Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 1

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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Short Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
भारतीय दर्शन एवं पश्चिमी दर्शन में मुख्य अंतर क्या हैं?
उत्तर:
प्रायः दर्शन एवं फिलॉसफी को एक ही अर्थ में लिया जाता है, लेकिन इन दोनों शब्दों का प्रयोग दो भिन्न अर्थ में किया गया है। भारत में ‘दर्शन’ शब्द द्वश धातु से बना है, जिसका अर्थ है, ‘जिसके द्वारा देखा जाए’। यहाँ ‘दर्शन’ का अर्थ वह विद्या है जिसके द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया जा सके। इसलिए इसे तत्त्व दर्शन कहा जाता है। भारतीय दृष्टिकोण से दर्शन की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि-“हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्ति संगत व्याख्या कर वास्तविकता का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।”

पाश्चात्य में दर्शन को ‘फिलॉसफी’ कहा जाता है। ‘फिलॉसफी’ शब्द की उत्पत्ति ग्रीक शब्द से हुई है, जिसका अर्थ होता है ज्ञान प्रेम या विद्यानुराग। वेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि “दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयत्न है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करता है।”

प्रश्न 2.
भारतीय दर्शन में ‘कर्म सिद्धांत’ के अर्थ को स्पष्ट करें। अथवा, कर्म की व्याख्या करें। अथवा, कर्म क्या है?
उत्तर:
‘कर्म सिद्धान्त’ में विश्वास भारतीय दर्शन की एक मुख्य विशेषता है। चर्वाक को छोड़कर भारत के सभी दर्शनं चाहे वे वेद विरोधी हो या वेद के अनुकूल, कर्म के नियम को स्वीकारते हैं। अतः कर्म-सिद्धान्त को छः आस्तिक दर्शन एवं दो नास्तिक दर्शन भी स्वीकार करते हैं। कर्म सिद्धान्त (Law of Karma) का अर्थ है कि जैसा हम बोते हैं वैसा ही हम काटते हैं।

कहने का अभिप्राय शुभ कर्मों का फल शुभ तथा अशुभ कर्मों का फल अशुभ होता है। किए हुए कर्मों का फलन नष्ट नहीं होता है तथा बिना किये हुए कर्मों के फल भी प्राप्त नहीं होते हैं। हमें सदा कर्मों के फल प्राप्त होते रहते हैं। वस्तुतः सुख और दुःख क्रमशः शुभ एवं अशुभ कर्मों के अनिवार्य फल माने गए हैं। अतः कर्म सिद्धान्त ‘कारण-नियम’ है जो नैतिकता के क्षेत्र में काम करता है। दर्शनिकों के अनुसार हमारा वर्तमान जीवन अतीत जीवन के कर्मों का फल है। इस तरह कर्म-सिद्धान्त में अतीत, वर्तमान और भविष्य जीवनों को कारण-कार्य की कड़ी में बाँधा गया है।

प्रश्न 3.
स्वधर्म की व्याख्या करें। अथवा, स्वधर्म के तात्पर्य को स्पष्ट करें। अथवा, स्वधर्म की परिभाषा दें।
उत्तर:
गीता के अनुसार जिस वर्ण का जो स्वाभाविक कर्म है, वही उसका स्वधर्म है। स्वभाव के अनुसार जो विशेष कर्म निश्चित है, वही स्वधर्म है। स्वधर्म के पालन से मानव परम सिद्धि का भागी होता है। स्वधर्म का अनुष्ठान मनुष्य के लिए कल्याणकारी है। चारों वर्ण का कर्म प्रत्येक वर्ण के स्वभावजन्य गुणों के अनुसार पृथक्-पृथक् विभाजित किया गया है। इन्द्रियों का दमन, निग्रह, पवित्रता, तप, शान्ति, क्षमा-भाव, सरलता आध्यात्मिक ज्ञान आदि ब्राह्मण के स्वभाविक कर्म हैं।

शूर वीरता, तेजस्विता, धैर्य, चातुर्य, युद्ध से न भागना, दान देना, स्वामिभाव आदि क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। कृषि, गोपालन, वाणिज्य वैश्यों के स्वाभाविक कर्म हैं। अन्ततः सब वर्गों की सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। गीता के अनुसार जो कर्म स्वधर्म के अनुसार स्थिर कर दिए गए हैं, उनका त्याग करना तथा परधर्म का अनुष्ठान करना उचित नहीं है। गीता के अनुसार अच्छी तरह से न किया गया द्विगुण-स्वधर्म, अच्छी तरह से किए हुए पर धर्म से श्रेष्ठ है क्योंकि स्वभाव से नियत किए हुए कर्म को करता हुआ मनुष्य पाप को नहीं प्राप्त करता है।

प्रश्न 4.
शंकर के दर्शन अद्वैतवाद क्यों कहा जाता है?
उत्तर:
वेदान्त दर्शन के अनेक सम्प्रदाय विकसित हुए, जिसमें शंकर के अद्वैतवाद का प्रमुख स्थान है। शंकर के दर्शन को एकत्ववाद (Monism) नहीं कहकर अद्वैतवाद (Non-dualism) कहा जाता है। इनके अनुसार जीव और ब्रह्म दो नहीं हैं। वे वस्तुतः अद्वैत हैं। इन्होंने ब्रह्म को परम सत्य माना है। यहाँ ब्रह्म की व्याख्या निषेधात्मक ढंग से की गई है। ब्रह्म की व्याख्या के लिए नेति-नेति को आधार माना गया है, ब्रह्म क्या है के बदले ब्रह्म क्या नहीं है, पर प्रकाश डाला गया है। ब्रह्म ही एकमात्र पारमार्थिक दृष्टि से सत्य है; ईश्वर, जीव, जगत, माया आदि की व्यावहारिक सत्ता है। आत्मा तथा ब्रह्म अभेद है। ब्रह्म और जीव का द्वैत अज्ञानता के कारण है। इसलिए यहाँ ज्ञान योग के द्वारा मोक्ष प्राप्ति की बात कही गई है, ज्ञान के बाद द्वैत अद्वैत में बदल जाता है।

प्रश्न 5.
बौद्ध दर्शन के अष्टांग मार्ग की व्याख्या करें।
उत्तर:
महात्मा बुद्ध का (चतुर्थ आर्य सत्य) यह वह मार्ग है जिसपर चलकर स्वयं महात्मा बुद्ध ने निर्वाण को प्राप्त किया था। दूसरे लोग भी इस मार्ग का अनुसरण और अनुकरण कर निर्वाण या मोक्ष की अनुभूति प्राप्त कर सकते हैं। यह मार्ग प्रत्येक व्यक्ति के लिए खुला है। गृहस्थ, संन्यासी या कोई भी उद्यमी इसे अपना सकता है। बुद्ध द्वारा स्थापित यह मार्ग उनके धर्म और नीतिशास्त्र का आधार स्वरूप है। इसीलिए इस मार्ग की महत्ता बढ़ जाती है। इस मार्ग को आष्टांगिक मार्ग कहा गया है क्योंकि इस मार्ग के आठ अंग स्वीकार किए गए हैं जो निम्न प्रकार हैं-

  1. सम्यक् दृष्टि,
  2. सम्यक् संकल्प,
  3. सम्यक् वाक्,
  4. सम्यक् कर्मान्त,
  5. सम्यक् आजीविका,
  6. सम्यक् व्यायाम,
  7. सम्यक् स्मृति,
  8. सम्यक् समाधि।

प्रश्न 6.
कारण-कार्य नियम की व्याख्या करें। अथवा, ‘कारण हमेशा ही कार्य का पूर्ववर्ती होता है।’ सिद्ध करें।
उत्तर:
कारण कार्य नियम आगमन का एक प्रबल स्तम्भ के रूप में आधार है। इसकी भी परिभाषा तार्किकों ने न देकर इसकी व्याख्या किए हैं। कारण-कार्य नियम के अनुसार इस विश्व में कोई घटना या कार्य बिना कारण के नहीं हो सकती है। सभी घटनाओं के पीछे कुछ-न-कुछ कारण अवश्य छिपा रहता है। कारण संबंधी विचार अरस्तु के विचारणीय हैं। अरस्तु के अनुसार चार तरह के कारण हैं-

  1. द्रव्य कारण,
  2. आकारिक कारण,
  3. निमित्त कारण,
  4. अंतिम कारण।

यही चार कारण मिलकर किसी कार्य को उत्पन्न करते हैं। जैसे-मकान के लिए ईंट, बालू, सीमेन्ट, द्रव्य कारण हैं। मकान का एक नक्शा बनाना आकारिक कारण है। राजमिस्त्री और मजदूर, ईंट, बालू, सीमेन्ट को तैयार कर उसे एक पर एक खड़ा कर तैयार करते हैं। इसमें एक शक्ति आती है जिसे Efficient cause या निमित कारण करते हैं।

प्रश्न 7.
बुद्धिवाद एवं अनुभववाद में क्या अंतर है?
उत्तर:
तर्कवाद या बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों ही ज्ञानमीमांसीय सिद्धांतों का सम्बन्ध ज्ञान प्राप्त करने के स्रोत अर्थात् साधन से है। दोनों दो भिन्न साधनों को ज्ञान के स्रोत के रूप में स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं दोनों एक-दूसरे के द्वारा बतलाए गये ज्ञान के स्रोत को अस्वीकार भी कर देते हैं। अनुभववाद के अनुसार ज्ञान की उत्पत्ति का साधन अनुभव है, बुद्धि नहीं। बुद्धिवाद ज्ञान की उत्पत्ति का साधन बुद्धि या तर्क को मानता है, अनुभव को नहीं।

अनुभववाद के अनुसार सभी ज्ञान अर्जित हैं, इसलिए कोई भी ज्ञान जन्मजात नहीं है। बुद्धि के अनुसार आधारभूत प्रत्यय जन्मजात होते हैं। उन्हें जन्मजात प्रत्ययों से अन्य ज्ञानों को बुद्धि तर्क के द्वारा निगमित करती है।

अनुभववाद के अनुसार बुद्धि अपने आप में निष्क्रिय है। क्योंकि पहले वह अनुभव से प्राप्त प्रत्ययों को ग्रहण करती है और उसके उपरान्त ही वह सक्रिय हो सकती है। बुद्धिवाद के अनुसार बुद्धि स्वभावतः क्रियाशील है क्योंकि अपने अन्दर से वह ज्ञान उत्पन्न करती है।

अनुभववाद के अनुसार विशेष वस्तुओं के ज्ञान के आधार पर आगमन विधि द्वारा सामान्य ज्ञान प्राप्त किया जाता है। अतः अनुभववाद तथ्यात्मक विज्ञान को आदर्श ज्ञान का स्रोत मानता है। बुद्धिवाद के अनुसार जन्मजात सहज प्रत्ययों से निगमन-विधि द्वारा सारा ज्ञान प्राप्त होता है। अतः ‘बुद्धिवाद गणित विज्ञान को आदर्श ज्ञान का स्रोत मानता है।

प्रश्न 8.
अरस्तू के कार्य-कारण सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर:
कार्य और कारण का सम्बन्ध जन-जीवन तथा वैज्ञानिक-तकनीकी अन्वेषणों से सम्बन्धित है। अन्य कई दार्शनिकों के साथ-साथ अरस्तू ने भी अपना कारणता सिद्धान्त दिया है लेकिन यह सिद्धान्त अत्यंत प्राचीन है तथा आज की तिथि में अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है। अरस्तू ने किसी कार्य के लिए चार तरह के कारणों की आवश्यकता बतायी है-1. उपादान कारण, 2. निमित्त कारण, 3. आकारिक कारण और 4. प्रयोजन कारण। उदाहरणस्वरूप घड़े के निर्माण में मिट्टी उपादान कारण है, कुम्भकार निमित्त कारण है, कुम्भकार के दिमाग में घड़े की शक्ल का होना आकारिक कारण है तो घड़े में जल का संचयन प्रयोजन कारण है, अरस्तू के बाद जे. एम. मल, ह्यूम आदि कई दार्शनिकों के कारणता संबंधी सिद्धान्त सामने आये।

प्रश्न 9.
भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ का क्या अर्थ है? अथवा, पुरुषार्थ क्या है?
उत्तर:
‘पुरुषार्थ’ शब्द दो शब्दों ‘पुरुष’ तथा ‘अर्थ’ के संयोग से बना है। पुरुष विवेकशील प्राणी का सूचक है तथा अर्थ लक्ष्य का अर्थात् पुरुष के लक्ष्य को ही पुरुषार्थ कहते हैं। पुरुषार्थ की परिभाषा में कहा गया है कि, “A Purasharth is an end which is consciously sought to be accomplished either for this own sake or for the sake of utiliting it as a means to the accomplishment of further end.”

मनुष्य का सर्वांगीण विकास पुरुषार्थ के माध्यम से ही होता है। भारतीय विचार के अनुसार पुरुषार्थ का निर्धारण दो दृष्टिकोण से हुआ है। व्यावहारिक तथा पारलौकिक। व्यावहारिक दृष्टिकोण से काम तथा अर्थ सर्वोत्कृष्ट पुरुषार्थ है, लेकिन पारलैकिक दृष्टि से धर्म तथा मोक्ष परम पुरुषार्थ है। इस प्रकार, काम, अर्थ, धर्म तथा मोक्ष मनुष्य के चार पुरुषार्थ हैं, जिसे हिन्दू नीतिशास्त्र में चतुःवर्ग भी कहा गया है।

प्रश्न 10.
ईश्वर के अस्तित्व संबंधी प्रमाण कौन-कौन हैं?
उत्तर:
दर्शनशास्त्र की एक शाखा है-ईश्वर विज्ञान (Theology) जिसमें ईश्वर के सम्बन्ध में विशद् अध्ययन किया जाता है। ईश्वरवाद के समर्थकों ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए कई युक्तियों का सहारा लिया है। ये युक्तियाँ हैं-

  1. कारण मूलक युक्ति,
  2. विश्वमूलक युक्ति,
  3. प्रयोजनात्मक युक्ति,
  4. सत्तामूलक युक्ति और
  5. नैतिक युक्ति।

इन युक्तियों या तर्कों के सहारे ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करने का प्रयास किया गया है लेकिन महात्मा बुद्ध ने यह कहकर ईश्वरवादियों के इस विचार पर पानी फेर दिया था कि-“ईश्वर की खोज करना अंधेरे कमरे में उस बिल्ली की खोज करना है, जो बिल्ली उस कमरे में है ही नहीं।”

प्रश्न 11.
दर्शन के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
भारत में फिलॉसफी को ‘दर्शन’ कहा जाता हैं। ‘दर्शन’ शब्द दृश धातु से बना है जिसका अर्थ है-‘जिसके द्वारा देखा जाए।’ भारत में दर्शन उस विद्या को कहा जाता है। जिसके द्वारा तत्त्व का साक्षात्कार हो सके। इसलिए इसे तत्त्व दर्शन कहा जाता है। यहाँ दर्शन की परिभाषा यह कह कर दिया गया है कि “हमारी सभी प्रकार की अनुभूतियों का युक्तिसंगत व्याख्या कर वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त करना दर्शन का उद्देश्य है।”

पाश्चात्य में दर्शन को फिलॉसफी कहा जाता है। फिलॉसफी का अर्थ ‘विद्यानुराग’ होता है। फिलॉस प्रेम, सौफिया अनुराग। वेबर ने फिलॉसफी की परिभाषा देते हुए कहा है कि, “दर्शन वह निष्पक्ष बौद्धिक प्रयत्न है, जो विश्व को उसकी सम्पूर्णता में समझने का प्रयास करता है।”

प्रश्न 12.
वस्तुवाद और प्रत्ययवाद में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
वस्तुवाद तथा प्रत्ययवाद वह ज्ञान शास्त्रीय सिद्धान्त है जो अस्तित्व ज्ञाता और ज्ञेय के आपसी संबंध की व्याख्या करता है। वस्तुवाद की मान्यता है कि ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता से स्वतंत्र है, जबकि प्रत्ययवाद की मान्यता है कि ज्ञेय का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर करता है। वस्तुवाद की मान्यता है कि ज्ञाता और ज्ञेय के बीच बाह्य सम्बन्ध है, जबकि प्रत्ययवाद की मान्यता है कि ज्ञाता और ज्ञेय में आन्तरिक संबंध है।

वस्तुवाद का मानना है कि ज्ञान होने पर वस्तु के स्वरूप पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, जबकि प्रत्ययवाद का मानना है कि बाह्य पदार्थ प्रत्यात्मक होते हैं। ज्ञान होने पर वस्तु के नये स्वरूप का ज्ञान होता है।

वस्तुवाद के मुख्य समर्थक मूर, थेरी हॉल्ट आदि हैं। प्रत्ययवाद के मुख्य समर्थक बर्कले, हीगल तथा ग्रीन आदि हैं। साधारणत: सामान्य व्यक्तियों का विचार वस्तुवादी होता है।

प्रश्न 13.
क्या राम संदेहवादी है?
उत्तर:
ह्यूम के दर्शन का अंत संदेहवाद में होता है, क्योंकि संदेहवाद अनुभववाद की तार्किक परिणाम है। ह्यूम एक संगत अनुभववादी होने के कारण इन्होंने उन सभी चीजों पर संदेह किया है जो अनुभव के विषय नहीं हैं। यही कारण है कि इन्होंने आत्मा, ईश्वर, कारणता आदि प्रत्ययों पर संदेह किया।

प्रश्न 14.
सत्व गुण क्या है?
उत्तर:
सांख्य दर्शन प्रकृति को त्रिगुणमयी कहा है वह सत्त्व, रजस एवं तमस्। सत्व गुण ज्ञान का प्रतीक है। यह स्वयं प्रकाशपूर्ण है तथा अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। सत्व के कारण मन तथा बुद्धि विषयों को ग्रहण करते हैं। इसका रंग श्वेत है। सभी प्रकार की सुखात्मक – अनुभूति, जैसे-उल्लास, हर्ष, संतोष, तृप्ति आदि सत्व के कार्य हैं।

प्रश्न 15.
स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान को स्पष्ट करें।
उत्तर:
नैययिकों ने प्रयोजन की दृष्टि से अनुमान को दो वर्गों में विभाजित किये हैं। स्वार्थानुमान तथा परार्थानुमान। जब व्यक्ति स्वयं निजी ज्ञान की प्राप्ति के लिए अनुमान करता है तो उसे स्वार्थानुमान कहा जाता है इसमें तीन ही वाक्यों का प्रयोग किया जाता है लेकिन जब व्यक्ति दूसरों की शंका को दूर करने के लिए अनुमान का सहारा लेते हैं तो उस अनुमान को परार्थानुमान कहा जाता है। परार्थानुमान के लिए पाँच वाक्यों की आवश्यकता होती है। परार्थानुमान का आधार स्वार्थानुमान का होता है।

प्रश्न 16.
निष्काम कर्म की व्याख्या करें।
उत्तर:
फल की आशा रखे बिना कर्म करना निष्काम कहलाता है। निष्काम कर्म गीता का मौलिक उपदेश है, सकाम कर्म करने वाला व्यक्ति बंधन ग्रस्त होता है, किन्तु निष्काम कर्म से व्यक्ति बंधन में नहीं फँसता, बल्कि मोक्ष की ओर अग्रसर होता है। बौद्ध दर्शन के चार आधार हैं-दु:ख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध और दुःख निरोध मार्ग। प्रथम आर्यसत्य के अनुसार संसार दुःख भरा है। लौकिक सुख की वस्तुतः दुःख से घिरा है। सुख को प्राप्त करने के प्रयास में दुःख है, प्राप्त हो जाने पर यह नष्ट न हो जाए यह विचार दु:ख देता है और नष्ट हो जाने पर दुःख तो हैं ही। पाश्चात्य विचारक काण्ट ने भी कर्त्तव्य-कर्त्तव्य के लिए बात की है, जो गीता के निष्काम कर्म से मेल खाता है।

प्रश्न 17.
भारतीय दर्शन में आस्तिक एवं नास्तिक के विभाजन का आधार क्या है? अथवा, आस्तिक और नास्तिक में भेद करें। अथवा, आस्तिक और नास्तिक का अर्थ निर्धारित करें।
उत्तर:
भारतीय दार्शनिक सम्प्रदाय को दो वर्गों में रखा गया है आस्तिक और नास्तिक। वर्ग विभाजन की तीन आधार है-वेद, ईश्वर और पुनर्जन्म, भारतीय विचारधारा में आस्तिक उसे कहते हैं जो वेद की प्रमाणिकता में विश्वास रखता है, और नास्तिक उसे कहते हैं जो वेद को प्रमाणिकता में विश्वास नहीं रखता है। इस दृष्टिकोण से भारतीय दर्शन में छः दर्शनों को आस्तिक कहा जाता है-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त। ये सभी दर्शन वेद पर आधारित हैं। नास्तिक दर्शन के अन्तर्गत की चार्वाक, जैन और बौद्ध को रखा जाता है, क्योंकि तीनों वेद को नहीं मानते हैं तथा वेद की निन्दा करते हैं। आस्तिक और नास्तिक का दूसरा आधार ‘ईश्वर’ है जो ईश्वर में विश्वास करते हैं उसे आस्तिक और जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते हैं उसे नास्तिक कहते हैं।

प्रश्न 18.
क्या भारतीय दर्शन निराशावादी है?
उत्तर:
भारतीय दर्शन में दो प्रकार की विचारधारा सामने आती है एक आशावाद और दूसरा निराशावाद। निराशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के बुरे पहलू पर ही प्रकाश डालती है। इसके अनुसार जीवन दुःखमरा है। इसमें सुख या आनन्द के लिए कोई स्थान नहीं है। इसके अनुसार जीवन दुःखमय-असहय एवं अवांछनीय है। ठीक इसके विपरीत आशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के सुखमय एवं शुभ की प्राप्ति में सहायक है। यह सत्य है कि भारतीय दर्शन का आरंभ निराशावाद से होता है, अन्त नहीं। इसका अन्त आशा में होता है। भारतीय दर्शन को निराशावादी तब कहा जाता, जब प्रारंभ से अन्त तक दुःख की बात करते। प्रायः दार्शनिकों ने दुःख की अवस्था की चर्चा के बाद उससे छुटकारा के लिए मार्ग बतलाकर आशावादी दर्शन को स्थापित किया है। इसलिए भारतीय दर्शन को निराशावादी कहना भ्रांतिमूलक है।

प्रश्न 19.
अनुमान की परिभाषा दें।
उत्तर:
अनुमान न्याय दर्शन का दूसरा प्रमाण है। अनुमान ‘अनु’ तथा मान के संयोग से बना है। अनु का अर्थ पश्चात् तथा मान का अर्थ ज्ञान से होता है अर्थात् प्रत्यक्ष के आधार पर अप्रत्यक्ष के ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अनुमान को प्रत्यक्षमूलक ज्ञान कहा गया है। प्रत्यक्ष ज्ञान संदेहरहित तथा निश्चित होता है। परंतु अनुमानजन्य ज्ञान संशयपूर्ण एवं अनिश्चित होता है। अनुमानजन्य ज्ञान को परोक्ष ज्ञान कहा जाता है। अनुमान का आधार व्यक्ति होता है। अनुमान के तीन अवयव हैं-पक्ष साध्य तथा हेतु।

प्रश्न 20.
व्यावसायिक नीतिशास्त्र की परिभाषा दें। अथवा, व्यावसायिक नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर:
नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है। व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहता है और समाज में वे अपने कार्यों को आम-लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है।

प्रश्न 21.
प्रत्ययवाद क्या है?
उत्तर:
वस्तुवाद के अनुसार मूलतत्त्व का स्वरूप जड़ द्रव्य है। ठीक इसके विपरीत प्रत्ययवाद मानता है कि मूलसत्ता चेतन स्वरूप है। मूलसत्ता को चेतन स्वरूप मानने के कारण आध्यात्मवाद का दृष्टिकोण अप्रकृतिवादी, प्रयोजनवादी, ईश्वरवादी, अतिइन्द्रियवादी तथा आदर्शवादी है। विश्व के प्रकट कार्यकलापों के पीछे एक गहरी आध्यात्मिक सार्थकता है जो किसी निश्चित आदर्श की ओर अग्रसर हो रही है। जो कुछ जिस रूप में वास्तविक नजर आता है वह वास्तविक नहीं है। वास्तविकता का साक्षात्कार करने के लिए केवल बुद्धि पर्याप्त नहीं। जिस प्रकार भौतिकवादियों के बीच जड़द्रव्य के स्वरूप को लेकर कोई निश्चितता नहीं है, उसी प्रकार प्रत्ययवादियों के बीच भी चेतना के स्वरूप को लेकर कोई निश्चितता नहीं है। प्रत्ययवाद चेतन प्रत्यय, आत्मा या मन को विश्व की आधारभूत सत्ता मानते हुए समस्त विश्व को अभौतिक मानता है।

प्रश्न 22.
कारण के स्वरूप की व्याख्या करें। अथवा, कारण की प्रकृति की विवेचना करें।
उत्तर:
प्राकृतिक समरूपता नियम एवं कार्य-कारण दोनों आगमन के आकारिक आधार हैं। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार, समान परिस्थिति में प्रकृति के व्यवहार में एकरूपता पायी जाती है। समान कारण से समान कार्य की उत्पत्ति होती है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहेगा। दोनों नियमों के संबंध को लेकर तीन मत हैं जो निम्नलिखित हैं-

(i) मिल साहब तथा ब्रेन साहब के अनुसार प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक है तथा कारणता के नियम प्राकृतिक समरूपता नियम का एक रूप है। ब्रेन के अनुसार समरूपता तीन प्रकार की हैं। उनमें एक अनुक्रमिक समरूपता है (Uniformities of succession), इसके अनुसार एक घटना के बाद दूसरी घटना समरूप ढंग से आती है। कार्य-कारण नियम अनुक्रमिक समरूपता है। कार्य-कारण नियम के अनुसार भी एक घटना के बाद दूसरी घटना अवश्य आती है। अतः, कार्य-कारण नियम स्वतंत्र नियम न होकर समरूपता का एक भेद है। जैसे-पानी और प्यास बुझाना, आग और गर्मी का होना इत्यादि घटनाओं में हम इसी तरह की समरूपता पाते हैं।

(ii) जोसेफ एवं मेलोन आदि विद्वानों के अनुसार कार्य-कारण नियम मौलिक है प्राकृतिक समरूपता नियम मौलिक नहीं है स्वतंत्र नहीं है। बल्कि प्राकृतिक समरूपता नियम इसी में समाविष्ट है। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण सदा कार्य को उत्पन्न करता है। कारण के उपस्थित रहने पर कार्य अवश्य ही उपस्थित रहता है। प्राकृतिक समरूपता नियम के अनुसार भी समान कारण समान कार्य को उत्पन्न करता है। अतः कार्य-कारण नियम ही मौलिक है और प्राकृतिक समरूपता नियम उसमें अतभूर्त (implied) है।

(ii) वेल्टन, सिगवर्ट तथा बोसांकेट के अनुसार दोनों नियम एक-दूसरे से स्वतंत्र हैं, दोनों मौलिक हैं, दोनों का अर्थ भिन्न है, दोनों दो लक्ष्य की पूर्ति करते हैं। कार्य-कारण नियम से पता चलता है कि प्रत्येक घटना का एक कारण होता है और प्रकृति में समानता है।

अतः, ये दोनों नियम मिलकर ही आगमन के आकारिक आधार बनते हैं। आगमन की क्रिया में दोनों की मदद ली जाती है। जैसे-कुछ मनुष्यों को मरणशील देखकर सामान्यीकरण कहते हैं कि सभी मनुष्य मरणशील हैं। कुछ से सबकी ओर जाने में प्राकृतिक समरूपता नियम की मदद लेते हैं। प्रकृति के व्यवहार में समरूपता है।

इसी विश्वास के साथ कहते हैं कि मनुष्य भविष्य में भी मरेगा। सामान्यीकरण में निश्चिंतता आने के लिए कार्य-कारण नियम की मदद लेते हैं। कार्य-कारण नियम के अनुसार कारण के उपस्थित रहने पर अवश्य ही कार्य उपस्थित रहता है। मनुष्यता और मरणशीलता में कार्य कारण संबंध है। इसी नियम में विश्वास के आधार पर कहते हैं कि जो कोई भी मनुष्य होगा वह अवश्य ही मरणशील होगा। अतः दोनों स्वतंत्र होते हुए भी आगमन के लिए पूरक हैं। दोनों के सहयोग से आगमन संभव है। अतः दोनों में घनिष्ठ संबंध है।

प्रश्न 23.
भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ कितने हैं?
उत्तर:
दो शब्दों ‘पुरुष’ तथा ‘अर्थ के संयोग से पुरुषार्थ शब्द बना है। पुरुष विवेकशील प्राणी का सूचक है तथा अर्थ लक्ष्य का अर्थात् पुरुष के लक्ष्य को ही पुरुषार्थ कहते हैं। मनुष्य के चार पुरुषार्थ काम, अर्थ, धर्म तथा मोक्ष हैं, जिसे हिन्दू नीतिशास्त्र में चतु:वर्ग भी कहा गया है।

प्रश्न 24.
सत्तामूलक प्रमाण की व्याख्या करें।
उत्तर:
अन्सेल्म, देकार्त तथा लाईवनित्स ने ईश्वर की सत्ता को वास्तविकता प्रमाणित करने के लिए सत्ता सम्बन्धी प्रमाण दिया है। इस प्रमाण में कहा गया है कि हमारे मन में पूर्ण सत्ता की . धारणा है, अतः यह धारणा केवल कोरी कल्पना न होकर अवश्य ही वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में होगी। ईश्वर की यथार्थता (existence) उस पूर्ण द्रव्य के प्रत्यय से उसी प्रकार टपकती है जिस प्रकार से त्रिभुज का त्रिकोणाकार उसके प्रत्यय से ही ध्वनित होता है। संक्षिप्त रूप में हम कह सकते हैं कि प्रत्ययों के आधार पर ही वास्तविकता सिद्ध की जा सकती है। इस सिद्धान्त की आलोचना करते हुए काण्ट (Kant) का मानना है कि वास्तविकता केवल इन्द्रिय ज्ञान से ही प्राप्त की जा सकती है। प्रत्ययों से वास्तविकता नहीं प्राप्त की जा सकती है। प्रत्यय चाहे साधारण वस्तुओं के विषय में हो या पूर्ण द्रव्य के विषय में, वे वास्तविकता प्राप्त नहीं कर सकते हैं। यदि मात्र प्रत्ययों की रचना से ही वास्तविकता प्राप्त हो जाती है तो कोई भूखा, नंगा और दरिद्र न होता।

प्रश्न 25.
प्रत्यक्ष की परिभाषा दें। अथवा, न्याय दर्शन के अनुसार प्रत्यक्ष का वर्णन करें।
उत्तर:
न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष को एक स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रत्यक्ष की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि “इन्द्रियार्थस-निष्कर्ष जन्य ज्ञानं प्रत्यक्षम्” अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से उत्पन्न हो उसे प्रत्यक्ष ज्ञान कहते हैं। न्याय के अनुसार प्रत्यक्ष के द्वारा प्राप्त ज्ञान निश्चित स्पष्ट तथा संदेशरहित होता है।

प्रश्न 26.
वस्तुवाद क्या है? अथवा, वस्तुवाद की एक परिभाषा दें।
उत्तर:
वस्तुवाद ज्ञानशास्त्रीय है जिसकी मूल मान्यता है कि ज्ञेय ज्ञाता से स्वतंत्र होता है तथा ज्ञेय का ज्ञान होने से जग में कोई परिवर्तन नहीं होता है। जो वस्तु जिस रूप में रहती है ठीक उसी रूप में उसका ज्ञान होता है। वस्तुवाद के दो रूप होते हैं-

  1. लोकप्रिय वस्तुवाद और
  2. दार्शनिक वस्तुवाद।

दार्शनिक वस्तुवाद के तीन रूप होते हैं-

  1. प्रत्यय प्रतिनिधित्ववाद
  2. नवीन वस्तुवाद और
  3. समीक्षात्मक वस्तुवाद।

प्रश्न 27.
अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र क्या है?
उत्तर:
अनुप्रयुक्त अथवा जैव नीतिशास्त्र को सही ढंग से परिभाषित करना थोड़ा कठिन है, क्योंकि अभी यह एक नयी विधा है। जैव नीतिशास्त्र के लिए अंग्रेजी में Bio ethics शब्द का प्रयोग होता है। Bio ग्रीक भाषा का शब्द है जिसका अर्थ Life अथवा ‘जीवन’ है और ‘Ethics’ का अर्थ आचारशास्त्र है। इस दृष्टि से यह जीवन का आधार है। अतः हम कह सकते हैं कि “स्वास्थ्य की देख-रेख और जीवन-विज्ञान के क्षेत्र में मानव आचरण का एक व्यवस्थित अध्ययन अनुप्रयुक्त नीतिशास्त्र कहलाता है।”

प्रश्न 28.
पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष की व्याख्या करें।
उत्तर:
पुरुषार्थ के रूप में मोक्ष-परम पुरुषार्थ है चारों में तीन साधन मात्र है तथा मोक्ष : साध्य है। मोक्ष को भारतीय दर्शन में परम लक्ष्य माना गया है। जन्म मरण के चक्र में मुक्ति का नाम मोक्ष है। इसकी प्राप्ति विवेक ज्ञान में माप है। इस प्रकार भारतीय दर्शन में पुरुषार्थ को स्वीकार किया गया है।

प्रश्न 29.
अन्तक्रियावाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
अन्तक्रियावाद (Interactionism)-मन शरीर संबंध का विश्लेषण देकार्ड, स्पिनोजा और लाइबनीज ने अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। देकार्त्त का विचार है अन्तक्रियावाद (Interactionism), स्पिनोजा का विचार समानान्तरवाद (Parallelism) और लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। देकार्त के अनुसार मन और शरीर एक-दूसरे से स्वतंत्र है। मन चेतन है। शरीर जड़ है।

अत: दोनों का स्वरूप भिन्न है। फिर भी उनमें पारस्परिक संबंध है जिसे देकार्त ने अन्तक्रिया संबंध (relation of interaction) कहा है। जब भूख लगती है तो मन खिन्न रहता है। भोजन करने से भूख मिटती है और मन तृप्त हाता है। मन में निराशा होती है, तो किसी काम को करने की इच्छा नहीं होती है। हाथ-पैर हिलाने से काम होता है। इस प्रकार विरोधी स्वभाव वाले ये दो सापेक्ष द्रव्य एक-दूसरे पर निर्भर है।

प्रश्न 30.
पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
लाइबनिज का विचार पूर्वस्थापित सामंजस्यवाद (Theory of Pre-established Harmony) कहलाता है। लाइबनिज के चिदणु गवाक्षहीन एवं पूर्ण स्वतंत्र हैं। ये एक-दूसरे को प्रभावित नहीं कर पाते। फिर भी इनमें आन्तरिक सम्बन्ध रहता है। ये सभी अपने-अपने ढंग से विश्व को प्रतिबिम्बित करते रहते हैं। ये विश्व के विभिन्न दर्पण हैं। इनसे बने विश्व में एक अद्भुत सामंजस्य एवं व्यवस्था का दर्शन होता है। इसलिए तो लाइबनिज इस विश्व को सभी संभव संसारों में सर्वश्रेष्ठ बतलाते हैं। यदि चिदणु परस्पर स्वतंत्र हैं तो फिर विश्व में अद्भुत व्यवस्था. एव सामंजस्य किस प्रकार संभव है। पुनः आत्मा एवं शरीर में सम्बन्ध कैसे स्थापित हो पाता है? लाइबनिज ने इस समस्या का समाधान ईश्वरकृत ‘पूर्व-स्थापित सामंजस्यवाद’ (Theory of Preesta-blished Harmony) के आधार पर करना चाहा है।

ईश्वर ही चिदणुओं के निर्माता या रचयिता हैं। उन्होंने सृष्टि के समय ही इनमें कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी है ये स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करते हुए भी एक-दूसरे के कार्यों में बाधा नहीं डाल सकते। इनके क्रियाकलापों में संगति बनी रहती है। यदि आत्मा में कोई परिवर्तन होता है तो तद्नुकूल शरीर में भी वही परिवर्तन होता है। इसलिए हम कहते हैं कि आत्मा के आदेशानुकूल शरीर कार्य करता है। सभी चिदणु स्वतंत्र रूप से क्रिया करते हुए विश्व की व्यवस्था बनाये रखते हैं। ईश्वर ने सृष्टि के समय ही कुछ ऐसी व्यवस्था कर दी है कि एक चिदणु दूसरे चिदणु के अनुकूल आंतरिक क्रियाशीलता में संलग्न रहता है। सभी चिदणु चेतना को पूर्ण विकसित करने में प्रयत्नशील रहते हैं।

प्रश्न 31.
ऋत की व्याख्या करें। – अथवा, ऋत से आप क्या समझते हैं?
उत्तर:
वैदिक संस्कृति के नैतिक कर्तव्य की धारणा को ऋत कहा जाता है। ऋत की संख्या तीन हैं–देव ऋत से मुक्ति शास्त्र के अनुसार यज्ञ करने से दैव ऋत से मुक्ति मिलती है। ब्रह्मचर्य का पालन, विद्या अध्ययन एवं ऋषि की सेवा करने से ऋषि ऋत से मुक्ति मिलती है और पुत्र की प्राप्ति से पितृ ऋत से मुक्ति मिलती है। शास्त्रार्थ पुरुषार्थ प्राप्ति हेतु इन तीनों प्रकार का ऋत से मुक्ति अनिवार्य है।

प्रश्न 32.
नीतिशास्त्र की परिभाषा दें।
उत्तर:
साधारण शब्दों में हम कह सकते हैं कि नीतिशास्त्र चरित्र का अध्ययन करने वाला विषय माना जाता है। भिन्न-भिन्न दार्शनिकों के द्वारा नौतिशास्त्रों को परिभाषा की कड़ी से बाँधने का प्रयास भी किया गया है। Mackenzie के अनुसार, “शुभ और उचित आचरण का अध्ययन माना जाता है।” विलियम लिली (William Lillie) के अनुसार, “नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्धारक विज्ञान है। यह उन व्यक्तियों के आचरण का निर्धारण करता है जो समाज में रहते हैं।”

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 5

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Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 5

प्रश्न 1.
कपड़ों के संग्रह से पूर्व कुछ नियम क्या है जिनका पालन करना चाहिए ?
अथवा, कपड़ों के संग्रहन से पूर्व पालन करने वाले नियमों का उल्लेख करें।
उत्तर:
कपड़ों के संग्रहण से पूर्व कुछ नियमों का पालन करना होता है। वे नियम निम्नलिखित हैं-

  1. एक बार पहन चुके वस्त्र को आलमारी में न टाँगें, क्योंकि उससे पसीने की महक आती है। पहनने के बाद वस्त्र को अच्छी प्रकार से हवा लगायें जिससे पसीने की महक दूर हो जाए।
  2. छिद्र, हुक, बटन का निरंतर निरीक्षण करें। वस्त्रों को रखने से पूर्व उधड़े भागों को सिल लें।
  3. वस्त्रों को संग्रह करने के लिए समाचार-पत्र का कागज उत्तम होता है, क्योंकि काली स्याही से वस्त्रों पर कीड़े नहीं लगते हैं।
  4. चमड़े के कोट तथा जैकेट को साफ कर पोंछ कर और सूखने से बचाने के लिए हल्का तेल लगाकर रखना चाहिए।
  5. वस्त्रों को कीड़ों से बचाने के लिए कपड़ों पर कीड़े मारने की दवा छिड़कनी चाहिए।
  6. बरसात के मौसम में कपड़ों को फंगस से बचाने के लिए चमड़े के कपड़ों को हवा लगा देनी चाहिए।
  7. गीले कपड़ों को कभी भी अलमारी में न रखें क्योंकि उनमें फफूंदी लग सकती है।
  8. प्रयोग के बाद कपड़ों से पिन निकाल देनी चाहिए अन्यथा कपड़े पर जंग के निशान पड़ सकते हैं।

प्रश्न 2.
अपने परिवार के लिए वस्त्र खरीदते समय आप किन-किन बातों को ध्यान में रखेंगी?
उत्तर:
अपने परिवार के लिए वस्त्र खरीदते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए-
1. उद्देश्य- सर्वप्रथम इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि वस्त्र किस उद्देश्य से खरीदा जा रहा है। सदैव प्रयोजन के अनुरूप ही कपड़ा खरीदना चाहिए। क्योंकि विभिन्न कार्यों के लिए एक समान कपड़ा नहीं खरीदा जा सकता। जैसे-विवाह, जन्म दिन, त्योहार आदि पर कलात्मक कपड़े खरीदे जाते हैं।

2. गुणवत्ता- विभिन्न किस्म के वस्त्रों की भरमार बाजार में होती है। हमें अपनी आवश्यकता के अनुसार उत्तम गुण वाले कपड़े का चयन करना चाहिए। उत्तम किस्म के कपड़ों का चयन करते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए। जैसे-टिकाऊपन, धोने में सुविधाजनक, पसीना सोखने की क्षमता, रंग का पक्कापन, बुनाई, विभिन्न प्रकार की परिसज्जा आदि।

3. मूल्य- वस्त्रों को खरीदते समय उसके मूल्य पर भी ध्यान देना चाहिए। सदैव अपने बजट के अनुसार ही कपड़ा खरीदनी चाहिए।

4. ऋतु- सदैव मौसम के अनुसार वस्त्र खरीदनी चाहिए। गर्मी में सूती तथा लिनन के वस्त्र खरीदनी चाहिए, क्योंकि इसमें कोमलता, नमी सोखने की क्षमता तथा धोने में सरलता होती है। सर्दियों में ऊनी तथा रेशम के बने वस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए।

5. विश्वसनीय दुकान- सदैव विश्वसनीय दुकान से वस्त्र खरीदना चाहिए, क्योंकि इसमें धोखा की संभावना कम होती है।

प्रश्न 3.
डिजाइन के सिद्धान्तों का वर्णन करें।
उत्तर:
डिजाइन के निम्नलिखित सिद्धान्त हैं-
1. संतुलन- संतुलन का अर्थ समता, स्थिरता तथा विशिष्टता से है। किसी भी परिधान का निर्माण करते समय संतुलन का ध्यान रखना आवश्यक है। संतुलन द्वारा ही स्थिरता प्रदान की जाती है। संतुलन दो प्रकार का होता है-पहला स्थायी संतुलन तथा दूसरा अस्थायी संतुलन।

2. लयबद्धता- लय का अर्थ है-गति। अर्थात् एक छोर से दूसरे छोर तक बिना बाधा के घूम सके। परिधान में किनारे, कंधों, कॉलर, गला सबसे अधिक आकर्षित करते हैं। यदि ये रेखाएँ अव्यवस्थित हों तो पहनने वाले का व्यक्तित्व भी नहीं उभरता।

3. बल या दबाव- किसी भी परिधान के जिस विचार को प्रमुखता दी जाती है उसे दबाव कहते हैं। केन्द्रीय भाव या भांव की एकता दबाव होती है तथा बाकी नमूनों के गौण भाग होते हैं। कोई भी डिजाइन बल के अभाव में आकर्षक नहीं लगती है।

4. अनुपात- डिजाइन में समानुपात का सिद्धान्त शेष सभी सिद्धान्तों से महत्त्वपूर्ण है। समानुपात के सिद्धान्त के अनुसार किसी भी पोशाक के विभिन्न भागों के बीच अनुपात हो जिससे पोशाक सुन्दर और आकर्षक लगे। वस्त्रों में ठीक माप और अनुपात द्वारा ही उन्हें आकर्षक बनाकर व्यक्तित्व को आकर्षक बनाया जा सकता है।

5. एकता तथा अनुरूपता- डिजाइन के सभी मूल तत्त्वों यानि रेखाएँ, आकृतियाँ, रंग, रचना आदि पहनने वाले व्यक्ति तथा जिस अवसर पर उसे पहनना हो, एक साथ चले तथा व्यक्तित्व, गुण तथा अवसर के अनुरूप हो तो ऐसे डिजाइन को सुगठित डिजाइन कहते हैं। अतः किसी भी नमूने में एकता होना आवश्यक है।

प्रश्न 4.
घर पर की जाने वाली कपड़ों की धुलाई की प्रक्रिया के चरण लिखिए।
उत्तर:
वस्त्रों की धुलाई के सामान्य चरण (General steps of washing Clothes)-

  • मैला होने पर वस्त्रों को शीघ्र धोना चाहिए विशेषकर त्वचा के सम्पर्क में आने वाले वस्त्रों को हर बार पहनने के पश्चात् धोना चाहिए विशेषकर त्वचा के सम्पर्क में आने वाले वस्त्रों को हर बार पहनने के पश्चात् धोना चाहिए। मैले वस्त्रों को दोबारा पहनने से उनमें उपस्थित मैल कपड़े पर जम जाती है और फिर उसे साफ करना मुश्किल हो जाता है। इसके अतिरिक्त कपड़े द्वारा सोखा पसीना भी उसके रेशों को क्षति पहुँचाता है।
  • मैले वस्त्रों को उतार कर किसी एक जगह पर टोकरी अथवा थैले में डालकर रखना चाहिए। मैले वस्त्रों को इधर-उधर फेंकना नहीं चाहिए अन्यथा धोते समय इकट्ठी करने में परेशानी होती है और समय भी लगता है।
  • धोने से पूर्व कपड़ों की उनकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग कर लेना चाहिए जैसे सूती, रेशमी व ऊनी कपड़ों को अलग-अलग विधि द्वारा धोया जाता है। इसी प्रकार सफेद व रंगीन कपड़ों को भी अलग-अलग करना आवश्यक है क्योंकि यदि थोड़ा बहुत रंग भी निकलता हो तो सफेद कपड़े खराब हो सकते हैं।
  • धोने से पूर्व फटे कपड़ों की मरम्मत कर लेनी चाहिए तथा उन पर लगे धब्बों को दूर कर लेना चाहिए।
  • धोने के लिए वस्त्र के कपड़े की प्रकृति के अनुरूप साबुन अथवा डिटरजैन्ट का चयन करना चाहिए।
  • वस्त्र को अधिक आकर्षक बनाने के लिए प्रयोग में आने वाली अन्य सामग्री का चयन भी कर लेना चाहिए जैसे रेशमी वस्त्रों के लिए सिरका, गोंद आदि।
  • वस्त्रों को धोने से पूर्व धोने के लिए प्रयोग में आने वाले सभी सामान को एकत्रित कर
    लेना चाहिए।
  • वस्त्रों की प्रकृति के अनुरूप धोने की सही विधि का प्रयोग करना चाहिए। उदाहरण के लिए कुछ कपड़ों जैसे रेशम अधिक रगड़ सहन नहीं कर पाते हैं, अतः इन्हें हाथों के कोमल दवाब से ही धोना चाहिए।
  • वस्त्रों को साफ पानी में भली प्रकार धोकर उनमें से साबुन अथवा डिटरजैन्ट अच्छी तरह निकाल देना चाहिए अन्यथा वे वस्त्रों के तन्तुओं को कमजोर कर देते हैं।
  • वस्त्रों से भली प्रकार साबुन निकाल लेने के पश्चात् उनमें उपस्थित अतिरिक्त पानी निकाल. देना चाहिए।
  • सुखाने के लिए सफेद वस्त्रों को उल्टा धूप में सुखाना चाहिए तथा रंगीन वस्त्रों को छाया में सुखाना चाहिए अन्यथा उनके रंग खराब होने की सम्भावना रहती है। सफेद वस्त्रों को अधिक समय तक धूप में पड़े रहने से उन पर पीलापन आ जाता है।
  • वस्त्रों के आकार को बनाए रखने के लिए उन्हें हैंगर पर अथवा इस प्रकार लटकाना चाहिए कि उन पर किसी भी प्रकार का अनावश्यक खिंचाव न पड़े।
  • सूखने के पश्चात् उन्हें इस्तरी करके रखना चाहिए।

