
(b) प्रो० अमर्त्य सेन

प्रश्न 35.
‘रुको और जाओ निश्चयवाद’ संकल्पना किसकी देन है?
(a) रीटर
(b) रैटजेल
(c) टेलर
(d) हम्बोल्ट
उत्तर:
(c) टेलर

प्रश्न 36.
डिगबोई किस राज्य में स्थित है?
(a) उड़ीसा
(b) गुजरात
(c) असम
(d) महाराष्ट्र
उत्तर:
(c) असम

प्रश्न 37.
इनमें से कौन परियोजना बाढ़-नियंत्रण के उद्देश्य से शुरू की गई थी?
(a) कोसी
(b) चंबल
(c) हीराकुंड
(d) भाखड़ा
उत्तर:
(a) कोसी

प्रश्न 38.
निम्नलिखित कौन कारक उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित नहीं करता है?
(a) जलापूर्ति
(b) ऊर्जा स्रोत
(c) बाजार
(d) उर्वर भूमि
उत्तर:
(d) उर्वर भूमि

प्रश्न 39.
‘अर्जुन’ किस फसल की उन्नत किस्म है?
(a) गेहूं
(b) चावल
(c) मक्का
(d) गन्ना
उत्तर:
(b) चावल

प्रश्न 40.
इनमें से कौन औद्योगिक नगर नहीं है?
(a) जमशेदपुर
(b) रूड़की
(c) दुर्गापुर
(d) सलेम
उत्तर:
(c) दुर्गापुर

प्रश्न 41.
खट्टे / रसदार फलों की खेती के लिए प्रसिद्ध है
(a) रोपण कृषि
(b) बागवानी कृषि
(c) सहकारी कृषि
(d) भूमध्यसागरीय कृषि
उत्तर:
(c) सहकारी कृषि

प्रश्न 42.
उच्च मानव विकास का सूचकांक कितना होता है?
(a) 1 से ऊपर
(b) 0.5 तक
(c) 0.8 से अधिक
(d) 1.5 तक
उत्तर:
(d) 1.5 तक

प्रश्न 43.
“भौगोलिक पर्यावरण एवं मानवीय गतिविधियों के पारस्परिक संबंधों का अध्ययन ही मानव भूगोल …………………. है।” यह परिभाषा किससे संबंधित है?
(a) रिटर
(b) हटिंग्स
(c) ब्लाश
(d) डार्विन
उत्तर:
(a) रिटर

प्रश्न 44.
भारतीय रेल को कितने क्षेत्रों में विभाजित किया गया है ?
(a) 9
(b) 14
(c) 16
(d) 18
उत्तर:
(c) 16

प्रश्न 45.
डिगबोई जो आसाम में है प्रसिद्ध है
(a) सोना उत्पादन के लिए
(b) कोयला के लिए
(c) खनिज तेल के लिए
(d) हीरा
उत्तर:
(c) खनिज तेल के लिए

प्रश्न 46.
मैनचेस्टर प्रसिद्ध है
(a) सूती वस्त्र उद्योग के लिए
(b) लौह इस्पात उद्योग के लिए
(c) कागज उद्योग के लिए
(d) ऊनी वस्त्र उद्योग के लिए
उत्तर:
(a) सूती वस्त्र उद्योग के लिए

प्रश्न 47.
निम्नलिखित में से कौन-सा लौह अयस्क नहीं है?
(a) मैग्नेटाइट
(b) लिगनाइट
(c) हेमेटाइट
(d) लिमोमाइट
उत्तर:
(b) लिगनाइट

Bihar Board 12th Geography Important Questions Short Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Geography Important Questions Short Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
जमशेदपुर एवं पुणे शहर के महत्त्व का उल्लेख करें।
उत्तर:
जमशेदपुर-जमशेदपुर झारखण्ड राज्य में स्वर्ण रेखा नदी के किनारे स्थित है। यहाँ भारत का सबसे बड़ा लौह-इस्पात का कारखाना है। यह कोयले की अपेक्षा लोहे की खान के निकट है। यह देश का निजी क्षेत्र का एकमात्र कारखाना है जिसे 1907 ई० में जमशेदजी टाटा द्वारा स्थापित किया गया था। यहाँ लोहे गुरुमहिसानी एवं नोआमंडी से प्राप्त होता है। कोयला झरिया के खानों से प्राप्त होता है।

पुणे-पुणे महाराष्ट्र राज्य में स्थित है। यहाँ सूती वस्त्र उद्योग काफी विकसित है। यह मुम्बई, शोलापुर औद्योगिक प्रदेश में स्थित है। यहाँ सूती वस्त्र के अलावे अनेक प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधन, खाद, दवाइयाँ, रसायन, साबुन, वनस्पति तेल, इंजीनियरिंग सामान, विद्युत उपकरण, मोटरगाड़ी, टी० वी० फ्रिज तथा अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान बनाने का कारखाना है।

प्रश्न 2.
कोको के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
कोको के पौधा बीजों से तैयार होता है। प्रायः समतल भाग में केले के साथ ही इसकी खेती की जाती है। पौधे की कटाई-छंटाई नहीं करनी पड़ती केवल साल में दो बार छीमी तोड़नी पड़ती है। चाकू से छिलका हटाकर एक सप्ताह किण्वन करके कड़वापन दूर किया जाता है। फिर, इन्हें धूप में सुखाया जाता है। दोनों को पूँजकर ऊपर से फिर छिलका उतारकर पीसा जाता है। चाकलेट बनाने के लिए इस पाउडर को और बारीक किया जाता है। इसके अतिरिक्त इससे मक्खन निकाला जाता है जिससे दवाइयाँ और सौंदर्य प्रसाधन बनते हैं।

प्रश्न 3.
हरित रासायनिकी क्या है ?
उत्तर:
हरित रासायनिकी का मूल मंत्र है, ‘दुर्घटना से बचाव की अपेक्षा दुर्घटना की संभावना को कम करना श्रेयस्कर है।’ निरंतर विकास और प्रगति को रोकना असंभव है। जनसंख्या वृद्धि और अन्य क्रियाकलापों के विकास के साथ प्रदूषण की समस्या भी बढ़ती चली जाएगी, जैसे भारत में कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए विभिन्न उर्वरकों और कीटनाशकों का आँख मूंदकर प्रयोग किया गया, फलस्वरूप भूमि की उर्वरा शक्ति कम होती चली गई। अतः हरित रासायनिकी का अर्थ है, ‘उद्योगों और रासायनिक क्रियाओं का ऐसा समायोजन जिससे हानिकारक पदार्थों की उत्पत्ति न्यूनतम हो या हो ही नहीं।

प्रश्न 4.
पत्तन एवं पोताश्रय के बीच अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
पत्तन समद्री तट पर जहाजों के ठहरने के स्थान होते हैं। यहाँ पर सामान लादने उतारने की सुविधाएँ होती हैं। जबकि पोताश्रय समुद्र में जहाजों के ठहरने का प्राकृतिक स्थान है। यहाँ जहाज लहरों तथा तूफान से सुरक्षा प्राप्त करते हैं। प्राकृतिक पोताश्रय मुंबई में कृत्रिम पोताश्रय चेन्नई में है।

प्रश्न 5.
सतत पोषणीय विकास क्या है ?
उत्तर:
1960 के दशक के अंत में पश्चिमी दुनिया में पर्यावरण संबंधी मुद्दों पर बढ़ती जागरूकता की सामान्य वृद्धि के कारण सतत् पोषणीय धारणा का विकास हुआ। इससे पर्यावरण पर औद्योगिक विकास के अनापेक्षित प्रभावों के विषयों में लोगों की चिंता प्रकट होती थी। 1968 में प्रकाशित एहरलिव की पुस्तक ‘द पापुलेशन बम’ और 1972 में मीकोस और अन्य द्वारा लिखी गई पुस्तक ‘द लिमिट टू ग्रोथ’ के प्रकाशन ने इस विषय पर लोगों और विशेषकर पर्यावरणविदों की चिंता और भी गहरी कर दी। उस घटना के परिप्रेक्ष्य में विकास के एक नए मॉडल जिसे सतत् पोषणीय विकास कहे जाने की शुरूआत हुई।

प्रश्न 6.
भारत में घटते जल संसाधन के लिए उत्तरदायी दो कारकों का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारत में जल संसाधन के घटने का दो प्रमुख कारण निम्नलिखित है-
(i) जल प्रदूषण – देश में उपलब्ध जल संसाधनों का तेजी से निम्नीकरण हो रहा है। देश के नदी जल में नालों के माध्यम से कृषिगत, घरेलू और औद्योगिक बहि:स्राव मिल जाते हैं, जिससे नदी जल प्रदूषित हो जाती है। इससे जल में कमी होती है।

(ii) जल के पन:चक्रण में कमी – नगरीय क्षेत्रों में पक्के मकानों एवं सड़कों के बन जाने से वर्षा जल का जमीन के अंदर रिसाव नहीं हो पाता है जिस कारण शहरी क्षेत्रों में भूमिगत जल का स्तर काफी नीचे चला गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि के विस्तार एवं औद्योगीकरण के कारण वनों का तेजी से विनाश हुआ है जिससे वर्षा का जल तेजी से बहकर नदी में चला जाता है और भूमि उसका अवशोषण नहीं कर पाता है। जिससे जल का पुनः चक्रण प्रभावित हो रहा है।

प्रश्न 7.
बारानी या वर्षा आधारित कृषि से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
बारानी या वर्षा आधारित कृषि-इसे वर्षा पर निर्भर कृषि कहते हैं। इसके अंतर्गत फसलों को केवल वर्षा का जल ही प्राप्त होता है। पश्चिम बंगाल, असोम, ओडिशा, बिहार, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश तथा अधिकांश पूर्वोत्तर राज्यों में इसी प्रकार की कृषि की जाती है। बारानी कृषि को दो भागों में बाँटा गया है-

  • शक कृषि – जहाँ वर्षा की मात्रा 75 सेमी० से कम होती है वहाँ शुष्क कृषि की जाती है। इन क्षेत्रों में शुष्कता सहन करने वाली फसल उगाई जाती है जैसे राई, बाजरा, मूंग, चना, ज्वार आदि।
  • आई कषि – जहाँ 75 सेमी० से अधिक वर्षा होती है उन क्षेत्रों में की जाने वाली कृषि आर्द्र कृषि कहते हैं। इन क्षेत्रों में अधिक पानी चाहने वाली फसल बोई जाती है, जैसे-चावल, गन्ना, जूट आदि।

प्रश्न 8.
नगरों, महानगरों एवं मेगा नगरों को परिभाषित करें।
उत्तर:
नगर – जहाँ की जनसंख्या 5,000 से अधिक हो, उसकी 25 प्रतिशत या इससे भी कम आबादी की मुख्य आजीविका कृषि न हो और अधिकांश जनसंख्या की आजीविका द्वितीय या तृतीय क्रियाकलाप हों, उसे नगर कहते हैं।

महानगर – 10 लाख से 50 लाख तक की जनसंख्या जिन नगरों में पाई जाती है उन्हें महानगर कहा जाता है। जैसे-पटना, लखनऊ, वाराणसी आदि।

मेगानगर – जिन नगरों की जनसंख्या 50 लाख से अधिक होती है उनहें विराट या मेगा नगर कहा जाता है। हमारे देश में मुम्बई और दिल्ली मेगानगर है।

प्रश्न 9.
गुच्छित एवं बिखरी बस्तियों के बीच अंतर करें।
उत्तर:
गच्छित बस्तियाँ – गुच्छित बस्तियाँ उन क्षेत्रों में मिलती है जहाँ मनुष्य सामाजिक दष्टि से अपने परे समाज के साथ मिलकर रहना पसंद करता है। उपजाऊ मिट्टी, समतल मैदानी भाग तथा पर्याप्त जलापूर्ति वाले क्षेत्र गुच्छित बस्तियों के बसाव के आदर्श क्षेत्र होते हैं। इन्हें सघन बस्तियाँ भी कहा जाता है।

बिखरी बस्तियाँ बिखरी बस्तियों में मकान एक-दूसरे से दूर-दूर बसे होते हैं, जिनका पारस्परिक संबंध कच्ची सड़कों या पगडंडियों से होता है। ऐसी बस्तियाँ सामान्यतः पहाड़ी क्षेत्रों में हैं जहाँ कृषि के लिए उपयुक्त धरातलीय अवस्थाएँ नहीं पायी जाती है।

प्रश्न 10.
बहुपक्षीय व्यापार क्या है ?
उत्तर:
बहुपक्षीय व्यापार विश्व के कई देशों के साथ वस्तु एवं सेवाओं का विनिमय है। व्यापार का प्रमुख उद्देश्य ऐसी वस्तुओं को खरीदना या बेचना होता है जिनकी आवश्यकता होती है। यदि किसी उत्पाद की माँग विदेशों में है और अपने यहाँ वह अधिक है तो निर्यात कर विदेशी मुद्रा अर्जित की जा सकती है। व्यापार का एक पहलू यह भी है कि इससे अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रगाढ़ता आती है।

प्रश्न 11.
पर्यटन के कोई दो लाभों का उल्लेख करें।
उत्तर:
पर्यटन के दो लाभ निम्नलिखित हैं
(i) रोजगार – पर्यटन में लोग एक स्थान से दूसरे स्थान या एक देश से दूसरे देश में जाते हैं। इससे देश के जनसंख्या को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से रोजगार के अवसर मिलते हैं। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी इसका महत्त्व अधिक है।

(ii) विदेशी मुद्रा की प्राप्ति – भारतीय कलाकृतियों को विश्व में बहुत मान्यता प्राप्त है। विदेशी पर्यटकों के आकर्षण के प्रमुख स्थल गोवा, राजस्थान, जम्मू-कश्मीर, दक्षिण भारत के मंदिर, आगरा का ताजमहल इत्यादि हैं। यहाँ विदेशी पर्यटक घूमने आते हैं और अपने साथ यहाँ की कलाकृतियों को खरीदकर ले जाते हैं, जिससे विदेशी मुद्रा प्राप्त होती है।

प्रश्न 12.
लिंग संरचना से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
लिंग संरचना को लिंग पिरामिड द्वारा प्रदर्शित किया जाता है। अधिकांश विकासशील देशों में लिंग पिरामिड का आधार चौड़ा तथा शीर्ष पतला होता है। इसका अभिप्राय यह है कि उच्च जन्म दर के कारण निम्न आयु वर्ग में विशाल जनसंख्या पायी जाती है। विकसित देशों में पिरामिड के आधार तथा मध्य की मोटाई लगभग एक जैसी होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जन्म दर कम होने के कारण बच्चों एवं मध्य आयु वर्ग के लोगों की संख्या लगभग समान है। पिरामिड का संकीर्ण आधार और शुंडाकार शीर्ष निम्न जन्म और मृत्यु दरों को दर्शाता है। इन देशों में जनसंख्या वृद्धि शून्य अथवा ऋणात्मक होती है।

प्रश्न 13.
कृषि घनत्व क्या है ?
उत्तर:
कृषि घनत्व का अर्थ एक ही खेत में एक कृषि वर्ष में उगाई गई फसलों की संख्या बोए गए शुद्ध क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में सकल फसलगत क्षेत्र में शस्य गहनता की माप को प्रकट करता है। कृषि घनत्व को ज्ञात करने का सूत्र है सकल फसलगत क्षेत्र
Bihar Board 12th Geography Important Questions Short Answer Type Part 2, 1
कृषि घनत्व मिजोरम की 100 प्रतिशत से लेकर पंजाब की 189 प्रतिशत के मध्य बदलती रहती है। सिंचाई कृषि घनत्व का प्रमुख निर्धारक तत्व है। जनसंख्या घनत्व का दबाव भी शस्य घनत्व को प्रभावित करता है।

प्रश्न 14.
जीवन निर्वाहक कृषि क्या है ?
उत्तर:
अधिक जनसंख्या वाले भागों की कृषि होने के कारण इस प्रकार की कृषि के अंतर्गत ऐसी उपज पैदा की जाती है जिसमें अधिक-से-अधिक श्रम का उपयोग हो सके और अधिक उत्पादन हो सके जिससे खाद्य समस्या का समाधान हो सके। इन प्रदेशों में चावल के अतिरिक्त गेहूँ, गन्ना, जूट आदि उपज पैदा की जाती है।

इन कृषि प्रदेशों में कृषि मुख्यतः पशुओं की सहायता से की जाती है। कृषि प्राचीन काल से रूढ़िवादी क्रिया से की जाती है।
इन प्रदेशों में खेती प्राचीन ढंग से की जाती है जिस कारण इतना अधिक उत्पादन नहीं हो पाता कि उनका निर्यात किया जा सके।

प्रश्न 15.
खनिज आधारित उद्योगों से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
खनिज आधारित उद्योग वैसे उद्योग को कहा जाता है जिसका कच्चा माल भूमि के अंदर से खनिज के रूप में प्राप्त होता है। जैसे-लोहा-इस्पात उद्योग, एल्युमीनियम उद्योग इत्यादि।

प्रश्न 16.
चिकित्सा पर्यटन को परिभाषित करें।
उत्तर:
जब चिकित्सा उपचार को अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन गतिविधि से सम्बद्ध कर दिया जाता है तो इसे सामान्यतः चिकित्सा पर्यटन कहा जाता है।

प्रश्न 17.
मानव विकास से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
लोगों के विकल्पों को बढ़ाना तथा जन कल्याण के स्तर को ऊँचा उठाना ही मानव विकास है। आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक विकास जन-कल्याण के प्रमुख पक्ष हैं। जनकल्याण से तात्पर्य मानव की चाहते जैसे-दीर्घ और स्वस्थ जीवन, शिक्षा द्वारा ज्ञान प्राप्ति तथा रहन-सहन के उच्च स्तर हैं।

प्रश्न 18.
उत्तरी भारत में सिंचाई के मुख्य साधन क्या हैं ?
उत्तर:
उत्तरी भारत में सिंचाई के प्रमुख साधन हैं-

  • नहरें
  • नलकूप
  • कुएँ और
  • तालाब

प्रश्न 19.
शुष्क कृषि किसे कहते हैं ?
उत्तर:
शुष्क कृषि सिंचाई किये बिना ही कृषि करने की तकनीक है। यह उन क्षेत्रों के लिये । उपयोगी है, जहाँ बहुत कम वर्षा होती है। इसके अंतर्गत उपलब्ध सीमित नमी को संचित करके बिना सिंचाई के ही फसलें उगायी जाती हैं। वर्षा की कमी के कारण मिट्टी की नमी को बनाये रखने तथा उसे बढ़ाने का निरन्तर प्रयास किया जाता है। इसके लिए गहरी जुताई की जाती है और वाष्पीकरण को रोकने का प्रयत्न किया जाता है। इसके अंतर्गत अल्प नमी में तथा कम समय में उत्पन्न होने वाली फसलें उत्पन्न की जाती हैं। इस प्रकार की खेती विशेष रूप से भूमध्य सागरीय प्रदेशों, अमेरिका के कोलम्बिया पठार तथा भारत में पश्चिमी राजस्थान, गुजरात और हरियाणा में की जाती है।

प्रश्न 20.
ऊर्जा के नवीनीकृत तथा अनवीनीकृत साधनों में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
नवीनीकृत साधन – यह ऊर्जा का स्रोत बार-बार काम में लाये जा सकते हैं या समाप्त नहीं होते हैं। जैसे-जल शक्ति, वायु शक्ति, सौर शक्ति या ज्वारीय शक्ति इत्यादि।

अनंवीनीकृत साधन – यह ऊर्जा का ऐसा स्रोत है जिसे एक बार ही काम में लाये जा सकते हैं अर्थात् वे क्षय (नष्ट) हो जाते हैं। जैसे-कोयला, खनिज तेल, प्राकृतिक गैस इत्यादि।

प्रश्न 21.
संचार, परिवहन तथा व्यापार में क्या अंतर हैं ?
उत्तर:
संचार (Communication) – संचार के साधन एक स्थान से दूसरे स्थान को सूचना भेजते हैं और प्राप्त करते हैं। डाक सेवाओं, टेलीफोन, फैक्स, इंटरनेट, समाचारपत्रों, टेलीग्राम आदि द्वारा सूचनायें भेजी और प्राप्त की जाती हैं।

परिवहन (Transport) – परिवहन से अभिप्राय मनुष्य तथा आवश्यक उपयोगी वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर लाने-ले जाने की प्रक्रिया है। परिवहन स्थल, जल और वायु द्वारा विभिन्न प्रकार के वाहनों द्वारा किया जाता है। कभी-कभी परिवहन के रूप में पशुओं और स्वयं मानव का उपयोग भी होता है।

व्यापार (Trade) – व्यापार बाजार के माध्यम से वस्तुओं और सेवाओं का आदान-प्रदान है। वस्तुओं के मूल्य में अंतर अथवा माँग और आपूर्ति व्यापार के लिए उत्तरदायी हैं। इस प्रकार व्यापार से अभिप्राय दो स्थानों के बीच वस्तुओं और सेवाओं का प्रवाह है।

प्रश्न 22.
समुद्री जल यातायात के क्या लाभ हैं ?
उत्तर:
सामुद्रिक जलमार्ग के निम्नलिखित लाभ हैं-

  • जल परिवहन एक देश से दूसरे देश के लिए भारी माल की ढुलाई का सस्ता और सरल साधन है।
  • महासागर सभी महाद्वीपों को एक-दूसरे से मिलाते हैं।
  • समुद्री परिवहन द्वारा जितना सामान एक साथ जलयानों द्वारा ढोया जा सकता है वह किसी अन्य साधन द्वारा संभव नहीं।
  • विशाल जलयानों में प्रशीतित कक्ष के बन जाने से शीघ्र नष्ट होने वाली वस्तुओं को ले जाना संभव हो गया है।
  • खनिज तेल अथवा गैस आदि को ढोने के लिए विशाल टैंकरों का उपयोग किया जा सकता है।
  • पत्तनों पर कंटेनरों के प्रयोग से सामान को उतारना या चढ़ाना आसान है।
  • आधुनिक जहाज रडार, वायरलेस आदि से सुसज्जित होते हैं। इसलिए खराब मौसम में भी रुकावट नहीं आतो!

प्रश्न 23.
बस्ती किसे कहते हैं ? यह सामान्यतया कितने प्रकार की होती है ?
अथवा, आप बस्ती को कैसे परिभाषित करेंगे ?
उत्तर:
बस्ती से अभिप्राय उस मानव अधिवास से है जिसमें एक से अधिक मकान होते हैं और जहाँ लोग सारा कार्य एक निर्मित क्षेत्र के भीतर ही करते हैं। ये सामान्यतया दो प्रकार की होती हैं-ग्रामीण तथा नगरीय बस्तियाँ।

प्रश्न 24.
स्थान एवं स्थिति के मध्य अंतर बताएँ।
उत्तर:
बस्तियों के स्थल (Settlement site)-

  1. बस्ती के स्थल से तात्पर्य उस वास्तविक भूमि से है जिस पर बस्ती विकसित हुई है।
  2. बस्ती का स्थल कोई मैदानी भाग, पहाड़ी क्षेत्र, नदी का किनारा अथवा एक तालाब या झीत हो सकता है।
  3. बस्ती का स्थल यह निर्धारित करता है कि वहाँ जल की उपलब्धता किस प्रकार होगी।

बस्तियों की स्थिति (Settlement situation)-

  1. बस्ती की स्थिति से तात्पर्य उस बस्ती के आस-पास के गाँवों के संबंध में उसकी स्थिति बताना होता है।
  2. बस्ती की स्थिति का अध्ययन प्राकृतिक पर्यावरण तथा सांस्कृतिक विरासत के संदर्भ में किया जा सकता है।
  3. किसी बस्ती का प्रतिरूप किसी प्रदेश विशेष के प्राकृतिक पर्यावरण का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 25.
बस्तियों के वर्गीकरण के क्या आधार हैं ?
उत्तर:
बस्तियों को विभाजित करने के आधार निम्नलिखित हैं-

  • जनसंख्या का आकार तथा
  • प्रकार्य अथवा आर्थिक आधार।

इन दो आधारों के अनुसार बस्तियाँ दो प्रकार की होती हैं-

  • ग्रामीण बस्तियाँ,
  • नगरीय बस्तियाँ।

जनसंख्या के आकार के अनुसार विश्व के सभी देशों में ग्राम और नगर को विभाजित करने का आधार अलग-अलग है। कनाडा में 1000 से कम जनसंख्या वाली बस्ती को ग्राम कहते हैं जबकि भारत में 5000 से कम जनसंख्या वाली बस्ती को ग्राम कहते हैं।

प्रकार्य के आधार पर बस्तियों की पहचान आर्थिक संरचना है। ग्रामीण बस्ती में अधिकांश जनसंख्या प्राथमिक कार्यों जैसे कृषि, मत्स्य, पशुपालन आदि में संलग्न रहती है जबकि नगरीय बस्ती की अधिकांश जनसंख्या द्वितीयक और तृतीयक व्यवसायों में संलग्न रहती है।

प्रश्न 26.
मानव भूगोल में मानव बस्तियों के अध्ययन का औचित्य बताएँ।
उत्तर:
मानव बस्तियों का अध्ययन मानव भूगोल का आधार है इसलिये मानव भूगोल में बस्तियों का अध्ययन आवश्यक हो जाता है, क्योंकि किसी विशेष प्रदेश में बस्तियों का प्रारूप मनुष्य और पर्यावरण के संबंधों को प्रदर्शित करता है। मानव बस्तियाँ वह स्थान है जहाँ मनुष्य स्थायी रूप से रहता है।

प्रश्न 27.
सूचना एवं संचार प्रौद्योगिकी का एक कार्य के रूप में वर्तमान एवं नवीन बस्तियों के विकास पर क्या प्रभाव होगा ?
उत्तर:
अब तक नगर प्रशासन, व्यापार उद्योग, रक्षा और धार्मिक केन्द्र रहे हैं। लेकिन अब नगर सूचना संचार और तकनीक के केन्द्र बन गए हैं। इनमें से कुछ के कार्यों को नगरों की आवश्यकता नहीं है। इस तकनीक से इन नगरों का विकास होगा। अन्य कार्यों के केन्द्र बन जाएँगे। सूचना प्रौद्योगिक के कारण ये अन्य नगर तथा देशों से जुड़ जाएँगे।

प्रश्न 28.
ग्रामीण बस्तियाँ क्या हैं ?
उत्तर:
वे बस्तियाँ जो भूमि से सीधे तथा काफी नजदीकी से जुड़ी होती हैं, ग्रामीण बस्तियाँ कहलाती हैं। ग्राम किसान तथा खेतिहर मजदूरों की अधिकता वाले क्षेत्रों में विकसित होते हैं।

ग्रामीण बस्तियों में जनसंख्या नगरों की अपेक्षा कम होती है।
ग्रामीण घर अधिकतर स्थानीय सामग्री से बने होते हैं। ग्राम की अधिकतर जनसंख्या कृषि तथा पशपालन आदि कार्यों में लगी रहती है।

प्रश्न 29.
मलिन बस्तियों में क्या अभिप्राय है ? इनके कुछ उदाहरण दें।
उत्तर:
मलिन बस्ती से अभिप्राय एक ऐसे घने बसे आवासीय क्षेत्र से है, जिसमें अस्वच्छ घर होते हैं जिनमें समाज के कमजोर वर्गों के लोग रहते हैं तथा जिनमें सामाजिक विघटन की प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। उदाहरण के लिए रांचो (वेनेजुएला), फावेला (ब्राजील) तथा बस्ती अथवा झुग्गी-झोंपड़ी (भारत)।

प्रश्न 30.
मानव स्वास्थ्य पर वायु प्रदूषण के प्रभावों का वर्णन करें।
उत्तर:
मानव स्वास्थ्य पर वायु-प्रदूषण का प्रभाव कई तरह से पड़ता है-

  1. वायु प्रदूषण को धूल, धुआँ, गैसों और दुर्गन्ध जैसे विषैले पदार्थों का वायु में वृद्धि के रूप में लिया जाता है।
  2. यह मानव शरीर के त्वचा को भी प्रभावित करती है।
  3. इससे स्नायुत्र, हृदय, फेफड़ा, परिसंचरण तंत्र आदि से संबंधित भी रोग होते हैं।
  4. इससे ओजोन परत भी प्रभावित हुआ है, जिससे पराबैगनी किरण पृथ्वी पर पहुंच कर मानव स्वास्थ्य को प्रभावित किया है।

प्रश्न 31.
जल-संभर प्रबंधन क्या है ?
उत्तर:
जल संभर प्रबंधन से तात्पर्य मुख्य रूप से धरातलीय अथवा भूमिगत जल संसाधनों का कुशल प्रबंधन करना है। इसके अंतर्गत बहते जल को रोकना और विभिन्न विधियों, जैसे-तालाब, अंतःस्रवण, कुओं, द्वारा भूमिगत जल को वृद्धि करना है। इस प्रबंध का मुख्य उद्देश्य वर्षा जल का संचयन करना तथा भूमिगत जल का विवेकपूर्ण प्रयोग है।

प्रश्न 32.
प्रवास के प्रतिकर्ष और अपकर्ष कारणों में अंतर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
प्रवास के प्रतिकर्ष कारक बेरोजगारी, रहन-सहन की निम्न दशाएँ, राजनीतिक उद्रिव, प्रतिकूल जलवायु, प्राकृतिक विपदाएँ, महामारियाँ तथा सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन जैसे कारण उद्गम स्थान को कम आकर्षित बनाते हैं।

प्रवास के अपकर्ष कारक काम के बेहतर अवसर और रहन-सहन की अच्छी दशाएँ, शांति व स्थायित्व, जीवन व संपति की सुरक्षा तथा अनुकूल जलवायु जैसे कारण गंतव्य स्थान को उद्गम स्थान की अपेक्षा अधिक आकर्षित करते हैं।

प्रश्न 33.
पारमहाद्वीपीय रेलमार्ग क्या होता है ?
उत्तर:
पारमहाद्वीपीय रेलमार्ग पूरे महाद्वीप से गुजरते हुए इसके दोनों छोरों को जोड़ते हैं। इनका निर्माण आर्थिक और राजनैतिक कारणों से विभिन्न दिशाओं में लम्बी यात्राओं की सुविधा प्रदान करने के लिए किया गया था।

प्रश्न 34.
सहकारी कृषि से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
जब कृषकों को एक समूह अपनी कृषि से अधिक लाभ कमाने के लिए स्वेच्छा से एक सहकारी संस्था बनाकर कृषि-कार्य सम्पन्न करे उसे सहकारी कृषि कहते हैं। इसके अंतर्गत सहकारी संस्था द्वारा सभी प्रकार के कृषि सहायता कृषकों को पहुंचाया जाता है।

प्रश्न 35.
प्रकृति का मानवीकरण से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
समय परिवर्तन के साथ मानव अपने पर्यावरण और प्राकृतिक बलों को समझने लगता है। अपने सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के साथ मानव बेहतर और अधिक सक्षम प्रौद्योगिकी का विकास करते हैं। पर्यावरण से प्राप्त संसाधनों के द्वारा वे संभावनाओं को जन्म देते हैं। मानव अपने विवेक, बुद्धि व कुशल तकनीक के द्वारा पर्यावरण के विभिन्न उपागमों पर विजय प्राप्त करता जा रहा है तथा पर्यावरण की समस्याओं का सामना करते हुए अपने को ढाल रहा है। ये क्रियाएँ प्रकृति के मानवीकरण के अंतर्गत सम्मिलित होती हैं।

प्रश्न 36.
उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में जनसंख्या का वितरण कम है, क्यों ?
उत्तर:
उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण भारत में जनसंख्या का वितरण कम है। उत्तर भारत में जनसंख्या अधिक मिलने का प्रमुख कारण समतल मैदानी क्षेत्रों का विस्तार, सड़क परिवहन, रेलमार्ग का विकास, जल की उपलब्धता इत्यादि है। जबकि दक्षिण भारत मूलतः पठारी क्षेत्र है, जहाँ कृषि हेतु समतल भू-भाग का अभाव पाया जाता है। साथ ही सिंचाई सुविधा व सड़क एवं रेलमार्ग जैसे यातायात साधनों का भी विकास कम हो पाया है।

प्रश्न 37.
अंकीय विभाजन क्या है ?
उत्तर:
सूचना और संचार प्रौद्योगिकी पर आधारित विकास से मिलने वाले अवसरों का वितरण पूरे ग्लोब पर असमान रूप से वितरित है। देशों में विस्तृत आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक भिन्नता पाई जाती है। कोई देश कितनी शीघ्रता से अपने नागरिकों को सूचना और संचार प्रौद्योगिकी तक पहुंचाकर और उसके लाभ उपलब्ध करा सकता है। इसी को अंकीय विभाजक कहा जाता है।

प्रश्न 38.
भारत में ज्वारीय ऊर्जा की संभावनाओं को लिखिए।
उत्तर:
महासागरीय धाराओं एवं तरंगों द्वारा प्राप्त ऊर्जा ज्वारीय ऊर्जा कहलाता है। भारत के पश्चिमी तट पर वृहत ज्वारीय तरंग उत्पन्न होती है, वहीं पूर्वी तटीय क्षेत्रों में भी इस प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं। भारत के अविकसित तकनीक के कारण वर्तमान समय में इससे ऊर्जा की प्राप्ति नहीं हो रही है। लेकिन भविष्य में इससे ऊर्जा की प्राप्ति की संभावना है।

प्रश्न 39.
सार्क देशों के नाम बताइये।
उत्तर:
भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और मालदीव सात दक्षिण एशि ई देशों ने मिलकर दक्षिण एशिया प्रादेशिक सहयोग संगठन का गठन किया है।

प्रश्न 40.
धात्विक एवं अधात्विक खनिजों में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
धात्विक एवं अधात्विक खनिज में निम्न अंतर है-

धात्विक खनिजअधात्विक खनिज
1. जिन खनिजों को पिघलाने से धातुएँ बनती हैं। जैसे –1. जिन खनिजों एवं धातुएँ नहीं होती हैं उसे  अधात्विक खनिज लोहा, तांबा आदि। कहते हैं। कोयला, नमक आदि।
2. इसकी अपनी चमक होती है।2. ये ठोस, तरलता गैसीय होते हैं।
3. ये आग्नेय और कायान्तरित शैलों में पाई जाती है।3. ये अवसादी शैल में होते हैं।
4. इनका औद्योगिक महत्व अधिक है।4. चूना-पत्थर, कोयला इसके उदाहरण हैं।
5. इनकी तार एवं चादरें बनाई जाती है।5. इनकी तार एवं छड़ें नहीं बनाई जा सकती है।

प्रश्न 41.
ट्रॉन्स साइबेरियन रेलमार्ग पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
ट्रांससाइबेरियन रेलमार्ग विश्व का सबसे लम्बा रेलमार्ग है। इसकी कुछ लम्बाई 9332 है। यह पश्चिम में लेनिनग्राद को पूर्व में प्रशान्त महासागर तट पर स्थित नगर बमाड़ी बोस्टक से जोड़ता है। इस रेलमार्ग के प्रमुख स्टेशन मास्को, रयाजान, सिजराज, कुइबाईसेब, चेलियाबिसक, ओमस्क, नोवा सीबीरिक है। इसका निर्माण साइबेरिया के सामाजिक तथा आर्थिक विकास के उद्देश्य से किया गया है।

प्रश्न 42.
भारत में जनांकिकीय इतिहास को चार अवस्थाओं में बांटे।
उत्तर:
भारत के जनाकिकीय इतिहास को निम्नलिखित चार अवस्थाओं में बांटा गया है-

  1. रुद्ध अथवा स्थिर अवस्था : इसकी अवधि 1901 से 1921 ई० के बीच रही है। इस अवस्था में जनसंख्या वृद्धि अत्यन्त ही निम्न थी। अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव, खाद्यान्न समस्या प्रमुख थी।
  2. स्थिर वृद्धि की अवस्था : इसकी अवधि 1921 से 1951 ई० के बीच रही है। स्वास्थ्य सुविधा में सुधार, स्वच्छता, परिवहन एवं संचार के कारण मृत्यु दर को नीचे लाया गया।
  3. विस्फोटक अवस्था : इसकी अवधि 1951 से 1981 ई० के बीच रही है। इसके अंतर्गत मृत्यु दर में तीव्र कमी तथा जन्म दर में तीव्र वृद्धि सम्मिलित है।
  4. अधोमुखी अवस्था : इसकी अवधि 1981 ई० से वर्तमान समय तक की है। इस अवस्था में जीवन की गुणवत्ता को सुधार कर जनसंख्या नियंत्रण को अपनाया गया है।

प्रश्न 43.
सांस्कृतिक नगर क्या है ?
उत्तर:
सांस्कृतिक नगर : वैसे नगर जिसका उद्भव ऐतिहासिक, धार्मिक दृष्टिकोणों से हुआ है, सांस्कृतिक नगर कहलाते हैं। जैसे-वाराणसी, हरिद्वार, मक्का, मदीना, जेरूसलम।

Bihar Board 12th History Important Questions Short Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th History Important Questions Short Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
‘सन्निधाता’ शब्द का आशय स्पष्ट करें।
उत्तर:
मौर्यों के समय में कर निर्धारण करने वाले अधिकारी को समाहर्ता कहा जाता था, जबकि कर वसूली और संग्रह करने वाले अधिकारी को सन्निधाता कहा जाता था।

प्रश्न 2.
मौर्य साम्राज्य के चार प्रांतों और उनकी राजधानियों के नाम लिखिए।
उत्तर:

  • उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला।
  • प्राच्य की राजधानी पाटलिपुत्र।
  • दक्षिणापथ की राजधानी सुवर्णगिरी।
  • अति की राजधानी उज्जियनी या उज्जैन नगरी।

प्रश्न 3.
मौर्यों के राजनैतिक इतिहास के मुख्य स्रोत क्या-क्या हैं ?
उत्तर:

  • मेगास्थनीज की इंडिका(Indica of Magasthaneze) – मौर्यकालीन भारत के विषय में ज्ञान प्राप्त करने के लिये मेगास्थनीज द्वारा रचित ‘इण्डिका’ (Indica) एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसमें तत्कालीन शासन व्यवस्था, समाज, राजनैतिक व आर्थिक अवस्था पर महत्वपूर्ण विवरण मिलता है।
  • कौटिल्य का अर्थशास्त्र (Kautilya’s Arthshastra) – कौटिल्य का अर्थशास्त्र भी तत्कालीन भारत के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालता है जिससे मौर्यों के बारे में पता चलता है।
  • विशाखदत्त मद्राराक्षस (Vishakhdutta’s Mudraraksha) – इस प्रमुख ग्रंथ में नन्द वंश का चन्द्रगुप्त द्वारा नाश का वर्णन है।
  • जैन और बौद्ध साहित्य (Jains and Buddhists Literature)-जैन और बौद्ध दोनों धर्मों के साहित्य में तत्कालीन समाज, राजनीति आदि की जानकारी प्राप्त होती है।
  • अशोक के शिलालेख (Inscription of Ashoka) – स्थान-स्थान पर लगे अशोक के शिलालेख से भी मौर्यकालीन प्रशासन, धर्म, समाज अर्थव्यवस्था आदि पर प्रकाश पड़ता है।

प्रश्न 4.
मौर्य प्रशासन की जानकारी दें।
उत्तर:
मौर्य प्रशासन अत्यंत ही उच्च कोटि का था। राजा सर्वोपरि था। राजा का मंत्री आमात्य कहलाता था। मौर्य शासकों ने कठोर दंड का प्रावधान कर समाज को भय मुक्त प्रशासन प्रदान किया।

प्रश्न 5.
मौर्य शासकों द्वारा किये गये आर्थिक प्रयासों का वर्णन करें।
उत्तर:

  • कौटिल्य ने कृषकों, शिल्पियों और व्यापारियों से वसूल किये बहुत से करों का उल्लेख किया है।
  • संभवतः कर निर्धारण का कार्य सर्वोच्च अधिकारी द्वारा होता था। सन्निघाता राजकीय कोषागार एवं भण्डार का संरक्षण होता था।
  • वास्तव में कर-निर्धारण का विशाल संगठन पहली बार मौर्य काल में देखने में आया। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में करों की सूची इतनी लंबी है कि यदि वास्तव में सभी कर राजा के लिये जाते होंगे, तो प्रजा के पास अपने भरण-पोषण के लिये नाममात्र का ही बचता होगा।
  • ग्रामीण क्षेत्रों में राजकीय भण्डारघर होते थे। इससे स्पष्ट होता है कि कर अनाज के रूप में वसूल किया जाता था। अकाल, सूखा तथा अन्य प्राकृतिक विपदा में इन्हीं अन्न-भण्डारों से स्थानीय लोगों को अन्न दिया जाता था।
  • मयूर, पर्वत और अर्धचंद्र के छाप वाली रजत मुद्राएँ मौर्य-साम्राज्य की मान्य मुद्राएँ थीं। ये मुद्राएँ कर वसूली एवं कर्मचारियों के वेतन के भुगतान में सुविधाजनक रहीं होंगी। बाजार में लेन-देन भी इन्हीं से होता था।

प्रश्न 6.
अशोक के अभिलेखों का संक्षेप में महत्त्व बताइए।
उत्तर:
यद्यपि मौर्यों के इतिहास को जानने के लिए मौर्यकालीन पुरातात्विक प्रमाण जैसे मूर्ति कलाकृतियाँ, चाणक्य का अर्थशास्त्र, मेगास्थनीज की इंडिका, जैन और बौद्ध साहित्य व पौराणिक ग्रंथ आदि बड़े उपयोगी हैं लेकिन पत्थरों और स्तंभों पर मिले अशोक के अभिलेख प्रायः सबसे मूल्यवान स्रोत माने जाते हैं।

अशोक वह पहला सम्राट था, जिसने अपने अधिकारियों और प्रजा के लिए संदेश प्राकृतिक पत्थरों और पॉलिश किये हुए स्तंभों पर लिखवाये थे। अशोक ने अपने अभिलेखों के माध्यम से धम्म का प्रचार किया। इनमें बड़ों के प्रति आदर, संन्यासियों और ब्राह्मणों के प्रति उदारता, सेवकों और दासों के साथ उदार व्यवहार तथा दूसरे के धर्मों और परंपराओं का आदर शामिल है।

प्रश्न 7.
धर्म प्रवर्त्तिका का क्या अर्थ है ?
उत्तर:
धर्म प्रवर्त्तिका का अर्थ है-धर्म फैलाने वाला अथवा धर्म का प्रचार करने वाला। कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया। इस धर्म के प्रचार के लिये उसने अपना पूरा समय तथा तन-मन-धन लगा दिया। इस प्रकार वह ‘धर्म प्रवर्त्तिका’ के रूप में जाना गया।

प्रश्न 8.
मौर्योत्तर युग में भारत से किन-किन वस्तुओं का निर्यात होता था ?
उत्तर:
मौर्योत्तर युग में भारत से मसाले रोम को भेजे जाते थे। इसके अलावा मलमल, मोती, रत्न, हाथी दाँत, माणिक्य भी विदेशों में भेजे जाते थे। लोहे की वस्तुएँ, बर्तन, आदि रोम साम्राज्य को भेजे जाते थे।

प्रश्न 9.
मौर्य साम्राज्य का उदय कब और किसके द्वारा हुआ? इसमें एक प्रमुख स्थान किसके द्वारा जोड़ा गया ?
उत्तर:
मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त मौर्य (लगभग 321 ई० पू०) का शासन पश्चिमोत्तर में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था। उनके पौत्र अशोक ने जिन्हें आरंभिक भारत का सर्वप्रसिद्ध शासक माना जा सकता हैकलिंग (आधुनिक उड़ीसा) पर विजय प्राप्त की।

प्रश्न 10.
मौर्य साम्राज्य के विस्तार का विवेचन कीजिए।
उत्तर:
मौर्यों के साम्राज्य में मध्य एशिया लाघमन (Laghman) से लेकर चोल तथा चेर साम्राज्य की सीमाओं (केरल पुत्र) सिद्ध पुत्र तक फैला हुआ है। पश्चिम में इसका विस्तार स्वार्षट से लेकर उत्तर पूर्व में बंगाल और बिहार तक फैला हुआ था। पाटलिपुत्र इनकी राजधानी थी। इन साम्राज्य के संबंध अनेक राज्यों से है। तक्षशिला, टोपरा, इंद्रप्रस्थ, कलिंग (उड़ीसा) आदि।

प्रश्न 11.
सेल्यूकस के साथ चंद्रगुप्त मौर्य के संघर्ष के क्या दो परिणाम हुए ?
उत्तर:
सेल्यूकस का चंद्रगुप्त के साथ संघर्ष 305 ई० पू० में हुआ जब उसने भारत पर आक्रमण किया था। इस संघर्ष के दो प्रमुख परिणाम अनलिखित थे-

  • सेल्यूकस की हार जिसके परिणामस्वरूप उसे चंद्रगुप्त मौर्य को वर्तमान हेरात, काबुल, कंधार और बिलोचिस्तान के चार प्रांत सौंपने पड़े।
  • चंद्रगुप्त मौर्य ने उसके बदले में सेल्यूकस को 500 हाथी भेंट किये।

प्रश्न 12.
चंद्रगुप्त मौर्य की चार सफल विजय कौन-कौन सी थी ?
उत्तर:

  1. पंजाब विजय (Victory of the Punjab) – चंद्रगुप्त मौर्य ने सिकंदर की मृत्यु के पश्चात् पंजाब को जीत लिया।
  2. मगध की विजय (Victory of Magadh) – चंद्रगुप्त मौर्य ने कौटिल्य (चाणक्य) की सहायता से मगध के अंतिम राजा घनानंद की हत्या करके मगध को जीत लिया।
  3. बंगाल विजय (Victory of Bengal) – चन्द्रगुप्त मौर्य ने पूर्वी भारत में बंगाल को जीत कर अपने अधिकार में कर लिया।
  4. दक्षिणी भारत पर विजय (Victory of South) – जैन साहित्य के अनुसार आधुनिक कर्नाटक तक उसने अपनी विजय-पताका फहराई थी।

प्रश्न 13.
अशोक के अभिलेख किन-किन भाषाओं व लिपियों में लिखे जाते थे ? उनके विषय क्या थे ?
उत्तर:

  • अशोक के अभिलेख जनता की पालि और प्राकृत भाषाओं में लिखे हुए होते थे। इनमें ब्रह्मा-खरोष्ठी लिपियों का प्रयोग हुआ था। इन अभिलेखों में अशोक का जीवन-वृत्त, उसकी आंतरिक तथा बाहरी नीति एवं उसके राज्य के विस्तार संबंधी जानकारी हैं।
  • इन अभिलेखों में सम्राट अशोक के आदेश अंकित होते थे।

प्रश्न 14.
अशोक के धम्म पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखें।
उत्तर:
‘धम्म’ संस्कृत के धर्म शब्द का प्राकृत स्वरूप है। अशोक ने इसका प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया है। इस विषय पर विद्वानों के बीच काफी मतभेद है। बहुत-से विद्वान धम्म और बौद्ध धर्म में कोई फर्क नहीं मानते। अतः प्रारंभ में ही यह कह देना आवश्यक है कि धम्म और बौद्धध म दोनों अलग-अलग बातें हैं। बौद्धधर्म अशोक का व्यक्तिगत धर्म था। लेकिन उसने जिस धम्म की चर्चा अपने अभिलेखों में की है वह उसका सार्वजनिक धर्म था तथा विभिन्न धर्मों का सार था। यह अलग बात है कि बौद्धधर्म की कई विशेषताएँ भी उसमें मौजूद थीं।

अशोक ने अपने अभिलेखों में कई स्थान पर धम्म (धर्म) शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु भाबरु अभिलेख को छोड़कर (जहाँ उसे बुद्ध, धम्म और संघ में अपना विश्वास प्रकट किया है। उसने कहीं भी धम्म का प्रयोग बौद्धध र्म के लिए नहीं किया है। बौद्ध धर्म के लिए ‘सर्द्धम’ या ‘संघ’ शब्द का प्रयोग किया है। इस तरह हम कह सकते हैं कि अशोक का धम्म बौद्ध धर्म नहीं था क्योंकि इसमें चार आर्य सत्यों, अष्टांगिक मार्ग तथा निर्वाण की चर्चा नहीं मिलती है।

प्रश्न 15.
‘छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध का एक शक्तिशाली राज्य के रूप में विकास हुआ।’ इस कथन की लगभग 100 से 150 शब्दों में व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध (आधुनिक बिहार) सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया। आधुनिक इतिहासकार इसके कई कारण बताते हैं

  • एक यह कि मगध क्षेत्र में खेती की उपज खास तौर पर अच्छी होती थी।
  • दूसरे यह कि लोहे की खदानें (आधुनिक झारखंड में) भी आसानी से उपलब्ध थीं जिससे उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था।
  • जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे, जो सेना के एक महत्वपूर्ण अंग थे। साथ ही गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।
  • आरंभिक जैन और बौद्ध लेखकों ने मगध की महत्ता का कारण विभिन्न शासकों की नीतियों को बताया है। इन लेखकों के अनुसार बिम्बिसार अजातशत्रु और महापदम-नन्द जैसे प्रसिद्ध अत्यंत महत्वाकांक्षी शासक थे और इनके मंत्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे।
  • प्रारंभ में, राजगाह (आधुनिक बिहार के राजगीर का प्राकृत नाम) मगध की राजधानी थी। यह रोचक बात है कि इस शब्द का अर्थ है ‘राजाओं का घर।’ पहाड़ियों के बीच बसा राजगाह एक किलेबंद शहर था। बाद में चौथी शताब्दी ई० पू० में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया, जिसे अब पटना कहा जाता है जिसकी गंगा के रास्ते आवागमन के मार्ग पर महत्वपूर्ण अवस्थिति थी।

प्रश्न 16.
दिगम्बर एवं श्वेताम्बर कौन थे?
उत्तर:
जैन धर्म दो सम्प्रदाय बन गए। एक दिगम्बर और दूसरा श्वेताम्बर। दिगम्बर वस्त्र नहीं धारण करते हैं जबकि श्वेताम्बर उजले वस्त्र धारण करते हैं। दिगम्बर जैन आचरण पालन में कठोर होते है, जबकि श्वेतताम्बर जैन उदार होते है। श्वेताम्बर 11 अंगों का प्रमुख धर्म मानते है और दिगम्बर अपने 24 पुराणों को। दिगम्बर सम्प्रदाय यह मानता है कि स्त्री शरीर से कैवल्य ज्ञान संभव नहीं है और कैवल्य ज्ञान प्राप्त होने पर साधकों को भोजन की आवश्यकता नहीं पड़ती। किन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय ऐसा नहीं मानते। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार महावीर का निर्वाण के 609 वर्ष बाद (ई सन् 83) रथविलुर में भवभूति द्वारा बौद्धिक मत दिगम्बर की स्थापना हुई थी।

प्रश्न 17.
इलाहाबाद स्तंभ के ऐतिहासिक महत्त्व का मूल्यांकन कीजिए।
उत्तर:
इलाहाबाद का स्तंभ (Allahabad’s inscription) – इलाहाबाद के स्तंभ लेख से गुप्त काल के विषय में जानकारी प्राप्त होती है इसमें समुदाय की विजयों और चरित्र अंकित है। हरिषेण नामक कवि ने संस्कृत में इसे लिखा। उस काल की राजनैतिक, सामाजिक व आर्थिक अवस्था, भाषा व साहित्य की उन्नति एवं उसकी नौ विजयों का वर्णन है।

प्रश्न 18.
ऐहोल अभिलेख का ऐतिहासिक महत्त्व क्या है ?
उत्तर:
इस अभिलेख में चालुक्य राजा पुलकेशिन द्वितीय के दरबारी कवि रति कीर्ति ने संस्कृत में उसके पराक्रम का विवरण लिखा है जिसके अनुसार गुजरात के लाट, मैसूर के गंगा आदि राजाओं को हराया गया था। दक्षिणा के चेर, चोल और पांड्य शासकों को भी हराया गया था। सन् 620 में उसने हर्ष को नर्मदा नदी के तट पर हराया। जब पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव शासक नरसिंह वर्मन से टक्कर ली, तो फिर उसके पश्चात् 642 ई० में लड़ता हुआ युद्ध क्षेत्र में उसके हाथों मारा गया।

प्रश्न 19.
दिल्ली के लौह स्तंभ अभिलेख का क्या महत्व है ?
उत्तर:
दिल्ली में कुतुब मीनार के पास लौह स्तंभ पर किसी चंद्र नामक राजा का अभिलेख खुदा हुआ मिला है। यह अभिलेख चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से अब जोड़ा जाता है। इस अभिलेख से पता चलता है कि चंद्र ने पश्चिमोत्तर दिशा में और बंगाल में निरंतर विजय प्राप्त की और अपने वंश की कीर्ति को चार चाँद लगा दिये।

प्रश्न 20.
जूनागढ़ शिलालेख के महत्त्व का उल्लेख कीजिए।
उत्तर:
जूनागढ़ का शिलालेख, गुजरात में जूनागढ़ के समीप मिला था। उस समय की प्रचलित लिपि ब्राह्मी थी। इसी लिपि में वह शिलालेख लिखा हुआ था। इस शिलालेख में अशोक के धर्म, नैतिक नियमों एवं शासन सम्बन्धी नियमों का विवरण मिला है। लोगों की जानकारी के लिए इस शिलालेख को जनसाधारण की भाषा पालि में खुदवाया था।

प्रश्न 21.
पेरीप्लस और एर्थियन पदों के अर्थ की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
पेरिप्लस एक यूनानी शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ है-समुद्री रास्ता और एर्थियन भी एक यूनानी नाम है जिसका प्रयोग यूनानी लाल सागर के लिए करते थे।

प्रश्न 22.
कुषाण कौन थे ?
उत्तर:
चीन की मूगनू नामक जाति से हारकर यूची जाति दक्षिण की ओर स्थान की खोज में निकल पड़ी। वह आकर आमू नदी के तट पर बस गई। यूची जाति के पाँच कबीलों में से कुषाण नामक कबीला कैडफिसेज प्रथम के नेतृत्व में शक्तिशाली बन गया। उसने मध्य एशिया से लेकर सिंधु नदी के तट तक अपना साम्राज्य फैला दिया। उसने उस क्षेत्र के पार्थियन शासकों का नामोनिशन मिटा दिया।