प्रश्न 5.
धुलाई की विभिन्न विधियों के बारे में लिखें।
उत्तर:
धुलाई क्रिया एक वैज्ञानिक कला है और अन्य कलाओं के समान ही इसके भी कुछ सिद्धान्त हैं। सिद्धान्तों का अनुसरण नियमपूर्वक करना तथा आवश्यकतानुसार इनमें कुछ-कुछ परिवर्तन करना, धोने की क्रिया धोने वाले की विवेक-बुद्धि पर निर्भर करती है। वैसे इस प्रक्रिया में धैर्य अभ्यास दोनों का ही अत्यधिक महत्त्व है। अभ्यास के सभी सिद्धान्तों के अंतर्निहिक गुण-दोष स्वतः सामने आ जाते हैं और धुलाई करने वाला स्वत: ही समझ जाता है कि कौन सिद्धान्त किस प्रकार और कब पालन योग्य है और उसके दोषों को किस प्रकार दूर करना संभव है।

घरेलू प्रयोग में तथा सभी पारिवारिक सदस्यों के परिधानों में तरह-तरह के वस्त्र प्रयोग भी आते हैं। सूती, ऊनी, रेशमी, लिनन, रेयन और रासायनिक वस्त्र तथा मिश्रण से बने वस्त्र भी रहते हैं। वस्त्रों के चयन सम्बन्धी किस्में भी एक-दूसरे से अलग रहती है। अतः धुलाई सिद्धान्तों का अवलोकन अनिवार्य है। उनका अनुसरण आवश्यकतानुसार ही करना चाहिए। अनुचित विधि के प्रयोग से वस्त्र के कोमल रेशों की घोर क्षति पहुँचाती है। उचित विधि के प्रयोग से वस्त्रों का प्रयोग सौन्दर्य स्थायी और अक्षुण्ता रहता है और वह टिकाऊ होता है, साथ ही कार्यक्षमता बढ़ती है।

धुलाई क्रिया दो प्रक्रियाओं के निम्नलिखित सम्मिलित रूप का ही नाम है-
(i) वस्त्रों को धूल-कणों और चिकनाई पूर्ण गंदगी से मुक्त करना तथा (ii) धुले वस्त्रों पर ऐसा परिष्करण देना जिससे उनका नवीन वस्त्र के समान सुघड़ और सुन्दर स्वरूप आ सके। गन्दगी को दूर करने का तरीका तथा वस्त्रों को स्वच्छ करने की विधि मुख्यतः वस्त्र के स्वभाव तथा धूल और गन्दगी की किस्म पर निर्भर करती है।

गन्दगी जो वस्त्रों में होती है वह दो प्रकार की होती है- (a) रेशों पर ठहरे हुए अलग धूल-कण तथा (b) चिकनाई के साथ लगे धूल-कण।

कपड़े धोने की विधियाँ
कपड़े धोने की विधियाँ निम्नलिखित हैं-
(i) रगड़कर- रगड़कर प्रयोग करके केवल उन्हीं वस्त्रों को स्वच्छ किया जा सकता है जो मजबूत और मोटे होते हैं। रगड़ क्रिया को विधिपूर्वक करने के कई तरीके हैं। वस्त्र के अनुरूप तरीके का प्रयोग करना चाहिए।

(a) रगड़ने का क्रिया हाथों से घिसकर- रगड़ने का काम हाथों से भी किया जा सकता है। हाथों से उन्हीं कपड़ों को रगड़ा जा सकता है जो हाथों में आ सके अर्थात् छोटे कपड़े।

(b) रगड़ने का क्रिया मार्जक ब्रश द्वारा- कुछ बड़े वस्त्रों को, जो कुछ मोटे और मजबूत भी होते हैं, ब्रश से मार्जन के द्वारा गंदगी से मुक्त किया जाता है।

(c) रगड़ने का क्रिया घिसने और सार्जन द्वारा- मजबूत रचना के कपड़ों पर ही इस विधि का प्रयोग किया जा सकता है।
(ii) हल्का दबाव डालकर- हल्का दबाव डालकर धोने की क्रिया उन वस्त्रों के लिए अच्छी रहती है। जिनके घिसाई और रगड़ाई से क्षतिग्रस्त हो जाने की शंका रहती है। हल्के, कोमल तथा सूक्ष्म रचना के वस्त्रों को इस विध से धोया जाता है।

(ii) सक्शन विधि का प्रयोग- सक्शन (चूषण) विधि का प्रयोग भारी कपड़ों को धोने के लिए किया जाता है। बड़े कपड़ों को हाथों से गूंथकर (फींचकर) तथा निपीडन करके धोना कठिन होता है। जो वस्त्र रगड़कर धोने से खराब हो सकते हैं, जिन्हें गूंथने में हाथ थक जा सकते हैं और वस्त्र भी साफ नहीं होता है, उन्हें सक्शन विधि की सहायता से स्वच्छ किया जाता है।

(iv) मशीन से धुलाई करना- वस्त्रों को मशीन से धोया जाता है। धुलाई मशीन कई प्रकार की मिलती है। कार्य-प्रणाली के आधार पर ये तीन टाइप की होती है-सिलेंडर टाइप, वेक्यूम कप टाइप और टेजीटेटर टाइप मशीन की धुलाई तभी सार्थक होती है जब अधिक वस्त्रों को धोना पड़ता है और समय कम रहता है।

प्रश्न 6.
धब्बे छुड़ाने की प्रमुख विधियाँ क्या है ?
उत्तर:
दाग-धब्बे मिटाने की प्रमुख विधियाँ (Main Methods of Stain Removal)- दाग हटाने के लिए निम्नलिखित विधियों का प्रयोग करते हैं-

  • डुबोकर- इस विधि से दाग छुड़ाने के लिए दाग वाले वस्त्र को अभिकर्मक में डुबोया जाता है। इसे रगड़कर हटाया जाता है और फिर धो दिया जाता है।
  • स्पंज- इस विधि में कपड़े के जिस स्थान से दाग हटाना हो उसे ब्लॉटिंग पेपर रखें तत्पश्चात् स्पंज के साथ अभिकर्मक लगाएँ तथा उसे रगड़कर स्वच्छ कर लें।
  • डॉप विधि- इस विधि का प्रयोग करते समय कपड़े को खींचकर एक बर्तन में रखकर इसे उस पर ड्रापर से अभिकर्मक टपकाया जाता है।
  • भाप विधि- इस विधि का प्रयोग करते समय उबलते हुए पानी से निकलती हुई भाप से दाग हटाया जाता है।

प्रश्न 7.
रेडिमेड कपड़े क्यों लोकप्रिय होते जा रहे हैं ?
अथवा, रेडिमेड कपड़े की लोकप्रियता के क्या कारण हैं ?
उत्तर:
रेडिमेड कपड़े की लोकप्रियता के निम्नलिखित कारण हैं-

  • ये कपड़े खरीदकर पहन लिये जाते हैं।
  • ये कपड़े सुन्दर तथा फैशनेबल डिजाइन में मिल जाते हैं।
  • ये कपड़े सस्ते होते हैं।
  • सिलवाने के झंझट से बचने के लिए लोग रेडिमेड कपड़े खरीदते हैं।
  • उपभोक्ता अधोवस्त्र रेडिमेड ही लेना चाहते हैं, क्योंकि ये पहनने, धोने और संभालने में आसान है।
  • निर्माता उपभोक्ता की जरूरत के अनुसार कपड़ा तैयार करवाता है।

प्रश्न 8.
गर्भावस्था में आप किस प्रकार के वस्त्रों का चुनाव करेंगी ?
उत्तर:
गर्भावस्था में स्त्रियों की शारीरिक संरचना में परिवर्तन आ जाता है। उनका पेट तथा वक्ष-स्थल उभर आता है तथा उन्हें पसीना भी बहुत आने लगता है। इसलिए उनके शरीर के लिए वस्त्रों का चुनाव अच्छी तरह करना चाहिए।

  • पेन्टीज अधिक कसी नहीं होनी चाहिए
  • शरीर पर कसे हुए वस्त्र नहीं होने चाहिए।
  • अच्छे रंगों और अच्छे कपड़े का वस्त्र बना होना चाहिए जो शरीर पर अच्छा लगे।
  • गर्भावस्था में अधिक महंगे कपड़े नहीं खरीदें एवं
  • वस्त्र पहनने और खोलने में सुविधाजनक हो।

प्रश्न 9.
किस वस्त्र की गुणवता की जाँच करने के लिए छ: बातों का ध्यान रखेगी ?
उत्तर:
वस्त्रों की गुणवत्ता के कुछ चिन्ह हैं, जिन्हें आपको खरीदने के पहले उसके गुणवत्ता को जांचना चाहिए-

  • कपड़ा- कपड़े में सिलवटें, फिकापन नहीं होना चाहिए तथा टिकाऊपन होना चाहिए। सिलवटें जाँचने के लिए निचोड़ कर परीक्षण करें। अपनी स्थिति के अनुरूप देख-रेख कर जाँच करके लें।
  • सिलाई- सिलाई मजबूत टिकाऊ हो।
  • अस्तर- इनसे वस्त्रों को उचित आकार तथा किनारों के साथ ही सम्पूर्णता दिखे। इस काम के लिए जो भी कपड़ा लिया जाय वह साथ वाले कपड़े के अनुरूप ही होना चाहिए।
  • बंधक- बंधक के अनुसार उचित आकार के होने चाहिए। वे कपड़े से बिल्कुल मिलने चाहिए।
  • ट्रिम- ट्रिम अच्छी तरह जुड़ी हुई एवं समन्वित होनी चाहिए। पोशाक के प्रदर्शन से अनाकर्षित नहीं होनी चाहिए।
  • ब्राण्ड के नाम- परिचित अच्छी तथा स्थापित कम्पनी का लेबल विशुद्ध गुणवत्ता निर्देशित न कर सकें। जो कि इस बात से परिचित न हों

प्रश्न 10.
गुणवत्ता की दृष्टि से एक सिली-सिलाई सलवार कमीज/फ्रॉक खरीदने से पहले आप कौन-सी छः बातों का निरीक्षण करेंगी ?
उत्तर:

  1. अच्छी टैक्सटाइल मिल द्वारा निर्मित कपड़ा खरीदना। उत्तम स्तर के कपड़े के लिए हमेशा अच्छी टैक्सटाइल मिल द्वारा निर्मित तैयार कपड़े खरीदने चाहिए।
  2. आजकल तैयार वस्त्रों का चलन बहुत हो गया है और नई कम्पनियाँ वस्त्र तैयार करने लगी हैं।
  3. कपड़े की किस्म और सिलाई देख लेनी चाहिए।
  4. इन्हें बनाने के लिए बहुत अच्छी किस्म के कपड़े तथा सिलाई के लिए अच्छे धागों का प्रयोग होना चाहिए।
  5. कई बार धोने पर इनका रंग निकल जाता है या सिलाई उधड़ जाती है या फिर फिटिंग ठीक न होने के कारण ये शीघ्र ही फट जाते हैं। अत: केवल अच्छी कम्पनियों द्वारा निर्मित तैयार कपड़े ही खरीदने चाहिए।
  6. सेल आदि से कपड़े की किस्म की पूर्ण जानकारी करने के पश्चात् विश्वसनीय फुटकर (Retail) दुकान से कपड़ा खरीदना।।

प्रश्न 11.
साबुन और डिटर्जेन्ट में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
साबुन और डिटर्जेन्ट में निम्नलिखित अंतर हैं-
साबुन:

  1. साबुन वसीय अम्ल के लवण होते हैं। उनका निर्माण वसा तथा क्षार के मिश्रण से होता है।
  2. साबुन घरेलू स्तर पर भी आसानी से बनाये जा सकते हैं।
  3. साबुन अपेक्षाकृत महँगे पड़ते हैं।
  4. कठोर जल निष्क्रिय होते हैं इसलिए इनकी बहुत अधिक मात्रा की आवश्यकता होती है।

डिटर्जेन्ट:

  1. डिटर्जेन्ट कार्बनिक यौगिक होते हैं जो संतृप्त तथा असंतृप्त दोनों ही प्रकार के हाइड्रोकार्बन से बनाये जाते हैं।
  2. ये रसायनों के द्वारा बनाये जाते हैं तथा फैक्टरियों में ही निर्मित होते हैं।
  3. ये साबुन से सस्ते होते हैं।
  4. ये कठोर जल में उतने ही सक्रिय होते हैं जितने मृदु जल में इनकी अतिरिक्त मात्रा नहीं मिलानी पड़ती है।

प्रश्न 12.
धब्बों के विभिन्न प्रकार क्या हैं ?
अथवा, दाग-धब्बों को कितने श्रेणी में बाँटा गया है ?
उत्तर:
दाग-धब्बों को पाँच श्रेणी में बतलाया गया है-

  • प्राणिज्य धब्बे- प्राणिज्य पदार्थों के द्वारा लगने वाले धब्बे को प्राणिज्य धब्बे कहते हैं। जैसे-अण्डा, दूध, मांस और मछली आदि।
  • वानस्पतिक धब्बे- पेड़-पौधों से प्राप्त पदार्थों द्वारा लगे धब्बे को वानस्पतिक धब्बे कहते हैं। जैसे-चाय, कॉफी, सब्जी और फल-फूल आदि।
  • खनिज धब्बे- खनिज पदार्थों के द्वारा लगे धब्बों को खनिज धब्बे कहते हैं। जैसे-जंग व स्याही आदि। इन धब्बों को दूर करने के लिए हल्के अम्ल का प्रयोग करते हैं तथा हल्का क्षार लगाकर वस्त्र पर लगे अम्ल के प्रभाव को दूर कर दिया जाता है।
  • चिकनाई वाले धब्बे- घी, तेल, मक्खन व क्रीम आदि पदार्थों से लगने वाले धब्बे चिकनाई वाले धब्बे होते हैं।
  • अन्य धब्बे- पसीना, धुआँ तथा रंग के धब्बे ऐसे होते हैं जिन्हें उपरोक्त किसी भी श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।

प्रश्न 13.
भारत में जल प्रदूषण के स्रोत क्या हैं ? अथवा, जल प्रदूषण के कारणों का उल्लेख करें।
उत्तर:
जल प्रदूषण के निम्नलिखित कारण है-

  • घरेलू अपशिष्ट- स्नान करने, कपड़े धोने, पशुओं को नहलाने, बर्तन साफ करने आदि बजहों से जल के स्रोत प्रदूषित हो जाते हैं।
  • मल- खुले क्षेत्रों में मानव और पशुओं द्वारा मल त्याग करने से मल वर्षाजल के साथ मिलकर जल स्रोतों में मिल जाता है और जल प्रदूषित हो जाता है।
  • औद्योगिक अपशिष्ट- उद्योगों से निकल रहा अपशिष्ट पदार्थ जिसमें कार्बनिक पदार्थ मौजूद होते हैं, सीधे जल स्रोतों में प्रवाहित किए जाते हैं। इससे जल प्रदूषित हो जाता है।
  • कृषि अपशिष्ट- हरित क्रांति की वजह से कृषि में नई तकनीकों के साथ ही रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशक आदि का प्रयोग तेजी से बढ़ा है। विभिन्न कृषि पद्धतियों के कारण मिट्टी के कटाव में भी वृद्धि हुई जिससे नदियों के प्रवाह में बाधा उत्पन्न हुई और इनके किनारे कटाव का सामना कर रहे हैं। झीलें तथा तालाब सपाट होते जा रहे हैं। इनका जल मिट्टी एवं कीचड़ के जमाव की वजह से दूषित हो रहा है।
  • उष्मीय प्रदूषण- परमाणु ऊर्जा आधारित विद्युत संयंत्रों में अतिरिक्त भाप के माध्यम से विद्युत उत्पादन की प्रक्रिया द्वारा उष्मीय प्रदूषण फैल रहा है।
  • तैलीय प्रदूषण- औद्योगिक संयंत्रों द्वारा तेल एवं तेलीय पदार्थों के नदियों एवं अन्य जल स्रोतों में किए जा रहे प्रवाह के कारण जल प्रदूषित हो रहा है।
  • धार्मिक अपशिष्ट- धार्मिक पूजा-पाठ, मूर्तियाँ एवं पूजा सामग्रियों, फूल-माला आदि का. विसर्जन नदियों में किया जाता है। इस कारण नदियों का प्रदूषण कई गुणा बढ़ जाता है।।

प्रश्न 14.
गृह प्रसव एवं अस्पताल प्रसव का तुलनात्मक विवरण दें।
अथवा, गृह प्रसव एवं अस्पताल प्रसव में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
गृह प्रसव एवं अस्पताल प्रसव में निम्नलिखित अन्तर हैं-

  • गृह प्रसव असुरक्षित और जोखिम भरा होता है जबकि अस्पताल में प्रसव कराना सुरक्षित और कम जोखिम वाला होता है।
  • घर में प्रसव के लिए अनुकूल वातावरण नहीं होता है, जबकि अस्पताल में रहता है।
  • घर में प्रसव होने पर जचा-बच्चा दोनों को खतरा है, जबकि अस्पताल में दोनों सुरक्षित रहते हैं।
  • घर में साफ-सफाई की समुचित व्यवस्था नहीं रहने के कारण बीमारी की संभावना रहती है, जबकि अस्पताल में साफ-सफाई की व्यवस्था रहती है। अतः बीमारी का खतरा कम जाता है।
  • घर में प्रशिक्षित नर्स उपलब्ध नहीं होती है, जबकि अस्पताल में प्रशिक्षित नर्स और डॉक्टर दोनों उपलब्ध होते हैं।
  • प्रसव में व्यवधान उत्पन्न होने पर तुरन्त उचित समाधान नहीं हो पाता है, परन्तु अस्पताल में प्रसव के समय व्यवधान होने पर शीघ्र उपचार की व्यवस्था हो जाती है, क्योंकि अस्पताल में चिकित्सक उपलब्ध रहते हैं।

प्रश्न 15.
प्रसवोपरान्त देखभाल के पहलू क्या है ?
उत्तर:
प्रसव के उपरान्त प्रसूता की उचित देखभाल आवश्यक है। इसके लिए मुख्य रूप से निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए-
1. विश्राम- प्रसव पीड़ा से प्रसूता बहुत थक जाती है और कमजोरी महसूस करती है। इसलिए उसे आराम करना चाहिए। करीब 15 दिनों तक उसे विस्तर पर ही आराम करना चाहिए। इसके बाद नवजात शिशु के छोटे-मोटे काम करना चाहिए। भारी काम नहीं करना चाहिए।

2. आहार- प्रसव में काफी रक्तस्राव होता है। प्रसव के बाद भी एक माह तक रक्त स्राव होते रहता है। इससे वह कमजोर हो जाती है तथा शरीर में खून की कमी हो जाती है। साथ ही उसे शिशु को स्तनपान करना होता है। इसलिए उसके आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उसका आहार संतुलित एवं उत्तम होना चाहिए। उसके आहार में दूध, बादाम, अण्डा, दलिया, छिलके वाली दाले तथा माँस का समावेश होना चाहिए। फलों तथा हरी सब्जियों का सेवन करना चाहिए। अधिक मिर्च-मसाले तथा तले-भूने गरिष्ठ आहार से परहेज करना चाहिए।

3. सफाई का ध्यान- प्रसव के बाद स्त्री के प्रजनन अंगों की सफाई होनी चाहिए। बाद में भी नियमित रूप से इसकी सफाई होनी चाहिए। मूत्राशय एवं आँतों की सफाई का भी ध्यान रखना चाहिए। सफाई नहीं होने पर संक्रामक रोग होने की संभावना रहती है। प्रसूता के वस्त्र साफ तथा धुला होना चाहिए।

4. नियमित व्यायाम- प्रसव के साथ शरीर के कुछ भागों में विशेष परिवर्तन आ जाता है। यदि उचित व्यायाम न किया जाए तो शरीर बेडॉल हो जाता है। प्रसव के उपरान्त व्यायाम करने से शरीर स्वाभाविक रूप में आ जाता है तथा स्वस्थ रहता है।

प्रश्न 16.
एक किशोरी के लिए परिधानों के चुनाव में किन बातों का ध्यान रखना चाहिए ?
उत्तर:
किशोरियों के लिए परिधान या वस्त्र का चयन सबसे कठिन होता है, क्योंकि वे परम्परागत कपड़ों के बजाय कुछ नया, अलग तथा अनोखा वस्त्र पहनना चाहते हैं। उनकी इच्छा होती है कि वे सबसे अलग दिखें और उनकी एक अलग पहचान हो। वे वर्तमान प्रचलित फैशन के अनुरूप ही वस्त्र पहनना चाहती है और अपनी सहेलियों से वस्त्रों द्वारा ही प्रशंसा एवं स्वीकृति प्राप्त करना चाहती है। इसलिए उनके वस्त्र ऐसे हो जो-

  1. उनपर खिले, सुन्दर लगे और उनके आत्म सम्मान को बढ़ाए।
  2. वस्त्र अश्लील न हो।
  3. वस्त्र कोमल, लचीले तथा विभिन्न अलंकरणों द्वारा सजाए हुए हो।
  4. वस्त्र शरीर की बनावट, त्वचा, आँखों तथा बालों के रंग के अनुरूप होने चाहिए।

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Short Answer Type Part 3

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Bihar Board 12th Home Science Important Questions Short Answer Type Part 3

प्रश्न 1.
कृत्रिम या उपार्जित रोध क्षमता
उत्तर:
अर्जित की गई रोग प्रतिरोधक क्षमता को कृत्रिम या उपार्जित रोधक्षमता कहते हैं। यह दो प्रकार से प्राप्त होती है-

  • संक्रामक रोग से ग्रसित होकर- व्यक्ति जब संक्रामक रोग से ग्रसित होने पर अस्वस्थ हो जाता है तब उसमें उस रोग के प्रति प्रतिरोधक क्षमता उत्पन्न होती है।
  • टीकाकरण द्वारा- टीकाकरण द्वारा विभिन्न संक्रामक रोगों की प्रतिरक्षक दवाइयाँ शरीर में टीके के माध्यम से प्रविष्ट करायी जाती है। इन दवाइयों से रक्षण अवधि को दीर्घ काल तक ,बनाये रखने के लिये बूस्टर खुराक भी दी जाती है। इस प्रकार टीकाकरण द्वारा विभिन्न जानलेवा बीमारियों से बचाव किया जाता है।

प्रश्न 2.
टीकाकरण
उत्तर:
टीकाकरण वह प्रक्रिया है जिसमें टीके के द्वारा विभिन्न जानलेवा बीमारियों से बचाव किया जाता है या शरीर में बीमारी से बचाव की ताकत पैदा की जाती है। संक्रामक रोगों की प्रतिरक्षक दवाइयाँ टीके के माध्यम से शरीर में प्रविष्ट करायी जाती है। इस प्रकार टीकाकरण जान लेवा बीमारियों से बचाव में सहायता करता है।

प्रश्न 3.
तपेदिक या क्षय रोग
उत्तर:
तपेदिक या क्षय रोग वायु द्वारा फैलता है। इस रोग को फैलाने वाला जीवाणु ट्यूबर्किल बेसिलस है। यह रोग बहुत ही भयानक है जो शरीर के कई भागों में हो सकता है। जैसे-फेफडा, आँत, ग्रन्थियों, रीढ की हड़ी। फेफड़ों का तपेदिक सबसे अधिक फैलता है। यह रोग मनुष्यों के अतिरिक्त जानवरों को भी हो सकता है।

प्रश्न 4.
अतिसार
उत्तर:
अतिसार ऐसी अवस्था होती है जिसमें संक्रमण के कारण पेट की आँतों की कार्य प्रणाली सामान्य नहीं रहती। आँतों का मुख्य कार्य अतिरिक्त जल का अवशोषण करना है। अतिसार रोग में आँतें यह कार्य नहीं कर पाती है। फलतः शरीर का अतिरिक्त जल मलद्वार द्वारा बाहर निष्कासित हो जाता है जिससे शरीर में जल की कमी हो जाती है।

प्रश्न 5.
हैजा
उत्तर:
यह विसिलस जीवाणु द्वारा संक्रमित होता है जो विब्रिओ कोमा के नाम से जाना जाता है। यह रोग बहुत तीव्र गति से संक्रमित होता है। इसलिए महामारी का रूप धारण कर लेता है। यह गर्मी तथा बरसात के दिनों में अधिक होता है।

प्रश्न 6.
खसरा
उत्तर:
खसरा एक संक्रामक रोग है जो ज्वर तथा खाँसी के साथ स्पष्ट होता है। यह रोग अधिकतर बच्चों को होता है। रोगी के खाँसने तथा छोंकने से रोगाणु वायु को दूषित कर देते हैं जिसमें साँस लेने पर स्वस्थ व्यक्ति भी रोगी हो जाता है।

प्रश्न 7.
डिफ्थीरिया
उत्तर:
डिफ्थीरिया या गलघोंटू अत्यन्त भयानक संक्रामक रोग है जो कोरीने बैक्टीरिया डिफ्थीरिए नामक जीवाणु के कारण होता है। यह जीवाणु शरीर में प्रवेश करके गले में पनपते हैं और बच्चे में रोग के लक्षण उत्पन्न करते हैं।

प्रश्न 8.
काली खाँसी
उत्तर:
खाँसी के साथ बहुत अधिक मात्रा में कफ निकलना ही काली खाँसी कहलाता है। यह रोग अधिकतर बच्चों में होता है। यह रोग नाक, गले और फेफड़ों को बहुत अधिक प्रभावित करता है।

प्रश्न 9.
बी० सी० जी० टीका
उत्तर:
बी० सी० जी० का पूरा नाम बैसिलस प्यूरिन है। यह तपेदिक या क्षय रोग से बचाव का टीका है। इस टीके को बायें बाँह के ऊपरी भाग में लगाया जाता है। जन्म के तत्काल बाद से एक माह तक ही बी० सी० जी० का टीका लगाया जाता है। टीका लगने के एक महीने बाद फफोला बनकर टीका पक जाता है और स्वतः ही झड़ जाता है। इस पर दवाई लगाने की आवश्यकता नहीं होती। टीका लगवाने वाली जगह न पके तो डॉक्टर से अवश्य परामर्श करना
चाहिए।

प्रश्न 10.
डी० पी० टी० का टीका
उत्तर:
डी० पी० टी० का टीका तीन रोगों से बचाव के लिए दिया जाता है-डिफ्थीरिया, काली खाँसी (परट्यूरिका) तथा टेटनस। डी० पी० टी० की पहली खुराक 6 सप्ताह में दी जाती है तथा दूसरी खुराक एक माह के अन्तराल पर दी जाती है। तीसरी खुराक 3\(\frac{1}{2}\) माह की आयु में दी जाती है। डी. पी. टी. का बूस्टर टीका 15-18 माह में, 20 से 24 माह में तथा 5 से 6 वर्ष की आयु में लगाया जाता है।

प्रश्न 11.
किशोरावस्था
उत्तर:
किशोरावस्था 10 से 15 वर्ष की अवस्था को कहा जाता है। इसमें बच्चे किशोर हो जाते हैं और उनमें द्वितीय यौन लक्षण उत्पन्न होते हैं। हार्मोन के प्रभाव से लड़कियों के स्तन में उभार तथा आवाज पतली हो जाती है, बल्कि लड़कों की आवाज भारी होने लगती है।

प्रश्न 12.
बच्चों की वैकल्पिक देखरेख
उत्तर:
वैकल्पिक देखरेख से अभिप्राय है कि माता-पिता की अनुपस्थिति में बच्चे की उचित देखभाल के लिए विकल्प का चुनाव करना। यों तो बच्चे की देखभाल करने का प्रथम दायित्व उसके माता-पिता का है, परन्तु कई बार ऐसी परिस्थितियाँ आ जाती हैं जब उनकी देखभाल के लिए वैकल्पिक साधन ढूँढने पड़ते हैं। वैकल्पिक साधन परिवार एवं भाई-बहन, दादा-दादी, नाना-नानी, पड़ोसी, आया आदि हो सकती हैं।

प्रश्न 13.
शिशु सदन (क्रेच)
उत्तर:
शिशु सदन एक ऐसा सुरक्षित स्थान है जहाँ बच्चे को सही देखरेख में तब तक छोड़ा जा सकता है जब तक माता-पिता काम में व्यस्त हों। यह एक आवासी देखभाल केन्द्र है। इसमें तीन साल की आयु तक के बच्चों को रखा जाता है। यहाँ बच्चों को योग्य कर्मियों की देखरेख में रखा जाता है। इस कारण माताएँ निश्चिन्त होकर अपना कार्य कर सकती हैं। अपना कार्य समाप्त कर माता-पिता बच्चों को घर ले आते हैं। वर्तमान समय में शिशु सदन बच्चों की देखभाल में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं।

प्रश्न 14.
चलते-फिरते शिशुसदन
उत्तर:
वह शिशु सदन जिसे एक स्थल से दूसरे स्थल पर ले जाया जाता है, उसे चलते-फिरते शिशु सदन कहा जाता है। मजदूरी करने वाली महिलाओं के लिए कार्य स्थल पर ही चलते-फिरते शिशु सदन बना दिये जाते हैं। इनमें बच्चों की देखभाल के लिए निम्न मध्यम वर्गीय प्रशिक्षित कार्यकर्ता होते हैं, जिन्हें बच्चों के मनोविज्ञान का ज्ञान होता है और जो बच्चों की देख-रेख उनकी आवश्यकतानुसार करते हैं। इन शिशु सदनों में माताएँ अवकाश समय में आकार बच्चों को स्तनपान करा सकती है। निर्माण कार्य समाप्त हो जाने पर शिशु सदन को नये निर्माण स्थल पर ले जाया जाता है। इसी कारण इसे चलता-फिरता शिशु सदन कहा जाता है। सरकार तथा स्वयं सेवी संगठनों के द्वारा निम्न वर्गीय परिवारों के बच्चों की देखभाल के लिए विशेष रूप से यह शिशु सदन चलाया जाता है।

प्रश्न 15.
समेकित बाल विकास योजना (आई० सी० डी० एस०)
उत्तर:
समेकित बाल विकास योजना 2 अक्टूबर, 1975 में 33 ब्लॉक में प्रयोजित आधार पर प्रारंभ की गई थी। यह योजना भारत सरकार के सौजन्य से मानव संसाधन विकास मंत्रालय तथा महिला एवं बाल विकास विभाग द्वारा चलाई जा रही है। वर्तमान समय में देश में लगभग 2761 स्वीकृत आई० सी० डी० एस० परियोजनाएँ हैं जिनसे लाखों माताएँ एवं बच्चे लाभ उठा रहे हैं।

समेकित बाल विकास योजना के प्रमुख उद्देश्य एवं लक्ष्य समूह हैं-

  • 0-6 वर्ष तक की आयु के बच्चों के स्वास्थ्य तथा आहार की स्थिति में सुधार।
  • बच्चों के मनोवैज्ञानिक, सामाजिक तथा शारीरिक विकास की नींव रखना।
  • कुपोषण, मृत्यु, अस्वस्थता तथा विद्यालय छोड़ने की दर में कमी लाना।

समेकित बाल विकास योजना के लक्ष्य समूह-

  • 0-6 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चे।
  • गर्भवती स्त्रियाँ।
  • 15-40 वर्ष की आयु वर्ग की महिलाएँ।

प्रश्न 16.
नर्सरी स्कूल या बालबाड़ी
उत्तर:
नर्सरी स्कूलं या बालबाड़ी का मुख्य उद्देश्य होता है बालक को स्कूल जाने के लिए तैयार करना। यहाँ बच्चों को अनौपचारिक तरीके से शिक्षा दी जाती है। उसे कहानियाँ गीत, चित्रकला आदि के माध्यम से शिक्षा दी जाती है। खेल-खेल में बालक पारम्भिक प्रत्ययों को सीख लेता है। बालक के अंदर छिपी प्रतिभा को पहचानने और उभारने का अवसर मिलता है।

प्रश्न 17.
बालबाड़ी का कार्य
उत्तर:
बालबाड़ी के चार कार्य निम्नलिखित हैं-

  • उनमें बच्चे चित्रकारी करना सीखते हैं।
  • बच्चे एक-दूसरे को वस्तुएँ देना तथा सम्पर्क करना सीखते हैं।
  • उन स्थानों का वातावरण बच्चों में भाषा का विकास करता है।
  • उनमें बच्चे विभिन्न आकृतियों और रंगों को पहचानना सीखते हैं।

प्रश्न 18.
गर्भवती माता
उत्तर:
वैसी स्त्रियाँ जिनका मासिक धर्म बन्द हो जाए, उसे उल्टी होने लगे, बार-बार मूत्र त्याग करें एवं उसके स्तनों के आकार में परिवर्तन होने लगे तो वे गर्भवती माता कहलाती हैं।

प्रश्न 19.
मानकीकरण
उत्तर:
मानकीकरण वह प्रणाली है जिसके द्वारा विभिन्न वस्तुओं के स्तर को नियंत्रित किया जाता है तथा स्तर को बनाए रखने के लिए न्यूनतम आवश्यकताओं को परिभाषित किया जाता है।

प्रश्न 20.
अमानवीय संसाधन
उत्तर:
वह संसाधन जिसका निर्माण तो मनुष्य करता है परन्तु वह बिना मनुष्य के सहयोग के कार्य करता है उसे अमानवीय संसाधन कहा जाता है। जैसे-रोबोट, मशीन आदि।

प्रश्न 21.
सूक्ष्म जीव
उत्तर:
ऐसा जीव जिसे मनुष्य अपनी नंगी आँखों से नहीं देख सकता उसे सूक्ष्म जीव कहा जाता है। ऐसे जीवों को देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी यंत्र का प्रयोग किया जाता है। सूक्ष्म जीवों का अध्ययन सूक्ष्मजैविकी करता है।

प्रश्न 22.
स्तनपान
उत्तर:
स्तनों में आने वाले प्राकृतिक दूध को माँ अपने बच्चे को पिलाती है। दूध पिलाने की इस क्रिया को स्तनपान कहा जाता है। स्तनपान शिशु को संरक्षण और संवर्धन प्रदान करता है।

प्रश्न 23.
स्वच्छता
उत्तर:
स्वच्छता का अभिप्राय अपने वातावरण एवं स्वयं को हानिकारक तत्वों से बचाना तथा शरीर के अन्दर एवं बाहर के मल को समय पर दूर करना स्वच्छता को तीन भागों में बाँटा जाता है-वातावरण, शरीरिक तथा मानसिक।

प्रश्न 24.
व्यक्तिगत स्वच्छता
उत्तर:
खाना बनाने तथा परोसने वाले व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वच्छता अधिक महत्त्वपूर्ण है। भोजन को छूने से पूर्व और पश्चात् हाथों को साफ पानी और साबुन से अच्छी तरह धो लेना चाहिए। उसके नाखून कटे होने चाहिए, क्योंकि ये रोगों के संक्रमण का कारक हैं। बाल साफ तथा बाँधे होना चाहिए। स्वच्छ वस्त्र पहनना चाहिए।

प्रश्न 25.
खाद्य स्वच्छता
उत्तर:
अच्छे आहार के लिए जितना आहार का संतुलित होना आवश्यक है उतना ही स्वच्छ होना आवश्यक है। इसलिए भोजन को पकाने, परोसने तथा संग्रहित करते समय स्वच्छता के नियमों का पालन करना चाहिए ताकि भोजन संदूषित होने से बचे। इन नियमों का पालन नहीं करने पर भोजन दूषित और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि भोजन के सुरक्षित हस्तन को खाद्य स्वच्छता कहा जाता है। इससे भोजन कीटाणु रहित रहता है।

प्रश्न 26.
मिलावट
उत्तर:
मिलावट की परिभाषा (Food Adulteration)- मिलावट एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा खाद्य पदार्थों की प्रकृति, गुणवत्ता तथा पौष्टिकता में बदलाव आ जाता है। यह बदलाव खाद्य पदार्थों में किसी अन्य मिलती-जुलती चीज मिलने या उसमें से कोई तत्त्व निकालने के कारण आता है। उदाहरण के लिए दूध से क्रीम निकालना या उसमें पानी मिला देना मिलावट कहलाता है। यह मिलावट खाद्य पदार्थ उपजाते समय, फसल काटते समय तैयार करते समय, एक जगह से दूसरी जगह पहुँचाते समय तथा वितरण करते समय की कमी हो जाती है।

खेसारी दाल की उपस्थिति मिलावट के कारण हैं। खेसारी दाल का आहार अरहर की दाल की अपेक्षा कुछ तिकोना तथा रंग मटमैला होता है। खेसारी दाल में कई विषैले तत्त्व होते हैं परन्तु इनमें से एक मुख्य विषैला तत्त्व है अमीनो अम्ल बीटा एन० ऑक्साइल अमीनो एलनिन अर्थात् (Beta N-Oxylamino Alanine-BOAA)।

खाद्य पदार्थों में मिलावट से सुरक्षा- रोजमर्रा के आहार में मिलावट तेजी से बढ़ रही है। खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ने के कारण व्यापारी अपना मुनाफा बढ़ाने के लिए इस तरह के कुचक्र चलाते हैं। आप निम्नलिखित उपायों से अपने आपको मिलावट से बचा सकती है।

  • विश्वसनीय दुकानों से ही समान खरीदें। ऐसी दुकानें जहाँ बिक्री होती है व उनकी विश्वसनीयता पर भरोसा है, तो समान अच्छा मिलेगा।
  • विश्वसनीय व उच्च स्तर की सामग्री खरीदें क्योंकि उसकी गुणवत्ता अधिक होती है। सही मार्का वाली सामग्री से पूरी कीमत वसूल हो जाती है। जैसे- ISI, F.P.O. and Agmark etc.

प्रश्न 27.
भोजन अपमिश्रण
उत्तर:
भोजन की विशुद्ध वस्तुओं में कुछ विजातीय या कम मूल्य की स्वजातीय वस्तु के मिश्रण को भोजन अपमिश्रण कहते हैं। भोजन में मिलावट रहने से उसका पोषक तत्व घट जाता है। प्रायः गेहूँ, चावल दाल आदि में कंकड़ मिलाकर उनकी तौल बढ़ा दी जाती है। इसके अलावा, सरसों के तेल में तीसी के तेल की मिलावट होती है, शुद्ध घी में वनस्पति तेल आदि का मिश्रण होता है। अरहर की दाल में खेसाड़ी के दाल की मिलावट, दूध में पानी मिलाना, चायपत्ती में काठ का बुरादा, औषधियों में मिलावट, मसालों में मिलावट आदि आम रूप से देखी जाती है। मिलावट होने से वस्तु विशेष से हमें यथोचित मात्रा में पोषक तत्व प्राप्त नहीं होते हैं तथा शरीर रोगी हो जाता है। उपभोक्ताओं के स्वास्थ्य की दशा के लिए भारत सरकार ने खाद्य अपमिश्रण (मिलावट) निवारण नियम 1954 बनाया जिसके तहत् उपभोक्ता इसकी शिकायत उपभोक्ता सरंक्षण केन्द्र पर करा सकते हैं।

प्रश्न 28.
ज्वर
उत्तर:
जब किसी व्यक्ति में शरीर से उत्पन्न तथा निष्कासित ताप में संतुलन नहीं रहता तथा ताप सामान्य से अधिक हो जाता है तो ऐसी स्थिति को ज्वर कहा जाता है। मानव शरीर का सामान्य ताप 37° सेन्टीग्रेट (98.6° फैहरनहाइट) होता है। एक व्यक्ति को ज्वर कई कारणों से होता है। जैसे-संक्रमण, कीड़ों के कारण, नशा आदि से व्यक्ति को ज्वर हो सकता है।

प्रश्न 29.
ज्वर के प्रकार
उत्तर:
ज्वर तीन प्रकार का होता है-

  • अल्पकालीन ज्वर- यह ज्वर कम समय के लिए परन्तु तेज होता है। जैसे-इन्फ्लुएंजा, खसरा, निमोनिया आदि।
  • दीर्घकालीन ज्वर- ऐसा ज्वर लम्बे समय तक चलता है, पर तापमान अधिक नहीं होता है।
  • अंतरकालीन ज्वर- यह ज्वर अंतराल पर चढ़ता है। जैसे-मलेरिया, टाइफाइड आदि।

प्रश्न 30.
बजट
उत्तर:
घरेलु धन प्रबंध योजना का आधार होता है-बजट। यह भविष्य में घर में होनेवाले आय-व्यय का प्रारूप है। बजट के द्वारा यह तय किया जाता है कि किस अवधि में अपनी आय को ध्यान में रखते हुए, किस मद पर, कब और कितना खर्च किया जाय। घरेलू बजट परिवर्तनशील होता है, जो घरेलू आवश्यकताओं के अनुसार बदलता रहता है। हर घर का बजट भिन्न-भिन्न होता है। किसी घर में भोग-विलास के साधनों के क्रय पर खर्च होता है। तो कहीं भोजन पर, कहीं वस्त्रों पर, कहीं दवा पर, कहीं धार्मिक अनुष्ठानों पर आदि।

प्रश्न 31.
बजट के प्रकार
उत्तर:
एक निश्चित अवधि के पूर्व आय-व्यय के विस्तृत ब्यौरे को बजट कहते हैं। बजट तीन प्रकार का होता है-

  • बचत का बजट,
  • घाटे का बजट एवं
  • संतुलित बजट।

जब प्रस्तावित व्यय अनुमानित आय से कम तथा निश्चित अवधि में कुछ बचत हो जाती है तो उसे बचत का बजट कहते हैं। जबकि इसके विपरीत प्रस्तावित व्यय अनुमानित आय से अधिक होता है जिसके कारण व्यय को पूरा करने हेतु ऋण लेना या बचत से खर्च करना पड़ता है तो वह घाटे का बजट होता है। संतुलित बजट में व्यय अनुमानित आय के समान होती है। अतः बचत का बजट परिवार के लिए लाभप्रद है।

प्रश्न 32.
स्तनपान व्याजन या स्तन मोचन
उत्तर:
शिशु के आहार में माँ के दूध के अतिरिक्त अन्य खाद्य पदार्थों की शुरूआत करने की प्रक्रिया को, ‘स्तनमोचन’ (Weaning) अथा, ‘पूरक आहार देने की प्रक्रिया’ कहा जाता है।

वस्तुतः चार से छ: महीने के बीच का समय ‘स्तनमोचन’ के लिए उचित माना गया है। यदि उस समय से पहले आहार देना आरम्भ करते हैं तो अतिसार होने की सम्भावना हो सकती है। शिशु की आयु के अनुसार पूरक आहार की बनावट, तरलता आदि बदली जाती है, जैसे 4-6 महीने में तरल पूरक आहार देते हैं 6-8 महीने में ऊर्जा-ठोस पूरक आहार दिया जाता है। इन आहारों के साथ माँ का दूध भी बच्चों को देते रहना चाहिए।

प्रश्न 33.
हिमीकरण
उत्तर:
सामान्य तौर पर सामान्य ताप से न्यून ताप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया हिमीकरण कहलाती है। गृह विज्ञान में पानी साफ करने का कार्य एलम के माध्यम से किया जता है। एलम शब्द फिटकिरी के लिए प्रयुक्त किया जाता है ग्रामीण क्षेत्रों में पानी साफ करने के लिए आमतौर पर फिटकरी का प्रयोग किया जाता है। फिटकरी को जब जल में डाला जाता है जिन्हें फ्लाक्स कहते हैं। जीवाणु कीचड़ व अन्य कीटाणु फ्लाक्स के साथ चिपक जाते हैं। ये फ्लाक्स पानी के सबसे निचली सतह पर जम जाते हैं। तब ऊपर के पानी को दूसरे साफ बर्तन में उपयोग के लिए निकाला जाता है।

प्रश्न 34.
प्लैकेट
उत्तर:
वस्त्र में जिस स्थान पर वस्त्र को बंद किया जाता है तथा बटन लगाये जाते हैं उसे प्लैकेट कहते हैं। वस्त्रों पर बटन की पट्टी वस्त्र के अनुरूप लगायी जाती है तथा इसकी लम्बाई एवं चौड़ाई आवश्यकतानुसार रखी जाती है। इसे बनाने के लिए अतिरिक्त कपड़ा लगता है। अतः कपड़ा बचाने के लिए कई बार बटन की पट्टी बहुत छोटी बनायी जाती है, जिससे वस्त्र पहनने और खोलने में कठिनाई होती है तथा बटन भी ठीक से नहीं लग पाते हैं।

प्रश्न 35.
वृद्धि
उत्तर:
वृद्धि से तात्पर्य मात्रात्मक वृद्धि से है। विकास की उपेक्षा वृद्धि एक संकुचित शब्द है। गर्भ धारण के पश्चात् ही गर्भस्थ शिशु में वृद्धि होने लगती है। वृद्धि बालक के शरीर और आकर, लम्बाई और भार में ही नहीं होती है बल्कि उसके आंतरिक अंगों तथा मस्तिष्क में भी होती है।

प्रश्न 36.
विकास
उत्तर:
विकास का तात्पर्य मात्रात्मक वृद्धि के साथ उसके गुणात्मक परिवर्तन से है। एक नवजात शिशु. उठना-बैठना तथा चलना नहीं जानता है परन्तु जैसे-जैसे उसका विकास होने लगता है, वह यह सभी क्रियाएँ करना सीख लेता है। बालक में विकास सम्बन्धी सभी प्रगतिशील परिवर्तन एक-दूसरे से सम्बन्धित तथा क्रमबद्ध होते हैं।

प्रश्न 37.
वृद्धि एवं विकास में अन्तर
उत्तर:
वृद्धि तथा विकास में निम्नलिखित अंतर है-

  • वृद्धि मात्रात्मक होती है, जबकि विकास मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों रूप में होता है।
  • वृद्धि शारीरिक ऊँचाई, भार व शारीरिक अनुपात मुख्य सूचक माने जाते हैं, जबकि विकास में शारीरिक परिवर्तनों के साथ-साथ सामाजिक, मानसिक और संवेगात्मक परिवर्तनों का भी समावेश होता है।
  • एक निश्चित समय के बाद वृद्धि रुक जाती है, जबकि विकास एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।
  • वृद्धि का क्षेत्र संकुचित है, जबकि विकास का विस्तृत।

प्रश्न 38.
रोग प्रतिरोधक क्षमता
उत्तर:
प्रकृति ने मनुष्य को रोगों से लड़ने की स्वाभाविक क्षमता प्रदान की है, इस क्षमता को रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता दो प्रकार की होती है- (i) प्राकृतिक प्रतिरक्षण एवं (ii) कृत्रिम प्रतिरक्षण।

प्राकृतिक प्रतिरक्षण के अंतर्गत श्वेत रक्ताणु द्वारा एन्टी टॉक्सिन का निर्माण होता है जो संक्रमण से बचाता है। बच्चों में माता के दूध से त्वचा, नाक के बाल तथा अंगों के श्लेष्मा से प्रतिरक्षण होता है। जबकि कृत्रिम प्रतिरक्षण टीके द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 39.
चेक के प्रकार
उत्तर:
चेक तीन प्रकार के होते हैं-
1. वाहक चेक- इसमें प्राप्तकर्ता के सामने वाहक लिखा होता है। इसकी राशि कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता है। इसे खो जाने का खतरा रहता है।

2. आदेशक चेक- इसमें वाहक शब्द काटकर आदेशक लिखा होता है। जिस व्यक्ति के नाम से चेक लिखा होता है। भुगतान उसी को दिया जाता है अथवा वाहक जिसका नाम चेक के दूसरे तरफ लिखा होता है। बैंक वाहक का हस्ताक्षर लेकर ही भुगतान करता है।

3. रेखांकित चेक- इस चेक की बायीं ओर के ऊपरी सिरे पर दो तिरक्षी समानान्तर रेखाएँ खींची होती है। इसकी राशि का भुगतान नहीं किया जाता है। व्यक्ति के नाम के खाते में राशि जमा कर दी जाती है। इस प्रकार के चेक खोने पर दूसरे व्यक्ति को राशि मिलने की संभावना कतई नहीं होती।

प्रश्न 40.
खाद्य संरक्षण
उत्तर:
खाद्य संरक्षण वह प्रक्रिया होती है, जिससे भोजन को दीर्घकाल तक बिना उसकी गुणवत्ता और पौष्टिकता खराब हुए या कम हुए संग्रहीत करके रखा जाता है। खाद्य संरक्षण का ज्ञान होना सभी के लिए खास कर गृहिणियों के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 41.
प्रदूषण
उत्तर:
हवा, पानी, मिट्टी आदि का अवांछित द्रव्यों से दूषित होना प्रदूषण कहलाता है। प्रदूषण मुख्यतः चार प्रकार के होते हैं-चायु प्रदूषण, जल प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण तथा मृदा प्रदूषण। मानव स्वास्थ्य पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। प्रदूषण के निम्नलिखित कारण है-