प्रश्न 23.
सातवाहन कौन थे?
उत्तर:
मौर्य के साम्राज्य के बिखराव के बाद सातवाहनों ने दक्कन में एक शक्तिशाली राज्य स्थापित किया। इस वंश का सबसे अच्छा शासक दोनों ही सर्वोच्च वंशों का दावा करता है। एक तरफ वह स्वयं को एक ब्राह्मण वर्ण का व्यक्ति मानता है और दूसरी ओर वह स्वयं को क्षत्रिय लोगों को नाश करने वाला बताता है। वह इस बात का भी दावा करता है कि चारों वर्गों के मध्य अंतर वर्णीय विवाह नहीं होते थे लेकिन कुछ समय बाद ये साक्ष्यों द्वारा प्रमाणित हो जाता है कि सातवाहनों ने शक राजा रुद्रदमन से वैवाहिक संबंध जोड़े थे। सातवाहन समाज में संभवत: मातरीगोत्र का अधिक सम्मान था। इस समाज में स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र को माना जाता था। सातवाहनों के कई अभिलेख इतिहासकारों को प्राप्त हुए जिन पर उनके पारिवारिक और वैवाहिक रिश्तों का खाका तैयार किया है।

प्रश्न 24.
शक कौन थे ?
उत्तर:
शक मध्य एशिया के मूल निवासी थे जो उपमहाद्वीप में उत्तर पश्चिमी हिस्सों से सर्वप्रथम आये और धीरे-धीरे यहीं स्थायी रूप से बस गये। ये लोग प्रारंभ में ब्राह्मणों द्वारा म्लेच्छ (असभ्य अथवा विदेशी से आने वाले आक्रमणकारी) समझ गये। धीरे-धीरे इन्होंने भारत में उत्पन्न हुए धर्मों जैसे बौद्ध धर्म या वैष्णव मत को अपना लिया। स्थानीय लोगों के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये और उत्तर पश्चिम के साथ-साथ पश्चिमी भारत के कुछ क्षेत्रों में शासन किया।

प्रश्न 25.
हर्ष चरित पर दो वाक्य लिखिए।
उत्तर:
हर्ष चरित संस्कृति में लिखी गई कन्नौज के शासक हर्षवर्द्धन की जीवनी है, इसके लेखक बाणभट्ट (लगभग सातवीं शताब्दी ई०) हर्षवर्धन के राज कवि थे।

प्रश्न 26.
बौद्ध संगीतियाँ क्यों बुलाई गई ? चतुर्थ बौद्ध संगति का क्या महत्त्व है ?
उत्तर:
गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् समय-समय पर बौद्ध धर्म की व्याख्या हेतु अनेक बौद्ध सभाओं का आयोजन किया गया जिन्हें संगीति के नाम से जाना जाता है।

चतुर्थ बौद्ध संगीति :
समय – प्रथम शताब्दी
स्थान – कुंडलवन (कश्मीर)
शासक – कनिष्क (कुषाण वंश)

आध्यक्षा – वसुमित्र, संगीति के उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। महत्त्व-इस संगीति का आयोजन इस आशय से किया गया था कि बौद्धों के मतभेदों को दूर किया जा सके। इस संगीति में महासाधिकों को बोलबाला रहा। त्रिपिटक पर प्रमाणिक भास्य ‘विभाषा शास्त्र’ की रचना इसी संगीति में हुई। इस. संगीत के पश्चात् ही बौद्ध अनुयायी हीनयान तथा महायान दो समुदायों में विभाजित हो गये।

प्रश्न 27.
गौतम बुद्ध के जीवन एवं उपदेशों का वर्णन करें।
उत्तर:
गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म 563 ई० पू० में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में अवस्थित लुम्बिनी में हुआ था। उनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था।

बचपन से ही गौतम चिन्तनशील व्यक्ति थे। इनका मन सांसारिक भोग विलास में नहीं लगता था। इनका विवाह यशोधरा से हुआ था तथा इनको एक पुत्र भी था, जिसका नाम राहुल था। एक बार इन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी एवं एक मृत व्यक्ति को देखा। इन दृश्यों ने इनके मन में वैराग्य उत्पन्न कर दिया। 29 वर्ष की उम्र में इन्होंने घर छोड़ दिया, जिसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है। ये ज्ञान की प्राप्ति के लिए जगह-जगह भटकते रहे। अन्त में 35 वर्ष की उम्र में बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तब से वे बुद्ध अर्थात् प्राज्ञावान कहलाने लगे। उन्होंने अपना पहला धार्मिक प्रवचन वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। वे लगभग 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे एवं समकालीन सभी वर्ग के लोग उनके शिष्य बने। 483 ई० पू० में पूर्वी उत्तर प्रदेश में कुशीनगर नामक स्थान पर उनकी मृत्यु हुई। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहते हैं।

गौतम बुद्ध व्यावहारिक सुधारक थे। वे आत्मा एवं परमात्मा से सम्बन्धित निरर्थक वाद-विवादों से दूर रहे तथा उन्होंने दोनों के अस्तित्व से इनकार किया। उन्होंने कहा कि संसार दुःखमय है और इस दुःख के कारण तृष्णा है। यदि काम, लालसा, इच्छा एवं तृष्णा पर विजय प्राप्त कर ली जाये तो निर्वाण प्राप्त हो जायेगा, जिसका अर्थ है कि जन्म एवं मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जायेगी।

गौतम बुद्ध ने निर्वाण की प्राप्ति का साधन अष्टांगिक मार्ग को माना है। ये आठ साधन हैं-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। उन्होंने कहा कि न तो अत्यधिक विलाप करना चाहिए और न अत्यधिक संयम ही बरतना चाहिए। वे मध्यम मार्ग के प्रशंसक थे। उन्होंने सामाजिक आचरण के कुछ नियम निर्धारित किये थे जैसे-पराये धन का लोभ नहीं करना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए, नशे का सेवन नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए तथा दुराचार से दूर रहना चाहिए।

प्रश्न 28.
महावीर के उपदेशों का वर्णन करें।
उत्तर:
महावीर के उपदेश निम्नलिखित हैं

  • सत्य-सत्य बोलना, झूठ न बोलना।
  • अहिंसा-हिंसा न करना।
  • अस्तेय-चोरी न करना।
  • अपरिग्रह-सम्पत्ति का संग्रह न करना।
  • ब्रह्मचर्य-इन्द्रियों को वश में करना।

महावीर ईश्वर में विश्वास नहीं करते थे परंतु आत्मा, कर्मफल तथा पुनर्जन्म को मानते थे।

प्रश्न 29.
जैनधर्म के प्रमुख सिद्धान्त कौन-से हैं ?
उत्तर:
जैन-धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान महावीर (540 ई० पू० 468 ई०पू०) के समय जैन धर्म के सिद्धान्तों को पूर्णता प्राप्त हुई। यह धर्म मानता है कि संसार की सभी वस्तुओं में जीव है। अहिंसा का सिद्धान्त इस धर्म का मूल आधार है। मनुष्य अपने कर्मों के कारण जन्म, मृत्यु एवं पुनर्जन्म के चक्र में बंधा है। संन्यास एवं तपस्या के द्वारा मनुष्य कर्म के चक्र से मुक्ति प्राप्त कर सकता है। जैनियों का विश्वास है कि शरीर को कष्ट पहुँचाकर ही निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है। इस धर्म के पाँच सिद्धान्त हैं-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, (चोरी नहीं करना), असंग्रह (सम्पत्ति जमा नहीं करना) तथा ब्रह्मचर्य। इन्हें पंच महाव्रत कहा जाता है।

प्रश्न 30.
पिटक कितने हैं ? उनके नाम और विशेषताएँ लिखें।
उत्तर:
पिटक तीन हैं-सुत्तपिटक, विनयपिटक एवं अभिधम्मपिटक । इससे इन्हें त्रिपिटिक के नाम से पुकारा जाता है। गौतम बुद्ध के निर्वाण के बाद इनकी रचना की गई । सुत्तपिटक में बुद्ध के उपदेश संकलित किए गए हैं। विनयपिटक में बौद्ध संघ के नियमों का उल्लेख है। अभिधम्मपिटक में बौद्ध दर्शन का विवेचन है।

प्रश्न 31.
बौद्ध धर्म और जैन धर्म की शिक्षाओं में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म और जैन धर्म की शिक्षाओं में निम्न अंतर हैं-

बौद्ध धर्मजैन धर्म
1. बौद्ध धर्म ईश्वर के अस्तित्व के विषय में मौन है।1. जैन धर्म ईश्वर के अस्तित्व को बिल्कुल नहीं मानता।
2. पूजा-पाठ, भजन-कीर्तन, कर्म के समक्ष व्यर्थ है।2. प्रार्थना कुछ भी नहीं है, तप और व्रत ही मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं।
3. अहिंसा सबसे बड़ा धर्म है। यज्ञ आदि में इनका विश्वास न हैं।3. अहिंसा पर अत्यधिक बल देते हैं, जड़ पदार्थों में जीवन का आभास।
4. मोक्ष प्राप्ति के लिए अच्छे कर्म और पवित्र जीवन पर बल देता है।4. मोक्ष प्राप्ति के लिए त्रिरत्ल पर बल देता है।

(क) सम्यक ज्ञान, (ख) सम्यक कर्म तथा, (ग) अहिंसा।

5. संघ को धर्म का प्रचार माध्यम बनाता है, मठों में अध्ययन-अध्यापन का कार्य होता है।5. इनके संघ नहीं होते, परन्तु धर्म-प्रचार के लिए प्रचारक होते हैं।
6. बौद्ध धर्म का विस्तार देश-विदेश दोनों स्थानों पर हुआ। एशिया के कई देश इसकी छाया में आ गये थे।6. जैन धर्म केवल भारत में ही फूला-फला, विदेशों में नहीं।

प्रश्न 32.
आप ‘जातक’ के सम्बन्ध में क्या जानते हैं ?
उत्तर:
जातक कथाओं में महात्मा गौतम बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाएँ संकलित हैं। ये कथाएँ पालि भाषा में हैं। इनमें तत्कालीन धार्मिक, सामाजिक और आर्थिक चित्रण मिलते हैं। जातकों का बौद्ध साहित्य में विशेष महत्व है। इन कहानियों से हमें पता चलता है कि महात्मा बुद्ध जाति प्रथा एवं ब्राह्मणों को उच्च स्थान दिये जाने के विरुद्ध थे और क्षत्रियों को ब्राह्मणों से अच्छा मानते थे। काशी, कौशल तथा मगध राज्यों की प्रसिद्ध घटनाओं का विवरण भी जातक कथाओं में मिलता है। जातक कथाएँ अपना धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व रखती हैं।

प्रश्न 33.
कृष्ण देवराय की मुख्य उपलब्धियों के बारे में बताएँ।
उत्तर:

  • कृष्ण देवराय बीजापुर और गोलकुंडा के शासकों को पराजित करने में सफल रहा।
  • उसने उड़ीसा पर भी आक्रमण किया तथा वहाँ के शासक को भी हराया।
  • उसने न केवल रायचूर दोआब पर विजय प्राप्त की बल्कि अपनी सेनाओं के साथ बहमनी राज्य के अंदर भी प्रवेश कर गया।
  • पश्चिमी समुद्र तट पर सभी स्थानीय राज्यों के साथ उसका व्यवहार बहुत ही अच्छा और मैत्रीपर्ण था। अपने इन स्थानीय राज्यों के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बनाकर अपने राज्य को समृद्ध बनाया।
  • वह एक कुशल प्रशासक भी था। उसने अपने राज्य के उत्थान के लिए कई काम किये। उसने सिंचाई के लिए बाँध बनवाये, जिससे राज्य की कृषि-दशा में सुधार आया।
  • उसने नये मंदिरों का निर्माण करवाया और पुराने मंदिर की मरम्मत करवाई। उसने अपने दरबार में विद्वानों और गुणी लोगों को प्रश्रय दे रखा था।

प्रश्न 34.
आयंगर व्यवस्था के विषय में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
विजयनगर राज्य ने प्रचलित स्थानीय प्रशासन में परिवर्तन कर आयंगर व्यवस्था आरंभ की प्रत्येक ग्राम को स्वतंत्र प्रशासनिक इकाई के रूप में गठित कर प्रशासन 12 व्यक्तियों के समूह को दिया गया। यह समूह आयगार कहलाता था। ये व्यक्ति राजकीय अधिकारी थे इनका पद आनुवंशिक था। वेतन के रूप में लगान और कर मुक्त भूमि दी जाती थी। आयगार ग्राम प्रशासन की देखभाल करते एवं शांति-व्यवस्था बनाए रखते थे।

प्रश्न 35.
पानीपत की पहली लड़ाई (1526) भारत के इतिहास में एक निर्णायक लड़ाई समझी जाती है, विवेचन कीजिए।
उत्तर:

  • इस लड़ाई में लोदियों की कमर टूट गई। दिल्ली और आगरा तक का सारा प्रदेश बाबर के अधीन हो गया।
  • इब्राहीम लोदी द्वारा आगरा में एकत्र खजाना अधिकार में आ जाने से बाहर की सारी आर्थिक कठिनाइयाँ दूर हो गईं।
  • जौनपुर तक का समृद्ध क्षेत्र भी बाबर के सामने प्रशस्त था। . 4. पानीपत की लड़ाई ने उत्तर भारत का आधिपत्य के लिए संघर्ष के एक नये युग का सूत्रपात किया।

प्रश्न 36.
बाबर के बाबरनामा पर नोट लिखें।
उत्तर:
बाबर एक वीर योद्धा ही नहीं, अपितु एक विद्वान साहित्यकार भी था। उसकी रचनाओं में सबसे उत्तम उसकी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ या ‘तुज्क-ए-बाबरी’ है। श्रीमती बैबरिज के अनुसार, “बाबर की आत्मकथा एक ऐसा अमूल्य भण्डार है जिसे सेंट अगस्टॉइ तथा रूसो के स्वीकृति वचन और गिब्बन तथा न्यूटन की आत्म कथाओं के समकक्ष रखा जा सकता है।” बाबर ने अपनी आत्मकथा को अपनी मातृ-भाषा तुर्की में लिखा था। फारसी में इसका अनुवाद गुलबदन ने किया। अंग्रेजी में श्रीमती बैवरिज तथा हिन्दी में केशव कुमार ठाकुर के अनुवाद बहुत प्रसिद्ध हैं।

विषय – बाबरनामा में बाबर के जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का वर्णन है। इसमें फरगान, समरकन्द, बाबर की काबुल विजय, भारत के उत्तर-पश्चिम प्रदेश तथा पानीपत, खनवाह, चन्देरी और घाघरा आदि के प्रसिद्ध भारतीय युद्धों का भी वर्णन है। बाबर के जीवन में स्थिरता का अभाव था। अतः बाबर की आत्मकथा में केवल 18 वर्ष की घटनायें ही मिलती हैं।

भाषा-शैली – बाबरनामा की भाषा तुर्की है। इसमें अरबी-फारसी के शब्दों की अधिकता है। बाबर की भाषा सरल, स्वाभाविक तथा प्रवाहमयी है। उसकी वर्णन-शैली भी साधारण और स्पष्ट है। उसे जब अधिक समय मिला तो उसने विस्तार में लिखा है और जब कम समय मिला तो संक्षेप में वर्णन किया है।

विशेषताएँ-1. बाबर ने सरल और स्पष्ट वर्णन किया है। उसने अपनी भूलों और कमजोरियों को भी नहीं छुपाया। 2. बाबर को प्रकृति से बड़ा अनुराग था। बाबरनामा में प्राकृतिक दृश्यों का सुन्दर.वर्णन किया गया है। 3. बाबरनामा के वर्णन सजीव और रोचक हैं। 4. बाबरनामा में तत्कालीन भारत का प्रामाणिक इतिहास है।

महत्त्व – बाबरनामा साहित्यिक तथा ऐतिहासिक दोनों दृष्टियों से एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में मध्य एशियाई राजनीति, तैमूरों के इतिहास, मंगोलों और चुगताइयों के आपसी सम्बन्ध, बाबर की तत्कालीन कठिनाइयाँ, ईरानी, उजबेग शक्ति के उत्थान और संघर्ष तथा बाबर के संघर्षमय जीवन की जानकारी मिलती है। इसी प्रकार यह ग्रन्थ तत्कालीन भारत और मध्य एशिया की सांस्कृतिक और राजनैतिक जानकारी के लिए एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।

प्रश्न 37.
अकबर की धार्मिक नीति की समीक्षा करें।
उत्तर:
अकबर की धार्मिक नीति की विवेचना निम्नलिखित है-

  • आरम्भ में अकबर एक कट्टरपंथी मुसलमान था परंतु बैरम खाँ, अब्दुल रहीम खानखाना, फैजी, अबुल फजल, बीरबल जैसे उदार विचारों वाले लोगों के सम्पर्क से उसका दृष्टिकोण बदल गया। हिंदू रानियों का भी उस पर प्रभाव पड़ा। अब वह अन्य धर्मों के प्रति उदार हो गया था।
  • 1575 ई० में उसने इबादतखाना बनवाया, जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वानों को अपने-अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। अक्सर बहस करते समय मौलवी गाली-गलौच पर उतर जाते थे। अत: अकबर को इस्लाम धर्म में रुचि कम हो गई।
  • वह स्वयं तिलक लगाने लगा और गौ की पूजा करने लगा। अत: कट्टरपंथी मुसलमान उसे काफिर कहने लगे थे।
  • 1579 ई० में उसने अपने नाम का खुतवा पढ़वा कर अपने आप को धर्म का प्रमुख घोषित कर दिया। इससे उलेमाओं का प्रभाव कम हो गया।
  • अंत में उसने सभी धर्मों का सार लेकर नया धर्म चलाया, जिसे दीन-ए-इलाही के नाम से जाना जाता है। अपने धर्म को उसने किसी पर थोपने का प्रयास नहीं किया।
  • उसने रामायण, महाभारत आदि कई हिन्दु ग्रंथों का भी फारसी में अनुवाद करवाया। वह धर्म को राजनीतिक से दूर रखता था।
  • फतेहपुर सीकरी में एक महल, जोधाबाई का महल में भारतीय संस्कृति की स्पष्ट झलक देखते हैं।

प्रश्न 38.
अकबर को ‘राष्ट्रीय शासक’ क्यों कहा जाता है ?
उत्तर:
अनेक विद्वान और व्यक्ति जलालुद्दीन अकबर (1556-1605) को मुगल बादशाहों में महानतम मानते हैं क्योंकि उसने न केवल अपने साम्राज्य का विस्तार ही किया बल्कि इसे अपने समय का विशालतम, दृढ़तम और सबसे समृद्ध राज्य बनाकर सुदृढ़ भी किया। अकबर हिंदुकुश पर्वत तक अपने साम्राज्य की सीमाओं के विस्तार में सफल हुआ और इसने ईरान के सफानियों और तूरान (मध्य एशिया) के उजबेकों की विस्तारवादी योजनाओं पर लगाम लगाए रखी। अकबर के बाद जहाँगीर (1605-27) शाहजहाँ (1628-58) और औरंगजेब (1658-1707) के रूप में भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व वाले तीन बहुत योग्य उत्तराधिकारी हुए। इनके अधीन क्षेत्रीय विस्तार जारी रहा यद्यपि इसकी गति काफी धीमी रही। तीन शासकों ने शासन के विविध यंत्रों को बनाए रखा और उन्हें सुदृढ़ किया। अतः अकबर राष्ट्रीय शासक था।

प्रश्न 39.
मुगलकालीन केन्द्रीय प्रशासन की मुख्य विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
मुगलकालीन केन्द्रीय प्रशासन की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित प्रकार थी-

  • वकील – इसे बजीर भी कहा जाता था। यह केन्द्रीय सरकार के समस्त विभागों का अध्यक्ष था। अकबर ने बैरम खाँ के पश्चात् इस पद का अंत कर दिया।
  • दीवान या वित्तमंत्री – आर्थिक विषयों में यह बादशाह का प्रतिनिधि था।
  • मीरबख्शी – यह सेना संबंधी सभी कार्य देखता था। यह सेना, मनसबदार एवं घोडों संबंधी व्यवस्था देखता था।
  • प्रधान काजी – यह प्रांत, जिला एवं नगर के काजियों की नियुक्ति करता था। फौजदारी मुकदमों को देखता था।
  • प्रांतीय शासन – सुबेदार प्रांत अथवा सूबे का प्रमुख होता था। दीवान सूबे में वित्त व्यवस्था देखता था। कोतवाल सूबे की आंतरिक सुरक्षा देखता था।
  • जिला शासन – प्रत्येक प्रांत जिलों में विभक्त था। फौजदार जिले का प्रमुख अधिकारी था।

प्रश्न 40.
शेरशाह सूरी के भू-राजस्व का वर्णन कीजिए।
उत्तर:

  • शेरशाह ने भूमि पर लगान की दर निश्चित करने के लिए कृषि योग्य भूमि को तीन भागों में बाँटा। अच्छी, खराब और साधारण स्तर की भूमि। तीनों प्रकार की भूमि की उपज निश्चित करके उनके औसत पर लगान निश्चित किया जाता था।
  • लगान उपज के अनुसार निश्चित किया जाता था। साधारण उपज वाली भूमि की उपज का एक-तिहाई भाग लगान के रूप में देना होता था। लगान अनाज या धन के रूप में तथा नकद. सरकारी कोष में जमा किया जा सकता था।
  • फसल नष्ट होने पर किसानों का लगान माफ कर दिया जाता था। उन्हें राजकोष से आर्थिक सहायता भी दी जाती थी। सैनिकों को आदेश था कि वे कूच के समय फसल न खराब करें। यदि अनिवार्य परिस्थितियों के कारण सैनिकों द्वारा खड़ी फसल को नुकसान पहुंचता था तो राज्य उसकी क्षतिपूर्ति करता था।
  • सरकार और किसानों के बीच पट्टे होते थे। इन पट्टों पर भूमि का क्षेत्रफल, भूमि की श्रेणी तथा लगान की दर लिखी होती थी। किसान उस पर हस्ताक्षर करता था। इस पट्टे से किसान के अधिकार सुरक्षित हो जाते थे।

Bihar Board 12th Geography Objective Important Questions Part 3

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Bihar Board 12th Geography Objective Important Questions Part 3

प्रश्न 1.
निम्नलिखित में से कौन चीनी का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है ?
(a) महाराष्ट्र
(b) पंजाब
(c) उत्तर प्रदेश
(d) तमिलनाडु
उत्तर:
(c) उत्तर प्रदेश

प्रश्न 2.
भारत द्वारा भेजा गया पहला मानवरहित अंतरिक्ष यान कौन था ?
(a) आर्यभट्ट
(b) भास्कर
(c) रोहिणी
(d) एसएलवी
उत्तर:
(a) आर्यभट्ट

प्रश्न 3.
शुष्क कृषि में निम्न में से कौन-सी फसल नहीं बोई जाती?
(a) रागी
(b) ज्वार
(c) मूंगफली
(d) गन्ना
उत्तर:
(d) गन्ना

प्रश्न 4.
बोकारो इस्पात केन्द्र किस राज्य में स्थित है ?
(a) मध्य प्रदेश
(b) छत्तीसगढ़
(c) झारखण्ड
(d) ओडिशा
उत्तर:
(c) झारखण्ड

प्रश्न 5.
भारत में विश्व की कुल जनसंख्या के कितने प्रतिशत लोग बसते हैं ?
(a) 15%
(b) 16%
(c) 25%
(d) 26%
उत्तर:
(b) 16%

प्रश्न 6.
झरिया कोयला क्षेत्र किस राज्य में स्थित है ?
(a) ओडिशा
(b) आंध्र प्रदेश
(c) बिहार
(d) झारखण्ड
उत्तर:
(d) झारखण्ड

प्रश्न 7.
तेलंगाना राज्य की राजधानी है।
(a) विजयवाड़ा
(b) हैदराबाद
(c) विशाखापत्तनम
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) हैदराबाद

प्रश्न 8.
2011 जनगणना के अनुसार किस राज्य का जनघनत्व सबसे अधिक है ?
(a) कर्नाटक
(b) उत्तर प्रदेश
(c) बिहार
(d) केरल
उत्तर:
(c) बिहार

प्रश्न 9.
सुन्दरवन किस राज्य में स्थित है ?
(a) गोवा
(b) पश्चिम बंगाल
(c) पंजाब
(d) केरल
उत्तर:
(b) पश्चिम बंगाल

प्रश्न 10.
जमशेदपुर किस प्रकार का नगर है ?
(a) औद्योगिक
(b) खनन
(c) पर्यटन
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) औद्योगिक

प्रश्न 11.
हरित क्रांति संबंधित है
(a) खाद्यान्न उत्पादन से
(b) दूध के उत्पादन से
(c) दाल के उत्पादन से
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) खाद्यान्न उत्पादन से

प्रश्न 12.
कौन राज्य चीन की सीमा पर स्थित है ?
(a) असम
(b) गुजरात
(c) नगालैण्ड
(d) अरुणाचल प्रदेश
उत्तर:
(d) अरुणाचल प्रदेश

प्रश्न 13.
केन्द्र सरकार द्वारा चलाई गई ‘हरियाली प्रोजेक्ट’ संबंधित है
(a) वायु संरक्षण से
(b) जल संरक्षण से
(c) दोनों से
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) दोनों से

प्रश्न 14.
एन्नौर पत्तन किस राज्य में स्थित है ?
(a) तमिलनाडु
(b) कर्नाटक
(c) केरल
(d) आंध्र प्रदेश
उत्तर:
(d) आंध्र प्रदेश

प्रश्न 15.
अम्लीय वर्षा का कारण कौन है ?
(a) भूमि प्रदूषण
(b) वायु प्रदूषण
(c) जल प्रदूषण
(d) ध्वनि प्रदूषण
उत्तर:
(b) वायु प्रदूषण

प्रश्न 16.
निम्नलिखित में से कौन पेय फसल है ?
(a) चाय
(b) कॉफी
(c) दोनों (a) और (b)
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) दोनों (a) और (b)

प्रश्न 17.
भारत में पूर्ण जनगणना पहली बार कब हुई थी ?
(a) 1881
(b) 1981
(c) 1781
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) 1881

प्रश्न 18.
2011 की जनगणना के अनुसार भारत का जनघनत्व है
(a) 282 व्यक्ति/वर्ग किमी०
(b) 382 व्यक्ति/वर्ग किमी०
(c) 482 व्यक्ति/वर्ग किमी०
(d) 400 व्यक्ति/वर्ग किमी०
उत्तर:
(b) 382 व्यक्ति/वर्ग किमी०

प्रश्न 19.
किस राज्य में साक्षरता दर सबसे अधिक है ?
(a) केरल
(b) बिहार
(c) गोवा
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) केरल

प्रश्न 20.
उत्तर अटलांटिक मार्ग जोड़ता है।
(a) उत्तर अमेरिका को यूरोप से
(b) उत्तर अमेरिका को अफ्रीका से
(c) यूरोप को एशिया से
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) उत्तर अमेरिका को यूरोप से

प्रश्न 21.
भारत में नगरीय आबादी है
(a) 31%
(b) 41%
(c) 51%
(d) 619
उत्तर:
(a) 31%

प्रश्न 22.
‘सम्भववाद’ अवधारणा में किस घटक को महत्त्वपूर्ण माना गया है ?
(a) प्राकृतिक घटक
(b) मानवीय घटक
(c) दोनों (a) और (b)
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) दोनों (a) और (b)

प्रश्न 23.
वाल्मीकिनगर टाईगर रिजर्व कहाँ स्थित है ?
(a) बिहार
(b) मध्य प्रदेश
(c) पंजाब
(d) केरल
उत्तर:
(a) बिहार

प्रश्न 24.
उत्तर भारत में सिंचाई का मुख्य स्रोत क्या है ?
(a) तालाब
(b) नहर
(c) नलकूप
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) नहर