  • वाहनों से निकलने वाला धुआँ।
  • औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला धुआँ तथा रसायन।
  • आण्विक संयंत्रों से निकलने वाली गैसे तथा धूलकण।।
  • जंगलों में पेड़ों के जलने से, कोयला के जलने से तथा तेलशोधक कारखानों से निकलने वाला धुआँ।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 2 in Hindi

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Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 2 in Hindi

प्रश्न 1.
साधन के प्रतिफल तथा पैमाने के प्रतिफल में अंतर बताइए।
उत्तर:
साधन के प्रतिफल- एक फर्म जब ‘अल्पकाल में उत्पत्ति के कुछ साधनों को स्थिर रखकर अन्य साधनों की मात्रा में परिवर्तन करती है तब उत्पादन की मात्रा में जो परिवर्तन होते हैं। उन्हें साधन के प्रतिफल के नाम से जाना जाता है। इसकी तीन अवस्थाएँ होती हैं। पहली साधन के बढ़ते प्रतिफल या उत्पत्ति वृद्धि अवस्था, दूसरी साधन के स्थिर प्रतिफल या उत्पत्ति समता तथा तीसरी साधन के घटते प्रतिफल या उत्पत्ति ह्रास अवस्था।

पैमाने के प्रतिफल- पैमाने के प्रतिफल का संबंध सभी कारकों में समान अनुपात में होने वाले परिवर्तनों के फलस्वरूप कुल उत्पादन में होने वाले परिवर्तन से है। यह एक दीर्घकालीन अवधारणा है।

प्रश्न 2.
पूर्ण प्रतियोगिता एवं एकाधिकारी प्रतियोगिता में अंतर स्पष्ट करें।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता एवं एकाधिकारी प्रतियोगिता में निम्नलिखित अंतर है-
पूर्ण प्रतियोगिता:

  1. इसमें बाजार का पूर्ण ज्ञान होता है।
  2. इसमें कीमत समान होती है।
  3. कीमत सीमान्त लागत के बराबर होती है।
  4. समरूप वस्तुएँ।
  5. साधनों की पूर्ण गतिशीलता
  6. कोई विक्रय लागत नहीं होती है।

एकोधिकारी प्रतियोगिता:

  1. इसमें बाजार का अपूर्ण ज्ञान होता है।
  2. इसमें कीमत विभेद होता है।
  3. कीमत सीमान्त लागत से अधिक होती है।
  4. निकट स्थानापन्न तथा मिलती-जुलती वस्तुओं का उत्पादन।
  5. साधनों की गतिशीलता अपूर्ण होती है।
  6. विक्रय लागत आवश्यक होती है।

प्रश्न 3.
चयनात्मक साख नियंत्रण क्या है ?
उत्तर:
वे उपाय जिनका उद्देश्य अर्थव्यवस्था के कुछ विशेष कार्यों के लिए दी जाने वाली साख के प्रवाह को नियंत्रित करना है, चयनात्मक साख नियंत्रण कहलाते हैं। इसके अंतर्गत निम्नलिखित उपाय किये जाते हैं-

  • ऋणों की सीमान्त आवश्यकता में परिवर्तन
  • साख की राशनिंग
  • प्रत्यक्ष कार्यवाही
  • नैतिक प्रभाव।

प्रश्न 4.
आर्थिक समस्या को चयन की समस्या क्यों माना जाता है ?
अथवा, चुनाव की समस्या क्यों उत्पन्न होती है ?
उत्तर:
आवश्यकताएँ असीमित और साधन सीमित होते हैं। सीमित साधनों के वैकल्पिक प्रयोग होने के कारण इन साधनों एवं असीमित आवश्यकताओं के बीच एक संतुलन बनाने का प्रयास किया जाता है और इसी प्रयास से चुनाव की समस्या उत्पन्न होती है। इस प्रकार आर्थिक समस्या मूलतः चुनाव की समस्या है।

प्रश्न 5.
एक रेखाचित्र की सहायता से अर्थव्यवस्था में न्यून माँग की स्थिति की व्याख्या कीजिए।
उत्तर:
यदि अर्थव्यवस्था में आय का संतुलन स्तर पूर्ण रोजगार के स्तर से पहले निर्धारित हो जाता है तब उसे न्यून माँग की दशा कहत हैं।
AD < AS

बगल के रेखाचित्र की सहायता से इसे देखा जा सकता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Short Answer Type Part 2, 1
चित्र में AS सामूहिक पूर्ति वक्र है तथा AD न्यूनमाँग स्तर पर सामूहिक माँग और AD1 पूर्ण रोजगार स्तर पर सामूहिक माँग को प्रदर्शित कर रहे हैं। AD पूर्ण रोजगार स्तर पर आवश्यक वांछनीय सामूहिक माँग AN है जबकि उपस्थित सामूहिक माँग CN है।
अतः न्यून माँग = AN – CN= AC

प्रश्न 6.
किसी वस्तु की पूर्ति तथा स्टॉक में क्या अंतर है ?
उत्तर:
किसी वस्तु की उपलब्धता उसकी पूर्ति है, जबकि वस्तु का संग्रहण स्टॉक है। माँग पर पूर्ति निर्भर है, किन्तु स्टॉक पर पूर्ति निर्भर नहीं करती है।

प्रश्न 7.
मौद्रिक लागत क्या है ?
उत्तर:
उत्पत्ति के समस्त साधनों के मूल्य को यदि मुद्रा में व्यक्त कर दिया जाये तो उत्पादक इन उत्पत्ति के साधन की सेवाओं को प्राप्त करने में जितना कुल व्यय करता है, मौद्रिक लागत कहलाती है। जे० एल० हैन्सन के शब्दों में, “किसी वस्तु की एक निश्चित मात्रा का उत्पादन करने के साधनों को जो समस्त मौद्रिक भुगतान करना पड़ता है उसे मौद्रिक उत्पादन लागत कहते हैं।

प्रश्न 8.
कीमत विभेद से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
कीमंत विभेद से अभिप्राय है किसी एक वस्तु को विभिन्न उपभोक्ताओं को विभिन्न कीमतों पर बेचना। एकाधिकारी की स्थिति में कीमत विभेद की संभावना हो सकती है। एकाधिकारी एक वस्तु को विभिन्न क्रेताओं को अलग-अलग कीमतों पर बेच सकता है।

प्रश्न 9.
आय के चक्रीय प्रवाह के दो आधारभूत सिद्धान्त बताइए।
उत्तर:
आय का चक्रीय प्रवाह निम्नलिखित दो सिद्धान्तों पर आधारित है-

  • किसी भी विनिमय प्रक्रिया में विक्रेता अथवा उत्पादक उतनी ही मुद्रा की मात्रा प्राप्त करता है जितनी क्रेता या उपभोक्ता व्यय करता है अर्थात् क्रेताओं द्वारा खर्च की गई राशि विक्रेताओं द्वारा प्राप्त की गई राशि के बराबर होती है।
  • वस्तुएँ एवं सेवाएँ विक्रेताओं से क्रेताओं की ओर एक दिशा में प्रवाहित होती है, जबकि इन वस्तुओं और सेवाओं के लिए मौद्रिक भुगतान विपरीत दिशा में अर्थात् क्रेता से विक्रेता की ओर प्रवाहित होता है।

प्रश्न 10.
व्यापारिक बैंक की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
सामान्य बैंकिंग कार्य करने वाले बैंकों को व्यापारिक बैंक कहते हैं। इन बैंकों का मुख्य उद्देश्य व्यापारिक संस्थानों की अल्पकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति करना है। व्यापारिक बैंक धन जमा करने, ऋण देने, बैंकों का संग्रहण एवं भुगतान करने तथा एजेंसी संबंधी अनेक काम करते हैं।

प्रश्न 11.
बाजार कीमत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद की परिभाषा दें।
उत्तर:
बाजार कीमतों पर शुद्ध घरेलू उत्पाद (NDPmp) का अभिप्राय एक वर्ष में एक देश की घरेलू सीमाओं में निवासियों द्वारा उत्पादित अन्तिम वस्तुओं एवं सेवाओं के मौद्रिक मूल्य से है जिसमें से स्थिर पूँजी के उपभोग को घटा दिया जाता है। इस प्रकार

बाजार कीमत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद एक देश की घरेलू सीमा में सामान्य निवासियों तथा गैर-निवासियों द्वारा एक लेखा वर्ष में उत्पादित अन्तिम वस्तुओं तथा सेवाओं के बाजार मूल्य के बराबर है। इसमें से घिसावट मूल्य घटा दिया जाता है।

बाजार कीमत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद = बाजार कीमत पर सफल घरेलू उत्पाद – पूँजी का उपभोग या घिसावट व्यय
NDPmp = GDPmp – Depreciation

प्रश्न 12.
औसत बचत प्रकृति से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर:
औसत बचत प्रवृत्ति एक अर्थव्यवस्था के आय तथा रोजगार के एक दिए हुए स्तर पर कुलं बचत और कुल आय का अनुपात है। फ्रीजर के अनुसार, “औसत बचत प्रवृत्ति, बचत और आय का अनुपात है।”
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प्रश्न 13.
मांग की कीमत-लोच की परिभाषा दीजिए।
उत्तर:
माँग की लोच की धारणा यह बताती है कि कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप किसी वस्तु की माँग में किस गति या दर से परिवर्तन होता है। यह वस्तु की कीमत में परिवर्तन के प्रति माँग की प्रतिक्रिया या संवेदनशीलता को दर्शाती है।

प्रश्न 14.
एक अर्थव्यवस्था की किन्हीं तीन केंद्रीय समस्याओं का नाम बतायें।
उत्तर:
एक अर्थव्यवस्था की तीन केन्द्रीय समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  • क्या उत्पादन किया जाता तथा कितनी मात्रा में उत्पादन किया जाए।
  • उत्पादन कैसे किया जाए ?
  • उत्पादन किसके लिए किया जाए ?

प्रश्न 15.
उपयोगिता से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
वस्तु विशेष में किसी उपभोक्ता की आवश्यकता विशेष की संतुष्टि की निहित क्षमता अथवा शक्ति का नाम उपयोगिता है। उपयोगिता इच्छा की तीव्रता का फलन होती हैं। उपयोगिता एक मनोवैज्ञानिक धारणा है जो उपभोक्ता के मानसिक दशा पर निर्भर करता है।

प्रश्न 16.
उपभोग फलन की व्याख्या करें।
उत्तर:
कीन्स के अनुसार किसी अर्थव्यवस्था का कुल उपभोग व्यय मुख्य रूप से आय पर निर्भर करता है अथवा यह कहा जा सकता है कि उपभोग आय का फलन है। अर्थात् C = f(y)

अर्थात् उपभोग (c) आय (y) का फलन है। इस प्रकार उपभोग एवं आय का संबंध उपभोग फलन कहलाता है। उपभोग फलन बताता है कि आय के स्तर में वृद्धि होने पर उपभोग में प्रत्यक्ष वृद्धि होती है। लेकिन आय के अंशतः बढ़ने पर उपभोग व्यय की वृद्धि आय की वृद्धि से कम होती है।

प्रश्न 17.
संबंधित वस्तु की कीमत में परिवर्तन का वस्तु की मांग पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
वस्तुएँ तब संबंधित होती है जब (i) एक वस्तु : की कीमत दूसरी वस्तु (y) की मॉग को प्रभावित करती है अथवा (ii) एक वस्तु की माँग दूसरी वस्तु की माँग में वृद्धि या कमी लाती है संर्बोधत वस्तुओं की कीमत में वृद्धि होने पर उसकी माँग में कमी आती है जबकि कीमत में. कमी आने पर माँग में वृद्धि होती है।

प्रश्न 18.
किन्हीं तीन वस्तुओं का नाम बतायें जिनकी माँग लोचदार हो।
उत्तर:
तीन लोचदार वस्तुयें निम्नलिखित हैं-
(a) रडियो (b) टेलीविजन (c) स्कूटर।

स्थानापन्न वस्तुओं में से एक वस्तु की माँग तथा दूसरी वस्तु की कीमत में धनात्मक संबंध होता है अर्थात् एक वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी स्थानापन्न वस्तुओं की माँग बढ़ती है तथा कीमत कम होने पर माँग कम होती है।

पूरक वस्तुओं के संदर्भ में एक वस्तु की कीमत बढ़ने पर उसकी पूरक वस्तु की माँग कम हो जाएगी तथा कीमत कम हो जाने पर पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाएगी।

प्रश्न 19.
माँग में विस्तार एवं वृद्धि में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
माँग में विस्तार एवं वृद्धि में निम्नलिखित अन्तर हैं-
माँग का विस्तार:

  1. यह एक ऐसी दशा है, जिसमें अन्य बातों के समान रहने पर केवल कीमत में कमी के कारण वस्तु की मांग बढ़ जाती है।
  2. इसका अर्थ है वस्तु की कम कीमत पर वस्तु की अधिक मांग।
  3. माँग वक्र पर ऊपर से नीचे की ओर संचलन होता है।
  4. माँग वक्र नहीं बदलता।

माँग में वृद्धि:

  1. यह एक ऐसी दशा है, जिसमें कीमत के अलावा अन्य घटकों के कारण वस्तु की मांग में वृद्धि होती है।
  2. इसका अर्थ है वस्तु की उसी कीमत पर अधिक मांग अथवा ऊँची कीमत पर वस्तु की उतनी ही मांग।
  3. माँग वक्र दायें या ऊपर की ओर स्थानान्तरित हो जाता है।
  4. माँग वक्र बदला जाता है।

प्रश्न 20.
माँग की लोच को मापने की प्रतिशत विधि क्या है ?
उत्तर:
इस रीति के अनुसार माँग की लोच का अनुमान लगाने के लिए माँग में होने वाले आनुपातिक या प्रतिशत परिवर्तन की भाग दिया जाता है।
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प्रश्न 21.
सूक्ष्म अर्थशास्त्र से क्या समझते हैं ?
उत्तर:
पूँजीवादी अर्थव्यवस्था वैसा अर्थशास्त्र है जिसमें पूँजीवादी व्यवस्था के आर्थिक पहलू का अध्ययन किया जाता है। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था अर्थशास्त्र अर्थव्यवस्था का ऐसा रूप है जिसमें पूँजीवाद के लक्षण या उसकी विशेषताओं के बारे में अध्ययन किया जाता है। पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपतियों की प्रधानता रहती है जिसका अर्थव्यवस्था पर पूर्ण नियंत्रण रहता है। इसमें पूँजी निजी क्षेत्र में व्यापार और उद्योग धंधे चलाये जाते हैं।

प्रश्न 22.
घटती हुई सीमान्त उपयोगिता का नियम समझाइए।
उत्तर:
घटती हुई सीमांत उपयोगिता का नियम अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण तथा आधारभूत नियम है जिसकी वैज्ञानिक ढंग से व्याख्या गोसन ने की थी। बाद में मार्शल ने इस नियम का विकास किया। यह नियम इस मान्यता पर आधारित है कि जैसे-जैसे कोई व्यक्ति एक वस्तु को अधिकाधिक इकाइयों का प्रयोग करना जाता है वैसे-वैसे उस वस्तु की आवश्यकता की तीव्रता कम होती है और इस कारण उस वस्तु से प्राप्त सीमांत उपयोगिता भी गिरती जाती है। मार्शल ने इस नियम की परिभाषा इन शब्दों में की है-“किसी मनुष्य की मात्रा में वृद्धि होने से जो अधिक लाभ प्राप्त होता है, वह प्रत्येक वृद्धि के साथ घटता जाता है।” संक्षेप में, जब एक व्यक्ति अपनी किसी आवश्यकता की संतुष्टि किसी एक वस्तु की इकाइयों के निरन्तर उपभोग से करता है तो हर अगली इकाई र. मिलने वाली उपयोगिता अर्थात् सीमांत उपयोगिता गिरती चली जाती है। अर्थशास्त्र में इस आर्थिव प्रवृति अथवा नियम को सीमांत उपयोगिता ह्रास नियम कहते हैं।

प्रश्न 23.
राजस्व घाटा क्या होता है ? इस घाटे में क्या समस्याएँ हैं ?
उत्तर:
राजस्व व्यय और राजस्व आय के अन्तर को राजस्व घाटा कहते हैं। राजस्व प्राप्तियः में कर राजस्व और गैर-कर राजस्व दोनों को ही सम्मिलित किया जाता है। इसी प्रकार राजस्व व्यः में राजस्व खाते पर योजना व्यय और गैर-योजना व्यय दोनों को ही सम्मिलित किया जाता है। राजस्: घाटे में पूंजीगत प्राप्तियों एवं पूंजीगत व्यय की मदें सम्मिलित नहीं होती।
राजस्व घाटा = राजस्व व्यय – राजस्व प्राप्तियाँ
= (योजना + गैर योजना व्यय) – (कर राजस्व + गैर कर राजस्व)

राजस्व घाटा इस बात को स्पष्ट करता है कि राजस्व प्राप्तियाँ राजस्व व्यय से कम हैं जिसकी पूर्ति सरकार को उधार लेकर अंथवा परिसम्पत्तियों को बेचकर पूरी करनी पड़ेगी। इस प्रकार राजस्व घाटे के परिणामस्वरूप या तो सरकार के दायित्वों में वृद्धि हो जाती है अथवा इसकी परिसमा नयों में कमी आ जाती है।

प्रश्न 24.
पूर्ण रोज़गार संतुलन और अपूर्ण रोजगार संतुलन में भेद करें।
उत्तर:

  • पूर्ण रोजगार संतुलन की अवस्था में संसाधनों का अपनी अन्तिम सीमा नः प्रयोग होता है जबकि अपूर्ण रोजगार में संसाधनों का अंतिम सीमा तक प्रयोग नहीं होता है।
  • पूर्ण रोजगार संतुलन समग्र आपूर्ति की प्रतिष्ठित संकल्पना पर आधारित है। अपूर्ण गेन र सन्तुलन समग्र आपूर्ति के जियन सकल्पना पर आधारित है।
  • पूर्ण रोजगार संतुलन के दो आधार हैं-‘से’ का बाजार नियम तथा मजदुरी कीमत नभ्या हैं जबकि अपूर्ण रोजगार संतुलन के दो आधार हैं मजदूरी कीमत अनम्यता तथ: श्रम की शि. सीमांत उत्पादिता।

चित्र के माध्यम से भी दोनों अवस्थाओं को दर्शाया जा सकता है –

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प्रश्न 25.
माँग वक्र क्या है ?
उत्तर:
जब पाँग- तालिका को एक रेखाचित्र द्वारा व्यक्त किया जाता है तो इसे माँग वक्र कहते हैं। माँग वक्र यह दर्शाता है कि विभिन्न कीमतों पर किसी वस्तु की कितनी मात्राएँ खरीदी जाएंगी। माँग वक्र का झुकाव ऊपर से नीचे दाहिनी ओर होता है।

प्रश्न 26.
उत्पादन की लागतों से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
एक उत्पादक उत्पादन की प्रक्रिया में जिन आगतों का उपयोग करता है, वे उत्पादन के साधन या कारक कहलाते हैं। इन आगतों को प्राप्त करने के लिए उत्पादक अथवा फर्म को इनकी कीमत चुकानी पड़ती है। इसे उत्पादन की लागत कहते हैं।

प्रश्न 27.
शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद क्या है ?
उत्तर:
कुल राष्ट्रीय उत्पाद किसी एक वर्ष में उत्पादित सभी वस्तुओं और सेवाओं के मौद्रिक मूल्य के बराबर होता है। इस कुल राष्ट्रीय उत्पाद में से घिसावट आदि व्यय के विभिन्न मदों को घटाने के बाद जो शेष बचता है, वह शुद्ध राष्ट्रीय उत्पाद है।

प्रश्न 28.
उत्पादन के चार कारक कौन-कौन से हैं और इनमें से प्रत्येक के पारिश्रमिक को क्या कहते हैं ?
उत्तर:
भूमि, श्रम, पूँजी और उद्यम उत्पादन के चार कारक हैं। इन कारकों या साधनों के सहयोग से ही वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है। इनमें भूमि के पारिश्रमिक को लगान, श्रम के पारिश्रमिक को मजदूरी, पूँजी के पारिश्रमिक को ब्याज तथा उद्यम के पारिश्रमिक को ब्याज कहते हैं।

प्रश्न 29.
“प्रभावी माँग’ क्या है ?
उत्तर:
प्रभावी अथवा प्रभावपूर्ण माँग किसी अर्थव्यवस्था की संपूर्ण माँग होती है। संपूर्ण अथवा प्रभावी माँग में दो तत्त्व शामिल होते हैं- उपभोग की माँग तथा विनियोग की माँग। केन्स के अनुसार रोजगार को निर्धारित करनेवाला सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व प्रभावपूर्ण माँग है।

प्रश्न 30.
एक अर्थव्यवस्था की तीन आधारभूत आर्थिक क्रियाएं बताइये।
उत्तर:
एक अर्थव्यवस्था को तीन आधारभूत आर्थिक क्रियाएँ हैं-

  • उत्पादन-उत्पादन वह आर्थिक क्रिया है जिसके फलस्वरूप मूल्य का निर्माण होता है अथवा वर्तमान वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि होती हैं।
  • उपभोग-उपभोग वह आर्थिक क्रिया है जिसमें व्यक्तिगत एवं सामूहिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए वस्तुओं एवं सेवाओं का उपयोग किया जाता है।
  • निवेश-एक लेखा वर्ष की समयावधि में अर्थव्यवस्था की भौतिक पूँजी के स्टाक में वृद्धि को पूँजी निर्माण या निवेश कहते हैं।

प्रश्न 31.
तरलता पाश क्या है ?
उत्तर:
तरलता पाश वह स्थिति होती है जहाँ सट्टा उद्देश्य के लिए मुद्रा की माँग पूर्णतया लोचदार हो जाती है। तरलता पाश की स्थिति में ब्याज दर बिना बढ़ाये या घटाये अतिरिक्त अन्तःक्षेपित मुद्रा का प्रयोग कर लिया जाता है।

प्रश्न 32.
सीमान्त उत्पाद (MP) एवं कुल उत्पादन (TP) में स्बंध बतलाइए।
उत्तर:
सीमान्त उत्पाद एवं कुल उत्पाद में संबंध :

  • जब कुल उत्पाद तेजी से बढ़ता है, सीमान्त उत्पाद भी बढ़ता है।
  • जब कुल उत्पाद अधिकतम होता है, तब सीमान्त उत्पाद शून्य हो जाता है।
  • जब कुल उत्पाद घटता है, सीमान्त उत्पाद ऋणात्मक हो जाता है।
  • जब कुल उत्पाद घटती दर से बढ़ता है, सीमान्त उत्पाद कम होता है।

प्रश्न 33.
सकल घरेलू उत्पाद की विशेषताएं बतलाइए।
उत्तर:
एक देश की घरेलू सीमा में उत्पादित समस्त अंतिम वस्तुओं एवं सेवाओं के बाजार मूल्य को सकल घरेलू उत्पाद (GDPMP) कहते हैं। ये एक लेखा वर्ष के लिए आकलित किया जाता है। इसमें मूल्य ह्रास या स्थिर पूँजी पदार्थों के उपभोग का मूल्य भी शामिल किया जाता है। इसका मापन प्रचलित कीमतों पर किया जाता है।

प्रश्न 34.
न्यनतम कीमत (समर्थन मल्य) से क्या आशय है?
उत्तर:
जब कभी सरकार ऐसा महसूस करती है कि एक स्वतंत्र बाजार में माँग और पूर्ति की शक्तियों द्वारा निर्धारित कीमतों, उत्पादकों की दृष्टि से उचित नहीं है तब उत्पादकों के हितों की रक्षा करने के लिए सरकार एक न्यूनतम कीमत की घोषणा करती है। इसे समर्थन कीमत कहा आता है। आजकल सरकार द्वारा किसानों के हितों का संरक्षण आम बात हो गयी है। यदि कृषि उत्पादों की कीमतों की घोषणा की जाती है। यही कारण है कि सरकार कई कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम कीमत या समर्थन मूल्य की घोषणा करती है।

प्रश्न 35.
उपभोग फलन की व्याख्या करें।
उत्तर:
उपभोग फलन कुल आय एवं कुल उपभोग व्यय में निहित संबंध को व्यक्त करता है। उपभोग (e) आय (y) का फलन हैं। इसे निम्न समीकरण द्वारा व्यक्त किया जा सकता है-
c – f (y)
जहाँ c = उपभोग व्यय, f = फलन, y= आय का स्तर

उपभोग फलन बताता है कि आय के स्तर में वृद्धि होने पर उपभोग में प्रत्यक्ष वृद्धि होती है लेकिन आय के उत्तरोत्तर बढ़ने पर उपभोग व्यय की वृद्धि आय की वृद्धि से कम हो जाती हैं।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3 in Hindi

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Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3 in Hindi

प्रश्न 1.
संतुलित बजट, बचत बजट और घाटे के बजट में भेद कीजिए।
उत्तर:
बजट के मुख्यतः तीन प्रकार हैं।

  1. संतुलित बजट,
  2. बचत बजट,
  3. घाटे का बजट

1. संतुलित बजट (Balanced Budget)- संतुलित बजट वह बजट है जिसमें सरकार की आय तथा व्यय दोनों बराबर होते हैं।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 1
संतुलित बजट का आर्थिक क्रियाओं के स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसके कारण न तो संकुचनकारी शक्तियाँ और न ही विस्तारवादी शक्तियाँ काम कर पाती हैं। प्रो. केज के अनुसार विकसित देशों में महामन्दी तथा बेरोजारी के समाधान हेतु और अर्द्धविकसित देशों के विकास के लिए संतुलित बजट उपयुक्त नहीं है क्योंकि संतुलित बजट द्वारा इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता।

2. बचत बजट (Surplus Budget)- यह वह बजट है जिसमें सरकार की अनुमानित आय सरकार के अनुमानित व्यय से अधिक होती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 2

स्फीतिक दशाओं में बचत का बजट वांछनीय होता है क्योंकि बचत का बजट अर्थव्यवस्था में सामूहिकं मांग के स्तर को घटाकर स्फीतिक अन्तराल को कम करने में सहायक होता है। बचत के बजट में सरकारी व्यय के सरकारी आय से कम हो जाने के कारण यह मंदी की दशाओं में वांछनीय नहीं है।

3. घाटे का बजट (Deficit Budget)- घाटे का बजट वह बजट है जिसमें सरकार की अनुमानित आय सरकार के अनुमानित व्यय से कम होती है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 3
घाटे के बजट का तात्पर्य यह है कि सरकार जितनी मात्रा में मुद्रा अर्थव्यवस्था में खप सकती है, उससे अधिक मात्रा में मुद्रा अर्थव्यवस्था में प्रवाहित कर दी जाती है। फलतः अर्थव्यवस्था में विस्तारवादी शक्तियाँ बलवती हो उठती हैं।

प्रश्न 2.
मुद्रा-पदार्थ के गुणों का वर्णन करें।
उत्तर:
मुद्रा वास्तव में किसी देश की अर्थव्यवस्था के लिए आवश्यक है। किसी देश की आर्थिक प्रगति मुद्रा पर निर्भर करती है इसलिए ट्रेस्काट ने कहा है कि “यदि मुद्रा हमारी अर्थव्यवस्था का हृदय नहीं तो रक्त प्रवाह अवश्य है।”

मुद्रा के प्रमुख गुण निम्नलिखित हैं-

  • मुद्रा आधुनिक अर्थव्यवस्था का आधार है।
  • मुद्रा से उपभोक्ता को लाभ पहुँचता है।
  • मुद्रा से विनिमय व्यवस्था का आधार है।
  • मुद्रा से विनिमय के क्षेत्र में लाभ होता है।
  • ऋणों के लेनदेन तथा अग्रिम भुगतान में सुविधा।
  • पूँजी निर्माण को प्रोत्साहन।
  • मुद्रा की गतिशीलता प्रदान करती है।
  • मुद्रा साख का आधार है।

प्रश्न 3.
पूर्णतया लोचदार माँग और पूर्णतया बेलोचदार माँग में अंतर कीजिए।
उत्तर:
जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन नहीं होने पर भी अथवा बहुत सूक्ष्म परिवर्तन होने पर माँग में बहुत अधिक परिवर्तन हो जाता है तब उस वस्तु की माँग पूर्णतया लोचदार कही जाती है। पूर्ण लोचदार माँग को अनंत लोचदार मांग भी कहते हैं। इस स्थिति में एक दी हुई कीमत पर वस्तु की माँग असीम या अनंत होती है तथा कीमत में नाममात्र की वृद्धि होने पर शून्य हो जाती है। माँग पूर्ण लोचदार होने पर माँग वक्र x अक्ष के समानांतर होता है जिसे नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 4
जब किसी वस्तु की कीमत में परिवर्तन होने पर भी उसको माँग में कोई परिवर्तन नहीं होता है तो इसे पूर्णतया बेलोचदार माँग कहते हैं। इस स्थिति में मांग की लोच शून्य होती है जिसके फलस्वरूप माँग वक्र Y-अक्ष के समानांतर होता है। नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 5

प्रश्न 4.
उत्पादन फलन से आप क्या समझते हैं ? इसकी मुख्य विशेषताएँ क्या हैं ?
उत्तर:
उत्पादन का अभिप्राय आगतों अथवा आदानों को निर्गत में बदलने की प्रक्रिया से है। भूमि, श्रम, पूँजी तथा उद्यम उत्पादन के साधन या कारक हैं। उत्पादन या निर्गत इन साधनों के संयुक्त प्रयोग का परिणाम होता है। उत्पादन के साधनों को आगत तथा उत्पादन की मात्रा को निर्गत की संज्ञा दी जाती है। उत्पादन फलन एक दी हुई तकनीक के अंतर्गत आगतों एवं निर्गतों के संबंध की व्याख्या करता है। निर्गत को आगतों का फल या परिणाम कहा जा सकता है। इस प्रकार उत्पादन फलन इस तथ्य को व्यक्त करता है कि एक दी हुई प्रौद्योगिकी में आगतों के विभिन्न संयोग से निर्गत को कितनी अधिकतम मात्रा का उत्पादन संभव है।

मान लें कि हम उत्पादन के दो साधनों भूमि और श्रम का प्रयोग करते हैं। इस स्थिति में हम उत्पादन फलन को निम्नांकित रूप में व्यक्त कर सकते हैं। q = f(x1, x2)

इससे यह पता चलता है कि हम आगत x1 और x2 का प्रयोग कर वस्तु की अधिकतम मात्रा q का उत्पादन कर सकते हैं।

माँग फलन की तीन मुख्य विशेषताएँ निम्नांकित हैं-

  • उत्पादन फलन विभिन्न आगतों के अनुकूलतम प्रयोग से निर्गत के अधिकतम स्तर को दर्शाता है।
  • यह एक निश्चित अवधि के अंतर्गत आगत और निर्गत के संबंध की व्याख्या करता है।
  • उत्पादन फलन वर्तमान तकनीकी ज्ञान से निर्धारित होता है।

प्रश्न 5.
पूर्ति की कीमत लोच का क्या अर्थ है ? प्रतिशत प्रणाली द्वारा पूर्ति की लोच को कैसे मापा जाता है ?
उत्तर:
पूर्ति की लोच अथवा पूर्ति की कीमत लोच, वस्तु की कीमत में परिवर्तनों के कारण उसकी पूर्ति की प्रतिक्रियाशीलता को प्रदर्शित करता है। पूर्ति की कीमत लोच की धारणा हमें यह बताती है कि कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप किसी वस्तु की पूर्ति में किस दर या अनुपात में परिवर्तन होता है। सरल शब्दों में, पूर्ति की लोच वस्तु की कीमत में हुए प्रतिशत परिवर्तन के फलस्वरूप पूर्ति में होनेवाले प्रतिशत परिवर्तन को व्यक्त करता है।

पूर्ति की कीमत लोच को मापने की दो मुख्य विधियाँ हैं- प्रतिशत प्रणाली और ज्यामितिक प्रणाली। प्रतिशत अथवा आनुपातिक प्रणाली में पूर्ति की लोच को मापने का सूत्र इस प्रकार है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 6
इस सूत्र को बीजगणितीय रूप में इस प्रकार व्यक्त किया जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 7
जहाँ, Δq पूर्ति की मात्रा में परिवर्तन, q प्रारंभिक पूर्ति, D कीमत में परिवर्तन तथा p प्रारंभिक कीमत को प्रदर्शित करता है। यदि सूत्र es = \(\frac{\Delta q}{\Delta p} \times \frac{p}{q}\) का परिणाम 1 अर्थात इकाई हो तो किसी वस्तु की पूर्ति समलोचदार है, यदि परिणाम इकाई से अधिक है तो पूर्ति अधिक लोचदार है और यदि परिणाम इकाई से कम है तो पूर्ति कम लोचदार है।

प्रश्न 6.
कुल लागत से आप क्या समझते हैं ? कुल स्थिर लागत वक्र का आकार क्या होता है ?
उत्तर:
किसी वस्तु के उत्पादन में प्रयुक्त समस्त आगतों पर होने वाला व्यय कुल लागत कहलाता है। यह कुल स्थिर आगतों (जैसे-भूमि, मशीन, उपकरण आदि) पर व्यय तथा कुल परिवर्ती आगतों (जैसे-कच्चा माल, श्रम, बिजली आदि) पर किए जाने वाले व्यय का योगफल होता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 8

कुल स्थिर लागतें स्थायी साधन-आगतों का प्रयोग करने के लिए वहन की जाती हैं। उत्पादन अर्थात् निर्यात की मात्रा में परिवर्तन होने पर भी इन लागतों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। उदाहरण के लिए, एक चीनी मिल प्रायः वर्ष में 3-4 महीने बंद रहती है। फिर भी इसके स्वामी को कारखाने का किराया, ऋणों का ब्याज तथा स्थायी कर्मचारियों के वेतन आदि का भुगतान करना होता है। स्पष्ट है कि फर्म को इस प्रकार की लागतें प्रत्येक अवस्था में वहन करनी होती हैं। इसे नीचे के रेखाचित्र में दर्शाया गया है।

उपरोक्त रेखाचित्र से यह स्पष्ट है कि कुल स्थिर लागत (TFC) वक्र X-अक्ष के समानांतर होती है। इसका अभिप्राय यह है कि निर्गत के प्रत्येक स्तर पर कुल स्थिर लागतें एक समान रहती हैं।

प्रश्न 7.
उपभोग की औसत तथा सीमांत प्रवृत्ति से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर:
उपभोग की प्रवृत्ति आय एवं उपभोग के कार्यात्मक संबंध को व्यक्त करता है। उपभोग प्रवृत्ति की व्याख्या करने के लिए केन्स ने उपभोग की औसत तथा सीमांत प्रवृत्ति की धारणाओं का प्रयोग किया है। उपभोग की औसत प्रवृत्ति (APC) कुल उपभोग तथा कुल आय का अनुपात है। यह एक विशेष समय पर कुल आय एवं कुल उपभोग के पारस्परिक संबंध को व्यक्त करता है। उपभोग की औसत प्रवृत्ति कुल उपभोग में कुल आय से भाग देकर निकाली जा सकती है। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति का कुल वास्तविक आय 1,000 रुपये है जिसमें से वह 800 रुपये उपभोग पर खर्च करता है तब उपभोग की औसत प्रवृत्ति (APC) 800/1,000 अथवा 0.80 होगी। यदि हम कुल आय को Y तथा कुल उपभोग को C से व्यक्त करें तो उपभोग की औसत प्रवृत्ति का सूत्र इस प्रकार होगा-

APC = \(\frac{\mathrm{c}}{\mathrm{y}}\)

उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति (MPC) आय में होनेवाले परिवर्तनों के फलस्वरूप उपभोग में होनेवाले परिवर्तन के अनुपात को बताता है। दूसरे शब्दों में, उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति कुल आय में इकाई परिवर्तन के फलस्वरूप उपभोग में हुए परिवर्तन का अनुपात है। इससे इस बात का भी पता चलता है कि आय में होनेवाली अतिरिक्त वृद्धि को उपभोग एवं बचत के बीच किस प्रकार विभक्त किया जाता है। उदाहरण के लिए, मान लें कि जब कुल आय 1,000 रुपये से बढ़कर 1,010 रुपये हो जाती है तब उपभोग की मात्रा 800 रुपये से बढ़कर 806 रुपये हो जाती है। इस अवस्था में आय में अतिरिक्त वृद्धि 10 रुपये तथा उपभोग में 6 रुपये है। अतः उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति (MPC) 6/10 अर्थात 0.60 होगी। यदि हम परिवर्तन को Δ (डेल्टा) चिन्ह से व्यक्त करें तो उपभोग की सीमांत प्रवृत्ति का निम्नांकित सूत्र होगा-
MPC = \(\frac{\Delta \mathrm{c}}{\Delta \mathrm{y}}\)

प्रश्न 8.
व्यापार संतुलन एवं भुगतान संतुलन में अंतर कीजिए।
उत्तर:
वर्तमान समय में प्रत्येक देश विदेशों से कुछ वस्तुओं और सेवाओं का आयात तथा निर्यात करता है। व्यापार एवं भुगतान-संतुलन का संबंध दो देशों के बीच इनके लेन-देन से है। परंतु; व्यापार एवं भुगतान-संतुलन एक ही नहीं हैं, वरन् इन दोनों में थोड़ा अंतर है। व्यापार-संतुलन से हमारा अभिप्राय आयात और निर्यात के बीच अंतर से है। अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में प्रत्येक देश कुछ वस्तुओं का आयात तथा कुछ का निर्यात करता है। आयात तथा निर्यात की यह मात्रा हमेशा बराबर नहीं होती। आयात तथा निर्यात के इस अंतर को ही ‘व्यापार-संतुलन’ कहते हैं।

व्यापार- संतुलन की अपेक्षा भुगतान-संतुलन की धारणा अधिक विस्तृत एवं व्यापक है। इन दोनों के अंतर को समझने के लिए दृश्य एवं अदृश्य व्यापार के अंतर को स्पष्ट करना आवश्यक है। जब देश से निधि ‘सहित वस्तुएँ किसी अन्य देश को निर्यात की जाती हैं अथवा बाहरी देशों से उनका आयात होता है, तो बंदरगाहों पर इनका लेखा कर लिया जाता है। इस प्रकार की मदों को विदेशी व्यापार की दृश्य मदें कहते हैं। परंतु, विभिन्न देशों के बीच आयात-निर्यात की ऐसी मदें, जिनका लेखा बंदरगाहों पर नहीं होता, विदेशी व्यापार की अदृश्य मदें कहलाती हैं। भुगतान-संतुलन में विदेशी व्यापार की दृश्य तथा अदृश्य दोनों प्रकार की मदें आती हैं, जबकि व्यापार-संतुलन में केवल विदेशी व्यापार की दृश्य मदों को शामिल किया जाता है। इस प्रकार, भुगतान-संतुलन का क्षेत्र व्यापार-संतुलन से अधिक विस्तृत होता है।

प्रश्न 9.
पूर्ति के कीमत लोच को परिभाषित कीजिए। इसके निर्धारक तत्व कौन-कौन से हैं ?
उत्तर:
पूर्ति की कीमत लोच किसी वस्तु की कीमत में होनेवाले परिवर्तन के परिणामस्परूप उसके पूर्ति में होनेवाले परिवर्तन की साथ है।

मार्शल के अनुसार “पूर्ति की लोच से अभिप्राय कीमत में परिवर्तन के फलस्वरूप पूर्ति की मात्रा में होनेवाले परिवर्तन से है।”

पूर्ति के लोच के निर्धारक तत्व निम्नलिखित हैं-
(क) वस्तु की प्रकृति- टिकाऊ वस्तु की पूर्ति लोच अपेक्षाकृत लोचदार होती है एवं शीघ्र नांशवान वस्तुओं की पूर्ति अपेक्षाकृत बेलोचदार होती है।
(ख) उत्पादन लागत- यदि उत्पादन बढ़ने पर औसत लागत में तेजी से वृद्धि होती है तो पूर्ति की लोच कम होगी। यदि उत्पादन बढ़ने पर औसत लागत धीमी गति से बढ़ती है तो पूर्ति की लोच अधिक होगी।
(ग) भावी कीमतों में परिवर्तन- भविष्य में कीमत बढ़ने की आशा रहने पर उत्पादक वर्तमान पूर्ति कम करेंगे एवं पूर्ति बेलोचदार हो जाएगी। इसके विपरीत भविष्य में कीमत कम होने की आशा रहने पर पूर्ति अधिक होगी।
(घ) प्राकृतिक कारण- प्राकृतिक कारणों से कई वस्तुओं की पूर्ति नहीं बढ़ाई जा सकती। जैसे-लकड़ी।
(ङ) उत्पादन की तकनीक- उत्पादन तकनीक जटिल होने पर पूर्ति बेलोचदार होगी एवं उत्पादन तकनीक सरल होने पर पूर्ति लोचदार होगी।
(च) समय तत्व- समय तत्व को तीन भागों में बाँटा जाता है-

  • अति अल्पकाल में पूर्ति पूर्णतया-बेलोचदार होती है क्योंकि अल्पकाल में पूर्ति में परिवर्तन नहीं हो सकता।
  • अल्पकाल में संयंत्र स्थिर रहता है इसलिए पूर्ति कम लोचदार होती है।
  • दीर्घकाल में वस्तु की पूर्ति को आसानी से घटाया-बढ़ाया जा सकता है जिससे पूर्ति लोचदार होती है।

प्रश्न 10.
राष्ट्रीय आय के गणना करने की उत्पाद अथवा मूल्य वृद्धि विधि का वर्णन कीजिए।
उत्तर:
उत्पाद विधि या मूल्य वृद्धि वह विधि है जो एक लेखा वर्ष में देश की घरेलू सीमा के अंदर प्रत्येक उत्पादक उद्यम द्वारा उत्पादन में किये गये योगदान की गणना करके राष्ट्रीय आय को मापती हैं।
(i) उत्पादक उद्यमों की पहचान एवं वर्गीकरण -इसके अंतर्गत निम्न क्षेत्र के अनुसार उत्पादकीय इकाइयों का वर्गीकरण किया जाता है-

  • प्राथमिक क्षेत्र – कृषि एवं संबंधित क्रियाएँ जैसे मछली पालन, वन एवं खनन।
  • द्वितीय क्षेत्र -निर्माण क्षेत्र जिसमें एक प्रकार की वस्तु की मशीन द्वारा दूसरी वस्तु में बदला जाता है।
  • तृतीयक क्षेत्र- सेवा क्षेत्र जैसे बीमा, यातायात, बैंक, संचार, व्यापार एवं वाणिज्य।

(ii) शुद्ध उत्पाद मूल्य की गणना- प्रथम कदम में चिह्नित प्रत्येक उद्यम द्वारा शुद्ध मूल्य वृद्धि की गणना करने के लिए निम्न अनुमान लगाए जाते हैं।

  • उत्पादन का मूल्य,
  • मध्यवर्ती उपभोग का मूल्य,
  • स्थायी पूँजी का उपभोग

शुद्ध मूल्य वृद्धि की गणना के लिए निम्न को उत्पादन मूल्य से घटाना होगा। शुद्ध मूल्य = उत्पादन का मूल्य – मध्यवर्ती उपभोग – स्थायी पूँजी का उपभोग – तृतीयक क्षेत्र द्वारा की गई मूल्य वृद्धि।

(iii) विदेशों से शुद्ध साधन आय की गणना- इस अवस्था में विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय का आकलन कर दूसरे अवस्था से प्राप्त शुद्ध घरेलू उत्पाद (NDP) से जोड़ा जाता है। संक्षेप में, राष्ट्रीय आय = साधन लागत पर शुद्ध घरेलू उत्पाद NDPFC  NNPFC + विदेशों से प्राप्त शुद्ध साधन आय (NFIA)।

प्रश्न 11.
राष्ट्रीय आय तथा घरेलू आय में अन्तर स्पष्ट करें।
उत्तर:
समस्त स्रोतों से प्राप्त आय जो माँग एवं पूर्ति के संतुलन के बाद प्राप्त होती है उसे राष्ट्रीय आय कहते हैं जबकि घरेलू आय वैसी आय होती है जो घर की सीमा में रहने वाले लोगों के द्वारा अपने-अपने कार्य करने से आर्थिक लाभ के रूप में आय की प्राप्ति होती है।

दूसरे शब्दों में घरेलू सीमा के अंदर स्त्री लोग जो काम करती है और उसे जो आमदनी होती है उनके कुल योग को घरेलू आय कहते हैं। इसमें व्यक्तिगत आय निजी आय इत्यादि शामिल रहते हैं।

इसी तरह किसी देश की राजनीतिक सीमा जिसमें पानी के जहाज, हवाई जहाज देश के निवासियों के मछली पकड़ने के जहाज, इम्बैसी और कन्सुलेट शामिल हो घरेलू सीमा कहलाती है।

प्रश्न 12.
मुद्रा के विभिन्न कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
मुद्रा के कार्यों को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

  1. अनिवार्य कर,
  2. सहायक कार्य

1. अनिवार्य कार्य- मुद्रा के अनिवार्य कार्य निम्नलिखित हैं-

  • विनिमय का माध्यम (Medium of Exchange)- मुद्रा ने विनिमय के कार्य को सरल और सुविधापूर्ण बना दिया है। वर्तमान युग में सभी वस्तुएँ और सेवाएँ मुद्रा के माध्यम से ही खरीदी तथा बेची जाती हैं।
  • मूल्य मापक (Measure of Value)- मुद्रा का कार्य सभी वस्तुओं और सेवाओं का मूल्यांकन करना है। वर्तमान युग में सभी वस्तुओं और सेवाओं को मुद्रा के द्वारा मापा जाता है।
  • स्थगित भुगतान का आधार (Payments)- वर्तमान युग में बहुत से भुगतान तत्काल न करके भविष्य के लिए स्थगित कर दिये जाते हैं। मुद्रा ऐसे सौदों के लिए आधार प्रस्तुत करती है। मुद्रा के मूल्य में अन्य वस्तुओं की अपेक्षा अधिक स्थायित्व पाया जाता है। मुद्रा में सामान्य स्वीकृति गुण पाया जाता है।
  • मूल्य का संचय (Store of value)- मनुष्य अपनी आय का कुछ भाग भविष्य के लिए अवश्य बचाता है। मुद्रा के प्रयोग द्वारा मूल्य संचय का कार्य सरल और सुविधापूर्ण हो गया है।
  • मूल्य का हस्तान्तरण (Transfer of value)- मुद्रा-क्रय शक्ति के हस्तांतरण का सर्वोत्तम साधन है। इसका कारण मुद्रा का सर्वग्राह्य और व्यापक होना है। मुद्रा के द्वारा चल व अचल सम्पत्ति का हस्तांतरण सरलता से हो सकता है।

2. सहायक कार्य- मुद्रा के सहायक कार्य निम्नलिखित हैं-

  • आय का वितरण (Distribution of Income)- आधुनिक युग में उत्पादन की प्रक्रिया बहुत जटिल हो गई है, जिसके लिए उत्पादन के विभिन्न साधनों का सहयोग प्राप्त किया जाता है। मुद्रा के द्वारा उत्पादन के विभिन्न साधनों को पुरस्कार दिया जाता है।
  • साख का आधार (Basis of Credit)- व्यापारिक बैंक साख का निर्माण नकद कोष के आधार पर करते हैं। मुद्रा साख का आधार है।
  • अधिकतम संतुष्टि का आधार (Basis of Maximum Satisfaction)- मुद्रा के द्वारा उपभोक्ता संतुष्टि प्राप्त करना चाहता है जो उसे सम सीमान्त उपयोगिता के नियम का पालन करके ही प्राप्त हो सकती है। इस नियम का पालन मुद्रा द्वारा ही संभव हुआ है।
  • पूँजी को सामान्य रूप प्रदान करना (General Form of the Capital)- मुद्रा सभी प्रकार की सम्पत्ति, धन, आय व पूँजी को सामान्य मूल्य प्रदान करती है, जिससे पूँजी का तरलता, गतिशीलता और उत्पादकता में वृद्धि हुई है।