प्रश्न 25.
धारावी मलिन बस्ती किस नगर में स्थित है ?
(a) कोलकाता
(b) मुम्बई
(c) दिल्ली
(d) हैदराबाद
उत्तर:
(b) मुम्बई

प्रश्न 26.
निम्न में से कौन परम्परागत ऊर्जा का स्रोत है ?
(a) कोयला
(b) पेट्रोलियम
(c) प्राकृतिक गैस
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(d) उपरोक्त सभी

प्रश्न 27.
‘बीटल’ नामक कीड़ा किस फसल के बागान में लगता है ?
(a) रबड़
(b) कपास
(c) गन्ना
(d) कहवा
उत्तर:
(d) कहवा

प्रश्न 28.
भारत का जावा किस क्षेत्र को कहा जाता है ?
(a) रुड़की
(b) गोरखपुर
(c) शाहजहाँपुर
(d) बरेली
उत्तर:
(b) गोरखपुर

प्रश्न 29.
संसार के अधिकांश महान पत्तन किस प्रकार वर्गीकृत किए गए हैं :
(a) नौसेना पत्तन
(b) विस्तृत पत्तन
(c) तैल पत्तन
(d) औद्योगिक पत्तन
उत्तर:
(a) नौसेना पत्तन

प्रश्न 30.
निम्नलिखित महाद्वीपों में से किस एक से विश्व व्यापार का सर्वाधिक प्रवाह होता है ?
(a) एशिया
(b) यूरोप
(c) उत्तरी अमेरिका
(d) अफ्रीका
उत्तर:
(b) यूरोप

प्रश्न 31.
दक्षिण अमरीकी राष्ट्रों में से कौन ओपेक का सदस्य है ?
(a) ब्राजील
(b) वेनेजुएला
(c) चिली
(d) पेरू
उत्तर:
(c) चिली

प्रश्न 32.
निम्न व्यापार समूहों में से भारत किसका एक सहसदस्य है ?
(a) साफ्टा (SAFTA)
(b) आसियान (ASEAN)
(c) ओइसीडी (OECD)
(d) ओपेक (OPEC)
उत्तर:
(a) साफ्टा (SAFTA)

प्रश्न 33.
कोलम्बिया और ब्राजील में किस फसल का उत्पादन सबसे अधिक होता है ?
(a) गेहूँ
(b) मक्का
(c) कहवां
(d) चावल
उत्तर:
(c) कहवां

प्रश्न 34.
संयुक्त राज्य अमेरिका में निम्नलिखित फसलों में से किस फसल का उत्पादन सबसे अधिक होता है ?
(a) मक्का
(b) गेहूँ
(c) चाय
(d) कहवा
उत्तर:
(a) मक्का

प्रश्न 35.
दो देशों के बीच वस्तुओं और सेवाओं के आदान-प्रदान को क्या कहते हैं ?
(a) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार
(b) क्षेत्रीय व्यापार
(c) व्यापार
(d) व्यापार की संरचना
उत्तर:
(a) अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार

प्रश्न 36.
व्यापार संघों की सदस्यता पर किन तीन बातों का प्रभाव पड़ता है ?
(a) दूरी, उपनिवेशी सम्बन्धों की परम्परा, भू-राजनैतिक सहयोग
(b) संसाधनों की उपलब्धता, आवश्यक पूँजी, प्रौद्योगिकी की दक्षता
(c) व्यापार की मात्रा, व्यापार की संरचना तथा व्यापार की दिशा
(d) व्यापार की मात्रा, व्यापार मूल्य तथा व्यापार की संरचना
उत्तर:
(a) दूरी, उपनिवेशी सम्बन्धों की परम्परा, भू-राजनैतिक सहयोग

प्रश्न 37.
अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार कितने प्रकार का होता है ?
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) पांच
उत्तर:
(a) दो

प्रश्न 38.
आयात एवं निर्यात के बीच मूल्यों के अन्तर को क्या कहते हैं ?
(a) असंतुलित व्यापार
(b) विलोम व्यापार
(c) व्यापार संतुलन
(d) अनुकूल व्यापार
उत्तर:
(c) व्यापार संतुलन

प्रश्न 39.
पेट्रोलियम निर्यातक देशों के संघटन ओपेक का गठन कब हुआ और निम्नलिखित में से कितने देश इसके सदस्य हैं ?
(a) 1950-12 सदस्य
(b) 1960-13 सदस्य
(c) 1970-15 सदस्य
(d) 1980-13 सदस्य
उत्तर:
(b) 1960-13 सदस्य

प्रश्न 40.
1996 में कुल विश्व निर्यात का कितना प्रतिशत भाग सेवाओं का था ?
(a) 50%
(b) 25%
(c) 35%
(d) 5%
उत्तर:
(b) 25%

प्रश्न 41.
निम्नलिखित में से किस राज्य में प्रमुख तेल क्षेत्र स्थित है ?
(a) असम
(b) बिहार
(c) राजस्थान
(d) तमिलनाडु
उत्तर:
(a) असम

प्रश्न 42.
समुद्र तट से दूर स्थल खंड के पत्तन को क्या कहते हैं ?
(a) आन्तरिक पत्तन
(b) नेवी पत्तन
(c) आन्त्रेपो पत्तन
(d) तेल पत्तन
उत्तर:
(a) आन्तरिक पत्तन

प्रश्न 43.
चाय उत्पादन के लिए कितने तापमान की आवश्यकता होती है ?
(a) 25°C से 30°C
(b) 30°C से 40°C
(c) 50°C से 60°C
(d) 5°C से 15°C
उत्तर:
(a) 25°C से 30°C

प्रश्न 44.
निम्नलिखित में कौन-सा खनिज ‘भूरा हीरा’ के नाम से जाना जाता है ?
(a) लौह
(b) लिगनाइट
(c) मैंगनीज
(d) अभ्रक
उत्तर:
(c) मैंगनीज

प्रश्न 45.
निम्नलिखित में कौन-सा ऊर्जा का अनवीकरणीय स्त्रोत हैं ?
(a) जल
(b) सौर
(c) ताप
(d) पवन
उत्तर:
(c) ताप

प्रश्न 46.
किस धातु का प्रयोग बिजली की तारें आदि बनाने में किया जाता है ?
(a) लोहा
(b) अभ्रक
(c) जिंक
(d) ताँबा
उत्तर:
(d) ताँबा

प्रश्न 47.
उड़ीसा के मयूरभंज, क्योंझर तथा बोनाई क्षेत्रों में कौन सी धातु मिलती है ?
(a) ताँबा
(b) मैंगनीज
(c) लोहा
(d) अभ्रक
उत्तर:
(c) लोहा

Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th History Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
महाभारत कालीन भारतीय सामाजिक जीवन की प्रमुख विशेषताओं पर एक निबंध लिखें।
उत्तर:
भारत का सामाजिक जीवन (Social Life of India) – मोटे तौर पर महाभारत का काल हम उत्तर वैदिक के अंत से लेकर बुद्ध काल के काल को मानते हैं। इस काल में भी समाज का आधार पारिवारिक जीवन था।

संयुक्त परिवार (Joint Family) – इस काल में कुल या परिवार में सभी सदस्य एक साथ रहते थे। कुल का प्रमुख कुलपति कहलाता था। कुलपति या तो पिता होता था या सबसे बड़ा भाई होता था। महाभारत से संदर्भ मिलते हैं प्रायः परिवार में प्रेम होता था। आयु में छोटे सदस्य बड़े परिवारजनों का सम्मान करते थे और कुलपति सभी के कल्याण की चिंता करते हुए उनके साथ व्यवहार करता था। नि:संतान दंपत्ति लड़का या लड़की गोद ले सकते थे। इस काल में प्राय: छोटे भाई बहनों की शादी आयु में बड़े भाई-बहनों से पहले करना बुरा माना जाता था। पिता की मृत्यु के बाद सबसे बड़ा भाई अपने छोटे भाई-बहनों का दायित्व निभाता था।

चार आश्रम (The four Ashrams) – इस काल में प्रत्येक व्यक्ति का जीवन व्यवस्था पर आधारित था। जीवन को चार आश्रमों में बाँटा गया था।
ब्रह्मचर्य – वह काल जब विद्यार्थी अध्यापन में धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करता था।
गृहस्थ – वह काल जब व्यक्ति विवाहित जीवन बिताता था।
वानप्रस्थ – वह काल जब व्यक्ति त्याग का जीवन बिताता और गृहस्थी के बंधनों से मुक्त होने का प्रयत्न करता था।

संन्यास – वह काल जब मनुष्य अपने परिवार और समाज को छोड़कर तपस्वी के रूप में पूर्ण आत्मसंयम का जीवन बिताता था। पर आश्रम-व्यवस्था निम्न वर्ग पर लागू नहीं की जाती थी क्योंकि उन्हें धार्मिक ग्रंथ पढ़ने का अधिकार न था। अन्य सबके लिए यह जीवन का नियम था किन्तु यह कहना कठिन है कि कितने मनुष्य इस व्यवस्था का पालन करते थे।

यह आश्रम विकसित तो अवश्य हुए थे। परन्तु इसमें जटिलता नहीं थी। इनका प्रभाव जनता के सामाजिक जीवन पर बहुत था। इसके कारण ही लोगों का नैतिक उत्थान हुआ।

जाति प्रथा (Caste System) – जाति प्रथा ने प्राचीन भारतीय समाज को स्थयित्व प्रदान किया। उसने देशी और विदेशी-दोनों तत्वों का समावेश प्राचीन भारतीय समाज में आसानी से कर दिया क्योंकि उनके लिए यहाँ के जाति अधिक्रम में स्थान था। यह उल्लेखनीय है कि अनेक प्राचीन समाजों में जो नग्न शोषण उन दिनों चल रहा था, जैसे कि गुलामी की प्रथा, वह प्राचीन भारत में नहीं था।

स्त्रियों की स्थिति (Position of Women) – स्त्रियाँ पैतृक संपत्ति की स्वामी नहीं हो सकती थीं। वैसे बहुत सी बातों में पूर्ण स्वतंत्रता थी। विधवा को पुनर्विवाह करने का अधिकार था। साधारणतया वह देवर के साथ विवाह कर सकती थी। कुछ बातों में स्त्रियों का स्तर बाद में, शूद्रों के समान हो गया। परिवार में पुत्रियों की अपेक्षा पुत्रों का अधिक मान होने लगा।

विवाह प्रणालियाँ (Types of Marriage) – महाभारत काल में भारत में शादी की अनेक प्रणालियाँ प्रचलित थीं जिनमें प्रमुख थी : ब्रह्म विवाह, प्रजापति विवाह, प्रेम विवाह, असुर विवाह, देव विवाह, गंदर्व विवाह, राक्षस विवाह, पिशाच विवाह।

शिक्षा (Education) – महाभारत काल में शिक्षा विकसित हो गई थी। उपनयन संस्कार द्वारा जब बच्चों को ब्रह्मचर्य आश्रम में भेजते थे तो गुरु के आश्रम में रहकर सारी विद्या प्राप्त करता था। गुरु की सेवा करनी होती थी। हवन के लिए जंगल से लकड़ियाँ तोड़कर लाना, चुल्हा जलाना, भिक्षा माँगना, आदि कार्य विद्यार्थी करते थे। विद्यार्थी बिना कोष शुल्क के पढ़ते थे। भाषा, व्याकरण, सामान्य गणित के साथ-साथ नैतिक शिक्षा और राज परिवार के सदस्यों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा गुरु ही दिया करते थे।

खान-पान (Food and Drink) – गेहँ, चावल, मक्खन, घी के साथ-साथ फल और कुछ लोग माँस-मछली आदि का भी उपभोग करते थे। प्रायः लोग बकरे को काटते थे। गो हत्या को सामाजि दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता था। घोड़े का माँस भी खाते थे जैसा कि अश्व-मेघ की परम्परा से पता चलता है कि मदिरा पान किया जाता था लेकिन अनेक लोग इसे अच्छा नहीं समझते थे।

मनोरंजन (Entertainment) – घरेलू और मैदानी खेल, पासा, जुआ बहुत प्रचलित था। मैदानी खेलों में रथों की दौड़ बहुत लोकप्रिय था। लोग नृत्य और वाद्यवृन्द में भी रुचि लेते थे। स्त्रियाँ प्रायः नृत्य और गाना सीखती थीं। बाँसूरी, बीणा, ढोल, इत्यादि प्रसिद्ध थे।

चरित्रहीनता (Degeneration of Character) – महाभारत महाकाव्य से अनेक उद्धरण मिलते हैं कि लोगों का जीवन नैतिक दृष्टि से गिर गया था। राजा और धनी लोग एक से ज्यादा स्त्रियों से विवाह करते थे। कहीं-कहीं एक ही महिला से कई भाई शारीरिक संबंध रखते थे। शत्रुओं को धोखे से मारने में कोई बुराई नहीं समझी जाती थी। वैश्या गमन, जुआ खेलना, गाना बजाना और शराब पीना उच्च वर्ग के लोगों में आम बात थी।

वस्त्र तथा आभूषण (Dress and Ornaments) – इस काल में सूती वस्त्र के साथ-साथ रेशमी और ऊनी वस्त्र भी पहने जाते हैं। पगड़ी स्त्री तथा पुरुष दोनों ही प्रयोग करते थे। कढ़ाई किए वस्त्रों को विशेष रूप से प्रयोग में लाया जाता था। केसरिया रंग विशेष रूप से पुरुषों के लिए पसंद किया जाता था। स्त्री, पुरुष विभिन्न धातुओं के आभूषण पहनते थे।

प्रश्न 2.
महावीर की जीवनी एवं उनके उपदेशों का उल्लेख करें।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई० पू० भारत में धार्मिक क्रांति हुई, उसके फलस्वरूप दो नये धर्मों का उदय हुआ-जैन धर्म एवं बौद्ध धर्म। पहले के संस्थापक महावीर तथा दूसरे के गौतम बुद्ध थे। इन धर्मों ने वैदिक कर्मकांड के विरुद्ध आवाज उठाई तथा मानव कल्याण के लिए सीधा रास्ता बतलाया।

जैनधर्म के प्रमुख प्रवर्तक महावीर थे। उनके बचपन का नाम वर्द्धमान था। उनका जन्म बिहार के वैशाली के निकट कुण्डिग्राम में हुआ था। उनके पिता क्षत्रिय थे और मातृक कुल के सरदार थे। इनका नाम सिद्धार्थ था। इनका विवाह लिच्छवि सरदार की बहन त्रिसला से हुआ था। इनका जन्म पार्श्वनाथ की मृत्यु के 250 वर्षों के बाद 540 ई० पू० में हुआ था। प्रारंभ में वर्द्धमान का जीवन राजकीय समृद्धि और विलासिता के साथ व्यतीत हुआ। उन्हें हरेक प्रकार की राज्योचित विद्याओं की शिक्षा दी गई। युवा होने पर उनका विवाह यशोदा नामक सुन्दर राजकुमारी से कर दिया गया। इस विवाह से उन्हें प्रियदर्शना नाम की पुत्री भी पैदा हुई।

प्रारंभ में ही महावीर चिन्तनशील प्रवृत्ति के युवक थे। 30 वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात् उनकी निवृत्तिमार्गी प्रवृत्ति और भी बढ़ गयी। उन्हें राज-पाट से कोई सम्बन्ध नहीं रहा। अपने बड़े भाई की आज्ञा से उन्होंने एक दिन अपना घर-द्वार छोड़ दिया और संन्यासी बनकर सत्य की खोज में निकल पड़े। कल्पसूत्र के अनुसार घर छोड़ने के 11 मास बाद उन्होंने वस्त्र पहनना छोड दिया और नग्न भ्रमण करने लगे। 12 वर्षों तक उन्होंने घोर तपस्या की। भोजन और शरीर का ध्यान न रखने से शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया। उनके नग्न शरीर पर कीट-कीटाणु चढ़ने लगे और उन्हें काटने लगे, परन्तु उन्हें इनकी जरा भी परवाह नहीं थी। उनके पीछे दुष्ट लड़कों के झुण्ड घूमते थे और उन्हें डण्डों से पीटते थे, परन्तु वर्द्धमान इन कठिनाइयों से जरा भी नहीं घबराये।

इस प्रकार 12 वर्षों तक वे कठिन तपस्या करते रहे। 42 वर्ष की आयु में जुम्मिका ग्राम के निकट राजुपलिका नदी के तट पर वर्द्धमान को एक शाल वृक्ष के निकट कैवल्य अथवा ‘पूर्ण ज्ञान’ की प्राप्ति हुई। उन्होंने अपनी इन्द्रियों पर विजय भी प्राप्त कर ली थी, अतः वे ‘जिन’ भी कहलाये। अतुल पराक्रम दिखलाने के चलते वे महावीर भी कहलाये। बौद्ध ग्रंथों में उन्हें निगण्ठ नाटपुत्र भी कहा गया।

कैवल्य प्राप्ति के बाद महावीर विभिन्न जगहों पर घूम-घूम कर अपने धर्म का प्रचार करने लगे। वे वर्ष के आठ महीने धर्म का प्रचार करते थे तथा बरसात के दिनों में किसी नगर में विश्राम करते थे। चम्पा, वैशाली, राजगृह, मिथिला आदि जगहों का दौरा कर अपने धर्म का प्रचार लोगों में करते रहे। उनके अनुयायी जैन कहलाने लगे। इस प्रकार अपने धर्म का प्रचार करते हुए 72 वर्ष की आयु में (463 ई० पू०) उन्हें राजगीर के समीप पावापुरी में निर्वाण प्राप्त हुआ।

महावीर ने किसी धर्म की स्थापना नहीं की। उन्होंने पार्श्वनाथ के सिद्धांतों को आगे बढ़ाया तथा उसे स्थायित्व प्रदान किया। जैनियों के अनुसार इनके पहले तीर्थंकर ऋषभदेव थे। उनसे लेकर पार्श्वनाथ तक अन्य कई तीर्थंकर हुए। पार्श्वनाथ जैनियों के 23वें तीर्थंकर थे तथा महावीर 24वें। महावीर ने पार्श्वनाथ के मूल सिद्धांतों सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह (सम्पत्ति का त्याग और उसका संग्रह नहीं करना) तथा अस्तेय (चोरी नहीं करना) को तो बनाये रखा ही साथ-साथ इसमें ब्रह्मचर्य का सिद्धांत भी जोड़ दिया।

जैनदर्शन हिन्दू सांख्यदर्शन के बहुत निकट है। ईश्वर में विश्वास, संसार दुखमय है, मनुष्य को कर्म के अनुसार फल प्राप्त होता है और जीव के आवागमन का सिद्धांत जैनदर्शन में प्रमुख स्थान रखते हैं। जैनदर्शन का विश्वास द्वैतवादी तत्त्वज्ञान में है। उनके अनुसार प्रकृति और आत्मा दो तत्त्व हैं। मनुष्य का व्यक्तित्व इन तत्त्वों से मिलकर बना है जिसमें प्रथम तत्त्व नाशवान है तथा दूसरा तत्त्व अनन्त और विकासशील है। द्वितीय तत्त्व की प्रगति करने से अन्त में मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता है।

जैनदर्शन के सात तत्त्व अर्थात् सत्य हैं-

  1. कोई ऐसी चीज है जिसे जीवन या आत्मा कहते हैं।
  2. कोई ऐसी चीज है जिसे अजीव, प्रकृत या पुद्रल कहते हैं।
  3. जीव और अजीव का मिलन होता है।
  4. इन दोनों के मिलने से कुछ शक्तियों का निर्माण होता है।
  5. इन दोनों के मिलन को रोका जा सकता है।
  6. संचित शक्तियों को नष्ट किया जा सकता है।
  7. निर्वाण या मोक्ष प्राप्ति संभव है।

इन सात तत्त्वों के आधार पर जैनदर्शन बतलाता है कि पहले मनुष्य को बुरे कर्मों से बचना चाहिए। उसके बाद कर्म बन्द कर देना चाहिए। इसके लिए उपर्युक्त वर्णित जैन धर्म के 5 सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। निर्वाण प्राप्ति के लिए उसे तीन रत्नों-सत्य, विश्वास या श्रद्धा, सत्य ज्ञान और सत्य कर्म करना चाहिए। इनका पालन करने से ही मोक्ष या निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है. तथा मनुष्य के कष्टों का अंत हो सकता है।

जैनधर्म में अहिंसा पर अत्यधिक बल दिया गया है। जैन पशु-पक्षी, वनस्पति आदि ही नहीं, बल्कि जल, पहाड़ आदि में भी जीवन मानते हैं। फलतः आखेट, कृषि एवं युद्ध पर पाबन्दी लगा दी गई। महावीर को यह विश्वास था कि गृहस्थाश्रम में रहकर मोक्ष प्राप्त नहीं किया जा सकता है। इसके लिए संन्यासी का जीवन जीना आवश्यक था। जैन संन्यासियों को इन्द्रिय दमन हेतु कठोर नियमों का पालन आवश्यक था। जैसे-वस्त्र नहीं पहनना, सिर के बालों को जड़ से उखाड़ देना, अपना कोई निश्चित आवास नहीं रखना, सिर्फ दिन में ही यात्रा करना, जीव हत्या से बचना, अपनी प्रशंसा एवं दूसरे की बुराई नहीं करना तथा स्त्रियों के संसर्ग से बचना आदि। इन कठोर नियमों द्वारा जैनियों के कर्मों को नियंत्रित करने का प्रयत्न किया गया।

जैनधर्म के ब्राह्मण धर्म के वेदवाद, यज्ञ, बलि एवं कर्मकाण्ड का विरोध किया। निर्वाण की प्राप्ति श्रद्धा, ज्ञान एवं कर्म से ही हो सकती है। इसके लिए पुरोहितों एवं यज्ञों को आवश्यकता नहीं थी। जैनधर्म के देवताओं के अस्तित्व को तो स्वीकार किया, परन्तु यह जिन से बड़ा नहीं है। जैनधर्म ने जाति-व्यवस्था पर भी बहुत कठोर प्रहार नहीं किया, बल्कि बाद में उससे समझौता नहीं कर लिया। महावीर के अनुसार पूर्व जन्म में किये गये कर्मों के आधार पर ही उच्च जाति या निम्न वर्ग में जन्म होता है। शुद्ध एवं सदाचारी जीवन व्यतीत करने से निम्न जाति के मनुष्य भी मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। प्रारंभ में जैन धर्म में मूर्त्ति-पूजा भी आ गयी, जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनाकर उनकी पूजा की जाने लगीं। मनुष्य की साधारण दिनचर्या में भी जैन धर्म में परिवर्तन नहीं किया। जन्म, विवाह, मृत्यु आदि के विभिन्न संस्कारों जैनियों में हिन्दुओं की भाँति होते रहे। इसी प्रकार जैन धर्म हिन्दू धर्म से अपने-आपको बहुत दूर नहीं ले जा सका। इसी कारण न तो इस धर्म का पूर्ण प्रसार हो सका और न ही यह पूर्णतया नष्ट हो सका।

महावीर ने न सिर्फ जैनधर्म की स्थापना की, बल्कि इसके प्रचार-प्रसार के लिए भी कदम उठाये। ये स्वयं विभिन्न नगरों में घूम-घूमकर इस धर्म का प्रचार करते थे। इसके प्रचार के लिए जैन संघ की स्थापना की। उनके धर्म को वैश्यों, व्यापारियों एवं राजकुलों का समर्थन प्राप्त हुआ। धीरे-धीरे कौशल, मगध, विदेह, अवन्ति आदि राज्यों में इनका प्रचार हो गया। इस धर्म के अनुयायियों की संख्या 14,000 बतलाई जाती है। महावीर की मृत्यु के बाद ये दो भागों में बँट गया-एक सम्प्रदाय श्वेताम्बर और दूसरा दिगम्बर सम्प्रदाय कहलाया। चन्द्रगुप्त मौर्य ने इसका दक्षिण भारत में प्रचार किया। कलिंग अथवा उड़ीसा में इसका प्रचार वहाँ के प्रसिद्ध शासक खारवेल ने किया। फिर भी बौद्ध धर्म की तरह जैन धर्म को न तो उतना राज्याश्रय ही प्राप्त हो सका और न ही जनता का समर्थन मिल सका।

इसके बावजूद जैनधर्म का भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के विकास में अद्भुत योगदान है। अहिंसा पर कठोर प्रतिबन्ध लगाकर इसने पशधन के संरक्षण में सहायता प्रदान की तथा आर्थिक व्यवस्था को स्थायित्व प्रदान किया। जैनियों ने लोक-भाषा प्राकत के विकास में भी मदद की। इसी भाषा में जैनियों के इतिहास लिखे गये। इसने भारतीय दर्शन एवं कला को भी आने वाले समय में प्रभावित किया।

प्रश्न 3.
जैन धर्म के मुख्य उपदेशों (शिक्षाओं) का वर्णन करें। भारतीय समाज (जीवन) पर इसका क्या प्रभाव पड़ा ?
उत्तर:
जैन धर्म के संस्थापक वर्द्धमान महावीर थे। जैन धर्म की शिक्षाएँ निम्नलिखित थीं-
(i) आत्म निग्रह से आत्मज्ञान होता है। इसे प्राप्त करने के लिए सम्यक् विश्वास, सम्यक् ज्ञान तथा सम्यक् कर्म पर बल दिया गया।
(ii) अहिंसा पर बहुत बल दिया जाता था। उनका कथन था कि निर्जीव वस्तुओं में भी अनुभूति होती है।
(iii) जैन धर्म का पालन करने के लिए पाँच महाव्रत थे-

  • अहिंसा
  • सत्य
  • चोरी न करना
  • ब्रह्मचर्य
  • अपरिग्रह।

भारतीय समाज पर जैन धर्म के प्रभाव (Effects of Jain Religion on Indian Society) – भारतीय समाज पर जैन धर्म के निम्नलिखित प्रभाव थे-
(a) जाति-पॉति का खंडन (Opposition of Caste System) – जैन धर्म में जातीय बन्धनों पर कड़ा प्रहार किया गया। उन्होंने भ्रातृभाव तथा सद्भावना को बढ़ावा दिया। इससे लोगों में दया, ममता, त्याग आदि भावनाएँ उत्पन्न हुईं।

(b) हिन्दू धर्म की कट्टरता पर प्रहार (Attack on the Rigidity of Hindus religion) – ब्राह्मणों द्वारा अनेक कर्मकाण्डों-यज्ञ, बलि अथवा खर्चीले अनुष्ठानों से जनसाधारण परेशान था। जैन धर्म बिना आडम्बर के सीधा-साधा धर्म था। इसने लोगों (हिन्दुओं) के मन पर प्रभाव डाला।

(c) राजनैतिक दुर्बलता (Political Weakness) – जैन धर्म की ‘अहिंसा परमो धर्म’ की नीति से प्रभावित होकर लोगों ने युद्ध में रुचि लेना छोड़ दिया। इसके परिणामस्वरूप कालान्तर में विदेशी शक्तियों ने आकर भारत पर अपना अधिकार जमा लिया।

(d) खान-पान में परिवर्तन (Changes Eating Habits) – अहिंसा की भावना से प्रेरित होकर लोगों ने मांस खाना छोड़ दिया। इससे जीव हत्या तो रुकी ही, साथ ही पशु धन में वृद्धि भी हुई।