प्रश्न 13.
पूर्ण प्रतियोगिता और एकाधिकार की अवधारणा को स्पष्ट करें एवं इनके अंतर को स्पष्ट करें।
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता बाजार का ऐसा रूप है जिसमें बड़ी संख्या में क्रेता और विक्रेता पा जाते हैं जो समरूप वस्तु एक समान कीमत पर बेचते है।।

एकाधिकार बाजार का वह रूप है जिसमें वस्तु का केवल एक विक्रेता और अनेक क्रेता होते हैं।
पूर्ण प्रतियोगिता तथा एकाधिकार के बीच निम्नांकित अंतर हैं-

  • क्रेताओं तथा विक्रेताओं की संख्या- पूर्ण प्रतियोगिता में समरूप वस्तु के अनेक क्रेता तथा विक्रेता होते हैं। जबकि एकाधिकार में वस्तु का केवल एक ही विक्रेता होता है।
  • प्रवेश पर प्रतिबंध- पूर्ण प्रतियोगिता में नई फर्मों के उद्योग में प्रवेश पाने तथा पुरानी फर्मों द्वारा, उसे छोड़कर जाने की पूर्ण स्वतंत्रता होती है। इसमें विपरीत, एकाधिकार में नई फर्मों के प्रवेश पर प्रतिबंध होता है।
  • माँग वक्र का आकार- पूर्ण प्रतियोगिता में माँग अथवा AR वक्र OX अक्ष के समानान्तर होता है, साथ ही औसत आगम और सीमांत आगम बराबर होते हैं।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 9

एकाधिकार में, माँग अथवा AR वक्र बाएँ से दाएँ नीचे की ओर झुके होते है। एवं सीमांत आगम वक्र औसत आगम के नीचे होता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 3, 10

प्रश्न 14.
दोहरी आय गणना का क्या अर्थ है ? इस समस्या से बचने के दो तरीके संक्षेप में बताइये।
उत्तर:
दोहरी गणना से अभिप्राय है किसी वस्तु के मूल्य की गणना एक बार से अधिक करना। इसके फलस्वरूप उत्पादित वस्तु और सेवाओं के मूल्य में अनावश्यक रूप से वृद्धि हो जाती है। घरेलू उत्पाद के मूल्य में अनावश्यक रूप से रोकने में ही दोहरी गणना का महत्व निहित है। उदाहरण के लिए यदि किसान एक टन गेहूँ का उत्पादन करता है और उसे 400 रु० में आटा मिल को बेच देता है। आटा मिल उसका आटा बनाकर उसे 600 रु० में डबलरोटी बनाने वाले को बेच देता है। डबल रोटी उसकी डबलरोटी बनाकर 800 रु० में दुकानदार को बेच देता है। और दुकानदार उसे अंतिम ग्राहक या उपभोक्ता को 900 रु० में बेच देता है। अर्थात् उत्पादन का मूल्य = 400+ 600 + 800 + 900 = 2700 रु० दोहरी गणना के कारण उत्पादन का मूल्य 2700 रु० हो जाता है जबकि वास्तविक उत्पादन या मूल्य वृद्धि केवल 900 रु० की हुई। क्योंकि गेहूँ का मूल्य, आटा बनानेवाले तथा डबल रोटी बनाने वाली की सेवाओं के मूल्य को एक से अधिक बार दोहरी गणना की गलती से दो विधियों द्वारा बचा जा सकता है-

(i) अंतिम उत्पादन विधि- इस विधि के अंतर्गत उत्पादन के मूल्य में से मध्यवर्ती के मूल्य को घटा दिया जाता है अर्थात् अंतिम वस्तुओं के मूल्य को ही जोड़ा जाता है। उदाहरण के लिए उपभोक्ता उदाहरण में सिर्फ 900 रु० का ही मूल्यवृद्धि हुई और इसे ही राष्ट्रीय आय के आकलन में शामिल किया जाना चाहिए।

(ii) मूल्य वृद्धि विधि-इस विधि द्वारा उत्पादन के प्रत्येक चरण में होनेवाली मूल्य वृद्धि को जोड़ा जाता है। उपरोक्त उदाहरण में उत्पादन की विभिन्न अवस्थाओं में 400 रु० + 200 रु० + 200 रु० + 100 रु० = 900 रु० की मूल्य वृद्धि हुई है।

प्रश्न 15.
सरकारी क्षेत्र के समावेश के अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
उत्तर:
सरकारी क्षेत्र में अर्थव्यवस्था में समावेश से अर्थव्यवस्था पर निम्नांकित प्रभाव पड़ते हैं-

  • सरकार गृहस्थों पर कर लगाती है। जिसकी उनकी प्रयोज्य आय कम होती है। फलस्वरूप कुल माँग घट जाती है।
  • सरकार घरेलू क्षेत्र को कई प्रकार से हस्तान्तरण भुगतान करती है जिसके फलस्वरूप उनका प्रयोज्य आय में वृद्धि होती है।
  • कानून तथा व्यवस्था व सुरक्षा आदि सेवाएँ प्रदान करके सरकार आय प्रजनन की प्रक्रिया में अंशदान करती है।
  • सरकार निगम कर लगाती है जिससे अर्थव्यस्था में वैयक्तिक आय घटती है।
  • वस्तुओं तथा सेवाओं पर कर घरेलू पदार्थ के बाजार मूल्य में वृद्धि लाता है।
  • उत्पादकों को सरकार द्वारा दी गई आर्थिक सहायता घरेलू पदार्थ के बाजार मूल्य को घटाती है।

प्रश्न 16.
माँग का नियम समझाइए। इस नियम की क्या मान्यताएँ है ?
उत्तर:
माँग का नियम यह बताता है कि अन्य बातें समान रहने पर वस्तु की कीमत एवं वस्तु की मात्रा में विपरीत संबंध पाया जाता है। दूसरे शब्दों में, अन्य बातें समान रहने की दशा में किसी वस्तु की कीमत में वृद्धि के कारण उसकी माँग में कमी हो जाती है तथा इसके विपरीत कीमत में कमी होने पर वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है। मार्शल के अनुसार-“मूल्य में कमी होने पर माँग की मात्रा बढ़ती है और मूल्य में वृद्धि होने पर माँग की मात्रा कम होती है-यही माँग का नियम है।

माँग के नियम की निम्नलिखित मान्यताएँ हैं-

  • माँग और मूल्य में विपरीत संबंध है। यही कारण है कि जब बाजार में किसी वस्तु का मूल्य बढ़ता है तो उसकी माँग घट जाती है। दूसरी ओर बाजार में किसी वस्तु का मूल्य घटता है तो उसकी माँरा बढ़ जाती है।
  • उपभोक्ता की आय के घटने या बढ़ने पर भी माँग का नियम लागू होता है। यही कारण है कि जब उपभोक्ता की आय बढ़ती है तो वस्तु की माँग में वृद्धि हो जाती है और जब उपभोक्ता ‘की आय घटती है तो उसकी माँग भी घट जाती है।
  • पूरक वस्तुओं में यदि एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो उसकी पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि स्थानापन्न वस्तुओं में किसी एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो दूसरी वस्तु की मांग भी कम हो जाती है।
  • वस्तु का मूल्य घटने या बढ़ने पर ही माँग का नियम लागू होता है। यदि अन्य बातें सामान्य रहती हैं तो वस्तु का मूल्य बढ़ने पर माँग कम हो जाती है और मूल्य घटने पर माँग बढ़ जाती है।
  • उपभोक्ता की रुचि और फैशन में परिवर्तन होने पर भी मांग का नियम लागू होता है।

Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Philosophy Important Questions Long Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
प्रतीत्य समुत्पाद की व्याख्या करें। अथवा, बौद्ध दर्शन के अनुसार प्रतीत्य समुत्पाद का वर्णन करें।
उत्तर:
महात्मा बुद्ध ने दुख के कारण का विश्लेषण दूसरे आर्य-सत्य में एक सिद्धान्त के द्वारा किया है, जिसे संस्कृत में प्रतीत्य समुत्पाद तथा पाली में परिच्चसमुत्पाद कहते हैं। ‘प्रतीप्य समुत्पाद’ दो शब्दों के मेल से बना है। वे हैं-‘प्रतीत्य’ और ‘समुत्पाद’। प्रतीत्य का अर्थ है किसी वस्तु के उपस्थित होने पर (depending), समुत्पाद का अर्थ है किसी अन्य-बस्तु की उत्पत्ति (Origination)। अतः प्रतीप्य समुत्पाद का शाब्दिक अर्थ है एक वस्तु के उपस्थित होने पर किसी अन्य वस्तु की उत्पत्ति। कहने का अभिप्राय एक के आगमन से दूसरे की उत्पत्ति। अतः इस सिद्धान्त के अनुसार, ‘अ’ के रहने पर ‘ब’ का आगमन होगा तथा ‘ब’ के रहने पर ‘स’ का आगमन होता है।

इस प्रकार प्रतीप्यसमुत्पाद के अनुसार विषय का कोई-न-कोई कारण होता है। कोई भी घटना अकारण उपस्थित नहीं हो सकती है। वस्तुतः प्रतीप्यसमुत्पाद का सिद्धान्त कार्यकारण सिद्धान्त पर आधारित है। उदाहरण के लिए, दुख एक घटना है। बौद्ध-दर्शन में दुख को ‘जरामरण’ कहा गया है। ‘जरा’ का अर्थ वृद्धावस्था तथा मरण का अर्थ ‘मृत्यु’ होता है। हालांकि जरामरण का शाब्दिक अर्थ वृद्धावस्था और मृत्यु होता है, फिर भी जरामरण संसार के समस्त दुख-यथा रोग, निराशा, शोक, उदासी इत्यादि का प्रतीक है। ‘जरामरण’ का कारण बुद्ध जाति (rebirth) को मानते हैं।

प्रश्न 2.
ईश्वर के अस्तित्व के लिए सत्तामीमांसीय युक्ति का वर्णन करें।
उत्तर:
मध्यकालीन दार्शनिक संत असलेम ने सर्वप्रथम ईश्वर के विषय में तत्त्व विषयक प्रमाण प्रस्तुत किया जिसको बाद में देकार्त ने विकसित किया। इस तर्क के अनुसार हम ईश्वर को सर्वोच्च सत्ता के रूप में मानते हैं तथा उसे पूर्ण भी मानते हैं। इस प्रकार जब हम ईश्वर को पूर्ण मानते हैं तब उसका अस्तित्व भी अवश्य होना चाहिए क्योंकि अस्तित्व के अभाव में उसे पूर्ण नहीं माना जा सकता। इससे स्पष्ट है कि तत्त्व विषयक तर्क के अनुसार ईश्वर की पूर्णता ही उसके अस्तित्व का प्रमाण है। इसके साथ ही यह भी यथार्थ है कि अस्तित्व के अभाव में ईश्वर को सर्वोच्च भी नहीं माना जा सकता।

देकार्त ने ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्त्व विषयक तर्क कुछ भिन्न प्रकार से दिया है। उनका कहना है कि हमारे मन में जो असीम सर्वज्ञ और शाश्वत सत्ता का प्रत्यय है वह असीम, सर्वज्ञ और शाश्वत शक्ति के अस्तित्व को सिद्ध करता है क्योंकि यदि यह विचार किया जाए कि ईश्वर का प्रत्यय का विचार कहाँ से उत्पन्न हुआ तब इस विषय में मनुष्य को स्वयं इस धारणा का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि मनुष्य अपूर्ण है इसलिए वह पूर्ण के प्रत्यय का कारण नहीं हो सकता। इसके अतिरिक्त यदि यह कहा जाय कि असीम प्रत्यय सकारात्मक न होकर नकारात्मक है तब देकार्त का यह कहना है कि असीम का बोध असीम से पूर्व और अधिक स्पष्ट तथा यथार्थ होता है क्योंकि ससीमता असीमता से अपेक्षा रखती है तथा अपूर्ण पूर्ण की अपेक्षा से होता है।

इस प्रकार असीम के प्रत्यय का कारण न तो मनुष्य है और न ही यह नकारात्मक प्रत्यय है बल्कि इस प्रत्यय का स्वयं ईश्वर ही कारण है। इस विषय में यदि कहा जाए कि मनुष्य ससीम एवं अपूर्ण है तब उसके मन में असीम और पूर्ण का प्रत्यय कैसे बन सकता है। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए देकार्त ने कहा है कि यह तो मान्य है कि मनुष्य सीमित है इसलिए वह असीम की धारणा को ग्रहण नहीं कर सकता किन्तु इस विषय में यह भी स्पष्ट ही है कि मनुष्य यह तो जान सकता है कि उसके मन में जो असीम की धारणा है वह स्वयं से संबंधित नहीं वरन् उसका सम्बन्ध किसी पूर्ण ईश्वर से ही हो सकता है। इस प्रकार स्पष्ट ईश्वर का प्रत्यय या असीम का प्रत्यय ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रमाण है।

सत्तावादी सिद्धान्त की आलोचना-ईश्वर के अस्तित्व के विषय में तत्व विषयक तर्क के विरोध में निम्नलिखित आपत्तियाँ उठाई जाती हैं-

1. ईश्वर का अस्तित्व उसकी धारणा से सिद्ध नहीं होता-प्रसिद्ध दार्शनिक काण्ट ने तत्त्व विषयक ईश्वर संबंधी तर्क के विषय में यह आपत्ति उपस्थित की है कि ईश्वर के अस्तित्व में उसकी धारणा के आधार पर सिद्ध करना अनुचित है क्योंकि धारण से तथ्य सिद्ध नहीं होता वरन् धारणा ही सिद्ध होती है, यथा यदि हमारे मन में वह धारणा है कि हमारी जेब में सौ रुपये हैं तो इस तरह से तो सौ रुपयों की धारणा ही सिद्ध होती है वास्तविक रुपये नहीं। ठीक इसी प्रकार पूर्ण के प्रत्यय में ईश्वर के अस्तित्व की धारणा तो सिद्ध होती है किन्तु इससे ईश्वर के अस्तित्व का तथ्य अथवा वास्तविक होना सिद्ध नहीं होता। अतः स्पष्ट है कि इस तर्क में, पूर्ण धारणा में, अस्तित्व की धारणा सम्मिलित है किन्तु यह सिद्ध करने में कि पूर्ण की धारणा से, पूर्ण ईश्वर का अस्तित्व वास्तविक है, यह तर्क असमर्थ है।

2. आत्माश्रय दोष-आत्माश्रय दोष उसको कहा जाता है कि जिसमें जिसको सिद्ध करना होता है उसे पहले ही मान लिया जाता है। काण्ट ने ईश्वर के अस्तित्व के सम्बन्ध में तत्त्व विषयक तर्क में आत्माश्रय दोष बताया है। इनका कहना है कि तर्क में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करना है और उसको ही पूर्ण में पहले ही उपस्थित मान लिया गया है तब इसमें आत्माश्रय दोष हो जाने से इससे ईश्वर का अस्तित्व कहीं सिद्ध नहीं होता।

प्रश्न 3.
शंकर के अनुसार ब्रह्म के स्वरूप की विवेचना करें।
उत्तर:
शंकर का दर्शन भारतीय दर्शन का चरमोत्कर्ष कहा जा सकता है। वाद्रायण के ब्रह्म सूत्र का भाष्य शंकर ने कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किया कि भारतीय दर्शन को एक अत्यन्त ही सुदृढ़ तार्किक आधार मिला। शंकर के अनुसार एकमात्र ब्रह्म ही सत्य है। ब्रह्म को छोड़कर शेष सभी वस्तुएँ जैसे-जगत्, ईश्वर आदि की सत्यता शंकर स्वीकार नहीं करते।

शंकर ने सत्ता को तीन कोटियों में विभाजित किया है-

  1. परमार्थिक सत्ता,
  2. व्यावहारिक सत्ता तथा
  3. प्रतिमासिक सत्ता।

ब्रह्म परमार्थिक दृष्टिकोण से सत्य कहा जा सकता है। ब्रह्म स्वयं ज्ञान है प्रकाश की तरह ज्योतिर्मय होने के कारण ब्रह्म को स्वयं प्रकाश कहा गया है। ब्रह्म का ज्ञान उसके स्वरूप का अंग है।

ब्रह्म द्रव्य नहीं होने के बावजूद भी सब विषयों का आधार हैं यह दिक् और काल की सीमा से परे हैं तथा कार्य-कारण नियम से भी यह प्रभावित नहीं होता।

शंकर के अनुसार ब्रह्म निर्गुण है। उपनिषदों में ब्रह्म को सगुण और निर्गुण दो प्रकार माना गया है। यद्यपि ब्रह्म निर्गुण है, फिर भी ब्रह्म को शून्य नहीं कहा जा सकता। उपनिषद् ने भी निर्गुण को गुणमुक्त माना है।

शंकर ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानता है तथा ब्रह्म के साक्षात्कार को ही जीवन का चरम लक्ष्य मानता है। ब्रह्म से सांसारिक ज्ञान का, जो कि मूलतः अज्ञान है अंत हो जाता है। जगत् ब्रह्म का विवृतभाव है परिणाम नहीं। इस विवृत से ब्रह्म प्रभावित नहीं होता है। ठीक, इसी प्रकार जिस प्रकार एक जादूगर अपने ही जादू से ठगा नहीं जाता है। अविद्या के कारण ब्रह्म-नाना रूपात्मक जगत् के रूप में दृष्टिगत होता है।

ब्रह्म सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वेदान्ती तीन प्रकार के भेद मानते है-

  1. विजातीय भेद-जैसे-गाय और भैंस में।
  2. सजातीय भेद-जैसे-एक गाय और दूसरी गाय में।
  3. स्वगत भेद-जैसे-गाय के सींग और पुच्छ में।

ब्रह्म में न सजातीय भेद, न विजातीय भेद है और न स्वगत भेद है। यहाँ शंकर का ब्रह्म रामानुज के ब्रह्म से भिन्न प्रतीत होता है। रामानज ने ब्रह्म को स्वागत भेद से युक्त माना है, क्योंकि इसमें चित्त तथा अचित्त दोनों एक-दूसरे से भिन्न हैं।

ब्रह्म को सिद्ध करने के लिए शंकर कोई प्रमाण की आवश्यकता नहीं महसूस करते, क्योंकि वह (ब्रह्म) स्वयं-सिद्ध है।

सत्य होने के कारण शंकर का ब्रह्म सभी प्रकार के विरोधों से परे है। शंकर दो प्रकार के विरोध को मानते हैं-
(i) प्रत्यक्ष विरोध और

(ii) सम्भावित विरोध। जब वास्तविक प्रतीति दूसरी वास्तविक प्रतीति से खण्डित हो जाती है तब उसे प्रत्यक्ष विरोध कहा जाता है। साँप के रूप में जिसकी प्रतीति हो रही है उसी का रस्सी के रूप में होना इसका उदाहरण है। संभावित विरोध उसे कहा जाता है जो युक्ति के द्वारा बाधित होता है। शंकर का ब्रह्म प्रत्यक्ष विरोध और संभावित विरोध दोनों से शून्य है। ब्रह्म त्रिकाल-बाधित सत्ता है।

ब्रह्म व्यक्तिगत से शून्य है। व्यक्तिगत में आत्मा और अनात्मा का भेद रहता है। ब्रह्म सभी भेदों से शून्य है। यही कारण है कि ब्रह्म को निर्व्यक्तिक (impersonal) कहा गया है। Bradley के अनुसार भी ब्रह्म व्यक्तित्व से शून्य है। शंकर के इस विचार के विपरीत रामानुज मानते हैं कि ब्रह्म व्यक्तिगत है। शंकर ने ब्रह्म को अनन्त, असीम और सर्वव्यापक माना है। वह सबका कारण होने के कारण सबका आधार है। पूर्ण और अनन्त होने के कारण आनन्द ब्रह्म का स्वरूप है।

शंकर ने ब्रह्म के अस्तित्व को प्रमाणित करने के लिए निम्नलिखित प्रमाण दिये हैं-

  • शंकर का दर्शन मुख्य रूप से उपनिषद् गीता तथा ब्रह्म पर आधारित है। इन ग्रंथों में ब्रह्म का अस्तित्व वर्णित है इसलिए ब्रह्म है। इस प्रमाण का प्रमाण कहा गया है।
  • शंकर ने ब्रह्म को ही आत्मा कहा है। प्रत्येक व्यक्ति आत्मा का अनुभव करता है।

प्रश्न 4.
काण्ट किस तरह बुद्धिवाद और अनुभववाद में समन्वय स्थापित करता है?
उत्तर:
काण्ट का कहना है कि बुद्धिवाद और अनुभववाद दोनों एकांगी (One-sided), अपूर्ण (Incomplete) एवं हठधर्मी (Dogmatic) हैं। दोनों के कथनों में आंशिक दोष है और आंशिक सत्यता भी है। काण्ट ने इनके दोषों का बहिष्कार करके गुणों को ग्रहण किया है। उन्होंने दोनों परस्पर विरोधी सिद्धांतों में सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया है।

काण्ट का कहना है कि ज्ञानप्राप्ति में बुद्धि और अनुभव दोनों की आवश्यकता है। दोनों में किसी का भी महत्त्व कम नहीं कहा जा सकता। बुद्धिवाद का यह कहना सत्य है कि ज्ञान में सार्वभौमता और अनिवार्यता का रहना आवश्यक है। अनुभववाद का यह कहना भी सही है कि ज्ञान में नवीनता का गुण रहना चाहिए। कांट दोनों में समन्वय स्थापित करते हुए कहते हैं कि यथार्थ ज्ञान में सार्वभौमता, अनिवार्यता एवं नवीनता तीनों गुण विद्यमान रहने चाहिए। बुद्धिवाद का यह कथन सत्य है कि बुद्धि जन्मजात प्रत्ययों के विश्लेषण से ज्ञान का निर्माण करती है, किंतु इसका दोष यह है कि यहाँ अनुभव द्वारा प्राप्त प्रत्ययों को महत्वहीन बताया गया है। यदि बुद्धि केवल जन्मजात प्रत्ययों के विश्लेषण से ज्ञान का निर्माण करती है, तो यह ज्ञान ब्राह्य जगत के न तो अनुरूप होगा और न इसमें नवीनता का गुण रहेगा। अनुभववाद का यह कहना सत्य है कि अनुभव द्वारा प्राप्त संवेदन (Sensations) ज्ञान की प्रारंभिक इकाइयाँ हैं।

किंतु, दोष तब होता है, जब यह बुद्धि और जन्मजात प्रत्ययों का महत्त्व स्वीकार नहीं करता। कांट का कहना है कि कुछ प्रत्यय जन्मजात हैं, तो कुछ अर्जित हैं। इसलिए ज्ञान का कुछ अंश जन्मजात है, तो कुछ अंश अनुभवजन्य भी हैं। ज्ञानप्राप्ति में जन्मजात प्रत्ययों का विश्लेषण जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक है अनुभव द्वारा प्रत्ययों का संश्लेषण (Synthesis)। ज्ञान-प्रक्रिया में मन कुछ अंश तक निष्क्रिय रहता है, तो कुछ अंश तक सक्रिय भी। ज्ञान प्राप्ति में आगमनात्मक विधि और निगमनात्मक विधि दोनों का प्रयोग आवश्यक है। इनमें किसी एक विधि से काम नहीं चल सकता। धारणात्मक विज्ञान तथा वस्तुनिष्ठ विज्ञान दोनों ही ज्ञान के आदर्श कहे जा सकते हैं। ज्ञान के लिए सार्वभौम (Universal) होना जितना आवश्यक है, उतना ही आवश्यक इसे वस्तुसंवादी अर्थात् यथार्थ होना है।

इस प्रकार, कांट ने अपने समीक्षावाद में बुद्धिवाद तथा अनुभववाद जैसे परस्पर विरोधी सिद्धांतों में समन्वय लाने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। इस दिशा में उन्हें काफी हद तक सफलता भी मिली है। फिर भी, ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने अनुभव की अपेक्षा बुद्धि पर विशेष जोर देकर बुद्धिवाद का पक्ष लिया है। यह आक्षेप संबल नहीं है। कांट बुद्धिवादी विचारक होते हुए भी ज्ञान-निर्माण में अनुभव को यथोचित स्थान एवं महत्त्व देने में जरा भी संकोच नहीं करते। वह वस्तुतः एक सामान्यवादी विचारक कहे जा सकते हैं।

प्रश्न 5.
एसे इस्ट परसीपी सिद्धांत की व्याख्या करें।
उत्तर:
स्पिनोजा के दर्शन में ईश्वर को छोड़कर सभी मिथ्या हो जाता है। चूंकि स्पिनोजा के अनुसार, सभी वस्तुओं में केवल एक ईश्वर की ही सत्ता सत्य है, इसलिए उन्हें सर्वेश्वरवादी कहा गया है। सर्वेश्वरवादी को ‘दर्शन तथा ईश्वर’ मीमांसा के दो दृष्टिकोणों से देखा जाता हैं। जब यह कहा जाता है कि विश्व और मानव की सभी अनुभूतियों का एक मूल तत्त्व है, जिसे ईश्वर के नाम से पुकारा जाता है तो इस सर्वेश्वरवाद को अद्वैतवाद कहा जाता है और फिर जब ईश्वर को मानव-पूजा का एकमात्र लक्ष्य समझा जाता है तो यह धार्मिक सिद्धान्त हो जाता है। स्पिनोजा की आलोचना करते हुए हेगेल कहते हैं कि स्पिनीजीय ईश्वर सिंह की वह माँ है जिसमें सभी वस्तुएँ तिरोहित हो जाती हैं तथा उससे कोई भी वस्तु यथार्थरूप में होकर निकलती नजर नहीं आती है।

प्रश्न 6.
क्या भारतीय दर्शन निराशावादी है? स्पष्ट करें।
उत्तर:
दर्शन के इतिहास में निराशावादी (Possimism) और आशावादी (Optimism) दो परस्पर विरोधी सिद्धान्त है। निराशावाद मन की वह प्रवृत्ति है जो जीवन के बुरे पहलू पर ही प्रकाश डालता है। इसके अनुसार जीवन दु:खमय है। इसमें सुख या आनंद के लिए कोई स्थान नहीं है। यह जीवन में कोई आकर्षण नहीं मानता। इसके अनसार जीवन द:खमय असह्य एवं अवांछनीय है। ठीक इसके विपरीत, आशावाद (Optimism) मन की वह प्रवृत्ति है, जो जीवन के शुभ पक्ष को ही देखती है। इसके अनुसार जीवन सुखमय है। विश्व में दुःखों एवं बुराइयों का साम्राज्य नहीं है।

यदि कही दु:ख एवं अशुभ (Evils) है तो ये शुभ (Good) की प्राप्ति में सहायक नहीं है। निराशावादी व्यक्ति जीवन में साधारण असफलता में भी तिलमिला जाता है और नैराश्य के सागर में गोता लगाने लगता है। ठीक इसके विपरीत आशावादी व्यक्ति असफलता से निराश नहीं होता और असफलताओं के मध्य सफलताओं की किरण पाने की सदैव आशा करता रहता है। इस प्रश्नोत्तर में हमें केवल निराशावादी पर विचार करना है।

निराशावाद के उदाहरण पश्चात् और भारतीय दोनों दर्शनों में उपलब्ध है। पश्चात् दर्शन में शॉपेनहावर, हार्टमैन आदि विचारक निराशवादी कहे जाते हैं। इनके अनुसार जीवन दु:खमय है और इसमें सुख की आशा रखना सरासर मूर्खता का काम है। शॉपेनहावर, (Schopenhauer) का पश्चात् जगत् में निराशावाद का जनक माना जाता है। अपने दर्शन में इन्होंने इसकी विशद व्याख्या की है। इनके ही शब्दों में, यह विश्व सभी संभव विश्वास में सबसे बुरा है। ये इतने कट्टर निराशावादी थे कि इन्होंने यहाँ तक कह डाला, “सबसे उत्तम वस्तु है जन्म न लेना और दूसरी उत्तम वस्तु है जन्म लेकर तुरंत मर जाना।”

भारतीय दर्शन में दु:खों की विस्तृत व्याख्या की गयी है। प्रत्येक भारतीय विचारक (चार्वाक को छोड़कर) दु:खों की व्यापकता देखकर दूर करने के लिए ही दार्शनिक चिन्तन आरम्भ करता है। इसी आधार पर कुछ आलोचकों ने भारतीय दर्शन पर निराशावादी (Possimistic) होने का आक्षेप लगाया है किन्तु यह आक्षेप निराधार एवं अलौकिक है। इस आक्षेप की निस्सारता निम्नलिखित तर्कों से प्रमाणित हो जाती है-

यह सत्य है कि भारतीय दर्शन की उत्पत्ति मानसिक बेचैनी एवं आध्यात्मिक असंतोष के कारण होती है। भारतीय विचारक जीवन और जगत् में दुःखों की अधिकता देखकर एक प्रकार की मानसिक बेचैनी आध्यात्मिक असंतोष अनुभूत करते हैं और फलस्वरूप उनका दार्शनिक चिन्तन प्रस्फटित होता है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शन द:खों के विवरण से भरा पड़ा है। यहाँ प्रत्येक विचारक दुःखों को दूर करना ही अपना सर्वप्रथम कर्त्तव्य मानता है। महात्मा बुद्ध ने तो दु:खों के आधार पर अपने चार आर्य सत्यों (The Four Noble Truths) की स्थापना की। जीवन में दुःख के अस्तित्व को कोई स्वीकार नहीं कर सकता । इसी आधार पर भारतीय दर्शन को निराशावादी कहा जाता है।

भारतीय दर्शन का आरंभ निराशावाद से अवश्य होता है, किन्तु इसका अन्त आशावाद में होता है। वह दुःखों के दूर करने का मार्ग बताता है। भारतीय विचारक दुःखों के समक्ष नतमस्तक नहीं हो जाते वरन् उन्हें दूर करने का उपाय बताते हैं। बौद्ध-दर्शन में दुःखों के कारण को दूर करने का मार्ग बताया है। अन्य भारतीय संप्रदायों ने बौद्ध-दर्शन की तरह मोक्ष प्राप्त करने की विधियाँ बतायी है। भारतीय दर्शन दुःखों के अस्तित्व को स्वीकार करने के साथ-ही-साथ इनके विनाश की संभावना में भी विश्वास रखता है। मोक्ष दु:ख रहित अवस्था का नाम है। दु:ख एवं बन्ध क्षणिक एवं नश्वर हैं। इन्हें नश्वर बताकर भारतीय दर्शन आशा का संचार करता है अतः इसे निराशावादी नहीं कहा जा सकता।

कभी-कभी निराशावाद का अर्थ पलायनवाद भी होता है। कर्मों से भागना ही पलायनवाद है। इस अर्थ में भी भारतीय दर्शन को निराशावादी कहा गया है। आलोचक यहाँ तक कहते हैं कि भारतीय दर्शन जीवन और जगत की वास्तविकता से आँखें मूंद कर एकान्तवास का पाठ पढ़ाता है इसलिए इसपर निराशावादी होने का आक्षेप किया जाता है।

भारतीय दर्शन में निराशावाद साधन के रूप में अपनाया जाता है न कि साध्य के रूप में। भारतीय दर्शन का लक्ष्य निराशावाद नहीं है। निराशावाद तो स्वयं एक उच्चतर साध्य का साधन मात्र है। आशावाद ही वह मंजिल है जहाँ पहुँचने के लिए निराशावाद से प्रस्थान करना पड़ता है। राधाकृष्णन के शब्दों में, “भारतीय दार्शनिक वहाँ तक निराशावादी हैं जहाँ तक वे विश्व व्यवस्था को अशुभ और मिथ्या मानते हैं। परन्तु जहाँ तक इन विषयों से छुटकारा पाने का सम्बन्ध है वह निराशावादी है।” इस प्रकार भारतीय दर्शन की उत्पत्ति दु:खों की उपस्थिति के कारण होती है; किन्तु दुःखों के विनाश में किसी व्यक्ति को संदेह नहीं है। निराशावाद भारतीय दर्शन का आधारवाक्य कहा जा सकता है निष्कर्ष नहीं।

हम कह सकते हैं कि निराशावाद स्वयं अपने-आप में निरर्थक नहीं कहा जा सकता। निराशावाद के अभाव में आशावाद का न तो उदय हो सकता है और न इसका मूल्यांकन किया जा सकता है। निराशावाद आशावाद का विरोधी नहीं बल्कि पूरक है। Bosanqet (वोसांक्वेट) के शब्दों में “मैं आशावाद में विश्वास करता हूँ किन्तु साथ ही मानता हूँ कि कोई भी आशावाद तब तक सार्थक नहीं हो सकता जब तक उनमें आशावाद का पुट न हो।” निराशावाद आशावाद रूपी मंजिल तक पहुँचने का एक आवश्यक सोपान है। कुछ विचारक तो निराशावाद को आशावाद से अधिक श्रेष्ठ मानते हैं।

निराशावाद के बीच से ही आशा की किरणें निकलती है। अंधकार के अभाव में प्रकाश का कोई अर्थ नहीं। ऐसा विचार विलियम जेम्स ने भी प्रकट किया है। उनके शब्दों में, “आशावाद निराशावाद से हेय प्रतीत होता है, निराशावाद हमें विपत्तियों से सचेत कर देता है; किन्तु आशावाद झूठी निश्चितता को प्रश्रय देता है।” इस प्रकार यदि भारतीय दर्शन आशावाद की स्थापना के लिए निराशावाद को साधन के रूप में अपनाता है तो यह कोई अनुचित कार्य नहीं है। भारतीय दर्शन का आरंभ बिन्दु निराशावाद हैं किन्तु इसका लक्ष्य आशावाद है।

प्रश्न 7.
व्यापार नीतिशास्त्र के मुख्य सिद्धान्तों की विवेचना करें।
उत्तर:
नैतिकता का सम्बन्ध हमारे व्यवहार, रीति-रिवाज या प्रचलन से है। व्यावसायिक नैतिकता का शाब्दिक अर्थ है-प्रत्येक व्यवसाय की अपनी एक नैतिकता होती है। व्यावसायिक नैतिकता का अर्थ, किसी भी व्यवसाय के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए, अपने आचरण के औचित्य तथा अनौचित्य का मूल्यांकन है।

व्यवसाय का संबंध कुछ ऐसे सीमित व्यक्तियों के उस समूह से होता है जिन्हें अपने व्यवसाय में विशेष योग्यता प्राप्त रहती है और समाज में वे अपने कार्यों को आम लोगों की तुलना में ज्यादा अच्छी तरह करते हैं। यद्यपि व्यवसाय जीवन-यापन का एक साधन है। परन्तु एक व्यावसायिक का मुख्य उद्देश्य सिर्फ धन का अर्जन नहीं होना चाहिए बल्कि सेवा की भावना भी होनी चाहिए। व्यवसाय में, सेवा भाव का स्थान धन अर्जन के उद्देश्य से अधिक ऊँचा होना चाहिए। उदाहरणस्वरूप-शिक्षक, अभियंता, बैंकर्स, कृषक, चिकित्सक, पेशागत व्यक्ति तथा विभिन्न प्रकार के ऐसे व्यवसाय हैं, जिसमें नैतिकता के अभाव में, उस व्यवसाय में सफलता की बात नहीं की जा सकती है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है।

अत: उसके अलग-अलग उद्देश्य एवं अलग-अलग कार्यशैली का होना भी आवश्यक है। चूंकि सभी व्यक्तियों का व्यवसाय अलग-अलग है, अतः उनकी नैतिकता भी पेशा के अनुकूल ही होनी चाहिए। वर्तमान संदर्भ में व्यावसायिक नैतिकता का होना भी आवश्यक है। प्रत्येक व्यवसाय का निश्चित कार्य क्षेत्र है, अतः उनके अलग-अलग उद्देश्य और अलग-अलग कार्यशैली भी है। विभिन्न कार्यशैलियों तथा उद्देश्यों का निर्धारण व्यावसायिक नैतिकता के द्वारा ही संभव है। अतः प्रत्येक व्यवसाय की अपनी आचार-संहिता का होना न केवल आवश्यक है बल्कि सामाजिक व्यवस्था व प्रगति के लिए भी उपयोगी है।

हमारी भारतीय परम्परा में व्यावसायिक नैतिकता का स्पष्ट रूप वर्णाश्रम धर्म में देखने को मिलता है। हमारे भारतीय नीतिशास्त्र में समाज के समुचित विकास के लिए सभी व्यक्तियों को उसके गुण और कर्म के आधार पर विभिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है। यहाँ चार प्रकार के वर्ण माने गये हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य एवं शूद्र। इनका विभाजन का आधार श्रम एवं कार्य विशिष्टीकरण है। इन सभी वर्गों की अपनी व्यावसायिक नैतिकता थी।

प्रश्न 8.
वस्तुवाद की समीक्षात्मक व्याख्या कीजिए। अथवा, वस्तुवाद की विवेचना करें। अथवा, वस्तुवाद के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर:
वस्तुवाद (Realism)-वस्तुओं के अस्तित्व को ज्ञाता से स्वतंत्र मानता है। यह सिद्धान्त ज्ञानशास्त्रीय प्रत्ययवाद का विरोधी माना जाता है, क्योंकि ज्ञानशास्त्रीय प्रत्ययवाद मानता है कि ‘ज्ञाता (Knowledge of subject) और ज्ञेय (Object of knowledge) में ऐसा सम्बन्ध है कि ज्ञाता से स्वतंत्र होने पर ज्ञेय का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता। वस्तुवाद की दूसरी मान्यता है कि ज्ञान से ज्ञात पदार्थों में कोई परिवर्तन नहीं होता अर्थात् जो पदार्थ जिस रूप में रहता है वैसा ही ज्ञात होता है। उदाहरणस्वरूप-जंगल का फूल किसी के द्वारा देखे जाने पर भी फूल ही रहता है और जब उसे कोई देखनेवाला न भी हो तो भी फूल ही है।

वस्तुवाद विचारधारा के ऊपर दृष्टिपात करने के फलस्वरूप कई रूप दृष्टिगत होते हैं। लेकिन उसके मूलतः दो व्यापक रूप उल्लेखनीय हैं-
(i) लोकप्रिय वस्तुवाद (Popular realism)
(ii) दार्शनिक वस्तुवाद (Philosophical realism)

(i) लोकप्रिय वस्तुवाद-लोकप्रिय वस्तुवाद का आधार दार्शनिक चिन्तन नहीं स्वाभाविक विश्वास है। साधारण मनुष्य स्वभावतः वस्तुवादी होता है। उसके अंदर यह विश्वास रहता है कि जिन वस्तुओं को वह जानता है वे उसके ज्ञान पर निर्भर नहीं हैं। साधारणतः लोगों में इस तरह का विश्वास देखा जाता है इसलिए इसे लोकप्रिय वस्तुवाद कहा जाता है। इसके लिए अंग्रेजी शब्द Native Realism या Common Sense Realism प्रचलित है। लोकप्रिय वस्तुवाद के अनुसार

  • ज्ञेय पदार्थ ज्ञाता से स्वतंत्र है,
  • ज्ञान होने से ज्ञात पदार्थ में कोई परिवर्तन नहीं होता, अतः उसके वास्तविक रूप का ज्ञान ज्ञाता को होता है और
  • ज्ञाता को वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप में होता है। इसलिए निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान में मन या ज्ञाता से स्वतंत्र अस्तित्व वाली वस्तुओं के वास्तविक रूप का प्रत्यक्ष दर्शन (direct revelation) होता है।

आलोचना-दार्शनिक दृष्टिकोण से मूल्यांकन करने के पश्चात् वस्तुवाद में बहुत सी त्रुटियाँ दृष्टिगत होती हैं। उसकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि स्वप्न (Dream), विपर्यय (Illusion), विभ्रम (Hallucination) आदि भ्रान्तिपूर्ण अनुभूतियों की व्याख्या नहीं कर सकता है। इसके फलस्वरूप वस्तुओं के वास्तविक रूप का ज्ञान नहीं मिलता, स्वप्न में वस्तुतः कोई पदार्थ अनुभवकर्ता के प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय नहीं होता, किन्तु तरह-तरह की घटनाओं और वस्तुओं का अनुभव होता है। उसी तरह विपर्यय में वस्तुओं के वास्तविक रूप के बदले कोई दूसरा ही रूप सत्य जान पड़ता है।

जैसे-रस्सी अंधेरे में सर्प के रूप में दीख पड़ती है तथा सर्प कभी-कभी रस्सी के रूप में प्रतीत होता है। विभ्रम में भी किसी वास्तविक वस्तु का ज्ञान नहीं होता, बल्कि मन की कोई प्रतिमा (Image) किसी बाह्य वस्तु के रूप में वास्तविक जान पड़ती है जैसे-शोकातुर माता को अपने मरे हुए पुत्र की आवाज सुनाई पड़ती है। अब चूँकि लोकप्रिय वस्तुवाद के अनुसार ज्ञान में वस्तुओं के यथार्थ रूप का दर्शन होता है। किन्तु उपर्युक्त उदाहरणों से यह ज्ञात होता है कि कभी-कभी अयथार्थ (Unreal) का भी अनुभव होता है, ऐसा क्यों होता है ? अयथार्थ की प्रतीति (Appearance) का क्या कारण है ? इन प्रश्नों का लोकप्रिय वस्तुवाद कोई उत्तर नहीं देता है।

(ii) दार्शनिक वस्तुवाद (Philosophical realism)-दार्शनिक वस्तुवाद के अनुसार भी वस्तुओं का अस्तित्व ज्ञाता पर निर्भर नहीं है। लेकिन इस निष्कर्ष को विभिन्न दार्शनिकों ने विभिन्न तरीकों से प्रतिपादित किया है जिसके फलस्वरूप कई रूप हो जाते हैं। Western philosophy में दार्शनिक वस्तुवाद के तीन रूप पाये जाते हैं-

(a) प्रत्यय प्रतिनिधित्वाद (Representation Realism),
(b) नवीन वस्तुवाद (New Realism),
(c) समीक्षात्मक वस्तुवाद।

ये तीनों इस बात से पूरी तरह सहमत हैं कि ज्ञान का विषय ज्ञाता से स्वतंत्र है और ज्ञान होने से उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता बल्कि ज्ञान उसके यथार्थ के रूप का होता है। किन्तु अन्य विषयों पर उनमें मतान्तर है।

प्रश्न 9.
अनेकान्तवाद की व्याख्या करें।
उत्तर:
अनेकान्तवाद जैन दर्शन के तत्त्वशास्त्र से जुड़ा हुआ है। जैन अपने को अनेकान्तवाद का समर्थक मानते हैं जबकि वेदान्त और बौद्ध दर्शन को एकान्तवाद का पोषक मानते हैं। वस्तुतः जैन दर्शन का अनेकान्तवाद वास्तववादी, सापेक्षवादी अनेकान्तवाद है।

जैन दर्शन के अनुसार इस संसार में अनेक वस्तुएँ हैं तथा इनमें से प्रत्येक वस्तु के अनन्त धर्म हैं। जैन जीवों के संदर्भ में अनेकवादी मत को अपनाता है। उनके अनुसार जीव का निवास केवल मानव, पशुओं तथा पेड़-पौधों में ही नहीं है बल्कि धातुओं और पत्थरों जैसे पदार्थों में भी निहित है। जीव के अतिरिक्त जड़-तत्व को जैन दर्शन में पुग्दल की संज्ञा दी गयी है। जो द्रव्य पूरण तथा गलने के द्वारा विविध प्रकार से परिवर्तित होता है, वह पुग्दल है। पुग्दल के दो भेद हैं।

वे हैं-अणु (atom) और ‘स्कन्ध’ (compound)। पुग्दल का वह अंतिम अंश जो विभाजन से परे हैं अणु हैं। अणुओं के संकलन को ‘स्कन्ध’ कहा जाता है। जैनों के मतानुसार पूरा संसार चेतन, जीव और अचेतन पुग्दल से भरा है जो नित्य, स्वतंत्र तथा अनेक हैं। इस प्रकार जैन दर्शन बहुतत्ववादी यथार्थवाद (Realistic Pluralism) का समर्थक है। इसे ही हम अनेकान्तवाद से जानते हैं।

प्रश्न 10.
ईश्वर के अस्तित्व संबंधी प्रमाणों को दें।
उत्तर:
न्याय दर्शन में ईश्वर को जीवों के सुख-दुःख का विधायक एवं जगत का सृष्टिकर्ता माना गया है। ईश्वर जगत का निर्माता, पालक एवं संहारक है। ईश्वर अनन्त और नित्य है। ईश्वर सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ एवं विभु है। ईश्वर के अस्तित्व के लिए निम्नलिखित प्रमाण दिए गए हैं-

1. कारणाश्रित तर्क प्रत्येक घटना का एक कारण होता है। यह विश्व भी एक घटना या कार्य है, अत: विश्वरूपी कार्य का कोई कारण होगा। वह कारण ईश्वर है। दुनिया में दो प्रकार की वस्तुएँ दीख पड़ती हैं। कुछ वस्तुएँ निरवयव होती हैं, जैसे आत्मा, मन, दिक्, काल इत्यादि। इनके कर्ता का प्रश्न नहीं उठता है। कुछ वस्तुएँ सावयव होती हैं, जैसे-नक्षत्र, पहाड़, समुद्र, तारे इत्यादि। इनका कोई कारण होगा। यह कारण ईश्वर है, यहाँ पर विश्व के निमित्त कारण के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध किया गया है।

नैयायिकों की तरह यह युक्ति पॉल जानेट, लॉटजा, माटिन एकव डेकार्ट के कारणमूलक तर्क से मिलती है। इस तर्क में कमजोरी यह है कि ईश्वर को यह शरीरधारी बना देता है। पुनः यह तर्क इस बात पर आधारित है कि विश्व एक कार्य है। ईश्वर अगर कर्ता है तो इसका क्या लक्ष्य है ? ईश्वर तो पूर्ण है। उसकी किस आवश्यकता की पूर्ति के लिए सृष्टि की गई है ?

2. अदृष्ट का अधिष्ठाता ईश्वर है- संसार में कुछ लोग सुखी हैं तथा कुछ लोग दुःखी हैं। जीवन की इन घटनाओं का क्या कारण है ? लोगों के भाग्य में विषमता का कोई कारण होगा। न्याय के अनुसार इसका कारण कर्म है। मानव के सभी कर्मों का फल संचित रहता है। न्याय दर्शन अच्छे और बुरे कर्मों से उत्पन्न पाप या पुण्य के भण्डार को अदृष्ट कहता है।

3. श्रति ईश्वर को प्रमाणित करती है हमारे धार्मिक ग्रन्थ ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करते हैं। जैसे-गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि “मैं ही जगत का कर्ता, पालन और संहारक हूँ।” उपनिषद्, वेद, महाभारत और रामायण भी ईश्वर की सत्ता को प्रमाणित करते हैं।
इस प्रमाण में कमी यह है कि यह प्रमाण विश्वास पर आधृत है। जिन्हें धर्म-ग्रन्थों में विश्वास नहीं है, उनके लिए यह प्रमाण महत्त्व नहीं रखता है।

4. वेदों की प्रामाणिकता ईश्वर के अस्तित्व के लिए एक प्रमाण है सभी धर्म अपने-अपने धर्म-ग्रंथों की प्रामाणिकता को स्वीकार करते हैं। वेदों की प्रामाणिकता उनके रचयिता पर निर्भर है। वेदों का रचयिता जीव नहीं हो सकता, क्योंकि जीव अलौकिक और अतीन्द्रिय विषयों को नहीं जानता है। वेदों का कर्ता एक ऐसा व्यक्ति है जो भूत, भविष्य, वर्तमान, विभु और अरूप, अतीन्द्रिय सभी विषयों का अपरोक्ष ज्ञान रखता है, वह पुरुष ईश्वर है वेद प्रमाणित करते हैं कि ईश्वर है।

अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि ईश्वर के अस्तित्व के लिए जो प्रमाण न्याय दर्शन में मिलते हैं, वे परम्परागत प्रमाण हैं। ये प्रमाण ईश्वर के अस्तित्व को प्रमाणित करते हैं।

प्रश्न 11.
अद्वैत वेदान्त के आत्मा के स्वरूप की व्याख्या करें।
उत्तर:
शंकर के दर्शन को अद्वैत वेदान्त कहा जाता है। उसने आत्मा को ही ब्रह्म कहा है। आत्मा ही एकमात्र सत्य है। आत्मा की सत्यता पारमार्थिक है। शेष सभी वस्तुएँ व्यावहारिक सत्यता का ही दावा कर सकती है। आत्मा स्वयं सिद्ध है। इसे प्रमाणित करने के लिए तर्कों की आवश्यकता नहीं है। यदि कोई आत्मा का निषेध करता है और कहता है कि “मैं नहीं हूँ” तो उसके इस कथन में भी आत्मा का विधान निहित है।

फिर भी ‘मैं’ शब्द के साथ इतने अर्थ जुड़े हैं कि आत्मा का वास्तविक स्वरूप निश्चित करने के लिए तर्क की शरण में जाना पड़ता है। कभी मैं शब्द का प्रयोग शरीर के लिए होता है जैसे-मैं मोटा हूँ। कभी-कभी “मैं” का प्रयोग इन्द्रियों के लिए होता है। जैसे-मैं अन्धा हूँ। शंकर के अनुसार जो अवस्थाओं में विद्यमान रहे वही आत्मा का तत्त्व हो सकता है। चैतन्य सभी अवस्थों में सामान्य होने के कारण मौलिक है। अतः चैतन्य ही आत्मा का स्वरूप है। इसे दूसरे ढंग से भी प्रमाणित किया जा सकता है। दैनिक जीवन में हम तीन प्रकार की अनुभूतियाँ पाते हैं-

  1. जाग्रत अवस्था (Walking experience)
  2. स्वप्न अवस्था (Dreaming experience)
  3. सुषुप्ति अवस्था (Dreamless sleeps experience)

जाग्रत अवस्था में व्यक्ति को बाह्य जगत् की चेतना रहती है। स्वप्नावस्था में आभ्यान्तर विषयों की स्वप्न रूप में चेतना रहती है। सुषुप्तावस्था में यद्यपि बाह्य आभ्यान्तर विषयों की चेतना नहीं रहती है, फिर भी किसी न किसी रूप में चेतना अवश्य रहती है। इसी आधार पर तो हम कहते हैं-“मैं खूब आराम से सोया।” इस प्रकार तीनों अवस्थाओं में चैतन्य सामान्य है। चैतन्य ही स्थायी तत्त्व है। चैतन्य आत्मा का गुण नहीं बल्कि स्वभाव है। चैतन्य का अर्थ किसी विषयक चैतन्य नहीं बल्कि शुद्ध चैतन्य है। चेतना के साथ-साथ आत्मा में सत्ता (Existence) भी है। सत्ता (Existence) चैतन्य में सर्वथा वर्तमान रहती है। चैतन्य के साथ-साथ आत्मा में आनन्द भी है।

साधारण वस्तु में जो आनन्द रहता है वह क्षणिक है, पर आत्मा का आनन्द शुद्ध और स्थायी है। शंकर ने आत्मा को सत् + चित् + आनन्द = सच्चिदानन्द कहा है। शंकर के अनुसार “ब्रह्म” सच्चिदानन्द है। चूंकि आत्मा वस्तुतः ब्रह्म ही है इसलिए आत्मा को सच्चिदानन्द कहना प्रमाण संगत प्रतीत होता है। भारतीय दर्शन के आत्मा सम्बन्धी सभी विचारों में शंकर का विचार अद्वितीय कहा जा सकता है। वैशेषिक ने आत्मा का स्वरूप सत् माना है। न्याय की आत्मा स्वभावतः अचेतन है। सांख्य में आत्मा को सत् + चित् (Existence Consciousness) माना है। शंकर ने आत्मा का स्वरूप सच्चिदानन्द मानकर आत्मा सम्बन्धी विचार में पूर्णता ला दी है।

शंकर ने आत्मा को नित्य शुद्ध और निराकार माना है। आत्मा एक है। आत्मा यथार्थतः भोक्ता और कर्त्ता नहीं है। वह उपाधियों के कारण ही भोक्ता और कर्त्ता दिखाई पड़ता है। शुद्ध चैतन्य होने के कारण आत्मा का स्वरूप ज्ञानात्मक है। वह स्वयं प्रकाश है, तथा विभिन्न विषयों को प्रकाशित करता है। आत्मा पाप और पुण्य के फलों में स्वतंत्र है। वह सुख-दुःख की अनुभूति नहीं प्राप्त करता है। आत्मा को शंकर ने निष्क्रिय कहा है। यदि आत्मा को साध्य जाना जाए तब वह अपनी क्रियाओं के फलस्वरूप परिवर्तनशील होगा। इस तरह आत्मा की नित्यता खण्डित हो जायेगी। आत्मा देश, काल और कारण नियम की सीमा से परे हैं। आत्मा सभी विषयों का आधार स्वरूप है। आत्मा सभी प्रकार के विरोधों से शून्य हो। आत्मा त्रिकाल-अवाधित सत्ता है। वह सभी प्रकार के भेदों से रहित है। वह अवयव से शून्य है।

प्रश्न 12.
सप्तभंगी नय से आप क्या समझते हैं? विवेचना करें।
उत्तर:
जैन दर्शन के सात प्रकार के परामर्श के अन्तर्गत ये दो परामर्श भी निहित हैं। जैन-दर्शन के इस वर्गीकरण को सप्त-भगी नय कहा जाता है। सप्तभंगी नय की संख्या सात है, जिनका वर्णन निम्नलिखित हैं-

(i) स्यात् अस्ति (Some how Sis)-यह प्रथम परामर्श है। उदाहरणस्वरूप यदि कहा जाय कि “स्यात् दीवाल लाल है” तो इसका अर्थ यह होगा कि किसी विशेष देश काल और प्रसंग में दीवाल लाल है। यह भावात्मक वाक्य है।

(ii) स्याति नास्ति (Some how S is not)-यह अभावात्मक परामर्श है। टेबुल के संबंध में अभावात्मक परामर्श इस प्रकार का होना चाहिए-स्यात् टेबुल इस कोठरी के अन्दर नहीं है।

(iii) स्याति अस्ति च नास्ति च (Some how S is and also is not)-वस्तु की सत्ता एक अन्य दृष्टिकोण से हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। घड़े के उदाहरण में घड़ा लाल भी हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में ‘स्यात है’ और ‘स्यात नहीं है’ का ही प्रयोग हो सकता है।

(iv) स्यात अव्यक्तव्यम् (Some how S is indescribable)-यदि किसी परामर्श में परस्पर विरोधी गुणों के संबंध में एक साथ विचार करना हो तो उसके विषय में स्यात् अव्यक्तव्यम का प्रयोग होता है। लाल टेबुल के सम्बन्ध में कभी ऐसा भी हो सकता है जब उसके बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि वह लाल है या काला। टेबुल के इस रंग की व्याख्या के लिए ‘स्यात अव्यक्तव्यम’ का प्रयोग वांछनीय है। यह चौथा परामर्श है।

(v) स्यात् अस्ति च अव्यवक्तव्यम् च (Some how S is and is indescribable)-वस्तु एक ही समय में हो सकती है और फिर अव्यक्तव्यम् रह सकती है। किसी विशेष दृष्टि से कलम को लाल कहा जा सकता है। परन्तु जब दृष्टि का स्पष्ट संकेत न हो तो कलम के रंग का वर्णन असम्भव हो जाता है। अतः कलम लाल और अव्यक्तव्यम है। यह परामर्श पहले और चौथे को जोड़ने से प्राप्त होता है।

(vi) स्यात् नास्ति च अव्यक्तव्यम् च (Some how S is not, and is Indescribable)-दूसरे और चौथे परामर्श को मिला देने से छठे परामर्श की प्राप्ति हो जाती है। किसी विशेष दृष्टिकोण से किसी भी वस्तु के विषय में “नहीं है” कह सकते हैं। परन्तु दृष्टि स्पष्ट न होने पर कुछ स्पष्ट न होने पर कुछ नहीं कहा जा सकता। अतः कलम लाल है और अव्यक्तव्यम् भी है।

(vii) स्यात् अस्ति च नास्ति च अव्यक्तव्यम् च (Some how S is, and is not and is indescribable)-इसके अनुसार एक दृष्टि से कलम लाल है, दूसरी दृष्टि से कलम लाल नहीं है और जब दृष्टिकोण अस्पष्ट हो तो अव्यक्तव्यम् है। यह परामर्श तीसरे और चौथे को जोड़कर बनाया गया है।

प्रश्न 13.
प्रत्ययवाद की मुख्य विशेषताओं की व्याख्या करें।
उत्तर:
ज्ञान शास्त्रीय प्रत्ययवाद मानता है कि ज्ञाता और ज्ञेय में ऐसा सम्बन्ध है कि ज्ञाता से स्वतंत्र या असम्बद्ध होने पर ज्ञेय का अस्तित्व कायम नहीं रह सकता। प्रत्ययवाद इस सिद्धान्त के अनुसार ज्ञाता से स्वतंत्र ज्ञेय की कल्पना संभव नहीं है। यह सिद्धान्त ज्ञान को परमार्थ (ultimate) मानता है। इसका अर्थ यह है कि ज्ञान की परिधि को कम करना संभव नहीं है, इसलिए हम जो भी कथन करेंगे वह उसकी सीमा के अन्दर ही। इस प्रकार ज्ञान हमारे चिन्तन की सीमा है। ज्ञान के द्वारा ज्ञाता और ज्ञेय के बीच सम्बन्ध स्थापित होता है। जब कभी किसी पदार्थ का अनुभव या ज्ञान होता है तो ज्ञाता से सम्बन्धित करते हैं।

ज्ञाता से असम्बन्ध पदार्थ का अनुभव या ज्ञान होता है तो ज्ञाता से सम्बन्धित करते हैं। ज्ञाता से असम्बन्ध पदार्थ से कभी हमारा संपर्क नहीं होता। जिसका ज्ञान संभव नहीं है उसे हम सत्य नहीं मान सकते, क्योंकि ज्ञान ही हमारी सीमा है। किसी पदार्थ को ज्ञाता से स्वतंत्र तभी कहा जा सकता है जबकि ज्ञाता से स्वतंत्र अर्थात् असम्बद्ध करके उसका ज्ञान मिल सके। किन्तु यह बिल्कुल असंभव है।

प्रत्ययवाद के निम्नलिखित विशेषता होती है-

(i) प्रत्ययवादियों का एक प्रसिद्ध तर्क परस्पर सम्बद्धता सिद्धान्त (Theory of inter relation) पर आधारित है। वे मानते हैं कि सभी सम्बद्ध अन्तरंग (Internal) है। आन्तरिक संबंध (Internal relation) उसे कहते हैं जिसके सम्बन्धित पदों में एक-दूसरे पर निर्भर करता है। जबकि सभी सम्बद्ध अन्तरंग (Internal) होगा ही। इसलिए यह निश्चित है कि ज्ञेय ज्ञाता पर अवलम्बित होगा।

(ii) अनुभव की सपेक्षता से भी प्रत्ययवाद प्रमाणित होता है। सापेक्षिता का मतलब है कि अनुभवकर्ताओं में भिन्नता होने पर पदार्थों का अनुभव भिन्न रूप में होता है। प्रत्ययवादी विचारक बतलाते हैं कि एक ही उजला रंग स्वस्थ्य आँख वाले को उजला और पीलिया के रोगी को पीला दीख पड़ता है। इस प्रकार अनुभवकर्ताओं में भेद होने से अनुभव पदार्थों में भेद होना प्रमाणित करता है कि वे अनुभवकर्ताओं पर अवलंबित हैं।

(iii) प्रत्ययवादी कहते हैं कि यदि हम मान भी लें कि ज्ञाता से बिल्कुल स्वतंत्र पदार्थ हैं तो उनके लिए कोई प्रमाण नहीं है। बिल्कुल स्वतंत्र होने का मतलब है कि बिल्कुल असम्बद्ध होना। किन्तु ‘स्वतंत्र पदार्थ है’ यह तभी प्रमाणित हो सकता है जबकि उक्त पदार्थों का ज्ञान हो। किन्तु उक्त ज्ञान के होने पर वे ज्ञाता से सम्बन्धित हो जायेंगे अत: उनकी स्वतंत्रता नष्ट हो जायेगी। . इसलिए यदि वस्तु स्वतंत्र है भी तो यह असिद्ध है।

(iv) फिर यदि हम मानते हैं कि कोई पदार्थ ज्ञाता से बिल्कुल असम्बद्ध है तो प्रश्न उठता . है कि वह कभी उससे क्यों सम्बन्धित होता है। ज्ञान में ज्ञाता और ज्ञेय का संबंध होता है किन्तु जो पदार्थ ज्ञाता से असंबद्ध है उसका उससे सम्बन्धित होना अचिंत्य है। यह कठिनाई पदार्थों को ज्ञाता से स्वतंत्र मानने से होती है। यदि मान लिया कि सभी पदार्थ ज्ञाता पर निर्भर है तो ऐसी कठिनाई नहीं होगी।

प्रश्न 14.
दर्शनशास्त्र के स्वरूप की व्याख्या करें तथा जीवन के साथ इसके संबंध को दर्शाइए।
उत्तर:
दर्शन की कई परिभाषाएँ दी जाती हैं। वास्तव में, दर्शन को किसी परिभाषा विशेष के अंतर्गत सीमित करना उचित नहीं जान पड़ता। हाँ, इसकी व्याख्या की जा सकती है। हम ऐसा कह सकते हैं कि “अनवरत तथा प्रयत्नशील चिंतन के आधार पर विश्व की समस्त अनुभूतियों की बौद्धिक व्याख्या तथा उनके मूल्यांकन (Evaluation) के प्रयास को ही दर्शन की संज्ञा दी जा संकती है।” यदि इस व्याख्यात्मक परिभाषा का विश्लेषण किया जाए, तो दार्शनिक चिंतन की निम्नलिखित विशेषताएँ स्पष्ट दीख पड़ती हैं-

(a) दर्शन विश्व को उसकी समग्रता में समझने का प्रयास करता है-यहाँ दर्शन और विज्ञान से स्पष्ट अन्तर है। विज्ञान विश्व को विभिन्न अंशों में बाँटकर उसका अध्ययन करता है। भौतिकशास्त्र भौतिक पदार्थों का, रसायनशास्त्र रस, गैस आदि का और जीवविज्ञान जीव का अध्ययन करता है। अध्ययन की यह विधि विश्लेषणात्मक (Analytic) है। इसके विपरीत, दर्शन की विधि संश्लेषणात्मक (Synthetic) है। यह विश्व को एक इकाई के रूप में जानना चाहता हैं।

(b) दार्शनिक चिन्तन बौद्धिक (Intellectual) है-दार्शनिक व्याख्या सदैव बुद्धि (Intellect or Reason), ठोस प्रमाण और तार्किक युक्ति पर आधृत रहती है। बुद्धि की कसौटी है सामंजस्य (Consistency) अर्थात् व्याघातकता (Contradiction) का अभाव। भावनाओं, संवेगों या विश्वास (Faith) के आधार पर दार्शनिक चिन्तन नहीं हो सकता। यहाँ धर्म और दर्शन का अंतर स्पष्ट हो जाता है। धर्म भावनाओं एवं विश्वासों पर आधृत है, किंतु दर्शन का आधार बौद्धिक है।

(c) दार्शनिक चिन्तन निष्पक्ष होता है-विश्व का अध्ययन करने के समय दार्शनिक अपने स्वार्थभाव, राग-द्वेष एवं पक्षपातपूर्ण भावनाओं से पूर्णतया मुक्त हो जाता है। विश्व को उसके यथार्थ रूप में जानना ही उसका लक्ष्य रहता है, इसलिए दार्शनिक चिंतन को निष्पक्ष (Impartial) कहा जाता है। यह आत्मनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ हो जाता है।

(d) दार्शनिक चिंतन का व्यावहारिक (Practical) उद्देश्य होता है-मानव-जिज्ञासा को शान्त करना ही दर्शन का लक्ष्य है। जबतक दार्शनिक जीवन और जगत का सही अर्थ नहीं जान लेता, तबतक उसका चिंतन अनवरत जारी रहता है। जीवन और जगत को नश्वर समझने पर व्यक्ति अपने जीवन को सुखी बना सकता है। इस प्रकार जीवन की मौलिक समस्याओं का समाधान प्राप्त करना दर्शन अपना कर्त्तव्य समझता है।

भारतीय दार्शनिकों के अनुसार ‘दर्शन’ का अर्थ वह विद्या है जिसके द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया जा सके। सत्य का साक्षात्कार (Vision of Truth) हो जाने पर व्यक्ति वास्तविक और मिथ्या (Real and Unreal) का अन्तर समझ लेता है। दर्शन से हमें सम्यक् दृष्टि प्राप्त होती है। विषयों का वास्तविक ज्ञान हमें इसी शास्त्र के द्वारा होती है। व्यक्ति तभी तक बन्धन में रहता है, जबतक उसे सत्यज्ञान नहीं होता। सत्यज्ञान मिलते ही व्यक्ति सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाता है और उसे मोक्ष (Salvation) मिल जाता है। इस प्रकार, भारतीय विचारकों के अनुसार दर्शन का उद्देश्य बंधन काटकर व्यक्ति को मोक्ष दिलाना है। इसलिए, भारतीय दर्शन को ‘मोक्ष दर्शन’ कहा जाता है।

प्रश्न 15.
पर्यावरणीय नीतिशास्त्र की परिभाषा दें। इसकी विषय-वस्तु का उल्लेख करें। अथवा, पर्यावरणीय नैतिकता की विवेचना करें।
उत्तर:
पर्यावरण के अंतर्गत हमारे परिवेश या आस-पड़ोस की वस्तुएँ, जीव-जंतु इत्यादि सम्मिलित किए जाते हैं। इसमें वायु, जलमिट्टी, पेड़-पौधे, वनस्पति इत्यादि आ जाते हैं। मानवीय परिवेश की समस्त जीवित और निर्जीव वस्तुएँ मानव के अस्तित्व के लिए ही नहीं वरन् समस्त पृथ्वी के लिए अनिवार्य है। मानव समेत, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे झाड़ी, घास-पात, मिट्टी आदि सभी प्रकृति के अंग है। इसके बीच एक आंतरिक संबन्ध है। इसी संबंध की दृष्टि से जब हम प्रकृति का अवलोकन करते हैं तो प्रकृति को ही पारिस्थिति की (Ecology) कहते हैं। मानव का इस प्रकृति की अन्य वस्तुओं से निर्भरता का संबंध है। ये परस्पर एक-दूसरे पर अपने अस्तित्व के लिए निर्भर हैं। इसी पारिस्थितिकी (Ecology) में आहार-चक्र जलचक्र एवं ऋतु परिवर्तन आदि का महत्वपूर्ण योगदान होता है। अतः व्यक्ति अपने अस्तित्व के लिए प्रकृति पर निर्भर करता है।

पर्यावरण की नैतिकता का संबंध भी पारिस्थितिकी की स्वाभाविक प्रक्रिया को कायम रखने से है। यहाँ दो प्रकार के नैतिकता संबंधी विचार हमारे समक्ष उत्पन्न होते हैं-

(i) व्यक्तिवादी नैतिकता यहाँ व्यक्ति को केंद्र में रखकर अन्य सभी वस्तुओं एवं परिस्थितियों का मूल्यांकन किया जाता है। यहाँ व्यक्ति का हित सर्वोपरि होता है, परंतु व्यक्ति अधिकतम सुख चाहता हूँ और व्यक्तिवादी दृष्टिकोण व्यक्ति के सुख के लिए प्रकृति के उपयोग का अधिकतम उपयोग को वैध (Valid) मानता है।

(ii) प्रकृतिवादी दृष्टिकोण (Non Anthroposontiric)-इस दृष्टिकोण से व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं वरन् प्रकृति स्वयं महत्वपूर्ण है। यह मातृ सत्तात्मक (Feminist) विचारधारा है जो आधुनिक एवं वर्तमान परिवेश में महत्वपूर्ण है।

प्रश्न 16.
अद्वैत वेदान्त के अनुसार माया का वर्णन करें।
उत्तर:
अविद्या, अज्ञान, अध्यास, अध्यारोप, अनिर्वचनीय, विर्क्स, भ्रान्ति, भ्रम, नाम-रूप, अव्यक्त, बीज शक्ति, मूल-प्रकृति आदि शब्दों का प्रयोग माया के अर्थ में ही हुआ है। माया तथा अविद्या प्रायः पर्यायवाची रहे हैं। वेदांत में दो प्रकार के विचार मिलते हैं। कुछ लोग माया और अविद्या में कोई भेद नहीं मानते। शंकराचार्य का कहना है कि “आवरण” माया है “विक्षेप” अविद्या। पहला छिपाता है और दूसरा कुछ अन्य ही तथ्य दिखलाता है। ब्रह्म छिप जाता है और वह जगत के रूप में परिलक्षित होता है। दूसरे लोगों का कहना है कि माया और अविद्या में भेद है। माया भावात्मक है।

उसका ब्रह्म से अलग होना सम्भव नहीं है। वह ब्रह्म में रहता है। पर अविद्या जीव के अज्ञान अर्थ में प्रयुक्त होता है। चरम तत्व का अज्ञान ही अविद्या है। यह निषेध का निर्देश करता है। पुनः माया ब्रह्म को जगत रूप दिखानेवाली व्यापक शक्ति है। यह शक्ति ईश्वर को साकार बनाती है। अविद्या जीव की शक्ति है। यह ईश्वर को प्रभावित नहीं करती। ब्रह्म माया-वश ईश्वर है। ब्रह्म अविद्या-वश जीव की अविद्या ज्ञानोदय होने पर नष्ट हो सकती है। पर माया का नाश संभव नहीं है। पुनः, माया सत्वगुण-प्रधान है। अविद्या तीन गुणों से बनी है। इन भेदों के बावजूद भी दोनों स्वभावतः एक ही है। ब्रह्म की शक्ति का सामान्य रूप माया है, विशेष रूप अविद्या

शंकर के अनुसार माया या अविद्या की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-
(क) माया ब्रह्म के विपरीत अचेतन है। इसमें किसी प्रकार की चित्-शक्ति नहीं है।

(ख) यह ब्रह्म की आंतरिक शक्ति है। यह ब्रह्म पर आश्रित पर निर्भर है। माया और ब्रह्म का सम्बन्ध तादात्म्य सम्बन्ध है।

(ग) माया अनादि है। यह भ्रम कि जगत सत्य है, यह कब आरम्भ हुआ, नहीं कहा जा सकता।

(घ) माया भाव-रूप है। भाव-रूप होने पर भी यह वास्तविक नहीं। इसे भाव-रूप इस कारण कहा जाता है कि इसके दो पक्ष हैं-निषेध-पक्ष से यह ब्रह्म का आवरण और भाव-पक्ष से उसे जगत रूप में दिखाता है।

(ङ) माया अनिर्वचनीय है। इसे न सत् कहते बनता है, न असत्। यह सत्य इस कारण नहीं है कि यह जगत् का आभास है। फिर इस सत्यं इसलिए नहीं है कि इसका अपना निरपेक्ष अस्तित्व नहीं है। अविद्या असत्य है क्योंकि ज्ञानोदय होने पर इसका नाश होता है। पर यह सत्य है क्योंकि जबतक भ्रम रहता है तबतक उनका अस्तित्व कायम रहता है। यह सत्य-असत्य दोनों है। इस कारण ही इसे अनिर्वचनीय कहा गया है।

(च) माया में व्यावहारिक सत्ता, सापेक्ष सत्ता है। व्यवहार में इससे काम चलता है। जगतः सत्य दीखता है। पर मूलतः ब्रह्म ही सत्य है। वही मात्र निरपेक्ष सत्य है।

(छ) इसकी प्रकृति अभ्यास (Super imposition), भ्रान्ति की है।

(ज) माया का सम्यक ज्ञान से ही निरोध होता है।

(झ) माया का आश्रय तथा विषय ब्रह्म है। यह बात सही है कि ब्रह्म माया से किसी प्रकार प्रभावित नहीं होता। जिस तरह जादूगर अपने जादू से प्रभावित नहीं होता, उसी प्रकार ब्रह्म अपनी माया-शक्ति से कभी परिचालित नहीं होता। माया के कारण ही अनेकता का विश्व दीखता है और अखंडित ब्रह्म छिप जाता है। अभ्यास और विक्षेप माया के दो कर्म हैं।

प्रश्न 17.
चिकित्सा नीतिशास्त्र की समीक्षात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
चिकित्सा नीतिशास्त्र (Medical Ethics)-आज चिकित्सा जैसे पवित्र पेशे में भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी फैल चुकी हैं। एक समय ऐसा था कि भारत देश में सुश्रुत चरक, धन्वन्तरि जैसे महान चिकित्साशास्त्री हुए थे। ये सब अपने विषय के विद्वान व्यक्ति थे। इन्होंने चिकित्साशास्त्र के क्षेत्र में जो उल्लेखनीय कार्य किया उसकी परम्परा आज तक भारत में आयुर्वेद के नाम से चली आ रही है। आयुर्वेद में अनेकों बातें इन्होंने सार रूप में कही हैं जिनका उपयोग आज तक मानव समाज कर रहा है। इन चिकित्साशास्त्रियों ने न केवल चिकित्साशास्त्र का ज्ञान दिया बल्कि उसमें चिकित्सा करने के नियम, वैद्य के गुण, चिकित्सा करने वाले को क्या करना चाहिए, क्या नहीं, चिकित्सक की वृत्ति किस प्रकार की होनी चाहिए ये सब बातें उन्होंने अपने ग्रंथ में बतायी।

एक बात मानी जा सकती है कि पुरातन समय के शिक्षाशास्त्रियों ने न केवल चिकित्सा क्षेत्र का ज्ञान बढ़ाया बल्कि चिकित्सा के सिद्धांत, चिकित्सा व चिकित्सा करने के नियम, चिकित्सा की आचार नीति भी बतायी। लगता है कि उन लोगों को पहले ही इस बात का ज्ञान हो गया था कि आने वाले समय में चिकित्सा जैसे पवित्रतम पेशे में भी भ्रष्टाचार व लालच की प्रवृत्ति पनप जायेगी। उन्होंने बहुत वर्ष पहले यह अनुमान लगा लिया कि कहीं न कहीं कुछ कमी इस वृत्ति में अवश्य मिलेगी। तभी उनके नीतिशास्त्रों में गलत उपायों से चिकित्सा वृत्ति को केवल धन वृत्ति बनाने वालों के बारे में यथोचित वर्णन मिलता है।

चिकित्सक को तो भगवान के रूप में माना जाता है परंतु आज यह हालत है कि चिकित्सक रूपी भगवान ही हैवान बने बैठे हैं। उनके मन में पैसा कमाने की इतनी वृत्तियाँ हैं कि वे साम, दाम, दण्ड, भेद इन चारों विधियों से धन कमाने में लगे हैं।

वास्तव में प्रत्येक चिकित्सक सामाजिक दायित्व से बँधा है। उस दायित्व को पूरा करना ही चिकित्सक का कर्तव्य है। अपने कर्तव्य की पूर्ति के लिए जिन उपायों को अपनाने की आवश्यकता है वह हैं-ईमानदारी, सहानुभूति, सत्यवादिता, दयालुता, प्रेम आदि। किसी रोगी के साथ ईमानदारी से व कार्य कुशलता से व्यवहार किया जाये तो उसके मन पर अच्छा प्रभाव पड़ता है और रोगी तो अपने-आप ही ठीक हो जाता है। चिकित्सक अपने रोगियों के साथ प्रेमपूर्वक बातें करें, उसका दर्द समझे, उसे अपनापन प्रदर्शित करें तो रोगी को अस्पताल-अस्पताल न लगकर घर लगने लगता है।

मगर आज के समय में चिकित्सक मोटी फीस, महँगे ऑपरेशन, खर्चीली दवाईयाँ पर रोगी का इतना खर्चा करा देते हैं कि रोगी अपने रोग से न मरकर अपने इलाज के खर्चे तले ही आकर मर जाता है।

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट हो जाता है कि चिकित्साशास्त्र में व्याप्त कटुताएँ व भ्रष्टाचार ने इस पेशे को कलंकित कर दिया है। इतने पवित्र पेशे को बर्बाद करने वालों से यह पूछा ‘जाना चाहिए कि किसी गरीब की हाथ पाकर, उनका सर्वस्व लूटकर चिकित्सक को कौन-सा ।
पुण्य लाभ प्राप्त हो जायेगा ? आज इस विषय पर समग्र चिंतन की महती आवश्यक है। क्या इतने प्रतिष्ठित व्यवसाय बल्कि सेवा क्षेत्र में व्याप्त अनैतिकता को दूर किये जाने का कोई प्रयास होगा?

प्रश्न 18.
अष्टांगिक योग का वर्णन करें।
अंथवा, योग दर्शन के अष्टांग मार्ग की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
उत्तर:
योग दर्शन सांख्य के समान ही विवेकज्ञान को मुक्ति का साधन मानता है। विवेक ज्ञान का अर्थ है आत्म दृष्टि के द्वारा इस सत्य का दर्शन कि आत्मा नित्यमुक्त शुद्ध चैतन्य स्वरूप और शरीर तथा मन से पृथक है। परन्तु यह दृष्टि तभी हो सकती है जब अन्त:करण सर्वथा निर्विकार, शुद्ध और शांत हो जाए। चित्त की शुद्धि और पवित्रता के लिए योग आठ प्रकार के साध न बतलाता है। इसलिए इसे “अष्टांग योग” या “अष्टांग साधन” कहते हैं। ये अष्टांग साधन इस प्रकार से हैं-

(i) यम-यम योग का प्रथम अंग है। इसका अर्थ होता है-मन, वचन और कर्म पर नियंत्रण। भारतीय दर्शन में वर्णित पाँच व्रतों या धर्मों का मन, वचन और कर्म से पालन करना ही यम है। ये पाँच व्रत इस प्रकार हैं-
(a) अहिंसा-किसी जीव को कोई कष्ट नहीं देना।
(b) सत्य-मिथ्या का पूर्ण त्याग।
(c) अस्तेय-दूसरों की वस्तु की चोरी नहीं करना।
(d) ब्रह्मचर्य-विषय वासना की ओर नहीं जाना।
(e) अपरिग्रह-लोभ वश अनावश्यक वस्तु ग्रहण नहीं करना।

(ii) नियम-नियम योग का दूसरा अंग है। इसके अन्तर्गत उन सभी बातों का उल्लेख किया गया है जिसको करना चाहिए जबकि नियम में उन बातों का उल्लेख किया गया है जिसे नहीं करना चाहिए। नियम के अन्तर्गत पाँच अनुशासन होते हैं-
(a) शौच,
(b) सन्तोष,
(c) तपस,
(d) स्वाध्याय,
(e) ईश्वर प्राणिधान।

(iii) आसन-आसन शरीर का साधन है। इसका अर्थ है शरीर को ऐसी स्थिति में रखना जिससे निश्चय होकर सुख के साथ देर तक रह सकते हैं। नाना प्रकार के आसन होते हैं। जैसे-
पद्मासन-पद्मासन, भद्रासन, सिद्धासन, वीरासन, शीर्षासन, गरूडासन, मयूरासन, शवासन इत्यादि। इनका ज्ञान किसी सिद्ध गुरु से ही प्राप्त करना चाहिए। आसन क्रिया के द्वारा व्यक्ति शरीर को विकारों एवं व्याधियों से बचा सकता है।

(iv) प्राणायाम-प्राणायाम का साधारण अर्थ जीवन वृद्धि है। किन्तु योग दर्शन में इसका अर्थ है-श्वास क्रिया पर नियंत्रण। सांस चलते रहने से मन चंचल एवं अशान्त बना रहता है। ऐसी स्थिति में योग का पालन नहीं हो सकता। श्वास क्रिया पर नियन्त्रण रखना योगी के लिए आवश्यक माना गया है। श्वास क्रिया को तीन प्रकार से नियंत्रित किया जा सकता है-

(क) सांस को भीतर खींचकर।
(ख) सांस को बाहर फेंककर रोकना और
(ग) एकाएक सांस को रोंक लेना और छोड़ना।

(v) प्रत्याहार-प्रत्याहार का अर्थ है खींचना। अपनी इन्द्रियों को बाह्य एवं आन्तरिक विषयों से खींचकर मन को वश में करना ही प्रत्याहार कहलाता है। दृढ़ संकल्प एवं कठिन अभ्यास के द्वारा इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखा जा सकता है।

(vi) धारणा- इन्द्रियों को बाह्य वस्तुओं से हटा लेने के बाद योग के आन्तरिक साधनों का प्रयोग किया जाता है-अभीष्ट विषय पर चित्त को केन्द्रित करना ही धारणा है। वह अभीष्ट वस्तु बाह्य भी हो सकती है और आन्तरिक या अपना शरीर भी जैसे सूर्य या देवता की प्रतिमा और शरीर में अपनी नाभि या भौहों का मध्य भाग। किसी विषय पर दृढ़तापूर्वक चित्त को एकाग्र करने की शक्ति ही योग की कुंजी है। इसी को सिद्ध करने वाला समाधि अवस्था तक पहुँच जाता है।

(vii) ध्यान-धारणा के पश्चात् मन की अगली सीढ़ी है ध्यान। ध्यान का अर्थ है ध्येय विषय का निरन्तर मनन। अर्थात् उसी विषय को लेकर विचार का अविच्छिन्न प्रवाह। इसके द्वारा विषय का सुस्पष्ट ज्ञान हो जाता है। पहले भिन्न-भिन्न अंशों या स्वरूपों का बोध होता है। तदन्तर अविराम ध्यान के द्वारा सम्पूर्ण चित्र आ जाता है और उस वस्तु के असली रूप का दर्शन हो जाता है। इस तरह योगी के मन में ध्यान के द्वारा ध्येय वस्तु का यथार्थ स्वरूप प्रकट हो जाता है।

(viii) समाधि- यह योगासन की अन्तिम सीढ़ी है। ध्यान की अवस्था में ज्ञाता को आत्मचेतना रहती है। उसे यह ज्ञान रहता है कि वह अमुक विषय पर अपना चित्र केन्द्रित रख रहा है। किन्तु समाधि की अवस्था में साधक आत्म चेतना भी खो देता है। वह अभीष्ट विषय में इतना लीन हो जाता है कि उसे अपने अस्तित्व की चेतना नहीं रहती। वह विषय का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है।

समाधि की दो अवस्थाएँ हैं-
(a) सम्प्रज्ञात समाधि और
(b) असम्प्रज्ञात समाधि। इनमें से प्रथम आरंभिक अवस्था है और दूसरी अन्तिम अवस्था।

Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 2

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Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 2

प्रश्न 1.
फ्यूज वायर बना होता है-
(a) नाइक्रोम का
(b) टंगस्टन
(c) टीन-शीशा के मिस्रधातु का
(d) गलित ग्लास का
उत्तर:
(c) टीन-शीशा के मिस्रधातु का

प्रश्न 2.
प्रेरण कुण्डली ( Induction coil) का कार्य करने का सिद्धान्त है :
(a) चुम्बकीय प्रेरण
(b) विद्युत प्रेरण
(c) विद्युत चुम्बकीय प्रेरण
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) विद्युत चुम्बकीय प्रेरण

प्रश्न 3.
विद्युत क्षे० \((\vec{E})\) धारा घनत्व (\((\vec{J})\) तथा प्रतिरोधकता (ρ) के बीच सम्बन्ध है।
(a) \(\vec{E}=\rho \vec{J}\)
(b) \(\vec{J}=\rho \vec{E}\)
(c) ρ = ρ \(\vec{E} \cdot \vec{J}\)
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(a) \(\vec{E}=\rho \vec{J}\)

प्रश्न 4.
स्व प्रेरकत्व (Self inductance) का unit है :
(a) वेवर
(b) ओम
(c) हेनरी
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) हेनरी

प्रश्न 5.
ट्रान्सफॉर्मर (Transformer) द्वारा बदला जाता है :
(a) A.C. को D.C. में
(b) D.C. को A.C. में
(c) निम्न विभव को उच्च विभव में तथा उच्च विभव को निम्न विभव में
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) निम्न विभव को उच्च विभव में तथा उच्च विभव को निम्न विभव में

प्रश्न 6.
Step up transformer में :
(a) Ns > Np
(b) Ns < Np
(c) Ns = Np
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) Ns > Np

प्रश्न 7.
A.C. को मापा जाता है :
(a) गैल्वेनोमीटर द्वारा
(b) चल कुण्डली आमीटर द्वारा
(c) तप्त तार यंत्र द्वारा
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) तप्त तार यंत्र द्वारा

प्रश्न 8.
A.C. का समीकरण 4 sin πt है। इसकी आवृति होगी :
(a) 25 Hz
(b) 50 Hz
(c) 100 Hz
(d) 500 Hz
उत्तर:
(b) 50 Hz

प्रश्न 9.
A.C. का 3A बराबर होता है :
(a) 3 कूलम्ब/ सेकेण्ड
(b) 3 ओम/ मीटर
(c) 3 जूल/ कूलम्ब
(d) 3 वाट/ सेकेण्ड
उत्तर:
(a) 3 कूलम्ब/ सेकेण्ड

प्रश्न 10.
Dynamo के कार्य करने का सिद्धान्त है :
(a) प्रेरित चुम्बकत्व
(b) कूलम्ब का नियम
(c) विद्युत चुम्बकीय प्रेरण
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(c) विद्युत चुम्बकीय प्रेरण

प्रश्न 11.
सचलता (mobility) तथा अनुगमन वेग (drift vel.) के बीच सम्बन्ध है :
(a) μ = \(\frac{V d}{E}\)
(b) μ = \(\frac{E}{V d}\)
(c) μ = E. Vd
(d) μ = \(\frac{E^{2}}{V d}\)
उत्तर:
(a) μ = \(\frac{V d}{E}\)

प्रश्न 12.
चित्र दो तापों T1 तथा T2 पर किसी चालक के लिए (V ~ I) ग्राफ दिखलाया गया है। (T2 – T1) समानुपाती हैं-
Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 2 1
(a) cos2θ
(b) sin2θ
(c) cot2θ
(d) tan2θ
उत्तर:
(c) cot2θ

प्रश्न 13.
विद्युत प्रतिरोध का व्युत्क्रम (Inverse) होता है :
(a) धारा
(b) वि० वा० बल
(c) तापीय चालकता
(d) विद्युतीय चालकता
उत्तर:
(d) विद्युतीय चालकता

प्रश्न 14.
n लपेटनों की संख्या तथा त्रिज्या वाले वृत्ताकार कुण्डली में I धारा प्रवाहित करने पर केन्द्र पर उत्पन्न चुम्बकीय प्रेरण होता है :
(a) \(\frac{\mu_{o} n i}{r}\)
(b) \(\frac{\mu_{o} n i}{2 r}\)
(c) \(\frac{2 \mu_{o} n i}{r}\)
(d) इनमें से कोई नहीं।
उत्तर:
(b) \(\frac{\mu_{o} n i}{2 r}\)

प्रश्न 15.
अगर इलेक्ट्रॉन का वेग \(2 \hat{i}+3 \hat{j}\) हो तथा इस पर \(4 \hat{k}\) का चुम्बकीय क्षेत्र आरोपित किया जाय तो यह-
(a) पथ बदलेगा
(b) चाल बदलेगा
(c) दोनों (a) तथा (b) होगा
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(a) पथ बदलेगा

प्रश्न 16.
अववाधा (Impedence) एक प्रकार का है :
(a) प्रतिरोध
(b) धारा
(c) वि० वा० बल
(d) शक्तिः
उत्तर:
(a) प्रतिरोध

प्रश्न 17.
एक तार में धारा प्रवाहित करने पर कुछ दूरी पर उत्पन्न चुम्बकीय क्षेत्र बदलेगा :
(a) r के साथ
(b) \(\frac{1}{r}\) के साथ
(c) \(\frac{1}{r^{2}}\)के साथ
(d) r2 के साथ
उत्तर:
(b) \(\frac{1}{r}\) के साथ

प्रश्न 18.
A. C. परिपथ में औसत (Average) शक्ति होता है :
(a) i2 rms e rms cosΦ
(b) irms m erms cosΦ
(c) \(\frac{i_{r m s}}{e_{r m s}}\) cosΦ
(d) \(\frac{i_{\text {rms }}}{e_{r m s}}\) cosΦ
उत्तर:
(b) irms m erms cosΦ

प्रश्न 19.
चुम्बकीय पदार्थ में चुम्बकत्व का कारण होता है :
(a) electrons की spin गति
(b) पदार्थ के कण
(c) सूर्य और चन्द्रमा.
(d) इनमें से कोई नहीं
उत्तर:
(a) electrons की spin गति

प्रश्न 20.
चुम्बकीय प्रेरण का मात्रक है :
(a) वेवर आम्पीयर/मी०
(b) वेवर
(c) वेवर/मीटरी
(d) वेवर आपोशी०
उत्तर:
(c) वेवर/मीटरी

प्रश्न 21.
चुम्बकीय क्षेत्र में चुम्बकीय आघूर्ण वाले चुम्बक को कोण से घुमाने के लिए कार्य करना पड़ता है :
(a) MB cosθ
(b) MB (1 – sinθ)
(c) MB sin.θ
(d) MB (1-cosθ)
उत्तर:
(d) MB (1-cosθ)

प्रश्न 22.
आयन परमाणु लगातार टक्कर के बीच विद्युत क्षेत्र में मुक्त इलेक्ट्रॉन गमन करता है वह पथ होता है-
(a) सीधी रेखा
(b) वृत्तीय पथ
(c) परवलय पथ
(d) वक्रपथ
उत्तर:
(d) वक्रपथ

प्रश्न 23.
दिये गये परिपथ में धारा I का मान है-
Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 2 2
(a) 11A
(b) 3A
(c) 17A
(d) -3A
उत्तर:
(d) -3A

प्रश्न 24.
विद्युत चुम्बक (Electromagnet) किससे बनाया जाता है ?
(a) स्टील
(b) नरम लोहा
(c) हवा
(d) ताम्बा तथा जस्ता का मिश्रण
उत्तर:
(c) हवा

प्रश्न 25.
विषुवत रेखा (Equator) पर चुम्बकीय नमन होता है :
(a) 0°
(b) 90°
(c) 45°
(d) 180°
उत्तर:
(a) 0°

प्रश्न 26.
चुम्बकीय द्विध्रुव (dipole) का बल आघूर्ण (Torque) है :
(a) MB sinθ
(b) M2Bsinθ
(c) \(\frac{M B}{\sin \theta}\)
(d) \(\frac{\sin \theta}{M B}\)
उत्तर:
(a) MB sinθ

प्रश्न 27.
कैथोड किरणें हैं :
(a) Electron
(b) Neutron
(c) प्रोटॉन
(d) फोटॉन
उत्तर:
(a) Electron

प्रश्न 28.
प्रत्यावर्ती धारा में बदलता है
(a) सिर्फ धारा की दिशा
(b) सिर्फ धारा का मान
(c) दोनों मान और दिशा
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(c) दोनों मान और दिशा

प्रश्न 29.
कूलंब यल है-
(a) केन्द्रीय बल
(b) विद्युत बल
(c) दोनों
(d) कोई नहीं
उत्तर:
(c) दोनों

प्रश्न 30.
परावैद्युता का मात्रक होता है
(a) c2 – N-1 – m-2
(b) N – m2 – C2
(c) N – m2 – c2
(d) None
उत्तर:
(a) c2 – N-1 – m-2

प्रश्न 31.
एक कूलॉम आवेश में इलेक्ट्रॉन की संख्या होगी-
(a) 6.25 × 1018
(b) 6.25 × 108
(c) 6.23 × 1023
(d) None
उत्तर:
(a) 6.25 × 1018

प्रश्न 32.
यदि गोले पर आवेश 10μc हो तो उसकी सतह पर विद्युतीय फ्लक्स होगा-
(a) 36π × 10-4N-m2/c
(b) 36π × 104N-m2/c
(c) 36π × 106 N-m2/c
(d) 36π × 10-6N-m2/c
उत्तर:
(b) 36π × 104N-m2/c

प्रश्न 33.
स्थिर विद्युतीय क्षेत्र होता है-
(a) संरक्षी
(b) असंरक्षी
(c) कहीं संरक्षी तथा कहीं असंरक्षी
(d) None
उत्तर:
(a) संरक्षी

प्रश्न 34.
विद्युतीय क्षेत्र में किसी विद्युत-द्विध्रुव को घुमाने में किया गया कार्य होता है-
(a) w = ME tanθ
(b) w = ME (1-sinθ)
(c) w = ME (1-сosθ)
(d) w = ME cosθ
उत्तर:
(c) w = ME (1-сosθ)

प्रश्न 35.
यदि चालक के लम्बाई को दुगुना किया जाए तो प्रतिरोध होगा-
(a) दो गुना
(b) तीन गुना
(c) चार गुना
(d) आधा
उत्तर:
(c) चार गुना

प्रश्न 36.
ओह्य-नियम का पालन नहीं करता है?
(a) विद्युत रोधी
(b) अर्द्ध चालक
(c) डायोड
(d) उपरोक्त सभी
उत्तर:
(d) उपरोक्त सभी

प्रश्न 37.
चित्र में एक सीधी चालक से धारा एवं (c) प्रवाहित हो रहा है जो दो भाग में वृत्तीयलुप में बँट जाती है। लुप के केन्द्र पर उत्पन्न चुम्कीय क्षेत्र होगा-
Bihar Board 12th Physics Objective Important Questions Part 2 3
(a) 0
(b) ∞
(c) \(\frac{\mu_{0} i}{2 r}\)
(d) \(\frac{\mu_{0} i}{2 \pi r}\)
उत्तर:
(a) 0

प्रश्न 38.
विद्युत वाहक बल की विमा है-
(a) ML2T-2
(b) ML2T-2-I-1
(c) MLT-2
(d) ML2T-3I-1
उत्तर:
(d) ML2T-3I-1

प्रश्न 39.
लेंज का नियम सम्बद्ध है-
(a) आवेश से
(b) द्रव्यमान से
(c) ऊर्जा से
(d) संवेग संरक्षक सिद्धांत से
उत्तर:
(c) ऊर्जा से

प्रश्न 40.
जल के भीतर स्थित हवा का बुल बुला चमकता हुआ प्रतित है। इसका कारण है-
(a) परावर्तन
(b) अपवर्तन
(c) विवर्तन
(d) पूर्ण आन्तरिक परावर्तन
उत्तर:
(b) अपवर्तन

प्रश्न 41.
जल के भीतर स्थित हवा का बुलबुला चमकता हुआ प्रतीत होता है। इसका कारण है-
(a) परावर्तन
(b) अपवर्तनं
(c) विवर्तन
(d) पूर्ण आन्तरिक परावर्तन
उत्तर:
(b) अपवर्तनं

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Short Answer Type Part 2

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Bihar Board 12th Home Science Important Questions Short Answer Type Part 2

प्रश्न 1.
जान्तव रेशा या प्राणिज रेशा
उत्तर:
जानवरों एवं कीड़ों से प्राप्त रेशे को जान्तव रेशे या प्राणिज रेशे कहते हैं। रेशम या ऊन के रेशे जान्तव रेशे हैं। जान्तव रेशे प्रोटीन के बने होते हैं। रेशम और ऊन के रेशे ताप के कुचालक होते हैं। इस कारण इनके वस्त्र सर्दी में ठंड से बचाव के लिए पहने जाते हैं।

प्रश्न 2.
कृत्रिम रेशा
उत्तर:
कृत्रिम रेशे वे रेशे हैं जिनका उद्गम प्रकृति प्रदत्त रेशे नहीं है, बल्कि जिन्हें बनाने के लिए विभिन्न रासायनिक पदार्थों को रासायनिक एवं यांत्रिक विधियों द्वारा रेशे का रूप दिया जाता है।

प्रश्न 3.
धन व्यवस्थापन
उत्तर:
धन व्यवस्थापन का अभिप्राय है सभी प्रकार की आय का आयोजन, नियंत्रण तथा मूल्यांकन करना जिससे परिवार के लिए अधिकतम संतुष्टि प्राप्त की जा सके। धन का अधिक होना अपने-आप में आर्थिक समस्याओं का समाधान नहीं है, क्योंकि व्यवस्थापन के बिना अधिक धन का अपव्यय हो सकता है। जबकि अच्छे संचालन सीमित आय से भी अधिकतम संतुष्टि प्राप्त की जा सकती है।