(e) भारतीय कला, स्थापत्य कला और साहित्य पर प्रभाव (Effects of Indian Art, Architecture and Literature) – दिलवाड़े के जैन मन्दिर, माउण्ट आबू का जैन मन्दिर, खजूराहो के जैन मन्दिर एवं अजन्ता-एलोरा की गुफाएँ स्थापत्य कला के सुन्दर नमूने हैं। जैन धर्म के ‘अंग’ ग्रन्थ ऐतिहासिक महत्त्व के हैं।

प्रश्न 4.
जैनधर्म की सफलता के कारणों को दर्शायें।
उत्तर:
महावीर के जीवनकाल में ही और उनकी मृत्यु के पश्चात् भी जैनधर्म का भारत में प्रचार-प्रसार हुआ। जैनधर्म की सफलता या विकास में अनेक कारणों ने योगदान किया-

तत्कालीन राजवंशों का समर्थन – जैनधर्म की सफलता के लिए कुछ सीमा तक स्वयं . महावीर का एक राजपरिवार से सम्बद्ध होना था। महावीर के उपदेशों और उनके आभिजात्य कुल में उत्पन्न होने से प्रभावित होकर क्षत्रिय राजाओं ने उनके उपदेशों को उत्साहपूर्वक ग्रहण किया और उनके समर्थक बन गए। जैनग्रंथ आवश्यकचूर्णि से ज्ञात होता है कि वज्जिसंघ के प्रधान चेटक एवं अवन्ती का राजा प्रद्योत अपनी आठ रानियों के साथ महावीर का अनुयायी बन बैठा। अन्य जैनग्रंथों (उत्तराध्ययनसूत्र, औपपादिकसूत्र इत्यादि) से भी पता चलता है कि बिम्बिसार, अजातशत्रु जैसे मगध के शक्तिशाली शासकों, कौशाम्बी नरेश की रानी मुगावती, सिन्धु-सौवीर के राजा उदयन, पावा के मल्ल इत्यादि भी महावीर के समर्थक थे। बाद में चन्द्रगुप्त मौर्य ने दक्षिण में और चेदिवंशीय शासक खारवेल ने उड़ीसा में इसका प्रचार किया। शासकों द्वारा जैनधर्म को मान्यता देने के परिणामस्वरूप उन राज्यों की जनता और आभिजात्य वर्ग के बीच भी नए धर्म की लोकप्रियता बढ़ी।

वैश्यों का समर्थन – नए धर्म को लोकप्रिय और सफल बनाने में वैश्यवर्ग का भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। जैनधर्म ने वस्तुत: नवीन आर्थिक व्यवस्था के अनुरूप ही अपने को ढाला था। हिंसा पर प्रतिबंध लगाने से नवीन कृषि प्रणाली को लाभ पहुँचा। पशुधन का हनन रुक गया, कृषि का उत्पादन बढ़ा। परिणामस्वरूप व्यापार-वाणिज्य, नगरों का उदय, सिक्कों का प्रचलन, कर्ज और सूद की प्रथा और नागरीय जीवन का विकास संभव हो सका। इन नए आर्थिक परिवर्तनों से सबसे अधिक लाभ कृषकों, कारीगरों और व्यापारियों (वैश्यों) को ही था। अतः, इस वर्ग ने नए धर्म की अभिवृद्धि में गहरी रुचि ली एवं आर्थिक सहायता भी प्रदान की। यही बात बौद्धधर्म के साथ भी लागू होती है।

सरल प्रचार माध्यम – जैनधर्म की सफलता इस बात पर भी निर्भर थी कि महावीर और अन्य जैन उपदेशकों ने अपने विचारों को जनता के समक्ष सरल और सुबोध भाषा में रखा। अपने उपदेशों से जनसाधारण को अवगत कराने के लिए संस्कृत जैसी गूढ़ और कठिन भाषा का प्रयोग न कर प्राकृत भाषा को, जो जनसाधारण की भाषा थी, इन लोगों ने माध्यम बनाया। जैनों ने कुछ ग्रंथ बाद में यद्यपि संस्कृत में भी लिखे गए, परंतु आरम्भ में वे अर्द्धमागधी में ही लिखे गए। इसके कारण जनता की रुचि इस धर्म में बढ़ी।

भेदभाव की नीति का परित्याग – जैनधर्म की सफलता का एक प्रधान कारण यह था कि इसने ब्राह्मणधर्म की विभेदपूर्ण नीति का त्याग किया और सभी वर्गों और वर्णों को एक समान धरातल पर ला खड़ा कर दिया। महावीर के धर्म में सभी व्यक्ति समान थे; न कोई ऊँचा था न नीचा। सभी जीवों में समान आत्मा का निवास रहता था। अपने सत्कर्मों द्वारा सभी निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। यहाँ तक कि स्त्रियों और पुरुषों में भी विभेद नहीं किया गया। महावीर ने अपने संघ के द्वार सबके लिए समान रूप से खोल दिए। फलतः, ब्राह्मणवाद से त्रस्त जनता नए धर्म की तरफ आकृष्ट हुई।

जैनधर्म का व्यावहारिक स्वरूप – महावीर का धर्म ब्राह्मणधर्म (वैदिक धर्म) की तरह आडम्बरपूर्ण नहीं था। इस धर्म में आस्था रखना बिलकुल ही सरल था। निर्वाण की प्राप्ति के लिए न तो पुरोहितों के माध्यम की जरूरत थी, न ही यज्ञ या बलि की। बिना किसी विशेष झंझट के पाँच महाव्रतों एवं त्रिरत्नों का पालन कर मनुष्य निर्वाण प्राप्त कर सकता था। यद्यपि जैन भिक्षुओं के लिए धर्म के नियम कड़े थे, तथापि जनसाधारण के लिए ये नियम कठिन नहीं थे। अतः, जनता ने नए धर्म का स्वागत किया।

जैनसंघ का योगदान – जैनधर्म के प्रचार में जैनसंघ की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। यद्यपि संघ की स्थापना महावीर के पूर्व ही हो चुकी थी, परंतु महावीर ने नए ढंग से संगठित कर इस संघ को प्रचार का माध्यम बनाया। संघ के द्वार सभी के लिए खुले हुए थे, इसमें किसी का प्रवेश वर्जित नहीं था। यहाँ तक कि ब्राह्मणों को भी इसमें शामिल किया गया। इसके सदस्य संयम और नियमपूर्वक जीवन व्यतीत करते हुए धर्म का प्रचार करते थे। इससे नए धर्म की लोकप्रियता बढ़ी।

आरम्भ में यद्यपि जैनधर्म का तेजी से प्रचार हुआ, तथापि यह बौद्धधर्म जैसी स्थिति प्राप्त नहीं कर सका। बाद में इसका पतन होने लगा और यह क्षेत्र-विशेष में ही सिमटकर रह गया। गंगाघाटी में इसका प्रभाव बौद्धधर्म की अपेक्षा कम रहा। अनेक कारणों से जैनधर्म का पतन हुआ।

प्रश्न 5.
जैनधर्म के पतन के कारणों को बतावें।
उत्तर:
जैनधर्म बौद्धधर्म की तरह लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जा सकते हैं-

ब्राह्मणधर्म से सम्बन्ध बनाए रखना – जैनधर्म की असफलता का एक मुख्य कारण यह था कि यह अपने-आपको पूर्णतः ब्राह्मणधर्म से अलग नहीं कर सका। महावीर ने वैदिक दर्शन का पूर्ण परित्याग नहीं किया, बल्कि उसे एक दार्शनिक दर्जा प्रदान कर दिया। इस धर्म के कोई विशेष सामाजिक धर्मोपदेश नहीं थे, बल्कि वे वैदिक धर्म से ही मिलते-जुलते थे। जैनों के पारिवारिक संस्कार वैदिक संस्कारों के ही समान थे। ब्राह्मणधर्म की ही तरह भक्तिवाद, देवताओं का अस्तित्व इत्यादि था। वस्तुतः जैनधर्म ने ब्राह्मणधर्म से अपने को अलग करने का प्रयास नहीं किया। फलस्वरूप, जनता को इस धर्म में कोई ऐसी नई बात नहीं दिखी, जिससे प्रभावित होकर वे इसकी तरफ आकृष्ट हों।

नियमों की कठोरता – जैनधर्म ने कठिन तपस्या और आत्मपीड़न पर अत्यधिक बल प्रदान किया। संघ और धर्म के नियम इतने कठोर थे कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए उनका पालन संभव नहीं था। वस्त्र नहीं पहनना, भूखा रहना, धूप में शरीर को तपाना, बाल उखड़वाना इत्यादि ऐसे नियम थे, जिनका पालन सबके लिए संभव नहीं था। इसलिए, यह धर्म कभी लोकप्रिय नहीं हो सका।

अहिंसा पर अत्यधिक बल प्रदान करना – जैनधर्म ने अहिंसा की नीति को इतना अधिक महत्त्वपर्ण बना दिया कि वह अव्यावहारिक बन गया। आरम्भ में क्षत्रिय और कषक भी इस धर्म की तरफ आकृष्ट हुए, परंतु बाद में वे इससे विमुख होने लगे। क्षत्रिय के लिए युद्ध करना और कृषक के लिए खेती करना, इस धर्म का पालन करते हुए संभव नहीं था। इसी प्रकार जनसाधारण के लिए भी यह संभव नहीं था कि वह सदैव रास्ता साफ करते हुए चले, जल छानकर पीए या मुख पर वस्त्र डालकर श्वास ले, जिससे किसी जीवाणु की हत्या न हो जाए। जैन अहिंसा का दर्शन अव्यावहारिक सिद्ध हुआ और अपनी महत्ता खो बैठा। गृहस्थों के लिए इसका पालन अत्यन्त ही कठिन कार्य था।

जातिप्रथा के दर्शन को बनाए रखना – जैनधर्म जाति व्यवस्था से भी अपने-आपको पूर्णतः अलग नहीं कर सका। महावीर भी मानते थे कि कर्मफल के अनुसार ही मनुष्य का जन्म उच्च या निम्नवर्ग में होता है। संघ में व्यावहारिक रूप से उच्चवर्ण के व्यक्ति ही ज्यादा सम्मिलित हुए। जाति प्रथा की कमजोरी ने इस धर्म को सर्वमान्य नहीं बनने दिया।

उचित राज्याश्रय का अभाव – जैनधर्म की विफलता का एक अन्य कारण यह था कि इस धर्म को उचित राज्याश्रय नहीं मिल सका। यद्यपि लिच्छवियों, मगध के शासक बिम्बिसार और अजातशत्रु ने इस धर्म को स्वीकार किया, तथापि इसे वे अपना पूरा समर्थन नहीं दे पाए। इन लोगों ने बाद में बौद्धधर्म को ज्यादा महत्त्व प्रदान किया। इसी प्रकार, चन्द्रगुप्त मौर्य और खारवेल को छोड़कर अन्य किसी महत्त्वपूर्ण शासक ने इस धर्म को प्रश्रय नहीं दिया। बौद्धधर्म की तरह जैनधर्म को किसी अशोक या कनिष्क जैसे धार्मिक उत्साह से परिपूर्ण शासक का समर्थन नहीं मिल सका। फलतः, जैनधर्म कभी भी राजधर्म नहीं बन सका। इसलिए भी जनसमुदाय का समर्थन जैनधर्म को नहीं मिल सका।

अन्य कारण – अन्य कारणों के चलते भी जैनधर्म का बहुत अधिक प्रचार नहीं हो सका। जैनधर्म के विकास में सबसे बड़ी बाधा बौद्धधर्म के उदय ने कर दी। बौद्ध धर्म जैनधर्म से ज्यादा सरल और ग्राह्य था। इसलिए, धीरे-धीरे बौद्धधर्म का प्रभाव बढ़ता गया और जैनधर्मावलम्बियों की संख्या घटने लगी। इसी प्रकार, ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान ने भी इस धर्म के विकास को आघात पहुँचाया। जैनधर्म का विभाजन भी इसकी प्रगति में बाधक बना। जैनों का संगठन और प्रचार माध्यम भी कमजोर था, संघात्मक संगठन की कमजोरी के कारण धर्म प्रचारकों का भी अभाव था। अतः, जैनधर्म बौद्धधर्म जैसी सफलता नहीं प्राप्त कर सका।

प्रश्न 6.
गौतम बुद्ध के जीवन और उपदेशों का वर्णन करें।
उत्तर:
गौतम बुद्ध बौद्ध धर्म के प्रवर्तक थे। उनका जन्म 563 ई० पू० में शाक्य नामक क्षत्रिय कुल में कपिलवस्तु के निकट नेपाल की तराई में अवस्थित लुम्बिनी में हुआ था। उनके पिता शुद्धोदन कपिलवस्तु के निर्वाचित राजा और गणतांत्रिक शाक्यों के प्रधान थे। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था।

बचपन से ही गौतम चिन्तनशील व्यक्ति थे। इनका मन सांसारिक भोग विलास में नहीं लगता था। इनका विवाह यशोधरा से हुआ था तथा इनको एक पुत्र भी था, जिसका नाम राहुल था। एक बार इन्होंने एक वृद्ध, एक रोगी एवं एक मृत व्यक्ति को देखा। इन दृश्यों ने इनके मन में वैराग्य उत्पन्न कर दिया। 29 वर्ष की उम्र में इन्होंने घर छोड़ दिया, जिसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता है। ये ज्ञान की प्राप्ति के लिए जगह-जगह भटकते रहे। अन्त में 35 वर्ष की उम्र में बोधगया में एक पीपल के वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ। तब से वे बुद्ध अर्थात् प्राज्ञावान कहलाने लगे। उन्होंने अपना पहला धार्मिक प्रवचन वाराणसी के निकट सारनाथ में दिया जिसे धर्मचक्र प्रवर्तन कहते हैं। वे लगभग 45 वर्षों तक अपने धर्म का प्रचार करते रहे एवं समकालीन सभी वर्ग के लोग उनके शिष्य बने। 483 ई० पू० में पूर्वी उत्तरप्रदेश में कुशीनगर नामक स्थान पर उनकी मृत्यु हुई। इस घटना को महापरिनिर्वाण कहते हैं।

गौतम बुद्ध व्यावहारिक सुधारक थे। वे आत्मा एवं परमात्मा से सम्बन्धित निरर्थक वाद-विवादों से दूर रहे तथा उन्होंने दोनों के अस्तित्व से इनकार किया। उन्होंने कहा कि संसार दुःखमय है और इस दु:ख के कारण तृष्णा है। यदि काम, लालसा, इच्छा एवं तृष्णा पर विजय प्राप्त कर ली जाये तो निर्वाण प्राप्त हो जायेगा, जिसका अर्थ है कि जन्म एवं मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जायेगी।

गौतम बुद्ध ने निर्वाण की प्राप्ति का साधन अष्टांगिक मार्ग को माना है। ये आठ साधन हैं-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। उन्होंने कहा कि न तो अत्यधिक विलाप करना चाहिए और न अत्यधिक संयम ही बरतना चाहिए। वे मध्यम मार्ग के प्रशंसक थे। उन्होंने सामाजिक आचरण के कुछ नियम निर्धारित किये थे जैसे-पराये धन का लोभ नहीं करना चाहिए, हिंसा नहीं करनी चाहिए, नशे का सेवन नहीं करना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए तथा दुराचार से दूर रहना चाहिए।

प्रश्न 7.
बौद्ध धर्म के पतन के कारणों को लिखिए।
उत्तर:
बौद्ध धर्म के पतन के निम्नलिखित कारण थे-
(i) हिन्दू धर्म में सुधार (Reforms in Hinduism) – हिन्दू धर्म के असंख्य देवी-देवता हैं। अतः उन्होंने गौतम बुद्ध को भी अवतार मानकर उसकी भी पूजा अर्चना शुरू कर दी। इनके कुछ सिद्धान्तों जैसे सत्य और अहिंसा को ग्रहण कर लिया। ब्राह्मणों एवं हिन्दू विद्वानों के समय पर चेत जाने के कारण हिन्दू धर्म का विघटन रुक गया। जो लोग हिन्दू धर्म छोड़कर चले गये थे उसे उन्होंने पुनः स्वीकार कर लिया।

(ii) बौद्ध धर्म का विभाजन (Split in Buddhism) – कनिष्क के काल में बौद्ध धर्म का विभाजन हीनयान और महायान के रूप में हो गया था। महायान शाखा को मूर्तिपूजा की छूट दी गई जिसके फलस्वरूप कई लोगों ने फिर से इस धर्म में प्रवेश पा लिया, जो पहले. इसे छोड़ चुके थे।

(iii) बौद्ध मठों में भ्रष्टाचार (Corruption in the Buddhist Sanghas) – मठों में सुख-सुविधाओं के मिल जाने तथा स्त्रियों को भिक्षुणी बनाने की छूट दिये जाने के कारण मठों में भ्रष्टाचार फैल गया। भिक्षु तथा भिक्षुणियाँ धार्मिक कार्यों की आड़ में विषय-वासनाओं में लग गये। उनका चरित्र भ्रष्ट हो गया। उनके सब त्याग, तपस्या व आदर्श मिट्टी में मिल गये। गौतम बुद्ध के उपदेशों को भलकर वे वासनाओं में लिप्त हो गये जिससे समाज पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

(iv) राजकीय सहायता का न मिलना (Loss of Royal Patronage) – कनिष्क की मृत्यु के पचात बौद्धों को राजकीय सहायता मिलनी बन्द हो गई। गप्त साम्राज्य के आ जाने के कारण हिन्दू धर्म का बढ़ावा मिलना प्रारम्भ हो गया। उधर बौद्ध धर्म धनाभाव के कारण अधिक दिनों तक नहीं चल सका।

(v) बौद्ध धर्म में जटिलता आना (Arrival of Complexity in the Buddhism) – बौद्धों ने हिन्दुओं के कई सिद्धान्त ग्रहण कर लिये थे। जन-साधारण की भाषा को छोड़कर वे संस्कृत में साहित्य रचना करने लगे थे। अतः यह धर्स जनता की समझ से बाहर होने लगा था।

(vi) हिन्दु उपदेशकों का आना (Coming of the Hindu Missionaries) – कुमरिल भट्ट और शंकराचार्य जैसे हिन्दू विद्वानों के मैदानों में आ जाने से बौद्ध विद्वानों की दाल गलनी बंद हो गई थी। वे इन सिद्धान्तों के तर्कों के सामने नहीं ठहर पाते थे।

(vii) राजपूत शक्ति का विस्तार (Rise of Rajpoot Power) – सातवीं से ग्यारहवीं शताब्दी तक सारे उत्तरी भारत में राजपूतों की सत्ता छा गई। राजपूत शक्ति के उपासक थे। वे अहिंसा को कायरता मानते थे। उनका मत था कि बौद्ध मत में अहिंसा का अर्थ मृत्यु को बुलावा देना होता है, अत: अहिंसा आदि सिद्धान्त ताक पर रख दिये गये। इससे बौद्ध धर्म का प्रचार कार्य बन्द होने लगा और वे विदेशों में जाने लगे।

(viii) मुसलमानों के आक्रमण (The Muslim Invasions) – बारहवीं शताब्दी में महमूद गजनवी और अन्य आक्रमणकारियों ने भारत पर आक्रमण किये। बौद्धों में उनके आक्रमण का मुकाबला करने का साहस न था। अतः वे या तो मारे गये, या निकटवर्ती क्षेत्रों जैसे नेपाल, तिब्बत, बर्मा, श्रीलंका आदि में चले गये।

(ix) हूणों का आक्रमण (Invasions of the Hunas) – बौद्धों की अधिकतम हानि हूणों द्वारा हुई। उन्होंने हजारों भिक्षुओं को मौत के घाट उतार दिया। उनके मठों को खण्डहर बना दिया गया। तक्षशिला आदि विश्वविद्यालयों को आग लगा दी तथा बौद्ध साहित्य को जला दिया गया। इस प्रकार से पंजाब, राजपूताना एवं उत्तर पश्चिमी सीमा प्रान्त से बौद्धों का सफाया हो गया था।

प्रश्न 8.
छठी शताब्दी ई. पू. में भारत की राजनीतिक दशा का वर्णन करें।
अथवा, बुद्धकालीन सोलह महाजनपदों का परिचय दें।
उत्तर:
छठी शताब्दी ई० पू० में उत्तरी भारत की राजनीतिक अवस्था में उत्तरोत्तर उन्नति हो रही थी। वैदिककाल में कबीलों या जनों का महत्व था। उत्तर वैदिककाल में प्रादेशिक राज्यों की स्थापना का काम हुआ था और ई० पूर्व छठी शताब्दी में कई महाजनपदों की स्थापना हुई । इसका वर्णन हमें बौद्ध और जैन धर्मग्रन्थों में मिलता है। बौद्ध धर्म ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय में अंग, मगध, काशी, कोशल, बज्जि, मल्ल, चेदि, वत्स, कुरु, पांचाल, मत्स्य, शूरसेन, अस्मक, अति, गांधार और कंबोज का वर्णन मिलता है। जैन धर्मग्रन्थ भगवती सूत्र में अंग, बंग, मगध, मलय, मालव, अच्छ, वच्छ. कच्छ पाध, लाध, वज्जि, मोलि, काशी, कोशल, अवाह और सम्मतर का वर्णन मिलता है। इन दोनों सूचियों में अंग, मगध, वत्स, बज्जि, काशी और कोशल का नाम समान रूप से मिलता है। इस संदर्भ में अंगुत्तर निकाय द्वारा प्रदत्त सूची को ही ज्यादा प्रामाणिक माना गया है, क्योंकि इसमें समकालीनता की झलक अधिक है। बौद्ध साहित्य में दस गणराज्यों का भी उल्लेख मिलता है। ये गणराज्य थे-कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय, पावा के मल्ल, कुशीनारा के मल्ल, मिथिला के विदेह, पिप्पलीवन के मोरिय, सुंसुमार पर्वत के भग्ग, अल्कप्प के बुलि से सुपुत्र के कलाम और वैशाली के लिच्छवि। कहने का तात्पर्य यह है कि उत्तरी भारत कई महाजनपदों और गणराज्यों में विभाजित था।

सोलह महाजनपद

1. अंग – अंग मगध के पूर्व में स्थित था। इसकी राजधानी चंपानगरी में थी, जो सभ्यता और संस्कृति का केंद्र था। चम्पानगरी एक व्यापारिक नगर के रूप में मशहूर था। विधुर पंडित जातक के अनुसार राजगृह भी अंग का ही नगर था। अंग का मगध से बराबर संघर्ष होता रहता था। बाद में मगध की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शिकार होकर उसे अपनी स्वतंत्रता खोनी पड़ी।

2. मगध – छठी शताब्दी ई० पूर्व में मगध एक शक्तिशाली राज्य था। इसकी राजधानी राजगृह में थी। वृहद्रथ और जरासंध यहाँ के प्रमुख राजा हो चुके थे। ये प्राग्बुद्ध काल के शासक थे। मगध साम्राज्यवादी नीति में विश्वास रखता था। इसने अंग पर अधिकार भी कर लिया था।

3. काशी – काशी की राजधानी वाराणसी थी। यह वरुणा और असी नदियों के संगम पर बसा हुआ था। बारह योजनों में फैला यह नगर भारत के सर्वश्रेष्ठ नगरों में से था। महाबग्ग में इसके वैभव का उल्लेख सुंदर ढंग से किया गया है। कोशल के साथ राजनीतिक प्रभुता के लिए इसकी लड़ाई होती रहती थी।

4. कोशल – यह राज्य काशी के उत्तर में स्थित था। इसके विस्तार का क्षेत्र उत्तर प्रदेश का मध्य भाग था। इसकी राजधानी श्रावस्ती में थी। इस समय तक इसकी पहली राजधानी अयोध्या का महत्व कम हो चुका था। इसका काशी के साथ बराबर संघर्ष होता रहता था। इसने काशी को जीतकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था। आगे चलकर मगध के शासक अजातशत्रु ने कोशल को जीतकर मगध में मिला लिया।

5. बज्जि – बृज्जि आठ राज्यों का संघ था जिसमें लिच्छवि, विदेह और ज्ञात्रिक विशेष महत्वपूर्ण थे। यहाँ गणतंत्रीय शासन पद्धति थी। इसकी राजधानी वैशाली में थी। वैशाली सभ्यता और संस्कृति का केन्द्र था। इस संघ की स्वतंत्रता पर भी मगध ने ही आघात पहुँचाया था।

6. मल्ल – मल्ल भी एक महत्वपूर्ण गणराज्य था। यह वृज्जि के पश्चिम और कोशल के पूर्व में स्थित था। यह दो शाखाओं में विभक्त था। एक पावा के मल्ल के नाम से जाने जाते थे, दूसरा कुशीनगर के मल्ल के नाम से जाने जाते थे। इनका उल्लेख महाभारत में भी मिलता है।

7. चेदि – चेदि नामक राज्य यमुना के दक्षिण में स्थित था तथा इसकी राजधानी शक्तिमती थी। शिशुपाल चेदि का ही राजा था।

8. वत्स – वत्स नामक राज्य यमुना के उत्तर में तथा काशी से पश्चिम स्थित था। इसकी राजधानी कौशाम्बी में थी। व्यापारिक मार्ग पर स्थित होने की वजह से इसका काफी महत्व था।

9. कुरु – आधुनिक दिल्ली और मेरठ के समीप कुरु नामक महाजनपद स्थित था। इसकी राजधानी इन्द्रप्रस्थ में थी। प्रारंभ में यहाँ राजतंत्रात्मक शासन-व्यवस्था थी, किन्तु बाद में यहाँ गणतंत्र की स्थापना हुई। एक जातक के अनुसार, इसमें 300 के लगभग संघ थे। जातकों में यहाँ के राजाओं का विवरण मिलता है। इसमें सुतसोम, कौरव एवं धनंजय का नाम उल्लेखनीय है।

10. पांचाल – पांचाल महाजनपद कुरु के पूर्व और दक्षिण में स्थित था। गंगा नदी के द्वारा यह दो भागों में बाँट दिया गया था। उत्तरी पांचाल की राजधानी अहिछत्र और दक्षिण पांचाल की राजधानी काम्पिल्य नगर में थी। यहाँ भी कुरु की तरह ही राजतंत्र और बाद में गणतंत्र की स्थापना हुई थीं। चुलानी ब्रह्मदत्त पांचालों का एक महान शासक था।

11. मत्स्य – मत्स्य नामक महाजनपद द्विषद्वती नदी के दक्षिण में स्थित था। इसकी राजधानी विराटनगरी थी। इस पर पहले चेदियों ने और बाद में मगध ने अधिकार कर लिया था।

12. शूरसन – शूरसेन का राज्य कुरु के दक्षिण और यमुना के किनारे था। इसकी राजधानी मथुरा थी। यहाँ पहले गणतंत्र, फिर राजतंत्र की स्थापना हुई थी। यहाँ यादवों का शासन था।

13. अस्मक – यह जनपद गोदावरी नदी के दक्षिण में स्थित था तथा इसकी राजधानी पोतन थी। इक्ष्वाकु वंश के राजाओं का यहाँ शासन था। अवन्ति के साथ संघर्ष में इसने अपनी स्वतंत्रता गँवा दी।

14. अवन्ति – विन्ध्य पर्वत के उत्तर में यह एक शक्तिशाली राज्य था जो उत्तर और दक्षिण भारत के बीच कड़ी का काम करता था। यह भी दो भागों उत्तरी और दक्षिणी अवन्ति में बँटा हुआ था। उत्तरी अवन्ति की राजधानी उज्जयनी और दक्षिणी अवन्ति की राजधानी महिष्मती थी । इसका विस्तार क्षेत्र आधुनिक मालवा प्रांत था।