प्रश्न 4.
पारिवारिक आय
उत्तर:
सदस्यों की सम्मिलित आय को पारिवारिक आय कहते हैं। ग्रॉस तथा क्रैण्डल ने इसकी परिभाषा इन शब्दों में दी है- “पारिवारिक आय मुद्रा, वस्तुओं, सेवाओं तथा संतोष का वह प्रवाह है, जिसे परिवार के अधिकार से उसकी आवश्यकताओं एवं इच्छाओं को पूरा करने एवं उत्तरदायित्वों के निर्वाह के लिए प्रयोग किया जाता है।” इस प्रकार पारिवारिक आय में वेतन, मजदूरी, ग्रेच्युटी, पेंशन, ब्याज तथा लाभांश, किराया, भविष्य निधि आदि सभी को सम्मिलित किया जाता है।

प्रश्न 5.
मौद्रिक आय
उत्तर:
परिवार के सभी सदस्यों को एक निश्चित समय में कार्य करने के बाद मुद्रा के रूप में जो आय प्राप्त होती है उसे मौद्रिक आय कहते हैं। इसमें परिवार के सभी कमाने वाले सदस्यों का वेतन, व्यापार से प्राप्त धन, मकान किराये के रूप में प्राप्त धन, मजदूरी, पेशन एवं ग्रेच्युटी, ब्याज एवं लाभांश सम्मिलित है।

प्रश्न 6.
वास्तविक आय
उत्तर:
वास्तविक आय वस्तुओं एवं सेवाओं का वह प्रवाह है जो पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए एक निश्चित अवधि में उपलब्ध रहता है।

प्रश्न 7.
आत्मिक आय
उत्तर:
परिवार के सदस्यों द्वारा प्रयोग की गई मौद्रिक एवं वास्तविक आय द्वारा प्राप्त अनुभवों से जो संतुष्टि मिलती है उसे आत्मिक आय कहा जाता है।

प्रश्न 8.
बचत
उत्तर:
धन का वह भाग, जो आज की आय से कल के प्रयोग के लिए अलग रखा जाता है, बचत कहलाता है। देशपाण्डे ने बचत को परिभाषित करते हुए कहा है कि “बचत मनुष्य की आय का वह भाग है, जो वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति में उपयोग नहीं किया जाता, बल्कि भविष्य के उपभोग के लिए समझ-बूझ कर अलग उत्पादन रूप में रखा जाता है और सम्पत्ति को पूँजी का स्वरूप दिया जाता है।” अतः स्पष्ट है कि बचत वह धन है जो वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति में उपयोग नहीं किया जाता बल्कि भविष्य के उपभोग के लिए जान-बूझकर अलग रखा जाता है।

प्रश्न 9.
डाकघर
उत्तर:
डाकघर एक सरकारी संस्थान है। यह धन को सुरक्षित रखने का एक अच्छा माध्यम माना जाता है। डाकघर की सुविधा बैंकों से अधिक स्थानों पर उपलब्ध है। दूर-दराज के क्षेत्रों में रहनेवालों के लिये डाकघर अधिक सुविधाजनक होते हैं। डाकघर प्रायः हर आवासीय कॉलोनी में होते हैं। डाकघर में विनियोग की सुविधा को बहुत ही सरल रखा गया है। एक अनपढ़ व्यक्ति भी थोड़े से ज्ञान से अपना धन जमा करा सकता है। डाकघर योजनाएँ बैंकों की योजनाओं से काफी मिलती-जुलती हैं। डाकघरों द्वारा बहुत-सी योजनाएँ चालू की गई जो निम्नलिखित हैं-

  • डाकघर बचत खाता
  • डाकघर सावधि जमा योजना
  • रेकरिंग डिपॉजिट
  • मासिक आय योजना
  • किसान विकास पत्र
  • राष्ट्रीय बचत पत्र
  • 15 वर्षीय जनभविष्य निधि
  • राष्ट्रीय बचत योजना खाता
  • सेवा निवृत्ति होने वाले सरकारी कर्मचारियों के लिए जमा योजना आदि।

प्रश्न 10.
निवेश
उत्तर:
जिस बचत राशि पर व्यास मिलता है उसे बिनियोग या निवेश कहा जाता है। बैंक, डाकघर, यूनिटा ट्रस्ट ऑफ इण्डिया, जीवन बीमा निगम, शेयर, प्रोविडेण्ट फंड आदि निवेश के माध्यम हैं।

प्रश्न 11.
शेयर
उत्तर:
शेयर वह इकाई है जिसमें कम्पनी की कुल पूँजी विभाजित की जाती है। किसी कम्पनी के शेयर खरीदने से आप उसके आंशिक रूप से मालिक हो जाते हैं। कम्पनी द्वारा अर्जित लाभ सभी शेयरधारकों में बराबर बाँट दिया जाता है। शेयर की कीमत बाजार में घटते-बढ़ते रहते है।

प्रश्न 12.
ऋण पत्र
उत्तर:
ऋण-पत्र कम्पनी द्वारा दिया गया वह प्रमाण पत्र है जिसमें कम्पनी में विनियोग किये गये धन का प्रमाण होता है। ऋण पत्र का अर्थ है कि आप कम्पनी को ऋण दे रहे हैं। ऋण पत्र लेने वाले को निश्चित अन्तराल पर ब्याज राशि दी जाती है।

प्रश्न 13.
बचत खाता
उत्तर:
व्यक्ति अपनी आय से बचे हुए धन को जिस खाते में जमा करता है उसे बचत खाता कहा जाता है। बैंक, डाकघर आदि में बचत खाता खुलवाया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर व्यक्ति बचत खाते से पैसा निकाल सकता है।

प्रश्न 14.
क्रेडिट कार्ड
उत्तर:
आजकल बैंक अपने ग्राहकों को क्रेडिट कार्ड की सुविधा उपलब्ध करा रही है। इसके माध्यम से ग्राहक देश या विदेश में एक निश्चित राशि तक की खरीददारी करके बिल का भुगतान कर सकता है। फलतः क्रेडिट कार्ड धारकों को खरीददारी के लिए नकद राशि की आवश्यकता नहीं पड़ती है।

प्रश्न 15.
चालू खाता
उत्तर:
चालू खाता व्यापारी वर्ग के लिए उपयुक्त रहता है। कारण कि इस खाते में से आवश्यकता पड़ने जितनी बार चाहें रूपया निकाला जा सकता है। इसी कारण इस खाते में जमा राशि पर व्याज नहीं मिलता है।

प्रश्न 16.
भविष्य निधि योजना
उत्तर:
भविष्य निधि योजना नौकरी करने वाले व्यक्तियों के लिए एक अनिवार्य योजना है। इसके अन्तर्गत प्रतिमाह वेतन से एक निश्चित राशि भविष्य निधि में जमा करवा दी जाती है। आवश्यकता पड़ने पर तीन माह के वेतन जितनी राशि ऋण के रूप में इससे ली जा सकती है जिसका भुगतान कर्मचारी आसान किश्तों में करता है।

प्रश्न 17.
बॉण्ड्स
उत्तर:
बॉण्ड्स सरकारी तथा गैरसरकारी कम्पनियों द्वारा निश्चित अवधि के लिए जारी किए जाते हैं। इस पर अधिक व्याज मिलता है, परन्तु जमा राशि की सुरक्षा की सरकार की गारण्टी नहीं होती है। फिर भी कम्पनी की साख के अनुसार इनके बॉण्ड्स का प्रचलित हैं।

प्रश्न 18.
उपभोक्ता
उत्तर:
जो व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए वस्तुओं या सेवाओं को खरीदता है और उसका उपभोग करता है उसे उपभोक्ता कहा जाता है। किसी-न-किसी रूप में हम सभी उपभोक्ता हैं।

प्रश्न 19.
उपभोक्ता संरक्षण
उत्तर:
उपभोक्ता संरक्षण का अर्थ है उपभोक्ता के हितों की रक्षा। इसके लिए उपभोक्ता को अपने अधिकारों के प्रति जागृत होना आवश्यक है। उपभोक्ता अपने अधिकारों के प्रति जागृत हों इसके लिए कई सरकारी एवं गैर-सरकारी संस्थाएँ कार्यरत हैं।

प्रश्न 20.
उपभोक्ता शिक्षा
उत्तर:
उपभोक्ता शिक्षा से वस्तु या ली गई सेवा की पूर्ण जानकारी मिलती है। इससे महत्त्वपूर्ण चयन की क्षमता, तर्क, विभिन्न मानक चिह्नों एवं बाजार की पूरी जानकारी मिलती है जिससे कानूनी उपायों, वितरण प्रणाली, अच्छा और सस्ता माल कहाँ मिलता है, जिससे धन का सदुपयोग करने के पूर्ण संतोष प्राप्त हो।

प्रश्न 21.
उपभोक्ता शोषण
उत्तर:
उपभोक्ता शोषण के कई कारण हैं जो इस प्रकार हैं-

  • शिक्षा का अभाव
  • भ्रामक विज्ञापन
  • अधूरी शिक्षा
  • अधूरी जानकारी
  • विक्रय के बाद सेवा की असंतोषजनक सुविधा
  • कृत्रिम अभाव
  • कीमतों में अस्थिरता
  • मिलावट
  • तोल में गड़बड़ी

अतः कोई भी वस्तु खरीदने से पहले उस वस्तु के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करना जरूरी है।

प्रश्न 22.
उपभोक्ता के कर्त्तव्य
उत्तर:
उपभोक्ता के निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं-

  • उचित कीमतं तथा गुणवत्ता वाली वस्तु खरीदना चाहिए।
  • खरीदने से पहले माप-तौल की जाँच करनी चाहिए।
  • वस्तु खरीदने से पूर्व उस पर लगे लेबल को ध्यानपूर्वक पढ़ना चाहिए।
  • विश्वसनीय या सरकारी दुकानों से खरीदारी करनी चाहिए।
  • वस्तु खरीदते समय उसका बिल या नकद रसीद तथा गारंटी कार्ड अवश्य लेना चाहिए।
  • मानकीकरण चिह्न वाली वस्तु ही खरीदनी चाहिए।
  • निर्माता के निर्देशानुसार वस्तु का प्रयोग करना चाहिए।
  • तस्करी वाली वस्तुएँ तथा काला बाजार से वस्तुएँ नहीं खरीदना चाहिए।

प्रश्न 23.
भारतीय मानक ब्यूरो
उत्तर:
भारतीय मानक संस्थान (ISI) को ही अब भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) कहा जाता है। इसी संस्थान के नाम पर इसका प्रमाणन चिह्न ISI है। 1952 के ISI अधिनियम के अंतर्गत भारतीय मानक ब्यूरो को किसी भी पदार्थ तथा प्रणाली के लिए मानक स्थापित करने का अधिकार है। इसमें लगभग सभी भोज्य पदार्थ, बिजली के उपकरण, बर्तन तथा सौंदर्य प्रसाधन शामिल है। किसी भी निर्माता को अपने उत्पादन पर ISI चिह्न लगाने की अनुमति तभी दी जाती है यदि उत्पादन पूरी निर्माण प्रक्रिया में BIS के मानकों के अनुसार तैयार किया गया है। खाद्य संसाधन इकाई को ISI चिह्न तभी दिया जाता है यदि वहाँ स्वास्थ्यकर वातावरण हो और अपने पदार्थ के परीक्षण के लिए जाँच सुविधाएँ उपलब्ध हों। यह उत्पादनकर्ता की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह अपने उत्पाद के लिए ISI चिह्न लेना चाहता है या नहीं।

प्रश्न 24.
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम
उत्तर:
उपभोक्ता के हितों की रक्षा के लिए भारत सरकार ने 1986 में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम पारित किया। उस अधिनियम में कुल 31 धाराएँ है। विभिन्न धाराओं में उपभोक्त संरक्षण संबंधी निर्देश हैं। यह अधिनियम वस्तु और सेवाओं दोनों पर लागू होता है। सेवाओं के अन्तर्गत बिजली पानी, सड़कें आदि आते हैं।

प्रश्न 25.
एगमार्क
उत्तर:
एगमार्क से कृषि उत्पाद की गुणवत्ता तथा शुद्धता आँकी जाती है। एगमार्क का अर्थ है कृषि विक्रय। उत्पाद की गुणवत्ता को उसके आकार, किस्म, उत्पादन, भार, रंग, नमी, वसा की मात्रा तथा दूसरे रासायनिक और भौतिक लक्षणों द्वारा आँका जाता है। एगमार्क वाले उत्पाद फुटकर दुकानों, सुपर बाजार व डिपार्टमेंटल स्टोर्स से खरीदे जा सकते हैं। कुछ एगमार्क उत्पाद इस प्रकार हैं-चावल, गेहूँ, दालें, नारियल तेल, मूंगफली तेल, सरसों का तेल, शुद्ध घी, मक्खन, शहद, मसाले।
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Short Answer Type Part 2, 1

प्रश्न 26.
एफ० पी० ओ०
उत्तर:
Fruit Product Order (F.P.O.)- फल-सब्जियों से बने पदार्थ सम्बन्धी यह आदेश 1946 में भारत सरकार द्वारा भारतीय रक्षा कानून के अन्तर्गत बनाया गया। F.P.O. द्वारा फल व सब्जियों की गुणवत्ता का न्यूनतम स्तर आवश्यक रूप से रखने का प्रावधान है। इसके अन्तर्गत औद्योगिक इकाइयों में स्वच्छता का वातावरण होना चाहिए। कारखाने में तैयार पदार्थों की उचित पैकिंग, मार्का व लेबल होना चाहिए। F.P.O. मार्क वाले पदार्थ हैं-जैम, जैली, मामलेड, कैचअप, स्कैवाश, अचार, चटनी, चाशनी, सीरप इत्यादि।
Bihar Board 12th Home Science Important Questions Short Answer Type Part 2, 2

प्रश्न 27.
संवेग
उत्तर:
संवेग शरीर की एक प्रभावपूर्ण एवं जटिल प्रक्रिया है। यह प्राणी की उत्तेजित अवस्था है जिसमें शारीरिक प्रतिक्रियाएँ अभिव्यक्त होती है। बालक के जीवन में संवेगों का विशेष महत्त्व है।

प्रश्न 28.
समाजीकरण
उत्तर:
समाजीकरण का अभिप्राय उस प्रक्रिया से है जिसके माध्यम से असहाय तथा असामाजिक मानव शिशु विकसित होने पर एक सामाजिक प्राणी के रूप में रूपांतरित हो जाता है। इस प्रकार एक प्राणीशास्त्री शिशु को सामाजिक प्राणी बनाने की प्रक्रिया ही समाजीकरण है।

प्रश्न 29.
मौखिक अवस्था
उत्तर:
समाजीकरण की पहली अवस्था को मौखिक अवस्था कहा जाता है। इसमें शिशु मौखिक रूप से दूसरों पर निर्भर रहता है। इस समय शिशु अपनी देखभाल के लिए संकेत देने लगता है तथा अपना सुख-दुःख अपने हाव-भाव से प्रकट करता है। इसलिए इसे मौखिक अवस्था कहा जाता है।

प्रश्न 30.
अपंग बालक
उत्तर:
अपंग बालक वैसे बालक को कहा जाता है जिनकी मांसपेशियों तथा हड्डियों का विकास दोषपूर्ण होता है। इसके अन्तर्गत विकृत शरीर अंग वाले बालकों को शामिल किया जाता है।

प्रश्न 31.
प्रतिभाशाली बालक
उत्तर:
जिन बालकों की बौद्धिक क्षमताएँ सर्वोत्तम होती है उन्हें प्रतिभाशाली बालक कहा जाता है। ऐसे बालक देश तथा समाज के हर क्षेत्र में पाये जाते हैं। ये विशिष्ट बालक होते हैं और सामान्य बालकों से पृथक आवश्यकताएँ रखते हैं।

प्रश्न 32.
अपराधी बालक
उत्तर:
जो बालक समाज तथा कानून द्वारा बनाये गये नियमों की अवहेलना करते हैं और एक निश्चित आयु से कम आयु के होते हैं, बाल अपराधी कहलाते हैं।

प्रश्न 33.
विकलांगता
उत्तर:
विकलांगता वह है जो किसी क्षति अथवा अक्षमता से किसी व्यक्ति की होने वाला वह नुकसान जो उसे उसकी आयु, लिंग, सामाजिक तथा सांस्कृतिक कारकों से संदर्भित सामान्य भूमिका को निभाने से रोकता है।

प्रश्न 34.
मील का पत्थर
उत्तर:
मील पत्थर बालक के वृद्धि तथा विकास में विराम चिह्नों का कार्य करते हैं। शारीरिक विकास के मील पत्थर सिर से पंजे की ओर अग्रसर होते हैं। अत: बालक पहले अपने सिर पर नियंत्रण रखना सीखता है, तब शरीर, भुजाओं तथा टाँगों पर नियंत्रण रखना सीखता है। ये मील पत्थर माता-पिता को चिकित्सा संबंधी राय बताने के लिए एक मार्गदर्शक प्रदान करते हैं।

प्रश्न 35.
स्थायी दाँत
उत्तर:
दाँत निकलने की प्रक्रिया एक निरंतर प्रक्रिया है जो 25 वर्ष तक चलती है। दाँत दो प्रकार के होते हैं-अस्थायी दाँत तथा स्थायी दाँत। सभी अस्थायी दाँत निकलने के बाद स्थायी दाँत निकलने प्रारम्भ होते हैं। स्थायी दाँत छः वर्ष से निकलना प्रारम्भ होते हैं। अस्थायी दाँतों की अपेक्षा ये बड़े होते हैं। इसकी अधिकतम संख्या 32 होती है। इसके टूटने के बाद पुनः दाँत नहीं निकलता है।

प्रश्न 36.
जीवाणु
उत्तर:
जीवाणु एक कोशीय जीव है। सर्वप्रथम एंटोनी वान ल्यूवेन हॉक ने 1675 ई० में अपने ही द्वारा विकसित सूक्ष्मदर्शी की सहायता से जीवाणुओं को देखा। तब से जीवाणुओं की हजारों प्रजातियों को पहचाना जा चुका है। जीवाणु सभी जगहों पर पाये जाते हैं तथा इनका आमाप (size) सूक्ष्म होता है। जीवाणु का औसत आमाप 1.25 μm (1 μm = mm) व्यास का होता है। सबसे छोटे जीवाणु की लम्बाई दंडरूप जीवाणु की होती है जो 0.15 μm होता है। सबसे बड़ा सर्पिल आकार का जीवाणु होता है जो 15 μm लम्बा 1.5 μm तथा व्यास वाला होता है। अनुकूल तापमान पोषण, आर्द्रता जैसे वातावरण में जीवाणुओं की संख्या में बढ़ोतरी बहुत तेजी से होती है। प्रजनन का सबसे सामान्य तरीका है कोशिका विभाजन या द्विखंडन। कुछ जीवाणु उपयोगी तथा कुछ हानिकारक होते हैं। कुछ उपयोगी जीवाणु दूध को दही में बदलता है और कुछ मिट्टी को उपजाऊ बनाते हैं, परंतु अधिकांश जीवाणु के कारण विभिन्न प्रकार के रोग होते हैं। जैसे-टॉयफाइड, येन्जाइटिश, हैजा आदि।

प्रश्न 37.
विषाणु
उत्तर:
विषाणु जीवाणु से भी सूक्ष्म होते हैं। इनकी उपस्थिति का पता या तो उनके परपोषी पर हो रहे प्रभाव के द्वारा लगाया जा सकता है या उन्हें इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी में देखकर। वे केवल जीवित कोशिकाओं के अंदर गुणन करते हैं। किसी विशिष्ट परपोषी कोशिका के अलावा विषाणु का संवर्द्धन करना असंभव है। यह अत्यन्त परपोषी गुण वायरस के समानुपाती सरल संरचना से जुड़ा हुआ है। एक विषाणु में कुछ मात्रा में आनुवांशिक पदार्थ DNA या RNA के रूप में एक सुरक्षित प्रोटीन आवरण से घिरा रहता है। अन्य सूक्ष्म जीवों के विपरीत विषाणु की कोशिकीय संरचना नहीं होती। विषाणु प्रत्येक जगह पाये जाते हैं। जैसे-हवा, जल, मृदा यहाँ तक की जीवित शरीर में भी। विषाणु को क्रिस्टलित किया जा सकता है तथा अनेक वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है।

प्रश्न 38.
सम्प्राति या उद्भवन काल
उत्तर:
संक्रामक रोगाणुओं के व्यक्ति के शरीर में प्रवेश से लेकर रोग के लक्षणों के प्रकट होने तक की अवधि को सम्प्राति काल अथवा उद्भवन काल कहा जाता है। प्रत्येक रोग का सम्प्राति काल पृथक होता है। यह संक्रामक रोग की प्रथम अवस्था है। इस अवस्था में रोगाणु शरीर में प्रवेश करता है और शीघ्रता से वृद्धि करता है।

प्रश्न 39.
संक्रामक रोग
उत्तर:
संक्रामक रोग शरीर में जीवाणु तथा विषाणु के रूप में प्रवेश करते हैं तथा उपयुक्त तापमान तथा वातावरण प्राप्त करके तीव्र गति से वृद्धि करते हैं। यह रोग एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक फैलता है। संक्रामक रोग प्रतिनिधियों के द्वारा होता है। जीवाणु, विषाणु तथा कृमि सूक्ष्म कीटाणु होते हैं जिनसे संक्रामक रोग फैलते हैं। वायु, जल, भोजन तथा कीड़ों को काटना संक्रमन रोग के माध्यम से होते हैं। अस्वच्छ वातावरण में रोग के जीवाणु तथा विषाणु पनपते हैं जो मानव में प्रविष्ट होकर रोग का कारण बनते हैं।

प्रश्न 40.
रोध क्षमता
उत्तर:
प्रकृति ने मनुष्य को रोगों से लड़ने की स्वाभाविक क्षमता प्रदान की है, इस क्षमता को रोग प्रतिरोधक क्षमता कहते हैं। रोग प्रतिरोधक क्षमता दो प्रकार की होती है- (i) प्राकृतिक प्रतिरक्षण एवं (ii) कृत्रिम प्रतिरक्षण।

प्राकृतिक प्रतिरक्षण के अंतर्गत श्वेत रक्ताणु द्वारा एन्टी टॉक्सिन का निर्माण होता है जो संक्रमण से बचाता है। बच्चों में माता के दूध से त्वचा, नाक के बाल तथा अंगों के श्लेष्मा से प्रतिरक्षण होता है। जबकि कृत्रिम प्रतिरक्षण टीके द्वारा किया जाता है।

प्रश्न 41.
प्राकृतिक या जन्मजात रोध क्षमता
उत्तर:
वह रोधक्षमता, जो प्रकृति द्वारा जन्मजात पायी जाती है, उसे प्राकृतिक जन्मजात रोधक्षमता कहा जाता है। इस क्षमता को प्राकृतिक रोगप्रतिरोध क्षमता भी कहते हैं। यह क्षमता शरीर में प्राकृतिक रूप से पाये जाने वाले रोग विरोधी तत्वों के कारण होती है। यह क्षमता शरीर में तभी बनी रह सकती है जब शरीर में उपस्थित श्वेत रक्त-कण शक्तिशाली हों। ऐसा संभव है जब व्यक्ति का आहार संतुलित तथा पौष्टिक हो और उसने जन्म के तत्काल बाद कोलेस्ट्रम तथा माता का दूध पीया हो।

Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2 in Hindi

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Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2 in Hindi

प्रश्न 1.
सामूहिक माँग की अवधारणा को उचित चित्र द्वारा स्पष्ट कीजिए।
उत्तर:
सामूहिक माँग (Aggregate Demand)- एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की सम्पूर्ण माँग को ही सामूहिक माँग कहा जाता है और यह अर्थव्यवस्था के कुल व्यय के रूप में व्यक्त की जाती है। इस प्रकार, एक अर्थव्यवस्था में वस्तुओं एवं सेवाओं पर किये गये कुल व्यय के संदर्भ में सामूहिक माँग की माप की जाती है।

दूसरे शब्दों में, सामूहिक माँग, उस कुल व्यय को बताती है जिसे एक देश के निवासी, आय के दिए हुए स्तर पर, वस्तुओं तथा सेवाओं को खरीदने के लिए खर्च करने को तैयार हैं।
सामूहिक मांग = उपभोग व्यय + निवेश व्यय
AD = C + I

उपभोग अनुसूची एवं निवेश अनुसूची का योग करके सामूहिक माँग अनुसूची का निर्माण किया जाता है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 1
उपर्युक्त तालिका बताती है कि

‘शून्य आय स्तर पर भी उपभोग माँग शून्य न होकर एक न्यूनतम स्तर पर बनी रहती है’ क्योंकि व्यक्ति को जीवित रहने के लिए अनिवार्य वस्तुओं (भोजन आदि) के लिए उपभोग करना आवश्यक होता है-यह व्यय व्यक्ति या तो अपनी पूर्व बचतों से करता है या फिर दूसरों से उधार लेता है।

उपर्युक्त तालिका के आधार पर प्राप्त होने वाला सामूहिक माँग वक्र चित्र में प्रदर्शित किया गया है।
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 2

प्रश्न 2.
केन्द्रीय बैंक के मुख्य कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
रिजर्व बैंक के कार्य (Functions of R.B.I.)- रिजर्व बैंक के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 3

(i) नोट निर्गमन का एकाधिकार- भारत में एक रुपये के नोट और सिक्कों के अलावा सभी करेन्सी नोटों को छापने का एकाधिकार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को है। नोटों की डिजाइन केन्द्रीय सरकार द्वारा तय तथा स्वीकृत की जाती है। 115 करोड़ रुपये का सोना और 85 करोड़ रुपये की विदेशी प्रतिभूतियाँ रखकर रिजर्व बैंक आवश्यकतानुसार नोटों का निर्गमन कर सकता है।

(ii) सरकार का बैंकर- रिजर्व बैंक जम्मू तथा कश्मीर को छोड़कर शेष सभी राज्यों और केन्द्रीय सरकार के बैंकर के रूप में कार्य करता है। यह सार्वजनिक ऋणों का प्रबंध करता है तथा नये ऋणों को जारी करता है। सरकार के ट्रेजरी बिलों की बिक्री करता है। सरकार को आर्थिक मामलों में सलाह देने का कार्य करता है।

(iii) बैंकों का बैंक- रिजर्व बैंक को व्यापार, उद्योग, वाणिज्य और कृषि की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त बैंकिंग प्रणाली का विकास करना पड़ता है। रिजर्व बैंक को वाणिज्य बैंकों और सरकारी बैंकों के निरीक्षण की शक्तियाँ प्रदान की गई हैं। संकट के समय रिजर्व बैंक व्यापारिक बैंकों को सहायता करता है।

(iv) विदेशी विनिमय कोषों का रक्षक- रिजर्व बैंक का एक महत्त्वपूर्ण कार्य रुपये के बाहरी मूल्य को कायम रखना है। देश में आर्थिक स्थिरता को बनाये रखने के लिए उचित मौद्रिक नीति को अपनाता है।

(v) साख का नियंत्रण- रिजर्व बैंक साख- नियंत्रण के परिमाणात्मक और चयनात्मक उपाय अपनाकर देश में साख की पूर्ति को नियंत्रित करता है, जिससे वाणिज्य, कृषि, उद्योग और व्यापार की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

(vi) विकासात्मक कार्य- रिजर्व बैंक ने भारत में बैंकिंग व्यवस्था का विकास करने, बचत और निवेश को प्रोत्साहित करने और औद्योगिक विकास के लिए विभिन्न संस्थाओं की स्थापना करने का कार्य किया है। पूँजी बाजार को विकसित करने तथा सरकारी आन्दोलन को मजबूत बनाने का कार्य रिजर्व बैंक द्वारा ही किया गया है।

प्रश्न 3.
व्यावसायिक बैंक की परिभाषा दीजिए और इसके प्रमुख कार्यों का उल्लेख करें।
उत्तर:
व्यापारिक बैंक वे बैंक है, जो लाभ कमाने के उद्देश्य से बैंकिंग का कार्य करते हैं। कलर्वस्टन के अनुसार व्यापारिक बैंक वे संस्थाएँ हैं जो व्यापार को अल्पकाल के लिए ऋण देती हैं तथा इस प्रक्रिया में मुद्रा का निर्माण करती हैं।

व्यावसायिक बैंक के प्रमुख कार्य निम्नांकित हैं जिन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया गया है-

  • मुख्य कार्य
  • गौण कार्य
  • विकासात्मक कार्य।

मुख्य कार्य- बैंक के तीन प्रमुख कार्य हैं-

  • जमा स्वीकार करना- एक व्यापारिक बैंक जनता के धन को जमा करता है।
  • ऋण देना- बैंक के अपने पास जो रुपया जमा के रूप में आता है उसमें से एक निश्चित राशि निगद कोष में रखकर बाकी रुपया बैंक द्वारा उधार दे दिया जाता है।
  • विनिमय पत्रों की कटौती करना- इसके अंतर्गत बैंक अपने ग्राहकों को उनके विनिमय पत्रों के आधार पर रुपया उधार देता है। भुगतान के बांकी समय की ब्याज की कटौती करके बैंक तत्काल भुगतान कर देता है।

गौण कार्य- बैंक अपने ग्राहकों के लिए विभिन्न तरीकों के एजेंट का कार्य करता है।

  • चेक, ड्राफ्ट आदि का एकत्रीकरण और भुगतान।
  • प्रतिभूतियों की खरीद तथा बिक्री।
  • बैंक अपने ग्राहकों के आदेश पर उनकी सम्पत्ति के ट्रस्टी तथा प्रबंधक का कार्य भी करते हैं। साथ ही बैंक लॉकर की सुविधा यात्री चेक तथा साख प्रमाण पत्र, मर्चेन्ट बैंकिंग और वस्तुओं के वाहन में सहायक प्रदान करता है।

विकासात्मक कार्य- आर्थिक विकास तथा सामाजिक कल्याण के लिए निम्नांकित कार्य करते हैं-
लोगों की निष्क्रीय बचतों को इकट्ठा करके उन्हें उत्पादकीय कार्यों में निवेश करके पूँजी निर्माण को बढ़ाने में सहायक होते हैं। बैंक उद्यमियों को साख प्रदान करके जब प्रवर्तक को प्रोत्साहित करता है, साथ ही केन्द्रीय बैंक की मौद्रिक नीति को प्रभावपूर्ण ढंग से लागू करने में सहायक करते हैं।

प्रश्न 4.
भुगतान शेष में असंतुलन के कारण कौन-कौन है ?
उत्तर:
भुगतान शेष में असंतुलन उत्पन्न होने के कारण निम्नलिखित हैं-

  • प्राकृतिक प्रकोप- प्राकृतिक प्रकोप (अकाल, बाढ़, भूकम्प आदि) के कारण भुगतान शेष में असंतुलन उत्पन्न होता है, क्योंकि इन दशाओं में अर्थव्यवस्था आयतों पर आश्रित हो जाती है।
  • विकास व्यय- विकास व्यय अधिक होने से भुगतान संतुलन में घाटा उत्पन्न हो जाता है।
  • व्यापार चक्र- व्यावसायिक क्रियाओं में होने वाले उतार-चढ़ाव का प्रतिकूल प्रभाव निर्यात पर पड़ता है। फलतः भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • बढ़ती कीमतें- कीमतों में वृद्धि के कारण भी भुगतान संतुलन में घाटा उत्पन्न होता है।
  • आयात प्रतिस्थापन्न- इसके चलते आयातों में कमी होती है। अतः भुगतान संतुलन में घाटा कम हो जाता है।
  • अधिक सुरक्षा व्यय- देश की सुरक्षा का व्यय अधिक होने पर भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • राजनीतिक अस्थिरता- देश में जब राजनीतिक अस्थिरता रहती है तो इसका भुगतान संतुलन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध- देश का अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध कैसा है इस पर भुगतान संतुलन निर्भर करता है। यदि अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध तनावपूर्ण होता है या युद्धमय होता है तो भुगतान संतुलन असंतुलित रहता है।
  • दूतावासों का विस्तार- दूतावासों के विस्तार और उसके रख-रखाव पर जब अधिक खर्च होता है तो भुगतान संतुलन असंतुलित हो जाता है।
  • रुचि, फैशन तथा स्वभाव में परिवर्तन- जब व्यक्तियों की रुचि फैशन तथा स्वभाव परिवर्तित होता है तो यह भुगतान संतुलन को असंतुलित करता है।

प्रश्न 5.
व्यावसायिक बैंक से आप क्या समझते हैं ? इसके साख निर्माण की सीमाएँ क्या हैं ?
उत्तर:
व्यावसायिक बैंक से अभिप्राय उस बैंक से है जो लाभ कमाने के उद्देश्य से बैंकिंग कार्य करता है, व्यापारिक जमाएँ स्वीकार करता है तथा जनता को उधार देकर साख का सृजन करता है।

सीमाएँ- व्यावसायिक बैंक द्वारा किये जाने वाले साख निर्माण की सीमाएँ निम्नलिखित हैं-

  • देश में मुद्रा की मात्रा- देश में नकद मुद्रा की मात्रा जितनी अधिक होगी, बैंकों के पास नकद जमाएँ उतनी ही अधिक होगी और बैंक उतनी ही अधिक मात्रा में साख निर्माण कर सकेगा।
  • मुद्रा की तरलता पसंदगी- व्यक्ति जब अपने पास अधिक नकदी रखता है तो बैंक में जमाएँ घटती हैं और साख निर्माण का आकार घट जाता है।
  • बैंकिंग आदतें- व्यक्ति में बैंकिंग आदत जितनी अधिक होती है, बैंकों की साख निर्माण शक्ति उतनी ही अधिक होती है। इसके विपरीत स्थिति में साख का निर्माण कम होगा।
  • जमाओं पर नकद कोष अनुपात- यदि नकद कोष अनुपात अधिक है तो कम साख का निर्माण होगा और यदि नकद कोष अनुपात कम है तो अधिक साख का निर्माण होगा।
  • ब्याज दर- ब्याज दर ऊँची रहने पर साख की मात्रा कम हो जाती है और कम ब्याज दर साख की माँग को प्रोत्साहित करती है।
  • रक्षित कोष- यदि रक्षित कोष अधिक होता है तो बैंक के नकद साधन कम हो जाते हैं और वह कम साख निर्माण करता है। इसके विपरीत रक्षित कोष कम होने पर उसकी साख निर्माण की शक्ति बढ़ जाती है।
  • केन्द्रीय बैंक की साख सम्बन्धी नीति- केन्द्रीय बैंक की साख नीति पर भी साख निर्माण की मात्रा निर्भर करती है। कारण यह है कि केन्द्रीय बैंक के पास देश में मुद्रा की मात्रा को प्रभावित करने की शक्ति होती है और वह बैंकों की साख के संकुचन और विस्तार की शक्ति को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रभावित कर सकता है।

प्रश्न 6.
अल्पाधिकार किसे कहते हैं ? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
अल्पाधिकार (Oligopoly)- अल्पाधिकार अपूर्ण प्रतियोगिता का एक रूप है। अल्पाधिकार बाजार की ऐसी अवस्था को. कहा जाता है जिसमें वस्तु के बहुत कम विक्रेता होते हैं और प्रत्येक विक्रेता पूर्ति एवं मूल्य पर समुचित प्रभाव रखता है। प्रो० मेयर्स के अनुसार “अल्पाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें विक्रेताओं की संख्या इतनी कम होती है कि प्रत्येक विक्रेता की पूर्ति का बाजार कीमत पर समुचित प्रभाव पड़ता है और प्रत्येक विक्रेता इस बात से परिचित होता है।”

अल्पाधिकार की विशेषताएँ (Characteristics of Oligopoly)- अल्पाधिकार की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
1. विक्रेताओं की कम संख्या (A few sellers firms)- अल्पाधिकार में उत्पादकों एवं विक्रेताओं की संख्या सीमित होती है। प्रत्येक उत्पादक बाजार की कुल पूर्ति में एक महत्वपूर्ण भाग रखता है। इस कारण प्रत्येक उत्पादक उद्योग की मूल्य नीति को प्रभावित करने की स्थिति में होता है।

2. विक्रेताओं की परस्पर निर्भरता (Mutual dependence)- इसमें सभी विक्रेताओं में आपस में निर्भरता पाई जाती है। एक विक्रेता की उत्पाद एवं विक्रय नीति दूसरे विक्रेताओं की उत्पाद एवं मूल्य नीति से प्रभावित होती है।

3. वस्तु की प्रकृति (Nature of Product)- अल्पाधिकार में विभिन्न उत्पादकों के उत्पादों में समरूपता भी हो सकती है और विभेदीकरण भी। यदि उनका उत्पाद एकरूप है तो इसे विशुद्ध अल्पाधिकार कहा जाता है और यदि इनका उत्पाद अलग-अलग है तो इसे विभेदित अल्पाधिकार कहा जाता है।

4. फर्मों के प्रवेश एवं बर्हिगमन में कठिनाई (Difficult entry and exit to firm)- अल्पाधिकार की स्थिति में फर्मे न तो आसानी से बाजार में प्रवेश कर पाती हैं और न पुरानी फर्मे आसानी से बाजार छोड़ पाती हैं।

5. अनम्य कीमत (Rigid Price)- कुछ अर्थशास्त्रियों का तर्क है कि अल्पाधिकार बाजार संरचना में वस्तुओं की अनन्य कीमत होती है अर्थात् माँग में परिवर्तन के फलस्वरूप बाजार कीमत में निर्बाध संचालन नहीं होता है। इसका कारण यह है कि किसी भी फर्म द्वारा प्रारंभ की गई कीमत में परितर्वन के प्रति एकाधिकारी फर्म प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। यदि एक फर्म यह अनुभव करती है कि कीमत में वृद्धि से अधिक लाभ का सृजन होगा और इसलिये वह अपने निर्गत (उत्पाद) को बेचने के लिये कीमत में वृद्धि करेगी (अन्य फर्मे इसका अनुकरण नहीं कर सकती हैं)। अतः कीमत वृद्धि अतः कीमत वृद्धि से बिक्री की मात्रा में भारी गिरावट आएगी जिससे फर्म की संप्राप्ति और लाभ में गिरावट आएगी। अतः किसी फर्म के लिये कीमत में वृद्धि करना विवेक संगत नहीं होगा। इसी प्रकार कोई भी फर्म अपने उत्पाद की कीमत में कमी नहीं लाएगी।

6. आपसी अनुबंध (Mutual Agreement)- कभी-कभी अल्पाधिकार के अंतर्गत कार्य करने वाली विभिन्न फर्मे आपस में एक अनुबंध कर लेती हैं। यह अनुबंध वस्तु के मूल्य तथा उत्पादन की मात्रा के सम्बन्ध में किया जाता है। इसका उद्देश्य सभी फर्मों के हितों की रक्षा करना तथा उनके लाभों में वृद्धि करना होता है। ऐसी दशा में निर्धारित किया गया मूल्य एकाधिकारी फर्म के समान ही होगा।

प्रश्न 7.
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम की आलोचनात्मक व्याख्या करें।
उत्तर:
सीमान्त उपयोगिता ह्रास नियम इस तथ्य की विवेचना करता है कि जैसे-जैसे उपभोक्ता किसी वस्तु की अगली इकाई का उपभोग करता है. अन्य बातें समान रहने पर उसे प्राप्त होने वाली सीमान्त उपयोगिता क्रमशः घटती जाती है। एक बिन्दु पर पहुँचने पर यह शून्य हो जाती है। यदि उपभोक्ता इसके पश्चात भी वस्तु का सेवन जारी रखता है तो यह ऋणात्मक हो जाती है। निम्न उदाहरण से भी इस बात का स्पष्टीकरण हो जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 4

इस उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जैसे-जैसे वस्तु की मात्रा एक से बढ़कर 6 तक पहुँच जाती है। वैसे-वैसे उससे प्राप्त सीमान्त उपयोगिता भी 10 से घटते-घटते शून्य और ऋणात्मक यानी -4 तक हो जाती है। अतः स्पष्ट है कि वस्तु की मात्रा में वृद्धि होते रहने से उससे मिलने वाली सीमान्त उपयोगिता घटती जाती है।

आलोचकों के इस नियम के अपवादों का भी उल्लेख किया है जो निम्नलिखित हैं-

  1. मादक एवं नशीली वस्तुओं के सेवन में यह नियम लागू नहीं होता है, क्योंकि इसका लोग अधिकाधिक मात्रा में सेवन करने लगते हैं।
  2. अर्थलिप्या एवं प्रदर्शन प्रियता की इच्छा भी बढ़ती जाती है जहाँ यह नियम लागू नहीं होता है।
  3. अच्छी कविता या संगीत के साथ यह नियम लागू नहीं होता है, क्योंकि इनके सुनने की इच्छा बढ़ती जाती है।
  4. पूरक वस्तुएँ भी इसके अपवाद हैं, क्योंकि एक वस्तु की उपयोगिता पूरक वस्तुओं के चलते बढ़ जाती है।
  5. विचित्र एवं दुर्लभ वस्तुओं के संग्रह के साथ भी यह लागू नहीं होता है, क्योंकि लोग अधिकाधिक मात्रा में इनका संग्रह करने लग जाते हैं।

प्रश्न 8.
पूर्ण प्रतियोगिता में मूल्य निर्धारण कैसे होता है ?
उत्तर:
पूर्ण प्रतियोगिता में वस्तु का मूल्य निर्धारण माँग द्वारा होता है या पूर्ति द्वारा, इस प्रश्न को लेकर प्राचीन अर्थशास्त्रियों में विवाद था। इस विवाद का समाधान प्रो० मार्शल ने किया। प्रो० मार्शल के अनुसार, “वस्तु का मूल्य माँग एवं पूर्ति दोनों के द्वारा निर्धारित होता है।” अपने विचार के समर्थन में मार्शल ने कैंची का उदाहरण प्रस्तुत किया। उनके अनुसार, जिस प्रकार कैंची के दोनों फलक कागज को काटने के लिए आवश्यक हैं उसी प्रकार वस्तु की कीमत निर्धारित करने के लिए माँग पक्ष एवं पूर्ति पक्ष दोनों आवश्यक है। इस प्रकार संतुलित की मत वहाँ निर्धारित होती है जहाँ माँग = पूर्ति।

निम्न उदाहरण से भी यह ज्ञात हो जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 5

उपर्युक्त उदाहरण से यह स्पष्ट है कि जब मूल्य 15 रु० प्रति इकाई है तो माँग एवं पूर्ति दोनों 30 के बराबर है। अत: यहीं पर मूल्य का निर्धारण होगा और मूल्य 15 रु० प्रति इकाई होगा। निम्न रेखाचित्र से भी यह ज्ञात हो जाता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 6

इस रेखाचित्र में P बिन्दु पर माँग एवं पूर्ति की रेखा एक-दूसरे को काटती है। अतः यही बिन्दु साम्य बिन्दु तथा OM कीमत साम्य कीमत कहा जायेगा। साथ ही, इस OM कीमत पर OR मात्रा वस्तुओं का उत्पादन। इस तरह पूर्ण प्रतियोगिता माँग एवं पूर्ति की मात्रा में माँग एवं पूर्ति द्वारा मूल्य निर्धारण होता है।

प्रश्न 9.
सरकारी बजट किसे कहते हैं ? इसकी क्या-क्या विशेषताएँ हैं ?
उत्तर:
आगामी आर्थिक वर्ष के लिए सरकार के सभी प्रत्याशित राजस्व और व्यय का अनुमानित वार्षिक विवरण बजट कहलाता है। सरकार कई प्रकार की नीतियाँ बनाती है। इन नीतियों को लागू करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। सरकार आय और व्यय के बारे में पहले से ही अनुमान लगाती है। अतः बजट आय और व्यय का अनुमान है। सरकारी नीतियों को क्रियान्वित करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण उपकरण है।

बजट की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं-

  • एक नियोजित अर्थव्यवस्था में बजट राष्ट्रीय नियोजन के वृहत उद्देश्यों पर आधारित होता है।
  • नियोजन के आरंभिक काल में देश के आर्थिक विकास को ध्यान में रखकर प्रायः घाटे का बजट बनाया जाता है तथा बाद में बजट को धीरे-धीरे संतुलित करने का प्रयास किया जाता है।
  • नियोजित अर्थव्यवस्था में बजट का निर्माण इस तरह किया जाता है कि बजट का प्रभाव अधिकाधिक न्यायपूर्ण हो। इसके लिए प्रगतिशील की नीति अपनायी जाती है।
  • देश के आर्थिक क्रियाओं के निष्पादन में बजट की भूमिका सकारात्मक होती है।

प्रश्न 10.
चार क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था में चक्रीय प्रवाह को समझाइए।
उत्तर:
चार क्षेत्रीय मॉडल खुली अर्थव्यवस्था को प्रदर्शित करता है। चार क्षेत्रीय चक्रीय प्रवाह मॉडल में विदेशी क्षेत्र या शेष विश्व क्षेत्र को सम्मिलित किया जाता है। वर्तमान समय में अर्थव्यवस्था का स्वरूप खुली अर्थव्यवस्था का है जिसमें वस्तुओं का आय एवं निर्याता होता है।

y = C + I + G + (X – M)
यहाँ y = आय या उत्पादन
C= उपभोग व्यय
I = निवेश व्यय
G = सरकारी व्यय
(X – M) = शुद्ध निर्यात (यहाँ X = निर्यात तथा M = आयात)

खुली अर्थव्यवस्था में आय प्रवाह के पाँच स्तम्भ होते हैं-
1. परिवार क्षेत्र- यह क्षेत्र उत्पादन के साधनों का स्वामी होता है। यह क्षेत्र अपनी सेवा के बदले मजदूरी लगान, ब्याज, लाभ के रूप में आय प्राप्त करते हैं। वे सरकार से कुछ निश्चित हस्तारण भी प्राप्त करते हैं। यह क्षेत्र उत्पादक क्षेत्रक द्वारा उत्पादित वस्तुओं एवं सेवाओं की खरीद पर अपनी आय खर्च करता है और सरकार को कर भुगतान भी करता है। यह क्षेत्र अपनी आय का कुछ भाग बचा लेता है जो पूँजी बाजार में चला जाता है।

2. उत्पादक क्षेत्र- उत्पादक क्षेत्रक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन करता है जिसका उपयोग परिवार तथा सरकार द्वारा किया जाता है। फर्मे वस्तुओं और सेवाओं की बिक्री से आय प्राप्त करती है। यह क्षेत्र निर्यात आय की प्राप्त करती है।

फर्मे साधन सेवाएँ प्राप्त करती हैं तथा उन्हें भुगतान करती हैं। फर्मों को अपनी वस्तुओं की बिक्री एवं उत्पादन पर सरकार को कर भुगतान करना पड़ता है। कुछ फमें सरकार से अनुदान भी प्राप्त करती हैं। फर्म अपनी आय का एक भाग बचाती है जो पूँजी बाजार में जाता है।

3. सरकारी क्षेत्र- सरकार परिवार एवं उत्पादक दोनों क्षेत्रों से कर वसुलता है। सरकार परिवारों का हस्तांतरण भुगतान तथा फर्मों को आर्थिक सहायता प्रदान करती है। अन्य क्षेत्रक की भाँति सरकारी क्षेत्रक भी बचत करता है जो कि पूँजी बाजार में जाता है।

4. शेष विश्व- शेष विश्व निर्यात के लिए भुगतान प्राप्त करता है। यह क्षेत्र सरकारी खातों पर भुगतान प्राप्त करता है।

5. पूँजी बाजार- पूँजी बाजार तीनों क्षेत्रकों परिवार, फर्मों तथा सरकार की बचतें एकत्रित करता है। यह क्षेत्र परिवार, फर्म तथा सरकार को पूँजी उधार देकर निवेश करता है। पूँजी बाजार में अन्तप्रवाह तथा बाह्य प्रवाह बराबर होते हैं।

प्रश्न 11.
नियोजित अर्थव्यवस्था एवं बाजार अर्थव्यवस्था में भेद करें।
उत्तर:
नियोजित तथा बाजार अर्थव्यवस्था में निम्न अंतर है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 7

प्रश्न 12.
लोचशील विनिमय दर प्रणाली के गुण तथा दोषों की व्याख्या करें।
उत्तर:
लोचशील विनिमय दर प्रणाली के निम्नलिखित गुण हैं-