15. गाधार – गांधार नामक जनपद आधुनिक अफगानिस्तान में सिंधु नदी के किनारे स्थित था। इसकी राजधानी तक्षशिला थी। इसका अवन्ति और मगध से शत्रुतापूर्ण संबंध था। इसकी प्रसिद्धि का कारण तक्षशिला स्थित विश्वविद्यालय था।

16. कंबोज – गांधार के उत्तर-पश्चिम में कंबोज नामक महाजनपद स्थित था। इसकी राजधानी हाटक या राजपुर थी। संभवतः द्वारका भी इसी राज्य के अंतर्गत स्थित था।

अन्य छोटे राज्य

अंगुत्तर निकाय में वर्णित इन महाजनपदों के अलावा केकय, भद्रक, त्रिगर्त, यौधेय, शिवि, अम्बष्ठ, सौबीर आदि राज्य भी थे, लेकिन ये बहुत छोटे थे और साम्राज्यवादी ताकतों के बीच महत्वहीन थे।

दस गणराज्य : सोलह महाजनपदों के अलावा पालि ग्रंथों में दस गणराज्यों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। इनमें से कुछ का उल्लेख तो सोलह महाजनपदों के अंतर्गत भी है। इन राज्यों में वंश-परम्परा के अनुसार कोई राजा नहीं होता था, बल्कि प्रजा द्वारा निर्वाचित व्यक्ति शासन का प्रमुख होता था। इन दसों गणराज्यों का विवरण नीचे प्रस्तुत है-

  1. कपिलवस्तु के शाक्य – यह नेपाल की तराई में स्थित था। यहाँ के शासन के प्रधान शुद्धोधन थे जो बुद्ध के पिता थे। उनका शासन 500 सदस्यों वाली परिषद् की सहायता से चलता था।
  2. रामग्राम के कोलिय – कपिलवस्तु के पूर्व में कोलिय लोगों का राज्य था। इनका शाक्यों से बराबर संघर्ष होता रहता था।
  3. पावा के मल्ल – यह उत्तर प्रदेश के गोरखपुर के समीप स्थित था। इसकी राजधानी पावा में थी। यहीं संभवतः महावीर का देहांत हुआ था।
  4. कुशीनारा के मल्ल – यह भी उत्तर प्रदेश में ही था और बुद्ध का परिनिर्वाण संभवतः यहीं हुआ था।
  5. मिथिला के विदेह – विदेहों का राज्य एक अराजक गणराज्य था। जहाँ जनक जैसे ख्याति प्राप्त राजा हुए थे।
  6. पिप्पलीवन के मोरिय – यहाँ शक्तियों की ही एक शाखा राज्य करती थी। मोरों की अधिकता के कारण यहाँ के लोगों को मोरिय के नाम से जाना जाता था।
  7. सुमेर पर्वत के भग्ग – यहाँ ब्राह्मणों का शासन था। इनका राज्य उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के नजदीक था। इनका उल्लेख ऐतरेय ब्राह्मण में भी मिलता है।
  8. अलकप्प के बुलि – बुलि लोगों का राज्य बिहार के आधुनिक मुजफ्फरपुर और शाहाबाद के नजदीक कहीं था।
  9. केसपुत्र के कलाम – इसका वर्णन हमें शतपथ ब्राह्मण और जातक ग्रंथों में मिलता है। बुद्ध के गुरु आलार कलाम यहीं के रहनेवाले थे।
  10. वैशाली के लिच्छवि-लिच्छवियों का यह गणराज्य था और इसकी राजधानी वैशाली में थी। वैशाली एक वैभवशाली नगर था। अजातशत्रु के समय में मगध के द्वारा इसकी स्वतंत्रता छीन ली गयी थी। आम्रपाली यहाँ की नगरवधू एवं नर्तकी थी जो बाद में बुद्ध के सम्पर्क में आकर भिक्षुणी बन गयी थी।

राजनीतिक प्रवृत्तियाँ

उपरोक्त बातों को देखने से हमें उस समय की विभिन्न राजनीतिक प्रवृत्तियों का पता चलता है, जो निम्नलिखित हैं-
1. विकेन्द्रीकरण की भावना – ई० पूर्व छठी शताब्दी में संपूर्ण भारत कई भागों में विभाजित था। बौद्ध और जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार भारत सोलह महाजनपदों में विभाजित था। इसके अलावा भी कुछ छोटे-छोटे राज्यों का पता हमें अन्य स्रोतों से चलता है, जिनमें केकय, मुद्रक, त्रिगर्त, यौधेय आदि प्रमुख थे। कहने का तात्पर्य यह है कि भारत में विकेन्द्रीकरण की भावना काम कर रही थी।

2. शासन की पद्धतियाँ – उपरोक्त राज्यों के अध्ययन से पता चलता है कि इस काल में दो तरह की शासन-पद्धतियाँ प्रचलित थीं। कोशल, मगध, वत्स एवं अवन्ति उस समय के प्रमुख राजतन्त्र थे। बृज्जि, मल्ल, कपिलवस्तु, मिथिला आदि में गणतंत्रीय पद्धति का बोलबाला था। लेकिन राजतंत्रीय एवं गणतंत्रीय दोनों ही शासन-पद्धतियाँ प्रचलित थीं।

3. परिवर्तनशील शासन-पद्धति – इस संदर्भ में एक बात और प्रकाश में आती है। वह यह कि समय के अंतराल में किसी-किसी महाजनपद में शासन-पद्धति में परिवर्तन भी होता रहता था। उदाहरणस्वरूप कुरु और पांचाल में राजतंत्रीय व्यवस्था के बाद गणतंत्र की स्थापना हुई थी, जबकि शूरसेन में गणतंत्र की कब्र पर राजतंत्र की स्थापना हुई। यह समय के मुताबिक राजाओं की मानसिकता में होनेवाले परिवर्तनों को बतलाया है।

4. साम्राज्यवादी भावना का विकास – उपरोक्त विवरणों से यह भी पता चलता है कि छठी शताब्दी ई० पू० राजनीतिक दृष्टिकोण से उथल-पुथल का समय था। एक जनपद दूसरे जनपद के साथ संघर्ष करता था। विजय और विस्तार की लालसा में महाजनपदों के बीच होनेवाला यह संघर्ष उस समय के राजनीतिक जीवन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। कहने का तात्पर्य यह है कि साम्राज्यवाद की भावना का विकास हो रहा है।

संक्षेप में हम कह सकते हैं कि ई० पूर्व छठी शताब्दी में भारत कई महाजनपदों में विभक्त था जिनमें अलग-अलग शासन-पद्धतियों की स्थापना हुई थी।

प्रश्न 9.
मगध साम्राज्य के उत्थान के क्या कारण थे ?
उत्तर:
छठी शताब्दी ई० पूर्व के महाजनपदों में अंतत: मगध एक साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभरा। विम्बिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे पराक्रमी राजाओं ने मगध के उत्कर्ष में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 321 ई० पूर्व तक इसने एक विशाल साम्राज्य का रूप धारण कर लिया।

मगध साम्राज्य के उत्थान के कारण

(i) लोहे का भंडार – मगध की आरंभिक राजधानी राजगृह के नजदीक लोहे का भंडार था। लोहे के औजारों से मगध के लोगों ने जंगलों को साफ किया और इसका अनुकूल असर कृषि के विकास पर पड़ा। कृषि के क्षेत्र में विकास से मगध की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हुई और उसके राजनीतिक उत्कर्ष में इसने सहायक की भूमिका निभायी। लोहे से शस्त्रास्त्रों का भी निर्माण हुआ। इससे भी वहाँ के लोगों को अन्य जनपदों को जीतने में आसानी हई। कहने का तात्पर्य यह है कि लोहा के भंडार की उपलब्धि उनके लिए दोहरे लाभ की बात सिद्ध हुई। इसने न केवल इन्हें सुदृढ़ आर्थिक आधार प्रदान किया बल्कि उनके राजनीतिक उत्कर्ष में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी।

सामरिक इष्टिकोण से महत्वपर्ण स्थलों पर राजधानी – मगध की दोनों राजधानियाँ सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थानों पर थीं। राजगृह पाँच पहाड़ियों से घिरा हुआ था और पाटलिपुत्र गंगा, गंडक तथा सोन के संगम पर स्थित था। इसके अलावा यह चारों ओर से नदियों से घिरा था। नदियों के किनारे बसे होने से संचार की काफी सुविधा थी। राजगृह एक अभेद्य दुर्ग था तथा पाटलिपुत्र एक जलदुर्ग की तरह था। पाटलिपुत्र के उत्तर और पश्चिम में गंगा तथा सोन नदी बहती थी और दक्षिण से पुनपुन नदी घेरे हुई थी। मगध का सामरिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान पर होना भी उसके राजनीतिक उत्कर्ष का एक कारण था।

(iii) हाथी के उपयोग की खास सुविधा – मगध को देश के पूर्वी भाग से हाथी मिलते थे। उन्होंने अपनी सेना में हाथियों से युक्त सेना को भी स्थान दिया तथा अपने पड़ोसियों के विरुद्ध इसका उपयोग किया। हाथियों के सहारे वे दुर्गों को भेदने और यातायात की सुविधा से रहित स्थानों पर पहुँचने का काम करते थे। हाथियों के उपयोग की इस खास सुविधा ने मगध के उत्कर्ष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। ऐसा इसलिए कि भारत के विभिन्न राज्य घोड़े और रथ का उपयोगते थे, लेकिन मगध ही पहला राज्य था जिसने हाथियों का बडे पैमाने पर इस्तेमाल किया।

(iv) व्यापारिक मार्ग से जुड़ा होना – मगध व्यापारिक मार्ग पर स्थित था। वह स्थल और जल-मार्ग से देश के विभिन्न भागों से जडा हआ था। अतः यहाँ व्यापार और वाणिज्य तथा नगरों का उदय हआ था। व्यापार और वाणिज्य से कर के रूप में प्राप्त होनेवाली आमदनी से मगध के राजा आर्थिक दृष्टि से काफी ठोस हो गये थे और उनकी इस आर्थिक सुदृढ़ता ने राजनीतिक महत्व प्रदान करने में काफी मदद की थी।

(v) प्रतापी राजाओं का योगदान – मगध के उत्कर्ष का एक कारण वहाँ के प्रतापी राजा भी थे। बिंबिसार, अजातशत्रु और महापद्मनंद जैसे कई साहसी और महत्त्वाकांक्षी राजा मगध में हुए। इन्होंने सभी उपलब्ध साधनों-ईमानदारी तथा बेईमानी से अपने राज्य का विस्तार किया और उसे मजबूत बनाया। कहने का तात्पर्य यह है कि अगर उपरोक्त वर्णित राजाओं की तरह मगध में राजा नहीं हुए होते तो मगध का उत्कर्ष संभव नहीं होता।

प्रश्न 10.
चन्द्रगुप्त मौर्य की जीवनी एवं उपलब्धियों का वर्णन करें।
उत्तर:
चन्द्रगुप्त का जन्म 345 ई० पू० में भोरिय वंश के क्षत्रिय कुल में हुआ था जो सूर्य वंशी शाल्यों की एक शाखा थी और जो नेपाल की तराई में पिप्पलिबिन के प्रजातन्त्र राज्य में शासन करते थे। चन्द्रगुप्त का पिता इन्हीं भोरियों का प्रधान था। दुर्भाग्यवश एक शक्तिशाली राजा ने उनकी हत्या करवा दी और राज्य भी छीन लिया। चन्द्रगुप्त की माता उन दिनों गर्भवती थी। इस आपत्ति काल में वह अपने सम्बन्धियों के साथ भाग गई और अज्ञात रूप से पाटलिपुत्र में निवास करने लगी। यहाँ पर अपनी जीविका चलाने तथा अपने राजवंश को गुप्त रखने के लिए यह लोग मयूर-पालकों का कार्य करने लगे इस प्रकार चन्द्रगुप्त का प्रारम्भिक जीवन मयूर-पालकों के मध्य व्यतीत था।

जब चन्द्रगुप्त बड़ा हुआ तब उसने मगध के राजा के यहाँ नौकरी कर ली और उनकी सेना में भर्ती हो गया। चन्द्रगुप्त बड़ा ही योग्य तथा प्रतिभावान व्यक्ति था। अपनी योग्यता के बल से यह मगध की सेना का सेनापति बन गया। परन्तु कुछ कारणों से मगध का राजा अप्रसन्न हो गया और उसे मृत्यु-दण्ड की आज्ञा दे दी। इन दिनों मगध में नन्द वंश शासन कर रहा था अपने प्राण की रक्षा करने के लिए चन्द्रगुप्त मगध राज्य से भाग गया और उसने नन्द को विनष्ट करने का संकल्प कर लिया।

यद्यपि चन्द्रगुप्त ने नन्दवंश को उन्मूलित करने का संकल्प कर लिया था परन्तु अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसके पास साधन नहीं थे अतएव साधन की खोज में वह पंजाब की ओर चला गया और इधर-उधर भटकता हुआ तक्षशिला पहुँचा, जहाँ विष्णुशुद्र नामक ब्राह्मण से उसकी भेंट हो गई। विष्णुशुद्र को चाणक्य भी कहते हैं, क्योंकि उसके पितामह (बाबा) का नाम चाणक्य था। उसे कौटिल्य भी कहते हैं, क्योंकि उसके पिता का कुटल था। चाणक्य बहुत बड़ा विद्वान् तथा राजनीति का प्रकाण्ड पण्डित था। वह भारत के पश्चिमोत्तर भागों की राजनीतिक दुर्बलता से परिचित था और उसे वह आशंका लगी रहती थी कि वह प्रदेश कभी भी विदेशी आक्रमणकारियों का शिकार बन सकता है।

अतएव वह इस भू-भाग के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर यहाँ एक प्रबल केन्द्रीय शासन स्थापित करना चाहता था जिसमें विदेशी आक्रमणकारियों से देश की रक्षा हो सके। अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वह मगध नरेश की सहायता प्राप्त करने के लिए पाटलिपुत्र गया परन्तु सहायता प्राप्त करने के स्थान पर वह धार्मिक अनुष्ठान में नन्द-राज द्वारा अपमानित किया गया। चाणक्य बड़ा ही क्रोधी तथा उग्र प्रकृति का व्यक्ति था। उसने नन्द वंश को विनिष्ट करने का संकल्प कर लिया। परन्तु नन्द वंश के विशाल साम्राज्य को उन्मूलित करने के साधन उसके पास भी न थे अतएव वह इस साधन की खोज में संलग्न था। इसी समय चन्द्रगुप्त से उसकी भेंट हो गई।

चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त दोनों के उद्देश्य एक ही थे। यह दोनों व्यक्ति नन्द वंश का विनाश करना चाहते थे परन्तु दोनों ही के पास साधन का आभावं था। संयोगवश इन दोनों ने एक दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति कर दी। चाणक्य को एक वीर साहसी तथा महत्वाकांक्षी नवयुवक की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चन्द्रगुप्त ने कर दी और चन्द्रगुप्त को एक विद्वान अनुभवी कुटनीतिज्ञ की तथा सेना एकत्रित करने के लिए धन की आवश्यकता थी जिसकी पूर्ति चाणक्य ने कर दी। फलतः इन दोनों में मैत्री तथा गठ-बन्धन हो गया।

अब अपने उद्देश्य की पूर्ति की तैयारी करने के लिए दोनों मित्र विन्ध्यांचल के वनों की ओर चले गये। चाणक्य ने अपना सारा धन चन्द्रगुप्त को दे दिया। इस धन की सहायता से अपने भाड़े की एक सेना तैयार की और इस सेना की सहायता से मगध पर आक्रमण कर दिया परन्तु नन्दों की शक्तिशाली सेना ने उन्हें परास्त कर दिया और मगध से भाग खड़े हुए। अब इन दोनों मित्रों ने अपने प्राणों की रक्षा के लिए फिर पंजाब की ओर प्रस्थान कर दिया। अब इन लोगों ने इस बात का अनुभव किया कि मगध राज्य के केन्द्र पर प्रहार कर उन्होंने बहुत बड़ी भूल की थी। वास्तव में उन्हें इस राज्य के एक किनारे पर उसके सुदूरस्थ प्रदेश पर आक्रमण करना चाहिए था, जहाँ केन्द्रीय सरकार का प्रभाव कम और उसके विरुद्ध असन्तोष अधिक रहता था। इन दिनों यूनानी विजेता सिकन्दर महान पंजाब में ही था और वहाँ के छोटे-छोटे राज्यों को समाप्त कर रहा था। चन्द्रगुप्त ने नन्दों के विरुद्ध सिकन्दर की सहायता लेने का विचार किया अतएव वह सिकन्दर से मिला और कुछ दिनों तक उसके शिविर में रहा। परन्तु चन्द्रगुप्त के स्वतंत्र विचारों के कारण सिकन्दर अप्रसन्न हो गया और उसको वधकर देने की आज्ञा प्रदान की। चन्द्रगुप्त अपने प्राण बचाकर भाग खड़ा हुआ। अब उसने मगध राज्य के विनाश के साथ-साथ यूनानियों को भी अपने देश से मार भगाने का निश्चय कर लिया और अपने मित्र चाणक्य की सहायता से अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए योजनाएँ बनाने लगा।

चन्द्रगुप्त की विजय-सिकन्दर के भारत से चले जाने के उपरान्त भारतियों ने यूनानियों के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया। चन्द्रगुप्त के लिए यह स्वर्ण अवसर था और इससे उसने पूरा लाभ उठाने का प्रयल किया। उसके क्रांतिकारियों का नेतृत्व ग्रहण किया और यूनानियों को पंजाब से भगाना आरम्भ किया। यूनानी सरदार युडेमान अन्य यूनानियों के साथ भारत छोड़कर भाग गया और जो यूनानी सैनिक भारत में रह गए थे वे तलवार के घाट उतार दिए गए। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने सम्पूर्ण पंजाब पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर दिया।

पंजाब पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने मगध राज्य पर आक्रमण करने के लिए पूर्व की ओर प्रस्थान कर दिया। वह अपनी विशाल सेना के साथ मगध-साम्राज्य की पश्चिमी सीमा पर टूट पड़ा। मगध नरेश के चन्द्रगुप्त की सेना की प्रगति को रोकने के सभी प्रयत्न निष्फल सिद्ध हुए। चन्द्रगुप्त की सेना आगे बढ़ती गई और मगध राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र के सन्निकट पहुँच गई और उसका घेरा डाल दिया। अन्त में नन्द राजा घनानन्द की पराजय हुई और अपने परिवार के साथ बह युद्ध में मारा गया। अब चन्द्रगुप्त पाटलिपुत्र में सिंहासन पर बैठ गया और चाणक्य ने 302 ई० पू० में उसका राज्याभिषेक कर दिया।

उत्तर भारत पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेने के उपरान्त चन्द्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर भी अपनी विजय पताका फहराने का निश्चय किया। सर्वप्रथम उसने सौराष्ट्र पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया। उसके बाद लगभग 303 ई० पू० में उसने मालवा पर अधिकार स्थापित कर लिया और पुष्यगुप्त वंश को वहाँ का प्रबन्ध करने के लिए नियुक्त कर दिया जिसने सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। इस प्रकार काठियावाड़ तथा मालवा पर चन्द्रगुप्त का प्रभुत्व स्थापित हो गया। इतिहासकारों की धारणा है कि सम्भवतः मैसर की सीमा तक चन्द्रगप्त का साम्राज्य फैला था।

चन्द्रगुप्त का अन्तिम संघर्ष सिकन्दर के सेनापति सेल्यूकस निकेटर के साथ हुआ। सिकन्दर की मृत्यु के उपरान्त सेल्यूकस उसके साम्राज्य के पूर्वी भाग का अधिकारी बना था। उसने 305 ई० पू० में भारत पर आक्रमण कर दिया। चन्द्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर प्रदेश की सुरक्षा की व्यवस्था पहले से ही कर ली थी। उसकी सेना ने सिन्धु नदी के उस पार ही सेल्यूकस के सेना का सामना किया। युद्ध में सेल्यूकस की पराजय हो गई और विवश होकर उसे चन्द्रगुप्त के साथ सन्धि करनी पड़ी। सेल्यूकस ने अपनी कन्या का विवाह चन्द्रगुप्त के साथ कर दिया और वर्तमान अफगानिस्तान तथा दिलीचिस्तान के सम्पूर्ण प्रदेश चन्द्रगुप्त को दे दिया। उसने मेगास्थनीज नामक एक राजदूत भी चन्द्रगुप्त की राजधानी पाटलिपुत्र में भेजा चन्द्रगुप्त ने भी 500 हाथी सेल्यूकस को भेंट किए। चन्द्रगुप्त मौर्य और सेल्यूकस के संघर्ष के सम्बन्ध में डॉ० राय चौधरी ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत की राजनीतिक में लिखा है, यह देखा जाएगा कि प्राचीन लेखकों से हमें सेल्यूकस और चन्द्रगुप्त के वास्तविक संघर्ष का विस्तृत उल्लेख नहीं मिलता है। वे केवल परिणामों को बतलाते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि आक्रमणकारी अधिक आगे बढ़ सका और एक सन्धि कर ली जो वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा सुदृढ़ बना दी गई।

उपर्युक्त विजयों के फलस्वरूप चन्द्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में हिन्दुकुश पर्वत से पूर्व में बंगाल तक और उत्तर में हिमालय पर्वत से दक्षिण में कृष्णा नदी तक फैल गया। परन्तु कश्मीर, कलिंग तथा दक्षिण के कुछ भाग में उनके साम्राज्य के अन्दर न थे। इस प्रकार चन्द्रगुप्त ने अपने बाहुबल तथा अपने मंत्री चाणक्य के बुद्धि बल से भारत की राजनीतिक एकता सम्पन्न की।

चन्द्रगुप्त न केवल एक महान विजेता वरन एक कुशल शासक भी था। जिस शासन व्यवस्था का उसने निर्माण किया वह इतनी उत्तम सिद्ध हुई कि भावी शासकों के लिए वह आदर्श बन गई और थोड़े बहुत आवश्यक परिवर्तन के साथ निरन्तर चलती रही।

प्रश्न 11.
चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन प्रबन्ध विस्तार से लिखें।
अथवा, मौर्य साम्राज्य की शासन पद्धति का वर्णन करें।
अथवा, मौर्यों के नागरिक प्रबन्ध के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर:
चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध के विषय में विस्तृत जानकारी कौटिल्य के अर्थशास्त्र और मेगास्थनीज की इण्डिका से मिलती है। V.A.Smith के अनुसार, “The Mauryan state was organised and carefully graded officials with well defined duties”.

चन्द्रगुप्त मौर्य के शासन प्रबन्ध का वर्णन निम्न प्रकार है-
1. केन्द्रीय शासन (Central Administration) – चन्द्रगुप्त मौर्य का शासन एकतंत्रात्मक था। वह स्वयं राज्य का सर्वोच्च अधिकारी था। सम्राट तीन कार्य मुख्य रूप से करता था-
(a) सम्राट स्वयं अधिकारियों की नियुक्ति करता था। वह विभिन्न विभागों के कार्यों का निरीक्षण करता था। वह विदेशी मामलों की देख-रेख करता था, आवश्यक आदेश निकालता था। गुप्तचरों द्वारा देश के आन्तरिक स्थिति की जानकारी प्राप्त करता था और देश में शान्ति व्यवस्था बनाये रखता था। बाहरी आक्रमणों से भी देश की रक्षा करता था।
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(b) न्यायाधीश के रूप में वह अपने प्रजा की शिकायतें सुनता था और स्वयं निर्णय कर दोषी को दंड भी देता था।

(c) सैन्य संगठनकर्ता के रूप में राजा ने देश को आन्तरिक विद्रोहों एवं बाहरी आक्रमणों से बचाने का भार भी अपने कन्धों पर ले रखा था। (ए० वी० स्मिथ (A. V. Smith) ने एक स्थान पर लिखा है-“The known facts of Chandra Gupta’s administration prove that he was sternde spot.”)

मन्त्रिपरिषद् (Council of Minister) – राजा को शासन कार्य में परामर्श देने के लिए एक मंत्री परिषद् का गठन किया जाता था, यद्यपि सम्राट उसकी सलाह मानने के लिए बाध्य न था, परन्तु व्यवहार में वह इसका पालन करता था। कौटिल्य ने अपने ‘अर्थशास्त्र’ में लिखा है कि राज्य सत्ता बिना सहायता के सम्भव नहीं होती। अतः सम्राट को मंत्री परिषद् बनानी पड़ती है और राज-काज में उसकी सलाह लेनी पड़ती है।

2. प्रान्तीय शासन (Provincial Government) – चन्द्रगुप्त ने साम्राज्य की विशालता को देखते हुए उसे कई प्रान्तों में बाँट दिया था जिससे उसे शासन कार्य में सुविधा हो गई थी। प्रत्येक प्रान्त का शासन ‘कुमार’ (राजकीय परिवार के सदस्य) के अधिकार में होता था। कुमार के साथ महामात्र भी शासन कार्य में उसकी मदद करता था। सम्राट इन पर परा नियंत्रण रखता था। इसके अतिरिक्त कुछ ऐसे भी प्रान्त थे, जो आन्तरिक नीति में पूर्ण स्वतंत्र थे। वे सम्राट को केवल कर (Tax) देते थे एवं विदेश नीति में उसके अधीन रहते थे।

3. स्थानीय शासन (Local Administration)
(i) नगर प्रशासन (Town Administration) – मेगास्थनीज ने अपने भारत वर्णन में पाटलिपुत्र (पटना) नगर के विषय में लिखा है कि वह एक भव्य नगर था। यह सौ मील लम्बा और दो मील चौड़ा था। इसके चारों ओर लकड़ी की एक विशाल दीवार थी, जिसमें 64 दरवाजे और 570 बुर्ज थे। इस नगर का प्रबन्ध 30 सदस्यों के एक आयोग द्वारा किया जाता था जिसमें 5-5 सदस्यों की छः समितियाँ थीं। प्रत्येक समिति के कार्य अलग-अलग थे। पहली समिति नगर के कला-कौशल की देखभाल करती थी। दूसरी समिति विदेशियों के निवास एवं भोजन का प्रबन्ध करती थी। तीसरी समिति जन्म एवं मृत्यु का लेखा-जोखा रखती थी। चौथी समिति का कार्य माप-तौल से सम्बन्धित कारोबार करने वालों की देखभाल करना था। पाँचवीं समिति वस्तुओं के निर्माण एवं उनकी गुणवत्ता की जाँच-पड़ताल करती थी और छठी समिति का कार्य बिक्री वसूल करना था।

(ii) ग्राम प्रशासन (Village Administration) – शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ‘ग्रामिणी’ नामक अधिकारी इसका प्रबन्ध करता था। ग्रामिणी की सहायता के लिये एक सभा होती थी जो ग्राम हित के लिये सड़कें, पुल, तालाब एवं अतिथिशालाओं का प्रबन्ध करती थी। यह समिति मेलों तथा उत्सवों का भी प्रबन्ध करती थी। ग्रामिणी के ऊपर ‘गोप’ और ‘स्थानिक’ आदि अधिकारी होते थे।

4. सेना का प्रबन्ध (Military Administration) – चन्द्रगुप्त के पास अपने विशाल साम्राज्य की रक्षा के लिये एक सुसंगठित और सुदृढ़ सेना थी जिसमें 6 लाख पैदल, 30 हजार घुड़सवार, 9000 हाथी और 8000 रथ थे। सेना के प्रबन्ध के लिए 30 सदस्यों की समिति थी जो 6 समितियों में विभाजित थी। सेना में निम्नलिखित विभाग थे-(i) पैदल (ii) घुड़सवार (iii) समुद्री बेड़ा (iv) रथ (v) हाथी (vi) अस्त्र-शस्त्र विभाग (vii) रसद विभाग। सैनिकों को राजकोष से वेतन दिया जाता था।

5. न्याय (Justice) – न्याय सम्बन्धी कार्यों का सर्वोच्च अधिकारी राजा स्वयं होता था। नगरों (छोटे नगरों अथवा कस्बों) और गाँवों का न्याय ‘महामात्र’ करते थे। दण्ड व्यवस्था बहुत कठोर थी। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार 18 प्रकार के दंड दिये जाते थे। कभी-कभी एक ही अपराधी को प्रतिदिन एक नये (अलग-अलग) प्रकार का दंड दिया जाता था। कठोर दंडों के कारण अपराध बहुत कम थे। यदि छोटे न्यायालयों के निर्णय में कोई कमी रह जाती थी तो सम्राट स्वयं निर्णय करता था।

6. भूमिकर (Land Revenue) – कृषकों से उनकी पैदावार का 1/6 भाग भूराजस्व के रूप में लिया जाता था परन्त आपात काल में इसे बढा भी दिया जाता था। भूमि, वन एवं खानों पर राज्य का अधिकार था। उपज से प्राप्त धन राज्यहित तथा सैन्य संगठन में लगा दिया जाता था।

7. सिंचाई (Irrigation) – चन्द्रगुप्त के शासन काल में सिंचाई नहरों, कुँओं और तालाबों से होती थी। सिंचाई विभाग में विभिन्न अधिकारी होते थे। नहरों से प्राप्त जल के बदले में किसान सरकार को कर देते थे।

8. सड़कें (Roads) – सड़कों के प्रबन्ध तथा व्यवस्था के लिये एक अलग विभाग था जिसके अधिकारी इसके निर्माण, सुधार एवं विस्तार का कार्य करते थे। सड़कों के किनारे दूरी बताने के लिए मील के पत्थर लगे होते थे। एक विशाल सड़क तक्षशिला से पाटलिपुत्र तक जाती थी। इसके अतिरिक्त अन्य सड़कें भी थीं, जो राज्य के प्रमुख नगरों को आपस में मिलाती थीं। सड़कों के किनारे वृक्ष, पानी पीने के लिए कुएँ और धर्मशालाओं का निर्माण कराया गया था। सड़कों की अच्छी दशा के कारण व्यापार में उन्नति होती थी।

9. गुप्तचर विभाग (Institution of Spies) – चन्द्रगुप्त के शासन काल में गुप्तचर विभाग बहुत सुदृढ़ था। साधु, भिक्षु और भिक्षुणी आदि कई रूपों में घूमते थे। राजा को मंत्री, सैनिक, ‘अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों आदि की गतिविधियों की जानकारी शीघ्र पहुँचा देते थे। महलों में कई गुप्तचर होते थे जिससे राजा के विरुद्ध कोई षडयंत्र न रचा जा सके। प्रान्तीय शासकों के पीछे भी गुप्तचर होते थे जिससे उनकी विद्रोह की प्रवृत्ति पर दृष्टि रखी जा सके। दूसरे राज्यों में भी गुप्तचर भेजे जाते थे, जिसके कारण सम्राट के विरुद्ध गतिविधियों का अनुमान लगाया जा सके।

10. अन्य हितकारी कार्य (Other Welfare Works) – चन्द्रगुप्त ने अपनी प्रजा के अच्छे स्वास्थ्य के लिए औषधालय बनवाए। नगरों व गाँवों की सफाई का प्रबन्ध कराया। खाने-पीने की चीजों की सफाई की देख-रेख की जाती थी। शिक्षा का भी विशेष प्रबन्ध था। मन्दिरों के निर्माण के लिए दान दिया जाता था। प्राकृतिक रूप से यदि कृषि उपज की कोई हानि होती थी तो कृषकों से उदारतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। (V.A. Smith के अनुसार – “The Mauryan government in short was highly organised and thoroughly efficient autocracy capable of controlling an empire more extensive than Akbar. It anticipated in many respects, the institutions of Modern times.”)

Bihar Board 12th Geography Objective Important Questions Part 2

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Bihar Board 12th Geography Objective Important Questions Part 2

प्रश्न 1.
कालाहारी मरुस्थल में कौन-सी जनजाति निवास करती है ?
(a) बुशमैन
(b) माओरी
(c) पिग्मी
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) बुशमैन

प्रश्न 2.
नव-निश्चयवाद के प्रवर्तक कौन हैं ?
(a) टेलर
(b) हम्बोल्ट
(c) रैटजेल
(d) ब्लाश
उत्तर:
(a) टेलर

प्रश्न 3.
निम्न में से कौन सबसे महत्त्वपूर्ण जूट उत्पादक क्षेत्र है ?
(a) कृष्णा डेल्टा
(b) नर्मदा डेल्टा
(c) गंगा डेल्टा
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) गंगा डेल्टा

प्रश्न 4.
मेगा नगर की जनसंख्या कितनी है ?
(a) 10 लाख
(b) 50 लाख से अधिक
(c) 50 लाख से कम
(d) 1 लाख
उत्तर:
(b) 50 लाख से अधिक

प्रश्न 5.
फरीदाबाद किस राज्य का एक शहर है ?
(a) उत्तर प्रदेश
(b) पंजाब
(c) राजस्थान
(d) हरियाणा
उत्तर:
(a) उत्तर प्रदेश

प्रश्न 6.
गेहूँ की खेती के लिए आदर्श तापमान कितना होना चाहिए?
(a) 5°C-10°C
(b) 10°C-20°C
(c) 20°C-30°C
(d) 30°C-40°C
उत्तर:
(b) 10°C-20°C

प्रश्न 7.
सरदार सरोवर परियोजना किस नदी पर है ?
(a) नर्मदा नदी
(b) गंगा नदी
(c) कोसी नदी
(d) दामोदर नदी
उत्तर:
(a) नर्मदा नदी

प्रश्न 8.
बाबाबूदन पहाड़ी है
(a) कर्नाटक में
(b) गोवा में
(c) झारखंड में
(d) ओडिशा में
उत्तर:
(a) कर्नाटक में

प्रश्न 9.
कौन-सा शहर ‘तमिलनाडु का मैनचेस्टर’ कहलाता है ?
(a) कोयंबटूर
(b) चेन्नई
(c) सलेम
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) कोयंबटूर

प्रश्न 10.
एसेन कहाँ है ?
(a) जापान में
(b) रूस में
(c) जर्मनी में
(d) भारत में
उत्तर:
(b) रूस में

प्रश्न 11.
चावल/धान की खेती संबंधित है।
(a) रोपण कृषि से
(b) ट्रक कृषि से
(c) भूमध्यसागरीय कृषि से
(d) गहन निर्वाहन कृषि से
उत्तर:
(a) रोपण कृषि से

प्रश्न 12.
किस पर्वत पर ऊटी पर्यटक केन्द्र अवस्थित है ?
(a) अरावली
(b) नीलगिरि
(c) सतपुड़ा
(d) विंध्य
उत्तर:
(d) विंध्य

प्रश्न 13.
किस नगरीय क्षेत्र में प्रवासी जनसंख्या का अंश सर्वाधिक है ?
(a) मुंबई
(b) दिल्ली
(c) चेन्नई
(d) कोलकाता
उत्तर:
(a) मुंबई

प्रश्न 14.
जल अभाव वाले क्षेत्रों में किस प्रकार की बस्तियाँ पाई जाती हैं ?
(a) पल्ली
(b) प्रकीर्ण
(c) गुच्छित
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(b) प्रकीर्ण

प्रश्न 15.
खरीफ फसल की कृषि ऋतु क्या है ?
(a) अक्टूबर से मार्च
(b) अप्रैल से जून
(c) सितंबर से जनवरी
(d) जून से सितंबर
उत्तर:
(c) सितंबर से जनवरी

प्रश्न 16.
बिस्कुट उद्योग किस प्रकार के उद्योग से संबंधित है ?
(a) कुटीर
(b) उपभोक्ता
(c) वृहत
(d) प्राथमिक
उत्तर:
(b) उपभोक्ता

प्रश्न 17.
बाह्य स्रोतीकरण सहायक है।
(a) दक्षता सुधारने में
(b) कीमतों को घटाने में
(c) विकासशील देशों में रोजगार बढ़ाने में
(d) इनमें से सभी
उत्तर:
(d) इनमें से सभी

प्रश्न 18.
बालाघाट मैंगनीज क्षेत्र किस राज्य में स्थित है ?
(a) मध्य प्रदेश
(b) छत्तीसगढ़
(c) उड़ीसा
(d) झारखंड
उत्तर:
(b) छत्तीसगढ़

प्रश्न 19.
मणिपाल सॉफ्टवेयर तकनीकी पार्क कहाँ है ?
(a) सिक्किम में
(b) कर्नाटक में
(c) आंध्र प्रदेश में
(d) तमिलनाडु में
उत्तर:
(a) सिक्किम में

प्रश्न 20.
निम्नलिखित में कौन-सा एक तृतीयक क्रियाकलाप है ?
(a) आखेट
(b) मछली पकड़ना
(c) कृषि
(d) व्यापार
उत्तर:
(d) व्यापार

प्रश्न 21.
निम्नलिखित में से कौन एक महाद्वीप में जनसंख्या वृद्धि सर्वाधिक है ?
(a) एशिया
(b) अकृीका
(c) दक्षिण अमेरीका
(d) उत्तरी अमेरीका
उत्तर:
(a) एशिया

प्रश्न 22.
निम्नलिखित में वह कौन-सा एक सबसे सस्ता परिवहन साधन है जो भारी सामान और लम्बी दूरी के लिए उपयुक्त है ?
(a) सड़क परिवहन
(b) रेल परिवहन
(c) जल परिवहन
(d) वायु परिवहन
उत्तर:
(c) जल परिवहन

प्रश्न 23.
मानव भूगोल का जनक किसे कहा जाता है ?
(a) स्ट्राबो
(b) टॉलमी
(c) हैकेल
(d) रैटजेल
उत्तर:
(b) टॉलमी

प्रश्न 24.
निम्नलिखित में से कौन-सा एक लौह अयस्क नहीं है ?
(a) ऐन्ट्रासाइट
(b) हेमाटाइट
(c) लिमोनाइट
(d) मैग्नेटाइट
उत्तर:
(d) मैग्नेटाइट

प्रश्न 25.
अधिवास की लघुतम इकाई है।
(a) कस्बा
(b) पल्ली
(c) ग्राम
(d) नगर
उत्तर:
(a) कस्बा

प्रश्न 26.
निम्नलिखित में से कौन-सा भारत में पुरुष प्रवास का मुख्य कारण है ?
(a) विवाह
(b) शिक्षा
(c) काम और रोजगार
(d) व्यवसाय
उत्तर:
(c) काम और रोजगार

प्रश्न 27.
मानव विकास सूचकांक में भारत के निम्नलिखित राज्यों में से किस एक की कोटि उच्चतम है ?
(a) केरल
(b) तमिलनाडु
(c) पंजाब
(d) हरियाणा
उत्तर:
(c) पंजाब

प्रश्न 28.
निम्नलिखित में से सर्वाधिक प्रदूषित नदी कौन-सी है ?
(a) गोदावरी
(b) ब्रह्मपुत्र
(c) यमुना
(d) सतलुज
उत्तर:
(c) यमुना

प्रश्न 29.
निम्न में से कौन सबसे महत्त्वपूर्ण जूट उत्पादक क्षेत्र है ?
(a) कृष्णा डेल्टा
(b) गंगा डेल्टा
(c) नर्मदा डेल्टा
(d) कावेरी डेल्टा
उत्तर:
(b) गंगा डेल्टा

प्रश्न 30.
रबी की फसल पैदा होती है
(a) शीत ऋतु में
(b) वर्षा ऋतु में
(c) ग्रीष्म ऋतु में
(d) सभी ऋतु में
उत्तर:
(a) शीत ऋतु में

प्रश्न 31.
निम्नलिखित में से कौन एक ऊर्जा का गैर-परम्परागत स्रोत है ?
(a) कोयला
(b) खनिज तेल
(c) जलविद्युत
(d) सौर ऊर्जा
उत्तर:
(d) सौर ऊर्जा

प्रश्न 32.
निम्नलिखित में से कौन-सा नगर नदी तट पर अवस्थित नहीं है ?
(a) पटना
(b) आगरा
(c) भोपाल
(d) कोलकाता
उत्तर:
(d) कोलकाता

प्रश्न 33.
निम्नलिखित में से कौन-सा राज्य नरोरा नाभिकीय ऊर्जा संयंत्र से संबंधित है ?
(a) तमिलनाडु
(b) उत्तर प्रदेश
(c) महाराष्ट्र
(d) केरल
उत्तर:
(b) उत्तर प्रदेश

प्रश्न 34.
विश्व का सबसे लंबा झील जलमार्ग कौन है ?
(a) स्वेज जलमार्ग
(b) डेन्यूब जलमार्ग
(c) वोल्गा जलमार्ग
(d) ग्रेट लेक्स-सेंट लारेंस जलमार्ग
उत्तर:
(d) ग्रेट लेक्स-सेंट लारेंस जलमार्ग

प्रश्न 35.
चॉकलेट में कौन-सा पदार्थ उपयोग होता है ?
(a) कहवा
(b) कोको
(c) गन्ना
(d) चुकन्दर
उत्तर:
(b) कोको

प्रश्न 36.
किस वर्ष भारत को इंटरनेट की सुविधा प्राप्त हुई थी?
(a) 2000
(b) 1998
(c) 1988
(d) 1978
उत्तर:
(c) 1988

प्रश्न 37.
विजयनगर इस्पात केंद्र किस राज्य में अवस्थित है ?
(a) कर्नाटक
(b) तमिलनाडु
(c) केरल
(d) आंध्र प्रदेश
उत्तर:
(a) कर्नाटक

प्रश्न 38.
दुर्ग लौह-अयस्क उत्पादक क्षेत्र है
(a) झारखंड में
(b) ओडिशा में
(c) मध्य प्रदेश में
(d) छत्तीसगढ़ में
उत्तर:
(d) छत्तीसगढ़ में

प्रश्न 39.
भारत की कुल जनसंख्या का कितना प्रतिशत उत्तरी मैदान में बसता है ?
(a) 2/3
(b) 1/4
(c) 1/3
(d) 1/2
उत्तर:
(c) 1/3

प्रश्न 40.
मसाई क्या है?
(a) एक कृषि उपज
(b) एक जनजाति
(c) एक चिकित्सक
(d) एक मरुभूमि
उत्तर:
(b) एक जनजाति

प्रश्न 41.
निम्नलिखित में से किस प्रकार की बस्तियाँ सड़क, नदी या नहर के किनारे होती है?
(a) रेखीय
(b) वृत्ताकार
(c) वर्गाकार
(d) चौक पट्टी
उत्तर:
(a) रेखीय

प्रश्न 42.
निम्न में से कौन एक जनसंख्या परिवर्तन के कारक नहीं है ?
(a) प्रवास
(b) आवास
(c) जन्म
(d) मृत्यु
उत्तर:
(b) आवास

प्रश्न 43.
निम्न में से कौन प्राचीन नगर है?
(a) भोपाल
(b) गंगानगर
(c) पटना
(d) जमशेदपुर
उत्तर:
(c) पटना

प्रश्न 44.
निम्नलिखित में कौन-सा एक चतुर्थ क्रियाकलाप है ?
(a) विनिर्माण
(b) पुस्तकों का मुद्रण
(c) कागज निर्माण उद्योग
(d) विश्वविद्यालयी अध्यापन
उत्तर:
(d) विश्वविद्यालयी अध्यापन

प्रश्न 45.
प्रतिकर्ष और अपकर्ष कारक उत्तरदायी है।
(a) प्रवास के लिए
(b) भू-निम्नीकरण के लिए
(c) वायु प्रदूषण के लिए
(d) गंदी बस्तियों के लिए
उत्तर:
(a) प्रवास के लिए

प्रश्न 46.
वर्ष 2010-11 में निम्नलिखित में से कौन भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार था?
(a) यूनाइटेड अरब अमीरात
(b) संयुक्त राज्य अमेरिका
(c) चीन
(d) जर्मनी
उत्तर:
(b) संयुक्त राज्य अमेरिका

प्रश्न 47.
निम्नलिखित में से किस वर्ष में पहला रेडियो कार्यक्रम प्रसारित हुआ था ?
(a) 1911
(b) 1923
(c) 1927
(d) 1936
उत्तर:
(b) 1923

Bihar Board 12th Geography Important Questions Short Answer Type Part 1

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Bihar Board 12th Geography Important Questions Short Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
व्यापार संतुलन से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर:
किसी समयावधि के अंतर्गत किसी देश के निर्यात और आयात के अन्तर को व्यापार का संतुलन कहते हैं। यदि कोई देश वस्तुओं और सेवाओं का निर्यात आयात की अपेक्षा अधिक करता है तो व्यापार संतुलन को अनुकूल या धनात्मक कहते हैं। यदि आयात निर्यात से अधिक होता है तो व्यापार संतुलन को प्रतिकूल अथवा ऋणात्मक कहते हैं।

प्रश्न 2.
नगरीय बस्तियाँ किन रूपों में मिलती हैं ?
उत्तर:
नगरीय बस्तियाँ ग्रामीण बस्तियों से अपने कार्यों एवं स्वरूपों में भिन्न होती है। ग्रामीण बस्तियों का मुख्य आधार कृषि होता है, जबकि नगरीय बस्तियों का आधार व्यवसाय या उद्योग अर्थात् आर्थिक क्रियाकलाप प्रधान रूप में होता है। नगरीय बस्तियों में रहने वाले लोगों को अपने भोजन और वस्त्रों के लिए, अनाज और रेशे उत्पन्न करने की आवश्यकता नहीं होती। ये लोग इन वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए माल तैयार करने, इनके खरीदने-बेचने और अन्य लोगों को लिखाने-पढ़ाने, राज-काज चलाने और इसी तरह के अन्य कार्यों में लगे रहते हैं।

प्रश्न 3.
भारत में ग्रामीण बस्तियों के प्रकार को निर्धारित करनेवाले कारकों को लिखिए।
उत्तर:
ग्रामीण बस्तियाँ वे होती हैं जिनके अधिकांश लोग कृषि, लकड़ी काटने वाले, पशुचारक, खान खोदने वाले, शिकारी जंगली व पर्वतों पर निवास करने वाले होते हैं।

ग्रामीण बस्तियों के प्रकार –

  • सघन बस्तियाँ,
  • प्रकीर्ण बस्तियाँ,
  • एकाकी बस्तियाँ,
  • अखण्डित बस्तियाँ।

प्रश्न 4.
मानव भूगोल के कुछ उपक्षेत्रों के नाम लिखें।
उत्तर:
मानव भूगोल के उपक्षेत्र हैं –

  • व्यवहार विचारधारा,
  • मानव कल्याण का भूगोल,
  • सांस्कृतिक भूगोल,
  • ऐतिहासिक भूगोल,
  • संसाधनों का भूगोल,
  • कृषि भूगोल,
  • उद्योगों का भूगोल आदि।

प्रश्न 5.
जनसंख्या संघटन से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
जनसंख्या संघटन या जनांकिकी संरचना जनसंख्या की उन विशेषताओं को कहा जाता है जिनकी माप की जा सकै तथा जिनकी मदद से दो भिन्न प्रकार के व्यक्तियों के समूहों में अंतर स्पष्ट किया जा सके। आयु, लिंग, क्षरता, शिक्षा, व्यवसाय, जीवन-प्रत्याशा, निवास स्थान (ग्रामीण, नगरीय) इत्यादि ऐसे महत्वपूर्ण घटक हैं, जो जनसंख्या के संघटन को प्रदर्शित करते हैं। किसी देश के भावी विकास की योजनाओं को बनाने में जनसंख्या संघटन का महत्वपूर्ण योगदान है।

प्रश्न 6.
भारत में पवन ऊर्जा की संभावनाओं को लिखें।
उत्तर:
पवन ऊर्जा पूर्णरूपेण प्रदूषण मुक्त और ऊर्जा का असमाप्त्य स्रोत है। पवन को गतिज ऊर्जा को टरबाइन के माध्यम से विद्युत ऊर्जा में बदला जाता है। भारत में पवन ऊर्जा उत्पादन की संभावित क्षमता 50000 मेगावाट की है जिसमें से एक चौथाई ऊर्जा को आसानी से काम में लाया जा सकता है। पवन ऊर्जा के लिए राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक में अनुकूल परिस्थितियाँ विद्यमान है। गुजरात के कच्छ में लाम्बा का पवन ऊर्जा संयंत्र एशिया का सबसे बड़ा संयंत्र है। पवन ऊर्ग का एक और संयंत्र तमिलनाडु के तुतीकोरिन में स्थित है।

प्रश्न 7.
तृतीय क्रियाकलापों का वर्णन करें।
उत्तर:
तृतीय क्रियाकलापों में उत्पादन और विनिमय दोनों सम्मिलित होते हैं। उत्पादन में सेवाओं की उपलब्धता शामिल होती है, जिनका उपभोग किया जाता है। उत्पादन का परोक्षरूप से पारिश्रमिक और वेतन के रूप में मापा जाता है। विनिमय के अंतर्गत व्यापार, परिवहन और संचार सुविधाएँ सम्मिलित होती है। एक समाज, बिजली मिस्त्री, डॉक्टर, इंजीनियर, अध्यापक, धोबी, नाई, दुकानदार आदि की सेवाएँ इनके सामान्य उदाहरण हैं।

प्रश्न 8.
भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। वर्तमान समय में भारतीय कृषि की प्रमुख समस्याएँ निम्न हैं-

  • अनियमित मानसून पर निर्भरता
  • निम्न उत्पादकता
  • वित्तीय संसाधनों की बाध्यताएँ एवं ऋणग्रस्तता
  • भूमि सुधारों की कमी
  • छोटे खेत तथा विखंडित जोत
  • वाणिज्यीकरण का अभाव
  • मृदा अपरदन।

प्रश्न 9.
भारत द्वारा आयात किये जाने वाले प्रमुख सामानों का उल्लेख करें।
उत्तर:
वर्तमान समय में भारत के आयात में प्रमुख वस्तुओं में मोती तथा उपरत्नों, स्वर्ण एवं चाँदी, धातुमय अयस्क तथा धातु छीजन एवं इलेक्ट्रॉनिक वस्तुएँ इत्यादि सम्मिलित हैं।

प्रश्न 10.
प्रशासनिक नगर क्या है ? उपयुक्त उदाहरण दें।
उत्तर:
राष्ट्र की राजधानियाँ जहाँ पर केन्द्रीय सरकार के प्रशासनिक कार्यालय होते हैं, उन्हें प्रशासनिक नगर कहा जाता है। जैसे-नई दिल्ली, कैनबेरा, लंदन, वाशिंगटन डी० सी०।

प्रश्न 11.
उपभोक्ता वस्तु उद्योग को उदाहरण सहित परिभाषित करें।
उत्तर:
वैसे उद्योग, जिनके द्वारा मानव उपभोग की वस्तुएँ निर्मित हों उपभोक्ता वस्तु उद्योग कहलाते हैं। जैसे-चीनी, बिस्कुट उद्योग।

प्रश्न 12.
‘ऊष्मा द्वीप’ क्या है ? वर्णन करें।
उत्तर:
नगरों का तापमान आस-पास के क्षेत्रों की तुलना में अधिक होता है। यहाँ पक्के मकानों, सड़कों आदि की अधिकता एवं वनस्पतियों के अभाव के कारण ऐसी स्थिति मिलती है। इन अपेक्षाकृत अधिक ताप वाले नगरों को ऊष्मा द्वीप (Heat Island) कहते हैं। वैश्विक तापन के चलते धरती आज ऊष्मा द्वीप बन गयी है। यहाँ प्रदूषण से वायुमंडल की गर्मी अंतरिक्ष में विलीन, उतनी नहीं हो पा रही जितनी होनी चाहिए।

प्रश्न 13.
पूर्व-पश्चिम एवं उत्तर-दक्षिण गलियारा के बारे में संक्षेप में लिखें।
उत्तर:
पूर्व-पश्चिम एवं उत्तर-दक्षिण गलियारा – यह गलियारा स्वर्णिम चतुर्भुज (चतुष्कोण) महामार्ग के अंतर्गत पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण चार महानगरों दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता तथा चेन्नई को जोड़ता है।

प्रश्न 14.
अनुदान क्या होता है ?
उत्तर:
वस्तुओं के बिक्री एवं सेवाओं पर सरकार द्वारा प्राप्त छूट अनुदान कहलाता है। जैसे-पेट्रोल, एवं LPG पर सरकार अनुदान देती है।

प्रश्न 15.
बेंगलुरु भारत का सिलिकन सिटी है। क्यों ?
उत्तर:
बंगलुरु में सूचना प्रौद्योगिकी पार्क विकसित हुए हैं। माइक्रो इलेक्ट्रॉनिक, कंप्यूटिंग, दूरसंचार, ब्रॉडकॉस्टिंग एवं ऑटो इलेक्ट्रॉनिक्स में रूपांतरण का मुख्य कारक सिलिकन होता है। अतः इसे सिलिकन सिटी कहा जाता है।

प्रश्न 16.
कृषि कार्य को प्रभावित करने वाले दो कारकों का उल्लेख करें।
उत्तर:
भारत कृषि प्रधान देश है फिर भी यहाँ कृषि की दशा दयनीय है। यहाँ की कृषि को प्रभावित करने वाले दो प्रमुख कारक निम्नांकित हैं-

  • वर्षा की अनियमितता तथा मौनसून पर निर्भरता।
  • परंपरागत कृषि के तरीके, उन्नत बीज तथा खाद का अभाव।

प्रश्न 17.
प्रवास से संबंधित किन्हीं तीन प्रतिकर्ष कारकों का उल्लेख करें।
उत्तर:
एक स्थान से दूसरे स्थान को, लम्बे समय के निवास के लिए प्रस्थान करना प्रवास कहलाता है। भारत में प्रवास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक निम्नलिखित हैं-
(i) अच्छे आर्थिक अवसरों की खोज, नौकरी तथा रहने की बेहतर सुविधाएँ (Better opportunities for service and housing facilities) – बहुत से पिछड़े हुए ग्रामीण क्षेत्रों से लोग नगरों की ओर नौकरी या बेहतर सुविधाओं के लिए स्थानान्तरण करते हैं क्योंकि शहरी क्षेत्रों में लोगों को रोजगार, चिकित्सा, शिक्षा एवं आमोद-प्रमोद संबंधी सुविधाएँ मिलती हैं। इसलिए पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा बिहार से मजदूर वर्ग दिल्ली, पंजाब तथा नोएडा में आ रहे हैं।

(ii) विवाह (Marriage) – विवाह के कारण भी प्रवास होता है। शहरों से गाँवों में अथवा गाँवों से शहरों तथा शहरों से शहरों में अथवा गाँवों से गाँवों में प्रवास होता है। यह प्रवास महिलाओं में अधिक होता है।

(iii) सामाजिक असुरक्षा (Social Insecurity) – जिन क्षेत्रों में सामाजिक असुरक्षा होती है, वहाँ से लोग सुरक्षित स्थानों की ओर प्रवास करते हैं। जैसे-पंजाब तथा कश्मीर में ‘आतंकवाद के कारण बहुत से लोग दिल्ली में प्रवास कर रहे हैं।