  1. सरल प्रणाली- यह एक सरल प्रणाली है जिसमें विनिमय दर वहाँ निर्धारित होती है जहाँ माँग एवं पूर्ति में साम्य स्थापित हो जाता है। इसमें बाहरी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं होती है।
  2. सतत समायोजन- इसमें सतत समायोजन की गुंजाइश होती है। इस प्रकार दीर्घकालीन असंतुलन के विपरीत प्रभावों से बचा जा सकता है।
  3. भुगतान संतुलन में सुधार- लोचपूर्ण विनिमय दर होने पर भुगतान शेष में संतुलन आसानी से पैदा किया जा सकता है।
  4. संसाधनों का कुशलतम उपयोग- लोचपूर्ण विनिमय दर साधनों के कुशलतम उपयोग के अवसर प्रदान करती है। इस प्रकार अर्थव्यवस्था में कार्य कुशलता के स्तर को बढ़ाती है।

लोचपूर्ण विनिमय दर प्रणाली के कुछ दोष भी हैं जो निम्नलिखित हैं-

  1. निम्न लोच के दुष्परिणाम-यदि विनिमय दरों की लोच काफी कम है तो विदेशी विनिमय बाजार अस्थिर होगा जिसके फलस्वरूप दुर्लभ मुद्रा के केवल मूल्य ह्रास से ही भुगतान संतुलन की स्थिति बिगड़ जाएगी।
  2. अनिश्चितता-लोचपूर्ण विनिमय दर अनिश्चितता उत्पन्न करने वाली होती है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार और पूँजी की गतिशीलता के लिए घातक है।
  3. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अस्थिरता अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा बाजार में अस्थिरता अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में अस्थिरता का कारण बनती है। आयात तथा निर्यात संबंधी दीर्घकालीन नीतियाँ बनाना . कठिन हो जाता है।

प्रश्न 13.
अवसर लागत की अवधारणा की व्याख्या करें।
उत्तर:
अवसर लागत (Opportunity cost)- अवसर लागत की अवधारणा लागत की आधुनिक अवधारणा है। किसी साधन की अवसर लागत से अभिप्राय दूसरे सर्वश्रेष्ठ प्रयोग में उसके मूल्य से है। दूसरे शब्दों में किसी साधन की अवसर लागत वह लागत है जिसका उस साधन को किसी एक कार्य में कार्यरत होने के फलस्वरूप दूसरे वैकल्पिक कार्य को नहीं कर पाने के कारण त्याग करना पड़ता है। प्रो० लैफ्टविच के अनुसार किसी वस्तु की अवसर लागत उन परित्याक्त (छोड़े गये) वैकल्पिक पदार्थों का मूल्य होती है, जिन्हें इस वस्तु के उत्पादन में लगाये गये साधनों द्वारा उत्पन्न किया जा सकता है। अवसर लागत की अवधारणा के संबंध में दो बातें ध्यान देने योग्य हैं-

  • अवसर लागत किसी वस्तु को उत्पादन लागत के सर्वोत्तम विकल्प के लगने की लागत है।
  • अवसर लागत का आकलन साधनों की मात्रा के आधार पर न करके उसके मौद्रिक मूल्य के आधार पर किया जाना चाहिए। अवसर लागत को साधन की हस्तान्तरण आय भी कहा जाता है।

अवसर लागत की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए हम एक उदाहरण लेते हैं। माना कि भूमि के एक टुकड़े पर गेहूँ, चने, आलू व मटर की खेती की जा सकती है। एक किसान उस टुकड़े पर साधनों की एक निश्चित मात्रा का प्रयोग करते हुए 400 रुपए के मूल्य के गेहूँ का उत्पादन करता है। इस प्रकार वह चने, आलू तथा मटर के उत्पादन का त्याग करता है। जिनका मूल्य क्रमशः 3200, 2000 तथा 1500 रुपए है। इन तीनों विकल्पों में चने का उत्पादन सर्वोत्तम विकल्प है। अतः गेहूँ उत्पादन की अवसर लागत 3200 रुपए होगी।

प्रश्न 14.
सीमान्त उपयोगिता की परिभाषा दीजिए तथा सीमान्त उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता के संबंध को बतलाइए।
उत्तर:
किसी वस्तु की एक अतिरिक्त इकाई के उपभोग से जो अतिरिक्त उपयोगिता मिलती है, उसे सीमान्त उपयोगिता कहते हैं।
सीमान्त उपयोगिताn = कुल उपयोगताn – कुल उपयोगिताn-1
MUn = TUn – TUn-1

प्रो० बोल्डिंग के अनुसार, किसी वस्तु को दी हुई मात्रा को सीमांत उपयोगिता कुल उपयोगिता होनेवाली वह वृद्धि है, जो उसके उपभोग में एक इकाई के बढ़ने के परिणामस्वरूप होती हैं। कुल उपयोगिता (TLY) उपभोग की विभिन्न इकाइयों से प्राप्त सीमांत उपयोगिता का योग है। सीमांत उपयोगिता एवं कुल उपयोगिता से संबंध :

MU एवं TU में संबंध को निम्न तालिका एवं चित्र द्वारा निरुपित किया जा सकता है-
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 8
Bihar Board 12th Business Economics Important Questions Long Answer Type Part 2, 9

उपरोक्त तालिका एवं चित्र से MU एवं TU के निम्न संबंध को बतलाया जा सकता है।

  • प्रारंभ में कुल उपयोगिता एवं सीमांत उपयोगिता दोनों घनात्मक होती है।
  • जब सीमांत उपयागिता घनात्मक है चाहे वह घट रही हो, तब तक कुल उपयोगिता बढ़ती है। तालिका में इकाई 1 से 4 चित्र में A से E बिन्दु की स्थिति ।
  • जब सीमांत उपयोगिता शन्यू हो जाती है, तब कुल उपयोगिता अधिकतम होती है। तालिका में पाँचवीं इकई पर MUO एवं TU अधिकतम 100 है। चित्र में E तथा B बिन्दुओं की स्थिति। बिन्दु E उच्चतम तथा बिन्दु E पर उपभोक्ता शून्य उपयोगिता के कारण पूर्ण तृप्त है।
  • जब सीमांत उपयोगिता ऋणात्मक होती है (इकाई 6 एवं 7) तब कुल उपयोगिता घटने लगती है। चित्र में TU में E से F तक की स्थिति एवं MU में B बिन्दु से G बिन्दु की स्थिति।

प्रश्न 15.
माँग के निर्धारक तत्त्वों की विवेचना करें।
उत्तर:
बाजार माँग किसी वस्तु की विभिन्न कीमतों पर बाजार के सभी उपभोक्ताओं द्वारा माँगी गई मात्राओं को प्रकट करता है। व्यक्तिगत माँग वक्रों के समस्त जोड़ के द्वारा बाजार माँग वक्र खींचा जा सकता है।

बाजार माँग को प्रभावित करने वाले निम्नलिखित कारक हैं-
(i) वस्तु की कीमत (Price of a commodity)- सामान्यतः किसी वस्तु की माँग की मात्रा उस वस्तु की कीमत पर आश्रित होती है। अन्य बातें पूर्ववत् रहने पर कीमत कम होने पर वस्तु की मांग बढ़ती है और कीमत के बढ़ने पर माँग घटती है। किसी वस्तु की कीमत और उसकी माँग में विपरीत सम्बन्ध होता है।

(ii) संबंधित वस्तुओं की कीमतें (Prices of related goods)- संबंधित वस्तुएँ दो प्रकार की होती हैं. पूरक वस्तुएँ तथा स्थानापन्न वस्तुएँ- पूरक वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो किसी आवश्यकता को संयुक्त रूप से पूरा करती हैं और स्थानापन्न वस्तुएँ वे वस्तुएँ होती हैं जो एक दूसरे के स्थान पर प्रयोग की जा सकती हैं। पूरक वस्तुओं में यदि एक वस्तु की कीमत कम हो जाती है तो उसकी पूरक वस्तु की माँग बढ़ जाती है। इसके विपरीत यदि स्थानापन्न वस्तुओं में किसी एक की कीमत कम हो जाती है तो दूसरी वस्तु की मांग भी कम हो जाती है।

(iii) उपभोक्ता की आय (Income of Consumer)- उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने पर सामान्यतया उसके द्वारा वस्तुओं की माँग में वृद्धि होती है।

आय में वृद्धि के साथ अनिवार्य वस्तुओं की माँग एक सीमा तक बढ़ती है तथा उसके बाद स्थिर हो जाती है। कुछ परिस्थितियों में आय में वृद्धि का वस्तु की माँग पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। ऐसा खाने-पीने की सस्ती वस्तुओं में होता है। जैसे नमक आदि।

विलासितापूर्ण वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ लगातार बढ़ती रहती है। घटिया (निम्नस्तरीय) वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ-साथ कम हो जाती है लेकिन सामान्य वस्तुओं की माँग आय में वृद्धि के साथ बढ़ती है और आय में कमी से कम हो जाती है।

(iv) उपभोक्ता की रुचि तथा फैशन (Interest of Consumer and Fashion)- परिवार या उपभोक्ता की रुचि भी किसी वस्तु की माँग को कम या अधिक कर सकती है। किसी वस्तु का फैशन बढ़ने पर उसकी माँग भी बढ़ती है।

(v) विज्ञापन तथा प्रदर्शनकारी प्रभाव (Advertisement and Demonstration Effect)- विज्ञापन भी उपभोक्ता को किसी विशेष वस्तु को खरीदने के लिए प्रेरित कर सकता है। यदि पड़ोसियों के पास कार या स्कूटर है तो प्रदर्शनकारी प्रभाव के कारण एक परिवार की कार या स्कूटर की माँग बढ़ सकती है।

(vi) जनसंख्या की मात्रा और बनावट (Quantity and Composition of Population) अधिक जनसंख्या का अर्थ है परिवारों की अधिक संख्या और वस्तुओं की अधिक माँग। इसी प्रकार जनसंख्या की बनावट से भी विभिन्न वस्तुओं की माँग निर्धारित होती है।

(vii) आय का वितरण (Distribution of Income)- जिन अर्थव्यवस्थाओं में आय का वितरण समान है वहाँ वस्तुओं की माँग अधिक होगी तथा इसके विपरीत जिन अर्थव्यवस्थाओं में आय का वितरण असमान है, वहाँ वस्तुओं की माँग कम होगी।

(viii) जलवायु तथा रीति-रिवाज (Climate and Customs)- मौसम, त्योहार तथा विभिन्न परम्पराएँ भी वस्तु की माँग को प्रभावित करती हैं। जैसे-गर्मी के मौसम में कूलर, आइसक्रीम, कोल्ड ड्रिंक आदि की माँग बढ़ जाती है।

प्रश्न 16.
एकाधिकार क्या है ? इसकी प्रमुख विशेषताओं का वर्णन करें।
उत्तर:
एकाधिकार बाजार की वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु का एक ही उत्पादक अथवा एक ही विक्रेता होता है तथा उसकी वस्तु का कोई निकट स्थानापन्न नहीं होता है।

एकाधिकार बाजार की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं-

  • एक विक्रेता तथा अधिक क्रेता।
  • एकाधिकारी फर्म और उद्योग में अन्तर नहीं होता।
  • एकाधिकारी बाजार में नई फर्मों के प्रवेश पर बाधाएँ होती हैं।
  • वस्तु की कोई निकट प्रतिस्थापन्न वस्तु नहीं होती।
  • कीमत नियंत्रण एकाधिकारी द्वारा किया जाता है।

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 4

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Bihar Board 12th Home Science Important Questions Long Answer Type Part 4

प्रश्न 1.
विनियोग के लाभ लिखें।
उत्तर:
विनियोग के लाभ(Advantages of Investment)- यदि अनुभवी विनियोगकर्ता द्वारा परामर्श लेकर सही योजना में धन का विनियोग किया जाए तो वह बहुत ही लाभकारी होता है। सही योजना में धन का विनियोग करने से व्यक्ति भविष्य के लिए आर्थिक रूप से सुरक्षित हो जाता है। उसे भविष्य के आर्थिक मामलों के लिए चिन्तित नहीं होना पड़ता इसलिए वह वर्तमान में सुख-शांति से रहता है।

धन का विनियोजन निरन्तर करते रहने से व्यक्ति को निरन्तर ही कुछ ब्याज तथा मूल राशि इकट्ठी मिलती रहती है जिससे वह अपने जीवन का स्तर समय-समय पर ऊँचा कर सकता है।

किसी भी आकस्मिक घटना पर यदि धन की आवश्यकता हो तो वह जमा राशि में से व्यय करके विनियोग किए गए धन का लाभ उठा सकता है।

कर की बचत (Tax-Saving)- धन के विनियोग की अधिकतर योजनाओं द्वारा जमा की गई धन राशि पर कर नहीं लगता। यह राशि आयकर से पूर्ण रूप से मुक्त होती है। उदाहरण के लिए बैंक (Bank), डाकघर के बचत बैंक (Saving Banks of Post Office), कैश सर्टिफिकेट्स (Cash Certificates), जीवन बीमा (Life Insurance), यूनिट्स (Units), भविष्य निधि योजना (Provident Fund), जन-साधारण भविष्य निधि योजना (Public Provident Fund), नेशनल सेविंग्स सर्टिफिकेट (National Savings Certificate) इत्यादि।

विनियोग द्वारा प्राप्त की गई राशि आयकर से मुक्त होने के कारण नौकरी वालों के लिए, व्यापारी वर्ग के लिए तथा जन-साधारण के लिए, सभी के लिए उपयुक्त है।

प्रश्न 2.
जीवन बीमा और यूनिट्स में धन का विनियोग करने के लाभ व हानियों की विवेचना कीजिए।
उत्तर:
जीवन बीमा में विनियोग के लाभ-

  • बीमेदार की मृत्यु के बाद उसके परिवार को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करता है।
  • बीमेदार ने यदि किसी से ऋण लिया हुआ हो तब भी उसके निधन के बाद बीमे की राशि उत्तराधिकारी को दी जाती है जो लेनदारों से पूर्ण रूप से सुरक्षित है।
  • बीमेदार के व्यवस्था करने पर उसके निधन के बाद बीमे की धनराशि उत्तराधिकारी को किश्तों में दी जाती है जिससे पूर्ण राशि का एक-साथ अपव्यय न हो।
  • बीमेदार को यह सुविधा है कि यदि वह अपनी आय का एक विशेष भाग जीवन बीमा के प्रीमियम के रूप में देता है तो उसपर उसे आयकर नहीं देना पड़ेगा।

इस योजना में कोई हानि नहीं है।

यूनिट्स में विनियोग के लाभ- यूनिट्स, यूनिट ट्रस्ट ऑफ इण्डिया द्वारा चालू किए जाते हैं। कोई भी व्यक्ति 10 रुपये के मूल्य के कम से कम 100 व अधिक से अधिक अपनी इच्छानुसार खरीद सकता है। वार्षिक लाभ का 90% विनियोगकर्ताओं में विभाजित कर दिया जाता है। इस यूनिट पर मंगाई गई धनराशि व उसके लाभांश पर आयकर की छूट है।

यूनिट ट्रस्ट की खराब वित्तीय स्थिति में नियोजक को लाभांश न दिये जाने से हानि हो सकती है। परिपक्वता की अवधि पूरी होने पर भी पैसा मिलने में देरी हो सकती है। यूनिट ट्रस्ट द्वारा पुनः खरीद मूल्य कम करने से भी निवेशक को आर्थिक नुकसान हो सकता है।

प्रश्न 3.
जीवन बीमा और डाकघर में निवेश करने के लाभ व हानियों का ब्यौरा दें।
उत्तर:
जीवन बीमा (Life Insurance)- जीवन बीमा अनिवार्य बचत करने का एक उत्तम साधन है। इसके अन्तर्गत बीमादार अपनी आय में से कुछ बचत करके अनिवार्य रूप से एक निश्चित अवधि तक धन विनियोजित करता है। अवधि पूरी होने पर बीमादार को जमा धन और उसपर अर्जित’ बोनस प्राप्त होता है। इस योजना की प्रमुख विशेषता यह है कि यदि बीमादार की आकस्मिक मृत्यु हो जाए तो बीमादार द्वारा नामांकित व्यक्ति को बीमे की पूरी राशि बोनस सहित मिल जाती है। इसलिए यह योजना जोखिम (Risk) उठाती है, अनिश्चितता को निश्चितता में बदल देती है।

जीवन बीमा के लाभ- बीमादार जीवन बीमा को निम्न लाभों के कारण अपनाता है-

  1. परिवार संरक्षण (Family Protection)- जीवन बीमा का मुख्य उद्देश्य बीमादार के परिवार को आर्थिक सुरक्षा प्रदान करना है। विशेष तौर पर जब बीमादार की आकस्मिक मृत्यु हो जाए।
  2. वृद्धवस्था में आर्थिक सहायता हेतु (Economic Help in Old Age)- अवकाश प्राप्ति या वृद्धावस्था में इस योजना से प्राप्त धन का विनियोजन कर ब्याज इत्यादि से बीमादार आर्थिक दृष्टि से सक्षम हो जाता है।
  3. बच्चों की शिक्षा या विवाह हेतु (For child education or Marriage)- इस योजना में लगाया गया धन बच्चों के बड़ा होने पर उनकी शिक्षा एवं विवाह हेतु आर्थिक सहायता के रूप में प्राप्त होता है।
  4. सम्पत्ति कर की व्यवस्था (For Property Tax)- बीमादार की मृत्यु के बाद सम्पत्ति कर देने के लिए बीमा योजना द्वारा मिला धन राहत देता है।
  5. आयकर में छूट (Relief in Income Tax)- बीमादार अपनी आय का जो अंश बीमा योजना पॉलिसी की किस्त चुकाने के लिए देता है उस पर उसे आयकर में छूट मिलती है।

डाकघर बचत बैंक (Post Office Saving)- बैंक की सुविधा देश के प्रत्येक गाँव तक नहीं पहुँची है परन्तु डाकघर की सुविधा देश के प्रत्येक राज्य के गाँव-गाँव में होने के कारण डाकघर बचत खाता चालू किया गया। भारत सरकार ने इसके द्वारा बचत की आदत को प्रोत्साहन दिया है। दो व्यक्ति परन्तु उनमें से एक बालिग अवश्य संयुक्त रूप से अपना खाता खुलवा सकते हैं। डाकघर बचत खाते का स्थानान्तरण भी करवाया जा सकता है। इस खाते के ब्याज पर आयकर नहीं देना पड़ता है। डाकघर के नियम सम्पूर्ण भारत में एक समान हैं। खाते की न्यूनतम रकम 5 रुपया है। यह कम राशि से खोला जा सकता है।

1. डाकघर में छपे फार्म को भरकर कोई भी व्यक्ति या अधिक व्यक्ति संयुक्त खाता पाँच रुपये जमा कर खोल सकता है।

2. 18 वर्ष से कम उम्र वालों के लिए अभिभावक यह खाता खोल सकते है।

3. डाकघर खाते में भी चेक की सुविधा दी जा सकती है। चेक बुक लेते समय जमाकर्ता के खाते में कम-से-कम 100 रुपए होने चाहिए तथा कभी भी खाते में 50 रुपये से कम नहीं

4. खाता खोलने पर एक पास बुक (Pass Book) दी जाती है जिसमें जमा की गई तथा निकाली गई राशि का पूरा लेखा होता है। यदि वह पासबुक खो जाती है तो 5 रुपये देकर पूरी पास बुक ली जा सकती है।

5. डाकघर में पैसा चेक, मनीऑर्डर, ड्रॉफ्ट तथा नकद के रूप में जमा करवाया जा सकता है। इस खाते की एक विशेषता यह है कि मुख्य डाकघर के अधीन जिस डाकघर में खाता खोला गया हों उसके अधीन किसी भी डाकघर में पैसा जमा करवाया जा सकता है। यदि किसी उप-डाकघर में खाता खोला गया हो तो मुख्य डाकघर में भी पैसा जमा करवाया जा सकता है, परन्तु पैसा केवल उसी डाकघर/उप-डाकघर से निकलवाया जा सकता है जहाँ पर खाता खोला गया है।

6. डाकघर खाते में वर्तमान ब्याज की दर 5.5% है।

7. धन निकलवाते समय निश्चित फार्म भरकर पासबुक के साथ डाकघर में दिया जाता है। लिपिक फार्म पर किए गए हस्ताक्षर नमूने के हस्ताक्षर से मिलान करने पर राशि का भुगतान करता है। यदि हस्ताक्षर नमूने के हस्ताक्षर से भिन्न हो तो राशि का भुगतान नहीं किया जाता जब तक कि कोई व्यक्ति जो डाकघर में जमाकर्ता को पहचानता हो, गवाही न दे।

8. खाता खोलने के तीन मास बाद यह किसी भी डाकघर में स्थानान्तरिक किया जा सकता है।

प्रश्न 4.
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अनुसार उपभोक्ता के अधिकार क्या हैं ? लिखिए।
उत्तर:
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अनुसार उपभोक्ता के अधिकार-

  • मल आवश्यकताएँ- इसके अन्तर्गत न केवल जीने के लिए बल्कि सभ्य जीवन के लिए सभी आवश्यकताओं की पूर्ति आती है। ये आवश्यकताएँ हैं भोजन, मकान, कपड़ा, बिजली, पानी, शिक्षा और चिकित्सा आदि।
  • जागरूकता- इस अधिकार के अन्तर्गत चयन के लिए आपको विक्रेताओं द्वारा सही जानकारी देना।
  • चयन- उपभोक्ताओं को सही चयन करने के लिए उचित गुणवत्ता और अधिक कीमत वाली कई वस्तुओं को दिखाना ताकि वे उनमें से उपयुक्त वस्तु खरीद सकें।
  • सनवाई- इसके अन्तर्गत उपभोक्ता को अपने विचार निर्माताओं के समक्ष रखने का अधिकार है। उपभोक्ता की समस्याओं से निर्माताओं को वस्तु-निर्माण में उसकी गुणवत्ता बढ़ाने में सहायता मिलती है।
  • स्वस्थ वातावरण- इससे जीवन और प्रकृति में सामंजस्य स्थापित करके जीवन स्तर ऊँचा किया जा सकता।
  • उपभोक्ता शिक्षण- सही चयन के लिए वस्तु/सामग्री और सेवाओं को उचित जानकारी व ज्ञान का अधिकार उपभोक्ता को मिलना चाहिए।
  • क्षतिपूर्ति (Redressal)- इसका अर्थ है कि यदि उचित सामान प्राप्त न हुआ हो तो. उसका उचित परिशोधन या मुआवजा मिलने का अधिकार। जिस भी उपभोक्ता के साथ अन्याय हुआ हो वह अधिकारी के पास जाकर उचित क्षतिपूर्ति ले सकता है।

प्रश्न 5.
उपभोक्ताओं की समस्याओं का उल्लेख कीजिए। इस संदर्भ में उपभोक्ताओं के क्या दायित्व हैं ?
उत्तर:
उपभोक्ताओं की समस्याएँ (Problems Faced by Consumers)- उपभोक्ताओं को विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है, जैसे अस्थिर कीमतें और दुकानदारों के कुचक्र । अतः यह उपभोक्ताओं के हक में है कि वे इन सभी समस्याओं को जानें और ठगे जाने से बचने के लिए इनके निदान भी जानें। उपभोक्ताओं की कुछ समस्याएँ निम्नलिखित हैं

1. कीमतों में अस्थिरता (Variation in Price)- आपने देखा होगा कि कई दुकानों पर सामान की कीमतें बहुत अधिक होती हैं। ऐसा क्यों है ? ऐसा निम्नलिखित कारणों से हो सकता है-

  • दुकानदार अधिक लाभ कमाता है।
  • यदि वह प्रतिष्ठित दुकानदार है तो दुकान की देख-रेख, सामान के विज्ञापन और खरीद की कीमत को पूरा करता है।
  • दुकान में कम्प्यूटर, एयरकण्डीशन लगे होने के कारण दुकान की लागत अधिक होती है अतः उपभोक्ता से इन सुविधाओं की कीमत वसूल की जाती है।

कई दुकानें विज्ञापन पर बहुत पैसा खर्च करती हैं। घर पर निःशुल्क सामान पहुँचाने की सेवा भी उपभोक्ता से अधिक कीमत लेकर उपलब्ध कराई जाती है।

समृद्ध रियायशी क्षेत्रों में बने नये आकार-प्रकारों के बाजारों में भी सामान की कीमत अधिक होती है।

2. मिलावट (Adulteration)- उपभोक्ताओं के सामने मिलावट की समस्या बहुत गंभीर है। इसका अर्थ है मूल वस्तु की गुणवत्ता, आकार और रचना में से कोई तत्त्व निकाल कर या डालकर परिवर्तन लाना। मिलावट वांछित और प्रासंगिक हो सकती है। क्या आपको स्मरण है इन दोनों में क्या अन्तर है ?

प्रासंगिक मिलावट तब होती है जब दुर्घटनावश दो अलग-अलग वस्तुएँ जिनकी गुणवत्ता अलग-अलग है, मिल जायें और वांछित मिलावट वह होती है जब जान-बूझ कर उपभोक्ता को ठगने और अधिक लाभ कमाने के लिए की जाये।

3. अपूर्ण/धोखा देने वाले लेबल (Inadequate/Misleading Labelling)- प्रतिष्ठित ब्राण्ड की कमियाँ इतनी चतुराई से ढंक दी जाती हैं कि उपभोक्ता असली और नकली लेबल की पहचान नहीं कर पाता। निर्माता निम्न गुणवत्ता वाले सामान को प्रतिष्ठित सामान के आकार और रंग के लेबल लगाकर उपभोक्ताओं को गुमराह कर देते हैं। उनमें अन्तर इतना कम होता है कि एक बहुत सजग उपभोक्ता ही उसे पहचान सकता है।

एक लेबल में क्या-क्या जानकारी होनी चाहिए यह आप पहले पढ़ चुके हैं। क्या आपको स्मरण है ? पूर्ण जानकारी और सजगता के लिए उसे फिर से पढ़िये। एक अच्छे लेबल से आपको उस वस्तु की रचना, संरक्षण और प्रयोग की पूर्ण जानकारी मिलनी चाहिए। डिब्बा-बन्द वस्तुओं के खराब होने की तिथि से आप उसको सुरक्षा से उपभोग कर सकते हैं। निर्माता वस्तुओं पर उचित प्रयोग के संकेत न देकर उपभोक्ता को ठग लेते हैं।

4. दुकानदारों द्वारा उपभोक्ता को प्रेरित करना (Customer Persuation by Shopkeepers)- दुकानदार उपभोक्ता को एक खास वस्तु/ब्रांड खरीदने के लिए प्रेरित करते हैं, क्योंकि उस ब्राण्ड पर उन्हें अधिक कमीशन मिलता है। आजकल बाजार में बहुत किस्मों की ब्रेड मिलती है। आपने देखा होगा कि आपके पास का दुकानदार एक खास ब्राण्ड की डबलरोटी ही रखता है। आप जानते हैं क्यों ? एक जागरूक और समझदार उपभोक्ता को चाहिए कि वह उस दुकानदार को अन्य किस्मों की ब्रेड रखने के लिए प्रेरित करे ताकि आप उसमें से अपनी पसंद की ब्रेड चुन सकें। यदि यह’ संभव न हो तो आपको किसी अन्य दुकानं या दुकानदार के पास जाना चाहिए।

5. भ्रामक विज्ञापन (False Advertisement)- उपभोक्ता को आकर्षित करने के लिए विज्ञापन की सहायता ली जाती है। उपभोक्ता को प्रेरित करने के लिए विज्ञापन एक बहुत ही सबल माध्यम है। वस्तु का विज्ञापन इतनी चतुराई से किया जाता है कि उपभोक्ता उसे खरीदने के लिए तत्पर हो जाता है। चॉकलेट, चिप्स, ठंडे पेय, जूस, जीन्स, टूथपेस्ट तथा अन्य साज-सज्जा के सामान और स्कूटर, गाड़ियाँ इत्यादि से संबंधित विज्ञापन से अधिकतर किशोर उपभोक्ता आकर्षित हो जाते हैं। जब कोई वस्तु विज्ञापित से खरी नहीं उतरती तो उपभोक्ता निराश हो जाते हैं।

6. विलम्बित/अपूर्ण उपभोक्ता सेवाएँ (Delayed and Inadequate Consumer Services)- उपभोक्ता सेवाएँ जैसे स्वास्थ्य, पानी, बिजली, डाक व तार की सुविधा बहुत से घरों में दी जाती है। इन सेवाओं की दोषपूर्ण देख-रेख के कारण ये सेवायें उपभोक्ताओं को असुविधा देती है। उदाहरण-इन सेवाओं से जुड़े कार्यकर्ता जब ठीक से ये सुविधायें उपलब्ध न करा सकें तो उपभोक्ता झुंझला जाते हैं।

उपभोक्ता के दायित्व (Responsibilities of the Consumer)- उपभोक्ता के लिए अपने अधिकारों और दायित्वों के प्रति जागरूक होना अत्यन्त आवश्यक है। उपभोक्ता के निम्नलिखित दायित्व हैं-

  • कुछ भी खरीदने या उपयोग करने से पहले उपभोक्ता का दायित्व है कि वह सही जानकारी प्राप्त करे।
  • उपभोक्ता को सही चयन करना चाहिए। सही चयन का दायित्व उपभोक्ता पर ही होता है।
  • केवल वही वस्तु खरीदें जिसकी गुणवत्ता पर विश्वास हो।
  • यदि असन्तुष्ट हों तो उपभोक्त अदालत में जाएँ और क्षतिपूर्ति प्राप्त करें।

प्रश्न 6.
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की मुख्य विशेषताएँ समझाइए।
उत्तर:
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ (The Salient Features of Consumer Protection Act)-
(a) कानून का उपयोजन (Application of the Law)- यह अधिनियम वस्तु और सेवाओं दोनों पर लागू होता है। वस्तु वह होती है जिसका निर्माण होता है, उत्पादन होता है और जो उपभोक्ताओं को विक्रेताओं द्वारा बेची जाती है। सेवाओं के अन्तर्गत-यातायात, टेलीफोन, बिजली, सड़कें और सीवर आदि आती हैं। ये अधिकार सार्वजनिक क्षेत्र के व्यवसायियों द्वारा उपलब्ध कराये जाते हैं।

(b) क्षतिपूर्ति तंत्र तथा उपभोक्ता मंच (Redressal Machinary and Consumer Forum)- वस्तुओं और सेवाओं के विरुद्ध परिवेदना निवारण के लिए उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत न्यायिक कल्प की स्थापना की गई है। इस तंत्र के अन्तर्गत विभिन्न स्तरों पर उपभोक्ता मंच बनाये गए हैं। ये मंच उपभोक्ताओं के हित की रक्षा तथा उनके संरक्षण का कार्य करते हैं।

अनुदान की राशि को ध्यान में रखते हुए विभिन्न स्तरों के न्यायिक कल्प तंत्र के समीप जाया जा सकता है। अधिष्ठाता सेवानिवृत या कार्यरत अफसर हो सकता है। जिला तथा राज्य स्तर के मंच पर अधिष्ठाता सेनानिवृत या कार्यरत अफसर हो सकता है। जिला तथा राज्य स्तर के मंच पर अधिष्ठाता के अतिरिक्त केवल एक समाज सेविका तथा एक शिक्षा/व्यापार आदि के क्षेत्र में प्रतिष्ठित . व्यक्ति ही होता है।

राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्रीय सरकार एक महिला समाज सेविका, एक अधिष्ठाता सहित चार सदस्यों को नियुक्त करती है।

(c) शीघ्र निवारण (Expeditious Disposal)- उपभोक्ताओं को न्याय के लिये अधिक इंतजार न करना पड़े इसके लिये इस अधिनियम के अन्दर सभी मामले का नब्बे दिन के अन्दर निवारण करने की व्यवस्था की गई है। इससे उपभोक्ताओं को संतोषजनक न्याय के लिए अनावश्यक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती है।

(d) सलाहकार समितियाँ (Advisory Bodies)- परिवेदना-निवारण सलाकार निगम जैसे उपभोक्ता संरक्षण परिषद् तथा केन्द्रीय उपभोक्ता संरक्षण परिषद् की राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर स्थापना की गई है। ये परिषदें उपभोक्ताओं को अपने अधिकारों का प्रयोग करने के लिए प्रेरित करती हैं। उपभोक्ता प्रशिक्षण तथा अनुसंधान केन्द्र (CERC) उपभोक्ताओं को विज्ञापन से प्रेरित करता है।

प्रश्न 7.
उपभोक्ता शिक्षा के क्या लाभ हैं ? संक्षेप में वर्णन करें।
उत्तर:
उपभोक्ता के हितों की रक्षा के लिए यह अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है कि उपभोक्ता स्वयं अपने अधिकार से परिचित हो ताकि वह अपने द्वारा व्यय किये जाने वाले धन का सदुपयोग कर सके। उसके लिए यह आवश्यक है कि वस्तु खरीदने से पहले ही उसे वस्तु की जानकारी हो जिससे विक्रेता या उत्पादक उसे धोखा न दे सके। यह जानकारी वह निम्नलिखित माध्यमों द्वारा प्राप्त कर सकता है-

1. लेबल- इसके द्वारा उपभोक्ता को यह पता चलता है कि बन्द पात्र के अंदर कौन-सी वस्तु है और वह कितनी उपयोगी है।  भारतीय मानक ब्यूरो ने अच्छे लेबल के निम्नलिखित गुण निर्धारित किये हैं- (i) पदार्थ का नाम (ii) ब्रॉण्ड का नाम (iii) पदार्थ का भार (iv) पदार्थ का मूल्य (v) पदार्थ को बनाने में प्रयोग किये गये खाद्य पदार्थों की सूची (vi) बैच या कोड नं. (vii) निर्माता का नाम और पता (viii) स्तर नियंत्रक संस्थान का नाम आदि।

2. प्रमाणन स्तर- प्रमाणन चिह्न हमें किसी वस्तु के स्तर की जानकारी देती है। जब, उपभोक्ता किसी वस्तु को खरीदता है तो उसका स्तर वैसा ही मिलता है। उसकी कहीं भी जाँच की जा सकती है। मानकीकरण का कार्य वस्तुओं की संरचना, उसके संपूर्ण विश्लेषण तथा सर्वेक्षण के आधार पर किया जाता है।

3. विज्ञापन- इसके द्वारा उपभोक्ता अनेक पदार्थों एवं सेवाओं के बारे में ज्ञान प्राप्त करता है। टेलीविजन, रेडियो, पत्रिकाओं, समाचार-पत्रों आदि में विज्ञापन देखकर वस्तु के बारे में उपभोक्ता ज्ञान प्राप्त करता है। विज्ञापन द्वारा वह अनेक सेवाओं के विषय में जानकारी रखता है।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि उपभोक्ता शिक्षा के अनेक लाभ हैं जिसका वह समय पर उपयोग कर सकता है। उपभोक्ता शिक्षा के कारण आज जागरुकता बढ़ी है। लोग अपने हितों को लेकर सचेत हैं।

प्रश्न 8.
उपभोक्ता के क्या अधिकार है ? खरीदारी करते समय उपभोक्ता को किन-किन समस्याओं का सामना करना पड़ता है ?
उत्तर:
“किसी भी उत्पादित वस्तु को खरीदनेवाला उपभोक्ता कहलाता है।” उपभोक्ता द्वारा खरीदी जानेवाली वस्तु उसके लिए किसी प्रकार से हानिकारक नहीं होनी चाहिए तथा उसे खरीद दारी करते समय किसी प्रकार का धोखाधड़ी का सामना न करना पड़े, इसके लिए उपभोक्ताओं के कुछ अधिकार दिये गये हैं, उपभोक्ता शिक्षा उन्हें इस बारे में सजग कराती है। वे निम्नलिखित हैं-

  • सुरक्षा का अधिकार- उपभोक्ता स्वास्थ्य के लिए हानिकारक खाद्य पदार्थों, नकली दवाईयाँ आदि के बिक्री पर रोक की माँग कर सकते हैं।
  • जानकारी का अधिकार- उपभोक्ता किसी भी वस्तु की गुणवत्ता, शुद्धता, कीमत, तौल, आदि की जानकारी की माँग कर सकते हैं।
  • चयन का अधिकार- उपभोक्ता को अधिकार है कि विक्रेता उसे सभी निर्माताओं की बनी हुई वस्तु दिखायें ताकि वह उनका तुलनात्मक अध्ययन करके उचित कीमत पर गुणवत्ता वाली वस्तु खरीद सके।
  • सुनवाई का अधिकार- खरीदी गई वस्तु में कोई कमी होने पर उपभोक्ता को यह अधिकार है कि ये वस्तु निर्माता विक्रेता तथा संबंधित अधिकारी से शिकायत कर सकते हैं।
  • क्षतिपूर्ति का अधिकार- वस्तुओं तथा सेवाओं से होनेवाले नुकसान की क्षतिपूर्ति की मांग कर सकते हैं।
  • उपभोक्ता शिक्षा का अधिकार- उपभोक्ता सही जानकारी वह सही चुनाव करने के ज्ञान की मांग कर सके।
  • स्वस्थ वातावरण अधिकार- उपभोक्ता को अधिकार है कि वह ऐसे वातावरण में रहे तथा कार्य करे जो स्वास्थ्यपूर्ण है।

उपभोक्ता शिक्षा के अभाव में आज के सभी उपभोक्ताओं को उक्त सभी अधिकारों की जानकारी नहीं रहती है। जिसके कारण बाजार में खरीदारी करते समय उपभोक्ता को विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है, कुछ मुख्य समस्याएँ निम्नलिखित हैं-

  • वस्तुओं में मिलावट- प्रतिदिन की खरीदारी में उपभोक्ता को वस्तुओं में मिलावट का सामना करना पड़ता है। मिलावट का कारण मुनाफाखोरी वस्तुओं की कम उपलब्धता, बढ़ती महंगाई आदि है।
  • दोषपूर्ण माप- तौल के साधन-बाजार में प्राय: मानक माप-तौल के साधनों का प्रयोग नहीं किया जाता है। बल्कि नकली कम वजन के बाँट की जगह ईंट-पत्थर का प्रयोग होता है।
  • वस्तुओं पर अपूर्ण लेबल- प्रायः उत्पादक वस्तुओं पर अपूर्ण लेबल लगाकर उपभोक्ताओं को धोखा देने का प्रयास करते हैं, जिससे उपभोक्ता भ्रम में गलत वस्तु खरीद लेता है।
  • बाजार में घटिया किस्म की वस्तुओं की उपलब्धि- आजकल उपभोक्ताओं को घटिया किस्म की वस्तुएँ खरीदना पड़ रहा है जिसके लिए अधिक कीमत भी देनी पड़ती है। जैसे-घटिया लकड़ी से बने फर्नीचर रंग करके बेचना, घटिया लोहे के चादरों की आलमारी आदि।
  • नकली वस्तुओं की बिक्री- आज बाजार में नकली वस्तुओं की भरमार है। असली पैकिंग में नकली समान, दवाई, सौंदर्य प्रसाधन, तेल, घी आदि भरकर बेचा जाता है।
  • भ्रामक और असत्य विज्ञापन- प्रत्येक उत्पादन कर्ता अपने उत्पादन की बिक्री बढ़ाने के लिए भ्रामक और असत्य विज्ञापनों का सहारा लेते हैं। वस्तु की गुणवत्ता को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं।
  • निर्माता या विक्रेता द्वारा गलत हथकंडे अपनाना- मुफ्त उपहार, दामों में भारी छूट जैसी भ्रामक घोषणाएँ द्वारा उपभोक्ता धोखा खा जाते हैं और अच्छे ब्राण्ड के धोखे में गलत वस्तु खरीद लेते हैं।
  • मानकीकृत उत्पादनों की कमी- मानकीकरण चिह्न वाली वस्तु अधिक कीमत कम लोकप्रिय जबकि अन्य वस्तुएँ अधिक लोकप्रिय पर कम कीमत की होती है।
  • बाजार की कीमतों में विविधता- उपभोक्ता को एक ही वस्तु की अलग-अलग दूकानों पर अलग-अलग कीमत चुकानी पड़ती है। जैसे स्थानीय कर लगाकर कीमत बढ़ाना, लिखी कीमत पर पर्ची चिपकाकर कीमत बढ़ाना।।
  • वस्तुओं का बाजार में उपलब्ध न होना- कई परिस्थितियों, जैसे-सूखा पड़ना, बाढ़ आना आदि के कारण वस्तु की कीमत बढ़ती है तो दूकानदार वस्तुओं को जमा कर लेते हैं, अधिक कीमत देने पर बेचते हैं अथवा वह सामान बाजार से गायब हो जाती है।

प्रश्न 9.
हमारे जीवन में वस्त्र के महत्त्व को समझाइए।
उत्तर:
मानव जीवन में भोजन के बाद यदि किसी वस्तु का महत्त्व है तो वह है-वस्त्र। वस्त्र जहाँ हमारे शरीर को धूप और शीत से रक्षा करता है, वहीं मानव सभ्यता की दृष्टि से भी आवश्यक है। वस्त्रविहीन या नंगे रहना मानव में असभ्यता एवं पागलपन माना जाता है। वस्त्रों में मानव शरीर के सौन्दर्य में वृद्धि होती है।

अतः वस्त्रों के महत्त्व को निम्नांकित बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-

  • शरीर को आवरण प्रदान करने हेतु-मनुष्य को अपने नग्न शरीर को ढंकने के लिए वस्त्र की आवश्यकता है।
  • शरीर को गर्म रखने हेतु-विशेषकर ठंढ की ऋतु में ठंढे प्रदेशों में रहनेवाले व्यक्तियों. को गर्म वस्त्रों की आवश्यकता होती है।
  • निजी श्रृंगार के लिए-चस्त्र न केवल आवरण प्रदान करते हैं बल्कि सौन्दर्य-वृद्धि में भी सहायक होते हैं। अत: निजी शृंगार के लिए भी वस्त्र धारण किये जाते हैं।
  • सामाजिक प्रतिष्ठा हेतु-वस्त्रों द्वारा अपनी सम्पन्नता का प्रदर्शन किया जा सकता है। व्यक्ति अपनी आर्थिक स्थिति या समाज में अपने स्थान का प्रदर्शन वस्त्रों के माध्यम से कर सकता है।
  • कार्यक्षमता में वृद्धि हेतु-अपनी कार्यक्षमता बनाये रखने के लिए यथा-पानी, गर्मी, ठंडक आदि का बचाव वस्त्रों द्वारा करके अपनी कार्यक्षमता बढ़ा सकता है।
  • विभिन्न प्रयोजनों हेतु-मनुष्य को शरीर के अतिरिक्त भी वस्त्र की आवश्यता है। जैसे-घर सजाने के लिए।
  • अवगुणों को छिपाने हेतु-मानव शरीर की असामान्यता या इनमें कुछ दोष को छिपाने के लिए भी वस्त्र सहायक होता है। शरीर का स्वाभाविक तापमान कायम रखने के लिए भी वस्त्र बहुत आवश्यक है। इससे शरीर स्वस्थ रहता है।
  • किसी भी आघात या बाहरी जीवों के आक्रमण सुरक्षा हेतु-आघात या बाहरी जीवों के आक्रमण के सुरक्षा हेतु भी वस्त्रों की आवश्यकता होती है।
  • विभागीय पहचान में वस्त्र-मनुष्य अपने कार्यक्षेत्र की पहचान के लिए वस्त्र का उपयोग करता है। पुलिस, पोस्ट मैन, पादरी, चपरासी, नर्स आदि की पहचान उसके द्वारा पहने गये वस्त्र से की जा सकती है।

अतः जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हो रहा है, वैसे-वैसे वस्त्रों का महत्त्व बढ़ता जा रहा है। आज वस्त्रों का महत्त्व इतना अधिक बढ़ गया है कि कहा जा सकता है-वस्त्रों से व्यक्ति बनता है।

प्रश्न 10.
सिले सिलाये तैयार वस्त्र खरीदते समय किन बातों पर ध्यान रखना चाहिए ?
अथवा, रेडिमेड वस्त्रों का चयन करते समय किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए?
उत्तर:
रेडिमेड कपड़ों का चयन करते समय या खरीदते समय निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

  1. रेडिमेड वस्त्र के कपड़ों की किस्म को देखना चाहिए। कपड़ा किन रेशों का बना है, उसकी संरचना कैसी है, बुनाई कैसी है आदि।
  2. वस्त्र के रंग पक्के होना चाहिए तथा उनमें उपयोग किये गये अलंकरणों के रंग भी पक्के होना चाहिए।
  3. वस्त्र तैयार करने की कौशलता कैसी है इस पर भी ध्यान देना चाहिए। इसके अंतर्गत कटाई, सिलाई, नमूने, बंद करने के साधन और बाह्य सज्जा एवं अलंकरण का ध्यान किया जाता है।
  4. वस्त्र आरामदायक होना चाहिए।
  5. वस्त्र जिस व्यक्ति के लिए खरीदा जाता है उसके नाम के अनुसार होना चाहिए।
  6. वस्त्र व्यक्ति के व्यक्तित्व के अनुरूप होना चाहिए।
  7. वस्त्र मूल्य खरीदने वाले की क्षमता के अनुसार होना चाहिए।

प्रश्न 11.
वस्त्रों के चयन को प्रभावित करने वाले कारकों की सूची बनाएँ। उनका संक्षिप्त विवरण दें।
उत्तर:
वस्त्रों के चयन को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं-
(i) व्यक्तित्व- कपड़ों का चुनाव करते समय व्यक्तित्व को ध्यान में रखना आवश्यक है। अधिकारी, क्लर्क, होटल कर्मचारी के लिए अपने व्यवसाय को ध्यान में रखना आवश्यक है। वहीं लम्बा, पतला, मोटा, संजीदा व्यक्ति आदि को ध्यान में रखकर ही खरीददारी करना चाहिए।

(ii) जलवायु- बाजार में कपड़े का चयन करते समय जलवायु का ध्यान रखना भी अत्यन्त आवश्यक हैं। गर्मियों के लिए आसानी से पसीना सूखने वाले कपड़े जैसे सूती, मतलम, रूबिया आदि उपयुक्त रहते हैं तो सर्दियों में गर्मी को बनाये रखने के लिए रेशमी व ऊनी वस्त्र उपयुक्त रहते हैं।

(iii) शारीरिक आकृति- वस्त्रों को शारीरिक रचना के अनुसार भी चुनाव करना चाहिए। मोटे व्यक्ति को मोटाई कम दिखाने वाले वस्त्रों का चयन करना चाहिए। इन्हें चौड़ी आड़ी वाली वस्त्रों को नहीं पहनने चाहिए क्योंकि इनमें मोटाई अधिक दिखाई देती है लम्बे तथा दुबले व्यक्तियों के लिए आड़ी रेखाओं वाले वस्त्रों का चयन किया जाना चाहिए।

(iv) अवसर- अलग-अलग अवसर पर अलग-अलग पोशाक अच्छे लगते हैं। खुशी के मौके पर सुन्दर, भड़कीले, चमकीले तथा कीमती परिधान होनी चाहिए। सार्वजनिक समारोह में परिधान शालीनना, सौम्यता तथा मर्यादा प्रदर्शित करने वाले हों। वस्त्र, मौसम, समय और शरीर के अनुरूप होनी चाहिए। शोक के अवसर पर सफेद रंग वस्त्र होने चाहिए यात्रा, खेल, अवकाश के लिए आरामदायक वस्त्र होनी चाहिए।

(v) व्यवसाय- व्यक्ति को अपने व्यवसाय के अनुसार वस्त्र का चुनाव करना चाहिए। डाक्टर एवं नर्स, शालीन, सौम्य सफेद वस्त्रों का चुनाव करना चाहिए। स्कूल के बच्चे, ऑफिस, शिक्षक आदि के वस्त्र एक समान होने चाहिए। अश्लील या असभ्य वस्त्रों का चयन नहीं करना चाहिए।

(vi) फैशन- वस्त्रों का चुनाव प्रचलित फैशन के अनुसार की करना चाहिए। समय के साथ-साथ फैशन परिवर्तित होता रहता है। फैशन बदलने से परिधान संबंधी अवस्थाई तथा रूचियाँ बदल जाती है।

(vii) आयु- वस्त्र पहनने वाले की आयु भी वस्त्रों के चुनाव को प्रभावित करती है भिन्न-भिन्न आयु वाले व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न वस्त्र उपयोगी होते हैं।

प्रश्न 12.
कपड़ों का चयन करते समय कौन-से तत्त्व प्रभावित करते हैं ?
उत्तर:
कपड़ों का चयन करते समय निम्नलिखित तत्त्व प्रभावित करते हैं-
(i) बाह्य रूप- कपड़ा सुंदर, चिकना एवं चमकदार होना चाहिए। उसमें रंगों का उचित अनुपात में मिश्रण होना चाहिए। सबसे बढ़कर उसे चित्ताकर्षक होना चाहिए।

(ii) रंग- वस्त्रों के रंगों का तापमान एवं मनोभावों पर भिन्न-भिन्न प्रभाव पड़ता है। लाल, पीला, नारंगी रंग गरम होते हैं। अतः इन रंगों की विशेषता लिये हुए वस्त्रों को गर्मी के मौसम में नहीं खरीदना चाहिए। अत: उपभोक्ता को गर्मी में आंखों तथा शरीर की शीतलता प्रदान करनेवाला रंग जैसे नीला, हरा, बैंगनी रंग वाले वस्त्रों को खरीदना चाहिए। इससे मानसिक संतोष, शांति प्राप्त होता है। सफेद रंग से, पवित्रता एवं ज्ञान का बोध होता है। चककीले, चटकदार रंगवाले वस्त्र बच्चों के लिए अधिक उपयुक्त होते हैं, तथा प्रौढ़ व्यक्तियों के लिए हल्के रंग उचित हैं।

(iii) अभिरूचि- वस्त्र के चुनाव में मनुष्य की शिक्षा, अभिरूचि, प्रशिक्षण, संवेग आदि की महत्वपूर्ण भूमिका है। चयन के समय उसकी कई ज्ञानेन्द्रिय क्रियाशील रहती है। वह वस्त्र को ध्यान से देखता है, छूता है ताकि उसके रूप रंग को महसूस कर सके।

(iv) कपड़े-विशेष का मूल्य- आजकल कपड़े का मूल्य बढ़ गया है। अतः कपड़े खरीदते समय प्रत्येक गृहिणी को अपनी मासिक आय को ध्यान में रखना चाहिए।

(v) कपड़ों का पक्का रंग- आजकल विभिन्न प्रकार के रेशों से बनी सुदर-सुंदर रंग के कपड़े उपलब्ध हैं। प्रायः एक प्रकार के रेशों से बने वस्त्रों के विशेष रंग पक्के निकलते हैं तो वही रंग दूसरे प्रकार के रेशों में कच्चे निकल जाते हैं। अतः रंगीन कपड़े खरीदते समय इसकी जांच कर लेनी चाहिए।

(vi) मौसम और जलवायु- कपड़े खरीदते समय मौसम का ध्यान रखना चाहिए। ठंढ के मौसम में ऊनी वस्त्र और गर्मी के मौसम में सूती, सिफॉन जार्जेट ही अच्छे लगते हैं।

(vii) टिकाऊपन- कोई वस्त्र टिकाऊ है या नहीं, यह कपड़े के रेशे के गुण और बनावट पर निर्भर करता हो। ठोस बुने कपड़े अधिक मजबूत और टिकाऊ होते हैं। इसके विपरीत हल्के बुने हुए कपड़े अपेक्षाकृत कमजोर और कम टिकाऊ होते हैं। कुशल गृहिणी कपड़ों को देखकर उसकी मजबूती, टिकाऊपन आदि का सहज ही पता लगा लेती हैं।

(viii) कपड़ों में कलफ- साधारणतः कपड़ों को भली-भांति देखने तथा इसके एक भाग को मसलने से कलफ का भी पता चल जाता है।

(ix) सिकुड़ना- कुछ कपड़े धुलने पर सिकुड़ जाते हैं। ऐसे कपड़ों से मिले वस्त्र उटंग हो जाते हैं। अतः जहाँ तक संभव हो कम-से-कम या नहीं सिकुड़ने वाले वस्त्र ही खरीदना चाहिए।

(x) वर्तमान कीमत- किसी विश्वासी या परिचित दूकान से ही कपड़े खरीदने चाहिए।

प्रश्न 13.
विभिन्न प्रकार की शारीरिक रचना वाली पहिलाओं के लिए पोशाक का चुनाव कैसे करेंगी ?
उत्तर:
विभिन्न प्रकार की शारीरिक रचना वाली महिलाओं के लिए पोशाक (Clothes According to Built and Appearance)-
(i) लम्बी और मोटी महिला- इस प्रकार की महिलाओं के लिए वस्त्रों का चुनाव करना बहुत कठिन काम है। इसीलिए ऐसी महिलाओं के लिए वस्त्रों का चयन करते समय अत्यन्त सावधानी बरतनी चाहिए। इसका कारण यह है कि इन महिलाओं को जहाँ एक ओर ऐसे वस्त्रों की आवश्यकता होती है जो मोटाई काम होने का अहसास कराएँ वहीं दूसरी ओर ऐसे वस्त्रों की जिससे लम्बाई बढ़ती हुई दिखाई न दे। ऐसी वस्त्र-योजना के लिए तिरछी रेखाओं वाले वस्त्र उचित रहते हैं क्योंकि ये ऊपरी भाग की चौड़ाई को कुछ करने का भ्रम पैदा करते हैं। इस वर्ग की महिलाओं के लिए वस्त्रों की सिलाई करते या कराते समय कालर, कफ, योक आदि सीधी रेखाओं में ही रखने चाहिए। इन्हें बहुत चुस्त तथा बहुत ढीले वस्त्र भी नहीं पहनने चाहिए।

(ii) मोटी तथा नाटी महिला- मोटी तथा नाटी महिला को भी अपने अनुकूल वस्त्रों के डिजाइन, कटाई आदि का ध्यानपूर्वक चयन करना चाहिए। इन्हें आड़ी रेखा वाले वस्त्रों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इनसे न केवल मोटाई ही अधिक दिखाई देती है अपितु कद भी कम प्रतीत होता है। बड़े-बड़े चौड़े कोट, दोहरी छाती वाले कोट, ऊँचे कोट आदि का प्रयोग इन महिलाओं को कदापि नहीं करना चाहिए। बड़े फूल तथा चौड़े बार्डर वाले वस्त्र भी उनके लिए त्याज्य हैं। इन्हें तो केवल . लम्बी रेखाओं वाले वस्त्रों का प्रयोग करना चाहिए। इन्हें वस्त्रों की फिटिंग पर भी समुचित ध्यान देना चाहिए। वस्त्र न तो बहुत चुस्त होने चाहिए और न बहुत ही ढीले। वस्त्रों के चुस्त होने पर शारीरिक दोष उभर आते हैं और ढीले वस्त्र चौड़ाई फैलाने वाले होते हैं। ऐसी महिलाओं को एक ही रंग के छोटे नमूने वाले, बिना बैल्ट के छोटे कालर वाले वस्त्र प्रयोग में लाने चाहिए।

(iii) पतली महिला- पतले शरीर वाली महिलाओं के शरीर पर वे सभी वस्त्र फबते हैं जो मोटी महिलाओं के लिए त्याज्य हैं। इन महिलाओं को ऐसे वस्त्रों का चयन करना चाहिए जो पतलेपन को छिपाने वाले हों। तीखे तथा चटक रंग, चुन्नट, झालर, चौड़ी बैल्ट, बड़ी जेबें, फूली हुई बाँहें आदि डिजाइन वाले वस्त्र इन महिलाओं के व्यक्तित्व को अत्यन्त आकर्षक रूप प्रदान करते हैं। कपड़े तथा सिलाई के डिजाइनों का चुनाव करते समय इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि वे लम्बी रेखाओं के स्थान पर आड़ी अथवा भग्न एवं वक्र रेखा वाले हों।

(iv) लम्बी तथा दुबली महिला- इस वर्ग की महिलाओं के लिए जिन वस्त्रों का चयन किया जाए, वे आड़ी रेखाओं से बने डिजाइन के होने चाहिए। ऐसे शरीर पर चेक वाले डिजाइन भी बहुत अच्छे लगते हैं। कोट आदि वस्त्रों की लम्बाई कम रखनी चाहिए जिसका लाभ यह होता है कि लम्बाई कम होने का आभास मिलता है। फिटिंग ढीली रखनी चाहिए क्योंकि इससे भी लम्बाई अखरती नहीं है। कैम्ब्रिक, वायल, सूती साड़ी आदि का प्रयोग इस वर्ग की महिलाओं के व्यक्तित्व को आकर्षक बना देता है।

(v) छोटी तथा दुबली महिला/पुरुष- इन महिलाओं के लिए वस्त्रों को चुनाव करते समय दो बातों का ध्यान रखना पड़ता है-एक तो यह कि उनका शरीर भरा हुआ दिखाई दे, और दूसरा यह कि वे लम्बी प्रतीत हों। लम्बवत् रेखाएँ जहाँ बढ़ी हुई लम्बाई का आभास देती हैं वहीं आड़ी रेखाएँ बढ़ी हुई चौड़ाई का। अतएव इन महिला/पुरुष को ऐसे डिजाइनों के वस्त्र चुनने चाहिए जो लम्बाई और चौड़ाई दोनों ही बढ़ाते हुए प्रतीत हों। ऐसी स्थिति में आड़ी-खड़ी रेखाओं के योग से बने डिजाइन सर्वाधिक उपयुक्त रहते हैं। चुस्त पोशाक शारीरिक दुर्बलता को व्यक्त करती है। अतएव इन महिलाओं को शरीर को भरा-पूरा दिखाने वाले ढीली फिटिंग के वस्त्र ही पहनने चाहिए।

(vi) भारी नितम्ब वाली महिलाएँ- इस वर्ग की महिलाओं को ऐसे डिजाइनों के वस्त्र चुनने चाहिए जो नितम्बों की चौड़ाई कम करके दिखाएँ। तिरछे, वृत्ताकार तथा वक्र रेखाओं से बने डिजाइन इस उद्देश्य की पूर्ति में बाधक होते हैं। नितम्ब के पास वस्त्रों की फिटिंग चुस्त नहीं होनी चाहिए। इन्हें मोटी झालर तथा बड़ी-बड़ी जेबों वाले वस्त्र भी नहीं पहनने चाहिए।

(vii) भारी वक्ष वाली महिलाएँ- इस वर्ग की महिलाओं को वस्त्रों का चयन करते समय सदैव लम्बवत् रेखाओं वाले डिजाइनों का प्रयोग करना चाहिए। तिरछी तथा वक्र रेखाओं वाले डिजाइनों के वस्त्र ऐसे शरीर पर बहुत अच्छे लगते हैं। वस्त्रों की सिलाई के समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि गला V आकार का हो और छाती की फिटिंग चुस्त न हो। यदि कमर के पास चुन्नट अथवा छोटी डार्ट दे दी जाए तो छाती के भारी होने का अहसास नहीं होता।

(viii) मोटी बाँहों वाली महिलाएँ- इस वर्ग की महिलाओं को बिना आस्तीन वाले वस्त्र नहीं पहनने चाहिए। इसका कारण यह है कि बिना आस्तीन के वस्त्र उन्हीं महिलाओं पर फबते हैं जिनकी बाहें न तो बहुत मोटी होती हैं और न ही पतली। मोटी बाहों वाली स्त्रियों के लिए तो ढीली फिटिंग के बाहों वाले वस्त्र ही शोभा देते हैं।

(ix) निकला हुआ पेट- इस वर्ग की महिलाओं को ऐसे डिजाइन के वस्त्र चुनने चाहिए जिससे पेट थोड़ा दबा हुआ लगे। इस दृष्टि से बहुत तीखे रंगों के ब्लाउज तथा विषम रंगों की साड़ियाँ नहीं चुननी चाहिए। खड़ी रेखाओं वाले वस्त्र इस वर्ग की महिलाओं के लिए अच्छे रहते हैं। फिटिंग कुछ ढीली होनी चाहिए और गले के आस-पास ऐसी सजावट होनी चाहिए जिससे देखने वाले की दृष्टि उसी ओर जाए।

प्रश्न 14.
शिशुओं के वस्त्रों का चुनाव आप किस प्रकार करेंगी ?
उत्तर:
शिशुओं के वस्त्रों का चुनाव (Selection of Clothes for Infants)-
(i) शिशुओं के लिए सूती कपड़ा सर्वोत्तम वस्त्र होता है। सूती वस्त्र में भी कोमल तथा हल्का वस्त्र शिशु की कोमल त्वचा को क्षति नहीं पहुँचाता। सूती वस्त्र में संरध्रता (Porous) होने के कारण शिशु की त्वचा का पसीना सोख लेता है, उसे चिपचिपा नहीं होने देता। शिशुओं के लिए रेशमी या नायलान वस्त्र कष्टदायक होता है।

(ii) शिशु के वस्त्रों को बार-बार गंदे होने के कारण कई बार धोना पड़ता है। इसलिए शिशुओं के वस्त्र ऐसी होने चाहिए जिन्हें बार-बार धोया तथा सुखाया जा सके। वस्त्र ऐसा नहीं होना चाहिए जिसे घर में न धोया जा सके या जिसे सूखने में बहुत अधिक समय लगता हो।

(iii) शिशुओं के वस्त्र हमेशा साफ तथा कीटाणुरहित होने चाहिए। वस्त्रों को कीटाणुरहित करने के लिए उन्हें गर्म पानी में धोना चाहिए तथा डेटॉल के पानी में भिंगोना चाहिए। इसलिए वस्त्र ऐसा होना चाहिए जो गर्म पानी तथा डेटॉल या कीटाणुनाशक पदार्थ को सहन कर सके।

(iv) उसके गर्म कपड़े भी ऐसे होने चाहिए, जो गर्म पानी में सिकुड़े नहीं।

(v) शिशुओं के कपड़ों की संख्या अधिक होनी चाहिए क्योंकि उसके कपड़े गंदे हो जाने पर दिन में कई बार बदलने पड़ते हैं।

(vi) शिशुओं के कपड़े मांडरहित होने चाहिए तथा कसे इलास्टिक वाले नहीं होने चाहिए।

(vii) शिशुओं के कपड़े सामने, पीछे या ऊपर की ओर खुलने चाहिए, जिससे शिशु को सिर से कपड़ा न डालना पड़े।

(viii) शिशुओं के वस्त्रों में पीछे की ओर बटनों (Buttons) के स्थान पर कपड़े से बाँधने वाली पेटियाँ (ties) या बंधक (faster) होने चाहिए क्योंकि बटन पीछे होने से शिशु के लेटने पर उसे चुभ सकते हैं।

(ix) शिशुओं के कपड़ों के रंग व डिजाइन अपनी रुचि के अनुसार होने चाहिए, परन्तु रंग ऐसे होने चाहिए जो धोने पर निकले नहीं क्योंकि शिशुओं के वस्त्रों को बहुत अधिक धोना पड़ता है।

(x) शिशुओं के वस्त्रों में मजबूती का इतना महत्त्व नहीं होता है क्योंकि शिशुओं की वृद्धि बहुत तीव्र गति से होती है। जब तक शिशु के कपड़ों के फटने की स्थिति आती है, वे छोटे हो चुके होते हैं।

प्रश्न 15.
पूर्व स्कूलगामी स्कूल जाने वाले बच्चों के वस्त्र, किशोर तथा युवाओं के वस्त्र तथा महिलाओं के लिए वस्त्र किस प्रकार के होने चाहिए?
उत्तर:
I. पूर्व स्कूलगामी बच्चों के वस्त्र (Selection of Clothes for Pre-school Children)-

  • पूर्व स्कूलगामी बच्चों के वस्त्र कोमल, हल्के तथा सूती होने चाहिए। (3 वर्षीय बच्चे)
  • वस्त्र बहुत ढीले तथा बहुत लम्बे नहीं होने चाहिए क्योंकि इस आयु में बच्चों का ध्यान खेलने में होता है। ढीले तथा लम्बे कपड़े कहीं भी अटक कर फट सकते हैं तथा बच्चे को छति पहुँचा सकते हैं।
  • बच्चों के कपड़े ऐसे रंगों के होने चाहिए जो देखने में आकर्षक एवं उन्हें सुन्दर लगते हों।
  • कपड़ों की सिलाई पक्की होनी चाहिए तथा ऐसी होनी चाहिए जो बच्चों की उछल-कूद से दबाव पड़ने पर फटे नहीं।
  • बच्चों की वृद्धि बहुत जल्दी होती है, इसलिए वस्त्र ऐसी होनी चाहिए, जिनको आवश्यकता पड़ने पर खोल कर बड़ा किया जा सकता हो।
  • बच्चों के वस्त्र ऐसे होने चाहिए जिनको घर में आसानी से धोया जा सकता हो तथा धोने पर जिनका रंग न निकलता हो।
  • बच्चों के वस्त्र ऐसे होने चाहिए जिनको बच्चा स्वयं पहन सकता हो तथा उतार सकता हो।
  • बच्चों के वस्त्रों का इलास्टिक (Elastic) बहुत अधिक कसा नहीं होना चाहिए।

II. स्कूल जाने वाले बच्चों के वस्त्र (Selection of Clothes for School Going Children)-

  • बच्चों के कपड़े खेल-कूद के कारण गंदे हो जाते हैं। इसलिए ऐसे होने चाहिए जो घर में धोए जा सकते हों।
  • बच्चों के कपड़े मजबूत होने चाहिए जो खेलने और उछलकूद को सहन कर सकें और रोज-रोज फटे नहीं।
  • बच्चों के कपड़े नाम में थोड़े बड़े हो सकते हैं तथा इनको बच्चों की वृद्धि के अनुसार बड़ा करने की गुंजाइश होनी चाहिए।
  • बच्चों के वस्त्र कसे हुए तथा तने हुए नहीं होने चाहिए क्योंकि ये बच्चों की सामान्य वृद्धि में बाधक होते हैं। कसे हुए वस्त्र पहनने से वे खेल नहीं सकते, इसलिए कुंठित होते हैं जिससे उनके मानसिक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है।
  • बच्चों के वस्त्र देखने में सुन्दर एवं बच्चों की पसन्द के अनुरूप होने चाहिए। वस्त्र ऐसे होने चाहिए जिनसे बच्चा स्मार्ट (Smart) लगे। यदि बच्चों के वस्त्र बेढब, भद्दे तथा अपने साथियों की पसन्द के अनुरूप नहीं होते तो वे हीन भावना से ग्रस्त हो जाते हैं और साथियों से मिलने तथा उनके साथ खेलने में संकोच करते हैं।
  • स्कूल की यूनिफार्म में अधिकतर सफेद रंग ही होता है, इसलिए घर में पहनने वाले वस्त्र रंगीन होने चाहिए।

III. किशोर तथा युवाओं के वस्त्रों का चयन (Selection of Clothes for Adolesents & Youth)- इस आयु-वर्ग के लिए वस्त्रों का चयन सबसे कठिन होता है क्योंकि इस आयु के व्यक्ति परंपरागत कपड़ों के बजाय, कुछ नया, अलग तथा अनोखा वस्त्र पहनना चाहते हैं। ये चाहते हैं कि वे सबसे अलग दिखें और उनकी एक अलग ही पहचान हो। वे वर्तमान प्रचलित फैशन के अनुरूप ही वस्त्र धारण करना चाहते हैं तथा वस्त्रों द्वारा ही अपने साथियों से प्रशंसा एवं स्वीकृति भी प्राप्त करना चाहते हैं। इसलिए उनके वस्त्र ऐसे हों जो-

  • उन पर खिलें, सुन्दर लगें और उनके आत्म-सम्मान को बढ़ाएँ।
  • वस्त्र अश्लील न हों।
  • वस्त्र कोमल, लचीले तथा विभिन्न अलंकरणों द्वारा सजाए हुए हों।
  • वस्त्र शरीर की बनावट, त्वचा, आँखों तथा बालों रंग के अनुरूप होने चाहिए।

IV. महिलाओं के लिए वस्त्र (Selection of Clothes for Ladies)-

  • बढ़ती आयु के साथ-साथ शरीर में परिवर्तन आ जाते हैं। उन परिवर्तनों के कारण युवावस्था में जो वस्त्र उन्हें सुन्दर लगा करते थे वे इस आयु में उनके शरीर पर नहीं फबते।
  • उनके कपड़ों के रंग, डिजाइन इत्यादि उनकी शरीर की बनावट के अनुरूप होने चाहिए।
  • इस आयु में वस्त्रों का चुनाव करते समय प्रचलित फैशन की अपेक्षा, व्यवसाय के अनुकूल (Need of Occupation), अवसर (Occasion), ऋतु (Season) तथा कीमत (Money) की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है।
  • महिलाओं को रोजमर्रा के लिए ऐसे वस्त्रों की आवश्यकता होती है, जो सादे, सौम्य, सुन्दर, टिकाऊ तथा आरामदायक हों।

प्रश्न 16.
वस्त्रों का संरक्षण विस्तारपूर्वक लिखें।।
उत्तर:
वस्त्रों का संरक्षण- जितना आवश्यक वस्त्रों को धोना, सुखाना, इस्तरी करना है उतना ही आवश्यक वस्त्रों को संभालना भी है। रखे हुए वस्त्र आवश्यकता पड़ने पर तैयार मिलते हैं। अत: सभी वस्त्रों को सहेज कर रखना चाहिए।

वस्त्रों को रखने के लिए बाक्स या आलमारी का प्रायः प्रयोग किया जाता है। आलमारी (Wardrobe) में वस्त्रों को रखना अधिक उपयुक्त रहता है क्योंकि उसमें अलग-अलग नाप (Size) के रैक (Rack) बने हुए होते हैं, उनमें वस्त्र रखने से वस्त्रों की इस्तरी खराब नहीं होती और रैक्स (Racks) में अलग-अलग पड़े होने के कारण उनको ढूँढने में कठिनाई नहीं पड़ती। आलमारी (Wardrobe) में वस्त्रों को टांगने की भी सुविधा होती है। हैंगर (Hangers) में वस्त्रों को टाँगने से उनकी तह नहीं बिगड़ती। आलमारी (Wardrobe) में परिधान सम्बन्धी अलंकरण (Dressaccessories) की रखने की व्यवस्था भी होती है जिससे उपयुक्त अलंकरण भी वस्त्रों के साथ पहनने के लिए उपयुक्त समय पर मिल सकें। आलमारी में सबसे नीचे का शेल्फ (Shelf) जूते (Shoes) रखने के लिए प्रयोग किया जा सकता है।

महँगे तथा दैनिक प्रयोग में न आने वाले वस्त्रों को डस्ट-प्रूफ-बैग (Dust-proof-bag) में बन्द करके रखना चाहिए जिससे-

  1. उनको प्रयोग करते समय झाड़ना न पड़े
  2. श्रम तथा समय की बचत हो
  3. वस्त्रों की शोभा बनी रहे
  4. वस्त्रों का जीवन-काल बढे।

वस्त्रों को बन्द करके रखने से पहले उनकी बैल्ट, बो, ब्रोच इत्यादि उतार लेना चाहिए। जेबों को खाली कर देना चाहिए, उनकी जिप और बटन बन्द करके रखना चाहिए, उनको धूप लगवा लेनी चाहिए।

गर्म कपड़ों को अलमारी (Wardrobe) में रखने से पहले अखबार या कागज में लपेट देना चाहिए। इससे उनमें कीड़ा नहीं लगता।अलमारी में रखे वस्त्रों को कीड़ा न लगे। इसके लिए अलमारी में-

  1. कीड़े मारने वाली दवाई डालनी चाहिए।
  2. पालीथिन बैग में मॉथ-प्रूफ पाउडर (Mouth Proof Powder) या नैपथिलीन की गोलियाँ (Napthlene Balls) डालकर रखनी चाहिए।
  3. डी० डी० टी० का स्प्रे अथवा नीम की सूखी पत्तियाँ रखनी चाहिए।
  4. पेराडाइक्लोरो बैंजीन (Para-dy-chloro Benzene) का प्रयोग भी वस्त्रों की कीड़ों से सुरक्षा करता है।
  5. अलमारी की पूर्ण सफाई होनी चाहिए तथा टूटे-फूटे भागों की मरम्मत होती रहनी चाहिए ।

आलमारी में जूते, सैंडिल्स इत्यादि को पॉलिश करके ही रखना चाहिए जिससे आवश्यकता के समय वे तैयार मिलें। संरक्षितं वस्त्रों की समय-समय पर जाँच करते रहनी चाहिए तथा वस्त्रों को रैक्स में रखने का एक निश्चित स्थान बनाए रखना चाहिए।

Bihar Board 12th Home Science Important Questions Short Answer Type Part 1

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Bihar Board 12th Home Science Important Questions Short Answer Type Part 1

प्रश्न 1.
अन्तः स्त्रावी ग्रंथियाँ
उत्तर:
नलिका विहीन ग्रंथियाँ ही अन्तः स्रावी ग्रंथियाँ कहलाती हैं। इन ग्रंथियों में कोई नलिका नहीं होती है बल्कि इनके चारों ओर सक्त कोशिकाओं का घना छायादार वृक्ष के सदृश जाल बिछा रहता है जिसके माध्यम से ये स्रावी पदार्थ को सीधे रक्त में डाल देते हैं।

प्रश्न 2.
बहिर्तावी ग्रंथियाँ
उत्तर:
नलिका युक्त ग्रंथियों को ही बहिस्रावी ग्रंथियाँ कहा जाता है। यकृत, लार ग्रंथियाँ, आँसूबली ग्रंथियाँ आदि बहिस्रावी ग्रंथियाँ है। ये ग्रंथियाँ स्रावित पदार्थ को नलिका के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचाते हैं।

प्रश्न 3.
थाएरॉइड ग्रंथि
उत्तर:
थाएरॉइड ग्रंथि गर्दन में स्वर यंत्र और श्वासनली के बीच में स्थित रहता है। यह द्विपिण्डकीय होती है तथा दोनों पिण्ड आपस में एक पतले सेतु के द्वारा जुड़े रहते हैं। यह सेतु इस्थमस कहलाता है। थाएरॉइड ग्रंथि का आकार तितलीनुमा होता है। यह ग्रंथि कई छोटी-छोटी, पुटिकाओं की बनी होती है। इन पुटिकाओं के बीच में रक्त कोशिकाओं का जाल बिछा रहता है। पुटकीय कोशिकाएँ एक लसदार तथा पारदर्शक द्रव्य का स्रावण करती है जिसमें थाएरॉइड हारमोन्स उपस्थित रहता है।

प्रश्न 4.
हार्मोन
उत्तर:
अन्तःस्रावी ग्रंथियों से जो स्रावी पदार्थ निकलते हैं उन्हें हार्मोन कहा जाता है। यह रासायनिक यौगिक होते हैं। इसलिए इसे रासायनिक नियामक भी कहा जाता है। कुछ हार्मोन्स तंत्रिकाओं के साथ भी शरीर की अधिकांश क्रियाओं का नियमन करते हैं। इस प्रकार के नियमन को तंत्रिकीय अन्तःस्रावी नियमन भी कहा जाता है। हार्मोन्स रासायनिक रूप से पेप्टाइड्स, स्टॉरायड्स, अमीन्स तथा अमीनो अम्ल के व्युत्पन्न होते हैं।

प्रश्न 5.
इन्सुलिन
उत्तर:
इन्सुलिन पोलीपेप्टाइड हारमोन है। इसमें 51 प्रकार के अमीनो अम्ल उपस्थित होते हैं। ये अमीनो अम्ल दो प्रकार की शृंखलाओं द्वारा सजे होते हैं। पहली श्रृंखला में 21 अमीनो अम्ल होते हैं तथा दूसरी शृंखला में 30 अमीनो अम्ल एक सामान्य स्वस्थ व्यक्ति प्रतिदिन 50 यूनिट इन्सुलिन का स्रावण करता है जबकि अग्नाशय में इसकी संग्रह क्षमता 200 यूनिट तक होती है। इन्सुलिन अग्नाशय से हमेशा निकलता रहता है।

प्रश्न 6.
अमीनो अम्ल
उत्तर:
अमीनो अम्ल लम्बे चैन की एक श्रृंखला है। शरीर में इसकी जैविक महत्ता है। इसका पोली पेप्टाइड चैन प्रोटीन कहलाता है। ल्यूसीन, हीस्टोडिन, आइसोल्युसिन प्रमुख अमीनो अम्ल हैं।

प्रश्न 7.
भोजन
उत्तर:
वह खाद्य पदार्थ जिसके खाने से शरीर को प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज, लवण एवं जल की प्राप्ति होती है उसे भोजन कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, ऊर्जा प्रदान करने वाले खाद्य पदार्थ भोजन कहलाते हैं। जैसे-चावल, दाल, सब्जी आदि।

प्रश्न 8.
पोषक तत्व
उत्तर:
पोषक तत्व हमारे आहार के वे तत्व हैं जो शरीर की आवश्यकताओं के अनुरूप पोषण प्रदान करते हैं अर्थात् अपेक्षित रासायनिक ऊर्जा देते हैं। इनमें प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं-

  1. कार्बोहाइड्रेट- यह शरीर की ऊर्जा प्रदान करता है।
  2. प्रोटीन- यह शरीर की वृद्धि करता है यह बच्चों की वृद्धि के लिए आवश्यक होता है।
  3. वसा- इससे शरीर को तीन अम्ल मिलते हैं- लिनोलीन, लिनोलेनिक तथा अरकिडोनिक। शरीर में घुलनशील विटामिनों के अवशोषण के लिए इसकी उपस्थिति आवश्यक है।
  4. कैल्शियम- यह हड्डी के विकास और मजबूती के लिए आवश्यक है।
  5. फॉस्फोरस- यह भी हड्डी के विकास के लिए जरूरी है।
  6. लोहा- गर्भावस्था एवं स्तनपान करानेवाली अवस्था में इसकी विशेष आवश्यकता होती है। यह शरीर की रक्त-अल्पता, हिमोग्लोबिन और लाल रक्तकण प्रदान कर दूर करता है।
  7. विटामिन- यह दो प्रकार का होता है, जल में घुलनशील तथा विटामिन बी, विटामिन सी एवं वसा में घुलनशील तथा विटामिन ए, डी, ई, के। विटामिन भी शरीर की वृद्धि के लिए आवश्यक है एवं यह कई रोगों से बचाव भी करता है।

प्रश्न 9.
पोषण
उत्तर:
शरीर की विभिन्न जटिल रासायनिक प्रक्रियाओं को संपन्न करने के लिए भोजन में पौष्टिक तत्वों की आवश्यकता होती। भोजन के अंतर्ग्रहण, पाचन एवं अवशोषण के बाद सजीव द्वारा इन पौष्टिक तत्वों का उपयोग किया जाता है, जिससे शारीरिक वृद्धि होती है, तंतुओं की टूट-फूट की मरम्मत होती है, शरीर को उष्णता प्राप्त होती है तथा विभिन्न क्रियाओं का नियंत्रण होता है, ‘पोषण’ कहलाता है।

प्रश्न 10.
आहार
उत्तर:
व्यक्ति एक दिन में जितना भोजन ग्रहण करता है, भोजन की वह मात्रा उस व्यक्ति का एक दिन का आहार कहलाती है।

प्रश्न 11.
संतुलित आहार
उत्तर:
वह आहार जिसमें पर्याप्त मात्रा में सभी पौष्टिक तत्व (जैसे-कार्बोज, प्रोटीन, वसा, खनिज लवण एवं विटामिन) विद्यमान हों जो व्यक्ति की शारीरिक वृद्धि एवं विकास के लिए पर्याप्त हों, संतुलित आहार कहलाता है।

प्रश्न 12.
असंतुलित आहार
उत्तर:
जब आहार में एक या एक से अधिक पोषण तत्वों की कमी या अधिकता रहती है तो वैसा आहार असंतुलित आहार कहलाता है।

प्रश्न 13.
तरल आहार
उत्तर:
जब रोगी ठोस आहार को खाने व पचाने में असमर्थ होता है तो उसे पेय के रूप में आहार दिया जाता है। इसे ही तरल आहार कहा जाता है। ऐसे आहार में आमतौर पर मिर्च-मसाले व फोक की मात्रा नहीं होती है। साथ ही तेज सुगंध वाले पदार्थ भी शामिल नहीं किया जाता है। तरल आहार उस रोगी को दिया जाता है जो ठोस भोजन नहीं ले पा रहा हो तीव्र ज्वर, शल्य क्रिया, हृदय रोग, जठरशोथ, दस्त, उल्टी आदि से पीड़ित व्यक्ति को तरल आहार दिया जाता है।

प्रश्न 14.
पूरक आहार
उत्तर:
दूध शिशु का प्रमुख आहार होता है। परंतु जब शिशु 6-7 माह का होता है तब उसकी उदर पूर्ति एवं समग्र पोषण के लिये माता का दूध पर्याप्त नहीं होता है। बल्कि उसकी बढ़ती शारीरिक माँग के लिए अन्य पौष्टिक पदार्थों की आवश्यकता होती है। इसकी पूर्ति के लिए शिशु को जो आहार दिया जाता है उसे पूरक आहार कहा जाता है। 6 माह तक शिशु को लौह लवण की आवश्यकता नहीं होती है, क्योंकि उसके शरीर में पर्याप्त मात्रा में लौह लवण उपस्थित रहता है। परंतु उम्र बढ़ने के साथ-साथ लौह लवण की कमी होती जाती है। अत: पूरक आहार द्वारा लौह लवण, आयोडिन एवं आवश्यक विटामिन सी की कमी होती है। इसकी पूर्ति भी पूरक आहार द्वारा दी जाती है। पूरक आहार तीन प्रकार के होते है-पहला तरल पूरक आहार, दूसरा अर्द्धठोस पूरक आहार तथा तीसरा ठोस पूरक आहार।

प्रश्न 15.
आहार नियोजन
उत्तर:
आहार नियोजन का अभिप्राय आहार की ऐसी योजना बनाने से है, जिससे सभी पोषक तत्त्व उचित तथा संतुलित मात्रा में प्राप्त हो सके। आहार की योजना बनाते समय खाने वाले व्यक्ति की संतुष्टि के साथ-साथ उसके स्वास्थ्य पर भी ध्यान रखना चाहिए। आहार का नियोजन इस प्रकार करना चाहिए कि आहार लेने वाले व्यक्ति के लिए वह पौष्टिक, सुरक्षित तथा संतुलित हो तथा उसके सामर्थ्य में हो।

प्रश्न 16.
आहार परिवर्तन
उत्तर:
आहार में परिवर्तन को आहार परिवर्तन कहा जाता है। जैसे-रोज रोटी खाने की जगह कभी पुलाव, खीर या पुआपूरी खाना आहार परिवर्तन है। स्वाद तथा स्वास्थ्य दोनों दृष्टिकोण से आहार परिवर्तन आवश्यक है। शारीरिक परिवर्तन तथा विकास की अवस्थाओं में आहार की संरचना में परिवर्तन किया जाता है। उदाहरणार्थ, किशोरी, गर्भवती महिला, धात्री माता तथा रुग्ण अवस्था में परिवर्तित आहार दिया जाता है। इसके अलावा भोजन में नवीनता लाने के लिए भी आहार में परिवर्तन करना आवश्यक होता है।

प्रश्न 17.
भोजन रूपांतरण
उत्तर:
आहार में शारीरिक स्थिति तथा अवस्था के अनुसार परिवर्तन लाया जाता है। आहार दैनिक आवश्यकताओं के अनुसार खाये गये भोजन की कुल मात्रा को कहते हैं। विशेष अवस्था तथा विशेष परिस्थिति में भोजन में परिवर्तन किया जाता है। रुग्नावस्था या विशेष स्वास्थ्य अवस्थाओं में मूल आहार में परिवर्तन लांकर उस अवस्था या स्थिति की आवश्यकताओं को पूरा करने को भोजन रूपान्तरण कहते हैं। आहार परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं- 1. मात्रा में परिवर्तन तथा 2. आहार की गुणवत्ता में परिवर्तन।

प्रश्न 18.
सुपोषण
उत्तर:
सुपोषण वह स्थिति है जिसमें भोजन में सभी पौष्टिक तत्व व्यक्ति की उम्र, लिंग, शारीरिक व मानसिक कार्यक्षमता और अन्य आवश्यकताओं के अनुकूल रहते हैं, सुपोषण कहलाता है।

प्रश्न 19.
कुपोषण
उत्तर:
कुपोषण वह स्थिति है जिसके कारण व्यक्ति के स्वास्थ्य में गिरावट आने लगती है। यह एक या से अधिक तत्वों की कमी, अधिकता या असंतुलन से होती है जिससे शरीर अस्वस्थ या रोगग्रस्त हो जाता है

प्रश्न 20.
कार्बोज
उत्तर:
कार्बोज ऊर्जा का मुख्य स्रोत है। इसमें रेशे भी पर्याप्त मात्रा में विद्यमान रहते हैं। ये रेशे भोजन की पाचन क्रिया के दौरान आमाशय में क्रमानुकुंचन में सहयोग देकर भोजन को छोटी आँत में भेजने का कार्य करते हैं। इससे भोजन सरलता से पच जाता है। साथ ही यह मल निष्कासन में सहायता करता है और मलबद्धता से बचाता है।

प्रश्न 21.
प्रोटीन
उत्तर:
प्रोटीन ग्रीक भाषा का शब्द प्रोटीआस से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है प्रथम स्थान ग्रहण करने वाला प्रोटीन की खोज डच निवासी मूल्डर ने 1838 में किया था। हमारे आहार में प्रोटीन का मुख्य स्थान है। शरीर की वृद्धि एवं विकास के लिए प्रोटीन नितांत जरूरी है। शरीर में विभिन्न क्रियाकलापों के दौरान विभिन्न कोशिकाओं एवं तन्तुओं की निरंतर टूट-फूट होती रहती है, जिसकी मरम्मत प्रोटीन ही करता है। रक्त, माँसपेशियाँ, यकृत, अस्थि के तन्तु, त्वचा, बाल आदि के निर्माण के लिए प्रोटीन आवश्यक है। प्रत्येक कोशिकाएँ प्रोटीन की बनी होती हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि जीवित रहने के लिए प्रोटीन अनिवार्य है। इसीलिए प्रोटीन को “शरीर की आधारशिला” की संज्ञा दी गई है।

प्रश्न 22.
वसा
उत्तर:
वसा ऊर्जा का सान्द्र स्रोत है। यह शरीर को ऊर्जा एवं उष्णता प्रदान करता है। यह त्वचा के नीचे वसीय उत्तक के रूप में जमा रहता है। आवश्यकता पड़ने पर यह टूटकर शरीर को ऊर्जा प्रदान करता है। घी, तेल, मूंगफली, वनस्पति घी, सरसों का तेल तथा अन्य सभी तिलहनों में वसा पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है। एक ग्राम वसा 9.1 किलो कैलोरी ऊर्जा प्रदान करता है।

प्रश्न 23.
विटामिन
उत्तर:
विटामिन कार्बनिक यौगिक है जिसे आवश्यक पोषक तत्व कहा जाता है। शरीर में इसकी आवश्यकता बहुत कम होती है। परन्तु शरीर को स्वस्थ रखने के लिए यह आवश्यक है। यह शरीर को विभिन्न रोगों से सुरक्षा प्रदान करती है तथा शरीर को रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करती है। यह शरीर में उत्प्रेरक की भाँति कार्य करती है और विभिन्न शारीरिक क्रियाओं को सम्पन्न करने में सहायता करती है। अतः भोजन में विटामिन युक्त आहार लेना अति आवश्यक है।

प्रश्न 24.
खनिज लवण
उत्तर:
खनिज लवण अकार्बनिक तत्व होते हैं। इसमें कार्बन की मात्रा लेशमात्र भी नहीं होती है। हमारे शरीर के कुल भार का 4 प्रतिशत हिस्सा खनिज लवणों का होता है। इस प्रकार खनिज लवणों की अल्प मात्रा ही शरीर में विद्यमान रहती है। परन्तु अल्प मात्रा में होते हुए भी इनकी महत्ता शरीर निर्माण तथा सुरक्षा की दृष्टि से अमूल्य है। यह शरीर की वृद्धि एवं विकास के साथ-साथ निर्माण का भी कार्य करता है। इसके द्वारा शरीर की विभिन्न क्रियाओं का नियमन भी होता है। भोजन में खनिज लवण की कमी से अनेक बीमारियाँ भी होती है। फलतः हमारा शरीर कुपोषित होकर रोगग्रस्त हो जाता है और हम बीमार पड़ जाते हैं।

प्रश्न 25.
जल
उत्तर:
जल मनुष्य की एक मौलिक आधारभूत आवश्यकता है। यह घोलक के रूप में कार्य करता है। शरीर की विभिन्न क्रियाओं को करने के लिए जल आवश्यक है। भोजन के अन्तर्ग्रहण, पाचन, अवशोषण, वहन, उत्सर्जन आदि कार्यों के लिए जल आवश्यक है। सभी भोज्य तत्वों में जल की मात्रा विद्यमान होती है। हमारे शरीर का अधिकांश भाग (66%) जल है। इसके बिना जीवन को जीना संभव नहीं है। इसी कारण कहा जाता है कि जल ही जीवन है।

प्रश्न 26.
कठोर जल
उत्तर:
जल में कैल्सियम तथा मैगनीशियम की उच्च मात्रा होती है तो ऐसे जल को कठोर जल कहा जाता है। इसमें साबुन का झाग देर से बनता है तथा वस्त्र की अशुद्धियाँ भी देर से निकलती है।

प्रश्न 27.
नरम जल
उत्तर:
नरम जल में नमक की मात्रा कम होती है। इस कारण इसमें साबुन का झाग आसानी से बनता है। साथ ही वस्त्र की अशुद्धियाँ आसानी से निकल जाती है।

प्रश्न 28.
जल की अशुद्धियाँ
उत्तर:
जल में दो प्रकार की अशुद्धियाँ पायी जाती हैं। पहला घुलित अशुद्धियाँ तथा दूसरा अघुलित अशुद्धियाँ। घुलित अशुद्धियाँ वे अशुद्धियाँ होती हैं जो घुलित अवस्था में होती हैं। इन्हें छानकर अलग नहीं किया जा सकता है। जैसे-कैल्सियम, मैगनीशियम के कण, शीशा के कण, नमक की अधिकता आदि। इसके विपरीत अघुलित अशुद्धियाँ वे अशुद्धियाँ हैं जिन्हें छानकर अलग किया जा सकता है। जैसे-कूड़ा-करकट, पेड़ के पत्ते आदि।

प्रश्न 29.
निर्जलीकरण
उत्तर:
वह दशा जिसमें शरीर में पानी की कमी हो जाती, निर्जलीकरण कहलाती है। यह रोग नहीं है, बल्कि एक अवस्था है। इससे प्रभावित व्यक्ति की मौत भी हो सकती है।

प्रश्न 30.
जीवन चक्र घोल या ओ० आर० एस०
उत्तर:
ओ० आर० एस० का अर्थ है ओरल रिहाइड्रेशन सोलुशन। यह सूखे नमकों का विशेष मिश्रण है जो पानी के साथ उचित रूप से पिलाने पर अतिसार में निष्कासित अत्यधिक जल की कमी को पूरा करने में सहायता करता है। शरीर में जल तथा लवण की कमी के कारण निर्जलता की स्थिति उत्पन्न होती है। इस स्थिति से बचाने के लिए रोगी को ओ० आर० एस० घोल पिलाया जाता है।

प्रश्न 31.
धब्बे
उत्तर:
वह निशान जो कपड़े के रंग को खराब कर दे उसे धब्बे या दाग कहा जाता है। बहुत सावधानी बरतने पर भी कपड़ों में दाग-धब्बे पड़ ही जाते हैं। यह दाग-धब्बे केवल कपड़े की सुंदरता को ही कम नहीं करती है, बल्कि इससे हमारी असावधानी भी प्रदर्शित होती है। धब्बे के कारण वस्त्र पहनने लायक नहीं रहते। अतः धब्बे को छुड़ाना आवश्यक हो जाता है।

प्रश्न 32.
प्राणिज्य धब्बे
उत्तर:
प्राणिज्य पदार्थों के द्वारा लगने वाले धब्बे को प्राणिज्य धब्बा कहा जाता है। इन धब्बों में प्रोटीन होता है। इसलिए इसे छुड़ाते समय गर्म पानी का प्रयोग नहीं करना चाहिए, क्योंकि गर्म पानी से ये पक्के हो जाते हैं। ठण्डे पानी से रगड़कर इसे साफ किया जाता है।

प्रश्न 33.
वानस्पतिक धब्बे
उत्तर:
पेड़-पौधों से प्राप्त पदार्थों द्वारा लगे धब्बे को वानस्पतिक धब्बे कहा जाता है। जैसेचाय, कॉफी, सब्जी, फल, फूल आदि से लगने वाले धब्बे।

प्रश्न 34.
खनिज धब्बे
उत्तर:
खनिज पदार्थों द्वारा लगे धब्बों को खनिज धब्बा कहा जाता है। जैसे-जंग, स्याही तथा औषधियों द्वारा लगे धब्बे खनिज धब्बे हैं। इसे छुड़ाने के लिए हल्के अम्ल का प्रयोग किया जाता है।

प्रश्न 35.
स्टार्च लगाना
उत्तर:
वस्त्र में ताजगी, नवीनता, कड़ापन, चमक, क्रांति, आकर्षण एवं सौंदर्य लाने के लिए स्टार्च का प्रयोग किया जाता है। चावल, गेहूँ, मक्का, आलू शकरकन्द, आरारोट आदि स्टार्च के अच्छे स्रोत हैं।

प्रश्न 36.
विरंजक
उत्तर:
विरंजक प्रक्रिया को सम्पन्न करने के लिए जिन तत्वों तथा पदार्थों की सहायता ली जाती हैं उन्हें विरंजक कहा जाता है। खुली धूप, हरी घास, झाड़ियाँ आदि प्राकृतिक विरंजक हैं।

प्रश्न 37.
विरंजन
उत्तर:
वस्त्र के मटमैलेपन, पीलेपन एवं दाग-धब्बों को हटाने तथा अशुद्धियों से मुक्त करने एवं उनपर सफेदी एवं उज्जवलता लाने की प्रक्रिया को विरंजन कहते हैं।

प्रश्न 38.
कपड़ों की वार्षिक देखभाल
उत्तर:
वस्त्र चाहे सस्ता हो या महँगा उसकी उचित देखभाल की आवश्यकता होती है। वस्त्रों की उचित देखभाल न करने पर हम विभिन्न रोगों के शिकार हो जाते हैं और कीमती-से-कीमती वस्त्र भी नष्ट हो जाते हैं। जब कपड़ों की देखभाल सालाना की जाती है तो उसे वार्षिक देखभाल कहा जाता है। प्रायः ऊनी कपड़ों की देखभाल वार्षिक की जाती है।

प्रश्न 39.
तन्तु
उत्तर:
तन्तु या रेशा वस्त्र निर्माण की मूलभूत इकाई हैं। इसके बिना वस्त्र का निर्माण करना संभव नहीं है। प्रकृति में अनेक प्रकार के रेशे पाए जाते हैं। परन्तु सभी रेशों से वस्त्र निर्माण का कार्य संभव नहीं है क्योंकि सभी रेशों में वे सारे गुण नहीं पाए जाते हैं जो वस्त्र निर्माण के लिए आवश्यक है।

प्रश्न 40.
प्राकृतिक रेशा
उत्तर:
प्रकृति प्रदत्त वे सभी रेशे जो कि प्रकृति में उपस्थित किसी भी स्रोत से प्राप्त किए जाते हैं प्राकृतिक रेशे कहलाते हैं। ये रेशे कीड़ों, जानवरों, पेड़-पौधों अथवा खनिज पदार्थों के रूप में प्रकृति में विद्यमान रहते हैं।

प्रश्न 41.
वानस्पतिक रेशे
उत्तर:
वे रेशे जो वनस्पति जगत से प्राप्त होते हैं वानस्पतिक रेशे कहलाते हैं। इन रेशों का उद्गम स्थान पेड़-पौधों होते हैं। कपास वनस्पति जगत से प्राप्त सभी रेशों में सर्वश्रेष्ठ है।