(iv) राजनैतिक गड़बड़ी (Political disturbance) – जब किसी क्षेत्र में राजनैतिक अव्यवस्था हो जाती है तो वहाँ से भी लोग सुरक्षित क्षेत्रों की ओर प्रस्थान करने लगते हैं।

(v) अंतर्जातीय विवाह (Intercaste disputes) – जब किसी क्षेत्र में राजनैतिक गड़बड़ी हो जाती है तो बहुत-सी पिछड़ी जातियाँ अंतर्जातीय लड़ाईयों के कारण दूसरे सुरक्षित स्थानों की ओर चली जाती हैं।

प्रश्न 18.
जल प्रदूषण की रोकथाम के लिए चार महत्त्वपूर्ण सुझाव दें।
उत्तर:
जल प्रदूषण की रोकथाम के चार महत्वपूर्ण सुझाव निम्नलिखित हैं-

  • नदियों में कल-कारखानों के दूषित जल की साफ-सफाई कर छोड़ना।
  • नदियों में स्नान, धुलाई एवं शवदाह पर पूर्णतया रोक।
  • चिमनियों से उत्सर्जित धूलकणों एवं धूम्र (धुआँ) को छानना।
  • जल की गुणवत्ता के लिए सदैव तत्पर रहना।।

प्रश्न 19.
सुरक्षा नगर को दो उपयुक्त उदाहरणों के साथ परिभाषित करें।
उत्तर:
आक्रमणकारियों के भय ने मानव को सदैव ही सुरक्षित स्थानों की ओर आकर्षित करने में बड़ा सहयोग दिया है। जहाँ सुरक्षा का अभाव रहता है, मानवीय बस्तियाँ अपने स्थानों से हट जाती हैं। ऐसे असुरक्षित स्थानों पर सामान्य अवस्थाओं में मनुष्य रहना पसंद नहीं करते हैं। वह असुरक्षित स्थानों पर बसने की अपेक्षा दुर्गम स्थानों को ढूंढते हैं।

उत्तरी भारत में जब विदेशी आक्रमणकारी खैबर के दर्रे द्वारा बार-बार भारत पर आक्रमण करते रहे तो 10वीं से 14वीं शताब्दी तक पंजाब, राजस्थान और गुजरात के असंख्य लोग अरावली, विन्ध्याचल व सतपुड़ा की पहाड़ियों, हिमालय की घाटियों में तथा ऊँचे भागों में जा बसे थे। जम्मू, हिमाचल प्रदेश, गढ़वाल, कुमायूँ, नेपाल आदि में इन्हीं लोगों द्वारा अनेक छोटी बस्तियाँ सुरक्षा की दृष्टि से स्थापित की गयीं।

यमुना और गंगा के मैदानों में इलाहाबाद और वाराणसी तक बस्तियाँ अधिक फैली हुई मिलती हैं किन्तु उत्तर-पश्चिम के सीमावर्ती क्षेत्रों और आक्रमणों के मार्गों के निकट गाँव विशेष सुरक्षित स्थानों पर चारदीवारी में बनाये जाते हैं।

प्रश्न 20.
निश्चयवाद क्या है ?
उत्तर:
निश्चयवाद के समर्थक निराशावादी तथा भाग्यवादी हैं परंतु आधुनिक युग में मानव की सफलताओं के समक्ष यह विचारधारा अधिक नहीं टिक सकी है। किसी सीमा तक वातावरण के प्रभाव की उपेक्षा करके मानव प्रगतिशील नहीं हो सकता है। वातावरण का प्रतिबिम्ब उसके अनेक कार्यों एवं गतिविधियों में दृष्टिगोचर होता है, किन्तु मानव पूर्णतः उसके प्रभाव के नियंत्रण में नहीं है।

ग्रिफिथ टेलर के अनुसार मनुष्य न तो प्रकृति का दास है और न ही उसका स्थामी और न ही मानव के कार्य करने की क्षमता असीमित है। उन्होंने इसे रुको और जाओ निश्चयवाद (Stop & Go Determinism) की संज्ञा दी है। उन्होंने मानव को वातावरण का स्वामी नहीं माना है, परंतु उसकी तुलना बड़े नगर में चौराहे पर खड़े एक सिपाही से की है जो सड़क पर वाहनों के चलने की गति को मंद या तीव्र कर सकता है, किन्तु उनकी दिशा को परिवर्तित नहीं कर सकता।

प्रश्न 21.
गन्ना की खेती के लिए आदर्श परिस्थितियाँ क्या होनी चाहिए ?
उत्तर:
भारत विश्व में गन्ना उत्पादन में सबसे अग्रणी देश है। यहाँ चीनी निर्माण का आधार है। इसके लिए लम्बे वर्धनकाल की आवश्यकता है। यह उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधीय जलवायु का पौधा है। इसके लिए 25-27°C तापमान की आवश्यकता होती है। 100 सेमी० से अधिक वर्षा होनी चाहिए। अच्छी जल आपूर्ति के लिए सिंचाई की आवश्यकता होती है। अच्छे जल निकास वाली उपजाऊ मिट्टी में इसकी उपज अधिक होती है।

प्रश्न 22.
भारत में जनसंख्या के असमान वितरण के लिए जिम्मेवार दो कारकों को लिखें।
उत्तर:
भारत में जनसंख्या असमान वितरण के निम्नलिखित दो कारण हैं-

  • समतल मैदान – भारत की सबसे अधिक जनसंख्या गंगा और गोदावरी के समतल मैदान में अधिक है क्योंकि यह आवागमन के लिए सड़कें बनाना एवं खेती करना पठारी एवं पर्वतीय भाग की तुलना में आसान है। इसलिए मैदानी भाग की जनसंख्या अधिक है।
  • जलवाय – भारत के मध्य एवं दक्षिणी भाग की जलवायु समशीतोष्ण है जिससे इस भाग में अधिक जनसंख्या निवास करती है।

प्रश्न 23.
नोएडा एवं बरौनी के महत्त्व का उल्लेख करें। .
उत्तर:
नोएडा – भारत में दिल्ली से सटा एक उपनगरीय क्षेत्र है जो उत्तर प्रदेश में स्थित है। इसका पूरा नाम ‘न्यू ओखला इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट ऑथोरिटी’ के संक्षिप्तीकरण से बना है। इसका आधिकारिक नाम गौतम बुद्ध नगर है। ये विभिन्न सेक्टरों में बँटा हुआ है। नोएडा का औद्योगीकरण के क्षेत्र में भी काफी महत्त्व है।

बरौनी – बिहार राज्य के बेगुसराय जिला के अंतर्गत स्थित है। यह गंगा नदी के किनारे बसा हुआ है। यह एक औद्योगीकरण क्षेत्र है। इसमें इण्डियन ऑयल रिफाइनरी, बरौनी थर्मल पॉवर, हिन्दुस्तान फर्टिलाइजर कॉरपोरेशन, बरौनी डेयरी आदि अनेक प्रकार के उद्योग विकसित होने के कारण काफी महत्त्वपूर्ण है।

प्रश्न 24.
अंतरिक्ष प्रयोगशाला के बारे में आप क्या जानते हैं ?
उत्तर:
अंतरिक्ष प्रयोगशाला एक पुनः प्रयोज्य प्रयोगशाला थी जिसे स्पेस शटल द्वारा लाया गया कुछ निश्चित अंतरिक्ष उड़ानों पर इस्तेमाल किया गया था। प्रयोगशाला में कई घटक शामिल थे, जिसमें एक दबाव वाले मॉड्यूल शामिल थे, शटल के कार्गो खाड़ी में स्थित एक अप्रतिबंधित वाहक और अन्य संबंधित हार्डवेयर। प्रत्येक अंतरिक्ष उड़ान की जरूरतों को पूरा करने के लिए विभिन्न विन्यास में घटकों का आयोजन किया गया था। Spacelab घटकों ने कुल 32 शटल मिशनों पर उड़ान भरी। Spacelab ने वैज्ञानिकों को पृथ्वी की कक्षा में माइक्रोग्राविटी में प्रयोग करने की अनुमति दी थी।

Spacelab से जुड़े हार्डवेयर की एक किस्म थी, इसलिए Spacelab कार्यक्रम के मिशन के बीच प्रमुख Spacelab कार्यक्रम मिशनों के बीच अंतर किया जा सकता है, साथ ही यूरोपीय वैज्ञानिकों ने Spacelab में रहने योग्य मॉड्यूल में मिशन को चलाया है, अन्य Spacelab हार्डवेयर प्रयोगों को चलाने वाले मिशनों और अन्य एसटीएस मिशन जो स्पैकेलेब के कुछ घटक का उपयोग करते हैं।

प्रश्न 25.
नगरीय जनसंख्या क्या होती है ?
उत्तर:
नगरीय जनसंख्या (Urban population) – नगरीय जनसंख्या का अर्थ एक ऐसे जनसंख्या से होता है जहाँ पर जनसंख्या घनत्व और मानवीय क्रियाकलाप उस स्थान के आस-पास के लोगों से अधिक होता है। नगरीय जनसंख्या आम तौर पर नगरों, कस्बों या उपनगरीय विस्तारों को सम्मिलित किया जाता है लेकिन इसमें ग्रामीण जनसंख्या को सम्मिलित नहीं किया जाता।

भारत में जनसंख्या वृद्धि एवं आर्थिक प्रगति में सुधार के साथ-साथ नगरीय जनसंख्या में भी वृद्धि होती रही है। यहाँ 1991 में कुल नगरीय जनसंख्या 21.71 करोड़ थी जो कुल जनसंख्या की 25.72 प्रतिशत थी। 2001 की जनगणना के अनुसार यहाँ 28.54 करोड़ व्यक्ति नगरों में निवास कर रहे हैं जो कुल जनसंख्या का 27.78 प्रतिशत है। 1901 में नगरीय जनसंख्या 2.59 करोड़ थी। इस प्रकार 100 वर्षों में देश में नगरीय जनसंख्या में 9 गुने से अधिक की वृद्धि हो गयी है। 1901 में नगरों की संख्या 1,827 थी जो बढ़कर 2001 में 5,161 हो गयी है।

प्रश्न 26.
प्रौद्योगिकी पार्क क्या है ? संक्षेप में लिखें।
उत्तर:
प्रौद्योगिकी पार्क एक ऐसा क्षेत्र है, जिसे नवाचार को बढ़ावा देने के लिए डिजाइन किया गया है। यह एक ऐसा भौतिक स्थान है, जो उच्च प्रौद्योगिकी आर्थिक विकास और ज्ञान को आगे बढ़ाने के इरादे से विश्वविद्यालय उद्योग और सरकारी सहयोग का समर्थन करता है। यूनिवर्सिटी रिसर्च पार्क, साइंस पार्क या टेक्नोलॉजी पार्क, टेक्नोपोलिस और बायोपार्क के लिए लगभग समानार्थक शब्द हैं। उपयुक्त शब्द आमतौर पर उच्च शिक्षा और अनुसंधान की एक संस्था के साथ पार्कों की संबद्धता के प्रकार पर निर्भर करता है और शायद यह भी ऐसा विज्ञान और अनुसंधान होता है जिसमें पार्क की संस्थाएँ व्यस्त होती हैं।

इन पार्कों में उस विश्वविद्यालय के अनुसंधान पार्कों और विज्ञान और तकनीक पार्कों के विशिष्ट उच्च प्रौद्योगिकी वाले व्यापारिक जिलों से भिन्न होते हैं और इसे व्यवस्थित, नियोजित और प्रबंधित किया जाता है। वे विज्ञान केंद्रों से भिन्न होते हैं, क्योंकि वे ऐसे स्थान हैं जहाँ अनुसंधान का व्यावसायीकरण किया गया है। आमतौर पर पार्कों में कारोबार और संगठन उत्पाद उन्नति और नवाचार पर ध्यान केंद्रित करते हैं, जो कि औद्योगिक पार्कों के विरोध में होता है, जो विनिर्माण और व्यवसाय पार्कों पर केंद्रित होता है जो प्रशासन पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

प्रश्न 27.
पर्यावरणीय निश्चयवाद की अवधारणा को लिखें।
उत्तर:
प्राकृतिक पर्यावरण के विभिन्न तत्व एवं संसाधन भूतल के जैविक समुदाय के लिए ही बने हैं, लेकिन मनुष्य की संसाधनों के अधिकाधिक संग्रहण एवं द्रुतगति से सम्पन्न बने की प्रवृत्ति एवं एक मानव समाज द्वारा दूसरे मानव समाज से आगे बढ़ने की ललक से प्राकृतिक पर्यावरण का असंतुलित शोषण एवं दुरुपयोग हो रहा है। प्रौद्योगिकी विकास होने से भौतिक संसाधनों में निरंतर क्षति हो रही है और अनेक ऐसे रासायनिक जैविक एवं विध्वंसक हथियारों के निर्माण एवं उनके प्रयोग से पर्यावरण की गुणवत्ता निरंतर समाप्त हो रही है।

व्यापारिक उद्देश्य से वनों की कटाई ने वनों का सर्वनाश किया है। तकनीकी विकास ने वन प्रदेशों को उजाड़ दिया है। नवीन तकनीक के कारण नहरें बनाने, बाँध बनाने, खनिज खोदने में अनेकानेक पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं।

प्रश्न 28.
सेवाओं के किन्हीं दो वर्गीकरण का उल्लेख करें। उपर्युक्त उदाहरण दें।
उत्तर:
सेवाओं का क्षेत्र व्यापक होता है क्योंकि इनकी आवश्यकता वहाँ भी पड़ती है जहाँ लोग द्वितीयक व्यवसायों में संलग्न होते हैं। विनिर्माण उद्योगों में भी विभिन्न प्रकार की सेवाओं की आवश्यकता होती है। इनमें प्रशासन तंत्र की आवश्यकता होती है जो विभिन्न क्षेत्रों में देखभाल कर सकें।

ततीयक क्रियाओं – में समाज को दी जाने वाली व्यक्तिगत तथा व्यावसायिक सेवाएँ सम्मिलित हैं। इस व्यवसाय को सेवा श्रेणी भी कहा जाता है। तृतीयक क्रियाओं के अंतर्गत समाज को सेवाएँ विभिन्न रूपों में प्रदान की जाती हैं। इन सेवाओं में रेल, सड़क, वायुयान सेवाएँ, डाक-तार सेवाएँ, रेडियो, दूरदर्शन, फिल्म, साहित्य, कानूनी सेवाएँ, जनसम्पर्क एवं परामर्श, विज्ञापन, वित्त, बीमा, थोक और फुटकर व्यापार, मरम्मत के कार्य जैसी सेवाएँ, स्थानीय, राज्यीय, राष्ट्रीय प्रशासन, पुलिस-सेना एवं अन्य जन सेवाएँ तथा गैर-सरकारी संगठनों द्वारा प्रदान की जाने वाली सेवाएँ उल्लेखनीय हैं।

चतर्थक क्रियाएँ – वर्तमान समय में मानव की आर्थिक क्रियाएँ दिनोंदिन बहुत ही विशिष्ट एवं जटिल होती जा रही हैं जिनमें क्रियाओं का एक नवीन रूप चतुर्थक क्रियाओं के रूप में सामने आया है। मानव की कानन, वित्त, शिक्षा, शोध और संचार से जुड़ी उन आर्थिक गतिविधियों को, जो सूचना के साधन और सूचना के प्रसारण से संबंधित हैं, चतुर्थक क्रियाओं के अंतर्गत सम्मिलित किया गया है।

प्रश्न 29.
जनसंख्या वितरण को प्रभावित करने वाले जलवायु कारकों को लिखें।
उत्तर:
जनसंख्या के वितरण एवं घनत्व को प्रभावित करने वाले तीन कारणों का विवरण निम्न है-
(i) भ-आकति – किसी देश की भू-आकृति जनसंख्या वितरण एवं घनत्व को प्रभावित करते हैं। जहाँ मैदानी क्षेत्रों का विस्तार सर्वाधिक पाया जाता है वहां कृषि हेतु उपजाऊ भूमि तथा नदियों में जल की सतत उपलब्धता रहती है, जिसके कारण जनसंख्या घनत्व अधिक पाई जाती है तथा पठारी एवं पर्वतीय क्षेत्रों में कृषि भूमि का अभाव, परिवहन सुविधाओं की कमी के कारण जनसंख्या घनत्व कम पाई जाती है। जैसे-गंगा के मैदानी क्षेत्र में अधिक जनसंख्या घनत्व पाई जाती है वहीं प्रायद्वीपीय पठारी क्षेत्रों में कम पाई जाती है।

(ii) नगरीकरण – जनसंख्या के वितरण एवं घनत्व को प्रभावित करने वाले कारणों में नगरीकरण प्रमुख है। इस क्षेत्र में रोजगार की उपलब्धता, जनसंचार की सुविधा, परिवहन मार्गों की उपलब्धता इत्यादि के कारण जनसंख्या का संकेन्द्रण अधिक पाया जाता है। जैसे-दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता।

(iii) औद्योगीकरण – औद्योगीकरण के फलस्वरूप लोगों को रोजगार, परिवहन, जनसंचार, बाजार इत्यादि उपलब्ध हो पाते हैं जिसके कारण जनसंख्या घनत्व अधिक पायी जाती है। जैसे-जमशेदपुर, बोकारो, दुर्गापुर।

प्रश्न 30.
ग्रामीण अधिवासों की विशेषताओं का उल्लेख करें।
उत्तर:
ग्रामीण अधिवासों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(i) भारतीय गाँव बहुत पुराने हैं। ये भारतीय संस्कृति के मूल आधार माने जाते हैं। महात्मा गाँधी के शब्दों में, “यदि गाँव की प्राचीन सभ्यता नष्ट हो गयी तो देश भी अंततः नष्ट हो जायेगा।” इनका मुख्य उद्यम खेती करना है।
(ii) गाँवों के निर्माण में स्थानीय रूप से मिलने वाली सामग्री का ही उपयोग किया जाता है। प्रायः मिट्टी, ईंटों और घास-फूस के बने होते हैं। पत्थर के गाँव भी अनेक क्षेत्रों में मिलते हैं। अब विकास के साथ-साथ चूना, सीमेंट, लकड़ी एवं लोहे का भी उपयोग बढ़ता जा रहा है।
(iii) भारतीय गाँव प्रायः चारों ओर से वृक्षों के कुन्जों से घिरे होते हैं। समुद्रतटीय क्षेत्रों में घरों के निकट नारियल, सुपारी, केले और फलों के वृक्ष तथा अन्यत्र पीपल, नीम, शीशम आदि के वृक्ष मिलते हैं।
(iv) सार्वजनिक उपयोग के लिए कुएँ, तालाब, मंदिर, सराय या पंचायत घर होता है जहाँ गाँव संबंधी सभी कार्यों का निर्णय लिया जाता है।
(v) भारतीय गाँवों में श्रम विभाजन स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। वैश्य, ब्राह्मण, नाई, धोबी, कुम्हार, लुहार एवं अन्य अनुसूचित जाति के लोग सभी अपना कार्य करते हैं।

प्रश्न 31.
कृषि ऋण प्रदान करनेवाली चार संस्थाओं के नाम लिखिए।
उत्तर:
कृषि ऋण प्रदान करने वाली चार संस्थाओं के नाम निम्नलिखित हैं-

  • सहकारी बैंक
  • वाणिज्यिक बैंक
  • क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक
  • राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण बैंक (नाबार्ड)।

प्रश्न 32.
परमाणु ऊर्जा कैसे पैदा की जाती है ?
उत्तर:
यूरेनियम और थोरियम प्रमुख परमाणु खनिज है जिससे परमाणु ऊर्जा पैदा की जाती है। ये भारत में पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं। इनके नियमित विखण्डन से प्राप्त ऊर्जा को परमाणु ऊर्जा, अणु ऊर्जा एवं नाभिकीय ऊर्जा के नामों से जाना जाता है। भारत में यूरेनियम झारखण्ड, राजस्थान, तमिलनाडु में पाया जाता है। थोरियम छोटानागपुर पठार तथा केरल की समुद्र तटीय बालू में प्राप्त होता है। भारत विश्व के छः देशों में से एक है जो परमाणु ऊर्जा प्राप्त करने की तकनीक विकसित कर चुके हैं।

प्रश्न 33.
वायु प्रदूषण क्या है ?
उत्तर:
वायु प्रदूषण उन परिस्थितियों तक सीमित रहता है जहाँ बाहरी परिवेशी वायुमण्डल में दूषित पदार्थों की सान्द्रता मनुष्य एवं पर्यावरण को हानि पहुँचाने की सीमा तक बढ़ जाती है। वायुमण्डल में विभिन्न प्रकार की गैसें पायी जाती हैं, वाष्प एवं धूल के कण विद्यमान रहते हैं। जब किन्हीं कारणों से वायुमण्डलीय गैसों का अनुपात बदलने लगता है और कुछ कणीय पदार्थ वायु में मिल जाते हैं तो उसका भौतिक संतुलन बिगड़ जाता है इस स्थिति को वायु प्रदूषण कहा जाता है।

प्रश्न 34.
उदारीकरण के लाभों को लिखें।
उत्तर:
उदारीकरण या आर्थिक सुधार एक वृहद अर्थ वाला शब्द है। प्रायः इसका उपयोग अल्पतर सरकारी नियंत्रण, अल्पतर सरकारी निषेध, निजी कम्पनियों की अधिक भागीदारी, करों की अल्पतर आदि के संदर्भ में किया जाता है। उदारीकरण के पल में मुख्य तर्क यह दिया जाता है कि इससे दक्षता आती है और हरेक को अधिक प्राप्त होता है। उदारीकरण के लाभ निम्न क्षेत्र में है-

  • पूँजीवाद,
  • मुक्त बाजार,
  • वैश्वीकरण,
  • निजीकरण

प्रश्न 35.
स्मॉग क्या होता है ?
उत्तर:
वायुमंडल की निचली परतों में एकत्रित धूलकण, धुएँ के कण एवं संघनित जलपिंडों को स्मॉग कहते हैं। ओसांक से नीचे वायु का तापमान कम होने पर कोहरे का निर्माण होता है। इसमें दृश्यता एक किमी. से भी कम होती है।

प्रश्न 36.
पृष्ठप्रदेश क्या है ?
उत्तर:
किसी भी पत्तन या बंदरगाह के आस-पास के वे राज्य जिनका आयात एवं निर्यात एक ही पत्तन से होता है। उसे उस पत्तन की पृष्ठ प्रदेश कहा जाता है।

प्रश्न 37.
भारतीय रेलवे की किन्हीं दो मुख्य समस्याओं का वर्णन करें।
उत्तर:
भारतीय रेल की दो मुख्य समस्याएँ हैं-

  • समय से परिचालन का अभाव-भारतीय रेल कभी भी समय पर अपने गंतव्य स्थान पर नहीं पहुँचती है। हमेशा लेट चलती है। पर्व-त्योहारों पर तो इसमें आदमियों को जानवरों की भाँति यात्रा करना पड़ता है, फिर भी रेलवे हमेशा घाटा में चलती है।
  • पठारी भूमि पर रेल लाइन बिछाना ज्यादा कठिन है क्योंकि यहाँ की जमीन समतल नहीं रहती है जिसके कारण रेलमार्ग 1° से 3° तक ढाल होती है।

प्रश्न 38.
योजना आयोग का गठन कब हुआ था? इसके दो कार्यों को लिखें।
उत्तर:
योजना आयोग का गठन 15 मार्च, 1950 ई० को किया गया था। इसके कार्य निम्नलिखित हैं-

  • योजना आयोग का कार्य देश की प्राकृतिक तथा मानवीय संसाधनों का आकलन करना है।
  • राष्ट्र के विकास के लिए पंचवर्षीय योजना तैयार करना। योजना आयोग की भूमिका एक सलाहकार के रूप में अधिक है।

प्रश्न 39.
फुटकर व्यापार सेवा से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
फुटकर व्यापार सेवा वह व्यापारिक क्रियाकलाप हैं जो उपभोक्ताओं को वस्तुओं के प्रत्यक्ष विक्रय से संबंधित है। अधिकांश फुटकर व्यापार केवल विक्रय से नियत प्रतिष्ठानों और भंडारों में सम्पन्न होता है। फेरी, रेहड़ी, ट्रक, द्वार से द्वार, डाक आदेश, दूरभाष, स्वचालित निजी मशीनें तथा इंटरनेट फुटकर बिक्री के भंडार इसके उदाहरण हैं।

प्रश्न 40.
आधारभूत उद्योग क्या हैं ? उदाहरण दें।
उत्तर:
आधारभूत उद्योगों के उत्पादों का उपयोग बहुधा अन्य उद्योगों में कच्चे माल के रूप में होता है, अर्थात् ये उद्योग अन्य उद्योगों के संचालन के लिए आधार तैयार करते हैं, अतः इन्हें आधारभूत उद्योग कहते हैं। जैसे-लौह अयस्क के कच्चे लोहे या पिग आयरण का उत्पादन आधारभूत उद्योग है।

प्रश्न 41.
जन्म दर एवं मृत्यु दर के बीच अंतर करें।
उत्तर:
प्रति एक वर्ष में 1000 व्यक्तियों पर जीवित जन्म लेने वाले बच्चों की संख्या को जन्म दर कहा जाता है तथा प्रति एक वर्ष में 1000 व्यक्तियों पर मृतकों की संख्या को मृत्यु दर कहा जाता है। भारत में 2001 की जनगणना के अनुसार जन्म दर 26.1 प्रतिशत तथा मृत्यु दर 8.7 प्रतिशत थी।

प्रश्न 42.
सामूहिक कृषि का वर्णन करें।
उत्तर:
सामूहिक कृषि में विभिन्न क्षेत्रों में खेती की प्रबंध समितियाँ होती है। उनका मुखिया प्रबंधक सरकार के प्रति उत्तरदायी होता है। इसमें वस्तुतः दो प्रकार के फॉर्म बनाए गए। कृषि भूमि के किसानों, पशुओं या मेहनतकशों के छोटे-छोटे समूहों को मिलाकर सामूहिक फार्म बनाए गए हैं। सैद्धांतिक रूप से इनके प्रबंधक और मालिक किसान नहीं हैं, परंतु व्यापार, योजना या नीति निर्धारण पर सरकार का नियंत्रण है। इसमें वैज्ञानिक विधियों से भूमि सुधार करके नगदी खेती की जाती है। साथ ही गेहूँ, जौ, मक्का, राई, आलू भी उत्पादित होते हैं। यहाँ तक कि वनरोपण और पशुपालन का कार्य भी होता है।

प्रश्न 43.
पारिस्थितिकीय असंतुलन को प्रभावित करनेवाले दो कारकों का उल्लेख करें।
उत्तर:
प्रकृति में जीवों के रहने के लिए एक संतुलित पारिस्थितिक तंत्र अति आवश्यक है। यदि प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता पारिस्थितिक तंत्र में न हों तो ऐसा भी संभव है कि कुछ समय बाद हरे पौधे अतिवृद्धि एवं अतिसंकुलता के कारण स्वयं नष्ट हो जाएं। इसी प्रकार द्वितीय श्रेणी के उपभोक्ताओं का भविष्य प्रथम श्रेणी के उपभोक्ता एवं उत्पादकों से बहुत निकट रूप से संबंधित है। इसी प्रकार यदि किसी क्षेत्र में साँपों की संख्या अधिक बढ़ जाए तो चूहों की संख्या समाप्त हो जाएगी। इसके कारण साँपों की संख्या पर भी खतरा मंडरा सकता है।